श्रीविष्णुपुराण
पारायणाय नमः
श्रीविष्णुपुराण
प्रथम अंश
नारायणं नमस्कृत्य नरं चैव नरोत्तमम् ।
देवी सरस्वत व्यास ततो जयमुदीरयेत् ॥
पहला अध्याय
– मन्म सात
– सूत उवाच
सूतजी औले–मैगजीने निक्कमे से निवृत्त ॐ पराशर मुनिवर कृतपर्वाहिकक्रियम्। हुए मुनियर परामीको प्रणाम कर एवं उनके चरण छूकर मैत्रेयः परिपप्रच्छ प्रगपत्याभिवाय च ॥ १ पूछा- ॥ १ ॥
“हे गुरुदेव मैंने पहले सम्पूर्ण वेद, त्वत्तो हि वेदाध्ययनमधीतमखिलं गरी । केदाङ्ग और कल धर्मशास्त्रोका क्रमशः अध्ययन किया धर्मशाग अर्वाण तथानि यथामम ॥ ३ ॥ हे मुनिग्न ! आपकी कपासे मर विपक्षी भी में लिये यह नहीं कह सकेंगे कि मैंने सम्पूर्ण शाक स्वासादामुनिश्रेष्ठ मामये नाकृतमम् ।।
अभ्याममें परिश्रम नहीं किया ॥ ३॥ हे अर्मा ! बयान झाषु प्रायो अपि विपिः ॥ ३ | महाभाग ! अब मैं आपके मशारविन्द यह मानना सोऽपिछामि धर्मज्ञ श्रोतुं त्वत्तो यथा जगत् ।। चाता है कि यह गन् किस प्रकार उत्पन्न हुभा और बभूव भूयश्च यथा माभाग भविष्यति ।।४| आगे भी (दूसरे कल्के आरम्भमें) कैसे होगा ? ॥ ४ ॥ अन्पर्य च जगान्यततश्चराचरम् तथा हे ब्रह्मन् ! इस संसारका उपादान-कारण क्या हैं? लीनमासीथा यत्र लयमेष्यति अन्न छ । ५| यह सम्पूर्ण रागर किससे उत्पन्न हुआ है? यह पहले अत्यमाणानि भूतानि देवादीनां च सम्भवम् ।।
किसमें लोन था और आगे किसमें लीन में जायगा ? समुद्रपर्वतन च संस्थानं च यथा भुवः ।। ६ ।। इसके अतिरिक्त [ आकाश आदि) भूतका परमाण, समुद्र, पर्चत तथा देवता की उत्पत्ति, सूर्यादीनां च संस्थानं प्रमाणं मुनिसत्तम । पृथिवीका अधिष्ठान और सूर्य आदिम रिमाण तथा देवादीनां तथा ग्रंशाअनूपयनराणि च ॥ ७ ऊनका आधार, देवता आदिके वंश, मनु, मन्यत्तर, कल्पान् कल्पविभाग चातुर्यगविकल्पिशान्। | बार-बार आनेताले] चारों युगोंमें विभक्त कल्प कपास्य वर्ष छ युगमश्च कृशः ॥ ८॥ और कल्य विभाग, प्रलयम स्वरूप, युगक श्रीबियापुराण देवर्चिपार्थिवानां च चरितं यन्महामुने। पृथक् पृथक् सम्पूर्ण धर्म, देवर्षि और राजर्षियोंके चरित्र, वेदशाखाप्रणयनं यथायद्यासकर्तृकम् ॥ १ | श्रीन्यासजीकृत वैदिक शाखाओंकों यथावत् रचना तथा ब्राह्मणादि वर्ण और ब्रह्मचर्यादि आश्रमोंक भर्म में धर्माश्च ब्राह्मणादीनां तथा चाश्रमवासिनाम् ।।
सब, हे महामुनि शक्तिनन्दन ! मैं आपसे सुनना चाहता श्रोतुमिच्छाम्यहं सर्वं त्वतों वासिनन्दन ।। १० ।।
|हैं ।। ६-१० || हे ह्मन् ! आप मेरे प्रति अपना चित्त ब्रह्मन्प्रसादप्रवणं कुरु मयि मानसम् ।। प्रसादोमुख कीजिये जिससे हैं मह्ममुने ! मैं आपकी येनाहमेतज्जानीयां त्वत्प्रसादान्महामुने ।। ११ | कृपासे यह सब जान सकें’ ।। ११ ।।। औपकार उाच श्रीपराशरजी बोले-“हें धर्मज्ञ मैत्रेय ! मैं साधु मैग्नेय धर्मज्ञ स्मारितोऽस्मि परातनम् ।। | पिताजी के पिता वीवसिष्ठीने जिस्का वर्णन किया था, पितुः पिता में भगवान् वसिष्ठ यदुवाच ह ॥ १२ | उस पूर्व प्रङ्गका तुमने मुझे अच्छा स्मरण कराया [ इसके लिये तुम धन्यवादके पात्र हों] ॥ १३ ।। हैं विश्वामित्रप्रयुक्तेन रक्षसा भक्षितः पुरा । | मैत्रेय ! जब मैंने सुना कि पिताजीको विश्वामित्रकी श्रुतस्ततस्ततः क्रोधो मैत्रेयाभून्यमातुलः ॥ १३ | प्रेरणासे राक्षसने स्रा लिया है, तो मुझको बड़ा भारी क्रोध या शाप | हुआ ।। १३॥ तब राक्षसोका ध्वैस कनेके लिये मैंने यज्ञ करना आरम्भ किया। उस यज्ञमें सैकड़ राक्षस जलकर भस्मीभूत्ता शतशस्तस्मिन्सने निशाचराः ।। १४
भस्म हो गये ।। १४ ।। इस प्रकार उन राक्षसको सर्वथा ततः सङ्क्षीयमाणेषु तेषु रक्षस्वशेषतः ।। | नष्ट होते देख मेरे महाभाग पितामह वसिष्ठजो मुझसे मामुवाच महाभागो वसिष्ठो मत्पितामहः ।। १५ बोले- || १५ ॥ ” यत्स ! अत्यन्त क्रोध करना ठीक अलमत्यन्तकोपेन तात मन्युमिमं जहि ।।
नहीं, अब इसे शान्त क]। राससका कुछ भी अपराध राक्षसा नापरायत पितुस्ते विहितं हि तत् ॥ १६ ॥ नहीं हैं, तुम्हारे पिता के लिये तो ऐसा ही होना था ॥ १६ ॥
क्रोध तो मूखको ही हुआ करता है, विचारवानोंको भल्लम मूडानामेव भवति क्रोथो ज्ञानवता कुतः । कैसे हैं। सकता है। भैया ! भला कौन किसको मारता इन्यते तात कः केन यतः स्वकृतभुक्पुमान् ॥ १७ | हैं ? पुरुष स्वयं ही अपने कियेका फल भोगता है ।। १७ ॥ सञ्चितस्यापि महता वत्स क्लेशेन मानवैः ।।
हे प्रियवर ! यह क्रोध तो मनुष्य अत्यत्त कष्ट से सञ्चित यश और तपका भी प्रबल नाशक है ॥ ३८ ॥ हे यशसस्तपसभेव को नाशकरः परः ।। १८ ॥
तात ! इस रोक और परलोक दोनों बिगाड़नेवाले स्वर्गापवर्गव्यासेधकारणं परमर्षयः इस क्रोधका महर्षगण सर्वदा त्याग करते हैं, इसलिये तू वर्जयन्ति सदा क्रोधं तात मा तद्बशो भव ।। १९ ॥ इसके वशीभूत मत हो ॥ १६ ॥ अब इन बेचारे निरपराध अलं निशाचरैर्दग्धैनैरनपकारिभिः राक्षसों को दुग्ध करनेसे कोई अभ नहीं, अपने इस सनं ते विरमत्येतत्क्षमासारा हि साधवः ॥ २० ॥
अज्ञों समाप्त करो । साधुका मन तो सदा क्षमा ही है’ ॥ ३० ॥ एवं तातेन तेनामनुनीतो महात्मना। महात्मा दादाजीके इस प्रकार समझानेपर उनकी उपसंहृतवान्सनं सास्तद्वाक्यगौरवात् ॥ २१ | बातोंके गौरवका विचार करके मैंने वह यज्ञ समाप्त कर तत: प्रीतः स भगवान्चसि मुनिसत्तमः । दिया ।। ३ ।। इससे मुनिश्रेष्ठ भगवान् वसिष्ठज़ बत सम्माप्तश्च तदा तत्र पुलस्यो ब्रह्मणः सुतः ॥ २२
प्रसन्न हुए। उसी समय ब्रह्माजौके पुत्र पुलस्त्यज्ञों वहाँ आये ॥ ३३ ॥ हे मैत्रेय ! पितागह [वशिष्ठजी ने उन्हें पितामहेन। दत्तार्थ्यः कृतासनपरिग्रहः । | अर्घ्य दिया, तब वे महर्षि पुलके ज्येष्ठ भाता महाभाग मामुवाच महाभागों मैत्रेय पुलहाग्रजः ।। २३ । पुलस्त्यजी आसन ग्रहण करके मुझसे बोले ॥ २३ ॥
मुलस्त्य उवाच
पुलस्त्यजी बोले-गुमने, चित्त बड़ा बैरभाव वैरै महति यद्वाक्यागुरोरद्याश्रिता क्षमा ।। रहनेपर भी अपने य-गु वसिजीके हमें दामा त्वया तमासमतानि भवाञ्छास्त्राणि वेल्स्यति ॥ २४ ॥
स्वाक में हैं, इसलिये तुम सम्पूर्ण शाके आता ॥ २४ ॥ हैं महाभाग ! अत्यन्त क्रोधित ने भी सन्ततेनं ममोच्छेदः ऋद्धेनापि यतः कृतः ।। तुमने मेरी सन्तानका सर्वथा मुल्लेद नहीं किया; अतः मैं त्वया तस्मान्महाभाग ददाम्यन्यं महावरम् ।। २५ तुम्हें और ना ५ ज्ञा ॥ ३५ ॥ है बस ! तुम पुराणसहिंताकर्ता भवान्यास भविष्यति पुराणहिताके चाहोगे और देवताओंके या न्यरुपको जानोगे ॥ ३६ ॥ तथा मेरे प्रसाद तुन्हा देवतापारमार्थं च यथाबद्वेत्स्यते भवान् ॥ २६॥
निर्मल बुद्धि प्रवृत्ति और निवृत्ति (भौग और मोक्ष) के प्रवृत्ते च निवृत्ते च कर्मण्यस्तमला मतिः ।
उत्पन्न करनेवाले कर्मोमें निःसन्देह जाय ।। २ ।। मत्प्रसादादसन्दिग्धा तत्र व्रल्स भविष्यति ॥ २७ ॥ [पुलस्त्यीक इस तरह के अनन्तर] फिर मेरे ततश्च प्राह भगवान्यासियों में पितामहः ।। पितामह भगवान् वसिष्ठ चा “पुरूस्त्याने जो कुछ
कहा है, सह सभी सत्य होगा” || ३ ।। पुलस्त्येन यदुक्तं ते सर्वमेतद्भविष्यति ॥ २॥
हे चैत्रेय ! इस प्रकार पूर्वकालमें बुद्धिमान् वसनुज इति पूर्व वसिष्ठेन पुलस्त्येन च धीमता ।। और पुलस्याने जो कुछ कहा था, वह सन्ध तुम्हारे प्रश्न यदुक्तं तत्स्मृतिं यात स्वत्प्रश्नादखिलं मम ॥ २९ | मुझे स्मरण हो आया हैं ॥ २९ ॥ अतः है गैत्रेय ! तुम्हारे मेऽहं वदाम्यशेष ते मैत्रेय परिपृच्छते फूछनेमें मैं उस सम्पूर्ण पुराणसहिदाको पुम्हें सुनाता हूँ: तुम से भी प्रकार ध्यान देकर सुनो ॥ ३३ ॥ यह पुराणसंहिता सम्यक् तां निबोध यथातथम् ॥ ३॥
गान् जिसे इत्पन्न हुआ है, हमें स्थित हैं, ये हो विष्णोः सकाशाद्नं जगत्तत्रैव च स्थितम् ।।इसकी स्थिति और यवे ज़ां हैं तथा यह जगत् में थे। स्थितिसंयमकर्तास जगतोऽस्य जगच्च सः ।। ३६ | ॐ ॐ ॥ ३१ ।।
इति श्रीविष्णुपुराणे प्रथमें
प्रथमोऽध्यायः ॥ १ ॥
दूसरा अध्याय– – – – – चौबीस तश्योंके विचारके साथ जगत्के उत्पत्ति | क्रमका वर्णन और विष्णुकी महिमा ऑपराशर उवाच ऑपराशरज्ञ बोले-जो ब्रह्मा, विष्णु और अविकाराय शुद्धाय नित्याय परमात्मने । शंकररूपसे जगतकी उत्पत्ति, स्थिति और संहारकै कारण सदैकरूपरूपाय विष्णये सवजयावे ॥ १ | हैं तथा अपने भक्तोंको संसार–सागरले तानेवाले हैं, नमो हिरण्यगर्भाय हरये शराय च। | अन विकाररहित, शुद्ध, विनाशी, परमात्मा, सर्वदा वासुदेवाय ताराय सर्गस्थित्यन्तकारिणे ॥ ३ | एकरस, सविजयी भगवान् वासुदेव विष्णुको नमस्कार
हैं ॥ १–३॥ | एक होकर भौं नाना रूपन्नाले हैं. शुल एकानेकस्वरूपाय स्थूलसूक्ष्मात्मने नमः ।। सूक्ष्ममय हैं, अ (कारण) एवं व्यक्त (कार्य) रूप अव्यक्तब्यक्तरूपाय विष्णवे मुक्तिहेतवे ॥ ३ | तथा [अपने अनन्य भक्तों मुत्तिये कारण हैं, सर्गस्थितिविनाशानां जगतो यो जगन्मयः । | [न श्रीविष्णुभगान्को नमस्कार हैं ।। ३ ।। जो मूलभूतों नमस्तस्मै विष्णवे परमात्मने ॥ ४ | विश्वरूप प्रभु विश्वकी उत्पत्ति, स्थिति और संहारको विरापा आधारभूत विश्वस्याप्यणीयांसमणीयसाम् । । मूल कारण हैं, उन परमात्मा विष्णुभगवान्को नमस्कार प्रणम्य सर्वभूतस्थमच्युतं पुरुयोत्तमम् ।। ५||
जो विश्वके अधिष्ठान हैं, अतिसूक्ष्मसे भी सूक्ष्म ई. सर्व भागियोंमें स्थित पुरुषोत्तम और अविनाशी है, जो ज्ञानस्वरूपमन्यन्ननिर्मले परमार्थतः । परमार्थल- वास्तव में अति निर्मल मानना है किन्त तमेवार्थस्वरूपेण भ्रान्तिदर्शनतः स्थितम् ॥ ६ ॥ अज्ञानवा नाना पदार्थरूपसे प्रतीत होते हैं, तथा जो वियां असिणं विश्वस्य स्थितौं सर्गे तथा प्रभम् । ! [कालरूपसे] जगतकी उत्पत्ति और स्थितिमें समर्थ एवं उसका संहार करनेवाले हैं, उन जगदीश्वर, अजन्मा, प्रणम्य जगतामीशमजमक्षयमव्ययम् ॥ ७ ॥ अक्षय और अव्यय भगवान् विष्णुको प्रणाम करके तुम्हें कथयामि यथापूर्वं दक्षाद्यैर्मुनिसत्तमैः । | वह सारा प्रसंग मशः सुनाता है जो दक्ष आदि मुनि पृष्टः प्रोवाच भगवानब्जयोनिः पितामहः ॥ ८ ॥ श्रेष्ठौके पूछनेपर पितामह भगवान् ब्रह्माजींने उनसे तैयक्तं पुरुकुत्साय भूभुजें नर्मदातटे कहा था ।। ५ ।। मह प्रसंग दक्ष आदि मुनियोंने नर्मदा-तटपर राजा सारस्वताय तेनापि मां सारस्तेन च ।। ९ ॥
पुरुबुसको सुनाया था तथा पुस्कुसने सारस्वतसे और परः पराणां परमः परमात्मात्मसँस्थितः सारस्वतने मुझसे कहा था ॥ १ ॥’जों पर (प्रकृति) से भी रूपवर्णादिनिर्देशविशेषणविवर्जितः ॥ १०५ ॥ परमश्रेष्ठ, अन्तरात्मामें स्थित परमात्मा, रूप, वर्ण, नाम और विदोषण आदिसे रहित है; जिसमें जन्म, वृद्धि, अपक्षयविनाशाभ्यां परिणामर्थिजन्मभिः ।। परिणाम, अब और नाश इन ः विकारोंका सर्यथा वर्जितः शक्यते वक्तुं यः सदास्तीति केवलम् ॥ ११ | अभाव है; चिसो सर्वदा केवल है। इतना ही कह सकते सर्वत्रासो समस्तं च वसत्यत्रेति वै यतः ।।
हैं, तथा जिनके लिये यह प्रसिद्ध हैं कि ‘चे सर्वत्र हैं और उनमें समस्त विश्च वसा हुआ है इसलिये ही विद्वान ततः स वासुदेवेति विद्वद्भिः परिपझ्यते ॥ १२
जिसको वासुदेव कहनें हैं। वहीं नित्य, अजन्मा, अक्षय, तद्ब्रह्म परमं नित्यमजमक्षयमव्ययम् ।। अव्यय, एकरस और हेय गुर्गोंके अभावकै कारण निर्मल एकस्वरूपं तु सदा हेयाभावाच्च निर्मलम् ॥ १३ परब्रह्म है ॥ १०–१३ । वह इन सब व्यक्त (कार्य) और अमन (कारण) गजुके रूपसे, तथा इसके साक्षी तदेव सर्वमेवैतद्व्यक्ताव्यक्तस्वरूपवत् ।। पुरुष और महाकारण कालके रूपसे स्थित है ॥ १४ ॥ तथा पुरुषरूपेण कालरूपेण च स्थितम् ।। १४ | हे हिंज! परब्रह्मका अधम रुप पुरुप हैं, भव्यक्त परस्य ब्रह्मणो रूपं पुरुषः प्रथमं द्विज ।।
| (प्रकृति और व्यक्त (मादि) उसके अन्य रूप हैं व्यक्ताव्यक्ते तथैवान्ये रूपे कालस्तथा परम् ॥ १५ | तथा [सवकों क्षोभित करनेवाल्य होनसे] काल उसका
| परमप है ॥ १५ ॥ प्रधानपुरुषव्यक्तफालानां परमं हि यत् । । | इस प्रकार जो प्रधान, पुरुष, व्यक्त और काम पश्यन्ति सूरयः शुद्धं तद्विष्णोः परमं फ्दम् ॥ १६ | इन नारोसे परे है तथा जिसे पण्डितजन ही देख पाते हैं वहीं भगवान् विष्णुका परमपद है ।। १६ । प्रधान, पुरुष, व्यक्त प्रधानपुरुषव्यक्तकालास्तु अविभागशः ।।
और काल—में [भगवान् विष्णुके] रूप पृथक्-पृथक् रूपाणि स्थिनिसर्गातव्यक्तिसदावहेतवः ॥ १७ | संसारकी उत्पत्ति, पान और संहारके प्रकाश तथा व्यक्तं विष्णुस्तयाठ्यक्तं पुरुषः काल एव च ।। पदनमै कारण हैं ॥ ३५ || भगवान् विष्णु जो ब्यक्त, क्रीनों बालकस्येव चेष्टां तस्य निशामय ॥ १८ |
| अव्यक्त, गुरु और कालरूपसे स्थित होते हैं, इसे उनकी आलय झोडा ही समझों ॥ १८ ॥ अव्यक्तं कारणं यत्तत्प्रधानमृषिसत्तमैः । । उनसे अव्यक्त कारणों, जो सदसदुप (कारण प्रोच्यते प्रकृतिः सूक्ष्मानित्यं सदसदात्मकम् ॥ १९ | शक्तिविशिष्ट) और नित्य (सदा एकरस) है, श्रेष्ठ
अर्थम अक्ष
अक्षयं नान्यदाधारममेयमनरं भुवम् । । मुनिजन प्रधान तथा सूक्ष्म प्रकृति कहते हैं ।। १६ ॥ वह शब्दस्पर्शविनंतपादिभिरसंहितम् ।। ३० | अनि ३, इसका कोई अन्य आर भी नहीं हैं तथा अमेय, अजर, निशुलं शब्द-स्पर्शादिशून्य र त्रिगुणं तज्जगद्योनिरादिप्रभाष्यम् ।। पादित है ॥ ३३ ॥ यह निर्गुणमय और जानुका तेनामे सर्वमेयासीह्याप्तं वै प्रलयानु ।। ३१ | कण है तथा वर्म अनादि एवं उत्पत्ति और स्यसे रहित घेदवादविदो विद्वन्नियता ब्रह्मवादिनः ।। | है। यई सम्पूर्ण प्रपञ्च प्रलमका लेवर सृश्चिकै आदितक इसीसे व्याप्त था ।। ३३ । हे सिद्वन् ! श्रुसिके यठयि चैतमेयार्थं प्रधानप्रतिपादकम् ।। २२ | मर्मको जाननेवाले, श्रुतिपरायण ब्रह्मचैत्ता महामागण भाले न उत्रिने भो न भूमि इसी अर्थको लय करके प्रधानन्ने प्रतिपाक इस (निम्नलिखित) कसे कहा ऋते हैं- ॥ ३३ ।। नसोत्तमोज्योतिरभूध नान्यत् । ‘उस समय (प्रयकालमें) १ दिन था, न रात्रि थीं, ने श्रोत्रादियानुपरूममेकं ।
आकाका था, न वृधिसी थी, न अन्धकार था, न काश या प्राधानिकं ब्रह्म पुमावदासीत् ॥ २३ और न इनके अतिहि कुछ और ही था। बस, ओं विश्णोः स्वरूपापरतो हि ते हे इन्द्रिों और बुद्धि आदिमा अविषय एक्ल प्रधान और
य हीं था’ ।। ३३ ।। ये प्रधान पुरुषश्च विप्र ।। | है जिग्न ! विष्णु शरम (उपाधिरत) स्वरूपसे तस्यैव ‘ तेऽन्येन धृते विमुक्ते । प्रधान और पुरुष-ये दो रूप हुए, उसी (विष्णु) के रूपान्तरं द्विजे का संज्ञम् ॥ ३॥ | जिग्न अन्य रूपके द्वारा ने दोनों [मृष्टि और प्रलयकाल] प्रकृतौ संस्थितं व्यक्तीमतींतप्रये तु यत् ।।
| संयुक्त और वियुक होते हैं, उस रूपान्तरका ही नाम “काल हैं ॥ ३४ ॥ यीते हुए प्रयकाने अश्या प्रपञ्च तस्मात्कृ तसंज्ञोऽयमुच्यते प्रतिसश्चरः ।। ३५ प्रतिमें लीन था, इसलिये प्रपञ्च इव शलभ प्राकृत अनादिभगवान्का गान्तोऽस्य द्विव विद्यते।। प्रलय का हैं ।। ३५॥ है जि ! कालकूप भगवान् अनादि हैं, इनकी अन न है इस संसारको पनि, अच्युझिास्तसस्त्वेने सर्गस्थित्यत्तस्यमाः ॥ १६ ॥ स्थिचि और प्रलय भी कभी न कहें [ ३ प्रजातरूपसे गुणसाम्ये ततस्तस्मिन्पृथक्युमि व्यवस्थिते । निरन्तर झोते रहते हैं ? ॥ २६ ॥ मई नयाय दिलं ॥ ३७ ३ मैम ! प्रलयकालमें प्रधान (ति) के साम्यावस्थामें स्थित हौ जनैपर और पुरूपके प्रकृति तस्तु तत्परं ब्रह्म परमात्मा जगन्मयः । | पृधक हिंधन में जाने विष्णुगवान्का कारूप [ इन। सर्वगः सर्वभूतेशः सर्बात्मा परमेश्वरः ॥ २८| दोनों प्रारणा बनेके लिये ! प्रवृत्त होता हैं ॥ ३३ ।। प्रधानपुरुयौ बाथिं प्रविश्यात्यो हरिः दिनार [ सर्गकाल उपस्थित होनेपर ] इन पर परमार विश्व अर्वन्याय सर्वभूतेशर समा भयामास सम्प्राप्त सर्गकाले व्ययाच्ययौ ॥ ३९ | परमेश्वरने अपनी इसे बिहारी प्रधान और अविकारी अथा सन्निधिमान्ने गन्धः क्षोभाय जायते ।।मुझमें प्रविष्ट झोंक उनको क्षोभित किया ॥ ३४-३६ ।।
जिस प्रकार क्रियाशील न झोपर भी १६ अमी मनसो भोपकर्तृत्वात्तथाऽसौ परमेश्वरः ॥ ३० ॥
खनिश्चिमाञसे ही मनों क्षुभित कर देता है उसी प्रकार स एव क्षोभको ब्रह्मन् क्षोभ्यश्च पुरुषोत्तमः ।। परमेश्वर अपनी साधमात्र ही अश्वान और पुरुषको ससोचविकासाच्या प्रधानत्वेऽपि च स्थितः ॥ ३१ || प्रेरित करते हैं ।। ३० ।। हैं ब्रह्मन् ! न्नड़ पुरुषोत्तम ही इनको क्षोभित करना हैं और मैं ही क्षुब्ध होते हैं तथा संकोच विकासास्थरूपैश्च ब्रह्मरूपादिभिस्तथा। । झाम्य) और विकास क्षोभ) युक्त प्रधामरूपसे भी से फक्तस्वरूपश्च तथा विंशः सर्वेभरेश्वरः ।। ३३ | जी स्थित हैं ॥३१॥ क्रमादि समस्त ईश्वकै ईश्वर में ऑविष्णुपुराण गुणासाम्यात्ततस्तस्मान्नज्ञाधिष्ठितान्मुने । । विष्णु मैं समष्ट–व्यष्टिरूष, ब्रह्मादिं जींवरूप तथा गुण्णव्यञ्जनसभूतिः सर्गकाले द्विजोत्तम ॥ ३३ | मझुत्तरूपसें स्थित हैं ॥ ३३ ॥
हे द्विश्रेष्ठ ! सर्गमलों प्राप्त होनेपर गुणों प्रधानतत्त्वमुद्भूतं महान्तं तत्समावृणोत् ।। साम्गावस्थारूप न्नधान जय चिके क्षेत्ररूपसे अभिहित सात्विको राजसश्चैव तामसश्च त्रिधा महान् ।। ३४ हुआ है। इससे मायकीं इत्पत्ति हुईं ॥ ३३ ॥
उत्पन्न हुए मज्ञानको प्रधानतलने आयुक्त किया; महतत्र साच्छिक प्रधानतत्त्वेन समे त्वचा बीजमवावृतम् ।। ग़जस और ज्ञापस, भेटले तौन प्रकारका है। किन्तु जिस बैंकारिकस्तैजसश्च भूतादिश्चैव तामसः ।। ३५ | इजर बीज झिकैसे समझा हैंक्य रता है जैसे हैं। यह निंभ महूतन अधान-क्लमें इत्र और व्याप्त है। फिर त्रिविघोऽयमारो मत्त्वाञ्जायत । जिनिंध महत्तबसे हैं बैंकाक (सात्त्विक) तन्नस (वास) भूतेन्द्रियाणां तुस्स त्रिगुणत्वान्महामुने । और तापस भूतादि तीन प्रकारका अईयर उत्पन्न हुआ। हे घथा प्रधानेन मान्महता स तथावृत्तः ॥ ३६ | महामुने ! यह निगुणायक होनेसे भूत और इन्द्रिय आदिका चरण हैं और प्रधानसे जैसे महतव न्याः॥ हैं, जैसे ही भूतादिस्तु चिकुर्वाण: शब्दतन्मात्रकं ततः । | महसवसे यह अहंकार) श्याप्त हैं ।। ३४-३६ ॥ भूतादि ससर्ज शब्दतमन्नादाका शब्दलक्षणम् ॥ ३॥ | नामक मिस हेमरने विकृत होकर शब्द-तन्मात्रा औरउससे शब्द-गुणवा आकाशाको रचना की।! ३७ || इस शब्दयात्रं तथाकाशं भूतादिः स समावृपोत् ।।
