Bhavishya Puran

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भविष्य पुराण

भगवान् नरनारायणकी वन्दना

तस्मै नमो भगवते पुरुषाय भूमें विश्वाय विश्वगुण्ये पदैवतायें

 नारायणाय ऋषये नरोत्तमाय इंसाय संग्रतग निगमैश्चराय ।।

पर्शनं निगम आत्मरहआकाश मुनि पत्र कयोंजारा अनत्तः

तं सर्चबादविषयप्रतिपशील वन्दे महापुरुषमात्मन गुयोधम्

 

 ( महर्षि मार्कण्डेयजी कहते हैं-) भगवन् ! आप अत्तर्यामी, सर्वव्यापक, सर्वस्वरूप, जागरु, परमाणुध्य और । । शुद्धस्वरूप हैं। समस्त लौकिक और वैदिक वाणीं आपके अधीन हैं। आप ही चेदमार्गके प्रवर्तक हैं। मैं आपके इस युगलस्वरूप नरोत्तम नर और ऋषिवर नारायणको नमस्कार करता है। प्रभो ! वेदमें आपका साक्षात्कार करानेवाला वह ।। । ज्ञान पूर्णरुपसे विद्यमान हैं, जो आपके स्वरूपका रहस्य प्रकट करता है। ब्रह्मा आदि बड़े-बड़े प्रतिभाशाली मनीषी उसे ।  भान नेम चल र नेपा भी महमें पड़ जाते हैं। आप मन से मैसा हैं कि विभिन्न मतवालें आप सम्बन्ध जैसा सोचते-विचारते हैं, वैसा ही शील-स्वभाल और रूपा ग्रहण करके आप उनके सामने प्रकट हो जाते हैं। वास्तव भादि समस्त उपाधियोंमें छिपे हुए विशुद्ध विज्ञानान ही है। हे पुरुषोत्तम ! मैं आपकी बन्दना करता हैं।

 

वैदिक स्तवन

ईशा बास्यमिद सय बत्किय जगत्यां जगत् |

 तेन त्यक्तेन भुञ्जीथा मा गुपः कस्य स्विद् धनम्

 

अखिल ब्रह्माण्ड में जो कुछ भी जड़-चेतनस्वरूप जगत् हैं, यह समस्त ईश्वरसे व्याप्त है। उस ईश्वरको साध रखते । * हुए त्यागपूर्वक ( इसे ) भोगते रहो। ( इसमें ) आसक्त मत ओ, ( क्योंकि ) धन–भोग्य-पदार्थ किसका है अर्थात् ।। किसी भी नहीं है।

 

 

नो मित्रः वरुणः नो भवत्वर्यमा शं नो हस्पतिः शं नो विक्रमः   नमो नसणे नमस्ते बायो। स्वमेव प्रत्यको मामि क्यामेव प्रत्यक्षं वदिष्यामि अर्ज वदिष्यामि सत्यं वदिष्यामि तपामवतु मनन् अमन माम् अनु परम्। शान्तिः शान्तिः कान्तिः ।।

 

हमारे लिये ( दिन और प्राणके अधिष्ठाता ) मित्र देवता कल्याणप्रद हो ( तथा ) ( रात्रि और अपानके । अघिल्लाता ) वरुण ( मी ) कल्याणप्रद । ( चक्षु और सूर्यमण्डलके पिल्लाला ) अर्थमा हमारे लिये कल्याणकारी । हो, ( बल और भुजाओंके अधिष्ठाता ) इन्द्र ( तथा ) [ वाणी और बुद्धिके अधिष्ठाता ) बृहस्पति ( दोनों ) हमारे । | लिये ति दान करनेवाले झैं । त्रिविक्रमरूपसे विशाल वाले विष्णु ( जों के अधिष्ठाता हैं | हमारे लियें । कल्याण । उपरीक्त सभी देवताओंके आत्मस्वरूप | मझके लिये नमस्कार है। हे मायव ! तु दिये । नमस्कार है, तुम हमें यक्ष ( प्राणरूपसे प्रतीत होनेवाले ) आय हो। ( इसलिये मैं ) तुमकों ही प्रत्यक्ष ब्रह्म कहूँगा, ( तुम ऋतके अधिष्ठाता हैं, इसलिये मैं तुम्हें ) ऋत नामसे पुकारूंगा, ( तुम सल्के अधिष्ठाता हो, अतः मैं तुम्हें ) । सत्यं नामसे कहूँगा, यह ( सर्वशक्तिमान् परमेश्वर ) मेरी रक्षा करे, वह वक्तकी अर्थात् आचार्यकी रक्षा कने, रक्षा करे मेरी । और रक्षा कों में आचार्यकी। भगवान् शान्तिस्वरूप है, निस्वरूप है, शान्तिस्वरूप हैं।  

 

चित्रं देवानाम्दगानी भित्रस्य अरुणस्यामैः

आशा मावापृथिवीं अन्तरिक्ष सूर्य आत्मा जगतसतस्थुषश्च

 

जो तेजेपी किरणों के पुञ्ज हैं, मित्र, वरुण तथा मि आदि देवताओं एवं समस्त विश्व प्राणियोंके नेत्र हैं और । पामर तथा अङ्गम सबके अन्तर्याम आत्मा हैं, वे भगवान् सूर्य आकाश, पृथ्वी और अनरिक्षकको अपने प्रकाशसे । पूर्ण करते हुए आश्चर्यरूपसे उदित हो रहे हैं।

 

वेदाङ्गमैतं पुर्य मानमादित्यवर्ग तमसः पलान्

तमेव विदित्वाति मृत्युमेति नान्यः पन्था वियनाय ।।

 

मैं आदित्य-स्वरूपयाले सूर्यमण्डलस्थ महान् पुरुषों, जो अन्धकारमें सर्वधा में, पूर्ण प्रकाश देनेवाले और ।। । परमात्मा हैं, उन्हें जानता हैं। उन्हींको ज्ञानक्र मनुष्य मृत्यु लम जाता है। मनुष्यके लिये मोम-प्राप्तिका दूसरा कोई अन्य मार्ग ना है।

चिनि देव सवितरितानि परासुव यद् मई तान्न सुव ।।।

समस्त संसारको उत्पन्न करनेवाले–सृष्टि-पालन-संहार करनेवाले किंवा विश्वमें सर्वाधिक देदीप्यमान एवं जगत्कों शुभकर्मोंमें प्रवृत्त करनेवाले हे परब्रह्मस्वरूप सविता देव ! आप हमारे सम्पूर्ण-आधिभौतिक, आधिदैविक, आध्यात्मिक–दुरित ( बुराइयो–पापों ] को हमसे दूर–गहुत दूर ले जायें, दूर करें, किंतु जो भद्र ( भ ) है, । करन्याश हैं, जेय हैं, मङ्गल हैं, उसे हमारे लिये—विभके हम सभी प्राणियोंके लिये चारों ओरसे ( भलीभाँति ) ले । आये, ६–’यद् भद्रं तन्न आ सुन्न ।

असतो मा सद् गमय । तमसो मा ज्योतिर्गमय। मृत्योर्मामृतं गमय ॥

हे भगवन् ! आप हमें असत्से सतुझी ओर, नमसे ज्यौतिकी और तथा मुल्यूसे अमरताकी ओर ले चलें ।

* भानु मा तत्सवितुर्वरेण्यम् *

पुनातु मां तत्सवितुर्वरेण्यम्

(आदित्यहृदयसारामृत)

अपरलं दीप्तिकर विशालं प्रभं तब्रमनादिरूपम्

दारिद्रयदुःषक्षयकारणं पुनातु मां तत्सवितुर्वरेण्यम्

 

न्मलं देवगणैः सुपूजितं विप्रैः स्तुत मानवमुक्तिकोविंदम्

 तं देवदेवं प्रणमामि सूर्य पुनातु तत्सवितुर्वरेण्यम्

यमण्डलं ज्ञानभने त्वगर्य भैलोक्यपून्यं त्रिगुणात्मरूपम्।

समस्ततेनोमयदिव्यरूपं पुनातु मा तत्सवितुर्वरेण्यम् ।।

 

यमण्डले गुमतिप्रबोधं धर्मस्य बुद्धिं कुरते जनानाम्

यसर्यपापक्षयकारणं पुनातु मां तत्सवितुर्वरेण्यम् ।।

 

यमपलं व्याधिविनाशदश्च यदुग्यजुःसामसु सम्प्रगतम्

 प्रकाशितं येन भूर्भुवः स्वः पुनातु मां तत्सवितुर्वरेण्यम् ।।

 

अपने बैंदविदों दिन्ति गायति धारासिद्धसंघाः

अयोगिनों योगनुर्वा संघाः पुनातु मां तत्सवितुर्वरेण्यम् ।।

 

यन्मएडा सर्वजनेषु पूजितं ज्योतिश कुद मत्र्यलोके

अत्कालकालादिमनादिरूप पुनातु तत्सवितुर्वरेण्यम् ।।

 

यमण्डलं विष्णचतुर्मुखानं यदक्षरं पापहरं जनानाम्

यत्कालकल्पक्षयकारणं पुनातु मां सत्सवितुर्वरेण्यम् ।।

यन्मने विसृजां प्रसिद्धमुपनिरक्षाप्रलयप्रगल्भम्

पञ्जगत् संहरतेऽखिलं पुनातु मा तत्सवितुर्वरेण्यम्

 

यसम्झर्न क्नम्प विष्णोरारमा परे धाम विशुद्धतत्त्वम्

 सुश्मान्तरैयोगपश्चानुगम्य पुनातु मां तत्सवितुर्वरेण्यम्

 

अमन वेदक्दिोंपगीतं अद्योगिनां योगपश्चानुगम्यम्

तत्सर्ववेदं प्रणमामि सूर्य पुनातु मां नसवितुर्वरेण्यम्

 

जिन भगवान् सूर्यका प्रखर तेजोमय मण्डल विशाल, लोंके समान प्रभासित, अनादिकाल-स्वरूप, समस्त लोकका दुःख-दारिद्र्य-संहारक हैं, वह मुझे पवित्र करें। जिन भगवान् सूर्यका वरेण्य मण्डल देवसमूहोंद्वारा अर्चित, विद्वान् ब्राह्मणोंद्वारा संस्तुत तथा मानो मुक्ति देनेमें प्रवीण हैं, वह मुझे पवित्र करें, मैं उसे प्रणाम करता हैं। जिन भगवान् सूर्यका मण्डल अखण्ड-विच्छेद्य, ज्ञानस्वरूप, तीनों लोकों द्वारा पूज्य, सत्व, रज, तम-इन तीनों गुणों से युक्त, समस्त तेजों तथा प्रकाश-पुञ्जसे युक्त है, यह मुझे पवित्र करे। जिन भगवान् सूर्यका श्रेष्ठ मण्डल गूढ़ होनेके कारण अत्यन्त कठिनतासे ज्ञानगम्य हैं तथा भक्तक हृदय धार्मिक बुद्धि उत्पन्न करता है, जिससे समस्त पापका क्षय हो जाता है, वह मुझे पवित्र करे। जिन भगवान् सूर्यका मण्डल समस्त आधि-व्याधियोंका उन्मूलन करनेमें अत्यन्त कुशल हैं, जो ऋऋक, अनुः तथा साम–इन तीनों वेदक द्वारा सदा संस्तत है और जिसके द्वारा भलॉक, अन्तरिक्षलोक तथा स्वर्गलोक सदा प्रकाशित रहता है, वह मुझे पवित्र करे। जिन भगवान् सूर्यके श्रेष्ठ मण्डलको वेदवेत्ता विद्वान् ठीक-ठीक जानते तथा प्राप्त करते हैं, चारणगण तथा सिद्धका समूह जिसका गान करते हैं, योग-साधना करनेवाले योगिजन जिसे प्राप्त करते हैं, वह मुझे पवित्र करे। जिन भगवान् सूर्यका मण्डल सभी प्राणियोंद्वारा पूजित हैं तथा जो इस मनुष्यलोकमें प्रकाशका विस्तार करता है और जो कानवका भी काल एवं अनादिकाल-रूप है, वह म पवित्र करें। जिन भगवान् सूर्यके मण्डलमें ब्रह्मा एवं विष्णुक आया है, जिनके नामोच्चारणसे भक्तोंके पाप नष्ट हो जाते हैं, जो क्षण, कला, काष्टा, संवत्सरसे लेकर कल्पपर्यंत कालका कारण तथा सृष्टिके प्रलयका भी कारण हैं, वह मुझे पवित्र करे। जिन भगवान् सूर्यका मण्डल प्रजापतियोंकी भी उत्पत्ति, पालन और संहार करनेमें सक्षम एवं प्रसिद्ध है।

 

और जिसमें यह सम्पूर्ण जगत् संहृत होकर लीन हो जाता हैं, वह मुझे पवित्र करै । जिन भगवान् सूर्यका मण्डल सम्पूर्ण प्राणिवर्गका तथा विष्णुकीं भी आत्मा हैं, जो सबसे ऊपर श्रेष्ठ लोक हैं, शुद्धातिशुद्ध सारभूततत्त्व है और सूक्ष्म-से-सूक्ष्म साधनोंके द्वारा योगियोंक देवयानद्वारा प्राप्य है, वह मुझे पवित्र को। जिन भगवान् सूर्यका मण्डल वेदवादियोंद्वारा सदा संस्तुत और योगियोको योग-साधनासे प्राप्त होता है, मैं तीनों कान और तीनों लोकोंक समस्त तत्वोंके ज्ञाता अन भगवान् सूर्यको प्रणाम करता हैं, वह मण्डल मुझे पवित्र करे।

 

* पुराणं परमं पुण्यं भविष्यं सर्वसौख्यदम्

पुराणश्रवणकालमें पालनीय धर्म

अद्धार्धाकसमायुक्ता नान्यकार्येषु लामाः

वाग्यताः शुचयोध्या: औतारः पुण्यभागिनः ।।

अभक्त्या में यां पुण्य प्रवत्त मनुजाधमाः

तेषां पुण्यफलं नास्ति दुःखं स्यामजन्मनि

पुराण में सम्पून्य ताम्बूलाचैपायनैः

शृण्वत कां भक्त्यादरिद्वाः खुर्न संशयः

कवायां की&मानायां चे गळ्यन्यतो नराः

मोगान्त प्रणश्यन्ति तेषां द्वारा सम्पदः

सोंचमाका ये कथां शृण्र्यात पावनीम्

तें बसाकाः प्रजायतें पापिनों मनुजामाः ।।

ताम्बूलं अक्षयतों ये कश्व धुण्वन पावनम्

अनि खादयन्येलान्, नयन अमकिकराः ।।

में जुङ्गासनालाः कञ्च थुम्वत दाम्भिकाः

अक्षयनरकान् भुक्त्वा ने भवन्त्येव वायसाः

में वै वासनारूका ये मध्यासनस्थिताः

मृण्वत सत्कर्षा ते वै अवयनमादपाः ।।

सम्मणम्य शृण्यन्त विषभक्षा भवन ते

तया शयानाः मृण्वन भवन्यजगरा नराः ।।

 

जो लोग श्रद्धा और भक्ति सम्पन्न, अन्य कार्योकी लालसासे रहित, मौन, पवित्र और शान्तचित्तसे (पुराणकी कथाको) श्रवण करते हैं, ये ही पुण्यके भाग होते हैं। जो अधम मनुष्य भक्तिहित होकर पुण्यकथाको सुनते हैं, उन्हें पुण्यफल तो मिलता नहीं, उन्हें प्रत्येक जन्ममें दुःख भोगना पड़ता है। जो लोंग ताम्बुल, पुष्प, चन्दन आदि पूजन-सामग्निर्योाग्न पुराणकी भलीभाँति पूजा करके भक्तिपूर्वक कथा सुनते हैं, ये निःसंदेह दरिद्रतारहित अर्थात् धनवान् होते हैं। जो मनुष्य कथा होते समय अन्य कार्योक लिये वहाँसे उठकर अन्यत्र चले जाते हैं, उनकी पत्नी और सम्पत्ति नष्ट हो जाती हैं। जो पापी अधम मनुष्य मस्तकपर पगड़ी बाँधकर (या टोपी लगाकर) पवित्र कथा सुनते हैं, वे बगुला कर उत्पन्न होते हैं। जो लोंग पान चबाते हुए पवित्र | कथा सुननी है, उन्हें कन म भ न करना पड़ता है और समदत न ममपीमें ले जाते हैं। जो नगी मन (मासासन  ऊँचे आसन पर बैठकर कथा सुनते हैं, वे अक्षय नरकका भोग करके औआ होते है। जो लोग (च्यासासनसे) श्रेष्ठ आसनपर अथवा मध्यम आसनपर बैठकर उत्तम कथा श्रवण करते हैं, वे अर्जुन नामक वृक्ष होते हैं। (जो मनुष्य पुराणकी पुस्तक और व्यासको) बिना प्रणाम किये ही कथा सुनते हैं, वे विभक्षीं होते हैं तथा जो लोग सोते हुए कथा सुनते हैं, ये अजगर साँप होते हैं।

यः शृणोति कथां वक्तुः समानासनसंस्थितः

गुल्पसमें पापं सम्माप्य नरकं ब्रजेत्

ये निंदन पुराणज्ञान् कश्च वै पापहारिणीम्

वें जन्मजात मत्र्याः सूकः सम्भवन्ति हि ।।

कदाचिदपि में पुण्य भुण्वन्ति कथा नराः

तें भुक्त्वा नाकान् घोरान् भवन्ति वनसूकरा:

ये कथामनुमोदने कार्यमानां नरोत्तमाः

अम्वन्नपि ते पानि शाश्वत परमं पदम्

कवायां कींयमानार्था विग्न कुर्वन्ति ये शाः

कोपब्दं नरान् मुक्या भयन्त आमसूकराः ।।

ये आवयनि मनुमान् पुण्य पौराणिक कथाम्

कल्पकॉटिश सामं तिष्ठन्ति ब्रह्मणः पदें

आसनार्थं प्रयन्त पुराणज्ञस्य ये नराः

कम्बलाबनवासांसि मयं फलकमेव ।।

स्वर्गलोकं ममामा भुकवा भोगान् यथेप्सितान्

स्थित्वा प्रादिलोकेषु पदं यान्ति निरामयम्

 

इसी प्रकार ज्ञों वक्ताके समान आसनपर बैठकर कथा सुनता है, वह गुरु-शय्या-गमनके समान पापका भागी होकर नरकगामों होता है। जो मनुष्य पुराणोके ज्ञाता (व्यास) और पापोंको हरण करनेवाली कथाकी निन्दा करते हैं, वे सौ जन्मतक सूकम-योनिमें उत्पन्न होते हैं। जो मनुष्य इस पुण्य कथाकों कभी भी नहीं सुनते, ये घोर नरकका भोग करके वनैले सुअर होते है। जो नरश्रेणु की जाती हई का अनुमोदन करते हैं, ये कथा न सननैपर भी अविनाशी परम पदक प्राप्त होते हैं। जो दुष्ट कहीं जातीं हुई कथामें विघ्र पैदा करते हैं, करोड़ों वर्षों तक नरकका भोग करके अनमें ग्रामीण सूअर होते हैं। जो लोंग साधारण मनुष्योंको पुराणसम्बधी पुण्य कथा सुनाते हैं, वे सौ करोड़ कल्पोंसे भी अधिक समयतक ब्रह्मकमें निवास करते हैं। जो मनुष्य पुराणके ज्ञाता वक्ताको आसनके लिये कम्बल, मृगचर्म, वस्त्र, सिंहासन और चौकी प्रदान करते हैं, वे स्वर्गलोकमें जाकर अभीष्ट भोगका उपभोग करनेके बाद ब्रह्मा आदिकै लोकों में निवास कर अत्तमें निरामय पदक प्राप्त होते हैं।

 

पुराणस्य अमरन्ति में चारासनमुत्तमम्

माँगनों ज्ञानासम्मन्ना भाति भवें भवें

में मापातकर्युक्ता उपपातकनवा दें।

पुराणवणादेव ते प्रयान्ति परं पदम्

पूर्ववियविधानेन पुराण शृणुयान्नरः

भृक्वा योगान् यथाकार्म चिल्लोर्क प्राति सः

पुस्तकं पूजयेत् पश्चाद् वस्त्रालंकरणादिभिः

वाचकं विप्रसंयुक्तं पूजयीत प्रपलवान्

गोधूपिमबखाणि वाचकाप निवेदयेत्

ब्राह्मणान् भोजयेत् पश्चान्यपद्धलाकपायसैः ।।

त्वं मसरूपी भगवन् बुद्धा चाङ्गिरसोपमः

पुण्यवान् शीलसम्पन्नः सत्यवादी जितेन्द्रियः

प्रसन्नमानसं कुर्याद् दानमानोपचारतः

वासादादिमान् धर्मान् सम्पूर्णानुतवानहम्

एवं प्रार्थनकं कृत्वा व्यासस्य परमात्मनः

यास्त्री भवेन्नित्यं यः कुर्यादयमादरात्

नारदोक्तानिमान् धर्मान् यः कुर्यात्रियतेन्द्रियः

कृत्रं फलमवाप्नोति पुरापावास्य वै॥

 

इसी तरह जों अंग पुराणको पुस्तकके लिये उत्तम श्रेष्ठ आसन प्रदान करते हैं, वे प्रत्येक जन्ममैं भोगका उपभोग करनेवाले एवं ज्ञानी होते हैं। जो महापातकोंसे युक्त अथवा उपपातक होते हैं, वे सभी पुरागको कथा सुननेसे ही परम पदको प्राप्त हों जाते हैं। जो मनुष्य इस प्रकारके नियम-विधानसे पुराणकी कथा सुनता है, वह स्लेअनुसार भोग भोगकर विष्णुलेकों चला जाता है। कथा समाप्त होने पर होता पुरुष प्रयत्नपूर्वक वा और अलंकार आरिद्वाग्र पुस्तकको पूजा करें। तत्पश्चात् सहायक ब्राह्मणसहित वाचककी कूजा करे। उस समय वाचा गौं, पृथ्वी, सोना और वा देना चाहिये। तदुपरान्त ब्राह्मणों मलाई, लड़ और खीर भोजन करना चाहिये। तदनन्तर परमात्मा व्याससे प्रार्थना को–’आप व्यासरूपी भगवान् बुझिमें बृहस्पतिके समान, पुण्यवान्, शौसम्पन्न, सत्यवादी और जितेन्द्रिय है, आपकी कृपासे मैंने इन सम्पूर्ण धमको सुना है। इस प्रकार प्रार्थना कर दान, मान और सेवासे उनके मन प्रसन्न करना चाहिये । जो मनुष्य इस प्रकार आदरपूर्वक करता है, वह सदा यशस्वी होता है। जो जितेन्द्रिय मनुष्य देवर्षि नारदद्वारा कहे गये इन धमका पालन करता है, वह पुराण-श्रवणका सम्पूर्ण फल पाता है।

 

पुराणमहिमा

यज्ञकर्मीकयावेदः स्मृतियेंद गृहाने ।

स्मृतिर्वेदः कियावेदः पुराणेषु प्रतिष्ठितः  पुराणपुरुषालाई अचेदं जगदतम् ॥

 

तथेदं वाक्यं जातं पुराणेभ्यो न संशयः।

वैदे प्रसंचारों में शुद्धिः कालबोधिनी । तिथिवृद्धक्षयों चापि पर्वग्रहविनिर्णयः ॥

 

 इतिहासपुगणैस्तु नियोऽयं कृतः पुरा ।

अन्न दृष्टं हि वेदेषु तसर्व लक्ष्यते स्मृतौ ॥

 

अभयर्यन्न दृशं हि तत्पुरा: अगीयते ।

 

यज्ञ एवं कर्मकाउके लिये वेद प्रमाण ।

गृहम्धके लिये स्मृतियाँ हीं प्रमाण हैं ।

 

किंतु कैद और स्मृतिशास्त्र (धर्मशास्त्र) दोनों ही सम्यक् रूपसे पुराणोंमें प्रतिष्ठित हैं। जैसे परम पुरुष परमात्मासे यह अद्भुत जगत् अत्पन्न हुआ है, वैसे ही सम्पूर्ण संसारका वाट्य-साहित्य पुरागसे ही उत्पन्न हैं, इसमें लेशमात्र भी संशय नहीं है। वेदोंमें तिथि, नक्षत्र आदि काल निर्णायक और अह-संचार कोई मुक्ति नहीं बतायी गयी हैं। तिथियों वृद्धि, क्षय, पर्व, अहण आदिका निर्णय भी उनमें नहीं है। यह निर्णय सर्वप्रथम इतिहास-पुराणोंक द्वारा ही निश्चित किया गया हैं। जो बातें वेदोंमें नहीं हैं, ये सब स्मृतियोंमें हैं और जो बातें इन दोनोंमें नहीं मिलता, वे पुराणों के द्वारा ज्ञात होती हैं।

 

*भविष्यपुराण‘–एक परिचय

भारतीय वाङ्मय पुराणका एक विशिष्ट स्थान है। इनमें तीर्थसेवन, देवपूजन, आद्ध-तर्पण आदि शास्त्रविहित शुभ येटके निगढ़ अर्थाका स्पष्टीकरण तो है ही, कर्मकाण्ड, कम जनसाधारण प्रवृत्त करनेके लिये उनके लौकिक एवं पासनाकाद्ध तथा शानकाण्डके सरलतम विस्तारके पारलौकिक फलोंका भी वर्णन किया गया हैं। इनके अतिरिक्त साथ-साथ कथावैचित्र्य द्वारा साधारण जनताको भी पुराणोंमें अन्यान्य कई विषयोंका समावेश पाया जाता है। गड-से-गुड़तम तत्वको हृदयङ्गम क देनेको अपनी अपूर्व इसके साध ही पुराणोंकी कथाआमें असम्भव-सी दौखनेवाली विशेषता भी है। इस युगमें धर्मकी रक्षा और भक्ति मनोरम कुछ आते परस्पर विरोधी-सीं भी दिखायी देती हैं, जिसे स्वल्प विकासका ज्ञों यत्किंचित् दर्शन हो रहा है, उसका समस्त श्रेय श्रद्धावाले पुरुष काल्पनिक मानने लगते हैं। परंतु यथार्थ पुराण-साहित्य ही हैं। वस्तुतः भारतीय संस्कृति और ऐसी बात नहीं है। यह सत्य है कि पुराणमें कहीं-कहीं साधनाके में कर्म, ज्ञान और भक्तम मूल लॉत चेद या न्युनकिता हुई है एवं विदेशी तथा विधर्मियॉर्क श्रुतिको ही माना गया है। वेद अपौरुषेय, नित्य और स्वयं आक्रमण-अत्याचारसे बहुत अंश आज उपलब्ध भी नहीं भगवान्को शब्दमयीं मूर्ति हैं। स्वरूपतः वे भगवान्के साथ हैं। इसी तरह कुछ अंश प्रक्षिप्त भी हो सकते हैं। परंतु इससे | भिन्न हैं, परंतु अर्थक दृष्टि में केंद अत्यन्त दुरूह भी हैं। पुराणोंकी मूल महत्ता तथा प्राचीनतामें कोई बाधा नहीं आती। | जिनका ग्रहण तपस्याके बिना नहीं किया जा सका। व्यास, ‘भविष्यपुराणा’ अतः महाराणोंके अन्तर्गत एक शाल्मीकि आदि ऋषि तपस्याहारा ईआरकपासे ही वेदका अकूत महत्त्वपूर्ण सात्विक पुराण है, इसमें इतने महत्त्वकै विषय भी अर्थ जान पाये थे। उन्होंने यह भी जाना था कि जगतुके हैं, जिन्हें पढ़-सुनकर चमकत होना पड़ता है। यद्यपि कल्याणके लिये वेदके निगृद्ध अर्थमा प्रचार करने में इलोक-संस्में न्यूनाधिका प्रतीत होती हैं। भविष्यपुराणके । आवश्यकता है। इसलिये उन्होंने उसीं अर्वको सरल भाषामें अनुसार इसमें पचास हजार श्लोक होने चाहिये; जबकि पुराण, रामायण और महाभारतके द्वारा प्रकट किया। इससे वर्तमानमें अट्ठाईस सहल श्लोक हीं इस पुराणमें उपलब्ध शास्त्रोंमें कहा है कि रामायण, महाभारत और पुराणों की हैं। कुछ अन्य पुराणोंके अनुसार, इसकी लोक-संख्या साढ़े सहायतासे वेदोंम अर्थ समझना चाहिये-‘इतिहास- चौदह सहन होनी चाहिये । इससे यह प्रतीत होता है कि जैसे पुराणाभ्य वेदं समुपयेत् । इसके साथ ही विष्णुपुराणकी श्लोक संख्या विष्णुधर्मोत्तरषणकों सम्मिलित इतिहास-पाको दौके समकक्ष मझम वेदके रूपमें माना करनेमें पूर्ण होती है, वैसे ही भविष्यपुराणमें भविष्योत्तरपण गया हैं। छान्दोग्योपनिषद्में नारदजीने सनकुमारजीसे कहा सम्मिलित कर लिया गया है, जो वर्तमानमें भविष्यपुराणका है–‘स नेवाच ऋग्वेदं भगवमिं यजुर्वेद : उत्तरपर्व हैं। इस पर्वमें मुख्यरूपसे क्त, दान एवं उत्सवोंका ही

सामवेदमाश्चर्वणं चतुर्थीमतिहासपुराणं पञ्चमं वेदानां वर्णन है। | बेदम् ।

 मैं ऋग्वेद, यजुर्वेद, सामवेद तथा चौथे अथर्ववेद वस्तुतः भविष्यापुराण सौर-प्रधान ग्रन्थ हैं। इसके

और पांचवें केंद तिहास-पुराणको जानता है। इस प्रकार अधिष्ठातृदेव भगवान् सूर्य हैं, वैसे भी सूर्यनारायण प्रत्यक्ष पुराणोंकी अनादिता, प्रामाणिकता तथा मङ्गलमयता सर्वत्र देवता हैं जो पोंमें परिगणित हैं और अपने शास्त्रोंके उस्लेख है और वह सर्वथा सिद्ध तथा यथार्थ हैं। भगवान् अनुसार पूर्णब्रह्मकै रूपमें प्रतिष्ठित हैं। द्विजमाञके लिये प्रातः, व्यासदेवने प्राचीनतम पुगणका प्रकाश और प्रचार किया है। मध्याह्न एवं सायंकाल संध्यामें सूर्यदेवकों अयं प्रदान वस्तुतः पुराण अनादि और नित्य हैं।

करना अनिवार्य है, इसके अतिरिक्त स्त्री तथा अन्य आश्रमों के । पुराणोंमें भक्ति, ज्ञान, वैराग्य, सदाचार तथा सकाम एवं लिये भी नियमित सूर्याय॑ देनेकों विधि बतलायीं गयीं हैं। | निष्कमकर्मी महिमाके साथ-साथ यज्ञ, वत, दान, तप, आधिभौतिक और आधिदैविक शृंग-शोक, संताप आदि

 

सांसारिक दुःखों की निवृत्ति भी सूर्योपासनासे सद्यः होती है। विविध मैद, मातृ-पितृ-आद्ध आदि उपादेय विषयपर, प्रायः पुरागर्ने औंव और वैष्णवपुराण में अधिक प्राप्त होते हैं, विशेषरूपसे विवेचन हुआ है। इस पर्वमें नागपञ्चम-ब्रत जिनमें शिव और विष्की महिमाका विशेष वर्णन मिलता है, कथाका भी उल्लेख मिलता है, जिसके साथ नागों में जुत्पत्ति, परंतु भगवान् सूर्यदेवकी महिमाका विस्तृत वर्णन इसी पुराणमें सपॅक लक्षण, स्वरूप और विभिन्न जातियाँ, सर्पोक काटने उपलब्ध है। यहाँ भगवान् सूर्यनारायण अगत्वष्टा, लक्षण, उनके विका वेग और उसकी चिकित्सा आदि

गत्पालक एवं जगत्संहारक पूर्णब्रह्म परमात्माके में विशिष्ट वर्णन यहाँ उपलब्ध है। इस पर्वको विशेषता यह है प्रतिष्ठित किया गया है। सूर्यके महनीय स्वरूपके साथ-साथ कि इसमें व्यक्तिके उत्तम आचरणको ही विशेष प्रमुखता दीं उनके परिवार, की अद्भुत कथाओं तथा उनकी उपासना- गयीं हैं। कोई भी व्यक्ति कितना भी विद्वान्, वेदाध्याय, | पतिका वर्णन भी अच्च उपलब्ध हैं। उनका प्रिय पुष्प क्या संस्कारी तथा उत्तम जातिका क्यों न हो, यदि उसके आचरण है, उनकी पूजाविधि क्या है, उनके आयुध-व्योमके लक्षण श्रेष्ठ, उत्तम नहीं है तो वह श्रेष्ठ पुरुष नहीं कहा जा सकता। तथा उनका माहात्म्य, सूर्यनमस्कार और सूर्य-प्रदक्षिणाकी लकमें श्रेष्ठ और उत्तम पुरुष वें में हैं जो सदाचारी और विधि और उसके फल, सूर्यको दीप-दानकी विधि और सत्पथगाम हैं। महिमा, इसके साथ हैं सौरधर्म एवं दीक्षाकी विधि आदिका भविष्यपुराणमैं ब्रह्मपर्वके बाद मध्यमपर्वका प्रारम्भ होता महत्वपूर्ण वर्णन हुआ है। इसके साथ हीं सूर्यके विराट् है। जिसमें सृष्टि तथा सात ऊर्ध्व एवं सात पाताल का स्वरूपका वर्णन, वादश मूर्तियों का वर्णन, सूर्यावतार तथा वर्णन हुआ है। ज्योतिक्षक तथा भूगोलके वर्णन भी मिलते हैं। भगवान् सूर्यकीं इधयात्रा आदिका विशिष्ट प्रतिपादन हुआ है। इस पर्वमें नरकगामी मनुष्योंके २६ दोष बताये गये हैं, जिन्हें सूर्य उपासनामें व्रतवं विस्तृत चर्चा मिलती है। सूर्यदेवकी त्यागकर शुद्धतापूर्वक मनुष्यको इस संसार में रहना चाहिये। प्रिय तिथि है ‘समम । अतः विभिन्न फलश्रुतियोंके साथ पुराणोके अवगकी विधि तथा पुराण-वाक्कक महिमाका सप्तमी तिथिके अनेक ब्रतोंका और उनके ज्ञापनोंका अहाँ वर्णन भी यहाँ प्राप्त होता है। पुराणोंकों श्रद्धा-भक्तिपूर्वक विस्तारसे वर्णन हुआ है। अनेक सौर तीर्थक भी वर्णन मिलतें सुनने में ब्रह्महत्या आदि अनेक पापोंसे मुक्ति मिलती है। जों हैं। सूर्योपासनामें भावशुद्धिकी आवश्यकतापर विशेष बल प्रातः, गृत्रि तथा सायं पवित्र होकर पुराणेंका श्रवण करता है, दिया गया है। यह इसकी मुख्य बात है। उसपर ब्रह्मा, विष्णु और शिव प्रसन्न हो जाते हैं। इस पर्वमें इसके अतिरिक्त ब्रह्मा, गणेश, कार्तिकेय तथा अग्नि इष्टापूर्तकर्मका निरूपण अत्यन्त समारोहके साथ किया गया आदि देवका भी वर्णन आया है। विभिन्न तिथियों और है। जो कर्म ज्ञानसाध्य हैं तथा निकमभावपूर्वक किये गये नक्षत्रक अधिष्ठातृ-देवताओं तथा उनकी पूजाकै फलका भी कर्म और स्वाभाविक रूपसे अनुरागाभक्तिके रूपमें किये गये वर्गन मिलता है। इसके साथ ही ब्राह्मपर्वमें ब्रह्मचारिधर्मम हरिस्मरण आदि श्रेष्ठ कर्म अन्तर्वेदी कर्मोकि अन्तर्गत आते हैं, निरूपण, गृहस्थधर्मका निरूपण, माता-पिता तथा अन्य देवताकी स्थापना और उनकीं फुजा, कु, पोखरा, तालाब, गुरुजनों की महिमा वर्णन, उनको अभिवादन करनेकी विधि, बावली आदि खुदवाना, वृक्षारोपण, इँयालय, धर्मशाला, उपनयन, विवाह आदि संस्कारोंका वर्णन, रूसी-पुरुषोंके उद्यान आदि लगवाना तथा गुरुजनोंकी सेवा और उनको संतुष्ट सामुद्रिक शुभाशुभ-लक्षण, स्त्रियोंके कर्तव्य, धर्म, सदाचार करना—ये सब बहिर्वेदी (पूर्त) कर्म हैं। देवालयों के और उत्तम व्यवहारकी बाते, स्त्री-पुरुषोंकि पारस्परिक व्यवहार, निर्माण विधि, देवताओंकी प्रतिमाओके लक्षण और उनकी पञ्चमहायज्ञका वर्णन, बलिवैश्वदेव, अतिथिसत्कार, श्राद्धोंके स्थापना, प्रतिष्ठाको कर्तव्य-विधि, देवताओं की पूजापद्दति,

 

1-निकमपुरान कुवा भय द्विजोत्तमाः

मुच्यते सर्वपापेभ्यों ल्याङ्गतं यत्

 

सायं प्रातमापा झुर्मिला गानि यः

तस्य निम्न वा मा नै रमाया ।।

पापमपन्न १६ 4 )

  • पुराणं रमं पुण्यं भविष्यं सर्वसौख्यदम् +

 

उनके ध्यान और मत्र, मन्त्रोंक ऋषि और द–इन चाहिये। सौंपर पर्याप्त विवेचन किया गया है। पाषाण, काष्ठ, मृत्तिका, इस क्रममें क्रौञ्च आदि पक्षियोंके दर्शनका विशेष फल ताम, रत्न एवं अन्य अॅश्च धातुओंसे मी उत्तम लक्षणों से मुक्त भौं वर्णित हुआ है। मयूर, वृषभ, सिंह एवं क्रौञ्च और कपिका प्रतिमाका पूजन करना चाहिये । घरमें प्रायः आठ अंगुलतक घरमैं, वेतमें और वृक्षपर भूल से भी दर्शन में जाय तो उसको ऊँची मूर्तिका पूजन करना श्रेयस्कर माना गया है। इसके साथ नमस्कार करना चाहिये । पैसा करनेसे दर्शकके अनेक जन्मक ही ताब, पुष्करिणी, वापी तथा भवन आदिको पाप नष्ट हो जाते हैं, उनके दर्शनमाञसे धन तथा आपकी वृद्धि, निर्माण-पद्धति, गुवास्तु-प्रतिष्ठाको विधि, गृहवास्तु किन होती हैं। देवताओंकी पूजा की जाय, इत्यादि विषयोंपर भी प्रकाश द्वारा कोई भी कर्म इंफर्म या पितृकर्म नियत समयपर किये गया है।

 

जानेपर का आधारपर पूर्णरूपेण फलद होते है। | वृक्षापण, विभिन्न प्रकारके वृक्षकी प्रतिमा का विधान समय बिना की गयी क्रियाओंका कोई फल नहीं होता। तथा गोचरमिक प्रतिष्ठा-सम्बधी चर्चाएं मिलती हैं। जो अतः कालविभाग, मास-विभाजन, तिथि-निर्गय एवं वर्षभर व्यक्ति अया, फुल तथा फल देनेवाले वृक्षका रोपण करता विशेष पर्यो तथा तिथियोंके पुण्यप्रद कुल्योंका विचन भी इस हैं या मार्गमें तथा देवालयमें वृक्षों को लगाता है, वह अपने में साङ्गोपाङ्गरूपसे सम्पन्न हुआ है। जो सर्वसाधारण पितरों बड़े-से-बड़े पापोंसे ज्ञाता हैं और रोपणकर्ता इस लिये उपयोगी भी हैं। मनुष्यलों में महती कीर्ति तथा शुभ परिणाम प्राप्त करता अपने आहाँ गोत्र-प्रवरको जानें बिना किया गया कर्म हैं। जिसे पुत्र नहीं हैं, उसके लिये वृक्ष ही पुत्र हैं। विपरीत फलदायी होता है। समान गोत्रमें विवाहादि वृक्षारोपगकताकि लौकिक-पारलौकिक कर्म वृक्ष झीं करते सम्बका निषेध हैं। अतः गोत्र-प्रवरकी परम्पराको जानना रहते हैं तथा उसे उत्तम झोंक प्रदान करते हैं। यदि कोई अत्यन्त आवश्यक है। अपने-अपने गौत्र-प्रवरको पिता,

अश्वत्थ वृक्षको आरोपग करता हैं तो वीं उसके लिये एक आचार्य तथा शास्त्रद्वारा जानना चाहिये। इन सारी |लास मुत्रोसे भी कम है। अशोक वृक्ष लगाने में कभी शोक प्रक्रियाओंका विवेचन यहाँ उपलब्ध है। नहीं होता। बिल्व-वृक्ष दीर्घ आयुष्य प्रदान करता है । इस भविष्यपुराणमें मध्यमपर्वके बाद निसर्गपर्व चार प्रकार अन्य वृक्षोंके रोपणको विभिन्न फलश्रुतियाँ आयी हैं। खाण्टोंमें हैं। प्रायः अन्य पुराणों में सत्ययुग, त्रेता और द्वापरके सभी माङ्गलिक कार्य निर्बिभ्रतापूर्वक सम्पन्न हो जायें तथा प्राचीन राजाओंके इतिहासका वर्णन मिलता है, परंतु शान्ति-भङ्ग न हो इसके लिये ग्रह-शान्ति और शान्तिप्रद भविष्यपुराणमें इन प्राचीन राजाओंके साथ-साथ कलियुग अनुष्ठानोंका भी इसमें वर्णन मिलता है।

अर्वाचीन जो इस आधुनिक इतिहास भी मिलता है। | भविंदमागके इस पर्वमें कर्मकाण्डका भी विशद वर्णन वास्तवमें भविष्यपुराणके भविष्य नामकी सार्थकता प्राप्त होता हैं। विसंघ अझका विघान, कुण्ड-निर्माण अनिसर्गपर्थमें हीं चरितार्थ हुई दीखती हैं। अतिसर्गपर्वके प्रथम योजना, भूमि-पूजन, अघिसंस्थापन एवं पूजन, यज्ञादि कर्माकं खण्डमें सत्ययुगके शाओके वंशय परिचय, क्रेतायुगके सूर्य मएल-निर्माणका विषान, कुशकडिया-विधि, होमहव्या एवं चन्द्र-जयंशका वर्णन, द्वापरयुगके हवंशीय वर्णन, यज्ञपात्रका स्वरूप और पुर्णाहुतकी विधि, गुजाओं वृत्तान्त र्णत हैं। इसके बाद बंशीय यज्ञादिकर्ममें दक्षिणका माहात्म्य और कला-स्थापन आदि गुजाओंका वर्णन है। आरम्भमें गुजा अर्घात कुरुक्षेत्रमें अज्ञ विधि-विधानका विस्तारपूर्वक वर्णन किया गया है। करके म्लेच्छोंका विनाश किया था, परंतु कल्नेि स्वयं शास्त्रविहित यज्ञादि कार्य दक्षिणारहित एवं परिमाणविहीन म्लेच्छरूपमें राज्य किया तथा भगवान् नारायणको अपनी कभी नहीं करना चाहिये। ऐसा या कभी सफल नहीं होता। पूजासै प्रसन्नकर वरदान प्राप्त किया। नारायणने कसे कहा जिस यज्ञ में माप बताया गया है, उसके अनुसार करना कि कई दृष्टियोंसें अन्य युगोंकी अपेक्षा तुम श्रेष्ठ हों, अतः तुम्हारी इच्छा पूर्ण सेगी।’ इस वरदानके प्रभावसे आदम ऋतुकालमें ही भार्याका उपगमन करता है, वहीं मुख्य नामक पुस्प और हुम्यवती (हौवा) नामकी पत्नी से ब्रह्मचारी हैं। पाणिनिकी तपस्यासे प्रसन्न होकर भगवान् म्ले शोंकी वृद्धि हुई । करिव्युगके तीन हजार वर्ष व्यतीत सदाशिव शंकरने ‘अ इ उ ए’, ‘अ छ ।’ इत्यादि चतुर्दश

 

होने पर विक्रमादित्यका आविर्भाव होता हैं। इसी समय माहेश्वर-सूत्रोंकों वररूपमें प्रदान किया। जिसके कारण उन्होंने | कुकिंकर वैताका आगम होता है, जो विक्रमादित्यको कुछ व्याकरणशास्त्रका निर्माण कर, महान् कोकोपकार किया। | कथाएँ सुनाता हैं और इन कथाओके व्यावसे राजनीतिक और तदनन्तर बोपदेयके चरित्रका प्रसंग तथा श्रीमद्भागवतके स्यावारिक शिक्षा भी प्रदान करता है। बैंताय कही माहात्म्यको वर्णन, ऑर्गासप्तशतके माझत्म्यमें व्याधकर्माकी गयी इन काम संग्रह ‘वैतापञ्चविंशति’ अथवा कथा, मध्यमचरित्रकै माहात्म्यमें कात्याक्न तथा मगध ज्ञा | बेतालपचीसी के नामसे कमें प्रसिद्ध है।

महानन्दकी कथा और उत्तरचरितकी महिमाके प्रसंगमें इसके बाद ऑसत्यनारायणवतको कथामा वर्णन हैं। योगाचार्य महर्षि पतञ्जलिके चरित्रका रोचक वर्णन हुआ है। भारतवर्ष सत्यनारायणवत-कथा अत्यन्त लोकप्रिय है और भविष्यपुराणके प्रतिसर्गपर्वका तीसरा झण्डू ग्रमांश और इसका प्रसार-प्रचार भी सर्वाधिक हैं। भारतीय समातन् कृष्णांश अर्थात् आल्हा और ऊदल (उदयसिंह) के चरित्र सम्परामें किसी भी माङ्गलिक कार्य प्रारम्भ भगवान् तथा जयद्र एवं पृथ्वीराज चौहानकी वीरगाथाओंसे परिपूर्ण गणपति पूजनमें एवं उस कार्यकी पूर्णता भगवान् है। इधर, भारतमें जागनिक भाटचित आहाका वीरकाव्य | सत्यनारायणक कथाश्रवणसे प्रायः समझी जाती है। बहुत प्रचलित हैं। इसके बुन्देलखीं , भोजपरी आदि कई | भविष्यपुराणके प्रतिसर्गपर्वमें भगवान् सत्यनारायणन्नत- संस्करण है, जिनमें भाषाका कोड़ा-थोझ भैंद है। इन कथाका उल्लेख छः अध्यायोंमें प्राप्त है। यह कथा कथाओंका मूल यह प्रतिसर्गपर्व ही प्रतीत होता हैं। प्रायः ये स्कन्दपुराणों प्रचलित कथासे मिलती-जुलती होनेपर भी कथाएँ लेकञ्जनके अनुसार अतिशयोक्तिपूर्ण-सौं प्रतीत होती विशॆष रोचक एवं श्रेष्ठ प्रतीत होती हैं। वास्तवमें इस मायामय हैं, किंतु ऐतिहासिक दृष्टि में महत्त्वकी भी हैं। इस खण्डमें राजा संसारकी वास्तविक सत्ता तो है में नहँ-नानो विद्यते शालिवाहन तथा ईशामसहकी कथा भी आयी है। एक समय आवो नाभायों चिले मतः । परमेश्वर ही त्रिकालाबाधित शकाधीश शालिवाहनने हिमशिखरपर गौर-वर्णके एक सुन्दर | सत्य हैं और एकमात्र वहीं य, ज्ञेय और उपास्य हैं। पुरुषों इंझा, जो श्वेत वस्त्र धारण किये था । शक्ज कन-वैराग्य और अनन्य भके द्वारा चाहीं साझास्कार करने जिज्ञासा करने उस पुरुषने अपना परिचय देते हुए अपना योग्य हैं। वस्तुतः सत्यनारायणझतका तात्पर्य उन शुद्ध, नाम शामसी बताया। साथ ही अपने सिद्धान्तोंका भी संक्षेपमें सच्चिदानन्द परमात्माकी आराधनासे ही है । निकाम उपासनासे वर्शन किया। शालिवानके वंशमें अन्तिम दसवें गुजा सत्यस्वरूप नारायणकी प्राप्ति हो जाती है। अतः भोजराज़ हुए, जिनके साथ मामदकी कथाका भी वर्णन अद्धा-भक्तिपूर्वक पूजन, कथाश्रवण एवं प्रसाद आदिके द्वग्न मिलता है। राजा भोजने मरुस्थल (मदीन) में स्थित उन सत्यस्वरूप परब्रह्म परमात्मा भगवान् सत्यनारायणकी महादेवको दर्शन किया तथा भक्तिभावपूर्वक पूजन-स्तुति की। उपासनाने म ठाना चाहिये।

भगवान् शिवनें प्रकट होकर म्लेच्छोंमें दूषित इस स्थानको | इस खाके अन्तिम अध्यायोंमें पिशर्मा और उनके त्यागकर महाकालेश्वर तीर्थ जानेकी आज्ञा प्रदान की।

बंशमें उत्पन्न होनेवाले व्याडि, मीमांसक, पाणिनि और वररुचि दना देशराज एवं वत्सराज आदि राजाओंके आविर्भावकीं । आदिकीं रॉचक कथाएँ प्राप्त होती हैं। इस प्रकरणमें कथा तथा इनके वंशमें होनेवाले कौरवांश एवं पाण्डवांझोंक ब्रह्मचारिधर्मकी विभिन्न व्याया करते हुए यह कहा गया है अपने उत्पन्न जयंशका विवरण प्राप्त होता है। कौरवांशको कि जो गृहस्थधर्ममें रहता हुआ पितरों, देवताओं और पराजय और पाण्ड्यांशोंकी विजय होती हैं। पृथ्वीराज अतिधियका सम्मान करता हैं और इन्द्रियसंयमपूर्वक चौहानको वीरगति प्राप्त होने के उपरांत सोडीन (मुहम्मद गोरी) के द्वारा कोतुकोद्दीनको दिङका शासन सौंफ्कर इस श्रीरामानुज, श्रींमध्व एवं गौरक्नाथ आदिका विस्तृत चरित्र देशसे धन सूटकर ले जानेका विवरण प्राप्त होता है। यहाँ वर्णित है। प्रायः में सभी सूर्यके तेज एवं अंशसे हीं उत्पन्न प्रतिसर्गपक्का अंतिम चतुर्थ पाण्ड़ है, जिसमें सर्वप्रथम बताये गये हैं। भविष्यपुराणमें इन्हें द्वादशादिस्यके अवतारके कलियुगमें अपन्न आमवंशीय राजाओंके वंशका परिचय रूपमें प्रस्तुत किया गया है। कलियुगमें धर्मरक्षार्थ इनका मिलता है। तदनन्तर राजपूताना तथा दिल्ली नगरकै आवर्भाव होता है। विभिन्न समुदायको स्थापनार्मे इनका जर्व का इतिहास प्राप्त होता है। राजस्थानके मुख्य नगर योगदान है। इन असंगमें प्रमुखता चैतन्य महाप्रभुकों दी गयी | अजमकी कथा मिलती है। अन्य (अ) ब्रह्माके द्वारा है। ऐसी भी प्रतीत होता है कि श्रींगचैतन्यने ब्रह्मसूत्र, गीता |चित होने तथा म लक्ष्मी (मा) के शुभागमनसे इम्य या या उपनिषद् किसींपर भी साम्प्रदायिक दृष्टिले भाष्य रचना मगर इस नगरीका नाम अजमेर हुआ । इस प्रकार राजा नहीं की थीं और न किसी सम्प्रदाय ही अपने समयमें जयसिंहने जयपुरको बसाया, जो भारतका सर्वांधिक सुन्दर स्थापना की थी। उदार-भाषसे नाम और गुणकीर्तनमें विभोर नगर माना जाता है। कृणवमकिं पुत्र उदयने उदयपुर नामक रहते थे। भगवान जगन्नाथके द्वारफर में खड़े होकर उन्होंने | नगर बसाया, जिसका प्राकृतिक सौन्दर्य आय भी दर्शनीय है। अपनी जीवनलीलाकों ऑविममें लीन कर दिया। साथ ही अन्यकुञ्ज नगर कथा भी अद्भुत है। शशा प्रणा यहाँ संत सूरदासजी, तुलसीदासजीं, कबीर, नासी, पीपा, ।

तपम्यासे भगवती आमा प्रसन्न होकर कन्यारूममें बेगुवान मानक, दाम, नामदेव, इंकग, वा भगत आदिकी कथाएँ भीं करती हुई आती हैं। उस कन्याने दानरूपमें यह नगर, राजा हैं। आनन्द, गिरी, परी, वन, आश्रम, पर्यंत, भारत एवं नाथ । प्रणयको प्रदान किया, जिस कारण इसका नाम ‘कन्या ‘ आदि दस नामीं साधुओंकों व्युत्पत्तिका कारण भी लिखा है। पड़ा। इसी प्रकार चित्रका निर्माण भी भगवतीक असादसे भगवनी महाकाली तो इनकी उत्पत्तिकी कवा भी हो हुआ। इस स्थानकी विशेषता यह है कि यह देवता मिलती हैं। प्रिय नगर है, जहाँ कलिका प्रवेश नहीं सकता। इसीलिये भगवान् गणपतिको यहाँ परब्रह्मरूपमैं चित्रित किया गया इसका नाम ‘कलिंजर’ भी कहा गया है। इसी प्रकार है। भूतभावन सदाशिवकी तपस्यासे प्रसन्न होकर भगवत बंगालके गज़ा भोगवर्माके पुत्र कालियन महाकाल की पार्वतके पुत्ररूपमें जन्म लेनेका उन्हें वर प्रदान किया। उपासना की। भगवती काने प्रसन्न होकर पुष्प और तदनन्तर उन्होंने भगवान् शिव पुत्ररूपमें अवतार धारण कलियोंकी वर्षा की, जिसमें एक सुन्दर नगर उत्पन्न हुआ ओं किया। इसमें रावण एवं कुम्भकर्णक जन्मक कथा, कहावतार कलिकातापरी (कलकत्ता) के नामसे प्रसिद्ध हुआ। चारों हनुमानजी रोचक कथा भौं मिलती हैं। केसरीकी पत्नी वगक उत्पत्तिकी कथा तथा चारों युगोंमें मनुष्योंकी आयुका अंजनीक गर्भसे श्रीहनुमतुल्ली अवतार धारण करते हैं। निरूपण और फिर आगे चलकर दिल्ली नगरपर पानोंका आकाशमें उगते हुए लाल सूर्यको देख फल समझकर उसे शासन, तैमूरलंगके द्वारा भारतपर आक्रमण करने और निगलने का प्रयास करते हैं। सूर्यके अभायमें अन्धकार देखकर लटनेकी क्रियाका वर्णन भी इसमें प्राप्त होता है। इन्द्रने उनकी हुन् (इ) पर बसे प्रहार किया, जिससे कलियुगमें अवतीर्ण होनेवाले विभिन्न आचार्यो-संतों हनुमानकी छ ?ढी हो जाती हैं और वे पृथ्वींपर गिर पड़ते और पक्की कथाएँ भी यहाँ उपलब्ध है। श्रीशंकराचार्य, है, जिससे उनका नाम हनुमान् पड़ा। इसी बीच गृण उनकी ग्रमानन्दाचार्य, निम्यादित्य, ऑघरस्वामी, श्रीविष्णुस्वामी, फैछ फड़कर लटक जाता हैं। फिर भी उन्होंने सूर्यको नीं। वाराहमिहिर, भट्टॉजि दीक्षित, घयतर, कृष्णचैतन्यदेव, छोड़ा। एक वर्षक ग्रयणसे युद्ध होता रहा । अत्तमें रावणके

1-नई नियादौ

| अतः

कालिम् । कतिपत्र पद गमन् सुप्रिये ।।

नाम सिमनले।

(प्रनिसर्गपर्व

* ‘भविष्यपुराण‘–एक रिचय

फ्तिा विश्रवा मुनि वहाँ आते हैं और वैदिक स्तोत्रोंसे रहता था। वे दोनों उसके पास पहुँचे, वह अपनी खेती हनुमान्जीको असकर रावणका पिण्ड छुड़ाते हैं। तदनत्तर आदिको चिन्तामें लगा था। भगवान्ने उससे कहा-‘हम ब्रह्माजीके प्रादुर्भाव तथा सृष्टि और उत्पत्तिकीं तुम्हारे अतिथि हैं और भूखें हैं, अतः भोजन कराओ।’ उस कथा एवं शिव-पार्वती विवाहका वर्णन हुआ है । अत्तम ब्राह्मणने दोनों अपने अपर लाक्वा स्नान-भोजन आदि अध्यायोंमें मुगल बादशाहों तथा अंग्रेज शासकको भी चर्चा कराया, अनत्तर उत्तम म्यापर शयन आदिको व्यवस्था की। हुई है। मुगल बादशाहोंमें बाबर, हुमायूँ, अक्षर, शाहजहाँ, प्रातः उठकर भगवान्ने ब्राह्मणसे कहा-‘हम तुम्हारे घरमें जहाँगीर, औरंगजेब आदि प्रमुख शाक्कका वर्णन मिलता हैं। सुखपूर्वक रहे, परमेश्वर को कि तुम्हारी ती निष्फल हो, छत्रपति शिवाजीकी वीरता का भी वर्णन प्राप्त है। इसके साथ तुम्हारी संततिकी वृद्धि न हो इतना कहकर वें वहाँसें चले छौं विक्रयाकै शासन और उसके पार्लियामेंटका भी उल्लेख गये। यह देखकर नारदजीने आश्चर्यचकित होकर पृ है। विक्टोरियाको यहाँ विकटावतीके नामसे कहा गया हैं। ‘भगवन् ! वैश्यनें आपकी कुछ भी सेवा नहीं की, परंतु आपने कलियुगके अन्तिम चरणमें नरककै भर जानेकी गाथा भी उसे उत्तम वर दिया, किंतु इसा ब्राह्मणने श्रद्धासे आपकी बहुत मिलती हैं। सभी नरक मनुष्योंसे परिपूर्ण हो जाते हैं सेवा की, फिर भी उसे आपने आशीर्वादके रूपमें शाप ही तथा नकोंमें अनर्गता आ जाती है। अमें मुगके दिमा–ऐसा आपने क्यों किया । भगवान्ने कहा-‘नारद ! सामान्यधर्मक वर्णनके साथ इस पर्सम उपसंहार किया मर्यभर मरमें पकडनेसे जितना पाप होता है, एक दिन हरु गया है।

जोतनेसे उतना ही प्राप्त होता है। वह वैश्य अपने पुत्र-पौत्रके इस पुराणका अन्तिम पर्व है उत्तरपर्व । उत्तरपर्वमें मुख्य साध इसी कुपि-कार्यमें लगा हुआ है। हमने न तो उसके घरमें रूपमें व्रत, दान और उसके वर्णन प्राप्त होते हैं। व्रतकी विश्राम किया और न भोजन हीं किया, इस ब्राह्मणके घरमें आहत भलाका प्रतिपादन यहाँ हुआ हैं। प्रत्येक तिथियों, भोजन और विश्राम किया। इस ब्राह्मणको ऐसा आशीर्वाद मासों एवं नक्षत्रक अन धा इन तिथियों आदिके अधिष्ठातृ दिया कि जिससे यह ज्ञगल्ला न सकर मुक्तिको प्राप्त कर देवताओंका वर्णन, व्रतकी विधि और उसे फलश्रुतियोंका सके। इस प्रकार बातचीत करते हुए वे दोनों आगे बढ़ने लगे। बड़े विस्तारसे प्रतिपादन किया गया हैं। आगे चलकर भगवान्ने नारदजी कान्यकुके सरोवरमें उपके प्रारम्भमें श्रीनारदजींको भगवान् श्रीनारायण पनौ मायासे स्नान कराक एक सुन्दर बीम स्वरूप प्रदान विष्णुमायाको दर्शन कराते हैं। किसी समय नारदमुनिने किया तथा एक राजासे विवाह कराकर पुत्र-पौत्रोंसे सम्पन्न घेतद्धीपमें भगवान् रायणको दनकर उनकी मायाको जगजाकों मायामें लिप्त कर दिया तथा कुछ समय बाद पुनः देखने की इच्छा प्रकट की । नारदजीके बार-बार आम कानेपर नारदजीकों अपने स्वाभाविक रूपमें लाकर भगवान् अत्तहिंत श्रीनारायण नारदजींके साथ जम्बुद्वीपमें आये और मार्गमें एक हो गये। नारदजीने अनुभव किया कि इस मायाकै प्रभाव वृद्ध ब्राह्मणका रूप धारण कर लिया। विदिशा नगरीमें संसारके जीव, पुत्र, लीं, धन आदिमें आसक्त से रोते-गाते हुए धन-धान्यसे समृद्ध, उद्यमी, पशुपालनमें तत्पर, कृषिकार्यको अनेक प्रकारको चेष्टाएँ करते हैं। अतः मनुष्यको इससे । भलीभाँति करनेवाला सौरभद्र नामका एक वैश्य निवास करतो सावधान बना चाहिये। था, वे दोनों सर्वप्रथम उमौके घर गये । उस वैश्यमें उनका इसके बाद संसारके दोयका विस्तारपूर्वक वर्णन किया यथोचित सत्कारका भोजनके लिये पूछा। यह सुनकर वृद्ध गया है। महाराज युधिष्ठिर भगवान् श्रीकृष्णसे प्रश्न करते हैं, ब्राह्मणरूपधारी भगवान्ने हँसकर कहा–’तुमको अनेक ग्रह जीव किस कर्मसे देवता, मनुष्य और पशु आदि ऑनियोंमें पुत्र-पौत्र हों, तुम्हारी खेतों और पशुधनकी नित्य वृद्धि में यह उत्पन्न होता है ? शुभ और अशुभ फलका भोग यह कैसे मेरा आशीर्वाद है।’ यह कहकर ये दोनों वहाँसे चल पड़े। करता है ? इसका उत्तर देते हुए भगवान् श्रीकृष्ण कहते हैं कि , मार्गमें गाके तट पर गाँवमें गोस्वामी नामका एक दरिंद्ध ब्राह्मण उत्तम कमसि देवयोनि, किसे मनुष्ययोनि और पाप कर्म सेपा आदि योनियोंमें जन्म होता है। अर्म और अधर्म अतिदम मनुष्य-जन्म पाते हैं। स्वर्ग एवं मोक्ष देवास निश्चयमें श्रुति हीं प्रमाण है। पापसे पापयन और पुण्यसे मनुष्य-जन्म पाक्न ऎसा कर्म करना चाहिये, जिसमें नाक न | पुफ्ययानि प्राप्त होती है। वस्तुतः संसारमें कोई सुखी नहीं है। देखना पड़े। यह मनुष्य-योनि देवताओं तथा अरोक लिये प्रत्येक प्राणीको एक दूसरे से भय बना रहता है। यह कर्ममय भी अत्यन्त दुर्लभ है। धर्मसे ही मुश्यका जन्म मिलता है।

 

शरीर जमसे लेकर अन्नातक दुःखीं हीं है। जो पुरुष जितेन्द्रिय मनुष्य-जन्म पाकर उसे धर्मकी वृद्धि करनी चाहिये । जो अपने | हैं और मत, दान तथा उपवास आदिमें तत्पर रहते हैं, वे ही कल्याणके लिये धर्मका पालन नहीं करता है, उसके समान । सदा सुखी रहते हैं। तदनन्तर यहाँ भगवान् श्रीकृष्णके द्वारा मुर्ख कौन होगा ? विविध प्रकारके पाप एवं पुण्य कर्मीका फल बताया गया यह देश सभी देशों में उत्तम है। बहुत पुम्यासे प्राणी | है। अधम कर्मको हीं पाप और अधर्म कहते हैं। स्थूल, जन्म भारतवर्ष में होता हैं। इस देशमें जन्म पाकर जो अपने सूक्ष्म, अतिसूक्ष्म आदि भेदोंद्वारों करोड़ों प्रकारके पाप हैं, पर कल्याणके लिये सर्म करता हैं वहीं बुद्धिमान् हैं। जिसने याँ बड़े-बड़े पापका संक्षेपमें वर्णन किया गया हैं। परस्त्रींका ऐसा न किया, उसने अपने आत्मा के साथ वाशना की। चिन्तन, इसका अनिष्ट-चिन्तन और कार्य (कुकर्म) में जबतक यह शरीर स्वस्थ है, तबतक जो कुछ पुण्य बन सके, अभिनिवेश—ये तीन प्रकारके मानस पाप हैं। अनियन्त्रित कर लेना चाहिये, बादमें कुछ भी नहीं हो सकता। दिन-रातके प्रलाप, अप्रिय, असत्य, अनिन्दा और पिता अर्थात् बहाने नित्य आयुके ही अंश खण्डित में रहें हैं। फिर भी चुगली–ये पाँच वाचिक पाप है। अभक्ष्यभक्षण, हिंसा, मनुष्योंको बोध नहीं होता कि एक दिन मृत्यु आ पहुंचेगी और | मिथ्या कामसेवन (असंयमित जीवन व्यतीत करना) और इन सभी सामग्रियों को लेकर अकेले चला जाना पड़ेगा। | परधन-हरण—चे चार मयिक पाप है। इन बाह कर्मोकि फिर अपने हाथसे ही अपनी सम्पत्ति सत्पात्रों को क्यों नहीं बाँट करनेसे नरककी प्राप्ति होती हैं। इसके साथ ही जो पुरुष देते ? मनुष्यके लिये दान ही पाथेय अर्थात् गतेके लिये संसाररूपी सागरसे उदार, नेवा भगवान् सदाशिव अथवा भोजन हैं । ज्ञों दान करते हैं वे सुखपूर्वक जाते है। दान-हीन भगवान् शिंगुसे हेम रते हैं, वे घर नकर्मे पड़ते हैं। मार्गमें अनेक दुःख पाते हैं। भूखे मरने जाते हैं, इन सब ब्रह्महत्या, सुपान, सुवर्णकी चोरों और गुरुपौंगमन-ये बातोंको विचारकर पुण्य कर्म ही करना चाहिये । पुण्य कमसे | चार महापातक हैं। इन पार्कोको करनेवालोंके सम्पर्कमें देवत्व प्राप्त होता है और पाप करने से नरककी प्राप्ति होती है। | रहनेवाला पाँचवाँ महापातकी गिना जाता है। ये सभी नाकमैं जो सत्पुरुष स्क्र्यात्मभावसे ऑपरमात्म-प्रभुको शरणमें जाते है, जाते हैं। इसके अतिरिक्त कई प्रकारके उपपातकका भी वर्णन वै पद्मपत्रपर स्थित जलकी तरह पापोंमें लिप्त नहीं होते, आया है। जिनका फल दुःख और नरकगमन ही है। इसलिये इन्द्रसे छूटकर भक्तिपूर्वक ईभएको आराधना करनी इसलिये बुद्धिमान् मनुष्य दारीरको नश्वर ज्ञानकर चाहिये तथा सभी प्रकारके पापोंसे निरन्तर बचना चाहिये। | लेशमात्र भी पाप न करे, पापसे अवश्य हीं नाक भोगना भगवान् श्रीकृष्ण युधिष्ठिरसे कहते है कि यहाँ भीषया | पड़ता है। पापका फल दु:ख हैं और नकसे बढ़कर अधिक नरकको जों वर्णन किया गया है, उन्हें बत-उपवासरूपी । दुः। कहीं न है। माम मनुष्य कयासकें अनत्त फिर नौकासे पार किया जा सकता हैं । प्राणीको अति दुवा पुयींपर वृक्ष आदि अनेक प्रकार स्थायर-यनमें ज्ञानम् मनुष्य-जन्म कर ऐसा कर्म करना चाहिये, जिससे पश्चात्ताप महण करते हैं और अनेक कष्ट भोगते हैं। अनन्तर कौट, न करना पड़े और यह जन्म भी व्यर्थ न जाये और फिर जन्म पतंग, पक्षी, पशु आदि अनेक योनियोंमें जन्म लेते हुए भी न लेना पड़े। जिस मनुष्य कीर्ति, दान, व्रत, उपवास

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शुविमाप्नोति मिर्मानुषतां व्रजेत् अशुभैः कमजुतर्यम्पनियु, जायते

प्रमाण अतिरंवार अमर्मनि पर्ष पन यं पपेन कगा। इतपत्र g | -15)

 

* ‘भविष्यपुराणएक रिचय

आदिकी परम्परा बनीं है, वह परलोकमें उन्हीं के द्वारा पूर्णिमाकी विशेष महिमा वर्णन, सावित्रीब्रत-कथा, सुख भोगता है। व्रत तथा स्वाध्याय न करनेवालेकौं कहीं भी कृत्तिका-प्रतके प्रसंगमें रानी कलिंगभद्गाको आरम्यान, गति नहीं हैं। इसके विपरीत व्रत-स्वाध्याय करनेवाले पुरुष मनोरम-पूर्णिमा तथा अशक-मूर्णिमा व्रत-विध आदि सदा सुखी रहते हैं। इसलिये मात-स्वाध्याय अवश्य करना विभिन्न ब्रतों और आख्यानका वर्णन किया गया है। चाहिये।

तिथियोंके व्रतों के निरूपणके अनन्तर नक्षत्रों और इस पर्वमें अनेक व्रत की कथा, मात्म्य, विधान तथा मासकें व्रतकथाका वर्णन हुआ है। अनन्तवत-माहात्म्य फलतियोंका वर्णन किया गया है। साथ ही मृतकं कर्तवीर्य आविर्भावका वृत्तान्त आया है। मास-नक्षत्रज्ञतक उद्यापनकी विधि भी बतायी गयी है। एक-एक तिथियोंमें कई माहात्म्यमें साम्रागीकी कथा, प्रायश्चित्तरूप सम्पूर्ण ब्रतका व्रतका विधान हैं। जैसे प्रतिपदा तिथिमें तिलकवत, विधान, वृत्ताक (बैगन) -त्यागवत एवं प्रह-नक्षत्रवतकी अशोकवत, कोकिलाग्नत, बृत्तपोवत आदिका वर्णन हुआ विधि, शनैश्चरम्रतमें महामुनि बैंपलादका आम्यान, हैं। इसी प्रकार जातिस्मर भन्नत, यमद्वितीया, मभूकतृतीया, संक्रान्तिवतके उद्यापन विधि, भद्रा (विष्ट) -त्रत तथा हरावत, ललितातृतीयावत, अवियोगातीयावत, भद्राके आविर्भावकी कथा, चन्द्र, शुक्र तथा बृहस्पतिको अर्घ्य उमामहेश्वरबत, सौभाग्यशयन, अनन्ततृतीया, सकल्पाणिनी देने की विधि आदिके वर्णन हुए हैं। इस पर्वकै १२१ वें तृतीयामत तथा अक्षयतृतीया आदि अनेक व्रत तृतीया तिथिमैं अभ्यासमें विविध प्रकीर्णं व्रतके अन्तर्गत प्रायः ४५ व्रतका हीं वर्णित है। इसी प्रकार गणेशचतुर्थी, श्रीपञ्चमीत-कथा, उल्लेख आता हैं, तदनन्तर माघ-मानको विधान, स्नान, विशोक-वाही, कमलय, मन्दार-वहीं, विजया-सप्तम, तर्पणविधि, रुद्र-स्नानक विधि, सूर्य-चन्द्र-ग्रणमैं मानका मुक्ताभरण-समी, कल्याण-ममम, शर्करा-मममी, माहात्म्य आदिके वर्णन प्राप्त होते हैं। शुभ-सप्तमी तथा अचला-सप्तमी आदि अनेक सप्तमी-व्रताका मृत्युसे पूर्व अर्थात् मरणासन्न गृहस्थ पुरुषको शरीरका वर्णन हुआ है। तदनन्तर बुधाष्टमी, ऑकृष्णजन्माष्टमी, दूर्वाकीं त्याग किस प्रकार करना चाहियें, इसका बड़ा हीं सुन्दर उत्पत्ति एवं दूर्वाष्टमी, अनलाष्टमी, श्रीवृक्षनवमी, ध्यानवमी, विवेचन यहाँ १२६ वें अध्यायमें हुआ है। जब पुरुषको यह आशाशमी आदि मृतका निरूपण हुआ है । द्वादशी तिथिमें मालूम हो कि मृत्यु समीप आ गयीं हैं तो उसे सब ओरसे मन तारकद्वादशी, अण्यद्वादशी, गोवत्सद्वादशी, देवशयनी एवं स्टाकर गरुडध्वज भगवान् विष्णुका अथवा अपने इष्टदेवका देवोत्थान द्वादशी, नींगुञ्जनद्वादशी, मल्लद्वादशी, स्मरण करना चाहिये । झनसे पवित्र होकर श्वेत वस्त्र धारण क्जिय-अयणद्वादशी, गोविन्दादशौं, असापडद्वादशी, करके सभी उपचासे नारायणी नाक्न स्तोत्रोंसे स्तुत कने। धरणींवत (वाराहद्वादशी), विशोकादशी, विभूतिद्वादशी, अपनी शक्तिके अनुसार गाय, भूमि, सुवर्ण, वस्त्र, अन्न मदनदादशी आदि अनेक हादशी-घतोय निरूपण हुआ है। आदिका दान कों और ब. पत्र, मित्र, स्त्री, क्षेत्र, धन-धान्य प्रयोदशी तिथिके अन्तर्गत अबाधक्सन, दौर्भाग्य- तथा पशु आदिसे चित्त हटाकर ममता सर्वथा परित्याग कर दौर्गनाशकवत, धर्मशजका समाराधन-न्नत (यमादर्शन- दें। मित्र, चानु, उदासीन, अपने और परायें लोग उपकार दशी), अनङ्गयोदशीव्रतका विधान और उसके फलके और अक्कापके विषयमें विचार न करता हुआ अपने मनको वर्णन लिखें हैं। चतुर्दशी तिथिमें पालीञ्चत एवं उम्भा- पूर्ण शान्त कर ले। जगह भगवान् विष्णाके अतिरिक्त मेरा। (कदल-) ब्रत, शिवचतुर्दशीव्रतमें महाँ अड्किा कोई अन्धु नहीं है, इस प्रकार सब कुछ बोड़कर सर्वेश्वर आख्यान, अनन्त-चतुर्दम्रत, श्रवणका-व्रत, नक्तवत, भगवान् अच्युत हदयमें धारण करकै निरन्तर वासुदैवकै फलत्याग-चतुर्दशीवात आदि विभिन्न व्रतका निरूपण हुआ नाम स्मरण-कीर्तन करता है और जब मृत्यु अत्यन्त समीप है। तदनन्तर अमावास्यामें श्राद्ध-तर्पणको महिमाका वर्णन, आ जाय तो दक्षिणाम कुशा विकर पूर्व अथवा उनकी ओर पूर्णमासी-बतका वर्णन, जिसमें बैंशास्त्री, कार्तिक और माघी सिरकर शयन करें और परमात्म-प्रभुसे यह प्रार्थना करें कि “हे

 

4 पुराणं परमं पुण्यं भविष्यं सर्वसौम्यादम्

 

जगन्नाथ ! मैं आपका हीं हैं, आप शीघ्र मुझमें निवास कों, वर्णन आया है। सर्वप्रथम दीपदानकी महिमामें रानी वायु एवं आकाशकौं मत मुझमें और आपमें कोई अता न ललिताके आस्यानका तथा वृषोल्सर्गक महिमाका वर्णन हुआ रहें । मैं आपको अपने सामने देख रहा हूँ, आप भी मुझे है । अनन्तर कन्यादानके महत्त्वपर प्रकाश डाला गया हैं। देखें । इस प्रकार भगवान् विष्णुको प्रणाम करें और उनका आभूषणोंसे अलंकृत कन्याकों अपने वर्ण और जातिमें दान दर्शन करें। हो अपने इष्टदेवका अथवा भगवान् विष्णुका करने की अत्यधिक महिमा बतायी गयी है। अनाथ कन्याके | ध्यानकर प्राण त्याग करता है, उसके सब पाप छूट जाते हैं विवाह करनेको भी विशेष फल कहा गया है। इस में और वह भगवान्में लेन में जाता है। मृत्युकालमें यदि इतना घेनुदानम विवाद वर्णन प्राप्त होता है। कई प्रकारको धेनुक करना सम्भव न हो तो सबसे सरल उपाय यह है कि चारों दानका प्रकरण आया है। प्रत्यक्ष घंनु, चिऊधेनु, जलधेनु तरफसे चित्तवृत्ति हटाकर, गोविन्दका स्मरण करते हुए प्राण मृतधेनु, लवणाधेनु, कामधेनु, रत्नधेनु आदिके वर्णन मिलते त्याग करना चाहिये, क्योंकि व्यक्ति जिस-जिस भावसें हैं। इसके अतिरिक्त कपिलदान, महिषौंदान, भूमिदान, स्मरणका प्राण त्याग करता है, उसे वहीं भाव प्राप्त होता हैं। सौवर्णपंक्तिदान, राहदान, अन्नदान, विद्यादान, तुलापुरुषदान, अतः सब प्रकारसे निवृत्त होकर वासुदेवका कारण और हिरण्यगर्भदान, ब्रह्माण्डदान, कल्पवृक्ष-कल्पलतदान, चिन्तन करना ही श्रेयस्कर हैं। इसी प्रसंगमें भगवान के गजरथासरथदान, अपुरुषदान, सप्तसागरदान, चिन-ध्यानके स्वरूपपर भी प्रकाश डाला गया है। जो महाभूतपटद्दान, शय्यादान, हेमस्तिरथदान, विश्वचदान, | साधकों के लिये अत्यन्त उपयोगीं और जानने योग्य हैं। नक्षत्रदान, निधिदान, धान्यपर्वतदान, लवणपर्वतदान, महर्षि मार्कडेयजीके द्वारा चार प्रकारके ध्यान गुमचलदान, होमाचलदान, तिलाचलदान, कापसाचलदान, विवेचन किया गया है-(१) गुन्य, उपभोंग, चायन, भोजन, मृताचलदान, लाचलदान, शैंप्याचलदान तथा शार्कचलदान वाहन, मणि, स्त्री, गन्ध, माल्य, वस्त्र, आभूषण आदिमें यदि आदि दानों की विधियां विस्तारपूर्वक निरूपित हुई हैं। अत्यन्त मोहके कारण उस्क्म चित्तन-मन बना रहता हैं तो भारतीय संस्कृतिमें उत्सर्वोका विशेष महत्व है। विभिन्न यह महान्य आच्च ध्यान कहा गया हैं। इस ध्यानसे निधिपत्र तथा पर्योंपर विभिन्न प्रकारसे उसने मनाया निर्यकु-योनि तथा गतिकी प्राप्ति होती हैं । (३) दया जाता है और सभी असवकों अलग-अलग महिमा भौं है । अभावमें यदि जलाने, मारने, तड़पाने, किसीके ऊपर प्रहार याँ इन उत्सवोंका भी वर्णन हुआ है। होलिकोत्सव, कनेकों इच्छ रहती हों, ऐसी क्रियाओंमें जिसका मन लगा हों, दीपमालिकोत्सव, रक्षाबन्धन, महानवमी-उत्सव, इन्द्र उसे ‘शैइ ध्यान कहा गया है। इस ध्यानसे नक प्राप्त होता वजोत्सव आदि मुख्य रूपमें वर्णित हैं। होलिकोत्सवमें हैं। (३) वेदाधक चिंत्तन, इन्द्रिय उपशमन, मोक्षक द्रोद्धाकी कथा मिलती है। इन सबके अतिरिक्त कोटिहोम, चिता, प्रणियोंके कल्याणकी भावना आदि करना ‘धर्म्य नक्षत्रोंम, गणनाथशत्ति आदिके विधान भी दिये गये हैं। ध्यान है। ‘धर्म्य ध्यानसे स्वर्गको अथवा दिव्यलों की प्राप्ति भविष्यमाणमें व्रत और दान आदि प्रकरणमें ज़ों होती है । (४) समस्त इन्द्रियोंका अपने-अपने विषयोंसे निवृत्त फलनियाँ दी गयी है, वे मुख्यतः इहलोक तथा परलोक में हो जाना, हृदयमें इष्ट-अनिष्ट—किसी भी चिंत्तन नहीं होना झोंकी निवृत्ति तथा भोगैश्चर्य और वर्ग आदि लोकों और आत्मस्थित होकर एकमात्र परमेश्वर चिंतन करते हुए प्राप्तिसे ही सम्बन्धित हैं। सामान्यतः मनुष्यको जीवनमें दो बातें मात्मनष्ट हो जाना—यह ‘शु’ भयानका स्वरूप हैं। इस प्रभावित करती हैं-एक तो दुःखोंका भय और दूसरा सुखका ध्यानसे मोक्षकी प्राप्ति अथवा भगवत्प्राप्ति हो जाती हैं। प्रलोभन । इन दोनोंके लिये मनुष्य कुछ भी कहनेको तत्पर इसलिये ऐसा प्रयत्न करना चाहिये कि कल्याणकारी शरू रहता है। परमात्म-अभुमें हमारी आस्था एवं विश्वास जाग्रत् हो ध्यानमें हौं चित स्थिर हो जाय। और हमारे सम्बन्ध भगवानसे स्थापित हों, इसके लिये अपने इस प्रकरणके बाद दानकी महिमा एवं विभिन्न असवका शास्त्रों और पुराणोंमें लौकिक तथा पारलौकिक कामना सिसिके लिये फलश्रुतियाँ विवरूपसे प्रदर्शित हुई हैं। सम्बन्धमें भी यही बात है। अतएव श्रद्धा एवं निष्ठाको दृष्टिमैं वास्तवमें दु:के भय तथा स्वर्ग आदि सुरुखोंके प्रलोभनमें साधकके कल्याणार्थ जहाँ जिसका वर्णन है, वहाँ उसको जब मानव एक बार ब्रत, दाम आदि सत्कर्मोकी ओर प्रवृत हों सर्वोपरि बताना युक्तियुक्त ही हैं और परिपूर्णतम भगवसताको जाता है और उसमें उसे सफलताके साथ आनन्दकी अनुभूति इष्टिमें सत्य तो है हो । तौकी बात यह है कि भगवान होने लमाती हैं तो आगे चलकर यह सत्कर्म भी उसका स्वभाव विभिन्न नाम-रूकी उपासना करनेवाले संतों, मामाओं और व्यस्न बन जाता है और जब भी भगवत्कृपासे सत्संग भने अपनी कल्यागमयी सरसाधनाके तापसे विभिन्न | आदिके द्वारा उसे वास्तविक तत्वका ज्ञान हो जाता है अथवा रूपमय भगवान अपनी-अपनी रुचिके अनुसार नाम-रूपमें मानव-वनके मुख्य उद्देश्यों वह ज्ञान लेता है तो फिर अपने ही साधन-स्थानमें प्राप्त कर लिया और वहीं उनकी भगवत्प्त में देर नहीं लगतीं । वस्तुतः मानव-जीवनका मुख्य प्रतिष्ठा कौं। एक हीं भगवान् अपनी पूर्णतम स्वरूपशक्तिके उद्देश्य भगवत्प्राप्ति में हैं और भगवत्प्राप्ति निष्काम उपासनासे साथ अनन्त स्थानमें, अनन्त नाम-रूपोंमें प्रतिष्ठित हुए। ही सम्भव है। अझै व्रत-दान आदि प्रकरणमैं ज़ों फलश्रुति भगवान प्रतिष्ठास्थान हीं तीर्थ हैं, जो श्रद्धा, निष्ठा और आयी हैं, वे लौकिक एवं पारल किक कमनाक सिद्धिमैं संचके अनुसार सेवन करनेवाले यथायोग्य फर देते हैं, तौं समर्थ है हीं, यदि निष्कामभावसे भगवतप्रीत्यर्थ इनका यहीं तीर्थ-रहस्य है। इस दृष्टिले प्रत्येक तीर्थक सर्वोपरि अनुष्ठान किया जाय तों में जन्म-मरणके अन्धनसे मुक्त कर बताना सर्वथा उचित ही है। | भगवत्प्राप्ति कानेमें भी पूर्ण समर्थ हैं। अतः कल्याणक्यम सब एक हैं, इसकी पुष्टिं तो इससे भलीभाँति हैं आती पुस्योंकों ये व्रत-दान आदि कर्म भगवत्यर्थ निष्कामरूपमें हीं है कि व कहे जानेवाले पुराणों में विष्णु और वैष्णवपुराणमें करने चाहिये।

शिवकी महिमा गायी गयी हैं तथा दोनों एक बताया गया | एक बात और पान देनेकी हैं, जो बुद्धिवाद अंगकी हैं। इसी कार अन्य प्राण-चिशेयके विशिष्ट प्रधान देवने दृष्टिमें प्रायः खटकती है—वह यह कि पुराणोंमें जहाँ जिस अपने ही श्रीमुखसे अन्य पुराणोंके प्रधान देवताको अपना ही देवता, बत, दान और तीर्थक महत्व बताया गया है, वहीं स्वरूप बताया है। यह भविष्यपुराण सौरपुराण हैं, जिसमें उसमें सर्वोपरं माना है और अन्य सबके द्वारा उसकी स्तुतिं भगवान् सूर्यनग्रयणकी अनत्त हिमाका बर्णन प्राप्त होता हैं। क्यों गयीं हैं। गाईको विचार न करनेपर, यह बात परंतु इस पुराणके अन्तमें अध्याय ३५ में सदाचारको विचित्र-सौ प्रतीत होती हैं, परंतु इसका तात्पर्य यह है कि निरूपण हुआ है। इसमें यह बात आयीं हैं-भगवान् भगवान्का यह लीलाभिनय ऐसा आश्चर्यमय है कि इसमें एक श्रीकृष्ण युधिष्ठिरसे कहते हैं—हमने वातौंमैं अनेक ही परिपूर्ण भगवान् विभिन्न विचित्र लीलाव्यापारके लिये और देवताओंका फूजन आदि कहा, परंतु वास्तवमें इन देवोंमें कोई विभिन्न कृचि, स्वभाव तथा अधिकारसम्पन्न साधकोंके भेद नहीं । जो ब्रह्मा है, वहीं विष्णु, जो विष्णु हैं वहीं शिव हैं, कल्याणके लिये अनन्त विचित्र रूपोंमें नित्य प्रकट है। जो शिव हैं वहीं सूर्य हैं, जो सूर्य हैं वहीं अग्नि, जो अग्नि हैं भगवान्के ये सभी रूप नित्य, पूर्णतम और सच्चिदानन्दस्वरूप यहीं कार्तिकेय, जो कर्तकय हैं वहीं गणपति अर्थात् इन है, अपनी-अपनी रुचि और निष्ठाके अनुसार ज़ों जिस रूप देवताओमें कोई भेद नहीं । इसी प्रकार गौरी, लक्ष्मी, सावित्री और नामक इष्ट नाम भजता है, वह उसी दिव्य नाम और आदि शक्तियोंमें भी भेदका लेश नहीं। चाहे जिस रूपमें समस्त रूपमय भगवानको प्राप्त कर लेता है, क्योंकि देवी-देवताके उद्देश्यसे व्रत करें, पर भेद न रखें, क्योंकि भगवान्के सभी रूप पूर्णतम हैं और इन समस्त रूप में एक सब जगत् शिव-शक्तिमय है। हो भगवान् लीला कर रहे हैं। व्रत तथा दान आदिके किसी देवताका आश्रय लेकर नियम-व्रत आदि को,

 

यों मझा  प्रोको यो : से मोअरः मनः कृतः मृर्षः पङ्ग जुध्यते

* पुराणं परमं पुण्यं मयियं सर्वसम्पदम्

 

परंतु जितने व्रत-दान आदि बताये गये हैं, वे सब आचारयुक्त व्यर्थ हैं। आचार ही धर्म और कुल मूल हैं-जिन पुरुषोंमें पुरुषके सफल होते है। आचाहींन पुरुषों वेद पवित्र नहीं आचार होता है ये ही सत्पुरुष कहते हैं। सत्पुरुषका जो करते, चाहे उसने झों सहित क्यों न पड़ा छे । जिस भौत आचरण है, उसका नाम सदाचार है। जो पुरुष अपना । फ्छ जमनेपर, पक्षियोंके बच्चे घोंसले को लेकर उड़ जाते हैं, कल्याण चाहे उसे अवश्य ही सदाचारी होना चाहिये। उसी भाँतं आचारहीन पुरुषकों वेद भी युके समय त्याग देंतें भविष्यपुराणमें इन्हीं सब विषयका प्रतिपादन बड़े हैं । जैसे अशुद्ध पात्रमें जल अथवा श्वानके चर्ममें दुग्ध हुने समारोहसे सम्पन्न हुआ है। पाठकोंकी सुविधाके लिये अपवित्र हो जाता है, उसी प्रकार आचाहींनमें स्थित शास्त्र भी का एक विहङ्गमावलोकन यहाँ प्रस्तुत किया गया है।

 

-रामेश्याम मका अक्ष्युपनिषद्

| ( नेत्ररोगहारी किया ) हरिः ॐ ।

अर्थ है सागवानादित्यक जगाम ।

स आदित्य चत्वा चसुमतीविया तमस्तुवन् ।

ॐ नमो भगवते सूर्यायातेिजसे नमः ।

ॐ खेचराय नमः । ॐ महानाय नमः । ॐ नमसे नमः । ॐ असे नमः । ॐ मत्थाय नमः।

असतो मा सद् गमय । तमसो मा ज्योतिर्गमय।

मृत्योर्मामृतं गमय । होमो भगवाझुचिपः अप्रतिरूपः ।

विश्वरूप अगिर्न जातवेदसं हिरण्मयं यतीक तपशम् ।

सरश्मिः शतमा वर्तमानः पुरः प्रज्ञानामुदयत्येव सूर्यः

। ॐ नमो भगवते श्रीसूर्यापादित्यायाक्षिसेवानि वाहिनि स्वाति।

एवं चक्षुष्मनीविया तुतः श्रीसूर्यनारायणः सुग्रीतोयीसुमनीवियां ब्राह्मणो यो नित्यमयीने न तस्यासिरोगे पयति ।

न तस्य कृलेश पवति ।

अझै प्रणान् माइयित्वाञ्च विवासिर्भिवति ।

य एवं वेद स महान् भवति ।

एक समय भगवान् साङ्कति आदित्यलोकमें गये ।

 

यहाँ सूर्यनारायणको प्रणाम करके उन्होंने चक्षुष्मती विद्याके द्वारा उनकी स्तुति की।

चक्षु-इन्द्रियके प्रकाशक भगवान् सूर्यनारायणको नमस्कार है।

आकाशमें विचरण करनेवाले सूर्यनारायण नमस्कार है।

महासेन ( सहसों किरणों की भारी सेनावाले ) भगवान् श्रीसूर्यनारायण नमस्कार है।

तमोगुणरूपमें भगवान् सुर्यनारायणको नमस्कार है ।

जोंगुणरूपमें भगवान् सूर्यनारायणको नमस्कार है।

सत्त्वगुणरूपमें भगवान् सूर्यनारायण नमस्कार है।

भगवन् ! आप मुझे असत्से सत्की ओर ले चलिये,

मुझे अन्धकारसे प्रकाशकी ओर ले चलिये, मुझे मृत्युसे अमृतकी और ले चलिये।

 

भगवान् सूर्य शुचिरूप हैं और वे अप्रतिरूप भी हैं उनके रूपकी कहीं भी तुलना नहीं हैं।

जो अलि रूपको धारण कर रहे हैं तथा रश्मिमालाओं से मण्डित है, उन जातवेदा ( सर्वज्ञ, ग्निस्वरूप ) स्वर्णसदृश प्रकाशवाले ज्योतिःवरूष और तपनेवाले ( भगवान् भास्करको इम स्मरण करते हैं। ये सहस्रों किरणोंवाले और शत-शत प्रकार से सुशोभित भगवान् सूर्यनारायण समस्त प्राणियोंकि समक्ष ( उनकी भलाई के लिये ) उदित हो रहे है। जो हमारे नेक प्रकाश है, उन अदितिनन्दन भगवान् श्रीसूर्यको नमस्कार है । दिनका भार वहन करनेवाले विश्वथाहक सूर्यदेवके प्रति हमारा सब कुछ सादर समर्पत है। | इस प्रकार चक्षुष्मर्तीवियाकें द्वारा स्तुति किये ज्ञानेंपर भगवान् सूर्यनारायण आयत प्रसन्न होकर बोले- ब्राह्मण इस चक्षुष्मतीविद्याका नित्य पाठ करता है, इसे आँका गैंग नहीं होता, उसके कुलमें कोई अंधा नहीं होता। आठ साह्मणको इसका मण का देनेफर इस विद्याकी सिद्धि होती है। जो इस प्रकार जानता है, वह महान् को जाता है।

 

पायकः कि विमाकः सानि शर्मिदाः प्रताः देव देव सभ्य यः कति बर्त नः भेदस्ता मतव्यः शिवशक्तिमयं जगत् ।। (ताई २०५। ६११३)

 

परमात्मने नमः

 

श्रीगणेशाय नमः ॐ नमो भगवते वासुदेवाय संक्षिप्त भविष्यपुराण ब्राह्मपर्व | व्यास-शिष्य महर्षि सुमन्तु एवं राजा शतानीकका संवाद, भविष्यपुराणकी महिमा एवं परम्परा, सृष्टि-वर्णन, चारों वैद, पुराण एवं चारों वर्गों की उत्पत्ति, चतुर्विध सृष्टि, काल-गणना, युगौंको संख्या, उनके धर्म तथा संस्कार नारायणं नमस्कृत्य नरं चैव नरोत्तमम् ।।

एक समय व्यासज्ञके शिष्य महर्षि सुमनु तथा वसिष्ठ देवी सरस्वनी यासं ततो जयमुदीरयेत् ॥

पराशर, जैमिनि, याज्ञवल्क्य, गौतम, बैशम्पायन, शौनक, ‘बर्दाका श्रमनिवासी प्रसिद्ध ऋषि नारायण तथा ऑनर अग्नि और भारद्वाजादि महर्षिगण पाववंशामें समुत्पन्न (अन्तर्यामी नारायणस्वरूप भगवान् श्रीकृष्ण तथा उनके महाबलशाली राजा शतानीककी सभामें गये। रामाने उन नित्य-सच्चा नस्वरूप नरहु अर्जुन, उनकी हा प्रकट ऋषियका अदिसे विधियत् स्वागत-सत्कार किया और करनेवाली भगवती सरस्वती और उनकी लीओके वक्त हें नम आसन पर बैठाया तथा भलीभाँति उनका पूजन कर मात्र वैदव्यासको नमस्कार का जय-आसरी सम्पत्तयका विनयपूर्वक इस प्रकार प्रार्थना की-हे मात्मा । नाश करके अन्तःकरणपर दैवी सम्पत्तियाँको विजय प्राप्त आपलोगोंके आगमनसे मेरा जन्म सफल हो गया। करानेवाले वाल्मीकीय रामायण, महाभारत एवं अन्य सभीं आपलोगोंके स्मरणमात्र ही मनुष्य पवित्र हो जाता है, फिर इतिहास-पुराणादि सद्ग्रन्थों-का पाठ करना चाहिये। आपलोग मुझे दर्शन देनेके लिये यहाँ पर हैं, अतः आज्ञ

जर्यात पराशनः सत्यवतीदयनन्दनों व्यासः।

मैं धन्य हो गया। आपकोग कृपा करके मुझे न पवित्र एवं अस्यास्यकमगलित वाङ्मयममृते जगत् पिबति ॥

पुण्यमय धर्मशारुकी कथाओंकों सुनायें, जिनके सुननेसे मुझे ‘पराशरके पुत्र तथा सत्यवतीक हृदयको आनन्दित परमगतिकी प्राप्ति हों। करनेवाले भगवान् व्यासक जय हो, जिनके मुखकमलसे ऋषियोंने कहा है राजन् ! इस विषयमें आप हम निःसृत अमृतमयी वाणीका यह सम्पूर्ण विश्व पान करता है। सबके गुरु, साक्षात् नारायणस्वरूप भगवान् वेदव्यासले बों गोवारी कनकमयं इति निवेदन करें। ये कृपालु हैं, सभी प्रकारके शास्त्रोके और विप्राय वेदविद्ये च बहुक्षुताय विद्याओंके ज्ञाता है। जिसके श्रवणमात्रमें मनुष्य सभी पुग्यो भविष्यमुकयां अणुयात् समां तकोंसे मुक्त हो जाता है, उस ‘महाभारत’ ग्रन्थके रचयिता मुवं समं भवति तस्य च तस्य चैव भी यहीं है। “वेदादि शास्त्रों के ज्ञाननेवाले तथा अनेक विषयोंके मर्मज्ञ राजा शतानीकने ऋषियोंके कथनानुसार सभी शास्त्रोके विद्वान् ब्राह्मणों वर्णबटित सींगवालीं सैकड़ों गौओंको दान जाननेवाले भमवान् वेदव्याससे प्रार्थनापूर्वक जिज्ञासा देनेमें जो पुण्य प्राप्त होता है, ठीक उतना ही पुण्य इस भविष्य- औ–भो ! मुझे आप अर्ममयी पुण्य-कथाओंका श्रवण महापुराण उत्तम कथाओंके श्रवण करनेमें प्राप्त होता हैं।’ करायें, जिससे मैं पवित्र हो जाऊँ और इस संसार-सागरसे मेरा

 

] में हमें सिम्ताएको

-‘याशम्फमें पाया पापः कई पुराणोंमें आयी है। भविपके लापर्धके चौथे अध्याय (श्लोक ८६ में समझाया गया है, वहीं देना चाहियें।

 

  • पुराणं परमं पुण्यं भविष्यं सर्वसौख्यदम् +

[ संक्षिप्त भविष्यपुराणाङ्कउद्धार हो जाय ब्रह्मवैवर्त, लिङ्ग, वाराह, स्कन्द, वामन, कूर्म, मत्स्य, गरुड़ तथा | व्यासजीने कहा-‘जन् ! बहु मेग्र शिष्य सुमन्तु ब्रह्माण्ड-ये असरह महापुराण हैं। ये सभी चारों वर्णोक लिये महान् तेजस्व एवं समस्त शाका ज्ञाता है, यह आपकौं उपकारक हैं। इनमेसे आप पा सुनना चाहते हैं ? जिज्ञासाको पूर्ण करेगा।’ मुनयने भी इस बातका अनुमोदन राजा शतानीकने कहा है विप्र । मैंने मह्मभारत सुना किया। तदनन्तर गुजा शतानीकने महामुनि मुमन्तुसे उपदेश हैं तथा ऑरामकथा भी सुनी हैं, अन्य पुराणोंको भी सुना है, किंतु करने के लिये प्रार्थना की है द्विजनेनु ! आप कृपाकर उन भविष्यपुराण नहीं सुना है। अतः विपश्रेष्ठ ! आप भविष्य पुण्यमयी कथामा वर्णन करें, जिनके सुननेसे सभी पाप नष्ट पुराणको मुझे सुनायें, इस विषयमें मुझे महत् मैतहरू है। हो जाते हैं और शुभ फलोंकी प्रामिं होती हैं।

सुमनु मुनि बोले-ग्रन्! आपने बहुत उत्तम बात | महामुन सुमन्तु बोले—जन् ! धर्मशास्त्र सबको पूछी है। मैं आपको भविष्यणक कथा सुनाता है, जिसके | पवित्र करनेवालें हैं। उनके सुनने से मनुष्य सभी पापोंसे मुक्त श्रवण करनेसे ब्रह्माहत्या आदि बड़े-बड़े पाप नष्ट हो जाता है। अताओं, तुम्हारी क्या सुनने इच्छा है और अश्वमेधादि यज्ञोंका पुण्यफल प्राप्त होता हैं तथा अन्नमें | राधा तानीकने का—ब्राह्मणदेव ! ये कौनसे सूर्यलोककी प्राप्ति होती हैं. इसमें कोई संदेह नहीं। यह उत्तम धर्मशास्त्र हैं, जिनके सुननेसे मनुष्य पापोंसे मुक्त हो जाता है। पुराण पहले ब्रह्माजद्वारा कहा गया हैं। विद्वान् ब्राह्मणको सुमन्तु मुनि बोले–राजन् ! मनु, विष्णु, यम, अहिरा, इसका सम्यक् ययनकर अपने शिष्यों तथा चारों के वसिष्ठ, दक्ष, संवतं, शातातप, पराशर, आपस्तम्व, उझाना, लिये उपदेश करना चाहिये। इस पुराणमें श्रौत एवं स्मार्त सभी कास्पायन, बृहस्पति, गौतम, शङ, लिखित, हारीत तथा अनि धमका वर्णन हुआ है। यह पुण्ण परम मङ्गलप्रद, सद्धि आदि ऋषियोंद्वारा रचित मन्वादिं बहुत-से धर्मशास्त्र हैं। इन बढ़ानेवाला, यश एवं कति प्रदान करनेवाला तथा धर्मशास्त्रको सुनकर एवं उनके रहस्योंको भलीभाँति परमपद-मोक्ष प्राप्त करानेवाल है वृदयङ्गमकर मनुष्य देवलोकमें जाकर परम आनन्द प्राप्त इदं स्वत्यषनं अमिदं बुद्धिविवर्धनम् । करता है, इसमें कोई संदेह नहीं हैं।

 

इदं यास्यं सततमिदं निःश्रेयसं परम्

शतानीकने कहाप्रभो !

जिन धर्मशास्त्रोंको आपने (मार्च १ 1) कहा हैं, इहें मैंने सुना हैं। अब इन्हें पुनः सुननेक इच्छा नहीं । इस भविष्यमहापुराणमें सभी धर्मोका संनिवेश हुआ है हैं। कृपाकर आप चारों वर्गो कल्याणके लिये जो उपयुक्त तथा सभी कमक गुणों और दोपके फोंका निरूपण किया धर्मशास्त्र हों उसे मुझे बतायें।

| गया है। चा] वणों तथा आश्रमोके सदाचारका भी वर्णन सुमन्तु मुनि बोले-हे महाबाहों ! संसारमें निमग्न किया गया है, क्योंकि सदाचार ही श्रेष्ठ धर्म है ऐसा श्रुतियोंने प्राणियोंके उद्धार के लिये अठारह महापुराण, रामकथा तथा कहा है, इसलिये ब्राह्मणको नित्य आचारका पालन करना महाभारत आदि सद्ग्रन्थ नौकारूपों साधन हैं। अठारह चाहिये, क्योंकि सदाचारसे विहाँन माह्मण किसी भी प्रकार महापुराणों तथा आठ प्रकारके व्याकरणोंको भलीभाँति वेदके फल प्राप्त नहीं कर सकता। सदा आचारका पालन समझकर सत्यवतींके पुत्र बॅदव्यासजीने ‘महाभारतसंहिता की करनेपर तो वह सम्पूर्ण फलोंका अधिकारी हो जाता है, ऐसा रचना की, जिसके सुननसे मनुष्य ब्रह्महत्या पापसे मुक्त हो कहा गया हैं। सदाचारको ही मुनियोंने धर्म तथा तपस्याका जाता है। इनमें आठ प्रकारके व्याकरण ये हैं ब्राह्म, ऐन्द्र, मूल आधार मान्ना है, मनुष्य भी इसका आश्चय लेकर याम्प, रौद्, वायव्य, वारुण, सावित्र्य तथा वैष्णव । अझ, पद्म, धर्माचरण करते हैं। इस प्रकार इस भविष्यमहापुराणमें विष्णु, शिव, भागवत, नारदीय, मार्कण्डेय, मि, भविष्य, आचारका वर्णन किया गया है। तीनों लोकोंकी उत्पत्ति,

 

*आचापः अमो भवः अपुती नतम तस्मादस्मिन् समापुरचे नित्य सामान बिजः ।।

व्यासशिष्य महर्षि सुमन्तु पुर्व राजा शतानीकका संवाद, भविष्यपुराणकी महिमा :

 

विवाह संस्कार-विधि, स्त्री-पुरुषोके लक्षण, देवपूजाका हैं तात ! पूर्वममें वह सारा संसार अन्धकारमें व्याप्त विधान, राजाओके धर्म एवं कर्तव्यका निर्णय, सूर्यनारायण, था, कोई पदार्थ दृष्टिगत नहीं होता था, अज्ञेय था, अतक्र्य विष्णु, रुद्, दुर्गा तथा सत्यनारायणका माहात्म्य एवं पूजा- था और असुप्त-सा था। उस समय सूक्ष्म अतीन्द्रिय और विधान, विविध तीर्थों का वर्णन, आपद्धर्म तथा प्रायश्चित- सर्वभूतमय उस परब्रह्म परमात्मा भगवान् भास्करने अपने विधि, संध्यावधि, स्नान, तर्पण, वैश्वदेव, भोजनविधि, शारिरसे नानाविध सृष्टि करनेकी इच्छा की और सर्वप्रथम जातिधर्म, कुलधर्म, वैदधर्म तथा यज्ञ-मण्डलमें अनुष्ठित परमारमाने अरसे उत्पन्न किया तथा उसमें अपने वीर्यरूप होनेवाले विविध यज्ञका वर्णन हुआ है। शक्तिका आधान किया। इसमें देयता, असुर, मनुष्य आदि कुरुश्रेष्ठ शतानीक ! इस महापुराणको ब्रह्माजीने सम्पूर्ण जगत् उत्पन्न हुआ। वह वीर्य जालमें गिरनेसे अत्यन्त शंकरकों, शंकरने विष्णुको, विष्णुने नारदको, नारदने इन्द्रकों, प्रकाशमान सुवर्णका अण्ड हो गया। इस अण्डके मध्यसे इन्द्रने पगारको तथा पशग्ने व्यासको सुनाया और व्याससे सृष्टिकर्ता चतुर्मुख लोकपितामह ब्रह्माजी उत्पन्न हुए । में प्राप्त किया। इस प्रकार परम्परा-प्राप्त इस उत्तम नर (भगवान्) में जलकी उत्पत्ति हुई हैं, इसलिये को भविष्यमहापुराणको मैं आपसे कहता है, इसे सुने । नार कहते हैं। वह नार जिसका पहले अयन (स्थान) हुआ, | इस भविष्यमामुराणकी लोक-संध्या पचास हजार है। उसे नारायण कहते हैं। ये सदसदुप, अव्यक्त एवं नित्यकारण इसे भक्तिपूर्वक सुननेवाल्म ऋद्धि, वृद्धि तथा सम्पूर्ण हैं, इनसे जिस पुल्य-विशेषको सृष्टि हुई, वे लेकमें ब्रह्माके सम्पत्ति प्राप्त करता है। ब्रह्माजीद्वारा प्रोक्त इस महापुराणमें नामसे प्रसिद्ध हुए। ब्रह्माजीने दीर्घकालनक तपस्या की और पाँच पर्व कहे गये हैं-(१) ब्राहा. (३) वैष्णव, उस अण्डके दो भाग कर दिये । एक भागसे भूमि और दूसरे में (३) वय, (४) वाष्ट्र तथा (५) प्रतिसर्गपर्व । पुराणके सर्ग, आकाकाकी रचना की, मध्यम वर्ग, आठों दिशाओं तथा प्रतिसर्ग, वंश, मन्यार तथा वंशानुचरित—ये पाँच लक्षण वरुणका निवास स्थान अर्थात् समुद्र बनाया। फिर महदादि बताये गये हैं तथा इसमें चौदह विद्याओंका भी वर्णन हैं। तत्वोंकी तथा सभी प्राणियोंकी रचना की ।। चौदह विद्याएँ इस प्रकार हैं-चार वेद (ऋक्, पशुः, साम, परमात्माने सर्वप्रथम आकाशकों उत्पन्न किया और फिर अथर्व), छः वेदाङ्ग (शिक्षा, कल्प, निरुक्त, व्याकरण, छन्द, क्रमसें वायु, अग्नि, जल और पृथ्व-इन तत्वोंकी रचना ज्योतिष), मीमांसा, न्याय, पुराण तथा धर्मशास्त्र । आयुर्वेद, हैं। सुष्टिके आदिमें ही ब्रह्माजींने उन सबके नाम और कर्म धनुर्वेद, गान्धर्ववेद तथा अर्थशास्त्र- इन चारोंको मित्रानेसे वेदोंके निर्देशानुसार ही नियत कर उनकी आमा-अलग अठारह विद्याएँ होती हैं।

संस्था बना दी। देवताओं के तुषित आदि गण, ज्योतिष्ट्रॉमाद सुमन्तु मुनि पुनः बोले-हे जन् ! अब मैं भूतसर्ग सनातन अश, ग्रह, नक्षत्र, नदी, समुद्र, पर्वत, सम एवं विषम अर्थात् समस्त प्राणियोंकी उत्पत्तिका वर्णन करता हैं, जिसके भूमि आदि उत्पन्न कर कालके विभागों (संवत्सर, दिन, मास सुनने से सभी पापोंकी निवृत्ति हो जाती हैं और मनुष्य परम आदि)और ऋतुओं आदिकी रचना की। काम, क्रोध आदिको शान्तिको मम करता है। इचनाकर विविध कमक सदसवयेके लिये धर्म और

भावादियुत विभा न बदम। भारत का संयुक्तः सम्पूर्णलाभक मतः ।। चमचारतो वृद्धा मय माग गतिम् । म तपसी मुरमापार भागः परम् ॥ अन्ये च माना गजानं मलाः सदा । यस्मन् पुराणे तु आचारस्य न पेर्तनम् ॥ (अपचं १ । १-८) वर्तमान मामबमें भविष्य में संस्करण उपर है, उसमें झा, मध्यम, प्रतिमर्ग तथा जन नामक चार मुर्गं मिलते हैं और । इक-मंग्या भी नाम हमारके प्रधानपार लगभग अट्ठाईस हजार है। इसमें भी कुछ अंश अग्नि माने जाते हैं।

 

२- सा प्रतिसह वंश मन्चन च ॥

 

बंशानुपांतं चैव पुराणं पागम् पशभित्रभिभूपितं

* पुराणं परमं पुण्यं भविष्यं सर्वसौख्यदम् +

 

[ संक्षिप्त भविष्यपुराणाङ्क अधर्मकी रचना की और नानाविध प्राणिजगत्कौं सष्टिकर, धूमकेतु (पुच्छल तारे), उत्का, निर्घात (बादलोंकी उनको सुख-दुःख, हर्ष-शक आदि दोंसे संयुक्त किया। जो गड़गड़ाहट) और बेटे-बड़े नक्षत्रोंको उत्पन्न किया। मनुष्य, कर्म जिसने किया आ तदनुसार उनकी (इन्द्र, चन्द्र, सूर्य किंनर, अनेक प्रकारके मत्स्य, वराह, पक्षी, हाथी, घोड़े, पशु, आदि) पदोंपर नियुक्ति हुई। हिंसा, अहिंसा, मद, झर, धर्म, मृग, कृमि, कट, पतंग आदि बटे-ब जीवोंको उत्पन्न अधर्म, सत्य, असत्य आदि जर्वोक्का जैसा स्वभाव था, यह किया। इस प्रकार उन भास्करदेवने त्रिलोकींकी रचना की। वैसे ही उनमें प्रविष्ट हुआ, जैसे विभिन्न ऋतुओंमें वृक्षोंमें पुष्प, हे राजन् ! इस सृष्टिकी रचनाक, मुष्टिमें जिन-जिन फल आदि उत्पन्न होते हैं। जीवोंका ज़ों-जों कर्म और क्रम कहा गया है, उसका मैं वर्णन | इस मेककीं अभिवृद्धिके लिये ब्रह्माजींने अपने मुख करता हैं, आप सुने ।

झाह्मण, बाहुओंमें क्षत्रिय, ऊक अर्थात् ज॑षामें वैश्य और हाथी, न्याल, मृग और विविध पशु, पिशाच, मनुष्य चरणसे शुडोको उत्पन्न किया । ब्रह्माजीके चारों मुखोंसे चार तथा राक्षस आदि जरायुज (गर्भसे उत्पन्न होनेवाले) प्राणी हैं। वेद उत्पन्न हुए। पूर्व-मुखसे ऋग्वेद प्रकट हुआ, उसे वसिष्ठ मत्स्य, कावे, सर्प, मगर तथा अनेक प्रकारके पक्षी अण्डज़ मुनिने प्रण किया। दक्षिण-मुझसे जुर्वेद उत्पन्न हुआ, उसे असे उत्पन्न होनेवाले हैं। ममी, म, ३, बटमल महर्षि याज्ञवल्याने ग्रहण किया। पश्चिम-मुखसे सामवेद आदि जीव दवा हैं अर्थात् पसीनेक उष्मासे उत्पन्न होते हैं। निःसृत हुआ, उसे गौतमऋषिने धारण किया और उत्तर- भूमिको उद्भेद कर उत्पन्न होनेवाले वृक्ष, ओषधियाँ आदि मुखसे अथर्ववेद प्रादुर्भूत हुआ, जिसे लोकपूजित महर्षि द्धज सृष्टि हैं। जो फलके पकनेतक रहें और पीछे सूख शौनकने ग्रहण किया। ब्रह्माजके लोकप्रसिद्ध पञ्चम (ऊर्ध्व) जायें या नष्ट हो जायें तथा बहुत फूल और फलवाले वृक्ष हैं मुखमै अठारह पुराण, इतिहास और शमादि स्मृति-शास्त्र उत्पन्न वें ओषधि कहलाते हैं और जो पुमके आये बिना ही फलों हैं, वे वनस्पति हैं तथा जो फूलतें और फलते हैं उन्हें वृक्ष इसके बाद ब्रह्माजींने अपने देहके दो भाग किये । दाहिने कहते हैं। इसी प्रकार गुल्म, वल्ली, वितान आदि भी अनेक भागको पुरुष तथा बायें भागको स्त्री बनाया और उसमें विद्, भेद होते हैं। ये सब श्रीजसे अथवा काण्डको अर्थात् वृक्षकों पुरुषको सृष्टि की। उस विराट् पुरुषने नाना प्रकार की सृष्टि छोटी-सी शाखा काटकर भूमिमें गाड़ देनमें उत्पन्न होते हैं । ये चनेकी इच्छासे बहुत काल्तक तपस्या की और सर्वप्रथम वृक्ष आदि भी चेतना-शक्तिसम्पन्न हैं और इन्हें सुख-दु:खा दस ऋषियोंकों उत्पन्न किया, जो जापति कहलाये। उनके ज्ञान रहता है, परंतु पूर्वजन्मके कर्मोकं कारण तमोगुमसे नाम इस प्रकार हैं–(१) नारद, (३) भुगु, (३) वसिष्ठ, आच्छन्न रहते हैं, इस कारण मनुष्योंकी भाँत बातचीत आदि (४) प्रचेता, (५) पुलह, (६) क्रतु, (३) पुलस्त्य, कानमें समर्थ नहीं हो पाते। (८) अत्रि, (६) ऑङ्ग और (१०) मचि । इसी प्रकार इस प्रकार यह अचिन्त्य चराचर-जगत् भगवान् भास्कर अन्य महातेजस्वी ऋषि भी उत्पन्न हुए। अनत्तर देता, अत्रि, उत्पन्न हुआ हैं। जब वह परमात्मा निद्राका आश्रय ग्रहण कर दैत्य और राक्षस, पिशाच, गन्धर्व, अप्सरा, पितर, मनुष्य, शयन करता है, तब यह संसार उसमें लीन हो जाता हैं और नाग, सर्प आदि नियोंके अनेक गण उत्पन्न किये और उनके जब निद्राको स्याग करता है अर्थात् जागता है, तब सब सृष्टि गहनेके स्थानों को बनाया। विद्युत्, मेष, वज्र, इन्द्रधनुष, उत्पन्न होती है और समस्त जौत्र पूर्वकर्मानुसार अपने-अपने

 

(ब्राह्मयं ५६५७)

मुलं माथा पहामं कविश्रुतम्

अष्टादश पुगनि तिहप्तान भारत ।।

निर्गनि ततस्तस्मान्मुखात् कुकुअंद्रह

तथान्याः स्मृतपश्चापि माद्या कर्पाजताः

आवश्यः पना नानाविधओपगाः

अपामा म्वना ये ने स्पः मनाः ।।

पमिनः निवि क्षाभन्यतः स्मृताः

ममा महम्ण मिता महबुना

असंज्ञा भवन्त्यतं असमर्माबलः

 

वाई 3-]

 

  • व्यासशिष्य महर्षि सुमन्तु एवं राज्ञा शतानीका संवाद, भविष्यपुराणकी महिमा ३१

 

कर्मोंमें प्रवृत्त हो जाते हैं। वह अव्यय परमात्मा सम्पूर्ण चराचर वर्ष, द्वापर दो हजार वयका संध्या तथा संध्यांशके चार सौ वर्ष | संसारको जात् और शयन दोनों अवस्थाद्वारा प्रार-बार कुल दो हजार चार सौ वर्ग तथा कलियुग एक हजार वर्ष तथा पत्र और विनष्ट करता रहता है। संध्या और संध्यांश दो सौ वर्ष मिका चारह सौ वर्षोंकि परमेश्वर कल्पके प्रारम्भमें सृष्टि और कल्पके अनमें मानका होता है। ये सब दिव्य वर्ष मिलाकर बारह हजार दिव्य प्रलय करते हैं। कल्प परमेश्वरका दिन है। इस कारण वर्ष होते हैं। यही देवताओंका एक युग कहलाता है। परमेश्वरके दिनमें सृष्टि और ग़में प्रलय होना है। हैं गुजा व ताओंके हुशार युग होनेसे ब्रह्माजीका एक दिन होता शतानीक! अब आप काल-गणनाको सुनें- है और यहीं प्रमाण उनकी चिंका हैं। जब ब्रह्माजी अपनी | अठारह निमेष (पक गिरनेके समयको निमेष कहते त्रिके अत्तमैं सोकर उठते हैं क्य सत्-असत्-रूप मनको है) की एक काला होती है अर्थात् जितने समपमें अठारह बार, उत्पन्न करते हैं । वह मन सृष्टि कानको इच्छासे विकारको प्राप्त पकका गिरना हों, उतने कालको काष्टा कहते हैं। तम होता है, तब उससे अधम आकाश-तत्व उत्पन्न होता है। कामाकी एक कम, तौस काय एक क्षण, बारह क्षणका आकाशका गुण ट् कहा गया है। विकारयुक्त आकाश | एक मुहूर्त, तौस मुहूर्नका एक दिन-रात, तीस दिन-रातका एक सब प्रकारके गन्धको वहन करनेवाले पवित्र वायुकी उत्पत्ति महीना, दो महीनोंकी एक ऋतु, तीन ऋतुको एक अयन तथा होती हैं, जिसका गुण स्पर्श है। इसी प्रकार विकारवान् वायुसे दों अयनका एक वर्ग होता है। इस प्रकार सूर्यभगवानके द्वारा अन्धकारका नाश करनेवाला प्रकाशयुक्त तेज उत्पन्न होता है, दिन-रात्रिका काल-विभाग होता हैं। सम्पूर्ण जय रात्रिको जिसका गुण रूप हैं । विकारवान् तेजमें जल, जिसका गुण रस विश्राम करते हैं और दिन अपने-अपने कर्ममें प्रवृत्त होते हैं। है और जलसे गन्धगुणवाली पृषी उत्पन्न होती है। इसी प्रकार पितका दिन-रात मनुष्योंके एक महीने के बराबर होता सृष्टिका क्रम चलता रहता हैं। हैं अर्थात् शुक्ल पक्षमें पितरोकी रात्रि और कृष्ण पक्षमें दिन पूर्वमें बारह हज़ार दिव्य अषका जो एक दिव्य युग | होता है । देवताओंका एक अहोरात्र (दिन-गत मनुष्योंक एक बताया गया है, वैसे में एकहत्तर युग होनसे एक मन्वन्तर होना । | के बराबर होता है अर्थात् उत्तरायण दिन तथा दक्षिणायन है। ब्रह्माजीक एक दिनमें चौदह मन्वन्तर व्यतीत होते हैं। रात्रि की जाती हैं । हे राजन् ! अब आप ब्रह्माज्ञीके रात-दिन सल्फ्युगमें धर्मके चारों पाद वर्तमान रहते हैं अर्थात् और एक-एक युगके प्रमाणको सुने-सत्ययुग चार हजार सत्ययुगमें धर्म चारों चरणोंसे (अर्थात् सर्वाङ्पूर्ण) रहता है। वर्षका हैं, इसके संध्यांशके चार सौ वर्य तथा संध्याके चार फिर अॅता आदि युगोंमें धर्मका बाल घटनेसे धर्म क्रमसे सौ वर्ष मिलकर इस प्रकार चार हजार आठ सौ दिव्य वर्षाका एक-एक चरण घटता ज्ञाता है, अर्थात् जैतामें धर्मके तीन एक सत्ययुग होता है। इसी प्रकार त्रेतायुग तीन हजार वर्षोंका चरण, परमें दो चरण तथा कलियुगमें धर्मका एक ही चरण तथा संध्या और संध्यांइके छः सौ वर्ष कुल तीन हजार छः सौं बचा रहता है और तीन चरण अधर्मके रहते हैं । सत्ययुगके 5-एक कर्मकाजको इस -मकान मममको सौर मामा काते हैं । मासु मन माझा एन र याही एक और वा इंता का एक अहोरात्र होता है। ऐसे हों तोस आहारानीका एक मास और वह मास दोनों संध्याको युग का मान जा है और माय माना य वर्ष होता है। सौर यांचे

३ तासुगम मा । ३-द्वापरयुगम माना ४-कलियुगका मान मसयुग यो क पपगी

 

 

  • पुराणं परमं पुण्यं मयिंग्यं सर्वसौरपदम्

 

[ संक्षिप्त भविष्यपुराणाङ्क मनुष्य धर्मात्मा, नौरोग, सत्यवादी होते हुए चार सौ वर्षोंतक जिनके कारण वह इन्हें प्राप्त करता है। कृपाकर आप इसका जीवन धारण करते हैं। फिर जैना आदि युगोंमें इन सभी वर्णन करें। वर्षों का एक चतुर्थांश न्यून हो जाता हैं, यथा जैताकें मनुष्य तीन सुमन्तु मुनि बोले-हे राजन् ! आपने बहुत ही सौं वर्च, वापरके दो सौ वर्ष तथा कलियुगकै एक सौ वर्षतक उत्तम यात फु है, मैं आपको वे बातें बताता हैं, उन्हें जीवन धारण करते हैं। इन चारों युगोंके धर्म भी भिन्न-भिन्न ध्यानपूर्वक सुने ।। होते हैं। सत्ययुगमें तपस्या, प्रेतामें ज्ञान, द्वापरमें यज्ञ और जिस ब्राह्मणके वेदादि शास्त्रोंमें निर्दिष्ट गर्भाधान, पुंसवन कलियुगमें दान प्रधान धर्म माना गया है।

आदि अड़तालीस संस्कार विधिपूर्वक हुए हैं, वहीं ब्राह्मण | परम द्युतिमान् परमेश्वरने सृष्टिको रक्षाके लिये अपने ब्रह्मक और ब्रह्मत्वको प्राप्त करता है। संस्कार ही मुसा, मुजा, ऊक और चरणोंमें क्रमशः ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य ब्रह्मत्व-प्राप्तिका मुख्य कारण है, इसमें कोई संदेह नहीं । तथा शूद्र-इन चार वर्णोको उत्पन्न किया और उनके लिये राजा शतानीकने पूछा–महात्मन् ! वें संस्कार अलग-अलग कमक कल्पना को । ब्राह्मणाकं लिप्यं पढ़ना- कौनसे हैं, इस विषयमें मुझे महान् कौतूहल हो रहा हैं। पल्लाना, यज्ञ काना यज्ञ कराना तथा दान देना और दान् कृपाकर आप इन्हें बतायें । लेना—ये छः कर्म निश्चित किये गये हैं। पढ़ना, यज्ञ करना, सुमनजी बोले-गुजन् ! वेदादि शास्त्रोंमें जिन दान देना तथा प्रजाओंका पालन आदि कर्म क्षत्रियोंके लिये संस्कारोंका निर्देश हुआ है उनका मैं वर्णन करता हैं नियत किये गये हैं। पढ़ना, पश करना, दान देना, पशुओंको गर्भाधान, पुंसवन, सौमन्तोन्नयन, जातकर्म, नामकरण, रक्षा काना, स्त-व्यापारमें धनार्जन करना—ये काम अन्नप्राशन, चूडाकर्म, उपनयन, चार प्रकारके वेदवत, वैश्योंके लिये निर्धारित किये गये और इन तीनों वणोंकी सेवा वेदान, विवाह, पञ्चमहायज्ञ (जिनसे देवता, पितरों, मनुष्य, करना—यह एक मुख्य कर्म शूद्रोंका नियत किया गया है। भूत और ब्रह्मक तृप्ति होती हैं), समपाकयज्ञ-संस्था पुरुषकी हमें नाभिसे ऊपरका भाग अत्यन्त पवित्र माना टुकड्या, पार्वण, श्रगीं, आग्रहायणी, चैत्री (गया) गया हैं। उसमें भी मुग्त्र प्रधान है। ब्राह्मण ब्रह्माके मुत्र तथा आश्वयुजी, समवयंज-संस्था—याधान, अग्निहोत्र, | (उत्तमाङ्ग) में उत्पन्न हुआ हैं, इसलिये ब्राह्मण सबसे उत्तम दर्श-पौर्णमास, चातुर्मास्य, निरूपशुबन्ध, सौत्रामणी और हैं, यह वैदकी वाणी है। ब्रह्माजौने बहुत कालाक तपस्या सप्तसौम-संस्था-अग्निष्टोम, अत्यग्निष्टोम, उक्थ्य, पोडशी, करके सबसे पहले देवता और पितरोंकों हल्य तथा कल्य वाजपेय, अतिरात्र और आशोर्याम—ये बालींस ब्राह्मणके पहुँचाने के लिये और सम्पूर्ण संसारकी क्षिा करने हेतु संस्कार हैं। इनके साथ ही ह्मणमें आल आत्मगुण भी आह्मणों उत्पन्न किया । शिरोभागसे अपन्न होने और बेदको अवश्य होने चाहिये, जिससे ब्रह्माकी प्राप्ति होती है। में आठ | धारण करनेके कारण सम्पूर्ण संसारका स्वामी धर्मतः गुण इस प्रकार हैं

 

ब्राह्मण हीं हैं। सब भूतों (स्थावर-जङ्गमरूप पदार्थों में प्राणों अनसूया या क्षतिग्नायास च मङ्गम् । (कीट आदि) श्रेष्ठ , प्राणियोंमें बुद्धिसे व्यवहार करनेवाले अकार्पज्यं तथा शौचमम्पहा च कुरुल्लाह ॥ पशु आदि श्रेष्ठ । बुद्ध रखनेवाले जीवोंमें मनुष्य श्रेष्ठ और पर्व ३ । १५,१५, } मनुष्योंमें ब्राह्मण, ब्राह्मणोंमें विद्वान्, विद्वानोंमें कृतबुद्धि और ‘अनसूया (इसरोंके गुर्गोंमें दोष-बुद्ध नहीं रखना), कृतबुद्धियोंमें कर्म करनेवाले तथा इनसे अह्मवेत्ता–ब्रह्मज्ञानी दया, क्षमा, अनायास (किस सामान्य बातके मौॐ जानकी श्रेष्ठ । ब्राह्मणका जन्म धर्म-सम्पादन करनेके लिये है और बाजी न लगाना), मङ्गल (माङ्गलिक वस्तुओंका धारण), धर्माचरणसे ब्राह्मण ब्रह्मत्व तथा ब्रह्मलोकको प्राप्त करता है। अकार्पणय (दोन वचन नहीं बोलना और अत्यन्त कृपण न राज्ञा शतानीकने पूछा–हें महामुने ! ब्रह्मक और बनना), शौच (बाह्याभ्यन्नरको शुद्धि) और अस्पृहा-ये ब्रह्मत्व अति दुर्लभ हैं फिर ब्राह्मणामें कौनसे ऐसे गुण होते हैं. आल आत्मगुण हैं। इनको पूरों परिभाषा इस प्रकार है

  • गर्भाधानसे यज्ञोपवीतपर्यन संस्कारों की संक्षिप्त विधि

 

गुणके गुर्गोको न छिपाना अर्थात् प्रकट करना, अपने बुरे कमौका परित्याग करना—यह मङ्गल-गुग कहलाता हैं। गुणको प्रकट न करना तथा दूसरेके दोषोंको देखकर प्रसन्न न बड़े कष्ट एवं परिश्रमसे न्यायोपार्जित नसे उदारतापूर्वक होना अनसूया हैं। अपने-परायेमें, मित्र और शत्रुमैं अपने थोड़ा-बहुत निल्य दान करना अकार्पण्य हैं। ईश्वरकी कृपासे न यार करना और दुसरेका छन । कानको इच्छा भाम थोड़ी-सी सम्पत्तिमें भी उच्च नहुना और इसके धन की रखना इया हैं। मन, वचन अथवा गैरसे कोई दुःख भी किंचित् भी इच्छा न रखना अपहा है। इन आठ गुणों और पहुँचाये तो उसपर क्रोध और बैर न करना क्षमा है। अभक्ष्य पूर्वोक्त संस्कारों से जो ब्राह्मण संस्कृत में वह ब्रह्मक तथा वस्तुका भक्षण न करना, निन्दित पुरुषोंम सङ्ग न करना और ब्रह्मत्वको प्राप्त करता है। जिसकी गर्भ-शुद्धि हों, सब संस्कार सदाचरणमें स्थित हुना शौच कहा जाता हैं। जिन शुभ कर्मोक विधियन् सम्पन्न हुए हों और वह वर्णाश्रम-धर्मका पालन करनेसे शरीरकों कष्ट होता है, उस कर्मको हुवात् नहीं करना करता हो तो उसे अवश्य मुक्ति प्राप्त होती है। चाहिये, यह अनायास है। नित्य अच्छे कार्योको करना और गर्भाधानसे यज्ञोपवीतपर्यत संस्कारोंकी संक्षिप्त विधि, अन्नप्रशंसा तथा भोजन-विधिके

प्रसंगमें धनवर्धनकी कथा, हाथोंके तीर्थ एवं आचमन-विधि । राजा शतानीकने कहा-हे मुने ! आपने मुझे मधु और घृतका प्राशन कराया जाता है। दसवें दिन, आरखें जातकर्मादि संसारोके विषयमें बताया, अब आप इन दिन, अठारहवें दिन अथवा एक मास पूरा होनेपर शुभ तिथि संस्कारोंके लक्षण तथा चारों वर्ण एवं आश्रमके धर्म मुहर्त और शुभ नक्षत्रमें नामाकरण-संस्कार किया जाता है। बतलानेकी कृपा करें।

 

ब्राह्मणका नाम मङ्गलवाचक रखना चाहिये, जैसे शिवशर्मा। सुमनु मुनि बोले-राजन् ! गर्भाधान, पुंसवन, क्षत्रियका बलवाचक जैसे इन्वर्मा । वैदयका धनयुक्त जैसे सीमोन्नयन, जाचकर्म, अन्नप्राशन, चुडाकर्म तथा यज्ञोपवीत धनवर्धन और शूद्रका भी यथाविधि देवदासादि नाम रखना आदि संस्कारोंक करनेसे द्विजातियोंके बीज-सम्बन्धी तथा चाहिये । बिर्योका नाम ऐसा रखना चाहिये, जिसके बौनेमें गर्म-सम्बन्धी सभी दोष निवृत्त हो जाते हैं। केंदाध्ययन, व्रत, कष्ट न हों, क्रूर न हो, अर्थ स्पष्ट और अछा हो, जिसके होम, विद्म व्रत, देवर्षि-पितृ-जर्पण, पुशोत्पादन, पझ महायज्ञ सुननेसे मन प्रसन्न हो तथा मङ्गलसूचक एवं आशीर्वादयुक्त हों। और ज्योतिामादि यज्ञोके द्वारा यह शरॊर अद्म-प्राप्तिके योग्य और जिसके अनमें आकार, ईकार आदि दौर्घ स्थर हों। जैसे हो जाता है। अब इन संस्कारोंकों विधिको आप संक्षेपमें यशोदादेवी आदि।

जन्मसे बारहवें दिन अथवा चतुर्थ मास बालकको पुरुषका जातकर्म-संस्कार नालदनसे पहिले किया बरसे बाहर निकालना चाहिये, इसे निष्क्रमण कहते हैं। ॐ ज्ञाता है। इसमें बेदमन्योंकि उच्चारणपर्यंक वालकको सुवर्ण, मासमें बालकका अन्नप्राशन-संस्कार करना चाहिये। पहले या

सुनें –

गुगान् गुणनों हनि लत्यामागास पते नान्यदोंपैगमूसा पर्तिता ।।

परे हो मि इन वा सदा अपवर्तन गत् पात् मा या पिकाला

वाचा मनसि काये | दुनोत्पादितेन ।।

कुमति पानि मा पति

अभक्ष्यपहार संसर्गनिन्दिः

आप यशस्थान रॉयमेतत् कीर्तितम्

इसीर में येन शुभेमपि कर्मना

अत्यन्त जन कुवत अनापः उगते ।।

मशतावरणं नित्यम्पास्तविवनिम्।

एन मङ्ग पोक्त मुनिभिर्मयादिभिः ।।

मनोदपि दानापमाननापामना

हन्ग्रहांन यत्किंचिदार्पण्यं तदुच्यते

योपान संतुः नयेनाप्पथ बना

हिमपा पो माह परिकता

 

+ पुराणं परमं पुण्यं भविष्यं मर्यसौख्यदम्

 

[ संक्षिप्त भविष्यपुराणाङ्क तीसरे वर्षों मुण्डन-संस्कार करना चाहिये । गर्भसे आठवें पूजा करें तथा नियमके अनुसार सर्वप्रथम माता, बहिन या वर्षमें माह्मणका, ग्यारहवें वर्षमें क्षत्रियका और बारहवें वर्षमें मौसीसे भिक्षा माँगे । भिक्षा माँगते समय उपनीत माह्मण वद् वैयका वज्ञोपवीत-संस्कार करना चाहिये। परंतु ब्रह्मतेजक भिक्षा देनेवालोंसे ‘भवति ! पक्ष में देहि’, क्षत्रिय ‘भिक्ष | इन्वारा श्राह्मण पाँच वर्षमें, वल्फी इमाम क्षत्रिय भर्नाति ! में तथा वैश्य भिक्षा में भवति !’-इस नकी कामावाल वैश्य आ सपमें अकसे ‘अवनि’ शब्दको प्रयोग करें। भिक्षा में सूर्ण, | अपने-अपने बालकका पनयन-संस्कार सम्पन्न करे । सोलह चाँदी अश्या अन्न ब्रह्मचारीकों हैं। इस प्रकार भिक्षा ग्रहणकर

वर्षनाक ब्राह्मण, बाईंस वर्षतक क्षत्रिय और चौबीस वर्षतक ब्राह्मचारी उसे गुरुको निवेदित कर दे और गुरुकी आज्ञा पाकर वैश्य गायत्री (सावित्री) के अधिकारी रहते हैं, इसके अनत्तर पूर्वाभिमुख से आचमनकर भोजन करें। पुर्यकी ओर मुख यधारमय संस्कार न होनेसे गायत्रीके अधिकारी नहीं रहतें करके भोजन करनेसे आयु, दक्षिण-मुख करनेसे यश, पश्चिम | और ‘बाय’ हाते हैं। फिर जपतक प्रात्यस्तोम नामक मुख करनेसे लक्ष्मी और उत्तर-मुख करके भोजन करनेसे यज्ञसे उन शुद्धि नहीं की जातीं, तबतक उनका शरीर सत्यकी अभिवृद्धि होती है। एकाग्रचित्त हो उत्तम अक्का गायत्री-दीक्षाके योग्य नहीं बनता । इन स्नात्यांके साथ आपनमें भोजन करनेके अनर आचमनकरों (आँख,

भी वेदादि शास्त्रका पठन-पाठन अथवा विवाह आदिका कान,नाक) का जलसे स्पर्श करें। अकीं नित्य स्तुति करनी । सम्बन्ध नहीं रखना चाहिये और अझकी निन्दा किये बिना भोजन करना चाहिये। जैवर्णिक ब्रह्मचारियों को उत्तरोयक रूपमें क्रमशः कृण उसका इनक्र संतुष्ट एवं प्रसन्न होना चाहिये । हर्षसे भोजन ६ करो]- मुग-धर्म, नामक मृगका धर्म और बकनेका चर्म करना चाहिये । पूजित अन्न भोजनसे अल और तेजकी वृद्धि धारण करना चाहिये । इसी प्रकार क्रमशः सन (टाट), असी होती हैं और निन्दित अन्न भौजनसे बल और तेज दोनोंकी और भड़के ऊनका वस्त्र धारण करना चाहिये । झाह्मण ब्रह्मचारीकै हानि होती है। इसीलिये सर्वदा उत्तम अन्ना भोजन करना लिये तीन लडीवाली सुन्दर चिकनी मुँजक, क्षत्रियके लिये चहिये । उच्छिष्ट्र (जुठा) कसोको नहीं देना चाहिये तथा स्वयं | मूर्या (मुरा) को और वैश्यके लिये सनकी मेखला कहीं गयीं भी किसका इच्छिष्ट नहीं खाना चाहिये । भोजन करके जिस हैं। मैंन आदिके प्राप्त न होनेपर क्रमशः कुशा, अमत्तक और अर्शकों को दें उसे फिर प्रहण न कसे अर्थात् बार-बार बल्चज नामक तृणकी मेखलाकों तीन लडीवाली करके एक, होड़-होड़कर भोजन न करे, एक बार बैठकर तृप्तिपूर्वक तन मा पाँच सन्धि इसमें लगाना चाहिये । साह्मण भोजन करना चाहिये। जी परम बीच-बमें किन कपासके सूतका, क्षत्रिय सनकै मृतका और वैश्य भेड़के लोभवश भोजन करता है, उसके दोनों लोक नष्ट हो जाते हैं, ऊनका अज्ञोपवीत धारण करे। ब्राह्मण बिल्व, पलाश या असे धनवर्धन वैश्यॐ हुए थे। अक्षको दाङ, जो सिरपर्बत हो उसे धारण करें । क्षत्रिय बड़, ना शतानीकने पूछा-महाराज ! आप धनवर्धन खदिर या चैतके काम मस्तकपर्यन्त ऊँचा और वैश्य पैलय वैश्यकी कथा सुनाइये। उसने कैसा भोजन किया और उसका (पोल वृक्ष लकड़ी), गूलन, अथवा पॉपके काष्ठका दा; क्या परिणाम हुआ ? नापिकापर्यंत ऊँचा धारण करें । ये दण्ड सौंपें, ट्रिहित और सुमनु मुनिनें कहा–राजन् ! सत्ययुगको बात है, सुन्दर होने चाहिये। यज्ञोपीत-संस्कार में अपना-अपना दण्ड पुकर क्षेत्र धन-धान्यसे सम्पन्न धनवर्धन नामक एक वैश्य धारणकर भगवान् सूर्यनारायका उपस्थान में और गुरुकीं रहता था। एक दिन यह ग्रीष्म ऋतु मध्याह्नके समय 

 

नधानं वयंन्नित्यमग्रामेंदकुल्सयम्

नात् तस्य यद् वै प्रामीमापि भारत

पूजनं वानं मांजा

आपूजितं तु भुक्तमुभयं नाशयदिदम् ।।

 

  • गर्मायासे झोपवतप संस्कारों की संक्षिप्त विपि ३५

पितार्थ

देव-कर्म सम्पन्न कर अपने पुत्र, मित्र तथा अन्धु-बान्धयोंके लक्षणोंको सुने-अँगूठेके मूलमें ब्राह्मतीर्थ, कनिष्ठाके मूलमें साथ भोजन कर रहा था। इतनेमें ही अकस्मात् उसे बाहर से प्राजापत्यतीर्थ, अङ्गलियोंके अग्रभागमें देवतीर्थ, तर्जनौं एक करुण शब्द सुनायीं पड़ा। उस शब्दको सुनते ही वह और झुलके बीचमें पितृतीर्थ और हावके मध्य-भागमै दयावश भोजनको छोड़कर बाकी ओर दौड़ा। किंतु जबक यह बाहर पहुंचा दाह आवाज बंद हो गयी। फिर लौटका उस वैश्यने पात्रमें जो अंड़ा हुआ भोजन था उसे खा लिया। भोजन करते ही उस वैषझी मृत्यु हो गयी और इसी अपयश परफमें भी उसकी दुर्गति हुई । इसलिये छोड़े हुए भोजनको फिर कभी नहीं खाना चाहिये। अधिक भोजन भी नहीं करना चाहिये। इससे शरीर में अत्यधिक इसकी उत्पत्ति होती है, जिसमें प्रतिश्याय (जुकाम, मन्दाग्नि, बर) आदि | अनेक गुंग उत्पन्न हो जाते हैं। अजीर्ण हो जानेसे स्नान, दान,

तम, हम, तर्पण, ना आदि कोई भी पुण्य कम चौकसे सम्पन्न | न हो पाते । ति भोजन करनेसे अनेक रोग उत्पन्न होते हैं-आयु घटतीं हैं, लौकमें निन्दा होती है तथा अन्त्त सद्गति । भ न होतीं । च्छिष्ट मल्लसे कहीं नहीं जाना चाहिये । सदा पवित्रतासे रहना शहिये । पवित्र मनुष्य यहाँ सबसे रहता है | और अन्तमें स्वर्ग जाता है।

राजाने पूछा-मुनीश्वर ब्राह्मण किस कर्मके कानसे  ऑवित्र होता है ? इसका आप वर्णन करें।

सुमन्तु मुनि बोले–राजन् ! जो ब्राह्मण विधिपूर्वक आचमन करता है, वह पवित्र हो जाता है और समका सौम्यतीर्थ कहा जाता है, जो देवकर्ममें प्रशस्त माना गया है। अधिकारी हो जाता है। आचमनकी विधि ग्रह हैं कि हाथ-पाँव देवार्चा, आह्मणको दक्षिणा आदि कर्म देवतीर्थस; तर्पण, धोकर पवित्र स्थानमैं आसनके ऊपर पूर्व अथवा उत्तरकी और पिण्डदानादि कर्म पितृतीर्थसे; आचमन ब्राह्मतीधसे; विवाह | मुख करके बैठें। दाहिने हाथको जानके भीतर रखकर दोनों समय लाजामादि और सोमपान प्राजापत्यतीर्थसे; माहु चष्ण बराबर रखें तथा शिख़ामें अन्य लगाये और फिर उष्णता प्रहण, इषिप्राशनादिं कर्म सौम्यतीर्थसे करे। ब्राह्मतीर्थसे एवं फेनसे रिहत शीतल एवं निर्मल जलसे आचमन । उपस्पर्शन सदा श्रेष्ठ माना गया हैं।

 

खड़े-खड़े बात करते, इधर-उधर देखते हुए, शीघ्रतासे और अङ्गलियों मिलाकर एकाप्नचित्त हो, पवित्र जलमें सेंधमुक्त होकर आचमन न करें।

बिना शब्द किये तीन बार आचमन करनेसे महान् फल होता हैं राजन् ! ब्राह्मणके दाहिने हाथमें पाँच तीर्थ कहे गये है और देवता प्रसन्न होते हैं। प्रथम आचमनसे ऋग्वेद, हैं-(१) देवतीर्थ, (३) पितृतीर्थ, ३) ब्राह्मतीर्थ, द्वितीयसे यजुर्वेद और तृतीयसे सामवेदकीं तृप्ति होती हैं तथा | (४) प्राजापत्यतीर्थ और

सौम्यतीर्थ

अब आप इनके आचमन काके जलयुक्त दाहिने अँगूठेसे मुलका स्पर्श करने

अमूरतों श्रेय इंसा महीपते ।।

बाह्य तीर्थं वदन्येतसिशाया द्विजोत्तमाः

कायं कनिष्ठिकामले अमे तु दैवतम्

कर्जन्यच्चयोपः पश्य नीर्थपुटम्

कपमध्ये स्थित सौम्यं असतं देवमण |

 

पर्छ 14-144 } संभ पु

+ पुराणं परमं पुण्यं विष्यं सर्वसौख्यदम् 

 

[ संक्षिप्त भविष्यपुराणाङ्क अथर्ववेदकी तृप्ति होती है। ऑष्टके मार्जनसे इतिहास और कने, परंतु पितृतीर्थसे कभी भी आचमन नहीं करना चाहिये। पुराणोंकी तृप्ति होती है। मसमें अभिषेक करने से भगवान् आचमन जाल हुदयातक जानेसे झाह्मणझी; कण्ट्रक आने रुद्र प्रसन्न होते हैं। शिक्षाको स्पर्शसे ऋषिगण, दोनों ऑक्षक क्षत्रिक और वैश्पकी झलके प्राशनसे तथा शूकी के

स्पर्शसे सूर्य, नासिका स्पर्शसे वायु, कानको स्पर्शले दिएँ, स्पर्शमात्र शुद्ध हो जाती है। | भुजाके स्पर्शसे यम, कुबेर, वरुण, इन्द्र तथा अग्निदेय तृप्त होते दाहिने हाथके नीचे और बायें कंधेपर अज्ञोपवत रहनसे नौर मणकी मन्थिोनी मर्श करने से सभी तप्त हो नि पनौती सच्य) कहता है, इसके विम बुनेको | जाते हैं। मैं धौनसे विष्णुभगवान, भूमिमें जल इनसे अर्थात् यज्ञोपयौनके दाहिने कसे वार्षों और हमें वासुकि आदि नाग तथा बाँचमें जो जलबिन्दु गिरते हैं, उनसे प्राचीनावती (अपसव्य) तथा गलेमें मालकी तरह यज्ञोपवीत चार प्रकारके भूतमामकी तृप्ति होती हैं।

हनेले निवती कहा जाता है। अङ्गद्ध और तर्जनीसे नेत्र, अङ्ग तथा अनामिकासे पेशा , मृगछाम, दण्ड, यज्ञोपवीत और कमण्डलु– नासिका, अङ्ग एवं मध्यमासे मुख, अङ्गष्ट और कनिष्ठासे इनमें कोई भी चीज़ भग्न हो जाये तो उसे ज्ञल्में विसर्जित कर कान, सब अङ्गलियोंमें भुजाओंका, असे नाभिमण्डल तथा मन्त्रोच्चारणपूर्वक दूसरा धारण करना चाहिये। उपर्यंत सभी भङ्गलियोंसे सिग्का स्पर्श करना चाहिये। अङ्ग्छ (सव्य) हॉकर और दाहिने हाथको ज्ञानु अर्थात् घुटनेके भीतर

अग्निरूप है, तर्जनों वायुरूप, मध्यमा अज्ञापतरूप, अनामिका रक्कर जो आह्मण आचमन करता है वह पवित्र हो जाता हैं। | सुर्यरूप और कनष्ठिका इन्द्ररूप है। ब्राह्मणके हाथको रेखाको गङ्गा आदि नदियोंके समान इस विधिसे ब्राह्मणके आचमन करने पर सम्पूर्ण जगत्, पवित्र समझना चाहिये और अङ्गलियोंके जो पर्व हैं, वे | देवता और लोक तुम्न हो जाते हैं । आह्मण सदा पुजनीय है, हिमालय आदि देवपर्वत माने जाते हैं। इसलिये ग्राह्यणका क्योंकि वह सर्वदेवमय हैं। दाहिना हाध सर्वदेवमय हैं और इस विधिसे आचमन ब्राह्मतीर्थ, प्राजापत्यतीर्थ अथवा देवतीर्थसे आचमन करनेवास अत्तमें स्वर्गसकको प्राप्त करता है ।

 

( अध्याय ३१ वेदाध्ययन-विधि, ओंकार तथा गायत्री-माहात्म्य, आचार्यादि-लक्षण, ब्रह्मचारिधर्म-निरूपण, अभिवादन-विधि, स्नातककी महिमामें। अङ्गिरापुत्रका आख्यान, माता-पिता और गुरु की महिमा सुमन्तु मुनिने कहा—गुजन् ब्राह्मणका केशात आगेका कर्म बताते हैं, उसे आप सुनें । शिष्या यज्ञोपवीत (समावर्तन)-संस्कार सोलहवें वर्षमें, क्षत्रियका बाईसवें वर्षमै कर गुरु पहले उसमें शौंच, आचार, संध्योपासन, अग्निकार्य तथा वैश्यक पचीसवें वर्षमें करना चाहिये। सिपक संस्कार सिखायें और वेदका अध्ययन कराये। शिष्य भी आचमन कर अमन्त्रक करने चाहिये । केशात-संस्कार होनेके अनन्तर चाहे उत्तराभिमुज़ में ब्रह्माञ्जलि बाँझकर एकाग्रचित्त हो प्रसन्न-मनसे तो गुरु-गृहमें रहें अथवा अपने घरमें आकर विवाह कर वेदाध्ययनकै लियें बैठे। पढ़नेके आरम्भ तथा अनमें गुरुकै | अग्निहोत्र प्रहण करे । किंवयोंके लिये मुख्य संस्कार विवाह है। चरणको वन्दना करें। पढ़ने के समय दोनों हाथोकी जो जन् ! यहाँतक मैंने उपनयनका विधान बताया। अब अञ्जलि बाँधी जाती हैं, उसे ‘ब्रह्माञ्जलि’ कहा जाता हैं।

 

 

भोग्नर्महायाहों प्रॉों वायुः प्रदेशिनी ।।

अनामिका नया मान्य कनिष्ठा का विलापनमाया तामाद तमाम ।।

पालेताः क्रमामध्ये तु देवा बिशाय भारत ।।

गङ्गाः मरतः गया होगा धम्तमत्तम्

मान्मन्यु पवन गिरगान विद्ध में महिमा न् कों विनय दक्षिणः ।।

 

 

* वेदाध्ययनविधि, ओकार तथा गायीमात्म्य +

 

शिष्य गुरुका दाहिना चरण दाहिने हाथसे और बायाँ अरण सूर्योदयसे पूर्व जव तारे दिखायी देते रहे तभीसे प्रातः बायें हाथसे छूकर उनको प्रणाम करें। वेदकें पढ़नेके समय संध्या आरम्भ कर देनी चाहिये और सूर्योदयपर्यत गायत्री-जप आदिमें और अत्तमें ऑकारका उच्चारण न करनेसे सव निफल करता रहे। इसी प्रकार सूर्यास्तासे पहले ही सायं-संध्या हो जाता हैं। पहलेका पढ़ा हुआ विस्मृत हो जाता है और आरम्भ करें और तारोक दिखायौं देनेतक गायत्र-जप करता

आगे विषय याद नहीं होता।

हे। प्रातः-संध्यामें खड़े होकर जप करने से रात्रिके पाप नष्ट | पूर्वदशमें अग्रभागवाले कुशाके आसनपर बैठकर होते हैं और सायं-संध्याकै समय बैंक गायत्री-अप करनेसे पवित्र धारण को तथा तीन बार प्राणायामसे पवित्र होकर दिनके पाप नष्ट होते हैं। इसलिये दोनों की संध्याकार

का उच्चारण करे । प्रजापतिने तीनों वेदोंके प्रतिनिधिभूत अवश्य करनी चाहिये । जों दोन संध्याओंकों नहीं करता असे अकार, उकार और मकार-इन तीन वर्षोंको तीनों दोसे सम्पूर्ण द्विजानिक विहित कर्मोसे बहिष्कता का देंना चाहिये। निकाला है, इनसे कार बनता है। भूर्भुवः स्वः—

ये तीनों के बाहर एकान्त-स्थाममें, अरण्य या नदी-सरोवर आदिके व्याहतियाँ और गायत्रीके तौन पाद तीनों वेदोंसे निकले हैं। तटपर गायत्रीका जाप करनेसे बहुत लाभ होता है । मन्त्रों इसलिये जो ब्राह्मण ओंकार तथा व्याहतपूर्वक त्रिपदा जप, संध्याकें मन्त्र और जो ब्रह्म-यज्ञादि नित्यकर्म है इनके गायत्रका दोनों संध्याओंमें जप करता है, वह वेदपाठकें मन्त्रोके यारणमें अनध्यायका विचार नहीं करना चाहिये। पुण्यको प्राप्त करता है। और जो ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य अपनी अर्थात् नित्यकर्ममें अनध्याय नहीं होना। | क्रियासे होन होते हैं, उनकी साधु पुरुषोंमें निन्दा होती हैं तथा यज्ञोपवीतके अनचा समावर्तन-संस्कारक शिष्य गुरुके | परमें भी वे कल्याणके भागीं नहीं होते, इसलिये अपने पार्ने रहें । भूमिपर शयन करें, सब प्रकारको गुरकी सेवा करे कर्मका स्याग नहीं करना चाहिये । प्रणव, तीन याति और और केदाध्ययन करता रहे। सब कुछ जानते हुए भी जड़वत् त्रिपदा गायत्री ये सब मिलकर को मन्त्र (गायत्री मन्त्री रहे । आचार्यंका पुत्र, सेवा करनेवाली, ज्ञान देनेवाला, धार्मिक, होता हैं, यह ब्रह्माको मुख है। ज्ञों इस गायत्री मन्त्रको पवित्र, विश्वासी, शक्तिमान्, उदार, साधुस्वभाव तथा अपनी श्रद्धा-भक्तिसे तीन पार्वतक नित्य नियमको विधिपूर्वक जप तिवा–ये दस अध्यापनके योग्य हैं । विना पूछे किसीसे करता है, वह वायुक्ने तरह वेगसम्पन्न होकर आकाशके कुछ न कहें, अन्यायसे पूछनेवालेको कुछ न बताये । जों स्वरूपको धारणक्न ब्रह्मतत्त्वको प्राप्त करता है। एकाक्षर 35 अनुचित होगसे आता है और जो अनुचित ढुंगसे उत्तर देता परब्रह्म है, प्राणायाम परम ताप हैं। सावित्री (गायत्री) से हैं, वे दोनों नरकमें जाते हैं और जगन्में सबके अप्रिय होते। पढ़कर कोई मन्त्र नहीं हैं और मौनसे सत्य बोलना श्रेष्ठ हैं। हैं। जिसको पढ़ानेले धर्म या अर्थकी प्राप्ति न हों और वह कुछ तपस्या, हवन, दान, यज्ञादि क्रियाएँ स्वरूपतः नाशवान् हैं, वा-शुश्रुषा भी न ले, ऐसेंकों कभी न पढ़ायें, क्योंकि ऐसे किंतु प्रणव-स्वरूप एकाक्षर मल्ल ओंकारका कभी नाश नहीं विद्यार्थी दी गयी विद्या परमैं ज़-साप्नकै समान निकल होता। विधियज्ञों (द-पौर्णमास आदि) से जपयज्ञ होती हैं। विद्याके अधिष्ठातृ-दैवताने झाहाणसे कहा-‘मैं । (प्रणवाद – जप) सदा ही श्रेष्ठ । उपांशु-जप (जिस जपर्मे तुम्हारी निधि हैं. मेरी भलीभाँति रक्षा करों, मुझे ब्राह्मणों केवल ओठ और जीभ चलते हैं, शब्द न सुनायीं पड़े) साल् (अध्यापकों के गुणोंमें दोष-बुद्धि खनेवालेन्कों और द्वेष गुना और उपांशु-जससे मानस-अप हजार गुना अधिक फल करनेवाले न देना, इससे मैं बसवतीं रहूँगी । जो ब्राह्मण देनेवाला होता है। जो पाकमज्ञ (पितृकर्म, हवन, जितेन्द्रिय, पवित्र, व्रह्मचारी और प्रमादसे रहित हों उसे बलियैश्वदेव विधि – सके पराभर हैं, वे सभी जप-यज्ञकी मुझे देना। सोलह कलाके बराबर भी नहीं हैं। ब्राह्मणको सय सिद्धि जो गुरुकों आशाके बिना वेद-शास्त्र आदिको स्वयं ज्ञपसे प्राप्त हो जाती है और कुछ कहें या न को, पर ब्राह्मण ग्रहण करता है, वह अति भयंकर रौरव नरकको प्राप्त होता हैं। गायत्री-जप अवश्य करना चाहिये। को लौकिक, वैदिक अथवा आध्यात्मिक ज्ञान दें,

 

  • पुराणं परमं पुण्यं मयियं सर्वसौख्यदम्

 

[ संक्षिप्त भविष्यपुराणा सर्वप्रथम प्रणाम करना चाहिये । जो केवल गायत्रीं जानता हो, दूध आदि यानपर चड़े हुए, अतिवृद्ध, रोगी, भारयुक्त, पर शाहको मर्यादामें रहे यह बसे उत्तम हैं, किंतु सभी कों, स्नातक (जिसका समावर्तन-संस्कार हो गया हो), जा वेदादि शास्त्रको जानते हुए भी मर्यादामें न रहें और और वर (दुल्ला) यदि सामने आते हों तो इन्हें मार्ग पहले भक्ष्याभक्ष्यका कुछ भी विचार न करें तथा सभी वस्तुको देना चाहिये। ये सभी यदि एक साथ आते हों तो स्नातक और | बेचे, वह अषम हैं। ज्ञा मान्य है। इन दोनॉमसे भी माना विशेष मान्य है। चौ अथवी आसनपरी ने चैट। यदि ब्राह्मण झिम्म पनवन ककन हम्य यज्ञ, विद्या पलिमें बैठा ये तो गुरुको आते देख्न नचे तर जाय और और उपनिषद्) तथा कल्पसहित वेदाध्ययन कराता है, उसे उनका अभिवादन करें। वृद्धजनोंको आने देख टोंक प्राण आचार्य कहते हैं। जो जीविक्के निमित्त वेदका एक भाग वासित हो जाते हैं, इसलिये नम्रतापूर्वक खड़े होकर उन्हें अथवा वेदाङ्ग पढ़ाता है, याहू उपाध्याय कहलाता है। जों प्रणाम करनेसे में प्राण पुनः अपने स्थानपर आ जाते है। निषेक अर्थात् गर्भाधानादि संस्कारोंको शैतिसे कराता हैं और प्रतिदिन बड़ों की सेवा और उन्हें प्रणाम करनेवाले पुरुषके आयु, अन्नादिसे पौषण करता हैं, उस ब्राह्मणको गुरु कहते हैं। जो विद्या, यश और बल—ये चारों निरन्तर बढ़ते रहते हैं- अग्निशम, अग्निहोत्र, पक-यज्ञादि कमौका वरण लेकर जिसके * *- भवानशील नियंकापविनः ॥ निर्मित करता है, वह उसका विकू कहता है । जो पुरुष चत्वारि सम्यग्ने आयुः प्रा अको बलम् ॥ वेद-वनिमें दोनों कान भर देता है, उसे माता-पिताक समान समझकर उससे कभी द्वेष नहीं करना चाहिये। भिवादनके समय दूसरेकी को और जिससे किसी उपाध्यायसे दस गुना गौरव आचार्यका और आचार्यको सौ प्रकारका सम्बन्ध नै उसे भवती (आप), सुभग गुना पिताका तथा पितासे हजार गुना गौरव माताका होता हैं अथवा भगिनी (बहन) कहकर सम्बोधित करे। चाचा, मामा, उपाध्यायशाचार्य आचार्याणां शतं पिता ससुर, ऋत्विकू और गुरु–इनकों अना नाम लेते हुए प्रणाम सहस्रेण पितुर्माता गौरवेणातिरिच्यते करना चाहिये। मौसी, मामी, सास, बुआ (पिताकी यन)

| | Bाम हो ॥ ३५) और गुरुकी पत्नये सय मान्य एवं अन्य हैं। यों भाईंकों शाम देनेवारश और वेद पानेवा–ये दोनों पिता हैं, सवर्णा स्त्री (भाभी) का जो नित्य आदर करता है और उसे किंतु इनमें भी वेदाध्ययन कानेवाला श्रेष्ठ हैं, क्योंकि माताके समान समझता हैं, वह विष्णुको प्राप्त करता है। ब्राह्मणका मुख्य जन्म तो वेद पढ़नेसे हीं होता हैं। इसलिये फ्तिाकी बहन, माताकी बहन और अपनी बड़ी बहन-बें उपाध्याय आदि जितने पुन्य हैं, उनमें सबसे अधिक गौरव । तीनों माताके समान में हैं। फिर भी अपनी माता-इन सबकौं महागुरुका ही होती है। : ।।

 

अपेक्षा श्रेष्ठ हैं। पुत्र, मित्र और भानज्ञा (बाहनका लड़का) राजा शतानीकने पूछा-हें मुने ! आपने उपाध्याय इनको अपने समान समझना चाहिये। धन-सम्पत्ति, बन्धु, आदिके लक्षण बतायें, अब महागुरु किसे कहते हैं ? यह भी अवस्था, कर्म और विद्या-ये पाँचौं महके कारण है- अतानेको कृपा करे इनमें उत्तरोत्तर एकसे दूसरा बड़ा है अर्थात् विद्या सर्वश्रेष्ठ हैं। सुमन्तु मुनि बोले-गुजन् ! जो ब्राह्मण जयोपजीवी हो वित्तं बयुर्वंयः कर्म किया भवति पञ्चमी ।

अर्थात् अष्टादशपुराण, रामायण, विष्णुधर्म, शिवधर्म, एतानि मान्यस्थानान गरीबो परम् ॥ महाभारत (भगवान् श्रीकृष्ण-द्वैपायन यासद्वारा रिचत (ग्रापर्ब ४) माभमत जो पञ्चम वेदके नामसे भी विम्यात हैं) तथा श्रोत

१- मा मम्वय ग भारप्रियाः ॥

तस्य तु शश यो आप ममागम् ात पुन्य जानकापायी ॥

आभ्यां समागम बनन् मा यो वास्प पमानभाक् ।।

(आमचे * =]

  • वेदाध्ययनविधि, ओंकार तथा गायत्रीमात्म्य

 

एवं स्मार्ग-धर्म (विद्वान् लेग इन सभी जय’ नामसे आचरण करता है, उसका वेद पढ़ना सफल हैं। जो वेदादि अभिहित करते हैं) का ज्ञाता हो, वह महागुरु कहलाता है। शास्त्रको आकर धर्मा उपदेश करते हैं, वहीं उपदेश छींक वह सभी वर्गोक लिये पुन्य है। जो सहारा थोड़ा सा बहुत है, किंतु जो मूर्ख वेदादि शास्त्रको जाने बिना धर्मका उपदेश उपकार को, उस भी उस पकाके बदले गुरु मानना करते हैं, वे बड़े पापके भागी होते हैं। शौचहत (अपवित्र), चाहिये । अवस्थामै चाहे अॅझ में न हो, पानसे यह बाइक वैसे हित तथा नयत वापराचे ज्ञों अन्न दिया जाता है, वह वृद्धका भी पिता में सकता हैं। राजन् ! इस विषयमें एक अन्न गेंदन करता हैं कि मैंने ऐसा कौन-सा पाप किया था जो प्राचीन आस्मान सुना है।

 

। ऐसे मूर्ख ब्राह्मणके आय पड़ा। और यहीं अन्न यदं |

पूर्वकालमें अग्नि मुनिके पुत्र बृहस्पति (बालक होनेपर, जय पजीवी को दिया जाय तो प्रसन्नतासे नाच उठता है और भी बड़े वृक्षों को पढ़ानें थे और पढ़ानेके समय ‘हैं कहता है कि ‘मॅग्न अभाग्य हैं, जो मैं ऐसे पाके मथ | पुत्रों ! ‘ ऐसा कड़ते थे। बान्कद्धा ‘पुत्र सम्बोधन आमा।’ विद्या और आपके पाससे सम्पन्न मायके में। सुनकर उनको अङ्ग क्षोभ हुआ और वे देवताओंके पास गयें आनेपर सभी अनादि औषधियाँ अति प्रसन्न होती हैं और तथा उन्होंने सारा वृत्तान्त ता । तब देवताओंने कहा- कहती हैं कि अब हमारीं भी गति में जायगी । व्रत, येद पितृगणों ! उस बालकने न्यायोचित बात हीं की हैं, क्योंकि और ज्ञपसे हॉन ब्राह्मणको दान नहीं देना चाहिये, क्योंकि | जो अश में अर्थात् कुछ न जानता हों यहीं सच्चे अर्थमें बालक पत्थरकी नाय दीके पार नवं उतार सकती। इसलिये | है, किंतु जो मन्त्रकों देनेवाला है (वेदकों पढ़ानेवाल हैं), ऑप्रियको ट्य-कव्य देनेसे देवता और चिंतकों में होनी | उपदेशक हैं, यह युथा आदि होनेपर भी पिता होता है । अवस्था है। घाके समीप अहवाले मूर्च माणसे दूर रहनेवाले विद्वान् अधिक होनसे, केश घेत होनेसे और बहुत विन तथा अधु- आझगको ही बुलाकर दान देना चाहिये। परंतु घरके समीप बाधक होनेसे कोई बड़ा नहीं होता, बल्कि इस विषयमें रहनेवाला ब्राह्मण यदि गायत्री भी जानता हो तो उसका ऋषियोंने यह व्यवस्था की है कि जो सियामै अधिक झों, यौं परित्याग न कहें। परित्याग मनसे शैव नरककी प्राप्ति होती असे मान सा है। मामण, क्षत्रिय, मैं और में है, क्योंकि झाग चा निर्गण हो या चान, पन वह वः क्रमशः ज्ञान, बाल, घन नया जन्ममें बम होता है। सिरके गायत्रीं जानता हैं तो वह ममदेव-स्वरूप है। असे अन्नसे शत बाल चैत में जानेसे कोई वृद्ध न होता, यदि कई युवा भी प्राम, जलसे हित कूप केवल नामधारक हैं, वैसे ही बेदादि काका भलीभाँति ज्ञान प्राप्त कर लें तो उसमें वृद्ध विद्याध्ययनसे रहित चाह्मण भी केवल नाममात्रका प्रायग है। (मन) समझना चाहिये। जैसे कमाघसे बना थी, चमड़ेसे प्राणियों के कल्याणके लिये हिमा तथा प्रेमसे ही | पड़ा मृग किसी कामका नहीं, उसी प्रकार वेदसे होन ब्राह्मणका अनुशासन करना श्रेष्ठ है। धर्मकी इच्छा करनेवाले शासकको | जम निकल है। मूर्खको दिया हुआ दान जैसे निष्फल होता सदा मधुर तथा नम्र चनोंका प्रयोग करना चाहिये। जिसके है, वैसे ही वेदक ऋचाओंको न जाननेवाले बायका जन्म मन, वचन चुछ और सत्य हैं, यह केंदामें कहें गये मोक्ष निष्फल होता है। ऐसा माह्मण नाममाका माह्मण होता है। आदि फलको प्राप्त करता हैं। आर्त होनेपर भी ऐसा वन |वैका स्वयं कथन है कि हमें पका हुमय अनुदान न कभी न कहें जिससे किसकी आत्मा हल्ली में और सुनने कने वह पढ़ने का अर्थ होश उठाता है, इसमें वेद पङ्कन वालों को अच्छा न लगे। इसका अपकार करने की शुरू नहीं केंद को हुए कमौका जो अनुष्ठान करता है अर्थात् तदनुकूल करनी चाहिये । पुरुषकों जैसा आनन्द मीठी वाणीले मिलता है,

जपॉपबॉयों में विपः म म यते । धान मम चरितं तुषा।। विधर्माद धर्माः विधर्मा भारत । न ई पर्म तु ममापन स्मृतम्।। अता धर्माध नाम मापते । जति नाम नै प्रदत्त मनवः ||

 

पुराण में हुई मसर्वसौपदम्

 

[ संक्षिप्त पविण्यपुरामा वैसा आनन्द न चन्द्रकिरणसे मिलता है, न चन्दनसे, न शीतल चाहिये । वह जल, पुष्य, गौ गोबर, मृत्तिका और कुशा तथा झयासे और न शीतल असे’। ब्राह्मणको चाहिये कि आवश्यकतानुसार भिक्षा नित्य लायें । ज्ञों पुरुष अपने कर्मोन सम्मानकी इकों भयंकर विवके समान समझकर उससे तात्पर हों और वेदादि-शास्त्रोको पर्ने तथा यज्ञादिमें श्रद्धावान् इता रहे और अपमानको अमृतके समान स्वीकार करें, में, ऐसे गृहस्थकै घरसे ही ब्रह्मचारी भिक्षा ग्रहण करनी क्योंकि जिसकी अवमानना होती है, उसकी कुछ हानि नहीं चाहिये । गुरुके कुलमें और अपने पारिवारिक क्षु-बान्धवोके होतीं, यह सुखी ही रहता है और जो अवमानना करता है, वह से भिक्षा न माँग । अदि भिक्षा अन्यत्र न मिले तो इनके विनाशको प्राप्त होता है। इसलिये तपस्या करता हुआ द्विज घरसे भी भिक्षा प्रण कहें, किंतु ज़ों महापातक ह उनकी नित्य नेम अभ्यास कने, पकि वेदाभ्यास ही झाह्मणका भिसा न ले। नित्य समया लाकर सायंमल और प्रातःकाल परमं तप हैं।

हवन । भिक्षा माँगनके समय वाणी संयमित रखें। ब्राह्मणके तीन जन्म होते हैं—एक तो माताकें गर्भसे, ब्रह्मचारीके लिये भिक्षाका अन्न मुख्य है। एक्का अन्न नित्य दूसरा यज्ञोपवीत होनेसे और तीसरा यज्ञकी दीक्षा लेनेसे। न लें। भिक्षावृतिसे रहना उपवासके बराबर माना गया है। यह यज्ञोपवीतके समय गायत्री माता और आचार्य पिता होता है। धर्म केवल ब्राह्मणके स्न्येि कड़ा गया है, क्षत्रिय और वैश्य वेदक शिक्षा देनमें आचार्यको पिता कहते हैं, क्योंकि धर्म में कुछ भेद हैं। यज्ञोपवीत होनेके पूर्व किसी भी वैदिक कर्मकं करनेका ब्रह्मचारी गुरुके सम्मुख हाध जोड़कर खा रहें, जब अधिकारीं यह नहीं होता । आमें पड़े जानेवाले वेदमन्त्रोंको गुस्की आज्ञा हो तब बैठे, परंतु आसनर न बैठे। गुरुके ओड़कर (अनुपनीत द्विज’) वेदमन्त्र उच्चारण न करे, क्योंकि अठनेमें पूर्व उठे, सोनेके पश्चात् सोये, गुरुके सम्मुख अति जबतक वेदारम्भ न हों आय, तबतक वह शुदके समान माना नम्रतासे बैठे, पक्षमें गुरुको नाम उच्चारण न करें, किसी भी गया है। अज्ञोपवीत सम्पन्न में जानेपर वटुको व्रतका उपदेश बातमें गुरुका अनुकरण अर्थात् नकल न करें। गुरुकी निन्दा ग्रहण करना चाहिये और तभीसे विधिपूर्वक वेदाध्ययम मना न करें और ज्ञहीं निन्दा होती हो, आलोचना होती है वहाँले चाहिये। यज्ञोपवीतके समय ज्ञ-जों मेखला-चर्म, दण्ड और उठकर चल ज्ञाय अथवा कान बंद कर लें— यापवत तथा वस्त्र जिस-जिसके लिये कहा गया है वह-वह पवादाचा निन्दा गुरोर्यत्र प्रवर्तते ।। ही आरण करें। अपनी तपस्याकी वृझिके लिये ब्रह्मचारी क व पितयो गत झा नतोऽन्यतः ॥ जितेन्द्रिय होकर गुल्के पास रहे और नियमका पालन करता रहे। नित्य स्नानका पवित्र हो देवता, ऋषियों तथा पितरोंका वाहनपर चढ़ा हुआ गुरुका अभिवादन न , अर्थात् तर्पण को। पुष्प, फल, जल, समिधा, मृत्तिका, कुशा और वाहनसे उतरकर प्रणाम करे । गुस्के साथ एक वाहन, शिस्त्र, अनेक प्रकारके यात्रोंका संग्रह रखें। मद्य, मांस, गन्ध, नौकायान आदिपर बैठ सकता है। गुरुके गुरु तथा श्रेष्ठ पुष्पमाला, अनेक प्रकारके रस और स्त्रियांका परित्याग । सम्बन्धीजनों एवं गुरुपुत्रके साथ गुरुके समान ही व्यवहार प्राणियों की हिंसा, शरीर में उबटन, अंजन लगाना, जुता और कने। गुल्कों सवर्णा को गुरुके समान हीं समझे, परंतु छत्र धारण करना, गीत सुनना, नाच देखना, जुआ खेलना, गुरुपत्रके उबटन लगाना, स्नानादि कराना, चरण दबाना आदि झूठ बोलना, निन्दा करना, स्तियोंके समीप बैठना और काम, क्रियाएँ निषिद्ध है। माता, बहन या बेटांके साथ एक कोष तथा लोभादिके वशीभूत होना इत्यादि बातें आसनपर न बैठे, क्योंकि बलवान् इन्द्रियों समूह विदाको ब्राह्मचारीके लिये निषिद्ध है। उसे संयमपूर्वक एकाकी रहना भी अपनी ओर खींच लेता है। जिस प्रकार, भूमिकों या शॉ ने सलिल न दामों में तलवाया | पानि च प ब मधुनी वागीं ॥

[ पर्व ४।६३)

माना बना इजा वा मन अत्

मलवाHदयघाम बंदमम कति

 

वेदाध्ययन-विधि, ओंकार तथा गायत्री-माहात्म्य । खोदते-खोदने जल मिल जाता है, उसी प्रकार सेवा-शुश्रुषा पिता की भक्तिसे इहलोक, माताकी भक्तिसे मध्यक करते-करते गुरुसे विद्या मिल जाती है। मुण्डन कराये हो, और गुस्से सेवासे इन्द्रलोक प्राप्त होता है। जो इन तीनों जटाधारी हो अथवा शिग्री (व शिसे मुक्त हों, चाहे या करता है, उसके सभी धर्म सफल में जाते हैं और ज़ों जैसा भी ब्रह्मचारी हो उसको गाँवमें रहते हुए सूर्योदय और का आदर नहीं करता, उसको सभी क्रियाएँ निष्फल होती | सूर्यास्त नहीं होना चाहिये। अर्थात् ज्ञल्के तट अथवा निर्जन हैं। जबतक ये तीनों जीवित राते हैं, तबतक इनकी नित्य स्थानपर जाकर दोनों संध्या संध्या-वन्दन करना चाहिये। सेवा-शुश्रुषा और इनका हित करना चाहिये । इन तीनोंकी जिसके सोते-सोते सूर्योदय अथवा सूर्यास्त हो जाय वह महान् सेवा-यासपी धर्ममें पुरुषका सम्पूर्ण कर्तव्य पूरा हो जाता पापका भागी होता है और बिना प्रापश्चत्त (कृच्छ्मत) के हैं, यहीं साक्षात् धर्म है, अन्य सभी धर्म क गये हैं। शुद्ध नहीं होता।

