छोलिया नृत्य कुमाऊं का सबसे जाना-माना लोक नृत्य है. इस विधा में छोलिया नर्तकों की टोलियां बनाकर नृत्य करते हैं. माना जाता है कि नृत्य की यह परंपरा लगभग 2000 वर्ष पुरानी है. नर्तकों की वेशभूषा और उनके हाथ में रहने वाली ढाल-तलवारें बताती हैं कि यह नृत्य युद्ध के प्रतीक के रूप में शुरू हुआ था.
एक समय ऐसा भी था जब बैंड बाजे की चकाचौंध से छोलिया नृत्य के कलाकारों के सामने रोजी-रोटी का संकट गहरा गया था. लेकिन आजकल की कुमाऊंनी शादियों-बारातों में छोलिया नृत्य की भारी डिमांड रहती है, जिससे छोलिया डांस करने वाले कलाकारों का हौसला बढ़ा है. आज कुमाऊं की हर शादी में यह डांस शान के रूप में फिर से देखा जाने लगा है.
कुमाऊं में 125 छोलिया दल हैं
छोलिया डांस को प्रोत्साहन देने वाले छोलिया समिति के अध्यक्ष हेमराज सिंह बिष्ट ने जानकारी देते हुए बताया कि कुमाऊं में 125 छोलिया दल है. वहीं पिथौरागढ़ जिले की बात की जाए तो 65 छोलिया दल उनसे जुड़े हुए हैं. छोलिया डांस को बढ़ावा देने का श्रेय भी हेमराज बिष्ट को जाता है.
छोलिया नृत्य ने जुडी दिलचस्प कहानी
छोलिया विधा में निपुण डांसर संजय कुमार ने बताया कि पुराने समय में कुमाऊं की रानी को युद्ध देखने की इच्छा हुई तो राजा के आदेश पर सैनिकों ने नृत्य के माध्यम से युद्ध कौशल दिखाया, तभी से यह डांस अस्तित्व में आया और अभी तक ढाल और तलवार के साथ यह डांस किया जाता है.
युद्ध के दांव पेंच भी दिखाते हैं डांसर
छोलिया नर्तकों की टोली के साथ संगीतकारों का एक दल अलग से चलता है जो मशकबीन, तुरही, ढोल, दमामा और रणसिंघा जैसे लोक-वाद्य बजाते हुए चलते हैं. नर्तकों का शारीरिक कौशल इस कला में महत्वपूर्ण है. छोलिया नर्तकों को युद्धरत सैनिकों के उन दांव-पेंचों की नक़ल करनी होती है जिसमें वे छल के माध्यम से शत्रु को परास्त करते हैं. इसी कारण इसे छोलिया ( छलिया) का नाम दिया गया.
नई पीढ़ी कर रही छोलिया नृत्य से परहेज
छोलिया नृत्य कुमाऊं की सांस्कृतिक विरासत का प्रतीक है. जिसे पहाड़ के लोग पीढ़ी दर पीढ़ी संजोए हुए हैं लेकिन अब आधुनिकता की जरूरतों से नई पीढ़ी छोलिया डांस सीखने से दूर जा रही है, जो कि बड़े दुःख की बात है. युवा पीढ़ी को भी इसे संरक्षित करने की जरूरत है.