यजुर्वेद – संहिता
ॐ भूर्भुवः स्वः तत्सवितुर्वरेण्यं भर्गो देवस्य धीमहि धियो यो नः प्रचोदयात्
वाजसनेय–माध्यन्दिन–शुक्ल
यजुर्वेद – संहिता
॥ अथ प्रथमोऽध्यायः॥
१. ॥ॐ ॥ इथे वोजें त्वा वायव स्थ देवो वः सविता प्रार्पयतु श्रेष्ठतमाय कर्मणः | आप्यायध्वमच्या 5 इन्द्राय भागं प्रज्ञावतीरनमीत्रा ; अयक्ष्मा मा व स्तेन ईशत |
माघश सो घुषाः अस्मिन् गोपतौ स्यात बह्वीर्यजमानस्य पशून्पाहि ।।१।।
ये कण्डिका कर्म में सन्न हैं, यज्ञके साधनों–उपकरणों तथा यकर्ताओं दोनों पर घटित होती हैं। प्रस्तुत कण्डिका | मैं पलाश शाखा को कहना तथा उसे शुद्ध करना, ककड़े को गाय से अलग करना , गाय को संप्रेषित करना एवं शाखा को अम्यागार में स्थापित करना आदि क्रियाएँ सम्पन्न करने का विधान है –
हे यज्ञ साधनों ! अन्न की प्राप्ति के लिए सवितादेव आपको आगे बढ़ाएँ । सृजनकर्ता परमात्मा | आपको तेजस्वी बनने के लिए प्रेरित करें । आप सभी प्राण स्वरूप हों । सृजनकर्ता परमेश्वर श्रेष्ठ कर्म करने के लिए आपको आगे बढ़ाएँ। आपकी शक्तियां विनाशक न हों, अपितु उन्नतिशील हों । इन्द्र (देव-प्रवृत्तियों) के लिए अपने उत्पादन का एक हिस्सा प्रदान करो । सुसंतति युक्त एवं आरोग्य-सम्पन्न बनकर क्षय आदि रोगों से छुटकारा पाओ । चोरी करने वाले आपके निर्धारक न बनें। दुष्ट पुरुष के संरक्षण में न रहो । मातृभूमि के रक्षक को छत्र–छाया में स्थिर बनकर निवास करो । सज्जनों की संख्या | में वृद्धि करो तथा याजकों के पशु- धन की रक्षा करो ॥१ ।।
३.वसोः पवित्रमसि द्यौरसि पृथिव्यसि मातरिश्वनों घर्मोऽसि विश्वधा । असि । परमेण धाम्ना दृ६४ हस्व मा ह्वार्मा ते यज्ञपतिङ्घर्षीत् ॥२॥
प्रस्तुत कण्डिका दर्म (पवित्राधिष्ठित देवता) , दुग्ध पात्र एवं खा पात्र को सम्बोधित करती हैं | है यज्ञ साधनों ! आप (अपने यज्ञादि कर्मो से) वस्तुओं को पवित्र करने के माध्यम हों, द्युलोक और पृथ्वी ( के संतुलन कर्ता ) हों । आप हो प्राणों की उष्णता हो, सबके धारक हो । महान् शक्तियों को धारण कर प्रगतिशील बनो, इन्हें बिखरने मत दो । आप से सम्बन्धित यज्ञपति (सेवा का दायित्व सँभालने वाले) भी कुटिल न बनें ||२ ॥
३. वसोः पवित्रमसि शतधारं वसोः पवित्रमसि सहस्रधारम् । देवस्त्वा सविता पुनातु वसोः पवित्रेण शतधारेण सुष्वा कामधुक्षः ॥३॥
प्रस्तुत कण्डूिका में गोदुग्ध रूपो हवि को शुद्ध करने की क्रिया का विधान है – १.३
आप ( दर्भमय पवित्र बसु) सैंकड़ों–सहस्रों धाराओं वाले, ( वस्तुओं को } पवित्र करने वाले साधन हो । | सबको पवित्र करने वाले सविना, अपनों सैकड़ों धाराओं से वस्तुओं को पवित्र करने वाले साधनों में ) तुम्हें पवित्र बनाएँ । हे मनुष्य ! तुम और किस (कामना) की पूर्ति चाहते हो ? अर्थात् किस कामधेनु को दुहना चाहते हो ? ॥३॥
[दृष्टा ऋषि गोदुग्ध में सन्निहित पोषक तत्वों को अंतरिक्ष में पृथ्वी पर सहस्रों धाराओं में प्रवाहित होते देखते हैं । यज्ञ की प्रक्रिया को इसी विराट् दर्शन से जोड़ना चाहते है ।। ४. सा विश्वायुः सा विश्वकर्मा सा विश्वधायाः । इन्द्रस्य त्वा भाग 5. सोमेनातनच्मि विष्णो हव्ययं रक्ष ।।४।।
प्रस्तुत कण्डिका पूर्वांना प्रश्न के उत्तर में दोड्नकर्ता पुरुष, दुग्ध रूपी वि एवं पोषणकर्ता विष्णु को सम्बोधित है
हे मनुष्य ! पूर्ण आयुष्य, कर्तृत्वशक्ति एवं धारक शक्ति (रूषी तीन कामधेनु) आपके पास हैं । इनसे प्राप्त | (दुग्ध पोषण–क्षमताओं में से हम (अध्वर्यु इन्द्र के हिस्से में सोम को मिलाकर उसे स्थिर करते हैं। पोषणकर्ता (विष्णु) इन हव्य पदार्थों को सुरक्षित रखें ॥४ ।।
५. अग्ने व्रतपते व्रतं चरिष्यामि तच्छकेयं तन्मे राध्यताम् । इदमहुमनृतात्सत्यमुपैमि॥
प्रस्तुत कड्किा में कर्म के अनुशन की प्रतिज्ञा की गई हैं – हे वतों के पालनकर्ता, तेजस्वी अग्निदेव ! हम वतशील बनने में समर्थ हों । हमारा, असत्य को त्यागकर, | सत्यमार्ग पर चलने का व्रत पूरा हो ॥५॥
६,कस्त्वा युनक्ति सत्वा युनक्ति कस्मै त्वा युनक्ति तस्मै त्वा युनक्ति । कर्मणे वां वेषाय वाम् ॥
प्रस्तुत कण्डिका प्रणीत (यजमान द्वारा विशेष विधि से साये गये) मा थारण काने वाले पात्र को सम्बोधित है –
(प्रश्न) हे यज्ञ साधनों ! तुम्हें किसने नियुक्त किया हैं ?किसलिए नियुक्त किया है ? (उत्तर) उसने (स्रष्टा | तुम दोनों (सबल-निर्बला को (यज्ञादि कर्म करने के लिए नियुक्त किया हैं, (उत्तम कर्मो से) दिव्य स्थान में संव्याप्त होने के लिए नियुक्त (प्रवृत्त) किया है ||६ ।।
७. प्रत्युष्ट रक्षः प्रत्युष्टाः अरातयो निष्ठप्त४% रक्षो निष्टप्ता अरातयः । उर्वन्तरिक्षमन्वेमि ।।।।
प्रस्तुत कष्किा के साथ काष्ठपात्रों को यज्ञान में तपाका विकाररहित करने का विधान हैं
यज्ञ ऊर्जा के प्रभाव से, सम्बन्धित उपकरणों में सन्निहित राक्षस एवं शत्रुगण (विकार) जल-भुन चुके हैं। | सताने वाले (विकार) झुलस कर जल चुके है । अतः अन्तरिक्ष में (यज्ञार्थ में यज्ञीय साधन, बिना किसी रुकावट | के प्रवेश करते हैं ॥।।
८. घूस धूर्व धूर्वन्तं धूर्व तं योस्मान्धूर्वति तं धूर्व यं वयं धूर्वामः । देवानामसि वह्नितम छ | सनितमं पप्रितमं जुष्टतमं देवहूतमम् ॥८॥
यह कण्डिका यज्ञ के संसाधन साने वाले वाहन ‘कट‘ एवं वाहक ‘अग्नि दोनों पर घटित होती हैं। अग्नि के मिण का अपराध दूर करने के लिए ‘शट–बुर‘ के स्पर्श की क्रिया का विधान हैं
आप अपनी विध्वंसकारी शक्ति से दुष्टों एवं हिंसकों का विनाश करें । जो अनेक लोगों को कष्ट पहुँचात्ता | हैं, उस हत्यारे को नष्ट करें । जिस दुरात्मा को सभी नष्ट करना चाहते हैं, उसे नष्ट करें । (हे शकट-देवशक्तियों तक हवि पहुँचाने वाले यज्ञाग्ने !} आप दैवी शक्तियों के वाहक, बलवर्द्धक, पूर्णता तक पहुँचाने वाले, सेवन–योग्य । तथा देवगणों को आमंत्रित करने वाले हैं ॥८॥
९.अहुतमसि हविर्धानं दृ ४ हस्व मा ह्वार्मा ने यज्ञपतिङ्घर्षीत् । विष्णुस्त्वा क्रमतामुरु वातायापत रक्षों यच्छन्त पञ्च ॥९॥
प्रस्तुत कण्डिका में शक्ट पर चढ़ना, हाँव को देखना, तृण आदि को निकालना नवा हव बहण करना आदि क्रियाओं का विधान है ।
आप देवशक्तियों को धारण करने के दृढ़ और सुयोग्य पा(माध्यम) हैं । आप और आपके यज्ञ संचालक | कुटिल न बने । पोषक चिमणुदेव ही आप पर आरूढ़ रहें । विशाल वायुमंडल में विचरण करते हुए वायु सेवन (आण-संवर्द्धन करें । राक्षसी वृत्तियों दूर करने के बाद पाँचों (अँगुलियाँ अथवा पंचविध शक्तियाँ–कर्मशक्ति, ज्ञानशक्ति, मन-शक्ति, बुद्धिशक्ति और आत्मशक्ति) ईश्वरीय प्रयोजनों में लगें ॥१॥
१०.देवस्य त्वा सवितुः प्रसवेश्विनोबहुभ्यां पूष्णो हस्ताभ्याम् । अग्नये जुष्टं | गुणाम्यग्नीषोमाभ्यां जुष्टं गृह्णामि ॥१० ||
प्रस्तुत कपिङका में वि प्रहण करने की क्रिया का विधान हैं –
सृजनकर्ता परमात्मा द्वारा रची गई सृष्टि में, (मानो) अश्विनी कुमारों को बाहुओं तथा पृषादेव के हाथों से तुझे | (साधक के हविष्यान्न को ग्रहण करता हूँ । अग्नि को जो प्रिय लगे, हम (अध्वर्यु) वहीं (हविष्यान्नको स्वीकार करते हैं। अग्नि तथा सोम के लिए प्रिय पदार्थ ही ग्रहण करते हैं ॥१८ ॥
११. भूताय त्वा नारातये स्वरभिविष्येषं दृश्– हन्तां दुर्याः पृथिव्यामुर्वन्तरिक्षमन्वेमि। | पृथिव्यास्त्वा नाभौ सादयाम्यदित्याऽउपस्थेग्ने हव्य ४४ रक्षे ॥११॥
इस कण्डिका में ‘व्रीहि–शेष‘ का विचार, पूर्वाभिमुख हो यज्ञ भूमि का दर्शन शकट से उतरना, अन्तरिक्ष में हव स्थापन | आदि क्रियाओं का विधान हैं –
आपको अनुदारता के लिए नहीं, उन्नति के लिए निर्मित किया है । हमें आत्मा में विद्यमान ज्योति दिखाई दे । इस पृथ्वी पर सज्जनता का बाहुल्य हो । समस्त भूमण्डल में बिना किसी बाधा के विचरण कर सकें । हे अदिति पुत्र अनिदेव ! पृथ्वी की नाभि (यज्ञस्थल) में स्थापित इस हविष्यान्न की आप रक्षा करें ॥ ११ ॥
| यज्ञ क कों पसी की नाभि कहा गया है तो मैं भवनस्य नाभिः ते ३.१.५५) । नाभि से ही गर्भस्थ शिशु पोषण मिलता है । प्री पर स्थित प्रति चक (इलाम सकियो का संतुलन जय क्रिया से ही होता है ।
१२.पवित्रे स्थों वैष्णव्यौ सवितुर्वः प्रसव उत्सुनाम्यच्छिद्रेण पवित्रेण सूर्यस्य रश्मिभिः । देवीपो अगवो अप्रेपुवों में इममद्य यज्ञं नयताये यज्ञपति सुधानं अज्ञपति देवयुवम् ॥१२॥
इस काण्डका में पात्र–छेदन, झन को पवित्र करने तथा उसे अग्निहोत्र–वणी पर छिड़कने का विधान है
यज्ञार्थं प्रयुक्त आप दोनों (कुशाखण्डों या साधनों) को पवित्रकर्ता वायु एवं सूर्य–रश्मियों से दोषरहित तथा पवित्र किया जाता है । हे दिव्य जल-समूह ! आप अग्रगामी एवं पवित्रता प्रदान करने वालों में श्रेष्ठ हैं। यज्ञकर्ता को आगे बढ़ाएँ और भलीप्रकार यज्ञ को सँभालने वाले याज्ञिक को, देवशक्तियों से युक्त करें ॥१३ ॥
१३.युष्मा इन्द्रोवृणीत वृत्रतूर्ये यूयमिन्द्रमवृणीध्वं वृत्रतूर्ये प्रोक्षिताः स्थ । अग्नये त्वा जुष्टं प्रोक्षाम्यग्नीषोमाभ्यां त्वा जुष्टं प्रोक्षामि । दैव्याय कर्मणे शुन्यध्वं देवयज्यायै यद्वोशुद्धाः पराजनुरिदं वस्तच्छुन्धामि ॥१३॥
यह कण्डिका यज्ञीय संसानों पर जल सिंचन के पूर्व जल को संस्कारित करने, अपकरणों तथा वि को पनि करने के लिए है – यमुर्वेद सता
हेजल’ ! इन्द्रदेव ने वृत्र ( विकारों ) को नष्ट करते समय आपकी मदद ली थीं और आपने सहयोग दिया। था। अग्नि तथा सोम के प्रिय आपको, इम शुद्ध करते हैं । आप शुद्ध हों । (हे यज्ञ उपकरणों ! अशुद्धता के | कारण आप ग्राह्य नहीं हैं, अतः यज्ञीय कर्म तथा देवों की पूजा के लिए हम आपको पवित्र बनाते हैं ॥ ३ ॥
[* ल*रम‘ च हैं । असुर वृत्तियों (वृत्रासुर) का विनाश तभी हो सकता है क्या श्रेष्ठ प्रवृत्तियों में रस आए। इस | क्त्व के शोषन के बिना असुर वृत्तियों नष्ट नहीं होनी । इसलिए इस रूप जल का सहयोग अनिवार्य हैं ।
१४.शर्मास्यवधूत x रक्षोवधूता अरातयो दित्यास्त्वगसि प्रति त्वादितिर्वेत्तु । अद्रिरसि
वानस्पत्यो प्रावास पृथुबुध्नः प्रति त्वादित्यास्त्ववेत्तु ।।१४।।
ह कण्डिका कृष्णाजिन(आसन) और ओली से सम्बन्धित है । इसके द्वारा मृगचर्म ग्रहण करने एवं उस पर अनुग्न रखने की क्रिया सम्पन्न होती है – इस सुखकारक आसन (आधार) से राक्षस (दुष्ट एवं अनुदान वृत्ति वाले हटाये गये हैं । वह पृथ्वों का आवरण है । यह पृथ्वों द्वारा स्वीकृत हो । आप वनस्पतियों से निर्मिन नीव के पत्थर की तरह दृढ़ हों । पृथ्वी । का आवरण (आधार) आपको प्राप्त हो ॥१४ ।।
१५.अमेस्तनूरसि वाचो विसर्जनं देववीतये त्वा गृणामि बृहद्मावासि वानस्पत्यः स इदं देवेभ्यो हविः शमीष्व सुशमि शमीष्व । हविष्कृदेहि हविष्कृदेहि ॥१५॥
प्रस्तुत कण्डिका झारा ओखली में हव , कुटने, मूल धारण करने आदि क्रियाओं को सम्पन्न करने का विधान हैं | (हविष्यान्न के प्रति कथनों आपका, वाणी (मंत्रों के साथ विसर्जित होने वाला शरीर अग्नि का बाह्य आवरण है । (मूसल के प्रति सुदृढ़ पत्थर के समान वनस्पतियों से निर्मित, दैवी शक्तियों की कीर्ति बढ़ाने के उद्देश्य से हम आपको ग्रहण करते हैं । अतः देव प्रयोजन के लिए इस विध्यान्न को उत्तम ढुंग से पवित्र बनाकर हमें प्रदान करें । | हैं हविष्यात्र को तैयार करने वाले (मूसल) ! आप पधारें ॥१५ ॥
१६.कुक्कुटोसि मधुजिह्वः इषमूर्जमावद त्वया वयसंघात संघातं जेष्म वर्षवृद्धमसि
प्रति त्वा वर्षवृद्धं वेत्तु परापूत ४% रक्षः परापूताः अरातयोपहत – रक्षो वायु | विविक्तु देवो वः सविता हिरण्यपाणिः प्रतिगृभ्णात्वच्छिद्रेण पाणिना ।।१६।।।
यह कण्डिका शम्या (यज्ञ उपकरण) , शूर्प (यज्ञ उपकरण) एवं विष्यान्न को लक्ष्य करके कहीं गयी है । इसके द्वारा | हविष्यान्न को छूने साफ करने की क्रिया का विधान हैं
ॐ शम्ये ! आप कुक्कुट (सदृश असुरों को खोजकर मारने वाले और देवताओं के प्रति मधुर वाणी | बोलनेवाले होने से मधुजह हैं। आप अन्न एवं बल प्रदायक ध्वनि करें । आपके सहयोग से हम संघात (संघर्ष) में पशुओं पर विजय प्राप्त करें । (हे शूर्प और हविष्यान्न !) आप वर्षा से (प्रतिवर्षी बढ़ने वाले हैं। (शूर्प जिस सरकण्डे की सींक से बनता है, वह तथा हविष्यान्न रूप वनस्पतियों वर्षा से बढ़ती हैं । वर्षा को बढ़ाने वाला (यज्ञ) आप को स्वीकारे । राक्षसी एवं अनुदार तत्त्व हटा दिए गये हैं—नष्ट हो गये हैं, अब वायु आपको शुद्ध करे | और सविता देवता (जिसमें से गिर न सके–ऐसे) स्वर्णिम हाथों से आपको धारण करें ॥ ६ ॥
[वियों ने वृक्ष–वनस्पत्यादि के अंकुरण एवं विकास में वायु अन तथा प्रकाश (सूर्य रिश्म) के सहयोग की बात बत पहले ही ज्ञान सी वी, जिसे मस्पति विज्ञानी फोटोसिन्थेसिस की क्रिया कहते हैं ।
१७. श्रृष्टिरस्यपाग्ने अग्निमामादं जहि निष्क्रव्याद सेधा देवयज्ञं वह । ध्रुवमसि पृथिवीं दृ है ब्रह्मवन त्या क्षत्रवन सजातवन्युपदधामि भ्रातृव्यस्य चधाय ।।१७।।
यह कण्डिका उपयेव(अग्निधारण करने वाला विशेष काष्ठ पात्र) एवं अमि के प्रति हैं। इसके साञ्च उपवेष–पात्र धारण करने एवं उसमें गार्हपत्य–अनि के अंगारों को अलग करने की क्रिया होती है
अञ्चमोऽध्यायः
हे उपवेध ! आप दृढ़ हैं । कच्चे पदार्थों को पकाने वालो(लौकिक) अग्नि और मांस जलाने वाली(चिताग्नि) | का निषेध करें और देवपूजन योग्य गार्हपत्य अग्नि को धारण करें । हे यज्ञाग्ने ! आप पृथ्वी को दृढ़ करके कपाल (पात्र) में स्थिर रहें । ब्राह्मणों (ज्ञानी ज्ञानों ), क्षत्रियों (शौर्यवानों) एवं सज्ञातियों (तेजस्वी नागरिकों ) का हित करने वाले आपको, हम शत्रु (पापवृत्तियों) के विनाश के लिए धारण करते हैं ॥१७ ।। |
१८, अग्ने ब्रह्म गृणीष्व धरुणमस्यन्तरिक्षं ६ ४ है ब्रह्मवनि त्वा क्षत्रर्वान
सजातवन्युपदधामि भ्रातृव्यस्य वधाय । धन॑मसि दिवं दृ छह ब्रह्मवनि त्वा क्षत्रवनि | सज्ञातवन्युपदधामि भ्रातृव्यस्य वधाय । विश्वाभ्यस्त्वाशीभ्यः उपदयामि चितः
स्थोर्ध्वचितो भृगूणामङ्गिरसां तपसा तप्यध्वम् ।।१८ ॥
इस कण्डिका द्वारा गार्हपत्य अन को स्थापित करने एवं उसको कपालों (पात्रों से उकने की क्रिया सम्पन्न होती हैं
ज्ञानीज़न, शौर्यवानों तथा मानव जाति की उन्नति में सहयोग जनों का हित करने वाले हैं अग्निदेव ! आप ज्ञान को धारण करने वाले (धारक हैं । घुलो तथा अन्तरिक्ष को दृढ़ करके, बलशाली (सामर्थ्ययुक्त) करे । ब्राह्मण, क्षत्रिय तथा सजातियों को आष चेतना देने वाले हैं । अतः आपको अपने निकट स्थापित करते हैं । (कपालों के प्रति) भृगु और ऑगस् के तप (रूग अग्नि) से तेजस्वी बनकर हमें ऊर्ध्वगामी चेतना प्रदान करें ।
१९. शर्मास्यवधूत x रक्षोवधूता अरातयो दित्यास्त्वर्गास प्रति त्वादितिर्वेत्तु । धिषणासि | पर्वती प्रति चादित्यास्त्ववेत्त दिवः स्कम्भनरसिधिषणासि पार्वतेची प्रति वा पर्वती वेत्।।
यहाँ यज्ञार्थ मृगचर्म, स पर स्थापित वनौषधियाँ तैयार करने ताले शिलारखण्ड एवं दोनों के बीच में स्थित शाम (लोहे का घेरा) को स्थापित करने की क्रिया सम्पन्न करने का विधान हैं – | इस सुखकारक आधार मृगचर्म से राक्षस एवं अनुदार वृत्ति वाले हटाये गये हैं । यह पृथ्वी का आवरण | है। यह पृश्यों द्वारा स्वीकृत हो । आप पर्वत से उत्पन्न हुई कर्मशक्ति (यज्ञीय पदार्थ तैयार करने वाली) हैं । पृथ्वी के आवरण अपने आधार से परिचित रहें। जिस तरह अन्तरिक्ष में लोक को धारण किया है, उसी प्रकार | शिलाखण्ड को धारण करने वाली आप उसे (शिलाखण्ड को) जानें (सँभालें। आप उस पर्वतपुत्री को कर्मशक्ति देने वाली हैं ॥ १६ ॥
उक्त वर्णन–मृगचर्म इस पर स्थित शिलाखण्ड तथा दोनों के बीच स्थित ‘शाम‘ के अन्दर का पोला भाग–ब्रह्माण्ड की स्थिति का परिचायक हैं – मृगचर्म पृथ्वी, शिलाखण्ड घुस्नोक तथा बीच की शाम का पोत्ना माग अन्तरिक्ष का द्योतक है।
२०. धान्यमसि विनुहि देवान् प्राणाय त्वोदानाय वा व्यानाय त्वा । दीर्धामनु प्रसितिमायुषे धां देवो वः सविता हिरण्यपाणिः प्रतिगृभ्णात्वच्छिद्रेण पाणिना चक्षुषे त्या महीनां पयोसि ।।२०।।।
प्रस्तुत कण्डिका में शिला पर चावल्न रखने, पिए (पिसे हुए चावलों) को मृगचर्य पर गिराने तथा उसमें मृत मिलाने की | क्रिया सम्पन्न करने का विधान है
है हविष्यान्न ! आप देवगणों को तुष्ट करें । प्राण, उद्यान, व्यान आदि प्राणों के संवर्धन एवं पात्रता से (मृगचर्म के ऊपर) आपको धारण करते हैं । आप पृथ्वी के ‘पय’ (दूध-घों की तरह पोषक) हैं । सविता देव आपको छिद्रहित स्वर्णमय हाथों (निर्दोघ–सुनहली किरणों) से धारण करें ॥२० ।।
२१. देवस्य त्या सवितुः प्रसवेश्विनोबहुभ्यां पूष्णो हस्ताभ्याम् । सं वपामि समाप
ओषधीभिः समोषधयों रसेन । सts रेवतीर्जगतीभिः पृच्यन्ता असं मधुमतीर्मधुमतीभिः पृच्यन्ताम् ।।२१ ।।
यह काम में सेवन योग्य ओषधयों के प्रति है । इसके साथ पवित्र जल में पिसे चालों को झलने तथा आनी | मारा उपसर्जनीं जाने की क्रिया सम्पन्न होती है –
सविता द्वारा उत्पन्न प्रकाश में अश्विनीदेव (रोग निवारक देव शक्तियों) को बाहुओं एवं पोषणकर्ता (पूषा देव शक्तियों के हाथों से आपको विस्तार दिया जाता हैं । औषधियों को जल प्राप्त हों, वे रस से पुष्ट हो । गुण–सम्पन्न ओषधियाँ प्रवहमान जल से मिलें । मधुरता युक्त तत्त्व परस्पर मिल जाएं ॥२१ ।।
२२. जनयत्यै त्वा संयौमीदमग्नेदिमग्नीषोमयोरिषे वा घर्मोसि विश्वायुरुरुप्रथाऽउरु प्रथस्वोरु ते यज्ञपति:प्रथतामग्निष्टे त्वचं मा हि सोद्देवस्त्वा सविता अपयतु वर्षिष्ठेधि नाके।
यह कण्डिका पुरोझश के प्रति है । इसके साथ पुरोझश को पकाने की क्रिया सम्पन्न काने का विधान है याजों में उत्पादक क्षमता और पूर्णायुष्य की वृद्धि के लिए शुम्हें (जल और पिसे हुए चावल को) संयुक्त करते हैं । यह प्रयोग अग्नि के लिए अग्नि-सौम के लिए हैं । (हे पाश !] आप विस्तार- क्षमता से मुक्त हो, विस्तृत बनें, जिससे यज्ञ-कर्ताओं के यश का विस्तार हो । अग्निदेव आपको क्षति न पहुँचाएँ, सवितादेव आपको देवलोक की अग्नि से परिपक्व करें (पकाएँ) ॥ ३३ ॥
२३. मा भेर्मा संविक्था अतमेरुर्यज्ञोतमेरुर्यजमानस्य प्रज्ञा भूयात् त्रिताय त्वा द्वितीय | चैकताय चा ॥२३॥
यह कष्का यज्ञ में पकने वाले पुरोश एवं यज्ञकर्ताओं के प्रति समानरूप में प्रयुक्त है
भयभीत मत होओं, पीछे मत हो । जित (तीन), द्वित (दो) अधवा एकत्र (एक) किसी के लिए भी किया गया यज्ञ कर्म क्लेश हित होता है। यज्ञकर्ताओं की प्रज्ञा (संतांन–आश्रित जन) क्लेश रहित हों ।।३३ ।।
[जित–अर्थात् आचार्य, यजमान एवं ह्या अथवा पृथ्वी, अंतरिक्ष एवं झुलाक। द्वित अर्थात् आचार्य एवं यजमान अथवा प्रय एवं अंतरिक्ष । एका अर्थात् कुल जमन अथवा केवल पृ।। |
२४, देवस्य त्वा सवितुः प्रसयेश्विनोर्बाहुभ्यां पूष्णो हस्ताभ्याम् । आददेवरकृतं देवेभ्यः इन्द्रस्य बाहुसि दक्षिणः सहस्रभृष्टि: शतनेजा वायुरसि तिग्मतेजा द्विषतोवधः ॥२४॥
(हें स्फ्य! सर्जनकर्ता परमात्मा की सृष्टि में अश्विनीदेवों की बाहुओं तथा पूषादेव के हाथों से; अर्थात् देबों को तृप्त करने वाले यज्ञ कर्म के निमित्त हम आपको धारण करते हैं । आप इद्र (व्यवस्थापक देव सत्ता) के दाहिने हाव(की तरह सम्मानित हैं । हजारों विकारों को जला देने वाले, अत्यधिक प्रकाशमान, तीक्ष्ण–तेजयुक्त अग्नि को प्रदीप्त करने वाले वायु के समान आपकी क्षमता हैं । आप यज्ञ में बाधा पहुँचाने बालों को नष्ट करने में समर्थ हैं। २५.पृथिवि देवयजन्योषध्यास्ते मूलं मा हिङ सिषं व्रजं गच्छ गोष्ठानं वर्षतु ते द्यौर्बधान देव सवितः परमस्यां पृथिव्या शतेन पाशैयस्मान्द्वेष्टि यं च वयं द्विष्मस्तमतो मा मौक् ॥
वेदों या कुछ केयू–संस्कार‘ के संदर्भ में यह कण्डिका हैं – हे पृथिव ! आप पर देवों के लिए हवन किया जा रहा है ।(भूमि के उपचार की प्रक्रिया में ) आप पर उगनें वाली औषधियों के मूल को हमारे द्वारा क्षति न पहुँचे । (निकाली गर्थी) हे मृत्तिके ! आप गौओं के निवास स्थान में जाएँ । धुलोक आप पर यथेष्ट वर्षा करे । हे सर्जनकर्ता सवितादेव ! जो दुष्ट, हम सभी को कष्ट पहुँचाता है, जिससे सभी द्वेष करते हैं, उसे विशाल पृथिवीं में अपने सैकड़ों बन्धनों से बाँध दें; उसे कभी मुक्त न करें ॥२५॥ २६. अपारकं पृथिव्यै देवयजनाद्वध्यासं वाजं गच्छ गोष्ठानं वर्षतु ते द्यौर्बधान देव सवितः
रमस्यां पृथिव्या शतेन पाशैयस्मान्द्वेष्टि यं च वयं द्विष्मस्तमतो मा मौक् । अररो दिवे | मी पप्तो इप्सस्ते द्यां मा स्कन् सज्जं गच्छ गोष्ठानं वर्षतु ते द्यौर्बधान देव सवितः परमस्यां
पृथिव्या शतेन पाशैयस्मान्द्वेष्टि यं च वयं द्विष्मस्तमतो मा मौ ॥२६ ।।
प्रवमोऽध्यायः
यह कपिएका विभिन्न दिशाओं के ‘भू–उपचार‘ क्रम का संकेत करती है | हमने दुष्ट अररु को यहाँ से निष्कासित कर दिया है । हे विस्थापित मिट्टी ! तुम गौओं के निवास स्थान पर जाओ । द्युलोक आप पर वर्षा करें । हे सर्जनकर्ता देव ! आप द्वेष करने वालों को सैकड़ों फंदों से बाँध दें; ताकि वे कभी छूट न पाएँ ।।३६ ।।
अरु का शाब्दिक अर्थ –शत्रु, अस्त्र भेद, कोई राक्षस-“शब्द कल्पद्रुम” |
२७. गायत्रेण त्वा छन्दसा परिंगृह्णामि त्रैएभेन त्वा छन्दसा परगृह्णामि जागतेन त्वा छन्दसा परिगृणामि । सुक्ष्मा चासि शिवा चासि स्योना चासि सुषदा चास्यूर्जस्वती चासि पयस्वती च ।।२७ ।।
प्रस्तुत कण्ड्रका द्वारा यज्ञवेदी पर स्फ्य पात्र से ३ रेखाएँ खीचने की क्रिया सम्पन्न होती हैं – | हें यज्ञ वेदिके ! हम गायत्री छन्द, त्रिष्टुप् छन्द एवं जगतो छन्द वाले मंत्रों से आपको प्राप्त करते (बनाने) हैं । आप कल्याणकारिणी, आनन्ददायिनी, पोषक-खाद्य एवं पेय से युक्त बैठने के लिए श्रेष्ठ स्थान देने वाली और सुन्दर भूभाग हैं ॥ २७ ॥
२८. पुरा क्रूरस्य विसृप विरप्शिनुदादाय पृथिवीं जीवदानुम् । यामैरर्यंश्चन्द्रमसि स्त्रधाभिस्तामु धीरासो अनुदिश्य यजन्ते । प्रोक्षणीरासादय द्विषतो वधोसि ॥२८॥
इस कण्डिका द्वारा सामग्री को शुद्ध काने, प्रोक्षणी पत्र को स्थापित करने एवं स्फ्य प्राप्त को स्पर्श करने की क्रिया सम्पन्न होती हैं –
हे विष्णो (विज्ञानवेत्ता ईश्वर) ! बौर पुरुष क्रुर युद्धों के लिए अपना सर्वस्व होमें, इसके पहले ही विवेकवान् उन (शक्ति–साधनों ) को यज्ञ के लिए प्रयुक्त करते हैं; मानों वे स्वधा (स्वयं धारण करने में समर्थ) शक्तियों के माध्यम से भूमि को चन्द्रमा की ओर प्रेरित करते हैं । विज्ञानवेत्ता साधको ! पवित्र करने वाले यज्ञपात्र (प्रोक्षणी | आदि) को समय खो (यज्ञ उपकरणों को लक्ष्य करके कहते हैं । तुम द्वेषकर्ताओं (वृत्तियों) के विनाशक हो ।
१. प्राचीन आरमान है कि देवासुर संग्राम के पूर्व देवों ने पृथ्वी का सार भाग क्मा में स्थापित किया, ताकि अवसर पड़ने पर वह यज्ञ करक शक्ति अत कर सके । ३. यह पक पुची के अंश में चन्द्रमा की उत्पनिक वैज्ञानिक मान्यतापुञ्जी का अपग्रह चन्द्रमा) के अनुरूप है ।। |
२९. प्रत्युष्ट छु रक्षः प्रत्युष्टाः अरातयो निष्ट्रप्त रक्षों निष्टप्ता अरातयः । अनिशितोसि
सपत्नक्षिद्वाजिनं वा वाजेध्यायें सम्मानिं । प्रत्युष्ट ४s रक्षः प्रत्युष्टाः अरातयो निष्टत रक्षो निष्टप्ता अरातयः । अनिशितासि सपत्नक्षिद्वाजिनी वा वाजेध्यायै सम्मार्थि ।।
इस कण्डिका द्वारा युवा एवं खुची को थोकर अग्नि पर तपाने व विकाररहित करने की क्रिया सम्पन्न होनी है –
राक्षसी एवं अनुदार वृन वाले जलकर नष्ट हो गये हैं, अतः हम (याजकगण व्यापक क्षेत्र में यज्ञाचे प्रविष्ट होते हैं । तुम पैने न होने पर भी शत्रु का नाश करने में समर्थ हो । तुम अन्न देने में (यज्ञ के माध्यम से समर्थ हो । तुम्हें अन्न-बल प्राप्ति के लिए पवित्र करते हैं ॥२६॥
३०. अदित्यै रास्नासि विष्णोर्वेप्पोस्यूर्जे त्वादव्येन त्वा चक्षुषावपश्यामि । अग्नेजिल्लास सुहृदेवेभ्यो धाम्ने धाम्ने में भव यजुषे यजुषे ।।३० ॥
इस कण्डिका में घी को नपाने हुए कहा गया हैं | तुम पृथ्वी के रस (सारतत्त्व हो । तुम अग्नि की जिह्वा (अग्नि में लपटें उठाने वाले) हो । हमारे प्रत्येक यज्ञ | मैं तथा घर–घर में देवों का आवाहन करने वाले बनो । तुम सर्वव्यापी परमात्मा के निवास स्थल हो । हम अपलक | दृष्टि से अन्न और बल की प्राप्ति के लिए तुम्हें देखते हैं ॥३८ ।।
३१. सवितुर प्रसव उत्पुनाम्यच्छिद्रेण पवित्रेण सूर्यस्य रश्मिभिः । सवितुर्वः प्रसव
उत्पुनाम्यच्छिद्रण पवित्रेण सूर्यस्य रश्मिभिः। तेजोसि शुक्रमस्यमृतमसि धाम नामासि प्रियं देवानामनाधृष्टं देवयजनमसि ॥३१॥
इस कष्किा के द्वारा आज्य एवं प्रोक्षणी–पात्र के क्लस के शोधन की क्रिया सम्पन्न होती हैं – | हम याजक सबितादेव की प्रेरणा से, तेजस्वी सूर्य रश्मियों के माध्यम से, तुम्हें शुद्ध करते हैं । तुम तेज़रूप हो, प्रकाशरूप हो, अमृतरूप हो, दिव्य आवास हों तथा किसी दबाव में न रहने वाले देवताओं के प्रिय, यज्ञ के साधनरूप हो ॥३१ ।।
– ऋषि, देवता, छन्द-विवरण ऋथि – परमेष्ठीं प्रजापति अथवा देवगण प्रजापति १-२३५५, २५-३१ । अघशंस २८ ।
देवता – शाखा, वायु, इन्द्र १ । वायु, उल्ला ३ । वायु, पय, प्रश्न ३ । गौ, इन्द्र, पय ४ । अग्नि ५, १८ ।। प्रजापति, मुक्, शूर्प ६ । राक्षस, ब्रह्म राक्षसघाती ७ । धू (जुआ), अन (प्राणवायु ८ । अन (प्राणवायु), हवि, रक्ष (राक्षस) १ । सविता, लिगक्त देवता १ । हुवि, सूर्य, गृह ११ । लिगोक्त, आपः (जल) १२ । आगः, लिंग, पात्र समूह १३ । कृष्णाजिन, राक्षस, उलूखल १४ । हदि, मुसल, वाक्, पत्नी १५ । वाक्, शूर्प, वि, राक्षस, तण्डुल (चावल) १६ । उपवेष, अग्नि, कपाल १७ । अग्नि १८ । कृष्णाजिन, दृषत्, शम्या, पल १९ । हवि, आज्य ३० | सविता, वि, आपः (जल) २१ । हवि, आज्य, पुरोडाश २२ । पुरोडाश, वित, द्वित, एकत २३ । सविता, स्य २४