उत्तम किया अधम पुरुषमें हो तो भी उससे ग्रहण कर माता, पिता, भाई और आचार्यका विपत्तिमें भी अनादर लेनी चाहिये। इसी प्रकार चाण्डासे भी मोक्षधर्मको शिक्षा, न कहें। आचार्य ब्रह्माकी मूल है, पिता अनापतिकी, मला नीच कुसे भी उत्तम स्वी, विषसे भी अमृत, बालकसे भी पृथ्वीकों तथा भाई आममूर्ति हैं। इसलिये इनका क्दा आदर सुन्दर उपदेशात्मक बात, शत्रुसे भी सदाचार और अपवित्र करना चाहिये। प्राणियोंकी उत्पत्तिमैं तथा पालन-पोषणमें स्थान में भी सुवर्ण मण कर लेना चाहिये । उत्तम ली, रत्न, माता-पिताको ज़ों क्लश सहन करना पड़ता है, उस का विद्या, धर्म, शौंच, सुभाषित तथा अनेक प्रकारके शिल्प बदल वें सौ वर्षोंमें भी संवा करके नहीं चुका पाते। इसलिये जहाँसे भी प्राप्त हों, ग्रहण कर लेने चाहिये। गुरुके माता-पिता और गुरूकी सेवा नित्य करनी चाहिये । न तीनोंके हीर-स्यागपर्यत जो गुरुकों सेवा करता है, वह श्रेष्ठ संतुष्ट हो जाने से सब करके तपोंका फल प्राप्त हो जाता है, ब्रह्मलोकको प्राप्त करता है। पड़नेके समय गुरुको कुछ देकीं इनकी शुश्रूषा ही परम वप कम गया है। इन तीनोंकी आज्ञा इ न को, किंतु पढ़नेके अनत्तर गुको आज्ञा पाकर भूमि, बिना किसी अन्य धर्मका आचरण नहीं कमाना चाहिये। ये ही सुवर्ण, गौ, घोड़ा, छत्र, पान, धान्य, शक तथा वस्त्र आदि तीनों लोक हैं, में ही तीनों आश्रम हैं, ये ही तीनों वेद हैं और अपनी शक्ति के अनुसार गुरु-दक्षिणाके रूपमें देने चाहिये। ये ही तीनों अग्नियाँ हैं। माता गार्हपत्य नामक अग्नि हैं, पिता जब गुस्का देहांत हो जाय, तब गुणवान् गुरुपुत्र, गुरुकीं सूची दक्षिणाम-स्वरूप है और गुरु आहवनीय अन्न है । जिसपर ये और गुरुके भाइयोंकि साथ के समान ही व्यवहार करना। तीनों प्रसन्न हो जायें, वह तीनों लोकोंपर विजय प्राप्त कर लेता चहिये । इस प्रकार जो अविच्छिन्न-रूपसे ब्रह्मचारि-धर्मका हैं और दीप्यमान होते हुए देवकमें देवताओंकी भाँति सुन्न आचरण करता है, वह ब्रह्मलोक प्राप्त करता है। भोंग करता है। सुमनु मुनि पुनः बोले-हे राजन् ! इस कार मैंने त्रिषु तु चैनेषु श्रील्लोकायतें गी । ब्रह्मचारिधर्मका वर्णन किया। ब्राह्मणको उपनयन यसत्त, दीप्यमानः स्ववपुषा देववदिवि मोदते ॥ क्षत्रिपका प्रोममें और वैश्यका शरद् ऋतुमें प्रशस्त माना गया है। अब गृहस्थधर्मका वर्णन सुने ।

(अध्याय ]

 

भाग अाजों मूर्तिः पिता मुर्तिः जापतेः

मातायपादिनिर्माता सानैरात्मनः

मातापित हो सहेजें सम्भवं नृणाम्

ताम्य नितिः शया वर्षापं

 

२-श्रद्दधानः शुभो बिद्यामाददताबपुष ।

अस्यापि पर धर्म सरलं दुष्कुमदपि ।

 सिम मा बाल्य सुभाषितम् ।

मादप दत्तममेटी क्याम् ।।

शापर्व है ।

 

+ पुराणं परमं पुण्यं भविष्यं र्वसौख्यदम्

भगवान् नरनारायणकी वन्दना

तस्मै नमो भगवते पुरुषाय भूमें विश्वाय विश्वगुण्ये पदैवतायें

 नारायणाय ऋषये नरोत्तमाय इंसाय संग्रतग निगमैश्चराय ।।

 

पर्शनं निगम आत्मरहआकाश मुनि पत्र कयोंजारा अनत्तः

तं सर्चबादविषयप्रतिपशील वन्दे महापुरुषमात्मन गुयोधम्

 

 ( महर्षि मार्कण्डेयजी कहते हैं-) भगवन् ! आप अत्तर्यामी, सर्वव्यापक, सर्वस्वरूप, जागरु, परमाणुध्य और । । शुद्धस्वरूप हैं। समस्त लौकिक और वैदिक वाणीं आपके अधीन हैं। आप ही चेदमार्गके प्रवर्तक हैं। मैं आपके इस युगलस्वरूप नरोत्तम नर और ऋषिवर नारायणको नमस्कार करता है। प्रभो ! वेदमें आपका साक्षात्कार करानेवाला वह ।। । ज्ञान पूर्णरुपसे विद्यमान हैं, जो आपके स्वरूपका रहस्य प्रकट करता है। ब्रह्मा आदि बड़े-बड़े प्रतिभाशाली मनीषी उसे ।  भान नेम चल र नेपा भी महमें पड़ जाते हैं। आप मन से मैसा हैं कि विभिन्न मतवालें आप सम्बन्ध जैसा सोचते-विचारते हैं, वैसा ही शील-स्वभाल और रूपा ग्रहण करके आप उनके सामने प्रकट हो जाते हैं। वास्तव भादि समस्त उपाधियोंमें छिपे हुए विशुद्ध विज्ञानान ही है। हे पुरुषोत्तम ! मैं आपकी बन्दना करता हैं।

 

वैदिक स्तवन

ईशा बास्यमिद सय बत्किय जगत्यां जगत् |

 तेन त्यक्तेन भुञ्जीथा मा गुपः कस्य स्विद् धनम्

 

अखिल ब्रह्माण्ड में जो कुछ भी जड़-चेतनस्वरूप जगत् हैं, यह समस्त ईश्वरसे व्याप्त है। उस ईश्वरको साध रखते । * हुए त्यागपूर्वक ( इसे ) भोगते रहो। ( इसमें ) आसक्त मत ओ, ( क्योंकि ) धन–भोग्य-पदार्थ किसका है अर्थात् ।। किसी भी नहीं है।

 

 

नो मित्रः वरुणः नो भवत्वर्यमा शं नो हस्पतिः शं नो विक्रमः   नमो नसणे नमस्ते बायो। स्वमेव प्रत्यको मामि क्यामेव प्रत्यक्षं वदिष्यामि अर्ज वदिष्यामि सत्यं वदिष्यामि तपामवतु मनन् अमन माम् अनु परम्। शान्तिः शान्तिः कान्तिः ।।

 

हमारे लिये ( दिन और प्राणके अधिष्ठाता ) मित्र देवता कल्याणप्रद हो ( तथा ) ( रात्रि और अपानके । अघिल्लाता ) वरुण ( मी ) कल्याणप्रद । ( चक्षु और सूर्यमण्डलके पिल्लाला ) अर्थमा हमारे लिये कल्याणकारी । हो, ( बल और भुजाओंके अधिष्ठाता ) इन्द्र ( तथा ) [ वाणी और बुद्धिके अधिष्ठाता ) बृहस्पति ( दोनों ) हमारे । | लिये ति दान करनेवाले झैं । त्रिविक्रमरूपसे विशाल वाले विष्णु ( जों के अधिष्ठाता हैं | हमारे लियें । कल्याण । उपरीक्त सभी देवताओंके आत्मस्वरूप | मझके लिये नमस्कार है। हे मायव ! तु दिये । नमस्कार है, तुम हमें यक्ष ( प्राणरूपसे प्रतीत होनेवाले ) आय हो। ( इसलिये मैं ) तुमकों ही प्रत्यक्ष ब्रह्म कहूँगा, ( तुम ऋतके अधिष्ठाता हैं, इसलिये मैं तुम्हें ) ऋत नामसे पुकारूंगा, ( तुम सल्के अधिष्ठाता हो, अतः मैं तुम्हें ) । सत्यं नामसे कहूँगा, यह ( सर्वशक्तिमान् परमेश्वर ) मेरी रक्षा करे, वह वक्तकी अर्थात् आचार्यकी रक्षा कने, रक्षा करे मेरी । और रक्षा कों में आचार्यकी। भगवान् शान्तिस्वरूप है, निस्वरूप है, शान्तिस्वरूप हैं।  

 

चित्रं देवानाम्दगानी भित्रस्य अरुणस्यामैः

आशा मावापृथिवीं अन्तरिक्ष सूर्य आत्मा जगतसतस्थुषश्च

 

जो तेजेपी किरणों के पुञ्ज हैं, मित्र, वरुण तथा मि आदि देवताओं एवं समस्त विश्व प्राणियोंके नेत्र हैं और । पामर तथा अङ्गम सबके अन्तर्याम आत्मा हैं, वे भगवान् सूर्य आकाश, पृथ्वी और अनरिक्षकको अपने प्रकाशसे । पूर्ण करते हुए आश्चर्यरूपसे उदित हो रहे हैं।

 

 

 

 

वेदाङ्गमैतं पुर्य मानमादित्यवर्ग तमसः पलान्

तमेव विदित्वाति मृत्युमेति नान्यः पन्था वियनाय ।।

 

मैं आदित्य-स्वरूपयाले सूर्यमण्डलस्थ महान् पुरुषों, जो अन्धकारमें सर्वधा में, पूर्ण प्रकाश देनेवाले और ।। । परमात्मा हैं, उन्हें जानता हैं। उन्हींको ज्ञानक्र मनुष्य मृत्यु लम जाता है। मनुष्यके लिये मोम-प्राप्तिका दूसरा कोई अन्य मार्ग ना है।

 

चिनि देव सवितरितानि परासुव यद् मई तान्न सुव ।।।

समस्त संसारको उत्पन्न करनेवाले–सृष्टि-पालन-संहार करनेवाले किंवा विश्वमें सर्वाधिक देदीप्यमान एवं जगत्कों शुभकर्मोंमें प्रवृत्त करनेवाले हे परब्रह्मस्वरूप सविता देव ! आप हमारे सम्पूर्ण-आधिभौतिक, आधिदैविक, आध्यात्मिक–दुरित ( बुराइयो–पापों ] को हमसे दूर–गहुत दूर ले जायें, दूर करें, किंतु जो भद्र ( भ ) है, । करन्याश हैं, जेय हैं, मङ्गल हैं, उसे हमारे लिये—विभके हम सभी प्राणियोंके लिये चारों ओरसे ( भलीभाँति ) ले । आये, ६–’यद् भद्रं तन्न आ सुन्न ।

असतो मा सद् गमय । तमसो मा ज्योतिर्गमय। मृत्योर्मामृतं गमय ॥

 

हे भगवन् ! आप हमें असत्से सतुझी ओर, नमसे ज्यौतिकी और तथा मुल्यूसे अमरताकी ओर ले चलें ।

 

 

 

 

 

 

 

* भानु मा तत्सवितुर्वरेण्यम् *

पुनातु मां तत्सवितुर्वरेण्यम्

(आदित्यहृदयसारामृत)

अपरलं दीप्तिकर विशालं प्रभं तब्रमनादिरूपम्

दारिद्रयदुःषक्षयकारणं पुनातु मां तत्सवितुर्वरेण्यम्

 

न्मलं देवगणैः सुपूजितं विप्रैः स्तुत मानवमुक्तिकोविंदम्

 तं देवदेवं प्रणमामि सूर्य पुनातु तत्सवितुर्वरेण्यम्

यमण्डलं ज्ञानभने त्वगर्य भैलोक्यपून्यं त्रिगुणात्मरूपम्।

समस्ततेनोमयदिव्यरूपं पुनातु मा तत्सवितुर्वरेण्यम् ।।

 

यमण्डले गुमतिप्रबोधं धर्मस्य बुद्धिं कुरते जनानाम्

यसर्यपापक्षयकारणं पुनातु मां तत्सवितुर्वरेण्यम् ।।

 

यमपलं व्याधिविनाशदश्च यदुग्यजुःसामसु सम्प्रगतम्

 प्रकाशितं येन भूर्भुवः स्वः पुनातु मां तत्सवितुर्वरेण्यम् ।।

 

अपने बैंदविदों दिन्ति गायति धारासिद्धसंघाः

अयोगिनों योगनुर्वा संघाः पुनातु मां तत्सवितुर्वरेण्यम् ।।

 

यन्मएडा सर्वजनेषु पूजितं ज्योतिश कुद मत्र्यलोके

अत्कालकालादिमनादिरूप पुनातु तत्सवितुर्वरेण्यम् ।।

 

यमण्डलं विष्णचतुर्मुखानं यदक्षरं पापहरं जनानाम्

यत्कालकल्पक्षयकारणं पुनातु मां सत्सवितुर्वरेण्यम् ।।

यन्मने विसृजां प्रसिद्धमुपनिरक्षाप्रलयप्रगल्भम्

पञ्जगत् संहरतेऽखिलं पुनातु मा तत्सवितुर्वरेण्यम्

 

यसम्झर्न क्नम्प विष्णोरारमा परे धाम विशुद्धतत्त्वम्

 सुश्मान्तरैयोगपश्चानुगम्य पुनातु मां तत्सवितुर्वरेण्यम्

 

अमन वेदक्दिोंपगीतं अद्योगिनां योगपश्चानुगम्यम्

तत्सर्ववेदं प्रणमामि सूर्य पुनातु मां नसवितुर्वरेण्यम्

 

जिन भगवान् सूर्यका प्रखर तेजोमय मण्डल विशाल, लोंके समान प्रभासित, अनादिकाल-स्वरूप, समस्त लोकका दुःख-दारिद्र्य-संहारक हैं, वह मुझे पवित्र करें। जिन भगवान् सूर्यका वरेण्य मण्डल देवसमूहोंद्वारा अर्चित, विद्वान् ब्राह्मणोंद्वारा संस्तुत तथा मानो मुक्ति देनेमें प्रवीण हैं, वह मुझे पवित्र करें, मैं उसे प्रणाम करता हैं। जिन भगवान् सूर्यका मण्डल अखण्ड-विच्छेद्य, ज्ञानस्वरूप, तीनों लोकों द्वारा पूज्य, सत्व, रज, तम-इन तीनों गुणों से युक्त, समस्त तेजों तथा प्रकाश-पुञ्जसे युक्त है, यह मुझे पवित्र करे। जिन भगवान् सूर्यका श्रेष्ठ मण्डल गूढ़ होनेके कारण अत्यन्त कठिनतासे ज्ञानगम्य हैं तथा भक्तक हृदय धार्मिक बुद्धि उत्पन्न करता है, जिससे समस्त पापका क्षय हो जाता है, वह मुझे पवित्र करे। जिन भगवान् सूर्यका मण्डल समस्त आधि-व्याधियोंका उन्मूलन करनेमें अत्यन्त कुशल हैं, जो ऋऋक, अनुः तथा साम–इन तीनों वेदक द्वारा सदा संस्तत है और जिसके द्वारा भलॉक, अन्तरिक्षलोक तथा स्वर्गलोक सदा प्रकाशित रहता है, वह मुझे पवित्र करे। जिन भगवान् सूर्यके श्रेष्ठ मण्डलको वेदवेत्ता विद्वान् ठीक-ठीक जानते तथा प्राप्त करते हैं, चारणगण तथा सिद्धका समूह जिसका गान करते हैं, योग-साधना करनेवाले योगिजन जिसे प्राप्त करते हैं, वह मुझे पवित्र करे। जिन भगवान् सूर्यका मण्डल सभी प्राणियोंद्वारा पूजित हैं तथा जो इस मनुष्यलोकमें प्रकाशका विस्तार करता है और जो कानवका भी काल एवं अनादिकाल-रूप है, वह म पवित्र करें। जिन भगवान् सूर्यके मण्डलमें ब्रह्मा एवं विष्णुक आया है, जिनके नामोच्चारणसे भक्तोंके पाप नष्ट हो जाते हैं, जो क्षण, कला, काष्टा, संवत्सरसे लेकर कल्पपर्यंत कालका कारण तथा सृष्टिके प्रलयका भी कारण हैं, वह मुझे पवित्र करे। जिन भगवान् सूर्यका मण्डल प्रजापतियोंकी भी उत्पत्ति, पालन और संहार करनेमें सक्षम एवं प्रसिद्ध है।

 

और जिसमें यह सम्पूर्ण जगत् संहृत होकर लीन हो जाता हैं, वह मुझे पवित्र करै । जिन भगवान् सूर्यका मण्डल सम्पूर्ण प्राणिवर्गका तथा विष्णुकीं भी आत्मा हैं, जो सबसे ऊपर श्रेष्ठ लोक हैं, शुद्धातिशुद्ध सारभूततत्त्व है और सूक्ष्म-से-सूक्ष्म साधनोंके द्वारा योगियोंक देवयानद्वारा प्राप्य है, वह मुझे पवित्र को। जिन भगवान् सूर्यका मण्डल वेदवादियोंद्वारा सदा संस्तुत और योगियोको योग-साधनासे प्राप्त होता है, मैं तीनों कान और तीनों लोकोंक समस्त तत्वोंके ज्ञाता अन भगवान् सूर्यको प्रणाम करता हैं, वह मण्डल मुझे पवित्र करे।

 

* पुराणं परमं पुण्यं भविष्यं सर्वसौख्यदम्

पुराणश्रवणकालमें पालनीय धर्म

अद्धार्धाकसमायुक्ता नान्यकार्येषु लामाः

वाग्यताः शुचयोध्या: औतारः पुण्यभागिनः ।।

अभक्त्या में यां पुण्य प्रवत्त मनुजाधमाः

तेषां पुण्यफलं नास्ति दुःखं स्यामजन्मनि

पुराण में सम्पून्य ताम्बूलाचैपायनैः

शृण्वत कां भक्त्यादरिद्वाः खुर्न संशयः

कवायां की&मानायां चे गळ्यन्यतो नराः

मोगान्त प्रणश्यन्ति तेषां द्वारा सम्पदः

सोंचमाका ये कथां शृण्र्यात पावनीम्

तें बसाकाः प्रजायतें पापिनों मनुजामाः ।।

ताम्बूलं अक्षयतों ये कश्व धुण्वन पावनम्

अनि खादयन्येलान्, नयन अमकिकराः ।।

में जुङ्गासनालाः कञ्च थुम्वत दाम्भिकाः

अक्षयनरकान् भुक्त्वा ने भवन्त्येव वायसाः

में वै वासनारूका ये मध्यासनस्थिताः

मृण्वत सत्कर्षा ते वै अवयनमादपाः ।।

सम्मणम्य शृण्यन्त विषभक्षा भवन ते

तया शयानाः मृण्वन भवन्यजगरा नराः ।।

 

जो लोग श्रद्धा और भक्ति सम्पन्न, अन्य कार्योकी लालसासे रहित, मौन, पवित्र और शान्तचित्तसे (पुराणकी कथाको) श्रवण करते हैं, ये ही पुण्यके भाग होते हैं। जो अधम मनुष्य भक्तिहित होकर पुण्यकथाको सुनते हैं, उन्हें पुण्यफल तो मिलता नहीं, उन्हें प्रत्येक जन्ममें दुःख भोगना पड़ता है। जो लोंग ताम्बुल, पुष्प, चन्दन आदि पूजन-सामग्निर्योाग्न पुराणकी भलीभाँति पूजा करके भक्तिपूर्वक कथा सुनते हैं, ये निःसंदेह दरिद्रतारहित अर्थात् धनवान् होते हैं। जो मनुष्य कथा होते समय अन्य कार्योक लिये वहाँसे उठकर अन्यत्र चले जाते हैं, उनकी पत्नी और सम्पत्ति नष्ट हो जाती हैं। जो पापी अधम मनुष्य मस्तकपर पगड़ी बाँधकर (या टोपी लगाकर) पवित्र कथा सुनते हैं, वे बगुला कर उत्पन्न होते हैं। जो लोंग पान चबाते हुए पवित्र | कथा सुननी है, उन्हें कन म भ न करना पड़ता है और समदत न ममपीमें ले जाते हैं। जो नगी मन (मासासन  ऊँचे आसन पर बैठकर कथा सुनते हैं, वे अक्षय नरकका भोग करके औआ होते है। जो लोग (च्यासासनसे) श्रेष्ठ आसनपर अथवा मध्यम आसनपर बैठकर उत्तम कथा श्रवण करते हैं, वे अर्जुन नामक वृक्ष होते हैं। (जो मनुष्य पुराणकी पुस्तक और व्यासको) बिना प्रणाम किये ही कथा सुनते हैं, वे विभक्षीं होते हैं तथा जो लोग सोते हुए कथा सुनते हैं, ये अजगर साँप होते हैं।

 

 

यः शृणोति कथां वक्तुः समानासनसंस्थितः

गुल्पसमें पापं सम्माप्य नरकं ब्रजेत्

ये निंदन पुराणज्ञान् कश्च वै पापहारिणीम्

वें जन्मजात मत्र्याः सूकः सम्भवन्ति हि ।।

कदाचिदपि में पुण्य भुण्वन्ति कथा नराः

तें भुक्त्वा नाकान् घोरान् भवन्ति वनसूकरा:

ये कथामनुमोदने कार्यमानां नरोत्तमाः

अम्वन्नपि ते पानि शाश्वत परमं पदम्

कवायां कींयमानार्था विग्न कुर्वन्ति ये शाः

कोपब्दं नरान् मुक्या भयन्त आमसूकराः ।।

ये आवयनि मनुमान् पुण्य पौराणिक कथाम्

कल्पकॉटिश सामं तिष्ठन्ति ब्रह्मणः पदें

आसनार्थं प्रयन्त पुराणज्ञस्य ये नराः

कम्बलाबनवासांसि मयं फलकमेव ।।

स्वर्गलोकं ममामा भुकवा भोगान् यथेप्सितान्

स्थित्वा प्रादिलोकेषु पदं यान्ति निरामयम्

 

इसी प्रकार ज्ञों वक्ताके समान आसनपर बैठकर कथा सुनता है, वह गुरु-शय्या-गमनके समान पापका भागी होकर नरकगामों होता है। जो मनुष्य पुराणोके ज्ञाता (व्यास) और पापोंको हरण करनेवाली कथाकी निन्दा करते हैं, वे सौ जन्मतक सूकम-योनिमें उत्पन्न होते हैं। जो मनुष्य इस पुण्य कथाकों कभी भी नहीं सुनते, ये घोर नरकका भोग करके वनैले सुअर होते है। जो नरश्रेणु की जाती हई का अनुमोदन करते हैं, ये कथा न सननैपर भी अविनाशी परम पदक प्राप्त होते हैं। जो दुष्ट कहीं जातीं हुई कथामें विघ्र पैदा करते हैं, करोड़ों वर्षों तक नरकका भोग करके अनमें ग्रामीण सूअर होते हैं। जो लोंग साधारण मनुष्योंको पुराणसम्बधी पुण्य कथा सुनाते हैं, वे सौ करोड़ कल्पोंसे भी अधिक समयतक ब्रह्मकमें निवास करते हैं। जो मनुष्य पुराणके ज्ञाता वक्ताको आसनके लिये कम्बल, मृगचर्म, वस्त्र, सिंहासन और चौकी प्रदान करते हैं, वे स्वर्गलोकमें जाकर अभीष्ट भोगका उपभोग करनेके बाद ब्रह्मा आदिकै लोकों में निवास कर अत्तमें निरामय पदक प्राप्त होते हैं।

 

पुराणस्य अमरन्ति में चारासनमुत्तमम्

माँगनों ज्ञानासम्मन्ना भाति भवें भवें

में मापातकर्युक्ता उपपातकनवा दें।

पुराणवणादेव ते प्रयान्ति परं पदम्

पूर्ववियविधानेन पुराण शृणुयान्नरः

भृक्वा योगान् यथाकार्म चिल्लोर्क प्राति सः

पुस्तकं पूजयेत् पश्चाद् वस्त्रालंकरणादिभिः

वाचकं विप्रसंयुक्तं पूजयीत प्रपलवान्

गोधूपिमबखाणि वाचकाप निवेदयेत्

ब्राह्मणान् भोजयेत् पश्चान्यपद्धलाकपायसैः ।।

त्वं मसरूपी भगवन् बुद्धा चाङ्गिरसोपमः

पुण्यवान् शीलसम्पन्नः सत्यवादी जितेन्द्रियः

प्रसन्नमानसं कुर्याद् दानमानोपचारतः

वासादादिमान् धर्मान् सम्पूर्णानुतवानहम्

एवं प्रार्थनकं कृत्वा व्यासस्य परमात्मनः

यास्त्री भवेन्नित्यं यः कुर्यादयमादरात्

नारदोक्तानिमान् धर्मान् यः कुर्यात्रियतेन्द्रियः

कृत्रं फलमवाप्नोति पुरापावास्य वै॥

 

इसी तरह जों अंग पुराणको पुस्तकके लिये उत्तम श्रेष्ठ आसन प्रदान करते हैं, वे प्रत्येक जन्ममैं भोगका उपभोग करनेवाले एवं ज्ञानी होते हैं। जो महापातकोंसे युक्त अथवा उपपातक होते हैं, वे सभी पुरागको कथा सुननेसे ही परम पदको प्राप्त हों जाते हैं। जो मनुष्य इस प्रकारके नियम-विधानसे पुराणकी कथा सुनता है, वह स्लेअनुसार भोग भोगकर विष्णुलेकों चला जाता है। कथा समाप्त होने पर होता पुरुष प्रयत्नपूर्वक वा और अलंकार आरिद्वाग्र पुस्तकको पूजा करें। तत्पश्चात् सहायक ब्राह्मणसहित वाचककी कूजा करे। उस समय वाचा गौं, पृथ्वी, सोना और वा देना चाहिये। तदुपरान्त ब्राह्मणों मलाई, लड़ और खीर भोजन करना चाहिये। तदनन्तर परमात्मा व्याससे प्रार्थना को–’आप व्यासरूपी भगवान् बुझिमें बृहस्पतिके समान, पुण्यवान्, शौसम्पन्न, सत्यवादी और जितेन्द्रिय है, आपकी कृपासे मैंने इन सम्पूर्ण धमको सुना है। इस प्रकार प्रार्थना कर दान, मान और सेवासे उनके मन प्रसन्न करना चाहिये । जो मनुष्य इस प्रकार आदरपूर्वक करता है, वह सदा यशस्वी होता है। जो जितेन्द्रिय मनुष्य देवर्षि नारदद्वारा कहे गये इन धमका पालन करता है, वह पुराण-श्रवणका सम्पूर्ण फल पाता है।

 

पुराणमहिमा

यज्ञकर्मीकयावेदः स्मृतियेंद गृहाने ।

स्मृतिर्वेदः कियावेदः पुराणेषु प्रतिष्ठितः  पुराणपुरुषालाई अचेदं जगदतम् ॥

 

तथेदं वाक्यं जातं पुराणेभ्यो न संशयः।

वैदे प्रसंचारों में शुद्धिः कालबोधिनी । तिथिवृद्धक्षयों चापि पर्वग्रहविनिर्णयः ॥

 

 इतिहासपुगणैस्तु नियोऽयं कृतः पुरा ।

अन्न दृष्टं हि वेदेषु तसर्व लक्ष्यते स्मृतौ ॥

 

अभयर्यन्न दृशं हि तत्पुरा: अगीयते ।

 

यज्ञ एवं कर्मकाउके लिये वेद प्रमाण ।

गृहम्धके लिये स्मृतियाँ हीं प्रमाण हैं ।

 

किंतु कैद और स्मृतिशास्त्र (धर्मशास्त्र) दोनों ही सम्यक् रूपसे पुराणोंमें प्रतिष्ठित हैं। जैसे परम पुरुष परमात्मासे यह अद्भुत जगत् अत्पन्न हुआ है, वैसे ही सम्पूर्ण संसारका वाट्य-साहित्य पुरागसे ही उत्पन्न हैं, इसमें लेशमात्र भी संशय नहीं है। वेदोंमें तिथि, नक्षत्र आदि काल निर्णायक और अह-संचार कोई मुक्ति नहीं बतायी गयी हैं। तिथियों वृद्धि, क्षय, पर्व, अहण आदिका निर्णय भी उनमें नहीं है। यह निर्णय सर्वप्रथम इतिहास-पुराणोंक द्वारा ही निश्चित किया गया हैं। जो बातें वेदोंमें नहीं हैं, ये सब स्मृतियोंमें हैं और जो बातें इन दोनोंमें नहीं मिलता, वे पुराणों के द्वारा ज्ञात होती हैं।

 

*भविष्यपुराण‘–एक परिचय

भारतीय वाङ्मय पुराणका एक विशिष्ट स्थान है। इनमें तीर्थसेवन, देवपूजन, आद्ध-तर्पण आदि शास्त्रविहित शुभ येटके निगढ़ अर्थाका स्पष्टीकरण तो है ही, कर्मकाण्ड, कम जनसाधारण प्रवृत्त करनेके लिये उनके लौकिक एवं पासनाकाद्ध तथा शानकाण्डके सरलतम विस्तारके पारलौकिक फलोंका भी वर्णन किया गया हैं। इनके अतिरिक्त साथ-साथ कथावैचित्र्य द्वारा साधारण जनताको भी पुराणोंमें अन्यान्य कई विषयोंका समावेश पाया जाता है। गड-से-गुड़तम तत्वको हृदयङ्गम क देनेको अपनी अपूर्व इसके साध ही पुराणोंकी कथाआमें असम्भव-सी दौखनेवाली विशेषता भी है। इस युगमें धर्मकी रक्षा और भक्ति मनोरम कुछ आते परस्पर विरोधी-सीं भी दिखायी देती हैं, जिसे स्वल्प विकासका ज्ञों यत्किंचित् दर्शन हो रहा है, उसका समस्त श्रेय श्रद्धावाले पुरुष काल्पनिक मानने लगते हैं। परंतु यथार्थ पुराण-साहित्य ही हैं। वस्तुतः भारतीय संस्कृति और ऐसी बात नहीं है। यह सत्य है कि पुराणमें कहीं-कहीं साधनाके में कर्म, ज्ञान और भक्तम मूल लॉत चेद या न्युनकिता हुई है एवं विदेशी तथा विधर्मियॉर्क श्रुतिको ही माना गया है। वेद अपौरुषेय, नित्य और स्वयं आक्रमण-अत्याचारसे बहुत अंश आज उपलब्ध भी नहीं भगवान्को शब्दमयीं मूर्ति हैं। स्वरूपतः वे भगवान्के साथ हैं। इसी तरह कुछ अंश प्रक्षिप्त भी हो सकते हैं। परंतु इससे | भिन्न हैं, परंतु अर्थक दृष्टि में केंद अत्यन्त दुरूह भी हैं। पुराणोंकी मूल महत्ता तथा प्राचीनतामें कोई बाधा नहीं आती। | जिनका ग्रहण तपस्याके बिना नहीं किया जा सका। व्यास, ‘भविष्यपुराणा’ अतः महाराणोंके अन्तर्गत एक शाल्मीकि आदि ऋषि तपस्याहारा ईआरकपासे ही वेदका अकूत महत्त्वपूर्ण सात्विक पुराण है, इसमें इतने महत्त्वकै विषय भी अर्थ जान पाये थे। उन्होंने यह भी जाना था कि जगतुके हैं, जिन्हें पढ़-सुनकर चमकत होना पड़ता है। यद्यपि कल्याणके लिये वेदके निगृद्ध अर्थमा प्रचार करने में इलोक-संस्में न्यूनाधिका प्रतीत होती हैं। भविष्यपुराणके । आवश्यकता है। इसलिये उन्होंने उसीं अर्वको सरल भाषामें अनुसार इसमें पचास हजार श्लोक होने चाहिये; जबकि पुराण, रामायण और महाभारतके द्वारा प्रकट किया। इससे वर्तमानमें अट्ठाईस सहल श्लोक हीं इस पुराणमें उपलब्ध शास्त्रोंमें कहा है कि रामायण, महाभारत और पुराणों की हैं। कुछ अन्य पुराणोंके अनुसार, इसकी लोक-संख्या साढ़े सहायतासे वेदोंम अर्थ समझना चाहिये-‘इतिहास- चौदह सहन होनी चाहिये । इससे यह प्रतीत होता है कि जैसे पुराणाभ्य वेदं समुपयेत् । इसके साथ ही विष्णुपुराणकी श्लोक संख्या विष्णुधर्मोत्तरषणकों सम्मिलित इतिहास-पाको दौके समकक्ष मझम वेदके रूपमें माना करनेमें पूर्ण होती है, वैसे ही भविष्यपुराणमें भविष्योत्तरपण गया हैं। छान्दोग्योपनिषद्में नारदजीने सनकुमारजीसे कहा सम्मिलित कर लिया गया है, जो वर्तमानमें भविष्यपुराणका है–‘स नेवाच ऋग्वेदं भगवमिं यजुर्वेद : उत्तरपर्व हैं। इस पर्वमें मुख्यरूपसे क्त, दान एवं उत्सवोंका ही

सामवेदमाश्चर्वणं चतुर्थीमतिहासपुराणं पञ्चमं वेदानां वर्णन है। | बेदम् ।

 मैं ऋग्वेद, यजुर्वेद, सामवेद तथा चौथे अथर्ववेद वस्तुतः भविष्यापुराण सौर-प्रधान ग्रन्थ हैं। इसके

और पांचवें केंद तिहास-पुराणको जानता है। इस प्रकार अधिष्ठातृदेव भगवान् सूर्य हैं, वैसे भी सूर्यनारायण प्रत्यक्ष पुराणोंकी अनादिता, प्रामाणिकता तथा मङ्गलमयता सर्वत्र देवता हैं जो पोंमें परिगणित हैं और अपने शास्त्रोंके उस्लेख है और वह सर्वथा सिद्ध तथा यथार्थ हैं। भगवान् अनुसार पूर्णब्रह्मकै रूपमें प्रतिष्ठित हैं। द्विजमाञके लिये प्रातः, व्यासदेवने प्राचीनतम पुगणका प्रकाश और प्रचार किया है। मध्याह्न एवं सायंकाल संध्यामें सूर्यदेवकों अयं प्रदान वस्तुतः पुराण अनादि और नित्य हैं।

करना अनिवार्य है, इसके अतिरिक्त स्त्री तथा अन्य आश्रमों के । पुराणोंमें भक्ति, ज्ञान, वैराग्य, सदाचार तथा सकाम एवं लिये भी नियमित सूर्याय॑ देनेकों विधि बतलायीं गयीं हैं। | निष्कमकर्मी महिमाके साथ-साथ यज्ञ, वत, दान, तप, आधिभौतिक और आधिदैविक शृंग-शोक, संताप आदि

 

सांसारिक दुःखों की निवृत्ति भी सूर्योपासनासे सद्यः होती है। विविध मैद, मातृ-पितृ-आद्ध आदि उपादेय विषयपर, प्रायः पुरागर्ने औंव और वैष्णवपुराण में अधिक प्राप्त होते हैं, विशेषरूपसे विवेचन हुआ है। इस पर्वमें नागपञ्चम-ब्रत जिनमें शिव और विष्की महिमाका विशेष वर्णन मिलता है, कथाका भी उल्लेख मिलता है, जिसके साथ नागों में जुत्पत्ति, परंतु भगवान् सूर्यदेवकी महिमाका विस्तृत वर्णन इसी पुराणमें सपॅक लक्षण, स्वरूप और विभिन्न जातियाँ, सर्पोक काटने उपलब्ध है। यहाँ भगवान् सूर्यनारायण अगत्वष्टा, लक्षण, उनके विका वेग और उसकी चिकित्सा आदि

गत्पालक एवं जगत्संहारक पूर्णब्रह्म परमात्माके में विशिष्ट वर्णन यहाँ उपलब्ध है। इस पर्वको विशेषता यह है प्रतिष्ठित किया गया है। सूर्यके महनीय स्वरूपके साथ-साथ कि इसमें व्यक्तिके उत्तम आचरणको ही विशेष प्रमुखता दीं उनके परिवार, की अद्भुत कथाओं तथा उनकी उपासना- गयीं हैं। कोई भी व्यक्ति कितना भी विद्वान्, वेदाध्याय, | पतिका वर्णन भी अच्च उपलब्ध हैं। उनका प्रिय पुष्प क्या संस्कारी तथा उत्तम जातिका क्यों न हो, यदि उसके आचरण है, उनकी पूजाविधि क्या है, उनके आयुध-व्योमके लक्षण श्रेष्ठ, उत्तम नहीं है तो वह श्रेष्ठ पुरुष नहीं कहा जा सकता। तथा उनका माहात्म्य, सूर्यनमस्कार और सूर्य-प्रदक्षिणाकी लकमें श्रेष्ठ और उत्तम पुरुष वें में हैं जो सदाचारी और विधि और उसके फल, सूर्यको दीप-दानकी विधि और सत्पथगाम हैं। महिमा, इसके साथ हैं सौरधर्म एवं दीक्षाकी विधि आदिका भविष्यपुराणमैं ब्रह्मपर्वके बाद मध्यमपर्वका प्रारम्भ होता महत्वपूर्ण वर्णन हुआ है। इसके साथ हीं सूर्यके विराट् है। जिसमें सृष्टि तथा सात ऊर्ध्व एवं सात पाताल का स्वरूपका वर्णन, वादश मूर्तियों का वर्णन, सूर्यावतार तथा वर्णन हुआ है। ज्योतिक्षक तथा भूगोलके वर्णन भी मिलते हैं। भगवान् सूर्यकीं इधयात्रा आदिका विशिष्ट प्रतिपादन हुआ है। इस पर्वमें नरकगामी मनुष्योंके २६ दोष बताये गये हैं, जिन्हें सूर्य उपासनामें व्रतवं विस्तृत चर्चा मिलती है। सूर्यदेवकी त्यागकर शुद्धतापूर्वक मनुष्यको इस संसार में रहना चाहिये। प्रिय तिथि है ‘समम । अतः विभिन्न फलश्रुतियोंके साथ पुराणोके अवगकी विधि तथा पुराण-वाक्कक महिमाका सप्तमी तिथिके अनेक ब्रतोंका और उनके ज्ञापनोंका अहाँ वर्णन भी यहाँ प्राप्त होता है। पुराणोंकों श्रद्धा-भक्तिपूर्वक विस्तारसे वर्णन हुआ है। अनेक सौर तीर्थक भी वर्णन मिलतें सुनने में ब्रह्महत्या आदि अनेक पापोंसे मुक्ति मिलती है। जों हैं। सूर्योपासनामें भावशुद्धिकी आवश्यकतापर विशेष बल प्रातः, गृत्रि तथा सायं पवित्र होकर पुराणेंका श्रवण करता है, दिया गया है। यह इसकी मुख्य बात है। उसपर ब्रह्मा, विष्णु और शिव प्रसन्न हो जाते हैं। इस पर्वमें इसके अतिरिक्त ब्रह्मा, गणेश, कार्तिकेय तथा अग्नि इष्टापूर्तकर्मका निरूपण अत्यन्त समारोहके साथ किया गया आदि देवका भी वर्णन आया है। विभिन्न तिथियों और है। जो कर्म ज्ञानसाध्य हैं तथा निकमभावपूर्वक किये गये नक्षत्रक अधिष्ठातृ-देवताओं तथा उनकी पूजाकै फलका भी कर्म और स्वाभाविक रूपसे अनुरागाभक्तिके रूपमें किये गये वर्गन मिलता है। इसके साथ ही ब्राह्मपर्वमें ब्रह्मचारिधर्मम हरिस्मरण आदि श्रेष्ठ कर्म अन्तर्वेदी कर्मोकि अन्तर्गत आते हैं, निरूपण, गृहस्थधर्मका निरूपण, माता-पिता तथा अन्य देवताकी स्थापना और उनकीं फुजा, कु, पोखरा, तालाब, गुरुजनों की महिमा वर्णन, उनको अभिवादन करनेकी विधि, बावली आदि खुदवाना, वृक्षारोपण, इँयालय, धर्मशाला, उपनयन, विवाह आदि संस्कारोंका वर्णन, रूसी-पुरुषोंके उद्यान आदि लगवाना तथा गुरुजनोंकी सेवा और उनको संतुष्ट सामुद्रिक शुभाशुभ-लक्षण, स्त्रियोंके कर्तव्य, धर्म, सदाचार करना—ये सब बहिर्वेदी (पूर्त) कर्म हैं। देवालयों के और उत्तम व्यवहारकी बाते, स्त्री-पुरुषोंकि पारस्परिक व्यवहार, निर्माण विधि, देवताओंकी प्रतिमाओके लक्षण और उनकी पञ्चमहायज्ञका वर्णन, बलिवैश्वदेव, अतिथिसत्कार, श्राद्धोंके स्थापना, प्रतिष्ठाको कर्तव्य-विधि, देवताओं की पूजापद्दति,

 

1-निकमपुरान कुवा भय द्विजोत्तमाः

मुच्यते सर्वपापेभ्यों ल्याङ्गतं यत्

 

सायं प्रातमापा झुर्मिला गानि यः

तस्य निम्न वा मा नै रमाया ।।

पापमपन्न १६ 4 )

  • पुराणं रमं पुण्यं भविष्यं सर्वसौख्यदम् +

 

उनके ध्यान और मत्र, मन्त्रोंक ऋषि और द–इन चाहिये। सौंपर पर्याप्त विवेचन किया गया है। पाषाण, काष्ठ, मृत्तिका, इस क्रममें क्रौञ्च आदि पक्षियोंके दर्शनका विशेष फल ताम, रत्न एवं अन्य अॅश्च धातुओंसे मी उत्तम लक्षणों से मुक्त भौं वर्णित हुआ है। मयूर, वृषभ, सिंह एवं क्रौञ्च और कपिका प्रतिमाका पूजन करना चाहिये । घरमें प्रायः आठ अंगुलतक घरमैं, वेतमें और वृक्षपर भूल से भी दर्शन में जाय तो उसको ऊँची मूर्तिका पूजन करना श्रेयस्कर माना गया है। इसके साथ नमस्कार करना चाहिये । पैसा करनेसे दर्शकके अनेक जन्मक ही ताब, पुष्करिणी, वापी तथा भवन आदिको पाप नष्ट हो जाते हैं, उनके दर्शनमाञसे धन तथा आपकी वृद्धि, निर्माण-पद्धति, गुवास्तु-प्रतिष्ठाको विधि, गृहवास्तु किन होती हैं। देवताओंकी पूजा की जाय, इत्यादि विषयोंपर भी प्रकाश द्वारा कोई भी कर्म इंफर्म या पितृकर्म नियत समयपर किये गया है।

 

जानेपर का आधारपर पूर्णरूपेण फलद होते है। | वृक्षापण, विभिन्न प्रकारके वृक्षकी प्रतिमा का विधान समय बिना की गयी क्रियाओंका कोई फल नहीं होता।

 

तथा गोचरमिक प्रतिष्ठा-सम्बधी चर्चाएं मिलती हैं। जो अतः कालविभाग, मास-विभाजन, तिथि-निर्गय एवं वर्षभर व्यक्ति अया, फुल तथा फल देनेवाले वृक्षका रोपण करता विशेष पर्यो तथा तिथियोंके पुण्यप्रद कुल्योंका विचन भी इस हैं या मार्गमें तथा देवालयमें वृक्षों को लगाता है, वह अपने में साङ्गोपाङ्गरूपसे सम्पन्न हुआ है। जो सर्वसाधारण पितरों बड़े-से-बड़े पापोंसे ज्ञाता हैं और रोपणकर्ता इस लिये उपयोगी भी हैं। मनुष्यलों में महती कीर्ति तथा शुभ परिणाम प्राप्त करता अपने आहाँ गोत्र-प्रवरको जानें बिना किया गया कर्म हैं। जिसे पुत्र नहीं हैं, उसके लिये वृक्ष ही पुत्र हैं। विपरीत फलदायी होता है। समान गोत्रमें विवाहादि वृक्षारोपगकताकि लौकिक-पारलौकिक कर्म वृक्ष झीं करते सम्बका निषेध हैं। अतः गोत्र-प्रवरकी परम्पराको जानना रहते हैं तथा उसे उत्तम झोंक प्रदान करते हैं। यदि कोई अत्यन्त आवश्यक है। अपने-अपने गौत्र-प्रवरको पिता,

अश्वत्थ वृक्षको आरोपग करता हैं तो वीं उसके लिये एक आचार्य तथा शास्त्रद्वारा जानना चाहिये। इन सारी |लास मुत्रोसे भी कम है। अशोक वृक्ष लगाने में कभी शोक प्रक्रियाओंका विवेचन यहाँ उपलब्ध है। नहीं होता। बिल्व-वृक्ष दीर्घ आयुष्य प्रदान करता है । इस भविष्यपुराणमें मध्यमपर्वके बाद निसर्गपर्व चार प्रकार अन्य वृक्षोंके रोपणको विभिन्न फलश्रुतियाँ आयी हैं। खाण्टोंमें हैं। प्रायः अन्य पुराणों में सत्ययुग, त्रेता और द्वापरके सभी माङ्गलिक कार्य निर्बिभ्रतापूर्वक सम्पन्न हो जायें तथा प्राचीन राजाओंके इतिहासका वर्णन मिलता है, परंतु शान्ति-भङ्ग न हो इसके लिये ग्रह-शान्ति और शान्तिप्रद भविष्यपुराणमें इन प्राचीन राजाओंके साथ-साथ कलियुग अनुष्ठानोंका भी इसमें वर्णन मिलता है।

अर्वाचीन जो इस आधुनिक इतिहास भी मिलता है। | भविंदमागके इस पर्वमें कर्मकाण्डका भी विशद वर्णन वास्तवमें भविष्यपुराणके भविष्य नामकी सार्थकता प्राप्त होता हैं। विसंघ अझका विघान, कुण्ड-निर्माण अनिसर्गपर्थमें हीं चरितार्थ हुई दीखती हैं। अतिसर्गपर्वके प्रथम योजना, भूमि-पूजन, अघिसंस्थापन एवं पूजन, यज्ञादि कर्माकं खण्डमें सत्ययुगके शाओके वंशय परिचय, क्रेतायुगके सूर्य मएल-निर्माणका विषान, कुशकडिया-विधि, होमहव्या एवं चन्द्र-जयंशका वर्णन, द्वापरयुगके हवंशीय वर्णन, यज्ञपात्रका स्वरूप और पुर्णाहुतकी विधि, गुजाओं वृत्तान्त र्णत हैं। इसके बाद बंशीय यज्ञादिकर्ममें दक्षिणका माहात्म्य और कला-स्थापन आदि गुजाओंका वर्णन है। आरम्भमें गुजा अर्घात कुरुक्षेत्रमें अज्ञ विधि-विधानका विस्तारपूर्वक वर्णन किया गया है। करके म्लेच्छोंका विनाश किया था, परंतु कल्नेि स्वयं शास्त्रविहित यज्ञादि कार्य दक्षिणारहित एवं परिमाणविहीन म्लेच्छरूपमें राज्य किया तथा भगवान् नारायणको अपनी कभी नहीं करना चाहिये। ऐसा या कभी सफल नहीं होता। पूजासै प्रसन्नकर वरदान प्राप्त किया। नारायणने कसे कहा जिस यज्ञ में माप बताया गया है, उसके अनुसार करना कि कई दृष्टियोंसें अन्य युगोंकी अपेक्षा तुम श्रेष्ठ हों, अतः

 

तुम्हारी इच्छा पूर्ण सेगी।’ इस वरदानके प्रभावसे आदम ऋतुकालमें ही भार्याका उपगमन करता है, वहीं मुख्य नामक पुस्प और हुम्यवती (हौवा) नामकी पत्नी से ब्रह्मचारी हैं। पाणिनिकी तपस्यासे प्रसन्न होकर भगवान् म्ले शोंकी वृद्धि हुई । करिव्युगके तीन हजार वर्ष व्यतीत सदाशिव शंकरने ‘अ इ उ ए’, ‘अ छ ।’ इत्यादि चतुर्दश

 

होने पर विक्रमादित्यका आविर्भाव होता हैं। इसी समय माहेश्वर-सूत्रोंकों वररूपमें प्रदान किया। जिसके कारण उन्होंने | कुकिंकर वैताका आगम होता है, जो विक्रमादित्यको कुछ व्याकरणशास्त्रका निर्माण कर, महान् कोकोपकार किया। | कथाएँ सुनाता हैं और इन कथाओके व्यावसे राजनीतिक और तदनन्तर बोपदेयके चरित्रका प्रसंग तथा श्रीमद्भागवतके स्यावारिक शिक्षा भी प्रदान करता है। बैंताय कही माहात्म्यको वर्णन, ऑर्गासप्तशतके माझत्म्यमें व्याधकर्माकी गयी इन काम संग्रह ‘वैतापञ्चविंशति’ अथवा कथा, मध्यमचरित्रकै माहात्म्यमें कात्याक्न तथा मगध ज्ञा | बेतालपचीसी के नामसे कमें प्रसिद्ध है।

महानन्दकी कथा और उत्तरचरितकी महिमाके प्रसंगमें इसके बाद ऑसत्यनारायणवतको कथामा वर्णन हैं। योगाचार्य महर्षि पतञ्जलिके चरित्रका रोचक वर्णन हुआ है। भारतवर्ष सत्यनारायणवत-कथा अत्यन्त लोकप्रिय है और भविष्यपुराणके प्रतिसर्गपर्वका तीसरा झण्डू ग्रमांश और इसका प्रसार-प्रचार भी सर्वाधिक हैं। भारतीय समातन् कृष्णांश अर्थात् आल्हा और ऊदल (उदयसिंह) के चरित्र सम्परामें किसी भी माङ्गलिक कार्य प्रारम्भ भगवान् तथा जयद्र एवं पृथ्वीराज चौहानकी वीरगाथाओंसे परिपूर्ण गणपति पूजनमें एवं उस कार्यकी पूर्णता भगवान् है। इधर, भारतमें जागनिक भाटचित आहाका वीरकाव्य | सत्यनारायणक कथाश्रवणसे प्रायः समझी जाती है। बहुत प्रचलित हैं। इसके बुन्देलखीं , भोजपरी आदि कई | भविष्यपुराणके प्रतिसर्गपर्वमें भगवान् सत्यनारायणन्नत- संस्करण है, जिनमें भाषाका कोड़ा-थोझ भैंद है। इन कथाका उल्लेख छः अध्यायोंमें प्राप्त है। यह कथा कथाओंका मूल यह प्रतिसर्गपर्व ही प्रतीत होता हैं। प्रायः ये स्कन्दपुराणों प्रचलित कथासे मिलती-जुलती होनेपर भी कथाएँ लेकञ्जनके अनुसार अतिशयोक्तिपूर्ण-सौं प्रतीत होती विशॆष रोचक एवं श्रेष्ठ प्रतीत होती हैं। वास्तवमें इस मायामय हैं, किंतु ऐतिहासिक दृष्टि में महत्त्वकी भी हैं। इस खण्डमें राजा संसारकी वास्तविक सत्ता तो है में नहँ-नानो विद्यते शालिवाहन तथा ईशामसहकी कथा भी आयी है। एक समय आवो नाभायों चिले मतः । परमेश्वर ही त्रिकालाबाधित शकाधीश शालिवाहनने हिमशिखरपर गौर-वर्णके एक सुन्दर | सत्य हैं और एकमात्र वहीं य, ज्ञेय और उपास्य हैं। पुरुषों इंझा, जो श्वेत वस्त्र धारण किये था । शक्ज कन-वैराग्य और अनन्य भके द्वारा चाहीं साझास्कार करने जिज्ञासा करने उस पुरुषने अपना परिचय देते हुए अपना योग्य हैं। वस्तुतः सत्यनारायणझतका तात्पर्य उन शुद्ध, नाम शामसी बताया। साथ ही अपने सिद्धान्तोंका भी संक्षेपमें सच्चिदानन्द परमात्माकी आराधनासे ही है । निकाम उपासनासे वर्शन किया। शालिवानके वंशमें अन्तिम दसवें गुजा सत्यस्वरूप नारायणकी प्राप्ति हो जाती है। अतः भोजराज़ हुए, जिनके साथ मामदकी कथाका भी वर्णन अद्धा-भक्तिपूर्वक पूजन, कथाश्रवण एवं प्रसाद आदिके द्वग्न मिलता है। राजा भोजने मरुस्थल (मदीन) में स्थित उन सत्यस्वरूप परब्रह्म परमात्मा भगवान् सत्यनारायणकी महादेवको दर्शन किया तथा भक्तिभावपूर्वक पूजन-स्तुति की। उपासनाने म ठाना चाहिये।

भगवान् शिवनें प्रकट होकर म्लेच्छोंमें दूषित इस स्थानको | इस खाके अन्तिम अध्यायोंमें पिशर्मा और उनके त्यागकर महाकालेश्वर तीर्थ जानेकी आज्ञा प्रदान की।

बंशमें उत्पन्न होनेवाले व्याडि, मीमांसक, पाणिनि और वररुचि दना देशराज एवं वत्सराज आदि राजाओंके आविर्भावकीं । आदिकीं रॉचक कथाएँ प्राप्त होती हैं। इस प्रकरणमें कथा तथा इनके वंशमें होनेवाले कौरवांश एवं पाण्डवांझोंक ब्रह्मचारिधर्मकी विभिन्न व्याया करते हुए यह कहा गया है अपने उत्पन्न जयंशका विवरण प्राप्त होता है। कौरवांशको कि जो गृहस्थधर्ममें रहता हुआ पितरों, देवताओं और पराजय और पाण्ड्यांशोंकी विजय होती हैं। पृथ्वीराज अतिधियका सम्मान करता हैं और इन्द्रियसंयमपूर्वक चौहानको वीरगति प्राप्त होने के उपरांत सोडीन (मुहम्मद गोरी) के द्वारा कोतुकोद्दीनको दिङका शासन सौंफ्कर इस श्रीरामानुज, श्रींमध्व एवं गौरक्नाथ आदिका विस्तृत चरित्र देशसे धन सूटकर ले जानेका विवरण प्राप्त होता है। यहाँ वर्णित है। प्रायः में सभी सूर्यके तेज एवं अंशसे हीं उत्पन्न प्रतिसर्गपक्का अंतिम चतुर्थ पाण्ड़ है, जिसमें सर्वप्रथम बताये गये हैं। भविष्यपुराणमें इन्हें द्वादशादिस्यके अवतारके कलियुगमें अपन्न आमवंशीय राजाओंके वंशका परिचय रूपमें प्रस्तुत किया गया है। कलियुगमें धर्मरक्षार्थ इनका मिलता है। तदनन्तर राजपूताना तथा दिल्ली नगरकै आवर्भाव होता है। विभिन्न समुदायको स्थापनार्मे इनका जर्व का इतिहास प्राप्त होता है। राजस्थानके मुख्य नगर योगदान है। इन असंगमें प्रमुखता चैतन्य महाप्रभुकों दी गयी | अजमकी कथा मिलती है। अन्य (अ) ब्रह्माके द्वारा है। ऐसी भी प्रतीत होता है कि श्रींगचैतन्यने ब्रह्मसूत्र, गीता |चित होने तथा म लक्ष्मी (मा) के शुभागमनसे इम्य या या उपनिषद् किसींपर भी साम्प्रदायिक दृष्टिले भाष्य रचना मगर इस नगरीका नाम अजमेर हुआ । इस प्रकार राजा नहीं की थीं और न किसी सम्प्रदाय ही अपने समयमें जयसिंहने जयपुरको बसाया, जो भारतका सर्वांधिक सुन्दर स्थापना की थी। उदार-भाषसे नाम और गुणकीर्तनमें विभोर नगर माना जाता है। कृणवमकिं पुत्र उदयने उदयपुर नामक रहते थे। भगवान जगन्नाथके द्वारफर में खड़े होकर उन्होंने | नगर बसाया, जिसका प्राकृतिक सौन्दर्य आय भी दर्शनीय है। अपनी जीवनलीलाकों ऑविममें लीन कर दिया। साथ ही अन्यकुञ्ज नगर कथा भी अद्भुत है। शशा प्रणा यहाँ संत सूरदासजी, तुलसीदासजीं, कबीर, नासी, पीपा, । तपम्यासे भगवती आमा प्रसन्न होकर कन्यारूममें बेगुवान मानक, दाम, नामदेव, इंकग, वा भगत आदिकी कथाएँ भीं करती हुई आती हैं। उस कन्याने दानरूपमें यह नगर, राजा हैं। आनन्द, गिरी, परी, वन, आश्रम, पर्यंत, भारत एवं नाथ । प्रणयको प्रदान किया, जिस कारण इसका नाम ‘कन्या ‘ आदि दस नामीं साधुओंकों व्युत्पत्तिका कारण भी लिखा है। | पड़ा। इसी प्रकार चित्रका निर्माण भी भगवतीक असादसे भगवनी महाकाली तो इनकी उत्पत्तिकी कवा भी

हो हुआ। इस स्थानकी विशेषता यह है कि यह देवता मिलती हैं। प्रिय नगर है, जहाँ कलिका प्रवेश नहीं सकता। इसीलिये भगवान् गणपतिको यहाँ परब्रह्मरूपमैं चित्रित किया गया इसका नाम ‘कलिंजर’ भी कहा गया है। इसी प्रकार है। भूतभावन सदाशिवकी तपस्यासे प्रसन्न होकर भगवत बंगालके गज़ा भोगवर्माके पुत्र कालियन महाकाल की पार्वतके पुत्ररूपमें जन्म लेनेका उन्हें वर प्रदान किया। उपासना की। भगवती काने प्रसन्न होकर पुष्प और तदनन्तर उन्होंने भगवान् शिव पुत्ररूपमें अवतार धारण कलियोंकी वर्षा की, जिसमें एक सुन्दर नगर उत्पन्न हुआ ओं किया। इसमें रावण एवं कुम्भकर्णक जन्मक कथा, कहावतार कलिकातापरी (कलकत्ता) के नामसे प्रसिद्ध हुआ। चारों हनुमानजी रोचक कथा भौं मिलती हैं। केसरीकी पत्नी वगक उत्पत्तिकी कथा तथा चारों युगोंमें मनुष्योंकी आयुका अंजनीक गर्भसे श्रीहनुमतुल्ली अवतार धारण करते हैं। निरूपण और फिर आगे चलकर दिल्ली नगरपर पानोंका आकाशमें उगते हुए लाल सूर्यको देख फल समझकर उसे शासन, तैमूरलंगके द्वारा भारतपर आक्रमण करने और निगलने का प्रयास करते हैं। सूर्यके अभायमें अन्धकार देखकर लटनेकी क्रियाका वर्णन भी इसमें प्राप्त होता है। इन्द्रने उनकी हुन् (इ) पर बसे प्रहार किया, जिससे कलियुगमें अवतीर्ण होनेवाले विभिन्न आचार्यो-संतों हनुमानकी छ ?ढी हो जाती हैं और वे पृथ्वींपर गिर पड़ते और पक्की कथाएँ भी यहाँ उपलब्ध है। श्रीशंकराचार्य, है, जिससे उनका नाम हनुमान् पड़ा। इसी बीच गृण उनकी ग्रमानन्दाचार्य, निम्यादित्य, ऑघरस्वामी, श्रीविष्णुस्वामी, फैछ फड़कर लटक जाता हैं। फिर भी उन्होंने सूर्यको नीं। वाराहमिहिर, भट्टॉजि दीक्षित, घयतर, कृष्णचैतन्यदेव, छोड़ा। एक वर्षक ग्रयणसे युद्ध होता रहा । अत्तमें रावणके

|il

 

1-नई नियादौ

| अतः

कालिम् । कतिपत्र पद गमन् सुप्रिये ।।

नाम सिमनले।

(प्रनिसर्गपर्व

* ‘भविष्यपुराण‘–एक रिचय

फ्तिा विश्रवा मुनि वहाँ आते हैं और वैदिक स्तोत्रोंसे रहता था। वे दोनों उसके पास पहुँचे, वह अपनी खेती हनुमान्जीको असकर रावणका पिण्ड छुड़ाते हैं। तदनत्तर आदिको चिन्तामें लगा था। भगवान्ने उससे कहा-‘हम ब्रह्माजीके प्रादुर्भाव तथा सृष्टि और उत्पत्तिकीं तुम्हारे अतिथि हैं और भूखें हैं, अतः भोजन कराओ।’ उस कथा एवं शिव-पार्वती विवाहका वर्णन हुआ है । अत्तम ब्राह्मणने दोनों अपने अपर लाक्वा स्नान-भोजन आदि अध्यायोंमें मुगल बादशाहों तथा अंग्रेज शासकको भी चर्चा कराया, अनत्तर उत्तम म्यापर शयन आदिको व्यवस्था की। हुई है। मुगल बादशाहोंमें बाबर, हुमायूँ, अक्षर, शाहजहाँ, प्रातः उठकर भगवान्ने ब्राह्मणसे कहा-‘हम तुम्हारे घरमें जहाँगीर, औरंगजेब आदि प्रमुख शाक्कका वर्णन मिलता हैं। सुखपूर्वक रहे, परमेश्वर को कि तुम्हारी ती निष्फल हो, छत्रपति शिवाजीकी वीरता का भी वर्णन प्राप्त है। इसके साथ तुम्हारी संततिकी वृद्धि न हो इतना कहकर वें वहाँसें चले छौं विक्रयाकै शासन और उसके पार्लियामेंटका भी उल्लेख गये। यह देखकर नारदजीने आश्चर्यचकित होकर पृ है। विक्टोरियाको यहाँ विकटावतीके नामसे कहा गया हैं। ‘भगवन् ! वैश्यनें आपकी कुछ भी सेवा नहीं की, परंतु आपने कलियुगके अन्तिम चरणमें नरककै भर जानेकी गाथा भी उसे उत्तम वर दिया, किंतु इसा ब्राह्मणने श्रद्धासे आपकी बहुत मिलती हैं। सभी नरक मनुष्योंसे परिपूर्ण हो जाते हैं सेवा की, फिर भी उसे आपने आशीर्वादके रूपमें शाप ही तथा नकोंमें अनर्गता आ जाती है। अमें मुगके दिमा–ऐसा आपने क्यों किया । भगवान्ने कहा-‘नारद ! सामान्यधर्मक वर्णनके साथ इस पर्सम उपसंहार किया मर्यभर मरमें पकडनेसे जितना पाप होता है, एक दिन हरु गया है।

जोतनेसे उतना ही प्राप्त होता है। वह वैश्य अपने पुत्र-पौत्रके इस पुराणका अन्तिम पर्व है उत्तरपर्व । उत्तरपर्वमें मुख्य साध इसी कुपि-कार्यमें लगा हुआ है। हमने न तो उसके घरमें रूपमें व्रत, दान और उसके वर्णन प्राप्त होते हैं। व्रतकी विश्राम किया और न भोजन हीं किया, इस ब्राह्मणके घरमें आहत भलाका प्रतिपादन यहाँ हुआ हैं। प्रत्येक तिथियों, भोजन और विश्राम किया। इस ब्राह्मणको ऐसा आशीर्वाद मासों एवं नक्षत्रक अन धा इन तिथियों आदिके अधिष्ठातृ दिया कि जिससे यह ज्ञगल्ला न सकर मुक्तिको प्राप्त कर देवताओंका वर्णन, व्रतकी विधि और उसे फलश्रुतियोंका सके। इस प्रकार बातचीत करते हुए वे दोनों आगे बढ़ने लगे। बड़े विस्तारसे प्रतिपादन किया गया हैं। आगे चलकर भगवान्ने नारदजी कान्यकुके सरोवरमें उपके प्रारम्भमें श्रीनारदजींको भगवान् श्रीनारायण पनौ मायासे स्नान कराक एक सुन्दर बीम स्वरूप प्रदान विष्णुमायाको दर्शन कराते हैं। किसी समय नारदमुनिने किया तथा एक राजासे विवाह कराकर पुत्र-पौत्रोंसे सम्पन्न घेतद्धीपमें भगवान् रायणको दनकर उनकी मायाको जगजाकों मायामें लिप्त कर दिया तथा कुछ समय बाद पुनः देखने की इच्छा प्रकट की । नारदजीके बार-बार आम कानेपर नारदजीकों अपने स्वाभाविक रूपमें लाकर भगवान् अत्तहिंत श्रीनारायण नारदजींके साथ जम्बुद्वीपमें आये और मार्गमें एक हो गये। नारदजीने अनुभव किया कि इस मायाकै प्रभाव वृद्ध ब्राह्मणका रूप धारण कर लिया। विदिशा नगरीमें संसारके जीव, पुत्र, लीं, धन आदिमें आसक्त से रोते-गाते हुए धन-धान्यसे समृद्ध, उद्यमी, पशुपालनमें तत्पर, कृषिकार्यको अनेक प्रकारको चेष्टाएँ करते हैं। अतः मनुष्यको इससे । भलीभाँति करनेवाला सौरभद्र नामका एक वैश्य निवास करतो सावधान बना चाहिये। था, वे दोनों सर्वप्रथम उमौके घर गये । उस वैश्यमें उनका इसके बाद संसारके दोयका विस्तारपूर्वक वर्णन किया यथोचित सत्कारका भोजनके लिये पूछा। यह सुनकर वृद्ध गया है। महाराज युधिष्ठिर भगवान् श्रीकृष्णसे प्रश्न करते हैं, ब्राह्मणरूपधारी भगवान्ने हँसकर कहा–’तुमको अनेक ग्रह जीव किस कर्मसे देवता, मनुष्य और पशु आदि ऑनियोंमें पुत्र-पौत्र हों, तुम्हारी खेतों और पशुधनकी नित्य वृद्धि में यह उत्पन्न होता है ? शुभ और अशुभ फलका भोग यह कैसे मेरा आशीर्वाद है।’ यह कहकर ये दोनों वहाँसे चल पड़े। करता है ? इसका उत्तर देते हुए भगवान् श्रीकृष्ण कहते हैं कि , मार्गमें गाके तट पर गाँवमें गोस्वामी नामका एक दरिंद्ध ब्राह्मण उत्तम कमसि देवयोनि, किसे मनुष्ययोनि और पाप कर्म सेपा आदि योनियोंमें जन्म होता है। अर्म और अधर्म अतिदम मनुष्य-जन्म पाते हैं। स्वर्ग एवं मोक्ष देवास निश्चयमें श्रुति हीं प्रमाण है। पापसे पापयन और पुण्यसे मनुष्य-जन्म पाक्न ऎसा कर्म करना चाहिये, जिसमें नाक न | पुफ्ययानि प्राप्त होती है। वस्तुतः संसारमें कोई सुखी नहीं है। देखना पड़े। यह मनुष्य-योनि देवताओं तथा अरोक लिये प्रत्येक प्राणीको एक दूसरे से भय बना रहता है। यह कर्ममय भी अत्यन्त दुर्लभ है। धर्मसे ही मुश्यका जन्म मिलता है।

 

शरीर जमसे लेकर अन्नातक दुःखीं हीं है। जो पुरुष जितेन्द्रिय मनुष्य-जन्म पाकर उसे धर्मकी वृद्धि करनी चाहिये । जो अपने | हैं और मत, दान तथा उपवास आदिमें तत्पर रहते हैं, वे ही कल्याणके लिये धर्मका पालन नहीं करता है, उसके समान । सदा सुखी रहते हैं। तदनन्तर यहाँ भगवान् श्रीकृष्णके द्वारा मुर्ख कौन होगा ? विविध प्रकारके पाप एवं पुण्य कर्मीका फल बताया गया यह देश सभी देशों में उत्तम है। बहुत पुम्यासे प्राणी | है। अधम कर्मको हीं पाप और अधर्म कहते हैं। स्थूल, जन्म भारतवर्ष में होता हैं। इस देशमें जन्म पाकर जो अपने सूक्ष्म, अतिसूक्ष्म आदि भेदोंद्वारों करोड़ों प्रकारके पाप हैं, पर कल्याणके लिये सर्म करता हैं वहीं बुद्धिमान् हैं। जिसने याँ बड़े-बड़े पापका संक्षेपमें वर्णन किया गया हैं। परस्त्रींका ऐसा न किया, उसने अपने आत्मा के साथ वाशना की। चिन्तन, इसका अनिष्ट-चिन्तन और कार्य (कुकर्म) में जबतक यह शरीर स्वस्थ है, तबतक जो कुछ पुण्य बन सके, अभिनिवेश—ये तीन प्रकारके मानस पाप हैं। अनियन्त्रित कर लेना चाहिये, बादमें कुछ भी नहीं हो सकता। दिन-रातके प्रलाप, अप्रिय, असत्य, अनिन्दा और पिता अर्थात् बहाने नित्य आयुके ही अंश खण्डित में रहें हैं। फिर भी चुगली–ये पाँच वाचिक पाप है। अभक्ष्यभक्षण, हिंसा, मनुष्योंको बोध नहीं होता कि एक दिन मृत्यु आ पहुंचेगी और | मिथ्या कामसेवन (असंयमित जीवन व्यतीत करना) और इन सभी सामग्रियों को लेकर अकेले चला जाना पड़ेगा। | परधन-हरण—चे चार मयिक पाप है। इन बाह कर्मोकि फिर अपने हाथसे ही अपनी सम्पत्ति सत्पात्रों को क्यों नहीं बाँट करनेसे नरककी प्राप्ति होती हैं। इसके साथ ही जो पुरुष देते ? मनुष्यके लिये दान ही पाथेय अर्थात् गतेके लिये संसाररूपी सागरसे उदार, नेवा भगवान् सदाशिव अथवा भोजन हैं । ज्ञों दान करते हैं वे सुखपूर्वक जाते है। दान-हीन भगवान् शिंगुसे हेम रते हैं, वे घर नकर्मे पड़ते हैं। मार्गमें अनेक दुःख पाते हैं। भूखे मरने जाते हैं, इन सब ब्रह्महत्या, सुपान, सुवर्णकी चोरों और गुरुपौंगमन-ये बातोंको विचारकर पुण्य कर्म ही करना चाहिये । पुण्य कमसे | चार महापातक हैं। इन पार्कोको करनेवालोंके सम्पर्कमें देवत्व प्राप्त होता है और पाप करने से नरककी प्राप्ति होती है। | रहनेवाला पाँचवाँ महापातकी गिना जाता है। ये सभी नाकमैं जो सत्पुरुष स्क्र्यात्मभावसे ऑपरमात्म-प्रभुको शरणमें जाते है, जाते हैं। इसके अतिरिक्त कई प्रकारके उपपातकका भी वर्णन वै पद्मपत्रपर स्थित जलकी तरह पापोंमें लिप्त नहीं होते, आया है। जिनका फल दुःख और नरकगमन ही है। इसलिये इन्द्रसे छूटकर भक्तिपूर्वक ईभएको आराधना करनी इसलिये बुद्धिमान् मनुष्य दारीरको नश्वर ज्ञानकर चाहिये तथा सभी प्रकारके पापोंसे निरन्तर बचना चाहिये। | लेशमात्र भी पाप न करे, पापसे अवश्य हीं नाक भोगना भगवान् श्रीकृष्ण युधिष्ठिरसे कहते है कि यहाँ भीषया | पड़ता है। पापका फल दु:ख हैं और नकसे बढ़कर अधिक नरकको जों वर्णन किया गया है, उन्हें बत-उपवासरूपी । दुः। कहीं न है। माम मनुष्य कयासकें अनत्त फिर नौकासे पार किया जा सकता हैं । प्राणीको अति दुवा पुयींपर वृक्ष आदि अनेक प्रकार स्थायर-यनमें ज्ञानम् मनुष्य-जन्म कर ऐसा कर्म करना चाहिये, जिससे पश्चात्ताप महण करते हैं और अनेक कष्ट भोगते हैं। अनन्तर कौट, न करना पड़े और यह जन्म भी व्यर्थ न जाये और फिर जन्म पतंग, पक्षी, पशु आदि अनेक योनियोंमें जन्म लेते हुए भी न लेना पड़े। जिस मनुष्य कीर्ति, दान, व्रत, उपवास

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शुविमाप्नोति मिर्मानुषतां व्रजेत् अशुभैः कमजुतर्यम्पनियु, जायते

प्रमाण अतिरंवार अमर्मनि पर्ष पन यं पपेन कगा। इतपत्र g | -15)

 

* ‘भविष्यपुराणएक रिचय

आदिकी परम्परा बनीं है, वह परलोकमें उन्हीं के द्वारा पूर्णिमाकी विशेष महिमा वर्णन, सावित्रीब्रत-कथा, सुख भोगता है। व्रत तथा स्वाध्याय न करनेवालेकौं कहीं भी कृत्तिका-प्रतके प्रसंगमें रानी कलिंगभद्गाको आरम्यान, गति नहीं हैं। इसके विपरीत व्रत-स्वाध्याय करनेवाले पुरुष मनोरम-पूर्णिमा तथा अशक-मूर्णिमा व्रत-विध आदि सदा सुखी रहते हैं। इसलिये मात-स्वाध्याय अवश्य करना विभिन्न ब्रतों और आख्यानका वर्णन किया गया है। चाहिये।

तिथियोंके व्रतों के निरूपणके अनन्तर नक्षत्रों और इस पर्वमें अनेक व्रत की कथा, मात्म्य, विधान तथा मासकें व्रतकथाका वर्णन हुआ है। अनन्तवत-माहात्म्य फलतियोंका वर्णन किया गया है। साथ ही मृतकं कर्तवीर्य आविर्भावका वृत्तान्त आया है। मास-नक्षत्रज्ञतक उद्यापनकी विधि भी बतायी गयी है। एक-एक तिथियोंमें कई माहात्म्यमें साम्रागीकी कथा, प्रायश्चित्तरूप सम्पूर्ण ब्रतका व्रतका विधान हैं। जैसे प्रतिपदा तिथिमें तिलकवत, विधान, वृत्ताक (बैगन) -त्यागवत एवं प्रह-नक्षत्रवतकी अशोकवत, कोकिलाग्नत, बृत्तपोवत आदिका वर्णन हुआ विधि, शनैश्चरम्रतमें महामुनि बैंपलादका आम्यान, हैं। इसी प्रकार जातिस्मर भन्नत, यमद्वितीया, मभूकतृतीया, संक्रान्तिवतके उद्यापन विधि, भद्रा (विष्ट) -त्रत तथा हरावत, ललितातृतीयावत, अवियोगातीयावत, भद्राके आविर्भावकी कथा, चन्द्र, शुक्र तथा बृहस्पतिको अर्घ्य उमामहेश्वरबत, सौभाग्यशयन, अनन्ततृतीया, सकल्पाणिनी देने की विधि आदिके वर्णन हुए हैं। इस पर्वकै १२१ वें तृतीयामत तथा अक्षयतृतीया आदि अनेक व्रत तृतीया तिथिमैं अभ्यासमें विविध प्रकीर्णं व्रतके अन्तर्गत प्रायः ४५ व्रतका हीं वर्णित है। इसी प्रकार गणेशचतुर्थी, श्रीपञ्चमीत-कथा, उल्लेख आता हैं, तदनन्तर माघ-मानको विधान, स्नान, विशोक-वाही, कमलय, मन्दार-वहीं, विजया-सप्तम, तर्पणविधि, रुद्र-स्नानक विधि, सूर्य-चन्द्र-ग्रणमैं मानका मुक्ताभरण-समी, कल्याण-ममम, शर्करा-मममी, माहात्म्य आदिके वर्णन प्राप्त होते हैं। शुभ-सप्तमी तथा अचला-सप्तमी आदि अनेक सप्तमी-व्रताका मृत्युसे पूर्व अर्थात् मरणासन्न गृहस्थ पुरुषको शरीरका वर्णन हुआ है। तदनन्तर बुधाष्टमी, ऑकृष्णजन्माष्टमी, दूर्वाकीं त्याग किस प्रकार करना चाहियें, इसका बड़ा हीं सुन्दर उत्पत्ति एवं दूर्वाष्टमी, अनलाष्टमी, श्रीवृक्षनवमी, ध्यानवमी, विवेचन यहाँ १२६ वें अध्यायमें हुआ है। जब पुरुषको यह आशाशमी आदि मृतका निरूपण हुआ है । द्वादशी तिथिमें मालूम हो कि मृत्यु समीप आ गयीं हैं तो उसे सब ओरसे मन तारकद्वादशी, अण्यद्वादशी, गोवत्सद्वादशी, देवशयनी एवं स्टाकर गरुडध्वज भगवान् विष्णुका अथवा अपने इष्टदेवका देवोत्थान द्वादशी, नींगुञ्जनद्वादशी, मल्लद्वादशी, स्मरण करना चाहिये । झनसे पवित्र होकर श्वेत वस्त्र धारण क्जिय-अयणद्वादशी, गोविन्दादशौं, असापडद्वादशी, करके सभी उपचासे नारायणी नाक्न स्तोत्रोंसे स्तुत कने। धरणींवत (वाराहद्वादशी), विशोकादशी, विभूतिद्वादशी, अपनी शक्तिके अनुसार गाय, भूमि, सुवर्ण, वस्त्र, अन्न मदनदादशी आदि अनेक हादशी-घतोय निरूपण हुआ है। आदिका दान कों और ब. पत्र, मित्र, स्त्री, क्षेत्र, धन-धान्य प्रयोदशी तिथिके अन्तर्गत अबाधक्सन, दौर्भाग्य- तथा पशु आदिसे चित्त हटाकर ममता सर्वथा परित्याग कर दौर्गनाशकवत, धर्मशजका समाराधन-न्नत (यमादर्शन- दें। मित्र, चानु, उदासीन, अपने और परायें लोग उपकार दशी), अनङ्गयोदशीव्रतका विधान और उसके फलके और अक्कापके विषयमें विचार न करता हुआ अपने मनको वर्णन लिखें हैं। चतुर्दशी तिथिमें पालीञ्चत एवं उम्भा- पूर्ण शान्त कर ले। जगह भगवान् विष्णाके अतिरिक्त मेरा। (कदल-) ब्रत, शिवचतुर्दशीव्रतमें महाँ अड्किा कोई अन्धु नहीं है, इस प्रकार सब कुछ बोड़कर सर्वेश्वर आख्यान, अनन्त-चतुर्दम्रत, श्रवणका-व्रत, नक्तवत, भगवान् अच्युत हदयमें धारण करकै निरन्तर वासुदैवकै फलत्याग-चतुर्दशीवात आदि विभिन्न व्रतका निरूपण हुआ नाम स्मरण-कीर्तन करता है और जब मृत्यु अत्यन्त समीप है। तदनन्तर अमावास्यामें श्राद्ध-तर्पणको महिमाका वर्णन, आ जाय तो दक्षिणाम कुशा विकर पूर्व अथवा उनकी ओर पूर्णमासी-बतका वर्णन, जिसमें बैंशास्त्री, कार्तिक और माघी सिरकर शयन करें और परमात्म-प्रभुसे यह प्रार्थना करें कि “हे

 

4 पुराणं परमं पुण्यं भविष्यं सर्वसौम्यादम्

 

जगन्नाथ ! मैं आपका हीं हैं, आप शीघ्र मुझमें निवास कों, वर्णन आया है। सर्वप्रथम दीपदानकी महिमामें रानी वायु एवं आकाशकौं मत मुझमें और आपमें कोई अता न ललिताके आस्यानका तथा वृषोल्सर्गक महिमाका वर्णन हुआ रहें । मैं आपको अपने सामने देख रहा हूँ, आप भी मुझे है । अनन्तर कन्यादानके महत्त्वपर प्रकाश डाला गया हैं। देखें । इस प्रकार भगवान् विष्णुको प्रणाम करें और उनका आभूषणोंसे अलंकृत कन्याकों अपने वर्ण और जातिमें दान दर्शन करें। हो अपने इष्टदेवका अथवा भगवान् विष्णुका करने की अत्यधिक महिमा बतायी गयी है। अनाथ कन्याके | ध्यानकर प्राण त्याग करता है, उसके सब पाप छूट जाते हैं विवाह करनेको भी विशेष फल कहा गया है। इस में और वह भगवान्में लेन में जाता है। मृत्युकालमें यदि इतना घेनुदानम विवाद वर्णन प्राप्त होता है। कई प्रकारको धेनुक करना सम्भव न हो तो सबसे सरल उपाय यह है कि चारों दानका प्रकरण आया है। प्रत्यक्ष घंनु, चिऊधेनु, जलधेनु तरफसे चित्तवृत्ति हटाकर, गोविन्दका स्मरण करते हुए प्राण मृतधेनु, लवणाधेनु, कामधेनु, रत्नधेनु आदिके वर्णन मिलते त्याग करना चाहिये, क्योंकि व्यक्ति जिस-जिस भावसें हैं। इसके अतिरिक्त कपिलदान, महिषौंदान, भूमिदान, स्मरणका प्राण त्याग करता है, उसे वहीं भाव प्राप्त होता हैं। सौवर्णपंक्तिदान, राहदान, अन्नदान, विद्यादान, तुलापुरुषदान, अतः सब प्रकारसे निवृत्त होकर वासुदेवका कारण और हिरण्यगर्भदान, ब्रह्माण्डदान, कल्पवृक्ष-कल्पलतदान, चिन्तन करना ही श्रेयस्कर हैं। इसी प्रसंगमें भगवान के गजरथासरथदान, अपुरुषदान, सप्तसागरदान, चिन-ध्यानके स्वरूपपर भी प्रकाश डाला गया है। जो महाभूतपटद्दान, शय्यादान, हेमस्तिरथदान, विश्वचदान, | साधकों के लिये अत्यन्त उपयोगीं और जानने योग्य हैं। नक्षत्रदान, निधिदान, धान्यपर्वतदान, लवणपर्वतदान, महर्षि मार्कडेयजीके द्वारा चार प्रकारके ध्यान गुमचलदान, होमाचलदान, तिलाचलदान, कापसाचलदान, विवेचन किया गया है-(१) गुन्य, उपभोंग, चायन, भोजन, मृताचलदान, लाचलदान, शैंप्याचलदान तथा शार्कचलदान वाहन, मणि, स्त्री, गन्ध, माल्य, वस्त्र, आभूषण आदिमें यदि आदि दानों की विधियां विस्तारपूर्वक निरूपित हुई हैं। अत्यन्त मोहके कारण उस्क्म चित्तन-मन बना रहता हैं तो भारतीय संस्कृतिमें उत्सर्वोका विशेष महत्व है। विभिन्न यह महान्य आच्च ध्यान कहा गया हैं। इस ध्यानसे निधिपत्र तथा पर्योंपर विभिन्न प्रकारसे उसने मनाया निर्यकु-योनि तथा गतिकी प्राप्ति होती हैं । (३) दया जाता है और सभी असवकों अलग-अलग महिमा भौं है । अभावमें यदि जलाने, मारने, तड़पाने, किसीके ऊपर प्रहार याँ इन उत्सवोंका भी वर्णन हुआ है। होलिकोत्सव, कनेकों इच्छ रहती हों, ऐसी क्रियाओंमें जिसका मन लगा हों, दीपमालिकोत्सव, रक्षाबन्धन, महानवमी-उत्सव, इन्द्र उसे ‘शैइ ध्यान कहा गया है। इस ध्यानसे नक प्राप्त होता वजोत्सव आदि मुख्य रूपमें वर्णित हैं। होलिकोत्सवमें हैं। (३) वेदाधक चिंत्तन, इन्द्रिय उपशमन, मोक्षक द्रोद्धाकी कथा मिलती है। इन सबके अतिरिक्त कोटिहोम, चिता, प्रणियोंके कल्याणकी भावना आदि करना ‘धर्म्य नक्षत्रोंम, गणनाथशत्ति आदिके विधान भी दिये गये हैं। ध्यान है। ‘धर्म्य ध्यानसे स्वर्गको अथवा दिव्यलों की प्राप्ति भविष्यमाणमें व्रत और दान आदि प्रकरणमें ज़ों होती है । (४) समस्त इन्द्रियोंका अपने-अपने विषयोंसे निवृत्त फलनियाँ दी गयी है, वे मुख्यतः इहलोक तथा परलोक में हो जाना, हृदयमें इष्ट-अनिष्ट—किसी भी चिंत्तन नहीं होना झोंकी निवृत्ति तथा भोगैश्चर्य और वर्ग आदि लोकों और आत्मस्थित होकर एकमात्र परमेश्वर चिंतन करते हुए प्राप्तिसे ही सम्बन्धित हैं। सामान्यतः मनुष्यको जीवनमें दो बातें मात्मनष्ट हो जाना—यह ‘शु’ भयानका स्वरूप हैं। इस प्रभावित करती हैं-एक तो दुःखोंका भय और दूसरा सुखका ध्यानसे मोक्षकी प्राप्ति अथवा भगवत्प्राप्ति हो जाती हैं। प्रलोभन । इन दोनोंके लिये मनुष्य कुछ भी कहनेको तत्पर इसलिये ऐसा प्रयत्न करना चाहिये कि कल्याणकारी शरू रहता है। परमात्म-अभुमें हमारी आस्था एवं विश्वास जाग्रत् हो ध्यानमें हौं चित स्थिर हो जाय। और हमारे सम्बन्ध भगवानसे स्थापित हों, इसके लिये अपने इस प्रकरणके बाद दानकी महिमा एवं विभिन्न असवका शास्त्रों और पुराणोंमें लौकिक तथा पारलौकिक कामना सिसिके लिये फलश्रुतियाँ विवरूपसे प्रदर्शित हुई हैं। सम्बन्धमें भी यही बात है। अतएव श्रद्धा एवं निष्ठाको दृष्टिमैं वास्तवमें दु:के भय तथा स्वर्ग आदि सुरुखोंके प्रलोभनमें साधकके कल्याणार्थ जहाँ जिसका वर्णन है, वहाँ उसको जब मानव एक बार ब्रत, दाम आदि सत्कर्मोकी ओर प्रवृत हों सर्वोपरि बताना युक्तियुक्त ही हैं और परिपूर्णतम भगवसताको जाता है और उसमें उसे सफलताके साथ आनन्दकी अनुभूति इष्टिमें सत्य तो है हो । तौकी बात यह है कि भगवान होने लमाती हैं तो आगे चलकर यह सत्कर्म भी उसका स्वभाव विभिन्न नाम-रूकी उपासना करनेवाले संतों, मामाओं और व्यस्न बन जाता है और जब भी भगवत्कृपासे सत्संग भने अपनी कल्यागमयी सरसाधनाके तापसे विभिन्न | आदिके द्वारा उसे वास्तविक तत्वका ज्ञान हो जाता है अथवा रूपमय भगवान अपनी-अपनी रुचिके अनुसार नाम-रूपमें मानव-वनके मुख्य उद्देश्यों वह ज्ञान लेता है तो फिर अपने ही साधन-स्थानमें प्राप्त कर लिया और वहीं उनकी भगवत्प्त में देर नहीं लगतीं । वस्तुतः मानव-जीवनका मुख्य प्रतिष्ठा कौं। एक हीं भगवान् अपनी पूर्णतम स्वरूपशक्तिके उद्देश्य भगवत्प्राप्ति में हैं और भगवत्प्राप्ति निष्काम उपासनासे साथ अनन्त स्थानमें, अनन्त नाम-रूपोंमें प्रतिष्ठित हुए। ही सम्भव है। अझै व्रत-दान आदि प्रकरणमैं ज़ों फलश्रुति भगवान प्रतिष्ठास्थान हीं तीर्थ हैं, जो श्रद्धा, निष्ठा और आयी हैं, वे लौकिक एवं पारल किक कमनाक सिद्धिमैं संचके अनुसार सेवन करनेवाले यथायोग्य फर देते हैं, तौं समर्थ है हीं, यदि निष्कामभावसे भगवतप्रीत्यर्थ इनका यहीं तीर्थ-रहस्य है। इस दृष्टिले प्रत्येक तीर्थक सर्वोपरि अनुष्ठान किया जाय तों में जन्म-मरणके अन्धनसे मुक्त कर बताना सर्वथा उचित ही है। | भगवत्प्राप्ति कानेमें भी पूर्ण समर्थ हैं। अतः कल्याणक्यम सब एक हैं, इसकी पुष्टिं तो इससे भलीभाँति हैं आती पुस्योंकों ये व्रत-दान आदि कर्म भगवत्यर्थ निष्कामरूपमें हीं है कि व कहे जानेवाले पुराणों में विष्णु और वैष्णवपुराणमें करने चाहिये।

शिवकी महिमा गायी गयी हैं तथा दोनों एक बताया गया | एक बात और पान देनेकी हैं, जो बुद्धिवाद अंगकी हैं। इसी कार अन्य प्राण-चिशेयके विशिष्ट प्रधान देवने दृष्टिमें प्रायः खटकती है—वह यह कि पुराणोंमें जहाँ जिस अपने ही श्रीमुखसे अन्य पुराणोंके प्रधान देवताको अपना ही देवता, बत, दान और तीर्थक महत्व बताया गया है, वहीं स्वरूप बताया है। यह भविष्यपुराण सौरपुराण हैं, जिसमें उसमें सर्वोपरं माना है और अन्य सबके द्वारा उसकी स्तुतिं भगवान् सूर्यनग्रयणकी अनत्त हिमाका बर्णन प्राप्त होता हैं। क्यों गयीं हैं। गाईको विचार न करनेपर, यह बात परंतु इस पुराणके अन्तमें अध्याय ३५ में सदाचारको विचित्र-सौ प्रतीत होती हैं, परंतु इसका तात्पर्य यह है कि निरूपण हुआ है। इसमें यह बात आयीं हैं-भगवान् भगवान्का यह लीलाभिनय ऐसा आश्चर्यमय है कि इसमें एक श्रीकृष्ण युधिष्ठिरसे कहते हैं—हमने वातौंमैं अनेक ही परिपूर्ण भगवान् विभिन्न विचित्र लीलाव्यापारके लिये और देवताओंका फूजन आदि कहा, परंतु वास्तवमें इन देवोंमें कोई विभिन्न कृचि, स्वभाव तथा अधिकारसम्पन्न साधकोंके भेद नहीं । जो ब्रह्मा है, वहीं विष्णु, जो विष्णु हैं वहीं शिव हैं, कल्याणके लिये अनन्त विचित्र रूपोंमें नित्य प्रकट है। जो शिव हैं वहीं सूर्य हैं, जो सूर्य हैं वहीं अग्नि, जो अग्नि हैं भगवान्के ये सभी रूप नित्य, पूर्णतम और सच्चिदानन्दस्वरूप यहीं कार्तिकेय, जो कर्तकय हैं वहीं गणपति अर्थात् इन है, अपनी-अपनी रुचि और निष्ठाके अनुसार ज़ों जिस रूप देवताओमें कोई भेद नहीं । इसी प्रकार गौरी, लक्ष्मी, सावित्री और नामक इष्ट नाम भजता है, वह उसी दिव्य नाम और आदि शक्तियोंमें भी भेदका लेश नहीं। चाहे जिस रूपमें समस्त रूपमय भगवानको प्राप्त कर लेता है, क्योंकि देवी-देवताके उद्देश्यसे व्रत करें, पर भेद न रखें, क्योंकि भगवान्के सभी रूप पूर्णतम हैं और इन समस्त रूप में एक सब जगत् शिव-शक्तिमय है। हो भगवान् लीला कर रहे हैं। व्रत तथा दान आदिके किसी देवताका आश्रय लेकर नियम-व्रत आदि को,

 

यों मझा  प्रोको यो : से मोअरः मनः कृतः मृर्षः पङ्ग जुध्यते

* पुराणं परमं पुण्यं मयियं सर्वसम्पदम्

 

परंतु जितने व्रत-दान आदि बताये गये हैं, वे सब आचारयुक्त व्यर्थ हैं। आचार ही धर्म और कुल मूल हैं-जिन पुरुषोंमें पुरुषके सफल होते है। आचाहींन पुरुषों वेद पवित्र नहीं आचार होता है ये ही सत्पुरुष कहते हैं। सत्पुरुषका जो करते, चाहे उसने झों सहित क्यों न पड़ा छे । जिस भौत आचरण है, उसका नाम सदाचार है। जो पुरुष अपना । फ्छ जमनेपर, पक्षियोंके बच्चे घोंसले को लेकर उड़ जाते हैं, कल्याण चाहे उसे अवश्य ही सदाचारी होना चाहिये। उसी भाँतं आचारहीन पुरुषकों वेद भी युके समय त्याग देंतें भविष्यपुराणमें इन्हीं सब विषयका प्रतिपादन बड़े हैं । जैसे अशुद्ध पात्रमें जल अथवा श्वानके चर्ममें दुग्ध हुने समारोहसे सम्पन्न हुआ है। पाठकोंकी सुविधाके लिये अपवित्र हो जाता है, उसी प्रकार आचाहींनमें स्थित शास्त्र भी का एक विहङ्गमावलोकन यहाँ प्रस्तुत किया गया है।

 

-रामेश्याम मका अक्ष्युपनिषद्

| ( नेत्ररोगहारी किया ) हरिः ॐ ।

अर्थ है सागवानादित्यक जगाम ।

स आदित्य चत्वा चसुमतीविया तमस्तुवन् ।

ॐ नमो भगवते सूर्यायातेिजसे नमः ।

ॐ खेचराय नमः । ॐ महानाय नमः । ॐ नमसे नमः । ॐ असे नमः । ॐ मत्थाय नमः।

असतो मा सद् गमय । तमसो मा ज्योतिर्गमय।

मृत्योर्मामृतं गमय । होमो भगवाझुचिपः अप्रतिरूपः ।

विश्वरूप अगिर्न जातवेदसं हिरण्मयं यतीक तपशम् ।

सरश्मिः शतमा वर्तमानः पुरः प्रज्ञानामुदयत्येव सूर्यः

। ॐ नमो भगवते श्रीसूर्यापादित्यायाक्षिसेवानि वाहिनि स्वाति।

एवं चक्षुष्मनीविया तुतः श्रीसूर्यनारायणः सुग्रीतोयीसुमनीवियां ब्राह्मणो यो नित्यमयीने न तस्यासिरोगे पयति ।

न तस्य कृलेश पवति ।

अझै प्रणान् माइयित्वाञ्च विवासिर्भिवति ।

य एवं वेद स महान् भवति ।

एक समय भगवान् साङ्कति आदित्यलोकमें गये ।

 

यहाँ सूर्यनारायणको प्रणाम करके उन्होंने चक्षुष्मती विद्याके द्वारा उनकी स्तुति की।

चक्षु-इन्द्रियके प्रकाशक भगवान् सूर्यनारायणको नमस्कार है।

आकाशमें विचरण करनेवाले सूर्यनारायण नमस्कार है।

महासेन ( सहसों किरणों की भारी सेनावाले ) भगवान् श्रीसूर्यनारायण नमस्कार है।

तमोगुणरूपमें भगवान् सुर्यनारायणको नमस्कार है ।

जोंगुणरूपमें भगवान् सूर्यनारायणको नमस्कार है।

सत्त्वगुणरूपमें भगवान् सूर्यनारायण नमस्कार है।

भगवन् ! आप मुझे असत्से सत्की ओर ले चलिये,

मुझे अन्धकारसे प्रकाशकी ओर ले चलिये, मुझे मृत्युसे अमृतकी और ले चलिये।

 

भगवान् सूर्य शुचिरूप हैं और वे अप्रतिरूप भी हैं उनके रूपकी कहीं भी तुलना नहीं हैं।

जो अलि रूपको धारण कर रहे हैं तथा रश्मिमालाओं से मण्डित है, उन जातवेदा ( सर्वज्ञ, ग्निस्वरूप ) स्वर्णसदृश प्रकाशवाले ज्योतिःवरूष और तपनेवाले ( भगवान् भास्करको इम स्मरण करते हैं। ये सहस्रों किरणोंवाले और शत-शत प्रकार से सुशोभित भगवान् सूर्यनारायण समस्त प्राणियोंकि समक्ष ( उनकी भलाई के लिये ) उदित हो रहे है। जो हमारे नेक प्रकाश है, उन अदितिनन्दन भगवान् श्रीसूर्यको नमस्कार है । दिनका भार वहन करनेवाले विश्वथाहक सूर्यदेवके प्रति हमारा सब कुछ सादर समर्पत है। | इस प्रकार चक्षुष्मर्तीवियाकें द्वारा स्तुति किये ज्ञानेंपर भगवान् सूर्यनारायण आयत प्रसन्न होकर बोले- ब्राह्मण इस चक्षुष्मतीविद्याका नित्य पाठ करता है, इसे आँका गैंग नहीं होता, उसके कुलमें कोई अंधा नहीं होता। आठ साह्मणको इसका मण का देनेफर इस विद्याकी सिद्धि होती है। जो इस प्रकार जानता है, वह महान् को जाता है।

 

पायकः कि विमाकः सानि शर्मिदाः प्रताः देव देव सभ्य यः कति बर्त नः भेदस्ता मतव्यः शिवशक्तिमयं जगत् ।। (ताई २०५। ६११३)

 

परमात्मने नमः

 

श्रीगणेशाय नमः ॐ नमो भगवते वासुदेवाय संक्षिप्त भविष्यपुराण ब्राह्मपर्व | व्यास-शिष्य महर्षि सुमन्तु एवं राजा शतानीकका संवाद, भविष्यपुराणकी महिमा एवं परम्परा, सृष्टि-वर्णन, चारों वैद, पुराण एवं चारों वर्गों की उत्पत्ति, चतुर्विध सृष्टि, काल-गणना, युगौंको संख्या, उनके धर्म तथा संस्कार नारायणं नमस्कृत्य नरं चैव नरोत्तमम् ।।

एक समय व्यासज्ञके शिष्य महर्षि सुमनु तथा वसिष्ठ देवी सरस्वनी यासं ततो जयमुदीरयेत् ॥

पराशर, जैमिनि, याज्ञवल्क्य, गौतम, बैशम्पायन, शौनक, ‘बर्दाका श्रमनिवासी प्रसिद्ध ऋषि नारायण तथा ऑनर अग्नि और भारद्वाजादि महर्षिगण पाववंशामें समुत्पन्न (अन्तर्यामी नारायणस्वरूप भगवान् श्रीकृष्ण तथा उनके महाबलशाली राजा शतानीककी सभामें गये। रामाने उन नित्य-सच्चा नस्वरूप नरहु अर्जुन, उनकी हा प्रकट ऋषियका अदिसे विधियत् स्वागत-सत्कार किया और करनेवाली भगवती सरस्वती और उनकी लीओके वक्त हें नम आसन पर बैठाया तथा भलीभाँति उनका पूजन कर मात्र वैदव्यासको नमस्कार का जय-आसरी सम्पत्तयका विनयपूर्वक इस प्रकार प्रार्थना की-हे मात्मा । नाश करके अन्तःकरणपर दैवी सम्पत्तियाँको विजय प्राप्त आपलोगोंके आगमनसे मेरा जन्म सफल हो गया। करानेवाले वाल्मीकीय रामायण, महाभारत एवं अन्य सभीं आपलोगोंके स्मरणमात्र ही मनुष्य पवित्र हो जाता है, फिर इतिहास-पुराणादि सद्ग्रन्थों-का पाठ करना चाहिये। आपलोग मुझे दर्शन देनेके लिये यहाँ पर हैं, अतः आज्ञ

जर्यात पराशनः सत्यवतीदयनन्दनों व्यासः।

मैं धन्य हो गया। आपकोग कृपा करके मुझे न पवित्र एवं अस्यास्यकमगलित वाङ्मयममृते जगत् पिबति ॥

पुण्यमय धर्मशारुकी कथाओंकों सुनायें, जिनके सुननेसे मुझे ‘पराशरके पुत्र तथा सत्यवतीक हृदयको आनन्दित परमगतिकी प्राप्ति हों। करनेवाले भगवान् व्यासक जय हो, जिनके मुखकमलसे ऋषियोंने कहा है राजन् ! इस विषयमें आप हम निःसृत अमृतमयी वाणीका यह सम्पूर्ण विश्व पान करता है। सबके गुरु, साक्षात् नारायणस्वरूप भगवान् वेदव्यासले बों गोवारी कनकमयं इति निवेदन करें। ये कृपालु हैं, सभी प्रकारके शास्त्रोके और विप्राय वेदविद्ये च बहुक्षुताय विद्याओंके ज्ञाता है। जिसके श्रवणमात्रमें मनुष्य सभी पुग्यो भविष्यमुकयां अणुयात् समां तकोंसे मुक्त हो जाता है, उस ‘महाभारत’ ग्रन्थके रचयिता मुवं समं भवति तस्य च तस्य चैव भी यहीं है। “वेदादि शास्त्रों के ज्ञाननेवाले तथा अनेक विषयोंके मर्मज्ञ राजा शतानीकने ऋषियोंके कथनानुसार सभी शास्त्रोके विद्वान् ब्राह्मणों वर्णबटित सींगवालीं सैकड़ों गौओंको दान जाननेवाले भमवान् वेदव्याससे प्रार्थनापूर्वक जिज्ञासा देनेमें जो पुण्य प्राप्त होता है, ठीक उतना ही पुण्य इस भविष्य- औ–भो ! मुझे आप अर्ममयी पुण्य-कथाओंका श्रवण महापुराण उत्तम कथाओंके श्रवण करनेमें प्राप्त होता हैं।’ करायें, जिससे मैं पवित्र हो जाऊँ और इस संसार-सागरसे मेरा

 

] में हमें सिम्ताएको

-‘याशम्फमें पाया पापः कई पुराणोंमें आयी है। भविपके लापर्धके चौथे अध्याय (श्लोक ८६ में समझाया गया है, वहीं देना चाहियें।

 

  • पुराणं परमं पुण्यं भविष्यं सर्वसौख्यदम् +

[ संक्षिप्त भविष्यपुराणाङ्क

उद्धार हो जाय

ब्रह्मवैवर्त, लिङ्ग, वाराह, स्कन्द, वामन, कूर्म, मत्स्य, गरुड़ तथा | व्यासजीने कहा-‘जन् ! बहु मेग्र शिष्य सुमन्तु ब्रह्माण्ड-ये असरह महापुराण हैं। ये सभी चारों वर्णोक लिये महान् तेजस्व एवं समस्त शाका ज्ञाता है, यह आपकौं उपकारक हैं। इनमेसे आप पा सुनना चाहते हैं ? जिज्ञासाको पूर्ण करेगा।’ मुनयने भी इस बातका अनुमोदन राजा शतानीकने कहा है विप्र । मैंने मह्मभारत सुना किया। तदनन्तर गुजा शतानीकने महामुनि मुमन्तुसे उपदेश हैं तथा ऑरामकथा भी सुनी हैं, अन्य पुराणोंको भी सुना है, किंतु करने के लिये प्रार्थना की है द्विजनेनु ! आप कृपाकर उन भविष्यपुराण नहीं सुना है। अतः विपश्रेष्ठ ! आप भविष्य पुण्यमयी कथामा वर्णन करें, जिनके सुननेसे सभी पाप नष्ट पुराणको मुझे सुनायें, इस विषयमें मुझे महत् मैतहरू है। हो जाते हैं और शुभ फलोंकी प्रामिं होती हैं।

सुमनु मुनि बोले-ग्रन्! आपने बहुत उत्तम बात | महामुन सुमन्तु बोले—जन् ! धर्मशास्त्र सबको पूछी है। मैं आपको भविष्यणक कथा सुनाता है, जिसके | पवित्र करनेवालें हैं। उनके सुनने से मनुष्य सभी पापोंसे मुक्त श्रवण करनेसे ब्रह्माहत्या आदि बड़े-बड़े पाप नष्ट हो जाता है। अताओं, तुम्हारी क्या सुनने इच्छा है और अश्वमेधादि यज्ञोंका पुण्यफल प्राप्त होता हैं तथा अन्नमें | राधा तानीकने का—ब्राह्मणदेव ! ये कौनसे सूर्यलोककी प्राप्ति होती हैं. इसमें कोई संदेह नहीं। यह उत्तम धर्मशास्त्र हैं, जिनके सुननेसे मनुष्य पापोंसे मुक्त हो जाता है। पुराण पहले ब्रह्माजद्वारा कहा गया हैं। विद्वान् ब्राह्मणको सुमन्तु मुनि बोले–राजन् ! मनु, विष्णु, यम, अहिरा, इसका सम्यक् ययनकर अपने शिष्यों तथा चारों के वसिष्ठ, दक्ष, संवतं, शातातप, पराशर, आपस्तम्व, उझाना, लिये उपदेश करना चाहिये। इस पुराणमें श्रौत एवं स्मार्त सभी कास्पायन, बृहस्पति, गौतम, शङ, लिखित, हारीत तथा अनि धमका वर्णन हुआ है। यह पुण्ण परम मङ्गलप्रद, सद्धि आदि ऋषियोंद्वारा रचित मन्वादिं बहुत-से धर्मशास्त्र हैं। इन बढ़ानेवाला, यश एवं कति प्रदान करनेवाला तथा धर्मशास्त्रको सुनकर एवं उनके रहस्योंको भलीभाँति परमपद-मोक्ष प्राप्त करानेवाल है वृदयङ्गमकर मनुष्य देवलोकमें जाकर परम आनन्द प्राप्त इदं स्वत्यषनं अमिदं बुद्धिविवर्धनम् । करता है, इसमें कोई संदेह नहीं हैं।

 

इदं यास्यं सततमिदं निःश्रेयसं परम्

शतानीकने कहाप्रभो !

जिन धर्मशास्त्रोंको आपने (मार्च १ 1) कहा हैं, इहें मैंने सुना हैं। अब इन्हें पुनः सुननेक इच्छा नहीं । इस भविष्यमहापुराणमें सभी धर्मोका संनिवेश हुआ है हैं। कृपाकर आप चारों वर्गो कल्याणके लिये जो उपयुक्त तथा सभी कमक गुणों और दोपके फोंका निरूपण किया धर्मशास्त्र हों उसे मुझे बतायें।

| गया है। चा] वणों तथा आश्रमोके सदाचारका भी वर्णन सुमन्तु मुनि बोले-हे महाबाहों ! संसारमें निमग्न किया गया है, क्योंकि सदाचार ही श्रेष्ठ धर्म है ऐसा श्रुतियोंने प्राणियोंके उद्धार के लिये अठारह महापुराण, रामकथा तथा कहा है, इसलिये ब्राह्मणको नित्य आचारका पालन करना महाभारत आदि सद्ग्रन्थ नौकारूपों साधन हैं। अठारह चाहिये, क्योंकि सदाचारसे विहाँन माह्मण किसी भी प्रकार महापुराणों तथा आठ प्रकारके व्याकरणोंको भलीभाँति वेदके फल प्राप्त नहीं कर सकता। सदा आचारका पालन समझकर सत्यवतींके पुत्र बॅदव्यासजीने ‘महाभारतसंहिता की करनेपर तो वह सम्पूर्ण फलोंका अधिकारी हो जाता है, ऐसा रचना की, जिसके सुननसे मनुष्य ब्रह्महत्या पापसे मुक्त हो कहा गया हैं। सदाचारको ही मुनियोंने धर्म तथा तपस्याका जाता है। इनमें आठ प्रकारके व्याकरण ये हैं ब्राह्म, ऐन्द्र, मूल आधार मान्ना है, मनुष्य भी इसका आश्चय लेकर याम्प, रौद्, वायव्य, वारुण, सावित्र्य तथा वैष्णव । अझ, पद्म, धर्माचरण करते हैं। इस प्रकार इस भविष्यमहापुराणमें विष्णु, शिव, भागवत, नारदीय, मार्कण्डेय, मि, भविष्य, आचारका वर्णन किया गया है। तीनों लोकोंकी उत्पत्ति,

 

*आचापः अमो भवः अपुती नतम तस्मादस्मिन् समापुरचे नित्य सामान बिजः ।।

= व्यासशिष्य महर्षि सुमन्तु पुर्व राजा शतानीकका संवाद, भविष्यपुराणकी महिमा :

 

विवाह संस्कार-विधि, स्त्री-पुरुषोके लक्षण, देवपूजाका हैं तात ! पूर्वममें वह सारा संसार अन्धकारमें व्याप्त विधान, राजाओके धर्म एवं कर्तव्यका निर्णय, सूर्यनारायण, था, कोई पदार्थ दृष्टिगत नहीं होता था, अज्ञेय था, अतक्र्य विष्णु, रुद्, दुर्गा तथा सत्यनारायणका माहात्म्य एवं पूजा- था और असुप्त-सा था। उस समय सूक्ष्म अतीन्द्रिय और विधान, विविध तीर्थों का वर्णन, आपद्धर्म तथा प्रायश्चित- सर्वभूतमय उस परब्रह्म परमात्मा भगवान् भास्करने अपने विधि, संध्यावधि, स्नान, तर्पण, वैश्वदेव, भोजनविधि, शारिरसे नानाविध सृष्टि करनेकी इच्छा की और सर्वप्रथम जातिधर्म, कुलधर्म, वैदधर्म तथा यज्ञ-मण्डलमें अनुष्ठित परमारमाने अरसे उत्पन्न किया तथा उसमें अपने वीर्यरूप होनेवाले विविध यज्ञका वर्णन हुआ है। शक्तिका आधान किया। इसमें देयता, असुर, मनुष्य आदि कुरुश्रेष्ठ शतानीक ! इस महापुराणको ब्रह्माजीने सम्पूर्ण जगत् उत्पन्न हुआ। वह वीर्य जालमें गिरनेसे अत्यन्त शंकरकों, शंकरने विष्णुको, विष्णुने नारदको, नारदने इन्द्रकों, प्रकाशमान सुवर्णका अण्ड हो गया। इस अण्डके मध्यसे इन्द्रने पगारको तथा पशग्ने व्यासको सुनाया और व्याससे सृष्टिकर्ता चतुर्मुख लोकपितामह ब्रह्माजी उत्पन्न हुए । में प्राप्त किया। इस प्रकार परम्परा-प्राप्त इस उत्तम नर (भगवान्) में जलकी उत्पत्ति हुई हैं, इसलिये को भविष्यमहापुराणको मैं आपसे कहता है, इसे सुने । नार कहते हैं। वह नार जिसका पहले अयन (स्थान) हुआ, | इस भविष्यमामुराणकी लोक-संध्या पचास हजार है। उसे नारायण कहते हैं। ये सदसदुप, अव्यक्त एवं नित्यकारण इसे भक्तिपूर्वक सुननेवाल्म ऋद्धि, वृद्धि तथा सम्पूर्ण हैं, इनसे जिस पुल्य-विशेषको सृष्टि हुई, वे लेकमें ब्रह्माके सम्पत्ति प्राप्त करता है। ब्रह्माजीद्वारा प्रोक्त इस महापुराणमें नामसे प्रसिद्ध हुए। ब्रह्माजीने दीर्घकालनक तपस्या की और पाँच पर्व कहे गये हैं-(१) ब्राहा. (३) वैष्णव, उस अण्डके दो भाग कर दिये । एक भागसे भूमि और दूसरे में (३) वय, (४) वाष्ट्र तथा (५) प्रतिसर्गपर्व । पुराणके सर्ग, आकाकाकी रचना की, मध्यम वर्ग, आठों दिशाओं तथा प्रतिसर्ग, वंश, मन्यार तथा वंशानुचरित—ये पाँच लक्षण वरुणका निवास स्थान अर्थात् समुद्र बनाया। फिर महदादि बताये गये हैं तथा इसमें चौदह विद्याओंका भी वर्णन हैं। तत्वोंकी तथा सभी प्राणियोंकी रचना की ।। चौदह विद्याएँ इस प्रकार हैं-चार वेद (ऋक्, पशुः, साम, परमात्माने सर्वप्रथम आकाशकों उत्पन्न किया और फिर अथर्व), छः वेदाङ्ग (शिक्षा, कल्प, निरुक्त, व्याकरण, छन्द, क्रमसें वायु, अग्नि, जल और पृथ्व-इन तत्वोंकी रचना ज्योतिष), मीमांसा, न्याय, पुराण तथा धर्मशास्त्र । आयुर्वेद, हैं। सुष्टिके आदिमें ही ब्रह्माजींने उन सबके नाम और कर्म धनुर्वेद, गान्धर्ववेद तथा अर्थशास्त्र- इन चारोंको मित्रानेसे वेदोंके निर्देशानुसार ही नियत कर उनकी आमा-अलग अठारह विद्याएँ होती हैं।

संस्था बना दी। देवताओं के तुषित आदि गण, ज्योतिष्ट्रॉमाद सुमन्तु मुनि पुनः बोले-हे जन् ! अब मैं भूतसर्ग सनातन अश, ग्रह, नक्षत्र, नदी, समुद्र, पर्वत, सम एवं विषम अर्थात् समस्त प्राणियोंकी उत्पत्तिका वर्णन करता हैं, जिसके भूमि आदि उत्पन्न कर कालके विभागों (संवत्सर, दिन, मास सुनने से सभी पापोंकी निवृत्ति हो जाती हैं और मनुष्य परम आदि)और ऋतुओं आदिकी रचना की। काम, क्रोध आदिको शान्तिको मम करता है। इचनाकर विविध कमक सदसवयेके लिये धर्म और

भावादियुत विभा न बदम। भारत का संयुक्तः सम्पूर्णलाभक मतः ।। चमचारतो वृद्धा मय माग गतिम् । म तपसी मुरमापार भागः परम् ॥ अन्ये च माना गजानं मलाः सदा । यस्मन् पुराणे तु आचारस्य न पेर्तनम् ॥ (अपचं १ । १-८) वर्तमान मामबमें भविष्य में संस्करण उपर है, उसमें झा, मध्यम, प्रतिमर्ग तथा जन नामक चार मुर्गं मिलते हैं और । इक-मंग्या भी नाम हमारके प्रधानपार लगभग अट्ठाईस हजार है। इसमें भी कुछ अंश अग्नि माने जाते हैं।

 

२- सा प्रतिसह वंश मन्चन च ॥

 

बंशानुपांतं चैव पुराणं पागम् पशभित्रभिभूपितं

* पुराणं परमं पुण्यं भविष्यं सर्वसौख्यदम् +

 

[ संक्षिप्त भविष्यपुराणाङ्क अधर्मकी रचना की और नानाविध प्राणिजगत्कौं सष्टिकर, धूमकेतु (पुच्छल तारे), उत्का, निर्घात (बादलोंकी उनको सुख-दुःख, हर्ष-शक आदि दोंसे संयुक्त किया। जो गड़गड़ाहट) और बेटे-बड़े नक्षत्रोंको उत्पन्न किया। मनुष्य, कर्म जिसने किया आ तदनुसार उनकी (इन्द्र, चन्द्र, सूर्य किंनर, अनेक प्रकारके मत्स्य, वराह, पक्षी, हाथी, घोड़े, पशु, आदि) पदोंपर नियुक्ति हुई। हिंसा, अहिंसा, मद, झर, धर्म, मृग, कृमि, कट, पतंग आदि बटे-ब जीवोंको उत्पन्न अधर्म, सत्य, असत्य आदि जर्वोक्का जैसा स्वभाव था, यह किया। इस प्रकार उन भास्करदेवने त्रिलोकींकी रचना की। वैसे ही उनमें प्रविष्ट हुआ, जैसे विभिन्न ऋतुओंमें वृक्षोंमें पुष्प, हे राजन् ! इस सृष्टिकी रचनाक, मुष्टिमें जिन-जिन फल आदि उत्पन्न होते हैं। जीवोंका ज़ों-जों कर्म और क्रम कहा गया है, उसका मैं वर्णन | इस मेककीं अभिवृद्धिके लिये ब्रह्माजींने अपने मुख करता हैं, आप सुने ।

झाह्मण, बाहुओंमें क्षत्रिय, ऊक अर्थात् ज॑षामें वैश्य और हाथी, न्याल, मृग और विविध पशु, पिशाच, मनुष्य चरणसे शुडोको उत्पन्न किया । ब्रह्माजीके चारों मुखोंसे चार तथा राक्षस आदि जरायुज (गर्भसे उत्पन्न होनेवाले) प्राणी हैं। वेद उत्पन्न हुए। पूर्व-मुखसे ऋग्वेद प्रकट हुआ, उसे वसिष्ठ मत्स्य, कावे, सर्प, मगर तथा अनेक प्रकारके पक्षी अण्डज़ मुनिने प्रण किया। दक्षिण-मुझसे जुर्वेद उत्पन्न हुआ, उसे असे उत्पन्न होनेवाले हैं। ममी, म, ३, बटमल महर्षि याज्ञवल्याने ग्रहण किया। पश्चिम-मुखसे सामवेद आदि जीव दवा हैं अर्थात् पसीनेक उष्मासे उत्पन्न होते हैं। निःसृत हुआ, उसे गौतमऋषिने धारण किया और उत्तर- भूमिको उद्भेद कर उत्पन्न होनेवाले वृक्ष, ओषधियाँ आदि मुखसे अथर्ववेद प्रादुर्भूत हुआ, जिसे लोकपूजित महर्षि द्धज सृष्टि हैं। जो फलके पकनेतक रहें और पीछे सूख शौनकने ग्रहण किया। ब्रह्माजके लोकप्रसिद्ध पञ्चम (ऊर्ध्व) जायें या नष्ट हो जायें तथा बहुत फूल और फलवाले वृक्ष हैं मुखमै अठारह पुराण, इतिहास और शमादि स्मृति-शास्त्र उत्पन्न वें ओषधि कहलाते हैं और जो पुमके आये बिना ही फलों हैं, वे वनस्पति हैं तथा जो फूलतें और फलते हैं उन्हें वृक्ष इसके बाद ब्रह्माजींने अपने देहके दो भाग किये । दाहिने कहते हैं। इसी प्रकार गुल्म, वल्ली, वितान आदि भी अनेक भागको पुरुष तथा बायें भागको स्त्री बनाया और उसमें विद्, भेद होते हैं। ये सब श्रीजसे अथवा काण्डको अर्थात् वृक्षकों पुरुषको सृष्टि की। उस विराट् पुरुषने नाना प्रकार की सृष्टि छोटी-सी शाखा काटकर भूमिमें गाड़ देनमें उत्पन्न होते हैं । ये चनेकी इच्छासे बहुत काल्तक तपस्या की और सर्वप्रथम वृक्ष आदि भी चेतना-शक्तिसम्पन्न हैं और इन्हें सुख-दु:खा दस ऋषियोंकों उत्पन्न किया, जो जापति कहलाये। उनके ज्ञान रहता है, परंतु पूर्वजन्मके कर्मोकं कारण तमोगुमसे नाम इस प्रकार हैं–(१) नारद, (३) भुगु, (३) वसिष्ठ, आच्छन्न रहते हैं, इस कारण मनुष्योंकी भाँत बातचीत आदि (४) प्रचेता, (५) पुलह, (६) क्रतु, (३) पुलस्त्य, कानमें समर्थ नहीं हो पाते। (८) अत्रि, (६) ऑङ्ग और (१०) मचि । इसी प्रकार इस प्रकार यह अचिन्त्य चराचर-जगत् भगवान् भास्कर अन्य महातेजस्वी ऋषि भी उत्पन्न हुए। अनत्तर देता, अत्रि, उत्पन्न हुआ हैं। जब वह परमात्मा निद्राका आश्रय ग्रहण कर दैत्य और राक्षस, पिशाच, गन्धर्व, अप्सरा, पितर, मनुष्य, शयन करता है, तब यह संसार उसमें लीन हो जाता हैं और नाग, सर्प आदि नियोंके अनेक गण उत्पन्न किये और उनके जब निद्राको स्याग करता है अर्थात् जागता है, तब सब सृष्टि गहनेके स्थानों को बनाया। विद्युत्, मेष, वज्र, इन्द्रधनुष, उत्पन्न होती है और समस्त जौत्र पूर्वकर्मानुसार अपने-अपने

 

(ब्राह्मयं ५६५७)

मुलं माथा पहामं कविश्रुतम्

अष्टादश पुगनि तिहप्तान भारत ।।

निर्गनि ततस्तस्मान्मुखात् कुकुअंद्रह

तथान्याः स्मृतपश्चापि माद्या कर्पाजताः

आवश्यः पना नानाविधओपगाः

अपामा म्वना ये ने स्पः मनाः ।।

पमिनः निवि क्षाभन्यतः स्मृताः

ममा महम्ण मिता महबुना

असंज्ञा भवन्त्यतं असमर्माबलः

 

वाई 3-]

 

  • व्यासशिष्य महर्षि सुमन्तु एवं राज्ञा शतानीका संवाद, भविष्यपुराणकी महिमा ३१

 

कर्मोंमें प्रवृत्त हो जाते हैं। वह अव्यय परमात्मा सम्पूर्ण चराचर वर्ष, द्वापर दो हजार वयका संध्या तथा संध्यांशके चार सौ वर्ष | संसारको जात् और शयन दोनों अवस्थाद्वारा प्रार-बार कुल दो हजार चार सौ वर्ग तथा कलियुग एक हजार वर्ष तथा पत्र और विनष्ट करता रहता है। संध्या और संध्यांश दो सौ वर्ष मिका चारह सौ वर्षोंकि परमेश्वर कल्पके प्रारम्भमें सृष्टि और कल्पके अनमें मानका होता है। ये सब दिव्य वर्ष मिलाकर बारह हजार दिव्य प्रलय करते हैं। कल्प परमेश्वरका दिन है। इस कारण वर्ष होते हैं। यही देवताओंका एक युग कहलाता है। परमेश्वरके दिनमें सृष्टि और ग़में प्रलय होना है। हैं गुजा व ताओंके हुशार युग होनेसे ब्रह्माजीका एक दिन होता शतानीक! अब आप काल-गणनाको सुनें- है और यहीं प्रमाण उनकी चिंका हैं। जब ब्रह्माजी अपनी | अठारह निमेष (पक गिरनेके समयको निमेष कहते त्रिके अत्तमैं सोकर उठते हैं क्य सत्-असत्-रूप मनको है) की एक काला होती है अर्थात् जितने समपमें अठारह बार, उत्पन्न करते हैं । वह मन सृष्टि कानको इच्छासे विकारको प्राप्त पकका गिरना हों, उतने कालको काष्टा कहते हैं। तम होता है, तब उससे अधम आकाश-तत्व उत्पन्न होता है। कामाकी एक कम, तौस काय एक क्षण, बारह क्षणका आकाशका गुण ट् कहा गया है। विकारयुक्त आकाश | एक मुहूर्त, तौस मुहूर्नका एक दिन-रात, तीस दिन-रातका एक सब प्रकारके गन्धको वहन करनेवाले पवित्र वायुकी उत्पत्ति महीना, दो महीनोंकी एक ऋतु, तीन ऋतुको एक अयन तथा होती हैं, जिसका गुण स्पर्श है। इसी प्रकार विकारवान् वायुसे दों अयनका एक वर्ग होता है। इस प्रकार सूर्यभगवानके द्वारा अन्धकारका नाश करनेवाला प्रकाशयुक्त तेज उत्पन्न होता है, दिन-रात्रिका काल-विभाग होता हैं। सम्पूर्ण जय रात्रिको जिसका गुण रूप हैं । विकारवान् तेजमें जल, जिसका गुण रस विश्राम करते हैं और दिन अपने-अपने कर्ममें प्रवृत्त होते हैं। है और जलसे गन्धगुणवाली पृषी उत्पन्न होती है। इसी प्रकार पितका दिन-रात मनुष्योंके एक महीने के बराबर होता सृष्टिका क्रम चलता रहता हैं। हैं अर्थात् शुक्ल पक्षमें पितरोकी रात्रि और कृष्ण पक्षमें दिन पूर्वमें बारह हज़ार दिव्य अषका जो एक दिव्य युग | होता है । देवताओंका एक अहोरात्र (दिन-गत मनुष्योंक एक बताया गया है, वैसे में एकहत्तर युग होनसे एक मन्वन्तर होना । | के बराबर होता है अर्थात् उत्तरायण दिन तथा दक्षिणायन है। ब्रह्माजीक एक दिनमें चौदह मन्वन्तर व्यतीत होते हैं। रात्रि की जाती हैं । हे राजन् ! अब आप ब्रह्माज्ञीके रात-दिन सल्फ्युगमें धर्मके चारों पाद वर्तमान रहते हैं अर्थात् और एक-एक युगके प्रमाणको सुने-सत्ययुग चार हजार सत्ययुगमें धर्म चारों चरणोंसे (अर्थात् सर्वाङ्पूर्ण) रहता है। वर्षका हैं, इसके संध्यांशके चार सौ वर्य तथा संध्याके चार फिर अॅता आदि युगोंमें धर्मका बाल घटनेसे धर्म क्रमसे सौ वर्ष मिलकर इस प्रकार चार हजार आठ सौ दिव्य वर्षाका एक-एक चरण घटता ज्ञाता है, अर्थात् जैतामें धर्मके तीन एक सत्ययुग होता है। इसी प्रकार त्रेतायुग तीन हजार वर्षोंका चरण, परमें दो चरण तथा कलियुगमें धर्मका एक ही चरण तथा संध्या और संध्यांइके छः सौ वर्ष कुल तीन हजार छः सौं बचा रहता है और तीन चरण अधर्मके रहते हैं । सत्ययुगके 5-एक कर्मकाजको इस -मकान मममको सौर मामा काते हैं । मासु मन माझा एन र याही एक और वा इंता का एक अहोरात्र होता है। ऐसे हों तोस आहारानीका एक मास और वह मास दोनों संध्याको युग का मान जा है और माय माना य वर्ष होता है। सौर यांचे

३ तासुगम मा । ३-द्वापरयुगम माना ४-कलियुगका मान मसयुग यो क पपगी

 

 

  • पुराणं परमं पुण्यं मयिंग्यं सर्वसौरपदम्

 

[ संक्षिप्त भविष्यपुराणाङ्क मनुष्य धर्मात्मा, नौरोग, सत्यवादी होते हुए चार सौ वर्षोंतक जिनके कारण वह इन्हें प्राप्त करता है। कृपाकर आप इसका जीवन धारण करते हैं। फिर जैना आदि युगोंमें इन सभी वर्णन करें। वर्षों का एक चतुर्थांश न्यून हो जाता हैं, यथा जैताकें मनुष्य तीन सुमन्तु मुनि बोले-हे राजन् ! आपने बहुत ही सौं वर्च, वापरके दो सौ वर्ष तथा कलियुगकै एक सौ वर्षतक उत्तम यात फु है, मैं आपको वे बातें बताता हैं, उन्हें जीवन धारण करते हैं। इन चारों युगोंके धर्म भी भिन्न-भिन्न ध्यानपूर्वक सुने ।। होते हैं। सत्ययुगमें तपस्या, प्रेतामें ज्ञान, द्वापरमें यज्ञ और जिस ब्राह्मणके वेदादि शास्त्रोंमें निर्दिष्ट गर्भाधान, पुंसवन कलियुगमें दान प्रधान धर्म माना गया है।

आदि अड़तालीस संस्कार विधिपूर्वक हुए हैं, वहीं ब्राह्मण | परम द्युतिमान् परमेश्वरने सृष्टिको रक्षाके लिये अपने ब्रह्मक और ब्रह्मत्वको प्राप्त करता है। संस्कार ही मुसा, मुजा, ऊक और चरणोंमें क्रमशः ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य ब्रह्मत्व-प्राप्तिका मुख्य कारण है, इसमें कोई संदेह नहीं । तथा शूद्र-इन चार वर्णोको उत्पन्न किया और उनके लिये राजा शतानीकने पूछा–महात्मन् ! वें संस्कार अलग-अलग कमक कल्पना को । ब्राह्मणाकं लिप्यं पढ़ना- कौनसे हैं, इस विषयमें मुझे महान् कौतूहल हो रहा हैं। पल्लाना, यज्ञ काना यज्ञ कराना तथा दान देना और दान् कृपाकर आप इन्हें बतायें । लेना—ये छः कर्म निश्चित किये गये हैं। पढ़ना, यज्ञ करना, सुमनजी बोले-गुजन् ! वेदादि शास्त्रोंमें जिन दान देना तथा प्रजाओंका पालन आदि कर्म क्षत्रियोंके लिये संस्कारोंका निर्देश हुआ है उनका मैं वर्णन करता हैं नियत किये गये हैं। पढ़ना, पश करना, दान देना, पशुओंको गर्भाधान, पुंसवन, सौमन्तोन्नयन, जातकर्म, नामकरण, रक्षा काना, स्त-व्यापारमें धनार्जन करना—ये काम अन्नप्राशन, चूडाकर्म, उपनयन, चार प्रकारके वेदवत, वैश्योंके लिये निर्धारित किये गये और इन तीनों वणोंकी सेवा वेदान, विवाह, पञ्चमहायज्ञ (जिनसे देवता, पितरों, मनुष्य, करना—यह एक मुख्य कर्म शूद्रोंका नियत किया गया है। भूत और ब्रह्मक तृप्ति होती हैं), समपाकयज्ञ-संस्था पुरुषकी हमें नाभिसे ऊपरका भाग अत्यन्त पवित्र माना टुकड्या, पार्वण, श्रगीं, आग्रहायणी, चैत्री (गया) गया हैं। उसमें भी मुग्त्र प्रधान है। ब्राह्मण ब्रह्माके मुत्र तथा आश्वयुजी, समवयंज-संस्था—याधान, अग्निहोत्र, | (उत्तमाङ्ग) में उत्पन्न हुआ हैं, इसलिये ब्राह्मण सबसे उत्तम दर्श-पौर्णमास, चातुर्मास्य, निरूपशुबन्ध, सौत्रामणी और हैं, यह वैदकी वाणी है। ब्रह्माजौने बहुत कालाक तपस्या सप्तसौम-संस्था-अग्निष्टोम, अत्यग्निष्टोम, उक्थ्य, पोडशी, करके सबसे पहले देवता और पितरोंकों हल्य तथा कल्य वाजपेय, अतिरात्र और आशोर्याम—ये बालींस ब्राह्मणके पहुँचाने के लिये और सम्पूर्ण संसारकी क्षिा करने हेतु संस्कार हैं। इनके साथ ही ह्मणमें आल आत्मगुण भी आह्मणों उत्पन्न किया । शिरोभागसे अपन्न होने और बेदको अवश्य होने चाहिये, जिससे ब्रह्माकी प्राप्ति होती है। में आठ | धारण करनेके कारण सम्पूर्ण संसारका स्वामी धर्मतः गुण इस प्रकार हैं

 

ब्राह्मण हीं हैं। सब भूतों (स्थावर-जङ्गमरूप पदार्थों में प्राणों अनसूया या क्षतिग्नायास च मङ्गम् । (कीट आदि) श्रेष्ठ , प्राणियोंमें बुद्धिसे व्यवहार करनेवाले अकार्पज्यं तथा शौचमम्पहा च कुरुल्लाह ॥ पशु आदि श्रेष्ठ । बुद्ध रखनेवाले जीवोंमें मनुष्य श्रेष्ठ और पर्व ३ । १५,१५, } मनुष्योंमें ब्राह्मण, ब्राह्मणोंमें विद्वान्, विद्वानोंमें कृतबुद्धि और ‘अनसूया (इसरोंके गुर्गोंमें दोष-बुद्ध नहीं रखना), कृतबुद्धियोंमें कर्म करनेवाले तथा इनसे अह्मवेत्ता–ब्रह्मज्ञानी दया, क्षमा, अनायास (किस सामान्य बातके मौॐ जानकी श्रेष्ठ । ब्राह्मणका जन्म धर्म-सम्पादन करनेके लिये है और बाजी न लगाना), मङ्गल (माङ्गलिक वस्तुओंका धारण), धर्माचरणसे ब्राह्मण ब्रह्मत्व तथा ब्रह्मलोकको प्राप्त करता है। अकार्पणय (दोन वचन नहीं बोलना और अत्यन्त कृपण न राज्ञा शतानीकने पूछा–हें महामुने ! ब्रह्मक और बनना), शौच (बाह्याभ्यन्नरको शुद्धि) और अस्पृहा-ये ब्रह्मत्व अति दुर्लभ हैं फिर ब्राह्मणामें कौनसे ऐसे गुण होते हैं. आल आत्मगुण हैं। इनको पूरों परिभाषा इस प्रकार है

  • गर्भाधानसे यज्ञोपवीतपर्यन संस्कारों की संक्षिप्त विधि

 

गुणके गुर्गोको न छिपाना अर्थात् प्रकट करना, अपने बुरे कमौका परित्याग करना—यह मङ्गल-गुग कहलाता हैं। गुणको प्रकट न करना तथा दूसरेके दोषोंको देखकर प्रसन्न न बड़े कष्ट एवं परिश्रमसे न्यायोपार्जित नसे उदारतापूर्वक होना अनसूया हैं। अपने-परायेमें, मित्र और शत्रुमैं अपने थोड़ा-बहुत निल्य दान करना अकार्पण्य हैं। ईश्वरकी कृपासे न यार करना और दुसरेका छन । कानको इच्छा भाम थोड़ी-सी सम्पत्तिमें भी उच्च नहुना और इसके धन की रखना इया हैं। मन, वचन अथवा गैरसे कोई दुःख भी किंचित् भी इच्छा न रखना अपहा है। इन आठ गुणों और पहुँचाये तो उसपर क्रोध और बैर न करना क्षमा है। अभक्ष्य पूर्वोक्त संस्कारों से जो ब्राह्मण संस्कृत में वह ब्रह्मक तथा वस्तुका भक्षण न करना, निन्दित पुरुषोंम सङ्ग न करना और ब्रह्मत्वको प्राप्त करता है। जिसकी गर्भ-शुद्धि हों, सब संस्कार सदाचरणमें स्थित हुना शौच कहा जाता हैं। जिन शुभ कर्मोक विधियन् सम्पन्न हुए हों और वह वर्णाश्रम-धर्मका पालन करनेसे शरीरकों कष्ट होता है, उस कर्मको हुवात् नहीं करना करता हो तो उसे अवश्य मुक्ति प्राप्त होती है। चाहिये, यह अनायास है। नित्य अच्छे कार्योको करना और गर्भाधानसे यज्ञोपवीतपर्यत संस्कारोंकी संक्षिप्त विधि, अन्नप्रशंसा तथा भोजन-विधिके

प्रसंगमें धनवर्धनकी कथा, हाथोंके तीर्थ एवं आचमन-विधि । राजा शतानीकने कहा-हे मुने ! आपने मुझे मधु और घृतका प्राशन कराया जाता है। दसवें दिन, आरखें जातकर्मादि संसारोके विषयमें बताया, अब आप इन दिन, अठारहवें दिन अथवा एक मास पूरा होनेपर शुभ तिथि संस्कारोंके लक्षण तथा चारों वर्ण एवं आश्रमके धर्म मुहर्त और शुभ नक्षत्रमें नामाकरण-संस्कार किया जाता है। बतलानेकी कृपा करें।

 

ब्राह्मणका नाम मङ्गलवाचक रखना चाहिये, जैसे शिवशर्मा। सुमनु मुनि बोले-राजन् ! गर्भाधान, पुंसवन, क्षत्रियका बलवाचक जैसे इन्वर्मा । वैदयका धनयुक्त जैसे सीमोन्नयन, जाचकर्म, अन्नप्राशन, चुडाकर्म तथा यज्ञोपवीत धनवर्धन और शूद्रका भी यथाविधि देवदासादि नाम रखना आदि संस्कारोंक करनेसे द्विजातियोंके बीज-सम्बन्धी तथा चाहिये । बिर्योका नाम ऐसा रखना चाहिये, जिसके बौनेमें गर्म-सम्बन्धी सभी दोष निवृत्त हो जाते हैं। केंदाध्ययन, व्रत, कष्ट न हों, क्रूर न हो, अर्थ स्पष्ट और अछा हो, जिसके होम, विद्म व्रत, देवर्षि-पितृ-जर्पण, पुशोत्पादन, पझ महायज्ञ सुननेसे मन प्रसन्न हो तथा मङ्गलसूचक एवं आशीर्वादयुक्त हों। और ज्योतिामादि यज्ञोके द्वारा यह शरॊर अद्म-प्राप्तिके योग्य और जिसके अनमें आकार, ईकार आदि दौर्घ स्थर हों। जैसे हो जाता है। अब इन संस्कारोंकों विधिको आप संक्षेपमें यशोदादेवी आदि।

जन्मसे बारहवें दिन अथवा चतुर्थ मास बालकको पुरुषका जातकर्म-संस्कार नालदनसे पहिले किया बरसे बाहर निकालना चाहिये, इसे निष्क्रमण कहते हैं। ॐ ज्ञाता है। इसमें बेदमन्योंकि उच्चारणपर्यंक वालकको सुवर्ण, मासमें बालकका अन्नप्राशन-संस्कार करना चाहिये। पहले या

सुनें –

 

गुगान् गुणनों हनि लत्यामागास पते नान्यदोंपैगमूसा पर्तिता ।।

परे हो मि इन वा सदा अपवर्तन गत् पात् मा या पिकाला

वाचा मनसि काये | दुनोत्पादितेन ।।

कुमति पानि मा पति

अभक्ष्यपहार संसर्गनिन्दिः

आप यशस्थान रॉयमेतत् कीर्तितम्

इसीर में येन शुभेमपि कर्मना

अत्यन्त जन कुवत अनापः उगते ।।

मशतावरणं नित्यम्पास्तविवनिम्।

एन मङ्ग पोक्त मुनिभिर्मयादिभिः ।।

मनोदपि दानापमाननापामना

हन्ग्रहांन यत्किंचिदार्पण्यं तदुच्यते

योपान संतुः नयेनाप्पथ बना

हिमपा पो माह परिकता

 

+ पुराणं परमं पुण्यं भविष्यं मर्यसौख्यदम्

 

[ संक्षिप्त भविष्यपुराणाङ्क तीसरे वर्षों मुण्डन-संस्कार करना चाहिये । गर्भसे आठवें पूजा करें तथा नियमके अनुसार सर्वप्रथम माता, बहिन या वर्षमें माह्मणका, ग्यारहवें वर्षमें क्षत्रियका और बारहवें वर्षमें मौसीसे भिक्षा माँगे । भिक्षा माँगते समय उपनीत माह्मण वद् वैयका वज्ञोपवीत-संस्कार करना चाहिये। परंतु ब्रह्मतेजक भिक्षा देनेवालोंसे ‘भवति ! पक्ष में देहि’, क्षत्रिय ‘भिक्ष | इन्वारा श्राह्मण पाँच वर्षमें, वल्फी इमाम क्षत्रिय भर्नाति ! में तथा वैश्य भिक्षा में भवति !’-इस नकी कामावाल वैश्य आ सपमें अकसे ‘अवनि’ शब्दको प्रयोग करें। भिक्षा में सूर्ण, | अपने-अपने बालकका पनयन-संस्कार सम्पन्न करे । सोलह चाँदी अश्या अन्न ब्रह्मचारीकों हैं। इस प्रकार भिक्षा ग्रहणकर

वर्षनाक ब्राह्मण, बाईंस वर्षतक क्षत्रिय और चौबीस वर्षतक ब्राह्मचारी उसे गुरुको निवेदित कर दे और गुरुकी आज्ञा पाकर वैश्य गायत्री (सावित्री) के अधिकारी रहते हैं, इसके अनत्तर पूर्वाभिमुख से आचमनकर भोजन करें। पुर्यकी ओर मुख यधारमय संस्कार न होनेसे गायत्रीके अधिकारी नहीं रहतें करके भोजन करनेसे आयु, दक्षिण-मुख करनेसे यश, पश्चिम | और ‘बाय’ हाते हैं। फिर जपतक प्रात्यस्तोम नामक मुख करनेसे लक्ष्मी और उत्तर-मुख करके भोजन करनेसे यज्ञसे उन शुद्धि नहीं की जातीं, तबतक उनका शरीर सत्यकी अभिवृद्धि होती है। एकाग्रचित्त हो उत्तम अक्का गायत्री-दीक्षाके योग्य नहीं बनता । इन स्नात्यांके साथ आपनमें भोजन करनेके अनर आचमनकरों (आँख,

भी वेदादि शास्त्रका पठन-पाठन अथवा विवाह आदिका कान,नाक) का जलसे स्पर्श करें। अकीं नित्य स्तुति करनी । सम्बन्ध नहीं रखना चाहिये और अझकी निन्दा किये बिना भोजन करना चाहिये। जैवर्णिक ब्रह्मचारियों को उत्तरोयक रूपमें क्रमशः कृण उसका इनक्र संतुष्ट एवं प्रसन्न होना चाहिये । हर्षसे भोजन ६ करो]- मुग-धर्म, नामक मृगका धर्म और बकनेका चर्म करना चाहिये । पूजित अन्न भोजनसे अल और तेजकी वृद्धि धारण करना चाहिये । इसी प्रकार क्रमशः सन (टाट), असी होती हैं और निन्दित अन्न भौजनसे बल और तेज दोनोंकी और भड़के ऊनका वस्त्र धारण करना चाहिये । झाह्मण ब्रह्मचारीकै हानि होती है। इसीलिये सर्वदा उत्तम अन्ना भोजन करना लिये तीन लडीवाली सुन्दर चिकनी मुँजक, क्षत्रियके लिये चहिये । उच्छिष्ट्र (जुठा) कसोको नहीं देना चाहिये तथा स्वयं | मूर्या (मुरा) को और वैश्यके लिये सनकी मेखला कहीं गयीं भी किसका इच्छिष्ट नहीं खाना चाहिये । भोजन करके जिस हैं। मैंन आदिके प्राप्त न होनेपर क्रमशः कुशा, अमत्तक और अर्शकों को दें उसे फिर प्रहण न कसे अर्थात् बार-बार बल्चज नामक तृणकी मेखलाकों तीन लडीवाली करके एक, होड़-होड़कर भोजन न करे, एक बार बैठकर तृप्तिपूर्वक तन मा पाँच सन्धि इसमें लगाना चाहिये । साह्मण भोजन करना चाहिये। जी परम बीच-बमें किन कपासके सूतका, क्षत्रिय सनकै मृतका और वैश्य भेड़के लोभवश भोजन करता है, उसके दोनों लोक नष्ट हो जाते हैं, ऊनका अज्ञोपवीत धारण करे। ब्राह्मण बिल्व, पलाश या असे धनवर्धन वैश्यॐ हुए थे। अक्षको दाङ, जो सिरपर्बत हो उसे धारण करें । क्षत्रिय बड़, ना शतानीकने पूछा-महाराज ! आप धनवर्धन खदिर या चैतके काम मस्तकपर्यन्त ऊँचा और वैश्य पैलय वैश्यकी कथा सुनाइये। उसने कैसा भोजन किया और उसका (पोल वृक्ष लकड़ी), गूलन, अथवा पॉपके काष्ठका दा; क्या परिणाम हुआ ? नापिकापर्यंत ऊँचा धारण करें । ये दण्ड सौंपें, ट्रिहित और सुमनु मुनिनें कहा–राजन् ! सत्ययुगको बात है, सुन्दर होने चाहिये। यज्ञोपीत-संस्कार में अपना-अपना दण्ड पुकर क्षेत्र धन-धान्यसे सम्पन्न धनवर्धन नामक एक वैश्य धारणकर भगवान् सूर्यनारायका उपस्थान में और गुरुकीं रहता था। एक दिन यह ग्रीष्म ऋतु मध्याह्नके समय 

 

नधानं वयंन्नित्यमग्रामेंदकुल्सयम्

नात् तस्य यद् वै प्रामीमापि भारत

पूजनं वानं मांजा

आपूजितं तु भुक्तमुभयं नाशयदिदम् ।।

 

  • गर्मायासे झोपवतप संस्कारों की संक्षिप्त विपि ३५

पितार्थ

 

देव-कर्म सम्पन्न कर अपने पुत्र, मित्र तथा अन्धु-बान्धयोंके लक्षणोंको सुने-अँगूठेके मूलमें ब्राह्मतीर्थ, कनिष्ठाके मूलमें साथ भोजन कर रहा था। इतनेमें ही अकस्मात् उसे बाहर से प्राजापत्यतीर्थ, अङ्गलियोंके अग्रभागमें देवतीर्थ, तर्जनौं एक करुण शब्द सुनायीं पड़ा। उस शब्दको सुनते ही वह और झुलके बीचमें पितृतीर्थ और हावके मध्य-भागमै दयावश भोजनको छोड़कर बाकी ओर दौड़ा। किंतु जबक यह बाहर पहुंचा दाह आवाज बंद हो गयी। फिर लौटका उस वैश्यने पात्रमें जो अंड़ा हुआ भोजन था उसे खा लिया। भोजन करते ही उस वैषझी मृत्यु हो गयी और इसी अपयश परफमें भी उसकी दुर्गति हुई । इसलिये छोड़े हुए भोजनको फिर कभी नहीं खाना चाहिये। अधिक भोजन भी नहीं करना चाहिये। इससे शरीर में अत्यधिक इसकी उत्पत्ति होती है, जिसमें प्रतिश्याय (जुकाम, मन्दाग्नि, बर) आदि | अनेक गुंग उत्पन्न हो जाते हैं। अजीर्ण हो जानेसे स्नान, दान,

तम, हम, तर्पण, ना आदि कोई भी पुण्य कम चौकसे सम्पन्न | न हो पाते । ति भोजन करनेसे अनेक रोग उत्पन्न होते हैं-आयु घटतीं हैं, लौकमें निन्दा होती है तथा अन्त्त सद्गति । भ न होतीं । च्छिष्ट मल्लसे कहीं नहीं जाना चाहिये । सदा पवित्रतासे रहना शहिये । पवित्र मनुष्य यहाँ सबसे रहता है | और अन्तमें स्वर्ग जाता है।

राजाने पूछा-मुनीश्वर ब्राह्मण किस कर्मके कानसे  ऑवित्र होता है ? इसका आप वर्णन करें।

सुमन्तु मुनि बोले–राजन् ! जो ब्राह्मण विधिपूर्वक आचमन करता है, वह पवित्र हो जाता है और समका सौम्यतीर्थ कहा जाता है, जो देवकर्ममें प्रशस्त माना गया है। अधिकारी हो जाता है। आचमनकी विधि ग्रह हैं कि हाथ-पाँव देवार्चा, आह्मणको दक्षिणा आदि कर्म देवतीर्थस; तर्पण, धोकर पवित्र स्थानमैं आसनके ऊपर पूर्व अथवा उत्तरकी और पिण्डदानादि कर्म पितृतीर्थसे; आचमन ब्राह्मतीधसे; विवाह | मुख करके बैठें। दाहिने हाथको जानके भीतर रखकर दोनों समय लाजामादि और सोमपान प्राजापत्यतीर्थसे; माहु चष्ण बराबर रखें तथा शिख़ामें अन्य लगाये और फिर उष्णता प्रहण, इषिप्राशनादिं कर्म सौम्यतीर्थसे करे। ब्राह्मतीर्थसे एवं फेनसे रिहत शीतल एवं निर्मल जलसे आचमन । उपस्पर्शन सदा श्रेष्ठ माना गया हैं।

 

खड़े-खड़े बात करते, इधर-उधर देखते हुए, शीघ्रतासे और अङ्गलियों मिलाकर एकाप्नचित्त हो, पवित्र जलमें सेंधमुक्त होकर आचमन न करें।

बिना शब्द किये तीन बार आचमन करनेसे महान् फल होता हैं राजन् ! ब्राह्मणके दाहिने हाथमें पाँच तीर्थ कहे गये है और देवता प्रसन्न होते हैं। प्रथम आचमनसे ऋग्वेद, हैं-(१) देवतीर्थ, (३) पितृतीर्थ, ३) ब्राह्मतीर्थ, द्वितीयसे यजुर्वेद और तृतीयसे सामवेदकीं तृप्ति होती हैं तथा | (४) प्राजापत्यतीर्थ और

सौम्यतीर्थ

अब आप इनके आचमन काके जलयुक्त दाहिने अँगूठेसे मुलका स्पर्श करने

अमूरतों श्रेय इंसा महीपते ।।

बाह्य तीर्थं वदन्येतसिशाया द्विजोत्तमाः

कायं कनिष्ठिकामले अमे तु दैवतम्

कर्जन्यच्चयोपः पश्य नीर्थपुटम्

कपमध्ये स्थित सौम्यं असतं देवमण |

 

पर्छ 14-144 } संभ पु

+ पुराणं परमं पुण्यं विष्यं सर्वसौख्यदम् =

 

[ संक्षिप्त भविष्यपुराणाङ्क अथर्ववेदकी तृप्ति होती है। ऑष्टके मार्जनसे इतिहास और कने, परंतु पितृतीर्थसे कभी भी आचमन नहीं करना चाहिये। पुराणोंकी तृप्ति होती है। मसमें अभिषेक करने से भगवान् आचमन जाल हुदयातक जानेसे झाह्मणझी; कण्ट्रक आने रुद्र प्रसन्न होते हैं। शिक्षाको स्पर्शसे ऋषिगण, दोनों ऑक्षक क्षत्रिक और वैश्पकी झलके प्राशनसे तथा शूकी के

स्पर्शसे सूर्य, नासिका स्पर्शसे वायु, कानको स्पर्शले दिएँ, स्पर्शमात्र शुद्ध हो जाती है। | भुजाके स्पर्शसे यम, कुबेर, वरुण, इन्द्र तथा अग्निदेय तृप्त होते दाहिने हाथके नीचे और बायें कंधेपर अज्ञोपवत रहनसे नौर मणकी मन्थिोनी मर्श करने से सभी तप्त हो नि पनौती सच्य) कहता है, इसके विम बुनेको | जाते हैं। मैं धौनसे विष्णुभगवान, भूमिमें जल इनसे अर्थात् यज्ञोपयौनके दाहिने कसे वार्षों और हमें वासुकि आदि नाग तथा बाँचमें जो जलबिन्दु गिरते हैं, उनसे प्राचीनावती (अपसव्य) तथा गलेमें मालकी तरह यज्ञोपवीत चार प्रकारके भूतमामकी तृप्ति होती हैं।

हनेले निवती कहा जाता है। अङ्गद्ध और तर्जनीसे नेत्र, अङ्ग तथा अनामिकासे पेशा , मृगछाम, दण्ड, यज्ञोपवीत और कमण्डलु– नासिका, अङ्ग एवं मध्यमासे मुख, अङ्गष्ट और कनिष्ठासे इनमें कोई भी चीज़ भग्न हो जाये तो उसे ज्ञल्में विसर्जित कर कान, सब अङ्गलियोंमें भुजाओंका, असे नाभिमण्डल तथा मन्त्रोच्चारणपूर्वक दूसरा धारण करना चाहिये। उपर्यंत सभी भङ्गलियोंसे सिग्का स्पर्श करना चाहिये। अङ्ग्छ (सव्य) हॉकर और दाहिने हाथको ज्ञानु अर्थात् घुटनेके भीतर

अग्निरूप है, तर्जनों वायुरूप, मध्यमा अज्ञापतरूप, अनामिका रक्कर जो आह्मण आचमन करता है वह पवित्र हो जाता हैं। | सुर्यरूप और कनष्ठिका इन्द्ररूप है। ब्राह्मणके हाथको रेखाको गङ्गा आदि नदियोंके समान इस विधिसे ब्राह्मणके आचमन करने पर सम्पूर्ण जगत्, पवित्र समझना चाहिये और अङ्गलियोंके जो पर्व हैं, वे | देवता और लोक तुम्न हो जाते हैं । आह्मण सदा पुजनीय है, हिमालय आदि देवपर्वत माने जाते हैं। इसलिये ग्राह्यणका क्योंकि वह सर्वदेवमय हैं। दाहिना हाध सर्वदेवमय हैं और इस विधिसे आचमन ब्राह्मतीर्थ, प्राजापत्यतीर्थ अथवा देवतीर्थसे आचमन करनेवास अत्तमें स्वर्गसकको प्राप्त करता है ।

 

( अध्याय ३१ वेदाध्ययन-विधि, ओंकार तथा गायत्री-माहात्म्य, आचार्यादि-लक्षण, ब्रह्मचारिधर्म-निरूपण, अभिवादन-विधि, स्नातककी महिमामें। अङ्गिरापुत्रका आख्यान, माता-पिता और गुरु की महिमा सुमन्तु मुनिने कहा—गुजन् ब्राह्मणका केशात आगेका कर्म बताते हैं, उसे आप सुनें । शिष्या यज्ञोपवीत (समावर्तन)-संस्कार सोलहवें वर्षमें, क्षत्रियका बाईसवें वर्षमै कर गुरु पहले उसमें शौंच, आचार, संध्योपासन, अग्निकार्य तथा वैश्यक पचीसवें वर्षमें करना चाहिये। सिपक संस्कार सिखायें और वेदका अध्ययन कराये। शिष्य भी आचमन कर अमन्त्रक करने चाहिये । केशात-संस्कार होनेके अनन्तर चाहे उत्तराभिमुज़ में ब्रह्माञ्जलि बाँझकर एकाग्रचित्त हो प्रसन्न-मनसे तो गुरु-गृहमें रहें अथवा अपने घरमें आकर विवाह कर वेदाध्ययनकै लियें बैठे। पढ़नेके आरम्भ तथा अनमें गुरुकै | अग्निहोत्र प्रहण करे । किंवयोंके लिये मुख्य संस्कार विवाह है। चरणको वन्दना करें। पढ़ने के समय दोनों हाथोकी जो जन् ! यहाँतक मैंने उपनयनका विधान बताया। अब अञ्जलि बाँधी जाती हैं, उसे ‘ब्रह्माञ्जलि’ कहा जाता हैं।

 

 

भोग्नर्महायाहों प्रॉों वायुः प्रदेशिनी ।।

अनामिका नया मान्य कनिष्ठा का विलापनमाया तामाद तमाम ।।

पालेताः क्रमामध्ये तु देवा बिशाय भारत ।।

गङ्गाः मरतः गया होगा धम्तमत्तम्

मान्मन्यु पवन गिरगान विद्ध में महिमा न् कों विनय दक्षिणः ।।

 

 

* वेदाध्ययनविधि, ओकार तथा गायीमात्म्य +

 

शिष्य गुरुका दाहिना चरण दाहिने हाथसे और बायाँ अरण सूर्योदयसे पूर्व जव तारे दिखायी देते रहे तभीसे प्रातः बायें हाथसे छूकर उनको प्रणाम करें। वेदकें पढ़नेके समय संध्या आरम्भ कर देनी चाहिये और सूर्योदयपर्यत गायत्री-जप आदिमें और अत्तमें ऑकारका उच्चारण न करनेसे सव निफल करता रहे। इसी प्रकार सूर्यास्तासे पहले ही सायं-संध्या हो जाता हैं। पहलेका पढ़ा हुआ विस्मृत हो जाता है और आरम्भ करें और तारोक दिखायौं देनेतक गायत्र-जप करता

आगे विषय याद नहीं होता।

हे। प्रातः-संध्यामें खड़े होकर जप करने से रात्रिके पाप नष्ट | पूर्वदशमें अग्रभागवाले कुशाके आसनपर बैठकर होते हैं और सायं-संध्याकै समय बैंक गायत्री-अप करनेसे पवित्र धारण को तथा तीन बार प्राणायामसे पवित्र होकर दिनके पाप नष्ट होते हैं। इसलिये दोनों की संध्याकार

का उच्चारण करे । प्रजापतिने तीनों वेदोंके प्रतिनिधिभूत अवश्य करनी चाहिये । जों दोन संध्याओंकों नहीं करता असे अकार, उकार और मकार-इन तीन वर्षोंको तीनों दोसे सम्पूर्ण द्विजानिक विहित कर्मोसे बहिष्कता का देंना चाहिये। निकाला है, इनसे कार बनता है। भूर्भुवः स्वः—

ये तीनों के बाहर एकान्त-स्थाममें, अरण्य या नदी-सरोवर आदिके व्याहतियाँ और गायत्रीके तौन पाद तीनों वेदोंसे निकले हैं। तटपर गायत्रीका जाप करनेसे बहुत लाभ होता है । मन्त्रों इसलिये जो ब्राह्मण ओंकार तथा व्याहतपूर्वक त्रिपदा जप, संध्याकें मन्त्र और जो ब्रह्म-यज्ञादि नित्यकर्म है इनके गायत्रका दोनों संध्याओंमें जप करता है, वह वेदपाठकें मन्त्रोके यारणमें अनध्यायका विचार नहीं करना चाहिये। पुण्यको प्राप्त करता है। और जो ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य अपनी अर्थात् नित्यकर्ममें अनध्याय नहीं होना। | क्रियासे होन होते हैं, उनकी साधु पुरुषोंमें निन्दा होती हैं तथा यज्ञोपवीतके अनचा समावर्तन-संस्कारक शिष्य गुरुके | परमें भी वे कल्याणके भागीं नहीं होते, इसलिये अपने पार्ने रहें । भूमिपर शयन करें, सब प्रकारको गुरकी सेवा करे कर्मका स्याग नहीं करना चाहिये । प्रणव, तीन याति और और केदाध्ययन करता रहे। सब कुछ जानते हुए भी जड़वत् त्रिपदा गायत्री ये सब मिलकर को मन्त्र (गायत्री मन्त्री रहे । आचार्यंका पुत्र, सेवा करनेवाली, ज्ञान देनेवाला, धार्मिक, होता हैं, यह ब्रह्माको मुख है। ज्ञों इस गायत्री मन्त्रको पवित्र, विश्वासी, शक्तिमान्, उदार, साधुस्वभाव तथा अपनी श्रद्धा-भक्तिसे तीन पार्वतक नित्य नियमको विधिपूर्वक जप तिवा–ये दस अध्यापनके योग्य हैं । विना पूछे किसीसे करता है, वह वायुक्ने तरह वेगसम्पन्न होकर आकाशके कुछ न कहें, अन्यायसे पूछनेवालेको कुछ न बताये । जों स्वरूपको धारणक्न ब्रह्मतत्त्वको प्राप्त करता है। एकाक्षर 35 अनुचित होगसे आता है और जो अनुचित ढुंगसे उत्तर देता परब्रह्म है, प्राणायाम परम ताप हैं। सावित्री (गायत्री) से हैं, वे दोनों नरकमें जाते हैं और जगन्में सबके अप्रिय होते। पढ़कर कोई मन्त्र नहीं हैं और मौनसे सत्य बोलना श्रेष्ठ हैं। हैं। जिसको पढ़ानेले धर्म या अर्थकी प्राप्ति न हों और वह कुछ तपस्या, हवन, दान, यज्ञादि क्रियाएँ स्वरूपतः नाशवान् हैं, वा-शुश्रुषा भी न ले, ऐसेंकों कभी न पढ़ायें, क्योंकि ऐसे किंतु प्रणव-स्वरूप एकाक्षर मल्ल ओंकारका कभी नाश नहीं विद्यार्थी दी गयी विद्या परमैं ज़-साप्नकै समान निकल होता। विधियज्ञों (द-पौर्णमास आदि) से जपयज्ञ होती हैं। विद्याके अधिष्ठातृ-दैवताने झाहाणसे कहा-‘मैं । (प्रणवाद – जप) सदा ही श्रेष्ठ । उपांशु-जप (जिस जपर्मे तुम्हारी निधि हैं. मेरी भलीभाँति रक्षा करों, मुझे ब्राह्मणों केवल ओठ और जीभ चलते हैं, शब्द न सुनायीं पड़े) साल् (अध्यापकों के गुणोंमें दोष-बुद्धि खनेवालेन्कों और द्वेष गुना और उपांशु-जससे मानस-अप हजार गुना अधिक फल करनेवाले न देना, इससे मैं बसवतीं रहूँगी । जो ब्राह्मण देनेवाला होता है। जो पाकमज्ञ (पितृकर्म, हवन, जितेन्द्रिय, पवित्र, व्रह्मचारी और प्रमादसे रहित हों उसे बलियैश्वदेव विधि – सके पराभर हैं, वे सभी जप-यज्ञकी मुझे देना। सोलह कलाके बराबर भी नहीं हैं। ब्राह्मणको सय सिद्धि जो गुरुकों आशाके बिना वेद-शास्त्र आदिको स्वयं ज्ञपसे प्राप्त हो जाती है और कुछ कहें या न को, पर ब्राह्मण ग्रहण करता है, वह अति भयंकर रौरव नरकको प्राप्त होता हैं। गायत्री-जप अवश्य करना चाहिये। को लौकिक, वैदिक अथवा आध्यात्मिक ज्ञान दें,

 

  • पुराणं परमं पुण्यं मयियं सर्वसौख्यदम्

 

[ संक्षिप्त भविष्यपुराणा सर्वप्रथम प्रणाम करना चाहिये । जो केवल गायत्रीं जानता हो, दूध आदि यानपर चड़े हुए, अतिवृद्ध, रोगी, भारयुक्त, पर शाहको मर्यादामें रहे यह बसे उत्तम हैं, किंतु सभी कों, स्नातक (जिसका समावर्तन-संस्कार हो गया हो), जा वेदादि शास्त्रको जानते हुए भी मर्यादामें न रहें और और वर (दुल्ला) यदि सामने आते हों तो इन्हें मार्ग पहले भक्ष्याभक्ष्यका कुछ भी विचार न करें तथा सभी वस्तुको देना चाहिये। ये सभी यदि एक साथ आते हों तो स्नातक और | बेचे, वह अषम हैं। ज्ञा मान्य है। इन दोनॉमसे भी माना विशेष मान्य है। चौ अथवी आसनपरी ने चैट। यदि ब्राह्मण झिम्म पनवन ककन हम्य यज्ञ, विद्या पलिमें बैठा ये तो गुरुको आते देख्न नचे तर जाय और और उपनिषद्) तथा कल्पसहित वेदाध्ययन कराता है, उसे उनका अभिवादन करें। वृद्धजनोंको आने देख टोंक प्राण आचार्य कहते हैं। जो जीविक्के निमित्त वेदका एक भाग वासित हो जाते हैं, इसलिये नम्रतापूर्वक खड़े होकर उन्हें अथवा वेदाङ्ग पढ़ाता है, याहू उपाध्याय कहलाता है। जों प्रणाम करनेसे में प्राण पुनः अपने स्थानपर आ जाते है। निषेक अर्थात् गर्भाधानादि संस्कारोंको शैतिसे कराता हैं और प्रतिदिन बड़ों की सेवा और उन्हें प्रणाम करनेवाले पुरुषके आयु, अन्नादिसे पौषण करता हैं, उस ब्राह्मणको गुरु कहते हैं। जो विद्या, यश और बल—ये चारों निरन्तर बढ़ते रहते हैं- अग्निशम, अग्निहोत्र, पक-यज्ञादि कमौका वरण लेकर जिसके * *- भवानशील नियंकापविनः ॥ निर्मित करता है, वह उसका विकू कहता है । जो पुरुष चत्वारि सम्यग्ने आयुः प्रा अको बलम् ॥ वेद-वनिमें दोनों कान भर देता है, उसे माता-पिताक समान समझकर उससे कभी द्वेष नहीं करना चाहिये। भिवादनके समय दूसरेकी को और जिससे किसी उपाध्यायसे दस गुना गौरव आचार्यका और आचार्यको सौ प्रकारका सम्बन्ध नै उसे भवती (आप), सुभग गुना पिताका तथा पितासे हजार गुना गौरव माताका होता हैं अथवा भगिनी (बहन) कहकर सम्बोधित करे। चाचा, मामा, उपाध्यायशाचार्य आचार्याणां शतं पिता ससुर, ऋत्विकू और गुरु–इनकों अना नाम लेते हुए प्रणाम सहस्रेण पितुर्माता गौरवेणातिरिच्यते करना चाहिये। मौसी, मामी, सास, बुआ (पिताकी यन)

| | Bाम हो ॥ ३५) और गुरुकी पत्नये सय मान्य एवं अन्य हैं। यों भाईंकों शाम देनेवारश और वेद पानेवा–ये दोनों पिता हैं, सवर्णा स्त्री (भाभी) का जो नित्य आदर करता है और उसे किंतु इनमें भी वेदाध्ययन कानेवाला श्रेष्ठ हैं, क्योंकि माताके समान समझता हैं, वह विष्णुको प्राप्त करता है। ब्राह्मणका मुख्य जन्म तो वेद पढ़नेसे हीं होता हैं। इसलिये फ्तिाकी बहन, माताकी बहन और अपनी बड़ी बहन-बें उपाध्याय आदि जितने पुन्य हैं, उनमें सबसे अधिक गौरव । तीनों माताके समान में हैं। फिर भी अपनी माता-इन सबकौं महागुरुका ही होती है। : ।।

 

अपेक्षा श्रेष्ठ हैं। पुत्र, मित्र और भानज्ञा (बाहनका लड़का) राजा शतानीकने पूछा-हें मुने ! आपने उपाध्याय इनको अपने समान समझना चाहिये। धन-सम्पत्ति, बन्धु, आदिके लक्षण बतायें, अब महागुरु किसे कहते हैं ? यह भी अवस्था, कर्म और विद्या-ये पाँचौं महके कारण है- अतानेको कृपा करे इनमें उत्तरोत्तर एकसे दूसरा बड़ा है अर्थात् विद्या सर्वश्रेष्ठ हैं। सुमन्तु मुनि बोले-गुजन् ! जो ब्राह्मण जयोपजीवी हो वित्तं बयुर्वंयः कर्म किया भवति पञ्चमी ।

अर्थात् अष्टादशपुराण, रामायण, विष्णुधर्म, शिवधर्म, एतानि मान्यस्थानान गरीबो परम् ॥ महाभारत (भगवान् श्रीकृष्ण-द्वैपायन यासद्वारा रिचत (ग्रापर्ब ४) माभमत जो पञ्चम वेदके नामसे भी विम्यात हैं) तथा श्रोत

१- मा मम्वय ग भारप्रियाः ॥

तस्य तु शश यो आप ममागम् ात पुन्य जानकापायी ॥

आभ्यां समागम बनन् मा यो वास्प पमानभाक् ।।

(आमचे * =]

  • वेदाध्ययनविधि, ओंकार तथा गायत्रीमात्म्य

 

एवं स्मार्ग-धर्म (विद्वान् लेग इन सभी जय’ नामसे आचरण करता है, उसका वेद पढ़ना सफल हैं। जो वेदादि अभिहित करते हैं) का ज्ञाता हो, वह महागुरु कहलाता है। शास्त्रको आकर धर्मा उपदेश करते हैं, वहीं उपदेश छींक वह सभी वर्गोक लिये पुन्य है। जो सहारा थोड़ा सा बहुत है, किंतु जो मूर्ख वेदादि शास्त्रको जाने बिना धर्मका उपदेश उपकार को, उस भी उस पकाके बदले गुरु मानना करते हैं, वे बड़े पापके भागी होते हैं। शौचहत (अपवित्र), चाहिये । अवस्थामै चाहे अॅझ में न हो, पानसे यह बाइक वैसे हित तथा नयत वापराचे ज्ञों अन्न दिया जाता है, वह वृद्धका भी पिता में सकता हैं। राजन् ! इस विषयमें एक अन्न गेंदन करता हैं कि मैंने ऐसा कौन-सा पाप किया था जो प्राचीन आस्मान सुना है।

 

। ऐसे मूर्ख ब्राह्मणके आय पड़ा। और यहीं अन्न यदं |

पूर्वकालमें अग्नि मुनिके पुत्र बृहस्पति (बालक होनेपर, जय पजीवी को दिया जाय तो प्रसन्नतासे नाच उठता है और भी बड़े वृक्षों को पढ़ानें थे और पढ़ानेके समय ‘हैं कहता है कि ‘मॅग्न अभाग्य हैं, जो मैं ऐसे पाके मथ | पुत्रों ! ‘ ऐसा कड़ते थे। बान्कद्धा ‘पुत्र सम्बोधन आमा।’ विद्या और आपके पाससे सम्पन्न मायके में। सुनकर उनको अङ्ग क्षोभ हुआ और वे देवताओंके पास गयें आनेपर सभी अनादि औषधियाँ अति प्रसन्न होती हैं और तथा उन्होंने सारा वृत्तान्त ता । तब देवताओंने कहा- कहती हैं कि अब हमारीं भी गति में जायगी । व्रत, येद पितृगणों ! उस बालकने न्यायोचित बात हीं की हैं, क्योंकि और ज्ञपसे हॉन ब्राह्मणको दान नहीं देना चाहिये, क्योंकि | जो अश में अर्थात् कुछ न जानता हों यहीं सच्चे अर्थमें बालक पत्थरकी नाय दीके पार नवं उतार सकती। इसलिये | है, किंतु जो मन्त्रकों देनेवाला है (वेदकों पढ़ानेवाल हैं), ऑप्रियको ट्य-कव्य देनेसे देवता और चिंतकों में होनी | उपदेशक हैं, यह युथा आदि होनेपर भी पिता होता है । अवस्था है। घाके समीप अहवाले मूर्च माणसे दूर रहनेवाले विद्वान् अधिक होनसे, केश घेत होनेसे और बहुत विन तथा अधु- आझगको ही बुलाकर दान देना चाहिये। परंतु घरके समीप बाधक होनेसे कोई बड़ा नहीं होता, बल्कि इस विषयमें रहनेवाला ब्राह्मण यदि गायत्री भी जानता हो तो उसका ऋषियोंने यह व्यवस्था की है कि जो सियामै अधिक झों, यौं परित्याग न कहें। परित्याग मनसे शैव नरककी प्राप्ति होती असे मान सा है। मामण, क्षत्रिय, मैं और में है, क्योंकि झाग चा निर्गण हो या चान, पन वह वः क्रमशः ज्ञान, बाल, घन नया जन्ममें बम होता है। सिरके गायत्रीं जानता हैं तो वह ममदेव-स्वरूप है। असे अन्नसे शत बाल चैत में जानेसे कोई वृद्ध न होता, यदि कई युवा भी प्राम, जलसे हित कूप केवल नामधारक हैं, वैसे ही बेदादि काका भलीभाँति ज्ञान प्राप्त कर लें तो उसमें वृद्ध विद्याध्ययनसे रहित चाह्मण भी केवल नाममात्रका प्रायग है। (मन) समझना चाहिये। जैसे कमाघसे बना थी, चमड़ेसे प्राणियों के कल्याणके लिये हिमा तथा प्रेमसे ही | पड़ा मृग किसी कामका नहीं, उसी प्रकार वेदसे होन ब्राह्मणका अनुशासन करना श्रेष्ठ है। धर्मकी इच्छा करनेवाले शासकको | जम निकल है। मूर्खको दिया हुआ दान जैसे निष्फल होता सदा मधुर तथा नम्र चनोंका प्रयोग करना चाहिये। जिसके है, वैसे ही वेदक ऋचाओंको न जाननेवाले बायका जन्म मन, वचन चुछ और सत्य हैं, यह केंदामें कहें गये मोक्ष निष्फल होता है। ऐसा माह्मण नाममाका माह्मण होता है। आदि फलको प्राप्त करता हैं। आर्त होनेपर भी ऐसा वन |वैका स्वयं कथन है कि हमें पका हुमय अनुदान न कभी न कहें जिससे किसकी आत्मा हल्ली में और सुनने कने वह पढ़ने का अर्थ होश उठाता है, इसमें वेद पङ्कन वालों को अच्छा न लगे। इसका अपकार करने की शुरू नहीं केंद को हुए कमौका जो अनुष्ठान करता है अर्थात् तदनुकूल करनी चाहिये । पुरुषकों जैसा आनन्द मीठी वाणीले मिलता है,

जपॉपबॉयों में विपः म म यते । धान मम चरितं तुषा।। विधर्माद धर्माः विधर्मा भारत । न ई पर्म तु ममापन स्मृतम्।। अता धर्माध नाम मापते । जति नाम नै प्रदत्त मनवः ||

 

पुराण में हुई मसर्वसौपदम्

 

[ संक्षिप्त पविण्यपुरामा वैसा आनन्द न चन्द्रकिरणसे मिलता है, न चन्दनसे, न शीतल चाहिये । वह जल, पुष्य, गौ गोबर, मृत्तिका और कुशा तथा झयासे और न शीतल असे’। ब्राह्मणको चाहिये कि आवश्यकतानुसार भिक्षा नित्य लायें । ज्ञों पुरुष अपने कर्मोन सम्मानकी इकों भयंकर विवके समान समझकर उससे तात्पर हों और वेदादि-शास्त्रोको पर्ने तथा यज्ञादिमें श्रद्धावान् इता रहे और अपमानको अमृतके समान स्वीकार करें, में, ऐसे गृहस्थकै घरसे ही ब्रह्मचारी भिक्षा ग्रहण करनी क्योंकि जिसकी अवमानना होती है, उसकी कुछ हानि नहीं चाहिये । गुरुके कुलमें और अपने पारिवारिक क्षु-बान्धवोके होतीं, यह सुखी ही रहता है और जो अवमानना करता है, वह से भिक्षा न माँग । अदि भिक्षा अन्यत्र न मिले तो इनके विनाशको प्राप्त होता है। इसलिये तपस्या करता हुआ द्विज घरसे भी भिक्षा प्रण कहें, किंतु ज़ों महापातक ह उनकी नित्य नेम अभ्यास कने, पकि वेदाभ्यास ही झाह्मणका भिसा न ले। नित्य समया लाकर सायंमल और प्रातःकाल परमं तप हैं।

हवन । भिक्षा माँगनके समय वाणी संयमित रखें। ब्राह्मणके तीन जन्म होते हैं—एक तो माताकें गर्भसे, ब्रह्मचारीके लिये भिक्षाका अन्न मुख्य है। एक्का अन्न नित्य दूसरा यज्ञोपवीत होनेसे और तीसरा यज्ञकी दीक्षा लेनेसे। न लें। भिक्षावृतिसे रहना उपवासके बराबर माना गया है। यह यज्ञोपवीतके समय गायत्री माता और आचार्य पिता होता है। धर्म केवल ब्राह्मणके स्न्येि कड़ा गया है, क्षत्रिय और वैश्य वेदक शिक्षा देनमें आचार्यको पिता कहते हैं, क्योंकि धर्म में कुछ भेद हैं। यज्ञोपवीत होनेके पूर्व किसी भी वैदिक कर्मकं करनेका ब्रह्मचारी गुरुके सम्मुख हाध जोड़कर खा रहें, जब अधिकारीं यह नहीं होता । आमें पड़े जानेवाले वेदमन्त्रोंको गुस्की आज्ञा हो तब बैठे, परंतु आसनर न बैठे। गुरुके ओड़कर (अनुपनीत द्विज’) वेदमन्त्र उच्चारण न करे, क्योंकि अठनेमें पूर्व उठे, सोनेके पश्चात् सोये, गुरुके सम्मुख अति जबतक वेदारम्भ न हों आय, तबतक वह शुदके समान माना नम्रतासे बैठे, पक्षमें गुरुको नाम उच्चारण न करें, किसी भी गया है। अज्ञोपवीत सम्पन्न में जानेपर वटुको व्रतका उपदेश बातमें गुरुका अनुकरण अर्थात् नकल न करें। गुरुकी निन्दा ग्रहण करना चाहिये और तभीसे विधिपूर्वक वेदाध्ययम मना न करें और ज्ञहीं निन्दा होती हो, आलोचना होती है वहाँले चाहिये। यज्ञोपवीतके समय ज्ञ-जों मेखला-चर्म, दण्ड और उठकर चल ज्ञाय अथवा कान बंद कर लें— यापवत तथा वस्त्र जिस-जिसके लिये कहा गया है वह-वह पवादाचा निन्दा गुरोर्यत्र प्रवर्तते ।। ही आरण करें। अपनी तपस्याकी वृझिके लिये ब्रह्मचारी क व पितयो गत झा नतोऽन्यतः ॥ जितेन्द्रिय होकर गुल्के पास रहे और नियमका पालन करता रहे। नित्य स्नानका पवित्र हो देवता, ऋषियों तथा पितरोंका वाहनपर चढ़ा हुआ गुरुका अभिवादन न , अर्थात् तर्पण को। पुष्प, फल, जल, समिधा, मृत्तिका, कुशा और वाहनसे उतरकर प्रणाम करे । गुस्के साथ एक वाहन, शिस्त्र, अनेक प्रकारके यात्रोंका संग्रह रखें। मद्य, मांस, गन्ध, नौकायान आदिपर बैठ सकता है। गुरुके गुरु तथा श्रेष्ठ पुष्पमाला, अनेक प्रकारके रस और स्त्रियांका परित्याग । सम्बन्धीजनों एवं गुरुपुत्रके साथ गुरुके समान ही व्यवहार प्राणियों की हिंसा, शरीर में उबटन, अंजन लगाना, जुता और कने। गुल्कों सवर्णा को गुरुके समान हीं समझे, परंतु छत्र धारण करना, गीत सुनना, नाच देखना, जुआ खेलना, गुरुपत्रके उबटन लगाना, स्नानादि कराना, चरण दबाना आदि झूठ बोलना, निन्दा करना, स्तियोंके समीप बैठना और काम, क्रियाएँ निषिद्ध है। माता, बहन या बेटांके साथ एक कोष तथा लोभादिके वशीभूत होना इत्यादि बातें आसनपर न बैठे, क्योंकि बलवान् इन्द्रियों समूह विदाको ब्राह्मचारीके लिये निषिद्ध है। उसे संयमपूर्वक एकाकी रहना भी अपनी ओर खींच लेता है। जिस प्रकार, भूमिकों या शॉ ने सलिल न दामों में तलवाया | पानि च प ब मधुनी वागीं ॥

