मार्कण्डेयपुराण
॥ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ।।
संक्षिप्त मार्कण्डेयपुराण
जैमिनि–मार्कण्डेय–संवाद–वपुको दुर्वासाका शाप
यद्योगिभिर्भवभयार्तिविनाशयोग्य और स्वाध्यायमें लगे हुए महामुनि मार्कण्डेयसे मासाद्य वन्दितमतीव विविक्तचित्तैः।।
पूछा-‘भगवन्! महात्मा व्यासद्वारा प्रतिपादित तः पुनातु हरिपादसञ्जयुग्म महाभारत अनेक शास्त्रोंक दोषरहित एवं उज्ज्वल माविर्भवक्रमविलङ्तिभूर्भुव:स्वः ॥ १ ॥
सिद्धान्तोंसे परिपूर्ण है। यह सहज शुद्ध अथवा पायात्स वः सकलकल्मषभेददक्षः छन्द आदिकी शुद्धिसे युक्त और साधु शब्दावली से क्षीरोदक्षिफणिभोगनिविष्टमूर्तिः ।।सुशोभित हैं। इसमें पहले पूर्वपक्षका प्रतिपादन श्वासावधूतसलिलोत्कलिकाकरालः करके फिर सिद्धान्त-पक्षको स्थापना की गयी है। सिन्धुः प्रनत्यमिव यस्य करोति सङ्गात् ।। २ ।।
जैसे देवताओं में विष्णु, मनुष्योंमें ब्राह्मण तथा नारायणं नमस्कृत्य नरं चैव नरोत्तमम्। सम्पूर्ण आभूषणोंमें चूड़ामणि श्रेष्ठ है, जिस प्रकार देवीं सरस्वतीं ध्यासं ततो जयमुदीरयेत् ॥ ३॥*
आयुधोंमें वज्र और इन्द्रियोंमें मन प्रधान माना व्यासजीके शिष्य महातेजस्वी जैमिनिने तपस्या गया है, उसी प्रकार समस्त शास्त्रों में महाभारत उत्तम बताया गया है। इसमें धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष-इन चारों पुरुषार्थों का वर्णन है। वे पुरुषार्थ कहीं तो परस्पर सम्बद्ध हैं और कहीं पृथक् पृथक् वर्णित हैं। इसके सिवा उनके अनुबन्ध (विषय, सम्बन्ध, प्रयोजन और अधिकारी)-का भी इसमें वर्णन किया गया है।
‘भगवन् ! इस प्रकार यह महाभारत उपाख्यान बैदौंका विस्ताररूप हैं। इसमें बहुत-से विषयोंका प्रतिपादन किया गया हैं। मैं इसे यथार्थं रूपसे जानना चाहता हैं और इसीलिये आपकी सेवामें उपस्थित हुआ है। जगतुकी सृष्टि, पालन और संहारके एकमात्र कारण सर्वव्यापी भगवान् जनार्दन निर्गुण होकर भी मनुष्यरूपमें कैसे प्रकट हुए तथा द्रुपदकुमारों कृष्णा अकेली हाँ पाँच पाण्डवोंकी
* जिनमें जन्म-मृत्युरुप संसारके भय और पीडाका नाश करनेकी पूर्ण योग्यता है, पवित्र अन्त:करणयाले योगिजन जिन्हें ध्यानमें देखकर बारंबार मस्तक झुकाते हैं, जो बामनरूपसे विराट्-रूप धारण करते समय प्रकट होकर महारानी क्यों हुई? इस विषयमें मुझे महान् सन्देह मार्कपडेग्रजी बोले-मुने! ध्यान देकर सुनो हैं। पदके पाँचों महारथीं पुत्र, जिनका अभी पूर्वकालमें नन्दनबनके भीतर जब देवर्षि नारद, बिन्त्राल जी नहीं हुआ था और पाण्डव-जैसे वीर इन्द्र और अप्सराओंका समागम हुआ था, उस जिनके रक्षक थे, अनाक्री त कैसे मारे गये ? समयको घटना है। एक बार नारदजीने नन्दनवनमें ये सारी बातें आप मुझे विस्तारपूर्वक बतानेकी देवराज इन्द्रसे भेंट की। उनकी दृष्टि पड़ते ही इन्द्र कृपा करें ।’
इराकर खड़े हो गये और बड़े आरके साथ मार्कपड़ेग्रजी बोले-मुनिनेछ । यह मेरे लिये अपना सिंहासन उन्हें बैंठनेकों दिया। वहाँ खड़ी । संध्या-वन्दन आदि कर्म करने का समय है। हुई अप्सराओंने भी देवर्षि नारदको विनीत भान से तुम्हारे प्रश्नोंका उत्तर विस्तारपूर्वक देना है,
अतः मस्तक झुकाया। उनके द्वारा पूजित हो नारदजने इसके लिये यह समय उत्तम नहीं हैं। जॉगर्ने ! ६ इन्दुके बैंठ ज्ञानेपर यथायोग्य कुशल प्रश्नके अनन्तर । तुम्हें ऐसे पक्षियोंका परिचय देता है, जो तुम्हारे बड़ों मनोहर कथाएँ सुनायौं। उस बातचीत प्रश्न का उत्तर देंगे और तुम्हारे सन्देहका निवारण प्रसङ्गमें ही इन्द्ने महामुनि नारदसे कहा- देवर्षे ! करेंगे। द्रोण नामक पक्षीके चार पुत्र हैं, जो सब इन अप्सराओंमें जो आपको निंग्न जान पड़े, उसे पक्षियोंमें श्रेष्ठ, तत्त्वज्ञ तथा शास्त्रका चिन्तन | आज्ञा दीजिये, हाँ नृत्य करें। उम्भा, भिश्नकेश, करने वाले हैं। उनके नाम हैं-पिंङ्गाक्ष, विबौध, | उर्वशी, तिलोत्तमा, घृताची अथवा मेनका—जिसमें | सुपुत्र और सुमुख। वेदों और शास्त्रोके ज्ञात्पर्यक्रोआपकी रुचि हो, उसका नृत्य देखिने ।’ इन्द्रकी समझने में उनकी बुद्धि कभी कुण्ठित नहीं होता। यह बात सुनकर हिंजलेष्ठ नारदजींने विनयपूर्वक में चारों पक्षी वियपर्वतकी कन्दरामें निवास करते खड़ी हुई अप्सराओंसे कुछ सोचकर कहा-‘तुम हैं। तुम उन्के पास जाकर ये संभ बातें पूछ। सब लोगोंमेंसे जो अपनेकों रूप और उदारता जैमिनिने कहा-ब्रह्मन्! यह तो बड़ों अद्भुत आदि गुणोंमें सबसे श्रेष्ठ मानती हो, वही मेरे बात हैं कि पक्षियक बोली मनुष्योंके समान हो। सामने यहाँ नृत्त्व करे।’ uी होकर भी उन्होंने अत्यन्त दुर्लभ विज्ञान प्राप्त मार्केपइँयज्ञ कछते हैं-मुनिकी यह बात | क्रिया है। यदि तिर्यक् सोनिमें इनका जन्म हुआ है, | सुनते ही वे विनीत अप्सराएँ एक-एक करके तो उन्हें ज्ञान से प्राप्त हुआ? में चारों पक्षी द्रोणके आपसमें कहने लग—अरी ! मैं ही गुर्गोंमें सबसे पुत्र कैसे बनाये जाते हैं? त्रिख्यात पक्षी द्रोण कौंन श्रेष्ठ हैं, तू नहीं।’ इसपर दूसरी कहती, ‘तू नहीं, हैं, जिसके चार पुत्र ऐसे ज्ञान हुए? उन गुणवान् मैं श्रेष्ठ हूँ।’ उनका वह अज्ञानपूर्ण विवाद देखकर महात्मा पक्षियों को धर्मका ज्ञान किस प्रकार हुआ | इन्द्रने कहा-‘अरी! मुनिसें हीं पूछो, वे हीं बतायेंगे मंश; भू. गुलक तथा स्वर्गलोकको भी गये थे, ओहरिके वे दोनों चरणकमल आपली यंत्र कार हैं। जो समय पाका संज्ञार करने में समर्थ हैं, जिनका श्रीविग्रह क्षीरसागर* गर्भमें षनागकी शय्यापर
न करता है, उन्हों शेषनागको आस-याझुत्ते कम्पत हुए जलको ज्ञान तरङ्गके कारण विकराल प्रतीत होनेवाला गुड़ जिनका – पाकर प्रसन्नता ॥ नृ–सा करना जान पड़ता है, ने भगवान् नाराय, आपलोगोंको उक्षा क्रतं हैं। भगवान नारायः, पुन्छ , उनको लीला प्रकट नेवानीं ‘भगवती सरस्वती तथा उसके वक्ता महर्षि धेश्यासको नमस्कार करके ‘य’ इतिहासा-पुराण । ३ करना चाहिये।
जैमिनि मार्कण्य-संवाद-वपुक दुर्वाग्राफा शाय कि तुमलोगोंमें सबसे अधिक गुणवती कौन हैं।’ इस प्रकार उनकै पुछने पर नारदजीने कहा-‘ज्ञों गिरिराज्ञी हिमालयपर तपस्या करनेवाले मुनिश्रेष्ठ दुर्वासा के अपनी चेष्टा क्षुब्ध कर देंगो, उसको मैं सबसे अधिक गुणवती मानूंगा।’ उनकी बात सुनकर | सबकी गर्दन हिल गयी। मने एक दूसरीमैं कहना आरम्भ किया–‘हमारे लिचें यह कार्य असम्भव | है।’ ठून असाझमें एकको नाम पु था। इसके मनमें मुनियों को विचलित कर देनेंका गर्व था। उसने नारदजीको उत्तर दिया, जहाँ दुचासा मुनि रहते हैं, वहाँ आज मैं जाऊँगी। दुर्वासा मुनिको, जो शरीररूपी रथका सञ्चालन करने हैं, जिन्होंने इन्द्रियरूपी घोडौँको उस एथमैं जोत रखा हैं, एक अयोग्य सारधि सिद्ध कर दिखाऊँगी। अपने || | काममाणके प्रहारसे इनके मनरूपी लगामको गिरा मातवाली अप्सरा ! तू बड़े कमै उपार्जित किये हुए दूंगी-उनके कायूके बाहर कर देंगे।’ मै तपमें विघ्न झलनके लिये आयों हैं, अतः
यों कहकर वनु हिमालय पर्वतपर गधी । | मॅरें क्रोधसे कलङ्कित झोंकर तू पक्षीके कुल | वहाँ महर्षके आश्रममैं उनकी तपस्याकै प्रभावसे | जुन्म लेगी। ओ बोट बुद्धिवाली नाँच अमरा! | हिंसक जोन भी अपनी स्वाभाविक हिंसानून अपना यह मनोहर रूप होड़कर तुझे सोलह | छोड़कर परम शान्त रहते थे। महामुनि दुर्वास। जहाँ | वर्षोंतक पक्षिणीक रूपमें रहना पड़ेगा। उस समय | निवास करते थे, इस स्थानसे एक कीसकी दूरीपर | तेरे गर्भसे चार पुत्र उत्पन्न होंगे। किन्तु तू उनके प्रति वह सुन्दरी अप्सरा छहर गयी और गीत गाने लगी। होनेवाले प्रेमजनित सुखसे वझत हों रहेगी और उसकी वाणामें कोकिनके कलरवका-सा मिास | शस्त्राग्न थधको प्राप्त हौंकर शापमुक्त हों पुनः था। इसके संगीतकी मधुर ध्न कानमें पड़ते ही | स्वर्गलोकमें अपना स्थान प्राप्त करेगी। बस, अब दुर्वासा मुनिके मनमें बड़ा निस्मय हुआ। वे उसी इसके विपरीत 1 कुछ भी किसी प्रकार भी उत्तर में । स्थानकी और गये, जहाँ वह मृदुभाषिणी बाला | देना।’ क्रोधसे लाल नेत्र किये महर्षि दुर्वा साने संगीतकौं तान छेड़े हुए थी। उसे देखकर महर्षिन | मधुर खनखनाहटसे युक्त चञ्चल कङ्कण धारण अपने मनको बलपूर्वक रोका और यह जानकर कि करनेवालों उस भानिनों अप्सराओं में दुस्सह वचन यह मुझे लुभानेके लिये आईं हैं, उन्हें क्रोध और सुनाकर इस पृथ्वीन्हो छोड़ दिश और विश्वत्रिभुत अमाएं हों आया। फिर तों में महातपस्वी मह उस गुप्यासे गौरवान्वित एवं उत्ताल तुरङ्गबानी आकाशगङ्गाके अप्सग्रसे इस प्रकार बोले-‘आकाशमें विचरनेत्रासो नटपर चले गये।
* संक्षिप्त मार्कपेय पुराण
सुकृष मुनिके पुत्रोंके पक्षीकी यौनिमें जन्म लेनेका कारण मार्कण्डेयजी कहते हैं- जैमिने ! अरिष्टनेमिके अर्जुनके धनुषसे छूटा हुआ एक बाण बड़े वेगसे | पुत्र पक्षिराज गरुड़ हुए। गरुड़के सुन्न सम्पातिके उसके समीप आया और उसके पेटमें घुस गया। नामसे विख्यात हुए। सम्पतिका पुत्र शूरवीर पेट फट जानेसे चन्द्रमाके समान श्वेत रंगवाले सुपार्श्व था। सुपार्श्वका पुत्र कुभि और कुम्भिका चार अंडे पृथ्वी पर गिरे। किन्तु इनकी आयु शेष पुत्र प्रलोलुप हुआ। उसके भी दो पुत्र हुए, उनमें थी, अतः वे फूट न सके; अकि पृथ्वीपर ऐसे एकका नाम कङ्क और दुसरेका नाम कन्धर था। गिरे, मानों के द्वेरपर पड़े हैं। उन अण्डौंकै कन्धरके ता नामको कन्या हुई, जो पूर्वजन्ममैं गिरते ही भगदत्तके सुप्रतीक नामक गजराजको
2 अप्सरा त्रनु थीं और दुर्वासा मुनिक शापारिनसे पीठसे एक बहुत बड़ा घंटा भी टूटकर गिरा, दग्ध हो पक्षणक रूपमें प्रकट हुई थीं। मन्दपाल जिसका बन्धन बाणके आयातसे कट गया था। पक्षीके पुत्र होने कन्धरको अनुमतिसे उस बयपि वह अण्डौंकै साथ ही गिरा था, तथापि कन्याके साथ विवाह किया। कुछ सालके अनन्तर उन्हें चारों औरसे ढकता हुआ गिरा और धरतीमें
ताक्षों गर्भवती हुई। उसका गर्भ अभी साढ़े तीन थोड़ा-थोड़ा भैंस भी गया। महर्नका ही था कि वह कुरुक्षेत्रमें गयी। वहाँ युद्ध समाप्त होनेपर जहाँ घंटेके नौवें पड़े कौरव और पाण्डवों में बड़ा भयंकर युद्ध छिड़ा। पड़े थे, उस स्थानपर शर्मीक नामके एक संयमी था, भवितव्यतावश वह पक्षिणीं उस युद्धक्षेत्रमें महात्मा गये। उन्होंने वहाँ चिड़ियोंके बच्चोंको प्रवेश कर गयी । वहाँ उसने देखा–भगदत्त और आवाज सुनी। यद्यपि उन सबको परम विज्ञान अर्जुनमें बुद्ध हो रहा है। सारा आकाश टिरियोंक प्राप्त था, तथापिं निरे बच्चे होनेके कारण अभी वें भौति बाणों से खचाखच भर गया है। इतने ही स्पष्ट वाक्य नहीं बोल सकते थे। उन बच्चों की आवाजसे शिष्यसहित महर्षि शमीको बड़ा विस्मस हुआ और उन्होंने घटेको उखाड़कर उसके भीतर पड़े हुए उन माता, पिता और पंससे रहित पक्षशावकों को देखा। उन्हें इस प्रकार भूमिपर पड़ा देख महामुनिं शमींक आश्चर्यमें डूब गये और अपने साथ आये हुए द्विजोंसे बोले-‘देवासुरसंग्राममें जब दैत्योंकी सेना देवताओं ऑति होकर भागने लगीं, तब उसको और देखकर स्वयं विग्रवर शुक्राचार्यने अह ठीक हो | कहा था-‘ओं कायरों! क्यों पीठ दिखाकर ज्ञा | रहे हो। न ज्ञा, झौट आओ। अरे! शौर्य भौर सुयशका परित्याग करके ऐसे किस रानमें जाओगे, जहाँ तुम्हारी मृत्यु न हो। कोई भागे या युद्ध करे; वह भौतक जोत्रित रह सकता हैं. | जन्नतकके लिये पहले विधाताने उसकी आयु सुकृष मुनिके पुत्रौर्फ पसीकी मॉनिमें जन्म लेन का कारण निश्चित कर दी हैं। विधाताके इच्छानुसार जबतक | लेकर आश्रमको लौट चलो और ऐसे स्थानपर जवकी आयु पूर्ण नहीं हो जाती, तबतक उसे रखों शहाँ इन्हें विलं, चूहे, बाज अथवा नैवले कोई मार नहीं सकता। कोई अपने घरमें मरते हैं, आदिसे कोई भय न हो। ब्राह्मणों! यद्यपि यः कोई भागते हुए प्राणत्याग करते हैं, कुछ लोग दीक है कि किसीकी रक्षाके लिये अधिक प्रयत्न अन्न खाते और पानी पीते हुए हौ कालके गालमें करनेकी आवश्यकता नहीं है, क्योंकि सम्पूर्ण चले जाते हैं। इसी प्रकार कुछ लोग ऐसे हैं, जो जीव अपने कर्मोसे ही मारे जाते हैं और कर्मोंसें | भोग-विलासका आनन्द ले रहे हैं, इच्छानुसार ही इनकी रक्षा होती हैं-ौक इसी प्रकार, जैसे वाहनोंपर विचरते हैं, शरीरसे नौरोग हैं तथा इस समय ये पक्षशावक इस युद्धभूमिमें अच गये अस्त्र-शस्त्रोंसे जिनका शरीर कभी घायल नहीं हैं, तथापि सब मनुष्यों को सभी कार्योंके लिये हुआ हैं; वे भौं यमराजकै बशमैं हो जाते हैं। कुछ अत्न अवश्य करना चाहिये, क्योंकि ज्ञों नुरुषार्थं लोग निरन्तर तपस्यामें ही लगे रहते थे, किन्तु करता हैं, वह ( असफल होनेपर भी) सत्पुरुषों उन्हें भी यमराजके दूत उड़ा ले गये निरन्तर | निन्दाका पात्र नहीं होता ।’ मुनिवर शमीकके इस योगाभ्यास प्रवृत्त रहनेवाले लोग भी शरीरसे प्रकार कहनेपर थे मुनिकुमार उन पक्षियोंको लेकर अमर न हो सके। पहले आत हैं, वज्रपाणि इन्द्रने एक बार शाम्बरासुरके ऊपर अपने चञ्चका प्रहार किया था। इस वज्रने इसकी छातौंमें चोंट पहुँचाय, तथापिं वह असुर मर न सका। परन्तु काल आनैपर उन्ईं इनें इसी बसें जब जब दानवौंको मारा, वे तत्काल मृत्युको प्राप्त हो गये। | यह समझकर तुम्हें भय नहीं करना चाहिये। तुम सब लोग लौट अओ।’ उनके इस प्रकार, समझानेपर में दैत्य मृत्युको भय त्यागकर रणभूमिमें लौट आये। शुक्राचार्यकी कही हुई उपर्युक्त को इन श्रेष्ठ पक्षियोंने सत्य कर दिखाया; क्योंकि इस अलौकिक युद्धमें पड़कर भी इनकी मृत्यु नहीं हुई। ब्राह्मणो! भला, सोचो तो सही-कहाँ अण्डौंका गिरना, कहाँ उसकै साध हौ घंटेका भौ पड़ना और कहाँ मांस, मन्ना तथा रक्तसे भरी हुई भूमिका बिना बन जाना—ये सभी बातें अद्भुत हैं। विप्नगण ! मैं कोई सामान्य पक्ष नहीं अपने आश्रमकों चले गये, जहाँ भाँति-भाँतकें हैं। संसारमें दैवका अनुकुल होना महान् सौभाग्यका वृक्षक शाखाऑपर बैठे हुए ‘भौर फलोंका रस ले सूचक होता है।’ रहे थे और अनेक तपस्वियक रहनेसे ज्ञहाँकी कहकर शमक मुनिने इन बच्चोंको रमणीयता बहुत बढ़ गयौ थीं। भलीभाँति देखा और फिर अपने शिष्योंसे इस विग्रसर जैमिने ! मुनवैध शमीक प्रतिदिन अन्न प्रकार कहा–’अब तुमलोग इन पक्षिशावकों और जल देकर तथा सब प्रकारसे रक्षाक
संक्षिप्त मार्केपय पुराण व्यवस्था करके इन बच्चोंका पालन-पोषण करने पक्षी बोले-‘मुनिवर। प्राचीन काल में गे। एक ही महीना बीतनेपर में पक्षियोंके अच्चे विपुलस्वान् नामक एक श्रेष्ठ मुनि रहते थे, जिनके आकाश इतने ऊँचे अड़ गये, जितने पर सूर्यके दो पुत्र हुए-सुकृष और तुम्बुरु। सुकृप अपने रथके आने-जानेका मार्ग है। उस समय आश्रमवासी’ चित्तको चशमैं रखनेवाले महात्मा थे। उन्होंने हम मुनिमार तूहलभरे चञ्चल नेत्रोंसे इन्हें देंख चार पुत्रका जन्म हुआ। हम सब लोग विनय, रहे थे। उन पक्षिावकोने नगार, समुद्र और बड़ी- सदाचार एवं भक्तिनश सदा विनीत भावसे रहते बड़ी नदियों सहिंत पृनाको वहाँले रकै पहिये| धै। पिताज अदा तपस्यामैं संलग्न हुनें और बरावर देखा और फिर आश्रमगर लौट आये। इन्द्रियोंको काबूमें रखते थे। उस समय उन्हें जब तिरंकू-मोनमें उत्पन्न हुए चे महात्मा पक्षी अधिक जिस वस्तुकी अभिलाषा होती, हम इसे उनकी उड़नेके कारण परिश्रमसे थक गये थे। एक दिन सेवामें प्रस्तुत करते थे। एक दिनकी आत हैं, महर्षि शमीक अपने शिष्योंपर कृपा करनेके लिये | देवराज इन्द्र पभीका रूप धारण करके वहाँ आये। उन्हें धर्मके तत्त्वका उपदेश कर रहे थे। उस उनका शरीर बहुत बड़ा था, पंख टूट गये थे।
समग्र व महके प्रभावसे इन पक्षिक अन्तः- बुढ़ापेने पर अधिकार जमा लिया था। इनक करण में स्थित ज्ञान प्रकट हो गया। फिर तो उन आँखें कुछ-कुछ लाल हो रहीं थीं और सारा बने महापैकी परिक्रमा की और उनके चरागमें शरीर शिथिल जान पड़ता था। वे सत्य, शौंच और भस्तक झुकाया। तत्पश्चात् वे बोले-‘मुने! आपने क्षमाका पालन करनेवाले अत्यन्त उदारचित्त महात्मा भयानक मृत्युसे हमारा उद्धार किया है। आपने | मुनिश्रेष्ठ सुकृपकी परीक्षा लेने आमें थे। उनका हमें रहने लिये स्थान, भोजन और जल प्रदान आगमन ही हमारे लिये शापका कारण जग गया। | किया हैं। आप ही हमारे पिता और गुरु हैं। पक्षिरूपारी इन्द्रनें कहा–विप्रवर ! मुझे अड़ें हमलोंग झत्र गर्भमैं थे, तभी माताकी मृत्यु हो जोरी भृख सता रहीं हैं, मेरी रक्षा कीजिये; गयी। पिताने भी हमारी रक्षा नहीं की। आपने ही महाभाग! मैं भोजनको इच्छासे यहीं आया हूँ। पधारकर हमें जीवनदान दिया और शैशव- आप मेरे लिये अनुपम सहारा बनें। मैं विन्ध्ब पर्वत के अवस्थामें हमलोगों की रक्षा की। हम कोट्टको शिखरपर रहता था। वहाँ किस अन्न पक्षी के तरह सूख रहे थे, अपने हाथो धपटेको उठाकर पंखसे प्रकट हुई अत्यन्त वेगयुक्त वायुके झोंक | हमारे सङ्कटका निवारण किया। अब हम अड़े हो| ख़ाकर पृथ्वोपर गिर पड़ा और मूत हो गया। | गवे, हमें ज्ञान भी हो गया; अतः आज्ञा दगिये, एक सप्ताहक मुझे होश न हुआ। आठवें दिन हम आपको क्या होत्रा करें?’
मैरीं चेतना लौटीं। सचेत होनेपर मैं भूखसे महर्षि शमीक अपने पुत्र की ऋषि तथा| न्याकुल हो गया और भोजनकी इससे आपको समस्त शिष्यसे घिरे हुए बैठे थे; इन्होंने जब उन शरणमें आया हैं। इस समय मुझे तनिक भी चैन पक्षिक यज्ञ शुद्ध, संस्कृतमयो स्पष्ट ब्राग नहीं हैं। मैं मनमें बड़ी व्यथा हो रही हैं। विमल सुनी, तब उन्हें अड़ कौतूहल हुआ। उनके वाले महांध! अब आप मेरी रक्षाके लिये शरीर में रोमाञ्च हों आया। उन्होंने पूछा-‘बच्चो!| भौज़न दीजिये, जिससे मेरी जीवन-यात्रा चालू रहे। जुमलोग ठीक-ठीक नाश, कुम्हें जिस कारणसे यह सुनकर महर्पने उन पक्षिरूपधारों इन्द्रसे ऐसी वाणी प्राप्त हुई हैं। मांक्षयका रूप ऑर| कढ़ा-‘मैं तुम्हारे प्राको रक्षाके लिये तुम्हें मायक-म वा प्राप्त होने का क्या रहस्य हैं ? यथेष्ट भोजन हूँगा।’ यों कहकर द्विजलेष्ठ सुकृ धने !
* सुकृष मुनिके पुत्रोंके पश्चीकी बोनिमें जन्म लेनेका कारण पुनः छ पुछा-‘मुझे तुम्हारे लिये कैसे आहारकों आदरके साथ कहा-‘पिताजी! आप जो कुछ भी व्यवस्था करनी चाहिये ।’ उन्होंने कहा- ‘मुने ! हेंगे, जिस कार्य निये भी हमें आज्ञा देंगे, उसे मनुष्यके मांससे मुझे विशे; होती हैं।’ हमारे द्वारा पूर्ण किया हुआ ही झमझियें ।’ ऋषिने कहा-‘अरे ! कहाँ मनुष्यका मांस | ऋषि बोले-वाह पक्षी भूख प्याससे पीड़ित
और ऋद्ध हुम्हारी वृद्धावस्था। ज्ञान पड़ता है, होकर मेरों शरणमें आया है। जुमलोग शोघ्र ही जीको दूषित भावनाओंका सर्वथा अन्त *भी ऐसा करो, जिससे तुम्हारे शरीरके मांससे क्षणभर नहीं होता। अधजा मुझे यह सब कहनेकी क्राइमकी तृप्ति और तुम्हारे उसे इसकी प्यास आवश्यकता। जिसे देनेकी प्रतिज्ञा कर ली गयो, बुझ जाय।। उसे सदा देना ही चाहिये, मैं मनमें सदा ऐसा । यह सुनकर हमें बड़ी ज्यभा हुई। हमारे हा भात्र रहता हैं। शरमें कम्प र मनमें भय का गम्रा, हम हमा इन्द्रसे यों कहते हुए अपनी प्रतिज्ञा पूरा बोल उठे-‘इसमें तो बड़ा कष्ट हैं, बड़ा कष्ट हैं। करनेका निश्चय करके विप्रवर सुकृपने हम सबको यह काम हमसे नहीं हो सकता। कोई भी शम्न ही बुलाया और हुमारे गुर्गोंकी ब्रारंवार समझदार मनुष्य दूसरेके शरीरके लिये अपने प्रशंसा करते हुए कहा-‘पुत्रों! यदि तुमलोग के शरीरका नाज़ अथवा वध कैसे कर सकता है। विचारसे पिता परम गुरु और नूनीय हो तो अत: इमलोग यह काम नहीं करेंगे। हमारी ऐसी निष्कपट भावसे में वचनका पालन करो।’ तें सुनकर वें मुनि क्रोधसे जल उठे और अपनी उनकी यह बात सुनते ही हम सब लोगोंने लाल लाल आँखोंसे हमें दुग्ध करते हुए से पुनः इस प्रकार बोले-‘अरे! मुझसे इसके लिये प्रतिज्ञा करके हो तुमलोग यह कार्य नहीं करना चाहते: अतः में शाप दाध होकर तुमलोग कि योनिमें -म नि ‘इममें हक उन्होंने शास्त्र अनुसार अपनी अन्त्येष्टि-क्लिया की औध्वंद्दिक संस्कारही वि पुर्ण की। इसके बाद में इस पक्षीने ब्ले-“खगश्रेष्ठ ! अव जुग निश्चिन्त होकर मुझे पाक्षग करो। मैंने अपना यह शरीर तुम्हें आहारको रूपमें समर्पित कर दिया हैं। परिज़! जन्नत अपने सत्यका पुर्णपसे पालन होता रहे, यहीं व्राह्मणका ब्राह्मणत्व कहलाता हैं। ब्राह्मण दक्षिागानुक अज्ञों अथवा अन्य कमक अनानसे भी वह महान् पुष्य नहीं प्राप्त कर शकते. जो उन्हें रात्यकी रक्षा करनेसे प्राप्त होता हैं।
* ज्ञान विन्य ज्ञाहावं मचा । सान्त तग्ज़य उन्नदिपाल-]
। । न बजेदभगद्भज नाय गह। कागंणन्पंन जा ग्रिंर्यन राज्यप नन् ।
संक्षिप्त पाण्डेय चापाक
नाका यह बचन सुनकर पांझरूपधा! क्रोध आदि दोष जत्रके प्रबल शत्रु हैं। इन इन्द्र मनमें बड़ा विस्मय हुआ। वे अपने विश होकर यह लोक जिस प्रकार मोह शाभूत हो जाता हैं, उसे आप सुनें। यह शर एक अहुत बड़ा नगर है। प्रज्ञा ही इसकी चहारदीवारी है, हुट्टियाँ हाँ इसमें रखन्भेका काम देशी हैं। चमड़ा ही इस नगरको दोशर हैं, जौं समूचे नगरचे रोके हुए हैं। मांस और रक्तकें पञ्चक इमपर लेप चढ़ा हुआ है। इस नगरमें न दरवाजे हैं। इसक्री रक्षा में बहुत बड़ा प्रयास करना होता है। नस-नाड़ियाँ इसे सब ओर से घेरे हुए हैं। चेतन पुरुप ही इस नगरके भीतर राज्ञाके अपनें विराजमान हैं। इसके दो मन्त्री हैं–धुद्धि और मन। वे दोनों परस्परिवरोधी हैं और आपसमें वैर निकालनेके लिये दोनों ही अत्म करते रहते हैं। चार ऐसे शत्रु हैं, उस का नाश चाहते हैं। उनके नाम हैं-काम, क्रोध, लोभ तथा मोह। जय राजा इन नवों दरवाज़ों को बंद किये हुता हैं,
तत्र उसकी शक्ति सुरक्षित रहती हैं और वह सदा देहरूपमें प्रकट होकर बने–’विप्रर! मैंने आपको निर्भय बना रहता है, वह सबके प्रति अनुराग रखना परीक्षाके दिन यह भरा किया हैं। शुद्ध है, अतः शत्रु उसका पराभव नहीं कर पाते।
दलले महर्षि ! आप इसके लिये मुझे गा । पर अब वह गरके सत्र इराको खुला बताइये, आपको क्या इच्छा है जिसे मैं पूर्ण करू? औड़ देता हैं, उस समय ग नाम शत्रु नेत्र अपने सत्य वचना पालन करनेसे आपके प्रति आदि द्वापर आक्रमण करता हैं। वह सर्वत्र में बड़ा प्रेम हो गया हैं। आजसे आपके हृदयों याप्त रहनेवाला, बहुत विशाल और पाँच दरवाजोंसे इन्द्रयों ज्ञान प्रहर होगा। अब पकी तपस्या गर्ने प्रवेश करनेवाला है। इसके पीछे पीछे और मं] ई दिन नहीं उपस्थित होगा।”वोन और बर शत्रु इस में घुस जाते हैं।
यो कार जन इन्द्र क्ले गये, तव मझोगन गाँच इन्द्रिय नाम से शरीर के भीतर प्रवेश क्रोधमें भरे हुए महामुनि पिताजीके नमें करके राग मन तथा अन्यान्य इन्द्रियोंके साथ मक इन्कार गाम किया और इस प्रकार सम्बन्ध जोड़ लेता हैं। इस प्रकार इन्द्रिय और का–‘त! हम इसे र रहे थे। महामते! मनको वश करके वह दुर्घ हो जाता है और आप हम दनक अपराको क्षमा करें। हमागेको, मस्त दरवाजों को काबू कर चहारदीवारीको – बृहुत ही प्रिय हैं। चमड़े, हट्टों और मांस ! देता है। मनको राग अधीन हुआ देख ममृरू जथा मँत्र करों में हुए इस शरिरमें झुझि ताल नष्ट हो तो पलायन कर ज्ञान) जहाँ में तनक भो आस नहीं रखना चाहिये हैं। मई मन्त्री साथ नहीं रहते, तन्न अन्य पुरवासी हाँ हमारों इतनी आसक्ति हैं। महाभाग ! काम.भो जर्स ड़ देते हैं। फिर शत्रुजको उसके धर्मपटारा मिनि का नाम छिद्रका ज्ञान हो जानेसे राजा उनके द्वारा नाशो तुम्हारे क्लेश और पाप धुल ज्ञानी तथा तुम्हारे प्राप्त होता हैं। इस प्रकार राग, मोह, लोभ तथा ! मममें किस प्रकारका संशय नहीं रहेगा। इस
क्रोध-से दुरात्मा शत्रु मनुष्यकी स्मरण-शक्तिका प्रकार में प्रसादसे ज्ञान पाकर तुम घरम सिद्धिको नाश करनेवाले हैं। रागसे काम होता है, काम प्राप्त कर लेंगे। लोभमा जन्म होता हैं, लभसे सम्मोह-अविक| भगवन्! इस प्रकार पूर्वकालमें दैवबा पिताने होता हैं और सम्मोहसे स्मरण-शक्ति भ्रान्त हो जाती हमें शाप दे दिया। तबसे बहुत कालके माद हम है। स्मृतिकी भ्रान्तिसे बुद्धिका नाश होता हैं और दूसरों योनिमें आये, युद्धभूमिमें उत्पन्न हुए और बुद्धिका नाश होने से मनुष्य स्वयं भी नष्ट कर्तव्यभ्रष्ट फिर आपके द्वारा हमलोंगो पालन हुआ। हो जाता हैं। इस प्रकार जिन बुद्धि नष्ट हो द्विजों ! यह हमारे पक्षी-योनिमें आनेकी कहानी चुकी हैं, जो रोग और नोभके पीछे चलनेवाले हैं | है। संसार में कोई भी न ऐसा नहीं हैं, जिसे तथा जिन्हें जीवनका बहुत लोभ हैं, ऐसे हमलोगोंपर दैवके द्वारा बाधा न पहुँचती हो, क्योंकि समस्त आप प्रसन्न हो। मुनिष्ट! यह जो शाप आपने नॉन-जन्तुओंकों चेष्टा देंवके हौं अधीन हैं । दिमा है, वह हमें लागू न हो। तामस नि बड़ी मार्कण्डेयजी कहते हैं-उनकी बात सुनकर कष्टदाथिनों होती हैं। हम में कभी प्राप्त न हों।’ | महाभाग शमक मुनिने अपने पास बे हुए अधिने क्रम-‘पुन्न। आजतक मेरे मुखमैं | जिसे कहा-मैंने तुमलोगों पहले हीं व्रताय। कभी झूठ आत नहीं निकली; अतः मैंने जो कुछ | था कि ये साधारण पक्षों नहीं हैं, कोई अंश द्विज्ञ कहा है, वह कभी मिश्या नहीं होगा। मैं यहाँ | हैं, जो कि अलौकिक युद्धमें जन्म लेकर भी
में ही प्रधान मानता हैं। उसके सामने पौरुष मृत्युको नहीं प्राप्त हुए।’ तदनन्तर महात्मा तपौकने व्यर्थ है। आज दैवने मुझसे बलपूर्वक यह अत्यन्त प्रसन्न होकर उन्हें मानेको आज्ञा दी। फिर अयोग्य कर्म करा डाला, जिसकी मैंने कभी मनमें | वें वृक्षों और लताओंसे सुशोभित पवंतमें श्रेष्ठ कल्पना भी नहीं की थीं। पुत्रों ! तुमलोंगोंने प्रणाम दियगरिंपर चले गये। तबसे आजतक धे करके मुझे प्रसन्न किया हैं। इसलिये तिर्यक्-| धर्मात्मा की शपस्या और वाध्यायमें संलग्न छ।
योनिमें जन्म लेनेंपर भी तुम्हें परम ज्ञान प्राप्त समाधिके लिये दृढ़ निश्चय करके उस पत्रंतर हीं होगा। ज्ञानसे हो तुम्हें स-मार्गका दर्शन होगा। निवास करते हैं।
धर्मपक्षीद्वारा जैमिनिकै प्रश्नको उत्तर मार्कण्डेयजी कहते हैं-जैमिनि ! इस प्रकार मार्कण्डेय मुनिकी यह बात सुनकर महर्षि वे गके पुत्र चारों पक्षी ज्ञान हैं और विध्यांगरियर जामनि, विन्यपवंतपर, जहाँ में धर्मात्मा पक्षी निवास करते हैं। तुम उनकी सेवामें ज्ञाओं और रहते थे, गये। उस पर्वतके निकट पहुँचनेपर, पाठ उनले ज्ञातव्य बातें पूछौं ।
* राग काम: प्रति कापारलौभानावने ।
भवति सम्मोह: सम्मान् गिनिमः ॥
‘शाद् बुद्धिमाश बुद्धिनाशात् ‘श्यांन॥
निगराइ संसार यो न चैन वने ।
सर्वेमंत्र जन्तं दैनं ६ चैतम् ।। १३ । ।
*संगिं मार्कण्य पुराग+
उसे सुनकर जैमिनं अड़े बिस्भयमें पड़े भावापात्रको परम्पराको संसार के लोग निरन्तर और इस प्रकार, चने लगे-‘अहो! ये अॅग्न पक्षा इयान रहते हैं। आपलोगो भी अपने मन बहुत ही स्पष्ट उमारण करते हुए पाठ कर रहे। ऐसा ही विचार करके कभी शोक नहीं हैं; जिस अक्षरका ऊष्ट्र जानु आदि जो स्थान हैं, करना चाहिये । शौक और हर्घके अशीभून्न न होना उसका असे उच्चारण हो रहा है। ओलने में ही ज्ञानका फल है।’ कितनी शुद्धता र सफाई हैं। ये अविराम पाठ स तदनन्तर उन धर्मात्मा पक्षियोंने पाय और करते जा रहे हैं, रुककर ससतक नहीं लेने। अयंके द्वारा महर्प मनका पूजन किया और आसकी गतिपर इन्होंने विजय प्राप्त कर ली है। उन्हें प्रणाम करके को कुशल पृष्ठों। फिर किसी भी शब्द उच्चारणमें कोई दोष नहीं अपने पंखोंसे हुवा करके उनमें श्रध्रवट दूर की। दिखायी देता। ये बाँप निन्दत योनिको प्राप्त हुए, जब वें सुखपूर्वक बैंठकर विश्राम ले चुके, तब हैं, तथापि सरस्वतीदेवो इनको नहीं त्याग रही हैं। पक्षियोंने कहा-‘ब्रह्मन्! आज हमारा जन्म सफल यह मुझे अड़े आश्चर्यको बात ज्ञान पड़ती हैं। हो गया। यह जीवन भी छत्तम जीवन बन गया; बन्शु-बा-थयजन, मित्रगण तथा अरमें और जो क्योंकि आज में आपके दोनों चरण कमलाका प्रिंय बाएँ हैं, वे सभी साध छोड़कर चली जाती दर्शन मिला, जो देवताओंके लिये भी अन्दनीन्द्र
हैं, परन्तु सरस्वतों की लग नहीं करतीं।* हैं। हमारे शरमें पिताजौके धसे प्रष्ट हुई इस प्रकार सोचते-विचारते हुए महर्षि जमिनने । अग्नि जल रही हैं, वह आज आपके दर्शनरुपी विन्यपर्वतकी कन्दरामें प्रवेश किया। वहीं जाकर ज्ञानसे सिंचन, शान्त हो गया। ब्रह्मन्! आप । उहाँने देखा, वें पक्षी शिलाखण्ड़पर बैठे हुए पाठ कुशल तो है न? झापके आश्रममें रहनेवाले | कर रहे हैं। उनपर दृष्टिं पड़ते ही हर्षि जैमिनि मृग, पक्षी, वृक्ष, लता, गुल्म, बस र भौति | हमें भरकर ले-‘ श्रेष्ठ पक्षियों ! आपका कल्याण भौतिक तृण-इन सबकौं कुशल हैं न? इनपर हो। मुझे यासजी शिध्य मिन समझिये। में स्नई संकट तो नहीं हैं। अब हमपर कृपा कीजिये आपलोगों का दर्शन करनेॐ लिये उत्कण्ठित होकर और यह अपने आगमनका कारण मतलाइये। यहाँ आया है। आपके पिताने अत्यन्त क्रोधमें | हमारा कोई बहुत बड़ा भाग्य था, जो आप इन आकर ज्ञ आपलोगोंको शाप दे दिया और ने अतिथि हुए।’
आप पन्किो योनिमें आना पड़ा, उसके जैमिनि बोले-‘अपक्षीगण ! मुझे महाभारत लिये खेद न करना चाहिये; क्योंकि वह सर्वथा शास्त्रमें कई सन्देह हैं। इन सबमें पूछनेके लिये दैवको हो विधान था। तपस्याका क्षय हों ज्ञानेपर पहले मैं भूगलौष्ठ महात्मा मार्कण्डेय मुनि – मनुष्य दाता होकर भौं याचक बन जाते हैं। स्वयं पास गया था। मेरे पुनपर इन्होंने कहा— मारकर भी इसके हाधसे मारे जाते हैं तथा ‘विन्यपर्वतपर शके पुत्र महात्मा पक्षी रहते हैं।
पहले दूसरों को गिराकर भी स्वयं इसके द्वारा वे तुम्हारे झोंका विरतारपूर्वक उत्तर देंगे।’ | गिराये जाते हैं। इस प्रकार आने वाली विपरीत। नको आज्ञासे हो मैं इस महान् पर्वापर आया दशाएँ मैंने अनेक बार देखी हैं। भाव बाड़ हैं। आपलोग हमारे प्रश्नको पूर्णरूपसे सुनकर अभाव तथा अभावके बाद भाव, इस प्रकार। उनका विवेचन करें।