वेदिका, पुरोष (पूरक), सविता २५ । असुर, वेदिका २६ । विष्णु, वेदिका २७ । चन्द्रमा, प्रेष(निर्देश), आभिचारिक २८ । राक्षस, सुच, लुक् २१ । योक्त्र (जुआ बाँधने की रस्सी), आज्य ३० । आपः, आज्य ३१ ।।
छन्द – स्वराद् बृहती, ब्राह्मी उष्णिक् १ ॥ स्वराट् आर्मी त्रिष्टुप् २ । भुरिक जगतीं ३ । अनुष्टुप् ४ । आच त्रिष्टुप् ५ । आची पंक्ति ६ । प्राजापत्या जगत ७ । निवृत् अतिजगती ८ । निवृत् बिष्टुप् ६ । भुरिंकु बृहत्ती १० । स्वराद् जगती ११, १४ । भुरिक अत्यष्टि १२ । निवृत् उष्णिक, भुरिक आच गायत्री, भुरिक अष्णिक १३।। निवृत् जगती, याजुषी पंक्ति १५ । स्वराट् ब्राह्मी त्रिष्टुए, बिराट् गायत्री १६ । निवृत् ब्राह्मी पंक्ति १७ । बाह्य उष्णकु, आर्ची निंष्ट्रप, आर्ची पंक्ति १८ । निवृत् बाह्य बिष्टुप् १९ । विराट् ब्राह्मी त्रिष्टुप् २०, २५ । गायत्री, निवृत् पंक्ति २१ ॥भुरिक विधुषु, गायत्री २३ । बृहती २३ । स्वराट् ब्राह्मी पंक्ति २४ । स्वराद् ब्राह्मी पंक्ति, भुरिक् ब्राह्मीं पंक्ति २६ । बाह्यीं त्रिष्टुम् २७ । विराट् ब्राह्मी पंक्ति २८ । त्रिष्टुप् , त्रिष्टुप् २९ । निवृत् जगती, ३० । जगतीं अनुष्ट ३१ ।
॥ इति प्रथमोऽध्यायः ॥
॥ अथ द्वितीयोऽध्यायः ॥ ३२. कृष्णस्याखरेष्ठोग्नये त्वा जुष्टं प्रोक्षामि वेदिसि बर्हिषे त्वा जुष्टां प्रोक्षामि बर्हिरसि सुग्भ्यस्त्वा जुष्टं प्रोक्षामि ।।१ ।।
यज्ञीय उपकरणों एवं साधनों को संबोधित करके कहा गया है
हे यज्ञीय कार्य में प्रयुक्त होने वाली समिधाओं ! यज्ञ के निमित्त हम आपको पवित्र करते हैं। है यज्ञवेदिके ! | यज्ञ कार्य की सफलता के लिए आपको पवित्र करते हैं । सुचाओ (यज्ञ पाच) के प्रयोग की प्रेरणा देने वाले आधार रूप हे बर्हि (कुशाओ) !हम आपको पवित्र करते हैं ॥ १ ॥
३३. अदित्यै व्युन्दनमसि विष्णोः स्तुपोस्यूर्णम्मदसं त्वा स्तृणामि स्वासस्थां देवेभ्यो भुवपतये स्वाहा भुवनपतये स्वाहा भूतानां पतये स्वाहा ।।२।।
प्रस्तुत कण्डिका द्वारा प्रोक्षण से बचे जल को कुशाओं की जड़ पर डालने की क्रिया सम्पन्न होती हैं
हे यज्ञावशेष जल यज्ञ, पृथ्वी तथा बिबिध औषधिगुण युक्त पदार्थों को आप सींचने वाले हैं। हे स्तूप | आकार (पूले की तरह बँधी) कुशाओ ! देवों के लिए ऊन जैसे कोमल आसन रूप में आपको फैलाते हैं । है। याजको ! आप पृथ्वी के सब लोकों के तथा प्राणिमात्र के पालनकर्ता के लिए सर्वस्व समर्पण करें ।।२।।
३४. गन्धर्वस्त्वा विश्वावसुः परिदधातु विश्वस्यारिष्ट्यै यजमानस्य परिधिरस्यग्निरिड़ ईडितः । इन्द्रस्य बाहुरसि दक्षिणो विश्वस्यारिष्टचे यजमानस्य परिधिरस्यग्निरिङ ईडितः । मित्रावरुणौ त्वोत्तरतः परिधत्तां ध्रुवेण धर्मणा विश्वस्यारिष्ट्यै यजमानस्य परिधिरस्यग्निरिड ईडितः ।।३।।
इस कण्डिका में यज्ञ कुण्ड एवं यज्ञशाला की तीन परियियों को लक्ष्य करके कया गया है
संसार के अनिष्ट निवारण के लिए (यज्ञार्थ, अग्नि को स्तुत करते हैं । (प्रथम परिधि) आप याज्ञकों की सुरक्षा करने वाली हैं, विश्वावसु गंधर्व आपको चारों ओर से सँभालें । (दूसरों परिधि) आप याजकों की रक्षक, इन्द्रदेव की दाहिनी भुजा हैं । (तीसरी परिधि) हे यजमानों की रक्षक ! मित्रावरुण (सूर्य एवं वायु) धर्मपूर्वक उत्तम साधनों से आपको धारण करें ।।३।।
३५. वीनिहोत्रं त्वा कवे घुमन्त ः समिधीमहि । अग्ने बृहन्तमध्वरे ।।४।।
भूत–भविष्य के ज्ञाता है क्रान्तदर्शी अग्निदेव ! ऐश्वर्य प्राप्ति की कामना करने वाले तेजस्वी, महान् याजक | यज्ञ में आपको प्रज्वलित करते हैं ॥४॥ |
३६. समिदस सूर्यस्त्वा पुरस्तात् पातु कस्याश्चिदभिशस्त्यै। सवितुर्बाहू स्थऽ ऊर्णम्मदसं त्वा स्तृणामि स्वासस्थं देवेभ्य आत्वा वसवो रुद्राः आदित्याः सदन्तु ।।५।।
इस कण्डका में समिधाओं एवं कशाओं को संबोधित करते हुए कहा गया है
हैं समिधे ! आप अग्नि को प्रदीप्त करने वाली हैं। सविता देवता आपकी रक्षा करें ( सूर्य रश्मियों से । कीटाणु रहित करें ) । हे तृणयुगल ( कुशाद्य ) ! आप दोनों सविता देवता की भुजाएँ हो । ऊन के बने | कमल आसन के रूप में देवताओं के सुखपूर्वक बैठने के लिए आपको फैलाते हैं । वसुगण, मरुद्गण तथा रुद्रगण | आपके ऊपर स्थापित हों ||५ ||
३७. घृताच्यसि जुहूर्नाम्ना सेदं प्रियेण धाम्ना प्रिय सदः आसीद घृताच्यस्युपभृन्नाम्ना सेदं प्रियेण धाम्ना प्रिय ४४ सदः आसीद घृतांच्यसि धुवा नाम्ना सेदं प्रियेण धाम्ना प्रिय
सद आसीद प्रियेण धाम्ना प्रिय सदः आसीद। भुवा असदन्नृतस्य योनौ ता विष्णो पाहि पाहि यज्ञं पाहि यज्ञपति पाहि मां यज्ञन्यम् ॥६॥
यह कपिङका जुहू, उपभृत् ध्रुवा तथा विष्णु को संबोधित करती है | (जुहू के प्रति आपका नाम जुहू हैं । आप अपने प्रिय घृत से पूर्ण होकर-धृत देने वाली होकर इस यज्ञ-स्थल में स्थापित हों । (उपभृत् के प्रति आपका नाम उपभृत् हैं। आप घृत से युक्त होकर अपने प्रिय यज्ञस्थल पर
स्थापित हों ।(धुवा के प्रति आपका नाम धुवा हैं । आप अपने प्रिय घृत द्वारा सिंचित होकर यज्ञ स्थल पर स्थापित | हों । हे यज्ञस्थल पर प्रतिष्ठित विष्णुदेव ! आप यज्ञ-स्थल पर स्थापित सभी साधनों, उपकरणों, यज्ञकर्ताओं एवं हमारी (यज्ञ संचालकों की रक्षा करें ।।६ ॥
३८. अग्ने वाजजिद्वाजं त्वा सरिष्यन्तं वाजजित सम्मामि । नमो देवेभ्यः स्वथा पितृभ्यः सुयमे में भूयास्तम् ।।७।।
अन्न प्रदान करने वाले है अग्निदेव ! अन्न प्राप्ति के माध्यम तथा पुरुषार्थी आपका शोधन करते हैं। देवों एवं पितरों को अन्न देकर (सहायता प्राप्ति हेतु नमन करते हैं। आप हमारे लिए सहायक सिद्ध हों ।।७।।
३९. अस्कन्नमद्य देवेभ्यऽआज्य संसियासमन्त्रिणा विष्णो मा त्वावक्रमिषं वसुमतीमग्ने ते छायामुपस्थेचे विष्णोः स्थानमसीत इन्द्रो वीर्यमकृणोद्ध्वम्वर
आस्थात् ॥८॥
है यज्ञाग्ने ! यज्ञस्थल को हम अपने पैरों से अपवित्र नहीं करेंगे । देवों को समर्पित करने के लिए आज हम पवित्र घृत लाये हैं । हे अग्निदेव ! इन्द्रदेव ने अपने पराक्रम से यज्ञ को उन्नत किया था। यज्ञस्थल में स्थित, अन्न प्रदान करने वाले (हम याजकगण) आपके सान्निध्य में सर्वदा रहें ।।८ ।।
४०. अग्ने वेहोंत्रं वेद॑त्यमवर्ता व द्यावापृथिवी अव त्वं द्यावापृथिवी स्विष्टकृदेवेभ्यः इन्द्र आज्येन हविषा भूत्स्वाहा से ज्योतिषा ज्योतिः ।।९।।
हे अग्निदेव ! हवन कार्य की विधि-व्यवस्था को आप भली-भाँति ज्ञानते हैं। आप ही दैवी-शक्तियों तक हवि भाग पहुँचाते हैं। द्युलोक तथा पृथ्वीलोक की आप रक्षा करें । देवों सहित इन्द्र, हमारे घृतरूपी हवि से सन्तुष्ट हों । ज्योति से ज्योति का एकीकरण हो ॥१॥ |
[यज्ञीय ऊर्जा चक्र पृथ्वी और अतरिय का सतुलन माये और सन्तुलित प्रकृति इस यज्ञीय ऊर्जा चक्र को सुरक्षित खे– यह भाव हैं ।].
४१. मयीदमिन्द्रः इन्द्रियं दधात्वस्मान् राघों मघवानः सचन्ताम् । अस्माक सन्त्वाशिषः सत्या नः सन्त्वाशिष उपहूता पृथिवी मातोपमां पृथिवी माता हृयता मग्निराग्नीमात्स्वाहा ॥१०॥
हे इन्द्रदेव ! हमारी मनोकामनाएँ पूरी हों, हम सभी ऐश्वर्यों से युक्त हों । हम पराक्रमी हों । हमारी इच्छा सत्य फल वाली हौं । यह माता के समान पृथ्वी, जिसको हमने स्तुति की हैं; हमें यज्ञाग्नि प्रदीप्त करने वाला होने | से (अग्नि सदृश) तेजस्वी बनाकर ( लोकहित के लिए समर्पित होने की अनुमति दे ॥१० ॥
द्वितीयोऽध्यायः
४२. उपहूतो द्यौष्पितोप मां द्यौष्पिता हृयतामग्निराग्नीध्रात्स्वाहा । देवस्य त्वा सवितुः प्रसवेश्विनोबहुभ्यां पूष्णो हस्ताभ्याम् । प्रतिगृह्णाम्यम्नेष्ट्ङ्खास्येन प्राश्नामि ॥११॥
झुलॉक के पालनकर्ता सवितादेव को हमने (अध्वर्य ने] स्तुति की है। अत: वालोंक के प्रभु यन्नावशेष को ग्रहण करने की अनुमति दें । अग्नि की अनुकूलता से हम यज्ञावशेष को ग्रहण करते हैं। यह आहुति रूप (यज्ञावशेष) उन्नति करने वाला हो । सविता देव की प्रेरणा से, अश्विनीकुमारों की बाहुओं तथा पृषादेव के दोनों हाथों की मदद से इस यज्ञावशेष (अन्न) को हम ग्रहण करते हैं । अग्नि के मुख से (अग्नि द्वारा वायुभूत हुए हुविष्यान्न का) हम भक्षण करते हैं ॥११ ।।
[विज्ञान यह मानने लगा है कि वायुभूत भूषण तथा वायुत पोषक तत्व हमारे शरीर में प्रविष्ट होकर हमें प्रभावित करते हैं ।।।
४३. एतन्ते देव सवितर्यज्ञ प्राहुबृहस्पतये ब्रह्मणे । तेन यज्ञमव तेन यज्ञपत्ति तेन मामव ।।१२
हैं सृष्टिकर्ता सविताव ! यजमानगण आपके निमित्त यह यज्ञानुष्ठान कर रहे हैं । अतः आप इस यज्ञ की, यजमान को तथा इमारी (यज्ञ–संचालकों की रक्षा करें 1॥१३ ।।
४४. मनो जूतिर्जुषत्तामाज्यस्य बृहस्पतिर्यज्ञमिमं तनोत्वरि यज्ञसमिमं दधातु । विश्वे देवास इह मादयन्तामो३प्रतिष्ठ ।।१३।।
हे सवितादेव ! आपका वेगवान् मन आज्य (घृता का सेवन करे । बृहस्पतिदेव इस यज्ञ को, अनिष्ट्रहित | करके इसका विस्तार करें–इसे धारण करें । सभी दैवी शक्तियों प्रतिष्ठित होकर आनन्दत हों–संतुष्ट हों । (सविता
देव की ओर से कथन) तथास्तु-प्रतिष्ठित हों ।।१३।। | ४५. एषा ते अग्ने समित्तया वर्धस्व चाच प्यायस्व । वर्धिषीमहि च वयमा च प्यासिधीमहि ।
अग्ने वाजजिद्वाजं त्वा ससूवा सं वाजजित ४ सम्मामि ॥१४॥
अग्निदेव ! आपको प्रज्वलित करने के लिए यह समिधा है । इम ( याजक) आपको प्रदीप्त करते हुए स्वयं भी समृद्धि की कामना करते हैं । हे अन्न के उत्पादक अग्निदेव ! हम आपका मार्जन (जलाभिषिचना करते हैं ॥१४ ॥
४६. अग्नीषोमयोरुजितमनूज्जेषं वाजस्य मा प्रसवेन प्रोहामि । अग्नीषोमो तमपनुदां योस्मान्छेष्टि यं च वयं द्विष्मो वाजस्यैनं प्रसवेनापोहामि । इन्द्राग्न्योरुजितमनूज्जेषं वाजस्य | मा प्रसवेन प्रोहामि। इन्द्राग्नी तमपनुदतां योस्मान्धेष्टि यं च वयं द्विमों वाजस्यैनं
प्रसवेनापहामि ॥१५॥ |
(यज्ञ से प्राप्त पोषण रूप) अन्न से प्रेरित होकर हम वैसी ही विजय प्राप्त करने के लिए तत्पर हुए हैं, जैसी विजय सोम और अग्निदेव ने प्राप्त की हैं। जो हमसे इंध रखते हैं एवं जिनसे हम सभी द्वेष रखते हैं, उन्हें अग्नि और सोम दूर हटा दें । अन्न से प्रेरित हुए हम वैसी ही विजय के लिए तत्पर हैं, जैसी विजय इन्द्र और अग्निदेवों ने प्राप्त की है। जो हमसे द्वेष करने वाले हैं तथा जिनसे हम द्वेष करते हैं, उन्हें इन्द्र एवं अग्निदेव दूर हटा दें । हम हविष्यान्न की प्रेरणा से शत्रुओं को दूर करते हैं ॥१५ ॥
४७. वसुभ्यस्त्वा रुद्रेभ्यस्वादित्येभ्यस्त्वा संज्ञानाथां द्यावापृथिवी मित्रावरुणौ त्वा वृष्ट्यावताम् । व्यन्तु वयोक्त छ रिहाणा मरुतां पृषतर्गच्छ चशा पृश्निर्भूत्वा दिवं गच्छ ततो नो वृष्टिमावह । चक्षमा ३ अग्नेसि चक्ष पाहि ।।१६।।।
तीन परिधियाँ क्रमश: वसु को, रुद्र को और आदित्य को समर्पित की जाती हैं। इस तथ्य को चुलोंक और पृथ्वीलोक की शक्तियाँ जानें । मित्रावरुण वर्षा से उनकी रक्षा करें । घृतयुक्त हव्य का स्वाद लेते हुए पक्षी (यज्ञीय
ऊर्जा) मरुतों का अनुगमन करते हुए स्वाधीन किरणों में परिवर्तित होकर द्युलोक में पहुँचें । वहाँ से वर्षा लेकर | आएँ । हे यज्ञाग्ने ! आप नेत्रों के रक्षक हैं, हमारे नेत्रों की रक्षा करें ॥१६॥
[यज्ञीय ऊर्जा से प्रकृति चक्क (इकॉलॉजिकल–सर्किल) के संतुलन का संकेत इस मंत्र में हैं। |
४८. यं परिधिं पर्यधत्थाः अग्ने देव पणिभिर्गुह्यमानः । तं त एतमनु जोषं भराम्येष
नेत्वपचेतयाता अग्नेः प्रियं पाथोपीतम् ॥१७ ।।
हे अग्निदेव ! आपके द्वारा ‘पण’ नामक शत्रुओं (दस्य व्यापारियों से बचाव के लिए जो परिधि चारों और बनायीं गयी हैं, उसे आपके अनुकूल बनाते हैं, ताकि यह परिधि आपसे दूर न हो । यह प्रिय हुचिध्यान्न आपकों प्राप्त हो ॥१५ ॥
| [* मेन्दपवेतयाता ( वैया ) ॥ |
४९. स स्रवभागा स्थेघा बृहन्तः प्रस्तरेष्ठाः परिधेयाश्च देवाः। इमां वाचमत्रि विश्वे
गृणन्त आसयास्मिन् बर्हिघि मादयश्व स्वाहा वाट् ॥१८॥
हे बिश्वेदेवागण ! आप अपनी परिधि (मर्यादा) के आश्रय में रहें। अपने आसन पर ही मधुर रसमय अन्न-भाग को ग्रहण करके पुष्ट बनें और आनन्दित हों । आप इस घोषणा के अनुरूप कार्य करें ॥१८ ।। ५०. घृताची स्थो धुय पातसुम्ने स्थः सुम्ने मा धत्तम् । यज्ञ नमश्च त उप चे यज्ञस्य | शिवे संतिस्व स्विष्टे में संनिस्व ॥१६॥
यह कटुका ह, उपभृन्, शकटं वाहक तथा यज्ञवेदी को लक्ष्य करके कहीं गयी है
(हे जुहू तथा उपभृत् !) आप दोनों घृत से पूर्ण हों । (हे शकटबाहक !) आप धुरा में नियुक्त (जुहू और उपभृत् को घृत से युक्त हुए लोगों की रक्षा करें । हे यज्ञवेदिके ! यह इविष्यान्न आपके समीप लाया गया है ।
आप सुख स्वरूप हैं । अतः यज्ञार्थ हमारे इष्ट के रूप में हमें सुख प्रदान करते हुए स्थापित हों ॥१९ ॥ ५१, अग्नेदब्यायोशीतम पाहि मा दिद्यः पाहि प्रसत्ये पाहि दुरिष्ट्ये पाहि दुन्या अविषं नः पितुं कृणु। सुषदा योनौ स्वाहा वाडग्नये संवेशपतये स्वाहा सरस्वत्यै यशोभगिन्यै स्वाहा ।।२०।।
हे तेजस्वी आयुष्य (प्रसर बनकर रहने का गुण) प्रदान करनेवाले व्यापक अग्ने ! शत्रु के शस्त्र से तथा उसके जाल से हमारी रक्षा करें, हमें विनाश से बचाएँ । हमें विषैले भोजन से बचाएँ । हमारे अन्न को पवित्र करे । अपने निवास (घर) में सुख और आनन्द में रहने का हमारा मार्ग प्रशस्त करे—यह हमारी प्रार्थना हैं । हमारे सान्निध्य में रहने वाले आप (अग्नि) के लिए यह आइति समर्पित है। यज्ञभगिनी (वाणी) सरस्वती के लिए यह
आहुति समर्पत है ॥३८ ।
५३. वेदोसि येन त्वं देव वेद देवेभ्यो वेदोभवस्तेन माँ वेदो भूयाः । देवा गाविदो गातुं वित्त्वा गातुमित । मनसस्पतऽ इमं देव यज्ञस्वाहा वाते धाः ॥२१ ।।
है वेद ! आप ज्ञान स्वरूप हैं। देवों को ज्ञानवान् बनाने में भाँति हमें भी ज्ञान प्रदान करें । हे मार्गदर्शक देवगणों ! सन्मार्ग को समझकर सत्यमार्ग पर आरूढ़ हों । हे मन के परिपालक प्रभो ! यह अज्ञ आपको सभर्पित
करते हैं, आप इसे वायु के माध्यम से विस्तार प्रदान करें ।।२१ ।।
द्वितीयोऽध्यायः
३.५
५३. संबर्हिरङ्क्ता हविषा घृतेन समादित्यैर्वसुभिः सम्परुद्भिः। समिन्द्रों विश्वदेवेभिरक्तां दिव्यं नभ गच्छतु यत् स्वाहा ॥२२॥
यह कपड़का यज्ञ के समय प्रयुक्त कुशाओं को घृत से सिंचित करने का विधान प्रस्तुत बारती हैं
हे इन्द्रदेव ! इस कुश-समूह को यज्ञार्थ लाये गये घृत से युक्त कर समर्पित करते हैं। इन्हें आदित्यों, वसुओं, | मरुतों तथा सभी देवगणों के साथ दिव्य आकाश में स्थापित करें ॥२२॥
५४, कस्त्वा विमुञ्चति स त्वा विमुञ्चति कस्मै त्वा विमुञ्चति तस्मै त्वा विमुञ्चति । पोषाय | रक्षसां भागसि ।।३।।
यह कण्डका यज्ञ से बचे हुए पदार्थों के लिए है
तुम्हें किसने ओड़ा है? तुम्हें उसने (स्रष्टा ने छोड़ा हैं । तुम्हें किस हेतु छोड़ा गया हैं ? तुम्हें इनके (याजकों और उनके परिजनों के लिए छोड़ा गया है । (जो अवशिष्ट पदार्थ बिखर गया है। वह राक्षसों के भाग रूप में | त्यागा गया हैं ॥२३॥
ईशोपनिषद् (अनु० ४०.१) में तेन त्या भुञ्जीथाः‘ – यज्ञम्प प्रभु द्वारा ड़े गये दावों का भोग कों, का निर्देश | दिया गया है । इस कण्डिका में वहीं भाव स्पष्ट किया गया है ।।
५५. सं वर्चसा पयसा सं तनूभिरगन्महि मनसा स ४४ शिवेन। त्वष्टा सुदन्नौं विदधातु रायोनुमाई तन्बो यद्वलिष्टम् ॥२४ ।।
हमारे शरीर तेजस्विता (वर्च) एवं (पयसा) पोषक तत्वों से युक्त हों । हमारे मन शिवत्वं से युक्त हों । शरीरों में जो भी कम हो, वह पूरी हो जाए। श्रेष्ठदाता त्वष्टा हमें अनेक प्रकार का ऐश्वर्य प्रदान करें ॥२४ ॥
५६. दिवि विष्णुक्र ४ स्त जागतेन छन्दसा ततो निर्भक्तों योस्मान्छेष्टि यं च वयं द्विष्मोन्तरिक्षे विष्णुर्घ्यक्र 8 स्त त्रैष्टमेन छन्दसा ततो निर्भक्तो यस्मान्छेष्टि यं च वयं द्विष्मः पृथिव्यां विष्णुर्व्यक्त छ, स्त गायत्रेण छन्दसा ततो निर्भक्तो यस्मान्छेष्टि यं च वयं द्विष्पोस्मादन्नादस्यै प्रतिष्ठाया अगन्म स्वः सं ज्योतिषाभूम ॥२५॥
| विष्णु (पोषण के देवता-यज्ञ) ने जगतो छन्द से द्युलोक में, त्रिष्टुप् छन्द से अन्तरिक्ष लोक में तथा गायत्री छन्द | में पृथ्वी पर विचक्रामण (परिभ्रमण किया है। इस कारण जो हम सबसे द्वेष करता है और जिससे हम सभी देय करते हैं, उसे द्युलोक अन्तरिक्ष तथा पृथ्वी से समाप्त कर दिया गया है । विम्यान्न के स्थान से पूजा स्थल से ऐसे शत्रुओं को हटा दिया गया है । इस प्रकार स्वर्गधाम कों प्राप्त कर हम तेजस्वी बन गये हैं ॥३५ ।।
५७. स्वयंभूरसि श्रेष्ठो रश्मिर्वचदा 5 असि वर्षों में देहि। सूर्यस्यावृत्तमन्वावतें ॥२६॥
हे सविता देवता ! आप तेजस्वरूप हैं। स्वयं सिद्ध समर्थ हैं। श्रेष्ठ तेज की रश्मियों वाले हैं। अतः । हमें भी तेजस्वी बनाएँ । हम सूर्य के आवर्तन ( संचार / परिक्रमा ) के अनुरूप स्वयं भी आवर्तन (व्यवहार/परिक्रमा करते हैं ॥२६ ।।। ५८.अग्ने गृहपते सुगृहपतिस्त्वयाग्नेहं गृहपतिना भूयाससुगृहपतिस्त्वं मयाग्ने गृहपतिना भूयाः । अस्थूरि गो गार्हपत्यानि सन्तु शत हिमाः सूर्यस्यावृतमन्चावते ॥२७॥
हे गृहपति अग्ने ! आपके गृपालक रूप के सामीप्य से हम श्रेष्ठ गृहस्वामी बने । गृहस्वामी की स्तुति से | आप उत्तम गृहपालक बने । हे अग्निदेव ! हम दाम्पत्य जीवन वा निर्वाह करते हुए सौ वर्ष तक अज्ञकर्म करते रहे ।
हम सूर्य के द्वारा स्थापिन अनुशासन का अनुगमन करें ।।२५५ ।।
। ३.६
५९. अग्ने व्रतपते व्रतमचारिषं तदशकं तन्मेराध दमहं ये ऽएवास्मि सोस्मि ॥२८॥
हे व्रतों के पालक अग्निदेव ! हमने जो नियमों का पालन किया है, इससे हम सामर्थ्यवान् बने हैं। हमारे यज्ञकर्म को आपने सिद्ध किया हैं । यज्ञीय कर्म करते समय हमारी जो भावनाएँ थीं, वहीं अब भी हैं ॥२८ ।।
६७. अग्नये व्यवाहनाय स्वाहा सोमाय पितृमते स्वाहा । अपहताः असुरा रक्षाबंस वेदिषः ॥२९॥
पितरों तक कव्य (पितरों का हव्य) पहुँचाने वाले अग्निदेव के लिए यह आहुति समर्पित हैं । पितरों के सहचर सोमदेव के लिए यह आहुति अर्पित हैं । यज्ञभूमि में विद्यमान आसुरी शक्तियाँ नष्ट हो गई हैं ॥ २९ ॥
६१. ये रूपाणि प्रतिमुञ्चमाना असुराः सन्तः स्वधया चरिन्त । परापुरो निपुरो ये
भरन्त्यग्निष्टल्लोकात्मणुदात्यस्मात् ॥३०॥
(हे कव्यवाहनाग्नि देवता !) जो आसुरी शक्तियों पितरों को समर्पित अन्न का सेवन करने के लिए अनेक रूप बदलकर सूक्ष्म या स्थूलरूप से आती और नीच कर्म करती हैं, उन्हें इस पवित्र स्थान से दूर करें ।।३० ॥
६२. अत्र पितरो मादयध्वं यथाभागमावृषायध्वम् । अमीमदन्त पितरो यथाभाग मामायिषत ।।३१ ।।
हे पितृगण ! जैसे बैल, इच्छित अन्नभाग प्राप्त कर तृप्त होता एवं पुष्ट होता है, वैसे ही आप अपना कव्य | भाग प्राप्तकर चलिष्ठ हों, हर्षित-आनन्दित हों ॥३१ ।।
६३. नमो वः पितरो रसाय नमो वः पितरः शोधाय नमो वः पितरो जीवाय नमो वः पितरः स्वधायै नमो वः पितरो घोराय नमो वः पितरो मन्यवे नमो वः पितरः पितरो नमो वो गृहान्नः पितरों दत्त सतो का पितरो देमैतछः पितरो वास आश्चत्त ॥३२॥
है पितृगण ! आपके रसरूप (वसन्ता, शुष्कता रूप (ग्रीष्म), जीवन रूप (वर्धा), अन्न रूप (शरद पोषणरूप (हेमन्त तथा उत्साह रूप (शिशिर ऋतुओं को नमस्कार है । हे पितरों ! हमारे पास जो कुछ भी है, बस्त्रादि सहित वह सभी समर्पित करते हैं। आप हमें पुत्र-पौत्रादि से युक्त गृह प्रदान करें ॥३३ ॥
६४. आघत्त पितरो गर्भ कुमारं पुकरजम् । यथैह पुरुषसत् ॥३३ ।।
हे पितृगण ! पुष्टिकर पदार्थों से बने शरीर वाले (इस) सुन्दर बालक का पोषण करें, ताकि वह इस पृथ्वी पर वीर पुरुष बन सके ॥३३॥
६५. ऊर्जं वहन्तीरमृतं घृतं पयः कीलालं परिघुतम्। स्वधा स्य तर्पयत में पितृन् ॥३४
हे जलसमूह ! अन्न, घृत, दूध तथा फूलों-फलों में आप रस रूप में विद्यमान हैं। अत: अमृत के समान सेवनीय तथा धारक शक्ति बढ़ाने वाले हैं, इसलिए हमारे पितृगणों को तृप्त करें ॥३४ ।।
– ऋषि, देवता, छन्द–विवरण – अप– परमेष्ठी प्रजापति अथवा देवगण प्रजापति १–३, १४, १५, २० । विश्वावसु ४–१० । विश्वावसु, बृहस्पति आंगिरस ११ । बृहस्पति आंगिरस १२, १३ । परमेष्ठी प्रजापति, कपि १६ । देवल १७ । सोमशुष्म १८ । परमेष्ठी प्रजापति, शूर्प, यवमान, कृषि, उद्गालवान् धानान्तर्वान् १६ । परमेष्ट्री प्रजापति, मनसस्पति २१ । मनसस्पति २२-२८ । प्रजापति २९-३४ ।
देवता– इध्म, लिंगोक्त १ । आपः (जलो, प्रस्तर, वेदिका, अग्नि २ । परिधि (मेखला) ३ । अग्नि ४, १४,१७,२८ । अग्नि, लिगोक्त, विधृती, प्रस्तर ५ । हू, उपभृत् भुवा, वि, विष्णु ६ । अग्नि, देवगण, पितर, मुची
७ | सुची, विष्णु, अग्नि, इन्द्र ८ । इन्द्र, आज्य ९ । आशीर्वाद, पृथिवी १० । द्यौं, सविता, प्राशिव ११ । विश्वेदेवा | १२, १३,१८ । आंग्-सोम, इन्द्राग्नी आदि लिङ्गक्त १५ । परिधि (मेखला, प्रस्तर, अग्नि १६ । सुची, यज्ञ १९ ।
गार्हपत्य, दक्षिणाग्नि, लिंगोक्त ३० । वेद, वात २१ । सिंगोक्त २३ । प्रजापति, राक्षस २३ । त्वष्टा २४ । विष्णु, भाग, भूमि, देवगण, आह्वनीय २५ । सूर्य २६ । गार्हपत्य, सूर्य २७ । देवगण, असुर २९ । कव्यवाहन अमि ३० । पितर ३१, ३३ । लिंगक्त, पितर ३३ । आपः (जल) ३४। ।
छन्द–निवृत्त पंक्ति १ । स्वराट् जगत २ । भुरिक आची त्रिप, भुरिक आर्ची पंक्ति, पंक्ति ३ निघून गायत्री ४,३३ । निवृत् ब्राह्मी बृहती ५ ॥ ब्राह्मी त्रिष्टुप, निवृत् त्रिष्टुप् ६ । बृहती ७, ३१ । विराट् ब्राह्मी पंक्ति ८ । जगतीं १। भुरिक् ब्राह्मी पंक्ति १० । ब्राह्मी बृहती ११ । भुरिक् वृहती १२ । विराट् जगत १३ । अनुष्टुप भुरिक आर्ची गायत्री १४ । ब्राह्मी बृहती, निवृत् तिजगती १५ । भुरिक आर्ची पंक्ति, भुरिक् त्रिष्टुप् १६ । निवृत् जगत १५७ ।
स्वराट् चिंटुप् १८ । भुरिंकू पंक्ति ६९,३० । भुरिक ब्राह्मी विष्टपू ३० । भुरिंकू ब्राह्मी बृहत २१ । विराट् विधु | २२, २४ । निवृन् बृहत २३ । निवृत् आर्ची पंक्ति आर्ची पंक्ति, रिक् जगतौ २५ । उणिक् २६ । चित् पंक्ति,
गायत्री २७ । भुरिक उणिक् २८, ३४ । स्वराट् आर्षी अनुष्टुप् २९ । ब्राह्मी बृहत, स्वराट् बृहत ३२ ।
।
॥ इति द्वितीयोऽध्यायः ॥
॥ अथ तृतीयोऽध्यायः ॥ ६६. समिधाग्नि दुवस्यत घृतैबधयतातिथिम् । आस्मिन् हव्या जुहोतन ॥१॥
(हे अंत्वजों ! आप घृतसिक्त ) समिधा से (यज्ञ में) अग्नि को प्रज्वलित करें । घृत की आहुति प्रदान करके सब कुछ आत्मसात् करने वाले अग्निदेव को प्रदीप्त करें । इसके बाद अग्नि में हविद्वय की आहुतियाँ प्रदान करें ॥ १ ॥ ६७. सुसमद्धाय शोचिषे घृतं तीनं जुहोतन । अग्नये जातवेदसे ॥२॥
(हे ऋत्विजो !) श्रेष्ठ भली-भाँति प्रज्वलित, जाज्वल्यमान, सर्वज्ञ (जातवेद) देदीप्यमान यज्ञाग्नि में शुद्ध पिघले हुए घृत की आहुतियाँ प्रदान करें ।।२ ॥
६८. तं त्वा समिद्भिरङ्गिरों घृतेन वर्धयार्मास । बृहच्छोचा यविष्ठ्य ।।३।।
है (ज्वालाओं से) प्रदीप्त अग्निदेव ! हम आपको घृत (और उससे सिक्त) समिधाओं से उद्दीप्त करते हैं। हैं नित्य तरुण(तेजस्वी) अग्निदेव !(घृत आहति प्राप्त होने के बाद आप ऊँची उठने वाली ज्वालाओं के माध्यम से प्रकाशयुक्त हों ॥३॥
६९. उप वाग्ने हविष्मतीर्घताचीर्यन्तु हर्यत । जुषस्व समिधो मम ।।४ ।।
हे अग्निदेव ! आपकों वि-द्रव्य और घृत-सिक्त समिधा की प्राप्ति (निरन्तर) हो । हे दीप्तिमान् अग्नि देव ! आप हमारे द्वारा समर्पित समिधाओं को स्वीकार करें ॥४॥
७०. भूर्भुवः स्वरिव भूम्ना पृथिवीव वरिंम्णा । तस्यास्ते पृथिवि देवयजन पृष्ठेग्निमन्नादमन्नाद्यायादथे ॥५॥ |
(हे अग्निदेव ! आप भुः (पृथिवीलोक में अग्निरूप), भवः (अन्तरिक्षलोक में विद्यतुरूप) एवं स्वः (द्युलोक में सूर्यरूपों में सर्वत्र विद्यमान है । देवताओं के निमित्त यज्ञ सम्पादन के लिए उत्तम स्थान प्रदान करने वाली हैं। पृथिवि ! हुम देवों को हवि प्रदान करने के लिए आपके ऊपर बनी हुई यज्ञ-वेदी पर अग्निदेव को प्रतिष्ठित करते हैं । (इस अग्निस्थापन के द्वारा) हम (पुत्र-पौत्रादि तथा इष्ट-मित्रों से युक्त होकर) द्युलोक के समान सुविस्तृत तथा (यश, गौरव, ऐश्वर्यादि से) पृथिवी के समान महिमावान् हों || || | |अग्नि क्युित् तथा सूर्य मण्डल में संव्याप्त ऊर्जा की एकरूपता को विज्ञान भी मानने लगा है ।।
७१. आयं गौः पृभिरक्रमीदसदन् मातरं पुरः । पितरं च प्रयन्त्स्वः ॥६ ।।
(त्रिलोक में विचरण करने वाले, (लाल-पील) विविध प्रकार की ज्वालाओं से प्रकाशित, अग्निदेव मे-समूह एवं अन्तरिक्ष लोक में विद्युत्रूप से प्रतिष्ठित हो गये हैं । पृथ्वी माता के पास (यज्ञवेदों में) यज्ञाग्नि रूप में प्रतिष्ठित हुए हैं । इसके बाद (यज्ञरूप में अग्निदेव (ज्वालाओं के द्वारा सूर्य किरण के माध्यम से) द्युलोक पिता के पास पहुँच गये हैं ॥६ ।।
७२. अन्तश्चरति रोचनास्य प्राणादपानती । व्यख्यन् महिषो दिवम् ।।७।। | इस अग्नि का प्रकाशित तेज़ (वायुरूप) प्राण और अपान बाय के माध्यम से सम्पूर्ण प्राणियों में गतिशील रहता है । अत्यधिक सामर्थ्यशाली अग्निदेव (सूर्य के माध्यम से लोक को अलकिन करने । –
तृतीयोऽध्याय
७३. त्रि–शद्धाम विराजति वाक् पतङ्गाय धीयते । प्रति वस्तोरह चुभिः ॥८॥
(निरन्तर मानवीय व्यवहार के लिए यह वाणी (अहोरात्र के तीस मुहर्त या मास के तौंस दिन रूपों) तौस स्थानों पर सुशोभित होती है । सामान्य व्यवहार के दिन और विशेष (यज्ञीय अवसर के दिनों में भी स्तुति रूप) ज्योति से (गार्हपत्य, आहवनीय आदि) अग्नि के लिए (स्तोत्र रूपी) वाणी प्रयोग में लायी जाती हैं ||८ ॥
७४. अग्निज्यौतिज्योतिरग्निः स्वाहा सूयों ज्योतिज्योतिः सूर्यः स्वाहा । अग्निर्वचों ज्योतिर्वचः स्वाहा सूर्योों वर्षों ज्योतिर्वर्चः स्वाहा । ज्योतिः सूर्यः सूय ज्योतिः स्वाहा ॥६॥