[ पर्व ४।६३)

माना बना इजा वा मन अत्

मलवाHदयघाम बंदमम कति

 

वेदाध्ययन-विधि, ओंकार तथा गायत्री-माहात्म्य । खोदते-खोदने जल मिल जाता है, उसी प्रकार सेवा-शुश्रुषा पिता की भक्तिसे इहलोक, माताकी भक्तिसे मध्यक करते-करते गुरुसे विद्या मिल जाती है। मुण्डन कराये हो, और गुस्से सेवासे इन्द्रलोक प्राप्त होता है। जो इन तीनों जटाधारी हो अथवा शिग्री (व शिसे मुक्त हों, चाहे या करता है, उसके सभी धर्म सफल में जाते हैं और ज़ों जैसा भी ब्रह्मचारी हो उसको गाँवमें रहते हुए सूर्योदय और का आदर नहीं करता, उसको सभी क्रियाएँ निष्फल होती | सूर्यास्त नहीं होना चाहिये। अर्थात् ज्ञल्के तट अथवा निर्जन हैं। जबतक ये तीनों जीवित राते हैं, तबतक इनकी नित्य स्थानपर जाकर दोनों संध्या संध्या-वन्दन करना चाहिये। सेवा-शुश्रुषा और इनका हित करना चाहिये । इन तीनोंकी जिसके सोते-सोते सूर्योदय अथवा सूर्यास्त हो जाय वह महान् सेवा-यासपी धर्ममें पुरुषका सम्पूर्ण कर्तव्य पूरा हो जाता पापका भागी होता है और बिना प्रापश्चत्त (कृच्छ्मत) के हैं, यहीं साक्षात् धर्म है, अन्य सभी धर्म क गये हैं। शुद्ध नहीं होता।

उत्तम किया अधम पुरुषमें हो तो भी उससे ग्रहण कर माता, पिता, भाई और आचार्यका विपत्तिमें भी अनादर लेनी चाहिये। इसी प्रकार चाण्डासे भी मोक्षधर्मको शिक्षा, न कहें। आचार्य ब्रह्माकी मूल है, पिता अनापतिकी, मला नीच कुसे भी उत्तम स्वी, विषसे भी अमृत, बालकसे भी पृथ्वीकों तथा भाई आममूर्ति हैं। इसलिये इनका क्दा आदर सुन्दर उपदेशात्मक बात, शत्रुसे भी सदाचार और अपवित्र करना चाहिये। प्राणियोंकी उत्पत्तिमैं तथा पालन-पोषणमें स्थान में भी सुवर्ण मण कर लेना चाहिये । उत्तम ली, रत्न, माता-पिताको ज़ों क्लश सहन करना पड़ता है, उस का विद्या, धर्म, शौंच, सुभाषित तथा अनेक प्रकारके शिल्प बदल वें सौ वर्षोंमें भी संवा करके नहीं चुका पाते। इसलिये जहाँसे भी प्राप्त हों, ग्रहण कर लेने चाहिये। गुरुके माता-पिता और गुरूकी सेवा नित्य करनी चाहिये । न तीनोंके हीर-स्यागपर्यत जो गुरुकों सेवा करता है, वह श्रेष्ठ संतुष्ट हो जाने से सब करके तपोंका फल प्राप्त हो जाता है, ब्रह्मलोकको प्राप्त करता है। पड़नेके समय गुरुको कुछ देकीं इनकी शुश्रूषा ही परम वप कम गया है। इन तीनोंकी आज्ञा इ न को, किंतु पढ़नेके अनत्तर गुको आज्ञा पाकर भूमि, बिना किसी अन्य धर्मका आचरण नहीं कमाना चाहिये। ये ही सुवर्ण, गौ, घोड़ा, छत्र, पान, धान्य, शक तथा वस्त्र आदि तीनों लोक हैं, में ही तीनों आश्रम हैं, ये ही तीनों वेद हैं और अपनी शक्ति के अनुसार गुरु-दक्षिणाके रूपमें देने चाहिये। ये ही तीनों अग्नियाँ हैं। माता गार्हपत्य नामक अग्नि हैं, पिता जब गुस्का देहांत हो जाय, तब गुणवान् गुरुपुत्र, गुरुकीं सूची दक्षिणाम-स्वरूप है और गुरु आहवनीय अन्न है । जिसपर ये और गुरुके भाइयोंकि साथ के समान ही व्यवहार करना। तीनों प्रसन्न हो जायें, वह तीनों लोकोंपर विजय प्राप्त कर लेता चहिये । इस प्रकार जो अविच्छिन्न-रूपसे ब्रह्मचारि-धर्मका हैं और दीप्यमान होते हुए देवकमें देवताओंकी भाँति सुन्न आचरण करता है, वह ब्रह्मलोक प्राप्त करता है। भोंग करता है। सुमनु मुनि पुनः बोले-हे राजन् ! इस कार मैंने त्रिषु तु चैनेषु श्रील्लोकायतें गी । ब्रह्मचारिधर्मका वर्णन किया। ब्राह्मणको उपनयन यसत्त, दीप्यमानः स्ववपुषा देववदिवि मोदते ॥ क्षत्रिपका प्रोममें और वैश्यका शरद् ऋतुमें प्रशस्त माना गया है। अब गृहस्थधर्मका वर्णन सुने ।

(अध्याय ]

 

भाग अाजों मूर्तिः पिता मुर्तिः जापतेः

मातायपादिनिर्माता सानैरात्मनः

मातापित हो सहेजें सम्भवं नृणाम्

ताम्य नितिः शया वर्षापं

 

२-श्रद्दधानः शुभो बिद्यामाददताबपुष ।

अस्यापि पर धर्म सरलं दुष्कुमदपि ।

 सिम मा बाल्य सुभाषितम् ।

मादप दत्तममेटी क्याम् ।।

शापर्व है ।

 

+ पुराणं परमं पुण्यं भविष्यं र्वसौख्यदम्

 

[ संक्षिप्त भविष्यपुराणा विवाह-संस्कारके ऊपक्रममें वियोंके शुभ और अशुभ लक्षणोंका वर्णन

तथा आचरणकी श्रेष्ठता। सुमन्तु मुनि बोले-राजन् ! गुरुके आश्रममें ब्रह्मचर्य- है। जिस स्त्रीके हाथ फटे हुए, रूखे और विषम अर्थात् व्रतका पालन करते हुए स्नातकको वेदाध्ययन कर गृहस्थाश्रममें ऊंचे-नीचे एवं ग्रेटे-बड़े हों वह कष्ट भोगती हैं। जिस स्त्रीकी प्रवेश करना चाहिये। घर आनेपर उस ब्रह्मचारीको पहले अँगुलियोंके पर्वोमं समान रेखा हो अथवा यव चिह्न होता है, पुष्प-माला पहनाकर, शयापर बिठाकर उसका मधुपर्क- उसे अपार सुख तथा अक्षय धन-धान्य प्राप्त होता है। जिस विधिसे पूजन करना चाहिये । तब गुरुसे आज्ञा प्राप्तकर उसे शुभ स्वीका मणिबन्ध सुस्पष्ट तीन रेखाऑसे सुशोभित होता है, वह लक्षणसे युक्त सनातय कन्या विवाह करना चाहिये। चिरकालतुक अक्षय भोग और दौर्य आयकों प्राप्त करती है।

राजा शतानीकने पूछा-हे मुनीश्वर ! आप प्रथम जिस लकी ग्रीवामें चार के परिमाप स्पष्ट तीन सिके लक्षणोंका वर्णन करें और यह भी बतायें कि किन खाएँ । तो वह सदा के आभूषण धारण करनेवाली होती लक्षणसे युक्त कन्या शुभ होती हैं। दुर्बल मवावा लीं निर्धन, दीर्घ मवावालीं बंधकी, सुमन्तु मुनि बोले-राजन् ! पूर्वकालमें ऋषियोंके इस्वप्नवाया मृतवत्सा होती है और स्थूल ग्रयावालों पृनैपर ब्रह्माजींनी स्त्रियों को उत्तम लक्षण कहें हैं, उन्हें मैं दुःख-संताप प्राप्त करती है। जिसके दोनों कंधे और काटिम संक्षेपमें बताता हैं, आप ध्यान देकर सुनें। (गरनका उठा हुआ पिछला भाग) ऊँचे न हों, वह स्त्री दीर्घ ब्रह्माजीने का अधिगणों ! जिस के चरण लाल आयुयाली तथा उसका पति भी चिरकालतक जीता है। कम समान कात्तिवाले अन्यत्र कोमल तथा भूमिपर, जिस लींकी नासिका न बहुत मोटी, न पतली, न देदी, न समतल-पसे पड़ते हों, अर्थात् बीचमें ऊँचे न रहें, वें चरण अधिक थीं और न ऊँचीं होतीं हैं वह श्रेष्ठ होती है। जिस उत्तम एवं सुख-भोग प्रदान करनेवाले होते हैं। जिस स्त्री स्त्रीकी मौई ऊंचीं, कोमल, सूक्ष्म तथा आपसमें मिली हुई न चरण में, फटे हुए, मसहित और नाड़ियोंसे युक्त हों, वह हों, ऐसौं व सुख प्राप्त करती हैं। अनुपके समान भौहें सौभाग्य स्त्री दरिंदा और दुर्भगा होती है। यदि पैकी अंगुलियाँ परस्पर प्रदान करनेवाली होती है। स्त्रियोंके काले, स्निग्ध, कोमल और मिओं में, सीधी, गोल, स्निग्ध और सूक्ष्म नौसे युक्त हों तो ये मुंघराले केश उत्तम होते हैं। ऐसी स्त्री अत्यन्त ऐश्वर्यको प्राप्त करनेवाली और राजमहियों होती हंस, कोयाल, वीणा, अमर, मयूर तथा वेणु (वंश) के है। ऑटों अँगुलियाँ आयुको बढ़ाती है, परंतु कोटीं और विरल समान स्वरवा स्त्रियाँ अपार सुख-सम्पत्ति प्राप्त करती हैं और अंगुलियाँ धनका नाश करनेवाली होती हैं।

दास-दासियोंसे मुक्त होती हैं। इसके विपरित टें हुए काँसके जिस के हाथकी रेखाएँ गरी, स्निग्ध और रक्तवर्णको स्वरके समान स्वरवाली या गर्दभ और कौवेके सदृश स्वरवालों होती है, वह सुख भोगनेवाली होती हैं, इसके विपरीत टेडी और स्त्रियाँ ग्रेग, व्याधि, भय, शोक तथा दरिद्रताको प्राप्त करती हैं। इटी हुई हों तो वह द्धि होती है। जिसके हाथमें नशाके हंस, गाय, वृषभ, चयाक तथा मदमस्त हाथके समान मुलन्से तर्जनीतक पूरी इंग्ला चले ज्ञाय तो ऐसीं ली सौ वर्षतक चालव्याल्में सिंचयाँ अपने कुलको विख्यात बनानेवाओं और जीवित रहती है और यदि न्यून हों तो आयु कम होती है। जिस राजा रानी होती हैं। श्वान, सियार और कौवेके समान स्त्रीके हाथों अँगुलियां गोल, लंबी, पतली, मिलानैपर गतिवाओं सी निन्दनीय होती है। मृगके समान गतिवाल दास छिद्ररहित, कोमल तथा रक्तवर्ण हो, यह बी अनेक तथा द्रुतगामिन सी बन्धक होती हैं। स्त्रियोंक्य फलिनी, सुख-भोगको प्राप्त करती हैं। जिसके नख बन्जीव – पुष्पके गोरोचन, स्वर्ण, कुंकुम अथवा नये-नये निकले हुए नरके समान अल एवं ऊँचे और स्निग्ध हों तो वह ऐश्वर्यको प्राप्त सदृश इंग उत्तम होता है। जिन स्त्रियोंके शरीर तथा अङ्ग करती हैं तथा अखें, टेले, अनेक प्रकारके रंगवाले अथवा श्वेत कमल, ग्रेम और पसीनमें रति तथा सुगन्धित होते हैं, वे या नीले-मीले नोंवाली लौ दुर्भाग्य और दारिद्र्यको प्राप्त होती स्त्रियाँ फूज्य होती हैं ।

कपिल-वर्णवाली, अधिकाङ्ग, रोगिणी, मोंसे रहित, (बवासीर), क्षय (राजयक्ष्मा), मन्दाग्नि, मिरगीं, अंत दाग अलात कोटी (बौनी), वाचाल तथा सिंगल वर्णवाओं कन्याओं और कुल-जैसे गैंग हॉर्ने हों। विवाह नहीं करना चाहिये। नक्षत्रा, वृक्ष, नहीं, म्लेच्छ, पर्वत, मनीने वियाने पुनः कहा—ये सब नाम लक्षण पश, साँप आदि और दासके नाम जिसका नाम से तथा जिस कन्यामें हों और जिसका आचरण भी अच्छा हो उस इसने नामवाली कन्या विवाह नहीं करना चाहिये। जिसके कन्यासे विवाह करना चहिये। बीके लक्षणोंकी अपेक्षा उसके सव अङ्ग ठीक हैं, सुन्दर नाम हो, हंस या हाथोकी-सी गति हो, सदाचारकों में अधिक प्रशस्त कहा गया हैं। जो लीं सुन्दर को सूक्ष्म ग्रॅम, केश और दाँतोंवाली तथा बेमलने हों, ऐसी शरीर तथा शुभ लक्षणसे युक्त भी है, किंतु यदि वह कन्याको विवाह करना उत्तम होता है। गौ तथा धन-धान्यादिसे सदाचारसम्पन्न (उत्तम आचरणयुक्त) नहीं है तो वह प्रशस्त अत्यधिक समृद्ध होनेपर भी इन दस कुस्नमें विवाहका सम्बन्ध नहीं मानी गयी हैं। अतः स्त्रियोंमें आचरणकी मर्यादा अवश्य स्थापित नहीं करना चाहिये जो संस्कारोंसे रिहत हों, जिनमें देखना चाहिये। ऐसे मल्लक्ष तथा सदाचार सम्पन्न पुरुष-संतति न होती है, जो वेदके पठन-पाठनसे रहित हों, सुकन्यासे विवाह करनेपर ऋद्धि, वृद्धि तथा सत्कीर्ति प्राप्त जिनमें सी-पुरुषके शरिरॉपर बहुत लंबे केश हों, जिनमें अर्श होती हैं।

 

(अध्याय ५)

गृहस्थाश्रममें अन एवं स्त्रीकी महत्ता, धन-सम्पादन करनेकी आवश्यकता तथा समान कुलमें विवाह-सम्बन्धकी प्रशंसा राजा शतानीकने सुमनु मुनिसे पूछा-भगवन् ! उनके जीवनको धिक्कार है, उनके लिये तो मृत्यु हौं परम उत्सव लियोंके लक्षणों तों मैंने सुना, अब इनकें सद्वृत्त है अर्थात् ऐसे पुरुषका मर जाना ही श्रेष्ठ है। अतः ग्रहण | (सदाचार) को भी मैं सुनना चाहता हैं, उसे आप बतलानेकी करनेवाले अर्थहीन पुरुपके त्रिवर्ग-(धर्म, अर्थ, काम-की कृपा करें।

‘सिद्धि काँ सम्भव है ? यह ऑ-सुख न प्राप्त कर यातना हो सुमन्तु मुनि झोले–मह्मवाहू शतानीक ! ब्रह्माजीने भौगता हैं। जैसे स्त्रीके बिना गृहस्थाश्रम नहीं हो सकता, उस ऋपियाँको सियोंके सदसत्त भी बताये हैं, उन्हें मैं आपको प्रकार धन-विहीन व्यक्तियोंक भी गृहस्थ बननेका अधिकार सुनाता हैं, आप अयानपूर्वक सुनें । जब ऋषिपौने चिपके नहीं है। कुछ लोग संतानों में विवर्गक साधन मानते हैं। सहके विपसमें ब्रह्माजीसे प्रश्न किया बह्माजी ने अर्थात् संतानसे हीं धर्म, अर्थ और कामकी प्राप्ति होती हैं, लगे-मुनीश्वरों ! सर्वप्रथम गृहस्थाश्रममें प्रवेश करनेवाला ऐसा समझते हैं; परंतु नीतिविशारदको यह अभिमत हैं कि व्यक्त यथाविधि विद्याध्ययन करके सत्कर्मीद्वारा घनका धन और उत्तम वी–दें दोनों त्रिवर्ग-साधनके हेतु हैं। अर्म उपार्जन करें, तदनन्तर सुन्दर लक्षणसे युक्त और सुशील भी दो प्रकारका कहा गया है— धर्म और पूर्त धर्म। कन्याको शास्त्रोक्त विधिसे विवाह करें। धनके बिना गृहस्थाश्रम यज्ञादि करना इष्ट धर्म है और थाप, कुप, ताशय आदि केवल विडम्बना है। इसमें धन-सम्पादन करनेके अनच बनवाना मूर्त धर्म है। ये दोनों घनसे ही सम्पन्न होते हैं। हौं गृहस्थाश्रममें अवैश करना चाहियें। मनुष्यके लिये घर दरिद्रीकै बन्धु भी उससे लजा करते हैं और धनाढ्य नरक यातना सहनी अच्ओं है, किंतु अमें क्षुधासे तड़पते अनेक बन्धु हो जाते हैं। धन ही त्रिवर्गका मूल हैं। धनवान्ने हुए – दैना अच्छा नहीं है। फटें और मै–कुनैले चिया, कुल शी अनेक उनम गुण आ जाते हैं और निनिमें वस्त्र पहने, आँत दीन और भूखें स्त्री-पुत्रों को देखकर जिनका विद्यमान होते हुए भी ये गुण नष्ट हो जाते हैं। शास्त्र, शिल्प, हृदय विदीर्ण नहीं होता, वें क्के समान अति कठोर हैं। कलम और अन्य भौं जितने कर्म हैं, उन सबको तथा धर्म का लक्षणेभ्यः पन्नास तु मन मनमुनी

मदतक्ता या सी मा माला ना लक्षणः

 

* पुराणं परमं पुण्यं भविष्यं सर्वसौख्यदम् +

[ संक्षिप्त भविष्यपुराणाङ्क साधन भी धन हौं हैं। घनके विना पुरुषका जन्म अजागल- अमाप नरः तद्वदयोग्यः सर्वकर्मसु ॥ स्तनयत् व्यर्थ ही है।

(कपर्श ६ ॥ ३३)

पूर्वजन्ममें किये गये पुण्योंसे ही इस जन्ममें प्रभूत धनकी पली-परिग्रहसे धर्म तथा अर्थ दोनोंमें बहुत लाभ होता प्राप्ति होती हैं और धनसे पुण्य होता है। इसलिये धन और है और इससे आपसमें प्रति उत्पन्न होती हैं, सत्प्रीतिसे पुण्यका अन्योन्याश्रय सम्बन्ध हैं अर्थात् ये एक दूसरेके कारक कामरूपी तृतीय पुरुषार्थ मी प्राम में जाता हैं, ऐसा विद्वानों का हैं। पुण्यसे धनार्जन होता है और मनसे पुण्यार्जन होता है= कहना है। विवाह-सम्बन्ध तीन प्रकारका होता है-नीच

प्राक्पुण्यैर्बिपुरा सम्पर्मकामादिया। कुलमें, समान कुलमें और उत्तम कुलमें। नीच कुलमें विवाह भूयों अर्मेण सामुन्न तया ताविति च क्रमः ॥ कानेसे निन्दा होती है। उत्तम कुलवाले के साथ विवाह करने से ये अनादर करते हैं। अपने बड़े होगोंके साथ बनाया गया इसलिये विद्वान् मनुष्यको इस निसें त्रिवर्ग-साधन विवाह सम्बन्ध, नचिके साथ बनाये गये विवाह-सम्बन्धक करना चाहिये। स्वाँरहित तथा निर्धन पुरुषका त्रिवर्ग-साधनमें प्रायः समान हौं ह्येता हैं। इस कारण अपने समान कुलमें हों। अधिकार नहीं हैं। अतः भा-महणसे पूर्व उत्तम निमें विवाह करना चाहिये । मनस्व लोंग विजातीय सम्बन्ध भी अर्थार्जन अवश्य कर लेना चाहिये। न्यायोपार्जित धनकी प्राप्ति तक नहीं मानते। यह वैसा हीं सम्बन्ध होता हैं जैसे कोयल | होनेपर दार-परिग्रह करना चाहिये। अपने कुलके अनुरूप, और शुका । जिस सम्बन्धमें प्रतिदिन स्नैकी अभिवृद्धि होतीं।

धन, क्रिया आदिसे प्रसिद्ध, अनिन्दित, सुन्दर तथा धर्मकी रहती हैं और विपति-सम्पत्तिके समय भी प्रमाणातक भी देनमें | साधनभुता कन्याको प्राप्त करना चाहिये । जबतक विवाहु न विचार न किया जाय, यह सम्बन्ध उत्तम कहलाता है। परंतु होता है, तबतक पुरुष अर्ध-शरीर ही होता है। इसलिये यह बात उनमें ही होती हैं जो कुल, शील, विद्या और धन | यथाक्रम अचित अवसर प्राप्त हो जानेपर विवाह करना चाहिये। आदिमें समान होते हैं। मनुष्योंके स्नेह और कृतज्ञताकी परीक्षा | जैसे एक पहियंका रथ अथवा एक पखवा पक्षी किसी विपतिमें ही होती है। इसलिये विवाह और परामर्श समान के कार्य में सफल नहीं हो पाता, वैसे ही श्रीहीन पुरुष भी प्रायः साथ ही करना चाहिये, अपने से बड़े तथा टेके साथ नहीं। सभी धर्मकृत्योंमें असफल ही रहता है इसमें अको मित्रता हनी ।

एकवको रथों यदेकपक्षो यथा खगः ।।

 

(अध्याय ६)

 

विवाह-सम्बन्धी तत्वका निरूपण, विवाहयोग्य कन्याके लक्षण, आठ प्रकारके विवाह, ब्रह्मावर्त, आर्यावर्त आदि उत्तम देशोंका वर्णन ब्रह्माजीं बोलें-मुनीश्वरो ! जो कन्या माता सपिण्ड अपने-अपने वर्णकी कन्या विवाह करना श्रेष्ठ कया गया है। । अर्थात् माताकी सात पोईके अन्तर्गतको न हो तथा पिताके चारों वर्गोंकि इस हॉक और लौक में हिताहित के समान गोत्रकी न हों, वह द्विजातियोंके विवाह-सम्बन्ध तथा साधन करनेवाले आठ प्रकार के विवाह कहे गये हैं, जो इस संतानोत्पादनके लिये प्रशस्त मानी गयी है। जिस कन्या प्रकार हैं | भाई न हो और जिसके पिता सम्बन्धमें कोई जानकारी न हो ब्राह्म, दैव, आर्ष, प्राजापत्य, आसुर, गान्धर्व, राक्षस ऐसी कन्यासे पक्किा-धर्मकी आशंका बुद्धिमान् पुरुष तथा पैशाच। अच्छे शौल-स्वभाववाले उत्तम कुलके वरकों विवाह नहीं करना चाहिये। धर्मसाधनके लिये चारों बौको स्वयं बुलाकर उसे अलंकृत और पूजित कर कन्या देना ‘ब्राह्म

१-अमपिण्ड्रा चे या मातुरसगोत्रा च या पितुः । सा प्रशस्ता द्विजातीनां दरकर्मीण मैने ॥ (मायापर्य छ । १, मनु ३ ॥ ५} २-पिता जिसके पुत्र में अपने पिण्ड-पानीकी आशा करता है उसे पुत्रिका कहते है।

 

  • विवाहमम्मी का निरूपप, विवाहयोग्य कन्याके लक्ष

 

वियाह हैं। यज्ञमें सम्यक् प्रकार को कर्म करते हुए ऋत्विको घोड़ा ॐ या अधिक, वह कन्या मूल्य ही गिना जाता है, अलंकृत का कन्या दैनंको ‘दैव-विवाह कहते हैं। बरसे एक इसलिये वरसे कुछ भी लेना नहीं चाहिये। जिन कन्याओके या दो जोड़े गाय-बैल अमर्थ लेकर विधिपूर्वक कन्या देनको निमित्त वर-पक्षसे दिया हुआ वस्त्राभूषणादि पिता-आता आदि “आर्य-विवाह’ कहते हैं। तुम दोनों एक साथ गृहस्थ-धर्मका नहीं लेते, प्रत्युत कन्याको ही देते हैं, वह विक्रय नहीं है। यह पालन करें यह कहकर पुजन करके जो कन्यादान किया कुमारियोंका पूजन हैं, इसमें कोई हिंसादि दोष नहीं हैं। इस जाता है, वह ‘आज्ञापत्य-विवाह’ कहलाता है। कन्याके पिता प्रकार उत्तम विवाह करके उत्तम देशमें निवास करना चाहिये, आदिकों और कन्याक भी यथाशक्ति धन, आदि देकर इसमें बहुत यश प्राप्ति होती है। स्वच्छन्दतापूर्वक कन्याका प्रहण करना ‘आसुर-वियाह हैं। यिने पूछा-ममन् ! बह कौन-सा देश है, जहाँ कन्या और यकी परस्पर इच्असे जो विवाह होता हैं, उसे निवास करनेसे धर्म और अशकों वृद्धि होती हैं ? ‘गान्धर्व-विवाह’ कहते हैं। मार-पीट करके रोती-चिल्लाती ब्रजी बोले-मुनरो ! जिस देशमें धर्म अपने कन्याका अपहरण करके ना ‘राक्षस-विवाह’ है। सोयी हुई, चारों के साथ रहे, जहाँ विद्वान् लौंग निवास करते हों मदसे मतवाली आ ओं कन्या पागल हो गयी हों उसे गुप्तरूपसें और सारे व्यवहार, शास्त्रोक्त-रीतिसे सम्पन्न होते हों, वहीं देवा उचा में आना ग्रह ‘पैशाच’ नामक अम कोटिका विवाह हैं। उत्तम और नियाम करने योग्य है।

ब्राह्म-विवाहसे उत्पन्न धर्माचारी पुत्र दस पीढ़ी आगे और ऋषियोंने पूछा–महाराज ! विद्वान् जिस शास्त्रोक्त इस पौंड़ पौके कुका तथा इक्कीसवाँ अपना भी उद्धार आचरण प्रण करते है और धर्मशास्त्रमें जैसी विधि निर्दिष्ट करता हैं। दैव-विवाहसे उत्पन्न पुत्र सात पीढ़ी आगे तथा सात की गयी है उसे हमें बतायें, हमें इस विषयमें महान कौतुहरू पौढ़ी पीछे इस प्रकार चौदह पौंदियोंका उद्धार करनेवाला होता हो रहा है। है। आर्ष-विवाहमें उत्पन्न पुत्र तीन अगले तथा तीन पिछले मानी बोले-गुग-द्वेषसे हित सज्जन एवं विद्वान् कलौका उद्धार करता है तथा आापत्य-विवाहसे उत्पन्न प्रम जिस धर्मका नित्य अपने शुद्ध अन्तःकणसे आचरण करते हैं, छः पीके तथा छः आगेके कुलोंको तारता है। ब्राह्मादि आद्य उसे आम सुनें चार विवाहोंसे उत्पन्न पुत्र ब्रह्मतेजसे सम्पन्न, शीलवान्, रूप, इस संसारमें किसी वस्तुकी कामना करना श्रेष्ठ नहीं हैं। सत्त्वादि गुणोंसे युक्त, धनवान्, पुत्रवान्, यशस्वी, पर्मिट्स और वेदोंका अध्ययन करना और वेदविहित कर्म करना भी काम्य दीर्घजीवी होते है। शेष चार विवाहसे उत्पन्न पुत्र क्रूर-स्वभाव, हैं। संकल्पसे कामना उत्पन्न होती है। वेद पढ़ना, यज्ञ करना, धर्मद्वषों और मिथ्यावादी होते हैं। अनिन्दित विवाहोंसे संतान मात-नियम, धर्म आदि कर्म व संकल्पमूलक हीं हैं। भौं अनिन्द्य ही होती है और निन्दन विवाहोंकों संतान भी इसीलिये सभी यज्ञ, दान आदि कर्म संकल्पपठनपूर्वक किये निन्दित होती हैं। इसलिये आसुर आदि निन्द्रित विवाह नहीं जाते हैं। ऐसी कई भी क्रिया नहीं है, जिसमें काम न हो। जो करना चाहिये । कन्याका पिता बरसे यत्किंचित् भी धन न ले। कोई भी जो कुछ करता है वह इसे मैं करता है। वरकम घन लेनेसे वह अपत्यविक्रय अर्थात् संतानका श्रुति, स्मृति, सदाचार और अपने आत्माको प्रसन्नता बेचनेवाला हो जाता है। जो पति या पिता आदि सम्बन्धी वर्ग इन चार वातोंमें धर्मका निर्णय होता है। श्रुति तथा स्मृतिमें कहें मोहवश कन्याके धन आदिसें अपना जीवन चलाते हैं, वे गये धर्मके आचरणसे इस कमें बहुत यश प्राप्त होता हैं और अधोगतिको प्राप्त होते हैं। आर्ष-विवाहमें जो गो-मिधून पल्लेकमें इन्द्रलोककी प्राप्ति होती हैं। श्रुति वैदको कहते हैं। लेनकी बात कही गयी है, वह भी ठीक नहीं है, क्योंकि चाहें और स्मृति धर्मशास्त्रका नाम हैं। इन दोनोसे सभी बातों का १-मकी गणना पार भुस्याम है | भोगको कामनाके विरूद्ध योग, म, जप-तप, धर्मसंस्थापन भी गति-मुकि ममना ही शुभ कामना हैं। गीता ४) में भी भावान्, ‘धर्माविरुद्ध यु काममि भावम्॥’महल पाये इन चमकी और प्रेरित करने की भाशा ते हैं। पाहू शक कमले निम्ताकी जननी है। वैदिक कर्मयोग भी भयाण सकाम कहनेका यी भाव है।

 

* पुराणं परमं पुण्यं भविष्य सर्वसौख्यदम् =

 

[ संक्षिप्त भविष्यपुराणा विचार करें, क्योंकि धर्मकी जड़ में ही हैं, जो धर्मके मूल इन ब्रह्मर्षियों के द्वारा सेवित हैं, परंतु ब्रह्मावर्तमें कुछ न्यून है। इन दोनका तर्क आदिके द्वारा अपमान करता है, उसे सत्पुरुषों देशोंमें उत्पन्न हुए ब्राह्मणोंसे सब देशके मनुष्य अपना-अपना तिरस्कृत कर देना चाहिये, क्योंकि वह बेदनिन्दक होनेसे आचार सौम्यते हैं । हिमालय और विंध्यपर्वतके बीच,

नास्तिक में हैं।

 

  1.  

विमशनसे पूर्व और प्रयागसे पश्चिम जों देश है उसे मध्यदेश | जिनके लिये मन्त्रद्वारा गर्भाधानको श्मशानतक कहते हैं। इन्हीं दोनों पर्वतके बीच पुर्व समुद्रसे पश्चिम संस्कारकी विधि कहीं गयीं है, उन्हीं लेगको केंद तथा जपमें समुद्रक जो देश हैं वह आर्यावर्त कहलाता है। जिस देशमें अधिकार है। सरस्वती तथा दृषद्वती–इन द बैंबनदियोंके कृष्णसार मृग अपनी इच्छासे निस्य विचरण करें, वह देश यज्ञ बींचका जो देश है वह देवताओद्वारा बनाया गया है, उसे करने योग्य होता है। इन शुभ देशोंमें ब्राह्मणको निवास करना ब्रह्मावर्त कहते हैं। उस देशमें चारों वर्ग और उपवर्म ज्ञों चाहिये। इससे भिन्न म्लेंच्छ देश हैं। हैं मुनीश्वरों ! इस प्रकार आचार परम्पग्रसे चला आया है, उसका नाम सदाचार है। मैंने यह देशव्यवस्था आप सबको संक्षेपमें सुनायी है। कुरुक्षेत्र, मत्स्यदेश, पाञ्चाल और सूरमदेश (मथुरा)-ये अन एवं सीके तीन आश्चय तथा सी-पुरुयॉर्क पारस्परिक व्यवहारका वर्णन ब्रह्माजी बोले-नीश्वरो ! उत्तम रौतसे विवाह सम्पन्न किसी पड़ोसीकों कष्ट नहीं देना चाहिये। नागपके द्वार, चौक, कर गृहस्थकों ज्ञों करना चाहिये, उसका मैं वर्णन करता हैं। यज्ञशालम, शिल्पियोंके रहने स्थान, जुआ खेलने तथा सर्वप्रथम गृहम् उत्तम देशमें ऐसा आश्चय नैना मांस-मयाद बेचनेकै स्थान, पाखड्डियों और जाके नौकाकै चाहिये, जहाँ वह अपने धन तथा स्त्रीने भलीभाँति रक्षा कर हनके स्थान, देवमन्दिरके मार्ग तथा राजमार्ग और के सके। बिना आपके इन दोनोंकी रक्षा नहीं हो सकतीं। ये महल–इन स्थानोंसे दूर, हनेके लिये अपना घर बनाना दोनों–धन एवं स्त्री–त्रिवर्गक हेतु हैं, इसलिये इनकी चाहिये । स्वच्छ, मुख्य मार्गाल्श, उत्तम व्यवहारथाले लोगोंसे प्रयत्नपूर्वक रक्षा अवश्य करनी चाहिये । पुरुष, स्थान और आवृत तथा दुष्टोंके निवाससे दूर-ऐसे स्थानमें गृहका निर्माण पर ये तीनों आश्रय कहलाते है। इन तीनों धन आदिक्य काना चाहिये । गृहकै भूमिकी छाल पूर्व अधवा उनकी और रक्षण और अर्थोपार्जन होता है। कुलीन, नीतिमान्, बुद्धिमान्, हो । रसोईघर, स्नानागार, गोंडाला, अत्तःपुर तथा शयन-कक्ष सत्यवादी, विनय, धर्मात्मा और दृती पुरुष आवायके ग्य और पुजाभर आदि सय अलग-अलग बनाये जायें । अन्तः होता है। जहाँ धर्मात्मा पुरुष रहते हों, ऐसे नगर अथवा ग्राममें पुरकी रक्षा के लिये वृद्ध, जितेन्द्रिय एवं विश्वस्त व्यक्तियोंकों निवास करना चाहिये। ऐसे स्थानमें गुरुजनौंकी अनुमति लेक नियुक्त करना चाहिये। स्त्रियौ रक्षा न करनेसे वर्णसंकर अथवा उस ग्राम आदिमें बसनेवाले श्रेष्ठजनोंक सहमति प्राप्त उत्पन्न होते हैं और अनेक प्रकारकै दोष भी होने देंखें गये हैं। कन रहनेके लिये अविवादित स्थल पर बनाना चाहिये, परंतु स्त्रियों की स्वतन्त्रता न दे और न उनपर विश्वास करें ।

ई-निगमों धर्ममृतं पात् मुताले त च ।

नयाचा साधूनामातुरेव । छ।

श्रुतिस्मृत्युदिन धर्ममुनिशन् । नमः ।

प्राय धेड़ नं कति यानि क्रमकताम्॥

श्रुतिनु वेदों वियों घर्मशानं तु मैं मुनिः ते सयाम ममाप्ये ज्ञाभ्यो धम हि भि ॥

यमन्येन ने चौथे हेतुशास्त्रअयाद् द्विजः ।

साधुभिवाय नहिं वेदनिन्दकः ॥

बेट- पतिः सदाचार; यस्य च नियमापनः ।

प्रताविधं विप्राः साक्षाद्धर्मस्य लक्षणम् ॥

[समर्थ छ । ३,५४=]

 

नदेशप्रसूता . सकाशादमजनमः वं वं चरित्र शिरन् पृविच्य सर्वमानवाः ।। ५६

भाममुनु दासमुहानु पशुमातु यस गिर्योगवनी विधाः बुझाई ६५

 

अनिमा यिक कर्तव्य एवं समाचारका वर्णन

 

किंतु व्यवहार में विश्वस्तके समान ही चेष्टा दिखानी चाहिये। मध्यम स्त्रीचे दान और भेदसे और अधम स्त्रीको भेद और विशेषरूपसे उसे पाकादि क्रियाओंमें ही नियुक्त करना चाहिये। दण्डनीतिसे वशीभूत करें। परंतु दण्ड देनेके अनतर भी। स्त्रीको किसी भी समय खाली नहीं बैठना चाहिये। साम-दान आदिको उसको प्रसन्न कर लें। भय अहित दरिद्रता, अति-रूपवत्ता, असत्-जनका सङ्ग, स्वतन्त्रता, करनेवालीं और व्यभिचारिणीं वीं कालकूट विषके समान होती घेयादि दुष्यका पान करना तथा अभक्ष्य-भक्षण करना, कथा, हैं, इसलिये उसका परित्याग कर देना चाहिये। उत्तम कुरुमें गोष्टी आदि प्रिय लगना, काम न करना, जादू-टोना उत्पन्न पतिव्रता, विनीत और भर्तीका हित चाहनेवाली का करनेवाली, भिकी, कुटिनी, दाई, नटी आदि दुष्ट स्त्रियोंके सदा आदर करना चहिये । इस गॅनिमें जो पुरुष चलता है वह सङ्ग उद्यान, यात्रा, निमन्त्रण आदिमें जाना, अत्यधिक क्विर्गकी प्राप्ति करता हैं और कमें सुख पाता हैं। तीर्थयात्रा करना अथवा देवताके दर्शनके लिये घूमना, पतिके ब्रह्माजीं बोलें-मुनीश्वरों ! मैंने संक्षेपमें पुरुषोंकों साथ बहुत वियोग होना, कठोर व्यवहार करना, पुरुषोंसे सियोंके साथ कैसे व्यवहार करना चाहिये, यह बताया। अब अत्यधिक वार्तालाप करना, अति क्रूर, आंत सौम्य, अति पुरुषोंके साथ लियोको कैसा व्यवहार करना चाहिये, उसे बता निडर होना, ईर्षालु तथा कृपण होना और किसी अन्य सीके रहा हैं आप सब सुनें

वशीभूत हो जाना—ये काय बीके दोष उसके विनाशके हेतु पतिक सम्यक् आराधना करनेसे स्त्रियों पतिका प्रेम हैं। ऐसी स्त्रियोंके अधीन यदि पुरुष हो जाता है तो वह भी प्राप्त होता है तथा फिर पुत्र तथा स्वर्ग आदि भी उसे प्राप्त हों। निन्दनीय हो जाता है। यह पुरुषकों ही अयोग्यता है कि उसके जाते हैं, इसलिये कों पतिकी सेवा करना आवश्यक है। भूय बिगड़ जाते हैं। स्वामी यदि कुशल न हो तो भृत्य और सम्पूर्ण कार्य विधिपूर्वक किये जानेपर ही उत्तम फल देते हैं। श्री बिगड़ जाते हैं, इसलिये समयके अनुसार अधोचित राँतिसे और विधि-निषेधका ज्ञान शास्त्रमें जाना जाता है। स्त्रियोंका ताडन और शासनसे जिस भाँति में इनकी रक्षा कानों शास्त्रमें अधिकार नीँ है और न प्रन्थोके धारण करनेमें चाहिये। नारी पुरुषका आधा शौं है, इसके बिना धर्म- अघिकार है। इसलिये सौदाग़ शासन अनर्थकारी माना जाता क्रिया साधना नहीं हो सकतीं । इस कारण कम सदा है। चीन इसमें विधि-नियंध जानने अपेक्षा रहती है। आदर करना चाहिये। उसके प्रतिकुल नहीं करना चाहिये। पहले तो उसे भर्ता सब धर्मों का निर्देश करता है और भर्तक सीके पतिव्रता होनेके प्रायः तीन कारण देखें जाते मरनेके अनन्तर पुत्र उसे विधवा एवं पतियताके धर्म बतलायें। हैं-(१) पर-पुल्यमें विरिक्त, (२) अपने पतिमें प्रति तथा बुडिके विकल्पोंको ओड़कर अपने बड़े पुरुष जिस मार्गपर (३) अपनी रक्षामें समर्थता ।। चलें हैं इसपर चलने में इसका सब प्रकार कन्याण हैं। उत्तम स्त्रीको साम तथा दामनौतिसे अपने अधीन रखे। पतिव्रता स्त्री हो गृहस्थके घर्मोको मूल हैं। (अध्याय ४-६) | पतिव्रता लियोंके कर्तव्य एवं सदाचारका वर्णन, स्त्रियोंके लिये गृहस्थ-धर्मके उत्तम व्यवहारकी आवश्यक बातें ब्रह्माजी बोले-मुनीश्वरों ! गुहस्थ-धर्मका मूल ध्यानपूर्वक सुनें पतग्रता स्त्री हैं, पतिता नीं पतिका आश्वन किस विधिमें आराधना करने योग्य पतिकै आराथनकी विधि यह है। करें, उसका अब मैं वर्णन करता है। आप सच इसे कि उसकी चित्तवृत्तिको भलीभाँति जानकर उसके अनुकूल

१.-सतीत्वे प्रायशः ऑगी मदहं कामयम् । सामसपीतिः प्रिये पतिः वर

 

 ३. शास्त्राधि] नां ने प्रधानां च धागे । उमादिन्यं मन्यन्ते तुलसनमनकम् ॥ (झापर्य ६ । ६) ३- इन मणमें आ कुछ अंश-गोरक्षा, पाप, अपि और स्क-संन्धान आदि विषय प्रायः सातसमें सम्न्ध पाय हो गये हैं। मका सन्नि विद्या भविमुपागमें मिला है, जिसके कुछ अंश सही दिये जा रहे हैं।

 

पुरा परयं पुण्यं भविष्यं सर्वसौख्यदम्

 

[ मैक्षिप्त भविष्यपुराणाहू चलना और सदा उसका हित चाहते रहना । अर्थात् पतिके त्याज्य हैं। इस प्रकार के आचरण तो प्रायः दुष्टोंके लिये ही चित्तके अनुकूल चलना और यथोचित व्यवहार करना, यह उचित होते हैं, कुलीन स्त्रियोंके लिये नहीं। इन निन्दनीय पतिव्रताका मुख्य धर्म है-

बातोंसे अपनी बक्षा करते हुए स्वियको चाहिये कि वे अपने आराध्यानां हैं सर्वेषामग्रमारायने थिधः । पातिव्रत-धर्म तथा कुलकी मर्यादाकी रक्षा करें।

चित्तज्ञानानुवृत्तिा हितैषित्वं च सर्वदा ।।

उत्तम श्री पनि मन, वचन तथा कसे दैवता कें समान

(ब्राह्मपर्व १३ । १)

समझे और उसकी अर्धाङ्गिनी बनकर सदा उसके हित करने में पतिके माता-पिता, बहिन, ज्येष्ठ भाई, चाचा, आचार्य, तत्पर रहे। देवता और पितरोंके कृत्य तथा पतिके मान, भोजन मामा तथा वृद्ध स्त्रियों आदिका उसे आदर करना चाहिये और एवं अभ्यागतोंके स्वागत-सत्कार आदिमें बड़ी ही सावधानी जो सम्बन्धमें अपने छोटे हों, उनमें स्नेहपूर्वक आज्ञा देनी और समयका ध्यान रखें। यह पतिके मित्रोंको मित्र तथा चाहिये । जहाँ भी अपने से बड़े सास-ससुर या गुरु विद्यमान शत्रुओको शत्रुके समान समझे। अधर्म और अनर्थसे दूर हो या अपना पनि उपस्थित हों यहाँ उनके अनुकूल ही रहकर पतिको भी उससे बचाये । पतिको क्या प्रिय है और आचरण करना चाहिये, क्योंकि यहीं चरित्र स्त्रियोंके लिये कौन-सा भोजनादि पदार्थ उसके लिये हितकर है तथा कैसे प्रशस्त माना गया हैं। हास-परिहास करनेवाले पतिके मित्र पतिके साथ विचारों आदिमें समानता आये इस बात को सर्वदा

और देवर आदिके साथ भी एकात्तमें बैठकर झास-परिहास उसे ध्यानमें रखना चाहिये, साथ ही उसे सेवकको असंतुष्ट नहीं करना चाहिये। किसी पुरुषके साथ एकत्तमें बैठना, नहीं रखना चाहिये। स्वच्छन्दता और अत्यधिक हास-परिहास करना प्रायः कुलौंन हुनेका घर और शरीर—ये दो गृहणियोंके लिये मुख्य स्त्रियोंके पातिव्रत-धर्मकों नष्ट करनेके कारण बनते हैं। सहसा हैं। इसलिये प्रयत्नपूर्वक वह सर्वप्रथम अपने अर तथा इष्टकं संसर्गमें आकर युवकोंके साथ हास-परिहास करना शरीरको सुसंस्कृत (पवित्र) रखें। शरीरसे भी अधिक स्वच्छ चित न होता, क्योंकि स्वतन्त्र स्त्रियोकी निर्भीकता एकामें और भूषित घरको रखें। तीनों कालमें पूजा-अर्चना करें और बरे आचरणके लियें सफल हो जाती हैं। अतः उत्तम स्त्रीको व्यवहारकी सभी वस्तुको यथाविधि साफ रखें। प्रातः, ऐसा नहीं करना चाहिये । इस तसे झलका शील नहीं मध्याह्न और सायंकालके समय घरका मानकर स्वच्छ करे। बिगड़ता और कुनको निन्दा भी नहीं होती। अरे संकेत गौशाम आदिको स्वच्छ कथा है। दास-दा करनेवाले और बुरे भावोंको प्रकट करनेवाले पुरुषों भाई या आदिसे संतुष्ट कर उन्हें अपने-अपने कार्योंमें लगाये । स्त्रीको पिताके समान देखते हुए स्त्रीको चाहिये कि उनको सर्वथा उचित हैं कि यह प्रयोगमें आनेवाले शाक, कन्द, मूल, फल परित्याग कर दें। दुष्ट पुरुषका अनुचित आग्राह यकार करना, आदिके बीजोंका अपने-अपने समयपर संग्रह कर लें और उनके साथ वार्तालाप करना, हासयुक्त संकेत अथवा कुष्टिपर समाप्रपर इन्हें संत आदिमें बुआ दें। तांब, कॉस, लोहे, काग्न ध्यान देना, दूसरे पुरुषके हाधसे कुछ लेना या उसे देना सर्वथा और मिट्टीमें बने हुए अनेक प्रकारके बर्तनोंको घरमें संग्रह परित्याज्य हैं। घरके द्वारपर बैठने या खड़ा होने, राजमार्गको रखे । जल रखने तथा ज्ञल निकालने और जल पीने और देखने, किसी परििचत देश या घरमें जानें, उद्यान और कलशादि पात्र, चाक-भाजी आदिसे सम्बद्ध विभिन्न पात्र, घी, प्रदर्शनी आदिमें रुचि रखनेमें स्त्रीको बचना चाहिये। बहुत तेल, दुध, दही आदिसे सम्बद्ध वर्तन, मूसल, ओखली, पुरुषोंके मध्यसे निकलना, ऊँचे स्वरसे बोलना, हँसी-मजाक झाड़, चलन, सैंड्स, सिल, लोढ़ा, चक्की, चिमटा, कड़ाही, करना एवं अपनी दृष्टि, वाणी तथा शरीरको चापल्य प्रकट तया, तराजू, बाट, पिटार, संदूक, पलंग तथा चौकी आदि करना, साना तथा सीत्कारी भरना, दुष्ट स्त्री, भिक्षुकी, गृहस्थीके प्रयोग आनेवाले आवश्यक उपकर्णांकी तान्त्रिक, मान्त्रिक आदिमें आसक्ति और उनके मण्डलोंमें प्रयत्नपूर्नक व्यवस्था करनी चाहिये । उसे चाहिये कि वह हींग, निवास करने की इच्छा-ये सब बातें पतयता के लिये जोरा, पिप्पल, ग्रई, मरिच, धनिया तथा सोड आदि अनेक ब्रापर्व

 

  • पतिव्रता स्त्रियोंके कर्तव्य एवं सदाचारका र्णन

 

मरके मसाले, सण, अनेक प्रकारके क्षार-दार्थ, मिरका, उसकी इक्षा भी होती है और गौ कहीं चली जाये तो उसके अचार आदि, अनेक प्रकारको दालें, सब प्रकारके तैल, सूखा शब्दसे उसे ढूँढ़ा भी जा सकता है। हिंसक पशुओं और कावा, विविध प्रकार के दूध-दहीसे बने पदार्थ और अनेक सपसे रहित, घास और जलसे युक्त, छायादार घने वृक्षावाले प्रकारके कन्द आदि जो-जो भी वस्तु नित्य तथा नैमित्तिक तथा पशुओंके रोगसे रहित स्थानपर गायोके रहनेके लिये गोंड़ कार्योंमें अपेक्षित हों, उन्हें अपनी सामर्थक अनुसार या गोशाला बनानी चाहिये । कृषि-कार्यमें लगे सेवकोंके लिये अपलपूर्वक पहले से ही संग्रह करना चाहिये, जिससे समयपर देश-काल और उनके कार्यके अनुरूप भोजन तथा वेतनका उन्हें तैना न पड़े। जिस मनुको भविश्यमें आवश्यकता पड़े, प्रवभ करना चाहिये। खेत, खलिहान अथवा वाटिका आदिमें | अमें पहले से ही संग्रहमें रखना चाहिये। सूत्रे-गले, पिसे, जहाँ भी सेवक कामपार में हैं वहीं बार-बार जाकर इनके | बिना पिसे तथा कचे और पके अन्नादि पदार्थोंका अच्छी तरह कार्य एवं कार्यके प्रति उनके मनोयोगको जानकारी करनी | हानि-लाभ विचारकर ही संग्रह करना चाहिये। उनमेसे ज़ों योग्य हो, अच्छा कार्य करता हो, उसका पतिनता नारी गुरु, बालक, वृद्ध, अभ्यागत और पती अधिक सत्कार करें और उसके लिये भोजन, आवास | सेवा आय न करें। पतिकी शय्या स्वयं बिछाये । दैव आदिक औरोसे विशेष व्यवस्था करें। समय-समयपर सब

आदिके द्वारा पहने हुए वरुण, माया तथा आभूषणोंको वह कारकै अन्न और कन्द-मूक बोजा संग्रह करें तथा | कभी ना तो धारण करे और न इनके झाय्या, आसन आदिर यथासमय उनकी बुआई कर दें। बैठे गौम इतना दूध निकालें कि जिममें बड़े भूखे न रह घरका मूल है स्त्री और गृहस्थाश्रमका मूल हैं अन्न। बायें । दहींसे धीं बनायें। वर्षा, शरद् और वसन्त ऋतुमें इसलिये भोन्पादि अन्न पदार्थोंमें घरकी चौंको मुक्तहस्त नहीं । गायको दो बार दुहना चाहिये, ऑष ऋतुओंमें एक ही बार दुहे। होना चाहिये अर्थात् अन्नको वह वृथा नष्ट न कों, सदा। चरवाहे, म्वाले आदिको रवाहीके बदले रुपये अथवा अनाज़ संजोकर रखें। उसे मितव्ययी होना चाहिये। अन्नादिमें दें। गोदोहक बछड़ोंका भाग अपने प्रयोगमैं न ला सकें, यह मुक्तहस्त होना गृहिणियोंके लिये अझ नहीं माना जाता । वह देखता है, साथ ही यह भी ध्यान रखें कि दूध दुहनेवाला संचय करनेमें और खर्च करनेमें मधुमक्खीं, वल्म और | समयपर दूध दुह गह्म है या नहीं, क्योंकि दोन धचिन आजनके समान हानि-लाभ देखकर अन्नको थोड़ा-सा समयपर ही गायकों दुहना चाहिये । समयका अतिक्रमण समझकर उसकी अवज्ञा न करे ॥ क्योंकि धौड़ा-थौड़ा हो मनु अच्छा नहीं होता। जब गाय व्याय आय, तब एक महीनेतक एकत्र करती हुई मधुमक्खी कितना एकत्र कर लेती है। इसी उसका दूध नहीं निकालना चाहिये, उसे बड़े ही पीने देना प्रकार दीमक जरा-जरा-सी मिट्टी लाकर कितना ऊँचा वल्मीक चाहियें। फिर एक महीनेतक एक धनक, तदनन्तर एक बना लेती हैं। किंतु इसके विपरीत बहुत-सा बनाया गया महातक दो थनका और फिर तीन धनको दुध निकालना अंजन भी निल्य थौड़ा-थोड़ा आँसमें झलते हुनेसे कुछ चाहिये। एक या दो धन के लिये अवश्य छोड़ना दिनोंमें समाप्त हो जाता हैं। इस तसे सभी वस्तुओका संग्रह चाहिये। यथासमय तिलक लौं, कोमल हरी घास, नमक और खर्च हो जाता है। इसमें थोड़ी वस्तकी अवज्ञा नहीं करनी तथा ज्ञल आदिको बछड़का पालन करना चाहिये। बुद्धी, चाहिये। घरके सभी कार्य स्त्री-पुरुषकै एकमत होनेपर ही गर्भगी, दूध देनेवाली, बाली तथा अािाली-इन अछे होते हैं। पाँच गायका मास आदिके द्वारा समानरूपसे बराबर जगन्में ऐसे भी हजारों पुण्य हैं, जिनके सब काम पालन-पोषण करते रहना चाहिये। किसीको भी न्यून तथा स्त्री प्रधानता रहती हैं। यदि ली बुद्धिमान् और मुशल हो अधिक न समझे । गोके गलेमें फ्टीं अवश्य बाँधनी चाहिये। तो कुछ ह्मनि नहीं होती, किंतु इसके विपरीत होनेपर अनेक एक तो घंटौं बाँधनेसे गौसे शोभा होती हैं, इसमें उसके प्रकारके दुःख होते हैं। इसलिये की योग्यताअयोग्यता शब्दोंमें कोई जीव-जन्तु इरकर उसके पास नहीं आते, इससे ठौकसे समझकर बुद्धिमान् पुरुषकों उसे कार्यमें नियुक्त करना

 

  • पुराणं परमं पुण्यं भविष्यं सर्वसौख्यदम्

 

[ संक्षिप्त भविष्यपुराणाङ्क चाहियें। इस प्रकार योग्यतासे कार्यमें नियुक्त की गयी सीको रसोई-अरमें सदासे काम करनेवाले, विश्वमा तथा आहारा चाँहये कि वह सौभाग्यवश या अपने उद्यम आदिमें अपने परीक्षण करनेवाले व्यक्तिको ही सूपकारके सपमें नियुक्त करना पाँतक भलीभाँति सेवा कर उसे अपने अनुकूल बनायें। चाहियें। उसोईकै स्थानमैं किसी अन्य दुष्ट स्त्री-पुरुषों न

ब्रह्माजी झोले-हैं मुनीश्वरों ! घरमें ही प्रातःकाल आने दें। इस विधिसे भोजन बनाक्न सब पदार्थोंको स्वच्छ सबसे पहले उठे और अपने कार्य में प्रवृत हो जाय तथा रात्रिमें पात्रोंसे आच्छादित कर देना चाहिये, फिर रसोई-अरसे बाहर सबसे पीछे भोजन करे और सबके बादमें सोये । पति तथा आकर पसीने आदिको पोकर, स्वच्छ होकर, गन्ध, ताम्बूल, | ससुर आदि उपस्थित न रहनेपर को घरकौं देहुलीं पार माला-वरुन आदिसँ अपनेको चोड़ा-सा भूपत करें फिर नहीं करनी चाहिये। वह बड़े सवेरे में ज्ञग ज्ञाय । वीं पतके भोजनके निमित्त यथोचित समयपर विनयपूर्वक पनिकों | समीप बैठकम हो सब सेवकको कामकी आज्ञा दें, बाहर न बुलाये। सब प्रकारके व्यञ्जन परोसे, जो देश-काल के विपरीत जाय । काय पति भी जग हें तब वहाक सभी आवश्यक कार्य न हो और जिनका परस्पर विरोध भी न हों, जैसे दूध और करके, घरके अन्य कार्यों में भी प्रमादरहित होकर करें । रात्रि के लवणका हैं। जिस पदार्थों पतिको अधिक रुचि देखे उसे और पहले ही उत्तम वस्त्राभूषणोंकों अतारकर घरके कार्योकों करने परसें । इस प्रकार पतिक प्रतिपूर्वक भोजन करायें। योग्य साधारण वस्त्र पहनकर तत्तत् समयमें करने योग्य सपत्नियों को अपनी बहनके समान तथा उनकी | कार्योक यथाक्रम करना चाहिये । उसे चाहिये कि सबसे पहले संतानों में अपनी संतानसे भी अधिक प्रिय समझें । उनके | रसोई, चूल्हा आदिकों भलीभाँति लींप-पोतकर स्वच्छ करें। भाई-बन्धुओंकों अपने भाइयों के समान हीं समझें। भोजन, | माईक पात्रकों मज-घों और पाकर वहाँ रखें तथा अन्य वन, आभूषण, ताम्बूल आदि जबतक सपलकों न दे दें, भी अब उसकी सामपी वहाँ एकन कौं। रसोई-घर न तो यातक स्वयं भी ग्रहण न कहें। यदि सपत्नीको अथवा किसी | अधिक गुप्त (वेद) हों और न एकदम खुल्ला हो । स्वच्छ, आलित जनक कुछ रोग हो जाय तो उसकी चिकित्साके लिये | विस्तीर्ण और जिसमेंसे धुआं निकल जाय ऐसा होना चाहिये। ओवध आदिकी भलीभाँति व्यवस्था काये। नौकर, बन्धु | इसई-घर भोजन पकानेवाले पात्रोकों तथा दुध-के और सपत्नीको दुखी देव स्वयं भी उनके समान दुखी हो पात्रोको सौंपी, रस्सी अथवा वृक्षक आलसे खूब रगड़कर और उनके सुख सुख माने। सभी कायमें अवकाशा अंदर-बाहरसे अच्छी तरह धो लेना चाहियें। रात्रिमें मिलनेपर सो जाय और रात्रिमें उठकर अनावश्यक धन-व्यय | धुएँ-आगके द्वारा तधा दिनमें धूपमें उन्हें सुखा लेना चाहिये, क्र हे पतिको एकात्तमें धीरे-धीरे समझायें। घरका सब | जिससे उन पात्रोंमें रखा जानेवाला दूध-दहीं आदि स्वराय न वृत्तान्त पतिको एकान्तमें बतायें, परंतु सपमिकें दोयकों ने होंने पाये । विना शोधित पात्रोंमें रखा दूध-दही विकृत में जाता है, किंतु यदि कोई उनका व्यभिचार आदि बा दोष देखें, हैं। दूध-दही, घी तथा बने हुए पाकादिको सावधानी रखना जिसे गुप्त रखनेसे कोई अनर्थ हो तो ऐसा दोष पतिको अवश्य चाहिये और उसका निरीक्षण करते रहना चाहिये। बता देना चाहिये । दुभंगा, नि:संतान तथा पतिद्वारा तिरस्कृत स्नानादि आवश्यक कय करके उसे अपने हाधसे पतिके सपत्नियों सदा आश्वासन हैं। उन्हें भोजन, वस्त्र, आभूषण लिये भोजन बनाना चाहिये। उसे यह विचार करना चाहिये कि आदिको दुःखों न होने दें। यदि किसी नौकर आदिपर पति कोप मधुर, क्षार, अम्ल आदि इसमें कौन-कौन-सा भोजन पतिको को तो उसे भी आश्वस्त करना चाहिये, परंतु यह अवश्य प्रिया है, किस भोजनमें अग्निक वृद्धि होती है, क्या पध्य हैं विचार कर लेना चाहिये कि इसे आश्वासन देनसे कोई हानि और कौन भोजन कालके अनुरूप होगा, क्या अपय है, उत्तम नहीं होनेवाली हैं। स्वास्थ्य किस भोजनसे प्राप्त होगा और कौन भोजन कालके इस प्रकार की अपने पतिको सम्पुर्ण इच्छाओंको पूर्ण अनुरूप होगा आदि आता भसंभाँत थिंचारकर और करें। अपने सुखके लिये जो अभीष्ट हों, उसका भी परित्याग निर्णयकर उसे वैसा ही भोजन प्रतिपूर्वक बनाना चाहिये। कर पतिके अनुकूल ही सब कार्य करे। क्योंकि स्त्रियों के देवता ।

 

  • पतिव्रता क्यिोंके कर्तव्य एवं सदाचारका वर्ण

 

पत, यक देवता ब्राह्मण हैं तथा ब्राह्मणके देवता अग्नि हैं अनुचित हीं है। कन्याम विवाह करने के बाद फिर उससे और ज्ञाओंका देवता राज्ञा है।

अपनी आजीविकाकी इझ करना यह महात्मा और कुलीन स्त्रियोंके निवा-प्राप्तिके दो मुख्य उपाय हैं—प्रथम सत्र पुरुषोंकी ऑति न हैं, अतः के सम्बन्धियों चाहिये कि कारसे पति को प्रसन्न रखना और द्वितीय आचरणों में केवल मित्रताके लिये, प्रतिके लिये ही सम्बन्ध बढ़ानेकी पवित्रता । पतिकै चित्तके अनुकूल चलने जैसी प्रीति पति इझ करें और प्रसंगवश यथाशक्ति उसे कुछ देते भौं रहें । स्त्रीपर होती हैं वैसी प्रीतिं रूपसे, यौवनसें और अलंकारादि उससे कोई वस्तु लेनेकी इच्छा न रखें। कन्याके आभूषणोंमें नहीं होती। क्योंकि प्रायः यह देखा जाता है कि मायकेवालों कन्या स्वामीकी रक्षाका प्रयत्न सर्वथा करना उत्तम रूप और युवावस्थावाली स्त्रियाँ भी पतके विपरीत चाहिये, उनकी परस्पर प्रीति-सम्बन्धक चर्चा सर्वत्र करनी आचरण करनेसे दौर्भाग्य प्राप्त करती हैं और अति कुरूप चाहिये और अपनी मिथ्या प्रशंसा नहीं करनी चाहिये। तथा हीन अवस्थावाली स्त्रियाँ भी पतके चित्तकै अनुकूल साधु-पुष्योंका व्यवहार, अपने सम्बन्धियोंके प्रति ऐसा चलनेसे उनकी अत्यन्त प्रिय हो जाती है। इसलिये पतिके ही होता हैं। चित्तका अभिप्राय भलीभाँति समझना और उसके अनुकूल जो सी इस प्रकारके सद्वृत्तको भलीभाँति जानकर आचरण करना यही स्त्रियों के लिये सब सुखका हेतु हैं और व्यवहार करती हैं, वह पति और उसके बन्धु-बान्धवों यहीं समस्त श्रेष्ठ योग्यताओंका कारण हैं। इसके बिना तो अल्पत मान्य होती है। पतिकी प्रिय, साधु वृत्तवाओं तथा

के अन्य सभी गुण अध्यत्वको प्राप्त हो जाते हैं अर्थात् सम्बन्धियोंमें प्रसिद्धि प्राप्त होनेपर भी स्त्रीको कापवादसे निष्फल हो जाते है और अनर्थक कारण बन जाते हैं। इसलिये सर्वदा डरते रहना चाहिये, क्योंकि सीता आदि उत्तम् को अपनी योग्यता (पबिज्ञता) सर्वधा बढ़ाते रहना पतिवताओं में भी लोकापवादकै कारण अनेक कष्ट भोगने पड़े चाहिये थे।

 

भोंग्य होनेके कारण, गुण-दोयम नीक-ठीक निर्णय न झन पत्तिके आनेका समय ज्ञानक्र उनके आने के पूर्व में वह पाने तथा प्रायः अविनयशीलताकै कारण स्त्रियोंके घरों स्वच्छ वा बैठने के लिये उत्तम आसन बिल दें तथा व्यवहारको समझाना अत्यन्त दुक हैं। छींक प्रकासे दूसरे की पतिदेवके आनेपर स्वयं अपने हाथसे उनके चरण धोकर उन्हें मनोवृत्तिों न समझनेके कारण तथा कपट-दृष्टिके कारण एवं आसनपर बैठाये और पंखा हाथमें लेकर धीरे-धीरे इलायें स्वच्छन्द हो जानेमें ऐसी बहुत ही कम स्त्रियाँ हैं जो कलकत और सावधान होकर उनकी आज्ञा प्राप्त करनेकी प्रतीक्षा करे। नहीं हो जाडौँ । दैवयोग अथवा कुयोगसे अथवा व्यवहारकी ये सब काम दासी आदिसे न झवाये । पत्तिकें स्नान, आहार, अनभिज्ञतासे शुद्ध हृदयवा स्त्री भी लोकापवादको प्राप्त हों पानादिमें स्पस दिखाये। पतिके संकेतों को समझक्न जाती है। सिर्योका यह दौंर्भाग्य हीं दुःख भोगनेका कारण है। सावधानीपूर्वक सभी आयकों करे और भोजनादि निवेदित इसका कोई प्रतीकार नहीं, यदि है तो इसकी ओषधि हैं उत्तम करें। अपने बन्धु-वान् तथा पतिके बन्धुओं और सपत्नीके चरित्रका आचरण और मेक-व्यवहारको ठीकसे समझना । साथ स्वागत-सत्कार पतिकीं इअनुसार करें अर्थात् जिसपर ब्रह्माजीं बोले—मुनीश्वरों ! उत्तम आचरणवाली स्त्री पतिकी रुचि न देखें उससे अधिक शिष्टाचार न करें । स्त्रियोंके भी यदि बुरा सङ्ग करें या अपनी इच्छअसे जहाँ चाहे चली जाय, लिये सभी अवस्थाओंमें स्वकुलकी अपेक्षा पतिकुल ही विशेष तो उसे अवश्य कलंक लगता है और झूझ दोष लगनेसे कुल पून्य होता है; क्योंकि कोई भी कुलीन पुरुष अपनी कन्यासे भी कलकित हो जाता है। उत्तम कलकी स्त्रियोंके लिये यह उपकारकी आशा भी नहीं रखता और जो रखता हैं वह आवश्यक है कि वे किसी भी भाँति अपने कुल-मातृकुल,

 

ताधिदेता नार्या वर्गा मानदेयताः

वागा अमितु जाजदेवताः

शासी सिसि प्रदिष्ट जयम्

भर्यदक या मषितम्

तथा मौनं लोक ना भूषणम्।

यथा पियानुकुम्व सिद्धं वादनम्

पपई १३ ३६

# राणं मम पुर्य भविष्य समयम्

[ संक्षिप्त भविष्यपुराण पितृकुल एवं संततिको कलक न लगने दे। ऐसी कुलीन में न सुगन्धित तैलादि द्रव्योंका प्रयोग करे। उसे सम्बन्धियक पर, ही धर्म, अर्थ तथा काम—इस त्रिवर्गकी सिद्धि हो सकती है। नहीं आना चाहिये। यदि किसी आवश्यक कार्यवश जाना ही | इसके विपरीत बुरे आचरणयाली स्त्रियाँ अपने कुलोंको नरकमें पड़ जाय तो अपनेसे बोंकी आज्ञा लेकर पतिके विश्वसनीय | डालती है और चरित्रको ही अपना आभूषण माननेवाली बियाँ शनकि साध शाय। किंतु वहाँ अधिक समपतक न , म कमें गिरे हुओको भी निकाल लेती हैं। जिन स्त्रियोंका चित्त वापस लौट आये। वार्तं स्नान आदि व्यवहारोको न करें। पतिके अनुकूल है और जिनका उत्तम आचरण हैं, के लिये प्रवाससे पतिकै लौट आनेपर प्रसन्न-मनसे सुन्दर वस्त्राभूषणोंमें रत, सुवर्ग आदिक आभूषण भारस्वरूप ही हैं। अर्थात् आरकत होकर पतिका अधौषित भोजनादिको सकार को और स्वियक धार्थ आभूषण में दो पतिकी अनुकता और देवताको पतिके लिये मांगी गयी मनौतियोंको पशादिया उत्तम आचरण । ज्ञ ली पतिकी और की अपने साचित यानि सम्पन्न । पवहारादिको आराधना करती है अर्थात् पतिके अनुकूल इस प्रकार मन, वाण तथा कमसे सभी अवस्थाओंमें चलती हैं और कपबह्मक तौक-चौंक समझफर पता हित-चिन्तन करती हैं, क्योंकि पति के अनुकूल रहना तदनुरुल आचरण करती है, वह स्त्री धर्म, अर्थ तथा कामको स्त्रियोक दिये विशेष धर्म हैं। अपने सौभाग्यप, अहंकार में | अवाधसिद्धि प्राप्त कर लेती हैं करें और त आयो भी न करें तथा अन्त्यका विनम्र भासमें भर्नुचित्तानुकलत्वं मां झलमविच्युतम्  है। इस प्रकार ले पनि सेवा करते हुए हैं ।

 

पतिक नाम बलवणादि भार ने मनम्

कायम माद नहीं करती, पून्यानोका सदा आदर करती ओंकानें परा कोटि: त्यौ भक्ति शाश्वती रहती हैं,

नौकरोंका भरपोषण करती है, नित्य सद्गगकी शाबयानां नार्णा विद्यादेंतकुमतम्

अभिपके लिये प्रयास रहती है तथा सय प्रकासे अपने नग्माल्लोक।

भर्ना सम्यगाराधितो मया ।।

शीली रक्षा करती रहती है, वह स्त्री इस लोक तथा पर्ममधं कर्म मैवाति निरत्यया

पालकमें उत्तम सुख एवं उत्त कीर्ति प्राप्त करती है।

 

अपर्ष १३ ६४..)

जिस पर पति ने क्रोधयक्त हो और उसका आदर जिम का पति परदेशमें गया हो, उस दौको अपने न करें, वह भी दुभंगा कहलाती है। उसे चाहिये कि यह नित्य पतिकी मङ्गलकामनाके सूचक सौभाग्य-सूत्र आदि स्वल्य व्रत-उपवासादि क्रियानि संलग्न है और पतिक या आभूषण हैं। पहनने चाहिये, विशेष शृङ्गार नहीं करना चाहिये। कार्योंमें विशेषरूपसे सहयोग के। जातिमें कोई रु दुर्भगा उसे पति-दाग़ प्रा किये कार्यों का प्रयत्नपूर्वक सम्पादन अध्या सुभगा (सौभाग्यशालिनी) नहीं होतीं। यह अपने करते रहना चाहिये। वह देका अधिक संस्कार न करें। यवसे ही पतिकी प्रिय और अमिय में जाती है। उत्तम सी त्रिक साम आदि पूज्य स्त्रियोंके समीप सोचें। बहुत अधिक पतिकै चित्तम अभिप्राय न जाननेसे, उसके प्रतिकूल चलनेसे खर्च न करें । झत, उपायाम आदिके नियमोंका पालन करतीं और लोकविरुद्ध आचरण करनेसे भगा हो जाती हैं एवं गहें । दैवज्ञ आदि अंजनोंमें पतिक कुशल-क्षेमका वृत्तान्त उसके अनमल असे भगा हो जाती है। मनोवृत्तिकै जानने की कोशिश करे और परदेशमें उसके कल्याणकी अनुकूल कार्य करने से पराया भी प्रिय हो जाता है और कामना तथा शम्न आगमनकी अभिलाषासे निल्य मनोनुकूल कार्य न करनेसे अपना जन भी शीघ शत्रु बन देवताओंका पूजन करे । भरपन्त इज्जल वेप न अनाये और जाता है। इसरिये स्त्रीको मन, वचन तथा अपने कार्योदारा

-विनाध्य भारतकथैमादिनी |

पून्यानो बाने नित्यं भवन भगवा छ ।

 

(मप ३६३२)

* पपयोंका र्णन तथा उपवासोंके प्रकरणमें आकारका निरूपण +

सभी अवस्थाओंमें पतिके अनुसार ही प्रिंय आचरण करना है और पतिकी सँवासे सभी सुखों तथा त्रिवर्गको भी प्राप्त कर चाहिये। इस प्रकार कहे गये लो-वृत्तको भल्भ त समझ लेती है। जो स्त्री पतिको संवा करती हैं, वह पतिको अपना बना लेतीं।

पञ्चमहायज्ञोंका र्णन तथा व्रतउपवासोंके प्रकरणमें आहारका निरूपण एवं प्रतिपदा तिग्निकी उत्पत्ति, ब्रतविधि और माहात्म्य सुमन्तु मुनिने कामराजन् !

इस प्रकार स्त्रियोंके होते हुए भी वह इन पाँच यज्ञों नहीं करता है तो उसका लक्षण और सदाचारका वर्णन करके ब्रह्माजीं अपने लोक, जीवन में व्यर्थ है। तथा ऋषिगण भी अपने-अपने आश्रमकी ओर चले गयें। . रामा झापानीकने पूछा-जिस ब्राह्मणके परमें | अब गृहस्थों कैसा आचरण करना चाहिये, उसे मैं बताता अमित्र नहीं होता, वह मृतकके समान होता है आपने हैं, आप ध्यानपूर्वक सुने

कहा है, परंतु फिर वह देवपूजा आदि कार्योको क्यों करें ? गृहस्थौंको वैवाहिक अग्निमें विधिपूर्वक कमको और यदि ऐसी बात है तो देवता, पितर उससे कैसे संतुष्ट होंगे, करना चाहिये तथा पञ्चमहायज्ञका भी सम्पादन करना इसका आप निराकरण हैं। चाहिये। गृहस्थोके यहाँ जीव-हिंसा होनेके पाँच स्थान हैं- सुमन्तु मुनि बोले-राजन् ! जिन ब्राह्मणोके घरमें ओखली, चाकी, चूल्हा, झाडू तथा जल रखनेका स्थान। इस अग्निहोत्र न हो उनका उद्धार व्रत, उपवास, नियम, दान तथा हिंसा-दोषसे मुक्ति पानेके लिये गृहस्थोंको पञ्चमहायज्ञों- देवताकी स्तुति, भक्त आदिसे होता हैं। जिस देवताको जो । (१) ब्रह्मयज्ञ, (३) पितृयज्ञ, (३) देवयज्ञ, (४) भूतयज्ञ तिथि हो, उसमें उपवास करनेसे वे देवता उसपर विशेषरूपसे तया (५) अतिथियों नित्य अवश्य करना चाहिये। प्रसन्न होते हैं अध्ययन करना तथा अध्यापन करना यह ब्रह्मयज्ञ हैं,

गाद तोपवानिपमैनादानैया नृप

कर्म पितृयज्ञ हैं। देवताओंके लिये हवनादि कर्म दैवयज्ञ है।

वादयो भवत्येव श्रीनाले संशयः

बलियैश्वदेव कर्म भूतयज्ञ है तथा अतिथि एवं अभ्यागतका विषादपवासेन तिथौ किल महीपते स्वागतसत्का क्रमना अतिथियश हैं

प्रीता देवापतेषां भवत्त कुरुनन्दन

अभ्यापर्न ब्रह्मयज्ञः पितृयज्ञश्च तर्पणम्

| (नासपर्व १६ १३१४)

मेमो देवों बलभाँतस्तथाऽन्योनथिननम्

राजाने फिर कहामहाराज़ !

 (ब्रह्मपर्व १६ । ३)

अब आप अलग-अलग तिथियोंमें किये जानेवाले व्रत, तिथि-वतोंमें —इन पाँच नियमों का पालन करनेयाम गृहस्थी घरमें किये जानेवाले भोजनों तथा उपवासकी विधियोंका वर्णन करें, रहता हुआ भी पझसूना-दोषसे लिप्त नहीं होता। यदि समर्थ जिनके श्रवणसे तथा जिनका आचरण कर

 

संसारसागरसे मैं कर दुभंगा नाम मुभा नाम जाति

चपावत्यै Hिदे रिमित्

भबिज्ञानाननुष्ठानतोपि वा

नेकविध यांना भगत स्त्रियः

आकृमनोवृने परोऽपि प्रियता ब्रजेत्

प्रतिकृयात्रिशु मियः प्रदेषतमयात्

तस्मान् सामु मनोवाकायकर्मभः

भियं समाश्रियं तनुविधामी ।।

एवमेव मयोंदिष्टं मां यानुतिष्ठति

परिमाराध्य सम्पूर्ण विवर्ग साधिगत

. .

(भा १५॥ १६-१६, ३३

 

[ वर्तम समबन्ने जात्य सभ्यता के प्रभाव देशमें दृवित और जनतपूर्ण वातावरण बन गया है। जिससे सम्बद्ध भविन्यपणका यह मत रामायण, महाभापत, ति तथा अन्य में भी उपलब्ध है। आपके विकाकी सभी समस्याका एकमात्र मुख्य मा आचा! पतुन है, मम भाव संनयम भी पाता है। अतः मुभको पदावर विष ध्यान देने की आवश्यकता है। ]

 

+ पुराणं परमं पुण्यं भविष्यं सर्वसौम्यम्

 

[ संक्षिप्त भयपुराणात मुक्त हो जाऊँ तथा मेरे सभी पाप दूर हो जायें। साथ ही केयूर, हार, कुण्डल, मुकुट, उत्तम बस्त्र, श्रेष्ठ सुन्दर स्त्री तथा | संसारके जीवोंका भी करन्याण हो जाय ।

अॐ में प्राप्त होते हैं। वे आध-व्याधिसे मुक्त होकर सुमन्तु मुनि बोले- मैं तिथियोंमें विहित कुन्त्यका दीर्घायु होते हैं। पुत्र-पौत्रादिका सुत्र देखते हैं और वन्दीजनके यर्णन करता हैं, जिनके सुननेसे पाप कट जाते हैं और स्तुति-पालद्वारा जगाये जाते हैं। इसके विपरित जिसने व्रत, उपवासकै फलको प्राप्ति हो जाती है। दान, उपवास आदि कर्म नहीं किया वह कमा, अंधा, प्रतिपदा तिधिक्ये दूध तथा द्वितीयाको लवणहत भोजन लूला, गड़ा, राँगा, कुअवा तथा रोग और दरिद्रतासे पीड़ित करें । तृतीयाके दिन तिलान्न भक्षमा करें। इस प्रकार चतुर्थीको रहता हैं। संसारमें आज भी इन दोनों अमरके पुरुष प्रत्यक्ष दुध, पर्मीको फल, पडौंकों शाक, सप्तमी बिल्चार करे। दिसायी देते हैं। वहीं पुण्य और पाफ्को प्रत्यक्ष परीक्षा हैं । अष्टमीको पिष्ट, नवमीको अप्रपाक, दशमी और जानें कहा—प्रभो ! आपने अभी संक्षेपमें तिथियौंको एकादशीको घृताहार करें। द्वादशीको खीर, त्रयोदशीको गोमूत्र, बताया है। अब यह चितारले अनलकी कृपा करें कि किस चतुर्दशीको क्वान्न भक्षण करे। पूर्णिमाको कुशाकम जल पीयं देवताकी किस तिथिमें पूजा करनी चाहिये और ब्रत आदि किस तथा अमावास्याको हविष्य-भोजन करें। यह सय निधियोकै विधिमें करने चाहिये जिनके करने से मैं पवित्र हो जाऊँ और भोजनकी विधि हैं । इस विधिसे जो पूरे एक पक्ष भोजन करता हित होकर यज्ञके फलों को प्राप्त कर सकें। हैं, वह दस अश्वमेध-यज्ञका फल प्राप्त करता हैं और सुमन्तु मुनि बोले–राजन् ! तिथियों का रहस्य, नाका मन्वन्तरक वर्गने आनन्द भोगता हैं। यदि तीन-चार विधान, फल, नियम, देवता तथा अधिकारी आदिके विमें मालक इस विधिसे भोजन करें तो यह सौ अश्वमेघ और सौं मैं बताता हैं, यह सब आजतक मैंने किसी को नहीं बताया, राजसूय-यज्ञका फल प्राप्त करता है तथा स्वर्गमें अनेक इसे आप सुने मन्यत्तरितक सुख भोग करता है। पूरे आठ महीने इस विधिसे सबसे पहले मैं संक्षेपमें सृष्टिका वर्णन करता है। प्रथम भोजन करें तो हजार यज्ञका फल पाता है और चौदह परमात्माने जल उत्पन्न कर उसमें तेज प्रविष्ट किया, उसमें एक मन्वन्तरपर्यत साने व सुका उपभोग करता है। इसी अट उत्पन्न हुआ, उससे ब्रह्मा उत्पन्न हुए। उन्होंने अधिक प्रकार यदि एक वर्षपर्यन्त नियमपूर्वक इस भोजन-विधिका इससे उस अण्डके एक कपालमै भूमि और इससे पालन करता है तो वह सूर्यलोकमें कई मन्वन्तरोतक आकाशकी रचना की। तदनन्तर दिशा, उपदिशा, देवता, आनन्दपूर्वक निवास करता है। इस उपवास-विधिमें चारों दानव आदि रचे और जिस दिन यह सब काम किया उसका वर्गों तथा इ-पुरुयो—सभी अधिकार हैं। जो इन तिथि- नाम प्रतिपदा तिथि रखा। ब्रह्माजींने इसे सर्वोत्तम माना झननिय भानु अनिकी नवमी, माघ सम, वैशासकीं और सभी निधिक मागुम्भमें इसका मनिपादन किया तृतीया तथा कार्तिक पूर्णिमासे करता है, वह बी आयु इसलिये इसका नाम प्रतिपदा हुआ। इसके बाद सभी तिथियाँ प्राप्त कर, अनमें सूर्यकको प्राप्त होता है। पूर्वजन्ममें जिन उत्पन्न हुई। पुरुषोंने व्रत, उपवास आदि किया, दान दिया, अनेक प्रकार अब मैं इसके उपवास-विधि और नियमोंका वर्णन करता झाह्मण, माधु-संतों एवं तपस्वियको संतुष्ट किया, माता-पिता हैं। कार्तिक पूर्णिमा, माघ-सप्तम तथा वैशाख रू तृतीयासे

और गुरुङ्ग सेवाशुश्रूण कों, विधिपूर्वक तीर्थयात्रा में, ने इस प्रतिपदा तिथिकै नियम एवं उपवासको विधिपूर्वक प्रारम्भ पुरु। स्वर्गमै दौर्घ कालतक का जब पृथ्वीपर जन्म लेते हैं, करना चाहिये। यदि प्रतिपदा तिथि नियम अहण करना है तो तब उनके चिह-पुण्य-फल प्रत्यक्ष ही दिखायी पड़ते हैं। प्रतिपदासे पूर्व चतुर्दशी तिधिक भोजनके अनचर व्रतम यहाँ उन्हें हाथों, घोड़े, पालकी, रथ, सुवर्ण, इल, कंकण, संकल्प लेना चाहिये। अमावास्याओं निकाल स्नान करें,

 

नित्य, नैमित्तिक और काम्यये तीन प्रकारके कर्म होते हैं। यहाँ काम्यकर्मोको करण चल रहा है। इन्हीं कमसे निष्कामभवमें भगवत्पीयर्थ करनेपर जन्ममरण अन्नसे मुक्ति भी मिल जाती हैं।

ब्रापर्व ]

  • प्रतिपकल्पनिरूपणमें ब्रह्माजीकी फूमाअर्नाकी हिमा

भोजन न करे और गायत्री जप करता रहे । तपदाकै दिन यज्ञ करनेवाला, महादानी ब्राह्मण होता है। विश्वामित्रमुनिने | प्रातःकाल गन्ध-मान्य आदि पचासे और घायणक मा बाझग होनेके लिये बहुत समस्तक घोर तपस्या की, किंतु इन्हें कों और उन्हें यथाशक्ति दूध दें और बादमें ‘ब्रह्माजीं मुझपर ब्राह्मणत्व प्राप्त नहीं हो सका। अतः उन्होंने नियमसे इसी प्रसन्न हो’–ऐसा कहे। स्वयं भी बादमें गायका दूध पिये। प्रतिपदाका व्रत किया। इससे थोड़ेसे समयमें ब्रह्माजीने उन्हें इस विधिसे एक वर्षक व्रतकर अन्नमें गायत्रीसहित ब्राह्मण बना दिया। क्षत्रिय, वैश्य, शूद्र आदि कोई इस माज़ौका पूजन का व्रत समाप्त करें। तिथिका व्रत करें तो यह सब पाप से मुक्त होकर दूसरे जन्ममें | इस विधानसे व्रत करनेपर व्रतीक सबै पाप दूर हो जाते झाह्मण होता है। हैहय, ताजंप, तुरुक, यवन, झाक आदि हैं और उसकी आत्मा शुद्ध हो जाती हैं। वह दिव्य-कारोर लेछ ज्ञातियाले भी इस व्रतके प्रभाषसे ब्राह्मण हो सकते हैं। धारणकर विमानमें बैठकर देवलोकमें देवताओंके साथ ग्रह तिथि परम पुण्य और कल्याण करनेवाली है। जो इसके आनन्द प्राप्त करता है और जब इस पृथ्वीपर सत्ययुगमें जन्म माहात्म्यको पढ़ता अथवा सुनता है वह द्धि, वृद्धि और रस्ता हैं तो इस जन्मतक वेदविद्याका पागामी विद्वान्, सत्कीर्ति पाकर अन्तमें सद्गति प्राप्त करता है। धनवान्, दर्घ आयुष्य, आरोग्यवान्, अनेक भौगोंसे सम्पन्न,

(अध्याय १६)

 

अतिपत्कल्प-निरूपणमें ब्रह्माजकी पूजा-अर्चाकी महिमा |मा चातानीकने कम-ब्रह्मन् ! आप प्रतिपदा पूजा करता है, वह मनुष्य-स्वरूपमें साक्षात् ब्रह्मा ही है। तिथिमें किये जानेवाले कृत्य, ब्रह्माजौके पूजनकी विधि और ब्रह्माजीक पूजासे अधिक पुण्य किसमें न समझकर सदा उसके फलका विस्तारपूर्वक वर्णन करें।

ब्रह्माजका पूजन करते रहना चाहिये।

जो ब्रह्माजीको मन्दिर सुमन्तु मुनि बोले जन् !

 

पूर्वकल्पमें स्थावर- बनवाकर उसमें विधिपूर्वक ब्रह्माजीकी प्रतिमाकी प्रतिष्ठा करता जङ्गमारक सम्पूर्ण जगत्के नष्ट हो जाने पर सर्वत्र हैं, वह यज्ञ, तप, तीर्थ, दान आदिके फलोंसे करोड़ों गुना जल-हो-जल हो गया। इस समय देवताओंमें श्रेष्ठ चतुर्मुख अधिक फल प्राप्त करता हैं । ऐसे पुरुषके दर्शन और स्पर्शसे ब्रह्माजीं प्रकट हुए और उन्होंने अनेक लोकों, देवगण तथा इक्कीस पौदीको उद्धार हो जाता है । ब्रह्माजीकी पूजा करनेवाला विविध प्राणियोंकी सृष्टि कीं । प्रजापति ब्रह्मा देवताओंके पिता पुरुष बहुत कमलतक बालोंमें निवास करता है। वहाँ तथा अन्य जीवोंके पितामह है, इसलिये इनकी सदा पुजी निवास करनेके पश्चात् वह ज्ञानयोगके माध्यमसे मुक्त हो जाता करनी चाहिये। ये हीं जगतकी सुष्टि, पालन तथा संहार है अथवा भोग चाहनेपर मनुष्यलोकमें चक्रवर्ती राजा अथवा करनेवाले हैं। इनके मनसें रुका, वक्षःस्थलसे विष्णुका वेद-वेदाङ्गपारङ्गत कुलेन ब्राह्मण होता हैं। किसी अन्य कठोर आविर्भाव । न माने वाले अपने ; अजय साश्य तप और अशोक मासयकता नहीं है, वह झमाझीको चारों वेद प्रकट हुए। सभी देवता, दैत्य, गर्व, यक्ष, राक्षस, पूजससे हमें सभी पदार्थ प्राप्त हो सकते हैं। जो अह्माजीके नाग आदि इनकी पूजा करते हैं। यह सम्पूर्ण जगत् ब्रह्ममय मन्दिरमें अॅटें जीवोंकी रक्षा करता हुआ सावधानीपूर्वक हैं और ब्रह्ममें स्थित है, अतः ब्रह्माजी सबसे पूज्य हैं। न्य, धीरे-धीरे झाड़ देता है तथा उपलेपन करता है, वह स्वर्ग और मोक्ष-ये तीनों पदार्थ इनमें सेवा करनेसे प्राप्त हो चान्द्रायण-व्रतका फल प्राप्त करता है। एक पक्षक ब्रह्माजीकै जाते हैं। इसलिये सदा प्रसन्नचित्तसे यावजीवन नियमसे मन्दिरमें ज्ञों झाडू लगाता है, वह सौ करोड़ युगसे भी अधिक ब्रह्माजीकी पूजा करनी चाहिये। जो ब्रह्माजीकी सदा भकिसे ब्रह्मलोकमें पूजित होता है और अनत्तर सर्वगुणसम्पन्न, चारों इसका वर्णन चौंक इन अंगमा वरायणमें इससे भी अधिक विस्तार मिला है और मुर्श-चिन्तामन एवं अन्य यातिपभोग भो। रमणीयतापक पश्चित है । पदुम, ब्रतक्षाफल, शव आदि में भी गाता है।

  • पुराणं परमं पुण्यं भविष्यं सर्वमौस्यदम् +

[ संक्षिप्त भविष्यपुराणाङ्क वेदों का ज्ञाता धर्मात्मा राजाके रूपमें पृथ्वीपर आता हैं। जलसे स्नान कराने पर रुद्रलोक, कमलके पुष्प, नीलकमल, | भक्तिपूर्वक ब्रह्माजीका पुजन न करनेतक ही मनुष्य संसारमें पाटा (ोध-आल), कनेर आदि सुगन्धित पुष्पोले आन | भटकता हैं। जिस तरह मानवका मन विषयों में मग्न होता है, क्ग्रनेपर ब्रह्मलोंमें पूजित होता हैं। कपूर और अगरके वैसे ही यदि ब्रह्माजी मन निमग्न रहे तो ऐसा कौन पुरुष होगा जलसे स्नान करानेपर या गायत्रीमन्त्रसे सौ बार जलकों जो मुक्ति नहीं प्राप्त कर सकता । ब्रह्माजींके जीर्ण एवं रण्डत भिमन्त्रित कर उस जलसे स्नान करानेपर ब्रह्मलोंककी प्राप्ति | मन्दिरका उद्धार करनेवाला प्राणों मुक्ति प्राप्त करता है। होती है। शीतल जल या कपिला गायके धारोष्ण दुग्धसे स्नान ब्रह्माजींके समान न कोई देवता हैं न गुरु, न ज्ञान हैं और न कमानेके अनन्तर घृतसे स्नान कराने में सभी पापोंसे मनुष्य मुक्त कई तप हो जाता है। इन तीनों मान सम्पन्न कर भक्तिपूर्वक पूजा प्रतिपदा आदि सभी तिथियोंमें भक्तिपूर्वक ब्रह्माजीक करनेसे पूजकको अश्वमेधयज्ञका फल प्राप्त होता है। मिट्टी पूजा का पूर्णिमाके दिन विशेषरूपसे पूजा करनी चाहिये तथा अडेकी अपेक्षा ताबके घटसे ब्रह्माज़ौकों स्नान करानेपर सौगुना, शल्ल अष्टा, भैरों आदि ब्राह्म-ध्वनियोंके साथ आरती एवं चादीके घटसे लागुना फल होता हैं और सुवर्ण-कलशसे तुति करनी चाहिये। इस प्रकार व्यक्ति जितमें पप आरतौं स्नान करानेपर ऑटिगुना फल प्राप्त होता है। ब्रह्माजीक नसे करता हैं, उतने हजार युगक ब्रह्माकमें निवास और उनका स्पर्श करना श्रेष्ठ हैं, स्पर्शसे पूजन और पूजनसे मृतस्नान आनन्दका उपभोग करता है। कपिला गौके पञ्चगव्य और अधिक फलदायक हैं। सभौं वाचिक और मानसिक पाप कुशाके जलसे वेदमन्त्रों के द्वारा ब्राह्माजको स्नान कराना घतमान कराने नष्ट हो जाते हैं। ब्राह्म-स्नान कहलाता हैं। अन्य स्नानोंसे सौ गुना पुण्य इसमें राजन् ! इस विधिमें स्नान करा कर भक्तिपूर्वक ब्रह्माजीकी अधिक होता है। यज्ञ एवं अग्निहोत्रादिके लिये ब्राह्मण, क्षत्रिय पूछा इस प्रकार करनी चाहिये–पवित्र वस्त्र पहनकर, और वैश्यको कपि गौ रखनी चाहिये । ब्रह्माजीकी मूर्तिका आसनपर बैठ सम्पूर्ण न्यास करना चाहिये । प्रथम चार हाथ कपिला गायके मृतसे अभ्यङ्ग करना चाहिये, इससे करोड़ों विस्तृत स्थानमें एक अदल-कमलका निर्माण करे। उसके बषेक किये गये पापोंका विनाश होता है। यदि प्रतिपदाको दिन मध्य नाना वर्णयुक्त द्वादशदल-यन्त्र लिखें और पाँच गौसे कोई एक बार भी मासे स्नान कराता है तो उसके इपास उस्कों भरें। इस प्रकार यन्त्र-निर्माणकर गायत्री बस पौड़ीका उद्धार में जाता हैं। सुवर्ण-वरुवादिसे अलंकृत दस व्यास करें। हुशार सेवन्सा गौ वेदझा ब्राह्मणोंको देनेसे जो पुष्य होता हैं, गायत्रीके अक्षरोद्वारा शरीर में न्यास कर देवताके शरीर में वहीं पुण्य ब्रह्माजीको दुग्धसे न करानेसे प्राप्त होता है। एक भी न्यास करना चाहिये। प्रणवयुक्त गायत्री-मन्त्र द्वारा बार भी दूधसे ब्रह्माजीको स्नान करानेवाला पुरुष सुवर्णके अभिमन्त्रित केशर, अगर, चन्दन, कपूर आदिसे समन्वित विमानमें विराजमान हों ब्रह्मलोकमै पहुँच ज्ञाता है । दहीमें जलसे सभी पूजाइयोंका मार्जन करना चाहिये । अनन्तर पुजा स्नान करानेपर विष्णुलोक्की प्राप्ति होती है। शाहदसे स्नान करनी चाहिये । प्रणयका उच्चारण कर पौठापन और प्रणव करानेपर बरलोक (इन्द्रक) की प्राप्ति होती हैं। ईखके ही तेजस्वरूप ब्रह्माजीका आवाहन करना चाहिये । पद्मपर इससे स्नान करानेपर सूर्यककी प्राप्ति होती हैं। शुद्धोदकसे विराजमान, चार मुखोसे युक्त चराचर विश्वकी सृष्टि करनेवाले स्नान कराने पर सभी पापोंसे मुक्त होकर ब्रह्मलोंमें निवास श्रीब्रह्माजीका ध्यान कर पूजा करनी चाहिये । जो पुरुष प्रतिफ्दा करता हैं। वस्त्रको छने हुए जलसे ब्रह्माजीकों स्नान करानैपर तिथिकै दिन भक्तिपूर्वक गायत्रीमन्यसे ब्रह्माजीका पूजन करता वह सदा तृप्त रहता हैं और सम्पूर्ण विश्व उसके वशीभूत हों है, वह चिरकालतक ब्रह्मलोकमें निवास करता है। जाता हैं। सवषधियाँसे स्नान कानेपर ब्रह्माक, चन्दन के समास

( अध्याय १७)

यया मिनं जनाविपयागो

तं ब्रह्मणि शर्त को मुच्येत बधन् मार्च ||

 

ब्राह्मपर्य]

  • झिनीयापमें महर्षि च्यवनकी कथा वं पुपलियातकी महिमा

 

मह्माजीकी रथयात्राका विधान और कार्तिक शुक्ल प्रतिपदाकी महिमा सुमन्तु मुनिने कहा— राजा शतानीक ! कार्तिक प्रदक्षिणा करनी चाहिये, अनतर उसे अपने स्थानपर ले आना मासमें जो ब्रह्माजीकी उधयात्रा उत्सव करता है, वह चाहिये। आरती करके ब्रह्माजींकों उनके मन्दिरमें स्थापित अालको प्राप्त करता है। कार्तिक पूर्णिमाको मृगचर्मक करें। इस रथयात्राको सम्पन्न करनेवाले, रक्को खींचनेवाले आसनपर सावित्रीके साथ ब्रह्माजको दुधमें बिजमान करे तथा इसका दर्शन करनेवाले सभी ब्रह्मलोकको प्राप्त करते हैं। और विविध वाद्य-ध्वनिके साथ रथयात्रा निकाले। विशिष्ट दीपावलीके दिन ब्रह्माजीक मन्दिर में दीप ज्वलित करनेवाला उसके साथ ब्रह्माजींको थप वैनायें और थके आगे ब्रह्मलोकको प्राप्त करता है। इस दिन प्रतिपदाको ब्रह्माजी मह्माकं मम भक्त म्राह्मण शांतिपत्रको स्थापित र जा करके स्वयं भी वा-आमाणसे अत होना चाहिये । उनकी पूजा करे । ब्राह्मणोंक द्वारा स्वस्ति एवं पुण्याहवाचन यह प्रतिपदा तिथि ब्रह्माजीको बहुत प्रिय हैं। इसी तिथि कराये । उस रात्रि जागरण करे। नृत्य-गौत आदि रसव एवं बलिके ग्रन्यका आरम्भ हुआ है। इस दिन ब्रह्माजीका विविध क्रीड़ा ब्रह्माजीके सम्मुख प्रदर्शित करे। पूजनकर ब्राह्मण-भोजन करानेसे विष्णुलोककी प्राप्ति होती हैं।

इस प्रकार रात्रिमें जागरण कर प्रतिपदाके दिन प्रातःकाल चैत्र मासमें कृष्णप्रतिपदाके दिन (होली जलानेके दूसरे दिन) ब्रह्मर्जीका पुजन करना चाहिये। ब्राह्मणको भोजन कराना चाष्ट्राला स्पर्शकर स्नान करने से सभी आधि-व्याधियाँ दूर चाहिये, अनन्तर पुण्य शब्दोंके साथ यात्रा प्रारम्भ करनी हो जाती हैं। उस दिन गौ, महिष आदिको अलंकृतकर उन्हें चाहिये।

मण्डफ्के नीचे रखना चाहिये तथा ब्राह्मणोंको भोजन कराना चारों वेदोंके ज्ञाता उत्तम ब्राह्मण उस रथको खर्च और चाहिये। चैत्र, आश्विन और कार्निक इन तीनों महीनोंकी रथके आगे वेद पढ़ते हुए ब्राह्मण चलते रहें। ब्रह्माजीके प्रतिपदा श्रेष्ठ है, किंतु इनमें कार्तिककी प्रतिपदा विशेष श्रेष्ठ दक्षिण-भागमें सावित्री तथा वाम-भागमें भोजककी स्थापना है। इस दिन किया हुआ स्नान-दान आदि सौ गुने फलक देता करें। रथके आगे शङ्ख, भेरी, मृदङ्ग आदि विविध वाद्य बजते हैं। राजा बलिको इसी दिन राज्य मिला था, इसलिये रहें । इस प्रकार सारे नागरमें रथको शुमाना चाहिये और नगरकी कार्तिककी प्रतिपदा श्रेष्ठ मानी जाती हैं।

 

(अध्याय १८)

 

द्वितीया-कल्पमें महर्षि च्यवनकी कथा एवं पुष्पद्वितीया-व्रतकी महिमा सुमन्तु मुनि बोले-द्वितीया तिथिको च्यवनपिने एक समय अपनी सेना और अन्तःपुनके परिजनोंको साथ इन्द्रके सम्मुख यज्ञमें अश्विनीकुमारोंको सोमपान कराया था। लेकर महाराज शर्यंत गङ्गा-स्नानके लिये वह आये। उन्होंने | ज्ञाने पूछा–महाराज ! इइके सम्मुख किस विधिले च्यावनमुचिक आश्चमके समीप आफ गङ्गा मान सम्पन्न अश्विनीकुमारीको उन्होंने सोमरस पिलाया? क्या च्यवन- किया तथा देवताओंकी आराधना की और पितरोका तर्पण ऋषिकी तपस्याको प्रभावकी प्रवक्तासे इन्द्र कुछ भी करने किया । तदनन्तर जव में अपने नगरकी और जानेको उद्यत हुए। समर्थ नहीं हुए।

 

तो उसी समय उनकी सभी सेनाएँ व्याकुल हो गयॊ और मूत्र सुमन्तु मुनिने कहा- सत्ययुगका पूर्वसंध्या गङ्गाके तथा विठ्ठा उनके अचानक ही बंद हो गये, आँखोंसे कुछ भी तटपर समाधिस्थ हों च्यवनमुन बहुत दिनों तपस्यामें रत थे। नहीं दिखायीं दिया। अॅनाकों यह दशा देखकर राजा घबड़ा

अन्य पुगध तथा महाभारके अनुसार यह आश्चम सोनभद्र और बम कि समय था, को आज दुवकृपक नामास प्रमद्ध हैं। प्रायः पुराना गह इक भी प्राप्त होता है

मग तु गा पुण्या नदी पुण्या पुनः पुना। पवनय आम पुण्य पुम् जगह बनम्म् ।।

 

+ पुराणं परमं पुण्यं विन्यं सर्वसौस्पदम्

[ संक्षिप्त भविष्यपुराणा लें। राज्ञा झर्योति प्रत्येक व्यक्तिको पूछने लगे—यह तपस्वी वे इस महातपस्वी प्रकाशमान नेत्र थे। राजा वहाँ पहुँचकर | यवनमुनिका पवित्र आश्रम है, किसने कुछ अपराध तो नहीं अतिशय दौनताकै साध विनती करने लगेकिया ? उनके इस प्रकार पुनेपर किसने कुछ भी नहीं कहा। ना बोले–मान ! मेरों कयासे बहुत बड़ा सुकन्याने अपने पितासे का—माज | मैंने एक अपराध हो गया है। कार क्षमा करें। आश्चर्य देखा, जिसका मैं वर्णन कर रही हैं। अपनी च्यवनमुनिने का-अपराध तो मैंने क्षमा किया, सहेलियों के साथ मैं वन-विहार कर रहीं थीं कि एक ओरसे परंतु अपनी कन्याका मैं साथ विवाह कर दों, इसमें तुम्हारा मुझे यह शब्द सुनायीं पड़ा-‘सुकन्यै ! तुम इधर आओ, तुम कल्याण हैं। मुनिका वचन सुनकर जानें शीघ्र हीं सुकन्याका इधर आओ।’ यह सुनकर मैं अपनी सखियोंके साथ उस च्यवनषिसे विवाह कर दिया। सभी सेनाएँ सुखी हो गयी शब्दकी ओर गयी । वहाँ जाकर मैंने एक बहुत ऊँचा वल्मक और मुनिको प्रसन्नकर सुखपूर्वक राजा अपने नगरमें आकर राज्य करने लगें। सुकन्या भी विवाहके बाद भक्तिपूर्वक मुनिक सेवा करने लगीं। राज्ञवस्त्र, आभूषण उसने उतार दिये और वृक्षकों आल तथा मृगचर्म धारण कर लिया। इस प्रकार, मुनिकी सेवा करते हुए कुछ समय व्यतीत हो गया और वसन्त ऋतु आयीं। किसी दिन मुनिने संतान-प्राप्तिके लिये अपनी अनी सुकन्याका आह्वान किया। इसपर सुकन्याने अतिशय विनयभावसे विनती की सुकन्या बोली–महाराज ! आपकी आज्ञा मैं किसी कार भी झारू नहीं सकती, किंतु इसके लिये आपको कुवावस्था तथा सुन्दर वस्त्र-आभूषणोंमें अलंकृत कमनीय रूप धारण करना चाहिये।

च्यवनमुनिने उदास होकर कहा–ने मेरा उत्तम रूप है और न तुम्हारे पिताके समान मेरे पास धन हैं, जिसमें सभी भौग-सामग्रियोंकों मैं एकत्र कर सकें।  सुकन्या बोली–महाराज ! आप अपने ताके देखा। उसके अंदर स्त्रियोंमें दीपकके समान देदीप्यमान दो प्रभावसे सब कुछ करनेमें समर्थ हैं। आपके लिये यह पदार्थ मुझे दिखलायीं पड़े। उन्हें देखकर मुझे बम आश्चर्य वैन-सौं बड़ी बात है ? हुआ कि ये गर्माणके समान क्या चमक रहे हैं। मैंने च्यवनमुनिने कहा—नत्र ! इस कामके लिये मैं अपनी मूर्खता और चञ्चलतासे कुशाके अग्रभागसें वाल्मीकके अपनी तपस्या व्यर्थं नहीं करूंगा। इतना कहकर वे पहलेकी काशयुक्त छिड़कों बँध दिया, जिससे वह शान्त हो तरह तपस्या करने लगे। सुकन्या भी ऊनकी सेवामें तत्पर हों गया।

गन्य। यह सुनकर राजा बहुत व्याकुल में गये और अपनी इस प्रकार बहुत काल व्यतीत होनेके बाद अश्विनीकुमार कन्या सुकन्याको लेकर वहाँ गये जहाँ च्यवनमुनि तुपस्या त सी मासे चले जा रहे थे कि उनकी दृष्टि सुकन्यापर पड़ी। थे। यवनयको वहाँ समाभिस्थ होकर बैठे हुए इतने दिन अमिनमाने कहा-भद्दे ! तुम कौन हों ? और व्यतीत हो गये थे कि उनके ऊपर चमक बन गया था। जिन इस घोर वनमें अकेली क्यों रहती हो ? तेजस्वी छिको सुकन्पाने कुराके अग्रभागसे बँध दिया था, सुकन्याने कहा-मैं जा आपतिको सुकन्या नामकी ब्रह्मपर्य]

 

शियाकल्पमें महर्षि च्यवनकी कथा पुपांतीयाझनकी ममा

पुत्री है। मेरे पति च्यवन ऋषि यहाँ तपस्या कर रहे हैं, उन्हींकी सुकन्याकी इस प्रार्थना से अश्विनकुमार प्रसन्न हो गये सेवाकें लिये मैं यहाँ उनके समीप रहती हैं कहिये, आपोंग और उन्होंने देवताओंके चिह्नको धारण कर लिया सुकन्याने कौन हैं ?

देखा कि तीन पुरुषोंमेंसे की परके गिर नहीं रहीं हैं और अश्विनीकुमारोंने कहाहम् देवताओंके वैद्य अश्विनीकुमार हैं। इस वृद्ध पनिमें तुम्हें क्या सुख मिलेगा ? हम दोनोंमें किसी एकका वरण कर लें।

सुकन्याने कम-देवताओं ! आपका ऐसा कहना ठीक नहीं। मैं पतिव्रता है और सब प्रकार से अनुरक्त होकर दिन-रात अपने पति की सेवा करती हैं। | अश्विनीकुमारोंने कहा—यदि ऎसी बात है तौं हम

तुम्हारे पतिदें अपने उपचारके द्वारा अपने समान स्वस्थ एवं सुन्दर बना देंगे और जब हम तीनों गङ्गामें स्नानकर बाहर निकले फिर जिसे तुम पतिरूपमें वरण करना चाहो कर लेना।

सुकन्याने कहा-मैं बिना पतिकी आशाके कुछ नहीं  कह सकतीं।

अश्विनीकुमारोंने कहातुम अपने पति

आओ, तबतक हम यहीं प्रतीक्षामें रहेंगे।

सुकन्याने उनके चरण भूमिका स्पर्श नहीं कर रहे हैं, किंतु जो तीसरा पवनमुनिके पास जाकर उन्हें सम्पूर्ण वृत्तान्त बतलाया पुरूष है, वह भूमिपर खड़ा हैं और उसकी पलके भी गिर रही अश्विनीकुमाकी बात स्वीकार कर च्यवनमुन सुकन्याको है। इन चिों को देखकर सुकन्याने निश्चित कर लिया कि ये लेकर उनके पास आये।

तीसरे पुरुष हीं में स्वामी च्यवनमुन हैं। तब उसने इनका च्यवनमुनिने कहा-अश्विनीकुमारों ! आपकी शर्त वरण कर लिया। उस समय आकाशसे उसपर पुष्प-वृष्टि होने हमें स्वीकार हैं। आप हमें उत्तम रूपवान् बना दें, फिर सुकन्या लगी और देवगण इन्दुभि बजाने लगे। चाहे जिसे वरण को। च्यवनमुनिके इतना कहनेपर च्यवनमुनिने अश्विनीकुमारोंसे कहा-देयो ! आप अश्विनीकुमार च्यवनमुनिको लेकर गङ्गीके ज्ञलमें प्रविष्ट में गोंने मुझपर बहुत उपकार किया है, जिसके फलस्वरूप मुझे गये और कुछ देर बाद तीनों ही बाहर निकले। सुकन्याने देखा उत्तम रूप और उत्तम पली प्राप्त हुई। अब मैं आपलोगोंका कि ये तीनों तो समान रूप, समान अवस्था तथा समान क्या आपकार क, म्योंकि जो उपकार, कर्नयालेका वस्त्राभूषणोंसे अलंकृत हैं, फिर इनमें मेरे पति च्यवनमुनि कौन प्रत्युफ्कम नहीं करता, वह क्रमसे इक्कीस नरकोंमें जाता हैं, हैं? वह कुछ निश्चित न कर सकीं और व्याकुल हों इसलिये आपका मैं क्या प्रिय कहूँ, आप लौंग कहे।

अश्विनीकुमारोंकी प्रार्थना करने लगी।

अश्विनीमारोंने उनसे कहामारमन् !

यदि आप सुकन्या बोलींदेखो !

अत्यन्त रूप पतिदेयकम म हुमाग्न प्रिय करना हो चाहते हैं तो अन्य देवता की तरह हमें मैंने परित्याग नहीं किया था। अब तो आपकी कृपासे उनका भी यज्ञभाग दियाइये । च्यमनने यह बात स्वीकार कर रूप आपके समान सुन्दर हो गया है, फिर मैं कैसे बना ली, फिर वे उन्हें बिदाकर अपनी भार्या सुकन्याकै साथ अपने परित्याग कर सकती हैं। मैं आपकी शरण हैं, मुझपर कृपा आश्रममें आ गये। कानि ।

गुजा कार्यानिकों जब यह सारा वृत्तान्त ज्ञात हुआ तों में

१-उपका वरिष्ठं यों न करोम्युफ्कारिणः । ए त् स गच्या नामगि क्रमेण वै।

(ब्राल्ब ११ ॥ ५०-५१)

* पुराणं परमं पुण्यं भविष्यं सर्वसौख्यदम् +

[ संक्षिप्त भविष्यपुराणाङ्क भी ग़नीको साथ लेकर सुन्दर प – प्राप्त महातेजस्वी हैं, इसलिये मैं इन्हें अवश्य यज्ञभाग दूंगा। यह सुनकर इन्द्र च्यवनयिको देखने आश्रममें आये । राजाने च्यवनमुनिको क्रुद्ध हो उठे और कठोर स्वरमें कहने लगे।। प्रणाम किया और उन्होंने भी राजाका स्वागत किया। सुकन्याने इन्द्र बोले–यदि तुम मेरी बात नहीं मानोगे तो वन्नसे | अपनी माताको आलिङ्गन किया। गुजा शर्यात अपने जामाता तुमपर मैं प्रहार करूगा । इन्द्रकी ऐसी वाणी सुनकर च्यवनमुन महामुनि च्यवनका उतम रूप देखकर अस्पत प्रसन्न हुए। किंचित् भी भयभीत नहीं हुए और उन्होंने अश्विनकुमा को च्यवनमुनिने जासे कहा–राजन् ! एक महायज्ञक यज्ञभाग में हीं दिया, तब तो इन्द्र अत्यन्त क्रुद्ध हों ॐ और सामग्री एकत्र कौजिये, हम आपसे यज्ञ करायगे । च्यवन- उन्होंने ज्यों हीं च्यवनमुनिपर प्रहार करनेके लिये अपना वग्न | मुनिकी आज्ञा मान जा यति अपनी राजधानी औट उठाया यों ही जनमुनिने अपने तुपके प्रभाव इन्द्रका | आये और यज्ञ-सामग्री एकनकर यकी तैयारी करने लगे। स्नम्भ कर दिया । इन्द्र में बञ्च लिये खड़े हुँीं रह गये।

मन्त्री, पुरोहित और आचार्यको बुलाकर यज्ञकार्यके लिये उन्हें च्यवनमुनिने अश्विनीकुमारोंको यज्ञभाग देकर अपनी नियुक्त किया । च्यवनमुनि भी अपनी पाली मुकन्याको लेकर प्रतिज्ञा पूरी कर ली और यज्ञको पूर्ण किया। उस समय वहाँ यज्ञ-थलमें पधारे ब्रह्माजी उपस्थित हुए । | सभी ऋषिगको आमन्त्रण देकर यज्ञमैं बुलाया गया। ब्रह्माजींने च्यवनमुनसे कहा-महामुने ! आप विधिपूर्वक यज्ञ प्रारम्भ हुआ। त्विक् अग्निकाण्ड इन्द्रको स्तम्भन-मुक्त कर दें। अश्विनीकुमारोको यज्ञ-भाग ३ स्वामके साथ देवताओंको आहुति देने लगे। सभी देवता हैं। इन्ने भौं स्तम्भनसे मुक्त करनेके लिये प्रार्थना की अपना-अपना यज्ञ- भाग लेने यहाँ आ पहुँचे । च्यवनमुनिके इन्द्रने कहा—मुने ! आपके तपकी प्रसिद्धिके लिये ही कहने अश्विनीकुमार भी वहाँ आये। ट्रेनज इद उनके मैने इन अश्विनीकुमारों को यज्ञमें भाग लेने से रोका था, अब आनेक प्रयोजन समझ गये।

आजसे सब यशोंमें अन्य देवताओं के साथ अश्विनीकुमारों को | इन्द्र खोले—मुने ! ये दोनों अश्विनीकुमार देवताओंके भी यज्ञभाग मिला करेगा और इनको देवत्व भी प्राप्त होगा। वैद्य हैं, इसलिये ये यज्ञ-भागकै भिकारी नहीं हैं, आप इन्हें आपके इस तृपके अभावको जो सुनेगा अथवा पर्नेगा, वह भी आरितयाँ प्रदान न करवाये।

सः उत्तम रूप एवं गौचनको प्राप्त करेगा। इतना कह देवज़ च्यवनमुनिने इन्से कहा ये देवता हैं और इनका इन्द्र देवलोकको चले गये और च्यवनमुन सुकन्या तथा राज्ञी मेरे ऊपर बड़ा उपकार है, ये मेरे हीं आमन्त्रणपर, यहाँ पधारे शतके साथ आश्रमपर लौट आये। वीं उन्होंने देखा कि बहुत उत्तम-उत्तम महल बन गये है, जिनमें सन्दर, पवन और चापी आदि विहारके लिये अने हुए हैं। भाँति-भाँतिकी शय्याएँ बिछी हुई हैं, विविध रत्नमें जटित आभूषणों तथा उनम-उत्तम वस्त्रोंके ढेर लगे हैं। यह देकर सुकन्यासति च्यवनमुनि अत्यन्त प्रसन्न हो गये और उन्होंने यह सब देवराज इन्द्रद्वारा प्रदत्त समझकर उनकी प्रशंसा की। | महामुनि सुमन्तु राजा शतानीकसे बोले-राजन् ! इस प्रकार, द्वितीया तिथिकै दिन अश्विनी कुमारोको दैत्य तथा यज्ञभाग प्राप्त हुआ था। अब आप इस द्वितीया तिथिकै ब्रतका विधान सुनें शतानीक बोले-जो पुरुष उत्तम रूपकी इझ करे ज्ञानपर्व ]

 

+ फलद्वितीया (अशुन्ययन)का व्रतविधान

वह कार्तिक मासके शुक्ल पक्षकी द्वितीयासे व्रतकों आरम्भ करें आधि-धियोंसे रहित, पुत्र-पौत्रोंसे युक्त, उत्तम पत्रवाला | और वर्षपर्यन संयमित झोक्न पुष्पा-भोजन करें। जो उत्तम ब्राह्मण होता हैं अथवा मध्यर्देशके उन्नुम नगर में राज्ञा होता है।

विष्य-पुष्प अस ऋतुमें हों उनका आहार करें। इस प्रकार एक जन् ! इस पुष्पहतीया-बतका विधान मैंने आपको वर्ष झतका सोने-चाँदीके पुष्प अनाकर अथवा कमलपुष्पकों बताया। ऐसी ही फद्वितीया भी होती हैं, जिसे ब्राह्मणों को देकर व्रत सम्पन्न गर्ने । इससे अश्विनीकुमार संतुष्ट अशून्यशयना-द्वितीया भी कहते हैं। फलद्वतीयकों जो होकर उत्तम रूप प्रदान करते हैं । व्रत उत्तम विमानोंमें बैठकर श्रद्धापूर्वक व्रत करता है, वह ऋद्धि-सिद्धिको प्राप्तकर अपनी वर्गमें जाकर कल्पपर्यंत विविध सुखका उपभोग करता है। भार्यासहित आनन्द प्राप्त करता हैं। फिर मर्त्यलोकमें जन्म लेकर वेद-वेदाङ्गोंका ज्ञाता, महादानी,

(अध्याय १९)

फल-द्वितीया (अशून्यशयन-अत) का व्रत-विधान और द्वितीया-कल्पकी समाप्ति राजा ज्ञाताचींकने का—मुने ! कृपाकर आप फ भगवानको यि है, भगवान् शय्यापर समर्पत फलद्वतीयाका विधान कहें, जिसके करने से वीं विधवा नहीं करना चाहिये और स्वयं भौं रात्रिके समय उन्हीं फलोंको होती और पति-पत्नीका परस्पर वियोग भी नहीं होता। खाकर दूसरे दिन ब्राह्मणोंको दक्षिणा देनी चाहिये।

सुमन्तु मुनिने कहाराजन् !

मैं फलद्वितीयाका राजा शतानीकने पूछामहामुने !

भगवान् विष्णुको विधान कहता हैं. इसी नाम अशून्यशायना-द्वितीया भी हैं। कौन-से फल प्रिय हैं, आप उन्हें बतायें। दूसरे दिन ब्राह्मणोंको इस व्रत विधिपूर्वक करनेसे नौ विधवा नहीं होतीं और क्या दान देना चाहिये । उसे भी कहें स्त्री-पुरुष का परस्पर वियोग भी नहीं होता।

क्षीरसागरमें सुमन्तु मुनि बोलेजन् !

उस ऋतुमें जो भी फल लक्ष्मीक साथ भगवान् विष्णुकें शयन करनेके समय यह व्रत हों और पके हों, उन्हींकों भगवान् विष्णके लिये समर्पित करना होता है। श्रावण मासके कृष्ण पक्षको द्वितीयाके दिन लक्ष्मौके चाहिये । कडवे-कच्चे तथा खट्टे फल उनकी सेवामैं नहीं चढ़ाने साध श्रीवत्सधारी भगवान् विष्णुका पूजाक्का हाथ जोड़कर चाहिये । भगवान् विष्णुको स्वर, नारियल, मातुङ्ग अर्थात् इस प्रकार प्रार्थना करनी चाहियें बिजौरा आदि मधुर फलोंकों समर्पित करना चाहिये।

 

भगवान् श्रीवत्सबारिन् श्रीकान्त वत्स ऑपतेऽव्यय  

मधुर फलोंसे प्रसन्न होते हैं। दूसरे दिन ब्राह्मणोंको भी इस गार्हस्थ्यं मा प्रणाझं में यातु अर्माबंकामदम् ।।

प्रकारके मधुर फल, वस्त्र, अन्न तथा सुवर्णका दान देना चाहिये।

गावश्च मा अणश्यतु मा प्रत्यन्तु में जनाः

इस प्रकार जो पुरुष चार मासतक व्रत करता है, उसका जामयों मा प्रणश्यन्तु पत्तों दाम्पत्यभेदतः । तीन जन्मोंक गार्हस्थ्य जीवन नष्ट नहीं होता और न तों क्षम्या विन्ये देव न कदाचिया भवान् ॥ ऐमर्यकी कम होती है। ज्ञों की इस व्रत को करती है वह तीन तथा कलत्रसम्बों देव मा में विद्युन्यताम् । जन्मोंतक न विधया होती है न दुर्भगा और न पतिसे पृथक् हों लक्ष्म्या न शुन्यं वद यथा ते अपने सदा ॥ रहती है। शया ममाप्यशून्यास्तु तथा तु मधुसूदन। इस व्रतके दिन अश्विनीकुमारोंकी भी पूजा करनी चाहियें।

राजन् ! इस प्रकार मैंने द्वितीया-कल्पका वर्णन इस प्रकार विष्णु की प्रार्थना करके व्रत करना चाहिये। जो किया है।

(अध्याय ३०)

!-हे यम-चिाको करनेवाले लमके स्वामी मत भगवान् विष्णु ! अर्म, अर्थ और ममें पूर्ण करनेवाला मैं हम-आश्रम कों नष्ट न हो । मेरो गौर भी नष्ट न हैं न हों में परिपके लोग कमें पड़े व ३ नष्ट । की हिँ भी कभी विपना न पड़े और हुम पति-पत्नीने भी कभी मतभेद बन्न न हो । है ! मैं मरणं कभी स्त्रियुक्त न हो और में भी कभी मुझे वियोगको प्राप्ति न हो। प्रभो ! जैसे आये शय्या की लक्ष्मीले शुग कहीं होती, उ अपर में आया भी कभी भारत व लक्ष्मी तथा उनमें झु- न हो।

  • पुराण घरमं पुण्यं पवियं सर्वसौरुदम्

[ संक्षिप्त भविष्यपुराणा तृतीया-कल्पका आरम्भ, गौरी-तृतीया-अत-विधान और उसका फल सुमन्तु मुनिने कहा–राजन् ! जों की सब प्रकारका पतिसहित सबसे ऊपरका स्थान प्राप्त कर सकीं थीं। ये सुख चाहती है, उसे तृतीयाका व्रत करना चाहिये। इस दिन आयातक आपमें अपने पति महर्षि वसिष्ठके साथ दिखायौं। नमक नहीं खाना चाहिये । इस विधिसे उपवासपूर्वक जीवन देती हैं। चन्द्रमाकी पत्नी रोहिणीने अपनी समस्त सर्यालयको पर्यत इस व्रतका अनुष्ठान करनेवाली स्त्रीको भगवतीं गौरी ज्ञानेके लिये बिना लवण खायें इस व्रतकों किया तों में संतुष्ट होक्का रूप-सौभाम्य तथा अवश्य प्रदान करती हैं। इस अपनी सभी सपत्नियोंमें प्रधान तथा अपने पतिं चन्द्रमाकी मतम विधान में स्वयं गौरीने धर्मराज्ञसे कम हैं, उसका अत्यन्त प्रिय पत्नी में गयीं। देवी पार्वतीक अनुकम्पासे उन्हें अर्गन मैं कमाती है। उसे आप सुनें अचल सौभाग्य प्राप्त हुआ। भगवती गौरीने धर्मसे कम-धर्म ! – इस प्रकार यह तृतीया तिथि-वत सारे संसारमें पूजित है। पुरुषों कल्याणके लिये मैंने इस सौभाग्य प्राप्त कानेवाले और उत्तम फल देनेवाला हैं। वैशाय, भाइपद तथा माघ ब्रतको बनाया है। जो स्त्री इस क्षेतको नियमपूर्वक करती है, मासको तृतीया अन्य मासोंकी तृतीयासे अधिक उत्तम है, वह सदैव अपने पतके साथ रहकर उसी प्रकार आनन्दका जिसमें माघ मास तथा भाफ्द मासकीं तृतीया स्त्रियों उपभोग करती हैं, जैसे भगवान् शिव के साथ में आनन्दित विशेष फल देनेवाली है। रहती हैं। उत्तम पनि प्राप्ति के लिये कन्याओं यज्ञ व्रत करना वैशाख मास तृतीया सामान्यरूपसे सम्बके लिये हैं। चाहिये । ब्रतमें नमक न खायें । सुवर्णकी गौरी-प्रतिमा स्थापित यह साधारण तृतीया हैं। माघ मास तुतींयाको गुड़ तथा करके भक्तिपूर्वक एकाग्रचित्त को गौरीका फूजन करे। गौरीके या दान करना -रुप लिये अत्यन्त श्रेयस्कर है। लिये नाना प्रकारके नैय अर्पित करने चाहिये। रात्रिमें भाद्रपद मासकीं तृतीयामें गुड़के बने असूप (मालपुआ) का लवणहत भोजन करके स्थापित गौरी-पतिमाके समक्ष में दान करना चाहिये । भगवान् की प्रसन्नताके लिये माघ शयन करे। दूसरे दिन ब्राह्मणोंको भोजन कराकर दक्षिणा दे। मासकीं तृतीयाको मोदक और जला दान करना चाहिये। इस प्रकार ज्ञों कन्या व्रत करता है, वह उत्तम पतिको प्राप्त वैशाख मासकी तृतीयाको चन्दनमिश्रित जल तथा मोदक्के करती है तथा चिरकातक श्रेष्ठ भौगोंकों भोगकर अत्तमै दानसे ब्रह्मा तथा सभी देवता प्रसन्न होते हैं। देवताओंने पतिके साथ इत्तम लेकको जाती है।

वैशाख मासकी तृतीयाको अक्षय तृतीया कहा है। इस दिन यदि विधवा इस व्रतकों करती हैं तो यह वर्गमें अपने अन्न-वस्त्र-भजन-सुवर्ण और जल आदि दान करने से पतिको प्राप्त करती है और बहुत समयतक वहाँ रहकर पतिके अक्षय फल प्राप्त होती है। इसी विशेषता के कारण इस साधु यहाँके सुर्खाका उपभोंग करती है और पूर्वोक्त सभी तृतीयाका नाम अक्षय तृतीया है। इस तृतीयाके दिन जो कुछ सुखको भी प्राप्त करती है। देवी इन्द्राणीने पुत्र-प्राप्तिके लिये भी दान किया जाता है यह अक्षय हो जाता है और दान इस व्रतका अनुष्ठान किया था, इसके प्रभाषसे उन्हें जयन्त देनेवाल्य सूर्यलोकको प्राप्त करता है। इस तिथिको जौं उपवास नामका पुत्र प्राप्त हुआ। अरुवातीने उत्तम स्थान प्राप्त करनेके करता है वह ऋद्धि-वृद्धि और श्रीसे सम्पन्न हो जाता है। लिये इस व्रतका ममय-पान किया था, जिसके प्रभावों चतुर्थी-व्रत एवं गणेशजीकी कथा तथा सामुद्रिक शास्त्रका संक्षिप्त परिचय सुमनु मुनिने कहा–राजन् ! तृतीया-कल्पका वर्णन चाहिये। इस प्रकार व्रत करते हुए दो वर्ष व्यतीत होने पर करनेके अनन्तर, अब मैं चतुर्थी-कल्पका वर्णन करता हैं। भगवान् विनापक प्रसन्न होकर अतीको अभीष्ट फल प्रदान चतुर्थी-तिथिमें सदा निराहार रहकर व्रत करना चाहिये। करते हैं। उसका भाग्योदय में जाता है और वह अपार ब्राह्मणको निलका दान देकर स्वयं भी तिलका भोजन करना धन-सम्पत्तिम स्वामी हो जाता है तथा परलोकमें भी अपने ब्राह्मपर्व ]

 

* चतुर्थीब्रत एवं गणेशजीकी कथा था सामुविक झासका परिचय

पुण्य-फलका उपभोग करता हैं। पुण्य समाप्त होनेके पश्चात् कहा जायगा, वह मेरे ही नाम ‘सामुद्रिक शास्त्र में प्रसिद्ध इस लोकमें पुनः आकर वह दीर्घायु, कर्मात्तमान, बुद्धिमान्, सँगा । क्यामिन् ! आपने जो आशा मुझे दी है, वह निश्चित हों | धृतिमान्, वक्ता, भाग्यवान्, अभीष्ट कार्यों तथा असाध्य- पूरी होगी। कायको भौ क्षणभरमें ही सिद्ध करनेवाला और हाथी, शमीने पुनः कहा—कार्तिकेय ! इस समय तुमने ऑड़े, रथा, पली-पुत्रसे युक्त सात जन्मोंतक राजा होता हैं। जें गणेशका दाँत उखाड़ लिया है उसे दे दो। निश्चय हीं जो | राजा शतानीकने पूछा-मुने ! गणेशजीने किसके कुछ यह हुआ है, होना ही था। दैवयोगसे यह गणेशके बिना लिये विग्न उत्पन्न किया था, जिसके कारण उन्हें विघविनायक सम्भव नहीं था, इसलिये उनके द्वारा यह विश्न उपस्थित किया कहा गया। आप विश तथा उनके द्वारा विप्त उत्पन्न करनेके गया। यदि तुम्हें लक्षणकी अपेक्षा हों तो समुहसे ग्रहण कर | कारणको मुझे अज्ञानेका कष्ट करें। :

 

, किंतु स्त्रीपुरुषका यह अच्च क्षगशास्त्र सामुहशास्त्र सुमन्तु मुनि बोलेजन् ! एक बार अपने लक्षणइस नामको ही प्रसिद्ध होगा। गणेशों तुम दाँतयुक्त कर दो।।।

शास्त्र अनुसार स्वामिकर्माकियने पुरुषों और स्त्रियों के अष्ठ कार्तिकेयने भगवान् देवदेवेश्वरसे कहाआपके लक्षणोंकी रचना की, उस समय गणेशजौने विद्म किया

कहने से मैं दाँत तो विनायकके हाथमें दे देता है, किंतु इन्हें इस इसपर कार्तिकेय क्रुद्ध हो उठे और उन्होंने गणेश एक दात दाँतको सदैव धारण करना पड़ेगा। यदि इस दाँतको फेंककर उखाड़ लिया और उन्हें मारनेके लिये उद्यत हो उठे। उस ये इधर-उधर घुमेंगे तों यह फेंका गया दाँत इन्हें भस्म कर समय भगवान् शङ्करने से रोककर पूछा कि तुम्हारे क्रोधका देगा। ऐसा कहकर कार्तिकयने उनके हाथमें दाँत दे दिया। क्या कारण है ?

भगवान् देवदेवेश्वरने गणेशको कार्तिकेयकी इस बातको | कार्तिकेयने कहा- पिताजी ! मैं पुरुषोंके लक्षण माननेके लिये सहमत कर लिया। बनाकर सिके लक्षण बना रहा था, उसमें इसने विमा किया, सुमन्तु मुनिने का गन् ! आज भी भगवान् जिससे पियोंके लक्षण मैं नहीं बना सका। इस कारण मुझे आपके पुत्र विन्नकर्ता महात्मा विनायककी प्रतिमा हाथमें दांत मेष हों आया। यह सुनकर महादेजने कंपके क्रोधकों लिये देखी जा सकती है। देवताओंकों यह रहस्यपूर्ण बात मैंने शान किया और हँसते हुए उन्होंने पूछा आपसे कहीं। इसको देवता भी नहीं जान पाये थे। पृथ्वीपर झर झोले—मान ! तुम मपके लक्षण ज्ञानते हो तो इस इहस्यको जानना तो दुर्लभ ही है। प्रसन्न होकर मैंने इस बताओ, मुझमें पुरुषके कौन-से लक्षण हैं?

रहस्यको आपसे तो कह दिया है, किंतु गणेशको यह कात्तिकंपने कम-महाराज ! आपमें ऐसा लक्षण हैं अमृतकथा चतुधी तिथिके संयोगपर ही करनी चाहिये। जो कि संसारमें आप कपालीके नामसे प्रसिद्ध होंगे । पुत्रका यह विद्वान् से, उसे चाहिये कि वह इस कथा वेदपारङ्गत श्रेष्ठ वचन सुनकर महादेवजीको क्रोध हों आया और उन्होंने ऊनके हिंजों, अपनी शनिपचित वृत्तिमै ल गु क्षत्रिय, वैश्य और इस लक्षण-ग्रन्थकों उठाकर समुहमें फेंक दिया और स्वयं गुणवान् शौंको सुनाये । जो इस चतुर्थीनतका पालन करता अन्तर्धान हो गये हैं। उसके लिये इस लोक तथा परलोकमें कुछ भी दुध नहीं बादमें शिवजीने समुद्रको बुलाकर कहा कि तुम क्यिोंके हुता। उसकी दुर्गति नहीं होती और न कह वह पजत होता आभूषण-स्वरूप विलक्षण क्षणोंकी रचना करें और हैं। भरतश्रेष्ठ ! निर्विघ्-रूपसे वह सभी कार्योको सम्पन्न कर कार्तिकेयने जो पुरुष-लक्षणके विषयमें कहा है उसको कहो। लेता है, इसमें संदेह नहीं हैं। उसे ऋद्धि-वृद्धि-ऐश्वर्य भी प्राप्त समुड़ने कहा-जो मेरे द्वारा पुरुष-लक्षणका ज्ञान हो जाता हैं।

(अध्याय ३३)

  • पुराणं परमं पुण्यं भविष्य सर्वसौख्यदम् +

[ संक्षिप्त भविष्यपुराणाङ्क चतुर्थी-कल्प-वर्णनमें गणेशजका चिच्च-अधिकार तथा उनकी पूजा-विधि राजा शतानीकने सुमन मनसे पा–विप्नवर ! पक्ष चतुर्थी के दिन, हस्पतिवार और पुष्य गणेशजांकों गणका ग़ज्ञा किसने बनाया और बड़े भाई नक्षत्र होनेपर गणेशजीको सर्वोच्चधि और सुगन्धित द्रव्य कार्तिकेयकें रहते हुए ये कैसे विके अधिकारी हो गये ? पदार्थोंसे उपलम करे तथा उन भगवान् विभेदके सामने स्वयं सुमन्तु मुनिने का राजन् ! आपने बहुत अच्छॐ बात भद्रासनपर बैठकर ब्राह्मणोंसे स्वस्तिवाचन कराये। तदनतर पूल हैं। जिस कारण ये चिंघकारक हुए हैं और जिन बिॉकों भगवान् र, पार्वती और गणे,की पूजा करके सभी पितरों करनेमें इस पदपर इनकी नियुक्ति हुई, वह मैं कह रहा है, उसे तथा प्रोंकी पूजा करें। चार कला स्थापित कर उनमें आप प्रकासचित होकर सुनै । पहले कृतयुग जाने व सप्तमृत्तिका, गुमाल और गौचन आदि इन्व्य तथा मुर्गान्धित मुष्ट हुई तो बिना विघ्न-बाधाके देखते-ही-देखते सब कार्य पदार्थ छोड़े। सिंहासनस्थ गणेशजीको स्नान कराना चाहिये। सिद्ध हो जाते थे। अतः या बहुत अहंकार हो गया। स्नान कराते समय इन मन्त्रोंम उच्चारण करे होश-हित एवं अहंकारसे परिपूर्ण प्रजाकों देखकर ब्रह्माने ‘ सहस्राक्षे शतभारमूर्षिभिः पावनं कृतम् । बहुत सोच-विचार करके अजा-समूहके लिये विनायकों ने स्वामभिषिमामि पावमान्यः पुनतु ते ॥ विनियोजित किया।

अतः ब्रह्माके प्रयासमें भगवान् शङ्कने फर्ग ने वरुणो राजा भर्ग सूर्यों बृहस्पतिः

गणेशा उत्पन्न किया और उन्हें गणका अधिपति बनाया।

भगमन वायु मर्ग सप्तर्षय छः

ग़ज़न् ! जो प्राणीं गाकी बिना पूजा किये ही कार्य अत्ते केशेषु वैर्भाग्य समन्ते यच्च मूर्धनि । आरम्भ माता हैं, उनके लक्षण मुझसे सुनिये—यह व्यक्ति ललाटें कर्णयोरङ्णरापस्तद्नु 7 सदा ॥ समें अयन गहरे जलमें अपने डूबते, स्नान करते हुए या केश मुड़ायें देखता है। काषाय सबसे आच्छादित तथा हिंसक इन मन्त्रको स्नान कराकर हवन आदि कार्य करें। अनन्तर व्याघ्रादिं पशुओंर अपनेंकों चढ़ता हुआ देंखता है। अन्यत्र, हाथमें पुष्य, दुर्वा तथा सर्षप (सरसी) का गणेशजी गर्दभ तथा कैंट आदिपर चक्र परिजनों से घिरा वह अपने माता पार्वतीको तीन र पुष्पाञ्जलि प्रदान करनी चाहिये । मन्त्र ज्ञाता हुआ देखता है। जो मानव केकडेपर बैठकर अपनेको मारा करते हुए इस प्रकार प्रार्थना करनी चाहिये जकी तरंगोंके बीच गया हुआ देखता है और पैदल चल रहे कायं देहि यशो देहि भगं भगवति देहि में से घिरकर यमराजके लोकको ज्ञाता हुआ अफ्को स्वप्रमें । पुत्रान् देहि अनं देहि सर्वान् कार्माश्च देहि में। देखता है, यह निश्चित हीं अत्यन्त दुःखीं होता है।

अग्र बुद्धि में देहि धराय ख्यातिमेव च ॥ ज्ञों राजकुमार स्वपमें अपने चित्त तथा आकृतिको विकृत

ब्रह्मार्च २३ । ३४ } रूपमें अवस्थित, करवीरके फूलोंमें मालासे विभूषित देखना अर्थात् है भगवति ! आप मुझे रूप, यश, तेज, पुत्र हैं, वह उन भगवान् विनेशके द्वारा विघ्र उत्पन्न कर देनेके तथा धन हैं, आप मेरी सभी कामनाओंको पूर्ण करें। मुझे कारण पूर्ववंशानुगत प्राप्त राज्यको प्राप्त नहीं कर पाता । कुमारी अचल बुद्ध प्रदान करें और इस पृथ्वीपर प्रसिद्धि दें। कन्या अपने अनुरूप पति को नहीं प्राप्त कर पाती । गर्भिणी प्रार्थनाके पश्चात् ब्राह्मणों तथा गुरूको भोजन कराकर संतानको नहीं प्राप्त कर पाती है। औत्रिय ब्राह्मण आचार्यत्वका उन्हें वस्त्र-युगल तथा दक्षिणा समर्पित करें। इस प्रकार अभ नहीं प्राप्त कर पाता और शिष्य अध्ययन नहीं कर पाता। भगवान गणेश तथा प्रहॉकी पूजा करनेसे सभी कर्मोका फल वैश्यको व्यापारमें लाभ नहीं प्राप्त होता है और कृषकको प्राप्त होता है और अत्यन्त श्रेष्ठ लक्ष्मौकी प्राप्ति होती है। सूर्य, कृषि-कायमें पूरी सफलता नहीं मिलतीं । इसलिये जन् ! ऐसे कार्तिकेय और विनायकका पूजन एवं तिलक करनेसे सभी अशुभ स्वप्नों को देखनेपर भगवान गणपतिकी प्रसन्नता के लिये सिद्धिकी प्राप्ति होती है। विनायक-शान्ति करनी चाहिये। पुरुषों के शुभाशुभ लक्षण जा शलानींकने पूछा-विपेन्द्र ! स्त्री और पुरुषके ऊँचे चरणवाला, कमलके सदृश कोमल और परस्पर मिली । जो लक्षण काकियने अनाये थे और जिस ग्रन्थको क्रोध हुई अङ्गुलियोंवाला, सुन्दर पाण-एड़ोसे युक्त, निगूढ आकर भगवान् शिवनें समुदमें फेंक दिया था, वह रखनेवाला, सदा गर्म रहनेवाला, प्रलंदशून्य, रक्तवर्णक कार्तिकंप पुनः प्राप्त हुआ या नहीं ? इसे आप मुझे बतायें। नत्रोंसे अलंकृत चरवाला पुरुष राजा होता है। सूर्पके समान सुमन्तु मुनिने कहा—गजेंद्र ! कार्तिकाने स्त्री- रूखा, सफेद नखोसे युक्त, टेढ़ी-रूखीं नाड़ियोंमें व्याप्त, विरल पुरुषका जैसा लक्षण का हैं, वैसा ही मैं कह रहा है। अङ्गलियोंसे युक्त चरगवाले पुरुष दरंद्र और दुःखी होते हैं।

व्योमकेश भगवानके सुपुत्र कार्तिकेयने जब अपनी शक्ति जिसका चरण आगमैं पकायी गयी मिट्टोके समान वर्णकम होता | द्वारा चपर्वतको विदीर्ण किया, उस समय ब्रह्माजी उनपर हैं, यह ब्रह्महत्या करनेवाला, पीले चरणवाला अगम्यागमन | प्रसन्न हों उठे। उन्होंने कार्तिकेयसे कहा कि हम तुमसर प्रसन्न करनेवाला, कृणवर्णके चरणवाला मद्यपान करनेवाला तथा | हैं, जो चाहें वह वर मुझसे माँग स्यो । उस तेजस्वी कुमार मैनवार्णक चारणवारा अभक्ष्य पदार्थ भक्षण करनेवाला होता | कार्तिकेयने नतमस्तक होकर उन्हें प्रणाम किया और कहा कि है । जिस पुरुषके पैक अंग मोटे होते हैं वै भाग्यहीन होते विभो ! स्त्री-पुरुषके विषयमें मुझे अत्यधिक कौतूहल है। जो हैं। विकृत अँगूठेवाले सदा पैदल चलनेवाले और दुःखी होते | लक्षण-अन्य पहले मैंने बनाया था उसे तो पिता देवदेवेश्वरने हैं। चिपटे, विकृत तथा ? हुए अंगूठेवाले अतिशय निन्दित क्रोध में आकर समूहमें फेंक दिया। वह मुझे भूल भी गया है। होते हैं तथा टेढे, छोटे और फटे हुए अँगूठेवाले कष्ट भोगते | अतः उसको सुनने की मेरी इस हैं । आप कृपा करके उसका हैं। जिस पुरुषके पैर तर्जनी अंगुली अंगूठेमें बड़ी हो

वर्णन करें। उसकों लीं-सुख प्राप्त होता है। कनिष्टा अँगुली बड़ी होनेपर ब्रह्माजी बोले-तुमने अच्छी बात पूछी हैं। समुद्ने स्वर्णकी प्राप्ति होती हैं। चपटी, विरल, सूखीं अंगुनी होनेपर जिस प्रकारमें इन लक्षणोंको कहा है, उसी प्रकार मैं तुम्हें सुना पुरुष नहींन होता है और सदा दुःख भोगता हैं । रुक्ष और रह्म हैं। समुहने स्त्री-पुरुषोंके उत्तम, मध्यम तथा अधम- चैत नख़ होनेपर दुःखक प्राप्ति होती है। ग्राम नम्व होनेयर तीन प्रकार के लक्षण बतलाये हैं।

पुरुष महित और कामभोगत होता है। शैम यह अंशा शुभाशुभ लक्षण देनेवालको चाहिये कि वह शुभ होनेपर भाग्यहीन होता है। अमें छोटे होनेपर ऐश्वर्य प्राप्त होता मुहूर्तमें मध्याह्नके पूर्व पुरुषके लक्षणोंकों देखें । प्रमाणसमूह, है, किंतु अन्धनमें रहता हैं । मृगके समान होया होनेपर राजा छायागनि, सम्पूर्ण अङ्ग, दाँत, केश, नत्र, दादी-मैका लक्षण होता है। संय, मोटी तथा मांसल जंघावाज़ ]श्वर्यं प्राप्त करता देखना चाहिये । पहले आयुकीं परीक्षा करके हीं जग बतानें हैं। सिंह तथा बाघकै समान जंघावाला धनवान् होता हैं। चाहिये। आयु कम से तो सभी लक्षण व्यर्थ हैं। अपनी जिसके घुटने मसरहित होते हैं, वह विदेशमें मरता है, विक्ट अङ्गुलियोसे जो पुरुष एक सौ आठ यानीं बार हाथ बारह ज्ञानु होनेपर दरिंद्र होता हैं। नीचे घुटने होनेपर स्व-जित होता अङ्गका होता है, वह उत्तम होता है। सौं अङ्गलका होनेपर है और मांसल जानु होनेपर गुज़ा होता है। हंस, भास पक्षी, मध्यम और नये अङ्गका होनेपर अधम माना जाता है- शुक, वृष, सिंह, हाथी तथा अन्य श्रेष्ठ पशु-पक्षियोके समान । याईके प्रमाणका यी लक्षण आचार्य समुद्रने का है। गत होनेपर व्यक्त गुजा अथवा भाग्यवान् होता है। ये ।

हे कुमाए ! अब मैं पुरुषकै अङ्गम सक्षम कहता हैं। आचार्य समुद्रके वचन है. इनमें संदेह नहीं हैं। जिसका पैर कोमल, मांसल, रक्तवर्ण, स्निग्ध, ऊँचा, पसीनेमें जिस पुरुषको रक्त कमालवै समान होता हैं यह धनवान् । हित और नाड़ियोंसे व्याप्त न झै अर्थात् नयाँ दिखायी नहीं होता है। कुछ लाल और कुछ काला धरवाना मनुष्य पड़ती हो तो वह पुरुष राजा होता हैं। जिसके पैर तल्वेमें अधम और पापकर्मको करनेवाला होता है । जिस पुरुषमा रक्त अंकुदाका चिढ़ हों, वह सदा सुव्रीं रहता हैं । कक्के समान मँगेके समान रक्त और अिध होता है, वह सात द्वीपका राजा

 

* पुराणं प्रामं पुण्यं भविष्यं सर्वसौख्यदम्

[ संक्षिप्त भविष्यपुराणाम् होता हैं। मृग अथवा मोरके समान पेंट होनेपर उत्तम पुरुष होता है, तीन बलि होनेपर ग़ज्ञा अथवा आचार्य होता हैं । चार होता हैं। बाघ, मैक और सिंहके समान पेट होनेपर जा बलि होनेपर अनेक पुत्र होते हैं, सीधी बलि होनेपर धनका | होता है। मसले प्रष्टसीधा और गोल पायान ब्यक्ति भी उपभोग करता है।

होता है। बाघके समान पीठयाम व्यक्ति सेनापति होता है। जिसके कन्ध कर एवं मांसल तथा समान में ये गुज़ा सिंहके समान लंबी पौंठवाला व्यक्ति बन्धनमें पड़ता हैं। होते हैं और सुखी रहते हैं। जिसका वक्षःस्थल बनाए, उन्नत, कछुके समान पाँउवाला पुरुष धनवान् तथा सौभाग्य-सम्पन्न मांसल और विस्तृत होता है वह राजाके समान खेता है। इसके होता है। चौंड़ा, मांससे पुष्ट और रोमयुक्त वक्षःस्थलबाला बिपरीत कड़े रॉमवाले तथा नसें दिखायी पड़नेवाले वक्षःस्थल पुरुष शतायु, धनवान् और उत्तम भौगोमें प्राप्त करता है। प्रायः निधनॉक में होते हैं। दोनों वक्षःस्थल समान होनेपर सूखी, रूखी, विरल हाथी अँगुलियोंवाला पुरुष नहींन पुरुष धनवान् का है, पुष्ट होने पर शूरवर होता है, छोटे और सदा दुःखी रहता हैं।

होने पर धनहीन तथा छोटा-बड़ा होनेपर अकिंचन होता है और जिसके हाथमें मस्यरेखा होती है, इसका कार्य सिद्ध शससे मारा जाता है। विषम हनुवाला धनहीन तथा उन्नत होता है और वह धनवान् तथा पुत्रवान् होता है । जिसके हाथमें हनु(बुटी) वाम भोगी होता हैं । चिपटीं ग्रीवायाला धनहीन तुला अथवा वेदीका चिह्न होता है, यह पुरुष व्यापारमें अभ होता है। मक्षिके समान मवावा शूरवर होता है। मृगके करता है। जिसके हाथमें सोमलताका चिह्न झेता हैं, वह धनों समान प्रवावाला डरपोक होता है। समान प्रवावाला गुज्ञा होता है और यज्ञ करता है । जिसके हाथमैं पर्वत और वृक्षका होता है। तोता, ऊँट, हाथी और बगुलेके समान लंबी तथा । चिह्न होता है, उसकी लक्ष्मी स्थिर होती हैं और वह अनेक शुष्क प्रीवाबाला धनहीन होता हैं। छोटी वावा धनवान् । सैवकका स्वामी होता है। जिसके हाथमें बर्थी, माण, तोमर, और सुखी होता हैं। पुष्ट, दुर्गन्धरहित, सम एवं थोड़े रोमसे खड्ग और अनुषका चिह्न होचा है, वह युद्धमें विजयी होता युक्त काँग्रवालें धनी होते हैं, जिसकी भुजाएँ ऊपरको खिंचों हैं। जिसके कायमै ध्वज्ञा औं शङ्का चिह्न होता है, वह रहती हैं. वह बभनमें पड़ता है। अॅटीं भुजा रहनेपर दास होता जजसे व्यापार करता है और अनवान् होता है। जिसके है. छोटी-अझी भुजा होनेपर चोर होता है, लंबी भुजा होनेपर, हाथमें श्रॉवल्स, कमल, वज़, इध और कलाम चिह्न होता सभी गुणों से युक्त होता है और जानुओंतक लंबी भुजा होनेपर हैं, वह शत्रुहित राजा होता है। दाहिने हाथ अँगूठेमें ययका ज्ञा होता है। जिसके हाथका तल गहूरा होता है उसे पिताका चिह्न रहनेपर पुरुष सभी विद्याभका ज्ञाता तथा प्रवक्ता ता धन नहीं प्राप्त होता, सद्द पोंक होता है। ऊँचे करतलवा हैं। जिस पुरुपके हाथमें कनष्ठाके नीचसे तर्जनीकै मध्यक पुरुष दानी, विषम करतलवाला पुरुष मिश्रित फलवाला, रेखा चमें जाती है और बीचमें अलग नहीं रहती है तो वह लाखके समान रक्तवर्णवाला कतल होनेपर जा होता है। पुरूष सौ वर्षांतक जीवित रहता हैं। जिसका पेट साँपके समान पीले करतालवाला पुरुष अगम्यागमन करनेवाल्, काम होता है वह दरिद्री और अधिक भोजन करनेवाला होता नौला कारतालवाला मद्यादि इयाँका पान करनेवाला होता है। हैं। विस्तीर्ण, फैली हुई. गम्भीर और गोल नाभिवाला व्यक्ति कसे करतलयाला पुरुष निर्धन होता हैं । जिनके हाथों रेखाएँ सुख भोगनेवाला और धन-धान्यसे सम्पन्न होता है। नीचीं गहरी और स्निग्ध होती हैं वे धनवान् होते हैं। इसके विपरित और छोटी नाभिवाला व्यक्ति विविध क्लॉकों भोगनेवाला झोता देखावाले दरिंद्र होते हैं। जिनकी अंगुलियाँ विरल होती हैं, हैं। बल्केि नीचे नाभि हों और वह विषम हों तो धनकों ने उनके पास धन नहीं ठहरता और गहरों तथा छिट्टहीन अंगुली होती है। दक्षिणावर्त नाभि बुद्ध प्रदान करती हैं और वामावर्ने रहनेपर घनका संचयी रहता है। नाभि शान्ति प्रदान करती हैं। सौ दलवाले कमलको ब्रह्माजीं पुनः बोले-कॉर्तकेय ! चन्द्रमण्डलके काँका समान नाभिवाला पुरुष राजा होता है। पेटमें एक समान मुखवाला व्यक्ति धर्मात्मा होता है और जिसका मुख बलि होनेपर शस्त्र मारा जाता है, दो बलि होनेपर स्त्री-भोग सैंडकी आकृतिका होता हैं वह भाग्यहीन होता हैं। टेढ़ा, टूटा

ब्रह्मपर्व ]

* पुरूषके शुभाशुभ लक्षण

हुआ, विकृत और सिंहके समान मुख्नवाला चोर होता हैं। जिल्लावाला विद्वान् होता हैं । कमलकें प्रत्तेके समान पतली, सुन्दर और कॉन्तियुक्त श्रेष्ठ हाथोके समान भरा हुआ सम्पूर्ण लंबी न बहुत मोटी और ना बहुत चौड़ा जिल्ला रहनेपर ग़ज़ा मुखवाला व्यक्ति राजा होता है। अकरें अथवा अंदर के समान होता है। काले रंगका शाखा अपने कुलश्का नाशक, पौले मुखवाला व्यक्ति धनी होता है। जिसका मुख बड़ा होता हैं तालुवा सुख-दुःख भोग करनेवाल्या, सिंह और हाथोके उसका दुर्भाग्य रहता है। लेटा मुग्धा कृपण, लंबा तालुके समान तथा कमलके समान तालुयाला राजा होता है, मुखवाला धनहीन और पाप होता हैं। चौबँटा मुरक्याला धूर्त, श्वेत तालुयाम धनवान् होता है। रूम्वा, फटा हुआ नाथां के मुखर्के समान मुखयाला और निम्न मुखबाला पुरुष विकत तालुवाला मनुष्य अच्छा नहीं माना जाता। पुत्रहीन होता है या उसका पुत्र उत्पन्न होक्न नष्ट हो जाता है। हंसके समान स्वरवाले तथा मॅपके समान गम्भीर जिसके कपोल कमलके हलके समान कोमल और कॉन्तिमान् स्वरयाले पुरुष धन्य माने गये हैं। क्रौंचके समान स्वरवाले होते हैं, वह घनवान् एवं कृषक होता है । सिंह, बाघ और राजा, मझन् धन तथा विविध सुखका भोग करनेवाले होते हाथोके समान कपालवाला व्यक्ति विविध भोग-सम्पत्तियों- हैं । चक्रवाकके समान जिनका स्वर होता है ऐसे व्यक्ति अन्य वाल और सेनाका स्वामी होता हैं। जिसका नाचेका ओठ तथा धर्मवत्सल गुजा होते हैं। बड़े एवं इंभिके समान रक्तवर्णका होता हैं, वह राजा होता हैं और कमालके समान स्वरवाले पुरुष राजा होते हैं। ऋग्वे, ऊँचे, क्रूर, पशुओंके अधरवाला धनवान् होता है। मोटा और रूग्रा हाँड़ होनेपर सामान तथा घर्षरयुक्त स्वरयाले पुरुष दुःखभाग होते हैं। नील दुःखीं होता हैं।

कृप्ट पक्षौके समान स्वरवाले भाग्यवान् होते हैं। फुटे काँसके जिसके कान मांसहन हो वह संग्राम मारा जाता है। बर्तनके सम्मान तथा उरे-फटे स्वरवा अधम क गये हैं। चिपटा कान होनेपर रोगों, छोटा होनेपर कृपया, शङ्कके समान दाडिमके पुष्पके समान नेत्रयाण राजा, पाभके समान कान होने पर राज्ञा, नाड़िसे व्याप्त होनेपर क्रूर, केसे युक्त नेत्रवाला क्रोधी, केकड़ेके समान आँखाला झगड़ालू, होनेपर दाँजौवा, बा, पष्ट तथा वा कान होनेपर भौगो चिन्ली और हंसके समान नेत्रवाला प्रख्या अधम होता हैं। देवता और झाको जा करनेवाला एवं राज्ञा होता हैं। मयूर एवं नकुके समान आँववाले मध्यम माने जाते हैं। जिसको नाक शुकको चोंचके समान हों वह सुख भोगनेवाल शहक समान पिङ्गल वर्णक नेत्रवालकों को कभी भी और चक नाकवाला दीर्घजीवी होता हैं। पता नाकाला त्याग नहीं करतीं। गांचन, गुना और हरतालके समान ज्ञा, लंबी नाकवाला भोगी, ओटौं नाकवाला धर्मशील, पिङ्गल नेत्रवाला वलयान और घनेश्वर होता हैं। अर्धचन्द्रके हाथी, घोड़ा, सिंह या मुईको भन तौखीं नाबाला व्यापार में समान ललाट होनेपर राजा होता है। बड़ा लट होनेपर सफल होता है। कुट-पुष्पकी झलके समान उज्वल धनवान् होता है। ओटा लट होनेपर धर्मात्मा होता है। हॉलवाला राजा तथा हाथाके समान दाँतयारस एवं चिकने लाटके बीच जिस स्त्री तथा पुरुषके पाँच आड़ी रेखा होती दाँतथा गुणवान होता है। भालु और बंदरके समान दाँतावाले हैं वह सौ वर्षातक जीवित रहता है और ऐश्वर्य भी प्राप्त करता नित्या भूससे व्याकुल रहते हैं। काल, रूखे, अलग-अलग हैं। चार रेखा होनेपर अस्सों वर्ष तीन रेखा होनेपर सत्तर वर्ष, और फुटे हुए दाँतवाले दुःखसे जीवन व्यतीत करनेवाले होते दो पंखा होनेपर साठ सर्य, एक रेखा होनेपर चालीस वर्ष और हैं। बत्तीस दाँतवाले राजा, एकतीस दाँतवाले भोगीं, तीस एक भी देखा न होने पर पचास वर्गक आयुवाला होता है। इन दाँतबाले सुख-दुःख भोगनेवाले तथा उनतीस दाँतवाले पुरुष देखाऑके द्वारा हीन, मध्यम और पूर्ण आयुकी परीक्षा करनी दुःख ही भोगते हैं। काली या चित्रवर्णकी जीभ होनेपर व्यक्ति चाहिये। अट्रो रेसा होनेपर व्याधियुक्त तथा अल्पायु और दासवृत्तिले जीवन व्यतीत करता है। रूखी और मोटी लंबी-लंबी रेखाएँ होनेपर दयु होता हैं। जिसके ललाटमें ज्ञाभवा क्लोधी, श्वेतवर्गक जीभवा पवित्र आचरणसे त्रिशूल अथवा पदक चिह्न होता है, वह बड़ा प्रतापी, सम्पन्न होता है। निम्न, स्निग्ध, प्रभाग रक्तवर्ण और नोटीं कीर्ति-सम्पन्न का होता हैं |

छत्रके समान सिर होनेपर राजा, मं अः पुः अंः ३ ५८

  • पुराणं परमं पुण्यं भविष्य सांसौख्यदम् +

[ संक्षिप्त भविष्यपुराणाङ्क लेबा सिर होनेपर दुःखी, दरिद्र, विषम होनेपर समान तथा हैं। बहुत गहरे और कठोर केश दुःखदायौं होते हैं। विरल, गोल सिर होनेपर , हाधीक समान सिर होनेपर जाके स्निग्ध, कोमल, भ्रमर अथवा अंजनके समान अतिशय कृष्ण समान होता हैं। जिनके कॅश अथवा रॉम मोटे, रूखें, मेपल केशवाला पुरुष अनेक प्रकारके सुखवा भोग करता है और आगेसे फटे हुए होते हैं, ये अनेक प्रकारके दुःख भोगते जा होता हैं ।

(अध्याय ३४३६)

राजपुरुषोंके लक्षण कार्तिकेयज्ञने कहाब्रह्मन् ! आप राजाओंके होनेपर दरिद्र होता है। भौहें विशाल होनेपर सुखी, चीं।

शरिरक अङ्गक लक्षणोंकों बतानेकौं कृपा करें। होनेपर, अल्पायु और विषम आ बहुत लंबी होनेपर दरिंद्र और ब्रह्मा जी बोलें-मैं मनुष्योंमें राजाओंके अङ्गके लक्षणें दोनों भौहाँके मिले हुए होने पर धनहीन होता है । मध्यभागमें कों संक्षेपमैं बताता हैं। यदि ये लक्षण साधारण पुरूषोंमें भी नीचेक और झुकी भौंहवाले परदारामगाम होते हैं। प्रकट हो तो में भी गुजाके समान होते हैं. इन्हें आप सुने- बालचन्द्रका समान भौटे होनेपर राज्ञा होता है। ऊँचा और जिस पुरुपके नाभि, वर और संधिस्थान में तीन निर्मल ललाट होनेपर उत्तम पुरुष होता है, नीचा ललाट होनेपर गम्भीर हों, मुख, लाट और वक्षःस्थल–में तन विस्तीर्ण स्तुत किया जानेवाला और धनसे मुक्त होता हैं, कहीं ऊँचा । हो, वक्षस्थल, कक्ष, नासिका, नत्र, मुम्व और कृकाटिका- और कहीं नींचा वाट होनेपर दरिद्र तथा सपके समान ये छः उन्नत अर्थात् ऊँचे हों, उपस्थ, पौंड, ग्रीवा और लाट होनेपर आचार्य होता हैं। धि , हास्ययुक्त और झंथा—ये चार व हो, नेत्रोक आम्ल, हाथ, पैर, ताल, ओष्ठ, दोनताले हित मुख शुभ होता हैं, मैंन्यभावयुक्त तथा जिल्ला तथा नस-ये सात रक्त वर्णके हे, हनु, नेत्र, भुजा, आँसुओंसे युक्त आँखोंवा एवं रूखे चेहरेवाला श्रेष्ठ नहीं हैं। | नासिका तथा झोन तानोंका अत्तर- पाँच हॉर्च हों तथा उत्तम पुरुसका कास्य कम्पनहित धीरे-धीरे होता है। अधम दन्त, केश, अङ्गलियॉक पर्व, त्वचा तथा न ये पाँच सूक्ष्म व्यक्त बहुत शब्दके साथ हँसता है । हँसते समय आँसाको हों, वह समीपवती पृथ्वीका राजा होता है। जिसके नैत्र मैंदनेवाल्या व्यक्ति पापों झेता है। गोल सिरवाला पुरुष अनेक कमलदलके सामान और अन्तमैं रक्तवर्णके होते हैं, वह औका स्वामी या चिपटा सिंत्राला माता-पिताको मारने मोका स्वामी होता हैं। शहदके समान पिङ्गल नेवाला वाला होता है। बाकी आकृतिके समान सिरवाला सदा पुरुष महात्मा होता हैं। सूखी आँखवाला इरपोक, गोल और कहीं-न-कहीं यात्रा करता रहता है। निम्न सिरवाला अनेक चक्रके समान घूमनेवाली आँवाला चोर, केकडेके समान अनकों करनेवाला होता है। आँखयाला क्रूर होता हैं। नौल कमलके समान नेत्र होने पर इस प्रकार पुरुषोंके शुभ और अशुभ लक्षणको मैंने विद्वान्, श्यामवर्णक नेत्र होनेपर सौभाग्यशाली, विशाल नेत्र आपसे कहा। अब वियोंके लक्षण बतलाता हूँ। होनेपर भाग्यवान्, स्थूल नेत्र होनेपर राजमन्त्रों और दीन नेत्र

( अध्याय ३७]

सियोंक शुभाशुभ-लक्षण । झाङ्गी बोले-कार्तिकेय ! स्त्रियोंके जो लक्षणा मैंने सबके लक्षण देखें । । पहले नारदजौको बतलाये थे, उन्हीं शुभाशुभ-लक्षणोंको जिसको घौवामें देखा हो और नेत्रका प्रान्तभाग कुछ बताता हैं । आप सावधान होकर सुने–शुभ मुहूर्तमें कन्याके मल हों, वह स्त्री जिस घरमें जाती है, उस घरकौं प्रतिदिन हाथ, पैर, अँगुलीं, नग्छ, हाथी रेखा, जंघा, कट, नाभि, वृद्धि होती हैं। जिसके ललाटमें त्रिशूल्का चिह्न होता है, वह ऊस, पेट, पीठ, भुमा, कान, जिल्ला, ओठ, दाँत, कपोल, गा, कई हजार दासियों की स्वामिनी होती है। जिस को राजहंम्म नेत्र, नासिका, लाट, सिर, केदा, वर, वर्ण और भौरों-इन समान गति, मृगके समान नेत्र, मृगके समान ही शरीरका वर्ण,

मामप4 ]

# विनायकनाका माहात्म्य

दाँत बराबर और श्वेत होते हैं, वह इत्तम रुबी होती हैं। मैदकके देवता होती हैं। गुप्तरूपसे पाप करनेवाली, अपने पापकों | समान कुञ्जिवालों एक ही पुत्र उत्पन्न करती है और वह पुत्र छिपानेवाल्में, अपने हृदयकै अभिप्रायको किसके आगे प्रकट | राजा होता हैं। इसके समान मृदु वचन बोलनेवाली, शहदके न करनेवाली स्त्री मार्जारो-संज्ञक होती हैं। कभी सिने वाली,

समान पिन वर्गवाली कुत्री धन-धान्यसे सम्पन्न होती है, उसे कभी झाडा झलनसारी, कमी कध करनेवा, कभी असर | आठ पुत्र होते हैं । जिस रूबीके ये कान, सुन्दर नाक और भौह हुनेवाली तथा पुरुषोंके मध्य रहनेवाली ली गर्दभी-श्रेणी | धनुषके समान देदों होती हैं, वह अतिशय सुखका भोग करतीं होती हैं। पति और बान्धवॉक द्वारा कहे गये हितकारी वचन हैं। तन्वी, श्यामवर्णा, मधुर, भाषिणी, शके समान अतिशय न माननेवाल, अपनी इच्छा अनुसार विहार करनेवाली स्त्री स्वछ दाँतयाली, स्निग्ध असे समन्वित म्ल अतिशय आसुरीं कही जाती है। बहुत लानेवाली, बहुत बोलनेवाले, | ऐश्वरको प्राप्त करती हैं। विस्तर्ण जंझावाली, वैदीक समान सोटे बचन बोलनेवाली, पतिको मारनेवाली स्त्री राक्षसी-संज्ञक मध्यभागवाले, विशाल नेत्रोंवाली स्त्री रानी होती हैं। जिस होती हैं। शौच, आचार और पसे रहित, सदा मलिन लोक वाम स्तनपर, हाथमें, कानके ऊपर या गलैपर तिल बहनेवाली, अतिवास भयंकर लीं पिशाच कलाती है। | अथवा मसा होता है, उस स्त्रको प्रथम पुत्र उत्पन्न होता है। अतिशय चाल स्वभाववालों, चपल नेत्रोंवाली, इधर-उधर | जिस स्त्रीका मैंर रक्तवर्ण हो, ने बहुत ॐचे न हों, छटी एड़ी देखनेवा. भी ना] वानरों-संक होती हैं। चन्द्रमुखी, हो, परस्पर मिली हुई सुन्दर अँगुलियाँ हों, लाल नेत्र मदमत्त हाथीक समान चलनेवाली, रक्तवर्णके नोंवाली, शुभ हो—ऐसी स्त्री अत्यन्त सुख भोग करता है। जिसके पैर लक्षणोंसे युक्त हाथ-पैरवा झवी विद्याधरी-अंगीकी होती है। बड़े-बड़े हों, सभी अङ्गोंमें रोम हों, छोटे और मोटे हाथ हों, वीणा, मृदङ्ग, बंशी आदि वाद्यक शब्दों को सुनने तथा पुष्प वह दासी होती है। जिस सीके पैर उन्कट हों, मुख विकृत हों, और विविध सुगन्धित हुयोंमें अभिरुचि या स्त्री ऊपरके ओके ऊपर ग्रेम हों वह शीघ्र अपने पतिको मार देती गान्धवी-अंगकी होती है। है। जो स्त्री पवित्र, पतिव्रता, देवता, गुरु और ब्राह्मणों भक्त सुमन्तु मुनिने कहा–राजन् ! ब्रह्माजी इस प्रकार स्त्री होती है, वह मानुषी कहलाती है। नित्य स्नान करनेवाली, और पुरुषोंके लक्षणों में स्वामिकार्तिकेयकों बताकर अपने सुगन्धित द्रव्य लगानेवारी, मधुर बचन बोलनेवालों, थोड़ा अंकको चले गये। जानेवारी, कम सोनेवालीं और सदा पवित्र रहनेवाली हो ।

याय २२]

विनायक-पूजाका माहात्म्य शतानींकने कहा-मुने ! अब आप मुझे भगवान् मना चाहिये। गणेशकी आराधनाके विषयमें बतलायें।

शुक्ल पक्षकी चतुर्थीको उपवास कर को भगवान् सुमन्तु मुनि बोले-राजन् ! भगवान् गणेशक गणेशका पूजन करता है, उसके सभी कार्य सिद्ध हो जाते हैं आराधनामें किसी तिथि, नक्षत्र या उपवासादको अपेक्षा नहीं और सभी अनिष्ट दूर हो जाते हैं। श्रीगणेशजाँके अनुकूल होनौ। जिस किसी भी दिन श्रद्धा-भक्तिपूर्वक भगवान् होनेसे सभी जगन् अनुकूल हो जाता है। जिसपर एकदत्त गणेशकी पूजा की जाय तो वह अभीष्ट फलोंको देनेवाली होती भगवान् गणपति संतुष्ट होते हैं, उसपर देवता, पितर, मनुष्य हैं । कामना-भेदसे अलग-अलग प्रस्तुओंसे गणपतिकी मूर्ति आदि सभी प्रसन्न रहते हैं। इसलिये सम्पूर्ण विश्नको निवृत्त बनाकर उसकी पूजा करनेसे मनावात काकी झाप्ति होतीं करने के लिये श्रद्धा-भक्तिपूर्वक गणेशज्ञीकी आराधना करनी हैं। महाकर्णाय विद्महे, वक्रतुण्डाय धीमहि, तन्नों चाहिये। दन्तिः प्रचोदयात् ।’—यह गणेश-गायत्री हैं। इसका जप

(अध्याय ३६)

5-म्पिगमें प्रवान्टिन गण गाय काययाद है।

एकदन्तं जगाये गण तुष्टिमागते

पिन्दरागनुयाद्याः सर्वे तुन भारत ब्रापर्व 2)

पुराणं परमं पुण्यं मयिष्यं सर्यसौख्यदम्

[ संक्षिप्त भविष्यपुराणाङ चतुर्थी-कल्पमें शिवा, शान्ता तथा सुखा–तीन प्रकारकी

चतुर्थीका फल और उनका व्रत-विधान सुमन्तु मुनिने कहा-राजन् ! चतुर्थी तिथि तीन उक्त चन्दन, रक्त पुष्प आदिसे भौका पूजन करते हैं, उन्हें प्रकारक होती हैं—शिया, शान्ता और सुखा। अब मैं इनका सौभाग्य और उत्तम रूप-सम्पत्ति प्राप्ति होती हैं। लक्षण कहता है, उसे सुनें

| प्रथम संकल्पाकर स्नान करे. अनत्तर गणेश-स्मरणपूर्वक | भाद्रपद मासकी शुला चतुर्थका नाम ‘शिवा’ हैं, इस हाथमें शुद्ध मृत्तका लेकर इस मन्त्रको पढ़ें दिन जो स्नान, दान, उपवास, अप आदि सत्कर्म किया जाता ह वै वन्दिता पूर्व कृष्णेनोद्धरता किल । है, यह गणपति प्रसादसे सौ गुना हो जाता है। इस चतुर्थीको तस्मान् र पाप्मानं यन्मया पूर्वसंचितम् ॥ गुड़, म्याण और श्रुतका दान करना चाहियें, यह शुभकर माना

(ब्राह्मपञ्च ३१ २४

गया है और गुड़के अपूपों (मालपुआ) से ब्राह्मणोंको भोजन इसके बाद मृत्तिका गङ्गालको मिश्रितका सूर्यके कराना चाहिये तधा उनकी पूजा करनी चाहिये । इस दिन को सामने क, तदनन्तर अपने सिर आदि अङ्गमें लगायें और फिर स्त्री अपने सास और ससुर गुड्के पुए तथा नमकोन पुए जलके मध्य रखा होकर इस मन्त्रको पढ़कर नमस्कार करें विमती हैं वह गणपतिके अनुग्रह सौभाग्यवतीं होती हैं। त्वमापों योनिः सर्वेषां दैत्यदानवौकसाम् । पतिकी कामना करनेवाली कन्या विशेषरूपसे इस चतुर्थीका बेदाण्ञझिदां चैव रसानां पतये नमः ॥ ब्रत करें और गणेशज़ौकी पूजा करे। जन् ! यह शिया चतुर्थीका विधान है।

 

 ( पर्व ३१ २५) |

अनार सभी तीर्थों, नदियों, सरोवरों, झरनों और | माघ मासकों का चतुको ‘शान्ता’ कहते हैं। यह तालाबोंमें मैंने मान किया—इस प्रकार भावना करता हुआ शान्ता तिथि नित्य शान्ति दान करनेके कारण ‘शान्ता’ कहीं गोते लगाकर स्नान करें, फिर पवित्र होकर घरमें आकर दुर्वा, गयी है। इस दिन किये हुए स्नान-दानादि सत्कर्म गणेशाजकीं पीपल, शमी तथा गौका स्पर्श करे । इनके स्पर्श करनेके मन्त्र कपासे झार गुना फलदायक हो जाते हैं । इस शान्ता #मक इस मुकार है चतुर्थी तिथिक उपचास कर गणेशाज्ञा ज्ञन तथा हवन क त्वं दुर्वेऽमृतनामामि सर्वदेवैस्तु वन्दिता ॥ और लवण, गुड़, शक तथा गुड्के पुए ब्राह्मणोंको दानमें हैं।

वन्दिता दह तत्सर्य दुरित अन्ममा कृतम्।

विशेषरूपले स्त्रियाँ अपने ससुर आदि पून्य अनौका पूजन में एवं उन्हें भोजन करायें। इस व्रत करनेसे असाण्डू शर्मी स्पर्श करनेका मन्त्र सौभाग्य प्राप्ति होती हैं, समस्त विघ्न दूर होते हैं और पवित्राणां पवित्रा त्वं काश्यपी प्रचिता श्रुतौ । गणेशजको कृपा प्राप्त होती है।

मीं शमय में पापं नूनं वेसि भरारान् । किसी भी महान भौमवारयुक्त शुमा चतुथको ‘सुखा कहते हैं। यह व्रत स्त्रियों को सौभाग्य, उत्तम रूप और सुख | पीपल-वृक्ष स्पर्श करनेका मन्त्र देनेवाला हैं। भगवान् ङ्कर एवं माता पार्वतीको संयुक्त तेजमें नेत्रस्यन्दादिजं दुःखं दुःस्वप्नं दुविचिन्तनम् ।

भूमिद्वारा रक्तवर्णक मङ्गलकी उत्त हुई । भूमिका पुत्र होनसे । शक्तानां च समुयोगमश्वत्थ त्वं क्षमस्व में ।। यह भौम कहलाया और कुज, रक्त, यौर, अङ्गारक आदि वनपर्व हैं ।

३) नामसे प्रसिद्ध हुआ। वह शरीरके अङ्गोंकी रक्षा करने वाला गौ को स्पर्श करनेका मन्त्र तथा सौभाग्य आदि देनेवाला है, इसलिये अङ्गारक। सर्वदेवमयी देवि मुनिभिस्तु सुजता कहलाया। जो पुरुष अथवा स्त्री भौमवारयुक्त शुक्ला चतुर्थीको तस्मात् स्पृशामि वन्हें त्वां वन्दता पापहा भव ।। उपवास करके भक्तिपूर्वक प्रथम गणेशजीक्म, तदनंतर

(झाव ३६ मापर्व ]

