जब देश के किसी कोने में कोई बच्चा बीमार होता है तो अच्छी इलाज के लिए दिल्ली का रुख करते हैं। यह सोच कर कि वहां कि व्यवस्था ज्यादा अच्छी होगी। हो भी क्यों न देश का सबसे बड़ा अस्पताल एम्स भी तो दिल्ली में भी है, लेकिन स्थिति बिल्कुल अलग दिखाई दे रही है। ताजा मामला दिल्ली से ही जुड़ा है। जहां पिछले दो हफ्तों में डिप्थीरिया नामक संक्रामक रोग की वजह से 12 बच्चों की मौत हो गई है। अब ऐसे में दिल्ली के स्वस्थ्य व्यस्था पर सवाल तो उठेंगे। जहां एक ओर मृतक के परिजन अस्पताल पर लापरवाही का आरोप लगा रहा है। वहीं दूसरी ओर अस्पताल प्रशासन ने अस्पताल में दवाई की कमी बताकर खुद को बच्चों की मौत की लगे आरोप से मुक्त होना चाह रहा है।
बहरहाल बता दें कि दिल्ली के किंग्सवे कैम्प स्थित महर्षि वाल्मीकि संक्रामक अस्पताल में पिछले दो हफ्तों में 12 बच्चों की मौत हो चुकी। इन सभी बच्चों के परिवार दिल्ली से बाहर के रहने वाले हैं, जो अलग-अलग राज्यों से रेफर होकर नार्थ एमसीडी के इस अस्पताल में इलाज कराने आए थे। मृतक बच्चों के परिजनों का आरोप है कि सबसे बड़े संक्रामक रोगों के अस्पताल में डिप्थीरिया के लिए वैक्सीन तक मौजूद नहीं है। इस वैक्सीन की बाजार में कीमत करीब दस हजार रुपये बताई जा रही है।
पिछले 6 से 19 सितंबर तक कुल 12 बच्चों की मौत डिप्थीरिया की वजह से हो चुकी है. अभी डिप्थीरिया से पीड़ित करीब 300 बच्चे यहां भर्ती है। कुछ तीमारदारों का आरोप है कि सही इलाज न होने की वजह से मौतें हो रही हैं। इसलिए वह अपने बच्चों को दूसरे अस्पतालों के लिए लेकर जा रहे हैं।
एक मृतक बच्ची के मामा मोहम्मद आरिफ का कहना है कि वह अपनी भांजी को ठीक ठाक लाए थे। सुबह तक वह ठीक थी। लेकिन अचानक फोन आया कि उसकी मौत हो गई। उनका आरोप है कि यह सब अस्पताल की लापारवाही की वजह से हुआ। जबकि सहारनपुर के सरफराज का कहना है कि यहां बच्चों की मौत का सिलसिला थम नहीं रहा है। इसलिए वह अपनी बच्ची को किसी दूसरे अस्पताल में भर्ती कराने जा रहे हैं।
पीड़ित बच्चों के परिजनों का कहना है कि अस्पताल में डिप्थीरिया का वैक्सीन उपलब्ध नहीं है जिसकी कीमत करीब 10 हजार रुपये है। इसकी वजह से मरीजों को वैक्सीन बाहर से लानी पड़ रही है।
महर्षि वाल्मीकि संक्रामक रोग अस्पताल के चिकित्सा अधीक्षक सुनील कुमार गुप्ता का कहना है कि इसके संबंध में लिखा जा चुका है और सितंबर के अंत तक इसके उपलब्ध होने की संभावना है। उन्होंने यह भी कहा कि अभिभावक पीड़ित बच्चों की अंतिम स्थिति में अस्पताल लेकर पहुंचते हैं, तब तक उनकी प्रतिरोधिक क्षमता बुरी तरह से प्रभावित हो चुकी होती है।