भूतादि तापस आईअरने शब्द-तन्मात्रारूप आकाशको व्याप्त आकाशस्तु विकुर्वाणः स्पर्शमात्रं ससर्ज ह ॥ ३८ ॥ किया । फिर [शब्द-तन्मात्रारूप] आकाशने विकृत होकर स्प-तन्मात्राको रचा ॥ ३८ ॥ उस (स्पर्श-तमाश) से आल्यानभवायुस्तस्य स्पशों गुण अतः ।।
बलवान् वायु हुआ,इसका गुण स्पर्श माना गया है। शब्द आकाशं शब्दमाशं तु स्पर्शमात्र समावृणोत् ॥ ३९ | तन्मानारूप आकाशने पर्श-मावाले वायुको आवृत
किया हैं ।। ३६ ॥ फिर [स्पर्श-जन्मानारूप] वायु विकृत ततो वायुर्विकुणों रूपमात्र ससर्ज है।
होकर कप-तमात्राको झुष्टि कीं । (रूप-तुन्जायुक्त) ज्योतिरुत्पते बायोस्तद्रूपगुणमुच्यते ।। ४३ वायुसे के ऊपन्न हुआ हैं, उसका गुण रूप कहा जाता स्पर्शमानं तु वै वायू पपात्रं समावृणोत् ।।
हैं ॥ ४ || पर्श-जन्माला चायने रूप-तन्मात्रामा तेजक चूत क्रिया। फिर [रूप-तमात्राय] तेने भी ज्योतिश्चापि विकुर्वाणं रसमानं ससर्ज ह ॥ ४१
वित होकर इस-तमन्ना रचना की ।। ६ ।। उस (स सम्पबन्ति ततोऽम्भांसिं रसाधाराण तानि च । तन्मात्रारूप में रस-गुणवाला जल हुआ । रस- रामायाले रसमात्राणि चाभांसि रूपमात्रं समावृणोत् ।। ४२ ॥ ज्ञको रूप-तन्मात्रामया जैन आचत किया ।। ३३ ।। [इउन्मानारूप] जलने विकारो काम होकर गन्ध-लग्नाचाकी विकुणानि चाम्भांसि गन्धमान्ने ससज्ञिरे । सृष्टि की, उससे प्रथिवी उत्पन्न हुई हैं जिस गुण गन्ध माना सङ्घातो जायते तस्मात्तस्य गन्धों गुणो मतः ॥ ४३॥
जाता है ।।३।। इन-ऊन आकाशादि मूतोंमें तन्मात्रा हैं [अर्थात् ॐवल उनके गुण झाञ्दादिं हीं हैं। इसलिये में तस्मिंस्तस्मिंस्तु तन्मानं तेन तन्पात्रता स्मृता ॥ ४३ | तन्पना (गुणरूप) हाँ कहे गये हैं ॥४४॥ तन्मात्राओमें तन्मात्रायविशेषाणि अविशेषास्ततो हि ते ॥ ४५ ॥
विशेष भाव नहीं है इर्साये इनकी अनिंघ संज्ञा ।। ॐ अग्नि तन्मात्राएँ शान्त, घोर अथवा मुल ने शान्ता नापि घोरास्ते न मूढाश्चाविशेचिंणः । नहीं हैं [अर्थात् उनका सुख-दु:ख या मोहरूपसे अनुभव भूततन्मात्रसयमहङ्कारात्तु तामसात् ॥ ४६ | नहीं हो सकता] इस प्रकार तामस अहंकारसे यह भूत | तन्मात्रारूप स हुआ है ॥ ६ ॥ तैजसानीन्द्रियाण्याहुदेंवा वैकारिका दश । । इस इन्द्रिय स अर्थात् राजस अकारमें और एकादशं मनश्चान्न देवा वैकारिकाः स्मृताः ॥ ४ | उनके अधिष्ठाता दैन्नता बैंकारिक अर्थान् सात्विकत्वक चक्षुर्नासिक जिवाओत्रमत्रचफ्छमम् । । अहंकारसे उत्पन्न हुए कहे जाते हैं। इस प्रकार इन्द्रियोंके शब्दादीनामबाप्त्यर्थं बुद्धियुक्तानि नैं द्विज ।। ४८ | अधिष्ठाता इस देयता और ग्यारहवाँ मन बैंकारिक (मात्रिक हैं ।। ३ ।।
है द्विज ! क्कु, च. नासिका, पायूपस्यौ कतै पादौ वाक् च मैत्रेय पञ्चमी जिला और औरथे पाँच शुद्धिक सहायताले शब्दाई चिसर्गशिल्पगत्युक्ति कर्म तेषां च कथ्यते ॥ ४६ | जिषयोंकों ग्रहण करनेवाल पाँच ज्ञानेन्द्रयाँ हैं ॥ ४८ ॥ हे आकाशवायुतेजसि सलिलं पृथिवी तथा ।
मैत्रेय ! पामु (गुदा, उपध (लिङ्ग), जस्त, पाद और | वाक्- ये पाँच कर्मेन्द्रियाँ हैं। इनके कर्म [मल-मूत्रम] शब्दादिभिर्गुणैर्ब्रह्मसंयुक्तान्युत्तरोत्तरैः ॥ ५० ॥
ब्याग, शिल्प, गति और बचा बतलाये जाते हैं ॥ ॥ शान्ता घोराश्च मूळाश्चविशेषास्तेन ते स्मृताः ।। ५१ | आकाश, वायु, तेज, जल और पृथिवी-ये पाँच भूत उत्तर (क्रमश:) शान-पश आदि पाँच गुणोंसे मुक्त नानावीर्याः पृथग्भूतास्ततस्ते संहति विना ।।
हैं ॥ ५ ॥ चे पाँच भूज्ञ शान्त घोर और मूढ़ हैं अर्थात् नाशा : नमसमागम्य कृनशः ।। ५३ | सुख, दुःख और मोहमुक्त हैं। अतः ये विशेष कलाते समेत्यान्योन्यसंयोगं परस्परसमाश्रयाः ।।
इन भूत पृथक्-धक् नाना शक्तियों है। अतः मैं एकसानलक्ष्याश्च सम्माप्पैक्यमशेषतः ।। ५३ ॥
परपर पुर्णतया मिझे बिना संसारनै चना नहीं कर पुरुषाधिष्ठितत्वाच्च अधानानुग्रहेण च । । | सके ।। ५२ । इसलिये एक दूसरेके आश्रय रहनेवाले और मदाद्या विशेषान्ता ह्यमुत्पादयन्ति ते ।। ५४ ॥
एक हीं संघातकी उत्पत्तिके लक्ष्यवाले महत्तत्त्वसे लेकर पिशेषपर्यन्त प्रकृतिके इन सभी विकारोंने पुरुषसे अश्विलत तक्रमेण किंवृद्धं सनबुदबुदवसमम् ।। | होने के कारण परस्पर मिकर सर्वया इक होकर प्रधान भूतेभ्योऽण्डं महाबुद्धे महत्तदुदकेशयम् ।। | चक्रे अनुग्रहसे अण्डको पत्ति की ॥ ५३–५ॐ ।। है प्राकृतं ब्रह्मरूपस्य विष्णोः स्थानमनुत्तमम् ॥ ५५ ॥
महायुद्धे ! जाके बुल्गुलकं समान क्रमशः भूतोंसे बढ़ा हुआ यह गोलाकार और जम्पर स्थित महान् अप्ड ब्रह्म तत्राव्यक्तस्वरूपोऽसौ व्यक्तरूपों जगत्पत्तिः । हिरण्यगर्भ प चियाका अति उत्तम प्राकत आधार विष्णुर्ब्रह्मस्वरूपेण स्वयमेव व्यवस्थितः ।। ५६ | हुआ ॥ ५५ ।। उसमें वे अव्यक्त–स्वरूप गरर्षात विष्णु मेरुरक्षमभूत्तस्य जरायुश्च महीधराः ।।
श्यक हिरण्यगर्भरूप स्वयं ही विराजमान हुए ॥ ५६ ॥
उन महात्मा हिंधभको सुमेरु उरन्छ (गर्भको नेत्राओं गभेदिकं समुद्राश्च तस्यासन्सुमहात्मनः ।। ५७ || झिल्ली), अन्य पर्वत, जरायु (गर्भाशय) तथा समुद्र साद्रिद्वीपसमुद्राश्च सज्योतिर्लोकसंग्रहः ।। गर्भाशयस्य रस था | ५ || हैं चित्र ! इस आटों है। पर्बत और पाक्षिक सहित समुद्, महू- के सहित नस्मिन्नण्डेऽभवसिदेवासुरमानुषः ।। ५८ ॥
सम्पुर्ण नेम तथा देव, असुर और मनुष्य आदि विध वारिवन्यनिलाकाशैस्ततो भूतादिया बहिः ।। आणिचा प्रष्ट इवाए || ८ || सङ्घ अष्ट्र पुर्व-पुर्व अपेक्षा वृतं दृशगुणैराड़े भूतादिर्महता तथा ।। ५९ ॥ दस-दस-गुण अधिक ज़रू, अग्नि, वायु, आकाश और भूतादि अर्थात् ताम्मन्न-अहँकार आवृत हैं ना भूतादि अव्यक्तेनावृतो ब्रह्मस्तैः सर्वैः सहितो महान् ।
मङ्गतच भि ।। ३ ।। ५६ ।। और इन सबके सहित भई एभिरावरणैरष्टुं समभिः प्राकृतैर्वृतम्।। पत्तत्व में अन्य प्रधानसे आवृत्त है। इस प्रकार जैसे नारिकेलफलस्यातनं बाह्यदलैरिव ॥ ६०
| नारियल पा भीतरीं चींज याहरसे तिने हौं किने हुँका रहता हैं जैसे ही यह अम्ड इन सात प्राकृत जुषन् जो गुणं तत्र स्वयं विश्वेश्वरो हरिः ।। आनणसे घिरा हुआ है ।६० ।। ब्रह्मा भुल्वास्य जगतो विसृष्टौ समावर्तते ।। ६६ । उसमें स्थित हुए स्वयं विश्वेश्वर भगवान् विष्णु
परम मिमें सभी भूत झा, घोर और मुह प्रतीत होते हैं. धक्-पृक्ष तो पृथिवीं और जल शान्त हैं, तेज और या घोर हैं तथा आकाश मूद्ध हैं। विपरा सृष्टं च पात्यनुयुगं यावत्कल्पविकल्पना। | ब्रह्मा होकर रजोगुणका आश्रय लेकर इस संसारकी रचनामें सत्त्वभूगवान्विष्णुरप्रमेयपराक्रमः ॥ ६२ ॥प्रवृत्त होते हैं ।। ६३ ।। तथा रचना हो जानेपर सगुण-विशिष्ट अतुल पराक्रमी भगवान् विष्णु उसका तमोद्रेकी चे कल्पाने रुज्ररूपी जनार्दनः ।। कल्पान्तपर्यंत युग-युग्में पालन करते हैं ।। ६३ ।। ३ मैत्रेयाखिलभूतानि भक्षयत्यतिदारुणः ॥ ६३ ॥
मैनेय ! फिर कल्पका अन्त होनेपर अति दारुण तमः प्रधान रुप धारण कर वें जनार्दन विष्णु ही समस्त अक्षयत्वा च भूतानं जगत्येकार्णवीकृते ।। | भूतका भक्षण कर लेते हैं ॥ ३३॥ इस प्रकार समस्त नागपर्यशयने शेने च परमेश्वरः ।। ६४
भूतका क्षण कर संसारको जमय को वे परमेश्वर -शय्यापर शयन करते हैं ॥ ४ ॥ ज्ञगर्नेपर ब्रह्मा प्रबुद्ध पुनः सृष्टिं करोति ब्रह्मरूपधृक् ।। ६५ ॥
झेकर ये फिर जगाकी रचना करते हैं ॥ ६५ ॥ वह एक हो भावान् जनार्दन जगतुको सट्ट, स्थिति और संह्मएके लिये सृष्टिस्थित्यन्तकरण ब्रह्मविष्णुशिवात्यिकाम् । ब्रह्मा, विष्णु और शिव–झ तन संज्ञाओंको धारण करते स संज्ञां याति भगवानेक एवं जनार्दनः ।। ६६ | ।। ६६ ।। ३ प्रभु विष्णु सष्टा (ा ) होकर अपनी में | सृष्टि करने हैं, पालक विष्णु होकर पाल्परूप अपना ही स्रष्टा सृजति चात्मानं विष्णुः पाल्यंचपातिच।। पालन करते हैं और अन्तमें वयं ही संहारक (शिव) तथा पसंहियते चाने संत च स्वयं प्रभुः ।। ६७ ॥
स्वयं ही उपसंहृत (लीन) होते हैं ।। ६७ || पृथिवी, जल, , वायु और काका तथा समस्त इन्द्रियों और पृथिव्यापस्तथा तेजों वायुराकाश एव च ।। अन्तःकरण आदि जितना जगत् है व पुररूप हैं और सर्वेन्द्रयान्तःकरणं पुरुयाख्यं किं यजगत् ॥ ६८
क्योंकि वह अव्यय विष्णु ही मिश्वरूप और सब भूतो के अन्तरामा हैं, इसरिये झारि भागियों में स्थित सडक भौं स एव सर्वभूतात्मा विश्वरूपो यतोऽव्ययः ।। उन्कक उपकारक है। [ अर्थानु जिस प्रकार मास्किद्वारा किया हुआ हवन यज्ञमानका उपरक होता है, उसी तरह सगोदकं तु तस्यैव भूतस्यमुपकारकम् ।। ६६ ॥
परमात्माके रचे हुए समस्त प्रणयद्वारा होनेवालों सृष्टि भी स एव सृज्यः सच सर्गकर्ता उनकी उपकारक है ] ॥ ६८-६९ ॥ चे सर्वस्वरूप, श्रेष्ठ, स एख पात्यति च पाल्यते च ।। वरदायक और वरेण्य (प्रार्थना योग्य) भगवान् विष्ण ही ब्रह्मा आदि स्थाद्वारा रचनेवाले है, वे ही रचे जाते हैं, ब्रह्माद्यवस्थाभिशेषमूर्ति में हो पाते हैं, वे पानि होते हैं तथा वे ही संहार करते | विष्णुवल्लो वरदो वरेण्यः ।। ७० हैं [और स्वयं ही संहत होते हैं ] ॥ ॐ ।।
इति श्रीविष्णुपुराणे प्रथमें द्वितीयोऽध्यायः ॥ ३ ॥
तीसरा अध्याय
ब्रह्मादिकी आयु और कालका स्वरूप अमेय उवाच श्रीमैत्रेयज औले–हे भगवन् ! जो ब्रह्म निर्गुण, निर्गुणस्याप्रमेयस्य शुद्धस्पाप्यमलात्मनः । | अप्रमेय , शुद्ध और निर्मात्मा है उसका सर्गादिका कर्ता कथं सर्गादिकर्तृत्वं ब्रह्मणोऽभ्युपगम्यते ॥ १ | होना कैसे सिद्ध हो सकता है ? ।। १ ।। १ का पर ज्ञवाच पराशजी बोले-हे तपस्वियोंमें श्रेष्ठ शक्तयः सर्वभावानामचिन्यज्ञानगोचराः ।। मैत्रेय ! समस्त भाव-पदार्थों की शक्तियाँ अचिन्य-ज्ञानकों घतोतो ब्रह्मणस्तास्तु सर्गाद्या भावशक्तयः ।।
विषय होती हैं; [उनमें कोई युक्ति काम नहीं देती] अनः अवन्ति तपता श्रेष्ठ पात्रकस्य यथोष्णता ॥ २ ॥
अमिक शक्ति उष्णताके समान ब्रह्मक भी सदि रचनाप शक्तियाँ स्वाभाविक है ।। ३ ।। अव जिस प्रकार तन्निबोध यथा सर्गे भगवान्समवर्तते ।।
नारायण नामक लोंक-पितामह भगवान् ब्रह्माजी सृष्टिक नारायणाख्यो भगवान्ह्या लोकपितामहः ॥ ३| रचनामें प्रवृत्त होते हैं सो सुनो । ॐ विद्वन् ! वे सदा उत्पन्नः ओच्यते विद्गन्नित्यमेवोपचारतः ।। ४ | उपचारमें ही ‘उत्पन्न हुए कहलाते हैं ॥ ३-४ | इनके निजेन तस्य मानेन आयुर्वर्यशतं स्मृतम् । ।
अपने परिमाणसे उनकी आयु सौ वर्षकी कही जाती हैं। उस (सौ बर्ष) का नाम पर है, उसका आधा पराई तत्परायं तदङ च पराद्धमभिधीयते ॥ ५ ॥
कहलाता है ॥ ५ ॥ कालवयं विष्णोश्च यायोक्तं तवानघ हैं अन ! मैंने जो तुमसे निष्णुभगवान्का तेन तस्य निबोध त्वं परिमाणोपपादनम् ॥ ६ ॥ कास्वरूप कहा था उसके द्वारा उस ब्रह्मा तथा और भी अन्येषां चैव जन्तूनां चराणाम्चराश्च ये। जो पृथिवी, पर्वत, समुद्र आदि चराचर जीव हैं उनकी भूभृत्सागरादीनामशेषाणां च सत्तम ।। ६ | आयुका परिमाण किया जाता है ॥ ६-७॥ हे मुनिश्रेष्ठ ! काष्ठा पञ्चदशाख्याता निमेषा मुनिसत्तम।। पन्द्रह निर्माणको काष्ठा कहते हैं, तीस काष्ठान एक कला काष्ठा त्रिंशत्कला त्रिंशत्कला मौहूर्तिको विधिः॥ ८ ॥
तथा तीस कलाका एक मुहूर्त होता हैं ॥ ८ ॥ तीस मुहूर्तका मनुष्यका एक दिन-रात कहा जाता है और उतने ही तावसंख्यैरहोरात्र मुहूर्तेर्मानुषं स्मृतम् । | दिन-रातका दो पक्षयुक्त एक मास होता हैं ॥ १ ॥ छः अरोराङ्गाणि तावन्ति मासः पक्षद्वयात्मकः ॥ १ | महीनोंको एक अयन और दक्षिणायन तथा उत्तरायण दो तैः घभिरयनं वर्ष ३ऽयने दक्षिणोत्तरे । अपन मिलकर एक वर्ष होता हैं । दक्षिणायन देवताओंकी अयनं दक्षिणं रानिर्देवानामुत्तरं दिनम् ॥ १० ॥ रात्रि है और उत्तरायण दिन ॥ १० ॥ देवताओंके बारह हजार ‘वॉक सतयुग, नेता, द्वापर और कलियुग नामक चार युग दिव्यैर्वर्षसहसैस्तु कृतप्रेतादिसंज्ञितम् होते हैं। उनका अलग-अलग परिमाण मैं तुम्हें सुनाता चतुर्वर्ग द्वाभिस्ताभार्ग निधि में ।। ११ ॥
पुरातत्वज्ञाननेवाले सतयुग आदि परिमाण चत्वारि श्रीणि वै बैंकं कृतादिषु यथाक्रमम् ।। | क्रमशः चार, तीन, दों और एक ज्ञान दिव्य वर्ष लाते दिव्याब्दानां सहस्राणि युगेच्चाहूः पुराविदः ।। १२ ।। प्रत्येक युगके पूर्व उतने ही सौ वर्षकी सन्ध्या तयमाणैः शतैः सन्ध्या पूर्वा तत्राभिधीयते ।। बतायी जाती हैं और युगके पीले उतने ही परिमाण वाले सन्ध्या होते हैं [अर्थात् सतयुग आदि के पूर्व क्रमशः चार, सन्ध्यांश चैव तत्तुल्यो युगस्यानसरों हि सः ॥ १३॥
तीन, दो और एक सौ दिव्य वर्ष सध्याएँ और इतने ही सन्ध्यासथ्यांशयोरन्तर्यः कालो मुनिसत्तम । | वर्षकै सन्ध्यांश होते हैं। ॥ १३ ॥ हैं मुनिश्रेष्ठ ! इन सन्ध्या युगाख्यः स तु विज्ञेयः कृतशेतादिसंज्ञितः ॥ १४ ॥ और सन्ध्यांशों के बीचका जितना काल होता हैं, उसे ही कृतं प्रेता द्वापरश्च कलिञ्चैव चतुर्यगम्। | सतयुग आदि नामवाले युग जानना चाहिये ॥ १४ ॥ प्रोच्यते तत्सहस्रं च ब्रह्मणो दिवस मुने ।। १५ ॥
हे मुने ! सतयुग, त्रेता, द्वापर और काल में मिलकर ब्रह्मणो दिवसे ब्रह्मन्मनवस्तु चतुर्दश ।। चतुर्युग कहलाते हैं। ऐसे हजार चतुर्युगका ब्रह्मा एक दिन झता है ॥ १५५ । हूँ झह्मन् ! ब्रह्मा एक दिनमै चौदह मन, भवति परिमाणं च तेषां कालकृतं शृणु ।। १६ ॥
होते हैं। उनका कालकृत परिमाण सुनों ॥ १६ ॥ सप्तर्षि, सप्तर्षयः सुराः को मनुस्तत्सूनवो नृपाः ।। देवगन, इन्द्र, मनु और मनुके पुत्र राजाओंग [ पूर्व एककाले हि सृज्यन्ते संहिंयन्ते च पूर्ववत् ।। १७ | कल्पानुसार ] एक ही कालमें रचे जाते हैं और एक ही भी विराग चतुर्युगाणां संख्याता साबिका कसप्ततिः । । कालमें उनका संहार किया जाता है ॥ १५५ ॥ हे सत्तम ! मन्वन्तरे मनः कालः सुरादीनां च सत्तम ।। १८ | इतर चतुर्युगसे कुछ अधिक कारका एक मन्वार अष्टौ शतसहस्राणि दिव्यया संख्यया स्मृतम् ।। झेता हैं । यही मनु और देवता आदिका काल हैं॥ १८ ॥ द्विपञ्चाशत्तधान्यानि सहस्राण्यघकानि तु ।। १९ ॥ इस प्रकार दिल्य पर्व-गणनासे एक मन्तरमें आठ लाख बावन हजार वर्ष बताये जाते हैं ॥ १९ ॥ तथा हे महामुने ! त्रिंशत्कोट्यस्तु सम्पूर्णाः संख्याताः संख्यया नि। मानवी वर्ष-गणनाके अनुसार मन्वन्तरका परिमाण पूरे सप्तषष्टिस्तथान्यानि नियुक्तानि महामुने । २० तीस करोड़ सरसठ लाख बीस हजार वर्ष है, इससे विंशतिस्तु सहस्राणि कालोऽयमधिकं विना ।। | आंधक नहीं ।। ३०-३५ ॥ इस कालका चौदह गुना मन्यन्तरस्य सङ्ख्येयं मानुषेवत्सद्विज ।। २१ | ब्रह्माका दिन होता है, इसके अनन्तर नैमित्तिक नाम्याल चतुर्दशगुणों होष कालो ब्राह्ममः स्मृतम् ।। ब्रायो नैमित्तिको नाम तस्यान्तें प्रतिसरः ॥ २२॥ उस समय भूलक, भुवक और स्वलक तीनों तदा हि दाने सर्व त्रैलोक्यं भूर्भवादिकम् ।।
जलने लगते हैं और महकमें रहनेवाले सिद्धगण अति | सन्तप्त होकर अनलॉकको चले जाते हैं ।। २३ ॥ इस प्रकार जनं प्रयाति तापार्ता महलकनिवासिनः ॥ २३ ॥ त्रिलोकीवे जलमय हो जाने पर जनलोकवासी योगियोंद्वारा एकार्णवं तु त्रैलोक्ये ब्रह्मा नारायणात्मकः ।। भ्यान किये जाते हुए नारायणरूप कमलयोनि ब्रह्माजी भोगिशयां गतः शैते त्रैलोक्यासवृंहितः ॥ २४ | त्रिलोकीके पाससे तृप्त होकर दिनके बराबर ही जनस्थैर्योगभिर्देवश्चिन्त्यमानोब्नसम्भवः ।। परिमाणवाली इस रात्रिमें शेषशय्यापर शयन करते हैं तत्प्रमाणां हि तां रात्रि तदने सूबते पुनः ।। २५ | और उसके बीत जानेर पुनः संसारकी सृष्टि करते एवं तु ब्रह्मणों वर्षमेवं वर्षशतं च यत् ।। हैं।। ३४-३५ ॥ इसी प्रकार (पक्ष, मास आदि) गगनासे शतं हि तस्य वर्षाणां परमायुर्महात्मनः ।। २६ ॥
| ब्रह्माको एक वर्ष और फिर सौ वर्ष होते हैं । ब्रह्माके सौं वर्ष ही उस महात्मा ब्रह्मा) की परमायु हैं ॥ २६ ॥ हे एकमस्य व्यतीतं तु पराई ब्रह्मणोऽनघ। अनघ ! उन ब्रह्माजीका एक पग्नई बीत चुका है। उसके तस्यानेऽभूमहाकल्प: पद्म इत्यभिविशुतः ॥ ३५ | अन्तमें पाद्म नामसे विख्यात महाकल्प हुआ था ।। २७ ॥ द्वितीयस्य परार्द्धस्य वर्तमानस्य वै द्विज । | हे द्विज ! इस समय वर्तमान उनके दूसरे पराईका यह वाराह इति कल्पोऽयं प्रथमः परिकीर्तितः ।। २४| वाराह नामक पहला कल्प कहा गया है ॥ २८ ॥
इति श्रीविष्णुपुराणे प्रथमेशे नृतीयोऽध्यायः ॥ ३॥ न हो? =
चौथा अध्याय
एकता २ .
सा. ब्रह्माजीकी पत्ति वराभगवानद्वारा पृथिवीका उद्धार और ब्रह्माजीकी सेक-रचना अमेय इन मैत्रेय बोले–६ मामुने ! कल्पके आदिमें ब्रह्मा नारायणाख्योऽसौ कल्पादों भगवान्यथा । नारायणाज्य भगवान् ब्रह्माजौने जिस प्रकार समस्त सर्ज सर्वभूतानि तदाचक्ष्व महामुने ।। १ । भूतोंकी रचना की वह आप वर्णन कीजिये ।। १ ।।
इकहत्तर चतुर्युगके हिसासे चौदह ५५४ चतुर्युग होते हैं और ब्रह्माके एक दिनमें एक हजार चतुर्युग होते हैं, अतः = अ ब च । चनर्मगम चौदहवाँ भाग झाछ कम पाँच हजार प्रक सौ तीन प्रकार एक मन्तरमें इल्म चतुर्युगके अनरिक्त में दिव्य वर्ष और अधिक होते हैं। गांव के हो ?
सिम्पराप्त विस्तारिताक्षियुगलो राज्रान्तःपुरयोचिताम् । । कारण वसुदेवजी भी मानो आयी हुई जराको छेड़कर नागरीसमूछ ब्रष्टुं न विराम तम् ॥ ५३ | फिरसे नबयुवक–से हो गये ॥ ५२ ।।।
जाकं अन्तरकी स्त्रियाँ तथा नगर निवासिनी सख्यः पश्यत कृष्णस्य मुखमत्यरुणेक्षणम् ।। | महिलाएँ भी उन्हें एकटक देखते-देखते उपराम न हुई गजमुखकृतायासस्वेदाम्बुकणिकाचितम् ॥ ५४ | ॥ ५३॥ [वै परस्पर कहने लगीं-] “अरी स्त्रियो !