पमी-कम आम, नागपमकी कथा के नामाका श्रद्धापूर्वक पहले गौकी प्रदक्षिणा कर उपर्युक्त मन्त्रों सभी उपचारोंकों समर्पित कर यह मूर्ति ब्राह्मणों दे दें और पड़े और गौंका स्पर्श करें। जो गोको प्रदक्षिणा करता है, उसे यथाशक्त बौं, दुध, चाय, गेहूँ, गुड़ आदि वस्तु भी सम्पूर्ण पृथ्वीको प्रदक्षिणा फल प्राप्त होता है। ब्राह्मणको दें। धन रहनेपर कृपणता नहीं करनी चाहिये, क्योंकि | इस प्रकार इनको स्पर्शकर, हाथ-पैर धोकर, आसनगर कंसों करनेसे फल नहीं प्राप्त होता। बैंठकर आचमन करे । अनन्तर खदिर (खैर) की समिधाओंमें इस प्रकार चार बार भौमपुक चतुर्थीका ब्रतक्र अद्धा अग्नि प्रज्वलित कर, घृत, दुग्ध, अव, तिल तथा विविध भक्ष्य पूर्वक इस अथवा पाँच तोले जानकी मङ्गल और गणपति पदाधसे मन्त्र पढ़ते हुए हवन करे । आहत इन मन्त्रको मूर्ति बनाया। उसे बस पल या इस पलकें सोने, चाँदी ३-ॐ र्याय स्वाहा, ॐ शर्वीपुत्राय स्वाहा, ॐ अथवा ताम्र आदिक पात्रमें भक्तिपूर्वक स्थापित करें। सभी पुत्भ याय स्वाहा, ॐ कुमाय स्वाहा, ॐ उपचासे पूजा करनेके बाद दक्षिणाके साथ सत्पात्र ब्राह्मणको लल्ताङ्गाय स्वाह्य तथा ७ हिलाङ्गाय स्वाहा । इन प्रत्येक उसे हैं, इससे इस व्रत को जम्पूर्ण फल प्राप्त होता है। गुञ्चन्! मन्त्रोंसे १६८ या अपनी शक्तिके अनुसार आति दे। अनजर इस कार इस उत्तम तिथिको मैंने कहा । इस दिन ज्ञों स्नात सुवर्ण, चाँदी, चन्दन या देवदारु काप्नुको मङ्गलकी मूर्ति करता है, वह चन्द्रमाके समान कान्तमान, सूर्यक समान बनाकर तांबे अथवा चादीके पात्रमें उसे स्थापित करे । थौं, तेजस्वों एवं प्रभावान् तथा वायुके समान बलवान होता हैं और कुंकुम, रक्तचन्दन, उक्त पुष्प, नैवेद्य आदिको उसकी पूजा करे अनमें महागणपतिकै अनुग्रहको भौमकमें निवास करता है। अथवा अपनी शक्ति के अनुसार पूजा करे। अथवा तान्न, इस तिथिके माहात्म्यकों जो पक्ति भक्तिपूर्वक पढ़ता-सुनता मृत्तिकम आ बाँससे बने पामें कुंकुम, केसर आदिसे मूर्ति हैं, वह महापातकादसे मुक्त होकर श्रेष्ठ सम्पत्तको प्राप्त अङ्कितकर पूजा करे। ‘अग्निर्मूर्धाः’ इत्पादि वैदिक मन्त्रोंसे करता है।

(अध्याय ३१)

पञ्चमी-कल्पका आरम्भ, नागपञ्चमीकी कथा, पञ्चमी-व्रतका विधान और फल सुमन्तु मुनि बोले-ग़ज़न् ! अब में पञ्चम-करन्पको मिलकर समुद्रका मन्थन किया। उस समय समुद्रसे अतिशय वर्णन करता है। पञ्चमी तिथि नागोंको अत्यन्त प्रिय हैं और अंत उःश्रवा नामको एक अश्व निकम, उसे देकर उन्हें आनन्द देनेवाली है। इस दिन नागलोकमै विशष्ट उत्सव नागमाता कडूने अपनी पत्नी (सौत) विनतासे कहा कि होता है। पञ्चमी तिथिको जो व्यक्ति नागको दुधसे मान देतो, यह अश्व अंतवणूका हैं, परंतु इसके बाल काले दौछ कराता है, उसके कुल वासुकि, तक्षक, कारिय, मणिभद्, पहने हैं। तब विनताने कहा कि न तो यह अयं सर्वश्रेत हैं, ऐरावत, धृतराष्ट्र, कर्कोटक तथा धनञ्जय—ये सभी बड़े-बड़े न काला है और न ल । यह सुनकर कडूने कहा-‘मेरे नाग अभय दान देते हैं-उसके कुलमें सर्पका भय नहीं साथ शर्त क्यों कि यदि मैं इस अश्वके बालोंको कृष्णवर्णका रहता। एक बार माताके शापसे नागोग जलने लग गये थे। दिसा हैं तो तुम मेरी दास हो जाओगी और यदि नहीं दिखा इसीलिये उस दाहकी या दूर करने के लिये पञ्चमीकों की तो मैं तुम्हारी दासी हो जाऊँगी ।’ विनताने यह दार्त गायक धसे नागरिकों आज भी लोग जान कराते हैं, इससे स्वीकार कर ले। दोनों क्रोध करती हुई अपने-अपने स्थानको सर्प-भय नहीं रहता चली गयीं । कडूने अपने पुत्र नागोंको बुलाकर सब वृत्तान्त राजाने पूछा–महाराज ! नागमानाने गागौंको क्यों उन्हें सुना दिया और कहा कि पुत्रो ! तुम अश्वके वाके आप दिया था और फिर वे कैसे बच गय? इसका आप समान सूक्ष्म होकर जारीः अवके शरीर में लिपट जाओ, जिससे विस्तारपूर्वक वर्णन करें।

गह कृणवर्गका दिखायी देने लगे। ताकि मैं अपनी सौत सुमन्तु मुनिने कहा-एक बार राक्षसों और देवताओंने विनताको जीतकर उसे अपनी दासीं बना सकें। माताके इस

 

दिवः ककुपन: पृथिव्या अयम् अपाता निति ।।

(मवेद १३ ।।

+ पुराणं परमं पुण्यं भविष्यं सर्वसौरव्यदम् +

[ संक्षिप्त भविष्यपुराणा वचनको सुनकर नागोंने कहा—’माँ ! यह तुल तो हमलोग सवें नागाः प्रीअन्त में ये केचित् पृश्चिवीतले ॥ नहीं करेंगे, चाहे तुम्हारी जौत हों या हार । छलसे जौनना बहुत में च कॅलिपरीचिस्या येतरे दिवि संस्थिताः । बड़ा अधर्म हैं। पुत्रा यह वचन सुनकर कड़ने क्रुद्ध होकर ये अदषु मानागा में सरस्वतगामिनः कहा-जुमलोग मेरी आज्ञा नहीं मानते हों, इसलिये मैं तुम्हें ये छ वापतागेषु तेषु सर्वेषु वै नमः । शाप देती है कि “पाण्डवोके में उत्पन्न झा जनमेजय जय सर्प-सत्र करेंगे, तब उस यज्ञमें तुम सभी अग्निमें जल इस प्रकार, नागको विसर्जित कर ब्राह्मणोंकों भोजन जाओगे।’ इतना कहकर कडू चुप हो गयी । नागगण माताका कराना चाहिये और स्वयं अपने कुटुम्बियोंके साथ भोजन शाप सुनकर बहुत घबड़ाये और वासुकिको साथमें लेकर करना चाहिये । प्रथम मोझ भोजन करना चाहिये, अनन्तर ब्रह्माजीके पास पहुँचे तथा ब्रह्माजको अपना सारा वृत्तान्त अपनी अभिरुचिके अनुसार भोजन करे ।

सुनाया। इसपर ब्रह्माजोने कहा कि वासुके ! चिन्ता मत करो। इस प्रकार नियमानुसार ओं पञ्चमीको नागका पूजन | मेरी बात सुनो-पायावर-वंदामें हुत बड़ा तपस्वी जरत्कार करता है, वह श्रेष्ठ विमानमें बैठकर नागलोकको जाता है और नाममा भ्राह्मण उत्पन्न होगा। उसके साथ तुम अपनी जरत्कारु शादमें द्वापरयुगमैं बहुत पराक्रमी, गहत तथा प्रतापी राजा नामवाली वहिनका विवाह कर देना और वह जो भी कहे, होता है। इसलिये घी, खीर तथा गुग्गुलसे इन नागकी पूजा उसका वचन खकार करना । उसे आस्तक नामका विन्यात करनी चाहिये ।। पुत्र उत्पन्न होगा, वह जनमैज्ञयाकै सर्पयज्ञको रोकेगा और राजाने पूछा-महाराज ! क्रुद्ध सर्पक काटनेस तुमल्योगको रक्षा करेगा। ब्रह्माजौके इस बच्चनको सुनकर मरनेवाला व्यक्ति किस गतिको प्राप्त होता है और जिसके नागराज वासुकि आदि अतिशय प्रसन्न हो, उन्हें प्रणाम कर माता-पिता, भाई, पुत्र आदि सर्पके काटनेसे मरे हों, उनके अपने में आ गये उद्धार के लिये कौन-सा ब्रत, दान अथवा उपवास करना। सुमन मुनिने इस भाको सुनाकर कहा-झन् ! चाहिये, यह आप बताये। यह प्रज्ञ तुम्हारे पिता राजा जनमेजयने किया था। यहीं बात सुमन्तु मुनिनें कहा–राजन् ! सर्पके काटनेसे जो मरता श्रीकृष्णभगवान्ने भो युधिष्ठिरसे कही थीं कि ‘राजन् ! आजसे वह अधोगतिको प्राप्त होता हैं तथा निर्वित्र सर्प होता है और सौं वर्षके बाद सर्पयज्ञ होगा, जिसमें बड़े-बड़े विषधर और दुष्ट जिसके माता-पिता आदि सर्पके काटनेसे मरते हैं, यह उनकी नाग नष्ट हो जायेंगे। करोड़ों नाग जब प्रियं दग्ध होने लगेंगे, सद्गत्तिके लिये भाद्रपद शुक्ल पक्षको पञ्चमी तिथिको उपवास । तच आस्तीक नामक ब्राण सर्पयज्ञ कल नागों की अक्षा कर नागकी प्रज्ञा करें। यह तिथि महापण्या की गयी हैं। | होगा। ब्रह्माजीने पञ्चमीक न वर दिया था और आस्तक इस प्रकार बारह महनेतक चतुर्थी तिथिके दिन एक बार मुनिने पञ्चमीक ही नागों की रक्षा की थीं, अतः पञ्चमी तिथि भोजन करना चाहिये और पञ्चमीको भनक नागकी पुजा नागको बहुत प्रिय है। करनी चाहिये । पृथ्वीपर मार्गोका चित्र अङ्कित कर अथवा पञ्चमीकै दिन नागको पूजाकर यह प्रार्थना करनी चाहिये सोना, काहु या मिट्टका नाग बनाकर अज्ञमौके दिन करवौर, कि जो नाग पृवीमें, आकाश, वर्गमें, सूर्य की किरणोंमें, कमल, चमैलों आदि पुष, गन्ध, धूप और विविध नैवेद्यास सरोवरो, वापी, कूप, तालाब आदिमें रहते हैं, वे सब हमपर उनकी पूजा कर घी, सौर और ला उत्तम पाँच ब्राह्मणों प्रसन्न हों. हम उनको बार-बार नमस्कार करते हैं। खिलाये। अनन्त, वासुकि, शंख, पद्म, कैथल, कोटक,

 

पया भवन मा वाथ लिन् मादयं मा पम दांगता सदा॥

 

नागानामान्क ]

ना में ब्राह्मण पुर।

वामानमें नागपञ्चमी प्रायः सभी पशा तथा वन मियान्यअन्यांक अनुसार आपण शुरू पञ्चममें तो हैं यहाँ या तो पाठ भर हैं। मा कलामें कभी भाड्याने नागपञ्चमी मनायी जाती रही होगी

ब्राह्मपर्व ] के सपॅक लक्षण, स्वरूप और जाति

अश्वतर, धृतराष्ट्र, पाल, कालिन्य, तक्षक और उत्तम लोक्कों प्राप्त किया था। आप भी इसी प्रकार सोनेका पिंगल—इन बारह नागोंकी बारह महीनोंमें क्रमशः पूज्ञा । नाग बनाकर उनकी पूजाकर उन्हें ब्राह्मणको दान लें, इससे | इस प्रकार वर्षपर्यन व्रत एवं पूजनकर मृतक पारणा आप भी पित-ऋणसे मुक्त हो जायेंगे। राजन्! जो कोई भी इस करनी चाहिये । बहुतसे ब्राह्मणों को भोजन कराना चाहिये । नागपञ्चमी-बतको करेगा, साँपसे में जानैपर भी वह विद्वान् ब्राह्मणको सोनका नाग बनाकर उसे देना चाहिये । यह शुभलकको प्राप्त होगा और ज्ञों व्यक्ति श्रद्धापूर्वक इस उद्यापनकी विधि हैं। राजन् ! आपके पिता जनमेजयने भी कथा सुनेगा, उसके कुलमें कभी भी साँपका भय नहीं अपने पिता परीक्षितके उद्धारके लिये यह व्रत किया था और होगा। इस पञ्चमी-अतके करनेसे उत्तम लक्की प्राप्ति होती है। सोनेका बहुत भारी नाग तथा अनेक गौएँ ब्राह्मणों को दी धीं।

 (अध्याय ३३)

ऐसा करनेपर वे पित्-ऋणसे मुक्त हुए थे और परीक्षितने भी – सपॅक लक्षण, स्वरूप और जाति राजा शतानीकने पूछा-मुने ! सपॉक कितने रूप हैं, स्वर्णकलक वर्णके समान आभावाले और लंबी रेखाओंसे मुक्त क्या लक्षण हैं, कितने इंग हैं और उनकी कितनी जातियाँ हैं ? अंडोंसे स्त्री तथा पिपुष्पके समान इंगवाले अंक बाँच इसका आप वर्णन करें ।

नपुंसक सर्प होता हैं। उन अंडोंको सर्पिणी छः महीने तक सुमनु मुनिनें कहा–राजन् ! इस विषयमें मुमेह होती है । अनन्तर अंटोंक फूटनेपर उनसे सर्प निकलते है पर्वतार महर्ष कश्यप और गौतमका जो संवाद हुआ था, और वे असे अपनी माता कह करते हैं। अंडेके बाहर उसका मैं वर्णन करता है। महर्षि कश्यप किसी समय अपने निकलनेके सात दिनमें बच्चोंका कृष्णवर्ण हो जाता है। सर्पकी

आश्रममें बैठे थे। उस समय वहाँ उपस्थित महर्षि गौतमने आयु एक सौ बौस वर्षकी होती हैं और इनकी मृत्यु आठ उन्हें प्रणामकर विनयपूर्वक पूछा–महाराज! सपॅक लक्षण, प्रकारको होतो है—मोरसे, मनुष्यसे, चकोर पक्षोसे, बिल्लासे, जाति, वर्ण और स्वभाव किस प्रकार हैं, उनका आप वर्णन नकुलसे, शूकर, वृश्चिकसे और गौं, भैंस, घोड़े, ऊँट आदि करें तथा उन उरपति किस प्रकार हुई हैं। ग्रह भी बतायें । वे पशुओंके में इस नानेपर । इनसे बचनेपर सर्प एक सौ बीस विष किस प्रकार छोड़ते हैं, विषके कितने वेग हैं, विपकौं वर्षतक जीवित रहते हैं। सात दिन बाद दाँत उगते हैं और कितनी नाड़ियाँ हैं, सापांक दाँत कितने प्रकार के होते हैं, की दिनमें विष हो जाता हैं । साँप काटनेके तुरंत बाद अपने सर्पिणीको गर्भ कब होता है और वह कितने दिनों में प्रसव जबडेसे तीक्ष्ण विक्का त्याग करता है और फिर विष इकट्ठा हो करती है, स्त्री-पुरुष और नपुंसक सर्पका क्या लक्षण है, ये जाता है। सर्पिण के साथ घूमनेवाला सर्प बालसर्प कहा जाता  काटते हैं, इन सब बातों आप कृपाकर मुझे बतायें। । पचास दिनमें वह बच्चा भी विपके द्वारा दूसरे प्राणियों | कश्यपजी बोले—मुने ! आप ध्यान देकर सुने। मैं प्राग हुनेमें समर्थ हो जाता है। छः महीनेमें कंचुक सपॅक सभी भेदोंका वर्णन करता हैं । ज्येष्ठ और आषाढ़ मास (केंचुल-1 का त्याग करता है। साँपके दो सौ चालीस पैर होते सपनें मद होता हैं। इस समय में मैथुन करते हैं । वर्षा ऋतुके हैं, परंतु वे पैर गायके रोयेके समान बहत सूक्ष्म होते हैं, चार महीनेतक सर्पगी गर्भ धारण करती हैं। कार्तिकमें दो सौ इसलिये दिखायौं नहीं देते । चलनेके समय निकल आते हैं। चालींस अंडे देती हैं और उनमेंसे कुङ्कों स्वयं प्रतिदिन क्वाने और अन्य समय भौंतर प्रविष्ट हो जाते हैं। उनके शरिरमें दो सौ लगती है। प्रकृतिको कृपासे कुछेक अंडे इधर-उधर दुल्ककर औस अङ्गलियाँ और दो सौ बीस सँधियाँ होती हैं। अपने बच्च जाते हैं। सोनकी तरह चमकनेवाले अंडोंमें पुरुष, समयके बिना जो सर्प उत्पन्न होते हैं उनमें झम सिया राहता है

शिवत्वरलाल मा अभिपतापितामण तथा आयुटअन्यमात, मापक, वाधक निािरपानीमें भी इस विषयमा वर्णन मिलता है।

= पुराणं परमं पुण्यं यि सवमॉरख्यम्

[ संक्षिप्त पश्चिमुरा समझना और वे पचहत्तर वर्षसे अधिक जीते भी नहीं हैं। जिस साँपके वैसे, भषसे, मदसे, भूखसे, विषका येग होनेसे, संतानकी दाँत लाल, पीलें एवं सफेद हैं और विषका वेग भी मंद , रक्षाके लिये तथा कालकी प्रेरणासे । जब सर्प काटते हीं पेटकीं वे अल्पायु और बहुत पोंक होते हैं। ओर ज्ञाता है और उसकी दाढ़ टन हो जाता है, तब सापकों एक मुँह, दो जीभ, अत्तीस दाँत और विषसे भरी उसे दबा हुआ समझना चाहिये। जिसके काटनेसे बहुत बड़ा दुई चार दा होती हैं । जुन के नाम मकौं, काली, घाव हो जाय, उसको अत्यन्त कालरात्री और यमदूतों है। इनके क़मशः ब्रह्मा, विष्णु, रुद्र चाहिये । एक दाका चिह्न हों जाय, किंतु वह भी भलीभाँत और सम–में चार देवता हैं। यमदूती नामकी दड़ सबसे दिल्लयों न पड़े तो भयमें काटा हुआ समझना चाहिये। इस छोटीं होती है। इससे साँप जिसे काटता हैं यह तत्क्षण पर प्रकार की तरह दाढ़ दिखायी दें तो मदमें काटा हुआ, दो जाता है । इसार मन्त्र, तन्त्र, औषधि आदिका कुछ भी असर द्वाड़ दिग्ग्राय दें और बड़ा घाव भर जाय तों भूखसे काटा नहीं होता। मकी दातृका चिह्न शके समान, करालीका हुआ, दो दाढ़ दिखायौं दे और घावमें रक्त हों जाय तो विषके काके पैरके समान तथा कालरात्रीका हायके समान चिह्न वेंगसे काटा हुआ, दो दाढ़ दिखायी दें, किंतु याव न रहे तों होता हैं और यमदूत कुर्मके समान होती हैं। ये क्रमशः एक, संतानकी रक्षाके लिये काटा हुआ मानना चाहिये। काकके दौं, तीन और चार महीनोंमें उत्पन्न होती हैं और क्रमशः सात, पैर तरह तन दा; गहरे दिखायी दें या चार दाह दिखायी पित्त, कफ और संनिपात इनमें होता है। क्रमशः गुड्युक्त भात, दें तो कालक प्रेरणासे काटा हुआ जानना चाहिये। यह कषाययुक्त अन्न, कट पदार्थ, सनिपातमें दिया जानेवाला पथ्य असाध्य है, इससे कोई भी चिकित्सा नहीं है। इनके द्वारा काटे गये व्यक्तिको देना चाहिये। श्वेत, रक्त, पीत सर्पके काटने देह, दुष्टानुपीत और इंदत—ये तीन और कृष्ण-इन चार दादोंके क्रमशः रंग हैं। इनके वर्ण भेद हैं। सर्पके काटनेके बाद ग्रीवा यदि झुके तो दंष्ट्र तथा क्रमशः ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शुद्ध हैं। सर्पोक दादोंमें काटकर मार करें तो दंशानुगत कहते हैं। इसमें तिहाई सिंग सदा विश नहीं रहता। दाहिने नेके समीप विष रहनेका स्थान चढ़ता है और काटकर सब विष पाल तथा स्वयं निर्वत्र है । क्रोध करनेपर यह विष पहले मस्तकमें जाता है, मस्तकसे होकर उलट जाग्र-पीटके बल उलटा हो जाय, उसका पेट धमनी और फिर नाड़ियों द्वारा दादमें पहुँच जाता है। दिखायीं हैं तो उसे इंद्धत कहते हैं।

| आठ कमरगौसे सांप काटना है—अनेले, पहलके विभिन्न तिथियों एवं नक्षत्रोंमें कालसर्पसे ईंसे हुए पुरुषके लक्षण, नागोंकी उत्पत्तिको कथा | कश्यप मुनि बोले-गौतम ! अब मैं कालसर्पसे काटे जाते हैं, मुख नीकी ओर लटक जाता है, आँखें चढ़ जात हुए पुरुषका लक्षण कहता हैं, जिस पुरुषको कालसर्प मटता हैं, शरीरमें दाह और कम्य होने लगता है, यार-बार आँखें बंद हैं, उसमें जिहा भंग हो जाती हैं, हृदयमें दर्द होता हैं, नेत्रों हो जाती हैं, शायसे शरीरमें काटनेपर खून नहीं निकलता। दिखायी नहीं देता, दाँत और दारीर पके हुए जामुनके फलके बेतसे मारनेपर भी शरीर इंस्वा नहीं पड़त, काटनेका स्थान समान काले पड़ जाते हैं, आङ्गोंमें शिथिलता आ जाती है, कटे हुए जामुनके समान नीले रंगका, फुला हुआ, रक्तसे विप्नाका परित्याग होने लगता हैं, कंधे, कमर और पौवा झुक परिपूर्ण और कौएके पैरके समान हो जाता है, हिचकी आने सभी पका टाक रूपमें मान्य-शास्त्र विदाम्फर होनप गरुड़-मन्त्र और सर्पो मणियां न वि अचूक आधियाँ हैं । कुछ अन्य मधियां भी भः नी । 1 का त्या नन बना देता है। इस स्र्पक काट पर किसी भी अन्य कार्य वि नहीं चलता। नर्मदा नट्रोकमा नाम लेनम भो म भागते हैं

 

नर्मदा नमः तिर्नर्मदाय नमो नि

नमाम् नभ्य शाहि मिसमर्पनः ।।।

[वि १३॥ ब्राह्यपर्व ]

+ सपक विषका वेग, फैलाव नया सात आतुओंमें प्राप्त विचपा

लगती है, काष्ठ अवरुद्ध हो जाता है, श्वासकौं गाँत बढ़ जाती ताल, ढ़ी और दा–में बारह मुख्य मर्म-स्थान हैं। झमें हैं, शरीरका रंग पीला पड़ जाता हैं। ऐसी अवस्थाको सर्प काटनेसे अथवा शस्त्रापात होनेपर मनुष्य जीवित नहीं कालसर्पसे काटा हुआ समझना चाहिये। उसकी मृत्यु आसन्न रहता। | समझनी चाहिये।

अब सर्प काटनके बाद ज्ञों बैंकों बुलाने जाता है उस घाव फूल जाय, नीले अँगका हो जाय, अधिक पसौना दुतका लक्षण कहता हैं। उत्तम जातिका हौंन वर्ग इन और आने लगे, नाक में बोलने में, ऑछ लटक हाय, इसमें न ज्ञानिका नाम वर्ण इन भो अझ नहीं होता। वह कम्पन होने लगे तो कालसर्पसे काटा हुआ समझना चाहिये। हाथमें दंड लिये हुए हों, दो दूत हो, कृष्ण अथवा रक्तवस्त्र दाँत पौंसने लगे, नेत्र उलट जायें, लंबी श्वास आने लगे, प्रीवा पहने हों, मुख ढके हों, सिरपर एक वस्त्र लपेटे हो, शरीर में लटक जाय, नाभि फड़कने लगे तो कालसर्पसे काटा हुआ तेल लगायें हो, केश गोले हों, जोरसे बोलता हुआ आये, जानना चाहिये । इर्पण या जलमें अपनी छाया न दारों, सूर्य हाथ-पैर पौटे तो ऐसा दूत अत्यन्त अशुभ है। जिस रोगका केजहीन दिखायी पड़े, नेत्र लाल हो जायँ, सम्पूर्ण शरीर कष्टके इन इन लक्षणों से युक्त वैद्यके समीप ज्ञाता है, वह रोगों कारण काँपने लगे तो उसे कालसर्पस काटा हुआ समझना अवश्य ही मर जाता है। चाहिये, इसकी शॉझ ही मृत्यु सम्भाव्य हैं।

कश्यपङ्गी बोले-गौतम ! अब मैं भगवान् शिक्के अष्टमी, नवमी, कृष्ण चतुर्दशी और नागपञ्चमीकै दिन द्वारा कथित नाकी उत्पत्तिकै विषयमें कहता हूँ। पूर्वकालमें |जिसको सांप काटता हैं, उसके प्रायः प्राण नहीं बचते । आईं, ब्रह्माजीने अनेक नाग एवं ग्रहोंकी सृष्टि की । अनत नाग सूर्य,

आलेषा, मघा, भरणी, कृत्तिका, विशाखा, तनों पूर्वा, मूल, वासुकि चन्द्रमा, तक्षक भौम, कर्कोटक बुध, पद्म बृहस्पति, स्वाती और शतभिषा नक्षत्रमें जिसको साँप काटता है वह भी महापद्म शुक्र, कुक और शंखपाल शनैश्वर महके रूप हैं। नहीं होता। इन नक्षत्रोंमें विष पीनेवाला व्यक्ति भी तत्काल मर रिववार दिन दसवीं और चौदहवाँ यामाई, सोमवारको जाता है। पूर्वोक्त तिथि और नक्षत्र दोनों मिल जायें तथा आठयाँ और बारहवाँ, भौमवारको छठा और दसवाँ, खण्डहरमें, मानमें और सूखें वृक्षके नीचे जिसे साँप काटता बुधवारको नाच, बृहस्पतिको दसरा और इटा, शुक्रको चौथा, हैं यह नहीं जाता।

आठवाँ और दवाँ, शनिवारको पहिल्या, सोलहवाँ, दूसरा मनुष्य शरीरमैं एक सौं आड़ मर्म-स्थान हैं, उनमें भी और बारहवाँ प्रहरीधं अशुभ हैं। इन समयोंमें सर्पक काटनेसे शंख अर्थात् ललाटको हङ्की, आँख, भूमध्य, वस्ति, व्यक्ति जीवित नहीं रहता।

पडकोशका ऊपरी भाग, कक्ष, कंधे, हृदय, वक्षःस्थल,

[अध्याय ३६] ।

सपके विषका वेग, फैलाव तथा सात धातुओंमें प्राप्त विषके लक्षण और उनकी चिकित्सा | कश्यपजी बोले-गौतम् ! यदि यह ज्ञात हो जाय कि बालके अग्रभागसे जितना ज्ञाल गिरता है, उतनी ही मात्रामें सर्पने अपने यमदूतों नामक दाढ़से काटा हैं तो उसकी विष सर्प प्रविष्ट कराता हैं । वह विष सम्पूर्ण शरीरमें फैल जाता चिकसा न करे। उस व्यक्तिकों मरा हुआ ही समझे । दिनमें है। जितनी देर में हाथ पसारना और समेटना होता है, उतने ही और रातमें दूसरा और सोयाँ प्रहरार्ध सांपोंसे सम्प्रन्धित सूक्ष्म समयमै काटनेके बाद विष मस्तक पहुँच जाता है। नागोदय नामक वेला कही गयी है। उसमें साँप कहें तो कुवाको आगों पट फैलनेके समान में पहुँचने पर विषको कालके द्वारा काटा गया समझना चाहिये और उसकी चिकित्सा वहुत वृद्धि हो जाती है। जैसे जलमें तेलकों जैद फैल जाती नहीं करनी चाहिये । पानीमें बाल दुबोनेपर और उसे उठानेपर है, वैसे ही त्वचामें पहुँचकर विष दुना हो जाता है। रक्तमें

गामापनिय तापने मवः नामसे भी मन्त्र पढ़े गये हैं, याहाँ मध्यम नियमका मन है। वैसे भगवत्कृपा कुछ भी अम नहीं है।

* पुराणं परमं पुण्यं भविष्यं सर्वसौम्यम् +

[ संक्षिप्त मविष्यपुराणा चाँगुना, पित्तमें अड़ गुना, कफमैं सोलह गुना, वातमै तीस इन्द्रायणकी जड़ इन सबको गोमूत्रमें पीसकर नस्य, लेपन गुना, मज़ामें साठ गुना और प्राणों में पहुंचकर वहीं विष अनन्त तथा अञ्जन करनेसे विक्का वेग हट जाता है । गुना हो जाता हैं। इस प्रकार सारे शरीर में विपके व्याप्त हो जाने पित्तमें विपके कफमें प्रवेश कर जानेपर शरीर, जकड़ तथा श्रवणशक्ति बंद हो जानेपर, वह जीव भास नहीं ले पाता जाता है। आप्त भलीभाँति नहीं आती, काठमें अर्धर शब्द होने और उसका प्राणान्त में जाता है। यह शरीर पृथ्वी आदि लगता है और मुसमें लार गिरने लगती हैं। यह लक्षण पञ्चभूतोंसे बना हैं, मृत्युके बाद भूत-पदार्थ आग-अलग हो देखकर पीपल, मिरच, सोंठ, इलेमातक (बहुवार वृक्ष), जाते हैं और अपने-अपनेमें लौन हो जाते हैं। अतः विषकों लोध एवं मधुसारको समान भाग करके गोमूत्रमें पौंस्कर चिकित्सा बहुत शोष करनी चाहिये, विलम्ब होनेसे ग्रेग लेपन और अञ्जन लगाना चाहिये और उसे पिलाना भी असाध्य हो जाता है। सपदि जीबका विष जिस प्रकार चाहिये। ऐसा करनेसे विषका येग शान्त हो जाता हैं।  हरण करनेवाला होता है, वैसे ही स्त्रिी आदि विष भी फसे बातमें विष प्रवेश करने पर पेट फूल जाता है, प्रागको हरण करनेवाले होते हैं।

कोई भी पदार्थ दिखायौं नहीं पड़ता, दृष्टि-भंग हो जाता है। | विषके पहले सेगमें रोमाञ्च तथा दूसरे वेगमें पसीना ऐसा लक्षण होनेपर शोणा (सोनागाछ की जड़, प्रियाल, आता है। तीसरे बैंगमें शरीर काँपता है तथा चौथेमें गजपीपल, भारंगी, वचा, पीपल, देवदारु, महआ, मधुसार, श्रवणशक्ति अवरुद्ध होने लगती हैं, पाँचोंमें हिचकी आने सिंदुवार और हौंग-इन सबको पीसकर गोल्में बना लें और लाती हैं और छठेमें ग्रीवा लटक जाती है तथा सातवें वेगमें रोगीको खिलायें और अञ्जन तथा लेयन करे। यह ओषधि प्राण निकल जाते हैं। इन सात वेगों में शरीर के सात धातुम सभी विषका हरण करती हैं। विष व्याप्त हो जाता है। इन प्रातुओमें पहुँचे हुए विषका वातसे मलामें विष पहुँच जानेपर दृष्टि नष्ट हो जाती हैं, अलग-अलग लक्षण तथा उपचार इस प्रकार हैं- सभी अङ्ग बेसुध हों शिथिल हो जाते हैं, ऐसा लक्षण होने पर आँखोके आगे अंधेरा छा जाय और शॉरमें बार-बार घी, शहद, शर्करायुक्त खस और चन्दनको घोंटकर पिलाना जलन होने लगे तो यह जानना चाहिये कि बिष त्वचामें है। चाहिये और नस्य आदि भी देना चाहिये। ऐसा करनेसे विषका इस अवस्थामें आककी जड़, अपामार्ग, तगर और प्रियंगु- बैंग हट जाता है। इनको झलमें घटकर पिलाने विषकी बाधा शान्त हो सकती मासे मर्मस्थानोंमें चित्र पहुँच जानेपर सभी इन्द्रियाँ हैं। त्वचारों में विष पहुँचनेपर रॉरमें दाह और मृर्ज होने निष्ट हो जाती हैं और वह ज्ञमनपर गिर जाता हैं। काटनेसे लगती हैं । शीतल पदार्थ अच्छा लगता है। बशर (बस), रक्त नहीं निकलता, शके वाहनेपर भी कष्ट नहीं होता, उसे चन्दन, कूट, तगर, नीलोत्पल, दिवारको जड़, धतूरेकी जड़, मृत्युक ही अधीन समझना चाहिये। ऐसे लक्षणोंसे मुक्त हींग और मिरच-इकों पीसकर देना चाहिये । इससे बाधा रोगीको साधारण वैद्य चिकित्सा नहीं कर सकते। जिनके पास शान्त न हो तो भटक्या , इन्द्रायणको जड़ और सर्पगंधाने सिद्ध मन्त्र और औषधि होगी में ही ऐसे रोगियोंके रोगों वीमें पीसकर देना चाहिये । यदि इससे भौं शान्त न हो तो इटानेमें समर्थ होते हैं । इसके लिये साक्षात् झड़ने एक औपश्चि सिंदुवार और हाँगक्न नस्य देना चाहिये और पिलाना चाहिये। कहीं है। मौका पित तथा माया पिरा और गन्धनाडीकी इसका अञ्जन और लेप भी करना चाहिये, इससे में प्राप्त जड़, कुंकुम, तगर, कूट, कासमईकी इाल तथा उत्पल, कुमुद विषकी बाधा शान्त हो जाती हैं।

और कमल इन तीनोंक केसर-सभाका समान भाग उसे पित्तमें विष पँहुच जानेपर पुरुष उठ उठकर गिरने लेकर उसे गोमूत्रमें पौंसकर नस्य दें, अञ्जन लगायें। ऐसा लाता है, शरीर पीला हो जाता है, सभी दिशाएँ पाले वर्णक करनेसे कालसर्पस ईंसा हुआ भी व्यक्ति इग्न पिडित हो दिखायी देती हैं, शरीर में दाह और प्रबल मूच्र्छा होने लगाता जाता हैं। यह मृतसंजौवनों ओपधि है अर्थात् मरेको भी जिला है। इस अवस्थामें पीपल, शहद, महुवा, घ, तुम्बेकी जड़, देती हैं।

 

ब्रह्मपर्व ]

  • सपकी भिन्नभिन्न जातियाँ, सप काटने के क्षण +

सपकी भिन्न-भिन्न जातियाँ, सपके काटनेके लक्षण, पञ्चमी तिथिका नागोंसे सम्बन्ध और पञ्चमी-तिथिमें नागोंके पूजनका फल एवं विधान गौतम मुनिने कश्यपज़ीसे पूछा–महात्मन् ! सर्प, मूच् छा जाती हैं, दृष्टि ऊपरकों हो जाती हैं, अत्यधिक बड़ा सर्पण, बालसर्प, सूतिका, नपुंसक और व्यत्तर नामक सपॅक होने लगती हैं और व्यक्ति अपनेकों पहचान नहीं पाता। ऐसे काटनेमें क्या भेद होता हैं, इनके लक्षण आप अलग-अलग लक्षणोंके होनेपर आक्की जड़, अपामार्ग, इन्द्रायण और बतायें।

प्रियंगुकों में पीसकर मिला लें तथा इसका नस्य देने में एवं कश्यपज बोले- मैं इन सबकों तथा सपॅक पिलानेसे बाधा मिट जाती है। वैश्य सर्प डैसे नौ कफ बहुत रूप-लक्षणोंकों संक्षेपमें बताता हैं, सुनिये-

आता है, मुससे लार बहती हैं, मृच्छ आ जाती हैं और वह यदि सर्प काटे तो दृष्टि ऊपरकों हो जाती हैं, सर्पिणीक चेतनाशून्य हो जाता हैं। ऐसा होनेपर अश्वगन्धा, गृहधूम, काटनेसे दृष्टि नीचे, बालसर्पके काटनेसे दाहिनी ओर और गुग्गुल, शिरिष, अर्क, पलाश और श्वेत गिरकर्णिका बालर्पिणींके काटनेसे दृष्टि बायीं ओर झुक जाता है। (अपराजिता)-इन सब गोमूत्रमें पीसकर नस्य देने तथा गर्भिणीके काटनेसे पसीना आता है, प्रसूतौ काटे तो रोमाञ्च पिलानेसे वैश्या सर्पकी आधा लक्षण दूर हो जाती है। जिस और कम्पन होता है तथा नपुंसकके काटने से शरीर टूटने व्यक्तिको शुद्ध सर्प काटता है, उसे शीत लगकर नर होता हैं, लगता है। सर्प दिनमें, सर्पिणी गृत्रिमै और नपुंसक संध्याके सभी अङ्ग चुलबुलाने लगते हैं, इसकी निवृत्तिके लिये कमल, समय अधिक विपयुक्त होता है। यदि अँधेरे में, जलमें, वनमैं कमलका कैंसर, लोभ, द्र, शहद, मधुसार और सर्प काटें या सोते हुए या अमत्तकों का, सर्प न दिखायी पड़े अंतगिरिक-इन सबको समान भागमें लेकर शीतल ज्ञक अधया दिखायी पड़े, उसकी जाति न पहचानी जाय और साथ पीसकर नस्य आदि हैं और पान करायें। इससे नियका पूर्वोक्त लक्षणका आना न हो तो बंद्य उसकी कैसे बॅग शांत हो जाता है। चिकित्सा कर सकता हैं !

ब्राह्मण सर्प मध्याह्नके पहले, क्षत्रिय सर्प मध्याह्नमें, सर्प चार प्रकार होते हैं—दकर, मण्डली, जल वैश्य सर्प मध्याह्नके बाद और, शुद्ध सर्व संध्याके समय और व्यन्तर । इनमें दकका विष वात-भाव, मण्डलीका विचरण करता है। ब्राह्मण सर्ष घायु एवं पुष्य, क्षत्रिय मूषक, पित्त-स्वभाव, गजिम कफ-स्वभाव और व्यत्तर सर्पका वैश्य मेक और शुद्ध सर्प सभी पदाथका भक्षण करता है। संनिपात-स्वभावका होता है अर्थात् उसमें वात, पित्त और ब्राह्मण सर्प आगे, क्षत्रिय दाहिने, वैश्य बायें और शुद्र सर्प कफ—इन तीनोंकी अधिकता होती है। इन सपॅक इक्तको पीछेसे काटता है। मैथुनकीं इसे पीड़ित सर्प विपके वेगळे परीक्षा इस प्रकार करनी चाहिये । दर्वीकर सर्प रक्त कृष्णवर्ण बढ़नेसे व्याकुल होकर बिना समय भी काटता है। ब्राह्मण सर्प

और स्वल्प होता है, मण्डलीमें बहुत गाड़ा और मल ईगका पुष्पके समान गन्ध होती है, क्षत्रिय चन्दनके समान, वैश्य रक्त निकलता है, गुजरन तथा व्यत्तरमें स्निग्ध और थोड़ा-सा घृतके समान और शूद्र सर्पमें मपके समान गन्ध होती हैं । रुधिर निकलता है । इन चार ज्ञातियोंके अतिरिक्त सपकी अन्य ब्राह्मण सर्प नदी, कुप, तालाब, झरने, बाग-बगीचे और पवित्र कोई पाँची जाति नहीं मिलती। सर्प ब्राह्मण, क्षभिय, वैश्य स्थानों में रहते हैं। क्षत्रिय सर्वं ग्राम, नगर आदि द्वार, तालाब, तथा शूद्र-इन चार वर्गोंकि होते हैं। ब्राह्मण सर्प काटे तो चतुष्पथ तथा तोरण आदि स्थानमै; वैश्य सर्प इमशान, ऊपर शरीरमें दाह होता है, प्रबल मूव आ जाती हैं, मुख का स्थान, भस्म, घास आदिके हैं तथा वृक्षोंमें; इसी प्रकार शूद्र पड़ जाता है, मज्जा स्तम्भत हो जाती है और चेतना जाती रहती सर्प अपवित्र स्थान, निर्जन वन, शून्य अर, श्मशान आदि बुरे हैं। ऐसे लक्षणोंके दिखायी देनेपर अश्वगन्धा, अपामार्ग, स्थानोंमें निवास करते हैं। ब्राह्मण सर्प चैत एवं कपिल वर्ण, सिंदुवारको भीमें पीसकर नस्य दें और पिलायें तो विद्यकीं अग्निके समान तेजस्वी, मनस्वीं और सात्त्विक होते हैं। क्षत्रिय निवृत्त हो जाती है। क्षत्रिय वर्णक सर्पक मटनेपर शरीरमें सर्प मुँगैके समान रक्तवर्ण अथवा सुवर्णके तुल्य पाँत वर्ग

 

  • पुराणं परमं पुण्यं भविष्यं सर्वसौम्यादम्

[ संक्षिप्त भविष्यपुराणाङ्क तथा सूर्यके समान तेजस्य, वैश्य सर्प आलसीं अथवा बाण और चिकित्सा महर्ष कश्यपने महामुनि गौतमको उपदेशके पुष्पके समान वर्णवाले एवं अनेक रेखाऔसे बुक तथा शुद्ध प्रसंगमें कहे थे और यह भी बताया कि सदा भक्तिपूर्वक सर्ष अञ्जन अथवा काकके सम्मान कृष्णवर्ग और धूम्रवर्णके नागकी पूजा करें और पञ्चमीको विशेषरूपसे दुध, ज़ीर होते हैं। एक अङ्गकै अन्तरमें दो देश हो तो बालसर्पका आदिसे उनका पूजन करें। आवण शुमा पञ्चमीको द्वारके दोनों काटा हुआ जानना चाहिये। दो अङ्गल अन्तर हों तो तरुण और गोबरके द्वारा नाग अनाये । दही, दूध, दूर्वा, पुष्प, कुशा, सर्पका, हाई अल अत्तर हो तो वृद्ध सर्पका दंश समझाना गन्ध, अक्षत और अनेक प्रकारके नैवेद्योंसे नागका पूजनकर, चाहिये। ब्राह्मर्गाको भोजन करायें। ऐसा करनेपर उस पुरुषके कुलमें | अनन्तनाग सामने, वासुकि बायीं ओर, तक्षक दाहिनी कभी सर्पोका भय नहीं होता ओर देखता है और कर्कोटककी दृष्टि पीछेकों ओर होती हैं। भाद्रपदको पञ्चमीको अनेक रंगके नागको चित्रितकर अन, बासुकि, तक्षक, कर्कोटक, पद्म, महापद्म, शंखपाल घी, सौर, दुध, पुष्प आदिले पूजनकर गुगुली धूप दें। ऐसा और कुलिक—ये आठ नाग क्रमशः पूर्वाद आठ दिशाओंके करनेसे तक्षक आदि नाग प्रसन्न होते हैं और उस पुरुषकी सात स्वामीं हैं। पद्म, उत्पल, स्वास्तिक, त्रिशूल, महापद्य, शूल, क्षेत्र पीढ़ोतकको साँपका भय नहीं रहता।

और अर्धचन्द्र—ये क्रमशः आङ नागोके आयुध हैं । अनन्त आश्विन मासकीं पञ्चमीको कुशका नाग बनाकर गन्ध, और क—ये दोनों ब्राह्मण नाग-जातियाँ हैं, शंख और पुष्प आदिसे उनका पूजन करें। दूध, घी, जलसे स्नान कराये। वासुकि क्षत्रिय, महापद्म और तक्षक बैंग्न तथा पद्म और दुधमें पके हुए गेहूँ और विबिध नैनौका भोग लगायें। इस कर्कोटक शूद्र नाग हैं । अनन्त और कुलिक नाग शुक्लवर्ण तथा पञ्चमीको नाग पूजा करनेसे वासुकि आदि नाग संतुष्ट होते ब्रह्माजीसे उत्पन्न हैं, वासुकि और झापाल उक्तवर्ण तथा है और वह पुरुप नागलोकमें जाकर बहुत फालतक मुखाका अग्निसे उत्पन्न हैं, तक्षक और महापद्म स्वल्य पीतवर्ण तथा भोंग करता है। राजन् ! इस पञ्चमी तिथि कल्पको मैंने इन्द्रसे उत्पन्न हैं, पद्म और कर्कोटक कृष्णवर्ग तथा यमराज वर्णन किया । जहाँ ‘ कुरुकुल्ले फद स्वाहा’ -यह मन्त्र उत्पन्न हैं। पढ़ा जाता है, वहाँ कोई सर्प नहीं आ सकता। सुमनु मुनिने पुनः कहा–राजन् ! सपॅक ये लक्षण

(अध्याय ३६-३४)

घाधी-कल्प-निरूपणमें स्कन्द-घाशी-बतकी महिमा सुमन्तु मुनि बोले–राजन् ! अब मैं षष्ठी तिथि- कृत्तिकाओके पुत्र कार्तिकेयका आविर्भाव हुआ था। वे कल्पका वर्णन करता है। यह तिथि सभी मनोरथ पूर्ण भगवान् शङ्कर. ऑग्न तथा गङ्गाके भी पुत्र कहे गये हैं। इसी करनेवाली हैं। कार्तिक मास की षष्ठी तिथिों फलाहारकर यह पष्ठी तिथिको स्यामिकार्तिकेय देवनाके सेनापति हुए। इस तिभिन्नत किया जाता है। यदि ज्यच्युत ग़ज़ा इस व्रतका तिथिको मनका मृत, दही, जल और पुष्पोंसे स्वामि अनुष्ठान करें तो वह अपना फ़ज्य प्राप्त कर लेता है । इसन्स्ये कार्तिकेयको दक्षिणको और मुखकले अयं देना चाहिये। विजयकी अभिलाषा रम्नेवाले व्यक्तिकों इस व्रतका प्रयत्न- आदानका मन्त्र इस प्रकार हैं पूर्वक ालन करना चाहिये।

मर्मादाज़ स्कन्द स्वाहापनसमुत्र । | यह तिथि स्वामिकार्तिकेयको अत्यन्त प्रिय हैं। इसी दिन कार्यमाग्निज विभो गङ्गागर्भ नमोऽस्तु ते कमर नागो देश माना जाता है। नामपुराण में इसमय नि मन है ।

वाहक अनुसार र्न दो को स्कन्दया हातीं हैं तथा कार्तिक

पोमनो गाना है, जिस दिन भान मूर्योपामना हान है

परंतु यहा कनक का गमक रूप गर्न आता है, वह गणना अमानमास

अमावास्याको पूर्ण होता. मास के मुसम अन होना है।

मासपर्व ]

  • आचरपाकी श्रेष्ठताका प्रतिपादन

श्री देवसेनानी: सम्पादयतु हङ्गलम्

करे, तब भी दोनों लोकोंमें उत्तम फल प्राप्त होता है। इस (झारूप ३६ ॥ ६} झक कनाले पुरुषको यता भी नमस्कार करते है और वह ब्राह्मणको अन्न देर रात्रिमें फलका भोजन और भूमिपर इस कमें आकर चक्रवर्ती राजा होता हैं। राजन् ! जो शयन करना चाहिये । व्रतके दिन पवित्रा रहे और ब्रह्मचर्यको पप यष्टीं-झनके माहात्म्पका भक्तिपूर्वक श्रवण करता है, वह पालन करें । शुक्ल पक्ष तथा कृष्ण पक्ष-दोनों षष्ठयोंकों यह भी स्वामिकापिकी कृपासे विविध उत्तम भोग, सिद्धि, तुष्टि, मत करना चाहिये। इस व्रतके करनेसे भगवान् स्कन्दको धूति और लक्ष्मीकों प्राप्त करता है । अलोकमें यह उत्तम कृपासे सिद्धि, धृति, तुष्टि, राज्य, आयु, आरोग्य और मुक्ति गनिका भी अधिकारी होता है। मिलती है। जो पुरुष उपवास न कर सके, यह त्रि-सात हौं ।

( अध्याय ३१)

आचरणकी श्रेष्ठताका प्रतिपादन | राजा शतानीकने कहा—मुने ! अब आप ब्राह्मण जीवन-यापन करते हैं, अनेक प्रकारके छल-छिद्भसे प्रजा आदिके आचरणकी श्रेष्ठताके विषय में बतलानेको कृपा करें। हिंसा कम केवल अपना सांसारिक सुरु सिद्ध करते हैं। ऐसे सुमन्तु मुनि बोले-राजन् ! मैं अत्यन्त संक्षेपमें इस ब्राह्मण शूइसे भी अधम हैं। विषयको बताता है, उसे आप सुने । न्याय-मार्गका अनुसरण जो ग्राह्य-अग्राह्य तत्वको जाने, अन्याय और करनेवाले शास्त्रकारोंने कहा है कि वेद आचारहौंनको पवित्र कुमार्गीका परित्याग कने, जितेन्द्रिय, सत्ययादीं और सदाचारी नहीं कर सकते, भले वह सभी अङ्गके साथ वेदोंका हो, नियमोके पालन, आचार, तथा सदाचरणमें स्थिर रहे, अध्ययन कर ले । वेद पढ़ना तो ब्राह्मणका शिल्पमात्र हैं, किंतु सबके हितमें तत्पर रहे, वेद-वेदाङ्ग और शास्त्रका मर्मज्ञ हो, ब्राह्मणका मुख्य लक्षण तो सदाचरण हो अतराया गया है । समाधिमें स्थित रहे, क्रोध, मत्सर, मद तथा शोक आदिको चारों बेदीका अध्ययन करनेपर भी यदि वह आचरणसे हीन हित हों, वेद पठन-पाठनमें आसक्त रहे, किसका है तो उसका अध्ययन वैसे ही निष्फल होता है, जिस प्रकार अल्पधिक सङ्ग न करे, एकान्त और पवित्र स्थानमै रहे, नपुंसकके लिये रत्न निष्फल होता हैं।

सुख-दुःखमें समान हो. धर्मनिष्ठ हो, पापाचरणसे डरे, आसक्ति जिनके संस्कार उन्म होते हैं, वे भी दुराचरण म पतित रहित, निरहंकार, दानी, शूर, ग्रह्मवेत्ता, शान-स्वभाव और हो जाते हैं और नरकमें पड़ते हैं तथा संस्कारहीन भी उत्तम तपस्वी हों तथा सम्पूर्ण शास्त्रोंमें परििनति होइन गुणों

आचरणसे अॐ कहलाते हैं एवं स्वर्ग प्राप्त करते हैं। मनमें युक्त पुरूष झाह्मण होते हैं । ब्रह्मके भक्त होनेसे ब्राह्मण, क्षतसे दुष्टता भी रहे, बाहरसे सब संस्कार हुए हों. ऐसे वैदिक रक्षा करने के कारण क्षत्रिय, वार्ता (कृय-विद्या आदि) का संस्कारोको संस्कृत कतिपय पुरुष आचरणमें शूद्रोंसे भी अधिक सेवन करनेसे वैश्य और शब्द-श्रवणमासे जो द्रुतगति हो मलिन हो जाते हैं। क्रूर, कर्म करनेवाला, ब्रह्महत्या करनेवाला, जायँ, वे शूद्र कहलाते हैं। क्षमा, दम, शम, दान, सत्य, शौच, गुरुदारगामी, चोर, गौऑको मारनेवाला, मद्यपायी, धूत, दया, मृदुता, ऋजुता, संतोष, तप, निरहुंकारता, अक्रोध, परवीगाम, मिथ्यावादी, नास्तिक, वेदनिक, निषिद्ध कमका अनसूया, अतुणता, अस्तेय, अमात्सर्य, धर्मज्ञान, ब्रह्मचर्य, आचरण करनेवाला द ब्राह्मण हैं और सभी तरह ध्यान, आस्तिक्य, वैराग्य, पाप-भांजा, अय, गुरुशुश्रूषा संस्कारको सम्पन्न भी हैं, बेद-वेदाङ्ग पारङ्गत भी है, फिर भी आदि गुण जिनमें रहते हैं, उनका ब्राह्मणल दिन-प्रतिदिन उसकी सद्गति न होतीं । दयाहाँन, हिंसक, आंतशय दाम्भिक, बाढ़ता रहता है। कपटी, लोभी, पिशुन (चुगलखोर), अतिशय दुष्ट पुरुप वेद शम, तप, दम, शौच, क्षमा, ऋजुता, ज्ञान-विज्ञान और पढ़कर भी संसार उगते हैं और वेदको बेचकर अपना आस्तिक्य—में ब्राह्मणोंके सहज कर्म हैं। ज्ञानरूपी शिखा,

* आचाहनम्न पुन वेदा यद्यप्यधौंता: सह षभिरङ्गैः शिल्पं हि वेदाध्ययन दिनां वृत्तं स्मृतं ब्राह्मणलक्षणं तु (ब्राह्मपर्व ४१ }

 

= पुराणं परमं पुण्यं भविष्यं सर्वमीस्पदम्

[ संक्षिप्त मवियपुग्नगा तपरूपी सूत्र अर्थात् अज्ञोपवीत जिनके रहते हैं, उनको मनुने शूद्रसे अधम हो जाता हैं। ब्राह्मण कहा हैं। पाप-कर्मोसे निवृत्त होकल, उत्तम आचरण जिस तरह देंव और पौरुषके मिलनेपर कार्य सिद्ध होते हैं, करने वाला भी ब्राह्मण समान में हैं। शॉलसे युक्त शुद्ध भी वैसे ही उत्तम जाति और सकर्मका योग होनपर आचरणक । ब्राह्मणसे प्रशस्त हो सकता हैं और आचाररहित ब्राह्मण भ पूर्णता सिद्ध होती हैं।

(अध्याय ४-४५)

भगवान् कार्तिकेय तथा उनके घट्ठी-व्रतकी महिमा । सुमनु मुनि बोले–राजन् ! भाद्रपद मासकी बड़ी शर्तकेयक पूजा करने पर हाथी, घोड़ा आदि वाहनों का स्वामी | तिथि बहुत उत्तम तिथि हैं, यह सभी पापोका हरण करनेवाली, होता हैं और सेनापतित्व भी प्राप्त होता है। राजाओं को पुण्य प्रदान करनेवाली तथा सभी कल्याण-मङ्गलको कार्तिकेयको अवश्य ही आराधना करनी चाहिये । जो राजा देनेवाली हैं। यह तिथि कार्तिकेयको अतिशय प्रिय है। इस कृतिका के पुत्र भगवान् कार्तिकेयकी आराधना कर चुके | दिन किया हुआ ान, दान आदि सत्कर्म अक्षय होता हैं। जो लिये प्रस्थान करता है वह देवराज इन्द्रकी तरह अपने | दक्षिण दिशा कुमारिका-) में निवास करनेवाले कुमार को परामा कर देता है। कर्तवयक चंपक आदि | कार्तिकेयका इस तिथिको दर्शन करते हैं, ये ब्रह्महत्या आदि विविध पुष्पोंसे पूजा करनेवाला व्यक्ति सभी पापोंसे मुक्त हों। | पापसे मुक्त हो जाते हैं, इसलिये इस तिथिमें भगवान् ज्ञाता है और शिवलोकको प्राप्त करता है। इस भाद्रपद मासकी। | कार्तिकेयका अवश्य दर्शन करना चाहिये । भक्तपक पाठौको तैनाका मेयन नहीं करना चाहिये । पष्ठी तिथिको व्रत । कार्तिकेयका पूजन करनेसे मानव मनोवाञ्छित फल प्राप्त करता एवं पूजनकर रात्रिमें भोजन करनेवाला व्यक्ति सम्पूर्ण पापोंसे हैं और अतमें इन्द्रलोक में निवास करता है। ईंट, पत्थर, काष्ठ मुक्त हो कार्तिकेयके लोकमें निवास करता हैं। जो व्यक्ति आदिके द्वारा श्रद्धापूर्वक कार्तिकेयका मन्दिर बनानेवाला पुरुष कुमारिकाक्षेत्र स्थित भगवान् कार्तिकेयका दर्शन एवं स्वर्णके विमानमें बैठकर कार्तिकेयके लोकमें जाता है। इनके भक्तिपूर्वक उनका पूजन करता है, वह अखण्ड शान्ति प्राप्त मन्दिरपर ध्वजा चढ़ाने तथा झाडू-पोंछा (मार्जन) आदि करता हैं। करनेसे रुद्रोंक प्राप्त होता है चन्दन, अगर, कपूर आदि से

(अध्याय ४६)

सप्तमी-कल्पमें भगवान् सूर्यके परिवारका निरूपण एवं शाक-सप्तमी-व्रत सुमन्तु मुनिने कहा–राजन् ! अब मैं सप्तमी-कल्पना अतिशय तेजके कारण मेरी दृष्टि इनकी ओर मुहर नहीं पाती, क्र्णन करता है। सप्तमी निधिका भगवान् सूर्यका आविर्भाव जिससे इनके अङ्गाकों में देख नहीं पा रही हैं। मेरा हुआ था। वे अण्डके साथ उत्पन्न हुए और अण्डमें रहते हुए सुवर्ण-वर्ण, कमनीय शरीर इनके तेजसे दुग्ध हों श्यामवर्गका ही उन्होंने वृद्धि प्राप्त की। बहुत दिनोंतक अप्डमें रहने के हो गया है। इनके साथ में नियहि होना बहन कठिन है। यह कारण ये ‘मार्तड के नामसे प्रसिद्ध हुए। जब ये अडमें हीं सोचकर उसने अपनी आया एक स्त्री उत्पन्न कर उससे स्थित थे तो दक्ष जानने अपनी रूपवती कन्या रूपाको कहा- तुम भगवान् सूर्यके समय में जगह गहना, परंतु यह | भार्याक में इन्हें अर्पित किया। दक्षको आज्ञासे द शुलने न पायें ।’ सा समझान उसने उस वाया नामक विश्वकर्माने इनके शरीरका संस्कार किया, जिससे ये अतिशय बौकों वहाँ रख दिया तथा अपनी संतान यम और यमुनाको तेजस्वी हो गये। अण्डमें स्थित रहते ही इन्हें यमुना एवं यम वहाँ छौंका वह तपस्या करने के लिये उत्तरकुक देशमें चली नामकी दो संतानें प्राप्त हुई। भगवान् सूर्यका तेज सहन न कर गया और वहाँ घोड़ीका रूप धारणकर तपस्यामें रत रहते हुए कनेके कारण उनकी स्त्री व्याकुल हो सोचने लगीं-इनके इधर-उधर अनेक वर्षोंतक घूमती रही।

सूर्यको पलीका दूसरा नाम संज्ञाहैं। अन्य पुराणों में संज्ञाको विश्वकर्माको पुत्रों कहा गया है।

ब्रह्मपर्व ]

सप्तमीकल्पमें भगवान् मुर्घके रिवारको निपग

भगवान् सूर्यको छायाको ही अपनी पत्नीं समझा। कुछ कहा-‘आपके अति प्रचण्ड तेजसे व्याकुल होकर आपकी समय बाद आया नैर और तपती नामक दो संताने भाग्य उत्तरकुल देशमें चली गयी है। अब आप विश्वकर्माले त्पन्न हुई। छाया अपनी संतानपर यमुना तथा यमसे अधिक अपना रूप प्रशस्त करवा लें।’ यह कहकर उन्होंने स्नेह करती थी। एक दिन यमुना और तपतीमें विवाद हो विश्वकर्माको बुलाकर उनसे कहा-‘विश्वकर्मन् ! आप इनका गया। पारस्परिक शापसे दोनों नदी हो गयौं। एक बार छायाने सुन्दर रूप प्रकाशित कर दें। तब सूर्यको सम्मत पाकर यमुनाके भाई यमको ताड़ित किया। इसपर अमने क्रुद्ध होकन, विश्वकर्माने अपने ताण-कर्ममें सूर्यको खराना प्रारम्भ छावाको मारने के लिये पैर उठाया । इयाने क्रुद्ध होकर न किया। अङ्गक तराशनेके कारण सूर्यको अतिशय पीड़ा हो ३ दिया—’मृद्ध ! तुमने मेरे ऊपर चरण उठाया है, इसलिये रही थी और बार-बार मुच्छ आ जाती थीं। इसलिये तुम्याग्न प्राणियोंका प्राणहिंसक रूपी यह बीभत्स कर्म तबतक विश्वकर्माने सब अङ्ग तो ठीक कर लिये, पर अब पैंकी रहेगा, जबतक सूर्य और चन्द्र रहेंगे। यदि तुम मेरे शापसे अङ्गलियोंको छोड़ दिया तब सूर्य भगवान्ने कहा कलुषित अपने पैरों पृथ्वीपर रखोगे तो कृमिगण उसे या विश्वकर्मन् ! आपने तो अपना कार्य पूर्ण कर लिया, परंतु हम जायेंगे।’

पासे व्याकुल हो रहे हैं। इसका कोई उपाय बताइये। अम और छायाका इस प्रकार विवाद हो ही रहा था कि विश्वकर्माने कहा-‘भगवन् ! आप रक्तचन्दन और करवीरके उसी समय भगवान् सूर्य वहाँ आ पहुंचे। यमने अपने पिता पुष्पोंका सम्पूर्ण शरीर लेप कों, इससे तत्काल यह वेदना भगवान् सूर्यसे कहा-‘पिताजी ! यह हमारी माता कदापि शान्त हो जायगौं ।’ भगवान् सूर्यन विश्वकर्माकं कथनानुसार, नहीं हो सकतीं, यह कोई और स्त्री है। यह हमें नित्य क्रूर अपने सारे शरीरमें इनका लेप किया, जिसमें उनकी सारी भाषसे देखती है और हम सभी भाई-बहनोंमें समान दृष्टि तथा वेदना मिट गयीं। उसी दिनसे रक्तचन्दन और करवीरके पुष्प समान व्यवहार नहीं रखती। यह सुनकर भगवान् सूर्यन क्रुद्ध भगवान् सूर्यको अत्यन्त प्रिय हो गये और उनकी पृशामें प्रयुक्त होकर छायासे कहा-‘तुम्हें अह उचित नहीं है कि अपनी होने लगे । सूर्यभगवान्के शपके गदनेसे ज्ञों तेज़ निकला, संतानोंमें ही कसे प्रेम करो और दूसरेसे द्वेष । जितनी संतानें उस तैजसे दैत्योंके विनाश करनेवाले वज्रका निर्माण हुआ । हों सबको समान हौं समझना चाहिये। तुम नियम-दृष्टिसे क्यों भगवान् सूर्यने भी अपना उत्तम रूप प्राप्तकर प्रसन्न देखता हो ?” यह सुनकर आया तो कुछ न बोलों, पर यमने मनसे अपनी भार्याके दर्शनोंकी उत्कण्ठासे तत्काल उत्तर पुनः कहा–’पिताजी ! यह दुग में माता नहीं हैं, बल्कि कुरुकी और प्रस्थान किया। वहीं उन्होंने इंग्जा कि यह घड़का | मी माताकी छाया है। इसमें इसने मुझे शाप दिया है। यह रूप का सिरण कर ही त्रिचरण कर रही है। भगवान सूर्य भी अश्वका ककर यमने पूरा वृत्तान्त उन्हें बता दिया। इसपर भगवान् प धारण कर उससे मिले। सूर्यने कहा-‘बेटा ! तुम चित्ता न क । कृमिंगण मांस और पर-पुरुषकी आशंकासे उसने अपने दोनों नासापुटोंसें रुधिर लेकर भूककों चले जायेंगे, इससे तुम्हारा व गलेमा सूर्यके ज्ञको एक साथ बाहर फेंक दिया, जिससे अश्विनी नहीं, अच्छा हो जायगा और ब्रह्माजीकी आज्ञासे तुम कुमारोंकी उत्पत्ति हुई और यही देवताओंके वैद्म हुए। तेजके लोकपाल पदये भी प्राप्त करोगे। तुम्हारी बहन यमुनाको अन्तिम अंशसे रेवतकी उत्पत्ति हुई। तपतीं, शनि और जल गङ्गाजलके समान पवित्र हो जायगा और तपतीका जल सायर्ग-ये तीन संतानें छायासे और यमुना तथा यम संज्ञासे नर्मदाजालके तुल्य पवित्र माना जायगा । आजसे बह झाषा उत्पन्न हुए । सूर्यको अपनी भार्या उत्तरकुरुमें सप्तमी तिथिके सबके हमें अवस्थित होगी। दिन प्राप्त हुई, उन्हें दिव्य रूप सप्तम तिथिको हीं मिला तथा । ऐसी व्यवस्था और मर्यादा स्थिर कर भगवान् सूर्य दक्ष संतानें भी इसी तिथिको प्राप्त हुईअतः सप्तमी तिथि भगवान् प्रजापतिके पास गये और उन्हें अपने आगमनका का। बतातें सुने अतिशय प्रिय है। हुए सम्पूर्ण वृत्तान्त कह सुनाया। इसपर दक्ष प्रजापतिने जो व्यक्ति पञ्चमी तिथिको एक समय भोजनकर, षष्ठकों

* पुराणं रमं पुण्यं भविष्य सर्वसौख्यदम्

[ संक्षिप्त भविष्यपुराण उपवास करता है तथा सप्तमीको दिनमै उपचासकर भक्ष्य- पुष्प, अपराजित नामक धूप और पायसका नैवेद्य भन्योंके साथ विविध शाक-पदार्थों को भगवान् सूर्यके लिये सूर्यनारायणको समर्पत करना चाहिये। ब्राह्मणोंको भी अर्पण कर ब्राह्मको देता है तथा रात्रिमें मौन होकर भोजन पासको भोजन कराना चाहिये। दूसरे पारणमैं कुशाके जलसे करता हैं, वह अनेक प्रकारके सुखका भोग करता है तथा भगवान् सूर्यनारायणको स्नान कराकर स्वयं गोमयका प्राशन सर्वत्र विजय प्राप्त करता एवं अन्नको उत्तम विमानपर चढ़कर करना चाहिये और चैत चन्दन, सुगन्धित पुष्प, अगरुम धूप सूर्यंलाकमें कई मन्वन्तरितक निवास कर पृथ्वीपार पुत्र-पौत्रोंसे तथा गुड्के अपूप नैवेद्य अर्पण करना चाहिये और वर्षक समन्वित चक्रवर्ती राजा होता है तथा दीर्घकालपर्यंन्त समाप्त होनेपर तीसरा पारण करना चाहिये। गौर सर्षपका निष्कपटक राज्य करता हैं। उबटन लगन भगवान् सूर्गको मान करना चाहिये। इससे ना कुरुने इस सप्तमी-बतका बहुत कालतक अनुष्ठान सम्पूर्ण पाप नष्ट हो जाते हैं। फिर रक्तचन्दन, करवीरके पुष्प, किया और केवल शाकका ही भोजन किया। इससे उन्होंने कुछ गुग्गुलका धूप और अनेक भक्ष्य-भोज्यसहित दही-भात क्षेत्र नामक पुण्यक्षेत्र प्राप्त किया और इसका नाम रखा धर्मक्षेत्र । नैवेद्यमें आर्पण करना चाहिये तथा यहीं ब्राह्मणों को भी भोजन | सप्तमी, नवमी, घी, तृतीया और पञ्चमी ये तिथियाँ बहुत कराना चाहिये। भगवान् सूर्यनारायण के सम्मुख ब्राह्मणसे उत्तम हैं और स्त्री-पुरुषकों मनोवाञ्छित फल प्रदान करनेवालों पुराण-श्रवण करना चाहिये अथवा स्वयं बाँचना चाहिये। हैं। माघकी सममी, आश्विनको नयम, भाद्रपद षष्ठी, अनमें स्नाह्मणको भोजन कराकर पौराणिकको सम-आभूषण, वैशाखकों तृतीया और भाद्रपद मासकीं पञ्चमी–वे तिधियाँ दक्षिणा आदि देकर प्रसन्न करना चाहिये । पौराणिकके संतुष्ट इन महीनोंमें विशेष प्रशस्त मानी गयीं हैं। कर्तिक शुक्ला होनेपर भगवान् सूर्यनारायण प्रसन्न हो जाते हैं। रक्तचन्दन, सप्तमौसे इस व्रतको ग्रहण करना चाहिये । उत्तम शाकको सिद्ध करवीरके पुष्प, गुगुल्लका धूप, मोदक, पाससका नैवेद्य, घृत,

कर ब्राह्मणोक देना चाहिये और गुन्निमें स्वयं भी शक हौं ताम्रपत्र, पुराण-ग्रन्थ और पौराणिक—ये सब भगवान् | महण करना चाहिये । इस प्रकार चार मासत्तक मत कर मतका सूर्यको अत्यन्त प्रिय हैं। जन् ! अह् शाक-सप्तमी व्रत पहल पारण करना चाहिये। उस दिन पञ्चगव्यसे सूर्य भगवान् सूर्यको अति प्रिय हैं। इस मृतका करनेवाला पुरुष भगबान्कों स्नान कराना चाहिये और स्वयं भी पञ्चगव्या भाग्यशाली होता हैं। प्राशन करना चाहिये, अनन्तर केरका चन्दन, अगम्यके

अध्याय । श्रीकृष्ण-साम्य-संवाद तथा भगवान् सूर्यनारायणकी पूजन-विधि राजा शतानीकने कहा-ब्राह्मणश्रेष्ठ ! भगवान् सबका आम वग़न कनें । मेरा मन इस संसारमें अनेक सूर्यनारायणका माहात्म्य सुनते-सुनने मुझे तुम नहीं हो प्रकार आधि-व्याधियोंको देखकर अत्यन्त उदास हो रहा है, रही है, इसलिये मममी-कल्पका आपः पुनः कुर और मुझे क्षणमात्र भी ज़ौकी इच्छा नहीं होती, अतः आप कृपा विस्तारसे वर्णन करें।

ऐसा उपाय बतायें कि जितने दिन भी इस संसारमें रहा जाय, सुमनु मुनि बोले–राजन् ! इस विषयमें भगवान् ये आधि-व्याधियाँ पीडित न कर सकें और फिर इस संसारमें औकृष्ण और उनके पुत्र साम्बका जो परस्पर संवाद हुआ था, ज न हो अर्थात् मोक्ष प्राप्त हो जाय। उसका मैं वर्णन करता हूँ, उसे आप सुनें।

भगवान् श्रीकृष्णने कहा-यन्स ! देवताओं । एक समय साम्यने अपने पिता भगवान् श्रीकृष्ण प्रसादसे, उनके अनुग्रहसे तथा उनकी आराधना करनेसे यह पूछा-पिताजी ! मनुष्य संसारमें जन्म-ग्रहणकर कौन-सा सब कुछ प्राप्त हो सकता है। देवताओंकी आराधना ही परम् कर्म करें, जिससे उसे दुःख न हो और मनोवाञ्छित फलको उपाय हैं। देवता अनुमान और आगम-प्रमाणोंसे सिद्ध होते प्राप्त कर वह स्वर्ग प्राप्त करें तथा मुक्ति भी प्राप्त कर सके। इन हैं। विशिष्ट पुरुष विशिष्ट देवताक्ने आराधना करें तो यह पर्य ]

 

* सूर्यनारायणके नित्यार्चनका निभान

‘विशिष्ट फल प्राप्त कर सकता हैं। अपने-अपने व्यवहारमें प्रवृत्त होते हैं। इन्हींक अनमहमें यह साम्बने कहा-महाराज ! प्रथम तो देवताओके सारा संसार प्रयत्नशील दिखायी देता है। सूर्यभगवानके अस्तित्वमें ही रह हैं, कुछ लोग कहते हैं देवता हैं और उदयके सायं जगत्का उदय और उनके अस्त होनेके साथ कुछ कहते हैं कि देवता नहीं हैं, फिर विशिष्ट देवता किन्हें जगत् अस्त होता हैं । इनसे अधिक न कोई देवता हुआ और समझा जाप ? न होंगा। वेदादि शास्त्रों तथा इतिहास-पुराणादिमें इनका भगवान् श्रीकृष्ण बोले-बल्स ! आगमसे, अनुमानसे मारमा, अन्तरात्मा आदि शब्दोंसे प्रतिपादन किया गया है। और प्रत्यक्षसे देवताओंका होना सिद्ध होता है।

ये सर्वत्र व्याप्त हैं। इनके सम्पूर्ण गुणों और प्रभावका वर्णन साम्वनें कहा—यदि देवता अपक्ष सिद्ध में सकते हैं सौं वचोंमें भी नहीं किया जा सकता। इसलिये दिवान, तो फिर उनके साधनके लिये अनुमान और आगम-प्रमाणक गुणाक्न, सबके स्वामीं, सबके स्रष्टा और सबका संहार, कुछ भी अपेक्षा नहीं है। करनेवाले भी ये ही कहे गये हैं। वे स्वयं अव्यय हैं। कृष्ण बोले-वत्स ! सभी देवता प्रत्यक्ष नहीं जो पुरुष सूर्य-मण्डलकी रचनाकर प्रातः, मध्याह्न और होते । शास्त्र और अनुमानसे ही हजारों देवताओंका होना सिद्ध सायं उनकी पूजा कर उपस्थान करता है, वह परमगतिको प्राप्त

नता हैं। फिर, जो प्रत्यक्ष सूर्यनारायणका भक्तिपूर्वक पूजन साम्यने कहा—पिताजी ! जो देवता प्रत्यक्ष हैं और करता है, उसके लिये कौन-सा पदार्थ दुर्लभ हैं और जो अपनी विशिष्ट एवं अभीष्ट फलौंको देनेवाले हैं, पहले आप उहाँका अन्तरात्मामैं ही मण्डलम्ध भगवान् सूर्यको अपनी बुद्धिारा वर्णन करें। अनन्तर शास्त्र तथा अनुमानसे सिद्ध होनेवाले निश्चित कर लेता हैं तथा ऐसा समझकर वह इनका ध्यानपूर्वक देवताओं का वर्णन करें।

फूजन, हवन तथा आप करता है, वह सभ क्रममनाको प्राप्त श्रीकृष्णने कहा–प्रत्यक्ष देवता तो संसारके नेत्रस्वरूप करता हैं और अन्नामें इनके लोंकको प्राप्त होता हैं। इसलिये भगवान् सूर्यनारायण हीं हैं, इनसे बढ़कर दूसरा कोई देवता हैं पुत्र ] यदि तुम संसारमें सुख चाहते हो और भुक्ति तथा नीं हैं। सम्पूर्ण जगत् इन्हींसे उत्पन्न हुआ है और अनमें मुक्तिको इच्छा रखते हों तो विधिपूर्वक प्रत्यक्ष देवता भगवान् इन्होंमें विन भी हों आयगा।

सूर्यको तपपतासे आराधना करें। इससे तुम्हें आध्यात्मिक, सल्प आदि युगों और कालकी गणना इनसे सिद्ध होतो आधिदैविक तथा आधिभौतिक कोई भी इस्त्र नहीं होंगे। ज्ञों है। ग्रह, नक्षत्र, योग, करण, शि, आदित्य, वसु, रुड़, वायु, सूर्यभगवानुकीं शरणमें जाते हैं, उनको किसी प्रकारका भय नहीं

अग्नि, अश्विनीकुमार, इन्द्र, प्रज्ञापत, दिशाएँ, भूः. भुवः स्वः- होता और उन्हें इस क तथा परलॉकमें शाश्वत सुख प्राप्त ये सभी लॉक और पर्बत, नदी, समुद्र, नाग तथा सम्पूर्ण होता है । स्वयं मैंने भगवान सूर्य की बहन काक यथाविधि भूतमामकी उत्पत्तिकै एकमात्र हेतु भगवान् सूर्यनारायण ही हैं। आराधना की है, उन्हींकी कृपासे यह दिव्य ज्ञान मुझे प्राप्त हुआ यह सम्पूर्ण चराचर-जगत् इनकी में इन्चासे उत्पन्न हुआ है। हैं। इससे बड़क मनुष्योंक हितका और कोई उपाय नहीं हैं। इनमें ही इसे स्थित हैं और सभी इनकी ही इच्छासे

 

(अध्याय ]

औसूर्यनारायणके नित्यार्चनका विधान भगवान् श्रीकृष्णाने कच्च–साम्ब ! अब हम सिद्ध होती है और पुण्य भी प्राप्त होता हैं। प्रातःकाल उड़कर सूर्यनारायणके पूजनका विधान बताते हैं, जिसके कानसे शौच आदिसे निवृत्त हों नहँके तटपर जाकर आचमन करे तथा सम्पूर्ण पाप और विघ्र नष्ट हो जाते हैं तथा सभी मनोरधोये सूर्योदयके समय शुद्ध मृत्तिकाका शरीर पर लेपन कर स्नान

यक्ष यता सूर्यो गक्षुर्दियामरः तस्मादयधम्म काचिदेवता नाना शमन

मादिदं गजानं यं याम्यति मात्र

(बाय ४८ । ३-३८ ।

  • पुराणं रमं पुण्यं भविष्यं सर्वसौख्यदम् =

[ संक्षिप्त भविष्यपुराणाङ्क क्ने । पुनः आचमन कर शुद्ध वस्त्र धारण करें और समाक्षर अथवा रक्तचन्दनसे ताम्रपत्रमें घट्दल-कमल बनाकर उसके | मन्त्र ‘ॐ वखोल्काय स्वाहा’ मैं सूर्यभगवान अयं ६ मध्यमें सभी उपचारोंसे भगवान् सूर्यनारायणका पूजन करें। तथा हृदय मन्त्रका यान करें एवं सूर्य-मन्दिर जाकर ही दलोंमें घडङ्ग-पूजन कर उत्तर आदि दिशाओमें सोमद सूर्यको पूजा करें। सर्वप्रथम श्रद्धापूर्वक पूरक, रेचक और आठ ग्रहोंका अर्चन करे और अष्टदिक्पालों तथा उनके कुम्भक नामक प्राणाम झन वायवीं, आग्नेय, माहेन्द्रों और आयुधोंका भी तत्तद् दिशाओं में पूजन करें। नामके आदिमें वारुण धारणा करके भूतशुद्धिको तसे शरीरका शोषण, प्रणय लगाकर नामको चतुर्थी-विभक्तियुक्त करके अत्तमै नमः। दहन, स्तम्भन और प्राबन करके अपने शरीरको शुद्धि कर ले। कहे- जैसे ‘ॐ सोमाय नमः’ इत्यादि । इस प्रकार | अपने शुद्ध हृदयमें भगवान् सूर्य की भावना कर उन्हें प्रणाम नाममन्त्रोंसे सबका पूजन करें। अनत्तर व्योम-मुद्रा, विकने । स्थूल, सूक्ष्म शरीर तथा इन्द्रियोंको अपने-अपने स्थानोंमें मुद्दा, पद्म-मुद्रा, माश्चेत-मुद्रा और अरुल-मुद्रा दिखायें। ये उपन्यस्त करें। खः स्वाहा हृदयाय नमः, ॐ वं स्वाहा पाँच मुद्राएँ पूजा, जप, ध्यान, अर्थ्य आदिके अनत्तर, शिरसे स्वाहा, ॐ काय स्वाहा शिवायै वषट्, ॐ आय दिखाना चाहिये। स्याहा कक्चाय हुम्, ॐ स्वाँ स्वाहा नेत्रत्रयाय वौषट्, हाँ इस प्रकार एक वर्षतक भक्तिपूर्वक जुन्मयताके साथ _स्वाहा काय फट् ।’

भगवान् सूर्यनारायणका पूजन करने अभीष्ट मनोरथोकी प्राप्ति इन मन्त्रको अङ्गन्यास कर पूजन सामग्रीका मूल मन्त्रमें होती हैं और बादमें मुक्ति भी प्राप्त होती है। इस विधिसे पूजन | अभिमन्त्रित जलद्वारा प्रौक्षण करे। फिर सुगन्धित पुष्पादि करनेपर गैंग रोगसे मुक्त हो जाता हैं, धनहींन धन प्राप्त करता उपचारोंसे सूर्यभगवान्का पूजन करें। र्यनारायणकी जा हैं, राज्यभ्रष्टको शुन्य मिल आता है तथा पुजहोन पुत्र प्राप्त दिनके समय सूर्य-मूर्तिमें और रात्रिके समय अग्रिमें करनीं करता है। सूर्यनारायण पूजन करनेवाला पुरुष प्रज्ञा, मेधा चाहिये । प्रभातकारमें पूर्वाभिमुख, सायंकालमें पश्चिमाभिमुख तथा सभी सदियोंसे सम्पन्न होता हुआ चिरंजीवी होता है। तथा गृत्रि में उत्तराभिमुख होकर पूजन करनेका विधान हैं।’ इस विधि पूजन करने पर कन्याको उत्तम वरक, कुरूप सोकाय या इस साक्षर मल मनसे सूर्यमण्ड कपको उत्तम सौभाग्य तथा विद्याध सहियाको बानि होती कोच पदल-कमका ध्यान कर उसके माध्यमें सहन है। ऐसा सूर्यभगवान्ने स्वयं अपने मुखको कहा है। इस प्रकार किरणोंसे देदीप्यमान भगवान् सूर्यनारायण मूर्तिका ध्यान सूर्यभगवानका पूजन करनेसे धन, धान्य, संतान, पशु आदिकी करें। फिर रक्तचन्दन, करवर आदि रक्तपुष्प, धूप, दीप, नित्य भिवृद्ध होती है। मनुष्य निष्काम हो जाता है तथा अनेक प्रकारके नैवेद्य, वस्त्राभूषण आदि उपचासे पूजन करे । अन्तमें इसे सहूति प्राप्त होती हैं।

(अध्याय ४५)

भगवान् सूर्यके पूजन एवं व्रतोद्यापनका विधान, द्वादश आदित्यों के नाम और रथसप्तमी-व्रतकी महिमा । भगवान् श्रीकृष्याने कहा-साम्ब ! अब मैं सूर्य प्रातःकाल उठकर विधिपूर्वक स्नान सम्पन्न करके संध्या करे विशिष्ट अवसरॉपर होनेवाले व्रत-उत्सव एवं पुजनकी तथा पूर्वोक्त मन्त्र ‘ॐ सोंकाय स्वाहा’ का जप एवं निधियोंका वर्णन करता हैं, उन्हें सुनीं। किसी मासके सूर्यभगवानकी पूजा करें । अग्निकों सूर्यतापके रूपमें समझकर शुक्लपक्षकी सप्तमी, ग्रहण या संक्रान्तिके एक दिन-पूर्व एक कैदी बनाये और संक्षेपमें हुयन तथा तर्पण करे। गायत्री मन्त्रको बार हथियान्नका भोजन कर, सायंकालके समय भलीभाँति प्रोक्षणाकन पुग्न और उत्तराय़ कुशा बिजये । अनन्तार सभी । आचमन आदि करके अरुणदेवको प्रणाम करना चाहिये तथा पात्रों का शोधन कर दो कुशाओं प्रदेशमात्रको एक पवित्र । सभी इन्द्रियोंको संयतकर भगवान् सूर्यको ध्यान न राभिमें बनाये। उस पवित्र सो वस्तुओका प्रोक्षण करे, घाँको जमीनपर कुवाकी शव्यापर शयन करना चाहिये । दूसरे दिन अग्निपर रखकर पिघला ले, उत्तर और पात्रमें उसे रख दें, मापपर्छ

 

  • भगवान् सूर्यके पूजन एवं नयापनका विधान

अनर जलते हुए उन्मुकसे पर्याप्तिकरण करते हुए मृतका तीन प्रकार आशीर्वाद प्राप्त कर दोनों, अधों तथा अनाथको बार उतरवन । नुवा आदिका कुशॉक द्वारा परिमार्जन और यथाशक्त भोजन कराये तथा ब्राह्मणों को भोजन कराकर, सम्प्रोक्षण करके अग्निमें सूर्यदेवकी पूजा करे, और दाहिने दक्षिणा देकर व्रतकी समाप्ति की। हाथमें स्नुषा ग्रहणकर मूल मन्त्र हुवन करें। मनोयोगपूर्वक जो व्यक्ति इस समम-ब्रतको एक वर्यतक करता है, वह | मौन धारण कर सभी क्रियाएँ सम्पन्न करनी चाहिये। सौं योजन बे-चौड़े देशका धार्मिक राजा होता है और इस पुर्णाहुतिके पश्चात् तर्पण करे। अनन्तर ब्राह्मणोंको उत्तम भोजन ग्रताके फलसे सौ वर्षोंसे भी अधिक निष्कपटक राज्य करता कना चाहिये और यथाशक्ति उनको दक्षिणा भी देनी चाहिये। हैं । जो स्त्री इस व्रत करती हैं, वह राजपली होती हैं। निर्धन ऐसा करने से मनोवाञ्छित फलको प्राप्ति होती हैं। व्यक्ति इस व्रतको यथार्थाथ सम्पन्न कर बतास्मयों हुई विधि | माय मासकी सप्तमीको वरुण नामक सूर्यको पूजा करें। अनुसार तबका उथ ब्राह्मणों देता हैं तो यह अस्सी प्रोजन इसी प्रकार क्रमशः सगुनमें सूर्य, चैत्रमें वैशाख, वैशाखमें लंबा-चौड़ा राज्य प्राप्त करता है। इसी प्रकार आटेका अध धाता, ज्येष्ठमें इन्द्र, आषाढ़में रवि, आवमें नभ, भाद्रपद्में बनवाकर दान करनेवाला साल योञ्जन विस्तृत राज्य प्राप्त करता अम, आश्विनमें पर्जन्य, कार्तिक्में त्वष्टा, मार्गशीर्षमें मित्र तथा है तथा वह चिरायु, नौरोग और सुखी रहता है। इस व्रतको पौष मासमें विष्णुनामक सूर्यका अर्चन करे । इस विधिसे करनेसे पुरुष एक कल्पतक सूर्यमें निवास करने के पश्चात् बारह मासमें अलग-अलग नामोंसे भगवान् सूर्यको पूजा आजा होता है। यदि कोई व्यक्ति भगवान् सूर्यको मानसिक | करनी चाहिये । इस प्रकार श्रद्धा-भक्तिपूर्वक एक दिन पूजा आराधना भी करता है तो वह भी समस्त आधि-व्याधियोंसे | करनेसे वर्षपर्यत की गयी पूजाका फल प्राप्त हो जाता हैं। हित होकर सुखपूर्वक जीवन व्यतीत करता है। जिस प्रकार उपर्युक्त विधिसै एक वर्षनाक ब्रत कर रत्नज्ञटित सुवर्णका भगवान् सूर्यको कुरा स्पर्श नहीं कर पाता, उसी प्रकार | एक इव बनवायें और उसमें सात घोड़े बनवाये । इधके मध्यमें मानसिक पूजा करनेवाले साधकको किस प्रकारको आपत्तिय

सोनके कमलके ऊपर रोके आभूषणोंसे अलंकृत सूर्य- स्पर्श नहीं कर पाती। यदि किसन मन्त्रों द्वारा भक्तिपूर्वक नारायणी सोनेक मूर्ति कथापित करे । के आगे उनके विधि-विधानसे मत सम्पन्न कात हा भगवान् सूर्यनारायण | सावकों वैनायें । अनन्तर बारह ब्राह्मणोंमें बारह महीनौके भागधना की तो फिर उसके पिया क्या कहना ? इसलिये सूची भावना कर तेरहवें मुग्ण आचार्यको साक्षात् अपने कल्याणक लियं भगवान् सूर्यको पूजा आवश्य करनों सूर्यनारायण समझकर उनकी पूजा करें तथा उन्हें प्रथा, छत्र, शाहिये भूमि, गौं आदि समर्पित करे । इसी प्रकार के आभूषण, पुत्र ! सूर्यनारायणने इस विधि-विधानको स्वयं अपने | बम्ब, दक्षिणा और एक-एक घोड़ा इन बारह ब्राह्मणोंकों में मुखसे मुझसे कहा था। आजतक उमें गुप्त रखकर पहलै बार । तथा हाथ जोड़कर यह प्रार्थना करें-‘ब्राह्मण देवताओ ! इम मॅन तुमसे कहा है। मैंने इसी बलक प्रभाव हुज्ञा पुत्र और | सूर्यनातके उद्यापन करने के बाद यदि असमर्थतावश कभी पत्रको प्राप्त किया हैं, दैत्यों जीता है, देवताको वशमें

सूर्यवत न कर सके तो मुझे दोष न हो।’ प्राणिक साथ किया है, और इस में दो सूर्यभगवान् निवास करते हैं। | आचार्य भी ‘एवमग्नु’ ऐसा हक जमानको आशीर्वाद में नहीं तो इस चक्रमें इतना तेज कैसे होता ? ग्रहों मग्ण है कि | और कहे-‘सूर्यभगवान् तुमपर प्रसन्न हैं । जिस मनोरथों सूर्यनारायणको नित्य जप, ध्यान, पुजन आदि करनेसे मैं |पूर्तिकं लिये तुमने यह व्रत किया है और भगवान् सूर्यको पूजा अगत्या पून्य हैं। बस ! तुम भी मन, वाणी तथा कर्म से हैं, वह तुम्हारा मनोरथ सिद्ध है और भगवान् सूर्य उमें पर्यनारायण की आराधना कों। ऐसा करनेमें तुम्हें विविध सुख पूरा करे । अव व्रत न करनेपर भी तुमको दो नहीं होगा। इस प्राप्त होंगे। ज्ञों पुरुष भक्तिपूर्वक इस विधानको सुनाता है, यह – जुग वा भी नाम चैत्रादि यह महीनाम सपक में नाम मिल = ना, अर्गमा, मित्र, महण, इन्द्र, शिगवान्, पुमा, पर्जन्य, अ. भा. वा और विश। कपभेदक अनुर नामा भर है।

# पुराणं परमं पम्यं भघियं सर्वसोप्यम्

[ संक्षिप्त मधियपुरोगाभों पुत्र-पौत्र, आरोग्य एवं लक्ष्मीको प्राप्त करता है और आश्विन आदि चार मास में अगम्य-पुम, अपराजित धूप | मर्योंकको भी प्राप्त हो जाता हैं। और गुड्के पुए आदिका नैवेद्य तथा इसुरस भगवान् सूर्यको भगवान् कृष्याने कहा—साम्ब ! मात्र मासके समर्पित करना चाहिये । यथाशक्ति ब्राह्मण भोजन कराकर | शुक्ल पक्षको पञ्चमी तिथिको एभुक्त-व्रत और पल्लीको नक्तवात आत्मशुद्धिके लिये कुशाके जलसे स्नान करना चाहिये । उस करना चाहिये। सुन्नत ! कुछ लोग सामीमें उपवास चाहतें दिन कुशोदकका ही प्राशन करे । व्रतको समाप्तिमें माघ मासकीं हैं और कुछ विद्वान् षष्ठी/ उपवास और सप्तमी तिथिमें पारण शुक्ला सप्तमीको रथका दान करें और सूर्यभगवान्की प्रसन्नताकै कनेका विधान कहते हैं । इस प्रकार विविध मत हैं)। लिये रथयात्रोत्सवका आयोजन करे । महापण्यदायिनी इस वस्तुतः पप्ती उपवासकर भगवान् सूर्यनारायणकी पूजा करनी सप्तमीको रथसप्तमी कहा गया हैं। यह महासममीकै नामसे चाहिये । रक्तचन्दन, करवीर-पुण्य, गुग्गुल धूप, पायस आदि अभिहित हैं । रथसप्तमौकों जो उपवास करता है, वह कीर्ति, नद्यले मात्र आदि चार महीनोंतक सूर्यनारायणकी पूजा करनी धन, विद्या, पुत्र, आरोग्य, आयु और उत्तमोत्तम कान्ति प्राप्त चाहिये । आत्मशुद्धिके लिये गोमयमश्रित जलसे स्नान, करता हैं। हे पुत्र ! तुम भी इस व्रतको करों, जिससे तुम्हारे | गोमयको प्राशन और यथाशक्ति ब्राह्मण-भोजन भी माना सभी अभट्ठोंको सिद्ध हो । इलुना कहकर शह, चक्र, चाहिये ।।

 

गदायधारीं श्रीकृष्णा अन्तर्रत हो गये। ज्येष्ठ आदि चार महीनोमैं चैत चन्दन, श्वे पुष्य, कृष्ण सुमनुने कहाराजन् ! उनकी आज्ञा पाकर साम्यने भौं | अगरु धूप और उत्तम नैवेद्य सूर्यनारायणको अर्पण करना भक्तिपूर्वक सूर्यनारायणकी आराधनामें तत्पर हों इधसम्मक

चाहिये

इसमें पञ्चगव्यप्राशन कर झाह्मणों को कष्ट भोजन व्रत किया और कुछ ही समयमै रोगमुक्त होकर मनोवाञित काना चाहिये। फल प्राप्त कर लिया सूर्यदेवके रथ एवं उसके साथ भ्रमण करने वाले देवता-नाग आदिका वर्णन ।

राजा शतानीकने पूछामुने !

सूर्यनारायणकी हैं, आप मानन्द सुनें ।।

श्ययात्रा किस विधानसे करना चाहिये।

रथ कैसा बनाना एक चक्र, तीन नाभि, पाँच अरे तथा स्वर्णमय अति चाहिये। इस रथयात्राका प्रचलन मत्यलोक किसके द्वारा कात्तिमान् आठ बन्धसे युक्त एवं एक नमसे मनुसज्जित हुआ? इन सब बातों को आप कृपाकर मुझे अतरायें। इस प्रकारके दस हजार योजन -चौड़े अतिशय प्रकाशमान

मुमनु मुन बोले-राजन् ! किसी समय सुमेरु स्वर्ण-पथमैं विराजमान भगवान् सूर्य विचरण करते रहते हैं। पर्वतपर समान भगवान् रुदने ब्रह्माजीसे पुछ–’ब्रह्मन् ! थके उपस्थ ईपा-टाटु तीन-गुना अधिक है। यहीं उनके इस लोको प्रकाशित करनेवाले भगवान् सूर्य किम कारके साथ अरुण बैठते हैं। इनके उथका जुआ सोने का अना हुआ प्रथमें बैंकर भ्रमण करते हैं, इसे आप अता ।’ हैं। प्रथमें बायके समान वेगवान् इन्टरुपीं सारा घोई जुत्ते हुने ब्रह्माजींने कहा–त्रिलोचन ! सूर्यनारायण जिस हैं। संघसमें जितने अवयव होते हैं, ये हीं थके अङ्ग हैं। प्रारक इथ बैंकर भ्रमण करते हैं, उसका मैं वर्णन करता तीन काल चक्रकी तीन नाभियां हैं। पाँच ऋतु अरे हैं, ॐ

! – मि दिन यः दिनका अधळ अश — सायं चार बफ गभग भाजन झन पुगे गत आवमा कर या माशा है, उसे 1:भुत कहा जाता है भरि भिर पाकर गां भोजन ‘नान हन्मना है।

– धमक बिपयम नरमान, सनम, मतप्राप्त आंद नमक पद्माण एवं वायुग, माघ-माह्म-धमें यह तारस व्रत-विधान निरूपा हुआ है और कुछ शान भी इस दिन भगवान् के भन्न चाकर भाको अधम यात्रा काने व किया गया है। आप रामनामा दिन भगवान का, जाप दिन भगवान श्रीकृष्णम्म माफटा मानन जुनाव किया जाना : म | समीक दिन भगवान सूर्य का प्राकट्य मान्न जनक कि भना , मात्र या अन् मगन की जानी है। झापर्व ]

+ सूर्यदेवकै उच्च एवं उसके साथ भ्रमण करनेवाले देवतानाग आदिका वर्ण +

 

ऋतु नम हैं । दक्षिण और उत्तर—ये दो अयन रथके दोनों दो आदित्य, कश्यप और तु नामक दो ऋषि, महापद्म और | भाग है। मर्न उथ इषु, कम, इम्य, काष्ठा उथके कोण, कर्कोटक नामक दो नाग, चित्राङ्गद और अरगानु नामक हो क्षण अक्षदा, निमेष श्धके का, ईंषा-दा; लवा, रात्र वरूथ, गन्धर्व, सहा तथा सहस्या नामक दो अप्सरा, ना तथा धर्म उधका वज़, अर्थ और काम पुरीका आग्रभाग, गायत्री, अरिष्टनेमि नामक यक्ष, आप तथा वात नामक दो राक्षस प्रिष्ट्रप, अगती, अनुष्ट्रप, पंक्ति, गृहती तथा अण्ण- ये सात सूर्यपथके साथ चा करते हैं।

छन्द सात अध हैं। धुरीपर चक्र भूमता हैं। इस प्रकारके उध माघ–फागुनमें क्रमशः पूषा तथा जिष्णु नामक दों बैठकर भगवान् सुर्य निरन्तर आकाशमें भ्रमण करते रहते है। आदित्य, जमदग्नि और विश्वामित्र नामक में ऋषि, काइवेय | देव, ऋषि, गन्धर्व अप्सरा, नाग, ग्रामणी और राक्षस और कम्बलवान ये दो नाग, धृतराष्ट्र तथा सुर्यवर्चा नामक सूर्यकै रथके साथ घूमते रहते हैं और दो-दो मासके बाद इनमें दो गन्धर्व, तिलोत्तमा और भा में दो अपरा तथा नजित् रिवर्तेन हो जाता है।

और सत्यजिन नामक दो यक्ष, ज्ञाह्मगत तथा प्रशासन नाम। धाता और अर्यमा–ये दों आदित्य, पुलस्त्य तथा पुलह दो राक्षस सूर्यग्यके साथ चला करते हैं। | नामक दो ऋषि, सण्डक, वासुकि नामक दो नाग, तुम्वरु और ब्रह्माजीनें कहा–रुदेव ! सभी देवताओंने अपने ।

नारद ये दो गन्धर्व, ऋतुधला तथा पुञ्जिका ये असराएँ अंशरूपसे विवि अरु-शासकों भगवान सूर्यकी रक्षा उधकृस तथा यौजा में दो पक्ष, ति तथा प्रति नामक दो जिसे उन्हें दिया है। इस प्रकार सभी देवता उनके पथके ग्राम में क्रमशः चैत्र और वैशाख मासमें रशके साथ चला साथ-साथ भ्रमण करते रहते हैं। ऐसा कोई भी देवता नहीं हैं।

जो उथके पीछे न चले। इस इमदेवमय सूर्यनारायणके मित्र तथा वरुण नामक दो आदित्य, त्र तथा वसिष्ठ मण्डलकों ब्रह्मवेत्ता ब्रह्मस्वरूप, आशिक अज्ञस्वरूप, भगवद्भक्त ये दों ऋषि, तक्षक और अनन्त दो नाग, मॅनका तथा सहान्या विष्णुस्वरूप तथा व शिवस्वरूप मानते हैं। ये थानाभिमानी ये दो अप्सराएँ, हाहा-हू दो गन्धर्व, इधस्वान् और रचित्र देवगण अपने तेजसे भगवान् सूर्यको आध्यापित करते रहो ये दो पक्ष, पौरुषेय और यध नामक दो इस क्रमशः ज्येष्ठ हैं। देवता और ऋषि निरन्तर भगवान् सूर्यको स्तुति करते रहें । तथा आषाढ़ मास सुर्यरथम साथ चला करते हैं। हैं, गन्धर्व-गण गान करते रहते हैं तथा अप्सरा रथ आगे ।

शाण तथा भाद्रपदमें इन्द्र तथा बिस्लान नामक दो नृत्य करती हैं जो इहती है। राक्षस के पौळे पी | आदित्य, अहि नया भग नामक दो अन, परी नया हैं। साल हजार बालविल्य ऋणि धका चार

शङ्पाल में दो नाग, अम्लोचा और इंदका नामक दो अप्सराएँ, घेरकर चलते हैं। विस्पति और स्वय धके आगे, भर्ग भानु और दुर्दर नामक गन्धर्व, सर्प तथा ब्राह्म नामक दो दाहिनी ओर, पद्मज आ ओर, कुबेर दक्षिण दिशामें, वरुण | गृक्षस, ब्रोत तथा आपूरण नामक दो यक्ष सूर्यरथके साथ उत्तर दिशामें, वतहोत्र और हरि, रथके पीछे रहते हैं। रथ के चलते इलें हैं।

पौटमें पृथ्वी, मध्यमें आकाश, रथको कात्तिमें स्वर्ग, बाम आश्विन और कार्तिक मासमें पर्जन्य और पृषा नामक दो दण्ड, विज्ञापने धर्म, पताकामें ऋद्धि-वृद्ध और स्त्री निवास आदित्य, भारद्वाज और गौतम नामक दो ऋषि, विज्ञसेना तथा करती हैं। अदरक ऊपरी भागमें गरुड़ तथा उसके ऊपर यसुरुचि नामक दो गन्धर्व, विश्वाची तथा मृताची नामकी दो वरुण स्थित हैं। मैनाक पत्रंत छत्रका दण्ड, हिमाचल प्रश्न अप्सराएँ, ऐरावत और धनञ्जय नामक ] नाग और सेनजित् होकर सूर्यके साथ रहते है। इन देवताओंका बल, तप, तेज, तथा सुषेण नामक दो पक्ष, आप एवं वात नामक दो राक्षस योग और तत्व जैसा है वैसे ही सूर्यदेव तपते हैं। ये ही देवगा सूर्यपथके साथ चा करते हैं।

नपते हैं, बरसते हैं, मुष्टिका पालन-पोषण करते हैं, जोयाके मार्गशीर्ष तथा पौष गासमें अंशु तथा भग नामक अशुभ कर्मों निवृत्त करते हैं, प्रज्ञाको आनन्द देते हैं और | १- ये नाम विष्णु आदि अन्य पुराणों में कुछ भेदमें मिलते हैं।  

= पुराणं परमं पुण्यं भविष्यं सर्वमीस्पदम्

[ संक्षिप्त पबियपुग सभी प्राणियों के लिये भगवान् सूर्यके साथ भ्रमण जब मध्याद्ध होता है, उस समय बिभामें उदय, अमरावती करते रहते हैं। अपनी किरणोंमें चन्द्रमाकी द्धि कर सूर्य आधी रात और संयमनीमें सूर्यास्त होता है । विभा नगरौमें जब भगवान् देवताओंका पोषण करते हैं। शुक्ल पक्षमें सूर्य- मध्याह्न होता है, तब अमरावतीने सुर्योदय, संयमनमें आधी किरणोंसे चन्द्रमाको क्रमशः वृद्धि होती है और कृष्ण पक्षमें ग़त और सुखा नामकी वरुणको नगरीमें सूर्यास्त होता है । इस देवगण उसका पान करते हैं। अपनी किरणोंसे पृथ्वीका प्रकार मेरु पर्वतकों प्रदक्षिणा करते हुए भगवान् सूर्यका उदय रस-पान कर सूर्यनारायण वृष्टि करते हैं। इस वृष्टिसे सभी और अस्त होता है। प्रभातसे मध्याह्नक सूर्य-किरणकी वृद्धि ओषधयाँ उत्पन्न होती हैं तथा अनेक प्रकारके अन्न भी उत्पन्न और मध्याह्नसे अस्तक वास होता हैं । जहाँ सूर्योदय होता है। होते हैं, जिससे पितरों और मनुष्योंकी तृप्ति होती हैं। यह पूर्व दिशा और जहाँ अस्त होता है वह पश्चिम दिशा हैं।

एक चक्रवाले प्रथमें भगवान् सूर्यनारायण बैठकर एक एक माहूर्तमें भूमिका तीसवाँ भाग सूर्य लाँघ जाते हैं। सूर्य अहोरात्र में सात द्वीप और समुद्रोंसे युक्त पृथ्वीके चारों और भगवान्के उदय होते ही प्रतिदिन इन्द्र पूजा करते हैं, मध्याह्नमें भ्रमण करते हैं। एक वर्षमै ३६ॐ बार भ्रमण करते हैं। इन्द्रकी यमराज, अस्तके समय वरूण और अर्धरात्रिमें सोम पूजन पुरी अमरावतमें जब मध्याह्न होता है, तब उस समय यमकी करते हैं। संयमन पुगैमें सूर्योदय, वरुणक सुखा नामकी नगरीमें विष्णु, शिव, रुद्र, ब्रह्मा, अग्नि, वायु, निति, ईशान अर्धरात्रि और सौमको विभा नामक नगरोंमें सूर्यास्त होता हैं। आदि सभी देवगण क्रिकी समाप्तिपर ब्राह्मवेलामें कल्याणकै संयमनीमें जब मध्याह्न होता है, तब सुखामै उदय, लिये सदा भगवान् सूर्य की आराधना करते रहते हैं।

अमरावतीमें अर्धरात्रि तथा विभामें सूर्यास्त होता है । सुखामें

(अध्यय ५३५३)

भगवान् सूर्यकी महिमा, विभिन्न ऋतुओंमें उनके अलग-अलग वर्ण तथा उनके फल भगवान् रुद्रनें कहा-ब्रह्मन् ! आपने भगवान् न होनेसे जगत्का कोई व्यवहार भी नहीं चल सकता। सूर्यनारायणके माहात्म्यका वर्णन किया, जिसके सुननेसे हमें ऋतुनुका विभाग न हो तो फिर फल-फूल, शेती, ओषधियाँ | बहुत आनन्द मिला, कृपाकर आप उनके माहारा और आदि कैसे उत्पन्न हो सकती हैं और इनकी उत्पनिके बिना अर्शन करें ।

प्राणियका जीवन भी कैसे हु. सकता है। इससे यह स्पष्ट हैं | मानी बोलेहै रुद्र ! इस सचराचर शैलपके मूल कि इस (चराचरात्मक) विश्वकै मलभूत कारण भगवान् सूर्य | भगवान् सूर्यनाराअग ही हैं। देवता, असुर, मानव आदि सभी नारायण ही हैं। सूर्यभगवान् वसन्त ऋतु कपल वर्ण, ग्रीष्म | इन्हींसे उत्पन्न हैं। इन्द्र, चन्द्र, रुद्र, ब्रह्मा, विष्णु तथा शिव तप्त सुर्णके समान, बर्षामें अंत, शरद् ऋतु पाण्डुवर्ण,

आदि जितने भी देवता हैं, सबमें इनका तेज़ व्याप्त है। हेमन्त ताम्रवर्ग और शिशिर ऋतुमें रक्तबके होते हैं। इन। | अग्निमें विधिपूर्वक दी हुई आत सूर्यं भगवान्को हो प्राप्त होतो यणका अलग-अलग फल हैं । रुद्र ! उसे आप सुने हैं। भगवान् सूर्यसे ही वृष्टि होती है, वृष्टि अन्नादि उत्पन्न होने यदि सूर्यभगवान् (आसमयमें) कृष्णक हो तो हैं और यहीं अन्न प्राणियोंका जीवन हैं। इन्होंने जगतको संसार भय होता हैं, ताम्रयर्गक हों तो सेनापतिका नाश होता । उत्पत्ति होती है और अनमें इन्हींनी सारी सृष्टि विलीन हो जाती हैं, पौतवर्णक हों तो राजकुमारको मृत्यु, श्वेत वर्णके हों तो

हैं। ध्यान करनेवाले इन्हीं ध्यान करते हैं तथा ये मोक्षकों राजपुरोहितका स और चित्र अथवा धूम्रवर्णक होनेसे चौर | इन्छा रखनेवालोंके लिये मोक्षस्वरूप हैं। यदि सूर्गभगवान् न और इसका भय होता है, परंतु ऐसा वर्ण होनेवे अनन्तर यदि | हों तो क्षण, मुहूर्त, दिन, रात्रि, पक्ष, मास, ऋतु, अयन, वर्ष वृष्टि हो जाती हैं तो अनिष्ट फल नहीं होते*।। तथा युग आदि काल विभाग में ही नहीं और काल-विभाग

 

(अध्याय ५४)

* इस विषयका हद वनबमहिलाभोपों का में है। विशेष जानकारीक निं हें दुा जा सकता है।

पर्न ]

  • भगवान् सूर्यका अभिषे एवं उनकी रथयात्रा

 

भगवान् सूर्यका अभिषेक एवं उनकी रथयात्रा | कवने पूछा-ब्रह्मन् ! भगवान् सूर्य रथयात्रा कब सिन्धु, चन्द्रभागा, नर्मदा, विपाशा (व्यासनदी), तापी, शिवा, | और क्रिस विधिसे की जाती है? रथ यात्रा करनेवाले, रथको वेत्रवती (वैतया), गोदावरी, पयोष्णी (मन्दाकिनी), कृष्णा,

चनेवाले, रथको वहन करनेवाले, रथके साथ जानेवाले बेण्या, शतद् (सतलज), पुष्करिणी, कौशिकी (कोसो) तथा और बुथके आगे नत्य-गान करनेवाले एवं नि-जागरण मरय आदि सभी तीथ, नदियों और सर को मार करना करनेवाले पुरुषोंकों क्या फल प्राप्त होता हैं ? इसे आप चाहिये । दिव्य आश्रमों और देवस्थानका भी स्मरण लोककल्याणके लिये विस्तारपूर्वक बताइये करना चाहिये । इस प्रकार स्नान कराकर तीन दिन, सात दिन, ब्रह्माजी बोले-हे ऋद्ध ! आपने बहुत उत्तम प्रश्नं एक पक्ष अथवा मासभर उस अभिषेकके स्थानमें में किया है। अब मैं इसका वर्णन करता हैं, आप इसे एकाग्न- भगवान्का अधिवास करें और प्रतिदिन भक्तिपूर्वक इनकी | मनसे सुने पूरा करता है । भगवान् सूर्यकी रथयात्रा और इन्द्रोत्सव–ये दोनों माम मासके कण पक्षकों सप्तमीको मङ्गल कलश तथा | जगत्के कल्याणके लिये मैंने प्रवर्तत किये हैं। जिस देशमें ये ब्रितान आदिसे सुशोभित चौकोर एवं पार्क इंटोंसे बनी वेदीपर दोन महोत्सव आयोजित किये जाते हैं, वहाँ दुर्भिक्ष आदि सूर्यनारायणको भलभाँत स्थापित कर हवन, ब्राह्मण-भोजन, उपद्रव नहीं होते और न चोरों आदिका कोई भय ही रहता है। वेद-पाछ और विभिन्न प्रकारके नृत्य, गीत, वाद्य आदि इसलिये दुर्भिक्ष, अकाल आदि उपयोंमें शान्तिके लिये इन उसको करना चाहिये। अनन्तर माघ शुक्ला चतुर्थीको

सवो मनाना चाहिये । मार्गशीर्ष शुक्ल पक्ष की सप्तमी अयाचित व्रत कने, पञ्चमीको एक बार भोजन करें, षष्ठी अतके द्वारा भगवान् सूर्य को श्रद्धापूर्वक स्नान कना चाहिये। ग़जिके समय ही भोजन करें और समर्मीको उपवास कम हुन, ऐसा करनेवाला पुरुष सॉनके विमानमें बैंकर अग्निकको व्राह्मण-भोजन आदि सम्पन्न ने। सबको दक्षिणा देकर ज्ञाता है और वह दिव्य भोग प्राप्त करता हैं। जो व्यक्ति पौराणिक भलीभाँति पूजा करें। तदनन्तर झटत सुवर्णके शर्कराके साध शाल-चावलका भात, मिष्टान्न और चित्रवर्ग थमें भगवान् सूर्यको विराजित करें। उस रथको उस दिन भातको भगवान् सूर्यको अर्पित करता है, वह अह्मलोकको मन्दिरके आगे ही खड़ा करे । रात्रि जागरण करे और प्राप्त होता हैं। जो प्रतिदिन भगवान् सूर्यको भक्तिपूर्वक घृतका नृत्य-गीत चलता रहे। माघ शुक्ला अष्टमीको रथयात्रा करनी उबटन लगाता है, यह परम गतिक आम करता है। चाहिये। उधक आगे विविध आ जते रहे, नृत्य-गीत और पौष शुक सप्तमीकों तथौक ज्ञल अधवा पवित्र जलसे मङ्गल बेंदध्वनि होती रहे । रथयात्रा प्रथम नगरके उत्तर दिशाको वेदमन्के द्वारा भगवान् सूर्यको स्नान कराना चाहिये। सूर्य प्रारम्भ करनी चाहिये, पुनः क्रमशः पूर्व, दक्षिण और पश्चिम भगवानके अभिषेकके समय प्रयाग, पुष्कर, कुरुक्षेत्र, नैमिष, दिशाओंमें भ्रमण कराना चाहिये । इस प्रकार धयात्रा करने पृथूदक (पेहवा), शीण, गोकर्ण, ब्रह्मावतं, कुशावर्त, राज्यके सभी उपद्रव शान्त हो जाते हैं। राज्ञाको युद्धमें बिल्क, नीलपर्वत, गङ्गाद्वार, गङ्गासागर, कालप्रिय, मित्रवन, विजय मिलती है तथा उस राज्यमें सभी प्रशाएँ और पशुगण भाण्डीरवन, चक्रतीर्थ, रामतीर्थ, गङ्गा, यमुना, सरस्वती, नोरोग एवं सुखी हो जाते हैं। रथयात्रा करनेवाले, उथकों

गजेंद्धि तीर्थनामानि मना सम्मन् माघः

प्रयाग में यं कुरक्षेत्र में नमाम्

मधुकं पन्द्रभाग दो कमर

मसाले कुशावर्त चिन्तकं गोलपनम् ।।

गङ्गाहार तथा पुण्यं गङ्गासागरमेव काम गर्न लामि था

चन्ना तथा पुण्यं गती वा शिवम् सितम्ना पंजया जापा दमि मा

ङ्गा मरमान सिञ्चन्द्रभागा मर्म विपाशा यमुनाः नापी शिवा बेपत जाधा ।।

गोदावरी नग में झगा वैग्या ना नदी। इतम्। बरि कवि मयुमाधा धान्ये माग मानिध्य अल्पजन्तु तथा श्रमाः मुम्पामा दिल्यान्यननन

नामपदं , 1 ३४३।

* पुराणं परमं पुण्यं भविष्यं सर्वमौस्पदम् =

[ संक्षिप्त भविष्यपुराणाङ्क वहन करनेवाले और रथके साथ जानेवाले सूर्यंलोकमें निवास अधम किसी भी व्यक्तिको विमुख नहीं होने देना चाहिये। करते हैं। थियात्रा-स्वरूप इस सूर्यमहायागमें भुखमें पति, बिना रुडने कहा-हैं ब्रह्मन् ! मन्दिरमें प्रतिष्ठित प्रतिमाओं भोजन किये यदि कोई व्यक्ति भग्न आशावाल्या होकर लौट किस प्रकार उठाना चाहिये और किस प्रकार थमें विराजमान जाता हैं तो इस दुष्कृसमें उसके स्वर्गस्थ पितरोंका अध:पतन करना चाहिये । इस विषयमें मुझे कुछ संदेह हो रहा है, क्योंकि हो जाता है। अतः सूर्य भगवान्के इस गझमें भोजन और वह प्रतिमा तों स्थिर अर्थात् अचल प्रतिष्ठित हैं। अतः उसे दक्षिणासे सबको संतुष्ट करना चाहिये, क्योंकि विना दक्षिणा कैसे चलाया जा सकता हैं ? कृपाकर आप मेरे इस संशयकों यज्ञ प्रशस्त नहीं होता तथा निम्नलिखित मन्त्रोंसे देवताओको दूर करें। उनका प्रिय पदार्थ समर्पित करना चाहिये झाम्राज्ञी यांना संवत्सरके अयाययोंकि पर्ने जिस व्यछि त में इँवा आदिल्या वसवस्तया ।। उथका पूर्वमें मैंने वर्णन किया है, वह अथ सभी इथॉमें पहला मनोवाश्विनौ रुद्राः सुपर्णा पवागा महाः । प्रय हैं, उसको देखकर ही विश्वकर्मान सभी देवताओंके लिये असुण आनुमानाचे स्धा आम्नु देवताः ।। अलग-अलग विविध प्रकारके उप बनाये हैं। उस प्रथम दिक्पाला लोकपालाश्च में च विद्मविनायकाः । थकी पुजाके लिये भगवान् सूर्यने अपने पुत्र मनुको वह रथ जगतः स्वस्ति कुर्वन्तु ये छ दिव्या महर्षयः ।। प्रदान किया। मनुने राजा इक्ष्वाकुको दिया और तबसे यह मा विनं मा च में पाप मा च में परिपन्थिनः । रथयात्रा पूजित हो गयी और परम्परा चली आ रही है। सौम्या भवन्तु माश्च देवा भूतगणास्तथा ।। इसलिये सूर्यकी रथयात्राका उत्सव मनाना चाहिये । भगवान् ।

झापर्व 44 ॥ ६८–१]

सूर्य तो सदा आकाशामें भ्रमण करते रहते हैं, इर्मायें उनकीं इन मन्त्रोंसे मुलि देकर “बामदेवा’, ‘पवित्र’ प्रतिमाको चलाने में कोई भी दोष नहीं हैं। भगवान् सूर्यकै ‘मानस्तोंक’ तथा ‘रयताः’ इन ऋचाओंका पाठ करें। भ्रमण करते हुए उनका रथ एवं मण्डल दिखायी नहीं पड़ता, अनन्तर पुण्याहवाचन और अनेक प्रकारके मङ्गल वाद्यकी इसलिये मनुष्योंने रथयात्राके द्वारा हीं उनके रथा एवं माडलका वन का सुन्दर एवं समतल मार्ग पर इधये चलायें, जिससे दर्शन किया है। ब्रह्मा, विष्णु, शिव आदि देवको प्रतिमाके कहींपर धक्का न लगे । मोडक अभावामें अॐ वैसे उथ स्थापित हो जानेके बाद उनको उठाना नहीं चाहिये, किंतु सूर्य- लगाना चाहिये या पुरुषगण ही रथकों नें । तीस या सोलह नारायण रथयात्रा प्रज्ञा की शान्तिकें लिये प्रतिवर्ष कानीं ब्राह्मण ज्ञों द्ध आचावाले हों तथा झनों हों, वें तमको चाहिये। सोने-चांदी अथवा उत्तम काका तय मणीय मन्दिर जनाकर अड़ी सावधानीसे में स्थापित करें । सूर्य और बहुत सुद्ध थप निर्माण करना चाहिये । उसके बीचमें अतिमाके दोनों ओर सुर्यदयकीं राज्ञी (संज्ञा) एवं निक्षुभा भगवान् सूर्यकी प्रतिमा स्थापित कर उत्तम लक्षणोंमें युक्त (छाया) नामक दोनों पत्नियोंकों स्थापित करें। निक्षुभाको अतिशय सुशील हरित वाक घोटको धमें नियोजित का दाहिनी ओर तथा राज्ञीको बायीं और रथापित करना चाहिये। चाहिये। उन घोड़ॉक केशरको आँगक अनेक आभूषणों, सदाचारी वेदपाठीं दो ब्राह्मण प्रतिमाओं पकी ओर बैं पुष्पमालाओं और चैयर आदिसे अलंकृत करना चाहिये। और उन्हें मैंभालकर स्थिर रखें। सारथी भी कुशल रहना उधके लिये अर्थ्य प्रदान करना चाहिये । इस प्रकार उधको चाहिये। सुवर्णदण्डसे अलंकृत छत्र उथके ऊपर लगायें, तैयार कर सभी देवताओं की पूजा कर ब्राह्मण-भोजन कराना अतिशय सुन्दर से ज़टन सुवर्णदण्डसे युक्त ध्वजा इथपर चाहिये । दक्षिणा देकर दौन, अंध, अपेक्षितों तथा अनाथकों चलायें, जिसमें अनेक अंगको सातु पताका लगा हौं । थके भोजन आदिसे संतुष्ट करना चाहिये। उत्तम, मध्यम अथवा आगेकै भागमें सारथिके रूपमें ब्राह्मणको बैठना चाहिये।

मूर्यनौ तु वतन एवमानांपिगः यूनियन भाः धावातप्यतः

अतः पितरून म्वन्थिाप पातयेत् ब्रह्मर्ष ५५

 

[ संक्षिप्त भविष्यपुराणा विवाह-संस्कारके ऊपक्रममें वियोंके शुभ और अशुभ लक्षणोंका वर्णन

तथा आचरणकी श्रेष्ठता। सुमन्तु मुनि बोले-राजन् ! गुरुके आश्रममें ब्रह्मचर्य- है। जिस स्त्रीके हाथ फटे हुए, रूखे और विषम अर्थात् व्रतका पालन करते हुए स्नातकको वेदाध्ययन कर गृहस्थाश्रममें ऊंचे-नीचे एवं ग्रेटे-बड़े हों वह कष्ट भोगती हैं। जिस स्त्रीकी प्रवेश करना चाहिये। घर आनेपर उस ब्रह्मचारीको पहले अँगुलियोंके पर्वोमं समान रेखा हो अथवा यव चिह्न होता है, पुष्प-माला पहनाकर, शयापर बिठाकर उसका मधुपर्क- उसे अपार सुख तथा अक्षय धन-धान्य प्राप्त होता है। जिस विधिसे पूजन करना चाहिये । तब गुरुसे आज्ञा प्राप्तकर उसे शुभ स्वीका मणिबन्ध सुस्पष्ट तीन रेखाऑसे सुशोभित होता है, वह लक्षणसे युक्त सनातय कन्या विवाह करना चाहिये। चिरकालतुक अक्षय भोग और दौर्य आयकों प्राप्त करती है।

राजा शतानीकने पूछा-हे मुनीश्वर ! आप प्रथम जिस लकी ग्रीवामें चार के परिमाप स्पष्ट तीन सिके लक्षणोंका वर्णन करें और यह भी बतायें कि किन खाएँ । तो वह सदा के आभूषण धारण करनेवाली होती लक्षणसे युक्त कन्या शुभ होती हैं। दुर्बल मवावा लीं निर्धन, दीर्घ मवावालीं बंधकी, सुमन्तु मुनि बोले-राजन् ! पूर्वकालमें ऋषियोंके इस्वप्नवाया मृतवत्सा होती है और स्थूल ग्रयावालों पृनैपर ब्रह्माजींनी स्त्रियों को उत्तम लक्षण कहें हैं, उन्हें मैं दुःख-संताप प्राप्त करती है। जिसके दोनों कंधे और काटिम संक्षेपमें बताता हैं, आप ध्यान देकर सुनें। (गरनका उठा हुआ पिछला भाग) ऊँचे न हों, वह स्त्री दीर्घ ब्रह्माजीने का अधिगणों ! जिस के चरण लाल आयुयाली तथा उसका पति भी चिरकालतक जीता है। कम समान कात्तिवाले अन्यत्र कोमल तथा भूमिपर, जिस लींकी नासिका न बहुत मोटी, न पतली, न देदी, न समतल-पसे पड़ते हों, अर्थात् बीचमें ऊँचे न रहें, वें चरण अधिक थीं और न ऊँचीं होतीं हैं वह श्रेष्ठ होती है। जिस उत्तम एवं सुख-भोग प्रदान करनेवाले होते हैं। जिस स्त्री स्त्रीकी मौई ऊंचीं, कोमल, सूक्ष्म तथा आपसमें मिली हुई न चरण में, फटे हुए, मसहित और नाड़ियोंसे युक्त हों, वह हों, ऐसौं व सुख प्राप्त करती हैं। अनुपके समान भौहें सौभाग्य स्त्री दरिंदा और दुर्भगा होती है। यदि पैकी अंगुलियाँ परस्पर प्रदान करनेवाली होती है। स्त्रियोंके काले, स्निग्ध, कोमल और मिओं में, सीधी, गोल, स्निग्ध और सूक्ष्म नौसे युक्त हों तो ये मुंघराले केश उत्तम होते हैं। ऐसी स्त्री अत्यन्त ऐश्वर्यको प्राप्त करनेवाली और राजमहियों होती हंस, कोयाल, वीणा, अमर, मयूर तथा वेणु (वंश) के है। ऑटों अँगुलियाँ आयुको बढ़ाती है, परंतु कोटीं और विरल समान स्वरवा स्त्रियाँ अपार सुख-सम्पत्ति प्राप्त करती हैं और अंगुलियाँ धनका नाश करनेवाली होती हैं।

दास-दासियोंसे मुक्त होती हैं। इसके विपरित टें हुए काँसके जिस के हाथकी रेखाएँ गरी, स्निग्ध और रक्तवर्णको स्वरके समान स्वरवाली या गर्दभ और कौवेके सदृश स्वरवालों होती है, वह सुख भोगनेवाली होती हैं, इसके विपरीत टेडी और स्त्रियाँ ग्रेग, व्याधि, भय, शोक तथा दरिद्रताको प्राप्त करती हैं। इटी हुई हों तो वह द्धि होती है। जिसके हाथमें नशाके हंस, गाय, वृषभ, चयाक तथा मदमस्त हाथके समान मुलन्से तर्जनीतक पूरी इंग्ला चले ज्ञाय तो ऐसीं ली सौ वर्षतक चालव्याल्में सिंचयाँ अपने कुलको विख्यात बनानेवाओं और जीवित रहती है और यदि न्यून हों तो आयु कम होती है। जिस राजा रानी होती हैं। श्वान, सियार और कौवेके समान स्त्रीके हाथों अँगुलियां गोल, लंबी, पतली, मिलानैपर गतिवाओं सी निन्दनीय होती है। मृगके समान गतिवाल दास छिद्ररहित, कोमल तथा रक्तवर्ण हो, यह बी अनेक तथा द्रुतगामिन सी बन्धक होती हैं। स्त्रियोंक्य फलिनी, सुख-भोगको प्राप्त करती हैं। जिसके नख बन्जीव – पुष्पके गोरोचन, स्वर्ण, कुंकुम अथवा नये-नये निकले हुए नरके समान अल एवं ऊँचे और स्निग्ध हों तो वह ऐश्वर्यको प्राप्त सदृश इंग उत्तम होता है। जिन स्त्रियोंके शरीर तथा अङ्ग करती हैं तथा अखें, टेले, अनेक प्रकारके रंगवाले अथवा श्वेत कमल, ग्रेम और पसीनमें रति तथा सुगन्धित होते हैं, वे या नीले-मीले नोंवाली लौ दुर्भाग्य और दारिद्र्यको प्राप्त होती स्त्रियाँ फूज्य होती हैं ।

कपिल-वर्णवाली, अधिकाङ्ग, रोगिणी, मोंसे रहित, (बवासीर), क्षय (राजयक्ष्मा), मन्दाग्नि, मिरगीं, अंत दाग अलात कोटी (बौनी), वाचाल तथा सिंगल वर्णवाओं कन्याओं और कुल-जैसे गैंग हॉर्ने हों। विवाह नहीं करना चाहिये। नक्षत्रा, वृक्ष, नहीं, म्लेच्छ, पर्वत, मनीने वियाने पुनः कहा—ये सब नाम लक्षण पश, साँप आदि और दासके नाम जिसका नाम से तथा जिस कन्यामें हों और जिसका आचरण भी अच्छा हो उस इसने नामवाली कन्या विवाह नहीं करना चाहिये। जिसके कन्यासे विवाह करना चहिये। बीके लक्षणोंकी अपेक्षा उसके सव अङ्ग ठीक हैं, सुन्दर नाम हो, हंस या हाथोकी-सी गति हो, सदाचारकों में अधिक प्रशस्त कहा गया हैं। जो लीं सुन्दर को सूक्ष्म ग्रॅम, केश और दाँतोंवाली तथा बेमलने हों, ऐसी शरीर तथा शुभ लक्षणसे युक्त भी है, किंतु यदि वह कन्याको विवाह करना उत्तम होता है। गौ तथा धन-धान्यादिसे सदाचारसम्पन्न (उत्तम आचरणयुक्त) नहीं है तो वह प्रशस्त अत्यधिक समृद्ध होनेपर भी इन दस कुस्नमें विवाहका सम्बन्ध नहीं मानी गयी हैं। अतः स्त्रियोंमें आचरणकी मर्यादा अवश्य स्थापित नहीं करना चाहिये जो संस्कारोंसे रिहत हों, जिनमें देखना चाहिये। ऐसे मल्लक्ष तथा सदाचार सम्पन्न पुरुष-संतति न होती है, जो वेदके पठन-पाठनसे रहित हों, सुकन्यासे विवाह करनेपर ऋद्धि, वृद्धि तथा सत्कीर्ति प्राप्त जिनमें सी-पुरुषके शरिरॉपर बहुत लंबे केश हों, जिनमें अर्श होती हैं।

 

(अध्याय ५)

गृहस्थाश्रममें अन एवं स्त्रीकी महत्ता, धन-सम्पादन करनेकी आवश्यकता तथा समान कुलमें विवाह-सम्बन्धकी प्रशंसा राजा शतानीकने सुमनु मुनिसे पूछा-भगवन् ! उनके जीवनको धिक्कार है, उनके लिये तो मृत्यु हौं परम उत्सव लियोंके लक्षणों तों मैंने सुना, अब इनकें सद्वृत्त है अर्थात् ऐसे पुरुषका मर जाना ही श्रेष्ठ है। अतः ग्रहण | (सदाचार) को भी मैं सुनना चाहता हैं, उसे आप बतलानेकी करनेवाले अर्थहीन पुरुपके त्रिवर्ग-(धर्म, अर्थ, काम-की कृपा करें।

‘सिद्धि काँ सम्भव है ? यह ऑ-सुख न प्राप्त कर यातना हो सुमन्तु मुनि झोले–मह्मवाहू शतानीक ! ब्रह्माजीने भौगता हैं। जैसे स्त्रीके बिना गृहस्थाश्रम नहीं हो सकता, उस ऋपियाँको सियोंके सदसत्त भी बताये हैं, उन्हें मैं आपको प्रकार धन-विहीन व्यक्तियोंक भी गृहस्थ बननेका अधिकार सुनाता हैं, आप अयानपूर्वक सुनें । जब ऋषिपौने चिपके नहीं है। कुछ लोग संतानों में विवर्गक साधन मानते हैं। सहके विपसमें ब्रह्माजीसे प्रश्न किया बह्माजी ने अर्थात् संतानसे हीं धर्म, अर्थ और कामकी प्राप्ति होती हैं, लगे-मुनीश्वरों ! सर्वप्रथम गृहस्थाश्रममें प्रवेश करनेवाला ऐसा समझते हैं; परंतु नीतिविशारदको यह अभिमत हैं कि व्यक्त यथाविधि विद्याध्ययन करके सत्कर्मीद्वारा घनका धन और उत्तम वी–दें दोनों त्रिवर्ग-साधनके हेतु हैं। अर्म उपार्जन करें, तदनन्तर सुन्दर लक्षणसे युक्त और सुशील भी दो प्रकारका कहा गया है— धर्म और पूर्त धर्म। कन्याको शास्त्रोक्त विधिसे विवाह करें। धनके बिना गृहस्थाश्रम यज्ञादि करना इष्ट धर्म है और थाप, कुप, ताशय आदि केवल विडम्बना है। इसमें धन-सम्पादन करनेके अनच बनवाना मूर्त धर्म है। ये दोनों घनसे ही सम्पन्न होते हैं। हौं गृहस्थाश्रममें अवैश करना चाहियें। मनुष्यके लिये घर दरिद्रीकै बन्धु भी उससे लजा करते हैं और धनाढ्य नरक यातना सहनी अच्ओं है, किंतु अमें क्षुधासे तड़पते अनेक बन्धु हो जाते हैं। धन ही त्रिवर्गका मूल हैं। धनवान्ने हुए – दैना अच्छा नहीं है। फटें और मै–कुनैले चिया, कुल शी अनेक उनम गुण आ जाते हैं और निनिमें वस्त्र पहने, आँत दीन और भूखें स्त्री-पुत्रों को देखकर जिनका विद्यमान होते हुए भी ये गुण नष्ट हो जाते हैं। शास्त्र, शिल्प, हृदय विदीर्ण नहीं होता, वें क्के समान अति कठोर हैं। कलम और अन्य भौं जितने कर्म हैं, उन सबको तथा धर्म का लक्षणेभ्यः पन्नास तु मन मनमुनी

मदतक्ता या सी मा माला ना लक्षणः

 

* पुराणं परमं पुण्यं भविष्यं सर्वसौख्यदम् +

[ संक्षिप्त भविष्यपुराणाङ्क साधन भी धन हौं हैं। घनके विना पुरुषका जन्म अजागल- अमाप नरः तद्वदयोग्यः सर्वकर्मसु ॥ स्तनयत् व्यर्थ ही है।

(कपर्श ६ ॥ ३३)

पूर्वजन्ममें किये गये पुण्योंसे ही इस जन्ममें प्रभूत धनकी पली-परिग्रहसे धर्म तथा अर्थ दोनोंमें बहुत लाभ होता प्राप्ति होती हैं और धनसे पुण्य होता है। इसलिये धन और है और इससे आपसमें प्रति उत्पन्न होती हैं, सत्प्रीतिसे पुण्यका अन्योन्याश्रय सम्बन्ध हैं अर्थात् ये एक दूसरेके कारक कामरूपी तृतीय पुरुषार्थ मी प्राम में जाता हैं, ऐसा विद्वानों का हैं। पुण्यसे धनार्जन होता है और मनसे पुण्यार्जन होता है= कहना है। विवाह-सम्बन्ध तीन प्रकारका होता है-नीच

प्राक्पुण्यैर्बिपुरा सम्पर्मकामादिया। कुलमें, समान कुलमें और उत्तम कुलमें। नीच कुलमें विवाह भूयों अर्मेण सामुन्न तया ताविति च क्रमः ॥ कानेसे निन्दा होती है। उत्तम कुलवाले के साथ विवाह करने से ये अनादर करते हैं। अपने बड़े होगोंके साथ बनाया गया इसलिये विद्वान् मनुष्यको इस निसें त्रिवर्ग-साधन विवाह सम्बन्ध, नचिके साथ बनाये गये विवाह-सम्बन्धक करना चाहिये। स्वाँरहित तथा निर्धन पुरुषका त्रिवर्ग-साधनमें प्रायः समान हौं ह्येता हैं। इस कारण अपने समान कुलमें हों। अधिकार नहीं हैं। अतः भा-महणसे पूर्व उत्तम निमें विवाह करना चाहिये । मनस्व लोंग विजातीय सम्बन्ध भी अर्थार्जन अवश्य कर लेना चाहिये। न्यायोपार्जित धनकी प्राप्ति तक नहीं मानते। यह वैसा हीं सम्बन्ध होता हैं जैसे कोयल | होनेपर दार-परिग्रह करना चाहिये। अपने कुलके अनुरूप, और शुका । जिस सम्बन्धमें प्रतिदिन स्नैकी अभिवृद्धि होतीं।

धन, क्रिया आदिसे प्रसिद्ध, अनिन्दित, सुन्दर तथा धर्मकी रहती हैं और विपति-सम्पत्तिके समय भी प्रमाणातक भी देनमें | साधनभुता कन्याको प्राप्त करना चाहिये । जबतक विवाहु न विचार न किया जाय, यह सम्बन्ध उत्तम कहलाता है। परंतु होता है, तबतक पुरुष अर्ध-शरीर ही होता है। इसलिये यह बात उनमें ही होती हैं जो कुल, शील, विद्या और धन | यथाक्रम अचित अवसर प्राप्त हो जानेपर विवाह करना चाहिये। आदिमें समान होते हैं। मनुष्योंके स्नेह और कृतज्ञताकी परीक्षा | जैसे एक पहियंका रथ अथवा एक पखवा पक्षी किसी विपतिमें ही होती है। इसलिये विवाह और परामर्श समान के कार्य में सफल नहीं हो पाता, वैसे ही श्रीहीन पुरुष भी प्रायः साथ ही करना चाहिये, अपने से बड़े तथा टेके साथ नहीं। सभी धर्मकृत्योंमें असफल ही रहता है इसमें अको मित्रता हनी ।

एकवको रथों यदेकपक्षो यथा खगः ।।

 

(अध्याय ६)

 

विवाह-सम्बन्धी तत्वका निरूपण, विवाहयोग्य कन्याके लक्षण, आठ प्रकारके विवाह, ब्रह्मावर्त, आर्यावर्त आदि उत्तम देशोंका वर्णन ब्रह्माजीं बोलें-मुनीश्वरो ! जो कन्या माता सपिण्ड अपने-अपने वर्णकी कन्या विवाह करना श्रेष्ठ कया गया है। । अर्थात् माताकी सात पोईके अन्तर्गतको न हो तथा पिताके चारों वर्गोंकि इस हॉक और लौक में हिताहित के समान गोत्रकी न हों, वह द्विजातियोंके विवाह-सम्बन्ध तथा साधन करनेवाले आठ प्रकार के विवाह कहे गये हैं, जो इस संतानोत्पादनके लिये प्रशस्त मानी गयी है। जिस कन्या प्रकार हैं | भाई न हो और जिसके पिता सम्बन्धमें कोई जानकारी न हो ब्राह्म, दैव, आर्ष, प्राजापत्य, आसुर, गान्धर्व, राक्षस ऐसी कन्यासे पक्किा-धर्मकी आशंका बुद्धिमान् पुरुष तथा पैशाच। अच्छे शौल-स्वभाववाले उत्तम कुलके वरकों विवाह नहीं करना चाहिये। धर्मसाधनके लिये चारों बौको स्वयं बुलाकर उसे अलंकृत और पूजित कर कन्या देना ‘ब्राह्म

१-अमपिण्ड्रा चे या मातुरसगोत्रा च या पितुः । सा प्रशस्ता द्विजातीनां दरकर्मीण मैने ॥ (मायापर्य छ । १, मनु ३ ॥ ५} २-पिता जिसके पुत्र में अपने पिण्ड-पानीकी आशा करता है उसे पुत्रिका कहते है।

 

  • विवाहमम्मी का निरूपप, विवाहयोग्य कन्याके लक्ष

 

वियाह हैं। यज्ञमें सम्यक् प्रकार को कर्म करते हुए ऋत्विको घोड़ा ॐ या अधिक, वह कन्या मूल्य ही गिना जाता है, अलंकृत का कन्या दैनंको ‘दैव-विवाह कहते हैं। बरसे एक इसलिये वरसे कुछ भी लेना नहीं चाहिये। जिन कन्याओके या दो जोड़े गाय-बैल अमर्थ लेकर विधिपूर्वक कन्या देनको निमित्त वर-पक्षसे दिया हुआ वस्त्राभूषणादि पिता-आता आदि “आर्य-विवाह’ कहते हैं। तुम दोनों एक साथ गृहस्थ-धर्मका नहीं लेते, प्रत्युत कन्याको ही देते हैं, वह विक्रय नहीं है। यह पालन करें यह कहकर पुजन करके जो कन्यादान किया कुमारियोंका पूजन हैं, इसमें कोई हिंसादि दोष नहीं हैं। इस जाता है, वह ‘आज्ञापत्य-विवाह’ कहलाता है। कन्याके पिता प्रकार उत्तम विवाह करके उत्तम देशमें निवास करना चाहिये, आदिकों और कन्याक भी यथाशक्ति धन, आदि देकर इसमें बहुत यश प्राप्ति होती है। स्वच्छन्दतापूर्वक कन्याका प्रहण करना ‘आसुर-वियाह हैं। यिने पूछा-ममन् ! बह कौन-सा देश है, जहाँ कन्या और यकी परस्पर इच्असे जो विवाह होता हैं, उसे निवास करनेसे धर्म और अशकों वृद्धि होती हैं ? ‘गान्धर्व-विवाह’ कहते हैं। मार-पीट करके रोती-चिल्लाती ब्रजी बोले-मुनरो ! जिस देशमें धर्म अपने कन्याका अपहरण करके ना ‘राक्षस-विवाह’ है। सोयी हुई, चारों के साथ रहे, जहाँ विद्वान् लौंग निवास करते हों मदसे मतवाली आ ओं कन्या पागल हो गयी हों उसे गुप्तरूपसें और सारे व्यवहार, शास्त्रोक्त-रीतिसे सम्पन्न होते हों, वहीं देवा उचा में आना ग्रह ‘पैशाच’ नामक अम कोटिका विवाह हैं। उत्तम और नियाम करने योग्य है।

ब्राह्म-विवाहसे उत्पन्न धर्माचारी पुत्र दस पीढ़ी आगे और ऋषियोंने पूछा–महाराज ! विद्वान् जिस शास्त्रोक्त इस पौंड़ पौके कुका तथा इक्कीसवाँ अपना भी उद्धार आचरण प्रण करते है और धर्मशास्त्रमें जैसी विधि निर्दिष्ट करता हैं। दैव-विवाहसे उत्पन्न पुत्र सात पीढ़ी आगे तथा सात की गयी है उसे हमें बतायें, हमें इस विषयमें महान कौतुहरू पौढ़ी पीछे इस प्रकार चौदह पौंदियोंका उद्धार करनेवाला होता हो रहा है। है। आर्ष-विवाहमें उत्पन्न पुत्र तीन अगले तथा तीन पिछले मानी बोले-गुग-द्वेषसे हित सज्जन एवं विद्वान् कलौका उद्धार करता है तथा आापत्य-विवाहसे उत्पन्न प्रम जिस धर्मका नित्य अपने शुद्ध अन्तःकणसे आचरण करते हैं, छः पीके तथा छः आगेके कुलोंको तारता है। ब्राह्मादि आद्य उसे आम सुनें चार विवाहोंसे उत्पन्न पुत्र ब्रह्मतेजसे सम्पन्न, शीलवान्, रूप, इस संसारमें किसी वस्तुकी कामना करना श्रेष्ठ नहीं हैं। सत्त्वादि गुणोंसे युक्त, धनवान्, पुत्रवान्, यशस्वी, पर्मिट्स और वेदोंका अध्ययन करना और वेदविहित कर्म करना भी काम्य दीर्घजीवी होते है। शेष चार विवाहसे उत्पन्न पुत्र क्रूर-स्वभाव, हैं। संकल्पसे कामना उत्पन्न होती है। वेद पढ़ना, यज्ञ करना, धर्मद्वषों और मिथ्यावादी होते हैं। अनिन्दित विवाहोंसे संतान मात-नियम, धर्म आदि कर्म व संकल्पमूलक हीं हैं। भौं अनिन्द्य ही होती है और निन्दन विवाहोंकों संतान भी इसीलिये सभी यज्ञ, दान आदि कर्म संकल्पपठनपूर्वक किये निन्दित होती हैं। इसलिये आसुर आदि निन्द्रित विवाह नहीं जाते हैं। ऐसी कई भी क्रिया नहीं है, जिसमें काम न हो। जो करना चाहिये । कन्याका पिता बरसे यत्किंचित् भी धन न ले। कोई भी जो कुछ करता है वह इसे मैं करता है। वरकम घन लेनेसे वह अपत्यविक्रय अर्थात् संतानका श्रुति, स्मृति, सदाचार और अपने आत्माको प्रसन्नता बेचनेवाला हो जाता है। जो पति या पिता आदि सम्बन्धी वर्ग इन चार वातोंमें धर्मका निर्णय होता है। श्रुति तथा स्मृतिमें कहें मोहवश कन्याके धन आदिसें अपना जीवन चलाते हैं, वे गये धर्मके आचरणसे इस कमें बहुत यश प्राप्त होता हैं और अधोगतिको प्राप्त होते हैं। आर्ष-विवाहमें जो गो-मिधून पल्लेकमें इन्द्रलोककी प्राप्ति होती हैं। श्रुति वैदको कहते हैं। लेनकी बात कही गयी है, वह भी ठीक नहीं है, क्योंकि चाहें और स्मृति धर्मशास्त्रका नाम हैं। इन दोनोसे सभी बातों का १-मकी गणना पार भुस्याम है | भोगको कामनाके विरूद्ध योग, म, जप-तप, धर्मसंस्थापन भी गति-मुकि ममना ही शुभ कामना हैं। गीता ४) में भी भावान्, ‘धर्माविरुद्ध यु काममि भावम्॥’महल पाये इन चमकी और प्रेरित करने की भाशा ते हैं। पाहू शक कमले निम्ताकी जननी है। वैदिक कर्मयोग भी भयाण सकाम कहनेका यी भाव है।

 

* पुराणं परमं पुण्यं भविष्य सर्वसौख्यदम् =

 [ संक्षिप्त भविष्यपुराणा विचार करें, क्योंकि धर्मकी जड़ में ही हैं, जो धर्मके मूल इन ब्रह्मर्षियों के द्वारा सेवित हैं, परंतु ब्रह्मावर्तमें कुछ न्यून है। इन दोनका तर्क आदिके द्वारा अपमान करता है, उसे सत्पुरुषों देशोंमें उत्पन्न हुए ब्राह्मणोंसे सब देशके मनुष्य अपना-अपना तिरस्कृत कर देना चाहिये, क्योंकि वह बेदनिन्दक होनेसे आचार सौम्यते हैं । हिमालय और विंध्यपर्वतके बीच, नास्तिक में हैं।

  1.  
  2. विमशनसे पूर्व और प्रयागसे पश्चिम जों देश है उसे मध्यदेश | जिनके लिये मन्त्रद्वारा गर्भाधानको श्मशानतक कहते हैं। इन्हीं दोनों पर्वतके बीच पुर्व समुद्रसे पश्चिम संस्कारकी विधि कहीं गयीं है, उन्हीं लेगको केंद तथा जपमें समुद्रक जो देश हैं वह आर्यावर्त कहलाता है। जिस देशमें अधिकार है। सरस्वती तथा दृषद्वती–इन द बैंबनदियोंके कृष्णसार मृग अपनी इच्छासे निस्य विचरण करें, वह देश यज्ञ बींचका जो देश है वह देवताओद्वारा बनाया गया है, उसे करने योग्य होता है। इन शुभ देशोंमें ब्राह्मणको निवास करना ब्रह्मावर्त कहते हैं। उस देशमें चारों वर्ग और उपवर्म ज्ञों चाहिये। इससे भिन्न म्लेंच्छ देश हैं। हैं मुनीश्वरों ! इस प्रकार आचार परम्पग्रसे चला आया है, उसका नाम सदाचार है। मैंने यह देशव्यवस्था आप सबको संक्षेपमें सुनायी है। कुरुक्षेत्र, मत्स्यदेश, पाञ्चाल और सूरमदेश (मथुरा)-ये अन एवं सीके तीन आश्चय तथा सी-पुरुयॉर्क पारस्परिक व्यवहारका वर्णन ब्रह्माजी बोले-नीश्वरो ! उत्तम रौतसे विवाह सम्पन्न किसी पड़ोसीकों कष्ट नहीं देना चाहिये। नागपके द्वार, चौक, कर गृहस्थकों ज्ञों करना चाहिये, उसका मैं वर्णन करता हैं। यज्ञशालम, शिल्पियोंके रहने स्थान, जुआ खेलने तथा सर्वप्रथम गृहम् उत्तम देशमें ऐसा आश्चय नैना मांस-मयाद बेचनेकै स्थान, पाखड्डियों और जाके नौकाकै चाहिये, जहाँ वह अपने धन तथा स्त्रीने भलीभाँति रक्षा कर हनके स्थान, देवमन्दिरके मार्ग तथा राजमार्ग और के सके। बिना आपके इन दोनोंकी रक्षा नहीं हो सकतीं। ये महल–इन स्थानोंसे दूर, हनेके लिये अपना घर बनाना दोनों–धन एवं स्त्री–त्रिवर्गक हेतु हैं, इसलिये इनकी चाहिये । स्वच्छ, मुख्य मार्गाल्श, उत्तम व्यवहारथाले लोगोंसे प्रयत्नपूर्वक रक्षा अवश्य करनी चाहिये । पुरुष, स्थान और आवृत तथा दुष्टोंके निवाससे दूर-ऐसे स्थानमें गृहका निर्माण पर ये तीनों आश्रय कहलाते है। इन तीनों धन आदिक्य काना चाहिये । गृहकै भूमिकी छाल पूर्व अधवा उनकी और रक्षण और अर्थोपार्जन होता है। कुलीन, नीतिमान्, बुद्धिमान्, हो । रसोईघर, स्नानागार, गोंडाला, अत्तःपुर तथा शयन-कक्ष सत्यवादी, विनय, धर्मात्मा और दृती पुरुष आवायके ग्य और पुजाभर आदि सय अलग-अलग बनाये जायें । अन्तः होता है। जहाँ धर्मात्मा पुरुष रहते हों, ऐसे नगर अथवा ग्राममें पुरकी रक्षा के लिये वृद्ध, जितेन्द्रिय एवं विश्वस्त व्यक्तियोंकों निवास करना चाहिये। ऐसे स्थानमें गुरुजनौंकी अनुमति लेक नियुक्त करना चाहिये। स्त्रियौ रक्षा न करनेसे वर्णसंकर अथवा उस ग्राम आदिमें बसनेवाले श्रेष्ठजनोंक सहमति प्राप्त उत्पन्न होते हैं और अनेक प्रकारकै दोष भी होने देंखें गये हैं। कन रहनेके लिये अविवादित स्थल पर बनाना चाहिये, परंतु स्त्रियों की स्वतन्त्रता न दे और न उनपर विश्वास करें ।

ई-निगमों धर्ममृतं पात् मुताले त च ।

नयाचा साधूनामातुरेव । छ।

श्रुतिस्मृत्युदिन धर्ममुनिशन् । नमः ।

प्राय धेड़ नं कति यानि क्रमकताम्॥

श्रुतिनु वेदों वियों घर्मशानं तु मैं मुनिः ते सयाम ममाप्ये ज्ञाभ्यो धम हि भि ॥

यमन्येन ने चौथे हेतुशास्त्रअयाद् द्विजः ।

साधुभिवाय नहिं वेदनिन्दकः ॥

बेट- पतिः सदाचार; यस्य च नियमापनः ।

प्रताविधं विप्राः साक्षाद्धर्मस्य लक्षणम् ॥

[समर्थ छ । ३,५४=]

 

नदेशप्रसूता . सकाशादमजनमः वं वं चरित्र शिरन् पृविच्य सर्वमानवाः ।। ५६

भाममुनु दासमुहानु पशुमातु यस गिर्योगवनी विधाः बुझाई ६५

 

अनिमा यिक कर्तव्य एवं समाचारका वर्णन

 

किंतु व्यवहार में विश्वस्तके समान ही चेष्टा दिखानी चाहिये। मध्यम स्त्रीचे दान और भेदसे और अधम स्त्रीको भेद और विशेषरूपसे उसे पाकादि क्रियाओंमें ही नियुक्त करना चाहिये। दण्डनीतिसे वशीभूत करें। परंतु दण्ड देनेके अनतर भी। स्त्रीको किसी भी समय खाली नहीं बैठना चाहिये। साम-दान आदिको उसको प्रसन्न कर लें। भय अहित दरिद्रता, अति-रूपवत्ता, असत्-जनका सङ्ग, स्वतन्त्रता, करनेवालीं और व्यभिचारिणीं वीं कालकूट विषके समान होती घेयादि दुष्यका पान करना तथा अभक्ष्य-भक्षण करना, कथा, हैं, इसलिये उसका परित्याग कर देना चाहिये। उत्तम कुरुमें गोष्टी आदि प्रिय लगना, काम न करना, जादू-टोना उत्पन्न पतिव्रता, विनीत और भर्तीका हित चाहनेवाली का करनेवाली, भिकी, कुटिनी, दाई, नटी आदि दुष्ट स्त्रियोंके सदा आदर करना चहिये । इस गॅनिमें जो पुरुष चलता है वह सङ्ग उद्यान, यात्रा, निमन्त्रण आदिमें जाना, अत्यधिक क्विर्गकी प्राप्ति करता हैं और कमें सुख पाता हैं। तीर्थयात्रा करना अथवा देवताके दर्शनके लिये घूमना, पतिके ब्रह्माजीं बोलें-मुनीश्वरों ! मैंने संक्षेपमें पुरुषोंकों साथ बहुत वियोग होना, कठोर व्यवहार करना, पुरुषोंसे सियोंके साथ कैसे व्यवहार करना चाहिये, यह बताया। अब अत्यधिक वार्तालाप करना, अति क्रूर, आंत सौम्य, अति पुरुषोंके साथ लियोको कैसा व्यवहार करना चाहिये, उसे बता निडर होना, ईर्षालु तथा कृपण होना और किसी अन्य सीके रहा हैं आप सब सुनें

वशीभूत हो जाना—ये काय बीके दोष उसके विनाशके हेतु पतिक सम्यक् आराधना करनेसे स्त्रियों पतिका प्रेम हैं। ऐसी स्त्रियोंके अधीन यदि पुरुष हो जाता है तो वह भी प्राप्त होता है तथा फिर पुत्र तथा स्वर्ग आदि भी उसे प्राप्त हों। निन्दनीय हो जाता है। यह पुरुषकों ही अयोग्यता है कि उसके जाते हैं, इसलिये कों पतिकी सेवा करना आवश्यक है। भूय बिगड़ जाते हैं। स्वामी यदि कुशल न हो तो भृत्य और सम्पूर्ण कार्य विधिपूर्वक किये जानेपर ही उत्तम फल देते हैं। श्री बिगड़ जाते हैं, इसलिये समयके अनुसार अधोचित राँतिसे और विधि-निषेधका ज्ञान शास्त्रमें जाना जाता है। स्त्रियोंका ताडन और शासनसे जिस भाँति में इनकी रक्षा कानों शास्त्रमें अधिकार नीँ है और न प्रन्थोके धारण करनेमें चाहिये। नारी पुरुषका आधा शौं है, इसके बिना धर्म- अघिकार है। इसलिये सौदाग़ शासन अनर्थकारी माना जाता क्रिया साधना नहीं हो सकतीं । इस कारण कम सदा है। चीन इसमें विधि-नियंध जानने अपेक्षा रहती है। आदर करना चाहिये। उसके प्रतिकुल नहीं करना चाहिये। पहले तो उसे भर्ता सब धर्मों का निर्देश करता है और भर्तक सीके पतिव्रता होनेके प्रायः तीन कारण देखें जाते मरनेके अनन्तर पुत्र उसे विधवा एवं पतियताके धर्म बतलायें। हैं-(१) पर-पुल्यमें विरिक्त, (२) अपने पतिमें प्रति तथा बुडिके विकल्पोंको ओड़कर अपने बड़े पुरुष जिस मार्गपर (३) अपनी रक्षामें समर्थता ।। चलें हैं इसपर चलने में इसका सब प्रकार कन्याण हैं। उत्तम स्त्रीको साम तथा दामनौतिसे अपने अधीन रखे। पतिव्रता स्त्री हो गृहस्थके घर्मोको मूल हैं। (अध्याय ४-६) | पतिव्रता लियोंके कर्तव्य एवं सदाचारका वर्णन, स्त्रियोंके लिये गृहस्थ-धर्मके उत्तम व्यवहारकी आवश्यक बातें ब्रह्माजी बोले-मुनीश्वरों ! गुहस्थ-धर्मका मूल ध्यानपूर्वक सुनें पतग्रता स्त्री हैं, पतिता नीं पतिका आश्वन किस विधिमें आराधना करने योग्य पतिकै आराथनकी विधि यह है। करें, उसका अब मैं वर्णन करता है। आप सच इसे कि उसकी चित्तवृत्तिको भलीभाँति जानकर उसके अनुकूल

१.-सतीत्वे प्रायशः ऑगी मदहं कामयम् । सामसपीतिः प्रिये पतिः वर

 

 ३. शास्त्राधि] नां ने प्रधानां च धागे । उमादिन्यं मन्यन्ते तुलसनमनकम् ॥ (झापर्य ६ । ६) ३- इन मणमें आ कुछ अंश-गोरक्षा, पाप, अपि और स्क-संन्धान आदि विषय प्रायः सातसमें सम्न्ध पाय हो गये हैं। मका सन्नि विद्या भविमुपागमें मिला है, जिसके कुछ अंश सही दिये जा रहे हैं।

 

पुरा परयं पुण्यं भविष्यं सर्वसौख्यदम्

 

[ मैक्षिप्त भविष्यपुराणाहू चलना और सदा उसका हित चाहते रहना । अर्थात् पतिके त्याज्य हैं। इस प्रकार के आचरण तो प्रायः दुष्टोंके लिये ही चित्तके अनुकूल चलना और यथोचित व्यवहार करना, यह उचित होते हैं, कुलीन स्त्रियोंके लिये नहीं। इन निन्दनीय पतिव्रताका मुख्य धर्म है-

बातोंसे अपनी बक्षा करते हुए स्वियको चाहिये कि वे अपने आराध्यानां हैं सर्वेषामग्रमारायने थिधः । पातिव्रत-धर्म तथा कुलकी मर्यादाकी रक्षा करें।

चित्तज्ञानानुवृत्तिा हितैषित्वं च सर्वदा ।।

उत्तम श्री पनि मन, वचन तथा कसे दैवता कें समान

(ब्राह्मपर्व १३ । १)

समझे और उसकी अर्धाङ्गिनी बनकर सदा उसके हित करने में पतिके माता-पिता, बहिन, ज्येष्ठ भाई, चाचा, आचार्य, तत्पर रहे। देवता और पितरोंके कृत्य तथा पतिके मान, भोजन मामा तथा वृद्ध स्त्रियों आदिका उसे आदर करना चाहिये और एवं अभ्यागतोंके स्वागत-सत्कार आदिमें बड़ी ही सावधानी जो सम्बन्धमें अपने छोटे हों, उनमें स्नेहपूर्वक आज्ञा देनी और समयका ध्यान रखें। यह पतिके मित्रोंको मित्र तथा चाहिये । जहाँ भी अपने से बड़े सास-ससुर या गुरु विद्यमान शत्रुओको शत्रुके समान समझे। अधर्म और अनर्थसे दूर हो या अपना पनि उपस्थित हों यहाँ उनके अनुकूल ही रहकर पतिको भी उससे बचाये । पतिको क्या प्रिय है और आचरण करना चाहिये, क्योंकि यहीं चरित्र स्त्रियोंके लिये कौन-सा भोजनादि पदार्थ उसके लिये हितकर है तथा कैसे प्रशस्त माना गया हैं। हास-परिहास करनेवाले पतिके मित्र पतिके साथ विचारों आदिमें समानता आये इस बात को सर्वदा

और देवर आदिके साथ भी एकात्तमें बैठकर झास-परिहास उसे ध्यानमें रखना चाहिये, साथ ही उसे सेवकको असंतुष्ट नहीं करना चाहिये। किसी पुरुषके साथ एकत्तमें बैठना, नहीं रखना चाहिये। स्वच्छन्दता और अत्यधिक हास-परिहास करना प्रायः कुलौंन हुनेका घर और शरीर—ये दो गृहणियोंके लिये मुख्य स्त्रियोंके पातिव्रत-धर्मकों नष्ट करनेके कारण बनते हैं। सहसा हैं। इसलिये प्रयत्नपूर्वक वह सर्वप्रथम अपने अर तथा इष्टकं संसर्गमें आकर युवकोंके साथ हास-परिहास करना शरीरको सुसंस्कृत (पवित्र) रखें। शरीरसे भी अधिक स्वच्छ चित न होता, क्योंकि स्वतन्त्र स्त्रियोकी निर्भीकता एकामें और भूषित घरको रखें। तीनों कालमें पूजा-अर्चना करें और बरे आचरणके लियें सफल हो जाती हैं। अतः उत्तम स्त्रीको व्यवहारकी सभी वस्तुको यथाविधि साफ रखें। प्रातः, ऐसा नहीं करना चाहिये । इस तसे झलका शील नहीं मध्याह्न और सायंकालके समय घरका मानकर स्वच्छ करे। बिगड़ता और कुनको निन्दा भी नहीं होती। अरे संकेत गौशाम आदिको स्वच्छ कथा है। दास-दा करनेवाले और बुरे भावोंको प्रकट करनेवाले पुरुषों भाई या आदिसे संतुष्ट कर उन्हें अपने-अपने कार्योंमें लगाये । स्त्रीको पिताके समान देखते हुए स्त्रीको चाहिये कि उनको सर्वथा उचित हैं कि यह प्रयोगमें आनेवाले शाक, कन्द, मूल, फल परित्याग कर दें। दुष्ट पुरुषका अनुचित आग्राह यकार करना, आदिके बीजोंका अपने-अपने समयपर संग्रह कर लें और उनके साथ वार्तालाप करना, हासयुक्त संकेत अथवा कुष्टिपर समाप्रपर इन्हें संत आदिमें बुआ दें। तांब, कॉस, लोहे, काग्न ध्यान देना, दूसरे पुरुषके हाधसे कुछ लेना या उसे देना सर्वथा और मिट्टीमें बने हुए अनेक प्रकारके बर्तनोंको घरमें संग्रह परित्याज्य हैं। घरके द्वारपर बैठने या खड़ा होने, राजमार्गको रखे । जल रखने तथा ज्ञल निकालने और जल पीने और देखने, किसी परििचत देश या घरमें जानें, उद्यान और कलशादि पात्र, चाक-भाजी आदिसे सम्बद्ध विभिन्न पात्र, घी, प्रदर्शनी आदिमें रुचि रखनेमें स्त्रीको बचना चाहिये। बहुत तेल, दुध, दही आदिसे सम्बद्ध वर्तन, मूसल, ओखली, पुरुषोंके मध्यसे निकलना, ऊँचे स्वरसे बोलना, हँसी-मजाक झाड़, चलन, सैंड्स, सिल, लोढ़ा, चक्की, चिमटा, कड़ाही, करना एवं अपनी दृष्टि, वाणी तथा शरीरको चापल्य प्रकट तया, तराजू, बाट, पिटार, संदूक, पलंग तथा चौकी आदि करना, साना तथा सीत्कारी भरना, दुष्ट स्त्री, भिक्षुकी, गृहस्थीके प्रयोग आनेवाले आवश्यक उपकर्णांकी तान्त्रिक, मान्त्रिक आदिमें आसक्ति और उनके मण्डलोंमें प्रयत्नपूर्नक व्यवस्था करनी चाहिये । उसे चाहिये कि वह हींग, निवास करने की इच्छा-ये सब बातें पतयता के लिये जोरा, पिप्पल, ग्रई, मरिच, धनिया तथा सोड आदि अनेक ब्रापर्व

 

  • पतिव्रता स्त्रियोंके कर्तव्य एवं सदाचारका र्णन

 

मरके मसाले, सण, अनेक प्रकारके क्षार-दार्थ, मिरका, उसकी इक्षा भी होती है और गौ कहीं चली जाये तो उसके अचार आदि, अनेक प्रकारको दालें, सब प्रकारके तैल, सूखा शब्दसे उसे ढूँढ़ा भी जा सकता है। हिंसक पशुओं और कावा, विविध प्रकार के दूध-दहीसे बने पदार्थ और अनेक सपसे रहित, घास और जलसे युक्त, छायादार घने वृक्षावाले प्रकारके कन्द आदि जो-जो भी वस्तु नित्य तथा नैमित्तिक तथा पशुओंके रोगसे रहित स्थानपर गायोके रहनेके लिये गोंड़ कार्योंमें अपेक्षित हों, उन्हें अपनी सामर्थक अनुसार या गोशाला बनानी चाहिये । कृषि-कार्यमें लगे सेवकोंके लिये अपलपूर्वक पहले से ही संग्रह करना चाहिये, जिससे समयपर देश-काल और उनके कार्यके अनुरूप भोजन तथा वेतनका उन्हें तैना न पड़े। जिस मनुको भविश्यमें आवश्यकता पड़े, प्रवभ करना चाहिये। खेत, खलिहान अथवा वाटिका आदिमें | अमें पहले से ही संग्रहमें रखना चाहिये। सूत्रे-गले, पिसे, जहाँ भी सेवक कामपार में हैं वहीं बार-बार जाकर इनके | बिना पिसे तथा कचे और पके अन्नादि पदार्थोंका अच्छी तरह कार्य एवं कार्यके प्रति उनके मनोयोगको जानकारी करनी | हानि-लाभ विचारकर ही संग्रह करना चाहिये। उनमेसे ज़ों योग्य हो, अच्छा कार्य करता हो, उसका पतिनता नारी गुरु, बालक, वृद्ध, अभ्यागत और पती अधिक सत्कार करें और उसके लिये भोजन, आवास | सेवा आय न करें। पतिकी शय्या स्वयं बिछाये । दैव आदिक औरोसे विशेष व्यवस्था करें। समय-समयपर सब

आदिके द्वारा पहने हुए वरुण, माया तथा आभूषणोंको वह कारकै अन्न और कन्द-मूक बोजा संग्रह करें तथा | कभी ना तो धारण करे और न इनके झाय्या, आसन आदिर यथासमय उनकी बुआई कर दें। बैठे गौम इतना दूध निकालें कि जिममें बड़े भूखे न रह घरका मूल है स्त्री और गृहस्थाश्रमका मूल हैं अन्न। बायें । दहींसे धीं बनायें। वर्षा, शरद् और वसन्त ऋतुमें इसलिये भोन्पादि अन्न पदार्थोंमें घरकी चौंको मुक्तहस्त नहीं । गायको दो बार दुहना चाहिये, ऑष ऋतुओंमें एक ही बार दुहे। होना चाहिये अर्थात् अन्नको वह वृथा नष्ट न कों, सदा। चरवाहे, म्वाले आदिको रवाहीके बदले रुपये अथवा अनाज़ संजोकर रखें। उसे मितव्ययी होना चाहिये। अन्नादिमें दें। गोदोहक बछड़ोंका भाग अपने प्रयोगमैं न ला सकें, यह मुक्तहस्त होना गृहिणियोंके लिये अझ नहीं माना जाता । वह देखता है, साथ ही यह भी ध्यान रखें कि दूध दुहनेवाला संचय करनेमें और खर्च करनेमें मधुमक्खीं, वल्म और | समयपर दूध दुह गह्म है या नहीं, क्योंकि दोन धचिन आजनके समान हानि-लाभ देखकर अन्नको थोड़ा-सा समयपर ही गायकों दुहना चाहिये । समयका अतिक्रमण समझकर उसकी अवज्ञा न करे ॥ क्योंकि धौड़ा-थौड़ा हो मनु अच्छा नहीं होता। जब गाय व्याय आय, तब एक महीनेतक एकत्र करती हुई मधुमक्खी कितना एकत्र कर लेती है। इसी उसका दूध नहीं निकालना चाहिये, उसे बड़े ही पीने देना प्रकार दीमक जरा-जरा-सी मिट्टी लाकर कितना ऊँचा वल्मीक चाहियें। फिर एक महीनेतक एक धनक, तदनन्तर एक बना लेती हैं। किंतु इसके विपरीत बहुत-सा बनाया गया महातक दो थनका और फिर तीन धनको दुध निकालना अंजन भी निल्य थौड़ा-थोड़ा आँसमें झलते हुनेसे कुछ चाहिये। एक या दो धन के लिये अवश्य छोड़ना दिनोंमें समाप्त हो जाता हैं। इस तसे सभी वस्तुओका संग्रह चाहिये। यथासमय तिलक लौं, कोमल हरी घास, नमक और खर्च हो जाता है। इसमें थोड़ी वस्तकी अवज्ञा नहीं करनी तथा ज्ञल आदिको बछड़का पालन करना चाहिये। बुद्धी, चाहिये। घरके सभी कार्य स्त्री-पुरुषकै एकमत होनेपर ही गर्भगी, दूध देनेवाली, बाली तथा अािाली-इन अछे होते हैं। पाँच गायका मास आदिके द्वारा समानरूपसे बराबर जगन्में ऐसे भी हजारों पुण्य हैं, जिनके सब काम पालन-पोषण करते रहना चाहिये। किसीको भी न्यून तथा स्त्री प्रधानता रहती हैं। यदि ली बुद्धिमान् और मुशल हो अधिक न समझे । गोके गलेमें फ्टीं अवश्य बाँधनी चाहिये। तो कुछ ह्मनि नहीं होती, किंतु इसके विपरीत होनेपर अनेक एक तो घंटौं बाँधनेसे गौसे शोभा होती हैं, इसमें उसके प्रकारके दुःख होते हैं। इसलिये की योग्यताअयोग्यता शब्दोंमें कोई जीव-जन्तु इरकर उसके पास नहीं आते, इससे ठौकसे समझकर बुद्धिमान् पुरुषकों उसे कार्यमें नियुक्त करना

 

  • पुराणं परमं पुण्यं भविष्यं सर्वसौख्यदम्

 

[ संक्षिप्त भविष्यपुराणाङ्क चाहियें। इस प्रकार योग्यतासे कार्यमें नियुक्त की गयी सीको रसोई-अरमें सदासे काम करनेवाले, विश्वमा तथा आहारा चाँहये कि वह सौभाग्यवश या अपने उद्यम आदिमें अपने परीक्षण करनेवाले व्यक्तिको ही सूपकारके सपमें नियुक्त करना पाँतक भलीभाँति सेवा कर उसे अपने अनुकूल बनायें। चाहियें। उसोईकै स्थानमैं किसी अन्य दुष्ट स्त्री-पुरुषों न

ब्रह्माजी झोले-हैं मुनीश्वरों ! घरमें ही प्रातःकाल आने दें। इस विधिसे भोजन बनाक्न सब पदार्थोंको स्वच्छ सबसे पहले उठे और अपने कार्य में प्रवृत हो जाय तथा रात्रिमें पात्रोंसे आच्छादित कर देना चाहिये, फिर रसोई-अरसे बाहर सबसे पीछे भोजन करे और सबके बादमें सोये । पति तथा आकर पसीने आदिको पोकर, स्वच्छ होकर, गन्ध, ताम्बूल, | ससुर आदि उपस्थित न रहनेपर को घरकौं देहुलीं पार माला-वरुन आदिसँ अपनेको चोड़ा-सा भूपत करें फिर नहीं करनी चाहिये। वह बड़े सवेरे में ज्ञग ज्ञाय । वीं पतके भोजनके निमित्त यथोचित समयपर विनयपूर्वक पनिकों | समीप बैठकम हो सब सेवकको कामकी आज्ञा दें, बाहर न बुलाये। सब प्रकारके व्यञ्जन परोसे, जो देश-काल के विपरीत जाय । काय पति भी जग हें तब वहाक सभी आवश्यक कार्य न हो और जिनका परस्पर विरोध भी न हों, जैसे दूध और करके, घरके अन्य कार्यों में भी प्रमादरहित होकर करें । रात्रि के लवणका हैं। जिस पदार्थों पतिको अधिक रुचि देखे उसे और पहले ही उत्तम वस्त्राभूषणोंकों अतारकर घरके कार्योकों करने परसें । इस प्रकार पतिक प्रतिपूर्वक भोजन करायें। योग्य साधारण वस्त्र पहनकर तत्तत् समयमें करने योग्य सपत्नियों को अपनी बहनके समान तथा उनकी | कार्योक यथाक्रम करना चाहिये । उसे चाहिये कि सबसे पहले संतानों में अपनी संतानसे भी अधिक प्रिय समझें । उनके | रसोई, चूल्हा आदिकों भलीभाँति लींप-पोतकर स्वच्छ करें। भाई-बन्धुओंकों अपने भाइयों के समान हीं समझें। भोजन, | माईक पात्रकों मज-घों और पाकर वहाँ रखें तथा अन्य वन, आभूषण, ताम्बूल आदि जबतक सपलकों न दे दें, भी अब उसकी सामपी वहाँ एकन कौं। रसोई-घर न तो यातक स्वयं भी ग्रहण न कहें। यदि सपत्नीको अथवा किसी | अधिक गुप्त (वेद) हों और न एकदम खुल्ला हो । स्वच्छ, आलित जनक कुछ रोग हो जाय तो उसकी चिकित्साके लिये | विस्तीर्ण और जिसमेंसे धुआं निकल जाय ऐसा होना चाहिये। ओवध आदिकी भलीभाँति व्यवस्था काये। नौकर, बन्धु | इसई-घर भोजन पकानेवाले पात्रोकों तथा दुध-के और सपत्नीको दुखी देव स्वयं भी उनके समान दुखी हो पात्रोको सौंपी, रस्सी अथवा वृक्षक आलसे खूब रगड़कर और उनके सुख सुख माने। सभी कायमें अवकाशा अंदर-बाहरसे अच्छी तरह धो लेना चाहियें। रात्रिमें मिलनेपर सो जाय और रात्रिमें उठकर अनावश्यक धन-व्यय | धुएँ-आगके द्वारा तधा दिनमें धूपमें उन्हें सुखा लेना चाहिये, क्र हे पतिको एकात्तमें धीरे-धीरे समझायें। घरका सब | जिससे उन पात्रोंमें रखा जानेवाला दूध-दहीं आदि स्वराय न वृत्तान्त पतिको एकान्तमें बतायें, परंतु सपमिकें दोयकों ने होंने पाये । विना शोधित पात्रोंमें रखा दूध-दही विकृत में जाता है, किंतु यदि कोई उनका व्यभिचार आदि बा दोष देखें, हैं। दूध-दही, घी तथा बने हुए पाकादिको सावधानी रखना जिसे गुप्त रखनेसे कोई अनर्थ हो तो ऐसा दोष पतिको अवश्य चाहिये और उसका निरीक्षण करते रहना चाहिये। बता देना चाहिये । दुभंगा, नि:संतान तथा पतिद्वारा तिरस्कृत स्नानादि आवश्यक कय करके उसे अपने हाधसे पतिके सपत्नियों सदा आश्वासन हैं। उन्हें भोजन, वस्त्र, आभूषण लिये भोजन बनाना चाहिये। उसे यह विचार करना चाहिये कि आदिको दुःखों न होने दें। यदि किसी नौकर आदिपर पति कोप मधुर, क्षार, अम्ल आदि इसमें कौन-कौन-सा भोजन पतिको को तो उसे भी आश्वस्त करना चाहिये, परंतु यह अवश्य प्रिया है, किस भोजनमें अग्निक वृद्धि होती है, क्या पध्य हैं विचार कर लेना चाहिये कि इसे आश्वासन देनसे कोई हानि और कौन भोजन कालके अनुरूप होगा, क्या अपय है, उत्तम नहीं होनेवाली हैं। स्वास्थ्य किस भोजनसे प्राप्त होगा और कौन भोजन कालके इस प्रकार की अपने पतिको सम्पुर्ण इच्छाओंको पूर्ण अनुरूप होगा आदि आता भसंभाँत थिंचारकर और करें। अपने सुखके लिये जो अभीष्ट हों, उसका भी परित्याग निर्णयकर उसे वैसा ही भोजन प्रतिपूर्वक बनाना चाहिये। कर पतिके अनुकूल ही सब कार्य करे। क्योंकि स्त्रियों के देवता ।

 

  • पतिव्रता क्यिोंके कर्तव्य एवं सदाचारका वर्ण

 

पत, यक देवता ब्राह्मण हैं तथा ब्राह्मणके देवता अग्नि हैं अनुचित हीं है। कन्याम विवाह करने के बाद फिर उससे और ज्ञाओंका देवता राज्ञा है।

अपनी आजीविकाकी इझ करना यह महात्मा और कुलीन स्त्रियोंके निवा-प्राप्तिके दो मुख्य उपाय हैं—प्रथम सत्र पुरुषोंकी ऑति न हैं, अतः के सम्बन्धियों चाहिये कि कारसे पति को प्रसन्न रखना और द्वितीय आचरणों में केवल मित्रताके लिये, प्रतिके लिये ही सम्बन्ध बढ़ानेकी पवित्रता । पतिकै चित्तके अनुकूल चलने जैसी प्रीति पति इझ करें और प्रसंगवश यथाशक्ति उसे कुछ देते भौं रहें । स्त्रीपर होती हैं वैसी प्रीतिं रूपसे, यौवनसें और अलंकारादि उससे कोई वस्तु लेनेकी इच्छा न रखें। कन्याके आभूषणोंमें नहीं होती। क्योंकि प्रायः यह देखा जाता है कि मायकेवालों कन्या स्वामीकी रक्षाका प्रयत्न सर्वथा करना उत्तम रूप और युवावस्थावाली स्त्रियाँ भी पतके विपरीत चाहिये, उनकी परस्पर प्रीति-सम्बन्धक चर्चा सर्वत्र करनी आचरण करनेसे दौर्भाग्य प्राप्त करती हैं और अति कुरूप चाहिये और अपनी मिथ्या प्रशंसा नहीं करनी चाहिये। तथा हीन अवस्थावाली स्त्रियाँ भी पतके चित्तकै अनुकूल साधु-पुष्योंका व्यवहार, अपने सम्बन्धियोंके प्रति ऐसा चलनेसे उनकी अत्यन्त प्रिय हो जाती है। इसलिये पतिके ही होता हैं। चित्तका अभिप्राय भलीभाँति समझना और उसके अनुकूल जो सी इस प्रकारके सद्वृत्तको भलीभाँति जानकर आचरण करना यही स्त्रियों के लिये सब सुखका हेतु हैं और व्यवहार करती हैं, वह पति और उसके बन्धु-बान्धवों यहीं समस्त श्रेष्ठ योग्यताओंका कारण हैं। इसके बिना तो अल्पत मान्य होती है। पतिकी प्रिय, साधु वृत्तवाओं तथा

के अन्य सभी गुण अध्यत्वको प्राप्त हो जाते हैं अर्थात् सम्बन्धियोंमें प्रसिद्धि प्राप्त होनेपर भी स्त्रीको कापवादसे निष्फल हो जाते है और अनर्थक कारण बन जाते हैं। इसलिये सर्वदा डरते रहना चाहिये, क्योंकि सीता आदि उत्तम् को अपनी योग्यता (पबिज्ञता) सर्वधा बढ़ाते रहना पतिवताओं में भी लोकापवादकै कारण अनेक कष्ट भोगने पड़े चाहिये थे।

 

भोंग्य होनेके कारण, गुण-दोयम नीक-ठीक निर्णय न झन पत्तिके आनेका समय ज्ञानक्र उनके आने के पूर्व में वह पाने तथा प्रायः अविनयशीलताकै कारण स्त्रियोंके घरों स्वच्छ वा बैठने के लिये उत्तम आसन बिल दें तथा व्यवहारको समझाना अत्यन्त दुक हैं। छींक प्रकासे दूसरे की पतिदेवके आनेपर स्वयं अपने हाथसे उनके चरण धोकर उन्हें मनोवृत्तिों न समझनेके कारण तथा कपट-दृष्टिके कारण एवं आसनपर बैठाये और पंखा हाथमें लेकर धीरे-धीरे इलायें स्वच्छन्द हो जानेमें ऐसी बहुत ही कम स्त्रियाँ हैं जो कलकत और सावधान होकर उनकी आज्ञा प्राप्त करनेकी प्रतीक्षा करे। नहीं हो जाडौँ । दैवयोग अथवा कुयोगसे अथवा व्यवहारकी ये सब काम दासी आदिसे न झवाये । पत्तिकें स्नान, आहार, अनभिज्ञतासे शुद्ध हृदयवा स्त्री भी लोकापवादको प्राप्त हों पानादिमें स्पस दिखाये। पतिके संकेतों को समझक्न जाती है। सिर्योका यह दौंर्भाग्य हीं दुःख भोगनेका कारण है। सावधानीपूर्वक सभी आयकों करे और भोजनादि निवेदित इसका कोई प्रतीकार नहीं, यदि है तो इसकी ओषधि हैं उत्तम करें। अपने बन्धु-वान् तथा पतिके बन्धुओं और सपत्नीके चरित्रका आचरण और मेक-व्यवहारको ठीकसे समझना । साथ स्वागत-सत्कार पतिकीं इअनुसार करें अर्थात् जिसपर ब्रह्माजीं बोले—मुनीश्वरों ! उत्तम आचरणवाली स्त्री पतिकी रुचि न देखें उससे अधिक शिष्टाचार न करें । स्त्रियोंके भी यदि बुरा सङ्ग करें या अपनी इच्छअसे जहाँ चाहे चली जाय, लिये सभी अवस्थाओंमें स्वकुलकी अपेक्षा पतिकुल ही विशेष तो उसे अवश्य कलंक लगता है और झूझ दोष लगनेसे कुल पून्य होता है; क्योंकि कोई भी कुलीन पुरुष अपनी कन्यासे भी कलकित हो जाता है। उत्तम कलकी स्त्रियोंके लिये यह उपकारकी आशा भी नहीं रखता और जो रखता हैं वह आवश्यक है कि वे किसी भी भाँति अपने कुल-मातृकुल,

 

ताधिदेता नार्या वर्गा मानदेयताः

वागा अमितु जाजदेवताः

शासी सिसि प्रदिष्ट जयम्

भर्यदक या मषितम्

तथा मौनं लोक ना भूषणम्।

यथा पियानुकुम्व सिद्धं वादनम्

पपई १३ ३६

# राणं मम पुर्य भविष्य समयम्

[ संक्षिप्त भविष्यपुराण पितृकुल एवं संततिको कलक न लगने दे। ऐसी कुलीन में न सुगन्धित तैलादि द्रव्योंका प्रयोग करे। उसे सम्बन्धियक पर, ही धर्म, अर्थ तथा काम—इस त्रिवर्गकी सिद्धि हो सकती है। नहीं आना चाहिये। यदि किसी आवश्यक कार्यवश जाना ही | इसके विपरीत बुरे आचरणयाली स्त्रियाँ अपने कुलोंको नरकमें पड़ जाय तो अपनेसे बोंकी आज्ञा लेकर पतिके विश्वसनीय | डालती है और चरित्रको ही अपना आभूषण माननेवाली बियाँ शनकि साध शाय। किंतु वहाँ अधिक समपतक न , म कमें गिरे हुओको भी निकाल लेती हैं। जिन स्त्रियोंका चित्त वापस लौट आये। वार्तं स्नान आदि व्यवहारोको न करें। पतिके अनुकूल है और जिनका उत्तम आचरण हैं, के लिये प्रवाससे पतिकै लौट आनेपर प्रसन्न-मनसे सुन्दर वस्त्राभूषणोंमें रत, सुवर्ग आदिक आभूषण भारस्वरूप ही हैं। अर्थात् आरकत होकर पतिका अधौषित भोजनादिको सकार को और स्वियक धार्थ आभूषण में दो पतिकी अनुकता और देवताको पतिके लिये मांगी गयी मनौतियोंको पशादिया उत्तम आचरण । ज्ञ ली पतिकी और की अपने साचित यानि सम्पन्न । पवहारादिको आराधना करती है अर्थात् पतिके अनुकूल इस प्रकार मन, वाण तथा कमसे सभी अवस्थाओंमें चलती हैं और कपबह्मक तौक-चौंक समझफर पता हित-चिन्तन करती हैं, क्योंकि पति के अनुकूल रहना तदनुरुल आचरण करती है, वह स्त्री धर्म, अर्थ तथा कामको स्त्रियोक दिये विशेष धर्म हैं। अपने सौभाग्यप, अहंकार में | अवाधसिद्धि प्राप्त कर लेती हैं करें और त आयो भी न करें तथा अन्त्यका विनम्र भासमें भर्नुचित्तानुकलत्वं मां झलमविच्युतम्  है। इस प्रकार ले पनि सेवा करते हुए हैं ।

 

पतिक नाम बलवणादि भार ने मनम्

कायम माद नहीं करती, पून्यानोका सदा आदर करती ओंकानें परा कोटि: त्यौ भक्ति शाश्वती रहती हैं,

नौकरोंका भरपोषण करती है, नित्य सद्गगकी शाबयानां नार्णा विद्यादेंतकुमतम्

अभिपके लिये प्रयास रहती है तथा सय प्रकासे अपने नग्माल्लोक।

भर्ना सम्यगाराधितो मया ।।

शीली रक्षा करती रहती है, वह स्त्री इस लोक तथा पर्ममधं कर्म मैवाति निरत्यया

पालकमें उत्तम सुख एवं उत्त कीर्ति प्राप्त करती है।

 

अपर्ष १३ ६४..)

