भगवान श्रीकृष्ण के मोरपंख पहनने की पौराणिक कथा:

3

रामावतार के समय वनवास के दौरान माता सीता जी को प्यास लगी, तभी श्रीरामजी ने चारों ओर देखा, तो उनको दूर-दूर तक जंगल ही जंगल दिख रहा था।
भगवान श्री राम ने तब प्रकृति से प्रार्थना की “हे वन देवता ! आसपास जहाँ कहीं पानी हो, वहाँ जाने का मार्ग कृपा कर सुझाईये।

तभी वहाँ एक मयूर (मोर) ने आकर श्रीरामजी से कहा कि आगे थोड़ी दूर पर एक जलाशय है, चलिए मैं आपका मार्ग पथ-प्रदर्शक बनता हूँ, किंतु मार्ग में हमारी भूल चूक होने की संभावना है।

श्रीरामजी ने पूछा ~ वह क्यों ?

तब मयूर ने उत्तर दिया कि ~ मैं उड़ता हुआ जाऊंगा और आप चलते हुए आएंगे, इसलिए मार्ग में मैं अपना एक-एक पंख बिखेरता हुआ जाऊंगा,
उसके सहारे आप‌ जलाशय तक पहुँच ही जाओगे।

यहां पर एक बात स्पष्ट कर दूं कि मयूर के पंख, एक विशेष समय एवं एक विशेष ऋतु में ही बिखरते हैं, अगर वह अपनी इच्छा से मौषम के विरुद्ध पंखों को बिखेरेगा, तो उसकी मृत्यु हो जाती है और वही हुआ।

अंत में जब मयूर अपनी अंतिम सांस ले रहा होता है, तब उसने प्रभु श्रीराम से कहा कि वह कितना भाग्यशाली है, कि जो जगत की प्यास बुझाते हैं, मुझे आज ऐसे प्रभु की प्यास बुझाने का सौभाग्य प्राप्त हुआ।

मेरा जीवन धन्य हो गया, अब मेरी कोई भी इच्छा शेष नहीं रही।’

तभी भगवान श्रीराम ने मयूर से कहा कि मेरे लिए तुमने जो मयूर पंख बिखेरकर, अपने जीवन को त्यागकर मुझ पर जो ऋणानुबंध चढ़ाया है, मैं उस ऋण को अगले अवतार में अवश्य चुकाऊंगा।

“तुम्हारे पंख अपने सिर पर धारण करके।”

तत्पश्चात अगले अवतार “श्री कृष्ण अवतार”- में उन्होंने अपने माथे (मुकुट) पर मयूर पंख को धारण कर वचन अनुसार उस मयूर का ऋण उतारा था।