Kurma Puran

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श्रीगणेशाय नमः॥

कूर्मपुराणम्

 

पूर्वभागः प्रथमोऽध्यायः

मुनींनां संहितां बक्तुं व्यास: पौराणिक पुरा।।५।।

प्राचीन समय में स्वयं प्रभु भगवान् व्यासदेव ने आपको

(इन्युन ब्राह्मण का मोक्ष )

ही मुनियों की इस पौराणिक संहिता को कहने के लिए कहा नारायणं नमस्कृत्य नरं चैव नरोत्तमम्। देवौं सरस्वतीं चैव ततो जयमदीरयेत्॥१॥

च्वं हि स्वायम्भुचे यज्ञे सुत्याहे कितने सति।

श्रीनारायण को, नरों में उत्तम श्री नर को, तथा श्री देवी  

संभूत: संहितां वक्तुं स्वांशेन पुरुषोत्तमः॥६॥

 

सरस्वती को प्रथम नमस्कार करने के पश्चात् जय ग्रन्थ का | स्वयम्भू ब्रह्मा के यज्ञ में विश्रान्ति पश्चात् सान हो जाने आरंभ करना चाहिए।

पर कहा था कि इस पुराणसंहिता को कहने के लिए स्वयं नमस्कृत्याप्रमेयाय विष्णवे कर्मरूपिणे। पुरुषोत्तम भगवान् के हो अंशरुप में आप उत्पन्न हुए हैं।

पुराणं संप्रवक्ष्यामि यदुक्तं विश्वयोनिना॥ १॥

तस्माद्भवन्तं पृच्छाप: पुराणं कौर्यमुत्तमम्।।

 

मैं अप्रमेय (अमाप), कुर्मरूपधारी विष्णु को नमन |

तुमर्हसि धास्माकं मुराणार्थविशारद॥७॥

करके समस्त विश्व की उत्पत्तिस्थान ब्रह्मा (अथवा | इसलिए हम आपसे श्रेष्ठ कूर्मपुराण के विषय में पूछते हैं। कूर्मरूपधारी विष्णु) द्वारा कथित इस (कुर्म) पुराण का | हे पुराणों का अर्थ करने में विशारद! आप ही हमें यह कहने ।

बन कगा। के लिए योग्य हैं।

मत्राने सुतमनघं नैमिषेया महर्षयः॥

मुनीनां वचनं श्रुत्वा मूतः पौराणिकतमः।

पुराणमंहितां पुण्यां पप्रच्छ रोमहर्पणम्॥२॥

 

प्रणम्य मनसा प्राह गुरु सत्यवतींमुतम्॥८॥

अपने यज्ञानुष्ठान को समाप्ति पर नैमिषारण्यवासी मषियों | पौराणिर्को में उत्तम सूतजी ने मुनियों का वचन सुनकर ने निष्पाप रोमहर्षश नामक सूत से इस पुण्यमयी | सत्यवर्ती के पुत्र ज्यासदेब को मन ही मन प्रणाम करके पुराणसंहिता के विषय में पूछा।

 

त्वया सूत महायुद्धे भगवान् ब्रह्मवित्तमः।

रोमहर्षण वाच इतिहासपुराणाचे व्यास: मम्यगुपामतः॥३॥

नमस्कृय ज्ञगद्योनि कृर्मरूपयां इम्।

ि तस्य ते सर्वरोमाणि अचसा हृषितानि यत्।

वक्ष्ये पौराणिकी दिव्या कयां पापप्रणाशिनीम्॥

द्वैपायनस्य तु भर्यास्ततो मैं रोमहर्षणः॥४||

हैं महान बद्धिसम्पन्न सूतजौ !

आपने इतिहास और पुराण |

नास्तिके कयां पश्यामिमां तुपादाचन।। १० ।।

यां ऋचा पापकर्मापि गत परम गतिम्  के ज्ञान के लिए, ब्रह्मज्ञानियों में अतिश्रेष्ठ भगवान् व्यास की | रोमहर्षण ने कहा- जगत् के उत्पत्तिस्थान, कुर्मरूपधारों सम्यक् पासना की है। पायन व्यासजी के वचन में | आपके सभी रोम हर्षित हो उठे थे, इसलिए आप रोमहर्षण विष्णु को नमस्कार करके मैं इस पापनाशिनी दिव्य पुराण कथा को कहूँगा. जिस कथा को सुनकर, पापकर्म करने वाला भी परम गति को प्राप्त करेगा। परन्तु इस पुण्य कथा । भवन्तमेव भगवान् स्याहार स्वयं प्रमुः। को नास्तिकों के सामने कभी भी न कहें। नाम से प्रसिद्ध हुए। कर्ममहापुराणम् श्रद्दधानाय शानाय धार्मिकाय द्विजातये।

चतुर्थ शिवधर्माख्यं साक्षान्नन्दीशभापितम्।

इमां कथामनुद्यात्साक्षाघारायणेताम्॥ ११

दुर्वासमक्तमाश्चर्यं नारदीयमतः परम्॥ १८॥ इस पुराण कथा को श्रद्धावान्, शान्त, धार्मिक, द्विजाति || चतुर्थं शिवधर्म नामक उपपुराण है, जो साक्षात् नन्दीश्वर को ही मुनाना चाहिए, जोकि साक्षात् नारायण के द्वारा कहीं | | द्वारा कहा गया है। इसके बाद दुर्वासा द्वारा कथित गया है।

आश्चर्यमय नारदीय पुराप्य है। सर्गश्च प्रतिसर्गश्च वंशों मन्वनराण च।

कापिल्लं वामनशैव तथैवोशनसरितम्। वंशानुचरतश्चैव पुराणं पझरनक्षणम्॥१२॥

ब्रह्माण्ड यारुमाझंव कालिकाहूयमेव ॥ १६ ॥ सर्ग (मष्टि-उत्पत्ति), प्रतिसगं (पुनः रचना या पुनः माहेश्वां तथा साम्ब औरं सर्वार्थसञ्जयम्।। सृष्टि), वंश ( राजकुलों का वर्णन या महापुरुषों की वंश | पराशरोक्तं मारीचं नचैव भार्गवाहूयम्॥ ३०॥ परम्परा का वर्णन), मन्वन्तर (मनु के समय को अवधि), इसके बाद कापिल और वामन उपपुराण हैं, जो उशना वंशानुचरित (राजकुल या महापुरुषों के इतिहास का | (शुक्राचार्य) हा कथित है। फिर क्रमश: ब्रह्माण्ड, बारुण, निरूपण)- ये पुराण के पाँच लक्षण हैं। तथा कालिका नामक हैं तथा माहेश्वर, साम्ब, सर्वार्थसंचय वाल्ल पुराणं वनं पाई वैवमेव चसौर पण और फिर पर ह क गये मारीच एवं शैव भागवतन्त्र भविष्य नारदीयकम्॥ १३ ॥

भार्गव नाम वाले उपपुराण हैं।

पाण्डेबपञ्चाग्नेयं ब्रह्मवैवर्नमेव च।

(कुर्मया ज्ञान नैई नया वाराहं कादं चाममेव च।। १४

इदनु पञ्चदशकं पुराणं कर्ममुत्तमम्। कौमं मात्म्यं गारुझ यायवीयमनतरम्।

चतु संस्थतं पुण्यं संहितानां प्रभेदाः॥ अष्टादशं मद्दष्टं सह्याण्डर्मात मंज्ञितम्॥१५॥ ब्राझी भागच मौरी बैंगवी प्रकीर्तिताः। अन्यान्युपपुराणानि मुनिभिः कषितानि हो। चतमः संहिताः पुण्या धर्मकामार्थपोक्षदाः॥२३॥ अष्टादश पुराणानि श्रुत्वा संपतों दिना: १६॥ . ब्रह्मपुराण, . पद्मपुराण, . विष्णु पुराण, .

| यह पन्द्रहवाँ उत्तम कूर्मपुराण हैं। संहिताओं के प्रभेद से शिवपुराण, ५. भागवत पुराण, ६, भविष्य पुराण, ३, यह पुण्य पुराण चतुर्धा संस्थित है। ये ब्राह्मी, भागवती, नारदौय पुराण, ८. मार्कण्डेय पुराण, ६, अग्निपुराण, १३,

सौरों और वैष्णवी नाम से प्रसिद्ध हैं। ये चारों संहिताएँ धर्म, ब्रह्मवैवर्त पुरा, ११. लिङ्ग पुराग, १३. वराह पुराण, १३. काम, अर्थ और मोक्ष को प्रदान करने वाली और पवित्र हैं। कन्द पुरा, १४, वामन पुराण, १५. कूर्मपुराण, १६. | इयन्तु संहिता ब्राह्मी चतुर्वेदैस्तु सस्मिता।। मत्स्य पुराण, १५, गरुड़ पुराण, १८. वायु पुराण- इस | भवानि पट् सहस्राणि लोकानामत्र संख्यया॥ २३॥ प्रकार ये अष्टादशा मुराण ब्राह्माण्डसंज्ञक कहे गये हैं। है | यह जो ब्राह्मीं संहिता है, वह चारों वेदों के तुल्य है। द्विजगण ! इन्हीं अठारह पुराणों को संक्षेप से सुनकर मुनियों | इसमें छ; हजार श्लोक हैं। ने अन्य उपपुराण कहे हैं।

यत्र धर्मार्थकामानां मोक्षस्य च मुनीश्वराः। आद्यं सनत्कुमारोळ नारसिंहमत: परम्। माहात्म्यमबल ब्रह्मन् ज्ञायते परमेश्वरः॥३४॥ तृतीयं स्कन्दमुद्दिष्टं कुमारेण तु भापितम्॥ १५॥ हे मुनीश्वरो ! इसमें धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष की । प्रथम उपपुराण सनत्कुमार के द्वारा कहा गया है। अनन्तर | असिन माहात्म्य है। इसके द्वारा परमेश्वर ब्रह्म का ज्ञान प्राप्त नसिंह उपपुराण हैं और तीसरा स्कन्द उपपुराण कुमार | कार्तिकेय द्वारा क्वधित है। सर्गश्च प्रतिसर्गश्च वंशो मन्वन्तराणि च।। 1. यहाँ यदि ग्रह्माण्डसंज्ञा से ब्रह्माण्डपुराण को लिया जाता हैं, तो | वंशानुचरितं पुण्या दिव्या प्रसिद्दकी कथा॥३५॥

पुराणों को कुल संख्या १९, होती हैं। अन्यथा अष्टादश की | वाह्मणाटैरियं प्राय धार्मिकैर्वेदपारगैः। गणना में भझापडपरा रह जाता है। | तामहं वर्णयिष्यामि व्यामेन कवितां पुरा।। २६॥

पूर्वभाग यमोऽध्यायः

इसमें सर्ग, प्रतिसर्ग, वंश, मन्वन्तर, वंशानुचरित तथा| तब देवों का यह वचन सुनकर दानवों का मर्दन करने | प्रसंगल: प्राप्त दिव्य पुण्य कथा का वर्णन है। वेदों में पारंगत | वाले विष्णु ने देवों की ओर देखकर निष्पाप नारद आदि

एर्च धर्मपरायण ब्राह्मण आदि द्विजाति द्वारा यह कथा धारण ऋषियों से कहा- ये ब्रह्मस्वरूपा, परमा शक्ति और करनी चाहिए। पूर्वकाल में व्यासजी द्वारा कथित इस कथा | मत्स्वरूपा माया मेरों अनन्त प्रिया है, जिसके द्वारा यह का मैं बर्णन ऋगा। जगन् धारण किया हुआ है। पुरामृतार्थं दैतेयदानवैः सह देवताः।

अनचैव जगत्सर्व सदेवासुरमानुषम्।। प्रधान मन्दरं कृत्वा पपशुः झीरमागरम्॥ २७॥ मोहयामि ठिा असामि विसृजामि घ॥ ३५॥ पश्यमानें तदा तस्मिकर्मरूपी जनार्दनः। हे हिंजश्रेष्ठ! इस माया के द्वारा मैं देव, असुर और बभार मन्दर्य देवो देवानां हितकाम्यया॥ ३८॥ मनुष्यों के इस संपूर्ण जगत् को मोहित करता हैं, ग्रसित पुर्वकाल में अमृत प्राप्ति के लिए देवताओं ने दैत्य और | करता हैं और विसर्जन करता हैं। दानवों के साथ मिलकर मन्दराचल को मथानी बनाकर | पतिं प्रलयं चैव भूतानामागनि गनिम्। क्षीरसागर का मंचन किया। उस मंथनकाल में कुर्मरूपधारों विद्यया वीक्ष्य चात्मानं तरन्ति विपुलाममाम्॥ ३ ६ जनार्दन विष्णु ने देवताओं के कल्याण को कामना से सृष्ट्युत्पत्ति और प्रलय, प्राणियों का जन्म एवं मृत्यु की मन्दराचल को अपनी पौट पर धारण किया था।

प्रवर्तक इस विपुल माया को ज्ञान द्वारा आत्मा का दर्शन देवश्च तुष्टवर्देवं नारदाद्या महर्षयः।।

करके जीव तर जाते हैं। कुर्मरूपधरं दृष्ट्वा साक्षिणं विष्णुमव्ययम्॥३१॥ | अस्यास्त्वंशानधिष्ठाय शक्तिमन्तोऽभवन् सुराः। | कुर्मरूपधारी, अविनाश, साक्षीं, भगवान् विष्णु को ब्रह्मेशानादयः सर्वे सर्वशक्तिरियं मम॥३७॥ | देखकर नारद आदि महर्षि और देवता उनकी स्तुति करने | यह माया में सम्पूर्ण शक्ति है। इसके अंश को धारण नगे।

करके ब्रह्मा-शङ्कर आदि देवगण शक्तिसम्पन्न हुए हैं। तदन्तरेऽभवद्देवी झर्नारायणवल्लभा। सैषा सर्वजगत्सूतः प्रकृतिस्त्रिगुणात्मिका। जग्राह भगवान् विष्णुकामेव पुरुषोत्तमः॥३०॥

प्रागैव पत्तः जाता श्री:कल्पे फ्यवासिनी॥ ३८॥ उसी मंथन के बीच नारायण को अतिप्रिया देवीं भी | वहीं सम्पूर्ण जगत् को उत्पन्न करने वालौं त्रिगुणात्मिका उत्पन्न हुई। पुरुषोत्तम भगवान् विष्णु ने उन्हों को ग्रहण | प्रकृति है। यह कमलबासिनी लक्ष्मी कल्प में मुझ से पूर्व हौं किया था। उत्पन्न हुई थीं। तेजसा विमस्य नारदामा मर्मयः॥

चतुर्भुजा चक्रपद्महस्ता स्रगविता। मोहिता; मह शक्रण अयवचनमयुयन्।। ३ ।।

कोटिमूर्यप्रतीकाशा मोहिनी सर्वनाम्।। ३९॥ भगवन् देवदेवेश नारायण जगन्मय।

यह चतुर्भुजा है, जिसने शङ्ख, चक्र, पद्म धारण किये हुए कैया देवी विशालाक्षी यथावहिं पृच्छताम्।।३२॥ हैं और करोड़ों सूर्य के समान दौसिंयुक्त माला से युक्त हैं। इन्द सहित नारद आदि महर्षिगण उनके तेज से मोहित यह सभी प्राणियों को मोहित करने वाली है।। । हो गए थे। वें अव्यक्त विष्णु में इस प्रकार कल्याणकारी | बचन बोले- हैं देव! देवेश! जगन्मय ! भगवन्! नारायण !

नालं देवा न पितरों मारवा चासोऽपि च। ये दीर्घ नेत्रों वाली देवी कौन हैं? हम पूछते हैं आप मायामेतां ममत्त ये चान्ये भुवि देहिनः॥ ४०॥ यथावत् बताने की कृपा करें। इंगण, पितर, मानव और वगण तथा सम्पूर्ण पृथ्वी श्रुत्वा तेषां तदा शाक्यं विष्णुर्दानयमईनः।।

पर अन्य देहधारीं भी जो हैं, वे इस माया को पार करने में वाच देव संप्रेक्ष्य नारदादौनकल्मषान्॥३३॥

समर्थ नहीं हैं। ‘ इयं सा परमा ज्ञक्तर्गमयी सप्तपणी। इत्युक्ता वासुदेवेन मुनयों विष्णुमनुवन्। माया मम प्रियाना ययेदं घानं जगत्।। ३४॥ | हि त्वं पुण्डरीकाक्ष यद्ध झाल्क्षयेऽपि च॥४१॥

कर्ममहापुराणम्

इस प्रकार बासुदेव के कड़ने पर मुनियों ने भगवान् विष्णु | भुक्त्वा ता-वैष्णवान् भोगायोगिनामप्यगोचरान्। से कहा- है पुण्डरीकाक्ष ! पूर्व व्यतीत काल के विषय में | मदाज्ञया मुनिश्रेष्ठा जज्ञे विप्रकुले पुनः॥५६ || भी आप हमें बतायें।

तय वह मुझे प्रणाम करके अपनौं नगरों में जाकर पृथ्वों अयोवाघ यशों मुनमुनिगणाचनः।

का अच्छा प्रकार पालन करने लगा। समय आने पर वह अक्ति द्विजातिप्रवर इन्द्रद्युम्न इति श्रुतः॥४३॥ चैतद्वीप में मेरे साथ ही कालधर्म को प्राप्त हो गया। हे पूर्वजन्मन भासायरायः शादिः॥ मुनिश्रेष्ठो! उसने वहां योगियों के लिए भी अगोचर दृष्टा मां कूर्मसंस्थानं श्रुत्वा पौराणिक स्वयम्॥४३॥ विष्णुलोक के भौगों को भोगा और पुन: मेरी ही आज्ञा से तद्दनन्तर मुनिगण द्वारा पूजित भगवान् हृषीकेश ने उन वह ब्राह्मणकुल में उत्पन्न हुआ। मुनियों से कहा – इन्द्रद्युम्न नाम से प्रसिद्ध एक श्रेष्ठ ब्राह्मण ज्ञात्वा मां वासुदेवायं तत्र में निहितेभरे। | हुआ था। पूर्वजन्म में वह राना था, जो शङ्कर आदि देवों से

विद्याविद्ये गृद्धरूपं यह परमं विदुः॥ १।। | भौं बहू अपराजेय था। मुझ कुर्मरूपधारी को देकर स्वयं गोर्खयामास भूतानामाश्रयं परमेश्वरम्। मैरे मुख से उसने इस पुराण कथा को सुना था।

 

तोफ्वासनियमहमैह्यातर्पणैः॥५३॥ संहिता मन्मुखाद्दिव्यां पुरस्कृत्य मुनीश्वरान्। झाक्षरविद्या और अविद्या दोनों में निहित वासुदेव ग्रह्माान महादेवं देवांश्चान्यान् स्यशक्तिभिः॥४४॥ मन्छौं संस्थितान् बुद्धा मामेव शरणं गतः। नामक गूढरूप, जिसे लोग परम ब्रह्म जानते हैं, ऐसे संभाषितों मया चाथ विप्रयोनि गमिष्यति।। ४५ मुझको जानकर इन्द्रद्युम्न ने व्रत, उपवास, होम तथा पन; मुनीश्वरों, ब्रह्मा, महादेव और अन्य देशों को अपनी | ब्राह्मणों के तर्पण आदि नियमों द्वारा समस्त प्राणियों के शक्ति से मेरे आगे करके मेरे मुख से इस दिव्य पुराण |

 

आश्रयभूत परमेश्वर की पूजा की। संहिता को सुना। तय उन सबको मेरी शक्ति के अन्तर्गत तदाशीस्तन्नमस्कारस्तग्निलस्तत्परायणः। स्थित जानकर चह मेरी ही शरण में आ गया। अनन्त मैने | आशयन् महादेवं योगिनो हदि सस्थितम्।। ५३।। उससे कहा-“तुम ब्राह्मणयोन को प्राप्त करोगे’। उन्हीं के आशीर्वाद, उन्हीं के नमस्कार, उन्हीं के प्रति इम इति यातो जाति स्मरस पौविकीम्। निष्ठा एवं ध्यान-परायण होकर योगियों के हृदय में स्थित

सर्वेषामेव भूतानां देवानामग्यगोचरम्।। ४६॥ महादेव को उसने आराधना की थी। वक्तव्यं ग्राह्यतमं दास्ये ज्ञानं तवानघ। तस्यैवं वर्तमानस्य कदाचित्परमा कना। नया तन्मामकं ज्ञानं मामेबान्ते प्रवेक्ष्यामि।।४।। स्वरूपं दर्शयामास दिव्यं विष्णुसमुद्भवम्॥५४।। तुम्हारा नाम इन्द्रद्युम्न होगा और तुम अपनी पूर्व जाति | उस राजा के द्वारा इस प्रकार बर्तमान होने पर कभी परमा का ज्ञान भी प्राम करोगे। हे निष्पाप ! जो सभी प्राणियों तवा | कला ने विष्णु से उत्पन्न अपने दिल्य स्वरूप का दर्शन देवताओं के लिए भी दुर्लभ एवं अत्यन्त गुह्यतम हैं, ऐसा

कराया। ज्ञान मैं तुम्हें दूंगा। ऐसे मेरे ज्ञान को प्राप्त करके अन्त में तुम

या प्रणम्य सिरमा विष्णोर्मगवत: स्त्रियाम्। मुझमें ही प्रवेश कर जाओगे।।

संस्तूय विविधैं; स्तोत्रैः कृताञ्जनिभायत॥५५॥ अंशातरेण भूम्यां त्वं तत्र तिष्ठ मुनिर्वृतः। वैवस्वतेऽनतोऽतीते कार्याधं मां प्रवेयमि॥४८॥ भगवान् विष्णु की प्रिया को देखकर सिर झुकाकर प्रणाम करके उसने अनेक प्रकार में स्तोत्रों द्वारा स्तुति करके हाथ तुम अपने दूसरे अंश में पृथ्वी पर सुनिश्चित होकर स्थित हो। अनन्तर वैवस्वत मन्वन्तर बीत जाने पर तुम पुनः जोड़कर कहा। मुझमें प्रबेश कर जाओगे। इन्द्रद्युम वाघ मां प्रणम्य पुरी गत्वा पालयामास मेदिनीम्।

का त्वं देवि विशालाक्षि विष्णुचिह्नाङ्किने शुभे। कालधर्म गतः कालाच्छ्तद्वीपे मया सह।। ६१॥ | आयातथ्येन बैं भावं नर्वेदानीं ब्रवीहि में॥५६॥

पूर्वभाग प्रथमोऽध्यायः

इन्द्रद्युम्न बोला- हे देवि! हे विशालाक्ष ! विष्णु के चिह्न | ब्राह्मण के द्वारा ऐसा पूछे जाने पर कमलवासिनों देवों ने से अंकित हे शुभलक्षणे ! आप कौन हैं? अपने इस भाव को उस मुनि से कहा- साक्षात् नारायण तुम्हें यह ज्ञान हो देंगे। इस समय यथार्थतः मुझसे कहें। माभ्याम्य हस्ताभ्यां संस्पृश्य प्रपातं मनम्। तस्य तापमार्य सुरसा मुमला। मृत्वा परात्परं विष्णु तत्रैवान्तरमीयत॥६५॥ हमती संस्मरविष्णु प्रियं गमावीत्।। ५७। । अनन्तर प्रणाम करते हुए, मुनि को दोनों हार्मोंसे स्पर्श सका यह बाक्य सुनकर सुप्रसना, मंगलमयी देवो हँसते | करके वह देव परात्पर विष्णु का स्मरण करके वहीं हुए प्रियतम विष्णु का स्मरण करके ब्राह्मण से बोली। अन्तधन हो गई। श्रीवाच मोऽपि नारायणं इष्टं परमेण समाथिना। न मां पश्यति मुनयों देवाः पुरोगमाः। आराधयांकन प्रातानिप्रमानम्॥६६॥ नारायणपिकामैको मायाह तन्मयी परा॥५६॥

बह ब्राह्मण भी नारायण का दर्शन करने के लिए उत्कृष्ट लक्ष्मी बोली- मुझे मुनि तथा इन्द्रादि देवगण नहीं देख | समाधि लगाकर भक्तों का दुःख दूर करने वाले शौकश पाते हैं। मैं नारायणरूमा अलौ, विष्णुमय, परा माया हूँ। | भगवान् को आराधना करने लगा।  न में नारायणादों विद्यते हि बिचारतः। ततों बहुत्वेि काले गते नाराय: स्वयम्। नामय्यङ्गं परं ना म बिष्ण परमेश्वरः।। ६३ ।।

मारामन्मङ्कायोगीं पीतवासा जगन्मयः॥ ६ ॥ विचारपूर्वक देखो तों मेरा नारायण से कोई भेद नहीं है। अनन्तर अनेक मास व्यतींत हो जाने पर महायोगी, मुझमें ही नारायण विद्यमान हैं और मैं हो वह परब्रह्म | पीताम्बरधारी जगन्मय नारायण स्वयं प्रकट हुए। परमेार विष्णु हैं।

दृष्ट्वा देवं समायाने विणुमात्मानमव्ययम्। येऽचंयन्तीह भूतानामाश्रयं पुरुषोत्तमम्। जानुभ्यामनि गाचा तुष्टाव गरुम्॥८॥ ज्ञानेन कर्मयोगेन न तेषां प्रभवाम्यहम्॥ ६३ ||

उन आत्मस्वरूप एवं अविनाशी भगवान् विष्णु को । जो लोग इस संसार में प्राणियों के आश्रयभूत पुरुषोत्तम | समौंप आते हुए देखकर घटने टेककर गरुम्जन विष्णु को को अर्चना ज्ञानयोग या कर्मयोग के द्वारा करते हैं, उन पर

वह स्तुति करने लगा। मैं कोई प्रभाव नहीं मानती। तस्मादनादिनियनं कर्मयोगपरायणः। इन्दन वाच ज्ञानेनाराययाननं ततो पोझमवाप्स्यसि॥ ६ ॥

यशाच्युत गोविन्द माधवानत केव। इसलिए कर्मयोग के आश्रित होकर ज्ञान के द्वारा आदि कृष्ण विष्णो दृषीकेश तुभ्यं विश्वात्मने नम:॥ ६९ ॥ अन्त से रहित अनन्त विष्णु की आराधना करो। उससे तुम | नमोऽस्तु ते पुराणाय हाये विश्वमूर्तये। मों को प्राप्त करो। सर्गस्थितिविनाशानां हेतवेऽननाशक्तये॥ ३०॥ इत्युक्त; स मुनिश्रेष्ठ इन्युमो महामतिः।

निर्गुणाय नपस्तुभ्यं निष्कालाय नमोनमः। प्रणम्य शिरमा देव प्राञ्जलिः पुनरवत्।। ६ ।। पुरुषाय नमस्तेऽस्तु शिरूपाय ते नम:॥७१।। क्यं स भगवानीश: शाश्वतों निष्कलोऽच्युतः। इन्द्रद्युम्न ३ (स्तुति करते हुए कहा- हे यज्ञेश, अच्युत, ज्ञातुं हि शक्यते देवि वृद्धि में परमेश्वरि।। ६३ ।। गोविन्द, माधव, अनन, केशव, कृष्ण, विष्णु, हृषीकेश, | हे मुनिश्रेष्ठ! ऐसा कहने पर परम बुद्धिमान् इन्द्रद्युम्न ने आप विश्वात्मा को मेरा नमस्कार है। पुराणपुरुष, हरि, देवी को सिर झुकाकर प्रणाम करके पुनः हाथ जोडकर | बिश्वमूत, उत्पत्त, स्थिति और प्रलय के कारणभूत तथा | कहा- हे देवि, परमेश्वरि । शाश्वत विशुद्ध, अच्युत भगवान् अनन्त शक्तिसम्पन्न आप के लिए मेरा प्रणाम है। निर्गुण विष्णु को कैसे जाना जा सकता है, वह बताये। पकों नमस्कार है। विशुद्ध रूप वाले आपको बार-बार एवमुक्तय विप्रेण देवी कमलवासिनी। नमस्कार है। पुरुषोत्तम को नमस्कार है। विश्वरूपधारों माक्षान्नारायण ज्ञानं दास्यतीत्याह ते मुनिम्॥६४। आपको मेरा प्रणाम।

 

कृर्षमहापुराणाम् नमस्ते वासुदेवाय विद्मावै वियोनयें एवं तुवनं भगवान् भवात्मा भूतभावनः। आदिमध्यान्तहीनाय ज्ञानगम्याय ते नमः ॥१३॥ भाभ्यामय हुस्ताभ्यां अस्पन्न प्रहसन्निव॥८. || नमस्ते निविय निघाम ने नमः।

इस प्रकार स्तुत किये जाने पर भूतात्मा, भूतभावन भेदाभेदविहींनाय नमोऽस्त्वानन्दरूपिणे॥७३॥ भगवान् विष्णु ने मुस्कराते हुए अपने दोनों हाथों से उसका नमस्ताराय शान्ताय नमोऽर्माततात्मने। स्पर्श किया। अन्नपूर्तये तुभ्यमपूर्ताय नमो नमः॥५४॥

सृष्टपात्रों भगवता विष्णुना मुनिपुङ्गवः। वासुदेव, विष्ण, विधयोनि, आदि-मध्य और अन्त में ययावत्परमं तत्त्वं ज्ञातवांस्तामादत:॥८॥ रहित तथा ज्ञान के द्वारा जानने योग्य आपको नमस्कार हैं। भगवान् विष्णु द्वारा स्पर्श प्राप्त करते ही वह मुनिश्रेष्ठ निर्विकार, प्रपञ्च रहित आप के लिए मेरा नमस्कार हैं। भेद उनको कृपा से परम तत्व को यथार्थतः जान गया। और अभेद से बिहीन तथा आनन्दस्वरूप आपको मेरा ततः अष्टमनमा अणिपत्य माईनम्। नमस्कार है। तारकमय तथा शान्तस्वरूप आप को नमस्कार प्रोवाचोपियाचं पीतवाससमच्युतम्।। ६२ ।। है। अग्नसिंहतात्मा आप को नमस्कार। आपका रूप अनन्त तदनन्तर अत्यन्त प्रसन्न मन से जनार्दन को प्रणाम करके और अमूर्त है, आपको बार-बार नमस्कार है।

इन्द्रद्युम्न ने विकसित कमल के समान नेत्र बाले नमस्ते परमार्थाय मायातीताय ते नमः। पौताम्बरधारी अच्युत से कहा। नमत पाय ग मान॥५॥ नमोऽस्तुते सुसूक्ष्माय महादेवाय ते नमः। वटसादादसहिंग्यमुत्पनं पुस्योत्तम। नमस्ते शिवरूपाय नमस्ते परमेष्ठिने॥५६॥ ज्ञानं बल्लेविषयं परमानन्दसद्धिदम्॥८३॥ हे परमार्थस्वरुप ! आपको नमस्कार है। हे मायातीत !!

। हैं पुरुषोत्तम! आपकी कृपा से संशयहित तथा परमानन्द आपको नमस्कार हैं। है परमेश! हे ब्रह्मन् ! तथा हे | की सिद्धि देने वाला ब्रह्मविषयक एकमात्र ज्ञान मुझे उत्पन्न परमानन्। आपको नमस्या है। न सुक्ष्मरुधारों हो गया। आपको नमस्कार हैं। महादेव! आपको नमस्कार हैं।

नमो भगवते तुभ्यं वासुदेवाय वेधसे। शिवरूपधारी को नमस्कार है और परमेष्ठी को नमस्कार हैं। किं करिष्यामि योगेश तन्में वद् जगन्मय।।८५॥ त्वयैव सृष्टमखिलं त्वमेव परमा गतिः। भगवान् वेंधा वासुदेव के लिए नमस्कार है। हे योगेश्वर, त्वं पिता सर्वभूतानां त्वं माता पुरुषोत्तम।।७।।

है जगन्मय! अब मैं क्या करूं? यह भी मुझे बतायें। आपने ही इस सम्पूर्ण संसार को रचा है। आप ही इसकी | श्रुत्वा नारायण वाक्यमन्धुमस्य माधवः। परम गति हैं। हे पुरुषोत्तम! समस्त प्राणियों के आप ही | वाच सस्मितं वाक्यमशेषं जगतो हितम्।। ८५॥ पिता और माता हैं। इन्द्रद्युम्न को यात सुनकर नारायण माधव ने मुस्कराने चमारं परं घाम चिन्मानं व्योम निष्कलम्। हुए संम्पूर्ण जगत् के लिए हितकारी बचन कहे। मर्मस्यापारमव्यक्तमनन्तं तमम: परम्।।७८॥

श्रीभगवानुवाच आप अक्षर, अविनाशी परम धाम, चिन्मान्न अर्थात्

वर्णाश्रमाच्चारकर्ता पुंम देवो महेश्वरः। ज्ञानस्वरूप और निष्कल व्योम हैं। आप सबके आधारभूत, ज्ञानेन भक्तियोगेन पूजनीयों न चान्यथा।। ८६॥ अव्यक्त, अनन्त और तम से परे हैं।

 

श्रीभगवान् बोलेवर्णाश्मधर्म के अनुचर मनुष्यों के प्रपश्यति महात्मान ज्ञानदीपॅन केवलम्। लिए ही ज्ञान एवं भक्तियोग द्वारा देव महेश्वर पूजा के योग्य प्रपद्यते तो पं तयोः परमं पदम्।।१।।

हैं, अन्य प्रकार से नहीं। महात्मा योग ज्ञान रूपी दपक में ही केवल देख पाते हैं। तुम जिस रूप को प्राप्त करते हैं, वहीं विगु का परम |

विज्ञाय तत्परं वत्वं विभूति कार्यकारणम्। प्रवृत्तिापि में ज्ञात्वा मोक्षार्थीभरमर्व्वयेत्।। ८.wll पद है।

 

पूर्वभागे प्रथमोऽध्यायः

मुझ परमतत्त्व, ऐश्वर्यमय, कार्य-कारण को जानकर तथा | भगवान् बोले- सम्पूर्ण चराचर से परे परमतत्त्व एक मेरो प्रवृत्ति को भी समझकर मोक्षार्थी ईश्वर की अर्चना करे। | अविनाशी ब्रह्म है। वह अखण्ड, आनन्दमय, तम से परे

सर्वसंगान्परित्यज्य ज्ञात्वा मायामयं जगत्। और परमज्योति स्वरूप है। इसका जो नित्य ऐश्वर्य है उसे अद्वैत भायात्मानं झुक्यसे परमेश्वरम्।। ८.८॥ विभूति कहते हैं। जगत् इसका कार्य हैं एवं शुद्ध, अविनाश, सब प्रकार के संग को छोड़कर और जगत् को मायामय । अव्यक्त इसका कारण है। मैं हीं समस्त प्राणियों का जानकर, आत्मा को अद्वैत की भावना युE करे। इससे तुम अन्तर्यामी, ईश्वर हैं। परमेश्वर को देखोगे।

सर्गस्थित्यनकर्तृत्वं प्रवत्तिर्मम गीते। त्रिवियों भावनां ब्रह्मयमान विश्व में।

एतज्ञाय भावेन यावदखिलं किंज।। ६६॥ एका मयिया तत्र द्वितीया व्यक्तमेश्या।।१।। ततस्त्वं कर्मयोगेन शाश्वतं म्यगर्खय। अन्या या भावना को दिया सा गुणानिगा।

सर्ग, स्थिति एवं प्रलय करना मेरी प्रवृत्ति कहीं गया है। है। आसामान्यतमामाश्च भावनां भावयेषः।।१०||

द्विज! इन सभी बातों को विचारपूर्वक यथावत् जानकर ही अशक्तः संशयेदाणापित्येषा वैदिकी श्रुतिः। तुम कर्मयोग के द्वारा शाश्वत ब्रह्म कौं सम्यग् अर्चना करें। तस्मात्सर्वप्रयत्नेन तन्निनुतत्परायणः॥१६॥

इन्द्रधुम याच समाराधय विभेनं सतों मोक्षमवाक्यम्। के ते वर्णाश्रमाचारा बैं: समायते परः।।१।। हे ब्राह्मचैछ ! मेरे द्वारा कहीं जाने बाली तीन प्रकार की |

| ज्ञानञ्च कीदृशं दिव्यं भावनात्रयमिश्रितम्। भावनाएँ जान लों। उनमें से एक मेरे विषय की है तथा कथं सृष्टमिदं पूर्व क्यं संल्लियाने पुनः॥१८॥ द्वितीय संसार से सम्बन्धित है। अन्य तीसरी भावना व्रह्म से इन्द्रद्युम्न ने पूछा- वे आपके वर्णाश्रम के आचार क्या सम्बद्ध है। इसे गुणों से परे जानना चाहिए। विद्वान् इनमें से | जनसे परतत्त्व की आराधना की जाती हैं। तीनों किसी एक का आन्नय लेकर ध्यान करें। यदि समयं न हो | भावनाओं में मिश्रित दिल्य ज्ञान सा है? पर्व काल में इस तो, इसमें से पहली भावना का आश्य लें, ऐसी वैदिकी | संसार की सृष्टि कैसे हुई और पुनः इसका संहार कैसे किया श्रुति है। इसलिए सस प्रकार से यात्नपूर्वक निष्ठा और | जाता है। तन्मयता के साथ भगवान् विश्वेश्वर की आराधना करे। इसी कियत्यः सृष्टयों लोके वंशा मन्वन्तराणि च। में मोक्ष की प्राप्ति होगा। कानि तेषां प्रमाणानि पावनानि ब्रतानि च।।१।।

तीर्थान्यकदिसंस्थानं पृथिव्यायामवितरम्। इन्द्रन इमाचा कतिं द्वौंपाः समुद्दा पर्वताश्च नदीनदाः॥ १७ ॥ किन्तत्परतरं तत्त्वं का विभूतिर्जनार्दन॥१२॥

ब्रूहि में पुण्डरॉकक्ष अधाबथुना पुनः।। किङ्कार्य कारणं कम्त्यं प्रवृत्तिश्चापि का नया लोक में सृष्टियां किंतन हैं? वंश और मन्वन्तर कितने इन्द्रद्युम्न बोले- हे जनार्दन! वह परम तत्त्व क्या है और | हैं? इनके प्रमाण कितने हैं? और पवित्र व्रत कौन-कौन से विभूति क्या है? कार्य क्या है? कारण क्या हैं? आप कौन | हैं। तीर्थ, यदिग्रहों के संस्थान एवं पृथ्वी का विस्तार हैं? आपकी प्रवृत्ति क्या है?

क्या है ? हॉप, समुद्र, पर्वत, नदी और नद कितने हैं? हे श्रीभगवानुवाच

पुण्डरीकाक्ष ! इस समय पुनः मुझे यथावत् कहने की कृपा परात्परतरं तत्त्वं परं ब्रह्मैकमव्ययम्॥ १३॥ नित्यानन्दमयं ज्योतिरक्षरं तमसः परम्। ऑकूर्म उवाच ऐश्वर्य तस्य यन्नित्यं विभूतिर्गत गीयते।। १४॥ एवमुक्तोऽय तेनाडू भक्तानुषकाम्ययाः॥ १० १॥ कार्य जगदवाव्यक्तं कारणं शुद्धपक्षरम्।

वावलं सम्यगवॉच मुनिपुंगवाः। | अहं हि सर्वभूतानामन्तर्यामीश्वरः पुरः॥ १५ व्याख्यायाशेषमेवेदं यत्पृष्टोऽहं द्विजेन १०

करें। कूर्ममहापुराणम् अनुगृह्य च तं विप्नं तत्रैवार्ताहतोऽभवम्। उनके लिए सूर्य सदृश तेजस्वी एक उत्तम विमान प्रकट ऑकर्म बोले-इसके द्वारा इस प्रकार पड़े जाने पर, भक्त | हुआ। देवों का समुदाय, गन्धर्व और अप्सराओं का समूह पर अनुग्रह की इच्छा से है मुनिअों ! मैंने सब वृत्तान्त | भी उनके पाई-पाई गया। यथावत् कह दिया। द्विज ने जैसा मुझमें पाया था, उसको | दुधान्ये पछि घोगीन्दं सिद्धा अर्ययों ययुः।। भली-भाँति व्याख्या कर दी। उस ब्राह्मण पर अनुकम्पा ततः स गत्यानुगिरि विषेश मुवन्दितम्॥ ११६|| करके में वह अन्तर्धान हो गया।

मार्ग में योगोन्द्र को जाते देखकर अन्य सिद्ध ब्रह्मर्ष भी सोऽपि तेन विधानेन मदुक्तेन द्विजोत्तमाः॥ १३॥

उनका अनुगमन करने लगे। अनन्तर यह पर्वत के मध्य गमन करते हुए देववन्दित स्थान में पहुँच गया। आराधयामास परं भाजपूतः समाहितः। त्यक्त्वा पुत्रादिषु मेहं निईन्डो नियरिग्रहः॥ १० ॥ स्थानं तद्योगिभिए यत्रास्ते परमः पुमान्। संप्राप्य में स्थान सूर्यायुतममप्रभम्॥ १११।। हे द्विजवर ! वह भी मेरे अताये हुए उस विधान से भक्ति- | विवेश चातर्मनं देवानाच दुमद्दम्। भाव में पवित्र एवं स्थिरचित्त होकर आराधना करने लगा। विचिनयामास पर आरम्यं सर्वदहिनाम्॥ ११३॥ वह पुत्र आदि में नेहभाव को छोड़कर, द्वन्द्वरहित एवं वह योगियों द्वारा सेवित स्थान था, जहाँ परम पुरुष परिग्रहशून्य हो गया।

विराजमान रहते हैं। दस हजार सूर्य के समान प्रभावाले उस संन्यस्य सर्वकर्माणि पां वैराग्यपातिः ।। उत्कृष्ट स्थान को प्राप्त कर उसने देवदुर्लभ अन्तर्भवन में आत्मन्यात्मानमवीक्ष्य म्बात्मन्येवाखिलं जगत्।। १८५५ ॥ प्रवेश किया। अनन्तर वह समस्त प्राणियों के आश्रय स्थान वह समस्त कर्मों को त्यागकर परम वैराग्य के आश्रित हो | भगवान् के चिन्तन में लग गया। गया। वह स्वयं में ही आत्मा को तथा अपनी आत्मा में | अनादियिनं चैव देवदेवं पितामहम्। सम्पूर्ण जगत् को देखने लगा (अनुभव करने लगा। तः प्रारभूतस्मिन् प्रकाश: परमाद्भुतः॥ ११३॥

संप्राप्य भावनापन्यां वामभरपूबिकाम्। | वे भगवान् जन्म मरण से रहित, देवों के देव तथा

अवाप प्ररर्म योग येनैक परपश्यति॥ १०६॥ पितामह हैं। तदनन्तर वहाँ परम अद्भुत तेजपुन प्रकट । | उसने अक्षरपूर्वका ब्रह्मसम्वन्धिन अन्तिम भावना को | हुआ। प्राप्त करके उस परम योग को प्राप्त किया, जिसमें एक अद्वैत तन्मध्ये पुरुषं पूर्वमपश्यत् परमं पदम्। ब्रह्मा ही दिखाई देता हैं।

| महातं जमा राशिमगम्यं ब्रह्मविद्विषाम्॥ ११४|| ग्रं विनाजितलासा: कांक्षों मोक्षकांक्षिणः।। उसके मध्य परम पद, महान् तेजोराशिस्वरूप तथा । तत; कदाचिद्योगीन्द्रों वह्याण मध्ययम्॥ १० ॥ ब्रह्मद्वेषियों के लिए अगम्य पुरातन पुरुष को देखा। जागामादित्यनईशान्मानसोंत्तरपर्वतम्।

चतुर्मुखमुद्दारामचर्षिरुपशोभितम्। आकाशेनैव विग्रेन्द्रों योगैश्वर्यग्रभाक्तः॥ १०८ ॥ सोपि योगिनपन्वीक्ष्य प्रणमन्तमुपस्विनम्॥ ११५॥ मोक्ष चाहने वाले व्यक्ति निद्रा (आलस्य रहित एवं | वे चतुर्मुख और सुन्दर शरीर वाले और चारों और वे (योग द्वारा प्राणवायु को जीतकर उस ब्रह्म को पाने की | ज्वालाओं से सुशोभित थे। उन्होंने भी प्रणाम करते हुए। इब्रा करते हैं। अनन्तर वह योगरान किसी समय | इषस्थत योगों को देखा। अविनाशो ब्रह्म को देखने के लिए सूर्य के निर्देशानुसार | | प्रत्युद्गम्य स्वयं देवो आित्मा परिषस्वजे। मानसरोवर के उत्तर में स्थित (मेरु पर्बत पर गया। वह | परिष्यक्तस्य देवेन द्विजेन्दम्याध देहतः॥ ११६।। अपने योगनार्य के प्रभाव में आकाशमार्ग से हो गया था। निर्गत्य महती ज्योत्स्ना विवेशदत्यपाङ्गलम्।

ऋग्यजुःसामसंज्ञं तत्पवित्रममतं पदम्॥ ११७।। विमानं सूर्यमा प्रादुर्भूतमनुत्तमम्। हिरण्यगर्भा भगवान् यत्रास्ते व्यकव्यभुक्। अन्यगचक्रदेवमा गसमरस गणाः॥ १६॥

|| द्वारं तद्योगिनामाद्यं वेदान्तेषु प्रतिष्ठितम् ॥ ११८॥

पूर्वभागे प्रथमोऽध्यायः

उन विश्वात्मा देब ने बयं आगे बढ़कर योगी का | ऋषियों ने कहा- है देवाधिदेव, हपोकेश, नारायण, | आलिंगन किया। तब भगवान् के द्वारा आलिङ्गन द्विजेन्द्र के | अविनाशौ ! आपने पूर्वकाल में ब्राह्मण इन्द्रद्युम्न को जिस

शरीर में एक महान् ज्योति निकलकर सूर्य मण्डल में प्रविष्ट | धर्मादि बिषय का ज्ञान दिया था, उसे पूर्णरूप से हमें कहें। हो गई। वह ऋक्, यजु और साम नाम चाला परम पवित्र वायुपुत्राप्ययं शक्रः सखा तव जगन्मय।

और शुद्ध पद था, जहाँ इच्य-कज्यभोजी ऐश्वर्यवान् । ततः स भगवान् विष्णुः कुर्मरूपी जनार्दनः॥ १६॥ हिरण्यगर्भ विद्यमान थे, वहीं योगियों का आदि द्वार वेदान्त रसातलगतो देव नारदामहर्षिभिः। में प्रतिष्ठित है।

पृष्टः प्रोवोच्च सनं पुराणं कौमुत्तमम्।। १२॥ ब्रह्मतेजोपर्य श्रीमद्ष्टा चैव मनीषिणाम्। हे जगन्मय! आपॐ सखा ये इन्द्र भी सुनने के इच्छुक दृष्टमा भगवता ब्राह्मणाचर्मयों मुनिः॥ ११९ ॥ हैं। तत्पश्चात् नारद आदि महर्षियों के पूछने पर रसातलगत  अपश्यदैश्चरं तेज: शान्तं सर्वत्र शिवम्। कुर्मरूपी जनार्दन भगवान् विष्णु ने उत्तम (कर्म) कूर्मपुराण स्वान्यानपक्षरं ब्योम यूज़ बिष्णोः परं पदम्॥ १२॥ का सम्पूर्ण वर्णन किया था। आनन्दमचलं ब्रह्म स्थानं तत्परमेश्वरम्। सयौ देवराजस्य तद्वयं भवतामहम्। सर्वभूतात्मभूतस्याः घरमैश्चर्यमास्थितः॥ १२ ॥ धन्यं यशस्यमायुष्यं पुण्यं मोक्षदं नृणाम्। १३८॥ प्रामवानापनों धाम यत्तमोक्षाज्यमव्ययम्।।

देवराज इन्द्र के सम्मुख हों मैं आप लोगों को मनुष्यों के बह ब्रह्म तेजोमय, श्रीयुक्त तथा मनीषियों का दुष्टा था। | लिए धन, यश, आय. पण्य और मोक्षपद पराग को कहेगा। भगवान् ब्रह्मा के देखने मात्र से ही ज्योतिर्मय मुनि ने शान्त,

पुरापालवणं विप्राः कश्चनञ्च विशेषतः।। सतंरगामी, कल्याणकारी, त्मस्वरूप, अक्षर व्योममय, | श्रुत्वा चयायपेर्वक सर्वपापैः प्रमुच्यते।। १३६॥ विष्णु के परम धाम, आनन्दमय, अचल तथा परमेश्वर है विप्रो ! इस पुराण के श्रवण तथा इसकी कथा का । ब्रह्मस्थान, ईश्वरीय तेज को देखा। समस्त प्राणियों में आत्मरूप से विद्यमान, परम ऐश्वर्य में स्थित उस मुनि ने | बिशेष महत्व है। उसके एक अध्याय को भी सुनकर मोक्ष नामक अविनाशी आत्मधाम को प्राप्त किया। मनुष्य सभी पापों से मुक्त हो जाता हैं। तस्मात्सर्वप्रयत्नेन वर्णाश्रमवधौ धितः॥ १२३॥

उपाख्यानमवैकं वा ब्रह्मलोके महीयते। समान्नित्यान्तिम भाव मायां लक्ष्मी नारेवुषः।

इदं पुराणं परमं कौम कूर्मस्वरूपिणा॥ १३॥

इसलिए विद्वान् पुरुष सन्न प्रकार से बत्नपूर्वक वर्णाश्रम उक्तं वै देवदेवेन श्रद्धालव्यं द्विजातिभिः॥१३१।। के नियमों का पालन करता हुआ परम गतिरूप इस अन्तिम |

अथवा पुराण में कथित एक उपाख्यान को श्रवण करने । | भान को आश्रित करके मायारूप लक्ष्मी का अतिक्रमण करे।| पर भी ब्रह्मलोक में पूजित होता है। कुर्मस्वरूप अथवा कुर्मावतार धारणकर्ता देवाधिदेव विष्णु ने इस उत्तम कुर्म | मून वाच पुराण को कहा था, इसलिए यह कौम (पुराण) कहा गया। व्याहता हरिणा त्वेवं नारदाचा महर्षयः॥ १२३॥ द्विजातियों के लिए यह अद्धा करने योग्य है। शक्रेण महिता: सर्वे पप्रच्छुर्गरुडध्वजम्।

सूतजी बोले- इस प्रकार हरि ने नादादिं ऋषियों से | इति श्रीकृर्मपुराणे पूर्वभागे इन्द्रद्युममोक्षवर्णनं नाम कहा। तब इन्द्र सहित सब ने गरुडध्वज भगवान् से पूछा।

| प्रथमोऽध्यायः॥ १॥

कृपय ऊचुः देवदेव हमाकेश नव नारायणास्यय।। १२४॥ नाइदाङ्गेषमस्माकं यदुक्तं भवता पुरा। इन्द्रद्युम्नाय विप्राय जाने धर्मादिगोचरम्।। १३५॥

 

कुर्ममहापुराणम् द्वितीयोऽध्यायः शुचिस्मिता सुप्रसन्ना मङ्गला पहियाम्पदा॥८॥

(वर्ण तवा आश्रमों का वर्णन)  दिस्यकानिसमायुक्ता दिस्यमाल्योपशोभिता।

नारायण महामाया मूलप्रकृतिरय्यया। ।।

कूर्म अवाच बह सुन्दर रूप वाली, सौम्य मुखाकृतिवाली, समस्त शृणुष्वमृषयः सर्वे यत्पृष्टोऽहं जगडितम्।

देहधारियों को मोहित करने वाली, शुचिस्मिता, सुप्रसन्ना, वक्ष्यमाणं मया मर्यमियुमाय भाषितम् १॥

सुमंगला और महिमायुक्त थी। वहीं दिव्य कान्ति से युक्त, कूर्म बोलें- आपने जगत् का हित-विषयक जो प्रश्न |

दिव्य माला से उपशोभित, नारायणी, महामाया और मुझसे पूछा हैं, आप सब झपिंगण उसे सुने। उस सबका

अविनाशिनी मूल प्रकृति थी। वर्णन मैं कर रहा हूँ, जो इन्द्रद्युम्न को कहा गया था।

स्क्याम्ना पूरयन्तीदं मत्या समुपाविशत्। भूतैर्भव्यैर्भवद्भिश्च चरितैरुपतिम्।

तां दृष्ट्वा भगवान् ब्रह्मा मामुवाच जगत्पतम्।॥ १० ॥ पुराणं पुण्यदं नृणां मोक्षधर्मानुवर्तिनाम्॥ ३॥

अपने तेज में जगत् को ध्यान करती हुई वह मेरे पास भूत, भविष्य और वर्तमान के चरित्रों से उपवृहित यह |

आकर बैठ गया। उसे देखकर भगवान् ब्रह्मा ने मुझ जगात्न से कहा। कूर्मपुराण मोक्षधर्मानुयायों मनुष्यों के लिए पुण्यदायक है। अहं नारायण देव: पूर्वमासन्न में परम्।

मोहायाशेषभूतानां नियोंजय सुरूपिणीम्। उपास्य विपुलां नि भोगिशय्य समातिः॥ ३॥ येनेयं विपुला सृष्टिवत अप माझ्यव॥ ११।। मैं नारायण देव हूँ। मुझसे पूर्व अन्य कोई नहीं था। मैं ||

हे माधव! संपूर्ण प्राणियों को मोह में फँसाने के लिए इस बिपुल निद्रा का आश्रय लेकर शेषशय्या पर विराजमान | सुन्दरी को नियुक्त कॉजिए, जिससे यह मेरी विपुल सृष्टि बढ़ती रहें।

 

नयोकोहं स्त्रियं देवमक्वं प्रहसचिव। चिन्तयामि पुनः सृष्टि निशाने प्रतिव्य तु।

देवींदमखिलं विश्वं सदेवामुरमानुपम्।। १३ ततो में साढ़सोत्पन्न: प्रसाद मुनिपुंगवाः॥ ४॥ चतुर्मस्ततों बातों व्रता लोकपितामहः।।

मोहयित्वा ममादेशसंसारे विनिपातय। तदनरेऽभवत्क्रोध: कस्माच्चित्कारत्तदा॥५॥

ब्रह्मा के ऐसा कहने पर मैंने देवी लक्ष्मी से मुस्कराते हुए पुनः रात्रि के अन्त में जागकर सृष्टि के विषय में सोचता कहा- हे देवि! देवता, असुर और मनुष्य सहित इस सम्पूर्ण हैं तभी हे मुनि श्रेष्ठ ! मुझ में सहसा आनन्द उत्पन्न हुआ।

विश्व को मोह में डालकर मेरे आदेश से संसार में गिरा दो। | उसके चतुर्मुख लोक-गितामह ब्रह्मा उत्पन्न हुए। तत्पश्चात् ज्ञानयोगरतान्दान्तान् नृसिलान् ब्रह्मवादिनः॥ १३॥ मुझम किसी कारणवश क्रोध आ गया।

अक्रोयनान् त्यपरान्तः परिवर्मय। आत्मनों मुनिशार्दूलास्तत्र देवो महेश्वरः।

यायिनों निर्गमान् शान्तायार्मिकान्वेदपारगान्॥ १४॥ थानिस्तापसान्विप्रादूरतः परिवर्जय। रूढ़: क्रोधात्पको जज्ञे शूलपाणिज्रिलोचन:।। ।। तेजमा सूर्यमङ्काशमैलोक्यं मंदाग्निय। वेदवेदान्तविज्ञानसंछिन्नाशेषसंशयान्॥ १५ तदा श्रीरभवहेवी कमलायतलोचना॥७॥ महायज्ञपगचिप्रादूरतः परिकर्जय।

हे मुनिश्रेष्ठों! तब वहाँ मुझसे रौद्ररूपधारी क्रोधयुक्त परन्तु ज्ञानयोग में निरत, दान्त (इन्द्रियों को दमन करने – महेश्वर देव उत्पन्न हुए। इनके हाय में त्रिशल झा और नौन | वाला), ब्रह्मनिष्ठ, ब्रह्मवादी, क्रोधहित एवं सत्यपरायण नेत्र थे। सूर्य सदा तेज में वे मानों जैलोक्य को जला रहे |

व्यक्तियों को दूर से हीं छोड़ दों। ध्यान करने वाले, निर्मल, शान्त, धार्मिक, वेदों में पारंगत, यज्ञकर्ता, तपस्बियों और थे। अनन्तर कमल के समान विशाल नेत्रों वाला देसी लक्ष्मी ब्राह्मणों को दूर से ही छोड़ दो। वेद और बेदान्त के विज्ञान उत्पन्न हुई। में जिनके समस्त संशय दूर हो गये हैं ऐसे, तथा नित्य सुरूपा सौम्यवदना मोहिनी सर्वदेहिनाम्। बड़े-बड़े यज्ञ करने वाले ब्राह्मणों को दूर से ही छोड़ दे।

पूर्वभागे द्वितीयोऽध्याय:

ये यजन्ति जपैपर्दवदेवं महेसम्॥ १६

यज्ञनिष्पत्तये वह्या ससर्ज हैं। १६॥ स्वाध्यायेनेज्यया दूरानान् प्रयत्न कर्जय। पूर्ववत् मे आज्ञा से ब्रह्मा ने स्थावरजंगम तथा भक्तियोगसमायुक्तानीश्वरार्पितमानसान्॥ १७॥ नानावि प्राणियों की सृष्टि की। तत्पश्चात् योगविद्या से प्राणायामादिषु तान्दुरात्परहरामलान्।

मरीचि, भूग, अंगिरा, पुलस्त्य, पुलह, ऋतु, दक्ष, अत्रि और जो लोग जप, होम, स्वाध्याय तथा यज्ञ के द्वारा | वसिष्ठ की सृष्टि की। ये नौ ब्रह्मा के पुत्र ब्राह्मनिष्ठ ब्राह्मणों में देवाधिदेव महेश्वर का यजन करते हैं, उन्हें यत्नपूर्वक दूर से | ही छोड़ दें। भक्तियोग में समाहित चिनवाले और ईश्वर के ब्रह्मा ने ब्राह्मणों को मुख से और क्षत्रियों को भुना से उत्पन्न किया। पितामह ब्रह्मा ने वैश्यों को दोनों जंघाओं से तथा प्रति समर्पित घन वाले, तथा शुद्ध चित्त बालों को दूर से ही शुदों को देव ने पैरों से इत्पन्न किया। तदनन्तर यज्ञ के त्याग सम्पादन हेतु ब्रह्माजो ने शूदरहित (तनों वर्गों को सृष्टि अमावासमन जयपरायणान्॥१८॥

 

अथर्वशिरमो वेत्तृन् धर्मज्ञापरकर्जय। गुप्तये सर्वदेवानां तेभ्यो यज्ञो हि निर्वभौ। प्राव जप में आसक्त मन वाले, रुद्र का जप करने में काचो यघि सामानि तथैवाशर्वणानि च।। ३७॥ तत्पर, अथर्ववेद के सम्पूर्ण ज्ञाता तथा धर्मज्ञों को छोड़ दो। | ब्रह्मणः सनं कर्ष नित्यैा शक्तिब्यमा। बहुनात्र किमुक्तेन स्वयर्मपरियाकान्॥ १९॥

 

अनादिनिधना दिव्या भागुत्सृष्टा स्वयम्भुवा॥ १८॥ ईश्वरारामनग्लान्मन्नयोगान्न मोहय।।

सभी देवों की रक्षा के लिए उन्होंने यज्ञ की स्मृष्टिं की। एनं मया महामाया प्रेरिता चिन्नमा।। ३ ।। तदनन्तर ऋग्वेद, यजुर्वेद, सामवेद और अथर्ववेद की रचना यहाँ बहुत अधिक क्या कहा जाय? अपने धर्म का | को। ये सब ब्रह्मा के सहज रूप हैं। यह नित्य एवं परिपालन करने वाले तथा ईश्वर की आराधना में निरत लौंग | अविनाशी शक्ति है। ब्रह्मा ने आदि और अन्त रहित को मेरे आदेश में मोहित न करो। इस प्रकार हरिवल्लभा (बेदमयौ) दिल्यवाणी की सृष्टि की। महामाया मेरे द्वारा ही प्रेरित हुई थीं।

आदी वैदमयी भता यतः सर्वाः प्रवृत्तयःअतोऽन्यानि हि शास्त्राणि पृथिव्यां यानि कानिचिन्॥

१९ यथादेशं चकारासौ तस्यालक्ष्मी समर्व्ववेत्।

तेषु रमते घोर; पाषषी रमते बुधः।

त्रियं ददाति विपुलां पुष्टि मेघां यशो बलम्॥ ११॥

वेदार्थवित्तमैः कार्य मूर्त मुनिभिः पुरा॥३०|| अचिंता भगवत्पनी तस्माल्लम समर्चयेत्। स ज्ञेयः परमो अर्मो नान्यज्ञालेषु संस्थितः।। ततोऽमृजन्म भगवान् ब्रह्मा लोकपितामहः॥२२॥ या बेंदबाह्याः स्मृतयों याश्च का कुदृष्टयः॥३१॥ उसने मेरे आदेशानुसार कार्य किया। इसलिए लक्ष्मी को सर्वास्ता निंफनाः च तमोनिच्चा हि ताः स्मृताः। पूजा करना चाहिए। पूजित होने पर वह लक्ष्मी विपुल धन, | पूर्वकन्ये अन्ना जाता; सर्ववाधाविवर्जिताः॥३३॥ समृद्धि, बुद्धि, यश तथा बल प्रदान करतीं है। इसलिए आदि में यह वेदमयी वाणी हीं थीं, जिससे सभी प्रवृत्तिय विष्णुपत्नी लक्ष्मों की अर्चना करनी चाहिए। अनन्तर लोक

हुई हैं। इसमें अन्य पृथ्वों पर जो कोई शास्त्र हैं उनमें धौर पितामह भगवान् ब्रह्मा ने सृष्टि प्रारम्भ की थी। विद्वान् उमण नहीं करते, पापड़ों विद्वान् हौं रमण करता है। चराचराणि भूतानि ययापूर्वं ममाङ्गया। पूर्वकाल में वेदार्थविद् मुनियों ने जिस कार्य का स्मरण परीचिभम्र्यापमं पुलस्त्य पुलह ऋतुम्॥ २३॥ किया था उसे परम धर्म मझना चाहिए, जो अन्य शास्त्रों में दक्षमत्र वसिय सोऽजगविद्यया। हैं इसे नहीं। जो वेद-विरुद्ध स्मृतियाँ हैं और जो कोई नवैने ब्रह्मणः पुत्रा ब्राह्मणा ब्राह्मणोत्तमाः॥ २४॥ .

