गंगा दशहरा व्रत कथा
गंगा दशहरा व्रत कथा हिन्दु धर्म के प्रमुख त्यौहारों में एक है। ज्येष्ठ शुक्ला दशमी को दशहरा कहा जाता है। इसमें स्नान, दान, रूपात्मक व्रत किया जाता है।
आईये आज जानते हैं गंगा दशहरा से जुड़ी कथाएं-
एक बार की बात है, महाराज सगर ने व्यापक यज्ञ का आयोजन किया। उस यज्ञ की रक्षा का भार उनके पौत्र अंशुमान ने संभाला। इस दौरान देवराज इंद्र ने सगर के यज्ञीय अश्व का अपहरण कर लिया। यह यज्ञ में बड़ा विघ्न था। इसलिए अंशुमान ने सगर की साठ हजार प्रजा लेकर अश्व को खोजना शुरू कर दिया।
सारी पृथ्वी खोज ली पर अश्व नहीं मिला जिसके बाद अश्व को पाताल लोक में खोजने का निर्णय लिया गया।
फिर अश्व को खोजने के लिए पृथ्वी की खुदाई शुरू की गई। खुदाई पर उन्होंने देखा कि भगवान ‘महर्षि कपिल’ के रूप में तपस्या कर रहे हैं और उन्हीं के पास महाराज सगर का अश्व घास चर रहा था। प्रजा उन्हें देखकर ‘चोर-चोर’ चिल्लाने लगी।
महर्षि कपिल की समाधि टूट गई। ज्यों ही महर्षि ने अपनी आंखें खोली तो सारी प्रजा भस्म हो गई।
इन मृत लोगों के उद्धार के लिए ही महाराज दिलीप के पुत्र भगीरथ ने कठोर तप किया था।
इस पर ब्रह्मा प्रकट हुए और उन्होंने राजन ने पूछा- ‘राजन! तुम गंगा का पृथ्वी पर अवतरण चाहते हो?
परंतु क्या पृथ्वी गंगा के भार को संभाल पाएगी? मेरे विचार से गंगा के वेग को संभालने की शक्ति केवल शिव भगवान में है।
इसलिए उचित यह होगा कि गंगा का भार एवं वेग संभालने के लिए शिव भगवान का अनुग्रह प्राप्त कर लिया जाए।’
भगीरथ
जैसा ब्रह्मा जी ने कहा भगीरथ ने वैसे ही किया।
उनकी कठोर तपस्या से प्रसन्न होकर ब्रह्मा जी ने गंगा की धारा को अपने कमंडल से छोड़ा।
जिसके बाद शिवजी ने गंगा की धारा को अपनी जटाओं में समेटकर जटाएं बांध लीं।
इसका परिणाम यह हुआ कि गंगा को जटाओं से बाहर निकलने का पथ नहीं मिल सका।
अब महाराज भगीरथ को और भी अधिक चिंता हुई और उन्होंने फिर से शिवजी की आराधना शुरू की।
तब कहीं भगवान शिव ने गंगा की धारा को मुक्त किया।
इस प्रकार भगवान शिव की जटाओं से छूटकर गंगा जी हिमालय की घाटियों में कल-कल निनाद करके मैदान की ओर मुड़ी।
इस प्रकार भगीरथ पृथ्वी पर गंगा का वरण करके बड़े भाग्यशाली हुए।
उन्होंने जनमानस को अपने पुण्य से उपकृत कर दिया।