अरुणनगनसे युक्त श्रीकृचका आँत सुन्दर मुख तों विकासशस्दोजमवश्यायज़लोक्षितम् ।।
| देतो, जो कुवलयापौंडके साथ युद्ध करनेके परिश्रमसे स्वंद परिभूय स्थित जन्म सफल क्रियतां दृशः ॥ ५५ | बिन्दुपूर्ण होकर हिप-कण-सिञ्चित इशरत्कालीन प्रफुल्ल कमलको लक्षित कर रहा हैं । अरी ! इक्का दन करके श्रीवत्साई महद्धाम बालस्यैतद्विलोक्यताम् ।। अपने नेत्रोंका होना सफल कर लो” || ५–५५५ ।। विपक्षक्षपणे व्रक्षो भुवयुग्मं च भामिनि ।। ५६ ॥ [एक स्त्री बोली-]”हे भामिनि ! इस बालकको किं न पश्यसि दुधेन्दुमृणालक्ष्वाकृतिम् ।।
यह लक्ष्मी आदिका आश्रयभूत श्रीयमांकडु वक्षःस्थल बलभद्रमिमं तथा शत्रुओंको पराजित करनेवाली इसकी दोनों भुजाएँ तों नीलपरधानमुपागतम् ।। ५७ ॥
इंचों !’ ॥ ५६ ॥ वस्याता मुष्टिकेनैव चाणूरेण तथा सखि । [दूसरी–1″अरीं ! क्या तुम नीरनम्बर धारण क्रीइतो बलभद्रस्य हरेहस्यं विलोक्यनाम् ॥ ५८ ॥
किये इन दुग्ध, चन्द्र अन्ना कमलनालके समान शुभ्रवर्णं जदेवजीको भाते हुए नहीं देखती हो ?’ || 14 || सख्यः पश्यत चाणूरं नियुद्धार्थमयं हरिः । । तीसरी-]”अरीं सखियो ! [अखाड़े में] चक्कर समुपैति न सन्यत्र किं वृद्धा मुक्तकारिणः ।। ५६ | देकर घूमनेवाले चाणूर और मुष्टिकके सार क्रीडा करते हए वलभ तथा का हैंसना देख लो।” ॥ ८ ॥ क्व यौवनोन्मुखीभूतसुकुमारतनुहरिः ।। [चौथी-]”हाय ! सखियों ! देशों में चाणूरसे कठिनाभोगशरीरोऽयं मह्मसुरः ।। ६३ | लड़नेके लिये ये हारे आगे बढ़ रहे हैं; क्या इन्हें छुड़ाने वाले कोई भी बड़े बुढे यहाँ न हैं ? ५५५ ।। ‘कहाँ तो इमों सुललितैरतत नवयौवनौ । यौनमें प्रयेश करनेवाले सुकमार-शरीर श्याम और कहाँ दैतेयमलाश्चाणूरप्रमुखास्त्वतिदारुणाः ॥ ६१ ॥ अके समन कठोर शरीरया यह महान् असुर !’ नियुद्धप्राश्रिकानां तु मल्लानेष व्यतिक्रमः ।।
॥ ६,३ ॥ ये दोनों नवयुवक तो बड़े ही सुकुमार शरीरवाले हैं, [ किंतु इनके प्रतिपक्षी ] मैं चाणूर आदि दैत्य मल्ल यद्वायलिनोयुद्धे मध्यस्थैरसमुपेक्ष्यते ॥ ६२ अत्यन्त दारूण हैं ।। ६१ ॥ मल्लयुद्धके परीक्षकगणका ग्रह अपराशर उवाच बहुत बड़ा अन्याय हैं जो वे मध्यस्थ सेंकन भी इन वा इन्धं पुरस्त्रीलोकस्य वदतालबन्भुवम् ।।
और बलवान् मलोंके युद्धकी उपेक्षा कर रहे हैं ॥ ६ ॥ अद्धकश्योनार्जनस्य भगवान्हरिः ।। ६३ ॥ श्रींपराशरजी बोले-नगरकी स्त्रियोंके इस प्रकार
यताशन करते समय भगवान् कणचन्द्र, अपनी कम बलभोप चास्य ववग ललितं तथा। । कसकर उन समस्त दो चमें पृथिवींकों कम्पायमान पदे पदे तथा भूमिर्यन्न शीर्णा तदद्धतम् ।। ६४ ॥ करते हुए रङ्गभूमिमें कूद पड़े ॥ ६३ ॥ श्रीबलभद्रजी भी
अपने भुजदण्डोंने ठोंकते हुए अति मनोहर भावसे इलने चाणूरेण तताः कृष्णो युयुधेऽमितविक्रमः।nलगे। उस समय उनके पद-पदपर पृथिवी नर्तुं फटीं, यहीं नियुद्धकुशलो दैत्यो बलभद्रेण मुष्टिकः ।। ६५ | बड़ा आश्चर्य है ॥ ६४ ॥
जननर अमित-विक्रम कृष्णचन्द्र नागुरके साथ और सन्निपातावधूतस्तु चाणूरेण समं रिः । द्वन्द्वकाल राक्षस मधिक वलभद्रके साथ युद्ध करने प्रक्षेपणैर्मुद्दिभिश्च कीवञ्जनिंपातनैः ।। ६६ | लगे ॥ ६५ ॥ कृष्णचन्द्र चाणूरके साथ परस्पर भिड़कर,
बनियापुराण [ vi भवतो यत्परं तवं तन्न जानाति कश्चन । । हे गोविन्द ! सवये भक्षणकर अन्तमें आप ही अवतारेषु यद्यं तदन्नन्त दिवौकसः ॥ १७ | मनीषिजनोंद्वारा चिन्तित होते हुए जलमें शयन करते है ।। १६ ॥ हे प्रभो ! आफ्कम जों परतत्त्व हैं उसे तो कोई त्वामाराध्य परं ब्रह्म याता मुक्तिं मुमुक्षवः ।
| भी नहीं जानता; अतः आपका ओ रूप अवतारों प्रकट वासुदेवमनाराध्य को मोक्ष समवाप्स्यति ॥ १८ | होता है इसकी देवगण पूजा अनते है ॥ १७ ॥ आप यत्किञ्चिन्मनसा आहां ग्राह्य चक्षुरादिभिः । | परब्रह्म ही आराधना करके मुमुक्षुजन मुक्त होते हैं। बुङ्ख्या च यत्परिच्छेद्यं तद्रूपमखिलं तव ।। १६ | भला वासुदेवकी आराधना किये बिना कौन मोक्ष प्राप्त कर त्वन्यायाहं त्वदाधारा त्वत्सृष्टा त्वत्समाश्रया।
सकता है ? ।। १ ।। मनसे जो कुम मण (संकल्प) माधवमिति अंकोयमभियते ततो हि माम् ॥ ३६ ॥
किया जाता हैं, चक्षु आदि इन्द्रियोंमें जो कुछ प्राण (विषय) करने योग्य हैं, बुद्धिद्वारा जो कुछ विचारणीय है जयाखिलजानमय जय स्थलमयाच्यय ।। वह सब आपहीम रूप है ॥ १५ ॥ हे प्रभो ! मैं जयानत्त जयाव्यक्त जय व्यक्तमय प्रभो ।। २१ || आपन्न रूप हैं, आपके आश्रित हैं और आपके परापरात्मविश्वात्मश्चय यज्ञपतेऽनय । द्वारा रची गयी हैं तथा आपहीकी शरणमें हैं। इसलिये त्वं अस्त्वं चषकारस्त्वमोस्त्वममयः ।। ३३ ॥ लोकमें मुझे ‘माधवी’ भी कहते हैं ॥ २० ॥ है सम्पूर्ण ज्ञानमय ! हे इथूलमय! हे अव्यय ! आपकी आय हो । हे त्वं वेदास्त्वं तदङ्गानि त्वं यज्ञपुरुषो हरे।
अनन्त । ॐ अव्यक्त ! हे व्यक्तमय प्रभो ! आपकी जय सूर्यादयो ग्रहास्तारा नक्षत्राण्यस्थलं जगत् ॥ २३ | हो ॥ २१ ॥ है परापर-स्वरूप ! हें विश्वात्मन्! मूतमूर्तमदृश्यं च दृश्यं च पुरुषोत्तम् ।।
याज्ञपते । । भनम ! आपकी जय हो । हे प्रभों । आप ही यधोतं यच्च नेत्रोक्तं मयान्न परमेश्वर ।।
यज्ञ है, आप हों यार हैं, आप ही ओंकार हैं और आप ही (आहवनीयादि) अशियाँ हैं ।। ३३ । है हरे | आप हो तत्सर्वं त्वं नमस्तुभ्यं भूयो भूयो नमो नमः ।। ३४ ॥
येद, वेदांग और पञ्चपुरुष हैं तथा सूर्य आदि प्रह, तारे, पराशर उवाच । नक्षत्र और सम्पूर्ण जगत् भी आप ही हैं ॥ २३॥ हे एवं संस्तूयमानस्तु पृथिव्या अरणीअरः ।।
पुरुषोत्तम ! हे परमेश्वर ! मूर्त अमूर्त, दृश्य–अदृश्य सामवरध्वनिः श्रीमाझगर्न परिधर्धरम् ॥ २५ तथा जो कुछ मैंने कहा है और ज्ञों नहीं कहा, कह सब ततः समुन्क्षिप्य धरा स्वदंष्ट्रया आप ही हैं। अतः आपको नमस्कार हैं, बारम्बार नमस्कार | महावराहुः स्फुटपद्मबेचनः । पराशरजी बोले–पृथिवीद्वारा इस प्रकार, रसातलादुत्पलपत्रसन्निभः । स्तुत किये जानेपर सामस्वर ही जिम्में ध्वनि हैं उन समुत्थित नील इवाचलो महान् ॥ २६ ॥
भगवान् धरणीधरने घर्घर शब्दसे गर्जना में ॥ २५ ॥। फिर उत्तिष्ठता तेन मुखानिलाहतं विकसित कमलके समान नेत्रोंवा न मायग्रहने अपनी | तत्सम्भवाम्यो जनलोकसंश्रयान् ।। द्वासे पूधिवको उठा लिया और वे कमल दल समान प्रक्षालयामास हि तान्महाद्युतीन् श्याम तथा नाचलके सदा विशालकाय भगवान् सनन्दनादीनपकल्मषान् मनन् । ३७ | रसातलसे बाहर निकले ॥ २६ ॥ निकलते समय उनके मुखके आससे उछलते हुए जलने जनलोकमें रहनेवाले प्रयान्ति तोयानि सुराग्रविक्षत महातेजस्वी और निष्पाप सनन्दनादि मुनीअर्गेमें भिगों | रसातलेऽथः कृतशब्दसन्तति । दिया ।। ३ ।। अरू मड़ा शब्द करता हुआ उनके से सानिलास्ताः परितः प्रयान्ति । विदीर्ण हुए, रसातलमें नीचेक और जाने लगा और सिंद्धा जने ये नियता वसन्ति ।। २८ जनलोकमें रहनेवाले सिद्धगण उनके श्वास-वायु से
प्रथम अंश
उत्तिष्ठतस्तस्य जलाईकचे विक्षिप्त होकर इधर-उधर भागने लगे ॥ २८ ॥ जिनकी | महावराहस्य मह चिंगृह्म । कुक्षि में भीगी हुई है वे महाराष्ट्र जिस समय अपने विधुन्वतो वेदमयं शरीर वेदमय शरोरो कॅपाते हुए पृथिवीको लेकर बाहर निकले | रोमान्तरस्था मुनयः स्तुवन्ति ।। २१ । उस समय उनकी रोमान्चलीमें स्थित मुक्जिन स्तुत करने ते तुम्वुस्तोषपरीक्तचेतसो ला ॥ ३५ ॥ उन निश्क और उन्नत दृष्ट्वाले धराधर | लोके जने ये निवसन्ति योगिनः ।। | भगवाकी जनप्रेगें रहनेवाले सनन्दनादि योगीश्वरॉन सनन्दनाया ह्यतिनम्रकन्धरा प्रसन्नचिन्न अनि नमज्ञानीक सिर झक बस प्रकार । धराधरंधीरतरोबहुतेक्षणम् ॥ ३० स्तुति की ॥ ३० ॥ जयेश्वराणां परमेश केशव ‘हे ब्रह्मादि ईआरोके भी परम ईश्वर ! हे केशव ! ? प्रभो गदाशङ्खधरासिचक्रधृक् ।। दांव-गदाधर | हैं ङ्ग-चक्रधारी प्रभो ! आपकी य प्रसूतिनाशस्थितिङ्केतुरीश्वर हों। आप हो संसारको उत्पत्ति, स्थिति और नाशके कारण | स्त्वमेव नान्यत्परमं च यत्पदम् ॥ ३१ हैं, तथा आप में ईश्वर हैं और जिसे परम पद कक्षों में वह पादेषु वेदास्तन्न यूपदंष्ट भी आपसे अतिरिक्त और कुछ नहीं हैं ॥ ३१ ॥ हैं | इन्तेषु यज्ञाश्चितयश्च वकने । यूपरूप वाले प्रभों ! आप हीं यज्ञपुरुष हैं। आपके हुताशजिल्लोऽसि तनूरुहाणि चरणमें चारों वेद हैं, दाँतोंमें यज्ञ हैं, मुखमैं [श्येन चित्र दर्भाः प्रभो यज्ञपुमांस्त्वमेव ॥ ३२ | आदि] चिनियाँ हैं। हुताशन (यज्ञाग्नि) आपकी जिल्ला हैं विलोचने रात्र्यहनी महात्य तथा कुशाएँ गुंमार्वाल हैं॥ ३३ ॥ हैं महानगन् ! गत और | सर्वांश्रयं ब्रह्म परं शिरस्ते ।। | दिन आपके नेत्र हैं तथा सबका आधारभूत परब्रह्म सूक्तान्यशेषाणि सटाकलापो आपका सिर हैं। हे देय ! बैंगव आदि समस्त सूर भ्राणं समस्तानि हुचि देव ॥ ३३ आपके सटाकलाप (कधके रोम-गुच्छ) हैं और समझ सुक्रतुण्ड सामस्वरधरनाद ।
इनिं आपके प्राण हैं ॥ ३३ ॥ हैं प्रभो ! रुनुक् आफ्का । प्राग्वंशकायाखिलसनसन्थे। तुण्ड ( थूथन हैं. सामस्वर भौर-गम्भीर शब्द हैं, पूर्तेधर्मश्रवणोऽसि देव प्राग्वंश (यजमानगृह) शरीर है तथा सन शरीरको सनातनात्म-भगवन्मसौद ॥ ३४ | | सन्धियाँ हैं । हे देव ! इष्ट (ौंत) और पूर्त (स्मार्त) धर्म पदक्रमाकान्तभुखं भवन्त
आपके कान हैं। हे नित्यस्वरूप भगवन् ! प्रसन्न घेइये मादिस्थितं चाक्षर विश्वमूर्ते ।। ॥ ३४ || हे अक्षर ! हे श्चिमूनें ! अपने पाद प्रारसे विश्वस्य विद्यः परमेश्वरोऽसि
भूमण्डलों व्याप्त करनेवाले आपकों हम विश्वके आदि प्रसीद नाथोऽसि परावरस्य ।। ३५ ॥ कारण समझते हैं। आप सम्पूर्ण चराचर जगनाके परमेश्वर दंष्ट्राग्नविन्यस्तमशेषमेत और नाथ हैं; अतः प्रसन्न झाइये ॥ ३५ ॥ हे नाथ ! भूमण्डलं नार्थ विभाव्यते ते ।। आपको डायर का हुआ यह सम्पूर्ण भूभण्डल एला विगाहतः पद्मननं विलग्नं प्रतीत होता हैं मानो कनयनको शृंदते हुए गजराज । सरोजिनीपपिवौढपङ्कम् ॥ ३६ | | दाँतोंसे कोई कीचड़ सना हुआ मका पत्ता लगा द्यावापृथिव्योरतुलप्रभाव हों ।। ३६ ॥ हे अनुपम प्रभावशाली प्रभो ! पृथिवीं और यदन्तरं तद्पुषा तवैव । | आकाशके बीचमें जितना अन्तर हैं वह आपके शरीरसे व्याप्तं जगद्व्याप्तिसमर्थदीप्ते हैं व्याप्त हैं । हे विश्वको व्याप्त करने में समर्थ तेलयुक्त हिताय विश्वस्म विभो भव त्वम् ।। ३७ | प्रभो ! आप विश्वका हल्याण कीजिये ।। ३ ।।
परमार्थस्त्वमेवैको नान्योऽस्ति जगतः पते । । है जगत्पते । परमार्थं (सत्य बस्तु) तो एकमात्र आप ही हैं. तवैष महिमा येन व्याप्तमेतच्चराचरम् ।। ३८ | आपके अतिरिक्त और कोई भी नहीं हैं। यह आफ्की ही यदेतद् दृश्यते मूर्तमेतज्ञानात्मनस्तव ।। महिमा (माया) हैं जिससे यह सम्पूर्ण चराचर जगत् व्याप्त हैं ।। ३ ।। यह जो कुछ भी मुर्नेमान् जगत् दिग्झायो देता हैं भानिज्ञानेन पश्यन्ति जगद्पमयोगिनः || ३९ ॥
ज्ञानस्वरून आमहाका रूप है। आजितेन्द्रिय लोग भमसे इसे ज्ञानस्वरूपमखिलं जगदेतदबुद्धयः ।। – अने हैं ॥ ३५ ।। इग्न पूर्ण ज्ञान–इवरू५ जनाको अर्थस्वरूपं पश्यन्तो भ्राम्यते पोहसम्माचे ।। ४० | बुद्धिहीन लोंग अर्धरूप देखते हैं, अत: वें निरक्षर मोहमय ये तु, ज्ञानविदः शुचेतसस्तेऽखिलं जगत् ।। | संसार–सामान भटका करते हैं ॥ ४ ॥ हूँ परमेश्मर | ज्ञों लोगशुद्धचित्त और विज्ञानवेत्ता ने इस सम्पूर्ण संसारको आपका नामक स्वरूप ही देखते हैं ॥ ४५ ॥ हे सर्भ ! हे सर्वात्मान् ! प्रसीद सर्व सर्वात्पन्चासाय जगतामिमाम् ।।
| प्रसन्न होइये। हे प्रमेयात्मन् ! है कमलनयन ! संसारको उद्धरोपमेयात्मन्नो देवालोचन ।। ४२ | निवासकें लिये पत्रिका उद्धार करके हमको शान्ति प्रदान सत्त्वोक्तिोऽसि भगवन् गोविन्द पृथिवीमिमाम् ।। | कीजिये ।। ३ ।। हे भगवन् ! हे गोविन्द ! इस समय आप समुद्र भवायेश शन्नो देह्यजनेचन ।। ४३ | | सच्चप्रधान है; अत: हैं देश ! जगतुके उनके लिये आप इस सर्गप्रवृत्तिर्भवतो ज्ञगतामुपकारिणी।। पृथिवीका द्वार कीजिये और हे कमलनयन ! हमको शान्ति
प्रदान कॉजियॆ ॥ १३॥ आपके द्वारा यह गरी प्रति भवत्वेषा नमस्तेऽस्तु शन्नो देब्ज़लोचन ।। ४४ ॥
संसारन उफ्कार करनेवाओं हों । हे कमलनयन ! आपको मा मात्र नमस्कार हैं, भाय हम शान्ति प्रदान कौंज्ञियै ॥ १४ ॥ एवं संस्तूयमानस्तु परमात्मा महीधरः ।। पराशगजी नोले—इस प्रकार स्तुत किये जानेपर नहार क्षितिं त्रिं न्यस्तर्वाश्च मन्नाम्भसि ॥ ४५ | पृधिज्ञीको भरण करनेशले परमात्मा वराहोने उसे दीघ्र ही तस्योपरि जलौघस्य महती नोरिव स्थिता ।। उनका अपार ज्ञलके पर स्थापित कर दिया । २ ।। उस ज्ञसमूहके ऊपर वह एक बहुत बड़ी नौकाके समान स्थित विततत्वात्तु देहस्य न मही याति सम्व म् ।। ४६ | हैं और बहुत विस्तृत आकार होने के कारण उसमें डूबती नहीं ततः क्षितिं समां कृत्वा पृथिव्यां सोऽचिनोबिरीन् । है ।। ६ ।। फिर उन अनादि परमेश्वरने पृथची समा यथाविभागे भगवाननादिः परमेश्वरः ।। ४५ ॥
कन, उसपर झं-तहाँ पर्वतको विभाग करके स्थापित कर दिया ।। ४ ।। संकल्प धान्ने अपने अमाघ प्राक्सर्गदग्धानखिलान्पर्वतान्पृथिवीतले ।। प्रभाव पूनिके अन्त दुग्ध हुए समस्त पर्वतोंकों अमोघेन प्रभावेण ससर्जामघवाञ्छितः ।। ४८ | पृथिवी नऊपर यथास्थान रच दिया।। ४८ ।। तदनन्तर भूविभागं ततः कृत्वा सप्तद्वीपान्यथातथम् ।। | उन्होंने सप्तद्वीपादि-फ्रमसे पृथिवीन यथायोग्य विभाग कर भूराद्यांश्चतुरो लोकान्पूर्ववत्समकल्पयत् ॥ ४९ | भूला | भूलोकद चारों लोकोको पूर्ववत् कल्पना र ॥ ४६ ।। फिर उन भवान् हुने जोगुणसे युक्त हो नर्मधा] ब्रह्मरूपधरो देवस्ततोऽसौ रजसा वृतः ।।
ह्मारूप धारण र सञ्चिकी रचना की ।। १५८ ॥ सृष्टिको चकार सृष्टि मगर्वाश्चतुर्वक्त्रधरो हरिः ।। ५६ | रचना भगवान के निमित्तान ही हैं, क्योंकि उसकी निमित्तमात्रमेवाऽसों सृज्यान सर्गकर्मणि ।।
प्रधान कारण तो सृज्य पदार्थो शक्तियाँ हीं हैं ॥ ५-६ ।। हें प्रधानकारणीभूता यतो वें सृज्यशक्तय: ।। ५१ ॥ तपस्वियोंमें वा मोय ! यस्तुओंकी रचनामें निमित्तमात्रको
छोड़कर भर किस बात आवश्यकता भी नहीं है, क्योंकि निमित्तमात्रं मुक्येवं नान्यत्किञ्चिदपेक्षते वस्तु तो अपनी ही [परिणाम] से बा॥ नीयते तपता श्रेष्ठ स्वशक्त्या वस्तु वस्तुताम् ।। ५२ | पृलपता) को प्राप्त हो जाती है ।। ५२ ।।
इति श्रीविष्णुपुराणे प्रथमेश चतुर्थोऽध्यायः ॥ ४ ।। ५]
प्रथम अंश
पाँचवाँ अध्याय
अविद्मादि विविध सगका वर्णन । मैत्रेय वाघ ऑमैत्रेयी योले-हे द्विजराज ! सर्गक आदिमें यथा ससर्ज देवोऽसौ देवर्षिपितृदानवान् । | भगवान् ब्रह्माजी धिनी, आकाश और जल आदिमें रहनेवाले मनुष्यतिर्यग्वृक्षादीन्भूव्योमसलिलौकसः ॥ १
देव, ऋधि, पितृगपा, दानव, मनुष्य, तिर्यक् और वृक्षादि को जिस प्रकार चा तथा जैसे गुण, स्वभाव और मावा बाकी यहुणं यत्स्वभावं च यद्रूपं च जगद्विज।। बच्चन की यह सन्य आप मुझसे कहिये ॥ १-३ ॥ सर्गादौ सृष्टवान्ब्रह्मा तन्ममाचक्ष्य कृत्स्त्रशः ॥ ३ | श्रीपराशरजी बोले- मैत्रेय ! भगवान् विभुने
अपराशर उच्च
जिस प्रकार इस सर्गको रचना की यह मैं तुमसे कहता है। सावधान होकर सुनों ।। ३ ।। सके आदिमें ब्रह्माज्ञीके मैत्रेय कथयाम्येत सुसमाहितः ।। पूर्वसत् सृष्टिका चिन्तन करनेपर पहले अबुद्धिपूर्वक यथा ससर्ज देवोसो देवादीनखिलान्विभुः ॥ ३ ॥ अर्थात् पहले-पहल असावधानी हो जानेसे] तमोगुणी सृष्टिं चिन्तयतस्तस्य कल्पादिषु यथा पुरा । | सृष्टिका आविर्भाव हुआ ।। ४ ।। उस महारमासे प्रथम तम
(ज्ञान), मोह, महामोह (भोगे), तामिल (क्रोध) अबुद्धिपूर्वकः सर्गः प्रादुर्भूनस्तमोमयः ॥ ४॥ और अभामिन (अभिनवंदा) नामक पपर्वा (पत्र नमो मोहल्ले महामोहस्तामिस्रो ह्यन्धसंज्ञितः ।। | प्रकक) अनिद्या उत्पन्न हुई ।। ५ ॥ उसके म्यान अविद्या पञ्चपर्वैया प्रादुर्भूता महात्मनः ।। ५ ॥
करने ज्ञानन्य, बार-भौतरमै तमोमय भौर जङ नगादि (वृक्ष-गुल्म-ता-यत्-तृष्ण) रूप पाँच पञ्चधावस्थितः सर्गोध्यायतोऽप्रतियोधवान् । प्रकारका सर्ग हुआ ॥ ६॥ [वराज्ञीद्वारा सर्वप्रथम बहुरन्तोऽप्रकाशश्च संवृतात्मा नगात्मकः ।। ६ | स्थापित होनेके रण] नगादिको मुग्य कहा गया हैं, मुख्या नगा यातः प्रोक्ता मुख्यसर्गस्ततस्त्वयम् ॥ ७ ॥
इसन्येि मह सर्ग भी मुख्य मार्ग लाता है ॥ ७ ॥
उस नामको पुरुषार्थ असाधका देखकर उन्होंने तं दृष्ट्वा साधकं सर्गममन्यदपरं पुनः ॥ ८ ॥ फिर अन्य कागके लिये ध्यान किया तो तिर्यक्-स्रोत-सृष्टि नायित अनहोनाध्यतर्नन । | इत्पन्न हुई। यह सर्ग [बायके समान] तिरवा चलनेवाला है।
इस नियंत्रोत कहलाता है ॥ ६ ॥ ये पशु, पक्षी यस्मात्तिर्यक्प्रवृत्तिस तिर्यस्रोतास्ततः स्मृतः ॥ ९ ॥
आदि नामसे प्रसिद्ध हैं—और प्रायः तमोमय (अज्ञानी), पश्चादयस्ते विख्यातास्तपः प्राया ह्यवेर्दिनः ।। | विकन्दिन अनुचित मार्गक अलायन करनेवाले और उत्पथग्राहिणश्चैव तेज्ञाने ज्ञानमानिनः ।। १० | विपरीत ज्ञानको को यथार्थ ज्ञान माननेवाले होते हैं। ये सब अहंकारी, अभिमानी, अहंस समोसे युक्त आन्तरिक अकृता अम्माना अष्टाविंशद्वधात्मकाः ।।
सुम्स आदिको ही पूर्णतया समझनेवाले और परस्पर एक अन्तः प्रकाशास्लें सर्वे आवृताश्च परस्परम् ।। ११ । दूसरे की प्रवृत्तिको न जाननेवाले होते हैं ॥ १८-१९ ॥
* सांय–काश्मि भाईंस वधोका वन इस प्रकार गि। — [कदर्शाइयवधाः 44 किमि । सप्तरका धार्चिायंघानसिनाम् ॥
यापितम्मः प्रधादान–प्र—भाग्यारन्याः । झाद्या विषयांवरमा वा ५ न जुट्योभमतः ॥ जह; शब्दोऽध्ययनं दुधियानास्लपः मुह–माप्तिः । दानवासियों सि. पूवालिबिधा ।।
म्यारह इविध और तु तथा सिडक विपर्ययस सत्रह – – कुल अट्ठाईम व अशक्ति कहते हैं। प्रकृति, उपादान, मन और भाग्य नामक चार अध्यात्मिक और जाँच ज्ञनेन्द्रक बाह्य पिया निवृत हो जानेको पाँच आह्म-इस प्रकार विष्णुपुराण तमध्यसाधकं मत्वा ध्यायतोऽन्यस्ततोऽभवत् । । उस सर्गको भौ पुरुषार्थका असाधक समझ पुनः ऊर्ध्वस्त्रोतास्तृतीयस्तु साचिकोर्ध्वमवर्तत ।। १२ | चिन्तन करनेपर एक और सर्ग हुआ। वह ऊर्ध्व | स्वोतनामका तीसरा साच्चिचा स्वर्ग ऊपरने लोकोंमें रहने ते सुखप्रीतिबहुला बहिरन्तस्त्वनावृताः ।।
वे ऊर्य स्रोत सृष्टि में उत्पन्न हुए प्राणी प्रकाशा बहिरन्तश्च ऊध्वस्रोतोद्भवाः स्मृताः ।। १३ ॥ विषय-सुखकै प्रेगो, बाह्य र आन्तरिक दृष्टिसम्पन्न, तुष्टात्मनस्तृतीयस्तु देवसर्गस्तु से स्मृतः ।। तथा ब्राह्म और आन्तरिक ज्ञानयुक्त थे ॥ १३ ।। यह तसग्न तस्मिन्सर्गेऽभवत्प्रीतिर्निष्पन्ने ब्रह्मणस्तदा ॥ १४ देवसर्ग कहलाता हैं। इस सर्गक भादुर्भत होनेसे सन्तुष्ट चित्त ब्रह्माज्ञच आंत प्रसन्नता हुई ॥ १४ || नाथ सदा वा साथी मुनम | फिर, इन मुख्य सर्ग आदि तीन प्रकारको सृष्टियोंमें असाधकांस्तु तानात्वा मुख्यसगदिसम्भवान् ।। १५ | उत्पन्न हुए प्राणियोंको पुरुषार्थका असाधक जान उन्होंने तश्चाभिध्यायतस्तस्य सत्याभिध्यायिनस्ततः ।। | एक और उत्तम साधक सके लिये चिन्तन किया आदर्बभन्न चाच्यादर्लामखोंतास्त साधकः ॥ १६ ॥ १५ ॥ ३ सपसंकल्प ब्रह्माजकि इस प्रकार चिन्तन नेपर अज्यक्त (प्रकृति) से पुरुषार्थ सापक यस्मादर्वाग्व्यवर्तन्त ततोश्ववस्रोतसस्तु ते ।।