 

कुदृष्टियाँ हैं मरणोपरान्त उसका कोई फल नहीं मिलता ग्रामवादिन एवैने मरीच्याास्तु मामकाः। समर्न ब्राह्मणान्वक्त्रात् क्षत्रियांश्च मुजाद्विभुः॥ २५॥

 

  1. ब्राह्मण ऽस्य मुखमासीयाहू राजन्यः कृतः। करू तदस्य वैश्यानूरुद्द्यादेव: पद्भ्यां शूद्वान् पितामहः। अद्वैश्य: पद्धयां शूद्रो जायत (यजुः ३१.११)

 

कूर्ममहापुराणम्

क्योंकि वे सभी तामसौ कहौं गौ हैं। कल्प के प्रारंभ में | लिए बताये। दान देना, अध्ययन और यज्ञ करना- ये सभी प्रकार की बाधाओं में रहित प्रनायें उत्पन्न हुई थीं। । | क्षत्रिय और वैश्यों को धर्म कहा गया। उनमें भी दण्ड देना शुद्धातःकरणाः सर्वाः स्वधर्मपरिपालकाः। और युद्ध करना क्षत्रिय का तथा कृषि करना वैश्य का त: कालवशासासां रागद्वेषादिकोऽभवत्। ३३॥ विशेष धर्म हैं और ब्राह्मणादिं की सेवा करना शूद्र का ये सभी शुद्ध चित्त बाली तथा अपने धर्म का पालन करने | धर्म-साधन हैं। पाक यज्ञादि धर्म से शिल्प कर्म उनको में तत्पर थीं। तदनन्तर काल के वशीभूत होने पर इनमें | आजीविका है। इस प्रकार चारों वर्षों की प्रतिष्ठा हो जाने पर | राग-द्वेष आदि उत्पन्न हुए। उन्होंने आश्रमों की स्थापना की। अधर्मो मुनिशार्दूला: स्वधर्मप्रतिंबधकः।। गृहुम्यञ्च बनाम्यं च क्षुिकं ब्रह्मचारिणम्। ततः सा सल्ला सिद्धिस्तासां नातीव जायते॥ ३४॥ । अग्नयोऽतिविशुश्रूषा यज्ञों दानं सुरार्द्धनम्॥४२॥ हे मुनिश्रेष्ठों ! यह अधर्म ही अपने धर्म का प्रतिबन्धक गम्यस्य समासेन अर्मोऽयं मुनिपुंगवाः॥ | होता हैं अतएव उनमें सहज सिद्धियाँ अधिक प्राप्त नहीं | होमों मूलफनाशिवं स्वाध्यायतम एव च।। ४३॥

संविभागों क्वान्यायं धर्मोऽयं वनवासिनाम्। भैाशनञ्च मौनत्वं तयों यानं विशेषतः॥४४॥ | जोमावात्मिकास्तासां सिंद्धयोऽन्यास्तदाभवन्। सम्यग्ज्ञानज्य वैराग्यं धर्मोक्यं के मत्तः।। तासु क्षीणास्वशेषासु कालयोगेन ताः पुनः॥३५॥ ।

भिक्षाचर्या च शुश्रूषा गुरोः स्वाध्याय एव च।।५।। अतएव अन्य रजोगुणमयो सिद्धियाँ उनको हुई। तत्पशात् माझ्या कामग्निकार्यञ्च धर्मोऽयं ब्रह्मचारिणाम्। कालयोग से वे सच क्षीण हो जाने पर पुनः उत्पन्न हुई।

ब्रह्मचारिवनस्यानां भिक्षुकाणां द्विजोत्तमाः।। ६६ ।। वापाचं पुनशआईस्तञ्च कर्मनात् साधारणं चर्य होवाच कमलदभवः॥ ततस्तासां विभुर्ब्रह्मा कर्माजीवमकल्पयत्।। ३६॥ ऋतुकालाभिगामाचं म्चदारेषु न चान्यतः॥४७॥

पुनः कानाक्रम से जीविकोपार्जन के उपाय (कृषि आदिं) | गृहस्थ, वानप्रस्थ, भिक्षुक संन्यासाश्रम और ग्रहाचारियों तथा कर्मन हस्त-सिद्धि की रचना की। अनत्तर सर्वव्यापी | का ब्रह्मचर्य – ये चार आश्रम स्थापित किये गये। हे श्रेष्ठ ब्रह्मा ने उत्तम कर्मोत्पन्न आजीविका की सृष्टि। मुनिगण! अग्निशाण, तिघ-संचा, यज्ञ करना, दान देना स्वायम्भुव मनुः पूर्वं धर्मान्यान्न सर्वदृक् ।

और देवपूजन करना- यह संक्षेपतः गृहस्थ का धर्म कहा साक्षान्मायनेर्मनिनिमा ब्रह्मणों ह्विजाः।। ३७।। गया है। होम, फल-मूत का भक्षण, स्वाध्याय, तप तथा भृग्वादयस्तद्वदनाच्छुत्वा धर्मानथोचिरे। न्यायपूर्वक संचिभाग यह वनवासियों का धर्म हैं। भिक्षा से अञ्जनं यानं दानं ब्राह्मणस्य प्रतिग्रहः॥ ३८॥ प्राप्त अन्न ग्रहण करना, मौन रहना, तप और विशेष रूप से यानं चाध्ययनं घट्कर्माणि द्विजोत्तमाः।

ध्यान लगाना, यथार्थ ज्ञान और वैराग्य- यह भिक्षुक का दानामध्ययनं यज्ञो धर्म: वयवैश्ययो:।।३१।। धर्म माना गया है। भिक्षाटन, मेवा, बेदाध्ययन, दण्डों युद्धं क्षत्रियस्य कृषिवैश्यस्य शस्यते। सन्ध्याकर्म तथा अग्निहोम ब्रह्मचारियों का धर्म है। हे शुश्रूषेचा हिजाजेनां शूद्राणां घर्मसाधनम्॥४०॥ द्विजश्रेमी! ब्रह्मचारी, वानप्रस्थों और संन्यासियों के लिए [] कारुकर्म तयाजीव: पाकयज्ञादियर्पतः।

ब्रह्मचर्य पालन सामान्य धर्म है, ऐसा माझा ने कहा हैं। ततः स्थितेषु वर्गेयु स्थापयामास चाश्नमान्॥४॥ केवल ऋतुकाल प्राप्त होने पर ही अपन] भार्या का अनुगमन सर्वप्रथम सर्बद्रष्टा एवं प्रजापति की साक्षात् प्रतिमूर्ति

करें, अन्य समय में नहीं। स्वायम्भुव मनु ने धर्म को कहा। इस प्रकार ब्रह्मा से भृगु पर्चबल्न गृहस्थस्य ब्रह्मचर्यमुदाहृतम्। आदि ब्राह्मणों को सृष्टि हुई। हे द्विजश्रेष्ठों ! उन्होंने स्वायंभुव |

 

आगर्भधारणादाचा कार्या तेनाप्रमादतः॥४८॥

मनु के मुख से सुनकर (प्राणियों के लिए भिन्न-भिन्न धर्म पर्व को छोड़कर स्त्री-सहवास करना गृहस्थ के लिए | और कर्मों का वर्णन किया। यज्ञ करना- यज्ञ कराना और | ब्रह्मचर्य कहा गया है। इसलिए अमावश न होकर पत्नी के | दान देना-दान लेना, पढ़ना-पाना में छ; कम ब्राह्मण के | गर्भधारण तक ऐसा करने की आज्ञा है।

 

पूर्वपागे द्वितीयोऽध्यायः

अकुर्वास्तु विन्या भ्रूणहा तूफ्लायते।।

इह लोके सुखों भूत्वा प्रत्यानन्याय कल्पते।। वेदाभ्यासोऽन्वहं क्या श्राद्धञ्चातिथिपूजनम्॥१६॥ धर्मात्संज्ञायतें मोक्ष कामोऽभिज्ञायते॥ ५॥ गृहस्स्य परों अम्र्णो देवताभ्यर्चनं तबा। वे तौन गुण सत्त्व, रज और तम हैं। इसलिए धर्म के वैवानिमियीन सायं प्रतर्यथासिय॥ ५३|| आश्रित रहना चाहिए। सत्त्व गुणाश्रित ऊर्ध्वलोक को जाने देशातरगतो वाघ मृतपत्नीक एव च हैं, जो गुण युक्त मध्य लोक में वास करते हैं, तमो गुण बयाणामात्रमाणान्छ गृहस्वां योनिरुध्यते।। ४१-५१।। बाले जघन्य (निंम्] वृत्ति में रहते हुए निम्न अधम लॉक हे विजेन्द्रों ! ऐसा न करने पर भूण हत्या का दोष लगता | को प्राप्त करते हैं। जिस व्यक्ति में अर्थ और काम धर्म से है। नियमित वेदाध्ययन, शक्ति के अनुकूल आद्ध करना,  मुक्त होकर रहते हैं वह इस लोक में सुखी होकर । अतिथिसेवा तथा देवार्चन गृहस्थ का परम धर्म है। | मरणोपरान्त अनन्त सुख को प्राप्त करता है। धर्म में मोक्ष की सायंकाल और प्रात:काल विधिपूर्वक बैबाहिक अग्नि को प्ति होती है और अर्थ में काम की अभिवृद्धि होती है। | प्रज्ल त करते रहे चाहे वह परदेश गया हो अथवा | | एवं माथनसल्यत्वं चातुन्निध्ये प्रदर्शितम्।। मृतपत्नीक (जिसकी पत्नी का देहावसान हो गया है) हो। | य एवं वेद धर्मार्थकाममोक्षस्य मानवः॥ ५ ॥ इस गृकार इन तीनों आश्चमों का मूल गृहस्थाश्रम हैं। माहात्म्यं चानुनिष्ठेत स धानन्याय कल्पते।   अन्य तमुफ्जीवति तस्माच्छ्यान् गृहमी।

तस्पर्ध्वञ्च काय त्यक्त्वा धर्म समाप्तयेत्।। ६8 || एकाश्रयं गृहस्थस्य चतुर्णा श्रुतिदर्शनात्५३॥ इस प्रकार चतुर्विध ( धर्म, अर्थ, काम, मोक्ष) के विषय तस्माद्गार्हस्थ्यमेवैकं विज्ञेयं धर्मसाधनम्। मैं साधन को सार्थकता दिखाई देती है। जो मनुष्य इस परित्यजेदर्थकामौ यौ स्यातां धर्मर्वातौं॥५३॥

प्रकार धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष के इस माहात्म्य को अन्य तीन आश्रम इसी गृहस्थाश्रम पर निर्भर हैं। अतएव जानता है और इसका वैसा ही अनुष्ठान करता हैं उसे अनन्त गृहस्थाश्रमी सर्व श्रेष्ठ हैं। श्रुति की दृष्टि से भी चारों आश्रमों | सुख की प्राप्ति होती हैं। इसलिए अर्थ और काम को त्याग का एकामच गृहस्थाश्रम ही हैं। अतएव केवल कर धर्म के आश्रित रहना चाहिए। गृहस्थाश्रम को हो धर्म का साधन ज्ञानना चाहिए। जो धर्म धर्मात्संज्ञायतें सर्वपित्याइर्सावादिनः। में वर्जित अधं और काम हो, उसका परित्याग करना | धर्मेण धार्यते सर्व जगत्स्यावरजंगमम्॥ ६ ॥

धर्म से सब कुछ प्राप्त होता है ऐसा व्रह्मवादी कहते हैं। सर्वलोकविरुद्धञ्च धर्ममप्याचन्न तु। धर्म के द्वारा स्थावर-जगम रूप संपूर्ण जगत् धारण किया धर्मात्संज्ञायते आर्थो धर्मात्कामोऽभिजायते॥५४॥ जाता है। सबंलोक विरुद्ध धर्म का आचरण भी नहीं करना | अनादिनिधना शक्तिः मैंया ब्राह्मी द्विजोत्तमाः। चाहिए। धर्म में अर्थ की प्राप्ति होता है और धर्म में काम को कर्मणा प्राप्यते अप्न ज्ञानेन च न संशयः॥ ६ ॥ अभिवृद्धि होती है। हे द्विश्रेष्ठों ! यही आद्यन्तर्राहिता कूटस्थ ब्राह्मी शक्ति है। धर्म एवापवर्गाय तस्माद्धर्म समाप्तयेत्।

कर्म और ज्ञान में ही धर्म की प्राप्ति होती हैं, इसमें संशय धर्मार्थ कामश्च विद्यार्गस्त्विगुणों मत:॥ ५५॥ नहीं। धर्म हौं मोक्ष का कारण हैं, अतएव धर्म का हौ आश्रय तस्माज्ञानेन सहितं कर्मयोग समाप्तयेत्। लेना चाहिए। धर्म, अर्थ, काम- यह त्रिवर्ग तीन गुणों वाला।

प्रवृत्तञ्च निवृत्तय द्विवियं कर्म वैदिकम्॥ ६३।। कहा गया हैं। ज्ञानपूर्व निवृतं स्यात्मवृतं यादतोऽन्याया। सत्त्वं जस्तामति तस्माद्धर्म समाप्तयेत्। निवृत्तं सेवमानस्तु याति तत्परमं पदम्।।६४॥ अवै गन्ति सवस्या मध्ये तिष्ठन्ति राजसा:॥५६॥ अतएव ज्ञानासहि र्म को आश्रय करें। प्रवृत्तिपरक एन्ने जघन्यगुणवृत्तिस्था अयो गच्छन्ति तामसाः।

निवृत्तिपरक रूप से वैदिक कर्म दो प्रकार से हैज्ञानयुक्त यस्मिधर्मसमायुक्त कार्बकाम व्यवस्थितौ।। ५७॥

जो कर्म हैं बह निवृत्तिमूलक है। उससे भिन्न जो अज्ञानाश्रित

कूर्ममहापुराणम् कर्म है यह प्रवृनिमुलक है। निवृत्त कर्म का सेवन करने | आनन्दमैश्वर याम सा काष्ठा मा परा गतिः। वाला परम-पद को प्राप्त होता है।

स्वयम्भू असा में गृहस्थों का स्थान प्राजापत्य कहा है। तस्मानिवृत्तं संमेथ्यमन्या संसरत्युनः॥ जितेन्द्रिय प्रतियों तथा उर्ध्वरता संन्यासियों का स्थान क्षमा दमों दया दानमलभस्त्याग एव च॥६५॥ हुँरण्यगर्भ है। यह वह स्थान है जहाँ से पुनः संसार में आना आर्जवं चानसूया च तर्धानुस तथा।

नहीं पड़ता। योगियों के लिए अमृतमय नित्य अक्षर ऐश्चर्य सत्यं सन्तोषमास्तिक्यं श्रद्धा चेन्द्रिबाहुः॥६६॥ सम्पन्न आनन्दमय व्योम नामक भाम है। वहीं पराकाष्ठा और देवताभ्यर्चनं पूजा व्राह्मणानां विशेषत:।

नहीं परमगति है। अहिंमा प्रियवादित्वमपैशुन्यमककला॥ ६ ॥ सामासिझमिर्म अप चातुर्वण्र्येऽवीन्मनुः। अषय ऊचुः प्राजापत्यं ब्राह्मणानां स्मृतं स्थानं क्रियाताम्॥६६॥

भगन्नदेवनाग्नि हिरण्यक्षनद॥४॥ इसलिए निवत्त कर्म का ही सेवन करना चाहिए, अन्यथा | चत्वारो श्नमाः प्रोक्ता योगिनापक उच्यते। संसार में पुनः भ्रमण करना पड़ता है। क्षमा, इन्द्रियों का ऋषियों ने कहा- हे भगवन्! देवशत्रुओं को मारने वाले ! दमन, दया, दान, लोभ का अभाव, त्याग, सरलता, | हिरण्याक्ष का वध करने वाले! ( समान रूप में आपने अनसूया, तीर्थगमन, सत्य, सन्तोष, आस्तिकता, श्रा, | आश्रम चार कहे हैं किन्तु योगियों के लिए केवल एक इन्द्रियनिग्रह, देवार्चन विशेषत: ब्राह्मण को मुना, अहिंसा, | आश्रम ही बताया है। प्रियवादिता, पिशुनता (चुगलखोरी) न करना, निष्पाप दोनों | न करना, निष्पाप दोनो | र्म जुवाच ये चारों वर्षों के लिए सामान्य धर्म हैं, ऐसा मनु ने कहा हैं।

सर्वकर्माणि संयम्य समाधिमन्नलं श्रितः॥४५॥ कर्मनिरत ब्राह्मणों के लिए प्राजापत्य (ब्रह्मा का स्थान या आस्ते मिशनों योगों से संन्यासी च पञ्चमः। कहा गया है।

सर्वेषामाश्रमाणानु वैक्थ्यिं निर्दाशतम्।।७६॥ म्यानमैन्द्रं क्षत्रियाणां संग्रामेष्यप्रनायिनाम्।

कूर्म बोलेजो भी कर्मों को त्याग कर नित्य समाधि वैश्यानां मारुतं म्यानं स्वधर्मनुवर्तनाम्।। ६३ ।।

के आश्रित रहता हैं वहीं निकाल योग हैं और वहीं पञ्चम गान्पर्व शून्नातीनां परिचारेण वर्त्तताम्।संन्यास भी हैं।

श्रुति के अनुसार सभी आश्रम दो प्रकार के अष्टाशीतिसहस्राणामपणामूदवतमाम्।। ७०||

दिखाये गये हैं। स्मतं तेयान्तु यथानं तदेव गुरुवामिनाम्।

ब्राह्मचार्यपकुर्वाणों नैछिको ब्रह्मतत्परः।

सप्तपणान्तु यत्यानं स्मृतं नई नौकमाम्।।७।।

यौपत्य विधिवद्वेदान् गृहस्थाश्चममातृजेत्।।७।।

संग्राम में भागने वाले क्षत्रियों के लिए ऐन्द्र (इन्द्र |

उपकुर्वाणको ज्ञेयो नैष्ठिको मरणान्तिकः। सम्बन्धी) स्थान और अपने धर्म का आचरण करने वाले उदासीन: माघश्च गृहस्व द्विबियों भवेत्॥७८॥ वैश्यों के लिए मारुत (मस्तु सम्बन्धी) स्थान निर्दिष्ट है।

ब्रह्मचारी के दो प्रकार बनाये गये हैं- एक उपकुर्वाण द्विजातियों की सेवा करने वाले शूद्रों का गान्धर्व ( गम और दसरा बालन नैश्कि। जो विधिवत वेदों का अध्ययन का} स्थान कहा गया हैं। अट्टासौ हजार उर्ध्वरेता ऋषियों के | करके गृहस्थाश्रम में आता है उसे उपकुर्वाण जानना लिए जो स्थान कहा गया है वहीं स्थान गुरु के समीप | चाहिए। मरणपर्यन ब्रह्मचर्य धारण करने वाला नैश्कि अध्ययन करने वाले के लिए बताया गया है। सप्तर्षियों का | ब्रह्मचारीं कहा गया है। उदासीन और साधक के भेद से जो स्थान कहा गया है, वहीं वानप्रस्थों को प्राप्त होता है। गृहस्थी भी दो प्रकार का है। प्राजापत्यं गृहस्थायां स्थानमुक्तं स्वयंभुवा। कुटुम्वभरणायत्त: सायकोऽसौ गृही भवेत्। यतींना जितचित्तानां न्यासिनाम्बरंचसाम्।।७३॥ ऋणानि वीण्यपात्य त्यक्त्वा भावनादिकम्।।७१॥ हैरणयगर्म तत्स्वानं यस्मात्रायते पुनः। एकाकी यस्तु विचरेदुदासीनः मौक्षिकः। योगिनाममृतं स्थानं व्योमाख्यं परमक्षरम्॥१३॥ तमस्तप्यति बौऽरण्ये क्वान् जुहोति च।। ८०॥

 

मूर्यभागे द्वितीयोऽध्याय:

स्वाध्यायें चैव निरत्तो वनस्वस्तापसो मतः। सर्वेषु वेदशास्त्रेषु पञ्चमों नोपपद्यते। तपसा कर्मिनोऽन्यद्धे यस्तु ध्यानपरों भवेत्।। ८ ।। एवं वर्णाश्रमान् मृष्ट्वा देवदेवो निरञ्जन:।।८८॥ सांन्यासिक: स चिञयों वानप्रस्थाश्नमें स्थितः। दक्षान्ग्राह विश्वात्मा जथ्वं विविधाः प्रजाः। योगाभ्यासरतो नित्यमारुरुक्षजितेन्द्रियः॥२॥ ब्रह्मणों वचनात्पुत्रा दृक्षाचा मुनिसत्तमाः॥१॥ ज्ञानाब बत्तते भिवाः प्रोंच्यतें पारमेष्ठिक;। अमृजत प्रज्ञाः सर्वे देवमानुषपूर्वकाः। यस्चात्मतरेव स्यानित्यतृप्तों महामनिः॥१३॥ इत्येवं भगवान ब्रह्मा लखें संव्यवस्थितः॥ १० ॥ सम्यग्दर्शनसम्पन्नः म योंग मिक्षिच्यते। अाँ वै पानयामा सहरियति ज्ञनभूत्।। ज्ञानसंन्यामिनः केचिद्वेदसंन्यासिनोऽपरे।।८४॥ तिम्रस्नु मूर्तयः प्रोक्ता ब्रह्मविष्णुमहेश्वराः॥११॥ कुटुम्ब के भरण पोषण में तत्पर रहने वाला गृहस्थ रज्ञ:सत्त्वतमयोगात्परम्य परमात्मनः। माधक होता है और ना तीन प्रकार के ऋगों को हर करके | अन्योन्यमरक्तातो बन्योन्यमुपजीविनः।। ६३ ।। पत्नी और धन आदि का त्याग कर मोक्ष के इच्छुक जों अन्योन्यप्राय लीलया परमेश्वराः। एकाको बिचरता हैं उसे उदासन कहते हैं। जो बन में |

ब्राह्मीं माहेश्वरी चैव तवैवाक्षरभावना॥ १३॥ तपस्या करता है, दे को पूजा तथा यज्ञ करता है और तिलस्तु भावना फड़े वर्तन्ते सततं द्विजाः। स्वाध्याय में तत्पर बहुता हैं, उस तव को वानप्रस्थ अवर्तते मळ्यजत्रामाद्या चारभाबना॥ १४|| कहते हैं। जो तप के द्वारा काय होकर भ्यानमान रहता द्वितीया ब्रह्मणः ओंका; देवस्याभाचना। | हैं उमें वानप्रस्थ आश्रम में रहने वाला संन्यासों समझना अहं चैव महादेबों न भिन्न: परमार्थतः॥ ६५ ॥ चाहिए। जो सदा योगाभ्यास में निरत, जितेन्द्रिय, अपने इज़ बेदशास्त्रों में पंचम आश्रम की गणना नहीं है। इस लक्ष्म पर आरोहण के इचाक और ज्ञान प्राप्ति के लिए | प्रकार देवाधिदेव, निरंजन, विश्वात्मा प्रभु ने वर्णाश्रमों को प्रयत्नरत भिक्षक पारमश्कि कहा जाता है। जो आत्मा में हों | सृष्टि र दक्ष आदि ऋषियों से कहा- आप लोग अब रमण करने वाला, सदा आनन्दमग्न, अत्यन मननशील और 1 विविध प्रजाओं का सृजन करें। ब्रह्मा के वचन सुनकर उनके सम्यग इन-सम्पन्न है वह योगों पक्ष कहलाता है। उनमें | पुन दक्षा आदि मुनिब ने सय देवता, मनुष्य आदि विनिश्च भी कोई ज्ञानसंन्यास हुआ करते हैं और कई वेदसंन्यासी | पूजा की सृष्टि को। इस प्रकार सृष्टि के कार्य में संत्र्यवस्थित होते हैं। होकर भगवान् ब्रह्मा ने कहा- मैं हो सृष्टि का पालन करूगा कर्मसंन्यासिनः केचिन्त्विविधाः पारमेष्ठिकाः और शंकर इनका संहार करेंगे। सत्त्वगुण, रजोगुण और तो योगी न्न त्रिवियों ज्ञेयो भौतिक; मांड्य एव च।। ८५॥ गण के साग उस परम पिता परमात्मा की तीन माना है तृतीयो आश्चमी प्रॉो योगमुत्तममाश्रितः।

जिन्हें ब्रह्मा, विष्णु और महेश कहते हैं। ये एक दूसरे में प्रथमा भावना पूर्वे सांये झरभावना।।८६॥ अनुरक्त और परम्पर उपजींनीं हैं। परमेश्वर को लौला में थे। तृतीय चानमा झोंका भावना पारमेवारी। एक-दूसरे को और प्रगत रहते हैं। ब्राह्मी, माहेअरों और तस्मादेताना मामाणां चनयम्।। ||

अक्षरभावना- ये तीनों निरन्तर रुन्द्र में विराजमान रहती हैं। कुछ कर्म संन्यासी होते हैं। इस प्रकार से पारमेष्ठिक आद्या जो अक्षरभावना है वह मुझमें निरन्तर प्रतित होतो इहुत है। द्वितीय अक्षरभावना ब्रह्मा को कही गई है। वस्तुतः भिक्षुक तीन प्रकार के हुआ करते हैं। योगी भी तीन प्रकार मैं और महादेन भिन्न नहीं है। के माने गये हैं। उसमें एक भौतिक, दूसरा सांस्य विभज्य वेच्छ्यात्मानं सोऽतर्यामीर: स्थितः। | तत्त्वदर्शी) और तसरा उत्तम योगाअंत आश्रम कहा गया त्रैलोक्यमखिलं स्त्रष्टुं मदेवामुरमानुषम्॥१६॥ हैं। पहले योगों में प्रथम भावना होती हैं। दूसरे सांस्य योगी पुरुषः परतोऽव्यक्तः ब्रह्माचं समुपागमत्। | में अक्षर भावना और तीसरे में अन्तिम पारमेश्वरीं भानना तस्माद्ब्रह्मा महादेव विष्णुर्विश्वेश्वरः परः॥ १७।। | कहीं गई हैं। इस प्रकार आश्रमों का चतुष्टयत्व जान लेना | एकस्यैव स्मृतास्तिस्त्रास्नाद्भत्कार्यवशाअभोः।। | चाहिए।

तस्मात्सर्वप्रयत्नेन वन्द्याः पूज्या विशेषतः॥१८॥ कूर्ममहापुराणम्

देव, असुर और मानव सहित सम्पूर्ण त्रैलोक्य का सृजन | ललाट में श्वेत भस्म से त्रिपुण्ड् लगाना चाहिए। जो परम करने के लिए वह अन्तर्यामी ईअर स्वेच्छा से स्वयं को | पद नारायण देव के शरणागत हैं, उसे ललाट में सदा गन्ध विभक्त करके स्थित है। वह अव्यक्त परम सुरु ब्रह्मरूप को | जल द्वारा शुल को धारण करना चाहिए। जो जगत् के प्राप्त हुआ। इसलिए ब्रह्मा, महादेव और विश्वेश्वर विष्णु- ये | बीजरूप परमेष्ठी ब्रह्मा की शरण को प्राप्त हो, उसे ललाट में तीनों एक ही परमात्मा के कार्यवश तीन रूपों में वर्णित हैं। | सर्बदा नित्नक धारण करना चाहिए। ऊपरी और अधौभाग अताब तनों हीं सब प्रकार से विशेषरूप से वन्दनीय और | के योग से निपुण्डू धारण करने से वह अनादि, भूतों का आदिजों कालात्मा है, वह धृत हो जाता है। और जो ब्रह्मा यदीच्छेदचिरात्म्याने यनमोक्षाय्यमव्ययम्। निष्पाशिनात्मक त्रिगुणात्मक प्रधान हैं वह शूल के धारण वर्णाश्रमायुक्तेन घमेण प्रीतिसंयुतः।।११।।

करने में मृत हो जाता है, इसमें संशय नहीं। तिलक धारण पूजयेद्भावयुक्तेन याबञ्जीचं प्रतिज्ञया। करने पर ब्रह्म के तेज से युक्त, शुक्न और ऐश्वर्य का चतुर्णामाश्रमाणानु प्रोक्तोऽयं विचिंबद् द्विजाः॥ १० ॥

स्थानरूप जो सूर्यमण्डल हैं, वहीं धारण किया हुआ होता यदि शीघ्र ही मोक्षनामक अविनाशौ स्थान को पाने को है। अतएव त्रिशूल के चिढ़ को तथा शुभकारी तिलक को धारण करना चाहिए। इच्छा हो तो प्रीतियुक्त होकर वर्णाश्रमायुक्त धर्म से तथा भक्तिभाव से जीवनपर्यन्त प्रतिज्ञापूर्वक इसकी पूजा करनी आयुष्यञ्चापि भक्तानां त्रयाणां विधिपूर्वकम्।

मजेत जुहुयादम्नौ पेद्दय़ाजितेन्द्रियः ॥ १॥ ६ ॥ | चाहिए। हे ब्रह्मणों ! इस प्रकार चा] आश्रम का वर्णन मॅन शान्तों दानों जितक्रोधी वर्णाश्रमक्यिानधित्। विस्तारपूर्वक कर दिया है। एवं परिचरेयान् यावज्जीवं समाहितः॥ ११०॥ आश्रमों वैष्यायो व्राह्य हश्चम त त्रयः। तेषां स्वस्थानमचनं चिराधिगच्छति।। १११॥ नलगधारी नियतं तद्भक्तनसलः॥ १० ॥

 

यह सब विधिपूर्वक करने से तीन प्रकार के भक्तों कीं ध्यायेदमार्चयदेतान् ब्रह्मविद्यापरायणः। सर्वेषामेव भक्तानां झम्भोलिमनुत्तमम्॥ १२॥

आयु वृद्धि होती हैं। जितेन्द्रिय, वर्णाश्रम के विधान का वैष्णव, ब्राह्य और राश्चम ये नॉन प्रकार का आश्रम है। ज्ञाता, शान्त, दान्त एवं क्रोध को जीतने वाला यज्ञन करे, उन-उन के नियत लिङ्गों को धारण करने वाले, उनके अग्नि में होम करें तथा जप और दान करें। इस प्रकार भजनों के प्रति यसरनता का भाव रखने वाले और | नौवनपर्यन्त समाहित चित्त से देवों की परिचय करें। ऐसा हाविद्या में निरत रहने वाले उनका ध्यान और अर्चन करें। | करने पर वह शीघ्र ही देवों के अचल स्थान को प्राप्त कर सभी भक्तों के लिए शम्भु के चिह्न उत्तम होते हैं। मितेन भस्मना कार्य ललाटे तु त्रिपुडूकम्। इति श्रीकृर्मपुराणे पूर्यभागे वर्णाश्रमवर्णनं नाम यस्तु नारायणं देवं प्रपन्नः परमं पदम्॥ १३॥

द्वितीयोऽध्याय:॥१॥ मारयेत्सर्वदा शुलं ललाटे गधवारिभिः। अपन्ना चे जगवीजं ब्रह्माणं परमेष्ठिनम्॥ १०४॥

 

तृतीयोऽध्यायः

तेषां ललाटे तिलकं धारणींयन्तु सर्वदा। (आश्रमों का क्रम) योऽसावनादर्भूनाद: कालात्मासौ वृत्तौ भवेत्॥ १०५ ॥ उपर्ययभागयोगात्रिपुंड्स्य तु धारणात्।

अषय ऊचुः यात्प्रधानं त्रिगुणं व्रह्मविष्णुशवात्मकम्।। १२६॥ अर्गा भगतष्टित्वारोऽप्याश्रमास्तथा। बृतन्तु शूलधरणाद्भवत्येव न संशयः।

इदानीं क्रममस्माकमाश्नमाणां यद भो॥ १॥ ग्रह्मतेजोमयं शुक्लं बतन्मानं रखें। १०७॥ ऋषियों ने पूछा- आप प्रभु ने चारों वर्ण तथा चारों ‘भक्चेच धृतं स्थानमैश्चरं तिलक कृते। आश्रमों के विषय में उपदेश दिया। हे प्रभु! अव हमारे लिए तस्मात्कार्यं त्रिशूलांकं तया च तिलकं शुभम् ॥ १०८॥ आश्रमों का क्रम वर्णन करें।

पूर्वभागे तृतीयोऽध्यायः

कृर्म उवाच प्राजापत्यान्निरूप्येष्टिमाग्नेयमवबा द्विजः। ब्रह्मचारी गृहस्थश्च वाग्निस्यो यतिस्तथा। प्रत्तु गुहीं विद्वान् बनादा झुनिचोदनात्।। ॥ अपेवालमाः प्रोक्ताः कारणान्यया भवेत्।।३।। प्रकर्नुमसमर्पोऽपि जुहोति जति क्रियाः। कूर्मरूप बिष्णु बोले- ब्रह्मचर्य, गृहस्थ, वानप्रस्थ और अयः पद्दरिद्रो वा बिरक्त: संन्यसेजिः ॥ १०॥ संन्यास में चार आश्रम हों क्रमशः कहे गए हैं। कुछ कारण | विद्वान् गृह प्राजापत्य अथवा आग्नेय यज्ञों का अजून से इनमें क्रमभेद हो सकता हैं। करके श्रुतिवचन से बानस्थ से संन्यास का प्रबज़न करे। पन्नज्ञानविज्ञान वैराग्यं परमं गतः। करने में असमर्थ होता हुआ भी वह सब क्रियाओं का होम प्रव्रजेंद्गह्मचर्यात्तु अच्छेत्परमां गतिम्॥३॥

और यज्ञन करता रहता है। अन्धा, लंगड़ा या दरिंद्र द्विन भी जिसमें ज्ञान उत्पन्न हो गया है. ऐसा विवेक और परम विरक्त होकर संन्यास ग्रहण कर ले। वैराग्य को प्राप्त मनुष्य यदि परम गति (मोक्ष) की इच्छा सर्वेषामेव वैराग्यं संन्यासें तु विधीयते। करता है, तो वह ब्रह्मचर्य से संन्यास ग्रहण कर ले।

प्रत्येवाचिों यः संन्यानं कर्तुमच्त ॥ १॥ दानात्य विधिवदयवा स्निम:।

संन्यास ग्रहण करने में सभी के लिए वैराग्य का बिंधान। ग्रजेनुत्पादयेत्पुत्रान् विरक्तों यदि संन्यसेत् ॥ ४॥ हैं। जो अविरक्त पुरुष संन्यास की इच्छा करता है, वह गिर अनिट्वा विधिवग्रजैनुत्पाद्म धात्मवान्। जाता है। न गार्हस्यं गृहीं त्यक्त्वा संन्यसेबुद्धिमान् द्विजः।।५।। एकस्मिन्यथा सम्यग्वतामरणान्तिकम्। अन्यथा (गृहस्थ को चाहिए। विधिवत पन्नों से विवाह । श्रद्धावानाश्नमें युक्तः सोऽमृतत्वाय कल्पत।। १ ।। करके अनेक यज्ञों का यजन करें और पुत्रों में उत्पन्न करें।। अथबा एक ही आझम में आजीवन सम्पर्क प्रकार से । यदि विरक्त हो गया हो तो संन्यास ग्रहण कर लें। परन्तु | आचरण करता रहे। इस प्रकार अपने आश्रम में श्रद्धावान् । विधिवत् अज्ञों का यज्ञन किये बिना तथा पुत्रों को जन्म दिये | होकर जो रहता है, वह अमृतत्व के लिए नियुक्त होता है। बिना बुद्धिमान् गृहस्थ द्विज गार्हस्थ धर्म को छोड़कर न्यायागतचन: शान्तो चल्लविद्यापरायणः।। संन्यास ग्रहण न करे।

स्वधर्मपालको नित्यं ब्रह्मभूयाय कल्पते।। १३॥ अव वैराग्यवेगेन स्थातुं नोत्सहते गृहे।

न्यायपूर्बक धन कमाने वाला, परम शान्त, तत्रैव मंन्यसेद्विद्वाननिवापि द्विजोत्तमः।६।। ब्रह्मविद्मापरायण और स्वधर्मपालक सदा अझ के लिए पश्चात् यदि वह वैराग्याधिक्य के कारण घर में स्थित

कल्पित होता है। ब्रह्मण्यापाय कर्माणि नि:स कामतः। रहने का उत्सुक न हो, तो वह द्विज श्रेष्ठ बिना यज्ञादि । अनुष्ठान के हो तःकाल संन्यास ले ले।

प्रसन्नेनैव मनसा कुर्वाणो याति तन्पदम्।। १४॥ जो समस्त कर्मों को ब्रह्म में निहित करके नि:सङ्ग और तथापि सिक्थैिर्यष्ट्वाि बनमधाश्रयन्।

कामरहित होकर प्रसन्न मन से कर्म करता है, वह उस । | तपस्या नोयोगाद्विक्त; संध्यमद्यहिः॥9॥ ब्रह्मपद को पाता हैं। और भों, वह अनेक प्रकार के यज्ञों का मनन करके ब्रह्मणा दीगने देयं ब्रह्मणे संप्रदीयते। वानप्रस्थ का आश्रय ले ले। वहाँ तपादि करके तपोबल से ब्राँव दीयते चेति ब्रह्मार्पणमिदं परम्।। १५ ।। विरक्त होकर बाहर हौं संन्यास धारण कर ले।

जो कुछ देय हैं, वह ब्रह्म के द्वारा ही दियों जाता हैं, वानप्रस्थाश्चर्य गत्वा न गृहं प्रवित्पुनः।

अतएव ब्रह्म के लिए हो वह सब समपत किया जाता है। न संन्यास वयार्थ ब्रह्मचर्यञ्च साधकः॥८॥ ब्रह्म हीं दिया जाता है, इसलिए यहीं परम ब्रह्मार्प है। वानप्रस्थ में जाकर पुन: घर में प्रवेश न करे। उसी प्रकार | नाई कर्ता सर्वमेतद्वै व कुरुते तथा। साधक संन्यासी भी वानप्रस्थ और गृहस्थ में पुन: प्रवेश न | एतद्नह्मार्पणं प्रोक्तमूर्षिभिस्तत्त्वशभिः॥ १६ ॥

कुर्ममदापुराणम् । मैं कता नहीं हैं। यह सब कुथे ब्रह्म हीं करता हैं। | इस कारण सर्व प्रकार से अन्नपूर्वक जिस किसी आश्रम में | तत्वदर्शी ऋषियों के द्वारा अहीं ब्रह्मार्पण कहा गया है। रहते हुए ( आसक्ति रहित) ईश्वर की तुष्टि के लिए कर्मों को प्रणातु भगवानीश; कर्मानेन शाश्वतः। करें। इससे निष्काम भाव को प्राप्ति होती है। झरोनि सततं युद्ध्या सार्पमिदं परम्।। संप्राप्य परमं ज्ञानं नैष्कर्म्य तत्प्रसादतः। इस कर्म से नित्य, भगवान् ईश प्रसन्न हों। जो निरंतर एकाकी निर्मम: शान्तो जीवन्नेव विमुच्यते।। ३५॥ बुद्धिपूर्वक ऐसा करता हैं, यही इसका परम ब्रह्मार्पण है। उनको परम कृपा से नैष्कर्म्य भाव को तथा परम ज्ञान

यद्वा फलान संन्यासं प्रकुर्यात्परमेश्वरे।। को प्राप्त करके चङ्ग एकाकी, मोहरहित, शांत जोवन-यापन कर्मपणामेनदयाहुह्मार्पणमनुत्तमम्॥ १८॥

करते हुए जिमुक्त हो जाता है। । अथवा, जो कर्मफलों को परमेश्वर के प्रति समर्पित कर | साक्षते परमात्मानं पर काम महेश्वरम्। देता है, उन करों का भी यहीं उत्तम ब्रह्मार्पण कहा गया। नित्यानन्दी निभासतस्मिन्नेव लयं कृजेन्॥ २६॥ अनन्तर वह परस्रह्म महेश्वर परमात्मा का दर्शन करता है कार्यमित्येव यत्कर्म नियतं सङ्गवर्जितम्।। तथा नित्य आनन्दमय होकर एवं निभास होकर ब्रह्म में क्रियते विदुषा कर्म तद्भवेदप मोक्षदम्॥ १९॥ लीन हो जाता है।

जो विद्वान् अनासक्त होकर शास्त्रविहित कर्मों को यह तस्मात्सेवेत सततं कर्मयोगं प्रसन्नधीः।। मेरा कर्तव्य हैं। ऐसा मानकर, निवृत्त झप से करता हैं, । तमये परमेशम्य तत्पई यानि शाश्वतम्॥ २७॥ | उसका बह कर्म भी मोक्ष देने वाला होता है।

इसलिए प्रसन्नचित्त मनुष्य निरंतर परमेश्वर की तुष्टि के अवबा द कर्माणि कुन्नित्यान् द्विजः।

लिए कर्मयोग का आश्रय ग्रहण करें। ऐसा करने से शाश्वत अशाचा फनमंन्यासं यते तत्कनेन तु।।२।।  पद को प्राप्त करता हैं। अथवा यदि दिन फल का प्रयोग किये बिना नित्य कर्मो एतद्धः कथितं सर्वं चातुराश्वम्यमनमम्। | को करता है, तो भी उस कर्मफल से बह बैंधाता नहीं हैं। न होनमर्यातक्रम्य सिद्धि विन्दत मानवः॥ ३८॥ तस्मात्सर्वप्रयलेन त्यक्त्वा कर्माश्रितं फलम् इस प्रकार सभी चारों आश्रमों का अत्युत्तम वर्णन मैंने अविद्वानपि कुर्वीत कर्माप्नोनि चिरात्पदम्।।२१।। कर दिया है। इनका अतिक्रमण करके मनुष्य कभी भी इस कारण सब प्रकार से यत्नपूर्बक कर्माश्रित फन का | सिद्धि नों प्राप्त नहीं करता। त्याग के अविद्वान् भी यदि कर्म करता है, तो भी वह | ति कर्मपराओं पर्वमा छानराम्यानं नाम चिरकाल में उत्तम अभीष्ट पद को प्राप्त करता है।

वृतोऽध्यायः॥ ३॥ कर्मणा औयतें पापमैहिक पौविक तथा। | मन:असामन्चति माथिमायने नरः ॥ ३३॥ चतुर्थोऽध्यायः कर्म के द्वारा ऐहिक और विक अर्थात् पहले जन्म के (प्राकृत-सर्ग कथन) | पार्षों का नाश होता है। तब मनुष्य मन से प्रसन्न हो जाता है और अह्मवेत्ता जाना जाता हैं। सूत उवाच

कर्मणा सहितानानात् सम्यग्योगोऽभिज्ञायते। श्रुत्वाश्रमविधि कृत्स्नमृषयों हटुचेतसः। नमस्कृत्य हृषीकेशं पुनर्वचनमब्रुवन्॥ १।। | ज्ञानं च कर्मसहितं जायते दोषज्ञतम्।।२३।। कर्म सहित ज्ञान से सम्यक् योग की प्राप्ति होती है। कर्म | मूत ने कहा- चारों आश्रमों को पूर्ण विधि को श्रवण सहित ज्ञान दोश्वजित उत्पन्न होता है। करके ऋषिगण प्रसन्नचित्त हो गये। वे पुनः भगवान् इयोकेश तस्मात्सर्वप्रयत्नेन यत्र तत्राश्रमे रतः। (सर्व-इन्दियनियन्ता) को नमस्कार कर इस प्रकार वचन बोलें। कणीश्वरतुष्ट्यर्थं कुर्यानैष्कर्म्यमाप्नुयात्।। २४||

 

पूर्वभागे चतुर्थोऽध्यायः

मुनय ऊचः अनादि, अनन्त, अजन्मा, सूक्ष्म, त्रिगुण, प्रभव, अव्यय, भाषितं भवता सर्व चातुराश्रयमुत्तमम्। असाम्प्रत और अविज्ञेय ब्रह्म सर्वप्रथम विद्यमान था। इदानीं ऑनुमच्मों यथा सम्भवते जगत्।। ३॥

गुणमाम्यं तदा तस्मिन् पुरुये बात्मने स्थिते। मुनियों ने कहा- आपने चारों आश्रमों का उत्तम प्रकार में प्राकृतः एलयों ज्ञेयो यावद्विश्वममुद्भवः॥ १०॥ वर्णन कर दिया। अब हम संसार कैसे उत्पन्न होता हैं, इस उस समय आत्मा में अधिष्ठित पुरुष मैं गुण साम्य होने पर जब तक विश्व की उत्पत्ति नहीं होती है उसे प्राकृत प्रलय विषय में सुनना चाहते हैं।

जानना चाहिए। कृतः सर्वमिदं ज्ञातं कमिश्च लयमेष्यति।। नियन्ता कश्च सर्वेषां यदस्य पुरुषोत्तम॥३॥

ब्राह्मी त्रिरियं प्रोक्ता काहः सृष्टिदाहता। हे पुरुषोत्तम! यह सम्पूर्ण जगत् कहाँ से उत्पन्न हुआ है अर्न विद्यते तस्य न रात्रिर्द्धपचारतः॥ ११॥ और किसमें जाकर यह लय को प्राप्त होगा? इन सबका इस प्रलय को हो ब्रह्मा को रात्रि कहा गया है और सृष्टि | नियंता कौन है? यह आप कहें।। उसका दिन कहा गया है। उपचारतः ब्रह्मा का न तो दिन होता है और न रात हौं होती हैं। श्रुत्या नारायण यायमूषण कूर्मरूपया। प्राह गम्भौरया वाचा भूतानां भवोऽव्ययः॥ ४॥

निशान्ते प्रतिवद्धोऽसौ जगदादिनादिंमान्। सर्वभूतमयोव्यक्तदन्तर्वागीश्चरः परः॥ १३ ॥

कुर्मरूपधारी अविनाशी एवं भूतों के त्पादक गवान्

प्रकृति पुस्यं चैव प्रबिझ्याशु पहेश्वरः।।

नारायण ने झुपयों के वचन सुनकर गंभीर वाणी में कहा।। शोभयामास योगेन परेण परमेश्वरः॥ १३

कूर्म उवाघ निशा के अन्त में जागृत होने पर जगत् के आदि, अनादि, महेश्वर: परोऽव्यय: चतुव्यूहः सनातनः।

सर्वभूतमय, अव्यक्त, अन्तर्याम ईश्वर और परमात्मारूप अमनश्चाप्रमेयश्च नियन्ता सर्वतोमुखः॥ ||

महेश्वर ने प्रकृति और पुरुष ने शोघ्र प्रवेश करके पारमयोग से कूर्म उवाच- महेश्वर परम अविनाशी, चतुयूंह, सनातन, | क्षुभित कर दिया। अनंत, अप्रमेय, सब प्राणियों के मुखरूप और सब पर या मदों नत्राणां यथा झा मञ्चवोऽनिलः। | नियंत्रण करने वाले है। अनुवष्टः झोभाय तव्यास योगमूर्तिमान्॥ १४|| अव्यक्तं कारणं यत्तन्नित्यं सदमदात्मकम्। जैसे कामदेव अथवा वसंतऋतु की बायु नर और स्त्रों में प्रधान प्रकृतिकोनि यमाहुस्तचन्ताः ॥ ६॥

प्रविष्ट होकर उन्हें क्षुब्ध कर देती हैं। उसी तरह योगमूर्ति | तत्त्ववेत्ताओं ने उन्हीं को अव्यक्त, कारण, नित्य, सत् | अह्म ने दोनों को क्षुभित कर दिया। और असत्रूप, प्रधान तथा प्रकृति कहा है। स एव क्षोभको विप्राः क्षोभ्यश्च परमेश्वरः॥ गश्चवर्णरमैहनं शब्दम्पर्शवितम्। स संकोचविकासाभ्यां प्रधानचे व्यवस्वतः॥ १५ ॥ अज़र मुवमयं नित्यं स्यात्मन्यस्थितम्॥७॥

हे विग्रगण ! वही परमेश्वर क्षोभक हैं और स्वयं क्षुब्ध बड़ (परमात्मा) गन्ध, वर्ण तथा उस से होन, शब्द और | होने वाला भी है। वह संकोच और विकास हारा प्रधानत्व के स्पर्श में वजित, अनर, ध्रुव, अक्षय, नित्य और अपनी रूप में व्यवस्थित हो जाता है। आत्मा में अबथत रहते हैं।

प्रयानाक्षोभ्यमानाच्च तथा पुंसः पुतनात्। जगद्योनिर्महाभूतं परब्रह्म सनातनम्। विग्रहः सर्वभूतानामात्मनाधिष्ठित महत्॥ ८॥

प्रादुरासी-महडीजं प्रधानपुरुयात्मकम्॥ १६॥ अनाधनमर्ज मं विगुणं भवाव्ययम्। क्षुब्धता को प्राप्त हुई प्रकृति से और पुरातने पुरुष से एक असाम्प्रतमविज्ञेयं व्रात्रे समवर्नत॥१॥

 

प्रधान पुरुषात्मक महान् बौज का प्रादुर्भाव हुआ। वहीं जगत् के उत्पत्तिस्थान, महाभूत, परब्रह्म, सनातन, महानात्मा मतर्वह्या प्रबुद्धः यानिरीश्वरः। सभी भूतों के विग्रहरूप, आत्मा से अधिष्ठित, सर्वकानी, | प्रज्ञा धृतिः स्मृति:

 

कुर्ममहापुराणम्

झाला है। महान् आत्मा, मतं, ब्रह्मा, बुद्धि, रठ्याति, ईश्वर, प्रज्ञा, | आकाश ने भी विकार को प्राप्त करके ‘स्पर्श तन्मात्रा’ की धुनि, स्मृति और संवित् की उत्पत्ति उसी में हुई हैं ऐसा | सृष्टि को। उससे वायु की उत्पत्ति हुई जिसका गुण ‘स्पर्श’ स्मृति वाक्य है। कहा गया है। बैंकारिकस्जय भूतादिशैव तामसः।

वायुझापि विकुर्वाणों कषमात्र ससर्ज है। विक्यिोऽयमहंकारों महत: संबभूव ॥ १८॥ योतिरुत्पद्यते वायोस्तदुपगुणमुच्यते॥ ३६॥ वैकारिक, तेजस् और भूतादि तामस यह तीन प्रकार का बायु ने भी विकार को प्राप्त करके ऊपतन्मात्रा की सृष्टि अहंकार महत् से उत्पन्न हुआ था झीं। वायु में ज्योति की उत्पत्ति हुई जिसका गुण रूप है। | अहंकारोऽभिमानश्च क मता ॥ स स्मृतः।।

ज्योतिश्चापि विकणं रसमात्रं सकर्ज है। आत्मा च मत्परों जीवों गतः सर्वाः प्रवृत्तयः॥ ११ ॥

अभवन्ति ततोऽम्भांसि रसायाराणि तानि च।।३।। वह अहंकार, अभिमान, कलां, मन्ना कहा गया। आत्मा ज्योति ने विकार को प्राप्त करके सतन्मात्रा की सृष्टि को। मत्परायण जौब बना जिसमें सभी प्रवृत्तियाँ उत्पन्न हुई। | उससे जल उत्पन्न हुआ जो रस का आधार है अर्थात् रसगुप्त पञ्चभूतान्यहंकारात्तन्मात्राणि च जज्ञिरें। इन्द्रियाणि च सर्वाणि सर्व तम्यात्मजं जगन्॥ २०॥ आयापि विकुर्बाणा गयपात्रं समजरे। | उस अहंकार में पञ्चमहाभूत, पञ्चतन्मात्रा और समस्त सातो जायते तस्मात्तस्य गयो गुण पत:॥ २८।।।

इन्द्रियाँ उत्पन्न हुई। उसों से आत्मरुप सम्पूर्ण जगत् भी | जल ने भी विकृति को प्राप्त होकर गन्धतन्मात्रा की सृष्टिं उत्पन्न हुआ। की। उसमें गुणसंथानमयों पृथ्वी उत्पन्न हुई। इसका गुण मनस्चव्यक्तलं होतं चिंकार: प्रथमः समृतः।

गन्ध माना गया है। येनासौ जायते कर्ता भूताश्चानुपश्यति॥२१॥ आकाशं शब्दपात्रं तु स्पर्शमात्र समावृणोत्।

मन को सृष्टि व्यक्त से कही गई हैं वहीं प्रथम विकार हैं | द्विगुणस्तु ततो वायुः शब्दस्पर्शात्पकोऽभवत्।। २१ ॥ इस कारण वह सबका कता है और सभी भूतों का अनुदवा शब्दतन्मात्रे आकाश ने स्पर्शमात्रा को समावृत किया था।

उससे द्विगुण शब्दस्पर्शात्मक वायु की उत्पत्ति हुई। वैकारिकादहंकारात्सर्गो वैकारिकोऽभवत्। रूपं तवैवाविशत: शब्दस्पर्शी गुणावुभौ। ज्ञानीन्द्रियाणिस्युर्देबा वैकारिका दश।। २२।।। त्रिगुणा: स्यानो बढ़ः स शब्दस्पर्शरूपवान्॥३०॥ एकादशं मनस्तत्र म्वगुणेनोभयात्मकम्। शब्द और स्पर्श दोनों गुणों ने रूप में प्रवेश कर लिया भूतत-पावसर्गोऽयं भूतादेरभवद्विाः ॥ २३॥ था। उससे शब्द स्पर्श-रूप त्रिगुणात्मक अग्नि को सृष्टिं इस वेंकारिक अहंकार से वैकारिक मार्ग की उत्पत्ति हुई। इन्द्रियाँ तैनम् हैं और इस देवता बैंकारिक हैं। ग्यारहवाँ मन | हुआ जो अपने गुण से उभयात्मक होता है। हे द्विजगण! यह शब्दः स्पर्शश्च रूपन्न उसमात्रं समाविशत्। भूततमात्र को सृष्टि भूतादि से हुई है।

तस्माच्चतुर्गुणा आपो बिज्ञेयास्तु रसात्मिकाः॥३१॥ भूतदक्तु विकुर्वाषा: शब्दमात्रं समर्ज हैं। शब्द, स्पर्श और रूप में रस-तन्मान में प्रवेश किया। आकाशो ज्ञायते तस्मात्तस्य शब्दों गुणो मतः॥२४॥ इससे रसात्मक जल चार गुणों से युक्त हुआ। | भूतादि (तामस अहंकार) ने विकृति को प्राप्त करके

| शब्दः स्पर्शश्च पञ्च रम गयं समाविशन्। शब्दतन्मात्रा का सृजन किया। उससे आकाश उत्पन्न हुआ तस्मात्पश्चगुणा भूमि; स्थूला भूतेषु शव्द्यते॥३२॥ जिसका गुण शब्द माना गया हैं। शब्द, स्पर्श, रूप तथा रस ने गन्ध में प्रवेश किया। इससे आकाशास्तु विकुर्वाणः स्पर्शमात्रं सर्च ह।। पृथिवी पंचगुणात्मिका हुई। अतएव वह पञ्चमहाभूतों में वायुरुपपद्यते तस्मात्तम्य म्पर्श गुणं विदुः॥२५॥ स्थूल कहा जाता है।

 

पूर्वमागे चतुर्थोऽध्यायः

शान्ता घोगश्च मूरच विशेषास्तेन ते स्मृताः।। | मेरु पर्वत उम परमात्मा उन्ध { गर्भवेष्टनचर्म) हुआ। परस्परानुप्रवेशाद्धारयन्ति परस्परम्।। ३३॥