* वर्गस्तथा मित्रं पाएनपरे । त्वा न:ति भवं न जहाति सत्यता । ४ ।
* धर्मपक्षीदारी जैमिनिकै प्रश्नको सिवा द्रौपदो पाँच महाधी पुत्र, जिन अभी हित नहीं हुआ था. मस्त माधव नके क्षक ६ तथा स्वयं भी भले अयान थे, अनाथको भन कैसे मारे गये हैं महाभारतके विषयमें यह मेरा सन्देह हैं। मामलोग इसका निवारण करें। | पश्चिय़ोंने कहा-जे सम्पूर्ण देताकिं झाम, सन्ध्यापक, को उत्पत्ति के कारण, अनमी, प्रमाग अतिपय, सनान, अविनाश, सतयु म्धन, त्रिगुणमय, निर्गुण, सअसे बड़े, अत्यन्त गौरवशाली, अर्चने तथा अमृतरूप हैं. इन भान् विष्णु म सबसे ‘हले नमस्कार कर | हैं। जिनसे कर सुक्ष्म तथा जिनसे अधिक बच्चा | भो कोई नहीं हैं, जिनके द्वारा यह सम्पूर्ण निश्च हैं, जो इस जग मादिकारण और अक्षयोंने कहा-ब्रह्मन् ! आपका प्रश्न यदि अजन्मा हैं, उत्पाँज, लय, प्रत्यक्ष और हमारी के बाहर में होगा तो हम अवश्य परोक्ष-सअसे त्रि-क्षण हैं, इस सम्पूर्ण जगत्को जस्व समान रंग। आप नि:शडू होकर सुनें। ज्ञिक न बतलाते हैं या अ-नाने के विवर! चारों वेद, धर्मशास्त्र, सम्मुणं वेदाङ्ग तथा| भीतर का संहार होता है, उन परमेश्वर को ८ को ३ समान माननीय इनिझा मन मार हैं। धन अपने चारों पुर/पाद हैं. इन सबमें हमारी बुद्धिका वेश हैं मुसे ऋके-साम आदि दौंमा अभ्यारण करते था। हम कई पता नहीं कर सकते। आपको हुए हीनों लोको पबित्र में हैं, इन आदिदेव | महाभारतमें जो-जो दधि प्राप्त जान पड़े, में ब्रह्माडौको भी हम एकाचन नमस्कार करते निर्भीक होकर पुछिये ।।
इस प्रकार जिनके एक ही ब्राणमें पराजित जैमिनि बोले– यो ! झापलगाकर अत:- होकर असुरग कशा झिका झोंका तिनाश कारण निर्मल हैं। नाभारत मेरे लिये जो नहीं करते, उन भगवान् शङ्करको भी मस्तके मन्दिग्ध बातें हैं, उन्हें बता : सुनियें और झुकते हैं। इसके बाद इन अद्भुत में नेताले सुनकर उनम व्वा कोधैिं । सर्वव्यापी भगवान् व्यारा के सम्पूर्ण मतको ध्याना अंगे, जिन्होंने जनार्दन शर्ण के आधार, समस्त आरोक महाभारतके वयसे धर्म के रहस्य कट भी झार र निर्गुण होते हुए भी मनुष्य- कि हैं। तादर्श मुनियों ने उसको ‘नार।’ का र के प्राप्त हुए ? दुपदकुमारों कृा है। वह ] ही भूक भान्का निवासस्थान अकेली हो पाँच पायौं महारान क्यों रहा, अग्नये ॐ नारायण कहे गये हैं। ब्रह्मन: किंवमें न महन् -न्दा हैं। इसके चे सर्व भगवान रायगई। सो क्रम मझिम पार्कय पराग करके स्थित हैं। चे सगुण भी हैं और निर्गुण भी करती हैं। यह आपके पहले प्रश्नका उत्तर उनका प्रथम स्वरूप ऐसा है कि जिसका शब्दोंद्वारा बतलाया गया कि भगवान् पूर्ण काम होते हुए भी
तपादन नहीं किया जा सकता। विद्वान् पुरुष धर्म आदिको बाके लिये सदा स्वेच्छासे हाँ | उसे शुक्ल (शुद्धस्वरूप) देखते हैं। भगवानुका अवतीर्ण होते हैं वह दिव्य विग्रह ज्योति:युसे मारपूर्ण हैं। वहीं ब्रह्मन्! पूर्वकालमें चट्टा प्रज्ञापतके पुत्र योगी पुरुषको पररान्।ि { अन्तिम लक्ष्य हैं। वह विप इन्द्धके हाथमें मारे गये थे, इसलिये दिव्यस्वरूप दूर भी है और समीप भीं। उसे सब ब्रह्महत्याने इन्त्रको धर दबाया। इससे उनके गुणोंसे अतीत ज्ञानना चाहिये। उस दियस्वरूपको तैज्ञको बड़ी क्षति हुई। इस अन्यायके कारण ही नाम वासुदेन हैं। अहंता और ममताका त्याग | इन्द्रका तेज धमाके शरीर में प्रवेश कर गया, करनेसे ही उसका साक्षात्कार होता हैं। रूप और अतः इन्द्र निस्तेज हो गये। तदनन्तर अपने पुत्रके वर्ण आदि काल्पनिंक भान उसमें नहीं हैं। वह मारे जानेका समाचार सुनकर त्वष्टा प्रज्ञाप्रतिको | अदा परम शु एवं उत्तम अधिष्ठानम्वरूप हैं। क्रोध हुआ। उन्होंने अपने मम्झसे एक भगवानुको दूसरा स्वरूप के नामले प्रसिद्ध हैं, जहा उजाकर सत्रको सुनाते हुए यहूं बात जो पाताललोकमें रहकर पृथ्वौको अपने मस्तक पर हो-‘जाज़ देवतासहित तीनों लोक मैं धारण करता हैं। इस तिर्यस्वरूपमा प्राप्त हुई। पराक्रमको देखें। वह बोटों बुद्धिवाला सातौं तामस मूर्सि कहते हैं। श्रीहरिको तीन मूर्ति इन्म भी मेरी शक्तिका साक्षात्कार कर ले, क्योंकि समस्त प्रजाके पालन पौधणमें तुतार रहती हैं। इस दुष्टने अपने ब्राह्मणोन्धित कर्ममें लगे हुए मेरे वहीं इस पृथ्वोपर धमकौं निश्चित व्यवस्था करनी | पुत्र वध किया हैं।’ यों हर क्रोधसे लाल हैं। धर्मका नाश करनेवाले उद्दण्ड असुरोको आँखें कि प्रजापति) वह ज्ञट्टा आग्निमें होप दो। | मारती तथा धर्मको रक्षामें संलग्न रहनेवाले फिर तो उस मगइसे घृन्न नामक महान् असुर देवताओं और साधु-संतोको क्षा करती हैं। नैमिनिंज! संसारमें जन धर्मका हास और अधर्मका उत्थान होता हैं, तब-तब वह अपने यहाँ प्रकट करती हैं। पूर्वकालमें बहो वाराहरूप धारण कर अपने | धुनसे पालको लटाकर इस पृञ्जीको एक ही दाँतको जनके ऊपर ऐसे 35 लायी मानो वह कोई कमा कूल हो। इन्हीं भन्ने नृसिंहरूप | धारण करके हिरण्यकशिपुका वध किया और विप्नांचन आदि अन्य नको मार गिराया। इस प्रकार भगवान्के वागत अ६ और भी अलुत-से अवतार हैं, जिनको गला करनेमें इम् अरमधं हैं। इस समय भने मधुरामें श्रीकृष्ठ अवतार लिया है। इरा तरह भगवानको वह मान्चिकी मूति हो भन्न मन अवतार ।
धर्मपक्षीदारा चैमिनिकै प्रश्नका उत्तर अझट हुआ, जिसके शरीरसे सव और आगकी | अपने खेदका झारण बतलाया । वह बोली लपटें निकल रहीं । विशाल देंह, बड़ी-बड़ी देवताओं! आपने पूर्वकालमें जिन महापराक्रम दाढ़े और कटे-छ? कोयलेके द्वेरकी भूत असुरोंका चश्न किया हैं, ने सब इस समय । शरीरका ३ग था। उस महान् असुर वृत्रासुरकों मनुष्यलोक में जाकर रानाके धरमें उत्पन्न हुए अपने बधके लिये उत्पन्न देख इन्द भयसे हैं। ऐसे डैत्यको अनेक अक्षौहिणी सेनाएँ हैं। मैं व्याकुल हो उठे। उन्होंने सन्धिको इच्छासे उनके भारसे पीड़ित होकर नीचे और मैं सप्तर्षियकों उसके पास भेजा। सम्पूर्ण भूतोंके जाती हैं। आपलोग ऐसा कोई उपाय करें, जिससे हिंज्ञसाधनमें संलग्न रहनेवाले वे महर्धि बड़ी मुझे शान्ति मिले।’ प्रसन्नताके साथ गये और उन्होंने कुछ शतक पक्षी कते हैं-पृथ्वींके य कहनेएर सम्पूर्ण साथ इन्हें और वृत्रासुरमैं मिन्नता करा दी। इन्द्रने देवता अपने- अपने तेजकै अंशसे गृथ्वीपर अवतार सन्श्वि शर्तीका उल्लङ्घन करके जब बुबासुरको लेने लगे। उनके अवतार दो ही उद्देश्य मार डाला, तब पुन: उनपर ब्रह्महत्याका आक्रमण थे–प्रजजनोंका उपकार और पृथ्वीक भारका हुआ। उस समय उनका सारा बल नष्ट हो गया। | अपहरण। इन्ट्रकै शौरसे जो तेज प्राप्त हुआ था, इन्द्रकै शरीरसे निकला हुआ बल वायुदेवज्ञामें | उसे स्वयं धर्मराजने कुन्तीके गर्भमें रश्रापित सपा गया। तदनन्तर जय इन्द्र गौतमको रूण किया। इससे महातेजस्व राजा युधिष्ठिरका धारण करके उनकी पत्नी अल्लल्याके सतीत्वका जन्म हुआ। फिर वायु देवता इन्द्रके ही बनको | नाश किया, उस समय उनका रूप भी नष्ट हों कुन्तीके उदरमें स्थापित किया। उससे भौम गया। उनके अङ्ग-प्रत्यङ्गङ्गा लावण्य, जो बड़ा उत्पन्न हुए। इन्दके आधे अंशसे अर्जुनका जन्म हाँ मनोरम था, भाग-दौघसे दूधित देवराज्ञ | हुआ। इस प्रकार इन्दूका ही सुन्दर म इन्द्रको छोड़कर दोनों अश्विनीकुमारोंके पास अश्विनीकुमाद्वारा मादीकै गर्भमें स्थापित किया। चला गया। इस प्रकार इन्द्र अपने धर्म, तेज, | गा था, जिससे अत्यन्त कान्तिमान् नकुल और बल और कृपसे वञ्चित हो गये। यह जानकर सहदेव उत्पन्न हुए। इस प्रकार देवराज इन्द्र पाँच दैत्योंने उन्हें जीतनेका उद्योग आरम्भ किया। | रूपमें अवतीर्ण हुए। उनकी पत्नी शची ही महामुने! इन दिनों पृथ्वीपर जो अधिक | महाभागा कृष्णाके रूपमें अग्निसे प्रकट हुई। पराक्रमी राजा थे, उहाँकि कुलोंमें देवराजको | अतः कृष्णा एकमात्र इक हैं पत्नी थी और जीतनेकी इच्छा रखनेवासे अत्यन्त बलशाली दैत्य किसी नहीं। योगों मार भी अनेक शर धारण उत्पन्न हुए। कुछ कालके अनन्तर यह पृथ्वौं | कर लेते हैं। फिर इद् तो देवता हैं, उनके पाँच पापके भारों भारसे पीड़ित हो मेपर्चतके शिखरपर. | शरीर धारण कर लेने में क्या सन्देह है। इस जहाँ देवताओंकी दिव्य सभा हैं, गयी। वहाँ प्रकार पाँच पाण्डकी जो एक पत्नी हुई, पहुँचकर कसने दानों और दैत्योंसे होनेवाले | इसका रहस्य बताया गया।
संक्षिप्त मार्कपर्डेय पुराण
राजा हरिश्चन्द्रका चरित्र पक्षी कड़ते हैं- पहने त हैं, ऋतायुगमें गऊमें अग्निको बँध रहा है। जल और प्रचण्ड हरिश्चन्द् नामको प्रसिद्ध एक ग्रनधि रहते थे। वे बड़े तेजमें उद्दी। मुझ राजा उपस्थित रहुते हुए आज धर्माना, भूमनके पालक, सुन्दर की युक्त कौन ऐसा पानी हैं, जो मेरे धनुषले झटकर सम्पुर्ण और सन्न प्रकार श्रेल थे। उनके राज्यकालमें कभी दिशाओंको ३ौप्यमान करनेवाले बाणों में सर्वाङ्गमें अकाल नहीं पड़ा किंगको रोग नहीं हुजा, छिन्न भिन्न हो! कभी न टूटनेवाली निद्रामें प्रवेश ननुको अकालमृत्यु नहीं हुई और पुरामियोंकीं करना चाहता हैं?” कभी अध-में चि ग दुई। उस मय जॐि| राजाको यह बात सुनकर पत्रो विश्वामित्र लोग धन, वा और तपस्या मदसे मन नहीं | कुपित हो । इनके ममें क्रोका उदय होते होते थे। कोई भी न ऐसा नहीं दी जाती थीं, हमें सम्पूर्ण विद्याएँ, जो स्ञियक पर्ने रॉ रही जो | बबनावस्थाको प्राप्त किये बिना ही , क्षणभरमैं अन्तर्धान हो ग। तदनन्नर राजाने सन्तानको जन्म देती रहीं हो। एक दिन महू उन तपमा भण्डार महर्षि विश्वामित्रको ओर राज हरि अन्द्र ज्ञानमें शि: बेलने गये थे। वह दृष्टिगत किया तो वे बड़े भभौरा हुए और मिर ॐ टॉों हुए होंने यथ। कुछ सहसा पीपल्के पत्तेको भनि थरथर काँपने लगे। स्त्रियों कातराणों जुनीं। वे कह रही थीं, “हमें इतने में विश्वामित्र बोल उठे-‘ओं दुरात्मा ! बड़ा चा, वनाओं ।’ राजाने शिकारक पौंछा हो तो रह ।’ तवं जाने विनयपूर्वक भुनिके चरणोंमें दिया और उन रिंयको लक्ष्य के कहा-‘इरो प्रणाम किया और कहा–’भगवन् ! मह मेरा धर्म मत, इरो मत। कन ऐसा दुष्टबुद्धिवाला पुरुष हैं। था। प्रशो! इसे आप मेरा अपराध न मार्ने । मुनें! ज्ञों में शासनकालमें भी ऐसा अन्याय करता हैं | अपने धर्मका ५क्षामें लगे हुए मुझ गापर आपको यों कहकर स्ञियांकें ॐ शब्दका अनुसरण करने | हुए राज़ उसी ओर ल दिये। इसी बीचों क ग्रंक ५में आधा परिंभात झावाला कुमार विश्नराज़ इस प्रकार सोचने लगा-‘में महर्षि विश्वामित्र अड़ पराक्रमी हैं और अनुपम तपस्याका आश्रय लेकर उत्तम व्रतका ‘लन करते हुए उन भवद बिका साधन करते हैं, । पहले इन्हें सिद्ध न हो सक हैं। मई मा मौन तथा आमसंमनैक जिन विद्या करते हैं, में उनके भरमें पीड़ित होकर अ विलाप कर रही हैं। इनके ३६मा कार्य मुन्ने झिम | करना | यह इस प्रकार चिर करते हुए कुमार विघ्नर जनै गजाके में प्रवेश किया। उनके आवेशने युक्त होने पर जाने क्रमपूर्वक ये कहीं- ‘हु कौनकपड़े ज्ञा हरिन्द्रका चरित्र नौं करना चाहिये। धर्मश राजाको तो यह | राय, मावा, सेना और धन आदि सर्वस्त्र मुझे । उचित दी है कि वह धर्मशास्त्र अनुसार दान दें, समर्पित कर दिया तो मुझ तपस्वी के इस राज्यमें रक्षा करें और धनुष उल्लाकर शुद्ध करे।’ रहते किसका प्रभु रहा? चिश्वामित्र बोले-‘राजन्! दं तुम्हें अधर्म हरिश्चन्द्रने कहा-‘ब्रह्मन्! मैंने जिस समय है, तो शीघ्र जाता—किसको दान देना बढ़ पृथ्वी दी हैं, उन समय आप में भी स्वामी चाहिये? किनकी रक्षा करनी चाहिये और किनके हो गये। फिर आप इस पृथ्वींके जा होनेकी साथ युद्ध करना चाहिये तो बात ही क्या है। हरिश्चन्दने कड़ा– श्रेष्ठ आह्मणको तथा जिनको विश्वामित्र बोले –राजन् ! यदि तुमने यह जीविका नष्ट हो गयी हो, ऐसा अन्य मनुष्यों भो | सारी मृवी मुझे दान कर दी चो जहाँ-जहों में दान देना चाहिये । भयभीत प्राणियोंकी रक्षा का | प्रभुच हो, वहाँसे तुम्हें निकल जाना चाहिये। चाहिये और शत्रुओं के साथ सदा युद्ध का चाहिये।*
करवानी आदि समस्त आभुषणका संग्रह ही विश्चामित्र बोले-यदि तुम राजा हो और राज्ञ- छोड़कर तुम हलका अस्त्र सपेट हों और धर्भक लौभाँत जानते हों तो मैं प्रतिग्रहकी इा अनौ पःनों तथा पुनके साथ ले जाओ। रखनेवाला ब्राह्मण हूँमुझे इच्छानुसार दक्षिणा दो। ‘बहुत अच्छा’ कहकर, राजा हरिश्चन्द्र अपनी पक्षीगण कहते हैं-महर्षिकी यह बात सुनकर पत्नों शैब्या तथा पुन रोहिताश्वको साथ ले वहाँम जाने अपना नया जुन्म हुआ माना और प्रसन्नचितसे जाने लगे। इस समय बिश्वामिने उनम्न मार्ग ३ ।।
रोककर कहा–‘मुझे राजसूय-यज्ञको दक्षिणा दिये हरिश्चन्द्र बोले-भक्न्! आपको मैं क्या हैं, बिना ही नुम कहाँ जा रहे हो ।’ आप नि:शङ्क होकर कहिये। यदि कोई दुर्लभ- हरिश्चन्द्र बोले-भगवन् ! यह अकण्टक राज्य में दुर्लभ वस्तु हो तो इसे भी दी हुई ही समझें ।।
विश्वामित्रने कह्म-जीरवर ! तुम समुद्र. अवंत, ग्राम और नगरौंसहित यह सारी पृथ्वी मुझे दे दो।
रथ, चोई, हाथी, कौलार और जानेसहित मारा राज्य भी मुझे समर्पित कर दो। इसके अतिरिक्त भौं जो कुछ तुम्हारे घाम हैं, वह मुझे दे दो। केबन्न अयन , पुच और शरीरको अपने पास रख लो। साथ ही अपने धर्मको भी तुम्हीं रख क्योंकि वह अदा कतक हो साथ रहा हैं। परलोभं जाने पर भी वह साध ज्ञाता हैं।
मुनिका यह वचन सुनकर राजाने प्रसन्नासे ‘तथास्तु’ कहा। हाथ जोड़कर उनको आज्ञा | स्वीकार की। उस समय उनके मुखपर शक या
चिन्ताका लाई विड़ नहीं था।
विश्वामित्र बोले-राधे ! चाँद तुमने अपना ।
** दात विभुयेभ्यो भान्यवृ: ।
या मता; सदा युद्धं कन्यं पन्थाः ॥ ६ ॥
मम मार्कण्ड्रेय पुराण
तो मैंने आपको हैं ही दिया, अब तो मेरे पास ।। तीन शरीर ही शेष बचे हैं। विश्वामित्रने कहा-तों भी तुम्हें मुझे पज्ञक | दक्षिur त देनी ही चाहिये। विशेषतः ब्राह्मणों कुछ देनेको प्रतिज्ञा करके यदि न दिया जाय तो माह प्रतिज्ञा– झा दोध वा व्यक्तिका नाश कर झाला हैं। न्यान् ! राजस्य-वश ब्राह्मणों जिहोने सन्तोष हो, उस यज्ञकी त हौ दक्षिणा देना चाहिये। तुमने ही पहले प्रतिज्ञा की है कि देने की घोषणा कर देनेपर अवश्य देना चाहिये। आततापिसे युद्ध करना चाहिये तथा आर्तजनकी
इभा करनी चाहिये ।। हरिश्चन्द्र बोले- भगवन् ! इस समय में पाम कुछ भी नहीं हैं। समयानुसा३ अश्य को विश्वामित्रने कड़ा-राजन् ! इसके लिये मुझं तो हमें भी अपने साथ ले चलें। महाराज! दो कितने समयत प्रक्षा करना होग, शौम घड़ी तो दहए जाइये। हमारे नेत्ररूप अमर आपले ताना। मुखारविन्दकी रूपसुधाका पन कर लें। फिर इसे हरिश्चन्द्र बोले- ब्रह्मर्षे ! मैं एक महीनेमें कब आपके दर्शनका सौभाग्य प्राप्त होगा। हाय ! आपको दक्षिणा तिचे धन है। इस समय र जिन मराज आ-आगे चलने पर पीसे पास धन नहीं हैं, अत: मुझे जाने आज्ञा तिनै हौ आज्ञा चला करते थे, आज उन्हीके दीजिये !
पॐ उनकी यह रानी अपने बालक पुत्रको गोद | विश्वामित्रनें कहा-नृपश्रेष्ठ ! जाओं, जाओ ! | लेकर चल रही हैं। यात्रा समय जिनके सेन्त्रक अपने धर्मव्य पालन करें । तुम्हारा मार्ग कल्याणगय भी हाथियों पर बैठकर आगे जाते थे, वें झौं
महा/ज्ञ हरिश्चन्द्र आङ्ग पैदल चल रहे हैं! हा पक्षी कहते हैं-विश्वामिने जब ‘जान’ राजन् ! मनोहर भों, निकन त्वचा नाथा ऊँच हम जानेको आज्ञा दी, तब जा रअन्द्र नामिकाले सुशोभित आभका सुकुमार मुख मार्गमें नगरसे चलें। उनके पीछे उनकी या पत्नी धुलिखें धूसरित एवं क्लेशयुक्त होकर न ज्ञाने शैल्या चली, जी पैदल चलने के योग्य कदापि कैसी दशाको प्राप्त होगा। नृपश्रेष्ठ ! हर जाइये, नहीं । गनी और जकुमारसहित राजा हरिश्चन्द्रको हर जाइय; यहाँ अपने धर्मा पालन कोजिये। नगरसे निकलते देख उनके अनुयायी सेवकगण क्रूरताका परित्याग ही सबसे बड़ा धर्म है। तथा पुरवासी मनुष्य त्रिलाप करने लगे–’हा नाथ !| विशेषतः क्षत्रियों के लिये तो यहीं सबसे उत्तम हैं। | हम पीड़ितोंका अ५ को परित्याग झवा रहे हैं नाचे ! अब छ , पुत्र, धन धान्य आदिरों राजन् ! आप में तत्पर हुनेले तथा मुख्यालयपर क्या लेना हैं। यह सब ॐड़कर हमलोग आपके | पा रखनेवाले हैं। राजर्षे ! यदि आप धर्म सम्झें । माथ छायाकी भाँति है । हा नाथ ! हा महाराज !! हा स्वामिन् !!! आप हमें क्रौं रहे हैं? जहाँ | इंडसे प्रहार किया। महारानीको इस प्रकार मार आग हैं, वहाँ हम भी रहे। जहाँ आम हैं, खाते देख महाराज हरिश्चन्द्र दुःखसे आतुर होकर
जहां सुख हैं। जहाँ आप हैं, जहँ नगर हैं और केवल इतना ही कह सकें, ‘भगवन् ! जाता हैं। | जहाँ हमारे महाराज आप हैं, वहीं नारे लिये उनके मुसे और कोई बात नहीं निकल सकी !’
उस समय परम दयालु च विश्वेदेव अापसमें पुरवासियोंकी ये बातें सुनकर राजा हरिश्चन्द्र | इस प्रकार कहने लगे-‘ओह! यह विश्वामित्र तो शोकमग्न हो इनपर दया करने के लिये हो मार्गमें बड़ा पाप हैं। न जाने किन लोकों में जायगा। उस समय हर गये। विभिने देवा, जावा इसने यज्ञकर्ताओंमें इन महाराजको अपने चित्त पुरवासिया नसे व्याकुल हो उ हैं: राज्यसे चे उतार दिया हैं।
विश्वेदेोंकी यह बात सुनकर विश्वामित्रको बड़ा रोष हुआ। इन्होंने उन सबको शाप देते हुए कहा-‘तुम सब लोग मनुष्य हो जाओ।’ फिर उनके अनुनय-विनयसे प्रसन्न होकर उन महामुनिने कहा-‘मनुष्य होनेपर भी तुम्हारे कोई सन्तान नहीं होगा, तुम विवाह भी नहीं होगे। तुम्हारे | मन किसके प्रति ईयां और द्वेष भी माँ होगा। तुम पुनः काम-क्रोधसे मुक्त होकर देवत्वको प्राप्त कर लोगे। तदनन्तर चे विश्वेदेव अपने बैंशलें कुरुशियोंके घरमें अवतीर्ण हुए। जें ही द्रौपदी के भेमें उत्पन्न पाँचों पाण्डवकुमार थे। महामुनि बिश्वामित्रके शापसे ही उनका विवाह नहीं हुआ। अँमिनि ! इस प्रकार हमने पाण्टुनकुमारों थाले सम्बन्ध रखनेवाली बातें तुम्हें बतला हौं ।
अब और क्या सुनना चाहते हो ? ।। तब से उनके पास आ पहुँचे और रोष तथा| जैमिनि ग्रोले-आमलोगोंने क्रमश: मेरे प्रश्न अमर्पसे आँखें फाड़कर लें-‘अरे ! तू तो बड़ा |जरमें ये सारी बातें बताय। अब मुझे हरिश्चन्द्रकी दुराचारों, झूठा और कपटपूर्ण बातें करनेवाला हैं। शेष कथा सुननेके लिये बड़ा कौतूहल हो रहा हैं। भिर है तुझे, जो मुझे राज्य देकर फिर उसे आहो. इन महात्माने बहुत अड़ा कृष्ट उठाया। श्रेष्ठ आपस ले लेना चाहता हैं।’ विश्वामित्रका वह पक्षियो! क्या हैं इस दुःखके अनुरूप हौ कॉई | कठोर वचन सुनकर राजा आँप उड़े और ‘ज्ञाता सु भी कभी प्राप्त हुआ।
हैं, जाता हैं” कहकर अपनी पानका हाथ | पक्षियोंने कहा- विश्वामित्रक सुनकर
पकड़कर खींचते हुए शीघ्रतापूर्वक ले । राजा राजा दु:जी तौ धौरे पर आगे अ। उनके भी | अपनी पत्नीको खींच रहे थे। वह सुकुमारी नन्हें से पुञको गोद निमें रानी शैया चल रहो | अबला चलने परिश्रमसे धमकर व्याकुल हो यो । दिय राणसीपुरो नास पहुँचकर राजाने | रही थी तो भी विश्वामित्रने ससा उस्को पीट५५ | धार किया कि यह काश मनुश्यको भोग्य भूमि
सक्षम मापने पुराण
है, इसपर केवल शूलपाणि भगवान् शङ्कर वेचना ही ठीक हैं। आधार हैं; अत: यह मेरे राज्यसे हर हैं। ऐसा | या हरिश्चन्द्र अत्यन्त न्याकुल एन्नं दीन निश्चय कर दुःख पनि हों उन्होंने अपनी अनुकूल होकर नीचा मुत्र कि जब इस प्रकार चिन्ता का पके साथ पैदल ही काशीमें प्रवेश किया। पुरो रहे थे, उस समय उनकी माने नेत्रौं आँसू
प्रदेश ने ही तन्हें महर्षि विश्वाम्झि सामने वा बहाते हुए गन्नागामें कहा- महाराज! चिन्ता दिलायौं दिये। उन्हें उपस्थित देख्न राजा हरिश्चन्द्र इथे । अपने सत्यकी रक्षा कीजिये। जो मनुष्य जोर विनोन भात्र बड़े हो गये और त्यसै चिपरिंतन होता हैं, वह शनी भति चोने-भुने ! थे मेरे प्राण, यह मुन्न ! यह पत्नी त्याग देने योग्य हैं। नरश्रेछ ! पुरुधके लिये अपने म प्रतुत हैं। इसे जिसकी आपको आवश्यकता सबकी रक्षा बढ़कर दुसरा कोई धर्म नहीं हो, उसे उत्तम अके पर्ने स्वार कीजिये। बतलाया गया हैं। जिसका वचन निरर्थक ( मिथ्या) अथवा हमला। यदि आपकी और कोई सेवा कर। सकते हों तो सके – भौं आज्ञा जिये।” चिश्वामित्र चौले-राज ! आज एक माम् पू हो गया। अदि आपको अपनी बातका म्मरण हैं, तो मुझे राजसूय यज्ञके निचे दक्षप्|| दजिये ।। हरिश्चन्द्रने कहा-तचौधन ! अ आज हो महाना पुरा हो रहा हैं। उसमें उस दिन शेष हैं। इतने भन्नतक और प्रतीक्षा कीजिये। अब अधिक । देरी नहीं होगी।
विश्वामित्र झोले-महार! ऐसा ही हो । मैं फिर आऊंगा। यदि आज मुझे दक्षिणमा ३ दोगे ती हैं तुम्हें शाप दे इंग।
यो कहकर विश्वामित्र ने ग। उस समय ॥ इस चिन्तामें पड़े कि पहले बोकार को हुई। दक्षिा में इन्हें नि प्रकार हैं। क्या मैं अपने प्राण त्याग ६ : इम झिन दशामें किधर हो जाता है, उसके अग्निहोत्र, स्वाध्याय तथा दान जाऊँ? यदि प्रतिज्ञा की हुई दक्षिणा दिई त्रिन ही आदि सम्पूर्ण कर्म निष्फल हो जाते हैं। धर्मशारोंमें मर जाऊँ तो साह्मण* धनझा अपहरण करनेके बुद्धिमान् पुरुनै सत्यकों ही संसारसागर तारनै कारण पानामा समझा जाऊँगा और मुझे अधम्- | लिये सर्वोत्तम साधन बनाया हैं। इस प्रकार से–अम कीटयोनिमें जन्म लेना पड़े। अथवा नि मन अपने चशमैं नहीं हैं, ऐसे पुरुषको यह दक्षिण चुकानेके लिये अपने बेचकर पतनके गर्भ में गिरने लगें असत्यको ही प्रधान यिनको इन बार के हैं। बस, अभनेको कारण बताया गया है।
* ऋति नामके राज्ञा मात
* बिन्तां गहा। वायगा । श्मशानभनौयो नरः सञहिष्कृतः ॥
अदृशं पुरुच्याम्न स्वसभरपाइनन् ।
अश्वमेध औंर एक राजसूय-यज्ञका अनुष्ठान करके हो एक ही बार असत्य बोलने कारण स्वर्गसे गिर गये थे। महाराज ! मुझसे पुत्रका जन्म हो चुका है। इतना कहकर रानी शैन्या फूट फूटकर रोने लगो।। हरिश्चन्द्र बोले-कल्याण ! बहु सन्ताप हो ।’
और जो कुछ कहना चाहती थीं, में साफ साफ कहो।। गनींने कहा-महाराज ! मुझसे पुत्रका जन्म । हो चुका है। श्रेष्ठ पुरुष स्त्री संग्रहका फल पुत्र हाँ बतलाते हैं। वह फल आपको मिल चुका हैं, अत: मुझको बेचकर ब्राह्मणको दक्षिणा चुका दीजिये ।
महारानीका यह वचन सुनार राजा हरिश्चन्द्र मृत हो गये। फिर होशमें आने पर वे अयन्त | | दु:खी होकर विलाप करने लगे-‘कल्याण ! बिगाड़ा था, जो इन्द्र और भगवान् विंगुळे तुला बहू महान् दुःखकों बात हैं, जो तुम मुझसे ऐसः होकर भी ये यहाँ मूछित दशामें पड़े हैं। इतना कह रही हो।’ यों कहकर नरश्रेष्ठ हरिश्चन्द्र कहकर सुन्दरी शैब्या पतिकै दुःखक असह्य बोझसे पर गिर पड़े और मूति हो गये । महाराज पाईत हो स्वयं भी गिरकर मूच्छित हो गयी। हरिश्चन्द्रको पृथ्वीपर पड़ा देख रानी अत्यन्त इसी बीचमें महातपस्या विश्वामित्रजी भी आ दुःखित होकर भी कणके साथ बोलीं-‘हा | धमके। उन्होंने राजा हरिश्चन्द्रको भूञ्चित होकर महाराज! यह किसका चीता हुआ अनिष्ट फल भूमिपर पड़ा देख उनपर जाके छीटें डालें और आपको प्राप्त हुआ? आप तो कुनामक मृगके इस प्रकार कहा–’राजेन्द्र ! हो, उहों। यदि से बने हुए कॉगल एवं चिकने वस्त्रमर तुम्हारी दृष्टि धर्मपर हों तो मुझे पूर्वोक्त दक्षिण में शन करने योग्य हैं, किन्तु आज भूमिपर पड़े | दो। सत्यसे ही सूर्य तप रहा हैं। सुचपर ही पृथ्वी | हैं। जिन्होंने करोसे भी अधिक धन ब्राह्मणको | टिकी हुई है। सत्य-भाषण सबसे बड़ा धर्म है। | दान दिया है, वे ही ये मेरे प्राणनाथ महाराज इस | सत्यपर ही स्वर्ग प्रतिष्ठित हैं। एक हजार अश्वमेध समय धरतीपर सो रहे हैं! हाय ! कितने कष्टक | र एक सत्यको इदि तराजूवर तोला जाय तो बात हैं। ओ ओ दुर्दैव! इन महाराजने तेरा क्या | हजार अश्वमेध सत्य ही भारी सिद्ध होगा।
अग्निहोत्रमौत चा दाना क्रिया; । भते तस्य वैयम् ||
श्माम्॥ सत्यनत्यमुदितं धर्मशास्त्रेषु भनितान् ।
तरणायान्तं तद्वत् पतनायकृतात्मनाम् ॥
(अ ! – * सचेगा: प्रल्पांत सत्यं जिम्नांत मांदनी ।
सत्यं चॉकं परो धर्मः स्वर्गः सत्ये प्रज्ञप्ततः ॥
अश्वगनहर च सत्यं च तुला भुन् ।
अर्कनेहरूलादि सत्यमेव विशिष्यते ॥
संक्षिप्त मार्कण्डेय पुराण
राजन् ! यदि आज तुम मुझे दक्षिणा न दो तो लिये आया हूँ। यदि आपलोगोंमसे क्रिसको मेरी | सूर्यास्त होनेपर तुम्हें निश्चय हो शाप दे दूंगा।’ इतना इस प्राणोंसे भी बढ़कर प्रियतमा पन्नोंसे दासी का कहकर विश्वामित्र चले गये। इधर राजा हरिश्चन्द्र काम लेनेकी आवश्यकता हो तो वह शीघ्र बोलें;
उनके भने व्याकुल हों । सोचने लगे-‘हाय !| इस असह्य दु:खमें भी जबतक मैं जीवन धारण । मैं अधम कह भागकर जाऊँ।’ उनकी दशा क्रूर किये हुए हैं, तभीतक बात कर लें। स्वभाववाले धनीसे पीड़ित निर्धन पुरुषकी-सी हो तदन्तर कोई बुद्धा ब्राह्मण सामने आकर रही थी। उस समय उनकी पत्नीने फिर कहा-‘नाथ! | राजासे बोला-‘दासको मेरे हवाले करो। मैं इसे | मेरी बात मानकर वैसा ही कीजिये, अन्यथा | धन देकर खदता हूँ। मेरे पास धन बहुत हैं और आपको शापान्निसे दग्ध होकर मरना पड़ेगा।’ जब मेरी प्यारी पत्नी अत्यन्त सुकुमारी हैं। वह घरके | पत्नीने बार बार उन्हें प्रेरित किया, तब जा काम-काज नहीं कर सकता। इसलिये बह दासी | बाले- ‘कल्याण! मैं अद्धा निर्दयी हूँ। लों, अब मुझे दे दो। तुम अपनी इस पत्नीको काबंदक्षता, तुम्हें बेचने चलता हूँ। क्रूर-से-कुर मनुष्य भी जो| अवस्था, रूप और स्वभावके अनुरूप यह धन | अर्थ नहीं कर सकते, वहीं आज मैं कहूँगा।’| लो और इसे मेरे हवाले करो ।’ ब्राह्मणके ऐसा पत्नीसे वीं कहकर राजा कुलचित्तसे नगरमें गये कहने पर राजा हरिश्चन्द्रका हृदय दुःखसे विदीर्ण और नेत्रोंसे आँसू बहाते हुए गद्द्दकम्से बोलें। हो गया। में से कोई उत्तर न दे सके। तब उस ब्राह्मणने राजाके वल्कल-बस्त्रमें उस धनको अच्छी तरह बाँध दिया और उनकी पत्नीको रब्बींचकर वह अपने साथ ले चला। माताको इस दशामें देखकर बालक रोहिताश्व रो उठा और हाथसे इसका वस्त्र पकड़कर अपनी ओर ख़चने जाने कहा- नारिंको ! तुम सब लोग
भेरी बात सुनो, क्या तुम मेरा परिचय पूछ रहे हो? लो, सुनो, मैं मनुष्य नहीं, अत्यन्त क्रूर प्राणी हैं; क्या अपनी प्राययारी पत्नीको वहाँ बेचनेकेलगा। उस समय नौने अपने पुत्रसे कहा-‘बंटा! खण्डमें वह धुन बाँध दिया और बालकको आओ, जी भरकर देख लो। तुम्हारी माता अच उसकी माताके साथ लेकर चल दिया। इस प्रकार दात हो गयी। तुम राजपुत्र हो, मेरा स्पर्श न करौ।। पत्नी और पुत्रको ले जायें ज्ञाते देख राजा अब मैं तुम्हारे स्पर्श करने योग्य न रहीं।’ फ्नि सहसा हरिश्चन्द्र अत्यन्त दु:ख कातर हो गयें और अपनी माताको रचकर ले जाये जाते हुए देख्न विलाप करने लगे–’ हाय! पहले जिने बानु, बालक रोहिताश्च “मा, भा” कहकर रोता हुआ दौड़ा। सूर्य, चन्द्रमा तथा बालरों लोग कभी नहीं देख उस समय इसके नेत्रों आँसू अह रहे थे। ज्ञच | पाते थे, वहीं मेरी पत्नी आज्ञ दासी बन गयी। स्नातक पास आया, तब इस ब्राह्मणने क्रोधमें भरकर | जिसके हाथोंक अँगुलि अत्यन्त सुकुमार हैं,
उसे तसे मारा तो भी उसने अपनी माक नहीं वह सूर्यवंशमें उत्पन्न मेरा बालक आज वेन्न दिया छोड़ा। केवल ‘माई, माई’ कहकर चिलखता रहा। गया । स प्रिये ! हा पुन्न !! हा वत्स !!! मुझ नचिके तब रानीने आह्मणसे कहा-स्वामिन् ! आप | अन्यायसे तुम्हें दैवाधीन दशकों प्राप्त होना पड़ा। मुझपर कृपा कीजिये। इसे बालक भी खरीद | फिर भी मेरी मृत्यु नहीं होती–मुझे धिक्कार हैं।’ लीजिये। यद्यपि आपने मुझे खरीद लिया हैं, राजा हरिश्चन्द्र इस प्रकार विलाप कर रहे थे,
तथापि इस बालकके बिना मैं आपके कार्यको इतनेमें हों वह ब्राह्मण उन दोनों को साथ ले ऊँचे तरह नहीं कर सकती। मैं बड़ी अभागिनी ॐचे वृक्ष और गृह आदि ओटामें छिप गया। हूँ। आप मुझपर दया करके प्रसन्न हों और वह वहीं शतासे चल रहा था। तदनन्तर विश्वामित्रने बडेसे गायकी तरह इस बालक से मुझे मिलायें। वहाँ पहुँचकर राजासे धन माँगा। हरिश्चन्द्रने भी ब्राह्मण बोला–राजन् ! यह धन लो और वह अन उन्हें समर्पित कर दिया। पत्नी और इस बालकको भी मेरे हवाले करो। पुत्रको बेचनेसे प्राप्त हुए उस धनको थोड़ा बों कहकर उसने पूर्ववत् राजाके उत्तरीय- बैंकर कौशिक मुनिने शोकाकुल राजासे कुपित होकर कहा-“क्षत्रियाधम ! क्या हैं इसको मेरे यज्ञके अनुरूप दक्षिणा मानता हैं । यदि ऐसी बात हैं तो मेरे महान् बलको देख। अपनी भलीभाँति की हुई तपस्माका, निर्मल ब्राह्मणचका, स्त्र प्रभावका तथा त्रिशुद्ध रवाध्यायका बल तुझे दिखाता हूँ।’
हरिश्चन्द्र कहा–भगवन् ! छ कान और प्रतीक्षा कॉजिये और भी इक्षिणा पूँगा। इस समय नहीं हैं। मेरी पली और मुन्न बिक चुके हैं।
विश्वामिवने कहा–राजन् ! दिनका चौथा भाग शेष हैं। इतने ही मयज्ञक मुझे प्रतीक्षा करनी है। बस, इसके उनमें तुम्हें कुछ कहनेको आवश्यकता नहीं है। | राजा हरिश्चन्द्रसे इस प्रकार निर्दयतापूर्ण निर वचन कहकर और म भनझे लेकर कोपमें भरे हुए विश्वामित्र तुरंत वहाँसे चल दिये। उनके
केसशिम मार्कय पुराण
जानेपर राजा भय और शक समुहमैं इत्र ग | है। तुम शन्न हो अपनों कीमत बताओ। धौ उन्होंने सब प्रकार विचार करके अपना कन्द्रिय अथवा बहूत, जितने धनमें तुम प्रा। हो सकी, । निश्चित किया और ना ह करके आवाम् इमें कही। नगाग्मो-जो मनुष्य मुझे भनसे खरीदकर दासक चट्टाको दृष्टिले क्रूरता टपक रही थी। वह काम लेना चाहता हो, बढ़ सूर्य रहते-रहते घ्र बड़ी निश्रताके साथ बातें करता था। देवनेसे हो बोले। उसी समय शर्म ब्याण्डाका रूप अन्चा इराचा प्रतीत होता था। इस रूपमें से श्राप करके तुरंत वहाँ आयें। इस चाहानके देखकर राजाने पृछ–’नु न हैं ?