जिस पर पति ने क्रोधयक्त हो और उसका आदर जिम का पति परदेशमें गया हो, उस दौको अपने न करें, वह भी दुभंगा कहलाती है। उसे चाहिये कि यह नित्य पतिकी मङ्गलकामनाके सूचक सौभाग्य-सूत्र आदि स्वल्य व्रत-उपवासादि क्रियानि संलग्न है और पतिक या आभूषण हैं। पहनने चाहिये, विशेष शृङ्गार नहीं करना चाहिये। कार्योंमें विशेषरूपसे सहयोग के। जातिमें कोई रु दुर्भगा उसे पति-दाग़ प्रा किये कार्यों का प्रयत्नपूर्वक सम्पादन अध्या सुभगा (सौभाग्यशालिनी) नहीं होतीं। यह अपने करते रहना चाहिये। वह देका अधिक संस्कार न करें। यवसे ही पतिकी प्रिय और अमिय में जाती है। उत्तम सी त्रिक साम आदि पूज्य स्त्रियोंके समीप सोचें। बहुत अधिक पतिकै चित्तम अभिप्राय न जाननेसे, उसके प्रतिकूल चलनेसे खर्च न करें । झत, उपायाम आदिके नियमोंका पालन करतीं और लोकविरुद्ध आचरण करनेसे भगा हो जाती हैं एवं गहें । दैवज्ञ आदि अंजनोंमें पतिक कुशल-क्षेमका वृत्तान्त उसके अनमल असे भगा हो जाती है। मनोवृत्तिकै जानने की कोशिश करे और परदेशमें उसके कल्याणकी अनुकूल कार्य करने से पराया भी प्रिय हो जाता है और कामना तथा शम्न आगमनकी अभिलाषासे निल्य मनोनुकूल कार्य न करनेसे अपना जन भी शीघ शत्रु बन देवताओंका पूजन करे । भरपन्त इज्जल वेप न अनाये और जाता है। इसरिये स्त्रीको मन, वचन तथा अपने कार्योदारा

-विनाध्य भारतकथैमादिनी |

पून्यानो बाने नित्यं भवन भगवा छ ।

 

(मप ३६३२)

* पपयोंका र्णन तथा उपवासोंके प्रकरणमें आकारका निरूपण +

सभी अवस्थाओंमें पतिके अनुसार ही प्रिंय आचरण करना है और पतिकी सँवासे सभी सुखों तथा त्रिवर्गको भी प्राप्त कर चाहिये। इस प्रकार कहे गये लो-वृत्तको भल्भ त समझ लेती है। जो स्त्री पतिको संवा करती हैं, वह पतिको अपना बना लेतीं।

पञ्चमहायज्ञोंका र्णन तथा व्रतउपवासोंके प्रकरणमें आहारका निरूपण एवं प्रतिपदा तिग्निकी उत्पत्ति, ब्रतविधि और माहात्म्य सुमन्तु मुनिने कामराजन् !

इस प्रकार स्त्रियोंके होते हुए भी वह इन पाँच यज्ञों नहीं करता है तो उसका लक्षण और सदाचारका वर्णन करके ब्रह्माजीं अपने लोक, जीवन में व्यर्थ है। तथा ऋषिगण भी अपने-अपने आश्रमकी ओर चले गयें। . रामा झापानीकने पूछा-जिस ब्राह्मणके परमें | अब गृहस्थों कैसा आचरण करना चाहिये, उसे मैं बताता अमित्र नहीं होता, वह मृतकके समान होता है आपने हैं, आप ध्यानपूर्वक सुने

कहा है, परंतु फिर वह देवपूजा आदि कार्योको क्यों करें ? गृहस्थौंको वैवाहिक अग्निमें विधिपूर्वक कमको और यदि ऐसी बात है तो देवता, पितर उससे कैसे संतुष्ट होंगे, करना चाहिये तथा पञ्चमहायज्ञका भी सम्पादन करना इसका आप निराकरण हैं। चाहिये। गृहस्थोके यहाँ जीव-हिंसा होनेके पाँच स्थान हैं- सुमन्तु मुनि बोले-राजन् ! जिन ब्राह्मणोके घरमें ओखली, चाकी, चूल्हा, झाडू तथा जल रखनेका स्थान। इस अग्निहोत्र न हो उनका उद्धार व्रत, उपवास, नियम, दान तथा हिंसा-दोषसे मुक्ति पानेके लिये गृहस्थोंको पञ्चमहायज्ञों- देवताकी स्तुति, भक्त आदिसे होता हैं। जिस देवताको जो । (१) ब्रह्मयज्ञ, (३) पितृयज्ञ, (३) देवयज्ञ, (४) भूतयज्ञ तिथि हो, उसमें उपवास करनेसे वे देवता उसपर विशेषरूपसे तया (५) अतिथियों नित्य अवश्य करना चाहिये। प्रसन्न होते हैं अध्ययन करना तथा अध्यापन करना यह ब्रह्मयज्ञ हैं,

गाद तोपवानिपमैनादानैया नृप

कर्म पितृयज्ञ हैं। देवताओंके लिये हवनादि कर्म दैवयज्ञ है।

वादयो भवत्येव श्रीनाले संशयः

बलियैश्वदेव कर्म भूतयज्ञ है तथा अतिथि एवं अभ्यागतका विषादपवासेन तिथौ किल महीपते स्वागतसत्का क्रमना अतिथियश हैं

प्रीता देवापतेषां भवत्त कुरुनन्दन

अभ्यापर्न ब्रह्मयज्ञः पितृयज्ञश्च तर्पणम्

| (नासपर्व १६ १३१४)

मेमो देवों बलभाँतस्तथाऽन्योनथिननम्

राजाने फिर कहामहाराज़ !

 (ब्रह्मपर्व १६ । ३)

अब आप अलग-अलग तिथियोंमें किये जानेवाले व्रत, तिथि-वतोंमें —इन पाँच नियमों का पालन करनेयाम गृहस्थी घरमें किये जानेवाले भोजनों तथा उपवासकी विधियोंका वर्णन करें, रहता हुआ भी पझसूना-दोषसे लिप्त नहीं होता। यदि समर्थ जिनके श्रवणसे तथा जिनका आचरण कर

 

संसारसागरसे मैं कर दुभंगा नाम मुभा नाम जाति

चपावत्यै Hिदे रिमित्

भबिज्ञानाननुष्ठानतोपि वा

नेकविध यांना भगत स्त्रियः

आकृमनोवृने परोऽपि प्रियता ब्रजेत्

प्रतिकृयात्रिशु मियः प्रदेषतमयात्

तस्मान् सामु मनोवाकायकर्मभः

भियं समाश्रियं तनुविधामी ।।

एवमेव मयोंदिष्टं मां यानुतिष्ठति

परिमाराध्य सम्पूर्ण विवर्ग साधिगत

. .

(भा १५॥ १६-१६, ३३

 

[ वर्तम समबन्ने जात्य सभ्यता के प्रभाव देशमें दृवित और जनतपूर्ण वातावरण बन गया है। जिससे सम्बद्ध भविन्यपणका यह मत रामायण, महाभापत, ति तथा अन्य में भी उपलब्ध है। आपके विकाकी सभी समस्याका एकमात्र मुख्य मा आचा! पतुन है, मम भाव संनयम भी पाता है। अतः मुभको पदावर विष ध्यान देने की आवश्यकता है। ]

 

+ पुराणं परमं पुण्यं भविष्यं सर्वसौम्यम्

 

[ संक्षिप्त भयपुराणात मुक्त हो जाऊँ तथा मेरे सभी पाप दूर हो जायें। साथ ही केयूर, हार, कुण्डल, मुकुट, उत्तम बस्त्र, श्रेष्ठ सुन्दर स्त्री तथा | संसारके जीवोंका भी करन्याण हो जाय ।

अॐ में प्राप्त होते हैं। वे आध-व्याधिसे मुक्त होकर सुमन्तु मुनि बोले- मैं तिथियोंमें विहित कुन्त्यका दीर्घायु होते हैं। पुत्र-पौत्रादिका सुत्र देखते हैं और वन्दीजनके यर्णन करता हैं, जिनके सुननेसे पाप कट जाते हैं और स्तुति-पालद्वारा जगाये जाते हैं। इसके विपरित जिसने व्रत, उपवासकै फलको प्राप्ति हो जाती है। दान, उपवास आदि कर्म नहीं किया वह कमा, अंधा, प्रतिपदा तिधिक्ये दूध तथा द्वितीयाको लवणहत भोजन लूला, गड़ा, राँगा, कुअवा तथा रोग और दरिद्रतासे पीड़ित करें । तृतीयाके दिन तिलान्न भक्षमा करें। इस प्रकार चतुर्थीको रहता हैं। संसारमें आज भी इन दोनों अमरके पुरुष प्रत्यक्ष दुध, पर्मीको फल, पडौंकों शाक, सप्तमी बिल्चार करे। दिसायी देते हैं। वहीं पुण्य और पाफ्को प्रत्यक्ष परीक्षा हैं । अष्टमीको पिष्ट, नवमीको अप्रपाक, दशमी और जानें कहा—प्रभो ! आपने अभी संक्षेपमें तिथियौंको एकादशीको घृताहार करें। द्वादशीको खीर, त्रयोदशीको गोमूत्र, बताया है। अब यह चितारले अनलकी कृपा करें कि किस चतुर्दशीको क्वान्न भक्षण करे। पूर्णिमाको कुशाकम जल पीयं देवताकी किस तिथिमें पूजा करनी चाहिये और ब्रत आदि किस तथा अमावास्याको हविष्य-भोजन करें। यह सय निधियोकै विधिमें करने चाहिये जिनके करने से मैं पवित्र हो जाऊँ और भोजनकी विधि हैं । इस विधिसे जो पूरे एक पक्ष भोजन करता हित होकर यज्ञके फलों को प्राप्त कर सकें। हैं, वह दस अश्वमेध-यज्ञका फल प्राप्त करता हैं और सुमन्तु मुनि बोले–राजन् ! तिथियों का रहस्य, नाका मन्वन्तरक वर्गने आनन्द भोगता हैं। यदि तीन-चार विधान, फल, नियम, देवता तथा अधिकारी आदिके विमें मालक इस विधिसे भोजन करें तो यह सौ अश्वमेघ और सौं मैं बताता हैं, यह सब आजतक मैंने किसी को नहीं बताया, राजसूय-यज्ञका फल प्राप्त करता है तथा स्वर्गमें अनेक इसे आप सुने मन्यत्तरितक सुख भोग करता है। पूरे आठ महीने इस विधिसे सबसे पहले मैं संक्षेपमें सृष्टिका वर्णन करता है। प्रथम भोजन करें तो हजार यज्ञका फल पाता है और चौदह परमात्माने जल उत्पन्न कर उसमें तेज प्रविष्ट किया, उसमें एक मन्वन्तरपर्यत साने व सुका उपभोग करता है। इसी अट उत्पन्न हुआ, उससे ब्रह्मा उत्पन्न हुए। उन्होंने अधिक प्रकार यदि एक वर्षपर्यन्त नियमपूर्वक इस भोजन-विधिका इससे उस अण्डके एक कपालमै भूमि और इससे पालन करता है तो वह सूर्यलोकमें कई मन्वन्तरोतक आकाशकी रचना की। तदनन्तर दिशा, उपदिशा, देवता, आनन्दपूर्वक निवास करता है। इस उपवास-विधिमें चारों दानव आदि रचे और जिस दिन यह सब काम किया उसका वर्गों तथा इ-पुरुयो—सभी अधिकार हैं। जो इन तिथि- नाम प्रतिपदा तिथि रखा। ब्रह्माजींने इसे सर्वोत्तम माना झननिय भानु अनिकी नवमी, माघ सम, वैशासकीं और सभी निधिक मागुम्भमें इसका मनिपादन किया तृतीया तथा कार्तिक पूर्णिमासे करता है, वह बी आयु इसलिये इसका नाम प्रतिपदा हुआ। इसके बाद सभी तिथियाँ प्राप्त कर, अनमें सूर्यकको प्राप्त होता है। पूर्वजन्ममें जिन उत्पन्न हुई। पुरुषोंने व्रत, उपवास आदि किया, दान दिया, अनेक प्रकार अब मैं इसके उपवास-विधि और नियमोंका वर्णन करता झाह्मण, माधु-संतों एवं तपस्वियको संतुष्ट किया, माता-पिता हैं। कार्तिक पूर्णिमा, माघ-सप्तम तथा वैशाख रू तृतीयासे

और गुरुङ्ग सेवाशुश्रूण कों, विधिपूर्वक तीर्थयात्रा में, ने इस प्रतिपदा तिथिकै नियम एवं उपवासको विधिपूर्वक प्रारम्भ पुरु। स्वर्गमै दौर्घ कालतक का जब पृथ्वीपर जन्म लेते हैं, करना चाहिये। यदि प्रतिपदा तिथि नियम अहण करना है तो तब उनके चिह-पुण्य-फल प्रत्यक्ष ही दिखायी पड़ते हैं। प्रतिपदासे पूर्व चतुर्दशी तिधिक भोजनके अनचर व्रतम यहाँ उन्हें हाथों, घोड़े, पालकी, रथ, सुवर्ण, इल, कंकण, संकल्प लेना चाहिये। अमावास्याओं निकाल स्नान करें,

 

नित्य, नैमित्तिक और काम्यये तीन प्रकारके कर्म होते हैं। यहाँ काम्यकर्मोको करण चल रहा है। इन्हीं कमसे निष्कामभवमें भगवत्पीयर्थ करनेपर जन्ममरण अन्नसे मुक्ति भी मिल जाती हैं।

ब्रापर्व ]

  • प्रतिपकल्पनिरूपणमें ब्रह्माजीकी फूमाअर्नाकी हिमा

भोजन न करे और गायत्री जप करता रहे । तपदाकै दिन यज्ञ करनेवाला, महादानी ब्राह्मण होता है। विश्वामित्रमुनिने | प्रातःकाल गन्ध-मान्य आदि पचासे और घायणक मा बाझग होनेके लिये बहुत समस्तक घोर तपस्या की, किंतु इन्हें कों और उन्हें यथाशक्ति दूध दें और बादमें ‘ब्रह्माजीं मुझपर ब्राह्मणत्व प्राप्त नहीं हो सका। अतः उन्होंने नियमसे इसी प्रसन्न हो’–ऐसा कहे। स्वयं भी बादमें गायका दूध पिये। प्रतिपदाका व्रत किया। इससे थोड़ेसे समयमें ब्रह्माजीने उन्हें इस विधिसे एक वर्षक व्रतकर अन्नमें गायत्रीसहित ब्राह्मण बना दिया। क्षत्रिय, वैश्य, शूद्र आदि कोई इस माज़ौका पूजन का व्रत समाप्त करें। तिथिका व्रत करें तो यह सब पाप से मुक्त होकर दूसरे जन्ममें | इस विधानसे व्रत करनेपर व्रतीक सबै पाप दूर हो जाते झाह्मण होता है। हैहय, ताजंप, तुरुक, यवन, झाक आदि हैं और उसकी आत्मा शुद्ध हो जाती हैं। वह दिव्य-कारोर लेछ ज्ञातियाले भी इस व्रतके प्रभाषसे ब्राह्मण हो सकते हैं। धारणकर विमानमें बैठकर देवलोकमें देवताओंके साथ ग्रह तिथि परम पुण्य और कल्याण करनेवाली है। जो इसके आनन्द प्राप्त करता है और जब इस पृथ्वीपर सत्ययुगमें जन्म माहात्म्यको पढ़ता अथवा सुनता है वह द्धि, वृद्धि और रस्ता हैं तो इस जन्मतक वेदविद्याका पागामी विद्वान्, सत्कीर्ति पाकर अन्तमें सद्गति प्राप्त करता है। धनवान्, दर्घ आयुष्य, आरोग्यवान्, अनेक भौगोंसे सम्पन्न,

(अध्याय १६)

 

अतिपत्कल्प-निरूपणमें ब्रह्माजकी पूजा-अर्चाकी महिमा |मा चातानीकने कम-ब्रह्मन् ! आप प्रतिपदा पूजा करता है, वह मनुष्य-स्वरूपमें साक्षात् ब्रह्मा ही है। तिथिमें किये जानेवाले कृत्य, ब्रह्माजौके पूजनकी विधि और ब्रह्माजीक पूजासे अधिक पुण्य किसमें न समझकर सदा उसके फलका विस्तारपूर्वक वर्णन करें।

ब्रह्माजका पूजन करते रहना चाहिये।

जो ब्रह्माजीको मन्दिर सुमन्तु मुनि बोले जन् !

 

पूर्वकल्पमें स्थावर- बनवाकर उसमें विधिपूर्वक ब्रह्माजीकी प्रतिमाकी प्रतिष्ठा करता जङ्गमारक सम्पूर्ण जगत्के नष्ट हो जाने पर सर्वत्र हैं, वह यज्ञ, तप, तीर्थ, दान आदिके फलोंसे करोड़ों गुना जल-हो-जल हो गया। इस समय देवताओंमें श्रेष्ठ चतुर्मुख अधिक फल प्राप्त करता हैं । ऐसे पुरुषके दर्शन और स्पर्शसे ब्रह्माजीं प्रकट हुए और उन्होंने अनेक लोकों, देवगण तथा इक्कीस पौदीको उद्धार हो जाता है । ब्रह्माजीकी पूजा करनेवाला विविध प्राणियोंकी सृष्टि कीं । प्रजापति ब्रह्मा देवताओंके पिता पुरुष बहुत कमलतक बालोंमें निवास करता है। वहाँ तथा अन्य जीवोंके पितामह है, इसलिये इनकी सदा पुजी निवास करनेके पश्चात् वह ज्ञानयोगके माध्यमसे मुक्त हो जाता करनी चाहिये। ये हीं जगतकी सुष्टि, पालन तथा संहार है अथवा भोग चाहनेपर मनुष्यलोकमें चक्रवर्ती राजा अथवा करनेवाले हैं। इनके मनसें रुका, वक्षःस्थलसे विष्णुका वेद-वेदाङ्गपारङ्गत कुलेन ब्राह्मण होता हैं। किसी अन्य कठोर आविर्भाव । न माने वाले अपने ; अजय साश्य तप और अशोक मासयकता नहीं है, वह झमाझीको चारों वेद प्रकट हुए। सभी देवता, दैत्य, गर्व, यक्ष, राक्षस, पूजससे हमें सभी पदार्थ प्राप्त हो सकते हैं। जो अह्माजीके नाग आदि इनकी पूजा करते हैं। यह सम्पूर्ण जगत् ब्रह्ममय मन्दिरमें अॅटें जीवोंकी रक्षा करता हुआ सावधानीपूर्वक हैं और ब्रह्ममें स्थित है, अतः ब्रह्माजी सबसे पूज्य हैं। न्य, धीरे-धीरे झाड़ देता है तथा उपलेपन करता है, वह स्वर्ग और मोक्ष-ये तीनों पदार्थ इनमें सेवा करनेसे प्राप्त हो चान्द्रायण-व्रतका फल प्राप्त करता है। एक पक्षक ब्रह्माजीकै जाते हैं। इसलिये सदा प्रसन्नचित्तसे यावजीवन नियमसे मन्दिरमें ज्ञों झाडू लगाता है, वह सौ करोड़ युगसे भी अधिक ब्रह्माजीकी पूजा करनी चाहिये। जो ब्रह्माजीकी सदा भकिसे ब्रह्मलोकमें पूजित होता है और अनत्तर सर्वगुणसम्पन्न, चारों इसका वर्णन चौंक इन अंगमा वरायणमें इससे भी अधिक विस्तार मिला है और मुर्श-चिन्तामन एवं अन्य यातिपभोग भो। रमणीयतापक पश्चित है । पदुम, ब्रतक्षाफल, शव आदि में भी गाता है।

  • पुराणं परमं पुण्यं भविष्यं सर्वमौस्यदम् +

[ संक्षिप्त भविष्यपुराणाङ्क वेदों का ज्ञाता धर्मात्मा राजाके रूपमें पृथ्वीपर आता हैं। जलसे स्नान कराने पर रुद्रलोक, कमलके पुष्प, नीलकमल, | भक्तिपूर्वक ब्रह्माजीका पुजन न करनेतक ही मनुष्य संसारमें पाटा (ोध-आल), कनेर आदि सुगन्धित पुष्पोले आन | भटकता हैं। जिस तरह मानवका मन विषयों में मग्न होता है, क्ग्रनेपर ब्रह्मलोंमें पूजित होता हैं। कपूर और अगरके वैसे ही यदि ब्रह्माजी मन निमग्न रहे तो ऐसा कौन पुरुष होगा जलसे स्नान करानेपर या गायत्रीमन्त्रसे सौ बार जलकों जो मुक्ति नहीं प्राप्त कर सकता । ब्रह्माजींके जीर्ण एवं रण्डत भिमन्त्रित कर उस जलसे स्नान करानेपर ब्रह्मलोंककी प्राप्ति | मन्दिरका उद्धार करनेवाला प्राणों मुक्ति प्राप्त करता है। होती है। शीतल जल या कपिला गायके धारोष्ण दुग्धसे स्नान ब्रह्माजींके समान न कोई देवता हैं न गुरु, न ज्ञान हैं और न कमानेके अनन्तर घृतसे स्नान कराने में सभी पापोंसे मनुष्य मुक्त कई तप हो जाता है। इन तीनों मान सम्पन्न कर भक्तिपूर्वक पूजा प्रतिपदा आदि सभी तिथियोंमें भक्तिपूर्वक ब्रह्माजीक करनेसे पूजकको अश्वमेधयज्ञका फल प्राप्त होता है। मिट्टी पूजा का पूर्णिमाके दिन विशेषरूपसे पूजा करनी चाहिये तथा अडेकी अपेक्षा ताबके घटसे ब्रह्माज़ौकों स्नान करानेपर सौगुना, शल्ल अष्टा, भैरों आदि ब्राह्म-ध्वनियोंके साथ आरती एवं चादीके घटसे लागुना फल होता हैं और सुवर्ण-कलशसे तुति करनी चाहिये। इस प्रकार व्यक्ति जितमें पप आरतौं स्नान करानेपर ऑटिगुना फल प्राप्त होता है। ब्रह्माजीक नसे करता हैं, उतने हजार युगक ब्रह्माकमें निवास और उनका स्पर्श करना श्रेष्ठ हैं, स्पर्शसे पूजन और पूजनसे मृतस्नान आनन्दका उपभोग करता है। कपिला गौके पञ्चगव्य और अधिक फलदायक हैं। सभौं वाचिक और मानसिक पाप कुशाके जलसे वेदमन्त्रों के द्वारा ब्राह्माजको स्नान कराना घतमान कराने नष्ट हो जाते हैं। ब्राह्म-स्नान कहलाता हैं। अन्य स्नानोंसे सौ गुना पुण्य इसमें राजन् ! इस विधिमें स्नान करा कर भक्तिपूर्वक ब्रह्माजीकी अधिक होता है। यज्ञ एवं अग्निहोत्रादिके लिये ब्राह्मण, क्षत्रिय पूछा इस प्रकार करनी चाहिये–पवित्र वस्त्र पहनकर, और वैश्यको कपि गौ रखनी चाहिये । ब्रह्माजीकी मूर्तिका आसनपर बैठ सम्पूर्ण न्यास करना चाहिये । प्रथम चार हाथ कपिला गायके मृतसे अभ्यङ्ग करना चाहिये, इससे करोड़ों विस्तृत स्थानमें एक अदल-कमलका निर्माण करे। उसके बषेक किये गये पापोंका विनाश होता है। यदि प्रतिपदाको दिन मध्य नाना वर्णयुक्त द्वादशदल-यन्त्र लिखें और पाँच गौसे कोई एक बार भी मासे स्नान कराता है तो उसके इपास उस्कों भरें। इस प्रकार यन्त्र-निर्माणकर गायत्री बस पौड़ीका उद्धार में जाता हैं। सुवर्ण-वरुवादिसे अलंकृत दस व्यास करें। हुशार सेवन्सा गौ वेदझा ब्राह्मणोंको देनेसे जो पुष्य होता हैं, गायत्रीके अक्षरोद्वारा शरीर में न्यास कर देवताके शरीर में वहीं पुण्य ब्रह्माजीको दुग्धसे न करानेसे प्राप्त होता है। एक भी न्यास करना चाहिये। प्रणवयुक्त गायत्री-मन्त्र द्वारा बार भी दूधसे ब्रह्माजीको स्नान करानेवाला पुरुष सुवर्णके अभिमन्त्रित केशर, अगर, चन्दन, कपूर आदिसे समन्वित विमानमें विराजमान हों ब्रह्मलोकमै पहुँच ज्ञाता है । दहीमें जलसे सभी पूजाइयोंका मार्जन करना चाहिये । अनन्तर पुजा स्नान करानेपर विष्णुलोक्की प्राप्ति होती है। शाहदसे स्नान करनी चाहिये । प्रणयका उच्चारण कर पौठापन और प्रणव करानेपर बरलोक (इन्द्रक) की प्राप्ति होती हैं। ईखके ही तेजस्वरूप ब्रह्माजीका आवाहन करना चाहिये । पद्मपर इससे स्नान करानेपर सूर्यककी प्राप्ति होती हैं। शुद्धोदकसे विराजमान, चार मुखोसे युक्त चराचर विश्वकी सृष्टि करनेवाले स्नान कराने पर सभी पापोंसे मुक्त होकर ब्रह्मलोंमें निवास श्रीब्रह्माजीका ध्यान कर पूजा करनी चाहिये । जो पुरुष प्रतिफ्दा करता हैं। वस्त्रको छने हुए जलसे ब्रह्माजीकों स्नान करानैपर तिथिकै दिन भक्तिपूर्वक गायत्रीमन्यसे ब्रह्माजीका पूजन करता वह सदा तृप्त रहता हैं और सम्पूर्ण विश्व उसके वशीभूत हों है, वह चिरकालतक ब्रह्मलोकमें निवास करता है। जाता हैं। सवषधियाँसे स्नान कानेपर ब्रह्माक, चन्दन के समास

( अध्याय १७)

यया मिनं जनाविपयागो

तं ब्रह्मणि शर्त को मुच्येत बधन् मार्च ||

 

ब्राह्मपर्य]

  • झिनीयापमें महर्षि च्यवनकी कथा वं पुपलियातकी महिमा

 

मह्माजीकी रथयात्राका विधान और कार्तिक शुक्ल प्रतिपदाकी महिमा सुमन्तु मुनिने कहा— राजा शतानीक ! कार्तिक प्रदक्षिणा करनी चाहिये, अनतर उसे अपने स्थानपर ले आना मासमें जो ब्रह्माजीकी उधयात्रा उत्सव करता है, वह चाहिये। आरती करके ब्रह्माजींकों उनके मन्दिरमें स्थापित अालको प्राप्त करता है। कार्तिक पूर्णिमाको मृगचर्मक करें। इस रथयात्राको सम्पन्न करनेवाले, रक्को खींचनेवाले आसनपर सावित्रीके साथ ब्रह्माजको दुधमें बिजमान करे तथा इसका दर्शन करनेवाले सभी ब्रह्मलोकको प्राप्त करते हैं। और विविध वाद्य-ध्वनिके साथ रथयात्रा निकाले। विशिष्ट दीपावलीके दिन ब्रह्माजीक मन्दिर में दीप ज्वलित करनेवाला उसके साथ ब्रह्माजींको थप वैनायें और थके आगे ब्रह्मलोकको प्राप्त करता है। इस दिन प्रतिपदाको ब्रह्माजी मह्माकं मम भक्त म्राह्मण शांतिपत्रको स्थापित र जा करके स्वयं भी वा-आमाणसे अत होना चाहिये । उनकी पूजा करे । ब्राह्मणोंक द्वारा स्वस्ति एवं पुण्याहवाचन यह प्रतिपदा तिथि ब्रह्माजीको बहुत प्रिय हैं। इसी तिथि कराये । उस रात्रि जागरण करे। नृत्य-गौत आदि रसव एवं बलिके ग्रन्यका आरम्भ हुआ है। इस दिन ब्रह्माजीका विविध क्रीड़ा ब्रह्माजीके सम्मुख प्रदर्शित करे। पूजनकर ब्राह्मण-भोजन करानेसे विष्णुलोककी प्राप्ति होती हैं।

इस प्रकार रात्रिमें जागरण कर प्रतिपदाके दिन प्रातःकाल चैत्र मासमें कृष्णप्रतिपदाके दिन (होली जलानेके दूसरे दिन) ब्रह्मर्जीका पुजन करना चाहिये। ब्राह्मणको भोजन कराना चाष्ट्राला स्पर्शकर स्नान करने से सभी आधि-व्याधियाँ दूर चाहिये, अनन्तर पुण्य शब्दोंके साथ यात्रा प्रारम्भ करनी हो जाती हैं। उस दिन गौ, महिष आदिको अलंकृतकर उन्हें चाहिये।

मण्डफ्के नीचे रखना चाहिये तथा ब्राह्मणोंको भोजन कराना चारों वेदोंके ज्ञाता उत्तम ब्राह्मण उस रथको खर्च और चाहिये। चैत्र, आश्विन और कार्निक इन तीनों महीनोंकी रथके आगे वेद पढ़ते हुए ब्राह्मण चलते रहें। ब्रह्माजीके प्रतिपदा श्रेष्ठ है, किंतु इनमें कार्तिककी प्रतिपदा विशेष श्रेष्ठ दक्षिण-भागमें सावित्री तथा वाम-भागमें भोजककी स्थापना है। इस दिन किया हुआ स्नान-दान आदि सौ गुने फलक देता करें। रथके आगे शङ्ख, भेरी, मृदङ्ग आदि विविध वाद्य बजते हैं। राजा बलिको इसी दिन राज्य मिला था, इसलिये रहें । इस प्रकार सारे नागरमें रथको शुमाना चाहिये और नगरकी कार्तिककी प्रतिपदा श्रेष्ठ मानी जाती हैं।

 

(अध्याय १८)

 

द्वितीया-कल्पमें महर्षि च्यवनकी कथा एवं पुष्पद्वितीया-व्रतकी महिमा सुमन्तु मुनि बोले-द्वितीया तिथिको च्यवनपिने एक समय अपनी सेना और अन्तःपुनके परिजनोंको साथ इन्द्रके सम्मुख यज्ञमें अश्विनीकुमारोंको सोमपान कराया था। लेकर महाराज शर्यंत गङ्गा-स्नानके लिये वह आये। उन्होंने | ज्ञाने पूछा–महाराज ! इइके सम्मुख किस विधिले च्यावनमुचिक आश्चमके समीप आफ गङ्गा मान सम्पन्न अश्विनीकुमारीको उन्होंने सोमरस पिलाया? क्या च्यवन- किया तथा देवताओंकी आराधना की और पितरोका तर्पण ऋषिकी तपस्याको प्रभावकी प्रवक्तासे इन्द्र कुछ भी करने किया । तदनन्तर जव में अपने नगरकी और जानेको उद्यत हुए। समर्थ नहीं हुए।

 

तो उसी समय उनकी सभी सेनाएँ व्याकुल हो गयॊ और मूत्र सुमन्तु मुनिने कहा- सत्ययुगका पूर्वसंध्या गङ्गाके तथा विठ्ठा उनके अचानक ही बंद हो गये, आँखोंसे कुछ भी तटपर समाधिस्थ हों च्यवनमुन बहुत दिनों तपस्यामें रत थे। नहीं दिखायीं दिया। अॅनाकों यह दशा देखकर राजा घबड़ा

अन्य पुगध तथा महाभारके अनुसार यह आश्चम सोनभद्र और बम कि समय था, को आज दुवकृपक नामास प्रमद्ध हैं। प्रायः पुराना गह इक भी प्राप्त होता है

मग तु गा पुण्या नदी पुण्या पुनः पुना। पवनय आम पुण्य पुम् जगह बनम्म् ।।

 

+ पुराणं परमं पुण्यं विन्यं सर्वसौस्पदम्

[ संक्षिप्त भविष्यपुराणा लें। राज्ञा झर्योति प्रत्येक व्यक्तिको पूछने लगे—यह तपस्वी वे इस महातपस्वी प्रकाशमान नेत्र थे। राजा वहाँ पहुँचकर | यवनमुनिका पवित्र आश्रम है, किसने कुछ अपराध तो नहीं अतिशय दौनताकै साध विनती करने लगेकिया ? उनके इस प्रकार पुनेपर किसने कुछ भी नहीं कहा। ना बोले–मान ! मेरों कयासे बहुत बड़ा सुकन्याने अपने पितासे का—माज | मैंने एक अपराध हो गया है। कार क्षमा करें। आश्चर्य देखा, जिसका मैं वर्णन कर रही हैं। अपनी च्यवनमुनिने का-अपराध तो मैंने क्षमा किया, सहेलियों के साथ मैं वन-विहार कर रहीं थीं कि एक ओरसे परंतु अपनी कन्याका मैं साथ विवाह कर दों, इसमें तुम्हारा मुझे यह शब्द सुनायीं पड़ा-‘सुकन्यै ! तुम इधर आओ, तुम कल्याण हैं। मुनिका वचन सुनकर जानें शीघ्र हीं सुकन्याका इधर आओ।’ यह सुनकर मैं अपनी सखियोंके साथ उस च्यवनषिसे विवाह कर दिया। सभी सेनाएँ सुखी हो गयी शब्दकी ओर गयी । वहाँ जाकर मैंने एक बहुत ऊँचा वल्मक और मुनिको प्रसन्नकर सुखपूर्वक राजा अपने नगरमें आकर राज्य करने लगें। सुकन्या भी विवाहके बाद भक्तिपूर्वक मुनिक सेवा करने लगीं। राज्ञवस्त्र, आभूषण उसने उतार दिये और वृक्षकों आल तथा मृगचर्म धारण कर लिया। इस प्रकार, मुनिकी सेवा करते हुए कुछ समय व्यतीत हो गया और वसन्त ऋतु आयीं। किसी दिन मुनिने संतान-प्राप्तिके लिये अपनी अनी सुकन्याका आह्वान किया। इसपर सुकन्याने अतिशय विनयभावसे विनती की सुकन्या बोली–महाराज ! आपकी आज्ञा मैं किसी कार भी झारू नहीं सकती, किंतु इसके लिये आपको कुवावस्था तथा सुन्दर वस्त्र-आभूषणोंमें अलंकृत कमनीय रूप धारण करना चाहिये।

च्यवनमुनिने उदास होकर कहा–ने मेरा उत्तम रूप है और न तुम्हारे पिताके समान मेरे पास धन हैं, जिसमें सभी भौग-सामग्रियोंकों मैं एकत्र कर सकें।  सुकन्या बोली–महाराज ! आप अपने ताके देखा। उसके अंदर स्त्रियोंमें दीपकके समान देदीप्यमान दो प्रभावसे सब कुछ करनेमें समर्थ हैं। आपके लिये यह पदार्थ मुझे दिखलायीं पड़े। उन्हें देखकर मुझे बम आश्चर्य वैन-सौं बड़ी बात है ? हुआ कि ये गर्माणके समान क्या चमक रहे हैं। मैंने च्यवनमुनिने कहा—नत्र ! इस कामके लिये मैं अपनी मूर्खता और चञ्चलतासे कुशाके अग्रभागसें वाल्मीकके अपनी तपस्या व्यर्थं नहीं करूंगा। इतना कहकर वे पहलेकी काशयुक्त छिड़कों बँध दिया, जिससे वह शान्त हो तरह तपस्या करने लगे। सुकन्या भी ऊनकी सेवामें तत्पर हों गया।

गन्य। यह सुनकर राजा बहुत व्याकुल में गये और अपनी इस प्रकार बहुत काल व्यतीत होनेके बाद अश्विनीकुमार कन्या सुकन्याको लेकर वहाँ गये जहाँ च्यवनमुनि तुपस्या त सी मासे चले जा रहे थे कि उनकी दृष्टि सुकन्यापर पड़ी। थे। यवनयको वहाँ समाभिस्थ होकर बैठे हुए इतने दिन अमिनमाने कहा-भद्दे ! तुम कौन हों ? और व्यतीत हो गये थे कि उनके ऊपर चमक बन गया था। जिन इस घोर वनमें अकेली क्यों रहती हो ? तेजस्वी छिको सुकन्पाने कुराके अग्रभागसे बँध दिया था, सुकन्याने कहा-मैं जा आपतिको सुकन्या नामकी ब्रह्मपर्य]

 

शियाकल्पमें महर्षि च्यवनकी कथा पुपांतीयाझनकी ममा

पुत्री है। मेरे पति च्यवन ऋषि यहाँ तपस्या कर रहे हैं, उन्हींकी सुकन्याकी इस प्रार्थना से अश्विनकुमार प्रसन्न हो गये सेवाकें लिये मैं यहाँ उनके समीप रहती हैं कहिये, आपोंग और उन्होंने देवताओंके चिह्नको धारण कर लिया सुकन्याने कौन हैं ?

देखा कि तीन पुरुषोंमेंसे की परके गिर नहीं रहीं हैं और अश्विनीकुमारोंने कहाहम् देवताओंके वैद्य अश्विनीकुमार हैं। इस वृद्ध पनिमें तुम्हें क्या सुख मिलेगा ? हम दोनोंमें किसी एकका वरण कर लें।

सुकन्याने कम-देवताओं ! आपका ऐसा कहना ठीक नहीं। मैं पतिव्रता है और सब प्रकार से अनुरक्त होकर दिन-रात अपने पति की सेवा करती हैं। | अश्विनीकुमारोंने कहा—यदि ऎसी बात है तौं हम

तुम्हारे पतिदें अपने उपचारके द्वारा अपने समान स्वस्थ एवं सुन्दर बना देंगे और जब हम तीनों गङ्गामें स्नानकर बाहर निकले फिर जिसे तुम पतिरूपमें वरण करना चाहो कर लेना।

सुकन्याने कहा-मैं बिना पतिकी आशाके कुछ नहीं  कह सकतीं।

अश्विनीकुमारोंने कहातुम अपने पति

आओ, तबतक हम यहीं प्रतीक्षामें रहेंगे।

सुकन्याने उनके चरण भूमिका स्पर्श नहीं कर रहे हैं, किंतु जो तीसरा पवनमुनिके पास जाकर उन्हें सम्पूर्ण वृत्तान्त बतलाया पुरूष है, वह भूमिपर खड़ा हैं और उसकी पलके भी गिर रही अश्विनीकुमाकी बात स्वीकार कर च्यवनमुन सुकन्याको है। इन चिों को देखकर सुकन्याने निश्चित कर लिया कि ये लेकर उनके पास आये।

तीसरे पुरुष हीं में स्वामी च्यवनमुन हैं। तब उसने इनका च्यवनमुनिने कहा-अश्विनीकुमारों ! आपकी शर्त वरण कर लिया। उस समय आकाशसे उसपर पुष्प-वृष्टि होने हमें स्वीकार हैं। आप हमें उत्तम रूपवान् बना दें, फिर सुकन्या लगी और देवगण इन्दुभि बजाने लगे। चाहे जिसे वरण को। च्यवनमुनिके इतना कहनेपर च्यवनमुनिने अश्विनीकुमारोंसे कहा-देयो ! आप अश्विनीकुमार च्यवनमुनिको लेकर गङ्गीके ज्ञलमें प्रविष्ट में गोंने मुझपर बहुत उपकार किया है, जिसके फलस्वरूप मुझे गये और कुछ देर बाद तीनों ही बाहर निकले। सुकन्याने देखा उत्तम रूप और उत्तम पली प्राप्त हुई। अब मैं आपलोगोंका कि ये तीनों तो समान रूप, समान अवस्था तथा समान क्या आपकार क, म्योंकि जो उपकार, कर्नयालेका वस्त्राभूषणोंसे अलंकृत हैं, फिर इनमें मेरे पति च्यवनमुनि कौन प्रत्युफ्कम नहीं करता, वह क्रमसे इक्कीस नरकोंमें जाता हैं, हैं? वह कुछ निश्चित न कर सकीं और व्याकुल हों इसलिये आपका मैं क्या प्रिय कहूँ, आप लौंग कहे।

अश्विनीकुमारोंकी प्रार्थना करने लगी।

अश्विनीमारोंने उनसे कहामारमन् !

यदि आप सुकन्या बोलींदेखो !

अत्यन्त रूप पतिदेयकम म हुमाग्न प्रिय करना हो चाहते हैं तो अन्य देवता की तरह हमें मैंने परित्याग नहीं किया था। अब तो आपकी कृपासे उनका भी यज्ञभाग दियाइये । च्यमनने यह बात स्वीकार कर रूप आपके समान सुन्दर हो गया है, फिर मैं कैसे बना ली, फिर वे उन्हें बिदाकर अपनी भार्या सुकन्याकै साथ अपने परित्याग कर सकती हैं। मैं आपकी शरण हैं, मुझपर कृपा आश्रममें आ गये। कानि ।

गुजा कार्यानिकों जब यह सारा वृत्तान्त ज्ञात हुआ तों में

१-उपका वरिष्ठं यों न करोम्युफ्कारिणः । ए त् स गच्या नामगि क्रमेण वै।

(ब्राल्ब ११ ॥ ५०-५१)

* पुराणं परमं पुण्यं भविष्यं सर्वसौख्यदम् +

[ संक्षिप्त भविष्यपुराणाङ्क भी ग़नीको साथ लेकर सुन्दर प – प्राप्त महातेजस्वी हैं, इसलिये मैं इन्हें अवश्य यज्ञभाग दूंगा। यह सुनकर इन्द्र च्यवनयिको देखने आश्रममें आये । राजाने च्यवनमुनिको क्रुद्ध हो उठे और कठोर स्वरमें कहने लगे।। प्रणाम किया और उन्होंने भी राजाका स्वागत किया। सुकन्याने इन्द्र बोले–यदि तुम मेरी बात नहीं मानोगे तो वन्नसे | अपनी माताको आलिङ्गन किया। गुजा शर्यात अपने जामाता तुमपर मैं प्रहार करूगा । इन्द्रकी ऐसी वाणी सुनकर च्यवनमुन महामुनि च्यवनका उतम रूप देखकर अस्पत प्रसन्न हुए। किंचित् भी भयभीत नहीं हुए और उन्होंने अश्विनकुमा को च्यवनमुनिने जासे कहा–राजन् ! एक महायज्ञक यज्ञभाग में हीं दिया, तब तो इन्द्र अत्यन्त क्रुद्ध हों ॐ और सामग्री एकत्र कौजिये, हम आपसे यज्ञ करायगे । च्यवन- उन्होंने ज्यों हीं च्यवनमुनिपर प्रहार करनेके लिये अपना वग्न | मुनिकी आज्ञा मान जा यति अपनी राजधानी औट उठाया यों ही जनमुनिने अपने तुपके प्रभाव इन्द्रका | आये और यज्ञ-सामग्री एकनकर यकी तैयारी करने लगे। स्नम्भ कर दिया । इन्द्र में बञ्च लिये खड़े हुँीं रह गये।

मन्त्री, पुरोहित और आचार्यको बुलाकर यज्ञकार्यके लिये उन्हें च्यवनमुनिने अश्विनीकुमारोंको यज्ञभाग देकर अपनी नियुक्त किया । च्यवनमुनि भी अपनी पाली मुकन्याको लेकर प्रतिज्ञा पूरी कर ली और यज्ञको पूर्ण किया। उस समय वहाँ यज्ञ-थलमें पधारे ब्रह्माजी उपस्थित हुए । | सभी ऋषिगको आमन्त्रण देकर यज्ञमैं बुलाया गया। ब्रह्माजींने च्यवनमुनसे कहा-महामुने ! आप विधिपूर्वक यज्ञ प्रारम्भ हुआ। त्विक् अग्निकाण्ड इन्द्रको स्तम्भन-मुक्त कर दें। अश्विनीकुमारोको यज्ञ-भाग ३ स्वामके साथ देवताओंको आहुति देने लगे। सभी देवता हैं। इन्ने भौं स्तम्भनसे मुक्त करनेके लिये प्रार्थना की अपना-अपना यज्ञ- भाग लेने यहाँ आ पहुँचे । च्यवनमुनिके इन्द्रने कहा—मुने ! आपके तपकी प्रसिद्धिके लिये ही कहने अश्विनीकुमार भी वहाँ आये। ट्रेनज इद उनके मैने इन अश्विनीकुमारों को यज्ञमें भाग लेने से रोका था, अब आनेक प्रयोजन समझ गये।

आजसे सब यशोंमें अन्य देवताओं के साथ अश्विनीकुमारों को | इन्द्र खोले—मुने ! ये दोनों अश्विनीकुमार देवताओंके भी यज्ञभाग मिला करेगा और इनको देवत्व भी प्राप्त होगा। वैद्य हैं, इसलिये ये यज्ञ-भागकै भिकारी नहीं हैं, आप इन्हें आपके इस तृपके अभावको जो सुनेगा अथवा पर्नेगा, वह भी आरितयाँ प्रदान न करवाये।

सः उत्तम रूप एवं गौचनको प्राप्त करेगा। इतना कह देवज़ च्यवनमुनिने इन्से कहा ये देवता हैं और इनका इन्द्र देवलोकको चले गये और च्यवनमुन सुकन्या तथा राज्ञी मेरे ऊपर बड़ा उपकार है, ये मेरे हीं आमन्त्रणपर, यहाँ पधारे शतके साथ आश्रमपर लौट आये। वीं उन्होंने देखा कि बहुत उत्तम-उत्तम महल बन गये है, जिनमें सन्दर, पवन और चापी आदि विहारके लिये अने हुए हैं। भाँति-भाँतिकी शय्याएँ बिछी हुई हैं, विविध रत्नमें जटित आभूषणों तथा उनम-उत्तम वस्त्रोंके ढेर लगे हैं। यह देकर सुकन्यासति च्यवनमुनि अत्यन्त प्रसन्न हो गये और उन्होंने यह सब देवराज इन्द्रद्वारा प्रदत्त समझकर उनकी प्रशंसा की। | महामुनि सुमन्तु राजा शतानीकसे बोले-राजन् ! इस प्रकार, द्वितीया तिथिकै दिन अश्विनी कुमारोको दैत्य तथा यज्ञभाग प्राप्त हुआ था। अब आप इस द्वितीया तिथिकै ब्रतका विधान सुनें शतानीक बोले-जो पुरुष उत्तम रूपकी इझ करे ज्ञानपर्व ]

 

+ फलद्वितीया (अशुन्ययन)का व्रतविधान

वह कार्तिक मासके शुक्ल पक्षकी द्वितीयासे व्रतकों आरम्भ करें आधि-धियोंसे रहित, पुत्र-पौत्रोंसे युक्त, उत्तम पत्रवाला | और वर्षपर्यन संयमित झोक्न पुष्पा-भोजन करें। जो उत्तम ब्राह्मण होता हैं अथवा मध्यर्देशके उन्नुम नगर में राज्ञा होता है।

विष्य-पुष्प अस ऋतुमें हों उनका आहार करें। इस प्रकार एक जन् ! इस पुष्पहतीया-बतका विधान मैंने आपको वर्ष झतका सोने-चाँदीके पुष्प अनाकर अथवा कमलपुष्पकों बताया। ऐसी ही फद्वितीया भी होती हैं, जिसे ब्राह्मणों को देकर व्रत सम्पन्न गर्ने । इससे अश्विनीकुमार संतुष्ट अशून्यशयना-द्वितीया भी कहते हैं। फलद्वतीयकों जो होकर उत्तम रूप प्रदान करते हैं । व्रत उत्तम विमानोंमें बैठकर श्रद्धापूर्वक व्रत करता है, वह ऋद्धि-सिद्धिको प्राप्तकर अपनी वर्गमें जाकर कल्पपर्यंत विविध सुखका उपभोग करता है। भार्यासहित आनन्द प्राप्त करता हैं। फिर मर्त्यलोकमें जन्म लेकर वेद-वेदाङ्गोंका ज्ञाता, महादानी,

(अध्याय १९)

फल-द्वितीया (अशून्यशयन-अत) का व्रत-विधान और द्वितीया-कल्पकी समाप्ति राजा ज्ञाताचींकने का—मुने ! कृपाकर आप फ भगवानको यि है, भगवान् शय्यापर समर्पत फलद्वतीयाका विधान कहें, जिसके करने से वीं विधवा नहीं करना चाहिये और स्वयं भौं रात्रिके समय उन्हीं फलोंको होती और पति-पत्नीका परस्पर वियोग भी नहीं होता। खाकर दूसरे दिन ब्राह्मणोंको दक्षिणा देनी चाहिये।

सुमन्तु मुनिने कहाराजन् !

मैं फलद्वितीयाका राजा शतानीकने पूछामहामुने !

भगवान् विष्णुको विधान कहता हैं. इसी नाम अशून्यशायना-द्वितीया भी हैं। कौन-से फल प्रिय हैं, आप उन्हें बतायें। दूसरे दिन ब्राह्मणोंको इस व्रत विधिपूर्वक करनेसे नौ विधवा नहीं होतीं और क्या दान देना चाहिये । उसे भी कहें स्त्री-पुरुष का परस्पर वियोग भी नहीं होता।

क्षीरसागरमें सुमन्तु मुनि बोलेजन् !

उस ऋतुमें जो भी फल लक्ष्मीक साथ भगवान् विष्णुकें शयन करनेके समय यह व्रत हों और पके हों, उन्हींकों भगवान् विष्णके लिये समर्पित करना होता है। श्रावण मासके कृष्ण पक्षको द्वितीयाके दिन लक्ष्मौके चाहिये । कडवे-कच्चे तथा खट्टे फल उनकी सेवामैं नहीं चढ़ाने साध श्रीवत्सधारी भगवान् विष्णुका पूजाक्का हाथ जोड़कर चाहिये । भगवान् विष्णुको स्वर, नारियल, मातुङ्ग अर्थात् इस प्रकार प्रार्थना करनी चाहियें बिजौरा आदि मधुर फलोंकों समर्पित करना चाहिये।

 

भगवान् श्रीवत्सबारिन् श्रीकान्त वत्स ऑपतेऽव्यय  

मधुर फलोंसे प्रसन्न होते हैं। दूसरे दिन ब्राह्मणोंको भी इस गार्हस्थ्यं मा प्रणाझं में यातु अर्माबंकामदम् ।।

प्रकारके मधुर फल, वस्त्र, अन्न तथा सुवर्णका दान देना चाहिये।

गावश्च मा अणश्यतु मा प्रत्यन्तु में जनाः

इस प्रकार जो पुरुष चार मासतक व्रत करता है, उसका जामयों मा प्रणश्यन्तु पत्तों दाम्पत्यभेदतः । तीन जन्मोंक गार्हस्थ्य जीवन नष्ट नहीं होता और न तों क्षम्या विन्ये देव न कदाचिया भवान् ॥ ऐमर्यकी कम होती है। ज्ञों की इस व्रत को करती है वह तीन तथा कलत्रसम्बों देव मा में विद्युन्यताम् । जन्मोंतक न विधया होती है न दुर्भगा और न पतिसे पृथक् हों लक्ष्म्या न शुन्यं वद यथा ते अपने सदा ॥ रहती है। शया ममाप्यशून्यास्तु तथा तु मधुसूदन। इस व्रतके दिन अश्विनीकुमारोंकी भी पूजा करनी चाहियें।

राजन् ! इस प्रकार मैंने द्वितीया-कल्पका वर्णन इस प्रकार विष्णु की प्रार्थना करके व्रत करना चाहिये। जो किया है।

(अध्याय ३०)

भगवान् नरनारायणकी वन्दना

तस्मै नमो भगवते पुरुषाय भूमें विश्वाय विश्वगुण्ये पदैवतायें

 नारायणाय ऋषये नरोत्तमाय इंसाय संग्रतग निगमैश्चराय ।।

 

पर्शनं निगम आत्मरहआकाश मुनि पत्र कयोंजारा अनत्तः

तं सर्चबादविषयप्रतिपशील वन्दे महापुरुषमात्मन गुयोधम्

 

 ( महर्षि मार्कण्डेयजी कहते हैं-) भगवन् ! आप अत्तर्यामी, सर्वव्यापक, सर्वस्वरूप, जागरु, परमाणुध्य और । । शुद्धस्वरूप हैं। समस्त लौकिक और वैदिक वाणीं आपके अधीन हैं। आप ही चेदमार्गके प्रवर्तक हैं। मैं आपके इस युगलस्वरूप नरोत्तम नर और ऋषिवर नारायणको नमस्कार करता है। प्रभो ! वेदमें आपका साक्षात्कार करानेवाला वह ।। । ज्ञान पूर्णरुपसे विद्यमान हैं, जो आपके स्वरूपका रहस्य प्रकट करता है। ब्रह्मा आदि बड़े-बड़े प्रतिभाशाली मनीषी उसे ।  भान नेम चल र नेपा भी महमें पड़ जाते हैं। आप मन से मैसा हैं कि विभिन्न मतवालें आप सम्बन्ध जैसा सोचते-विचारते हैं, वैसा ही शील-स्वभाल और रूपा ग्रहण करके आप उनके सामने प्रकट हो जाते हैं। वास्तव भादि समस्त उपाधियोंमें छिपे हुए विशुद्ध विज्ञानान ही है। हे पुरुषोत्तम ! मैं आपकी बन्दना करता हैं।

 

वैदिक स्तवन

ईशा बास्यमिद सय बत्किय जगत्यां जगत् |

 तेन त्यक्तेन भुञ्जीथा मा गुपः कस्य स्विद् धनम्

 

अखिल ब्रह्माण्ड में जो कुछ भी जड़-चेतनस्वरूप जगत् हैं, यह समस्त ईश्वरसे व्याप्त है। उस ईश्वरको साध रखते । * हुए त्यागपूर्वक ( इसे ) भोगते रहो। ( इसमें ) आसक्त मत ओ, ( क्योंकि ) धन–भोग्य-पदार्थ किसका है अर्थात् ।। किसी भी नहीं है।

 

 

नो मित्रः वरुणः नो भवत्वर्यमा शं नो हस्पतिः शं नो विक्रमः   नमो नसणे नमस्ते बायो। स्वमेव प्रत्यको मामि क्यामेव प्रत्यक्षं वदिष्यामि अर्ज वदिष्यामि सत्यं वदिष्यामि तपामवतु मनन् अमन माम् अनु परम्। शान्तिः शान्तिः कान्तिः ।।

 

हमारे लिये ( दिन और प्राणके अधिष्ठाता ) मित्र देवता कल्याणप्रद हो ( तथा ) ( रात्रि और अपानके । अघिल्लाता ) वरुण ( मी ) कल्याणप्रद । ( चक्षु और सूर्यमण्डलके पिल्लाला ) अर्थमा हमारे लिये कल्याणकारी । हो, ( बल और भुजाओंके अधिष्ठाता ) इन्द्र ( तथा ) [ वाणी और बुद्धिके अधिष्ठाता ) बृहस्पति ( दोनों ) हमारे । | लिये ति दान करनेवाले झैं । त्रिविक्रमरूपसे विशाल वाले विष्णु ( जों के अधिष्ठाता हैं | हमारे लियें । कल्याण । उपरीक्त सभी देवताओंके आत्मस्वरूप | मझके लिये नमस्कार है। हे मायव ! तु दिये । नमस्कार है, तुम हमें यक्ष ( प्राणरूपसे प्रतीत होनेवाले ) आय हो। ( इसलिये मैं ) तुमकों ही प्रत्यक्ष ब्रह्म कहूँगा, ( तुम ऋतके अधिष्ठाता हैं, इसलिये मैं तुम्हें ) ऋत नामसे पुकारूंगा, ( तुम सल्के अधिष्ठाता हो, अतः मैं तुम्हें ) । सत्यं नामसे कहूँगा, यह ( सर्वशक्तिमान् परमेश्वर ) मेरी रक्षा करे, वह वक्तकी अर्थात् आचार्यकी रक्षा कने, रक्षा करे मेरी । और रक्षा कों में आचार्यकी। भगवान् शान्तिस्वरूप है, निस्वरूप है, शान्तिस्वरूप हैं।  

 

चित्रं देवानाम्दगानी भित्रस्य अरुणस्यामैः

आशा मावापृथिवीं अन्तरिक्ष सूर्य आत्मा जगतसतस्थुषश्च

 

जो तेजेपी किरणों के पुञ्ज हैं, मित्र, वरुण तथा मि आदि देवताओं एवं समस्त विश्व प्राणियोंके नेत्र हैं और । पामर तथा अङ्गम सबके अन्तर्याम आत्मा हैं, वे भगवान् सूर्य आकाश, पृथ्वी और अनरिक्षकको अपने प्रकाशसे । पूर्ण करते हुए आश्चर्यरूपसे उदित हो रहे हैं।

 

 

 

 

वेदाङ्गमैतं पुर्य मानमादित्यवर्ग तमसः पलान्

तमेव विदित्वाति मृत्युमेति नान्यः पन्था वियनाय ।।

 

मैं आदित्य-स्वरूपयाले सूर्यमण्डलस्थ महान् पुरुषों, जो अन्धकारमें सर्वधा में, पूर्ण प्रकाश देनेवाले और ।। । परमात्मा हैं, उन्हें जानता हैं। उन्हींको ज्ञानक्र मनुष्य मृत्यु लम जाता है। मनुष्यके लिये मोम-प्राप्तिका दूसरा कोई अन्य मार्ग ना है।

 

चिनि देव सवितरितानि परासुव यद् मई तान्न सुव ।।।

समस्त संसारको उत्पन्न करनेवाले–सृष्टि-पालन-संहार करनेवाले किंवा विश्वमें सर्वाधिक देदीप्यमान एवं जगत्कों शुभकर्मोंमें प्रवृत्त करनेवाले हे परब्रह्मस्वरूप सविता देव ! आप हमारे सम्पूर्ण-आधिभौतिक, आधिदैविक, आध्यात्मिक–दुरित ( बुराइयो–पापों ] को हमसे दूर–गहुत दूर ले जायें, दूर करें, किंतु जो भद्र ( भ ) है, । करन्याश हैं, जेय हैं, मङ्गल हैं, उसे हमारे लिये—विभके हम सभी प्राणियोंके लिये चारों ओरसे ( भलीभाँति ) ले । आये, ६–’यद् भद्रं तन्न आ सुन्न ।

असतो मा सद् गमय । तमसो मा ज्योतिर्गमय। मृत्योर्मामृतं गमय ॥

 

हे भगवन् ! आप हमें असत्से सतुझी ओर, नमसे ज्यौतिकी और तथा मुल्यूसे अमरताकी ओर ले चलें ।

 

 

 

 

 

 

 

* भानु मा तत्सवितुर्वरेण्यम् *

पुनातु मां तत्सवितुर्वरेण्यम्

(आदित्यहृदयसारामृत)

अपरलं दीप्तिकर विशालं प्रभं तब्रमनादिरूपम्

दारिद्रयदुःषक्षयकारणं पुनातु मां तत्सवितुर्वरेण्यम्

 

न्मलं देवगणैः सुपूजितं विप्रैः स्तुत मानवमुक्तिकोविंदम्

 तं देवदेवं प्रणमामि सूर्य पुनातु तत्सवितुर्वरेण्यम्

यमण्डलं ज्ञानभने त्वगर्य भैलोक्यपून्यं त्रिगुणात्मरूपम्।

समस्ततेनोमयदिव्यरूपं पुनातु मा तत्सवितुर्वरेण्यम् ।।

 

यमण्डले गुमतिप्रबोधं धर्मस्य बुद्धिं कुरते जनानाम्

यसर्यपापक्षयकारणं पुनातु मां तत्सवितुर्वरेण्यम् ।।

 

यमपलं व्याधिविनाशदश्च यदुग्यजुःसामसु सम्प्रगतम्

 प्रकाशितं येन भूर्भुवः स्वः पुनातु मां तत्सवितुर्वरेण्यम् ।।

 

अपने बैंदविदों दिन्ति गायति धारासिद्धसंघाः

अयोगिनों योगनुर्वा संघाः पुनातु मां तत्सवितुर्वरेण्यम् ।।

 

यन्मएडा सर्वजनेषु पूजितं ज्योतिश कुद मत्र्यलोके

अत्कालकालादिमनादिरूप पुनातु तत्सवितुर्वरेण्यम् ।।

 

यमण्डलं विष्णचतुर्मुखानं यदक्षरं पापहरं जनानाम्

यत्कालकल्पक्षयकारणं पुनातु मां सत्सवितुर्वरेण्यम् ।।

यन्मने विसृजां प्रसिद्धमुपनिरक्षाप्रलयप्रगल्भम्

पञ्जगत् संहरतेऽखिलं पुनातु मा तत्सवितुर्वरेण्यम्

 

यसम्झर्न क्नम्प विष्णोरारमा परे धाम विशुद्धतत्त्वम्

 सुश्मान्तरैयोगपश्चानुगम्य पुनातु मां तत्सवितुर्वरेण्यम्

 

अमन वेदक्दिोंपगीतं अद्योगिनां योगपश्चानुगम्यम्

तत्सर्ववेदं प्रणमामि सूर्य पुनातु मां नसवितुर्वरेण्यम्

 

जिन भगवान् सूर्यका प्रखर तेजोमय मण्डल विशाल, लोंके समान प्रभासित, अनादिकाल-स्वरूप, समस्त लोकका दुःख-दारिद्र्य-संहारक हैं, वह मुझे पवित्र करें। जिन भगवान् सूर्यका वरेण्य मण्डल देवसमूहोंद्वारा अर्चित, विद्वान् ब्राह्मणोंद्वारा संस्तुत तथा मानो मुक्ति देनेमें प्रवीण हैं, वह मुझे पवित्र करें, मैं उसे प्रणाम करता हैं। जिन भगवान् सूर्यका मण्डल अखण्ड-विच्छेद्य, ज्ञानस्वरूप, तीनों लोकों द्वारा पूज्य, सत्व, रज, तम-इन तीनों गुणों से युक्त, समस्त तेजों तथा प्रकाश-पुञ्जसे युक्त है, यह मुझे पवित्र करे। जिन भगवान् सूर्यका श्रेष्ठ मण्डल गूढ़ होनेके कारण अत्यन्त कठिनतासे ज्ञानगम्य हैं तथा भक्तक हृदय धार्मिक बुद्धि उत्पन्न करता है, जिससे समस्त पापका क्षय हो जाता है, वह मुझे पवित्र करे। जिन भगवान् सूर्यका मण्डल समस्त आधि-व्याधियोंका उन्मूलन करनेमें अत्यन्त कुशल हैं, जो ऋऋक, अनुः तथा साम–इन तीनों वेदक द्वारा सदा संस्तत है और जिसके द्वारा भलॉक, अन्तरिक्षलोक तथा स्वर्गलोक सदा प्रकाशित रहता है, वह मुझे पवित्र करे। जिन भगवान् सूर्यके श्रेष्ठ मण्डलको वेदवेत्ता विद्वान् ठीक-ठीक जानते तथा प्राप्त करते हैं, चारणगण तथा सिद्धका समूह जिसका गान करते हैं, योग-साधना करनेवाले योगिजन जिसे प्राप्त करते हैं, वह मुझे पवित्र करे। जिन भगवान् सूर्यका मण्डल सभी प्राणियोंद्वारा पूजित हैं तथा जो इस मनुष्यलोकमें प्रकाशका विस्तार करता है और जो कानवका भी काल एवं अनादिकाल-रूप है, वह म पवित्र करें। जिन भगवान् सूर्यके मण्डलमें ब्रह्मा एवं विष्णुक आया है, जिनके नामोच्चारणसे भक्तोंके पाप नष्ट हो जाते हैं, जो क्षण, कला, काष्टा, संवत्सरसे लेकर कल्पपर्यंत कालका कारण तथा सृष्टिके प्रलयका भी कारण हैं, वह मुझे पवित्र करे। जिन भगवान् सूर्यका मण्डल प्रजापतियोंकी भी उत्पत्ति, पालन और संहार करनेमें सक्षम एवं प्रसिद्ध है।

 

और जिसमें यह सम्पूर्ण जगत् संहृत होकर लीन हो जाता हैं, वह मुझे पवित्र करै । जिन भगवान् सूर्यका मण्डल सम्पूर्ण प्राणिवर्गका तथा विष्णुकीं भी आत्मा हैं, जो सबसे ऊपर श्रेष्ठ लोक हैं, शुद्धातिशुद्ध सारभूततत्त्व है और सूक्ष्म-से-सूक्ष्म साधनोंके द्वारा योगियोंक देवयानद्वारा प्राप्य है, वह मुझे पवित्र को। जिन भगवान् सूर्यका मण्डल वेदवादियोंद्वारा सदा संस्तुत और योगियोको योग-साधनासे प्राप्त होता है, मैं तीनों कान और तीनों लोकोंक समस्त तत्वोंके ज्ञाता अन भगवान् सूर्यको प्रणाम करता हैं, वह मण्डल मुझे पवित्र करे।

 

* पुराणं परमं पुण्यं भविष्यं सर्वसौख्यदम्

पुराणश्रवणकालमें पालनीय धर्म

अद्धार्धाकसमायुक्ता नान्यकार्येषु लामाः

वाग्यताः शुचयोध्या: औतारः पुण्यभागिनः ।।

अभक्त्या में यां पुण्य प्रवत्त मनुजाधमाः

तेषां पुण्यफलं नास्ति दुःखं स्यामजन्मनि

पुराण में सम्पून्य ताम्बूलाचैपायनैः

शृण्वत कां भक्त्यादरिद्वाः खुर्न संशयः

कवायां की&मानायां चे गळ्यन्यतो नराः

मोगान्त प्रणश्यन्ति तेषां द्वारा सम्पदः

सोंचमाका ये कथां शृण्र्यात पावनीम्

तें बसाकाः प्रजायतें पापिनों मनुजामाः ।।

ताम्बूलं अक्षयतों ये कश्व धुण्वन पावनम्

अनि खादयन्येलान्, नयन अमकिकराः ।।

में जुङ्गासनालाः कञ्च थुम्वत दाम्भिकाः

अक्षयनरकान् भुक्त्वा ने भवन्त्येव वायसाः

में वै वासनारूका ये मध्यासनस्थिताः

मृण्वत सत्कर्षा ते वै अवयनमादपाः ।।

सम्मणम्य शृण्यन्त विषभक्षा भवन ते

तया शयानाः मृण्वन भवन्यजगरा नराः ।।

 

जो लोग श्रद्धा और भक्ति सम्पन्न, अन्य कार्योकी लालसासे रहित, मौन, पवित्र और शान्तचित्तसे (पुराणकी कथाको) श्रवण करते हैं, ये ही पुण्यके भाग होते हैं। जो अधम मनुष्य भक्तिहित होकर पुण्यकथाको सुनते हैं, उन्हें पुण्यफल तो मिलता नहीं, उन्हें प्रत्येक जन्ममें दुःख भोगना पड़ता है। जो लोंग ताम्बुल, पुष्प, चन्दन आदि पूजन-सामग्निर्योाग्न पुराणकी भलीभाँति पूजा करके भक्तिपूर्वक कथा सुनते हैं, ये निःसंदेह दरिद्रतारहित अर्थात् धनवान् होते हैं। जो मनुष्य कथा होते समय अन्य कार्योक लिये वहाँसे उठकर अन्यत्र चले जाते हैं, उनकी पत्नी और सम्पत्ति नष्ट हो जाती हैं। जो पापी अधम मनुष्य मस्तकपर पगड़ी बाँधकर (या टोपी लगाकर) पवित्र कथा सुनते हैं, वे बगुला कर उत्पन्न होते हैं। जो लोंग पान चबाते हुए पवित्र | कथा सुननी है, उन्हें कन म भ न करना पड़ता है और समदत न ममपीमें ले जाते हैं। जो नगी मन (मासासन  ऊँचे आसन पर बैठकर कथा सुनते हैं, वे अक्षय नरकका भोग करके औआ होते है। जो लोग (च्यासासनसे) श्रेष्ठ आसनपर अथवा मध्यम आसनपर बैठकर उत्तम कथा श्रवण करते हैं, वे अर्जुन नामक वृक्ष होते हैं। (जो मनुष्य पुराणकी पुस्तक और व्यासको) बिना प्रणाम किये ही कथा सुनते हैं, वे विभक्षीं होते हैं तथा जो लोग सोते हुए कथा सुनते हैं, ये अजगर साँप होते हैं।

 

 

यः शृणोति कथां वक्तुः समानासनसंस्थितः

गुल्पसमें पापं सम्माप्य नरकं ब्रजेत्

ये निंदन पुराणज्ञान् कश्च वै पापहारिणीम्

वें जन्मजात मत्र्याः सूकः सम्भवन्ति हि ।।

कदाचिदपि में पुण्य भुण्वन्ति कथा नराः

तें भुक्त्वा नाकान् घोरान् भवन्ति वनसूकरा:

ये कथामनुमोदने कार्यमानां नरोत्तमाः

अम्वन्नपि ते पानि शाश्वत परमं पदम्

कवायां कींयमानार्था विग्न कुर्वन्ति ये शाः

कोपब्दं नरान् मुक्या भयन्त आमसूकराः ।।

ये आवयनि मनुमान् पुण्य पौराणिक कथाम्

कल्पकॉटिश सामं तिष्ठन्ति ब्रह्मणः पदें

आसनार्थं प्रयन्त पुराणज्ञस्य ये नराः

कम्बलाबनवासांसि मयं फलकमेव ।।

स्वर्गलोकं ममामा भुकवा भोगान् यथेप्सितान्

स्थित्वा प्रादिलोकेषु पदं यान्ति निरामयम्

 

इसी प्रकार ज्ञों वक्ताके समान आसनपर बैठकर कथा सुनता है, वह गुरु-शय्या-गमनके समान पापका भागी होकर नरकगामों होता है। जो मनुष्य पुराणोके ज्ञाता (व्यास) और पापोंको हरण करनेवाली कथाकी निन्दा करते हैं, वे सौ जन्मतक सूकम-योनिमें उत्पन्न होते हैं। जो मनुष्य इस पुण्य कथाकों कभी भी नहीं सुनते, ये घोर नरकका भोग करके वनैले सुअर होते है। जो नरश्रेणु की जाती हई का अनुमोदन करते हैं, ये कथा न सननैपर भी अविनाशी परम पदक प्राप्त होते हैं। जो दुष्ट कहीं जातीं हुई कथामें विघ्र पैदा करते हैं, करोड़ों वर्षों तक नरकका भोग करके अनमें ग्रामीण सूअर होते हैं। जो लोंग साधारण मनुष्योंको पुराणसम्बधी पुण्य कथा सुनाते हैं, वे सौ करोड़ कल्पोंसे भी अधिक समयतक ब्रह्मकमें निवास करते हैं। जो मनुष्य पुराणके ज्ञाता वक्ताको आसनके लिये कम्बल, मृगचर्म, वस्त्र, सिंहासन और चौकी प्रदान करते हैं, वे स्वर्गलोकमें जाकर अभीष्ट भोगका उपभोग करनेके बाद ब्रह्मा आदिकै लोकों में निवास कर अत्तमें निरामय पदक प्राप्त होते हैं।

 

पुराणस्य अमरन्ति में चारासनमुत्तमम्

माँगनों ज्ञानासम्मन्ना भाति भवें भवें

में मापातकर्युक्ता उपपातकनवा दें।

पुराणवणादेव ते प्रयान्ति परं पदम्

पूर्ववियविधानेन पुराण शृणुयान्नरः

भृक्वा योगान् यथाकार्म चिल्लोर्क प्राति सः

पुस्तकं पूजयेत् पश्चाद् वस्त्रालंकरणादिभिः

वाचकं विप्रसंयुक्तं पूजयीत प्रपलवान्

गोधूपिमबखाणि वाचकाप निवेदयेत्

ब्राह्मणान् भोजयेत् पश्चान्यपद्धलाकपायसैः ।।

त्वं मसरूपी भगवन् बुद्धा चाङ्गिरसोपमः

पुण्यवान् शीलसम्पन्नः सत्यवादी जितेन्द्रियः

प्रसन्नमानसं कुर्याद् दानमानोपचारतः

वासादादिमान् धर्मान् सम्पूर्णानुतवानहम्

एवं प्रार्थनकं कृत्वा व्यासस्य परमात्मनः

यास्त्री भवेन्नित्यं यः कुर्यादयमादरात्

नारदोक्तानिमान् धर्मान् यः कुर्यात्रियतेन्द्रियः

कृत्रं फलमवाप्नोति पुरापावास्य वै॥

 

इसी तरह जों अंग पुराणको पुस्तकके लिये उत्तम श्रेष्ठ आसन प्रदान करते हैं, वे प्रत्येक जन्ममैं भोगका उपभोग करनेवाले एवं ज्ञानी होते हैं। जो महापातकोंसे युक्त अथवा उपपातक होते हैं, वे सभी पुरागको कथा सुननेसे ही परम पदको प्राप्त हों जाते हैं। जो मनुष्य इस प्रकारके नियम-विधानसे पुराणकी कथा सुनता है, वह स्लेअनुसार भोग भोगकर विष्णुलेकों चला जाता है। कथा समाप्त होने पर होता पुरुष प्रयत्नपूर्वक वा और अलंकार आरिद्वाग्र पुस्तकको पूजा करें। तत्पश्चात् सहायक ब्राह्मणसहित वाचककी कूजा करे। उस समय वाचा गौं, पृथ्वी, सोना और वा देना चाहिये। तदुपरान्त ब्राह्मणों मलाई, लड़ और खीर भोजन करना चाहिये। तदनन्तर परमात्मा व्याससे प्रार्थना को–’आप व्यासरूपी भगवान् बुझिमें बृहस्पतिके समान, पुण्यवान्, शौसम्पन्न, सत्यवादी और जितेन्द्रिय है, आपकी कृपासे मैंने इन सम्पूर्ण धमको सुना है। इस प्रकार प्रार्थना कर दान, मान और सेवासे उनके मन प्रसन्न करना चाहिये । जो मनुष्य इस प्रकार आदरपूर्वक करता है, वह सदा यशस्वी होता है। जो जितेन्द्रिय मनुष्य देवर्षि नारदद्वारा कहे गये इन धमका पालन करता है, वह पुराण-श्रवणका सम्पूर्ण फल पाता है।

 

पुराणमहिमा

यज्ञकर्मीकयावेदः स्मृतियेंद गृहाने ।

स्मृतिर्वेदः कियावेदः पुराणेषु प्रतिष्ठितः  पुराणपुरुषालाई अचेदं जगदतम् ॥

 

तथेदं वाक्यं जातं पुराणेभ्यो न संशयः।

वैदे प्रसंचारों में शुद्धिः कालबोधिनी । तिथिवृद्धक्षयों चापि पर्वग्रहविनिर्णयः ॥

 

 इतिहासपुगणैस्तु नियोऽयं कृतः पुरा ।

अन्न दृष्टं हि वेदेषु तसर्व लक्ष्यते स्मृतौ ॥

 

अभयर्यन्न दृशं हि तत्पुरा: अगीयते ।

 

यज्ञ एवं कर्मकाउके लिये वेद प्रमाण ।

गृहम्धके लिये स्मृतियाँ हीं प्रमाण हैं ।

 

किंतु कैद और स्मृतिशास्त्र (धर्मशास्त्र) दोनों ही सम्यक् रूपसे पुराणोंमें प्रतिष्ठित हैं। जैसे परम पुरुष परमात्मासे यह अद्भुत जगत् अत्पन्न हुआ है, वैसे ही सम्पूर्ण संसारका वाट्य-साहित्य पुरागसे ही उत्पन्न हैं, इसमें लेशमात्र भी संशय नहीं है। वेदोंमें तिथि, नक्षत्र आदि काल निर्णायक और अह-संचार कोई मुक्ति नहीं बतायी गयी हैं। तिथियों वृद्धि, क्षय, पर्व, अहण आदिका निर्णय भी उनमें नहीं है। यह निर्णय सर्वप्रथम इतिहास-पुराणोंक द्वारा ही निश्चित किया गया हैं। जो बातें वेदोंमें नहीं हैं, ये सब स्मृतियोंमें हैं और जो बातें इन दोनोंमें नहीं मिलता, वे पुराणों के द्वारा ज्ञात होती हैं।

 

*भविष्यपुराण‘–एक परिचय

भारतीय वाङ्मय पुराणका एक विशिष्ट स्थान है। इनमें तीर्थसेवन, देवपूजन, आद्ध-तर्पण आदि शास्त्रविहित शुभ येटके निगढ़ अर्थाका स्पष्टीकरण तो है ही, कर्मकाण्ड, कम जनसाधारण प्रवृत्त करनेके लिये उनके लौकिक एवं पासनाकाद्ध तथा शानकाण्डके सरलतम विस्तारके पारलौकिक फलोंका भी वर्णन किया गया हैं। इनके अतिरिक्त साथ-साथ कथावैचित्र्य द्वारा साधारण जनताको भी पुराणोंमें अन्यान्य कई विषयोंका समावेश पाया जाता है। गड-से-गुड़तम तत्वको हृदयङ्गम क देनेको अपनी अपूर्व इसके साध ही पुराणोंकी कथाआमें असम्भव-सी दौखनेवाली विशेषता भी है। इस युगमें धर्मकी रक्षा और भक्ति मनोरम कुछ आते परस्पर विरोधी-सीं भी दिखायी देती हैं, जिसे स्वल्प विकासका ज्ञों यत्किंचित् दर्शन हो रहा है, उसका समस्त श्रेय श्रद्धावाले पुरुष काल्पनिक मानने लगते हैं। परंतु यथार्थ पुराण-साहित्य ही हैं। वस्तुतः भारतीय संस्कृति और ऐसी बात नहीं है। यह सत्य है कि पुराणमें कहीं-कहीं साधनाके में कर्म, ज्ञान और भक्तम मूल लॉत चेद या न्युनकिता हुई है एवं विदेशी तथा विधर्मियॉर्क श्रुतिको ही माना गया है। वेद अपौरुषेय, नित्य और स्वयं आक्रमण-अत्याचारसे बहुत अंश आज उपलब्ध भी नहीं भगवान्को शब्दमयीं मूर्ति हैं। स्वरूपतः वे भगवान्के साथ हैं। इसी तरह कुछ अंश प्रक्षिप्त भी हो सकते हैं। परंतु इससे | भिन्न हैं, परंतु अर्थक दृष्टि में केंद अत्यन्त दुरूह भी हैं। पुराणोंकी मूल महत्ता तथा प्राचीनतामें कोई बाधा नहीं आती। | जिनका ग्रहण तपस्याके बिना नहीं किया जा सका। व्यास, ‘भविष्यपुराणा’ अतः महाराणोंके अन्तर्गत एक शाल्मीकि आदि ऋषि तपस्याहारा ईआरकपासे ही वेदका अकूत महत्त्वपूर्ण सात्विक पुराण है, इसमें इतने महत्त्वकै विषय भी अर्थ जान पाये थे। उन्होंने यह भी जाना था कि जगतुके हैं, जिन्हें पढ़-सुनकर चमकत होना पड़ता है। यद्यपि कल्याणके लिये वेदके निगृद्ध अर्थमा प्रचार करने में इलोक-संस्में न्यूनाधिका प्रतीत होती हैं। भविष्यपुराणके । आवश्यकता है। इसलिये उन्होंने उसीं अर्वको सरल भाषामें अनुसार इसमें पचास हजार श्लोक होने चाहिये; जबकि पुराण, रामायण और महाभारतके द्वारा प्रकट किया। इससे वर्तमानमें अट्ठाईस सहल श्लोक हीं इस पुराणमें उपलब्ध शास्त्रोंमें कहा है कि रामायण, महाभारत और पुराणों की हैं। कुछ अन्य पुराणोंके अनुसार, इसकी लोक-संख्या साढ़े सहायतासे वेदोंम अर्थ समझना चाहिये-‘इतिहास- चौदह सहन होनी चाहिये । इससे यह प्रतीत होता है कि जैसे पुराणाभ्य वेदं समुपयेत् । इसके साथ ही विष्णुपुराणकी श्लोक संख्या विष्णुधर्मोत्तरषणकों सम्मिलित इतिहास-पाको दौके समकक्ष मझम वेदके रूपमें माना करनेमें पूर्ण होती है, वैसे ही भविष्यपुराणमें भविष्योत्तरपण गया हैं। छान्दोग्योपनिषद्में नारदजीने सनकुमारजीसे कहा सम्मिलित कर लिया गया है, जो वर्तमानमें भविष्यपुराणका है–‘स नेवाच ऋग्वेदं भगवमिं यजुर्वेद : उत्तरपर्व हैं। इस पर्वमें मुख्यरूपसे क्त, दान एवं उत्सवोंका ही

सामवेदमाश्चर्वणं चतुर्थीमतिहासपुराणं पञ्चमं वेदानां वर्णन है। | बेदम् ।

 मैं ऋग्वेद, यजुर्वेद, सामवेद तथा चौथे अथर्ववेद वस्तुतः भविष्यापुराण सौर-प्रधान ग्रन्थ हैं। इसके

और पांचवें केंद तिहास-पुराणको जानता है। इस प्रकार अधिष्ठातृदेव भगवान् सूर्य हैं, वैसे भी सूर्यनारायण प्रत्यक्ष पुराणोंकी अनादिता, प्रामाणिकता तथा मङ्गलमयता सर्वत्र देवता हैं जो पोंमें परिगणित हैं और अपने शास्त्रोंके उस्लेख है और वह सर्वथा सिद्ध तथा यथार्थ हैं। भगवान् अनुसार पूर्णब्रह्मकै रूपमें प्रतिष्ठित हैं। द्विजमाञके लिये प्रातः, व्यासदेवने प्राचीनतम पुगणका प्रकाश और प्रचार किया है। मध्याह्न एवं सायंकाल संध्यामें सूर्यदेवकों अयं प्रदान वस्तुतः पुराण अनादि और नित्य हैं।

करना अनिवार्य है, इसके अतिरिक्त स्त्री तथा अन्य आश्रमों के । पुराणोंमें भक्ति, ज्ञान, वैराग्य, सदाचार तथा सकाम एवं लिये भी नियमित सूर्याय॑ देनेकों विधि बतलायीं गयीं हैं। | निष्कमकर्मी महिमाके साथ-साथ यज्ञ, वत, दान, तप, आधिभौतिक और आधिदैविक शृंग-शोक, संताप आदि

 

सांसारिक दुःखों की निवृत्ति भी सूर्योपासनासे सद्यः होती है। विविध मैद, मातृ-पितृ-आद्ध आदि उपादेय विषयपर, प्रायः पुरागर्ने औंव और वैष्णवपुराण में अधिक प्राप्त होते हैं, विशेषरूपसे विवेचन हुआ है। इस पर्वमें नागपञ्चम-ब्रत जिनमें शिव और विष्की महिमाका विशेष वर्णन मिलता है, कथाका भी उल्लेख मिलता है, जिसके साथ नागों में जुत्पत्ति, परंतु भगवान् सूर्यदेवकी महिमाका विस्तृत वर्णन इसी पुराणमें सपॅक लक्षण, स्वरूप और विभिन्न जातियाँ, सर्पोक काटने उपलब्ध है। यहाँ भगवान् सूर्यनारायण अगत्वष्टा, लक्षण, उनके विका वेग और उसकी चिकित्सा आदि

गत्पालक एवं जगत्संहारक पूर्णब्रह्म परमात्माके में विशिष्ट वर्णन यहाँ उपलब्ध है। इस पर्वको विशेषता यह है प्रतिष्ठित किया गया है। सूर्यके महनीय स्वरूपके साथ-साथ कि इसमें व्यक्तिके उत्तम आचरणको ही विशेष प्रमुखता दीं उनके परिवार, की अद्भुत कथाओं तथा उनकी उपासना- गयीं हैं। कोई भी व्यक्ति कितना भी विद्वान्, वेदाध्याय, | पतिका वर्णन भी अच्च उपलब्ध हैं। उनका प्रिय पुष्प क्या संस्कारी तथा उत्तम जातिका क्यों न हो, यदि उसके आचरण है, उनकी पूजाविधि क्या है, उनके आयुध-व्योमके लक्षण श्रेष्ठ, उत्तम नहीं है तो वह श्रेष्ठ पुरुष नहीं कहा जा सकता। तथा उनका माहात्म्य, सूर्यनमस्कार और सूर्य-प्रदक्षिणाकी लकमें श्रेष्ठ और उत्तम पुरुष वें में हैं जो सदाचारी और विधि और उसके फल, सूर्यको दीप-दानकी विधि और सत्पथगाम हैं। महिमा, इसके साथ हैं सौरधर्म एवं दीक्षाकी विधि आदिका भविष्यपुराणमैं ब्रह्मपर्वके बाद मध्यमपर्वका प्रारम्भ होता महत्वपूर्ण वर्णन हुआ है। इसके साथ हीं सूर्यके विराट् है। जिसमें सृष्टि तथा सात ऊर्ध्व एवं सात पाताल का स्वरूपका वर्णन, वादश मूर्तियों का वर्णन, सूर्यावतार तथा वर्णन हुआ है। ज्योतिक्षक तथा भूगोलके वर्णन भी मिलते हैं। भगवान् सूर्यकीं इधयात्रा आदिका विशिष्ट प्रतिपादन हुआ है। इस पर्वमें नरकगामी मनुष्योंके २६ दोष बताये गये हैं, जिन्हें सूर्य उपासनामें व्रतवं विस्तृत चर्चा मिलती है। सूर्यदेवकी त्यागकर शुद्धतापूर्वक मनुष्यको इस संसार में रहना चाहिये। प्रिय तिथि है ‘समम । अतः विभिन्न फलश्रुतियोंके साथ पुराणोके अवगकी विधि तथा पुराण-वाक्कक महिमाका सप्तमी तिथिके अनेक ब्रतोंका और उनके ज्ञापनोंका अहाँ वर्णन भी यहाँ प्राप्त होता है। पुराणोंकों श्रद्धा-भक्तिपूर्वक विस्तारसे वर्णन हुआ है। अनेक सौर तीर्थक भी वर्णन मिलतें सुनने में ब्रह्महत्या आदि अनेक पापोंसे मुक्ति मिलती है। जों हैं। सूर्योपासनामें भावशुद्धिकी आवश्यकतापर विशेष बल प्रातः, गृत्रि तथा सायं पवित्र होकर पुराणेंका श्रवण करता है, दिया गया है। यह इसकी मुख्य बात है। उसपर ब्रह्मा, विष्णु और शिव प्रसन्न हो जाते हैं। इस पर्वमें इसके अतिरिक्त ब्रह्मा, गणेश, कार्तिकेय तथा अग्नि इष्टापूर्तकर्मका निरूपण अत्यन्त समारोहके साथ किया गया आदि देवका भी वर्णन आया है। विभिन्न तिथियों और है। जो कर्म ज्ञानसाध्य हैं तथा निकमभावपूर्वक किये गये नक्षत्रक अधिष्ठातृ-देवताओं तथा उनकी पूजाकै फलका भी कर्म और स्वाभाविक रूपसे अनुरागाभक्तिके रूपमें किये गये वर्गन मिलता है। इसके साथ ही ब्राह्मपर्वमें ब्रह्मचारिधर्मम हरिस्मरण आदि श्रेष्ठ कर्म अन्तर्वेदी कर्मोकि अन्तर्गत आते हैं, निरूपण, गृहस्थधर्मका निरूपण, माता-पिता तथा अन्य देवताकी स्थापना और उनकीं फुजा, कु, पोखरा, तालाब, गुरुजनों की महिमा वर्णन, उनको अभिवादन करनेकी विधि, बावली आदि खुदवाना, वृक्षारोपण, इँयालय, धर्मशाला, उपनयन, विवाह आदि संस्कारोंका वर्णन, रूसी-पुरुषोंके उद्यान आदि लगवाना तथा गुरुजनोंकी सेवा और उनको संतुष्ट सामुद्रिक शुभाशुभ-लक्षण, स्त्रियोंके कर्तव्य, धर्म, सदाचार करना—ये सब बहिर्वेदी (पूर्त) कर्म हैं। देवालयों के और उत्तम व्यवहारकी बाते, स्त्री-पुरुषोंकि पारस्परिक व्यवहार, निर्माण विधि, देवताओंकी प्रतिमाओके लक्षण और उनकी पञ्चमहायज्ञका वर्णन, बलिवैश्वदेव, अतिथिसत्कार, श्राद्धोंके स्थापना, प्रतिष्ठाको कर्तव्य-विधि, देवताओं की पूजापद्दति,

 

1-निकमपुरान कुवा भय द्विजोत्तमाः

मुच्यते सर्वपापेभ्यों ल्याङ्गतं यत्

 

सायं प्रातमापा झुर्मिला गानि यः

तस्य निम्न वा मा नै रमाया ।।

पापमपन्न १६ 4 )

  • पुराणं रमं पुण्यं भविष्यं सर्वसौख्यदम् +

 

उनके ध्यान और मत्र, मन्त्रोंक ऋषि और द–इन चाहिये। सौंपर पर्याप्त विवेचन किया गया है। पाषाण, काष्ठ, मृत्तिका, इस क्रममें क्रौञ्च आदि पक्षियोंके दर्शनका विशेष फल ताम, रत्न एवं अन्य अॅश्च धातुओंसे मी उत्तम लक्षणों से मुक्त भौं वर्णित हुआ है। मयूर, वृषभ, सिंह एवं क्रौञ्च और कपिका प्रतिमाका पूजन करना चाहिये । घरमें प्रायः आठ अंगुलतक घरमैं, वेतमें और वृक्षपर भूल से भी दर्शन में जाय तो उसको ऊँची मूर्तिका पूजन करना श्रेयस्कर माना गया है। इसके साथ नमस्कार करना चाहिये । पैसा करनेसे दर्शकके अनेक जन्मक ही ताब, पुष्करिणी, वापी तथा भवन आदिको पाप नष्ट हो जाते हैं, उनके दर्शनमाञसे धन तथा आपकी वृद्धि, निर्माण-पद्धति, गुवास्तु-प्रतिष्ठाको विधि, गृहवास्तु किन होती हैं। देवताओंकी पूजा की जाय, इत्यादि विषयोंपर भी प्रकाश द्वारा कोई भी कर्म इंफर्म या पितृकर्म नियत समयपर किये गया है।

 

जानेपर का आधारपर पूर्णरूपेण फलद होते है। | वृक्षापण, विभिन्न प्रकारके वृक्षकी प्रतिमा का विधान समय बिना की गयी क्रियाओंका कोई फल नहीं होता।

 

तथा गोचरमिक प्रतिष्ठा-सम्बधी चर्चाएं मिलती हैं। जो अतः कालविभाग, मास-विभाजन, तिथि-निर्गय एवं वर्षभर व्यक्ति अया, फुल तथा फल देनेवाले वृक्षका रोपण करता विशेष पर्यो तथा तिथियोंके पुण्यप्रद कुल्योंका विचन भी इस हैं या मार्गमें तथा देवालयमें वृक्षों को लगाता है, वह अपने में साङ्गोपाङ्गरूपसे सम्पन्न हुआ है। जो सर्वसाधारण पितरों बड़े-से-बड़े पापोंसे ज्ञाता हैं और रोपणकर्ता इस लिये उपयोगी भी हैं। मनुष्यलों में महती कीर्ति तथा शुभ परिणाम प्राप्त करता अपने आहाँ गोत्र-प्रवरको जानें बिना किया गया कर्म हैं। जिसे पुत्र नहीं हैं, उसके लिये वृक्ष ही पुत्र हैं। विपरीत फलदायी होता है। समान गोत्रमें विवाहादि वृक्षारोपगकताकि लौकिक-पारलौकिक कर्म वृक्ष झीं करते सम्बका निषेध हैं। अतः गोत्र-प्रवरकी परम्पराको जानना रहते हैं तथा उसे उत्तम झोंक प्रदान करते हैं। यदि कोई अत्यन्त आवश्यक है। अपने-अपने गौत्र-प्रवरको पिता,

अश्वत्थ वृक्षको आरोपग करता हैं तो वीं उसके लिये एक आचार्य तथा शास्त्रद्वारा जानना चाहिये। इन सारी |लास मुत्रोसे भी कम है। अशोक वृक्ष लगाने में कभी शोक प्रक्रियाओंका विवेचन यहाँ उपलब्ध है। नहीं होता। बिल्व-वृक्ष दीर्घ आयुष्य प्रदान करता है । इस भविष्यपुराणमें मध्यमपर्वके बाद निसर्गपर्व चार प्रकार अन्य वृक्षोंके रोपणको विभिन्न फलश्रुतियाँ आयी हैं। खाण्टोंमें हैं। प्रायः अन्य पुराणों में सत्ययुग, त्रेता और द्वापरके सभी माङ्गलिक कार्य निर्बिभ्रतापूर्वक सम्पन्न हो जायें तथा प्राचीन राजाओंके इतिहासका वर्णन मिलता है, परंतु शान्ति-भङ्ग न हो इसके लिये ग्रह-शान्ति और शान्तिप्रद भविष्यपुराणमें इन प्राचीन राजाओंके साथ-साथ कलियुग अनुष्ठानोंका भी इसमें वर्णन मिलता है।

अर्वाचीन जो इस आधुनिक इतिहास भी मिलता है। | भविंदमागके इस पर्वमें कर्मकाण्डका भी विशद वर्णन वास्तवमें भविष्यपुराणके भविष्य नामकी सार्थकता प्राप्त होता हैं। विसंघ अझका विघान, कुण्ड-निर्माण अनिसर्गपर्थमें हीं चरितार्थ हुई दीखती हैं। अतिसर्गपर्वके प्रथम योजना, भूमि-पूजन, अघिसंस्थापन एवं पूजन, यज्ञादि कर्माकं खण्डमें सत्ययुगके शाओके वंशय परिचय, क्रेतायुगके सूर्य मएल-निर्माणका विषान, कुशकडिया-विधि, होमहव्या एवं चन्द्र-जयंशका वर्णन, द्वापरयुगके हवंशीय वर्णन, यज्ञपात्रका स्वरूप और पुर्णाहुतकी विधि, गुजाओं वृत्तान्त र्णत हैं। इसके बाद बंशीय यज्ञादिकर्ममें दक्षिणका माहात्म्य और कला-स्थापन आदि गुजाओंका वर्णन है। आरम्भमें गुजा अर्घात कुरुक्षेत्रमें अज्ञ विधि-विधानका विस्तारपूर्वक वर्णन किया गया है। करके म्लेच्छोंका विनाश किया था, परंतु कल्नेि स्वयं शास्त्रविहित यज्ञादि कार्य दक्षिणारहित एवं परिमाणविहीन म्लेच्छरूपमें राज्य किया तथा भगवान् नारायणको अपनी कभी नहीं करना चाहिये। ऐसा या कभी सफल नहीं होता। पूजासै प्रसन्नकर वरदान प्राप्त किया। नारायणने कसे कहा जिस यज्ञ में माप बताया गया है, उसके अनुसार करना कि कई दृष्टियोंसें अन्य युगोंकी अपेक्षा तुम श्रेष्ठ हों, अतः

 

तुम्हारी इच्छा पूर्ण सेगी।’ इस वरदानके प्रभावसे आदम ऋतुकालमें ही भार्याका उपगमन करता है, वहीं मुख्य नामक पुस्प और हुम्यवती (हौवा) नामकी पत्नी से ब्रह्मचारी हैं। पाणिनिकी तपस्यासे प्रसन्न होकर भगवान् म्ले शोंकी वृद्धि हुई । करिव्युगके तीन हजार वर्ष व्यतीत सदाशिव शंकरने ‘अ इ उ ए’, ‘अ छ ।’ इत्यादि चतुर्दश

 

होने पर विक्रमादित्यका आविर्भाव होता हैं। इसी समय माहेश्वर-सूत्रोंकों वररूपमें प्रदान किया। जिसके कारण उन्होंने | कुकिंकर वैताका आगम होता है, जो विक्रमादित्यको कुछ व्याकरणशास्त्रका निर्माण कर, महान् कोकोपकार किया। | कथाएँ सुनाता हैं और इन कथाओके व्यावसे राजनीतिक और तदनन्तर बोपदेयके चरित्रका प्रसंग तथा श्रीमद्भागवतके स्यावारिक शिक्षा भी प्रदान करता है। बैंताय कही माहात्म्यको वर्णन, ऑर्गासप्तशतके माझत्म्यमें व्याधकर्माकी गयी इन काम संग्रह ‘वैतापञ्चविंशति’ अथवा कथा, मध्यमचरित्रकै माहात्म्यमें कात्याक्न तथा मगध ज्ञा | बेतालपचीसी के नामसे कमें प्रसिद्ध है।

महानन्दकी कथा और उत्तरचरितकी महिमाके प्रसंगमें इसके बाद ऑसत्यनारायणवतको कथामा वर्णन हैं। योगाचार्य महर्षि पतञ्जलिके चरित्रका रोचक वर्णन हुआ है। भारतवर्ष सत्यनारायणवत-कथा अत्यन्त लोकप्रिय है और भविष्यपुराणके प्रतिसर्गपर्वका तीसरा झण्डू ग्रमांश और इसका प्रसार-प्रचार भी सर्वाधिक हैं। भारतीय समातन् कृष्णांश अर्थात् आल्हा और ऊदल (उदयसिंह) के चरित्र सम्परामें किसी भी माङ्गलिक कार्य प्रारम्भ भगवान् तथा जयद्र एवं पृथ्वीराज चौहानकी वीरगाथाओंसे परिपूर्ण गणपति पूजनमें एवं उस कार्यकी पूर्णता भगवान् है। इधर, भारतमें जागनिक भाटचित आहाका वीरकाव्य | सत्यनारायणक कथाश्रवणसे प्रायः समझी जाती है। बहुत प्रचलित हैं। इसके बुन्देलखीं , भोजपरी आदि कई | भविष्यपुराणके प्रतिसर्गपर्वमें भगवान् सत्यनारायणन्नत- संस्करण है, जिनमें भाषाका कोड़ा-थोझ भैंद है। इन कथाका उल्लेख छः अध्यायोंमें प्राप्त है। यह कथा कथाओंका मूल यह प्रतिसर्गपर्व ही प्रतीत होता हैं। प्रायः ये स्कन्दपुराणों प्रचलित कथासे मिलती-जुलती होनेपर भी कथाएँ लेकञ्जनके अनुसार अतिशयोक्तिपूर्ण-सौं प्रतीत होती विशॆष रोचक एवं श्रेष्ठ प्रतीत होती हैं। वास्तवमें इस मायामय हैं, किंतु ऐतिहासिक दृष्टि में महत्त्वकी भी हैं। इस खण्डमें राजा संसारकी वास्तविक सत्ता तो है में नहँ-नानो विद्यते शालिवाहन तथा ईशामसहकी कथा भी आयी है। एक समय आवो नाभायों चिले मतः । परमेश्वर ही त्रिकालाबाधित शकाधीश शालिवाहनने हिमशिखरपर गौर-वर्णके एक सुन्दर | सत्य हैं और एकमात्र वहीं य, ज्ञेय और उपास्य हैं। पुरुषों इंझा, जो श्वेत वस्त्र धारण किये था । शक्ज कन-वैराग्य और अनन्य भके द्वारा चाहीं साझास्कार करने जिज्ञासा करने उस पुरुषने अपना परिचय देते हुए अपना योग्य हैं। वस्तुतः सत्यनारायणझतका तात्पर्य उन शुद्ध, नाम शामसी बताया। साथ ही अपने सिद्धान्तोंका भी संक्षेपमें सच्चिदानन्द परमात्माकी आराधनासे ही है । निकाम उपासनासे वर्शन किया। शालिवानके वंशमें अन्तिम दसवें गुजा सत्यस्वरूप नारायणकी प्राप्ति हो जाती है। अतः भोजराज़ हुए, जिनके साथ मामदकी कथाका भी वर्णन अद्धा-भक्तिपूर्वक पूजन, कथाश्रवण एवं प्रसाद आदिके द्वग्न मिलता है। राजा भोजने मरुस्थल (मदीन) में स्थित उन सत्यस्वरूप परब्रह्म परमात्मा भगवान् सत्यनारायणकी महादेवको दर्शन किया तथा भक्तिभावपूर्वक पूजन-स्तुति की। उपासनाने म ठाना चाहिये।

भगवान् शिवनें प्रकट होकर म्लेच्छोंमें दूषित इस स्थानको | इस खाके अन्तिम अध्यायोंमें पिशर्मा और उनके त्यागकर महाकालेश्वर तीर्थ जानेकी आज्ञा प्रदान की।

बंशमें उत्पन्न होनेवाले व्याडि, मीमांसक, पाणिनि और वररुचि दना देशराज एवं वत्सराज आदि राजाओंके आविर्भावकीं । आदिकीं रॉचक कथाएँ प्राप्त होती हैं। इस प्रकरणमें कथा तथा इनके वंशमें होनेवाले कौरवांश एवं पाण्डवांझोंक ब्रह्मचारिधर्मकी विभिन्न व्याया करते हुए यह कहा गया है अपने उत्पन्न जयंशका विवरण प्राप्त होता है। कौरवांशको कि जो गृहस्थधर्ममें रहता हुआ पितरों, देवताओं और पराजय और पाण्ड्यांशोंकी विजय होती हैं। पृथ्वीराज अतिधियका सम्मान करता हैं और इन्द्रियसंयमपूर्वक चौहानको वीरगति प्राप्त होने के उपरांत सोडीन (मुहम्मद गोरी) के द्वारा कोतुकोद्दीनको दिङका शासन सौंफ्कर इस श्रीरामानुज, श्रींमध्व एवं गौरक्नाथ आदिका विस्तृत चरित्र देशसे धन सूटकर ले जानेका विवरण प्राप्त होता है। यहाँ वर्णित है। प्रायः में सभी सूर्यके तेज एवं अंशसे हीं उत्पन्न प्रतिसर्गपक्का अंतिम चतुर्थ पाण्ड़ है, जिसमें सर्वप्रथम बताये गये हैं। भविष्यपुराणमें इन्हें द्वादशादिस्यके अवतारके कलियुगमें अपन्न आमवंशीय राजाओंके वंशका परिचय रूपमें प्रस्तुत किया गया है। कलियुगमें धर्मरक्षार्थ इनका मिलता है। तदनन्तर राजपूताना तथा दिल्ली नगरकै आवर्भाव होता है। विभिन्न समुदायको स्थापनार्मे इनका जर्व का इतिहास प्राप्त होता है। राजस्थानके मुख्य नगर योगदान है। इन असंगमें प्रमुखता चैतन्य महाप्रभुकों दी गयी | अजमकी कथा मिलती है। अन्य (अ) ब्रह्माके द्वारा है। ऐसी भी प्रतीत होता है कि श्रींगचैतन्यने ब्रह्मसूत्र, गीता |चित होने तथा म लक्ष्मी (मा) के शुभागमनसे इम्य या या उपनिषद् किसींपर भी साम्प्रदायिक दृष्टिले भाष्य रचना मगर इस नगरीका नाम अजमेर हुआ । इस प्रकार राजा नहीं की थीं और न किसी सम्प्रदाय ही अपने समयमें जयसिंहने जयपुरको बसाया, जो भारतका सर्वांधिक सुन्दर स्थापना की थी। उदार-भाषसे नाम और गुणकीर्तनमें विभोर नगर माना जाता है। कृणवमकिं पुत्र उदयने उदयपुर नामक रहते थे। भगवान जगन्नाथके द्वारफर में खड़े होकर उन्होंने | नगर बसाया, जिसका प्राकृतिक सौन्दर्य आय भी दर्शनीय है। अपनी जीवनलीलाकों ऑविममें लीन कर दिया। साथ ही अन्यकुञ्ज नगर कथा भी अद्भुत है। शशा प्रणा यहाँ संत सूरदासजी, तुलसीदासजीं, कबीर, नासी, पीपा, । तपम्यासे भगवती आमा प्रसन्न होकर कन्यारूममें बेगुवान मानक, दाम, नामदेव, इंकग, वा भगत आदिकी कथाएँ भीं करती हुई आती हैं। उस कन्याने दानरूपमें यह नगर, राजा हैं। आनन्द, गिरी, परी, वन, आश्रम, पर्यंत, भारत एवं नाथ । प्रणयको प्रदान किया, जिस कारण इसका नाम ‘कन्या ‘ आदि दस नामीं साधुओंकों व्युत्पत्तिका कारण भी लिखा है। | पड़ा। इसी प्रकार चित्रका निर्माण भी भगवतीक असादसे भगवनी महाकाली तो इनकी उत्पत्तिकी कवा भी

हो हुआ। इस स्थानकी विशेषता यह है कि यह देवता मिलती हैं। प्रिय नगर है, जहाँ कलिका प्रवेश नहीं सकता। इसीलिये भगवान् गणपतिको यहाँ परब्रह्मरूपमैं चित्रित किया गया इसका नाम ‘कलिंजर’ भी कहा गया है। इसी प्रकार है। भूतभावन सदाशिवकी तपस्यासे प्रसन्न होकर भगवत बंगालके गज़ा भोगवर्माके पुत्र कालियन महाकाल की पार्वतके पुत्ररूपमें जन्म लेनेका उन्हें वर प्रदान किया। उपासना की। भगवती काने प्रसन्न होकर पुष्प और तदनन्तर उन्होंने भगवान् शिव पुत्ररूपमें अवतार धारण कलियोंकी वर्षा की, जिसमें एक सुन्दर नगर उत्पन्न हुआ ओं किया। इसमें रावण एवं कुम्भकर्णक जन्मक कथा, कहावतार कलिकातापरी (कलकत्ता) के नामसे प्रसिद्ध हुआ। चारों हनुमानजी रोचक कथा भौं मिलती हैं। केसरीकी पत्नी वगक उत्पत्तिकी कथा तथा चारों युगोंमें मनुष्योंकी आयुका अंजनीक गर्भसे श्रीहनुमतुल्ली अवतार धारण करते हैं। निरूपण और फिर आगे चलकर दिल्ली नगरपर पानोंका आकाशमें उगते हुए लाल सूर्यको देख फल समझकर उसे शासन, तैमूरलंगके द्वारा भारतपर आक्रमण करने और निगलने का प्रयास करते हैं। सूर्यके अभायमें अन्धकार देखकर लटनेकी क्रियाका वर्णन भी इसमें प्राप्त होता है। इन्द्रने उनकी हुन् (इ) पर बसे प्रहार किया, जिससे कलियुगमें अवतीर्ण होनेवाले विभिन्न आचार्यो-संतों हनुमानकी छ ?ढी हो जाती हैं और वे पृथ्वींपर गिर पड़ते और पक्की कथाएँ भी यहाँ उपलब्ध है। श्रीशंकराचार्य, है, जिससे उनका नाम हनुमान् पड़ा। इसी बीच गृण उनकी ग्रमानन्दाचार्य, निम्यादित्य, ऑघरस्वामी, श्रीविष्णुस्वामी, फैछ फड़कर लटक जाता हैं। फिर भी उन्होंने सूर्यको नीं। वाराहमिहिर, भट्टॉजि दीक्षित, घयतर, कृष्णचैतन्यदेव, छोड़ा। एक वर्षक ग्रयणसे युद्ध होता रहा । अत्तमें रावणके

|il

 

1-नई नियादौ

| अतः

कालिम् । कतिपत्र पद गमन् सुप्रिये ।।

नाम सिमनले।

(प्रनिसर्गपर्व

* ‘भविष्यपुराण‘–एक रिचय

फ्तिा विश्रवा मुनि वहाँ आते हैं और वैदिक स्तोत्रोंसे रहता था। वे दोनों उसके पास पहुँचे, वह अपनी खेती हनुमान्जीको असकर रावणका पिण्ड छुड़ाते हैं। तदनत्तर आदिको चिन्तामें लगा था। भगवान्ने उससे कहा-‘हम ब्रह्माजीके प्रादुर्भाव तथा सृष्टि और उत्पत्तिकीं तुम्हारे अतिथि हैं और भूखें हैं, अतः भोजन कराओ।’ उस कथा एवं शिव-पार्वती विवाहका वर्णन हुआ है । अत्तम ब्राह्मणने दोनों अपने अपर लाक्वा स्नान-भोजन आदि अध्यायोंमें मुगल बादशाहों तथा अंग्रेज शासकको भी चर्चा कराया, अनत्तर उत्तम म्यापर शयन आदिको व्यवस्था की। हुई है। मुगल बादशाहोंमें बाबर, हुमायूँ, अक्षर, शाहजहाँ, प्रातः उठकर भगवान्ने ब्राह्मणसे कहा-‘हम तुम्हारे घरमें जहाँगीर, औरंगजेब आदि प्रमुख शाक्कका वर्णन मिलता हैं। सुखपूर्वक रहे, परमेश्वर को कि तुम्हारी ती निष्फल हो, छत्रपति शिवाजीकी वीरता का भी वर्णन प्राप्त है। इसके साथ तुम्हारी संततिकी वृद्धि न हो इतना कहकर वें वहाँसें चले छौं विक्रयाकै शासन और उसके पार्लियामेंटका भी उल्लेख गये। यह देखकर नारदजीने आश्चर्यचकित होकर पृ है। विक्टोरियाको यहाँ विकटावतीके नामसे कहा गया हैं। ‘भगवन् ! वैश्यनें आपकी कुछ भी सेवा नहीं की, परंतु आपने कलियुगके अन्तिम चरणमें नरककै भर जानेकी गाथा भी उसे उत्तम वर दिया, किंतु इसा ब्राह्मणने श्रद्धासे आपकी बहुत मिलती हैं। सभी नरक मनुष्योंसे परिपूर्ण हो जाते हैं सेवा की, फिर भी उसे आपने आशीर्वादके रूपमें शाप ही तथा नकोंमें अनर्गता आ जाती है। अमें मुगके दिमा–ऐसा आपने क्यों किया । भगवान्ने कहा-‘नारद ! सामान्यधर्मक वर्णनके साथ इस पर्सम उपसंहार किया मर्यभर मरमें पकडनेसे जितना पाप होता है, एक दिन हरु गया है।

जोतनेसे उतना ही प्राप्त होता है। वह वैश्य अपने पुत्र-पौत्रके इस पुराणका अन्तिम पर्व है उत्तरपर्व । उत्तरपर्वमें मुख्य साध इसी कुपि-कार्यमें लगा हुआ है। हमने न तो उसके घरमें रूपमें व्रत, दान और उसके वर्णन प्राप्त होते हैं। व्रतकी विश्राम किया और न भोजन हीं किया, इस ब्राह्मणके घरमें आहत भलाका प्रतिपादन यहाँ हुआ हैं। प्रत्येक तिथियों, भोजन और विश्राम किया। इस ब्राह्मणको ऐसा आशीर्वाद मासों एवं नक्षत्रक अन धा इन तिथियों आदिके अधिष्ठातृ दिया कि जिससे यह ज्ञगल्ला न सकर मुक्तिको प्राप्त कर देवताओंका वर्णन, व्रतकी विधि और उसे फलश्रुतियोंका सके। इस प्रकार बातचीत करते हुए वे दोनों आगे बढ़ने लगे। बड़े विस्तारसे प्रतिपादन किया गया हैं। आगे चलकर भगवान्ने नारदजी कान्यकुके सरोवरमें उपके प्रारम्भमें श्रीनारदजींको भगवान् श्रीनारायण पनौ मायासे स्नान कराक एक सुन्दर बीम स्वरूप प्रदान विष्णुमायाको दर्शन कराते हैं। किसी समय नारदमुनिने किया तथा एक राजासे विवाह कराकर पुत्र-पौत्रोंसे सम्पन्न घेतद्धीपमें भगवान् रायणको दनकर उनकी मायाको जगजाकों मायामें लिप्त कर दिया तथा कुछ समय बाद पुनः देखने की इच्छा प्रकट की । नारदजीके बार-बार आम कानेपर नारदजीकों अपने स्वाभाविक रूपमें लाकर भगवान् अत्तहिंत श्रीनारायण नारदजींके साथ जम्बुद्वीपमें आये और मार्गमें एक हो गये। नारदजीने अनुभव किया कि इस मायाकै प्रभाव वृद्ध ब्राह्मणका रूप धारण कर लिया। विदिशा नगरीमें संसारके जीव, पुत्र, लीं, धन आदिमें आसक्त से रोते-गाते हुए धन-धान्यसे समृद्ध, उद्यमी, पशुपालनमें तत्पर, कृषिकार्यको अनेक प्रकारको चेष्टाएँ करते हैं। अतः मनुष्यको इससे । भलीभाँति करनेवाला सौरभद्र नामका एक वैश्य निवास करतो सावधान बना चाहिये। था, वे दोनों सर्वप्रथम उमौके घर गये । उस वैश्यमें उनका इसके बाद संसारके दोयका विस्तारपूर्वक वर्णन किया यथोचित सत्कारका भोजनके लिये पूछा। यह सुनकर वृद्ध गया है। महाराज युधिष्ठिर भगवान् श्रीकृष्णसे प्रश्न करते हैं, ब्राह्मणरूपधारी भगवान्ने हँसकर कहा–’तुमको अनेक ग्रह जीव किस कर्मसे देवता, मनुष्य और पशु आदि ऑनियोंमें पुत्र-पौत्र हों, तुम्हारी खेतों और पशुधनकी नित्य वृद्धि में यह उत्पन्न होता है ? शुभ और अशुभ फलका भोग यह कैसे मेरा आशीर्वाद है।’ यह कहकर ये दोनों वहाँसे चल पड़े। करता है ? इसका उत्तर देते हुए भगवान् श्रीकृष्ण कहते हैं कि , मार्गमें गाके तट पर गाँवमें गोस्वामी नामका एक दरिंद्ध ब्राह्मण उत्तम कमसि देवयोनि, किसे मनुष्ययोनि और पाप कर्म सेपा आदि योनियोंमें जन्म होता है। अर्म और अधर्म अतिदम मनुष्य-जन्म पाते हैं। स्वर्ग एवं मोक्ष देवास निश्चयमें श्रुति हीं प्रमाण है। पापसे पापयन और पुण्यसे मनुष्य-जन्म पाक्न ऎसा कर्म करना चाहिये, जिसमें नाक न | पुफ्ययानि प्राप्त होती है। वस्तुतः संसारमें कोई सुखी नहीं है। देखना पड़े। यह मनुष्य-योनि देवताओं तथा अरोक लिये प्रत्येक प्राणीको एक दूसरे से भय बना रहता है। यह कर्ममय भी अत्यन्त दुर्लभ है। धर्मसे ही मुश्यका जन्म मिलता है।

 

शरीर जमसे लेकर अन्नातक दुःखीं हीं है। जो पुरुष जितेन्द्रिय मनुष्य-जन्म पाकर उसे धर्मकी वृद्धि करनी चाहिये । जो अपने | हैं और मत, दान तथा उपवास आदिमें तत्पर रहते हैं, वे ही कल्याणके लिये धर्मका पालन नहीं करता है, उसके समान । सदा सुखी रहते हैं। तदनन्तर यहाँ भगवान् श्रीकृष्णके द्वारा मुर्ख कौन होगा ? विविध प्रकारके पाप एवं पुण्य कर्मीका फल बताया गया यह देश सभी देशों में उत्तम है। बहुत पुम्यासे प्राणी | है। अधम कर्मको हीं पाप और अधर्म कहते हैं। स्थूल, जन्म भारतवर्ष में होता हैं। इस देशमें जन्म पाकर जो अपने सूक्ष्म, अतिसूक्ष्म आदि भेदोंद्वारों करोड़ों प्रकारके पाप हैं, पर कल्याणके लिये सर्म करता हैं वहीं बुद्धिमान् हैं। जिसने याँ बड़े-बड़े पापका संक्षेपमें वर्णन किया गया हैं। परस्त्रींका ऐसा न किया, उसने अपने आत्मा के साथ वाशना की। चिन्तन, इसका अनिष्ट-चिन्तन और कार्य (कुकर्म) में जबतक यह शरीर स्वस्थ है, तबतक जो कुछ पुण्य बन सके, अभिनिवेश—ये तीन प्रकारके मानस पाप हैं। अनियन्त्रित कर लेना चाहिये, बादमें कुछ भी नहीं हो सकता। दिन-रातके प्रलाप, अप्रिय, असत्य, अनिन्दा और पिता अर्थात् बहाने नित्य आयुके ही अंश खण्डित में रहें हैं। फिर भी चुगली–ये पाँच वाचिक पाप है। अभक्ष्यभक्षण, हिंसा, मनुष्योंको बोध नहीं होता कि एक दिन मृत्यु आ पहुंचेगी और | मिथ्या कामसेवन (असंयमित जीवन व्यतीत करना) और इन सभी सामग्रियों को लेकर अकेले चला जाना पड़ेगा। | परधन-हरण—चे चार मयिक पाप है। इन बाह कर्मोकि फिर अपने हाथसे ही अपनी सम्पत्ति सत्पात्रों को क्यों नहीं बाँट करनेसे नरककी प्राप्ति होती हैं। इसके साथ ही जो पुरुष देते ? मनुष्यके लिये दान ही पाथेय अर्थात् गतेके लिये संसाररूपी सागरसे उदार, नेवा भगवान् सदाशिव अथवा भोजन हैं । ज्ञों दान करते हैं वे सुखपूर्वक जाते है। दान-हीन भगवान् शिंगुसे हेम रते हैं, वे घर नकर्मे पड़ते हैं। मार्गमें अनेक दुःख पाते हैं। भूखे मरने जाते हैं, इन सब ब्रह्महत्या, सुपान, सुवर्णकी चोरों और गुरुपौंगमन-ये बातोंको विचारकर पुण्य कर्म ही करना चाहिये । पुण्य कमसे | चार महापातक हैं। इन पार्कोको करनेवालोंके सम्पर्कमें देवत्व प्राप्त होता है और पाप करने से नरककी प्राप्ति होती है। | रहनेवाला पाँचवाँ महापातकी गिना जाता है। ये सभी नाकमैं जो सत्पुरुष स्क्र्यात्मभावसे ऑपरमात्म-प्रभुको शरणमें जाते है, जाते हैं। इसके अतिरिक्त कई प्रकारके उपपातकका भी वर्णन वै पद्मपत्रपर स्थित जलकी तरह पापोंमें लिप्त नहीं होते, आया है। जिनका फल दुःख और नरकगमन ही है। इसलिये इन्द्रसे छूटकर भक्तिपूर्वक ईभएको आराधना करनी इसलिये बुद्धिमान् मनुष्य दारीरको नश्वर ज्ञानकर चाहिये तथा सभी प्रकारके पापोंसे निरन्तर बचना चाहिये। | लेशमात्र भी पाप न करे, पापसे अवश्य हीं नाक भोगना भगवान् श्रीकृष्ण युधिष्ठिरसे कहते है कि यहाँ भीषया | पड़ता है। पापका फल दु:ख हैं और नकसे बढ़कर अधिक नरकको जों वर्णन किया गया है, उन्हें बत-उपवासरूपी । दुः। कहीं न है। माम मनुष्य कयासकें अनत्त फिर नौकासे पार किया जा सकता हैं । प्राणीको अति दुवा पुयींपर वृक्ष आदि अनेक प्रकार स्थायर-यनमें ज्ञानम् मनुष्य-जन्म कर ऐसा कर्म करना चाहिये, जिससे पश्चात्ताप महण करते हैं और अनेक कष्ट भोगते हैं। अनन्तर कौट, न करना पड़े और यह जन्म भी व्यर्थ न जाये और फिर जन्म पतंग, पक्षी, पशु आदि अनेक योनियोंमें जन्म लेते हुए भी न लेना पड़े। जिस मनुष्य कीर्ति, दान, व्रत, उपवास

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शुविमाप्नोति मिर्मानुषतां व्रजेत् अशुभैः कमजुतर्यम्पनियु, जायते

प्रमाण अतिरंवार अमर्मनि पर्ष पन यं पपेन कगा। इतपत्र g | -15)

 

* ‘भविष्यपुराणएक रिचय

आदिकी परम्परा बनीं है, वह परलोकमें उन्हीं के द्वारा पूर्णिमाकी विशेष महिमा वर्णन, सावित्रीब्रत-कथा, सुख भोगता है। व्रत तथा स्वाध्याय न करनेवालेकौं कहीं भी कृत्तिका-प्रतके प्रसंगमें रानी कलिंगभद्गाको आरम्यान, गति नहीं हैं। इसके विपरीत व्रत-स्वाध्याय करनेवाले पुरुष मनोरम-पूर्णिमा तथा अशक-मूर्णिमा व्रत-विध आदि सदा सुखी रहते हैं। इसलिये मात-स्वाध्याय अवश्य करना विभिन्न ब्रतों और आख्यानका वर्णन किया गया है। चाहिये।

तिथियोंके व्रतों के निरूपणके अनन्तर नक्षत्रों और इस पर्वमें अनेक व्रत की कथा, मात्म्य, विधान तथा मासकें व्रतकथाका वर्णन हुआ है। अनन्तवत-माहात्म्य फलतियोंका वर्णन किया गया है। साथ ही मृतकं कर्तवीर्य आविर्भावका वृत्तान्त आया है। मास-नक्षत्रज्ञतक उद्यापनकी विधि भी बतायी गयी है। एक-एक तिथियोंमें कई माहात्म्यमें साम्रागीकी कथा, प्रायश्चित्तरूप सम्पूर्ण ब्रतका व्रतका विधान हैं। जैसे प्रतिपदा तिथिमें तिलकवत, विधान, वृत्ताक (बैगन) -त्यागवत एवं प्रह-नक्षत्रवतकी अशोकवत, कोकिलाग्नत, बृत्तपोवत आदिका वर्णन हुआ विधि, शनैश्चरम्रतमें महामुनि बैंपलादका आम्यान, हैं। इसी प्रकार जातिस्मर भन्नत, यमद्वितीया, मभूकतृतीया, संक्रान्तिवतके उद्यापन विधि, भद्रा (विष्ट) -त्रत तथा हरावत, ललितातृतीयावत, अवियोगातीयावत, भद्राके आविर्भावकी कथा, चन्द्र, शुक्र तथा बृहस्पतिको अर्घ्य उमामहेश्वरबत, सौभाग्यशयन, अनन्ततृतीया, सकल्पाणिनी देने की विधि आदिके वर्णन हुए हैं। इस पर्वकै १२१ वें तृतीयामत तथा अक्षयतृतीया आदि अनेक व्रत तृतीया तिथिमैं अभ्यासमें विविध प्रकीर्णं व्रतके अन्तर्गत प्रायः ४५ व्रतका हीं वर्णित है। इसी प्रकार गणेशचतुर्थी, श्रीपञ्चमीत-कथा, उल्लेख आता हैं, तदनन्तर माघ-मानको विधान, स्नान, विशोक-वाही, कमलय, मन्दार-वहीं, विजया-सप्तम, तर्पणविधि, रुद्र-स्नानक विधि, सूर्य-चन्द्र-ग्रणमैं मानका मुक्ताभरण-समी, कल्याण-ममम, शर्करा-मममी, माहात्म्य आदिके वर्णन प्राप्त होते हैं। शुभ-सप्तमी तथा अचला-सप्तमी आदि अनेक सप्तमी-व्रताका मृत्युसे पूर्व अर्थात् मरणासन्न गृहस्थ पुरुषको शरीरका वर्णन हुआ है। तदनन्तर बुधाष्टमी, ऑकृष्णजन्माष्टमी, दूर्वाकीं त्याग किस प्रकार करना चाहियें, इसका बड़ा हीं सुन्दर उत्पत्ति एवं दूर्वाष्टमी, अनलाष्टमी, श्रीवृक्षनवमी, ध्यानवमी, विवेचन यहाँ १२६ वें अध्यायमें हुआ है। जब पुरुषको यह आशाशमी आदि मृतका निरूपण हुआ है । द्वादशी तिथिमें मालूम हो कि मृत्यु समीप आ गयीं हैं तो उसे सब ओरसे मन तारकद्वादशी, अण्यद्वादशी, गोवत्सद्वादशी, देवशयनी एवं स्टाकर गरुडध्वज भगवान् विष्णुका अथवा अपने इष्टदेवका देवोत्थान द्वादशी, नींगुञ्जनद्वादशी, मल्लद्वादशी, स्मरण करना चाहिये । झनसे पवित्र होकर श्वेत वस्त्र धारण क्जिय-अयणद्वादशी, गोविन्दादशौं, असापडद्वादशी, करके सभी उपचासे नारायणी नाक्न स्तोत्रोंसे स्तुत कने। धरणींवत (वाराहद्वादशी), विशोकादशी, विभूतिद्वादशी, अपनी शक्तिके अनुसार गाय, भूमि, सुवर्ण, वस्त्र, अन्न मदनदादशी आदि अनेक हादशी-घतोय निरूपण हुआ है। आदिका दान कों और ब. पत्र, मित्र, स्त्री, क्षेत्र, धन-धान्य प्रयोदशी तिथिके अन्तर्गत अबाधक्सन, दौर्भाग्य- तथा पशु आदिसे चित्त हटाकर ममता सर्वथा परित्याग कर दौर्गनाशकवत, धर्मशजका समाराधन-न्नत (यमादर्शन- दें। मित्र, चानु, उदासीन, अपने और परायें लोग उपकार दशी), अनङ्गयोदशीव्रतका विधान और उसके फलके और अक्कापके विषयमें विचार न करता हुआ अपने मनको वर्णन लिखें हैं। चतुर्दशी तिथिमें पालीञ्चत एवं उम्भा- पूर्ण शान्त कर ले। जगह भगवान् विष्णाके अतिरिक्त मेरा। (कदल-) ब्रत, शिवचतुर्दशीव्रतमें महाँ अड्किा कोई अन्धु नहीं है, इस प्रकार सब कुछ बोड़कर सर्वेश्वर आख्यान, अनन्त-चतुर्दम्रत, श्रवणका-व्रत, नक्तवत, भगवान् अच्युत हदयमें धारण करकै निरन्तर वासुदैवकै फलत्याग-चतुर्दशीवात आदि विभिन्न व्रतका निरूपण हुआ नाम स्मरण-कीर्तन करता है और जब मृत्यु अत्यन्त समीप है। तदनन्तर अमावास्यामें श्राद्ध-तर्पणको महिमाका वर्णन, आ जाय तो दक्षिणाम कुशा विकर पूर्व अथवा उनकी ओर पूर्णमासी-बतका वर्णन, जिसमें बैंशास्त्री, कार्तिक और माघी सिरकर शयन करें और परमात्म-प्रभुसे यह प्रार्थना करें कि “हे

 

4 पुराणं परमं पुण्यं भविष्यं सर्वसौम्यादम्

 

जगन्नाथ ! मैं आपका हीं हैं, आप शीघ्र मुझमें निवास कों, वर्णन आया है। सर्वप्रथम दीपदानकी महिमामें रानी वायु एवं आकाशकौं मत मुझमें और आपमें कोई अता न ललिताके आस्यानका तथा वृषोल्सर्गक महिमाका वर्णन हुआ रहें । मैं आपको अपने सामने देख रहा हूँ, आप भी मुझे है । अनन्तर कन्यादानके महत्त्वपर प्रकाश डाला गया हैं। देखें । इस प्रकार भगवान् विष्णुको प्रणाम करें और उनका आभूषणोंसे अलंकृत कन्याकों अपने वर्ण और जातिमें दान दर्शन करें। हो अपने इष्टदेवका अथवा भगवान् विष्णुका करने की अत्यधिक महिमा बतायी गयी है। अनाथ कन्याके | ध्यानकर प्राण त्याग करता है, उसके सब पाप छूट जाते हैं विवाह करनेको भी विशेष फल कहा गया है। इस में और वह भगवान्में लेन में जाता है। मृत्युकालमें यदि इतना घेनुदानम विवाद वर्णन प्राप्त होता है। कई प्रकारको धेनुक करना सम्भव न हो तो सबसे सरल उपाय यह है कि चारों दानका प्रकरण आया है। प्रत्यक्ष घंनु, चिऊधेनु, जलधेनु तरफसे चित्तवृत्ति हटाकर, गोविन्दका स्मरण करते हुए प्राण मृतधेनु, लवणाधेनु, कामधेनु, रत्नधेनु आदिके वर्णन मिलते त्याग करना चाहिये, क्योंकि व्यक्ति जिस-जिस भावसें हैं। इसके अतिरिक्त कपिलदान, महिषौंदान, भूमिदान, स्मरणका प्राण त्याग करता है, उसे वहीं भाव प्राप्त होता हैं। सौवर्णपंक्तिदान, राहदान, अन्नदान, विद्यादान, तुलापुरुषदान, अतः सब प्रकारसे निवृत्त होकर वासुदेवका कारण और हिरण्यगर्भदान, ब्रह्माण्डदान, कल्पवृक्ष-कल्पलतदान, चिन्तन करना ही श्रेयस्कर हैं। इसी प्रसंगमें भगवान के गजरथासरथदान, अपुरुषदान, सप्तसागरदान, चिन-ध्यानके स्वरूपपर भी प्रकाश डाला गया है। जो महाभूतपटद्दान, शय्यादान, हेमस्तिरथदान, विश्वचदान, | साधकों के लिये अत्यन्त उपयोगीं और जानने योग्य हैं। नक्षत्रदान, निधिदान, धान्यपर्वतदान, लवणपर्वतदान, महर्षि मार्कडेयजीके द्वारा चार प्रकारके ध्यान गुमचलदान, होमाचलदान, तिलाचलदान, कापसाचलदान, विवेचन किया गया है-(१) गुन्य, उपभोंग, चायन, भोजन, मृताचलदान, लाचलदान, शैंप्याचलदान तथा शार्कचलदान वाहन, मणि, स्त्री, गन्ध, माल्य, वस्त्र, आभूषण आदिमें यदि आदि दानों की विधियां विस्तारपूर्वक निरूपित हुई हैं। अत्यन्त मोहके कारण उस्क्म चित्तन-मन बना रहता हैं तो भारतीय संस्कृतिमें उत्सर्वोका विशेष महत्व है। विभिन्न यह महान्य आच्च ध्यान कहा गया हैं। इस ध्यानसे निधिपत्र तथा पर्योंपर विभिन्न प्रकारसे उसने मनाया निर्यकु-योनि तथा गतिकी प्राप्ति होती हैं । (३) दया जाता है और सभी असवकों अलग-अलग महिमा भौं है । अभावमें यदि जलाने, मारने, तड़पाने, किसीके ऊपर प्रहार याँ इन उत्सवोंका भी वर्णन हुआ है। होलिकोत्सव, कनेकों इच्छ रहती हों, ऐसी क्रियाओंमें जिसका मन लगा हों, दीपमालिकोत्सव, रक्षाबन्धन, महानवमी-उत्सव, इन्द्र उसे ‘शैइ ध्यान कहा गया है। इस ध्यानसे नक प्राप्त होता वजोत्सव आदि मुख्य रूपमें वर्णित हैं। होलिकोत्सवमें हैं। (३) वेदाधक चिंत्तन, इन्द्रिय उपशमन, मोक्षक द्रोद्धाकी कथा मिलती है। इन सबके अतिरिक्त कोटिहोम, चिता, प्रणियोंके कल्याणकी भावना आदि करना ‘धर्म्य नक्षत्रोंम, गणनाथशत्ति आदिके विधान भी दिये गये हैं। ध्यान है। ‘धर्म्य ध्यानसे स्वर्गको अथवा दिव्यलों की प्राप्ति भविष्यमाणमें व्रत और दान आदि प्रकरणमें ज़ों होती है । (४) समस्त इन्द्रियोंका अपने-अपने विषयोंसे निवृत्त फलनियाँ दी गयी है, वे मुख्यतः इहलोक तथा परलोक में हो जाना, हृदयमें इष्ट-अनिष्ट—किसी भी चिंत्तन नहीं होना झोंकी निवृत्ति तथा भोगैश्चर्य और वर्ग आदि लोकों और आत्मस्थित होकर एकमात्र परमेश्वर चिंतन करते हुए प्राप्तिसे ही सम्बन्धित हैं। सामान्यतः मनुष्यको जीवनमें दो बातें मात्मनष्ट हो जाना—यह ‘शु’ भयानका स्वरूप हैं। इस प्रभावित करती हैं-एक तो दुःखोंका भय और दूसरा सुखका ध्यानसे मोक्षकी प्राप्ति अथवा भगवत्प्राप्ति हो जाती हैं। प्रलोभन । इन दोनोंके लिये मनुष्य कुछ भी कहनेको तत्पर इसलिये ऐसा प्रयत्न करना चाहिये कि कल्याणकारी शरू रहता है। परमात्म-अभुमें हमारी आस्था एवं विश्वास जाग्रत् हो ध्यानमें हौं चित स्थिर हो जाय। और हमारे सम्बन्ध भगवानसे स्थापित हों, इसके लिये अपने इस प्रकरणके बाद दानकी महिमा एवं विभिन्न असवका शास्त्रों और पुराणोंमें लौकिक तथा पारलौकिक कामना सिसिके लिये फलश्रुतियाँ विवरूपसे प्रदर्शित हुई हैं। सम्बन्धमें भी यही बात है। अतएव श्रद्धा एवं निष्ठाको दृष्टिमैं वास्तवमें दु:के भय तथा स्वर्ग आदि सुरुखोंके प्रलोभनमें साधकके कल्याणार्थ जहाँ जिसका वर्णन है, वहाँ उसको जब मानव एक बार ब्रत, दाम आदि सत्कर्मोकी ओर प्रवृत हों सर्वोपरि बताना युक्तियुक्त ही हैं और परिपूर्णतम भगवसताको जाता है और उसमें उसे सफलताके साथ आनन्दकी अनुभूति इष्टिमें सत्य तो है हो । तौकी बात यह है कि भगवान होने लमाती हैं तो आगे चलकर यह सत्कर्म भी उसका स्वभाव विभिन्न नाम-रूकी उपासना करनेवाले संतों, मामाओं और व्यस्न बन जाता है और जब भी भगवत्कृपासे सत्संग भने अपनी कल्यागमयी सरसाधनाके तापसे विभिन्न | आदिके द्वारा उसे वास्तविक तत्वका ज्ञान हो जाता है अथवा रूपमय भगवान अपनी-अपनी रुचिके अनुसार नाम-रूपमें मानव-वनके मुख्य उद्देश्यों वह ज्ञान लेता है तो फिर अपने ही साधन-स्थानमें प्राप्त कर लिया और वहीं उनकी भगवत्प्त में देर नहीं लगतीं । वस्तुतः मानव-जीवनका मुख्य प्रतिष्ठा कौं। एक हीं भगवान् अपनी पूर्णतम स्वरूपशक्तिके उद्देश्य भगवत्प्राप्ति में हैं और भगवत्प्राप्ति निष्काम उपासनासे साथ अनन्त स्थानमें, अनन्त नाम-रूपोंमें प्रतिष्ठित हुए। ही सम्भव है। अझै व्रत-दान आदि प्रकरणमैं ज़ों फलश्रुति भगवान प्रतिष्ठास्थान हीं तीर्थ हैं, जो श्रद्धा, निष्ठा और आयी हैं, वे लौकिक एवं पारल किक कमनाक सिद्धिमैं संचके अनुसार सेवन करनेवाले यथायोग्य फर देते हैं, तौं समर्थ है हीं, यदि निष्कामभावसे भगवतप्रीत्यर्थ इनका यहीं तीर्थ-रहस्य है। इस दृष्टिले प्रत्येक तीर्थक सर्वोपरि अनुष्ठान किया जाय तों में जन्म-मरणके अन्धनसे मुक्त कर बताना सर्वथा उचित ही है। | भगवत्प्राप्ति कानेमें भी पूर्ण समर्थ हैं। अतः कल्याणक्यम सब एक हैं, इसकी पुष्टिं तो इससे भलीभाँति हैं आती पुस्योंकों ये व्रत-दान आदि कर्म भगवत्यर्थ निष्कामरूपमें हीं है कि व कहे जानेवाले पुराणों में विष्णु और वैष्णवपुराणमें करने चाहिये।

शिवकी महिमा गायी गयी हैं तथा दोनों एक बताया गया | एक बात और पान देनेकी हैं, जो बुद्धिवाद अंगकी हैं। इसी कार अन्य प्राण-चिशेयके विशिष्ट प्रधान देवने दृष्टिमें प्रायः खटकती है—वह यह कि पुराणोंमें जहाँ जिस अपने ही श्रीमुखसे अन्य पुराणोंके प्रधान देवताको अपना ही देवता, बत, दान और तीर्थक महत्व बताया गया है, वहीं स्वरूप बताया है। यह भविष्यपुराण सौरपुराण हैं, जिसमें उसमें सर्वोपरं माना है और अन्य सबके द्वारा उसकी स्तुतिं भगवान् सूर्यनग्रयणकी अनत्त हिमाका बर्णन प्राप्त होता हैं। क्यों गयीं हैं। गाईको विचार न करनेपर, यह बात परंतु इस पुराणके अन्तमें अध्याय ३५ में सदाचारको विचित्र-सौ प्रतीत होती हैं, परंतु इसका तात्पर्य यह है कि निरूपण हुआ है। इसमें यह बात आयीं हैं-भगवान् भगवान्का यह लीलाभिनय ऐसा आश्चर्यमय है कि इसमें एक श्रीकृष्ण युधिष्ठिरसे कहते हैं—हमने वातौंमैं अनेक ही परिपूर्ण भगवान् विभिन्न विचित्र लीलाव्यापारके लिये और देवताओंका फूजन आदि कहा, परंतु वास्तवमें इन देवोंमें कोई विभिन्न कृचि, स्वभाव तथा अधिकारसम्पन्न साधकोंके भेद नहीं । जो ब्रह्मा है, वहीं विष्णु, जो विष्णु हैं वहीं शिव हैं, कल्याणके लिये अनन्त विचित्र रूपोंमें नित्य प्रकट है। जो शिव हैं वहीं सूर्य हैं, जो सूर्य हैं वहीं अग्नि, जो अग्नि हैं भगवान्के ये सभी रूप नित्य, पूर्णतम और सच्चिदानन्दस्वरूप यहीं कार्तिकेय, जो कर्तकय हैं वहीं गणपति अर्थात् इन है, अपनी-अपनी रुचि और निष्ठाके अनुसार ज़ों जिस रूप देवताओमें कोई भेद नहीं । इसी प्रकार गौरी, लक्ष्मी, सावित्री और नामक इष्ट नाम भजता है, वह उसी दिव्य नाम और आदि शक्तियोंमें भी भेदका लेश नहीं। चाहे जिस रूपमें समस्त रूपमय भगवानको प्राप्त कर लेता है, क्योंकि देवी-देवताके उद्देश्यसे व्रत करें, पर भेद न रखें, क्योंकि भगवान्के सभी रूप पूर्णतम हैं और इन समस्त रूप में एक सब जगत् शिव-शक्तिमय है। हो भगवान् लीला कर रहे हैं। व्रत तथा दान आदिके किसी देवताका आश्रय लेकर नियम-व्रत आदि को,

 

यों मझा  प्रोको यो : से मोअरः मनः कृतः मृर्षः पङ्ग जुध्यते

* पुराणं परमं पुण्यं मयियं सर्वसम्पदम्

 

परंतु जितने व्रत-दान आदि बताये गये हैं, वे सब आचारयुक्त व्यर्थ हैं। आचार ही धर्म और कुल मूल हैं-जिन पुरुषोंमें पुरुषके सफल होते है। आचाहींन पुरुषों वेद पवित्र नहीं आचार होता है ये ही सत्पुरुष कहते हैं। सत्पुरुषका जो करते, चाहे उसने झों सहित क्यों न पड़ा छे । जिस भौत आचरण है, उसका नाम सदाचार है। जो पुरुष अपना । फ्छ जमनेपर, पक्षियोंके बच्चे घोंसले को लेकर उड़ जाते हैं, कल्याण चाहे उसे अवश्य ही सदाचारी होना चाहिये। उसी भाँतं आचारहीन पुरुषकों वेद भी युके समय त्याग देंतें भविष्यपुराणमें इन्हीं सब विषयका प्रतिपादन बड़े हैं । जैसे अशुद्ध पात्रमें जल अथवा श्वानके चर्ममें दुग्ध हुने समारोहसे सम्पन्न हुआ है। पाठकोंकी सुविधाके लिये अपवित्र हो जाता है, उसी प्रकार आचाहींनमें स्थित शास्त्र भी का एक विहङ्गमावलोकन यहाँ प्रस्तुत किया गया है।

 

-रामेश्याम मका अक्ष्युपनिषद्

| ( नेत्ररोगहारी किया ) हरिः ॐ ।

अर्थ है सागवानादित्यक जगाम ।

स आदित्य चत्वा चसुमतीविया तमस्तुवन् ।

ॐ नमो भगवते सूर्यायातेिजसे नमः ।

ॐ खेचराय नमः । ॐ महानाय नमः । ॐ नमसे नमः । ॐ असे नमः । ॐ मत्थाय नमः।

असतो मा सद् गमय । तमसो मा ज्योतिर्गमय।

मृत्योर्मामृतं गमय । होमो भगवाझुचिपः अप्रतिरूपः ।

विश्वरूप अगिर्न जातवेदसं हिरण्मयं यतीक तपशम् ।

सरश्मिः शतमा वर्तमानः पुरः प्रज्ञानामुदयत्येव सूर्यः

। ॐ नमो भगवते श्रीसूर्यापादित्यायाक्षिसेवानि वाहिनि स्वाति।

एवं चक्षुष्मनीविया तुतः श्रीसूर्यनारायणः सुग्रीतोयीसुमनीवियां ब्राह्मणो यो नित्यमयीने न तस्यासिरोगे पयति ।

न तस्य कृलेश पवति ।

अझै प्रणान् माइयित्वाञ्च विवासिर्भिवति ।

य एवं वेद स महान् भवति ।

एक समय भगवान् साङ्कति आदित्यलोकमें गये ।

 

यहाँ सूर्यनारायणको प्रणाम करके उन्होंने चक्षुष्मती विद्याके द्वारा उनकी स्तुति की।

चक्षु-इन्द्रियके प्रकाशक भगवान् सूर्यनारायणको नमस्कार है।

आकाशमें विचरण करनेवाले सूर्यनारायण नमस्कार है।

महासेन ( सहसों किरणों की भारी सेनावाले ) भगवान् श्रीसूर्यनारायण नमस्कार है।

तमोगुणरूपमें भगवान् सुर्यनारायणको नमस्कार है ।

जोंगुणरूपमें भगवान् सूर्यनारायणको नमस्कार है।

सत्त्वगुणरूपमें भगवान् सूर्यनारायण नमस्कार है।

भगवन् ! आप मुझे असत्से सत्की ओर ले चलिये,

मुझे अन्धकारसे प्रकाशकी ओर ले चलिये, मुझे मृत्युसे अमृतकी और ले चलिये।

 

भगवान् सूर्य शुचिरूप हैं और वे अप्रतिरूप भी हैं उनके रूपकी कहीं भी तुलना नहीं हैं।

जो अलि रूपको धारण कर रहे हैं तथा रश्मिमालाओं से मण्डित है, उन जातवेदा ( सर्वज्ञ, ग्निस्वरूप ) स्वर्णसदृश प्रकाशवाले ज्योतिःवरूष और तपनेवाले ( भगवान् भास्करको इम स्मरण करते हैं। ये सहस्रों किरणोंवाले और शत-शत प्रकार से सुशोभित भगवान् सूर्यनारायण समस्त प्राणियोंकि समक्ष ( उनकी भलाई के लिये ) उदित हो रहे है। जो हमारे नेक प्रकाश है, उन अदितिनन्दन भगवान् श्रीसूर्यको नमस्कार है । दिनका भार वहन करनेवाले विश्वथाहक सूर्यदेवके प्रति हमारा सब कुछ सादर समर्पत है। | इस प्रकार चक्षुष्मर्तीवियाकें द्वारा स्तुति किये ज्ञानेंपर भगवान् सूर्यनारायण आयत प्रसन्न होकर बोले- ब्राह्मण इस चक्षुष्मतीविद्याका नित्य पाठ करता है, इसे आँका गैंग नहीं होता, उसके कुलमें कोई अंधा नहीं होता। आठ साह्मणको इसका मण का देनेफर इस विद्याकी सिद्धि होती है। जो इस प्रकार जानता है, वह महान् को जाता है।

 

पायकः कि विमाकः सानि शर्मिदाः प्रताः देव देव सभ्य यः कति बर्त नः भेदस्ता मतव्यः शिवशक्तिमयं जगत् ।। (ताई २०५। ६११३)

 

परमात्मने नमः

 

श्रीगणेशाय नमः ॐ नमो भगवते वासुदेवाय संक्षिप्त भविष्यपुराण ब्राह्मपर्व | व्यास-शिष्य महर्षि सुमन्तु एवं राजा शतानीकका संवाद, भविष्यपुराणकी महिमा एवं परम्परा, सृष्टि-वर्णन, चारों वैद, पुराण एवं चारों वर्गों की उत्पत्ति, चतुर्विध सृष्टि, काल-गणना, युगौंको संख्या, उनके धर्म तथा संस्कार नारायणं नमस्कृत्य नरं चैव नरोत्तमम् ।।

एक समय व्यासज्ञके शिष्य महर्षि सुमनु तथा वसिष्ठ देवी सरस्वनी यासं ततो जयमुदीरयेत् ॥

पराशर, जैमिनि, याज्ञवल्क्य, गौतम, बैशम्पायन, शौनक, ‘बर्दाका श्रमनिवासी प्रसिद्ध ऋषि नारायण तथा ऑनर अग्नि और भारद्वाजादि महर्षिगण पाववंशामें समुत्पन्न (अन्तर्यामी नारायणस्वरूप भगवान् श्रीकृष्ण तथा उनके महाबलशाली राजा शतानीककी सभामें गये। रामाने उन नित्य-सच्चा नस्वरूप नरहु अर्जुन, उनकी हा प्रकट ऋषियका अदिसे विधियत् स्वागत-सत्कार किया और करनेवाली भगवती सरस्वती और उनकी लीओके वक्त हें नम आसन पर बैठाया तथा भलीभाँति उनका पूजन कर मात्र वैदव्यासको नमस्कार का जय-आसरी सम्पत्तयका विनयपूर्वक इस प्रकार प्रार्थना की-हे मात्मा । नाश करके अन्तःकरणपर दैवी सम्पत्तियाँको विजय प्राप्त आपलोगोंके आगमनसे मेरा जन्म सफल हो गया। करानेवाले वाल्मीकीय रामायण, महाभारत एवं अन्य सभीं आपलोगोंके स्मरणमात्र ही मनुष्य पवित्र हो जाता है, फिर इतिहास-पुराणादि सद्ग्रन्थों-का पाठ करना चाहिये। आपलोग मुझे दर्शन देनेके लिये यहाँ पर हैं, अतः आज्ञ

जर्यात पराशनः सत्यवतीदयनन्दनों व्यासः।

मैं धन्य हो गया। आपकोग कृपा करके मुझे न पवित्र एवं अस्यास्यकमगलित वाङ्मयममृते जगत् पिबति ॥

पुण्यमय धर्मशारुकी कथाओंकों सुनायें, जिनके सुननेसे मुझे ‘पराशरके पुत्र तथा सत्यवतीक हृदयको आनन्दित परमगतिकी प्राप्ति हों। करनेवाले भगवान् व्यासक जय हो, जिनके मुखकमलसे ऋषियोंने कहा है राजन् ! इस विषयमें आप हम निःसृत अमृतमयी वाणीका यह सम्पूर्ण विश्व पान करता है। सबके गुरु, साक्षात् नारायणस्वरूप भगवान् वेदव्यासले बों गोवारी कनकमयं इति निवेदन करें। ये कृपालु हैं, सभी प्रकारके शास्त्रोके और विप्राय वेदविद्ये च बहुक्षुताय विद्याओंके ज्ञाता है। जिसके श्रवणमात्रमें मनुष्य सभी पुग्यो भविष्यमुकयां अणुयात् समां तकोंसे मुक्त हो जाता है, उस ‘महाभारत’ ग्रन्थके रचयिता मुवं समं भवति तस्य च तस्य चैव भी यहीं है। “वेदादि शास्त्रों के ज्ञाननेवाले तथा अनेक विषयोंके मर्मज्ञ राजा शतानीकने ऋषियोंके कथनानुसार सभी शास्त्रोके विद्वान् ब्राह्मणों वर्णबटित सींगवालीं सैकड़ों गौओंको दान जाननेवाले भमवान् वेदव्याससे प्रार्थनापूर्वक जिज्ञासा देनेमें जो पुण्य प्राप्त होता है, ठीक उतना ही पुण्य इस भविष्य- औ–भो ! मुझे आप अर्ममयी पुण्य-कथाओंका श्रवण महापुराण उत्तम कथाओंके श्रवण करनेमें प्राप्त होता हैं।’ करायें, जिससे मैं पवित्र हो जाऊँ और इस संसार-सागरसे मेरा

 

] में हमें सिम्ताएको

-‘याशम्फमें पाया पापः कई पुराणोंमें आयी है। भविपके लापर्धके चौथे अध्याय (श्लोक ८६ में समझाया गया है, वहीं देना चाहियें।

 

  • पुराणं परमं पुण्यं भविष्यं सर्वसौख्यदम् +

[ संक्षिप्त भविष्यपुराणाङ्क

उद्धार हो जाय

ब्रह्मवैवर्त, लिङ्ग, वाराह, स्कन्द, वामन, कूर्म, मत्स्य, गरुड़ तथा | व्यासजीने कहा-‘जन् ! बहु मेग्र शिष्य सुमन्तु ब्रह्माण्ड-ये असरह महापुराण हैं। ये सभी चारों वर्णोक लिये महान् तेजस्व एवं समस्त शाका ज्ञाता है, यह आपकौं उपकारक हैं। इनमेसे आप पा सुनना चाहते हैं ? जिज्ञासाको पूर्ण करेगा।’ मुनयने भी इस बातका अनुमोदन राजा शतानीकने कहा है विप्र । मैंने मह्मभारत सुना किया। तदनन्तर गुजा शतानीकने महामुनि मुमन्तुसे उपदेश हैं तथा ऑरामकथा भी सुनी हैं, अन्य पुराणोंको भी सुना है, किंतु करने के लिये प्रार्थना की है द्विजनेनु ! आप कृपाकर उन भविष्यपुराण नहीं सुना है। अतः विपश्रेष्ठ ! आप भविष्य पुण्यमयी कथामा वर्णन करें, जिनके सुननेसे सभी पाप नष्ट पुराणको मुझे सुनायें, इस विषयमें मुझे महत् मैतहरू है। हो जाते हैं और शुभ फलोंकी प्रामिं होती हैं।

सुमनु मुनि बोले-ग्रन्! आपने बहुत उत्तम बात | महामुन सुमन्तु बोले—जन् ! धर्मशास्त्र सबको पूछी है। मैं आपको भविष्यणक कथा सुनाता है, जिसके | पवित्र करनेवालें हैं। उनके सुनने से मनुष्य सभी पापोंसे मुक्त श्रवण करनेसे ब्रह्माहत्या आदि बड़े-बड़े पाप नष्ट हो जाता है। अताओं, तुम्हारी क्या सुनने इच्छा है और अश्वमेधादि यज्ञोंका पुण्यफल प्राप्त होता हैं तथा अन्नमें | राधा तानीकने का—ब्राह्मणदेव ! ये कौनसे सूर्यलोककी प्राप्ति होती हैं. इसमें कोई संदेह नहीं। यह उत्तम धर्मशास्त्र हैं, जिनके सुननेसे मनुष्य पापोंसे मुक्त हो जाता है। पुराण पहले ब्रह्माजद्वारा कहा गया हैं। विद्वान् ब्राह्मणको सुमन्तु मुनि बोले–राजन् ! मनु, विष्णु, यम, अहिरा, इसका सम्यक् ययनकर अपने शिष्यों तथा चारों के वसिष्ठ, दक्ष, संवतं, शातातप, पराशर, आपस्तम्व, उझाना, लिये उपदेश करना चाहिये। इस पुराणमें श्रौत एवं स्मार्त सभी कास्पायन, बृहस्पति, गौतम, शङ, लिखित, हारीत तथा अनि धमका वर्णन हुआ है। यह पुण्ण परम मङ्गलप्रद, सद्धि आदि ऋषियोंद्वारा रचित मन्वादिं बहुत-से धर्मशास्त्र हैं। इन बढ़ानेवाला, यश एवं कति प्रदान करनेवाला तथा धर्मशास्त्रको सुनकर एवं उनके रहस्योंको भलीभाँति परमपद-मोक्ष प्राप्त करानेवाल है वृदयङ्गमकर मनुष्य देवलोकमें जाकर परम आनन्द प्राप्त इदं स्वत्यषनं अमिदं बुद्धिविवर्धनम् । करता है, इसमें कोई संदेह नहीं हैं।

 

इदं यास्यं सततमिदं निःश्रेयसं परम्

शतानीकने कहाप्रभो !

