‘मार्दव द्वार है दीवार नहीं, मार्दव समर्पण है हार नहीं’

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उत्तम मार्दव धर्म

मृदुता का जो भाव है उसको मार्दव धर्म कहते हैं। अथवा मान का परिहार करना, अहंकार का त्याग करना ही मार्दव धर्म है।

उत्तम जाति, कुल, ऐश्वर्य, रूप, ज्ञान, तप, बल, शिल्प इन आठ से युक्त होने पर भी दूसरे जीवों का तिरस्कार करने वाले अभिमान का अभाव होना ही उत्तम मार्दव धर्म कहलाता है।

आदमी के जीवन की मूलभूत समस्या अहंकार है। असफलता पर क्रोध आता है और सफलता पर मान पैदा होता है। भगवान महावीर ने कहा सफलता और असफलता दोनों ही खतरनाक हैं।

इसलिए मार्दव धर्म धारण करने वाला सफलता और असफलता पर साक्षी भाव बना कर रहता है। क्योंकि वह जानता है कि कोई भी सफलता हमेशा नहीं मिलती और कोई असफलता हमेशा नहीं रहती।

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प्रत्येक आत्मा में परमात्मा के दर्शन करो तो मान गल जायेग, भाग जायेगा। मार्दव धर्म मान गलाने का धर्म है। दु:ख का मूल कारण है अहंकार। तुम्हारा ‘मैं’ ही तुम्हें परेशान कर रहा है।

‘मैं’ परिवार का संरक्षक हूं, ‘मैं’ समाज का कर्णधार हूं, ‘मैं’ पत्नी और बच्चों का भरण पोषण कर रहा हूं, ‘मैं’ परिवार, समाज व राष्ट्र को चला रहा हूं। यह जो  कर्तापन की झूठी मान्यता है यही मान्यता तुम्हें दुखी बनाये हुए है।

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मेरे बिना दुनिया अस्त -व्यस्त हो जायेगी आदमी बस इसी भ्रम में जी रहा है कि अगर वह नहीं होगा तो परिवार के सदस्य पत्‍नी, बच्चे दाने – दाने के लिए तरस जायेंगे, समाज बिखर जायेगा, राष्ट्र की उन्नति अवरूद्ध हो जायेगी।

अरे भाई, तू किसी का जीवन आधार नहीं है, पत्नी अपने पुण्य से जी रही है, बच्चा अपने भाग्य का खा रहा है, इसीलिए तो बालक के जन्म लेते ही मां के स्तन में दूध आ जाता है।

अंतर्मना आचार्य श्री 108 प्रसन्न सागर जी महाराज