विद्वानों के मतानुसार पूर्व में लोधेश्वर धाम में जंगल था यहां पर एक लोध स्त्री अपनी गायों को चराने आया करती थी उन गायों के झुंड में एक श्यामा नाम की गाय थी। वह प्रत्येक दिन झुंड से गायब हो जाती और एक स्थान पर अपना दूध गिराती थी यही क्रम चलता रहा तो स्त्री के मन में यह विचार आया कि मेरी श्यामा गाय कहां चली जाती है। शाम का दूध भी नहीं देती है, कोई शय बाधा तो नहीं है। जिसका शिकार मेरी श्यामा हो गई है। यह सोचकर उसने कल से उस पर ध्यान रखने की सोची यह कहां जाती है।
और क्या करती है सुबह जब गायों के झुंड से श्यामा गाय चली तो बूढ़ी स्त्री भी चुपके से उसके पीछे पीछे चल दी और आगे जाकर क्या देखती है कि श्यामा एक झाड़ी के पीछे जाकर अपना दूध गिरा रही है ।बूढ़ी स्त्री ने उस स्थान को देखा व शाम को अपनी गायों को लेकर आई तो लोगों से बताया लेकिन किसी ने उसकी बातों पर विश्वास नहीं किया। परंतु रात में भगवान शंकर ने स्वयं दर्शन देकर कहा कि तुम्हारी श्यामा गाय मुझे अपना दूध प्रतिदिन अर्पित करती है। यह तुम्हारा सौभाग्य है तुम उस गाय की मालकिन हो मेरा आशीर्वाद सदा तुम पर बना रहेगा तथा जब मैं प्रगट होऊंगा तो उसमें तुम्हारा पूर्ण सहयोग रहेगा और तुम्हारी कीर्ति अमर हो जाएगी कहते हैं।
कान्यकुब्ज ब्राह्मण( शीरू) के अवस्थी लोधेराम के पिताजी एक साधारण कृषक थे। उनके कोई संतान न थी वह अपने वंश को लेकर बहुत चिंतित रहा करते थे। एक दिन संयोगवश एक “लोधी स्त्री” जिन्हें सर्वप्रथम भगवान शिव ने दर्शन दिए से मुलाकात हुई। पंडित जी से उदासी का कारण पूछा तो कहा कि मेरे कोई संतान नहीं है मेरे पुत्र होते हैं। परंतु कोई बचता नहीं है मैं बहुत परेशान हूं। मेरे बाद मेरा वंश नष्ट हो जाएगा। यह सुनकर लोध स्त्री ने उनसे कहा भगवान शिव की कृपा से तुम्हारे चार पुत्र होंगे जाओ उनमें से पहला पुत्र जन्म लेते मुझे दान कर देना। उसके बाद तुम्हारा वंश बढ़ेगा फूलेगा फलेगा। पुत्र जन्म पर अवस्थी जी ने उन्हें नार व्यवार सहित पुत्र उस लोध स्त्री को दे दिया। उन्होंने उसका पूरा संस्कार कर उसे लोधेराम का नाम दियाअवस्थी जी का वंश चला और लोधेश्वर का प्रादुर्भाव हुआ व लोकमंगल हुआ। वाराह क्षेत्र अन्न धन यश से परिपूर्ण हुआ इस क्षेत्र का महत्व शिव उत्पत्ति का कारण बना।
स्वयं भू हैं यह लोधेश्वर का शिवलिंग
क्षेत्रीय विद्वानों के मतानुसार पौराणिक तीर्थ स्थल लोधेश्वर महादेवा का शिवलिंग स्वयंभू लिंग के लिए जाना जाता है। पृथ्वी पर 12 ज्योतिर्लिंग व 52 स्वयंभू लिंगो में से एक लोधेश्वर महादेव का शिवलिंग है परम शक्ति की महिमा से सृष्टि की उत्पत्ति व निर्माण हुआ। सर्वप्रथम भगवान विष्णु की नाभि से कमल उत्पन्न हुआ व कमल पर ब्रह्मा जी की उत्पत्ति देवाधिदेव भगवान शिव ने सृष्टि निर्माण में जब- जब कोई रुकावट आई तो स्वयं संसार कल्याण हेतु लिंग के रूप में प्रकट हुए। इनके लिंगो में द्वादश ज्योतिर्लिंग तथा आवश्यकतानुसार कामद लिंग उत्पन्न हुए। इसी क्रम में बाराबंकी जिले के तहसील रामनगर में पूर्व नाम गंडकी अब घाघरा नदी के किनारे वाराह क्षेत्र( जिसे शूकर क्षेत्र) भी कहते हैं।