जिन धर्मशास्त्रोंको आपने (मार्च १ 1) कहा हैं, इहें मैंने सुना हैं। अब इन्हें पुनः सुननेक इच्छा नहीं । इस भविष्यमहापुराणमें सभी धर्मोका संनिवेश हुआ है हैं। कृपाकर आप चारों वर्गो कल्याणके लिये जो उपयुक्त तथा सभी कमक गुणों और दोपके फोंका निरूपण किया धर्मशास्त्र हों उसे मुझे बतायें।

| गया है। चा] वणों तथा आश्रमोके सदाचारका भी वर्णन सुमन्तु मुनि बोले-हे महाबाहों ! संसारमें निमग्न किया गया है, क्योंकि सदाचार ही श्रेष्ठ धर्म है ऐसा श्रुतियोंने प्राणियोंके उद्धार के लिये अठारह महापुराण, रामकथा तथा कहा है, इसलिये ब्राह्मणको नित्य आचारका पालन करना महाभारत आदि सद्ग्रन्थ नौकारूपों साधन हैं। अठारह चाहिये, क्योंकि सदाचारसे विहाँन माह्मण किसी भी प्रकार महापुराणों तथा आठ प्रकारके व्याकरणोंको भलीभाँति वेदके फल प्राप्त नहीं कर सकता। सदा आचारका पालन समझकर सत्यवतींके पुत्र बॅदव्यासजीने ‘महाभारतसंहिता की करनेपर तो वह सम्पूर्ण फलोंका अधिकारी हो जाता है, ऐसा रचना की, जिसके सुननसे मनुष्य ब्रह्महत्या पापसे मुक्त हो कहा गया हैं। सदाचारको ही मुनियोंने धर्म तथा तपस्याका जाता है। इनमें आठ प्रकारके व्याकरण ये हैं ब्राह्म, ऐन्द्र, मूल आधार मान्ना है, मनुष्य भी इसका आश्चय लेकर याम्प, रौद्, वायव्य, वारुण, सावित्र्य तथा वैष्णव । अझ, पद्म, धर्माचरण करते हैं। इस प्रकार इस भविष्यमहापुराणमें विष्णु, शिव, भागवत, नारदीय, मार्कण्डेय, मि, भविष्य, आचारका वर्णन किया गया है। तीनों लोकोंकी उत्पत्ति,

 

*आचापः अमो भवः अपुती नतम तस्मादस्मिन् समापुरचे नित्य सामान बिजः ।।

= व्यासशिष्य महर्षि सुमन्तु पुर्व राजा शतानीकका संवाद, भविष्यपुराणकी महिमा :

 

विवाह संस्कार-विधि, स्त्री-पुरुषोके लक्षण, देवपूजाका हैं तात ! पूर्वममें वह सारा संसार अन्धकारमें व्याप्त विधान, राजाओके धर्म एवं कर्तव्यका निर्णय, सूर्यनारायण, था, कोई पदार्थ दृष्टिगत नहीं होता था, अज्ञेय था, अतक्र्य विष्णु, रुद्, दुर्गा तथा सत्यनारायणका माहात्म्य एवं पूजा- था और असुप्त-सा था। उस समय सूक्ष्म अतीन्द्रिय और विधान, विविध तीर्थों का वर्णन, आपद्धर्म तथा प्रायश्चित- सर्वभूतमय उस परब्रह्म परमात्मा भगवान् भास्करने अपने विधि, संध्यावधि, स्नान, तर्पण, वैश्वदेव, भोजनविधि, शारिरसे नानाविध सृष्टि करनेकी इच्छा की और सर्वप्रथम जातिधर्म, कुलधर्म, वैदधर्म तथा यज्ञ-मण्डलमें अनुष्ठित परमारमाने अरसे उत्पन्न किया तथा उसमें अपने वीर्यरूप होनेवाले विविध यज्ञका वर्णन हुआ है। शक्तिका आधान किया। इसमें देयता, असुर, मनुष्य आदि कुरुश्रेष्ठ शतानीक ! इस महापुराणको ब्रह्माजीने सम्पूर्ण जगत् उत्पन्न हुआ। वह वीर्य जालमें गिरनेसे अत्यन्त शंकरकों, शंकरने विष्णुको, विष्णुने नारदको, नारदने इन्द्रकों, प्रकाशमान सुवर्णका अण्ड हो गया। इस अण्डके मध्यसे इन्द्रने पगारको तथा पशग्ने व्यासको सुनाया और व्याससे सृष्टिकर्ता चतुर्मुख लोकपितामह ब्रह्माजी उत्पन्न हुए । में प्राप्त किया। इस प्रकार परम्परा-प्राप्त इस उत्तम नर (भगवान्) में जलकी उत्पत्ति हुई हैं, इसलिये को भविष्यमहापुराणको मैं आपसे कहता है, इसे सुने । नार कहते हैं। वह नार जिसका पहले अयन (स्थान) हुआ, | इस भविष्यमामुराणकी लोक-संध्या पचास हजार है। उसे नारायण कहते हैं। ये सदसदुप, अव्यक्त एवं नित्यकारण इसे भक्तिपूर्वक सुननेवाल्म ऋद्धि, वृद्धि तथा सम्पूर्ण हैं, इनसे जिस पुल्य-विशेषको सृष्टि हुई, वे लेकमें ब्रह्माके सम्पत्ति प्राप्त करता है। ब्रह्माजीद्वारा प्रोक्त इस महापुराणमें नामसे प्रसिद्ध हुए। ब्रह्माजीने दीर्घकालनक तपस्या की और पाँच पर्व कहे गये हैं-(१) ब्राहा. (३) वैष्णव, उस अण्डके दो भाग कर दिये । एक भागसे भूमि और दूसरे में (३) वय, (४) वाष्ट्र तथा (५) प्रतिसर्गपर्व । पुराणके सर्ग, आकाकाकी रचना की, मध्यम वर्ग, आठों दिशाओं तथा प्रतिसर्ग, वंश, मन्यार तथा वंशानुचरित—ये पाँच लक्षण वरुणका निवास स्थान अर्थात् समुद्र बनाया। फिर महदादि बताये गये हैं तथा इसमें चौदह विद्याओंका भी वर्णन हैं। तत्वोंकी तथा सभी प्राणियोंकी रचना की ।। चौदह विद्याएँ इस प्रकार हैं-चार वेद (ऋक्, पशुः, साम, परमात्माने सर्वप्रथम आकाशकों उत्पन्न किया और फिर अथर्व), छः वेदाङ्ग (शिक्षा, कल्प, निरुक्त, व्याकरण, छन्द, क्रमसें वायु, अग्नि, जल और पृथ्व-इन तत्वोंकी रचना ज्योतिष), मीमांसा, न्याय, पुराण तथा धर्मशास्त्र । आयुर्वेद, हैं। सुष्टिके आदिमें ही ब्रह्माजींने उन सबके नाम और कर्म धनुर्वेद, गान्धर्ववेद तथा अर्थशास्त्र- इन चारोंको मित्रानेसे वेदोंके निर्देशानुसार ही नियत कर उनकी आमा-अलग अठारह विद्याएँ होती हैं।

संस्था बना दी। देवताओं के तुषित आदि गण, ज्योतिष्ट्रॉमाद सुमन्तु मुनि पुनः बोले-हे जन् ! अब मैं भूतसर्ग सनातन अश, ग्रह, नक्षत्र, नदी, समुद्र, पर्वत, सम एवं विषम अर्थात् समस्त प्राणियोंकी उत्पत्तिका वर्णन करता हैं, जिसके भूमि आदि उत्पन्न कर कालके विभागों (संवत्सर, दिन, मास सुनने से सभी पापोंकी निवृत्ति हो जाती हैं और मनुष्य परम आदि)और ऋतुओं आदिकी रचना की। काम, क्रोध आदिको शान्तिको मम करता है। इचनाकर विविध कमक सदसवयेके लिये धर्म और

भावादियुत विभा न बदम। भारत का संयुक्तः सम्पूर्णलाभक मतः ।। चमचारतो वृद्धा मय माग गतिम् । म तपसी मुरमापार भागः परम् ॥ अन्ये च माना गजानं मलाः सदा । यस्मन् पुराणे तु आचारस्य न पेर्तनम् ॥ (अपचं १ । १-८) वर्तमान मामबमें भविष्य में संस्करण उपर है, उसमें झा, मध्यम, प्रतिमर्ग तथा जन नामक चार मुर्गं मिलते हैं और । इक-मंग्या भी नाम हमारके प्रधानपार लगभग अट्ठाईस हजार है। इसमें भी कुछ अंश अग्नि माने जाते हैं।

 

२- सा प्रतिसह वंश मन्चन च ॥

 

बंशानुपांतं चैव पुराणं पागम् पशभित्रभिभूपितं

* पुराणं परमं पुण्यं भविष्यं सर्वसौख्यदम् +

 

[ संक्षिप्त भविष्यपुराणाङ्क अधर्मकी रचना की और नानाविध प्राणिजगत्कौं सष्टिकर, धूमकेतु (पुच्छल तारे), उत्का, निर्घात (बादलोंकी उनको सुख-दुःख, हर्ष-शक आदि दोंसे संयुक्त किया। जो गड़गड़ाहट) और बेटे-बड़े नक्षत्रोंको उत्पन्न किया। मनुष्य, कर्म जिसने किया आ तदनुसार उनकी (इन्द्र, चन्द्र, सूर्य किंनर, अनेक प्रकारके मत्स्य, वराह, पक्षी, हाथी, घोड़े, पशु, आदि) पदोंपर नियुक्ति हुई। हिंसा, अहिंसा, मद, झर, धर्म, मृग, कृमि, कट, पतंग आदि बटे-ब जीवोंको उत्पन्न अधर्म, सत्य, असत्य आदि जर्वोक्का जैसा स्वभाव था, यह किया। इस प्रकार उन भास्करदेवने त्रिलोकींकी रचना की। वैसे ही उनमें प्रविष्ट हुआ, जैसे विभिन्न ऋतुओंमें वृक्षोंमें पुष्प, हे राजन् ! इस सृष्टिकी रचनाक, मुष्टिमें जिन-जिन फल आदि उत्पन्न होते हैं। जीवोंका ज़ों-जों कर्म और क्रम कहा गया है, उसका मैं वर्णन | इस मेककीं अभिवृद्धिके लिये ब्रह्माजींने अपने मुख करता हैं, आप सुने ।

झाह्मण, बाहुओंमें क्षत्रिय, ऊक अर्थात् ज॑षामें वैश्य और हाथी, न्याल, मृग और विविध पशु, पिशाच, मनुष्य चरणसे शुडोको उत्पन्न किया । ब्रह्माजीके चारों मुखोंसे चार तथा राक्षस आदि जरायुज (गर्भसे उत्पन्न होनेवाले) प्राणी हैं। वेद उत्पन्न हुए। पूर्व-मुखसे ऋग्वेद प्रकट हुआ, उसे वसिष्ठ मत्स्य, कावे, सर्प, मगर तथा अनेक प्रकारके पक्षी अण्डज़ मुनिने प्रण किया। दक्षिण-मुझसे जुर्वेद उत्पन्न हुआ, उसे असे उत्पन्न होनेवाले हैं। ममी, म, ३, बटमल महर्षि याज्ञवल्याने ग्रहण किया। पश्चिम-मुखसे सामवेद आदि जीव दवा हैं अर्थात् पसीनेक उष्मासे उत्पन्न होते हैं। निःसृत हुआ, उसे गौतमऋषिने धारण किया और उत्तर- भूमिको उद्भेद कर उत्पन्न होनेवाले वृक्ष, ओषधियाँ आदि मुखसे अथर्ववेद प्रादुर्भूत हुआ, जिसे लोकपूजित महर्षि द्धज सृष्टि हैं। जो फलके पकनेतक रहें और पीछे सूख शौनकने ग्रहण किया। ब्रह्माजके लोकप्रसिद्ध पञ्चम (ऊर्ध्व) जायें या नष्ट हो जायें तथा बहुत फूल और फलवाले वृक्ष हैं मुखमै अठारह पुराण, इतिहास और शमादि स्मृति-शास्त्र उत्पन्न वें ओषधि कहलाते हैं और जो पुमके आये बिना ही फलों हैं, वे वनस्पति हैं तथा जो फूलतें और फलते हैं उन्हें वृक्ष इसके बाद ब्रह्माजींने अपने देहके दो भाग किये । दाहिने कहते हैं। इसी प्रकार गुल्म, वल्ली, वितान आदि भी अनेक भागको पुरुष तथा बायें भागको स्त्री बनाया और उसमें विद्, भेद होते हैं। ये सब श्रीजसे अथवा काण्डको अर्थात् वृक्षकों पुरुषको सृष्टि की। उस विराट् पुरुषने नाना प्रकार की सृष्टि छोटी-सी शाखा काटकर भूमिमें गाड़ देनमें उत्पन्न होते हैं । ये चनेकी इच्छासे बहुत काल्तक तपस्या की और सर्वप्रथम वृक्ष आदि भी चेतना-शक्तिसम्पन्न हैं और इन्हें सुख-दु:खा दस ऋषियोंकों उत्पन्न किया, जो जापति कहलाये। उनके ज्ञान रहता है, परंतु पूर्वजन्मके कर्मोकं कारण तमोगुमसे नाम इस प्रकार हैं–(१) नारद, (३) भुगु, (३) वसिष्ठ, आच्छन्न रहते हैं, इस कारण मनुष्योंकी भाँत बातचीत आदि (४) प्रचेता, (५) पुलह, (६) क्रतु, (३) पुलस्त्य, कानमें समर्थ नहीं हो पाते। (८) अत्रि, (६) ऑङ्ग और (१०) मचि । इसी प्रकार इस प्रकार यह अचिन्त्य चराचर-जगत् भगवान् भास्कर अन्य महातेजस्वी ऋषि भी उत्पन्न हुए। अनत्तर देता, अत्रि, उत्पन्न हुआ हैं। जब वह परमात्मा निद्राका आश्रय ग्रहण कर दैत्य और राक्षस, पिशाच, गन्धर्व, अप्सरा, पितर, मनुष्य, शयन करता है, तब यह संसार उसमें लीन हो जाता हैं और नाग, सर्प आदि नियोंके अनेक गण उत्पन्न किये और उनके जब निद्राको स्याग करता है अर्थात् जागता है, तब सब सृष्टि गहनेके स्थानों को बनाया। विद्युत्, मेष, वज्र, इन्द्रधनुष, उत्पन्न होती है और समस्त जौत्र पूर्वकर्मानुसार अपने-अपने

 

(ब्राह्मयं ५६५७)

मुलं माथा पहामं कविश्रुतम्

अष्टादश पुगनि तिहप्तान भारत ।।

निर्गनि ततस्तस्मान्मुखात् कुकुअंद्रह

तथान्याः स्मृतपश्चापि माद्या कर्पाजताः

आवश्यः पना नानाविधओपगाः

अपामा म्वना ये ने स्पः मनाः ।।

पमिनः निवि क्षाभन्यतः स्मृताः

ममा महम्ण मिता महबुना

असंज्ञा भवन्त्यतं असमर्माबलः

 

वाई 3-]

 

  • व्यासशिष्य महर्षि सुमन्तु एवं राज्ञा शतानीका संवाद, भविष्यपुराणकी महिमा ३१

 

कर्मोंमें प्रवृत्त हो जाते हैं। वह अव्यय परमात्मा सम्पूर्ण चराचर वर्ष, द्वापर दो हजार वयका संध्या तथा संध्यांशके चार सौ वर्ष | संसारको जात् और शयन दोनों अवस्थाद्वारा प्रार-बार कुल दो हजार चार सौ वर्ग तथा कलियुग एक हजार वर्ष तथा पत्र और विनष्ट करता रहता है। संध्या और संध्यांश दो सौ वर्ष मिका चारह सौ वर्षोंकि परमेश्वर कल्पके प्रारम्भमें सृष्टि और कल्पके अनमें मानका होता है। ये सब दिव्य वर्ष मिलाकर बारह हजार दिव्य प्रलय करते हैं। कल्प परमेश्वरका दिन है। इस कारण वर्ष होते हैं। यही देवताओंका एक युग कहलाता है। परमेश्वरके दिनमें सृष्टि और ग़में प्रलय होना है। हैं गुजा व ताओंके हुशार युग होनेसे ब्रह्माजीका एक दिन होता शतानीक! अब आप काल-गणनाको सुनें- है और यहीं प्रमाण उनकी चिंका हैं। जब ब्रह्माजी अपनी | अठारह निमेष (पक गिरनेके समयको निमेष कहते त्रिके अत्तमैं सोकर उठते हैं क्य सत्-असत्-रूप मनको है) की एक काला होती है अर्थात् जितने समपमें अठारह बार, उत्पन्न करते हैं । वह मन सृष्टि कानको इच्छासे विकारको प्राप्त पकका गिरना हों, उतने कालको काष्टा कहते हैं। तम होता है, तब उससे अधम आकाश-तत्व उत्पन्न होता है। कामाकी एक कम, तौस काय एक क्षण, बारह क्षणका आकाशका गुण ट् कहा गया है। विकारयुक्त आकाश | एक मुहूर्त, तौस मुहूर्नका एक दिन-रात, तीस दिन-रातका एक सब प्रकारके गन्धको वहन करनेवाले पवित्र वायुकी उत्पत्ति महीना, दो महीनोंकी एक ऋतु, तीन ऋतुको एक अयन तथा होती हैं, जिसका गुण स्पर्श है। इसी प्रकार विकारवान् वायुसे दों अयनका एक वर्ग होता है। इस प्रकार सूर्यभगवानके द्वारा अन्धकारका नाश करनेवाला प्रकाशयुक्त तेज उत्पन्न होता है, दिन-रात्रिका काल-विभाग होता हैं। सम्पूर्ण जय रात्रिको जिसका गुण रूप हैं । विकारवान् तेजमें जल, जिसका गुण रस विश्राम करते हैं और दिन अपने-अपने कर्ममें प्रवृत्त होते हैं। है और जलसे गन्धगुणवाली पृषी उत्पन्न होती है। इसी प्रकार पितका दिन-रात मनुष्योंके एक महीने के बराबर होता सृष्टिका क्रम चलता रहता हैं। हैं अर्थात् शुक्ल पक्षमें पितरोकी रात्रि और कृष्ण पक्षमें दिन पूर्वमें बारह हज़ार दिव्य अषका जो एक दिव्य युग | होता है । देवताओंका एक अहोरात्र (दिन-गत मनुष्योंक एक बताया गया है, वैसे में एकहत्तर युग होनसे एक मन्वन्तर होना । | के बराबर होता है अर्थात् उत्तरायण दिन तथा दक्षिणायन है। ब्रह्माजीक एक दिनमें चौदह मन्वन्तर व्यतीत होते हैं। रात्रि की जाती हैं । हे राजन् ! अब आप ब्रह्माज्ञीके रात-दिन सल्फ्युगमें धर्मके चारों पाद वर्तमान रहते हैं अर्थात् और एक-एक युगके प्रमाणको सुने-सत्ययुग चार हजार सत्ययुगमें धर्म चारों चरणोंसे (अर्थात् सर्वाङ्पूर्ण) रहता है। वर्षका हैं, इसके संध्यांशके चार सौ वर्य तथा संध्याके चार फिर अॅता आदि युगोंमें धर्मका बाल घटनेसे धर्म क्रमसे सौ वर्ष मिलकर इस प्रकार चार हजार आठ सौ दिव्य वर्षाका एक-एक चरण घटता ज्ञाता है, अर्थात् जैतामें धर्मके तीन एक सत्ययुग होता है। इसी प्रकार त्रेतायुग तीन हजार वर्षोंका चरण, परमें दो चरण तथा कलियुगमें धर्मका एक ही चरण तथा संध्या और संध्यांइके छः सौ वर्ष कुल तीन हजार छः सौं बचा रहता है और तीन चरण अधर्मके रहते हैं । सत्ययुगके 5-एक कर्मकाजको इस -मकान मममको सौर मामा काते हैं । मासु मन माझा एन र याही एक और वा इंता का एक अहोरात्र होता है। ऐसे हों तोस आहारानीका एक मास और वह मास दोनों संध्याको युग का मान जा है और माय माना य वर्ष होता है। सौर यांचे

३ तासुगम मा । ३-द्वापरयुगम माना ४-कलियुगका मान मसयुग यो क पपगी

 

 

  • पुराणं परमं पुण्यं मयिंग्यं सर्वसौरपदम्

 

[ संक्षिप्त भविष्यपुराणाङ्क मनुष्य धर्मात्मा, नौरोग, सत्यवादी होते हुए चार सौ वर्षोंतक जिनके कारण वह इन्हें प्राप्त करता है। कृपाकर आप इसका जीवन धारण करते हैं। फिर जैना आदि युगोंमें इन सभी वर्णन करें। वर्षों का एक चतुर्थांश न्यून हो जाता हैं, यथा जैताकें मनुष्य तीन सुमन्तु मुनि बोले-हे राजन् ! आपने बहुत ही सौं वर्च, वापरके दो सौ वर्ष तथा कलियुगकै एक सौ वर्षतक उत्तम यात फु है, मैं आपको वे बातें बताता हैं, उन्हें जीवन धारण करते हैं। इन चारों युगोंके धर्म भी भिन्न-भिन्न ध्यानपूर्वक सुने ।। होते हैं। सत्ययुगमें तपस्या, प्रेतामें ज्ञान, द्वापरमें यज्ञ और जिस ब्राह्मणके वेदादि शास्त्रोंमें निर्दिष्ट गर्भाधान, पुंसवन कलियुगमें दान प्रधान धर्म माना गया है।

आदि अड़तालीस संस्कार विधिपूर्वक हुए हैं, वहीं ब्राह्मण | परम द्युतिमान् परमेश्वरने सृष्टिको रक्षाके लिये अपने ब्रह्मक और ब्रह्मत्वको प्राप्त करता है। संस्कार ही मुसा, मुजा, ऊक और चरणोंमें क्रमशः ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य ब्रह्मत्व-प्राप्तिका मुख्य कारण है, इसमें कोई संदेह नहीं । तथा शूद्र-इन चार वर्णोको उत्पन्न किया और उनके लिये राजा शतानीकने पूछा–महात्मन् ! वें संस्कार अलग-अलग कमक कल्पना को । ब्राह्मणाकं लिप्यं पढ़ना- कौनसे हैं, इस विषयमें मुझे महान् कौतूहल हो रहा हैं। पल्लाना, यज्ञ काना यज्ञ कराना तथा दान देना और दान् कृपाकर आप इन्हें बतायें । लेना—ये छः कर्म निश्चित किये गये हैं। पढ़ना, यज्ञ करना, सुमनजी बोले-गुजन् ! वेदादि शास्त्रोंमें जिन दान देना तथा प्रजाओंका पालन आदि कर्म क्षत्रियोंके लिये संस्कारोंका निर्देश हुआ है उनका मैं वर्णन करता हैं नियत किये गये हैं। पढ़ना, पश करना, दान देना, पशुओंको गर्भाधान, पुंसवन, सौमन्तोन्नयन, जातकर्म, नामकरण, रक्षा काना, स्त-व्यापारमें धनार्जन करना—ये काम अन्नप्राशन, चूडाकर्म, उपनयन, चार प्रकारके वेदवत, वैश्योंके लिये निर्धारित किये गये और इन तीनों वणोंकी सेवा वेदान, विवाह, पञ्चमहायज्ञ (जिनसे देवता, पितरों, मनुष्य, करना—यह एक मुख्य कर्म शूद्रोंका नियत किया गया है। भूत और ब्रह्मक तृप्ति होती हैं), समपाकयज्ञ-संस्था पुरुषकी हमें नाभिसे ऊपरका भाग अत्यन्त पवित्र माना टुकड्या, पार्वण, श्रगीं, आग्रहायणी, चैत्री (गया) गया हैं। उसमें भी मुग्त्र प्रधान है। ब्राह्मण ब्रह्माके मुत्र तथा आश्वयुजी, समवयंज-संस्था—याधान, अग्निहोत्र, | (उत्तमाङ्ग) में उत्पन्न हुआ हैं, इसलिये ब्राह्मण सबसे उत्तम दर्श-पौर्णमास, चातुर्मास्य, निरूपशुबन्ध, सौत्रामणी और हैं, यह वैदकी वाणी है। ब्रह्माजौने बहुत कालाक तपस्या सप्तसौम-संस्था-अग्निष्टोम, अत्यग्निष्टोम, उक्थ्य, पोडशी, करके सबसे पहले देवता और पितरोंकों हल्य तथा कल्य वाजपेय, अतिरात्र और आशोर्याम—ये बालींस ब्राह्मणके पहुँचाने के लिये और सम्पूर्ण संसारकी क्षिा करने हेतु संस्कार हैं। इनके साथ ही ह्मणमें आल आत्मगुण भी आह्मणों उत्पन्न किया । शिरोभागसे अपन्न होने और बेदको अवश्य होने चाहिये, जिससे ब्रह्माकी प्राप्ति होती है। में आठ | धारण करनेके कारण सम्पूर्ण संसारका स्वामी धर्मतः गुण इस प्रकार हैं

 

ब्राह्मण हीं हैं। सब भूतों (स्थावर-जङ्गमरूप पदार्थों में प्राणों अनसूया या क्षतिग्नायास च मङ्गम् । (कीट आदि) श्रेष्ठ , प्राणियोंमें बुद्धिसे व्यवहार करनेवाले अकार्पज्यं तथा शौचमम्पहा च कुरुल्लाह ॥ पशु आदि श्रेष्ठ । बुद्ध रखनेवाले जीवोंमें मनुष्य श्रेष्ठ और पर्व ३ । १५,१५, } मनुष्योंमें ब्राह्मण, ब्राह्मणोंमें विद्वान्, विद्वानोंमें कृतबुद्धि और ‘अनसूया (इसरोंके गुर्गोंमें दोष-बुद्ध नहीं रखना), कृतबुद्धियोंमें कर्म करनेवाले तथा इनसे अह्मवेत्ता–ब्रह्मज्ञानी दया, क्षमा, अनायास (किस सामान्य बातके मौॐ जानकी श्रेष्ठ । ब्राह्मणका जन्म धर्म-सम्पादन करनेके लिये है और बाजी न लगाना), मङ्गल (माङ्गलिक वस्तुओंका धारण), धर्माचरणसे ब्राह्मण ब्रह्मत्व तथा ब्रह्मलोकको प्राप्त करता है। अकार्पणय (दोन वचन नहीं बोलना और अत्यन्त कृपण न राज्ञा शतानीकने पूछा–हें महामुने ! ब्रह्मक और बनना), शौच (बाह्याभ्यन्नरको शुद्धि) और अस्पृहा-ये ब्रह्मत्व अति दुर्लभ हैं फिर ब्राह्मणामें कौनसे ऐसे गुण होते हैं. आल आत्मगुण हैं। इनको पूरों परिभाषा इस प्रकार है

  • गर्भाधानसे यज्ञोपवीतपर्यन संस्कारों की संक्षिप्त विधि

 

गुणके गुर्गोको न छिपाना अर्थात् प्रकट करना, अपने बुरे कमौका परित्याग करना—यह मङ्गल-गुग कहलाता हैं। गुणको प्रकट न करना तथा दूसरेके दोषोंको देखकर प्रसन्न न बड़े कष्ट एवं परिश्रमसे न्यायोपार्जित नसे उदारतापूर्वक होना अनसूया हैं। अपने-परायेमें, मित्र और शत्रुमैं अपने थोड़ा-बहुत निल्य दान करना अकार्पण्य हैं। ईश्वरकी कृपासे न यार करना और दुसरेका छन । कानको इच्छा भाम थोड़ी-सी सम्पत्तिमें भी उच्च नहुना और इसके धन की रखना इया हैं। मन, वचन अथवा गैरसे कोई दुःख भी किंचित् भी इच्छा न रखना अपहा है। इन आठ गुणों और पहुँचाये तो उसपर क्रोध और बैर न करना क्षमा है। अभक्ष्य पूर्वोक्त संस्कारों से जो ब्राह्मण संस्कृत में वह ब्रह्मक तथा वस्तुका भक्षण न करना, निन्दित पुरुषोंम सङ्ग न करना और ब्रह्मत्वको प्राप्त करता है। जिसकी गर्भ-शुद्धि हों, सब संस्कार सदाचरणमें स्थित हुना शौच कहा जाता हैं। जिन शुभ कर्मोक विधियन् सम्पन्न हुए हों और वह वर्णाश्रम-धर्मका पालन करनेसे शरीरकों कष्ट होता है, उस कर्मको हुवात् नहीं करना करता हो तो उसे अवश्य मुक्ति प्राप्त होती है। चाहिये, यह अनायास है। नित्य अच्छे कार्योको करना और गर्भाधानसे यज्ञोपवीतपर्यत संस्कारोंकी संक्षिप्त विधि, अन्नप्रशंसा तथा भोजन-विधिके

प्रसंगमें धनवर्धनकी कथा, हाथोंके तीर्थ एवं आचमन-विधि । राजा शतानीकने कहा-हे मुने ! आपने मुझे मधु और घृतका प्राशन कराया जाता है। दसवें दिन, आरखें जातकर्मादि संसारोके विषयमें बताया, अब आप इन दिन, अठारहवें दिन अथवा एक मास पूरा होनेपर शुभ तिथि संस्कारोंके लक्षण तथा चारों वर्ण एवं आश्रमके धर्म मुहर्त और शुभ नक्षत्रमें नामाकरण-संस्कार किया जाता है। बतलानेकी कृपा करें।

 

ब्राह्मणका नाम मङ्गलवाचक रखना चाहिये, जैसे शिवशर्मा। सुमनु मुनि बोले-राजन् ! गर्भाधान, पुंसवन, क्षत्रियका बलवाचक जैसे इन्वर्मा । वैदयका धनयुक्त जैसे सीमोन्नयन, जाचकर्म, अन्नप्राशन, चुडाकर्म तथा यज्ञोपवीत धनवर्धन और शूद्रका भी यथाविधि देवदासादि नाम रखना आदि संस्कारोंक करनेसे द्विजातियोंके बीज-सम्बन्धी तथा चाहिये । बिर्योका नाम ऐसा रखना चाहिये, जिसके बौनेमें गर्म-सम्बन्धी सभी दोष निवृत्त हो जाते हैं। केंदाध्ययन, व्रत, कष्ट न हों, क्रूर न हो, अर्थ स्पष्ट और अछा हो, जिसके होम, विद्म व्रत, देवर्षि-पितृ-जर्पण, पुशोत्पादन, पझ महायज्ञ सुननेसे मन प्रसन्न हो तथा मङ्गलसूचक एवं आशीर्वादयुक्त हों। और ज्योतिामादि यज्ञोके द्वारा यह शरॊर अद्म-प्राप्तिके योग्य और जिसके अनमें आकार, ईकार आदि दौर्घ स्थर हों। जैसे हो जाता है। अब इन संस्कारोंकों विधिको आप संक्षेपमें यशोदादेवी आदि।

जन्मसे बारहवें दिन अथवा चतुर्थ मास बालकको पुरुषका जातकर्म-संस्कार नालदनसे पहिले किया बरसे बाहर निकालना चाहिये, इसे निष्क्रमण कहते हैं। ॐ ज्ञाता है। इसमें बेदमन्योंकि उच्चारणपर्यंक वालकको सुवर्ण, मासमें बालकका अन्नप्राशन-संस्कार करना चाहिये। पहले या

सुनें –

 

गुगान् गुणनों हनि लत्यामागास पते नान्यदोंपैगमूसा पर्तिता ।।

परे हो मि इन वा सदा अपवर्तन गत् पात् मा या पिकाला

वाचा मनसि काये | दुनोत्पादितेन ।।

कुमति पानि मा पति

अभक्ष्यपहार संसर्गनिन्दिः

आप यशस्थान रॉयमेतत् कीर्तितम्

इसीर में येन शुभेमपि कर्मना

अत्यन्त जन कुवत अनापः उगते ।।

मशतावरणं नित्यम्पास्तविवनिम्।

एन मङ्ग पोक्त मुनिभिर्मयादिभिः ।।

मनोदपि दानापमाननापामना

हन्ग्रहांन यत्किंचिदार्पण्यं तदुच्यते

योपान संतुः नयेनाप्पथ बना

हिमपा पो माह परिकता

 

+ पुराणं परमं पुण्यं भविष्यं मर्यसौख्यदम्

 

[ संक्षिप्त भविष्यपुराणाङ्क तीसरे वर्षों मुण्डन-संस्कार करना चाहिये । गर्भसे आठवें पूजा करें तथा नियमके अनुसार सर्वप्रथम माता, बहिन या वर्षमें माह्मणका, ग्यारहवें वर्षमें क्षत्रियका और बारहवें वर्षमें मौसीसे भिक्षा माँगे । भिक्षा माँगते समय उपनीत माह्मण वद् वैयका वज्ञोपवीत-संस्कार करना चाहिये। परंतु ब्रह्मतेजक भिक्षा देनेवालोंसे ‘भवति ! पक्ष में देहि’, क्षत्रिय ‘भिक्ष | इन्वारा श्राह्मण पाँच वर्षमें, वल्फी इमाम क्षत्रिय भर्नाति ! में तथा वैश्य भिक्षा में भवति !’-इस नकी कामावाल वैश्य आ सपमें अकसे ‘अवनि’ शब्दको प्रयोग करें। भिक्षा में सूर्ण, | अपने-अपने बालकका पनयन-संस्कार सम्पन्न करे । सोलह चाँदी अश्या अन्न ब्रह्मचारीकों हैं। इस प्रकार भिक्षा ग्रहणकर

वर्षनाक ब्राह्मण, बाईंस वर्षतक क्षत्रिय और चौबीस वर्षतक ब्राह्मचारी उसे गुरुको निवेदित कर दे और गुरुकी आज्ञा पाकर वैश्य गायत्री (सावित्री) के अधिकारी रहते हैं, इसके अनत्तर पूर्वाभिमुख से आचमनकर भोजन करें। पुर्यकी ओर मुख यधारमय संस्कार न होनेसे गायत्रीके अधिकारी नहीं रहतें करके भोजन करनेसे आयु, दक्षिण-मुख करनेसे यश, पश्चिम | और ‘बाय’ हाते हैं। फिर जपतक प्रात्यस्तोम नामक मुख करनेसे लक्ष्मी और उत्तर-मुख करके भोजन करनेसे यज्ञसे उन शुद्धि नहीं की जातीं, तबतक उनका शरीर सत्यकी अभिवृद्धि होती है। एकाग्रचित्त हो उत्तम अक्का गायत्री-दीक्षाके योग्य नहीं बनता । इन स्नात्यांके साथ आपनमें भोजन करनेके अनर आचमनकरों (आँख,

भी वेदादि शास्त्रका पठन-पाठन अथवा विवाह आदिका कान,नाक) का जलसे स्पर्श करें। अकीं नित्य स्तुति करनी । सम्बन्ध नहीं रखना चाहिये और अझकी निन्दा किये बिना भोजन करना चाहिये। जैवर्णिक ब्रह्मचारियों को उत्तरोयक रूपमें क्रमशः कृण उसका इनक्र संतुष्ट एवं प्रसन्न होना चाहिये । हर्षसे भोजन ६ करो]- मुग-धर्म, नामक मृगका धर्म और बकनेका चर्म करना चाहिये । पूजित अन्न भोजनसे अल और तेजकी वृद्धि धारण करना चाहिये । इसी प्रकार क्रमशः सन (टाट), असी होती हैं और निन्दित अन्न भौजनसे बल और तेज दोनोंकी और भड़के ऊनका वस्त्र धारण करना चाहिये । झाह्मण ब्रह्मचारीकै हानि होती है। इसीलिये सर्वदा उत्तम अन्ना भोजन करना लिये तीन लडीवाली सुन्दर चिकनी मुँजक, क्षत्रियके लिये चहिये । उच्छिष्ट्र (जुठा) कसोको नहीं देना चाहिये तथा स्वयं | मूर्या (मुरा) को और वैश्यके लिये सनकी मेखला कहीं गयीं भी किसका इच्छिष्ट नहीं खाना चाहिये । भोजन करके जिस हैं। मैंन आदिके प्राप्त न होनेपर क्रमशः कुशा, अमत्तक और अर्शकों को दें उसे फिर प्रहण न कसे अर्थात् बार-बार बल्चज नामक तृणकी मेखलाकों तीन लडीवाली करके एक, होड़-होड़कर भोजन न करे, एक बार बैठकर तृप्तिपूर्वक तन मा पाँच सन्धि इसमें लगाना चाहिये । साह्मण भोजन करना चाहिये। जी परम बीच-बमें किन कपासके सूतका, क्षत्रिय सनकै मृतका और वैश्य भेड़के लोभवश भोजन करता है, उसके दोनों लोक नष्ट हो जाते हैं, ऊनका अज्ञोपवीत धारण करे। ब्राह्मण बिल्व, पलाश या असे धनवर्धन वैश्यॐ हुए थे। अक्षको दाङ, जो सिरपर्बत हो उसे धारण करें । क्षत्रिय बड़, ना शतानीकने पूछा-महाराज ! आप धनवर्धन खदिर या चैतके काम मस्तकपर्यन्त ऊँचा और वैश्य पैलय वैश्यकी कथा सुनाइये। उसने कैसा भोजन किया और उसका (पोल वृक्ष लकड़ी), गूलन, अथवा पॉपके काष्ठका दा; क्या परिणाम हुआ ? नापिकापर्यंत ऊँचा धारण करें । ये दण्ड सौंपें, ट्रिहित और सुमनु मुनिनें कहा–राजन् ! सत्ययुगको बात है, सुन्दर होने चाहिये। यज्ञोपीत-संस्कार में अपना-अपना दण्ड पुकर क्षेत्र धन-धान्यसे सम्पन्न धनवर्धन नामक एक वैश्य धारणकर भगवान् सूर्यनारायका उपस्थान में और गुरुकीं रहता था। एक दिन यह ग्रीष्म ऋतु मध्याह्नके समय 

 

नधानं वयंन्नित्यमग्रामेंदकुल्सयम्

नात् तस्य यद् वै प्रामीमापि भारत

पूजनं वानं मांजा

आपूजितं तु भुक्तमुभयं नाशयदिदम् ।।

 

  • गर्मायासे झोपवतप संस्कारों की संक्षिप्त विपि ३५

पितार्थ

 

देव-कर्म सम्पन्न कर अपने पुत्र, मित्र तथा अन्धु-बान्धयोंके लक्षणोंको सुने-अँगूठेके मूलमें ब्राह्मतीर्थ, कनिष्ठाके मूलमें साथ भोजन कर रहा था। इतनेमें ही अकस्मात् उसे बाहर से प्राजापत्यतीर्थ, अङ्गलियोंके अग्रभागमें देवतीर्थ, तर्जनौं एक करुण शब्द सुनायीं पड़ा। उस शब्दको सुनते ही वह और झुलके बीचमें पितृतीर्थ और हावके मध्य-भागमै दयावश भोजनको छोड़कर बाकी ओर दौड़ा। किंतु जबक यह बाहर पहुंचा दाह आवाज बंद हो गयी। फिर लौटका उस वैश्यने पात्रमें जो अंड़ा हुआ भोजन था उसे खा लिया। भोजन करते ही उस वैषझी मृत्यु हो गयी और इसी अपयश परफमें भी उसकी दुर्गति हुई । इसलिये छोड़े हुए भोजनको फिर कभी नहीं खाना चाहिये। अधिक भोजन भी नहीं करना चाहिये। इससे शरीर में अत्यधिक इसकी उत्पत्ति होती है, जिसमें प्रतिश्याय (जुकाम, मन्दाग्नि, बर) आदि | अनेक गुंग उत्पन्न हो जाते हैं। अजीर्ण हो जानेसे स्नान, दान,

तम, हम, तर्पण, ना आदि कोई भी पुण्य कम चौकसे सम्पन्न | न हो पाते । ति भोजन करनेसे अनेक रोग उत्पन्न होते हैं-आयु घटतीं हैं, लौकमें निन्दा होती है तथा अन्त्त सद्गति । भ न होतीं । च्छिष्ट मल्लसे कहीं नहीं जाना चाहिये । सदा पवित्रतासे रहना शहिये । पवित्र मनुष्य यहाँ सबसे रहता है | और अन्तमें स्वर्ग जाता है।

राजाने पूछा-मुनीश्वर ब्राह्मण किस कर्मके कानसे  ऑवित्र होता है ? इसका आप वर्णन करें।

सुमन्तु मुनि बोले–राजन् ! जो ब्राह्मण विधिपूर्वक आचमन करता है, वह पवित्र हो जाता है और समका सौम्यतीर्थ कहा जाता है, जो देवकर्ममें प्रशस्त माना गया है। अधिकारी हो जाता है। आचमनकी विधि ग्रह हैं कि हाथ-पाँव देवार्चा, आह्मणको दक्षिणा आदि कर्म देवतीर्थस; तर्पण, धोकर पवित्र स्थानमैं आसनके ऊपर पूर्व अथवा उत्तरकी और पिण्डदानादि कर्म पितृतीर्थसे; आचमन ब्राह्मतीधसे; विवाह | मुख करके बैठें। दाहिने हाथको जानके भीतर रखकर दोनों समय लाजामादि और सोमपान प्राजापत्यतीर्थसे; माहु चष्ण बराबर रखें तथा शिख़ामें अन्य लगाये और फिर उष्णता प्रहण, इषिप्राशनादिं कर्म सौम्यतीर्थसे करे। ब्राह्मतीर्थसे एवं फेनसे रिहत शीतल एवं निर्मल जलसे आचमन । उपस्पर्शन सदा श्रेष्ठ माना गया हैं।

 

खड़े-खड़े बात करते, इधर-उधर देखते हुए, शीघ्रतासे और अङ्गलियों मिलाकर एकाप्नचित्त हो, पवित्र जलमें सेंधमुक्त होकर आचमन न करें।

बिना शब्द किये तीन बार आचमन करनेसे महान् फल होता हैं राजन् ! ब्राह्मणके दाहिने हाथमें पाँच तीर्थ कहे गये है और देवता प्रसन्न होते हैं। प्रथम आचमनसे ऋग्वेद, हैं-(१) देवतीर्थ, (३) पितृतीर्थ, ३) ब्राह्मतीर्थ, द्वितीयसे यजुर्वेद और तृतीयसे सामवेदकीं तृप्ति होती हैं तथा | (४) प्राजापत्यतीर्थ और

सौम्यतीर्थ

अब आप इनके आचमन काके जलयुक्त दाहिने अँगूठेसे मुलका स्पर्श करने

अमूरतों श्रेय इंसा महीपते ।।

बाह्य तीर्थं वदन्येतसिशाया द्विजोत्तमाः

कायं कनिष्ठिकामले अमे तु दैवतम्

कर्जन्यच्चयोपः पश्य नीर्थपुटम्

कपमध्ये स्थित सौम्यं असतं देवमण |

 

पर्छ 14-144 } संभ पु

+ पुराणं परमं पुण्यं विष्यं सर्वसौख्यदम् =

 

[ संक्षिप्त भविष्यपुराणाङ्क अथर्ववेदकी तृप्ति होती है। ऑष्टके मार्जनसे इतिहास और कने, परंतु पितृतीर्थसे कभी भी आचमन नहीं करना चाहिये। पुराणोंकी तृप्ति होती है। मसमें अभिषेक करने से भगवान् आचमन जाल हुदयातक जानेसे झाह्मणझी; कण्ट्रक आने रुद्र प्रसन्न होते हैं। शिक्षाको स्पर्शसे ऋषिगण, दोनों ऑक्षक क्षत्रिक और वैश्पकी झलके प्राशनसे तथा शूकी के

स्पर्शसे सूर्य, नासिका स्पर्शसे वायु, कानको स्पर्शले दिएँ, स्पर्शमात्र शुद्ध हो जाती है। | भुजाके स्पर्शसे यम, कुबेर, वरुण, इन्द्र तथा अग्निदेय तृप्त होते दाहिने हाथके नीचे और बायें कंधेपर अज्ञोपवत रहनसे नौर मणकी मन्थिोनी मर्श करने से सभी तप्त हो नि पनौती सच्य) कहता है, इसके विम बुनेको | जाते हैं। मैं धौनसे विष्णुभगवान, भूमिमें जल इनसे अर्थात् यज्ञोपयौनके दाहिने कसे वार्षों और हमें वासुकि आदि नाग तथा बाँचमें जो जलबिन्दु गिरते हैं, उनसे प्राचीनावती (अपसव्य) तथा गलेमें मालकी तरह यज्ञोपवीत चार प्रकारके भूतमामकी तृप्ति होती हैं।

हनेले निवती कहा जाता है। अङ्गद्ध और तर्जनीसे नेत्र, अङ्ग तथा अनामिकासे पेशा , मृगछाम, दण्ड, यज्ञोपवीत और कमण्डलु– नासिका, अङ्ग एवं मध्यमासे मुख, अङ्गष्ट और कनिष्ठासे इनमें कोई भी चीज़ भग्न हो जाये तो उसे ज्ञल्में विसर्जित कर कान, सब अङ्गलियोंमें भुजाओंका, असे नाभिमण्डल तथा मन्त्रोच्चारणपूर्वक दूसरा धारण करना चाहिये। उपर्यंत सभी भङ्गलियोंसे सिग्का स्पर्श करना चाहिये। अङ्ग्छ (सव्य) हॉकर और दाहिने हाथको ज्ञानु अर्थात् घुटनेके भीतर

अग्निरूप है, तर्जनों वायुरूप, मध्यमा अज्ञापतरूप, अनामिका रक्कर जो आह्मण आचमन करता है वह पवित्र हो जाता हैं। | सुर्यरूप और कनष्ठिका इन्द्ररूप है। ब्राह्मणके हाथको रेखाको गङ्गा आदि नदियोंके समान इस विधिसे ब्राह्मणके आचमन करने पर सम्पूर्ण जगत्, पवित्र समझना चाहिये और अङ्गलियोंके जो पर्व हैं, वे | देवता और लोक तुम्न हो जाते हैं । आह्मण सदा पुजनीय है, हिमालय आदि देवपर्वत माने जाते हैं। इसलिये ग्राह्यणका क्योंकि वह सर्वदेवमय हैं। दाहिना हाध सर्वदेवमय हैं और इस विधिसे आचमन ब्राह्मतीर्थ, प्राजापत्यतीर्थ अथवा देवतीर्थसे आचमन करनेवास अत्तमें स्वर्गसकको प्राप्त करता है ।

 

( अध्याय ३१ वेदाध्ययन-विधि, ओंकार तथा गायत्री-माहात्म्य, आचार्यादि-लक्षण, ब्रह्मचारिधर्म-निरूपण, अभिवादन-विधि, स्नातककी महिमामें। अङ्गिरापुत्रका आख्यान, माता-पिता और गुरु की महिमा सुमन्तु मुनिने कहा—गुजन् ब्राह्मणका केशात आगेका कर्म बताते हैं, उसे आप सुनें । शिष्या यज्ञोपवीत (समावर्तन)-संस्कार सोलहवें वर्षमें, क्षत्रियका बाईसवें वर्षमै कर गुरु पहले उसमें शौंच, आचार, संध्योपासन, अग्निकार्य तथा वैश्यक पचीसवें वर्षमें करना चाहिये। सिपक संस्कार सिखायें और वेदका अध्ययन कराये। शिष्य भी आचमन कर अमन्त्रक करने चाहिये । केशात-संस्कार होनेके अनन्तर चाहे उत्तराभिमुज़ में ब्रह्माञ्जलि बाँझकर एकाग्रचित्त हो प्रसन्न-मनसे तो गुरु-गृहमें रहें अथवा अपने घरमें आकर विवाह कर वेदाध्ययनकै लियें बैठे। पढ़नेके आरम्भ तथा अनमें गुरुकै | अग्निहोत्र प्रहण करे । किंवयोंके लिये मुख्य संस्कार विवाह है। चरणको वन्दना करें। पढ़ने के समय दोनों हाथोकी जो जन् ! यहाँतक मैंने उपनयनका विधान बताया। अब अञ्जलि बाँधी जाती हैं, उसे ‘ब्रह्माञ्जलि’ कहा जाता हैं।

 

 

भोग्नर्महायाहों प्रॉों वायुः प्रदेशिनी ।।

अनामिका नया मान्य कनिष्ठा का विलापनमाया तामाद तमाम ।।

पालेताः क्रमामध्ये तु देवा बिशाय भारत ।।

गङ्गाः मरतः गया होगा धम्तमत्तम्

मान्मन्यु पवन गिरगान विद्ध में महिमा न् कों विनय दक्षिणः ।।

 

 

* वेदाध्ययनविधि, ओकार तथा गायीमात्म्य +

 

शिष्य गुरुका दाहिना चरण दाहिने हाथसे और बायाँ अरण सूर्योदयसे पूर्व जव तारे दिखायी देते रहे तभीसे प्रातः बायें हाथसे छूकर उनको प्रणाम करें। वेदकें पढ़नेके समय संध्या आरम्भ कर देनी चाहिये और सूर्योदयपर्यत गायत्री-जप आदिमें और अत्तमें ऑकारका उच्चारण न करनेसे सव निफल करता रहे। इसी प्रकार सूर्यास्तासे पहले ही सायं-संध्या हो जाता हैं। पहलेका पढ़ा हुआ विस्मृत हो जाता है और आरम्भ करें और तारोक दिखायौं देनेतक गायत्र-जप करता

आगे विषय याद नहीं होता।

हे। प्रातः-संध्यामें खड़े होकर जप करने से रात्रिके पाप नष्ट | पूर्वदशमें अग्रभागवाले कुशाके आसनपर बैठकर होते हैं और सायं-संध्याकै समय बैंक गायत्री-अप करनेसे पवित्र धारण को तथा तीन बार प्राणायामसे पवित्र होकर दिनके पाप नष्ट होते हैं। इसलिये दोनों की संध्याकार

का उच्चारण करे । प्रजापतिने तीनों वेदोंके प्रतिनिधिभूत अवश्य करनी चाहिये । जों दोन संध्याओंकों नहीं करता असे अकार, उकार और मकार-इन तीन वर्षोंको तीनों दोसे सम्पूर्ण द्विजानिक विहित कर्मोसे बहिष्कता का देंना चाहिये। निकाला है, इनसे कार बनता है। भूर्भुवः स्वः—

ये तीनों के बाहर एकान्त-स्थाममें, अरण्य या नदी-सरोवर आदिके व्याहतियाँ और गायत्रीके तौन पाद तीनों वेदोंसे निकले हैं। तटपर गायत्रीका जाप करनेसे बहुत लाभ होता है । मन्त्रों इसलिये जो ब्राह्मण ओंकार तथा व्याहतपूर्वक त्रिपदा जप, संध्याकें मन्त्र और जो ब्रह्म-यज्ञादि नित्यकर्म है इनके गायत्रका दोनों संध्याओंमें जप करता है, वह वेदपाठकें मन्त्रोके यारणमें अनध्यायका विचार नहीं करना चाहिये। पुण्यको प्राप्त करता है। और जो ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य अपनी अर्थात् नित्यकर्ममें अनध्याय नहीं होना। | क्रियासे होन होते हैं, उनकी साधु पुरुषोंमें निन्दा होती हैं तथा यज्ञोपवीतके अनचा समावर्तन-संस्कारक शिष्य गुरुके | परमें भी वे कल्याणके भागीं नहीं होते, इसलिये अपने पार्ने रहें । भूमिपर शयन करें, सब प्रकारको गुरकी सेवा करे कर्मका स्याग नहीं करना चाहिये । प्रणव, तीन याति और और केदाध्ययन करता रहे। सब कुछ जानते हुए भी जड़वत् त्रिपदा गायत्री ये सब मिलकर को मन्त्र (गायत्री मन्त्री रहे । आचार्यंका पुत्र, सेवा करनेवाली, ज्ञान देनेवाला, धार्मिक, होता हैं, यह ब्रह्माको मुख है। ज्ञों इस गायत्री मन्त्रको पवित्र, विश्वासी, शक्तिमान्, उदार, साधुस्वभाव तथा अपनी श्रद्धा-भक्तिसे तीन पार्वतक नित्य नियमको विधिपूर्वक जप तिवा–ये दस अध्यापनके योग्य हैं । विना पूछे किसीसे करता है, वह वायुक्ने तरह वेगसम्पन्न होकर आकाशके कुछ न कहें, अन्यायसे पूछनेवालेको कुछ न बताये । जों स्वरूपको धारणक्न ब्रह्मतत्त्वको प्राप्त करता है। एकाक्षर 35 अनुचित होगसे आता है और जो अनुचित ढुंगसे उत्तर देता परब्रह्म है, प्राणायाम परम ताप हैं। सावित्री (गायत्री) से हैं, वे दोनों नरकमें जाते हैं और जगन्में सबके अप्रिय होते। पढ़कर कोई मन्त्र नहीं हैं और मौनसे सत्य बोलना श्रेष्ठ हैं। हैं। जिसको पढ़ानेले धर्म या अर्थकी प्राप्ति न हों और वह कुछ तपस्या, हवन, दान, यज्ञादि क्रियाएँ स्वरूपतः नाशवान् हैं, वा-शुश्रुषा भी न ले, ऐसेंकों कभी न पढ़ायें, क्योंकि ऐसे किंतु प्रणव-स्वरूप एकाक्षर मल्ल ओंकारका कभी नाश नहीं विद्यार्थी दी गयी विद्या परमैं ज़-साप्नकै समान निकल होता। विधियज्ञों (द-पौर्णमास आदि) से जपयज्ञ होती हैं। विद्याके अधिष्ठातृ-दैवताने झाहाणसे कहा-‘मैं । (प्रणवाद – जप) सदा ही श्रेष्ठ । उपांशु-जप (जिस जपर्मे तुम्हारी निधि हैं. मेरी भलीभाँति रक्षा करों, मुझे ब्राह्मणों केवल ओठ और जीभ चलते हैं, शब्द न सुनायीं पड़े) साल् (अध्यापकों के गुणोंमें दोष-बुद्धि खनेवालेन्कों और द्वेष गुना और उपांशु-जससे मानस-अप हजार गुना अधिक फल करनेवाले न देना, इससे मैं बसवतीं रहूँगी । जो ब्राह्मण देनेवाला होता है। जो पाकमज्ञ (पितृकर्म, हवन, जितेन्द्रिय, पवित्र, व्रह्मचारी और प्रमादसे रहित हों उसे बलियैश्वदेव विधि – सके पराभर हैं, वे सभी जप-यज्ञकी मुझे देना। सोलह कलाके बराबर भी नहीं हैं। ब्राह्मणको सय सिद्धि जो गुरुकों आशाके बिना वेद-शास्त्र आदिको स्वयं ज्ञपसे प्राप्त हो जाती है और कुछ कहें या न को, पर ब्राह्मण ग्रहण करता है, वह अति भयंकर रौरव नरकको प्राप्त होता हैं। गायत्री-जप अवश्य करना चाहिये। को लौकिक, वैदिक अथवा आध्यात्मिक ज्ञान दें,

 

  • पुराणं परमं पुण्यं मयियं सर्वसौख्यदम्

 

[ संक्षिप्त भविष्यपुराणा सर्वप्रथम प्रणाम करना चाहिये । जो केवल गायत्रीं जानता हो, दूध आदि यानपर चड़े हुए, अतिवृद्ध, रोगी, भारयुक्त, पर शाहको मर्यादामें रहे यह बसे उत्तम हैं, किंतु सभी कों, स्नातक (जिसका समावर्तन-संस्कार हो गया हो), जा वेदादि शास्त्रको जानते हुए भी मर्यादामें न रहें और और वर (दुल्ला) यदि सामने आते हों तो इन्हें मार्ग पहले भक्ष्याभक्ष्यका कुछ भी विचार न करें तथा सभी वस्तुको देना चाहिये। ये सभी यदि एक साथ आते हों तो स्नातक और | बेचे, वह अषम हैं। ज्ञा मान्य है। इन दोनॉमसे भी माना विशेष मान्य है। चौ अथवी आसनपरी ने चैट। यदि ब्राह्मण झिम्म पनवन ककन हम्य यज्ञ, विद्या पलिमें बैठा ये तो गुरुको आते देख्न नचे तर जाय और और उपनिषद्) तथा कल्पसहित वेदाध्ययन कराता है, उसे उनका अभिवादन करें। वृद्धजनोंको आने देख टोंक प्राण आचार्य कहते हैं। जो जीविक्के निमित्त वेदका एक भाग वासित हो जाते हैं, इसलिये नम्रतापूर्वक खड़े होकर उन्हें अथवा वेदाङ्ग पढ़ाता है, याहू उपाध्याय कहलाता है। जों प्रणाम करनेसे में प्राण पुनः अपने स्थानपर आ जाते है। निषेक अर्थात् गर्भाधानादि संस्कारोंको शैतिसे कराता हैं और प्रतिदिन बड़ों की सेवा और उन्हें प्रणाम करनेवाले पुरुषके आयु, अन्नादिसे पौषण करता हैं, उस ब्राह्मणको गुरु कहते हैं। जो विद्या, यश और बल—ये चारों निरन्तर बढ़ते रहते हैं- अग्निशम, अग्निहोत्र, पक-यज्ञादि कमौका वरण लेकर जिसके * *- भवानशील नियंकापविनः ॥ निर्मित करता है, वह उसका विकू कहता है । जो पुरुष चत्वारि सम्यग्ने आयुः प्रा अको बलम् ॥ वेद-वनिमें दोनों कान भर देता है, उसे माता-पिताक समान समझकर उससे कभी द्वेष नहीं करना चाहिये। भिवादनके समय दूसरेकी को और जिससे किसी उपाध्यायसे दस गुना गौरव आचार्यका और आचार्यको सौ प्रकारका सम्बन्ध नै उसे भवती (आप), सुभग गुना पिताका तथा पितासे हजार गुना गौरव माताका होता हैं अथवा भगिनी (बहन) कहकर सम्बोधित करे। चाचा, मामा, उपाध्यायशाचार्य आचार्याणां शतं पिता ससुर, ऋत्विकू और गुरु–इनकों अना नाम लेते हुए प्रणाम सहस्रेण पितुर्माता गौरवेणातिरिच्यते करना चाहिये। मौसी, मामी, सास, बुआ (पिताकी यन)

| | Bाम हो ॥ ३५) और गुरुकी पत्नये सय मान्य एवं अन्य हैं। यों भाईंकों शाम देनेवारश और वेद पानेवा–ये दोनों पिता हैं, सवर्णा स्त्री (भाभी) का जो नित्य आदर करता है और उसे किंतु इनमें भी वेदाध्ययन कानेवाला श्रेष्ठ हैं, क्योंकि माताके समान समझता हैं, वह विष्णुको प्राप्त करता है। ब्राह्मणका मुख्य जन्म तो वेद पढ़नेसे हीं होता हैं। इसलिये फ्तिाकी बहन, माताकी बहन और अपनी बड़ी बहन-बें उपाध्याय आदि जितने पुन्य हैं, उनमें सबसे अधिक गौरव । तीनों माताके समान में हैं। फिर भी अपनी माता-इन सबकौं महागुरुका ही होती है। : ।।

 

अपेक्षा श्रेष्ठ हैं। पुत्र, मित्र और भानज्ञा (बाहनका लड़का) राजा शतानीकने पूछा-हें मुने ! आपने उपाध्याय इनको अपने समान समझना चाहिये। धन-सम्पत्ति, बन्धु, आदिके लक्षण बतायें, अब महागुरु किसे कहते हैं ? यह भी अवस्था, कर्म और विद्या-ये पाँचौं महके कारण है- अतानेको कृपा करे इनमें उत्तरोत्तर एकसे दूसरा बड़ा है अर्थात् विद्या सर्वश्रेष्ठ हैं। सुमन्तु मुनि बोले-गुजन् ! जो ब्राह्मण जयोपजीवी हो वित्तं बयुर्वंयः कर्म किया भवति पञ्चमी ।

अर्थात् अष्टादशपुराण, रामायण, विष्णुधर्म, शिवधर्म, एतानि मान्यस्थानान गरीबो परम् ॥ महाभारत (भगवान् श्रीकृष्ण-द्वैपायन यासद्वारा रिचत (ग्रापर्ब ४) माभमत जो पञ्चम वेदके नामसे भी विम्यात हैं) तथा श्रोत

१- मा मम्वय ग भारप्रियाः ॥

तस्य तु शश यो आप ममागम् ात पुन्य जानकापायी ॥

आभ्यां समागम बनन् मा यो वास्प पमानभाक् ।।

(आमचे * =]

  • वेदाध्ययनविधि, ओंकार तथा गायत्रीमात्म्य

 

एवं स्मार्ग-धर्म (विद्वान् लेग इन सभी जय’ नामसे आचरण करता है, उसका वेद पढ़ना सफल हैं। जो वेदादि अभिहित करते हैं) का ज्ञाता हो, वह महागुरु कहलाता है। शास्त्रको आकर धर्मा उपदेश करते हैं, वहीं उपदेश छींक वह सभी वर्गोक लिये पुन्य है। जो सहारा थोड़ा सा बहुत है, किंतु जो मूर्ख वेदादि शास्त्रको जाने बिना धर्मका उपदेश उपकार को, उस भी उस पकाके बदले गुरु मानना करते हैं, वे बड़े पापके भागी होते हैं। शौचहत (अपवित्र), चाहिये । अवस्थामै चाहे अॅझ में न हो, पानसे यह बाइक वैसे हित तथा नयत वापराचे ज्ञों अन्न दिया जाता है, वह वृद्धका भी पिता में सकता हैं। राजन् ! इस विषयमें एक अन्न गेंदन करता हैं कि मैंने ऐसा कौन-सा पाप किया था जो प्राचीन आस्मान सुना है।

 

। ऐसे मूर्ख ब्राह्मणके आय पड़ा। और यहीं अन्न यदं |

पूर्वकालमें अग्नि मुनिके पुत्र बृहस्पति (बालक होनेपर, जय पजीवी को दिया जाय तो प्रसन्नतासे नाच उठता है और भी बड़े वृक्षों को पढ़ानें थे और पढ़ानेके समय ‘हैं कहता है कि ‘मॅग्न अभाग्य हैं, जो मैं ऐसे पाके मथ | पुत्रों ! ‘ ऐसा कड़ते थे। बान्कद्धा ‘पुत्र सम्बोधन आमा।’ विद्या और आपके पाससे सम्पन्न मायके में। सुनकर उनको अङ्ग क्षोभ हुआ और वे देवताओंके पास गयें आनेपर सभी अनादि औषधियाँ अति प्रसन्न होती हैं और तथा उन्होंने सारा वृत्तान्त ता । तब देवताओंने कहा- कहती हैं कि अब हमारीं भी गति में जायगी । व्रत, येद पितृगणों ! उस बालकने न्यायोचित बात हीं की हैं, क्योंकि और ज्ञपसे हॉन ब्राह्मणको दान नहीं देना चाहिये, क्योंकि | जो अश में अर्थात् कुछ न जानता हों यहीं सच्चे अर्थमें बालक पत्थरकी नाय दीके पार नवं उतार सकती। इसलिये | है, किंतु जो मन्त्रकों देनेवाला है (वेदकों पढ़ानेवाल हैं), ऑप्रियको ट्य-कव्य देनेसे देवता और चिंतकों में होनी | उपदेशक हैं, यह युथा आदि होनेपर भी पिता होता है । अवस्था है। घाके समीप अहवाले मूर्च माणसे दूर रहनेवाले विद्वान् अधिक होनसे, केश घेत होनेसे और बहुत विन तथा अधु- आझगको ही बुलाकर दान देना चाहिये। परंतु घरके समीप बाधक होनेसे कोई बड़ा नहीं होता, बल्कि इस विषयमें रहनेवाला ब्राह्मण यदि गायत्री भी जानता हो तो उसका ऋषियोंने यह व्यवस्था की है कि जो सियामै अधिक झों, यौं परित्याग न कहें। परित्याग मनसे शैव नरककी प्राप्ति होती असे मान सा है। मामण, क्षत्रिय, मैं और में है, क्योंकि झाग चा निर्गण हो या चान, पन वह वः क्रमशः ज्ञान, बाल, घन नया जन्ममें बम होता है। सिरके गायत्रीं जानता हैं तो वह ममदेव-स्वरूप है। असे अन्नसे शत बाल चैत में जानेसे कोई वृद्ध न होता, यदि कई युवा भी प्राम, जलसे हित कूप केवल नामधारक हैं, वैसे ही बेदादि काका भलीभाँति ज्ञान प्राप्त कर लें तो उसमें वृद्ध विद्याध्ययनसे रहित चाह्मण भी केवल नाममात्रका प्रायग है। (मन) समझना चाहिये। जैसे कमाघसे बना थी, चमड़ेसे प्राणियों के कल्याणके लिये हिमा तथा प्रेमसे ही | पड़ा मृग किसी कामका नहीं, उसी प्रकार वेदसे होन ब्राह्मणका अनुशासन करना श्रेष्ठ है। धर्मकी इच्छा करनेवाले शासकको | जम निकल है। मूर्खको दिया हुआ दान जैसे निष्फल होता सदा मधुर तथा नम्र चनोंका प्रयोग करना चाहिये। जिसके है, वैसे ही वेदक ऋचाओंको न जाननेवाले बायका जन्म मन, वचन चुछ और सत्य हैं, यह केंदामें कहें गये मोक्ष निष्फल होता है। ऐसा माह्मण नाममाका माह्मण होता है। आदि फलको प्राप्त करता हैं। आर्त होनेपर भी ऐसा वन |वैका स्वयं कथन है कि हमें पका हुमय अनुदान न कभी न कहें जिससे किसकी आत्मा हल्ली में और सुनने कने वह पढ़ने का अर्थ होश उठाता है, इसमें वेद पङ्कन वालों को अच्छा न लगे। इसका अपकार करने की शुरू नहीं केंद को हुए कमौका जो अनुष्ठान करता है अर्थात् तदनुकूल करनी चाहिये । पुरुषकों जैसा आनन्द मीठी वाणीले मिलता है,

जपॉपबॉयों में विपः म म यते । धान मम चरितं तुषा।। विधर्माद धर्माः विधर्मा भारत । न ई पर्म तु ममापन स्मृतम्।। अता धर्माध नाम मापते । जति नाम नै प्रदत्त मनवः ||

 

पुराण में हुई मसर्वसौपदम्

 

[ संक्षिप्त पविण्यपुरामा वैसा आनन्द न चन्द्रकिरणसे मिलता है, न चन्दनसे, न शीतल चाहिये । वह जल, पुष्य, गौ गोबर, मृत्तिका और कुशा तथा झयासे और न शीतल असे’। ब्राह्मणको चाहिये कि आवश्यकतानुसार भिक्षा नित्य लायें । ज्ञों पुरुष अपने कर्मोन सम्मानकी इकों भयंकर विवके समान समझकर उससे तात्पर हों और वेदादि-शास्त्रोको पर्ने तथा यज्ञादिमें श्रद्धावान् इता रहे और अपमानको अमृतके समान स्वीकार करें, में, ऐसे गृहस्थकै घरसे ही ब्रह्मचारी भिक्षा ग्रहण करनी क्योंकि जिसकी अवमानना होती है, उसकी कुछ हानि नहीं चाहिये । गुरुके कुलमें और अपने पारिवारिक क्षु-बान्धवोके होतीं, यह सुखी ही रहता है और जो अवमानना करता है, वह से भिक्षा न माँग । अदि भिक्षा अन्यत्र न मिले तो इनके विनाशको प्राप्त होता है। इसलिये तपस्या करता हुआ द्विज घरसे भी भिक्षा प्रण कहें, किंतु ज़ों महापातक ह उनकी नित्य नेम अभ्यास कने, पकि वेदाभ्यास ही झाह्मणका भिसा न ले। नित्य समया लाकर सायंमल और प्रातःकाल परमं तप हैं।

हवन । भिक्षा माँगनके समय वाणी संयमित रखें। ब्राह्मणके तीन जन्म होते हैं—एक तो माताकें गर्भसे, ब्रह्मचारीके लिये भिक्षाका अन्न मुख्य है। एक्का अन्न नित्य दूसरा यज्ञोपवीत होनेसे और तीसरा यज्ञकी दीक्षा लेनेसे। न लें। भिक्षावृतिसे रहना उपवासके बराबर माना गया है। यह यज्ञोपवीतके समय गायत्री माता और आचार्य पिता होता है। धर्म केवल ब्राह्मणके स्न्येि कड़ा गया है, क्षत्रिय और वैश्य वेदक शिक्षा देनमें आचार्यको पिता कहते हैं, क्योंकि धर्म में कुछ भेद हैं। यज्ञोपवीत होनेके पूर्व किसी भी वैदिक कर्मकं करनेका ब्रह्मचारी गुरुके सम्मुख हाध जोड़कर खा रहें, जब अधिकारीं यह नहीं होता । आमें पड़े जानेवाले वेदमन्त्रोंको गुस्की आज्ञा हो तब बैठे, परंतु आसनर न बैठे। गुरुके ओड़कर (अनुपनीत द्विज’) वेदमन्त्र उच्चारण न करे, क्योंकि अठनेमें पूर्व उठे, सोनेके पश्चात् सोये, गुरुके सम्मुख अति जबतक वेदारम्भ न हों आय, तबतक वह शुदके समान माना नम्रतासे बैठे, पक्षमें गुरुको नाम उच्चारण न करें, किसी भी गया है। अज्ञोपवीत सम्पन्न में जानेपर वटुको व्रतका उपदेश बातमें गुरुका अनुकरण अर्थात् नकल न करें। गुरुकी निन्दा ग्रहण करना चाहिये और तभीसे विधिपूर्वक वेदाध्ययम मना न करें और ज्ञहीं निन्दा होती हो, आलोचना होती है वहाँले चाहिये। यज्ञोपवीतके समय ज्ञ-जों मेखला-चर्म, दण्ड और उठकर चल ज्ञाय अथवा कान बंद कर लें— यापवत तथा वस्त्र जिस-जिसके लिये कहा गया है वह-वह पवादाचा निन्दा गुरोर्यत्र प्रवर्तते ।। ही आरण करें। अपनी तपस्याकी वृझिके लिये ब्रह्मचारी क व पितयो गत झा नतोऽन्यतः ॥ जितेन्द्रिय होकर गुल्के पास रहे और नियमका पालन करता रहे। नित्य स्नानका पवित्र हो देवता, ऋषियों तथा पितरोंका वाहनपर चढ़ा हुआ गुरुका अभिवादन न , अर्थात् तर्पण को। पुष्प, फल, जल, समिधा, मृत्तिका, कुशा और वाहनसे उतरकर प्रणाम करे । गुस्के साथ एक वाहन, शिस्त्र, अनेक प्रकारके यात्रोंका संग्रह रखें। मद्य, मांस, गन्ध, नौकायान आदिपर बैठ सकता है। गुरुके गुरु तथा श्रेष्ठ पुष्पमाला, अनेक प्रकारके रस और स्त्रियांका परित्याग । सम्बन्धीजनों एवं गुरुपुत्रके साथ गुरुके समान ही व्यवहार प्राणियों की हिंसा, शरीर में उबटन, अंजन लगाना, जुता और कने। गुल्कों सवर्णा को गुरुके समान हीं समझे, परंतु छत्र धारण करना, गीत सुनना, नाच देखना, जुआ खेलना, गुरुपत्रके उबटन लगाना, स्नानादि कराना, चरण दबाना आदि झूठ बोलना, निन्दा करना, स्तियोंके समीप बैठना और काम, क्रियाएँ निषिद्ध है। माता, बहन या बेटांके साथ एक कोष तथा लोभादिके वशीभूत होना इत्यादि बातें आसनपर न बैठे, क्योंकि बलवान् इन्द्रियों समूह विदाको ब्राह्मचारीके लिये निषिद्ध है। उसे संयमपूर्वक एकाकी रहना भी अपनी ओर खींच लेता है। जिस प्रकार, भूमिकों या शॉ ने सलिल न दामों में तलवाया | पानि च प ब मधुनी वागीं ॥

[ पर्व ४।६३)

माना बना इजा वा मन अत्

मलवाHदयघाम बंदमम कति

 

वेदाध्ययन-विधि, ओंकार तथा गायत्री-माहात्म्य । खोदते-खोदने जल मिल जाता है, उसी प्रकार सेवा-शुश्रुषा पिता की भक्तिसे इहलोक, माताकी भक्तिसे मध्यक करते-करते गुरुसे विद्या मिल जाती है। मुण्डन कराये हो, और गुस्से सेवासे इन्द्रलोक प्राप्त होता है। जो इन तीनों जटाधारी हो अथवा शिग्री (व शिसे मुक्त हों, चाहे या करता है, उसके सभी धर्म सफल में जाते हैं और ज़ों जैसा भी ब्रह्मचारी हो उसको गाँवमें रहते हुए सूर्योदय और का आदर नहीं करता, उसको सभी क्रियाएँ निष्फल होती | सूर्यास्त नहीं होना चाहिये। अर्थात् ज्ञल्के तट अथवा निर्जन हैं। जबतक ये तीनों जीवित राते हैं, तबतक इनकी नित्य स्थानपर जाकर दोनों संध्या संध्या-वन्दन करना चाहिये। सेवा-शुश्रुषा और इनका हित करना चाहिये । इन तीनोंकी जिसके सोते-सोते सूर्योदय अथवा सूर्यास्त हो जाय वह महान् सेवा-यासपी धर्ममें पुरुषका सम्पूर्ण कर्तव्य पूरा हो जाता पापका भागी होता है और बिना प्रापश्चत्त (कृच्छ्मत) के हैं, यहीं साक्षात् धर्म है, अन्य सभी धर्म क गये हैं। शुद्ध नहीं होता।

उत्तम किया अधम पुरुषमें हो तो भी उससे ग्रहण कर माता, पिता, भाई और आचार्यका विपत्तिमें भी अनादर लेनी चाहिये। इसी प्रकार चाण्डासे भी मोक्षधर्मको शिक्षा, न कहें। आचार्य ब्रह्माकी मूल है, पिता अनापतिकी, मला नीच कुसे भी उत्तम स्वी, विषसे भी अमृत, बालकसे भी पृथ्वीकों तथा भाई आममूर्ति हैं। इसलिये इनका क्दा आदर सुन्दर उपदेशात्मक बात, शत्रुसे भी सदाचार और अपवित्र करना चाहिये। प्राणियोंकी उत्पत्तिमैं तथा पालन-पोषणमें स्थान में भी सुवर्ण मण कर लेना चाहिये । उत्तम ली, रत्न, माता-पिताको ज़ों क्लश सहन करना पड़ता है, उस का विद्या, धर्म, शौंच, सुभाषित तथा अनेक प्रकारके शिल्प बदल वें सौ वर्षोंमें भी संवा करके नहीं चुका पाते। इसलिये जहाँसे भी प्राप्त हों, ग्रहण कर लेने चाहिये। गुरुके माता-पिता और गुरूकी सेवा नित्य करनी चाहिये । न तीनोंके हीर-स्यागपर्यत जो गुरुकों सेवा करता है, वह श्रेष्ठ संतुष्ट हो जाने से सब करके तपोंका फल प्राप्त हो जाता है, ब्रह्मलोकको प्राप्त करता है। पड़नेके समय गुरुको कुछ देकीं इनकी शुश्रूषा ही परम वप कम गया है। इन तीनोंकी आज्ञा इ न को, किंतु पढ़नेके अनत्तर गुको आज्ञा पाकर भूमि, बिना किसी अन्य धर्मका आचरण नहीं कमाना चाहिये। ये ही सुवर्ण, गौ, घोड़ा, छत्र, पान, धान्य, शक तथा वस्त्र आदि तीनों लोक हैं, में ही तीनों आश्रम हैं, ये ही तीनों वेद हैं और अपनी शक्ति के अनुसार गुरु-दक्षिणाके रूपमें देने चाहिये। ये ही तीनों अग्नियाँ हैं। माता गार्हपत्य नामक अग्नि हैं, पिता जब गुस्का देहांत हो जाय, तब गुणवान् गुरुपुत्र, गुरुकीं सूची दक्षिणाम-स्वरूप है और गुरु आहवनीय अन्न है । जिसपर ये और गुरुके भाइयोंकि साथ के समान ही व्यवहार करना। तीनों प्रसन्न हो जायें, वह तीनों लोकोंपर विजय प्राप्त कर लेता चहिये । इस प्रकार जो अविच्छिन्न-रूपसे ब्रह्मचारि-धर्मका हैं और दीप्यमान होते हुए देवकमें देवताओंकी भाँति सुन्न आचरण करता है, वह ब्रह्मलोक प्राप्त करता है। भोंग करता है। सुमनु मुनि पुनः बोले-हे राजन् ! इस कार मैंने त्रिषु तु चैनेषु श्रील्लोकायतें गी । ब्रह्मचारिधर्मका वर्णन किया। ब्राह्मणको उपनयन यसत्त, दीप्यमानः स्ववपुषा देववदिवि मोदते ॥ क्षत्रिपका प्रोममें और वैश्यका शरद् ऋतुमें प्रशस्त माना गया है। अब गृहस्थधर्मका वर्णन सुने ।

(अध्याय ]

 

भाग अाजों मूर्तिः पिता मुर्तिः जापतेः

मातायपादिनिर्माता सानैरात्मनः

मातापित हो सहेजें सम्भवं नृणाम्

ताम्य नितिः शया वर्षापं

 

२-श्रद्दधानः शुभो बिद्यामाददताबपुष ।

अस्यापि पर धर्म सरलं दुष्कुमदपि ।

 सिम मा बाल्य सुभाषितम् ।

मादप दत्तममेटी क्याम् ।।

शापर्व है ।

 

+ पुराणं परमं पुण्यं भविष्यं र्वसौख्यदम्

 

[ संक्षिप्त भविष्यपुराणा विवाह-संस्कारके ऊपक्रममें वियोंके शुभ और अशुभ लक्षणोंका वर्णन

तथा आचरणकी श्रेष्ठता। सुमन्तु मुनि बोले-राजन् ! गुरुके आश्रममें ब्रह्मचर्य- है। जिस स्त्रीके हाथ फटे हुए, रूखे और विषम अर्थात् व्रतका पालन करते हुए स्नातकको वेदाध्ययन कर गृहस्थाश्रममें ऊंचे-नीचे एवं ग्रेटे-बड़े हों वह कष्ट भोगती हैं। जिस स्त्रीकी प्रवेश करना चाहिये। घर आनेपर उस ब्रह्मचारीको पहले अँगुलियोंके पर्वोमं समान रेखा हो अथवा यव चिह्न होता है, पुष्प-माला पहनाकर, शयापर बिठाकर उसका मधुपर्क- उसे अपार सुख तथा अक्षय धन-धान्य प्राप्त होता है। जिस विधिसे पूजन करना चाहिये । तब गुरुसे आज्ञा प्राप्तकर उसे शुभ स्वीका मणिबन्ध सुस्पष्ट तीन रेखाऑसे सुशोभित होता है, वह लक्षणसे युक्त सनातय कन्या विवाह करना चाहिये। चिरकालतुक अक्षय भोग और दौर्य आयकों प्राप्त करती है।

राजा शतानीकने पूछा-हे मुनीश्वर ! आप प्रथम जिस लकी ग्रीवामें चार के परिमाप स्पष्ट तीन सिके लक्षणोंका वर्णन करें और यह भी बतायें कि किन खाएँ । तो वह सदा के आभूषण धारण करनेवाली होती लक्षणसे युक्त कन्या शुभ होती हैं। दुर्बल मवावा लीं निर्धन, दीर्घ मवावालीं बंधकी, सुमन्तु मुनि बोले-राजन् ! पूर्वकालमें ऋषियोंके इस्वप्नवाया मृतवत्सा होती है और स्थूल ग्रयावालों पृनैपर ब्रह्माजींनी स्त्रियों को उत्तम लक्षण कहें हैं, उन्हें मैं दुःख-संताप प्राप्त करती है। जिसके दोनों कंधे और काटिम संक्षेपमें बताता हैं, आप ध्यान देकर सुनें। (गरनका उठा हुआ पिछला भाग) ऊँचे न हों, वह स्त्री दीर्घ ब्रह्माजीने का अधिगणों ! जिस के चरण लाल आयुयाली तथा उसका पति भी चिरकालतक जीता है। कम समान कात्तिवाले अन्यत्र कोमल तथा भूमिपर, जिस लींकी नासिका न बहुत मोटी, न पतली, न देदी, न समतल-पसे पड़ते हों, अर्थात् बीचमें ऊँचे न रहें, वें चरण अधिक थीं और न ऊँचीं होतीं हैं वह श्रेष्ठ होती है। जिस उत्तम एवं सुख-भोग प्रदान करनेवाले होते हैं। जिस स्त्री स्त्रीकी मौई ऊंचीं, कोमल, सूक्ष्म तथा आपसमें मिली हुई न चरण में, फटे हुए, मसहित और नाड़ियोंसे युक्त हों, वह हों, ऐसौं व सुख प्राप्त करती हैं। अनुपके समान भौहें सौभाग्य स्त्री दरिंदा और दुर्भगा होती है। यदि पैकी अंगुलियाँ परस्पर प्रदान करनेवाली होती है। स्त्रियोंके काले, स्निग्ध, कोमल और मिओं में, सीधी, गोल, स्निग्ध और सूक्ष्म नौसे युक्त हों तो ये मुंघराले केश उत्तम होते हैं। ऐसी स्त्री अत्यन्त ऐश्वर्यको प्राप्त करनेवाली और राजमहियों होती हंस, कोयाल, वीणा, अमर, मयूर तथा वेणु (वंश) के है। ऑटों अँगुलियाँ आयुको बढ़ाती है, परंतु कोटीं और विरल समान स्वरवा स्त्रियाँ अपार सुख-सम्पत्ति प्राप्त करती हैं और अंगुलियाँ धनका नाश करनेवाली होती हैं।

दास-दासियोंसे मुक्त होती हैं। इसके विपरित टें हुए काँसके जिस के हाथकी रेखाएँ गरी, स्निग्ध और रक्तवर्णको स्वरके समान स्वरवाली या गर्दभ और कौवेके सदृश स्वरवालों होती है, वह सुख भोगनेवाली होती हैं, इसके विपरीत टेडी और स्त्रियाँ ग्रेग, व्याधि, भय, शोक तथा दरिद्रताको प्राप्त करती हैं। इटी हुई हों तो वह द्धि होती है। जिसके हाथमें नशाके हंस, गाय, वृषभ, चयाक तथा मदमस्त हाथके समान मुलन्से तर्जनीतक पूरी इंग्ला चले ज्ञाय तो ऐसीं ली सौ वर्षतक चालव्याल्में सिंचयाँ अपने कुलको विख्यात बनानेवाओं और जीवित रहती है और यदि न्यून हों तो आयु कम होती है। जिस राजा रानी होती हैं। श्वान, सियार और कौवेके समान स्त्रीके हाथों अँगुलियां गोल, लंबी, पतली, मिलानैपर गतिवाओं सी निन्दनीय होती है। मृगके समान गतिवाल दास छिद्ररहित, कोमल तथा रक्तवर्ण हो, यह बी अनेक तथा द्रुतगामिन सी बन्धक होती हैं। स्त्रियोंक्य फलिनी, सुख-भोगको प्राप्त करती हैं। जिसके नख बन्जीव – पुष्पके गोरोचन, स्वर्ण, कुंकुम अथवा नये-नये निकले हुए नरके समान अल एवं ऊँचे और स्निग्ध हों तो वह ऐश्वर्यको प्राप्त सदृश इंग उत्तम होता है। जिन स्त्रियोंके शरीर तथा अङ्ग करती हैं तथा अखें, टेले, अनेक प्रकारके रंगवाले अथवा श्वेत कमल, ग्रेम और पसीनमें रति तथा सुगन्धित होते हैं, वे या नीले-मीले नोंवाली लौ दुर्भाग्य और दारिद्र्यको प्राप्त होती स्त्रियाँ फूज्य होती हैं ।

कपिल-वर्णवाली, अधिकाङ्ग, रोगिणी, मोंसे रहित, (बवासीर), क्षय (राजयक्ष्मा), मन्दाग्नि, मिरगीं, अंत दाग अलात कोटी (बौनी), वाचाल तथा सिंगल वर्णवाओं कन्याओं और कुल-जैसे गैंग हॉर्ने हों। विवाह नहीं करना चाहिये। नक्षत्रा, वृक्ष, नहीं, म्लेच्छ, पर्वत, मनीने वियाने पुनः कहा—ये सब नाम लक्षण पश, साँप आदि और दासके नाम जिसका नाम से तथा जिस कन्यामें हों और जिसका आचरण भी अच्छा हो उस इसने नामवाली कन्या विवाह नहीं करना चाहिये। जिसके कन्यासे विवाह करना चहिये। बीके लक्षणोंकी अपेक्षा उसके सव अङ्ग ठीक हैं, सुन्दर नाम हो, हंस या हाथोकी-सी गति हो, सदाचारकों में अधिक प्रशस्त कहा गया हैं। जो लीं सुन्दर को सूक्ष्म ग्रॅम, केश और दाँतोंवाली तथा बेमलने हों, ऐसी शरीर तथा शुभ लक्षणसे युक्त भी है, किंतु यदि वह कन्याको विवाह करना उत्तम होता है। गौ तथा धन-धान्यादिसे सदाचारसम्पन्न (उत्तम आचरणयुक्त) नहीं है तो वह प्रशस्त अत्यधिक समृद्ध होनेपर भी इन दस कुस्नमें विवाहका सम्बन्ध नहीं मानी गयी हैं। अतः स्त्रियोंमें आचरणकी मर्यादा अवश्य स्थापित नहीं करना चाहिये जो संस्कारोंसे रिहत हों, जिनमें देखना चाहिये। ऐसे मल्लक्ष तथा सदाचार सम्पन्न पुरुष-संतति न होती है, जो वेदके पठन-पाठनसे रहित हों, सुकन्यासे विवाह करनेपर ऋद्धि, वृद्धि तथा सत्कीर्ति प्राप्त जिनमें सी-पुरुषके शरिरॉपर बहुत लंबे केश हों, जिनमें अर्श होती हैं।

 

(अध्याय ५)

गृहस्थाश्रममें अन एवं स्त्रीकी महत्ता, धन-सम्पादन करनेकी आवश्यकता तथा समान कुलमें विवाह-सम्बन्धकी प्रशंसा राजा शतानीकने सुमनु मुनिसे पूछा-भगवन् ! उनके जीवनको धिक्कार है, उनके लिये तो मृत्यु हौं परम उत्सव लियोंके लक्षणों तों मैंने सुना, अब इनकें सद्वृत्त है अर्थात् ऐसे पुरुषका मर जाना ही श्रेष्ठ है। अतः ग्रहण | (सदाचार) को भी मैं सुनना चाहता हैं, उसे आप बतलानेकी करनेवाले अर्थहीन पुरुपके त्रिवर्ग-(धर्म, अर्थ, काम-की कृपा करें।

‘सिद्धि काँ सम्भव है ? यह ऑ-सुख न प्राप्त कर यातना हो सुमन्तु मुनि झोले–मह्मवाहू शतानीक ! ब्रह्माजीने भौगता हैं। जैसे स्त्रीके बिना गृहस्थाश्रम नहीं हो सकता, उस ऋपियाँको सियोंके सदसत्त भी बताये हैं, उन्हें मैं आपको प्रकार धन-विहीन व्यक्तियोंक भी गृहस्थ बननेका अधिकार सुनाता हैं, आप अयानपूर्वक सुनें । जब ऋषिपौने चिपके नहीं है। कुछ लोग संतानों में विवर्गक साधन मानते हैं। सहके विपसमें ब्रह्माजीसे प्रश्न किया बह्माजी ने अर्थात् संतानसे हीं धर्म, अर्थ और कामकी प्राप्ति होती हैं, लगे-मुनीश्वरों ! सर्वप्रथम गृहस्थाश्रममें प्रवेश करनेवाला ऐसा समझते हैं; परंतु नीतिविशारदको यह अभिमत हैं कि व्यक्त यथाविधि विद्याध्ययन करके सत्कर्मीद्वारा घनका धन और उत्तम वी–दें दोनों त्रिवर्ग-साधनके हेतु हैं। अर्म उपार्जन करें, तदनन्तर सुन्दर लक्षणसे युक्त और सुशील भी दो प्रकारका कहा गया है— धर्म और पूर्त धर्म। कन्याको शास्त्रोक्त विधिसे विवाह करें। धनके बिना गृहस्थाश्रम यज्ञादि करना इष्ट धर्म है और थाप, कुप, ताशय आदि केवल विडम्बना है। इसमें धन-सम्पादन करनेके अनच बनवाना मूर्त धर्म है। ये दोनों घनसे ही सम्पन्न होते हैं। हौं गृहस्थाश्रममें अवैश करना चाहियें। मनुष्यके लिये घर दरिद्रीकै बन्धु भी उससे लजा करते हैं और धनाढ्य नरक यातना सहनी अच्ओं है, किंतु अमें क्षुधासे तड़पते अनेक बन्धु हो जाते हैं। धन ही त्रिवर्गका मूल हैं। धनवान्ने हुए – दैना अच्छा नहीं है। फटें और मै–कुनैले चिया, कुल शी अनेक उनम गुण आ जाते हैं और निनिमें वस्त्र पहने, आँत दीन और भूखें स्त्री-पुत्रों को देखकर जिनका विद्यमान होते हुए भी ये गुण नष्ट हो जाते हैं। शास्त्र, शिल्प, हृदय विदीर्ण नहीं होता, वें क्के समान अति कठोर हैं। कलम और अन्य भौं जितने कर्म हैं, उन सबको तथा धर्म का लक्षणेभ्यः पन्नास तु मन मनमुनी

मदतक्ता या सी मा माला ना लक्षणः

 

* पुराणं परमं पुण्यं भविष्यं सर्वसौख्यदम् +

[ संक्षिप्त भविष्यपुराणाङ्क साधन भी धन हौं हैं। घनके विना पुरुषका जन्म अजागल- अमाप नरः तद्वदयोग्यः सर्वकर्मसु ॥ स्तनयत् व्यर्थ ही है।

(कपर्श ६ ॥ ३३)

पूर्वजन्ममें किये गये पुण्योंसे ही इस जन्ममें प्रभूत धनकी पली-परिग्रहसे धर्म तथा अर्थ दोनोंमें बहुत लाभ होता प्राप्ति होती हैं और धनसे पुण्य होता है। इसलिये धन और है और इससे आपसमें प्रति उत्पन्न होती हैं, सत्प्रीतिसे पुण्यका अन्योन्याश्रय सम्बन्ध हैं अर्थात् ये एक दूसरेके कारक कामरूपी तृतीय पुरुषार्थ मी प्राम में जाता हैं, ऐसा विद्वानों का हैं। पुण्यसे धनार्जन होता है और मनसे पुण्यार्जन होता है= कहना है। विवाह-सम्बन्ध तीन प्रकारका होता है-नीच

प्राक्पुण्यैर्बिपुरा सम्पर्मकामादिया। कुलमें, समान कुलमें और उत्तम कुलमें। नीच कुलमें विवाह भूयों अर्मेण सामुन्न तया ताविति च क्रमः ॥ कानेसे निन्दा होती है। उत्तम कुलवाले के साथ विवाह करने से ये अनादर करते हैं। अपने बड़े होगोंके साथ बनाया गया इसलिये विद्वान् मनुष्यको इस निसें त्रिवर्ग-साधन विवाह सम्बन्ध, नचिके साथ बनाये गये विवाह-सम्बन्धक करना चाहिये। स्वाँरहित तथा निर्धन पुरुषका त्रिवर्ग-साधनमें प्रायः समान हौं ह्येता हैं। इस कारण अपने समान कुलमें हों। अधिकार नहीं हैं। अतः भा-महणसे पूर्व उत्तम निमें विवाह करना चाहिये । मनस्व लोंग विजातीय सम्बन्ध भी अर्थार्जन अवश्य कर लेना चाहिये। न्यायोपार्जित धनकी प्राप्ति तक नहीं मानते। यह वैसा हीं सम्बन्ध होता हैं जैसे कोयल | होनेपर दार-परिग्रह करना चाहिये। अपने कुलके अनुरूप, और शुका । जिस सम्बन्धमें प्रतिदिन स्नैकी अभिवृद्धि होतीं।

धन, क्रिया आदिसे प्रसिद्ध, अनिन्दित, सुन्दर तथा धर्मकी रहती हैं और विपति-सम्पत्तिके समय भी प्रमाणातक भी देनमें | साधनभुता कन्याको प्राप्त करना चाहिये । जबतक विवाहु न विचार न किया जाय, यह सम्बन्ध उत्तम कहलाता है। परंतु होता है, तबतक पुरुष अर्ध-शरीर ही होता है। इसलिये यह बात उनमें ही होती हैं जो कुल, शील, विद्या और धन | यथाक्रम अचित अवसर प्राप्त हो जानेपर विवाह करना चाहिये। आदिमें समान होते हैं। मनुष्योंके स्नेह और कृतज्ञताकी परीक्षा | जैसे एक पहियंका रथ अथवा एक पखवा पक्षी किसी विपतिमें ही होती है। इसलिये विवाह और परामर्श समान के कार्य में सफल नहीं हो पाता, वैसे ही श्रीहीन पुरुष भी प्रायः साथ ही करना चाहिये, अपने से बड़े तथा टेके साथ नहीं। सभी धर्मकृत्योंमें असफल ही रहता है इसमें अको मित्रता हनी ।

एकवको रथों यदेकपक्षो यथा खगः ।।

 

(अध्याय ६)

 

विवाह-सम्बन्धी तत्वका निरूपण, विवाहयोग्य कन्याके लक्षण, आठ प्रकारके विवाह, ब्रह्मावर्त, आर्यावर्त आदि उत्तम देशोंका वर्णन ब्रह्माजीं बोलें-मुनीश्वरो ! जो कन्या माता सपिण्ड अपने-अपने वर्णकी कन्या विवाह करना श्रेष्ठ कया गया है। । अर्थात् माताकी सात पोईके अन्तर्गतको न हो तथा पिताके चारों वर्गोंकि इस हॉक और लौक में हिताहित के समान गोत्रकी न हों, वह द्विजातियोंके विवाह-सम्बन्ध तथा साधन करनेवाले आठ प्रकार के विवाह कहे गये हैं, जो इस संतानोत्पादनके लिये प्रशस्त मानी गयी है। जिस कन्या प्रकार हैं | भाई न हो और जिसके पिता सम्बन्धमें कोई जानकारी न हो ब्राह्म, दैव, आर्ष, प्राजापत्य, आसुर, गान्धर्व, राक्षस ऐसी कन्यासे पक्किा-धर्मकी आशंका बुद्धिमान् पुरुष तथा पैशाच। अच्छे शौल-स्वभाववाले उत्तम कुलके वरकों विवाह नहीं करना चाहिये। धर्मसाधनके लिये चारों बौको स्वयं बुलाकर उसे अलंकृत और पूजित कर कन्या देना ‘ब्राह्म

१-अमपिण्ड्रा चे या मातुरसगोत्रा च या पितुः । सा प्रशस्ता द्विजातीनां दरकर्मीण मैने ॥ (मायापर्य छ । १, मनु ३ ॥ ५} २-पिता जिसके पुत्र में अपने पिण्ड-पानीकी आशा करता है उसे पुत्रिका कहते है।

 

  • विवाहमम्मी का निरूपप, विवाहयोग्य कन्याके लक्ष

 

वियाह हैं। यज्ञमें सम्यक् प्रकार को कर्म करते हुए ऋत्विको घोड़ा ॐ या अधिक, वह कन्या मूल्य ही गिना जाता है, अलंकृत का कन्या दैनंको ‘दैव-विवाह कहते हैं। बरसे एक इसलिये वरसे कुछ भी लेना नहीं चाहिये। जिन कन्याओके या दो जोड़े गाय-बैल अमर्थ लेकर विधिपूर्वक कन्या देनको निमित्त वर-पक्षसे दिया हुआ वस्त्राभूषणादि पिता-आता आदि “आर्य-विवाह’ कहते हैं। तुम दोनों एक साथ गृहस्थ-धर्मका नहीं लेते, प्रत्युत कन्याको ही देते हैं, वह विक्रय नहीं है। यह पालन करें यह कहकर पुजन करके जो कन्यादान किया कुमारियोंका पूजन हैं, इसमें कोई हिंसादि दोष नहीं हैं। इस जाता है, वह ‘आज्ञापत्य-विवाह’ कहलाता है। कन्याके पिता प्रकार उत्तम विवाह करके उत्तम देशमें निवास करना चाहिये, आदिकों और कन्याक भी यथाशक्ति धन, आदि देकर इसमें बहुत यश प्राप्ति होती है। स्वच्छन्दतापूर्वक कन्याका प्रहण करना ‘आसुर-वियाह हैं। यिने पूछा-ममन् ! बह कौन-सा देश है, जहाँ कन्या और यकी परस्पर इच्असे जो विवाह होता हैं, उसे निवास करनेसे धर्म और अशकों वृद्धि होती हैं ? ‘गान्धर्व-विवाह’ कहते हैं। मार-पीट करके रोती-चिल्लाती ब्रजी बोले-मुनरो ! जिस देशमें धर्म अपने कन्याका अपहरण करके ना ‘राक्षस-विवाह’ है। सोयी हुई, चारों के साथ रहे, जहाँ विद्वान् लौंग निवास करते हों मदसे मतवाली आ ओं कन्या पागल हो गयी हों उसे गुप्तरूपसें और सारे व्यवहार, शास्त्रोक्त-रीतिसे सम्पन्न होते हों, वहीं देवा उचा में आना ग्रह ‘पैशाच’ नामक अम कोटिका विवाह हैं। उत्तम और नियाम करने योग्य है।

ब्राह्म-विवाहसे उत्पन्न धर्माचारी पुत्र दस पीढ़ी आगे और ऋषियोंने पूछा–महाराज ! विद्वान् जिस शास्त्रोक्त इस पौंड़ पौके कुका तथा इक्कीसवाँ अपना भी उद्धार आचरण प्रण करते है और धर्मशास्त्रमें जैसी विधि निर्दिष्ट करता हैं। दैव-विवाहसे उत्पन्न पुत्र सात पीढ़ी आगे तथा सात की गयी है उसे हमें बतायें, हमें इस विषयमें महान कौतुहरू पौढ़ी पीछे इस प्रकार चौदह पौंदियोंका उद्धार करनेवाला होता हो रहा है। है। आर्ष-विवाहमें उत्पन्न पुत्र तीन अगले तथा तीन पिछले मानी बोले-गुग-द्वेषसे हित सज्जन एवं विद्वान् कलौका उद्धार करता है तथा आापत्य-विवाहसे उत्पन्न प्रम जिस धर्मका नित्य अपने शुद्ध अन्तःकणसे आचरण करते हैं, छः पीके तथा छः आगेके कुलोंको तारता है। ब्राह्मादि आद्य उसे आम सुनें चार विवाहोंसे उत्पन्न पुत्र ब्रह्मतेजसे सम्पन्न, शीलवान्, रूप, इस संसारमें किसी वस्तुकी कामना करना श्रेष्ठ नहीं हैं। सत्त्वादि गुणोंसे युक्त, धनवान्, पुत्रवान्, यशस्वी, पर्मिट्स और वेदोंका अध्ययन करना और वेदविहित कर्म करना भी काम्य दीर्घजीवी होते है। शेष चार विवाहसे उत्पन्न पुत्र क्रूर-स्वभाव, हैं। संकल्पसे कामना उत्पन्न होती है। वेद पढ़ना, यज्ञ करना, धर्मद्वषों और मिथ्यावादी होते हैं। अनिन्दित विवाहोंसे संतान मात-नियम, धर्म आदि कर्म व संकल्पमूलक हीं हैं। भौं अनिन्द्य ही होती है और निन्दन विवाहोंकों संतान भी इसीलिये सभी यज्ञ, दान आदि कर्म संकल्पपठनपूर्वक किये निन्दित होती हैं। इसलिये आसुर आदि निन्द्रित विवाह नहीं जाते हैं। ऐसी कई भी क्रिया नहीं है, जिसमें काम न हो। जो करना चाहिये । कन्याका पिता बरसे यत्किंचित् भी धन न ले। कोई भी जो कुछ करता है वह इसे मैं करता है। वरकम घन लेनेसे वह अपत्यविक्रय अर्थात् संतानका श्रुति, स्मृति, सदाचार और अपने आत्माको प्रसन्नता बेचनेवाला हो जाता है। जो पति या पिता आदि सम्बन्धी वर्ग इन चार वातोंमें धर्मका निर्णय होता है। श्रुति तथा स्मृतिमें कहें मोहवश कन्याके धन आदिसें अपना जीवन चलाते हैं, वे गये धर्मके आचरणसे इस कमें बहुत यश प्राप्त होता हैं और अधोगतिको प्राप्त होते हैं। आर्ष-विवाहमें जो गो-मिधून पल्लेकमें इन्द्रलोककी प्राप्ति होती हैं। श्रुति वैदको कहते हैं। लेनकी बात कही गयी है, वह भी ठीक नहीं है, क्योंकि चाहें और स्मृति धर्मशास्त्रका नाम हैं। इन दोनोसे सभी बातों का १-मकी गणना पार भुस्याम है | भोगको कामनाके विरूद्ध योग, म, जप-तप, धर्मसंस्थापन भी गति-मुकि ममना ही शुभ कामना हैं। गीता ४) में भी भावान्, ‘धर्माविरुद्ध यु काममि भावम्॥’महल पाये इन चमकी और प्रेरित करने की भाशा ते हैं। पाहू शक कमले निम्ताकी जननी है। वैदिक कर्मयोग भी भयाण सकाम कहनेका यी भाव है।

 

* पुराणं परमं पुण्यं भविष्य सर्वसौख्यदम् =

 

[ संक्षिप्त भविष्यपुराणा विचार करें, क्योंकि धर्मकी जड़ में ही हैं, जो धर्मके मूल इन ब्रह्मर्षियों के द्वारा सेवित हैं, परंतु ब्रह्मावर्तमें कुछ न्यून है। इन दोनका तर्क आदिके द्वारा अपमान करता है, उसे सत्पुरुषों देशोंमें उत्पन्न हुए ब्राह्मणोंसे सब देशके मनुष्य अपना-अपना तिरस्कृत कर देना चाहिये, क्योंकि वह बेदनिन्दक होनेसे आचार सौम्यते हैं । हिमालय और विंध्यपर्वतके बीच,

नास्तिक में हैं।

 

  1.  

विमशनसे पूर्व और प्रयागसे पश्चिम जों देश है उसे मध्यदेश | जिनके लिये मन्त्रद्वारा गर्भाधानको श्मशानतक कहते हैं। इन्हीं दोनों पर्वतके बीच पुर्व समुद्रसे पश्चिम संस्कारकी विधि कहीं गयीं है, उन्हीं लेगको केंद तथा जपमें समुद्रक जो देश हैं वह आर्यावर्त कहलाता है। जिस देशमें अधिकार है। सरस्वती तथा दृषद्वती–इन द बैंबनदियोंके कृष्णसार मृग अपनी इच्छासे निस्य विचरण करें, वह देश यज्ञ बींचका जो देश है वह देवताओद्वारा बनाया गया है, उसे करने योग्य होता है। इन शुभ देशोंमें ब्राह्मणको निवास करना ब्रह्मावर्त कहते हैं। उस देशमें चारों वर्ग और उपवर्म ज्ञों चाहिये। इससे भिन्न म्लेंच्छ देश हैं। हैं मुनीश्वरों ! इस प्रकार आचार परम्पग्रसे चला आया है, उसका नाम सदाचार है। मैंने यह देशव्यवस्था आप सबको संक्षेपमें सुनायी है। कुरुक्षेत्र, मत्स्यदेश, पाञ्चाल और सूरमदेश (मथुरा)-ये अन एवं सीके तीन आश्चय तथा सी-पुरुयॉर्क पारस्परिक व्यवहारका वर्णन ब्रह्माजी बोले-नीश्वरो ! उत्तम रौतसे विवाह सम्पन्न किसी पड़ोसीकों कष्ट नहीं देना चाहिये। नागपके द्वार, चौक, कर गृहस्थकों ज्ञों करना चाहिये, उसका मैं वर्णन करता हैं। यज्ञशालम, शिल्पियोंके रहने स्थान, जुआ खेलने तथा सर्वप्रथम गृहम् उत्तम देशमें ऐसा आश्चय नैना मांस-मयाद बेचनेकै स्थान, पाखड्डियों और जाके नौकाकै चाहिये, जहाँ वह अपने धन तथा स्त्रीने भलीभाँति रक्षा कर हनके स्थान, देवमन्दिरके मार्ग तथा राजमार्ग और के सके। बिना आपके इन दोनोंकी रक्षा नहीं हो सकतीं। ये महल–इन स्थानोंसे दूर, हनेके लिये अपना घर बनाना दोनों–धन एवं स्त्री–त्रिवर्गक हेतु हैं, इसलिये इनकी चाहिये । स्वच्छ, मुख्य मार्गाल्श, उत्तम व्यवहारथाले लोगोंसे प्रयत्नपूर्वक रक्षा अवश्य करनी चाहिये । पुरुष, स्थान और आवृत तथा दुष्टोंके निवाससे दूर-ऐसे स्थानमें गृहका निर्माण पर ये तीनों आश्रय कहलाते है। इन तीनों धन आदिक्य काना चाहिये । गृहकै भूमिकी छाल पूर्व अधवा उनकी और रक्षण और अर्थोपार्जन होता है। कुलीन, नीतिमान्, बुद्धिमान्, हो । रसोईघर, स्नानागार, गोंडाला, अत्तःपुर तथा शयन-कक्ष सत्यवादी, विनय, धर्मात्मा और दृती पुरुष आवायके ग्य और पुजाभर आदि सय अलग-अलग बनाये जायें । अन्तः होता है। जहाँ धर्मात्मा पुरुष रहते हों, ऐसे नगर अथवा ग्राममें पुरकी रक्षा के लिये वृद्ध, जितेन्द्रिय एवं विश्वस्त व्यक्तियोंकों निवास करना चाहिये। ऐसे स्थानमें गुरुजनौंकी अनुमति लेक नियुक्त करना चाहिये। स्त्रियौ रक्षा न करनेसे वर्णसंकर अथवा उस ग्राम आदिमें बसनेवाले श्रेष्ठजनोंक सहमति प्राप्त उत्पन्न होते हैं और अनेक प्रकारकै दोष भी होने देंखें गये हैं। कन रहनेके लिये अविवादित स्थल पर बनाना चाहिये, परंतु स्त्रियों की स्वतन्त्रता न दे और न उनपर विश्वास करें ।

ई-निगमों धर्ममृतं पात् मुताले त च ।

नयाचा साधूनामातुरेव । छ।

श्रुतिस्मृत्युदिन धर्ममुनिशन् । नमः ।

प्राय धेड़ नं कति यानि क्रमकताम्॥

श्रुतिनु वेदों वियों घर्मशानं तु मैं मुनिः ते सयाम ममाप्ये ज्ञाभ्यो धम हि भि ॥

यमन्येन ने चौथे हेतुशास्त्रअयाद् द्विजः ।

साधुभिवाय नहिं वेदनिन्दकः ॥

बेट- पतिः सदाचार; यस्य च नियमापनः ।

प्रताविधं विप्राः साक्षाद्धर्मस्य लक्षणम् ॥

[समर्थ छ । ३,५४=]

 

नदेशप्रसूता . सकाशादमजनमः वं वं चरित्र शिरन् पृविच्य सर्वमानवाः ।। ५६

भाममुनु दासमुहानु पशुमातु यस गिर्योगवनी विधाः बुझाई ६५

 

अनिमा यिक कर्तव्य एवं समाचारका वर्णन

 

किंतु व्यवहार में विश्वस्तके समान ही चेष्टा दिखानी चाहिये। मध्यम स्त्रीचे दान और भेदसे और अधम स्त्रीको भेद और विशेषरूपसे उसे पाकादि क्रियाओंमें ही नियुक्त करना चाहिये। दण्डनीतिसे वशीभूत करें। परंतु दण्ड देनेके अनतर भी। स्त्रीको किसी भी समय खाली नहीं बैठना चाहिये। साम-दान आदिको उसको प्रसन्न कर लें। भय अहित दरिद्रता, अति-रूपवत्ता, असत्-जनका सङ्ग, स्वतन्त्रता, करनेवालीं और व्यभिचारिणीं वीं कालकूट विषके समान होती घेयादि दुष्यका पान करना तथा अभक्ष्य-भक्षण करना, कथा, हैं, इसलिये उसका परित्याग कर देना चाहिये। उत्तम कुरुमें गोष्टी आदि प्रिय लगना, काम न करना, जादू-टोना उत्पन्न पतिव्रता, विनीत और भर्तीका हित चाहनेवाली का करनेवाली, भिकी, कुटिनी, दाई, नटी आदि दुष्ट स्त्रियोंके सदा आदर करना चहिये । इस गॅनिमें जो पुरुष चलता है वह सङ्ग उद्यान, यात्रा, निमन्त्रण आदिमें जाना, अत्यधिक क्विर्गकी प्राप्ति करता हैं और कमें सुख पाता हैं। तीर्थयात्रा करना अथवा देवताके दर्शनके लिये घूमना, पतिके ब्रह्माजीं बोलें-मुनीश्वरों ! मैंने संक्षेपमें पुरुषोंकों साथ बहुत वियोग होना, कठोर व्यवहार करना, पुरुषोंसे सियोंके साथ कैसे व्यवहार करना चाहिये, यह बताया। अब अत्यधिक वार्तालाप करना, अति क्रूर, आंत सौम्य, अति पुरुषोंके साथ लियोको कैसा व्यवहार करना चाहिये, उसे बता निडर होना, ईर्षालु तथा कृपण होना और किसी अन्य सीके रहा हैं आप सब सुनें

वशीभूत हो जाना—ये काय बीके दोष उसके विनाशके हेतु पतिक सम्यक् आराधना करनेसे स्त्रियों पतिका प्रेम हैं। ऐसी स्त्रियोंके अधीन यदि पुरुष हो जाता है तो वह भी प्राप्त होता है तथा फिर पुत्र तथा स्वर्ग आदि भी उसे प्राप्त हों। निन्दनीय हो जाता है। यह पुरुषकों ही अयोग्यता है कि उसके जाते हैं, इसलिये कों पतिकी सेवा करना आवश्यक है। भूय बिगड़ जाते हैं। स्वामी यदि कुशल न हो तो भृत्य और सम्पूर्ण कार्य विधिपूर्वक किये जानेपर ही उत्तम फल देते हैं। श्री बिगड़ जाते हैं, इसलिये समयके अनुसार अधोचित राँतिसे और विधि-निषेधका ज्ञान शास्त्रमें जाना जाता है। स्त्रियोंका ताडन और शासनसे जिस भाँति में इनकी रक्षा कानों शास्त्रमें अधिकार नीँ है और न प्रन्थोके धारण करनेमें चाहिये। नारी पुरुषका आधा शौं है, इसके बिना धर्म- अघिकार है। इसलिये सौदाग़ शासन अनर्थकारी माना जाता क्रिया साधना नहीं हो सकतीं । इस कारण कम सदा है। चीन इसमें विधि-नियंध जानने अपेक्षा रहती है। आदर करना चाहिये। उसके प्रतिकुल नहीं करना चाहिये। पहले तो उसे भर्ता सब धर्मों का निर्देश करता है और भर्तक सीके पतिव्रता होनेके प्रायः तीन कारण देखें जाते मरनेके अनन्तर पुत्र उसे विधवा एवं पतियताके धर्म बतलायें। हैं-(१) पर-पुल्यमें विरिक्त, (२) अपने पतिमें प्रति तथा बुडिके विकल्पोंको ओड़कर अपने बड़े पुरुष जिस मार्गपर (३) अपनी रक्षामें समर्थता ।। चलें हैं इसपर चलने में इसका सब प्रकार कन्याण हैं। उत्तम स्त्रीको साम तथा दामनौतिसे अपने अधीन रखे। पतिव्रता स्त्री हो गृहस्थके घर्मोको मूल हैं। (अध्याय ४-६) | पतिव्रता लियोंके कर्तव्य एवं सदाचारका वर्णन, स्त्रियोंके लिये गृहस्थ-धर्मके उत्तम व्यवहारकी आवश्यक बातें ब्रह्माजी बोले-मुनीश्वरों ! गुहस्थ-धर्मका मूल ध्यानपूर्वक सुनें पतग्रता स्त्री हैं, पतिता नीं पतिका आश्वन किस विधिमें आराधना करने योग्य पतिकै आराथनकी विधि यह है। करें, उसका अब मैं वर्णन करता है। आप सच इसे कि उसकी चित्तवृत्तिको भलीभाँति जानकर उसके अनुकूल

१.-सतीत्वे प्रायशः ऑगी मदहं कामयम् । सामसपीतिः प्रिये पतिः वर

 

 ३. शास्त्राधि] नां ने प्रधानां च धागे । उमादिन्यं मन्यन्ते तुलसनमनकम् ॥ (झापर्य ६ । ६) ३- इन मणमें आ कुछ अंश-गोरक्षा, पाप, अपि और स्क-संन्धान आदि विषय प्रायः सातसमें सम्न्ध पाय हो गये हैं। मका सन्नि विद्या भविमुपागमें मिला है, जिसके कुछ अंश सही दिये जा रहे हैं।

 

पुरा परयं पुण्यं भविष्यं सर्वसौख्यदम्

 

[ मैक्षिप्त भविष्यपुराणाहू चलना और सदा उसका हित चाहते रहना । अर्थात् पतिके त्याज्य हैं। इस प्रकार के आचरण तो प्रायः दुष्टोंके लिये ही चित्तके अनुकूल चलना और यथोचित व्यवहार करना, यह उचित होते हैं, कुलीन स्त्रियोंके लिये नहीं। इन निन्दनीय पतिव्रताका मुख्य धर्म है-

बातोंसे अपनी बक्षा करते हुए स्वियको चाहिये कि वे अपने आराध्यानां हैं सर्वेषामग्रमारायने थिधः । पातिव्रत-धर्म तथा कुलकी मर्यादाकी रक्षा करें।

चित्तज्ञानानुवृत्तिा हितैषित्वं च सर्वदा ।।

उत्तम श्री पनि मन, वचन तथा कसे दैवता कें समान

(ब्राह्मपर्व १३ । १)

समझे और उसकी अर्धाङ्गिनी बनकर सदा उसके हित करने में पतिके माता-पिता, बहिन, ज्येष्ठ भाई, चाचा, आचार्य, तत्पर रहे। देवता और पितरोंके कृत्य तथा पतिके मान, भोजन मामा तथा वृद्ध स्त्रियों आदिका उसे आदर करना चाहिये और एवं अभ्यागतोंके स्वागत-सत्कार आदिमें बड़ी ही सावधानी जो सम्बन्धमें अपने छोटे हों, उनमें स्नेहपूर्वक आज्ञा देनी और समयका ध्यान रखें। यह पतिके मित्रोंको मित्र तथा चाहिये । जहाँ भी अपने से बड़े सास-ससुर या गुरु विद्यमान शत्रुओको शत्रुके समान समझे। अधर्म और अनर्थसे दूर हो या अपना पनि उपस्थित हों यहाँ उनके अनुकूल ही रहकर पतिको भी उससे बचाये । पतिको क्या प्रिय है और आचरण करना चाहिये, क्योंकि यहीं चरित्र स्त्रियोंके लिये कौन-सा भोजनादि पदार्थ उसके लिये हितकर है तथा कैसे प्रशस्त माना गया हैं। हास-परिहास करनेवाले पतिके मित्र पतिके साथ विचारों आदिमें समानता आये इस बात को सर्वदा

और देवर आदिके साथ भी एकात्तमें बैठकर झास-परिहास उसे ध्यानमें रखना चाहिये, साथ ही उसे सेवकको असंतुष्ट नहीं करना चाहिये। किसी पुरुषके साथ एकत्तमें बैठना, नहीं रखना चाहिये। स्वच्छन्दता और अत्यधिक हास-परिहास करना प्रायः कुलौंन हुनेका घर और शरीर—ये दो गृहणियोंके लिये मुख्य स्त्रियोंके पातिव्रत-धर्मकों नष्ट करनेके कारण बनते हैं। सहसा हैं। इसलिये प्रयत्नपूर्वक वह सर्वप्रथम अपने अर तथा इष्टकं संसर्गमें आकर युवकोंके साथ हास-परिहास करना शरीरको सुसंस्कृत (पवित्र) रखें। शरीरसे भी अधिक स्वच्छ चित न होता, क्योंकि स्वतन्त्र स्त्रियोकी निर्भीकता एकामें और भूषित घरको रखें। तीनों कालमें पूजा-अर्चना करें और बरे आचरणके लियें सफल हो जाती हैं। अतः उत्तम स्त्रीको व्यवहारकी सभी वस्तुको यथाविधि साफ रखें। प्रातः, ऐसा नहीं करना चाहिये । इस तसे झलका शील नहीं मध्याह्न और सायंकालके समय घरका मानकर स्वच्छ करे। बिगड़ता और कुनको निन्दा भी नहीं होती। अरे संकेत गौशाम आदिको स्वच्छ कथा है। दास-दा करनेवाले और बुरे भावोंको प्रकट करनेवाले पुरुषों भाई या आदिसे संतुष्ट कर उन्हें अपने-अपने कार्योंमें लगाये । स्त्रीको पिताके समान देखते हुए स्त्रीको चाहिये कि उनको सर्वथा उचित हैं कि यह प्रयोगमें आनेवाले शाक, कन्द, मूल, फल परित्याग कर दें। दुष्ट पुरुषका अनुचित आग्राह यकार करना, आदिके बीजोंका अपने-अपने समयपर संग्रह कर लें और उनके साथ वार्तालाप करना, हासयुक्त संकेत अथवा कुष्टिपर समाप्रपर इन्हें संत आदिमें बुआ दें। तांब, कॉस, लोहे, काग्न ध्यान देना, दूसरे पुरुषके हाधसे कुछ लेना या उसे देना सर्वथा और मिट्टीमें बने हुए अनेक प्रकारके बर्तनोंको घरमें संग्रह परित्याज्य हैं। घरके द्वारपर बैठने या खड़ा होने, राजमार्गको रखे । जल रखने तथा ज्ञल निकालने और जल पीने और देखने, किसी परििचत देश या घरमें जानें, उद्यान और कलशादि पात्र, चाक-भाजी आदिसे सम्बद्ध विभिन्न पात्र, घी, प्रदर्शनी आदिमें रुचि रखनेमें स्त्रीको बचना चाहिये। बहुत तेल, दुध, दही आदिसे सम्बद्ध वर्तन, मूसल, ओखली, पुरुषोंके मध्यसे निकलना, ऊँचे स्वरसे बोलना, हँसी-मजाक झाड़, चलन, सैंड्स, सिल, लोढ़ा, चक्की, चिमटा, कड़ाही, करना एवं अपनी दृष्टि, वाणी तथा शरीरको चापल्य प्रकट तया, तराजू, बाट, पिटार, संदूक, पलंग तथा चौकी आदि करना, साना तथा सीत्कारी भरना, दुष्ट स्त्री, भिक्षुकी, गृहस्थीके प्रयोग आनेवाले आवश्यक उपकर्णांकी तान्त्रिक, मान्त्रिक आदिमें आसक्ति और उनके मण्डलोंमें प्रयत्नपूर्नक व्यवस्था करनी चाहिये । उसे चाहिये कि वह हींग, निवास करने की इच्छा-ये सब बातें पतयता के लिये जोरा, पिप्पल, ग्रई, मरिच, धनिया तथा सोड आदि अनेक ब्रापर्व

 

  • पतिव्रता स्त्रियोंके कर्तव्य एवं सदाचारका र्णन

 

मरके मसाले, सण, अनेक प्रकारके क्षार-दार्थ, मिरका, उसकी इक्षा भी होती है और गौ कहीं चली जाये तो उसके अचार आदि, अनेक प्रकारको दालें, सब प्रकारके तैल, सूखा शब्दसे उसे ढूँढ़ा भी जा सकता है। हिंसक पशुओं और कावा, विविध प्रकार के दूध-दहीसे बने पदार्थ और अनेक सपसे रहित, घास और जलसे युक्त, छायादार घने वृक्षावाले प्रकारके कन्द आदि जो-जो भी वस्तु नित्य तथा नैमित्तिक तथा पशुओंके रोगसे रहित स्थानपर गायोके रहनेके लिये गोंड़ कार्योंमें अपेक्षित हों, उन्हें अपनी सामर्थक अनुसार या गोशाला बनानी चाहिये । कृषि-कार्यमें लगे सेवकोंके लिये अपलपूर्वक पहले से ही संग्रह करना चाहिये, जिससे समयपर देश-काल और उनके कार्यके अनुरूप भोजन तथा वेतनका उन्हें तैना न पड़े। जिस मनुको भविश्यमें आवश्यकता पड़े, प्रवभ करना चाहिये। खेत, खलिहान अथवा वाटिका आदिमें | अमें पहले से ही संग्रहमें रखना चाहिये। सूत्रे-गले, पिसे, जहाँ भी सेवक कामपार में हैं वहीं बार-बार जाकर इनके | बिना पिसे तथा कचे और पके अन्नादि पदार्थोंका अच्छी तरह कार्य एवं कार्यके प्रति उनके मनोयोगको जानकारी करनी | हानि-लाभ विचारकर ही संग्रह करना चाहिये। उनमेसे ज़ों योग्य हो, अच्छा कार्य करता हो, उसका पतिनता नारी गुरु, बालक, वृद्ध, अभ्यागत और पती अधिक सत्कार करें और उसके लिये भोजन, आवास | सेवा आय न करें। पतिकी शय्या स्वयं बिछाये । दैव आदिक औरोसे विशेष व्यवस्था करें। समय-समयपर सब

आदिके द्वारा पहने हुए वरुण, माया तथा आभूषणोंको वह कारकै अन्न और कन्द-मूक बोजा संग्रह करें तथा | कभी ना तो धारण करे और न इनके झाय्या, आसन आदिर यथासमय उनकी बुआई कर दें। बैठे गौम इतना दूध निकालें कि जिममें बड़े भूखे न रह घरका मूल है स्त्री और गृहस्थाश्रमका मूल हैं अन्न। बायें । दहींसे धीं बनायें। वर्षा, शरद् और वसन्त ऋतुमें इसलिये भोन्पादि अन्न पदार्थोंमें घरकी चौंको मुक्तहस्त नहीं । गायको दो बार दुहना चाहिये, ऑष ऋतुओंमें एक ही बार दुहे। होना चाहिये अर्थात् अन्नको वह वृथा नष्ट न कों, सदा। चरवाहे, म्वाले आदिको रवाहीके बदले रुपये अथवा अनाज़ संजोकर रखें। उसे मितव्ययी होना चाहिये। अन्नादिमें दें। गोदोहक बछड़ोंका भाग अपने प्रयोगमैं न ला सकें, यह मुक्तहस्त होना गृहिणियोंके लिये अझ नहीं माना जाता । वह देखता है, साथ ही यह भी ध्यान रखें कि दूध दुहनेवाला संचय करनेमें और खर्च करनेमें मधुमक्खीं, वल्म और | समयपर दूध दुह गह्म है या नहीं, क्योंकि दोन धचिन आजनके समान हानि-लाभ देखकर अन्नको थोड़ा-सा समयपर ही गायकों दुहना चाहिये । समयका अतिक्रमण समझकर उसकी अवज्ञा न करे ॥ क्योंकि धौड़ा-थौड़ा हो मनु अच्छा नहीं होता। जब गाय व्याय आय, तब एक महीनेतक एकत्र करती हुई मधुमक्खी कितना एकत्र कर लेती है। इसी उसका दूध नहीं निकालना चाहिये, उसे बड़े ही पीने देना प्रकार दीमक जरा-जरा-सी मिट्टी लाकर कितना ऊँचा वल्मीक चाहियें। फिर एक महीनेतक एक धनक, तदनन्तर एक बना लेती हैं। किंतु इसके विपरीत बहुत-सा बनाया गया महातक दो थनका और फिर तीन धनको दुध निकालना अंजन भी निल्य थौड़ा-थोड़ा आँसमें झलते हुनेसे कुछ चाहिये। एक या दो धन के लिये अवश्य छोड़ना दिनोंमें समाप्त हो जाता हैं। इस तसे सभी वस्तुओका संग्रह चाहिये। यथासमय तिलक लौं, कोमल हरी घास, नमक और खर्च हो जाता है। इसमें थोड़ी वस्तकी अवज्ञा नहीं करनी तथा ज्ञल आदिको बछड़का पालन करना चाहिये। बुद्धी, चाहिये। घरके सभी कार्य स्त्री-पुरुषकै एकमत होनेपर ही गर्भगी, दूध देनेवाली, बाली तथा अािाली-इन अछे होते हैं। पाँच गायका मास आदिके द्वारा समानरूपसे बराबर जगन्में ऐसे भी हजारों पुण्य हैं, जिनके सब काम पालन-पोषण करते रहना चाहिये। किसीको भी न्यून तथा स्त्री प्रधानता रहती हैं। यदि ली बुद्धिमान् और मुशल हो अधिक न समझे । गोके गलेमें फ्टीं अवश्य बाँधनी चाहिये। तो कुछ ह्मनि नहीं होती, किंतु इसके विपरीत होनेपर अनेक एक तो घंटौं बाँधनेसे गौसे शोभा होती हैं, इसमें उसके प्रकारके दुःख होते हैं। इसलिये की योग्यताअयोग्यता शब्दोंमें कोई जीव-जन्तु इरकर उसके पास नहीं आते, इससे ठौकसे समझकर बुद्धिमान् पुरुषकों उसे कार्यमें नियुक्त करना

 

  • पुराणं परमं पुण्यं भविष्यं सर्वसौख्यदम्

 

[ संक्षिप्त भविष्यपुराणाङ्क चाहियें। इस प्रकार योग्यतासे कार्यमें नियुक्त की गयी सीको रसोई-अरमें सदासे काम करनेवाले, विश्वमा तथा आहारा चाँहये कि वह सौभाग्यवश या अपने उद्यम आदिमें अपने परीक्षण करनेवाले व्यक्तिको ही सूपकारके सपमें नियुक्त करना पाँतक भलीभाँति सेवा कर उसे अपने अनुकूल बनायें। चाहियें। उसोईकै स्थानमैं किसी अन्य दुष्ट स्त्री-पुरुषों न

ब्रह्माजी झोले-हैं मुनीश्वरों ! घरमें ही प्रातःकाल आने दें। इस विधिसे भोजन बनाक्न सब पदार्थोंको स्वच्छ सबसे पहले उठे और अपने कार्य में प्रवृत हो जाय तथा रात्रिमें पात्रोंसे आच्छादित कर देना चाहिये, फिर रसोई-अरसे बाहर सबसे पीछे भोजन करे और सबके बादमें सोये । पति तथा आकर पसीने आदिको पोकर, स्वच्छ होकर, गन्ध, ताम्बूल, | ससुर आदि उपस्थित न रहनेपर को घरकौं देहुलीं पार माला-वरुन आदिसँ अपनेको चोड़ा-सा भूपत करें फिर नहीं करनी चाहिये। वह बड़े सवेरे में ज्ञग ज्ञाय । वीं पतके भोजनके निमित्त यथोचित समयपर विनयपूर्वक पनिकों | समीप बैठकम हो सब सेवकको कामकी आज्ञा दें, बाहर न बुलाये। सब प्रकारके व्यञ्जन परोसे, जो देश-काल के विपरीत जाय । काय पति भी जग हें तब वहाक सभी आवश्यक कार्य न हो और जिनका परस्पर विरोध भी न हों, जैसे दूध और करके, घरके अन्य कार्यों में भी प्रमादरहित होकर करें । रात्रि के लवणका हैं। जिस पदार्थों पतिको अधिक रुचि देखे उसे और पहले ही उत्तम वस्त्राभूषणोंकों अतारकर घरके कार्योकों करने परसें । इस प्रकार पतिक प्रतिपूर्वक भोजन करायें। योग्य साधारण वस्त्र पहनकर तत्तत् समयमें करने योग्य सपत्नियों को अपनी बहनके समान तथा उनकी | कार्योक यथाक्रम करना चाहिये । उसे चाहिये कि सबसे पहले संतानों में अपनी संतानसे भी अधिक प्रिय समझें । उनके | रसोई, चूल्हा आदिकों भलीभाँति लींप-पोतकर स्वच्छ करें। भाई-बन्धुओंकों अपने भाइयों के समान हीं समझें। भोजन, | माईक पात्रकों मज-घों और पाकर वहाँ रखें तथा अन्य वन, आभूषण, ताम्बूल आदि जबतक सपलकों न दे दें, भी अब उसकी सामपी वहाँ एकन कौं। रसोई-घर न तो यातक स्वयं भी ग्रहण न कहें। यदि सपत्नीको अथवा किसी | अधिक गुप्त (वेद) हों और न एकदम खुल्ला हो । स्वच्छ, आलित जनक कुछ रोग हो जाय तो उसकी चिकित्साके लिये | विस्तीर्ण और जिसमेंसे धुआं निकल जाय ऐसा होना चाहिये। ओवध आदिकी भलीभाँति व्यवस्था काये। नौकर, बन्धु | इसई-घर भोजन पकानेवाले पात्रोकों तथा दुध-के और सपत्नीको दुखी देव स्वयं भी उनके समान दुखी हो पात्रोको सौंपी, रस्सी अथवा वृक्षक आलसे खूब रगड़कर और उनके सुख सुख माने। सभी कायमें अवकाशा अंदर-बाहरसे अच्छी तरह धो लेना चाहियें। रात्रिमें मिलनेपर सो जाय और रात्रिमें उठकर अनावश्यक धन-व्यय | धुएँ-आगके द्वारा तधा दिनमें धूपमें उन्हें सुखा लेना चाहिये, क्र हे पतिको एकात्तमें धीरे-धीरे समझायें। घरका सब | जिससे उन पात्रोंमें रखा जानेवाला दूध-दहीं आदि स्वराय न वृत्तान्त पतिको एकान्तमें बतायें, परंतु सपमिकें दोयकों ने होंने पाये । विना शोधित पात्रोंमें रखा दूध-दही विकृत में जाता है, किंतु यदि कोई उनका व्यभिचार आदि बा दोष देखें, हैं। दूध-दही, घी तथा बने हुए पाकादिको सावधानी रखना जिसे गुप्त रखनेसे कोई अनर्थ हो तो ऐसा दोष पतिको अवश्य चाहिये और उसका निरीक्षण करते रहना चाहिये। बता देना चाहिये । दुभंगा, नि:संतान तथा पतिद्वारा तिरस्कृत स्नानादि आवश्यक कय करके उसे अपने हाधसे पतिके सपत्नियों सदा आश्वासन हैं। उन्हें भोजन, वस्त्र, आभूषण लिये भोजन बनाना चाहिये। उसे यह विचार करना चाहिये कि आदिको दुःखों न होने दें। यदि किसी नौकर आदिपर पति कोप मधुर, क्षार, अम्ल आदि इसमें कौन-कौन-सा भोजन पतिको को तो उसे भी आश्वस्त करना चाहिये, परंतु यह अवश्य प्रिया है, किस भोजनमें अग्निक वृद्धि होती है, क्या पध्य हैं विचार कर लेना चाहिये कि इसे आश्वासन देनसे कोई हानि और कौन भोजन कालके अनुरूप होगा, क्या अपय है, उत्तम नहीं होनेवाली हैं। स्वास्थ्य किस भोजनसे प्राप्त होगा और कौन भोजन कालके इस प्रकार की अपने पतिको सम्पुर्ण इच्छाओंको पूर्ण अनुरूप होगा आदि आता भसंभाँत थिंचारकर और करें। अपने सुखके लिये जो अभीष्ट हों, उसका भी परित्याग निर्णयकर उसे वैसा ही भोजन प्रतिपूर्वक बनाना चाहिये। कर पतिके अनुकूल ही सब कार्य करे। क्योंकि स्त्रियों के देवता ।

 

  • पतिव्रता क्यिोंके कर्तव्य एवं सदाचारका वर्ण

 

पत, यक देवता ब्राह्मण हैं तथा ब्राह्मणके देवता अग्नि हैं अनुचित हीं है। कन्याम विवाह करने के बाद फिर उससे और ज्ञाओंका देवता राज्ञा है।

अपनी आजीविकाकी इझ करना यह महात्मा और कुलीन स्त्रियोंके निवा-प्राप्तिके दो मुख्य उपाय हैं—प्रथम सत्र पुरुषोंकी ऑति न हैं, अतः के सम्बन्धियों चाहिये कि कारसे पति को प्रसन्न रखना और द्वितीय आचरणों में केवल मित्रताके लिये, प्रतिके लिये ही सम्बन्ध बढ़ानेकी पवित्रता । पतिकै चित्तके अनुकूल चलने जैसी प्रीति पति इझ करें और प्रसंगवश यथाशक्ति उसे कुछ देते भौं रहें । स्त्रीपर होती हैं वैसी प्रीतिं रूपसे, यौवनसें और अलंकारादि उससे कोई वस्तु लेनेकी इच्छा न रखें। कन्याके आभूषणोंमें नहीं होती। क्योंकि प्रायः यह देखा जाता है कि मायकेवालों कन्या स्वामीकी रक्षाका प्रयत्न सर्वथा करना उत्तम रूप और युवावस्थावाली स्त्रियाँ भी पतके विपरीत चाहिये, उनकी परस्पर प्रीति-सम्बन्धक चर्चा सर्वत्र करनी आचरण करनेसे दौर्भाग्य प्राप्त करती हैं और अति कुरूप चाहिये और अपनी मिथ्या प्रशंसा नहीं करनी चाहिये। तथा हीन अवस्थावाली स्त्रियाँ भी पतके चित्तकै अनुकूल साधु-पुष्योंका व्यवहार, अपने सम्बन्धियोंके प्रति ऐसा चलनेसे उनकी अत्यन्त प्रिय हो जाती है। इसलिये पतिके ही होता हैं। चित्तका अभिप्राय भलीभाँति समझना और उसके अनुकूल जो सी इस प्रकारके सद्वृत्तको भलीभाँति जानकर आचरण करना यही स्त्रियों के लिये सब सुखका हेतु हैं और व्यवहार करती हैं, वह पति और उसके बन्धु-बान्धवों यहीं समस्त श्रेष्ठ योग्यताओंका कारण हैं। इसके बिना तो अल्पत मान्य होती है। पतिकी प्रिय, साधु वृत्तवाओं तथा

के अन्य सभी गुण अध्यत्वको प्राप्त हो जाते हैं अर्थात् सम्बन्धियोंमें प्रसिद्धि प्राप्त होनेपर भी स्त्रीको कापवादसे निष्फल हो जाते है और अनर्थक कारण बन जाते हैं। इसलिये सर्वदा डरते रहना चाहिये, क्योंकि सीता आदि उत्तम् को अपनी योग्यता (पबिज्ञता) सर्वधा बढ़ाते रहना पतिवताओं में भी लोकापवादकै कारण अनेक कष्ट भोगने पड़े चाहिये थे।

 

भोंग्य होनेके कारण, गुण-दोयम नीक-ठीक निर्णय न झन पत्तिके आनेका समय ज्ञानक्र उनके आने के पूर्व में वह पाने तथा प्रायः अविनयशीलताकै कारण स्त्रियोंके घरों स्वच्छ वा बैठने के लिये उत्तम आसन बिल दें तथा व्यवहारको समझाना अत्यन्त दुक हैं। छींक प्रकासे दूसरे की पतिदेवके आनेपर स्वयं अपने हाथसे उनके चरण धोकर उन्हें मनोवृत्तिों न समझनेके कारण तथा कपट-दृष्टिके कारण एवं आसनपर बैठाये और पंखा हाथमें लेकर धीरे-धीरे इलायें स्वच्छन्द हो जानेमें ऐसी बहुत ही कम स्त्रियाँ हैं जो कलकत और सावधान होकर उनकी आज्ञा प्राप्त करनेकी प्रतीक्षा करे। नहीं हो जाडौँ । दैवयोग अथवा कुयोगसे अथवा व्यवहारकी ये सब काम दासी आदिसे न झवाये । पत्तिकें स्नान, आहार, अनभिज्ञतासे शुद्ध हृदयवा स्त्री भी लोकापवादको प्राप्त हों पानादिमें स्पस दिखाये। पतिके संकेतों को समझक्न जाती है। सिर्योका यह दौंर्भाग्य हीं दुःख भोगनेका कारण है। सावधानीपूर्वक सभी आयकों करे और भोजनादि निवेदित इसका कोई प्रतीकार नहीं, यदि है तो इसकी ओषधि हैं उत्तम करें। अपने बन्धु-वान् तथा पतिके बन्धुओं और सपत्नीके चरित्रका आचरण और मेक-व्यवहारको ठीकसे समझना । साथ स्वागत-सत्कार पतिकीं इअनुसार करें अर्थात् जिसपर ब्रह्माजीं बोले—मुनीश्वरों ! उत्तम आचरणवाली स्त्री पतिकी रुचि न देखें उससे अधिक शिष्टाचार न करें । स्त्रियोंके भी यदि बुरा सङ्ग करें या अपनी इच्छअसे जहाँ चाहे चली जाय, लिये सभी अवस्थाओंमें स्वकुलकी अपेक्षा पतिकुल ही विशेष तो उसे अवश्य कलंक लगता है और झूझ दोष लगनेसे कुल पून्य होता है; क्योंकि कोई भी कुलीन पुरुष अपनी कन्यासे भी कलकित हो जाता है। उत्तम कलकी स्त्रियोंके लिये यह उपकारकी आशा भी नहीं रखता और जो रखता हैं वह आवश्यक है कि वे किसी भी भाँति अपने कुल-मातृकुल,

 

ताधिदेता नार्या वर्गा मानदेयताः

वागा अमितु जाजदेवताः

शासी सिसि प्रदिष्ट जयम्

भर्यदक या मषितम्

तथा मौनं लोक ना भूषणम्।

यथा पियानुकुम्व सिद्धं वादनम्

पपई १३ ३६

# राणं मम पुर्य भविष्य समयम्

[ संक्षिप्त भविष्यपुराण पितृकुल एवं संततिको कलक न लगने दे। ऐसी कुलीन में न सुगन्धित तैलादि द्रव्योंका प्रयोग करे। उसे सम्बन्धियक पर, ही धर्म, अर्थ तथा काम—इस त्रिवर्गकी सिद्धि हो सकती है। नहीं आना चाहिये। यदि किसी आवश्यक कार्यवश जाना ही | इसके विपरीत बुरे आचरणयाली स्त्रियाँ अपने कुलोंको नरकमें पड़ जाय तो अपनेसे बोंकी आज्ञा लेकर पतिके विश्वसनीय | डालती है और चरित्रको ही अपना आभूषण माननेवाली बियाँ शनकि साध शाय। किंतु वहाँ अधिक समपतक न , म कमें गिरे हुओको भी निकाल लेती हैं। जिन स्त्रियोंका चित्त वापस लौट आये। वार्तं स्नान आदि व्यवहारोको न करें। पतिके अनुकूल है और जिनका उत्तम आचरण हैं, के लिये प्रवाससे पतिकै लौट आनेपर प्रसन्न-मनसे सुन्दर वस्त्राभूषणोंमें रत, सुवर्ग आदिक आभूषण भारस्वरूप ही हैं। अर्थात् आरकत होकर पतिका अधौषित भोजनादिको सकार को और स्वियक धार्थ आभूषण में दो पतिकी अनुकता और देवताको पतिके लिये मांगी गयी मनौतियोंको पशादिया उत्तम आचरण । ज्ञ ली पतिकी और की अपने साचित यानि सम्पन्न । पवहारादिको आराधना करती है अर्थात् पतिके अनुकूल इस प्रकार मन, वाण तथा कमसे सभी अवस्थाओंमें चलती हैं और कपबह्मक तौक-चौंक समझफर पता हित-चिन्तन करती हैं, क्योंकि पति के अनुकूल रहना तदनुरुल आचरण करती है, वह स्त्री धर्म, अर्थ तथा कामको स्त्रियोक दिये विशेष धर्म हैं। अपने सौभाग्यप, अहंकार में | अवाधसिद्धि प्राप्त कर लेती हैं करें और त आयो भी न करें तथा अन्त्यका विनम्र भासमें भर्नुचित्तानुकलत्वं मां झलमविच्युतम्  है। इस प्रकार ले पनि सेवा करते हुए हैं ।

 

पतिक नाम बलवणादि भार ने मनम्

कायम माद नहीं करती, पून्यानोका सदा आदर करती ओंकानें परा कोटि: त्यौ भक्ति शाश्वती रहती हैं,

नौकरोंका भरपोषण करती है, नित्य सद्गगकी शाबयानां नार्णा विद्यादेंतकुमतम्

अभिपके लिये प्रयास रहती है तथा सय प्रकासे अपने नग्माल्लोक।

भर्ना सम्यगाराधितो मया ।।

शीली रक्षा करती रहती है, वह स्त्री इस लोक तथा पर्ममधं कर्म मैवाति निरत्यया

पालकमें उत्तम सुख एवं उत्त कीर्ति प्राप्त करती है।

 

अपर्ष १३ ६४..)

जिस पर पति ने क्रोधयक्त हो और उसका आदर जिम का पति परदेशमें गया हो, उस दौको अपने न करें, वह भी दुभंगा कहलाती है। उसे चाहिये कि यह नित्य पतिकी मङ्गलकामनाके सूचक सौभाग्य-सूत्र आदि स्वल्य व्रत-उपवासादि क्रियानि संलग्न है और पतिक या आभूषण हैं। पहनने चाहिये, विशेष शृङ्गार नहीं करना चाहिये। कार्योंमें विशेषरूपसे सहयोग के। जातिमें कोई रु दुर्भगा उसे पति-दाग़ प्रा किये कार्यों का प्रयत्नपूर्वक सम्पादन अध्या सुभगा (सौभाग्यशालिनी) नहीं होतीं। यह अपने करते रहना चाहिये। वह देका अधिक संस्कार न करें। यवसे ही पतिकी प्रिय और अमिय में जाती है। उत्तम सी त्रिक साम आदि पूज्य स्त्रियोंके समीप सोचें। बहुत अधिक पतिकै चित्तम अभिप्राय न जाननेसे, उसके प्रतिकूल चलनेसे खर्च न करें । झत, उपायाम आदिके नियमोंका पालन करतीं और लोकविरुद्ध आचरण करनेसे भगा हो जाती हैं एवं गहें । दैवज्ञ आदि अंजनोंमें पतिक कुशल-क्षेमका वृत्तान्त उसके अनमल असे भगा हो जाती है। मनोवृत्तिकै जानने की कोशिश करे और परदेशमें उसके कल्याणकी अनुकूल कार्य करने से पराया भी प्रिय हो जाता है और कामना तथा शम्न आगमनकी अभिलाषासे निल्य मनोनुकूल कार्य न करनेसे अपना जन भी शीघ शत्रु बन देवताओंका पूजन करे । भरपन्त इज्जल वेप न अनाये और जाता है। इसरिये स्त्रीको मन, वचन तथा अपने कार्योदारा

-विनाध्य भारतकथैमादिनी |

पून्यानो बाने नित्यं भवन भगवा छ ।

 

(मप ३६३२)

* पपयोंका र्णन तथा उपवासोंके प्रकरणमें आकारका निरूपण +

सभी अवस्थाओंमें पतिके अनुसार ही प्रिंय आचरण करना है और पतिकी सँवासे सभी सुखों तथा त्रिवर्गको भी प्राप्त कर चाहिये। इस प्रकार कहे गये लो-वृत्तको भल्भ त समझ लेती है। जो स्त्री पतिको संवा करती हैं, वह पतिको अपना बना लेतीं।

पञ्चमहायज्ञोंका र्णन तथा व्रतउपवासोंके प्रकरणमें आहारका निरूपण एवं प्रतिपदा तिग्निकी उत्पत्ति, ब्रतविधि और माहात्म्य सुमन्तु मुनिने कामराजन् !

इस प्रकार स्त्रियोंके होते हुए भी वह इन पाँच यज्ञों नहीं करता है तो उसका लक्षण और सदाचारका वर्णन करके ब्रह्माजीं अपने लोक, जीवन में व्यर्थ है। तथा ऋषिगण भी अपने-अपने आश्रमकी ओर चले गयें। . रामा झापानीकने पूछा-जिस ब्राह्मणके परमें | अब गृहस्थों कैसा आचरण करना चाहिये, उसे मैं बताता अमित्र नहीं होता, वह मृतकके समान होता है आपने हैं, आप ध्यानपूर्वक सुने

कहा है, परंतु फिर वह देवपूजा आदि कार्योको क्यों करें ? गृहस्थौंको वैवाहिक अग्निमें विधिपूर्वक कमको और यदि ऐसी बात है तो देवता, पितर उससे कैसे संतुष्ट होंगे, करना चाहिये तथा पञ्चमहायज्ञका भी सम्पादन करना इसका आप निराकरण हैं। चाहिये। गृहस्थोके यहाँ जीव-हिंसा होनेके पाँच स्थान हैं- सुमन्तु मुनि बोले-राजन् ! जिन ब्राह्मणोके घरमें ओखली, चाकी, चूल्हा, झाडू तथा जल रखनेका स्थान। इस अग्निहोत्र न हो उनका उद्धार व्रत, उपवास, नियम, दान तथा हिंसा-दोषसे मुक्ति पानेके लिये गृहस्थोंको पञ्चमहायज्ञों- देवताकी स्तुति, भक्त आदिसे होता हैं। जिस देवताको जो । (१) ब्रह्मयज्ञ, (३) पितृयज्ञ, (३) देवयज्ञ, (४) भूतयज्ञ तिथि हो, उसमें उपवास करनेसे वे देवता उसपर विशेषरूपसे तया (५) अतिथियों नित्य अवश्य करना चाहिये। प्रसन्न होते हैं अध्ययन करना तथा अध्यापन करना यह ब्रह्मयज्ञ हैं,

गाद तोपवानिपमैनादानैया नृप

कर्म पितृयज्ञ हैं। देवताओंके लिये हवनादि कर्म दैवयज्ञ है।

वादयो भवत्येव श्रीनाले संशयः

बलियैश्वदेव कर्म भूतयज्ञ है तथा अतिथि एवं अभ्यागतका विषादपवासेन तिथौ किल महीपते स्वागतसत्का क्रमना अतिथियश हैं

प्रीता देवापतेषां भवत्त कुरुनन्दन

अभ्यापर्न ब्रह्मयज्ञः पितृयज्ञश्च तर्पणम्

| (नासपर्व १६ १३१४)

मेमो देवों बलभाँतस्तथाऽन्योनथिननम्

राजाने फिर कहामहाराज़ !

 (ब्रह्मपर्व १६ । ३)

अब आप अलग-अलग तिथियोंमें किये जानेवाले व्रत, तिथि-वतोंमें —इन पाँच नियमों का पालन करनेयाम गृहस्थी घरमें किये जानेवाले भोजनों तथा उपवासकी विधियोंका वर्णन करें, रहता हुआ भी पझसूना-दोषसे लिप्त नहीं होता। यदि समर्थ जिनके श्रवणसे तथा जिनका आचरण कर

 

संसारसागरसे मैं कर दुभंगा नाम मुभा नाम जाति

चपावत्यै Hिदे रिमित्

भबिज्ञानाननुष्ठानतोपि वा

नेकविध यांना भगत स्त्रियः

आकृमनोवृने परोऽपि प्रियता ब्रजेत्

प्रतिकृयात्रिशु मियः प्रदेषतमयात्

तस्मान् सामु मनोवाकायकर्मभः

भियं समाश्रियं तनुविधामी ।।

एवमेव मयोंदिष्टं मां यानुतिष्ठति

परिमाराध्य सम्पूर्ण विवर्ग साधिगत

. .

(भा १५॥ १६-१६, ३३

 

[ वर्तम समबन्ने जात्य सभ्यता के प्रभाव देशमें दृवित और जनतपूर्ण वातावरण बन गया है। जिससे सम्बद्ध भविन्यपणका यह मत रामायण, महाभापत, ति तथा अन्य में भी उपलब्ध है। आपके विकाकी सभी समस्याका एकमात्र मुख्य मा आचा! पतुन है, मम भाव संनयम भी पाता है। अतः मुभको पदावर विष ध्यान देने की आवश्यकता है। ]

 

+ पुराणं परमं पुण्यं भविष्यं सर्वसौम्यम्

 

[ संक्षिप्त भयपुराणात मुक्त हो जाऊँ तथा मेरे सभी पाप दूर हो जायें। साथ ही केयूर, हार, कुण्डल, मुकुट, उत्तम बस्त्र, श्रेष्ठ सुन्दर स्त्री तथा | संसारके जीवोंका भी करन्याण हो जाय ।

अॐ में प्राप्त होते हैं। वे आध-व्याधिसे मुक्त होकर सुमन्तु मुनि बोले- मैं तिथियोंमें विहित कुन्त्यका दीर्घायु होते हैं। पुत्र-पौत्रादिका सुत्र देखते हैं और वन्दीजनके यर्णन करता हैं, जिनके सुननेसे पाप कट जाते हैं और स्तुति-पालद्वारा जगाये जाते हैं। इसके विपरित जिसने व्रत, उपवासकै फलको प्राप्ति हो जाती है। दान, उपवास आदि कर्म नहीं किया वह कमा, अंधा, प्रतिपदा तिधिक्ये दूध तथा द्वितीयाको लवणहत भोजन लूला, गड़ा, राँगा, कुअवा तथा रोग और दरिद्रतासे पीड़ित करें । तृतीयाके दिन तिलान्न भक्षमा करें। इस प्रकार चतुर्थीको रहता हैं। संसारमें आज भी इन दोनों अमरके पुरुष प्रत्यक्ष दुध, पर्मीको फल, पडौंकों शाक, सप्तमी बिल्चार करे। दिसायी देते हैं। वहीं पुण्य और पाफ्को प्रत्यक्ष परीक्षा हैं । अष्टमीको पिष्ट, नवमीको अप्रपाक, दशमी और जानें कहा—प्रभो ! आपने अभी संक्षेपमें तिथियौंको एकादशीको घृताहार करें। द्वादशीको खीर, त्रयोदशीको गोमूत्र, बताया है। अब यह चितारले अनलकी कृपा करें कि किस चतुर्दशीको क्वान्न भक्षण करे। पूर्णिमाको कुशाकम जल पीयं देवताकी किस तिथिमें पूजा करनी चाहिये और ब्रत आदि किस तथा अमावास्याको हविष्य-भोजन करें। यह सय निधियोकै विधिमें करने चाहिये जिनके करने से मैं पवित्र हो जाऊँ और भोजनकी विधि हैं । इस विधिसे जो पूरे एक पक्ष भोजन करता हित होकर यज्ञके फलों को प्राप्त कर सकें। हैं, वह दस अश्वमेध-यज्ञका फल प्राप्त करता हैं और सुमन्तु मुनि बोले–राजन् ! तिथियों का रहस्य, नाका मन्वन्तरक वर्गने आनन्द भोगता हैं। यदि तीन-चार विधान, फल, नियम, देवता तथा अधिकारी आदिके विमें मालक इस विधिसे भोजन करें तो यह सौ अश्वमेघ और सौं मैं बताता हैं, यह सब आजतक मैंने किसी को नहीं बताया, राजसूय-यज्ञका फल प्राप्त करता है तथा स्वर्गमें अनेक इसे आप सुने मन्यत्तरितक सुख भोग करता है। पूरे आठ महीने इस विधिसे सबसे पहले मैं संक्षेपमें सृष्टिका वर्णन करता है। प्रथम भोजन करें तो हजार यज्ञका फल पाता है और चौदह परमात्माने जल उत्पन्न कर उसमें तेज प्रविष्ट किया, उसमें एक मन्वन्तरपर्यत साने व सुका उपभोग करता है। इसी अट उत्पन्न हुआ, उससे ब्रह्मा उत्पन्न हुए। उन्होंने अधिक प्रकार यदि एक वर्षपर्यन्त नियमपूर्वक इस भोजन-विधिका इससे उस अण्डके एक कपालमै भूमि और इससे पालन करता है तो वह सूर्यलोकमें कई मन्वन्तरोतक आकाशकी रचना की। तदनन्तर दिशा, उपदिशा, देवता, आनन्दपूर्वक निवास करता है। इस उपवास-विधिमें चारों दानव आदि रचे और जिस दिन यह सब काम किया उसका वर्गों तथा इ-पुरुयो—सभी अधिकार हैं। जो इन तिथि- नाम प्रतिपदा तिथि रखा। ब्रह्माजींने इसे सर्वोत्तम माना झननिय भानु अनिकी नवमी, माघ सम, वैशासकीं और सभी निधिक मागुम्भमें इसका मनिपादन किया तृतीया तथा कार्तिक पूर्णिमासे करता है, वह बी आयु इसलिये इसका नाम प्रतिपदा हुआ। इसके बाद सभी तिथियाँ प्राप्त कर, अनमें सूर्यकको प्राप्त होता है। पूर्वजन्ममें जिन उत्पन्न हुई। पुरुषोंने व्रत, उपवास आदि किया, दान दिया, अनेक प्रकार अब मैं इसके उपवास-विधि और नियमोंका वर्णन करता झाह्मण, माधु-संतों एवं तपस्वियको संतुष्ट किया, माता-पिता हैं। कार्तिक पूर्णिमा, माघ-सप्तम तथा वैशाख रू तृतीयासे

और गुरुङ्ग सेवाशुश्रूण कों, विधिपूर्वक तीर्थयात्रा में, ने इस प्रतिपदा तिथिकै नियम एवं उपवासको विधिपूर्वक प्रारम्भ पुरु। स्वर्गमै दौर्घ कालतक का जब पृथ्वीपर जन्म लेते हैं, करना चाहिये। यदि प्रतिपदा तिथि नियम अहण करना है तो तब उनके चिह-पुण्य-फल प्रत्यक्ष ही दिखायी पड़ते हैं। प्रतिपदासे पूर्व चतुर्दशी तिधिक भोजनके अनचर व्रतम यहाँ उन्हें हाथों, घोड़े, पालकी, रथ, सुवर्ण, इल, कंकण, संकल्प लेना चाहिये। अमावास्याओं निकाल स्नान करें,

 

नित्य, नैमित्तिक और काम्यये तीन प्रकारके कर्म होते हैं। यहाँ काम्यकर्मोको करण चल रहा है। इन्हीं कमसे निष्कामभवमें भगवत्पीयर्थ करनेपर जन्ममरण अन्नसे मुक्ति भी मिल जाती हैं।

ब्रापर्व ]

  • प्रतिपकल्पनिरूपणमें ब्रह्माजीकी फूमाअर्नाकी हिमा

भोजन न करे और गायत्री जप करता रहे । तपदाकै दिन यज्ञ करनेवाला, महादानी ब्राह्मण होता है। विश्वामित्रमुनिने | प्रातःकाल गन्ध-मान्य आदि पचासे और घायणक मा बाझग होनेके लिये बहुत समस्तक घोर तपस्या की, किंतु इन्हें कों और उन्हें यथाशक्ति दूध दें और बादमें ‘ब्रह्माजीं मुझपर ब्राह्मणत्व प्राप्त नहीं हो सका। अतः उन्होंने नियमसे इसी प्रसन्न हो’–ऐसा कहे। स्वयं भी बादमें गायका दूध पिये। प्रतिपदाका व्रत किया। इससे थोड़ेसे समयमें ब्रह्माजीने उन्हें इस विधिसे एक वर्षक व्रतकर अन्नमें गायत्रीसहित ब्राह्मण बना दिया। क्षत्रिय, वैश्य, शूद्र आदि कोई इस माज़ौका पूजन का व्रत समाप्त करें। तिथिका व्रत करें तो यह सब पाप से मुक्त होकर दूसरे जन्ममें | इस विधानसे व्रत करनेपर व्रतीक सबै पाप दूर हो जाते झाह्मण होता है। हैहय, ताजंप, तुरुक, यवन, झाक आदि हैं और उसकी आत्मा शुद्ध हो जाती हैं। वह दिव्य-कारोर लेछ ज्ञातियाले भी इस व्रतके प्रभाषसे ब्राह्मण हो सकते हैं। धारणकर विमानमें बैठकर देवलोकमें देवताओंके साथ ग्रह तिथि परम पुण्य और कल्याण करनेवाली है। जो इसके आनन्द प्राप्त करता है और जब इस पृथ्वीपर सत्ययुगमें जन्म माहात्म्यको पढ़ता अथवा सुनता है वह द्धि, वृद्धि और रस्ता हैं तो इस जन्मतक वेदविद्याका पागामी विद्वान्, सत्कीर्ति पाकर अन्तमें सद्गति प्राप्त करता है। धनवान्, दर्घ आयुष्य, आरोग्यवान्, अनेक भौगोंसे सम्पन्न,

(अध्याय १६)

 

अतिपत्कल्प-निरूपणमें ब्रह्माजकी पूजा-अर्चाकी महिमा |मा चातानीकने कम-ब्रह्मन् ! आप प्रतिपदा पूजा करता है, वह मनुष्य-स्वरूपमें साक्षात् ब्रह्मा ही है। तिथिमें किये जानेवाले कृत्य, ब्रह्माजौके पूजनकी विधि और ब्रह्माजीक पूजासे अधिक पुण्य किसमें न समझकर सदा उसके फलका विस्तारपूर्वक वर्णन करें।

ब्रह्माजका पूजन करते रहना चाहिये।

जो ब्रह्माजीको मन्दिर सुमन्तु मुनि बोले जन् !

 

पूर्वकल्पमें स्थावर- बनवाकर उसमें विधिपूर्वक ब्रह्माजीकी प्रतिमाकी प्रतिष्ठा करता जङ्गमारक सम्पूर्ण जगत्के नष्ट हो जाने पर सर्वत्र हैं, वह यज्ञ, तप, तीर्थ, दान आदिके फलोंसे करोड़ों गुना जल-हो-जल हो गया। इस समय देवताओंमें श्रेष्ठ चतुर्मुख अधिक फल प्राप्त करता हैं । ऐसे पुरुषके दर्शन और स्पर्शसे ब्रह्माजीं प्रकट हुए और उन्होंने अनेक लोकों, देवगण तथा इक्कीस पौदीको उद्धार हो जाता है । ब्रह्माजीकी पूजा करनेवाला विविध प्राणियोंकी सृष्टि कीं । प्रजापति ब्रह्मा देवताओंके पिता पुरुष बहुत कमलतक बालोंमें निवास करता है। वहाँ तथा अन्य जीवोंके पितामह है, इसलिये इनकी सदा पुजी निवास करनेके पश्चात् वह ज्ञानयोगके माध्यमसे मुक्त हो जाता करनी चाहिये। ये हीं जगतकी सुष्टि, पालन तथा संहार है अथवा भोग चाहनेपर मनुष्यलोकमें चक्रवर्ती राजा अथवा करनेवाले हैं। इनके मनसें रुका, वक्षःस्थलसे विष्णुका वेद-वेदाङ्गपारङ्गत कुलेन ब्राह्मण होता हैं। किसी अन्य कठोर आविर्भाव । न माने वाले अपने ; अजय साश्य तप और अशोक मासयकता नहीं है, वह झमाझीको चारों वेद प्रकट हुए। सभी देवता, दैत्य, गर्व, यक्ष, राक्षस, पूजससे हमें सभी पदार्थ प्राप्त हो सकते हैं। जो अह्माजीके नाग आदि इनकी पूजा करते हैं। यह सम्पूर्ण जगत् ब्रह्ममय मन्दिरमें अॅटें जीवोंकी रक्षा करता हुआ सावधानीपूर्वक हैं और ब्रह्ममें स्थित है, अतः ब्रह्माजी सबसे पूज्य हैं। न्य, धीरे-धीरे झाड़ देता है तथा उपलेपन करता है, वह स्वर्ग और मोक्ष-ये तीनों पदार्थ इनमें सेवा करनेसे प्राप्त हो चान्द्रायण-व्रतका फल प्राप्त करता है। एक पक्षक ब्रह्माजीकै जाते हैं। इसलिये सदा प्रसन्नचित्तसे यावजीवन नियमसे मन्दिरमें ज्ञों झाडू लगाता है, वह सौ करोड़ युगसे भी अधिक ब्रह्माजीकी पूजा करनी चाहिये। जो ब्रह्माजीकी सदा भकिसे ब्रह्मलोकमें पूजित होता है और अनत्तर सर्वगुणसम्पन्न, चारों इसका वर्णन चौंक इन अंगमा वरायणमें इससे भी अधिक विस्तार मिला है और मुर्श-चिन्तामन एवं अन्य यातिपभोग भो। रमणीयतापक पश्चित है । पदुम, ब्रतक्षाफल, शव आदि में भी गाता है।

  • पुराणं परमं पुण्यं भविष्यं सर्वमौस्यदम् +

[ संक्षिप्त भविष्यपुराणाङ्क वेदों का ज्ञाता धर्मात्मा राजाके रूपमें पृथ्वीपर आता हैं। जलसे स्नान कराने पर रुद्रलोक, कमलके पुष्प, नीलकमल, | भक्तिपूर्वक ब्रह्माजीका पुजन न करनेतक ही मनुष्य संसारमें पाटा (ोध-आल), कनेर आदि सुगन्धित पुष्पोले आन | भटकता हैं। जिस तरह मानवका मन विषयों में मग्न होता है, क्ग्रनेपर ब्रह्मलोंमें पूजित होता हैं। कपूर और अगरके वैसे ही यदि ब्रह्माजी मन निमग्न रहे तो ऐसा कौन पुरुष होगा जलसे स्नान करानेपर या गायत्रीमन्त्रसे सौ बार जलकों जो मुक्ति नहीं प्राप्त कर सकता । ब्रह्माजींके जीर्ण एवं रण्डत भिमन्त्रित कर उस जलसे स्नान करानेपर ब्रह्मलोंककी प्राप्ति | मन्दिरका उद्धार करनेवाला प्राणों मुक्ति प्राप्त करता है। होती है। शीतल जल या कपिला गायके धारोष्ण दुग्धसे स्नान ब्रह्माजींके समान न कोई देवता हैं न गुरु, न ज्ञान हैं और न कमानेके अनन्तर घृतसे स्नान कराने में सभी पापोंसे मनुष्य मुक्त कई तप हो जाता है। इन तीनों मान सम्पन्न कर भक्तिपूर्वक पूजा प्रतिपदा आदि सभी तिथियोंमें भक्तिपूर्वक ब्रह्माजीक करनेसे पूजकको अश्वमेधयज्ञका फल प्राप्त होता है। मिट्टी पूजा का पूर्णिमाके दिन विशेषरूपसे पूजा करनी चाहिये तथा अडेकी अपेक्षा ताबके घटसे ब्रह्माज़ौकों स्नान करानेपर सौगुना, शल्ल अष्टा, भैरों आदि ब्राह्म-ध्वनियोंके साथ आरती एवं चादीके घटसे लागुना फल होता हैं और सुवर्ण-कलशसे तुति करनी चाहिये। इस प्रकार व्यक्ति जितमें पप आरतौं स्नान करानेपर ऑटिगुना फल प्राप्त होता है। ब्रह्माजीक नसे करता हैं, उतने हजार युगक ब्रह्माकमें निवास और उनका स्पर्श करना श्रेष्ठ हैं, स्पर्शसे पूजन और पूजनसे मृतस्नान आनन्दका उपभोग करता है। कपिला गौके पञ्चगव्य और अधिक फलदायक हैं। सभौं वाचिक और मानसिक पाप कुशाके जलसे वेदमन्त्रों के द्वारा ब्राह्माजको स्नान कराना घतमान कराने नष्ट हो जाते हैं। ब्राह्म-स्नान कहलाता हैं। अन्य स्नानोंसे सौ गुना पुण्य इसमें राजन् ! इस विधिमें स्नान करा कर भक्तिपूर्वक ब्रह्माजीकी अधिक होता है। यज्ञ एवं अग्निहोत्रादिके लिये ब्राह्मण, क्षत्रिय पूछा इस प्रकार करनी चाहिये–पवित्र वस्त्र पहनकर, और वैश्यको कपि गौ रखनी चाहिये । ब्रह्माजीकी मूर्तिका आसनपर बैठ सम्पूर्ण न्यास करना चाहिये । प्रथम चार हाथ कपिला गायके मृतसे अभ्यङ्ग करना चाहिये, इससे करोड़ों विस्तृत स्थानमें एक अदल-कमलका निर्माण करे। उसके बषेक किये गये पापोंका विनाश होता है। यदि प्रतिपदाको दिन मध्य नाना वर्णयुक्त द्वादशदल-यन्त्र लिखें और पाँच गौसे कोई एक बार भी मासे स्नान कराता है तो उसके इपास उस्कों भरें। इस प्रकार यन्त्र-निर्माणकर गायत्री बस पौड़ीका उद्धार में जाता हैं। सुवर्ण-वरुवादिसे अलंकृत दस व्यास करें। हुशार सेवन्सा गौ वेदझा ब्राह्मणोंको देनेसे जो पुष्य होता हैं, गायत्रीके अक्षरोद्वारा शरीर में न्यास कर देवताके शरीर में वहीं पुण्य ब्रह्माजीको दुग्धसे न करानेसे प्राप्त होता है। एक भी न्यास करना चाहिये। प्रणवयुक्त गायत्री-मन्त्र द्वारा बार भी दूधसे ब्रह्माजीको स्नान करानेवाला पुरुष सुवर्णके अभिमन्त्रित केशर, अगर, चन्दन, कपूर आदिसे समन्वित विमानमें विराजमान हों ब्रह्मलोकमै पहुँच ज्ञाता है । दहीमें जलसे सभी पूजाइयोंका मार्जन करना चाहिये । अनन्तर पुजा स्नान करानेपर विष्णुलोक्की प्राप्ति होती है। शाहदसे स्नान करनी चाहिये । प्रणयका उच्चारण कर पौठापन और प्रणव करानेपर बरलोक (इन्द्रक) की प्राप्ति होती हैं। ईखके ही तेजस्वरूप ब्रह्माजीका आवाहन करना चाहिये । पद्मपर इससे स्नान करानेपर सूर्यककी प्राप्ति होती हैं। शुद्धोदकसे विराजमान, चार मुखोसे युक्त चराचर विश्वकी सृष्टि करनेवाले स्नान कराने पर सभी पापोंसे मुक्त होकर ब्रह्मलोंमें निवास श्रीब्रह्माजीका ध्यान कर पूजा करनी चाहिये । जो पुरुष प्रतिफ्दा करता हैं। वस्त्रको छने हुए जलसे ब्रह्माजीकों स्नान करानैपर तिथिकै दिन भक्तिपूर्वक गायत्रीमन्यसे ब्रह्माजीका पूजन करता वह सदा तृप्त रहता हैं और सम्पूर्ण विश्व उसके वशीभूत हों है, वह चिरकालतक ब्रह्मलोकमें निवास करता है। जाता हैं। सवषधियाँसे स्नान कानेपर ब्रह्माक, चन्दन के समास

( अध्याय १७)

यया मिनं जनाविपयागो

तं ब्रह्मणि शर्त को मुच्येत बधन् मार्च ||

 

ब्राह्मपर्य]

  • झिनीयापमें महर्षि च्यवनकी कथा वं पुपलियातकी महिमा

 

मह्माजीकी रथयात्राका विधान और कार्तिक शुक्ल प्रतिपदाकी महिमा सुमन्तु मुनिने कहा— राजा शतानीक ! कार्तिक प्रदक्षिणा करनी चाहिये, अनतर उसे अपने स्थानपर ले आना मासमें जो ब्रह्माजीकी उधयात्रा उत्सव करता है, वह चाहिये। आरती करके ब्रह्माजींकों उनके मन्दिरमें स्थापित अालको प्राप्त करता है। कार्तिक पूर्णिमाको मृगचर्मक करें। इस रथयात्राको सम्पन्न करनेवाले, रक्को खींचनेवाले आसनपर सावित्रीके साथ ब्रह्माजको दुधमें बिजमान करे तथा इसका दर्शन करनेवाले सभी ब्रह्मलोकको प्राप्त करते हैं। और विविध वाद्य-ध्वनिके साथ रथयात्रा निकाले। विशिष्ट दीपावलीके दिन ब्रह्माजीक मन्दिर में दीप ज्वलित करनेवाला उसके साथ ब्रह्माजींको थप वैनायें और थके आगे ब्रह्मलोकको प्राप्त करता है। इस दिन प्रतिपदाको ब्रह्माजी मह्माकं मम भक्त म्राह्मण शांतिपत्रको स्थापित र जा करके स्वयं भी वा-आमाणसे अत होना चाहिये । उनकी पूजा करे । ब्राह्मणोंक द्वारा स्वस्ति एवं पुण्याहवाचन यह प्रतिपदा तिथि ब्रह्माजीको बहुत प्रिय हैं। इसी तिथि कराये । उस रात्रि जागरण करे। नृत्य-गौत आदि रसव एवं बलिके ग्रन्यका आरम्भ हुआ है। इस दिन ब्रह्माजीका विविध क्रीड़ा ब्रह्माजीके सम्मुख प्रदर्शित करे। पूजनकर ब्राह्मण-भोजन करानेसे विष्णुलोककी प्राप्ति होती हैं।

इस प्रकार रात्रिमें जागरण कर प्रतिपदाके दिन प्रातःकाल चैत्र मासमें कृष्णप्रतिपदाके दिन (होली जलानेके दूसरे दिन) ब्रह्मर्जीका पुजन करना चाहिये। ब्राह्मणको भोजन कराना चाष्ट्राला स्पर्शकर स्नान करने से सभी आधि-व्याधियाँ दूर चाहिये, अनन्तर पुण्य शब्दोंके साथ यात्रा प्रारम्भ करनी हो जाती हैं। उस दिन गौ, महिष आदिको अलंकृतकर उन्हें चाहिये।

मण्डफ्के नीचे रखना चाहिये तथा ब्राह्मणोंको भोजन कराना चारों वेदोंके ज्ञाता उत्तम ब्राह्मण उस रथको खर्च और चाहिये। चैत्र, आश्विन और कार्निक इन तीनों महीनोंकी रथके आगे वेद पढ़ते हुए ब्राह्मण चलते रहें। ब्रह्माजीके प्रतिपदा श्रेष्ठ है, किंतु इनमें कार्तिककी प्रतिपदा विशेष श्रेष्ठ दक्षिण-भागमें सावित्री तथा वाम-भागमें भोजककी स्थापना है। इस दिन किया हुआ स्नान-दान आदि सौ गुने फलक देता करें। रथके आगे शङ्ख, भेरी, मृदङ्ग आदि विविध वाद्य बजते हैं। राजा बलिको इसी दिन राज्य मिला था, इसलिये रहें । इस प्रकार सारे नागरमें रथको शुमाना चाहिये और नगरकी कार्तिककी प्रतिपदा श्रेष्ठ मानी जाती हैं।

 

(अध्याय १८)

 

द्वितीया-कल्पमें महर्षि च्यवनकी कथा एवं पुष्पद्वितीया-व्रतकी महिमा सुमन्तु मुनि बोले-द्वितीया तिथिको च्यवनपिने एक समय अपनी सेना और अन्तःपुनके परिजनोंको साथ इन्द्रके सम्मुख यज्ञमें अश्विनीकुमारोंको सोमपान कराया था। लेकर महाराज शर्यंत गङ्गा-स्नानके लिये वह आये। उन्होंने | ज्ञाने पूछा–महाराज ! इइके सम्मुख किस विधिले च्यावनमुचिक आश्चमके समीप आफ गङ्गा मान सम्पन्न अश्विनीकुमारीको उन्होंने सोमरस पिलाया? क्या च्यवन- किया तथा देवताओंकी आराधना की और पितरोका तर्पण ऋषिकी तपस्याको प्रभावकी प्रवक्तासे इन्द्र कुछ भी करने किया । तदनन्तर जव में अपने नगरकी और जानेको उद्यत हुए। समर्थ नहीं हुए।

 

तो उसी समय उनकी सभी सेनाएँ व्याकुल हो गयॊ और मूत्र सुमन्तु मुनिने कहा- सत्ययुगका पूर्वसंध्या गङ्गाके तथा विठ्ठा उनके अचानक ही बंद हो गये, आँखोंसे कुछ भी तटपर समाधिस्थ हों च्यवनमुन बहुत दिनों तपस्यामें रत थे। नहीं दिखायीं दिया। अॅनाकों यह दशा देखकर राजा घबड़ा

अन्य पुगध तथा महाभारके अनुसार यह आश्चम सोनभद्र और बम कि समय था, को आज दुवकृपक नामास प्रमद्ध हैं। प्रायः पुराना गह इक भी प्राप्त होता है

मग तु गा पुण्या नदी पुण्या पुनः पुना। पवनय आम पुण्य पुम् जगह बनम्म् ।।

 

+ पुराणं परमं पुण्यं विन्यं सर्वसौस्पदम्

[ संक्षिप्त भविष्यपुराणा लें। राज्ञा झर्योति प्रत्येक व्यक्तिको पूछने लगे—यह तपस्वी वे इस महातपस्वी प्रकाशमान नेत्र थे। राजा वहाँ पहुँचकर | यवनमुनिका पवित्र आश्रम है, किसने कुछ अपराध तो नहीं अतिशय दौनताकै साध विनती करने लगेकिया ? उनके इस प्रकार पुनेपर किसने कुछ भी नहीं कहा। ना बोले–मान ! मेरों कयासे बहुत बड़ा सुकन्याने अपने पितासे का—माज | मैंने एक अपराध हो गया है। कार क्षमा करें। आश्चर्य देखा, जिसका मैं वर्णन कर रही हैं। अपनी च्यवनमुनिने का-अपराध तो मैंने क्षमा किया, सहेलियों के साथ मैं वन-विहार कर रहीं थीं कि एक ओरसे परंतु अपनी कन्याका मैं साथ विवाह कर दों, इसमें तुम्हारा मुझे यह शब्द सुनायीं पड़ा-‘सुकन्यै ! तुम इधर आओ, तुम कल्याण हैं। मुनिका वचन सुनकर जानें शीघ्र हीं सुकन्याका इधर आओ।’ यह सुनकर मैं अपनी सखियोंके साथ उस च्यवनषिसे विवाह कर दिया। सभी सेनाएँ सुखी हो गयी शब्दकी ओर गयी । वहाँ जाकर मैंने एक बहुत ऊँचा वल्मक और मुनिको प्रसन्नकर सुखपूर्वक राजा अपने नगरमें आकर राज्य करने लगें। सुकन्या भी विवाहके बाद भक्तिपूर्वक मुनिक सेवा करने लगीं। राज्ञवस्त्र, आभूषण उसने उतार दिये और वृक्षकों आल तथा मृगचर्म धारण कर लिया। इस प्रकार, मुनिकी सेवा करते हुए कुछ समय व्यतीत हो गया और वसन्त ऋतु आयीं। किसी दिन मुनिने संतान-प्राप्तिके लिये अपनी अनी सुकन्याका आह्वान किया। इसपर सुकन्याने अतिशय विनयभावसे विनती की सुकन्या बोली–महाराज ! आपकी आज्ञा मैं किसी कार भी झारू नहीं सकती, किंतु इसके लिये आपको कुवावस्था तथा सुन्दर वस्त्र-आभूषणोंमें अलंकृत कमनीय रूप धारण करना चाहिये।

च्यवनमुनिने उदास होकर कहा–ने मेरा उत्तम रूप है और न तुम्हारे पिताके समान मेरे पास धन हैं, जिसमें सभी भौग-सामग्रियोंकों मैं एकत्र कर सकें।  सुकन्या बोली–महाराज ! आप अपने ताके देखा। उसके अंदर स्त्रियोंमें दीपकके समान देदीप्यमान दो प्रभावसे सब कुछ करनेमें समर्थ हैं। आपके लिये यह पदार्थ मुझे दिखलायीं पड़े। उन्हें देखकर मुझे बम आश्चर्य वैन-सौं बड़ी बात है ? हुआ कि ये गर्माणके समान क्या चमक रहे हैं। मैंने च्यवनमुनिने कहा—नत्र ! इस कामके लिये मैं अपनी मूर्खता और चञ्चलतासे कुशाके अग्रभागसें वाल्मीकके अपनी तपस्या व्यर्थं नहीं करूंगा। इतना कहकर वे पहलेकी काशयुक्त छिड़कों बँध दिया, जिससे वह शान्त हो तरह तपस्या करने लगे। सुकन्या भी ऊनकी सेवामें तत्पर हों गया।

गन्य। यह सुनकर राजा बहुत व्याकुल में गये और अपनी इस प्रकार बहुत काल व्यतीत होनेके बाद अश्विनीकुमार कन्या सुकन्याको लेकर वहाँ गये जहाँ च्यवनमुनि तुपस्या त सी मासे चले जा रहे थे कि उनकी दृष्टि सुकन्यापर पड़ी। थे। यवनयको वहाँ समाभिस्थ होकर बैठे हुए इतने दिन अमिनमाने कहा-भद्दे ! तुम कौन हों ? और व्यतीत हो गये थे कि उनके ऊपर चमक बन गया था। जिन इस घोर वनमें अकेली क्यों रहती हो ? तेजस्वी छिको सुकन्पाने कुराके अग्रभागसे बँध दिया था, सुकन्याने कहा-मैं जा आपतिको सुकन्या नामकी ब्रह्मपर्य]

 

शियाकल्पमें महर्षि च्यवनकी कथा पुपांतीयाझनकी ममा

पुत्री है। मेरे पति च्यवन ऋषि यहाँ तपस्या कर रहे हैं, उन्हींकी सुकन्याकी इस प्रार्थना से अश्विनकुमार प्रसन्न हो गये सेवाकें लिये मैं यहाँ उनके समीप रहती हैं कहिये, आपोंग और उन्होंने देवताओंके चिह्नको धारण कर लिया सुकन्याने कौन हैं ?

देखा कि तीन पुरुषोंमेंसे की परके गिर नहीं रहीं हैं और अश्विनीकुमारोंने कहाहम् देवताओंके वैद्य अश्विनीकुमार हैं। इस वृद्ध पनिमें तुम्हें क्या सुख मिलेगा ? हम दोनोंमें किसी एकका वरण कर लें।

सुकन्याने कम-देवताओं ! आपका ऐसा कहना ठीक नहीं। मैं पतिव्रता है और सब प्रकार से अनुरक्त होकर दिन-रात अपने पति की सेवा करती हैं। | अश्विनीकुमारोंने कहा—यदि ऎसी बात है तौं हम

तुम्हारे पतिदें अपने उपचारके द्वारा अपने समान स्वस्थ एवं सुन्दर बना देंगे और जब हम तीनों गङ्गामें स्नानकर बाहर निकले फिर जिसे तुम पतिरूपमें वरण करना चाहो कर लेना।

सुकन्याने कहा-मैं बिना पतिकी आशाके कुछ नहीं  कह सकतीं।

अश्विनीकुमारोंने कहातुम अपने पति

आओ, तबतक हम यहीं प्रतीक्षामें रहेंगे।

सुकन्याने उनके चरण भूमिका स्पर्श नहीं कर रहे हैं, किंतु जो तीसरा पवनमुनिके पास जाकर उन्हें सम्पूर्ण वृत्तान्त बतलाया पुरूष है, वह भूमिपर खड़ा हैं और उसकी पलके भी गिर रही अश्विनीकुमाकी बात स्वीकार कर च्यवनमुन सुकन्याको है। इन चिों को देखकर सुकन्याने निश्चित कर लिया कि ये लेकर उनके पास आये।

तीसरे पुरुष हीं में स्वामी च्यवनमुन हैं। तब उसने इनका च्यवनमुनिने कहा-अश्विनीकुमारों ! आपकी शर्त वरण कर लिया। उस समय आकाशसे उसपर पुष्प-वृष्टि होने हमें स्वीकार हैं। आप हमें उत्तम रूपवान् बना दें, फिर सुकन्या लगी और देवगण इन्दुभि बजाने लगे। चाहे जिसे वरण को। च्यवनमुनिके इतना कहनेपर च्यवनमुनिने अश्विनीकुमारोंसे कहा-देयो ! आप अश्विनीकुमार च्यवनमुनिको लेकर गङ्गीके ज्ञलमें प्रविष्ट में गोंने मुझपर बहुत उपकार किया है, जिसके फलस्वरूप मुझे गये और कुछ देर बाद तीनों ही बाहर निकले। सुकन्याने देखा उत्तम रूप और उत्तम पली प्राप्त हुई। अब मैं आपलोगोंका कि ये तीनों तो समान रूप, समान अवस्था तथा समान क्या आपकार क, म्योंकि जो उपकार, कर्नयालेका वस्त्राभूषणोंसे अलंकृत हैं, फिर इनमें मेरे पति च्यवनमुनि कौन प्रत्युफ्कम नहीं करता, वह क्रमसे इक्कीस नरकोंमें जाता हैं, हैं? वह कुछ निश्चित न कर सकीं और व्याकुल हों इसलिये आपका मैं क्या प्रिय कहूँ, आप लौंग कहे।

अश्विनीकुमारोंकी प्रार्थना करने लगी।

अश्विनीमारोंने उनसे कहामारमन् !

यदि आप सुकन्या बोलींदेखो !

अत्यन्त रूप पतिदेयकम म हुमाग्न प्रिय करना हो चाहते हैं तो अन्य देवता की तरह हमें मैंने परित्याग नहीं किया था। अब तो आपकी कृपासे उनका भी यज्ञभाग दियाइये । च्यमनने यह बात स्वीकार कर रूप आपके समान सुन्दर हो गया है, फिर मैं कैसे बना ली, फिर वे उन्हें बिदाकर अपनी भार्या सुकन्याकै साथ अपने परित्याग कर सकती हैं। मैं आपकी शरण हैं, मुझपर कृपा आश्रममें आ गये। कानि ।

गुजा कार्यानिकों जब यह सारा वृत्तान्त ज्ञात हुआ तों में

१-उपका वरिष्ठं यों न करोम्युफ्कारिणः । ए त् स गच्या नामगि क्रमेण वै।

(ब्राल्ब ११ ॥ ५०-५१)

* पुराणं परमं पुण्यं भविष्यं सर्वसौख्यदम् +

[ संक्षिप्त भविष्यपुराणाङ्क भी ग़नीको साथ लेकर सुन्दर प – प्राप्त महातेजस्वी हैं, इसलिये मैं इन्हें अवश्य यज्ञभाग दूंगा। यह सुनकर इन्द्र च्यवनयिको देखने आश्रममें आये । राजाने च्यवनमुनिको क्रुद्ध हो उठे और कठोर स्वरमें कहने लगे।। प्रणाम किया और उन्होंने भी राजाका स्वागत किया। सुकन्याने इन्द्र बोले–यदि तुम मेरी बात नहीं मानोगे तो वन्नसे | अपनी माताको आलिङ्गन किया। गुजा शर्यात अपने जामाता तुमपर मैं प्रहार करूगा । इन्द्रकी ऐसी वाणी सुनकर च्यवनमुन महामुनि च्यवनका उतम रूप देखकर अस्पत प्रसन्न हुए। किंचित् भी भयभीत नहीं हुए और उन्होंने अश्विनकुमा को च्यवनमुनिने जासे कहा–राजन् ! एक महायज्ञक यज्ञभाग में हीं दिया, तब तो इन्द्र अत्यन्त क्रुद्ध हों ॐ और सामग्री एकत्र कौजिये, हम आपसे यज्ञ करायगे । च्यवन- उन्होंने ज्यों हीं च्यवनमुनिपर प्रहार करनेके लिये अपना वग्न | मुनिकी आज्ञा मान जा यति अपनी राजधानी औट उठाया यों ही जनमुनिने अपने तुपके प्रभाव इन्द्रका | आये और यज्ञ-सामग्री एकनकर यकी तैयारी करने लगे। स्नम्भ कर दिया । इन्द्र में बञ्च लिये खड़े हुँीं रह गये।

मन्त्री, पुरोहित और आचार्यको बुलाकर यज्ञकार्यके लिये उन्हें च्यवनमुनिने अश्विनीकुमारोंको यज्ञभाग देकर अपनी नियुक्त किया । च्यवनमुनि भी अपनी पाली मुकन्याको लेकर प्रतिज्ञा पूरी कर ली और यज्ञको पूर्ण किया। उस समय वहाँ यज्ञ-थलमें पधारे ब्रह्माजी उपस्थित हुए । | सभी ऋषिगको आमन्त्रण देकर यज्ञमैं बुलाया गया। ब्रह्माजींने च्यवनमुनसे कहा-महामुने ! आप विधिपूर्वक यज्ञ प्रारम्भ हुआ। त्विक् अग्निकाण्ड इन्द्रको स्तम्भन-मुक्त कर दें। अश्विनीकुमारोको यज्ञ-भाग ३ स्वामके साथ देवताओंको आहुति देने लगे। सभी देवता हैं। इन्ने भौं स्तम्भनसे मुक्त करनेके लिये प्रार्थना की अपना-अपना यज्ञ- भाग लेने यहाँ आ पहुँचे । च्यवनमुनिके इन्द्रने कहा—मुने ! आपके तपकी प्रसिद्धिके लिये ही कहने अश्विनीकुमार भी वहाँ आये। ट्रेनज इद उनके मैने इन अश्विनीकुमारों को यज्ञमें भाग लेने से रोका था, अब आनेक प्रयोजन समझ गये।

आजसे सब यशोंमें अन्य देवताओं के साथ अश्विनीकुमारों को | इन्द्र खोले—मुने ! ये दोनों अश्विनीकुमार देवताओंके भी यज्ञभाग मिला करेगा और इनको देवत्व भी प्राप्त होगा। वैद्य हैं, इसलिये ये यज्ञ-भागकै भिकारी नहीं हैं, आप इन्हें आपके इस तृपके अभावको जो सुनेगा अथवा पर्नेगा, वह भी आरितयाँ प्रदान न करवाये।

सः उत्तम रूप एवं गौचनको प्राप्त करेगा। इतना कह देवज़ च्यवनमुनिने इन्से कहा ये देवता हैं और इनका इन्द्र देवलोकको चले गये और च्यवनमुन सुकन्या तथा राज्ञी मेरे ऊपर बड़ा उपकार है, ये मेरे हीं आमन्त्रणपर, यहाँ पधारे शतके साथ आश्रमपर लौट आये। वीं उन्होंने देखा कि बहुत उत्तम-उत्तम महल बन गये है, जिनमें सन्दर, पवन और चापी आदि विहारके लिये अने हुए हैं। भाँति-भाँतिकी शय्याएँ बिछी हुई हैं, विविध रत्नमें जटित आभूषणों तथा उनम-उत्तम वस्त्रोंके ढेर लगे हैं। यह देकर सुकन्यासति च्यवनमुनि अत्यन्त प्रसन्न हो गये और उन्होंने यह सब देवराज इन्द्रद्वारा प्रदत्त समझकर उनकी प्रशंसा की। | महामुनि सुमन्तु राजा शतानीकसे बोले-राजन् ! इस प्रकार, द्वितीया तिथिकै दिन अश्विनी कुमारोको दैत्य तथा यज्ञभाग प्राप्त हुआ था। अब आप इस द्वितीया तिथिकै ब्रतका विधान सुनें शतानीक बोले-जो पुरुष उत्तम रूपकी इझ करे ज्ञानपर्व ]

 

+ फलद्वितीया (अशुन्ययन)का व्रतविधान

वह कार्तिक मासके शुक्ल पक्षकी द्वितीयासे व्रतकों आरम्भ करें आधि-धियोंसे रहित, पुत्र-पौत्रोंसे युक्त, उत्तम पत्रवाला | और वर्षपर्यन संयमित झोक्न पुष्पा-भोजन करें। जो उत्तम ब्राह्मण होता हैं अथवा मध्यर्देशके उन्नुम नगर में राज्ञा होता है।

विष्य-पुष्प अस ऋतुमें हों उनका आहार करें। इस प्रकार एक जन् ! इस पुष्पहतीया-बतका विधान मैंने आपको वर्ष झतका सोने-चाँदीके पुष्प अनाकर अथवा कमलपुष्पकों बताया। ऐसी ही फद्वितीया भी होती हैं, जिसे ब्राह्मणों को देकर व्रत सम्पन्न गर्ने । इससे अश्विनीकुमार संतुष्ट अशून्यशयना-द्वितीया भी कहते हैं। फलद्वतीयकों जो होकर उत्तम रूप प्रदान करते हैं । व्रत उत्तम विमानोंमें बैठकर श्रद्धापूर्वक व्रत करता है, वह ऋद्धि-सिद्धिको प्राप्तकर अपनी वर्गमें जाकर कल्पपर्यंत विविध सुखका उपभोग करता है। भार्यासहित आनन्द प्राप्त करता हैं। फिर मर्त्यलोकमें जन्म लेकर वेद-वेदाङ्गोंका ज्ञाता, महादानी,

(अध्याय १९)

फल-द्वितीया (अशून्यशयन-अत) का व्रत-विधान और द्वितीया-कल्पकी समाप्ति राजा ज्ञाताचींकने का—मुने ! कृपाकर आप फ भगवानको यि है, भगवान् शय्यापर समर्पत फलद्वतीयाका विधान कहें, जिसके करने से वीं विधवा नहीं करना चाहिये और स्वयं भौं रात्रिके समय उन्हीं फलोंको होती और पति-पत्नीका परस्पर वियोग भी नहीं होता। खाकर दूसरे दिन ब्राह्मणोंको दक्षिणा देनी चाहिये।

सुमन्तु मुनिने कहाराजन् !

मैं फलद्वितीयाका राजा शतानीकने पूछामहामुने !

भगवान् विष्णुको विधान कहता हैं. इसी नाम अशून्यशायना-द्वितीया भी हैं। कौन-से फल प्रिय हैं, आप उन्हें बतायें। दूसरे दिन ब्राह्मणोंको इस व्रत विधिपूर्वक करनेसे नौ विधवा नहीं होतीं और क्या दान देना चाहिये । उसे भी कहें स्त्री-पुरुष का परस्पर वियोग भी नहीं होता।

क्षीरसागरमें सुमन्तु मुनि बोलेजन् !