शरीरसे दुर्ग निकल रहीं थीं। विकृत आकार, चापड़ालने कहा-मैं चाण्ड़ान हैं। इस श्रेष्ठ झणा बदन, दादी-मू बढ़ी हुई और दाँत निकले। नगरौ मुझे सब लोग झीरके नाम पुकारते हैं। हुए थे। न्र्दियज्ञाझी न बहू भूति हौं था। हाला| मैं वा मनुष्यका थध करनेवाला और मुदका लंबा पेंट, पीलापन लि हा चे नेत्र और वस्त्र लेनेवाला प्रसिद्ध हैं। झलए वाणी–‘हो म हुनिया था। उसने हरिश्चन्द्र बोले- मैं दाहालका दास होना
झंड़-झुंड पक्षियोंको पढ़ रझा था। मुद्दा नहीं चाहता। बहुत हैं निन्दित कम हैं। दों हुई मालासे चह अलङ्कृत । मने शापाग्निमें न मरना अच्छा, किन्तु चाण्डालके एक हाश्वमें बोहों और दूसरेमें लानीं ले रखीं अधीन होना कदापि अच्छा नहीं है। धीं। इसका मुँह बहुत बड़ा था। वह देने में इस प्रकार कर हो रहे थे कि महान् | -क तथा वारंवार बहु अकबाद करनेवाला नया विश्वामित्र मुनि आ गहुँ र क्रोध एवं | धा। कुत्तोंमें घिरे होने कारण भी भयंकरता| अमर्षसे और फावर शासे बोले- यह चाण्डाल और भी बढ़ गायीं ।
तुम्हें बहुत-सा धन देनेके लिये उपस्थित हैं। उसे चाण्डाल चोला- मुझे तुम्हारी आवश्यकता ग्रहण करके मुझे याको पूरो दक्षिणा क्यों नहीं दैते । यदि तुम चालके हाथ अपने बैंकर उससे मिला हुआ न मुझे नहीं दोगे, तो मैं ‘नि:सन्देह तुम्हें शाप दे दूंगा। हरञ्जने कहा-अर्षे ! मैं आपका टास हैं. दु:खी हैं, भवभीत हैं और विशेषतः आपका भक्त हैं। आप मुझपर कृपा करें। चाण्डालका सम्पर्क, बड़ा ही निन्दनीय हैं। मुनिश्रेणु ! आँध धनके बदले में आपका ही सब कार्य करनेवाला, आपने अधीन रहनेवाला तथा आपकी इच्छा अनुसार चलनेवाला दास बनकर रहूँगा।
विश्वामित्र बोले-पाँद तुम मेरे दान हो तो मैंने एक अरब स्वाभुम्दा होकर ता? चालको दिया। अब तुम उसके दाम हो ।
मुकि ऐसा नेपर चाण्डाल मन-ही मन बहुत प्रसन्न हुआ। उसने विश्वामिनको धन स्मरण किया करते थे। अपना सर्वस्व छिन ज्ञानेके कारण राजा बहुत ज्याकुल रहते थे। कुछ कालके बाद राजा हरिश्चन्द्र ||ण्डालके वशमें होने कारण श्मशानघाइपर मुर्दोके कपड़े (कफ्न) | संग्रह करनेके काममें नियुक्त हुए। चाण्डालने उन्हें ज्ञाज्ञा दी थी कि ‘तुम मुझ आनेकों प्रतीक्षामें रात-दिन यहीं रहा।’ यह आदेश पाकर रा| काशीपुरीके दक्षिण| शान-भुमिमें बने हुए शवमन्दिरमें गये। उस श्मशानमें बड़ा भयङ्कर शब्द होता था। वहाँ मैकड़ों सियाग्नेि भरी रहती धीं। चारों ओर मुकी रपयाँ बिखरी पड़ थीं। सार) श्मशान दुर्गन्धस त्याप्त और अत्यन्त धुमसे आच्छादित था। उसमें पिशाच, भूत, जंतल, डाकिनी और पक्ष रट्टा करते थे। गिद्धों और गोदॉमें भी वह राम भरा रहता था। झुंड के राजाको बाँध लिया और उन्हें इंडोंकी मारसे झुंड कुते उसे घेरे रहते थे। यत्र-तत्र हाक देर अचेज़ सा करता हुआ वह अपने घर की ओर ले लगे हुए थे। इस ओरसे बड़ी दुर्गन्ध आती थीं। चला। इस समय राजाको इन्द्रिय अत्यन्त अनेकों मृत व्यक्तिके बन्धु-बान्धऑके करुण न्याकुल हो गयी थीं। तदनन्तर राजा हरिं भुन्द्र क्रन्दनले बह -शान-भूमि बड़ी ही भयानक चाण्डालके घरमें रहने लगे। वें प्रतिदिन सबेरे, और कोलाहलपुर्ण रहत थीं। ‘हा पुत्र! हा मित्र! दोपहर और शामको निम्नाङ्कित बातें गुन्गुनाया करते थे। ‘हाय ! मेरी दींगमुखी पन्नों अपने आगे दीनमुख बालक रोहिताश्वको देखकर अत्यन्त दु:खमैं मग्न हो जाती होगी और उस समय इस आशा कि राजा धन कमाकर हम दोनोंको छुड़ायेगे, बारंबार मेरा स्मरण करतीं होगी। उसे इस ब्रानका पता न होगा कि मैं ब्राह्मणको और भी अधिक धन देकर अत्यन्त पापमय संसर्गमें जीवन व्यतीत कर रहा हूँ। राज्यका नाश, सुहदका त्याग, पत्नी और पुत्रको विक्रय
तथा अन्तमें चाण्डालत्चको हि- अहो ! यह एकके बाद एक दुःजको कैसी परम्परा चली।
आती हैं।’ इस प्रकार ने ज्ञापन में रहते हुए ।
प्रतिदिन अपने प्रिय पुत्र तथा अनुकूल पत्नीका हा ब-भु! हा भ्राता ! हा वत्स! हा प्रियतम! हा बालकको, जिसे सौंपने काट खाया था तथा पनदेय! हाव बनि! है। माता! हा मामा! हा! जिसके अङ्गोंमें राजौचित चिङ्ग दिखायी देते थे, प्तिाह ! हा माज्ञामह! हा पिताजी ! हा पत्र ! ।। जय देखा तो उन्हें बड़ी चिन्ता हुई। वे सोचने बान्धव! तुम कहाँ चले गये ? लौट आओ।’ इस लगे-‘अहो ! बड़े कष्टकी बात है, यह बालक प्रसार विलाप करनेवालोंकी करुणापूर्ण ध्वनि किसी राजाकै कुलमैं उत्पन्न हुआ था; किन्तु वह जोर-ओरसे सुनायीं पड़ती थी। ऐसो भूमिमें दुरात्मा हाने इसे किसी और ही दशाको पहुँचा निवास करने के कारण राज्ञा न रातमें सो पाते थे, दिया। अपनी माताकी गोदमें पड़े हुए इस न दिनमें। प्रारंबार हाहाकार करते रहते थे। इस बालकको देखकर मुझे कमलके समान नेत्राला प्रकार उनके चार महीने में वर्षोंक समान बीते।’ अपना पुत्र रोहिताश्वी याद आ रहा है। यदि उसे अन्तभै राजानै दुःखी होकर देवताओंकी शरण ली। भयंकर कालने अपना ग्रास न अनाया होगा तो
और कहा-‘मज्ञान, धर्मको नमस्कार हैं। जो वह मेरो लाड़ल। भ इसी जमा हुआ होगा।’ सच्चिदानन्दस्वरूप, सम्पूर्ण जनुकीं सृष्टिं करनेवाले | इतने ही गनीने विलाप करते हुए कहा विधाता, पराग्र ब्रह्म, शुद्ध, पुराणपुरुष एवं हा वत्स! किम पापकै कारण यह अत्यन्त अविनाशी हैं, उन भगवान् विष्णुको नमस्कार हैं।’ भयंकर दुःख आ पड़ा है, जिसका कभी अन्त ही देवगुरु बृहस्पति ! तुम्हें नमस्कार हैं। इनको भी नहीं आता। हा प्राणनाथ ! आप कहाँ हैं ? ओं नमस्कार है।’ यो रहर ग पुनः नाट्टाल विधाता ! तुने राज्यका नाश किया, सुदॉमें | कामें लग 11वें ।।
वियों कराया और स्त्री तथा मुत्रको भी जिक्रवा होइनन्तर महाराज हरिश्चन्द्रकी पत्नी औंब्या दिमा। अरे ! तुने रार्जार्ष हरिश्चन्द्रको कौन-सी मपके काटनेसे भरे हुए अपने आलकको दिमें। दुर्दशा नहीं की। इठावें मिलाप करती हुई श्मशान भूमिमें आबी ।। रानीका अहे वचन सुनकर अपने पथसे भ्रष्ट । वह बार बार यही कहतीं थी, ‘हा अत्म! हा पुत्र!’ हुए राजा हरिश्चन्द्रने अपनी प्राणप्यारी पत्नी तथा हा शिशो!’ इसका शरीर अत्यन्त दुर्बल हो गया | मृत्यु मुखमें पड़े हुए पुत्रको पहचान लिया।
कान्त मलिन ई गवौं थी। मन बेचैन छा। ‘ओह! कितने कष्टको प्राप्त हैं, यह शैब्या इस सिरके बालोंमें धुल जम गयी थी। शैब्याके| अवस्था और यह वही मेरा पुत्र हैं ?’ यों कहें वलापका शब्द सुनकर राजा हरिश्चन्द्र तुरंत उसके हुए वे दु:खको सन्तप्त होकर रोते-रोते मुति हो गयें। इन्हें आशा थी, वहाँ भी मुर्दे गये। इस अवस्थामें पहुँचे हुए राजाको पहचानकर शरीरका कफन मिलेगा। वे जोर-जोर से होती हुईं। रानीको भी बड़ा दुःख हुआ। वह भी मूच्चित अपनी पत्नी पहचान न सके। अधिक कालतक’ होकर भरतीपर गिर पड़ी। उसका शरीर निश्चेष्ट हो प्रवासमें रहनेके कारण वह बहुत सन्तप्त थी। ऐसी गया। फिर थोड़ी देर बाद होशमें आनेपर महाराज ज्ञान पड़ती थी, मानौं उसका दूसरा जन्म हुआ और महारानी दोनों साथ-ही-साथ शोकके भारसे
शैवाने भी पहले माझे मस्तकको मनोहर पत्र एवं सन्तप्त हों विलाप करने लगे। केशोंसे सुशोभन देखा था। अने उनके सिर पर राजाने कहा- हा वत्स ! सुन्दर नेत्र, भौंह, ज्ञट थीं। वे सूखे हुए वृक्षक अपान जान पड़ते नाभा और बालों से मुक्त तुम्हारी बढ़ सूकुमार ४। इस अवथामें वह भी अपने पतिको न एवं दीन मुख देखकर मेरा हृदय क्यों नहीं विदीर्ण पहचान सकीं । राजाने काले कपड़े में लिपटे हुए | हो जाता। हा बेटा ! तुम मेरे अङ्ग-प्रत्यङ्गसे उत्पन्न
* बाजा इन्द्रिया चरित्र +
तथा मन और हृदयको आनन्द देनेवाले थे, किंतु मुझ-जैसे दुध पिताने तुम्हें एक साधारण वस्तुकी भाँत्ति बेच डाला। हाय । दुर्दैवरूप शूर सपंने सब प्रकारके साधन और वैभवसे पूर्ण में महान् राज्यका अपहरण करके अब में पुत्रको भी हाट
ख़ाया। दैत्ररूपी सांसे इसे हुए अपने पुत्रके मुख्न कमलको देखते हुए भी मैं इस समय उसके भयंकर विपके प्रभावसे अंधा हो रहा हूँ।
आँसू बहाते हुए गद्दकळसे बों कहकर राजाने बालकको उठाकर छातीसे लगा लिया और मूसे निचेष्ट होकर पृथ्वी पर गिर पड़े।
उस समय रानी इस प्रकार बोली- ये तो नहीं नरश्रेष्ठ जान पड़ते हैं। केवल स्वरसे इनकी पहचान हो रहा है। इसमें तनक भी सन्देह नहीं कि वे विद्वज्जनके हृदयरूपी चकोरको आह्लादित करनेवाले चन्द्ररूप महाराज सेवक बनकर अपनी चादरोंसे धरती बुहारा करते हरिश्चन्द्र ही हैं; किन्तु वे महाराज इस समय थे, वे ही महाराज अब दु:खसे पीड़ित हो इस श्मशानमें कैसे आ पहुँचे?
अपत्रिंत्र श्मशानभूमिमें विचरते हैं, जहाँ खोपड़ियोंसे अब शैब्य पुत्र-शोकको भूलकर गिरे हुए सटे कितने ही मिट्टी घड़े चारों ओर बिखरे पड़े हैं। पतिको देखने लगीं। पति और पुत्र दोनोंकी जहाँ मृतकोंकी लाश च गन-गलकर पृवीके चिन्तासे पीड़ित, विस्मित एवं दोन हुई रान जब सूखें दोनोंमें पड़ रही हैं। चिताकी राख्न, अँगारे, पतिकी दशाका निरीक्षण कर रही थी, उस समय अधज्ञली हड्यों और मचाके द्वेरसे यहाँ उसकी दृष्टिं अपने स्वामींके उस पर पड़ी, भयंकरता बहुत बढ़ गयी हैं। वहाँसें मुन्नों और झो बहुत ही घृति एवं चाण्डालके धारण करने गोदड़ोंने भयंकर नाद सुनकर छोटे-छोटे पक्षी योग्य था। वह देखते ही वह बेहोश होकर गिर भाग गये हैं। चिताके धुएँसे यहाँकी सारी दिशाएँ पड़ीं। फिर धीरे-धीरे जब चेत हुआ तो गद्गद्- काली दिखायी देती हैं।
वाणामें कहने लगी-‘ओं दैव! तूने देवताके यों कहकर महारानी शैब्या महाराज हरिश्चन्द्रके समान कान्तिमान् इन महाराजको चट्टानको कलमें लग गयी तथा कष्ट एवं सैंकड़ों प्रकारके दशाको पहुँचा दिया। तूने इनके राज्यका नाश, शौकसे आक्रान्त हो आवाणमें विलाप करने सुहृदोंका त्य} और स्त्री-पुत्रका विक्रय कराकर | लगो-‘जन् ! यह स्वप्न हैं या सत्य ? महाभाग ! इन्हें नहीं छोड़ा। आखिर इन्हें राजाने चाण्डाल आप इसे जैसा समझते हों, बतलायें। मेरा मन बना दिया ! हा जन् । आज मैं आपके पास छ, । अचेत होता जा रहा है।’
झारों, चैंबर और व्यजन-कुछ भी नहीं देतं ।। रानीकी यह बात सुनकर महाराज हरिश्चन्द्रने | यह विधाताका कैसा विपरीत मात्र है ! पूर्वकाल | गरम कस ली और दिवाण|अपनेको चालत्व जिनके आगे आगे चलनेपर कितने ही राजा | प्राप्त होने की सारी कथा कह सुनायीं। उसे [539 ] स मा पु -३
* संक्षिप्त पार्कण्डेय पुराण
मुनकर रानाको बड़। दुःख हुआ और उसने विश्वामित्रजी ‘ है।’ गम साँस खींचकर बहुत देरतक रोके पश्चात् तत्पश्चात् धर्मने कहा–राजन् ! प्राण भागनेक अपने नुको मृत्यु भाई ना निदिन कीं। इसे न करो। मैं सन् ‘अर्स तुम्हारे पास आया पुत्रके मरनेकी बात सुनकर राजा पुन: पृथीपर हैं। तुमने अपने क्षमा, इन्द्रियसंयम तथा सत्य गिर पड़े और विलाप करते हुए बोले- प्रिये !’ आदि गुणोंसे मुझे संतुष्ट किया हैं। || अधिक दिनोंतक जीवित रद्द ने इत्र बोले–महाभाग हरिश्चन्द्र ! मैं इन्हें भोगना नहीं चाहता; परन्तु मेरा अभाव तो देखो, तुम्हारे पास आया हूँ। तुमने स्त्री-पुत्रके साथ मेरा आत्मा भी मैं अन नहीं हैं। जुम रे। सनान कॉपर अधिकार प्राप्त किया हैं। राजन्! अपराधको क्षमा करना। मैं आज्ञा देता हूँ तुम मन्त्री और पुत्रको साथ लेकर स्वर्गलोको चलो,
ब्राह्मण पर बन जाओ। शुभै ! ‘मैं राज्ञपत्नी हैं जिसे तुमने अपने शुभकर्म प्राप्त किया है तथा इस थैमान आकार की उस ब्राह्मणा वा दुभरे पके लिये अत्यन्त दुध हैं।
अपमान न करना। सब प्रकारको अन्न करके इसके बाद इन सिताके ऊपर आकाश
से दुष्ट न कि म देताके सनान ! अमृतको वृष्टि को, जो अकालमृचुका निवारण
झरनेाली हैं। फिर फूलों की भी चर्चा होने रानी चौलाराजर्षे! मुझसे भी अब यह दुःखका’ लगीं। देवताओंकी दुन्दुभि जोर जोर बन्न भार नहीं रहा होता, अत: आपके साथ ही में भी ठी। इस अनार ही इकांत हुए देवताओं के चितकी जनता हुई आगमैं !नेश करूँगी। समामें महात्मा राजाका पुत्र रोहिताश्च विज्ञासे यह सुनकर राजाने कहा-‘पतित्र ! जैसी …”
— तुम्हारी छ। हो, वैसा ही करो।’ तदनन्तर ज्ञाने। चिनी बनाकर उसके ऊपर अपने पुन्नको रखा’ और अपनी पत्नी के मा; हाथ जोड़कर सच ईश्वर परापारमा नारायण हा स्मरण शि , जो हृदयरूगी गुफा बंदमान हैं तथा जिनका वासुदेव, भुरेश्वर, आदि-अन्तरङ्गित, ब्रह्म, कृष्ण, पीताम्बर एवं शुभ आदि नामोंमें चिन्तन किया। जाता हैं। उनके इस प्रकार झगमग करनेपर। लादि समु. देवा धर्मको अगुआ बनाकर तुरंज़ वहाँ आये आँर इस प्रकार बोले-‘जन्! हमारी बात सुनो, तुम्हारे भी करने पर धम्पूर्ण । देवता यहाँ उपस्थित हुए हैं। ये साक्षान् पितामह ब्रह्मा हैं और मैं स्वयं भगवान् में हैं। इसके सिन, साध्याग, चव, मण औ शोकपाल अपने वाहनों-हित पधारे हैं। नाग, गिद्ध, जौदित हो उठा। राका शरीर कुमार और गचं, ६, भकुमार तथा और भी बहुत- यम्य था। उनकी इन्द्रियों और मनमें प्रसन्नता * देवः। ॐ पस्थत हुए हैं। साथ यात्रा, थी। फिर तो महाराज हरिशन्ने अपने पुत्रको और परमात्मा नारायण श्रीहरिका स्मरण भिण तुरंत छातौंसे लगा लिया। स्त्रीसहून पूर्ववत् | ग्राम हो स्वर्ग बन सकें तच तो मैं भी चलूंगा; तेज और कान्तिले सम्पन्न हो गये। उनकी देइपर | अन्यथा उन्होंके साथ नरकमें भी जाना मुझे दिव्य हार और वस्त्र शोभा पाने लगे। राज्ञा स्त्ररथ स्वीकार हैं।
एवं पूर्णमनोरों हो परम आनन्द निमग्न हो । गये। उस समय इन्द्रने पुनः उनसे कहा- ‘महाभाग ! स्त्री और पुत्रसहित तुम्हें उनम गति प्राप्त होगीं, अतः अपने कर्मोकिं फल भोगनेकै लिये दिब्य लोकको चलो।’
रिन्द्रने कहा-देवराज ! मैं अपने स्वामी | चापडाली आज्ञा लिये बिना तथा उसके पासे उद्धार पाये बिना इवलोकको नहीं चल सर्केगा।*
धर्म बोले-राजन् ! तुम्हारे इस भावी संकट ज्ञानकर मैंने ही मायासे अपने को चाण्डालके रूपमें प्रकट किया तथा चट्टानत्वका प्रदर्शन किया था।
इन्द्रने कहा-हरिश्चन्द्र ! पृथ्वी* समस्त मनुष्य जिस परमधामके लिये प्रार्थना करते हैं, केवल पुमान् मनुष्यों को प्राप्त होनेवाले उस धामको चलो।
इन्द्रने कहा–राजन्! उन सब लोगकै पृथक् हरिश्चन्द्र बोले-देवराज आपको नमस्कार पृधः नान्या अकारके बहुत-से पुण्य और पास हैं। हैं। मेरा यह वचन सुनिये; आप मुझपर प्रसन्न हैं, फ्रि तुम स्वर्गको सबका भोग्य नैनाकर जहाँ कैसे अतएव मैं विनीत भावसं आपके सम्मुख कुछ चल भोगे ? निवेदन करता हूँ। अयोध्याके सब मनुष्य भैर| हरिश्चन्द्र बोले-इ! राजा अपने कुटुब्बियोंक | विरह-शोकमें मग्न हैं। आज उन्हें छोड़कर मैं | हौं प्रभाषसे राज्य भोगता हैं। प्रज्ञाब भी राजाका दिव्यलोकको कैसे जाऊँगा? माहाकी हत्या, कुटुम्ब ही है। उन्हीं सहयोगसे राज्ञा बड़े बड़े गुरुको हत्या, गौक मभ और स्त्रीका वध-इन करता, पोरे दाता और बगोने आदि सबके समान ही को त्याग करने में भी महान् लगाता है। यह सन्न कुछ मैंने अयोध्यावास्यक पाप बताया गया है। जो दोषज्ञ एवं त्यागनेकै प्रभावमें किया है, अत: ‘स्त्रकि लोभमें पड़कर मैं अयोग्य भक्त पुरुषको त्याग देता है, उसे इहलोक अपने उपकारियोंका झाग नहीं कर सकता।
या परलोकमें के भी सुख प्राप्ति नहीं देवेश ! यदि मैंने कुछ भी पुग्न झिरा हो, दान, दिखायी देती: इसलिये इन्द्र! आप स्वर्गको लौट यज्ञ असा जपका अनुष्ठान मुझमें हुआ हो, न जाइये। सुरेश्वर! यदि अयोध्यावासी पुरुष मेरे सनका फल इन सबके साथ ही मुझे मिले। उसमें *देवराज्ञाननुज्ञातः स्वॉन अपनैन अब निकृतं नस्य नारोऽहं रालयम् ॥
संक्षिप्त मार्कण्डेय पुराण*
उनका समान अधिकार हो।* दूसरे विमानपर जा पहुँचते थे। विमानोंके सहित ऐसा ही होगा’ यों कहकर त्रिभुवनपात इन्, यह अनुम ऐश्वर्य पाकर महाराज रश्चन्द्र धर्म और गाधिनन्दन विश्वामित्र मन हौ-मूने बहुत अहुत प्रसन्न हुए। स्वर्ग नगरके आकारवाले प्रसन्न हुए। लोगोंपर अनुग्रह रखनेवाले देवेन्द्र सुन्दर विमानों में, जो कीटोंसे सुशोभित था, स्वर्गलोकर्म भूतलतक करोड़ विमानका शाँता महाराज हरिश्चन्द्र विराजमान हुए। उनकी यह चाँध दिया। फिर चारों वर्षों और आभसे युक्त समृद्ध देकर सब शास्त्रों का तत्त्व ज्ञाननेवाले अयोध्या नगर में प्रवेश करके राजा हरिश्चन्द्रके| याचा महाभाग शक्लने इन प्रकार का ममप # देवराज इन्द्र कहा–‘प्रजाजनो! तुम सब यशोगान किया-‘अहो ! क्षमाका कैसा माहात्म्य लोग शोघ्र आगो। धर्मक प्रसादसे तुम सब लोगों को हैं। दानका कितना महान् फल हैं, जिससे अत्यन्त दुर्लभ स्वर्गलोंक प्राप्त हुआ हैं।’ हरिश्चन्द्र अमरावतीपुरोमें आये और इन्द्रपदकों इन्द्रको यह बात सुनकर महाराज हारेश्चन्द्रकी प्राप्त हुए। प्रसन्नताके लिये महातपस्यौ विश्वामित्रने राजकुमार पक्षीगण कहते हैं-निजी! राजा हरिश्चन्द्रको रोहिताश्वको परम रमणीय अयोध्यापुरीमें ला| यह सारा चरिंज मैंने आपसे वर्णन किया। दुःखमें वहाँ राज्य-सिंहासनपर अभिषिक्त कर दिया। गड़ा हुआ जो मनुब इसका अक्षण करता है, वह देवता, मुनियों और सिद्ध के साथ रोहिताश्वका महान् सुख पाता है। इसके अत्रणसे पुत्रार्थीको राज्याभिषेक करके राजासहित सभी बन्धु [ पुत्र मुखार्थीको सुख, स्त्रीकी इच्छा रखनेवालेको भान्धव बहुत अन्न हुए। उसके बाद वहाँक सञ्ज स्त्री और राज्यको कामनाबालेको राज्यकी प्राशि
लोग अपने पुत्र. भृत्य और स्त्रियों सहित होतो हैं। उसको सप्राममें विजय होती हैं और | स्वर्गलोककों चने । चे पग-पगपर एक विमानसे वह कभी नरक में नहीं पड़ता।
हरिश्चन्द्र इन् वैवान गन्धं चैतां मैं । दरवं अन् ।
अनमि अन्विनः ।।
मन्किगमनसः सन्तान जनाः ।
तिलनि ज्ञानाद्य कई याम्याच जिम्॥
ह.हत्या गुर्घातों गध: स्लोवधवा ।
तुल्यमभर्पाई क्तित्या‘गुडानम् ॥
अज्ञन् भन्मगदुई शत; सुम् ।
नैट वानुत्र पृश्यां ताक़ दियं ब्रज यदि में पता: वा मगा यानि मुंअर ।
नत बाप्या नाळे यघि है: ह ॥
इन्द्र उवाच बहून पुण्यापानि तेषां भिन्नानि वें $ ।
आई सातौग्यं त्वं भूय: रवगंमवारयसि ।।
शङ्ग भुइके नृगों गं प्रवेग अनाम् : ‘ न महायज्ञैः ६ गतं न च ॥
तन कां :धान मन्या नरान् उनून्, सन्त्य ||
हंम्वाँया तमा चनगम देश किञ्चिदांच्या दुनिन् ।
गम्थ नं सामान्यं दस्तु, न: ॥ ॐ ॥
पिता-पुत्र-संवादका आरम्भ, जीपफी मृत्यु तथा नरक-गतका वर्णनपिता-पुत्र-संवादका आरम्भ, जाँचकी मृत्यु तथा नरक-गतिका चपन मनिने पूछा- श्रेष्ठ पक्षियो ! प्राणियों की उत्पत्ति और तय कहाँ होते हैं। इस विषयमें मुझे सन्देह हैं। मेरे प्रश्न अनुसार आपलोग इसका समाधान करें। जीव कैसे जन्म लेता हैं? कैसे मरता है? और किस प्रकार गर्भमें पीड़ा सहकर माता उद्धरमें निवास करता हैं? फिरगारों बाहर निकलनेपर चढ़ किस प्रकार बुद्धको प्राप्त होता है? और मृत्युकालमें किस तरह
चैतन्यस्वरूपके द्वारा शरसे विलग होता हैं । सभी प्राणी मृत्युके पश्चात् पुण्य और पाप दोनोंक। फल भोगते हैं; किन्तु वे पुण्य और पाप किस प्रकार अपना फल देते हैं ? ये सारी आते मुझे बताइये, जिससे मेरा सब सन्देह दूर जाय।
पक्षी बोले–महर्षे ! आपने हमलोगोंपर अहुत बड़े प्रश्नको भार र दिया। इसकी | इस प्रकार अनेकों बार कहनेपर भी सुमति काहीं तुना नहीं है। महाभाग ! इस विषयमें | जड़ होनेके कारण कुछ भी नहीं बनता था।
एक प्राचीन वृत्तान्त सुनिये। पूर्वकालमें एक पिता भी नेहवश बारंबार अनेक प्रकारसे ये बातें परम बुद्धिमान् भृगुवंशी ब्राह्मण थे। उनके उसके सामने रखते थे। उन्होंने पुत्रप्नेमके कारण सुमति नामका एक पुत्र था। वह बड़ा ही शान्त मीठी वाणीमें अनेक बार में लोभ दिखाया। इस और जड़ रूपमें रहनेवाला था। उपनयन संस्कार प्रकार उनके बार-बार कहनेपर एक दिन सुमतिने ही ज्ञानेके बाद उस बालकसे उसके पिताने हँसझर कहा-‘पिताजी ! आज आप जो पर्देश कहा-सुमते ! तुम सभी वेदोंको क्रमशः दे रहे हैं, उसका मैंने बहुत बार अभ्यास किया आद्योपान्त पढ़ो, गुरुकी सेवामें लगे रहो और हैं। इसी प्रकार दुसरे-दुसरे शास्त्रों और भाँति भिक्षाकें अन्नका भोजन किया करें। इस प्रकार भौतिकी शिल्पकलाओंका भी सेवन किया है। ब्रह्मचर्यकी अवधि पूरी करके गुहस्थाश्रममें इस समय मुझे अपने दस हजार से भी अधिक प्रवेश करेंगे और वहाँ उत्तम-उत्तम यज्ञोंका जन्म स्मरण हो आये हैं। बुंद, मन्तोष, क्षय, अनुष्ठान करके अपने मनके अनुरूप सन्तान वृद्धि और उदयका भी मैंने बहुत अनुभव किया उत्पन्न करो। तदनन्तर इनकी शरण लो औंर | हैं। शत्रु, मिंत्र और पत्नीके संयोग वियोग भी मुझे वानप्रस्थ नियमको पालन करनेके पश्चात् देखने को मिले हैं। अनेक प्रकारके माता-पिताकै यरिंग्रहरहित, सर्वप्नत्यागौं संन्यासी हो जाओ। भी दर्शन हुए हैं। मैंने हजारों बार सुत्र और ऐसा करने से तुम्हें इस ब्रह्मकी प्राप्ति होगी, जहाँ | दुःख भोगे हैं। कितनी ही स्त्रियोंके विष्ठा और जाकर तुम शोसे मुक्त हो जाओगे।’ | मूत्रसे भरे हुए गर्भ में निवास किया हैं। सहस्रों
+ सक्षिप्त मार्कस आग+ :
अारके रोगों भयानक पीड़ाएँ सहन की हैं। प्राप्त हो गया? पहले तुममें अङ्कता क्यों थी और । गर्भावस्थामें मैंने जो अनेकों प्रकारके तुःख्न भोगे इस समय ज्ञान हाँसे जग जुळा? क्या यह |हैं, अचपन, जवानी औंर मुद्धापेमें भी ज्ञों कलेश मुनियों अथवा देवताओं के दिये हुए शाका सहन किये हैं, वें सत्र के पाद आ रहे हैं। निंकार था, जिससे पहले तुम्हारा ज्ञान पि गया ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शुक्रकी पोनिमें,’ था और इस समय पुनः प्रकट हो गया? मैं यह | फिर पशु, मृग, कीट और पक्षियोंकी योनियों में तथा सारा रहस्य सुनना चाहता हैं। इसके लिये मेरे | राजसेवकों एवं युद्धमें पराक्रम दिखानेवाले गुजाओं मनमें बड़ा कौतुहल है। बेटा! तुमपर घले जो में भी में कई बार जन्म हो चुके हैं। इसी कुछ औत चुका है, वह सध मुझे बताओ।’ तरह अबकी बार आपके अरमें भी मैंने जन्म पुत्रने कहा-पिताजी ! मेरा जो यह सुख | लिया हैं। मैं अहुत बार मनुष्योंका भृत्य, दास, और दुःख देनेला घूर्व वृत्तान्त हैं, उसे मुनियें । | स्वाम, ईश्वर और दरिंद्र रह चुकी हैं। दूसरॉन। इस जन्मके पहले पूर्वजन्मनै मैं जो कुछ था, वह मुझे और मैंने दूसरौको अनेक बार दान दिये हैं।’ सत्र बताता हैं। पूर्वकालमें मैं परमात्माकं ध्यान पिता, माता, मुडद्, भाई और स्त्री इत्यादि मन लगानेवाला एक ब्राह्मण था। आत्म कारण कई बार संतुष्ट हुआ हैं और कई बार न विचार मैं पराकाष्टाको पहुँचा हुआ । मैं सदा हो-होकर रोते हुए मुझे आँसुओंसे मुँह धोना पड़ा योगसाधनमै संलग्न रहता था। निरन्तर अभ्यारामें है। पिताजी ! यों हीं इस संसार-चक्लमें भटकते लगने, मन्सुरूषोंका सङ्ग करने, अपने इ ससे | हुए मैंने अब वह ज्ञान प्राप्त किया है, जो मोक्षका ही विचारपरायण होने, तत्वमसि आदि महानायक प्राप्ति करानेवाला है। उस ज्ञानको प्राप्त कर लेनेचर विचारने और तत्पदार्थक शोधन करने आदिके अन्य यह ऋ. अनु और सामवंत समस्त’ कारण उस परमात्मात्नमें ही मेरी परम प्रीति हो क्रिया कलाप गुगन्य दिखायी देनेके कारण मुझे गयौ । फिर मैं शियाँक सन्देहका निवारण करनेवाला अच्छा नहीं लगता। अतः जब ज्ञान प्राप्त हो गया आचार्य बन गया। फिर बहुत समयके पश्चात् मैं तय से मुझे क्या प्रयोजन हैं। अब तों में गुरु- एकान्तसेव हो गया; किन्तु दैवात् अज्ञानसे विज्ञान परिस, निरिह ए सटात्मा हैं। अतः सद्भावक नाश हो जानेॐ कार प्रमोद पङ्कर छः प्रकार भाविकार (जन्म, सत्ता, वृद्धि, ! भेरी मृत् हो गयी। तथापि मृत्युलालसे लेकर
परिणाम, क्षेत्र और नाश), दुःख, सुख, हर्ष, राग अबतक मैं स्मरणशक्तिका नौप नहीं हुआ। मेरे तथा सम्पूर्ण गुणों से अर्जित 38 रमपदप जन्मके जितने वर्ग बन गये हैं, इन सबक ब्रह्मको प्राप्त होगा। पितों ! ज्ञा , हुर्प, ‘ मुनि हो आयीं हैं। पिताजी ! उस पूर्वजन्मक भय, उद्वेग, क्रोध, अमर्ष और वृद्धावाने व्याप्त अभ्याससे ही जितेन्द्रिय होकन अब फिर मैं वैसा हैं तथा कुने, मृग आदि योनि बाँभनैनाले ह ग कगा, जिसमें भविश्यमें फिर मेरा जन्म सैकड़ों बन्धनोंसे युक्त हैं, उस दु:खक परम्पराका न हों। मैंने जो दूसरोंको ज्ञान दिया था, उसीका परित्याग करके अब मैं चला जाऊंगा।’ यह फल है कि मुझे पूर्वजन्मक भाका स्मरण पुत्रकी यह बात सुनकर महाभाग पिनाका हो रहा है। केवल अयोधर्म (कर्मकाण्ड) का इदय प्रसन्नतासे भर गया। उन्होंने दृई और हारा लेनेवाले मनुष्यको इसकी प्राप्ति नहीं विस्मयमें गहूइसाशोभे अपने मुत्रसे — | हो, अतः मैं इस प्रश्नम अन्नमसे ही संन्या ‘भेटा ! तुम यह क्या कहते हों ? तुम्हें कहाँसे ज्ञान, भ्रमक झव ले एकान्तोत्री हो आत्माके ।
पिता-पुत्र-संवादका आरम्भ, जबकी मृत्यु तथा नरक-गतिक्रा नर्शन उद्धारके लिये अन्न करूंगा। अत: महाभार! पालन करनेवाला तथा प्य होता हैं, इसकी आपके हृदयमें जो संशय है, उसे कहिये मृत्यु भी सुखसे होती हैं। जिन्होंने कभी जलका उसका समाधान करूंगा। इतनी-सी मैवाने भी दान नहीं किया हैं, उन मनुष्यको मृत्युकाल आपकी प्रसन्नताका सम्पादन करके मैं पिताके उपस्थित होनेपर अधिक जलन होती है तथा ऋणसे मुक्त हो सकेंगा।।
अन्नदान न करनेवालोंको उस समय भूखका भारी पक्षी कहते हैं-तब पुत्रकी बातपर श्रद्धा कष्ट भोगना पड़ता है। जो लोग जाड़ेके दिनों में करते हुए पिंताने उससे कहीं बात पूछी, जी लकड़ी दान करते हैं, वे शीतके कष्टको जोत लेते आपने अभी संसारमें जन्म ग्रहण करने सम्बन्ध हैं। जो चन्दन दान करते हैं, वे तापपर विजय हमलोगोंसे पूछी है। पाते हैं तथा जो किसी भी जीवका उद्वेग नई पुत्रने कहा-पिताज्ञा ! जिस प्रकार मैंने तत्वका पहुँचाते, वे मृत्युकालमें प्राणाधातिनी वेदनाहा बारंबार अनुभव किया है, उसे बतलाता हूँ| अनुभव नहीं करते। मोह और अज्ञान फैलानेवाले सुनिये। बहू क्षणभङ्गर संसार-चक्र प्रवाहमसे लोग महान् भयको प्राप्त होते हैं। नांच मनुष्य तीन अजर हैं, निरन्तर चलते रहवाला हैं, कभी स्थिर वेदनाओंसे पीड़ित होते रहते हैं। को झूद गवाही नीं रहता। तात! आपकी आज्ञासे मैं मृत्युकालतें देने, झुठ बोलते, बुरी ब्राज़ोंका उपदेश देते और लेकर अबतकको सब बातोंका वर्णन करता हूँ। वेदोंक निन्दा रते हैं, वे सब लोग मुग्नत शरीर में ज म या पित्त हैं, वह तीन्न वायुसे होकर मृत्युको प्राप्त होते हैं। प्रेरित होकर जब अत्यन्त कुपित हो जाता है, उस ऐसे लोगों की मृत्युकै समय यमराजके दुष्ट समय बिना इंधन ही उद्दीप्त हुई अग्निकी भाँतं | दूत हाथामें हुड़ी एवं मुद्गर लिये आते हैं, ॐ बड़कर मर्मस्थानोंको विदीर्ण कर देता हैं, तत्पश्चात् बड़े भयङ्कर होते हैं और उनकी देह दुर्गन्ध उदान नामक बासु झपकी ओर उठता है और निकलती रहती हैं। उन यमदूतों पर दृष्टि पड़ते हो खाये-पीये हुए अन्न जलको नीचेकी ओर जानेसे मनुष्य काँप उठता है और भात्ता, माता तथा रोक देता हैं। इस आपत्तिको अवस्थामें भी पुत्रोंका नाम लेकर बारंबार चिल्लाने लगता हैं। उसीको प्रसन्नता रहती है, जिसने पहनें जल, अन्न उस समय उसकी ब्राणी स्पष्ट समझमें नहीं एनं इसका दान किंवा हैं। जिस पुरुघने श्रद्धासे | आती। एक ही शब्द, एक ही आवाज-सी ज्ञान पवित्र किये हुए अन्त:करण द्वारा पहले अन्नदान | पड़ती हैं। अग्रके मारे रोगकी आँखें झूमने लगती किया है, वह उसे रुग्णावस्थामें अन्नके बिना भो | हैं और उसका मुख सूख जाता है। उसकी साँस तृप्ति लाभ करता है । जिसने कभी मिथ्या भाषण | ऊपर उठने लगती हैं। दृष्टि शक्ति भ नष्ट नहीं किया, दो प्रेमियोंके पारम्परिंक प्रेममें बाधा हो जाती हैं, फिर वह अत्यन्त बेदनासे पीड़ित नहीं डालों तथा जो झास्तित और श्रद्धालु है, वह होकर उस शरीरको छोड़ देता हैं और वायुके सुखपूर्वक मृत्युको प्राप्त होता है। जो देवता और सहारे चलता हुआ वैसे ही दूसरे शारीरको धारण माझगकी पुजामें संलग्न रहनें, किसीको निन्दा कर लेता है, जो रूप, रंग और अवरमें पहले नहीं करते तथा सान्त्रक, दार और लज्जाशांत शरीरके समान ही होता हैं। वह शरीर माता होते हैं, ऐसे मनुको मृत्युके समय कष्ट नह पिताके गर्भसे उत्पन्न नहीं, हर्मजनित होना है। होता। जो कामनासे, क्रोधको अन्ना के कारण औंर बाहना भोगनेके लिये ही मिलता हैं। धर्मका त्याग नहीं करता, शास्त्रोक्त आज्ञाका तदनन्तर नमराज दुवा शीघ्र ही उसे डामण
संक्षिप्त मापद्धेय पुराण