समस्त पर्वत जरायु (येड़ी) तथा समुद्र उनके गर्भादक शान्त, घोर और मुह सभी भूत विशेष नाम से कहे गये | बने। | हैं। ये परस्पर अनुप्रवेश करके एक-दूसरे को धारण करते | तस्पिन्नईऽभवझिलं सर्देवासुरमानुषम्। चन्द्रादित्य सनक्षत्रौ सग्रहौ सह वायुना।। ४ ।। एते मन महात्मानो ह्यन्योन्यस्य समाश्रयात्।

उस अण्ड से सत्कर्म करने वाले देव, असुर और मनुष्य नाशक्नुवन् प्रजा; स्रष्टुमसमागम्य स्मश:॥ ३४॥ | सहित यह विश्व तथा नक्षत्र, ग्रह और वायु सहित चन्द्र और । ये सातों महान् आत्मा वाले एक दूसरे के आश्रित होकर सूर्य की सृष्टिं हुई। हौं रहते हैं। फिर भी वे पूर्णत: प्रजा को सृष्टि करने में समर्थ | |

अद्भिर्दशगुणादिश्च बातोपई समावृतम्।। नहीं है।

आप दशगुणेनैव तेजमा झारातों वृताः॥ ३॥ पुझ्यापिद्धितत्त्वाच्च अव्यक्तानुग्रहेण च तैज्ञोदशगुपोर्नय यात यायुना कृतम्। महदादयों विशेषाना मुत्पादयति नै।। ३५॥ आकाशेनावृतो वायुः खं तु भूतादिनावृतम् ॥ ४३।। पुरुष के अधिष्ठित होने में तथा अन्यक्त के अनुग्रह से भूनादिर्घहता नद्दब्यक्तेनावनों महान्। वहीं महदादि से लेकर विशेष पर्यन्त सभी मिलकर इस एते लोका महात्मानः सर्वे तत्त्वाभिमाननः॥४४॥ ब्रह्माण्ड को उत्पन्न करते हैं।

वसन्ति क्षेत्र पुग्यास्तदात्मनो व्यवस्थिताः। ईश्वरा योगधर्माणो ये चान्ये तत्त्वचिन्तका;॥ ४५।। एककालसमुत्पन्नं जलवुड्दवच्च नन्। सर्वज्ञाः शान्तरजसो वित्यं मुदितमानसाः॥ विशेषेभ्योण्डमभवत्तदुदकेशयम्॥ ३६॥

एतरावर प्राकृतैः सप्तभिर्युतम्।। ४६।। एक काल मैं समुत्पन्न बह ( अण्डू) जल के बुलबुले के | दस गुने जल से उस अण्डु का बाहरी भाग समावृत | समान था। (उपर्युक्त विशषों से मिलकर वह युहत् अण्ड हुआ। इस गुने लेन द्वारा जल का बावा भाग आवृत हुआ, हो गया और जल में शयन करने वाला ( उसके ऊपर था।

दस गुने वायु द्वारा तेज आवृत हुआ। इस प्रकार आकाश के तस्मिन् कार्यस्य करणं संसिद्धं परमेनिः। द्वारा वायु आबूत हुआ. भूतादिं द्वारा आकाश आवृत हुआ, प्रकृतेऽण्डे विवृद्धे तु क्षेत्रज्ञो व्रह्मसंज्ञितः ॥ ३॥

भूतादि महत् द्वारा आवृत हुआ एवं महत् अशक्त द्वारा | उसमें कार्य का कारण परमेष्ठी का प्राकृत अण्ड में | आवत हुआ। ये सभी लोक उस स्थान में तदात्मनान होकर बृद्धि होने पर ‘ब्राह्म’ नाम को संज्ञा को प्राप्त क्षेत्र की सिद्धि | महात्मा तथा तत्त्वाभिमानी अरुप रूप में वास करने लगे। हो गई।

प्रभुत्वशाली योग्यपरायण, तुत्वचिन्तक, सर्वज्ञ, रजोगुण | स वै शौरों प्रथमः स वै पुख्य उच्यते। त्य प्रसन्नचन- इन सात प्राकृत आचरणों में आदिकत्व अ भूतानां ब्रह्मात्रे समवर्तत।। ३८॥ । अगड़ समावृत था। वहीं प्रथम शरीरधारी प्रथम पुरुष कहा गया जाता हैं। वह एतावच्य ते वक्तुं मायैषा गहना द्विजाः। भूतों का आदेकतां ब्रह्मरूप ब्रह्मा सबके आगे वर्तित थे। । एतत्प्राधानिक कार्य अन्मया बीजमरितम्॥४७॥ यमाहुः पुरुषं हंसं प्रमानात्परत: स्तिम्।

हे जगा! इतना ही कह सकते हैं कि यह माया अति हिरण्यगर्म कपल छन्दोमूर्ति सनातनम्।। ३६॥ गहन है। यह सब प्रधान (प्रकृति) का कार्य है, जिसे मैंने जिसे प्रधान-प्रकृति से पर ( श्रेष्ठ) पुरुष तथा हंस कहते | बौन कहा है। हैं। उसे हिरण्यगर्भ, कपिल, सनातन छन्दोमूतं (बेदमूर्त) प्रजापतेः घरा मूर्तिरितीयं वैदिकी श्रुनिः। कहते हैं। ब्रह्माण्डमेतत्सकलं सप्तलोकबलान्चितम्॥४८॥

द्वितीयं तस्य देवस्थ शरीरं परमेष्ठिनः। मेरुरुत्वमभूत्तस्य जरायुश्चापि पर्वताः। हिरण्यगर्भो भगवान् ब्रह्मा मैं कनकाण्ड्जः ॥४१॥ | गोदकं समय तस्यासन्यरमात्मनः॥१६॥

 

कुर्ममहापुराणम्

यह प्रजापति को परान है, यह बैदिक शुत हैं। सातों | गुणात्मकचात्त्रकान्ये तस्मादेकः स उच्यते। | लोकों के बल से मुक्त ग्रह सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड है जो उस | अरें हिरण्यगर्भः स प्रादुर्भूतः सनातनः॥५६॥ परमों का द्वितीय शरोर हैं। सुन के अंङ्ग से उत्पन्न | बिशेष सृष्टि करते हैं, संहार करते हैं और रक्षा करते हैं। भगवान् ब्रह्मा हिरण्यगर्भ नाम से ग्रसिद्ध हैं। जिस कारण वें सृष्टि करके प्राओं का संहार कर डालते हैं। तृतीयं भगवदूपं प्राहुर्वेदार्थयेदितः।। इसौं गुणात्मकता के कारण तीनों झाल में वे एक कहे जाने रजोगुणमयं चान्यदूपं तस्यैव धीमतः॥ ५०|| हैं। वें सनातन हिरण्यगर्भ ब्रह्मा सर्वप्रथम प्रादुर्भूत हुआ था। यह भगवान् का तीसरा रूप है ऐसा बैदार्थ के ज्ञाता । | आदित्वादादिदेवो साक्जाचाज़: स्मृतः। कहते हैं। उसी धौंमान् का अन्य रूप रजोगुणमय हैं। प्राति यस्मानाः सर्वाः जापांतरित स्मृतः॥५१॥ चतुर्मुखम्तु भगवान् जगत्सृष्टी प्रवर्तने।

सबसे आदि में होने के कारण वह आदिदेव है और सृष्टं च पाति सकलं विश्वात्मा विश्वतोमुखः।।५।। अजन्मा होने के कारण ‘अज’ कहा गया है। उनमें सभी मत्वं गुणमुपाश्रित्य विष्णुविनेश्वर: स्वयम्।। प्रज्ञाओं का पालन होता है अतएव उन्हें प्रजापति कहा गया। चतुर्मुख भगवान् ब्रह्मा जगात् की सृष्टि में प्रवृत होते हैं |

देवेषु च महादेव महादेव इति स्मृतः। और विश्वात्मा, विश्वमुच्च, विचेवार, स्वयं विष्णु सत्त्वगुण का | वृहत्त्वाच्या स्मृतो ब्रह्मा पन्चान्परमेश्वर:। ६३|| आश्रय लिय? भाष्टं का पालन करते हैं। समस्त देबों में वे महान् देन हैं, इसलिए महादेन नाम में अनकाने स्वयं देव; सर्वात्मा परमेश्वरः।। ५२।।

कहा गया है और सबसे बृहद् होने के कारण ब्रह्मा नाम नमो नमाश्रित्य : संहारों जगत्। हुआ तथा सबसे पर होने के कारण जे परमेश्वर हुए। एकोऽपि सन्महादेबस्त्रधासौ समग्थतः।। ५३॥ सर्गरक्षास्नगुनिगणोऽपि निरञ्जनः।।

वशिवाइयवश्यवादीश्वर: परिभाषितः। एका स द्विथा चैव जिया च बहुधा गुणैः॥५४॥

ऋषिः सर्वगत्वेन हरिः सर्बहरो यतः॥ ६ ॥ अन्तकाल में सर्वात्मा परमेश्वर स्वयं रुटदेन तमोगण झा | वशित्व (वज्ञा में करना और अबश्यत्व ( वश में न आश्रम लेकर जगत् का संहार करते हैं। निरञ्जन एक निर्गुण | होना] गुण के कारण उन्हें ईअर नाम दिया गया है। सर्वत्र । | महादेव होते हुए भी सृष्टि पालन और संहार रूप तीनों गुणों | गमन करने से उन्हें थे और सबका हरण करने के कारण

द्वारा जॉनी रूपों में अवस्थित है। ने निञि गणों के आश्रय | हरि कहा गया है। में भी एकरूया, द्विरूप तो कभी तीन रूप में विभक्त हो अनुत्पादाच्च पूर्ववात्स्वयंभूरति स स्मृतः। जाने हैं। मामयनं यस्मातेन नारायणः स्मृतः॥ ३॥ | योगेश्वर: शरीराणि करोति विकरानि च उत्पत्तिरहित (अजन्मा) होने से एवं सबसे पुरातन होने नानाकृतक्रियापनामवन स्वसस्सिया।। १५ ।५।। के कारण वे स्वयंभू जाने गये हैं। उसी प्रकार नरों का में भीगे भार भगवान् अपनी लीला से नानाति–क्रिया | आश्रय स्थान होने के कारण उन्हें’नारायण’ कहा गया है। रूप तथा नाम चाले शरीरों को ज्ञानाते हैं तथा इसे चिकृत भी हुर: संसारहरणाद्विभुत्वाद्विष्णुरुच्यते। कहते हैं।

भगवान्सर्वविज्ञानावनादामिन स्मृतः।। ६३।।

द्वितीय चैव भक्तानां असते पुन:

संसार को हर लेने के कारण हर तथा विभु (अनन्त)

त्रिया विभज्य चात्मानं त्रैलोक्ये मग्नतत।। ५६।।

भक्तों के कल्याण की इच्छा से बह पुनः उन्हें ग्रस लेते। होने के कारण विष्णु कहा जाता हैं। सम्पूर्ण पदार्थों के ज्ञाता हैं। वह पबं को तीन कप में विभक्त कुक त्रैलोक्य में होने के कारण इन भगवान् और क्षण क्रिया के कारण

प्रवनित करने हैं। ‘म्’ कहा जाता हैं। सुज्ञते ग्रसते चैव वक्षते च विशेषतः।

सर्वज्ञः सर्वविज्ञानात्सर्व: र्वमयों अतः। यस्मात्मानुगृहानि जमने पुनः प्रजाः॥ ५३ शिवः स्यान्निर्मलों यस्माभिः सार्वगतों तः॥ ४॥

 

पूर्वमागे पापोऽध्यायः

सम्पूर्ण ज्ञान होने के कारण उन “सर्वज्ञ’ और सर्बम | उक्षण करने के कारण ओम् का गया है। सय का विज्ञान होने से ‘सर्च’ भी कहते हैं। निर्मल होने से शिव और | रहने के कारण सर्वज्ञ तथा सर्वमय होने से सर्व कहा जाता सर्वव्यापी होने में विभु कहे जाते हैं। हैं। हे द्विजोत्तम! अनेक वर्षों में भी स्वयंभू परमात्मा ब्रह्मा तारणात्सर्वदुःखानां तारकः परिगीयते। कौ कालसंख्या को बर्णन नहों किया जा सकता। संक्षेप: बहुनाव किंमतेन सर्व ब्रह्ममयं जगत्॥६५॥ वह कालसंख्या दो घरार्ध मानी गई हैं। अनेकदभन्नस्तु ते परमेश्वरः। स एव स्यात्परः कालस्तदन्ते सूज्यते पुनः। समस्त दुःखसमूह का तारण करने के कारण वे ‘तारक’ | निजेन तस्य मानेन घायुर्वर्षशतं स्मृतम्॥५॥ कहे जाते हैं। अधिक कहने से क्या लाभ वस्तुतः सम्पूर्ण | वहीं पर काल है। उसके अन्त में पुनः सृजन किया जाता जगत् हो ब्रह्ममय है। वह परमेश्वर अनेक रूप धारण करके | हैं। उन स्वायंभुव के अपने ही मान से आयु सौं वर्ष की क्रीडा करता है।’

कड़ी गई है। इत्येष प्राकृत: सर्ग: संक्षेपात्कथितों मया। तत्पराद्धं तदई वा परार्द्धमभिधीयते। अबुद्धिपूविक विप्रा व्राह्मीं सृष्टिं नियोधन॥ ६, ६॥ काष्ठा पञ्चदश याता निमेषा द्विजसत्तमाः॥ ६॥ | इसी प्रकार प्राकृत (प्रकृतिजन्य) सृष्टि का संक्षेप में मैंने | वह परार्ध अथवा उसका हो अर्थ ‘पराई’ नाम से कहा वर्णन कर दिया। हे मुनिगण! अब अबुद्धिपूर्विका जो ब्राह्मी | जाता है। हे द्विजनेश! पन्द्रह निमेष (पलक झपकने का सृष्टि है उसके विषय में सुनो।

समय की एक कावा कहीं गई है। इति श्रीकूर्मपुराणे पूर्वभागे प्राकृतसर्गवर्णनं नाम काष्ठा त्रिशला विशवकाला मौर्निका गतिः। चतुर्थोऽध्यायः॥४॥

तावासंग्वैरहोरात्रं पुर्पानुषं स्मृतम्।।३।। तोस कामाओं कौं एक कला और तीस कलाओं का एक

पञ्चमोऽध्यायः

मुहूर्न समय होता है उतनी ही संख्या वाले (तीस) मुहू से मनुष्यों का एक अहोरात्र माना गया हैं। (कालसंख्या का विवरण) अहोरात्राणि नावंत मास: पक्षद्वयात्मकः। कूर्म उवाच हैं: पभिरयनं वर्ष इंपने दक्षिणोत्तरे।।८।।

तीस अहोरात्र का दो पक्ष (शुक्ल और कृष्ण) वाला एक अनुत्पादाच्या पूर्वस्मान् स्वयंभूत म स्मृतः। मास होता हैं एवं छ; मासों का एक अयन होता है। नराणामयनं यम्मानेन नाराय: स्मृत:।। १।। दक्षिणायन और उत्तरायण नाम वाले दो अयनों का एक नई र: संसारहणाद्विभुत्वाद्विष्णुरुच्यते। भगवान् सर्वविज्ञानावनादमित स्मृतः॥२॥ होता है। अर्चन: मनचानात्मनः समय यतः।।

अयनं दक्षिण निर्देवानामुत्तरं दिनम्। स्वयम्भुव निवृत्तस्य कालसंख्या द्विजोत्तमाः।।३॥ दिव्यैर्वसहमैस्तु कृतजेतादिसंज्ञितम्॥ ६ ॥ न शक्यते ममाड्यातुं बहुथैरपि स्वयम्। चतुर्युगं द्वादशभिस्तद्विभागं निधन। कालसंख्या ममामेन पराईद्वयकल्पिता।।४।। चत्वार्याहुः सहस्राणि बर्याणां तत्कृतं युगम्।। १० ॥ कुर्मरूपी भगवान् बोले- पूर्व अनुत्पाद होने से हो इनको | दक्षिणायन देवताओं को रात्रि है और उत्तरायण उनका स्वयम्भू कहा गया है और नरों का ही अयन होता है इसो | दिन है। बारह हजार दिव्य वर्षों से सत्य, ञता आदि नाम झारण से नारायण कहा जाता है। संसार का हरण करने का | वाले चार युग होते हैं। इनका विभाग सुनो। उनमें चार हेतु होने में हर कहे जाते हैं तथा विभुत्व होने से इन्हें विष्णु | हजार वर्षों का कृतयुग होता है। कहा जाता है। सर्वबिज्ञाता होने से भगवान् और सबका | तस्य ताबचतींमया सयांशश्च कृतम्य तु। ।।. लीलावतु कैवल्यम् (ब्रह्मसूत्र)

त्रिशती द्विशतों मुख्या तथा चैकशती क्रमान्॥ ११॥ कूर्ममहापुराणम् | उस सतयुग का चार सौ वर्ष का सन्ध्या काल हैं और | तस्याने सर्वसत्वानां सहेता प्रकृतौ सयः। उतना ही सन्ध्यांश। क्रमशः वह सन्ध्या तीन सौ, दो सौ नायं प्रॉच्ने महिः प्राकृत: प्रतिमंचरः॥ २०॥ और एक सौ वर्षों की होती है। उसके अन्त में सभी प्राणियों की उत्पत्ति की हेतुभूता अंशकं पातं तस्मात्स यांशकविना।

प्रकृति में लय हो जाता हैं। इसलिए सजनों द्वारा इसे प्राकृत जिद्यया च सावं सिना सश्यांशन ॥ १३॥ प्रर्तिसंचर कहा जाता है। जैताद्वापरतिष्याणां कालज्ञाने अकीर्तितम्। नारायणेशानां ब्रह्माण प्रकृतौ लयः। एतद्द्वादशसाहस्रं साधिक परिकल्पितम्॥ १३॥

प्रेोच्यते कानयोगेन पुनरेव च मम्भवः॥३१॥ उससे सत्ययुग का सन्ध्यांश छोड़कर अन्य सन्ध्यांश

| ब्रह्मा, नारायण और महेश–इन तोनों का प्रकृति में लय काल कुल छह सौ वर्ष का था। सन्ध्यांश के बिना दो एवं | हो जाता है और समय आने पर पुनः उनका जन्म कहा एक अहम बर्ष नेता, द्वापर तथा कल के कालज्ञान में

जाता है। परिकीर्तित हुआ हैं। यही बारह हजार वर्ष अधिक रिंकल्पात हैं।

एवं ब्रह्मा च भूतानि यामुद्देवोऽपि शङ्करः। तदेकसप्ततिगुणं मनोरन्तरमुच्यते। कालेनैव तु सृज्यने स एव असते पुनः॥ ३२॥ वृह्मण दिवसे विमा मनवा चतुर्दश॥ १४॥

इस प्रकार ब्रह्मा, समस्त भूत, वासुदेव और शंकर- ये उसका सात गुना अर्थात् इकहत्तर दिव्य युगों का एक सभी कालयोंग से सृष्टि और संहार को प्राप्त करते हैं। मचन्तर होता है। हे चित्रगण! ब्रह्मा के एक दिन में चौदह ||

अनादिय भगवान् कालोऽनन्तोगेश्मरः।। मन्वन्तर माने जाते हैं।

सर्वगत्वात्स्वतन्त्रत्वात्सर्वात्मत्वामहेश्वरः॥ २३॥ यह अनादि कालरूप भगवान् अनन्त, अजर, अमर, स्वायम्भुवादयः सर्वे ततः सार्वाणकादयः।

सर्वगामी, स्वतन्त्र और सर्वात्मा होने के कारण महेश्वर हैं। तैरियं पृथिवीं मव समीपा सपर्वता॥ १५॥ व्रह्माणों वड़वों का कान्ये नारायणादयः। पूर्ण युगसहस्रं वै परिपाल्या नरेश्वरैः एको हि भगवानीशः कालः कवरनि चुनिः॥ १४॥ मवन्तरेण चैकेन सर्वाण्यैवान्तराणि वै॥ १६॥

अनेक ब्रह्मा, अनेक रुद्र और नारायण आदि भी अनेक व्याख्यातानि न सन्देहः कन्ये कल्यं न चैव हि हैं, केवल कालस्वरूप, सर्वज्ञ, भगवान् ईश हो एक हैं, ऐसी ब्राह्ममेकमह; कल्पस्तावतों रात्रिरिभ्यते॥ १७॥

श्रुति हैं। स्वायंभुव आदि सभी मनु, तदनन्तर सार्वाक आदि | एकमत्र व्यतीतं तु पराद्धं ब्रह्मणो द्विजाः। गजाओं द्वारा सप्त द्वौ वाला पर्वत सहित यह सात पूर्ण साम्प्रतं वर्ततं त्वई नस्य कल्पोऽयमजः॥ ३५॥ यिनो पुरे सहस्त्र युगपर्यंत परंपालित होती है। एक हे द्विनौ ! यहाँ ब्रह्मा का एक परार्ध बौन चुका है। सम्पनि मन्नन्तर द्वारा कल्प कल्प में सभी मन्वन्तर व्याख्यात होते

दूसरा परार्थं चल रहा है जो उसका यह अग्रज कल्प है। हैं, इसमें सन्देह नहीं। ब्रह्मा का एक दिन एक कल्प होता हैं। और उतने ही परिमाण को एक रात्रि मानी गई हैं। योजीत: सोनिम; कल्प: पाश इत्युच्यते बुधैः। चतुर्युगसहस्रं तु कल्पमाहुर्मनीषिणः। बाराहों यत्तते कल्पस्तस्य वक्ष्यामि बिस्ताम्॥ २६॥ भौणि कल्पज्ञतानि स्युस्तथा घर्द्विजोत्तमाः॥ १८॥ जो अतीत (बीता हुआ) है, उसे ही विद्वानों ने अन्तिम ब्रह्मणों वत्सरतज्ञैः धितों मैं द्विजोत्तमाः।

पाद्म झल्या कहा है। सम्मनि वाराह कल्प चल रहा है, उसे स च कालः शतगुणः परार्द्ध चैव तद्विदुः॥ १९ ॥ चिस्तारपूर्वक कहूंगा। विद्वानों ने एक हजार चतुर्युग को एक कल्प का है। हे | इन कर्मपुराणे पूर्व भागे कानसंख्याधनं नाम द्विजगण ! इसी प्रकार तीन सौ साल कल्प पूरे होते हैं, तब प्राध्यायः।।५।। काल विशेषज्ञों ने उसे ब्रह्मा का एक वर्ष कहा हैं। वहीं परिमाण काल सौ गुना होने पर परार्ध कहा जाता है।

पूर्वभार्गे शप्तोऽध्यायः

 

जलक्रीड़ासु चिरं वाराह रूपमास्थितः। घोऽध्यायः

पृश्यं मनमाप्यन्यैर्वाह्वयं ब्रह्मसंज्ञितम्।। ८॥ (जन से पृथिवों का द्धार)

तय जल क्रीड़ाओं में रुचि रखने वाले वराह के रूप को धारण किया, वह सुन्दर रूप दूसरों द्वारा मन से भी पराजित कूर्म वाच करना शक्य नहीं था। वह वाणरूप होने के कारण आमीदेकार्णवं घोरमविभागं तमोमयम्। अह्मसंज्ञक था। ज्ञानवातादिकं सर्वं न माज्ञायत किंझुन।। १।। पृथिव्युद्धरणार्थाय प्रविश्य च रसातलम्। कर्मरूपधारी भगवान् बोले- प्रारम्भ में मौर, विभागशून्य | हंगायलनामात्माधारों आरायः॥६॥ अन्धकारमय एक ही अर्णव था, जो वायु आदि से रहित |

पृथियों का उद्धार करने के लिए रसातल में प्रवेश करके होने से शांत था और कुछ भी जान नहीं पड़ता था। अपने दीर्घ दाङ्क से उसे ऊपर उठा लिया। इसीसे वे एकावे तदा तमिहे स्थावरजङ्ग में आत्माधार तथा धराधर भी कहलाये। तदा समभवद्या सहस्राक्ष; सहस्रपात्।। ३।। या दंष्ट्रायविन्यस्ता प्रश्न प्रश्चितपौत्यम्। उस एकाव में स्थावर जंगम के नष्ट हो जाने पर सहल नेत्रों और सहस्रपाद युक्त ब्रह्मा हुए। अनुवञ्जनलोकस्या सिद्धा ब्रह्मर्पयो हरिम्॥ १०॥ महसशीर्षा पुस्यों रुक्मवर्गो तद्रियः। वाराह के दंष्ट्राग्र भाग पर अवस्थित पृथ्वी को देखकर सिंद्ध एवं ब्रह्मषिगण, प्रसिद्ध पौरुष वाले जनलोक में स्थित ना नारायणायस्तु सुधाघ मलिने तदा३॥ हर को स्तुति करने लगे। सुवर्णवणं, अतीन्द्रिय, सहस्र शिर वाले, पुरुष, नारायण नामक ब्रह्मा उस समय जल में शयन करने लगे। ऋषय ऊचुः इमं घोदाहरन्यत्र अनोक नारायणं प्रति।

नमस्ते देवदेवाय वृद्म परमॅच्चिने। म्वपिणं देवं जगतः अभवाव्ययम्।।४।। पुरुषाय पुराणाय झाझाच जयाय च॥ ११॥ यहां अह्मस्वरूप, सृष्टि के प्रभव, अविनाशों, नारायण देव | ऋषियों ने कहा- देवों के देव, ब्रह्मस्वरूप, परमेश के सम्बन्ध में यह शलोक उदाहरण रूप में कहा जाता है। (परम पद में स्थित रहने वाले पुराण पुरुष, शाश्वत और आप नाग इति प्रोक्का आपो मैं नरसूनवः। जयस्वरूप, आपके लिए नमस्कार है। अयनं तम्य ता यस्मानेन नारायणः स्मृतः॥५॥ नमः स्वयम्भुवे तुभ्यं स्रष्ट्रे सर्वार्थवेदिने। अय् (जल) नारा नाम से कहे गये हैं, अम् (जल) नार नमो हिरण्यगर्भाय वेधसे परमात्पने॥१२॥ भगवान का पुत्ररूप हैं। वहीं नार (जल) जिसका अयन । स्वयंभू, सृष्टि रचयिता और सनार्थ को जानने वाले ( आश्रयस्थान है, अर्थात् प्रलयकाल में योगनिदा का | आपको नमस्कार है। हिरण्यगर्भ, वेणा और परमात्मा को निवास स्थान हैं, इसलिए उन्हें नारायण कहा गया है। नमस्कार हैं। तुल्यं युगसहस्रम्ब नैश अलमुपास्य सः॥

नमस्ते वासुदेवाय विग्यायें सियोनये। शर्बयंने प्रकुरुते याचं सर्गकारणात्।।६।।

नारायणाय देवाब देवानां हितकारिणे ॥ १३॥ उन्होंने एक हजार युग के तुल्य निशाकाल का भोग | वासुदेव, विष्ण, विश्वयोनि, नारायण, देर्यों के हितकारों करके सृष्टि के निमित्त रात्रि के अन्त में ब्रह्मत्व प्राप्त किया। | देवरूप के लिए नमस्कार हैं। ततस्तु सलिले तस्मिन्यज्ञायांतर्गत महीम्।

नमोऽस्तु ते चतुर्वक्त्र शार्ङ्गचक्रासियारिणे। अनुमानगात्तदुद्धारं कर्नुकाम: प्रज्ञापतः॥७॥ सर्वभूतात्पभूताय कूटशाय नमोनमः॥१४॥ तदनन्तर पृथ्वी उस जल के भीतर ही स्थित है, ऐसा | चतुर्मुख, शाई, चक्र तथा असि धारण करने बाले अनुमान में जानकर प्रजापति ने उसका उद्धार करने की | आपको नमस्कार है। समस्तभूतों के आत्मस्वरूप तथा छा की। कूटस्थ को नमस्कार है। कुर्ममहापुराणम् नमो बेदरम्याय नपस्ने वेदयोनये ततः स्वस्थानमानीय पृथिवीं पृथिवीधरः। नमो बुद्धाय शुद्धाय नमस्ते ज्ञानरूपिणे॥ १५॥ मुमोच रूपं मनमा घायित्वा धरायः॥ ३३॥ वेदों के रहस्यकप के लिए नमस्कार हैं। केंदयोनि कों | तदनन्तर पृथिवीधर बराह ने पृथिचों को अपने स्थान पर नमस्कार है। अद्ध और शुद्ध को नमस्कार हैं। ज्ञानरूपी के | लाकर रख दिया और धराधर ने मन से बहुरूप को छोड़ लिए नमस्कार हैं।

तस्योपरि जलौघस्य महतो नौरिच स्थिता। नमोऽस्त्यानन्दरूपाय साक्षिणे जगतां नमः।

श्चिततत्वाच्या देहस्य न यहीं याति संभवम्।। ३४॥ अनन्तायाप्रमेयाय कार्याय कारणाय च॥ १६ ॥

उस महान् जल समूह के ऊपर नौका के समान पृथ्वी आनन्दरूप और जगत् के साक्षरूप को नमस्कार हैं। स्थित हो गई। शरीर के अति विस्तृत होने के कारण वह अनन्त, अप्रमेय, कार्य तथा कारणरूप को नमस्कार हैं। पृथ्वी जलसंप्लव को प्राप्त नहीं हुई। नमस्ते पञ्चभूताय पञ्चभूतात्मने नमः।पृथिय स समीकृत्य पृथिव्यां सोचिनोद्भिरिन्। नमो मूलप्रकायें मायारूपाय ते नमः॥ १७ ॥

प्राक् सर्गदग्थानखिलान् ततः सर्गेऽदयन्मनः॥२५॥ पञ्चभूतरूप आपको नमस्कार। पञ्चभूतात्मा को | भगवान् ने पृथ्वी को समतल बनाकर पूर्व सृष्टि में लायें मूलप्रकृतिरूप मायारूप आपको नमस्कार है। गये सारें पर्वतों को पुनः लाकर स्थापित कर दिया। तत्पश्चात् नमोऽस्तु ते वराहाय नमस्ते मत्स्यरूपिणे। पुनः सृष्टि करने का मन बनाया। नमो योगाधिगम्याय नमः संकर्षणाच ते॥ १८॥ | इति श्री कूर्मपुराणे पूर्वभागे पृथिव्युद्धारे घोऽध्यायः॥६॥ भराह रूपधारों को नमस्कार हैं। मत्स्यरूपी को नमस्कार है। योग के द्वारा हीं जानने योग्य को नमस्कार है तथा सप्तमोऽध्यायः संकर्षण! आपकों नमस्कार है। (सर्ग अर्थात् सृष्टि का वर्णन) नमस्त्रमूर्तये तुभ्यं विधाने दिव्यतेजसे। नम: सिद्धाय पुयाय गुणत्रयविभागिने॥ ११ ॥ | कूर्म उवाच भिमुनि के लिए नमस्कार हैं। दिव्य तेन वाले त्रिधामा सृष्टिं चिनयतस्तस्य क्रन्पादिषु यथा पुरा। सिद्ध, पूज्य और तीनों गुणों का विभाग करने वाले आपको अबुद्धिपूर्वक: सर्ग: प्रादुर्भूतस्तपोमयः॥ १॥

कूर्मावतारौ भगवान् बोले- जब प्रजापति ने पहले के नमोस्त्वादित्यरूपाय नमस्ते मयनये। समान कल्प सृष्टि का चिन्तन किया तय अयुक्षिपूर्वक एक नमोऽमूर्चाय मूर्चाय मायबाय नमो नम:।। २०|| तमोमय सृष्टि प्रादुर्भूत हुई। आदित्यरूप को नमस्कार हैं। पद्मयोनि को नमस्कार है। तमोमोहों महामोहम्लामिस्रयायसंज्ञितः। । अमूर्त मूर्त तथा माधव को नमस्कार है।

अविद्या पञ्चमी तेषां प्रादुर्भूता माहात्मनः॥२॥ त्वयैव मृएमतिलं त्वय्येय सकलं स्थितम्। तम, मोह, महामोह, तामिंस और अन्धतामिल इन पाँच | पानयैतजगत्सर्वं माता त्वं शरणं गतः॥ २१।। पर्यों वाली विद्या उस महान् आत्मा प्रजापति से प्रादुर्भूत | आपने ही अग्विल जगत् की सृष्टि की हैं। आप में हो | सकल विश्व स्थित हैं। आप इस सम्पूर्ण जगत् का पालन पशुधवस्वतः मर्गो आयत: मॉभिमानिनः। कों। आप ही रक्षक एवं शरणागति हैं।

संवृतम्तममा चैव बजकुम्पबदामृत:।।३।। इत्यं स भगवान् विष्णुः मनकाद्यैरभिष्टुतः।। उस प्रकार सृष्टिरचना के अभिमान में ध्यान में उत्पन्न असामकरोत्तेषां वराहत्वपुरीश्वर:॥ २३॥ बह सर्ग पाँच भागों में अवस्थित हो गया और वह सनकादि मुनियों द्वारा इस प्रकार स्तुति किये जाने पर | चाँजभ के समान केवल तामस अर्थात अज्ञान से आचत वराहशरीरधारों भगवान् विष्णु उनसे अति प्रसन्न हुए।

पूर्वमार्गे सप्तमोऽध्यायः

बहराशाप्रकाशस्तयों नि:संग एव च। तं दृष्ट्वा चापर सर्गपमन्यद्धगयानजः।। मुख्या नगा इति प्रॉछा मुख्यमर्गस्तु स स्मृतः॥४॥ तम्याभिष्यायत: मर्ग मर्यो भूतादिकोऽभवत्।।११।। वह सर्ग बाहर और भीतर प्रकाशशुन्य, स्तब्ध और | ने परिप्रणिः सर्वे संविभागरताः पुनः। नि:संग या। उसकें जो मुख्य पर्बत, वृक्ष दिं कहे थे, वहीं | वादनावशीलाच्च भूतायाः परिकीर्तिताः॥ १२॥ मुग्य सृष्टि मानी गई। भगवान् अज़ ने उस सर्ग को देखकर उससे भिन्न तं दृष्ट्वाऽमायकं मुर्गममन्यपरं प्रभुः। दूसरों सृष्टि का ध्यान किया। ऐसा करने पर भूतादि का सर्ग | तस्यापिण्यायत: सर्ग तिर्यक् स्रोतोऽभ्यवर्तत॥५॥ | उत्पन्न हुआ। वे सब परिग्रह से युक्त, अपने अनुकूल अच्छे प्रभु उस सृष्टि को असाधक अर्थात् किसी भी कार्य की | विभाग को चाहने वाले, जाने की इच्छा करने वाले तथा सिद्धि न करने वाली जानकर दूसरी सृष्टि का ध्यान करने | शॉल अर्थात् सदाचारादि गुणों से रहित कहे गये। लगे। उससे तिर्यक् स्रोत प्रवाहित हुआ इत्येते पक्ष कविताः सर्गा वै जिपंगयाः।।

अस्मात्तिर्यक् प्रवृत्तः स निर्यक्स्रोत: ततः स्मृतः।

प्रथमों महतः सर्गो विज्ञेयो व्रह्मणस्तु सः॥ १३॥

पादयतें बिरयाला उत्पयाहि द्विजाः॥

द्विजश्रेष्ठों ! ये पाँच प्रकार की प्रमुख सर्ग कहे गये हैं। क्योंकि वह तिरछा प्रवाहित हुआ था, इसलिए इसे उनमें महत् से उत्पन्न प्रथम सृष्टिं (सगं) हैं, उसीको ब्रह्मा ‘तिर्यस्रोत’ नाम से जाना गया, क्योंकि है हिजो ! वें पशु

का सर्ग जानना चाहिए। आदि उत्पश्चग्राहो अर्थात् तिरछे मार्ग को अपनाने वाले नाम तन्मात्राणां द्वितीयम्नु भूतमर्गो हि संस्मृतः।। | से चिल्लाते हुए।

वैकारिंकस्तृतीयस्तु सर्ग ऐन्द्रियकः स्मृतः॥ १४॥ नामप्यसाधकं ज्ञात्वा सर्गमन्यं समर्ज है। तन्मात्र को द्वितीय सृष्टि हैं, जिसे भूतसर्ग कहा गया है। ऊर्ध्वस्रोत इति प्रो. देवसर्गस्तु माचिकः।।६। । | लौंसरौं बैंकारिक सृष्टि ऐन्द्रियक नाम से कहीं गईं हैं। उसको भी असाधक समझकर उन्होंने अन्य सृष्टि का | इत्येष प्राकृतः सर्गः संभूतो बुद्धिपूर्वकः। सम्पादन किया। वह सात्विक (सत्वगुणप्रधान) देवसृष्टि | मुख्यमर्गशतुर्थस्तु मुख्या वै स्यावशः स्मृताः॥ १५ ॥ थी, जिसे ऊर्ध्वस्रोतास् कड़ा गया। यह प्राकृत सर्ग बुद्धिपूर्वक संभूत है। वह चतुर्थ मुख्यसर्ग ने सुप्रीतिंबहुना बहिरनम्वनावृताः।

है। वे मुख्य हो स्थावर कहे गये हैं। प्रकाशा वहिंग्नश्च स्वभावाद्देवसंज्ञिता:॥८॥

तिर्यस्रोतस्तु यः प्रोक्तनिर्यग्ययोन्यः स पञ्चमः। ने सभी अधिक सुखमय एवं प्रोति वाले थे और बाहर- क्योर्खस्रोतसां घड़ों देवसर्गस्तु स स्मृतः॥ १६॥ भौंतर से अनावृत एवं स्वभावतः बाहर और भीतर प्रकाशित नो तिर्यक् स्रोत कहा गया है, वह तिर्यक् योनि होने वाले थे। वे इंसंज्ञा को प्राप्त हुए। (पशुपक्षी आदि) वाली पंचम सृष्टि है। उसी प्रकार ननोऽभियानम्तस्य सत्याभिध्यायनस्तदा। मादुरामजादा ब्यक्ताक्म्रोजस्तु मायकः।।१।।

ऊर्ध्वस्त्रोत वालों का छा देवसर्ग कहा गया है। तदनन्तर सत्य का चिन्तन करते हुए वे उस समय ध्यान ततोऽस्रोतसां सर्गः सप्तमः स तु मानुषः। करने लगे। तच व्यक्त से अर्वाक स्रोतः साधक सृष्टि का एमो भौतिकः सर्गो भूतादीनां प्रकीर्तितः।। १७ ॥ | प्रादुर्भाव हुआ था। उसके बाद अवक् स्रोत बालों को सातवें मानुषी सृष्टि तत्र प्रकाशबहुल्लास्तमौद्रिका अज्ञोऽधिकाः हैं। अष्टम भूतादियों को भौतिक सृष्टि कही गई हैं। इबोत्कटाः सत्त्वयुता मनुष्याः परिकीर्तिताः॥ १०॥ ॥ नवम्चैव कौमारः प्राकृता वैकृताचिये। वहाँ उत्पन्न हुए प्रकाशयहुल, तम-उद्दिल, रज को प्राकृतास्तु वयः पूर्वे मार्गास्ते वृद्धिपूर्वकाः॥ १८॥ । अधिकता वाले, दु:खोत्कट, (फिर भी कुछ ) सत्वयुक्त होने | नवम कौमार सृष्टि है जो प्राकृत और वैक्त दोनों हैं। पूर्व में मनुष्य नाम से कहे गये। में तीनों प्राकृत सर्ग बुद्धिपूर्वक सम्पन्न हुए हैं।

र्मपहापुराणम्

बुद्धिपूर्व प्रवर्तने मुख्याद्या मुनिपुंगवाः।

स एव भगवानशतेजोराशिः सनातनः। अयं मसञ्ज वै ब्रह्मा मानमानात्मन: समान्॥ १९ ॥ ये प्रपश्यन्ति विद्वांसः स्वात्मस्यं परमेश्वरम्।। ३७|| मनकं सनातनं चैव तथैव च नन्दनम्। वहीं भगवान् तेजोराशिस्वरूप सनातन ईश हैं, जिन्हें क्रतुं सनत्कुमारं च पूर्वमेव प्रजापतिः॥२०॥ | विद्वान् अपने आत्मा में स्थित परमेश्वर के रूप में देखते हैं। हे श्रेष्ठ मुनिगण ! मुख्य आदि सृष्टियाँ बुद्धिपूर्व प्रवर्तित हैं। || ओंकारं समनुस्मृत्य प्रणम्य च कृताञ्जलिः। अनन्तर सर्वप्रथम ब्रह्मा ने अपने समान मानसपुत्रों की सृष्टिं | तमाह भगवान् ब्रह्मा मृजेमा बिक्यिा: प्रजाः॥ ३८॥ । की। सनक, सनातन, सनन्दन, ऋतु और सनत्कुमार को | तब ओंकार का स्मरण कर, हाथ जोड़कर प्रणाम करके प्रजापति ने पहले ही उत्पन्न कर दिया था। भगवान् ब्रह्मा उनसे बोले- आप विविध प्रजा को सृष्टि करें। पचैते योगिनों विप्राः परं वैराग्यमाश्रिताः। निशम्य भगवाक्यं शंक] धर्मवाहनः। ईश्वरासमनसो न सृष्टौ दधिरे मंतिम्॥३१॥

आत्मना सज्ञान् रुद्वान् ससनं मनसा शिवः। ये पाँचों योगी ब्राह्मणों ने परम वैराग्य को प्राप्त किया था  कदिनों नितझविनेशलनोतिन्। ३६॥ जिससे ईश्वरासक्त मन वाले होकर इन्होंने पुनः सृष्टिं करने में | ब्रह्मा के बचन सुनकर धर्मरूप वाहन वाले शिव शंकर ने | अपनी बुद्धि नहीं लगायी।

मन से अपने ही स्वरूप जैसे जटाजूट धारों, आतंकहित, नेष्वेवं निरपेक्षेषु लोकपृष्टौ जापतिः।।

त्रिनेत्रधारी एवं नौललोहित रुद्रों की सृष्टि की। मुमोह मायया सद्यो मायिनः परमेष्ठिनः॥ २२॥

हैं प्राह भगवान् सल्ला जन्ममृत्युमुना: प्रज्ञाः॥ इस प्रकार लोकसष्ट में उन योगियों के मा निरपेक्ष हों | मृजेति सोमवीदीश नाई मृत्युञ्जविता:॥ ३०॥ | जाने पर माया परमेष्ट्रों की माया में प्रजापति तत्क्षण || प्रजा: सध्ये जगन्नाथ मधमाशुभाः प्रजाः। मोहित हो गये।

निवार्य स तदा रुद्रं ससर्ज कमलोद्भवः॥३१॥ संबोधयामास घ तं जगन्मायो महामुनिः। उनसे भगवान् ब्रह्मा ने कहा- जन्म-मरण से मुक्त नारायणो महायोगी योगिचित्तानुरञ्जनः॥२३॥ अनाओं की सृष्टि कों। तब शिव ने कहा- हे जगन्नाथ ! मैं जगतरूप माया वाले, फिरभी महायोगी, तथा योगियों के | | जरा मण से युक्त प्राओं को सृष्टि नहीं करूंगा। आप इस चित्त के अनुरंजन करने वाले महामुनि नारायण ने ब्रह्मा को | अशुभ प्रज्ञा की सृष्टिं करें। तय कमलोद्भव ब्रह्मा ने कद को बोधित (उपदेश) किया। किकर स्वयं सृष्टि की। बघितलॅन विश्चात्मा तताप परमं तपः। स्थानाभिमानः सर्वान् गहनस्तान्निबोधत। म तप्यमान भगवान्न किलित्यपद्यत॥२४॥ आपोऽनिरन्तरक्षं च द्यौर्वायुः पृथिवीं तथा॥३३॥ उनसे उपदिष्ट हुए विश्वात्मा ने परम तप का अनुष्ठान नद्य; समुद्राः शैलाश्च वृक्षा बस्य एव च। वा: हाः नाव मुदत दिवसा; सपाः॥३३॥ क्रिया। किन्तु तप करते हुए भी भगवान् ने कुछ भी प्राप्त अर्इमामश्च मासश्च अयनादयुगादयः। नहीं किया।

स्थानामिमानिन: मृष्ट्वा मायानसूत्पुनः॥ ३४॥ ततो दीर्घ कालेन दुःख़ाक्रोधोऽभ्यभाषत। तब ब्रह्माजों में स्थानाभिमानीं सब को उत्पन्न किया था, क्रोधाविष्टस्य नेत्राभ्यां प्रापतनश्रुविन्दवः॥१५॥ उसे मैं कहता हैं, आप सुनें- जल, अग्नि, अन्तरिक्ष, द्यौः, भुकुटीकुटिलात्तस्य ननाटात्परमेष्ठिनः।।

बायु, पृथिवीं, नदी, समुद्र, पर्वत, वृक्ष, लता, लव, काष्टा, समुत्पन्नों महादेवः शरण्यो नॉनलोहितः॥ २६॥ कला, मुलं, दिन, रात्रि, पक्ष, मास, अयन, बर्ष और युग तय लम्या समय निकल जाने पर उन्हें दुःख से क्रोध | आदि नाभिमानियों की सरकार पुन: साधकों की सुष्टि उत्पन्न हो गया। क्रोधाविष्ट हुए उनके नेत्रों से आँसुओं की | की। | ई गिरने लगा। उस टेढी भुकटी वाले परमेष्ठी के ललाट से | मरीचिमुर्खाइरसः पुलस्त्यं पनाह ऋतम्। सब के लिए शरण योग्य, नीललोहित महादेव उत्पन्न हुए। | दक्षपत्रिं वसई च्च वर्म संकल्पमेव छ।।३५॥

 

पूर्वभागे प्तमोऽस्यायः

३न्ने मच, भूग, आगरा, मलय, मुलह, केतु, दक्ष, | वह रात्रि तमों वाला भी, इस कारण से अजा इस बार | अत्रि, वसिष्ठ, धर्म और संकल्प की सृष्टि की। | में न जाती । अनन्तर प्रजापति ने सत्त्तमात्रात्मक इस प्राणाद्ब्रह्मानं चक्षय च मचिनम्। शरीर धारण कर लिया। शिरसोऽङ्गिरसे देवो हदयाद्भगुमेव च।। ३६॥ ततोऽस्य मुखतो देवा दीव्यतः संप्रजज्ञिरे।

ब्रह्माजों ने प्राण से दक्ष की सृष्टि की और चक्षुओं से | त्यक्ता सापि तनुस्तेन सत्त्वप्रायमभूद्दिनम्॥४४॥ मरीचि को उत्पन्न किया, मस्तक से अंगिरा को और हृदय से | तत्पश्चात् उनके देदीप्यमान मुख से देवता उत्पन्न हुए।

ज्ञम उस शरीर का त्याग कर दिया जब चाह मनान भृगु को उत्पन्न किया।

नेत्राभ्यामबिनामानं धर्मं च व्यवसायतः।

दिन हो गया। संकल्यं चैव संकल्पात्सर्वलोकपितामहः॥३७॥

तस्मादो शर्मयुक्ता देवता: समुपासते। सर्वलोकपितामह ने नेत्रों में अत्रि नामक महब को | सत्यमानामिकामेव ततोऽन्यां जगृहे ननम्॥५॥ व्यवसाय में धर्म को और संकल्प से संकल्प की सृष्टि की। इसलिए धर्मयुक्त देवता दिन की उपासना करते हैं। पुनः उन्होंने सत्चमाञात्मिक अन्य शरीर को धारण किया। पुलस्त्यं च तवदानाव्यानाच्च पुलहूं मुनिम्। पितृवन्मन्यमानस्य पितरः संजज्ञिरें। अपानात् अनुमच्ययं सपानाच्च वसिष्टकम्।।३४॥ ससर्ज पितृन् अष्ट्वा ततस्तामपि विश्वदृक्॥ ४६॥ उदान वायु में पुलस्त्य की, ब्यान वायु से पुलह मुनि की, उस शौंर में पिता पितर इत्पन्न हुए। इस प्रकार विश्वदा अपान वायु से व्यग्रतारहित ऋतु की और सामानवायु से ब्रह्मा ने पितरों की सृष्टि करके उस शरीर को भी त्याग वसिष्ठ को सृष्टि की। दिया। इत्येते ब्रह्मणा सृष्टाः माधका गृङ्मेधिनः सापविद्धा तनुस्तेन सद्यः सध्या: व्यजायत। आस्थाय मानव रूपं पर्यस्तैः संवर्तितः॥ ३१॥

तस्मादहवतानां रात्रि: स्याइँवविद्विषाम्॥४७॥ अह्मा द्वारा सृष्ट ये साधक गृहस्थ थे। इन्होंने मानवरूप उनके द्वारा त्यक्त वह शरीर शीघ्र ही संध्यारूप में परिंगत को ग्रहण करके धर्म को प्रवर्तित किया। हो गया। अतः वह संध्या देवताओं के लिए, दिन और ततो देवासुपितृन् मनुष्यांश्च चतुष्टयम्। देवशत्रुओं के लिए रात्रि हो गई। सिमर्भगवानाः स्वमात्मानमयोजयत्।। ४ ॥ तयोर्मध्ये पितृणां तु मून; सध्या गरीयसी। तदनन्तर देबों असुरों, पितरों और मनुष्यों- इन चारों का | तस्माद्देवामुरा; सर्वे मुनयो मानधास्तदा।॥४८॥ सर्जन करने की इच्छा से भगवान् ईश ने अपने आपको | उपासने सदा यूक्ता न्योर्मध्यम तनुम्।। | नियुक्त किया। जोमात्रान्पिकां वृल्ला तनुमन्य ततोऽसृजत्।। ४९ ॥ युक्तात्मनस्तमोपात्रा हुक्तिभूतज्ञापतैः। इन दोनों के मध्य पितरों की मूर्तिरूप सध्या अत्यन्त नानोऽस्य जघनात्पूर्वममुरा जज्ञिरे सुता:॥४१॥ श्रेष्ठ थी, इसलिए सभी देव, असुर, मुनि और मानव तब युक्तात्मा प्रजापति की तमात्रा अधिक बढ़ गई। | योंगयुक्त होकर रात और दिन के मध्य शरीर संध्या की तब सर्वप्रथम उनकी जांघ से असुर पुत्र पैदा हुए।

सदा उपासना करते हैं। तदनन्तर ब्रह्मा ने रजोमात्रात्मक उत्सससुरान सा तो नं पुरुषोत्तमःअन्य शरीर की सृष्टि की। सा घोत्सृष्ट्वा तनुस्तेन सद्यो रात्रिरजायत।।४३॥

ततोऽस्य जज्ञिरे पुजा मनुष्या रुजसावृताः। | असुरों की सृष्टि करके पुरुषोत्तम ने उस शरीर को त्याग नामवाशु म तन्य ननं सद्य: प्रजापतिः॥५॥

ज्योत्स्ना सा चामवद्विप्राः वसन्ध्या वाभिधीयते। दिया। उनसे उत्सृष्ट वह शरिर रात्रि बन गया। ततः स भगवान्ह्या संप्राप्य द्विजपुंगवा:॥५१॥ मा तमोयला यस्मात्मशास्तस्यां स्वपश्यतः।। मूर्ति तमोरज:प्राया पुनरेवाभ्यपूजयत्।। सवमाात्मिक दैवतनुमन्यां गृहीतवान्॥४३॥ अन्धका क्षुधाबमा राक्षमास्तम्य जज्ञिरे।। ५३॥

कुर्ममहापुराणम्

उससे रजोगुणयुक्त मानावपुत्र उत्पन्न हुए। अनन्तर उस एबंशमधर्वाणमासमायमेव च। शरीर को भी प्रजापति ने शौन्न हीं त्याग दिया। हें चिों ! | अनुमं सवैगाजमुत्तरादसमुन्। ६०|| तत्पश्चात् वह शरीर ज्योत्स्नारूप में परिणत हो गया। उसी | इक्कीसवां अथर्ववेद का विभाग आहोयमन, अनुष्टप् छन्द को मृर्चालक (प्रात: । सन्न्या कहा जाता है। है | नया ना ना नर मच में उत्पन्न । द्विश्रेष्ठगण ! वह अनन्तर भगवान् ब्रह्मा ने नाम और रजोगुण |

| उच्चावचानि भूतानि गात्रेभ्यस्तस्य जन्नरे। विशिष्ट को प्राप्त करके उसका पुनः पूजन किया। तब ब्रह्मणो हि प्रजामगं सृजतस्तु प्रजापतेः।।६ १।। अन्धकार में भूख से आविष्ट राक्षसगण उत्पन्न हुएयक्षान् पिशाच्चान् गमर्यास्तथैवाप्सरस; शुभाः। पुत्रास्तापरज:आया बलिनस्ते निशाचराः।

मृष्ट्वा चतुष्टयं सर्ग देवपिपितृमानुपम्।। ६३॥ सप यक्षास्तथा भूना गन्म; संग्रजज्ञिरे॥५३॥ ततोऽसन्नच भूतानि स्थायराशि चाणि च। तम और रजोगुण विशिष्ट निशाचर पुत्र बलवान् हुए। वैसे | नकिन्नरक्षांसि वयः पशुमूगरगान्।। ६३॥ हौं सर्प, भूत तथा रक्षा तथा गन्धर्व आदि इत्पन्न हुए। उनके अंगों में होटे-बड़े सभी भूत उत्पन्न हुए। प्रजा की जस्तमोभ्यामाविष्टांततोऽन्यानजाभुः। | सृष्टि करते हुए प्रज्ञापते ब्रह्मा ने वक्षों, पिशाचों, गन्धर्वो वयांसि वयसः सृष्ट्वा अवीन्वै वक्षमॉमृत्॥५४॥ तथा सुन्दर अपराओं कौं सृष्टि की। देव, ऋषि, पितर और अनन्तर प्रभु ने रजोगुण तथा तमोगुण से आर्चिवा अन्य मनुष्य सभी चार प्रकार की सृष्टि करने के पश्चात् स्थायर, प्राणियों को सृष्टि की। वयस्-आयु से पक्षियों तथा जंगम कप ब्राणियों को सृष्टि की। पुनः नर, किन्नर, राक्षस, बक्षस्थल में भेड़ों को सृष्टिं को।

पक्षी, पशु, मृग और सर्यों को सृष्टि की। मुखतोऽज्ञान् समन्यान् उदराद्गाश्च निर्ममें।।

अव्ययं च व्ययं चैव दुग्यं स्थाबरजमम्। पद्भ्यां सामान्ममातंगानामभान् गवयान्मृगान्॥५५॥

तेघां ये यानि कर्माणि प्राक् सृष्टे: प्रतिपेदिरे।।६४॥ उष्ट्राश्वतराय अनेछ प्रजापतिः। तान्येव ते प्रपद्यन्ते सृज्यमानाः पुनः पुनः॥ ओपथ्यः फलमूलानि मयतम्ब जज्ञिरे॥५६॥ हिंस्राहिने मृदु धर्माधर्मावृतानते।६५॥ मुख से बकरों और अन्य को सृष्टि को तथा पेट से गोओं तद्भाविता: प्रपद्मने तस्मात्तनस्य रोचते। को बनाया। पैरों में घोड़ों, हाथियों, गधों, गचयों महाभूतेषु नानात्वमिद्रियार्वेषु मूर्ति।। ६६ ॥

विनियोगं च भूतानां झार्नय श्यदधात्स्ययम्। (नीलगायों) होया मृगों की उत्पन्न किया। प्रजापति ने कहुनौ नामरूपं च भूतानां भान प्रमानम्॥ ६ ॥ से ऊँटों तथा अधरों को बनाया। इसके रोमों में ऑयधि ।

स्थावरजंगमरूप नित्य और अनित्य दोनों प्रकार की सृष्ट्रि तथा फल मूली की सृष्टिं हुई। थीं। सुहं के पूर्व जों कर्म उनके थे, वे ही बार-बार सृष्टि के गायत्रं च ऋचैव बिवृत्तोमं वयनरम्। समय इन्हें प्राप्त हो जाते थे। हिंसा, अहिंसा, मृदुला क्रूरता, अग्निष्टोमं च यज्ञानां निर्ममें प्रथमान्मुखान्॥५॥

भर्म, अधर्म, सत्य और असत्य आदि उन्हीं के द्वारा किये चतुर्मुख में आपने प्रथम मुख से गायत्री, ऋचायें, हर होने से उन्हीं को प्राप्त होते थे। अतएव उन्हें अच्छे त्रिवृत्स्तोम, रथन्तर और यज्ञों में अग्निशेम को रचना की। प्रतीत होते थे। इन्द्रियों के विषय रूप महाभूतरूप के शरीरों बघि बैटुमं छन्दस्तोमं पदशं तथा।

में अनुभव तथा उनमें भूतों का विनियोग, प्राकृत भूतों का वृहत्माम तोक्का दक्षिणादसृजमुखात्।।५। । नाम-रूप और पदार्थों का प्रपञ्च स्बों विधाता ने रचा था। यजुषु, त्रिष्टुम् आदि पन्द्रह छदस्तोम, बृहत्साम तथा | बेदशब्देश्य एखादौ निर्ममे से महेश्वरः। ३। ये सब ना के इण व से इत्पन्न हुए। आणि चैव नामानि याश्च वेदेषु सृष्टयः॥ ६,८।। सामान जागतं छन्दस्तोमं सप्तदशं नया।

गों में हीं ऋषियों के नाम था वैरूपपतित्रं च पश्चिमादनमुखात्।। ५६ ॥ वेदोक्त सृष्टियों का निर्माण किया। साम, जगतौ नामक सत्रह दस्तोम, वैरूप, अतिन्न शर्वर्यन्ते प्रसूतान तान्येवैभ्य इदात्यजः। प्रति क्रौं सृष्टि पश्चिम मुख में हुई।।

यावन्ति प्रतिलिङ्गन नानारूपाणि पर्यये॥६६ ।।

 

पूर्वभागे अष्टमोऽध्यायः

दृश्यते तानि तान्येव तथा भावायुगादि॥७॥ । अर्द्धन नारी पुरुषो विराजमजत् प्रभुः॥६॥ अन्न प्रजापति ने रात्रि के अन्त में प्रसूत भुत्तों को भी हैं | पुनः इन्होंने अपनी देह को दो भागों में कर दिया। उसके | हौ नाम दिये। तिने लिङ्ग पर्यायक्रम से नाना कूप और | आधे भाग में पुरुष हुआ और आधे से नारी। उस पुरुषरूप | युग-युग में जो भाव थे वे सब दे दिये। प्रभु ने विराट को उत्पन्न किया। इति श्रीकूर्मपुराणे मूर्यभार्गे सप्तमोऽध्यायः॥७|| नारीं च शतरूपाख्यां योगिनीं सने शुभाम्। सा दिवं पृथिवीं चैव महिमा व्याप्य संस्थिता।।।। अष्टमोऽध्यायः