उस ऋतुमें जो भी फल लक्ष्मीक साथ भगवान् विष्णुकें शयन करनेके समय यह व्रत हों और पके हों, उन्हींकों भगवान् विष्णके लिये समर्पित करना होता है। श्रावण मासके कृष्ण पक्षको द्वितीयाके दिन लक्ष्मौके चाहिये । कडवे-कच्चे तथा खट्टे फल उनकी सेवामैं नहीं चढ़ाने साध श्रीवत्सधारी भगवान् विष्णुका पूजाक्का हाथ जोड़कर चाहिये । भगवान् विष्णुको स्वर, नारियल, मातुङ्ग अर्थात् इस प्रकार प्रार्थना करनी चाहियें बिजौरा आदि मधुर फलोंकों समर्पित करना चाहिये।

 

भगवान् श्रीवत्सबारिन् श्रीकान्त वत्स ऑपतेऽव्यय  

मधुर फलोंसे प्रसन्न होते हैं। दूसरे दिन ब्राह्मणोंको भी इस गार्हस्थ्यं मा प्रणाझं में यातु अर्माबंकामदम् ।।

प्रकारके मधुर फल, वस्त्र, अन्न तथा सुवर्णका दान देना चाहिये।

गावश्च मा अणश्यतु मा प्रत्यन्तु में जनाः

इस प्रकार जो पुरुष चार मासतक व्रत करता है, उसका जामयों मा प्रणश्यन्तु पत्तों दाम्पत्यभेदतः । तीन जन्मोंक गार्हस्थ्य जीवन नष्ट नहीं होता और न तों क्षम्या विन्ये देव न कदाचिया भवान् ॥ ऐमर्यकी कम होती है। ज्ञों की इस व्रत को करती है वह तीन तथा कलत्रसम्बों देव मा में विद्युन्यताम् । जन्मोंतक न विधया होती है न दुर्भगा और न पतिसे पृथक् हों लक्ष्म्या न शुन्यं वद यथा ते अपने सदा ॥ रहती है। शया ममाप्यशून्यास्तु तथा तु मधुसूदन। इस व्रतके दिन अश्विनीकुमारोंकी भी पूजा करनी चाहियें।

राजन् ! इस प्रकार मैंने द्वितीया-कल्पका वर्णन इस प्रकार विष्णु की प्रार्थना करके व्रत करना चाहिये। जो किया है।

(अध्याय ३०)

!-हे यम-चिाको करनेवाले लमके स्वामी मत भगवान् विष्णु ! अर्म, अर्थ और ममें पूर्ण करनेवाला मैं हम-आश्रम कों नष्ट न हो । मेरो गौर भी नष्ट न हैं न हों में परिपके लोग कमें पड़े व ३ नष्ट । की हिँ भी कभी विपना न पड़े और हुम पति-पत्नीने भी कभी मतभेद बन्न न हो । है ! मैं मरणं कभी स्त्रियुक्त न हो और में भी कभी मुझे वियोगको प्राप्ति न हो। प्रभो ! जैसे आये शय्या की लक्ष्मीले शुग कहीं होती, उ अपर में आया भी कभी भारत व लक्ष्मी तथा उनमें झु- न हो।

  • पुराण घरमं पुण्यं पवियं सर्वसौरुदम्

[ संक्षिप्त भविष्यपुराणा तृतीया-कल्पका आरम्भ, गौरी-तृतीया-अत-विधान और उसका फल सुमन्तु मुनिने कहा–राजन् ! जों की सब प्रकारका पतिसहित सबसे ऊपरका स्थान प्राप्त कर सकीं थीं। ये सुख चाहती है, उसे तृतीयाका व्रत करना चाहिये। इस दिन आयातक आपमें अपने पति महर्षि वसिष्ठके साथ दिखायौं। नमक नहीं खाना चाहिये । इस विधिसे उपवासपूर्वक जीवन देती हैं। चन्द्रमाकी पत्नी रोहिणीने अपनी समस्त सर्यालयको पर्यत इस व्रतका अनुष्ठान करनेवाली स्त्रीको भगवतीं गौरी ज्ञानेके लिये बिना लवण खायें इस व्रतकों किया तों में संतुष्ट होक्का रूप-सौभाम्य तथा अवश्य प्रदान करती हैं। इस अपनी सभी सपत्नियोंमें प्रधान तथा अपने पतिं चन्द्रमाकी मतम विधान में स्वयं गौरीने धर्मराज्ञसे कम हैं, उसका अत्यन्त प्रिय पत्नी में गयीं। देवी पार्वतीक अनुकम्पासे उन्हें अर्गन मैं कमाती है। उसे आप सुनें अचल सौभाग्य प्राप्त हुआ। भगवती गौरीने धर्मसे कम-धर्म ! – इस प्रकार यह तृतीया तिथि-वत सारे संसारमें पूजित है। पुरुषों कल्याणके लिये मैंने इस सौभाग्य प्राप्त कानेवाले और उत्तम फल देनेवाला हैं। वैशाय, भाइपद तथा माघ ब्रतको बनाया है। जो स्त्री इस क्षेतको नियमपूर्वक करती है, मासको तृतीया अन्य मासोंकी तृतीयासे अधिक उत्तम है, वह सदैव अपने पतके साथ रहकर उसी प्रकार आनन्दका जिसमें माघ मास तथा भाफ्द मासकीं तृतीया स्त्रियों उपभोग करती हैं, जैसे भगवान् शिव के साथ में आनन्दित विशेष फल देनेवाली है। रहती हैं। उत्तम पनि प्राप्ति के लिये कन्याओं यज्ञ व्रत करना वैशाख मास तृतीया सामान्यरूपसे सम्बके लिये हैं। चाहिये । ब्रतमें नमक न खायें । सुवर्णकी गौरी-प्रतिमा स्थापित यह साधारण तृतीया हैं। माघ मास तुतींयाको गुड़ तथा करके भक्तिपूर्वक एकाग्रचित्त को गौरीका फूजन करे। गौरीके या दान करना -रुप लिये अत्यन्त श्रेयस्कर है। लिये नाना प्रकारके नैय अर्पित करने चाहिये। रात्रिमें भाद्रपद मासकीं तृतीयामें गुड़के बने असूप (मालपुआ) का लवणहत भोजन करके स्थापित गौरी-पतिमाके समक्ष में दान करना चाहिये । भगवान् की प्रसन्नताके लिये माघ शयन करे। दूसरे दिन ब्राह्मणोंको भोजन कराकर दक्षिणा दे। मासकीं तृतीयाको मोदक और जला दान करना चाहिये। इस प्रकार ज्ञों कन्या व्रत करता है, वह उत्तम पतिको प्राप्त वैशाख मासकी तृतीयाको चन्दनमिश्रित जल तथा मोदक्के करती है तथा चिरकातक श्रेष्ठ भौगोंकों भोगकर अत्तमै दानसे ब्रह्मा तथा सभी देवता प्रसन्न होते हैं। देवताओंने पतिके साथ इत्तम लेकको जाती है।

वैशाख मासकी तृतीयाको अक्षय तृतीया कहा है। इस दिन यदि विधवा इस व्रतकों करती हैं तो यह वर्गमें अपने अन्न-वस्त्र-भजन-सुवर्ण और जल आदि दान करने से पतिको प्राप्त करती है और बहुत समयतक वहाँ रहकर पतिके अक्षय फल प्राप्त होती है। इसी विशेषता के कारण इस साधु यहाँके सुर्खाका उपभोंग करती है और पूर्वोक्त सभी तृतीयाका नाम अक्षय तृतीया है। इस तृतीयाके दिन जो कुछ सुखको भी प्राप्त करती है। देवी इन्द्राणीने पुत्र-प्राप्तिके लिये भी दान किया जाता है यह अक्षय हो जाता है और दान इस व्रतका अनुष्ठान किया था, इसके प्रभाषसे उन्हें जयन्त देनेवाल्य सूर्यलोकको प्राप्त करता है। इस तिथिको जौं उपवास नामका पुत्र प्राप्त हुआ। अरुवातीने उत्तम स्थान प्राप्त करनेके करता है वह ऋद्धि-वृद्धि और श्रीसे सम्पन्न हो जाता है। लिये इस व्रतका ममय-पान किया था, जिसके प्रभावों चतुर्थी-व्रत एवं गणेशजीकी कथा तथा सामुद्रिक शास्त्रका संक्षिप्त परिचय सुमनु मुनिने कहा–राजन् ! तृतीया-कल्पका वर्णन चाहिये। इस प्रकार व्रत करते हुए दो वर्ष व्यतीत होने पर करनेके अनन्तर, अब मैं चतुर्थी-कल्पका वर्णन करता हैं। भगवान् विनापक प्रसन्न होकर अतीको अभीष्ट फल प्रदान चतुर्थी-तिथिमें सदा निराहार रहकर व्रत करना चाहिये। करते हैं। उसका भाग्योदय में जाता है और वह अपार ब्राह्मणको निलका दान देकर स्वयं भी तिलका भोजन करना धन-सम्पत्तिम स्वामी हो जाता है तथा परलोकमें भी अपने ब्राह्मपर्व ]

 

* चतुर्थीब्रत एवं गणेशजीकी कथा था सामुविक झासका परिचय

पुण्य-फलका उपभोग करता हैं। पुण्य समाप्त होनेके पश्चात् कहा जायगा, वह मेरे ही नाम ‘सामुद्रिक शास्त्र में प्रसिद्ध इस लोकमें पुनः आकर वह दीर्घायु, कर्मात्तमान, बुद्धिमान्, सँगा । क्यामिन् ! आपने जो आशा मुझे दी है, वह निश्चित हों | धृतिमान्, वक्ता, भाग्यवान्, अभीष्ट कार्यों तथा असाध्य- पूरी होगी। कायको भौ क्षणभरमें ही सिद्ध करनेवाला और हाथी, शमीने पुनः कहा—कार्तिकेय ! इस समय तुमने ऑड़े, रथा, पली-पुत्रसे युक्त सात जन्मोंतक राजा होता हैं। जें गणेशका दाँत उखाड़ लिया है उसे दे दो। निश्चय हीं जो | राजा शतानीकने पूछा-मुने ! गणेशजीने किसके कुछ यह हुआ है, होना ही था। दैवयोगसे यह गणेशके बिना लिये विग्न उत्पन्न किया था, जिसके कारण उन्हें विघविनायक सम्भव नहीं था, इसलिये उनके द्वारा यह विश्न उपस्थित किया कहा गया। आप विश तथा उनके द्वारा विप्त उत्पन्न करनेके गया। यदि तुम्हें लक्षणकी अपेक्षा हों तो समुहसे ग्रहण कर | कारणको मुझे अज्ञानेका कष्ट करें। :

 

, किंतु स्त्रीपुरुषका यह अच्च क्षगशास्त्र सामुहशास्त्र सुमन्तु मुनि बोलेजन् ! एक बार अपने लक्षणइस नामको ही प्रसिद्ध होगा। गणेशों तुम दाँतयुक्त कर दो।।।

शास्त्र अनुसार स्वामिकर्माकियने पुरुषों और स्त्रियों के अष्ठ कार्तिकेयने भगवान् देवदेवेश्वरसे कहाआपके लक्षणोंकी रचना की, उस समय गणेशजौने विद्म किया

कहने से मैं दाँत तो विनायकके हाथमें दे देता है, किंतु इन्हें इस इसपर कार्तिकेय क्रुद्ध हो उठे और उन्होंने गणेश एक दात दाँतको सदैव धारण करना पड़ेगा। यदि इस दाँतको फेंककर उखाड़ लिया और उन्हें मारनेके लिये उद्यत हो उठे। उस ये इधर-उधर घुमेंगे तों यह फेंका गया दाँत इन्हें भस्म कर समय भगवान् शङ्करने से रोककर पूछा कि तुम्हारे क्रोधका देगा। ऐसा कहकर कार्तिकयने उनके हाथमें दाँत दे दिया। क्या कारण है ?

भगवान् देवदेवेश्वरने गणेशको कार्तिकेयकी इस बातको | कार्तिकेयने कहा- पिताजी ! मैं पुरुषोंके लक्षण माननेके लिये सहमत कर लिया। बनाकर सिके लक्षण बना रहा था, उसमें इसने विमा किया, सुमन्तु मुनिने का गन् ! आज भी भगवान् जिससे पियोंके लक्षण मैं नहीं बना सका। इस कारण मुझे आपके पुत्र विन्नकर्ता महात्मा विनायककी प्रतिमा हाथमें दांत मेष हों आया। यह सुनकर महादेजने कंपके क्रोधकों लिये देखी जा सकती है। देवताओंकों यह रहस्यपूर्ण बात मैंने शान किया और हँसते हुए उन्होंने पूछा आपसे कहीं। इसको देवता भी नहीं जान पाये थे। पृथ्वीपर झर झोले—मान ! तुम मपके लक्षण ज्ञानते हो तो इस इहस्यको जानना तो दुर्लभ ही है। प्रसन्न होकर मैंने इस बताओ, मुझमें पुरुषके कौन-से लक्षण हैं?

रहस्यको आपसे तो कह दिया है, किंतु गणेशको यह कात्तिकंपने कम-महाराज ! आपमें ऐसा लक्षण हैं अमृतकथा चतुधी तिथिके संयोगपर ही करनी चाहिये। जो कि संसारमें आप कपालीके नामसे प्रसिद्ध होंगे । पुत्रका यह विद्वान् से, उसे चाहिये कि वह इस कथा वेदपारङ्गत श्रेष्ठ वचन सुनकर महादेवजीको क्रोध हों आया और उन्होंने ऊनके हिंजों, अपनी शनिपचित वृत्तिमै ल गु क्षत्रिय, वैश्य और इस लक्षण-ग्रन्थकों उठाकर समुहमें फेंक दिया और स्वयं गुणवान् शौंको सुनाये । जो इस चतुर्थीनतका पालन करता अन्तर्धान हो गये हैं। उसके लिये इस लोक तथा परलोकमें कुछ भी दुध नहीं बादमें शिवजीने समुद्रको बुलाकर कहा कि तुम क्यिोंके हुता। उसकी दुर्गति नहीं होती और न कह वह पजत होता आभूषण-स्वरूप विलक्षण क्षणोंकी रचना करें और हैं। भरतश्रेष्ठ ! निर्विघ्-रूपसे वह सभी कार्योको सम्पन्न कर कार्तिकेयने जो पुरुष-लक्षणके विषयमें कहा है उसको कहो। लेता है, इसमें संदेह नहीं हैं। उसे ऋद्धि-वृद्धि-ऐश्वर्य भी प्राप्त समुड़ने कहा-जो मेरे द्वारा पुरुष-लक्षणका ज्ञान हो जाता हैं।

(अध्याय ३३)

  • पुराणं परमं पुण्यं भविष्य सर्वसौख्यदम् +

[ संक्षिप्त भविष्यपुराणाङ्क चतुर्थी-कल्प-वर्णनमें गणेशजका चिच्च-अधिकार तथा उनकी पूजा-विधि राजा शतानीकने सुमन मनसे पा–विप्नवर ! पक्ष चतुर्थी के दिन, हस्पतिवार और पुष्य गणेशजांकों गणका ग़ज्ञा किसने बनाया और बड़े भाई नक्षत्र होनेपर गणेशजीको सर्वोच्चधि और सुगन्धित द्रव्य कार्तिकेयकें रहते हुए ये कैसे विके अधिकारी हो गये ? पदार्थोंसे उपलम करे तथा उन भगवान् विभेदके सामने स्वयं सुमन्तु मुनिने का राजन् ! आपने बहुत अच्छॐ बात भद्रासनपर बैठकर ब्राह्मणोंसे स्वस्तिवाचन कराये। तदनतर पूल हैं। जिस कारण ये चिंघकारक हुए हैं और जिन बिॉकों भगवान् र, पार्वती और गणे,की पूजा करके सभी पितरों करनेमें इस पदपर इनकी नियुक्ति हुई, वह मैं कह रहा है, उसे तथा प्रोंकी पूजा करें। चार कला स्थापित कर उनमें आप प्रकासचित होकर सुनै । पहले कृतयुग जाने व सप्तमृत्तिका, गुमाल और गौचन आदि इन्व्य तथा मुर्गान्धित मुष्ट हुई तो बिना विघ्न-बाधाके देखते-ही-देखते सब कार्य पदार्थ छोड़े। सिंहासनस्थ गणेशजीको स्नान कराना चाहिये। सिद्ध हो जाते थे। अतः या बहुत अहंकार हो गया। स्नान कराते समय इन मन्त्रोंम उच्चारण करे होश-हित एवं अहंकारसे परिपूर्ण प्रजाकों देखकर ब्रह्माने ‘ सहस्राक्षे शतभारमूर्षिभिः पावनं कृतम् । बहुत सोच-विचार करके अजा-समूहके लिये विनायकों ने स्वामभिषिमामि पावमान्यः पुनतु ते ॥ विनियोजित किया।

अतः ब्रह्माके प्रयासमें भगवान् शङ्कने फर्ग ने वरुणो राजा भर्ग सूर्यों बृहस्पतिः

गणेशा उत्पन्न किया और उन्हें गणका अधिपति बनाया।

भगमन वायु मर्ग सप्तर्षय छः

ग़ज़न् ! जो प्राणीं गाकी बिना पूजा किये ही कार्य अत्ते केशेषु वैर्भाग्य समन्ते यच्च मूर्धनि । आरम्भ माता हैं, उनके लक्षण मुझसे सुनिये—यह व्यक्ति ललाटें कर्णयोरङ्णरापस्तद्नु 7 सदा ॥ समें अयन गहरे जलमें अपने डूबते, स्नान करते हुए या केश मुड़ायें देखता है। काषाय सबसे आच्छादित तथा हिंसक इन मन्त्रको स्नान कराकर हवन आदि कार्य करें। अनन्तर व्याघ्रादिं पशुओंर अपनेंकों चढ़ता हुआ देंखता है। अन्यत्र, हाथमें पुष्य, दुर्वा तथा सर्षप (सरसी) का गणेशजी गर्दभ तथा कैंट आदिपर चक्र परिजनों से घिरा वह अपने माता पार्वतीको तीन र पुष्पाञ्जलि प्रदान करनी चाहिये । मन्त्र ज्ञाता हुआ देखता है। जो मानव केकडेपर बैठकर अपनेको मारा करते हुए इस प्रकार प्रार्थना करनी चाहिये जकी तरंगोंके बीच गया हुआ देखता है और पैदल चल रहे कायं देहि यशो देहि भगं भगवति देहि में से घिरकर यमराजके लोकको ज्ञाता हुआ अफ्को स्वप्रमें । पुत्रान् देहि अनं देहि सर्वान् कार्माश्च देहि में। देखता है, यह निश्चित हीं अत्यन्त दुःखीं होता है।

अग्र बुद्धि में देहि धराय ख्यातिमेव च ॥ ज्ञों राजकुमार स्वपमें अपने चित्त तथा आकृतिको विकृत

ब्रह्मार्च २३ । ३४ } रूपमें अवस्थित, करवीरके फूलोंमें मालासे विभूषित देखना अर्थात् है भगवति ! आप मुझे रूप, यश, तेज, पुत्र हैं, वह उन भगवान् विनेशके द्वारा विघ्र उत्पन्न कर देनेके तथा धन हैं, आप मेरी सभी कामनाओंको पूर्ण करें। मुझे कारण पूर्ववंशानुगत प्राप्त राज्यको प्राप्त नहीं कर पाता । कुमारी अचल बुद्ध प्रदान करें और इस पृथ्वीपर प्रसिद्धि दें। कन्या अपने अनुरूप पति को नहीं प्राप्त कर पाती । गर्भिणी प्रार्थनाके पश्चात् ब्राह्मणों तथा गुरूको भोजन कराकर संतानको नहीं प्राप्त कर पाती है। औत्रिय ब्राह्मण आचार्यत्वका उन्हें वस्त्र-युगल तथा दक्षिणा समर्पित करें। इस प्रकार अभ नहीं प्राप्त कर पाता और शिष्य अध्ययन नहीं कर पाता। भगवान गणेश तथा प्रहॉकी पूजा करनेसे सभी कर्मोका फल वैश्यको व्यापारमें लाभ नहीं प्राप्त होता है और कृषकको प्राप्त होता है और अत्यन्त श्रेष्ठ लक्ष्मौकी प्राप्ति होती है। सूर्य, कृषि-कायमें पूरी सफलता नहीं मिलतीं । इसलिये जन् ! ऐसे कार्तिकेय और विनायकका पूजन एवं तिलक करनेसे सभी अशुभ स्वप्नों को देखनेपर भगवान गणपतिकी प्रसन्नता के लिये सिद्धिकी प्राप्ति होती है। विनायक-शान्ति करनी चाहिये। पुरुषों के शुभाशुभ लक्षण जा शलानींकने पूछा-विपेन्द्र ! स्त्री और पुरुषके ऊँचे चरणवाला, कमलके सदृश कोमल और परस्पर मिली । जो लक्षण काकियने अनाये थे और जिस ग्रन्थको क्रोध हुई अङ्गुलियोंवाला, सुन्दर पाण-एड़ोसे युक्त, निगूढ आकर भगवान् शिवनें समुदमें फेंक दिया था, वह रखनेवाला, सदा गर्म रहनेवाला, प्रलंदशून्य, रक्तवर्णक कार्तिकंप पुनः प्राप्त हुआ या नहीं ? इसे आप मुझे बतायें। नत्रोंसे अलंकृत चरवाला पुरुष राजा होता है। सूर्पके समान सुमन्तु मुनिने कहा—गजेंद्र ! कार्तिकाने स्त्री- रूखा, सफेद नखोसे युक्त, टेढ़ी-रूखीं नाड़ियोंमें व्याप्त, विरल पुरुषका जैसा लक्षण का हैं, वैसा ही मैं कह रहा है। अङ्गलियोंसे युक्त चरगवाले पुरुष दरंद्र और दुःखी होते हैं।

व्योमकेश भगवानके सुपुत्र कार्तिकेयने जब अपनी शक्ति जिसका चरण आगमैं पकायी गयी मिट्टोके समान वर्णकम होता | द्वारा चपर्वतको विदीर्ण किया, उस समय ब्रह्माजी उनपर हैं, यह ब्रह्महत्या करनेवाला, पीले चरणवाला अगम्यागमन | प्रसन्न हों उठे। उन्होंने कार्तिकेयसे कहा कि हम तुमसर प्रसन्न करनेवाला, कृणवर्णके चरणवाला मद्यपान करनेवाला तथा | हैं, जो चाहें वह वर मुझसे माँग स्यो । उस तेजस्वी कुमार मैनवार्णक चारणवारा अभक्ष्य पदार्थ भक्षण करनेवाला होता | कार्तिकेयने नतमस्तक होकर उन्हें प्रणाम किया और कहा कि है । जिस पुरुषके पैक अंग मोटे होते हैं वै भाग्यहीन होते विभो ! स्त्री-पुरुषके विषयमें मुझे अत्यधिक कौतूहल है। जो हैं। विकृत अँगूठेवाले सदा पैदल चलनेवाले और दुःखी होते | लक्षण-अन्य पहले मैंने बनाया था उसे तो पिता देवदेवेश्वरने हैं। चिपटे, विकृत तथा ? हुए अंगूठेवाले अतिशय निन्दित क्रोध में आकर समूहमें फेंक दिया। वह मुझे भूल भी गया है। होते हैं तथा टेढे, छोटे और फटे हुए अँगूठेवाले कष्ट भोगते | अतः उसको सुनने की मेरी इस हैं । आप कृपा करके उसका हैं। जिस पुरुषके पैर तर्जनी अंगुली अंगूठेमें बड़ी हो

वर्णन करें। उसकों लीं-सुख प्राप्त होता है। कनिष्टा अँगुली बड़ी होनेपर ब्रह्माजी बोले-तुमने अच्छी बात पूछी हैं। समुद्ने स्वर्णकी प्राप्ति होती हैं। चपटी, विरल, सूखीं अंगुनी होनेपर जिस प्रकारमें इन लक्षणोंको कहा है, उसी प्रकार मैं तुम्हें सुना पुरुष नहींन होता है और सदा दुःख भोगता हैं । रुक्ष और रह्म हैं। समुहने स्त्री-पुरुषोंके उत्तम, मध्यम तथा अधम- चैत नख़ होनेपर दुःखक प्राप्ति होती है। ग्राम नम्व होनेयर तीन प्रकार के लक्षण बतलाये हैं।

पुरुष महित और कामभोगत होता है। शैम यह अंशा शुभाशुभ लक्षण देनेवालको चाहिये कि वह शुभ होनेपर भाग्यहीन होता है। अमें छोटे होनेपर ऐश्वर्य प्राप्त होता मुहूर्तमें मध्याह्नके पूर्व पुरुषके लक्षणोंकों देखें । प्रमाणसमूह, है, किंतु अन्धनमें रहता हैं । मृगके समान होया होनेपर राजा छायागनि, सम्पूर्ण अङ्ग, दाँत, केश, नत्र, दादी-मैका लक्षण होता है। संय, मोटी तथा मांसल जंघावाज़ ]श्वर्यं प्राप्त करता देखना चाहिये । पहले आयुकीं परीक्षा करके हीं जग बतानें हैं। सिंह तथा बाघकै समान जंघावाला धनवान् होता हैं। चाहिये। आयु कम से तो सभी लक्षण व्यर्थ हैं। अपनी जिसके घुटने मसरहित होते हैं, वह विदेशमें मरता है, विक्ट अङ्गुलियोसे जो पुरुष एक सौ आठ यानीं बार हाथ बारह ज्ञानु होनेपर दरिंद्र होता हैं। नीचे घुटने होनेपर स्व-जित होता अङ्गका होता है, वह उत्तम होता है। सौं अङ्गलका होनेपर है और मांसल जानु होनेपर गुज़ा होता है। हंस, भास पक्षी, मध्यम और नये अङ्गका होनेपर अधम माना जाता है- शुक, वृष, सिंह, हाथी तथा अन्य श्रेष्ठ पशु-पक्षियोके समान । याईके प्रमाणका यी लक्षण आचार्य समुद्रने का है। गत होनेपर व्यक्त गुजा अथवा भाग्यवान् होता है। ये ।

हे कुमाए ! अब मैं पुरुषकै अङ्गम सक्षम कहता हैं। आचार्य समुद्रके वचन है. इनमें संदेह नहीं हैं। जिसका पैर कोमल, मांसल, रक्तवर्ण, स्निग्ध, ऊँचा, पसीनेमें जिस पुरुषको रक्त कमालवै समान होता हैं यह धनवान् । हित और नाड़ियोंसे व्याप्त न झै अर्थात् नयाँ दिखायी नहीं होता है। कुछ लाल और कुछ काला धरवाना मनुष्य पड़ती हो तो वह पुरुष राजा होता हैं। जिसके पैर तल्वेमें अधम और पापकर्मको करनेवाला होता है । जिस पुरुषमा रक्त अंकुदाका चिढ़ हों, वह सदा सुव्रीं रहता हैं । कक्के समान मँगेके समान रक्त और अिध होता है, वह सात द्वीपका राजा

 

* पुराणं प्रामं पुण्यं भविष्यं सर्वसौख्यदम्

[ संक्षिप्त भविष्यपुराणाम् होता हैं। मृग अथवा मोरके समान पेंट होनेपर उत्तम पुरुष होता है, तीन बलि होनेपर ग़ज्ञा अथवा आचार्य होता हैं । चार होता हैं। बाघ, मैक और सिंहके समान पेट होनेपर जा बलि होनेपर अनेक पुत्र होते हैं, सीधी बलि होनेपर धनका | होता है। मसले प्रष्टसीधा और गोल पायान ब्यक्ति भी उपभोग करता है।

होता है। बाघके समान पीठयाम व्यक्ति सेनापति होता है। जिसके कन्ध कर एवं मांसल तथा समान में ये गुज़ा सिंहके समान लंबी पौंठवाला व्यक्ति बन्धनमें पड़ता हैं। होते हैं और सुखी रहते हैं। जिसका वक्षःस्थल बनाए, उन्नत, कछुके समान पाँउवाला पुरुष धनवान् तथा सौभाग्य-सम्पन्न मांसल और विस्तृत होता है वह राजाके समान खेता है। इसके होता है। चौंड़ा, मांससे पुष्ट और रोमयुक्त वक्षःस्थलबाला बिपरीत कड़े रॉमवाले तथा नसें दिखायी पड़नेवाले वक्षःस्थल पुरुष शतायु, धनवान् और उत्तम भौगोमें प्राप्त करता है। प्रायः निधनॉक में होते हैं। दोनों वक्षःस्थल समान होनेपर सूखी, रूखी, विरल हाथी अँगुलियोंवाला पुरुष नहींन पुरुष धनवान् का है, पुष्ट होने पर शूरवर होता है, छोटे और सदा दुःखी रहता हैं।

होने पर धनहीन तथा छोटा-बड़ा होनेपर अकिंचन होता है और जिसके हाथमें मस्यरेखा होती है, इसका कार्य सिद्ध शससे मारा जाता है। विषम हनुवाला धनहीन तथा उन्नत होता है और वह धनवान् तथा पुत्रवान् होता है । जिसके हाथमें हनु(बुटी) वाम भोगी होता हैं । चिपटीं ग्रीवायाला धनहीन तुला अथवा वेदीका चिह्न होता है, यह पुरुष व्यापारमें अभ होता है। मक्षिके समान मवावा शूरवर होता है। मृगके करता है। जिसके हाथमें सोमलताका चिह्न झेता हैं, वह धनों समान प्रवावाला डरपोक होता है। समान प्रवावाला गुज्ञा होता है और यज्ञ करता है । जिसके हाथमैं पर्वत और वृक्षका होता है। तोता, ऊँट, हाथी और बगुलेके समान लंबी तथा । चिह्न होता है, उसकी लक्ष्मी स्थिर होती हैं और वह अनेक शुष्क प्रीवाबाला धनहीन होता हैं। छोटी वावा धनवान् । सैवकका स्वामी होता है। जिसके हाथमें बर्थी, माण, तोमर, और सुखी होता हैं। पुष्ट, दुर्गन्धरहित, सम एवं थोड़े रोमसे खड्ग और अनुषका चिह्न होचा है, वह युद्धमें विजयी होता युक्त काँग्रवालें धनी होते हैं, जिसकी भुजाएँ ऊपरको खिंचों हैं। जिसके कायमै ध्वज्ञा औं शङ्का चिह्न होता है, वह रहती हैं. वह बभनमें पड़ता है। अॅटीं भुजा रहनेपर दास होता जजसे व्यापार करता है और अनवान् होता है। जिसके है. छोटी-अझी भुजा होनेपर चोर होता है, लंबी भुजा होनेपर, हाथमें श्रॉवल्स, कमल, वज़, इध और कलाम चिह्न होता सभी गुणों से युक्त होता है और जानुओंतक लंबी भुजा होनेपर हैं, वह शत्रुहित राजा होता है। दाहिने हाथ अँगूठेमें ययका ज्ञा होता है। जिसके हाथका तल गहूरा होता है उसे पिताका चिह्न रहनेपर पुरुष सभी विद्याभका ज्ञाता तथा प्रवक्ता ता धन नहीं प्राप्त होता, सद्द पोंक होता है। ऊँचे करतलवा हैं। जिस पुरुपके हाथमें कनष्ठाके नीचसे तर्जनीकै मध्यक पुरुष दानी, विषम करतलवाला पुरुष मिश्रित फलवाला, रेखा चमें जाती है और बीचमें अलग नहीं रहती है तो वह लाखके समान रक्तवर्णवाला कतल होनेपर जा होता है। पुरूष सौ वर्षांतक जीवित रहता हैं। जिसका पेट साँपके समान पीले करतालवाला पुरुष अगम्यागमन करनेवाल्, काम होता है वह दरिद्री और अधिक भोजन करनेवाला होता नौला कारतालवाला मद्यादि इयाँका पान करनेवाला होता है। हैं। विस्तीर्ण, फैली हुई. गम्भीर और गोल नाभिवाला व्यक्ति कसे करतलयाला पुरुष निर्धन होता हैं । जिनके हाथों रेखाएँ सुख भोगनेवाला और धन-धान्यसे सम्पन्न होता है। नीचीं गहरी और स्निग्ध होती हैं वे धनवान् होते हैं। इसके विपरित और छोटी नाभिवाला व्यक्ति विविध क्लॉकों भोगनेवाला झोता देखावाले दरिंद्र होते हैं। जिनकी अंगुलियाँ विरल होती हैं, हैं। बल्केि नीचे नाभि हों और वह विषम हों तो धनकों ने उनके पास धन नहीं ठहरता और गहरों तथा छिट्टहीन अंगुली होती है। दक्षिणावर्त नाभि बुद्ध प्रदान करती हैं और वामावर्ने रहनेपर घनका संचयी रहता है। नाभि शान्ति प्रदान करती हैं। सौ दलवाले कमलको ब्रह्माजीं पुनः बोले-कॉर्तकेय ! चन्द्रमण्डलके काँका समान नाभिवाला पुरुष राजा होता है। पेटमें एक समान मुखवाला व्यक्ति धर्मात्मा होता है और जिसका मुख बलि होनेपर शस्त्र मारा जाता है, दो बलि होनेपर स्त्री-भोग सैंडकी आकृतिका होता हैं वह भाग्यहीन होता हैं। टेढ़ा, टूटा

ब्रह्मपर्व ]

* पुरूषके शुभाशुभ लक्षण

हुआ, विकृत और सिंहके समान मुख्नवाला चोर होता हैं। जिल्लावाला विद्वान् होता हैं । कमलकें प्रत्तेके समान पतली, सुन्दर और कॉन्तियुक्त श्रेष्ठ हाथोके समान भरा हुआ सम्पूर्ण लंबी न बहुत मोटी और ना बहुत चौड़ा जिल्ला रहनेपर ग़ज़ा मुखवाला व्यक्ति राजा होता है। अकरें अथवा अंदर के समान होता है। काले रंगका शाखा अपने कुलश्का नाशक, पौले मुखवाला व्यक्ति धनी होता है। जिसका मुख बड़ा होता हैं तालुवा सुख-दुःख भोग करनेवाल्या, सिंह और हाथोके उसका दुर्भाग्य रहता है। लेटा मुग्धा कृपण, लंबा तालुके समान तथा कमलके समान तालुयाला राजा होता है, मुखवाला धनहीन और पाप होता हैं। चौबँटा मुरक्याला धूर्त, श्वेत तालुयाम धनवान् होता है। रूम्वा, फटा हुआ नाथां के मुखर्के समान मुखयाला और निम्न मुखबाला पुरुष विकत तालुवाला मनुष्य अच्छा नहीं माना जाता। पुत्रहीन होता है या उसका पुत्र उत्पन्न होक्न नष्ट हो जाता है। हंसके समान स्वरवाले तथा मॅपके समान गम्भीर जिसके कपोल कमलके हलके समान कोमल और कॉन्तिमान् स्वरयाले पुरुष धन्य माने गये हैं। क्रौंचके समान स्वरवाले होते हैं, वह घनवान् एवं कृषक होता है । सिंह, बाघ और राजा, मझन् धन तथा विविध सुखका भोग करनेवाले होते हाथोके समान कपालवाला व्यक्ति विविध भोग-सम्पत्तियों- हैं । चक्रवाकके समान जिनका स्वर होता है ऐसे व्यक्ति अन्य वाल और सेनाका स्वामी होता हैं। जिसका नाचेका ओठ तथा धर्मवत्सल गुजा होते हैं। बड़े एवं इंभिके समान रक्तवर्णका होता हैं, वह राजा होता हैं और कमालके समान स्वरवाले पुरुष राजा होते हैं। ऋग्वे, ऊँचे, क्रूर, पशुओंके अधरवाला धनवान् होता है। मोटा और रूग्रा हाँड़ होनेपर सामान तथा घर्षरयुक्त स्वरयाले पुरुष दुःखभाग होते हैं। नील दुःखीं होता हैं।

कृप्ट पक्षौके समान स्वरवाले भाग्यवान् होते हैं। फुटे काँसके जिसके कान मांसहन हो वह संग्राम मारा जाता है। बर्तनके सम्मान तथा उरे-फटे स्वरवा अधम क गये हैं। चिपटा कान होनेपर रोगों, छोटा होनेपर कृपया, शङ्कके समान दाडिमके पुष्पके समान नेत्रयाण राजा, पाभके समान कान होने पर राज्ञा, नाड़िसे व्याप्त होनेपर क्रूर, केसे युक्त नेत्रवाला क्रोधी, केकड़ेके समान आँखाला झगड़ालू, होनेपर दाँजौवा, बा, पष्ट तथा वा कान होनेपर भौगो चिन्ली और हंसके समान नेत्रवाला प्रख्या अधम होता हैं। देवता और झाको जा करनेवाला एवं राज्ञा होता हैं। मयूर एवं नकुके समान आँववाले मध्यम माने जाते हैं। जिसको नाक शुकको चोंचके समान हों वह सुख भोगनेवाल शहक समान पिङ्गल वर्णक नेत्रवालकों को कभी भी और चक नाकवाला दीर्घजीवी होता हैं। पता नाकाला त्याग नहीं करतीं। गांचन, गुना और हरतालके समान ज्ञा, लंबी नाकवाला भोगी, ओटौं नाकवाला धर्मशील, पिङ्गल नेत्रवाला वलयान और घनेश्वर होता हैं। अर्धचन्द्रके हाथी, घोड़ा, सिंह या मुईको भन तौखीं नाबाला व्यापार में समान ललाट होनेपर राजा होता है। बड़ा लट होनेपर सफल होता है। कुट-पुष्पकी झलके समान उज्वल धनवान् होता है। ओटा लट होनेपर धर्मात्मा होता है। हॉलवाला राजा तथा हाथाके समान दाँतयारस एवं चिकने लाटके बीच जिस स्त्री तथा पुरुषके पाँच आड़ी रेखा होती दाँतथा गुणवान होता है। भालु और बंदरके समान दाँतावाले हैं वह सौ वर्षातक जीवित रहता है और ऐश्वर्य भी प्राप्त करता नित्या भूससे व्याकुल रहते हैं। काल, रूखे, अलग-अलग हैं। चार रेखा होनेपर अस्सों वर्ष तीन रेखा होनेपर सत्तर वर्ष, और फुटे हुए दाँतवाले दुःखसे जीवन व्यतीत करनेवाले होते दो पंखा होनेपर साठ सर्य, एक रेखा होनेपर चालीस वर्ष और हैं। बत्तीस दाँतवाले राजा, एकतीस दाँतवाले भोगीं, तीस एक भी देखा न होने पर पचास वर्गक आयुवाला होता है। इन दाँतबाले सुख-दुःख भोगनेवाले तथा उनतीस दाँतवाले पुरुष देखाऑके द्वारा हीन, मध्यम और पूर्ण आयुकी परीक्षा करनी दुःख ही भोगते हैं। काली या चित्रवर्णकी जीभ होनेपर व्यक्ति चाहिये। अट्रो रेसा होनेपर व्याधियुक्त तथा अल्पायु और दासवृत्तिले जीवन व्यतीत करता है। रूखी और मोटी लंबी-लंबी रेखाएँ होनेपर दयु होता हैं। जिसके ललाटमें ज्ञाभवा क्लोधी, श्वेतवर्गक जीभवा पवित्र आचरणसे त्रिशूल अथवा पदक चिह्न होता है, वह बड़ा प्रतापी, सम्पन्न होता है। निम्न, स्निग्ध, प्रभाग रक्तवर्ण और नोटीं कीर्ति-सम्पन्न का होता हैं |

छत्रके समान सिर होनेपर राजा, मं अः पुः अंः ३ ५८

  • पुराणं परमं पुण्यं भविष्य सांसौख्यदम् +

[ संक्षिप्त भविष्यपुराणाङ्क लेबा सिर होनेपर दुःखी, दरिद्र, विषम होनेपर समान तथा हैं। बहुत गहरे और कठोर केश दुःखदायौं होते हैं। विरल, गोल सिर होनेपर , हाधीक समान सिर होनेपर जाके स्निग्ध, कोमल, भ्रमर अथवा अंजनके समान अतिशय कृष्ण समान होता हैं। जिनके कॅश अथवा रॉम मोटे, रूखें, मेपल केशवाला पुरुष अनेक प्रकारके सुखवा भोग करता है और आगेसे फटे हुए होते हैं, ये अनेक प्रकारके दुःख भोगते जा होता हैं ।

(अध्याय ३४३६)

राजपुरुषोंके लक्षण कार्तिकेयज्ञने कहाब्रह्मन् ! आप राजाओंके होनेपर दरिद्र होता है। भौहें विशाल होनेपर सुखी, चीं।

शरिरक अङ्गक लक्षणोंकों बतानेकौं कृपा करें। होनेपर, अल्पायु और विषम आ बहुत लंबी होनेपर दरिंद्र और ब्रह्मा जी बोलें-मैं मनुष्योंमें राजाओंके अङ्गके लक्षणें दोनों भौहाँके मिले हुए होने पर धनहीन होता है । मध्यभागमें कों संक्षेपमैं बताता हैं। यदि ये लक्षण साधारण पुरूषोंमें भी नीचेक और झुकी भौंहवाले परदारामगाम होते हैं। प्रकट हो तो में भी गुजाके समान होते हैं. इन्हें आप सुने- बालचन्द्रका समान भौटे होनेपर राज्ञा होता है। ऊँचा और जिस पुरुपके नाभि, वर और संधिस्थान में तीन निर्मल ललाट होनेपर उत्तम पुरुष होता है, नीचा ललाट होनेपर गम्भीर हों, मुख, लाट और वक्षःस्थल–में तन विस्तीर्ण स्तुत किया जानेवाला और धनसे मुक्त होता हैं, कहीं ऊँचा । हो, वक्षस्थल, कक्ष, नासिका, नत्र, मुम्व और कृकाटिका- और कहीं नींचा वाट होनेपर दरिद्र तथा सपके समान ये छः उन्नत अर्थात् ऊँचे हों, उपस्थ, पौंड, ग्रीवा और लाट होनेपर आचार्य होता हैं। धि , हास्ययुक्त और झंथा—ये चार व हो, नेत्रोक आम्ल, हाथ, पैर, ताल, ओष्ठ, दोनताले हित मुख शुभ होता हैं, मैंन्यभावयुक्त तथा जिल्ला तथा नस-ये सात रक्त वर्णके हे, हनु, नेत्र, भुजा, आँसुओंसे युक्त आँखोंवा एवं रूखे चेहरेवाला श्रेष्ठ नहीं हैं। | नासिका तथा झोन तानोंका अत्तर- पाँच हॉर्च हों तथा उत्तम पुरुसका कास्य कम्पनहित धीरे-धीरे होता है। अधम दन्त, केश, अङ्गलियॉक पर्व, त्वचा तथा न ये पाँच सूक्ष्म व्यक्त बहुत शब्दके साथ हँसता है । हँसते समय आँसाको हों, वह समीपवती पृथ्वीका राजा होता है। जिसके नैत्र मैंदनेवाल्या व्यक्ति पापों झेता है। गोल सिरवाला पुरुष अनेक कमलदलके सामान और अन्तमैं रक्तवर्णके होते हैं, वह औका स्वामी या चिपटा सिंत्राला माता-पिताको मारने मोका स्वामी होता हैं। शहदके समान पिङ्गल नेवाला वाला होता है। बाकी आकृतिके समान सिरवाला सदा पुरुष महात्मा होता हैं। सूखी आँखवाला इरपोक, गोल और कहीं-न-कहीं यात्रा करता रहता है। निम्न सिरवाला अनेक चक्रके समान घूमनेवाली आँवाला चोर, केकडेके समान अनकों करनेवाला होता है। आँखयाला क्रूर होता हैं। नौल कमलके समान नेत्र होने पर इस प्रकार पुरुषोंके शुभ और अशुभ लक्षणको मैंने विद्वान्, श्यामवर्णक नेत्र होनेपर सौभाग्यशाली, विशाल नेत्र आपसे कहा। अब वियोंके लक्षण बतलाता हूँ। होनेपर भाग्यवान्, स्थूल नेत्र होनेपर राजमन्त्रों और दीन नेत्र

( अध्याय ३७]

सियोंक शुभाशुभ-लक्षण । झाङ्गी बोले-कार्तिकेय ! स्त्रियोंके जो लक्षणा मैंने सबके लक्षण देखें । । पहले नारदजौको बतलाये थे, उन्हीं शुभाशुभ-लक्षणोंको जिसको घौवामें देखा हो और नेत्रका प्रान्तभाग कुछ बताता हैं । आप सावधान होकर सुने–शुभ मुहूर्तमें कन्याके मल हों, वह स्त्री जिस घरमें जाती है, उस घरकौं प्रतिदिन हाथ, पैर, अँगुलीं, नग्छ, हाथी रेखा, जंघा, कट, नाभि, वृद्धि होती हैं। जिसके ललाटमें त्रिशूल्का चिह्न होता है, वह ऊस, पेट, पीठ, भुमा, कान, जिल्ला, ओठ, दाँत, कपोल, गा, कई हजार दासियों की स्वामिनी होती है। जिस को राजहंम्म नेत्र, नासिका, लाट, सिर, केदा, वर, वर्ण और भौरों-इन समान गति, मृगके समान नेत्र, मृगके समान ही शरीरका वर्ण,

मामप4 ]

# विनायकनाका माहात्म्य

दाँत बराबर और श्वेत होते हैं, वह इत्तम रुबी होती हैं। मैदकके देवता होती हैं। गुप्तरूपसे पाप करनेवाली, अपने पापकों | समान कुञ्जिवालों एक ही पुत्र उत्पन्न करती है और वह पुत्र छिपानेवाल्में, अपने हृदयकै अभिप्रायको किसके आगे प्रकट | राजा होता हैं। इसके समान मृदु वचन बोलनेवाली, शहदके न करनेवाली स्त्री मार्जारो-संज्ञक होती हैं। कभी सिने वाली,

समान पिन वर्गवाली कुत्री धन-धान्यसे सम्पन्न होती है, उसे कभी झाडा झलनसारी, कमी कध करनेवा, कभी असर | आठ पुत्र होते हैं । जिस रूबीके ये कान, सुन्दर नाक और भौह हुनेवाली तथा पुरुषोंके मध्य रहनेवाली ली गर्दभी-श्रेणी | धनुषके समान देदों होती हैं, वह अतिशय सुखका भोग करतीं होती हैं। पति और बान्धवॉक द्वारा कहे गये हितकारी वचन हैं। तन्वी, श्यामवर्णा, मधुर, भाषिणी, शके समान अतिशय न माननेवाल, अपनी इच्छा अनुसार विहार करनेवाली स्त्री स्वछ दाँतयाली, स्निग्ध असे समन्वित म्ल अतिशय आसुरीं कही जाती है। बहुत लानेवाली, बहुत बोलनेवाले, | ऐश्वरको प्राप्त करती हैं। विस्तर्ण जंझावाली, वैदीक समान सोटे बचन बोलनेवाली, पतिको मारनेवाली स्त्री राक्षसी-संज्ञक मध्यभागवाले, विशाल नेत्रोंवाली स्त्री रानी होती हैं। जिस होती हैं। शौच, आचार और पसे रहित, सदा मलिन लोक वाम स्तनपर, हाथमें, कानके ऊपर या गलैपर तिल बहनेवाली, अतिवास भयंकर लीं पिशाच कलाती है। | अथवा मसा होता है, उस स्त्रको प्रथम पुत्र उत्पन्न होता है। अतिशय चाल स्वभाववालों, चपल नेत्रोंवाली, इधर-उधर | जिस स्त्रीका मैंर रक्तवर्ण हो, ने बहुत ॐचे न हों, छटी एड़ी देखनेवा. भी ना] वानरों-संक होती हैं। चन्द्रमुखी, हो, परस्पर मिली हुई सुन्दर अँगुलियाँ हों, लाल नेत्र मदमत्त हाथीक समान चलनेवाली, रक्तवर्णके नोंवाली, शुभ हो—ऐसी स्त्री अत्यन्त सुख भोग करता है। जिसके पैर लक्षणोंसे युक्त हाथ-पैरवा झवी विद्याधरी-अंगीकी होती है। बड़े-बड़े हों, सभी अङ्गोंमें रोम हों, छोटे और मोटे हाथ हों, वीणा, मृदङ्ग, बंशी आदि वाद्यक शब्दों को सुनने तथा पुष्प वह दासी होती है। जिस सीके पैर उन्कट हों, मुख विकृत हों, और विविध सुगन्धित हुयोंमें अभिरुचि या स्त्री ऊपरके ओके ऊपर ग्रेम हों वह शीघ्र अपने पतिको मार देती गान्धवी-अंगकी होती है। है। जो स्त्री पवित्र, पतिव्रता, देवता, गुरु और ब्राह्मणों भक्त सुमन्तु मुनिने कहा–राजन् ! ब्रह्माजी इस प्रकार स्त्री होती है, वह मानुषी कहलाती है। नित्य स्नान करनेवाली, और पुरुषोंके लक्षणों में स्वामिकार्तिकेयकों बताकर अपने सुगन्धित द्रव्य लगानेवारी, मधुर बचन बोलनेवालों, थोड़ा अंकको चले गये। जानेवारी, कम सोनेवालीं और सदा पवित्र रहनेवाली हो ।

याय २२]

विनायक-पूजाका माहात्म्य शतानींकने कहा-मुने ! अब आप मुझे भगवान् मना चाहिये। गणेशकी आराधनाके विषयमें बतलायें।

शुक्ल पक्षकी चतुर्थीको उपवास कर को भगवान् सुमन्तु मुनि बोले-राजन् ! भगवान् गणेशक गणेशका पूजन करता है, उसके सभी कार्य सिद्ध हो जाते हैं आराधनामें किसी तिथि, नक्षत्र या उपवासादको अपेक्षा नहीं और सभी अनिष्ट दूर हो जाते हैं। श्रीगणेशजाँके अनुकूल होनौ। जिस किसी भी दिन श्रद्धा-भक्तिपूर्वक भगवान् होनेसे सभी जगन् अनुकूल हो जाता है। जिसपर एकदत्त गणेशकी पूजा की जाय तो वह अभीष्ट फलोंको देनेवाली होती भगवान् गणपति संतुष्ट होते हैं, उसपर देवता, पितर, मनुष्य हैं । कामना-भेदसे अलग-अलग प्रस्तुओंसे गणपतिकी मूर्ति आदि सभी प्रसन्न रहते हैं। इसलिये सम्पूर्ण विश्नको निवृत्त बनाकर उसकी पूजा करनेसे मनावात काकी झाप्ति होतीं करने के लिये श्रद्धा-भक्तिपूर्वक गणेशज्ञीकी आराधना करनी हैं। महाकर्णाय विद्महे, वक्रतुण्डाय धीमहि, तन्नों चाहिये। दन्तिः प्रचोदयात् ।’—यह गणेश-गायत्री हैं। इसका जप

(अध्याय ३६)

5-म्पिगमें प्रवान्टिन गण गाय काययाद है।

एकदन्तं जगाये गण तुष्टिमागते

पिन्दरागनुयाद्याः सर्वे तुन भारत ब्रापर्व 2)

पुराणं परमं पुण्यं मयिष्यं सर्यसौख्यदम्

[ संक्षिप्त भविष्यपुराणाङ चतुर्थी-कल्पमें शिवा, शान्ता तथा सुखा–तीन प्रकारकी

चतुर्थीका फल और उनका व्रत-विधान सुमन्तु मुनिने कहा-राजन् ! चतुर्थी तिथि तीन उक्त चन्दन, रक्त पुष्प आदिसे भौका पूजन करते हैं, उन्हें प्रकारक होती हैं—शिया, शान्ता और सुखा। अब मैं इनका सौभाग्य और उत्तम रूप-सम्पत्ति प्राप्ति होती हैं। लक्षण कहता है, उसे सुनें

| प्रथम संकल्पाकर स्नान करे. अनत्तर गणेश-स्मरणपूर्वक | भाद्रपद मासकी शुला चतुर्थका नाम ‘शिवा’ हैं, इस हाथमें शुद्ध मृत्तका लेकर इस मन्त्रको पढ़ें दिन जो स्नान, दान, उपवास, अप आदि सत्कर्म किया जाता ह वै वन्दिता पूर्व कृष्णेनोद्धरता किल । है, यह गणपति प्रसादसे सौ गुना हो जाता है। इस चतुर्थीको तस्मान् र पाप्मानं यन्मया पूर्वसंचितम् ॥ गुड़, म्याण और श्रुतका दान करना चाहियें, यह शुभकर माना

(ब्राह्मपञ्च ३१ २४

गया है और गुड़के अपूपों (मालपुआ) से ब्राह्मणोंको भोजन इसके बाद मृत्तिका गङ्गालको मिश्रितका सूर्यके कराना चाहिये तधा उनकी पूजा करनी चाहिये । इस दिन को सामने क, तदनन्तर अपने सिर आदि अङ्गमें लगायें और फिर स्त्री अपने सास और ससुर गुड्के पुए तथा नमकोन पुए जलके मध्य रखा होकर इस मन्त्रको पढ़कर नमस्कार करें विमती हैं वह गणपतिके अनुग्रह सौभाग्यवतीं होती हैं। त्वमापों योनिः सर्वेषां दैत्यदानवौकसाम् । पतिकी कामना करनेवाली कन्या विशेषरूपसे इस चतुर्थीका बेदाण्ञझिदां चैव रसानां पतये नमः ॥ ब्रत करें और गणेशज़ौकी पूजा करे। जन् ! यह शिया चतुर्थीका विधान है।

 

 ( पर्व ३१ २५) |

अनार सभी तीर्थों, नदियों, सरोवरों, झरनों और | माघ मासकों का चतुको ‘शान्ता’ कहते हैं। यह तालाबोंमें मैंने मान किया—इस प्रकार भावना करता हुआ शान्ता तिथि नित्य शान्ति दान करनेके कारण ‘शान्ता’ कहीं गोते लगाकर स्नान करें, फिर पवित्र होकर घरमें आकर दुर्वा, गयी है। इस दिन किये हुए स्नान-दानादि सत्कर्म गणेशाजकीं पीपल, शमी तथा गौका स्पर्श करे । इनके स्पर्श करनेके मन्त्र कपासे झार गुना फलदायक हो जाते हैं । इस शान्ता #मक इस मुकार है चतुर्थी तिथिक उपचास कर गणेशाज्ञा ज्ञन तथा हवन क त्वं दुर्वेऽमृतनामामि सर्वदेवैस्तु वन्दिता ॥ और लवण, गुड़, शक तथा गुड्के पुए ब्राह्मणोंको दानमें हैं।

वन्दिता दह तत्सर्य दुरित अन्ममा कृतम्।

विशेषरूपले स्त्रियाँ अपने ससुर आदि पून्य अनौका पूजन में एवं उन्हें भोजन करायें। इस व्रत करनेसे असाण्डू शर्मी स्पर्श करनेका मन्त्र सौभाग्य प्राप्ति होती हैं, समस्त विघ्न दूर होते हैं और पवित्राणां पवित्रा त्वं काश्यपी प्रचिता श्रुतौ । गणेशजको कृपा प्राप्त होती है।

मीं शमय में पापं नूनं वेसि भरारान् । किसी भी महान भौमवारयुक्त शुमा चतुथको ‘सुखा कहते हैं। यह व्रत स्त्रियों को सौभाग्य, उत्तम रूप और सुख | पीपल-वृक्ष स्पर्श करनेका मन्त्र देनेवाला हैं। भगवान् ङ्कर एवं माता पार्वतीको संयुक्त तेजमें नेत्रस्यन्दादिजं दुःखं दुःस्वप्नं दुविचिन्तनम् ।

भूमिद्वारा रक्तवर्णक मङ्गलकी उत्त हुई । भूमिका पुत्र होनसे । शक्तानां च समुयोगमश्वत्थ त्वं क्षमस्व में ।। यह भौम कहलाया और कुज, रक्त, यौर, अङ्गारक आदि वनपर्व हैं ।

३) नामसे प्रसिद्ध हुआ। वह शरीरके अङ्गोंकी रक्षा करने वाला गौ को स्पर्श करनेका मन्त्र तथा सौभाग्य आदि देनेवाला है, इसलिये अङ्गारक। सर्वदेवमयी देवि मुनिभिस्तु सुजता कहलाया। जो पुरुष अथवा स्त्री भौमवारयुक्त शुक्ला चतुर्थीको तस्मात् स्पृशामि वन्हें त्वां वन्दता पापहा भव ।। उपवास करके भक्तिपूर्वक प्रथम गणेशजीक्म, तदनंतर

(झाव ३६ मापर्व ]

पमी-कम आम, नागपमकी कथा के नामाका श्रद्धापूर्वक पहले गौकी प्रदक्षिणा कर उपर्युक्त मन्त्रों सभी उपचारोंकों समर्पित कर यह मूर्ति ब्राह्मणों दे दें और पड़े और गौंका स्पर्श करें। जो गोको प्रदक्षिणा करता है, उसे यथाशक्त बौं, दुध, चाय, गेहूँ, गुड़ आदि वस्तु भी सम्पूर्ण पृथ्वीको प्रदक्षिणा फल प्राप्त होता है। ब्राह्मणको दें। धन रहनेपर कृपणता नहीं करनी चाहिये, क्योंकि | इस प्रकार इनको स्पर्शकर, हाथ-पैर धोकर, आसनगर कंसों करनेसे फल नहीं प्राप्त होता। बैंठकर आचमन करे । अनन्तर खदिर (खैर) की समिधाओंमें इस प्रकार चार बार भौमपुक चतुर्थीका ब्रतक्र अद्धा अग्नि प्रज्वलित कर, घृत, दुग्ध, अव, तिल तथा विविध भक्ष्य पूर्वक इस अथवा पाँच तोले जानकी मङ्गल और गणपति पदाधसे मन्त्र पढ़ते हुए हवन करे । आहत इन मन्त्रको मूर्ति बनाया। उसे बस पल या इस पलकें सोने, चाँदी ३-ॐ र्याय स्वाहा, ॐ शर्वीपुत्राय स्वाहा, ॐ अथवा ताम्र आदिक पात्रमें भक्तिपूर्वक स्थापित करें। सभी पुत्भ याय स्वाहा, ॐ कुमाय स्वाहा, ॐ उपचासे पूजा करनेके बाद दक्षिणाके साथ सत्पात्र ब्राह्मणको लल्ताङ्गाय स्वाह्य तथा ७ हिलाङ्गाय स्वाहा । इन प्रत्येक उसे हैं, इससे इस व्रत को जम्पूर्ण फल प्राप्त होता है। गुञ्चन्! मन्त्रोंसे १६८ या अपनी शक्तिके अनुसार आति दे। अनजर इस कार इस उत्तम तिथिको मैंने कहा । इस दिन ज्ञों स्नात सुवर्ण, चाँदी, चन्दन या देवदारु काप्नुको मङ्गलकी मूर्ति करता है, वह चन्द्रमाके समान कान्तमान, सूर्यक समान बनाकर तांबे अथवा चादीके पात्रमें उसे स्थापित करे । थौं, तेजस्वों एवं प्रभावान् तथा वायुके समान बलवान होता हैं और कुंकुम, रक्तचन्दन, उक्त पुष्प, नैवेद्य आदिको उसकी पूजा करे अनमें महागणपतिकै अनुग्रहको भौमकमें निवास करता है। अथवा अपनी शक्ति के अनुसार पूजा करे। अथवा तान्न, इस तिथिके माहात्म्यकों जो पक्ति भक्तिपूर्वक पढ़ता-सुनता मृत्तिकम आ बाँससे बने पामें कुंकुम, केसर आदिसे मूर्ति हैं, वह महापातकादसे मुक्त होकर श्रेष्ठ सम्पत्तको प्राप्त अङ्कितकर पूजा करे। ‘अग्निर्मूर्धाः’ इत्पादि वैदिक मन्त्रोंसे करता है।

(अध्याय ३१)

पञ्चमी-कल्पका आरम्भ, नागपञ्चमीकी कथा, पञ्चमी-व्रतका विधान और फल सुमन्तु मुनि बोले-ग़ज़न् ! अब में पञ्चम-करन्पको मिलकर समुद्रका मन्थन किया। उस समय समुद्रसे अतिशय वर्णन करता है। पञ्चमी तिथि नागोंको अत्यन्त प्रिय हैं और अंत उःश्रवा नामको एक अश्व निकम, उसे देकर उन्हें आनन्द देनेवाली है। इस दिन नागलोकमै विशष्ट उत्सव नागमाता कडूने अपनी पत्नी (सौत) विनतासे कहा कि होता है। पञ्चमी तिथिको जो व्यक्ति नागको दुधसे मान देतो, यह अश्व अंतवणूका हैं, परंतु इसके बाल काले दौछ कराता है, उसके कुल वासुकि, तक्षक, कारिय, मणिभद्, पहने हैं। तब विनताने कहा कि न तो यह अयं सर्वश्रेत हैं, ऐरावत, धृतराष्ट्र, कर्कोटक तथा धनञ्जय—ये सभी बड़े-बड़े न काला है और न ल । यह सुनकर कडूने कहा-‘मेरे नाग अभय दान देते हैं-उसके कुलमें सर्पका भय नहीं साथ शर्त क्यों कि यदि मैं इस अश्वके बालोंको कृष्णवर्णका रहता। एक बार माताके शापसे नागोग जलने लग गये थे। दिसा हैं तो तुम मेरी दास हो जाओगी और यदि नहीं दिखा इसीलिये उस दाहकी या दूर करने के लिये पञ्चमीकों की तो मैं तुम्हारी दासी हो जाऊँगी ।’ विनताने यह दार्त गायक धसे नागरिकों आज भी लोग जान कराते हैं, इससे स्वीकार कर ले। दोनों क्रोध करती हुई अपने-अपने स्थानको सर्प-भय नहीं रहता चली गयीं । कडूने अपने पुत्र नागोंको बुलाकर सब वृत्तान्त राजाने पूछा–महाराज ! नागमानाने गागौंको क्यों उन्हें सुना दिया और कहा कि पुत्रो ! तुम अश्वके वाके आप दिया था और फिर वे कैसे बच गय? इसका आप समान सूक्ष्म होकर जारीः अवके शरीर में लिपट जाओ, जिससे विस्तारपूर्वक वर्णन करें।

गह कृणवर्गका दिखायी देने लगे। ताकि मैं अपनी सौत सुमन्तु मुनिने कहा-एक बार राक्षसों और देवताओंने विनताको जीतकर उसे अपनी दासीं बना सकें। माताके इस

 

दिवः ककुपन: पृथिव्या अयम् अपाता निति ।।

(मवेद १३ ।।

+ पुराणं परमं पुण्यं भविष्यं सर्वसौरव्यदम् +

[ संक्षिप्त भविष्यपुराणा वचनको सुनकर नागोंने कहा—’माँ ! यह तुल तो हमलोग सवें नागाः प्रीअन्त में ये केचित् पृश्चिवीतले ॥ नहीं करेंगे, चाहे तुम्हारी जौत हों या हार । छलसे जौनना बहुत में च कॅलिपरीचिस्या येतरे दिवि संस्थिताः । बड़ा अधर्म हैं। पुत्रा यह वचन सुनकर कड़ने क्रुद्ध होकर ये अदषु मानागा में सरस्वतगामिनः कहा-जुमलोग मेरी आज्ञा नहीं मानते हों, इसलिये मैं तुम्हें ये छ वापतागेषु तेषु सर्वेषु वै नमः । शाप देती है कि “पाण्डवोके में उत्पन्न झा जनमेजय जय सर्प-सत्र करेंगे, तब उस यज्ञमें तुम सभी अग्निमें जल इस प्रकार, नागको विसर्जित कर ब्राह्मणोंकों भोजन जाओगे।’ इतना कहकर कडू चुप हो गयी । नागगण माताका कराना चाहिये और स्वयं अपने कुटुम्बियोंके साथ भोजन शाप सुनकर बहुत घबड़ाये और वासुकिको साथमें लेकर करना चाहिये । प्रथम मोझ भोजन करना चाहिये, अनन्तर ब्रह्माजीके पास पहुँचे तथा ब्रह्माजको अपना सारा वृत्तान्त अपनी अभिरुचिके अनुसार भोजन करे ।

सुनाया। इसपर ब्रह्माजोने कहा कि वासुके ! चिन्ता मत करो। इस प्रकार नियमानुसार ओं पञ्चमीको नागका पूजन | मेरी बात सुनो-पायावर-वंदामें हुत बड़ा तपस्वी जरत्कार करता है, वह श्रेष्ठ विमानमें बैठकर नागलोकको जाता है और नाममा भ्राह्मण उत्पन्न होगा। उसके साथ तुम अपनी जरत्कारु शादमें द्वापरयुगमैं बहुत पराक्रमी, गहत तथा प्रतापी राजा नामवाली वहिनका विवाह कर देना और वह जो भी कहे, होता है। इसलिये घी, खीर तथा गुग्गुलसे इन नागकी पूजा उसका वचन खकार करना । उसे आस्तक नामका विन्यात करनी चाहिये ।। पुत्र उत्पन्न होगा, वह जनमैज्ञयाकै सर्पयज्ञको रोकेगा और राजाने पूछा-महाराज ! क्रुद्ध सर्पक काटनेस तुमल्योगको रक्षा करेगा। ब्रह्माजौके इस बच्चनको सुनकर मरनेवाला व्यक्ति किस गतिको प्राप्त होता है और जिसके नागराज वासुकि आदि अतिशय प्रसन्न हो, उन्हें प्रणाम कर माता-पिता, भाई, पुत्र आदि सर्पके काटनेसे मरे हों, उनके अपने में आ गये उद्धार के लिये कौन-सा ब्रत, दान अथवा उपवास करना। सुमन मुनिने इस भाको सुनाकर कहा-झन् ! चाहिये, यह आप बताये। यह प्रज्ञ तुम्हारे पिता राजा जनमेजयने किया था। यहीं बात सुमन्तु मुनिनें कहा–राजन् ! सर्पके काटनेसे जो मरता श्रीकृष्णभगवान्ने भो युधिष्ठिरसे कही थीं कि ‘राजन् ! आजसे वह अधोगतिको प्राप्त होता हैं तथा निर्वित्र सर्प होता है और सौं वर्षके बाद सर्पयज्ञ होगा, जिसमें बड़े-बड़े विषधर और दुष्ट जिसके माता-पिता आदि सर्पके काटनेसे मरते हैं, यह उनकी नाग नष्ट हो जायेंगे। करोड़ों नाग जब प्रियं दग्ध होने लगेंगे, सद्गत्तिके लिये भाद्रपद शुक्ल पक्षको पञ्चमी तिथिको उपवास । तच आस्तीक नामक ब्राण सर्पयज्ञ कल नागों की अक्षा कर नागकी प्रज्ञा करें। यह तिथि महापण्या की गयी हैं। | होगा। ब्रह्माजीने पञ्चमीक न वर दिया था और आस्तक इस प्रकार बारह महनेतक चतुर्थी तिथिके दिन एक बार मुनिने पञ्चमीक ही नागों की रक्षा की थीं, अतः पञ्चमी तिथि भोजन करना चाहिये और पञ्चमीको भनक नागकी पुजा नागको बहुत प्रिय है। करनी चाहिये । पृथ्वीपर मार्गोका चित्र अङ्कित कर अथवा पञ्चमीकै दिन नागको पूजाकर यह प्रार्थना करनी चाहिये सोना, काहु या मिट्टका नाग बनाकर अज्ञमौके दिन करवौर, कि जो नाग पृवीमें, आकाश, वर्गमें, सूर्य की किरणोंमें, कमल, चमैलों आदि पुष, गन्ध, धूप और विविध नैवेद्यास सरोवरो, वापी, कूप, तालाब आदिमें रहते हैं, वे सब हमपर उनकी पूजा कर घी, सौर और ला उत्तम पाँच ब्राह्मणों प्रसन्न हों. हम उनको बार-बार नमस्कार करते हैं। खिलाये। अनन्त, वासुकि, शंख, पद्म, कैथल, कोटक,

 

पया भवन मा वाथ लिन् मादयं मा पम दांगता सदा॥

 

नागानामान्क ]

ना में ब्राह्मण पुर।

वामानमें नागपञ्चमी प्रायः सभी पशा तथा वन मियान्यअन्यांक अनुसार आपण शुरू पञ्चममें तो हैं यहाँ या तो पाठ भर हैं। मा कलामें कभी भाड्याने नागपञ्चमी मनायी जाती रही होगी

ब्राह्मपर्व ] के सपॅक लक्षण, स्वरूप और जाति

अश्वतर, धृतराष्ट्र, पाल, कालिन्य, तक्षक और उत्तम लोक्कों प्राप्त किया था। आप भी इसी प्रकार सोनेका पिंगल—इन बारह नागोंकी बारह महीनोंमें क्रमशः पूज्ञा । नाग बनाकर उनकी पूजाकर उन्हें ब्राह्मणको दान लें, इससे | इस प्रकार वर्षपर्यन व्रत एवं पूजनकर मृतक पारणा आप भी पित-ऋणसे मुक्त हो जायेंगे। राजन्! जो कोई भी इस करनी चाहिये । बहुतसे ब्राह्मणों को भोजन कराना चाहिये । नागपञ्चमी-बतको करेगा, साँपसे में जानैपर भी वह विद्वान् ब्राह्मणको सोनका नाग बनाकर उसे देना चाहिये । यह शुभलकको प्राप्त होगा और ज्ञों व्यक्ति श्रद्धापूर्वक इस उद्यापनकी विधि हैं। राजन् ! आपके पिता जनमेजयने भी कथा सुनेगा, उसके कुलमें कभी भी साँपका भय नहीं अपने पिता परीक्षितके उद्धारके लिये यह व्रत किया था और होगा। इस पञ्चमी-अतके करनेसे उत्तम लक्की प्राप्ति होती है। सोनेका बहुत भारी नाग तथा अनेक गौएँ ब्राह्मणों को दी धीं।

 (अध्याय ३३)

ऐसा करनेपर वे पित्-ऋणसे मुक्त हुए थे और परीक्षितने भी – सपॅक लक्षण, स्वरूप और जाति राजा शतानीकने पूछा-मुने ! सपॉक कितने रूप हैं, स्वर्णकलक वर्णके समान आभावाले और लंबी रेखाओंसे मुक्त क्या लक्षण हैं, कितने इंग हैं और उनकी कितनी जातियाँ हैं ? अंडोंसे स्त्री तथा पिपुष्पके समान इंगवाले अंक बाँच इसका आप वर्णन करें ।

नपुंसक सर्प होता हैं। उन अंडोंको सर्पिणी छः महीने तक सुमनु मुनिनें कहा–राजन् ! इस विषयमें मुमेह होती है । अनन्तर अंटोंक फूटनेपर उनसे सर्प निकलते है पर्वतार महर्ष कश्यप और गौतमका जो संवाद हुआ था, और वे असे अपनी माता कह करते हैं। अंडेके बाहर उसका मैं वर्णन करता है। महर्षि कश्यप किसी समय अपने निकलनेके सात दिनमें बच्चोंका कृष्णवर्ण हो जाता है। सर्पकी

आश्रममें बैठे थे। उस समय वहाँ उपस्थित महर्षि गौतमने आयु एक सौ बौस वर्षकी होती हैं और इनकी मृत्यु आठ उन्हें प्रणामकर विनयपूर्वक पूछा–महाराज! सपॅक लक्षण, प्रकारको होतो है—मोरसे, मनुष्यसे, चकोर पक्षोसे, बिल्लासे, जाति, वर्ण और स्वभाव किस प्रकार हैं, उनका आप वर्णन नकुलसे, शूकर, वृश्चिकसे और गौं, भैंस, घोड़े, ऊँट आदि करें तथा उन उरपति किस प्रकार हुई हैं। ग्रह भी बतायें । वे पशुओंके में इस नानेपर । इनसे बचनेपर सर्प एक सौ बीस विष किस प्रकार छोड़ते हैं, विषके कितने वेग हैं, विपकौं वर्षतक जीवित रहते हैं। सात दिन बाद दाँत उगते हैं और कितनी नाड़ियाँ हैं, सापांक दाँत कितने प्रकार के होते हैं, की दिनमें विष हो जाता हैं । साँप काटनेके तुरंत बाद अपने सर्पिणीको गर्भ कब होता है और वह कितने दिनों में प्रसव जबडेसे तीक्ष्ण विक्का त्याग करता है और फिर विष इकट्ठा हो करती है, स्त्री-पुरुष और नपुंसक सर्पका क्या लक्षण है, ये जाता है। सर्पिण के साथ घूमनेवाला सर्प बालसर्प कहा जाता  काटते हैं, इन सब बातों आप कृपाकर मुझे बतायें। । पचास दिनमें वह बच्चा भी विपके द्वारा दूसरे प्राणियों | कश्यपजी बोले—मुने ! आप ध्यान देकर सुने। मैं प्राग हुनेमें समर्थ हो जाता है। छः महीनेमें कंचुक सपॅक सभी भेदोंका वर्णन करता हैं । ज्येष्ठ और आषाढ़ मास (केंचुल-1 का त्याग करता है। साँपके दो सौ चालीस पैर होते सपनें मद होता हैं। इस समय में मैथुन करते हैं । वर्षा ऋतुके हैं, परंतु वे पैर गायके रोयेके समान बहत सूक्ष्म होते हैं, चार महीनेतक सर्पगी गर्भ धारण करती हैं। कार्तिकमें दो सौ इसलिये दिखायौं नहीं देते । चलनेके समय निकल आते हैं। चालींस अंडे देती हैं और उनमेंसे कुङ्कों स्वयं प्रतिदिन क्वाने और अन्य समय भौंतर प्रविष्ट हो जाते हैं। उनके शरिरमें दो सौ लगती है। प्रकृतिको कृपासे कुछेक अंडे इधर-उधर दुल्ककर औस अङ्गलियाँ और दो सौ बीस सँधियाँ होती हैं। अपने बच्च जाते हैं। सोनकी तरह चमकनेवाले अंडोंमें पुरुष, समयके बिना जो सर्प उत्पन्न होते हैं उनमें झम सिया राहता है

शिवत्वरलाल मा अभिपतापितामण तथा आयुटअन्यमात, मापक, वाधक निािरपानीमें भी इस विषयमा वर्णन मिलता है।

= पुराणं परमं पुण्यं यि सवमॉरख्यम्

[ संक्षिप्त पश्चिमुरा समझना और वे पचहत्तर वर्षसे अधिक जीते भी नहीं हैं। जिस साँपके वैसे, भषसे, मदसे, भूखसे, विषका येग होनेसे, संतानकी दाँत लाल, पीलें एवं सफेद हैं और विषका वेग भी मंद , रक्षाके लिये तथा कालकी प्रेरणासे । जब सर्प काटते हीं पेटकीं वे अल्पायु और बहुत पोंक होते हैं। ओर ज्ञाता है और उसकी दाढ़ टन हो जाता है, तब सापकों एक मुँह, दो जीभ, अत्तीस दाँत और विषसे भरी उसे दबा हुआ समझना चाहिये। जिसके काटनेसे बहुत बड़ा दुई चार दा होती हैं । जुन के नाम मकौं, काली, घाव हो जाय, उसको अत्यन्त कालरात्री और यमदूतों है। इनके क़मशः ब्रह्मा, विष्णु, रुद्र चाहिये । एक दाका चिह्न हों जाय, किंतु वह भी भलीभाँत और सम–में चार देवता हैं। यमदूती नामकी दड़ सबसे दिल्लयों न पड़े तो भयमें काटा हुआ समझना चाहिये। इस छोटीं होती है। इससे साँप जिसे काटता हैं यह तत्क्षण पर प्रकार की तरह दाढ़ दिखायी दें तो मदमें काटा हुआ, दो जाता है । इसार मन्त्र, तन्त्र, औषधि आदिका कुछ भी असर द्वाड़ दिग्ग्राय दें और बड़ा घाव भर जाय तों भूखसे काटा नहीं होता। मकी दातृका चिह्न शके समान, करालीका हुआ, दो दाढ़ दिखायौं दे और घावमें रक्त हों जाय तो विषके काके पैरके समान तथा कालरात्रीका हायके समान चिह्न वेंगसे काटा हुआ, दो दाढ़ दिखायी दें, किंतु याव न रहे तों होता हैं और यमदूत कुर्मके समान होती हैं। ये क्रमशः एक, संतानकी रक्षाके लिये काटा हुआ मानना चाहिये। काकके दौं, तीन और चार महीनोंमें उत्पन्न होती हैं और क्रमशः सात, पैर तरह तन दा; गहरे दिखायी दें या चार दाह दिखायी पित्त, कफ और संनिपात इनमें होता है। क्रमशः गुड्युक्त भात, दें तो कालक प्रेरणासे काटा हुआ जानना चाहिये। यह कषाययुक्त अन्न, कट पदार्थ, सनिपातमें दिया जानेवाला पथ्य असाध्य है, इससे कोई भी चिकित्सा नहीं है। इनके द्वारा काटे गये व्यक्तिको देना चाहिये। श्वेत, रक्त, पीत सर्पके काटने देह, दुष्टानुपीत और इंदत—ये तीन और कृष्ण-इन चार दादोंके क्रमशः रंग हैं। इनके वर्ण भेद हैं। सर्पके काटनेके बाद ग्रीवा यदि झुके तो दंष्ट्र तथा क्रमशः ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शुद्ध हैं। सर्पोक दादोंमें काटकर मार करें तो दंशानुगत कहते हैं। इसमें तिहाई सिंग सदा विश नहीं रहता। दाहिने नेके समीप विष रहनेका स्थान चढ़ता है और काटकर सब विष पाल तथा स्वयं निर्वत्र है । क्रोध करनेपर यह विष पहले मस्तकमें जाता है, मस्तकसे होकर उलट जाग्र-पीटके बल उलटा हो जाय, उसका पेट धमनी और फिर नाड़ियों द्वारा दादमें पहुँच जाता है। दिखायीं हैं तो उसे इंद्धत कहते हैं।

| आठ कमरगौसे सांप काटना है—अनेले, पहलके विभिन्न तिथियों एवं नक्षत्रोंमें कालसर्पसे ईंसे हुए पुरुषके लक्षण, नागोंकी उत्पत्तिको कथा | कश्यप मुनि बोले-गौतम ! अब मैं कालसर्पसे काटे जाते हैं, मुख नीकी ओर लटक जाता है, आँखें चढ़ जात हुए पुरुषका लक्षण कहता हैं, जिस पुरुषको कालसर्प मटता हैं, शरीरमें दाह और कम्य होने लगता है, यार-बार आँखें बंद हैं, उसमें जिहा भंग हो जाती हैं, हृदयमें दर्द होता हैं, नेत्रों हो जाती हैं, शायसे शरीरमें काटनेपर खून नहीं निकलता। दिखायी नहीं देता, दाँत और दारीर पके हुए जामुनके फलके बेतसे मारनेपर भी शरीर इंस्वा नहीं पड़त, काटनेका स्थान समान काले पड़ जाते हैं, आङ्गोंमें शिथिलता आ जाती है, कटे हुए जामुनके समान नीले रंगका, फुला हुआ, रक्तसे विप्नाका परित्याग होने लगता हैं, कंधे, कमर और पौवा झुक परिपूर्ण और कौएके पैरके समान हो जाता है, हिचकी आने सभी पका टाक रूपमें मान्य-शास्त्र विदाम्फर होनप गरुड़-मन्त्र और सर्पो मणियां न वि अचूक आधियाँ हैं । कुछ अन्य मधियां भी भः नी । 1 का त्या नन बना देता है। इस स्र्पक काट पर किसी भी अन्य कार्य वि नहीं चलता। नर्मदा नट्रोकमा नाम लेनम भो म भागते हैं

 

नर्मदा नमः तिर्नर्मदाय नमो नि

नमाम् नभ्य शाहि मिसमर्पनः ।।।

[वि १३॥ ब्राह्यपर्व ]

+ सपक विषका वेग, फैलाव नया सात आतुओंमें प्राप्त विचपा

लगती है, काष्ठ अवरुद्ध हो जाता है, श्वासकौं गाँत बढ़ जाती ताल, ढ़ी और दा–में बारह मुख्य मर्म-स्थान हैं। झमें हैं, शरीरका रंग पीला पड़ जाता हैं। ऐसी अवस्थाको सर्प काटनेसे अथवा शस्त्रापात होनेपर मनुष्य जीवित नहीं कालसर्पसे काटा हुआ समझना चाहिये। उसकी मृत्यु आसन्न रहता। | समझनी चाहिये।

अब सर्प काटनके बाद ज्ञों बैंकों बुलाने जाता है उस घाव फूल जाय, नीले अँगका हो जाय, अधिक पसौना दुतका लक्षण कहता हैं। उत्तम जातिका हौंन वर्ग इन और आने लगे, नाक में बोलने में, ऑछ लटक हाय, इसमें न ज्ञानिका नाम वर्ण इन भो अझ नहीं होता। वह कम्पन होने लगे तो कालसर्पसे काटा हुआ समझना चाहिये। हाथमें दंड लिये हुए हों, दो दूत हो, कृष्ण अथवा रक्तवस्त्र दाँत पौंसने लगे, नेत्र उलट जायें, लंबी श्वास आने लगे, प्रीवा पहने हों, मुख ढके हों, सिरपर एक वस्त्र लपेटे हो, शरीर में लटक जाय, नाभि फड़कने लगे तो कालसर्पसे काटा हुआ तेल लगायें हो, केश गोले हों, जोरसे बोलता हुआ आये, जानना चाहिये । इर्पण या जलमें अपनी छाया न दारों, सूर्य हाथ-पैर पौटे तो ऐसा दूत अत्यन्त अशुभ है। जिस रोगका केजहीन दिखायी पड़े, नेत्र लाल हो जायँ, सम्पूर्ण शरीर कष्टके इन इन लक्षणों से युक्त वैद्यके समीप ज्ञाता है, वह रोगों कारण काँपने लगे तो उसे कालसर्पस काटा हुआ समझना अवश्य ही मर जाता है। चाहिये, इसकी शॉझ ही मृत्यु सम्भाव्य हैं।

कश्यपङ्गी बोले-गौतम ! अब मैं भगवान् शिक्के अष्टमी, नवमी, कृष्ण चतुर्दशी और नागपञ्चमीकै दिन द्वारा कथित नाकी उत्पत्तिकै विषयमें कहता हूँ। पूर्वकालमें |जिसको सांप काटता हैं, उसके प्रायः प्राण नहीं बचते । आईं, ब्रह्माजीने अनेक नाग एवं ग्रहोंकी सृष्टि की । अनत नाग सूर्य,

आलेषा, मघा, भरणी, कृत्तिका, विशाखा, तनों पूर्वा, मूल, वासुकि चन्द्रमा, तक्षक भौम, कर्कोटक बुध, पद्म बृहस्पति, स्वाती और शतभिषा नक्षत्रमें जिसको साँप काटता है वह भी महापद्म शुक्र, कुक और शंखपाल शनैश्वर महके रूप हैं। नहीं होता। इन नक्षत्रोंमें विष पीनेवाला व्यक्ति भी तत्काल मर रिववार दिन दसवीं और चौदहवाँ यामाई, सोमवारको जाता है। पूर्वोक्त तिथि और नक्षत्र दोनों मिल जायें तथा आठयाँ और बारहवाँ, भौमवारको छठा और दसवाँ, खण्डहरमें, मानमें और सूखें वृक्षके नीचे जिसे साँप काटता बुधवारको नाच, बृहस्पतिको दसरा और इटा, शुक्रको चौथा, हैं यह नहीं जाता।

आठवाँ और दवाँ, शनिवारको पहिल्या, सोलहवाँ, दूसरा मनुष्य शरीरमैं एक सौं आड़ मर्म-स्थान हैं, उनमें भी और बारहवाँ प्रहरीधं अशुभ हैं। इन समयोंमें सर्पक काटनेसे शंख अर्थात् ललाटको हङ्की, आँख, भूमध्य, वस्ति, व्यक्ति जीवित नहीं रहता।

पडकोशका ऊपरी भाग, कक्ष, कंधे, हृदय, वक्षःस्थल,

[अध्याय ३६] ।

सपके विषका वेग, फैलाव तथा सात धातुओंमें प्राप्त विषके लक्षण और उनकी चिकित्सा | कश्यपजी बोले-गौतम् ! यदि यह ज्ञात हो जाय कि बालके अग्रभागसे जितना ज्ञाल गिरता है, उतनी ही मात्रामें सर्पने अपने यमदूतों नामक दाढ़से काटा हैं तो उसकी विष सर्प प्रविष्ट कराता हैं । वह विष सम्पूर्ण शरीरमें फैल जाता चिकसा न करे। उस व्यक्तिकों मरा हुआ ही समझे । दिनमें है। जितनी देर में हाथ पसारना और समेटना होता है, उतने ही और रातमें दूसरा और सोयाँ प्रहरार्ध सांपोंसे सम्प्रन्धित सूक्ष्म समयमै काटनेके बाद विष मस्तक पहुँच जाता है। नागोदय नामक वेला कही गयी है। उसमें साँप कहें तो कुवाको आगों पट फैलनेके समान में पहुँचने पर विषको कालके द्वारा काटा गया समझना चाहिये और उसकी चिकित्सा वहुत वृद्धि हो जाती है। जैसे जलमें तेलकों जैद फैल जाती नहीं करनी चाहिये । पानीमें बाल दुबोनेपर और उसे उठानेपर है, वैसे ही त्वचामें पहुँचकर विष दुना हो जाता है। रक्तमें

गामापनिय तापने मवः नामसे भी मन्त्र पढ़े गये हैं, याहाँ मध्यम नियमका मन है। वैसे भगवत्कृपा कुछ भी अम नहीं है।

* पुराणं परमं पुण्यं भविष्यं सर्वसौम्यम् +

[ संक्षिप्त मविष्यपुराणा चाँगुना, पित्तमें अड़ गुना, कफमैं सोलह गुना, वातमै तीस इन्द्रायणकी जड़ इन सबको गोमूत्रमें पीसकर नस्य, लेपन गुना, मज़ामें साठ गुना और प्राणों में पहुंचकर वहीं विष अनन्त तथा अञ्जन करनेसे विक्का वेग हट जाता है । गुना हो जाता हैं। इस प्रकार सारे शरीर में विपके व्याप्त हो जाने पित्तमें विपके कफमें प्रवेश कर जानेपर शरीर, जकड़ तथा श्रवणशक्ति बंद हो जानेपर, वह जीव भास नहीं ले पाता जाता है। आप्त भलीभाँति नहीं आती, काठमें अर्धर शब्द होने और उसका प्राणान्त में जाता है। यह शरीर पृथ्वी आदि लगता है और मुसमें लार गिरने लगती हैं। यह लक्षण पञ्चभूतोंसे बना हैं, मृत्युके बाद भूत-पदार्थ आग-अलग हो देखकर पीपल, मिरच, सोंठ, इलेमातक (बहुवार वृक्ष), जाते हैं और अपने-अपनेमें लौन हो जाते हैं। अतः विषकों लोध एवं मधुसारको समान भाग करके गोमूत्रमें पौंस्कर चिकित्सा बहुत शोष करनी चाहिये, विलम्ब होनेसे ग्रेग लेपन और अञ्जन लगाना चाहिये और उसे पिलाना भी असाध्य हो जाता है। सपदि जीबका विष जिस प्रकार चाहिये। ऐसा करनेसे विषका येग शान्त हो जाता हैं।  हरण करनेवाला होता है, वैसे ही स्त्रिी आदि विष भी फसे बातमें विष प्रवेश करने पर पेट फूल जाता है, प्रागको हरण करनेवाले होते हैं।

कोई भी पदार्थ दिखायौं नहीं पड़ता, दृष्टि-भंग हो जाता है। | विषके पहले सेगमें रोमाञ्च तथा दूसरे वेगमें पसीना ऐसा लक्षण होनेपर शोणा (सोनागाछ की जड़, प्रियाल, आता है। तीसरे बैंगमें शरीर काँपता है तथा चौथेमें गजपीपल, भारंगी, वचा, पीपल, देवदारु, महआ, मधुसार, श्रवणशक्ति अवरुद्ध होने लगती हैं, पाँचोंमें हिचकी आने सिंदुवार और हौंग-इन सबको पीसकर गोल्में बना लें और लाती हैं और छठेमें ग्रीवा लटक जाती है तथा सातवें वेगमें रोगीको खिलायें और अञ्जन तथा लेयन करे। यह ओषधि प्राण निकल जाते हैं। इन सात वेगों में शरीर के सात धातुम सभी विषका हरण करती हैं। विष व्याप्त हो जाता है। इन प्रातुओमें पहुँचे हुए विषका वातसे मलामें विष पहुँच जानेपर दृष्टि नष्ट हो जाती हैं, अलग-अलग लक्षण तथा उपचार इस प्रकार हैं- सभी अङ्ग बेसुध हों शिथिल हो जाते हैं, ऐसा लक्षण होने पर आँखोके आगे अंधेरा छा जाय और शॉरमें बार-बार घी, शहद, शर्करायुक्त खस और चन्दनको घोंटकर पिलाना जलन होने लगे तो यह जानना चाहिये कि बिष त्वचामें है। चाहिये और नस्य आदि भी देना चाहिये। ऐसा करनेसे विषका इस अवस्थामें आककी जड़, अपामार्ग, तगर और प्रियंगु- बैंग हट जाता है। इनको झलमें घटकर पिलाने विषकी बाधा शान्त हो सकती मासे मर्मस्थानोंमें चित्र पहुँच जानेपर सभी इन्द्रियाँ हैं। त्वचारों में विष पहुँचनेपर रॉरमें दाह और मृर्ज होने निष्ट हो जाती हैं और वह ज्ञमनपर गिर जाता हैं। काटनेसे लगती हैं । शीतल पदार्थ अच्छा लगता है। बशर (बस), रक्त नहीं निकलता, शके वाहनेपर भी कष्ट नहीं होता, उसे चन्दन, कूट, तगर, नीलोत्पल, दिवारको जड़, धतूरेकी जड़, मृत्युक ही अधीन समझना चाहिये। ऐसे लक्षणोंसे मुक्त हींग और मिरच-इकों पीसकर देना चाहिये । इससे बाधा रोगीको साधारण वैद्य चिकित्सा नहीं कर सकते। जिनके पास शान्त न हो तो भटक्या , इन्द्रायणको जड़ और सर्पगंधाने सिद्ध मन्त्र और औषधि होगी में ही ऐसे रोगियोंके रोगों वीमें पीसकर देना चाहिये । यदि इससे भौं शान्त न हो तो इटानेमें समर्थ होते हैं । इसके लिये साक्षात् झड़ने एक औपश्चि सिंदुवार और हाँगक्न नस्य देना चाहिये और पिलाना चाहिये। कहीं है। मौका पित तथा माया पिरा और गन्धनाडीकी इसका अञ्जन और लेप भी करना चाहिये, इससे में प्राप्त जड़, कुंकुम, तगर, कूट, कासमईकी इाल तथा उत्पल, कुमुद विषकी बाधा शान्त हो जाती हैं।

और कमल इन तीनोंक केसर-सभाका समान भाग उसे पित्तमें विष पँहुच जानेपर पुरुष उठ उठकर गिरने लेकर उसे गोमूत्रमें पौंसकर नस्य दें, अञ्जन लगायें। ऐसा लाता है, शरीर पीला हो जाता है, सभी दिशाएँ पाले वर्णक करनेसे कालसर्पस ईंसा हुआ भी व्यक्ति इग्न पिडित हो दिखायी देती हैं, शरीर में दाह और प्रबल मूच्र्छा होने लगाता जाता हैं। यह मृतसंजौवनों ओपधि है अर्थात् मरेको भी जिला है। इस अवस्थामें पीपल, शहद, महुवा, घ, तुम्बेकी जड़, देती हैं।

 

ब्रह्मपर्व ]

  • सपकी भिन्नभिन्न जातियाँ, सप काटने के क्षण +

सपकी भिन्न-भिन्न जातियाँ, सपके काटनेके लक्षण, पञ्चमी तिथिका नागोंसे सम्बन्ध और पञ्चमी-तिथिमें नागोंके पूजनका फल एवं विधान गौतम मुनिने कश्यपज़ीसे पूछा–महात्मन् ! सर्प, मूच् छा जाती हैं, दृष्टि ऊपरकों हो जाती हैं, अत्यधिक बड़ा सर्पण, बालसर्प, सूतिका, नपुंसक और व्यत्तर नामक सपॅक होने लगती हैं और व्यक्ति अपनेकों पहचान नहीं पाता। ऐसे काटनेमें क्या भेद होता हैं, इनके लक्षण आप अलग-अलग लक्षणोंके होनेपर आक्की जड़, अपामार्ग, इन्द्रायण और बतायें।

प्रियंगुकों में पीसकर मिला लें तथा इसका नस्य देने में एवं कश्यपज बोले- मैं इन सबकों तथा सपॅक पिलानेसे बाधा मिट जाती है। वैश्य सर्प डैसे नौ कफ बहुत रूप-लक्षणोंकों संक्षेपमें बताता हैं, सुनिये-

आता है, मुससे लार बहती हैं, मृच्छ आ जाती हैं और वह यदि सर्प काटे तो दृष्टि ऊपरकों हो जाती हैं, सर्पिणीक चेतनाशून्य हो जाता हैं। ऐसा होनेपर अश्वगन्धा, गृहधूम, काटनेसे दृष्टि नीचे, बालसर्पके काटनेसे दाहिनी ओर और गुग्गुल, शिरिष, अर्क, पलाश और श्वेत गिरकर्णिका बालर्पिणींके काटनेसे दृष्टि बायीं ओर झुक जाता है। (अपराजिता)-इन सब गोमूत्रमें पीसकर नस्य देने तथा गर्भिणीके काटनेसे पसीना आता है, प्रसूतौ काटे तो रोमाञ्च पिलानेसे वैश्या सर्पकी आधा लक्षण दूर हो जाती है। जिस और कम्पन होता है तथा नपुंसकके काटने से शरीर टूटने व्यक्तिको शुद्ध सर्प काटता है, उसे शीत लगकर नर होता हैं, लगता है। सर्प दिनमें, सर्पिणी गृत्रिमै और नपुंसक संध्याके सभी अङ्ग चुलबुलाने लगते हैं, इसकी निवृत्तिके लिये कमल, समय अधिक विपयुक्त होता है। यदि अँधेरे में, जलमें, वनमैं कमलका कैंसर, लोभ, द्र, शहद, मधुसार और सर्प काटें या सोते हुए या अमत्तकों का, सर्प न दिखायी पड़े अंतगिरिक-इन सबको समान भागमें लेकर शीतल ज्ञक अधया दिखायी पड़े, उसकी जाति न पहचानी जाय और साथ पीसकर नस्य आदि हैं और पान करायें। इससे नियका पूर्वोक्त लक्षणका आना न हो तो बंद्य उसकी कैसे बॅग शांत हो जाता है। चिकित्सा कर सकता हैं !

ब्राह्मण सर्प मध्याह्नके पहले, क्षत्रिय सर्प मध्याह्नमें, सर्प चार प्रकार होते हैं—दकर, मण्डली, जल वैश्य सर्प मध्याह्नके बाद और, शुद्ध सर्व संध्याके समय और व्यन्तर । इनमें दकका विष वात-भाव, मण्डलीका विचरण करता है। ब्राह्मण सर्ष घायु एवं पुष्य, क्षत्रिय मूषक, पित्त-स्वभाव, गजिम कफ-स्वभाव और व्यत्तर सर्पका वैश्य मेक और शुद्ध सर्प सभी पदाथका भक्षण करता है। संनिपात-स्वभावका होता है अर्थात् उसमें वात, पित्त और ब्राह्मण सर्प आगे, क्षत्रिय दाहिने, वैश्य बायें और शुद्र सर्प कफ—इन तीनोंकी अधिकता होती है। इन सपॅक इक्तको पीछेसे काटता है। मैथुनकीं इसे पीड़ित सर्प विपके वेगळे परीक्षा इस प्रकार करनी चाहिये । दर्वीकर सर्प रक्त कृष्णवर्ण बढ़नेसे व्याकुल होकर बिना समय भी काटता है। ब्राह्मण सर्प

और स्वल्प होता है, मण्डलीमें बहुत गाड़ा और मल ईगका पुष्पके समान गन्ध होती है, क्षत्रिय चन्दनके समान, वैश्य रक्त निकलता है, गुजरन तथा व्यत्तरमें स्निग्ध और थोड़ा-सा घृतके समान और शूद्र सर्पमें मपके समान गन्ध होती हैं । रुधिर निकलता है । इन चार ज्ञातियोंके अतिरिक्त सपकी अन्य ब्राह्मण सर्प नदी, कुप, तालाब, झरने, बाग-बगीचे और पवित्र कोई पाँची जाति नहीं मिलती। सर्प ब्राह्मण, क्षभिय, वैश्य स्थानों में रहते हैं। क्षत्रिय सर्वं ग्राम, नगर आदि द्वार, तालाब, तथा शूद्र-इन चार वर्गोंकि होते हैं। ब्राह्मण सर्प काटे तो चतुष्पथ तथा तोरण आदि स्थानमै; वैश्य सर्प इमशान, ऊपर शरीरमें दाह होता है, प्रबल मूव आ जाती हैं, मुख का स्थान, भस्म, घास आदिके हैं तथा वृक्षोंमें; इसी प्रकार शूद्र पड़ जाता है, मज्जा स्तम्भत हो जाती है और चेतना जाती रहती सर्प अपवित्र स्थान, निर्जन वन, शून्य अर, श्मशान आदि बुरे हैं। ऐसे लक्षणोंके दिखायी देनेपर अश्वगन्धा, अपामार्ग, स्थानोंमें निवास करते हैं। ब्राह्मण सर्प चैत एवं कपिल वर्ण, सिंदुवारको भीमें पीसकर नस्य दें और पिलायें तो विद्यकीं अग्निके समान तेजस्वी, मनस्वीं और सात्त्विक होते हैं। क्षत्रिय निवृत्त हो जाती है। क्षत्रिय वर्णक सर्पक मटनेपर शरीरमें सर्प मुँगैके समान रक्तवर्ण अथवा सुवर्णके तुल्य पाँत वर्ग

 

  • पुराणं परमं पुण्यं भविष्यं सर्वसौम्यादम्

[ संक्षिप्त भविष्यपुराणाङ्क तथा सूर्यके समान तेजस्य, वैश्य सर्प आलसीं अथवा बाण और चिकित्सा महर्ष कश्यपने महामुनि गौतमको उपदेशके पुष्पके समान वर्णवाले एवं अनेक रेखाऔसे बुक तथा शुद्ध प्रसंगमें कहे थे और यह भी बताया कि सदा भक्तिपूर्वक सर्ष अञ्जन अथवा काकके सम्मान कृष्णवर्ग और धूम्रवर्णके नागकी पूजा करें और पञ्चमीको विशेषरूपसे दुध, ज़ीर होते हैं। एक अङ्गकै अन्तरमें दो देश हो तो बालसर्पका आदिसे उनका पूजन करें। आवण शुमा पञ्चमीको द्वारके दोनों काटा हुआ जानना चाहिये। दो अङ्गल अन्तर हों तो तरुण और गोबरके द्वारा नाग अनाये । दही, दूध, दूर्वा, पुष्प, कुशा, सर्पका, हाई अल अत्तर हो तो वृद्ध सर्पका दंश समझाना गन्ध, अक्षत और अनेक प्रकारके नैवेद्योंसे नागका पूजनकर, चाहिये। ब्राह्मर्गाको भोजन करायें। ऐसा करनेपर उस पुरुषके कुलमें | अनन्तनाग सामने, वासुकि बायीं ओर, तक्षक दाहिनी कभी सर्पोका भय नहीं होता ओर देखता है और कर्कोटककी दृष्टि पीछेकों ओर होती हैं। भाद्रपदको पञ्चमीको अनेक रंगके नागको चित्रितकर अन, बासुकि, तक्षक, कर्कोटक, पद्म, महापद्म, शंखपाल घी, सौर, दुध, पुष्प आदिले पूजनकर गुगुली धूप दें। ऐसा और कुलिक—ये आठ नाग क्रमशः पूर्वाद आठ दिशाओंके करनेसे तक्षक आदि नाग प्रसन्न होते हैं और उस पुरुषकी सात स्वामीं हैं। पद्म, उत्पल, स्वास्तिक, त्रिशूल, महापद्य, शूल, क्षेत्र पीढ़ोतकको साँपका भय नहीं रहता।

और अर्धचन्द्र—ये क्रमशः आङ नागोके आयुध हैं । अनन्त आश्विन मासकीं पञ्चमीको कुशका नाग बनाकर गन्ध, और क—ये दोनों ब्राह्मण नाग-जातियाँ हैं, शंख और पुष्प आदिसे उनका पूजन करें। दूध, घी, जलसे स्नान कराये। वासुकि क्षत्रिय, महापद्म और तक्षक बैंग्न तथा पद्म और दुधमें पके हुए गेहूँ और विबिध नैनौका भोग लगायें। इस कर्कोटक शूद्र नाग हैं । अनन्त और कुलिक नाग शुक्लवर्ण तथा पञ्चमीको नाग पूजा करनेसे वासुकि आदि नाग संतुष्ट होते ब्रह्माजीसे उत्पन्न हैं, वासुकि और झापाल उक्तवर्ण तथा है और वह पुरुप नागलोकमें जाकर बहुत फालतक मुखाका अग्निसे उत्पन्न हैं, तक्षक और महापद्म स्वल्य पीतवर्ण तथा भोंग करता है। राजन् ! इस पञ्चमी तिथि कल्पको मैंने इन्द्रसे उत्पन्न हैं, पद्म और कर्कोटक कृष्णवर्ग तथा यमराज वर्णन किया । जहाँ ‘ कुरुकुल्ले फद स्वाहा’ -यह मन्त्र उत्पन्न हैं। पढ़ा जाता है, वहाँ कोई सर्प नहीं आ सकता। सुमनु मुनिने पुनः कहा–राजन् ! सपॅक ये लक्षण

(अध्याय ३६-३४)

घाधी-कल्प-निरूपणमें स्कन्द-घाशी-बतकी महिमा सुमन्तु मुनि बोले–राजन् ! अब मैं षष्ठी तिथि- कृत्तिकाओके पुत्र कार्तिकेयका आविर्भाव हुआ था। वे कल्पका वर्णन करता है। यह तिथि सभी मनोरथ पूर्ण भगवान् शङ्कर. ऑग्न तथा गङ्गाके भी पुत्र कहे गये हैं। इसी करनेवाली हैं। कार्तिक मास की षष्ठी तिथिों फलाहारकर यह पष्ठी तिथिको स्यामिकार्तिकेय देवनाके सेनापति हुए। इस तिभिन्नत किया जाता है। यदि ज्यच्युत ग़ज़ा इस व्रतका तिथिको मनका मृत, दही, जल और पुष्पोंसे स्वामि अनुष्ठान करें तो वह अपना फ़ज्य प्राप्त कर लेता है । इसन्स्ये कार्तिकेयको दक्षिणको और मुखकले अयं देना चाहिये। विजयकी अभिलाषा रम्नेवाले व्यक्तिकों इस व्रतका प्रयत्न- आदानका मन्त्र इस प्रकार हैं पूर्वक ालन करना चाहिये।

मर्मादाज़ स्कन्द स्वाहापनसमुत्र । | यह तिथि स्वामिकार्तिकेयको अत्यन्त प्रिय हैं। इसी दिन कार्यमाग्निज विभो गङ्गागर्भ नमोऽस्तु ते कमर नागो देश माना जाता है। नामपुराण में इसमय नि मन है ।

वाहक अनुसार र्न दो को स्कन्दया हातीं हैं तथा कार्तिक

पोमनो गाना है, जिस दिन भान मूर्योपामना हान है

परंतु यहा कनक का गमक रूप गर्न आता है, वह गणना अमानमास

अमावास्याको पूर्ण होता. मास के मुसम अन होना है।

मासपर्व ]

  • आचरपाकी श्रेष्ठताका प्रतिपादन

श्री देवसेनानी: सम्पादयतु हङ्गलम्

करे, तब भी दोनों लोकोंमें उत्तम फल प्राप्त होता है। इस (झारूप ३६ ॥ ६} झक कनाले पुरुषको यता भी नमस्कार करते है और वह ब्राह्मणको अन्न देर रात्रिमें फलका भोजन और भूमिपर इस कमें आकर चक्रवर्ती राजा होता हैं। राजन् ! जो शयन करना चाहिये । व्रतके दिन पवित्रा रहे और ब्रह्मचर्यको पप यष्टीं-झनके माहात्म्पका भक्तिपूर्वक श्रवण करता है, वह पालन करें । शुक्ल पक्ष तथा कृष्ण पक्ष-दोनों षष्ठयोंकों यह भी स्वामिकापिकी कृपासे विविध उत्तम भोग, सिद्धि, तुष्टि, मत करना चाहिये। इस व्रतके करनेसे भगवान् स्कन्दको धूति और लक्ष्मीकों प्राप्त करता है । अलोकमें यह उत्तम कृपासे सिद्धि, धृति, तुष्टि, राज्य, आयु, आरोग्य और मुक्ति गनिका भी अधिकारी होता है। मिलती है। जो पुरुष उपवास न कर सके, यह त्रि-सात हौं ।

( अध्याय ३१)

आचरणकी श्रेष्ठताका प्रतिपादन | राजा शतानीकने कहा—मुने ! अब आप ब्राह्मण जीवन-यापन करते हैं, अनेक प्रकारके छल-छिद्भसे प्रजा आदिके आचरणकी श्रेष्ठताके विषय में बतलानेको कृपा करें। हिंसा कम केवल अपना सांसारिक सुरु सिद्ध करते हैं। ऐसे सुमन्तु मुनि बोले-राजन् ! मैं अत्यन्त संक्षेपमें इस ब्राह्मण शूइसे भी अधम हैं। विषयको बताता है, उसे आप सुने । न्याय-मार्गका अनुसरण जो ग्राह्य-अग्राह्य तत्वको जाने, अन्याय और करनेवाले शास्त्रकारोंने कहा है कि वेद आचारहौंनको पवित्र कुमार्गीका परित्याग कने, जितेन्द्रिय, सत्ययादीं और सदाचारी नहीं कर सकते, भले वह सभी अङ्गके साथ वेदोंका हो, नियमोके पालन, आचार, तथा सदाचरणमें स्थिर रहे, अध्ययन कर ले । वेद पढ़ना तो ब्राह्मणका शिल्पमात्र हैं, किंतु सबके हितमें तत्पर रहे, वेद-वेदाङ्ग और शास्त्रका मर्मज्ञ हो, ब्राह्मणका मुख्य लक्षण तो सदाचरण हो अतराया गया है । समाधिमें स्थित रहे, क्रोध, मत्सर, मद तथा शोक आदिको चारों बेदीका अध्ययन करनेपर भी यदि वह आचरणसे हीन हित हों, वेद पठन-पाठनमें आसक्त रहे, किसका है तो उसका अध्ययन वैसे ही निष्फल होता है, जिस प्रकार अल्पधिक सङ्ग न करे, एकान्त और पवित्र स्थानमै रहे, नपुंसकके लिये रत्न निष्फल होता हैं।

सुख-दुःखमें समान हो. धर्मनिष्ठ हो, पापाचरणसे डरे, आसक्ति जिनके संस्कार उन्म होते हैं, वे भी दुराचरण म पतित रहित, निरहंकार, दानी, शूर, ग्रह्मवेत्ता, शान-स्वभाव और हो जाते हैं और नरकमें पड़ते हैं तथा संस्कारहीन भी उत्तम तपस्वी हों तथा सम्पूर्ण शास्त्रोंमें परििनति होइन गुणों

आचरणसे अॐ कहलाते हैं एवं स्वर्ग प्राप्त करते हैं। मनमें युक्त पुरूष झाह्मण होते हैं । ब्रह्मके भक्त होनेसे ब्राह्मण, क्षतसे दुष्टता भी रहे, बाहरसे सब संस्कार हुए हों. ऐसे वैदिक रक्षा करने के कारण क्षत्रिय, वार्ता (कृय-विद्या आदि) का संस्कारोको संस्कृत कतिपय पुरुष आचरणमें शूद्रोंसे भी अधिक सेवन करनेसे वैश्य और शब्द-श्रवणमासे जो द्रुतगति हो मलिन हो जाते हैं। क्रूर, कर्म करनेवाला, ब्रह्महत्या करनेवाला, जायँ, वे शूद्र कहलाते हैं। क्षमा, दम, शम, दान, सत्य, शौच, गुरुदारगामी, चोर, गौऑको मारनेवाला, मद्यपायी, धूत, दया, मृदुता, ऋजुता, संतोष, तप, निरहुंकारता, अक्रोध, परवीगाम, मिथ्यावादी, नास्तिक, वेदनिक, निषिद्ध कमका अनसूया, अतुणता, अस्तेय, अमात्सर्य, धर्मज्ञान, ब्रह्मचर्य, आचरण करनेवाला द ब्राह्मण हैं और सभी तरह ध्यान, आस्तिक्य, वैराग्य, पाप-भांजा, अय, गुरुशुश्रूषा संस्कारको सम्पन्न भी हैं, बेद-वेदाङ्ग पारङ्गत भी है, फिर भी आदि गुण जिनमें रहते हैं, उनका ब्राह्मणल दिन-प्रतिदिन उसकी सद्गति न होतीं । दयाहाँन, हिंसक, आंतशय दाम्भिक, बाढ़ता रहता है। कपटी, लोभी, पिशुन (चुगलखोर), अतिशय दुष्ट पुरुप वेद शम, तप, दम, शौच, क्षमा, ऋजुता, ज्ञान-विज्ञान और पढ़कर भी संसार उगते हैं और वेदको बेचकर अपना आस्तिक्य—में ब्राह्मणोंके सहज कर्म हैं। ज्ञानरूपी शिखा,

* आचाहनम्न पुन वेदा यद्यप्यधौंता: सह षभिरङ्गैः शिल्पं हि वेदाध्ययन दिनां वृत्तं स्मृतं ब्राह्मणलक्षणं तु (ब्राह्मपर्व ४१ }

 

= पुराणं परमं पुण्यं भविष्यं सर्वमीस्पदम्

[ संक्षिप्त मवियपुग्नगा तपरूपी सूत्र अर्थात् अज्ञोपवीत जिनके रहते हैं, उनको मनुने शूद्रसे अधम हो जाता हैं। ब्राह्मण कहा हैं। पाप-कर्मोसे निवृत्त होकल, उत्तम आचरण जिस तरह देंव और पौरुषके मिलनेपर कार्य सिद्ध होते हैं, करने वाला भी ब्राह्मण समान में हैं। शॉलसे युक्त शुद्ध भी वैसे ही उत्तम जाति और सकर्मका योग होनपर आचरणक । ब्राह्मणसे प्रशस्त हो सकता हैं और आचाररहित ब्राह्मण भ पूर्णता सिद्ध होती हैं।

(अध्याय ४-४५)

भगवान् कार्तिकेय तथा उनके घट्ठी-व्रतकी महिमा । सुमनु मुनि बोले–राजन् ! भाद्रपद मासकी बड़ी शर्तकेयक पूजा करने पर हाथी, घोड़ा आदि वाहनों का स्वामी | तिथि बहुत उत्तम तिथि हैं, यह सभी पापोका हरण करनेवाली, होता हैं और सेनापतित्व भी प्राप्त होता है। राजाओं को पुण्य प्रदान करनेवाली तथा सभी कल्याण-मङ्गलको कार्तिकेयको अवश्य ही आराधना करनी चाहिये । जो राजा देनेवाली हैं। यह तिथि कार्तिकेयको अतिशय प्रिय है। इस कृतिका के पुत्र भगवान् कार्तिकेयकी आराधना कर चुके | दिन किया हुआ ान, दान आदि सत्कर्म अक्षय होता हैं। जो लिये प्रस्थान करता है वह देवराज इन्द्रकी तरह अपने | दक्षिण दिशा कुमारिका-) में निवास करनेवाले कुमार को परामा कर देता है। कर्तवयक चंपक आदि | कार्तिकेयका इस तिथिको दर्शन करते हैं, ये ब्रह्महत्या आदि विविध पुष्पोंसे पूजा करनेवाला व्यक्ति सभी पापोंसे मुक्त हों। | पापसे मुक्त हो जाते हैं, इसलिये इस तिथिमें भगवान् ज्ञाता है और शिवलोकको प्राप्त करता है। इस भाद्रपद मासकी। | कार्तिकेयका अवश्य दर्शन करना चाहिये । भक्तपक पाठौको तैनाका मेयन नहीं करना चाहिये । पष्ठी तिथिको व्रत । कार्तिकेयका पूजन करनेसे मानव मनोवाञ्छित फल प्राप्त करता एवं पूजनकर रात्रिमें भोजन करनेवाला व्यक्ति सम्पूर्ण पापोंसे हैं और अतमें इन्द्रलोक में निवास करता है। ईंट, पत्थर, काष्ठ मुक्त हो कार्तिकेयके लोकमें निवास करता हैं। जो व्यक्ति आदिके द्वारा श्रद्धापूर्वक कार्तिकेयका मन्दिर बनानेवाला पुरुष कुमारिकाक्षेत्र स्थित भगवान् कार्तिकेयका दर्शन एवं स्वर्णके विमानमें बैठकर कार्तिकेयके लोकमें जाता है। इनके भक्तिपूर्वक उनका पूजन करता है, वह अखण्ड शान्ति प्राप्त मन्दिरपर ध्वजा चढ़ाने तथा झाडू-पोंछा (मार्जन) आदि करता हैं। करनेसे रुद्रोंक प्राप्त होता है चन्दन, अगर, कपूर आदि से

(अध्याय ४६)

सप्तमी-कल्पमें भगवान् सूर्यके परिवारका निरूपण एवं शाक-सप्तमी-व्रत सुमन्तु मुनिने कहा–राजन् ! अब मैं सप्तमी-कल्पना अतिशय तेजके कारण मेरी दृष्टि इनकी ओर मुहर नहीं पाती, क्र्णन करता है। सप्तमी निधिका भगवान् सूर्यका आविर्भाव जिससे इनके अङ्गाकों में देख नहीं पा रही हैं। मेरा हुआ था। वे अण्डके साथ उत्पन्न हुए और अण्डमें रहते हुए सुवर्ण-वर्ण, कमनीय शरीर इनके तेजसे दुग्ध हों श्यामवर्गका ही उन्होंने वृद्धि प्राप्त की। बहुत दिनोंतक अप्डमें रहने के हो गया है। इनके साथ में नियहि होना बहन कठिन है। यह कारण ये ‘मार्तड के नामसे प्रसिद्ध हुए। जब ये अडमें हीं सोचकर उसने अपनी आया एक स्त्री उत्पन्न कर उससे स्थित थे तो दक्ष जानने अपनी रूपवती कन्या रूपाको कहा- तुम भगवान् सूर्यके समय में जगह गहना, परंतु यह | भार्याक में इन्हें अर्पित किया। दक्षको आज्ञासे द शुलने न पायें ।’ सा समझान उसने उस वाया नामक विश्वकर्माने इनके शरीरका संस्कार किया, जिससे ये अतिशय बौकों वहाँ रख दिया तथा अपनी संतान यम और यमुनाको तेजस्वी हो गये। अण्डमें स्थित रहते ही इन्हें यमुना एवं यम वहाँ छौंका वह तपस्या करने के लिये उत्तरकुक देशमें चली नामकी दो संतानें प्राप्त हुई। भगवान् सूर्यका तेज सहन न कर गया और वहाँ घोड़ीका रूप धारणकर तपस्यामें रत रहते हुए कनेके कारण उनकी स्त्री व्याकुल हो सोचने लगीं-इनके इधर-उधर अनेक वर्षोंतक घूमती रही।

सूर्यको पलीका दूसरा नाम संज्ञाहैं। अन्य पुराणों में संज्ञाको विश्वकर्माको पुत्रों कहा गया है।

ब्रह्मपर्व ]

सप्तमीकल्पमें भगवान् मुर्घके रिवारको निपग

भगवान् सूर्यको छायाको ही अपनी पत्नीं समझा। कुछ कहा-‘आपके अति प्रचण्ड तेजसे व्याकुल होकर आपकी समय बाद आया नैर और तपती नामक दो संताने भाग्य उत्तरकुल देशमें चली गयी है। अब आप विश्वकर्माले त्पन्न हुई। छाया अपनी संतानपर यमुना तथा यमसे अधिक अपना रूप प्रशस्त करवा लें।’ यह कहकर उन्होंने स्नेह करती थी। एक दिन यमुना और तपतीमें विवाद हो विश्वकर्माको बुलाकर उनसे कहा-‘विश्वकर्मन् ! आप इनका गया। पारस्परिक शापसे दोनों नदी हो गयौं। एक बार छायाने सुन्दर रूप प्रकाशित कर दें। तब सूर्यको सम्मत पाकर यमुनाके भाई यमको ताड़ित किया। इसपर अमने क्रुद्ध होकन, विश्वकर्माने अपने ताण-कर्ममें सूर्यको खराना प्रारम्भ छावाको मारने के लिये पैर उठाया । इयाने क्रुद्ध होकर न किया। अङ्गक तराशनेके कारण सूर्यको अतिशय पीड़ा हो ३ दिया—’मृद्ध ! तुमने मेरे ऊपर चरण उठाया है, इसलिये रही थी और बार-बार मुच्छ आ जाती थीं। इसलिये तुम्याग्न प्राणियोंका प्राणहिंसक रूपी यह बीभत्स कर्म तबतक विश्वकर्माने सब अङ्ग तो ठीक कर लिये, पर अब पैंकी रहेगा, जबतक सूर्य और चन्द्र रहेंगे। यदि तुम मेरे शापसे अङ्गलियोंको छोड़ दिया तब सूर्य भगवान्ने कहा कलुषित अपने पैरों पृथ्वीपर रखोगे तो कृमिगण उसे या विश्वकर्मन् ! आपने तो अपना कार्य पूर्ण कर लिया, परंतु हम जायेंगे।’

पासे व्याकुल हो रहे हैं। इसका कोई उपाय बताइये। अम और छायाका इस प्रकार विवाद हो ही रहा था कि विश्वकर्माने कहा-‘भगवन् ! आप रक्तचन्दन और करवीरके उसी समय भगवान् सूर्य वहाँ आ पहुंचे। यमने अपने पिता पुष्पोंका सम्पूर्ण शरीर लेप कों, इससे तत्काल यह वेदना भगवान् सूर्यसे कहा-‘पिताजी ! यह हमारी माता कदापि शान्त हो जायगौं ।’ भगवान् सूर्यन विश्वकर्माकं कथनानुसार, नहीं हो सकतीं, यह कोई और स्त्री है। यह हमें नित्य क्रूर अपने सारे शरीरमें इनका लेप किया, जिसमें उनकी सारी भाषसे देखती है और हम सभी भाई-बहनोंमें समान दृष्टि तथा वेदना मिट गयीं। उसी दिनसे रक्तचन्दन और करवीरके पुष्प समान व्यवहार नहीं रखती। यह सुनकर भगवान् सूर्यन क्रुद्ध भगवान् सूर्यको अत्यन्त प्रिय हो गये और उनकी पृशामें प्रयुक्त होकर छायासे कहा-‘तुम्हें अह उचित नहीं है कि अपनी होने लगे । सूर्यभगवान्के शपके गदनेसे ज्ञों तेज़ निकला, संतानोंमें ही कसे प्रेम करो और दूसरेसे द्वेष । जितनी संतानें उस तैजसे दैत्योंके विनाश करनेवाले वज्रका निर्माण हुआ । हों सबको समान हौं समझना चाहिये। तुम नियम-दृष्टिसे क्यों भगवान् सूर्यने भी अपना उत्तम रूप प्राप्तकर प्रसन्न देखता हो ?” यह सुनकर आया तो कुछ न बोलों, पर यमने मनसे अपनी भार्याके दर्शनोंकी उत्कण्ठासे तत्काल उत्तर पुनः कहा–’पिताजी ! यह दुग में माता नहीं हैं, बल्कि कुरुकी और प्रस्थान किया। वहीं उन्होंने इंग्जा कि यह घड़का | मी माताकी छाया है। इसमें इसने मुझे शाप दिया है। यह रूप का सिरण कर ही त्रिचरण कर रही है। भगवान सूर्य भी अश्वका ककर यमने पूरा वृत्तान्त उन्हें बता दिया। इसपर भगवान् प धारण कर उससे मिले। सूर्यने कहा-‘बेटा ! तुम चित्ता न क । कृमिंगण मांस और पर-पुरुषकी आशंकासे उसने अपने दोनों नासापुटोंसें रुधिर लेकर भूककों चले जायेंगे, इससे तुम्हारा व गलेमा सूर्यके ज्ञको एक साथ बाहर फेंक दिया, जिससे अश्विनी नहीं, अच्छा हो जायगा और ब्रह्माजीकी आज्ञासे तुम कुमारोंकी उत्पत्ति हुई और यही देवताओंके वैद्म हुए। तेजके लोकपाल पदये भी प्राप्त करोगे। तुम्हारी बहन यमुनाको अन्तिम अंशसे रेवतकी उत्पत्ति हुई। तपतीं, शनि और जल गङ्गाजलके समान पवित्र हो जायगा और तपतीका जल सायर्ग-ये तीन संतानें छायासे और यमुना तथा यम संज्ञासे नर्मदाजालके तुल्य पवित्र माना जायगा । आजसे बह झाषा उत्पन्न हुए । सूर्यको अपनी भार्या उत्तरकुरुमें सप्तमी तिथिके सबके हमें अवस्थित होगी। दिन प्राप्त हुई, उन्हें दिव्य रूप सप्तम तिथिको हीं मिला तथा । ऐसी व्यवस्था और मर्यादा स्थिर कर भगवान् सूर्य दक्ष संतानें भी इसी तिथिको प्राप्त हुईअतः सप्तमी तिथि भगवान् प्रजापतिके पास गये और उन्हें अपने आगमनका का। बतातें सुने अतिशय प्रिय है। हुए सम्पूर्ण वृत्तान्त कह सुनाया। इसपर दक्ष प्रजापतिने जो व्यक्ति पञ्चमी तिथिको एक समय भोजनकर, षष्ठकों

* पुराणं रमं पुण्यं भविष्य सर्वसौख्यदम्

[ संक्षिप्त भविष्यपुराण उपवास करता है तथा सप्तमीको दिनमै उपचासकर भक्ष्य- पुष्प, अपराजित नामक धूप और पायसका नैवेद्य भन्योंके साथ विविध शाक-पदार्थों को भगवान् सूर्यके लिये सूर्यनारायणको समर्पत करना चाहिये। ब्राह्मणोंको भी अर्पण कर ब्राह्मको देता है तथा रात्रिमें मौन होकर भोजन पासको भोजन कराना चाहिये। दूसरे पारणमैं कुशाके जलसे करता हैं, वह अनेक प्रकारके सुखका भोग करता है तथा भगवान् सूर्यनारायणको स्नान कराकर स्वयं गोमयका प्राशन सर्वत्र विजय प्राप्त करता एवं अन्नको उत्तम विमानपर चढ़कर करना चाहिये और चैत चन्दन, सुगन्धित पुष्प, अगरुम धूप सूर्यंलाकमें कई मन्वन्तरितक निवास कर पृथ्वीपार पुत्र-पौत्रोंसे तथा गुड्के अपूप नैवेद्य अर्पण करना चाहिये और वर्षक समन्वित चक्रवर्ती राजा होता है तथा दीर्घकालपर्यंन्त समाप्त होनेपर तीसरा पारण करना चाहिये। गौर सर्षपका निष्कपटक राज्य करता हैं। उबटन लगन भगवान् सूर्गको मान करना चाहिये। इससे ना कुरुने इस सप्तमी-बतका बहुत कालतक अनुष्ठान सम्पूर्ण पाप नष्ट हो जाते हैं। फिर रक्तचन्दन, करवीरके पुष्प, किया और केवल शाकका ही भोजन किया। इससे उन्होंने कुछ गुग्गुलका धूप और अनेक भक्ष्य-भोज्यसहित दही-भात क्षेत्र नामक पुण्यक्षेत्र प्राप्त किया और इसका नाम रखा धर्मक्षेत्र । नैवेद्यमें आर्पण करना चाहिये तथा यहीं ब्राह्मणों को भी भोजन | सप्तमी, नवमी, घी, तृतीया और पञ्चमी ये तिथियाँ बहुत कराना चाहिये। भगवान् सूर्यनारायण के सम्मुख ब्राह्मणसे उत्तम हैं और स्त्री-पुरुषकों मनोवाञ्छित फल प्रदान करनेवालों पुराण-श्रवण करना चाहिये अथवा स्वयं बाँचना चाहिये। हैं। माघकी सममी, आश्विनको नयम, भाद्रपद षष्ठी, अनमें स्नाह्मणको भोजन कराकर पौराणिकको सम-आभूषण, वैशाखकों तृतीया और भाद्रपद मासकीं पञ्चमी–वे तिधियाँ दक्षिणा आदि देकर प्रसन्न करना चाहिये । पौराणिकके संतुष्ट इन महीनोंमें विशेष प्रशस्त मानी गयीं हैं। कर्तिक शुक्ला होनेपर भगवान् सूर्यनारायण प्रसन्न हो जाते हैं। रक्तचन्दन, सप्तमौसे इस व्रतको ग्रहण करना चाहिये । उत्तम शाकको सिद्ध करवीरके पुष्प, गुगुल्लका धूप, मोदक, पाससका नैवेद्य, घृत,

कर ब्राह्मणोक देना चाहिये और गुन्निमें स्वयं भी शक हौं ताम्रपत्र, पुराण-ग्रन्थ और पौराणिक—ये सब भगवान् | महण करना चाहिये । इस प्रकार चार मासत्तक मत कर मतका सूर्यको अत्यन्त प्रिय हैं। जन् ! अह् शाक-सप्तमी व्रत पहल पारण करना चाहिये। उस दिन पञ्चगव्यसे सूर्य भगवान् सूर्यको अति प्रिय हैं। इस मृतका करनेवाला पुरुष भगबान्कों स्नान कराना चाहिये और स्वयं भी पञ्चगव्या भाग्यशाली होता हैं। प्राशन करना चाहिये, अनन्तर केरका चन्दन, अगम्यके

अध्याय । श्रीकृष्ण-साम्य-संवाद तथा भगवान् सूर्यनारायणकी पूजन-विधि राजा शतानीकने कहा-ब्राह्मणश्रेष्ठ ! भगवान् सबका आम वग़न कनें । मेरा मन इस संसारमें अनेक सूर्यनारायणका माहात्म्य सुनते-सुनने मुझे तुम नहीं हो प्रकार आधि-व्याधियोंको देखकर अत्यन्त उदास हो रहा है, रही है, इसलिये मममी-कल्पका आपः पुनः कुर और मुझे क्षणमात्र भी ज़ौकी इच्छा नहीं होती, अतः आप कृपा विस्तारसे वर्णन करें।

ऐसा उपाय बतायें कि जितने दिन भी इस संसारमें रहा जाय, सुमनु मुनि बोले–राजन् ! इस विषयमें भगवान् ये आधि-व्याधियाँ पीडित न कर सकें और फिर इस संसारमें औकृष्ण और उनके पुत्र साम्बका जो परस्पर संवाद हुआ था, ज न हो अर्थात् मोक्ष प्राप्त हो जाय। उसका मैं वर्णन करता हूँ, उसे आप सुनें।

भगवान् श्रीकृष्णने कहा-यन्स ! देवताओं । एक समय साम्यने अपने पिता भगवान् श्रीकृष्ण प्रसादसे, उनके अनुग्रहसे तथा उनकी आराधना करनेसे यह पूछा-पिताजी ! मनुष्य संसारमें जन्म-ग्रहणकर कौन-सा सब कुछ प्राप्त हो सकता है। देवताओंकी आराधना ही परम् कर्म करें, जिससे उसे दुःख न हो और मनोवाञ्छित फलको उपाय हैं। देवता अनुमान और आगम-प्रमाणोंसे सिद्ध होते प्राप्त कर वह स्वर्ग प्राप्त करें तथा मुक्ति भी प्राप्त कर सके। इन हैं। विशिष्ट पुरुष विशिष्ट देवताक्ने आराधना करें तो यह पर्य ]

 

* सूर्यनारायणके नित्यार्चनका निभान

‘विशिष्ट फल प्राप्त कर सकता हैं। अपने-अपने व्यवहारमें प्रवृत्त होते हैं। इन्हींक अनमहमें यह साम्बने कहा-महाराज ! प्रथम तो देवताओके सारा संसार प्रयत्नशील दिखायी देता है। सूर्यभगवानके अस्तित्वमें ही रह हैं, कुछ लोग कहते हैं देवता हैं और उदयके सायं जगत्का उदय और उनके अस्त होनेके साथ कुछ कहते हैं कि देवता नहीं हैं, फिर विशिष्ट देवता किन्हें जगत् अस्त होता हैं । इनसे अधिक न कोई देवता हुआ और समझा जाप ? न होंगा। वेदादि शास्त्रों तथा इतिहास-पुराणादिमें इनका भगवान् श्रीकृष्ण बोले-बल्स ! आगमसे, अनुमानसे मारमा, अन्तरात्मा आदि शब्दोंसे प्रतिपादन किया गया है। और प्रत्यक्षसे देवताओंका होना सिद्ध होता है।

ये सर्वत्र व्याप्त हैं। इनके सम्पूर्ण गुणों और प्रभावका वर्णन साम्वनें कहा—यदि देवता अपक्ष सिद्ध में सकते हैं सौं वचोंमें भी नहीं किया जा सकता। इसलिये दिवान, तो फिर उनके साधनके लिये अनुमान और आगम-प्रमाणक गुणाक्न, सबके स्वामीं, सबके स्रष्टा और सबका संहार, कुछ भी अपेक्षा नहीं है। करनेवाले भी ये ही कहे गये हैं। वे स्वयं अव्यय हैं। कृष्ण बोले-वत्स ! सभी देवता प्रत्यक्ष नहीं जो पुरुष सूर्य-मण्डलकी रचनाकर प्रातः, मध्याह्न और होते । शास्त्र और अनुमानसे ही हजारों देवताओंका होना सिद्ध सायं उनकी पूजा कर उपस्थान करता है, वह परमगतिको प्राप्त

नता हैं। फिर, जो प्रत्यक्ष सूर्यनारायणका भक्तिपूर्वक पूजन साम्यने कहा—पिताजी ! जो देवता प्रत्यक्ष हैं और करता है, उसके लिये कौन-सा पदार्थ दुर्लभ हैं और जो अपनी विशिष्ट एवं अभीष्ट फलौंको देनेवाले हैं, पहले आप उहाँका अन्तरात्मामैं ही मण्डलम्ध भगवान् सूर्यको अपनी बुद्धिारा वर्णन करें। अनन्तर शास्त्र तथा अनुमानसे सिद्ध होनेवाले निश्चित कर लेता हैं तथा ऐसा समझकर वह इनका ध्यानपूर्वक देवताओं का वर्णन करें।

फूजन, हवन तथा आप करता है, वह सभ क्रममनाको प्राप्त श्रीकृष्णने कहा–प्रत्यक्ष देवता तो संसारके नेत्रस्वरूप करता हैं और अन्नामें इनके लोंकको प्राप्त होता हैं। इसलिये भगवान् सूर्यनारायण हीं हैं, इनसे बढ़कर दूसरा कोई देवता हैं पुत्र ] यदि तुम संसारमें सुख चाहते हो और भुक्ति तथा नीं हैं। सम्पूर्ण जगत् इन्हींसे उत्पन्न हुआ है और अनमें मुक्तिको इच्छा रखते हों तो विधिपूर्वक प्रत्यक्ष देवता भगवान् इन्होंमें विन भी हों आयगा।

सूर्यको तपपतासे आराधना करें। इससे तुम्हें आध्यात्मिक, सल्प आदि युगों और कालकी गणना इनसे सिद्ध होतो आधिदैविक तथा आधिभौतिक कोई भी इस्त्र नहीं होंगे। ज्ञों है। ग्रह, नक्षत्र, योग, करण, शि, आदित्य, वसु, रुड़, वायु, सूर्यभगवानुकीं शरणमें जाते हैं, उनको किसी प्रकारका भय नहीं

अग्नि, अश्विनीकुमार, इन्द्र, प्रज्ञापत, दिशाएँ, भूः. भुवः स्वः- होता और उन्हें इस क तथा परलॉकमें शाश्वत सुख प्राप्त ये सभी लॉक और पर्बत, नदी, समुद्र, नाग तथा सम्पूर्ण होता है । स्वयं मैंने भगवान सूर्य की बहन काक यथाविधि भूतमामकी उत्पत्तिकै एकमात्र हेतु भगवान् सूर्यनारायण ही हैं। आराधना की है, उन्हींकी कृपासे यह दिव्य ज्ञान मुझे प्राप्त हुआ यह सम्पूर्ण चराचर-जगत् इनकी में इन्चासे उत्पन्न हुआ है। हैं। इससे बड़क मनुष्योंक हितका और कोई उपाय नहीं हैं। इनमें ही इसे स्थित हैं और सभी इनकी ही इच्छासे

 

(अध्याय ]

औसूर्यनारायणके नित्यार्चनका विधान भगवान् श्रीकृष्णाने कच्च–साम्ब ! अब हम सिद्ध होती है और पुण्य भी प्राप्त होता हैं। प्रातःकाल उड़कर सूर्यनारायणके पूजनका विधान बताते हैं, जिसके कानसे शौच आदिसे निवृत्त हों नहँके तटपर जाकर आचमन करे तथा सम्पूर्ण पाप और विघ्र नष्ट हो जाते हैं तथा सभी मनोरधोये सूर्योदयके समय शुद्ध मृत्तिकाका शरीर पर लेपन कर स्नान

यक्ष यता सूर्यो गक्षुर्दियामरः तस्मादयधम्म काचिदेवता नाना शमन

मादिदं गजानं यं याम्यति मात्र

(बाय ४८ । ३-३८ ।

  • पुराणं रमं पुण्यं भविष्यं सर्वसौख्यदम् =

[ संक्षिप्त भविष्यपुराणाङ्क क्ने । पुनः आचमन कर शुद्ध वस्त्र धारण करें और समाक्षर अथवा रक्तचन्दनसे ताम्रपत्रमें घट्दल-कमल बनाकर उसके | मन्त्र ‘ॐ वखोल्काय स्वाहा’ मैं सूर्यभगवान अयं ६ मध्यमें सभी उपचारोंसे भगवान् सूर्यनारायणका पूजन करें। तथा हृदय मन्त्रका यान करें एवं सूर्य-मन्दिर जाकर ही दलोंमें घडङ्ग-पूजन कर उत्तर आदि दिशाओमें सोमद सूर्यको पूजा करें। सर्वप्रथम श्रद्धापूर्वक पूरक, रेचक और आठ ग्रहोंका अर्चन करे और अष्टदिक्पालों तथा उनके कुम्भक नामक प्राणाम झन वायवीं, आग्नेय, माहेन्द्रों और आयुधोंका भी तत्तद् दिशाओं में पूजन करें। नामके आदिमें वारुण धारणा करके भूतशुद्धिको तसे शरीरका शोषण, प्रणय लगाकर नामको चतुर्थी-विभक्तियुक्त करके अत्तमै नमः। दहन, स्तम्भन और प्राबन करके अपने शरीरको शुद्धि कर ले। कहे- जैसे ‘ॐ सोमाय नमः’ इत्यादि । इस प्रकार | अपने शुद्ध हृदयमें भगवान् सूर्य की भावना कर उन्हें प्रणाम नाममन्त्रोंसे सबका पूजन करें। अनत्तर व्योम-मुद्रा, विकने । स्थूल, सूक्ष्म शरीर तथा इन्द्रियोंको अपने-अपने स्थानोंमें मुद्दा, पद्म-मुद्रा, माश्चेत-मुद्रा और अरुल-मुद्रा दिखायें। ये उपन्यस्त करें। खः स्वाहा हृदयाय नमः, ॐ वं स्वाहा पाँच मुद्राएँ पूजा, जप, ध्यान, अर्थ्य आदिके अनत्तर, शिरसे स्वाहा, ॐ काय स्वाहा शिवायै वषट्, ॐ आय दिखाना चाहिये। स्याहा कक्चाय हुम्, ॐ स्वाँ स्वाहा नेत्रत्रयाय वौषट्, हाँ इस प्रकार एक वर्षतक भक्तिपूर्वक जुन्मयताके साथ _स्वाहा काय फट् ।’

भगवान् सूर्यनारायणका पूजन करने अभीष्ट मनोरथोकी प्राप्ति इन मन्त्रको अङ्गन्यास कर पूजन सामग्रीका मूल मन्त्रमें होती हैं और बादमें मुक्ति भी प्राप्त होती है। इस विधिसे पूजन | अभिमन्त्रित जलद्वारा प्रौक्षण करे। फिर सुगन्धित पुष्पादि करनेपर गैंग रोगसे मुक्त हो जाता हैं, धनहींन धन प्राप्त करता उपचारोंसे सूर्यभगवान्का पूजन करें। र्यनारायणकी जा हैं, राज्यभ्रष्टको शुन्य मिल आता है तथा पुजहोन पुत्र प्राप्त दिनके समय सूर्य-मूर्तिमें और रात्रिके समय अग्रिमें करनीं करता है। सूर्यनारायण पूजन करनेवाला पुरुष प्रज्ञा, मेधा चाहिये । प्रभातकारमें पूर्वाभिमुख, सायंकालमें पश्चिमाभिमुख तथा सभी सदियोंसे सम्पन्न होता हुआ चिरंजीवी होता है। तथा गृत्रि में उत्तराभिमुख होकर पूजन करनेका विधान हैं।’ इस विधि पूजन करने पर कन्याको उत्तम वरक, कुरूप सोकाय या इस साक्षर मल मनसे सूर्यमण्ड कपको उत्तम सौभाग्य तथा विद्याध सहियाको बानि होती कोच पदल-कमका ध्यान कर उसके माध्यमें सहन है। ऐसा सूर्यभगवान्ने स्वयं अपने मुखको कहा है। इस प्रकार किरणोंसे देदीप्यमान भगवान् सूर्यनारायण मूर्तिका ध्यान सूर्यभगवानका पूजन करनेसे धन, धान्य, संतान, पशु आदिकी करें। फिर रक्तचन्दन, करवर आदि रक्तपुष्प, धूप, दीप, नित्य भिवृद्ध होती है। मनुष्य निष्काम हो जाता है तथा अनेक प्रकारके नैवेद्य, वस्त्राभूषण आदि उपचासे पूजन करे । अन्तमें इसे सहूति प्राप्त होती हैं।

(अध्याय ४५)

भगवान् सूर्यके पूजन एवं व्रतोद्यापनका विधान, द्वादश आदित्यों के नाम और रथसप्तमी-व्रतकी महिमा । भगवान् श्रीकृष्याने कहा-साम्ब ! अब मैं सूर्य प्रातःकाल उठकर विधिपूर्वक स्नान सम्पन्न करके संध्या करे विशिष्ट अवसरॉपर होनेवाले व्रत-उत्सव एवं पुजनकी तथा पूर्वोक्त मन्त्र ‘ॐ सोंकाय स्वाहा’ का जप एवं निधियोंका वर्णन करता हैं, उन्हें सुनीं। किसी मासके सूर्यभगवानकी पूजा करें । अग्निकों सूर्यतापके रूपमें समझकर शुक्लपक्षकी सप्तमी, ग्रहण या संक्रान्तिके एक दिन-पूर्व एक कैदी बनाये और संक्षेपमें हुयन तथा तर्पण करे। गायत्री मन्त्रको बार हथियान्नका भोजन कर, सायंकालके समय भलीभाँति प्रोक्षणाकन पुग्न और उत्तराय़ कुशा बिजये । अनन्तार सभी । आचमन आदि करके अरुणदेवको प्रणाम करना चाहिये तथा पात्रों का शोधन कर दो कुशाओं प्रदेशमात्रको एक पवित्र । सभी इन्द्रियोंको संयतकर भगवान् सूर्यको ध्यान न राभिमें बनाये। उस पवित्र सो वस्तुओका प्रोक्षण करे, घाँको जमीनपर कुवाकी शव्यापर शयन करना चाहिये । दूसरे दिन अग्निपर रखकर पिघला ले, उत्तर और पात्रमें उसे रख दें, मापपर्छ

 

  • भगवान् सूर्यके पूजन एवं नयापनका विधान

अनर जलते हुए उन्मुकसे पर्याप्तिकरण करते हुए मृतका तीन प्रकार आशीर्वाद प्राप्त कर दोनों, अधों तथा अनाथको बार उतरवन । नुवा आदिका कुशॉक द्वारा परिमार्जन और यथाशक्त भोजन कराये तथा ब्राह्मणों को भोजन कराकर, सम्प्रोक्षण करके अग्निमें सूर्यदेवकी पूजा करे, और दाहिने दक्षिणा देकर व्रतकी समाप्ति की। हाथमें स्नुषा ग्रहणकर मूल मन्त्र हुवन करें। मनोयोगपूर्वक जो व्यक्ति इस समम-ब्रतको एक वर्यतक करता है, वह | मौन धारण कर सभी क्रियाएँ सम्पन्न करनी चाहिये। सौं योजन बे-चौड़े देशका धार्मिक राजा होता है और इस पुर्णाहुतिके पश्चात् तर्पण करे। अनन्तर ब्राह्मणोंको उत्तम भोजन ग्रताके फलसे सौ वर्षोंसे भी अधिक निष्कपटक राज्य करता कना चाहिये और यथाशक्ति उनको दक्षिणा भी देनी चाहिये। हैं । जो स्त्री इस व्रत करती हैं, वह राजपली होती हैं। निर्धन ऐसा करने से मनोवाञ्छित फलको प्राप्ति होती हैं। व्यक्ति इस व्रतको यथार्थाथ सम्पन्न कर बतास्मयों हुई विधि | माय मासकी सप्तमीको वरुण नामक सूर्यको पूजा करें। अनुसार तबका उथ ब्राह्मणों देता हैं तो यह अस्सी प्रोजन इसी प्रकार क्रमशः सगुनमें सूर्य, चैत्रमें वैशाख, वैशाखमें लंबा-चौड़ा राज्य प्राप्त करता है। इसी प्रकार आटेका अध धाता, ज्येष्ठमें इन्द्र, आषाढ़में रवि, आवमें नभ, भाद्रपद्में बनवाकर दान करनेवाला साल योञ्जन विस्तृत राज्य प्राप्त करता अम, आश्विनमें पर्जन्य, कार्तिक्में त्वष्टा, मार्गशीर्षमें मित्र तथा है तथा वह चिरायु, नौरोग और सुखी रहता है। इस व्रतको पौष मासमें विष्णुनामक सूर्यका अर्चन करे । इस विधिसे करनेसे पुरुष एक कल्पतक सूर्यमें निवास करने के पश्चात् बारह मासमें अलग-अलग नामोंसे भगवान् सूर्यको पूजा आजा होता है। यदि कोई व्यक्ति भगवान् सूर्यको मानसिक | करनी चाहिये । इस प्रकार श्रद्धा-भक्तिपूर्वक एक दिन पूजा आराधना भी करता है तो वह भी समस्त आधि-व्याधियोंसे | करनेसे वर्षपर्यत की गयी पूजाका फल प्राप्त हो जाता हैं। हित होकर सुखपूर्वक जीवन व्यतीत करता है। जिस प्रकार उपर्युक्त विधिसै एक वर्षनाक ब्रत कर रत्नज्ञटित सुवर्णका भगवान् सूर्यको कुरा स्पर्श नहीं कर पाता, उसी प्रकार | एक इव बनवायें और उसमें सात घोड़े बनवाये । इधके मध्यमें मानसिक पूजा करनेवाले साधकको किस प्रकारको आपत्तिय

सोनके कमलके ऊपर रोके आभूषणोंसे अलंकृत सूर्य- स्पर्श नहीं कर पाती। यदि किसन मन्त्रों द्वारा भक्तिपूर्वक नारायणी सोनेक मूर्ति कथापित करे । के आगे उनके विधि-विधानसे मत सम्पन्न कात हा भगवान् सूर्यनारायण | सावकों वैनायें । अनन्तर बारह ब्राह्मणोंमें बारह महीनौके भागधना की तो फिर उसके पिया क्या कहना ? इसलिये सूची भावना कर तेरहवें मुग्ण आचार्यको साक्षात् अपने कल्याणक लियं भगवान् सूर्यको पूजा आवश्य करनों सूर्यनारायण समझकर उनकी पूजा करें तथा उन्हें प्रथा, छत्र, शाहिये भूमि, गौं आदि समर्पित करे । इसी प्रकार के आभूषण, पुत्र ! सूर्यनारायणने इस विधि-विधानको स्वयं अपने | बम्ब, दक्षिणा और एक-एक घोड़ा इन बारह ब्राह्मणोंकों में मुखसे मुझसे कहा था। आजतक उमें गुप्त रखकर पहलै बार । तथा हाथ जोड़कर यह प्रार्थना करें-‘ब्राह्मण देवताओ ! इम मॅन तुमसे कहा है। मैंने इसी बलक प्रभाव हुज्ञा पुत्र और | सूर्यनातके उद्यापन करने के बाद यदि असमर्थतावश कभी पत्रको प्राप्त किया हैं, दैत्यों जीता है, देवताको वशमें

सूर्यवत न कर सके तो मुझे दोष न हो।’ प्राणिक साथ किया है, और इस में दो सूर्यभगवान् निवास करते हैं। | आचार्य भी ‘एवमग्नु’ ऐसा हक जमानको आशीर्वाद में नहीं तो इस चक्रमें इतना तेज कैसे होता ? ग्रहों मग्ण है कि | और कहे-‘सूर्यभगवान् तुमपर प्रसन्न हैं । जिस मनोरथों सूर्यनारायणको नित्य जप, ध्यान, पुजन आदि करनेसे मैं |पूर्तिकं लिये तुमने यह व्रत किया है और भगवान् सूर्यको पूजा अगत्या पून्य हैं। बस ! तुम भी मन, वाणी तथा कर्म से हैं, वह तुम्हारा मनोरथ सिद्ध है और भगवान् सूर्य उमें पर्यनारायण की आराधना कों। ऐसा करनेमें तुम्हें विविध सुख पूरा करे । अव व्रत न करनेपर भी तुमको दो नहीं होगा। इस प्राप्त होंगे। ज्ञों पुरुष भक्तिपूर्वक इस विधानको सुनाता है, यह – जुग वा भी नाम चैत्रादि यह महीनाम सपक में नाम मिल = ना, अर्गमा, मित्र, महण, इन्द्र, शिगवान्, पुमा, पर्जन्य, अ. भा. वा और विश। कपभेदक अनुर नामा भर है।

# पुराणं परमं पम्यं भघियं सर्वसोप्यम्

[ संक्षिप्त मधियपुरोगाभों पुत्र-पौत्र, आरोग्य एवं लक्ष्मीको प्राप्त करता है और आश्विन आदि चार मास में अगम्य-पुम, अपराजित धूप | मर्योंकको भी प्राप्त हो जाता हैं। और गुड्के पुए आदिका नैवेद्य तथा इसुरस भगवान् सूर्यको भगवान् कृष्याने कहा—साम्ब ! मात्र मासके समर्पित करना चाहिये । यथाशक्ति ब्राह्मण भोजन कराकर | शुक्ल पक्षको पञ्चमी तिथिको एभुक्त-व्रत और पल्लीको नक्तवात आत्मशुद्धिके लिये कुशाके जलसे स्नान करना चाहिये । उस करना चाहिये। सुन्नत ! कुछ लोग सामीमें उपवास चाहतें दिन कुशोदकका ही प्राशन करे । व्रतको समाप्तिमें माघ मासकीं हैं और कुछ विद्वान् षष्ठी/ उपवास और सप्तमी तिथिमें पारण शुक्ला सप्तमीको रथका दान करें और सूर्यभगवान्की प्रसन्नताकै कनेका विधान कहते हैं । इस प्रकार विविध मत हैं)। लिये रथयात्रोत्सवका आयोजन करे । महापण्यदायिनी इस वस्तुतः पप्ती उपवासकर भगवान् सूर्यनारायणकी पूजा करनी सप्तमीको रथसप्तमी कहा गया हैं। यह महासममीकै नामसे चाहिये । रक्तचन्दन, करवीर-पुण्य, गुग्गुल धूप, पायस आदि अभिहित हैं । रथसप्तमौकों जो उपवास करता है, वह कीर्ति, नद्यले मात्र आदि चार महीनोंतक सूर्यनारायणकी पूजा करनी धन, विद्या, पुत्र, आरोग्य, आयु और उत्तमोत्तम कान्ति प्राप्त चाहिये । आत्मशुद्धिके लिये गोमयमश्रित जलसे स्नान, करता हैं। हे पुत्र ! तुम भी इस व्रतको करों, जिससे तुम्हारे | गोमयको प्राशन और यथाशक्ति ब्राह्मण-भोजन भी माना सभी अभट्ठोंको सिद्ध हो । इलुना कहकर शह, चक्र, चाहिये ।।

 

गदायधारीं श्रीकृष्णा अन्तर्रत हो गये। ज्येष्ठ आदि चार महीनोमैं चैत चन्दन, श्वे पुष्य, कृष्ण सुमनुने कहाराजन् ! उनकी आज्ञा पाकर साम्यने भौं | अगरु धूप और उत्तम नैवेद्य सूर्यनारायणको अर्पण करना भक्तिपूर्वक सूर्यनारायणकी आराधनामें तत्पर हों इधसम्मक

चाहिये

इसमें पञ्चगव्यप्राशन कर झाह्मणों को कष्ट भोजन व्रत किया और कुछ ही समयमै रोगमुक्त होकर मनोवाञित काना चाहिये। फल प्राप्त कर लिया सूर्यदेवके रथ एवं उसके साथ भ्रमण करने वाले देवता-नाग आदिका वर्णन ।

राजा शतानीकने पूछामुने !

सूर्यनारायणकी हैं, आप मानन्द सुनें ।।

श्ययात्रा किस विधानसे करना चाहिये।

रथ कैसा बनाना एक चक्र, तीन नाभि, पाँच अरे तथा स्वर्णमय अति चाहिये। इस रथयात्राका प्रचलन मत्यलोक किसके द्वारा कात्तिमान् आठ बन्धसे युक्त एवं एक नमसे मनुसज्जित हुआ? इन सब बातों को आप कृपाकर मुझे अतरायें। इस प्रकारके दस हजार योजन -चौड़े अतिशय प्रकाशमान

मुमनु मुन बोले-राजन् ! किसी समय सुमेरु स्वर्ण-पथमैं विराजमान भगवान् सूर्य विचरण करते रहते हैं। पर्वतपर समान भगवान् रुदने ब्रह्माजीसे पुछ–’ब्रह्मन् ! थके उपस्थ ईपा-टाटु तीन-गुना अधिक है। यहीं उनके इस लोको प्रकाशित करनेवाले भगवान् सूर्य किम कारके साथ अरुण बैठते हैं। इनके उथका जुआ सोने का अना हुआ प्रथमें बैंकर भ्रमण करते हैं, इसे आप अता ।’ हैं। प्रथमें बायके समान वेगवान् इन्टरुपीं सारा घोई जुत्ते हुने ब्रह्माजींने कहा–त्रिलोचन ! सूर्यनारायण जिस हैं। संघसमें जितने अवयव होते हैं, ये हीं थके अङ्ग हैं। प्रारक इथ बैंकर भ्रमण करते हैं, उसका मैं वर्णन करता तीन काल चक्रकी तीन नाभियां हैं। पाँच ऋतु अरे हैं, ॐ

! – मि दिन यः दिनका अधळ अश — सायं चार बफ गभग भाजन झन पुगे गत आवमा कर या माशा है, उसे 1:भुत कहा जाता है भरि भिर पाकर गां भोजन ‘नान हन्मना है।

– धमक बिपयम नरमान, सनम, मतप्राप्त आंद नमक पद्माण एवं वायुग, माघ-माह्म-धमें यह तारस व्रत-विधान निरूपा हुआ है और कुछ शान भी इस दिन भगवान् के भन्न चाकर भाको अधम यात्रा काने व किया गया है। आप रामनामा दिन भगवान का, जाप दिन भगवान श्रीकृष्णम्म माफटा मानन जुनाव किया जाना : म | समीक दिन भगवान सूर्य का प्राकट्य मान्न जनक कि भना , मात्र या अन् मगन की जानी है। झापर्व ]

+ सूर्यदेवकै उच्च एवं उसके साथ भ्रमण करनेवाले देवतानाग आदिका वर्ण +

 

ऋतु नम हैं । दक्षिण और उत्तर—ये दो अयन रथके दोनों दो आदित्य, कश्यप और तु नामक दो ऋषि, महापद्म और | भाग है। मर्न उथ इषु, कम, इम्य, काष्ठा उथके कोण, कर्कोटक नामक दो नाग, चित्राङ्गद और अरगानु नामक हो क्षण अक्षदा, निमेष श्धके का, ईंषा-दा; लवा, रात्र वरूथ, गन्धर्व, सहा तथा सहस्या नामक दो अप्सरा, ना तथा धर्म उधका वज़, अर्थ और काम पुरीका आग्रभाग, गायत्री, अरिष्टनेमि नामक यक्ष, आप तथा वात नामक दो राक्षस प्रिष्ट्रप, अगती, अनुष्ट्रप, पंक्ति, गृहती तथा अण्ण- ये सात सूर्यपथके साथ चा करते हैं।

छन्द सात अध हैं। धुरीपर चक्र भूमता हैं। इस प्रकारके उध माघ–फागुनमें क्रमशः पूषा तथा जिष्णु नामक दों बैठकर भगवान् सुर्य निरन्तर आकाशमें भ्रमण करते रहते है। आदित्य, जमदग्नि और विश्वामित्र नामक में ऋषि, काइवेय | देव, ऋषि, गन्धर्व अप्सरा, नाग, ग्रामणी और राक्षस और कम्बलवान ये दो नाग, धृतराष्ट्र तथा सुर्यवर्चा नामक सूर्यकै रथके साथ घूमते रहते हैं और दो-दो मासके बाद इनमें दो गन्धर्व, तिलोत्तमा और भा में दो अपरा तथा नजित् रिवर्तेन हो जाता है।

और सत्यजिन नामक दो यक्ष, ज्ञाह्मगत तथा प्रशासन नाम। धाता और अर्यमा–ये दों आदित्य, पुलस्त्य तथा पुलह दो राक्षस सूर्यग्यके साथ चला करते हैं। | नामक दो ऋषि, सण्डक, वासुकि नामक दो नाग, तुम्वरु और ब्रह्माजीनें कहा–रुदेव ! सभी देवताओंने अपने ।

नारद ये दो गन्धर्व, ऋतुधला तथा पुञ्जिका ये असराएँ अंशरूपसे विवि अरु-शासकों भगवान सूर्यकी रक्षा उधकृस तथा यौजा में दो पक्ष, ति तथा प्रति नामक दो जिसे उन्हें दिया है। इस प्रकार सभी देवता उनके पथके ग्राम में क्रमशः चैत्र और वैशाख मासमें रशके साथ चला साथ-साथ भ्रमण करते रहते हैं। ऐसा कोई भी देवता नहीं हैं।

जो उथके पीछे न चले। इस इमदेवमय सूर्यनारायणके मित्र तथा वरुण नामक दो आदित्य, त्र तथा वसिष्ठ मण्डलकों ब्रह्मवेत्ता ब्रह्मस्वरूप, आशिक अज्ञस्वरूप, भगवद्भक्त ये दों ऋषि, तक्षक और अनन्त दो नाग, मॅनका तथा सहान्या विष्णुस्वरूप तथा व शिवस्वरूप मानते हैं। ये थानाभिमानी ये दो अप्सराएँ, हाहा-हू दो गन्धर्व, इधस्वान् और रचित्र देवगण अपने तेजसे भगवान् सूर्यको आध्यापित करते रहो ये दो पक्ष, पौरुषेय और यध नामक दो इस क्रमशः ज्येष्ठ हैं। देवता और ऋषि निरन्तर भगवान् सूर्यको स्तुति करते रहें । तथा आषाढ़ मास सुर्यरथम साथ चला करते हैं। हैं, गन्धर्व-गण गान करते रहते हैं तथा अप्सरा रथ आगे ।

शाण तथा भाद्रपदमें इन्द्र तथा बिस्लान नामक दो नृत्य करती हैं जो इहती है। राक्षस के पौळे पी | आदित्य, अहि नया भग नामक दो अन, परी नया हैं। साल हजार बालविल्य ऋणि धका चार

शङ्पाल में दो नाग, अम्लोचा और इंदका नामक दो अप्सराएँ, घेरकर चलते हैं। विस्पति और स्वय धके आगे, भर्ग भानु और दुर्दर नामक गन्धर्व, सर्प तथा ब्राह्म नामक दो दाहिनी ओर, पद्मज आ ओर, कुबेर दक्षिण दिशामें, वरुण | गृक्षस, ब्रोत तथा आपूरण नामक दो यक्ष सूर्यरथके साथ उत्तर दिशामें, वतहोत्र और हरि, रथके पीछे रहते हैं। रथ के चलते इलें हैं।

पौटमें पृथ्वी, मध्यमें आकाश, रथको कात्तिमें स्वर्ग, बाम आश्विन और कार्तिक मासमें पर्जन्य और पृषा नामक दो दण्ड, विज्ञापने धर्म, पताकामें ऋद्धि-वृद्ध और स्त्री निवास आदित्य, भारद्वाज और गौतम नामक दो ऋषि, विज्ञसेना तथा करती हैं। अदरक ऊपरी भागमें गरुड़ तथा उसके ऊपर यसुरुचि नामक दो गन्धर्व, विश्वाची तथा मृताची नामकी दो वरुण स्थित हैं। मैनाक पत्रंत छत्रका दण्ड, हिमाचल प्रश्न अप्सराएँ, ऐरावत और धनञ्जय नामक ] नाग और सेनजित् होकर सूर्यके साथ रहते है। इन देवताओंका बल, तप, तेज, तथा सुषेण नामक दो पक्ष, आप एवं वात नामक दो राक्षस योग और तत्व जैसा है वैसे ही सूर्यदेव तपते हैं। ये ही देवगा सूर्यपथके साथ चा करते हैं।

नपते हैं, बरसते हैं, मुष्टिका पालन-पोषण करते हैं, जोयाके मार्गशीर्ष तथा पौष गासमें अंशु तथा भग नामक अशुभ कर्मों निवृत्त करते हैं, प्रज्ञाको आनन्द देते हैं और | १- ये नाम विष्णु आदि अन्य पुराणों में कुछ भेदमें मिलते हैं।  

= पुराणं परमं पुण्यं भविष्यं सर्वमीस्पदम्

[ संक्षिप्त पबियपुग सभी प्राणियों के लिये भगवान् सूर्यके साथ भ्रमण जब मध्याद्ध होता है, उस समय बिभामें उदय, अमरावती करते रहते हैं। अपनी किरणोंमें चन्द्रमाकी द्धि कर सूर्य आधी रात और संयमनीमें सूर्यास्त होता है । विभा नगरौमें जब भगवान् देवताओंका पोषण करते हैं। शुक्ल पक्षमें सूर्य- मध्याह्न होता है, तब अमरावतीने सुर्योदय, संयमनमें आधी किरणोंसे चन्द्रमाको क्रमशः वृद्धि होती है और कृष्ण पक्षमें ग़त और सुखा नामकी वरुणको नगरीमें सूर्यास्त होता है । इस देवगण उसका पान करते हैं। अपनी किरणोंसे पृथ्वीका प्रकार मेरु पर्वतकों प्रदक्षिणा करते हुए भगवान् सूर्यका उदय रस-पान कर सूर्यनारायण वृष्टि करते हैं। इस वृष्टिसे सभी और अस्त होता है। प्रभातसे मध्याह्नक सूर्य-किरणकी वृद्धि ओषधयाँ उत्पन्न होती हैं तथा अनेक प्रकारके अन्न भी उत्पन्न और मध्याह्नसे अस्तक वास होता हैं । जहाँ सूर्योदय होता है। होते हैं, जिससे पितरों और मनुष्योंकी तृप्ति होती हैं। यह पूर्व दिशा और जहाँ अस्त होता है वह पश्चिम दिशा हैं।

एक चक्रवाले प्रथमें भगवान् सूर्यनारायण बैठकर एक एक माहूर्तमें भूमिका तीसवाँ भाग सूर्य लाँघ जाते हैं। सूर्य अहोरात्र में सात द्वीप और समुद्रोंसे युक्त पृथ्वीके चारों और भगवान्के उदय होते ही प्रतिदिन इन्द्र पूजा करते हैं, मध्याह्नमें भ्रमण करते हैं। एक वर्षमै ३६ॐ बार भ्रमण करते हैं। इन्द्रकी यमराज, अस्तके समय वरूण और अर्धरात्रिमें सोम पूजन पुरी अमरावतमें जब मध्याह्न होता है, तब उस समय यमकी करते हैं। संयमन पुगैमें सूर्योदय, वरुणक सुखा नामकी नगरीमें विष्णु, शिव, रुद्र, ब्रह्मा, अग्नि, वायु, निति, ईशान अर्धरात्रि और सौमको विभा नामक नगरोंमें सूर्यास्त होता हैं। आदि सभी देवगण क्रिकी समाप्तिपर ब्राह्मवेलामें कल्याणकै संयमनीमें जब मध्याह्न होता है, तब सुखामै उदय, लिये सदा भगवान् सूर्य की आराधना करते रहते हैं।

अमरावतीमें अर्धरात्रि तथा विभामें सूर्यास्त होता है । सुखामें

(अध्यय ५३५३)

भगवान् सूर्यकी महिमा, विभिन्न ऋतुओंमें उनके अलग-अलग वर्ण तथा उनके फल भगवान् रुद्रनें कहा-ब्रह्मन् ! आपने भगवान् न होनेसे जगत्का कोई व्यवहार भी नहीं चल सकता। सूर्यनारायणके माहात्म्यका वर्णन किया, जिसके सुननेसे हमें ऋतुनुका विभाग न हो तो फिर फल-फूल, शेती, ओषधियाँ | बहुत आनन्द मिला, कृपाकर आप उनके माहारा और आदि कैसे उत्पन्न हो सकती हैं और इनकी उत्पनिके बिना अर्शन करें ।

प्राणियका जीवन भी कैसे हु. सकता है। इससे यह स्पष्ट हैं | मानी बोलेहै रुद्र ! इस सचराचर शैलपके मूल कि इस (चराचरात्मक) विश्वकै मलभूत कारण भगवान् सूर्य | भगवान् सूर्यनाराअग ही हैं। देवता, असुर, मानव आदि सभी नारायण ही हैं। सूर्यभगवान् वसन्त ऋतु कपल वर्ण, ग्रीष्म | इन्हींसे उत्पन्न हैं। इन्द्र, चन्द्र, रुद्र, ब्रह्मा, विष्णु तथा शिव तप्त सुर्णके समान, बर्षामें अंत, शरद् ऋतु पाण्डुवर्ण,

आदि जितने भी देवता हैं, सबमें इनका तेज़ व्याप्त है। हेमन्त ताम्रवर्ग और शिशिर ऋतुमें रक्तबके होते हैं। इन। | अग्निमें विधिपूर्वक दी हुई आत सूर्यं भगवान्को हो प्राप्त होतो यणका अलग-अलग फल हैं । रुद्र ! उसे आप सुने हैं। भगवान् सूर्यसे ही वृष्टि होती है, वृष्टि अन्नादि उत्पन्न होने यदि सूर्यभगवान् (आसमयमें) कृष्णक हो तो हैं और यहीं अन्न प्राणियोंका जीवन हैं। इन्होंने जगतको संसार भय होता हैं, ताम्रयर्गक हों तो सेनापतिका नाश होता । उत्पत्ति होती है और अनमें इन्हींनी सारी सृष्टि विलीन हो जाती हैं, पौतवर्णक हों तो राजकुमारको मृत्यु, श्वेत वर्णके हों तो

हैं। ध्यान करनेवाले इन्हीं ध्यान करते हैं तथा ये मोक्षकों राजपुरोहितका स और चित्र अथवा धूम्रवर्णक होनेसे चौर | इन्छा रखनेवालोंके लिये मोक्षस्वरूप हैं। यदि सूर्गभगवान् न और इसका भय होता है, परंतु ऐसा वर्ण होनेवे अनन्तर यदि | हों तो क्षण, मुहूर्त, दिन, रात्रि, पक्ष, मास, ऋतु, अयन, वर्ष वृष्टि हो जाती हैं तो अनिष्ट फल नहीं होते*।। तथा युग आदि काल विभाग में ही नहीं और काल-विभाग

 

(अध्याय ५४)

* इस विषयका हद वनबमहिलाभोपों का में है। विशेष जानकारीक निं हें दुा जा सकता है।

पर्न ]

  • भगवान् सूर्यका अभिषे एवं उनकी रथयात्रा

 

भगवान् सूर्यका अभिषेक एवं उनकी रथयात्रा | कवने पूछा-ब्रह्मन् ! भगवान् सूर्य रथयात्रा कब सिन्धु, चन्द्रभागा, नर्मदा, विपाशा (व्यासनदी), तापी, शिवा, | और क्रिस विधिसे की जाती है? रथ यात्रा करनेवाले, रथको वेत्रवती (वैतया), गोदावरी, पयोष्णी (मन्दाकिनी), कृष्णा,

चनेवाले, रथको वहन करनेवाले, रथके साथ जानेवाले बेण्या, शतद् (सतलज), पुष्करिणी, कौशिकी (कोसो) तथा और बुथके आगे नत्य-गान करनेवाले एवं नि-जागरण मरय आदि सभी तीथ, नदियों और सर को मार करना करनेवाले पुरुषोंकों क्या फल प्राप्त होता हैं ? इसे आप चाहिये । दिव्य आश्रमों और देवस्थानका भी स्मरण लोककल्याणके लिये विस्तारपूर्वक बताइये करना चाहिये । इस प्रकार स्नान कराकर तीन दिन, सात दिन, ब्रह्माजी बोले-हे ऋद्ध ! आपने बहुत उत्तम प्रश्नं एक पक्ष अथवा मासभर उस अभिषेकके स्थानमें में किया है। अब मैं इसका वर्णन करता हैं, आप इसे एकाग्न- भगवान्का अधिवास करें और प्रतिदिन भक्तिपूर्वक इनकी | मनसे सुने पूरा करता है । भगवान् सूर्यकी रथयात्रा और इन्द्रोत्सव–ये दोनों माम मासके कण पक्षकों सप्तमीको मङ्गल कलश तथा | जगत्के कल्याणके लिये मैंने प्रवर्तत किये हैं। जिस देशमें ये ब्रितान आदिसे सुशोभित चौकोर एवं पार्क इंटोंसे बनी वेदीपर दोन महोत्सव आयोजित किये जाते हैं, वहाँ दुर्भिक्ष आदि सूर्यनारायणको भलभाँत स्थापित कर हवन, ब्राह्मण-भोजन, उपद्रव नहीं होते और न चोरों आदिका कोई भय ही रहता है। वेद-पाछ और विभिन्न प्रकारके नृत्य, गीत, वाद्य आदि इसलिये दुर्भिक्ष, अकाल आदि उपयोंमें शान्तिके लिये इन उसको करना चाहिये। अनन्तर माघ शुक्ला चतुर्थीको

सवो मनाना चाहिये । मार्गशीर्ष शुक्ल पक्ष की सप्तमी अयाचित व्रत कने, पञ्चमीको एक बार भोजन करें, षष्ठी अतके द्वारा भगवान् सूर्य को श्रद्धापूर्वक स्नान कना चाहिये। ग़जिके समय ही भोजन करें और समर्मीको उपवास कम हुन, ऐसा करनेवाला पुरुष सॉनके विमानमें बैंकर अग्निकको व्राह्मण-भोजन आदि सम्पन्न ने। सबको दक्षिणा देकर ज्ञाता है और वह दिव्य भोग प्राप्त करता हैं। जो व्यक्ति पौराणिक भलीभाँति पूजा करें। तदनन्तर झटत सुवर्णके शर्कराके साध शाल-चावलका भात, मिष्टान्न और चित्रवर्ग थमें भगवान् सूर्यको विराजित करें। उस रथको उस दिन भातको भगवान् सूर्यको अर्पित करता है, वह अह्मलोकको मन्दिरके आगे ही खड़ा करे । रात्रि जागरण करे और प्राप्त होता हैं। जो प्रतिदिन भगवान् सूर्यको भक्तिपूर्वक घृतका नृत्य-गीत चलता रहे। माघ शुक्ला अष्टमीको रथयात्रा करनी उबटन लगाता है, यह परम गतिक आम करता है। चाहिये। उधक आगे विविध आ जते रहे, नृत्य-गीत और पौष शुक सप्तमीकों तथौक ज्ञल अधवा पवित्र जलसे मङ्गल बेंदध्वनि होती रहे । रथयात्रा प्रथम नगरके उत्तर दिशाको वेदमन्के द्वारा भगवान् सूर्यको स्नान कराना चाहिये। सूर्य प्रारम्भ करनी चाहिये, पुनः क्रमशः पूर्व, दक्षिण और पश्चिम भगवानके अभिषेकके समय प्रयाग, पुष्कर, कुरुक्षेत्र, नैमिष, दिशाओंमें भ्रमण कराना चाहिये । इस प्रकार धयात्रा करने पृथूदक (पेहवा), शीण, गोकर्ण, ब्रह्मावतं, कुशावर्त, राज्यके सभी उपद्रव शान्त हो जाते हैं। राज्ञाको युद्धमें बिल्क, नीलपर्वत, गङ्गाद्वार, गङ्गासागर, कालप्रिय, मित्रवन, विजय मिलती है तथा उस राज्यमें सभी प्रशाएँ और पशुगण भाण्डीरवन, चक्रतीर्थ, रामतीर्थ, गङ्गा, यमुना, सरस्वती, नोरोग एवं सुखी हो जाते हैं। रथयात्रा करनेवाले, उथकों

गजेंद्धि तीर्थनामानि मना सम्मन् माघः

प्रयाग में यं कुरक्षेत्र में नमाम्

मधुकं पन्द्रभाग दो कमर

मसाले कुशावर्त चिन्तकं गोलपनम् ।।

गङ्गाहार तथा पुण्यं गङ्गासागरमेव काम गर्न लामि था

चन्ना तथा पुण्यं गती वा शिवम् सितम्ना पंजया जापा दमि मा

ङ्गा मरमान सिञ्चन्द्रभागा मर्म विपाशा यमुनाः नापी शिवा बेपत जाधा ।।

गोदावरी नग में झगा वैग्या ना नदी। इतम्। बरि कवि मयुमाधा धान्ये माग मानिध्य अल्पजन्तु तथा श्रमाः मुम्पामा दिल्यान्यननन

नामपदं , 1 ३४३।

* पुराणं परमं पुण्यं भविष्यं सर्वमौस्पदम् =

[ संक्षिप्त भविष्यपुराणाङ्क वहन करनेवाले और रथके साथ जानेवाले सूर्यंलोकमें निवास अधम किसी भी व्यक्तिको विमुख नहीं होने देना चाहिये। करते हैं। थियात्रा-स्वरूप इस सूर्यमहायागमें भुखमें पति, बिना रुडने कहा-हैं ब्रह्मन् ! मन्दिरमें प्रतिष्ठित प्रतिमाओं भोजन किये यदि कोई व्यक्ति भग्न आशावाल्या होकर लौट किस प्रकार उठाना चाहिये और किस प्रकार थमें विराजमान जाता हैं तो इस दुष्कृसमें उसके स्वर्गस्थ पितरोंका अध:पतन करना चाहिये । इस विषयमें मुझे कुछ संदेह हो रहा है, क्योंकि हो जाता है। अतः सूर्य भगवान्के इस गझमें भोजन और वह प्रतिमा तों स्थिर अर्थात् अचल प्रतिष्ठित हैं। अतः उसे दक्षिणासे सबको संतुष्ट करना चाहिये, क्योंकि विना दक्षिणा कैसे चलाया जा सकता हैं ? कृपाकर आप मेरे इस संशयकों यज्ञ प्रशस्त नहीं होता तथा निम्नलिखित मन्त्रोंसे देवताओको दूर करें। उनका प्रिय पदार्थ समर्पित करना चाहिये झाम्राज्ञी यांना संवत्सरके अयाययोंकि पर्ने जिस व्यछि त में इँवा आदिल्या वसवस्तया ।। उथका पूर्वमें मैंने वर्णन किया है, वह अथ सभी इथॉमें पहला मनोवाश्विनौ रुद्राः सुपर्णा पवागा महाः । प्रय हैं, उसको देखकर ही विश्वकर्मान सभी देवताओंके लिये असुण आनुमानाचे स्धा आम्नु देवताः ।। अलग-अलग विविध प्रकारके उप बनाये हैं। उस प्रथम दिक्पाला लोकपालाश्च में च विद्मविनायकाः । थकी पुजाके लिये भगवान् सूर्यने अपने पुत्र मनुको वह रथ जगतः स्वस्ति कुर्वन्तु ये छ दिव्या महर्षयः ।। प्रदान किया। मनुने राजा इक्ष्वाकुको दिया और तबसे यह मा विनं मा च में पाप मा च में परिपन्थिनः । रथयात्रा पूजित हो गयी और परम्परा चली आ रही है। सौम्या भवन्तु माश्च देवा भूतगणास्तथा ।। इसलिये सूर्यकी रथयात्राका उत्सव मनाना चाहिये । भगवान् ।

झापर्व 44 ॥ ६८–१]

सूर्य तो सदा आकाशामें भ्रमण करते रहते हैं, इर्मायें उनकीं इन मन्त्रोंसे मुलि देकर “बामदेवा’, ‘पवित्र’ प्रतिमाको चलाने में कोई भी दोष नहीं हैं। भगवान् सूर्यकै ‘मानस्तोंक’ तथा ‘रयताः’ इन ऋचाओंका पाठ करें। भ्रमण करते हुए उनका रथ एवं मण्डल दिखायी नहीं पड़ता, अनन्तर पुण्याहवाचन और अनेक प्रकारके मङ्गल वाद्यकी इसलिये मनुष्योंने रथयात्राके द्वारा हीं उनके रथा एवं माडलका वन का सुन्दर एवं समतल मार्ग पर इधये चलायें, जिससे दर्शन किया है। ब्रह्मा, विष्णु, शिव आदि देवको प्रतिमाके कहींपर धक्का न लगे । मोडक अभावामें अॐ वैसे उथ स्थापित हो जानेके बाद उनको उठाना नहीं चाहिये, किंतु सूर्य- लगाना चाहिये या पुरुषगण ही रथकों नें । तीस या सोलह नारायण रथयात्रा प्रज्ञा की शान्तिकें लिये प्रतिवर्ष कानीं ब्राह्मण ज्ञों द्ध आचावाले हों तथा झनों हों, वें तमको चाहिये। सोने-चांदी अथवा उत्तम काका तय मणीय मन्दिर जनाकर अड़ी सावधानीसे में स्थापित करें । सूर्य और बहुत सुद्ध थप निर्माण करना चाहिये । उसके बीचमें अतिमाके दोनों ओर सुर्यदयकीं राज्ञी (संज्ञा) एवं निक्षुभा भगवान् सूर्यकी प्रतिमा स्थापित कर उत्तम लक्षणोंमें युक्त (छाया) नामक दोनों पत्नियोंकों स्थापित करें। निक्षुभाको अतिशय सुशील हरित वाक घोटको धमें नियोजित का दाहिनी ओर तथा राज्ञीको बायीं और रथापित करना चाहिये। चाहिये। उन घोड़ॉक केशरको आँगक अनेक आभूषणों, सदाचारी वेदपाठीं दो ब्राह्मण प्रतिमाओं पकी ओर बैं पुष्पमालाओं और चैयर आदिसे अलंकृत करना चाहिये। और उन्हें मैंभालकर स्थिर रखें। सारथी भी कुशल रहना उधके लिये अर्थ्य प्रदान करना चाहिये । इस प्रकार उधको चाहिये। सुवर्णदण्डसे अलंकृत छत्र उथके ऊपर लगायें, तैयार कर सभी देवताओं की पूजा कर ब्राह्मण-भोजन कराना अतिशय सुन्दर से ज़टन सुवर्णदण्डसे युक्त ध्वजा इथपर चाहिये । दक्षिणा देकर दौन, अंध, अपेक्षितों तथा अनाथकों चलायें, जिसमें अनेक अंगको सातु पताका लगा हौं । थके भोजन आदिसे संतुष्ट करना चाहिये। उत्तम, मध्यम अथवा आगेकै भागमें सारथिके रूपमें ब्राह्मणको बैठना चाहिये।

मूर्यनौ तु वतन एवमानांपिगः यूनियन भाः धावातप्यतः

अतः पितरून म्वन्थिाप पातयेत् ब्रह्मर्ष ५५

!-हे यम-चिाको करनेवाले लमके स्वामी मत भगवान् विष्णु ! अर्म, अर्थ और ममें पूर्ण करनेवाला मैं हम-आश्रम कों नष्ट न हो । मेरो गौर भी नष्ट न हैं न हों में परिपके लोग कमें पड़े व ३ नष्ट । की हिँ भी कभी विपना न पड़े और हुम पति-पत्नीने भी कभी मतभेद बन्न न हो । है ! मैं मरणं कभी स्त्रियुक्त न हो और में भी कभी मुझे वियोगको प्राप्ति न हो। प्रभो ! जैसे आये शय्या की लक्ष्मीले शुग कहीं होती, उ अपर में आया भी कभी भारत व लक्ष्मी तथा उनमें झु- न हो।

  • पुराण घरमं पुण्यं पवियं सर्वसौरुदम्

[ संक्षिप्त भविष्यपुराणा तृतीया-कल्पका आरम्भ, गौरी-तृतीया-अत-विधान और उसका फल सुमन्तु मुनिने कहा–राजन् ! जों की सब प्रकारका पतिसहित सबसे ऊपरका स्थान प्राप्त कर सकीं थीं। ये सुख चाहती है, उसे तृतीयाका व्रत करना चाहिये। इस दिन आयातक आपमें अपने पति महर्षि वसिष्ठके साथ दिखायौं। नमक नहीं खाना चाहिये । इस विधिसे उपवासपूर्वक जीवन देती हैं। चन्द्रमाकी पत्नी रोहिणीने अपनी समस्त सर्यालयको पर्यत इस व्रतका अनुष्ठान करनेवाली स्त्रीको भगवतीं गौरी ज्ञानेके लिये बिना लवण खायें इस व्रतकों किया तों में संतुष्ट होक्का रूप-सौभाम्य तथा अवश्य प्रदान करती हैं। इस अपनी सभी सपत्नियोंमें प्रधान तथा अपने पतिं चन्द्रमाकी मतम विधान में स्वयं गौरीने धर्मराज्ञसे कम हैं, उसका अत्यन्त प्रिय पत्नी में गयीं। देवी पार्वतीक अनुकम्पासे उन्हें अर्गन मैं कमाती है। उसे आप सुनें अचल सौभाग्य प्राप्त हुआ। भगवती गौरीने धर्मसे कम-धर्म ! – इस प्रकार यह तृतीया तिथि-वत सारे संसारमें पूजित है। पुरुषों कल्याणके लिये मैंने इस सौभाग्य प्राप्त कानेवाले और उत्तम फल देनेवाला हैं। वैशाय, भाइपद तथा माघ ब्रतको बनाया है। जो स्त्री इस क्षेतको नियमपूर्वक करती है, मासको तृतीया अन्य मासोंकी तृतीयासे अधिक उत्तम है, वह सदैव अपने पतके साथ रहकर उसी प्रकार आनन्दका जिसमें माघ मास तथा भाफ्द मासकीं तृतीया स्त्रियों उपभोग करती हैं, जैसे भगवान् शिव के साथ में आनन्दित विशेष फल देनेवाली है। रहती हैं। उत्तम पनि प्राप्ति के लिये कन्याओं यज्ञ व्रत करना वैशाख मास तृतीया सामान्यरूपसे सम्बके लिये हैं। चाहिये । ब्रतमें नमक न खायें । सुवर्णकी गौरी-प्रतिमा स्थापित यह साधारण तृतीया हैं। माघ मास तुतींयाको गुड़ तथा करके भक्तिपूर्वक एकाग्रचित्त को गौरीका फूजन करे। गौरीके या दान करना -रुप लिये अत्यन्त श्रेयस्कर है। लिये नाना प्रकारके नैय अर्पित करने चाहिये। रात्रिमें भाद्रपद मासकीं तृतीयामें गुड़के बने असूप (मालपुआ) का लवणहत भोजन करके स्थापित गौरी-पतिमाके समक्ष में दान करना चाहिये । भगवान् की प्रसन्नताके लिये माघ शयन करे। दूसरे दिन ब्राह्मणोंको भोजन कराकर दक्षिणा दे। मासकीं तृतीयाको मोदक और जला दान करना चाहिये। इस प्रकार ज्ञों कन्या व्रत करता है, वह उत्तम पतिको प्राप्त वैशाख मासकी तृतीयाको चन्दनमिश्रित जल तथा मोदक्के करती है तथा चिरकातक श्रेष्ठ भौगोंकों भोगकर अत्तमै दानसे ब्रह्मा तथा सभी देवता प्रसन्न होते हैं। देवताओंने पतिके साथ इत्तम लेकको जाती है।

वैशाख मासकी तृतीयाको अक्षय तृतीया कहा है। इस दिन यदि विधवा इस व्रतकों करती हैं तो यह वर्गमें अपने अन्न-वस्त्र-भजन-सुवर्ण और जल आदि दान करने से पतिको प्राप्त करती है और बहुत समयतक वहाँ रहकर पतिके अक्षय फल प्राप्त होती है। इसी विशेषता के कारण इस साधु यहाँके सुर्खाका उपभोंग करती है और पूर्वोक्त सभी तृतीयाका नाम अक्षय तृतीया है। इस तृतीयाके दिन जो कुछ सुखको भी प्राप्त करती है। देवी इन्द्राणीने पुत्र-प्राप्तिके लिये भी दान किया जाता है यह अक्षय हो जाता है और दान इस व्रतका अनुष्ठान किया था, इसके प्रभाषसे उन्हें जयन्त देनेवाल्य सूर्यलोकको प्राप्त करता है। इस तिथिको जौं उपवास नामका पुत्र प्राप्त हुआ। अरुवातीने उत्तम स्थान प्राप्त करनेके करता है वह ऋद्धि-वृद्धि और श्रीसे सम्पन्न हो जाता है। लिये इस व्रतका ममय-पान किया था, जिसके प्रभावों चतुर्थी-व्रत एवं गणेशजीकी कथा तथा सामुद्रिक शास्त्रका संक्षिप्त परिचय सुमनु मुनिने कहा–राजन् ! तृतीया-कल्पका वर्णन चाहिये। इस प्रकार व्रत करते हुए दो वर्ष व्यतीत होने पर करनेके अनन्तर, अब मैं चतुर्थी-कल्पका वर्णन करता हैं। भगवान् विनापक प्रसन्न होकर अतीको अभीष्ट फल प्रदान चतुर्थी-तिथिमें सदा निराहार रहकर व्रत करना चाहिये। करते हैं। उसका भाग्योदय में जाता है और वह अपार ब्राह्मणको निलका दान देकर स्वयं भी तिलका भोजन करना धन-सम्पत्तिम स्वामी हो जाता है तथा परलोकमें भी अपने ब्राह्मपर्व ]

 

* चतुर्थीब्रत एवं गणेशजीकी कथा था सामुविक झासका परिचय

पुण्य-फलका उपभोग करता हैं। पुण्य समाप्त होनेके पश्चात् कहा जायगा, वह मेरे ही नाम ‘सामुद्रिक शास्त्र में प्रसिद्ध इस लोकमें पुनः आकर वह दीर्घायु, कर्मात्तमान, बुद्धिमान्, सँगा । क्यामिन् ! आपने जो आशा मुझे दी है, वह निश्चित हों | धृतिमान्, वक्ता, भाग्यवान्, अभीष्ट कार्यों तथा असाध्य- पूरी होगी। कायको भौ क्षणभरमें ही सिद्ध करनेवाला और हाथी, शमीने पुनः कहा—कार्तिकेय ! इस समय तुमने ऑड़े, रथा, पली-पुत्रसे युक्त सात जन्मोंतक राजा होता हैं। जें गणेशका दाँत उखाड़ लिया है उसे दे दो। निश्चय हीं जो | राजा शतानीकने पूछा-मुने ! गणेशजीने किसके कुछ यह हुआ है, होना ही था। दैवयोगसे यह गणेशके बिना लिये विग्न उत्पन्न किया था, जिसके कारण उन्हें विघविनायक सम्भव नहीं था, इसलिये उनके द्वारा यह विश्न उपस्थित किया कहा गया। आप विश तथा उनके द्वारा विप्त उत्पन्न करनेके गया। यदि तुम्हें लक्षणकी अपेक्षा हों तो समुहसे ग्रहण कर | कारणको मुझे अज्ञानेका कष्ट करें। :

 

, किंतु स्त्रीपुरुषका यह अच्च क्षगशास्त्र सामुहशास्त्र सुमन्तु मुनि बोलेजन् ! एक बार अपने लक्षणइस नामको ही प्रसिद्ध होगा। गणेशों तुम दाँतयुक्त कर दो।।।

शास्त्र अनुसार स्वामिकर्माकियने पुरुषों और स्त्रियों के अष्ठ कार्तिकेयने भगवान् देवदेवेश्वरसे कहाआपके लक्षणोंकी रचना की, उस समय गणेशजौने विद्म किया

कहने से मैं दाँत तो विनायकके हाथमें दे देता है, किंतु इन्हें इस इसपर कार्तिकेय क्रुद्ध हो उठे और उन्होंने गणेश एक दात दाँतको सदैव धारण करना पड़ेगा। यदि इस दाँतको फेंककर उखाड़ लिया और उन्हें मारनेके लिये उद्यत हो उठे। उस ये इधर-उधर घुमेंगे तों यह फेंका गया दाँत इन्हें भस्म कर समय भगवान् शङ्करने से रोककर पूछा कि तुम्हारे क्रोधका देगा। ऐसा कहकर कार्तिकयने उनके हाथमें दाँत दे दिया। क्या कारण है ?