अग्नि तेज हैं तथा तेज अग्नि हैं, हम तेजपी अग्नि में हवि देते हैं । सूर्य ज्योति हैं एवं ज्योति सूर्य है, हम ज्योतिरूपी अग्नि में आहुति देते हैं। अग्नि वर्चस् है और ज्योति वर्चस् हैं, हम वर्चस् रूपी अग्नि में हवन करते हैं । सूर्य ब्रह्म तेज़ का रूप है तथा ब्रह्मवर्चस सूर्यरूप है, हम उसमें हवि प्रदान करते हैं । ज्योति ही सूर्य हैं और सूर्य ही ज्योति है, हम उसमें (इस मंत्र से) आहुति समर्पित करते हैं ॥९ ॥
७५. सजूदेवेन सवित्रा सजू राज्येन्द्रवत्या । जुषाणो अग्निवेंतु स्वाहा । सजूदेवेन सवित्रा | सज़रुषसेन्द्रवत्यो । जुषाणः सूर्यो वेतु स्वाहा ॥१०॥
सविता देवता एवं इन्द्रयुक्त रात्रि के साथ रहने वाले अग्निदेव इस आहुति को ग्रहण करें । सवितादेव के साव इन्द्रयुक्त उषा से जुड़े हुए सूर्यदेव को यह आहुति समर्पित है ॥१० ।। |७६. उपप्रयन्तो अध्वरं मन्त्र वोचे माग्नये । आरे अस्मे च शृण्वते ।।११।।
यज्ञ के समीप उपस्थित होते हुए(जीवन में यज्ञीय सिद्धान्तों का समावेश करते हुए हम सुदूर स्थान से भी कथन (भावों को सुनने वाले अग्निदेव के निमित्त स्तुति मंत्र समर्पित करते हैं ॥११ ॥ । [सुनने का अर्थ हैं, वन तरंगों का पाव ग्रहण करना । यहाँ मंत्रों (ध्वनि तरंगों) से अनि (ऊर्जा–क) के प्रभावित
होने का तथ्य प्रकट किया गया है । |
७७. अग्निर्मूर्धा दिवः ककुत्पतिः पृथिव्या अयम् । अपा रेता सि जिन्वति ॥१२॥
| यह अग्निदेव ! (आदित्यरूप में ) द्युलोक के शीर्षरूप सर्वोच्च भाग में विद्यमान होकर, जीवन का संचार करके, धरती का पालन करते हुए, जल में जीवनीशक्ति का संचार करते हैं ॥१३॥
[सौर ऊर्जा से पृशीं पर जीवन संचार के वैज्ञानिक तथ्य का प्रतिपादन इस मंत्र में है । ८. उभा द्वामिन्द्राग्नी आहुवघ्या उभा रायसः सह मादयध्यै । उभा दाताराविघा ४ | रयीणामुभा वाजस्य सातये हुवे वाम् ॥१३॥
ॐ इन्द्राग्नी ! हम आप दोनों का (यज्ञ में) आवाहन करते हैं । आप को (हविष्यान्नरूपी) धन प्रदान करके प्रसन्न करते हैं । आप अन्न एवं धन प्रदान करने वाले हैं । हम अन्न एवं धन-प्राप्ति के लिए आप दोनों को यज्ञ | में आवाहित करते हैं ॥ ३ ॥
७९, अयं ते योनित्वियो यतो जातो अरोचथाः । तं जानन्नग्न आरोहाथा नो | वर्धया रयिम् ॥१४॥
यह ऋचा गार्हपत्यास से उत्पन्न हुए आहनीय अग्नि के विषय में हैं –
हे अग्निदेव ! समयानुसार (प्रातः – मध्याह्न–सायों उस (गार्हपत्य अग्नि को अपना जनक मानते हुए पुनः प्रदीप्त होने के लिए, यज्ञ कार्य के अन्त में उसी (गार्हपत्य अग्नि) में आप पुनः प्रविष्ट हो जाएँ । तदनन्तर पुनः यज्ञ करने के लिए आप हमें समृद्ध करें ॥१४ ।।
८०. अयमिह प्रथमो थायि धातृभिहता यजिष्ठो अध्वरेष्वीयः । यमनवानो मृगवो विरुरुचुर्वनेषु चित्रं विध्वं विशेविशे ॥१५॥
यह (आहवनीय) अग्नि, देवों का आवाहन करने वाले, श्रेष्ठ यज्ञ करने वाले तथा सोमयागादि में ऋत्विजों | द्वारा स्तुत्य, अग्न्याधान करने वाले पुरोहितों द्वारा यज्ञ में स्थापित की गयी हैं । सर्वव्यापी और विलक्षण अग्नि | को यज्ञमानों के उपकार के लिए अप्नवान् आदि भृगुवंशीय मुनियों ने जंगलों में प्रज्वलित किया है ॥१५॥
[2 .१ के अनुसार यह नाम मुगुओं के साथ उक्लिखित हुआ है । लुइविंग ने इन को भृगुवंशी काय माना है। ८६. अस्य अनामनु चुतix शुक्ल इनहे अह्रयः । पयः सहस्त्रसामूपिम् ॥१६॥
चिरन्तन काल से उत्पन्न इस अग्नि की दीति का अनुसरण करके, संकोचहित याज्ञिकों ने दुग्ध, दधि, घृत । तथा इवि आदि के द्वारा हजारों यज्ञों को सम्पन्न करने वाले ऋषियों के सामान गौ से दुग्ध का दोहन किया है ।।
[यह कान्तिमान् अग्नि में बस प्रकाशरूप दुग्य(जयी रश्मियों) के प्रवाहित होने का आलंकारिक वर्णन है ।।
८२, तनूपाअग्नेसि तवं में पायायुर्दाअग्नेस्यायुर्मे देहि वचदा अग्नेसि वच्चों में देहि।
अम्ने यन्मे तन्वा ऊनं तन्मआपण ॥१७॥
हे अग्निदेव ! आप स्वभाव से ही होताओं के शरीर के इक्षक हैं । अतएव आप हमारे शरीर का पालन करें । हे अग्निदेव ! आप आय–दाता हैं, इसलिए आप हमें आयु प्रदान करें । हे अग्निदेव ! आप वैदिक अनुष्शन से प्राप्त तेज को प्रदान करने वाले हैं, अतः हमें वर्चस् प्रदान करें तथा हे अग्निदेव ! हमारे शरीर के अङ्गों की अपूर्णता को दूरकर आप हमें सर्वाङ्ग सम्पन्न करें ॥१७ ॥ ४३. इन्थानास्वा शत हिमा घुमन्त समिधीमहि । वयस्वन्तो वयस्कृत छ सहस्त्रन्तः सहस्कृतम्। अम्ने सपनदम्पनमदब्यासो अदाभ्यम्। चित्रावसो स्वस्ति ते पारमशीय। स कमिका का पूर्वाई मि देवता के लिए एवं परवर्ती रात्रि देक्ता के लिए –
दीप्तिमान् , धन-सम्पन्न, अहिंसक, किसी के द्वारा न दबाये जाने वाले हे अग्निदेव ! आपकी कृपा से | आयुष्मान, शक्ति सम्पन्न, किसी में भी दमित न किये जाने वाले, हम याजकगण आपको प्रर्दीप्त करके सौ वर्ष तक जाज्वल्यमान रखेंगे । हे रात्रि देवि ! हम याजकगण कल्याण प्राप्ति के लिए आपके निकट रहें ॥१८॥
८४. सं त्वमग्ने सूर्यस्य वर्चसागथाः समृषीणा स्तुतेन । सं प्रियेण धाम्ना सममायुषा
सं वर्चसा सं प्रजया सरायस्पोषेण ग्पिषीय ॥१९ ।।
इस मंत्र के साथ अग्निस्थापन किया जाता है –हैं अग्निदेव ! आप सूर्य की तेजस्विता के साथ ऋषियों के अनेक स्तोत्रों के साथ तथा प्रिय अहुतियों (त्रियधाम के साथ युक्त होते हैं । इसी प्रकार हम भी आपकी कृपा, दीर्घायु, विद्या तथा ऐश्वर्ययुक्त तेज, पुत्रादि तथा धन–धान्यादि पोषण से युक्त हों ॥१९ ।।
५. अन्धस्थान्धो वो भक्षीय महस्थ महो वो भक्षीयोर्जस्थाई यो भक्षीय रायस्पोषस्थ | रायस्पोर्ष वो भक्षीय ॥२० |
बल्किा या ऊ, सौर–यां आदि में विद्यमान पो गुणों को ‘गो‘ के रूप झारा प्रस्तुत कर रही है –
(हे गौओ !) आप अन्नरूप हैं । आपकी कृपा से हम (दुग्ध) घृतादि रूप (पोषक अन्न का सेवन करें । आप | पूज्य हैं । हम आप से पूज्यच अथवा प्रसिद्धि प्राप्त करें । आप बलवान् हैं । हम आपकी कृपा से बलयुक्त हों।
आप धन–पुष्टिरूप हैं । हम आपकी कृपा से (धन–धान्यादि) पोषण प्राप्त करें ॥२० ।।।
तृतीयोऽध्यायः
८६. रेवती रमध्वमस्मिन्योनावस्मिन् गोष्ठस्मॅिल्लोकेस्मिन् क्षये । इहैव स्त मापगात ॥२१॥
गाय व स्वतंत्र रूप से घूमने के लिए छोड़ी जाती है, उस समय यजमान गाय स्पर्श करते हुए पत्र पाठ करता है | (हे धनवती गौओ ! आप अग्निहोत्र के समय यज्ञस्थल पर निन्दपूर्वक रहें । दुग्ध दुहने के पूर्व आप गौशाला में संचरण करें । सर्वदा यजमान के दृष्टि–पथ में ही आप अवस्थित रहें । रात्रि में आप यजमान के घर में सुखपूर्वक निवास करें । आप यजमान के घर में हो रहें । दूर न जाएँ ॥२१ ॥
८७, स% हितासि विश्वरूप्यूर्जामाविश गौपत्येन । उप त्वाग्ने दिवेदिवे दोषावस्तर्खिया वयम् । नमो भरन्तः एमसि ॥३३॥
है गौ ! आप शुक्ल–कृष्ण आदि अनेक रूपों से युक्त होती हुई दुग्ध आदि (ह–िदुख्य) प्रदान करके यज्ञ–कार्य से संयुक्त हैं । आप धादि के सि के द्वारा बल प्रदान करने वाली होकर यज्ञमान में गोस्वामित्व भाव से प्रतिष्ठित हों । रात्रि–दिन (सर्वदा) वास करने वाले हैं (गार्हपत्य) अग्निदेव ! प्रत्येक दिन हम यजमान श्रद्धाभाव से नमन करते हुए आप के पास आते हैं ॥२२॥
८८. राजन्तमश्वराणां गोपामृतस्य दीदिवम् । वर्धमान स्बे में ॥२३॥
दीप्तिमान् यज्ञों के रक्षक, सत्य वचन रूप व्रत को आलोकित करने वाले, यज्ञ–स्थल में वृद्धि को प्राप्त करते हुए हम गृहस्थ लोग स्तुतिपूर्वक आपके निकट आते हैं ॥२३॥
८६. स नः पितेव सूनवेग्ने सूपायनो भव । सचस्वा नः स्वस्तये ॥२४॥
– है गार्हपत्य अग्ने ! जिस प्रकार पुत्र के लिए पिता बिना किसी बाधा के सहज प्राप्य होता है, उसी प्रकार आप भी (हम यजमानों के लिए बाधारहित होकर सुखपूर्वक प्राप्त हों । आप हमारे कल्याण के लिए सदा हमारे निकट रहें ॥३४ ।।
१०. अग्ने त्वं नो अन्तम त त्राता शिवो भवा वरूथ्यः । वसुरग्निर्वसुश्रवा अच्छा नक्ष झुमत्तम ४ रयिं दाः ॥२५॥
हैं गार्हपत्य अग्ने ! आप हमारे लिए समीपवर्ती, पालनकर्ता, शान्त तथा पुत्रादि से युक्त घर प्रदान करने वाले | हों । लोगों के निवास प्रदान करने वाले, आहवनीय आदि विविध रूपों में गमनशील, धन एवं कीर्ति प्रदान करने वाले, आप हमारे यज्ञ स्थान को प्राप्त हों तथा हमें प्रभावी धन–ऐश्वर्य प्रदान करे ॥२५॥
११. तन्वा शोचिष्ठ दीदिवः सुम्नाय नूनमीमहे सखिभ्यः । स नो बोधि श्रुधी हवमुरुष्या
गो अघायत: समस्मात् ॥२६ ॥ |. हे सर्वाधिक कान्तिमान् तथा सभी को प्रकाशित करने वाले अग्निदेव ! हम सुख प्राप्ति एवं अपने मित्रों के कल्याण की कामना करते हैं । आप हमें अपना सेवक समझकर हमारी प्रार्थना सुनें एवं सभी दुष्ट शत्रुओं से हमारी रक्षा करें ॥३६॥
१२. इ5 एखादित एहि काम्याएत । मयि वः कामधरणं भूयात् ॥२७॥
हलिका गी(गाय एवं प्राण व छ सय करके गयी ।
. है इा कपी गौ ! आप ा और मनु के समान हमारे यज्ञ स्थान पर आएँ । हे अदितिरूपी गौ ! | आप अदिति और आदित्य के समान हमारे यज्ञ स्थल में आगमन में । हे अभीष्ट गौ ! आप यहाँ आएँ
एवं हमारे मनोरथ पूर्ण करें ॥२७॥
१३. सोमान स्वरणं कृणुहि ब्रह्मणस्पते । कक्षीवन्तं यः औशिजः ॥२८॥
हे ब्रह्मणस्पते (सम्पूर्ण ज्ञान के अधिपति प्रभु) ! सोम का सेवन करने वाले यजमान को, आप श्रेष्ठ तेजस्विता से युक्त करें । जिस प्रकार दीर्घतमा मेष एवं इशि के पुत्र कक्षीवान् को आपने सोमयागयुक्त एवं स्तुत्य बना | दिया था, उसी प्रकार हमें भी (धनादि प्रदान करके) धन्य बनाएँ ॥२८॥
|| ऋग्वेद में बहुशः चर्चित व दीर्घतमा तथा शिप नामक दामी से जन्मे झीवान् वि अपनी प्रतिभा से प्रतिष्ठित हुए परन्तु वेक ने ‘क्रिय माना हैं, ब्राह्मण नहीं ।।।
१४. यो रेवान्यो अमीवहा वसुवित्पुष्टिवर्द्धनः । स नः सिषक्तु यस्तुरः ॥२९॥
| साधन–सम्पन्न, व्याधियों के विनाशक, ऐश्वर्य–दाता, पुष्टिवर्धक तथा अविलम्ब कार्य सम्पन्न करने वाले हैं ब्रह्मणस्पते ! कृपापूर्वक आप हमारे सन्निकट रहें ॥२९ ॥
१५. मा नः शटं सो अररुषों मूर्तिः प्रणइ मर्त्यस्य । रक्षा णो ब्रह्मणस्पते ॥३०॥
हैं ब्रह्मणस्पते ! यज्ञ न करने वाले तथा अनिष्ट–चिन्तन करने वाले दुष्ट शत्रुओं का हिंसक दृष्भाव हम पर। | न पड़े । आप हमारी रक्षा करें ।।३० ||
९६. महि त्रीणामवस्तु चुक्ष मित्रस्यार्यम्णः । दुराधर्षं वरुणस्य ।।३१ ।।
मित्र (आत्मा), अर्यमन् (हृदय) तथा वरुण देवताओं का तेजस्वी अमोघ संरक्षण में प्राप्त हो ॥३१ ॥
११. नहि तेषाममा चन नावसु वारणेषु । ईशे रिपुरघश सः ।।३२ ।।
(मित्र, अर्यमन् तथा बरुण से संरक्षित अमान को) घर, गमन-मार्ग अथवा अन्य दुर्गम स्थल में पाप शनु अभिभूत करने में सक्षम नहीं होता ।।३३ ।।। |
१८. ते हि पुत्रासो अदिते: अ जीवसे मर्याय । ज्योतिर्यच्छन्त्यज्ञस्रम् ।।३३।।
अदिति पुत्र ( मित्र, अर्यमन् और वरुण ) मनुष्य को अक्षय ज्योति प्रदान करते हैं, जो दीर्घ जीवन का आधार है ॥३३ ।।
१९. कदा चन स्तरीरसि नेन्द्र स्वासि दाशुषे । उपोपेन्नु मघवन् भूयः इन्नु ते दानं देवस्य पृच्यते ॥३४ ॥
हे इन्द्रदेव ! आप हिंसक नहीं हैं । आप हविर्दान करने वाले यजमान की धनदान द्वारा सेवा करने वाले है। है ऐश्चर्य–युक्त इन्द्रदेव ! आपका प्रचुर मात्रा में दिया गया दान शीघ्र ही यजमान को प्राप्त होता हैं ॥३४॥
१००, तत्सवितुर्वरेण्यं भर्गो देवस्य धीमहि । धियो यो नः प्रचोदयात् ॥३५॥ । सम्पूर्ण जगत् के जन्मदाता सविता (सूर्य देवता की अकृष्ट ज्योति का हम ध्यान करते हैं, जो (तेज सभी
सत्कर्मों को सम्पादित करने के लिए हमारी बुद्धि को प्रेरित करता हैं ॥३५॥
[सूर्य को सम्पूर्ण जगत् का क्मदाता कहुका–सूर्य आत्मा प्रगतस्तस्वञ्च ( ६,११५,१) ऋषियों ने न केवल मूर्य में पदार्थ की पूर्णता दिखाई है, जैसा कि वैज्ञानिकों ने भी माना है, आफ्नु सारे गुण–सूत्र मानव को सूर्य भगवान् से ही प्राप्त हुए हैं। – ऐसा (आध्यात्मिक दृष्टि से स्पष्ट मत व्यक्त किया है ।
१०१. परि ते दुडभो रथोस्माँ अश्नोतु विश्वतः । येन रक्षसि दाशुषः ॥३६ ।।
किसी से प्रभावित न होने वाला आपका वह रथ, जिससे आप (लोकहित हेतु दान देने वालों की रक्षा करते है; हम सबकी, चारों ओर से (चतुर्दिक) रक्षा करें ॥३६ ॥
तृतीयोऽध्यायः
१०२. भूर्भुवः स्वः सुप्रजाः प्रजाभिः स्याटं सुवीरो वीरैः सुपोषः पोथैः । नर्य प्रज्ञां मे पाहि श ४ स्य पशून्मे पाथर्य पितुं में पाहि ।३७ ।।।
गायीं और सावित्री के लिए अनि स्थापन विषयक मंत्र –
हैं सच्चिदानन्द प्रभो !(अग्निदेव हमी श्रेष्ठ प्रजाओं (सन्तानों) से, श्रेष्ठ वीरों से तथा पुष्टिकारक अन्नादि से सम्पन्न हों । हे मानव हितैषी ! हमारी सन्तानों की रक्षा करें । हे प्रशंसनीय ! हमारे पशुओं (सहयोगियों)
की रक्षा करें तथा है गतिमान् ! हमारे (पोषणकर्ता) अन्न की रक्षा करें ।।३७ || |
१०३. आ गन्म विश्ववेदसमस्मभ्यं वसुवित्तमम् । अग्ने सम्राडभि द्युम्नमभि | सहआ यच्छस्व ॥३८॥
आयनीय अग्नि की स्थापना का मंत्र है | हे दीप्तिमान् आह्वनीय अग्निदेव ! आप सर्वज्ञ और यजमान के निमित्त सर्वाधिक सम्पनि धारण करने वाले हैं, हम आपके पास आ रहे हैं । (हे अग्नि देवता !] हमें बल और ऐश्वर्य प्रदान करें ॥३॥ |
१०६. अयमग्निर्गुहपतिर्गार्हपत्यः प्रज्ञाया वसुवित्तमः । अग्ने गृहपतेभि द्युम्नमभि सह
आ यच्छस्व ॥३१॥
गाईफ्य अग्नि का उपस्थापक मंत्र है | यह सामने अवस्थित अग्निदेव गृहपति है, पुत्र–पौत्रादि प्रजाओं को (अनुग्रहपूर्वक) धन–धान्य देने वाले हैं। | हे अग्ने ! आप हमें शक्ति एवं वैभव प्रदान करें ॥३९ ॥ |
१०५.अयमग्निः पुरोध्यो रयिमान् पुष्टिवर्धनः । अग्ने पुरीष्याभिद्युम्नमभिसआयच्छस्व।
दक्षिणानि का इस्थापक मंत्र है –
पशुओं आदि से संबन्धित यह दक्षिणाग्नि है । यह अग्नि ऐश्वर्य और समृद्धिवर्धक हैं । हे पृथ्वी स्थानीय | दक्षिणाग्नि ! आप हमें शक्ति और सम्पदा प्रदान करें ॥ ४ ॥ |
१०६, गृहा मा बिभीत मा वेपध्वमूर्न बिभत एमसि । ऊर्ज बिभः सुमनाः सुमेधा गृहानैमि
मनसा मोदमानः ।।४१ ।।
प्रवास से वापस आने पर यजमान गुरु प्रवेश के समय तीन मंत्रों का पाठ करता है, जिसका यह प्रथम मंत्र – | है घर ! भयभीत मत हो । (शत्रु के भय सी प्रकम्पित मत हो । हम शक्तियुक्त (सहायताथी आपके पास आते हैं । हम ओज सम्पन्न, श्रेष्ठ बुद्धि से युक्त, दुःख रहित तथा हर्षित होते हुए (आप में) प्रविष्ट होते हैं ४१ ।।
१०७. येषामध्येति प्रवसन्येषु सौमनसो बहुः । गृहानुपह्वयामहे ते नो जानन्तु जानतः ।।४।।
गृह प्रवेश के समय बनाने वाला दसरा मन्त्र –
देशान्तर गमन के समय, जिसके विषय में निरन्तर सोचा करते थे, को हमें अत्यधिक प्रिय था, ऐसे उस अपने | घर को (अपनी उपस्थिति से प्रसन्न कर रहे हैं ।घर के अधिष्ठातादेव ज्ञानवान् हैं, वे हमारे इस भाव को ग्रहण करें ।
१०८. उपहृताः इह गावः उपहृता 5 अजावयः । अथो अन्नस्य कलाल उपहृतो गृहेषु | नः । माय चः शान्ये प्रपद्ये शिव ४ शग्म हो शंयोः शयोः ||४३ ॥
गृह प्रवेश के समय बोला जाने वाला तीसरा मंत्र | हमारे घरों में गाय एवं वैत, भेड़ एवं बकरियाँ सुखपूर्वक रहने के लिए सम्मानपूर्वक आवाहित की गयी | है। घर की समृद्धि के लिए अन्न-रस का आवाहन किया गया है । कल्याण के लिए तथा सभी अनिष्टों के शमन | के लिए हम घरों को प्राप्त करते हैं, जिससे लौकिक एवं पारलौकिक सुख की प्राप्ति ॥३॥
१०९. प्रघासिनो हवामहे मरुतश्च रिशादसः । करम्भेण सजोषसः ॥४४ ॥
चातुर्मास्य याग का प्रारंभ यज्ञ में हुआ है । इसमें चार पर्व हैं– वैदेव, अरुण प्रयास, साकमेध तथा शुनासीरीय ।। | प्रपास पर्व में उत्तरी तथा दक्षिणी वैदियों पर जब हवन सामी रख दी जाती है, तो प्रतिस्थाता नामक अ क्यान मी को
वेदी पर लाता हुआ इस मंत्र का पाठ करता है –
है मरुद्गणों ! शत्रुओं को हिसित करने वाले, (प्रघास नामक विशिष्ट हवि का भक्षण करने वाले तथा दधि मिश्रित यवमय (सत्तूरूप करम्भ) हवि का सेवन करने वालें, आपका हम आवाहन करते हैं ॥४४ ॥
११. यद्ग्रामे यदरण्ये यत्सभायां यदिन्द्रिये । यदेयकृमा चयमिदं तदवयजामहे स्वाहा।।
पिसे हुए जौ में गोल आकृति के बने कम्य पात्र को यमान सूप में रखकर सिर में रख लेता है । मानवणाग्नि में | काम करने जाता है । इस समय पूर्व की ओर मुख करके समान भार्या इस मंत्र से करम्भ पात्रों की आहुति देती हैं –
गाँव में रहते हुए उपद्व अन्य जंगल में (मृगचधादि जन्य तः सभास्थल पर श्रेष्ठ पुरुषों के तिरस्कार जन्य) जिह्वा आदि इन्द्रियों द्वारा (निन्दित पदार्थों के सेवन से उत्पन्न, जिन पापों का आचरण हमने किया है, उन | सम्पूर्ण–पापों को हम इस आहुति द्वारा विनष्ट करते हैं ॥४५ ॥
१११. मो चू णः इन्द्रात्र पृत्सु देवैरस्ति हि मा ते शुष्मिन्नत्रयाः । महशिद्यस्य मीढुषो यव्या हविष्मतो मरुतो वन्दते गीः ॥४६ ।।
हे शक्तिसम्पन्न इन्द्रदेव ! इस जीवन संग्राम में देवों का पक्ष ग्रहण करने वाले आप हमारा विनाश न करें । | आप ज्ञानी हैं । (कामनापूर्तिरूप) वृष्टिकर्ता तथा हवि द्रव्य को ग्रहण करने वाले इन्द्रदेव (इस) यबमय हबि के समान आपका माहात्म्य हैं । हमारी वाणी (आपके मित्र) मरुतों की भी स्तुति करती है ॥४६ ।।
११२. अक्रन् कर्म कर्मकृतः सह वाचा मयोभुवा । देवेभ्यः कर्म कृत्वास्तं प्रेत सचाभुयः ।।
(वरुणप्रयास नामको कर्म करने वाले (त्वगण, सुख प्रदान करने वाली वाणी के मंत्रों का पाठ करें । परस्पर सहभाव में रहने वाते हैं वो ! देवताओं के लिए अनुष्ठान करके अपने घर के लिए प्रस्थान करें ॥४५५ ॥
[* पति ने वैक्यज्ञ से प्रजा की सृष्टि की उस या ने वरुण के नौं वा सिए (वरुपमामा । तत्पश्चात् सपा ने असा को ष्टि कर दिया, व फ्रयापति ने पुनः यज्ञ के आरा उसे स्यम्बका दिया तथा सम्पूर्ण मान के जाल से मुक्त
कर दिया । प्रजापति द्वारा किया गया यह म तथा कामान के द्वारा चौवें मास किया जाने वाला जवणयास ज़‘ कहलाता | है। इसका विस्तृत विवेचन शतपथ ब्राह्मण के ३/५/३/१४ में उपलब्ध है ।।
११३. अवभूथ निचुम्पुण निचेहरसि निचुम्पुणः। अव देवैर्देवकृतमेनोयासिषमब | मर्यैर्मर्त्यकृतं पुरुराव्णो देव रिस्पाहि ॥४८॥
वक्णप्रयास पर्व की समाप्ति पर मान एवं उसकी पत्नी के अवभृथ सान में इस मंत्र का विनियोग किया जता है | नौवें प्रवाहित होने वाले (अवभृथ यज्ञरूप) हे जल प्रवाह ! यद्यपि आप अति वेगवान् हैं; तथापि अत्यधिक मंथर गति में प्रवाहित हों । चैतन्य इन्द्रियों द्वारा देवताओं के प्रति किये गये पाप को, इस जल में धोने के लिए
आए हैं । है (अवभृथ नामक यज्ञ) देव ! दुःखदायी शत्रुओं से आप हमारी रक्षा करें ||४८ ॥
११४. पूर्णा दर्विं परापत सुपूर्णा पुनरापत । वस्नेव विक्रीणावहा इषमूर्ज शतक्रतो ॥४९॥
साकमेय पर्व में चली में रखे हुए भात बोदवी नामक चमस से निकालकर शवमान इस मंत्र से आहुति देता है – | हे (कालनिर्मित) दर्विं ! आप समीपवर्ती अन्न से पूर्ण होकर, उत्कृष्ट होती हुई इन्द्रदेव की ओर गमन करें। कर्मफल से भली-भाँति परिपूर्ण होती हुई, पुनः इन्द्रदेव के पास गमन करें। अनेक श्रेष्ठ कार्यों के सम्पादक है इन्द्रदेव ! हम दोनों निर्धारित मूल्य में इस हविरूप अन्नरस का परस्पर विक्रय करें । (अर्थात् हम आपको हविर्दान करें और आप हमें सु–फल प्रदान करें ) ॥४९ ॥
तृतीयोऽध्यायः
११५. देहि में ददामि ते नि में बेहि नि ते दथे । निहारं च ह्ररासि में निहारं निहाण ते स्वाहा ।।५।।
माकमेय पर्व के औदन की द्वितीय आहुति का मंत्र हैं –
(इन्द्रदेव कहते हैं हे यजमान !) आप हमें सर्वप्रथम हवि प्रदान करें । तत्पश्चात् हम आपको उपयुक्त अपेक्षित फल प्रदान करेंगे। आप (यजमान निश्चितरूप से हवि प्रदान करें, हम आपको निश्चितरूप से अभीष्ट फल प्रदान करेंगे ।( यजमान कहता है – हे इन्द्रदेव !) हम आपके लिए निश्चितरूप से हवि प्रदान करते हैं, आप हमें उसका प्रतिफल अवश्य प्रदान करें ॥५॥
| |इस प्रकार दो बार इन्द्र और अमान की वार्ता कराने का अंदेश्य इस सिद्धांत के प्रति आदर और महत्व का प्रदर्शन है ।।
११६. अक्षन्नममदन्त व प्रियाः अधूषत । अस्तोपत स्वभानवों वि नविष्ठ्या मर्ती योजा न्चिन्द्र ते हरी ॥५१॥
(पितृ यज्ञ में हमारे द्वारा समर्पित हवि को पितरों ने) सेवन कर लिया, (जिसकी सूचना) हर्षयुक्त पितरों ने सिर हिलाकर दी है । स्वयं दीप्तिमान् मेधावी ब्राह्मणों ने नवीन मन्त्रों से स्तुति प्रारम्भ कर दी हैं । है इन्द्रदेव ! आप ‘हरों’ नामक अपने दोनों अच्चों को रथ में नियोजित करें ।(क्योंकि अभीष्ट पितरों की तृप्ति के लिए आपको शीघ्र ही आना है ) ॥५१ ॥
११७. सुसन्दृशं त्वा वयं मघववन्दियीमहि । प्र नूनं पूर्णबन्धुर स्तुतो यासि वशाँर अनु योजा न्विन्द्र ते हरी ॥५२॥
हे ऐश्वर्यशाली इन्द्रदेव ! हम, सभी प्राणियों के प्रति अनुग्रह दृष्टि रखने वाले आपको अर्चना करते हैं । स्तुत्य, स्तोताओं को देने वाले धन से परिपूर्ण रथ वाले, कामनायुक्त यजमानों के पास आप शीघ्र ही आते हैं । है। इन्द्रदेव ! आप ‘हरी’ नामक दोनों अश्लों को रथ में नियोजित करें ॥५३ ॥
११८. मनो न्वाह्यामहे नाराश सेन स्तोमेन । पितृणां च मन्मभिः ॥५३॥
वीर पुरुषों की प्रशंसा करने वाले मंत्रों से (गाथा नाराशंसो) तथा पितरों के तर्पण करने वाले स्तोत्रों से, (पितृ | यज्ञ का अनुष्ठान करने के लिए पितृलोक में गये हुए मन को हम शीघ्र ही यहाँ बुलाते हैं ॥५३॥
| मन विभिन्न प्रयोगनों में बिखरा रा है, उसे एक स्थान पर आवाज़–एकात्र करने से ही मंत्र एवं च में शक्ति आनी है, यह इस तथ्य पर ध्यान दिलाया गया है ।
११९. आ नः एतु मनः पुनः क्रत्वे दक्षाय जीवसे । ज्योक् च सूर्य दृशे ॥५४ ।।
(यज्ञरूप) सत्कर्म के लिए कार्यों में दक्षता के लिए तथा चिरकाल तक सूर्यदेव का अवलोकन करने के लिए मेरा मन पुनः –पुनः(पितृलोक से वापस आकर (यज्ञकर्म में संलग्न हो ॥५४ ॥
१२०, पुनर्नः पितरो मनो ददातु दैव्यो जनः । जीवं ज्ञात सचेमहि ॥५५ ।।
हे पितरो ! आपकी अनुज्ञा से देव-पुरुष हमारे मन को पुनः श्रेष्ठता के लिए प्रेरित करें; जिससे हम पुत्र, पशु आदि समूहों की सेवा कर सकें ॥५५॥
१२१. वय ४४ सोम व्रते तव मनस्तनूषु बिअतः । प्रज्ञावन्तः सचेमहि ॥५६ ।।
| हे सोम (पोषण प्रदान करने वाले) पितर ! हुम (याजक) आपके (प्रसन्नतादायीं) कर्मो–वतों में संलग्न रहते | हुए, आपके शरीर (स्वरूप कै ध्यान) में चित्त को लगाये हुए, अपने प्रजाजनों सहित जीवित (व्यक्तियों, पशुओं | आदि सदस्यों की सेवा करते रहें ॥५६ ॥
१२२. एष ते रुद्र भागः सह स्वस्राम्बिकया तं जुषस्व स्वाहेष ते रुद्र भाग ३ आखुस्ते पशुः।।
हैं रुदेव ! यह (पुरोडाश का भाग आपके लिए समर्पित हैं, इसे अपनी बहिन अम्बिका* के साथ सेवन करें । यह आपके पशु चूहे को दिया गया भाग भी आपका है ॥५७ ।।।
|-अम्बिका का लकी बहिन होना अति प्रमाणित – ‘अम्बिका ह वै नाघस्य स्पसा क्याम्यैव सहभाग्‘ । (शत ब्रा २.६.२.१ ) रुड़ के पशु को तृप्त करके अपने पशुओं की रक्षा का भाव यहाँ सन्निहित ।
१२३. अव रुद्रमदीमव देवं त्र्यम्बकम् । यथा नो वस्यसस्करह्मथा नः श्रेयसस्करवाया नो व्यवसाययात् ॥५८ ॥
हैं तीन नेत्र वाले (त्रिकालदर्शी) रुङ (दष्टों का दमन करने वाला देव ! आपको अर्पित करने के बाद हम (प्रसाद रूप में अन्न ग्रहण करते हैं, ताकि हमें श्रेष्ठ आवास, व्यवसाय में सफलता एवं श्रेय की प्राप्ति हो ।।५८ ॥
१२४, भेषज्ञमसि भेषजं गवेवाय पुरुषाय भेषजम् । सुखं मेधाय मेष्ये ॥५९ ॥ | हे रुद्रदेव ! आप कष्ट निवारण करने वाली औषधि के समान सम्पूर्ण आपदाओं को दूर करने वाले हैं । अतएव हमारे अश्व एवं पुरुषों (पारिवारिक जनों) के लिए सभी व्याधियों की चिकित्सा करने वाली औषधि हमें प्रदान करें । हमारे भेड़ आदि पशुओं को आप सुखी करें ॥५९ ।।
१२५. त्र्यम्बकं यजामहे सुगन्धिं पुष्टिवर्धनम्। उर्वारुकमिव बन्धनान्मृत्योर्मुक्षीय मामृतात्। त्र्यम्बकं यजामहे सुगन्ध पतिवेदनम्। उर्वारुकमिव बन्धनादित मुक्षीय मामृतः ॥६० ॥
तीनों दृष्टियों ( आधिभौतिक आधिदैविक तथा आध्यात्मिक) से युक्त रुद्रदेव की उपासना हम करते हैं। वे देव जीवन में सुगन्धि (सदाशयता) एवं पुष्टि (समर्थता) अथवा (पतिवेदनम्। संरक्षक सत्ता का प्रत्यक्ष बोध कराने वाले हैं। जिस प्रकार पका हुआ फल स्वयं इण्ट्रल से अलग हो जाता है, उसी प्रकार हम मृत्यु भय से मुक्त हों; किन्तु अमृतत्व से दूर न हों, साथ ही यहाँ (भवबन्धन) से मुक्त हो जाएँ, यहाँ (स्वर्गीय
आनन्द) में नहीं ॥६० ।।
१२६. एतते रुद्रावसं तेन परो मुजवतोतीहि । अवततधन्वा पिनाकावसः कृत्तिवासा ।
अxि सन्नः शिवोतीहि ॥६१ ॥
है रुद्रदेव ! आप अपने शेष हुचि अंश को साथ लेकर (विरोधियों के न रहने से) धनुष की प्रत्यक्षा को शिथिल करके ( सम्पूर्ण प्राणियों को भय से बचाने के लिए) पिनाक नामक धनुष को वस्त्रों से इँककर, अपने निवास स्थान मूजवान् पर्वत के उस पार चले जाएँ । हैं रुद्रदेव ! आप चर्माम्बर धारण किए हुए, कष्ट न देते हुए, कल्याणकारक होकर (हमारी पूजा से संतुष्ट होने के कारण क्रोध रहित होकर) पर्वत में लाँघकर चले जाएँ ॥६१ ।। | [ मूसवान् बिके अपर नाम ‘मूक्त‘ तथा ‘मुक्त हैं, हिमालय का एक पर्वत शिखर है, जो रुड़ देवता का निवास
न माना जाता है – वामन पनों काहय वाखानम ( ३.६१ मा मा) । या ती पर्वतमी में ‘सोपसता की प्राप्ति होती थी, तभी सोम का अन्य नाम मौजवती (ऋग्वेद १७, ३४.१) भी है।
१२७. व्यायुधं जमदग्नेः कश्यपस्य न्यायुषम् । यद्देवेषु न्यायुषं तन्नो अस्तु न्यायुधम् ॥