शतरूपा नामवाली शुभलक्षणा योगिनी नारों को जन्म दिया। वह अपनी महिमा से झुलौक और पृथ्वी लोक को (मुख्यादिसर्ग-कथन) व्याप्त करके अबस्थित हुई।। | कर्म उखाच होगैश्वर्यवलोपेता ज्ञानविज्ञानमंयुता। एवं भूतानि मृष्टानि स्थाखाणि चराशि चयोन्पुरुषात्पुत्रों विराध्यन्मनः॥८॥ बदाम्य ताः प्रजा: सृष्टा न पवईत धीमतः॥ १॥ स्वायंभुयों मनुवः सोऽभवत्पुरुषो मुनिः।। कुर्म शोले- इस प्रकार स्थावर और चरकप भूतों कीं। सा देवी शतरूपाण्या तपः कृत्वा सुश्चरम्।।१।। सृष्टि हुई। परन्तु धीमान् प्रजापति द्वारा उत्पन्न हुने प्रनाओं की भर्नानं दीप्तयशसं मनुमेवान्वपद्यत। वृद्धि नहीं हुई।

तस्माच्च शतरूपा मा पुत्राद्वयमसूयः॥ १० ॥ तमोमाजाचतों ब्रह्मा तदाशचत दुःखितः।। वह नारों योग के ऐश्वर्य तथा बाल से युक्त थीं और ज्ञान ततः स बिदथे बुद्धमनश्चयगामिनीम्।। २ ।।

विज्ञान से भी युक्त थौं। अन्यक्तजन्मा पुरुष से जौ बिराट् पुत्र तब तमोगुण से आवत ब्रह्मा दु:खी हॉकर शोक करने | हुआ, जो दवपुरुष मुनि स्वायंभुव मनु हुए। शतरूपा लगे। अनन्तर उन्होंने ग्रयोजन को पूर्ण करने में समर्थ बुद्धि

नामवालों उस देवों ने कोर इक्षर तप करके प्रदीप्त ग्रा का अनुसरण किया।

वाले मनु को ही पति के रूप में प्राप्त किया। उस मनु से शतरूपा ने दो पुत्रों को जन्म दिया। यात्र्मान समद्राक्षोत्तममात्र नियामिकाम्। जः सत्त्वं च संवृतं वर्तमान स्वधर्मतः॥३॥ प्रियव्रतोत्तानपादौ कन्यायमनुत्तमम्।

तयो: प्रसूति दक्षाय मनुः कन्यां ददे पुनः॥ ११॥ | अनन्तर उन्होंने नियामिका तमोमात्रा को अपनी आत्मा में | |देब्रा और अपने धर्म से संवृत रजोगुण और सत्त्वगुण को इन दोनों के नाम प्रियव्रत और उत्तानपाद थे और दो । |भों वर्तमान देखा।

इनाम कन्यायें भी हुई। उनमें से प्रसूति नामक कन्या को मन तमनु ब्यनुदाइज: सत्वेन संयुतः। ने दक्ष को प्रदान कर दी। ततमः प्रतिनुनै मैं विनं समजायत।। १४ प्रजापतिरक्षाकृति मानसो जगृहें रुचिः। पश्चात् तम का परित्याग कर दिया। रजस् सच में संयुक्त आया मिवनं जज्ञे पानमस्य इवे: शुभम्।। १ ।। | हुआ। तुम के क्षीण हो जाने पर वह मिथुन रूप में प्रकट | यज्ञं च दक्षिणां चैव याभ्यां संवर्यतं जगत्। यज्ञस्य दक्षिणार्या च पुत्रा द्वादश ज्ञ॥ १३॥ अधर्माचरणों विप्रा हिसा चाभलक्षणा। इसके बाद ब्रह्मा के मानसपुत्र प्रजापति रुचि ने आकृति स्वां तनुं स तनों ब्रह्मा तामपत भास्वराम्॥५॥ नाम वालों (दूसरों) कन्या को ग्रहण किया। रुचि के हैं द्विजगण ! वह हिंसा अधर्म आचरण वाली और | आकृति से मानससृष्टिरूप एक शुभलक्षण मिथुन का जन्म अशुभलक्षणा थी। तत्पश्चात् अह्मा ने अपनों उस भास्वर देह हुआ। उनका नाम अज्ञ और दक्षिणा था, जिन दोनों में यह को इँक लिया। संपूर्ण संसार संबंधित हुआ। इक्षिणा में यज्ञ के बारह पुर्षों ने द्वियाकरोत्पुनर्देहमर्द्धन पुरुयोऽभवत्। जन्म लिया।

कूर्ममहापुराणम् यामा इनि समाख्याता देवाः स्वायंभुवेऽन्तः। । क्रिया का पुत्र दण्ड़ और नय हुआ। बुद्धि का पुत्र बोध प्रमूल्यां च क्या इयतस्रो विशति तथा॥ १४॥ | | और उसी प्रकार प्रमाद भी उत्पन्न हुआ। स्वायंभुव मनु के समय में वे देव याम’ नाम से | लाया विनय: पु वयो व्यवसायकः। विख्यात हुए। उसी प्रकार दक्ष प्रजापति ने प्रसूति से चौवीस चैमः शानिसुनश्चापि सिसिः सिद्धेजायत॥ २३॥ कन्याओं को उत्पन्न किया था। लाज्ञा का पुत्र विनय, वपु का पुत्र व्यवसाय, शान्ति का ससर्न कन्या नामानि तामा सम्यक निबोधत। | पुत्र क्षेम और सिद्धि का पुत्र सिद्ध हुआ। श्रद्धा लक्षपतिस्तुष्टिः पुष्टिया क्रिया तथा॥ १५ ॥

| यश; निसनस्तद्वदित्य धर्मसनवः। बुद्धिज्जिा वपुः शान्तिः सिद्धिः कीर्तिस्त्रयोदशी।। कामस्य हर्षः पुत्रोऽभूवानन्दोऽप्यजायत।। २४॥ पत्वं प्रतिज्ञाह धर्मो दक्षायणी: शुभाः॥ १६॥ कीर्ति का पुत्र यश हुआ था। इसी तरह ये सब धर्म के जिन कन्याओं का जन्म हुआ उनके नामों को ध्यान से | पत्र हार में। काम के पुत्र हर्ष और देवानन्द हुए। मुनो- श्रद्धा, लक्ष्मी, धृति, तुष्टि, पुष्टि, मेधा, क्रिया, बुद्धि, | | इत्येष वै सुखोदः सर्गो धर्मस्य कीर्तितः। ला, समु. सान्ति, सिद्धि और तेरहवीं काति- इन कल्याण | में हिंसा वर्मा निकृति चानृतं नृतम्॥ २५॥ परम शुभलक्षणा दक्ष-पुत्रियों को धर्म ने पत्ररूप में ग्रहण इस तरह धर्म को यह सुखपर्यन्त सृष्टि बता दी गई है। किया था। हिंसा ने अधर्म से निकृति और अन्त नामक सुत को उत्पन्न ताम्यः शिष्टा वयस्य एकादश सुलोचनाः। किया। ख्याति: सत्यय संभूतः स्मृतिः प्रतिः क्षमा क्वा।। १७॥

निकलेतनयो जज्ञे भयं नरकमेव च। सन्ततिक्षानसूया चे ऊर्जा स्वाहा वषा तथा।। माया च बैंदना चैव मिथुन विदमेतवः॥ २६ ॥ इनमें शेष जो ग्यारह सुलोचना कन्याएँ थीं, उनके नाम |

| निकृति के भय और नरक नामक दो पुत्र उत्पन्न हुए। ख्याति, सती, संभूति, स्मृति, प्रीति, क्षमा, सन्ततिं, अनसूया, माया और बेदना कामशः इन दोनों का मिथुन था। ऊर्जा, स्वाहा तथा स्वधा इस प्रकार हैं।

पयाजेऽथ वै माया मृत्यु भूतापहारिणम्।। गुर्मयों मरीचिश्न तथा चैवाङ्ग मुनिः॥१८॥

वेदना छ सुतं चापि दुःखं जय रौरवात्॥ ३७॥ पुलस्त्य: पुलाचैव क्रतुः परमपर्पवित्। माया ने भय से प्राणियों के संहारक मृत्यु को उत्पन्न त्रिवसिष्ठों यह पितश्च यथाक्रमम्।। ११ ।। किया था। गैरव नामक नरक से वेदना ने दुःख नामक पुत्र यात्याचा जगदुः कन्या मुनयों ज्ञानसत्तमाः। को जन्म दिया। श्रद्धाया आत्म्य: कामो दरें लक्ष्मीसुतः स्मृतः॥ २०॥ मृत्योर्याथिराशोकौ तृष्णा योग्य जज्ञिरे। भरा, भव, मरीचि, अंगिरा मनि, पलस्त्य, पुलह, परम | दुःखतराः स्मृता येते सर्वे चामलक्षणाः॥ ३ ॥ | धर्मवेत्ता ऋतु, अत्रि, वसिष्ठ, वह तथा पितृगण- इन | मृत्यु को व्याधि नामक पत्नों ने जरा, शोक, तृष्णा और ग्यारह मॅज्ञानी मुनियों ने क्रमश: ख्याति आदि कन्याओं को | क्रोध उत्पन्न किये। ये सभों अधर्मलक्षण वाले दु:ख ग्रहण किया। श्रद्धा का पुत्र काम हुआ और लक्ष्मी का पुत्र परिणाम कहे गयें हैं। दर्य कहा गया। नैयां भार्यास्त पुत्रों वा सर्वे ते तसः।

इत्येष नामसः सर्गे जज्ञे धर्मनियामकः॥ ३१ ॥ मुत्थास्तु नियम; पुत्रस्तुष्ट्याः सन्तोष उच्यते। पुष्ट्या लाभः मुश्चिापि यापुत्र: शमस्तथा।।२१।।।

संक्षेपेण मया शोक्ता बिसृष्टिमुनिपुङ्गचाः३३॥ न इनकी कोई पत्रों थीं और न पुग्न था। ये सब ऊर्ध्वरेता धृति का पुत्र नियम और तुष्टि का पुत्र सन्तोष कहा जाता (बालअह्मचारों) थे। इस तामस सृष्टि को धर्मीनियामक ने है। पुष्टि का पुत्र लाभ तथा मेधा पुत्र शम कहलाया। उत्पन्न किया था। हे मुनिश्रेष्ठों ! मैंने संक्षेप में इस सृष्टि का क्रियायाक्काभवत्पुत्रो दण्ड्छ नय एव च।

बर्णन कर दिया है। बुझ्या बोध: सुनस्तद्दामादोऽप्यज्ञायत॥२२॥

इन औकूर्मपुराणे पूर्वभागे मुख्यादिसर्गानेऽष्टमोऽध्यायः॥ ८॥

पूर्वमागे नवमोऽध्यायः

वहाँ केवल पुरुषोत्तम नारायणदेव इस इपद्वशून्य निर्जन | नवमोऽध्यायः

अर्णव में शेषशय्या के आश्रित होकर सो रहे थे। (व्रह्माजी का प्रादुर्भाव)

सहस्रशीर्षा भल्वा स सहस्रायः माइलपात् सहस्रबाहुः सर्वज्ञश्चिन्त्यमानो मनीषिभिः॥॥ । सूत उवाच सहस्र शिर वाले, सहस्र नेत्र वाले, सहस्र पाद और एतच्चा तु वचनं नारदाद्या महर्षयः सहस्रबाहु एवं सर्वज्ञरूप में होकर मनीषियों द्वारा ध्यान प्राप्य वरदं विष्णु पप्रच्छुः संशयान्विताः॥ १॥ किये जाते हैं।

सूत बोले- यह वचन सुनकर नारद आदि महर्थियों ने | पीतवासा विशालाक्षो नीलजौमूतसन्निमः। संशययुक्त होकर बरदायक विष्णु को प्रणाम करके पूछा। ततो विभूतियोगात्मा योगिनां तु दयापरः।। १।। मुनय ऊचुः पीतवस्त्रधारी, विशाल नेत्र वाले, काले मेघ के समान कविनों भवना सर्यो मुख़्यादौनां जनार्दन। आभा वाले वे पुनः ऐश्वर्यमय, योगात्मा और योगियों के लिए परम दयापरायण थे। इदानीं संशय घेयमस्मार्क छेत्तमसि॥ १॥ मुनियों ने कहा- हे जनार्दन! आपने मुख्य आई सर्ग तो । कदाचितम्य सुप्तस्य लीलावं दिव्यमद्भुतम्। कह दिया, अब जो हमारा सन्देह है, उसे दूर करने में आप त्रैलोक्यसार विमलं नाभ्यां पंकनमुभौ।। १० ।। समर्थ हैं। किसी समय सुप्तावस्था में उनकी नाभि में अनायास हो एक दिव्य, अद्भुत, तीनों लोकों का साररूप, स्वच्छ कमल कथं स भगवानीशः पूर्वजोऽपि पिनाकयुक्। प्रकाशित हुआ था। पुत्वमगमच्छंभुर्पक्षणोऽव्यक्तजन्मनः॥ ३॥ कथं च भगवाञ्जज्ञे ब्रह्मा लोकपितामहः। शतयोजनविस्तीर्णं तरुणादित्यसन्निभम्। अपड्तो जागनामीशस्तन्नों कमिहास।। ४॥

दिव्यगन्यमयं पुण्यं कणिका केसरान्वितम्।। ११॥ ने भगवान् पिनाकधारी ईश (शंकर) पूर्वन होने पर भी वह कमल सौं योजन की दुर्गं तक फैला हुआ और तरुण अन्यक्त जन्मा ब्रह्मा के पुत्र कैसे हार और ज्ञान के | मध्याह्न समय के सूर्य की आभा वाला था। वह दिव्य अधिपति नोंक-पितामह भगवान् ब्रह्मा अड़ से कैसे उत्पन्न गन्धयुक्त, पवित्र और केसर से युक्त कणिका वाला था।

तस्यैवं मुचिरं कालं वर्त्तमानस्य शाणिः । हुए? यह आप ही कहने योग्य हैं।

हिरण्यगर्भा भगवांत देशमुपचक्रमे॥ १२॥ कूर्म उवाच इस प्रकार शाङ्गपाणि के दीर्घकाल तक वर्तमान रहते हुए । शृणुध्वमृषयः सर्वे शंकरस्यामितौजसः।

भगवान् हिरण्यगर्भ उस स्थान के समीप आ पहुँचे थे। पुत्रत्वं ब्रह्मास्तम्य पद्मयोनित्वमेव च॥५॥ म ने करंण विभामा समाख मनातनम्। कृम बोले- हैं ऋपिंगण ! अमित तेजस्वी भगवान् शंकर | याच मयुर वाक्यं मायया तस्य मोतिः॥ १३॥ | का ब्रह्मा के पुत्ररूप में होना और ब्रह्मा का कमल से उत्पन्न | उस विश्वात्मा ने अपने एक हाथ से सनातन सर्वत्मा को होना कैसे हुआ ? यह आप सब लोक सुनें। उठा लिया, फिर उसको माया से मोहित होकर ये मधुर अतीतकल्पावसाने तमोमूतं जगत्त्रयम्। वचन कहें। आसोदेकाचं घोरं न देवाझा न चर्षयः॥ ६॥ अस्मिन्नेकार्णवं घोर निर्जन नामसायो। बोते हुए कल्प के अन्त में ये तीनों लोक अन्धकारमय थे | एकाकी को भवति यूहि में पुरुषर्षभ॥ १४॥ तथा परम घोर एक समुद्र ही या। वहां न देवता हीं थे और इस अन्धकार से घिरे हुए निर्जन भयानक एकाव में । न ऋषि आदि हौं ।

एकाकी आप कौन हैं? है पुरुषर्षभ! मुझे आप बताने को तत्र नारायणो देवों निनि निरुपलवे। कृपा करें। आश्रित्य शेषशयनं सुष्वाप पुरुषोत्तमः॥७॥ तस्य तथनं श्रुत्वा विस्य गरुनः।

 

 कुर्ममहापुराणम्

उवाय देवं व्रह्माण मेघगमीनि:स्वनः॥ १५ ॥ | उस समय शेषशायीं भगवान् विष्णु ने उनके मुख से उनके यह वचन सुनकर, गरुडध्वज विष्णु ने कुछ हँसकर | बाहर निकालकर पितामह से इस प्रकार कह। मेघ के समान गंभीर स्वर वाले होकर ब्रह्मदेव से कहा। | भवानप्येवमेवाद्य शाश्वत हि ममोदरम् भो नारायणं देवं लोकार्ना प्रभवाव्ययम्।। प्रविश्य कान्पश्यैतान्त्रिचित्रान्सपर्पम॥ २४॥ महायोगीश्वरं मां वै जानीहि पुरुषोत्तमम्॥ १६॥ | हे पुरुषर्षभ ! आज आप भी मेरे इस शाश्वत उदर में प्रवेश है ब्रह्मन्! आप मुझे लोकों को उत्पत्ति का स्थान, | करके इन चिचित्र लोकों का अवलोकन करो। अविनाशी, महायोगीश्वर पुरुषोत्तम नारायण जाने। । ततः प्रहादिनीं बार्शी झुत्वा तस्याभिनन्ध छ। | मयि पश्य जगत्कृनं त्वं च लोकपितामह। पतेरुदरं भूयः प्रविवेश कुशध्वजः।। ३५|| सपर्वतमहाद्वयं समु३: सप्तभिर्वतम्।। १७|| तदनन्तर मन को प्रसन्न करने वालों वाणी सुनकर और आप लोकपितामह हैं। इस सारा जगत् जो पर्वत और | उनका अभिनन्दन करके पुनः कुशध्वज ने लक्ष्मीपति के महाद्वीपों से मुक्त तथा सात समुदों से घिरा हुआ है, उसे | इदर में प्रवेश किया। मुझमें ही देखें। तानेच लोकान्गर्भस्थानमपत्त्यविक्रमः। एवमाभाष्य विश्वात्मा वाच्च पुरुयं रिः। पर्यटक्वाध देवस्य दर्शनं न वै ॥२६॥ जानबपि महायोगों को भवानिति बेघसम्।। १८॥ सत्यपराक्रमी ने उनके अन्दर स्थापित सब लोकों को इस प्रकार कहकर विश्वात्मा हरि ने जानते हुए भी | देखा। अनन्तर भ्रमण करते हुए उन्हें भगवान् हरि का अन्त पुराण-पुरुष ब्रह्माजी से पूछा- आप महायोगी कौन हैं? | नहीं दिखाई पड़ा। ततः प्रहस्य भगवान् ब्रह्मा वेदनियः प्रभुः। । ततों द्वाराण सर्वाणि पिहितानि महात्मना। प्रत्युषायाम्युजाभास सस्मित झनक्ष्णया गिरा॥ १६ ॥ जनानेन चासो नाम्य द्वारमवत।। ३७॥ तब कुछ हँसते हुए वेदनिधि प्रभु भगवान् ब्रह्मा ने मधुर | अनन्तर महात्मा जनार्दन ने सारे द्वार इन्द कर दिये। तब बाणों में कमल की आभा के समान सस्मित विष्णु को उत्तर | ब्रह्माजी को नाभि में हार प्राप्त हुआ। दिया। तब गवनेनामी प्रविश्य कनकापञ्जः। अहं धाता विधाता च स्वयम्भूः पितामहः। जहारात्मनों रूपं पुष्कराच्यातुराननः॥ २८॥ मय्येव संस्थितं विश्वं ब्रह्माहं विश्वतोमुखः॥ १३॥ वहाँ हिरण्यगर्भ चतुर्मुख ब्रह्मा ने योग के बल से अपने मैं हीं धाता, विधाता और स्वयंभू प्रपितामह है। मुझमें | स्वरूप को पुष्कर से बाहर निकाला। ही यह बिश्व संस्थित है। मैं ही सर्वतोमुख ब्रह्मा हूँ। विरराजाविन्दम्य: पद्मगर्भसमद्युतिः। ऋचा बाचं च भगवान्विष्णुः सत्यपराक्रमः।। ब्रह्मा स्वयंभूर्भगवाञ्जगद्योनिः पितामहः॥ २१॥ अनुज्ञाप्यय योगेन प्रविष्टो वाह्यणम्तम्॥ २ ॥ उस समय कमाल के भीतर वर्तमान जगद्यौनि, स्वयम्भू,

सत्यपराक्रमी भगवान् विष्णु ने यह वचन सुनकर अनः | पितामह भगवान् ब्रह्मा परा के अन्दर की क्रान्ति के समान इनसे आज्ञा लेकर योग द्वारा ब्रह्मा के शरीर में प्रवेश कर ही सुशोभित हुए। समन्यमानों किशमात्मानं परमं पदम्। त्रैलोक्यमेतत्सकलं मदेवामुरमानुषम्। जोवाच वितुं पुस्मं मेश्वगामीरया गिरा।। ३०॥ उदों तस्य देवस्य या विस्मयमागतः॥ ३३॥

उस समय स्वयं को परम पद नि आत्मा का मान देते हुए। उन ब्रह्मदेव के उदर में देव, असुर और मानव सहित इस | इन्होंने मेघ के समान गंभौर वाणी में पुरुषोत्तम विष्णु से । सारे त्रैलोक्य को देखकर वे विस्मित हो उते। नादाम्य बक्वान्निकम्य पन्नगेनिकेतनःकृतं किं भजेदानीमात्पनो जयक्षिया। अयापि भगवाधिष्णुः पितामहमयान्॥ २३॥ एकोऽहं प्रद्वालों नाच्यों मा मैं कोपि भविश्यति॥३१॥  

 

पूर्वभागे नवमोऽध्यायः

आपने अपनी जय की अभिलाषा में यह क्या कर दिया | नावाभ्यां विद्यते ह्यन्यो लोकानां परमेश्वरः। मैं ही अकेला शक्तिमान् हैं और मेरे अतिरिक्त दूसरा कोई | एका मूर्तिद्विधा भिन्ना नारायणपितामहौ।। ४० ॥ होगा भी नहीं।

हम दोनों के अतिरिक्त इन लोकों का परमेश्वर दूसरा कोई श्रुत्वा नारायण वाक्यं व्रह्मणोक्तमतन्द्रितः।। नहीं हैं। नारायण और पितामहरूप में द्विधा विभक्त एक हौं मान्त्वपूर्वमिदं वाक्यं बसाये म्युरं हरिः॥३२॥ मूर्ति हैं। ब्रह्मा द्वारा कहे गये इस वाक्य को सुनकर सावधान होते तेनैवमुक्तों ब्रह्माणं वासुदेवोऽवदिदम्। हुए नारायण हरि ने सान्त्वनापूर्ण में मधुर वचन कहे। इवं प्रतिज्ञा भवनों विनाशाय भविष्यति।।४।। भवान्धाता विधाता चे स्वयंभूः पितामहः।

उनके द्वारा ऐसा कहने पर वासुदेव ने अह्माज्ञों से कहा न मात्सर्याभियोगेन द्वाराणि पिहितान में॥३३॥ आपको यह प्रतिज्ञा विनाश के लिए होगी। किन्तु लीलार्थमेवैतन्न त्वां वाथितुमिच्छया। किं न पश्यसि योगेन धिपतिमव्ययम्। को हि ब्राचिनुमञ्चिदेवदेवं पितामहम्॥ ३४॥ आप ही धाता विधाता स्वयंभू और प्रपितामह हैं। मैंने | प्रधानपुरुषेशानं वेदाहे परमेश्वरम्॥४२॥ किसी ईष्यांबश द्वार बन्द नहीं किये थे। किन्तु मैंने तो केवल क्या आप योग द्वारा अविनाशी ब्राह्माधिपति को नहीं । लोला के लिए हों ऐसा किया था, आपको बाधित करने की देखते हैं। प्रधान और पुरुष के ईश इस परमेश्वर को मैं इच्छा से नहीं।

जानता हूँ। न हि त्वं बायसे ब्रह्मन् मान्यो हि सर्वथा भवान्। यं न पर्यात योगन्द्राः सांख्या अप महेश्वरम्। मम क्षमस्व कल्याण यन्मयापकतं तव।। ३५

अनादिनिधनं व्रल्ल तमेव शरणं वन।। ४३॥ हे ब्रह्मन्! आप किसी प्रकार बाधित नहीं हैं। आप तों  जिस महेश्वर को योगीन्द्र और सांयवेता भी नहीं देख सर्वथा हमारे लिए मान्य हैं। ३ कल्याणकारी। जो मैंने | पाते हैं, इस अनादिनिधन ब्रह्मा की शरण में । आपका अपकार किया है, मुझे क्षमा करेंगे। ततः कुद्धोऽकुजाभाक्षं ब्रह्मा प्रोवाच केशवम्। अम्माच्या कारणाह्य-पुत्रों भवतु में भवान्। भगवनूनमात्मानं वेचि तत्परमाक्षरम्।। पद्मयनिरिति यात मग्रियाचे जगन्मय३६॥ ब्रह्माणं ज्ञगतामेकमात्मानं परमं पदम्। | ॐ ब्रह्मन् ! इस कारण से आप मेरे पुत्र हो जायें। हैं। आवाभ्यां विद्यते वन्यो लोकानां परमेश्वरः॥ ४५ ॥ जगन्मय! मेरा प्रिग्न करने की इच्छा से पायोनि नाम से | इस बात में कुछ होकर अम्बुज की आभा-तुल्य नेत्र निळ्यात हों। वाले ब्रह्मा ने केशब में कहा- भगवन्! मैं अवश्य ही परम ततः स भगवान्देवों बरं इत्या किंटिनें। अविनाशी आत्मतत्व को जानता हैं जो अह्मस्वरूप, जगत् प्रहर्षमतुलं गत्वा पुनविष्णुमभाषत।। ३७।। की आत्मा और परमपद है। हम दोनों के अतिरिक्त लोकों अनन्तर भगवान् ब्रह्मदेव किरीटधारी विष्णु को स्नर प्रदान | का परमेश्वर कोई दूसरा नहीं है। करके और अत्यन्त प्रसन्न होकर पुन: बिना में बोले। । संत्यज्य निद्रां विपुलां वमात्मानं विलोकया | भवान्सर्वात्मकोऽन्तः सर्वेषां परमेश्वरः। तस्य तत्कवचं वाक्यं श्रुत्वापि म तदा प्रमुः।। ४६॥ सर्वभूतान्तरात्मा मैं परं ब्रह्म सनातनम्।। ३८ ॥

इस दौर्ष योगनिद्रा का परित्याग करके अपनी आत्मा में आप सब के आत्मस्वरुप, अनन्त, परमेश्वर, समस्तभूतों | देखो। इस प्रकार उनके क्रोधभरे वचन सुनकर भी, इस को अन्तरात्मा तथा सनातन परब्रह्म हैं।

समा प्रभु ने कहा अहं मैं सर्वलोकानामात्मालोको पहेश्वरः।।

मामेवं वह कल्याण परिवादं महात्मनः।। मन्मयं सर्वमर्वेदं ब्रह्माहं पुरुः परः॥ ३१

न में प्राविदितं ब्रह्मन् नान्याहं वदामि ते॥ में ही समस्त लोकों के भीतर रहने वाला प्रकाशरूप | हैं कल्याणकर! इस प्रकार उन महात्मा के विषय में । महेश्वर हैं। यह समस्त धराधर मेरा अपना है। मैं ही परम | निन्दा की बात मुझ से मत कहो। ॐ ब्रह्मन्! मेरे लिए। पुरु। ब्रह्मा हैं। रही हैं।

 

कूर्ममहापुराणम्

अविदित कुछ नहीं हैं और मैं आपको अन्यथा भी नहीं | उनके यह बचन सुनकर असुरों का मर्दन करने वाले कहती हैं। विष्णु ने भी स्वच्छ आकाश में उस जाज्वल्यमान देवेश्वर को किंतु मोहन ब्रह्माता पारशरी। देना। मायाशेयविशेषाणां हेतुत्मसमुद्भवा॥४॥ ज्ञात्वा तं परमं भावगैरे अमावनः। किंतु हे अह्मन्! परमेश्वर को वह अनन्त माया जो समस्त प्रोवाचोन्याय गवान्देवदेव पितामहम्॥५६॥ पदार्थों की हेतु और आत्मसमुद्धबा हैं, आपको मोहित कर || ब्रह्मभाव को प्राप्त विष्णु ने उन परमभावरूप ईश्वर को जानकर और उठकर देवाधिदेव पितामह से कहा। एतावद्क्वा भगवाविस्तूष्णीं बभूव है।

अयं देव महादेवः स्वयंञ्योति: सनातनः। ज्ञात्वा तत्परमं तत्त्वं स्वमात्मानं सुरेश्वरः॥ ४१ ।। अनादिनिधनोंचिन्त्य लोकानमीश्वरो महान्॥ ५॥ इस प्रकार कहकर भगवान् विष्णु चुप हो गये। उन कर; शामरीज्ञान: अवमा परमेवारः। सुरेश्वर ने अपनी आत्मा में बस परम तत्व को जानकर हो भूतानामधिपो योगी महेशों चिंबल: शिव:।।५६॥ ऐसा कहा था या बाता विपाता च धान; मुख्ययः॥ कुतों कापरिमेयात्मा भूतानां परमेश्वरः। यं अपश्यन्ति यतों ब्रह्मभावेन भाविताः॥५१॥ प्रसादं ब्रह्मणे कर्तुं प्रादुरामचनों हरः॥५॥ ये देव महादेव हैं, जो स्वयंञ्योति, सनातन, अनादिनिधन, आँचन्त्य और लोकों का महान् स्वाम हैं। तदनन्तर कहीं से अपरिमेयात्मा, भूतों के परमेश्वर शिबजी वहीं शंकर, शंभु, ईशान, सर्वात्मा, परमेश्वर, भूतों के ब्रह्मा का कल्याण करने की इच्छा से प्रादुर्भूत हुए। अधिपति, योगी, महेश, विमल और शिव हैं। वहीं धाता, नस्लाटनयनो देवों ज्ञापपलमण्डितः। विधाता, प्रभु, प्रधान, अन्याय है। ब्रह्मभाव से भावित होकर शिलपाणिभगवांलेजमां पामों निमः १याँतगण जिसे देखते हैं। | वे भगवान् शिव सिंर पर ब्राओं से मंडित थे और मृत्यैष जगत्कृत्स्नं पाति संहाले तथा। ललाट में (तृतीय) नेत्रधारी थे। उनके हाथ में त्रिशूल था | कानों मन्या महादेवः केवलों निकलः शियः।।६ ॥ और चे तेजसमूह के परमनिधि थे।

यहाँ सम्पूर्ण जगत् को सृष्टि करते हैं, पालन करते हैं तथा विधाविलासविता : सातारकैः।। काल होकर संहार करते हैं। वे महादेव केवल निष्कल और मालामत्यद्भुताकाशं धारयन्मालम्वनीम्।।३।। कल्याणमय है। सूर्य, चन्द और नक्षत्रगणों के समूह के साथ | साणं विदधे पूर्वं भवतुं य: सनातन;॥ विद्याविलासपूर्वक ग्रथित पैरों तक लटकने वाली एक अद्भुत | वेदांश्च अददौ तुभ्यं मोऽवमायात शंकाः ॥ ६ ॥ माला को उन्होंने धारण किया हुआ था।

जिन्होंने ब्रह्मा जी को सर्व प्रथम निर्मित किया था, जो तं दृष्ट्वा देवमाशानं ब्रह्मा लोकपितामहः। सनातन हैं और जिसने आपको चंद प्रदान किये थे, वे ही मोहितों पाययात्यर्थं पीतवासमपल्लवीत्॥५३॥ शंकर आ रहे हैं। लोकपितामह व्रह्मा ने उन इंशानदेव को देखकर माया से अस्यैव ग्राम मूर्ति विश्वयोनि सनातनीम्। वासुदेवाभियानं मामवेहि प्रपितामह।। ६२॥ अत्यधिक मोहित होते हुए पिताम्बरधारों विष्णु में कहा हैं पितामह ! उन्हीं का दूसरा स्वरूप वासुदेव नाम वाला क एव पुरुषों नौल: शूलपाणिलिनोंचनः।।

मुझे समझो। मैं ही विश्वयोनि और सनातन हैं। तेजगशिरमेयात्मा समायोति मनाईन॥ ५४॥ किं न पश्यसि चोगेशं ब्रह्माधिपतिमव्ययम्। हैं जनार्दन! यह नीलवर्ण, शूलपाणि, त्रिलोचन और दिव्यं भवन में चक्षुर्येन श्यसि तत्परम्॥६॥ अपरिमित तेज राशि वाला यह पुरुष कौन है। क्या आप उस योगेश्वर अविनाशी ब्रह्माधिपति को नहीं तस्य तद्वचनं छुवा विष्णुर्दानवपईनः। ख रहे हैं? आपके ये चक्षु दिल्य हो जाये तो उससे देख अपश्यदीश्वरं देवं ज्वलन विमलेसि ॥५५॥ सकोगे।  

 

पूर्वभाग नवमोऽध्यायः

लक्या वैवं तदा चक्षुर्वगोर्लोकपितामहः।। । है भगवन्! हे भूत और भविष्य के ईश्वर! हे महादेव! हे बुदुचे परमं ज्ञानं पुरतः समवस्थितम्॥६६॥ अम्बिकापते ! मैं आपको ही पुत्ररूप में अथवा आप सश तदनन्तर विष्णु से लोकपितामह ब्रह्मा ने दिव्य चक्षु | हौ पुत्र को चाहता हूँ। पाकर अपने समक्ष अवस्थित परमतत्त्व को जान लिया। । मोहितोंस्पि महादेव पायया मपया वया। म लवा परमं ज्ञानमैमरे प्रपतामहः। न जाने परम भावं यावातव्येन ते शिव॥७२॥ प्रपेदं शरणं देवं तमेव पितरं शिवम्॥६५॥ हे महादेव! मैं आपकी सूक्ष्म माया से मोहित हो गया हैं। नामह उस परम दृशय ज्ञान को पाकर उ | हे शिव! मैं आपके परम भाव को अच्छी प्रकार नहीं जान देव पिता शिव की शरण में चले गये। पामा। ओंकार समनुस्मृन्य संतयात्मानमात्मना। त्वमेव देव पानां माता माता पिता मुन्। अथर्वशिरसा देव तुष्टाव च कृताञ्जलिः॥६६॥ अमीद तव पादानं नमामि शरणागत:॥७३॥ उन्होंने आकार का स्मरण करके और स्वयं आत्मा द्वारा 1 आप हो भक्तों के देव, माता, भ्राता, पिता और मित्र है। अपने को स्थिर किया। उसके बाद कहानि होकर | मैं आपकी शरणागत हैं। आपके चरणकमलों में प्रणाम अधर्वशिरस् उपनिषद् मंत्रों से देव को स्तुति की करता है। आप प्रसन्न हों। संस्ततस्तेन भगवान् ब्रह्मणा परमेश्वरः स तस्य वचनं श्रुत्वा जगायो वृषध्वजः। अवाप परमां प्रति व्यावहाा स्मर्यान्वि।। ६७॥

व्याशार वद्दा पुत्रं समालोक्य जनार्दनम्॥३४॥ ब्रह्मा जी के द्वारा इस प्रकार स्तुत किये जाने पर भगवान् स प्रकार जगत्पति वृषध्वज ने उनके बचन सुनकर तथा परमेश्वर ने परम ति को प्राप्त किया और मन्द-मन्द हँसते | पुत्र जनार्दन को देखकर इस प्रकार वचन कहे। हुए से कहा।यथितं भगवता तत्करिष्यामि पुवक। पत्समस्त्वं न सन्देहों वत्स भश्च में भवान्। विज्ञानपैश्वर व्यमुत्पत्यतिं तवानघम्॥१५॥ पर्येवोत्पादिनः पूर्व लोकपृष्ट्यर्थमव्ययः॥ ६ ॥ हे पुत्र! आप द्वारा जो इच्छित है वह मैं कगा। आप में है वत्स! तुम मेरे समान ही हों इसमें सन्देह नहीं। आप | निष्पाप दिव्य ईश्वरीय ज्ञान उत्पन्न होगा। मेरे भक्त भी हैं। पहले आप अविनाशी को लोकसष्ट के | त्वमेव सर्वभूतानामादिकर्ता नियोतिः । लिए मैंने ही उत्पन्न किया था। कुम्व तेषु देवेश मायां लोकपितामह॥५६॥ मात्मा दिपस्यों मम देहसमुद्भवः। आप हो सब भूतों के आदिकर्ता नियोजित हैं। हे देवेश ! परं वय विश्वात्मवादोऽहं तवान॥ ६ ॥ हे लोकपितामह ! उनमें माया का स्थापन करें। तुम्हीं आत्मा, आदिपुरुष और मेरों देह से उत्पन्न हो। हे | एष नारायण पत्तों पमैच घरमा तनुः। विश्वात्मन्! हे अनप! मैं तुम्हारे लिए जर देता है उस श्रेष्ठ | भविष्यति तवेशान योगक्षेमधहो हरिः॥७७॥

बर को ग्रहण करो। यह नारायण भी मुझसे ही हैं। यह मेरा परम शर है। हे म देवदेववचनं निशम्य कमलोद्भवः। ईशान! हरिं आपका योगक्षेम का वहन करने वाले होंगे। निरीक्ष्य विष्णु पुरुयं प्रणम्योवाच शंकरम्।।३।। एवं व्याकृत्य हस्ताभ्यां प्रात: से परमेश्वरः। उन कमलयोनि ब्रह्मा ने देवाधिदेव के वचन सुनकर उस | संस्पृश्य देवं ब्रहाणं हरिं वचनमावीत्।।७८|| | विष्णु को ध्यानपूर्बक देखकर प्रणाम करके परम पुरुष शिव । इस प्रकार कहकर परमेश्वर ने दोनों हाथों से प्रतिपूर्वक से कड़ा।

ब्रह्मदेव को स्पर्श करते हुए हरि से ये वचन कहे। भगवभूतभव्येश महादेवाधिकाते।

| तुष्टोऽस्मि सवाई में भक्तस्त्वं ग्न जगन्मया चामेव पुर्वामिच्छामि त्वया वा सदृशं सुतम् ॥ १॥ || वरं वृणी नावाभ्यामन्योऽस्ति परमार्थतः॥७९॥

कर्ममहापुराणम् मैं सर्वेषा तुमसे प्रसन्न हूँ और हे जगन्मय ! तुम मेरे भक्त | नहीं कर पायेगा। आप देव असुर-मानव सहित इस संपूर्ण भी हों। वर ग्रहण करो, परमार्थतः हम दोनों से भिन्न अन्य | जगत् का पालन करें। कुछ नहीं हैं।

जींदमुक्वा भगवामादिः स्वमायया मोहितभूतमेदः। श्रुत्वाच्च देववचनं विष्णुजिगन्मयः। जगाम जन्मद्धिविनाशाहीन मामैकमव्यक्तमननशक्तिः॥ प्राह प्रसन्नया वाचा समालोक्य च तन्मुखम्।। ८३|| इस प्रकार कहकर अपनी माया से प्रणिसमूह को मोहित अनन्तार महादेव का वचन सुनकर संपूर्ण जगत् के आत्मा | करने वाले, अनन्तशक्तिसंपन्न अनादि भगवान् जन्म-वृद्धि विष्णु ने उनके मुख की ओर देखकर प्रसन्नतापूर्वक ये वचन

नाशरहित अपने अक्षरधाम को चले गये। कहे। इन औकूर्मपुराणे पूर्वभागे योद्धवप्रादुर्भाववर्णनं नाम एष एवं वरः श्लाघ्यों यदहं परमेश्वरम्।

नयमोऽध्यायः॥१॥ | पश्यामि परमात्मानं भक्तिर्भवतु में त्वाय॥४१॥

यहाँ एक बार में लिए प्रशंसनौय होगा कि मैं आप दशमोऽध्यायः परमात्मा परमेश्वर को देखता रहूँ और आप में हौ मेरी भक्ति (रुद्रसृष्टि का वर्णन) हो।

कूर्म उवाच नत्युक्त्वा मह्मदेवः पुनर्विष्णुमभाषत। भवान् सर्वस्य कार्यस्य कर्ताहमयदैवतम्।। ८३॥ गते महेश्वरें देखें भूय एब पितामहः तदेव सुमहत्पां भेजे नाभिसमुत्थितम्॥ १।। | ‘वैसा हीं हों’ इस प्रकार कहकर महादेब ने पुन: बिश्वा | में कहा- आप समस्त कार्यों के कर्ता हैं और मैं इसका

भगवान् कुर्म बोलेउन महेश्वरदेव के चले जाने पर। अधिदेवता हैं।

पुनः पितामह ब्रह्मा ने नाभि से समुत्पन्न (स्वोत्पत्तिस्थान

रूप) उस विशाल कमल का आञ्जय लिया। चन्मय मन्मयं चैव सर्वमतन्न संशयः। भवान् सोमस्त्वहं सूर्यो भवान्नानिरहं दिनम्॥८३॥

अव दीर्घण कालेन तत्राप्रतिमपौख्यौ। महामु समाचातौं भ्रातरौ मधुकैटभौ॥२॥ यह सबकुछ तुम्हारे अन्दर हैं और मेरे अन्दर है, इसमें | संशय नहीं। आप चन्द्र हैं तो मैं सूर्य हैं, आप रात्रि तों मैं अनन्तर चिरकाल पञ्चात् वहाँ अपरिमित पौरुषसम्पन्न मधु दिन है। और कैटभ नामधारी महासुर दो भाई आ पहुंचे। भवान् प्रकृतिंरव्यमहं पुरुष एव चक्रोधेन महताविष्टौं महापर्खतविग्रहो।। भवान् ज्ञानमहं ज्ञाता भवान्माघाहर्मीश्वरः। ८.४।।

कर्णानरसमुद्भूतौ देवदेवस्य शाद्भिः ॥३॥ आप अन्त्यक्त प्रकृति हैं, तो मैं पुरुष हैं। आप ज्ञान हैं, मैं वे दोनों महान् क्रोध से आविष्ट और महापर्वत के समान

शरीरधारी थे। वे शार्ङ्गधनुषधरी देवाधिदेव विष्णु के कानों ज्ञाता हूँ। आप माया हैं, मैं ईश्वर हैं।  के अन्दर से उत्पन्न हुए थे। भवाविद्यात्मिक शक्ति: शक्तिमानमीश्वरः।। तावागतौ समक्ष्याह नारायणमञ्चों विभुः। योऽहं म निष्कलो देवः मौसि नारायणः प्रभुः।। ८५॥ जैलोक्यकप्टकाचेतावमुरौ हुन्नुपहसि।।४।। आप विद्यात्मिक शक्ति है, तो मैं शक्तिमान ईश्वर हैं। जो |

उनको आया हुआ देखकर पितामह ब्रह्मा ने नारायण से में निष्कल देव हैं तो आप ॥ नारायण है। कहा- ये दोनों असुर तीनों लोकों के लिए कष्टकरूप हैं, एकोपावेन पश्यति योगिनों ब्रह्मवादिनः।

अत: इनका वध करना योग्य है। वामनाश्रित्य विश्वात्पन्न योगों मामुपैष्यति॥

तदस्य बचनं श्रुत्वा हरिनारायणः प्रभुः। पालवैज्ञगत्वं सदेवासुरमानुषम्।। ८६॥

आज्ञापयामास तयोर्वयार्थ पुरुषावुभौ ॥५॥ ब्रह्माबाद योंगजन अभेदभान से ही देखते हैं। है | उनके वचन सुनकर प्रभु नारायण र्झर ने उनके वध के विश्वात्मन् ! तुम्हारा आश्रय ग्रहण किये बिना योगी मुझे प्राप्त | लिए दो पुरुषों को आज्ञा दी।

पूर्खभाथै दशमोऽध्यायः तदाज्ञया महशुद्धं तयोस्ताभ्याभूद्विाः ।

 

सर्वप्रथम देव ने मनन्द तथा सनक, भु और सनत्कुमार यजयकैटभ जिष्णुः विष्णुश्च व्यञ्जयन्मधुम्।।६।। | की सृष्टिं की जो सनातन पूर्वज हैं। वे सब शीतोष्णादि द्वन्द हे द्विजो! उनकी आज्ञा से उन दोनों का उन असुरों से | और मोह से निर्मुक्त और परम वैराग्य को प्राप्त थे। उन्होंने महान् युद्ध छिड़ गया। जिष्णु ने कैटभ को जीता और विष्णु परम् भाव को जानकर अपनी बुद्धि को ज्ञान में स्थित ने मधु को जीत लिया। किया। तत: पद्मासनासीनं जगन्नाचः पितामहम्। नेम्वेवं निरपेक्षेप लोकसृष्टौ पितामहः।। माघे मधुरं वाक्यं महाविष्टमना हरिः।।७।। भूच नष्टयेता वै मायया परमेष्ठिनः॥ १५॥ तव जगत् के स्वामी हरि ने अत्यन्त प्रसन्न मन होकर | इस प्रकार लोकसृष्टि में उनके निरपेक्ष होने पर पितामह कमलासन पर विराजमान पितामह से मधुर वचन कहे। | परमेष्ट्रों को माया से किंकर्तव्यविमूढ़ हो गये। अस्मान्मयोंह्यमानस्त्वं पद्मावत प्रभो। ततः पुराणपुरुषों जगन्मूर्ति; सनातनः। नाहं भवन शाक्नोमि योई तेजोमयं गुरुम्।। ८॥ व्याहारात्मनः पुत्रं मोहनाशाय धनम्॥ १६॥ हे प्रभु! मेरे द्वारा ढोये जाते हुए आप इस कमल से नीचे | तब पुराणपुरुष, जगन्मूर्ति, सनातन विष्णु ने अपने पुत्र के उतारें। अत्यन्त तेजस्वी और बहुत भारी आपको बहुन करने | मोह को नष्ट करने के लिए ब्रह्माजी से कहा। में मैं समर्थ नहीं हैं।

विष्णुरुवाच ततोवतीर्य विश्वात्मा देहुर्माविश्य च#िपाः। कच्चिन्नु विस्मृतो देवः शूलपाणिः सनातनः अबाप वैष्णुब निंद्रापेकीभूतोऽथ विष्णुना॥१॥ बदुको वै पुरा शम्भुः पुत्रत्वे भव ॥ १७॥ । तदनन्तर विश्वात्मा ने उतरकर विष्णु के देह में प्रवेश कर प्रयुक्तवान् मनों योऽसौ पुत्वेन तु शङ्करः। | लिया और विष्णु के साथ एकाकार होकर वैष्णवी निंदा को कोटा अवाप संज्ञां गोविन्दात्पद्मयोनिः पितामहः॥ १८॥ प्राप्त हो गये। विष्णु ने कहा- क्या आप शूलपाणि सनातन देव शंभु को सह तेन याविश्य शङ्खचक्रगदाधरः।

भूल गये ? जो कि पहले कहा था कि शंकर! पुत्र के रूप में | ब्रह्मा नारायणाख्यौ मुम्वाप मलिले तदा।। १ ।। आप होइए। तब जिस शंकर ने पुत्रच को इच्छा से मन तब शंख-चक्र-गदाधारों में नारायण नाम वाले ब्रह्मा बनाया था। इस प्रकार पद्मयोनि पितामह को गोविन्द से यह बोध हो गया। इन्हीं के साथ जल में प्रवेश करके सो गये। फ्रज्ञा; भ्रष्टुं मनश्चक्रे तप: परमदुतरम्। सोनुभूय चिरं कलमानन्दं परमात्मनः। नस्यैवं नयमानस्य न किसिमवर्न॥ १९ ॥ अनाद्यनमतं वात्मानं असाम।। ३।। तत: प्रभाते योगात्मा भूचा देवतर्मुखः।

उन्होंने प्रजा को सृष्टि के लिए मन बनाया और परम सस सृष्टि तपां वैधावं भावमाश्रितः॥ १३ ॥ दुस्तर तप किया। इस प्रकार तप करते हुए उन्हें कुछ भी उन्होंने चिर झाल तक आदि और अन्त रहित, अनन्त, | प्राप्त न हुआ। स्वात्मभूत ब्रह्म संज्ञा बाले परमात्मा के आनन्द का अनुभव | ततो दीर्घ कालेन दुःखात्ोषोऽध्यायन। किया और फिर योगात्मा ने प्रभात में चतुर्मुख देव होकर | क्रोदाविष्टस्य नेत्राभ्यां प्रापनबिन्दवः॥२०॥ वैवभार्च को आश्रित करके इसी स्वरूप वालों सृष्टि का | तब चिर काल के बाद दवा से उनमें क्रोध उत्पन्न हो सर्जन किया। गया। क्रोध भरे नेत्रों से आँसूओं को यूँदै गिरने लग। पुरस्तादस्जदेवः सनन्दं सनकं तथा।। ततस्तेभ्यः समुद्भूना: भूताः प्रेतास्तदापयन्। भुं सनत्कुमारं च पृर्वजं तं सनातनम् ॥ १३॥ साँस्तानतो दृष्ट्वा ब्रह्मात्मानमवन्दत।। २१॥ ते द्वन्द्वमोहनिर्मुक्ताः परं वैराग्यमास्थिताः।

जहौ प्राणांश भगवान् क्रोधाविष्टः प्रजापतिः। विदित्वा परमं भावं ज्ञाने वियों पतिम्।। १४॥ तदा प्राणमयो कद्रः प्रादुरमीत्प्रभोर्मुखात्॥ ३३॥ र्ममहापुराणम् तब उनसे समुद्भुत भूत और प्रेत हुए। अपने आगे उन | शनैश्चरस्तया शुक्रो लोहिताङ्गो पनौजवः। सब को देखकर ब्रह्मा अपनी आत्मा से संयुक्त हुए और ताब | कन्दः सर्गोश्व सानो युऔषां सुताः स्मृताः।। ३०॥ प्रजापति ब्रह्मा ने क्रोध के आचेश में प्राण त्याग दिये। शनैश्चर, शुक्र, लोहिताङ्ग, मनोजवः, स्कन्दः, सर्ग, तदनन्तर प्रभु के मुख से प्राणमय रुद्र का प्रादुर्भाव हुआ। | सन्तान और बुध- ये (आठ) नाम उनके पुत्रों के कहे गये। सहस्रादित्यसो युगानदहनोपमः। रुद मुम्वर घोर देवदेवः स्वयं शिवः॥ २३॥ एवमकारों भगवान्देवदेवो महेश्वरः। वह रुद्र सहल आर्दियों के समान तेजवीं और | जा धर्मज्ञ कामं च यक्वा वैराग्यपाश्रितः॥३१॥ प्रलयकालौंन अग्नि की भाँति लग रहे थे। वे महादेव | इस प्रकार भगवान् देवदेव महेश्वर ने मुना, धर्म और अत्यन्त भयानक उच्चस्बर में रोने लगे। काम का परित्याग करके वैराग्य प्राप्त कर लिया था। रोदमानं ततों ब्रह्मा मारोदीरित्यभापत। आत्मन्यायाय चात्मानमैश्वरं भावमास्थितः।। रोदनानु इत्येवं लोके ख्याति गमिष्यसि॥ ३४॥ पोवा क्षरं ब्रह्म मतं मामृतम्।। ३३ ॥

तदनन्तर ब्रह्मा ने रोते हुए शिब को कहा- मत रोओ। | वे आत्मा में ही आत्मा को स्थापित करके और परम इस कार होने से तुम लोक में रुद्द नाम से प्रसिद्धि को प्राप्त | अमृतरूप ज्ञात इस अक्षर ब्रह्म का पान करके ईश्वरीय करोगे।

भाव को प्राप्त हो गये। अन्यान सप्त नामानि पली: पुत्रांश शासनान्। प्रज्ञाः सृजति चादिष्टो ब्रह्मणा नीललोहितः। थानानि तपमानां ददौ लोकपितामहः॥ ३५॥ स्वात्मना मदृशानुमान् समर्न मनमा शिवः॥३३॥ पुनः लोकपितामह ने अन्य सात नाम् उन्हें दिये और | पुनः ब्रह्मा के द्वारा आदेश मिलने पर वे प्रजा की सृष्टि आठ प्रकार की शाश्वत पत्नियां, पुत्र तथा स्थान प्रदान किये। | करते हैं। नीललोहित शिव ने अपने ही रूप के सदृश मन से भव: शर्मस्येशानः पशूनां पतिरेव च। । | रुद्घ की सृष्टि की। भौगयो महादेवस्तानि नामानि सप्त वै॥२६॥ कपर्दिनो निरातङ्कास्नीलकण्ठान् पिनाकिनः। उनके वे सात नाम हैं- भव, शर्व, ईशान, पशुपति, भीम, त्रिशूलहस्तानुद्रिकान् सदानन्दांत्रिलोचनान्॥३४॥ उग्र और महादेव।।

३ सय कपर्दी, निरातङ्क. नौंलकप्ठ, पिनाकधारी, हाथ में मूयो जस्ले महीं बहिर्वायुराकाशमेव चत्रिशूल लिये हुए, उद्विक्त, सदानन्द और त्रिनेत्रधारी थे। | दीक्षित याह्यान्द्र इत्येता अष्टमूर्तयः॥ ३७॥

जरामरणनिर्मुक्तान् महावृषभवाहनान्॥ । सूर्य, जल, मह, वहि, वायु, आकाश, दीक्षा प्राप्त ब्राह्मण बोतरागांश्च सर्वज्ञान कोटिकोटिशतान्ग्रभुः॥ ३५|| | और चन्द्र- ये उनकी अष्टधा मूर्तियां हैं।

वे जरामरण से निर्मुक्त, बड़े-बड़े वृषभों को वाहन बनाये स्थानेष्येतेषु ये रुद्राच्यायन्ति प्रणमति छ।

हुए, जीतराग और सर्वज्ञ थे। प्रभु ने करोड़ों की संख्या में उत्पन्न किया था। तेषामतनुयो ददाति परमं पदम्॥ २८॥ जो लोग इन स्थानों में आश्रय लेकर इन रुद्ध का ध्यान ताच्या विविधानुद्रान्निर्मलाग्नीललोहितान्।

जरामरणनिर्मुनान् व्याजहार हरं गुरुः॥ ३६॥ करते हैं और प्रगान करते हैं, उनके लिए ये अष्टधा शरीर नीललोहित निर्मल शिव से जरामरण से निर्मुक्त उन बाले दैब परम पद को प्राप्त झाले हैं। विविध प्रकार के रुद्रों को देखकर ब्रह्मा जी हर से बोले-।। सुवर्चेला तथैमा विकेश च शिया तथा।

मास्राक्षीदृशीर्देव प्रजा मृत्युविवर्जिताः। स्वाहा दिगवा दीक्षा च रोहिणी चेनि पत्नय:॥ २१ ॥ अन्याः मृचस्व जन्ममृत्युसमन्विताः॥३७॥ सुवर्चला, उमा, विकेशी, शिवा, स्वाहा, दि, दौसा, और | हे देव! मल्य विवर्जित ऐसी प्रज्ञा की सष्टि मत करो। तुम | रोहिणी- इनकी (आठ) पत्नियां हैं। दूसरों सृष्टिं करो जो जन्म-मृत्यु से युक्त हो। तनम्तमा भगवान् कपर्दी झापामारः।

 

पूर्वमा दशमोऽस्यायः

 

है। आप महेश के लिए नमस्कार है। शान्ति के हेतुभूत गम्ति में तादृशः सर्गः म स्व बिक्षिाः प्रमाः॥ १८॥ | आपको नमस्कार। प्रधान पुरुष के ईश, योगाधिपति, तब श्यामचर्मधारों भगवान् कामनयों ने उनसे कहा- मेरे | कासम्प, रुद, महाग्राम और रात को नमस्कार। पास इस प्रकार, को नहीं हैं अतः आप ही विविध प्रज्ञा नमः पिनाकस्ताय त्रिनेत्राय नमोनमः। का सर्वन करें।

नर्मामुर्तये तुभ्यं गाणे शनकाय ॥४७॥ ततःभूनि देवोऽमौ व प्रमते शुभाः प्रजाः।

मल्लविद्यापित माविमापदबने। स्यात्मजगव ते निवृतात्मा आतिशत॥ ३१॥

नमो बेदम्माम कालकालाय ते नमः॥४८॥ । तब से लेकर वे देव शुभकारक प्रजा को उत्पन्न नहीं | पिनाकधारी को नमन। शिलोचन के लिए बार-बार करते हैं। अपने जन मानस-पुत्रों के साथ ही निवृत्तात्मा | प्रणाम। त्रिमूर्ति और ब्रह्मा के जनक आपको नमस्कार है। हॉकर में स्थिर हो गये। जापविमा के पति और विद्या के प्रदाता, वेदों के बवावं तेन तम्यामदेवदेवस्य शूलिनः।

स्पस्वरूप, कालाधिपति आपको ममस्कार है। ज्ञान वैराग्यममार्य तपः सत्यं क्षमा पुनः॥ ४॥ वेदान्तमारमाराय नमवेदात्ममूर्तये। इश्चमात्ममबोबो यातृत्वमेव च नमो बुद्धाय काय योगिनां गये नमः॥४॥ अव्ययानि दशैतानि निर्य निति शंक।।४।। महाशोकविविधभूनः परिवृताय हैं। एवं मा किरः मान्पिनाकी मरमरः॥ बम ब्रह्मदेवाय प्रायाधिपतये नमः॥ ५ ॥ इसी कारण देवाधिदेव शूलपाणि का स्थानुत्य हुआ | वेदान्त के सार के अंशभत तथा बैदाम को मात आपको अर्थात् स्थाणु नाम पड़ा। ज्ञान, वैराग्य, ये मर्य, तप, सत्य, नमन। यह झटके । नमस्कार गि के गरु को क्षमा, अर्य, इत्य, आत्मसंयम और अधिष्ठातृत्व में दश नमस्कार है। जिनका शोक विनष्ट हो गया है ऐसे प्राणियों में कुटम्वरूप में सदा उन भगवान् शंकर में रहते हैं। इस घिरे हुए आप ब्राह्मण्यदेव के लिए नमस्कार। ब्रह्माधिपति को प्रकार पिनाकधारी शंकर साक्षात् परमेसर है। नमस्कार है। तः स भगवान् ब्रा का व जिमघनम्।।४।। यम्बकापादेयाय नमते परमेष्ठिने। मन माननी : निम्फिालोचन:॥

नमो दिम्बासमें तुभ्यं नमो मुहाय दोपड़ने॥५॥ १॥ ज्ञया परतरं भावमभर ज्ञानसाधा॥ ३३॥

अनादिमलहानाय ज्ञानगम्याय ते नमः। नृायानगतामोश कन्या शिस छाम्नलिम्।। मनाग नाय नम गरिन।। ५३॥ तदनन्तर मानस स्ट-पों के साथ विलयन महादेव को सम्बक आदिवा परमेशों के लिए नमस्कार। मानशरीर, देखकर भगवान् ब्रह्मा के नेत्र प्रेम से प्रफुल्लित हो उठे। अपने | मुड़ और इडधारों आपको नमस्कार है। ज्ञान में परमोत्कृष्ट कारभाव को जानकर शिर घर मों धर्मादिगम्याय योगगम्याय ने नमः। अलि राते हुए (नमस्कारपूर्थक) में जगत्पति की स्तुति | अपने निपज्ञाय निराधामाय ते नमः॥५३॥