माशोंमें बाँध लेते हैं और इंडोंकी मारसे व्याकुल पड़ते हैं। उसके भाई-बन्धु जो तिल और लकी | करते हुए दक्षिण दिशाक ओर चले जाते हैं। अञ्जलि देते तथा पिण्डदान करते हैं, वहीं उस | उस मार्ग पर कहाँ ती कुश में होते हैं, कहीं। मार्गपर जाते समय उसे खाने को मिलता हैं। भाई काँटे कॅलें होते हैं, कहीं चाँदीको मिट्टियाँ जमी बन्नु यदि अशौचके भीतर तेल लगावें और होती हैं, कहीं लौकी कीलें गड़ी होती हैं और उबटन मलवानें तो इससे ज्ञवको घण किया कड़ पथरीली भुम्द होनेके कारण वह पथ जाता हैं अथांत् वह मैंल ही उन्हें खानी पड़ती हैं। अत्यन कर जान पड़ता हैं। कहीं जलती हुई [अत: में वस्तुएँ वर्जित हैं]। इसी प्रकार बान्धवगण आगी लय भाती हैं तो कहीं सैकड़ों गड्डोंके जो कुछ खाते-पीते हैं, वह मृतक जीवको कारण वह मार्ग अत्यन्त दुर्गम प्रज्ञीत होता हैं। मिलता है। अतः उन्हें भोजनकी शुद्धिपर भी ध्यान कड़ सूर्य इतने तपते हैं कि उस राह ज्ञावाला रखना चाहिये। यदि भाई-बन्धु भूमिपर शयन करें व की किरणोंमें जलने लगता हैं। ऐसे तो उससे जांचको कष्ट नहीं होता और यदि वे | पधसे यमराजके दूत उसे घसादर ले जाते हैं। इसके निमित्त दान करें तो उससे मृत जीवको में दूत घोर शब्द करनेके कारण अत्यन्त भयङ्कर बड़ी तृशिं होती है। यमदूत जब उने साथ लेकर जान पड़ते हैं। जिस समय वे जीवको बटकर जाते हैं तो वह बारह दिनोंतक अपने घरकी ओर ने जाते हैं, सैंकड़ों गीइड़ियाँ जुटकर उसके देख्नता रहता हैं। इस समय पृथ्वीपर उसके शरीरको नोंच नांचकर जाने लगती हैं। पाप निमित्त जो जल और पिण्ड दिये जाते हैं, जॉब ऐसे ही भयंकर मार्गाने यमलोकको मात्रा उन्होंझा चहु उपभोग करता है।
मृत्युसे बारह दिन बीतने पश्चात् यमपुरीकी जो मनुष्य छाता, जुता, वस्त्र और अन्न-दान ओर चकर ले जाया जानेवाला ज्ञाँव अपने करनेवाले होते हैं, वे उस मगंपर सुखसे यात्रा सामने बमराजळे नगरको देखता हैं, ज्ञों बड़ा हो करते हैं। इस प्रकार अनेक प्रकारका कष्ट भोगना भयानक हैं। उस नगरमें पहुँचनेपर उसे मृत्यु, हुआ पापपीड़ित व विवश होकर बारह दिनोंमें काल और अन्तक आदिके बीचमें बैंचें हुए
धर्मराज* नगरतक पहुँचाया जाता हैं। उसके ग्रमजका दर्शन होता हैं, जो कालरशिके सतनामय शरीर जलाये जानेपर जीव स्वयं भी समान प्ले हैं और अत्यन्त ऋधिसे लाल-लातून अत्यन्त दाहका अनुभव करता हैं, उसी प्रकार आँखें किये रहते हैं। दाहों के कारण उनका मुख मारे और काटे जागेपर भी उसे अत्यन्त भयङ्कर बड़ा विकराल दिखलामीं पड़ता हैं। टेड़ों भौंहोंने वेदना होती हैं। अधिक देशतक लमें भिगोये युक्त उनको आकृति बड़ा भयङ्कर हैं। मैं कुरूप, ज्ञानेके कारण भी जीवको भारी दुःख उठाना| भीग और टेढ़े-मेढ़े सैकड़ों गोंसे घिरे हैं पड़ता है। इस प्रकार दूसरे शरीरको प्राप्त होनेपर हैं। उनकी भुजाएँ विशाल हैं। उनके एक हाथमें उसे अपने कर्मों फलम् कष्ट भोगने | यमदण्ड और दूसरे पाश हैं। देखनमें वे बड़े त्रि यान्वःस्तोयं मन्नन्। ति: हू । यन्त पिग्टुं यत नींद्यमानस्तदनु ।
बङ्गों वागन्मङ्गसं.हां च यः ।
न चाप्याग्ने अनुयंन्ति संचाभवाः ॥
भुमीं स्वर्गद्धनत्य बान्ध: ।
दानं ददद्धश्च तथा जन्नुराप्यते भूत: ॥
सिमानः गैड्स द्वादशाहबश्यांन : ज्ञानभुई तला हां नोपड़िादिकं भुच ॥
- पिता–पुत्र–मयाइका आरम्भ, जांचक मुन्यु तथा नरस–गतिका यः
भयानक प्रतीत होते हैं। पापी जीय उन्होंझी | पाता है। फिर दूसरे पापों शुद्धिके लिये इसे बैंसे बतायी हुई शुभाशुभ गतिको प्राप्त होता है। झूठी | ही अन्य कॉमें जाना पद्धता है। इस प्रकार सब वाही देने और झुछ औलवाला मनुष्य औरत्र नरकोंमें यातना भोगकर निकलनेके बाद पाप जीव | नरमें जाना है। अब मैं का स्न्य रूप बनना तिग्मों-में ज़म लेता है। क्रमशः कड़े मको, हैं, आप ध्यान देकर इसे सुने। रौरव नरककी | पतङ्ग, हिंसक जीव, मच्छर, हाथ, वृक्ष आदि, गौ, लंबाई-चौड़ाई ६ हजार यौजनी हैं। वह एक अश्व नथा अन्यान्य दुःखदायिनी पापयोनियोंमें जन्म | गईॐ में हैं, जिसकी गहराई घुटनोंतककी हैं। भ्राण ऊरनेके पश्चात् वह मनुष्ययौनिमें आता है। वह नरक अत्यन्त इतर हैं। इसमें भूमिके। इसमें भी वह कुरूप, कुडा, नाटा और चाष्ट्राल बचानक अङ्गारराशि बिछी रहती हैं। इसके आदि होना है। फिर अवशिष्ट पाय और पुण्यसे भौतकी भूमि दहकते हुए अङ्गारों में बहुत तप युक्त हो, चहू क्रमशः ॐचे चट्टनेत्रा यौनिमें होती हैं। सारा नरक तीव्रवेगसे प्रधलित होता जन्म लेन-शुद्र, श्य, क्षत्रिय, ब्राह्मण, देवता रजा हैं। उसके भीतर यमराज* दुत पापी तथा इन्द्र आदिको रूपमें उत्पन्न होता हैं।
मनको डाल देते हैं। वह धकृत हुई आगमें। इस प्रकार प करनेवाले व नाकॉमें नौंचें जब जलने लगती है तो इधर-उधर दौड़ता हैं. गिरते हैं। अत्र पुण्यात्मा जीत्र जिस प्रकार यात्रा किन्नु पग-पगपर उसका पैर जल-भुनकर रख | करते हैं उसको सुनिये; वे पुण्यात्मा मनुष्य होता रहूत हैं। वह दिन-रात को एक नर पैर धर्मराजको बतायीं हुई पुण्यमयी गति को प्राप्त होने हैं। उनके साथ गन्धर्व गीत गाते चलते हैं,
अप्सराएँ नृत्य करती रहती हैं तथा वे भाँत भाँतके दिव्य आभूषणों सुशोभित हो सुन्दर विमानपर बैठकर यात्रा करते हैं। वहाँ से पृर्वीपर आने वै राजाओं तथा अन्य महात्मा में जन्म लेते और सदाचारका पालन करते हैं। यह उन्हें श्रेष्ठ भो। प्राप्त होते हैं। तदनन्तर शरीर त्यागनेके बाद चे पुनः स्वर्ग आदि ऊपरके लोकमें जाते हैं। अपर लीकॉमें होनेवाली गतको ‘आरोहण’ कहते हैं। फिर हाँसे पुण्यभोगके पश्चात् नः मृत्युझमें इतरा होता है, वह ‘अबरोह’ गाँत हैं। इस अवरोहण गतिको प्राप्त होने मनुष्य नि पहले ही भाँति आरोहण गतको प्राप्त होते हैं। अह्मर्षे ! जबकी जिस
प्रकार मृत्यु होती है, वह सब प्रसङ्ग मैने आपसे इनाने और रवानेमें समर्थ होता हैं। इस प्रकार | कह सुनाया। अब जिस तरह जीव गर्भमें जाता सहस्रों यौन पार करनेपर वह उसे छुटकारा | हैं, इस विषयका वर्णन सुनिये।
क्षिप्त मार्केपस पुराण
जीवके जन्मका वृत्तान्त तथा महारौरव आदि नरकोंका वर्णन पुत्र कता है-पिताजा ! मनुष्य स्त्री-सहवासके। वृद्धको प्राप्त होता है। उस गर्भमैं उसे अनेक | समय गभर्ने जो नौ स्थापित करता है, वह। जन्मोंकों बार्ने याद आती हैं, जिससे धित के में मिल जाता है। नरक अथवा स्वर्गको कर वह इधर ३ फिरता और निर्वेद शिंद निकलकर आया हुआ जीव उस ज्ञ-बीका को प्राप्त होता हैं। अपने मनमें सोचता हैं, ‘अब अश्य लेता हैं। शौचमे व्याप्त होनेपर में दोनों इस उदरसे छुटकारा पाने पर मैं फिर ऎसा काय बीज ( स्त्री और पुरुष दोनोंके ज़-बौ) शिर नहीं करूंगा, बल्कि इस बात के लिये चेष्टा करूंगा | हो जाते हैं। फिर में क्रमश: लल, बुद्बुद एवं | कि मुझे फिर भके भीतर न आना पड़े।’ सैकड़ों मांसपिके रूपमें परिणत होते हैं। जैसे वीजसे जन्मोके दु:खों का स्मरण करके वह इसी प्रकार अंकुर उत्पन्न होता हैं, उसी प्रकार उस मांसपण्डको चिन्ता करता हैं। दैवकी प्रेरणा से पूर्वजन्मोंमें इसने विभागणूक व अङ्ग प्रकट होते हैं। फिर इन जो-जो क्लेश भौगे होते हैं, मैं सब उसे याद आ अङ्गौसे अँगु, ने, नाका, मुख, कान आदि जाते हैं। तत्पश्चात् कालक्रमसे बह अधोमुख से | प्रकट होते हैं। इसी प्रकार अँगुली आदिसे न जच नवें । इस महीने का होता हैं, तब उसका | आदिको उट्पट होती हैं। फिर चामें होम आँच जन्म होता है। गर्भसे निकलते समय वह मस्तक पर साझ ३ आने हैं। जीके शरिकी | पत्य ज्ञान दिन होता है और मन हीं
कि साथ ही स्त्रका गर्भको भी बढ़ता हैं।। मन दु:एनसे व्यथित हों रोते हुए गर्भसे बाहर जैसे नारियलका फल अपने आचरकोषक’ आता है। उदासे निकलनेपर असह्य पौड़ाके |६|| ही बना हैं, उसी प्रकार गधि शिशु भी पारण उसे भू आ जाती हैं। फिर बासुके गर्भको सय ही बुद्धको प्राप्त हों। हैं। इसका स्पर्श अह सचेत होता हैं। तदनन्तर भगवान् नुख नीचे और होता हैं। दोनों हाथों को घुटनों’ चिमुक मोहिनी गाया उसको अपने वशमें कर
और बाँके नोचे अक्षर वह बढ़ता हैं।लेती हैं। इससे मोहित हो जानेके कारण उसका इसके दोनों अंगूरों दोनों घुटनोंक ऊपर होते हैं। पूर्वयान नष्ट हो जाता हैं। इस प्रकार ज्ञान हो और अँगुनियाँ उनके अग्रभागमें रही हैं। इन जानेपर वह जव पहले तो ब्राल्याभस्थाको प्राप्त घुटनों, पृष्ठ-गमें दोनों आँखें रहती हैं और हाा हैं, फिर क्रमश: कौमारावस्था, वनावस्था नासिका इनके मध्यभागमें होती हैं। दोनों चूतड़ और वृद्धावस्थामें प्रवेश करता हैं। इसके बाद एयर टिके होते हैं। दोनों हैं और र्पिनि मृत्युको प्राप्त होता और मृत्युके बाद फिर जन्म बाहरी किनारे पर रही हैं। इसी विनिमें स्त्रीके में हैं। इस प्रकार इस संसार-चक्रमें वह घटीयन्त्र गर्भमें ३हनेवाला ज्ञान क्रमशः वृश्चिको प्राप्त होता। उत्तर की भाँति घूमता रहता है। कभी गमें हैं। गभंभ शिशु नाभि एक नल बँधी होतो जाता हैं, की नरझमें। कभी इस संसारमें पुन: है, जिसे आप्यायन ना कहते हैं। इसी प्रकार | अग लेकर अपने कर्मोंने ‘भोगता है, कभी वह ल स्त्री के छिमें भी जुड़ी होती का भोग मा। होने पर थोड़े ही समयमें हैं । जो कुॐ ग्वाil- हैं, इस नाडीके’ माकर पने कमें चला जाता है। कभी स्वर्ग और ही मासे गर्भस्थ शिशु भी उदर में पहुँनता हैं ।। नरकको प्रायः भोग चुके वाद थोड़े शुभाशुभ
ने शक यश तें रहनों नी क्रमशः में हो रहनेपर इस संझा जन्म होता हैं।
* ज्ञवके जयका वृत्तान्त तथा महारौरव आदि नरकका वर्णन +
नारक जीव घोर दु:खदान नरकोंमें गिरा | होकर ऊटपटाता हैं और बारबार ‘अरे भाप ! अरे जाते हैं। स्वर्गमें भी ऐसा दुःख होता है, जिसका मैंया! हाय भैया! हा तात!” आदिको रट लगाता कहाँ तुलना नहीं हैं। स्वमिं पहुँचनेके बादसे ही | हुआ करुण क्रन्दन करता हैं, किन्तु उसे तनिक मनमें इस बात चिन्ता बनी रहती हैं कि भी शान्ति नहीं मिलती। इस प्रकार उसमें पड़े हुए पुण्य-क्षय होनेपर हमें यहाँसे नीचे गिरना पड़ेगा। सा ही रिकमें पड़े हुए नीचा हे महान दुःख होता हैं कि कभी हों भी ऐसी ही दुनि | भोगनी पड़ेगी। इस यातसे दिन-रात अशान्ति बनीं रहती है। गर्भवासमें तो भारी दु:ख होता ही हैं, यौन्सेि जन्म लेते समय भी थोड़ा क्लेश नहीं होता। जन्म लेनेके पश्चात् आल्यावस्था और वृद्धावस्थामें भी दुःख-ही-दुःख भोगना पड़ता हैं। जवानीमें भी काम, क्रोध और ईमें बँध के कारण अत्यन्त दुरसह अष्ट्र लाना पड़ता | हैं। उापेमें तो अधिकांश दुःख ही होता हैं। भरने में भी सबसे अधिक दुःख हैं। यमदूतोंद्वारा यसीटकर ले जाये जाने और नरक गिराये ज्ञानेपर को महान् क्लेश होता है, उसको चर्चा हो | चुकी है। यहाँसे नौंटनेपर फिर गधंत्रास, जन्म, मृत्यु तथा नरकम *म चालू झ ता है। इस ज़ांव, जिन्होंने दुषित बुद्धिके कारण पाप किये हैं, तरह ौत्र प्राकृत बन्धनमें वेभकर घटयन्त्रको दस करोड़ वर्ष बीतनेपर उससे छुटकारा पाते हैं। ‘भो इस संसार में घुमते रहते हैं। | इसके सिवा तम नामक एक दूसरा नरक हैं, जहाँ पिताजी ! मैंने आपसे रब नामक प्रथम | स्वभाव ही कड़ाकेकी सर्दी पड़ती है। उसका नरकका वर्णन किया है। अह महारौरवका वर्णन | विस्तार भी महारौरवके ही बराबर है, किन्तु सुनिये इसका विस्तार सब और बारह हजार | वह घोर अन्धकारसे आच्छादित रहता है। वहीं योजन हैं। वहाँको भूमि तॉबकी है, जिसके नीचे | पापी मनुान्य सदसे कष्ट पार भयानका अन्धकारमें आग किती रहती है। इसकी आँचसे पर दौड़ते हैं और एक-दूसरेसे भिड़ लिपटें रहते अह सारी तप्रमय भूनि चमकती हुई चिजनके हैं। जाड़ेके कसे काँपकर कटकटाते हुए उनके मपान ज्योतिर्मयी दिवायाँ देती है। उसकी ओर | दाँत दृष्ट जाते हैं। भूख-यास भी वहाँ जड़े | देना और स्पर्श आदि करा अत्यन्त भयङ्कर | ङ्गारको लगता हैं। इसी प्रकार अन्यान्य उपद्रव भी | हैं । यमराजके दूत हाथ और पैर झाँश्वकर पापो | होते रहते हैं। ओलों के साथ बहनेवालीं भयङ्कर ज्ञीको उसके भीतर हाल देते हैं और वह | वायु शरीरमें लगकर इथिको चूर्ण कियें देती है। नाट हुआ आगे बढ़ता हैं। ममें कौवे, गुले, और उनसे जो मझा तथा रक्त गिरता हैं, सोझो दिन्छु, मच्छर और गिद्ध उसे जल्दी-जल्दी नोंचवे क्षुधातुर प्राण खाते हैं। एक-दूसरेके शरीरसे | लाते हैं। उसमें जलते भय वह या कुन हो- सटकर चे परस्पर रक्त चादा करते हैं। इस प्रकार
संक्षिप्त मार्कशप पुराण
जन्मक पापोंका भोग समाप्त नहीं हो जाता, | समान बहुत से चक्र निरन्तर घूमते रहते हैं। तबतक वहाँ भी मनुष्योंको अन्धकारमें महान् कष्ट यमराजके दूत पाप जीवोंको इन चर चद्धा भोगना पड़ता हैं। देते और अपनी अँगुलियों में कालसूत्र लेकर इसके द्वारा उनके पैरसे लेकर मस्तकतक प्रत्येक भङ्ग काटा करते हैं। फिर भी उन पापियाँक नहीं निकलने । उनके शरीर के सैकड़ों टुकड़े हो जाते हैं, किन्तु फिर से जुड़कर एक हो जाते हैं। इस प्रकार मामी ज्ञच हज़ारों तक यहाँ क्राटे जाते हैं। यह यातना उन्हें तबतक दी जाती है, जबतक कि मुनके सारे पापको नाश नहीं हो जाता। अब अप्रतिष्ट नामक नरकका वर्णन सुनिये, जिसमें पड़े हुए जजोंको असह्य दु:खका अनुभव करना पड़ता है। वहाँ भी वे ही कुलालचक्र होते हैं, साथ ही दूसरी ओर घड़ीन्यन्त्र भी बने होते हैं, जो पापी मनुष्यों दु:ख पहुँचाने तिचे बनायें गये हैं। वहाँ कुरा मनुष्य जुन चक्रॉपर चढ़ाकर घुमाये जाते हैं। हजारों वर्षों तक उन्हें श्रीसमें
विन्नाम नहीं मिलता। इसी प्रकार दूसरे पाप इससे भिन्न एक निकृन्तन नामक नरक हैं, जो भटौयन्त्रों में बाँध दिये जाते हैं, ठीक उसी तरह, | सब गुरमें प्रशान हैं। इसमें कुम्हारकी चाकके जैसे हमें छोटे-छोटे घड़े जैसे होते हैं। जहाँ
* जीवके जन्मका वृत्तान्त ना मारवा आदि नाकका वर्णन
बँधे हुए मनुष्य उन यन्त्रौंके साथ में जले घुमने | आदि कहते हुए अत्यन्त दुःखित होकर कराहने लगते हैं, तो बारंबार रक्त चमन करते हैं। उनके | लगते हैं। उस समय तीव्र पिपासाके कारण उन्हें मुख़से लार गिरती हैं और नेत्रों से अनु झरते रहते | बड़ी पीड़ा होती है, फिर अपने सामने शीतल हैं। उस समय उन्हें इतना दुःख होता हैं, जो | छायासे युक्त असपत्रवनको देखकर वे प्राणों जीवमात्र३ लिये असह्य हैं। चिलामक इच्छाले वहाँ जाते हैं। उनके वहाँ अब सपत्रवन नामक अन्य नरकका वर्णन | पहुँचनेपर बड़े जोर हृवा चलती हैं, जिससे सुनिये-जहाँ एक हजार योजनतककी भूमि | उनके ऊपर तलवारके समान तीचे अत्तै गिरने प्रज्वलित अग्निसे आच्छादित रहती हैं तथा | लगते हैं। उनसे आहत होकर में पृथ्वीपर जलते ऊपरसे सूर्यकी अत्यन्त भयङ्कर एवं प्रचण्ड | हुए अँगारोंके ढेर में गिर पड़ते हैं। वह आगे | किरणें ताप देती हैं, जिनसे उस नरकमें निवास | अपनी लपटोंसे सर्वत्र व्याप्त हो सम्पुर्ण भूतल कों करनेवाले जीव सदा सन्तप्त होते रहते हैं। उसके | चाटती हुई-सी जान पड़ती है। इसी समय बीमें एक बहुत ही सुन्दर वन हैं, जिसके पत्ते | अत्यन्त भयानक कुत्ते वह तुरंत ही दौड़ते हुए चिकने ज्ञान पड़ते हैं; किन्तु ने सभी पत्ते | आते हैं और रोते हुए पापियोंके सब अङ्गोंकों तलवारको तीखी धारके समान हैं। उस वनमें बड़े | टुकड़े-टुकड़े कर डालते हैं। पिताजी ! इस प्रकार बलवान् कुत्ते भेंकते रहते हैं, जो दस हजारी | मैंने आपसे यह सिपत्रवनका वर्णन किया है। संख्यामें सुशोभित होते हैं। उनके मुज़ और दाढ़ें | अब इससे भी अत्यन्त भयङ्कर तसकुम्भ बड़ी-बड़ी होती हैं। चे च्याप्नके समान भयानक | नामक जो नरक हैं, उसका हाल सुनिये-वहाँ प्रतीत होते हैं। वहाँकी भूमिपर जो आग बिल्ली | चारों ओर आगकी लपटोंसे घिरे हुए बहुत-से होती हैं, उससे जब दोनों पैर जलने लगते हैं तब | लोहे के घड़े मौजूद हैं, जो खुब तपे होते हैं। | वहाँ गये हुए पापी जीव ‘हाय माता! हाय पित्ता!’ | उनसे किन्हीमें तो प्रज्वलित अग्निकी आँचसे
माया मार्केपम पुराण
खौलत्। हुआ तेल भरा रहता हैं और किन्होंमें और फिर उन टुकड़ोंको उहाँ बॉमें डाल देते पाये हुए लोहे का चूर्ण होता है। यमराजके दूत हैं। वह सभी झड़े साँझकर तेलमें मिल जाते पापी मनुष्यों को उनका मुँह ने करके उन्हाँ हैं। मस्तक, शरीर, स्नायु, मांस, त्वचा और बड़ीमें डाल देते हैं। वहीं पड़ते ही उनके शरीर हड्यौं—सभ गल जाती हैं। तदनन्तर यमराजके टूट फूट आते हैं। शरीरको माझा भाग लिकर दूत करछुलने उलट-पुलटकर खौलते हुए तेलमें पानी हो जाता हैं। कभाल और नेत्रोंको हजुबाँ उन पापियोंको अच्छी तरह मथते हैं। पिताजी ! चटकर फूटने लगती हैं। भयानका गन्न उनके इस प्रकार यह तशकुम्भ नामक नरकको आत मैंने अङ्गको नोच नोचकर टुकड़े-टुकड़े कर देते हैं आपको विस्तारपूर्वक बतलाया है।
जनक-यमदूत-संवाद, भिन्न-भिन्न पापोंसे विभिन्न नरकोंकी प्राप्तिका वर्णन | पुत्र ( सुमति ) कहता हैं-पिताजी ! इससे | बहती थी, उससे कीचड़ जम गयीं थीं और काटे पहले सातवें जन्ममें मैं एक बैंश्यके कुल उत्पन्न ज्ञावाले दुष्कर्मयोंके नरकमें पड़नेसे सय और हुआ धा। उस समय पौंसलेपर पानी पीनेको घर हाहाकार मचा रहता था। उस नरक पड़े जातौं हुई गौओंकों मैंने वहाँ आनेसे रोक दिया| मुझे औं वर्षमें कुछ अधिक समय बीत गया । मैं था। उस पापकर्म फलसे मुझे अत्यन्त भयङ्कर महान् ताप और पौड़ासै सन्तप्त रहता था। प्यास नरकमें जाना पङ्गा, जो आपकी लपटोंके कारण और जलन बराबर बनी रहती थी। तदनन्तर एक भोर दुःखदायी प्रत होता था। इसमें लोहे- 1 दिन सहसा मुख देनेवाली ठंडी हवा चलने लगीं। सी चन्नवाले पक्षी भरे पड़े थे। न्हाँ पपियोंके उस समय मैं तमन्नालुका और तमकुम्भ नामक शरीरको कोल्हूमें घेरनेके कारण ज्ञों रक्तको धारा| नरकोंके बच् था। उस शतल वायु सम्पर्कसे
जुन नरकोंमें पड़े हुए सभी जीवोंकी यातना दूर हो गी। मुझे भी उतना ही आनन्द हुआ, जितना स्वर्गमें रहनेवालोंको चहाँ प्राप्त होता है। यह क्या बात हो गयी?’ यो सोचते हुए हम सभी जीवन आनन्दकी अधिकताकै कारण एकटक नेत्रोको जब चारों ओर देखा, तब हमें अड़े ही उत्तम एक नग्रल दिख़ासो दिये। उनके साथ बिजलोके समान कान्तिमान् एक भयङ्कर यमदूत था, जो आगे होकर रास्ता दिखा रहा था और कहता था, ‘महाराज ! इधरको आइये’ सैंकड़ों यातनाऔंसे व्या नरकको देखकर उन पुरुषरत्नको बड़ी दया भाय। उन्होंने यमदूतसे का।। | आगन्तुक पुरुष बोले-ग्रामदूत | अताओं तो भहीं, मैंने कौन-सा ऐसा पाप किया है, जिसके कारण अनेक प्रकार यातनाओंसे पूर्ण इस जनक मत-संयाद. भिन्न-भिन्न मामॉमें भिन्न नाम मासिका वर्णन भयङ्कर नरक में मुझे आना पड़ा हैं? मेरा जन्म देवकर्म और पितृकर्मके लिये सदा ही सावधान जनकवंशमें हुआ था ! मैं विदेह देशमें विपश्चित् रहता था। ऐसी दशामें मुझे इस अत्यन्त दारुग नामसे विज्यात राजा था और प्रशानोंका भलीभाँति | नरझमें कैसे आना पड़ा? पालन करता था। मैंने बहुत-से यज्ञ किये। धर्मके | इन महात्माके इस प्रकार पूछनेपर यमराजु को अनुसार पृथ्वीका पालन किया। कभी युद्धमें पीठ दूत देखने में भयङ्कर होनेपर भी हमलोगों नहीं दिखायों तथा आंतधिको कभी निराश नहीं सुनते-सुनते विनययुक्त बाणोंमें बोला।
लौटने दिया। पितरों, देवताओं, ऋधियों और यमदूसने कहा-महाराज! आप जैसा कहते | भृत्योंको उनका भाग दिने निंना कभी मैंने अा है, वह सब ठीक है। इसमें तनिक भी सन्देड़के ग्रहण नहीं किया। मराठी स्त्री और परामें धन लिये स्थान नहीं हैं। किंतु आपके द्वारा एक आदिंकी अभिलापा में मनमें भी नहीं हुई। छोटा-सा पाप भी बन गया हैं। मैं उसे याद जैसे गौएँ पानी पीनको इच्छाले स्वयं ही आँसलेपर | दिलाता हैं। विदर्भराजकुमारी पीव, जो आपकी भनी जाती हैं, उसी प्रकार पर्वक समग्र पितर | पल्ली श्री, एक समय ऋतुमतीं हुई थी; किन्तु उस और पुण्यतिथि आनेपर देवता स्वयं ही अपना अवसरपर कयराजकुमारी सुशोभूनामें आसक्त भाग लेने मनुष्यके पास आते हैं। जिस नेके कारण आपने उस ऋतुकालको सफल गृहस्थ घरसे वे लंबी साँस लेझर निराश लौट नाया। वह आपके समागममुख़से वञ्चित जाते हैं, उसके इष्ट और धूर्त-दोनों प्रकार धर्म रह गयी। अनुक्राला उङ्घन करनेके कारण ही नष्ट हो जाते हैं। पितरोंक दुःखपूर्ण उच्छ्वाससे | आपको ऐसे भयङ्कर नरकत आना पड़ा हैं। जो सात जन्मका पुष्य नष्ट होता हैं और देवताओंका धमांत्मा पुरुष काममें आसक्त होकर स्त्रीके नि:श्वास तीन जन्मोंका पुण्य क्षय कर देता ऋतुकालका उल्लङ्घन करता हैं, वह पितरोंका हैं—इसमें तनिक भी सन्देह नहीं है। इसलिये मैं ऋण होनेसे पापको प्राप्त हो नरक पड़ता हैं। राजन्! इतना ही आपका पाप हैं। इसके अतिरिक्त और कोई पाप नहों हैं। इसलिये इये, अब पुण्यलोंका उपभोंग करनेके लिये नलिये ।। राज्ञा बोले -देवदूत! तुम जहाँ मुझे ले चनोगे, वहाँ चलँगा; किन्तु इस समय कुछ पूछ रहा है, उसका तुम्हें दीक ठाक उत्तर देना | चाहिये । वे वन्न समान नवाने कए, जो इन पुरुषोंकी आँखें निकाल लेते हैं और फिर उन्हें नये नेत्र भाइ हो जाते हैं, इन लोगोंने ‘कौन-सा निन्दित कर्म किया है? इस बातको बताशो। मैं हैं, कौए इनकी जीभ उखाड़ लेते हैं, 1- fए नवी जीभ उत्पन्न हो जाती हैं। इनके सिवा ये इस लांग क्यों आरेसे चीरे जाते हैं और अयन्त दु:च्च भोगते हैं। कुछ लोग पायीं हुई || बालुका में भुने जाते हैं और कुछ लोग जलते | हुए तैमें पङ्कर पक रहे हैं। लोहे के समान | भोगता हुआ इस लोक में स्थित रहता है।
चबाने पक्षको जिन्हें नोच-नोचकर न रहे हैं. राजन्! अँने नरकोंमें पड़े हुए ज्ञाव अपने ॐ कैंसे लोग हैं ? मैं अँारे शरिरकी नस- मोर महापापका फल भोगते हैं, उसी प्रकार में नाड़ियांके कटनेसे पाइन हों अड़े और जोरसे | वर्गलोकमें देवतओं में रहकर गन्धर्ष, सिद्ध चीखते और जिंदा हैं। लोहे चोंचकी आवाजों और अप्स-ऑको संगीत आदिका मुख उठाते हुए इनके सारे अङ्गमें घार्थ हो गया है, जिससे इन्हें पुण्योंका उपभोग करते हैं। देवता, मनुष्य और बड़ा कष्ट होता हैं। इन्होंने ऐसा कौन-सा निंष्ट्र पशु-पक्षियोंको योनिमें जन्म लेकर जब अपने किया है, जिसके कारण ये रात-दिन सताये जा ! पुण्य पापज़निह सुख-दु:वरूप शुभाशुभ फलोंको रहे हैं? में था और भी जो पापियोंको यातनाएँ भोगता हैं। राजन्! आप जो बड़ पूछ रहे हैं कि देख़ीं जाती हैं, वे किन कर्मोके परिणाम हैं? ये किस-किस पाप पापियोंको हन-कौन-सौं | सब बातें मुद्दों पुणं रूपसे नृतलाओं।
यातनाएँ मिलती हैं, वह उम्र मैं आपको बतला यमदूतने कहा–राजन्! मनुथ्यको पुग्य और रहा हूँ। जो नीच मनुध्य झामन्ना और लोभ | पाप बारी-बारीसे भोगने पड़ते हैं। भौगनेसे हो| वशीभूत हो दृधित दुष्टि एवं कलुधित चित्तसे पाप अथवा पुण्यका क्षय होता हैं। ला जन्मोंके पशग्री स्त्री और पराये धनपर ऑरवें गड़ाते हैं,
ज्ञा पुण्य और साथ मनुष्योंके लिये सुख-| उन दोनों क्षत्रों को ये वज़नुल्य चोंचबाले पक्षी दुःखका अंकुर पन्न करते हैं। जैसे बीज जलकी | इच्छा रखते हैं, उसी प्रकार पुण्य और प्राप देश अन्न, अन्यान्य कर्म और की अपेक्षा करते हैं। जैसे राह चलने समय काँटेपर पैर फड़ जानेसे उसके चुभनेपर भड़ा दुःखें होता हैं, उसी प्रकार किसी भी देश कालमें किया हुआ थोड़ा पाप थोड़े दुःखका कारण होता है; किन्तु वहीं ।
पाप जब बहुत अधिक मात्रामें हो जाता है तब पैर कृत अश्वचा लाहे काल के समान
अकि इन प्रदान करता है-सिरदर्द आदि । दुस्सह रोगका कारण बनता हैं। जैसे अपथ्य भोजन और सर्दी-गर्मीका मेन श्रम और ताप आदिका जनक होता है, उसी प्रकार भित्र-भित्र पाग भौं ‘लकी प्रा। करानेमें एक-दूसरे की अपेक्षा रखते हैं। ऐसे ही ब-बड़े पप दीर्घकालतः रहनेवाले रोग और विकारोके उत्पादक होते हैं। निकाल लेते हैं और पुनः-पुनः इनके नये नेत्र उन्हसे शस्त्र और अनिका भय ब्राप्त होता है। उत्पन्न हो जाते हैं। इन पाप मनुष्योंने जितने ही असह्य पीड़ा और अश्वन आदि फल प्रदान शिषित पापपूर्ण दृष्टिपात किया हैं, उतने ही करते हैं। इस प्रकार में अनेक मौके सञ्चित हजार वर्षों तक ये नेकी गाँड़ा भोगते हैं। जिन मुण्ट और आपके फलस्वर- सुख और दुःखको | लोन असत्-शस्त्रका उपदेश किया
* ज्ञनक–यमदूत–संवाद, भिन्न–भिन्न मापसे विभिन्न वर्गकी प्रामका वर्णन।।
किसीको बुरी सलाह दी हैं, जिन्होंने शास्त्रका | उलटा अर्थ लगाया हैं, मुँह से अती नाते निकाल हैं तथा वेद, देवता, ब्राह्मण और गुरुकीं निन्दा की हैं, इन्हकी जिह्वाको ये वचतुल्य चोंचयाले भयर पक्षी उखाड़ते हैं और वह जिल्ला न्यो नयी उत्पन्न होती रही है। जितने नियतक उनके द्वारा जिह्वाजनित पाप हुआ होता हैं, उतने बपतक उन्हें यह कष्ट भोगना पड़ता हैं। जो नराधम दो मित्रोंमें फूट डालते हैं, पिता-पुत्रमें, स्वानों में, यजमान और पुरोहित, माता र पुन्न, सङ्गी-साथियोंमें तथा पति और पत्नी बैं | डालते हैं, वे ही ये आरेसे चौरे जा रहे हैं। आप इनकी दुर्गतिं देखिये। जो दूसरोंको ताप देते, उनको प्रसन्नता बाधा पहुँनाते, पर, इबादार स्थान, चन्दन और ख़स टट्टी आदिको अपरण करते हैं तथा निर्दोष व्यक्तियोंकों भी प्राणान्तका | हैं, में ही दुष्ट महाँ पीब और गोंद चाटकर रहते कृष्ट पनाते हैं, वे ही ये अधम पापी हैं जो | हैं। उनका शरीर तो पहाड़के समान त्रिशाल होता तपायों दुई बालूमें पड़कर कष्ट भोगते हैं। जो | है, किन्तु मुख सुईकी नोकके बराबर रहता है। ब्राह्मण त्रिी देवयं या पितृकार्यमें दूसरे खिचे, ग्रहों में लोग हैं। ज्ञा लोग भाग अचा द्वारा निमन्त्रित होकर भी दूसरे झिके यहाँ किसी अन्य वर्ग मनुष्यों एक पकने श्राद्ध भोजन कर नेता हैं, उसने यहाँ आनेपर में बिठाकर भोजनमें भेद करते हैं, उन्हें यहाँ जिल्ला पक्षी दो टुकड़े कर डालते हैं। जो अपनी वाकर रहना पड़ता है। जो लोग एक समुदाय अनुधित बातोंसे साधु पुरुषों के मर्मपर आघात | साथ साथै आये हुए अश्वथ मनुष्यको निर्धन
पहुंचाता हैं, उसको ये पक्षी अत्यन्त पीड़ा देते हैं। जानकर छोड़ देते और अकेले अपना अन्न भोजन । इन्हें ऐसा करनेसे कोई रोक नहीं सकता। जो | झरते हैं, वें हों यहाँ थूक और खंखार भोजन | झुलौं ना कहकर और विपरीत धारणा बनाकर झते हैं। राजन्! जिन गर्ने झूठे हाथों गाँ, किसकी चुगती खाते हैं, उनकी गिद्गाकें इस ब्राह्मण और अनियम स्पर्श किया हैं, उहाँमॅसे प्रकार तेज किये हुए छुरोसे दो टुकड़े कर दिये थे लोग यहाँ मौजूद हैं, जो जलते हुए लोहे के जाते हैं। खंभोंपर हाथ रबर उन्हें चाट रहे हैं। जिन्होंने जिन्होंने उद्दण्डतावश माता, पिता तथा गुरुजनका स्वेच्छापूर्वक जूठे मुँह होकर भी सूर्य-चन्द्रमा | अनादर क्शि हैं, वें ही थे मीथ, त्रिष्टा औं मूत्रस और ज्ञापर दृष्टिपात किया है, उनकी आँखों में | भरे हुए गोंमें नौ मुख करके डुबाये जा रहे आग रखकर मराजके दूत उसे धींकते हैं। गौं, | हैं। जो लोग देवता, अतिथि, अन्यान्य प्राणी. अग्नि, मा. ब्राह्मण, येवा भाता, पिता, बहिन, भृत्यवर्ग, अभ्यागत, पितर, अन तथा पयोंको कुटुम्बकी स्त्री. गुरु तथा बड़े-बृद्धों जो पैरों अन्नका भाग दिये बिना ही स्त्रयं भोजन कर लेते | मर्श करते हैं, उनके दोनों पैर यहाँ आगमें तपायों हुई तोहेकी से जकड़ दिये जाते हैं और हैं। जो मनुष्य दुर्भिक्ष अथवा सङ्कटकालमें अपने || गारो हेरमें उड़ा झर दिया जाता है। पुत्र, भृत्य, पत्नी आदि तथा बन्धुवर्गझे अकिञ्चन इसमें उनके भैंसे लेकर घुटनकका भाग जलता जाकर भी त्याग देता और केवल अपना पेट पालने लग जाता हैं, वह भी अब इस लकमें आता हैं तो यमराजले इन भूख लगनेंपर उसके मुझमें उसके दो शौंका मांस नोंचकर डाल देते | हैं और वहीं में खाना पड़ता है। जो अपनी शरणमें आये हुए, तथा अपनी ही दी हुई वृत्तसे जीविका चलानेवाले मनुष्यों लोभवश त्याग देता है, वह भी बमदूतोद्वारा इसी प्रकार कोल्हूमें
३ जानेके कारण शून्त्रणा भोगता हैं।
जो मनुवा अपने जीवनभरके किये हुए शुन्यको इनके नामें बंद झालते हैं, वे इन्हीं पापियाँको तरह चक्रियमें पांसे जाते हैं। किसी शहर हम इनले नागकि रात्र -अङ्ग रस्सियसे आँध दिये जाने हैं और उन्हें दिन-रात कोई | बिलू तथा सर्प क्वाटते-खाते रहते हैं। जो पापी इनमें नैथन करने और प|ी स्त्रीको भागते हैं, रहता है। ज्ञा नराधम अपने ज्ञानसे गुरू, देवता, वे यहाँ भूखसे दुर्वल रहते हैं, प्यासी पौड़ासे द्विज और अदरको निन्दा सुनते हैं और उसे उनको जीभ और तालू गिर जाते हैं और ये