यहां पर सर्वप्रथम सतयुग में भगवान ने धरती का उद्धार करने हेतु व राक्षस( हिराण्याक्ष) को मारने हेतु गोंडा जिले के पसका क्षेत्र में प्रगट हुए। भगवान बाराह ने शिव अर्चना कर स्वयं को शुद्ध करने हेतु कामना की तो भगवान सदाशिव गंडकी नदी के किनारे वाराह वन क्षेत्र में स्वयंभू लिंग के रूप में प्रकट हुए वह प्रथम बार भगवान वाराह रूपी विष्णु द्वारा इनकी पूजा अर्चना की गई और इन्हें गन्डकेश्वर का नाम स्वयं भगवान विष्णु ने दिया। कालांतर में सतयुग समाप्त होने पर गंडक नदी व वाराह वन में शिव मूर्ति भूमिगत हो गई पुनः त्रेता युग में जब भगवान विष्णु ने राक्षसों का नाश करने व पृथ्वी को राक्षस हीन करने अयोध्या में चक्रवर्ती राजा दशरथ के यहां भगवान राम के रूप में अवतार लिया और अपनी लीलाओं को समाप्त कर सरयू नदी के गुप्तार घाट में सशरीर अपने अनुज सहित चले गए तो यह देख उनके पुत्र लव महाराज को आत्मग्लानि हुई कि मेरे सम्मुख में पिता व अन्य चले गए मैं कुछ ना कर सका।
इस कारण महाराज लव अस्वस्थ रहने लगे उपचार का कोई लाभ न होने पर वशिष्ठ जी ने उन्हें वाराह क्षेत्र में जाकर गंडक नदी के किनारे भगवान शिव के कामद लिंग के बारे में बताया जिस पर लव महाराज ने उनकी खोज करके पूजन किया तथा इनका नामकरण अपने ही नाम पर लवेश्वर रखा त्रेता में भगवान शिव ने विराज कर लोगों का कल्याण किया तथा कालांतर बाद पुनः द्वापर युग में जब कौरव और पांडव का काल आया कौरवों ने अपने कुत्सित प्रयास के द्वारा (ब्रह्मावर्त) बिठूर के लाक्षागृह में पांडवों को जलाने का प्रयास किया तो किसी प्रकार वहां से बचकर अपनी माता कुंती के साथ घूमते हुए वाराह वन क्षेत्र में आए जहां माता कुंती द्वारा शिव मूर्ति स्थापना पूजन हेतु पारिजात वृक्ष की कामना की गई जिसे पूरा करने हेतु भीम उत्तराखंड के केदारनाथ जाकर एक शिला लाए। जिसकी स्थापना माता कुंती ने इसी जिले बाराबंकी के बदोसराँय के पास वर्तमान में किंतूर में कुंतेश्वर की स्थापना की तथा पूजन हेतु अर्जुन इंद्र के बगीचे से पारिजात को लाए और स्थापित किया जो किंतूर से 4 किलोमीटर दूर बरौलिया में स्थापित है ।