अ सोन नामक मार्ग प्रकट हुआ || १६ ।। इस सर्गक ते च प्रकाशबहुलास्तमोदिक्ता जोऽधिकाः ॥ १७ झापी नीचे (पृथिवीपर) रहते हैं इसलिये वे ‘अर्वाक् तस्मात्ते दुःखबहुला भूयोभूयश्च कारिणः ।। स्रोत कहते हैं। इनमें सत्त्व, रज और तम तीनोंहको अधिकता होती है ।। १३ ॥ इसलिये वे दु:खचहल, प्रकाशा बहिरन्तश्च मनुष्याः साधकास्तु ते ।। १८ ॥
अत्यन्त क्रियाशील एवं बाह्य-आभ्यन्तर ज्ञानसे युक्त और इत्येते कथिताः सर्गाः पात्र मुनिसत्तम् ।।
साधक हैं। इस सर्गकै प्राणी मनुष्य है ।। १ ।। प्रथमो मद्दतः सगों विज्ञेयो ब्रह्मणस्तु सः ।। १९ | हे मुनिश्रेष्ठ ! इस प्रकार अबतक तुमसे छः सर्ग तन्मात्राणां द्वितीयश्च भूतसग हि स स्मृतः ।। कहें। उनमें महत्तच जमा पल्म सर्ग जानना वैकारिकस्तृतीयस्तु सर्ग ऐन्द्रियकः स्मृतः ।। २० ॥
चाहिये ॥ १६ ॥ दूसरा सर्ग तन्मात्राओंका है, जिसे भूतसर्ग भी करते हैं और तीसरा बैंकारिक सर्ग हैं जो इयेष प्राकृतः सर्गः सम्भूत बुद्धिपूर्वकः ।। गैयिक (इन्द्रिय सम्बन्धों) कहलाता है ।। ३ । इस मुख्यसर्गश्चतुर्थस्तु मुख्या वै स्थावराः स्मृताः ।। २१ ॥प्रकार बुद्धिगुर्वक उरान हुआ। यह प्राकृत सर्ग हुआ।
कुल नौ नुष्टियाँ हैं तथा ऊहा, इन्द, अभ्रायन, [आभ्यात्मिक, आर्भिनिक र अधिक] तीन पात, मुहन्याप्ति और दान– आङ सिद्धयां हैं। ये [इन्द्रियाशक्ति, तुष्टि, सिद्धि] ज्ञान वध मुझिमें पूर्व विघ्प हैं। अवयपरत्वादिसे लेकर पागलपनतयः मनमांना म्यारह इयाक विपा अपस्याएँ प्रयाह इन्द्रियवध हैं। आन, प्रक्रम में फिसो चिरफा प्य हो जानेसे अपने मुह मान ना ” नमन तुष्ट हैं। मंन्याससे ही आपको कुता मान हा ‘पदम बमको ८ है। मम भाग में हैं। सिद्धि मा हो जाय, यनादि केशको कपा आवश्यकता है ऐसा विचार करना ‘कल’ नामकी त्रुटि और भाग्योदयसे सिद्ध हो जायगी—ऐसा संचार ‘भाग्य’ नामकी जुष्टि है। ये चारोका भारमासे सम्बन्ध है; अतः ये आयामिक तुष्ट्रियां हैं। पायक उमार्जन, रक्षा और इन आदिमें दोष देनाक! उनसे उगम हो जाना ॥ तुग हैं। दाई | विषय पाँच हैं. इमलिये बाय तुष्टियाँ भी पाँच ही हैं। इस प्रकार कुल नौ गुड़ियाँ हैं।
देशकी अपेक्षा न करके स्वयं में परमार्थक निश्चय कर लेना ‘ऊ सिद्धि हैं। मंगवा कहीं कुछ मुसकर उसमें ज्ञानसिद्ध मान लेना शब्द सिद्ध है । गुरुसे फन ही या प्राप्त हो गयी-ऐसा मान लेना ‘अध्ययन सिद्ध हैं। आत्मियदि विविध दुःखका नाश हो जाना तीन प्रकारको ‘इसचिमात’ सिद्ध है। अभीष्ट पदार्थक मागं हों जाना हमाप्ति’ सिद्धि हैं। जथा विहान् या तपस्वियोंका संग प्राप्त हो जाना दान’ नामिका सिद्धि हैं। इस काम में आठ मियां हैं।
प्रथम अश
तिर्योत्तास्तु य: प्रॉक्तस्तैर्युम्योन्यः स उच्यते । । चौथा मुख्यसर्ग है । पर्वत-वृक्षादि स्थायर ही मुख्य सर्कि तदूर्ध्वस्रोतसो वो देवसर्गस्तु संस्मृतः ।। २२| अन्तर्गत ॥ ३१ ॥ पाँचवाँ तिर्यस्रोत बतलामा उसे तनोक्स्रोतसां सर्गः सप्तमः स तु मानुषः ।। २३ ॥
जिंक (कीट-पतंगादि योनि भी कहते हैं। फिर झूझ म 4 नाताभकर देवसर्ग” कहलाता है। अष्ठमोऽनुग्रहः सर्गः सात्विकस्तामसश्च सः ।।
इसके पश्चात् सात्वा सर्ग अवक-झोताओंका है, वह पञ्चैते वैकृताः सर्गा: प्राकृतास्तु यः स्मृताः ।। २४ ॥ यः स्मृताः ॥ ३ | मनुष्य स ६ ॥ २३-२३॥ आलाँ अनुग्रह सर्ग हैं। यह प्राकृतो वैकृतश्चैव कौमारो नवमः स्मृतः ।। सातूचक्र और तामसिक हैं । ॐ पाँच बैंकृत (विका) सर्ग इत्येते में समास्याता नव सर्गाः प्रजापतेः ।। २५ | हैं और पहले तीन ‘प्राकृत सगं वहते हैं ॥ २४ ॥ ननाँ प्राकृता बैंकृताचैच जगतो मूलहेतवः ।। मार-सर्ग हैं को प्राकृत और बैंकृत भी हैं । इस प्रकार सुजतो जगदीशस्य किमन्यतमसि ।। ३६ ॥ सृष्टि-रचना प्रवृत्त हुए जगदीश्वर प्रजापतिले प्राकृत और मैत्रेय उवाच
येत नामक मैं अगाके मूलभूत नौं सर्ग तुम्हें सुगये । सयाकश्चितः सर्गो देवादीनां मुने त्वचा ।।
झव और क्या सुनना चाहते हें ? || ३५-६ ॥
यज़ी छोले-हे मुने ! आपने इन देन्नादिके विस्तरातुमिच्छामि त्वत्तो मुनिवरोत्तम ।। ३७ ॥ सगका संक्षेपको बर्णन किंवा । अब, है मुनिश्रेष्ठ ! मैं इन्हें ऑपराशर याच
आपके मुख्याविन्द निरुतारपूर्वक सुनना चाता हैं ।। २ ।। कर्मभिभविताः पूर्वैः कुशलमकुशलेस्तु ताः । श्रीधराशजी बोले-हैं मैं ! सम्पूर्ण प्रजा स्यात्या या निर्मुक्ताः संहारे पसंताः ।। २८ ॥ अपने पूर्व-शुभाशुभ कर्मोसे मुक्त हैं; अतः प्रयाटमें स्थावरान्ताः सुराद्यास्तु प्रज्ञा ब्रह्मश्चतुर्विधाः ।। सबक न होने पर भी यह उनके संस्कारों से मुक्त नहीं होतीं ॥ ३८ ॥ ॐ ब्रह्मन् ! ब्रह्माज्ञीके सष्टि-कममें प्रवृत्त ब्रह्मणः कुर्वतः सृष्टिं जज्ञिरे मानसास्तु ताः ।। २९ ॥ होनेपर देवताओंसे लेकर स्थायरपर्यन्त चार प्रकारको सृष्टि असे तो देवासुपितृन्मनुष्यश्च चतुष्टयम् । | हुई। वह केवल मनोमयीं थी ।। २९ ।।। सिसूक्षुरम्भांस्येतानि स्वमात्मानमयूयुजत् ।। ३९ फिर देवता, असुर, तागण और मनुष्य-इन चारोंकी युक्तात्मनस्तमोमात्रा द्रक्ताऽभूत्प्रजापतेः ।।
नवा जल सष्टि करने से उन्होंने अपने शरीर उपयोग झिा ॥ ३६ || साँ-चनाको कामनासे जागतिक सिसृश्चोर्जघनात्पूर्वमसूरा जज्ञिरे ततः ।। ३१ ॥
युक्तचित्त होनेपर तमोगुणको बृद्धि हुई । अतः सबसे पहले उससर्ज ततस्तां तु तमोमात्रात्मको तनुम् ।।
उनी अम्रिा असुर सन्न हुए ॥ ३१ ॥ तब, मैत्रेय ! सी तु त्यक्ता तनुस्तेन मैत्रेयाभूद्विभावरी ।। ३३ ॥ उन्होंने उस तमोमय शौक छड़ दिया, यह छोड़ा हुआ सिसृक्षरन्यदेहस्थः प्रीतिमाप ततः सुराः ।। तमोमय न ही रात्रि हुआ ।। ३३ ।। फिर अन्य देह सत्यादिः समद्धता मयतों ब्रह्मणों दिन ॥ ३ ॥ स्थित हनपर सृष्टिकी कामनायाले हुने प्रज्ञापतिको अत प्रसन्नता हुई, और है हिँ ! इनके मुलझे सवप्रधान का सापि तनुस्तेन सत्यप्रायमभूद्दिनम् ।।
देवगग उत्पन्न हुए ।। ३३ ॥ दनन्तर उस र ततो हि मालिनी रात्रीवसुरा देब्रता दिवा ।। ३४ ॥ उन्होंने लगा। दिसा वह त्यागा हुआ शरीर में सत्त्वस्वरूप संचमान्नामिकामेव ततोऽन्यां जगृहे तनुम् ।। दिन हुआ । इसलिये गृत्रिमें असुर घल्यान् होते हैं और पितृवमन्यमानस्य पितरस्तस्य जज्ञिरे ॥ ३५५ | दिन में देवगणोंका यल विशेष होता है ।। ३३ ।। फिर उत्सर्ज ततस्तां तु पितृन्सृष्ट्वापिं स प्रभुः ।।
हॉर्न आंशिक समय अन्य र अड्ण किया और अपने पितृतु मानते हुए अपने पार्श्व-भागसें] सा चोत्सृष्टाभवसन्ध्या दिननक्तान्तरस्थिना ।। ३६ ॥ पिगमको चिना को ।। ३५ ।। पितृगण रचना क्र इन्होंने जोमात्रासिकामन्यां जगृहे स तनुं ततः । । उस शरीरों भी होड़ दिया | वह त्यागा हुआ शरीर ही दिन जोमात्रौत्कदा जाता मनुष्या द्विजसत्तम ।। ३७ | और रात्रिके बन्नमें स्थित सध्या हुई ॥ ३८ ॥ तत्पश्चात् तामण्याशु स तयाज़ तर्नु सद्यः प्रजापतिः । । उन्होंने आंशिक रजोमय अन्य शरीर धारण किया है ज्योत्स्ना समभवत्सापि प्रसन्ध्या याऽभिधीयते ॥ ३८ | द्विजश्रेष्ठ ! उसमें इजः-प्रधान मनुष्य उत्पन्न हुए ॥ ३ ॥
फिर शीघ्र ही प्रजापतिने उस शारिरको भी त्याग दिया, यहीं ज्योत्स्नागमे तु बलिनो मनुष्याः पितरस्तथा।। ज्योत्स्ना हुआ, जिसे पूर्व सन्ध्या अर्थात् प्रात:काल कहते हैं। मैत्रेय सन्ध्यासमये तस्मादेते भवन्ति वै ।। ३१ |॥ ३८ ॥ इसौटिये, हे मैत्रेय ! प्रातःकाल होनेपर मनुष्य ज्योत्स्ना राज्यहनी सन्ध्याचत्वार्येतानि वै प्रभः ।। | और सायंकालके समय पितर बलवान होते हैं ॥ ३९ ॥ इस प्रकार ग़त्र, दिन, प्रातःकाल और सायंसल ये चारों प्रभु ब्रह्मणस्तु शरीराणि त्रिगुणोपाश्रयाणि तु ।। ४० ॥ अह्मा जी शरीर और नीनों गुणके आया हूँ ।। १० ।। इजोमात्रात्मकामेव ततोऽन्यां जगृहे तनुम् ।। | फिर ब्रह्माज्ञोंने एक और जो जातक शरीर मारण तत: अद्य ण ज्ञाता बन्ने कामस्तया ततः ।। ४१ किया। उसके द्वारा ब्रह्माजीसे क्षुधा उत्पन्न हुई और क्षुधासें ममको उत्पत्ति हुई ॥ ४५ ॥ तब भगवान् अन्क्षामानन्धकारेऽथ सोसृजद्भगवस्ततः ।।
पतिने |- धमें स्थित होकर, सुधाग्रस्त सृष्टिको विरूपाः शपथूला जातास्तेऽभ्यधावस्तत: प्रभुम् ।। ४२ रचना की। इसमें बड़े कुरूप और दाढ़ी-मूंछवाले व्यक्ति मैवं भो रक्ष्यतामेष यैरुक्त राक्षसास्तु ते ।। इत्पन्न हुए । स्वयं ब्रह्माज्ञीकों ओर ही [उन्हें भक्षण ऊचुः खादाम इत्यन्ये येते यक्षास्तुजक्षणात् ।। ४३
करने के लिये] दौड़े ॥ ४३ ॥ उसे म्हिोंने यह कहा |कि ‘ऐसा मत करो, इनकी रक्षा करौ’ चे ‘राक्षस’ कहलायें अप्रियेण तु तान्दृष्ट्वा केशाः शीर्यन्त वेधसः ।। और जिन्होंने कहा ‘हम लायेंगे वे खानेकी वासनावाले हींनाश्च शिरसो भूयः समारोहन्त तच्छिरः ।। ४४ ॥ होनेसे ‘यज्ञ’ कहे गये । ४३ । । । सर्पणात्तेऽभवन् सर्पा नत्वादयः स्मृताः ।। उनमें इस ऑनष्ट प्रवृत्तिको देखक, ब्रह्माजी केश सिरहें गिर गये औंर फिर पुनः उनके मस्तकपर भारूद हुए। तत: कुछ जगत्स्रष्टा क्रोधात्मानों विनिर्ममे ।।
इस प्रकार ऊपर चढ़नेके कारण थे ‘स’ कामे और नौवें वर्णेन कपिशेनोग्रभूतास्ते पिशिताशनाः ।। ४५ | गिरनेके कारण ‘अहि’ कहे गर्थे। तदनन्तर जगत्-रचयिता गायतोक्लासमुत्पन्ना गन्धर्वास्तस्य तत्क्षणात् ।।
ब्रह्माज्ञीने क्रोधित हॉकर क्रोधयुक्त प्राणियोंकी रचना की; वें कपिश (कालापन लिये हुए पोले) वक, अति उग्र पिबन्तो जज्ञिरे वाचं गन्धर्वास्तैन ते हिंन ।। ४६ ॥
स्वभावयाले तथा मासाहारी हुए || ४४-४५ ॥ फिर गान एतानि सृष्ट्वा भगवान्ब्रह्मा तछक्तिचोदितः । करते समय उनके शरीर से तुरन ही गन्धर्व उत्पन्न हुए। हे ततः स्व तन्यानि वयसि वयसोसृजत् ।। ४७ | द्विज ! वे बाणका उच्चारण करते अर्थात् बोले हुए उत्पन्न
हुए थे, इसलिये ‘गन्धर्व जायें ॥ ४ ॥ अवयो वक्षसशके मुखतोजाः स सृष्टवान् ।
| इन सपने मना ले, भगवान् ब्रह्माजीने सृष्टवानुदरामाश्च पाश्वभ्यां च प्रजापतिः ।। ४८ | पक्षियों को उनके फ्य पक्षियों को, के पूर्व कर्मोन प्रेरित होकर स्वच्छन्दता पद्भ्यां चाश्चान्समानान्नासभानावयान्मृगान् ।।
पूर्वक अपनी आयुसे रचा ॥ ४ ॥ तदात्तर अपने उष्ट्रानश्वतरांश्चैव न्यफूनन्याश्च ज्ञातयः ॥ ४९ ॥
मक्ष-अलसे भेड़, मुबमें गैं, उन्दर और पाश्च भागसे गौ, पैसे घोड़े, हाथी, गधे, बनगाम, मृग, ओघभ्यः फलमूलिंन्यो रोमभ्यस्तस्य जज्ञिरे । | ऊँट, खार र व्यङ्क आदि पशुओंकी रचना की त्रेतायुगमुखे ब्रह्मा कल्पस्यादौ द्विजोत्तम । || ६-४५ ॥ उनके मासे फल-मूल मयों सृष्ट्वा पोषधीः सम्यम्युयोज स तदावरे ।। ५० ॥
जन्पन्न हुई । हैं द्विजोत्तम ! कल्पके आरम्भमें ही ब्रह्माजीने पशु और आधि आदि रचना करके फिर जतायुगक गौरजः पुरुषो मेषशाश्वासरगर्दभाः ।। आरम्भमें उन्हें यज्ञादि कमर्म समिति का ।। ३ । एतान्याम्यान्पशूनाहुरारण्यांश्च निबोध में ।। ५१ | नौं, अफरी, पुरुष, डु, घड़े, खार और गने ये नत्र अः ५ ]
असम अंश
आपदा दिखरा हस्तीं वानराः पक्षिपञ्चमाः । । गाँवोंमें रहनेवाले पशु हैं। जंगली पशु ये हैं—आपद औदकाः पशवः षष्ठाः सप्तमास्तु सरीसृपाः ॥ ५२ | (व्याघ्र आदि), दो खुरयाले (वनगाय आदि), हाथी, गायत्रं च ऋचश्चैव त्रिवृत्सॉर्म थत्तरम्।।
बन्दर और पाँचवें पक्षी, छते जलके जव तथा सातवें अग्निष्टोमं च यज्ञानां निर्ममे प्रथमान्मुखात् ।। ५३ ॥
सरोसम आदि ॥ ५५१-५२ ।। फिर अपने प्रथम (पूर्व) मुवसे नमजन गायत्री, न, निवृसोम थत्तर और यजूंषि त्रैष्टुभं छन्दः स्तोमं पञ्चदशं तथा । | भग्निष्टोम यज्ञ निर्मित किआ ॥ ५३॥ दक्षिण-मुखसे बृहत्साम तोक्यं च दक्षिणादनमुखान् ।। ५४ | यनु, पन्द, पञ्चदशप्लोम, बृहत्साम तथा उक्थकों सामानि जगतीछन्दः स्तोमं सप्तदशं तथा । रचना ।। 14 || पश्चिम-मुससे साम, जगतींन्द, वैरूपमतिरानं च पश्चिमादसूजन्मुखात् ॥ ५५ ॥
सप्तदशलम, वैरूप और तिरा उत्पन्न किया ॥ ५५ ॥ तथा ऊत्तर-मुखसे उन्होंने एकविंशतिस्तोम, एकविंशमथर्वाणमाप्तोर्यामाणमेव च अथर्ववेद, आपोर्यामाग, अनपूछन्द और वैनकी सृष्टि अनुमं च वैज्ञमुरादसृजमुखान् ।। ५६ ॥
कीं ॥ २६ ॥ उच्चावचानि भूतानि गात्रेभ्यस्तस्य जज्ञिरे । इस प्रकार उनके शरीर में समस्त ऊँच-नीच प्राणी देवासुपितृन् सृष्ट्वा मनुष्यांश्च प्रजापतिः ।। ५७ | उत्पन्न हुए। उन आदिकर्ता जापति भगवान् ब्रह्माजीने ततः पुनः ससर्जादौ सङ्कल्पस्य पितामहः ।। देव, असुर, पितृगण और मनुष्यों सुष्टि कर तदनन्तर कल्पका आरम्भ होनेपर फिर अक्ष, पिशाच, गन्धर्व, यक्षान् पिशाचानान्धर्वान् तथैवाप्सरसां गणान् ।। ५८ ॥
असग्रगण, मनुष्य, किन्नर, गृक्षस, पशु, पक्षी, मग मौर नरकिन्नररक्षांसि वयः पशुमृगोगान् । मर्स आदि सम्पूर्ण नित्य एवं नल्य थार-जङ्गम अव्ययं च व्ययं चैव यदिदं स्थाणुजङ्गमम् ॥ ५९ ॥ जगतु इसना । जनार्मेसे जिन जसे-से कर्म तत्सस तदा ब्रह्मा भगवानादिकृत्प्रभुः ।।
पूर्वकल्पोंमें में पुनः-पुनः सृष्टि होनेपर उनकी हीं। फिर तेषां ये यानि कर्माणि प्राम्सृष्टयों प्रतिपेदिरे ।।
मूर्धान हो जाती है ।। ५५-६ ।। उस समय हिंसा हिसा, मृदुता-कठोरता, धर्म-अधर्म, सत्य-मिथ्या-में तान्येव ते प्रपद्यन्ते सृज्यमानाः पुनः पुनः ।। ६० ॥ समय अपनों पूर्वं भावनाके अनुसार उन्हें प्राप्त हो जाते हैं, हिंस्राहिंने मृदुक़रे धर्माधर्मावृतानृते ।। इससे ये उन्हें अच्छे लगने लगते हैं ॥ ६१ ॥ तद्भाबिताः प्रपद्यन्ते तस्मात्तत्तस्य रोचते ।। ६१ ॥ इस प्रकार प्रभु विधाताने ही स्वयं इन्द्रियों के विषय इन्द्रियार्थेषु भूतेषु शरीरेषु च स प्रभुः । भूत और शरीर आदिमें विभिन्नना और व्यवहारको उत्पन्न नानात्वं विनियोगं च धातैवं ससञ्चस्वयम् ।। ६३ | किया है । ६३ ।। ऊनि कपके आरम्भमें देवता आदि प्राणियोंके वेदानुसार नाम और रूप तथा कार्य विभागक नाम रूपं च भूतानां कृत्यानां च प्रपञ्जनम् ।।
निश्चित किया है । ६३ ॥ पियों तथा अन्य प्राणियोंके ग वेदशब्देश्य एवादों देवादीनां चकार सः ।। ६३ ॥ बेदानकल नाम और यथायोग्य कर्मोको उन्न निर्दिष्ट ऋषीणां नामधेयानि यथा वेदश्रुतानि वै किया है ॥ ४ ॥ जिस प्रकार भिन्न-भिन्न ऋतुके तथा नियोगयोग्यानि ह्यन्येषामपि सोऽकरोत् ।। ६४ ॥ पुनः-पुनः आनेपर उनके चिह्न और नाम-रूप आदि यथर्ततलिङ्गानि नानारूपाणि पर्यवे ।।
पूर्ववत् रहते हैं उसी प्रकार युगादिमें भी उनके पूर्व-भाव ही इम्यं जाते हैं ॥ ६ ॥ सिक्षा-शक्ति सचिना दृश्यते तानि तान्येव तथा भावा युगादिषु ।। ६५ ||
इच्छा शक्ति से युक्त में नहाज़ सन्य-शक्ति (सृष्टिके करोत्येवविध सृष्टि कल्पादौ स पुनः पुनः ।। मान्य की प्रेरणा ल्याक में धमार इसी सिसृक्षाशक्तियुक्तोऽसों सृज्यशक्तिप्रचोदितः ॥ ६६ प्रकार सृष्टिको रचना किया करते हैं ।। ६६ ।।
इति श्रीविष्णुपुराणे प्रथमेरों पञ्चमोऽध्यायः ॥ ५॥ –
सात दिनांक
छठा अध्यायात है कि चातुर्वण्र्य-व्यवस्था, पृथिवी-विभाग और अन्नादिकी उत्पत्तिका वर्णन | याच ।। मैनेजी बोले- भगवन् ! आपने अन्नस्रोतास्त कथितो भवता यस्तु मानवः । अर्याकू-नाना मनुष्यों के विषयमें कहा उनको सृष्टि ब्रह्मन्त्रिस्तरतो झुहिं ब्रह्मा तमसजद्यथा ॥ १ ॥ मट्टामीने किस प्रकार की—यह विस्तारक कहिये ॥ श्रीभाने जाह्मणादि को जिन-जिन गुगोस। यथा च वर्णानसृजद्यद्गुणश्च फ्रजापतिः । | मुक्त और मन मन्कार गचा तथा उनके झों-नों कर्तव्य अध तथा स्मृतं कर्म विप्रादीनां तदुच्यताम् ॥ ३ | निर्धारित किये वह सब बर्णन कीजिये ॥ ३ ॥
पटिओपराशर उपाय
आपराशरजी बोले- अंE ! जग सत्याभिध्यायिनः पूर्वं सिसक्षोर्ब्रह्मणों जगत् । | रचनाझी इमासे युक्त मन्यसंकल्प औब्रह्माजी मुखमै | अजायन्त विजश्रेष्ठ सत्याद्रिका मुसाअज्ञाः ॥ ३ | पहले सत्यप्रधान का उत्तान हुई ।। ३ ।। तदनन्तर उनके वक्षसो जसोद्विक्तास्तथा वै ब्रह्मणोऽभवन् । वक्षःस्ने ज्ञःमान तथा जमाअसे रज और तमवशिष्ट सष्टि हुई ।। ४ ।। हे द्विजोत्तम ! चरणको जसा तमसा चैव समुद्रिक्तास्तोरुतः ॥ ४ ॥
ब्रह्मानीने एक और प्रकारकी प्रजा उत्पन्न की, ह पझ्यामन्याः प्रजा ब्रह्मा ससर्ज द्विजसत्तम। तमः प्रधान थी में हो सब चारों वर्ण हए ।। ५ ।। इस प्रकार नमः प्रधानास्ताः सर्वाश्चातुर्वण्र्यमिदं नतः ॥ ५ | हे द्विजसत्तम ! ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र में चारों ब्राह्मणाः क्षत्रिया वैश्याः शूद्राश्च द्विजसत्तम ।।
क्रमशः घनाके मुख, क्षः, जानु और चरणसे पादोव्वक्षःस्थलतो मुखत्तश्च समुहताः ॥ ६ ॥
इत्पन्न हुए।। ६ ।।
हे महाभाग ! मनन यज्ञान लिये ही यशाके यज्ञनिष्पत्तये सर्वमेतद् ब्रह्मा चकार ।
छान साधनप इस सम्पूर्ण चातुर्वर्यकी रचना हैं चातुर्वण्र्य महाभाग यज्ञसाधनमुत्तमम् ॥ ७ | भी ।। ७ ।। हे धर्मज्ञ ! गझसे तृप्त होकर देवगण जल यज्ञैराण्यायिता देवा वृष्ट्युत्सर्गेण वै प्रजाः । | बरसाकर प्रज्ञाको दृप्त करते हैं; अतः यज्ञ सर्वधा आप्याययन्ते धर्मज्ञ यज्ञाः कल्याणहेतवः ॥ ८॥
कन्याका त है ॥ . ।। जो मनन्य सदा स्वपराग, सदाचारी, सजन और सुमार्गगामी होते हैं उन्होंने यज्ञबन निष्पाद्यन्ते नरैस्तैस्तु स्वधर्माभिरतैस्सदा ।।ययावत् अनुष्ठान हो सकता है ॥ ६ ॥ हे मुनें ! [याशके विशुद्धाचरणोपेतैः सद्भिः सन्मार्गगामिभिः ॥ ९ ॥
द्वारा मनुष्य इस मनुष्य-शरीरसे में स्वर्ग और पसर्ग स्वर्गापवर्गों मानुष्यात्प्राप्नवत नरा मुने। । झाम कर सकते । भा अनि म जस अचानको नई मश यञ्चाभिरुचितं स्थानं तच्चान्ति मनुजा द्विज ।। १० |
हो उसने जा सकते हैं ।। ३६ || जास्ता ब्रह्मणा सृष्टाश्चातुर्वण्र्यव्यवस्थिताः ।।
हे मुनिसत्तम ! ब्रह्माजीद्वारा रची हुई वह चातुर्वण्र्य-विभागमें स्थित प्रज्ञा प्रति श्रद्धायुक्तः सम्यक्ट्रद्धासमाचारप्रवणाय मुनिसत्तम ।। ११
आचरणावाली, मतानुसार रतनेजा, सम्पूर्ण आधऑसे यथेच्छावासनिरताः सर्वबाधाविवर्जिताः ।। हित, शुद्ध अन्तःकरणयामें, सत्कुलोत्पन्न और पुण्य शुद्धान्तःकाणाः शुद्धाः कर्मानुष्ठाननिर्मलाः ।। १२ मक अनुष्ठानमें परम पवित्र था ।। ११-१२ ।। ब्रसन्न शुद्धं च तासां मनसि शुद्धेतः संस्थिते हरौ ।
मित शुद्ध होने कारण उनमें निम शुद्धस्वरुप श्रीहरिके
विमान रहने उन शुद्ध, ज्ञान प्राप्त होता था जिससे ते शुद्धज्ञानं प्रपश्यति विष्णञ्चायं येन तत्पदम् ॥ १३ भगवान् उम ‘बिष्णु नामक परम पदको देख पाते थे। ततः कालात्मको योऽसौ स चांशः कथितो हुरेः ।। ॥ १३ ॥ फिन (बेतायुग आरम्भमें), हमने तुमसे स पातयत्ययं घोरमल्पपल्पाल्पसारवत् ।। १४ | भगवान् जिस काल नामक अंशबन्न पहले वर्णन किया है, अधर्मबीजसमुद्भुत तमलोभसमुद्भवम् । । वह अति अल्प सारवाले (सुवाले तुच्छ और भोर जासु तासु मैत्रेय रागादिकमसाधकम् ।। १५ (दुःखमय) पापको प्रजा प्रवृत्त कर देता हैं ॥ १४ ॥ ॐ ततः सा सहजा सिद्धिस्तासां नातीबजायते ।।
मैत्रेय ! उससे प्रजामें पुरुषार्थका विघातक तथा अज्ञान
और लोभको उत्पन्न करनेवाय रागादिरूप अधर्मका बाँच्न रसोल्लासादयश्चान्याः सिद्धयोऽौं भवन्त याः ॥ १६
उत्पन्न हो जाता है ॥ १५ ॥ तभीसे इसे वह विष्ण-पद तासु क्षीणास्वशेषासु वर्द्धमाने च पातके। | प्राप्ति रूप स्वाभाविक सिद्धि और रसोल्लास आदि अन्य द्वन्द्वाभिमदुःखार्तास्ता भवन्ति तत: ज्ञाः ।। १७ | अष्ट सिद्धिय* नहीं मिलतीं ॥ १६ ॥ ततो दुर्गाणि ताशक़र्धाचं पार्वतमौदकम् । । उन समस्त सिद्धियोंके क्षीण हो जाने और पापके कृत्रिमं च तथा दुर्ग पुरसवंटकादिकम् ॥ १८ अढ़ जानेसे फिर सम्पूर्ण प्रजा द्वन्द्व, रूस और दुःजसे गृहाणि च यथान्यायं तेषु चक्रुः पुरादिषु ।।