सुनकर प्रसन्न होते हैं, उन पापियोंके कानों में | वेदनासे व्याकुल हो जाते हैं। वह देखिये, सामने यमनके इत आगमें नपायी हुई लोहे को लोहे के बड़े-बड़े से भरा हुआ मका वृक्ष वॉक देते हैं। विलाप करने पर भी उन्हें छुटकारा बड़ा है। इसपर चढ़ाये हुए पापियोंके सच अङ्ग नहीं मिलता। ज्ञों लो। औंर लाभके चशमें’ चिदणं हो गये हैं और आँधक मात्रामें गिरते हुए होल पॉस्ले, देवमन्दिर, झमके पार तथा खनसे ये लपथ हो रहे हैं। भर श्रेष्ठ! इधर दृष्टि देवालयके सभाभा जुड़धाकर नष्ट कर देते हैं, डालिये, मैं पराया त्रिका सतोत्व नष्ट करनेत्रानेइनके यहाँ आनेपर थे अयन्त कठोर स्वभावाले लोग हैं। इन्हें यमराजके दूत घरियामें कर मद्त्र इन तीये शरमें गौरक ज्ञान उड़ गला रहे हैं। जो उद्दण्ड मनुष्य गुरुको नांचे लेते हैं। इनमें चौखने चिल्लानगर भों में या नहीं, विशर और स्वयं ने आसन पर बैठकर अध्ययन | करते! जो ग गौ, ब्राह्मण तथा सूर्यको ओर कता अथवा शिमलाको शिक्षा ग्रहण करता मुँह कार मल-मूत्रका त्याग करते हैं, उनकी हैं, वह इसी प्रकार अपने मस्तकपर शिलाका ज्ञों का गुदामार्गले चनें हैं। किसी भारी भार ढोता हुआ नेश पाता हैं । यमलोकके एकको कन्या देकर फिर दूसरे साथ उसका मागमें अह अत्यन्त पॉड़ित एवं भूख हर्बल त्रवाह र 1 हैं. ३म शरीरमें हुत से घाव | रहता हैं और इस मस्तक दिन-रात बोझ कर से या पनी नदमें बहा दिया जाना इनकी पीड़ा धन होता रहता हैं। जिन्होंने जनक-यमदूत-संवाद, भिन्न-भिन्न पापोंसे विभिन्न नाकोंकी प्राप्तिका बन जलमें मुत्र, धूक और विधाका त्याग किया हैं, वै| उड़ाता हैं, उसे यहाँ जलते हुए गार वाने लोग इस समय धूक, विष्ठा र मूत्र में अरे पड़ते हैं। राजन्! इस पाने गोंको पीटका हुए दुर्गन्ध नरकम पड़े हैं। ये लोग जो भूधर्म माँस खाया हैपट- सबक बुराई को है. न्याकुल होनेपर एक-दूसरेका मांस खा रहे हैं, इसीलिये भयङ्कर भेड़िये प्रतिदिन इसका मांस ब्रा होंने पूर्वकालमें अतिथियों को भोजन दिये बिंग रहे हैं। हो भोजन किया है। जिन लोगों ने अग्निहोत्रों इस नौच उपकार करनेवाले लोगों के साथ | होकर भी बंद और वैदिक अग्नियका परित्याग कृन्नता की है। अतएव यह भूख से व्याकुल किया हैं, ये ही ये पर्वतकी चोटी मारबार चे तथा अंधा, बहरा और गैस होकर भटक रहा गिराये जाते हैं। जो लोग दूसरौं मार याहाँ हैं। इस वोटों धान कृनों अपने मिशें | ज्ञानेवाली लोके पनि होकर जीवन बिता चुके हैं, बुराई की हैं, इसलिये यह शम्भ नरक में गिर में ही इस समय यहाँ कौड़े हुए हैं, जिन्हें चौटियाँ रहा है। इसके बाद चकियों में पौसा जायगा, खा रही हैं। पतितका दिया हुआ दान लें, फिर पापी हुई भालुमें भूना दिए। उसके इनका यज्ञ कराने तथा प्रतिदिन इनकी सेवामें बाद कोल्हूमें पेरा जायगा। तपश्चात् असिगश्वनमें रहनेसे मनुग्न्य पत्थरके भीतर कीड़ा होकर सदा | इसे आज़ना दी न्यगी। फिर आरेसे महू चौर। जाय।। तदनन्तर कलसूत्रसे काटा जायेगा। इसके बाद और भी बहुत- सौ यातनाएँ इसे भोगन | घ गौ। इसपर भी मित्रों के साथ विश्वासघात निवास करता हैं। जो मुटुम्बके लोग, मित्रों तथा अतिथिके देखते देखतें अकेले हौ मिठाई ।
अपातु वैवेंदा पथग्निम: ।
न भाग्न पात्यन् : पुन: पुनः ॥
( | ४१ । कर्मयः पृतं निगमायॉप–यने ।
युङ्कमा नुन कस्य भम् ॥ ४॥ ६ ॥८५)
संक्षिप्त मार्कण्डेय पुराण
करने पापसे इसका उद्धार कैसे होगा-ग्रह में रहते हैं। वे मरनेके बाद फिर नरक में जाने के भी नहीं जानता। जो ब्राह्मण एक दूसरेसे मिलकर और पुनः उसी प्रकार नरकसे लौटनेपर रोगयुक्त सदी श्रद्धान्न भोजन करनेमें ही आसक्त रहते हैं, | जन्म धारण करते हैं। इस प्रकार कल्प के नों द्वः सपः सन्नांसे निकला हुआ न अन्तञ्चक उनके आवागमनमा घ च चलना पीना पड़ता है। मुर्शको चोरी करनेवाले, | रहता है। मौका हत्या करनेवाला मनुष्य तौन अाहत्यारे, शराबी तथा गुरुपत्नीगामी-ये चारों जन्मोंतक नीच-नीच नरकॉमें पड़ता हैं। प्रकारके महापाप नीचें और ऊपर धधकतीं हुई। अन्य सभी उपपातकोंका फल भी ऐसा ही भागके औचमें झाँकन सच और जलाये जाते । निश्चय किया गया है। नरकसे निकले हुए पापो हैं। इस अवस्थामें उन्हें कई हजार वर्षोंतक जॉब जिन-जिन पातकों के कारण जिन-जिन रहना पड़ता हैं। तदनन्तर वे मनुष्ययौनिमें उत्पन्न | योनिमें जन्म लेते हैं, यह सत्र मैं जला रहा होते तथा कोढ़ एवं अक्ष्मा आदि रोगसे युक्त हैं। आप यान देकर सुने पापोंके अनुसार भिन्न-भिन्न योनियों की प्राप्ति तथा विपश्चित्के पुण्यदानसे पापियोंका उद्धार यमदूत कहता है-राजन्! पतितसे दान लेनैपर ब्राह्मण गदहेक योनि में जाता हैं। पतिका यज्ञ कनेवाला द्विज नरकसे लौटनेपर कोड़ा होता है। अपने गुरुके साई छल करनेपर उसे कुतेको योनिमें जन्म लेना पड़ता है तथा गुरुकी पत्नी और उनके धनको मन-ही-मन लेनको इच्छा होनेपर भी इसे निरसन्देह इण्ड़ मिलता हैं। माता-पिताका अपमान करनेवाला मनुष्य इनके प्रति कटु वचन फनेसे मैनाकी यौनिमें जन्म लेता हैं। भाई की स्वीका अपमान।। करनेवाला कबुतर होता है और उसे पड़ा। देने वाला मनुष्य कएकी योनिमें जन्म लेता। हैं। जौं मालिकका अन्न तो खाता है, किन्तु उसका अभीष्ट साधन नहीं करता, शह माहाच्छन्न मनुष्य ! मरनेके बाद बानर होता हैं। धरोहर हड्पनेवाला। मनुष्य नरकसे लौटनेपर हा होता हैं और मटर, कलमी धान, मूग, गेहूँ तौसी तथा दुसरे इसका दोष देनेवाला पुरुष नरसे निकलकर | दुसरे अनाजोंकी चोरी करता है, वह नेवलेके राक्षस होता है। विश्वासघात मनुष्यको मलीको समान अड़े का चूहा होता है। परायों के योनिमें जन्म लेना पड़ता है। जो मनुष्य अज्ञानवश । साथै सम्भोग करनेसे मनुष्य भयङ्कर भेड़िया होता । धान, जौ, तिल, हृद, कुलश्री, सरसों, चना, । हैं। उराके बाद क्रमश: कुत्ता, सियार, अगुला,
* पापोंके अनुसार भिन्न-भिन्न यौनियोंकी प्राप्ति ता विपश्चितुके पुण्यदाभों पापियोंका उद्धार गिद्ध, साँप तथा कौंएकी योनिमें जन्म लेता हैं । कृमि, कीट, पतङ्ग, बिच्छू, मछली, कौआ, कछुआ और चाण्डाल होता है। शस्त्रहीन पुरुषकी हत्या करनेवाला मनुष्य गदहा होता हैं। स्त्र और बालकोंकी हत्या करनेवालेका कॉकी योनिमें जन्म होता है। भोजनकी चोरी करनेसे मक्खींक सोनिमें जाना पड़ता है। उसमें भी जो झो ख़ौटी बुद्धिवाला पापी मनुष्य अपने भाईकी स्त्रीके साथ अनार करना है, वह नरक लौटनेपर कोयल होता हैं। जो पापी कामके अधीन होकर मित्र तथा राजाकी पत्नीके साथ सहवास करता है, वह सूअर होता हैं।
यज्ञ, दान और विवाहमें विघ्न डालनेवाला भौजनके विशेष भेद हैं, उन्हें चुरानेके पृथक् । तथा कन्याका दुबार। दान करनेवाला पुरुष क्रीड़ा पृथक फन सुनियें। साधारण अन चुरानेवाला होता हैं। जो देवता, पितरे और ब्राह्मणोंको दिये मनु नरक छूटनेपर बिानीको योनिमें छात्म बिना ही अन्न भोजन करता हैं, वह नकसे लेता हैं। तिलचूणींमश्रित अन्ना अपहरण करनेसे निकलनेपर कौआ होता है; जो पिताके समान मुनुको बृहेकी बोनिमें जाना पड़ता है। घी पृजनांय बड़े भाईका अपमान करता हैं, बहू चुरानेवाला नेवला होता है। नमककी चोरी नरकसे निकलनेपर क्रौञ्च पक्षीकी निमें जन्म करनेपर ज्ञलकागको और दही चुरानेयर कीड़की
लेता हैं । ब्राह्मण स्त्री साथ सहवास करनेवाला योनिमें जन्म होता है। दूधकी चोरी करनेसे शुद्ध भी कीको योनिमें जन्म लेता है। यदि उसने बगुलेकी योनि मिलती हैं। जो तेल चुराता हैं, वह ब्राह्मणोंके गर्भसे सन्तान उत्पन्न कर दिया हों तो तेन जीनेवाला कीड़ा होता हैं। मधु चुरानेवाला वह कालके भीतर रहने वाला कीड़ा होता हैं। मनुष्य डॉस और पूआ चुराने वाला नहीं होता है। मासके बाद क्रमशः सुअर, कृमि, BिIका कड़ा | हविष्यान्नही चोरी करनेवाला ब्रिसतुझ्या होता हैं।
और चापड़ाल होता हैं। जो नीच मनुष्य अकृतज्ञ | लोहा चुरानेवाला पापामा कौआ होता है। | एवं कृतम्न होता है, वह से निकलने पर | कॉमेका अपहरण करनेसे हारीत {हरियल पक्षकी
संक्षिप्त मार्कण्डेय पुराण
योनि मिलता हैं और चाँद बर्तन चुराने झबूतर होना पड़ता हैं। सुवर्णका पात्र चुरानेवाला ।
१= मनुष्य कोड़ेक योनिमें जन्म लेता है। रेशमी, त्रस्नकी चोरी करने पर कनेकौं योनि मिलती। हैं तथा रेशमका कौड़ा भी होना पड़ता है। हॉरंणके में बना हुआ वस्त्र, महान वस्त्र, भेड़ और अकरीकै रोएँसे बना हुआ वस्त्र तथा पाटेर चुरानपर तोचेकों बोनि मिलती हैं। रुईका बना हुआ वस्त्र चुरानेसे क्षु और अनिके अपहरणसे बगुला अथवा गदहा होना। पड़ता है। अङ्गराग और पत्तियोंका सारानेवाला। मौर होता है। साल वस्त्रकी चोरी करनेवालेको चकवेक योनि मिलती हैं। उत्तम सुगन्धयुक्त पदार्थों चोरी करनेपर छहुँदर और वस्त्रका अपहरण करनेपर खरगौशकी योनिमें जाना पड़ता हैं। फल चुरानेवाला नपुंसक और काष्ठको नेता हैं। गाय और सोने चोरी करनेवालोंकी चोरी करनेवाला नुन होता हैं। फूल चुरानेवाला दुर्गतिका भी यही क्रम हैं। गुरुको दक्षिणा न दरिद्र और बाहना अपहरण करनेवाला पङ्ग देकर उनको विद्याका अपहरण करनेवाले छात्र होता हैं। साग चुरानेवाला हात और पानी भी इसी गति को प्राप्त होते हैं। जो मनुष्य किमी चोरी करनेवाला पपीहा होता हैं। जो भूमिका दूसरे स्नीको लाकर दूसरेको दे देता है, वह अपहरण करता हैं, बहू अत्यन्त भयङ्कर गैरव भुत्व नरककी यातनामसे छटनेम नपुंसक होता आदि नरक में जाकर अहाँसे लौटने के बाद हैं। जो मनुष्य आग्नको लत किये बिना हो क्रमशः तृण, झाड़ी, लता, बैल और बाँसका उसमें हवन करता हैं, वह अजीर्णता रोगसे वृक्ष होता हैं। फिर थोड़ा-सा पाप शेष रहनेपर पीड़ित एवं मन्दाग्निकी बीमारीसे युक्त होता हैं। यह मनुष्की योनिमें आता हैं। ॐ वैलके दूसरे की निन्दा करना, कृतघ्ता, दूसरोंॐ गुप्त
अण्डकोषका दन करता है, वह नासक होता भेदको खोलना, निष्ठुरता दिवाना, निर्दय होना, हैं और इसी रूपमें इस जन्म बितानेके पात् । पार्टी स्त्रीका सेवन करना, दूसरेका धन हड्प बहू क्लमशः कृमि, कांट, पतङ्ग, पक्षी, जलचर लेना, अपवित्र रहना, देवताओंकी निन्दा करा, जोत्र तथा मृग होता हैं। इसके बाद मैंनका शदनापुर्वक मनुष्यों उगना, कंजूसी करना, शरीर धारण करनेके बाद चाण्डाल और ट्रॉम मनुष्यों प्राण लेना तथा और भी जितने निधिद्ध, आदि मृगन्न योनियोंमें जन्म लेता हैं। मनुष्य में हैं, उनमें निरन्तर प्रवृत्त रहना-ये सब नररू निमें वह पङ्ग, अंधा, बहरा, डीं, राजयक्ष्मामें| भोगकर लौटे हुए मनुष्यों को पहचान हैं, ऐसा पीड़ित तथा मुत्र, नेत्र एवं गुदा रोग से ग्रस्त जानना चाहिये। पर इसा करना, अन्न वचन रहता हैं। इतना ही नहीं, उसे मिरगीका भी बोलना, परलोकके निचे मुम्बकम करना, सत्य | रोग होता हैं तथा वह शूद्रकी शेनों भी जन्म बोलना, सम्पूर्ण भूतके लिये हिरक मञ्चन
*पापांके अनुसार भिन्न-भिन्न योनियोंकी प्राप्ति तथा विपत् पुण्यदान पापिका उद्धार हु कहना, बेद स्वतः प्रमाण हैं-ऐसी दृष्टिं रखना, महींपते ! हमपर अवश्य कृपा कीजिये । उनकी गुरु, देवता, ऋषि, सिद्धं और महात्माओंका यह बात सुनकर राजाने यमदूत पुछा सत्कार करना, साधु पुरुषों के सङ्गमें रहना, अच्छे ‘मेरे रहनेसे इन्हें आनन्द क्योंकर प्राप्त होता कमका अभ्यास करना, सबके प्रति मित्रभाव रखना तथा आँर भी जो उत्तम धर्मसे सम्बन्ध रखनेवाले कार्य हैं, वे सन्त्र स्वसे लौटे हुए पुण्यात्मा पुरुषोंके चिह्न हैं-ऐसा विद्वान् पुरुषको समझना चाहिये ।।
राजन् ! अपने अपने कर्मोक्रा फल भौगनेवाले पुण्यात्मा और पापियोंसे सम्बन्ध रखनेवालीं ये सब बातें मैंने आपको संक्षेपसे बताया हैं। अच्छा, अन्य आप आइये; अन्यत्र चलें। इस समय यहाँ | सब कुछ आपने देख लिया। पुत्र कता है—पिताजी ! तदनन्तर गुज़ा चिपचित्। यमदूतको आगे करके वहाँले जानेको उद्घत हुए।
यह देख यातनामें पड़े हुए सभी मनुष्योंने चिल्लाकर कहा-‘महाराज ! पर कृपा कीजिये। दो अड़ी और ठहर जाइये। आपके शरीरको छूकर बहनेवाली वायु हमारे चित्तको आनन्द प्रदान करती है। मैंने मत्र्यलोकमें रह कर कौन-सा महान् और समस्त शरीरोंमें जो सन्ताप, वेदना और पुण्यकर्म किया है, जिससे इन लोगोंपर आनन्ददायिनी बाधाएँ हैं, उनका नाश किये देती हैं; अतः नरनेछ | वायुको वृद्धि हो रही हैं। इस बातकों अताओं।
कृतघ्नत्यं परमपनघट्टनम् ।
नैंड्यं निर्भुगत्वं च परारोपवनम् ।
परस्त्रहरणाशचं देवानां च आसनम् ॥
निकृत्या वञ्चनं नृणां कार्पण्यं च नृणां अधः।
यानि च प्रतिषिद्धानि तत्प्रवृत्तिश्च संतता ॥
उपलक्ष्यागि ज्ञानीयान्मुहानां कुरुकाइनु ।
दया भूतेषु सद्वादः परलोकप्रतिक्रिया॥
सचं भूतहितार्थोक्तिदप्रामाप्यदर्शनम् ।
गुरुदेंवर्षिसिंद्धभिमुजन साधुसङ्गमः ।।
सक्रिय।–यसनं मैत्रीमिति चुचेत पण्डितः ।
अन्यान चैव समयाभूतानि यानि च ॥
स्वर्गच्युतानां लिङ्गानि जुरुमाणामपापिनाम् ॥
ततस्तमग्रतः कृत्वा स राणा गन्तुमुद्यत: ।
तछ सर्वेक्लष्टं यातनास्था यांभ:।।
प्रसाई कुरु भूपति तिष्ठ तावन्मुत्तंका ।
चदङ्गमङ्गी पद्मनों भनी हादयतं हि नः ।।
रंतापं च गात्रेय: पाबाधा कृप्नश: ।
अपहन्ति नान्न इनां कुरु महीपते ।।
एतच्छ्रुत्वा वचरते तं यान्यपुरुष नृपः।
प्रच्छ धनेशमाादों मयि तिष्ठति ॥
किं मया कर्म तन् पुग्यं मत्र्यलोके महत् कृतम् ।
आहाददाचिनी वृष्टयेनेयं तदुदीरय॥
साप्त मार्केपढ़ेय पुराण
यमदतने कहा जन्! आपका यह शरीर, जिसका मन सङ्कटमें पड़े हुए प्राणियोंकी रक्षा पितरों, देवताओं, अतिथियों और भृजनोंसे बचे करनेमें नहीं लगता, उसके बज्ञ, दान और तप हुए, अन्न वनसे हुआ हैं तथा आपका मन इहलोक और परलोकमें भी कल्याणके साधन भी इन्हींकी सेवामें संलग्न रहा हैं। इसीलिये नहीं होते। जिसका हृदय बालक, वृद्ध तथा ‘के शरीरको झूर हुनेवाली वायु आनन्ददाग्नि आतुर प्राणियोंके प्रति कठोरता धारण करता जान पड़ती है और इसके लगनेसे इन पापियो ! हैं, मैं उसे मनुष्य नहीं मानता; वह तो निरा नरकको यात्रा कष्ट नहीं पहुँचाती। आपने अश्वमेध राक्षप्त है। माना, इनके निकट रहने अग्निनित आदि यज्ञोंका विधिपूर्वक अनुष्ठान किश हैं। अतः संतापका कष्ट सहना होगा, नरककी भयानक आपके दर्शनले यमलोकके यन्त्र, शस्त्र, अनि दुर्गन्धका भोग करना पड़ेगा, भू-प्यासका और कौए आदि पक्षी, जो पीड़न, छेदन और महान् दुःख, जो मूति कर देने वाला है, जलन आदि महान् दुःखके कारण , कोमल हो| भोगना पड़े।; तथापि इन दुखियोंको रक्षा गये हैं। आपको तैजसे इनका क्रूर स्वभाव दब | करने में जो कुछ है, ने में स्वर्गीय सुखसे भी गया है।
बढ़कर मानता हैं। यदि अकेले मेरे दुखी राजा घोले- भद्रमुख ! भेरा तो ऐसा विचार हैं कि पीड़ित प्राणियोंको दुःखसे मुक्त करके उन्हें शान्ति प्रदान करने जो सुख मिलता
है, वह मनुष्यों को स्वर्गलोक आधा ब्रह्मलोकमें भी नहीं प्राप्त होता। यदि मेरे समीप रहने इन दुःखी जीवों को नरकयातना कष्ट नहीं महुँचाती तो मैं सूरवं काठको तरह अचल ह कर यह रहूँगा।
यमदूतने कहा–राजन्! आइये, अब अहाँसे चलें। आप पापियोंकी इन बातनाओंको यहाँ | छोकर अपने पुण्य प्राप्त हुए दिव्य भोगों का म्शोग जिथे।
राजा बोले-जतक ये लोग अत्यन्त दुःखी रहेंगे तबतक तो मैं अहाँसें नहीं जाऊँगा; क्योंकि मैरे निकट से इन नरकवासियोको सुख मिलता हैं। जो शरणमें आने की इच्छा हों से बहुत-से आई मनुष्योंको सुख प्राप्त नेवाले आतुर एवं पीड़ित मनुयपर, भले ही होता हैं तो मुझे कौन-सा सुछ नहीं मिला। वह शमशका ही न्यों न हो, कृपा नहीं | इसलिये दुत ! अब तुम शनि लौट जाओ, मैं करता, उस घके जीवनको धिक्कार हैं। बहू हूँ।
पुनः इचाच पितृदेवानांप्रेष्यशिष्टनाः तं नुः ।
पुमिगता बस्मात् न च मन यत्: ||
तरुवननंसर्ग पवन हुददायकः ।
पर्प जन यान ने प्रज्ञाधते ।।
+ पापों के अनुसार भिन्न भिन्न योनिक प्राप्ति तथा बिपना पुण्यदानसे मागियोका सान+
यमदूतने काढ़ा-महाराज : ये थराज झौर घनती हैं। इस बिमानगर चढ़कर चलो, निलम्ब इन्द्र आपको लेकं लि आये हैं । यहाँसे आपको न करो! अवश्य जाना है, अत: इले चलिये।
राजाने कहा- धर्मराज ! ज्ञाँ भरकमें हजारों मनुष्य कष्ट भोगते हैं और मुझे लक्ष्य करके आभासे त्राहि-त्राहि पुकार रहे हैं, इसलिये मैं यहाँसे नहाँ जाऊँगा। देवराज इन्। और धर्म ! यदि आप दोनों जानते हों कि मेरा पुण्य कितना हैं तो उसे बताने कृपा करें।
धर्म बौने-मान! जिस प्रकार समुहले जलविन्दु, आकाश तारे, झांकी धाराएँ, गङ्गाको बालुकाके कण तथा जलकी बूंदें आदि असंख्य हैं, उसी प्रकार तुम्हारे पुग्यकी भी कोई निंपन्न संख्या नहीं हो सकती। आने वहाँ इन नरकमें पड़े हुए जोपर कृपा करनेसे कुम्हारा पुण्य लागुना बढ़ गया। नृपश्रेष्ठ अपने इस पुण्यको फल भोगनेके लिये अव देवलोक चलो और में पाप जीव भौं नरमें रहुर अपने कर्मोका फल भोगें।
राजाने कहा- देवाज्ञ! यदि मेरे समीप धर्मराज बोले-राजन् ! तुमने मेरी भलीभाँति | आनेपर भी इन दुखी जॉौंकों का ॐा पद् पासना की हैं, अतः मैं तुम्हें स्वर्गलोकमें ले | नहीं प्राप्त हुआ तो मनुष्य में सम्पर्कमें रहनेकी
अमेधादयों यज्ञारचा विधियद् यतः ।
तम्घ्नायम्य यन्त्रशस्लामाबसाः ।।
नच्छेदयाहादिमाञ्चय तवः ।
गगता जन् जाताम् नोजाचे ।
१ म्यगे ब्रहातोंके जन् पुग्नं यते नरः ।
दागिन्तुबिगदानोत्पति में मांतः ।।
८ मत्सपावंतान् यातना न प्रयाधते ।
शत भन्नुधात्रा प्रयास्ये स्थाणुरंबाचनः ॥
यम जमाव हि राजन् प्रगामी निभूप्समलिन् ।
भुव भगनाम्यैह यातनाः पापकर्मणान् ॥
इनान स्मान्न मद् यास्यानि मावदेतें दः तताः ।
मत्रमन्निनाद सुरिनो भवति रकमः ।।
धिक् तस्य जीवनं पुंसः रणार्थिनभातुम् ।
ॐ नागनुगृहात वैरपक्षमाम् वन्॥
यादान पांचों पर न भूतमें , म त यस्मर्जपरित्राणे नानाम् ।
नस्य अस्य का मन बाजुरादि ।
नृषु च न हो :न्य मानु राधा हि सः ॥
तें सक्रिर्षात् नु वाग्निपिनम् ।
गमनं ५ नं नकसम्॥
झुपमासाभयं दु: अध्य प्रदं म ।
तेषां जाने तू मन्दं स्वर्गसुखात् परम् ॥
प्राप्यन्तं यदि गुग्नं को दुःयिते य ।
मया – ब्यान्नु म त्वं न मा निम्॥
क्षम मार्कपडेय पुराण*
अभिलाषा क्यों करेंगे ? अतः मेरा जो कुछ भी | पुत्र हैं, उनके द्वारा यतनामें पड़े हुए पानी ।
जीव नरकसे छुटकारा पा ज्ञानें। इन्द्र बोले-राजन्! इस उदारता के कारण तुमने और भी ऊँचा स्थान प्राप्त कुन लिय।। देखो, ये पाप गन्न भौं नरसे मुक्त हो गये।
पुत्र कहता है—पिताजी !जन-तर राजा विपके पर कृती वर्षा होने लगी और अयं भवान्।। बिण उन्हें विभागमें विलमकर दियधाममें ले गवे ।। उस समय मैं तथा ऑर भी जितने पापों जीव थे, सब नरकयातनासे झूटकर अपने-अपने कर्मफलके अनुसार भिन्न भिन्न योनियों चले गये। द्विज्ञ श्रेष्ठ ।। इस प्रकार मैंने इन नरकका वर्णन किम; साथ हौ। यूयंकाल में मैंने जैसा अनुभव शि आ. उसके अनुसार जिस-जिन पापक झारण मनुष्य जिस जिस योनिमें जाता है, वह सब भी बता दिया।। दत्तात्रेयज़ीके जन्म-प्रसङ्गमें एक पतिव्रता ब्राह्मणी तथा अनसूयाज्ञीका चरित्र | पिता बोले-बेटा ! तुमने अत्यन्त हेय संसारके मुझे क्या करना चाहिये ? यह बताओं। व्यवस्थित स्वरूपका नर्णन किया, जो पो – पुत्र ( मुमति) ने कहा-पितानी! यदि आप यन्त्रको भौर नंतर अवागमनशील और हरूपसे शङ्का छोड़कर मैं वचममें पूर्ण श्रद्धा रखते हैं अविनाशी हैं। इस प्रकार ने इसके चपों । तो मेरी राय यह हैं कि आप गृहस्थाश्चमका भलीभी समझ लिया है। ऐसी स्थिति में अब । परित्याग करके वानप्रस्थके नियमोंका पालन
* गगन च— म शक्ल । नेनं । अचम्म यं मम मात्र गम्यम्।
जज-भपामं ज्ञान र पा मम्ञासितः । बिमाननेता धा विसवल्या गम्यताम् ॥ गुनगर – न मान। धर्म गन्तै सहसा: जॉन भर्ना: फ़त मत न नजान्॥ याद ज्ञान, धनं यं यं वा शF प्रत । न जाणं तु शुभ न हीं : ॥ अगं उ भय व ग म दिपक- 1 पण ना ना भरा गा वि यथा ॥
अक्षया महाराज या चिन्हाद माम् । था र घुसस्य शंस्य नैपपते । नाममाग मानि : । दैव जमलं याचं हो ।
६ भन्छ :नं नृम तकुममरालयम् । एनेपि पाप न पन्तु वकर्मम् ॥ गौच-पथ गुरू नर-न मग मानवा: ! पुदि भसंनिशामुक नोपजायते ।।
रगाह | सुज्ञः। विभानात निंदधिम् । आँग नुमन्तु नकातु पापिन तनां ताः ॥ गच — जमून जवाब में गते । एतांश्च नरान् पश्य बिमुन् पापकांगः । हुन्न उवाच-पतत् गुम्स्योपरि माँगते । विमान चपराप्नं नागरिः ॥
+ नायज्ञके जन्म–मसमें एक पतिव्रता झााणी ता अनसूयाजमा चरित्र ५१
वानप्रस्थ आश्रम कर्तव्यका भलीभाँति उन्होंने किस प्रकार योगका उपदेश दिया था अनुष्ठान करके फिर आहवनीय आदि अग्निका | र महाभा अलकं कौन थे, जिन्होंने योग संग्नह भी छोड़ दीजिये और आत्मा (बुद्धि) को | विषयमें प्रश्न किया था ?
आत्मामें लगाकर द्वन्द्वरहित एवं परिंग्रहशुन्य हो | पुत्रने कहा–प्रतिष्ठानपुरमैं एक कौशिक नामक। जाइये । एकान्तमें रहते हुए अपने मन को वशमें | ब्राह्मण था। वह पूर्वजन्ममें किये हुए पाप कीजिये और आलस्य छोड़कर भिक्षु (संन्यासों)- कारण कोके रोगसे व्याकुल रहने लगा। ऐसे का जीवन व्यतीत कीजिये। संन्यासाश्रममें योगपरायण । झुणित रोगसे युक्त होने पर भी उसे उसकी पत्न होकर बाह्य विषयोंके स-पके से अलग हो जाइये। देवताकी भाँत पुजती थी। वह अपने पतिके इससे आपको उस गको प्राप्ति होगी, जो |में तेल मलती, उसका शरीर दबाती, अपने दुःख-संयोग दूर करनेकी ओषधि, मोक्षक हाधसे उसे नहलातीं, कपड़े पहनाती और भोजन साधन, तुलनाहिंत, अनिर्वचनीय एवं असङ्ग हैं कती थी; इतना ही नहीं, उसके थूक, बँखार, और जिसका रोग प्राप्त होनेपर आपको फिर | मल-मूत्र और रक्त था वह स्वयं ही धोकर साफ संसारी नोंचोंके सम्पर्क में नहीं आना पड़ेगा। करती थी। वह एकान्तमें भी पतिकी सेवा करता पिता बोले-बेट! अब तुम मुझे मोक्षके और इसे भीठी वाणसे प्रसन्न रखती थीं। इस साधनभूत उस उत्तम योंगका उपदेश दो, जिससे | प्रकार अत्यन्त विनीत भावसे वह सदा अपने मैं फिर संसारों जीवोंके सम्पर्कमें आकर ऐसा | स्वामौकी पूजा किया करती तो भी अधिक दुःख न उठा। यद्मपिं आत्मा स्वभावत: सब | क्रोधी स्वभावका हानेके कारण वह निट्र प्रायः प्रकारके बोगसे रिहत हैं तो भी जिस योगमें अपनी पत्नीको फटकारता ही रहता था। इतनेपर आसक्त होनेपर मेरे आत्माका सांसारिक बन्धनोंसे भी वह उसके ६ पड़ती और उसे देता | योग न हो, उसी योगको इस समय मुझे बताओ। समान समझती थीं । यद्यपि उसका शरीर अत्यन्त संसाररूपी सूर्यके प्रचण्ड तापकों पड़ा। मेरे | घृणाके योग्य था तो भी वह साध्वी उसे सारे शरीर और मन दोनों सूख रहे हैं। तुम ब्रह्मज्ञानरू श्रेष्ठ मानती थीं। कौशिकसे चला फिरा नहीं जाता जलको शांतनुतासे युक्त अपने वचनमा सलिनसे था तो भी एक दिन उसने अपनी पत्नीसे इन्हें सच हों। मुझे विद्यारूमी कालें नागने इस | कहा-‘धर्म! उस दिन मैंने घरपरही लिबा हैं। मैं उसके विपसे पीड़ित होकर मर रहा सङ्कपर जिस वेश्याको जाने देखा था, उस्तके हूँ। तुम अपने वचनामृतले मुझे पुनः जीवित र | घरमें आज मुझे ले चलो। मुझे उससे मिला दो। दो। मैं स्त्री-पुत्र, वाम द्वार, ब्रेती-बारीको ममताप | वहीं मेरे हृदयमें बसी हुई हैं। जबसे मैंने इसे बेड़ीमें जकड़ा जाकर कष्ट पा रहा हूँतुम प्रिय | देखा है, तबसे वह मेरे मनसे दूर नहीं होता। मदि एवं छत्तम भावसे युक्त विज्ञानद्वारा इस बन्धनको वह आज मेरा आलिङ्गन नहीं करेगी तो कल तुम खोलकर मुझे शीघ्र मुक्त करो।
मुझे मरा हुआ देगी। मनुष्योंके लिये कामदेव धुनने कहा-पिताजी ! ‘कालमें परम बुद्धिमान् प्रायः टेढ़ा होता है। इस वेश्याको बहुत लोग दत्तात्रेजाने राजा को उनके पूछनेपर जिस | चाहते हैं और मुझमें उसके पासतक जानेक योगका भलीभाँति विस्तारपूर्वक उपदेश क्रिया | शक्ति नहीं है; इसलिये आज मुझे बड़ा सङ्कट था, वहीं आपको बता रहा हूँ: मुनिये। | प्रतीत होता हैं।’ पिता बोले-दत्तात्रेवो किस पुत्र ? अपने नामातुर स्वामींका यह वचन सुनकर
* मंक्षिप्त माकपचेय पुराण
उत्तम कुल इपन्न हुई इस परम सौभाग्यशलिनी ! प्राणोंमे हाथ धो अँगा । सूर्य दर्शन होते ही पतिव्रता पत्नीने अपनी कमर बूब कस ली और उसका विनाश हो जायगा।’ इस अत्यन्त दारुण अधिक शुल्क लेकर पतिको कंधेपर चढ़ा लिया। शापकों सुनकर उसकी पत्नी श्यथित होकर ओली– फिर धीरे-धीरे वेश्याकै भरकी ओर प्रस्थान | अब सूर्या , हीं नहीं होगा। तदनन्तर कि । राका समन शा, आकाश मेसे आ सूर्योदय न होनेके कारण घरखर व हो रहने हो रहा था। केवल बिजनौके चमकने पागं ! लगीं। कितने ही दिनोंके बराबर समय रातभरमें दिखात्री ३ जाता था। सी बेलामें वह ब्राह्मणों ही बीत गया। इससे देवताओंकों बड़ा पत्य हुआ। | अपने पति अगोष्ट साधना करनेके लिये राजमार्गसे वें सोचने लो–धावाय, वार, रवधा (द)
आ रहा था। मार्ग कालो थी, जिसके ऊपर चोर तथा स्वाहा ( यज्ञ)-से रहित कर यह सारा ने होते हुए भी चोरके सन्देह मान्य नामक जगन् नष्ट हुए बिना कैसे रह सकता हैं। दिन ब्राह्मणको चढ़ा दिया ‘झिा ।। ॐ दु:असे आतुर | शतको व्यवस्था हुए बिना मास और आज भी हो रहे थे। फौशिक, मौके पर बैठा था, इस लॉप हो जायगा। उनके लोप होने दक्षिणायन अन्धकारमें देख न सकनेके कारण उसने अपने | और उत्तरायण झा भी ज्ञान नहीं होगा। अयन्का पैरोंसे दृ पूलो हिला दिया। इसे कुपित ज्ञान हुए बिना वर्ष कै हो माता हैं, और अके होकर मायने कहा-‘जिसने पैर हितकर भिना काका न होना असम्भव हैं। पतिव्रता मुझे इस कमी दशामें पहुँचा दिया और मुझे। वचन में सूर्य का उदय ही नहीं होता; उसके बिना अत्यन्त दुरी कर दिया, यह पापा नराधम स्नान, दान आदि क्रियाएँ अंद हो गया। अग्नि सूर्योदय होनेपर क्वाि हो निस्सन्देह अपने । हो और यज्ञका अभाव भी दागोचर होने लग्ज़ | है। होमकै बिना हमलोगों की तृा न होती।
जब मनुष्य यज्ञका यथोचित भाग देकर हमें तृप्त करते हैं, तो हम बेनाको उपके निचे वय काकै मनुष्योंपर अनुग्रह करते हैं। नया अझ पैदा होनेपर मनुष्य फिर हमारे लिये यज्ञ करते हैं और | मनोग यज्ञादिद्वारा पूजित होनेपर उन्हें मनोज भोंग प्रदान करते हैं। हम नौकों और बप झरते हैं और मनुष्य कृपकी ओर ! में जलकी चपसे मनुष्यों और मनुष्य दिएकी वर्षासे हमलोगों | तृप्त करते हैं। जो दुरात्मा लोभत्रज्ञ हमार॥ पाए स्वयं ब्रा लेते हैं, उन अपमा पाप नाशके लिये हम जल, सूर्य, न, स्नायु तथा पृथ्वी भी दूषित कर देते हैं। उन दृधि – उधोग करने में उन कुकर्मियों को भृके लिये भयङ्कर महामारी आदि रोग उत्पन्न हो जाते हैं। *जब भाप ततः कुना हो ज्ञापमानम् । प्रॉ4 अर्था सुर्यो यदपुपैयाँ ।
- दत्तात्रेयञ्जीके जन्म प्रमङ्गों क पनन्नना ब्राह्मण तया अनसूयाजींका चरित्र ५३
ज़ों में बृप्त करके शेष अन्न अपने उपभोगों लातें | अपने धर्मको कुशल तायी।। हैं, उन महात्माओंको हुम पुण्यलोक प्रदान करते अनसूया बोलीं-कल्याणी! तुम अफ आपके है। किन्तु इस समय प्रातकाल हुए बिना इन मुखका दर्शन करके प्रसन्न तो रहती हो भनुझके लिये वह सब पुण्यकर्म असम्भव हो न? पतिको सम्पूर्ण देवतासे बड़ा मानती हो रहा है। अब दिनको सृष्टि कैसे हो?’ इस प्रकार न? पति सेनासे हीं मुझे महान् फलको शामि सब देवता आपसमें बात करने लगे। अज्ञोंके हुई है तथा सम्पूर्ण कामनाओं एवं फलको विनाशकी आशङ्कासे वहाँ एकत्रित हुए देवताओंके प्राप्तिके साथ ही मेरे सारे विन भी दूर हो गये। वचन सुनकर अज्ञापत ब्रह्माने कहा-‘पतिव्रताके भावो! मनुष्यको आँच ऋण सदा ही चुकाने माहात्म्यसे इस समय सुर्यका उदय नहीं हो रहा चाहिये। अपने वर्णधर्मके अनुसार धनको संग्रह हैं और सूर्योदय न होनेसे मनुष्यों तथा तुम करना आवश्यक है। उसके प्राप्त होनेपर शास्त्र धके देवताओंको भी हानि हैं; उस्त: जुमलोग महर्षि अनुसार उसका सत्पात्रको दान करना चाहिये। । अत्रिको पतिव्रता मनी तपस्विन अनसूयाके पास सत्य, सरलता, तपस्या, दान और दयासे सदा जाओ और सूर्योदयकी कामनासे उन्हें प्रसन्न | मुक्त रहना चाहिये। राग-द्वेषका परित्याग करके करो।’
शास्त्रोक्त का अपनी शक्तिके अनुसार प्रतिदिन ज्ञब देवताऔं जाकर अनमुयाजौको प्रसन्न श्रद्धापूर्वक अनुष्ठान करना चाहियें। ऐसा करने से किया। वे बौ-‘तुम क्या चाहते हो. मनुष्य अपने बर्णके लिये विहित उत्तम लौका को बताओ!’ देवताओंन याचना को कि पूर्ववत् प्राप्त होता हैं। ‘पतिन्नते! इस प्रकार महान् क्लेश | दिन होने लगे।
उठानेपर गुरुयों को ग्राजापत्य आदिं नोकॉकी प्राप्ति अनसूयाने कहा-देवताओं पत्रिका गहन्ध होती हैं, परन्तु रियाँ केवल पतिको सेवा किसी प्रकार क्रम नहीं हो सकता; इसलिये मैं करनेमान्नसे पुरुषोंके दुःख सकर उपार्जित किये इस साध्वौकों मनाकर दिनकी सृष्टि की। मुझे हुए पुण्यका आधा भाग प्राप्त कर लेती हैं। ऐसा उपाय करना है, जिसमें फिर पहले ही स्त्रियोंके लिये अलग यज्ञ, श्राद्ध या अपवासका भौति दिन-रातको व्यवस्था चलती रहें और उस विधान नहीं हैं। वे पतंक सेवामाञसे ही उन पतिव्रताके पतिमा भी नाश न हो। अभीष्ट नोकॉकों प्राप्त कर लेती हैं। अतः महाभागे !