ब्रह्मणे शिरूपाय नमस्ते परमात्मने। ब्रह्मोवाच स्वयैव कामग्निं नवयैव मनं स्थितम्॥५४॥ नपनेऽनु महादेव गमले परमेश्वर॥४४॥

धर्म आदि के द्वारा प्राप्त हो ममग्न्कार। योग के द्वारा नमः शिवाय देवाय नपते पापगे। गम्य आपको नमस्कार है। अपजत तथा निभामा नमोऽस्तु ते पोशाय नमः शान्ताय नवे।। ४।। आपको नमस्कार है। विश्वरूप ब्रह्म के लिए नमस्कार है। प्रधानमुपेशाब मोगापितये नमः। परमात्मस्वरूप आपको नमस्कारः। यह सब आप द्वारा हीं नमः झालाय हाय महाप्रामा शलिने॥४॥ का है और समय आप में ही पित है। हे महादेव! आपको नमस्कार है। है परमें आपको | त्वया मंफियते विर्य प्रधानारी जगन्मय। नमस्कार हैं। शिव को नमन, ब्रह्मरूप देन के लिए नमस्कार | स्वामीभगे महादेव; परं न ममः ॥५५॥

कुर्ममहापुराणम्

हे जगन्मय ! प्रधान-प्रकृति से लेकर इस सम्पूर्ण विश्व का र्वदा अन्दर विचरण करके अशेष भूतममूह को धारण आप हौं संहार करते हैं। आप ईश्वर, महादेव, परब्रह्म औरकरती हैं, उस वायुरूप पुरुष को नमस्कार है। ज्ञों अपने

कर्मानुरूप इस सम्पूर्ण जगत् का सृजन करता है, आत्मा में परमेष्ठी शिवः शान्त: पुरुयो निष्कलो हरः।

अवस्थित उस चतुर्मुखरूप पुरुष को नमस्कार है।

जो समक्षरं परं ज्योतिस्त्वं कालः परमेश्वरः॥५६॥

आत्मानुभूति के योग से माया द्वारा विश्व को आवृत करके आप परमेष्ठी, शिव, शान्त, पुरुष, निष्कल, र, अक्षर, शेषशय्या पर शयन करते हैं उन विष्णुमूर्त स्वरूप को परम ज्योति; और कालरूप परमेश्वर हैं। नमस्कार है। त्वमेव पुरुषोऽनन्त: प्रधान प्रकृतिस्तथा। विपत्ति शिरसा नित्यं द्विसप्तभुवनात्मकम्॥६५॥ भूमिरापोऽनलों वायुयाहङ्कार एव च।।५

ब्रह्माण्डू चोऽखिलाषारक्तस्मै शेयात्मने नमः।

यस्य रूपं नमस्यामि भवन्तं संज्ञितम्।

यः परातें परानन्दं पौवा देव्यैकसाक्षिकम्॥ ६॥

स्य द्यौरभचन्मूद्ध पादौ पृथ्यों दिशो भुजाः॥५॥

नृत्यायनतमहिमा तस्मै दात्मने नमः।

आकाशमुदरं तस्मै विराजे प्रणमाम्यहम्।

बोरा सर्वभूतानां नियन्ता तिवानीश्वरः॥६५॥

आप हो अविनाशों पुरुष, प्रधान और प्रकृति हैं और यस्य केशेषु जीमूना नग्न: सर्याङ्गसथिषु। भूमि, जल, अग्नि, वायु, आकाश और अहंकार जिनका रूप | कुशौं समझत्यास्तस्मै तोयात्मने नमः।। ६८॥

हैं, ऐसे ब्रह्मसंज्ञक आपको नमस्कार करता हैं। जिनका | जो चतुर्दश भुजनों वाले इस ब्रह्माण्ड को सर्वदा अपने ।

मस्तक यों है तथा वीं दोनों पैर हैं और दिशाये जाएँ हैं।मस्तक द्वारा धारण करते हैं और जो सम्पूर्ण ब्रह्माण्डू के आकाश जिसका इदर हैं, उस बिराट् का है मृणाम करता आधाररूप हैं, उन शेषरूपधारी आपको नमस्कार हैं।

जो महाप्रलय के अन्त में परमानन्द का पान कर दिया, एकमात्र सतापर्यात यो नित्यं स्वभाभिर्भासयन् दिश:॥५१॥ साक्षी तथा अनन्त महिमायुक्त होकर नृत्य करते हैं, उन ब्रह्मतेजोमयं चिश्वं तस्मै कार्यात्मने नमः।

स्वरूप को नमस्कार हैं। जो सय प्राणियों के भीतर हव्यं सहति यों नित्यं शैी तैज्ञमयीं तनुः॥ ६ ॥

नियन्ता होकर ईररूप में स्थित हैं। जिनके केशों में कल्यं पितृगणानां च तस्मै वढ्यात्मने नमः।

मॅपसमूह, सर्वाङ्गसन्धियों में नदियाँ तथा कुक्षि में चारों जो सदा अपनी आभाओं में दिशाओं को अद्भासित करने समृद्ध रहते हैं इन जलरूप परमेश्वर को नमस्कार है।

हुए अह्मतेजोमय विश्व को सन्तप्त करते हैं, उन सूर्यात्मा को तं सर्वसाक्षिणं देवं नमस्ये श्वतस्तनम्।।

नमस्कार है। जो तेजोमय रौद्र शरिरपारी नित्य हुन्छ

तथा ये विनिता मिलासाः सन्तुष्टाः समर्दाशनः।। ६१॥

पितरों के लिए कल्य के वहन करते हैं, उस बस्विरूप यांति: पन्त लामालमै झोगात्मने नमः। पुरु को नमस्कार हैं क्या मताने मायां योगी संक्षीपास्करन्यय।। || आप्याययति यो नित्यं स्याम्ना सकल जगत्।। ।। अपारतरपर्यन्तां तस्मै विद्यात्मने नमः। प्रयतें देवतासंधैस्तस्मै चन्द्वात्मने नमः। ग्रस्य भासा विभात्य महों छत्तमसः परम्।। १।। बिपर्यशपभूतानि यानश्चरति सर्वदा।। ६ ।। प्रपद्ये तत्परं तत्त्वं जदूपं पारमेश्वरम्। शक्तिर्माहेश्वरी तुभ्यं तस्मैं वाय्वात्मने नमः। नित्यानन्दं निराधारं निष्कलं परम् शिवम्।।७३॥ मृत्यशयमेवेदं यः स्वकर्मानुरूपतः।। ६३॥ प्रपद्ये परमात्मानं भवन्तं परमेश्वरम्। आत्मन्यवस्थितम्लस्मै चतुर्वक्वात्मने नमः। उन सर्वसाक्षी और विश्व में याप्त शरोर वाले देव को । च: शेने शेषशयने विश्वमावृत्य मायया॥ ६४|| नमस्कार करता हैं। नि निदारहित, श्वासायी, सन्तुष्ट और स्वात्मानुभूतियोगेन तस्मै विण्यात्मने नमः।

समदर्शी योग के माधक ज्योतिरूप में देखते हैं, उन योग जा अपने तेज से सम्पूर्ण जगत् को नित्य आलोकित स्वरूप को नमस्कार हैं। जिसके द्वारा योगीजन निष्पाप करते हैं तथा देनसमूह द्वारा निनको रश्मियों का पान किया | होकर अत्यन्त अपारपर्यन्त मायारूप समुद्र को तुर जाते हैं, जाता है, उस चन्द्ररूप को नमस्कार हैं। जो माहेरौं शक्ति | उन विद्यारूप परमेश्वर को नमस्कार हैं। जिनके प्रकाश में सूर्य चमकता है और जो महान् (तमोगुणरूप) अन्धकार में | विभज्यात्मानमेकोऽपि स्वेच्छया शंकरः स्थितः। परे हैं, उस एक (अद्वैतरूप) परमतत्त्व स्वरूप परमेश्वर के | तवान्यानि च रूपापा मम मायाकृतानि च।।८।। शरणागत होता हैं। जो नित्य आनन्दरूप, निराधार, निष्कल, | शंकर एक होने पर भी स्वेच्छा से अपने को विभक्त परम कल्याणमय, परमात्मस्वरूप है, उस परमेश्वर की शरण | करके अवस्थित हैं। उनके अन्यान्य रूप मेरो माया द्वारा इचे में आता है।

गये हैं। एवं स्तुन्वा महादेवं व्रल्ला ताबभाविनः॥७३॥ अरूप: केवलः स्वम्यों महादेवः स्वभावतः। प्रातः प्राणतस्तस्यौं गृगन् ब्रह्म सनातनम्।

छ भ्यः परनों देवत्रिमूर्तिः परमा तनुः ।।८।। ननम्म्या महादेस दिव्यं योगमनुत्तमम्।४।। माहेश्वरी त्रिनयना योगिनों शातिदा महा। ऐश्वर ब्रह्म सञ्चायं वैराग्यं च ददौ इरः। तस्या एव परां मूर्ति मामयेहि पितामढ़।। ८३।। कराभ्यां कमलाभ्यां च संयुश्य अशातानिहा॥१५॥ बहू महादेव ही स्वभावतः अमूर्त, अद्वितीय और व्याजहार मान्नेव मोइनुगृह्म पितामहम्। आत्मस्य हैं, जो इन सब से परे त्रिमूर्तिरूप हैं। उनको यत्वयाभ्यर्थितं ब्रह्मन् पुत्रवें भवता मम॥६॥ त्रिनयना माहेअरोप उत्कृष्ट शरीर योगियों के लिए सदा कृतं मया तत्सकले सृजस्व विविध जगत्। शान्ति प्रदान करने वाला है। हे पितामह ! मुझे उसी महेश्वर जिंघा भिन्नोऽस्म्यह झन् ब्रह्मविष्णुहराया।।99॥ | ॐ ॐछ मृत ज्ञान। इस प्रकार महादेव हा स्तनन करके इनके भाव से | शाश्वतैश्चर्यविज्ञानं तेज़ों योगसमन्वितम्। |भावित होकर ब्रह्मा सनातन ब्रह्म की स्तुति करते हुए हाध | सोऽहं प्रमामि सकलापयिष्ठाय तमोगुणम्।।८।। जोड़कर प्रणाम करके खड़े हो गये। तदुपरान्त महादेव ने | कालो भूत्वा न मनसा मामन्योऽभिविष्यति। ब्रह्मा को दिव्य, परम श्रेष्ठ, ईरॉय योग, ब्रह्म-सद्भाव तथा जो मूर्ति सी ऐश्वर्य, विज्ञान और तेज से समन्वित होकर वैराग्य दिया। प्रणतजनों की गाँड़ा हरने वाले शिव ने अपने कालरूप है, वहीं मैं तमोगुण का आश्रय लेकर समस्त विश्व कोमल हा से ब्रह्मा का स्पर्श करते हुए मुस्कुराकर

को ग्रस लेता है। अन्य कोई मेरा मन से (स्वप्न में भी कहा- नहान् ! आपने मुझे अपना पुत्र बनने के लिए जो अभिभत्र नहीं कर सकता। प्रार्थना की थी, उसे मैंने पूर्ण कर दिया। इसलिए अब तुम विविध प्रकार के जगत् को पत्र करते रहो। हें ब्रह्मन्! मैं यदा यदा हि मां नित्यं विधितर्यास पद्मजा। ८५||

तदा तदा में मान्नयं भविष्यात जवानघ। ही ब्रह्मा, विष्णु और शिव नामों से तन प्रकार में विभक्त एतावदुक्त्वा ब्रह्माणं सोभिवन्द्य गुरु हर:।। ६ ।।

महँव मानमैं: पुजै; क्षमादारययत। सर्गरक्षालयगुणनिष्कल: परमेश्वरः।।

सोऽपि योगं समास्याय ससर्ज विविधं जगत्॥७॥ म त्वं ममाग्रजः पुत्रः सृष्टिहुतोविनिर्मितः॥१८॥ नारायणाख्यों पगमान्ययापूर्व प्रजापतिः। । सृष्टि, पालन और प्रलयरूपी गुणों से मैं निष्कल |

मरीचिभूम्स ; पुलस्त्यं पुलहूं क्रतुम्॥ १॥ (अंशारहित परमेसर हैं। सृष्टि के लिए निर्मित हुए तुम मेरे समर्षि वसिष्ठज्ञ सोसृजद्योगवराया। वह ज्या मुश हो।

नव ग्रहाण इत्येते पुराणे नियों मनः। ममैव दक्षिणादंगाद्वामाङ्गात्पुरुषोत्तमः।

सर्वे ते ब्रह्मणा तुन्याः साधका ब्रह्मवादिनः॥ ४६॥ नस्य देवाधिदेवस्य शम्भोदयदेशनः॥५६।। सङ्कल्पशैव धर्मश युगधर्माय झाश्वतम्। सम्बभूवाय दो बा सोऽहं तस्य परा तनुः।। स्थानाभिमानिनः सर्वान्यथा ते कवितं पुरा॥ १० ॥ ब्रह्मवाशिचा ब्रह्मन् सर्गस्थित्यन्तहेतवः||८०॥ है पद्मज! तुम जब-जब तुम मेरा नित्य चिन्तन करोगे। तुम मेरे दक्षिण अंग से और विष्णु वामांग से उत्पन्न हुए | जय-जय हे निष्पाप ! तुम्हें मेरा सान्निध्य प्राप्त होगा। इतना हों। अझ देवाधिदेव शंभु के जुदयदेश में द इत्पन्न हुए। | कहकर शिव गुरु ब्रह्मा का अभिवादन करके अपने मानस अधवा बहो मैं उनका परा तन हैं। हे ब्राह्मन् ! ब्रह्मा, विष्णु | पन्नों के साच्च ही क्षणभर में अन्नांत हो गये। तदनन्तर | और शिव समृद्धि, स्थिति और संहार के कारण । नारायण नाम से विख्यात भगवान् प्रजापति भी मग का

कुर्ममहापुराणम्

आश्रय लेकर पूर्वानुरूप विविध जगत् की सृष्टिं करने लगे। हे विप्न ! वे हीं एकादश रुद्र त्रिभुवन के ईश्वर कहे गये। योगविद्या के द्वारा उन्होंने मरीचि, भृगु, अंगिरा, पुलस्त्य, | वे कपाली, ईशान आदि नामों से प्रसिद्ध ब्राह्मण हैं जो देवों पुलह, ऋतु, दक्ष, अनि और वसिष्ठ का सृजन किया। पुराण | के कार्य में नियुक्त हैं। | मैं ये नौ ब्रह्मा निश्चित करके बताये गये हैं। ये सभी साधक | सौम्यासौम्यैस्तथा शान्ताशान्तै: स्त्रीत्वच्च स प्रमुः। | होने पर भी ब्रह्मा के तुल्य ग्रह्मवादी हैं। अह्मा ने संकल्प, विभेद बहुधा देव; स्वरूपैरसितै; सितैः।।६।। | धर्म और शाश्वत युगधर्मों को तथा सभी स्थानाभिमानियों को इसके बाद प्रभू रुद्रदेव ने अपने सौम्य तथा असौम्य, | पूर्व में जैसे उत्पन्न किया था. यह सय यथावत् यता दिया शान्त तथा अशात एवं चैत तथा अश्वेत स्वरूप द्वारा स्वरूप के भी अनेक विभाग किये। इति श्रींकूर्मपुराणे पूर्वभागे सदसृष्टिर्नाम दशमोऽध्यायः॥ १० ॥ ता वै विभूतयों विप्रा विद्युताः शक्तयों भूव। लक्ष्म्यादपों अपुषा दिनं व्याप्नोति शांकरी॥७॥ एकादशोऽध्यायः

हैं ब्राह्मणों ! वे सभी विभूतियाँ पृथ्वी पर लक्ष्मी आदि (देवी अवतार-वर्णन)

नामों में प्रसिद्ध शक्तियां कहो गई। वे शंकर को ही प्रतिमूर्ति

होने से विश्व को व्याप्त करती हैं। कूर्म अवाघ विभज्य पुनरीशानी स्वात्यांशपरोशिः । एवं मृष्ट्वा मरीच्यादींन्देवदेवः पितामहः।

महादेवनयोगेन पितामहमुपस्थिता।।८।। | महेब मानलैं: पुस्तताप परमं तपः॥ ॥ हे ब्राह्मणों ! ईशानी (शिवशक्ति) ने महादेब को आज्ञा से | कर्मरूप विष्णु ने कहा- इस प्रकार मरीचि आदि | अपने स्वरूपांश को दो भागों में विभक्त किया और फिर वह | प्रजापतियों की सुप्ति करके देवदेव पितामह ब्रह्मा इन मानस

पितामह के समीप गई। | पुत्रों के साथ ही परम तपस्या करने लगे। तामाह भगवान् ब्रह्मा क्षम्य दुहिता भव। तस्यैवं तफ्तो वक्त्रादृ: लाग्निसम्भवः। सापि तम्य नियोगेन प्रादुरासप्रजापतेः॥१॥ त्रिशूलपाणिरीशान: आदरात्रिलोचनः॥३॥ तब भगवान् ब्रह्मा ने उस ईशानी शक्ति से कहा- ‘तुम अर्द्धनारीनरवपुः दुश्योतिभयंकरः।। दक्ष प्रजापति कौ पुत्री बन’। इस प्रकार प्रजापति की आज्ञा विभज्ञात्मानमत्युक्वा ह्या चान्तद्दधे भयात्॥ ३॥ में नह भी दक्ष-अनापति की पुत्रीरूप में प्रादुर्भूत हुई। इस प्रकार तप करते हुए ब्रह्मा के मुख से रुद्र प्रादुर्भूत | नियोंगाह्मणों देवीं ददौ रुद्राय तां सतम्।। हुए जिससे प्रलयकाल की अग्नि उत्पन्न हो रहीं थीं, हॉथ में | दाक्ष रुद्दोऽपि नाङ्ग स्वकीयामेव शूलभूत्। १०|| निशुलधारण किया था और जो त्रिनेत्रधारीं थे। उनका शरीर | तदनन्तर अद्मा की आज्ञा से इनमें प्रमुख सनी देवों को आधा नारी और आधा नर का था। उनके सामने देखना भी | रुद्र के लिए अर्पित की। शूलपाणि रुद्र में भी उच्च दक्ष-पुत्री कठिन था। वे अतिभयंकर दें। तब भय के मारे ब्रह्मा | को अपनी पत्नी रूप में स्वीकार किया। ‘अपनी आत्मा का विभाग कारों’ ऐसा कहकर अन्तहित हों | फ्रज्ञापनविनिर्देशाकालेन परमेश्वरी। गये। विभज्य पुनरीशानी आत्मानं शंकरापिः ॥ ११।। तयोमौ द्विया स्त्रीत्वं पुरुषत्वं तथाकोत्। मेनायामभवत्पुत्री नदा हिमन; सती। विभेद पुरुषत्व दशया बैंकमा पुनः॥ ६॥ से चापि पर्वतवारों दद्दी रुद्राय पार्वतीम्।। १ ।। इतना कहने पर उन्होंने स्त्री और पुरुष रूप में स्वयं को हिताय सर्चदेवानां बैलोक्यस्यात्मनों शिः।। दो भागों में विभक्त कर दिया। पुनः उन्होंने पुरुष को | । कुछ समय बाद वही परमेश्वरी सतौ देवौ ब्रह्मा की आज्ञा एकादश भागों में बांट दिया। में (दक्ष-यज्ञ में अपने पुनः विभक्त कर (शरीर छोड़कर) एकादशैतें कथिता हास्त्रिभुवनेश्वराः। निमालय द्वारा मेनका में उसकी पुत्री रूप में उत्पन्न हुई। तब कपालशादयो विमा देवकार्ये नियोजिताः॥ ५॥ पर्वतश्रेष्ठ हिमालय ने अपनी पुत्र पार्वती को समस्त देवों के, तीनों लोकों के तथा अपने हित के लिए शिवजी को | कूर्म उवाच अर्पित की।

पुरा पितामहेनोक्तं मेरुपृष्ठे सुशोभने। मैंषा माहेश्वरी देवी शंकराईशरीरिणी॥ १३॥ रहस्यमेतद्विज्ञानं गोपनीयं विशेषत:॥ ४॥ शिवा सती हैमवती सुरासुरनमस्कृता। पुरा काल में अति सुन्दर मेरुपर्वत के पृष्ठभाग पर तस्या; मासमतुलं सर्वे देवाः सवासभाः॥ १४॥ विराजमान पितामह ने विशेषतः गोपनीय इस रहस्यमय वदन्ति मुनयों वेत्ति शंकरों या स्वयं हरिः।

विज्ञान को कहा था। एतद् इञ्चित विप्राः पुत्र परमेष्ठिनः॥ १५ ॥

सायानां परमं सायं ब्रह्मविज्ञानमुत्तमम्। ब्राह्मण; फ्यायोनित्यं शङ्करस्यामितौजसः॥ १६॥ संमारालमग्नानां जन्तूनामेकमोचनम्।। ५॥ वहीं शंकर के अर्थ शरीर को धारण करने वालों देवी | | यह सांयवादियों का परम सांख्यतत्त्व और उत्तम माहेअरी, शिवा, तथा सती हेमवती नाम से प्रसिद्ध और | | ब्रह्मविज्ञान हैं। यह संसाररूप समुद्र में डूबे हुए प्राणियों का देवों तथा असुरों द्वारा नमस्कृत हैं। उस देबी के अतुल उद्धारक हैं। | प्रभाव को इन्द्र सहित सभी देव, मुनगण, स्वयं शंकर तथा या सा माहेश्वरी शक्तिर्जानरूपातिलालसा।। श्रीहरि विष्णु भी जानते हैं। हे चित्रों ! इस प्रकार जिस रूप में

योगसंज्ञा परा झाझा संयं मसती मत।। ६॥ रुद्रदेव ब्रह्मा के पुत्रत्व को प्राप्त हुए और ब्रह्मा की कमल से | उत्पत्ति के विषय में तथा अमित तेजस्वी शिव के भाव का वह जो माहेश्वरी शक्ति है, अर्तिलालसा और ज्ञानरूपा है। वर्णन मैंने किया हैं। यहीं पराकाष्ठा और व्योमसंज्ञा चालों हैमवतौ कही गई हैं।

शिवा सर्वगतानता गुणातीतातिनिष्कला।

इति श्रीकूर्मपुराणे पूर्वभाग देवता एकादशोऽध्यायः॥ ११॥

एकाने विभागस्या ज्ञानरूपानिलालसा॥७॥

वहीं कल्याणकारिणों, सब में स्थित, गुणों से परें और ॥अथ द्वादशोऽध्यायः॥

अति निष्कल है। एक तथा अनेक रूपों में विभक्त, ज्ञानरूया (देवी-माहात्म्य

और अतिलालसा है। सूत उवाच अनन्या निष्कले तत्वें संस्थिता तस्य तेजसा।

स्वाभाविक च तन्मूला प्रभा भानोरियामला॥८॥ इत्याकण्य मुनयः कुर्मरूपेण भाषितम्। विष्णुना पुनरेवेमं पप्रच्छः प्रणीता हरिम्।। १।। उसे ईश्वर के तेज से निष्कल तत्व में संस्थित अनन्या सूतजी बोले- कूर्मावतार धारण करने वाले भगवान् और स्वाभाविकी तन्मूला प्रभा भानु के समान अत्यन्त

निर्मल है। विष्णु द्वारा कथित इस वृत्तान्त को सुनकर पुन: मुनियों ने हरि को प्रणाम करते हुए पूछा।

 

एका माहेश्वरी शक्तिरनेकपाधियोगतः।।

मशवरेण रूपेण क्रीड़ने तस्य सन्निधौ॥१॥

अपय ऊचुः एक माहेश्वरी शक्ति हीं अनेक उपाधियों के मेल से पर कैया भगवती देवी शङ्कराईशरीरिणी।

अवर रूप से उस ईश्वर के साथ क्रौंडा करती हैं। शिवा सनी हैमवती ययावहि पूनाम्।।३।। स्वयं करोति सकलं तस्याः कामिदं जगत्। ऋषियों ने कहा- वह शंकर को अधगिनी देवी भगवती । न कार्यं नापि करणमौरस्येति सूरयः॥ १० ॥ कौन हैं, जिनके अपर नाम शिवा, सत और हेमवतौ हैं, आप यथावत् कहें हम आपसे पूछते हैं। वहीं शक्ति सब कुछ करती है, उसका ही कार्य यह जगत्

हैं। विद्वानों का कहना है कि ईश्वर को न तो कार्य हैं और न तेषां तद्वचनं श्रुत्वा मुनीनां पुरुयोत्तमः। युवाच महायोगी घ्यावा स्यं परमं पदम्।।३।। इन मुनिगण के वचन सुनकर महायोगी पुरुषोत्तम ने चतस्रः शक्तयों देव्याः स्वरूपत्वेन संस्थिताः। अपने परम पद का ध्यान करके उत्तर दिया। अधिष्ठानवशात्तस्याः शृणुष्वं मुनिपुयाः।। ११॥ कूर्ममहापुराणम् । हे मुनिश्रेष्ठ! उस देवी कौ चार शक्तियां हैं, जो | सैषा मायात्मिक शक्तिः सर्दाकारा सनातनीं। अधिष्ठानवश अपने स्वरूप में संस्थित हैं, उसे सुनो। । शिरूपं महेशम्य मर्यदा मप्रकाशयेत्॥ २०॥ शान्तिविद्मा प्रतिक्षा च निवृत्तिति ताः स्मृताः। । बहों मायारूपा सर्वाकारा सनातनी शक्ति नित्य हो । चतुहस्ततो देवः प्रोच्यते परमेश्वर:।। १।।। महादेब के विश्वरूप को प्रकाशित करती है। शान्ति, विद्या, प्रतिमा और निवृत्ति नाम से कहीं गई | अन्याश्च शक्तयों मुख्यास्तस्य देवस्य निर्मिताः॥ | हैं। इसी कारण महादेव परमेश्वर को चतुर्व्यह कहा जाता है। ज्ञानशक्तिः क्रियाशक्ति: प्राणशक्तिरिति त्रयम्।। २१॥ अनया परया देयः स्यात्मानन्दं समश्नुते।

अन्य भी प्रमुख शक्तियां उस देव द्वारा निर्मित हैं, जो चतुष्वपि च वेदेषु चतुर्मतिर्मश्वरः॥ १३॥ भानशान्छि, क्रियाशक्ति और प्राणशक्ति नाम से तीन प्रकार इसी परा स्वरूपा के द्वारा देव स्वात्मानन्द का अनुभव | | को है। करते हैं। वें महेश्वर चारों वेदों में भी चतुर्मुर्ति रूप में स्थित | | सर्वासामेव शक्तींना शक्तिमतों विनिर्मिताः। माययैवाब विप्रेन्याः सा यानादिरनश्चराः॥ २२॥ अस्यास्वनादिमंसिद्धमैश्चर्यमतुलं मत्। हैं विग्रहों ! इन समस्त शक्तियों का शक्तिमान् भी माया तसम्यन्याना कोण परमात्मना।। १४ ।। के द्वारा हाँ विनिर्मित है। वह माया अनादि और अनवर हैं। इसका महान् अतुल ऐश्वर्य अनादि काल से सिद्ध है। | सर्वशक्यात्मिक्का माया दुर्निवारा दुरत्यया। परमात्मा रुद्र के सम्बन्ध से हो वह अनन है। मायावीं सर्वशकश: काल: कालकार: प्रभुः॥ २३॥ सपा सर्वेश्वरी देवी सर्वभूतप्रतिका।। सर्वशक्तिस्वरूप। माया दुनिंबारा और, दुरत्यया होता है। प्रोच्यते भगवान् कालो हरिः प्राणों महेश्वरः।। १५ । । सर्वशक्तियों का स्वामी मायावी प्रभु काल ही काल का बही सर्वेश्वरी देवी समस्त भूतों को प्रवर्तका हैं। भगवान् | रचयिता है। हरि हाँ कान कहे जाते हैं और महेश्वर प्राण। कति कालः सकलं कोहरेत्काल एव हि। तत्र सर्वमिदं प्रोतमोनाबाखिलं जगत्।। कालः स्थापयते विश्न कालापानमिदं जगत्॥ ३४॥ म झालाग्निहरों देवों गीयते वेवादिभिः॥ १६॥ काल हो सबका सृजन करता है और वहीं संहार भो उसमें यह दृश्यमान सारा जगत् ओतप्रोत । वेदवादिगों | करता है। काल हीं पूरे विश्व को स्थापित करता है। यह | द्वारा उस कालाग्नि महादेब की स्तुति की जाती है। जगत् काल के ही अधीन है।

काल: मृत भूतन कालः संहति जाः। | नवा देवाधिदेवस्य सन्निधिं परमुनः। सर्वे कालस्य वशगा न झाल: कस्यचिद्वशः।।१७।। अनन्तस्याखिलेशस्य शम्भो: कालात्मन: प्रभोः॥२५॥ काल ही समस्त भूर्ते का सृजन करता है और काल हो | यानं पुस्यो माया माया सैव प्रपद्यते। प्रज्ञा का संहार करता है। सभी चराचर काल के वशवतीं हैं, एकासर्वगतानता केवाला निकाला झिाव।।१६।। परन्तु काल किसी के वश में नहीं है। देवाधिदेव, परमेष्ठी, अनन्त, अखिलेश, कालात्मा प्रभु प्रधान पुरुषस्तन्वं महानात्मा त्वहंकृतिः। शिव को सन्निधि को प्राप्त करके प्रधान, पुरुष और माया कालेनान्यानि तत्त्वानि समाविष्टानि योगिना॥ १८॥ उस माया को प्राप्त करते हैं जो एक, सर्वगत, अनन्त, प्रधान, पुरुष, महत्व और अहंकार और अन्य तत्त्व भी | केबल निष्करा और शिवा है। योग द्वारा काल के माध्यम से ही समाविष्ट किये गये हैं। । एका शक्ति: शिवैकोऽमि शक्तिमानुच्यते शिवः। तस्य सर्वजगन्मृति: शक्तिमयति विश्रुता।।

फक्तयः शक्तिमतोऽन्ये सर्वशक्तिसमुद्भवाः॥ २७|| तदेयं भ्रामयेदीशों पायाची पुरुयोत्तमः॥ १९॥ वह शक्ति एक है और शिव भी एक हैं। शिव शक्तिमान् उसकीं सारे संसार की मूर्तिरूपा शक्ति माया नाम हैं | कहे जाते हैं। अन्य सभी शक्तियां और शक्तिमान् उसों शिया प्रसिद्ध हैं। मायावों पुरुषोत्तम ईश इसींको घुमाते हैं। | शक्ति से समुद्भूत हैं। नन

 

पूर्वभागे द्वादशोऽध्यायः

शक्तिशक्तिमतोर्चेदं वदनि परमार्थतः। शुभं निरञ्जनं शुद्धं निर्गुण द्वैतवनितम्। अभेदचानुपश्यन्ति योगिनम्त्वचिन्तकाः॥ २८॥ | आत्मपलथिविषयं देव्यास्तत्परमं पदम्।।७।। परमार्थतः शक्ति और शक्तिमान में भेद कहा जाता है. | देवी का वह परम पद शुभ, निरञ्जन, शुद्ध, निर्गुण और परंतु तत्त्वचिन्तक योगीजन उनमें अभेद ही देखते हैं। | भेदरहित है तथा आत्मप्राप्ति का विषय है। यो गिरिजा देवी शक्तिमानव शरः। ।

संवा यात्री विघानी च परमानन्दमताम्। विशेष: श्यते चायं पुराणें ब्रह्मवादिभिः॥ १६॥ अंसारतापानखिलाञिहतीश्वरसंश्रयात्॥ ३८॥ ये शक्तियां देवी पार्वती हैं और शंकर शक्तिमान् हैं। 

परमानन्द की इच्छा रखने वालों की यहीं धात्री और ब्रह्मवादों पुराणों में इसकन बिशेष कवन करते हैं।

विधाज्ञीं हैं। वहीं ईअर के सान्निध्य में संसार के समस्त ज्ञापों भोग्या विश्वरी देवी महेश्वरपतिव्रता।

को नष्ट करती है। शोच्यते भगवान्भोक्ता कपर्दी नीललोहितः।। ३०||

तस्माभिमुक्तिमविच्छन् पार्वतीं परमेस्वरीम्। उस महेश्वर झौं पतिव्रता विश्वेश्वरी देवीं भाया है और आश्रयेत्सर्वभूतानामात्मभूतां शिवापिकाम्।। ३१॥ कपर्दी नीललोहिंन शिव को भक्ता कहा जाता है।

इसलिए मुक्ति की इच्छा करते हुए समस्त भूतों की मना विशेअरों देवः श मन्मयानकः॥

आत्मरूपा शिवस्वरूपा परमेश्वरी पार्वती का आश्रय ग्रहण प्रॉच्यते मतिरीशानी मन्तच्या च विचारतः॥ ३१।।

कामदेव के अन्तुक विश्वेश्वर देव शंकर मन्ना { सब जानने वाले हैं और विचारपूर्वक देखा जाय तो यहीं ईशान या च पुत्र शर्वाण तपस्तष्वा सुदुअरन्। मन–मनन करने ऑग्य है।

सभार्यः शरणं यात: पार्वती परमेश्वरीम्॥४०॥ इत्येतदखिलं विप्राः शक्तिशक्तिमदुद्भवम्। शर्वाणी को पुत्री रूप में प्राप्त कर और कठोर तपश्चर्या प्रोच्यते सर्ववेदेषु मुनिभिस्तत्त्वदशभिः॥ ३३॥

करके भार्या सहित हिमवान् परमेश्वरी पार्वती की शरण में हे चित्रों! यह सारा विश्व शक्ति और शक्मिाने का इत्र | आ गये थे। हैं, यह तत्त्वज्ञान मुनियों द्वारा सब वेदों में कहा गया हैं। नां दृष्ट्वा जायमानाञ्च स्वेच्यैव वराननाम्।

एजन्मशतं दिव्यं देव्या माहात्म्यमुत्तमम्।। मैना हिंमत; पत्नी प्राहेदै पर्वतेश्वरम्॥४१॥ सर्ववेदान्तवादेषु निश्चितं ब्रह्मवादिभिः॥३३॥

पुत्री रूप में स्वेच्छा से उत्पन्न उस समुखौ पार्वती को इस प्रकार देवी का दिब्य और उनम माहात्म्य बताया | देखकर हिमवान् की पत्नी मेना ने पर्वतराज से इस प्रकार गया है, जो ब्रह्मवादियों द्वारा समस्त वेदान्त शास्त्रों में | | कहा निश्चित किया गया हैं। मेनोवोच्च एवं सर्वगतं सूक्ष्म कृटस्वमचलं ध्रुवम्। योगिनतत्पश्यन्ति महादेव्याः परं पदम्॥ ३४॥ पझ्यवालामिमां राजन् राजींवसदृशाननाम्। इस प्रकार सर्वव्यापीं, सूक्ष्म, कूटस्थ, अचल और नित्य

हिताय सर्वभूतानां ज्ञाता च तपसावयोः॥४३॥ महादेवीं के परम पद को योगगण देखा करते हैं। हे राजन्! इस बाला को देखों, जिसका मुख कमल सदृश आनन्दक्ष ब्रह्म केवलं निकले परम्। है। जो हम दोनों के तप से समस्त प्राणियों के कल्याण के योगिनम्नत्प्रपश्यन्ति महादेव्याः परं पदम्॥ ३५॥

लिए उत्पन्न हुई हैं। जो आनन्दरूप, अक्षर ब्रह्मरूप, केवल और परम निकल | सोऽपि दृष्ट्वा तत्वों देवीं वरुणादित्यसमाम्। हैं, महादेव के उस परम पद को योंगींगण देखते हैं। कपर्दिनीं चतुर्वक्त्रां त्रिनेत्रामनिलालसाम्।।४३॥ परात्परतरं त्वं शश्वत शिवमच्युतम्।। अष्टहस्तां विशालाक्षीं चन्द्रावग्रवभूषणाम्। अनन्तप्रकृती लीन देव्यस्तत्परमं पदम्॥३६॥ निगुणा अगुणां साक्षात्सद्सद्व्यक्तिलाम्।३।। पर से भी परतर, शाश्वत, तत्त्वस्वरूप, शिब, अच्युत और प्रणम्य शिरमा भूमौ तेजसा चानिबिड़ल:। अनन्त प्रकृति में लौंन देव का वह परम पद है। भीताः कृताञ्जलस्तस्याः प्रोवाच परमेश्वरीम्।। ४५॥

कुर्ममहापुराणम्

तब (मेना का वचन सुनकर) हिमालय में भी उस देवी | मैं तुम्हें दिव्य चक्षु प्रदान करती हैं. मैरे ईश्वरीय आप को को देखा और बाल सूर्य के समान कान्तिवाली, जटाधारिणी, | देखो। इतना कहकर स्वयं उन्होंने हिमालय को विशेष ज्ञान चार मुख बाली, तीन नेत्रों वालीं, अत्यन्त लालसा-प्रेमभाव | प्रदान करके अपने दिव्य परमेश्वर रूप को दिखा दिया। युक्ता, अष्टभुजा चालीं, विशाल नेत्रों से युक्त, चन्द्रकला को कोटिसूर्यप्रकाश तेजोवियं निरालम्॥५३॥ आभूषणरूप में धारण करने वालों, निर्गुण और सगुण दोन वालामालासहस्रायं कालानलशनोपमम्। रूप वाली होने से साक्षात् सत् अथवा असत् की अभिव्यक्ति दंष्ट्राकराल दुर्घर्ष जटापाइलमण्डतम्।।५३॥ से रहित उस पार्वती देवी को इंडवन् प्रणाम करके

किरीटिने गदाहस्तं शङ्खचक्रधरं तथा। बिशूलबरहता घोररूपं भयानकम्॥५४॥ अतिव्याकुलता के साच दोनों हाथ जोड़कर भय सहित | प्रशानं मौम्यवदनमनन्तशर्यसंयुतम्। हिमालय ने इस परमेश्वरों से कहा- 

सन्द्रावयवमा चन्द्रकोटसमप्रभम् ॥ ५५॥ हिमवानुवाच

किरीटिने गदाहस्ते पुरैरुपज्ञोभितम्। का त्वं देवीं विज्ञालाक्षि ज्ञापयामि।।

दिव्यमाल्याम्बरधरं दिव्यगन्धानुलेपनम्।। ५ ६ ॥ न ज्ञाने त्वामहं में यथावह पृच्छते॥४६॥ शङ्खचक्रपरं काम्यं त्रिनेत्रं कृत्तिवाससम्।

अस्वं सार्थ वामाभ्यनारे परम्।। ५७|| हिमालय ने कहा- हे विशालाक्ष, देवि ! आप कौन हैं?

सर्वशक्तिमयं शुभं सर्वाकारं सनातनम्। चन्द्रकला से युक्त आप कौन हैं? हे पुत्र, मैं तुम्हें अच्छो ब्रह्मेन्द्रोपेन्द्रयोगदैर्वन्यमानपदाम्यज्ञम् ॥ ५ ॥ | प्रकार नहीं जानता हैं, अतः तुमसे पूछ रहा हैं।

सर्वतः पाणिपादान्तं सर्वतोऽक्षिशिरोमुखम्। गिरीदुवचनं श्रुत्वा ततः सा परमेश्वरीं। सर्वपावृत्य तिष्ठनी ददर्श परमेश्वरीम्॥५१॥ ब्याबहार महाशैलं योगिनामभयप्रदा॥ ४ ॥ उनका वह रूप करोड़ों सूर्य के समान भास्कर, तेजों

तदनन्तर गिरीन्द्र के वचन सुनकर योगियों को अभय देने | निम्बस्वरूप, निराकुल, सहस्रों वाला की मालाओं से युक्त वालों वह परमेश्वरों पर्वतरान्न हिमालय से बोली। सैकड़ों कालाग्नि के समान, दंष्ट्राओं से भंयकर, दुर्धर्ष, श्रीदेव्युवाच जटामंडल में सुशोभित, मुकुटधारी, हाथ में गदा लिए, मां सिद्धि परमां शक्तिं महेश्वरसमाश्रयाम्॥४८॥

शंख-चक्रधारी, त्रिशूलवरहस्त, घोररूप, भयानक अत्यन्त शान्त, सौम्यमुख, अनन्त-आश्चर्य संयुक्त, चन्द्रशेखर, अनन्यामध्ययामेकां यां पश्यनि मुमुक्षवः। करोड़ों चन्द्रमा के समान प्रभाशालौं किरौटधारी, गदाहस्त, अहं हि सर्वभावानामात्मा सर्वात्मना शिवा॥४१॥ नूपुर द्वारा पशोभित, दिब्य माला तथा वस्त्रधारी, दिव्य श्रीदेवी ने कहा- मुझे आप महेश्वर के आश्रित परमा | गन्ध में अनुलिप्त, शंखचक्रधारी, कमनीय, त्रिनेत्र, शक्ति जानी। मैं अनन्या, अन्यथा एबं अद्वितीया हैं, जिसे | व्याघ्रचर्मपरिधायौ, ब्रह्माण्डू के अन्तर्गत तथा ब्रह्माण्डू के मोक्ष की इच्छा वाले देखते हैं। मैं सभी पदार्थों की आत्मा | अहिंर्भन, सबके बहि:स्थ एवं आभ्यन्तरस्थ, सर्वशक्तिमय, तथा सब प्रकार से शिवा अर्थात् मंगलमयी हैं। शुभ्रवर्ण, सर्वाकार एर्व सनातन, ब्रह्मा, इन्द्र, उपेन्द्र और शनैश्चयवज्ञानमूर्तिः सर्वप्रवर्निका।।

मोगिन्द्रों द्वारा बन्नौय चरणकमलवाला, सय ओर हाथ-पैर नन्तानन्तमहिमा संसाराचनारिणी।।५।। बाला और सब और नेत्र, शिर एवं मुख वाला था। ऐसे | मैं नित्य ऐश्वर्य की विज्ञानमयों मतं और सबको प्रवनका | रूप को धारण करने वालों और सबको आवृत करके स्थित हैं। मैं अनन्त और अनन्त महिमायुक्त तथा संसार सागर से | परमेश्वरी को देखा। तारने वालों हैं। वा नदीदशं रूपं देख्या माहेश्वरं परम्। दिव्यं ददामि ते चक्षुः पश्य में रूपमैश्वरम्। मन का समाधिः स मा ट्मानमः॥ ६ ॥ एनावदुक्त्वा विज्ञानं दत्वा हिमवते स्वयम्॥ ५ ॥ देवी के इस श्रेष्ठ माहेश्वरी रूप को देखकर पर्चतरान स्वं रूपं दर्शयामास दिव्यं तत्परमेश्वरम्। भययुक्त तथा प्रसन्न मन हो गये।

 

पूर्वभाग द्वादशोऽध्यायः

 

नगे। आत्मन्यायाय चात्मानमोरं समनुस्मरन्। | संसारपना दुर्वारा दुनिरीक्ष्या दुरासदा। नाम्नामसहस्रेण तुष्टाव परमेश्वरीम्॥ प्राणशक्ति: प्राणविद्या योगिनो परमा कला॥७१॥ बे आत्मा में ही आत्मा का धान करके और ओंकार | प्राणेश्वरग्निया, माता, महामहिषवासिनी, प्राणेश्वरी, उच्चारण पूर्वक आठ हजार नामों में परमेश्वरी की स्तुति करने | प्राणरूपा, प्रधान पुरुषेश्वरी, महामाया, सुदुष्णूला, मूलप्रकृति, ईश्वरी, सर्वशक्ति, कलाकारा, ज्योत्स्ना, द्यौः, महिमास्पदा, हिमवानुवाच सर्वकामनियन्त्र, सर्वभूतेश्वरेश्वरौं, संसारयोनि, सकला, सर्वशक्तिसमुद्भवा, संसारपोता, इवाँरा, दुनिया, दुरासदा, शिवोमा परमा शक्तिनना निष्कलामला।

प्राणशक्ति, प्राणविद्या, योगिनी, परमा, कला। शाजा माहेश्वरी नित्या शाश्वत परमारा॥ ६ ॥ अचिन्त्या केवातानन्त्या शिवान्मा परमात्मा।

महाविभूतिदुर्धर्चा मूलम्रकृतिसम्मवा। अनामतविभवा परमायापकविणी॥७३॥ अनादिरख्यया शुद्धा देवात्मा सर्वगाचला॥३३॥ सर्गस्थित्यन्तकारिणी मुद्र्याच्या इत्यया। हिमवान् ने कहा- आप शिवा हैं तथा उमा एवं

शब्दयोनि: शब्दमयी नादाण्या नादविग्रहा॥७३॥ | परमाशक्ति अनन्ता और निष्कला एवं अमला है। आप अनादरम्यक्तगुणा महानन्दा सनातनी। शान्ता, माहेश्वरी, नित्या, शाश्वत एवं परमाक्षरा हैं। आप

आकाशयोनिर्योगस्या महायोगेश्वरेश्वरौ।।४।। अचिन्या मला अनन्या-शिवात्मा-परमारिमका अनादि, महामाया मृदुष्पारा मूलप्रकृतिरीश्वरी। अवयया, शुद्धा, देवात्मा, सर्वगा और अचला भी हैं। धानपुरुषातीता प्रधानपुख्यात्मिका॥५५॥ एकानेकविभागम्या पायातीता मुनिर्मला।

महाविभूति, दुर्भपां, मूलप्रकृतिसम्भवा, महामाहेश्वरी सत्या महादेवी निरञ्जना॥ ६४॥ अनाद्यनन्तबिभचा, परमाद्यापकांगो, सृष्टि-स्थिति काष्ठा मर्यान्तरम्या च चिच्छक्तिरतिलालसा। लयकारिणी, सुदुवांच्या, दुरत्यया, शब्द योनि, शब्दमयौं, नन्दा सर्वात्मिका विद्या ज्योतीरूपाताभरा।। ६५॥

नादाख्या, नादविग्रहा, अनादि, अव्यक्तगुणा, महानन्दा, शान्तिः प्रतिष्ठा सर्वेषां निवृत्तिरमृतप्रदा। सनातनी, आकाशयोनि, योगस्था, महायोगेश्वर की ईश्वरी हैं। व्योममूर्त्तिव्यमलया व्योमाधाराच्युतापरा॥६६॥ महामाया, सुदुष्पारा, मूलप्रकृति, ईश्वरी, प्रधानपुरुष से अनादिनिधनामघा कारणामालाला। अतीत, प्रधानमुरुषस्वरूपा।। स्वतः प्रथमजा नाभिरमृतस्यात्मसंक्रया।। ६५७।। पुराणा चिन्मयीं पुंसामापुरुषरूपिणी। एक और अनेक विभाग में स्थित, मायातींत, अन्यन्त | भूतातरस्था कूटस्था महापुरुषसंज्ञिता।। ७६।। निर्मल, महामाहेश्वरी, सत्या, महादेव, निरञ्जना, काष्ठा, जन्ममृत्युजरातीता सर्वशक्तिसमन्विता। सव भौतर विधमान, चित् शक्ति, अनितालसा, नन्दा, | व्यापिनी चालवच्छिन्ना प्रधानानुप्रवेशिनी॥७७॥ सर्वात्मिका, विद्या, ज्योतिरूपा, अमृता, अक्षरा, शान्ति, क्षेत्रज्ञशक्तिरव्यक्तलक्षणा मलवजंता। प्रतिष्ठा, निवृत्ति, अमृतप्रदा, व्योममूत, व्योमलया, अनादिमायासम्मिन्ना तिचा प्रकृतिबहा॥१८॥ व्योमाधारा, अच्युता, अमरा। अनादिनिधना, अमोघा, महामायासमुत्पन्ना तामसी पौरुषो वा। कारणात्मा, कलाकुला, स्वत: प्रथमोपन्न, अमृतनाभि, व्यक्ताव्यकात्मिका कणा रक्ता शुक्लप्रसूतिका॥७६ ।। आत्मसंया।

पुराणा, चिन्मयी, पुरुषों की आदिपुरुषरूपा, भूतान्तरस्था, प्राणेश्वरप्रिया माता महामहिषवामिनी।

कूटस्था, महापुरुष संज्ञिता, जन्म, मृत्यु और जरावस्था में प्राणेश्वरी प्राणरूपा यापुरुषेश्वरी॥ ६८।। परे, सर्वशक्तियुता, व्यापिनी, अनवच्छिना, प्रधानानुप्रवेशिनों, मह्ममायाचे दुष्पुरा मूलप्रकृतिरीश्वरी।

क्षेशज्ञशक, अव्यक्तलक्षणो, मलजिता, अनादिमाया सर्वशक्तिलाकारा झलना चौहमास्पद्वा॥६६॥ सम्भन्ना, त्रितत्त्वा, प्रकृतिग्रहा, महामायासमुत्पन्ना, तामसी, सर्बकार्यनियंत्री च सार्वभूतेश्वरेश्वरी। पौरुष, धुवा, व्यक्त-अव्यक्तस्वरूपा, कृष्णा, रक्ता, शुक्ला, संसारयोनिः सकला सर्वशक्तिसमृद्भवा॥७०।। | प्रसूर्तिका।

कूर्ममहापुराणम्

अकार्या कार्यबननीं नित्यं प्रसवश्वमगी। ई सुराण, शर्वाणी, शंकराधेशरीरिणी, भवानी, रुद्राणी, सर्गप्रलयनिर्मुक्ता सृष्टिस्थित्यतयार्मिणी॥ ८.६॥ महालक्ष्मी, अम्बिका। महेश्वरसमुत्पन्ना, भुक्तिमुक्तिफलप्रदा, ब्रह्मगर्मी चतुर्विशा पद्मनाभाच्युतान्पिका।। सर्वेश्वरी, सर्ववन्द्या, नित्यमुदितमानसा, ब्रह्मेन्द्रोपेन्द्रनमिता, वैद्युती शासन योनिर्जगन्मातेश्वरिप्रया॥ ८ ॥ शंकरेच्छानुवर्तनीं, ईश्वरार्धासनगता, महेश्वरपतिव्रता। सर्वाच्चाग महारूपा सर्वश्वर्यसमन्तिा ।

सकृद्विभाता, सर्वार्तसमुद्रपरिशोषिणों, पार्वती, हिमवत्पुत्री, विश्वरूपा महाग विशेच्छानुवतिनी।।८॥ परमानन्ददायिनीं। महायसी ब्राह्मयनि: महालक्ष्मीसमुद्भवा।।

गुणाझ्या योगज्ञा योग्या ज्ञानमूर्निर्विकाशिनी। महाविमानमध्यस्था महानिद्रात्महेतुका ८३॥ सावित्री कमला लक्ष्मी; औरनन्तरसि स्थिता।।१३।।

अकार्यों, कार्यजननौ, नित्यप्रसवधर्मिणी, | सरोनिलया गंगा योगनिद्रा सुरार्दिनी। | सर्गप्रलयनिर्मुक्का, सृष्टिस्वित्यन्तर्धामणी, ब्रह्मगर्भा, चतुर्विंशा, सरस्वतीं सर्वविच्चा जगज्येल्ला सुमंगला॥१३॥ | पद्मनाभा, अच्युतात्मिका, बैद्युती, शाश्वती, योनि, जगन्माता, वाग्देवी सरदा वाया कीर्तिः सर्वार्थसाबिका। ईश्वर प्रिंया, सर्वाधारा, महारूया, सर्वे कार्यसमन्विता, बोगरी विद्या महाविण मुशोमा।। १ ।।

चिश्वरूपा, महागभ, विश्वेशेच्छानुवर्तिनी, महौससौ, गुह्यविद्यात्मविया च अवमभाविता। ब्रह्मयोनि, महालक्ष्मीसमुद्भवा, महाविमान के मध्य में स्वाहा विश्वम्भरा सिद्धिः स्वया मेघा बृति:श्रुतिः॥६५॥ स्थित, महानिद्रा, आत्महेतुका।। गुणाढ्या, योगा, योग्या, ज्ञानमूर्त, विकासिनी, सावित्री, सर्वसाधारणी सूक्ष्माविद्या पारमार्बिका। कमला, लक्ष्मी, श्री, अनन्ता, इसिस्थिता, सरोजनिलया, अनन्तरूपानन्तस्या देशी पुरुषमोहिनी॥८४॥ गंगा, योगनिद्रा, सुरार्दिनी, सरस्वती, सर्वविद्या, जगज्ज्येष्ठा, अनेकाकारसंस्थाना कालत्रयविवर्जिता। सुमंगला। वाग्देवी, वरदा, वाच्या, कीर्ति, सर्वार्थसाधिका, ब्रह्मजन्मा हरेमूर्तिवाविष्णुशिवापिका।। ८५|| योगीश्वरी, ब्रह्मविद्या, महाविद्या, सुशोभना, गुह्यविद्या, सोशलिम्जननी व्रह्माख्या सल्लया।

आत्मविझा, धर्मविद्या, आत्मभाविता, स्वाहा, विश्वम्भरा, व्यक्ता वमना ब्राज़ी माती आह्मरूपिणी।।८।।

सिद्धि, स्वधा, मेधा, धृति, श्रुति।। वैराग्यैश्वर्यधर्मात्या ब्रह्ममूर्ति अदिस्थिता।

वीतिः सुनीतिः सुकृतिर्माययों नरवाहिनी। अपां निः स्वयम्भूतिर्मानस तत्त्वसम्भवा॥ ७॥

पूज्या चिंभावती सौम्या भोगिनी भौगशायिन।। १६॥ सर्वसाधारणी, सूक्ष्मा, अचिद्या, पारमाथिका, अनतरूपा, शोभा च शंकरी लोला मालिनी परमेष्ठिनीं। अनन्तस्था, पुरुषमोहिनी, अनेक आकारों में अवस्थिता, | त्रैलोक्यसुन्दरी नम्या सुन्दरी कामचारिणी।। १७ ।। कालत्रयविवर्जिता, ब्रह्मजन्मा हाँर की मूर्ति, ब्रह्म महानुभावा सत्त्वस्था महामहिषमर्दिनी। | विष्णुशिवात्मिका, ब्रह्मेश-विष्णु-जननी, ब्रह्माया | पद्मनाभा पापहरा विचित्रमूकुसंगद्दा॥ १८॥ | ब्रह्मसंशया, स्यक्ता, प्रथमजा, ब्राह्मी, महूती ब्रह्मरूपिणी, काता चित्रातरधरा दिव्याभरणभूषिता।

 

वैराग्यैश्वर्यधर्मात्मा, ब्रह्ममूर्ति, दिस्थिता, अपांयोनि, इंसारख्या व्योमनिलया जगत्सृष्टिविंवर्धनी॥११॥ स्वयम्भूति, मानसीं, तबसंभवा।

नीति, सुनी, झकृति, माधवीं, नरवाहिनी, मुन्मा, ईश्वराणी च शर्वाणी कार्यशरीरिणी। विभावत, सौम्या, भोगिनी, भोगज्ञायिनी, शोभा, शंकरी, भवानी चैत्र रुद्राणी महालक्ष्मीरचाम्बिका॥८८॥ लोला, मालिनी, परमेष्ठिनों, त्रैलोक्यसुन्दरी, नम्या, सुन्दरी, महेश्वरसमुत्पन्ना मुक्तिमुक्तफलप्रदा।

कामचारिणी, महानुभाबा, सत्चस्था, महामहिषमर्दिनी, सर्वेश्वरीं सर्ववद्या नियं मुदितमानमा।। ८१॥ पद्मनाभा, पापहरा, चिचित्रकुटांगदा, कान्ता, चित्राम्बरधरा, वन्द्रोपेन्द्रनमिता शंकरेच्छानुवर्तिनी।

दिव्याभरणभूषिता, हंसाळ्या, व्योमनिलया, जगत्सृष्टि ईश्वरार्धासनगता महेश्वरपतिव्रता॥१०॥ विवर्धिनीं। अकृदिभाता सर्वोर्निसमुद्रपरिशोषिणौ।

नियन्त्री यन्त्रमण्यस्या नंदिनी पद्कालिका। , पार्वती हिमवत्पुत्री परमानन्ददायिनी॥ १॥ आदित्यवर्णा कौवेरी मयूरवरवाहना।। १० ॥

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पूर्वभाग द्वादशोऽध्यायः

वृषामनगला गौरी महाकाली मुरार्चिता। महेन्द्रोपेन्द्रभगिनी, भक्तिगम्या, परामरा, ज्ञान-ज्ञेया, अदितिनिता शैया पद्मग विमाना।। ६ ।। जरातोता, बेदान्तविषया, गतिरूपा, दक्षिणा, दहती, दोर्पा, विरूपाक्षी लेलिङ्गाना महासुरविनाशिनी। सर्बभूतनमस्कृती, योगमाया, विभागज्ञा, महामोहरा, गरीयसी। महाफलानमांगी कामरूपा विभावरी।। १०३॥ | मया सर्वसमुभूतिविग्रअयादिमः। बिचिजालमुकुटा प्रणतात्तिप्रभञ्जनी।

बीजांकुरमुर्भातर्महाशक्तिर्महामतिः॥ १११।। शिक्की कर्षणों विदिशातिविनाशिनी॥ १० ॥ झाति: प्रज्ञा चितिः सच्चिन्महाभोगीन्द्रशायिनी। नियन्त्री, यन्त्रमध्यस्था, नन्दिनौं, भद्कालिका, | विकृतिः शाी शास्तिर्गपागधर्यता।। ११३॥ आदित्यवगां, कौबेरी, मयूर-वरवाहना, वृषासनगना, गौरी, वैश्वानरों महाशाला महासेना गुप्रिया। महाकाली, सुरार्चिता, अदित, नियता, रौदा, पद्मग, | महारात्रिः शिवानन्दा शचीं दुःस्वपनाशिनी॥ ११४॥ विवाहुना, विरूपाक्षीं, लेलिहाना, महासुरविनाशिनी, इज्या पूज्या जगाद्धात्री दुनिया सुपणी। महाफला, अनबद्यांगों, कामरूपा, विभावरी, तपस्विनी समाथि क्या त्रिनेत्रा दिवि संस्थिता॥ ११५॥ विचित्ररत्नमुकुटा, प्रणतातिप्रभञ्जनी, कौशिको, कर्षणी, रात्रि, सन्ध्या, ब्रह्मविद्याश्रयादि द्वारा सबकी उत्पत्ति का कारण, त्रिदशातिविनाशिनौ।

वीजाङ्करसमुते, महाशक्ति, महामति, शान्ति, प्रज्ञा, चित, बहुळ्या स्वरूपा च विरूपा रूपवता। सचिनू, महाभोगीन्द्र-शायिनी, विकृति, शाङ्करी, शास्ति, भक्तार्तिशमनी भन्या भवतापविनाशिनी। १३४॥ गणगन्धर्यसविता, वैश्वानरों, महाशाला महासेना, गुहाँनंया, निर्गणा नित्यविधवा नि:सारा निरपन्ना।

महारात्रि, शिवानन्दा, शचौं, दु:स्वप्न-नाशिनी, इज्या, पुन्या, तपस्विनी सामगोतिर्मयानिलयालया॥ १५॥ जगद्वात्रों, दुर्बिनेया सुरूपिणी, तपस्विनों, समाधिस्था, दीक्षा विद्याघरीं दीप्ता महेन्द्रविनपातिनीं।