आतुर हो गया ॥ १७ ॥ तब उसने मरुभूमि, पर्वत और जल आदिके स्वाभाविक तथा कृत्रिम दुर्ग और पुर तथा शीतातपादिबाथानां प्रशमाय महामते ।। १९
खर्बट आदि स्थापित किये ।। १८ ।। हे महामते ! उन प्रतीकाममं कृत्वा शीतादेस्ताः प्रज्ञाः पुनः । | पुर आदिकॉमें शत और आम आदि बाधाओंसे बचने वापार्य ततश्चकुर्हस्तसिद्धिं च कर्मजाम् ॥ ३० | लिये उसने यथायोग्य घर बनाये ॥ १९ ॥ श्रीयश्च यवाश्चैव गोधूमाझाणवस्तिलाः ।। | इस प्रकार शीतोष्णादिसे बचनेका उपाय करके उस प्रियङ्गयो एदाराश्च कोरटूयाः सतीनकाः ॥ ३१ | फ्रज्ञाने जविकाके साधनरूप कृषि तथा कला-काल माया मुझ मसूराश्च निव्यायाः सकुलस्थकाः ।।
आदिकी रचना की ।। २७ ॥ हैं मुने ! धान, जौ, गेहूं, कोटे आ.क्यणकाचैव शणाः सप्तदश स्मृताः ।। २२
धान्य, तिल, काँगनी, जवार, कोदो, छोटी मटर, उड़द, मूंग, मसूर, बड़ी मटर, कुलथीं, राई, चना और सन-ये सत्र इत्येता ओषधीनां तु ग्राम्यानां ज्ञातयों मुने। | ग्राम्य औषधियोंकी ज्ञातियाँ हैं। ग्राम्य और वय दोनों ओवष्यों यज्ञियाऔंब म्यारण्याश्चतुर्दश ॥ २३ | कारकी मिलाकर कुल चौदह औषधिय याज्ञिक हैं।
इयत्रसाद आष्ट-सिद्धियोंका वर्णन कन्दपुराणमैं इस प्रकार किया है कि सम्य स्वत एवात्तरुझानः स्यात् पुगे । लोल्लामिका सिंदिस्त झत्ति शुधं नरः । या नैरपेक्ष्येण सदा गुप्ता प्रशासन था। द्विनौया सिद्दिष्टासा .नमिमनसत्तमैः । मन योरूसां सा नृतींयाऽभिधीयते । चतुर्थी तुल्तानासानायुः सुसम्पयोः ।। ऐकायलबाहुन्यं विशोका नाम पञ्चमी । परमात्मपरत्वेन तपोध्यानादिनिशुता ॥ HE हौं च आमचारित्वं सप्तमी सिसच्यते । अष्टमीच तथा प्रोक्ता यत्रबनायता । म अर्घ–सत्ययुगमें इसका स्वयं ही उल्लास होता आ । यहाँ उल्लास नामक सिद्ध हैं, उसके प्रभाव माय भुक्को नष्ट न देता है। उस समय प्रज्ञा स्त्री आदि भोग की अपेआ के बिना हीं सदी तृप्त रहनों धौं, इसींवो मुनिश्रेलॉन ‘तुम नामक दूसरी सिद्धि इन मं था वहीं न न नींसारी सिद्धि चली जाती हैं। उस समय सम्पूर्ण माके रूप और भय क-से , पही उनकी चौथी सिद्ध थीं । बाली ऐनाझी अधिका-यह ‘
चिका’ नामको पाँचवी सिद्धि है। परमात्मपरायण ।। ताप-ध्यानादिमें तत्पर रहना छठौं सिद्ध है । येनुसार विचरना सातत्र नि हो जाती है तथा वहां-तहां मननै मौजा पड़े हुन। आय सिद्धि की गयी है।
+ पडू या नदीचे नटपर बसे हुए छ? छो’ को ‘सर्वट‘ कते हैं।
श्रीविष्णराण
ब्रीहयस्सयवा माषा गोधूमाझाणवस्तिलाः । । उनके नाम ये हैं-धान, जौं, अङ्गद, गेहूं, छोटे धान्य, प्रियङ्गसप्तमा होते अष्टमास्तु कुलत्थकाः ।। ३४ तिल, काँगनौ और कुलथी ये आठ तथा श्यामाक श्यामाकास्त्वय नींवारा जर्तिलाः सगवेधुकाः ।। | (सम), नीयार, वनतिल, गयेधु, वेणुयय और मन तथा बॅयवाः प्रोक्तास्तथा मर्कटका मुने ।। ३५ | (मा) ॥ २१–२५) ।। ये चौदह ग्राम्य और अन्य प्राय्यारण्याः स्मृता होताओषध्यस्तुचतुर्दश। ओषधियाँ यज्ञानुष्ठानकी सामग्री हैं और यज्ञ इनकी उत्पत्तिका प्रधान हैतु हैं ॥ २६ ।। यज्ञोक सहित ये यज्ञनिष्पत्तये यज्ञस्तथासां हेतुरुतयः ॥ २६ ॥ ओषधियाँ फ्रज्ञाक वृद्धिका परम कारण हैं इसलिये एताश्च सह यज्ञेन प्रजानां कारणं परम् । ।
इहलोक-परलोकके ज्ञाता पुरुष यज्ञका अनुष्ठान किया परावरक्दिः प्राज्ञास्ततो यज्ञान्वितन्वते ॥ २७ करते हैं ॥ २७ ॥ हे मुनिश्रेष्ठ ! नित्यप्रति किया जानेवाला अन्यन्यनुष्ठानं यज्ञानां मुनिसत्तम । यज्ञानुमान मनुष्योंका परम उपकारक और उनके किये हुए उपकारकरं पुंसां क्रियमाणाधशान्तिदम् ॥ २८ ॥पापको शत करनेवाल हैं ।। २८ ॥ येषां तु कालसृष्टोऽसौ पापविन्दुर्महामुने । हैं भग्नामुने ! जिनके चित्तमें काली गतिसे पापा चेतःसु ववृधे चक्कुस्ते न यज्ञेषु मानसम् ॥ २९ बोज बढ़ता है उन्हीं लोगोंका चित्त यज्ञमें प्रवरा नहीं घेदवादांस्तथा वेदान्यज्ञकर्मादिकं च यत् । | होता ।। २९ ।। उन यज्ञके विरोधियोंने वैदिक मत, वेद तत्सर्वं निन्दयामासुर्यज्ञब्यासेधकारिणः ।। ३० | और यज्ञादि कर्म–सभीको निन्दा की है।। ३ । वे प्रवृत्तिमार्गब्युछित्तिकारिणो वेर्दानन्दकाः ।।
लोग दुरात्मा, दुराचारी, कुटिलमत, वेद-विनन्दक और दुरात्मानों दुराचारा बभूवुः कुटिलाशयाः ।। ३१ । प्रवृत्तिमार्गका उच्छेद करनेवाले ही थे ॥ ३१ ॥ संसिद्धाय तु वार्ता प्रज्ञाः सृष्टा प्रजापतिः । । हे धर्मवानोंमें श्रेष्ठ मैत्रेय ! इस प्रकार कृषि आदि मर्यादा स्थापयामास यथास्थानं यथागुणम् ।। ३२ | जीविका के साधनोंके निश्चित हो जानैपर प्रजापति ब्रह्माजीने वर्णानामाप्रमाणां च धर्माधर्मभृतां वर ।
मनाको चना र उनके स्थान और गुग अनुसार लोकांश्च सर्ववणांनां सम्यग्धर्मानुपालिनाम् ॥ ३३ ॥
| मर्यादा, वर्ण और आश्चमके धर्म तथा अपने धर्म भली | प्रकार पालन करनेवाले समस्त चणेक लोक आदिकी प्राज्ञापत्यं ब्राह्मणानां स्मृतं स्थानं क्रियावताम् ।।
स्थापना की ॥ ३२-३३ ।। कमींनष्ठ आपणोंका स्थान स्थानमैन्द्र क्षत्रियाणां संग्रामेनवर्तनाम् ।। ३४ पितृलोक हैं, युद्ध-क्षेत्रसे कभी न टनेवाले क्षत्रियोंका वैश्यानां मारुतं स्थानं स्वधर्ममनुवर्तनाम्। | इन्द्रलोक हैं ।। ३४ ।। तथा अपने धर्मका पालन करनेवाले गान्धर्व शूद्रजातीनां परिचर्यानुवर्तनाम् ।। ३५ | वैश्योंका वायुलोक और सेवाधर्मपरायण शूद्रोंका अष्टाशीनिसहस्राणि मुनीनामूवरेतसाम्। | गन्धर्वलोक है ॥ ३५ ॥ अट्ठासी हज़ार ऊर्ध्वरेता मुनि हैं; स्मृतं ते तु यत्स्थानं तदेव गुरुवासिनाम् ॥ ३६ | उनका ज्ञों शान बताया गया है वहीं गुरुकुलवासी सप्तर्षीणां तु यत्स्थानं स्मृतं तद्वै वौकसाम् ।। ब्रह्मचारियोंका स्थान है ।। ३६ । इसी प्रकार वनवासी प्राज्ञापत्यं गृहस्थानों न्यासिनां ब्रह्मसंज्ञितम् ॥ ३७ ॥
शनम्ररका स्थान सप्तर्षरोक, गृहस्थका पितृक और संन्यासियका ब्रह्मलोक हैं तथा आत्मानुभवसे तृप्त योगिनाममूर्त स्थानं स्वात्मसन्तोषकारिणीम् ।। ३८ | योगियोंका थान अमरपद् (मोक्ष) हैं ।। ३७-३८॥ जो एकातिनः सदा ब्रह्मभ्यायिनो योगिनश्च ये। | निरन्तर एकान्तसेवीं और ब्रह्मचिन्तनमें मग्न रहनेवाले ते तु परमं स्थानं यत्तत्पश्यन्ति सूरयः ।। ३९ | योगिजन हैं इनका जो परमस्थान हैं उसे पण्डितजन ही देख
धम अंश
गत्वा गत्वा निवर्तन्ते सूर्यादयो महाः ।। पाते हैं ॥ ३५ ॥ चन्द्र और सूर्य आदि ग्रह भी अपने-अपने अद्यापि न निक्र्लने द्वादशाक्षरचिन्तकाः ।। ४० ॥ अंकमे जाकर फिर लौट आते है, किन्तु द्वादशाक्षर मन नमो भगवते वासुदेवाय) का चिन्न करनेवाले तामिसमन्धतामित्वं महारौरवगैरवौ । अभीतक मोक्षपद से नहीं लौटे ॥ ४ ॥ तामिस, असपत्रवनं घोरं कालसूत्रमवीचिकम् ।। ४१ ॥ अन्धतामित्र, मह्मरौरव, रौरव, असिपत्रवन, घोर, कालसूत्र और अनीचिक आदि जो नरक है, में बैंकों विभिन्दकाना वेदस्य यज्ञयाघातकारियाणाम् । निन्द्रा और अशोका उद करनेवाले तथा चपर्म-विमुख स्थानमेतत्समाझ्यात स्वधर्मत्यागिनश्च ये ।। ४२ | पुरुषोंके स्थान कहे गये हैं ॥ ४१-४२ ॥
इति श्रीविष्णुपुराणें प्रथमेंऽशे षष्ठोऽध्यायः ।। ६ ।।
सातवाँ अध्याय
मरीचि आदि फ्रजापतिगण, तामसिक सर्ग, स्वायम्भुवमनु और शतरूपा तथा उनकी सन्तानका वर्णन आँपगार ज्ञवाच श्रीपराशनी बोले-फिर उन प्रजापतिके ध्यान ततोऽभिध्यायतस्तस्य जज्ञिरे मानसाः प्रजाः । करनेपर उनके देहस्वरूप भूतोंसे उत्पन्न हुए शरीर और तुच्छरसमुत्पनैः कार्यंस्तैः कणैः सह ।। इन्द्रियोंके सहित मानस प्रजा उत्पन्न हुई। उस समय क्षेत्रज्ञाः समवर्तन्त गात्रेभ्यस्तस्य धीमतः ।। १ ॥ मतिमान् ब्रह्माजींके जड शरीरसे ही चेतन जीवोंका ते सर्वे समवर्तन्त ये मया प्रागुदाहृताः ।।
प्रादुर्भाव झा ।। १ ।। मैंने पहले जिनका वर्णन किया हैं, देवाद्याः स्थावरान्ताश्च वैगुण्यविषये स्थिताः ।। ३ ॥ देवताओंसे लेकर स्थावरपर्यन्त वे सभी त्रिगुणात्मक काम एवंभूतानि सृष्टानि चराणि स्थावराणि च ॥ ३ ॥
६ | और अचर जीव इसी प्रकार उत्पन्न हुए ॥ ३-३॥ यदास्य ताः प्रजाः सर्वा न व्यवर्धत धीमतः ।
जब महाबुद्धिमान् प्रजापतिकी वह प्रजा पुत्र अथान्यान्मानसापुत्रान्सदृशानात्मनोसृजत् ॥ ४ ॥ पौत्रादि-क्रमसे और न बढ़ी तब उन्होंने भूग, पुलस्त्य, भृगे पुलस्त्यं पुलह क्रतुमङ्गिरस तथा । पुलह, ऋतु, अंगिरा, मरॉचि, दक्ष, अत्रि और वसिष्ठ परीचि दक्षत्रं च वसिष्ठं चैव मानसान् ॥ ५ | इन अपने ही सदृश अन्य मानस-पुर्जाकी सृष्टि की। नव ब्रह्माण इत्येते पुराणे निश्चयं गताः ॥ ६ ॥
पुराणों में नौ ब्रह्मा माने गये हैं ।। ४-६ ।। ख्याति भूतिं च सम्भूति कमां नीति तथैव च । । फिर च्याति, भूति, सम्भूति, क्षमा, प्रीति, सन्नति, सन्नतिं च तथैवोमनसूय तथैव च ।। ७ ॥ ऊर्जा, अनसूया तथा प्रसूति इन नौ कन्याओं को उत्पन्न प्रसूतिं च ततः सृष्टा ददौ तेषां महात्मनाम्। | कर, इन्हें उन महात्माओंको तुम इनकी पत्नी हो ऐसा पत्न्यो भवष्यमित्युक्त्वा तेषामेव तु दत्तवान् ॥ | कहकर सौंप दिया ॥ ३-८॥ सनन्दनादयो ये च पूर्वसृष्टास्तु वेधसा । | ब्रह्माजीने पहले जिन सनन्दनादि इन्पन्न किया था। न ते लोकेसनत निरपेक्षाः प्रज्ञासु ते ॥ ९ | वे निरपेक्ष होनेके कारण सन्तान और संसार आदिमें प्रवृत्त सर्वे तेऽभ्यागताना वीतरागा विमत्सराः। | नहीं हुए ॥ ९ ॥ वे सभी ज्ञानसम्पन्न, रिक्त और मत्सराद तेवं निरपेशेषु लोकसृष्टौ महात्मनः ।। १० | दोघोंसे रहित थे। उन मह्यमाऑको संसार-रचनासे विराम भागको ।
ब्रह्मपोऽभून्महान् क्रोधलेलोक्यदहनक्षमः । । ब्रह्माजीको त्रिलोकीको भस्म कर देनेवाला मह्मन् क्रोध तस्य क्रोधात्समुद्भूतज्वालामालानिदीपितम् ।। उत्पन्न हुआ। हे मुने ! उन अहह्माजके क्रोधके कारण ब्रह्मणोऽभूत्तदा सर्वं त्रैलोक्यमखिलं मुने ॥ ११ | सम्पूर्ण त्रिलोकी ज्वाला-मालाओंसे अत्यन्त देदीप्यमान हो भ्रकुटीकुटिलात्तस्य ललाटाक्रोधदीपिंतात् ।।
गयीं ॥ १-११ ।। समुत्पन्नस्तदा रुद्रो मध्याहार्कसमप्रमः ।। १३ ||
। उस समय उनकी टेही भृकुटि और क्रोध-सन्तप्त ललाटसे दोपहरके सूर्यके समान प्रकाशमान रुद्री अर्धनारीनरवपुः प्रचण्डोऽतिशरीरवान् ।
उत्पत्ति हुई ।। १३ । उसका अति प्रचण्ड र आधा नार विभजात्मानमित्युक्त्वा ते मतदई ततः ॥ ६३ |और आधा नारीरूप था। तब ब्राज़ी ‘अपने शरिरज्म तथोक्तोऽसौ द्विधा स्वीत्वं पुरुषत्वं तथाऽकरोत् । विभाग कर’ ऐसा कहकर अन्तर्धान हो गयें ॥ १३ ॥ ऐसा विभेदपुरुषत्वं च दशधा चैकथा पुनः ॥ १४ | कहे जानेपर उस ने अपने शरीरस्थ स्त्री और पुरुष दोनों सौम्यासौम्यैस्तदा शान्ताशातैः स्त्रीत्वंचसप्रभुः ।। ‘भागों अगर न किया । विभेद बहुधाः देवः स्वरूपैरसितैः सितैः ॥ १५ ग्यारह भागोंमें विभक्त किया ॥ १४ ॥ तथा ली-भागको ततो ब्रह्मात्मसम्भूतं पूर्व स्वायम्भुवं प्रभुः ।।
भी सौम्य, क्ल, शान्त-अान्त और श्याम-गौर आदि कई आत्मानमेव कृतवान्ग्रजापाल्यै मर्नु द्विज ।। १६ रूपोंमें विभक्त कर दिया ॥ १५ ॥
ननर, हैं जि ! आपनेसे उत्पन्न अपने ही धरूप शतरूपां च तां नारौं तपोनितकल्मषाम् ।। स्वायम्भुवकों ब्रह्मान प्रजा-पालनके लिये प्रथम मनु स्वायम्भुवो मनुर्देवः पत्नीचे जगृहे प्रभुः ।। १७ बनाया ॥ १६ ॥ उन स्वायम्भुव मनुने [गने ही साथ तस्मात्तु पुरुषाद्देवी शतरूपा व्यजायत ।
उत्पन्न हुई] तपके कारण निष्पाप शतरुपा नामक स्त्रीको प्रियव्रतोत्तानपादौ प्रसूत्याकृतिसंज्ञितम् ॥ १८ अपनों पनीरूपसे ग्रहण किया ॥ १७ ॥ हैं धर्मज्ञ ! उन कन्याद्वयं च धर्मज्ञ रूपौदार्यगुणान्वितम् । । | स्वायम्भुव मनु शतरूपा देवने प्रियव्रत और ददौ प्रसूतिं दक्षाय आकूति रुचये पुरा ।। १६ | उत्तानपादनामक दो पुत्र तथा उदार, रूप और गुणसे प्रजापतिः स जग्राह तयोर्जों सदक्षिणः । | सम्पन्न प्रसूति और आकृति नामी दो कन्याएँ उत्पन्न । पुत्रों यज्ञो महाभाग दम्पत्योर्मिथुनं ततः ।। ३० | उनमेसे प्रसूतिको दशके साथ तथा आकृतिको रुचि यज्ञस्य दक्षिणायां तु पुत्रा द्वादश जज्ञिरे । ।
| प्रजापतिले साथ विवाह दिया ॥ १८-११ ॥ यामा इति समाख्याता देवाः स्वायम्भुवेमनौ ॥ २१ | | हे महाभाग ! चि प्रजापतिनं उसे महण कर लिया।
| तच इन दम्पतीक यन्न र दक्षिणा—ये युगल (ज ) प्रसूत्यों च तथा दक्षश्चतस्रो विंशतिस्तथा ।
सन्तान उत्पन्न हुई ।। २० || यज्ञके दक्षिणासे बारह पुत्र ससर्ज कन्यास्तासां च सम्यङ्नामानि मे शृणु ।। २२ हुए, जो स्वायम्भुव मन्वन्तरमें पाम नामके देवता अद्धा लक्ष्मीथुतिस्तुधिया पुस्तिया किया। कहलायें ॥ ३१ ॥ तथा दक्षने प्रसुतसे चौबीस कन्याएँ
बुद्धिलंना वपुः शान्तिः सिद्धिः कीर्तिस्त्रयोदशी ।। २३|उत्पन्न क। मुझसे उनके शुभ नाम सुनौ ॥ २२ ॥ श्रद्धा, | पत्न्यर्थ प्रतिज्ञाह धर्मो दाक्षायणः प्रभुः ।। | लक्ष्मी, धृति, नष्ट, मेधा, पुष्टि, क्रिया, बुद्धि, , , नाना-पा- शयामा – । | शान्ति, सिद्धि और तैरहवीं कतै-इन इभ-कन्याको
| धर्मनै पत्नौरूपसे ग्रहण किया। इनसे छोटी शेग म्यारह | ख्यातिः सत्यय साभूतिः स्मृति: प्रतिः क्षमा तथा । कन्याएँ ज्याति, सतो, सम्भूति, स्मृति, प्रीति, क्षमा, सन्ततिभानसूया च अर्ना स्वाहा स्वधा तथा ।। ३५ |
| सत्तति, अनसूया, ऊर्जा, म्वाहा और स्वधा थीं भृगुर्गवो मरीचिश्च तथा चैवाङ्गिा मुनिः । |॥ ६३-२५ ॥ हे मुनिसत्तम ! न ख्याति आदि । पुलस्त्यः पुलश्चैव ऋतुश्चर्चिवरस्तथा ॥ २६ | कन्याको क्रमशः भृगु, शिव, मरॉचिं, अंगिय, पुलस्य,
अयाम अंश:
अत्रिवसि वहिश्च पितरश्च यथाक्रमम्। । पुलह, क्रतु, अत्रि, वसिष्ठ-इन मुनियों तथा अमि और ख्यात्याद्या जगृ: कन्या मुनयो मुनिसत्तम ।। २७ | पितरोने ग्रहण किया ॥ २६-२७ ।। श्रद्धा कार्य चला दर्प नियमं श्रुतिरात्मजम् । । श्रद्धासे काम, चला (लक्ष्मी) से दर्प, अनिमें सन्तोष च तथा तुष्टिलर्भ पुष्टिरसूयते ॥ २८ | नियम, तुष्टिसे सन्तोष और पुष्टिसे लोभकी उत्पत्ति हुई मेधा शुतं किया दई नयं विनयमेव च ॥ ३९ ॥ ॥ २८ ।। तथा मेधासे श्रुत, क्रियासे दङ, नय और
विनय, बुद्धिसे बोध, तज्ज्ञासे विनय, पुसे उसका पुत्र बोर्ष बुद्धिस्था लल्ला विनयं वपुरात्मजम् ।।
व्यवसाय, शससे भेम, सिद्धिसे सुख और कीर्तिसे व्यवसायं प्रजज्ञे वै क्षेमं शान्तरसूयते ॥ ३० ॥
यशका जन्म हुआ; ये ही धर्मके पुत्र हैं। रतिने कामसे सुखं सिद्धिर्यशः कीर्तिरित्येते धर्मसूनवः । | धर्मके पौत्र हर्षको उत्पन्न किया ।। ३५-३१ ॥
कामाद्गतिः सुने हर्ष धर्मपौत्रमसूयते ॥ ३१ ॥
अधर्मको स्रों हिंसा थी, उससे अन्त नामक पुत्र हिंसा भार्या स्वधर्मस्य ततो जज्ञे तथानृतम्। और निति नामकी कन्या उत्पन्न हुई। उन दोनोसे भय कन्या च निकृतिस्ताभ्यो भयं नरकमेव च ॥ ३२ || और नरक नामके पुत्र तथा उनकी पत्नियाँ माया और वेदना माया च वेदना व मिथुनं त्विदमेतयोः ।। नामक कन्याएँ हुई । उनमेसे मायने समस्त प्राणियों का तयोजनेऽथ वै माया मृत्यु भूतापहारिणम् ॥ ३३
संहारक मृत्यु नामक पुत्र उत्पन्न किया ।। ३२-३३ ।।
बेदनाने भो भय (नरक) के द्वारा अपने पुत्र दुःखको जन्म वेदना स्वसुतै चापि दुःखं जज्ञेय रौरवात् । दिया और मृत्युसे व्याधि, जरा, चोक, तृष्णा और धक मृत्योर्धाथिजराशोकतृष्णाकोथाश्च जज्ञिरे ॥ ३४ | उत्पत्ति हुई ३४॥ ये सब अधर्मरूप है और ‘दुःखोत्तर दु:खोत्तराः स्मृता होने सर्वे चाथर्मलक्षणाः ।। नामसे प्रसिद्ध हैं, क्योंकि इनसे परिणाममें दुःत ही प्राप्त नैषां पुत्रोऽस्ति वै भार्या ते सर्वे ह्यध्वरेतसः ।। ३५ | होता है। इनके न कोई स्त्री हैं और न सन्तान । ये सब रौद्राण्येतानि रूपाणि विष्णोर्मीनवरात्मज ।।
| ऊर्ध्वरेता हैं ।। ३५ ।। है मुनिकुमार ! ये भगवान् विलगुके बड़े भयङ्कर रूप हैं और ये ही संसारकै नित्य-प्रलकै नित्यप्रलयहेतुत्वं जगतोऽस्य प्रयाति वै ॥ ३६ कारण होते हैं ।। ३६ ॥ हैं महाभाग ! दक्ष, मरीचि, अत्रि दक्षो मरीचिरत्रिश्च भृग्वाद्याश्च प्रजेश्वराः । । और भूर आदि प्रजापतिगण इस जगलं नित्य-सर्ग जगत्या महाभाग नित्यसर्गस्य हेतवः ।। ३७ | कारण हैं ।। ३७॥ तथा मनु और मनुके पराक्रम, मनवो मनपत्राश्च भूपा वीर्यधराश्च यें। | सन्मार्गपरायण और इ-वीर पुत्र गण इस संसारकी समानरताः शूरास्ते सर्वे स्थितिकारिणः ॥ ३८] नित्य-स्थितिकै कारण हैं।। ३८ ।।।
मैत्रेय उवाच
मैत्रेयज़ी बोले-हे ब्रह्मन् ! आपने जो नित्य ये नित्या वित्यिसर्गस्ततिः । | स्थिति, निय-सर्ग और निय-अलगका उल्लेख किया सो नित्याभावश्च ते वै स्वरूपं मम कथ्यताम् ॥ ३६ | कृपा करके मुझसे इनका स्वरूप वर्णन कीजिये ॥ ३१ ॥
ऑपराशर उवाच श्रीपराशजी बोले-जिनकी गति कहीं नहीं सर्गस्थितिविनाशांश्च भगवान्मधुसूदनः । रुकन वे अचिन्त्यात्मा सर्वव्यापक भगवान् मधुसूदन तैस्तै रूपैरचिंच्यात्मा करोत्यव्याहतो विभुः ।। ४० ॥
निरन्तर इन मनु आदि रूपोंसे संसारको उत्पत्ति, स्थिति नैमित्तिकः प्राकृतिकस्तथैवात्यक्षिको द्विज । | और नाश करते रहते हैं ।।४० ॥ हे द्विज ! समस्त भूतका नित्य सर्वभूतानां प्रलयोयं चतुर्विधः ।। ४१ | चार प्रकारका प्रलय है-नैमित्तिक, प्राकृतिक, आयन्तिक पिपुराण प्रायो नैमित्तिकस्तत्र शेतेऽयं जगतीपतिः । । और नित्य ॥ ४१ ।। उनमें से नैमित्तिक प्रलय ही प्रयाति प्राकृते चैव ब्रह्माण्डु प्रकृतौ लयम् ॥ ४२ | ब्राह्म-अप है, जिसमें जगपत बह्माज कल्पान्तमै शयन करते हैं; तथा प्राकृतिक प्रमें ब्रह्माण्ड प्रकृतिमें लौन में ज्ञानादात्यन्तिकः प्रोक्तो योगिनः परमात्मनि । जाता है ॥ ३ ॥ ज्ञानके द्वारा योगका परमात्मा न हो नित्यः सदैव भूतानां यो विनाशो दिवानिशम् ॥ ४३ | जाना आत्यत्तिक प्रलय है और रात-दिन जो भूतका क्षय होता हैं वहीं नित्य-प्रलय है ।। १३ । प्रकृतिले मन्तवाद प्रसूति: प्रकृतेर्या तु सा सृष्टिः प्राकृता स्मृता ।। में जो सृष्टि होती हैं यह प्रातक सझि हत्याती है दैनन्दिनी तथा प्रोक्ता यान्तरप्रलयादन् । ४४ | और अवान्नर- के अनन्तर बों [बमाके द्वारा] चराचर जगत् उत्पन्न होती है वह नन्दन साँE का भूतान्यनुदिनं यत्र जायन्ते मुनिसत्तम। जाती हैं। ॥ और हैं मुनि ! जिसमें प्रतिदिन नित्यस हि स प्रोक्तः पुराणार्थीविचक्षणैः ।। ४५ | प्राणियोंकी उत्पत्ति होती रहती है उसे पुराणार्थमें कुशल महानुभावोंने निय-सृष्टि कहा है ॥ ४५ ॥ एवं सर्वशरीरेषु भगवान्भूतभावनः । इस प्रकार समस्त शरीर में स्थित भूतभावन भगवान् संस्थित: कुरुते विष्णुरुत्पत्तिस्थितिसंयमान् ।। ४६ | विष्णु जगत्की उत्पत्ति, स्थिति और प्रलय करते रहते हैं। ॥ ६ ॥ है मैश्य ! सृष्टि, स्थिन और विनाशकी इन सृष्टिश्चितिविनाशनां शक्तयः सर्वदहिषु । | वैष्णवी शक्तियोंका समस्त श]]में समान भावसे हर्निश वैष्णव्यः परिर्तने मैत्रेयाहर्निशं समाः ॥ ४७ | सञ्चार होता रहता है ।। ४३॥ हे अझन् ! ये तीनों महतो शक्तियाँ त्रिगुणमयी है, अतः जो इन तीनों गुणका गुणत्रयमयं होतान् शक्तित्रयं महत् । अतिक्रमण कर जाता है वह परमपदको ही प्राप्त कर लेना योऽतियातिं स यात्येव परं नावर्तते पुनः ॥ ४८ हैं, फिर जन्म-मरणादिके चक्रमें नहीं पड़ता ।। ४८ ॥
इति श्रीविष्णुपुराणे प्रथमेशे सप्तमोऽध्यायः ॥ हर ॥
इति विष्णुपुराणे अथमेशे सप्तमोय.