घुवने कहा-देवताओंमें यों कहकर अन्नसुया तुम्हें सदा पतिकी सेवायें अपना मन लगाना देवी उस ब्राह्मणी धर गर्मी और उसके कुशल चाहिये: क्योंकि स्त्रीके लिये पाँत ही परम गतिं पूछनेपर उन्होंने अपनी, अपने स्वामीकी तथा हैं। पति जो देवताओं, पितरों तथा अतिथियौंकी
*पांनाच माहाद्रिच्छन दिनाकरः। तम्ब चा:दयानमंना
तस्मान् पतितानसूयां तपनन्। प्रायः वै पत्नी मानौरुदकाम्या । । १६ । ‘३ ३
अनसूबोंबच । भिनितमश – १ हौर्यंत कथं नित । गन्स गनु त अम; साम्बई सुराः ।। यक्षा | पुनरजरथनमूनापने , था । य: स्वतः मा नागमेत ।।
+कञ्चिन्द्र कल्याण स्वाभमुखदर्शनान् । कच्चिच्याबिलदेव
भूपगाय मया ॥ ८६ लम् । सानफलधाप्या
मन्यसे:१यक पतिम् ॥ न्यूका परिवता: ॥
* संक्षिप्त पार्कएप्लेय पुराण
मारपूवं जा रहा है, उसके भी पुण्यन अनसूया बौली–देत्रि ! तुम्हारे जनसे दिन अंधा भाग स्त्री अनन्चासे पति की सेवा करने मात्र रातको व्यवस्था लोप हैं। आनेके कारण शुभ प्रा कर लेती हैं।” कर्माका अनुष्ठान बंद हो गया है; इसलिये ये अनाज्ञीला वचन सुनकर पतिव्रता साह्याने इन्द्र आदि देवता मेरे पास दुग्ध होकर आये हैं। | पड़े आदर सत्र का पूजन किया और इस और प्रार्थना करते हैं कि दिन रात यशस्था प्रकार कहा-‘स्वभावत: सबका कल्याण लिनेवालँ पहलेको तरह अण्ड्ररूपमें चलती रहे। मैं | देवो! बयं आप यहाँ धारकर पति सेवामें इसके लिये तुम्हारे पास आयीं हैं। मेरी यड़ स्नात मेरो पुनः अदा बढ़ा रही हैं। इससे मैं धन्य हो’ सुनी। दिन न होनेसे समस्त यज्ञकमा अाज नयों। यह आपका मुझपर बहुत बड़ा अनुग्रह हैं। हो गया हैं और यज्ञकै अभावसे देवताओंकी पुष्टि इसे देवताओंमें भी आज मुझपर कृपादृष्टि की | नहीं हो पाती है। अतः परंवन! दिन नाश हैं। मैं जानती हैं कि स्त्रियों लिये प्रतिक सुमन’ समस्त शुभ कर्मों का नाश हो जायेगा और उनके दुम कोई गति नहीं हैं। गतिमें किया हुआ प्रेम नाशसे वृष्टिमें बाधा पड़ने कारण इस संसारका इहलोक और परलोक भी उपकार करनेवाला | ही उच्छंद हो जायगा। अतः यदि तुम इस होता हैं! मस्बिन्!ि के प्रसादसे ही ना इस बातों आपसे बचाना चाहती हो तो लोना और परलोकमें में सुग्त्र पाती हैं, क्योंकि भम्पूर्ण लोकपर इया को, जिससे पङ्गलेको भनि पति हुँ नारौका देवता हैं। महाभागे ! आज आप | सूर्योदय हों। | रे घर पर धारी हैं। मुझसे अथवा मेरे इन
| आझम्युच्च । | जिने आपको जो भी ये हो, उसे बतानेको | माण्ड़य्येन महाभागे शप्त भर्ती ममेश्चरः ।।
सूर्योदये विनाशं त्वं प्राप्यमीत्र्यातमन्युना। अनसूयाच ।
ब्राह्मणने कहा–महाभा माझ ऋघिने एते देवाः सहेद्रेण भामुपागम्य दु:खिताः। | अत्यन्त धमें भरकर मेरे स्वामी–म इंश्वरको शाप चाक्यापास्तमत्कनँदिननक्तनिरूपणाः ॥ दिंश हैं कि सूर्योदय होते ही तेरी मृत्यु हो जायगी। याचन्तेऽहर्निशासंस्थां यथावदविपद्धताम्।
अनसुयोवान अझै तदर्थमायाता शृणु चैतद्चों मम ॥ आदि वा रोचते भद्रे ततस्त्वद्वचनादम्। दिनाभावान् समस्तानामभात्रों शगकर्मणाम्। । करोमि पूर्वसदेई भर्तारं च नवं तय ।। तदभाश्चात् सुरा: पुष्टि नोपयामिन नपर्बान ।। मया हि सर्वथा स्त्रीणां माहात्म्यं झर्वान। अह्न शैव समुच्छेदादुच्छेदः सर्वकर्मणाम्।। पतिव्रतानामाराध्यमिति सम्मानयामि ते ।। नदुच्छेदादनावृष्टया जगदुदमेष्यति ॥ अनसूया बोलीं–कल्याणी ! यदि तुम्हारी इच्छा तत्त्वमसि चैदेतज्जगदुद्धमापदः। । हैं और तुम कहो हो मैं तुम्हारे पतिको पूर्वनन् प्रसाद साध्वि लोकानां पूर्ववद्वनंता रविः॥ | शरीर एवं नयाँ स्वस्थ अवस्थामा कर देंगी।
” भां थम् 1 1 शुगम्।ि भत्रिन् ‘ान् नवनि हि ॥
मध्य गाभा पाइवां नि । झम्मा मांजैः सदा कर्मा को भर्ना । गतः ।। जह — अन्न पिआगतं यः कुर्नान्यः ज्ञवाः; । तस्यान्यर्द्धकलानग्यांचना जारी भुः भन्नुपर्दैन ।
सां क्रूहि पाश नाय नम :न्दरम् । आपदा झन्८ वाई ताऽऽशप की इथे ।।
।। १६ ॥ ६ ॥
* दत्तात्रेयके जन्म-मसमें एक पतिव्रता श्राह्मणी तथा अनसुयाजको चरित्र + ५५ सुन्दरी ! मुझे पतिव्रता स्त्रियों के माहात्म्यका सर्वथा | पुरुपको कभी नहीं देखा हैं, उस सत्यके प्रभाव आदर करना है, इसीलियें तुम्हें मना हैं। | यह ब्राह्मण रोगने मुक्त हो झिसे तरुण हो जाय पुत्र इनान्न और अपनी स्ञीके साथ सौं धतक जीवित रहे । तथेत्युक्ते तया सूर्यभानुहाच तपस्विनी।। यदि मैं स्वामौके समान और किसी देवताको नहीं अनसूयाध्यमुद्यम्य दशराने तदा निशि ॥ समझती तो उस सत्यके प्रभावसे यह ब्राह्मण ततो विवस्वान् भगवान् फुल्लपद्माकणाकृतिः। रोगमुक्त होकर पुनः जीवित हो जाय । अदि मन, शैलराजानमुदयमारोहोरुमण्इल: ॥ जाण एवं क्रियाद्वारा मेरा सारा उद्योग प्रतिदिन समनन्तरमेवास्या भतां प्रागैयुन्यत। स्वामी सेवाके हीं लिये होता हो तो वह ब्राह्मण पपात न्न महीपृष्ठे पतन्तं जगृहे च सा ॥ जीवित हो जाय।। पुत्र ( सुपति ) कहता है-ब्राहाणीके ‘तथास्तु’ कहकर स्वीकार करनेपर तपस्विनी अनसुयाने अयं हाथमें लेकर सूर्यदेवका आवाहन किया। उस समयतक दस दिनों के बराबर रात बीत चुकीं थी। तदनन्तर भगवान् सूर्य खिले हुए कमलके समान अरुण आकृतिं धारण किये अपने महान् पाण्डुलॐ साथ गिरिराज उदयाचलर आरूढ़ हुए। सुर्वदेवकें प्रकट होते ही ब्राह्मीका पति प्राणहीन होकर पृथ्वीपर गिरा; किन्तु उसकी पत्नीने गिरते समय उसे पकड़ लिया।
अनसुयोवाच न विवादस्सा भड़े कर्तव्यः पझ्झ में चलम् । पतिंशुश्रूषाचाप्तं तपसः किं चिरेण ते ।। यथा भर्तृसमं नाच्यमपश्यं पुरुषं न्नित् ।
पत: शीलतो झुन्या झामाभुर्यादिभूषणैः ।। तेन सत्येन विप्रोग्न व्याधिमुक्तः पुनमुँचा। प्राप्नोतु जीवितं भार्यासहायः शरदां शतम् ।।
पुत्र इवान। यधा भर्तृसर्म नान्यपहुं पश्यामि दैवतम् । ततो विप्रः समुत्तस्थ व्याधिमुक्तः पुनर्मुवा। तेन सत्येन विप्नोऽयं पुनर्जीवत्वनामयः ।। स्वभाभिर्भासयन् वेश्म वृन्दारक इबाजरः ।। कर्मणा मनसा बाचा भराराथनं नि । ततोऽपतत् पुष्पवृष्टिर्देशवाह्मादिनि:स्वनः । यधा ममोझमो नित्यै तथा जीवनाद् द्विजः ॥ लेभिरे च मुदं देवा अनसूझामयाब्रुवन् ।।
अनसूया बोर्ली-भड़े! तुम विपाद न करना। पुत्र कहता है-पिताज़ों ! अनसूया के इना पतिकी सेवासे जो तपोबल मुझे प्राप्त हुआ है, उसे कहते ही वह ब्राह्मण अपनों प्रभासे उस भवनको | तुम अभी देखो; त्रिलनको क्या आवश्यकता ? प्रकाशमान करता हुआ रोगमुक्त तरुण शरीरको मैंने जो रूप, शील, बुद्धि एवं मधुर भाषण आदि जीवित हो उठा, मानों जरावस्था रहंत देवता हो । मद्गुणोंमें अपने पनि समान दुसरे किसीं । ज्ञदनतर दुभ आदि देवतओंके की आवाज
भाभग्न पाण्डेय पुराण
वहाँ कुकी व होने लगी। देवताओंको | मुझे वर देने योग्य समझा हैं तो मेरी यही इच्छा व अनन्द निन्। ३ झन मजदेवासे ;ने लगे हैं कि ब्रह्मा, विष्णु और शिव मेरे पुत्रके रूपमें प्रकट देवता यौल-कल्याण! आपने देताओंका हों तथा अपने ग्रामीके साथ मैं उस योगको | बहुत बड़ा कार्य किया है। नपस्बिना ! इससे | प्राप्त करूजो समस्त क्लेशों से मुक्ति देनेवाला हैं।
प्रसन्न होकर देता आपको चर देना चाहते हैं। यह सुनकर ब्रहाा, विष्णु और शिव आदि आप कोई मर माँगे । देवताओंन ‘एन्मस्तु’ कहा और तपस्विनी अनसूयाका अननूवाने कहा-६ ब्रह्मा आदि देवता सम्मान करके वे सन्–के सब्र अपने अपने नामों मुझपर प्रसन्न होकर देना चाहते हैं, यदि आपलोगने चले गये ।।
दत्तात्रेयजीके जन्म और प्रभावकी कथा पुत्र सुत) कहना हैं-जन-हर बहुत | माता उदरसे बाहर निकल आथे। गांचाझजनित समय व्यतौं होनेके बाद ब्रह्माजीके द्वितीय पुत्र महान् आया तथा पिताकै अपमाननत दुःख मध अत्रिने आफ्नो परमसान्त्री पत्नी अनसूयाको | और अमर्षसे युक्त होकर ने यज्ञको तत्काल देना, ३ जुरान कर चुनें थीं। वें रासुन्दरी | भस्म र इलनेको त हो गये थे। वे | श्रीं। उनऊ। झप मनको लुभानेन्माला आ। इन्हें तमोगुणके उत्कर्षसे युक्त साक्षात् भगवान् के उन्कर मुगिने काममुक्त होकर मन-ही-मन उनका | अंश थे। इस प्रकार अनसूयाके गर्भसे ब्रह्मा, चिन्तन किया। उनके चिंतन करते समय जो विगु र शिक्षके अंशभूत्र तीन पुत्र उत्पन्न हुए। विकार प्रकट हुआ, उसे वेयुक्त बानुने इधर चन्द्रमा ब्रह्माके अंशमें हुए थे, इनाय इधर और की ओर पहुँचा दिया। वह | भौत्रिशुभगवान्के स्वरूप धैं और दुर्वासा में अजमुका तेज झस्वरूप, शुक्न, सोमरूप । नाक्षात् भगवान् शङ्कने हीं अबतार लिया था।* एवं गजोंम था। जब वह गिर ना तों में देताओंके जान देने के कारण ये तीनों देवता दस दिशा ग्रहण कर लिया। वहीं प्रजापति वहाँ प्रकट हुए थे। चन्द्रमा अपनी शीतल अनिके मानस पुत्र चन्द्रमाके ऊपमें अनसुन्नासे | किरणें वृण, लता, बौं, अन्न त मनुष्योंका | अन्न हुआ. मस्त पिक ओवनका प्रण लें हैं और सदा में रहते हैं:
आधार है। भाग्छन् नि सन्तुष्ट होकर अपने पतिकै अंश हैं। दत्तात्रेय दुष्ट दैत्यों मंहार श्रीविग्रहमें सचमच तेज प्रकट किया। उसमें करके ज्ञाकाँ रक्षा करते हैं। जें शिष्टजनपर दाजा ज्ञ-म हुआ। भगवान् गुने । अनुग्रह अनेवाले हैं। उन्हें भगवान् विष्णुका अंश यॐ नामसे प्रशिद्ध प्राप्त करके अनसूयाका जानना चाहिये। दुर्वासा अपमान करनेवालेको | मनपान किया। वे द्वितीय पुत्र थे।| भस्म कर डालते हैं। वे शरीर, दृष्टि, मन और । हर वो ड़ा उद्द’ था। उसने एक धागासे भी त स्ञभावके हैं और रुइभावका महम अत्रिका अरमान ! दिश। यहू दे आश्रय ले रहते हैं। इस प्रकार प्रजापतिं महर्षि अके तृतीय पुत्र हुसः, जो भी ज्ञा| अनिने स्वयं ही चन्द्रमाको प्रकट किया। गुरू गर्भमें ही हैं, धमें रम्र ही दिमें दत्तात्रेयज़ी ऑगस्थ रहकर विषयका अनुभव मोमा ब्रह्माभय देतात्रय-वज्ञपत्त । दुजांसाः शङ्करों जज्ञे गुदा-हिवौकसम्॥
* इनान्नेमके जन्म और प्रभावकी या करने लगे। दुर्वासा अपने पिता-माताको छोड़कर मुझे पापका भागी न होना पड़ेगा।’ उन्मत्त नामक उत्तम व्रतका आश्रय ले पृथ्वीपर उसके इस नि अग्रको जानकर मन्त्रयोंके मध्यमें विचरने लगे।
बैठे हुए परम बुद्धिमान् वयोवृद्ध मुनिश्रेष्ठ गगने कुछ काल बीतनेके पश्चात् जब राजा कृतवीर्य कहा–’राजकुमार! यदि तुम राज्यका यथावत् स्वर्गकों पधारे और मन्त्रियों, पुरोहित तथा पुरवासियोंने | पालन करनेके लिये ऐसा करना चाहते हो तो मेरी राजकुमार अर्जुनकों राज्याभिषेकके लिये बुलाया बात मुनों और वैसा ही करो। महाभाग दत्तात्रेय तब उसने कहा-‘मन्त्रियो ! जो भविष्यमैं नए | मुनि सह्य पर्वतकी गुफा में रहते हैं। तुम उहाँको ले जानेवाला हैं, वह राज्य मैं नहीं ग्रहण कगा। आराधना करो। वे तीनों लोकोंकी रक्षा करते हैं। जिसके लिये प्रजाजन कर लिया जाता हैं, उस | दत्तात्रेयजी होगयुक्त, परम सौभाग्यशाली, सर्वत्र उद्देश्यका पालन न किंवा जाब तो राज्य समदर्शी तथा विश्वमालक भगवान् विष्णुके अंशरूमें लेना व्यर्थ है। वैश्यलोग अपने व्यापारसे होनेवाली इस पृथ्वी पर अवतीर्ण हुए हैं। उन्हींकी आराधना आयका बारहवाँ भाग राजाको इसलिये देते हैं करके इन्द्रने दुरात्मा दैत्योंद्वारा छीने हुए अपने कि वे मार्गमें लुटेरों द्वारा लूटे ना जायँ। राजकीय पदको प्राप्त किया तथा दैत्योंको मार भगाया। अर्धरक्षकों द्वारा सुरक्षित होकर में वाणिज्चके अर्जुनने पूछा-महर्षे! देवताझोंने परम प्रतापी लिये यात्रा कर सकें। ग्वाले घी और ज्ञक़ दत्तात्रेयजीको आराधना किस प्रकार की थी? तथा आदिका तथा किसान अनाका सृा भाग ईनारा छीने हुए इन्द्वपदा देवराज राजाको इसी उद्देश्यले अर्पण करते हैं। यदि राजा | क्रिया था। | वैश्र्मोंसे सम्पूर्ण आयका अधिकांश भाग ले लें तो | गर्गने कहा-पूर्वकालमें देवताओं और दैत्योंमें वह चोरका काम करता हैं। इससे उसके इष्ट और बड़ा भयङ्कर युद्ध हुआ था। उस युद्धमें दैत्यका पूर्त कर्मोंका नाश होता हैं।* अदि राजाको कर नायक़ जम्म था और देवताओंके स्वामी इन्द्र। |कर भी अजाको दूसरी वृत्तियोंका आश्रम लेना उन्हें युद्ध करते एक दिल्य बर्ष व्यतीत हो गया। पहूँ, उसकी रक्षा जाके अतिरिक्त किन्हीं अन्य उसके बाद दैवत्ता हार गये और दैत्य विजयी हुः व्यक्तिद्वारा हो तो उस कर लेनेवालें विचित्त आदि दानवने जब देवताओंको परास्त राजाको निश्चय ही नकमें जाना पड़ता हैं। प्रजाक कर दिया, तब वे युद्धसे भागने लगे, अब उनमें आपका जो छला भाग हैं, उसे पूर्वकालके महर्षियोंने शत्रुओंको जीतनका उत्साह न रह गया। फिर वे राजाके लिये प्रज्ञाकी रक्षाका वेतन नियत किया दैत्यसैनाके वधक इच्छासे बृहस्पतिजाँके पास है। यदि चोरोंसे वह प्रज्ञाकी रक्षा न कर सका तो आये और उनके तथा चालरिज्वल्य आदि महर्षिक इसका पाप याज्ञाको ही होता हैं; इसलिये यदि मैं साथ बैंकर मन्त्रणा करने लगे।
तपस्या करके अपनी इच्छाके अनुसार योगका बृहस्पतिजीने कहा-देवताओ! तुप अत्रिके | पद प्राप्त कर मैं तो मैं पृथ्वीके पालनकी शक्तिसे तपस्वी घुन्न महात्मा दत्तात्रेयके पास ज्ञाओं और
युक्त एकमात्र राजा हो सकता हैं। ऐसी दशामें इन्हें भक्तिपूर्वक सन्तुष्ट करो। उनमें धर देनेझी अपने उत्तरदाग्निचका पूर्ण निर्वाह करनेके कारण | शक्ति हैं। वे तुम्हें दैत्योंका नाश करनेके लिये वर
*पुण्यानां द्वादशं भाग भूपालाय वाणगुञ्जनः ।। दत्त्वार्थक्षिभिर्मा रक्षितो याति दम्पुत: । मा मृततादेः भागं च कृषीवलाः ॥ इत्यान्द् भूभुजें युवाँद भागं ततोऽधिकम् । ग्यादीनामशेषाणां वणी तरततः।
इग्नापूर्तनिशान नाझरर्धामगः
संक्षिप्त मार्कंडेय पुराण
तत्पश्चात् तुम सब लोग मिलकर दैत्यों और आपकी कृपासे हम पुनः स्वर्गलोक प्राप्त करना | दानवौंका में कर सका। चाहते हैं। जगन्नाथ ! आप निष्पाप एवं निर्लेप हैं। गर्गने कहा-उनके पैसा कोषर देवगण विद्याकै प्रभाबमें शुद्ध हुए आपके अन्त:करणमें दत्तात्रेयके श्रमपर गये और वहाँ लक्ष्मजीके ज्ञानको किरणें फल रही हैं। साथ महात्माका दर्शन किया। सबसे पहले दत्तात्रेयजीने कहा-देवताओं ! यह सत्य है। उन्होंने अपना कार्यकाभन के लिये उन्हें कि मेरे पास विद्या हैं और मैं समदर्शी भौं हैं: प्रणाम किया, फिर स्तवन झिया। भक्ष्य-भोज्य तथापि इस नारीकै सङ्गको मैं दूषित हो रहा हैं। ज्योकि स्त्रीको निरन्तर सहयोग दोषका ही कारण
होता हैं।
उनके ऐसा कानैपर देवता फिर बोलें-द्विजश्रेष्ठ ये साक्षात् जगन्माता लक्ष्मी हैं। इनमें पापका लेश भो नहीं हैं- शत: में कभी पित्त नहीं होतीं । जैसे सूर्यको किरणें ब्राह्मण और चाण्डाल दौनोंपर पड़ती हैं, किन्तु अपवित्र नहीं होतीं।
देवताओं ऐसा कहनेपर दत्तात्रेयज्ञमें हँसकर का-यद तुमलोगका ऐसा ही विचार है तो समस्त असुरोंको युद्धके लिये यहाँ मेरे सामने बुला लाओ, विलम्ब न करो। मेरे दृष्टिपातञ्जनंत अग्निसे उनके बल और तेज दोनों क्षीण हो जायँगें और इस प्रकार में सब-के-सब मेरी इष्टिमें पड़कर नष्ट हो जायेंगे।
इनकी यह बात सुनकर देवताओंने महाबली और माला आदि वस्तुएँ मैंट को। इस प्रकार वे दैत्योंको बुद्धके लिये ललकारा तथा ३ क्रोधमें आराधनामें लग गये । अयं दत्तात्रेयूज़ चलते तो भरकर देवताओं पर टूट पड़े। दैत्योंकी मार खाकर देता भी उनके पीछे-पीछे जाते । जय वे खड़े देवता यसै व्याकुल हो गये और शरण पानेको होते तो देवता भी ठहर जाते और जव चे चे इच्छासे शीग्न हीं भागकर दत्तात्रेयके आश्चमपर आसनपर बैठने तो देवता नीचे खड़े रहकर उनक गर्ने । दैत्य भी देवताओंको कालके गालमें भेजने उपासना करते । एक दिन पर पड़े हुए देवताओंसे | लिये उसी जगह जा पहुँचे। वह उन्होंने महाबली | दत्ताञयज्ञ पूछा–‘तुमलोग क्या चाहते हो, जो महात्मा दत्तात्रेयजीको देखा। उनके वामभागमें | मेरी इस प्रकार सेवा करते हो ?’ चन्द्रमुख लक्ष्मज़ी विराजमान थीं, जो उनकी देवता बोले-मुनिश्रेष्ठ ! जु-भ आदि दानवने प्रिय पदी एवं सम्पूर्ण जगत्के लोगों का कल्याण निकीपर आक्रमण करके लोंक, भुवनॊक करनेवाली हैं। मैं सर्वाङ्गमुन्दरी लक्ष्मी स्झौसमुचित
आदिपर अधिकार जमा लिया है और सम्पूर्ण सम्पूर्ण उत्तम गुणसे विभूषित और मीठ चभा भी है। लिये हैं; अतः आप हमारी वाणीमें भगवानुसे वार्तालाप कर रहीं । रक्षाके लिये उनके वध विचार कीजिये ।। उन्हें सामने देख दैयोंके मन में उन्हें प्राप्त
दत्तात्रंमजाके जन्म और भान्नक क्ला५
करनेकी इच्छा हो गयी। वे अपने बढ़ते हुए इनका पुण्य जल गया है, जिससे में शक्तिहीन कामके वे रोक सके। अब तो उन्होंगे हो चले हैं।’ देवताओंका पीछा छोड़ दिया और लक्ष्मीज्ञीको | तदनन्तर देवताओंने नाना प्रकारके अस्त्र हुए लेनेका विचार किया। उस मापसे मोहित हो शस्त्रोंमें इँत्यको मारना आरम्भ किया। लक्ष्मी जानेके कारण उनको सारी शक्ति क्षीण हो गई। उनके सिरपर चढ़ी हुई थीं, इसलिये वे नष्ट हो । वे आसक्त होकर अापसमें कहने लगे-‘यह् गये। इसके झाद लक्ष्मीजी वहाँमें महामुनि स्त्री त्रिभुवनका सारभूत रत्न हैं । यदि यह हमारी दत्तात्रेयके पास आ गयीं। उस समय सम्पूर्ण हो जाय तो हमलोग कृतार्थ हो जायँ; इसलिये | देवता उनकी स्तुति करने लगे । दैत्योंके नाशर हम सब लोग मिलकर इसे पालकीपर बिदा उन्हें बड़ी प्रसन्नता हुई थी। फिर परम बुद्धिमान् लें और अपने घरको ले चलें ।’ यह विरदत्तात्रेयजीको प्रणाम करके देवता स्वर्ग निश्चित हो गया।
चले गये और पहलेकी भौति निश्चिन्त होकर आपसमैं ऐसी बात करके वे कामपीड़ित रहने लगे। राजन् ! यदिं तुम भी इसी प्रकार दैत्य आसक्तिपूर्वक वहाँ गये और नमीजीको | अपनी इच्छाके अनुसार अनुपम ऐश्व प्राप्त पालकमें बिठाकर उसे मस्तक पर ले अपने | करना चाहते हो तो तुरंत ही उनकी आराधना स्थानकी ओर चल दिये। तब दत्तात्रेय्जीने | लग जाओ। हँसकर देवताओंसे कहा—‘सौभाग्यसे नमी गर्ग मुनिकी यह बात सुनकर जा कार्तवीर्यने दैत्योंके सिरपर चढ़ गयीं। अब तुमलोंग बढ़ो। दत्तात्रेयज्ञोके आश्नमपर जा उनका भक्तिपूर्वक हथियार उठाकर इन दैत्योंका वध करो। अब पूजन किया। वह उनका पैर दबाता, उनके लिये इनसे डरनेको आवश्यकता नहीं। मैंने इन्हें । निस्तेज कर दिया है तथा पराबीं स्त्रीके माला, चन्दन, गन्ध, जल और फल आदि मामा प्रगत करा; भोजनके माधन जुटो और जैन साफ करता था। इससे सन्तुष्ट होकर मुनिने दत्तात्रेयजी बोले-तुमने जो-को वरदान मांगे आर्तवीर्यसे कहा-‘अरे या ! तुम देखते हो, मेरे हैं, वे सब तुम्हें प्राप्त होंगे। तुम मेरे प्रसाद पास यह स्त्री बैनी हुई है। मैं इसके उपभोगसे चक्रवर्ती सम्राट् होओगे।। निन्दाका पात्र हो रहा है, अतः मैरी सेवा तुम्हें । सुमन कहते हैं-तदनन्तर दत्तात्रेयजीको प्रणाम नहीं करना चाहिये। मैं कुछ भी करनेमें असमर्थ करके अर्जुन अपने घर गया और समस्त प्रज्ञा हैं। तुम अपने उपकरके लिये किसी शक्तिशाली | एवं अमात्यकि लोगोंको एकत्रित करके उसने पुरु आराधना करो।’
राज्याभिषेक ग्रहण किया। उसके अभिषेक के । उनके इस प्रकार कहनेपर फातन्त्रीय अर्जुन लिये गन्ध, श्रेलु अप्सराएँ, चमवा आदि महर्षि, गजौनं बाका स्मरण हों आया। उसने दत्ताजी प्रणाम करके कहा।
अर्जुन बोला-देव! आप अपनी मायाका आश्रय लेकर मुझे क्यों अपनी मायामें डाल रहे हैं? आप सर्वथा निष्पाप हैं। इस प्रकार ये देवी भी सम्पूर्ण जगतकी जननी हैं।
अर्जुन को कहनेपर भगवान्ने सम्पूर्ण भूमण्डलको बशमें करनेवाले महाभाग कार्तवींबंसे कहा-‘राजन्! तुमने मेरे युद्ध रहस्यका कथन | किया है, इसलिये मैं तुमपर बहुत सन्तुष्ट हूं।’ तुम कोई वर माँगो।’
कार्तवीर्यने कहा-देब! यदि आप मुझपर प्रसन्न हैं तो मुझे ऐसी उत्तम ऍअर्थशक्ति प्रदान कीजिये, जिसमें मैं प्रज्ञा पालन और अधर्मका भाग न बनें। मैं दूसरों के मनकी बात जान हूँ और युद्धमें कोई पैरा सामना न कर सकें। मेरु आदि पर्वत, गङ्ग। आदि नदियाँ और समुद्र, युद्ध करते समय मुझे एक हजार भुजाएँ प्राप्त हो; पाकर आदि वृक्ष, इन्द्र आदि दैवता, वासुकि किन्तु वे इनों हलकी हो. शिससे मेरे शरीरयर आदि भाग, गरुद्ध आदि पक्षी तथा नगर एवं भार न पड़े। पर्वत, आकाश, जल, पृश्यों और जनपदके निवासी भी आमें थे। औदत्तात्रेयजीको पाताल में अन्ना गतिं हूँ। मेरा ध में कृपा अभिकको सच सामन्त्री अपने-आप जर अपेक्षा श्रेष्ठ पुरुपके हाथसे हो । यदि कभी मैं गयी थी। फिर तो ब्रह्मा आदि देवताओंने होमके कुमार्गमें प्रवृत हो तो मुझे सन्मार्ग दिखानेत्राला लिये अग्निको प्रधलित किया तथा साक्षात् उपदेशक प्रा॥ हो। मुझे अॅष्ट अतिथि प्राप्त हों और नारायणस्वरूप दत्तात्रेयजा एवं अन्यान्य महर्थिॉन निरःर दान करते हुनेपर न मेरा धन की समुद्र और नदियों जल अर्जुनका राज्याभिषेक न हो। ; मग नंग्यात्रले सम्मान में किया। जसिंहासनपर आसीन होते ही हुँह-शने धन अभाने दूर हो जाय तथा आपने भेरी अधर्मके नाश र धर्मको रक्षा लिये शोधणा अनन्य भक्ति इन रह रायीं इनसे हम ऐश्चर्य-शक्ति पाकर वे अलार्कोपाख्यानका आरम्प-नागकुमारों द्वारा तथ्वजके पूर्वमान्तका वर्णन •
बड़े शक्तिशाली हो गये थे। राजा घोषणा इस | राजालोग यज्ञ, दान, तपस्या अथवा संग्राममें प्रकार थी-‘आजसे मुझको छोड़कर जो कोई भी पराक्रम दिखानेमें राजा कार्तवीनंकी झुलना नहीं शस्त्र ग्रहण करेगा अथवा दूसरोंकी हिंसामें प्रवृत्त कर सकते। राजा अर्जुनने जिस दिन दत्तात्रेयशीमें होगा. यह लुटेरा समझा जायगा और में हायसे समृद्धि प्राप्त की थीं, इस दिनके आनेपर ब्रह | इसका चच होगा।’
उनके लिये अज्ञ करता था और सारी प्रज्ञा भी | ऐसी आज्ञा जारों होनेपर उस राज्यमें राजाको परम ऐश्वर्यकी प्राप्ति हुई देंखें उस दिन महापराक्रम नरश्रेष्ठ । अर्जुन को छोड़कर दुसरा एकाग्रचिन दत्तात्रेयजम वज़न न ।’
कोई मनुष्य शस्त्र धारण न करता था। स्वयं | इस प्रकार चराचरगुरु भगवान् विपके स्वरूपभूत राजा हीं ग, पशुओं, ने एर्च निंजातियोंकी महात्मा दत्तात्रेयज़ौकी महिमाका वर्णन किया रक्षा करते थे। पवयों तथा व्यापारियोंके गया। शङ, चक्र, गदा एवं शार्ङ्गधन्य धारण समुदायको रक्षा भी चे स्वयं ही करते थे। लुटेरे, | करने वाले अनन्त एवं अप्रमेय भगवान् विष्णुके | सर्प, ऑग्न तथा शस्त्र आदिसे भयभीत मनुष्का | अनेक अवतार पुराणोंमें चत हैं। जो मनुष्य । तथा अन्य प्रकार आपत्तियोंमें मग्न हुए मानवका उनके परम स्वरूपका चिन्तन करता है, वह सुक्षी धे स्मरण करने मात्र तत्काल उद्धार कर देते थे। होता है और संसारसे उसका शौन्न हो उद्धार हो उनके राज्यमें पनका अभाव कभी नहीं होता था।| जाता है। त्रे आदि-अक्षरहित भगवान् विष्णु उन्होंने अनेक ऐसे यज्ञ किये, जिनके पूर्ण होनेपर | अधर्म नाज़ और धर्म प्रचारके लिये ही ब्राहामको प्रचुर दक्षिणा हो जाती थीं। उन्होंने संसारको प्रश्न और पालन करते हैं। अब मैं इसी कठोर तपस्या की और संग्रामों में भी महान् प्रकार पितृभक्त राञ्जर्षि महात्मा अलर्क जन्मका पराक़म दिखाया। उनको समृद्धि और बढ़ा हुआ | वृत्तान्त बतलाता है। क्योंकि बायजीने उहाँको सम्मान देखकर अङ्गिा मुनिने कहा-‘अन्य रोगका उपदेश दिया था।
अलकोपाख्यानका आरम्भ-नागकुमारीके द्वारा ऋतध्वजके पूर्ववृत्तान्तका वर्णन सुमति कहते हैं-पिताजी ! प्राचीन कालक्री | था; कभी कामचर्चा, संगीत- अबण और नाटक आत हैं, शत्रुजित् नामके एक महापराक्रमी राजा | देखने आदिमें समय यतीत होता था। राजकुमार राज्य करते थे, जिनके अज्ञमें पक्ष सोमरस जब चेलमें लगते, उस समय उही अशरस्थावाले | पान करनेके कारण देवराज इन्द्र बहुत इन्तुष्ट | बहुत-से ब्राह्मण, क्षत्रिय और वैश्योंके बालक | रहते थे। उनका मुन्न भो बुद्धि, पराक्रम और | भी प्रेमवश वहाँ खेलने आ जाते थे। कुछ समय लावण्यमें क्रमशः बृहस्पति, इन्द्र और बीतने पश्चात् आभतर नामक के दो पुत्र अश्विनीकुमारोंकी समानता करता था। वह राजकुमार | नागलोकसे पृश्नोत्तलपर घूमनेके लिये आये। प्रतिदिन अपने सान अवस्था, बुद्धि, बल, | इन्होंने ब्राह्मणके रूप में अपनेझो छिपा रखा पराक्रम और चेष्टाओवाले अन्य राजकुमारोंमें | थी। वे देनेमें बड़े सुन्दर और तरूण थे। यहाँ भि। रहता था। कभी तो उन्में स्त्रों का जो राजकुमार तथा अन्यान्य द्विज़-चाल खेलते भिजेचन और उनके सिद्धान्तका निर्णय होता | थे, उनके साथ ही वे भी भौंत-भाँतके विनोद करते हुए बड़े नेमसे रहते थे। वे ग़जकुगार, वे! पुत्रोंने कहा-‘पिंताजी ! मत्र्यलोझमें राज्ञा ब्राह्मण, क्षञिय और वैश्यों के पुत्र तथा ३ दोनों शजिकै एक पुत्र हैं, जिनका नाम ऋतध्वज हैं। गजके बालक साथ -साथ स्नान, अङ्ग-| ३ बों ही पचान, सरल, शुरौर, मानी तथा सेवा, वस्त्र-धारण, चन्दनका अनुलेप और झन’ प्रिय पचन चोलनेवाले हैं। बिना पूछे ही वार्तालाप | आदि कार्य करते थे। राजकुमकै आँगन्छ।। ६ करनेवाले धक्का, विद्वान्, मित्रभाव लानेवाले
और समस्त गुणों के भंडार हैं। मैं राजकुमार माननीय मुरुमां सदा आदर देते हैं। बुद्धिमान् वं सञ्जाशील हैं। विनय ही इनका आभूषण हैं। उनके अर्पण किये हुए उप-उत्तम इपचार, प्रेम र भन त भोगने हमारे मन हर लिया हैं। इनके बिना नागलोक या भूलोकमें कहीं भी हमें सूत्र न मिलता। मिज़ाज ! उनके वियोगसे पाताललोककी अङ्ग शोजन रजनी भी हमारे लिये सज्ञापका कारण बनती हैं और उनका साथ होनेसे दिन सूर्य भी हमें आदि प्रदान करते हैं।
पिताने कहा-‘पुत्रो ! अपने पुण्यात्मा पिताका वह बालक धन्य हैं, जिसके गुणोंका वर्णन तुम जैसे गुगवान् लोग पक्षमें भी कर रहे हो। संमारमें कुछ लोग ऐसे हैं, जो शास्त्रकै ज्ञाता तो | हैं, किन्तु उनमें शीलका अभाव है। कुछ लोग | नागंज दो पुत्र प्रतिदिन ट्री प्रजाके शांतवान् तो हैं, किन्तु शास्त्रज्ञानसे रहित हैं।
मान्न बहाते थे। उनके साथ पति-भाँति जिस पुरुष शास्त्रोंका ज्ञान और तुम शील विनोद, हास्य और वार्तालाप आदि करनेसे दोनों गुण समानरूपमें हों, मैं उसको विशेष राजकुमारकों व सुख मिलता था। मैं उन्हें धन्यवादका पाङ्ग समझता हैं। जिसके मिनोचित | साथ लिये बिना भोजन, स्नान, क्रीड़ा तथा गुण मिलोंग और पराक्रमको शलोंग भी शास्त्रचर्चा आदि कुछ भी नहीं करते थे। इसी पुरुक बन्यमें वर्णन करते हों, उसी पुत्र प्रकार वे दो नागकुमार भी उनके बिना। पिता गस्तव पुत्रवान् होता है। ऋतज्ञ तुमनोगक | उरातलमें लंन्न साँसें खननै हुए 11 चित्ताने इमरी मित्र हैं। क्या तुमलोगोंने भी उनके और दिन निकलते ही उनके पास पहुँच जाते थे। निराको प्रसन्न करने के लिये कभी उनका कोई | इस तरह हुन समय बीत जानेके बाद एक | मनोरथ सिद्ध किया है जिसके यहाँसे याचक |दन नागर| अश्वतने अपने दोनों चालकोंसे कभी त्रिमुख नहीं जाने और मित्रका कार्य भी जू-‘पुत्र! म दोनों लोके प्रति इना| सि; हुए बिना नहीं रहता. ही मुम्न धन्य हैं। अधि: प्रेम किस कारण है बहुत दिनों दिनके इस जीवन और जन्म स है। मेरे घर में जो समव जुमलोग तालमें नहीं दिजायों देते, केवल गुर्ग आदि ग्रन, वाहन, आसन तथा और कोई रातमें हैं। मैं उन्हें देख पाता हैं। | बरस के लिये रुचि हो, वह सब तुमलोग
+अलङ्कामाना आरम्भ-नागकुमारोंक द्वारा आगजबके पूर्ववृत्तान्तका वर्णन
नि:शङ्क होकर उन्हें दे सकते हो। जो सुहृदों का | कहाँ यह भूमहल और कहीं ध्रुवका था, जिसे उपझर करते. शत्रुओंको हानि पहुँचाते तथा वापर होते हुए भी राजा ज्ञानपाके पुत्र भुवने मेधके समान सर्वत्र दानको चप करते हैं, | प्राप्त कर लिया! इसलिये पुत्र! महाभाग राजमारको । विद्वान्लोग इनकी सदा हीं उन्नति चाहते हैं। जिस जस्तुको आवश्यकता हो, बतला, जिसे पुत्र यौले-पिताजी ! वे तो कृतकृत्य हैं, उनका देकर तुम दोनों मित्र ऋणसे उण हो सके। कोई क्या उपकार कर सकता हैं? इनके घरपर पुत्रोंने कहा–पिताजी ! महात्मा अध्वजने आये हुए सभी याचक सदा हीं पूजित होते हैं अपनी कुमारावस्थाकी एक घटना बतलायीं थीं, उनकी अभी कामनाएँ पूर्ण की जाती हैं। उनके वह इस प्रकार हैं। राजा शत्रुजिक पास हुने घरमैं जो रत्न हैं, वे हमारे पातालमें कहाँ हैं। वैसे भी एक ओ ब्राह्मण पधारे थे। इनका नाम था बाहन, आसन, मान, भूधाग और बस्त्र यहाँ कहाँ महर्षि गालव । ने बड़े बुद्धिमान में और एक श्रेष्ठ उपलब्ध हो सकते हैं। इनमें जो विज्ञान है, वह | अब लेकर आये थे। उन्होंने ज्ञासे कहा-‘महाराज!
