किसान आंदोलन में कानून विरोधी, मोदी विरोधी, विकास विरोधी या भारत विरोधी ? क्या है आंदोलन का मूल, क्यों नहीं निकल पा रहा आंदोलन का हल ?
किसान आंदोलन में तीन कृषि कानूनों का विरोध किया जा रहा है, विरोध मोदी और आरएसएस का भी हो रहा है, विरोध में जम्मू-दिल्ली हाईवे के विकास का भी हो रहा है और सरकार के कानून रद्द कर, नई किसानों की कमेटी बनाने तक लागू ना करने के फैसले का भी हो चुका है। आखिर क्या वजह है कि कृषि सुधारों पर बात करने की बजाए, कानून रद्द करवाने पर ही पूरा जोर है।
आखिर क्यों इस आंदोलन में बार बार भारत विरोधी सोच वाले पाकिस्तान के साये की बातें होती रहती हैं ?
किसान आंदोलन जब शुरु हुआ तो विरोध कृषि बिलों को लेकर शुरु हुआ उसमें बताया गया कि एमएसपी रद्द करने की साजिश सरकार रच रही है, और साथ ही मंडी सिस्टम के बारे में भी खूब बातें हुईं। लेकिन धीरे धीरे साफ हो गया कि ना तो एमएसपी खत्म हुई है, ना ही मंडियों को निष्क्रिय किया जा रहा है। सरकार ने 12 बैठकों के दौरान ये बात भी कह दी की किसान अगर चाहें तो मौजूदा कृषि कानूनों को लागू करने पर तब तक रोक लगाई जा सकती है,
जब तक कि किसान की कमेटियां उनमें अपने मन मुताबिक बदलाव ना करवा लें।
लेकिन तमाम कोशिशों के बावजूद किसान आंदोलन के नेता सिर्फ एक ही बात पर अड़े हुए हैं कि कृषि सुधार बिल ही रद्द होने चाहिएं। ऐसे में अगर हम किसान आंदोलन के दौरान उठी अलग अलग बातों पर गौर करें तो आंदोलन के दौरान जो घटनाएं और मांगे उठी हैं,
उनसे किसान नेताओं राजनीतिक मंशा पर भी सवाल उठना लाजमी है।
किसान आंदोलन में मोदी सरकार का विरोध या भारत के विकास पथ का विरोध ?
किसान आंदोलन में मांगों को लेकर जिस तरह से पंजाब और हरियाणा में आंदोलनकारियों ने रेल, सड़क यातायात को रोककर रक्खा उससे कहीं ना कहीं देश के विकास में ही बाधा सामने आई है। एक सर्वे के अनुसार रेलवे, सड़क यातायात रुकने की वजह से जनवरी माह में ही भारत के उद्योगों, सरकार और रोजगार को रोजाना करीब 3500 करोड़ रुपए का नुकसान हो रहा था। हाल ही में आई सरकारी रिपोर्ट भी बताती है
कि हाईवे टोल प्लाजा रोकने की वजह से भारत सरकार को लगभग 2000 करोड़ रुपए का नुकसान हुआ है।
उद्योग जगत तो इससे सबसे ज्यादा प्रभावित है, टिकरी बॉर्डर से सटे इलाकों में व्यापारियों ने केंद्र सरकार से बचाव के लिए गुहार लगाई है, उनकी 20 हजार करोड़ से ज्यादा की टर्नओवर का नुकसान हो चुका है और हालात ऐसे हैं कि उद्योगों में रोजगार देने की क्षमता भी क्षीण होती जा रही है। ऐसे में किसान आंदोलन के नेताओं और उनके समर्थन देने वाली पार्टियों पर सवाल उठने लाजमी हैं कि क्यों किसान आंदोलन के हठ को सड़कों तक ही सीमित कर रक्खा है, क्यों दिल्ली में दी जा रही आंदोलनस्थल वाली जगहों पर शिफ्ट कर आम इंसान को राहत नहीं दी गई। सवाल इसलिए भी उठने लाजमी हैं क्योंकि इन रास्तों के बंद होने से हरियाणा से दिल्ली और यूपी से दिल्ली में नौकरी करने आने वालों की रोजी रोटी का भी संकट पैदा हो चुका है।