जो जमदग्नि कौ ( बाल्य, यौवन और वृद्ध) विविध आयु ( तेजस्वी जीवन) हैं, जो कश्यप की तीन अवस्थाओं वाली आयु हैं तथा जो देवताओं को तीन अवस्थाओं वाली आयु है । उस (तेजस्वी) विविध आयु को हम भी प्राप्त करें ॥६३ ।।
१२८. शिवो नामासि स्वबितिस्ते पिता नमस्ते अस्तु मा मा हिशुसः । नि वर्त्तयाम्यायुषेन्नाद्याय प्रजननाय रायस्पोषाय सुप्रजास्वाय सुवीर्याय ॥६३ ।।
| यज्ञ में मम के मुख्न के समय (घाम वाले उपकरण को लक्ष्य करके इस कडवा का प्रयोग किया जाता है –
आप (क्षुर या उस्तुरा) नाम से ही शिव–कल्याणकारी हैं, स्वयं धारयुक्त शस्त्र आपके पिता हैं । हम आपको नमन करते हैं. हमें पीड़ित न करें । हम आयु, पोषक अन्नादि, सुसन्तत, ऐश्चर्य वृद्धि, उत्तम प्रज्ञा एवं श्रेष्ठ वौर्य लाभ के लिए विशिष्ट संदर्भ में (मुण्डन–कृत्य में ) प्रयास करते हैं ॥६३ ।।
1
– ऋषि, देवता, छन्द-विवरण – ऋषि – विरूष आंगिरस १ । वसुश्रुत । भरद्वाज ३-५, १३ । सार्पराज्ञी ६-८ । प्रजापति, तक्षा, जीवल-चैलकिं ९ । प्रजापति १०,४४, ४५ ॥ देवगण, गौतम राहूगण ११ । विरूप १३ । देवश्रवा–देववात | भारत १४ । वामदेव १५, ३६ । अवत्सार १६, १५७ । अवत्सार, ऋषिगण १८ । ऋषिगण १९–३५ । ऋषिगण, | मधुन्दा वैश्वामित्र २३-२४ । बन्धु, सुबन्धु २५ । श्रुतबन्धु, विप्रबन्धु ३६ । बन्धु आदि २६ । ब्रह्मणस्पति
अथवा मेधातिथि २८-३० । सत्यधूति वारुणि ३१-३३ । मधुच्छन्दा ३४ । विश्वामित्र ३५ । आसुरि, आदित्य | ३७ । आदित्य ३०-४० । शंयु बार्हस्पत्य ४१-४३ । अगस्त्य ४६-४८ । और्णवाभ ४९-५० । गोतम ५१,
५२ । बन्धु ५३-५९ । वसिष्ठ ६०, ६१ । नारायण ६१, ६३ ।।
देवता- अग्नि १-४, ६-, ११, १३, १४, १५, १७, १९, २३-२६, ३६,४७ । अग्नि, वायु, सूर्य, यजमान | आशीर्वाद ५ । लिगोक्त ९, १० । इन्द्राग्नी १३ । गौ, अग्नि अथवा पय १६ । अग्नि, रात्रि १८ । गौ २०, २१,
२७ । गौ, अग्नि २२ । ब्रह्मणस्पति २८-३० । आदित्य ३१-३३ । इन्द्र ३४,४९-५३ । सविता ३५ । अग्नि, | गार्हपत्य, आहवनीय, दक्षिणाग्नि ३७ । आह्वनौय ३१ । गार्हपत्य ३१ 1 अन्वाहार्यपचन ४ । वास्तु ४६-४३ | । मरुद्गण ४४, ४५ । इन्द्र-मरुद्गण ४६ । यज्ञ ४८ । मन ५३-५५ । सोम ५६ । रुद्र ५७-६१ । यजमान | आशीर्वाद ६३ । क्षुर, लिंगक्त ६३ ।।
छन्द- गायत्री १-, ४, ८, १६, २९,४४, ५६ । निवृत् गायत्री ३, ६, ११, १३, ३०, ३३, ३५, ३६, ५५ | दैवी बृहती, निवृत् बृहत ५ । पंक्ति, यानुषी पंक्ति ९ । गायत्री, भुरिंकु गायत्री १० । विराट् त्रिष्टुम् १३ । निवृत्
अनुष्टुप् १४,४६ | भुरिक् त्रिष्टुप् १५ । त्रिधुम् १५७ । निवृत् ब्राह्मी पंक्ति १८ । जगती १९ । भुरिंकू बृहती २०,२५, | ३१ । उष्णिक २१,६३ । भुरिक् आसुरी गायत्री, गायत्री २३ । विराट् गायत्री , २३, २४, २७, २८, ३१, ३३,
५४ । स्वराट् बृहती २६ । पथ्या बृहत ३४ । बाह्य उष्णिक् ३७ । अनुष्टुप् ३८, ४२,४९, ५७ | आर्षी पंक्ति |४१ । भुरिक जगती ४३, ६३ । स्वराट् अनुष्टुप् ४५ । भुरिक् पंक्ति ४६ । विराट् अनुष्टुप् ४७ । ब्राह्मीं अनुष्टुप्
४८ । भुरिक अनुष्टुप् ५० । विराट् पंक्ति ५१, ५२.५८ । अतिपाद निवृत् गायत्री ५३ । स्वरा गायत्री ५९ । विराट् बाह्य बिष्टुप् ६५ । पंक्ति ६१ । ।
॥ इति तृतीयोऽध्यायः ॥
॥अथ चतुर्थोऽध्यायः ॥
१२९. एमगन्म देवयजनं पृथिव्या यत्र देवासो अनुषन्तविश्वे। सामाभ्या – सन्तरन्तो यजुर्मी रायस्पोषेण समिषा मदेम । इमा; आपः शर्म में सन्तु देवीरोषधे जायस्व स्वधिते मैन ४ हि छ सीः ॥१॥
जिस यज्ञस्थल पर सभी देवगण आनन्दित होते हैं, उस उत्कृष्ट भूमि पर हम यजमानगण एकत्रित हुए हैं । क् तथा सामरूपीं मंत्रों से यज्ञ को पूर्ण करते हुए धन एवं अन्न से हम तृप्त होते हैं । यह (दिव्य जल हमारे लिए सुख–स्वरूप हो । हे दिव्य गुणयुक्त औषधे ! आप हमारी रक्षा करें । हे शस्त्र ! आप इस (यजमान अथवा
ओषधि की हिंसा न करें ॥१ ॥
१३०. आपो अस्मान्मातरः शुन्ययन्तु घृतेन नो घृतप्वः पुनन्तु । विश्व हि रिप्नं प्रवहन्ति देवीरुदिदाभ्यः शुचिरा पूत एमि। दीक्षातपसस्तनूरसि तां त्वा शिवा शमां परि दये | भद्रं वर्ण पुष्यन् ।।२।।
यह कष्किा पवित्रतादायीं जस एवं यज्ञ परिधान शौ–वसा को सम्बोधित कर रहीं है –
(जगत् निर्माण में सक्षम है माता के समान जल ! हमें आप पवित्र करें । घृत (क्षरित) से पवित्र जल हमें | यज्ञ के योग्य पवित्र बनाए । तेजयुक्त होता हुआ जल हमारे सभी पापों का निवारण करे । शुद्ध सान और पवित्र | आचमन के उपरान्त हम जल से बाहर आते हैं । (हें क्षौम वस्त्र !] आप दक्षिणीयेष्टिक तथा उपसदिष्ट के देवताओं के लिए शरीर के समान प्रिय हैं । कोमल होने के कारण सुकर, मंगल करने वाली कान्ति से युक्त श्रेष्ठ रंगवाले) परिधान को हम (यजमानो धारण करते हैं ॥ ३ ॥
[• कमान की दीक्षा के समय वह इष्टि (क) की जाती हैं – ‘दीमा प्रयोमा इष्टिः‘ । इसमें आग्नावैष्णव पुरोन्न वा घाग होता है । के सोफ्याग में होने वाले प्रवयंसक अनुष्ठान मैं इस इष्ट का विधान है । इसमें अन्न, सोम और विष्णु | प्रधान देना होते हैं ।
१३१. महीनां पयोसि वर्षोदाः असि वर्षों में देहि । वृत्रस्यासि कनीनकश्चक्षुर्दा असि चक्षुर्मे देहि ॥३॥
प्रस्तुत कण्डिका में नवमीत तथा अन्य को सप्योंबित किया गया है –
(हे नवनीत !) आप गौओं के दूध से निर्मित हैं । आप कान्तिप्रद हैं । अतः हमें कान्ति प्रदान करें । (हें । अंजन !) आप बृत्र की कनीनिका (आँख की पुतली) हैं । आप दृष्टि प्रदान करने वाले हैं । अतएव हमें दृष्टि | शक्ति-दर्शनशक्ति प्रदान करें ॥३ ।।।
१३२. चित्पतिर्मा पुनातु वाक्पतिर्मा पुनातु देवो मा सविता पुनावच्छिद्रेण पवित्रेण सूर्यस्य रश्मिभिः । तस्य ते पवित्रपते पवित्रपूतस्य यत्कामः पुने तच्छकेयम् ॥४॥
ज्ञान के अधिपति (मनोदेवता) हमें शुद्ध करें । नाणी के स्वामी हमारी वाणी पवित्र करें । छिद्रों (दोषों) से रहित पवित्र सविता देवता हमें शोधित करें । हे पवित्रपते ! शोधित पवित्री (पवित्रता के साधनों के द्वारा | यजमान का अभीष्ट पूर्ण हो । सोमयाग अनुष्ठान की कामना से हम पवित्र होना चाहते हैं, हमें यज्ञानुष्ठान की । सामर्थ्य प्राप्त हो ॥ॐ ॥
१३३. आ वो देवासऽईमहे वामं प्रयत्यध्वरे । आ वो देवासऽआशिषो यज्ञियासो हवामहे ।
| हे देवगण ! यज्ञ के प्रारम्भ होने पर हम यज्ञफल की कामना से आपका आवाहन करते हैं । हे देवगण ! हुम यज्ञ के आशीर्वाद रूपी फल की प्राप्ति के लिए आपको बुलाते हैं ॥५ ।।।
१३४, स्वाहा यज्ञ मनसः स्वाहोरोरन्तरिक्षात्स्वाहा द्यावापृथिवीभ्या इंश्च स्वाहा वातादार स्वाहा ।।६ ॥
| हम अन्तःकरण (पूर्ण मनोयोग से यज्ञ–अनुष्ठान करते हैं ।विस्तीर्ण अन्तरिक्ष के लिए यज्ञ करते हैं । द्युलोक और पृथ्वीलोक के लिए हम यज्ञ कार्य करते है । सभी कर्मों के प्रेरक वायुदेव की कृपा से हम यज्ञ प्रारंभ करते हैं।
१३५. आकृत्यै प्रयुजेग्नये स्वाहा मेधायै मनसेग्नये स्वाहा दीक्षायै तपसेग्नये स्वाहा | सरस्वत्यै पूष्णेग्नये स्वाहा । आपो देवीर्बहुतर्विश्वशम्भुव द्यावापृथिवीं उरो अन्तरिक्ष ।
बृहस्पतये हविषा विधेम स्वाहा ।।७।।
यज्ञ करने के मानसिक सङ्कल्प के प्रेरक अग्निदेव के लिए यह आहुति हैं । मंत्र धारण की शक्ति–मेधा तथा | मन के उत्प्रेरक आंनदेव को यह आहुति समर्पित हैं । दीक्षा एवं तप की सिद्धि के लिए अग्निदेव को यह आहुति दी जाती है । मन्त्रोच्चारण की शक्ति युक्त सरस्वती (वाणी) तथा वाक् इन्द्रिय का पोषण करने वाले पूषादेव को | प्रेरणा देने वाले अग्निदेव को यह आहुति दी जा रही हैं । हे लोक एवं पृथ्वीलोक ! हे अति विस्तृत अन्तरिक्ष !
द्युतिमान् विशाल, संसार के सुख की कामना करने वाले हैं जल ! श्रेष्ठ ज्ञान की प्राप्ति के लिए हम हविष्यान्न समर्पित करते हैं । यह आहुति बृहस्पति देव के लिए समर्पित है ॥9 ।।
१३६. विश्वो देवस्य नेतुर्मतों बुरीत सख्यम् । विश्वो रायऽध्यति घुम्नं वृणीत पुष्यसे | स्वाहा ॥८॥
सभी मनुष्यों को कर्मफल देने वाले, दानादि गुणयुक्त सविता देवता की मित्रता प्राप्त करने की हम प्रार्थना करते हैं । प्रज्ञापालन के लिए द्युतिमान् (यशस्वी) वैभव की हुम कामना करते हैं । सभी मनुष्यों के धन–प्राप्ति के निमिन हम सविता देवता की प्रार्थना करते हैं । इसी निमित्त यह आहुति समर्पित हैं ॥८॥ १३७, सामयोः शिल्पे स्थस्ते वामारभे ते मा पातमास्य यज्ञस्योदृधः । शर्मासि शर्म । | में यच्छ नमस्ते अस्तु मा मा हि 5 सीः ॥९॥
यकर्म में इस कण्डिका के द्वारा कृष्णानि (मृगचर्म स्थापित काने का विधान किया गया है –
हैं शिल्प रूपात्मक क् और साम के अधिष्ठाता देवताओं ! हम आपका स्पर्श करते हैं । आप उत्तम ऋचाओं के उच्चारण काल तक हमारी रक्षा करें । हे शिल्पपते ! आप हमारे शरणदाता हैं, अतएव हमें आश्रय दें । (ऋक्, सामरूप) आप को नमस्कार हैं । आप यजमान को कष्ट न दें ॥९॥ |
१३८, ऊर्गस्याङ्गिरस्यूर्णअदा कर्ज मयि घेहि । सोमस्य नीविरुस विष्णोः शर्मासि शर्म
यजमानस्येन्द्रस्य योनिरस सुसस्याः कृषीस्कृधि । उच्चस्व वनस्पतऊध्र्वो मा पाह्य ४४. हुस; आस्य यज्ञस्योः ॥१०॥
यह काँगुका मेला तथा उससे सम्बंधित उपका को सम्बोधित कर रही है = (यज्ञ मेखता के प्रति हे अंगों को शक्ति देने वाली ! आप हमें बल प्रदान करें । हैं सोम प्रिय मेखले ! आप हमारे लिए नौंवी (दोनों सिरों को जोड़ने वाली ग्रंथिो रूप हो । (वस्त्र के प्रति) आप विष्णु (यज्ञ) के लिए मुखदायी माध्यम हों । आप याजकों के लिए सुखदायक बने । (कृष्ण–विषाण से खोदी भूमि के प्रति आप इन्द्रदेव की योनि (शक्ति को उत्पन्न करने वाली हैं, कृषि को हरा-भरा बनाएँ । हें वनस्पति से उत्पन्न दण्ड ! आप उन्नत होकर यज्ञ समाप्ति तक हमें पापों से बचाएँ ॥१० ॥
१३९., व्रतं कृणुताग्निर्बह्याग्निर्यज्ञो वनस्पतिर्यज्ञियः। दैवीं धियं मनामहे | समृडीकामभिष्टये वचधां यज्ञवास सुतीर्था नोऽअसशे। ये देवा मनोजाता
मनोयुजो दक्षक्रतवस्ते नोवन्तु ते नः पान्तु तेभ्यः स्वाहा ॥११ ।।
ई परिचारक गण ! (दुग्ध दोहनादिरूप या नियम व्रत का आचरण करो । (औत) अग्नि ब्रह्म (वेदरूप) हैं। यह अग्नि यज्ञ (का साधनभूत) हैं । (खदिर, पीपल आदि) वनस्पतियों यज्ञ-योग्य हैं। यज्ञ की सिद्धि के लिए, । देवताओं को लक्ष्यकार प्रदान की गई, सुख के लिए तेज़ को धारण करने वालों, यज्ञ का निर्वाह करने वाली, यज्ञ–अनुष्ठान विषयक बुद्धि की हम याचना करते हैं । सुस्पष्ट बुद्धि हमारे अधीन रहे । दर्शन–श्रवणादिं रूप इच्छा से उत्पन्न मन से संयुक्त, कुशल संकल्प वाले देवगण, यज्ञ में विघ्नों का निवारण करके हमारी रक्षा करें । प्राणरूप देवताओं के लिए यह (दुग्ध आहुति) समर्पित है ॥ ११ ॥ |
१४०. श्वात्राः पीता भवन यूयमापो अस्माकमन्तदरे सुशेवाः ! ताऽअस्मभ्यमयक्ष्मा ।
अनमीवाः अनागसः स्वदन्तु देवीरमृताः ऋतावृधः ॥१३ ।।।
है जल ! दुग्धरूप में हमारे द्वारा सेवन किये गये आप, शीघ्र ही पच जाएँ । पिये जाने के बाद हमारे पेट | मैं आप सुखकारी हों । ये जल राजरोग से रहित, सामान्य बाधाओं को दूर करने वाले, अपराधों को दूर करने
वाले, यज्ञों में सहायक, अमृतस्वरूप, दिव्य गुण से युक्त हमारे लिए स्वादिष्ट हों ।।१३ ॥
१४१. इयं ते यज्ञिया तनूरपो मुज्वामिन प्रजाम् । अत्र होमुचः स्वाहाकृताः पृथिवीमाविशत पृथिव्या सम्भव ।।१३।।
म स्थल पर विचारप्रस जल(मूत्रादि) के विरूर्बन के लिए गहुँ खोद दिये जाते थे । इस संदर्भ में प्रार्थना है
(हे अज्ञपुरुष ! हैं पृथ्वीमातः ! आपका यज्ञ-योग्य शरीर है, (यज्ञ करने योग्य स्थान है । हम इस स्थान (ग) में विकारयुक्त जल का परित्याग करते हैं, प्रजा के लिए उपयोगी रस का त्याग नहीं करते । यह प्रक्रिया पाप विमोचक हो । स्वाहारूप में स्वीकार करने योग्य जल विकारयुक्त होने पर त्याज्य हो जाता है । यह (विकारयुक्त जल) पृथ्वी में प्रविष्ट होकर मृत्तिका के साथ एकाकार हो जाए ॥१३॥
१४२. अग्ने त्वं » सु जागृहि वय सु मन्दिधीमहि। रक्षा गोऽअप्रयुच्छन् अनु नः | पुनस्कृधि ॥१४॥
है अग्निदेव ! आप भली-भाँति प्रबुद्ध (प्रज्वलित) रहें । हम यजमानगण निद्रा का आनन्द लेंगे । आप | सतत हमारी रक्षा करें । हे अग्ने ! आप हमें पुनः जामत् करके कर्मशील बनाएँ ॥१४॥
१४३. पुनर्मनः पुनरायुर्मःआगन् पुनः प्राणः पुनरात्मा मऽआगन् पुन्थक्षःपुनः श्रोत्रं मआगन् । वैश्वानरो अदब्धस्तनूपाः अग्निर्नः पातु दुरितादवद्यात् ।।१५ ।।
(सुषुप्ति काल में निश्चैतन यजमान का) मन (प्रवृद्धावस्था में ) पुनः शरीर में आ गया ।(मुषुप्ति काल में नष्ट प्राय मेरी) आयु पुनः प्राप्त-सी हो गई हैं । इसी प्रकार प्राण, आत्मा, चक्षु, कान आदि इन्द्रियाँ (घबुद्धावस्था में कार्यशील होकर) पुनः प्राप्त हो गई हैं । इस प्रकार सम्पूर्ण इन्द्रियों के क्रियाशिल हो जाने पर सम्पूर्ण विश्च के कल्याणकर, दबाये न जा सकने वाले, शरीर को सुरक्षित रखने वाले हैं अग्निदेव ! घृणित पापों (पापकर्मों एवं पापकर्मों के दुष्प्रभावों ) से आप हमारी रक्षा करें ॥१५ ||
१४४, त्वमग्ने व्रतपाई असि देवआ मर्येच्या त्वं यज्ञेयीयः । रास्वेपत्सोमा भूयो भर देवो म सविता वसोर्दाता वस्दान् ॥१६॥
है दीप्तिमान् अनिदेव ! आप सम्पूर्ण प्राणियों के व्रतों के पालनकर्ता है । आपकी यज्ञों में अभ्यर्थना की | जाती है । हे सोम ! आप हमें इतना (जीविका चलने भर का धन तो प्रदान करें (ही) । पुनः और भी अधिक धन से हमें पूर्ण करें (जिससे लोकोपयोगी कार्य किये जा सकें) । ऐश्वर्य देने वाले सविता देवता ने हमें पहले भी प्रचुर धन प्रदान किया हैं ॥१६॥ १४५. एषा ते शुक तनरेतद्वर्चस्तया सम्भव भ्राज्ञं गच्छ।जुरसि धृता मनसाधा विष्णवे ।।
हे शुभवर्ण अग्निदेव ! यह (धृतरूप) आपकी देह और (स्वर्णाभ) आपका यह तेज है । आपका स्वरूप और तेस् एकाकार होकर आकाश में व्याप्त हो । मन के द्वारा धारण की गयी (मंत्ररूप वाणी) वेगवान् होकर विष्णु (यज्ञ में तुष्ट करने वाली हो ॥१७॥ १४६. तस्यास्ते सत्यसवसः प्रसवें तन्त्रो यन्त्रमशीय स्वाहा ।शकमसि चन्द्रमस्यमृतमसि वैश्वदेवमसि ॥१८॥
सत्य स्वरूप आप के कृपापात्र हम लोग आपके शरीर के नियम–यंत्र को प्राप्त करें । यह आज्य आहुति आपके लिए है । हे हिरण्य देवता ! आप दीप्तिमान् (शुक्र) हैं। आप हर्षित करने वाले है। आप विनाशरहित हैं । आप सम्पूर्ण देवताओं की सम्मिलित शक्ति से युक्त हैं ॥१८॥ |
१४७, चिदसि मनासि धीरसि दक्षिणासि क्षत्रियासि यज्ञियास्यदितिरस्युभयतः शी। | सा नः सुपाची पतीच्यघि मिन्नस्त्वा पद अमीतां मृघावनस्पाविन्यायाध्यक्षाय ॥१६॥ | ( हैं सोमक्रयणी गौ रूप वाणी !) आप चित्त, मन और बुद्धि (कको प्रतिनिधि रूप हैं । आप देने | योग्य दुव्य रूप श्रेष्ठ दक्षिणा है ।( कर्म से) आप क्षत्रिय शक्ति हैं। आप यज्ञ में (मंत्ररूप में प्रयुक्त होने योग्य हैं। आप.अखण्डित या देवमाता (अदिति) है । आप (कद और मधुर वाणीरूप) दो सिर वाली हैं । आप आगे बढ़ने और पीछे हटने में सहयोग देने वाली हैं। (यज्ञ से बाहर न जाने देने के लिए मित्र (मिव आपके दाहिने पैर में (स्नेह का बन्धन डाल दें । देवों के अध्यक्ष इन्द्रदेव को आनन्दित करने के लिए पुपादेवता (यज्ञ मार्ग की रक्षा करें ॥१६॥’. ।
१४८. अनु चा माता मन्यतामनु पितानु आता सगभ्यनु सखा सयूयः। सा देवि देवमच्छेहन्द्राय सोमछरुद्रस्त्वा वर्जयतु स्वस्ति सोमसखा पुनहि ॥२०॥
यज्ञ के लिए सोम के आहरण में संलग्न आपको, आपकी माता, पिता, सहोदर–भाई, साथ–साथ रहने वाले मित्र अनुमति प्रदान करें । है (वा) देवि ! इन्द्रदेव के लिए सोम प्राप्त करने के लिए आप प्रस्थान करें । सोम ग्रहण करने के उपरान्त मकों रुदेव हम लोगों की ओर ले आएँ । आप सोम के साथ हमारा कल्याण करते हुए पुनः यौं आएँ ॥२०॥
१४९. वस्त्र्यस्यदितिरस्यादित्यासि रुद्रासि चन्द्रासि। बृहस्पतिवा सुन्ने रम्णातु को वसुभिरा च ॥२१॥
है सोमक्रयणी गौ (वाण) ! आप वसु, दे–माता अदिति, द्वादश आदित्य, ग्यारह रुद्र और चन्द्ररूपा हैं। । बृहस्पति आपको हर्षातिरेक प्रदान करें । रुडू, वसु गणों के साथ आपकी रक्षा में ॥२१ ॥
१५०, अदित्यास्त्वा मूर्द्धन्नाजिघर्मि देवयजने पृथिव्या इडायास्पदमस घृतवत् स्वाहा। अस्मे रमस्वास्मे ते बन्धुस्त्वे रायो में रायो मा वयश्रायस्पोषेण वियौष्म तोतो रायः ॥
सम्पूर्ण पृथ्वी में श्रेष्ठ स्थान स्वरूप देवों के यजन स्थान (यज्ञशाला) में (हे वाक् देवि !) आपको घृतानि प्रदान करते हैं । आप पृथ्वी की अधिष्ठात्री देवी हैं । हमारी इस धृताहुति में आप सन्तुष्ट हों । आप ऐश्वर्यवान् हैं, हमें अपना बन्धु समझकर धन–धान्य से पुष्ट करें । हमें इससे वंचित न करें ॥२२ ।। १५१. समये देव्या धिया से दक्षिणयोरुचक्षसा । मा मआयुः प्रमोषी अहं तव वीरें विदेय तव देवि सन्दृशि ॥२३॥
हे सोमक्रयणी देवि !) दीप्तिमती, दक्षिणायोग्य, विस्तीर्ण दर्शन युक्त आपके द्वारा विवेकपूर्वक हमें देखा | गया है । पलसहित हमारी आयु को आप क्षीण न करें । आपकी आयु को हम नष्ट न करें । आपकी कृपा-दृष्टि | में रहते हुए हुम पराक्रमी पुत्र प्राप्त करें ॥ २३ ॥
अविवेकपूर्वक बोली गयी वाणी फक्ति होने के पहले ही प्रभावहीन हो जाती है । वाणी की आयु शीण न हो, इसलिए | साक्क विवेकयुक्त वाणी में बोले ।।
१५२. एष ते गायत्रो भागः इति में सोमाय ब्रूतादेष ते त्रैछभों भागः इति में सोमाय ब्रूतादेष | ते जागतो भागः इति में सोमाय बुताच्छन्दोनामाना साम्राज्यं गच्छेति में सोमाय
ब्रूतादास्माकोसि शुक्रस्ते ग्रह्यो विचितस्त्वा वि चिन्वन्तु ॥२४ ।।।
हे सोम ! यह सामने दृष्टिगोचर होने वाला आपका भाग गायत्री द का है । यह आपका त्रिष्टुप् छन्द का भाग हैं, यह आपको जगती सम्बन्धी छन्द का भाग हैं । (इस प्रकार यजमान के अभिप्राय को अध्वर्यु | सोम के लिए कहें ) आप इष्णिक् आदि छन्दों के अधिपति हों जाएँ । हमारे इस अभिप्राय को आप | सोम को सूचित करें । हे दिव्य सोम ! क्रयरूप में आने पर भी आपसे हमारा अपनत्व हैं । शुक्र आदि अह आपके
ही। अनुशासन में हैं । विवेकपूर्वक आपका चयन करने वाले, तत्त्व और अत्त्व का निर्णय करके (मात्र श्रेष्ठ | अंश को ही) ग्रहण करें ॥२४॥ |
१५३. अभि त्यं देव सवितारमोण्योः कविक्रतुमर्चामि सत्यसव रत्नधामम प्रियं |मतिं कविम्। ऊ यस्यामतिर्भा : अदिद्युतत्सवीमनि हिरण्यपाणिमिमीत सुक्रतुः कृपा | स्वः । प्रशाम्यस्त्वा प्रजासत्वान्प्राणन्तु अजास्त्वमनुप्राणिहि ॥२५ ।।।
। घलोक और पृथ्वीलोक के मध्य विद्यमान, मेधावी, सत्य–प्रेरक, रत्नपोषक, सभी प्राणियों द्वारा चाहे जाने वाले, स्मरण करने योग्य नवीन तत्त्वों का साक्षात्कार करने वाले, ऊर्ध्व–मुख होकर आकाश में विद्यमान, सभी को प्रकाशित करने वालें, अपनों दीप्ति से स्वयं भी प्रकाशित होने वाले, स्वर्ण निर्मित आभरण से युक्त हाथ वाले, सत्संकल्प में स्वर्गरचना में समर्थ सवितादेवता की हम अर्चना करते हैं । हे सोम ! प्रजाओं के उपकार के लिए हम आपको स्थिर करते हैं। हे सोम ! श्वास लेने में आपका अनुसरण करती हुई प्रजाएँ जीव–धारण करें। आप
भी प्रज्ञाओं का अनुगमन करते हुए श्वास ले (अर्थात् परस्पर एक दूसरे का अनुगमन करते हुए जीवन धारण करें । |
१५४, शुक्र वा शक्रेण क्रीणामि चन्द्रं चन्द्रेणामृतममृतेन । सग्मे ते गौरस्मे ते चन्द्राणि
तपसस्तनूरसि प्रजापतेर्वर्णः परमेण पशूना क्रीयसे सहस्रपोष पुषेयम् ॥२६॥
चन्द्रमा के समान आहादक, अमृतस्वरूप हे सौम ! दीप्तिमान् आपको हम चमकते हुए सोने से क्रय करते हैं । हे सोम विक्रेता ! सोम मूल्य के बदले आपको बेची गयी गौ, पुनः यजमान के पास वापस आ जाए । आपको दिया गया देदीप्यमान स्वर्ण हमारे पास वापस आ जाए । (हे अजें ! तुम तपस्वियों की पुण्य देह हो तथा सभी
सुर्थोऽध्यायः
देवताओं को प्रिय, प्रजापति का शरीर हौं । हैं सौम ! हम श्रेष्ठ पशुधन से तुम्हारा क्रय करते हैं । अतएव आप हजारों पु-पौत्रों को पौषित करने योग्य सम्पत्तियों में वृद्धि करें ॥२६॥
अर्थनीति कहती है कि इन का यह रुके नहीं । ‘स्वर्ग सौटकर आए‘ का भाव यही है कि पुल्याचं से प्रेरित इन आवा प्रवाहमान रहे ।
१५५. मित्रो न 3 एहि सुमित्रथइन्द्रस्योरुमा विश दक्षिणमुशनुशन्तः स्योनः स्योनम् । स्वान आजाङ्घारे बम्भारे हस्त सुहस्त कृशानवेते वः सोमक्रयणास्ताक्षवं मा वो दभन्।
हे प्रिय सखा सोमदेव ! मित्रों का पोषण करने वाले आप हमारी ओर आएँ । आप सुखदायक होते हुए मङ्गलदायक दाहिनी जंघा में प्रवेश करें । ध्वनि करने वाले, सुशोभित रहने वाले, पाप के शत्रु विश्व के पोषणकर्ता, सर्बदा प्रसन्न रहने वाले, श्रेष्ठ हाथों वाले, शक्तिहीन प्राणियों के जीवनदाता, सोम की रक्षा करने वाले हे सात विशिष्ट देवगण ! सोम–क्रय के लिए स्वर्णादि आपके समक्ष रखे गये हैं, आप उन बहुमूल्य पदार्थों का रक्षण करें । आपको कोई कष्ट न पहुँचाए ॥२७ ॥
१५६. परि माग्ने दुश्चरिताद्वाधस्वा मा सुचरिते भज। उदायुषा स्वायुषोदस्थाममृतौर अनु।
| हे अग्निदेव ! आप हमें पाप से पूर्णतः बचाएँ । आप सदाचाररूपी पुरुष को (व्यक्तित्व को) हुम यजमानों । | में प्रतिष्ठित करें। यज्ञादि करते हुए उत्कृष्ट आयु से सोमादि देवताओं की आयु का अनुसरण करते हुए, सोम
की प्राप्तिरूप अमरत्व प्राप्त होने से हम उत्कृष्ट हो गये हैं ॥२८॥ |
१५७. प्रति पन्थामपद्यहि स्वस्तिगामनेहसम् । येन विश्वाः परि द्विषो वृणक्ति विन्दते वसु॥
(मार्ग के प्रति कथन) कल्याणकारी, गमन करने योग्य, पाप या अपराधरूपी बाधाओं से रहित मार्ग को हम प्राप्त करें, जिससे जाते हुए पथिकों (यजमानों ) के चोर आदि सभी शत्रुओं का निवारण हो जाता है एवं उन्हें सम्पदाओं की प्राप्ति होती है ॥२९ ।।
१५८. अदित्यास्त्वगस्यदित्यै सद् आसीद। अस्तनाद्यां वृषभो अन्तरिक्षममिमीत । वरिमाणं पृथिव्यः। आसीददिश्वा भुवनानि समाविश्वेत्तानि वरुणस्य व्रतानि ॥३० | (मृगचर्म आसन के प्रति कथन) हे कृष्णाजिन ! आप सम्पूर्ण पृथ्वी के चर्मस्वरूप हैं । आप पृथ्वी के छोटे भाग यज्ञवेदी पर आसीन हों । शक्ति–सम्पन्न वरुणदेव, द्युलोक और अन्तरिक्षलोक को स्थिर कर देते हैं । वे पृथ्वी के परिमाण को माप लेते हैं । भली-भाँति सुशोभित होते हुए (सम्राट् वरुणदेव सम्पूर्ण भुवनों को परिव्याप्त कर प्रतिष्ठित हैं । यही उनके नियत कार्य हैं ॥३७ ||
१५९. वनेषु व्यन्तरिक्षं ततान वाजमर्वत्सु पयः उस्रियासु । हृत्सु क्रतुं वरुणो विक्ष्वग्निं दिवि सूर्यमदधात् सोममद्रौ ॥३१ ।। | वरुणदेव ने वन में वृक्षों के ऊपरी भाग पर (मूर्त पदार्थों के अभाव आकाश को विस्तृत किया । अश्वयों या मनुष्यों मैं वीर्य (पराक्रम) की वृद्धि की । गौओं में दुग्ध को प्रतिष्ठित किया । हृदय में संकल्पशक्ति युक्त मन को, प्राणियों में (पाचन के लिए) जठराग्नि कों, घुलोक में सूर्यदेव को तथा पर्वत पर सोमबल्ली को स्थापित किया।
१६०, सूर्यस्य चक्षुरारोहाग्नेरक्ष्णः कनीनकम् । यतैतशेभिरीयसे आजमानो विपश्चिती ।।
३ ज्ञानयुक्त तेजस्वी ! आप अश्व (किरणों की भाँनि संचरित हों, सूर्य और अग्नि के प्रकाश की तरह लोगों की आँखों की पुतली पर (दृष्टि पर) आरोहित हों ॥३९ ।।।
१६१. उसावेतं मूषहौ युज्येथामन अवरणौ ब्रह्मचोदनौ। स्वस्त यजमानस्य गृहान्
गतम् ॥३३॥
| है सूर्य और अग्निरूप) बैलो ! (आप सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड को पोषण देने वाली सामग्रियों से भरी हुई) गाड़ी का भार वहन करने में सक्षम, उत्साहित होने के कारण (कष्ट होने पर भी) अनुपात न करने वाले, वीरों को कष्ट न देने वाले, ब्राह्मणों को यज्ञ–कार्य के निमित्त प्रेरित करने वाले हैं। आप आकर स्वयं ही रथ में जुड़ जाएँ (पोषण कृत्य में संलग्न हो जाएँ; इस प्रकार आप दोनों कल्याण करने हेतु यजमान के घरों की ओर गमन करें ।।३३।।
मिव बारा वलि अमि तथा कृति न सूर्य, ह दो ऊर्मा के स्रोत हैं, वे सटी मी ने में समर्थ है।।
१६२. भदो मेसि प्रच्यवस्व भुवस्पते विश्वान्यभि धामानि । मा त्वा परिपरिणो विदन् मा त्वा परिपन्थिनो विदन् मा त्वा वृका अघायवो विदन् । श्येनो भूत्वा परापत यजमानस्य गृहान् गछ तन्नो सस्कृतम् ॥३४॥
| हे प्राणियों के पालक सोम ! यजमानों का आप उपकार करने वाले हैं । आप (यजमा–पत्नीं, यज्ञशाला, हवि आदि सभी स्थानों को लक्ष्य कर तीव्र गति से गमन करें । आप सर्वत्र विचरण करने वाले तस्करों के ज्ञान के विषय न हों । यज्ञ–विरोधी शत्रु आपने ज्ञान न सकें । पापी भेड़िये अथवा दुर्जन आपको न जानें । बाज़ पक्षी के समान शीघ्रगामी आप दूर चले जाएँ । आप यजमान के घरों को प्राप्त करें। वहाँ (यजमानों के घरों में सभी यज्ञीय उपकरणों से युक्त उपयुक्त स्थान (यज्ञशालाएँ हैं ॥३४॥
१६३. नमो मित्रस्य वरुणस्य चक्षसे महो देवाय तदृतसपर्यत । दूरेदृशे देकजाताय केतवें दिवसाय सूर्याय शसत ॥३५॥
हे सूर्यरूपी सोम ! संसार के कल्याण के लिए अपनी किरणों से सम्पूर्ण विश्व को देखने वाले (मित्र तथा वरुण, तेज से प्रकाशित, दूर देश में रहने वाले, प्राणियों के द्वारा देखे गये, परमात्मा से उत्पन्न, प्रज्ञाप, चुलोक के पुत्र के समान प्रिय (या दिन के पालक) सूर्यदेव को नमस्कार है । (हें ऋत्विज्रो !) सूर्यरूप ब्रह्म के निमित्त आप यज्ञ करें तथा सूर्य को प्रसन्न करने के लिए स्तो–पाठ करें ॥३५ ॥
१६४. वरुणस्योत्तम्भनमसि वरुणस्य स्कम्भसर्जनी स्थो वरुणस्यप्तसन्यास वरुणस्यतसदनमसि वरुणस्यतसदनमासी ॥३६ ।।
| हैं काष्ठ उपकरण ! आप वरुणरूपी सोम की उन्नति करने वाले हों । हे शाम्ये ! आप वरुणदेव की गति को स्थिर करें । (उम्र काष्ठ निर्मित हे आसन्दी !) आप यज्ञ में वरुण (रूप बँधे हुए सोम) के आसन स्वरूप हैं । आसन्दी पर बिछे हुए हे कृष्णाजिन ! आप वरुणरूपी सौम के यज्ञ स्थान हैं । वस्त्र में बँधे हुए वरुण (रूपी