माता कुंती ने कुन्तेश्वर की पूजा की। कहावत है कि तब से आज तक माता कुंती इस शिवलिंग की पूजा प्रत्येक दिन करती हैं ।आज भी मंदिर खुलने पर मूर्ति पूजित ही मिलती है ।वनवास का समय पूरा करने के बाद जब कौरवों और पांडवों में युद्ध की घोषणा हुई तो गंडक नदी के किनारे ही जो वर्तमान में लोधेश्वर महादेव से 1 किलोमीटर दूर कुरुक्षेत्र युद्ध हेतु चयन प्रक्रिया में ज्ञात हुआ कि यह पृथ्वी का मध्य क्षेत्र है यहां एक स्वयंभू कामद लिंग है। उस लिंग से पूर्व की ओर 30 कोस पर अयोध्या (त्रेता कालीन) व पश्चिम में 30 कोस पर नैमिष ( ऋषि तपस्या) क्षेत्र है। अतः यदि यहां पर कुरुक्षेत्र बना व महाभारत का युद्ध हुआ तो यह सभी प्रभावित हो जाएंगे ।अतः यहां कुरुक्षेत्र का विचार त्याग दिया तो धर्मराज ने कहा कि मैं यहां एक यज्ञ करूंगा तथा शिव की खोज कर उनका पूजन व आशीर्वाद लूंगा। कुरुक्षेत्र में विशाल यज्ञ हुआ जहां यज्ञ कुंड रूपी तालाब व यज्ञशाला आज भी स्थापित है। धर्मराज युधिष्ठिर ने शिवलिंग की खोज कर शिव की पूजा अर्चना कर आशीर्वाद प्राप्त किया और अर्जुन के बाण मारने से एक धारा बह निकली जिसे बाणहन्या और वर्तमान में बोहनिया तालाब के रूप में जाना जाता है ।इसे लोधेश्वर पड़ाव भी कहा जाता है।
यहां कांवारथी सबसे पहले स्नान कर शिव पूजा करते हैं और फिर मंदिर की ओर प्रस्थान करते हैं। पूर्व में गंडकी (घाघरा) दक्षिण वाहिनी थी जिसके कारण यह पूरा क्षेत्र जलमग्न हो गया था। घाघरा रामनगर के कठुवाही तक बहने लगी शिवजी पुनः विलुप्त हो गए और जब घाघरा पुनः उत्तर वाहिनी हुई यह क्षेत्र पुनः कृषि भूमि के रूप में आई बस्ती बसी और खेती बाड़ी की शुरुआत हुई और कलयुग में जब हर ओर अराजकता धर्म विमुखता का प्रभाव बढ़ा तो शिव जी ने लोगों का कल्याण करने हेतु पुनः प्रकट हुए जिसकी कथा यह है। यहां लोधेश्वर मंदिर के पास ही लोधौरा नामक ग्राम जो आज भी स्थित है। यहां एक अवस्थी ब्राम्हण परिवार निवास करता था जिनकी भूमि इसी मंदिर क्षेत्र में पड़ती थी एक दिन अपने भाई के साथ खेत में सिंचाई का कार्य कर रहे थे तभी जल 1 गडढ़े में जाने लगा। पहले सोचा गड्ढा भर जाएगा उसके बाद पानी खेत में जाएगा परंतु पूरा दिन व्यतीत हो गया।
पानी उसी गड्ढे में ही भरता गया यह देख लोधेराम अवस्थी जी ने फावड़ा लेकर उस गड्ढे को खोदना प्रारंभ किया काफी गहराई तक खोदा परंतु कुछ ना मिला। सूर्यास्त का समय हुआ फावड़ा किसी पत्थर से टकराया और वहां से रक्त की धारा निकली ऐसा देख डर के मारे लोधेराम जी अपने घर चले गए ।भोजन पश्चात् जब उनको नींद आई तो भगवान शिव जी ने उन्हें दर्शन दिया और कहा जहां तुमने गड्ढा खोदा है वहां पर मैं विराजमान हूं। तुम प्रातः जाकर उस स्थान की सफाई करो मेरी मूर्ति का पूजन करो मैं तुम्हारे नाम से कलयुग में विख्यात होऊंगा। तुम्हारे नाम के लोधे +श्वर लोधेश्वर के नाम से जाना जाऊंगा तथा तुम्हारा नाम भी अजर अमर हो जाएगा। सुबह स्वप्न पर विश्वास कर जब देखा तो वहां एक शिवलिंग मिला जिसका चबूतरा बनाकर पूजन अर्चन किया। कहा जाता है कि शिव पर चढ़ा प्रसाद केवल गोसाईं ही ले सकता है व ग्रहण कर सकता है ऐसा सोच लोधेराम अवस्थी जी ने सोचा यदि प्रसाद खा लूंगा तो मेरा कुल वंश नष्ट हो जाएगा मेरे पुत्र व पुत्रियों का विवाह संस्कार भी कान्यकुब्ज में नहीं होगा।
