उत्तराखंड में 1 नवंबर को मनाई जाएगी इगास-बग्वाल, दिवाली के 11 दिन बाद गूंजेगा ढोल-दमाऊं का पर्व

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उत्तराखंड की लोक संस्कृति और परंपरा से जुड़ा प्रसिद्ध पर्व इगास-बग्वाल (Igas Bagwal) या बूढ़ी दिवाली इस बार 1 नवंबर को धूमधाम से मनाया जाएगा। यह पर्व दिवाली के 11 दिन बाद, यानी कार्तिक शुक्ल एकादशी के दिन मनाया जाता है। इस साल दिवाली 20 अक्टूबर को मनाई गई थी, जिसके बाद पूरे उत्तराखंड में अब इगास की तैयारियां जोरों पर हैं।

क्यों मनाई जाती है दिवाली के 11 दिन बाद इगास?

लोक परंपरा के अनुसार, भगवान श्रीराम के अयोध्या लौटने की खबर गढ़वाल क्षेत्र में 11 दिन बाद पहुंची थी। जब वहां के लोगों को यह शुभ सूचना मिली, तो उन्होंने भी हर्षोल्लास के साथ दीप जलाकर भगवान राम की वापसी का स्वागत किया। तभी से यह परंपरा चली आ रही है और हर साल दिवाली के 11 दिन बाद गढ़वाल और कुमाऊं के कई हिस्सों में इगास-बग्वाल मनाई जाती है।

कैसे मनाई जाती है इगास-बग्वाल

इगास के दिन सुबह लोग स्नान कर देवी-देवताओं की पूजा करते हैं और मीठे पकवान बनाते हैं। शाम को फिर से स्थानीय देवताओं की आराधना की जाती है, जिसके बाद पारंपरिक खेल भैला (भैलौ) खेला जाता है।

भैलौ चीड़ की सूखी लकड़ियों से बनाया जाता है, जिसे रात में जलाकर लोग गोल-गोल घुमाते हैं। इस दौरान ढोल-दमाऊं की थाप पर पारंपरिक नृत्य किया जाता है, और गांव-गांव में उल्लास का माहौल छा जाता है। बच्चे, युवा और बुजुर्ग सभी इसमें भाग लेते हैं।

संस्कृति और एकता का प्रतीक पर्व

इगास-बग्वाल केवल एक त्यौहार नहीं, बल्कि उत्तराखंड की लोक पहचान और सांस्कृतिक एकता का प्रतीक है। इस दिन घर-घर में घी, चावल और दालों से बने पारंपरिक व्यंजन जैसे झिंगोरे की खीर, अरसे, पुले और सिंगल बनाए जाते हैं। लोग अपने पूर्वजों का स्मरण करते हैं और देवभूमि की समृद्ध परंपरा का उत्सव मनाते हैं।

राज्य सरकार भी पिछले कुछ वर्षों से इस पर्व को आधिकारिक मान्यता दे चुकी है। मुख्यमंत्री पुष्कर सिंह धामी ने भी राज्यवासियों से अपील की है कि वे अपनी लोक परंपराओं को अपनाएं और नई पीढ़ी तक पहुंचाएं। 1 नवंबर को जब रात ढलेगी, तो पूरे पहाड़ में फिर एक बार दीयों, ढोल की थाप और गीतों की गूंज सुनाई देगी, यह होगी गढ़वाल की अपनी ‘बूढ़ी दिवाली’ यानी इगास-बग्वाल।