देश की राजनीति में यूं तो बीजेपी ने कांग्रेस मुक्त भारत अभियान का नारा देकर सत्ता हासिल की थी, पर आम जनता के मूड से ऐसा कुछ होता नजर नहीं आ रहा है। इसका जीता जागता उदाहरण हाल ही में हुए 5 राज्यों के चुनावों में स्पष्ट रूप से देखा जा सकता है। चुनाव से पहले जहां संपूर्ण विपक्ष में कांग्रेस को लेकर असमंजस की स्थिति थी तो वहीं चुनाव के बाद उसमें काफी व्यापक बदलाव आया है।
हालांकि हिंदी भाषी क्षेत्र के उत्तर प्रदेश जैसे बड़े राज्य के दो बड़े दलों से अभी कांग्रेस की दूरी बनी हुई है। जहां एक और देश के तमाम दलों में कांग्रेस की स्वीकार्यता बड़ी है, तो सपा बसपा ने अभी भी अपने निजी हितों को ज्यादा तरजीह दी है। तीन राज्यों में बड़ी जीत के बाद जाहिरा तौर पर कांग्रेस को संजीवनी मिली है।
लेकिन बड़ी बात यह है कि बीजेपी को भी फौरी तौर पर एक राहत इस बात से मिली है कि वह लगभग दो बड़े राज्यों में कांटे की टक्कर में हारी है, जिससे लगता है कि लोकसभा चुनाव में उसकी उम्मीदें पूरी तरीके से खत्म नहीं हुई हैं। चिंतन सपा बसपा जैसे क्षेत्रीय दलों के लिए ज्यादा बढ़ गया है क्योंकि कांग्रेसी महागठबंधन में अपनी शर्तों पर शामिल हो सकती है।
पहले इसकी संभावना कम थी जो अब बढ़ चुकी है जहां एक और सपा बसपा अपने गठबंधन के दौरान कांग्रेस को सात आठ सीटें देने को तैयार थी वहीं अब दोनों दलों को यह लगने लगा है कि कांग्रेस इस पर कतई राजी नहीं होगी इसीलिए मायावती समेत अब अखिलेश यादव की पार्टी ने भी कांग्रेस का सार्वजनिक स्तर पर विरोध शुरू कर दिया है क्योंकि उन्हें भी अब एहसास हो गया है कि बीजेपी की एंटी इनकंबेंसी का उन्हें कम कांग्रेस को ज्यादा फायदा होगा।
सूत्रों का दावा है कि कांग्रेस पार्टी भी अंदर खाने आने वाले लोकसभा चुनाव में अकेले लड़ने की तैयारी कर रही है। परंतु उसे यह भी उम्मीद है कि अगर वह बेहतर प्रदर्शन करेगी तो विपक्ष भी उसे समर्थन देने को राजी हो जाएगा। अखिलेश यादव और मायावती दोनों ही इस बात को भली-भांति जानते हैं कि उन्हें सीटों में जो नुकसान होगा उसका सीधा फायदा अब कांग्रेस ही उठा सकती है। दोनों पार्टियां यह कतई नहीं चाहेंगी की कांग्रेस इसका फायदा उठा सकें।
विजय कुमार त्रिपाठी
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