त्रिनेत्रा, दिनि, संस्थिता। सर्वातिशायिनी विश्वा समप्रदायिनी॥ १६॥ गुहाम्बिका गुणोत्पनिर्मापीय मरुत्सुता। सर्वेश्वरप्रयाभार्या ममुद्दान्तरवासिनीं।

इयवाहातगादिः हन्यवाहसमुवा॥ १६॥ अलंका नियाग्न नित्यसिद्धा निरामयाः॥ १॥७॥ जगनिर्जगन्माता जन्ममृत्युवरातिगा। बहुरूपा, स्वरूपा, विरूपा, रूपवता, भक्तांर्तिशमनौ।बुद्धिर्महावुद्धिपती पुरुषान्तरवासिनी॥ ११॥ भन्या, भवतापविनाशिनों, निर्गुणा, नित्यविभवा, नि:सारा, तस्विनी समामिंस्था त्रिनेत्रा दिवि संस्थिता। निषत्रपा, तपस्विनी, सामगीति, भांगनिलयालया, दक्षिा, सायमनोमाता सर्वभूतद धिता।। ११८॥ विद्याधरौ, दीप्ता, महेन्द्रचिनिपातिनी, सर्वातिशायिनी, चिवा. संमातारिणीं विद्या प्रवादिमनोलया। सर्वसिद्धिप्रदायिनी। सर्वेश्वरप्रसाभार्या, समुद्रान्तरवासिनी, ब्रह्माणी वृहती साड़ी ब्रह्मभूता भवारिणी॥ ११९ ॥ अकलंका, निराधारा, नित्यसिद्धा, निरामया।

गुहाम्बिका, गुणोत्पत्ति, महापीय, मरुत्सुत्ता, कामधेनु वृहद्गर्मा श्रीमती मोनाशिनी।।

हव्यवाहान्तगाद, हव्यवाहसमुद्भवा, जगद्मोनि, जगन्माता, नि:संकल्पा निरातङ्कवा विनया विनयप्रिया॥ १० ॥ जन्ममृत्युजरातिंगा, बुद्धि, महाबुद्धिमती, पुरुषान्तरबासिनी, मानामानासहस्त्राच्या देवदेवी मनोमयी।

तस्विनों, समाधिस्था, त्रिनेत्रा, दिविसंस्थिता, महाभगवती भर्गा वासुदेवसमुथा।।। १७ ॥ सर्वेन्द्रियमनोमाता, सर्वभूतदिशिता, संसारतारिणों, विद्या, महेद्रोपदभगिनीं भक्तिगण्या परावरा।

ब्रह्मवादिमनोलया, ब्रह्माणी, बहन, ब्राह्मी, अभूता, ज्ञानज्ञेया जरातींता वेदान्तविघया गतिः।। ११ ॥ भवारिणी।। दक्षिणा दहनी दोघ सर्वभूतनमस्कता।

हिरण्मयीं महारात्रिः संसारपरिवर्तिका। योगमाया विभागज्ञा महामाहा गरीयसीं॥ ११॥ सुमालिनी सुरूपा च भाविनी हारिणी प्रभा॥ १२० कामधेनु, बृहद्गभाँ, श्रीमती, मोहनाशिनी, नि:संकल्पा, | उन्मीलनी सर्वसहा सर्वप्रत्ययसाक्षिणी। निशता, विनया, विनयप्रिया, ज्वालामालासहसा, | मुसौम्या चवदना तापड्यासक्तमानमा।। १३ १॥

देवदेवी, मनोमयों, महाभगवती, भर्गा, वासुदेवसमुद्भवा, | सत्वशुद्धिकरी शुद्धिर्मलयविनाशिनी।

 

कूर्ममहापुराणम् जगत्प्रिया जगन्मूतस्लिमूर्तिरमृताश्चया।। १२२॥ वशिनी, वंशहारिणी, गुह्यशक्ति, गुणातीता, सर्वदा, निराश्रया निराहारा निरंकुशपदोद्भवा।

सर्वतोमुखौ। चन्द्रहस्ता विचित्राङ्गी अग्विणी पद्मयारिणी।।१२३॥

भगिनी भगवत्पत्नीं सकता कालहारिणी। हिरण्मयीं, महारात्रि, सारपरिवर्तिका, सुम्मालिनों, ।। सर्वचित् सर्वतोभद्रा गुणातीता गुहावलिः॥ १३३॥ सुरूपा, भाविनी, हारिणी, प्रभा, उन्मीलनों, सर्वसहा, प्रक्रिया योगमाता च गङ्गा विकारेश्वरी। सर्वप्रन्ययसाक्षिण, सुसौम्या, चन्द्रबद्ना, ताण्इनासक्त- | कलिला कपिला काता कमलामा कलान।। १३३॥ मानसा, सत्त्वशुद्धिकरी, शुद्धि, मलत्रय-विनाशिनी, | पुण्या पुष्करिणी भक्ती पुरन्दरपुरम। जगत्प्रिया, जगन्मूर्ति, त्रिमूर्ति, अमृताश्रया, निराश्रया, पोषिणों परमैश्वर्यभूतिदा भूतिभूषणा॥ १३४॥ निराहारी, निरंकुशपदोद्धबा, चन्दहस्ता, विचित्राङ्गी, पञ्चवसमुत्पन: परमार्थविग्रहा। स्रग्विण, पद्मधारिणी।

धर्मोदया भानुमती योगिया मनौजवा॥ १३५॥ परावरविंधानज्ञा महापुरुषपूर्व।

भगिनी, भगवत्प, सकला, कालाहारिणी, सर्ववित्, विश्वेश्वरप्निया विद्युत् विपुञ्जिय ज्ञिताश्चमा।। १२४॥ सर्वतोभद्रा, गुयातीता, गुहावलि, प्रक्रिया, योगमाता, गंगा, विद्यामयीं सहस्राओं सहस्रवदनात्मज्ञा। विसे मारे कारो, कलिला, कपिला, कान्ता, कमलाभा, मरश्मिः सर्वस्था महेश्वरपदालया॥ १३५।। कालान्तरा, पुण्या, पुष्करिणी, भोक्त्रो, पुरन्दरपुर:सरा, शालिन मृण्मयों व्याप्ता तैज्ञमी पद्मयोंघिया। पिण, परमेश्वभूतिंदा, भूतिभूषणा, पञ्जह्मसमुत्पत्ति, महामायाण्या मान्या महादेवमनोरमा।। १२६॥ परमार्थार्थविग्राहा, धर्मोदया, भानुमतौ, योगिज्ञेया, मनोजबा। व्योंमलक्ष्मी; सिहरसा चेकितानामितभा।

मनोरमा मनौरस्का तापसी वेदरूपिणीं। घार विमानस्था विज्ञका झोंकनाशिनी॥ १३॥ वेदशक्तिर्वेदमाता वेदविद्याप्रकाशिनी॥ १३६॥

परावविधानज्ञा, महापुरुषपूर्वजा, विश्वेरप्रिया, विद्युत्, || योगेश्वरेश्वरी माता महाशक्तिर्मनोमयी। बिद्युजिल्ला, जितश्रमा, विद्यामयों, सहस्राक्ष, || विभावस्था वियन्मृतिविद्युन्माला विहायम॥ १३॥

सहस्रवदनात्मजा, सहस्ररश्मि, सत्चस्था, महेश्वरपदाश्रया, | किन्नरी सुरभों विद्या नन्दिनों नन्दिवनभा। क्षालिनौ, मृण्मयी, व्याप्ता, तैजसी, पद्मयाधिका. || भारत परमानन्द्रा परापरविभेदिका॥ १३८ । महामायालया, मान्या, महादेवमनोरमा, व्योमलक्ष्मी, सर्वप्रहरणोपेता काम्या कामेश्वरेश्वरी। सिंहरथा, चेकिताना, मंतप्रभा, दौंरेश्वरौं, विमानस्था, अचिन्यानन्तविभवा भूलेखा कनकप्रभा।। १३१॥ विज्ञाका, शोकनाशिनीं। मनोरमा, मनोरस्का, तापसी, बेदरूपिणी, वेदशक्ति, अनाहता कुण्डलिनी नलिनी पद्मभासिनी। वेदमाता, वेदविद्या-प्रकाशिनी, योगेश्वरेश्वरो, माता, सदानन्दा सदाकीर्तिः सर्वभूताश्रयस्थिता।। १३८॥ हाशक्ति, मनोमय, विश्वावस्था, वियन्मूर्ति, विद्युन्माला, वाग्देवता ब्रह्मला कालातीता कलारणी।

विहायसी, किन्नरों, सुरभी, विद्या, नन्दिनी, नन्दिबल्लभा, सप्तश्री साहदया नाविण झिसप्रिया॥ १२६॥ भारत्तो, परमानन्दा, परापविभेदिका, सर्वप्रहरणोपेता, व्योमशक्ति: स्त्रियाशक्तिञ्जनशक्तिः परा गतिः। काम्या, कामेश्वरेवरी, अचिन्या, अनन्तवैभवा, भूलेखा, शोभिका बयिका भेद्या भेदाभेदविवर्जिता।। १३०॥ कनझमभा। अभिन्ना भिन्नर्सलाना वशिनी बन्नहारिणी। कुष्माण्डी अनलाढ्या सुगन्धा गयायनी। गुणशक्तिर्गुणातीता सर्वदा सर्वतोमुखीं।। १३ १।। त्रिविक्रमपदोडूता घनुष्पाणि: शिबोदया।॥ १४ ॥

अनाहता, कुण्डलिनी, नलिनी, पद्मभासिनौ, सदानन्दा, | सुदुर्लभा घनाध्यक्षा मन्या पिंगललोचना। सदाकीन, सर्वभूताश्रयस्थता, वाग्देवता, ब्रह्मकमा, | याति: प्रभावती दीप्तिः पङ्कजायतलोचना॥ १४ १॥ कलानौता, कलारणौ, ब्रह्मश्री, ब्राहृदया, ब्रह्मविष्णु- | आग्रा भूः कमलङ्कता गवां माता रणप्रिया। शिवप्रया, व्योमशक्ति, क्रियाशक्ति, ज्ञानशक्ति, प्रगतिं. | सक्रिया गिरिशा शुद्धिर्नित्यपुष्टा निरन्तारा।। १४२॥ क्षोभिका, भेद्या, भेदाभेदविनंता, अभित्रा, भिन्नसंस्थाना, | दुर्गा कात्यायनी चंडी चर्चितांगा मुर्विप्रहा।

 

पूर्वभाग द्वादशोऽध्यायः । हिरण्यवर्णा जगनी जगरांत्रप्रवर्तका।। १४३।।

जयन्ती अगुड़ागम्या गरेछा गगाणी:। | कुष्माण्डी, धनाढ्या, मुगन्धा, गन्धदायिनी, | मापसिद्धा माम्यस्था सर्वसिज्ञानदायिनी।। १५ ३॥ त्रिविक्रमपदोंडूता, धनुष्याण, शिवदया, सुदुर्लभा,

कलिः कन्कविहवीं च गुजोपनिषदुत्तमा। धनाध्याक्षा, धन्या, पिंगत्नलोचना, शान्ति, प्रभावत, दीप्ति, । निशा दृष्टि: स्मृतिप्तिः पुष्टिम्तुष्टिः क्रियायती॥ १५३ पंकज के समान दीर्घ नेत्रवाल, आद्या, भू, कमलोद्भूता,

विभामरेभरेशाना भुक्तिमुक्तिः शिवामृता। गौमाता, रणप्रिया, सक्रिया, गिरिशा, शुद्ध, नित्यपुष्टा, सोहिता सर्पमाला च भयाणा ममालिनी।। १५४|| निरन्तरा, दुर्गा, कात्यायनी, चंडी, चचितांगा, सुविग्रहा, अनाज्ञायनानन्ता नरनारायणोद्भवा।। हिरण्यवर्णा, जगत, जगईंनप्रवर्तिका।।

सिही दैत्यश्वनी अगदायरा।। १५५॥ मदरादिनिवासा च गरा स्वर्गमालिनी।

आप जयन्ती, हृदुहागम्या, गल्ला, गणाप्रणी, उत्पमाला रत्नगर्भा पुष्टिविश्वप्रमाशिनी।। १४४|| संकल्पसिया, साम्पस्था, सर्वविज्ञानदायिनी, कलि, पद्मनाभा पद्मनिभा नित्यकामनाया।

कल्कविहन्त्री, गुह्योपनिषदुत्तमा, निष्ठा, दृष्टि, स्मृति, व्याप्ति, युवती दृप्राकम्पा च सूर्यपाता दपती॥ १॥५॥

पुष्टि, तुष्टि, क्रियावती, समस्त देवेश्वरों को शासिका, भुक्ति, महेन्दभगिनी सौम्या वरेण्या बरदायिा । मुक्ति, शिवा, अमृता, लोहिता, सर्पमाला, भौघणी, कल्याणी कमलासासा पकाचा सरप्रदा॥ १४६॥ वनमालिनी, अनन्तशचना, अनन्ता, नरनारायणोद्भवा, याच्यामरेश्वरी विद्या दुर्जया दूरतिमा।

नृसिही, दैत्यमयनी, शंखचक्रगदाधरा हैं। कालरात्रिर्महान्नेगा वीरभद्रप्रिया हिता॥ १४ ॥ मर्पणी समुत्पत्तिरम्बिका पादसंश्रया।

मन्दराचलनिवासा, गहा, स्वर्गमालिनी, रत्नमाला, महाज्वाला महाभूति: सुपूर्त: सर्वकामधुक्॥ १५६।। बलगर्भा, पुष्टि, विप्रमार्थिनीं, पद्मनाभा, पद्मनिभा, नित्यरुष्टा,

शुभा च मुस्तना सौरी शर्मकामार्चमोक्षदा।

अमृतोद्भवा, धुन्चती, दुकम्पा, सूर्यमाता, दृषद्वती, भूपयनलया पूर्वा पुराणपुरुषारणिः।। १५७॥

महेन्द्रभगिनी, सौम्या, बरेश्या, बरदायिंका, कल्याण, महाविभूतिदा या सरोजनयना समा। कमलावासा, पञ्चचूडा, वरदा, जाच्या, अमरे सरी, विद्या,

अष्टादशभुज्ञानाद्या नौलोत्पलदलप्रभा॥ १५८॥

दुर्जया, दुरतिक्रया, कारात्रि, महावेगा, वौरभग्निया, हिता।

सर्वशक्त्यामनाया घर्माधर्मविवर्जिता। भकाली जगन्माता भक्तान भद्रदायिन।

वैराग्यज्ञाननिता निरालोका निरिन्द्रिया।। १५१॥

कराना पिंगलाकारा कामभेदा महास्वना।। १४८॥

आप संकर्षणी, समुत्पत्ति, अम्बिका, पादसंश्रया, यशस्विनी यशोदा पायपरिवर्तका। महानाला, महाभूति, सुमूर्ति, सर्वकामधु, शुभ्रा, सुस्तना,

सौरों, धर्मकामार्थमोक्षदा, भूमध्यनलया, पूर्वा, पुराण ज्ञनि पसिनी सांया सांख्ययोगवर्तिका।। १४६॥

पुरुषाण, महाविभूतिंदा, मध्या, सरोजनयना, समा, चै संवत्सरारुद्धा जगत्सम्पूरगी ज्ञा। अष्टादशभुजा, अनाथा, नौलोत्पलदलप्रभा, सर्वशक्त्या शुभारिः घरी स्वस्था केयुप्रीवाझलिप्रिया।। १५ ॥

सनाद्धा, धर्माधर्मविर्वाजता, बैराग्यज्ञाननिरता, निरालोका, खगवजा गारूद्धा वाराही गमालिन।। निरिन्द्रया।। ऐश्वर्यपद्मनिलया विक्ता गरुडासना।। १५ ।।

विचित्रगनापारा शासनस्वानवासिनी। भद्रकालो, गन्माता, भक्तमंगलदायिनी, काला, स्थानेश्वरी निरानन्दा त्रिशूलधारिणी।। १६ ॐ || पिंगलाकार, कामभेदा, महास्ना, यशस्विनी, अशोदा, अपदेवतामूर्तिर्देवता वरदेवता। षष्ट्रध्वपरिवर्तका, ध्वजा, शंखिनौ, पद्मिनी, सांख्या, गायिका गिरेः पुत्री निशुम्वनिपातिनी।। १६ १।। सांख्योगप्रतिका, चैत्रा, संवत्सरारूडा, जगत्सम्पूरणी, अवर्णा वर्णरहिता त्रिवर्णा बीचसम्भवा। ध्वजा, शुभारं, खेचरी, स्वस्था, कंबुग्रीवा, कलिप्रिया,

तवर्णानन्यम्वा शरी शान्तमानसा।। १६३।। खगध्वजा, बुगारूढ़ा, वाराही, पूगमालिन, ऐश्वर्य अगा गोमती गोत्री गुरूपा गुणोत्तरा। | पद्मनिलया, बिरक्ता, गरुडासना।।

गौर्गब्यप्रिया गौणी गश्वरनमस्कृता।। १६३॥

कूर्ममहापुराणम्

बिचित्रगहनाधारा, शाश्वतस्वानवासिनी, स्थानेश्वारों, अमन्युरमुतास्थादा पुरुहूता पुरुष्टुता। निरानन्दा, त्रिशूलचरधारिणी, अशेषदेवतामूर्त, देवता, अशोच्या भिवषया हिरण्यातप्रिया।। १७३।। वरदेवता, गणाम्बिका, गिरेः पुत्री, निशुम्भचिनियातिनी, हिरण्यरजनी हेमा हेमाभरणभूषिता। अवर्णा, वर्णरहिता, निंबर्गा, जबसंभवा, अनन्तवर्णा, विभ्राजमाना या ज्योतिरोमफलप्रदा॥ १७३॥ अनन्यस्था, शंकरों, शान्तिमानसा, अगोत्रा, गोमती, गोत्रों, महानिद्रासमुतिरनिंद्रा सत्यदेवता। गुह्मरूपा, गुणोत्तरा, गो, गोः, गव्याप्रिया, गौणो, दीर्घा ककुद्मिनी हृद्या शांतिदा शांतिवर्धिनी।। १७४॥ गणेश्वरनमस्कृता (ये नाम भी आपके हैं। लक्ष्म्यादिशक्तिजननी शक्तिचक्रवतिका सत्यभामा सत्यसन्या त्रिसय्या सथिवर्जिता।

त्रिशक्तिजननी जन्मा घर्मिपरिवर्नता॥ १५॥ सर्ववादाश्रया मांड्या मांख्ययोगमपुवा॥ १६४॥ आप अमन्यु, अमृतास्वादा, पुरुहूता, पुरुष्टुता, अशोच्या, असंख्येयाप्रमेयाख्या शून्या शुकुलोद्भवा।

भिविष्या, हिरण्यरजतप्रिया, हिरण्यरजनी, हेमा, बिन्दुनादसमुत्पनः शम्भुवामा शशिप्रभा।। १६५।। हेमाभरणभूषिता, विभ्राजमाना, दुर्जेया, तिष्टोमफलप्रदा। पिशङ्का भेदरहिता मनोज्ञा म्युसूदनी।

महानिंदासमुद्भूति, अनिद्रा, सत्यदेवता, दीर्घा, ककुयिनी, महाश्नी; श्रीसमुत्पत्तिस्तम:पारे प्रतिष्ठिता।। १६६।। हृद्या, शान्तिदा, शान्तिवधिनी, लक्ष्म्यादिशक्तियों को जननी, त्रितत्वमाता त्रिविधा मुसूक्ष्मपदसंश्रया।।

शक्तिचक्र को प्रवर्तका, त्रिशक्तिजननी, जन्या और शान्ता श्रीता मलातींना निर्विका शिवालया।। १६७॥ । | पर्मिपरिवनिता हैं।

आप सत्यभामा, सत्यसन्धा, त्रिसन्ध्या, सन्धिवनिता, | मुयौता कर्मकरणी युगान्तदानात्मिका। सर्नवादाश्रया, सांख्या, सांख्ययोगसमुद्भवा, असंख्येया, | संकर्षणों जगद्धात्री कापयोनिः किरीटिनी॥ १७६॥ | अप्रमेयास्ट्या, शून्या, शुकुलोद्भधा, विन्दुनादसमुत्पत्ति, ऐंद्रों त्रैलोक्यमता अँग्णय परमेश्वरी। शम्भुबामा, शशिप्रभा, पिंशङ्गा, भेदरहिता, मनोज्ञा, मधुमयता दात्री युग्मदृष्टिलिलोचना।। १७१७ ॥ मधुसूदन, महा: ऑसमुत्पत्त और तम से परे प्रतिष्ठित हैं। मदोत्कटा हंसगति: प्रचपड़ा द्यविक्रमा।

आपा त्रितत्त्वमाता, त्रिविधा, सुसूक्ष्मपदसंलया, शान्ता, भौंता,

वृषावेशा वियन्माता सिध्यपर्वतवासिनीं।। १७८॥ मनातीता, निर्विकारा, शिवाश्रया हैं।

हिमवन्मेरुनिलया छैलामगिरियासिनी। शिवाच्या चित्तनिलया शिवज्ञानस्वरूपिणी। चाणूरहन्तृतनया नीतिज्ञा कामरूपिणी।। १७९॥ दैत्यदानवनिर्माञ्चों काश्यपी कालकणिका॥ १६ ॥ सुधौंता, कर्मकरण, युगान्तदहनामिका, संकर्षणों, शास्त्रयोनिः क्रियाश्चतुर्वर्गप्रदर्शका।

जगद्धात्री, कामयोनि, किरीटिनो, ऐन्द्रौ, त्रैलोक्यनमिता, नारायण नोत्पत्ति: कौमुदी लिङ्गधारिणों।। १६ ॥

वैष्णयों, परमेश्वरी, प्रद्युम्नदयिता, दात्री, युग्मदृष्टि, त्रिलोचना, कामुक कलाभावा परावविभूतिदा। मदोत्कटा, हंसगति, प्रचण्डा, चण्डविल्लमा, बुधावेषा, वराजमहिमा वड्या चामलोचना।। १०|| बिसन्माता, बियपर्वतावासिन, हिंमजन्मेरुनिलया, कैलास सुभद्रा देवने सोना बेदवेदाङ्गपारगा।

गिरिबासिनो, चाणूरहन्तृतना, नौतिज्ञा, कामरूपिणी ( आप मनस्विनी मन्युमाना महामन्युसमुद्भवा।। १७१।। ही हैं। आप शिवा नाम से प्रसिद्ध, चिन्तनलया, ।। वेदविद्या व्रतसाता ब्रह्मलनिवासिनी। शिवज्ञानस्वरूपिणी, दैत्यदानवनिर्माथी, काश्यप, काल- | बोभइमा बोरा माछामममा ।। १८० ॥

काँगका हैं। आप हो शाख की योनिरूपा, क्रियामूर्ति, विद्याधरप्रिया सिद्धा विद्याधरिनराकतिः चतुवंर्गप्रदर्शिका, नारायण, नरोत्पत्तिं, कौमुदी, लिंगारिणी, आप्यायनीं इन च पायनी घोषण कला॥ १८ १।। |कामुको, कलितभावा, परावविभूतिदा, पाङ्गजातमहिमा,

मानाका मन्मयोता यावा याहूनप्रया। वड़वा, वामलोचना, सुभद्रा, देवकी, सीता, वेदवेदांगपारगा, करीषिणी सुघायाणी वीणावादनतत्परा॥ १८३॥ मनस्विनी, मन्युमाता, महामन्युसमुद्धवा हैं।

संविना सेविका मेव्या सिनवाली गरुत्पतीं। अरुन्धती हिरण्याक्षी मृगाङ्का मानदायिनी।। १८३॥

पूर्वभाग द्वादशोऽध्यायः

गाना॥ आप ही वेदविद्मा, व्रतस्माता, ब्रह्मशैलनिवासिनी, मासनगा । | बीरभद्रप्रजा, बौरा, महाकामसमुद्धवा, विद्याधरिप्रया, सिद्धा, इष्टा विशमा शिष्टेष्टा शिष्टाशिष्टप्रपूजिता।। १९३॥ विद्याधरनिराकृति, आप्यायनी, हरन्ती, पावनी, पोषण, | शतरूपा शतावर्ता विना मुभिः सकला, मातृका, मन्मथोना, मारिना, बाहुनप्रिया, करीषिण, || सुरेन्द्रमाता मुद्युम्मा सुषुमा सूर्यमंस्थिता॥ १९३॥ सुधाचाण, वीणावादनत्तत्परा, सेविता, सेविका, सेव्या, समझ्या मत्ता च निवृत्तिनपारगा। सिनौवालौ, गरुत्मती, अरुन्धती, हिरण्याक्षी, मृगांका, धर्मशास्त्रार्थ कुशला मर्मज्ञा अर्मवाहना।। ११४॥ मानदायिनीं हैं।

धर्माधवनिर्मात्री धार्मिकाणां शिवप्नदा। बसुप्रदा वसुपती बमोरा यमुंघरा।

धर्मशर्मिमयों विधर्मा विश्वयर्मणौ।। १९५|| मामा वरारोहा परावासमासदा॥ .४॥

आप शक्रासनगता, शाक्रो, साध्या, चारुशरासना, इश, ऑफना श्रीमती श्रीशा श्रीनिवासी शिवप्रिया। बिशिश, शिष्टेष्टा, शिष्टशशिष्टप्रपूनता, शतरूपा, शतावर्ता, श्रीपरा श्रीकरी कन्या श्रीघरार्द्धशरिणी।। ८५॥ विनता, सुरभि, सुरा, सुरेन्द्र-माता, मुद्युम्ना, सुषुम्ना, अनंतदृष्टिक्षुद्दा घाजीशा अनप्रिया।

सूर्यसंस्थिता, समीक्ष्या और सत्प्रतिष्ठा, निवृत्ति, ज्ञानपारगा, निहंत्री दैत्यमानां मिहिका सिंहचाहना।। १८६॥ धर्मशास्त्रार्थंकुशला, धर्मज्ञा, धर्मवाहना, धर्माधर्म को सुवर्चला च सुयोगी सुनिश्छिन्नसंशया। निर्मात्री, धार्मिकशिबप्रदा, धर्मशक्ति, धर्ममयों, विधर्मा. रसन्ना सदा रामा लेलिहानामृतववा।। १८ ।। विधमिगीं हैं। आप नसुग्रदा बसुमती, बसॉर्धारा, वसुन्धरा, धाराधरा, | धर्मान्तरा धर्ममयी धर्मपूर्वा धनाव।। | बराहा, पावासमहादा, फला, श्रीमतों, श्रीशा, अर्मोपदेष्ट्री घर्मान्पा घर्मगम्या घराघरा।। १९६।। श्रीनिवासा, शिबग्रिया, श्रीधरा, औकरी, कल्या, कापाली शला मूर्तिः कलाकलिलावग्रहा | धरार्धशॉरिणी, अनन्तष्टि, अक्षदा, धात्रीशा, धनदया, | सर्वशक्तिविनिर्मुक्ता सर्वशक्त्याश्रयाया॥ १६॥

 

दैत्यसंघनिहन्त्री, सिंहिका, सिंहवाहना, सुवर्चला, सुलोणी, सर्या सर्वेश्वरी मूश्मा मूक्ष्मज्ञानस्वरूपिणी। सुकोति, छिन्नसंशया, रसज्ञा, रसदा, रामा, लेलिहाना, | फ्यानपुरुपेशेशा महादेवैकमाक्षिणी॥ १९८॥ | अमृतवचा हैं।

आप धर्मान्तरा, धर्ममयों, धर्मपूर्वा, धनाचा, धर्मोपदेष्टी, नित्योदता स्वयंज्योतिरुत्सुका मृतजीवना।

धर्मगम्या, धराधरा, कापाल, शकला, मूतं, कलाकलित चन्नदाय बच्चजल्ला वैदेही वर्षाचाहा।। १८||

विग्रहा, सर्वशक्तिबिनिमुक्ता, सर्वशक्याश्याश्रया, सर्वा मङ्गल्या मला पाला निर्मला मलहारिणी। सर्वेश्वरी, सूक्ष्मा, सूक्ष्मज्ञानस्वरूपिण, प्रधानपुरुष की गान्धर्वी कुरुका चान्द्री कम्वलाश्वतरप्रया।। १८६॥

स्वामिनी, महादेव की एकमात्र साक्षिरूपा हैं। सौदामिनी जनानन्दा भुकुटीकुटिलानना।

सदाशिवा वियन्मुत्तिर्वेदमूर्तिरमूनिका। काकाकरी कक्षा के मापापहारिणी॥ १६३||

एवं नाम्ना सहस्रेण स्तुत्याऽसौ हिमवागिरिः॥ १९१।। युगधरा युगावत्त त्रिमण्या हर्षवर्द्धनी।

भूयः प्रपाम्य भौतात्मा प्रोवाचेदं कृताञ्जलिः। प्रत्यक्षदेना दिव्या दिव्यगन्या दिवः परा॥ १९ ॥

यदेतदेश्वरं रूपं घोरं ते परमेश्वरी॥ २० ॥

भीतोऽस्मि साम्प्रतं दृष्ट्वा रूपमन्यादर्शय। नित्योदिता, स्वयंज्योति, उत्सुका, मृतजीवना, वज्रदण्डा,

एवमुक्ताय मा देवी जैन शैलेन पार्वती।।३।१।। वनिहा, वैदेही, वङ्गविग्रहा, मङ्गल्या, मङ्गला, माला,

संत्य दर्शयामास स्वरूपमपरं पुनः।। मलहारिणी, गान्धर्वो, कारुका, चान्द्री, कम्बलाश्वतरप्रिया, नौलोत्पलदलप्रख्यं नीलोत्पलमुगयि च॥ ३३॥ सौदामिनी, जनान्दा, भुकुट, कुटिलानना, कणाकारकरा, आप हो सदाशिवा, वियन्मूर्ति, बेदमूर्ति, और अमूर्तिका कक्षा, कंसद्माणापहारिणों, गुगन्ध, युगावत, त्रिसन्ध्या,

हैं। इस प्रकार एक हजार नामों में स्नान करके वे हिमवान् हर्षवर्धनी, प्रत्यक्षदेवता, दिव्या, दिव्यगन्धा, दिन:परा ( भी गिरि पुनः प्रणाम करके भयभीत हों हाथ जोड़कर यह आप हैं।

बोले- ‘हे परमेश्व! तुम्हारा यह ईश्वरीय स्वरूप भयानक

कुर्ममहापुराणम् है जिसे देखकर मैं भयभीत हैं। सम्प्रति दुसरा रूप दिखाओ। | तुममें हीं लीन होता है। तुम ही परमा गनि हो। कोई तुम्हें उन पर्वतराज के ऐसा कहने पर देवी पार्वती ने उस काम को | प्रकृति कहते हैं और कोई पनि से परे भी कहते हैं। अन्य समेटकर पुनः दूसरे रूप को दिखाया जो नौलकमल के परमार्थ के ज्ञाता आपको शिब के संश्रय के कारण शिक्षा समान और नोलकमल जैसी सुगन्ध से युक्त था। कहते हैं। प्रकृति, पुरुष, महत्तत्त्व, ब्रह्मा और ईश्वर आप में द्विनेत्रं द्विभुजं सौयं नीलालकविभूषितम्।। हाँ स्थित हैं। रक्तपादाम्बुजतलं सुरकरपनवम्॥ २३॥

अविद्या नियतिर्माया कलामाः शतशोऽभवन्। औपद्विलाससद्वृत्तं ललाटतिलकोवलम्। त्वं हि मा परमा शरिनन्ता परमेषिनी॥ ३ १४।। भूषितं चाफसर्वाङ्ग भूषणैरतिकोमलम्। २०४।। सर्वभेदविनिर्मुक्ता अवधेश्यालया। दधानमुरसा माला विशाल हैमनिर्मिताम्। त्वामयाब योगेश महादेवो महेश्वरः॥२१२॥ ईयस्मितं सुविम्योष्ठं नूपुरारावसंयुतम् ॥ २०५।। प्रधानाचे जगत्सर्च कति चिकरोति च। प्रसन्नवदनं दिस्यमननमहमास्पदम्।

त्वयैब सड़तो देवः स्वात्मानन्दं समश्नुते।। २ १३॥ तदाँदृशं समालोक्य स्वरूप शैलमनमः॥२०६ ।। विद्या, नियत, माया, कला आदि सैकड़ों पदार्थ आए । भीति सन्त्यज्य अष्टात्मा वपाषे परमेश्वरीम्। से उत्पन्न हुए हैं। आप हों अनन्त परम शक्ति तथा परमेष्टिनी उसके दो नेत्र तथा दो भुजाएँ थीं। अत्यन्त सौम्य तथा | हो। आप ही सव भेदों से युक्त और सच भेदों के आश्रयों काले केशपाशों से विभूषित था। रक्तकमल के समान लाल | का आश्रय हो। हे योगेश्वरी ! तुम्हें अधिष्ठित करके महेश्वर उनके पादतल थे और हथेलियाँ भी अत्यन रक्तवर्ण को थौं।| महादेब प्रधान आदि सम्पूर्ण जगत् को रचते हैं तथा संहार |बह शोधासम्पन्न, विलासमय तथा सद्वृत से युक्त भा। | करते हैं। तुमसे संयोग पाकर महादेव अपने आत्मानन्द का ललाट पर अञ्जनल तिलक था। विविध आभूषणों द्वारा | अनुभव करते हैं। उनका बह अति कोमल और सुन्दर शरीराङ्ग बिभुषित था। त्वमेव परमानन्दस्वमेवानन्ददायिनी। उन्होंने वक्षःस्थल पर स्वनिर्मित अत्यन्त विशाल माला त्वक्षः परं व्योम महुल्योतिर्निरञ्जनम्॥ २१४॥ धारणा को हुई थी। उनका स्वरूप मन्द्रहास्य युक्त, सुन्दर | शिवं सर्वगतं सूक्ष्म परं ब्रह्म सनातनम्। बिम्बफल के समान ओवा एवं नूपुर की बनि से युक्तं था। त्वं शक्रः सर्वदेवानां ब्रह्मा ब्रह्मविदार्माम।। ३ १५|| वह रूप प्रसन्नमुख, दिव्य और अनन्त महिमा का आश्चय वायुर्बलवतां देवि योगिनां त्वं कुमारकः। था। उनका ऐसा स्वरूप देखकर श्रेष्ठ शैलराज भययुक्त अषणाञ्च वसिष्ठस्त्वं व्यासो वेदविदामसि।। २१६।। होकर प्रसन्नचित होते हुए परमेश्वरी से बोले। सांड्यानां कपिल देव कटाणाशापि शंकरः। हिा बानुवाच आदित्यायामुपेन्द्रस्त्वं वसूनाचैव पावकः॥११७॥ अद्य में सफलं जन्म अद्य में सफलं तपः॥ ३३७॥

 

आप हौं परमानन्दस्वरूपा, आप ही आनन्ददायिनी हो। यन्में साक्षात्वमव्यक्ता पन्ना दृष्टिगोचरम्। आप अक्षर हों, महाकाश हों, महान्योंति: स्वरुप एवं निरञ्जन चया मृष्टं जगत् सर्वं थानाधं त्वयि स्थितम्।। २८॥

हो। आप शिवस्वरूप, सभी पदार्थों में स्थित, सूक्ष्म, सनातन चाव तयों देवी वमेव घरमा गतः। परग्रहारूपा हों। आप सभी देवताओं के बीच इन्द्र समान हैं। बर्दात केचित्चामेच प्रकृति प्रकृते: पराम्।। १०१।। और ब्रह्मवेत्ताओं में ब्रह्मा हैं। हे देवि! आप बलवानों में अप परमार्वज्ञाः शिर्वात शिवसंश्रयात्।

वायु, योगियों में कुमार ( सनत्कुमार), ऋषियों में वसिष्ठ त्वयि प्रधानं पुरुषों महान्ह्या वेश्चरः॥ ११०|| और बेदयेत्ताओं में व्यास हो। सांयवेत्ताओं में देवस्वरूप हिमजान वॉलें- आज मेरा जन्म सफल हैं और आज | कपिल तथा रुद्रों में शंकर हो। आदित्यों में उपेन्द्र तथा मेरा तप भी सफल हुआ जो आप साक्षात् अव्यक्तरूपा मुझे | वसुओं में पावक आप ही हो। दृष्टिगोचर हुई हैं। आपने हो सम्पूर्ण जगत् को सृष्टि की हैं | वेदानां सामवेदस्त्वं गायत्रींच्छन्दसामसि।

और प्रधान आदि आप में ही हैं। हे देवि! सम्पूर्ण जगत् | आयात्मविद्या विद्यार्ना गतीनां परमा गतिः॥ २१८॥

पूर्वभाग द्वादशोऽध्यायः

माया त्वं सर्वशींनां कालः कलयता। | हे देवि ? आपका रूप समस्त विकारों से रहित, अगोचर, ओंकार; सर्वगुयानां वर्णानामा द्विजोत्तमः॥३१९॥ निर्मल, एक वाला, आदि, मध्य और अन्त से शून्य, आमा गृहस्वास्चमीश्वराणां महेश्वरः।

आय, तम से भी परे सत्य स्वरूप वाला है उसको मैं प्रणाम पुसा सपेकः पुरुषः सर्वभूतादि स्वितः॥ ३३ ३ || करता है। बैदान्त के विशेष ज्ञान से अर्थ का निश्चय करने सर्वोपनिषदा देखि गुम्योपनिषदुच्यसे।।वाले लोग जिसकों इस जगत् की जननीरूप में देखा करते ईशानश्चापि कल्पान युगानां कृतमेव च। २२ ।। हैं उस घ्णव नाम वाले आनन्दमाने की मैं शरण को मैं प्रामा वेदों में सामवेद, छन्दों में गायत्री, विद्याओं में | होता हैं। सभी प्राणियों के भीतर सनिविष्ट, प्रकृति-पुरुष के अध्यात्मविद्मा और गतियों में आप परम गतिरूपा हो। आप | संयोग-वियोग के हेतुरूप, तेजोमय, जन्म-मरण से रहित समस्त शक्तियों को माया और विनाशकों की कालरूपा हो। | प्राण नामक रूप को मैं नमन करता है। | सभों गुह्य पदार्थों में ओंकार और वर्गों में उत्तम) ब्राह्मण | | आद्यन्तहीने जगदात्मरूपं | हो। तुम आश्रमों में गार्हस्थ्य और ईअरों में महेश्वर हों। तुम । । विभिन्नमंस्यं प्रकृते; परस्तात्। पुरुषों में सभी प्राणियों के हृदय-स्थित आदतीय पुरुष हो। कुटश्चिमस्यवस्व । देवि! आप सभी उपनिषदों में गुह्य उपनिषद् कहीं जात हो। नमामि रूपं पुम्याभियानम्।।२२१ ॥

 

आमा कल्पों में ईशान कल्य तथा मुर्गों में सत्ययुग हों। सर्वाश्रयं सर्वजगदंबानं

आदित्यः सर्वमार्गाणां वाचां देवी सरस्वतीं। सर्वत्रगं जन्मविनाशनम्। त्वं लक्ष्मीझारूपाणां विष्णुर्मायाविनाम।। २२२॥ सुक्ष्मं विचित्रं त्रिगुणं फ्यानं अन्यत्ती मतीनां त्वं मुप: पतनामि। नतोऽस्मि ते रूपमपभेदम्॥ ३३ ॥ मूक्तानां पौम्यं स साम ज्येष्ठ च सामसु।। ३ ३३॥ आई महानं पुस्याभिधानं सावित्री द्यापि जाप्यान अनुषां शतरुद्रयम्।

प्रकृयवस्थं त्रिगुणात्मबीजम्। पर्वतानां महामेकानन्तों भोगनार्माय॥ ३३४॥

ऐश्वर्यविज्ञानविरोध; सर्वेषां च्वं परं ब्रह्म चन्मयं सर्वमेव हि।। २२५॥

मर्यान्वितं देवि नतोऽस्मि रूपम्।। ३३६॥ आप सभी मार्गों में आदित्यस्यरूपा और बागियों में देवौं | आदि और अन्त में होन, जागत् के आत्मास्वरूप, विभिन्न | सरस्वती हों। आप सुन्दर रूप में लक्ष्मी तथा मायावियों में | रूपों में संस्थित, प्रकृति से पाने, कूटस्थ, अव्यक्तशरीर तथा बिष्णु हो। आप सतियों में अरुन्धतीं और पक्षियों में गरुड़ | पुरुष नाम वाले आपके रूप को नमस्कार करता हैं। सबके | हो। मृतकों में पुरुषसूक्त तथा सामों में ज्येष्ठ साम हो। जाप्य | आश्रय, सम्पूर्ण जगत् के विधायक, सर्वत्रगामी, जन्म-मरण | मन्त्रादि में आप सावित्री हो और यजुषों में शतरुदौय हो। | में रहित, सूक्ष्म, विचित्र, त्रिगुण, प्रधान, तथा रूपभेदरहित पर्वतों में महामेरु तथा सर्षों के मध्य अनन्त नाग हो। सबमें | आपके रूप को नमन करता हूँ। देवि! आदिभूत, महत्, आप हौं परब्रह्मरूपा हैं और यह सभी कुछ आप से अभिन्न । | पुरुषसंज्ञक, प्रकृति में अवस्थित, सत्त्व, रज़ एवं तमोगुण के बींव, ऐश्वर्य, विज्ञान एवं विरोधों धर्मों में समन्वित आप के रूपं तवाशेयविकारहींनमगोचरं निर्मलमेकरूपम्।

रूप को नमस्कार है। अनादिमध्यान्तमनतमाद्यं नमामि सत्यं तमसः परम्तात्।।

 

द्विमाप्तलोकात्मककम्युसंस्थं विचित्रदं पुसपैकनाथम्। यदेव पश्यति जगत्प्रसूतिं वेदान्तविज्ञानविनिश्चिताः।। अनेकदैरसियासितं ते आनन्दमात्र प्रान्नाभिधानं तदेय रूपं शरणं प्रपद्ये।।२२।। नतोऽस्मि कपं जगदसंज्ञम्।। २३३॥ अशेषभूतान्तरसन्निविष्ट अज्ञेयवेदात्मकमेकमाई प्रधानपुंयोगवियोगहेतुम्। जमा पूरितलोकभेदम्। तेजोमयं जन्मविनाप्नहींनं त्रिकालहेतु परमेष्ठिमंचं प्राणायानं प्रणतोऽस्मि रूपम्।। २२८।। नमामि रूपं रविमंडलस्यम्॥२३३॥

 

कूर्ममहापुराणम्

सहस्रपूद्धनमनन्तशक्तिं निदागत शेष नाम वाले आपके रूप में मैं नत होता हैं। सहस्रवाई पुरुयं पुराणम्। अप्रतिहत ऐश्वर्य से युक्त, अयुग्म नेत्रों वाले ब्रह्मामृत के यानमसलने तय आनन्द्ररस के ज्ञाता, युगान्त में भी शेष रहने वाले तथा नारायणायं प्रणतोऽस्मि रूपम्।।२३४॥ युलोक में नृत्य करने वाले रुद्र संज्ञक आपके रूप को मैं दंष्ट्राकरालं त्रिदशाभिवयं प्रणाम करता हैं। हे देवि! प्रकोप-शोक वाले, रूपहीन, सुरों युगान्तकालाननरूपम्। और असुरों के द्वारा समर्चित चरण कमल वाले और अशेषभूतापविनाशहेतु सुकोमल शुभं दीभियुक्त आपके इस रूप को हे भवानी! मैं नमामि रूपं व कालसंज्ञम्॥ २३५||

 

प्रणाम करता हूँ। हे महादेव! आपको नमस्कार है। हें। विचित्र भेदों वाले चौदह भुबन जो जल में संस्थित हैं | परमेश्वरी! आपकी सेवा में प्रणाम हैं। हे भगवतिं ! हे ईशानि! और जिनका एक हौ पुरुष स्वामी है तथा अनेक भेदों से | शिवा के लिये बारम्बार नमस्कार है। अधिवासित जगत् जिसको अण्ड संशा है ऐसे आपके रूप चन्मयोऽहं त्वदाधारस्त्वमेव च्च गतिर्मम। को मैं नमस्कार करता है। समस्त बेदों के स्वरूप वाले | चामेव शरणं यास्ये प्रसीद परमेश्वर। ३४ || | अपने तेज से लोकभेद को पूरित करने वाले, एकाकी, आद्म, मया नास्ति समों लोके देवों वा दानवोऽपि वा तीनों काली का हेतु और परमेष्ठी संज्ञा बाले, रविमण्डल में जगन्मातैव मत्पुत्रों समता तपमा यतः॥ २४ ।। मिथत आपके कप के लिये मैं नत होता हैं। सहस्रमुख एषा तवाम्बिके देवि किलाभूपितृक-या। | वाले, अनन्त शक्ति से समन्वित, सहसों भुजाओं से युक्त नाशेषजगन्मातुरहों में पुण्यगौरवम्॥२४॥

पुराण-पुरुष, जल के भीतर शयन करने वाले नारायण नाम | | मैं आपके ही स्वरूप से पूर्ण है और आपा ही मेरा आधार | से प्रसिद्ध रूप को मैं नमस्कार करता हूँ। दाहों से महान | हों तथा आप हौ मेरी गति हो। हे परमेश्वरि । प्रसन्न हों। मैं कराल, देवों के द्वारा अभिवन्दनीय-युगान्त काल में अनल | आपकी हीं शरणागति में जाऊँगा। इस लोक में मेरे समान रूप को मैं नमस्कार करता हैं। जो अशेष भूतों के अण्डू का | देव या दानच कोई भी नहीं हैं कारण यह है कि मेरी विनाश कारक हेतु है ऐसे आपके काल संज्ञक रूप को मैं तपश्चर्या का हौं यह प्रभाव है कि आप जगत् की माता हो प्रणाम करता हूँ।

और मेरी पुत्री होकर उत्पन्न हुई हो। हे अम्बिके! हे देवि! फणासहस्रेण विराजमान यह तुम्हारी पितृ-कन्यका मेना अशेष जगत् की माता हुई भोगीयैरपि पूज्यपानम्। है, यह मेरे पुण्य का गौरव है।। जनार्दनाकडनं प्रसुप्त

पाहि माममरेशानि मेनया सह सर्वदा। वतोऽस्मि रूप तव शेषसंज्ञम्॥२३६॥

नमामि तव पादानं ज्ञामि शरणं शिवम्।। ३४३॥ अव्याहतैश्चर्यमयुग्मनेत्रं

हे देवस्वामिनि ! तुम मैना सहित सर्वदा मेरी रक्षा करो। ब्रह्मामृतानन्दरसङ्गमेकम्।

मैं आपके चरणकमल को नमन करता हूँ और शिव को युगान्तशेषं दिवि नृत्यमानं नतोऽस्मि रूपं नव सहसंम्॥ ३३७|| शरण में जाता हैं। प्राणशोक प्रविहीनरूपं अहों में सुमहद्भाग्यं महादेवीसमागमात्।। | सुरासुरैरचितपादपद्मम्।

आज्ञापय महादेवि किं करिष्यामि शंकर॥ २४४॥ सुकोमलं देवि विभासि शर्म

मेरा महान् अहोभाग्य है कि महादेव का समागम हुआ । नमामि ते रूपमिदं भवानि॥ २३८॥ हैं। है महादेवि! हैं पार्वतों ! आज्ञा करो, मैं क्या करूं?

ॐ नमस्तेऽस्तु महादेवि नमस्ते परमेश्वर। एतायाक्वा वचनं तदा हिमगिरीश्वरः।। नमो भगवतीशान शिवायै ते नमो नमः॥२३१॥ | संप्रेक्षमाणों गिरिजा प्राञ्जलिः पार्श्वगोऽभवत्।। ३४५।। एक सहस्र फागों में विराजमान तथा प्रमुख भोगन्द्रों द्वारा | इतना वचन कहकर उस समय गिरिराज हिमालय हाथ पून्यमान और जनार्दन जिसके शरीर पर आरूढ़ हैं, ऐसे | जोड़कर पार्वती की ओर देखते हुए उनके समीप पहुँच गये।

पूर्वमा द्वादशोऽध्याय:

अव सा तम्य वचनं निशम्य जगतोऽणिः । अध्यात्मज्ञानमहिने मुनये सततं कुरु।। ३५४॥ सस्मितं प्राह पितरं स्मृत्वा पशुपतिं पतिम्॥ २४६॥ श्रुतियों एवं स्मृतियों वर्गाश्रम के अनुसार जो अच्छे कर्म अनन्तर उनका वचन सुनकर संसार की दावाग्नि के | प्रतिपादित हैं, वे ही मुक्ति के लिए हैं। उन्हें अध्यात्मज्ञान समान पार्वती ने पशुपति अपने पति का स्मरण करके मन्द | सहित निरन्तर करते रहें। मुस्कान के साथ पिता से कहा। अर्मात्संज्ञायते भक्तिर्भवत्या संप्राप्ने परम्। शृणुष्व चैतन्यमं गुह्यमीश्वरगोचरम्।

श्रुतिस्मृतिभ्यामुदिनों धर्मों यज्ञादिको मतः॥ ५५॥ पदेशं गिरिश्रेष्ठ! सेवितं ब्रह्मवादिभि:।। २४७॥ | उस धर्माचरण से भक्ति उत्पन्न होती है, भक्ति में यन्में साक्षात् परं रूपमैश्वरं दृष्टमुत्तमम्। परमतत्त्व मोक्ष प्राप्त होता है। श्रुति स्मृति द्वारा प्रतिपादित सर्वशक्तिसमायुक्तमननं प्रेरकं परम्।। २४८॥

वह धर्म यज्ञ आदि रूप में माना गया है। शानः समातिमना मानाकारतः।

नान्यतो जायते धर्मो चंदाद्ध हि निर्वभौ। नित्य भला चदेव शरणं ।। ३४६॥

तस्मान्मुमुक्षुर्षर्मार्थी मदूपं वेदमाश्रयेत्॥ ३५६॥ श्रीदेवी बोली- हे गिरिष्ठ ! यह सर्वप्रथम गोपनीय अन्य किस मार्ग से धर्म उत्पन्न नहीं होता। वेद से धर्म ईश्वरगोचर तथा ब्रह्मवादियों से सैवित मैरा उपदेश सुनो, जों उत्पन्न हुआ है। इसलिए मुमुक्ष और धर्मार्थी को मेरे बंद मैरा सर्वशक्तिसम्पन्न, अनन्त, परम अत एवं श्रेष्ठ प्रेरक स्वरूप का आश्रय लेना चाहिए। ऐश्वर्यमय रूप है, उसमें निष्ठा रखते हुए शान्त, और ममैवैया परा शक्तिर्वेदसंज्ञा पुरानी। समाहितचित्त होकर मान एवं अहंकार से वजन्त तथा उसी में निष्ठावान् एवं तत्पर होकर आप उसौ की शरण में जाओ।

ऋग्यजु:सामरूपेण सर्गादौ संप्रवर्तते।। २५७॥

(क्योंकि वेद नाम चाली मेरी ही पुरातन श्रेष्ठ शक्ति हैं। भक्त्या त्वनन्यया तात मभावं परमाश्रितः। सृष्टि के प्रारंभ में यहीं ऋग्वेद, यजुर्वेद और सामवेद रूप से सर्वयज्ञतपोदानैस्तदेवाय सर्वदा॥ ३५ ॥ अचर्तित होती है। हे तात ! अनन्य भक्ति के द्वारा मेरे परम भाव का आश्चर्य तेषामेव च गुप्त्यर्व वेदानां भगवान:। ग्रहण करके सभी यज्ञ, तप एवं दानों द्वारा सदा उसी का ब्राह्मणादीन्मसर्वाथ चे स्वे कर्मययोजयत्॥ १५॥ अर्चन करें।

उन्हीं वेदों के रक्षार्थ भगवान् अज ने ब्राह्मण आदि की तदेव मनसा पश्य तस्यायस्व क्स्व सत्।।

सृष्टि कीं और उन्हें अपने-अपने कर्म में नियोजित किया। ममोपदेशा-संसार नाशयामि तवानम्।।३५ ॥ आहे त्वां परया भक्त्या ऐश्वर्य योगमास्थितम्।

येन कुर्वनि मर्म स्वं ब्रह्मनिर्मिताः।

तेषामधस्तारकस्तामिसादौनकल्यत्।। ३५ ।।

संसारसागरादमागम्यचिरेण तु॥ ३५३ ।।

जो मेरे घर्म का आचरण नहीं करते हैं, उनके लिए ब्रह्मा मन से इसी को देखें, उसी का ध्यान करें और इसो का | यजन करें। हे निण्याप! मैं अपने उपदेश से आपकी द्वारा निर्मित अत्यन्त निम्मकोटि के तामित्र आदि नरकों को संसारबुद्धि का नाश कर देंगी। परम भक्ति के कारण ऐश्वर

बनाया गया है। योग में संस्थित आपका मैं इस संसार सागर से शौच्च उद्धार

न च वेदाटते किच्चिचाल बर्माभिधायकम्।। कर देंगी।

बोऽन्यत्र रमते मोऽसौ न सम्भाव्यों द्विजातिभिः॥ २६०॥ ध्यान कर्मयोगेन भक्त्या ज्ञानेन चैव हि। वेद से अतिरिक्त इस लोक में अन्य कोई भी शास्त्र धर्म प्राप्याहं ते गिरिजेष्ठ नान्यथा कर्मकोपिः ॥ ३५३॥

का प्रतिपादक नहीं है। जो व्यक्ति इसे छोड़कर अन्य शास्त्रों ॐ गिरि श्रेष्ठ ! ध्यान, कर्मयोग, भक्ति तथा ज्ञान के द्वारा में रमता रहता है, उसके साथ द्विजातियों में बात नहीं ।

केनी चाहिए। मुझे प्राप्त करना संभव है, अन्य प्रकार से करोड़ों कर्म करने में नहीं। यानि शास्त्राणि दृश्यन्ते लोकेऽस्पिन्थिवियानि तु। श्रुतिस्मृत्युदितं सम्यक्पवर्णाश्रमात्मकम्।

श्रुतिस्मृतिविरुद्धानं निष्ठा तेषां हि तापसी॥ २६

 

कूर्ममहापुराणम् जो विविध शास्त्र इस लोक में देखें जाते हैं, वे श्रुति- | युगे युगेऽत्र सर्वेष कर्ता वै धर्मशास्त्रविन्॥ २६१॥ | स्मृति में विरुद्ध हैं, अत: इनकी निष्ठा तामसी होती है। उनके शिष्यों द्वारा अन्यान्य उपपुराणों की रचना की गई।

झापानं भैरवव ग्रामस्ने वाममार्हतम्।। यहाँ प्रत्येक युग में उन सब के कर्ता धर्मशास्त्र के ज्ञाता हीं एवंविधानं चा-यानं मोहनश्चन तानि तु॥ ३ ६ ३।। हुए। कापाल, भैरव, यामल, बाम, आईत-बौद्ध तथा जैन शिक्षा कल्प व्याकरण निकै द एव च। आदि जो अन्य शास्त्र हैं, वे सब मह उत्ल करने वाले हैं। ज्योतिशास्त्र न्यायविद्या सर्वेषामुपणम्॥ ३५॥ ये कुशास्त्राभियोगेन मोड्यन्तीह मानवान्।

एवं चतुर्दशैतानि तथा हि द्विजसत्तमाः। मया सृष्टानि शास्त्राणि पोहायैव भवानरे॥२६३॥ चतुर्वेदैः महोक्तानि धर्मो नान्यत्र विद्यते॥ २७ ॥

यहाँ जो लोंग निन्दित शाखों के अभियोग-सम्बन्ध में शिक्षा, कल्प, व्याकरण, निरुक्त, छन्द, ज्योतिष, इस लोक में मानवों को मोहित करते हैं, उनको दूसरे जन्म न्यायविह्या- में सफल शास्त्रों के पोषक तथा वृद्धि करने में मोहित करने के लिए मेरे द्वारा ये शास्त्र रचे गये हैं। वाले हैं। इस प्रकार हे द्विश्रेष्ठौ ! ये चौदह शाख उसी प्रकार वेदाईवित्तमै; कार्य यत्स्मृतं कर्म वैदिकम्। ।

चारों वेदों के साथ हो कहे गये हैं। इन शास्त्रों में धर्म है, लायन कार्यन्ति ममियाते हि ये नः॥ ३ ६ ४।।

अन्यत्र कहीं भी नहीं है। वेदार्थों के ज्ञाताओं ने जिस वैदिक कर्म को करने योग्य

एवं पैतामहं पर्म अनुच्यासादयः परम्। बताया है, उसे जो प्रयत्नपूर्वक करते हैं, वे मनुष्य मेरे स्थापयनि ममादेशाद्यासदाभूतसंप्लवम्।। ३७३।। अतिप्रिय होते हैं।

इस प्रकार पितामह द्वारा प्रतिपादित इस उत्तम धर्म को वर्णानामनुकम्पार्थं मन्नयोगाद्विराट् स्वयम्। मनु, यास आदि मनीषी मेरे आदेश में प्रलयपर्यन्त स्थापित

करते हैं अथवा स्थिर रखते हैं। | स्वायम्भुव मनुर्धर्मान्मुनीनां पूर्वमुक्तवान्। ३६५॥ सभी वर्गों पर अनुकम्पा करने के लिए मेरे आदेश से

ब्राह्मणा सह ते सर्वे मंत्राते प्रतिसझरे। परम्या कृतात्मानः प्रविशति परम्पदम्॥ ३३॥ स्वयं विराट् पुरुष ने स्वायंभुव मनु के रूप में पहले मुनियों के धर्मों को कहा था।

में सब मुनिगण प्रतिसंचर नामक महाप्रलय के उपस्थित

होने पर कृतकृत्य होते हुए ब्रह्मा के साथ हीं पर के भी श्रुत्वा धान्येऽपि मुनयस्त-मुखाद्धर्ममुत्तमम्। चकुर्द्धर्मप्रतिझार्थ धर्मशास्त्राणि चैव हि॥ २६६।।

अन्तरूप परम पद में प्रवेश कर लेते हैं। अन्य मुनियों ने भी उनके मुख से इस उत्तम धर्म को तस्मात्सर्वप्रयत्नेन धर्माचे वेदमायेत्। सुनाकर धर्म की प्रतिष्ठा के लिए धर्मशास्त्रों की रचना को धर्मेण सहतं ज्ञानं परं ब्रह्म प्रकाशयेत्।। ३७४॥

इसलिए सब प्रकार से प्रयत्नपूर्वक धर्म के लिए वेद का | तेषु चान्तहितेष्वेवं युगानेषु महर्षयः॥

