मध्य प्रदेश में कांग्रेस की कमलनाथ सरकार ने पद भार ग्रहण करने के तुरंत बाद किसानों को कर्ज माफी का चुनावी वादा पूरा कर दिया। समझा जाता है कि पार्टी के इस वादे ने राज्य में 15 वर्ष पुराने भाजपा के शासन को समाप्त करने और कांग्रेस की सत्ता में वापसी में बहुत महत्वपूर्ण भूमिका निभाई। नये मुख्यमंत्री ने किसानों की कर्ज माफी से संबधित जिस पहली फाइल पर अपने हस्ताक्षर किए हैं, उसके मुताबिक दो लाख तक के ऋण माफ कर दिए जाएंगे।
कांग्रेस अध्यक्ष राहुल गांधी ने घोषणा की थी कि यदि उनकी पार्टी सत्ता में आती है तो 10 दिन के भीतर कर्ज माफ कर दिए जाएंगे। उन्होंने यह भी कहा था कि इसमें 11वां दिन नहीं लगेगा। हुआ भी ऐसा ही और मुख्यमंत्री के हस्ताक्षर के बाद संबन्धित विभाग ने आधिकारिक आदेश भी जारी कर दिया। इस आदेश में कहा गया है कि इस फैसले से करीब 34 लाख किसान लाभान्वित होंगे जिनके ऊपर 35 हजार से 38 हजार रुपए के बीच कर्ज है। यह फैसला आयकरदाताओं और सरकारी कर्मचारियों पर लागू नहीं होगा।
अपने फैसले को नवनियुक्त मुख्यमंत्री यह कहकर सही ठहरा रहे हैं कि जब राष्ट्रीयकृत बैंक बड़े उद्योगपतियों का 40 से 50 प्रतिशत कर्ज माफ कर सकते हैं तो किसानों को ऐसी ही राहत क्यों नहीं मिलनी चाहिए ? कांग्रेस अध्यक्ष राहुल गांधी ने ट्वीट कर कहा कि मध्यप्रदेश ने यह कर दिया। दो और राज्यों को यह करना है।
इसका अर्थ यह हुआ कि कर्ज माफी का सिलसिला अब शुरू हो चुका है और राजनीतिक दल इसे अगले चुनावों में भी जीत के अचूक नुस्खे के रूप में इस्तेमाल करेंगे। हालांकि केन्द्र सरकार ने फिलहाल किसानों को बड़ी कर्ज माफी से इंकार किया है, लेकिन बड़े राजनीतिक नुकसान से बचने के लिए इस बात की कोई गारंटी नहीं है कि वह इस पर मजबूती से कायम बनी रहेगी।
रिजर्व बैंक ऑफ इण्डिया ने अपनी वार्षिक रिपोर्ट में जिन बातों पर लाल झण्डी दिखाई है उनमें किसानों की कर्ज माफी भी शामिल है। लेकिन यह भी सत्य है कि देश का कृषि क्षेत्र संकट में है। न्यून आय, अंधकारमय भविष्य और अनेक प्रकार के तनाव किसानों को लंबे समय से आंदोलित कर रहे हैं। हाल में किसानों के 184 संगठनों ने दिल्ली में विरोध प्रदर्शन किया था। सन 2006 में एम एस स्वामीनाथन की अध्यक्षता में किसानों पर बने राष्ट्रीय आयोग ने भी हालात को गम्भीर बताया था।
कृषि विकास दर के आंकड़े भी स्थिति की गम्भीरता की पुष्टि करते हैं। कृषि संकट का मुख्य कारण खेती और कृषि योग्य भूमि पर बढ़ती जनसंख्या का दबाव है। आधिकारिक आंकड़ों से पता चलता है कि देश में खेत का औसत आकार बहुत छोटा करीब 1.15 हेक्टेयर है। 1970-71 से जोत के आकार में लगातार कमी का रुख देखा जा रहा है। इन छोटे किसानों के पास अपनी उपज को बाजिब कीमत पर बेचने की सामर्थ्य बिल्कुल नहीं है।
इसीलिये कर्ज से डूबे किसान आत्महत्या करते हैं। आत्महत्याओं के आंकड़े भी अत्यन्त भयावह हैं। अतएव, कृषि संकट के समाधान के लिए देश को गम्भीरता के साथ पहल करनी होगी। इसे चुनाव जीतने का नुस्खा मानने को लोभ संवरण कर खेती को लाभ का काम बनाना होगा। एम एस स्वामीनाथन औयोग की रिपोर्ट को ही लागू करने में संकोच छोड़ना समय की मांग है।
अनिल गुप्ता
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