आठवाँ अध्याय
रौद्र-सृष्टि और भगवान् तथा सक्ष्मीनीकी सर्वव्यापकताका वर्णन पराशर वाच ऑपराशरजी बोले-है महामुने ! मैंने तुमसे कथितस्तामसः सर्गो ब्रह्मणस्तै मह्यमुने । | ब्रह्माजींकें तामस-सर्गका वर्णन किया, अब मैं रुद्र सद्भस प्रवक्ष्यामि तन्मे निगदतः शृणु ॥ १ | सर्गमा वर्णन करता हैं, सो सुनो ।। १ ।। कल्पके आदिमें
अपने समान न इत्पन्न होनेके लिये चिंतन करते हुए कल्पादावात्मनस्तुल्यं सुर्त प्रध्यातस्ततः ।।
ब्रह्माजीकी गोंदमें नीललोहित वर्णके एक कुमारका प्रादुरासीप्रभोर कुमारो नीललोहितः ॥ २ | प्रादुर्भाव हुआ ॥ २ ॥ 15 16 17 ! करोद सुवरं सोऽथ प्राद्वदद्विजसत्तम । | हे द्विजोत्तम ! जन्म अनन्तर ही वह जोर किं त्वं रोदिघि तं ब्रह्मा रुदन्तं प्रत्युवाच ॥ जॉरमें रौने और इधर-उधर दौडने लगा। उसे रोता
देस ब्रह्माजीने उससे पूछा-‘तू क्यों रोता है।” नाम देहीति तं सोऽयं प्रत्युवाच प्रजापतिः । ॥३॥ उसने कहा-“मेरा नाम रखो ।’ तय ब्रह्माजी रुद्रस्त्वं देव नाम्नासि मा रोदीधैर्यमावत् । बोले-‘ हैं देव ! तेरा नाम रुद्र हैं, अग तु मत रो, एखमुक्तः पुनः सोऽथ सप्तकृत्वो रुरोद वै ॥ ४ | धैर्य धारण कर।’ ऐसा कहनेपर भी वह सात बार और ततोऽन्यानि ददौ तस्मै सप्त नामानि वै प्रभुः । । शैया ॥ ४ ॥ तब भगान् ब्रह्माजींने उसके सात नाम और स्थानानि चैयामष्टानां पत्नीः पुत्रांश्च स प्रभुः ॥ ५ रखें; तथा उन आठोंक स्थान, लीं और पुत्र भी निश्चित भवं शर्वमथेशाने तथा पशुपतिं द्विज । किये ॥ ५॥ हे ब्रिज ! प्रजापतिने उसे क्य, शर्य, ईशान, भीममुर्म महादेवमुवाच स पितामहः ॥ ६ | पशुपति, भीम, इम और महादेव काका सम्बोधन किया ॥ ६॥ सही उसके नाम इवें और इनके स्थान भी निति चक्रे नामान्यथैतानि स्थानान्येषां चकार सः ।।
किये। सूर्य, जल, पृथिवी, वायु, अग्नि, आकाश, सूर्यो जस्ले मही वायुर्वद्धिराकाशमेव च ।।
[समें] दीक्षित माग और चन्द्रमाये क्रममा उनको दीक्षितो ब्राह्मणः सोम इत्येतस्तनवः क्रमात् ॥ ७ | मूर्तियां हैं। 5 ।। हे द्विश्रेष्ठ ! रुद्र आदि नामोके साथ उन सुवर्चला तथैवोषा विकेशी चापरा शिवा ।। | सूर्य आदि मूतिर्योक क्रमशः सुवर्चला, ऊषा, विकेशी, स्वाहा दिशस्तथा दीक्षा रोहिणी च यथाक्रपम् ॥ | अपरा, शिवा, स्वाहा, दिशा, दीक्षा और रोहिणी नामी सूर्यादीनां द्विश्रेष्ठ खाद्यैर्नामभिः सह ।।
पलियाँ हैं। है महाभाग ! अव उनके पुत्रोके नाम सुनो; पत्न्यः स्मृता महाभाग तदपत्यानि मे शृणु ॥ ६ ॥
उहाँक पुत्र-पौत्रादिकसे यह सम्पूर्ण जगत् परिपूर्ण हैं । ८–१० ।। शनैश्चर, क, लोहिताङ्ग, मनोजन, एषां सूतिप्रसूतियामिदमापूरितं जगत् ।। १० ॥
स्कन्द्, सर्गे, सन्तान और बुध–में क्रमशः उनके पुत्र है शनैश्चरस्तथा शुको मेक्षिताङ्गो मनोजवः ।।
॥ ११ ॥ ऐसें भगवान् कड़ने प्रजापति दक्षक अनिन्दिता स्कन्दः सर्गोऽय सन्तानों बुधश्चानुक्रमासुताः ॥ ११ | पुत्री सतीको अपनी भार्यारूपसे ग्रहण किया ॥ १३ ॥ है। एवंप्रकारों रुयोऽसौ सर्ती भायमनन्दिताम् । | द्विजसत्तम ! उस सतीने दक्षपर कुपित होने के कारण उपये दुहितर दक्षस्यैव प्रजापतेः ।। १२ | अपना शरीर त्याग दिया था। फिर वह मैनाके गर्भसे दक्षकोंपाच्च तत्याज सा सती स्वकलेवरम् ।
हिमाचलकी पुत्री (मा) हुई। भगवान् शंकाने इस हिमवद्दुहिता साऽभूमेनायां द्विजसत्तम ।। १३ ॥
अनन्यपरायणा उमासे फिर भी विवाह किया ॥ १३-१४ ॥
भृगुके द्वारा ख्यातिने धाता और विधातानामक दो उपयेथे पुनश्चोमामनयां भगवान्हरः ।। १४ ॥
देवताओंको तथा लक्ष्मीजीको जन्म दिया जो भगवान् देवौ घातृविधातारौ भूगोः ख्यातिरसूयते । | विष्णुकी पत्नीं हुई ।। १५ ॥ श्रियं च देवदेवस्य पत्री नारायणस्य या ।। १५| मैत्रेजी बोले-भगवन् ! सुना जाता है कि
मैत्रेय उवाच
लक्ष्मीजी तो अमृत-मन्थनके समय झर-सागरसे उत्पन्न क्षीराव्य श्रीः समुत्पन्ना मायनेमपन्थने।
हुई थीं, फिर आप ऐसा कैसे कहते हैं कि वे भृगुके द्वारा भूगोः ख्यात्यसमुत्पन्नेत्येतदाह कथं भवान् ॥ १६ ॥
यातिसे उत्पन्न हुई ।। ६६ ॥
भऑपराशरजी बोले-है हिंजोत्तम ! भगवान्का ऑपराशर उवाच ।
कभी संग न छोड़नेवाली जगजनी लक्ष्मीजीं तो नित्य ही नित्यैवेघा जगन्माता विष्णोः श्रीरनपायिनी।। हैं और जिस प्रकार, ऑविष्णुभगवान् सर्वव्यापक है वैसे हैं यथा सर्वगतो विष्णुस्तश्चैवेयं द्विजोत्तम ॥ १७ | ये भी हैं ॥ १७॥ विवा अर्थ हैं और ये वाणीं है, रिं अर्थो विष्णुरियं वाणी नीतिरेषा नयो हरिः। | नियम हैं और ये नीति हैं, भगवान् विष्णु बोध है और ये बोयो विष्णुरियं बुद्धिर्धर्मोऽसौ सक्रियान्वियम् ॥ १८ | बुद्धि हैं तथा वे धर्म हैं और ये सक्रिया है ॥ १८ ॥ हैं स्रष्टा विष्णुरियं सृष्टिः श्रीभूमिथरो हरिः ।।
मैत्रेय ! भगवान् जगत्के मष्टा है और लक्ष्मीजी सृष्टि है, और शुभर (पर्वत अधवा राजा) हैं और मौज भूमि सन्तोष भगवरलक्ष्मीस्तुष्टिमैनेय शाश्वती ॥ ११ हैं तथा भगवान् सन्तोष हैं और लक्ष्मीजी नित्-तुष्टि है इच्छा श्रीभगवान्कामों यज्ञोऽसौ दक्षिणा त्वियम्। । ॥ १९ ।। भगवान् काम हैं और लक्ष्मीजी इच्छा हैं, वे यज्ञ
आन्याहुतिरसौं देवीं पुरोडाशो जनार्दनः ।। २ | हैं और ये दक्षिणा हैं, श्रीजनार्दन पुरोडाश हैं और देवी विः पु. ३
पत्नीशाला मुर्ने लक्ष्मीः प्राग्वंशो मधुसूदनः । लक्ष्मीजी आज्याहत (घुक्की आहुति) हैं ॥ २० ॥ हैं चितिर्लक्ष्मीहरप इध्मा श्रीर्भगवान्कुशः ॥ २१ | मुने | मधुसूदन यज्ञमानगृह हैं और लक्ष्मीजी पत्नीशाला हैं, हर यूप है और लक्ष्मज्ञों चिति तथा भगवान् कुशा सामस्वरूपी भगवानुद्दीतिः कमलालया। | ३और समीजी इध्मा हैं ॥ ३१ ।। भगवान् सामस्वरूप हैं। स्वाहा लक्ष्मीर्जगन्नाथो वासुदेव हुताशनः ।। ३२ | और श्रीकमलादेन उड़ीति है, जगत्पति भगवान् वासुदेव शो भगवाञ्छौरिगौरी लक्ष्मीजोत्तम । | हुताशन हैं और लक्ष्मीजी स्वाहा हैं ॥ २२ ॥ है द्विजोत्तम ! मैत्रेय केशवः सूर्यस्तत्प्रभा कमलालया॥ ३३ ॥
भगवान् विष्णु शंकर हैं और श्रीलक्ष्मीजी गौरी हैं तथा है। मैत्रेय ! केशव सूर्य हैं और कमलवासिनी लक्ष्मीजी विष्णुः पितृगण: पद्मा स्वथा शाश्वतपुष्टिदा ।
जनक प्रभा हैं ।। ३३ ॥ श्रीचिम्मा पितृगण है और कमा द्यौः श्रीः सर्वात्यको विष्णुरबकाशोऽतिविस्तरः ॥ २४ | नित्य पुष्टिदायिनी स्वधा हैं, विष्णु अति विस्तीर्ण सर्वात्मक शशाः परः कात्तिः श्रीस्तथैवानपायिनी।।
अवकाश हैं और लक्ष्मीजी स्वर्गक हैं ।। ३४ ॥ भगवान् श्रीधर चन्द्रमा हैं और लक्ष्मीजी उनकी अक्षय कान्ति है, धृतिर्लक्ष्मीगचेष्टा घायुः सर्वत्र हरिः ॥ २५ ॥
हरि सर्वगामी वायु है और लक्ष्मी जगचेष्टा (जगतुकों जलपिजि गोविन्दस्तद्वेश श्रीर्महामुने गति) और धृति (आधार) हैं ॥ २५ ॥ ॐ महामुने ! लक्ष्मीस्वरूपमिन्द्राणी देवेन्झे मधुसूदनः ॥ ३६ | श्रीगोक्दि समुद्र हैं और है ब्रिज ! लमजी उसकी तरङ्ग यमश्चक्रधरः साक्षामोर्णा कमलालया। हैं, भगवान् मधुसूदन देवराज इन्द्र हैं और लक्ष्मीजीं इन्द्राणी हैं ॥ ३६ ।। चक्रपाणि भगवान् यम हैं और श्रीकमला ऋद्धिः श्रीः श्रीधरो देवः स्वयमेव धनेश्वरः ॥ २७ ॥
यमपली धूमणां हैं, आधिदेव श्रीविष्णु कुबेर हैं और गौरी लक्ष्मीर्महाभागा केशवो वरुणः स्वयम् ।। श्रीलक्ष्मीजी साक्षात् द्धि ॥ ३७॥ किशन्न स्वय श्रीदेवसेना विप्रेन्द्र देवसेनापतिः ।। २८ ॥ वरुण हैं और महाभागा मौजौ गौरी हैं, हे द्विजराज !
श्रीहरि देवसेनापति थामिकार्तिकन्य हैं और श्रीलक्ष्मीजी अवो गदापाणिः शक्तिलक्ष्मीद्विजोत्तम् ।।
देवसेना हैं ॥ ३८ ॥ हें हिंजोंत्तम ! भगवान् गदर, आश्रय का लक्ष्मीनिमेषोऽसौ मुहूर्ताऽसौ कला त्वियम् ॥ २९ ॥ हैं और लक्ष्मीजीं शक्ति है, भगवान् निमेय हैं और रूक्ष्मजी ज्योत्स्ना लक्ष्मीः प्रदीपोऽसौं सर्वः समारो हरिः । | काष्ठा है, वे मुहूर्त हैं और ये कल हैं ॥ २९ ॥ सर्वेश्वर ताभूता जगन्माता श्रीविष्णुईमसंजितः ।। ३०
सर्वरूप श्रीहरि दीपक हैं और श्रीलक्ष्मीजी ज्योति हैं, ऑविष्णु वृक्षरूप हैं और जगन्माता श्रीलक्ष्मौज लता हैं। विभावरी श्रीर्दिवसों देवश्चक्रगदाधरः ।।
॥ ३ || चक्रगदाधरदेव श्रीविष्णु दिन हैं और मौतों वरप्रदो वरों विष्णुर्वधूः पद्मवनालया ।। ३१ | रात्रि हैं, बरदायक श्रीहरि यर हैं और पद्मनिवासिनी नदस्वरूपी भगवानंदीरूपसंस्थिता ।।
लक्ष्मीजी चयू हैं ।। ३१ || भगवान्नद है और औज़ी नदी हैं, कमनपन भगवान् यता है और क न्या जश्च पुण्डरीकाक्षः पताका कमलालया ।। ३२ लक्ष्मीज़ी पता हैं ।। ३३ ॥ जगईश्वर परमात्मा नारायण तृष्णा लक्ष्मीर्जगन्नाथों लोभो नारायणः परः ।। भ हैं और लक्ष्मीजीं तुणा हैं तथा हे मैत्रेय ! अति और रती रागचे मैत्रेय लक्ष्मीर्गोविन्द एव च ॥ ३३ ग भौ साक्षात् श्रीलक्ष्मी और गोविन्दरूप में हैं ॥ ३३॥ किं चातिबहुनोलेन ३६- समझेपेणेदमुच्यते ॥ ३४||
३
अधिक क्या कहा जाय ? संपर्ने, यह कहना चाहिये कि देव, तिर्यक् और मनुष्य आदिमें पुरुषवाचीं भगवान् हाँ देवतिर्थमनुष्यादौ पुग्नामा भगवान्हरिः। 1हैं और स्त्रीवाचीं श्रीलक्ष्मीजीं, इनके परे और कोई नहीं स्त्रीनाम्नी श्रीश्च विज्ञेया नानयोर्विद्यते परम् ॥ ३५ ॥ है ।। ३४-३५ ॥
इति श्रीविष्णुपुराणे प्रथमेऽझे अष्टमोऽध्यायः ॥ ८॥
इवानके शापसे इन्का पराजय, ब्रह्माजीकी स्तुतिमें प्रसन्न हुए भगवान्का प्रकट कर देवताको समुद्र मन्थनका उपदेश करना तथा देवता और दैत्योंका समुद्र-मन्थन ऑपराशर उवाच पराशरजी बोले- मैत्रेय ! तुमने इस समय इदं च शृणु मैत्रेय यत्पृष्ठोऽहमिह त्वया । मुझसे जिसके विषयमें पूछा है यह श्रीसम्बन्ध औसम्वन्धं प्रयाप्येतच्छ्तमासीन्परीचितः ।। १ ॥ (लक्ष्मीज़ीका इतिहास} मैंने भी मचि ऋषिसे सुना था, दुर्वासाः शङ्करस्यांशश्चचार पृथिवीमिमाम् ।।
| | वह मैं तुम्हें माता हैं. [सावधान होकर] सुनो ॥ १ ॥
एक आर शंकरके अंशावतार श्रीदुर्वासाजी पृथिवीमें स झर्श नं दिव्यावर्किद्याधरीको ।। ३ ॥
विचर रहे थे। घूमते-घूमते उन्होंने एक विधायक हाथमें सन्तानकानामखिलं यस्या गच्चैन वासितम्।।
सत्ताक पुष्पोंको एक दिव्य माला देल्ली । ३ अन् । अतिसेव्यमभून् तद्वनं वनचारिणाम् ॥ ३ ॥ उसकी गन्धसे सुवासित होकर वह वन वनवासियोंके लिये उन्मत्तव्रतधृग्निप्रस्तां दृष्ट्वा शोभना क्जम् । । | अति सेवन हो रहा था ।। ३३ ।। तब उन उन्मत्त तां अयाचे वरारोहाँ विद्याधरवर्ष ततः ॥ ४ | वृत्तवाले विप्रवने वह सुन्दर माला देखकर उसे उस याचिता तेन तन्वङ्गी पाल विद्याधराङ्गना।
विद्याधर- सुन्दरीसे माँगा ।। ४ ।। उनके माँगनेपर, उस ददौ तस्मै विशालाक्षी सादरं प्रणिपत्य तम् ॥ ५ ॥
बड़े-बड़े नेत्रोंवाली कुशांग विद्याधरी ने आदरपूर्वक प्रणाम कर यह माला दे दी ॥ ५ ॥ तामादायात्मनो मूर्ध्नि क्जमुक्तरूपधृक् ।।
है मैनेय ! उन उन्मत्तवेषधारी विश्वरने उसे लेकर कृत्वा स विभो मैनेय परियभाम मेदिनीम् ।। ६ ॥
अपने मस्तकपर झाल लिया और पृथिवीपर विचरने स ददर्श तमायातमुन्मत्तैरावते स्थितम् ।। गें ॥ ६ ॥ इसी समय उन्होंने उन्मत्त प्रावतपर चढ़कर त्रैलोक्याधिपतिं देवं सह देवैः शचीपतिम् ॥ ७ | देवताओंके साथ आते हुए अँक्याधिपति शचीपति तामात्मनः स शिरसः जमुन्मत्तषट्पदाम् ।। इन्द्र देवा ।। । उन्हें देखकर मुनिवर दुर्वासाने
आदायामरराज्ञाय चिक्षेपोन्मत्तवन्मनः ॥ ८ | उनात्तके समान वह मतवाले भरोसे गुञ्जायमान माला गृह्यत्वाऽमरराजेन स्रगैरावतमूर्द्धनि ।।
अपने सिरपरसे उतारकर देवराज इनके ऊपर फेंक
दी ।। . ॥ वजने उसे लेकर ऐरागत मस्तकपर डाल न्यस्ता राज़ कैलासशिखरे ज्ञाद्वी यथा ॥ १
दी; उस समय वह ऐसी सुशोभित हुई मानो कैलास मदान्धकारिताक्षसौ गन्याकन वारणः ।।
पर्वतके शिवरपर आंगजी विराजमान हों ।। ५ । उस करेणाधाय चिक्षेप तां रुजं धरणीतले ॥ १० | मदोन्मत्त हाथीने भी उसको गन्धसे आकर्षित हो उसे ततश्चक्रोध भगवान्दुर्वासा मुनिसत्तमः ।। | इसे सैंपन्न पृथिवीपर फेंक दिया ॥ १६ ।। हे मैत्रेय ! मैत्रेय देवराजं तं कुद्धचैतदुवाच ॥ ॥ ११ | यह देम्मर मुनि श्रेष्ठ भगवान् दुर्वासाजी अति क्रोधित हुए दुर्वासा उवाच और देवराज इन्द्रसे इस प्रकार यो॥ ११ ॥ ऐश्वर्यमददृष्टात्मन्नतिस्तब्धोऽसि वासव।
दुर्वासाजीने कहा- अरे ऐश्वर्यके मदसे दूषितचित्त श्रियो धाम स्रजं यस्खे मद्दतां नाभिनन्दसि ।। १३ ॥
इन्द्र ! नू अड़ा नौंठ है, तूने मेरों दी हुई सम्पूर्ण शोभा धाम मालाका कुछ म अदर नहीं किया ! ॥ १३ ॥ प्रसाद इति नोक्तं ते प्रणिपातपुरःसरम्। ।
अरे ! तूने न तो प्रणाम करके ‘यो कृपा की ऐसा ही कह्म पौफुलकपोलेन न चापि शिरसा धृता ।। १३ ॥ और न हर्षसे प्रसन्नवदन होकर उसे अपने सिरपर ही मया दत्तामिमां मालां यस्मान्न वह मन्यसे ।। वा ॥ १३ ॥ ३ मुद्ध ! तूने मेरी दी हुई मालाका कुछ भी त्रैलोक्यश्रीरतों मूढ विनाशमुपयास्यति ।। १४ मूल्य नहीं किया, इसलिये तेरा त्रिलोकीका वैभव नष्ट से मां मन्यसे त्वं सदृशं नूनं शक्रेतद्विजैः । । जायगा ॥ १४ ॥ इन्द्र ! निश्चय हीं तू मुझे और ब्राह्मणोंके अतोऽवमानमस्मासु मानिना भवता कृतम् ॥ १५ | समान ही समझता है, इसलिये तुझ अति मानने हमारा ना सना शाला के | इस प्रकार, अपमान किया है ॥ १५ ॥ अच्छा, तूने मेरों दी तस्मात्मणष्टलक्ष्मीकं त्रैलोक्यं ते भविष्यति ॥ १६ ॥
हुई मालाको पृथिवीपर फेंका हैं इसलिये तेरा यह त्रिभुवन भो म ही लहान हो जायगा ।। १६ ।। ३ देश ! यस्य सानाकोपस्य भयमति चराचरम्। |जसके कद होनेपर सम्पर्ण चराचर जगत भयभीत हो तं त्वं मामतिगण देवावमन्यसे ।। १७ | जाता है उस मेरा ही तूने अति गर्थसे इस प्रकार अपमान आँपटाशर उवाच । किया ! ।। १३ ।। महेन्द्रको वारणस्थादवतीर्य स्वरान्वितः ।। श्रीपराशनी बोले–तब त इन्द्रने तुरत है। प्रसादयामास मुनि दुर्वाससमकल्मषम् ॥ १८ | ऐरावत हाथीसे उतरकर निष्पाप मुनिवर दुर्वासाजको प्रसाद्यमानः स तदा प्रणिपातपुरःसरम् ।।
अनुनय-विनय क्र] प्रसन्न किया ॥ १८ ॥ तब उसके इत्युवाच सहस्राक्ष दुर्वासा मुनिसत्तमः ॥ ११ ॥
णामादि करनेसे प्रसन्न होकर मुनिश्रेष्ठ दुर्वासाजी उससे | इस प्रकार कहने लगे ।। १६ ।। | इस उवाच
दुर्वासाजी बोले-इन्द्र ! मैं कृपालु-चित्त नहीं हैं, नाहं कृपालुहृदयो न च मां भजते क्षमा ।।
मेरे अन्तःकरणमैं क्षमाको स्थान नहीं हैं। वे मुनिजन तों अन्ये ते मुनयः शक्र दुर्वाससमवेहि माम् ॥ ३६ | और ही हैं, तुम समझो, मैं तो दुर्वासा हैं न ? ॥ २० ॥ गौतमादिभिरन्यैस्त्वं गर्वमारोपितो मुधा। गौतमादि अन्य मुनिजनन व्यर्थ हीं तुझे इतना मुँह लगा अक्षान्तिसारसर्वस्वं दुर्वाससमवेहि माम् ॥ २१ | लिया है, पर याद रख, मुझ दुर्वासाका सर्वस्त तो क्षमा न वसिष्ठाद्यैर्दयासारैस्स्तोत्रं कुर्वद्भिरुच्चकैः ।।
करना ही है ॥ ३१ ।। दयामूर्ति वसिष्ठ आदिके अळू-बढ़ना गर्व गतोऽसि यैनैवं मामष्यद्यावमन्यसे ।। २२ ।
तुति करनेसे तू इतना गर्मीला हो गया कि आज मेरा भी अपमान करने चश हैं ॥ ३३ ।। अरे ! आज त्रिलोक ज्वल-जटाकलापस्य भृकुटीकुटिलं मुखम् ।
ऐसा कौन हैं जो मेरे प्रज्वलित जटाकलाप और टेढ़ीं निरीक्ष्य कखिभुवने मम यों ने गतो भयम् ॥ २३ | भृकुटिको देकर भयभीत न हो जाय ? ॥ २३ ॥ ३ नाहं क्षमध्ये बहुना किमुक्तेन शतक्रतो । । झारफ़तों ! तू बारम्बार अनुनय-विनय कनैका हौंग क्यों विडम्बनाममा भूयः करोष्यनुनयापिकाम् ॥ २४ | करता हैं ? तेरे इस कहने सुननेसे क्या होगा? मैं दामा
प्राइम ब्यान्न ।
नहीं कर सकता ।। ३ ।। इत्युक्त्वा प्रययौ विप्रो देवराजोपं नं पुनः ।।
पराशरजी बोले-हे अन् ! इस प्रकार कड़ आहौरावतं ब्रह्मन् प्रययाबमरावतीम् ॥ २५
वे प्रिवर वहांसे चल दिये और इन्द्र भी घेरावतपर चढ़कर अमरावतीने चले गये ॥ ३५ ॥ हैं मैनेय ! तभीसे इन्के ततः प्रभूत निःश्रीकं सशक्ल भुवनत्रयम्। | सहित तीनों लोक वृक्ष सता आदिके क्षीण हो जानेसे मैत्रेयासीदपध्वस्तं सीणौषधियीरुधम् ॥ २६ | ऑहीन और नष्ट-भ्रष्ट झेने लगे ॥ २६ ॥ तबसे यज्ञोंका न यज्ञाः समर्नत न तपस्यत्ति तापसाः ।। | होना बन्द हो गया, तपस्वियोंने तप करना ज़ेड़ दिया तथा ने छ दानादिधर्मेषु मनश्चक्रे तदा जनः ॥ २७ ॥
रोगमा दान द ब धन न । निःसत्त्वाः सकला लोका लोभाद्युपतेन्द्रियाः।
द्विोत्तम ! सम्पूर्ण एक एलोभादिके वशीभूत हो जानेसे सत्यान्य सामर्थ्यहीन हो गयें और तुच्छ सम्भक स्वल्पेऽपि हि बभूवुस्ते साभिलाषा द्विजोत्तम ।। २८
ये भी लगत रहने लगे ॥ २८ ॥ जहाँ सत्त्व होता है। यतः सर्वं ततो लक्ष्मीः सत्त्वं भूत्यनुसारि च । | वहीं लक्ष्मी रहती है और सत्य भौं लक्ष्मीका ही साशी है। निःश्रीकाणां कुतः सत्वं विना तेन गुणाः कुतः ।। ३९ | श्रीहीनोंमें भला सत्त्व कहाँ ? और बिना सत्त्वके गुण
प्रथम अंश
बलशौर्यायभावश्च पुरुषार्णा गुणैर्विना । । कैसे ठहर सकते हैं? ॥ २९ ।। बिना गुणोंके पुरुषमें बल, लनीयः समस्तस्य बलशौविवर्जितः ॥ ३० | शौर्य आदि सभीका अभाव हो जाता है और निर्बल तथा भवत्यपध्वस्तमतिर्लङ्कितः प्रथितः पुमान् ॥ ३१ ॥
अशा पुरुष सभीसे अपमानित होता हैं ।। ३३ ॥ अपमानित एवमयन्तनिके त्रैलोक्ये सत्ववजिते । होनेपर प्रतिष्ठित पुरुषकी बुद्धि बिगड़ जाती है ॥ ३१ ।।
इस प्रकार विलकके श्रीहीन और सत्यरहित हों देवान् प्रति बलोद्योगं चक्रुदतेयदानवाः ॥ ३२ | ज्ञानेपर दैत्य और दानवोंने देवताओंपर चढ़ाई कर दी लोभाभिभूता नि:श्रीका दैत्या: सत्चविवर्जिताः । | ॥ ३२ ॥ सत्त्व और वैभवने शून्य होनेपर भी दैत्याने श्रिया विहीनर्निःसत्त्वैर्देवैश्चकुस्ततो रणम् ॥ ३३ | लोभवश निःसत्त्व और श्रीहीन देवताओंमे घोर युद्ध ठाना विजितात्विदशा दैत्यैरिन्दराद्याः शरणं ययुः ॥ ३३॥ अन्तमें दैत्योंदाग्र देवयाग पग्रस्त हुए। तब | पितामई महामार्ग हुताशनपुरोगमाः ।। ३४ ॥
