
उत्तराखंड की जनता को एक बार फिर लोकतंत्र के असली स्वाद से वंचित होना पड़ा है। प्रदेश में त्रिस्तरीय पंचायत चुनावों को एक बार फिर टाल दिया गया है, और अब गांव से लेकर जिलों तक सत्ता का जिम्मा निर्वाचित प्रतिनिधियों के बजाय नौकरशाहों के हाथों सौंप दिया गया है।
सरकार ने दफ्तरों की ताकत को मैदान में उतारते हुए हरिद्वार को छोड़कर बाकी सभी जिलों में पंचायतों के लिए प्रशासक नियुक्त कर दिए हैं। यानी अब गांवों में जनता की सरकार नहीं, फाइलों की सरकार चलेगी।
डीएम से लेकर एडीओ तक संभालेंगे पंचायतों की कमान
सरकार के नए आदेश के मुताबिक-
जिला पंचायतों में जिलाधिकारी (DM) बनेंगे प्रशासक
क्षेत्र पंचायतों में उप जिलाधिकारी (SDM) होंगे जिम्मेदार
ग्राम पंचायतों में सहायक विकास अधिकारी (पंचायत) यानी ADO पंचायत को दी गई कमान
यह आदेश तब आया है जब पंचायतों का कार्यकाल मई-जून 2025 में खत्म हो चुका है, और चुनाव समय से पहले कराए ही नहीं जा सके।
सरकार का कहना है कि अति अपरिहार्य परिस्थितियों की वजह से चुनाव नहीं हो पाए, इसलिए अब 31 जुलाई 2025 या चुनाव संपन्न होने तक प्रशासक ही पंचायतों की बागडोर संभालेंगे।
दिलचस्प बात ये है कि हरिद्वार जिले को इस प्रशासकीय फैसले से बाहर रखा गया है, जिससे तमाम सवाल भी खड़े हो रहे हैं – क्या हरिद्वार की स्थिति अलग है? या फिर यहां पर कोई राजनीतिक समीकरण खेल में हैं?
आंकड़े बताते हैं पंचायत पर नौकरशाही का राज
2941 क्षेत्र पंचायतों में प्रशासक
7478 ग्राम पंचायतों में नौकरशाह काबिज
12 जिला पंचायतों में डीएमों को मिली सत्ता
कुल मिलाकर 7514 ग्राम पंचायतों, 2936 क्षेत्र पंचायतों और 343 जिला पंचायतों में अब निर्वाचित प्रतिनिधि नहीं बल्कि प्रशासन ही शासक बनेगा।
अब सवाल ये है: जनता का लोकतंत्र, अफसरशाही के हवाले कब तक?
उत्तराखंड के लोग अब यह सवाल पूछ रहे हैं कि जब पंचायती राज लोकतंत्र की सबसे बुनियादी ईकाई मानी जाती है, तो चुनाव टालना और अफसरों के हाथों गांव की सत्ता सौंपना कहां तक सही है? क्या यह जनता से उनका अधिकार छीनने जैसा नहीं?
अब देखना यह होगा कि क्या सरकार 31 जुलाई से पहले त्रिस्तरीय पंचायत चुनाव करा पाती है या फिर लोकतंत्र की यह सबसे मजबूत नींव और भी लंबे समय तक फाइलों और आदेशों की गिरफ्त में फंसी रहेगी।