औं किसमें नईं हैं। पिताजी ! बड़े-बड़े विज्ञानके भी सब प्रकारके संदेहका भलीभाँत निवारण करते हैं। हाँ, एक कार्य उनका अवश्य है; किन्तु वह ब्रह्मा, विष्णु तथा शिव आदि सर्वसमर्थ परमेश्वग्रेक सिवा हमलोगोके तिथे सर्वथा असाध्य हैं।
पिताने कहा-‘पुत्रों! असाध्य हो या साध्य, किन्तु मैं उस उत्तम कार्यको अवश्य सुनना चाहता | | हैं; द्विान् पुरुषकं लिये कौन-झा कार्य असाध्य हैं। जो अपने मन, बुद्धि तथा इन्द्रियोंको संयम रखकर वृद्मममें लगे रहते हैं, उन मनुष्योंके लिये | इस पातालमें या में कोई भी ऐसौं वस्तु नहीं हैं, जो अज्ञात, अगम्य अथवा अप्राप्य हो । टी धीरे-धौंरे चलती हैं; तथापि यदि बह चलती रहे तो सहसों बाजन दूर चली जा सकती हैं। इसके विपत गरुड़ तेज चलनेवालें होने पर भी याँद
आगे पैर न बट्टा तो एक पग भी नहीं जा एक मामाचारी नीच दैत्य आकर मेरे झाश्रमका सकते। उद्योगी मनुष्यों लियै कुछ गम्य और विध्वंस किये देता हैं। वह सिंह, हाथी तथा अन्य अगम्य नहीं होता, उनके लिये सब एक-सा हैं। | वन जन्तुओंका और छोटे-छोटे शरिरयाले दूसरे
*नाविज्ञानं न चागःमें नाप्नाप्यं दिशि चैह जा । उद्यानां गनुष्याणां मचन्द्रयात्मनाम्॥ योजनां सहस्रश प्रजम् यति गिन्फि: । अन् वैनोऽगि दकं न गर्छन । उद्यज्ञानां मनुष्य –गा: न विद्यते।। क्व भुत क्व च भयं स्थानं यत् प्राधान् भुवः । ज्ञानपाइनुपर्ने: ; सन् गगोचरः ॥ तत् कथ्यतां महाभाग कार्यवान् बैन पुत्रौ । म भूपालन: सर्दनानुण्यं भवंत म्।।
465 जोका शरीर धारण करके अकारण आता हैं कुघलय (कु-भूमि, वलय-मण्डल) नाम प्रसिद्ध और समा ए मौनव्रतके पालनमें लगे हुए मॅर होगा। द्विश्रेष्ठ ! ॐ नाँच दानव तुम्हें रात-दिन सामने आकर ऐसे-ऐसे उपद्भव रक्त हैं, जिनमें क्लेशमें डालें रहता हैं, उसको भी इस अश्वपर मेरा चित्त बञ्चरर हो जाता हैं। शुद्यांप हमलोग उसे आरूढ़ होकर राना शनिको मुन्न तवश अध अपनी ओघानसे भस्म कर इतने शक्ति रखतें करेंगे। इस अश्वत्नों पाझर इसके नामपर् हैं तधार्षि बड़े कष्ट उपार्जित की हुई तपस्याका राजकुमारकी प्रसिद्धि होगी। जें कुवलयाचे अपव्यय करना नहीं चाहते। जिन् ! एक दिनकी कहलायेंगे।”राजन् ! उस आकाशवाणीके अनुसार बात हैं, मैं उस असुपको देखकर अनन्त निन्न हो’ मैं तुम्हारे पास आया हूँ। तपस्यामें चिन झालनेवाले लंबी साँसें ले रहा था, इतनेमें ही गह घोड़ा। उस दानवको तुम रोको; कि राजा भी |आकाशले नाँच्चे उत। उस समग्न ग्रह आकाशवाणी | नज्ञाकी तपस्याके अंशका भागी होता है। भूपाल ! | हुई-मुने! यह अश्च बिना थके समस्त भूमण्डलकी, अन्न मैंने यह अश्वरत्न तुमको समर्पत कर दिया। | परिक्रमा कर सकता हैं। इसे सूर्यदेवने आपके लिये तुम अपने पुत्रको मेरे साथ चलनेकी आज्ञा दो,
प्रदान किया हैं। आकाश-पाताल और ज्ञलमें भी जिमनै भर्मका लोप न होने पायें ।। इसकी गति नहीं रुकती। यह समस्त दिशामें गालच मुनके यों कहनेघर धर्मात्मा राजाने बेरोक-टोक जाता हैं। पर्वतोंपर चड़नेमें भी इसे मङ्गलाचारपूर्वक मार लवकों उस अक्षरम्पर कठिनाई नहीं होती। समस्त भूमण्ट्रलमें यह बिना चढ़ाया और मुनिके साथ भेज दिया। गालव मुनि कविटके विचरण करेगा, इसलिये संसारमैं इसका उन्हें साध ले अपने आश्रमको लौट गये।।
पातालकेतुका वध और मदालसाके साथ ऋतध्वजका विवाह पिताने पूछा-पुत्रों! मधिं गालनके साजाफर राजकुमार ऋतध्वजने वहाँ जो जो कार्य किया, उसे बतलाओं । तुमलोको कथा बड़ी अद्भुत है।
पुत्रोंने कहा-महई गालव रमणीय आश्रममें रहकर राजकुमार ऋतध्वनने ब्रह्मवादी मुनियाँकै सत्र विघ्नको शान्त कर दिया। वीर कुवलयाश्च । गालचाश्नभमें ही निवास करते हैं. इस बात वह मदोन्मत्त नव दानवे नहीं जानता था। इसलिये | सध्योपासनमें लगे हुए मानव मुनिको सताके लिये वह शुभरा रूप धारण करके अचा। उसे देने ही मुनिक शिग्ने हल्ला मचाया। फिर नों कुमार शीघ्र ही धार सवार हो धनुष लेकर इसके पीछे हैं। उन्होंने धनुषको जुत्र जोर चकर ५ चमक हुए अर्धचन्द्राकार में
* पातालकंतुझा वध और मदालसा साश्च प्रतञ्जका चिंताह में उसको चोट पहुँचायी। बाणसे आहत होकर वह रमणीको देखकर राजकुमारने समझा, यह कोई अपने प्राण बचानेकी धुनमें भागा और वृक्षों तथा रसातलकी देवी हैं। पर्वतसे घिरी हुई घनों झाड़ों में घुस गया। वह | उस सुन्दरी बालाने भी मस्तकपर काले घोड़ा भी मनके समान वेगसे चलने वाला था। धुंघराले बालोंसे सुशोभित, उभरी हुई छाती, स्थूल उसने बड़े वेंगसे उस सुअरका पीछा झिया। कंधों और विशाल भुजाओंवाले राजकुमारको वाराहरूपधारी दानव तीव्र वेंगसे भागता हुआ देखकर साक्षात् कामदेव ही समझी। उनके आते सहस्रों योञ्जन दूर निकल गया और एक जगह ही वह सहसा इटका नुड़ी हो गय; किन्तु, पृथ्वीपर चित्ररके आकार में दिखाई देनेवाले उसका मन अपने ब्रशमें न रहा। चङ्ग तुरंत ही गटेके भीतर बड़ी ती साक्ष कृद्ध पड़ा। इस लज्जा, आश्चर्य और हीनता बीभूत हो गयी। । बाद शीघ्र हो अश्वारोही राजकुमार भी घोर सोचने लग—’ये कौन हैं ? देवता, यक्ष, गन्धर्व,
अन्धकारसे भरे हुए उस भारी पड़ेमें कूद पड़े। ना! अथवा विद्याधर तो नहीं आ गय? या ये कोई उसमें जानेपर राजकुमारको वह सूअर नहीं पुण्यात्मा मनुष्य हैं ?’ यों विचारकर उसने लंबी दिञ्जायी पड़ा, बल्कि उन्हें प्रकाशसे पूर्ण साँस ली और पृथ्वीपर बैठकर सहसा मूच्छित हो पाज्ञाललोकका दर्शन हुआ। सामने ही इन्द्रपुरीके | गयी। राजकुमारको भी कामदेवके बाणका आघात –
समान एक सुन्दर नगर था, जिसमें सैकड़ों सोनेके सा लगा। फिर भी धैवं धारण करके उन्होंने उस महल शोभा पा रहे थे। उस नगरके चारों ओर तरुणीको आश्वासन दिया और कहा-‘डरनेकौं सुन्दर चहारदीवारी बनीं हुई थी। राजकुमारने | आवश्क ता नहीं।’ वह स्त्री, जिसे उन्होंने पहले उसमें प्रवेश किया, किन्तु जहाँ उन्हें कोई मनुष्य | महलमें जाते हुए देखा था, ताड़का पंखा लेकर नहीं दिखायी दिया। वे नगरमें घूमने लगे । चूमते- | व्यग्रतापूर्वक हल्ला करने लगी। राजकुमारने आश्वासन हाँ-घूमते उन्होंने एक स्त्रीको देखा, ज्ञों बड़ी देकर जब उससे मुझका कारण पूछा, तब वह उतावलीके साथ कहीं चली जा रही थीं। कुमारने | बाला कुछ लज्जित हो गयी। उसने अपनी उससे पूछा-‘तू किसकी कन्या हैं? किंस कामसे सखीको सच बातें बता दीं। फिर उस सञ्जीने जा रही हैं?’ उस सुन्दरीने कुछ उत्तर नहीं दिया। उसकी मृच्छका सारा कारण, जो राजकुमारको वह चुपचाप एक महलकी सीढ़ियों पर चढ़ गयी | देखनेने ही हुई थीं, बिस्तारपूर्वक कह सुनाया। ऋतबञ्जने भी घोड़ेको एक जगह बाँध दिया और | वह स्त्री चोली-प्रभो ! देन्लोझमें विश्वासु उसी स्त्रीके पीछे-पीछे मङ्गलमें प्रवेश किंवा । उस | नामसे प्रसिद्ध एक गन्धर्वोक राजा हैं। यह सुन्दरी समय उनके नेत्र आश्चर्य चकित हो रहे थे। इन्हींकी कन्या हैं। इसका नाम मदालसा है।
के मनमें किसी प्रकारको शङ्का नहीं थी।| वज्रकेतु दानन्त्रका एक भयङ्कर पुत्र हैं, जो | महलमें पहुँचनेपर उन्होंने देखा, एक विशाल | शत्रुओं का नाश करनेवाला है। वह संसार पलंग बिछा हुआ है, जो ऊपर चेतक सोनेका | पातालकेतुके नामसे प्रसिद्ध हैं, उसका निवासस्थान बना है। उसपर एक सुन्दरी कन्या बँदी थी, जो | पातालके ही भीतर हैं। एक दिन यह मालसा कामनायुक्त रति-सौ जान पड़ती थी। चन्द्रग्ाके | अपने पिता* उच्चांनमें घूम रही थीं। इसी समझ समान मुख, सुन्दर सँह, केंदरूके समान लाल | उस दुरात्मा दानवने विकारमयी माया फैलाकर ओठ, छरहरा शरीर और नील कमनकै समान | इस असहाय बालिकाओं हर लिया। उस दिन मैं उसके नेत्र थे। अनङ्गलज्ञाकी भाँति उस सबङ्गसुन्दरी | इसके साथ नहीं थी। सुना हैं, आगामी त्रयोदशीको
संक्षिप्त मार्कण्डेय पुराण
बह असुर इसके साथ विवाह करेगा; किन्तु जैसे यदि यह अपनी इच्छा अनुसार किसी और शूद्र ३ श्रुतिका अधिकारी नहीं हैं, उसी पतिको प्राप्त कर लेती तो मैं निश्चिन्त होकर प्रकार वह दान भी इस सर्वाङ्गमुन्] मेरो । तपस्या लग गाती । महामते! अब आप अपना | सखीको पाने के योग्य नहीं हैं। अभी कलकों ब्रान। परिचय दीजिये। आप कौन हैं? और कैसे यहाँ हैं. यह बेचारी आत्महत्या करने यार हो गयो पधारे हैं? आप देवता, दैत्य, गन्धर्य, नाग अधवा | थी। उस समय कामधेनुने आकर आश्वासन किन्नरोमैंसे तो कोई नहीं हैं? क्याँकि यहाँ दिया-‘बेटी! वह न दानव तुम्हें नहीं पा | मनुगक पहुँच नहीं हो सकती और मनुष्यका सकता। महा! मलोकमें जाने पर इस दानवों ऐसा दिव्य शरीर भी न होता। जैसे मैंने सब जो अपने बाण वध डालेगा, वही तुम्हारा पति बातें सच-सच बतायौं हैं, वैसे ही आप भी अपना | होगा। बहुत शौम्न यह सुयोग प्राप्त होनेवाला’ सत्र हाल ठीक-ठीक कहिये । हैं। वह कहर सुरभि देवी अन्तर्धान हो ग। कुवलयाश्चने कहा-धर्मज्ञ ! तुमने जो बढ़ | मेरा नाम कुण्डरना है। मैं इस मदालसाको सखी, पृद्धा हैं कि आप कौन हैं और कहाँसे आये हैं, विंध्यवान्की पुत्री और वीर पुष्करमालकी पत्नीं। इसका उत्तर सुनो; मैं आरम्भ हो अपना सत्य हैं। शुम्भने मेरे स्वामौकों मार डाला, तबसे उत्तम | समाचार बतलाता हूँ। शुभे । मैं राजा शत्रुजका अनौका पालन करनौं हुई दिव्य गनमें भिन्न-भिन्न पुत्र हैं और पिता आज्ञासे मुनियोंकी रक्षाके हमें विचरती रहती हैं। अब मैं परलोक लिये महर्षि गाजवके आश्रमपर आया था। यहाँ सुधारने में ही लगी हूँ। दुष्टात्मा पातालकतु आज मैं धर्मपरायण मुनियोंकी रक्षा करता था; किन्तु वारका रूप धारण के मत्र्यलोकमें गया था। कार्यमें विघ्न झालनेके लिये कोई दानद सुनने आया हैं, वहाँ मुनियोंकी राके लिये शुकरका रूप धारण करके आया। मैंने उसे किनीने उसको अपने चाणका निशाना बनाया है। अर्थचन्द्राकार बाणसे बँध डाला। मेरे आणकी । मैं इस का कि ठीक पता लगानेके लिये ही चोट खाकर वह बड़े वैगसे भागा । तब मैंने भी गयौं थी, पता न्य|र तुरंत :ौट आयी। सचमुच घोड़े पर सवार होकर इसम पौछा किया। फिर ही किसी म अधम दानवको बाणों बध | सह्मा बह वारा एक गमें गिर पड़ा। साथ ही मेरा घोड़ा भी इसमें कूद पड़ा। उस घडेपर चढ़ा | अन्न मदारपसाके मूत होनेका कारण सुनायें।’ हुआ मैं कुछ कालहक अन्धकारमें अकेला ही मान! आपको देखते ही आपके प्रति इसका प्रेम | विचरता रहा। इसके बाद मुझे प्रकाश मिला और हो गया; किन्तु यह पत्नी होगों किसी आँरकी | तुम्हारे ऊपर मेरी दृष्टि पड़ी। मैंने पूछा भी, किन्तु अपने दम दानको अपने बाणों निशाना तुमने कुछ उत्तर नहीं दिया। फिर मैं तुम्हारे पीछे अनाया हैं। यही कारण हैं, जिससे इसको मू| गी इस सुन्दर महलमें आ गया। यह मैंने सच्ची आ गयीं। अब तो जीवनभर इसे दुःख हीं भोगना ज्ञात बतलायी हैं। मैं देवता, दानव, नाग, गर्न । हैं: म्य इक हुदा म तो आपमें हैं और | अश्वमा किन्नर नहीं हैं। देवता आदि तो मेरे पौ। कोई और ही होनेवाला है। सुरभि अन्नन पुजनीय हैं। कुण्डले! मैं मनुष्य ॐ हूँ। तुम्हें इस कभी अन्यथा नहीं हो सकता। मैं तो इसके प्रेम | विषसमें कभी कोई सन्देह नहीं करना चाहिये। दुःजी होकर यहाँ चली आयीं; क्योंकि मेरे लिये । ह सुन मदालसा बही प्रसन्नता हुई। अपने शरीर र सम्में माई अ-र न हैं। उसने लज्नि होकर अपनी सन्धीकै सुन्दर मुखकी
प्रातानतुका च और भलमाके साथ ज्ञान-ननका विवाह और देखा; किन्तु कुछ बोल न सकी। उसकी | राजमारने ‘तथास्तु’ कहकर उसको जात मान सखोने फिर प्रसन्न होकर कहा-‘वर! आपकी | लो। तब कुण्द्धनाने विवाझकी सामग्री एकत्रित बात सत्य है; इसमें सन्देहके लिये कोई स्थान | करके अपने कुलगुरु तुम्बुरुका स्मरण किया। वे नहीं है। मै सका हृदय और किसीको | समिधा और कुशा लिये तत्काल वहाँ आ पहुँचे। देखकर आसक्त नहीं हो सकता। अधिक कमनीय | मदानसके प्रेमसे और कुण्डलाका गौरव रखने कान्ति चन्द्रमाको ही प्राप्त होती है। प्रबद्ध प्रभा लिये उन्होंने आने में विलम्ब नहीं किया। सूर्यमें हीं मिलती हैं। देव त्रिभुतं धन्य पुरुषको | मन्त्रके ज्ञाता थे; अत: अग्नि प्रज्वलित करके ही प्राप्त होती हैं। भृतिं भैरों और क्षमा उम् | उहोंने हवन किया और मङ्गलाचार अनन्तर पुरुषको ही मिलती हैं। इसमें सन्देह न कि | -यादान करके वैवाहिक चिधि सम्पन्न की। फिर | आपने ही उस नीच दानवका वध किया है। | चे तपरपाके लिये अपने आश्रमपर चले गये । भला, गोमाता सुरभि मिथ्या कैसे करेंगी। मेरी ह | तदनन्तर कुनाने अपने सख़ासे कहा-‘सुगुरिंख ! सखीं बड़ी भाग्यशालिनी हैं। आपका सम्बन्ध गाक! | जुम-जैसी सुन्दरीको राजकुमार तब्बजके साथ यह धन्य हो गयौं । वीर! जिस कार्यों निधानाने | त्रिवाहित देख्नुकर मेरा मनोरथ पूर्ण हो गया। अब ही रच रखा है, उसे अन्न तुम भी पूर्ण करो।’ | मैं निश्चित हो तपस्या करूंगी और तीन कुलाकी बात सुनकर राजकुमारने कहा–‘मैं | जलसे अपने पार्पोको धो डालूंगी, जिससे फिर चित्ताके अधीन हैं, उनकी आज़ाके बिना इस | में ऐसी दशा न हो।’ इसके बाद जानेके लिये गन्धर्व राक्रन्यासे किस प्रकार विवाह करूँ।’ | उत्सुक हो कुण्डलाने बड़ी विनयके साथ राजकुमारसे कुण्डना बोली-‘नहीं-नहीं, ऐसा न करें। यह | भी वार्तालाप किया। इस समय अपनों सख़ीके देवकन्या हैं । आपके पिताजी इस चिंन्त्राझसे प्रसन्न प्रति स्नेहकी अधिकतासे उसकी वाणी गद्गद हैं। होंगे; अत: इसके साथ अवश्य विवाह कीजिये ।’ | रहीं थीं।
कुण्डला बोली-प्रभो! आपकी बुद्धि बहुत बड़ी हैं। आप जैसे लोगोंको कोई गुरुछ भी उपदेश नहीं दे सकता, फिर मुझ जैसी स्त्रियाँ तों दै हीं कैसे सकती हैं; किन्तु इरा मदालराके सोहसे मेरा चित्त आकृष्ट हो गया तथा आपने भी अपने प्रति मेरे हृदय में एक विश्वासे उत्पन्न कर दिया है, इसीलिये मैं जापको कर्तव्यका स्मरणमात्र करा रही हैं। पतिको चाहिये कि सदा अपनी पत्नीका भरण-पोषण करे। जब पति-पत्नी प्रेषण एक-दूसरे अशीभूत होते हैं, तब उन्हें धर्म, अर्थ, झाप-तीनोंको प्राप्ति होती हैं। क्योंकि त्रितर्गा प्राप्ति पति-पत्नी दोनों सहयोगगर ही निर्भर है। राजकुमार स्त्रीको सहायता लिये बिना पुरुष किसी देवता, पितर, नृत्य र अत्ताधियोंका | पूजने नर्त कर सकता। मनुष्य जब पतिव्रता
संक्षिप्त मार्कण्य पुराण
पत्नीको रक्षा करता हैं, तब वह पुत्रोत्पादनके द्वारा का, अन्न आदि के द्वारा अतिथियोंकों और पूजा– |अचके द्वारा देवताको प्रसन्न करता हैं। स्त्री भी पतिक बिना धर्म, अर्थ, काम एवं सन्तान नहीं ॥ || सकती; इसलिये पति पत्नी दोनोंके सहयोगपर! त्रिवर्गका सुख्न निर्भर करता है। आप दोनों नवदम्पतिके लिये ये बातें मैंने निवेदन की हैं। अब मैं अपनी इन्फे अनुसार जा रही है। ॐ कहकर कुण्डला अपनी सल्लीको गलेसे लगाया और राजमारको नमस्कार करके वह दिव्य गतिको अपने अभीष्ट स्थानको चली गयी। तञ्जने शो मदालसाकों अपने घोड़ेपर बिठाया और पातालोंकने निकल जानेकों तैयारी की। वह बात दानवको मालूम हो गयी। उन्होंने | सहसा कोलाहल मचाना आरम्भ किया-‘पातालके! जिस न्यानको स्वर्ग हुर लाया था, उसे यह सम्पुर्ण दान जल भरे।। राजकुमार चुरायें जाता हैं।’ यह समाचार पाते ही इस प्रकार बड़े-बड़े दानवका वध करके परिंच, , गदा, शून, वाण और धनु आदि कुमार !ि अपने अश्वपर सवार हुए और उस आबुधसे सजी हुई दानवोंकी विशाल सेना स्त्रींनके साथ अपने पिता नगरमें आये। पातालकेतुके साथ वहाँ आ पहुँची। उस समय | पिताके चरणों में प्रणाम करके उन्होंने पातालमें ‘वड़ा रह, खड़ा रह’ कहते हुए बड़े बड़े जाने, कुण्डलाके दर्शन होने, मदालसाको पाने
दानवोंने राजकुमार ध्वजपर बाण और शुञोंकी और दानवोंसे युद्ध करने आदिका सब समाचार वृघ्रि आरम्भ कर दी। राजकुमार भी बड़े सुना दिया। यह सब सुनकर पिता जी पराक्रमों थे। उन्होंने हँसते-हैंसते बाणोंका जाल – प्रसन्नता हुई। उन्होंने पुत्रको छातीसे नगाकर मा फैला दिया और बेल खेलमें ही दानवोंक| कहा-‘बेटा! तुम सुपात्र और महात्मा हो। तुमने । सन् अस्त्र शस्त्र काट गिराये। क्षणभरमें हों| मुझे तार दिया; क्योंकि तुम्हारे द्वारा हुम धर्मका पाताललोकको भूमिं नवज्ञके बाणोंमें छिन्न-| पालन करनेवाले मुनियोंकी भय रक्षा हुई हैं। भिन्न हुए खड्ग, शक्ति, अष्ट और मायकांसे मेरे पूर्वजोंने अपने कुलको यशसे विड्यात किया आच्छादित हो गयी। तदनन्तर राजकुमारने था। मैंने उसे यशको फैलाया था और तुमने त्राष्ट्र नामक अस्त्रका सन्धान किया और उसे अनुपम पराक्रम करके इसे और भी बढ़ा दिया। | दानों पर छोड़ दिया। उसको प्रचण्ड बालासे निताने जो वश, धन अथवा पराक्रम प्राप्त किया पालकेतसहित समस्त दानव दग्ध हो गये। हो, उसे जो कम नहीं करता, वह पुत्र मध्यम उनकी हड् िचट-चटखकर राख्न हो गया। भेगका माना गया हैं जो अपनी शक्ति से पिताकी जैसे कपिलमुनिकी क्रोधाग्न्मेिं सगरपुत्र भस्म अपेक्षा भी अधिक पराक्रम दिखाये, उसे विद्वान् हो गये थे, उसी प्रकार ब्रह्मत ध्वजको शराग्निमें पुरुष श्रेष्ठ कहते हैं; किन्तु जो पिताद्वारा उपार्जित | = तालतुके कप्रदमें मरी हुई मदालसाफी नागराज फणसे उत्त और नतध्वनका पाताललोक गमन
धन, चीनं तथा यशको अपने स्मसमें छटा देता है. | सबसे उत्तम हैं। जो पिता और पितामहके नामपर
चहू बुद्धिमान् पुरुषोंद्वारा अधम बनाया गया है। | ल्याव होता है, वह मध्यम है तथा जो मातृपक्ष मैंने जिस प्रकार ब्राह्मणोंकी रक्षा की थी, उसी | या माताके नामसे प्रसिद्धि प्राप्त करता है, वह अधम प्रकार तुमने भी की है; परन्तु पाताललोककी | अंगका पनुश्य है।* इसलिये पुत्र! तुम धन, यात्रा और वहाँ असुरोंका विनाश-वे सन्त्र कार्य | पराक्रम और मुखके साथ अभ्युदयशील बनो। तुमने अधिक किसे हैं । अतः तुम्हारी गणना उत्तम | इस गन्धर्वकन्याका तुमसे कभी वियों ने हो।’ पुरुर्षोंमें हैं। बेटा ! तुम धन्य हो। तुम्हारे-जैसे | इस प्रकार बारंबार भौति-भौतके प्रिय वचन
अधिक गुणवान् पुत्रको पाकर मैं पुण्यवानोंके | कहकर पिताने ऋतध्वज्ञको हृदयसे लगाया और लिये भी स्पृहणीय हो रहा हैं। जिसका पुत्र बुद्धि, | मदालसाके साथ उन्हें राजमहलमें भेज दिश। | ज्ञान और पराक्रममें उसने ब्रट्ट नहीं जाता, वह राजकुमार ऋतध्वज अपनी पत्नी साथ पिताके मनुष्य में मतमें पुनर्जानित आनन्दको नहीं प्राप्त नगरमें तथा उद्यान, वन एवं पर्वत शिखरोंपर करता। उस पुरुषको धिक्कार हैं, जो इस लोकमें आनन्दपुर्वक बिहार करते रहें। कल्याणी मदालसा पिताके नामपर ख्याति लाभ करता है। जो पिता | प्रतिदिन प्रात:काल उड़कर सास-ससुरके चरणोंमें
अपने गुञके कार्यको विख्यात होता है, उसका जन्म | प्रणाम करतीं और अपने पतिको साथ रहकर | सफल हैं। जो अपने नाम प्रसिद्ध होता है, वह | आनन्द भोगती थीं।
तालकेतुके कपडसे मरी हुईं मदालसाकी नागराजके फण से उत्पत्ति और ऋतध्वजका पाताललोकमें गमन दोनों नागकुमार कहते हैं-पिताजी! तदनन्तर | उनसे कहा-‘राजकुमार! मैं तुमसे एक आत् । बहुत समय व्यतत होनेपर राजाने पुन: अपने | कहता हूँ; यदि तुम्हारी इच्छा हो तो उसे करो। पुत्रों कहा-‘बेटा! तुम प्रतिदिन प्रात:काल इस | जुम सत्यप्रतिज्ञ हो, अतः तुम्हें मेरी प्रार्थना भङ्ग अश्वपर सवार हो ब्राह्मणोंकी रक्षाके लिये पृथ्वीपर नहीं करनी चाहिये। मैं धर्मके लिये यज्ञ करूया विचरते रहो। क दुराचारों दानव इस पृथ्वीपर और उसमें अनेक इष्टियाँ करनी होगी। इन सबके मौजूद हैं। उनमें मुनियोंको बाधा न पहुँचे, ऐसी | लिये इष्टका-चयन करना भी आवश्यक है; किन्तु चेवा करो।’ तिन्हीं इन आज्ञाके अनुसार राजकुमार | मेरे पास दक्षिणा नहीं हैं। अत: चीर! तुम सुवर्णक उसी दिनसे ऐसा ही करने लगे। ने पूर्वाह्नमें हो | लिये मुझे अपने गलेका ग्रह आभूषण दे दो और सारी पृथ्वीको परिक्रमा करके पिताके चरणोंमें | मैं इस आश्रमकी रक्षा करो। तबतक मैं जलके मतल झुकाते थे। एक दिनकी बात हैं, वे घूमते | भीतर प्रवेश करके प्रजाकी पुष्टिके लियें वरुण हुए यमुना तट पर गये। वहाँ पातालकंतुका छोटा | देवता सम्बन्धी वैदिक मन्त्रों वरुण देवताकी गाई ताकेतु आश्रम बनाकर रहता था। राजकुमारने | स्तुति करता हूँ। स्तुतिके पश्चात् जल्दी ही लौंगा।’
में देखा, वह नावाचा दा मुनिका ग 14 ण | इसके यों कहने पर राजकुमारने से प्रणाम किया किये हुए था। उसने पहले बैंका स्मरण करके | और अपने कण्टका आभूषण उतारकर दे दिया।
संशिम मार्कण्डेय पुराण
फिर इस प्रकार कहा-‘आप निश्चिन्त होकर दिया। तदनन्तर पुरवासियों तथा महाराज जाइये; तक नौंट नहीं आयेंगे, जनक यहाँ मैं | आप आश्चमके सभी छहरूँ।।।’ राजकुमारके इस प्रकार आने पर तालकेतु नगद लमें डुबकी लगाकर अदृश्य हो गया र ने उसके मायानिमित आश्रमको रक्षा करने लगे। जल भीतर बह राजकुमार नगरमें चला गया और मदालसा तथा अन्य लोगोंके | | समक्ष घई कर इस प्रकार चोला।
तानतुने कहा-झीर कुवलयाश्च मैरे शाश्नमक समीप गये थे और तपाँचयोंकी रक्षा करते हुए। किमा इष्ट दैत्यसै मुद्ध कर रहे थे। उन्होंने अपनी शक्तभर ५द्ध किया और बहुत-से ब्राह्मणद्वेषी दैत्योंको मौतके घाट उतारा; फिर उस पापो ६चने। मया सहारा ने शुलते उनकी ती केट आलो। परते समय उन्होंने अपने गलेका यह आ[६मुझे दिया; फिर तपस्विने मिलकर महल में भी बड़े जोरसे करुण-क्रन्दन होने लगा। उनका अग्निसंस्कार कर दिया। इन अ आ शत्रुजित्ने जब मानसा मनके बिना अगशीन हों में आँसू अहाना हुआ हिनहिनता मृत्युको प्राप्त हुई देखा, तब कुछ विचार करके रहा। उमी अवस्थामें यह दुरात्मा व उसे मनको स्थिर किया औंर वहाँ शोक करते हुए सब अपने साध मकड़ गए। मुझ पचा नमुरने लगने कहा–’प्रजाजन और देवियो ! मैं तुम्हारे पह सब कुछ अपनी आँखों देखा हैं इसके बाद और अपने लिये ने कोई कारण नहीं देखना। जो कुछ कर्तव्य हो, वह आपलोग । अपने सभी प्रकारके सम्बन्ध अनित्य होते हैं। इस हृदयको भासन देके लिये यह गले हार का भलीभाँति विचार करनेपर क्या पुन्नके | ग्रहण कीजये ।।
लये शैम है और क्या पुत्रवधूके लिये। यों कहकर तालकेने त्रह हार चौपर छोड़ सोचनेसे ऐसा ज्ञान पड़ता हैं, वे दोनों कृतकृत्य दिया और में आया था, बैंसे हो चला था। यह नेके कारण शौक गाय नहीं हैं। जो सदा मेरी दु:खमुणं मार सुन्६ वहाँ जोंग कसे सेवामें लगा रहता था और मेरे हीं कहनेसे यानुन हो माई गये; फिर थोड़ी देरमें होशमें ब्राह्मणको रक्षा ततार को मृत्युको प्राप्त हुआ, आनेपर खिासकी सभी स्त्रियों, राजा तथा महारानी वह मेरा पुत्र बुद्धिमान् पुरुषों के लिये शैकका भी आयन्त इवी हो जाप करने लगी। मनमाने | पिप कैसे हो सकता है। जो अवश्य जानेवाला इनकें उलझ आभूधको दे। और पांसे मारा हैं. इस शर याद में पुत्र आहाणों गया एक तुरंत ही अपने प्य प्रागॉन बाग। शामें लगा दिया तो यह तो हान् अभ्युदयका
५। तद् दृष्टः तद्– प्रभुः-11। हा॥ ग्विान् = = ऋचा ५ निहतं ८ ॥
जालनुके कपटों मरी हुई मदालसाफ नागराज फासे इत्पत्ति और ऋतजा पाताललोकमें गमन कारण हैं। इसी प्रकार उत्तम कुलमें उत्पन्न हुई | यागकर हम सबका उद्धार कर दिया। मंग्राममें | यह मेरी पुत्रवधू दि इस प्रकार अपने स्वामीमें | ब्राह्मणोंकी रक्षाके लिये प्राणत्याग करके मेरे पुत्र अनुरक्त हो परलोकमें उसके पास गयीं हैं तो | अपनी माता सतीत्व, बंशी निर्मलता तथा उसके लिये भी शोक करना कैसे उचित हो | अपने पराक्रमका त्याग नहीं किया है।’ सकती हैं, क्योंकि रिश्त्रयोंके लिये पतिके अतिरिक्त तदनन्तर कुवलयाश्वकी माताने अपने पतिको दुसरा कोई नाता नहीं है। यदि यह् पतिक न ओंर देखकर कहा रहने पर भी जीवित रहती तो हमारे लिये, बन्धु ‘राजन्! मेरी माता और बहिनको भी ऐसी बान्धर्वोक लिये तथा अन्य दयालु पुरुघके लिये प्रसन्नता नहीं प्राप्त हुई, जैसी कि मुनिको रक्षाकै कके योग्य हो सकता था। वह तो अपने | लिये पुत्रका वध सुनकर मुझे हुई है। जो शोकमें स्वामीके अधको समाचार सुनकर तुरंत ही उनके पड़े हुए बन्धु-बान्धर्बोके सामने रोगसे क्लेश उठाते पीछे चली गयी हैं, अतः विद्वान् पुरु लिये और अत्यन्त दुखी होकर लंबी साँसें खींचते हुए शोक योग्य नहीं हैं।* शोक तो उन स्त्रियों* प्राणत्याग करते हैं, उनकी माताका सन्तान उत्पन्न लिये करना चाहिये, जो पत्तित्रयोगिनी होकर भी | करना व्यर्थ हैं। जो गीं और ब्राह्मणोंकी रक्षार्मे तत्पर जीवित हों। जो पतिके साथ ही प्राण त्याग देहीं | हो रणभूमिमें निर्भयतापूर्वक युद्ध करते हुए शस्त्रोंसे | हैं, में कदापि शौक्के बोंग्ग्न नहीं हैं। मदालसा | आहत होकर मृत्युको प्राप्त होते हैं, वे ही इस | बड़ी कृतज्ञ धी; इसलिये इसने पतत्रियोंगका | पृथ्वीपर अन्य मनुष्य हैं। जो याचकों, मित्रों तथा । दुःख नहीं भोगा। जो इहलोक तथा परलोक | शत्रुओंसे कभी विमुख नहीं होता, उससे पिता सब प्रकारके सौंछ प्रदान करनेवाला है, उस वस्तुतः पुत्रवान होता हैं और माता उसके कारण पतिको कौन स्त्री मनुष्य समझेंगी। अत: मेरा चह वीर पुत्रकी जननी मानी जाती हैं। पुत्रके जन्मकालने पुत्र ऋतध्वज, यह पुत्रवधू, मैं तथा ऋतध्ब्रजकी | माताको जो क्लेश उठाना पड़ता हैं, वह तभी माता—इनमेंसे कोई भी शोकके योग्न्न नहीं हैं। | सफल होता हैं जब पुत्र शत्रुऑपर विजय प्राप्त करे मेरे पुत्रने ब्राह्मणों की रक्षाके लिये अपने प्राण | अथवा बुद्धमें लड़ता हुआ मारा जाय।
च तां गतां इट्टा विना भर्ना मान्न साम् । प्रत्युवाच जुनं सर्व विमृश्य झुरथमानसः ।। न देतन्यं पश्यामि भवनामात्मनग्था गर्ने मात्र संचिन्त्य सम्बन्धानार्मोनचताम् ।। किं नु शोंचामि तनयं किं नु शचाम्यई नुषाम् । मिंन्श्य कृतकृत्यत्वान्गन्येऽशोत्याधुभाव।। यच्छऋषुर्मद्नाद् रिक्षात्परः । प्राप्ती में य: सुनो मृ ऋधे शोच्यः स धीमताम् ।। अवश्यं नाति । तद् द्विजानां कृते यांई। मम पुरै सन्क्तं नन्वभ्युजारि नन् । इयं च सत्कुत्ला भवमनुव्रता । कथं नु नोंच्या नाराण शर्तुरयन्न दैवतम् ॥ अस्माकं झान्धवानां च तधान्येषां दंयाचनाम्। शोच्या चेघा भनेदेवं यांई भत्र वियोगिनी ॥ आ नु भतुंनं श्रुत्वा तत्क्षगादेय भामिनी । भर्तीनुसातैनं न शन्यात विपश्चिताम्॥
में माना व में न्या आशा तिन्पेशों । शुका मुनपग्ज़िा हुतं पुत्रं यथा मां ॥ शांचतां बान्धवानां में निश्चमन्तोनंदुःपिंगुत्ताः । भियन्ते च्याधिना क्लिष्टस्तेषां पानी प्रजा ।। अंग्रागै युध्यमाना येइभोत्ता ज़रक्षणें । क्षुण्; शस्ञपहले त एन बि मानवा; ॥
आर्थिन भिन्नत्रस्य विदुषां च माझ्मुन्। यी यानि पिता तेन पुत्री माता च जासूः ॥ गलेशः स्त्रियों मन्ये अ आजते तदा। रिंविशयी | स्यानु संाने वा हुन; सु: ॥
मन मामय पुराण
तदनन्तर अजः शत्रुजिने अपनी पुत्रवधू मदालमाका हर्ष छ। रहा हैं। fiता-माता तथा अन्य वधु दाह-संस्कार किया और नगरसे बाहर निकलकर पुनको | बान्धघोंने उन्हें छात्त से लगाया और चिरंजीवी जलाञ्जलि दी। तालकेतु फिर यमुनाजलसे निकलकर रहें वत्स! यह कहकर कल्याणम्य आशीर्वाद दिया। राजकुमार के पास गया और प्रेमपूर्वक भी वाणीमें राजकुमार भी सबको प्रणाम करके आ“मग्न बोला-‘राजकुमार! अब तुम जाओ। तुमने मुझे | हो पुरूने लगे-‘यह क्या बात है?’ पिता से कृतार्थ कर दिया। तुम जो यह अविनाश भावसे खड़े पूछनेर इन्होंने बीतीं हुई सारी बातें कड़ रहें, इससे मैंने बहुत दिनों अपनी भलाषा पूरी | मुनाम। अपनी मनोरमा भार्या मदालसाकी मृत्युका कर ली। मुझे महात्मा घणी प्रसन्नताके लिये समाचार सुनकर तथा मात-पितकों सामने वारुण यन्त्रका अनुष्ठान को बहुत दिनोंते अभिलाषा | खड़ा देख वे लझा और शोकके समुद्र में डूब श्री; वह सब कार्य अब मैंने पूरा कर लिया। उसकें। में और मन-ही-मन सोचने लगे–‘हाय ! उस यों कहने पर राजकुमार उसको प्रणाम करके गरुड़ साध्वी बालाने मेरी मृत्युकी बात सुनकर नाम्। तथा वायुके समान वेगवाले बसों अश्वपर आङ हुए | त्याग दिये; फिर भी मैं जीवित हैं। मुझ निष्ष्ट्रको और अपने पिता के नगरकी ओर चल दिये। धिक्कार हैं। अहो! मैं क्रूर हैं, अनार्य हैं, जो मेरे रामार ध्वञ्च बड़े बैंगसे अपने नगर में ही लिये मृत्युको प्राप्त हुई उस मृगनयनी पत्नी आ। इस समय के मनमें माता-पिताके बिना भी अत्यन्त निर्दय होकर जी रहा हैं। इसके चरणोंकी वन्दना करने तथा मदालसाको देखकी। बाद उन्होंने अपने मनके आगको रोल और प्रबल इच्छा थी। वहाँ पहुँचकर उन्होंने देखा, ‘सामने मोह छोड़कर विचारना आरम्भ किया—’वल भर आनेवाले सभी लोग उद्विग्न हैं, किसीके गुपर | गया; इसलिये यदि में भी इसके निमित्त अपने प्रसन्नताका चिट्ट नहीं है, किन्तु साथ ही सबकी प्राण त्याग दें तो इससे इस बेचारी क्या आकृतिसे आशुत्रं टपक रहा है और मुखर अत्यन्त उपकार हुआ? यह कार्य ती स्त्रियोंके लिये ही |
प्रशंसनीय है। यदि बार-बार हा निये! हा प्रिये !!