है सोम ! यज्ञ के आसन स्वरूप इस कृष्णाजिन पर सुखपूर्वक आसन ग्रहण करें ॥३६ ॥ |
१६५. या ते आमानि हविषा जन्ति ता ते विश्वा परिभूरस्तु यज्ञम् । गयस्फानः अतरणः | सुवीरोऽवीरहा अ चरा सोम दुर्वान् ॥३७॥
ई सोम ! सवनादि क्रियाओं द्वारा आपके रस को प्राप्त करके याजकगण यज्ञपुरुष का पूजन करते हैं। | आपके वे सब (यज्ञस्थल) आपको प्राप्त हों । है घरों का विस्तार करने वाले, यज्ञादि सत्कर्मों से (पूर्ण करके)
पार लगाने वाले अथवा विपत्तियों से पार लगाने वाले, वीरों के पालक कायरों के विनाशक ! आप हमारे यज्ञों में प्रस्तुत हों (पहुँचे ।।३७ ।।
सुर्योऽध्याय
–ऋषि, देवता, छन्द–विवरण – पि– प्रजापति १–७ । स्वस्त्य आत्रेय ८–१ | अंगिरस् १०–१५ । वत्स १६–३४ । अभिपन सूर्य ३५-३६ । गोतम ३७ ।
| देवता–देवयजन, कुशतरुण, क्षुर १ । आपः (जल) वास ३ । नवनीत, अञ्जन ३ । जापति, सविता ४ ।। | आशीर्वाद५ । यज्ञ६ । अग्नि, लिंगोक्त ७ । सविता दें । कृष्णाजिन ९, ३२ । मेखला, नीवि, वास, कृष्णविषाण,
दण्ड १० । यज्ञ, धी, वाक्, प्राण-उदान, चक्षु, श्रौत्र, अग्नि, मित्रावरुण, आदित्य, विश्वेदेवा ११ । आफ्:(जलो १२ । लोष्ट, मूत्र १३ । अग्नि १४-१५, २८ । अग्नि, सौम १६ । हिरण्य, आज्य, वाक् १७ । वाक्, हिरण्य १८ । वाक् रूपा गौ १९-२१ । आज्य, लिंगोक्त २९ । पत्नी, आशीर्वाद २३ । लिगोक्त, सोम २४ । सविता, सोम २५ । सोम, लिग, अजा ३६ । सोम, धिष्ण्य नाम ३५ । पन्था ३६ । कृष्णाजिन, सोम, वरुण ३० । अरुण ३१, ३६ । अनडुत् ३३ । सोम ३४, ३७ । सूर्य ३५ ।।
। छन्द- विराट् ब्राह्मीं जगती १ । स्वराट् ब्राह्मी त्रिष्टुप् २ । स्वराट् अनुष्टुप् ३ । निवृत् ब्राह्मी पंक्ति ४, १६ ।। | निवृत् आर्षी अनुष्टुप् ५, ६, २९, ३३ । पंक्ति आर्षीबृहती ७ । आप अनुष्टुप् ८ । आर्षी पंक्ति ९ । निवृत् आर्षी
जगती, सान्नी त्रिष्टुप् १० । स्वरा बायीं अनुष्टुप, आफैं उष्णिक् ११ । भुरिक् बायीं अनुष्टुप् १२ । भुरिक् आर्षी | बृहती १३ । स्वराट् आर्षी उष्णिक् १४ । ब्राह्मी वृहती १५ । भुरिक आर्षी पंक्ति १६ । आर्ची त्रिष्ट्र् १७ ।।
स्वराट् आर्षी बृहती १८ । साम्नी जगती, भुरिक आर्षी उष्णिक ३० । विराट् आर्षों बृहती ३१ । ब्राह्मी पंक्ति ३३
आस्तार पंक्ति २३ । ब्राह्मी जगती, याजुषी पंक्ति २४ । भुरिक शक्वरी, भुरिक् गायत्री २५ । मुरिंकू बाह्मी पंक्ति २६, २७ । साम्नी बृहती, साम्नी उष्णिक् २८ । स्बराट् याजुषी त्रिष्टुप, आप विद्युत् ३० । विराट् आर्षी त्रिष्टुप् ३१ । निवृत् आधीं गायत्री, यात्रुषी जगती ३३ । भुरिक आर्ची गायत्री, भुरिक् आच बृहती, विराट् आर्ची अनुष्टपू ३४ । निवृत् आर्षी जगती ३५ । विराट् बाह्मीं बृहत ३६ । निवृत् आर्षी त्रिष्टप ३७ ।।
॥ इति चतुर्थोऽध्यायः ॥
॥ अथ पञ्चमोऽध्यायः ॥
१६६. अग्नेस्तनूरसि विष्णवे त्वा सोमस्य तनूरसि विष्णवे त्वातिथेरातिथ्यमसि विष्णवे । त्वा श्येनाय त्वा सोमभृते विष्णवे त्याग्नये त्वा रायस्पोपदे विष्णवे त्वा ।।१। ।
हे सोम ! आप अग्न की भाँति ऊर्जा प्रदान करने वाले आग्नरूप है। आप दिव्य पोषक रस के रूप में हैं। आप यज्ञ में आए अतिथियों का यथोचित सत्कार करने वाले हैं ।आप सोम लाने वाले श्येन के समान हैं। धन ऐश्वर्य प्रदान कर सम्पूर्ण जगत् के पोषक अग्नि एवं विष्णुदेवता को तृप्ति के लिए हम आपको महण करते हैं ॥१ ।।
[* वेदों में येन बहुशः चर्चित पछी है। आकाश में दूर तक ने से इसे ‘-चम्‘ (मनुष्यों पर दृष्टि रखने वाला) कहा गया है। यह स्वर्ग से सोम को पृथ्वी पर लाने के लिए विशेष प्रसिद्ध है।)
१६७. अग्नेर्जनित्रमसि वृषणौ स्थः उर्वश्यस्यायुरसि पुरूरवाई असि। गायत्रेण त्या छन्दसा मथामि नैमेन त्वा छन्दसा मन्यामि जागतेन त्वा छन्दसा मन्यामि ॥३॥
हे शकल ! आप अग्नि उत्पादन के आधार हैं । हे कुशाओ ! आप (अग्नि उत्पन्न करने में सक्षम होने के कारण वीर्य स्वरूप हैं । अग्नि को उत्पन्न करने में सहायक, नीचे की शमी ‘उर्वशी‘ के समान तथा ऊपर की शमी ‘पुरूरवा‘ के समान सबका ध्यान आकर्षित करने वाले हैं। हे पात्र में विद्यमान घृत ! आप अग्नि को आयु प्रदान करने वाले अर्थात् देर तक प्रज्वलित रखने वाली हैं। हे अग्निदेव ! आपको प्रकट करने के लिए गायत्री, त्रिष्टुप तथा जगती छन्दों के साथ मन्थन करते हैं ।। ।।।
१६८. भवतं नः समनसौ सचेतसावरेपसौ । मा यज्ञश्च हिसिष्टं मा यज्ञपतिं जातवेदसौ शिवौ भवतमद्य नः ॥३॥
एका मन वाले, सहावयुक्त एवं प्रमादरहित में अग्निदेव ! हमारे अपराधों पर क़द्ध न होते हुए, आप हमारे यज्ञ को नष्ट न होने दें। यजमानों का भी नाश न होने दें। उनकी रक्षा करें । आज का दिन हम सबके लिए कल्याणप्रद तथा शुभ हो ॥३॥
१६९. अग्नावग्नश्चरति प्रविष्ठ ऋषीणां पुत्रो अभिशस्तिपावा। स नः स्योन: सुयजा यह देवेभ्यो हृव्य सदमप्रवृच्छत्स्वाहा ॥४॥
| वेदज्ञाता ऋषियों के पुत्र स्वरूप हे वग्गण ! प्रमादवश दिये गये शापों से यजमान के रक्षक ये आहवनीय अग्निदेव, यज्ञ कुण्ड़ में प्रतिष्ति होकर हवन का सेवन करते हैं । हे अग्निदेव ! आप यजमानों के लिए कल्याणकर होते हुए इस श्रेष्ठ यज्ञ में हम लोगों द्वारा प्रदान की गई आहुतियों को, आलस्यहत होकर (प्रज्वलित रहकर) ग्रहण में तथा इन्द्रादि देवताओं तक पहुँचाएँ ४ ।।
१७०, आपतये त्वा परिपतये गृह्णामि तनूनने शाक्वराय शक्यनः ओजिष्ठाय । अनावृष्टमस्यनाधृष्यं देवानामोजोइनभिशस्त्यभिशस्तिपाः अनभिशस्तेन्यमञ्जसा सत्यमुपगेघ ४४ स्विते मा थाः ॥ ५ ॥
सर्वत्र गमन करने वाले, सर्वव्यापी, सभी को पौत्र के समान प्रिय, सर्वकार्य सम्पादन में सक्षम, बलशाली | हे आय !हम आपको यज्ञ कार्य के लिए स्वीकार करते हैं । आप किसी से तिरस्कृत न होने वाले, किसी को | तिरस्कार न करने वाले अग्नि आदि देवों के ओज स्वरूप, निन्दित कर्म से रक्षा करने वाले तथा प्रशंसा के योग्य
हैं। अतएव है शरीर–रक्षक आय ! सरल तथा श्रेष्ठ मार्ग पर ले चलने वाले आप यज्ञकर्म में हमें स्थापित करें । |
१७१. अग्ने व्रतपास्त्वे व्रतपा या तब तनूरिय-xसा मयि यो मम तनुरेषा सा त्वयि । सह
नौ वृतपते व्रतान्यनु में दीक्षां दीक्षापतिर्मन्यतामनु तपस्तपस्पतिः ।।६।। | हे व्रत पालन में अग्रगण्य अग्ने ! आप हमारे वर्तमान व्रत का पालन करने वाले हैं। व्रतपालक आफ्का जो
शरीर है, वह हमसे एकीकृत हो । हे व्रतपते ! व्रत कार्यों के द्वारा अग्नि और यजमान समानरूप से आदर के पात्र हों । दीक्षा का पालन करने वाला सोम हमारी दीक्षा का अनुपालन करें, अर्थात् दीक्षित व्यक्ति और दीक्षा दाता में परस्पर सौहार्दू बढे । तपस्या का अधिपति (गुरु) तथा तपश्चर्या करने वाला (शिष्य) दोनों समान भाव वाले हों ।।६ ॥
१७२. अशर शष्टे देव सोमाप्यायनामिन्द्रायैकदनविदे। आ तुभ्यमिन्द्रः प्यायतामा | त्वमिन्द्राय प्यायस्व आप्याययास्मान्त्सखीन्सन्या मेधया स्वस्ति ते देव सोम सुत्यामशीय। एष्टा रायः श्रेषे भगाय ऋतमृतवादिभ्यो नमो झावापृथिवीभ्याम् ॥७॥
हे सोमदेव ! सोमवल्ली के सम्पूर्ण अवयव धनवान् इन्द्र के लिए प्रीतिकर होते हुए वृद्धि को प्राप्त के । आपको पीने से इन्द्रदेव वृद्धि को प्राप्त करें । हें सोम ! आप भी इन्द्रदेव के लिए बढ़ें । आप प्रिय प्रत्विजों की धन प्रदायक-शक्ति से अभिवृद्धि को प्राप्त करें । है सोमदेव ! आपका कल्याण हों । आपकी कृपा से हम सोम-सवन कार्य को शीघ्र ही समाप्त करें । आपकी अनुकम्पा से हम धन प्राप्त करें। सत्यवादी अग्निदेय के होता को सत्यफल की प्राप्ति हो । द्यावा–पृथिवी ( में सन्निहित देवशक्तियों ) को हम नमस्कार करते हैं ॥७ ।।
१७३. या ते अग्नेयःशया तनूर्वर्षिष्ठा गह्वरेष्ठा। उग्रं वचो अपावधीत्वेष वचो अपावधीत्स्वाहा । या ते अग्ने रजःशया तनूर्वर्षिा गब्बरेठा। उग्रं वचो अपावधीत्वेषं वचों अपावधीत्स्वाहा। या ते अग्ने हरिशया तनूर्वर्षिष्ठा गह्वरेष्ठा। उग्रं क्यो अपावधीत्वेषं वचो अपावधीत्स्वाहा ।।८।।
हे अग्निदेव ! जो आपका लौहमय, रजतमय तथा स्वर्णमय शरीर हैं, वह देवताओं की मनोकामना को पूर्ण करने वाला, असुरों को दुर्गम स्थानवाली गुफाओं में अवस्थित करने वाला, राक्षसों के कठोर शब्दों को नष्ट करने वाला तथा देवताओं के निमित्त आरोप–प्रत्यारोपपूर्वक उच्चारण किये गये कथन को पूर्णतया प्रभावहीन कर देने वाला है । इस प्रकार के महिमाशाली शरीरधारी आपके लिए यह आहुति प्रदान की जा रही है ।।८ ॥
१७४. तप्तायन मेसि वित्तायनी मेऽस्यवतान्मा नाथितादवतान्मा व्यथितात् । विदेदग्निर्नभो नामाग्ने अङ्गिर आयुना नाम्नेहि योऽस्यां पृथिव्यामसि यतेऽनाई नाम यज्ञियं तेन त्वा दधे विदेदग्निर्नभो नामाग्ने अङ्गिरः आयुना नाम्नेहि यो द्वितीयस्यां पृथिव्यामसि यत्तेनाधृष्टं नाम यज्ञियं तेन त्वा दथे विदेदग्निर्नमो नामाग्ने अङ्गः आयुना नाम्नेहिं यस्तृतीयस्यां पृथिव्यामस यत्तेनाधृष्टं नाम यज्ञियं तेन त्या दये। अनु वा देवीतये॥ | हे पृथ्वीदेवि ! आप’तप्तायनी’ ऊर्जा प्रदान करने वाली और ‘वित्तायनी‘ धन प्रदान करने वाली हैं। दीनता से हमें बचाएँ । हे देवि ! (खनन की हुई मृत्तिका) ‘नभ‘ नाम वाली अग्नि (अंतरिक्ष में संव्याप्त और आपको जाने (आपकीं और उन्मुख हो ) । है अंगिरस् ! (अंगों में संव्याप्त अग्न) आप आयुष्य के रूप में इस स्थान पर पधारें । आप दृश्यमानरूप में पृथ्वी पर निवास करने वाले हैं। आपका जो अतिरस्कृत, अनिच्च वीयरूप है,
मुकेंद संहिता
उसी रूप में हम आपको यहाँ स्थापित करते हैं। है ‘नभ‘ नाम से जानें, जाने वाले अग्निदेव ! आप जिस उद्देश्य से द्वितीय स्थान में हैं, उसी उद्देश्य से दूसरी बार पृथ्वी पर नष्ट न होने वाले यज्ञीयरूप में आपको स्थापित करते है। जिस कारण आप तृतीय स्थान में अवस्थित हैं, इस नष्ट न होने वाले यज्ञीयरूप में आपको इस स्थान पर | स्थापित करते है। हैं मृत्तिके! देवताओं के निमित्त (उत्तर वैदिका के लिए आपको स्थापित करते है ॥६ ॥
१७५. सि is सि सपलसाही देवेभ्यः कल्यस्व सिसि सपत्नसाही देवेभ्यः शुन्चस्व सिसि सपत्नसाठी देवेभ्यः शुम्भस्य ।।१० ॥
सिंहनी के समान शत्रुओं का नाश करने वाली हैं उत्तर वैदिके! आप अपनी सामर्थ्य से देवों का हित करने में समर्थ हैं। शत्रुओं का नाश करने वाली सिंहनी रूप, आप देवताओं के हित में पवित्रता को प्राप्त हों । आप शत्रु विनाशिनी सिंहनी हैं; शुद्ध होकर देवों के पक्ष में कार्य करें तथा उन्हें प्रसन्न करें ।।१० ॥
१७६. इन्द्रघोषस्त्वा वसुभिः पुरस्तात्पातु अचेतास्त्वा रुः पश्चात्पातु मनोजवास्त्वा पितृभिर्दक्षिणतःपातु विश्वकर्मा त्वादित्यैरुत्तरतः पात्विदमहं तप्तं वार्बहिर्था यज्ञान्निःसृजामि।
हे उत्तरवेदि ! अष्ट वसुओं के साथ इन्द्रदेव पूर्व दिशा से आपकी रक्षा करें । ग्यारह रुद्रों सहित वरुण देवता पश्चिम की ओर से आपकी रक्षा करें । पितरों सहित यम देवता दक्षिण दिशा में आपकी रक्षा करें । द्वादश | आदित्य सहित विश्वेदेवा उत्तर दिशा की ओर से आपकी रक्षा करें । आपकी रक्षा के लिए प्रोक्षण किये गये जल
को हम वेदी के बाहर की ओर स्थापित करते हैं ॥११ ।। |
१७, सिसि स्वाहा सिहास्यादित्यवनिः स्वाहा सिसि ब्रह्मर्वानः क्षत्रवनिः स्वाहा सिसि सुप्रजायनी रायस्पोषवनि:स्वाहा सिथ्त्र ह्यस्यां वह देवान् यजमानाय स्वाहा
भूतेभ्यस्त्वा ॥१२॥
हे उत्तरचेदि ! आप सिंहनी रूप हैं । सिंहनी रूप आपको यह आहुति समर्पित हैं। आप सिंहनी रूप हैं। आप आदित्य को प्रसन्न करने वाली हैं। यह आहुति आप को दी जा रही है। आप सिंहनी रूप है । आप ब्राह्मण एवं क्षत्रियों को हर्षित करने वाली है। इस रूप वाली आपको आहत प्रदान की जाती है। आप सिंहनी रूप हैं।
आप पुत्र, पौत्र तथा स्वर्गादि ध+धान्य को देने वाली हैं। यह आत्ति आपके लिए हैं। आप सिंहूनी रूप हैं। यजमान के उपकार के लिए देवताओं का आवाहन करने वाली हैं । प्राणिमात्र के कल्याण हेतु यह आहुति आपको समर्पित करते हैं ॥१३ ।।।
१७८. धुवोसि पृथिवीं दृ छह घुवक्षिदस्यन्तरिक्षं द छ हाच्युतक्षिदसि दिवं दृ छ हाग्नेः पुरीवमसि ॥१३॥
हे मध्यम परिधि ! आप स्थिर है। अत: पृथ्वी को आप दृढ़ करें । हे दक्षिण परिधि ! आप अन्तरिक्ष में स्थिर यज्ञ में निवास करने वाली है, अतएव आप अन्तरिक्ष को पुष्ट करें । हे उत्तर परिधि ! आप द्युलोकरूप हैं, अतः घुलोक को स्थिर करें । हे गुग्गुल आदि सुगन्धित द्रव्य समूह ! आप अग्नि को पूर्ण करने वाले हैं ॥१३॥
१७९. युजते मनः उत युञ्जते थियो विप्रा विप्रस्य बृहतो विपतिः । वि होत्रा दये वयुनाविक इन्मही देवस्य सवितुः परिघुतिः स्वाहा ॥१४॥
| महान् , सर्वज्ञ, वेदों का भली–भौति अध्ययन करने वाले ऋत्वग्गण, सांसारिक विषयों से मन को हटाकर | यज्ञ कार्य की पूर्णता के विषय में विचार करने लगते हैं। सम्पूर्ण प्राणियों के साक्षीभत प्रेरणा देने वाले, सर्वदा
श्रेष्ठ स्तुतियों से प्रशंसित सवितादेवता को अनुकूल करने के लिए यह आहुति प्रदान की जाती है ॥१४॥
पंचमोऽध्याय
१८०, इदं विष्णुर्विचक्रमे त्रेधा नि दचे पदम् । समूढमस्य पा ॐ सुरे स्वाहा ॥१५॥
हे विष्णुदेव! आप अपने सर्वव्यापी प्रथम पद पृथ्वी में, द्वितीय पद अन्तरिक्ष में तथा तृतीय पद घुलोक में स्थापित करते हैं। भूलोक आदि इनके पद–रज में अन्तर्हित हैं। इन सर्वव्यापी विष्णुदेव को यह आहुति दी जाती है ॥१५॥ | | विगुण तीन पगों में सम्पूर्ण बहुमानाप लेने का आलंकारिक वर्णन है। विष्णु पोषण करने वाले हैं, न भी पोप है, इसीलिए ‘जो वै वि‘ कहा गया है। इस पोषक ता के तीन चरण आियामी सृष्टि पृमी, अन्तरिक्ष एवं | फुलोक में संपात ]
१८१. इरावती बेनुमती हि भूतश्च सूयवसिनी मनवे दशस्या । व्यस्कभ्ना रोदसी विघ्यावेने दाश्वत्थं पृथिवीमभितो मयूखैः स्वाहा ॥१६॥
हैं पृथ्वी एवं द्युलोक ! आप, लोगों के लिए कृषि, सम्पत्ति से युक्त अनेकों गौओं को देने वाले, यवादि श्रेष्ठ | अन्नों को देने वाले तथा विवेकवान् पुरुषों के लिए यज्ञ-साधनों को प्रदान करने वाले हैं । हे विष्णुदेव आपने द्युलोक एवं पृथ्वीलोक या विभाग करके उसे स्थिर कर दिया है। आपने पृथ्वीलोक को तेजस्वी किरणों में | परियाप्त कर लिया है। आपके लिए हम यह आहुति समर्पित करते हैं ॥१६॥
१८२. देवश्रुतौ देवेचा घोषतं प्राचीं प्रेमध्वरं कल्पयन्ती ऊर्ध्वं यज्ञं नयतं मा जिल्लरतम्। | स्वं गोठमा वदतं देवा दुर्ये आयुर्मा निर्वादिष्टं फ्रज मा निर्वादिष्टमत्र उमेथां वर्मन् | पृथिव्याः ।।१७ ॥
इस मंत्र के साव विश्वन–कट पर हुव्य स्थापित करके ले जाने का विधान हैं
हे देवश्रुत ! (दिव्य विद्याओं में निपुण) आप दोनों देव सभा में यह घोधित करें कि वे देवगण यज्ञ को पूर्व दिशा (पूर्व निर्धारित सनातन अनुशासन की ओर अग्रसर करें, यज्ञ को ऊर्ध्वगति प्रदान करें, नीचे न गिरने दें । | आप दोनों देवस्थान में स्थित गोशाला में कहें कि वे देवगण ज्ञब तक आयु हैं, तब-तक यज्ञकर्ता को एवं प्रज्ञा को | निन्दित न होने दें । पृथ्वी के इस रहने योग्य, सेवनीय प्रदेश (यज्ञ क्षेत्र में आनन्दपूर्वक वास करें ॥१७॥
देवल स्थित गोशाला का व्यापक अर्थ है देवक्तयों द्वारा स्थाप्ति पोषण प्रदायक तंत्र ।।
१८३. विष्णोर्नुकं वीर्याणि प्रवचं यः पार्थिवानि विममें रजाईसि । यो अस्कभायदुत्तर समस्यं विचमाणघोरुगायों विष्णवे चा ॥१८॥
जों पृथ्वी, अन्तरिक्ष तथा घुलोक को बनाने वाले है, जो देवताओं के निवास स्थान द्युलोक को स्थिर कर देते | हैं, जो तीन विशाल पद–क्रमों में तीनों लोकों में विचरण करने वाले हैं। अथवा संसार में अग्नि, वायु तथा सूर्यरूप
में विद्यमान रहने वाले हैं )-ऐसे विष्णुदेव के वीरतापूर्ण कार्यों का हम वर्णन करते हैं । (हे काष्ठ ! इस शकट | के अभिमानी देवता) विष्णुदेव की प्रसन्नता के लिए हम तुम्हें स्थापित करते हैं ॥ १८ ॥
१८४, दिवो वा विष्णः उत वा पृथिव्या महो वा विण ; उरोरन्तरिक्षात् । उभा हि हस्ता
वसूना पृणस्वा प्रयच्छ दक्षिणादोत सव्याद्विघ्यावे त्वा ॥१९॥
हे विष्णुदेव ! धुलोक या पृथ्वी–लोक से अथवा अत्यधिक विस्तृत अन्तरिक्षलोक से, उपलब्ध किये गये धन से, आप अपने दोनों हाथों को परिपूर्ण करें । इसके बाद दाहिने हाथ से तथा बायें हाथ से बहुमूल्य एवं प्रचुर | ऐश्चर्य हमें प्रदान करें । (हे कान ! विष्णुदेव की प्रसन्नता के लिए हम तुम्हें स्थापित करते हैं ॥ १६ ॥
१८५, प्र तद्विष्णुः स्तवते वीर्येण मूगो न भीमः कुचरो गिरिष्ठाः । यस्योरुषु त्रिषु विक्रमणेष्वपिक्षियन्ति भुवनानि विश्वा ॥२०॥
| युर्वेद संहिता
सिंह के सदृश भयानक (मत्स्यादि अवतारों द्वारा पृथ्वी पर विचरण करने वाले तथा पर्वतबासौ–सर्वव्यापी भगवान् विष्णु अपने पौरुष के कारण स्तुत्य हैं। जिन विष्णु के तीन विशाल कदमों (पृथ्वी, द्युलोक, अन्तरिक्षा के
आश्रय में सम्पूर्ण लोक निवास करते हैं, उन विष्णुदेव की यहाँ स्तुति की जा रही हैं ।।२० ।।
१८६. विष्णो रराटमसि विष्णोः श्नख्ने स्थो विष्णोः स्यूरसि विष्णोईवोसि । | वैष्णवमसि विगर्व वा ॥२१॥
इस मंत्र के साथ मण्डप आमदम का नियम हैं
कुश के समूह को स्थान देने वाले हे आधार ! आप (विष्णुरूप मण्डप के ललाट हैं। है मस्तक के दोनों | भाग ! आप विष्णुरूप मण्डप के काष्ठों के संधिस्थल हैं । हे सूत्र ! विष्णुरूप आप लोकों को व्यापक बनाने वाले
हैं। है इनु ग्रंथि ! विष्णुरूप आप लोकों को स्थिर करने वाली हैं। है हनिर्धान मण्डप ! आप सर्वव्यापक विष्णु | में संबन्धित हैं । अतएव हम विष्णुदेव की प्रसन्नता के लिए आपका स्पर्श करते हैं ॥ २१ ॥
१८७, देवस्य त्वा सवितुः प्रसवेऽश्विनोबहुभ्यां पूष्णो हुस्ताभ्याम् । आ ददे नार्यस | दमक्षसां ग्रीवा अपिकृन्तामि। बुन्नस बुनुवा बृतीमिन्द्राय वाचं यद ।। ।।
हैं अभि देवता ! हम सवितादेवता के विद्यमान होने पर भी अश्विनीदेवों की बाहुओं से तथा गृथा देवता के हाथों से आपको स्वीकार करते हैं। आप हमारी सहायक हैं। वृष गाड़ने के लिए खनन करते हुए हम यज्ञ के विघ्नकारक राक्षसों के गले को काटते हैं । हे उपरव (नामक गर्त) * आप महान् हैं, आप अधिक ध्वनि करने | वाले हैं। अतएव आप इन्द्र को लक्ष्यकर उनके निमित्त स्तोत्रों का पाठ करें ॥२३ ॥
| सोमयाग के हवयन मप में एक विशेष प्रकार का माया जाने वाला ग से अफ क ईटों से चिई करके बैंक दिया जाता है, केवल विदिशाओं में चार छिद्र होते हैं।
१८८, रक्षोहणं वलगहनं वैष्णवमिदमहं तं वलगमुत्किराम यं में निध्यो यममात्यो निचखानेदमहं तं बलगमुत्करामि यं में समानो यमसमानों निचखानेदमहं तं | वलगमुकिरामि यं में सबन्धुर्यमसबन्धुर्निचखानेदमहं तं बलगमुकिरामि यं में सजातो
यमसजातो निचखानोत्कृत्यां किरामि ॥२३॥
इस मंत्र के साथ स्थल की अनावश्यक मृत्तिका खोदकर बाहर फेंकने का विधान है
राक्षसों का विनाश करने वालों, हिंसा के गुप्त प्रयोगों को नष्ट करनेवाली वैष्णवी (पोषण देने में समर्थ ) बृहद् वेदवाणी बोलें । हमारे अनिष्ट के लिए अमात्य (परामर्श दाता) आदि द्वारा गुप्तरूप से स्थापित गूढ़–घातक प्रयोग को हम उखाड़ कर बाहर फेंकते हैं । जस अनिष्टकारी गुप्त प्रयोग को हमारे समान या असमान (कम या अधिक सामर्थ्यवान् ने छिपा कर रखा हो, उसे हम उखाड़ कर दूर फेंकते हैं । जो अनिष्टकारी प्रयोग छद्मपूर्वक | हमारे बन्धुओं या अबन्धुओं ने स्थापित किये हों, उन्हें हम उखाड़ कर दूर हटाते हैं। जिस गुप्त प्रयोग को हमारे सजातीय अथवा विजातीय लोगों ने अनिष्ट के लिए स्थापित किया हो, उसे हम खोदकर दूर हटाते हैं। इस प्रकार की गयौं घातक गुप्त क्रियाओं को हम निर्मूल कर दें ॥२३॥
१८९. स्वराडसि सपत्नहा सत्रराडस्यभिमातिहा जनराडसि रक्षोहा सर्वराडस्यमित्रहा ॥२४
पम्स पर कमाये गये अट (गों को लक्ष्य करके प्रकृति के विशाल गर्न की प्रतिष्ठा के समय इस मंत्र का प्रयोग होता है ।कारान्त से सूचि के शिान गर्न को लक्ष्य के यन मंत्र का गया है –
हैं गतं ! आप प्रकाशवान् होने से (अंधकाररूप) शत्रुओं को नष्ट करने वाले हैं। आप यज्ञ के पूरे सत्र तक | रहने वाले हैं और आप अभिमानियों के विनाशक हैं । आप श्रेष्ठ लोगों में सुप्रतिष्ठित होने के कारण राक्षसों को | नष्ट करने वाले हैं। आप सबको प्रकाशित करने वाले हैं तथा अमित्रों के विनाशक हैं ॥२४ ॥
पंचमोऽध्याय
१९०. रक्षोहणो वो वलगहनः प्रोक्षामि वैष्णवान् रक्षोहणो वो बलगहनोवनयामि वैष्णवान् रक्षोहणो वो वलगहनोवस्तृणामि वैष्णावान् रक्षोहणौ वां वलगहनाऽ उप दधामि वैष्णवी रक्षोहणौ वां वलगहनौ पहामि वैष्णवी वैष्णवमसि वैष्णवा स्थ ॥२५॥
राक्षसों एवं अभिचार–साधनों का विनाश करने वाले विष्णुदेवता से संबन्धित गर्त का हम प्रोक्षण करते हैं। | राक्षस एवं अभिचार–साधनों के विनाशक विष्णुदेवता से अधिष्ठित गर्त को इम बचे हुए जल से छिड़ककर
कुश-आस्तरण (चटाई) को बिछाते हैं राक्षसों एवं अभिचार-साधनों के हन्ता विष्णुदेवता से युक्त ग को | कुशास्तरण से ढकते हैं। राक्षसों एवं उनके अभिचार के कार्यों का नाश करने वाले विष्णुदेवता से सम्बन्धित । दोनों गद्दों के ऊपर एक–एक फलक (पट्टा) रखते हैं। राक्षसों एवं उनके अभिचार मंत्रों का विनाश करने वाले, विष्णु से सम्बन्धित गट्टे को चारों ओर से मिट्टी से ढकते हैं । है पत्थरों ! आप यज्ञरक्षक विष्णु के साथ जुड़ जाएँ ।। |
१९११. देवस्य चा सवितुः प्रसवेऽश्विनोर्बाहुभ्यां पूष्णो हस्ताभ्याम् । आदरें | नार्यसीदम–रक्षसां ग्रीवाः अपिकृन्तामि। यवसि यवयास्मद्वेषो यवयारातीदिवे | त्वान्तरिक्षाय त्वा पृथिव्यै त्वा शुन्धन्ताँल्लोकाः पितृपदनाः पितृघदनमसि ।।२६ ॥
है अधि (में आधिष्ठित देवसत्ता) ! हम सविता से प्रेरित अश्विनीदेवों की भुजाओं से तथा पृषादेव के हाथों से आपको स्वीकार करते हैं। आप हमारे अनुकूल हों । गट्ठा खोदने के रूप में हम अब राक्षसों की गर्दन काटते हैं । उनका विनाश करते हैं । हे यव ! (पृथक करने के स्वभाव से युक्त) दुर्भाग्य से तथा शत्रुओं के समूह से आप हमें अलग करें । हे उदुम्बर वृक्ष की शाते ! (अग्रभागों द्युलोक को हर्षित करने के लिए, (मध्यभाग) अन्तरिक्षलोक को प्रसन्न करने के लिए तथा (मूलभाग) पृथिवीं को प्रसन्न करने के लिए हम आपका प्रोक्षण करते हैं । हे यजुर् ! इस जल से पितरों का निवास स्थान शुद्ध हो । हे कुश ! आप पितरों के आवास स्थान हैं ।।२६ ।।
। मिट्टी में गड़े खोदने के इपयोग में लाया जाने वाला काष्ठ उपकरण ।।
१९३. उद्दिव स्तभानान्तरिक्षं पृण दह्रस्व पृथिव्यां द्युतानस्वा मारुतो मिनोतु | मित्रावरुणौ युवेग भर्मणा । ब्रह्मवनि त्वा क्षत्रवन रायस्पोषवनि पहामि ब्रह्म दृ% हूँ | क्षत्रं दृध हायुद्धं हु प्रजां दृ ४४ ह ।।२७ ॥
हे उदुम्बर (गूलर की लकड़ी) शाखें ! आप घुलोक को ऊँचा उठा दें तथा अन्तरिक्ष को संव्याप्त करें । पृथ्वी को भी स्थिर करें । हे अदुम्बर शाखें ! दीप्तिमान् मरुत् और वायु तथा मित्रावरुण आपको स्थिर करने के लिए | गड़े में झालते हैं। है शाखें ! ब्राह्मण, क्षत्रिय तथा वैश्यों द्वारा स्तुत्य आपके चारों और हम मिट्टी डालते हैं। हैं
उदुम्बर शाखें ! हम आपको स्थिर करते हैं। आप भी बाह्मण, क्षत्रिय, राय(धन) तथा पुवादि को सुस्थिर करें ॥२५ । |
१९३. झुवासि धुवोयं यजमानोस्मिन्नायतने प्रज्ञया पशुभिर्भूयात् । घृतेन द्यावापृथिवीं | पूर्वेथामिन्द्रस्य छदिसि विश्वञ्जनस्य छाया ।।२८ ।।
| हैं उदुम्बर शाखें ! आप स्थिर हों । अज्ञमान भी अपने घर में पुत्र तथा पशुओं में पूर्ण होता हुआ स्थिर हो । इस घृत आत से आप द्युलोक और पृथ्वी को संव्याप्त करें । हे तृण निर्मित छप्पर ! आप इन्द्र से जुड़ गये हैं,
अतः आप सभी लोगों के छाया स्वरूप हैं ।।२८ ।। |
१९४. परि त्वा गिर्वणो गिरऽ इमा भवन्तु विश्वतः । वृद्धायुमनु वृद्धयो जुष्टा भवन्तु जुष्टयः ।।
हे स्तुत्य इन्द्रदेव ! श्रेष्ठ वृद्ध पुरुष, तीनों कानों में सवन करने वाले यजमान तथा स्तोत्ररूपी शस्त्र वाली स्तुतियाँ आपको सभी ओर से प्राप्त हों । आप हमारी सेवा से प्रसन्न हों ।।२९ ॥
१९५, इन्द्रस्य स्यूरसीन्द्रस्य धुवोसि । ऐन्द्रमसि वैश्वदेवमसि ।।३० ॥
है रञ्जु ! आप इन्द्रदेव का सम्बन्ध जोड़ने के सौवन रूप हैं । है अन्थि ! आप इन्द्रदेव से संयुक्त होकर स्थिर हों । हे सदों (गृह या यज्ञशाला) मण्डप ! अब इन्द् आपके अभिमानी देवता हैं । हे आग्नीध ! आप इन्द्रदेव से
सम्बन्धित हो गये हैं। सभी देवताओं से सम्बन्धित हो जाएँ ॥३०॥ |
१९६. विभूरसि प्रवाहणो वह्निरसि हव्यवाहनः । श्वात्रोसि प्रचेतास्तुथोसि विश्ववेदाः ।।
हे आग्नीश्रय धिष्ण्य (प्रधान वैदिके) ! आप में प्रज्ज्वलित हुई अग्नि अन्य बंदियों पर पहुँचाई जाती हैं। अत: वह व्यापक अग्नि विविध रूपों में जानी जाती है । है होधिघाय ! आप में प्रकट हुई अग्नि यज्ञ को वन करती है तथा देवों के लिए प्रदान की गयी हवि को धारण करने से हुव्यवाहन है । हे मित्रावरुणधिष्ण्य ! आपमें प्रकट हुई अग्नि सब मित्र होने से श्वात्र’ एवं विकारों का शमन करने से ‘बरुण’ है । हे ब्राह्मणच्छंसिधिष्ठाय ! आप ब्रह्मस्वरूप और सभी को जानने वाले हैं ।।३१ ।।। १९७. उशिगसि कविरङ्गारिरसि बाभारिरवस्यूरसि दुवस्वाञ्झुन्थ्यूरसि मार्जालीयः समाइसि कृशानुः परिषद्योसि पवमानो नभोसि प्रतक्वा मृष्टोसि ह्यसूदन क्रतधामसि स्वयतिः ।।३२ ॥
है पोधियय ! आप कामना के योग्य तथा नूतन ऋचाओं का दर्शन करने वाले हैं। हे नेधिध्याय ! आप पापनाशक और पोषणकर्ता हैं । ॐ अच्छावाधिमाय ! आप अन्न की कामना करने वाले तथा हृवियुक्त हैं। हे होत्रादिधिष्य !(दक्षिण दिशा में स्थित) आप शुद्ध और पवित्र करने वाले हैं । हे उत्तर वेदी में विद्यमान आहवनीय !