जम्मू हाईवे का भी विरोध कर रहे किसान आंदोलन के प्रदर्शनकारी
वामपंथी और कांग्रेसी नेताओं की शैह पाकर पंजाब के किसान आंदोलनकारी दिल्ली जम्मू राष्ट्रीय राजमार्ग के एक्सप्रेसवे बनाए जाने का भी विरोध कर रहे हैं, 8 महीन से चल रहे किसान आंदोलन में कई बार राष्ट्रीय राजमार्ग के लिए जमीन देने का विरोध भी चुका है। आपको बता दें कि कश्मीर में बढ़ते पाकिस्तानी खतरे और लद्दाख पर लगातार बढ़ती चीन की नजर का काउंटर करने के लिहाज से ये एक्सप्रेस हाईवे बेहद अहम साबित होने वाला है। इससे जनता को तो आने जाने में राहत मिलेगी ही, साथ ही संकट की स्थिती में सैन्य आवाजाही भी बहुत तेजी से की जा सकती है।
किसान आंदोलन में बार बार उठता भारत विरोधी और पाकिस्तान समर्थक खालिस्तानी साया
किसान आंदोलन में शुरुआत से लेकर अब तक कई बार खालिस्तान समर्थकों के नारे गूंज चुके हैं, आज भी सिंघू बॉर्डर और टिकरी बॉर्डर वाले इलाकों पर कांग्रेस राज में प्रतिबंधित हुए आतंकी जरनैल सिंह भिंडरवाला की तस्वीरें साफ देखी जा सकती हैं। आंदोलन के समर्थन करने वालों में कनाडा में रहने वाले बहुत से पाकिस्तानी नागरिक भी शामिल हैं
जैजी बी जैसे कलाकारों का भी इस आंदोलन से नाता गहरा है। ऐसे में सवाल उठना लाजमी है
कि असल मुद्दा अगर किसानों का हित है
तो इस आंदोलन में खालिस्तान समर्थकों को तवज्जो क्यों दी जा रही है ?
पंजाब के सीएम भी कह चुके हैं कि किसान आंदोलन पर है खालिस्तानी आंतकियों की नजर
केंद्रिय खुफिया एजेंसियों के साथ ही पंजाब के मुख्यमंत्री अमरिंदर सिंह भी चेतावनी दे चुके हैं
कि सरहद पार से पाकिस्तानी आतंकी किसान आंदोलन में नजरें गड़ाए बैठे हैं
इस भीड़ का फायदा उठाकर कुछ ऐसा करना चाहते हैं जिससे भारत की छवि धूमिल हो जाए।
किसान आंदोलन में बार बार ऐसी घटनाएं हो रही हैं, जिन्हें किसी भी तरह से भारत समर्थक नहीं कहा जा सकता, भले ही बात 26 जनवरी को गणतंत्र दिवस पर हुए लाल किले पर हमले की हो, तिरंगे को गिराकर उसकी जगह दूसरा झंडा लहराने की हो या फिर खालिस्तान समर्थन वाले पोस्टर्स की। सवाल उठने लाजमी हैं
कि किसान नेता अगर ईमानदारी से सिर्फ किसान का ही भला चाहते हैं
तो दूसरी तरह के तत्वों को क्यों हवा दी जा रही है? सवाल इसलिए भी उठ रहे हैं
क्योंकि किसानों के हितों को चाहकर केंद्र सरकार की या सुप्रीम कोर्ट की समीति में बैठकर
किसान हित के अहम फैसले लेने में योगदान देने की बजाए
किसान नेता सड़को को रोककर बैठे रहने में ही क्यों रुची दिखा रहे हैं
और साथ ही आरएसएस, बीजेपी और तमाम ऐसे संगठनों का विरोध कर रहे हैं,
जो राष्ट्रवादी हैं।