इन्द्रादि समस्त देवगण अग्निदेवको आगे कर महाभागा पितामह ओब्रह्माजीकी शरण गये ।। ३४ ॥ देवताओं यथावत्कथितो देवब्रह्मा प्राह ततः सुरान् । | सम्पूर्ण वृत्तान्त सुनकर श्रीब्रह्माजीने उनसे कहा, ‘हे परावरेशं शरणं ध्वमसुरार्दनम् ।। ३५ देवगण ! तुम दैत्य-न परायरेश्वर भगवान् विष्णुकीं उत्पत्तिस्थितिनाशानामहेत हेतमीश्वरम् । । शरण जाओ, जो [आपसे) संसारकी उत्पत्ति, स्थिति प्रजापतिपति विष्णुमनन्तमपराजितम् ॥ ३६ ॥ और संहारके कारण है कि वासावमै] कारण भी नहीं हैं और जो चराचरके ईश्वर, अजापतियोंके स्वामी, प्रधानपुंसोजयोः कारणं कार्यभूतयोः । मच्यापन अनन्त और आज्ञेय है तथा व अन्य कित्त प्रणतार्निहर विष्णु स वः श्रेय विधास्यति ।। ३७ ॥कार्यरूपमें परिणत हुए प्रधान (मूलप्रकृति) और पुरुषके श्रीपराशर याच कारण हैं एवं मणागतवत्सल हैं। [शरण जानेपर्] वें एवमुक्त्वा सुरान्सर्वान् ब्रह्मा लोकपितामहः अवश्य तुम्हारा मङ्गल करेंगे’ ॥ ३५-३५ || क्षीरोदस्योत्तरे तीर तैरेव सहितो ययौ ।। ३८ श्रीपराशरजी बोले-हे मैत्रेय ! सम्पूर्ण देवगणों से स गत्वा त्रिदशैः सर्वैः समवेतः पितामहः ।।
इस प्रकार कह लोकपितामह बह्माजी भी उनके साथ क्षीरसागरके अत्तरीं तटपर गये ॥ ३८ ॥ वहाँ तुष्टाव वाग्भिरिष्टाभिः परावरपति इरिम् ॥ ३९
पहुँक्कर पितामह हाजीने समस्त देयताओके साथ ब्रह्मोवाच ।
पवरनाथ श्रीविष्णुभगवान्की अति मङ्गलमय वाक्यसे नमामि सर्वं सर्वेशमनन्तमजमव्ययम् । स्तुति की ॥ ३६॥ का है लोकधाम अराधारमप्रकाशमभेदिनम् ॥ ४७ ब्रह्माजी कहने लगे–जो समस्त अणुओंसे भौं नारायणमणीयांसमशेषाणामणीयसाम् । म और पृथिवी आदि समस्त गुरुओं ( भारी पदार्थों में समस्तान गरिष्ठं च भूरादीनां गरीयसाम् ।। ४१ | | भी गुरु (भारी) हैं उन निस्विलोकविश्राम, पृथिवीके अन्न सर्वं यतः सर्वमुत्पन्नं मत्पुरःसरम् ।
आधारस्वरूप, अकाश्ग, अभेद्य, सर्वरूप, सर्वेश्वर,
अनन्त, अज्ञ और अव्यय नारायणको मैं नमस्कार करता हूँ सर्वभूतश्च यो देवः पराणामपि यः परः ॥ ४२ |
॥ ४३०-४१ ।। मेरेसहित सम्पूर्ण जगत् जिसमें स्थित हैं, परः परस्मात्पुरुषात्परमात्मस्वरूपधृक् । जिससे उत्पन्न हुआ है और जो देव सर्वभूतमय है तथा जो योगिभिश्चिन्यते योऽसौ मुक्तिहेतोर्मुमुक्षुभिः ।। ४३| पर (प्रधानादि) में भी पर है, जों पर मषसे भी पर हैं, सच्चादयो न सन्तीशे यत्रच प्राकृता गुणाः ।।
मुक्ति-लाभके लिये मोक्कामी मुनिजन जिसका ध्यान भरते स शुद्धः सर्वज्ञहेयः पुमानाद्मः प्रसीदतु ।। ४४ ॥
हैं तथा जिस ईश्वरमें क्वादि प्राकृतिक गुणों सर्वथा अभाव है वह समस्त शुद्ध पदार्थोंसे भी परम शुद्ध कलाकाष्ठामुदिकालसूत्रस्य गोचरें।
परमात्मस्वरूप आदिपरुष हमपर प्रसन्न ॐ ॥ ४३–४ || यस्य शक्तिर्न शुद्धस्य स नो विष्णुः प्रसीदतु ॥ ४५ | जिस शुद्धस्वरूप भगवान्की शक्ति (विभूति) क
श्रीविष्णुपुराण प्रोच्यते परमेशो हि यः शुद्धोऽप्युपचारतः । । काष्ठा और मुहर्न आदि काल-क्रमका विषय नहीं है, वें प्रसीदतु स नो विष्णुरात्मा यः सर्वदेहिनाम् ॥ ४६ भगवान विष्णा हमपर प्रसन्न हो । ४६ ।। जो शवलाप होकर भी उपचारसे परमेश्वर (परमा-मामी यः कारणं च कार्य च कारणस्यापि कारणम् ।
ईश्व-पति) अर्थात् पनि कहलाते हैं और जो कार्यस्यापि च यः कार्य प्रसीदतु स नो हरिः ॥ ४७ | समस्त देहधारियोंके आत्मा हैं वे श्रीविष्णुभगवान् दमपर
प्रसन्न हों ।। ४६ ॥ जो कारण और कार्य है तथा कार्यकार्यस्य यत्कार्य तत्कार्यस्यापि यः स्वयम् ।।
कारण भौं कारण और कार्यके भी कार्य है वे हर तत्कार्यकार्यभूतो यस्ततश्च प्रणताः स्म तम् ॥ ४८ ॥
इमार प्रसन्न हों ॥ ४ ॥ ज्ञों कार्य (महत्व) के कार्ग कारणं कारणस्यापि तस्य कारणकारणम् ।। (अहंकार) का भी कार्य तन्मात्रापश्चक) हैं जक्के कार्य
(भूतपञ्चक) का अर्थ (ब्रह्माण्ड जो स्वयं हैं और जो तत्कारणानां हेतुं तं प्रणताः स्म परेश्वरम् ॥ ४९ ॥ उसके कार्य (झह्मा-दक्षादि) का भी कार्यभूत भोक्तारं भोम्यभूतं च स्रष्टा सून्यमेव च । (प्रजापनियोके पुत्र-पौत्रादि) है उसे हम प्रणाम करते हैं। कार्यकर्तस्वरूपं तं प्रणताः स्म परं पदम् ॥ ५० ॥
॥ ४ ॥ तथा जो ज्ञागके कारण (ब्रह्मादि का कारण (ब्रह्माण्ड) और उसके कारण (भूतपक) के कारण विशुद्धबोधवन्नित्यमजमक्षयमव्ययम् । (पञ्चतन्मात्रा) के कारणों ( अहंकार-महत्त्वादि) का भी अव्यक्तमविकारं यत्तद्विष्णोः परमं पदम् ।। ५१ | हेतु (मूलप्रकृति) हैं उस परमेश्वरको हुम प्रणाम करते
हैं ।। ४६, ।। ज़ों मोक्ता और भोग्य, स्रष्टा और सृज्य तथा ने स्थूलं न च सूक्ष्मं यन्न विशेषणगोचरम्।
कर्ता और कार्यरूप स्वयं हीं हैं उस परमपदक हम प्रणाम तत्पदं परमं विष्णोः प्रणमामः सदामलम् ।। ५२ | करते हैं ॥ ५० || जो विशुद्ध बोधस्वरूप, नित्य, अजन्मा, अक्षय, अव्यय, अव्यक्त और अविकारी है वहीं विष्णका यस्यायुतायुतांशांशे विश्वशक्तिरियं स्थिता ।।
मपद्ध (पस्नप) है ।। ५१ ॥ जो न भूल है न सूक्ष्म परामस्वरुप प्रणमामस्तमव्ययम् ॥ ५३ | और न किसी अन्य विशेषणका विषय हैं वहीं भगवान् । यद्योगिनः सदोद्युक्ताः पुण्यपापक्षयेऽक्षयम् ।
| चमका निय-निर्मल पम्पद है, हम उसको प्रम करने हैं ॥ ५३ ।। जिसके अयुतांश (दस बार भंश के पश्यति प्रणवे चिन्त्यं तद्विष्णोः परमं पदम् ।। ५४ अयुतमें यह विश्वरचनाकी का ति है तथा जो यन्न देवा न मुनयो न चाहं न च शङ्करः । परब्रह्मस्वरूप हैं उस अव्ययको हम प्रणाम करते हैं ज्ञाननि परमेशस्य नदियोः परमं पदम् ॥ ५५ ॥ ५३॥ नित्य युक्त योगिगण अपने पुण्य-पापादिका क्षय को आनेपर कारद्वारा चिन्तनीय शिस अविनाश शक्तयो यस्य देवस्य ब्रह्मविष्णुशिवात्मिकाः ।। पदा साक्षात्कार करते हैं नहीं भगवान् विष्णुका परमपद भवन्त्यभूतपूर्वस्य तद्विष्णोः परमं पदम् ।। ५६ | हैं ॥ ५४ ।। जिसको देवगण, मुनगण, शंकर और मैं कोई भी नहीं जान सकते वही परमेश्वर श्रीविष्णुका परमपद सर्वेश सर्वभूतात्मन्सर्वं सर्वाश्रयाच्युत ।
है ॥ ५५ ।। जिस अभूतपूर्य को ब्रह्मा, विष्णु और प्रसीद विष्णो भक्तानां क्वज नो दृष्टिगोचरम् ।। ५७ | शिवरूप शक्तियाँ हैं वहीं भगवान् विष्णुका परमपद
– श्रींपराशर उवाच । | है । ५६ ॥ हे सर्वेश्वर ! हे सर्वभूतात्मन् ! हे सर्वरूप ! है इत्पुदीरितमाकार्य ब्राह्मणस्त्रिशास्ततः । । | सर्वाधार । ई अच्युत ! हैं बिग ! म भनेपर प्रसन्न प्रणम्योचुः प्रसीदति क्वज़ नो दृष्टिगोचरम् ॥ ५८ हॉकर, हमें इन दौजिये ॥ ५७ || | श्रीपराशरजी बोले-अह्माजीके इन उद्गारोक्ने यन्नायं भगवान् ब्रह्मा जानाति परमं पदम्। | सुनकर देवगण भी प्रणाम करके बोले- ‘प्रभो ! हमपर तन्नताः स्म जगद्धाप तव सर्वगताच्युत ॥ ५९ | प्रसन्न होकर में दर्शन दौजिये ।। ५८ ॥ हे जगाम
झ्यन्ते वचसस्तेषां देवानां ब्रह्मणस्तथा। । सर्वगत अच्युत ! जिसे ये भावान् ब्रह्माजीं भी नहीं जानते, ऊचुर्देवयस्सर्वे बृहस्पतिपुरोगमाः ॥ ६० | आफ्के उस परमपदको हम प्रणाम करते हैं । ५९ ।। आद्यो यज्ञपुमानीयः पूर्वेषां अश्च पूर्वजः।
तदनन्तर ब्रह्मा और देवगणोंके बोल चुकने तन्नताः स्म जगत्त्रष्टुः स्रष्टारर्माविशेषणम् ॥ ६१ | बृहस्पति आदि समस्त देवगण कहने लगे ॥ १० ॥
जो परम स्तवनय आद्य यज्ञ-पुरुष हैं और पूर्वके भी भगवन्भूतभव्येश यज्ञमूर्तिधराव्यय ।।
पूर्वगुण हैं उन जगत्के रचयिता निर्विशेष परमात्माको हम प्रसीद प्रणतानां त्वं सर्वेषां देहि दर्शनम् ॥ ६२ | नमस्कार करते हैं ।। ६१ ।। है भूत-भव्येश यज्ञमूर्निचर एष ब्रह्मा सहास्माभिः सहरुद्वेस्त्रिलोचनः ।। भगवन् ! हे अश्यय | हम सब शरणागतपर आप प्रसन्न सर्वोदित्यैः समं पूषा पावकोऽयं सहाग्निभिः ।। ६३
| होइये और दर्शन दीजिये ॥ ६३ ।। हे नाथ ! हमारे सहित में ब्रह्माजी, कॉक सहित भगवान् शंकर, मारहों अश्विनौ वसवचेमे सर्वे चैते मरुद्गणाः ।
आदिल्योंके सहित भगवान् पूषा, अग्नियोंके सहित पावक साध्या विचे तथा देवा देवेन्द्रश्चायमीश्नरः ।। ६४ और ये दोनों अश्विनीकुमार, आठों वसु, समस्त मरुद्रण, प्रणामप्रवणा नाथ दैत्यसैन्यैः पराजिताः ।। साध्यगण, विश्वेदेव तथा देशराज इन्द्र ये सभी देवगण शरणं वामनुप्राप्ताः समस्ता देवतागणाः ।। ६५ | दैत्य-सेनासे पराजित होकर अति प्रणत हों आपकी ऑपराम उवाच शामें आये हैं” ।। ६३-६, || एवं संस्तूयमानस्तु भगवाछचक्रधृक् । श्रीपराशजी बोले-हे मैत्रेय ! इस प्रकार स्तुति जगाम दर्शन ते मैत्रेय परमेश्वरः ।। ६६ ॥
किये जानेपर शैश चक्रधारी भगवान् परमेश्वर उनके सम्मुख प्रकट हुए ।। ६६ ।। तब उस स्त्र-चक्रगदाधारी तं दृष्ट्वा ते तदा देवाः शङ्खचक्रगदाधरम् ।
उत्कृष्ट तेजोराशिमय अपूर्व दिव्य मूर्तिको देखकर पितामह अपूर्वरूपसंस्थानं तेजस राशिमूर्जितम् ॥ ६७ | आदि समस्त देवगण अति विनयपूर्वक प्रणामकर प्रणम्य प्रणताः सर्वे संक्षोभस्तिमितेक्षणाः । क्षोभवश चकित-नयन हो उन कमलनयन भगवान् तुवुः पुण्डरीकाक्षं पितामहपुरोगमा: ।। ६८ स्तुति करने लगे ॥ ६५-६८ ॥
देसागण बोले-हैं प्रभो ! आपक। नगरकार हैं, | देवा ऊचुः नमस्कार है। आप निर्विरोष हैं तथापि आप ही ब्रह्मा हैं, नमो नमोऽविशेषस्त्वं त्वं ब्रह्मा त्वं पिनाकधृक् ।। आप ही शंकर हैं तथा आप ही इन्द्र, अग्नि, पवन, वरुण, इन्द्रस्त्वमग्निः पचनों वः सविता अमः ॥ ६९ ॥ सर्स और यमराज हैं ॥ ६ ॥ हें देव ! ब्रसाण, मरण, वसवो मरुतः साध्या विश्वेदेवगणाः भवान्। साध्यगण और विश्वेदेवगण भी आप ही हैं तथा आपके योज्यं तवाग्रतो देव समीपं देवतागणः । सम्मुख जो यह देवसमुदाय हैं, है जगत्वष्टा ! वह भी स त्वमेव जगत्स्रष्टा यतः सर्वंगतो भवान् ।। ७ | त्वं यज्ञस्त्वं वषट्कारस्वमोसरः प्रजापतिः । ही यज्ञ है, आप ही वषकार हैं तथा आप में और और प्रजापति हैं। हे सर्वातान् ! विद्या, वैद्य और सम्पूर्ण विद्या वेयं च सवमिंस्त्वमार्य चाखिलं जगत् ।। ५१ | जगत् आपका स्वरूप वो है ॥ १ ॥ हे विष्णो ! वामान्तः शरणं विष्णो प्रयाता दैत्यनिर्जिताः । | दैत्योंसे परास्त हुए हम आतुर होकर आफ्को शरणमें आयें क्यं प्रसीद सर्वात्मतेजसाप्याययस्व नः ।। ७२ हैं; हे सर्वस्वरूप ! आप हमपर प्रसन्न होइये और अपने तावदार्तिस्तथा वाञ्छा तावपोहस्तथासुखम् ।।
नेजमें हमें सशक्त कीजिये || २ ।। हे प्रभो ! अबतक 1 बीच सम्पूर्ण पापको नष्ट करनेत्रा आपकी में नहीं यावन्न याति शरणं त्यामशेषानाशनम् ॥ ७३ ॥ जाता तभीतक उसमें दीनता, इचा, मोह और दुःख दि त्वं प्रसादं प्रसन्नात्मन् प्रपन्नानां कुरुवा नः । । रहने हैं ॥ १३ ॥ हे प्रसन्नात्मन् ! हम शरणागतोंपर आप तेजस नाथ सर्वोच्च स्वशक्त्याप्यायनं कुरु ॥ ७४ | प्रसन्न होइये और हे नाथ ! अपनी शक्तिको हम सब
श्रीविष्णुपुराण
अंपगार याच देवताओंके [ सोये हुए ] तेजको फिर बढ़ाइये ॥ ४ ॥ एवं संस्तूयमानस्तु प्रणतैरमरैहरिः । । श्रीपराशरजी बोले-त्रिनौत देवताओद्वारा इस प्रसन्नदर्भगवानिदमाह स विश्वकृत् ॥ ७५ | प्रकार स्तुति किये जानेपर विश्वकर्ता भगवान् हरि प्रसन्न तेजसो भवतां देवाः करिष्याम्युपबृंहणम् । होकर इस प्रकार बोले- ॥ ५५ ॥ हे देवगण ! मैं तुम्हारे तेजको फिर बढ़ाऊँगा; तुम इस समय मैं जो कुछ कहता हूँ। वदाम्यहं सक्रियता भवद्भिस्तदिदं सुराः ॥ ७६ ॥वह करो ॥ ३६ || तुम दैत्योंके साथ सम्पूर्ण ओषधयाँ आचार्य साना दन्यः क्षाराच्या संकल्पः । | लाकर अमृतके लिये क्षीर-सागरमें हो और प्रक्षिप्यान्नामृतार्थ ताः सकला दैत्यदानवैः । मन्दराचलको मथानी तथा वासुकि नागको नेती बनाकर मन्थार्न मन्दरं कृत्वा नेत्रं कृत्वा च वासुकिम् ॥ ७७ | उसे दैत्य और दानवोंके सति मे] सहायतासे मथकर मथ्यताममृतं देवाः सहाये मय्यवस्थिते ॥ ७८ | अमृत निकाल || 135-15८ ॥ माग सामनतिका | अवलम्बन कर त्योंसे कहा कि इस काममें सहायता सामपूर्वं च दैतेयास्तत्र साह्मव्यकर्मणि ।। करने में आपलंग भी इसके फलमें समान भाग पायेंगे सामान्यफलभोक्तारो यूयं वाच्या भविष्यथ ॥ ७९ ॥ ७९ ॥ समुद्र मंथनेपर उससे जो अमृत निकलेगा। मथ्यमाने च तत्राब्यौ यसमुत्पत्स्यतेऽमृतम् ।। उसका पान करनेसे तुम सबल और अमर हो जाओगे तत्यानाइलिनो यूयममराको भविष्यश्च ॥ ८० | ॥ ८ ॥ हे देवगण ! तुम्हारे लिये मैं ऐसी युक्ति करूंगा। तश्चा चाहं करिष्यामि ते यथा निंदशषिः ।।
जिससे तुम्हारे द्वैषी है अमृत न मिल सकेगा। न प्राप्स्यन्त्यमृतं देवाः केवलं केशभागिनः ॥ ८१ | और उनके हिस्सेमें केवल समुद्र मन्थनका केश ही ऑपराझार
= इत्युक्ता देवदेवेन सर्व एव तदा सुराः ।।
श्रीपराझी बोले-तब देवदेव भगवान् विलगुके ऐसा कहनेपर सभी देवगण दैत्योंसे सन्धि सानमसुरैः कृत्वा यवतोऽमृतेऽभवन् ॥ ८२ | | करके अमृतप्राप्तिके लिये यन्न करने लगे ॥ ४२ ॥ हैं। नानौषधीः समानीय देवदैतेयदानवाः । | मैत्र्य | देव, दानव और दैत्योंने नाना प्रकारकी । क्षिप्त्वा क्षीराधिपयसि शरदभ्रामलत्विर्षि ।। ८३ | ओषधियाँ लाकर उन्हें रद्-ऋतुके आकाशकी-सी मन्थानं मन्दरं कृत्वा नेत्रं कृत्वा च वासुकिम्। | निर्मल कान्तिवाले क्षीर-सागरके जलमें डाला और ततो मथितुमारी मैत्रेय तरसाऽमृतम् ॥ ८४ मन्दरा | | मन्दराचलकों मथानी तथा वासुकि नागको नेती बनाकर विबुधाः सहिताः सर्वे यतः पुच्छं ततः कृताः ।।
| बड़े बैंगसे अमृत मथना आरम्भ किया ।। ८३-८४ ॥ भगवान्ने जिस ओर वासुकिकी पूँछ थी उस ओर कृष्णेन वासुकेर्दैत्याः पूर्वकाये निवेशिताः ।। ८५
| देवताओंको तथा जिस ओर मुख या घर दैत्यको ते तस्य मुखनिश्वासवह्नितापद्दतत्विषः। नियुक्त किया ।। ८.५५ ।। महातेजस्वी वासुकिके मुखसे निस्तेजसोऽसुराः सर्वे बभूवुरमितौजसः ।। ८६ | निकलते हुए निःश्वासामिसे झुलसकर सभी दैत्यगण तेनैव मुखनिश्वासवायुनास्तबलाहकैः ।।
निस्तेज हो गये ।। ८६ । और उसी आस-वायुसे विक्षिप्त पुछप्रदेशे वर्षांभस्तदा चाप्यायिताः सुराः ।। 2G | हुए मेवोके पूँछकी और बरसते रहुनेसे देवताओंकी
| शक्ति बढ़ती गयी ।। ८ ॥ क्षीरोदमध्ये भगवान्कर्मरूपी स्वयं हरिः ।।
हे महामुने ! भगवान् स्वयं कूर्मरूप धारण कर क्षीर मन्थनाधिष्ठाने अमताभूमहामुने ।। ८८ सागरमें घूमते हुए मन्दराचलके आधार हुए ॥ ८८ ॥ और रूपेणान्येन देवानां मध्ये चक्रगदाधरः । | वे ही चक्र-गदाधर भगवान् अपने एक अन्य रूपसे चकर्ष नागराजानं दैत्यमध्येपरेण च ।। ८९ | देवताओंमें और एक रूपसे दैत्योंमें मिलकर नागराज बम अशा उपर्याक्रान्तवाञ्छेलं बृहद्भूपेण केशवः ।। | चने लगे थे ।। १ ।। नया हे मैत्रेय ! एक अन्य विशाल तथापरेण मैत्रेय यन्न दृष्टं सुरासुरैः । ९० | रूपसे जो देवता और दैत्योंको दिखायी नहीं देता था, तेजसा नागराजानं तथाप्यायितवान्हरः ।। श्रीकेशवने कापरसे पर्चतको दया रखा था ॥ १० ॥ भगवान् श्रीहरि अपने तेजाको नागजा वासुकि मैं बलका सञ्चार करते अन्येन तेजसा देवानुपतिवान्प्रभुः ।। ११ | | थे और अपने अन्य तेजसे वे देवताओंका बल बल्ल मथ्यमाने ततस्तस्मिन्क्षीराब्यौ देवदानवैः । रहे थे । ११ ।। हवर्धामाऽभवत्पूर्व सुभिः सुरपूजिता ॥ १३ | इस प्रकार, देवता और दानवद्वारा क्षीर-समुद्रके जमदं ततो देवा दानवाचे महामने । | मधे ज्ञानपर पहले हवि (यज्ञ-सामप) की आश्रयरूपा
सुरपूजिता कामधेनु उत्पन्न हुई ।। ६३ ।। हे महामुने ! इस च्याक्षिप्तचेतसचैव बभूवुः स्तिमितेक्षणाः ॥ ९३ ॥
समय देव और दानवगण न आनन्दित हुए और किमेतदिति सिद्धानां दिविचिन्तयतां ततः ॥ उसकी ओर चित्त ब्लिच जानेसे उनकी टकटको बँध गयीं। बभूव वारुणी देवी मदाधूर्णितलोचना ॥ ९४ | ॥ १३ ।। फिर स्वर्गलोकमें ‘यह क्या है? यह क्या है ? कृतावर्तात्ततस्तस्मात्क्षीरोदाद्वासयञ्जगत् ।। इस प्रकार चिन्ता करते हुए सिके समक्ष मदसे मते गधेन पारिजातोभदेवत्रीनन्दनस्तकः ॥ १५
हुए नेञवाली वारुणीदेवीं प्रकट हुई । १४ || ऑन पुनः
मन्थन करनेपर उस क्षीर-आगरसे, अपनी गन्मसे रूपौदार्यगुणोपेतस्तथा चाप्सरसां गणः त्रिलोकीको सुगन्धित करनेवाला तथा सुर-सुन्दरियोंका क्षीरोदधेः समुत्पन्नो मैत्रेय परमातः ॥ १६ | आनन्दसक कल्पवृक्ष उत्पन्न हुआ ॥ १५ ॥ हे मैत्रेय ! ततः शीतांशुरभवनगृहे तं महेश्वरः । । तत्पशात् क्षीर-सागरसे रूप और उदारता आदि गुणोंसे जगृश्च विवं नागाः क्षीरोदाब्धिसमुत्थितम् ॥ १७ ॥
युक्त अति अद्भुत अप्सराएँ प्रकट हुई ॥ ६६ ।। फिर चन्द्रमा प्रकट हुआ जिसे महादेचजीने प्रहण कर लिया। ततौ धन्वन्तरिदेवः श्वेताम्बरधरस्वयम् ।
इसी प्रकार दीर-सागरसे उत्पन्न हुए विषको नागने मण बिभ्रत्कमण्डलु पूर्णममृतस्य समुन्यितः ॥ १८ किया ।। ६७ || फिर चेतनधारी साक्षात् भगवान् ततः स्वस्थमनस्कास्ते सर्वे दैतेयदानवाः । | धन्वन्तरिजीं अमृतसे भय कमण्डलु लिये प्रकट बभूवुर्मुदिताः सर्वे मैत्रेय मुनिभिः सह ।। ९९ ॥
हुए । ६८ || हे मैत्रेय ! उस समय मुनिगणके सहित समस्त दैत्य और दानवगण स्वस्थ-चित्त होकर अनि ततः स्फुरत्कातिमती विकासिकमले स्थिता ।।
प्रसन्न हुए ॥ ११ ॥ श्रीदेवी पयसस्तस्माद्दूना धृतपङ्कजा ।। १०% | उसके पश्चात् विकसित कमलपर विराजमान तां तुवर्मदा युक्ताः श्रीसूक्तेन महर्षयः ॥ १०१ स्फुटकान्तमय श्रीलक्ष्मीदेवीं हाथोंमें कमल-पुथ्य धारण विश्वावसुमुखास्तस्या गन्धर्वाः पुरतों जगुः । | किये क्षीर-समुद्रसे प्रकट हुई ॥ १० || उस समय
महर्षिगण अति प्रसन्नतापूर्वक श्रीसूक्तद्वारा उनकी स्तुति घृताचीप्रमुखास्तत्र ननृतुश्चाप्सरोगणाः ॥ १०३ ॥
करने लगे तथा विश्वावसु आदि गन्धर्थगण इनके सम्मुख गङ्गायाः सरिततोयैः स्नानार्थमुपस्थिरे । गान और मृताच आदि अप्सराएँ, नृत्य करने लग दिगजा हेमपात्रस्थमादाय विमलं जलम् । | ॥ ११-१३५ ।। उन्हें अपने जसे स्नान कनेके लिये स्नापयाञ्चक्रिरे देर्वी सर्वलोकमहेश्वरीम् ॥ १०३ | गङ्गा आदि नदियाँ स्वयं उपस्थित हुई और दिग्गजोंने क्षीरोदो रूपधृक्तस्यै मालामम्लानपङ्कजाम्।
सुवर्ग-कलशमें भरे हुए उनके निर्मल जलसें सर्वलोक
महेश्वरी श्रीलक्ष्मीदेवीको स्नान कराया ॥ १३॥ ौर ददौ विभूषणान्यङ्गे विश्वकर्मा चकार ह ।। १०४ ॥सागरने मूर्तमान् होक्न उन्हें चिंकसित कमल-पुष्पोंकी दिव्यमाल्याम्बरधरा स्राता भूषणभूषिता । | माला दी तथा विश्वकर्माने उनके अंग-प्रत्यंगमें विविध पश्यतां सर्वदेवानां ययौ वक्षःस्थलं रेः ॥ १०५ | आभूषण पहनाये ॥ १४ ॥ इस प्रकार दिव्य मारा और विष्णमुराण
चया विलोकिता देवा इविक्षःस्थलस्थया । | | वस्त्र धारण कर, दिव्य जलसे स्नान कर, दिव्य आभूषणों लक्ष्या मैत्रेय सहसा परां निर्वृतिमागताः ॥ १०६ | विभूषित हो औंलक्ष्मीजी सम्पूर्ण देवताओंके देखते देखते आविष्णुभगवान्के वक्षःस्थलमें विराजमान उद्वेगं परमं जम्मुर्दैत्या विष्णुपराङ्मुखाः ।। त्यक्ता लक्ष्म्या मह्यभाग विप्रचित्तपुरोगमाः ॥ १०७ है मैत्रेय ! श्रीहरिके वक्षःस्थलमें विराजमान