कहकर दीनभाचले होता हैं तो यह भी मेरे लिये इसाके योग्य बात नहीं हैं। मैश कांव्य हों हैं-पिताजीको सँवा करना । हू वन उहाँक अधीन हैं; अतः मैं कैसे इसका त्याग कर सकता हूँ। किन्तु आज सम्बन्धी रोग | परित्याग कर देना मैं अपने लिये उचित समझता हूँ। यद्यपि इससे भी उस तन्वङ्गका कोई पकार नहीं होता, तथापि मुझको त मर्च भा विघयभोगका त्याग ही कर! उचित हैं। इससे मकार अधवा अगर कुछ भी नहीं होता। जिसने मेरे लिये भाग १६ व्याग दिना, ३-ॐ झिमें मेरा बह ग त थोड़ा हैं।’
ऐसा निश्चय करके उन्होंने मदालसके लिये जलाल दी और इ-के बाद कर्म पुरा
तालकनुके पटसे भरी हुई पद्मालयाकी नागराजके फासे उत्पत्ति और ऋत-यज्ञका पाताललोक गमन करके इस प्रकार प्रतिज्ञा ।
समक्षरं पर दैछि बन्न सर्च प्रविष्ट्तिम्। ऋतथ्वज बोले-यदि इस जन्म मेरी सुन्दरी अक्षरं परमं देवि संस्थितं परमाणुवत् ॥ पली मदालसा मुझे फिर न मिल सकी तो दूसरों कोई | अक्षरं परमं ब्रह्म जगच्चैतत्क्षरात्मकम् ।
स्त्रों में जीनसङ्गनी नहीं अन सकती। मृगके दारुण्यवस्थित वल्लभमाश्च परमाणवः ॥ समान विशाल नेत्रोंवालों गन्धर्वराजकुमारी मदालसाके | तथा त्वयि स्थित्तं ब्रह्म जगच्चेदमघत्तः । अतिरिक्त अन्य किसी स्त्रीके साथ में सम्भोग नहीं अश्चत्तरने कहा-जो सम्पूर्ण जगत्को धारण कर सकता। यह मैंने सर्वथा सत्य कहा है।* करनेवादी और वेदोंकी जननी हैं, इन कल्याणमवी दोनों नागकुमार कहते हैं-पिताजी! इस सरस्वती देवीको प्रसन्न करनेकी इसे मैं उनके प्रकार मदालसाके बिना में स्त्रसम्न्नन्धी समस्त | धरोंमें शीश झुकाता और उनकी स्तुति करता भोगका परित्याग करके अब अपने समवयस्क | हूँ। देवि ! मोक्ष और बन्धनरूप अभंसे युक्त जो मित्रोंके साथ मंन बहलाते हैं। यहीं उनका सबसे | कुछ भी सन् और असत् पद है, वह सब तुममें बड़ा कार्य हैं। परन्तु यह तो ईश्वरकोटमें पहुँचे | असंयुक्त होकर भी संयुक्तकी भाँति स्थित हैं। हुए व्यक्तियों के लिये भी अत्यन्त दुष्कर हैं, फिर | देवि ! जिसमें सन्न छ तष्ठित हैं, वह परम अन्य लोगोंकी तो बात ही क्या है। || अक्षर तुम्हँ हों। परम अक्षर परमाणुकी भाँति नागराज अश्वतर बोले-पुत्र! यदि किसी रिश्वत हैं। अक्षररूप परब्रह्म और क्षररूप यह कार्यको असम्भव मानकर मनुष्य उसके लिये जगत् हुममें ही रित हैं। जैसे का ऑन तथा उद्योग नहीं करेंगे तो उद्योग छोड़नेसे उनको भारी | पार्थिव सूक्ष्म परमाणु ॐ रहते हैं, उसी प्रकार हानि होगी; इसलिये मनुष्यको अपने गौरुषका त्याग ब्रह्म और यह सम्पुर्ण जगत् तुममें स्थित हैं। न करते हुए कर्मका आरम्भ करना चाहिये; क्योंकि ओङ्काराक्षरसंस्थाने यत्ते देखि स्थिस्थिरम् ।। । कर्मक सिद्धि दैत्र और पुरुषार्थ दोनपर अवलम्बित तत्र मात्रात्रचं सर्वमस्ति पडेमि नास्ति । हैं। इसलिये मैं तपस्याका अश्रय लेकर ऐसा यत्न अग्नी लक्रास्त्रयों वेदास्नैचिये पावकत्रयम्।। | अगा, जिसमें इस काकी शन्न ही सिद्ध हो | जणि ज्योतीष अर्गाश्च जयों धर्मादयस्तथा। यों कहर नागराज आश्चतर हिमालय पर्वतके यो गुगास्त्रम; शास्त्रयो दोषास्तधाश्रमाः ॥ क्षावतरण-तीर्धमें, जो हरस्वतीका उद्गमस्थान | जयः कालास्तथावस्थाः पितरोल्लर्निशादयः ।। हैं, जाकर दुष्कर तपस्या करने लगे। में तीन एतन्मात्रात्रयं देवि तव रूपं सरस्वति ॥ समय स्नान करने और नियमित आहारमर रहे | विभिन्नदर्शनामाद्या ब्रह्मणो हि सनातनाः । हुए सरस्वतीदेवीमें मन लगाकर उत्तम वाणीमें सोमर्सस् हवि:संस्था: पाकसंस्श्राश्च सप्तया: ॥ उनकी स्तुति करते थे। तास्त्वदुन्नारगावि क्रियतें ब्रह्मवादिभिः। | अतः जाच दे!ि ओंकार अक्षरके रूप जो तुम्हारा जगद्धात्रीमाई देवीमारिराधयिषुः शुभाम् ।। क्रीविग्रह हैं, वह धात्रर-जङ्गमरूप हैं। उसमें स्तव्ये प्रणम्य शिरसा ब्रह्मयोनिं सरस्वतीम् ॥ || तीन मात्राएँ हैं, वें ही रब कुछ हैं। अस्ति-नास्ति सदसद् देत्रि यत्किंचिन्मभूषन्धार्थन्नत्पदम्। | सत्-त् रूपसे मजहत होनेवाला जो कुछ तत्सर्वं त्वमसंयोग योगन्नद् देवि संस्थितम् ॥ | भी हैं, वह सब उन्हमें स्थित हैं। तीन लोक, हींग ।
* सामने मृगशवा गर्नानामहम् ।
न ‘भो या ऋझिदि सगं मोदितम्॥
संक्षिप्त मार्कण्डेय पुराण
सेट, जीन बिंझाएँ, तीन आँन, हॉन व्यति, धर्म में द्वारा असम्भन्न हैं। मुख, जीभ, ज्ञानु और ऑड़ आदि तीन वर्ग, तीन गुण, fiन शब्द, तीन दोष, | आई किसी भी स्थानसे उसका उच्चारण नहीं हो तीन आअम, इन काल, इन अवस्था, त्रिविध समता । इन्द्र, वसु, अह्मा, चन्द्रमा, सूर्य और अन् । पितर, दिन-रात और सन्ध्या-ये सभी तग | भी वही हैं। वहीं सम्पूर्ण जगतूका निवासस्थान, मान्नाके अन्तर्गत हैं। देवि सरस्ञतिं ! इस प्रकार जगत्त्ररूप, जगत्का ईश्वर एवं परमेश्वर है। सांख्य, अझ सब तुम्हारा ही स्वरुप हैं। भिन्न भिन्न दाना और में उसका प्रतिपादन हुआ है।
का दृष्टिकोण रखने व्यकियोङ्ग लिया। अनेकों शाखाओंमें उसके स्वरूपका निश्चय किया जो ब्रह्मके आदि एवं सनातन स्वरूभूत सारा गया है। वह आदि-अन्तसे रहित हैं तथा सत् प्रकार सोमवंशरथा, भात प्रकारका हविर्यज्ञ-| अससे विलक्षण होता हुआ भी सत्स्वरूप ही है। संस्था तथा सा प्रचार प्राकयज्ञसंस्थाएँ अनेक रूपोंमें प्रतीत होता हुआ भी एक है और एक वैद वगैत हुई हैं, उन सत्रका अनुष्ठान ब्रह्मवादी होकर भौं जगत्के का आश्रम लेकर अनेक हैं। पुरुष तुम्हारे अङ्गभूत म-के उच्चारणों हीं। वह नाम-पते रक्षित है। छ: गुण, छ; वर्ग तथा तीन गुण भी उसके भत्रित हैं। वह एक ही परम निर्देयं तथा चान्यदर्श्वभाषाश्रितं परम् ।। | शक्तिमान् ॥ हैं, जो नाना प्रकारको शरिरञ्जनेवाले अविकार्यभयं दिव्यं परिणामविवर्जितम्।। जीवमें शक्तिको सञ्चार करता रहता है। सुख, दु:ख तथैव च प्रर्र रूपं अन्न शम्यं मयरितुम्॥ | तथा महासौख्य–मय उसी अर्धमात्रारूप तुरीयपके न चाम्येन ने वा जिह्मनाल्यादिभिरुच्यते । स्वरूप हैं। इस प्रकार तीन पात्राओं में अतीत जो इन्द्रोऽपि वसत्र ब्रह्मा चन्द्रार्को व्यतिरेव च ॥ तुम धामरूप ब्रह्म है, वह तुम्हमें अभिव्यक्त होता विश्वान्नानं विश्वरूपं विश्वशां परमेश्वरम्। | हैं। देवि! इस तरह सकत, निष्कल, अद्वैतनिष्ठ तथा सांख्यर्वेदातवेदोक्तं यद्शाल्लास्थिरीकृतम् ॥ तनिष्ठ जो ब्रह्म हैं, वह भी तुमसे व्याप्त हैं। अनादिमअनिघने ग्रसन्न सदैव तु।। येऽर्थी नित्या ये विनश्यन्ति ब्रान्थे । एक वनेक नाघ्येकं भवभेदसमाश्चितम् ।। । ये चा भूला में च सूक्ष्मातिसूक्ष्माः ।
अनावं षगुणाचंच घन्कायं विगुणाश्रयम्।। यै वा भूम ये क्षेऽन्यतो वा मामाशक्तिमतामेकं शक्तिवैभविक परम्॥ । नेपां तेषां त्वत्त एपलब्धिः ।। सुखासुखमसौख्यं यं तव विभाव्यते।। अत्यामूतं यच्च मूर्त समस्तं एवं देवि त्वा क्यानं सकलं निष्कलं च यत् ॥ अद्वा भूतेष्वेकमेकं च किञ्चित् । अद्वैनायस्थितं ब्रह्म यच्च हुने व्यवस्थितम्। । यदिव्येऽस्ति पातले खेऽन्यत ब्रा इक़ तीन मात्राओंसे परे जो अर्धमाज्ञा झान्नित तत्सम्बद्धं त्वत्स्वरैर्बनैश्च ॥ विन्दु है, उसका भागीदारी निर्देश नहीं किया जा | जो पदार्थ नित्य हैं, जो विनाशश हैं, जो सकता। वह अक्रारीं, अक्षय, दिव्या परिणामशून्य स्थूल हैं तथा जो सूक्ष्मसे भी अत्यन्त सूक्ष्म हैं, हैं। देवि ! वह आपका हैं। रबरूप हैं, जिसका वर्णन् । जो इस पृथ्वीपर, अन्तरिक्ष या और किसी ३. अग्निशेम, पग्न्मि , य, षोडशी, वाजपेय, अतिरात्र तेथा गोर्याम–बै सान सोमयज्ञसंस्थाएँ हैं। ३. अग्न्यास, अग्निहोत्र, दर्शपूर्ण, चर्मास्य, आग्रय, निरूद्धपशुबन्ध नया सॉन-ये सात | हभिर्यज्ञरा हैं। ३. हुत, प्रहुत, आहुत. गुलाब, वलहरण, प्रत्यरोहण तथा आभृकाहोम–५ नात पाकयज्ञसंस्थाएँ हैं। • तालकंतुक कपसे मरी हुई मदालसाकी नागराज* फणसे उत्पत्ति और नवज्ञका पाताललोकमें गमन स्थानमें वे जाते हैं, इन सबकी उपलब्धि | और भी इसके अन्तर्गत जो स्वर-अञ्जनसम्बन्धी तुम्हसे होती हैं। मूर्त, अमुर्त, समस्त भूत अथवा | त्रिज्ञान हैं, वह सब भी तुमकों और कम्न्नलकों एक-एक भूत हों कुछ भी धुलो, पृथ्वी, | मैंने प्रदान किया। तुम दोनों भाई सङ्गीतकी आकाश या अन्य स्थानमें लश्च होता है, वह | सम्पूर्ण कलामें जितने कुशल होओगे, वैसा न तुम्हारे ही स्वर और ज्यानोंसे सम्बद्ध हैं। | भूलोक, देवलोक और मावालोझमें भी दुसरा | इस प्रकार स्तुति करनेपर श्रीविष्णुको जिल्लामा | कोई नहीं होगा। सरस्वतादेवने प्रकट हो महात्या अश्वनर नागसे| सत्रको निरूपा सरस्वतीदेवी में कहकर कहा-‘कचलके भाई नागराज अश्वतर ! तुम्हारे | तत्काल अन्तर्धान हो । उन दोनों भाइको मनमें जो इझ हों, उसे बताओ। मैं तुम्हें वर ।’ | सरस्वतीजीके कथनानुसार पई, ताल और स्वर
अश्वतर बाले–देवि ! पहले तो आप कम्त्रक | आदिका उनम ज्ञान प्राप्त हुआ। नदनन्तर वे ही मुझे सहायकरूपमें दीजिये और हम दोनों भाइयोंकी | कैलासशिखरपर निवास करनेवाले भगवान् शङ्करको सङ्गीतके समस्त स्वरोका ज्ञान करा दीजिये। आराधना करनेके लिये वहाँ गयें और वीणाही लयके साथ सात प्रकारको गीतोंसे शङ्करनीको प्रसन्न करने के लिये पूर्ण प्रयत्न करने लगे। प्रात: काल, निमें, मध्याह्नकै समय और दोनों सन्ध्यामें वे भगवत्परायण होकर भगवान् शङ्करकी तुति करने लगे। बहुत समयाक स्तुत करने के अद उनके गाँतसे भगवान् शङ्कर प्रसन्न हुए और बोले-‘वर माँग।’ अब कम्बल सहित अभ्यतरने महादेशीको प्रणाम करके कहा- भगवन् ! यदि सरस्वतींने कहा-नागराज ] सात स्त्रर, सात प्राम, राग, सातौं गीत, सातों मूनाएँ, उनचास फ्रकारको तानें और तन ग्राम-इन सबको तुन और कम्बल भी । सकते हो। इसके सिंचा मरों कृपाले तुम्हें चार प्रकारके पद, तीन ताल और तन लयका भी ज्ञान हो जाय।। मैंने तीन त और चारों अग्के बा । ज्ञान भी हुई हैं दिया ! मह सब तो मैरै प्रसादने तुम्हें मिलेगा तो
संक्षिप्त मार्कण्डेय पुराण
आप हम दोनोंपर प्रसन्न हैं तो हमें मनोवाञ्छित फिर जब उक्त मनोरथको लेकर चे तर्पण करने स्वर दें। कुवलयामाकी पत्नी मदालसा, जो अब लगे, उस समय उनके साँस लेते हुए मध्यम मर चुकी हैं, पहलेकी ही अवस्थामें मेरी कन्याके| फगसे सुन्दरी मदालसा तत्काल प्रकट हो गयीं। रूपमें प्रकट हो । उसे पूर्वजन्मको बातों स्मरण | नागराजने यह रहस्य किसी को नहीं बताया। हो, पहले ही जैसी उसको कान्ति हो तथा वह् | मदालसाको महलके भीतर गुप्तरूपसे रिंचयोंके योगिनी एवं योगविद्याकी जननी होकर मेरे घरमें संरक्षणमें रख दिया। इधर नागराजके पुन्न प्रतिदिन उम्पन्न हो।’ भूलोकमें जाते और ऋतनजके साथ देवताओंकी | महादेवने कहा-नागराज़! तुमने जो कुछ | भौंत क्रोड्या करते थे। एक दिन नागराने प्रसन्न कहा है, वह सब मेरे प्रसादसे निश्चय ही पूर्ण होकर अपने पुत्रों से कहा- मैंने पहले तुमलोगों को होगा। श्राद्धका दिन आनेपर तुम उसमें दिये हुए जों का बताया था, उसे तुम क्यों नहीं करते? मध्यम पिण्डको शुद्ध एवं पवित्रचित होकर इब्रा पुत्रों ! राजकुमार ऋतध्वज इमारे उपकारी र लेना। उसके खा लेनेवर तुम्हारे मध्यम फणसे सम्मानदाता हैं, फिर इना भी उपकार करनेके कल्याणी मदालसा जैसे मरी हैं, उसी रूपमें लिये तुमलोग इन्हें मेरे पास क्यों नहीं ले आते ?’ उत्पन्न होगौं । तुम इसी कामनाको मनमें लेकर अपने स्नेही विज्ञाकै यों कहनेपर में दोनों इस दिन पितरोंका तर्पण करना, इसमें वह तत्काल मित्रके नगरमें गये और कुछ बातचीतका प्रसङ्ग ही तुम्हारे मध्यम् फणसे प्रकट हो जायगा। | चलाकर उन्होंने कुवलबाश्वको अपने घर चलने के यह सुनकर ने दोनों भाई महादेवजीके चरणोंमें | नियॆ कहा । राजकुमारने उन दोर्नोसे कहा-सरजें ! प्रणाम करके बड़े सन्तोषके साथ पुनः साननमें | यह घर भी तो आप ही दोनोंका हैं। धन, वाहन, नीट आयें। अश्वतरनें उसी प्रकार आ, किया| वस्त्र आदि जो कुछ भी मेरा है, वह सब आपका और मध्यम पिण्ड्का विधिपूर्वक भोजन किया।| भी हैं। यदि आपका मुझपर प्रेम हैं तो आप धन रत्न आदि जो कुछ किसको देना चाहें, यहाँसे लेकर हैं। दुर्दैवाने मुझे आपके स्नेहसे इतना बञ्चित कर दिया कि आप मेरे घरको अपना नहीं समझते। बदि आप मेरा प्रिंय करना चाहते हों, अथवा यदि आपको मुझपर अनुग्रह हो तो मेरे धन और गृहकों आपलोग अपना ही जमझें। आपलोगोंका जो कुछ है, वह मेरा हैं और मेरा आपलोगोंका है। आपलोग मेरे बाह प्राण हैं, इस बातको सत्य मानें। मैं अपने ह्रदशर्की शपथ दिलाकर कहता हूँ, आप मुझपर कृपा करके फिर ऐसी भेदभावको सूचित करनेवाली ज्ञान की मॅडसे न निकालें ।।
यह सुनकर उन दोनों नागकुमाकं मुख़ स्नेहके आँसुओंसे भीग गये और वे कुछ प्रेमपूर्ण रोषसे बोले-‘ऋतध्वज ! तुम जो कुछ कहते हो, उसमें तनिक भी सन्देह नहीं है। हमारे मनमें भी तानकेतुके कपडसे मरौं हुई मदालसाको नागजके फासे कृत्पत्ति और अलमलको पानात्नलोक मन वैसा ही भाव हैं, परन्तु हमारे महात्मा पिताने |
आर-बार कहा है कि मैं कुवलयाको देखना चाहता हूँ।’ इतना सुनते ही कुशलयाचे अपने सिंहासनसे उठकर खड़े हो गये और यह कहकर कि ‘पिताजींको सो आज्ञा हैं, वहीं करूंगा’ में पृथ्वीपर उनके उद्देश्यले ‘णाम करने लगे। कुवलयाश्च बोले- मैं धन्य हैं, अत्यन्त पुण्यात्मा हैं में समान भाग्यशाली दुसरा कौन हैं; क्योंकि आज पिताजी मुझे देखने की इच्छा करते हैं। अतः । मित्रो ! आपलॉग इनैं और उनके पास चले। मैं पिताजी चरणोंकी शपथ खाकर कहता हूँ, उनकी इस आज्ञाका क्षणभर भी उल्लङ्घन करना नहीं चाहता। यों कह रजकुमार ऋतज्ञ न दोनों नागकुमारोंके साथ नगरसे अाइर निकले और
पुण्यसलिला गमतींके तटपर गये। फिर वे सुन्न लोग गोमतीकी बीच धारामें उतरकर चनने लगे। वरच शोभा पा रहे थे। कानों मणिमय कुण्डल
राजकुमारने सोचा-‘नदीके उस पार इन दोनोंका | झिलमिला रहे थे। सफेद मोतियों का मनोहा हार | घर होगा। इसमें ही इन नागकुमारोंने उन्हें | वक्षःस्थलको शोभा बढ़ा रहा था और भुजाओंमें खींचकर पाताल पहुँचा दिया। वहाँ ज्ञानेपर | भुज्ञबंद सुशोभित थे। दोनों नागकुमार्गेन ‘वहीं उन्होंने अपने दोन मित्रोंकों स्वस्तिक लक्षणों में हमारे पिताज्ञी हैं’ कहका राजकुमारको उनका मुशोभित सुन्दर नागकुमारोके रूपमें देखा। वे दर्शन कराया और पिताजीको अङ्ग निवेदन किया फणोंकी भगिसे देदीप्यमान हो रहे थे। उन्हें इस | कि ‘यही हमारे पत्र वीर कुलबाथ हैं।’ ब्रतध्वज़ने रूपमें देर राजकुमारके नेत्र आशुसे खिल | नागराजके चरणोंमें मस्तक झुकाकर प्रणाम किया। उठे। उन्होंने मुसाते हुए प्रेमपूर्वक कहा-‘वाह, | नागराजने उन्हें अलपुर्वक उठाया और खुन | यह तो अच्छा रहा।’ पातानें कहीं तो वीणा | कसकर हाज्ञीसे लगा लिया। फिर उनका मस्तक | और बैंणु मधुर वनके साथ मझौतके शुट कर हा–’बेटा! चिरञ्जीवी हो । शत्रुओंका सुनायी देते थे। कहीं मृदङ्ग र ढोल आईि बाजे | नाश करके मिता-माताकी सेवा करो। वत्स! तुम बज्ञ रहे थे। बैंक मनोहर भवन चारों और | धन्य हो; क्योंकि मैं युञोंने पक्षमें भी मुझसे दृष्टिगोचर होते थे। इस प्रकार अपने प्रिय भागमाळ तुम्हारे असाधारण गुणन्म मा को हैं। तुम साथ पातालकी शोभा निहारते हुए राजकुमार मन, वाणी और शरीरकी नेष्टाओके साथ अपने ऋतध्वन आगे आने लगे। कुछ दूर जानेके बाद गु-रहित सदा अदृते रहो । गुणवान्का हौं सबने नागराज महलमें प्रवेश किया। नागराज़ जॉब प्रशंसनीय हैं । गुणहीन भनुष्य तो जौने अश्वत सोनेके सिंहासन५, जिसमें मांग, मँगे | हाँ मौके उन्मान हैं। गुनाः पुत्र पिता और बैंइयं आदि उनॉक झालरें लगीं थीं, | माताको शान्ति एवं सन्ध प्रदान करता है: विराजमान झै। उनके अङ्गोंमें दिव्य हार एवं दिब्य | देवता, पितर, लाह्यण, मिन, वाच, दुःौं भी।
मॅक्षिप्त माथपपराण
बन्धु बान्धन भी गुणवान् पुरुषकै चिरंजीन्त्री होनेकी | बोले-‘बेटा ! क्रमशः नान आदि सब कार्य पूरा अभिलाषा करते हैं। जिनको कभी निन्दा गहाँ करके इन्हें इच्छानुसार भौजन कराओ। उसके हुई, जो दन-दुखियोंपर दया करते तशा आपत्तिग्रस्त बाद हमलोग इनमें मनको प्रसन्न करनेवालों बातें मनुष्य जिनकी शरण लेते हैं, ऐसे गुणवान् | करते हुए कुछ कानातक एक साथ बँ।’ राजा पुरुषका हौं जन्म सफल हैं।
| शत्रुजिकै मुत्रने चुपचाप उनकी आज्ञा स्त्रकार | वीर कुवलयाश्वमें यों कहकर उनका स्वागत- | कों। तत्पश्चात् सत्यवाद नागराजने अपने पुत्र सत्कार करनेके लिये नागराज अपने पुत्र तथा राजकुमारके साथ प्रसन्नतापूर्वक भोजन किया। अमृतध्वजको मदालसाकी प्राप्ति, बाल्यकालमें अपने पुत्रोंको मदालसाका उपदेश । सुमन कले हैं-नागराज महात्म अश्चतर चिन्ता न करके कि मैरे में धन हैं या जब भोजन कर चुके, तब उनके पुत्र और नहीं-पिता की भुजाओं की छत्रछायामें रहते हैं,
कुमार ऋत –तो उनके पास अर | चे हो सुखी हैं। जो लोग बचपन से ही पितृहनि बँटे। मगराजने मानक प्रिंस गया बातें होकर कुट-५ भार वहन करते हैं, इनका | कहकर अपने पुञक सग्याको प्रसन्न किया और सुखभोग छिन जानेके कारण मैं तो यही | पूछा-‘आत्रामन्! आज तुम र चरपर आये ।। | समझता हूँ कि चिधाताने ही हे सौभाग्यसे अत: जिसमें तुम्हें सुख मिले. ऐसी किसो वस्तुक | वञ्चित र रा हैं। मैं तो आपकी कृपा | लिये यदि तुम्हारी इ हो त यता। जैसे पुत्र तिर्जा दिये हुए धन-त्न आदिके भंड़ारसे | अपने पिताको मनकी बात कहता हैं, इसी प्रकार | प्रतिदिन सोचकों को, इनकी इच्छा के अनुसार तुम भी निःशङ्क हर मुझसे अपन मनोरथ | दान देना रहता हूँ। यहाँ आकर मैं अपने कहो। सो, दा, अन्न, वाहन, ३॥सन अथवा मुकुटसे ज्ञों आगके दोनों चरणका समर्श किया | और कोई अत्यन्त दुर्लभ एवं मनोवाञ्छित वस्तु तथा आपके शरीरसे मेरा स्पर्श हुआ, इससे मैं | मुझसे मूगों ।’
– कुछ पा गया। | कुवलयाने कड़ी लन् ! आक्के प्रसादसे कुमारका यह विन्ययुछ वचन सुनकर में पिताके घर में आज भी सुन आदि सभी नागराज अश्वतरने प्रेमपूर्वक कहा-‘यदि मुझसे | बहुमूल्य वस्तुएँ मौजूद हैं। इन सब वस्तुओंक’ न और सुवर्ण आदि लेनका तुम्हारा मन नहीं | मुझे आश्श्या नहीं हैं। अतः पिंजाशी होता तो और हीं कोई वस्तु जो तुम्हारे मनको इजारों कि पृयाका शासन करते हैं और सन्न र मकै, माँगा। मैं तुम्हें हूँगा।” आम पाहाललोकका राज्य करते हैं, तबतक मेरा| कुवलयाश्चने कहा- भगवन्! आपके प्रसादसे मन भाचा करने के लिये सुरू नहीं हां ! मेरे में सब कुछ हैं, विशेष: आपके इनसे सा । जिनके पिता जानते हैं, वें गरम मुझे सन्म मिल था। आम देवता हैं और मैं सौभाशाल र राम्रात्मा हैं। भला, मेरे पास मनुष्य। आपने अपने शरीरस्में जो मेरा आनिङ्गः क्या नहीं हैं। रञ्जन मित्र, नीरोग शरीर, धन | किया-इससे मैं कृतकृत्य हैं। मेरा जीवन और व–सभी कुछ l हैं। जो इस बात काल । गश। नागज। आपकी वरण-धूलिने * आजको मदालसा प्राप्ति, बाल्यकालमें अपने पुत्रको मदालसाका उपदेश
वो भी मस्तक पर अपना स्थान बनाया है, उममें मैंने क्या नहीं पा लिया। यदि आपको मुझे मनोवाञ्छित वर देना ही है तो यहीं दीजिये कि मेरे हृदय पुण्यकर्मीको संस्कार कभी दूर न हो। अश्वनर बोले-विन्! ऐसा ही होगा। तुम्हारी | बुद्धि धर्म में लग रहेंगी। तथापि इस समन तुम मैं धरमें आये हो; इसलिये तुम्हें मनुष्यलोकनै | जो वस्तु दुर्लभ प्रतीत होती है, वहीं गुज्ञ माँग लो।। इनकी यह ज्ञात नुनकर शकुमार ऋतध्वज्ञ
अपने दोनों मित्र नागकुमारेकि गुखकी ओर देखने लगे। शव इन दोनोंने पिताको प्रणाम करके राजपुनका जो अभौ था, उसे स्पष्ट रूपसे कहना आरम्भ किया।
नागकुमार बोले-पिताजी ! गन्धर्वराजकुमारी कथा कह सुनायौं । फिर तो राजकुमारने प्रसन्न | मदालसा इनकी प्यारों नीं था। इसको होकर अपनी वा पत्नीको ग्रहण किया। | किसी दुष्ट बुद्धिवाले दुरात्मा दानवने, जो | तदनन्तर इनके स्मरण करते ही उनका प्यारा | इनके साथ बैर रखता था, धोखा दिया। अश्च वहाँ आ पहुँचा। उस समय नागजकों उसने उस दानवकै मुखमें इनको मृत्युका | प्रणाम करके वे अपर आरूढ़ हुए और समाचार सुनकर अपने प्यारे प्राणोंको त्याग मदालसाकै साथ अपने नगरको चल दिये । वहाँ दिया। तब इन्होंने अपनी पत्नीके प्रति कृतज्ञ | पहुँचकर उन्होंने अपने पिता-माता उसकेहोकर यह प्रतिज्ञा कर लीं कि अन्न पदालमाको गरकर जीवित होनेका सब समाचार दिन छोड़कर दूसरी कोई स्त्री भैरों पत्नी नहीं |किया। कल्याणमय मदालसाने भी सास-ससुरके | सकतीं। पिताज्ञी ! ये वींर ऋतु ध्वज आज उसी चरणोंमें प्रणाम किया तथा अन्य स्थानों को भी
सर्वाङ्गसुन्दरी मदालसाकों देखना चाहते हैं।| यथायोग्म सम्मान दिया। तत्पश्चात् इस नगर यदि ऐसा किया जा सके तो इनका मनोरथ पूर्ण | पुरवासियोंके यहाँ बहुत बड़ा उत्सव हुआ। हो सकता है। इसके बाद बहुत समय बीतने पश्चात् तब नागराज भरमें छिपायौ । मदालसा | महाराज शत्रुजित् पृथ्वीका भलीभांति पालन ले आये और राजकुमारों को दिखाया तशा | करके गालोकासी हो गये । जुन पुरवाखिने पूछा-‘ऋतध्वज! बहू तुम्हारी पानी मदालसा हैं | उनके महात्मा पुत्र ज ञ्जाकों, जिनके आवरण | या नहीं?’ उसे देखते ही राजकुमार ला | तथा व्यवहार बड़े की उदार थे, राजपदपर छोइकर उन्हें और “हा प्रिये !’ कहते हुए उसको भपि किया। में भी अपन प्रका औरस और बढ़े। तत्र नागराजने उसे रोका और | पुत्रोंकी भाँति पालन करने लगे। तदनन्तर मदालसा मरकर जीवित होने आदिकी भारी | पदालमा गर्भसे मम पुत्र उत्पन्न हुआ।
साक्षस मार्कअपराण
रामाने उसका नाम विक्रान्त उछा। इससे | सम्पूर्ण इन्द्रियोंमें जो भाँत भाँतके गुण-अवगुणोंकों | टुम्बके सब लोग बड़े प्रसन्न हुए, किन्तु कल्पना होता हैं, वे भी पाञ्चभौतिक ही हैं? मदालसा वह म सुनकर हँसने लगी। उसने। भूतानि भूतैः परिदुर्बलानि ज्ञान सोकर और-कोरसे होते हुए शिशुको वृद्धि समायाति चचैह पुंसः । | ब्रहलाने व्याजले इस प्रकार कुना आरम्भ अन्नाम्बुदानादिभिरच कस्य किया न तैऽस्ति वृद्धिनं च नृस्ति हानिः ।। | जैसे इस जगन्में अत्यन्त दुर्बल भूत अन्य भूतों के सहयोगसे वृद्धि प्राप्त होते हैं, उसी प्रकार अन्न और जल आदि भौतिक पदार्थों इनसे पुरु के पाञ्चभौतिक शरीरको ही पुष्टि होती हैं। इससे तुझ शुद्ध आत्माकी न तो वृद्धि होतो हैं और न हानि ही होती हैं।
चे कचुके शीर्चमा निऽस्मि स्तम्मिश्च देई मूद्धतां मा नृजेथाः ॥ | शुभाशुभैः कर्मभिर्दैहमंत पदादिमू: कक्षुकते पिनद्धः ॥ हु अपने न चले तथा इस देहरूपों चलेके ज्ञाप-शॉर्ण होने पर मोह न करना। शुभाशुभ कमोंके अनुसार यह देह प्राप्त हुआ है। नेश ग्रह चोला म आदिसे अँधा हुआ हैं (तु तो सर्वथा इससे मुक्त हैं। शुद्धोऽसि ३ नात न तेऽस्ति नाम तातेति किंचित् तनयेति किच्चि कृतं हि ते कानयाधुनेछ। । इन्वेति किचयितेति किंचित् । पञ्चात्मकं देहमिदं न तेति | ममेनि किचिन्न समेत किंचित् नेवास्य स्नं रोदिषि काय होतो: ॥ त्वं भूनसङ्ख बहु मानयेथाः ।। है ता!! तू तो शुद्ध आत्मा हैं, तेरा कोई नाम | कोई जव पिताके रूपमें प्रसिद्ध हैं, कोई पुत्र न । अड़ कति नाम हो तु भी मिला हैं।’ कन्नाती हैं, किसीको मात्रा और किसको प्यारी यह शरीर भी पाँच भूतों बना हुआ हैं। न ग्रह स्त्री कहते हैं। कोई ‘ मेरा है’ कहकर अपनाया जें। हैं, न तु इसका है। फिर किसलिये । रहा है? जाता है और कोई मेरा नहीं हैं। इस भावको न वा भवान् रॉति में वन्नमा पराया माना जाता हैं। इस प्रकार ये भूतसमुदायके
शम्दयमासाद्य महीशसुनम्। | हा नाना रूप हैं, ऐसा तुझें मानना चाहिये। विकल्प्यमाना झिविधा गुणास्ते दुःखानि दुःखापगमाय भोगान् १ गुणाश्च भौताः सकलेन्जिबैषु ।। । सुखाय ज्ञानाति विमूळचेता:! अथवा न रोग हैं, यह शब्द ते मारके तान्येव दुःखानि पुनः सुखानि पास पहुँच, अपने-आप ही प्रकट होः॥ हैं। तेरी। ज्ञानाति विद्वानविमूढचेता:
Markandeya Puran