ऐसा विचार करके जब सोए तो पुनः शिव जी ने उन्हें स्वप्न में कहा यह तुम्हारे मन में शंका है तो तुम प्रातः काल जब मेरे स्थान पर जाओगे तुम्हें एक सन्यासी मिलेंगे जिन्हें तुम मंदिर का आधा हिस्सा दान में दे देना दान से तुम्हें कोई दोष नहीं होगा तथा आधा हिस्सा स्वयं ले लेना ऐसा कहकर अंतर्ध्यान हो गए। सुबह जब लोधेराम स्नान कर पहुंचे तो उन्हें पूजा करते हुए एक सन्यासी मिले स्वप्न की बात शिव की आज्ञा समझकर उन्हें यहां का मठाधीश (महंत) नियुक्त किया जिनका नाम सवाई सहदेव पुरी था। उनके बाद परमहंसपुरी, अच्युतपुरी, रामेश्वरपुरी ,निर्वाणपुरी, अलखपुरी, शिवरामपुरी, बृजरामपुरी, ब्रजदेवपुरी, डूंगरपुरी, नंदलालपुरी ,जानकीपुरी, ज्योध्यापुरी, त्रिलोकपुरी, बृजरामपुरी, टीकमपुरी, फूलपुरी, नरपतपुरी, नारायणपुरी, धीरजपुरी ,बलभद्रपुरी, राजेंद्रपुरी, चंद्रचूडेन्द्रपुरी इसके आगे वर्तमान में उत्तराधिकार विवादित है जो कि कोर्ट में विचाराधीन है। महादेवा मठ की सहायक गद्दीयों में नदवल गुरुसड़ी,भवनियाँपुर,सेठमऊ, नागेश्वर चकदहा ,भगौली तीर्थ, ररिया, पटना, मोहम्मदपुर, त्रिलोकपुर, धौखरिया, सरदहा है। इसका एक मठ कैलाशपुरी एवं बिरौली में है यह सब पुरी नामा गद्दी है।
यह जानकारी मठ के प्रतिनिधियों द्वारा प्राप्त हुई है। चूंकि वह पूरी पंथ के सन्यासी थे जो निहंग होते हैं शादी ब्याह नहीं करते महंत बनाए गए तब से आज तक उसी प्रथा में मंदिर व्यवस्था चल रही है। भगवान लोधेश्वर की यश महिमा चारों दिशाओं में फैली। उत्तर प्रदेश मध्य प्रदेश और राजस्थान तक के सुदूर इलाकों से लोग गंगाजल लेकर पैदल कांवर यात्रा करते बम भोले का उद्घोष करते प्रत्येक वर्ष की महाशिवरात्रि फाल्गुन मास कृष्ण पक्ष की त्रयोदशी तक विशाल मेला लगता है। श्रावण मास में पूरे माह व भादो मास की हरितालिका तीज व अगहन मास में मेले का आयोजन किया जाता है।
अतः लेखक प्राचार्य जगदीश कुमार शुक्ला निवासी महादेवा का मत है कि यह शिवलिंग किसी के द्वारा स्थापित नहीं की गई है। बल्कि हर युग में इनकी पूजा-अर्चना होती आई है। यह लिंग स्वयंभू लिंग है । यहां भगवान शिव की मूर्ति प्रत्येक दिवस में तीन रंगों में दिखती है प्रातः काल भंवरे के रंग से काली व मध्यान्ह काल में छिबरही दुग्ध चित्तीदार तथा सायंकाल में श्याम वर्ण काले रंग में दिखती है जब शिवलिंग पर दूध चढ़ाया जाता है तो फावड़ा प्रहार का निशान जो चंद्रमा की तरह मस्तक पर सुशोभित है व राम नंदी तिलक स्पष्ट रूप से दिखाई पड़ता है। प्रातकाल मंदिर 5 बजे से मध्यान्ह 12 बजे तक खुलता है तथा पुनः दोपहर 1 बजे से रात्रि 9 बजे श्रृंगार आरती के बाद मंदिर के कपाट बंद कर दिए जाते हैं।