अपने मुद्दों से भटकता हुआ किसान आंदोलन, शांतिपूर्ण विरोध से हिंसक बदले तक जा पहुंचा

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कृषि कानून के खिलाफ किसान आंदोलन के एक साल होने जा रहे हैं, लेकिन अभी तक इसका कोई समाधान निकलता दिखाई नहीं दे रहा। केंद्र सरकार की ओर से पारित किए गए तीन कृषि कानूनों को वापस लेने की मांग को लेकर 26 नवंबर से किसान आंदोलन के नाम पर शुरु किया गया शांतिपूर्ण प्रदर्शन अब हिंसक बदले की तरफ बढ़ चुका है।
लखीमपुर खीरी हिंसा को लेकर भारतीय किसान यूनियन के राष्ट्रीय प्रवक्ता राकेश टिकैत ने विवादित बयान दिया है। उन्होंने कहा कि हिंसा में जो बीजेपी के कार्यकर्ता मारे गए वो ‘एक्शन का रिएक्शन’ था। टिकैत ने शनिवार को कहा कि जिन्होंने उत्तर प्रदेश के लखीमपुर खीरी में भारतीय जनता पार्टी के कार्यकर्ताओं की कथित तौर पर हत्या की वह उन्हें अपराधी नहीं मानते, क्योंकि उन्होंने तो प्रदर्शनकारियों के ऊपर कार चढ़ाए जाने की प्रतिक्रिया में ऐसा किया।
तीन कृषि कानूनों के विरोध में सड़कों पर उतरे किसानों ने करीब सालभर पहले सिंघु बॉर्डर का घेराव किया और इसके बाद गाजीपुर बॉर्डर पर भी मोर्चा खोल दिया। सरकार और किसानों के बीच 12 दौर की बातचीत हुई, लेकिन कोई समाधान नहीं निकल सका। किसान तीनों कृषि कानूनों को पूरी तरह वापस लेने की मांग पर अड़े हैं, जबकि सरकार कानूनों को दो साल के लिए टालने की बात कह चुकी है।
लखीमपुर घटना में मारे गए 4 किसानों सहित 8 लोगों की मौत के बाद किसान संगठनों का आंदोलन को तेज करने का आह्वान और राकेश का हिंसा के पक्ष में बयान यह दर्शाता है कि खुद को सत्याग्रही कहने वाले इस आंदोलन के नेताओं का शांतिपूर्ण प्रदर्शन और सत्याग्रह जैसे शब्दों से कोई वास्ता नहीं रह गया है। 26 जनवरी की दिल्ली हिंसा से लेकर लखीमपुर तक के सफर में किसान आंदोलन में हिंसक गतिविधियां और लोगों की मौत यह बताती है कि यह आंदोलन नहीं बल्कि हिंसक प्रदर्शन है। यह धारणा और भी मजबूत हो जाती है जब किसान नेता राकेश टिकैत खुद ही हिंसा के बदले की गई प्रतिहिंसा को सही ठहराते हैं।
यदि गौर करें तो दस महीने पहले तीन कृषि कानूनों को रद्द करने के नाम पर शुरु किए गए इस आंदोलन की दिशा पूरी तरह से बदली नजर आती है। कृषि कानूनों का विरोध कर रहे इस आंदोलन के नेता अब खुलकर केंद्र में बैठी पार्टी भाजपा के खिलाफ नजर आते हैं। ऐसा लगता है कि अब यह आंदोलन किसानों के हक के लिए नहीं बल्कि एक पार्टी से बदला लेने के लिए आगे बढ़ रही है। इसके लिए ये किसान आंदोलनकारी न सिर्फ कांग्रेस, सपा, आप जैसी विपक्षी पार्टियों बल्कि सिस्टम  को न मानने वाले कम्युनिस्टों और भिंडरावाले समर्थकों से भी हाथ मिलाने में संकोच नहीं कर रहे।
किसान आंदोलनों में महात्मा गांधी,और शास्त्री जी जैसे महान नेताओं के बदले लाल और काले झंडों की अधिकता और भिंडरावाले के पोस्टर और टीशर्ट की मौजूदगी यह बताने के लिए काफी है कि अब यह किसान आंदोलन किसानों का नहीं बल्कि विपक्षी पार्टियों और देश विरोधी ताकतों का आंदोलन बन कर रह गया है। यह दर्शाता है कि किसान नेताओं को देश और सुप्रीम कोर्ट के प्रति सम्मान की भावना तो नहीं ही है, उनका असली मकसद भी किसानों को न्याय दिलाना नहीं बल्कि उनकी मौत का इस्तेमाल अपने फायदे के लिए करना है।