श्राद्ध पक्ष में तर्पण का है विशेष महत्व, यहां जानें क्या है विधान

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श्राद्ध कर्म के समय सबसे पहले पित्तरों को तर्पण दिया जाए। तर्पण के निमित्त एक स्वच्छ थाली या बर्तन में थोडा सा स्वच्छ जल भरकर उसमें थोडा सा कच्चा दूध मिलाया जाता है, फिर उसमें थोडे से काले तिल और जौ के दाने डाले जाते है। इसमें पुष्प की पंखुडियां भी डाली जा सकती है। तत्पश्चात् श्राद्धकर्ता को अपने दोनों हाथों से अंजलि बनाकर और दोनों अंगूठों से कुश मूल को पकड कर पूर्वाभिमुख हो थाली के पानी से ‘ॐ नमः सूर्याय नमः’ मन्त्र का उच्चारण करते हुए देवों को जलांजलि से जल अर्पण करना चाहिए। दक्षिणामुख होकर पित्तरों के निमित्त उनका नाम, गोत्र लेकर क्रमशः तीन-तीन बार जलांजलि प्रदान करनी चाहिए। श्राद्ध तिथि के दिन अगर संभव हो सके तो एक छोटा सा हवन भी सम्पन्न कर लेना चाहिए। अन्यथा कंडे में आग सुलागकर पित्तरों के निमित्त उसमें घी व लौंग युक्त बतासे, जलीय भोजन के साथ आहुतियां डाल लेनी चाहिए। श्राद्ध वाले दिन पांच पत्तलों पर कौआ, कुत्ता, गाय, अतिथि देव और चीटियों के निमित्त पंचबलि भी अवश्य निकालनी चाहिए और उन्हें उनके पात्रों तक अवश्य पहुंचा देना चाहिए। इसके बाद ही ब्राह्मण को भोजन करना एंव उसे वस्त्र एंव दक्षिणा देकर प्रणाम करना चाहिए। ब्रह्मदेव को भी अपने आथित्य सत्कार से प्रसन्न होकर अपने यजमान को सपरिवार सहृदय होकर आर्शीवाद देना चाहिए।

🔹श्राद्ध काल धर्मशास्त्रों में जो पाँच प्रकार के श्राद्ध बताये गये है। इन श्राद्धों को दिन के अलग-अलग समय पर सम्पन्न करने का विधान भी रखा गया है। जैसे पूर्वार्द्ध के समय अन्वष्टका नामक श्राद्ध कर्म सम्पन्न करना चाहिए। यह श्राद्ध मातृ के निमित्त सम्पन्न किया जाता है। जबकि पिता आदि के निमित्त किया जाने वाला एकोदिष्ट नामक श्राद्ध मध्यांह के समय पर सम्पन्न करना चाहिए। प्रातःकाल के समय पर आम्युदयिक नामक श्राद्ध सम्पन्न करना चाहिए। आम्युदयिक नामक यह श्राद्ध वृद्धि श्राद्ध के अन्तर्गत आता है, जो पारिवारिक वृद्धि के निमित्त सम्पन्न किया जाता है। धर्मशास्त्रों में कहा गया है कि पित्तरों के निमित्त जो श्राद्ध सम्पन्न किए जाते है, उनके लिए श्राद्ध का समय मध्यांह काल श्रेष्ठ है, क्योंकि मध्यांह में सूर्यदेव अपनी पूर्ण तेजस्वता पर रहते है। सूरज की सप्त रश्मियों में ‘श्रद्ध’ नामक एक रश्मि भी मानी गई है। इस रश्मि के माध्यम से ही सूर्य देव श्राद्ध के अन्न से रस को सोखकर उसे पित्तरों तक पहुंचाकर उन्हें तृप्ति प्रदान कराते है। अतः पित्तरों का श्राद्ध मध्यांह काल में करना श्रेष्ठ माना गया है।

🔹श्राद्ध का अधिकारी पित्तर किसके हाथ से श्राद्ध ग्रहण करते है, यह भी एक महत्वपूर्ण प्रश्न है। शास्त्रानुसार श्राद्ध करने का प्रथम उत्तराधिकार ज्येष्ठ पुत्र का बनता है। यद्यपि पुत्र के अभाव में पुत्री का पुत्र (दोहता) भी नाना-नानी व मामा आदि का श्राद्ध करने का अधिकारी होता है। यद्यपि पुत्री को अपने मां-बाप का श्राद्ध करने का अधिकार नहीं दिया गया है, क्योंकि विवाहोपरान्त पुत्री का कुल, गोत्र आदि सब बदल जाते है। इसके साथ ही विवाहित पुत्री के घर पर भी श्राद्ध करना निषिद्य माना गया है।

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