आश्रय लेना चाहिए। क्योंकि धर्म संत ज्ञान ही परमाझ को वल्लो वचनानानि करिष्यन्ति युगे युगे॥२६७।। प्रकाशित करता है। युगान्त काल में उन शाखों के अन्तर्लीन हो जाने पर ये तु संगान् परित्यज्य मामेव शरणं गताः। ब्रह्मा के बचन से वे महर्षिगण युग युग में उन शास्त्रों को उपासते सदा पक्या योंगमैश्वरमास्थिताः॥ २७५|| रचना करते रहते हैं। सर्वभूतदयावन्त: शांता दांना विमसराः॥ अष्टादशपुराणानि न्यासाचैः कबिनानि तु अमानिनों बुद्धिमनस्तापमाः शसिनवता:॥ २॥ ६ ॥ नियोगाह्मणों राजंस्तेषु धर्म: प्रतिष्ठितः॥२८॥ मच्चित्ता महतप्राणा मायने रताः।

हे राजन्! व्यास आदि द्वारा अठारह पुराण कहे गये हैं। संन्यासिनों गृहस्थाश्च घनस्या ब्रह्मचारिणः॥ ३७७॥ | ब्रह्मा को आज्ञा से उनमें धर्म प्रतिष्ठित हैं।

तेषां नित्याभियुक्तानां मायाजवं समुत्थितम्। अन्यान्युपपुराणानि तच्छियैः कथितानि तु। नाशयापि तमः कृत्स्नं ज्ञानदीपेन नो चित्॥ ३७८॥

पूर्वभाग द्वादशोऽध्यायः

जो व्यक्ति आसक्ति को पागकर मेरी शरण में आ जाते हैं | परम पद को एकमात्र ज्ञान के द्वारा कष्टपूर्वक प्राप्त किया जा और ऎश्वर योग में स्थित होकर सदा भक्तिपूर्वक मेरी | सकता है। जो केवल ज्ञान को देखते हैं, वे मुझमें ही प्रवेश उपासना करते हैं तथा सभी प्राणियों पर दया रखने वाले | कर जाते हैं। क्योंकि उसी रूप में वे बुखियुक्त, तदात्मा, शान्त, दान्त, ईष्यरहित, अमानी, बुद्धिमान्, तपस्वीं, व्रत, | तनिष्ठ एवं तत्परायण हैं, वे ज्ञान द्वारा पार्यों को भोकर पुनः मुझमें चित्त और प्राणों को लगाये हुए, मेरे ज्ञान के कथन में | संसार में आते नहीं हैं। निरत, संन्यासी, गृहस्थ, वानप्रस्थी और ब्रह्मचारी हैं, उन | मापनाच परमं निर्वाणममलं पदम्। सदा धर्मनित व्यक्तियों के महान् अन्धकारमय समुत्पन्न | प्राप्यते न हि जेन्द्र तनो मां शरणं अज्ञ॥ २८६॥ मायातच को मैं ही ज्ञानदीप द्वारा नष्ट कर देती हैं, इसमें | हे राजेन्द! मेरा आश्रय लिये बिना निर्मल निर्वाणरूप थोड़ा भी विलम्ब नहीं होता।

परम पद को प्राप्त नहीं किया जा सकता, इसलिए मेरी शरण ते मुनिर्भूततमसों ज्ञानेनैकेन मन्मयाः।। में आओ। सदानन्दास्तु संसारे न जायते पुनः पुनः॥ ३५६॥ एकत्वेन पृथक्वेन तथा चोभयथापि मा। व नका अज्ञानम अन्धकार र हो जाता है, नय ने मामपाम्य महीपाल ततो यास्र्यास तत्पदम्।। २८७॥ केवल ज्ञान के द्वारा मन्मय हो जाते हैं। वे सदानन्दरूप | | हैं महौपाल ! मेरे एक स्वरूप में या भिन्न-भिन्न रूप से होकर संसार में बार बार उत्पन्न नहीं होते।

अथवा दोनों प्रकार से मेरी उपासना करके उस परमपद को तस्मात्सर्वप्रकारेण मद्भक्तों मत्परायणः। प्राप्त कर सकोगे। मामेवाच्य सर्वत्र मनमा शरणं गतः।। २८ ॥ मामालित्य ननत्वं स्वभावमलं शिवम्। | इसलिए सब प्रकार से मेरे भक्त बनकर होकर मत्परायम् । ज्ञायते न हि राजेद्र ततो मां शरणं ।। ३८८|| | हो जाओ। आप मन से भी मेरों शरण में आकर सर्वत्र मुझे | राजेन्द! मेरा आश्रय लिए बिना स्वभावतः निर्मल उस हो पुजों। शिवतत्व को नहीं जान सकते, अत: मेरों शरण को प्राप्त अशक्तो यदि में श्यातुमैश्वरं रूपमव्ययम्। होओं। तनों में परमं रूपं मनाई शो मृ।। ३ ।।

तस्मात्त्वमक्षरं रूपं नित्यं वा रूपमैश्वरम्। यदि मेरे इस अविनाशी ऐश्वररूप का ध्यान करने में | आराधय प्रयत्न ततोऽयत्वं हास्यम।। ३८१ ॥ असमर्थ हों तों में कालात्मक परम रूप को शरण में आ इसलिए आप प्रयत्नपूर्वक अविनाशी नित्य ऐश्वररूप को नाओं। आराधना करें। इससे अज्ञानमय अन्धकार से मुक्त हो तस्वरूपं में सात मनसों गोचरं तब। जाओगे। तपुतत्परों भूत्वा तदर्घनपरों भव।। १८३॥

कर्मणा मनसा वाचा शिवं सर्वत्र सर्वदा। | इसलिए है तात! मेरा जो स्वरूप आपके मन में गोचर | | समापय भावेन ततो यास्यसि तत्पदम्।। ३५ ॥ | हैं, उसमें निष्ठा और परायणता रखकर उसकी सेवा में तत्पर | कर्म, मन और वाणी द्वारा सर्वत्र सब काल में प्रेमपूर्वक । हों जाऔं शिव को आराधना करो। उससे परमपद की प्राप्ति होगी। यत्तु में निष्कलं रूपं चिन्मानं केलं शिवम्।

न मैं यास्यन्ति ।

देवं मोहिता मम मापा। मर्योपासिविनिर्मुक्तपनन्तममुर्त परम्॥ ३३॥

अनामनन्तं मर्म महेमरमनं शिवम्।। १॥

ज्ञानेनैकेन तन्मभ्यं क्लेशेन परमं पदम्।

सर्वभूतात्मभूतम्यं सर्वाधार निरञ्जनम्।

ज्ञानमेव प्रपश्यनो मामेव प्रविशनि तें॥ २८॥

 नित्यानन्दं निभास निर्गुणं नमसः परम्॥ २१२॥ तदनुस्तदात्मानस्वग्निशाम्तात्परायणाः।

अद्वैतमचलं ब्रह्म निष्कलं निअपकम्। गवन्यपुनरावृत्ति ननियूँतकल्पयाः॥ ३८५॥

स्वसंवेद्यमवेद्यं तत्परे योनि व्यवस्थितम्॥३३॥

 

मेरा को रूप निष्कल, चिन्मात्र, कंबल, शिव, समस्त मेरी माया से मोहित होकर ही इस अनादि, अनन्त, परम् उपाधियों से रहित, अनन्त, श्रेष्ठ और अमृतस्वरूप है। उस | परमेश्वर तथा अजन्मा महादेव को नहीं पाते हैं। वे शिव

कुर्ममहापुराणम्

सभी प्राणियों में आत्मरूप में अवस्थित, सर्वाधार, निरञ्जन, | ज्ञानेन कर्मयोगेन भक्त्या योगेन वा नृप। नित्यानन्द, निराभास, निर्गुण, तमोगुणातीत, अद्वैत, अचल, | सार्श्वसंसारमुक्त्यर्थमीश्वर शरणं व्रज।। ३० ॥ निष्प्रपञ्च, स्वसंवेद्य, अवेद्य और परमाकाश में अवस्थित हैं। है राजन् ! सारे संसार से मुक्ति पाने के लिए ज्ञान, सूक्ष्मेण नमस्रा नित्यं वेष्टिता मम मायया।

कर्मयोग तथा भक्तियोग के द्वारा ईअर की शरण में जाओ। संसारमागरे घोरे जायने च पुन: पुन:॥ १४॥ एप गुपदेशाले मया इनों गिराँवार।। मनुष्य मेरों नित्य सूक्ष्म अज्ञानरूपों माया से वेष्टित होकर अवक्ष्य चैतदखिलं यथेष्टं कर्तुमर्हसि॥३३॥ संसाररूपों घोर समुद्र में बार-बार जन्म लेते हैं।

हे गिरीश्वर ! यह गोपनीय उपदेश मैंने आपको दिया है। भक्त्या त्वनन्यथा राजन् मम्यग्ज्ञानेन चैव हि यह सब अच्छी तरह विचारकर जो अच्छा लगे, वह कर अन्वेष्टव्यं हि तन्ना जन्मवर्यानिवृत्तये॥ ३१५।। सकते हों। राजन्! अनन्य भक्ति तथा सम्यक् ज्ञान के द्वारा ही जन्म अहं वै वाचता देवैः सञ्जता परमेश्वरान्। बन्धन से निवृत्ति हेतु उस ब्रह्मतत्व को अवश्य खोजना

चिनिन्य इक्षं पितरं महँकारविनिन्दकम्॥३३॥ चाहिए।

धर्मसंस्थापनार्थाय तवायनकारणात्। अहंकार मात्सर्य कार्म क्रॉपपरिग्रहम्।

मैना देहममुत्पन्ना चामेच फ्तिरं श्रिता॥ ३४॥ अधर्माभिनिवेश त्यक्त्वा वैराग्यमास्थित:॥ ३६॥ म त्वं नियोंगाईवस्य ब्रह्मणः परमात्मनः।।

प्रदास्यमें मां रुद्राय स्वयंवरसमागमे।। ३०५॥ [इसके लिए अहंकार, भाव, काम, ध, परिग्रह देवों के द्वारा याचना करने पर मैं परमेश्वर में तथा अधर्म में प्रवृत्ति- इह सब को त्यागकर वैराग्य का (शकिपा) समुत्पत्र हैं। मैंने महेश्वर प्रभु को निन्दा करने आश्चय ग्रहण करें।

वाले अपने पिता दक्ष प्रजापति को भी बिनन्दित किया और सर्वभूतेषु चात्मानं सर्वभूतानि चात्पनि।

 

धर्म को संस्थापना के लिए और तुम्हारी आराधना के कारण अवेक्ष्य यात्मनात्मानं भूयाय कल्पते।।३१७|| मैंने सेना के देह से जन्म ग्रहण किया है और अब आपा पिता सभी प्राणियों में अपनी आत्मा को और अपनी आत्मा में | के आश्रित हो गई है। वह अब आप परमात्मा ब्रह्मदेव की सब प्राणियों को देखें। इस प्रकार आत्मा के द्वारा आत्मा का प्रेरणा अथवा आज्ञा में स्वयंवर के समय आने पर मुझे दर्शन करके ब्रह्मस्वरूप हो जाता है। रुद्रदेव के लिये अर्पित करना।। ब्रह्मभूतः प्रसन्नात्मा सर्वभूताभयप्रदः। सम्यमान राजन् सर्वे देवाः सयामयाः। ऐश्वर्यं परमां भक्ति विन्देतानन्यभाविनीम्॥ २ १८।।। चां नपस्यति नैं तात प्रसीदति च शंकाः॥ ३०६|| वह ब्रह्ममय होकर प्रसन्नात्मा तथा सभी प्राणियों का तस्मात्सर्वप्रयत्नेन पी विडीश्वरगोचराम्। अभय दाता होता है। वह मनुष्य इंकार-सम्बन्धी

संपूज्य देवमीशानं शरण्यं शरणं ॥ ३०॥ अनन्यभावरूपा श्रेष्ट्र भक्ति को प्राप्त करता है। उस सम्बन्ध के होने पर (अर्थात् महेशर का मेरे साथ साक्ष्यते तत्परं तत्त्वमैश्वरं ब्रह्म निष्कलम्।। और आपके साथ नो सम्बन्ध होगा, इस कारण) हे राजन्! सर्बसंसारनिर्मुक्तों ब्रह्मण्येवातियते॥ ३११ ।। इन्द्र सहित सभी देवगण आपको नमन करेंगे और हे तात!

भगवान् शंकर भी अति प्रसन्न होंगे। इस कारण सब प्रयत्न उसे ईश्वर विषयक निष्फल परमतत्त्वं ब्रह्म का दर्शन होता से मुझको इंकारविषयक ही नानो। ईशान देब का भलीभाँति हैं। इस प्रकार समस्त संसार में मुक्त होकर वह ब्रह्म में पूनन करके उसो शरण्य की शरण में चले जाओ। अवश्चित हो जाता है।

स एवमुक्तों हिमवान् देवदेव्या गिरीश्वरः। ब्रह्मणोऽयं प्रतिष्ठानं रम्य परमः शिवः।

प्रणम्य शिरसा देव प्राञ्जलि: पुनरवीत्।। ३०८॥ अनझाव्यश्चैकक्षात्माघारों महेश्वरः॥३०॥

इस प्रकार दे की देवी पार्वती ने गिरोनार किंमाचल कों परब्रह्म के प्रतिष्ठानरूप परम शिव स्वयं हैं। वे महेश्वर | ऐसा कहा, तब पुनः उन्होंने शिर झुकाकर प्रणाम करके हाथ अनन्य, अविनाशी, अद्वितीय और समस्त भूतों के आधार हैं। | जोड़कर देवी से कहा।

પાપન ઘનમીનીનાં પાનું મન

 

इस अध्याय में दवा के | ३६, नाम ॥ ३ ॥ यशाबद्व्याजहारेशा सामानि च विस्तरात्।। ३ १०| | जानकर सूर्यमण्डलगता परमेष्ठी का आवाहन करके हे महेशानि! आप परम महेश्वर-सम्बन्धी श्रेष्ठ योग, | भक्तियोग से युक्त होकर गन्धपुष्पादि द्वारा पूजन करके देवी आत्मविषयक ज्ञान, योग तथा साधनों को मुझे कहें। तब | सहित पारम माहे स्वभाव का स्मरण करते हुए, अनन्य मन ईबरों में परम ज्ञान, उत्तम योग या साधनों को | | से मरणपर्यन्त नित्य जप करने वाला द्विज अन्तकाल में विस्तारपूर्वक बताया।

इनका स्मरण करके परब्रह्म को प्राप्त करता है। अथवा वह निशम्य वदनामजाद् गिरीन्द्रों लोकपूजितः।। ब्राह्मण के पवित्र कुल में विग्न होकर जन्म लेता है और पूर्व नोकभानुः परं ज्ञानं योगासकोभवत्पुनः॥ ३१॥ । संस्कार के माहात्म्य से ब्रह्मविद्या को प्राप्त करता है।

लोकपूजित गिरीन्द्र लोकमाता पार्वती के मुखारविंद से सम्माप्य योग परमं दिव्यं तत्परमेश्वरम्। | परम ज्ञान को सुनकर पुन: योगासक्त हो गये।

शान्त: सुर्सयतो भूत्वा शिवसायुज्यमाप्नुयात्।।३२०॥ प्रददौ च महेशाय पार्वतीं भाग्यगौरवात्। वह परम दिव्य परमेश्वरविषयक योग को प्राप्त करके नियोगाद्वाह्यण: साध्वी देवानाचैव सन्निधौ।।३१२॥ शान्त और सुसंयतचित्त होकर शिव के सायुज्य को प्राप्त कर भाग्य की महत्ता और ब्रह्मा के आदेश से हिमालय ने लेता है। देवताओं के सान्निध्य में साध्वी पार्वती को महेश के लिए प्रत्येकज्ञाय नामानि जुहुयात्सवनत्रयम्। समर्पित की।

महामारिकृतैर्दोषैर्महदोपैश्च मुच्यते॥ ३२१।। य इमं पढ़नेऽध्यायं देव्या माहात्म्यकीर्तनम्। | जो भी मनुष्य तीनों कालों में इन प्रत्येक नामों का शिवस्य सन्निधौ भक्त्या शुचिस्तभावभावतः॥३१॥ उच्चारण करके होम करेगा, वह महामारीकृत दोषों से तथा सर्वपापविनिर्मुक्तो दिव्ययोगसमन्वितः॥

ग्रहदोषों से मुक्त हो जाता है। उल्लंघ्य ब्रह्मणो लोकं देव्याः क्यानमवाप्नुयात्॥ ३१४॥ जपेद्वाऽहर्नित्यं संवत्सरपतन्द्रितः। जो देवी के माहात्म्य-कीर्तन करने वाले इस अध्याय को श्रीकाम: पार्वती देवी पूजयित्वा विधानतः॥३३२।। शिव की शरण में भक्तिपूर्वक पबित्र एवं तद्गतचित्त होकर | सम्पूज्य पार्श्वतः शम्भु त्रिनेत्रं भक्तिसंयुतः। | पड़ेगा, वह सभी पापों से मुक्त तथा दिव्य योग से समन्वित | लभते मी लक्ष्मी महादेवप्रसादतः ॥ ३ २३॥ होगा। यह ब्रह्मलोक को लांघकर देवों का स्थान प्राप्त करता जो लक्ष्मी चाहने वाला विधिविधान से देवी पार्वती की पूजा करके एक वर्ष तक सजग होकर नित्य इन नामों का यश्चैतत्पति स्तोत्रं ब्राह्मणानां समीपतः। ज्ञप करता हैं तचा भक्तियुक्त होकर देवी के समीप हौं समाहितमनाः सोऽपि सर्वपापैः प्रमुच्यते॥ ३१५॥ त्रिलोचन शिव की पूजा करता है, उसे महादेव की

जो कोई ब्राह्मणों के समीप समाहितचित्त होकर इस | अनुकम्पा से महती लक्ष्मी की प्राप्ति होती है। स्तोत्र का पाठ करता है, वह समस्त पापों से मुक्त हो जाता | तस्मात्सर्वप्रयत्नेन जप्तव्यं हि द्विजानिभिः।

सर्वपापापनोदार्थ देव्या नामसहस्रकम्।।३२४॥ नाम्नामष्टसहस्त्रन्तु देव्या समुदीरितम्।

इसलिये द्विजातियों को सब प्रकार से प्रयत्नपूर्वक समस्त ज्ञाचार्कमण्डलगतामाक्षाा परमेश्वरीम्॥ ३ १६ ॥ पायों को दूर करने के लिए देवी के समनाम का जप अभ्यर्ल्स गधपुम्याग्रेभक्तियोगसमन्वितः।

करना चाहिए। संस्मरन्यमं भानं देव्या माहेश्वरं परम्॥ ३ १७॥

मृत याच अनन्यमानसों नित्यं जपेदामराजः। मोऽन्तकानें स्मृति लब्ध्वा परं ब्रह्माधिगच्छति। ३ १८॥ । असाकथितं विप्रा देव्या माहात्म्यमुत्तमम्।

 

कूर्ममहापुराणम् अत; पर अज्ञासगै मृद्मादीनां नियोयन।। ३१५|| तश्चैव च मयांसं तपोनिझुंतवल्पषम्। सूत बोले- विघ्रगण ! प्रसंगवश देवीं के उत्तम माहात्म्य | अनसूया तथैवावेजज्ञे पुत्रानन्यवान्।।७।। का वर्णन मैंने कर दिया। इसके बाद भूगु आदि की प्रजासृष्टि सोमं दुर्वांसमव दत्तात्रेय योगिनम्। | ध्यानपूर्वक समझो। स्मृश्चिाङ्गिरमः पुत्री जज्ञे लक्षणसंयुता।८॥ इति श्रीकुर्मपुराणे पूर्वमागे देख्या माहात्म्ये प्रजापति पुलह की पत्नी क्षमा ने कई पुर्षों को जन्म दिया,

 

जिनमें कर्दम सबसे बरौय में एवं मुनिश्रेष्ठ तथा तप से द्वादशोऽध्यायः॥१२॥

निर्धेत पाप वाले सहिष्ण कनिष्ठ थे। उसी प्रकार अनसूया ने

अत्रि में पापरहित पुत्रों को जन्म दिया- सोम, दुर्वासा, और त्रयोदशोऽध्यायः

योगी दत्तात्रेय। अंगिरा से शुभलक्षणसम्पना स्मृति नामक (दक्षकन्याओं का वंश-वर्णन) पुत्री उत्पन्न हुई। सिनीवाली कुचैव राकामनुमतींमप। सूत उवाच

प्रीत्या पुलस्त्यो भगवान्दोजिमसृजन्प्रभुः।। १ ।। मृगः यस्यां समुत्पन्ना लक्ष्मीनारायणप्रया॥ भगवान् प्रभु पुलस्त्य ने प्रीति नामवालीं अपनी पत्नी में देवौ मातावियानाशै मेरोर्जामनगै झुमौ ॥ १॥

 

सिनौवाली, कुडू, राका, अनुमती नामक पुत्रियों को तथा सूत बोले- नारायण की निंया लक्ष्मी भृगु की ख्याति दम्भनि नामक पुन को उत्पन्न किया। नामक पत्नी से उत्पन्न हुई। मेरु के धाता और विधाता नामक पूर्वजपनि सोझगस्त्यः स्मृतः स्वायम्भुवेत। दो शुभकारों देव जामाता हुए थे।

देवबाहुस्तया कन्या द्विनौया नाम नामतः॥ १० ॥ आर्यातवियतिथैव मेरो: कन्ये महात्मनः। पूर्वजन्म में स्वायम्भुव मन्चतर में वही अगस्त्य नाम हैं। तयोर्मातृवियातृभ्यां यौ च ज्ञातौ सुतावुभौ॥३॥ जाने गये। इसके बाद उनसे दूसरी देववाहु नामको कन्या प्रापाश्चैव मुकण्य मार्कण्डेयो मृकण्डुतः।

उत्पन्न हुई थी। नया वेदशिरा नाम प्राणस्य चुनिमासुतः॥ ३॥

पुत्राणां पशिसाहस्रं सन्तति: सुपेवे ऋतोः। महात्मा मेरु की आयतिं और नियति नामक दो कन्यायें ते चोतसः सर्वे बालखिल्या अति स्मृताः॥ १।। हुई थी और उनके पति) धाता और विधाता से दो पुत्र ।

 

ऋतु प्रजापति से साठ हजार पुञों की संतति उत्पन्न हुई। उत्पन्न हुए थे – प्राण और मृकण्ड। मृकण्डू से मार्कण्डेय | की उत्पत्ति हुई और प्राण का वेदशिरा नामक पुत्र हुआ, जो वे सय ऊर्ध्वरेता ब्रह्मचारी बालविल्य नाम से प्रसिद्ध हुए। अत्यन्त द्युतिमान् था। वसिष्ठश्च वोर्नार्या सम पुत्रानजीजमत्।

कन्याञ्च पुण्डरीकाक्षा सर्वशोभासमन्विताम्।। १२ ।।। परीचेपि सम्भूतः पूर्णमासमसूयता वसिष्ठ ने ऊर्जा नामक पत्नी से सात पुत्रों को और एक कन्या-तुष्टयचैव सर्वक्षणसम्॥४॥

समस्त सुन्दरता से युक्त ‘पुण्डौंकाक्षा’ नामक कन्या को तुष्टिज्र्येष्ठा तथा वृष्टिः कृष्टिश्चपचितिम्तया। जन्म दिया। विज्ञाः पर्वतचैव पूर्णमासम्म तौ सुनौ॥५॥

जोमानोर्यवाहुको अवक्षनागस्तथा। मरीचि की पत्नी सभूति ने पूर्णमास नामक एक पुत्र को | सुतपाः शुक्र इत्येते सप्त पुत्रा महौजसः।।१३। जन्मा और सर्वलक्षुणसंपन्न चार कन्याओं को जन्म दिया। | वे सातों रञमात्र, ऊर्जवाह, सवन, अनग, सुतपा, शुक्र उसमें तुष्टि ज्येष्ठा थीं, और अन्य तीन) वृष्टि, कृष्टि तथा | एवं महौजस नाम से प्रसिद्ध थे। अपचित नामवाली थीं। पूर्णमास के दो पुत्र हुए- विरजा योऽसौ रुद्वात्मको वह्मिणस्तनयों क्विजाः। और पर्वत।

स्वाहा तस्मात्सुतान् ले जीनुदा-महौजसः॥ १४॥ क्षमा नु सुषुचे पुत्रान्पुलहस्य प्रजापतेः। पावकः पबमानको शुचिनिया रूपतः। कदंपन्न वरीयांमें महिष्णु मुनिसत्तमम्॥

निमयः पवमानः स्यादेपुतः पावकः स्मृतः॥ १५||

पूर्वभागे चतुर्दशोऽध्यायः

शासौं तपते सूर्ये शुचिरग्निस्त्वसौं स्मृतः।

घारिणी मेंमजस्य पत्नी ममानना। तेषान्तु सततायन्ये चत्वारिशच्च पञ्च ॥ १६ ॥ देवौं माताविघातारी मेर्जामातारावुभौ॥३३॥ हे द्विजगण! वह जो रुद्वात्मक वहिं ब्रह्मा का पुत्र था, | मेरुराज की पत्नी कमलमुखी धारिणी थी। भाता और स्वाहा ने उससे तन उद्दार एवं महान् तेजस्वी पुत्रों को प्राप्त | बिधाता ये दो देव, मेरु के जामाता थे। | किया। वे धे- पावक, पवमान और शुचि। वे रूप में अग्नि एषा दक्षस्य कन्यानो मयापत्यानुसन्ततिः। | ही थे। निम्मथन में उत्पन्न अग्नि को पवमान और विद्युत से व्याख्याता भवतां सद्यों मनोः मूटिं नियोक्त॥ ३४॥

उत्पन्न अग्नि को पात्रक कहा गया है। जो सूर्य में रहता हुआ | यह मैंने दक्षकन्याओं के पति तथा उनकी सन्तति का तपता है, उसे शुचि नामक अग्नि कहा जाता है। उसकी | वर्णन आप लोगों के सामने कर दिया। अब मनु की सृष्टेि पैंतालीस सन्तानें हुईं।

को शौम्न ही सुनो। पवमानः पावक शुचिस्तेषां पिता च यः।।

इति कुर्मपुराणे पूर्यभागे दक्षकन्याख्यातिवंशः एते चैकोनाशयः परिकीर्तिताः॥ १७॥

त्रयोदशोऽध्यायः

॥ १३॥ पवमान, पावक, शुचि तथा इनका पिता ये जो चार | निय है, ये सब मिलकर उनचास अग्नि बताये गये हैं।

चतुर्दशोऽध्यायः सर्वे तपस्विनः प्रोक्ताः सर्वे यज्ञेषु भागिनः। रूहात्मकाः स्मृताः सर्वे त्रिपुण्ड्राङ्कितमस्तकाः॥ १८॥

(स्वायंभुव मनु का वंश) । ये सभी तपस्वी तथा सभी यज्ञों में भाग लेने वाले कई

सूत उवाच गये हैं। ये सय रुद्रस्वरूप कहे गये गये हैं, इसलिए उनके |

प्रियकृतोत्तानपादौ मनो: स्वायम्भुवस्य तु।। पुस्तक त्रिपुण्डू से अंकित रहते हैं।

अर्मज्ञौ तौ महावीय शतरूपा व्यञीजन्॥ १॥ अयज्वानश्च यवान; पितरों ब्रह्मणः सुताः। अग्निष्वाना वरिषदो द्विधा तेषां व्यवस्थितिः॥ १९ ॥

मृत बोले- स्वायंभुव मनु कौं शतरूपा (नामक रानौं) नेभ्यः स्वधा सुतां बने मैनां वै घारिणीं था। ने प्रियव्रत और उत्तानपाद नामक धर्मज्ञ और महान् पराक्रम ते उभे ब्रह्मवादिन्यौ योगिन्य मुनिसत्तमाः॥२३॥

दो पुत्रों को जन्म दिया था। अयान्वन् और यज्चन नामक पितर ब्रह्मा के पुत्र हैं। ततस्तूत्तानपादस्य सुवो नाम सुनोऽभवत्। उनको व्यवस्था अग्निन्नान तथा बहिषद्- इन दो प्रकार से भक्त्या नारायणे देवें प्राप्तवान् नमुत्तमम्॥३॥ हैं। उनसे स्वधा ने मेना और धारण नामको दो कन्याओं इसके बाद उत्तानपाद का भुव नामक पुत्र हुआ, जिसने | को उत्पन्न किया। हे मुनिश्रों ! ने दोनों अह्मवादिनी होने से | भगवान् नारायण में निशेष भक्ति होने से उत्तम स्थान

योगिनी नाम से प्रयाप्त थीं। (पद) प्राप्त किया। असूत मेना मैनाकं तस्यानुन्नन्तथा।

भुवाच्छिष्य भाव्यश्च भाव्याच्छम्भुर्व्यजायत। गङ्गा हिमवतो जज्ञे सर्वलोकैकपावनी॥ २१॥

शिष्यत्त सुझाया पञ्च पुत्रानकल्ययान्॥ ३॥ | मेना ने मैनाक और उसके अनुन क्रौञ्च को जन्म दिया।

इस ध्रुव से शिष्ट और भाव्य तथा भाव्य से शम्भु का। सर्वलोकपावन गंगा नदी में) हिमालय से उत्पन्न हुई। | जन्म हुआ। शिष्टि से सुझाया ने पाँच निष्पाप पुत्रों को जन्म ।

दिया। | स्त्रद्योगाग्निवनाहेब पुर्जी लेमें महेश्वरीम्। वसिष्ठवचनादेवी नपस्तष्चा सुरम्। यथावत्कषिर्त पूर्व देव्या पाहात्म्यमुत्तमम्॥ २३॥ अपने योगाग्नि के बल से हिमालय ने महेश्वरी देवी को आराध्य पुरुषं विष्णु शालग्रामें जनार्दनम्॥४॥ पुत्ररूप में प्राप्त किया। देवों का उत्तम माहात्म्य मैं यथावत् |

रिपुं रिपुञ्जयं विनं कपिलं वृषतेजसाम्। बता चुका हैं।

नारायद्यापराशुद्धान्थर्मपरिपालकाम्।।५॥

 

कूर्ममहापुराणम् सुच्छाया ने वसिष्ठ मुनि के कहने पर अत्यन्त दुष्कर तप | जन्म धारण किया। वे सूत सभी धर्मशास्त्रों के प्रबक्ता, धर्मज्ञ | किंया और शालग्राम में परमपुरुष ज्ञानार्दन विष्णु को | और गुरु से स्नेह रखने वाले थे।

आराधना की। इससे उसने रिपु, रिपुञ्जय, विप्र, कपिल और मां वित्त मुनिश्रेष्ठाः पूर्वोद्भुतं सनातनम्। नृपतेना नामक पाँच पुत्रों को उत्पन्न किया। वे सभी | अस्मिन्पन्चत म्यासः कृष्णद्वैपायन: स्वयम्॥ १४॥ नारायण की भक्ति में तत्पर, शुद्ध एवं स्वधर्म-रक्षक थे। आवयामास मां प्रीत्या पुराण: पुरुषों हरिः।

रिपोरापन पहिषी चशुपं सर्वतेजसम्।

मदन्वये तु ये सूताः समृता वेदवता: १५॥

 सोऽजीञ्चनपुष्करपयां मुरूपं चाक्षुषं पनुम्॥ ६॥

तेषां पुराणकत्वं वृत्तिरासोदबाज़वा।।

प्रज्ञापतेात्पज्ञायां वांगणस्य महात्मनः।

मुनिश्रेष्ठो! वह सूत पौराणिक मुझे ही जानो।

पूर्व काल में मनोरजायन्त दश मृतातें सुमहज़मः॥७॥

उत्पन्न होने से सनातन हैं। इस मन्वन्तर में पुराण पुरुष कन्यायां सुमहावीर्यो वैराज्ञस्य प्रज्ञापतेः। हरिरूप स्वयं कृष्णद्वैपायन व्यास ने मुझ पर कृपा को और उरु: पुरु: शतघुम्नस्तपस्वी सत्यवाक् शुचिः॥ ८॥ प्रीतिपूर्वक (यह पुराण) श्रवण कराया। मेरे बंश में जो अग्निहुदतिराश्च सुद्युम्याभिमन्युकः।

बंदज्ञान में इति सूत उत्पन्न हुए थे, वे भगवान् अज कौं ऊरोजनयत्पुत्रान्यानेयो महाबलान्॥१॥ आज्ञा से पुराणों के ज्ञाचन से ही आजीविका का निर्वाह अङ्गं सुभानसं ख्याति ऋतुमाङ्गिरसे शिवम्। करते थे। अाहेनोंभवत्पश्चान्यों बेनादजायत।। १७ ॥

स च वैन्यः पृथुर्पोमान्सत्यसयों जितेन्द्रियः।। १६ ॥ रिपु की महिषी ने अति तेजस्व चक्षुस् नामक पुत्र को | सार्वभौमों महातेजाः स्वधर्मपरिपालक;॥ जन्म दिया। उस चक्षुस ने महात्मा औरण प्रजापति की पुत्री तस्य बाल्यात्मभृत्येब भर्नारायणेऽभवत्॥ १७॥ पुष्करिणी में रूपवान् चाक्षुष मनु को जन्म दिया। इस | वह चेन पुत्र पृथु अत्यन्त बुद्धिमान्, सत्यप्रतिज्ञ, महाबौर चाक्षुष मनु ने बैराज प्रजापति की कन्या से महान् | जितेन्द्रिय, सार्वभौम, महातेजस्वी और अपने धर्म का तेजस्वी उरु, पूरु, शतद्युम्न, तपस्वी, सत्यवाक् शुचि, परिपालक था। बाल्यकाल में ही इसकौं नारायण में भी अग्निष्टुत्, तिराज, सुद्युम्न और अभिमन्युक- इन दस पुत्रों | हो गई थी। को उत्पन्न किया। उरु से आग्नेयी नाम की पत्नी ने अङ्ग | गोवर्धनगरं प्राप्तलपस्तेपें जितेन्द्रियः।। सुमनस्, याति, ऋतु, आङ्गिरस एवं शिव नामक बलशाली | तपमा भगवान्मत: खचक्रगदायरः॥ १८॥ छ- पुत्रों को जन्म दिया। पश्चात् अङ्ग से जैन हुआ और वेन | वह जितेन्द्रिय गोवर्धन पर्वत पर जाकर तपस्या करने से वैन् (पृथु उत्पन्न हुआ। लगा। उसके तप से शंखचक्रगदाधारी भगवान् प्रसन्न हुए। योऽसौ पृथुत ज्यातः प्रज्ञापालो महाबलः।

आगत्य देवों राजानं प्राह दामोदरः स्वयम्।। येन दुग्धा महीं पूर्व प्रज्ञानां हितकाम्यया।।११।। धार्मिक कापसम्पन्न मर्वशस्त्रभृतांवरी॥ ११ ॥ नियोगाह्मण; साई देवेन्द्रेण महौजसा।

मामादाइसदियों पुत्र तव भविष्यतः। नहीं नैन्य प्रज्ञापालक महाबलों पृथु नाम से प्रख्यात एवमुकवा हृषीकेशः स्वकीयां प्रकृतिं गतः॥२०॥ हुआ, जिसने पूर्व काल में ब्रह्मा की आज्ञा से प्रजाओं के स्वयं दामोदर विगु देव ने वहाँ आकर राजा से कहा हित की कामना से महातेजस्व इन्द्र के साथ पृथ्यों का

मेरे प्रसाद से निश्चय ही तुम्हारे दो पुत्र होंगे, जो धार्मिक, दोहन किया था।

पसम्पन्न तथा सकल शस्त्रधारियों में श्रेष्ठ होंगे। इतना बेनपुत्रस्य चिंतने पुरा पैतामहे मखे॥ १२॥

कहकर भगवान् अपनी प्रकृति में लौन हो गये। वैन्यपि वेदविधिना निश्चल भक्तिमुन्। सूतः पौराणिक जज्ञे मापारूप: स्वयं हरिः। सोऽपातयत्स्वकं राज्यं चिन्तयन्मधुसूदनम्।। ।। प्रबक्ता सर्मशास्त्राणां अर्मज्ञों गुरुवत्सलः॥ १३ ॥

पृथु ने भी वैदिक विधिपूर्वक भगवान् में अचल भक्ति पूर्वकाल में वेनपुत्र पृथु के विशाल पैतामह यज्ञ में स्वयं | रखते हुए और मधुसूदन का चिन्तन करते हुए अपने राज्य | हरि ने मायादौ रूप धारण करके सूत पौराणिक के रूप में | का पालन किया।

पूर्वमागे चतुर्दशोऽध्यायः

अधिरादेव तन्वी भार्या तस्य शुचिस्मिता। व्यावासंस्थमज्ञानां शिरस्यायाय चालिम्। शिखण्डिनं हविद्धनमतद्धनाढ्यजायत॥ ३२॥ सांझमाणों भास्वन्तं तुघाच परमेश्वरम्।। ३३॥

थोड़े ही समय में शुचिस्मिता कृशाङ्गी पृनु-पत्रों ने | हाध्यायेन गिरिशं रुहूस्य चरतेन च। शिखण्डी और हविर्धान को अन्तर्धान से उत्पन्न किया। अन्यैश्च विविधैः स्तोत्रै: शाम्भवैवइमम्भवैः।।३१।। शिखण्ड्रिनोऽभवत्पुत्रः सुशील इति तिः ।

पुनः सूर्यमण्डल में अवस्थित इंशान का ध्यान करके धार्मिको रूपमम्पन्नो वेदवेदाङ्गपारगः।।३३।। अंजलि को सिर पर रखकर भगवान् भास्कर को देखते हुए शिखण्डों का पुत्र सुशौल नाम से प्रसिद्ध हुआ। वह | उनकी स्तुति करने लगा। उसने रुद्राध्याय, रुद्रचरित और धार्मिक, रूपसम्पन्न तथा वेद-वेदाङ्गों में पारंगत था। वेदोक्त विविध शिव-स्तुतियों में शङ्कर की आराधना की।

सोऽधीत्य विधिववेदाधर्मेण उपस स्थितः।। अतस्मिन्नन्तरेऽपश्यत्समायान्तं महामुनिम्। मतिश्चके भाग्ययोगात्संन्यासम्मति धर्मवित्।। २४॥

श्वेताश्वतरनामाने महापाशुपतोत्तमम्॥३३॥ वह बिधिवत् धर्मपूर्वक बेदों का अध्ययन करके तापल्या भस्मसन्दिग्धसर्वाङ्गं कौपानाच्छादनान्वितम्। में स्थित हुआ। उस धर्मज्ञ ने भाग्य के संयोग से संन्यास के तपसा कर्यितात्मानं शुक्लयज्ञोपवीतिनम्।। ३३॥ प्रति अपनी बुद्धि को स्थिर किया।

इसी बीच उसने श्वेताश्वतर नामक बड़े बड़े पाशुपतों में । ‘ म कृत्वा तीर्घसंमेबां स्वाध्याये तपसि स्थितः। उनम महामुन को आते हुए देखा। वे मुनि सर्वाङ्ग में भस्म जगाम हिमवत्पृष्ठं कदाचित्मिद्धमेतितम्॥ २५॥

लगाये हुए, कौपोनयन्त्रधारी, तपस्या से क्षणकाय तथा घेत बहू तीर्थों का भली-भाँति सेवन (भ्रमण करके पुनः यज्ञोपवीत धारण किये हुए थे। वेदाध्ययन और जुए में हैं। श्चित हो गया फिर किसी समय सिद्धों के द्वारा मॅचित हिमालय की चोटी पर चला गया था।

ममाप्य मंस्तवं शम्भौरानन्दास्राविलक्षणः।

अग्रदै शिरसा प्रादौ प्राञ्जलवाक्यमब्रवीत्।। ३४॥

नत्र मर्मचनं नाम फार्मासिनिं बनाम।।

अपश्यद्योगिनां गम्यमगम्यं ब्रह्मविद्याम्॥ ३६॥

उन्होंने शिवजी की स्तुति समाप्त करके आखों में वहाँ पर उसने धर्मनन नामक एक वन देजा, जो धर्म की आनन्दानु भरते हुए मुनि के चरणों में शिर झुकाकर प्रणाम सिद्धि देने वाला, योगिजनों के द्वा] गमन करने के योग्य किया और हाथ जोड़कर यह वचन बोले। और अह्मविषयों के लिये अगम्य थल बाधन्योऽस्म्यनुगहोतोऽस्मि ग्रन्में साक्षान्मुनीश्वर।

योगीश्वरो भगवान्दृष्टों योगविदां वरः॥३५॥

तन्न मन्दाकिनीनाम सुपुण्या विमला नदी।

पद्योंपलबनोपंता सिद्धाश्रमविभूचिंता॥ २७॥

हे मुनीश्वर ! मैं धन्य हैं, अनुगृहीत हैं जो मैंने आज | वहाँ पर मन्दाकिनी नाम बालों परम पुण्यमयी स्वच्छ साक्षात् योगीश्वर और योगवेत्ताओं में सर्वश्रेष्ठ, ऐश्वर्यसम्पन्न बदों हैं जो पद्म और उत्पलों के बन में संयुत तथा सिद्धजन |

आपके दर्शन किये। के पावन आश्चम से विभूषित है।

आहों में सुमहद्भाग्यं तपांसि सफलानि में। म तम्या दक्षिणे तोरे मुनीन्देर्योगिभिर्युतम्। किं करिष्यामि शिष्योऽहं तव मां पालयानय॥३६॥ मुपुण्यमाश्रमं रम्यमपश्यनिसंपुनः॥१८॥ अहो । मेरा महान् सौभाग्य है। मेरी तपस्या आज सफल उसने उसी नदी के दक्षिण की ओर मुनिवरों तथा परम् | हो गई हैं। हैं अनघ! मैं आपको क्या सेवा करू? मैं योगिजनों से युक्त, सुपुण्य एवं अतीव रमणीय आश्रम देखा। आपका शिष्य हूँ। मेरा आप पालन कॉजिये। इसे देख कर वह परम प्रति वाला हो गया था।

सोऽनुगृह्याध राजानं सुशील शीलसंयुतम्। मन्दाकिनीजले स्नात्वा मन्तप्र्य पितृदेवताः। शिष्यत्वे प्रतिमाह तपसा झाकल्मषम् ३७॥ अर्थीयत्वा महादेवं पुमैः पद्योत्पलादिभिः॥ २१॥

इस महा मुनि ने शॉल-सदाचार से युक्त, तप से क्षीण तब उसने मन्दाकिनी के जल में स्नान करके, पितरों और हात पापों ना उस सः र हुए पापों वाले इस सुशोल राजा पर अनुग्रह करके उसे देवों का तर्पण करके, पद्मोत्पलादि विविध पुष्पों से महादेव अपना शिष्य बनाना स्वीकार कर लिया। कों अर्चना की।

कुर्ममहापुराणम्

मांन्यासि विधि कर्म कायित्वा विचक्षणः। तस्मात्त्वमष राजेन्द्र नपोयोगममन्वितः। इद तसरं ज्ञानं स्वशाखावितव्रतम्॥३८॥ तिं नित्यं मया मार्द्ध तत: सिद्धिमवाप्स्यसि॥ ४६॥ विचक्षण मुनि ने संन्यास से सम्बन्ध रखने वाली संपूर्ण ।। अतएव हे राजेन्द! आप भी तप और योग से युक्त होकर विधि को कराकर, अपनों शाखा से विहित ब्रत वाले उसे | सदा मेरे साथ रहें। तभी आप सिद्धि को प्राप्त करेंगे। | ईअरीय ज्ञान प्रदान कर दिया। एवणाभाष्य विजेन्द्रों देवं याला पिनाकिनम्। अशेष बेदमारं तत्पशुपाशविमोचनम्। आचयों महामन्त्रं यावत्सर्वसिद्धये ॥४७॥ अन्याश्रममिति ख्यातं ब्रह्मादिभिरनुष्ठितम्।।३१।। सर्वपापशमनं वेदसारं विमुक्तिदम्। उसने सम्पूर्ण वेदों का सार और पशु-पाश का विमोचन | अग्निरित्यादिकं पुण्यर्मार्थभिः समावर्तितम्॥४८॥ जो अन्त्यालय के नाम से विख्यात हैं और ब्रह्मादि के द्वारा | बिगेन्द्र ने इस प्रकार कहकर पिनाकिन् भगवान् शिव का अन िहै इसे बनाना दिया था।

ध्यान करके सकल सिद्धि के लिए समस्त पापों का उवाच शिष्यान्सप्रेक्ष्य में नान्नमवासिनः।

उपशामक, वेदों का सारभूत, मोक्षप्रद तथा पुण्यदायक ब्राह्मणाः क्षत्रिया वैश्या ब्रह्मचर्यपरायणाः॥१८॥ ऋषियों द्वारा प्रवर्तित ‘अग्नि’ इत्यादिं महामंत्र का मया प्रवर्नतां शाखायीत्वैवइ योगिनः।

विधिपूर्वक उपदेश किया। समासते महादेवं ध्यायन्तो विश्वमैश्वरम्।। ४ ।। सोऽपि तद्वचनाद्वाजा सुशीलः अक्षयान्वितः। उस आश्रम में निवास करने वाले सभी शिष्यों को देख | साक्षात्पाशुपतो भूत्वा वेदाभ्यासरतोऽभवत्॥ ४१।। कर उनसे कहा- जो ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और ब्रह्मचर्य में | उसके वचन सुनकर बह सुशील राजा भी श्रद्धा से परायण हों, वे सब मेरे द्वारा प्रवर्तित इस शाखा का समन्वित होकर साक्षात् पाशुपत होकर बेदाभ्यास में संलग्न अध्ययन करके ही यहाँ योग बन जायेंगे और विश्वेश्वर हो गया।  महादेव का ध्यान करते हुए स्थित रहेंगे।

भस्मोद्धूलितसर्वाङ्गः कन्दमुलफनाशनः। इह देवो महादेव रममाणः सहोगया।

शान्तो दान्तों जितक्रोय: संन्यासविषमाश्रितः॥ ५ ॥ अयास्ते भगवानीशो भक्तानामनुकम्पया॥४३॥ (वह राजा) भस्म से लिप्त समस्त अङ्गों वाला, कन्द यह भगवान देवाधिदेव महादेव भक्तों पर अनुग्रह करने | मूल और फलों को खाने वाला, परम शान्त तथा के लिए उमा के साथ रमण करते हुए निवास करते हैं।

दमनशोल-क्रोध को जोत कर पूर्व संन्यास की विधि में इहाशेषज्ञगद्धाना पुरा नारायण: स्वयम्।

माश्रित हो गया था। आराधयन्महादेवं लोकानां हितकाम्यया॥४३॥ हनिम्तथाग्नेय्यां जनयामास वै सुतम्। पुराकाल में यहाँ सम्पूर्ण जगत् के धारणकर्ता स्वयं | प्राचीनबर्ष नाना धनुर्वेदस्य पारगम्॥ ५ ॥ नारायण ने लोगों के कल्याण को इच्छा से महादेव को | | हबिंधन ने आग्नेयों में एक पुत्र को जन्म दिया था। आराधना की थी।

जिसका नाम प्राचौनहिं था और वह धनुर्वेद का पारगामी । इन देवमीशानं देवानामपि दैवतम्। विद्वान् था।

आराध्य महतीं मिद्धि लेभिरे देवदानवाः॥४४॥

प्राचीनबर्मगवान्सर्वस्त्रभृतां वरः।

यहीं पर देबों और दानवों ने देवाधिदेव भगवान् शङ्करसमुद्रतनयाय वै दश पुत्रानजीजनत्॥५३॥की आराधना करके महान सिद्धि को प्राप्त किया था। भगवान् प्राचनर्बाह ने जो सब शस्त्रधारियों में परम श्रेष्ठ

व मुनयः सर्वे मरीच्याद्या महेश्वरम्।। थे, समुदतनया में दश पुत्रों को जन्म ग्रहण कराया था। वा तपोबलाक्षानं लेभिने सार्वलकम्।। ४५॥ प्रचेतसस्ते विख्याता मान: प्रतिौजसः। यहीं मरीचि आदि सभी मुनीश्वरों ने अपने तपोबल से | धोतवत: स्वं वेदं नारायणपरायणाः॥५३॥ शिव का दर्शन करके सार्वकालिक ज्ञान को प्राप्त किया था। वे सब प्रथित ओन वाले राज्ञागण प्रचेतस् के नाम से

 

पूर्वमागे पञ्चमोभ्यायः

लोक में विख्यात हुए। भगवान् नारायण में परायण होकर | ज्ञात्वा स भगवान्रुहः प्रपन्नार्त्ति कुरः। उन्होंने अपनों शास्त्रान्तर्गत वेद का अध्ययन किया। शशाप दक्षं कुपितः समागन्याय तहम्।। ६३॥ भ्यस्त चेताभ्यों मारवायां प्रजापतिः॥

त्यक्त्वा देहमिमं सालं क्षत्रियाणां कृते भव। दक्षो भन्ने माभागों में पूर्व माग: मुत:॥ ५४॥ । स्वस्या सुतायां मूत्मा पुत्रमुत्पादयिष्यमि॥३३॥ इन दश प्रचताओं से मारिंषा में महान् प्रजापति दक्ष | अनन्तर उस सती को दाध जानकर भक्तों के कष्टों का उत्पन्न हुए थे, जो पहले अह्माज्ञी के पुत्र थे। हरण करने वाले भगवान् रुद्र महादेव ने कुपित होकर उन्हीं स तु ओं मन देण सह धीमता।

के घर आकर दक्ष को शाप दे दिया- तुम ब्रह्मा में उत्पन्न कृत्वा विवादं स्टॅण ज्ञाप्त: प्रचेतसोऽभवत्।।५५॥

इस ब्राह्मण शरीर को आग कर क्षत्रिय-कुल में उत्पन्न ने दक्ष श्रीमान् महेश रुद्र के साथ विवाद करके रुद्र के होओगें और मूद्वात्मा होकर अपनी पुत्रों में हों पुत्रोत्पादन द्वारा शापग्रस्त होकर प्राचेतस् हो गये थे समायान्तं महादेव क्ष्क्षं देव्या गृहं हरः।

एवमुक्त्वा महादेव ययौ कैलासपर्वतम्। दृष्ट्वा यथोचितां पूजां दक्षाय प्रददौ वयम्॥५॥

स्वायम्भुवोऽपि कालेन दक्षः प्रचेतसोऽभवत्।। ६४॥ तदा वै तमसाविष्ट: सोऽधिको ब्रह्मणः सुतः।

इस प्रकार कहकर महादेव कैलास पर्वत पर आ गये। पूसामनर्हामयिञ्जगाम कुपितो गृहम्॥ ५५॥ स्वायम्भुव दक्ष (ब्रह्मपुत्र होते हुए भी काल आने पर

टेन न ३ देती शान के घर आने का इर्ष के | प्रचेताओं के पुत्ररूप में उत्पन्न हुए। देखकर स्वयं उनकी यथोचित पूजा को किन्तु ब्रह्मपुत्र दक्ष एतद्वः कति सर्व मनोः स्वायम्भुवस्य तु।। उस समय अत्यधिक धाविष्ट थे, अतः पूना को अयोग्य | निसर्ग इक्षपर्यन्तं शृण्वतां पानाशनम्॥६५॥ मानकर वे क्रोधित होकर घर से निकल गये।

स प्रकार आपके समक्ष स्वायम्भुव मनु की दक्षपर्यन्त कदाचिस्यगृहं प्राप्त सती क्षः सुदर्मनाः। सृष्टिं का वर्णन मैंने कर दिया ज्ञों का होनाओं के लिए भर्वा महू विनितीन भत्र्सयामास वै क्या।।५८॥ पापनाशिनी है। अन्ये ज्ञामातर; अंधा मर्नुस्तव पिनाकिनः॥ इति श्रीकूर्मपुराणे पूर्वमागे राजवंशाची त्वमप्यमत्सुनाऽस्माकं गाद् गच्छ स्वागतम्॥५६॥ नाशिवायः॥ १४॥

किसी समय अपने घर पर आयी हुई सतों के सामने दुःखी मन वाले दक्ष ने क्रोधावेश में पतिसहित इसकी पञ्चदशोऽध्यायः निन्दा करने लगे थे कि तुम्हारे पति शिव से जो मेरे दुसरे (दक्षयज्ञ का विध्वंस) जामाता अधिक श्रेष्ठ । तुम भी मेरों असत् पुत्रीं हों। जैसे आयी हों बैंसों ही घर से निकल जाओ। नैपियेंया ऊचुः । तास्य नाक्यमार्य मा देवीं शङ्करप्रिया।।

देवानां दानवाना गर्योगक्षमाम्। विनिय पितरं दृश्यं ददाहापानमात्पना॥ ६ ॥

उत्पत्ति विस्तारादह सूत वैवस्कोऽन्तः॥ १।। प्रणम्य पशुपनर भई

 

कृत्तिवाससम्।

स शप्तः शम्भुना पूर्व क्षः प्रचेतसों नृपः। हिमवहिता माभूतपसा तस्य तोचिंता॥ ६ ॥ किंमकर्मीन्महावडे मोतुमिच्छाम मातम्॥ ३॥ इक्ष के ऐसे वचन सुनकर शंकरप्रिया उस देवी पार्वती ने | नैमिषारण्यवास ऋषियों ने कहा- है सूतजी ! वैवस्वत | अपने पिता दक्ष की निंदा की और व्याघ्रचर्म को धारण | मन्वन्तर में देव-दानवों, गन्धर्वो, सर्पो और राक्षसों को करने वाले और समस्त प्राणियों का भरण करने वाले | उत्पत्ति जिस प्रकार हुई थीं उसका विस्तार पूर्वक वर्णन करें। पशुपतिनाथ को प्रणाम करके अपने से स्वयं को जला | पहले भगवान् शम्भु के द्वारा प्राप्त शाप से ग्रस्त उस प्रचंता डाला। इसके बाद हिमालय की तपस्या में संता वह देवी | के पुत्र राजा दक्ष ने क्या किया था? हे महायु ! इस समय हिमालय की पुत्री पार्वतीरूप में उत्पन्न हुई। वह सब कुछ हम आपसे सुनना चाहते हैं।

कूर्ममहापुराणम् सूत उवा सर्वज्ञानमय महामुनि दधीच ने कुपित होकर उन पर वक्ष्ये नारायणेनोक्तं पूर्वकल्पानुपङ्गकम्। हँसते हुए सभी देवताओं के सुनते हुए कहा। त्रिकालबद्धं पापघ्नं प्रजासर्गस्य विस्तरम्।। ३।। दमीच उवाच

सूतनों ने कहा- पूर्वकल्प से सम्बन्धित प्रजासृष्टि का यतः प्रवृत्तित्मिा पश्चासौ परमेश्वरः। । बिस्तार जौं नारायण ने कहा था, वह बिस्तार मैं कहता हूँ।

सम्पूज्यते सर्वयविदित्वा किन्न शङ्करः॥ १० ॥ यह त्रिकालबद्ध पापों का नाश करने वाला है।

दधीच ने कहा- जिनसे संसार की प्रवृत्ति है, जो | स शमः शम्भुना पूर्व दक्षः प्रचेतसो नृपः। विश्वात्मा और परमेश्वर हैं, सभी अज्ञों द्वारा उनकी पूजा की । चिनिन् प्रचबरण गंगाद्वारेऽयज्ञवम्।।४।। जाती है, यह जानते हुए भी शंकर क्यों नहीं पूजे जाते ? पूर्व जन्म में शम्भु के द्वारा शापग्रस्त वह प्राचैतस नृप दक्ष ने इस पहले के वैर के कारण ही निन्दा करके गंगाद्वार दक्ष बाच ( हरिद्वार) में भव (विष्णु) का यज्ञ द्वारा पूजन किया था।

न ह्ययं शङ्करों रुद्रः संहर्ता तापमो कुरः। देबाश्च सर्वे भागार्थमाहृता बिष्णुना सह। नान; कपाली सिदितो विश्वात्मा नोपपद्यते।।११।। सहैव मुनिभिः सर्वैरागना मुनिपुंग्या:॥५॥ दक्ष ने कहा- यह रुद्र शंकर-मंगलकारी नहीं है, यह तो सभी देवों को अपना-अपना भाग झहण करने के लिए संहार करने वाला तामस देव है। यह नग्न तथा कृपालों के भगवान् विष्णु के साथ में आहूत किया गया था। श्रेष्ठ रूप में प्रसिद्ध है। अत: इसे विश्वात्मा कहना उचित नहीं। मुनिगण भी समस्त मुनियों के साथ ही वहाँ पर आए हुए | ईश्वरों हि जागाष्ट्रा प्रभुनारायणो हरिः। सन्चात्पकोऽमी भगवानियते सर्वकर्मसु॥ १२॥ दृष्ट्वा देवकुलं कृत्यं शंकण विना गतम्।

सर्वसमर्थ नारायण विष्णु ही ईअर हैं तथा जगत् के भ्रष्टा दधोंचों नाम विप्नईः प्रचेतसमयावृवत्।। ६॥ हैं। सत्त्वगुणधारों वहाँ भगवान् सभी कर्मों में पूजे जाते हैं। भगवान् शंकर के विना आये हुए सम्पूर्ण देवसमूह को | यीच उवाच | वहाँ पर देकर विप्न धाँच प्राचेतस से बोलें।

किं त्वया भगवानेष सहस्रांशु दश्यते। दधीच उवाच सर्वलोकैकमहर्जा कालात्मा परमेश्वरः॥ १३॥ वृह्माद्यास्तु पिशाच्चान्ता यस्याज्ञानुविधायिनः। दधीच बोले- क्या तुम्हें ये सहस्रांशु भगवान् (सूर्य) स देवः साम्प्रतं रुद्रो विधिना किन्न पूज्यते॥७॥ दिखाई नहीं देते हैं? ये ही संपूर्ण लोकों के एकमात्र संहारक दधीच ने कहा- ब्रह्मा से लेकर पिशाच पर्यन्त सभी |

तथा कानस्वरूप परमेश्वर हैं। जिनको आज्ञा के अनुसरण करने वाले हैं, वे देब कुद् इस चे गृहत्तीह विद्वांसो मार्मिका ब्रह्मवादिनः। समय यज्ञ में विधिपूर्वक क्यों नहीं पूजे जा रहे हैं?