आप अनेक आहुतियों को धारण करने के कारण सम्राद् तथा व्रतधारी–कृश यजमान के पास जाने के कारण आप | कृशानु हैं। है बहिष्पवमान देश ! आप चिञों से घिरे हुए तथा पावन हैं। हे चाचाल ! खोदते समय पर उठाये जाने के कारण आप आकाश रूप तथा प्रदक्षिणा के निमित्त विजों द्वारा गमन करने के कारण आप ‘प्रतक्वा‘ (प्रदक्षिणं तकति गच्छन्ति ऋत्विजों यत्र स प्रतक्वा) हैं। हें शामित्र ! आप शुद्ध तथा हवि को पकाने वाले हैं । हे उदुम्बर शाखे ! आप सामगान के स्थान तथा स्वर्ण में प्रकाशित सूर्य ज्योति हैं ।।३२ ।।
१९८, समुद्रोसि विश्वव्यचा अजोस्पेकपादहिरसि बुध्यो वागस्यैन्द्रमसि सदस्य॒तस्य द्वारौ | मा मा सन्ताप्तमध्वनामध्वपते मा तिर स्वस्ति मेस्मिन्पथि देवयाने भूयात् ॥३३॥
( हे ब्रह्मासन ! आप समुद्र के समान अगाध ज्ञानवान्, सत्–असत् कार्यों के ज्ञाता हैं । (हे प्राचीन यज्ञशाला | के द्वार की लकड़ी के अग्रभाग ) आप यज्ञस्थल पर जाने वाले तथा सम्पूर्ण प्राणियों को एक पैर के नीचे अनुशासित करने वाले हैं । (हे प्रावहित } आप नये स्थान पर रखे जाने पर भी नष्ट न होने वाले तथा सर्वप्रथम स्थापित होने के कारण (सर्वज्ञतया मूल अग्नि हैं । (हें सदो मण्ड़प !) आप वाणरूप हैं, इन्द्रदेवता से संयुक्त है। तथा उनके गृह के रूप में हैं । (हे सदोमाय द्वार की दोनों शाखाओ ! आप यज्ञद्वार पर स्थापित हैं। बार–बार आने-जाने से दुःखों न हों । (हे मार्गरक्षक सूर्य !) मार्ग के मध्य में विद्यमान आप मेरी अभिवृद्धि करें। देव-प्राप्ति मार्ग या (यज्ञ-पथ पर चलते हुए हम कल्याण को प्राप्त करें ।। ३३ । ।
[* यशाला में स्थित ‘पलीशाला के पश्चिमी भाग में विद्यमान पुरातन गार्हपत्याग्नि को प्रापति कम जता है – मह भाः ] १९९. मित्रस्य मा चापेक्षध्यमग्नयः सगराः सगरास्थ सगरेण नाम्ना रौद्रणानीकेन पात माग्नयः पिपत माग्नयो गोपायत मा नमो वस्तु मा मा हि 5 सिष्ट ॥३४ ॥
पंचमोऽध्याय
ऋत्विज् ! आपकी, हम याजकों पर मङ्गलमयी दृष्टि हौं । है अग्नियों ! आप नाम–इति तथा धिण्य नासहित स्तुतियों के प्रति समान भाव रखें । हे अग्नियों ! आप भयंकर सेना से हमारी रक्षा को । हे अग्नियों ! हमें धन–धान्य से पूर्ण कर दें तथा हमारी रक्षा करें । हम आपको नमस्कार करते हैं। आप हमारी हिंसा न करें, अर्थात् हमारे यज्ञ निर्विघ्न सम्पन्न कराएँ ॥३४ ।।
२००. ज्योतिरसि विश्वरूपं विश्वेषां देवाना समित्। त्वछ सोम तनूकृयो द्वेषोभ्यान्यकृतेभ्यः उरु यन्तासि वरूथ स्वाहा जुषाणो अतुराज्यस्य वेतु स्वाहा ।।३५ ॥
हे आज्य ! आप अनेक आहुतियों से युक्त होने के कारण विश्वरूप, प्रकाश से युक्त तथा सभी देवताओं को समिधा के समान हैं। आप प्रचरणी नामक जुहू में रखे हुए सोम से शत्रुओं का नाश करने वाले हैं। आप हमारे विरोधियों द्वारा किये गये अन्य असत् कार्यों के विनाशक है । आप शत्रुओं से सुरक्षित स्थान पर हमें ले जाने वाले हैं। आप ही हमारे बल हैं । सोम को ले आने के लिए यह आहुति आपको दी जा रही है । हे सौम ! प्रसन्न होते हुए आप आज्य का सेवन करें- यह आहुति आपको समर्पित हैं ॥३५ ।।
२०१. अम्ने नय सुपथा राये अस्मान्विश्वानि देव वयुनानि विद्वान् । युयोध्यस्मञ्जुहुराणमेनो भूयिष्ठां ते नम इक्ति विधेम ॥३६ ।।
दिव्य गुणों से युक्त हैं अग्निदेव ! आप सम्पूर्ण मार्गों (ज्ञानों को जानते हुए हम याजकों को यज्ञ फल प्राप्त करने के लिए सन्मार्ग पर ले चलें । हमको कुटिल आचरण करने वाले शत्रुओं तथा पापों से मुक्त करें । हम
आपके लिए स्तोत्र एवं नमस्कारों का विधान करते हैं ॥३६ ॥
२०२. अयं नो अग्निर्वरिवस्कृणोत्वयं मृधः पुरः एतु प्रभिन्दन् । अयं वाजाञ्जयतु वाजसातावयश्शनृञ्जयतु जईघाणः स्वाहा ॥३७ ।।
| यह अग्नि हम लोगों को श्रेष्ठ धन प्रदान करें । यह अग्नि शत्रुओं का विनाश करतीं हुई हमारे समक्ष आए। यह अग्नि, अन्न की कामना करने वाले यजमानों को, शत्रुओं से प्राप्त धन प्रदान करती हुई विजयी हो। यह अग्नि, शत्रुओं को प्रसन्नतापूर्वक जीते तथा हमारे द्वारा समर्पित आहुतियों को ग्रहण करे ।।३७ ।।
२०३. उरु विष्णो विक्रमस्वोरु क्षयाय नस्कृधि । घृतं घृतयोने पिच प्रश्न यज्ञपति तिर स्वाहा।।
हे सर्वव्यापी आहवनीय अग्निदेव ! आप अपने पराक्रम से शत्रुओं को परास्त करें । हमारे निवास के लिए हमें प्रचुर क्षमता से सम्पन्न करें । हे घृताहुति से प्रदीप्त अग्निदेव ! यज्ञ में आप घृत का सेवन करें तथा बजमान की अत्यधिक वृद्धि करें ।।३८ ॥
२०४. देव सवितरेष ते सौमस्त रक्षस्व मा त्वा दभन्। एतत्त्वं देव सोम देवो देवर उपागाः इदमहं मनुष्यान्त्सह रायस्पोषेण स्वाहा निवरुणस्य पाशान्मुच्ये ॥३९॥
हे सवितादेवता ! यई सोम आपको प्रदान किया जा रहा है। आप इसकी रक्षा करें। है सोम की रक्षा करने वाले ! आपको राक्षस गीड़ित न करें । हे सोमदेव ! आप देवत्व को प्राप्त कर देवताओं से अधिष्ठित हो गये हैं। इम और हमसे सम्बद्ध सभी व्यक्ति, पशु आदि धनों को प्राप्त हों । मण्डप से निकलकर इस सोम आहुति के द्वारा | हम वरुणदेवता के पाश से मुक्त हो गये हैं ॥३६ ॥
२०५, अग्ने व्रतपास्त्वे वृत्तपा या तय तनुर्मण्यभूषा सा त्वयि यो मम तनूस्त्वय्यभूदिय | आ मय। यथायथं नौ सतपते व्रतान्यनु में दीक्षा दीक्षापतिम 8 स्नानु तपस्तपस्पतिः ४० ।।
इस मंत्र द्वारा आश्वनीय अग्नि में समियाधान किया जाता है –
है ग्निदेव ! आप बत्तपालक हैं । अतएव आप हमारे व्रत की रक्षा करें । बत्तकाल में हमारा शरीर आप से संयुक्त हो जाए तथा आपका जो शरीर हैं, वह हमसे एकीकृत हो जाए ।(अर्थात् परस्पर विभेद न रहे, तादात्म्य स्थापित हो जाए ॥ है व्रतपालक, अग्रगण्य अग्निदेव ! हमारे श्रेष्ठ कर्मों का यथोचित सम्पादन करें। दीक्षापालक अग्नि ने हमारी दीक्षा को स्वीकार कर लिया है । तप–पालक अग्नि हमारी तपस्या को स्वीकार करें ॥४० ॥
२६. उरु विष्णो विक्रमस्वोरु क्षयाय नस्कृधि । घृतं घृतयोने पिव प्रप्र यज्ञपति तिर स्वाहा।
हे आहवनीय (विष्णुरूप विश्वव्यापी) अग्नि! शत्रुओं के प्रति आप हमें पौरुष–युक्त करें । हमारे आवास को आप विशाल कर दें । हे घृत से प्रचलित अग्नि ! आपकी ज्वालाओं का मूलकारण घृत ही है । है अग्नि ! आप यजमानों को अपार वैभव प्रदान करें । यह आहुति आपको भली-ति समर्पित की जाती है ||६१ ॥
२०५७, अत्यन्याँर अगां नान्याँर उपागमवक्त्वा परेभ्योविदं परोवरेभ्यः । तं त्वा जुषामहे देव वनस्पते देवयज्यायै देवास्त्वादेवयज्यायैजुषन्तां विष्णवे त्वा । ओषधे त्रायस्व स्वविते मैन हि 8 सीः ।।४२ ।।
हैं यूप वृक्ष ! जो यूप निर्माण में उपयोगी हैं, हम उन वृक्षों को हीं प्राप्त करें । यूप कार्य में अनुपयोगी वृक्षों को हम प्राप्त न करें । दूर स्थित और पास में स्थित वृक्षों में हमने आपको निकट हीं प्राप्त कर लिया है । हैं वनपालक, दीप्यमान वृक्ष ! देवताओं के यज्ञकार्य के लिए हम आपकी सेवा करते हैं। देव कार्य के लिए देवता भी आपका सेवन करें । हे यूष वृक्ष ! हम यज्ञ के लिए घों छिड़कते हैं । हे औषधे ! कुल्हाड़े से इसकी रक्षा करें। हे परशु ! इस यूप को आप हिसित न करें ॥४३ ॥
२०८. द्यां मा लेखरन्तरिक्षं मा हिंसीः पृथिव्या सम्भव । अय% हि चा स्वबितिस्तेतिज्ञान प्रणिनाय मह्ते सौभगाय । अतस्त्वं देव वनस्पते शतवल्शो वि रोह सहस्रवल्शा वि वयरुहेम ॥४३॥ | हे युप वृक्ष ! आप द्युलोक को हिंसित न करें, अन्तरिक्ष को भी हिसित न करें, अपितु आप पृथ्वी के साथ मिल जाएँ। अर्थात् कटकर पृथ्वी पर गिर पड़े ।) हे कटे हुए पेड़ ! अति तेज़ यह कुल्हाड़ा आपके सौभाग्य के लिए है। आप यज्ञ के लिए यूप रूप हो जाएँ, अर्थात् यज्ञ में यूप के रूप में आपका प्रयोग हो । हे। देव वनस्पतिं ! अभी तक आप मात्र काष्ठ थे । अब आप यज्ञ–यूप के रूप में प्रयुक्त होने के कारण अनेकों अंकुरों से युक्त होते हुए विशिष्ट जीवन को प्राप्त करें । हम याकगण भी पुत्र–पौत्रादि से वृक्ष की शाखाओं के रूप में वंश वृद्धि को प्राप्त करें ॥४३ ||
–ऋषि, देवता, छन्द–विवरण ऋषि–गोतम १–१३ । श्यावाश्च १४ । मेधातिथि १५ । वसिष्ठ १६–१७ । दीर्घतमा औतथ्य १८–२८ । | मधुच्छन्दा २१–३४ । मधुच्छन्दा, क्रतु भार्गव ३५ । अगस्त्य ३६-४३।।
देवता- विष्णु १, १५-१६,१६८-३१, ३५, ३८, ४१ । शकल, दर्भतरुण, लिंगोक्त, अग्नि ३ । निर्मथ्य–आहवनीय अग्नि ३–४ । वायु, आज्य ५ । अग्नि ६, ८, ३६-३७,४० । सोम, लिंगोक्त । पृथिवी, अग्नि, लिगोक्तएँ । वेदिका १० । उत्तरवेदिका, आपः (जल) ११ । वाक्, सुक्१२ । परिधि (मेखला, गुल्गुल्वादि संभारा १३ । सविता १४ । अक्षधुरी, हविर्धान १७५ सविता, अभि, राक्षसघाती, उपरव २२ । उपरव, लिंगोक्त २३ ।
उपरव ३४ । सविता, अभि, यव, औदुम्बर, पितर २६ । औदुम्बरौं २७ । औदुम्बरी, द्यावा-पृथिवी, इन्द्र २८ । इन्द्र | २९ । इन्द्र, विश्वेदेवा ३० । धिष्ण्य–अग्नि ३१ । धिण्य अग्नि, आहवनीय, बहिष्पवमान देश, चावाल, शामित्र,
औदुम्बरी ३३ । ब्रह्मासन, शालाद्वार, प्राजहित, सद, द्वार, सूर्य ३३ । विग्गण, धिष्णु ३४ । विश्वेदेवा, सोमअप्नु ३५ । सविता, सोम, लिंगोक्त ३९ । वनस्पति, कुशतरुण, परशु ४२ । वनस्पति ४३ ।।
छन्द– स्वराट् ब्राह्मीं बृहत ३, ३४ । आर्षी गायत्री, आच त्रिष्ट्र् ३ । आर्मी पंक्ति ३ । आर्षी त्रिषु ४ । आर्षी उष्णिकू, भुरिक आर्षी पंक्ति ५ । विराट् ब्राह्मीं पंक्ति ६ । आर्षी बृहतीं, आर्षी जगतीं 19 । विराट् आर्षी बृहती, निवृत् आर्षी बृहती ८ । भुरिक आर्वी गायत्री, भुरिक् बासी बृहती, निवृत् ब्राह्मी जगती, यानुषीं अनुष्टुप् | ९ । ब्राह्मी अघिणक् १० । निवृत् ब्राह्मी त्रिंटुप् ११, ४७ । भुरिंकू ब्राह्मी पंक्ति १२ । भुरिक् आप अनुष्टुप् १३, १४, | ३८, ४१ । स्वराट् आर्ची बगती १४ । भुरिक आर्षी गायत्री १५ । स्वराट् आर्षी त्रिष्टुप् १६, १८ । स्वराद् ब्राह्मी | त्रिष्ट्या १७, ३२ । निवृत् आर्षी जगत १६ । विराट् आर्ची त्रिषु २६ । भुरिक आर्ची पंक्ति २१ । साम्नी पंक्ति, | भुरिक् आर्षी बृहत २२ । यानुषी बृहती, भुरक् अष्टि, स्वराट् बाह्मीं उष्णिक् २३ । ब्राह्मी बृहती, आर्षी पंक्ति । ३५ । निवृत् आर्षी पंक्ति निवृत् आप विष्टम् २६ । ब्राह्मी जगत २७ । आर्षी जगत २८ । अनुष्टषु २९ । आर्ची | उष्णक् ३० । विराट् आर्षी अनुष्टुप् ३१ । ब्राह्मी पंक्ति ३३ । अतिगती ३५ । निवृत् आर्षी त्रिधुम् ३६ ॥ भुरिक्
आर्षी त्रिष्टुप् ३७ । साम्मी बृहती, निवृत् आर्षी पंक्ति ३९ । भुरिक् अत्यष्टि ४३ । ब्राह्मी त्रिष्टुप् ४३।
॥ इति पञ्चमोऽध्यायः ॥
॥ अथ षष्ठोऽध्यायः ॥
२०९. देवस्य त्वा सवितुः प्रसवेश्चिनोर्बाहुभ्यां पूष्णो हस्ताभ्याम् । आ दर्द नार्यसी दमह
5 रक्षसां ग्रीवाऽअपि कृन्ताम् । यवसि यवयास्मद् द्वेषो यक्यारातीदिवे त्वान्तरक्षाय | त्वा पृथिव्यै त्वा शुन्थन्ताँल्लोकाः पितृपदनाः पितृषदनमसि ॥१॥
यह कका अधि द्वारा अनि का अट माने यूप का सिम करने, कुन स्थापित करने के क्रम में प्रयुक्त होती है
हैं यज्ञसाधनों ! आप नेतृत्व की क्षमता से सम्पन्न हैं । हम आपको सविता द्वारा प्रेरित अश्विनी कुमारों (आरोग्य दाता) की बाहों एवं पूषा (पोषणकर्ता) के हाथों से ग्रहण करते हैं । हम आपके माध्यम से राक्षस शक्तियों की प्रीवा (मर्मस्थलों पर प्रहार करते हैं । आप हमारे शत्रुओं को दूर हटाएँ । हम चुलोक अंतरिक्ष एवं पृथ्वी के हित की दृष्टि से आपको शुद्ध करते हैं । आप पिता की तरह पालक एवं प्राओं के आश्रय हैं ॥१॥
२१०, अग्रेणीरसि स्वावेश नेतृणामेतस्य वित्तादधि वा स्थास्यति देवस्वा सविता मध्वानक्तु सुपिप्पालाभ्यस्त्वौषधीभ्यः । छामग्रेणास्पृक्षः आन्तरिक्षं मध्येनाप्राः पृथिवीमुपरेणादृ– हीः ।।२।। | (हे यज्ञसाधनो ! यज्ञों में ) प्रथम प्रयुक्त किये जाने वाले आप, अपना महान् दायित्व समझकर समाज का नेतृत्व करने वाले सभी लोगों को सन्मार्ग पर चलाएँ । जगत् के अधिष्ठाता सविता देवता आपको मधुर एवं श्रेष्ठ फलदायक ओषधीय गुणों से विभूषित करें । आप अपनी सद्भावनाओं से झुलोक का स्पर्श करें, सद्विचारों से अन्तरिक्ष को भर दें तथा सत्कर्मो से पृथ्वी को सुदृढ़ बनाएँ ॥॥ |
२११. या ते घामान्युश्मसि गमध्यै यत्र गावो मूरिशृङ्गाः अयासः । अत्राह तदुरूगायस्य | विष्णोः परमं पदमव भारि भूरि । ब्रह्मवनि त्वा क्षत्रवनि रायस्पोषवनि पहामि। बल्ल
दृ– ह क्षत्रं दृ हायुद्ह प्रज्ञां दृ ५ ६ ॥३॥
(हे यज्ञीय संसाधनो ! जो सूर्य–रश्मियों से प्रकाशित है, सर्वव्यापक सम्माननीय भगवान् विष्णु का जो परम धाम है, हम आपके ऐसे उत्तम स्थान में पहुँचने की इच्छा करते हैं । हम आपको ब्राह्मण, क्षत्रिय एवं वैश्य | आदि वर्गों में यच्चा-योग्य उचित रीति से बल – वैभव का वितरण करने वाला मानते हैं । अतः आप बह्मनिष्ठों को सज्ञान की सम्पदा क्षत्रियों को पौरुष–पराक्रम एवं वैश्यों को धन–ऐश्वर्य प्रदान कर, प्रज्ञा की आयु और उसकी संख्या में वृद्धि करे ॥३॥
२१२. विष्णोः कर्माणि पश्यत यतो व्रतानि पस्पशे । इन्द्रस्य युज्यः सखा ॥४॥
। हे याजकों ! सर्वव्यापक भगवान् विष्णु के सृष्टि संचालन सम्बन्धी कार्यों को (प्रजनन, पोषण एवं परिवर्तन | की प्रक्रिया को ध्यान से देखें । इसमें अनेकानेक नियम–अनुशासनों का दर्शन किया जा सकता है । आत्मा के योग्य मित्र उस परम सत्ता के अनुकूल बनकर रहें (अर्थात् ईश्वरीय अनुशासनों का पालन करें) ४ ॥
२१३. तद्विष्णोः परमं पद सदा पश्यन्ति सूरयः। दिवीव चक्षुराततम् ॥५॥
ज्ञानीवन विश्वव्यापी भगवान् विष्णु के सर्वोच्च पद को, घुलोक में परिव्याप्त दिव्यप्रकाश की भाँति देखते हैं (अर्थात् उस परमात्मा की व्यापकता का अनुभव करते हैं । ॥५॥
मष्टोऽध्यायः
२१४. परिवीरसि परि त्वा दैवीविंशो व्ययन्तां परीमं यजमान • रायो मनुष्याणाम्। दिवः सूनुरस्येष ते पृथिव्यल्लोकः आरण्यस्ते पशुः ।।६ ॥
यह मंत्र से स्थापि यूप में कुश से भी रस्सी बॉयने का विधान है –
हे सर्वव्यापी (यज्ञदेव !) ज्ञानीजनों का समूह आपको सूर्य के दिव्य प्रकाश की भाँति, कण–कण में समाया | हुआ अनुभव करता हैं । समस्त पृथ्वी, वन एवं पशुओं में आपका ही विस्तार हैं । आप याजकों को(सत्कर्मरत |श्रेष्ठ मानवों को) चारों ओर से भरपूर वैभव प्रदान करें ॥६॥
२१५. उपावीरस्युप देवान्दैवीर्वशः प्रागुरुशिजो वह्नितमान्। देव त्वधर्वस, रम ट्या | ते स्वदन्ताम् ॥७॥
हैं त्वष्टादेव ! आप समय में आए हुओं की रक्षा करने वाले हैं । श्रेष्ठ गुणों से युक्त प्रजा, दिव्य गुणसम्पन्न तेजस्वी, समर्थ विद्वानों को प्राप्त हों। आप साधनों का सदुपयोग करें । ये हव्य पदार्थ आपको सन्तुष्ट करें ॥७॥ २१५. रेवती रमध्वं बृहस्पते आरया वसूनि । तस्य त्वा देवहविः पाशेन प्रतिमुख्वामि अर्घा मानुषः ।।८ ।।
विद्वान् पुरुषों (यज्ञाचार्यो) द्वारा श्रेष्ठ यज्ञ में श्रेष्ठ हवि (दुग्ध एवं घृत के रूप में) प्रदान करने के लिए जिन पशुओं को बाँधा गया था, वे दुधारू पशु मुक्त किये जाते हैं । वे दुग्धादि ऐश्वर्य प्रदान करते हुए आनन्द से रहें । (इस यज्ञीय प्रक्रिया से मनुष्य समर्थ बनें ॥८॥
२१७, देवस्य त्वा सवितुः प्रसवैश्विनर्बाहुभ्यां पूष्णों हस्ताभ्याम् । अग्नीषोमाभ्यां जुष्टं नियुनज्म् ि । अयस्त्वौषधीयोनु त्वा माता मन्यतामनु पितानु भाता सगभ्नु सखा |सयूथ्यः । अग्नीषोमाभ्यां त्वा जुष्टं प्रोक्षामि ॥९॥
(हे यज्ञ के साधनों !) सवितादेव की प्रेरणा से अश्विनीकुमारों और पूषा के हाथों में हम आपको ग्रहण करते हैं, ओषधियों एवं जल की सहायता से शुद्ध करते हैं तथा सोम और अग्नि को तुष्टि के लिए यज्ञ जैसे श्रेष्ठ कार्य में नियोजित करते हैं । इस हेतु आपके माता-पिता, भाई और मित्र अनुमति प्रदान करें ।।६।।
२१८. अपां पेरुरस्यापो देवीः स्वदन्तु स्वात्तं चित्सद्देवहविः । सन्तै प्राणो वातेन गच्छता समङ्गानि बजत्रैः सं यज्ञपतिराशिषा ॥१०॥
हे पशु (यज्ञ से जुड़े जीव) ! आप जल की रक्षा करने वाले हैं । दिव्य गुणों वाले जल एवं हविष्यान्नों से सदैव युक्त रहें । देवताओं के आशीर्वाद से आपका जीवन पूर्णतया यज्ञकार्यों में नियोजित रहे । प्राण, शुद्ध वायु के साथ सन्नद्ध रहे तथा आप यज्ञीय अनुशासनों के पालनकर्ता बनें ॥ १० ॥
२१९. घृतेनाक्तौ पशृंखलायेथारेवति यजमाने प्रियं धाः आविश । उरन्तरिक्षात्मजूर्दैवेन वातेनास्य विवस्त्मना यज्ञ समस्य तन्वा भय ।वर्षों वर्षीयस यज्ञे यज्ञपतिं आः स्वाहा देवेभ्यो देवेभ्यः स्वाहा ॥११॥
हे (यज्ञ साधनों) स्वरुशासः ! आप घृतादि पदार्थ देने वाले पशुओं (गौओं) की रक्षा करें । अन्तरिक्ष से सबकी रक्षा करने वाले दिव्य प्राण की भाँति, ऐश्वर्यशाली याजक के शरीर के लिए अनुकूल तथा प्रिय बनकर रहते हुए, उसकी रक्षा करें । (हे याजक ) सर्व सुख प्रदायक इस महान् यज्ञ में श्रेष्ठ हविष्यान्नों से आहुतियों प्रदान करें । देवों के सम्मान में समर्पण करते हुए यज्ञीय अनुशासनों के पालनकर्ता बनें ॥११॥
[+ क = घसम्म या यूर और शास तसवार वा चाकू।]
२२०. माहिम पृदाकुर्नमस्तऽ आतानानव प्रेहि। घृतस्य कुल्या उप ऋतस्य
पभ्या अन् ।।१३।।
| सत्कर्मों से सुख का विस्तार करने वाले है यज्ञ के साधनभूत ! (स्वर आदि उपकरण) सर्प आदि हिंसक प्राणियों की भाँति आप क्रोधी और प्राणनाशक न हों । हे याजक ! निर्वाधरूप में प्रवाहित जलधारा की भाँति
आप शाश्वत सत्य के मार्ग पर चलें, हम आपका सम्मान करते हैं ॥१२ ।। |
२२४. देवीरापः शुद्धा खोव–सुपरविष्टा देवेषु सुपरिविधवा वयं परिवेशरों भूयास्म।।
जल जैसे सरस दिव्य गुण से सम्पन्न, स्वाभाविक रूप से शुद्ध हैं देवियों ! आप देवताओं को तृप्ति के लिए, उत्तम पात्र में स्थित हविष्यान्न को ग्रहण करे । देवताओं को आहुतियाँ देते हुए हम भी इस देकार्य में संलग्न होते हैं ॥१३॥
३२३. वाचं ते शुन्धामि आणं ते शुन्यामि चक्षुस्ते शुन्यामि श्रोत्रं ते शुन्यामि नाभिं ते शुन्धामि मेई ते शुन्धामि पायूं ते शुन्यामि चरित्रस्ते शुन्यामि ॥१४॥
याजक ! हम आपके प्राण, वाणी, दृष्टि श्रोत्र, नाभि, जननेन्द्रिय, गुदा आदि को शुद्ध करते हैं । इस प्रकार आपके चरित्र का शोधन कर उसे यज्ञानुकूल बनाते हैं ॥१४ ॥
२२३. मनस्त । आप्यायतां साक्त ; आप्यायत प्राणस्त आम्घायतां चक्षस्त $
आप्यायताओत्रं तऽ आप्यायताम् । यत्ते क़रं यदास्थितं तत्त । आप्यायत निघ्यायत |त्ते शुभ्यतु शमहोभ्यः । औषधे त्रायस्व स्वधते मैन x हि ४, सौः ॥१५ ।।।
| है याजक ! आपके मन, वाणी और प्राण उत्कर्ष को प्राप्त करें । आपके नेत्र एवं कर्ण कल्याणकारी शक्तियों से संयुक्त रहें । (यज्ञीय पशुओं के प्रति आपकी क्रूरता शांत हों तथा जो स्वभाव की स्थिरता है, वह दृढ़ता को प्राप्त हो । आपके समस्त आचरण सदैव सुखदायी हों । हे औषधे ! इनकी रक्षा करें और इन्हें नष्ट होने से बचाएँ ।
