“चिड़ियों सों मै बाज़ तड़ाऊँ, सवा लाख से एक लड़ाऊँ, तबे गोबिंद सिंह नाम कहाऊँ”

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सिक्खों के दसवें तथा अंतिम गुरु, धार्मिक गुरु  तथा खालसा के संस्थापक गुरु गोविंद सिंह का आज 353 वीं जयंती  है। महा ज्ञानी, महा पराक्रमी, महान संत व आध्यात्मिक गुरु- गुरु गोबिंद सिंह का जीवन हम सभी के लिए प्रेरणा का स्त्रोत है। आइए आज हम उनके जीवन के बारे में जाने।

गुरु गोविंद सिंह का मूल नाम गोविंद राय था। इनका जन्म बिरार के पाटलि पुत्र में हुआ। इनके पिता का नाम गुरु तेगबहादुर सिंह था जो की सिक्खों के 9 वें गुरू थे तथा इनकी माता का नाम गुजरी देवी था। इनके बचपन के चार साल पटना में बिते। उसके बाद उनका परिवार सन् 1670 में पंजाब चला गया। यहां आने के करीब दो  वर्ष बाद इनका परिवार चक्क नानक (आनन्दपुर साहिब) हिमालय की शिवालिक पहाड़ीयों में रहने लगा। इसी स्थान पर उन्होनें अपनी प्राथमिक शिक्षा प्राप्त की और कई भाषाएं( पंजाबी, फारसी और  संस्कृत) एवं युद्ध कौशल कला भी सीखी।

11 नवंबर सन् 1675 को कश्मीरी पंडितों को जबरन मुस्लिम धर्म अपनाने के विरुद्ध शिकायत करने पर औरंगजेब ने दिल्ली के चांदनी चौक पर गुरु तेगबहादुर सिंह का सर कटवा दिया। उनके पिता की मृत्यु के बाद 29 मार्च सन् 1676 को बैशाखी के दिन गुरु गोविंद सिंह को सिख धर्म का दसवां गुरु बनाया गया। गुरु गोबिंद सिंह नें मुगलों और उनके साहियोगी राज्यों के साथ लगभग 14 वर्ष तक अलग-अलग युद्ध में मुकाबला किया और गुरु गोविंद सिंह ने धर्म के लिए अपने समस्त परिवार का बलिदान कर दिया, जिसके लिए उन्हें ‘सर्वस्वदानी’ भी कहा जाता है। जीवंत रहने तक उन्होनें मानवसमाज कल्याण के कार्यों में जीवन व्यतीत किया।

उन्होनें कई ग्रंथों की रचना की। वे विद्वानों के संरक्षक थे और उनके दरबार में 52 कवियों तथा लेखकों की उपस्थिति रहती थी, इसीलिए उन्हें ‘संत सिपाही’ भी कहा जाता था। मात्र 10 साल की उर्म में ही उन्होनें  21 जून सन् 1677 में अपना पहला विवाह माता जितो के साथ हुआ। गुरू गोविंद सिंह को 3 पुत्रो (जुझार सिंह, जोरावर सिंह, फतेह सिंह) की प्राप्ती हुई।

गुरु गोविंद सिंह ने सन् 1684 में चंडी की दीवार की रचना की तथा 1 साल तक यमुना नदी के किनारे बसे पाओंटा नामक स्थान पर रहे। 4 अप्रैल सन् 1684 में उन्होंने अपना दूसरा विवाह माता सुंदरी के साथ किया, जिनसे उन्हें एक पुत्र, अजीत सिंह की प्राप्ति हुई। सन् 1687 में नादौन के युद्ध में, गुरु  गोविंद सिंह, भीम चन्द्र और अन्य पड़ोसी देशों के पहाड़ी राजाओं की सेनाओं ने अलिफ़ खान और उनकी सेनाओं और उनका साथ देने वाली अन्य सेनाओं को बुरी तरह हरा दिया था।

गुरु गोविंद सिंह ने सन् 1699 में खालसा पंथ की स्थापना की थी। इस पंथ  का आशा है कि सिख धर्म के विधिवत शिक्षा प्राप्त अनुयायियों का एक समूह। इन्होंने एक बार एक सिख समुदाय में आए सभी लोगों से पूछा कि, कौन-कौन अपने सर का बलिदान देना चाहता है ? तभी उन लोगों के बीच बैठे एक आदमी ने अपना हाथ ऊपर किया। गुरु गोविंद सिंह ने उसे अपने साथ एक तंबू के अंदर ले गए थोड़ी देर बाद गुरु जी अकेले निकले और उनके हाथ में एक खून लगी तलवार थी। गुरु गोविंद सिंह जी ने वही प्रश्न फिर से दोहराया और फिर एक व्यक्ति राजी हो गया। उन्होंने उसे भी तंबू में ले गए और थोड़ी समय बाद अपनी खूनी तलवार हाथ में लिए निकले। इसी प्रकार उन्होंने लगातार पांचवा व्यक्ति भी तंबू के अंदर ले गए और थोड़ी समय बाद वे सब जीवित बाहर आ गया, तभी वहां मौजूद लोगों ने उन्हें पंच प्यारे या खालसा नाम दे दिया।

इसके पश्चात उन्होंने एक लोहे के कटोरे में पानी और चीनी लेकर दोधारी तलवार से मिलाया और उसे अमृत नाम दिया। खालसा पंथ की पंच प्यारों ने पांच चीजों केश, कंघा, कड़ा, किरपान, क्च्चेरा का महत्व समझाया। 15 अप्रैल सन् 1700 को 33 वर्ष की आयु में उन्होंने माता साहिब देवन से विवाह किया। तीसरी शादी से उन्हें कोई सन्तान नहीं प्राप्त हुई, मगर उनका दौर बहुत प्रभावशाली था। 8 मई सन् 1705 को मुख़्तसर नामक स्थान पर गुरु गोविंद सिंह और मुगलों के बीच एक भयानक युद्ध हुआ जिसमें गुरु गोविंद सिंह की जीत हुई।

औरंगजेब की  मौत के बाद गुरु गोविंद सिंह ने बहादुरशाह को बादशाह बनने में मदद की, जिससे उन दोनों के बीच का संबंध अच्छा होने लगा। उनके बढ़ते संबंधों को देखकर सरहद के नवाब वजीत खान घबरा गया और उसने गुरु गोविंद सिंह को मारने के लिए दो पठानों को भेज दिया। जिन्होंने मिलकर गुरु गोविंद सिंह का 18 अक्टूबर 1708 में नांदेड में हत्या कर दी। उन्होंने अपनी अंतिम सांस लेते हुए सिखों से यह अनुरोध किया कि वे गुरु ग्रंथ साहिब को ही अपना गुरु माने।

रिपोर्ट-प्रिया राठौर