सोऽयं साक्षी नचचिः कालात्मा शारी हुनुः॥ १४||

एप द्रों महादेवः कपाल घृण हुरः। असाच दित्यों भगवान्य नीलग्रीतों विलोहितः।। १५ ।। सर्वेष्वेव हि यज्ञेषु भाग: परिकल्पितः।

 इस लोक में ब्रह्मवादी, धर्मपरायण विद्वान् लोग जिनकी न मचा भार्या माई शंकाम्यति नेज्यते।।६।। स्तुति करते हैं, वे सर्वसाक्षीं, कालात्मा, तीव्र कान्तियुक्त दक्ष ने कहा- सभी गच्चों में उनका भाग कल्पित नहीं है। | सूर्यदेव शंकर का हो शरीर हैं। यहीं रुद्र महादेव हैं। वे इसी प्रकार पनी सहित शांकर के मंत्र भी नहीं मिलते हैं।| कपाली होकर गुप्ता देने वाले हैं तथापि वें हर (सबके इसलिए यहाँ शांकर की पूजा नहीं की जाती। संहारक) आदित्य हैं। वे ही भगवान् सूर्य (स्वयं विहस्य दक्षं कुपितों वचः प्राह महामुनिः। नग्नक एवं विलोहित (निशेप में लाल रंग के हैं। शृण्वतां सर्वदेवानां सर्वज्ञानमयः स्वयम्॥१॥ संस्तूयतें सहस्रांशुः सामाध्वर्युहातृभिः।

 

पूर्वमागे पञ्चदशोऽध्यायः

पश्यैनं विश्वकर्माणं रुद्रमूर्ति जयौमयम्॥ १६

भगवान् के अन्र्ताहत हो जाने पर दक्ष स्वयं संसार के सामबेदी अध्वर्यु तथा होता इ सहस्रांशु की स्तुति | पालक नारायण देव हरि की शरण मैं गये। करते हैं। आप इसे विनिर्मात्री, जयमयी अर्थात् तीन बेद | प्रवर्नयामास च तं यज्ञं दोच्च निर्मयः। वाली रुद्र को मूर्तरूप में देखें। रमको भगवान्विष्णुः शरणागतरक्षकः॥ ३४॥ दा उनाच दक्ष ने निर्भय होकर यज्ञ प्रारंभ कर दिया। शरणागत के य एते द्वादशादित्या आगता यज्ञभागिनः। पालक भगवान् विष्णु उनके रक्षक थे। सर्वे सूर्या इति ज्ञेया न ग्रन्यो विद्यते रविः॥ ९॥ | पुन: प्राह च तं दक्षं दधौचों अगवाघः।

दक्ष बोले- ये जो बारह आदित्य यज्ञ में भाग लेने आये | प्रेक्ष्यषिगणान्देवान्सर्वान्दै रुद्वविद्विषः।। ३५॥ | हैं, ये सभी सूर्य नाम से प्रख्यात हैं। इनके अतिरिक्त दूसरा | भगवान् ऋषि दधीच सभी ऋषियों और देवों को रुद्रद्वेष कोई सूर्य नहीं है।

देखकर दक्ष को पुनः कहने लगे। एवमुक्ते तु मुनयः समायाता दिवृक्षवः।

अपूज्यपूजने चैव पूज्यानां चाप्यपूजने। वामित्यवदनं तस्य साहाय्यकारिणः॥ १८॥ बर: पापमवाप्नोति महदै नात्र संशयः॥ ३६॥ दक्ष के ऐसा कहने पर, यज्ञ को देखने की इच्छा से आये | अपूज्य व्यक्ति को पूजा करने और पूज्य व्यक्ति की पूजा मुनियों ने क्ष की सहायता करते हुए कहा- यह यथार्थतः | न करने पर मनुष्य महान् माप को प्राप्त होता है, इसमें थोड़ा। भों संशय नहीं।

असानां प्रग्ना बुन्न ताव विमानना। तममाविष्टमनसों न पश्यन्तों वृषध्वजम्। महशोधा शतशों यशो भूय एव हि॥ १६ ॥ पड़ों दैवकृतस्तत्र सञ्चः पतति टाकणः॥ ३७॥ निन्दतों वैदिकान्मन्त्रान् सर्वभूतपति रम्। जहाँ असत् व्यक्तियों का आदर होता है तथा सजनों को अपूजयन्दक्षवाक्यं मोहिता विष्णुमायया॥ ३०|| मानहानि होती है, वहीं दैवकृत दारुण दण्डू आकर अवश्य गिरता है। तामसरूप अज्ञान के कारण व्याप्त मन वाले होने के कारण वृषभध्वज भगवान् शिव को नहीं देख रहे थे। इस एवमुक्त्वाञ्च विप्नईः शशापेश्वरवद्विषः। कारण वे सभी सैकड़ों बार हजारों बार तथा उससे भी समागतान्याह्मणांस्ताक्षसाहाय्यारिणः॥ २८॥ इतना कहने के बाद उस विर्षि दधीच ने वह घर आये अधिक बार सर्वभूतों के अधिपति शिव की तथा वैदिक मंत्रों । की निन्दा करते हुए विष्णु को माया से मोहित हुए देश के हुए दक्ष की सहायता करने वाले ईश्वरद्वेषी उन ब्राह्मणों को। शाप दे दिया। वचनों का अनुमोदन करने लगे। यस्मादहिः कृतो वेदाद्भवद्धि: परमेश्वरः॥ देवश्च सर्वे भागार्थमागता वासवादयः।

विनन्दितो महादेव: शंकरो लोकवन्दितः॥ ३१॥ नापश्यन्देवमीशानमूने नारायणं हरिम्।। २ ।। भविष्यन्ति जययाह्याः सर्वेऽपीश्वरविद्विषः॥ उस समय यज्ञ में भाग लेने के लिए इन्द्रादि देब आये थे, दिनारेश्वर मार्ग कुशालासक्तचेतसः॥ ३ ॥ नारायण हरि के अतिरिक्त ईशान शिव को किसी ने नहीं मिश्याधीतसमाचार मियाज्ञानअलापिन:। देता।

प्राप्य घोर कलियुगं कलिलैः परिपीडिताः।। ३ ।।। हिरण्यगर्भो भगवान्ह्या ब्रह्मविदां वरः। क्योंकि आप सच में परमेश्वर को वेद विधान से । पश्यतामेव सर्वेयो क्षणातरधीयत।। ११ ।।

बहिष्कृत कर दिया है और समस्त लोंको के द्वारा वन्दित । तब ब्रह्मविदों में श्रेष्ठ, भगवान् हिरण्यगर्भ ब्रह्मा (याज़ के महादेव की विशेष रूप से निन्दा की है, इसलिए आप सभी । विनाश की आशंका से) सबके देखते ही क्षणभर में

ईश्वर शंकर से द्वेष करने वाले वेद मार्ग में भ्रष्ट हो जायेंगे। अन्तर्मान हो गये।

और जो यहाँ कुशास्त्रों में आसक्त चित्त वाले होकर ईश्वरीय अईते भगत इक्ष नारायणं हरिम्। मार्ग की निंदा करते हैं, उनका अध्ययन तथा आचार क्षक जगतां देवं जगाम शरणं स्वयम्॥ ३३॥ बिचार मिया हो जायेगा। वैसे ही मिथ्याज्ञान के प्रलाप

 

कुर्ममहापुराणम्

परम घोर कलियुग को प्राप्त करके कलि में जन्म लेने वालों | दिखाई देता था। उसकी दहा बड़ों विकराल थीं। वह के द्वारा चारों ओर से पीड़ित होंगे।

दुष्प्रेक्ष्य, शंखचक्रधारी, प्रभु, दण्डहस्त, महानादकारी और स्या तपोंबलं कृत्यं गच्वं नाका-पुनः। भस्मभूषित था। भविष्यनि हृषीकेशः स्वात्रिलोऽपि परामुखः॥३३॥ वीरभद्र इति ख्यातं देवदेवसमन्वितम्। तुम लोग अपने संपूर्ण तपोबल का त्याग करके पुनः म जातमात्र देवेशमुफ्तस्ये कृताञ्जलिः॥४०॥ नरकों को प्राप्त हो जाओ। अपना आश्रय बने भगवान् बहू महादेव को कान्ति से समन्वित वीरभद्र नाम से हृषीकेश भी विमुख हो जायेंगे।

विख्यात था। वह जैसे ही उत्पन्न हुआ, हाथ जोड़कर देवेश्वर एवमुक्वाञ्च विप्रर्षिविराम तपोनिषिः।। के समाप खड़ा हो गया था। जगाम मनसा कद्रमशैषापविनाशनम्॥ ३३॥

माह क्षस्य मत्रं विनामय शिवोऽस्तु ते। तपोनिधि वह व्रह्मर्षि इस प्रकार कहकर रुक गये और | विनिय मां का जते गङ्गाद्वारे गोश्वर।।४।।

पुनः चे मन से अशेष पापों के विनाशक रुद्रदेव की शरण में | शिवज ने कहा- तुम्हारा कल्याण हों और उस वीरभद्र चले गये। को दक्ष के यज्ञ का विनाश करने के लिए आज्ञा दी। हें एतस्मिन्नन्तरे देवी महादेवं महेश्वरम्।

गणेश्वर ! वह मेरी निन्दा करके गंगाद्वार में यज्ञ कर रहा है। पतिं पशुपति देवं ज्ञात्वैतत्प्राह सर्वदछ। ३४।। ततो यमुक्तंन मिहेनैकेन लीलया। इसी मध्य यह सब जानकर सबंदृक् महादेवी सती ने | वीरपण दक्षस्य विनाशमगमक्रतुः।।४।। महेश्वर-पशुपनि देव महादेव को जाकर कहा। इसके अनन्तर बन्धन से मुक्त एक सिंह के समान दक्षों यज्ञेन यज्ञने पिता में पूर्वजन्मनि।

वीरभद्र ने अनायास ही दक्ष के यज्ञ को नष्ट कर इन।। विनिन्छ भवनों भावमात्मानं चापि शंकर॥३५॥ मन्युना चौगया सृष्टा भद्रकाली पश्वरी। पुर्वजन्म के में चिंता इवा आप को प्रतिष्ठा तथा स्वयं की। तथा च साईं वृषपं समा सयौ गणः॥ ४३॥ भी निंदा करते हुए यज्ञ का अनुष्ठान कर रहे हैं।

उस समय पार्वती ने क्रोध में महेश्वरों भद्रकाली का देबी महर्षयशासंस्तव साहाय्यकारिणः। सुज्ञान किया था। इसी के साथ बहु गण वृषभ पर चकर | विनाशायाशु तं यज्ञं पेतं वृणोम्यहम्।। ३६॥ । नहीं गया था।

वहां अनेक देवता और महर्षि भौं इनकी सहायता करने अयें सहस्रशों का निसृष्टान पता। वाले हैं। आप शीघ्र ही उस यज्ञ को नष्ट कर दें, यहीं वर मैं| होम्या इन विमाशास्तम्घ माहामकरणः॥४४॥ इगती हूँ।

उमा धीमान् ने अन्य भी हजारों रुदों का सृजन कर दिया एवं विज्ञापनों देव्या देवदेवः परः प्रभुः। था। उसको सहायता करने वाले वे रुद्गण रोमज्ञ नाम से मसर्ज सहसा रुद्रं दक्षयज्ञजिघांसया॥ ३७॥ विख्यात हुए थे अथवा वे रोम से उत्पन्न हुए थे। इस प्रकार सती के द्वारा विशेषरूप में निवेदित परम प्रभु | लगिदाड़ना दपपलकास्तथा। महादेव ने दक्ष के यज्ञ का विनाश करने के लिए सहसा कुद् कालानिमामा नादयो दिशो दश।। ४५|| *प को उत्पन्न किया।

उनके हाथों में शूल शक्ति और गदा घाँ। कुछ हद पड़ महलशिरसं कुद्धं सहस्राक्षं महाभुजम्। और उपल हाथों में ग्रहण किये हुए थे। सभी कालाग्नि रुद्र

के समान थे और दशों दिशाओं को निनादित कर रहे थे। महमपाणि दुई युगान्तानलसन्निभम्॥३८॥ सर्वे वृषभमाझ सभायाभिषणाः। दंष्टाकलं दुष्क्ष्यं शङ्खचक्रयरं प्रभु।

समावृत्य गोत्रं ययुझपख्ने प्रति॥६॥ दण्डहस्तं महानादं शाणिं भूतिभूषणम्।।३९॥ सभी कद् भायाओं के प्रति वृषभ घर समारूढ़ और। वह रुद्र सहसशिर, सहस्राक्ष और महाभुजाओं से युक्त | अत्यन्त भीषण स्वरूप वाले थे। वे गणश्रेष्ठ वीरभद्र को था। वह क्रुद्ध, दुर्धर्ष तथा प्रलयकालीन अग्नि के समान | समावृत करके ही दक्ष के यज्ञ की ओर गये थे।

 

पूर्वभाणे पञ्चमोऽध्यायः

मवें समाप्य तं देशं गारमित श्रुतम्। ने कहा था कि तुम सब देव तम में अपङ्गत चित्त बालें ददृशुर्यादेनं वै दक्षम्यापकलेजम:॥ ४७।। हॉकर यज्ञ के अधिपति महेश्वर का पूजन नहीं कर रहे हो। गंगाद्वार (हरिद्वार) नाम से प्रसिद्ध इस स्थान पर जाकर | जो समस्त प्राणियों का ईश्वर, सर्वदेवों का तनु हर है ये तो उन्होंने अतिशय तेजस्वी दक्ष के यज्ञस्थल को देखा। | सभी यज्ञ में पुनें जाते हैं और सब प्रकार के अभ्युदय और देवानासहवामप्सरोगीननादितम्।।

सिद्धियों को प्रदान करने वाले हैं। वेणुवीणाननादा वेदनादानादितम्॥४८॥ एवमुक्त्वा महेशनमायया नष्टचेतनाः॥५६॥

वह यज्ञस्थल हजारों देवांगनाओं से युक्त, अप्सराओं के न मेनिरे बयुर्मन्बा देवान्मुक्त्वा स्वमालयम्। गोतों से निनादित, वेणु तथा वीणा की मधुर ध्वनि से | इस प्रकार कहने पर वे महेशान को माया से नष्ट चेतना संयुक्त, वेदों के स्वर से शब्दायमान था। वाले हो गये और उन्होंने यह बात नहीं मानी। तब मन्त्रों ने दृष्ट्वा महर्षिभिर्देवैः समासनमापनिम्।।४१ ।। देर्यों का त्यागकर अपने स्थान को प्रस्थान किया। उवाच स मियों म; स्मयन्निा । ५३|| ततः समतों भगवान् ममार्यः मगणेश्वरः॥ ५॥ वयं चराः सर्वे सर्वस्यामिततेजसः।। स्पृशन् काभ्यां विमर्षि दयीचं प्राह देवा। भागावं लिमया भागान् प्राप्ता अचवमौमितान्।। ५ १॥ मन्त्री; प्रमाणे न कृता युष्माभिर्बलदतैः॥५॥ वहां देवों तथा ऋषियों के साथ बैठे हुए प्रजापति दक्ष को | अस्मात्प्रसा तस्माद्यों नाशयाम्यद्य गर्वितान्। देखकर समस्त रुद्रगणों के साथ उस प्रिय शीरभद्र ने इत्युक्त्वा यज्ञशालां तां ददाह गणपुङ्गवः॥५१॥ मुस्कुराते हुए कहा- हम सब अपरिमित तेज वाले भगवान् | इसके उपरान्त अपने गणेश्वरों तथा भार्या भद्रकाली के शिव के अनुचर हैं। यज्ञ में अपने भाग लेने की इच्छा से हम | सहित उस वीरभद्र भगवान् ने करों में विष दधीच को यहाँ आये है, अत: आप हमारे इच्छित भागों को प्रदान करें। | स्पर्श करते हुए उनसे कहा था कि- अपने बल में गबत अञ्च चेकस्यधिदियं माया मुनिवनामाः। होकर आप मषयों ने वेदमन्त्रों को प्रमाण नहीं माना, भागों वदभ्यो देवरतु नामभ्यमतिं वयताम्॥५३॥ इसलिए गर्वित हुए आप सब का आज मैं बलपूर्वक नाश हे मनियों में अब भनियो । ह की मात्रा चाल | करता है। इतना कहकर गणों में परम श्रेष्ठ उस वीरभद्र नै अथवा आज्ञा है कि यह भाग आप लोगों को ही देय हैं

यज्ञाशाला को जला दिया। हमारे लिए नहीं हैं। कृपया यह बता दीजिए।

गोश्वराय संकुद्धा यूपानुत्पाट्या विक्षिपुः।

तुम्ताज्ञापयति यो वेत्स्यामों हि वयं ततः।।

प्रस्तोता सह होत्रा गणेश्वराः॥ ६॥

एवमुक्ता गगन प्रजापतिपर:मराः॥५३॥

गृहवा भीषणाः सर्वे गङ्गामोनसि बिक्षिपः। जो आपको आज्ञा करता है, उसको भी हमें बता दो। अन्य गणेश्वरों ने भी संक्रुद्ध होकर अज्ञशाला के खंभे । जिससे हम उसे जान लेंगे (उसकी भी वायर लेंगे। उस उखाड़कर फेंक दिये। अति भयानक उन सभी गणेश्वरों ने गणेश्वर ने प्रजापति सहित सबको इस प्रकार का था। प्रस्तोता और होना के सहित अञ्च को पकड़कर गंगा की धारा में बहा दिया। देवा ऊचुः वीरपट्टोंब दीप्तात्मा शकस्यैवर्त काम्॥६१॥ प्रमाण वो न जानीमों भागें मचा इति प्रभम्। व्यम्भयददनमा तयान्येषां दिवौकसाम्। मचा ऊचुः सुरा यूयं तमोपड़तचेतमः॥५४॥ भगने तयात्याय कराव तीसया।।६३॥ पेनाध्वरस्य राजानं पूजयेयुमसरम्। उस दौसशरीर वाले और अदनात्मा जीरभद्र में भी इन्द्र के ईआरः सर्वभूतानां सर्वदेवतनुर्हरः॥५५॥ तथा अन्यान्य देवताओं के उठे हुए हाधों को वहीं स्तम्भित पूज्यते सर्वयज्ञेषु सर्वाभ्युदयसद्धिदः।

कर दिया। उसी प्रकार भग के नेत्रों को कर के अग्रभाग से देवों ने कहा- आपके देय भाग में मन्त्र हैं, यह प्रमाण | बिना यत्र के हों उत्पादित कर दिया था। प्रभ के बारे में हम नहीं जानते हैं। (ऐसा कहने पर मन्त्र | निहत्य माना जान यावमपनयन।

कुर्ममहापुराणम्

या चन्द्रमर्म देवं पादाङ्गठेन लीलया॥६३॥ | तुष्टाव भगवान् ब्रह्मा दक्षः सर्वे दिवौकसः। वर्षयामास बनवान् समयमानों गणेश्वरः विशेषपार्वती देवीश्वरार्द्धशरीरिणीम्।।७२।। पूषा के दाँतों को अपनी मुष्टि के प्रहार से तोड़कर भूमि उस ईश्वर (वीरभद्र तथा विष्णु) को स्तुति-प्रशंसा करते पर गिरा दिया और वैसे ही उस महान बलशाली गणेञ्चर | हुए भगवान् शम्भु स्वयं वहाँ पर आ गये। इस समय देवों | बौरभ ने मुस्कुराते हुए अनायास ही अपने पैर के अंगूठे से के भी अधिदेव और समस्त गुणों से समावृत उमा का दर्शन चन्द्रमा को भी घर्षित कर दिया था।

करके भगवान् ब्रह्मा, दक्ष और समस्त देवगण इनकी स्तुति बल्लेहंस्तद्वयं छित्त्वा जिल्लामुत्पाअ लीलया।। ६४|| करने लगे। विशेष रूप से इंकार को अर्धशरीरिणीं पार्वती की जधान मुर्न पाइँन मुनौनपं मुनीश्वराः।।

स्तुति की थी। हे मुनीश्वरों! अनि के दोनों हाथों को काटकर उसकी स्तोत्रैर्नानाविधैः प्रणम्य च कृतालिः ।। जीभ को भी अनायास ही उखाड़ दिया था और दूसरे | ततो भगवती देवी प्रसनी महेश्वरम्।।७३॥ मुनियों को भी पैरों में मस्तक पर प्रहार किया था। प्रसन्नमनमा हें बचः माह मृणनियः।

तथा विष्णु मगरूई समायान्तं महायानः॥ ५ ॥

त्वमेव जगत: स्रष्टा शासिता चैव रक्षिता।।७४॥ विव्याध निशितैर्बा; स्तम्भयित्वा सुदर्शनम्। दक्ष ने नानाविध स्तुतिमन्नों से ताल होकर प्रणाम समानावय महायागत्य गको गणम्।। ६६ ।। किया। तब भगवती देवों ने प्रसन्न मन से हँसते हुए महेश्वर वाघान पश्चैः सहसा ननादाम्नधिर्यया।

रुद्र से कहा- हे दयानिधे ! आप ज़ीं इस जगत् के सृजन ततः सहस्रशो कद्रः ससर्ज गरुडान् स्वयम्॥ ६७ || करने वाले हैं और आप ही इस पर शासन करते हैं तो वैनतेयावान् गरुडं ते पादनुः।

इसकी रक्षा भी करते हैं। तान्दा गरुड़ों श्रीमान् पलायत महाजव: ॥६॥ अनुयादो भगक्ता दश्चापि दिवौकसः। विसृज्य मावं वेगात्तदछुतपिवाभवत्। ।

तः प्रहस्य भगवान् कप नीललोहितः॥५॥ | उस महाबलों में गरुड़ ज्ञान पर विराजमान होकर आ | वाच प्रणतान्देवान् भाचेतसमय हरः।। रहे विष्णु को देखकर सुदर्शन चक्र को स्तम्भित करके | गवं देवताः सर्वाः प्रसन्नों भवतामहम्॥ ४६॥ अनेक तीक्ष्ण याप्गों में उन्हें वध झाला था। तब महाबाहु

आपको अब इस इक्ष पर और समस्त देवगण पर भौं । | गरुड़ ने नहीं आकर इस गणेञ्चर को अपने पक्षों से तानि अनुग्रह करना चाहिए। इसके पश्चात् भगवान् नोनग्नोति। किया और समुद्र के समान गर्जना करने लगे। इसके कपद्द हुँस पड़े। जब हूर ने उन प्रणत हुए देबों में तथा | उपरान्त द ने स्व स गो का सृजन किया, जो | प्राचैनस में कहा है माँ! अब आप चले ज्ञा । मैं विनता के पुत्र से भी अधिक थे। उन्होंने उस गरुड़ पर आप पर प्रसन्न हैं। | आक्रमण कर दिया। उनको देखकर बुद्धिमान् गरुड़ बड़े ही संपूज्य: सर्वयज्ञेषु न निन्द्योऽहं विशेषतः। बेग में वहाँ से भगवान् विष्णु को छोड़कर भाग निकले थे।

त्वज्ञापि शृणु में दक्ष वचनं सर्वरक्षणम्।।१७।। यह एक आश्चर्य सा हुआ था।

आपको सभी यज्ञों में मेरी भली-भाँति मुना करनों अन्तहिते वैनतेचे भगवान् पद्मसम्भवः।। ६१ ।। आगत्य वारयामास वीरभद्ज्ञ केशवम्।।

चाहिए और विशेष रूप से कभी भी मेरी निन्दा न करें और प्रादयामास च तं गौरवात्परमॅझिन:॥७॥

हे दक्ष! तुम भी सब को रक्षा करने वाला मेरा यह वचन उस वैनतेय के अन्तहित हो जाने पर भगवान पद्मयोंनि सुना यहाँ आ गये थे। उन्होंने शव कों और चौरभद् को रोका।। त्यक्त्वा लोकपणामेतां ममको भय यत्नतः। तब वे भी परमेष्टों ब्रह्मा के सम्मान के कारण दोनों एक अविस गणेशान; कान्पानुग्रहामम॥१८॥ दूसरे को प्रसन्न करने लगे।

अब इस लोकेषणा का त्याग करके यत्नपूर्वक मेरे भक्त संस्तुय मागवानीशं शम्भुस्तबागमत्स्ययम्। बन जाओ। ऐसा करने से इस कल्प के अन्त में मेरे इस वीक्ष्य देवाधिदेवं नामुमा सर्वगुणैर्वनाम्।।७१॥ अनुग्रह से तुम गणाधिपति बन जाओगे। पूर्वमाणे पञ्चदशोऽध्यायः ।

तात्तल्ल मपादेशात्स्वाघिकारेषु निर्वृतः।

उनका ही समाराधन करो और अन्नपूर्वक अपनी ही आत्मा एवमुक्त्वा तु भगवान् सपत्नीकः सहानुगः॥७॥ | का विनाश करने वाली इंश की निन्दा का परित्याग कर दो। अदर्शनमनुप्राप्तो दास्यामिनासः।

भवन्ति सर्वदोषाया निन्दस्य क्रिया हि ताः। अन्तहिने महादेवे शंकरे पद्मसम्भवः॥ ८०॥ यस्तु चैष महायोगी पक्षको विष्णुरव्ययः॥ ८७|| व्याजहार स्वयं इसपशेषजगतो हितम्। स्न देवो भगवान्द्रों महादेवो न संशयः। तब तक मेरे आदेश से अपने अधिकारों से निवृत होते | शिव को निन्दा करने वाले को वे सब क्रियाएँ केवल । हुए स्थित रहीं। इस प्रकार कहकर अपनी पत्नी तथा अपने | दोष के लिए ही हुआ करती है। यह जो महायोगी, अन्याय अनुचरों के सहित भगवान् शम्भु जुन अमित तेजस्वी दक्ष के | विष्णु रक्षा करने वाले हैं, वह देव भगवान् रुद्र महादेब हौं लिए अदृश्य हो गये। महादेव शंकर के अन्तर्धान हो जाने | हैं- इसमें तनिक भी संशय नहीं है। | पर पद्मसंभव ब्रह्मा जी ने स्वयं पूर्ण रूप से इस जगत् के | मन्यन्ते ते जगद्यौनि विभिन्न विष्णुमीश्वरात्॥८८॥

किंकर वचन दक्ष प्रजापति से कहा। महादवेद निष्ठत्वानें याति नरकं नराः। ब्रह्मोवाच वेदानुवतिनों लं देवं नारायण रावा।। ८१॥

एकीभावेन पश्यति मुक्तिभायो भवन्ति हैं। किमायं भवतो मोहः प्रसने वृषवाजे।। ८१।। यों विष्णुः स स्वयं रुद्रों में रुद्रः स जनार्दनः॥ १०॥ यदी चा से स्वयं देस; पालयेचामत:। जो लोग जगत् के योनिरूप विष्णु को ईश्वर से भिन्न सर्वेषामेव भूतानां चेष परमेश्वर:॥१३॥

मानते हैं, इसका कारण एकमात्र मोह हों होता है और वे ब्रह्मा जी ने कहा- ज्ञब चषभध्वजा कर प्रसन्न हो गये मनुष्य अचेदनिष्ट होने से नरक को प्राप्त करते हैं। जो जेंदों के | हैं, तब आपको यह मोह कैसा ? क्योंकि वे देव स्वयं अनुवर्ती मनुष्य होते हैं चे रूद्र देव और भगवान् नारायण को । अतन्द्रित होकर आपका पालन कर रहे हैं। यह पमें अर एकभाव में ही देखा करते हैं और वे निश्चय ही मुक्ति के सभी भूतों के हृदय में विराजमान रहते हैं।

भाजन होते हैं। जो विष्णु हैं वे ही स्वयं रुद्र हैं और जो रूट् पश्यन्ति यं ब्रह्मभूता विद्वांसो वेवादिनः। हैं वे हौं भगवान् जनार्दन हैं। । स चात्मा सर्वभूतानां स बौद्धं घरमा गतिः॥३॥

इति मत्वा भयं स यानि परमां गतिंम्। जो ब्रह्मभूत बंदचादी मनीषी हैं, वे इनको देखा करते हैं। सृजत्येप जगत्सर्व विष्णुस्तत्पश्यतीश्वरः॥११॥ | वे समस्त भूतों की आत्मा है, वे हो हम सब का बीजरूप है। यहाँ एकभाव मानकर जो देब का भजन करते हैं वे और वे ही परम गति हैं। परम गति को प्राप्त हुआ करते हैं। ये विष्णु इस सम्पूर्ण स्तूयतें वैदिकैर्मबर्देवदेवों माहेश्वरः॥

जगत् का सृजन किया करते हैं और वे ईश्वर सब देखते रहते तपर्चयति वें रुद्रं स्यात्पना च सनातनम्।। ८४॥

चेतसा भावयुक्तेन ते यान्ति परम पदम्।

इयं जगत्समदं झड़नारायणोद्भवम्।देवों के देव महेश्वर वैदिक मन्त्रों के द्वारा संस्तुत हुआतस्मात्त्यक्त्वा निन्दां हरे चापि समाहितः॥१३॥ करते हैं। उस सनातन रुद्र का स्वात्मा के द्वारा भावयुक्त | | समाश्रय महादेवं शरण्यं ब्रह्मवादिनाम्। चित्त से जो अर्चन किया कानें है वे लोग निश्चय ही परम् |

इस प्रकार से यह समस्त जगत् रुद्र और नारायण से | पद को आम करते हैं।

उद्धव को प्राप्त हैं। इसलिए हर को निन्दा का त्याग करके तस्मादनादिमध्यान्तं विज्ञाय परमेश्वरम्॥८६॥ हुर-शिव में ही समाहित चित्त होकर ब्रह्मवादियों के शरण कर्मणा मनमा चाचा समाधयं नतः॥

लेने योग्य महादेव का ही आश्रय ग्रहण करो। यस्मात्परदेशस्य निन्द्रा स्वात्मविनाशनम्।।८६॥ उपश्रुत्याय वचनं विरिङ्गस्य प्रजापतिः॥१३॥ इसलिए आदि मध्य और अन्त से रहित परमेश्वर को | जगाम शरणं देवं गोपतिं कृत्तिवाससम्। विशेष रूप से जानकर, कर्म-वचन और मन से यत्नपूर्वक | येऽन्ये झापाग्निनिया: दयीचस्य महर्षयः॥ १४॥

कुर्ममहापुराणम्

द्विवन्तों महिला इंवं सम्बभूवुः कलिया। महर्षि सूता बोले- ‘प्रजा की सृष्टि करों’ ऐसा स्वयम्भू के त्यक्त्वा तपोवलं कृत्वं विप्राणां कुलसम्भवाः ।।१५।। | द्वारा आदेश प्राप्त करके पहले दक्ष प्रजापति ने देव, गभर्न, र्वसंस्कारमाहात्म्याह्मणों वचनादि। ऋषि, असुर और सों का सृजन किया था। ब्रह्मा का यह वचन सुनकर प्रजापति दक्ष गोपति | | अदास्य मृतः पूर्वं न व्यवर्द्धत ताः प्रजाः। | श्रीविष्णु तथा व्याघ्रचर्मधारी महादेव की शरण में आ गये।| तदा सर्च भूतानि मैथुनेनैव सर्वतः॥ ३॥ । अन्य जो दधीच ऋषि की शापाग्नि से दाध महर्षिगण में, ये | (परन्त पर्व में जब दक्ष द्वारा उत्पन्न प्रजी वृद्धि को प्राप्त सव शंकरदेव से Bष रखने वाले होने के कारण मोहित | नहीं हुई, तब सर्व प्रकार से मैथुन-धर्म के द्वारा हीं भूतों का होकर कलियुग के पापलोकों में उत्पन्न हुए थे। वे दक्ष का | सुजन किया। | पक्ष लेने के कारण) अपने सम्पूर्ण तपोबले को त्याग कर |

अशिक्यां जनयामास वोरणस्य प्रज्ञापतेः। । | अपने पूर्व जन्म के संस्कारों के कारण और ब्रह्माजी के मुलायां धर्मयुक्तायां पुत्राणानु सहस्रकम्।।३।। बचन से इस लोक में ब्राह्मणों के कुल में उत्पन्न हुए थे। उन्होंने प्रजापति वीरण को परम धर्मयुक्ता पुत्री अशिनी युक्तशापाततः सर्वे कल्पान्ते रौरवादि।। १६॥

में एक हजार पुच्चों को उत्पन्न किया। निपान्यमानाः कालेन सम्माप्यादित्यवर्चसम्।। तेषु पुर्वेषु बप्टेषु मायया नारदस्य छ। ब्रह्माणं जगतापशमनुज्ञाता: स्वयम्भुवा।।१७।।

पष्टिं दोऽमृजकन्या वैरिण्य वै प्रजापतिः॥४॥ समाराध्य नपोयोगादीशानं त्रिदशामिपम्। नारद को माया से उन पुत्रों के नष्ट हो जाने पर इक्ष भविष्यन्ति यथापूर्वं शंकरस्य प्रसादतः॥१८॥

प्रजापति ने उस वैरिणी (असिक्नी) में सात कन्याओं को अनन्तर बै शापग्रस्त होने कारण रौरव आदि नरकों में उत्पन्न किया। । गिराये गये थे। अय में समय आने पर सूर्य के समान ददौ स दश धर्माय झ्यप्राय प्रयोदश। तेजस्यो जगत्पति ब्रह्मा के पास जाकर वहाँ स्वयम्भू ब्रह्मा बिंशात्सम च सोमाय चतस्रोरिष्टनेमये॥५॥ द्वारा अनुज्ञात होकर अर्थात् उनसे सम्मत प्राप्तकर, पुनः देवाधिपति ईशान को समाराधना करके, तपोयोग में तथा उसने उन कन्याओं में से दशा कन्याएँ धर्म को प्रदान की भगवान शंकर की कृपा से पहले जैसी स्थिति को प्राप्त होंगे। तेरह कश्यप को दी थीं। सताईस चन्द्र को अर्पित की। एनः कथितं सर्वं दक्षयज्ञनिषूदनम्। और चार अरिष्टनेमि को दी। शृणुध्वं दक्षपुत्रीणां सर्वासां चैव सन्ततिम्।। ६६ ॥

में चैव वहुपुत्राय द्वे कृशाश्चाय श्रीपते। द्वे चैवांगिरमे तद्वत्तामा बझ्येय वितरम्।। ६॥ | यह दक्ष प्रजापति के यज्ञ के विध्वंस का पूरा वृत्तान्त | हुमने कह दिया है। अब दक्षपुञि संपूर्ण सन्तति के विषय दों बहुपुत्र को और दो धीमान् कृशाश्व को दी थीं। दो अंगिरा ऋषि को प्रदान की थी। उसी भाँति अब उनके में सुनो। वंशविस्तार को कहता हूँ। इति कूर्मपुराणे पूर्वभागे दक्षयज्ञविनंमो नाम

मरूत्ववतो वसुर्यामी लम्बा भानुरस्काती। पञ्चदशोऽध्यायः॥ १५ ॥

संकल्पा च मुहूर्ता च साध्या विश्वा च भामिनी॥७॥ धर्मपन्यो दश चेतास्तामा पुन्नियोक्ता

षोड्शोऽध्यायः

विश्वेदेवास्तु विश्वायां साध्या साध्यानजीजनन्।॥ ८॥ (दक्षकन्याओं का वंश-यन) उन दश कन्याओं के नाम हैं- मरुन्चत, बसु, याम, लम्बा, भानु, अरुन्धती, संकल्या, मुहूर्ता, साध्या और विश्वा। मूत उवाच ये दश धर्म की पत्नियाँ थीं। उनके सब के जो पुत्र हुए थे। जाः योनि सन्दिष्टः पूर्वं दः स्वयंभुवा। उनको भी अब जान लॉजिए। विश्व में विशेदेव ने जन्म ससर्ज देवान् गन्धर्वानपौवामुरोरगान्॥ १॥ ग्रहण किया था और साध्या ने साध्यों को जन्म दिया था।

पूर्यभागे घोडशोऽध्यायः

मस्यां मचतों वस्वावमवसञ्चा। अदिनिहितिकाविष्टा सा नचा। मानस्तु भानवाचैव मुहूर्नास्त मुहूर्तजाः।।१।। सुरभिर्वता चैव ताम्रा क्रोधवशा विरा॥ १७॥ मरुत्वतों में मरुत्वान् हुए और वसु में (आठ) वसुगण | अनुर्मुनिश्च धर्मज्ञा तत्पुत्रान्वै निवोयत। उत्पन्न हुए थे। भानु से (द्वादश भानुगण हुए और मुहूर्त | अंशो धाता भगवश मित्रोव वस्त्णोऽर्यपा॥ १८॥ नामक पुत्र ने मुहर्ता नाम की पत्नी में हुए थे। विवस्वान् सविता पूषा शुमागिरेव च। लवायाध घोयो वै नागवयों तु यामिना। तुषिता नाम ते पूर्व चक्षुपस्यात मनः॥ १६ ॥ पृथिवींविषयं सर्वमरुन्धत्याम्जायत॥ १० ॥ वैवस्वतेऽनरे प्रोक्ता आदित्यादिः सुताः। लम्बा में घोष की उत्पत्ति हुई थीं तथा नागवथों नामक | दिनिः पुत्रद्वयं लेने कश्यपालगतिम्॥३०॥ कन्या यामी से उत्पन्न हुई। अरुन्धतों में समस्त पृथिवी के हिरण्यकशिपुं ज्येष्ठं हिरण्याक्ष धामम्।। विषय उत्पन्न हुए थे। हिरण्यकशिपुदैत्यो महावलपराक्रमः॥ २ ॥ | संकल्पायास्तु संकल्पो धर्मपुत्रा दश स्मृताः।। (उनको पुत्रियाँ) अदित, दिति, नु, इस भाँति अरिष्ठा, ये वनेकमुष्ठाणा देवा ज्योति:पुरोगमा:।।११। | सुरसा, सुरभि, विनता, ताम्रा, क्रोधवशा, इरा, कदू और संकल्पा से संकल्प नामक पुन्न हुआ। इस प्रकार ये दश | धर्मज्ञा मुनि हुईं। वैसे हीं इनके पुत्रों को भी जान तो धर्म के पुत्र कहे जाते हैं। जो ये अनेक बसु अथवा अनेक | धाता, भग, त्वष्टा, मित्र, वरुण, अयंमा, विवस्वान्, सविता, प्रकार के धन जिनके प्राण कहे जाते है, में ज्योतिषु आदि | पुषा- अंशुमान् विष्णु, ये तुषित नाम से प्रसिद्ध प्रथम देव कहे गये हैं।

चाक्षुष मन्वन्तर में हुए थे। वैवस्वत मन्वन्तर में अदिति के वसवोऽशै समाख्यातास्तेय वक्ष्यामि विस्तरम्। पुत्र आदित्य कहे गये हैं। दिति ने कश्यप ऋषिं से बलगति आपो धुवश्च ऑपश्च धरशैवानलोऽनिलः॥ १२॥ दो पुत्रों को प्राप्त किया था। उनमें जो सबसे बड़ा था उसका प्रत्यक्ष प्रभासको यसचोऽौ प्रकीर्तिताः। नाम हिंपण्यकशिपु था और जो उसका छोटा भाई था उसका आपस्य पुत्रों वैतड्य: श्रमः शान्तो वनस्तथा॥ १३॥ नाम हिरण्याक्ष था। हिरण्यकशिपु दैत्य महान् बलशाली और वसुगण आत बताये गयें हैं, उनका विस्तारपूर्वक वर्णन पराक्रमी था। करूंगा। आप, नुव, सोम, घर, अनल, अनिल, प्रत्यूष, आराध्य तुषमा देवं चाणं परमेश्वरम्। प्रभास- ये आठ वसु नामक देव कहे गये हैं। आप नामक दया में वन्दिव्यान्तबासौ विविध: स्तमैः॥ २१॥ वसु के पुत्र वैतड्य, श्रम, शान्त तथा ध्वनि हुए। उस हिरण्यकशिप में तपश्चर्या के द्वारा परमेश्वर ब्रह्मदेव घुवम्य पुत्रो भगवान् कालों लोकप्रकाशनः। को आराधना की। इनके अनेक प्रकार के स्तनों से उनक समस्या भगवान्वी घरस्थ होवणः सुतः॥ १४॥ स्तुति करके परम दिन्यवरों को प्राप्त की थी। नुव नामक बसु का पुत्र लोक को प्रकाशित करने वाले | अव तस्य बलादेवाः सर्व एव महर्षयः। भगवान् काल हुए थे और सोम का पुत्र भगवान् वर्चस् तथा | बाधिजाताडिता जमुईचदेवं पित्तामाम्॥ २३ ॥ धर चमु का पुत्र द्रविण हुआ।

शरण्यं शरणं देवं शम्भु सर्वज्ञगन्मयम्। नौजवनिलम्यासीदविज्ञातगतिस्तचा।

गृह्माणं लोंककर्तारं त्रातारं पुस्यं परम्॥ १४॥ कुमारों अनलस्यासीत्सेनापतिरति स्मृतः॥ १५॥ कुटख्यं जगतामेकं पुराणं पुरुषोत्तमम्। (पाँचवें बम्) अनिल का पुत्र अविज्ञातगत तथा| स याचिन देववर्मन मुनीश्वराः॥ १५॥ मनोजब था। अनल का कुमार सेनापत नाम से प्रसिद्ध था। इसके पश्चात् इसके बल से सभी महषिगण पति और देवलों भगवान्योगों प्रत्यूषस्याभयमुः।

ताडित होकर पितामह ादेव के समीप गये। जो परम । विश्वकर्मा प्रभासस्य शिल्पकर्ता जापतिः॥ १६ ॥ शरण्य, रक्षक, देव, शम्भु, सर्वजगन्मय, ब्रह्मा, लोकों की ।

भगवान् योग देवल प्रत्यूष के पुत्र हुए। प्रभास (नामक | सृष्टि करने वाले, त्राता, परमपुरुष, कूटस्थ और जगत् के अष्टम ब्रसु) के पुत्र प्रजापत, शिल्प कार्य के कुशल कर्ता | एक ही पुराण पुरुषोत्तम हैं। हे मुनीश्वरो ! उससे देवबरों ने विश्वकर्मा हुए थे। तथा समस्त मुनियों ने याचना की थी।

कूर्ममहापुराणम् सर्वदेहितार्थाय जगाम कमलामनः।

द्विजगण! तब निद्वारहित होकर विकसित कमल-नयन संस्तूयमानः प्रणतैमुनीन्दैमरैरपि॥३६॥ वाले पीताम्बरधारी विष्णु ने देवताओं से कहा- हे क्षीरोदस्योत्तरं कुलं यत्रास्ते हरिरीश्वरः। महापराक्रमी देवों ! प्रजापति के साथ आप लोग इस देश में दृष्ट्वा देवं जगझोनि विष्णु विश्वगुरु शिवम्॥ ३७॥ किंसलिए आये हैं? अथवा मैं आप लोगों को कौन-सा ववन्दे चरणौ मूर्ना कृताञ्जलिरभाषत। कार्य करू? प्रणत मुनीन्द्र और अमरगणों के द्वारा भली-भाँति स्तुति देवा ऊचुः किये जाने पर बहू कमलासन ब्रह्मा समस्त देवों के हित का सम्पादन करने के लिए क्षीरसागर के उत्तरी तट पर पहुँचे हिरण्यकशिपुर्नाम ब्रह्मणों बरदर्पितः॥ ३३॥ जहाँ पर भगवान् ईअर रिं, शेषशय्या पर शयन किया करते वायते भगवन्दैत्यों देवान् सर्वान् महर्षिभिः। हैं। वहाँ पर इस जगद्योनि, विश्वगुरु कल्याणकारी देब विष्णु अवध्यः सर्वभूतानां त्वामृते पुरुयोत्तमम्॥३४॥ का दर्शन करके ब्रह्माजी ने मस्तक से इनके चरणकमलों की देवगण बोले- हिरण्यकशिपु ब्रह्मा के बरदान से गर्वित बन्दना की तथा दोनों हाथों को जोड़कर प्रार्थना की। हो गया है। भगवन् ! वह दैत्य षियों सहित सभी देवों को पीड़ित कर रहा है। वह आप पुरुषोत्तम को छोड़कर सभी वयोवाच

प्राणियों के लिए वह अवध्य हैं। त्वं गतिः सर्वभूतानामनन्तोऽस्यख़लात्मकः॥ २८॥ इतुमर्हसि सर्वेषां त्रातासि त्वं जगन्मय। व्यापी सर्वामरबपुर्महायोगी सनातनः।। शुत्वा तद्देवनै स विणकभावनः॥ ३५॥ वमात्मा सर्वभूतानां प्रधानप्रकृति: परा॥२१॥

धाय यमुयस्य सोऽमृत्युयं स्वयम्। ब्राह्मानों ने कहा- हे भगवान् ! समस्त भूतों के आप ही | पेरुपर्वतवर्मार्ण घोररूपं भयानकम्॥३६॥ गतिरूप हैं। आप अनन्त हैं और अखिल विश्व के आत्मरूप | शंखचक्रगदापाणि ते प्राह गरुड्ञः । हैं। आप सर्वव्यापक हैं। सभी देवगण आपका ही शरीर हैं। हुचा नं दैत्यराजानं हिरण्यकशिपुं पुनः॥ ३७॥ आप महान् योगी और सनातन हैं। सब भूतों को आप हो | इमं देनं समागन्तुं क्षिप्रमस पौरुवान्। आत्मा हैं और प्रधान-अथबा पर प्रकृति भी आप ही हैं।। निशम्य वैश्यार्वेक्यं प्रणम्य पुरुषोत्तमम्।। ३८॥

वैराग्यैश्वर्यानंतों वागतीनों निरञ्जनः। महामुरुमव्यक्तं ययौ दैत्यमहापुरम्। त्वं कर्ता चैव भर्ता च विहन्ता च सुद्धाम्॥ ३॥ ॥ विमुञ्चन् भैरवं वादं शङ्खचक्रगदाधरः॥३१॥ आप वैराग्य और ऐश्वर्य में निरत रहने वाले हैं, वाणी से

जगन्मय! आप सबके रक्षक हैं, इसलिए इसका वध अतींत हैं अर्थात् चाणों द्वारा आप का वर्णन नहीं किया जा | करने योग्य हैं। देवताओं का कथन सुनकर लोकरक्षक विष्णु सकता। आप निरंजन निर्लेप हैं। आप सुश्किता, भरण- | नै दैत्य श्रेष्ठ का वध करने के लिए स्वयं एक पुरुष को सृष्टि पोषण करने वाले, तया देव के शत्र असरों का नाश करने की। उसका शरीर सुमेरुपर्वत के समान था, भयंकर रूप था। वाले हैं। और वह हाथों में शंख, चक्र और गदा धारण किये हुए था। ज्ञातुमर्हस्यनतेश त्रातासि परमेश्वर। उससे भगवान् ने कहा- तुम पराक्रम में दैत्यराज । इत्यं स विष्णुर्भगवान् ब्राह्मणा मप्रबोधितः॥ ३ ॥

हिरण्यकशिपु को मारकर पुन:शौम्र इस देश में आ जाओ। हे अनन्त ! हें ईश ! आप सब की रक्षा करने योग्य हैं। विष्णु का वचन सुनकर इसने अळ्यक्त, महापुरुष और पुरुषोत्तम भगवान् विष्णु को प्रणाम किया। पश्चात् परमेश्वर! आप हमारे रक्षक हैं। इस प्रकार ब्रह्मा ने भगवान् शंखचक्रधारों वह भयंकर नाद करता हुआ दैत्य के महानगर, विष्णु को अच्छी प्रकार समझा दिया था।

की ओर चल पड़ा।

प्रौवाचबिंदूपद्माक्ष पीतवासाः सुरान्जिाः

किमर्थं सुमहाबी: सुप्रजापतिका: सुरा:॥३२॥

आरु गर्छ देवों मड़ामेरुरवापरः। इमं देशमनुप्राप्ताः किं वा कार्यं करोमि वः।

आर्य दैत्यग्नचरा महामेंबरचयमम्॥

समं सक्रिो नाई तथा दैत्यगर्भयान।।

पूर्वभागे घोडशोऽध्यायः

बह गरुड़ पर आरूढ़ होकर दूसरे महामेरु पर्वत के | उस समय हिरण्यकशिपु के अतितेजस्वी चार पुत्र मेष के समान दिखाई दे रहा था। महामेघ के समान उसकी गर्जना | समान भैरव नाद करते हुए उस नारायण से उत्पन्न पुत्र से सुनकर बड़े-बड़े दैत्य भी दैत्यपति हिरण्यकशिपु के भय से | युद्ध करने लगे थे। एक साथ महानाद करने लगे। प्रानुलाश्च महादो हाद एव च। अमुरा ऊचुः

प्रादः प्राणिोद्धाह्ममनुलादोऽथ वैष्णवम्।। ४८॥ कश्चिदागच्छति महान् पुरुषो देवनोदितः॥४१॥ संद्धाआषि कौमारमानेयं हाद एव च।। तानि तं पुरुयं प्राप्य चत्वार्यस्त्राणि वैष्णवम्॥४६॥ विमुञ्चन् भैरवं नादं तं ज्ञानी जनार्दनम्।।

न शेकुलितुं विष्णु बासुदेवं यज्ञातवम्। तत: सहामुरवरिहरण्यकशिपुः स्वयम्॥ १३॥ सधैं: सायुयैः पुत्रैः सहदैस्तदा ययौ। (वे चारों) प्रह्लाद, अनुवाद, संवाद और बाद थे। उनमें दृष्ट्वा तं गरुड़ाई सूर्यकोटिसमप्रभम्।। ४३॥ प्रह्लाद ब्रह्मास्त्र, अनुहाद वैष्णवाल, संवाद कौमारास्त्र और असुरों ने कहा- देवों द्वारा प्रेरित कोई महान् पुरुष आहाद आग्नेयास्त्र छोड़ रहा था। परन्तु वें चारों अन्न उस रहा है। वह महान् भयानक गर्जना कर रहा है। इसलिए हमें पुरुष के पास पहुँच कर यथार्थ वासुदेव विष्णु को तनिक वें जनार्दन ही जान पड़ते हैं। इसके पश्चात् समस्त श्रेष्ठ भी इगमगा नहीं सके। असुरों के साध स्वयं हिरण्यकशिपु साबधान हो गया था। अथासौ चतुरः पुत्रान्महाबाहुर्महाबलः॥५३॥ समस्त आयुथों से सुसविन एवं पूर्ण सन्नद्ध ग्रहाद के सहित प्रगृह्य पादेषु कौशिक्षेप च ननाद च। पुत्रों को साथ लेकर उसी समय हिरण्यकशिपु भा गया था।

विमुक्तेष्वध पुर्जेयु हिरण्यकशिपुः स्वयम्॥ ५ ॥ और उसने गरुड़ पर समारूढ़ हुए करोड़ों सूर्यों के समान | पादेन नाङयामास वेगेनोरसि तं बली। | प्रभा वाले इन भगवान् विष्णु को देखा था। सतेन पीछितोश्त्यर्थं गरुन महानुगः॥५३॥ पुस्म्यं पर्वताका नारायणमिवापरम्। अभ्य: प्रययौ नग अत्र नारायणः प्रभुः।। दुवुः केचिदन्योन्यमूचुः सन्मान्तलोचनाः।।४।।

गत्वा विज्ञापयामास प्रवृत्तमखिलं तदा।॥ ५३॥ बह पुरुष एक विशाल पर्वत के समान आकार झाला तदनन्तर उस महावलौ और महापराक्रमी विष्णु-पुरुष ने

और दुसरे नारायण के तुल्य लग रहा है। उसे देखकर कुछ | अपने हाथों से उन चारों पुत्रों की संगे पकड़कर दूर पटक दैत्य तो भयभीत होकर भाग गये थे और दूसरे कुछ दिया और जोर से गर्जन किया। पुत्रों के पटक दिये जाने पर भमननेत्र वाले होते हुए परस्पर कहने लगे। हिरण्यकशिपु स्वयं वहाँ आया और अपने पैर से वेगपूर्वक अयं स देबो देवानां गोप्ता नारायणो रिपुः। इस पुरुष की छाती पर प्रहार किया। इसमें नह पुरुष गरुड़ अस्माकमबच्चों ने तातो वा मागतः ॥५॥ और दूसरे अनुयायियों के साथ अपना पौड़ित होकर यह वहीं नारायण देव हैं जो देवों का रक्षक तथा हमारा | अदृश्य हो गया और शौम्न हों उस स्थान को चला गया जहाँ रिपु है। निश्चय ही बहू अविनाशी स्वयं या उसका पुत्र यहाँ | नारायण प्रभु थे। उसने वहाँ जो घटित हुआ था, वह सारा पर जा पहुँचा है। वृत्तान्त कह सुनाया। इत्युक्त्या शस्त्रवर्याणि समृनुः पुरुयाय ते।

सञ्चित्य मनसा देवः सर्वज्ञानमयोऽमतः।

तानि साक्षतो देवो नाशयामास लीलया।।४६

नरस्यार्द्धतनुं कृचा सिंहस्याईननं तथा।।५४।।।

(एक दूसरे को इतना कहकर उन्होंने उस पुरुष पर सर्वज्ञानमग्न तथा निर्मल विष्णदेव ने मन में अच्छी प्रबार । | अपने शस्त्रों की वर्षा आरम्भ कर दी। परन्तु उस असंइदैन | विचारकर अपना आधा शरीर मनुष्यरूप का और आभा ने उन शस्त्रों को लोलामात्र में ही नष्ट कर दिया। सिंहरूप में कर दिया। हिरण्यकशियों पुश्चत्वारः प्रथितौजसः।

नृसिंहपुरय्यको हिरण्यकशिपोः पुरे।

पुत्र नारायणोद्भूतं युयुधुर्मघनि:स्वनाः॥४७॥

आविर्बभूव सहसा मोहम्दैत्यदानवान्॥५५॥

 

कूर्ममहापुराणम्

नरसिंह का शरीर धारण करके वे भगवान् अव्यक्तरूप में प्रकार अल को निवृत्त हुआ देखकर अपने भाग्य के गौरव हौ हिरण्यकशिपु के नगर में जा पहुंचे और दैत्यों तथा से प्रहाद ने उस देव को सर्वात्मा सनातन वासुदेव समझा। । दानवों को मोहित करते हुए एकाएक प्रकट हो गये। तब उसने सत्ययुक्त चित्त में सकल शल्ब का त्याग करके इष्टवाकाल योगात्मा युगातदनोपमः।

योगियों के हृदय में शयन करने वाले विष्णुदेव को शिर से समाहात्मनः शतिं सर्वसंहारकारकाम्।।५६॥ प्रणाम किया। भाति नारायणोऽनन्तो या यदि रविः।

ऋतुचा नारायण सोने; ऋग्य सामसम्मथैः।।६४॥ चें इंट्राओं में विकराल थे, फिर भी उनका स्वरूप निवार्य पितरं भ्रातून हिरण्यको नदाझवीत्।। योगमय था। वे उस समय प्रलयकालीन अग्नि के सदृश | ऋग्वेद, यजुर्वेद तथा सामवेद के स्तोत्रों से नारायण की | दिल्लाई दे रहे थे। सर्बसंहारकारिणीं अपनी शक्ति का स्तुति करके पिता, भाइयों और हिरण्याक्ष को रोककर उस अवलम्बन करके वें अनन्तरूप नारायण उस समय दिवस | समय उनसे कहा। के मध्याह्न समय के सूर्य की भाँत लग रहे थे।

 

अयं नाना शमतों मगन:li६५॥ दृष्ट्वा नृसिहं पुरुषं द्वादं ज्येष्ठपुत्रकम् ।। ५७॥

पुराण: पुरुषों देवों महायोगी जगन्मयः। वषय प्रेरयामास नसिहस्य सोऽसुरः।

अयं पाता विद्याता च स्वयंज्योतिर्निरञ्जनः॥६६॥ इमं नृसिंह पुरुषं पूर्यस्मादूनशक्तिकम्॥ ५४॥ ये भगवान् नारायण, अनन्त, शाश्वत और अन हैं। ये हो । महेछ तेऽनुजैः सर्वैर्नाशयाशु परितः॥ सव के धारणकर्ता, सृष्टिकर्ता, स्वयं ज्योति:स्वरूप और । उस नृसिंहाकृत पुरुष को देखकर हिरण्यकशिपु ने अपने निरञ्जन हैं। न्येष्ठ पुत्र प्रहाद को उसका करने के लिए प्रेरित किया। प्रयानं पुरुषं तत्त्वं मूलप्रकृतिरव्ययः। उसने कहा कि यह नृसिंहाकृतिं वाला पुरुष पहले से कुछ ईश्वरः सर्वभूतानामन्तर्यामी गुणाविंगः॥ ६७॥ कम शक्ति वाला है इसलिए तुम अपने सभी भाइयों के गवर्मेनं शरणं विष्णुमव्यपव्ययम्।

सहित मा द्वारा ग्ररित हुए तुम शीघ्र ही उसका नाश कर दी। ये ही प्रधान तत्त्व-मूल प्रकृतिरूप अविनाशी पुरुष हैं। वे स तन्नियोगादसुर: प्रादों विष्णुमव्ययम्॥५१॥ सकल प्राणियों के ईश्वर, अन्तर्यामी और (सत्यादि) गुणों से युयुधे मर्मयत्नेन नरसिहेन निर्जितः। परे हैं। इसलिए आप अव्यक्त और अविनाशी विष्णु को ततः संमोहितों दैत्यों हिरण्यक्षस्नदानुजः॥ ६ ॥ शरण में जाओ। म्यान्चा पशुपतेरस्त्रं समर्ज च ननाद चएवमुक्त: मुदुर्बुद्धिर्हिरण्यकशिपुः स्वयम्॥६८॥ फिर अपने पिता की आज्ञा से वह असुर प्राद उन | प्रोवाच पुत्रमत्यर्थं मोहितो विष्णुमायया। अबिनाशी विष्णु के साथ यत्नपूर्वक युद्ध करने लगा, परन्तु अयं सर्वात्मना वयो नृसिंहोऽल्यपराक्रमः॥६६॥ वह नरसिंह के द्वारा जीत लिया गया। उसके पश्चात् उसके समागतोऽम्पसनमिदानीं कालोदितः। छोटा भाई दैत्य हिरण्याक्ष ने संमोहित होकर पाशुपत अस्त्र का ध्यान करके उसे छोड़ा और गर्जना करने लगा। ऐसा कहने पर भी अत्यन्त दुर्बुद्ध युक्त तथा विष्णु की तस्य देवाधिदेवस्य विष्णोंमततेजस:।। ६ ।।।

माया से अत्यन्त मोहित हुआ हिरण्यकशिपु अपने पुत्र में न हानिपकरोदनं तया देवस्य शूलिनः।

बोला- यह अल्य पराक्रमी नृसिंह सब प्रकार से वध करने दृष्ट्वा परालं चत्रं महादों भाग्यगौरवात्।। ६३ ।। योग्य है। यह काल से प्रेरित होकर इस समय हमारे भवन मैने सर्वात्मकं देवं वासुदेवं सनातनम्। में आया है। सत्य सर्वज्ञस्त्राणि सत्वयुक्न चेतसा॥ ६ ॥ विहस्य पितरं पुत्रो वचः प्राह महामत:० ननाम शिरसा देवं योगिनां हुयेयम्। मा निन्दस्वैनमज्ञानं भूतानामेकमव्ययम्। किन्तु उसका वह अत्र देवाधिदेव अमिततेजस्वी विष्णु कथं देव महादेव: ज्ञाश्चत: कालवर्जितः।।७।। तथा त्रिशूलधारी शंकर की कोई हानि नहीं कर सका। इस कालेन हन्यते विष्णुः कासात्मा कालरूपचक्।

Kurma Puram