२२४. रक्षसां भागसि निरस्त रक्ष इदमह, रक्षोभि तिष्ठामदमहरक्षोव बोध इदम रक्षोधर्म तमो नयामि । घृतेन द्यावापृथिवीं प्रोर्णबाथां बायो वे स्तोकानामग्निराज्यस्य वेतु स्वाहा स्वाहाकते ऊर्ध्वनभर्स मारुतं गच्छतम् ॥१६॥
| हे परित्यक्त तृण ! तुम (दुष्टकम) विनाशक तत्वों के सहभागी हों। इसलिए तुम्हें (यज्ञ से दूर करते हैं । दुष्ट स्वभाव वाले तुम्हें तिरस्कृत करते हुए प्रतिबन्धित कर, पत–गर्त में पहुँचाते हैं । व्यवहार के सूक्ष्मतम पक्ष को जानने वाले, हे याजक ! आपके द्वारा दिये जाने वाले अर्घ्य के जल से पृथ्वी और द्युलोक परिपूर्ण हों । आपके द्वारा समर्पित घृत आदि हविष्यात्र अग्नि को प्राप्त हों तथा वायुभूत होकर, आकाश में भर जाएँ ॥१६ । ।
२२५. इदमापः प्र वहृतावद्यं च मलं च यत् । यच्चाभिदुदोहानृतं यच्च शेपे अमीरुणम् ।
आप मा तस्मादेनसः पवमानश्च मुञ्चतु ॥१७॥
हे जलदेवता ! आप जिस प्रकार शरीरस्थ मलों को दूर करते हैं, उसी प्रकार याजक के, जो भी ईष्र्या, द्वेष, असत्यभाषण, मिथ्यादोषारोपण आदि निन्दनीय कर्म है, (आप) उन सब दोषों को दूर करें । जल एवं वायु अपने प्रवाह से पवित्र करके, हमें यज्ञीय प्रयोजन के अनुरूप बनाएँ ॥१५७ ॥
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२२६. सन्ते मनो मनसा से प्राणः प्राणेन गच्छताम् । रेडस्यग्नवा श्रीणात्वापस्त्वा | समरिणवातस्य वा प्राज्यै पुष्ण र कृमणो व्यथिवत् अयुतं द्वेषः ॥१८॥
अयोध्यायः
हे याजक ! आपके मन, विराट् मनस्तत्त्व तथा प्राण, दिव्यप्राण से युक्त हों ।(हे अन्नादि आप आस्वादन योग्य हैं । आपको अग्नि, श्रीयुक्त को । आप जल से युक्त रहें; वायु की गति एवं सूर्य की प्रचण्ड ऊर्जा से परिपक्वता प्राप्त हो । इस प्रकार तुम्हारे विकार नष्ट कर दिए जाएँ ॥१८ ॥
२२७, घृतं घृतपावानः पिंवत बसां वसापावानः पिबतान्तिरिक्षस्य विरसि स्वाहा । दिशः प्रदिशआदिशो विदिशदिशो दिग्भ्यः स्वाहा ।।१९ ॥
| मृत एवं वसा का सेवन करने वाले पुरुषो, आप इनका उपयोग करें । हें वसा !(धन–धान्य–साधनादि आप अन्तरिक्ष के लिए हृवि के रूप में हों, लोकहित में) हम आहत देते हैं । (पूर्व, पश्चिम, उत्तर, दक्षिण सभी दिशाओं (आग्नेय, नैऋत्य, वायव्य, ईशान) सभी उपदिशाओं, आगे-पीछे, ऊपर-नीचे एवं शत्रु की दिशा में अर्थात् सभी दिशाओं को हम आहुति प्रदान करते हैं ॥१९ ।।
२२८, ऐन्द्रः प्राणो अङ्ग अङ्गे निंदीध्यदै दानो अङ्गे अड़े निधीतः । देव त्वष्टभूरि ते सई समेतु सलक्ष्मा यदिषुरूपं भवाति । देवत्रा यन्तमवसे सखायोनु त्वा माता पितरो मदन्तु ॥३०॥
हे त्वष्टादेवता ! प्राण और उदान के रूप में इन्द्र की शक्ति, अंग–प्रत्यंगों की सुरक्षा करती है । आप समस्त विषमताओं को दूर कर, (यज्ञ के लिए उपयुक्त) एकरूपता प्रदान करें । देवत्व का अनुगमन करने वाले आपके मित्र, सहयोगी एवं माता–पिता आपके इस श्रेष्ठ कार्य का अनुमोदन करें, प्रतिकूल न हों ॥२०॥
३२९. समुद्रं गच्छ स्वाहान्तरिक्षं गच्छ स्वाहा देवः सवितारं गच्छ स्याहा मित्रावरुण गच्छ स्वाहाहोराने गच्छ स्वाहा छन्दांसि गच्छ स्वाहा द्यावापृथिवी गच्छ स्वाहा यज्ञ गच्छ स्वाहा सोमं गच्छ स्वाहा दिव्यं नमो गच्छ स्वाग्निं वैश्वानरं गच्छ स्वाहा मन में हार्दैि यच्छ दिवं ते धूमो गच्छतु स्वज्योतिः पृथिवीं भस्मनापूर्ण स्वाहा ॥२१॥
(याजकों की भावनाओं से परिपुष्ट और समर्पत) हे हवि ! आप स्थूल, सूक्ष्म और कारणरूप में सिन्धु पर्यन्त पृथ्वी, अन्तरिक्ष एवं लोक तक अपना विस्तार करें । (आप इस जगत् के उत्पादक सवतादेवता, मित्र, वरुण, सोम, वैश्वानर अग्नि, दिन, रात्रि, छन्दों यज्ञादि समस्त देवशक्तियों को तृप्ति प्रदान करें । अपने धूम अर्थात् वायुभूत ऊर्जा से घुलोक को, प्रकाश से अन्तरिक्ष को एवं भस्म से पृथ्वी को परिपूर्ण करें । हमारे अन्तःकरण को सत्कर्म के लिए दिव्य प्रेरणाएँ प्रदान करें ।।२१ ।।।
३३०. माऽपो मौषधीहिं% सीर्थाम्नो धाम्नो रास्ततो वरुण नो मुञ्च। यदाहुरघ्न्याः इति वरुणेति शपामहे ततो वरुण नो मुञ्च । सुमित्रिया न आप ओवघयः सन्तु दुर्मित्रियास्तस्मै सन्तु योऽस्मान् द्वेष्टि यं च वयं द्विष्मः ॥२२॥
यज्ञ के साधनभूत हे शलाके ! आप ओषधियों एवं जल को यथास्थान सुरक्षित रहने दें, उन्हें नष्ट मत होने दें । हे वरुणदेव ! आपका प्रवाह हमारे लिए मित्र की भाँति सुखदायी हों । हम गौ आदि न मारने योग्य की हिंसा न करके पापमुक्त रहें । जिन दुराचारियों के प्रति हम शत्रुता का भाव रखते हैं या जो हमसे द्वेष करते हैं, उनके साथ आप (जल और औषधियों) कठोरता का व्यवहार करें, अर्थात् उन्हें नष्ट करें ॥२२ ।।
२३१. हविष्मतीरिमा । आपोहविष्मर आ विवासति । हविष्मान् देवो अवरो इविमाँर अस्तु सूर्यः ॥२३॥
जुर्वेद संहिता
हे (वसतवरी) जल ! आप निरन्तर श्रेष्ठ अन्न, रस आदि उत्पन्न करते हुए यज्ञ करें । यज्ञ सदैव श्रेष्ठ | हवियों से युक्त रहकर सद्गुणों का विस्तार करने वाले हों । सूर्यदेव भी यजमान को पुण्यफल प्रदान करने के
लिए हवि स्वीकार करें ॥२३ ॥
२३२, अग्नेर्वोपन्नगृहस्य सदसि सादयामीन्द्राग्न्योर्मागमेयीं स्थ मित्रावरुणयोर्भागधेयी
स्थ विश्वेषां देवानां भागधेय स्थ। अमूर्याई उप सूर्ये याभिर्वा सूर्यः सह । ती नो हिवनयध्वरम् ॥२४॥
हे वसतीवरी के जल ! जो इन्द्र, अग्नि, मित्र वरुण आदि सब देवताओं तक उनका हवि भाग पहुँचाने वाली यज्ञाग्नि है, उस सुदृढ़ आश्रयस्थल अग्नि के पास हम आपको पहुँचाते हैं । सूर्य की किरणों द्वारा बाष्पीकृत जो जल, सूर्य के पास बहुत दिनों तक सुरक्षित रहता हैं, वह हमारे यज्ञ को सफल बनाए ॥२४॥
||समय में प्रयुक्त होने वाला, नदी से लाकर रात–भर का रखा हुआ जल | |
३३३. हृदे त्वा मनसे त्या दिवे त्वा सूर्याय त्वा । ऊर्ध्वमिममध्वरं दिवि देवेषु होत्रा अच्छ। | (हे सोम !) मन, अन्तःकरण, सूर्य एवं लोक की तृप्ति के लिए आप इस यज्ञ को सफल बनाएँ (ऊँचा उठाएँ। और होताओं को देवताओं के दिव्य लोक तक पहुँचाएँ (अर्थात् उनके जीवन को देवत्व से भर दें) ॥२५ ।।।
२३४, सोम राजन् विश्वास्त्वं प्रजाऽ उपावरोह विश्वास्त्वां प्रजा उपावरोहन्तु । शृणोत्वग्निः । समिधा हुवं में शृण्वन्त्यापो धिषणाश्च देवीः । ओता ग्रावाणो विदुषो न यज्ञ ४४, शृणोतु देवः सविता हवं में स्वाहा ॥२६ ।। | हे सोम ! सभी याजक आपके प्रति अनुकूल व्यवहार करें तथा आप पिता की भाँति सभी पर अनुग्रह करें।
प्रज्वलित अग्नि, दिव्य जल, ज्ञानीजन एवं जगत् के उत्पादक सविता देवता हमारी स्तुतियों को ध्यान से सुनें । | इस निमित्त यह आहुति समर्पित है ॥२६ । । |
२३५, देवीरापो अपां नपाद्यों व ऊर्मितीविष्य इन्द्रियावान् मदितमः । ते देवेभ्यो देवन्ना दत्त शुक्रपेभ्यो येषां भाग स्थ स्वाहा ॥२७ ।। | हैं दिव्य जल ! आप में जो लहर के समान उठाने वाले (न गिरने देने वाले), हवन करने योग्य, इन्द्रिय–शक्ति को बढ़ाने वाले तथा आनन्द बढ़ाने वाले प्रबाह हैं, उसे देवताओं, विद्वानों तथा प्राण-पर्जन्य के रूप में वीर्य की रक्षा करने वालों के लिए समर्पित करें । इसमें आपका भी एक भाग सुनिक्षित है ॥२७॥ |
२३६. कार्चिरसि समुद्रस्य त्वा क्षित्या उन्नयामि। समाप अद्धिरम्मत समोषधीभिरोषधीः ।।२८ ॥ | (हें यज्ञार्थं प्रयुक्त जल !) समुद्र पर्यन्त भूमि की उर्वरता के लिए आप को ऊपर उठाते हैं । (सूर्य-इश्मियों द्वारा वाष्प में परिवर्तित जल ऊपर पहुँचता हैं) । प्राण–पर्जन्य के साथ बरसे हुए जल से ओषधिय उत्पन्न होती हैं
इस कृषि कर्म के रूप में लोक हितार्थ निरन्तर यज्ञ की प्रक्रिया चलती रहती है ॥ २८ ॥
२३७. यमग्ने पृत्सु मर्त्यमवा वाजेषु यं जुनाः । स यन्ता शश्वतीरिषः स्वाहा ।।२९ ।।
हे अग्निदेव ! जिन याजकों के समीप आप हविष्यान्न ग्रहण करने पहुंचते हैं, आपकी ही प्रेरणा से यज्ञ करने वाले वे, धन-धान्यरूपी वैभव प्राप्त करते हैं ॥२९ ॥
वोऽध्यायः
| २३८. देवस्य त्वा सवितुः प्रसवेश्विनोर्बाहुभ्यां पूष्णो हस्ताभ्याम् । आ दर्द रावासि
गभीरमममध्वरं कृधीन्द्राय सुघूत्तमम् । उत्तमैन पविनोर्जस्वन्तं मधुमन्तं पयस्वन्तं निग्राभ्या |स्य देवश्रुतस्तर्पयत मा मनो में ॥३०॥
हे यज्ञसाधनों ! हम याजकगण आपको सूर्योदय काल में अश्विनीकुमारों एवं पूषा देवता के हाथों से ( यज्ञ के लिए ) ग्रहण करते हैं । आप इच्छाओं की पूर्ति करने वाले हैं । इन्द्रदेव की सन्तुष्टि के लिए इस विशाल यज्ञ को शक्ति सामर्थ्य, मधुर रसों एवं पोषक पदार्थों से परिपूर्ण करें । हव्य को भली–भाँति ग्रहण करने वाले आप हमें सन्तुष्ट करें ॥३० ||
२३९. मनो में तर्पयत वाचं में तर्पयत प्राणं में तर्पयत चक्षुर्ने तर्पयत श्रोत्रं में तर्पयतात्मानं में तर्पयत प्रजों में तर्पयत पशुन्ने तर्पयत गणान्मे तर्पयत गणा में मा वितृषन् ॥३१॥
यज्ञार्थ ग्रहण किये गये है जलसमूह ! आप अपने दिव्य गुणों से हमारे मन, वाणी एवं प्राणों को तृप्त करें । -आप हमारे नेत्र, कर्ण एवं आत्मा को तृप्ति प्रदान करें, हमारी संतानों, सेवकों एवं पालतू पशुओं को तृप्त करें ।
हमारे सहयोगी आपके अभाव में कभी भी तृषित न हों ।।३१ ।।
२४०, इन्द्राय त्वा वसुमते रुद्रवतः इन्द्राय त्वादित्यवत इन्द्राय वाभिमातिने। येनाय
त्वा सोमभृतेग्नये त्वा रायस्पोषदे ॥३२॥ | हैं सोम ! सूर्य के समान तेजस्वी, शत्रुओं को पीड़ा पहुँचाते हुए उनका नाश करने वाले, सोमरस पीने के लिए बाज़ पक्षों की भाँति झपटने वाले तथा ऐश्वर्यशालियों में अग्रगण्य इन्द्रदेव की तृप्ति के लिए
आपको स्वीकार करते हैं ।।३२ ।।
२४१. बत्ते सोम दिवि ज्योतिर्यत्पृथिव्यां यदुरावन्तरक्षे। तेनास्मै यजमानायोरु राये। कृष्यधि दात्रे वचः ॥३३॥ | पृथ्वी, अन्तरिक्ष एवं द्युलोक तक फैले हुए हे दिव्य सोम ! आप लोकहित के लिए सत्कर्मरत याजक
की सहायता करें ॥३३ ।।
२४२. आत्रा स्थ वृत्रतुरो राधोगूर्ता अमृतस्य पत्नीः । ता देवीदेवत्रेमं यज्ञं नयतोपहूताः सोमस्य पिबत ।।३४ ।।
हे सोम ( रूपी अमृत ) का पालन ( संरक्षण ) करने वाली देवशक्तियों ! आप कल्याणकारी हैं, वृत्ररूप विकारों का नाश करके सोम का पोषण करने वाली तथा धन प्रदायक हैं । आप इस यज्ञ का नेतृत्व करें तथा सोम रस का पान कों ॥३४ ||
२४३, मा मेर्मा से विस्था ऊर्ज धत्स्व धिषणे वीवी सती वीडयेथामू दयाथाम् । पाप्मा तो न सोमः ॥३५ ।।
हें सोम! रस निकालते समय पत्थर की चोट से आप भयभीत एवं विचलित न हों । चन्द्रमा की भाँति आनन्द प्रदान करने वाले, आकाश और पृथ्वी के समान शक्ति–सामर्थ्यवान् आप, सबके दोषों को दूर करें ।।३५ ॥
२४४.प्रागपागुदगधराक्सर्वतस्त्या दिशः आ धावन्तु । अम्ब निष्पर समरीविंदाम् ॥३६॥
है सोम ! आप पूर्व, पश्चिम, उत्तर, दक्षिण आदि सभी दिशाओं से अपने अंशों को प्राप्त करके यज्ञशाला में आएँ । है माता (धरित्री–अपने अंशों से सोम को पूर्णता प्रदान करे । इस यज्ञ को सभी भली–भाँति जानें ॥३५ ।।
जुर्वेद संहिता २४५. त्वमङ्ग प्रशs सिषो देक शविछ मत्र्यम् । न त्वदन्यो मघवन्नस्ति मङितेन्द्र ब्रवीमि ते वचः॥३७॥
ऐश्वर्यशाली, महान् पराक्रमी, धनवान् है इन्द्रदेव ! आप अपने दिव्यगुणों से याजक की प्रशंसा करने वाले | हैं । आपसे अधिक सुखदाता, कल्याणकारी कोई दूसरा नहीं हैं – ऐसा हम आपके (आश्वासन) वचन के आधार | पर ही कह रहे हैं ॥३७ ।।
– ऋषि, देवता, छन्द–विवरण
- ऋवि– अगस्त्य १–२ । दीर्घतमा ३ । मेधातिथि ४-२८ । मधुच्छन्दा २९-३६ । गौतम ३७ ।।
देवता– सविता १, ३१ (उष्णिक् छन्दानुसार सविता देवता) । शकल, यूप, चषाल २ । यूप३ । विष्णु | ४-५ । यूप, स्वरु ६ । तृण, लिगोक्त ७ । लिगोक्त, पशु ८ । सविता, अग्-िसोम, पशु ९ । पशु, आपः (जल) १० | | स्वरु शास, वाक् तृण, देवगण ११ । र, यज्ञ १३ । आप: (जल), आशीर्वाद १३ । पशु १४ । पशु, सुख, ‘तृण, असि १५ । राक्षस, कावा–पृथ्वी, वायु, अग्नि, वपा–अपण्य १६ । आप: (जल, पवमान १७ । हृदय, वसा, द्वेष १८ ॥ विश्वेदेवा, दिशा १९ । प्राण, त्वष्टा २० । समुद्र–आदि लिंगक्त, स्वरु ३१ । हृदय–शूल, बरुण, आप: ३३ । अप् आदि लिगोक्त २३.| आप:(जल) २४, २५७ । सोम २५, ३२-३३, ३६ । सोम, अग्नि आदि लिंगो २६ । आज्य, आपः (जल) २८ । अनि २९ । सविता, मावा, आप: (जल) ३० । निग्राभ्या ३४ । सोम, द्यावा–पृथ्वी ३५ । इन्द्र ३५७ ।
| छन्द- निवृत् पंक्ति, आसुरी उष्णिकू, भुरिक आप उष्णक् १ ॥ निवृत् गायत्री, स्वराट् पंक्ति २९ । आच अष्णिकु, साम्नी त्रिभुप्, स्वराट् प्राजापत्या जगत ३ । निवृत् आर्षी गायत्री ४ । आर्वी गायत्री ५ । आर्षी उष्णिकू भुरिक् साम्नी बृहत ६ निवृत् आर्षी बृहती ७ । प्राजापत्या अनुष, भुरिक् प्राजापत्या बृहती ८ । प्राजापत्या बृहती, निवृत् अतिगती ९ । प्राजापत्या बृहत, भुरिंक् आर्षी गायत्री १० । स्वराट् प्राजापत्या बृहती, भुरिक् आर्मी उष्णिक्, निवृत् गायत्री ११ । भुरिक् प्राजापत्या अनुष्टुप, सानौं उणिक् १३ । निवृत् आप अनुष्टुप् १३, २३, २८ । भुरिक आर्षी जगत १४ । स्वराट् धृत्रि १५ । निवृत् आर्षी त्रिष्टुप् २ (दो) बाह्यौ उष्णिक् १६ । निवृत् ब्राह्मी अनुष्टुप् १५७ । प्राजापत्या अनुभु, आच पंक्ति, दैवी पंक्ति १८ । ब्राह्मी अनुष्ट्या १६ । ब्राही विद्युत् २० । यात्रुवीं उष्णिक, स्वराट् उत्कृति २१ । ब्राह्मी स्वराट् उष्णिक, निवृत् अनुष्टुप् २२ । आर्षी विष्टुप् त्रिपाद् गायत्री २४ । आर्वी विराट् अनुष्टुप् २५ । भुरिकु गायत्रीं, आर्षी त्रिष्टुप् २६ । भुरिंकू आप गायत्री २९ । स्वराद् आर्षी पंक्ति मुरिंकू आर्ची पंक्ति ३] विराट् बाह्य–जगती ३१ । पंचपदा ज्योतिष्मती जगतीं ३२ । भुरिक् आर्षी बृहत ३३ । स्वराट् आर्षी पथ्याबृहत ३४ भुरिक आर्षी अनुष्टुप् ३५, ३५७ ।पुरोष्णिक् ३६ ।
॥ इति षष्ठोऽध्यायः॥
।
॥अथ सप्तमोऽध्यायः ॥ २४६. वाचस्पतये पवस्व वृष्णोऽअ 3 शुभ्यां गभस्तिपूतः । देवो देवेभ्यः पवस्व येषां भागोसि ।।१।। । सभी प्रकार के सुखों को प्रदान करने वाले, उत्तम गुणों से सम्पन्न हे दिव्य सौम सूर्य रश्मियों के माध्यम से वाचस्पति आदि देवों को तृप्ति के लिए आप पवित्रता को प्राप्त हों ।आप जिन देवों के अंश हैं, उन्हें सन्तुष्ट करें ।।१ |
२४७. मधुमतीनं इषस्कृधि यत्ते सोमादाभ्यं नाम जागृवि तस्मै ते सोम सोमाय स्वाहा स्वाहोर्वन्तरिक्षमन्वेमि ।।२।। | कभी नष्ट न होने वाले है दिव्य सोम !आग हमारे आहार को मधुर रस आदि तत्वों से युक्त कर दें। आपके जाग्रत् स्वरूप के लिए हम यह आहुति समर्पित करते हैं । यह आहुति अनन्त अन्तरिक्ष में विस्तार प्राप्त करे ॥२ ।। २४८. स्वाकृतोसि विश्चेभ्यः इन्द्रियेभ्यो दिव्येभ्यः पार्थिवेश्यों मनस्त्याए स्वाहा त्वा सुभव सूर्याय देवेभ्यस्त्वा मरीचिपेभ्यो देवा शो यस्मै त्वेडे तत्सत्यमुपरिप्लुता भङ्गेन हतोऽसौ फट् प्राणाय त्या ध्यानाय त्वा ।।३।।
हैं सुभव (श्रेष्ठ जन्म वाले) ! पृथ्वी एवं घुलोक में रहने वाले, सभी प्राणियों और इन्द्रियों के कल्याण के लिए आप स्वप्रकाशित हुए हैं । पवित्र मन वाले हैं उपांशु (एक पात्र) ! आपको सूर्य देवता के लिए एवं किरणों के समान प्रकाशित देवमानवों की तुष्टि के लिए नियुक्त किया जाता है । हे तेजस्वी दैव ! आप मर्यादा का उल्लंघन करने वाले दुराचारियों का शीघ नाश करें । अपने सत्याचरण से ही आप वन्दनीय है । प्राण और व्यान द्वारा शरीर संचालन की तरह यज्ञ के लिए आपको नियुक्त किया जाता है ।।३।।
२४९. उपयामगृहीतोस्यन्तर्यच्छमघवन् पाहि सोमम् । उरुष्य राय एषों यजस्व ॥४॥
हें ऐश्वर्यशाली इन्द्रदेव ! यज्ञ के लिए नियमानुसार प्रण किये गये इस कलशस्थ सोमरस को आप स्वीकार करें और उपयाम (अन्तर्ग्रह) पात्र में स्थापित सोम की रक्षा करें । शत्रुओं से रक्षा करते हुए याजों को अपार धन–वैभव प्रदान करें ॥४ ।।
२५०, अन्तस्ते द्यावापृथिवी देथाम्यन्तर्दधाम्युर्वन्तरिक्षम् । सजूदेवेभिरवरैः परेशान्तर्यामे मघवन् मादयस्व ॥५॥
हे इन्द्रदेव ! पृथ्वी, द्युलोक और अनन्त अन्तरिक्ष में आपका ही विस्तार है । आप अपने पास (स्वर्ग में रहने वाले देवताओं एवं दूर रहने वाले याजकों को समान रूप से आनन्द प्रदान करें ॥५॥
२५१. स्वाकृतोसि विश्वेश्य इन्द्रियेभ्यो दिव्येभ्यः पार्थिवेभ्यो मनस्वाय स्वाहा त्या सुभव सूर्याय देवेभ्यस्त्वा मरीचिपेभ्य उदानाय त्या ॥६॥ | है सुभव (श्रेष्ठ जन्म वाले) ! पृथ्वी एवं द्युलोक में रहने वाले, सभी प्राणियों और इन्द्रियों के कल्याण के लिए आप स्यप्रकाशित हुए हैं । पवित्र मन वाले है उपांशु (पात्र) ! आपको सूर्य देवता के लिए एवं विरों के समान प्रकाशित देवमानवों की तुष्टि के लिए नियुक्त किया जाता है । अन्तर्याम म दान देवता रा शरीर संचालन की तरह यज्ञ के लिए आपको नियुक्त किया जाता है ॥६॥
यजुर्वेद संहिता
३५३, आ वायो मूष शुचिपा उप नः सहस्रं ते नियुतो विश्ववार । उप ते अन्घो मच्चमयामि यस्य देव दधिषे पूर्वपेयं वायवे त्वा ॥७॥ । पवित्रता का विस्तार करने वाले हे वायुदेव ! आप अनन्त गुणों के आश्रय हैं। हमारे जीवन को सद्गुणों से विभूषित करें । आपका तृप्तिदायक श्रेष्ठ आहार सोमरस‘ आपको समर्पित करते हैं, जिसका आपने पहले भी पान किया है । है सोम ! वायुदेवता के लिए आपको ग्रहण करते हैं ॥७ ॥
५३. सायू इमे सुता उप प्रयोभिरागतम् । इन्दवो वामुशन्ति हि। उपयामगृहीतोसि बायव वायुभ्यां त्वैष ते योनिः सजोषोभ्यां त्वा ।।८।।
है इन्द्रदेव और वायुदेव ! तृप्तिदायक श्रेष्ठ पेय सोम, आप दोनों के लिए समर्पित हैं, इसे प्राप्त करें ।(हे सोम ! वायुदेव और इन्द्रदेव के लिए आप विधिपूर्वक तैयार किये गये हैं । उन्हीं की प्रसन्नता के लिए ही हम
आपको ग्रहण करते हैं ॥८॥
२५४, अयं वा मित्रावरुणा सुतः सोम ऋतावृधा। ममेदिह श्रुत इवम्। उपयामगृहीतोऽसि मित्रावरुणाभ्यां त्वा ॥९॥ | सत्य का विस्तार करने वाले हे मित्र और वरुणदेव ! आप दोनों की तृप्ति के लिए सोमरस प्रस्तुत हैं । यज्ञशाला में पधारें, हम आपका आवाहन करते हैं । हैं सौम ! उपायाम पात्र में इन्द्र और वरुणदेव के लिए आपको नियमानुसार तैयार किया गया है, उन्हीं के निमित्त आपकों समर्पित करते हैं ॥६, ।।
२५५, राया वय ससवा सो मदेम हव्येन देवा यवसेन गाः। तां धेनु मित्रावरुणा युवं नो विश्वाहा बत्तमनपस्फुरन्तीमेष ते योनिक्रेतायुभ्यां त्वा ॥१०॥
है मित्र और वरुणदेव ! पलायन न करने वाली श्रेष्ठ गौ हमें (याजको को) प्रदान करें । जिसके होने से सम्पत्तिवान् होकर, हम उसी प्रकार आनन्द प्राप्त करें, जिस प्रकार गौएँ आहार पाकर या देवता हवि पाकर प्रसन्न होते हैं । सत्य एवं यज्ञ की वृद्धि के लिए (आप दोनों) यज्ञशाला में सुनिश्चित आसन पर विराजें ॥१८ || .
