विज्ञान एवं प्रौद्योगिकी विभाग के अंतर्गत हिमालय के भू-विज्ञान के अध्ययन से संबंधित एक स्वायत्त अनुसंधान संस्थान वाडिया इंस्टीट्यूट ऑफ हिमालयन जियोलॉजी (डब्ल्यूआईएचजी), देहरादून के वैज्ञानिकों ने पता लगाया है कि अन्य हिमालयी क्षेत्रों की तुलना में सिक्किम के ग्लेशियर बड़े पैमाने पर पिघल रहे हैं। साइंस ऑफ़ द टोटल एनवायरनमेंट में प्रकाशित अध्ययन में 1991-2015 की अवधि के दौरान सिक्किम के 23 ग्लेशियरों पर जलवायु परिवर्तन के प्रभाव का आकलन किया गया और इससे यह पता चला कि 1991 से 2015 तक की अवधि में सिक्किम के ग्लेशियर काफी पीछे खिसक गए हैं और उनकी बर्फ पिघलती जा रही है। जलवायु परिवर्तन के कारण सिक्किम के छोटे आकार के ग्लेशियर पीछे खिसक रहे हैं और बड़े ग्लेशियर पिघलते जा रहे हैं।
अन्य हिमालयी क्षेत्रों की तुलना में आयामी परिवर्तन का पैमाना और मलबे की वृद्धि की मात्रा सिक्किम में अधिक है। ग्लेशियर के व्यवहार में प्रमुख बदलाव 2000 के आसपास हुआ। पश्चिमी और मध्य हिमालय के विपरीत जहां हाल के दशकों में ग्लेशियरों के पिघलने की गति धीमी हुई है, वहीं सिक्किम के ग्लेशियरों में 2000 के बाद इसमें नाममात्र का धीमापन देखा गया है। ग्लेशियर में हो रहे बदलावों का प्रमुख कारण गर्मियों के तापमान में वृद्धि है। सिक्किम हिमालयी ग्लेशियरों की लंबाई, क्षेत्र, मलबे के आवरण, हिम-रेखा की ऊंचाई (एसएलए) जैसे विभिन्न मापदंडों और उन पर जलवायु परिवर्तन के प्रभाव को समझने के लिए डब्ल्यूआईएचजी के वैज्ञानिकों ने इस क्षेत्र के 23 प्रतिनिधि ग्लेशियरों का चयन किया।
विषय से संबंधित पहले से मौजूद ज्ञान का आकलन करने के लिए अध्ययन से संबंधित विस्तृत और कठिन साहित्य सर्वेक्षण किया गया। इसके बाद, अध्ययन क्षेत्र में फैले प्रतिनिधि ग्लेशियरों का चयन आकार, लंबाई, मलबे के आवरण, ढलान, पहलू जैसे विविध मानदंडों के आधार पर किया गया। फिर, चयनित ग्लेशियरों को कवर करते हुए मल्टी-टेम्पोरल और मल्टी-सेंसर उपग्रह डेटा प्राप्त किए गए। टीम ने इन परिणामों का विश्लेषण किया और पहले से मौजूद अध्ययनों के साथ उनकी तुलना की तथा ग्लेशियरों की स्थिति को समझने के लिए उन पर प्रभाव डालने वाले विभिन्न कारकों का व्यवस्थित रूप से पता लगाया गया।
इस क्षेत्र के ग्लेशियरों का व्यवहार विविधता से भरपूर है और ऐसा पाया गया है कि यह प्राथमिक तौर पर ग्लेशियर के आकार, मलबे के आवरण और ग्लेशियर झीलों से निर्धारित होता है। हालांकि छोटे (3 वर्ग किमी से कम) और बड़े आकार के ग्लेशियरों (10 वर्ग किमी से अधिक) दोनों के ही द्रव्यमान में सामान्यत: हानि देखी जा रही है, लेकिन ऐसा प्रतीत होता है, जैसे उन्होंने जलवायु परिवर्तनों से निपटने के लिए वे अलग-अलग तरीके अपनाये हैं। जहां छोटे ग्लेशियर विहिमनदन से पीछे खिसक हैं, वहीं बड़े ग्लेशियरों में बर्फ पिघलने के कारण द्रव्यमान की हानि हो रही है।
अब तक सिक्किम के ग्लेशियरों का संतोषजनक अध्ययन नहीं किया गया था और फील्ड-बेस्ड मास बेलेंस आकलन केवल एक ग्लेशियर (चेंग्मेखांग्पु) तक सीमित था और यह अल्पावधि (1980-1987) तक ही चला था। इन अध्ययनों की प्रकृति क्षेत्रीय है और इसमें अलग-अलग ग्लेशियर के व्यवहार पर बल नहीं दिया गया। इसके अतिरिक्त इस क्षेत्र में अधिकांश आकलन केवल लम्बाई क्षेत्र के बदलावों तक ही केंद्रित रहे हैं। वेग का आकलन भी अत्यंत दुर्लभ रहा है। इस अध्ययन में पहली बार ग्लेशियर के विविध मानकों यथा लम्बाई, क्षेत्र, मलबे के आवरण, हिम-रेखा की ऊंचाई (एसएलए), ग्लेशियर झीलों, वेग और बर्फ पिघलने का अध्ययन किया गया और सिक्किम में ग्लेशियरों की स्थिति और व्यवहार की स्पष्ट तस्वीर प्रस्तुत करने के लिए उनके अंतर-संबंध का पता लगाया गया।
ग्लेशियरों के आकार साथ ही साथ उनमें हो रहे परिवर्तनों की दिशा की सटीक जानकारी जिसे मौजूदा अध्ययन में उजागर किया गया है, वह जलापूर्ति और ग्लेशियर के संभावित खतरों के बारे में आम जनता विशेषकर उनके निकटवर्ती क्षेत्रों में रहने वाले लोगों के बीच जागरूकता उत्पन्न कर सकता है। यह अध्ययन ग्लेशियर परिवर्तनों पर पर्याप्त आधारभूत डेटा प्रदान कर सकता है और ग्लेशियर मापदंडों और विभिन्न प्रभावकारी कारकों के बीच आकस्मिक संबंधों का व्यवस्थित रूप से पता लगा सकता है। इससे ग्लेशियर की स्थिति की स्पष्ट समझ भविष्य के अध्ययन को अनुकूल बनाने के साथ-साथ आवश्यक उपाय करने में मदद करेगी।
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भरत पांडेय