भगवान् देवदेवेश्वरने गणेशको कार्तिकेयकी इस बातको | कार्तिकेयने कहा- पिताजी ! मैं पुरुषोंके लक्षण माननेके लिये सहमत कर लिया। बनाकर सिके लक्षण बना रहा था, उसमें इसने विमा किया, सुमन्तु मुनिने का गन् ! आज भी भगवान् जिससे पियोंके लक्षण मैं नहीं बना सका। इस कारण मुझे आपके पुत्र विन्नकर्ता महात्मा विनायककी प्रतिमा हाथमें दांत मेष हों आया। यह सुनकर महादेजने कंपके क्रोधकों लिये देखी जा सकती है। देवताओंकों यह रहस्यपूर्ण बात मैंने शान किया और हँसते हुए उन्होंने पूछा आपसे कहीं। इसको देवता भी नहीं जान पाये थे। पृथ्वीपर झर झोले—मान ! तुम मपके लक्षण ज्ञानते हो तो इस इहस्यको जानना तो दुर्लभ ही है। प्रसन्न होकर मैंने इस बताओ, मुझमें पुरुषके कौन-से लक्षण हैं?

रहस्यको आपसे तो कह दिया है, किंतु गणेशको यह कात्तिकंपने कम-महाराज ! आपमें ऐसा लक्षण हैं अमृतकथा चतुधी तिथिके संयोगपर ही करनी चाहिये। जो कि संसारमें आप कपालीके नामसे प्रसिद्ध होंगे । पुत्रका यह विद्वान् से, उसे चाहिये कि वह इस कथा वेदपारङ्गत श्रेष्ठ वचन सुनकर महादेवजीको क्रोध हों आया और उन्होंने ऊनके हिंजों, अपनी शनिपचित वृत्तिमै ल गु क्षत्रिय, वैश्य और इस लक्षण-ग्रन्थकों उठाकर समुहमें फेंक दिया और स्वयं गुणवान् शौंको सुनाये । जो इस चतुर्थीनतका पालन करता अन्तर्धान हो गये हैं। उसके लिये इस लोक तथा परलोकमें कुछ भी दुध नहीं बादमें शिवजीने समुद्रको बुलाकर कहा कि तुम क्यिोंके हुता। उसकी दुर्गति नहीं होती और न कह वह पजत होता आभूषण-स्वरूप विलक्षण क्षणोंकी रचना करें और हैं। भरतश्रेष्ठ ! निर्विघ्-रूपसे वह सभी कार्योको सम्पन्न कर कार्तिकेयने जो पुरुष-लक्षणके विषयमें कहा है उसको कहो। लेता है, इसमें संदेह नहीं हैं। उसे ऋद्धि-वृद्धि-ऐश्वर्य भी प्राप्त समुड़ने कहा-जो मेरे द्वारा पुरुष-लक्षणका ज्ञान हो जाता हैं।

(अध्याय ३३)

  • पुराणं परमं पुण्यं भविष्य सर्वसौख्यदम् +

[ संक्षिप्त भविष्यपुराणाङ्क चतुर्थी-कल्प-वर्णनमें गणेशजका चिच्च-अधिकार तथा उनकी पूजा-विधि राजा शतानीकने सुमन मनसे पा–विप्नवर ! पक्ष चतुर्थी के दिन, हस्पतिवार और पुष्य गणेशजांकों गणका ग़ज्ञा किसने बनाया और बड़े भाई नक्षत्र होनेपर गणेशजीको सर्वोच्चधि और सुगन्धित द्रव्य कार्तिकेयकें रहते हुए ये कैसे विके अधिकारी हो गये ? पदार्थोंसे उपलम करे तथा उन भगवान् विभेदके सामने स्वयं सुमन्तु मुनिने का राजन् ! आपने बहुत अच्छॐ बात भद्रासनपर बैठकर ब्राह्मणोंसे स्वस्तिवाचन कराये। तदनतर पूल हैं। जिस कारण ये चिंघकारक हुए हैं और जिन बिॉकों भगवान् र, पार्वती और गणे,की पूजा करके सभी पितरों करनेमें इस पदपर इनकी नियुक्ति हुई, वह मैं कह रहा है, उसे तथा प्रोंकी पूजा करें। चार कला स्थापित कर उनमें आप प्रकासचित होकर सुनै । पहले कृतयुग जाने व सप्तमृत्तिका, गुमाल और गौचन आदि इन्व्य तथा मुर्गान्धित मुष्ट हुई तो बिना विघ्न-बाधाके देखते-ही-देखते सब कार्य पदार्थ छोड़े। सिंहासनस्थ गणेशजीको स्नान कराना चाहिये। सिद्ध हो जाते थे। अतः या बहुत अहंकार हो गया। स्नान कराते समय इन मन्त्रोंम उच्चारण करे होश-हित एवं अहंकारसे परिपूर्ण प्रजाकों देखकर ब्रह्माने ‘ सहस्राक्षे शतभारमूर्षिभिः पावनं कृतम् । बहुत सोच-विचार करके अजा-समूहके लिये विनायकों ने स्वामभिषिमामि पावमान्यः पुनतु ते ॥ विनियोजित किया।

अतः ब्रह्माके प्रयासमें भगवान् शङ्कने फर्ग ने वरुणो राजा भर्ग सूर्यों बृहस्पतिः

गणेशा उत्पन्न किया और उन्हें गणका अधिपति बनाया।

भगमन वायु मर्ग सप्तर्षय छः

ग़ज़न् ! जो प्राणीं गाकी बिना पूजा किये ही कार्य अत्ते केशेषु वैर्भाग्य समन्ते यच्च मूर्धनि । आरम्भ माता हैं, उनके लक्षण मुझसे सुनिये—यह व्यक्ति ललाटें कर्णयोरङ्णरापस्तद्नु 7 सदा ॥ समें अयन गहरे जलमें अपने डूबते, स्नान करते हुए या केश मुड़ायें देखता है। काषाय सबसे आच्छादित तथा हिंसक इन मन्त्रको स्नान कराकर हवन आदि कार्य करें। अनन्तर व्याघ्रादिं पशुओंर अपनेंकों चढ़ता हुआ देंखता है। अन्यत्र, हाथमें पुष्य, दुर्वा तथा सर्षप (सरसी) का गणेशजी गर्दभ तथा कैंट आदिपर चक्र परिजनों से घिरा वह अपने माता पार्वतीको तीन र पुष्पाञ्जलि प्रदान करनी चाहिये । मन्त्र ज्ञाता हुआ देखता है। जो मानव केकडेपर बैठकर अपनेको मारा करते हुए इस प्रकार प्रार्थना करनी चाहिये जकी तरंगोंके बीच गया हुआ देखता है और पैदल चल रहे कायं देहि यशो देहि भगं भगवति देहि में से घिरकर यमराजके लोकको ज्ञाता हुआ अफ्को स्वप्रमें । पुत्रान् देहि अनं देहि सर्वान् कार्माश्च देहि में। देखता है, यह निश्चित हीं अत्यन्त दुःखीं होता है।

अग्र बुद्धि में देहि धराय ख्यातिमेव च ॥ ज्ञों राजकुमार स्वपमें अपने चित्त तथा आकृतिको विकृत

ब्रह्मार्च २३ । ३४ } रूपमें अवस्थित, करवीरके फूलोंमें मालासे विभूषित देखना अर्थात् है भगवति ! आप मुझे रूप, यश, तेज, पुत्र हैं, वह उन भगवान् विनेशके द्वारा विघ्र उत्पन्न कर देनेके तथा धन हैं, आप मेरी सभी कामनाओंको पूर्ण करें। मुझे कारण पूर्ववंशानुगत प्राप्त राज्यको प्राप्त नहीं कर पाता । कुमारी अचल बुद्ध प्रदान करें और इस पृथ्वीपर प्रसिद्धि दें। कन्या अपने अनुरूप पति को नहीं प्राप्त कर पाती । गर्भिणी प्रार्थनाके पश्चात् ब्राह्मणों तथा गुरूको भोजन कराकर संतानको नहीं प्राप्त कर पाती है। औत्रिय ब्राह्मण आचार्यत्वका उन्हें वस्त्र-युगल तथा दक्षिणा समर्पित करें। इस प्रकार अभ नहीं प्राप्त कर पाता और शिष्य अध्ययन नहीं कर पाता। भगवान गणेश तथा प्रहॉकी पूजा करनेसे सभी कर्मोका फल वैश्यको व्यापारमें लाभ नहीं प्राप्त होता है और कृषकको प्राप्त होता है और अत्यन्त श्रेष्ठ लक्ष्मौकी प्राप्ति होती है। सूर्य, कृषि-कायमें पूरी सफलता नहीं मिलतीं । इसलिये जन् ! ऐसे कार्तिकेय और विनायकका पूजन एवं तिलक करनेसे सभी अशुभ स्वप्नों को देखनेपर भगवान गणपतिकी प्रसन्नता के लिये सिद्धिकी प्राप्ति होती है। विनायक-शान्ति करनी चाहिये। पुरुषों के शुभाशुभ लक्षण जा शलानींकने पूछा-विपेन्द्र ! स्त्री और पुरुषके ऊँचे चरणवाला, कमलके सदृश कोमल और परस्पर मिली । जो लक्षण काकियने अनाये थे और जिस ग्रन्थको क्रोध हुई अङ्गुलियोंवाला, सुन्दर पाण-एड़ोसे युक्त, निगूढ आकर भगवान् शिवनें समुदमें फेंक दिया था, वह रखनेवाला, सदा गर्म रहनेवाला, प्रलंदशून्य, रक्तवर्णक कार्तिकंप पुनः प्राप्त हुआ या नहीं ? इसे आप मुझे बतायें। नत्रोंसे अलंकृत चरवाला पुरुष राजा होता है। सूर्पके समान सुमन्तु मुनिने कहा—गजेंद्र ! कार्तिकाने स्त्री- रूखा, सफेद नखोसे युक्त, टेढ़ी-रूखीं नाड़ियोंमें व्याप्त, विरल पुरुषका जैसा लक्षण का हैं, वैसा ही मैं कह रहा है। अङ्गलियोंसे युक्त चरगवाले पुरुष दरंद्र और दुःखी होते हैं।

व्योमकेश भगवानके सुपुत्र कार्तिकेयने जब अपनी शक्ति जिसका चरण आगमैं पकायी गयी मिट्टोके समान वर्णकम होता | द्वारा चपर्वतको विदीर्ण किया, उस समय ब्रह्माजी उनपर हैं, यह ब्रह्महत्या करनेवाला, पीले चरणवाला अगम्यागमन | प्रसन्न हों उठे। उन्होंने कार्तिकेयसे कहा कि हम तुमसर प्रसन्न करनेवाला, कृणवर्णके चरणवाला मद्यपान करनेवाला तथा | हैं, जो चाहें वह वर मुझसे माँग स्यो । उस तेजस्वी कुमार मैनवार्णक चारणवारा अभक्ष्य पदार्थ भक्षण करनेवाला होता | कार्तिकेयने नतमस्तक होकर उन्हें प्रणाम किया और कहा कि है । जिस पुरुषके पैक अंग मोटे होते हैं वै भाग्यहीन होते विभो ! स्त्री-पुरुषके विषयमें मुझे अत्यधिक कौतूहल है। जो हैं। विकृत अँगूठेवाले सदा पैदल चलनेवाले और दुःखी होते | लक्षण-अन्य पहले मैंने बनाया था उसे तो पिता देवदेवेश्वरने हैं। चिपटे, विकृत तथा ? हुए अंगूठेवाले अतिशय निन्दित क्रोध में आकर समूहमें फेंक दिया। वह मुझे भूल भी गया है। होते हैं तथा टेढे, छोटे और फटे हुए अँगूठेवाले कष्ट भोगते | अतः उसको सुनने की मेरी इस हैं । आप कृपा करके उसका हैं। जिस पुरुषके पैर तर्जनी अंगुली अंगूठेमें बड़ी हो

वर्णन करें। उसकों लीं-सुख प्राप्त होता है। कनिष्टा अँगुली बड़ी होनेपर ब्रह्माजी बोले-तुमने अच्छी बात पूछी हैं। समुद्ने स्वर्णकी प्राप्ति होती हैं। चपटी, विरल, सूखीं अंगुनी होनेपर जिस प्रकारमें इन लक्षणोंको कहा है, उसी प्रकार मैं तुम्हें सुना पुरुष नहींन होता है और सदा दुःख भोगता हैं । रुक्ष और रह्म हैं। समुहने स्त्री-पुरुषोंके उत्तम, मध्यम तथा अधम- चैत नख़ होनेपर दुःखक प्राप्ति होती है। ग्राम नम्व होनेयर तीन प्रकार के लक्षण बतलाये हैं।

पुरुष महित और कामभोगत होता है। शैम यह अंशा शुभाशुभ लक्षण देनेवालको चाहिये कि वह शुभ होनेपर भाग्यहीन होता है। अमें छोटे होनेपर ऐश्वर्य प्राप्त होता मुहूर्तमें मध्याह्नके पूर्व पुरुषके लक्षणोंकों देखें । प्रमाणसमूह, है, किंतु अन्धनमें रहता हैं । मृगके समान होया होनेपर राजा छायागनि, सम्पूर्ण अङ्ग, दाँत, केश, नत्र, दादी-मैका लक्षण होता है। संय, मोटी तथा मांसल जंघावाज़ ]श्वर्यं प्राप्त करता देखना चाहिये । पहले आयुकीं परीक्षा करके हीं जग बतानें हैं। सिंह तथा बाघकै समान जंघावाला धनवान् होता हैं। चाहिये। आयु कम से तो सभी लक्षण व्यर्थ हैं। अपनी जिसके घुटने मसरहित होते हैं, वह विदेशमें मरता है, विक्ट अङ्गुलियोसे जो पुरुष एक सौ आठ यानीं बार हाथ बारह ज्ञानु होनेपर दरिंद्र होता हैं। नीचे घुटने होनेपर स्व-जित होता अङ्गका होता है, वह उत्तम होता है। सौं अङ्गलका होनेपर है और मांसल जानु होनेपर गुज़ा होता है। हंस, भास पक्षी, मध्यम और नये अङ्गका होनेपर अधम माना जाता है- शुक, वृष, सिंह, हाथी तथा अन्य श्रेष्ठ पशु-पक्षियोके समान । याईके प्रमाणका यी लक्षण आचार्य समुद्रने का है। गत होनेपर व्यक्त गुजा अथवा भाग्यवान् होता है। ये ।

हे कुमाए ! अब मैं पुरुषकै अङ्गम सक्षम कहता हैं। आचार्य समुद्रके वचन है. इनमें संदेह नहीं हैं। जिसका पैर कोमल, मांसल, रक्तवर्ण, स्निग्ध, ऊँचा, पसीनेमें जिस पुरुषको रक्त कमालवै समान होता हैं यह धनवान् । हित और नाड़ियोंसे व्याप्त न झै अर्थात् नयाँ दिखायी नहीं होता है। कुछ लाल और कुछ काला धरवाना मनुष्य पड़ती हो तो वह पुरुष राजा होता हैं। जिसके पैर तल्वेमें अधम और पापकर्मको करनेवाला होता है । जिस पुरुषमा रक्त अंकुदाका चिढ़ हों, वह सदा सुव्रीं रहता हैं । कक्के समान मँगेके समान रक्त और अिध होता है, वह सात द्वीपका राजा

 

* पुराणं प्रामं पुण्यं भविष्यं सर्वसौख्यदम्

[ संक्षिप्त भविष्यपुराणाम् होता हैं। मृग अथवा मोरके समान पेंट होनेपर उत्तम पुरुष होता है, तीन बलि होनेपर ग़ज्ञा अथवा आचार्य होता हैं । चार होता हैं। बाघ, मैक और सिंहके समान पेट होनेपर जा बलि होनेपर अनेक पुत्र होते हैं, सीधी बलि होनेपर धनका | होता है। मसले प्रष्टसीधा और गोल पायान ब्यक्ति भी उपभोग करता है।

होता है। बाघके समान पीठयाम व्यक्ति सेनापति होता है। जिसके कन्ध कर एवं मांसल तथा समान में ये गुज़ा सिंहके समान लंबी पौंठवाला व्यक्ति बन्धनमें पड़ता हैं। होते हैं और सुखी रहते हैं। जिसका वक्षःस्थल बनाए, उन्नत, कछुके समान पाँउवाला पुरुष धनवान् तथा सौभाग्य-सम्पन्न मांसल और विस्तृत होता है वह राजाके समान खेता है। इसके होता है। चौंड़ा, मांससे पुष्ट और रोमयुक्त वक्षःस्थलबाला बिपरीत कड़े रॉमवाले तथा नसें दिखायी पड़नेवाले वक्षःस्थल पुरुष शतायु, धनवान् और उत्तम भौगोमें प्राप्त करता है। प्रायः निधनॉक में होते हैं। दोनों वक्षःस्थल समान होनेपर सूखी, रूखी, विरल हाथी अँगुलियोंवाला पुरुष नहींन पुरुष धनवान् का है, पुष्ट होने पर शूरवर होता है, छोटे और सदा दुःखी रहता हैं।

होने पर धनहीन तथा छोटा-बड़ा होनेपर अकिंचन होता है और जिसके हाथमें मस्यरेखा होती है, इसका कार्य सिद्ध शससे मारा जाता है। विषम हनुवाला धनहीन तथा उन्नत होता है और वह धनवान् तथा पुत्रवान् होता है । जिसके हाथमें हनु(बुटी) वाम भोगी होता हैं । चिपटीं ग्रीवायाला धनहीन तुला अथवा वेदीका चिह्न होता है, यह पुरुष व्यापारमें अभ होता है। मक्षिके समान मवावा शूरवर होता है। मृगके करता है। जिसके हाथमें सोमलताका चिह्न झेता हैं, वह धनों समान प्रवावाला डरपोक होता है। समान प्रवावाला गुज्ञा होता है और यज्ञ करता है । जिसके हाथमैं पर्वत और वृक्षका होता है। तोता, ऊँट, हाथी और बगुलेके समान लंबी तथा । चिह्न होता है, उसकी लक्ष्मी स्थिर होती हैं और वह अनेक शुष्क प्रीवाबाला धनहीन होता हैं। छोटी वावा धनवान् । सैवकका स्वामी होता है। जिसके हाथमें बर्थी, माण, तोमर, और सुखी होता हैं। पुष्ट, दुर्गन्धरहित, सम एवं थोड़े रोमसे खड्ग और अनुषका चिह्न होचा है, वह युद्धमें विजयी होता युक्त काँग्रवालें धनी होते हैं, जिसकी भुजाएँ ऊपरको खिंचों हैं। जिसके कायमै ध्वज्ञा औं शङ्का चिह्न होता है, वह रहती हैं. वह बभनमें पड़ता है। अॅटीं भुजा रहनेपर दास होता जजसे व्यापार करता है और अनवान् होता है। जिसके है. छोटी-अझी भुजा होनेपर चोर होता है, लंबी भुजा होनेपर, हाथमें श्रॉवल्स, कमल, वज़, इध और कलाम चिह्न होता सभी गुणों से युक्त होता है और जानुओंतक लंबी भुजा होनेपर हैं, वह शत्रुहित राजा होता है। दाहिने हाथ अँगूठेमें ययका ज्ञा होता है। जिसके हाथका तल गहूरा होता है उसे पिताका चिह्न रहनेपर पुरुष सभी विद्याभका ज्ञाता तथा प्रवक्ता ता धन नहीं प्राप्त होता, सद्द पोंक होता है। ऊँचे करतलवा हैं। जिस पुरुपके हाथमें कनष्ठाके नीचसे तर्जनीकै मध्यक पुरुष दानी, विषम करतलवाला पुरुष मिश्रित फलवाला, रेखा चमें जाती है और बीचमें अलग नहीं रहती है तो वह लाखके समान रक्तवर्णवाला कतल होनेपर जा होता है। पुरूष सौ वर्षांतक जीवित रहता हैं। जिसका पेट साँपके समान पीले करतालवाला पुरुष अगम्यागमन करनेवाल्, काम होता है वह दरिद्री और अधिक भोजन करनेवाला होता नौला कारतालवाला मद्यादि इयाँका पान करनेवाला होता है। हैं। विस्तीर्ण, फैली हुई. गम्भीर और गोल नाभिवाला व्यक्ति कसे करतलयाला पुरुष निर्धन होता हैं । जिनके हाथों रेखाएँ सुख भोगनेवाला और धन-धान्यसे सम्पन्न होता है। नीचीं गहरी और स्निग्ध होती हैं वे धनवान् होते हैं। इसके विपरित और छोटी नाभिवाला व्यक्ति विविध क्लॉकों भोगनेवाला झोता देखावाले दरिंद्र होते हैं। जिनकी अंगुलियाँ विरल होती हैं, हैं। बल्केि नीचे नाभि हों और वह विषम हों तो धनकों ने उनके पास धन नहीं ठहरता और गहरों तथा छिट्टहीन अंगुली होती है। दक्षिणावर्त नाभि बुद्ध प्रदान करती हैं और वामावर्ने रहनेपर घनका संचयी रहता है। नाभि शान्ति प्रदान करती हैं। सौ दलवाले कमलको ब्रह्माजीं पुनः बोले-कॉर्तकेय ! चन्द्रमण्डलके काँका समान नाभिवाला पुरुष राजा होता है। पेटमें एक समान मुखवाला व्यक्ति धर्मात्मा होता है और जिसका मुख बलि होनेपर शस्त्र मारा जाता है, दो बलि होनेपर स्त्री-भोग सैंडकी आकृतिका होता हैं वह भाग्यहीन होता हैं। टेढ़ा, टूटा

ब्रह्मपर्व ]

* पुरूषके शुभाशुभ लक्षण

हुआ, विकृत और सिंहके समान मुख्नवाला चोर होता हैं। जिल्लावाला विद्वान् होता हैं । कमलकें प्रत्तेके समान पतली, सुन्दर और कॉन्तियुक्त श्रेष्ठ हाथोके समान भरा हुआ सम्पूर्ण लंबी न बहुत मोटी और ना बहुत चौड़ा जिल्ला रहनेपर ग़ज़ा मुखवाला व्यक्ति राजा होता है। अकरें अथवा अंदर के समान होता है। काले रंगका शाखा अपने कुलश्का नाशक, पौले मुखवाला व्यक्ति धनी होता है। जिसका मुख बड़ा होता हैं तालुवा सुख-दुःख भोग करनेवाल्या, सिंह और हाथोके उसका दुर्भाग्य रहता है। लेटा मुग्धा कृपण, लंबा तालुके समान तथा कमलके समान तालुयाला राजा होता है, मुखवाला धनहीन और पाप होता हैं। चौबँटा मुरक्याला धूर्त, श्वेत तालुयाम धनवान् होता है। रूम्वा, फटा हुआ नाथां के मुखर्के समान मुखयाला और निम्न मुखबाला पुरुष विकत तालुवाला मनुष्य अच्छा नहीं माना जाता। पुत्रहीन होता है या उसका पुत्र उत्पन्न होक्न नष्ट हो जाता है। हंसके समान स्वरवाले तथा मॅपके समान गम्भीर जिसके कपोल कमलके हलके समान कोमल और कॉन्तिमान् स्वरयाले पुरुष धन्य माने गये हैं। क्रौंचके समान स्वरवाले होते हैं, वह घनवान् एवं कृषक होता है । सिंह, बाघ और राजा, मझन् धन तथा विविध सुखका भोग करनेवाले होते हाथोके समान कपालवाला व्यक्ति विविध भोग-सम्पत्तियों- हैं । चक्रवाकके समान जिनका स्वर होता है ऐसे व्यक्ति अन्य वाल और सेनाका स्वामी होता हैं। जिसका नाचेका ओठ तथा धर्मवत्सल गुजा होते हैं। बड़े एवं इंभिके समान रक्तवर्णका होता हैं, वह राजा होता हैं और कमालके समान स्वरवाले पुरुष राजा होते हैं। ऋग्वे, ऊँचे, क्रूर, पशुओंके अधरवाला धनवान् होता है। मोटा और रूग्रा हाँड़ होनेपर सामान तथा घर्षरयुक्त स्वरयाले पुरुष दुःखभाग होते हैं। नील दुःखीं होता हैं।

कृप्ट पक्षौके समान स्वरवाले भाग्यवान् होते हैं। फुटे काँसके जिसके कान मांसहन हो वह संग्राम मारा जाता है। बर्तनके सम्मान तथा उरे-फटे स्वरवा अधम क गये हैं। चिपटा कान होनेपर रोगों, छोटा होनेपर कृपया, शङ्कके समान दाडिमके पुष्पके समान नेत्रयाण राजा, पाभके समान कान होने पर राज्ञा, नाड़िसे व्याप्त होनेपर क्रूर, केसे युक्त नेत्रवाला क्रोधी, केकड़ेके समान आँखाला झगड़ालू, होनेपर दाँजौवा, बा, पष्ट तथा वा कान होनेपर भौगो चिन्ली और हंसके समान नेत्रवाला प्रख्या अधम होता हैं। देवता और झाको जा करनेवाला एवं राज्ञा होता हैं। मयूर एवं नकुके समान आँववाले मध्यम माने जाते हैं। जिसको नाक शुकको चोंचके समान हों वह सुख भोगनेवाल शहक समान पिङ्गल वर्णक नेत्रवालकों को कभी भी और चक नाकवाला दीर्घजीवी होता हैं। पता नाकाला त्याग नहीं करतीं। गांचन, गुना और हरतालके समान ज्ञा, लंबी नाकवाला भोगी, ओटौं नाकवाला धर्मशील, पिङ्गल नेत्रवाला वलयान और घनेश्वर होता हैं। अर्धचन्द्रके हाथी, घोड़ा, सिंह या मुईको भन तौखीं नाबाला व्यापार में समान ललाट होनेपर राजा होता है। बड़ा लट होनेपर सफल होता है। कुट-पुष्पकी झलके समान उज्वल धनवान् होता है। ओटा लट होनेपर धर्मात्मा होता है। हॉलवाला राजा तथा हाथाके समान दाँतयारस एवं चिकने लाटके बीच जिस स्त्री तथा पुरुषके पाँच आड़ी रेखा होती दाँतथा गुणवान होता है। भालु और बंदरके समान दाँतावाले हैं वह सौ वर्षातक जीवित रहता है और ऐश्वर्य भी प्राप्त करता नित्या भूससे व्याकुल रहते हैं। काल, रूखे, अलग-अलग हैं। चार रेखा होनेपर अस्सों वर्ष तीन रेखा होनेपर सत्तर वर्ष, और फुटे हुए दाँतवाले दुःखसे जीवन व्यतीत करनेवाले होते दो पंखा होनेपर साठ सर्य, एक रेखा होनेपर चालीस वर्ष और हैं। बत्तीस दाँतवाले राजा, एकतीस दाँतवाले भोगीं, तीस एक भी देखा न होने पर पचास वर्गक आयुवाला होता है। इन दाँतबाले सुख-दुःख भोगनेवाले तथा उनतीस दाँतवाले पुरुष देखाऑके द्वारा हीन, मध्यम और पूर्ण आयुकी परीक्षा करनी दुःख ही भोगते हैं। काली या चित्रवर्णकी जीभ होनेपर व्यक्ति चाहिये। अट्रो रेसा होनेपर व्याधियुक्त तथा अल्पायु और दासवृत्तिले जीवन व्यतीत करता है। रूखी और मोटी लंबी-लंबी रेखाएँ होनेपर दयु होता हैं। जिसके ललाटमें ज्ञाभवा क्लोधी, श्वेतवर्गक जीभवा पवित्र आचरणसे त्रिशूल अथवा पदक चिह्न होता है, वह बड़ा प्रतापी, सम्पन्न होता है। निम्न, स्निग्ध, प्रभाग रक्तवर्ण और नोटीं कीर्ति-सम्पन्न का होता हैं |

छत्रके समान सिर होनेपर राजा, मं अः पुः अंः ३ ५८

  • पुराणं परमं पुण्यं भविष्य सांसौख्यदम् +

[ संक्षिप्त भविष्यपुराणाङ्क लेबा सिर होनेपर दुःखी, दरिद्र, विषम होनेपर समान तथा हैं। बहुत गहरे और कठोर केश दुःखदायौं होते हैं। विरल, गोल सिर होनेपर , हाधीक समान सिर होनेपर जाके स्निग्ध, कोमल, भ्रमर अथवा अंजनके समान अतिशय कृष्ण समान होता हैं। जिनके कॅश अथवा रॉम मोटे, रूखें, मेपल केशवाला पुरुष अनेक प्रकारके सुखवा भोग करता है और आगेसे फटे हुए होते हैं, ये अनेक प्रकारके दुःख भोगते जा होता हैं ।

(अध्याय ३४३६)

राजपुरुषोंके लक्षण कार्तिकेयज्ञने कहाब्रह्मन् ! आप राजाओंके होनेपर दरिद्र होता है। भौहें विशाल होनेपर सुखी, चीं।

शरिरक अङ्गक लक्षणोंकों बतानेकौं कृपा करें। होनेपर, अल्पायु और विषम आ बहुत लंबी होनेपर दरिंद्र और ब्रह्मा जी बोलें-मैं मनुष्योंमें राजाओंके अङ्गके लक्षणें दोनों भौहाँके मिले हुए होने पर धनहीन होता है । मध्यभागमें कों संक्षेपमैं बताता हैं। यदि ये लक्षण साधारण पुरूषोंमें भी नीचेक और झुकी भौंहवाले परदारामगाम होते हैं। प्रकट हो तो में भी गुजाके समान होते हैं. इन्हें आप सुने- बालचन्द्रका समान भौटे होनेपर राज्ञा होता है। ऊँचा और जिस पुरुपके नाभि, वर और संधिस्थान में तीन निर्मल ललाट होनेपर उत्तम पुरुष होता है, नीचा ललाट होनेपर गम्भीर हों, मुख, लाट और वक्षःस्थल–में तन विस्तीर्ण स्तुत किया जानेवाला और धनसे मुक्त होता हैं, कहीं ऊँचा । हो, वक्षस्थल, कक्ष, नासिका, नत्र, मुम्व और कृकाटिका- और कहीं नींचा वाट होनेपर दरिद्र तथा सपके समान ये छः उन्नत अर्थात् ऊँचे हों, उपस्थ, पौंड, ग्रीवा और लाट होनेपर आचार्य होता हैं। धि , हास्ययुक्त और झंथा—ये चार व हो, नेत्रोक आम्ल, हाथ, पैर, ताल, ओष्ठ, दोनताले हित मुख शुभ होता हैं, मैंन्यभावयुक्त तथा जिल्ला तथा नस-ये सात रक्त वर्णके हे, हनु, नेत्र, भुजा, आँसुओंसे युक्त आँखोंवा एवं रूखे चेहरेवाला श्रेष्ठ नहीं हैं। | नासिका तथा झोन तानोंका अत्तर- पाँच हॉर्च हों तथा उत्तम पुरुसका कास्य कम्पनहित धीरे-धीरे होता है। अधम दन्त, केश, अङ्गलियॉक पर्व, त्वचा तथा न ये पाँच सूक्ष्म व्यक्त बहुत शब्दके साथ हँसता है । हँसते समय आँसाको हों, वह समीपवती पृथ्वीका राजा होता है। जिसके नैत्र मैंदनेवाल्या व्यक्ति पापों झेता है। गोल सिरवाला पुरुष अनेक कमलदलके सामान और अन्तमैं रक्तवर्णके होते हैं, वह औका स्वामी या चिपटा सिंत्राला माता-पिताको मारने मोका स्वामी होता हैं। शहदके समान पिङ्गल नेवाला वाला होता है। बाकी आकृतिके समान सिरवाला सदा पुरुष महात्मा होता हैं। सूखी आँखवाला इरपोक, गोल और कहीं-न-कहीं यात्रा करता रहता है। निम्न सिरवाला अनेक चक्रके समान घूमनेवाली आँवाला चोर, केकडेके समान अनकों करनेवाला होता है। आँखयाला क्रूर होता हैं। नौल कमलके समान नेत्र होने पर इस प्रकार पुरुषोंके शुभ और अशुभ लक्षणको मैंने विद्वान्, श्यामवर्णक नेत्र होनेपर सौभाग्यशाली, विशाल नेत्र आपसे कहा। अब वियोंके लक्षण बतलाता हूँ। होनेपर भाग्यवान्, स्थूल नेत्र होनेपर राजमन्त्रों और दीन नेत्र

( अध्याय ३७]

सियोंक शुभाशुभ-लक्षण । झाङ्गी बोले-कार्तिकेय ! स्त्रियोंके जो लक्षणा मैंने सबके लक्षण देखें । । पहले नारदजौको बतलाये थे, उन्हीं शुभाशुभ-लक्षणोंको जिसको घौवामें देखा हो और नेत्रका प्रान्तभाग कुछ बताता हैं । आप सावधान होकर सुने–शुभ मुहूर्तमें कन्याके मल हों, वह स्त्री जिस घरमें जाती है, उस घरकौं प्रतिदिन हाथ, पैर, अँगुलीं, नग्छ, हाथी रेखा, जंघा, कट, नाभि, वृद्धि होती हैं। जिसके ललाटमें त्रिशूल्का चिह्न होता है, वह ऊस, पेट, पीठ, भुमा, कान, जिल्ला, ओठ, दाँत, कपोल, गा, कई हजार दासियों की स्वामिनी होती है। जिस को राजहंम्म नेत्र, नासिका, लाट, सिर, केदा, वर, वर्ण और भौरों-इन समान गति, मृगके समान नेत्र, मृगके समान ही शरीरका वर्ण,

मामप4 ]

# विनायकनाका माहात्म्य

दाँत बराबर और श्वेत होते हैं, वह इत्तम रुबी होती हैं। मैदकके देवता होती हैं। गुप्तरूपसे पाप करनेवाली, अपने पापकों | समान कुञ्जिवालों एक ही पुत्र उत्पन्न करती है और वह पुत्र छिपानेवाल्में, अपने हृदयकै अभिप्रायको किसके आगे प्रकट | राजा होता हैं। इसके समान मृदु वचन बोलनेवाली, शहदके न करनेवाली स्त्री मार्जारो-संज्ञक होती हैं। कभी सिने वाली,

समान पिन वर्गवाली कुत्री धन-धान्यसे सम्पन्न होती है, उसे कभी झाडा झलनसारी, कमी कध करनेवा, कभी असर | आठ पुत्र होते हैं । जिस रूबीके ये कान, सुन्दर नाक और भौह हुनेवाली तथा पुरुषोंके मध्य रहनेवाली ली गर्दभी-श्रेणी | धनुषके समान देदों होती हैं, वह अतिशय सुखका भोग करतीं होती हैं। पति और बान्धवॉक द्वारा कहे गये हितकारी वचन हैं। तन्वी, श्यामवर्णा, मधुर, भाषिणी, शके समान अतिशय न माननेवाल, अपनी इच्छा अनुसार विहार करनेवाली स्त्री स्वछ दाँतयाली, स्निग्ध असे समन्वित म्ल अतिशय आसुरीं कही जाती है। बहुत लानेवाली, बहुत बोलनेवाले, | ऐश्वरको प्राप्त करती हैं। विस्तर्ण जंझावाली, वैदीक समान सोटे बचन बोलनेवाली, पतिको मारनेवाली स्त्री राक्षसी-संज्ञक मध्यभागवाले, विशाल नेत्रोंवाली स्त्री रानी होती हैं। जिस होती हैं। शौच, आचार और पसे रहित, सदा मलिन लोक वाम स्तनपर, हाथमें, कानके ऊपर या गलैपर तिल बहनेवाली, अतिवास भयंकर लीं पिशाच कलाती है। | अथवा मसा होता है, उस स्त्रको प्रथम पुत्र उत्पन्न होता है। अतिशय चाल स्वभाववालों, चपल नेत्रोंवाली, इधर-उधर | जिस स्त्रीका मैंर रक्तवर्ण हो, ने बहुत ॐचे न हों, छटी एड़ी देखनेवा. भी ना] वानरों-संक होती हैं। चन्द्रमुखी, हो, परस्पर मिली हुई सुन्दर अँगुलियाँ हों, लाल नेत्र मदमत्त हाथीक समान चलनेवाली, रक्तवर्णके नोंवाली, शुभ हो—ऐसी स्त्री अत्यन्त सुख भोग करता है। जिसके पैर लक्षणोंसे युक्त हाथ-पैरवा झवी विद्याधरी-अंगीकी होती है। बड़े-बड़े हों, सभी अङ्गोंमें रोम हों, छोटे और मोटे हाथ हों, वीणा, मृदङ्ग, बंशी आदि वाद्यक शब्दों को सुनने तथा पुष्प वह दासी होती है। जिस सीके पैर उन्कट हों, मुख विकृत हों, और विविध सुगन्धित हुयोंमें अभिरुचि या स्त्री ऊपरके ओके ऊपर ग्रेम हों वह शीघ्र अपने पतिको मार देती गान्धवी-अंगकी होती है। है। जो स्त्री पवित्र, पतिव्रता, देवता, गुरु और ब्राह्मणों भक्त सुमन्तु मुनिने कहा–राजन् ! ब्रह्माजी इस प्रकार स्त्री होती है, वह मानुषी कहलाती है। नित्य स्नान करनेवाली, और पुरुषोंके लक्षणों में स्वामिकार्तिकेयकों बताकर अपने सुगन्धित द्रव्य लगानेवारी, मधुर बचन बोलनेवालों, थोड़ा अंकको चले गये। जानेवारी, कम सोनेवालीं और सदा पवित्र रहनेवाली हो ।

याय २२]

विनायक-पूजाका माहात्म्य शतानींकने कहा-मुने ! अब आप मुझे भगवान् मना चाहिये। गणेशकी आराधनाके विषयमें बतलायें।

शुक्ल पक्षकी चतुर्थीको उपवास कर को भगवान् सुमन्तु मुनि बोले-राजन् ! भगवान् गणेशक गणेशका पूजन करता है, उसके सभी कार्य सिद्ध हो जाते हैं आराधनामें किसी तिथि, नक्षत्र या उपवासादको अपेक्षा नहीं और सभी अनिष्ट दूर हो जाते हैं। श्रीगणेशजाँके अनुकूल होनौ। जिस किसी भी दिन श्रद्धा-भक्तिपूर्वक भगवान् होनेसे सभी जगन् अनुकूल हो जाता है। जिसपर एकदत्त गणेशकी पूजा की जाय तो वह अभीष्ट फलोंको देनेवाली होती भगवान् गणपति संतुष्ट होते हैं, उसपर देवता, पितर, मनुष्य हैं । कामना-भेदसे अलग-अलग प्रस्तुओंसे गणपतिकी मूर्ति आदि सभी प्रसन्न रहते हैं। इसलिये सम्पूर्ण विश्नको निवृत्त बनाकर उसकी पूजा करनेसे मनावात काकी झाप्ति होतीं करने के लिये श्रद्धा-भक्तिपूर्वक गणेशज्ञीकी आराधना करनी हैं। महाकर्णाय विद्महे, वक्रतुण्डाय धीमहि, तन्नों चाहिये। दन्तिः प्रचोदयात् ।’—यह गणेश-गायत्री हैं। इसका जप

(अध्याय ३६)

5-म्पिगमें प्रवान्टिन गण गाय काययाद है।

एकदन्तं जगाये गण तुष्टिमागते

पिन्दरागनुयाद्याः सर्वे तुन भारत ब्रापर्व 2)

पुराणं परमं पुण्यं मयिष्यं सर्यसौख्यदम्

[ संक्षिप्त भविष्यपुराणाङ चतुर्थी-कल्पमें शिवा, शान्ता तथा सुखा–तीन प्रकारकी

चतुर्थीका फल और उनका व्रत-विधान सुमन्तु मुनिने कहा-राजन् ! चतुर्थी तिथि तीन उक्त चन्दन, रक्त पुष्प आदिसे भौका पूजन करते हैं, उन्हें प्रकारक होती हैं—शिया, शान्ता और सुखा। अब मैं इनका सौभाग्य और उत्तम रूप-सम्पत्ति प्राप्ति होती हैं। लक्षण कहता है, उसे सुनें

| प्रथम संकल्पाकर स्नान करे. अनत्तर गणेश-स्मरणपूर्वक | भाद्रपद मासकी शुला चतुर्थका नाम ‘शिवा’ हैं, इस हाथमें शुद्ध मृत्तका लेकर इस मन्त्रको पढ़ें दिन जो स्नान, दान, उपवास, अप आदि सत्कर्म किया जाता ह वै वन्दिता पूर्व कृष्णेनोद्धरता किल । है, यह गणपति प्रसादसे सौ गुना हो जाता है। इस चतुर्थीको तस्मान् र पाप्मानं यन्मया पूर्वसंचितम् ॥ गुड़, म्याण और श्रुतका दान करना चाहियें, यह शुभकर माना

(ब्राह्मपञ्च ३१ २४

गया है और गुड़के अपूपों (मालपुआ) से ब्राह्मणोंको भोजन इसके बाद मृत्तिका गङ्गालको मिश्रितका सूर्यके कराना चाहिये तधा उनकी पूजा करनी चाहिये । इस दिन को सामने क, तदनन्तर अपने सिर आदि अङ्गमें लगायें और फिर स्त्री अपने सास और ससुर गुड्के पुए तथा नमकोन पुए जलके मध्य रखा होकर इस मन्त्रको पढ़कर नमस्कार करें विमती हैं वह गणपतिके अनुग्रह सौभाग्यवतीं होती हैं। त्वमापों योनिः सर्वेषां दैत्यदानवौकसाम् । पतिकी कामना करनेवाली कन्या विशेषरूपसे इस चतुर्थीका बेदाण्ञझिदां चैव रसानां पतये नमः ॥ ब्रत करें और गणेशज़ौकी पूजा करे। जन् ! यह शिया चतुर्थीका विधान है।

 

 ( पर्व ३१ २५) |

अनार सभी तीर्थों, नदियों, सरोवरों, झरनों और | माघ मासकों का चतुको ‘शान्ता’ कहते हैं। यह तालाबोंमें मैंने मान किया—इस प्रकार भावना करता हुआ शान्ता तिथि नित्य शान्ति दान करनेके कारण ‘शान्ता’ कहीं गोते लगाकर स्नान करें, फिर पवित्र होकर घरमें आकर दुर्वा, गयी है। इस दिन किये हुए स्नान-दानादि सत्कर्म गणेशाजकीं पीपल, शमी तथा गौका स्पर्श करे । इनके स्पर्श करनेके मन्त्र कपासे झार गुना फलदायक हो जाते हैं । इस शान्ता #मक इस मुकार है चतुर्थी तिथिक उपचास कर गणेशाज्ञा ज्ञन तथा हवन क त्वं दुर्वेऽमृतनामामि सर्वदेवैस्तु वन्दिता ॥ और लवण, गुड़, शक तथा गुड्के पुए ब्राह्मणोंको दानमें हैं।

वन्दिता दह तत्सर्य दुरित अन्ममा कृतम्।

विशेषरूपले स्त्रियाँ अपने ससुर आदि पून्य अनौका पूजन में एवं उन्हें भोजन करायें। इस व्रत करनेसे असाण्डू शर्मी स्पर्श करनेका मन्त्र सौभाग्य प्राप्ति होती हैं, समस्त विघ्न दूर होते हैं और पवित्राणां पवित्रा त्वं काश्यपी प्रचिता श्रुतौ । गणेशजको कृपा प्राप्त होती है।

मीं शमय में पापं नूनं वेसि भरारान् । किसी भी महान भौमवारयुक्त शुमा चतुथको ‘सुखा कहते हैं। यह व्रत स्त्रियों को सौभाग्य, उत्तम रूप और सुख | पीपल-वृक्ष स्पर्श करनेका मन्त्र देनेवाला हैं। भगवान् ङ्कर एवं माता पार्वतीको संयुक्त तेजमें नेत्रस्यन्दादिजं दुःखं दुःस्वप्नं दुविचिन्तनम् ।

भूमिद्वारा रक्तवर्णक मङ्गलकी उत्त हुई । भूमिका पुत्र होनसे । शक्तानां च समुयोगमश्वत्थ त्वं क्षमस्व में ।। यह भौम कहलाया और कुज, रक्त, यौर, अङ्गारक आदि वनपर्व हैं ।

३) नामसे प्रसिद्ध हुआ। वह शरीरके अङ्गोंकी रक्षा करने वाला गौ को स्पर्श करनेका मन्त्र तथा सौभाग्य आदि देनेवाला है, इसलिये अङ्गारक। सर्वदेवमयी देवि मुनिभिस्तु सुजता कहलाया। जो पुरुष अथवा स्त्री भौमवारयुक्त शुक्ला चतुर्थीको तस्मात् स्पृशामि वन्हें त्वां वन्दता पापहा भव ।। उपवास करके भक्तिपूर्वक प्रथम गणेशजीक्म, तदनंतर

(झाव ३६ मापर्व ]

पमी-कम आम, नागपमकी कथा के नामाका श्रद्धापूर्वक पहले गौकी प्रदक्षिणा कर उपर्युक्त मन्त्रों सभी उपचारोंकों समर्पित कर यह मूर्ति ब्राह्मणों दे दें और पड़े और गौंका स्पर्श करें। जो गोको प्रदक्षिणा करता है, उसे यथाशक्त बौं, दुध, चाय, गेहूँ, गुड़ आदि वस्तु भी सम्पूर्ण पृथ्वीको प्रदक्षिणा फल प्राप्त होता है। ब्राह्मणको दें। धन रहनेपर कृपणता नहीं करनी चाहिये, क्योंकि | इस प्रकार इनको स्पर्शकर, हाथ-पैर धोकर, आसनगर कंसों करनेसे फल नहीं प्राप्त होता। बैंठकर आचमन करे । अनन्तर खदिर (खैर) की समिधाओंमें इस प्रकार चार बार भौमपुक चतुर्थीका ब्रतक्र अद्धा अग्नि प्रज्वलित कर, घृत, दुग्ध, अव, तिल तथा विविध भक्ष्य पूर्वक इस अथवा पाँच तोले जानकी मङ्गल और गणपति पदाधसे मन्त्र पढ़ते हुए हवन करे । आहत इन मन्त्रको मूर्ति बनाया। उसे बस पल या इस पलकें सोने, चाँदी ३-ॐ र्याय स्वाहा, ॐ शर्वीपुत्राय स्वाहा, ॐ अथवा ताम्र आदिक पात्रमें भक्तिपूर्वक स्थापित करें। सभी पुत्भ याय स्वाहा, ॐ कुमाय स्वाहा, ॐ उपचासे पूजा करनेके बाद दक्षिणाके साथ सत्पात्र ब्राह्मणको लल्ताङ्गाय स्वाह्य तथा ७ हिलाङ्गाय स्वाहा । इन प्रत्येक उसे हैं, इससे इस व्रत को जम्पूर्ण फल प्राप्त होता है। गुञ्चन्! मन्त्रोंसे १६८ या अपनी शक्तिके अनुसार आति दे। अनजर इस कार इस उत्तम तिथिको मैंने कहा । इस दिन ज्ञों स्नात सुवर्ण, चाँदी, चन्दन या देवदारु काप्नुको मङ्गलकी मूर्ति करता है, वह चन्द्रमाके समान कान्तमान, सूर्यक समान बनाकर तांबे अथवा चादीके पात्रमें उसे स्थापित करे । थौं, तेजस्वों एवं प्रभावान् तथा वायुके समान बलवान होता हैं और कुंकुम, रक्तचन्दन, उक्त पुष्प, नैवेद्य आदिको उसकी पूजा करे अनमें महागणपतिकै अनुग्रहको भौमकमें निवास करता है। अथवा अपनी शक्ति के अनुसार पूजा करे। अथवा तान्न, इस तिथिके माहात्म्यकों जो पक्ति भक्तिपूर्वक पढ़ता-सुनता मृत्तिकम आ बाँससे बने पामें कुंकुम, केसर आदिसे मूर्ति हैं, वह महापातकादसे मुक्त होकर श्रेष्ठ सम्पत्तको प्राप्त अङ्कितकर पूजा करे। ‘अग्निर्मूर्धाः’ इत्पादि वैदिक मन्त्रोंसे करता है।

(अध्याय ३१)

पञ्चमी-कल्पका आरम्भ, नागपञ्चमीकी कथा, पञ्चमी-व्रतका विधान और फल सुमन्तु मुनि बोले-ग़ज़न् ! अब में पञ्चम-करन्पको मिलकर समुद्रका मन्थन किया। उस समय समुद्रसे अतिशय वर्णन करता है। पञ्चमी तिथि नागोंको अत्यन्त प्रिय हैं और अंत उःश्रवा नामको एक अश्व निकम, उसे देकर उन्हें आनन्द देनेवाली है। इस दिन नागलोकमै विशष्ट उत्सव नागमाता कडूने अपनी पत्नी (सौत) विनतासे कहा कि होता है। पञ्चमी तिथिको जो व्यक्ति नागको दुधसे मान देतो, यह अश्व अंतवणूका हैं, परंतु इसके बाल काले दौछ कराता है, उसके कुल वासुकि, तक्षक, कारिय, मणिभद्, पहने हैं। तब विनताने कहा कि न तो यह अयं सर्वश्रेत हैं, ऐरावत, धृतराष्ट्र, कर्कोटक तथा धनञ्जय—ये सभी बड़े-बड़े न काला है और न ल । यह सुनकर कडूने कहा-‘मेरे नाग अभय दान देते हैं-उसके कुलमें सर्पका भय नहीं साथ शर्त क्यों कि यदि मैं इस अश्वके बालोंको कृष्णवर्णका रहता। एक बार माताके शापसे नागोग जलने लग गये थे। दिसा हैं तो तुम मेरी दास हो जाओगी और यदि नहीं दिखा इसीलिये उस दाहकी या दूर करने के लिये पञ्चमीकों की तो मैं तुम्हारी दासी हो जाऊँगी ।’ विनताने यह दार्त गायक धसे नागरिकों आज भी लोग जान कराते हैं, इससे स्वीकार कर ले। दोनों क्रोध करती हुई अपने-अपने स्थानको सर्प-भय नहीं रहता चली गयीं । कडूने अपने पुत्र नागोंको बुलाकर सब वृत्तान्त राजाने पूछा–महाराज ! नागमानाने गागौंको क्यों उन्हें सुना दिया और कहा कि पुत्रो ! तुम अश्वके वाके आप दिया था और फिर वे कैसे बच गय? इसका आप समान सूक्ष्म होकर जारीः अवके शरीर में लिपट जाओ, जिससे विस्तारपूर्वक वर्णन करें।

गह कृणवर्गका दिखायी देने लगे। ताकि मैं अपनी सौत सुमन्तु मुनिने कहा-एक बार राक्षसों और देवताओंने विनताको जीतकर उसे अपनी दासीं बना सकें। माताके इस

 

दिवः ककुपन: पृथिव्या अयम् अपाता निति ।।

(मवेद १३ ।।

+ पुराणं परमं पुण्यं भविष्यं सर्वसौरव्यदम् +

[ संक्षिप्त भविष्यपुराणा वचनको सुनकर नागोंने कहा—’माँ ! यह तुल तो हमलोग सवें नागाः प्रीअन्त में ये केचित् पृश्चिवीतले ॥ नहीं करेंगे, चाहे तुम्हारी जौत हों या हार । छलसे जौनना बहुत में च कॅलिपरीचिस्या येतरे दिवि संस्थिताः । बड़ा अधर्म हैं। पुत्रा यह वचन सुनकर कड़ने क्रुद्ध होकर ये अदषु मानागा में सरस्वतगामिनः कहा-जुमलोग मेरी आज्ञा नहीं मानते हों, इसलिये मैं तुम्हें ये छ वापतागेषु तेषु सर्वेषु वै नमः । शाप देती है कि “पाण्डवोके में उत्पन्न झा जनमेजय जय सर्प-सत्र करेंगे, तब उस यज्ञमें तुम सभी अग्निमें जल इस प्रकार, नागको विसर्जित कर ब्राह्मणोंकों भोजन जाओगे।’ इतना कहकर कडू चुप हो गयी । नागगण माताका कराना चाहिये और स्वयं अपने कुटुम्बियोंके साथ भोजन शाप सुनकर बहुत घबड़ाये और वासुकिको साथमें लेकर करना चाहिये । प्रथम मोझ भोजन करना चाहिये, अनन्तर ब्रह्माजीके पास पहुँचे तथा ब्रह्माजको अपना सारा वृत्तान्त अपनी अभिरुचिके अनुसार भोजन करे ।

सुनाया। इसपर ब्रह्माजोने कहा कि वासुके ! चिन्ता मत करो। इस प्रकार नियमानुसार ओं पञ्चमीको नागका पूजन | मेरी बात सुनो-पायावर-वंदामें हुत बड़ा तपस्वी जरत्कार करता है, वह श्रेष्ठ विमानमें बैठकर नागलोकको जाता है और नाममा भ्राह्मण उत्पन्न होगा। उसके साथ तुम अपनी जरत्कारु शादमें द्वापरयुगमैं बहुत पराक्रमी, गहत तथा प्रतापी राजा नामवाली वहिनका विवाह कर देना और वह जो भी कहे, होता है। इसलिये घी, खीर तथा गुग्गुलसे इन नागकी पूजा उसका वचन खकार करना । उसे आस्तक नामका विन्यात करनी चाहिये ।। पुत्र उत्पन्न होगा, वह जनमैज्ञयाकै सर्पयज्ञको रोकेगा और राजाने पूछा-महाराज ! क्रुद्ध सर्पक काटनेस तुमल्योगको रक्षा करेगा। ब्रह्माजौके इस बच्चनको सुनकर मरनेवाला व्यक्ति किस गतिको प्राप्त होता है और जिसके नागराज वासुकि आदि अतिशय प्रसन्न हो, उन्हें प्रणाम कर माता-पिता, भाई, पुत्र आदि सर्पके काटनेसे मरे हों, उनके अपने में आ गये उद्धार के लिये कौन-सा ब्रत, दान अथवा उपवास करना। सुमन मुनिने इस भाको सुनाकर कहा-झन् ! चाहिये, यह आप बताये। यह प्रज्ञ तुम्हारे पिता राजा जनमेजयने किया था। यहीं बात सुमन्तु मुनिनें कहा–राजन् ! सर्पके काटनेसे जो मरता श्रीकृष्णभगवान्ने भो युधिष्ठिरसे कही थीं कि ‘राजन् ! आजसे वह अधोगतिको प्राप्त होता हैं तथा निर्वित्र सर्प होता है और सौं वर्षके बाद सर्पयज्ञ होगा, जिसमें बड़े-बड़े विषधर और दुष्ट जिसके माता-पिता आदि सर्पके काटनेसे मरते हैं, यह उनकी नाग नष्ट हो जायेंगे। करोड़ों नाग जब प्रियं दग्ध होने लगेंगे, सद्गत्तिके लिये भाद्रपद शुक्ल पक्षको पञ्चमी तिथिको उपवास । तच आस्तीक नामक ब्राण सर्पयज्ञ कल नागों की अक्षा कर नागकी प्रज्ञा करें। यह तिथि महापण्या की गयी हैं। | होगा। ब्रह्माजीने पञ्चमीक न वर दिया था और आस्तक इस प्रकार बारह महनेतक चतुर्थी तिथिके दिन एक बार मुनिने पञ्चमीक ही नागों की रक्षा की थीं, अतः पञ्चमी तिथि भोजन करना चाहिये और पञ्चमीको भनक नागकी पुजा नागको बहुत प्रिय है। करनी चाहिये । पृथ्वीपर मार्गोका चित्र अङ्कित कर अथवा पञ्चमीकै दिन नागको पूजाकर यह प्रार्थना करनी चाहिये सोना, काहु या मिट्टका नाग बनाकर अज्ञमौके दिन करवौर, कि जो नाग पृवीमें, आकाश, वर्गमें, सूर्य की किरणोंमें, कमल, चमैलों आदि पुष, गन्ध, धूप और विविध नैवेद्यास सरोवरो, वापी, कूप, तालाब आदिमें रहते हैं, वे सब हमपर उनकी पूजा कर घी, सौर और ला उत्तम पाँच ब्राह्मणों प्रसन्न हों. हम उनको बार-बार नमस्कार करते हैं। खिलाये। अनन्त, वासुकि, शंख, पद्म, कैथल, कोटक,

 

पया भवन मा वाथ लिन् मादयं मा पम दांगता सदा॥

 

नागानामान्क ]

ना में ब्राह्मण पुर।

वामानमें नागपञ्चमी प्रायः सभी पशा तथा वन मियान्यअन्यांक अनुसार आपण शुरू पञ्चममें तो हैं यहाँ या तो पाठ भर हैं। मा कलामें कभी भाड्याने नागपञ्चमी मनायी जाती रही होगी

ब्राह्मपर्व ] के सपॅक लक्षण, स्वरूप और जाति

अश्वतर, धृतराष्ट्र, पाल, कालिन्य, तक्षक और उत्तम लोक्कों प्राप्त किया था। आप भी इसी प्रकार सोनेका पिंगल—इन बारह नागोंकी बारह महीनोंमें क्रमशः पूज्ञा । नाग बनाकर उनकी पूजाकर उन्हें ब्राह्मणको दान लें, इससे | इस प्रकार वर्षपर्यन व्रत एवं पूजनकर मृतक पारणा आप भी पित-ऋणसे मुक्त हो जायेंगे। राजन्! जो कोई भी इस करनी चाहिये । बहुतसे ब्राह्मणों को भोजन कराना चाहिये । नागपञ्चमी-बतको करेगा, साँपसे में जानैपर भी वह विद्वान् ब्राह्मणको सोनका नाग बनाकर उसे देना चाहिये । यह शुभलकको प्राप्त होगा और ज्ञों व्यक्ति श्रद्धापूर्वक इस उद्यापनकी विधि हैं। राजन् ! आपके पिता जनमेजयने भी कथा सुनेगा, उसके कुलमें कभी भी साँपका भय नहीं अपने पिता परीक्षितके उद्धारके लिये यह व्रत किया था और होगा। इस पञ्चमी-अतके करनेसे उत्तम लक्की प्राप्ति होती है। सोनेका बहुत भारी नाग तथा अनेक गौएँ ब्राह्मणों को दी धीं।

 (अध्याय ३३)

ऐसा करनेपर वे पित्-ऋणसे मुक्त हुए थे और परीक्षितने भी – सपॅक लक्षण, स्वरूप और जाति राजा शतानीकने पूछा-मुने ! सपॉक कितने रूप हैं, स्वर्णकलक वर्णके समान आभावाले और लंबी रेखाओंसे मुक्त क्या लक्षण हैं, कितने इंग हैं और उनकी कितनी जातियाँ हैं ? अंडोंसे स्त्री तथा पिपुष्पके समान इंगवाले अंक बाँच इसका आप वर्णन करें ।

नपुंसक सर्प होता हैं। उन अंडोंको सर्पिणी छः महीने तक सुमनु मुनिनें कहा–राजन् ! इस विषयमें मुमेह होती है । अनन्तर अंटोंक फूटनेपर उनसे सर्प निकलते है पर्वतार महर्ष कश्यप और गौतमका जो संवाद हुआ था, और वे असे अपनी माता कह करते हैं। अंडेके बाहर उसका मैं वर्णन करता है। महर्षि कश्यप किसी समय अपने निकलनेके सात दिनमें बच्चोंका कृष्णवर्ण हो जाता है। सर्पकी

आश्रममें बैठे थे। उस समय वहाँ उपस्थित महर्षि गौतमने आयु एक सौ बौस वर्षकी होती हैं और इनकी मृत्यु आठ उन्हें प्रणामकर विनयपूर्वक पूछा–महाराज! सपॅक लक्षण, प्रकारको होतो है—मोरसे, मनुष्यसे, चकोर पक्षोसे, बिल्लासे, जाति, वर्ण और स्वभाव किस प्रकार हैं, उनका आप वर्णन नकुलसे, शूकर, वृश्चिकसे और गौं, भैंस, घोड़े, ऊँट आदि करें तथा उन उरपति किस प्रकार हुई हैं। ग्रह भी बतायें । वे पशुओंके में इस नानेपर । इनसे बचनेपर सर्प एक सौ बीस विष किस प्रकार छोड़ते हैं, विषके कितने वेग हैं, विपकौं वर्षतक जीवित रहते हैं। सात दिन बाद दाँत उगते हैं और कितनी नाड़ियाँ हैं, सापांक दाँत कितने प्रकार के होते हैं, की दिनमें विष हो जाता हैं । साँप काटनेके तुरंत बाद अपने सर्पिणीको गर्भ कब होता है और वह कितने दिनों में प्रसव जबडेसे तीक्ष्ण विक्का त्याग करता है और फिर विष इकट्ठा हो करती है, स्त्री-पुरुष और नपुंसक सर्पका क्या लक्षण है, ये जाता है। सर्पिण के साथ घूमनेवाला सर्प बालसर्प कहा जाता  काटते हैं, इन सब बातों आप कृपाकर मुझे बतायें। । पचास दिनमें वह बच्चा भी विपके द्वारा दूसरे प्राणियों | कश्यपजी बोले—मुने ! आप ध्यान देकर सुने। मैं प्राग हुनेमें समर्थ हो जाता है। छः महीनेमें कंचुक सपॅक सभी भेदोंका वर्णन करता हैं । ज्येष्ठ और आषाढ़ मास (केंचुल-1 का त्याग करता है। साँपके दो सौ चालीस पैर होते सपनें मद होता हैं। इस समय में मैथुन करते हैं । वर्षा ऋतुके हैं, परंतु वे पैर गायके रोयेके समान बहत सूक्ष्म होते हैं, चार महीनेतक सर्पगी गर्भ धारण करती हैं। कार्तिकमें दो सौ इसलिये दिखायौं नहीं देते । चलनेके समय निकल आते हैं। चालींस अंडे देती हैं और उनमेंसे कुङ्कों स्वयं प्रतिदिन क्वाने और अन्य समय भौंतर प्रविष्ट हो जाते हैं। उनके शरिरमें दो सौ लगती है। प्रकृतिको कृपासे कुछेक अंडे इधर-उधर दुल्ककर औस अङ्गलियाँ और दो सौ बीस सँधियाँ होती हैं। अपने बच्च जाते हैं। सोनकी तरह चमकनेवाले अंडोंमें पुरुष, समयके बिना जो सर्प उत्पन्न होते हैं उनमें झम सिया राहता है

शिवत्वरलाल मा अभिपतापितामण तथा आयुटअन्यमात, मापक, वाधक निािरपानीमें भी इस विषयमा वर्णन मिलता है।

= पुराणं परमं पुण्यं यि सवमॉरख्यम्

[ संक्षिप्त पश्चिमुरा समझना और वे पचहत्तर वर्षसे अधिक जीते भी नहीं हैं। जिस साँपके वैसे, भषसे, मदसे, भूखसे, विषका येग होनेसे, संतानकी दाँत लाल, पीलें एवं सफेद हैं और विषका वेग भी मंद , रक्षाके लिये तथा कालकी प्रेरणासे । जब सर्प काटते हीं पेटकीं वे अल्पायु और बहुत पोंक होते हैं। ओर ज्ञाता है और उसकी दाढ़ टन हो जाता है, तब सापकों एक मुँह, दो जीभ, अत्तीस दाँत और विषसे भरी उसे दबा हुआ समझना चाहिये। जिसके काटनेसे बहुत बड़ा दुई चार दा होती हैं । जुन के नाम मकौं, काली, घाव हो जाय, उसको अत्यन्त कालरात्री और यमदूतों है। इनके क़मशः ब्रह्मा, विष्णु, रुद्र चाहिये । एक दाका चिह्न हों जाय, किंतु वह भी भलीभाँत और सम–में चार देवता हैं। यमदूती नामकी दड़ सबसे दिल्लयों न पड़े तो भयमें काटा हुआ समझना चाहिये। इस छोटीं होती है। इससे साँप जिसे काटता हैं यह तत्क्षण पर प्रकार की तरह दाढ़ दिखायी दें तो मदमें काटा हुआ, दो जाता है । इसार मन्त्र, तन्त्र, औषधि आदिका कुछ भी असर द्वाड़ दिग्ग्राय दें और बड़ा घाव भर जाय तों भूखसे काटा नहीं होता। मकी दातृका चिह्न शके समान, करालीका हुआ, दो दाढ़ दिखायौं दे और घावमें रक्त हों जाय तो विषके काके पैरके समान तथा कालरात्रीका हायके समान चिह्न वेंगसे काटा हुआ, दो दाढ़ दिखायी दें, किंतु याव न रहे तों होता हैं और यमदूत कुर्मके समान होती हैं। ये क्रमशः एक, संतानकी रक्षाके लिये काटा हुआ मानना चाहिये। काकके दौं, तीन और चार महीनोंमें उत्पन्न होती हैं और क्रमशः सात, पैर तरह तन दा; गहरे दिखायी दें या चार दाह दिखायी पित्त, कफ और संनिपात इनमें होता है। क्रमशः गुड्युक्त भात, दें तो कालक प्रेरणासे काटा हुआ जानना चाहिये। यह कषाययुक्त अन्न, कट पदार्थ, सनिपातमें दिया जानेवाला पथ्य असाध्य है, इससे कोई भी चिकित्सा नहीं है। इनके द्वारा काटे गये व्यक्तिको देना चाहिये। श्वेत, रक्त, पीत सर्पके काटने देह, दुष्टानुपीत और इंदत—ये तीन और कृष्ण-इन चार दादोंके क्रमशः रंग हैं। इनके वर्ण भेद हैं। सर्पके काटनेके बाद ग्रीवा यदि झुके तो दंष्ट्र तथा क्रमशः ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शुद्ध हैं। सर्पोक दादोंमें काटकर मार करें तो दंशानुगत कहते हैं। इसमें तिहाई सिंग सदा विश नहीं रहता। दाहिने नेके समीप विष रहनेका स्थान चढ़ता है और काटकर सब विष पाल तथा स्वयं निर्वत्र है । क्रोध करनेपर यह विष पहले मस्तकमें जाता है, मस्तकसे होकर उलट जाग्र-पीटके बल उलटा हो जाय, उसका पेट धमनी और फिर नाड़ियों द्वारा दादमें पहुँच जाता है। दिखायीं हैं तो उसे इंद्धत कहते हैं।

| आठ कमरगौसे सांप काटना है—अनेले, पहलके विभिन्न तिथियों एवं नक्षत्रोंमें कालसर्पसे ईंसे हुए पुरुषके लक्षण, नागोंकी उत्पत्तिको कथा | कश्यप मुनि बोले-गौतम ! अब मैं कालसर्पसे काटे जाते हैं, मुख नीकी ओर लटक जाता है, आँखें चढ़ जात हुए पुरुषका लक्षण कहता हैं, जिस पुरुषको कालसर्प मटता हैं, शरीरमें दाह और कम्य होने लगता है, यार-बार आँखें बंद हैं, उसमें जिहा भंग हो जाती हैं, हृदयमें दर्द होता हैं, नेत्रों हो जाती हैं, शायसे शरीरमें काटनेपर खून नहीं निकलता। दिखायी नहीं देता, दाँत और दारीर पके हुए जामुनके फलके बेतसे मारनेपर भी शरीर इंस्वा नहीं पड़त, काटनेका स्थान समान काले पड़ जाते हैं, आङ्गोंमें शिथिलता आ जाती है, कटे हुए जामुनके समान नीले रंगका, फुला हुआ, रक्तसे विप्नाका परित्याग होने लगता हैं, कंधे, कमर और पौवा झुक परिपूर्ण और कौएके पैरके समान हो जाता है, हिचकी आने सभी पका टाक रूपमें मान्य-शास्त्र विदाम्फर होनप गरुड़-मन्त्र और सर्पो मणियां न वि अचूक आधियाँ हैं । कुछ अन्य मधियां भी भः नी । 1 का त्या नन बना देता है। इस स्र्पक काट पर किसी भी अन्य कार्य वि नहीं चलता। नर्मदा नट्रोकमा नाम लेनम भो म भागते हैं

 

नर्मदा नमः तिर्नर्मदाय नमो नि

नमाम् नभ्य शाहि मिसमर्पनः ।।।

[वि १३॥ ब्राह्यपर्व ]

+ सपक विषका वेग, फैलाव नया सात आतुओंमें प्राप्त विचपा

लगती है, काष्ठ अवरुद्ध हो जाता है, श्वासकौं गाँत बढ़ जाती ताल, ढ़ी और दा–में बारह मुख्य मर्म-स्थान हैं। झमें हैं, शरीरका रंग पीला पड़ जाता हैं। ऐसी अवस्थाको सर्प काटनेसे अथवा शस्त्रापात होनेपर मनुष्य जीवित नहीं कालसर्पसे काटा हुआ समझना चाहिये। उसकी मृत्यु आसन्न रहता। | समझनी चाहिये।

अब सर्प काटनके बाद ज्ञों बैंकों बुलाने जाता है उस घाव फूल जाय, नीले अँगका हो जाय, अधिक पसौना दुतका लक्षण कहता हैं। उत्तम जातिका हौंन वर्ग इन और आने लगे, नाक में बोलने में, ऑछ लटक हाय, इसमें न ज्ञानिका नाम वर्ण इन भो अझ नहीं होता। वह कम्पन होने लगे तो कालसर्पसे काटा हुआ समझना चाहिये। हाथमें दंड लिये हुए हों, दो दूत हो, कृष्ण अथवा रक्तवस्त्र दाँत पौंसने लगे, नेत्र उलट जायें, लंबी श्वास आने लगे, प्रीवा पहने हों, मुख ढके हों, सिरपर एक वस्त्र लपेटे हो, शरीर में लटक जाय, नाभि फड़कने लगे तो कालसर्पसे काटा हुआ तेल लगायें हो, केश गोले हों, जोरसे बोलता हुआ आये, जानना चाहिये । इर्पण या जलमें अपनी छाया न दारों, सूर्य हाथ-पैर पौटे तो ऐसा दूत अत्यन्त अशुभ है। जिस रोगका केजहीन दिखायी पड़े, नेत्र लाल हो जायँ, सम्पूर्ण शरीर कष्टके इन इन लक्षणों से युक्त वैद्यके समीप ज्ञाता है, वह रोगों कारण काँपने लगे तो उसे कालसर्पस काटा हुआ समझना अवश्य ही मर जाता है। चाहिये, इसकी शॉझ ही मृत्यु सम्भाव्य हैं।

कश्यपङ्गी बोले-गौतम ! अब मैं भगवान् शिक्के अष्टमी, नवमी, कृष्ण चतुर्दशी और नागपञ्चमीकै दिन द्वारा कथित नाकी उत्पत्तिकै विषयमें कहता हूँ। पूर्वकालमें |जिसको सांप काटता हैं, उसके प्रायः प्राण नहीं बचते । आईं, ब्रह्माजीने अनेक नाग एवं ग्रहोंकी सृष्टि की । अनत नाग सूर्य,

आलेषा, मघा, भरणी, कृत्तिका, विशाखा, तनों पूर्वा, मूल, वासुकि चन्द्रमा, तक्षक भौम, कर्कोटक बुध, पद्म बृहस्पति, स्वाती और शतभिषा नक्षत्रमें जिसको साँप काटता है वह भी महापद्म शुक्र, कुक और शंखपाल शनैश्वर महके रूप हैं। नहीं होता। इन नक्षत्रोंमें विष पीनेवाला व्यक्ति भी तत्काल मर रिववार दिन दसवीं और चौदहवाँ यामाई, सोमवारको जाता है। पूर्वोक्त तिथि और नक्षत्र दोनों मिल जायें तथा आठयाँ और बारहवाँ, भौमवारको छठा और दसवाँ, खण्डहरमें, मानमें और सूखें वृक्षके नीचे जिसे साँप काटता बुधवारको नाच, बृहस्पतिको दसरा और इटा, शुक्रको चौथा, हैं यह नहीं जाता।

आठवाँ और दवाँ, शनिवारको पहिल्या, सोलहवाँ, दूसरा मनुष्य शरीरमैं एक सौं आड़ मर्म-स्थान हैं, उनमें भी और बारहवाँ प्रहरीधं अशुभ हैं। इन समयोंमें सर्पक काटनेसे शंख अर्थात् ललाटको हङ्की, आँख, भूमध्य, वस्ति, व्यक्ति जीवित नहीं रहता।

पडकोशका ऊपरी भाग, कक्ष, कंधे, हृदय, वक्षःस्थल,

[अध्याय ३६] ।

सपके विषका वेग, फैलाव तथा सात धातुओंमें प्राप्त विषके लक्षण और उनकी चिकित्सा | कश्यपजी बोले-गौतम् ! यदि यह ज्ञात हो जाय कि बालके अग्रभागसे जितना ज्ञाल गिरता है, उतनी ही मात्रामें सर्पने अपने यमदूतों नामक दाढ़से काटा हैं तो उसकी विष सर्प प्रविष्ट कराता हैं । वह विष सम्पूर्ण शरीरमें फैल जाता चिकसा न करे। उस व्यक्तिकों मरा हुआ ही समझे । दिनमें है। जितनी देर में हाथ पसारना और समेटना होता है, उतने ही और रातमें दूसरा और सोयाँ प्रहरार्ध सांपोंसे सम्प्रन्धित सूक्ष्म समयमै काटनेके बाद विष मस्तक पहुँच जाता है। नागोदय नामक वेला कही गयी है। उसमें साँप कहें तो कुवाको आगों पट फैलनेके समान में पहुँचने पर विषको कालके द्वारा काटा गया समझना चाहिये और उसकी चिकित्सा वहुत वृद्धि हो जाती है। जैसे जलमें तेलकों जैद फैल जाती नहीं करनी चाहिये । पानीमें बाल दुबोनेपर और उसे उठानेपर है, वैसे ही त्वचामें पहुँचकर विष दुना हो जाता है। रक्तमें

गामापनिय तापने मवः नामसे भी मन्त्र पढ़े गये हैं, याहाँ मध्यम नियमका मन है। वैसे भगवत्कृपा कुछ भी अम नहीं है।

* पुराणं परमं पुण्यं भविष्यं सर्वसौम्यम् +

[ संक्षिप्त मविष्यपुराणा चाँगुना, पित्तमें अड़ गुना, कफमैं सोलह गुना, वातमै तीस इन्द्रायणकी जड़ इन सबको गोमूत्रमें पीसकर नस्य, लेपन गुना, मज़ामें साठ गुना और प्राणों में पहुंचकर वहीं विष अनन्त तथा अञ्जन करनेसे विक्का वेग हट जाता है । गुना हो जाता हैं। इस प्रकार सारे शरीर में विपके व्याप्त हो जाने पित्तमें विपके कफमें प्रवेश कर जानेपर शरीर, जकड़ तथा श्रवणशक्ति बंद हो जानेपर, वह जीव भास नहीं ले पाता जाता है। आप्त भलीभाँति नहीं आती, काठमें अर्धर शब्द होने और उसका प्राणान्त में जाता है। यह शरीर पृथ्वी आदि लगता है और मुसमें लार गिरने लगती हैं। यह लक्षण पञ्चभूतोंसे बना हैं, मृत्युके बाद भूत-पदार्थ आग-अलग हो देखकर पीपल, मिरच, सोंठ, इलेमातक (बहुवार वृक्ष), जाते हैं और अपने-अपनेमें लौन हो जाते हैं। अतः विषकों लोध एवं मधुसारको समान भाग करके गोमूत्रमें पौंस्कर चिकित्सा बहुत शोष करनी चाहिये, विलम्ब होनेसे ग्रेग लेपन और अञ्जन लगाना चाहिये और उसे पिलाना भी असाध्य हो जाता है। सपदि जीबका विष जिस प्रकार चाहिये। ऐसा करनेसे विषका येग शान्त हो जाता हैं।  हरण करनेवाला होता है, वैसे ही स्त्रिी आदि विष भी फसे बातमें विष प्रवेश करने पर पेट फूल जाता है, प्रागको हरण करनेवाले होते हैं।

कोई भी पदार्थ दिखायौं नहीं पड़ता, दृष्टि-भंग हो जाता है। | विषके पहले सेगमें रोमाञ्च तथा दूसरे वेगमें पसीना ऐसा लक्षण होनेपर शोणा (सोनागाछ की जड़, प्रियाल, आता है। तीसरे बैंगमें शरीर काँपता है तथा चौथेमें गजपीपल, भारंगी, वचा, पीपल, देवदारु, महआ, मधुसार, श्रवणशक्ति अवरुद्ध होने लगती हैं, पाँचोंमें हिचकी आने सिंदुवार और हौंग-इन सबको पीसकर गोल्में बना लें और लाती हैं और छठेमें ग्रीवा लटक जाती है तथा सातवें वेगमें रोगीको खिलायें और अञ्जन तथा लेयन करे। यह ओषधि प्राण निकल जाते हैं। इन सात वेगों में शरीर के सात धातुम सभी विषका हरण करती हैं। विष व्याप्त हो जाता है। इन प्रातुओमें पहुँचे हुए विषका वातसे मलामें विष पहुँच जानेपर दृष्टि नष्ट हो जाती हैं, अलग-अलग लक्षण तथा उपचार इस प्रकार हैं- सभी अङ्ग बेसुध हों शिथिल हो जाते हैं, ऐसा लक्षण होने पर आँखोके आगे अंधेरा छा जाय और शॉरमें बार-बार घी, शहद, शर्करायुक्त खस और चन्दनको घोंटकर पिलाना जलन होने लगे तो यह जानना चाहिये कि बिष त्वचामें है। चाहिये और नस्य आदि भी देना चाहिये। ऐसा करनेसे विषका इस अवस्थामें आककी जड़, अपामार्ग, तगर और प्रियंगु- बैंग हट जाता है। इनको झलमें घटकर पिलाने विषकी बाधा शान्त हो सकती मासे मर्मस्थानोंमें चित्र पहुँच जानेपर सभी इन्द्रियाँ हैं। त्वचारों में विष पहुँचनेपर रॉरमें दाह और मृर्ज होने निष्ट हो जाती हैं और वह ज्ञमनपर गिर जाता हैं। काटनेसे लगती हैं । शीतल पदार्थ अच्छा लगता है। बशर (बस), रक्त नहीं निकलता, शके वाहनेपर भी कष्ट नहीं होता, उसे चन्दन, कूट, तगर, नीलोत्पल, दिवारको जड़, धतूरेकी जड़, मृत्युक ही अधीन समझना चाहिये। ऐसे लक्षणोंसे मुक्त हींग और मिरच-इकों पीसकर देना चाहिये । इससे बाधा रोगीको साधारण वैद्य चिकित्सा नहीं कर सकते। जिनके पास शान्त न हो तो भटक्या , इन्द्रायणको जड़ और सर्पगंधाने सिद्ध मन्त्र और औषधि होगी में ही ऐसे रोगियोंके रोगों वीमें पीसकर देना चाहिये । यदि इससे भौं शान्त न हो तो इटानेमें समर्थ होते हैं । इसके लिये साक्षात् झड़ने एक औपश्चि सिंदुवार और हाँगक्न नस्य देना चाहिये और पिलाना चाहिये। कहीं है। मौका पित तथा माया पिरा और गन्धनाडीकी इसका अञ्जन और लेप भी करना चाहिये, इससे में प्राप्त जड़, कुंकुम, तगर, कूट, कासमईकी इाल तथा उत्पल, कुमुद विषकी बाधा शान्त हो जाती हैं।

और कमल इन तीनोंक केसर-सभाका समान भाग उसे पित्तमें विष पँहुच जानेपर पुरुष उठ उठकर गिरने लेकर उसे गोमूत्रमें पौंसकर नस्य दें, अञ्जन लगायें। ऐसा लाता है, शरीर पीला हो जाता है, सभी दिशाएँ पाले वर्णक करनेसे कालसर्पस ईंसा हुआ भी व्यक्ति इग्न पिडित हो दिखायी देती हैं, शरीर में दाह और प्रबल मूच्र्छा होने लगाता जाता हैं। यह मृतसंजौवनों ओपधि है अर्थात् मरेको भी जिला है। इस अवस्थामें पीपल, शहद, महुवा, घ, तुम्बेकी जड़, देती हैं।

 

ब्रह्मपर्व ]

  • सपकी भिन्नभिन्न जातियाँ, सप काटने के क्षण +

सपकी भिन्न-भिन्न जातियाँ, सपके काटनेके लक्षण, पञ्चमी तिथिका नागोंसे सम्बन्ध और पञ्चमी-तिथिमें नागोंके पूजनका फल एवं विधान गौतम मुनिने कश्यपज़ीसे पूछा–महात्मन् ! सर्प, मूच् छा जाती हैं, दृष्टि ऊपरकों हो जाती हैं, अत्यधिक बड़ा सर्पण, बालसर्प, सूतिका, नपुंसक और व्यत्तर नामक सपॅक होने लगती हैं और व्यक्ति अपनेकों पहचान नहीं पाता। ऐसे काटनेमें क्या भेद होता हैं, इनके लक्षण आप अलग-अलग लक्षणोंके होनेपर आक्की जड़, अपामार्ग, इन्द्रायण और बतायें।

प्रियंगुकों में पीसकर मिला लें तथा इसका नस्य देने में एवं कश्यपज बोले- मैं इन सबकों तथा सपॅक पिलानेसे बाधा मिट जाती है। वैश्य सर्प डैसे नौ कफ बहुत रूप-लक्षणोंकों संक्षेपमें बताता हैं, सुनिये-

आता है, मुससे लार बहती हैं, मृच्छ आ जाती हैं और वह यदि सर्प काटे तो दृष्टि ऊपरकों हो जाती हैं, सर्पिणीक चेतनाशून्य हो जाता हैं। ऐसा होनेपर अश्वगन्धा, गृहधूम, काटनेसे दृष्टि नीचे, बालसर्पके काटनेसे दाहिनी ओर और गुग्गुल, शिरिष, अर्क, पलाश और श्वेत गिरकर्णिका बालर्पिणींके काटनेसे दृष्टि बायीं ओर झुक जाता है। (अपराजिता)-इन सब गोमूत्रमें पीसकर नस्य देने तथा गर्भिणीके काटनेसे पसीना आता है, प्रसूतौ काटे तो रोमाञ्च पिलानेसे वैश्या सर्पकी आधा लक्षण दूर हो जाती है। जिस और कम्पन होता है तथा नपुंसकके काटने से शरीर टूटने व्यक्तिको शुद्ध सर्प काटता है, उसे शीत लगकर नर होता हैं, लगता है। सर्प दिनमें, सर्पिणी गृत्रिमै और नपुंसक संध्याके सभी अङ्ग चुलबुलाने लगते हैं, इसकी निवृत्तिके लिये कमल, समय अधिक विपयुक्त होता है। यदि अँधेरे में, जलमें, वनमैं कमलका कैंसर, लोभ, द्र, शहद, मधुसार और सर्प काटें या सोते हुए या अमत्तकों का, सर्प न दिखायी पड़े अंतगिरिक-इन सबको समान भागमें लेकर शीतल ज्ञक अधया दिखायी पड़े, उसकी जाति न पहचानी जाय और साथ पीसकर नस्य आदि हैं और पान करायें। इससे नियका पूर्वोक्त लक्षणका आना न हो तो बंद्य उसकी कैसे बॅग शांत हो जाता है। चिकित्सा कर सकता हैं !

ब्राह्मण सर्प मध्याह्नके पहले, क्षत्रिय सर्प मध्याह्नमें, सर्प चार प्रकार होते हैं—दकर, मण्डली, जल वैश्य सर्प मध्याह्नके बाद और, शुद्ध सर्व संध्याके समय और व्यन्तर । इनमें दकका विष वात-भाव, मण्डलीका विचरण करता है। ब्राह्मण सर्ष घायु एवं पुष्य, क्षत्रिय मूषक, पित्त-स्वभाव, गजिम कफ-स्वभाव और व्यत्तर सर्पका वैश्य मेक और शुद्ध सर्प सभी पदाथका भक्षण करता है। संनिपात-स्वभावका होता है अर्थात् उसमें वात, पित्त और ब्राह्मण सर्प आगे, क्षत्रिय दाहिने, वैश्य बायें और शुद्र सर्प कफ—इन तीनोंकी अधिकता होती है। इन सपॅक इक्तको पीछेसे काटता है। मैथुनकीं इसे पीड़ित सर्प विपके वेगळे परीक्षा इस प्रकार करनी चाहिये । दर्वीकर सर्प रक्त कृष्णवर्ण बढ़नेसे व्याकुल होकर बिना समय भी काटता है। ब्राह्मण सर्प

और स्वल्प होता है, मण्डलीमें बहुत गाड़ा और मल ईगका पुष्पके समान गन्ध होती है, क्षत्रिय चन्दनके समान, वैश्य रक्त निकलता है, गुजरन तथा व्यत्तरमें स्निग्ध और थोड़ा-सा घृतके समान और शूद्र सर्पमें मपके समान गन्ध होती हैं । रुधिर निकलता है । इन चार ज्ञातियोंके अतिरिक्त सपकी अन्य ब्राह्मण सर्प नदी, कुप, तालाब, झरने, बाग-बगीचे और पवित्र कोई पाँची जाति नहीं मिलती। सर्प ब्राह्मण, क्षभिय, वैश्य स्थानों में रहते हैं। क्षत्रिय सर्वं ग्राम, नगर आदि द्वार, तालाब, तथा शूद्र-इन चार वर्गोंकि होते हैं। ब्राह्मण सर्प काटे तो चतुष्पथ तथा तोरण आदि स्थानमै; वैश्य सर्प इमशान, ऊपर शरीरमें दाह होता है, प्रबल मूव आ जाती हैं, मुख का स्थान, भस्म, घास आदिके हैं तथा वृक्षोंमें; इसी प्रकार शूद्र पड़ जाता है, मज्जा स्तम्भत हो जाती है और चेतना जाती रहती सर्प अपवित्र स्थान, निर्जन वन, शून्य अर, श्मशान आदि बुरे हैं। ऐसे लक्षणोंके दिखायी देनेपर अश्वगन्धा, अपामार्ग, स्थानोंमें निवास करते हैं। ब्राह्मण सर्प चैत एवं कपिल वर्ण, सिंदुवारको भीमें पीसकर नस्य दें और पिलायें तो विद्यकीं अग्निके समान तेजस्वी, मनस्वीं और सात्त्विक होते हैं। क्षत्रिय निवृत्त हो जाती है। क्षत्रिय वर्णक सर्पक मटनेपर शरीरमें सर्प मुँगैके समान रक्तवर्ण अथवा सुवर्णके तुल्य पाँत वर्ग

 

  • पुराणं परमं पुण्यं भविष्यं सर्वसौम्यादम्

[ संक्षिप्त भविष्यपुराणाङ्क तथा सूर्यके समान तेजस्य, वैश्य सर्प आलसीं अथवा बाण और चिकित्सा महर्ष कश्यपने महामुनि गौतमको उपदेशके पुष्पके समान वर्णवाले एवं अनेक रेखाऔसे बुक तथा शुद्ध प्रसंगमें कहे थे और यह भी बताया कि सदा भक्तिपूर्वक सर्ष अञ्जन अथवा काकके सम्मान कृष्णवर्ग और धूम्रवर्णके नागकी पूजा करें और पञ्चमीको विशेषरूपसे दुध, ज़ीर होते हैं। एक अङ्गकै अन्तरमें दो देश हो तो बालसर्पका आदिसे उनका पूजन करें। आवण शुमा पञ्चमीको द्वारके दोनों काटा हुआ जानना चाहिये। दो अङ्गल अन्तर हों तो तरुण और गोबरके द्वारा नाग अनाये । दही, दूध, दूर्वा, पुष्प, कुशा, सर्पका, हाई अल अत्तर हो तो वृद्ध सर्पका दंश समझाना गन्ध, अक्षत और अनेक प्रकारके नैवेद्योंसे नागका पूजनकर, चाहिये। ब्राह्मर्गाको भोजन करायें। ऐसा करनेपर उस पुरुषके कुलमें | अनन्तनाग सामने, वासुकि बायीं ओर, तक्षक दाहिनी कभी सर्पोका भय नहीं होता ओर देखता है और कर्कोटककी दृष्टि पीछेकों ओर होती हैं। भाद्रपदको पञ्चमीको अनेक रंगके नागको चित्रितकर अन, बासुकि, तक्षक, कर्कोटक, पद्म, महापद्म, शंखपाल घी, सौर, दुध, पुष्प आदिले पूजनकर गुगुली धूप दें। ऐसा और कुलिक—ये आठ नाग क्रमशः पूर्वाद आठ दिशाओंके करनेसे तक्षक आदि नाग प्रसन्न होते हैं और उस पुरुषकी सात स्वामीं हैं। पद्म, उत्पल, स्वास्तिक, त्रिशूल, महापद्य, शूल, क्षेत्र पीढ़ोतकको साँपका भय नहीं रहता।

और अर्धचन्द्र—ये क्रमशः आङ नागोके आयुध हैं । अनन्त आश्विन मासकीं पञ्चमीको कुशका नाग बनाकर गन्ध, और क—ये दोनों ब्राह्मण नाग-जातियाँ हैं, शंख और पुष्प आदिसे उनका पूजन करें। दूध, घी, जलसे स्नान कराये। वासुकि क्षत्रिय, महापद्म और तक्षक बैंग्न तथा पद्म और दुधमें पके हुए गेहूँ और विबिध नैनौका भोग लगायें। इस कर्कोटक शूद्र नाग हैं । अनन्त और कुलिक नाग शुक्लवर्ण तथा पञ्चमीको नाग पूजा करनेसे वासुकि आदि नाग संतुष्ट होते ब्रह्माजीसे उत्पन्न हैं, वासुकि और झापाल उक्तवर्ण तथा है और वह पुरुप नागलोकमें जाकर बहुत फालतक मुखाका अग्निसे उत्पन्न हैं, तक्षक और महापद्म स्वल्य पीतवर्ण तथा भोंग करता है। राजन् ! इस पञ्चमी तिथि कल्पको मैंने इन्द्रसे उत्पन्न हैं, पद्म और कर्कोटक कृष्णवर्ग तथा यमराज वर्णन किया । जहाँ ‘ कुरुकुल्ले फद स्वाहा’ -यह मन्त्र उत्पन्न हैं। पढ़ा जाता है, वहाँ कोई सर्प नहीं आ सकता। सुमनु मुनिने पुनः कहा–राजन् ! सपॅक ये लक्षण

(अध्याय ३६-३४)

घाधी-कल्प-निरूपणमें स्कन्द-घाशी-बतकी महिमा सुमन्तु मुनि बोले–राजन् ! अब मैं षष्ठी तिथि- कृत्तिकाओके पुत्र कार्तिकेयका आविर्भाव हुआ था। वे कल्पका वर्णन करता है। यह तिथि सभी मनोरथ पूर्ण भगवान् शङ्कर. ऑग्न तथा गङ्गाके भी पुत्र कहे गये हैं। इसी करनेवाली हैं। कार्तिक मास की षष्ठी तिथिों फलाहारकर यह पष्ठी तिथिको स्यामिकार्तिकेय देवनाके सेनापति हुए। इस तिभिन्नत किया जाता है। यदि ज्यच्युत ग़ज़ा इस व्रतका तिथिको मनका मृत, दही, जल और पुष्पोंसे स्वामि अनुष्ठान करें तो वह अपना फ़ज्य प्राप्त कर लेता है । इसन्स्ये कार्तिकेयको दक्षिणको और मुखकले अयं देना चाहिये। विजयकी अभिलाषा रम्नेवाले व्यक्तिकों इस व्रतका प्रयत्न- आदानका मन्त्र इस प्रकार हैं पूर्वक ालन करना चाहिये।

मर्मादाज़ स्कन्द स्वाहापनसमुत्र । | यह तिथि स्वामिकार्तिकेयको अत्यन्त प्रिय हैं। इसी दिन कार्यमाग्निज विभो गङ्गागर्भ नमोऽस्तु ते कमर नागो देश माना जाता है। नामपुराण में इसमय नि मन है ।

वाहक अनुसार र्न दो को स्कन्दया हातीं हैं तथा कार्तिक

पोमनो गाना है, जिस दिन भान मूर्योपामना हान है

परंतु यहा कनक का गमक रूप गर्न आता है, वह गणना अमानमास

अमावास्याको पूर्ण होता. मास के मुसम अन होना है।

मासपर्व ]

  • आचरपाकी श्रेष्ठताका प्रतिपादन

श्री देवसेनानी: सम्पादयतु हङ्गलम्

करे, तब भी दोनों लोकोंमें उत्तम फल प्राप्त होता है। इस (झारूप ३६ ॥ ६} झक कनाले पुरुषको यता भी नमस्कार करते है और वह ब्राह्मणको अन्न देर रात्रिमें फलका भोजन और भूमिपर इस कमें आकर चक्रवर्ती राजा होता हैं। राजन् ! जो शयन करना चाहिये । व्रतके दिन पवित्रा रहे और ब्रह्मचर्यको पप यष्टीं-झनके माहात्म्पका भक्तिपूर्वक श्रवण करता है, वह पालन करें । शुक्ल पक्ष तथा कृष्ण पक्ष-दोनों षष्ठयोंकों यह भी स्वामिकापिकी कृपासे विविध उत्तम भोग, सिद्धि, तुष्टि, मत करना चाहिये। इस व्रतके करनेसे भगवान् स्कन्दको धूति और लक्ष्मीकों प्राप्त करता है । अलोकमें यह उत्तम कृपासे सिद्धि, धृति, तुष्टि, राज्य, आयु, आरोग्य और मुक्ति गनिका भी अधिकारी होता है। मिलती है। जो पुरुष उपवास न कर सके, यह त्रि-सात हौं ।

( अध्याय ३१)

आचरणकी श्रेष्ठताका प्रतिपादन | राजा शतानीकने कहा—मुने ! अब आप ब्राह्मण जीवन-यापन करते हैं, अनेक प्रकारके छल-छिद्भसे प्रजा आदिके आचरणकी श्रेष्ठताके विषय में बतलानेको कृपा करें। हिंसा कम केवल अपना सांसारिक सुरु सिद्ध करते हैं। ऐसे सुमन्तु मुनि बोले-राजन् ! मैं अत्यन्त संक्षेपमें इस ब्राह्मण शूइसे भी अधम हैं। विषयको बताता है, उसे आप सुने । न्याय-मार्गका अनुसरण जो ग्राह्य-अग्राह्य तत्वको जाने, अन्याय और करनेवाले शास्त्रकारोंने कहा है कि वेद आचारहौंनको पवित्र कुमार्गीका परित्याग कने, जितेन्द्रिय, सत्ययादीं और सदाचारी नहीं कर सकते, भले वह सभी अङ्गके साथ वेदोंका हो, नियमोके पालन, आचार, तथा सदाचरणमें स्थिर रहे, अध्ययन कर ले । वेद पढ़ना तो ब्राह्मणका शिल्पमात्र हैं, किंतु सबके हितमें तत्पर रहे, वेद-वेदाङ्ग और शास्त्रका मर्मज्ञ हो, ब्राह्मणका मुख्य लक्षण तो सदाचरण हो अतराया गया है । समाधिमें स्थित रहे, क्रोध, मत्सर, मद तथा शोक आदिको चारों बेदीका अध्ययन करनेपर भी यदि वह आचरणसे हीन हित हों, वेद पठन-पाठनमें आसक्त रहे, किसका है तो उसका अध्ययन वैसे ही निष्फल होता है, जिस प्रकार अल्पधिक सङ्ग न करे, एकान्त और पवित्र स्थानमै रहे, नपुंसकके लिये रत्न निष्फल होता हैं।

सुख-दुःखमें समान हो. धर्मनिष्ठ हो, पापाचरणसे डरे, आसक्ति जिनके संस्कार उन्म होते हैं, वे भी दुराचरण म पतित रहित, निरहंकार, दानी, शूर, ग्रह्मवेत्ता, शान-स्वभाव और हो जाते हैं और नरकमें पड़ते हैं तथा संस्कारहीन भी उत्तम तपस्वी हों तथा सम्पूर्ण शास्त्रोंमें परििनति होइन गुणों

आचरणसे अॐ कहलाते हैं एवं स्वर्ग प्राप्त करते हैं। मनमें युक्त पुरूष झाह्मण होते हैं । ब्रह्मके भक्त होनेसे ब्राह्मण, क्षतसे दुष्टता भी रहे, बाहरसे सब संस्कार हुए हों. ऐसे वैदिक रक्षा करने के कारण क्षत्रिय, वार्ता (कृय-विद्या आदि) का संस्कारोको संस्कृत कतिपय पुरुष आचरणमें शूद्रोंसे भी अधिक सेवन करनेसे वैश्य और शब्द-श्रवणमासे जो द्रुतगति हो मलिन हो जाते हैं। क्रूर, कर्म करनेवाला, ब्रह्महत्या करनेवाला, जायँ, वे शूद्र कहलाते हैं। क्षमा, दम, शम, दान, सत्य, शौच, गुरुदारगामी, चोर, गौऑको मारनेवाला, मद्यपायी, धूत, दया, मृदुता, ऋजुता, संतोष, तप, निरहुंकारता, अक्रोध, परवीगाम, मिथ्यावादी, नास्तिक, वेदनिक, निषिद्ध कमका अनसूया, अतुणता, अस्तेय, अमात्सर्य, धर्मज्ञान, ब्रह्मचर्य, आचरण करनेवाला द ब्राह्मण हैं और सभी तरह ध्यान, आस्तिक्य, वैराग्य, पाप-भांजा, अय, गुरुशुश्रूषा संस्कारको सम्पन्न भी हैं, बेद-वेदाङ्ग पारङ्गत भी है, फिर भी आदि गुण जिनमें रहते हैं, उनका ब्राह्मणल दिन-प्रतिदिन उसकी सद्गति न होतीं । दयाहाँन, हिंसक, आंतशय दाम्भिक, बाढ़ता रहता है। कपटी, लोभी, पिशुन (चुगलखोर), अतिशय दुष्ट पुरुप वेद शम, तप, दम, शौच, क्षमा, ऋजुता, ज्ञान-विज्ञान और पढ़कर भी संसार उगते हैं और वेदको बेचकर अपना आस्तिक्य—में ब्राह्मणोंके सहज कर्म हैं। ज्ञानरूपी शिखा,

* आचाहनम्न पुन वेदा यद्यप्यधौंता: सह षभिरङ्गैः शिल्पं हि वेदाध्ययन दिनां वृत्तं स्मृतं ब्राह्मणलक्षणं तु (ब्राह्मपर्व ४१ }

 

= पुराणं परमं पुण्यं भविष्यं सर्वमीस्पदम्

[ संक्षिप्त मवियपुग्नगा तपरूपी सूत्र अर्थात् अज्ञोपवीत जिनके रहते हैं, उनको मनुने शूद्रसे अधम हो जाता हैं। ब्राह्मण कहा हैं। पाप-कर्मोसे निवृत्त होकल, उत्तम आचरण जिस तरह देंव और पौरुषके मिलनेपर कार्य सिद्ध होते हैं, करने वाला भी ब्राह्मण समान में हैं। शॉलसे युक्त शुद्ध भी वैसे ही उत्तम जाति और सकर्मका योग होनपर आचरणक । ब्राह्मणसे प्रशस्त हो सकता हैं और आचाररहित ब्राह्मण भ पूर्णता सिद्ध होती हैं।

(अध्याय ४-४५)

भगवान् कार्तिकेय तथा उनके घट्ठी-व्रतकी महिमा । सुमनु मुनि बोले–राजन् ! भाद्रपद मासकी बड़ी शर्तकेयक पूजा करने पर हाथी, घोड़ा आदि वाहनों का स्वामी | तिथि बहुत उत्तम तिथि हैं, यह सभी पापोका हरण करनेवाली, होता हैं और सेनापतित्व भी प्राप्त होता है। राजाओं को पुण्य प्रदान करनेवाली तथा सभी कल्याण-मङ्गलको कार्तिकेयको अवश्य ही आराधना करनी चाहिये । जो राजा देनेवाली हैं। यह तिथि कार्तिकेयको अतिशय प्रिय है। इस कृतिका के पुत्र भगवान् कार्तिकेयकी आराधना कर चुके | दिन किया हुआ ान, दान आदि सत्कर्म अक्षय होता हैं। जो लिये प्रस्थान करता है वह देवराज इन्द्रकी तरह अपने | दक्षिण दिशा कुमारिका-) में निवास करनेवाले कुमार को परामा कर देता है। कर्तवयक चंपक आदि | कार्तिकेयका इस तिथिको दर्शन करते हैं, ये ब्रह्महत्या आदि विविध पुष्पोंसे पूजा करनेवाला व्यक्ति सभी पापोंसे मुक्त हों। | पापसे मुक्त हो जाते हैं, इसलिये इस तिथिमें भगवान् ज्ञाता है और शिवलोकको प्राप्त करता है। इस भाद्रपद मासकी। | कार्तिकेयका अवश्य दर्शन करना चाहिये । भक्तपक पाठौको तैनाका मेयन नहीं करना चाहिये । पष्ठी तिथिको व्रत । कार्तिकेयका पूजन करनेसे मानव मनोवाञ्छित फल प्राप्त करता एवं पूजनकर रात्रिमें भोजन करनेवाला व्यक्ति सम्पूर्ण पापोंसे हैं और अतमें इन्द्रलोक में निवास करता है। ईंट, पत्थर, काष्ठ मुक्त हो कार्तिकेयके लोकमें निवास करता हैं। जो व्यक्ति आदिके द्वारा श्रद्धापूर्वक कार्तिकेयका मन्दिर बनानेवाला पुरुष कुमारिकाक्षेत्र स्थित भगवान् कार्तिकेयका दर्शन एवं स्वर्णके विमानमें बैठकर कार्तिकेयके लोकमें जाता है। इनके भक्तिपूर्वक उनका पूजन करता है, वह अखण्ड शान्ति प्राप्त मन्दिरपर ध्वजा चढ़ाने तथा झाडू-पोंछा (मार्जन) आदि करता हैं। करनेसे रुद्रोंक प्राप्त होता है चन्दन, अगर, कपूर आदि से

(अध्याय ४६)

सप्तमी-कल्पमें भगवान् सूर्यके परिवारका निरूपण एवं शाक-सप्तमी-व्रत सुमन्तु मुनिने कहा–राजन् ! अब मैं सप्तमी-कल्पना अतिशय तेजके कारण मेरी दृष्टि इनकी ओर मुहर नहीं पाती, क्र्णन करता है। सप्तमी निधिका भगवान् सूर्यका आविर्भाव जिससे इनके अङ्गाकों में देख नहीं पा रही हैं। मेरा हुआ था। वे अण्डके साथ उत्पन्न हुए और अण्डमें रहते हुए सुवर्ण-वर्ण, कमनीय शरीर इनके तेजसे दुग्ध हों श्यामवर्गका ही उन्होंने वृद्धि प्राप्त की। बहुत दिनोंतक अप्डमें रहने के हो गया है। इनके साथ में नियहि होना बहन कठिन है। यह कारण ये ‘मार्तड के नामसे प्रसिद्ध हुए। जब ये अडमें हीं सोचकर उसने अपनी आया एक स्त्री उत्पन्न कर उससे स्थित थे तो दक्ष जानने अपनी रूपवती कन्या रूपाको कहा- तुम भगवान् सूर्यके समय में जगह गहना, परंतु यह | भार्याक में इन्हें अर्पित किया। दक्षको आज्ञासे द शुलने न पायें ।’ सा समझान उसने उस वाया नामक विश्वकर्माने इनके शरीरका संस्कार किया, जिससे ये अतिशय बौकों वहाँ रख दिया तथा अपनी संतान यम और यमुनाको तेजस्वी हो गये। अण्डमें स्थित रहते ही इन्हें यमुना एवं यम वहाँ छौंका वह तपस्या करने के लिये उत्तरकुक देशमें चली नामकी दो संतानें प्राप्त हुई। भगवान् सूर्यका तेज सहन न कर गया और वहाँ घोड़ीका रूप धारणकर तपस्यामें रत रहते हुए कनेके कारण उनकी स्त्री व्याकुल हो सोचने लगीं-इनके इधर-उधर अनेक वर्षोंतक घूमती रही।

सूर्यको पलीका दूसरा नाम संज्ञाहैं। अन्य पुराणों में संज्ञाको विश्वकर्माको पुत्रों कहा गया है।

ब्रह्मपर्व ]

सप्तमीकल्पमें भगवान् मुर्घके रिवारको निपग

भगवान् सूर्यको छायाको ही अपनी पत्नीं समझा। कुछ कहा-‘आपके अति प्रचण्ड तेजसे व्याकुल होकर आपकी समय बाद आया नैर और तपती नामक दो संताने भाग्य उत्तरकुल देशमें चली गयी है। अब आप विश्वकर्माले त्पन्न हुई। छाया अपनी संतानपर यमुना तथा यमसे अधिक अपना रूप प्रशस्त करवा लें।’ यह कहकर उन्होंने स्नेह करती थी। एक दिन यमुना और तपतीमें विवाद हो विश्वकर्माको बुलाकर उनसे कहा-‘विश्वकर्मन् ! आप इनका गया। पारस्परिक शापसे दोनों नदी हो गयौं। एक बार छायाने सुन्दर रूप प्रकाशित कर दें। तब सूर्यको सम्मत पाकर यमुनाके भाई यमको ताड़ित किया। इसपर अमने क्रुद्ध होकन, विश्वकर्माने अपने ताण-कर्ममें सूर्यको खराना प्रारम्भ छावाको मारने के लिये पैर उठाया । इयाने क्रुद्ध होकर न किया। अङ्गक तराशनेके कारण सूर्यको अतिशय पीड़ा हो ३ दिया—’मृद्ध ! तुमने मेरे ऊपर चरण उठाया है, इसलिये रही थी और बार-बार मुच्छ आ जाती थीं। इसलिये तुम्याग्न प्राणियोंका प्राणहिंसक रूपी यह बीभत्स कर्म तबतक विश्वकर्माने सब अङ्ग तो ठीक कर लिये, पर अब पैंकी रहेगा, जबतक सूर्य और चन्द्र रहेंगे। यदि तुम मेरे शापसे अङ्गलियोंको छोड़ दिया तब सूर्य भगवान्ने कहा कलुषित अपने पैरों पृथ्वीपर रखोगे तो कृमिगण उसे या विश्वकर्मन् ! आपने तो अपना कार्य पूर्ण कर लिया, परंतु हम जायेंगे।’

पासे व्याकुल हो रहे हैं। इसका कोई उपाय बताइये। अम और छायाका इस प्रकार विवाद हो ही रहा था कि विश्वकर्माने कहा-‘भगवन् ! आप रक्तचन्दन और करवीरके उसी समय भगवान् सूर्य वहाँ आ पहुंचे। यमने अपने पिता पुष्पोंका सम्पूर्ण शरीर लेप कों, इससे तत्काल यह वेदना भगवान् सूर्यसे कहा-‘पिताजी ! यह हमारी माता कदापि शान्त हो जायगौं ।’ भगवान् सूर्यन विश्वकर्माकं कथनानुसार, नहीं हो सकतीं, यह कोई और स्त्री है। यह हमें नित्य क्रूर अपने सारे शरीरमें इनका लेप किया, जिसमें उनकी सारी भाषसे देखती है और हम सभी भाई-बहनोंमें समान दृष्टि तथा वेदना मिट गयीं। उसी दिनसे रक्तचन्दन और करवीरके पुष्प समान व्यवहार नहीं रखती। यह सुनकर भगवान् सूर्यन क्रुद्ध भगवान् सूर्यको अत्यन्त प्रिय हो गये और उनकी पृशामें प्रयुक्त होकर छायासे कहा-‘तुम्हें अह उचित नहीं है कि अपनी होने लगे । सूर्यभगवान्के शपके गदनेसे ज्ञों तेज़ निकला, संतानोंमें ही कसे प्रेम करो और दूसरेसे द्वेष । जितनी संतानें उस तैजसे दैत्योंके विनाश करनेवाले वज्रका निर्माण हुआ । हों सबको समान हौं समझना चाहिये। तुम नियम-दृष्टिसे क्यों भगवान् सूर्यने भी अपना उत्तम रूप प्राप्तकर प्रसन्न देखता हो ?” यह सुनकर आया तो कुछ न बोलों, पर यमने मनसे अपनी भार्याके दर्शनोंकी उत्कण्ठासे तत्काल उत्तर पुनः कहा–’पिताजी ! यह दुग में माता नहीं हैं, बल्कि कुरुकी और प्रस्थान किया। वहीं उन्होंने इंग्जा कि यह घड़का | मी माताकी छाया है। इसमें इसने मुझे शाप दिया है। यह रूप का सिरण कर ही त्रिचरण कर रही है। भगवान सूर्य भी अश्वका ककर यमने पूरा वृत्तान्त उन्हें बता दिया। इसपर भगवान् प धारण कर उससे मिले। सूर्यने कहा-‘बेटा ! तुम चित्ता न क । कृमिंगण मांस और पर-पुरुषकी आशंकासे उसने अपने दोनों नासापुटोंसें रुधिर लेकर भूककों चले जायेंगे, इससे तुम्हारा व गलेमा सूर्यके ज्ञको एक साथ बाहर फेंक दिया, जिससे अश्विनी नहीं, अच्छा हो जायगा और ब्रह्माजीकी आज्ञासे तुम कुमारोंकी उत्पत्ति हुई और यही देवताओंके वैद्म हुए। तेजके लोकपाल पदये भी प्राप्त करोगे। तुम्हारी बहन यमुनाको अन्तिम अंशसे रेवतकी उत्पत्ति हुई। तपतीं, शनि और जल गङ्गाजलके समान पवित्र हो जायगा और तपतीका जल सायर्ग-ये तीन संतानें छायासे और यमुना तथा यम संज्ञासे नर्मदाजालके तुल्य पवित्र माना जायगा । आजसे बह झाषा उत्पन्न हुए । सूर्यको अपनी भार्या उत्तरकुरुमें सप्तमी तिथिके सबके हमें अवस्थित होगी। दिन प्राप्त हुई, उन्हें दिव्य रूप सप्तम तिथिको हीं मिला तथा । ऐसी व्यवस्था और मर्यादा स्थिर कर भगवान् सूर्य दक्ष संतानें भी इसी तिथिको प्राप्त हुईअतः सप्तमी तिथि भगवान् प्रजापतिके पास गये और उन्हें अपने आगमनका का। बतातें सुने अतिशय प्रिय है। हुए सम्पूर्ण वृत्तान्त कह सुनाया। इसपर दक्ष प्रजापतिने जो व्यक्ति पञ्चमी तिथिको एक समय भोजनकर, षष्ठकों

* पुराणं रमं पुण्यं भविष्य सर्वसौख्यदम्

[ संक्षिप्त भविष्यपुराण उपवास करता है तथा सप्तमीको दिनमै उपचासकर भक्ष्य- पुष्प, अपराजित नामक धूप और पायसका नैवेद्य भन्योंके साथ विविध शाक-पदार्थों को भगवान् सूर्यके लिये सूर्यनारायणको समर्पत करना चाहिये। ब्राह्मणोंको भी अर्पण कर ब्राह्मको देता है तथा रात्रिमें मौन होकर भोजन पासको भोजन कराना चाहिये। दूसरे पारणमैं कुशाके जलसे करता हैं, वह अनेक प्रकारके सुखका भोग करता है तथा भगवान् सूर्यनारायणको स्नान कराकर स्वयं गोमयका प्राशन सर्वत्र विजय प्राप्त करता एवं अन्नको उत्तम विमानपर चढ़कर करना चाहिये और चैत चन्दन, सुगन्धित पुष्प, अगरुम धूप सूर्यंलाकमें कई मन्वन्तरितक निवास कर पृथ्वीपार पुत्र-पौत्रोंसे तथा गुड्के अपूप नैवेद्य अर्पण करना चाहिये और वर्षक समन्वित चक्रवर्ती राजा होता है तथा दीर्घकालपर्यंन्त समाप्त होनेपर तीसरा पारण करना चाहिये। गौर सर्षपका निष्कपटक राज्य करता हैं। उबटन लगन भगवान् सूर्गको मान करना चाहिये। इससे ना कुरुने इस सप्तमी-बतका बहुत कालतक अनुष्ठान सम्पूर्ण पाप नष्ट हो जाते हैं। फिर रक्तचन्दन, करवीरके पुष्प, किया और केवल शाकका ही भोजन किया। इससे उन्होंने कुछ गुग्गुलका धूप और अनेक भक्ष्य-भोज्यसहित दही-भात क्षेत्र नामक पुण्यक्षेत्र प्राप्त किया और इसका नाम रखा धर्मक्षेत्र । नैवेद्यमें आर्पण करना चाहिये तथा यहीं ब्राह्मणों को भी भोजन | सप्तमी, नवमी, घी, तृतीया और पञ्चमी ये तिथियाँ बहुत कराना चाहिये। भगवान् सूर्यनारायण के सम्मुख ब्राह्मणसे उत्तम हैं और स्त्री-पुरुषकों मनोवाञ्छित फल प्रदान करनेवालों पुराण-श्रवण करना चाहिये अथवा स्वयं बाँचना चाहिये। हैं। माघकी सममी, आश्विनको नयम, भाद्रपद षष्ठी, अनमें स्नाह्मणको भोजन कराकर पौराणिकको सम-आभूषण, वैशाखकों तृतीया और भाद्रपद मासकीं पञ्चमी–वे तिधियाँ दक्षिणा आदि देकर प्रसन्न करना चाहिये । पौराणिकके संतुष्ट इन महीनोंमें विशेष प्रशस्त मानी गयीं हैं। कर्तिक शुक्ला होनेपर भगवान् सूर्यनारायण प्रसन्न हो जाते हैं। रक्तचन्दन, सप्तमौसे इस व्रतको ग्रहण करना चाहिये । उत्तम शाकको सिद्ध करवीरके पुष्प, गुगुल्लका धूप, मोदक, पाससका नैवेद्य, घृत,

कर ब्राह्मणोक देना चाहिये और गुन्निमें स्वयं भी शक हौं ताम्रपत्र, पुराण-ग्रन्थ और पौराणिक—ये सब भगवान् | महण करना चाहिये । इस प्रकार चार मासत्तक मत कर मतका सूर्यको अत्यन्त प्रिय हैं। जन् ! अह् शाक-सप्तमी व्रत पहल पारण करना चाहिये। उस दिन पञ्चगव्यसे सूर्य भगवान् सूर्यको अति प्रिय हैं। इस मृतका करनेवाला पुरुष भगबान्कों स्नान कराना चाहिये और स्वयं भी पञ्चगव्या भाग्यशाली होता हैं। प्राशन करना चाहिये, अनन्तर केरका चन्दन, अगम्यके

अध्याय । श्रीकृष्ण-साम्य-संवाद तथा भगवान् सूर्यनारायणकी पूजन-विधि राजा शतानीकने कहा-ब्राह्मणश्रेष्ठ ! भगवान् सबका आम वग़न कनें । मेरा मन इस संसारमें अनेक सूर्यनारायणका माहात्म्य सुनते-सुनने मुझे तुम नहीं हो प्रकार आधि-व्याधियोंको देखकर अत्यन्त उदास हो रहा है, रही है, इसलिये मममी-कल्पका आपः पुनः कुर और मुझे क्षणमात्र भी ज़ौकी इच्छा नहीं होती, अतः आप कृपा विस्तारसे वर्णन करें।

ऐसा उपाय बतायें कि जितने दिन भी इस संसारमें रहा जाय, सुमनु मुनि बोले–राजन् ! इस विषयमें भगवान् ये आधि-व्याधियाँ पीडित न कर सकें और फिर इस संसारमें औकृष्ण और उनके पुत्र साम्बका जो परस्पर संवाद हुआ था, ज न हो अर्थात् मोक्ष प्राप्त हो जाय। उसका मैं वर्णन करता हूँ, उसे आप सुनें।

भगवान् श्रीकृष्णने कहा-यन्स ! देवताओं । एक समय साम्यने अपने पिता भगवान् श्रीकृष्ण प्रसादसे, उनके अनुग्रहसे तथा उनकी आराधना करनेसे यह पूछा-पिताजी ! मनुष्य संसारमें जन्म-ग्रहणकर कौन-सा सब कुछ प्राप्त हो सकता है। देवताओंकी आराधना ही परम् कर्म करें, जिससे उसे दुःख न हो और मनोवाञ्छित फलको उपाय हैं। देवता अनुमान और आगम-प्रमाणोंसे सिद्ध होते प्राप्त कर वह स्वर्ग प्राप्त करें तथा मुक्ति भी प्राप्त कर सके। इन हैं। विशिष्ट पुरुष विशिष्ट देवताक्ने आराधना करें तो यह पर्य ]

 

* सूर्यनारायणके नित्यार्चनका निभान

‘विशिष्ट फल प्राप्त कर सकता हैं। अपने-अपने व्यवहारमें प्रवृत्त होते हैं। इन्हींक अनमहमें यह साम्बने कहा-महाराज ! प्रथम तो देवताओके सारा संसार प्रयत्नशील दिखायी देता है। सूर्यभगवानके अस्तित्वमें ही रह हैं, कुछ लोग कहते हैं देवता हैं और उदयके सायं जगत्का उदय और उनके अस्त होनेके साथ कुछ कहते हैं कि देवता नहीं हैं, फिर विशिष्ट देवता किन्हें जगत् अस्त होता हैं । इनसे अधिक न कोई देवता हुआ और समझा जाप ? न होंगा। वेदादि शास्त्रों तथा इतिहास-पुराणादिमें इनका भगवान् श्रीकृष्ण बोले-बल्स ! आगमसे, अनुमानसे मारमा, अन्तरात्मा आदि शब्दोंसे प्रतिपादन किया गया है। और प्रत्यक्षसे देवताओंका होना सिद्ध होता है।

ये सर्वत्र व्याप्त हैं। इनके सम्पूर्ण गुणों और प्रभावका वर्णन साम्वनें कहा—यदि देवता अपक्ष सिद्ध में सकते हैं सौं वचोंमें भी नहीं किया जा सकता। इसलिये दिवान, तो फिर उनके साधनके लिये अनुमान और आगम-प्रमाणक गुणाक्न, सबके स्वामीं, सबके स्रष्टा और सबका संहार, कुछ भी अपेक्षा नहीं है। करनेवाले भी ये ही कहे गये हैं। वे स्वयं अव्यय हैं। कृष्ण बोले-वत्स ! सभी देवता प्रत्यक्ष नहीं जो पुरुष सूर्य-मण्डलकी रचनाकर प्रातः, मध्याह्न और होते । शास्त्र और अनुमानसे ही हजारों देवताओंका होना सिद्ध सायं उनकी पूजा कर उपस्थान करता है, वह परमगतिको प्राप्त

नता हैं। फिर, जो प्रत्यक्ष सूर्यनारायणका भक्तिपूर्वक पूजन साम्यने कहा—पिताजी ! जो देवता प्रत्यक्ष हैं और करता है, उसके लिये कौन-सा पदार्थ दुर्लभ हैं और जो अपनी विशिष्ट एवं अभीष्ट फलौंको देनेवाले हैं, पहले आप उहाँका अन्तरात्मामैं ही मण्डलम्ध भगवान् सूर्यको अपनी बुद्धिारा वर्णन करें। अनन्तर शास्त्र तथा अनुमानसे सिद्ध होनेवाले निश्चित कर लेता हैं तथा ऐसा समझकर वह इनका ध्यानपूर्वक देवताओं का वर्णन करें।

फूजन, हवन तथा आप करता है, वह सभ क्रममनाको प्राप्त श्रीकृष्णने कहा–प्रत्यक्ष देवता तो संसारके नेत्रस्वरूप करता हैं और अन्नामें इनके लोंकको प्राप्त होता हैं। इसलिये भगवान् सूर्यनारायण हीं हैं, इनसे बढ़कर दूसरा कोई देवता हैं पुत्र ] यदि तुम संसारमें सुख चाहते हो और भुक्ति तथा नीं हैं। सम्पूर्ण जगत् इन्हींसे उत्पन्न हुआ है और अनमें मुक्तिको इच्छा रखते हों तो विधिपूर्वक प्रत्यक्ष देवता भगवान् इन्होंमें विन भी हों आयगा।

सूर्यको तपपतासे आराधना करें। इससे तुम्हें आध्यात्मिक, सल्प आदि युगों और कालकी गणना इनसे सिद्ध होतो आधिदैविक तथा आधिभौतिक कोई भी इस्त्र नहीं होंगे। ज्ञों है। ग्रह, नक्षत्र, योग, करण, शि, आदित्य, वसु, रुड़, वायु, सूर्यभगवानुकीं शरणमें जाते हैं, उनको किसी प्रकारका भय नहीं

अग्नि, अश्विनीकुमार, इन्द्र, प्रज्ञापत, दिशाएँ, भूः. भुवः स्वः- होता और उन्हें इस क तथा परलॉकमें शाश्वत सुख प्राप्त ये सभी लॉक और पर्बत, नदी, समुद्र, नाग तथा सम्पूर्ण होता है । स्वयं मैंने भगवान सूर्य की बहन काक यथाविधि भूतमामकी उत्पत्तिकै एकमात्र हेतु भगवान् सूर्यनारायण ही हैं। आराधना की है, उन्हींकी कृपासे यह दिव्य ज्ञान मुझे प्राप्त हुआ यह सम्पूर्ण चराचर-जगत् इनकी में इन्चासे उत्पन्न हुआ है। हैं। इससे बड़क मनुष्योंक हितका और कोई उपाय नहीं हैं। इनमें ही इसे स्थित हैं और सभी इनकी ही इच्छासे

 

(अध्याय ]

औसूर्यनारायणके नित्यार्चनका विधान भगवान् श्रीकृष्णाने कच्च–साम्ब ! अब हम सिद्ध होती है और पुण्य भी प्राप्त होता हैं। प्रातःकाल उड़कर सूर्यनारायणके पूजनका विधान बताते हैं, जिसके कानसे शौच आदिसे निवृत्त हों नहँके तटपर जाकर आचमन करे तथा सम्पूर्ण पाप और विघ्र नष्ट हो जाते हैं तथा सभी मनोरधोये सूर्योदयके समय शुद्ध मृत्तिकाका शरीर पर लेपन कर स्नान

यक्ष यता सूर्यो गक्षुर्दियामरः तस्मादयधम्म काचिदेवता नाना शमन

मादिदं गजानं यं याम्यति मात्र

(बाय ४८ । ३-३८ ।

  • पुराणं रमं पुण्यं भविष्यं सर्वसौख्यदम् =

[ संक्षिप्त भविष्यपुराणाङ्क क्ने । पुनः आचमन कर शुद्ध वस्त्र धारण करें और समाक्षर अथवा रक्तचन्दनसे ताम्रपत्रमें घट्दल-कमल बनाकर उसके | मन्त्र ‘ॐ वखोल्काय स्वाहा’ मैं सूर्यभगवान अयं ६ मध्यमें सभी उपचारोंसे भगवान् सूर्यनारायणका पूजन करें। तथा हृदय मन्त्रका यान करें एवं सूर्य-मन्दिर जाकर ही दलोंमें घडङ्ग-पूजन कर उत्तर आदि दिशाओमें सोमद सूर्यको पूजा करें। सर्वप्रथम श्रद्धापूर्वक पूरक, रेचक और आठ ग्रहोंका अर्चन करे और अष्टदिक्पालों तथा उनके कुम्भक नामक प्राणाम झन वायवीं, आग्नेय, माहेन्द्रों और आयुधोंका भी तत्तद् दिशाओं में पूजन करें। नामके आदिमें वारुण धारणा करके भूतशुद्धिको तसे शरीरका शोषण, प्रणय लगाकर नामको चतुर्थी-विभक्तियुक्त करके अत्तमै नमः। दहन, स्तम्भन और प्राबन करके अपने शरीरको शुद्धि कर ले। कहे- जैसे ‘ॐ सोमाय नमः’ इत्यादि । इस प्रकार | अपने शुद्ध हृदयमें भगवान् सूर्य की भावना कर उन्हें प्रणाम नाममन्त्रोंसे सबका पूजन करें। अनत्तर व्योम-मुद्रा, विकने । स्थूल, सूक्ष्म शरीर तथा इन्द्रियोंको अपने-अपने स्थानोंमें मुद्दा, पद्म-मुद्रा, माश्चेत-मुद्रा और अरुल-मुद्रा दिखायें। ये उपन्यस्त करें। खः स्वाहा हृदयाय नमः, ॐ वं स्वाहा पाँच मुद्राएँ पूजा, जप, ध्यान, अर्थ्य आदिके अनत्तर, शिरसे स्वाहा, ॐ काय स्वाहा शिवायै वषट्, ॐ आय दिखाना चाहिये। स्याहा कक्चाय हुम्, ॐ स्वाँ स्वाहा नेत्रत्रयाय वौषट्, हाँ इस प्रकार एक वर्षतक भक्तिपूर्वक जुन्मयताके साथ _स्वाहा काय फट् ।’

भगवान् सूर्यनारायणका पूजन करने अभीष्ट मनोरथोकी प्राप्ति इन मन्त्रको अङ्गन्यास कर पूजन सामग्रीका मूल मन्त्रमें होती हैं और बादमें मुक्ति भी प्राप्त होती है। इस विधिसे पूजन | अभिमन्त्रित जलद्वारा प्रौक्षण करे। फिर सुगन्धित पुष्पादि करनेपर गैंग रोगसे मुक्त हो जाता हैं, धनहींन धन प्राप्त करता उपचारोंसे सूर्यभगवान्का पूजन करें। र्यनारायणकी जा हैं, राज्यभ्रष्टको शुन्य मिल आता है तथा पुजहोन पुत्र प्राप्त दिनके समय सूर्य-मूर्तिमें और रात्रिके समय अग्रिमें करनीं करता है। सूर्यनारायण पूजन करनेवाला पुरुष प्रज्ञा, मेधा चाहिये । प्रभातकारमें पूर्वाभिमुख, सायंकालमें पश्चिमाभिमुख तथा सभी सदियोंसे सम्पन्न होता हुआ चिरंजीवी होता है। तथा गृत्रि में उत्तराभिमुख होकर पूजन करनेका विधान हैं।’ इस विधि पूजन करने पर कन्याको उत्तम वरक, कुरूप सोकाय या इस साक्षर मल मनसे सूर्यमण्ड कपको उत्तम सौभाग्य तथा विद्याध सहियाको बानि होती कोच पदल-कमका ध्यान कर उसके माध्यमें सहन है। ऐसा सूर्यभगवान्ने स्वयं अपने मुखको कहा है। इस प्रकार किरणोंसे देदीप्यमान भगवान् सूर्यनारायण मूर्तिका ध्यान सूर्यभगवानका पूजन करनेसे धन, धान्य, संतान, पशु आदिकी करें। फिर रक्तचन्दन, करवर आदि रक्तपुष्प, धूप, दीप, नित्य भिवृद्ध होती है। मनुष्य निष्काम हो जाता है तथा अनेक प्रकारके नैवेद्य, वस्त्राभूषण आदि उपचासे पूजन करे । अन्तमें इसे सहूति प्राप्त होती हैं।

(अध्याय ४५)

भगवान् सूर्यके पूजन एवं व्रतोद्यापनका विधान, द्वादश आदित्यों के नाम और रथसप्तमी-व्रतकी महिमा । भगवान् श्रीकृष्याने कहा-साम्ब ! अब मैं सूर्य प्रातःकाल उठकर विधिपूर्वक स्नान सम्पन्न करके संध्या करे विशिष्ट अवसरॉपर होनेवाले व्रत-उत्सव एवं पुजनकी तथा पूर्वोक्त मन्त्र ‘ॐ सोंकाय स्वाहा’ का जप एवं निधियोंका वर्णन करता हैं, उन्हें सुनीं। किसी मासके सूर्यभगवानकी पूजा करें । अग्निकों सूर्यतापके रूपमें समझकर शुक्लपक्षकी सप्तमी, ग्रहण या संक्रान्तिके एक दिन-पूर्व एक कैदी बनाये और संक्षेपमें हुयन तथा तर्पण करे। गायत्री मन्त्रको बार हथियान्नका भोजन कर, सायंकालके समय भलीभाँति प्रोक्षणाकन पुग्न और उत्तराय़ कुशा बिजये । अनन्तार सभी । आचमन आदि करके अरुणदेवको प्रणाम करना चाहिये तथा पात्रों का शोधन कर दो कुशाओं प्रदेशमात्रको एक पवित्र । सभी इन्द्रियोंको संयतकर भगवान् सूर्यको ध्यान न राभिमें बनाये। उस पवित्र सो वस्तुओका प्रोक्षण करे, घाँको जमीनपर कुवाकी शव्यापर शयन करना चाहिये । दूसरे दिन अग्निपर रखकर पिघला ले, उत्तर और पात्रमें उसे रख दें, मापपर्छ

 

  • भगवान् सूर्यके पूजन एवं नयापनका विधान

अनर जलते हुए उन्मुकसे पर्याप्तिकरण करते हुए मृतका तीन प्रकार आशीर्वाद प्राप्त कर दोनों, अधों तथा अनाथको बार उतरवन । नुवा आदिका कुशॉक द्वारा परिमार्जन और यथाशक्त भोजन कराये तथा ब्राह्मणों को भोजन कराकर, सम्प्रोक्षण करके अग्निमें सूर्यदेवकी पूजा करे, और दाहिने दक्षिणा देकर व्रतकी समाप्ति की। हाथमें स्नुषा ग्रहणकर मूल मन्त्र हुवन करें। मनोयोगपूर्वक जो व्यक्ति इस समम-ब्रतको एक वर्यतक करता है, वह | मौन धारण कर सभी क्रियाएँ सम्पन्न करनी चाहिये। सौं योजन बे-चौड़े देशका धार्मिक राजा होता है और इस पुर्णाहुतिके पश्चात् तर्पण करे। अनन्तर ब्राह्मणोंको उत्तम भोजन ग्रताके फलसे सौ वर्षोंसे भी अधिक निष्कपटक राज्य करता कना चाहिये और यथाशक्ति उनको दक्षिणा भी देनी चाहिये। हैं । जो स्त्री इस व्रत करती हैं, वह राजपली होती हैं। निर्धन ऐसा करने से मनोवाञ्छित फलको प्राप्ति होती हैं। व्यक्ति इस व्रतको यथार्थाथ सम्पन्न कर बतास्मयों हुई विधि | माय मासकी सप्तमीको वरुण नामक सूर्यको पूजा करें। अनुसार तबका उथ ब्राह्मणों देता हैं तो यह अस्सी प्रोजन इसी प्रकार क्रमशः सगुनमें सूर्य, चैत्रमें वैशाख, वैशाखमें लंबा-चौड़ा राज्य प्राप्त करता है। इसी प्रकार आटेका अध धाता, ज्येष्ठमें इन्द्र, आषाढ़में रवि, आवमें नभ, भाद्रपद्में बनवाकर दान करनेवाला साल योञ्जन विस्तृत राज्य प्राप्त करता अम, आश्विनमें पर्जन्य, कार्तिक्में त्वष्टा, मार्गशीर्षमें मित्र तथा है तथा वह चिरायु, नौरोग और सुखी रहता है। इस व्रतको पौष मासमें विष्णुनामक सूर्यका अर्चन करे । इस विधिसे करनेसे पुरुष एक कल्पतक सूर्यमें निवास करने के पश्चात् बारह मासमें अलग-अलग नामोंसे भगवान् सूर्यको पूजा आजा होता है। यदि कोई व्यक्ति भगवान् सूर्यको मानसिक | करनी चाहिये । इस प्रकार श्रद्धा-भक्तिपूर्वक एक दिन पूजा आराधना भी करता है तो वह भी समस्त आधि-व्याधियोंसे | करनेसे वर्षपर्यत की गयी पूजाका फल प्राप्त हो जाता हैं। हित होकर सुखपूर्वक जीवन व्यतीत करता है। जिस प्रकार उपर्युक्त विधिसै एक वर्षनाक ब्रत कर रत्नज्ञटित सुवर्णका भगवान् सूर्यको कुरा स्पर्श नहीं कर पाता, उसी प्रकार | एक इव बनवायें और उसमें सात घोड़े बनवाये । इधके मध्यमें मानसिक पूजा करनेवाले साधकको किस प्रकारको आपत्तिय

सोनके कमलके ऊपर रोके आभूषणोंसे अलंकृत सूर्य- स्पर्श नहीं कर पाती। यदि किसन मन्त्रों द्वारा भक्तिपूर्वक नारायणी सोनेक मूर्ति कथापित करे । के आगे उनके विधि-विधानसे मत सम्पन्न कात हा भगवान् सूर्यनारायण | सावकों वैनायें । अनन्तर बारह ब्राह्मणोंमें बारह महीनौके भागधना की तो फिर उसके पिया क्या कहना ? इसलिये सूची भावना कर तेरहवें मुग्ण आचार्यको साक्षात् अपने कल्याणक लियं भगवान् सूर्यको पूजा आवश्य करनों सूर्यनारायण समझकर उनकी पूजा करें तथा उन्हें प्रथा, छत्र, शाहिये भूमि, गौं आदि समर्पित करे । इसी प्रकार के आभूषण, पुत्र ! सूर्यनारायणने इस विधि-विधानको स्वयं अपने | बम्ब, दक्षिणा और एक-एक घोड़ा इन बारह ब्राह्मणोंकों में मुखसे मुझसे कहा था। आजतक उमें गुप्त रखकर पहलै बार । तथा हाथ जोड़कर यह प्रार्थना करें-‘ब्राह्मण देवताओ ! इम मॅन तुमसे कहा है। मैंने इसी बलक प्रभाव हुज्ञा पुत्र और | सूर्यनातके उद्यापन करने के बाद यदि असमर्थतावश कभी पत्रको प्राप्त किया हैं, दैत्यों जीता है, देवताको वशमें

सूर्यवत न कर सके तो मुझे दोष न हो।’ प्राणिक साथ किया है, और इस में दो सूर्यभगवान् निवास करते हैं। | आचार्य भी ‘एवमग्नु’ ऐसा हक जमानको आशीर्वाद में नहीं तो इस चक्रमें इतना तेज कैसे होता ? ग्रहों मग्ण है कि | और कहे-‘सूर्यभगवान् तुमपर प्रसन्न हैं । जिस मनोरथों सूर्यनारायणको नित्य जप, ध्यान, पुजन आदि करनेसे मैं |पूर्तिकं लिये तुमने यह व्रत किया है और भगवान् सूर्यको पूजा अगत्या पून्य हैं। बस ! तुम भी मन, वाणी तथा कर्म से हैं, वह तुम्हारा मनोरथ सिद्ध है और भगवान् सूर्य उमें पर्यनारायण की आराधना कों। ऐसा करनेमें तुम्हें विविध सुख पूरा करे । अव व्रत न करनेपर भी तुमको दो नहीं होगा। इस प्राप्त होंगे। ज्ञों पुरुष भक्तिपूर्वक इस विधानको सुनाता है, यह – जुग वा भी नाम चैत्रादि यह महीनाम सपक में नाम मिल = ना, अर्गमा, मित्र, महण, इन्द्र, शिगवान्, पुमा, पर्जन्य, अ. भा. वा और विश। कपभेदक अनुर नामा भर है।

# पुराणं परमं पम्यं भघियं सर्वसोप्यम्

[ संक्षिप्त मधियपुरोगाभों पुत्र-पौत्र, आरोग्य एवं लक्ष्मीको प्राप्त करता है और आश्विन आदि चार मास में अगम्य-पुम, अपराजित धूप | मर्योंकको भी प्राप्त हो जाता हैं। और गुड्के पुए आदिका नैवेद्य तथा इसुरस भगवान् सूर्यको भगवान् कृष्याने कहा—साम्ब ! मात्र मासके समर्पित करना चाहिये । यथाशक्ति ब्राह्मण भोजन कराकर | शुक्ल पक्षको पञ्चमी तिथिको एभुक्त-व्रत और पल्लीको नक्तवात आत्मशुद्धिके लिये कुशाके जलसे स्नान करना चाहिये । उस करना चाहिये। सुन्नत ! कुछ लोग सामीमें उपवास चाहतें दिन कुशोदकका ही प्राशन करे । व्रतको समाप्तिमें माघ मासकीं हैं और कुछ विद्वान् षष्ठी/ उपवास और सप्तमी तिथिमें पारण शुक्ला सप्तमीको रथका दान करें और सूर्यभगवान्की प्रसन्नताकै कनेका विधान कहते हैं । इस प्रकार विविध मत हैं)। लिये रथयात्रोत्सवका आयोजन करे । महापण्यदायिनी इस वस्तुतः पप्ती उपवासकर भगवान् सूर्यनारायणकी पूजा करनी सप्तमीको रथसप्तमी कहा गया हैं। यह महासममीकै नामसे चाहिये । रक्तचन्दन, करवीर-पुण्य, गुग्गुल धूप, पायस आदि अभिहित हैं । रथसप्तमौकों जो उपवास करता है, वह कीर्ति, नद्यले मात्र आदि चार महीनोंतक सूर्यनारायणकी पूजा करनी धन, विद्या, पुत्र, आरोग्य, आयु और उत्तमोत्तम कान्ति प्राप्त चाहिये । आत्मशुद्धिके लिये गोमयमश्रित जलसे स्नान, करता हैं। हे पुत्र ! तुम भी इस व्रतको करों, जिससे तुम्हारे | गोमयको प्राशन और यथाशक्ति ब्राह्मण-भोजन भी माना सभी अभट्ठोंको सिद्ध हो । इलुना कहकर शह, चक्र, चाहिये ।।

 

गदायधारीं श्रीकृष्णा अन्तर्रत हो गये। ज्येष्ठ आदि चार महीनोमैं चैत चन्दन, श्वे पुष्य, कृष्ण सुमनुने कहाराजन् ! उनकी आज्ञा पाकर साम्यने भौं | अगरु धूप और उत्तम नैवेद्य सूर्यनारायणको अर्पण करना भक्तिपूर्वक सूर्यनारायणकी आराधनामें तत्पर हों इधसम्मक

चाहिये

इसमें पञ्चगव्यप्राशन कर झाह्मणों को कष्ट भोजन व्रत किया और कुछ ही समयमै रोगमुक्त होकर मनोवाञित काना चाहिये। फल प्राप्त कर लिया सूर्यदेवके रथ एवं उसके साथ भ्रमण करने वाले देवता-नाग आदिका वर्णन ।

राजा शतानीकने पूछामुने !

सूर्यनारायणकी हैं, आप मानन्द सुनें ।।

श्ययात्रा किस विधानसे करना चाहिये।

रथ कैसा बनाना एक चक्र, तीन नाभि, पाँच अरे तथा स्वर्णमय अति चाहिये। इस रथयात्राका प्रचलन मत्यलोक किसके द्वारा कात्तिमान् आठ बन्धसे युक्त एवं एक नमसे मनुसज्जित हुआ? इन सब बातों को आप कृपाकर मुझे अतरायें। इस प्रकारके दस हजार योजन -चौड़े अतिशय प्रकाशमान

मुमनु मुन बोले-राजन् ! किसी समय सुमेरु स्वर्ण-पथमैं विराजमान भगवान् सूर्य विचरण करते रहते हैं। पर्वतपर समान भगवान् रुदने ब्रह्माजीसे पुछ–’ब्रह्मन् ! थके उपस्थ ईपा-टाटु तीन-गुना अधिक है। यहीं उनके इस लोको प्रकाशित करनेवाले भगवान् सूर्य किम कारके साथ अरुण बैठते हैं। इनके उथका जुआ सोने का अना हुआ प्रथमें बैंकर भ्रमण करते हैं, इसे आप अता ।’ हैं। प्रथमें बायके समान वेगवान् इन्टरुपीं सारा घोई जुत्ते हुने ब्रह्माजींने कहा–त्रिलोचन ! सूर्यनारायण जिस हैं। संघसमें जितने अवयव होते हैं, ये हीं थके अङ्ग हैं। प्रारक इथ बैंकर भ्रमण करते हैं, उसका मैं वर्णन करता तीन काल चक्रकी तीन नाभियां हैं। पाँच ऋतु अरे हैं, ॐ

! – मि दिन यः दिनका अधळ अश — सायं चार बफ गभग भाजन झन पुगे गत आवमा कर या माशा है, उसे 1:भुत कहा जाता है भरि भिर पाकर गां भोजन ‘नान हन्मना है।

– धमक बिपयम नरमान, सनम, मतप्राप्त आंद नमक पद्माण एवं वायुग, माघ-माह्म-धमें यह तारस व्रत-विधान निरूपा हुआ है और कुछ शान भी इस दिन भगवान् के भन्न चाकर भाको अधम यात्रा काने व किया गया है। आप रामनामा दिन भगवान का, जाप दिन भगवान श्रीकृष्णम्म माफटा मानन जुनाव किया जाना : म | समीक दिन भगवान सूर्य का प्राकट्य मान्न जनक कि भना , मात्र या अन् मगन की जानी है। झापर्व ]

+ सूर्यदेवकै उच्च एवं उसके साथ भ्रमण करनेवाले देवतानाग आदिका वर्ण +

 

ऋतु नम हैं । दक्षिण और उत्तर—ये दो अयन रथके दोनों दो आदित्य, कश्यप और तु नामक दो ऋषि, महापद्म और | भाग है। मर्न उथ इषु, कम, इम्य, काष्ठा उथके कोण, कर्कोटक नामक दो नाग, चित्राङ्गद और अरगानु नामक हो क्षण अक्षदा, निमेष श्धके का, ईंषा-दा; लवा, रात्र वरूथ, गन्धर्व, सहा तथा सहस्या नामक दो अप्सरा, ना तथा धर्म उधका वज़, अर्थ और काम पुरीका आग्रभाग, गायत्री, अरिष्टनेमि नामक यक्ष, आप तथा वात नामक दो राक्षस प्रिष्ट्रप, अगती, अनुष्ट्रप, पंक्ति, गृहती तथा अण्ण- ये सात सूर्यपथके साथ चा करते हैं।

छन्द सात अध हैं। धुरीपर चक्र भूमता हैं। इस प्रकारके उध माघ–फागुनमें क्रमशः पूषा तथा जिष्णु नामक दों बैठकर भगवान् सुर्य निरन्तर आकाशमें भ्रमण करते रहते है। आदित्य, जमदग्नि और विश्वामित्र नामक में ऋषि, काइवेय | देव, ऋषि, गन्धर्व अप्सरा, नाग, ग्रामणी और राक्षस और कम्बलवान ये दो नाग, धृतराष्ट्र तथा सुर्यवर्चा नामक सूर्यकै रथके साथ घूमते रहते हैं और दो-दो मासके बाद इनमें दो गन्धर्व, तिलोत्तमा और भा में दो अपरा तथा नजित् रिवर्तेन हो जाता है।

और सत्यजिन नामक दो यक्ष, ज्ञाह्मगत तथा प्रशासन नाम। धाता और अर्यमा–ये दों आदित्य, पुलस्त्य तथा पुलह दो राक्षस सूर्यग्यके साथ चला करते हैं। | नामक दो ऋषि, सण्डक, वासुकि नामक दो नाग, तुम्वरु और ब्रह्माजीनें कहा–रुदेव ! सभी देवताओंने अपने ।

नारद ये दो गन्धर्व, ऋतुधला तथा पुञ्जिका ये असराएँ अंशरूपसे विवि अरु-शासकों भगवान सूर्यकी रक्षा उधकृस तथा यौजा में दो पक्ष, ति तथा प्रति नामक दो जिसे उन्हें दिया है। इस प्रकार सभी देवता उनके पथके ग्राम में क्रमशः चैत्र और वैशाख मासमें रशके साथ चला साथ-साथ भ्रमण करते रहते हैं। ऐसा कोई भी देवता नहीं हैं।

जो उथके पीछे न चले। इस इमदेवमय सूर्यनारायणके मित्र तथा वरुण नामक दो आदित्य, त्र तथा वसिष्ठ मण्डलकों ब्रह्मवेत्ता ब्रह्मस्वरूप, आशिक अज्ञस्वरूप, भगवद्भक्त ये दों ऋषि, तक्षक और अनन्त दो नाग, मॅनका तथा सहान्या विष्णुस्वरूप तथा व शिवस्वरूप मानते हैं। ये थानाभिमानी ये दो अप्सराएँ, हाहा-हू दो गन्धर्व, इधस्वान् और रचित्र देवगण अपने तेजसे भगवान् सूर्यको आध्यापित करते रहो ये दो पक्ष, पौरुषेय और यध नामक दो इस क्रमशः ज्येष्ठ हैं। देवता और ऋषि निरन्तर भगवान् सूर्यको स्तुति करते रहें । तथा आषाढ़ मास सुर्यरथम साथ चला करते हैं। हैं, गन्धर्व-गण गान करते रहते हैं तथा अप्सरा रथ आगे ।

शाण तथा भाद्रपदमें इन्द्र तथा बिस्लान नामक दो नृत्य करती हैं जो इहती है। राक्षस के पौळे पी | आदित्य, अहि नया भग नामक दो अन, परी नया हैं। साल हजार बालविल्य ऋणि धका चार

शङ्पाल में दो नाग, अम्लोचा और इंदका नामक दो अप्सराएँ, घेरकर चलते हैं। विस्पति और स्वय धके आगे, भर्ग भानु और दुर्दर नामक गन्धर्व, सर्प तथा ब्राह्म नामक दो दाहिनी ओर, पद्मज आ ओर, कुबेर दक्षिण दिशामें, वरुण | गृक्षस, ब्रोत तथा आपूरण नामक दो यक्ष सूर्यरथके साथ उत्तर दिशामें, वतहोत्र और हरि, रथके पीछे रहते हैं। रथ के चलते इलें हैं।

पौटमें पृथ्वी, मध्यमें आकाश, रथको कात्तिमें स्वर्ग, बाम आश्विन और कार्तिक मासमें पर्जन्य और पृषा नामक दो दण्ड, विज्ञापने धर्म, पताकामें ऋद्धि-वृद्ध और स्त्री निवास आदित्य, भारद्वाज और गौतम नामक दो ऋषि, विज्ञसेना तथा करती हैं। अदरक ऊपरी भागमें गरुड़ तथा उसके ऊपर यसुरुचि नामक दो गन्धर्व, विश्वाची तथा मृताची नामकी दो वरुण स्थित हैं। मैनाक पत्रंत छत्रका दण्ड, हिमाचल प्रश्न अप्सराएँ, ऐरावत और धनञ्जय नामक ] नाग और सेनजित् होकर सूर्यके साथ रहते है। इन देवताओंका बल, तप, तेज, तथा सुषेण नामक दो पक्ष, आप एवं वात नामक दो राक्षस योग और तत्व जैसा है वैसे ही सूर्यदेव तपते हैं। ये ही देवगा सूर्यपथके साथ चा करते हैं।

नपते हैं, बरसते हैं, मुष्टिका पालन-पोषण करते हैं, जोयाके मार्गशीर्ष तथा पौष गासमें अंशु तथा भग नामक अशुभ कर्मों निवृत्त करते हैं, प्रज्ञाको आनन्द देते हैं और | १- ये नाम विष्णु आदि अन्य पुराणों में कुछ भेदमें मिलते हैं।  

= पुराणं परमं पुण्यं भविष्यं सर्वमीस्पदम्

[ संक्षिप्त पबियपुग सभी प्राणियों के लिये भगवान् सूर्यके साथ भ्रमण जब मध्याद्ध होता है, उस समय बिभामें उदय, अमरावती करते रहते हैं। अपनी किरणोंमें चन्द्रमाकी द्धि कर सूर्य आधी रात और संयमनीमें सूर्यास्त होता है । विभा नगरौमें जब भगवान् देवताओंका पोषण करते हैं। शुक्ल पक्षमें सूर्य- मध्याह्न होता है, तब अमरावतीने सुर्योदय, संयमनमें आधी किरणोंसे चन्द्रमाको क्रमशः वृद्धि होती है और कृष्ण पक्षमें ग़त और सुखा नामकी वरुणको नगरीमें सूर्यास्त होता है । इस देवगण उसका पान करते हैं। अपनी किरणोंसे पृथ्वीका प्रकार मेरु पर्वतकों प्रदक्षिणा करते हुए भगवान् सूर्यका उदय रस-पान कर सूर्यनारायण वृष्टि करते हैं। इस वृष्टिसे सभी और अस्त होता है। प्रभातसे मध्याह्नक सूर्य-किरणकी वृद्धि ओषधयाँ उत्पन्न होती हैं तथा अनेक प्रकारके अन्न भी उत्पन्न और मध्याह्नसे अस्तक वास होता हैं । जहाँ सूर्योदय होता है। होते हैं, जिससे पितरों और मनुष्योंकी तृप्ति होती हैं। यह पूर्व दिशा और जहाँ अस्त होता है वह पश्चिम दिशा हैं।

एक चक्रवाले प्रथमें भगवान् सूर्यनारायण बैठकर एक एक माहूर्तमें भूमिका तीसवाँ भाग सूर्य लाँघ जाते हैं। सूर्य अहोरात्र में सात द्वीप और समुद्रोंसे युक्त पृथ्वीके चारों और भगवान्के उदय होते ही प्रतिदिन इन्द्र पूजा करते हैं, मध्याह्नमें भ्रमण करते हैं। एक वर्षमै ३६ॐ बार भ्रमण करते हैं। इन्द्रकी यमराज, अस्तके समय वरूण और अर्धरात्रिमें सोम पूजन पुरी अमरावतमें जब मध्याह्न होता है, तब उस समय यमकी करते हैं। संयमन पुगैमें सूर्योदय, वरुणक सुखा नामकी नगरीमें विष्णु, शिव, रुद्र, ब्रह्मा, अग्नि, वायु, निति, ईशान अर्धरात्रि और सौमको विभा नामक नगरोंमें सूर्यास्त होता हैं। आदि सभी देवगण क्रिकी समाप्तिपर ब्राह्मवेलामें कल्याणकै संयमनीमें जब मध्याह्न होता है, तब सुखामै उदय, लिये सदा भगवान् सूर्य की आराधना करते रहते हैं।

अमरावतीमें अर्धरात्रि तथा विभामें सूर्यास्त होता है । सुखामें

(अध्यय ५३५३)

भगवान् सूर्यकी महिमा, विभिन्न ऋतुओंमें उनके अलग-अलग वर्ण तथा उनके फल भगवान् रुद्रनें कहा-ब्रह्मन् ! आपने भगवान् न होनेसे जगत्का कोई व्यवहार भी नहीं चल सकता। सूर्यनारायणके माहात्म्यका वर्णन किया, जिसके सुननेसे हमें ऋतुनुका विभाग न हो तो फिर फल-फूल, शेती, ओषधियाँ | बहुत आनन्द मिला, कृपाकर आप उनके माहारा और आदि कैसे उत्पन्न हो सकती हैं और इनकी उत्पनिके बिना अर्शन करें ।

प्राणियका जीवन भी कैसे हु. सकता है। इससे यह स्पष्ट हैं | मानी बोलेहै रुद्र ! इस सचराचर शैलपके मूल कि इस (चराचरात्मक) विश्वकै मलभूत कारण भगवान् सूर्य | भगवान् सूर्यनाराअग ही हैं। देवता, असुर, मानव आदि सभी नारायण ही हैं। सूर्यभगवान् वसन्त ऋतु कपल वर्ण, ग्रीष्म | इन्हींसे उत्पन्न हैं। इन्द्र, चन्द्र, रुद्र, ब्रह्मा, विष्णु तथा शिव तप्त सुर्णके समान, बर्षामें अंत, शरद् ऋतु पाण्डुवर्ण,

आदि जितने भी देवता हैं, सबमें इनका तेज़ व्याप्त है। हेमन्त ताम्रवर्ग और शिशिर ऋतुमें रक्तबके होते हैं। इन। | अग्निमें विधिपूर्वक दी हुई आत सूर्यं भगवान्को हो प्राप्त होतो यणका अलग-अलग फल हैं । रुद्र ! उसे आप सुने हैं। भगवान् सूर्यसे ही वृष्टि होती है, वृष्टि अन्नादि उत्पन्न होने यदि सूर्यभगवान् (आसमयमें) कृष्णक हो तो हैं और यहीं अन्न प्राणियोंका जीवन हैं। इन्होंने जगतको संसार भय होता हैं, ताम्रयर्गक हों तो सेनापतिका नाश होता । उत्पत्ति होती है और अनमें इन्हींनी सारी सृष्टि विलीन हो जाती हैं, पौतवर्णक हों तो राजकुमारको मृत्यु, श्वेत वर्णके हों तो

हैं। ध्यान करनेवाले इन्हीं ध्यान करते हैं तथा ये मोक्षकों राजपुरोहितका स और चित्र अथवा धूम्रवर्णक होनेसे चौर | इन्छा रखनेवालोंके लिये मोक्षस्वरूप हैं। यदि सूर्गभगवान् न और इसका भय होता है, परंतु ऐसा वर्ण होनेवे अनन्तर यदि | हों तो क्षण, मुहूर्त, दिन, रात्रि, पक्ष, मास, ऋतु, अयन, वर्ष वृष्टि हो जाती हैं तो अनिष्ट फल नहीं होते*।। तथा युग आदि काल विभाग में ही नहीं और काल-विभाग

 

(अध्याय ५४)

* इस विषयका हद वनबमहिलाभोपों का में है। विशेष जानकारीक निं हें दुा जा सकता है।

पर्न ]

  • भगवान् सूर्यका अभिषे एवं उनकी रथयात्रा

 

भगवान् सूर्यका अभिषेक एवं उनकी रथयात्रा | कवने पूछा-ब्रह्मन् ! भगवान् सूर्य रथयात्रा कब सिन्धु, चन्द्रभागा, नर्मदा, विपाशा (व्यासनदी), तापी, शिवा, | और क्रिस विधिसे की जाती है? रथ यात्रा करनेवाले, रथको वेत्रवती (वैतया), गोदावरी, पयोष्णी (मन्दाकिनी), कृष्णा,

चनेवाले, रथको वहन करनेवाले, रथके साथ जानेवाले बेण्या, शतद् (सतलज), पुष्करिणी, कौशिकी (कोसो) तथा और बुथके आगे नत्य-गान करनेवाले एवं नि-जागरण मरय आदि सभी तीथ, नदियों और सर को मार करना करनेवाले पुरुषोंकों क्या फल प्राप्त होता हैं ? इसे आप चाहिये । दिव्य आश्रमों और देवस्थानका भी स्मरण लोककल्याणके लिये विस्तारपूर्वक बताइये करना चाहिये । इस प्रकार स्नान कराकर तीन दिन, सात दिन, ब्रह्माजी बोले-हे ऋद्ध ! आपने बहुत उत्तम प्रश्नं एक पक्ष अथवा मासभर उस अभिषेकके स्थानमें में किया है। अब मैं इसका वर्णन करता हैं, आप इसे एकाग्न- भगवान्का अधिवास करें और प्रतिदिन भक्तिपूर्वक इनकी | मनसे सुने पूरा करता है । भगवान् सूर्यकी रथयात्रा और इन्द्रोत्सव–ये दोनों माम मासके कण पक्षकों सप्तमीको मङ्गल कलश तथा | जगत्के कल्याणके लिये मैंने प्रवर्तत किये हैं। जिस देशमें ये ब्रितान आदिसे सुशोभित चौकोर एवं पार्क इंटोंसे बनी वेदीपर दोन महोत्सव आयोजित किये जाते हैं, वहाँ दुर्भिक्ष आदि सूर्यनारायणको भलभाँत स्थापित कर हवन, ब्राह्मण-भोजन, उपद्रव नहीं होते और न चोरों आदिका कोई भय ही रहता है। वेद-पाछ और विभिन्न प्रकारके नृत्य, गीत, वाद्य आदि इसलिये दुर्भिक्ष, अकाल आदि उपयोंमें शान्तिके लिये इन उसको करना चाहिये। अनन्तर माघ शुक्ला चतुर्थीको

सवो मनाना चाहिये । मार्गशीर्ष शुक्ल पक्ष की सप्तमी अयाचित व्रत कने, पञ्चमीको एक बार भोजन करें, षष्ठी अतके द्वारा भगवान् सूर्य को श्रद्धापूर्वक स्नान कना चाहिये। ग़जिके समय ही भोजन करें और समर्मीको उपवास कम हुन, ऐसा करनेवाला पुरुष सॉनके विमानमें बैंकर अग्निकको व्राह्मण-भोजन आदि सम्पन्न ने। सबको दक्षिणा देकर ज्ञाता है और वह दिव्य भोग प्राप्त करता हैं। जो व्यक्ति पौराणिक भलीभाँति पूजा करें। तदनन्तर झटत सुवर्णके शर्कराके साध शाल-चावलका भात, मिष्टान्न और चित्रवर्ग थमें भगवान् सूर्यको विराजित करें। उस रथको उस दिन भातको भगवान् सूर्यको अर्पित करता है, वह अह्मलोकको मन्दिरके आगे ही खड़ा करे । रात्रि जागरण करे और प्राप्त होता हैं। जो प्रतिदिन भगवान् सूर्यको भक्तिपूर्वक घृतका नृत्य-गीत चलता रहे। माघ शुक्ला अष्टमीको रथयात्रा करनी उबटन लगाता है, यह परम गतिक आम करता है। चाहिये। उधक आगे विविध आ जते रहे, नृत्य-गीत और पौष शुक सप्तमीकों तथौक ज्ञल अधवा पवित्र जलसे मङ्गल बेंदध्वनि होती रहे । रथयात्रा प्रथम नगरके उत्तर दिशाको वेदमन्के द्वारा भगवान् सूर्यको स्नान कराना चाहिये। सूर्य प्रारम्भ करनी चाहिये, पुनः क्रमशः पूर्व, दक्षिण और पश्चिम भगवानके अभिषेकके समय प्रयाग, पुष्कर, कुरुक्षेत्र, नैमिष, दिशाओंमें भ्रमण कराना चाहिये । इस प्रकार धयात्रा करने पृथूदक (पेहवा), शीण, गोकर्ण, ब्रह्मावतं, कुशावर्त, राज्यके सभी उपद्रव शान्त हो जाते हैं। राज्ञाको युद्धमें बिल्क, नीलपर्वत, गङ्गाद्वार, गङ्गासागर, कालप्रिय, मित्रवन, विजय मिलती है तथा उस राज्यमें सभी प्रशाएँ और पशुगण भाण्डीरवन, चक्रतीर्थ, रामतीर्थ, गङ्गा, यमुना, सरस्वती, नोरोग एवं सुखी हो जाते हैं। रथयात्रा करनेवाले, उथकों

गजेंद्धि तीर्थनामानि मना सम्मन् माघः

प्रयाग में यं कुरक्षेत्र में नमाम्

मधुकं पन्द्रभाग दो कमर

मसाले कुशावर्त चिन्तकं गोलपनम् ।।

गङ्गाहार तथा पुण्यं गङ्गासागरमेव काम गर्न लामि था

चन्ना तथा पुण्यं गती वा शिवम् सितम्ना पंजया जापा दमि मा

ङ्गा मरमान सिञ्चन्द्रभागा मर्म विपाशा यमुनाः नापी शिवा बेपत जाधा ।।

गोदावरी नग में झगा वैग्या ना नदी। इतम्। बरि कवि मयुमाधा धान्ये माग मानिध्य अल्पजन्तु तथा श्रमाः मुम्पामा दिल्यान्यननन

नामपदं , 1 ३४३।

* पुराणं परमं पुण्यं भविष्यं सर्वमौस्पदम् =

[ संक्षिप्त भविष्यपुराणाङ्क वहन करनेवाले और रथके साथ जानेवाले सूर्यंलोकमें निवास अधम किसी भी व्यक्तिको विमुख नहीं होने देना चाहिये। करते हैं। थियात्रा-स्वरूप इस सूर्यमहायागमें भुखमें पति, बिना रुडने कहा-हैं ब्रह्मन् ! मन्दिरमें प्रतिष्ठित प्रतिमाओं भोजन किये यदि कोई व्यक्ति भग्न आशावाल्या होकर लौट किस प्रकार उठाना चाहिये और किस प्रकार थमें विराजमान जाता हैं तो इस दुष्कृसमें उसके स्वर्गस्थ पितरोंका अध:पतन करना चाहिये । इस विषयमें मुझे कुछ संदेह हो रहा है, क्योंकि हो जाता है। अतः सूर्य भगवान्के इस गझमें भोजन और वह प्रतिमा तों स्थिर अर्थात् अचल प्रतिष्ठित हैं। अतः उसे दक्षिणासे सबको संतुष्ट करना चाहिये, क्योंकि विना दक्षिणा कैसे चलाया जा सकता हैं ? कृपाकर आप मेरे इस संशयकों यज्ञ प्रशस्त नहीं होता तथा निम्नलिखित मन्त्रोंसे देवताओको दूर करें। उनका प्रिय पदार्थ समर्पित करना चाहिये झाम्राज्ञी यांना संवत्सरके अयाययोंकि पर्ने जिस व्यछि त में इँवा आदिल्या वसवस्तया ।। उथका पूर्वमें मैंने वर्णन किया है, वह अथ सभी इथॉमें पहला मनोवाश्विनौ रुद्राः सुपर्णा पवागा महाः । प्रय हैं, उसको देखकर ही विश्वकर्मान सभी देवताओंके लिये असुण आनुमानाचे स्धा आम्नु देवताः ।। अलग-अलग विविध प्रकारके उप बनाये हैं। उस प्रथम दिक्पाला लोकपालाश्च में च विद्मविनायकाः । थकी पुजाके लिये भगवान् सूर्यने अपने पुत्र मनुको वह रथ जगतः स्वस्ति कुर्वन्तु ये छ दिव्या महर्षयः ।। प्रदान किया। मनुने राजा इक्ष्वाकुको दिया और तबसे यह मा विनं मा च में पाप मा च में परिपन्थिनः । रथयात्रा पूजित हो गयी और परम्परा चली आ रही है। सौम्या भवन्तु माश्च देवा भूतगणास्तथा ।। इसलिये सूर्यकी रथयात्राका उत्सव मनाना चाहिये । भगवान् ।

झापर्व 44 ॥ ६८–१]

सूर्य तो सदा आकाशामें भ्रमण करते रहते हैं, इर्मायें उनकीं इन मन्त्रोंसे मुलि देकर “बामदेवा’, ‘पवित्र’ प्रतिमाको चलाने में कोई भी दोष नहीं हैं। भगवान् सूर्यकै ‘मानस्तोंक’ तथा ‘रयताः’ इन ऋचाओंका पाठ करें। भ्रमण करते हुए उनका रथ एवं मण्डल दिखायी नहीं पड़ता, अनन्तर पुण्याहवाचन और अनेक प्रकारके मङ्गल वाद्यकी इसलिये मनुष्योंने रथयात्राके द्वारा हीं उनके रथा एवं माडलका वन का सुन्दर एवं समतल मार्ग पर इधये चलायें, जिससे दर्शन किया है। ब्रह्मा, विष्णु, शिव आदि देवको प्रतिमाके कहींपर धक्का न लगे । मोडक अभावामें अॐ वैसे उथ स्थापित हो जानेके बाद उनको उठाना नहीं चाहिये, किंतु सूर्य- लगाना चाहिये या पुरुषगण ही रथकों नें । तीस या सोलह नारायण रथयात्रा प्रज्ञा की शान्तिकें लिये प्रतिवर्ष कानीं ब्राह्मण ज्ञों द्ध आचावाले हों तथा झनों हों, वें तमको चाहिये। सोने-चांदी अथवा उत्तम काका तय मणीय मन्दिर जनाकर अड़ी सावधानीसे में स्थापित करें । सूर्य और बहुत सुद्ध थप निर्माण करना चाहिये । उसके बीचमें अतिमाके दोनों ओर सुर्यदयकीं राज्ञी (संज्ञा) एवं निक्षुभा भगवान् सूर्यकी प्रतिमा स्थापित कर उत्तम लक्षणोंमें युक्त (छाया) नामक दोनों पत्नियोंकों स्थापित करें। निक्षुभाको अतिशय सुशील हरित वाक घोटको धमें नियोजित का दाहिनी ओर तथा राज्ञीको बायीं और रथापित करना चाहिये। चाहिये। उन घोड़ॉक केशरको आँगक अनेक आभूषणों, सदाचारी वेदपाठीं दो ब्राह्मण प्रतिमाओं पकी ओर बैं पुष्पमालाओं और चैयर आदिसे अलंकृत करना चाहिये। और उन्हें मैंभालकर स्थिर रखें। सारथी भी कुशल रहना उधके लिये अर्थ्य प्रदान करना चाहिये । इस प्रकार उधको चाहिये। सुवर्णदण्डसे अलंकृत छत्र उथके ऊपर लगायें, तैयार कर सभी देवताओं की पूजा कर ब्राह्मण-भोजन कराना अतिशय सुन्दर से ज़टन सुवर्णदण्डसे युक्त ध्वजा इथपर चाहिये । दक्षिणा देकर दौन, अंध, अपेक्षितों तथा अनाथकों चलायें, जिसमें अनेक अंगको सातु पताका लगा हौं । थके भोजन आदिसे संतुष्ट करना चाहिये। उत्तम, मध्यम अथवा आगेकै भागमें सारथिके रूपमें ब्राह्मणको बैठना चाहिये।

मूर्यनौ तु वतन एवमानांपिगः यूनियन भाः धावातप्यतः

अतः पितरून म्वन्थिाप पातयेत् ब्रह्मर्ष ५५

Bhavishya Puran