२५६. या व कशा मधुमत्यश्विना सूनृतावतीं। तया यज्ञं मिमिक्षतम्। उपबामगृहीतोस्यश्विभ्यां त्वैव ते योनिर्मात्रीभ्यां त्वा ॥११॥
हैं अश्विनीकुमारों ! सत्य एवं मधुरता से युक्त अपनी उत्तम बाणों से हमारे इस यज्ञ को अभिषिंचित करें। है। उपांशु ! मधुरता के लिए विख्यात अश्विनीकुमारों के निमित्त आपको नियमानुसार ग्रहण किया गया है । आप यज्ञशाला में अपने सुनिश्चित आसन पर बैठे ॥११ ।।।
१५७, तं प्रत्नथा पूर्वथा विश्वथेमथा ज्येतातिं बर्हिषद स्वर्विदम् । अतींचीनं बृजनं दोहसे धुनमाशं जयन्तमनु यासु वर्धसे । उपयामगृहीतोसि शण्डाय त्वैष ते योनिर्वीरतां पापमृधः अण्डों देवास्त्वा शुकपाः प्रणयन्त्वनाधृष्टासि ॥१२॥
पोषक तत्वों से युक्त, तृप्तिदायक सोमरस को, पुनः पुनः पीकर, यज्ञशाला में सर्वोच्च आसन पर विराजमान होने वाले, हे इन्द्रदेव ! आप शत्रुओं को भयभीत करने वाले, प्राचीन अषयों की भाँति याजकों को वांछित वैभव के रूप में यज्ञ का फल प्रदान करने वाले हैं, हम आपकी वन्दना करते हैं। हैं उषांशु ग्रह ! आप नियमानुसार देवताओं के निमित्त ग्रहण किये गये हैं। आप अपने सुनिश्चित आसन पर बैठे । सोमरस पीने वाले देवता आपको प्राप्त कर, याजकों की शक्ति–सामर्थ्य बढ़ाएँ ॥ ३ ॥
मनमोऽध्यायः
२५८. सुवीरों वीरान् जनयन् परीभि रायस्पोषेण यजमानम् । सजग्मानो दिवा पृथिव्या शुकः शुक्रशोचिषा निरस्तः शण्डुः शुक्रस्याधिष्ठानमसि ।।१३।।
– सूर्य के समान अपनी तेजस्विता से पृथ्वी और घुलोक को प्रकाशित करने वाले हे ग्रह ! आप याजकों में पराक्रम की वृद्धि करते हुए, उन्हें अपार वैभव प्रदान करें। आप दुष्टता को दूर करने वाले तथा कल्याणकारी | पराक्रम को आश्रय देकर बढ़ाने वाले हैं ॥१३॥
२५९. अच्छिन्नस्य ते देव सोम सुवीर्यस्य रायस्पोषस्य ददितारः स्याम्। सा प्रथमा संस्कृतिर्विश्ववारा स प्रथमो वरुणो मित्रो अग्निः ।।१४ ॥
अनन्त शक्ति सम्पन्न एवं अक्षय ऐश्वर्यवान् हे सोमदेव ! आपके अनुग्रह से हम याजकगण सदैव देवताओं के निमित्त हवि देने वाले हों, अर्थात् सत्कर्मरत रहें । विश्वमानव द्वारा वरण करने योग्य यह पहली सर्वोत्कृष्ट | संस्कृति है । संस्कारित सोमदेव, वरुण, मित्र तथा अग्नि देवों में अग्रणी हैं ॥१४ ||
२६०, स प्रथमों बृहस्पतिश्चिकित्वाँस्तस्मा इन्द्राय सुतमा जुहोत स्वाहा । तृम्पन्तु होत्रा मध्य याः स्विष्टा याः सुप्रीताः सुदुता यत्स्वाहायाग्नीत् ॥१५॥ | सर्वश्रेष्ठ विद्वान्, मेधावी इन्द्रदेव के निमित्त सोमरस समर्पित करें । होतागण उन्हें मधुर हविष्यान्न देकर | सन्तुष्ट करें । जो वांछित आहार से (सोमरस पीकर) तृप्त होने वाले देवता हैं, वे यज्ञाग्नि के पास पहुँचें ॥१५ ॥
२६१. अयं वेन्योदयत्पृश्निगर्भा ज्योतिर्जरायू रजसो विमाने। इममपा सङ्गमे सूर्यस्य | शिशु न विप्रा मतभी रिहन्ति । उपयामगृहीतोसि मर्काय त्वा ॥१६॥
परम तेजस्वी देव, अन्तरिक्ष में जल को प्रेरित कर वर्षा के रूप में उपलब्ध कराते हैं । जलरूप में प्राप्त अनुदान को, पुत्र जन्म की भाँति सुखद जानकर विद्वज्जन विभिन्न स्तोत्रों से सूर्यदेवकी वन्दना करते | हैं । हे सोमदेव ! मर्क” नामक असुर (शुक्र) के निमित्त (विनाश करने के लिए आपको नियमानुसार ग्रहण
किया गया हैं ॥ १६ ॥ |
[*हाँ देवताओं के पुरोहित के रूप में ‘बृहस्पति का नाम प्रसिद्ध हैं, वहीं असुरों के पुरोहित के रूप में शण्ड‘ के साथ ‘क‘ का नाम भी प्रसिद्ध है ( तैः सं० ६.४.१०.१ }] ३६३. मन न येद् हुवनेषु तिग्मं विपः शच्या वनको इचन्ता ।आ यः शर्याभिस्तुविनृम्णो । अस्याश्रीणीतादिशं गभस्तावेष ते योनिः प्रजाः पापमृष्टो मकों | देवास्त्वा मन्थिपाः प्रणयन्त्वनाधृष्टासि ॥१७॥
सदैव सत्कर्म करने वाले ज्ञानीजन जिन सोमयागों में मनोयोगपूर्वक भाग लेते हैं, उनमें मिलने वाले सोमरस को पौष्टिक आहार की भाँति महण करते हैं । हे मन्थिग्नहक्क ! शत्रुओं का मर्दन करते हुए संतान सहित याज्ञकों की सुरक्षा का दायित्व वहन करें । आप निर्भय होकर देवताओं को प्राप्त करें ॥१७॥
||पेंद में मथानी के अर्थ में मन्दिाह का प्रयोग हुआ है (ऋग्वेद १/२८/४) )
२६३. सुप्रजाः प्रजाः अजनयन् परीभिरायस्पोमेण यजमानम्। सञ्जग्मानो दिया पृथिव्या | मन्थी मन्थिशोचिषा निरस्तो मक मन्थिनोधिष्ठानमसि ।।१८ ॥
हे मन्धिप्रह ! श्रेष्ठ सन्तति वाले आप याजकों को महान् ऐश्वर्य प्रदान करते हुए सत्कर्म में नियोजित करें। | आप सूर्य और पृथ्वी की भाँति, विचारशील साधकों के जीवन को सद्गुणों से प्रकाशित करें । महान् दुःखदायी–असुर आपकी तेजस्विता के प्रभाव से पलायन करें ॥१८॥
युर्वेद संहिता २६४, ये देवासो दिव्येकादश स्थ पृथिव्यामध्येकादश स्थ। अप्सुक्षितो महिनैकादश स्थ ते देवासो यज्ञमिमं जुषध्वम् ।।१९।।
पृथ्वीं, अन्तरिक्ष एवं घुलोक में व्याप्त जो ग्यारह–ग्यारह दिव्य शक्तियों में अपनी महिमा से सृष्टि के जीवन प्रवाह का विधिवत् संचालन कर रही हैं, वे ही विश्वेदेवा (३३ कोटि देवता इस यज्ञ को सम्पन्न कराएँ ॥११ ॥
[• (क) प्राण अपान, अन, यान् समान, नाग, कूर्म, कुल देवदत, मय, और जीवात्मा ।
(ख) बी, नअग्नि, पवन, आकाश, आदित्य क्मा, नर आहार, मय और प्रकृति ।
(ग) त्क्क्, चनु हो, या मासिका, वाणी, हाथ पाँच लिग फुदा और मन ॥
२६५. उपयामगृहीतोस्याग्रयणोसि स्वाग्रयणः । पायिनं पाहि यज्ञपतिं विष्णुस्वामिन्द्रयेण पातु विष्णुं त्वं पाह्मभि सवनानि पाहि ॥२०॥
| हे आग्रयण ग्रह ! (सर्वप्रथम ग्रहण किये जाने वाले) यज्ञ के निमित्त सर्वप्रथम बुलाए गये और स्थापित किये गये आप, इस यज्ञ की तथा यज्ञमान की रक्षा करें और उसे आगे बढ़ाएँ । यज्ञ के अधिष्ठाता देब, सर्वव्यापक विष्णु आपकी रक्षा करें । आप इनकी (विष्णु की) रक्षा करें । आप तीनों सदनों (प्रातः, माध्यन्दिन एवं सायो की भली-भाँति रक्षा करें ॥२३ ॥
२६६. सोमः पवते सोमः पवतेस्में ब्रह्मणेस्मै क्षत्रायास्मै सुन्वते जमानाय पवतऽइषऽऊर्जे | पवतेच्च 5 ओवधीभ्यः पवते द्यावापृथिवीभ्यां पवते सुभूताय पवते विश्चेभ्यस्त्वा
देवेभ्यः एष ते योनिर्विश्वेभ्यस्त्वा देवेभ्यः ॥२१॥
ब्राह्मण, क्षत्रिय आदि सभी यज्ञमानों की सन्तुष्टि के लिए यह सोमरस पवित्र करके तैयार किया जाता है । पृथ्वी, अन्तरिक्ष एवं द्युलोक में धन-धान्य, वनस्पति और जीवनी शक्ति के विस्तार हेतु सोमरस पवित्र होता है। सभी देवताओं की तृप्ति के लिए ग्रहण किये गये, है सोम ! आप यज्ञशाला में अपने सुनिश्चित
स्थान(पात्र में स्थिर हों ॥२१ ।। |
२६७, उपयोमगृहीतोसीन्द्राय वा बहते वयस्वतःउक्थाव्यं गृणामि। यत्त इन्द्र
बृहत्वयस्तस्मै त्वा विष्णवे त्वेष ते योनिरुक्थेभ्यस्त्वा देवेभ्यस्त्वा देवाव्यं यज्ञस्यायुषे गृणामि ॥२२॥
नियमानुसार ग्रहण किये गये है सोम ! मित्र, वरुण, इन्द्र एवं विश्वव्यापक विष्णु आदि देवताओं को तृप्ति | के लिए आपको स्वीकार करते हैं । अपने प्रिय आहार सोमरस का पान करने के लिये इन्द्रदेव की हम वन्दना
करते हैं । यज्ञ की सफलता एवं याजकों के दीर्घायुष्य की कामना से आपको यज्ञशाला में पूर्व निञ्चित, श्रेष्ठ आसन पर स्थापित करते हैं ।।२२ ॥
२६८. मित्रावरुणाभ्यां त्वा देवाव्यं यज्ञस्यायुषे गृह्णामीन्द्राय त्वा देवाव्यं यज्ञस्यायुषे गृणामीन्द्राग्निभ्यां त्वा देवाव्यं यज्ञस्यायुषे गृस्णामन्द्रावरुणाभ्यां त्वा देवाव्यं यज्ञस्यायुषे गृणामीदाबहुमतियां त्वा देवाच्यं यज्ञस्याचे गृणामीन्दावियां त्वा देवाच्यं | यज्ञस्यायुधे गृणामि ॥२३॥
तृप्तिदायक हे दिव्य सोम ! मित्र, वरुण, इन्द्र, अग्नि, बृहस्पति एवं विष्णु आदि देवताओं को सन्तुष्ट करने के लिए आपको ग्रहण करते हैं । यज्ञों की निर्विघ्न सफलता एवं उनके विस्तार के लिए हम आपको यज्ञशाला में स्थापित करते हैं ॥२३ ।।
सप्तमेोऽध्यायः
२६९. मूर्धानं दिवोऽअरतिं पृथिव्या वैश्वानरमृत ई आ जातमग्निम्। कवि समाज
मतिथिं जनानामासन्नापात्रं जनयन्त देवाः ॥२४॥
आकाश के मूद्ध भाग में प्रकाशित, तेजस्वी सूर्य की भाँति पृथ्वी पर प्रतिष्ठ-प्राप्त विश्व के आश्रय, त्रिकालज्ञ, मूर्धन्य, तेजस्वी, श्रेष्ठ गुणों से प्रकाशित, सम्माननीय अतिथिरूप यज्ञाग्नि को याजकों ने अरणियों द्वारा प्रकट किया ॥३४ ॥
२७०, इपयामगृहीतोसि मुवसि मुवक्षितिर्बुवाणां ध्रुवतमोच्युतानामच्युत– क्षित्तमऽएष । ते योनिर्वैश्वानराय वा। ध्रुवं ध्रुवेण मनसा वाचा सोममवनयामि । अथा न इन्द्र
इदिशोसपनाः समनसस्करत् ॥२५ ॥
नियमपूर्वक ग्रहण किये गये हे सोमदेव ! अपने स्थान से कभी विचलित न होने वाले, स्थिर रहने वालों में अग्रगण्य, आप स्थिर निवास वाले ‘घुस‘ नाम से विख्यात है। स्थिर चित्त वाले हम याजक, आपको कल्याणकारी देवताओं की सन्तुष्टि के लिए, यज्ञशाला में स्थापित करते हैं । इन्द्रदेव शत्रुओं का विनाश करते हुए इमारी सन्तानों को सद्बुद्धि प्रदान करें ॥३५ ।।
२७९. यस्तै द्रप्सः स्कन्दति यस्तेऽअॐ शुर्गावच्युतो धिषणयोरुपस्थात् । अध्वर्योर्वा परिवायः पवित्रात्तं ते जुहोमि मनसा वषट्कृत स्वाहा देवानामुत्क्रमणमसि ॥२६॥
देयों को सर्वोच्च पद प्रदान करने वाले हे सोमदेव ! आपके रस का ज्ञों अंश पत्थरों द्वारा कुचलते, निचोड़ते, झानते एवं पात्र में डालते समय पृथ्वी पर गिर जाता है या जो अध्वर्यु के पास शेष रहता है, उस सबको संकल्प शक्ति द्वारा एकत्रित कर अग्नि को समर्पित करते हैं, आप देवशक्तियों को ऊर्ध्वगति देने वाले के समान हैं ॥२६ ।।
२७२. प्राणाय में क्चदा वर्चसे पवस्व व्यानाय मे वचदा वर्चसे पवस्वोदानाय में वर्षोंदा वर्चसे पवस्व वाचे में वर्षोदा वर्चसे पवस्व ऋतूदक्षाभ्यां में बच्चोंदा वर्चसे पवस्व श्रोत्राय में वर्षोंदा वर्चसे पयस्य चक्षय में वर्षोंदसौ वर्चसे पवेथाम् ॥३७ ॥
सोम को धारण करने वाले पात्र को लक्ष्य करके कहा जाता है
हे पात्र ! आप दिव्य प्रकाश को धारण करने वाले वर्चस्वी हैं। हमारे प्राण वायु, उदान वायु एवं व्यान वायु को तेज प्रदान करें । हे देव ! आप हमारे मन, वाणी एवं कर्म में तेजस्विता की स्थापना का उपाय करें । तेजस्विता प्रदान करने वालों में अग्रणी हे देव ! हमारे नेत्रों एवं कर्णेन्द्रियों को दिव्यशक्ति से सम्पन्न बनाएँ ॥२५ ॥
२७३, आपने में वर्षोंदा वर्चसे पवस्वौजसे में बच्चोंदा बर्चसे पवस्वायुधे में बच्चोंदा वर्चसे पवस्व विश्वाभ्यों में प्रज्ञाभ्यो वर्षोंदसौ वर्चसे पयेथाम् ॥२८॥
हे वर्चस् (तेजस्विता) प्रदान करने वाले ! हमारी आत्मा में वर्चस् जाग्रत् करें, हमारे ओज में वर्चस् जाग्रत् करें, हमारे आयुष्य में वर्चस् जाग्रत् करें । हे तेजस्वी ग्रह (उपकरण) ! पृथ्वी के समस्त प्राणियों एवं प्रज्ञाओं को तेज प्रदान करने की कृपा करें ॥२८॥
२७४, कोसि कतमोस कस्यासि को नामासि। यस्य ते नामामन्महि यं त्वा सोमेनातीपाम। भूर्भुवः स्वः सुजाः प्रजाभिः स्या सुवीरो वीरैः सुपोषः पोथैः ।।
इस का मैं ऋषियों का व्यापक दृष्टिकोण प्रकट होता हैं। सोप पत्र के रूप में स्वस पर स्थापित द्रोण कलश को वे भूर्भुव स्व में फैले विपात्र का प्रतीक– प्रतिनिधि मानते हैं। इस विश्व पात्र को सोप (पोक्य न्य) से परिपूर्ण बना न छाडेय है –
है सोम पाव ! आप कौन हैं ? किससे सम्बन्धित हैं ? किस क्रम में आपका क्या नाम है? आपका परिचय क्या है? जिसे जानकर हम आपको सोमरस से परिपूर्ण कर सकें । पृथ्वी, अन्तरिक्ष और घुलोक में, अग्नि, वायु एवं सूर्य के रूप में व्याप्त (हे देव !) आप हमें वीर, पराक्रमी एवं वैभव-सम्पन सन्तानें प्रदान करें ।।२९ ॥
२७५. उपयामगृहीतोसि मधचे त्वोपयामगृहीतोसि माधवाय त्वोपयामगृहीतोसि शुक्राय त्वोपयामगृहीतोसि शुचये त्वोपयामगृहीतोसि नभसे त्वोपयामगृहीतोसि नभस्याय त्वोपयामगृहीतोसीधे त्योपयामगृहीतोस्यूर्जे त्वोपयामगृहीतोसि साहसे त्वोपयामगृहीतोसि सहस्याय चोपयामगृहीतोस तपसे त्वोपयामगृहीतोसि तपस्याय त्वोपयामगृहीतोस्य है इसस्पतये त्वा ॥३०॥
इस कण्डिका में १२ मासों तथा गैरहवें पुरुषोत्तम मास को ऋतु पात्र के रूप में लक्ष्य करके उनकी तुष्टि–पुष्टि के लिए सोम को धारण करके नियोजित करने का संकल्प किया गया है
हे तुमह ! आप नियमानुसार ग्रहण किये गये हैं। हम आपको चैत्र, वैशाख, ज्येष्ठ, आषाढ़, श्रावण | भाद्रपद, आश्विन, कार्तिक, मार्गशीर्ष, पौष, माध, फाल्गुन एवं पुरुषोत्तम आदि (तेरह मासों की सन्तुष्टि के निमित्त | मर्यादाओं के अनुरूप नियुक्त करते हैं ।।३६ ॥
२७६. इन्द्राग्नीआ गत सुतं गीर्भिर्नभों वरेण्यम् । अस्य पातं धियेषिता। उपयामगृहीतोसौन्द्राग्निभ्यां वैष ते योनिरन्द्राग्निभ्यां वा ॥३१॥ | पात्र में ग्रहण किये गये हे सोम ! इन्द्र और अग्निदेव की तृप्ति तथा प्रसन्नता के निमित्त, आप अपने इस
(यज्ञशाला में सुनिशित आसन पर स्थिर हों । हे इन्द्रदेव ! हे अग्निदेव ! याजकों की उत्तम चाणियों द्वारा की
गई स्तुतियों से प्रसन्न होकर, सोमपान के लिए यज्ञशाला में पधारें और अपना भाग अहण करें ॥३१ ॥
२७७, आ घा येऽअग्निमिन्यते स्तृणन्ति बर्हिरानुषक् । येषामिन्द्रो युवा सखा। उपयामगृहीतोस्यग्नीन्द्राभ्यां त्वेष ते योनिग्नीन्द्राभ्यां त्वा ।।३२ ।।
इन्द्र और अग्निदेव की सन्तुष्टि के लिए विधिपूर्वक पण किये गये, हे सोम ग्रह ! यज्ञशाला में आपका यह स्थान सुनिश्चित हैं, आसन ग्रहण करें । तेजस्वी इन्द्रदेव जिनके मित्र हैं, जो समिधाओं से अग्नि को प्रदीप्त कर
आहुतियाँ प्रदान करते हैं, हे कलशस्य सोम ! उन (याजको) के यज्ञ को आप सफल बनाएँ ।।३२ ।।
२७८, ओमासश्चर्षणीधृतो विश्वे देवासऽआगत । दोश्वासो दाशुषः सुतम् । उपयामगृहीतोसि विश्वेभ्यस्त्वा देवेश्याएष ते योनिर्विश्वेश्यस्त्वा देवेभ्यः ।। ३३ ।।
याज्ञकों का पोषण एवं उनकी रक्षा करने वाले है विश्वेदेवा (बिश्व संचालक देवताओ) ! साधकों के आवाहन पर आप सोमपान करने के लिए यज्ञशाला में आएँ । हे ग्रह (सोमरस पूरित पात्र) ! विश्वेदेवों की तृप्ति के लिये आप नियमानुसार ग्रहण (तैयार किये गये हैं। यह आपको सुनिश्चित स्थान हैं । समस्त देवताओं को संतुष्टि के लिये आप यहाँ स्थिर हों ॥३३ ।। २७९. विश्वे देवास आगत शृणुता म इमxहवम् । एवं बर्हिर्निषीदत। उपयामगृहीतोसि विश्चेभ्यस्त्वा देवेभ्यः एष ते योनिर्विश्वेभ्यस्त्वा देवेभ्यः ॥३४ ।।
हमारी स्तुतियों से प्रसन्न हुए हैं विश्वदेवा ! हमारे आवाहन पर आप यज्ञशाला में आएँ और यह पवित्र आसन ग्रहण करें । हे मह (पात्र) ! आपको सभी देवताओं की तृप्ति तथा प्रसन्नता के लिए महण किया गया है। यह
आप निश्चित स्थान है । हम आपको देवताओं की प्रसन्नता के लिए यहाँ स्थापित करते हैं ॥३४ ॥
२८. इन्द्र मरुत्वऽइह पाहि सोमं यथा शायतेऽअपिबः सुतस्य । तव प्रणीती तव शुर शर्मन्ना विवासन्ति कवयः सुयज्ञाः। उपयामगृहीतोसीन्द्राय त्वा मरुत्वत एष ते योनिरिन्द्राय त्वा मरुत्वते ॥३५॥
मरुद्गणों के साथ निवास करने वाले हैं इन्द्र ! नीतिवान्, दूरदर्शी, सत्कर्मरत, नैष्ठिक याज्ञक आपकी उपासना कर रहे हैं । शर्यात के यज्ञ में पिये गये सोमरस की भाँति इस यज्ञ में पधारे और सोम पीकर तृप्त हों । हे मह (पात्र में स्थित सौम) ! मरुतों सहित इन्द्रदेव की प्रसन्नता के लिए आपको विधिपूर्वक तैयार (मण किया गया है । यह आपका स्थान है, मरुत्वान् इन्द्र की तृप्ति के लिए यहाँ स्थिर हो ॥३, ।।
| १.११२.७ में शर्यात अनिों का कोई कृपा–पात्र हैं। शत ब्रा ४.१.५.२ औंर जे ब्रा ३.१२–११२ में शर्थात | की कथा आती हैं। जैमिनीय उपनिषद् बाण ४.७.१, ४.३ में शयन एक यज्ञकर्ता के रूप में प्रस्तुत हुए हैं।
२८१. मरुत्वन्तं वृषभं वावृधानमकवारिं दिव्य 8 शासमिन्द्रम्। विश्वासाहमवसे नूतनायोग्र सहोदामिह त हुवेम्। उपयामगृहीतोसीन्द्राय वा मरुत्वत एष ते । योनिरिन्द्राय वा मरुत्वते । पयामगृहीतोसि मरुतां वौजसे ॥३६ ।।
साधकगण अपनी रक्षा के निमित्त, दिव्यशक्ति से सम्पन्न, ऐश्वर्य एवं पराक्रम प्रदान करने वाले, जल की वर्षा | करने वाले इन्द्रदेव का मरुद्गणों के साथ आवाहन करते हैं । हे ग्रहों (पात्रों) ! आपको मरूदगणों सहित इन्द्रदेव | की तृप्ति के लिए, नियमानुसार ग्रहण किया गया है। यह आपका मूल स्थान है, मरुतों को बल एवं प्रसन्नता प्रदान | करने के लिए आपको यहाँ स्थापित करते हैं ॥३६ ॥
२८२. सजोषा इन्द्र सगणो मरुद्भिः सोमं पिब वृत्रहा शूर विद्वान्। जहि शत्रू२प मृधो नुदस्वाथाभयं कृणुहि विश्वतो नः । उपयामगृहीतोसीन्द्राय त्वा मरुत्वत एष ते योनिरिन्द्राय त्वा मरुत्वते ।।३७ ।। | वृत्र नामक राक्षस को मारने वाले हैं इन्द्रदेव ! मरूद्गणों सहित आप इस यज्ञ में पधारें तथा सोमरस पीकर | सन्तुष्ट हों । आप हमारे शत्रुओं को दूर कर उन्हें नष्ट करके हमें निर्भयता प्रदान करें । हे ग्रह (पात्र ! आप इन्द्रदेव | की प्रसन्नता के लिए नियमानुसार ग्रहण किये गये हैं । यहीं आपका निश्चित स्थान है । मरुतों सहित इन्द्रदेव की | प्रसन्नता के लिए आपको स्थापित करते हैं ।।३६ ॥
२८३. मरुभवॉइन्द्र वृषभो रणाय पिबा सोममनुवर्थ मदाय। आसिञ्चस्व जठरे | मध्वऊर्मि त्वराजासि प्रतिपत्सुतानाम्। उपयामगृहीतोसीन्द्राय त्वा मरुत्वतऽएष ते योनिरिन्द्राय वा मरुचते ॥३८॥
जल की वर्षा द्वारा याजकों को धन–धान्य प्रदान करने वाले हे महत्वान् इन्द्रदेव ! अपनी प्रसन्नता के लिए तृप्तिदायक सोम का पान करें और दुराचारियों से बुद्ध करें । इस पोषक मधर सोमरस को पेट भरकर पिएँ । विधिपूर्वक तैयार किये गये सोमरस के आप स्वामी हैं । हे मह (पात्र) ! मरुतों सहित इन्द्रदेव की प्रसन्नता के लिए आपको ग्रहण किया गया है । यह आपका आश्रय स्थल हैं, यहाँ आपको स्थापित करते हैं ॥३८ ॥
२८४. महाँऽइन्द्रो नृवदा चर्षणिप्राऽउत द्विबह अमिनः सहोभिः । अस्मद्यग्वावृधे वीर्यायोः पृथुः सुकृतः कर्तृभिर्भूत् । उपयामगृहीतोसि महेन्द्राय त्वैष ते योनिमहेन्द्राय त्वा। | अद्वितीय शौर्यवान्, यज्ञों का विस्तार करने वाले, हे इन्द्र ! प्रज्ञा की मनोकामनाएँ पूर्ण करने वाले राजा की भाँति, आप याजकों को ऐश्वर्य प्रदान कर, उनको इच्छाएँ पूर्ण करें । याजकों द्वारा सम्मानित हे इन्द्र ! आप उन्हें पुर्वेद संक्षिा बलवान् बनायें । हे ग्रह ! नियमपूर्वक ग्रहण किये गये आपको महान् इन्द्रदेव की तृप्ति तथा प्रसन्नता के लिए नियुक्त करते हैं। यहीं आपका स्थान हैं ॥३६॥ |
२८५. महरऽइन्द्रों य ओजसा फर्जन्यो वृष्टिमर इव। स्तोमैर्वसस्य वाथे।
उपपामगृहीतोसि महेन्द्राय वैघ ते योनिमहेन्द्राय चा ॥४॥
जल के रूप में प्राण–पर्जन्य की वर्षा करने वाले, विशाल मेघों के समान, है महान् तेजस्वी इन्द्रदेव ! आप साधकों की स्तुति से प्रसन्न होकर सुखों की वर्षा करते हैं। हे माहेन्द्र ग्रह (इन्द्र के निमित्त नियुक्त सोम पात्र)! नियमानुसार सत्पात्र में ग्रहण किये गये आपको महान् इन्द्रदेव की तृप्ति के लिए नियुक्त करते हैं, यहीं स्थान आपके लिए सुनिशित है ॥४७ ॥
२८६. द त्यं ज्ञातवेदसं देवं वन्ति केतवः । दशै विश्वाय सूर्य छ स्वाहा ।।४१ ॥
चराचर जगत् को अपनी दिव्य रश्मियों से प्रकाशित करने वाले जो सूर्यदेव प्राणिमात्र को पदार्थों का ज्ञान कराने के लिए, ऊपर से अपनी किरणों को बिखेरते हैं, उन्हीं के लिए यह आहुति समर्पित है ।।४१ ॥
२८७, चित्रं देवानामुदगानीकं चक्षुर्मित्रस्य वरुणस्याग्नेः । आप्रा द्यावापृथिवी अन्तरिक्ष * सूर्य आत्मा जगतस्तस्थुषश्च स्वाहा ॥४३ ।।
मित्र, वरुण और अग्नि आदि देवताओं के नेत्ररूप, स्थावर और जंगम जगत् के आत्मारूप जो सूर्यदेव अपनी दिव्य (प्रकाश किरणों से पृश्यों, अन्तरिक्ष एवं द्युलोक को तेजस्विता प्रदान करते हैं, उन्ही देव के लिए यह आहुति समर्पित हैं ।।४३ ॥
२८८, अम्ने नय सुपथा रायेऽअस्मान्विश्वानि देव वयुनानि विद्वान् । युयोध्यस्मज्नुहुराणमेनो भूयिष्ठां ते नम उक्तिं विधेम स्वाहा ।।३।।
प्रगति के सभी मार्गों (विधियों ) को जानने वाले हैं अग्निदेव ! आप ऐश्वर्य की कामना करने वाले (हम) याजकों को श्रेष्ठ मार्ग पर ले चलें । सत्कर्म में बाधक पाप-वृत्तियों को हमसे दूर करें । हम नम्रतापूर्वक स्तुति
करते हुए आपको हवि प्रदान कर रहे हैं ॥४३ ।।
२८९. अयं नोऽग्निर्वरिवस्कृणोत्वयं मृधः पुरएतु प्रभिन्दन् । अयं वाद्धाञ्जयतु वाजसातावय ४३ शत्रूजयतु जवाणः स्वाहा ॥४४ ।।
यह अग्निदेव, हमारे शत्रुओं को युद्ध के मैदान में छि–भिन्न करके उन्हें परास्त करते हुए, उनके द्वारा (शत्रुओं द्वारा जमा किया गया धन-धान्य, हमें प्रदान करें । शत्रुओं को पराजित करने वाले अग्निदेव के लिए यह आहुति समर्पित करते हैं ॥४४ ॥
२९०, रूपेण यो रूपमभ्यागां तुथो वो विश्ववेदा विभजतु । तस्य पथा प्रेत चन्द्रदक्षिणा वि स्वः पश्य व्यन्तरिक्ष यतस्व सदस्यैः ॥४५॥ | हे दक्षिणे (श्रद्धापूर्वक यज्ञकर्ताओं के लिए समर्पित धनाद)! भली–भाँति हम आपके स्वरूप को जान चुके हैं, सर्वद्रष्टा प्रजापति आपको अन्त्वज्ञों के लिए विधिपूर्वक वितरित करें । आपको प्राप्त कर हम सत्यमार्ग के अनुगामी बने तथा सूर्यदेव जिस प्रकार अनन्त अन्तरिक्ष का अवलोकन करने में समर्थ हैं, उसी प्रकार हम भी दूरदृष्टि से युक्त हों ॥४५॥
* जिस प्रकार सूर्यदेव सारे विश्व को दृष्टि में रखकर ऊर्जा का वितरण करते हैं, वैसी ही दृष्टि के साथ दक्षिणा में प्राप्त – मादि का उपयोग करन्याणकारी योन में किया जाना चाहिए ।
सतमोऽध्याय
२९१. ब्राह्मणमद्य विदेयं पितृमन्तं पैतृमत्यमृषिमायसुधातुदक्षिणम्। अस्मदाता देवत्रा गत दातारमाविशत ।।४६ ॥
मन्त्रद्रष्टा, ऐश्वर्यशाली, दिव्यगुण सम्पन्न पिता और पितामह वाले (दीर्घजीवी) प्रसिद्ध ऋषि एवं ब्राह्मणों से | हम युक्त हों । उनके पास सम्पूर्ण दक्षिणा एकत्र हो । हे दक्षिणे ! आप ऋत्विजों के पास पहुँचकर देवताओं को सन्तुष्ट करें तथा दानदाता याजकों को अभीष्ट फल प्रदान करें ॥४६ ॥
[ऐसे प्रामाणिक व्यक्तित्व जो स्वयं भी ऋषितुल्य आवरण करते हों तथा जिनकी पूर्व पीढ़ियाँ भी लोकहित के लिए हमें समर्पित रही हों, ही के पास दक्षिणा का धन संचित होकर, सुपार्षों तक पहुँचाकर सार्थक बनाये जाने का निर्देश दिया गया है । |
२९२. अग्नये त्वा मह्यं वरुणो ददातु सोमूतत्त्वमशीयायुर्दात्र एथि मयों मह्यं प्रतिग्रहीने रुद्राय त्वा मह्यं वरुणो ददातु सोमृतत्त्वमशीय प्राणो दाऽथि वयो मह्यं । प्रतिग्रहीने बृहस्पतये त्वा मां वरुणो ददातु सोमृतत्वमशीय त्वग्दात्रऽधि मयो मां | प्रतिग्रहीने यमाय वा मां वरुणो ददातु सोमृतत्वमशीय यो दात्रऽएथि वयो मां प्रतिग्रहीने ॥४॥
हे दक्षिणे ! अग्नि, रुद्र, बृहस्पति और यम आदि विभिन्न देवशक्तियों की अनुकम्पा के रूप में आप वरुणदेवता | द्वारा हमें प्राप्त हों । आपको प्राप्त करके हम स्वस्थ रहें एवं दीर्घ जीवन प्राप्त करें। आप दान दाताओं को धन–धान्य | से परिपूर्ण सुख, ऐश्वर्य एवं दीर्घायुष्य प्रदान करें ॥४७ ।।
[दक्षिणा जिनके अनुयार से प्राप्त हो, उसी के अनुरूप उसका उपयोग किया जाना चाहिए। यस्ता वृद्धि (अन्न) , अनीति दमन (द) , ज्ञान विस्तार (बृहस्पति) एवं अनुशासन की स्थापना (यम) के निमित्त ही दक्षिा का नियोजन हो। वरुण देव (जल के देवता) के द्वारा प्राप्ति का अभिप्राय श्रद्धा के आधार पर प्राप्त होना है।
३९३. कोदाकस्मा । अदाकामोदान्कामायादात् । कामो दाता कामः प्रतिग्रहीता कामैतते ॥४८॥
कौन (दक्षिणा) देता है ? किसके लिए (दक्षिणा देता है ? कामनाएँ ही दान देने के लिए प्रेरित करती हैं, कामनाओं में ही दान दिया जाता है तथा कामनाएँ ही दान लेती हैं। यहाँ कामनाएँ हीं सब कुछ हैं ॥४८ ॥
[जैसी कामनाएँ ऑगी, वैसा कर्म होगा इसलिए यज्ञ करने तथा उसके प्रभाव के विस्तार के लिए यज्ञीय कामनाएँ में भी है।] .
–ऋषि, देवता, छन्द–विवरण ऋषि- गौतम १६ । वसिष्ठ ७ । मधुच्छन्दा ८,३३। गृत्समद ९, ३४ । जसदस्यु १० । मेधातिथि ११ । अवत्सार काश्यप १३-१५ । वेन १६-१८. परुप ११-२३ । भरद्वाज २४-२५, ३१ । देवश्रवा २६-३० । विश्वामित्र ३१, ३५-३८ । त्रिशोक ३२ । वत्स ४० । अस्कण्व ४१ । कुत्स आंगिरस ४३,४५-४८, । अगस्य ४३,४ ।। । देवता-आण १ । लिगक्त, सोम ३ । उपांशु, देवगण, सोमांशु, मह, उपांशु-सवन ३ । इन्द्र ४ । मघवा ५ ॥ उपांशु, देवगण, मह ६ । वायु ७ । इन्द्र–वायु ८ । मित्रावरुण ६–१ | अश्विनीकुमार ११ । विश्वेदेवा १२, १६, ३६, ३३-३४ । शुक्र, आभिचारिक, शकल १३ । सोम, इन्द्र १४ । इन्द्र, लिंगोक्त १५ । वैन १६ । सोम,
आभिचारिक शुक्र-मन्थी, दक्षिणोत्तरवेदिक-श्रोण १७ । मन्थी, आभिचारिक शकत १८ । आमयण लिंगोक्त २० । अह लिगोक्त २२-२३, ३० । वैश्वानर २४ । भुव, इन्द्र २५ । सोम, चात्वाल२६ । उपांशुसंवन आदि लिंगक्त २७ । आमयण आदि लिगक्त २८ । प्रजापति ३१ । इन्द्र-अग्नि ३१ । अग्नि-इन्द्र ३३ । इन्द्रामरुत् ३५-३८ । महेन्द्र ३९-४ । सूर्य ४१-४२ । अग्नि ४३-४४ । दक्षिणा ४५ । लिंगक्त ४६-४८ ।। । छन्द–निवृत आर्मी अनुष्टुप् १ । निवृत् आर्मी पंक्ति । विराट् ब्राह्मी जगती ३ । आर्वी उष्णिक् ४,४८।।
आप पंक्ति५ । भुरिक् त्रिभुम् ६ । निवृत् जगत ७ । आर्षी गायत्रीं, आर्षी स्वराट् गायत्री ८ । आर्वी गायत्री, आसुरी गायत्री ६ । ब्राह्मी बृहत १३ । ब्राह्मी उष्णिक १३ । निवृत् आप जगती, पंक्ति १३ । निवृत् आप बिष्टुप् प्राजापत्या गायत्री १३ । विराट् जगती १४ । निवृत् ब्राह्मी अनुष्टुप् १५ । निवृत् आर्षी त्रिष्टुप, साम्नी गायत्री १६ । स्वाट् ब्राह्मीं विद्युत् १७ । निवृत् विद्युत्, प्राजापत्या गायत्री १८ । भुरिक् आर्षी पंक्ति १९ । निवृत् आर्षी जगती २० । स्वराट् बाह्यौं त्रिष्टुप, याजुषों जगत २६ । विराट् ब्राह्मी त्रिष्टुप् २२ । अनुष्टुप, प्राजापत्या अनुष, स्वराद् सानी अनुष्टुप, भुरिक आर्ची गायत्री, भुरिक् साम्नीं अनुष्टुप् २३ । आर्वी विद्युत् २४, ३१ । यात्रुषीं अनुष्टुप्, (दो) चिराद् आप बृहती २५ । स्वराट् ब्राह्मीं बृहत २६ । (तींना आसुरी अनुष्टुप् (दो) आसुरी उष्णिक्, सानीं गायत्री, आसुरी गायत्री २७ । ब्राह्मी बृहती २८ । आर्ची पंक्ति भुरिक् साम्मी पंक्ति २९ । (छ) साम्नी गायत्री, (चार) आसुरीं अनुष्टुप, (द) यानुषी पक्त आसुरी उष्णिक् ३० । आर्षी गायत्रीं, आर्ची इणि ३१ । आर्वी गायत्री, निवृत् आर्षी उशिक्
३३, ३४ । आर्षी त्रिष्टुप्, विराट् आर्ची पंक्ति ३५ । विराट् आर्षी विघ्प, विराट् आर्ची पंक्ति, साम्नी उष्णिक् ३६ ।। निवृत् आर्षी त्रिष्टुम्, विराट् आच पक्ति ३५,३८ । भुरिक पंक्ति, सामी बिटुप् ३९ । आर्वी गायत्री, विराट् आप
गायत्री ४० । भुरिक आर्षी गायत्री ४१ । भुरिक् आर्षी त्रिष्टुम् ४३-४४,४६ । विराट् जगती ४५ । भुरिक् प्राजापत्या जगती, स्वराट प्राजापत्या जगती, निवृत् आच जगती, विराट आची जगती ४७ ।
। इति सप्तमोऽध्यायः ॥
॥ अथाष्टमोऽध्यायः ॥
२९४. उपयामगृहीतोस्यादित्येभ्यस्त्वा। विष्ण उरुगायैष ते सोमस्त ४ रक्षस्व मा
त्वा दमन् ॥१॥
हैं सोम ! आप उपयाम–पात्र में ग्रहण करने योग्य हैं । आदित्यों के सदृश तेजस्विता के लिए आपको हम अहण करते हैं। महान् स्तोत्रों से सुशोभित हे विष्णो ! यह सोमरस आप के प्रति समर्पित हैं । आप इस सोमरस को रक्षित करें । शत्रु आपका दमन न करने पाएँ ॥१ ॥ ३९५. कदा चन स्तरीरसि नेन्द्र सञ्चसि दाशुषे । उपोपेनु मघवन् भूयः इनु ते दानन्देवस्य । पुच्यतः आदित्येभ्यस्त्वा ।।२।।
हे इन्द्रदेव ! आप हिंसक प्रवृत्ति से सर्वथा रहित हैं। यज्ञमान द्वारा प्रदत्त हविष्य को अति निकट के स्थान | से ग्रहण करते हैं । है प्रेग्न ऐश्वर्यसम्पन्न इन्द्रदेव ! याजक द्वारा प्रदत्त हवि के प्रतिदान स्वरूप आपका दान सम्पन्नता | बढ़ाने वाला होता है । है इन्द्रदेव ! हम आदित्यों के स्नेह भाव के लिए आपकी स्तुति करते हैं ॥३॥
२९६.कदा चन प्र युच्यु में नि पासि जन्मनी। तुरीयादित्य सवनं तः इन्द्रियमातस्थावमृतन्दिच्यादित्येभ्यस्त्वा ॥३॥
| हे आदित्य ! आप आलस्य, प्रमादादि से सर्वथा रहित हैं । आप देवों एवं मानवों–दोनों को ही श्रेष्ठ रीति से संरक्षित करते हैं । आपकी जो शक्ति–सामर्थ्य, छल–छ्य से रहित, अविनाशी और दिव्य आनन्दप्रद है, वह सूर्य | मण्डल में स्थापित है । हे आदित्यग्रह (पात्र) ! हम आदित्य देव की प्रसन्नता हेतु आपको ग्रहण करते हैं ॥३॥
३९७, यज्ञो देवानां प्रत्येति सुम्नमादित्यासो अवता मृड्यन्तः । आ वोर्वाची सुमतिर्ववृत्यादहोश्चिद्या वरिवोवित्तरासदादित्येभ्यस्त्वा ॥४॥
देवताओं के सुख के निमित्त यह यज्ञ है, अतएव हे आदित्यगण ! आप हम सबके लिए कल्याणकारी हों । आपकी शुभ संकल्पयुक्त मति में उपलब्ध हो । पापात्माओं की जो बुद्धि धनोपार्जन में संलग्न हैं, वह भी हमारे अनुकूल हो (यज्ञीय भाव उनमें भी जाग) । हें सोम ! आदित्यों की प्रसन्नता के लिए हम आपको ग्रहण करते हैं ॥४॥ |
२९८. विवस्वन्नादित्यैष ते सोमपीथास्तस्मिन् मत्स्व । अदस्मै नरो वचसे दयातन यदाशीर्दा दम्पती वाममनुतः । पुमान् पुत्रो जायते विन्दते वस्वधा विश्वाहारपः एधते गृहे ॥५॥
हे आदित्य ! आप अज्ञानरूपी अन्धकार के विनाश के निमित्त कारण हैं । पात्र में स्थित सोमरस आपके | सेवन योग्य है । इससे (सोमरस सेवन से आप सब प्रकार से प्रसन्नचित्त रहें ।
ॐ पुरुषार्थी मनुष्यो ! तुम अपनी वाणों में सुसंस्कारिता को धारण करो। जब गृहस्थाश्रम में दम्पती धर्माचरण का निर्वाह करते हैं, तभी पावन-सुसंस्कारवान् पुत्र उत्पन्न होते हैं और नित्य ही समृद्धि को प्राप्त होकर, वे दुष्कर्मों और ऋणादि से निवृत्त रहते हुए श्रेष्ठ गृह में निवास करते हैं ॥५॥
Yajurveda…