आदमीजीका दर्शन कर देनताको अकस्मात् अत्पन्न ततस्ते जगृहुर्दैत्या धन्वन्तरिकरस्थितम् । प्रसन्नता प्राप्त हुई ।। ६ ।। और है महाभाग ! कमण्डलु महावी यत्रास्तेऽमृतमुत्तमम् ॥ १०८
| लक्ष्मीजी परित्यक्त होनेके कारण भगवान् चिके विरोधी चिपचिन आदि देंग्यगण परम उद्विग्न (व्याकुल) मायया मोयित्वा तान्विष्णुः स्त्रीरूपसंस्थितः ।। हए ॥ १६ || तब उन महाबलवान् पनि श्रीधन्वन्तरजीक दानवेभ्यस्तदादाय देवेभ्यः प्रददौ प्रभुः ॥ १०९ ॥ हाथों वह कमलु छन लिया जिसमें अति उत्तम अमृत
भरा हुआ था । १० ॥ अतः स्त्र (महिनौ रूपधारी ततः पपुः सुरगणाः शक्राद्यास्तत्तदाऽमृतम् ।। भगवान् विष्णने अपनी मायामें इनको मोहित कर उनसे उद्यतायुपनिस्विंशा दैत्यास्तांश्च समभ्ययुः ॥ ११० पड़ कमण्डलु लेकर देवताओको दे दिया ॥ ३२६ ॥
तब इन्द्र आदि देवगण उस अमृतकों पी गये; इससे पीतेऽमृते च बलिभिर्देवैदैत्यचपूस्तदा । दैत्यलॉग अति तीखें स्नङ्ग आदि शस्त्रसे सुसज्जित हो बध्यमाना दिशो भेजे पातालं च विवेश वै ॥ १११ उनके ऊपर टूट पड़े ।। ११ || किन्तु अमत-पानकै कारण बलवान् हुए देवताओं द्वारा मा-काटौं जाकर दैत्यक ततो देवा मुदा युक्ताः शङ्खचक्रगदामृतम् । सम्पूर्ण सेना दिया-विदिशामें भाग गयी और कुछ अणिपय यथापवमाशासत्तविघ्पम् ।। १६३ | पालकमें भी चली गयीं ॥ १११ ।। फिर देवगण अन्नतापूर्वक शुङ्ग-चक्र-गदा-धारों भगवानको प्रणाम ततः प्रसन्नभाः सूर्यः प्रययौ स्वेन वर्मना। । | करू लु क समान स्वर्गका शासन करने लगे ।। १ ६ ३ ।। ज्योधि च यथामार्ग प्रययुनसत्तम ॥ ११३ | हे मुनिश्वा ! उस समयासे प्रखर तेजॉयक्त भगवान् सूर्य अपने मार्गको तथा अन्य तारागण भी अपने-अपने जवाल भगवांशोच्चैयारुदीप्तिर्विभावसुः । मार्गमें चलने लगे ।। १३३ ।। सुन्दर दीप्तिशाली भगवान् धमें च सर्वभूतानां तदा मतिजायत ॥ ११४
अग्निदेव अत्यन्त प्रज्ल त हों इटें और उसी समयसे समस्त प्राणियोंको धर्ममें पति हो गयी ॥ ११ ॥ हे त्रैलोक्यं च श्रिया जुष्टं बभूव द्विजसत्तम। द्विजोत्तम ! त्रिलोकी श्रीसम्पन्न हो गयी और देवताओं शक्रय दिशष्टः पुनः श्रीमानलायत ॥ ११५ | श्रेष्ठ शुद्ध भी पुनः श्रीमान् हो गये ॥ ११५॥ तदनन्तर इन्द्रने स्वर्गलोकमें जाकर फिरसे देवाज्यपा अधिकार सिंहासनगतः शक्रस्सम्प्राप्य त्रिदिवं पुनः । पाया और संहासनपर आरूढ़ हो पाहता देवराज्ये स्थित देव तुष्ठावान्नाकरां ततः ।। ११६ |
श्रीलक्ष्मी को इस प्रकार स्तुति की ।। ११६ ।। | इन्तु बोले- सम्पूर्ण लोंकको जननी, विकसित ।इन्द्रजाचार । कमल सदृश नेत्रोंवाली, भगवान् विषाके वक्षःस्थलमै नमस्ये सर्वलोकानां जननीपब्जसम्भवाम् । विराजमान कमलोवा ऑलमानीको मैं नमस्कार करता श्रियमुन्निद्रपद्माक्षीं विष्णुवक्षःस्थलस्थिताम् ॥ ११७ हैं ॥ ११५ || कमल हौं जिनका निवासस्थान है, कमल ही
जिनके कर-कमल्ने सुशोभित है, तथा कमलदल पद्मालयां पद्मकरां पद्मपत्रनिभेक्षणाम् । । समान हैं जिनके नेत्र हैं उन कमलमुखी क्रमनाभ-प्रिया वन्दे पद्ममुर्ती देर्वी पद्मनाभप्रियामहम् ।। ११८ | श्रीकमलादेवीकी मैं वन्दना करता हैं ॥ ११८ ॥ हे
दैवि ! तुम सिद्ध हो, स्वधा हो, स्माा हो, सा हो और त्वं सिद्धिस्त्वं स्वधा स्वाहा सुधा त्वं लेकपावनी ।।
त्रिलोकीको पबित्न करनेवाली हो तथा तुम ही सया, रात्रि, सध्या रात्रिः प्रभा भूतिया श्रद्धा सरस्वती ।। ११९ | प्रभा, विभूति, मेधा, श्रद्धा और सरस्वती हो ।। ११९ ॥
प्रथम अशा
यज्ञविद्या महाविद्या गुह्यविद्या च शोभने । । हैं शोभने ! यज्ञ-विद्या (कर्म-का), महाविद्या आत्मविद्या च देवि त्वं विमुक्तिफलदायिनी ।। १२० | (उपासना) और गुह्मविद्या (इन्द्रजाल) तुम्हीं हो तथा हे देवि! तुम्ही मुक्ति फलदायिनौं आमचंद्मा हों ॥ १२ || आन्वीक्षिकी त्रयीवार्ता दण्डनीतिस्त्वमेव च।
हैं देवि ! आन्वीक्षिक (तक्या ), वेदत्रयी, बार्ता सौम्यासौम्यैर्जगद्पैस्त्वयैत्तद्देवि पूरितम् ॥ १२१ | (शिल्पवाणिज्यादि) और दाटुनीति (जनीति) भी तुम्हीं का त्वया त्वामृते देवि सर्वंयज्ञमयं वपुः । हों । तुम्हन अपने शात्त और उग्र रूपोंसे यह समस्त संसार झाप्त किया हुआ है ॥ १२१ ॥ हे देवि ! तुम्हारे बिना और ऐसी अध्यास्ते देवदेवस्य योगिचियं गदाभृतः ॥ १२३ | कौन हैं हैं जो देवदेव भगवान् गदाधरके सोगिजन त्वया देवि परित्यक्तं सकलं भुवनत्रयम् । चिन्तित सर्वंयज्ञमय शरीरमा आश्रय पा सके || १२२ ॥ हैं विनष्टप्रायमभवत्वयेदानीं समेधिनम् ॥ १२३ | नि ! तुम्हारे शेड़ देनेपर सम्पूर्ण त्रिलोक नष्टप्राय हो गयी
धौ; अब तुम्हींने उसे पुनः जीवन-दान दिया है ।। ६३३ ।। है दाराः पुत्रास्तथागारसहस्वान्यधनादिकम् । महाभागे ! जी, पुत्र, गह, धन, धान्य तथा मुहद् ये सब भवत्येनमहाभागे नित्यं त्वद्वीक्षणान्नृणाम् ।। १२४ | सदा आपके दृष्टिपातसे मनुष्यको मिलते हैं ॥ १२४ ।। हे शरीरारोग्यमैश्चर्यमरिपक्षक्षयः सुखम् । देवि! तुम्ही पा दृष्टिके पात्र पुरुषों के लिये शारीरिक देवि त्वष्टिदृष्टानां पुरुषाणां न दुर्लभम् ॥ १२५ ॥ आरोग्य, ऐश्वर्य, शत्र-पक्षका नाश और सुख आदि कुछ भी
इम नहीं है। 4 || नाम सम्पूर्ण को माता । त्वं माता सर्वलोकानां देवदेवो हरिः पिता। और देवढेच मगन्नान र पिता हैं। मानः । चुममें और त्वयैतद्विष्णुना चाम्ब जगद्व्याप्तं चराचरम् ॥ १३६ | विष्णुभगवानसे यह सकल चराचर जगत् व्याप्त मा नः कोर्श तथा गोष्ठं मा गृहं मा परिच्छदम् । ।
हैं ।। १२६ ॥ हे सर्वपावन मातेश्वर ! हमने कोश (साना), गोवा (पशु-शाला), गह, भोंगसामग, कॉर मा शरीरं कलत्रं च त्याः सर्वपावन ।। १२५ | और स्त्री आदिको आप कभी न त्यागें अर्थात् इनमें भरपूर मा पुत्रान्सा सुहद्वर्ग मा पशून्म विभूषणम् । हैं ।। १ ।। अयि विवक्षःस्थल निवासिनि ! हमारे त्यजेथा मम देवस्य विष्णोर्वक्षः स्थलालये ॥ १२८ | पत्र, सुहद्, पशु और भूषण आदिको आप कभी न
छ । १३८ । । अमले ! जिन मनुष्यको तुम औड़ देती सत्वेन सत्यशौचाभ्यां तथा शीलादिभिर्गुणैः। हों उन्हें सत्त्व (मानसिक बल), सत्य, शौच और शील त्यज्यन्ते ते नराः सद्य: सन्त्यका ये त्वयामले ।। १२१ | आदि गुण भी शीघ्प ही त्याग देते हैं ।। १२९ ।। और तुम्हारी क्या विलोकिता: सद्यः शीलाचैरसिलैर्गुणैः ।।
कृपा दृश्न होनेपर जो गुणहीन पुरुष भी शीघ्र ही शील आदि | सम्पुर्ण गुण और, कुडौनता तथा ऐश्वर्य आदिसे सम्पन्न हों कुलश्वर्यश्च युज्यन्ते पुरुषा निर्गुणा अपि ।। १३८ | जाते हैं।॥ १३ ॥ हे देवि ! जिसपर तुम्हारी कृपादृष्टि है। स श्लाघ्यः स गुणी धन्यः स कुलीनः स बुद्धिमान् ।। | वहीं प्रशंसनीय हैं, वहीं गुणी हैं, वहीं धन्यभाग्य है, वहीं स शुरः स च किंक्रान्तो यस्त्वया देवि वीक्षितः ॥ १३१ | कुलीन और बुद्धिमान् है तथा वह्म शूरवीर और पराक्रमों | हैं ॥ १३१ ।। ॐ विष्णुप्रिये ! हे जगज्जननि ! तुम ससे सद्यो वैगुण्यमायान्ति शीलाद्याः सकला गुणाः ।
विमुख हों उसके तो शॉल आदि सभी गुण तुरन्त परामुखी जगद्धात्री यस्य त्वं विष्णुवल्लो ।। १३२ | अगुणस्प हो जाते हैं ॥ १३२ ॥ हे देवि ! तुम्हारे गुणोंका न ते वर्णयितुं शक्ता गुणाश्चिापि वेधसः । | | वर्णन करनेमें तो ब्रह्माजीक उसना मी समर्थ नहीं हैं। [फिर मैं क्या कर सकता हैं ?] अतः हे कमलनयने । प्रसीद देवि पद्याक्षि मास्यांस्त्याक्षीः कदाचन ॥ १३३ | अब मुझपर प्रसन्न हों और झे कभी न बोड़ों ।। ३३ ।। पराशर उवाच पराशजी बोले-है द्विज ! इस प्रकार सम्यक् एवं औः संस्तुता सम्यक् प्राह देवी शतक्रतुम् । | स्तुति किये जानेपर सर्वभूतस्थिता लक्ष्मीज सब शृण्वतां सर्वदेवानां सर्वभूतस्थिता द्विज ॥ १३४ | देवताओंके सुस्ते हुए इन्द्रसे इस प्रकार बोलीं ॥ १३४ मारवाच | श्रीलक्ष्मीजी बोली-हे देवेश्वर इन्द्र ! मैं तेरे इस परितुष्टास्मि देवेश स्तोत्रेणानेन ते हरे । स्तोत्रसे अति प्रसन्न हैं, तुझको जो अभीष्ट हों वहीं वर माँग वरं वृणीघ् यस्विष्टो वरदाहं तवागता ॥ १३५
लें । मैं तुझे वर देनेके लिये ही यहाँ आयीं हैं ॥ १३५ ।। इन्द्र बोले-हे देवि ! यदि आप पर देना चाहतीं।
हैं और मैं भी यदि वर पानेयोग्य हैं तो मुझको पहला वर वरदा यदि में देवि घरा यदि वाष्यहम् ।।
तों यहीं दीजिये कि आप इस निलोकका कभी त्याग त्रैलोक्यं न त्वया त्याज्यमेष मेऽस्तु वरः परः ।। १३६ | | करें ॥ १३६ ॥ और हैं समदसम्भवें ! दूसरा र मुझे यह स्तोत्रेण यस्तथैतेन त्वां स्तोष्यत्यधिसम्भवे । दीजिये किम जों कोई आपको इस स्तोत्रसे स्तुति करें उसे स त्वया न परित्याज्यो द्वितीयोऽस्तु व मम ।। १३७
| आप कभी न खाणे ॥ १३ ॥
श्रीलक्ष्मीजी = देवड़ इन ! मैं अब इस त्रैलोक्यं त्रिदशश्रेष्ठ न सन्त्यक्ष्यामि वासव।
त्रिकीको कभी न छोईंगो । तर स्तोत्रको प्रसन्न होकर मैं तुझे यह थर देती हैं । १३८ । तथा जो कोई मनुष्य तो घरों मया यस्ते स्तोत्रारापनातुप्या ॥ १३८
प्रातःकाल और सायंके समय इस स्तोत्ररों में स्तुति यश्च सार्य तथा प्रातः स्तोत्रेणानेन मानवः ।। करेगा उससे भी मैं कभी विमुख न होऊँगी ।। १३६ ॥ मां स्तोष्यति न तस्याहं भविष्यामि पराङ्मुखी ॥ १३१ श्रीपराशरजी बोले- मैत्रेय ! इस
| पूर्वकालमें महाभागा श्रीलक्ष्मीजीने देयकी स्तोत्ररूप एवं द वरं देवी देवराजाय वै पुरा । आराधनासै सन्तुष्ट होकर * में बर दिये ॥ १४ ॥ मैत्रेय श्रीर्महाभागा स्तोत्राराथनतोषिता ।। १४६ ॥
लक्ष्मीजी पहले भृगुजोके द्वारा ग्याति नामक सीसे उत्पन्न हुई थीं, फिर अमृत-मन्थनके समय देव और दानवोंके भूगो: ख्यात्यां समुत्पन्ना श्रीः पूर्वमुदधेः पुनः । प्रगलसे वे समुद्रसे प्रस्ट हुई ।। १४१ ॥ इस प्रकार देवदानवयनेन प्रसूताऽमृतमन्थने ॥ १४१ संसारके स्वामी देवाधिदेव श्रीविष्णुभगवान् जब-जब एवं यदा जगत्त्वामी देवदेवो जनार्दनः ।
अवतार धारण करते हैं तभों लक्ष्मीजी उनके साथ रहती हैं ।। १४३ ।। जव हरिं आदिल्यम हुए तों में पद्मसे अवतार कत्येिषा तदा श्रस्तिसहायिनी ।। १४२ | फिर उत्पन्न हुई [और पद्मा महायो । तथा जब वे पुनश्च पद्मादुत्पन्ना आदित्योऽभूद्यदा हरिः । | परशुराम हुए तो ये पृथिवी हुई ॥ १४३ ॥ श्रीहरिके राम यदा तु भार्गव रामस्तदाभूद्धरणी त्वियम् ॥ १४३ होनेपर ये सीताजी हुई और कृष्णावतारमें श्रीरुक्मिणीजी दुई । इसी प्रकार अन्य अवता]में भी ये भगवान्से कभी राघवत्वेऽभवत्सीता रुक्मिणी कृष्णजन्मनि । पृथक् नहीं होती ।। १४४ || भगवान्के देवरूप होनेपर में अन्येषु चावतारेषु विष्णोरेषानपायिनी ॥ १४४ | दिव्य शरीर धारण करती हैं और मनुष्य होनेपर देवत्वे देवदेहेयं मनुष्यत्वे च मानुषी । । | मानवरूपसे प्रकट होती हैं। विभगवानके शरीर विगॉर्वेदानुरूप में करोत्येषात्मनस्तनम् ॥ १४५ | अनुरूप ही मैं अपना शरीर भी बना लेती हैं ॥ ६४५ ॥
जो मनुष्य लक्ष्मीजीके जनकी इस कथा सुनेगा यश्चैतकृणुयाम लक्ष्म्या यश्च पठेन्नरः ।
अथवा पड़ेगा उसके घर में (वर्तमान आगामी और भूत) श्रियो न विच्युतिस्तस्य गृहे यावत्कुलत्रयम् ॥ १४६ | तीनों कुलोंके रहते हुए कभी लक्ष्मीका नाश न होगा पठ्यते येषु चैवेयं गृहेषु श्रीस्तुतिमुने। || १६ ।। हे मुनें ! जिन परोंमें लक्ष्मीजी के इस स्तोत्रका अलक्ष्मी: कहाधारा न तेयास्ते कदाचन ।। १४७ पाठ होता हैं उनमें करकी आधारभूत्ता दरिद्रता कभी ।
नहीं ठहर सकतीं ॥ १४ ॥ है बह्मन् ! तुमने जो मुझको एतत्ते कथितं ब्रह्मन्यन्यां त्वं परिपृच्छसि। | पुझ था कि पहले भृगुजीकी पुत्री होकर फ्रि लक्ष्मीजी क्षीराब्यौ श्रीर्यथाज्ञाता पूर्वं भृगुसुता सती ।। १४८ | क्षीर-समुदसे कैसे उत्पन्न हुई सो मैंने तुमसे यह सब
प्रथम अन्न।
इतिहास के सकलविभूत्यवाप्तिहेतुः । वृत्तान्त कह दिया ।। १४८ । इस प्रकार इन्द्र मुखसे स्तुतिरियमिन्द्रमुखोद्गता हि लक्ष्याः ।। प्रकट हुई यह लक्ष्मीजीकी स्तुति सकल विभूतियोंकी अनुदिनमिह पठ्यते नृभिर्ये प्राप्तिका कारण है, जो लोग इसका नित्यप्रति पाठ करेंगे वैसति न तेषु कदाचिदस्यलक्ष्मीः ।। १४९ | इनके घरमें निर्धनता कभी नहीं रह सकेगी ।। १४५ ॥ | पुरन इति श्रीविष्णुपुराणे प्रथमें नवमोऽध्यायः ॥ ९ ॥ कम मा दसवाँ अध्यायको छ। |
भृगु, अग्नि और अग्निशात्तादि पितरोंकी सन्तानका वर्णन FिAL 2017 श्रीमैत्रेय उवाच श्रीमैनेयजी बोले-हे मुने ! मैं आपसे जो कुछ कथितं में त्वया सर्व यत्पृष्टोऽसि मया मुने। । | पूछा था वह सब आपने वर्णन किया; अब भृगुजीकी भृगुसर्गात्प्रत्येष सर्गों में कथ्य पुनः ।। १ | सन्तानसे लेकर सम्पूर्ण सृष्टिका आप मुझसे फिर वर्णन ऑपराशर उवाच । कीजियें ॥ १ ॥
मम भूगोः ख्यात्यां समुत्पन्ना लक्ष्मीविष्णुपरिग्रहः ।
श्रीपराशजी बोले-भृगुजीके द्वारा ख्यातिसे तथा धातृविधातारौ ख्यात्यां जातौ सुतौ भूगोः ॥ २ || विष्णुपत्री लक्ष्मीजी और धाता, विभाता नामक दो पुत्र आयतिर्नियतिचैत्र मेरोः कन्ये महात्मनः । [उत्पन्न हुए ॥ २॥ महात्मा मेरुकी आयति और नियति भायें धातृविधात्रोस्ते तयोर्जातौ सुतावुभौ ॥ ३] नामी कन्याएँ भाता और विधाताको स्त्रियाँ थीं; उनसे उनके प्राणश्चैव मृकश्च मार्कण्डेयो मूकपडतः । | प्राण और मृकण्टु नामक दो पुत्र हुए। मृकसे मार्कण्डेय ततो वेदशिरा जज्ञे प्राणस्यापि सुतं शृणु ॥ हैं और उनसे वेदशिका जन्म हुआ। अब प्राणी प्राणस्य द्युतिमान्पुन्नो राज्ञवांश्च ततोऽभवत्।। सन्तानका वर्णन सुनो ॥ ३-४ ॥ प्राणका पुत्र द्युतिमान् ततो वंशों महाभाग विस्तर भार्गवों गतः ॥ ५ | और उसका पुत्र राज्ञयान् हुआ। हे महाभाग ! उस पत्नी मरीचेः सम्भूतिः पौर्णमासमसूयत ।
जपानसे फिर भृगुवंशका कड़ा विस्तार हुआ ॥ ५ ॥ विजाः पर्वतश्चैव तस्य पुत्रौ महात्मनः ॥ ६| मरीचिकी पत्नी भूतिने पौर्णमासमें उत्पन्न किया। वंशसंकीर्तने पुन्नान्वदिष्येऽहं ततो द्विज । । | उस महात्माके विजा और पर्वत दो पुत्र थे ॥ ६॥ है स्मृतिश्चाङ्गिरस: पत्नी प्रसूता कन्यकास्तथा।।
द्विज ! उनके वंशका वर्णन करते समय मैं उन दोनों की सिनीवाली कुचैव राका चानुमतिस्तथा ।। ६ ॥
सन्तानका वर्णन कगा। अंगिराकी पत्नी स्मृति थीं, उसके अनसूया तश्चैवार्जज्ञे निष्कल्मषान्सुनान् ।
सिनीवाली, कुहू. का और अनुमति नामक कन्याएँ हुई सोमं दुर्वाससं चैव दत्तात्रेयं च योगिनम् ॥ ८॥
॥ 9 ।। अत्रिकी भार्या अनसूयाने चन्द्रमा, दुर्वासा । और योगी दत्तात्रेय–इन निष्पाप पुत्रको जन्म प्रीत्या पुलस्त्यभार्यायां दत्तोलिस्तत्सुतोऽभवत् ।
दिया ।। ८ ।। पुलस्त्यकी स्त्री प्रीतिसे दत्तोलिका जन्म। पूर्वजन्मनि योगस्त्यः स्मृतः स्वायम्भुवेऽन्तरे ।। १ | हुआ जो अपने पूर्व जन्ममें स्वायम्भुव मन्वन्तरमें अगस्त्य कर्दमोर्वरीयांश्च सहिष्णुश्च सुतायः ।। | कहा जाता था ॥ १ ॥ प्रजापति पुलकी पत्नी आमासे क्षमा नु सुपुचे भार्या पुलहस्य प्रज्ञापतेः ।। १० | कर्दम, उर्वरीयान् और सहिष्णु ये तीन फुत्र हुए ॥ १० ॥
क्रतोश्च सन्ततिर्भार्या वालखिल्यानसूयत । । क्रतुकी सन्तति नामक भार्याने अंगूठेके पोरुओंके पष्टिपुत्रसहस्राणि मुनीनामूर्ध्वरेतसाम् । समान शरीरवाले तथा प्रखर सूर्यके समान तेजस्यों अङ्गुष्ठपर्वमात्राण ज्वलद्भास्करतेजसाम् ॥ ११
गुलविल्यादि साठ वार ऊर्वरेता मुनियों को जन्म दिया ऊर्जायां तु वसिष्ठस्य समजायन्त वै सुताः ॥ १२ || | ॥ ११ ॥ बसिष्टको ऊज नामक खोसे , गोत्र, ऊवाह, सवन, अनप, सुतपा और शुक्र में सात पुत्र जो गोत्रोद्ध्वबाहुश्च सचनशानघस्तथा। जान हुए। ये निर्मल स्वभाववाले समस्त मुनिगण [तीसरे सुतपाः शुक इत्येते सर्वे सप्तर्षयो मलाः ।। १३ | मन्वन्तरमें] सर्माई हुए । १२-१३ ॥ योऽसावग्न्यभिमानीं स्याद् ब्रह्मणस्तनयोजः ।। हे द्विज ! अप्तिका अभिमानों देव, जो जहाजका
ज्येष्ठ पुत्र हैं, उसके द्वारा स्वाहा नामक पत्नीसे ऑन तेजस्वी तस्मात्स्वाहा सुतल्लेभे त्रीनुदारोजसो द्विज ।। १४ | पावक, पवमान और जलको भक्षण करनेवाला पावकं पवमानं तु शुचिं चापि जलाशिनम् ॥ १५
शुचि-ये तीन पुत्र हुए ॥ १४-१५५ ॥ इन तीनोंके तेषां तु सन्ततावन्ये चत्वारिंशच्च पञ्च च । [प्रत्येक पन्द्रह-पन्द्रह पत्रक क्रम] तास तान कथ्यते वहृयश्चैते पितापुत्रयं च यत् ।। १६ | | हुई। पिता अग्नि और उसके तीन पुत्रोक्ने मिलाकर ये सब एवमेकोनपञ्चाशद्वयः परिकीर्तिताः ।। १७ अग्नि झौं कलाते हैं। इस प्रकार कुल चारा (४५) अग्नि कहे गये हैं। १६-१७ ॥ हे द्विज ! वाहानीद्वारा रचे पितरो ब्रह्मणा सृष्टा व्याख्याता ये मया द्विज ।
गयें जिन अनग्निक अमिष्ठात्ता और सार्मिक बर्हिषद् आदि अश्विात्ता बर्हिषदोनग्नयः सामयश्च ये ।। १८ | पितरोंके विषयमें तुमसे कहा था। उनके द्वारा स्वधाने मेना तेभ्यः स्वधा सुते जज्ञे पेनां वै धारिंण तथा। और घागि नामक दो कन्याएँ उत्पन्न की। वे दोनों ही ते उभे ब्रह्मवादिन्यौ योगिन्याबध्युभे क्विज ।। १९ ॥
उत्तम ज्ञानलै सम्पन्न और सभी-गुणों से युक्त ब्रह्मवादिनी तथा गागिनी था ।।
६ ३ ।। उत्तमज्ञानसम्पन्ने सर्वैः समुदितैर्गुणैः ।। ३० |
इस प्रकार, गहू दक्षकन्याओंकी वंशपरम्पराका वर्णन इत्येषा दक्षकन्यानां कथितापत्यसन्ततिः । | झिया। जो ई श्रद्धापूर्वक इसका स्मरण करता है वह अद्धावान्संस्मरन्नतामनपस्यों न जायते ।। २१ | निःसन्तान नहीं रहता ॥ २१ ।।
इति श्रीविलापुराणे प्रथमें दशमोऽध्यायः ॥ १० ॥ तर पनि
ग्यारहवाँ अध्याय
भुक्का वनगमन और मरीचि आदि ऋषियोंसे भेट ऑपराशर उवाच – श्रीपराशरजी बोले–हे मैत्रेय ! मैंने तुम्हें प्रियपतोत्तानपादौ मनोः स्वायंभुवस्य तु । स्वायम्भुखमनुके प्रियव्रत एवं उत्तानपाद नामक दो ॐ पुत्रौ तु महावीर्यो अर्मज्ञौ कश्चित्तौ तव ।। १ | महाबलवान् और धर्मा पुत्र बतलाये थे ।। १ ।। । तयोरुत्तानपादस्य सुरुच्यामुत्तमः सुतः ।। ब्रह्मन् ! उनमेसे उत्तानपादको प्रेयी पत्नी सुरुन्निसे पिताम अन लाइ उनम नामक पुत्र झा ।।३।। अभीष्टायाममूहह्मपितुरस्त्यन्तवलभः ॥ ३ ॥
है जि ! उस गुजाकी जो सुनीति नामक ज्ञमहिषी सुनीतिर्नाम या राज्ञस्तस्यासीन्यहिषी द्विज । थी उसमें उसका विशेष प्रेम न था। उसका पुत्र ध्रुव स नातिप्रीतिंमस्तस्यामभूयस्या भुवः सुतः ।। ३ | हुआ ।। ३॥
राजासनस्थितस्याहं पितुर्भातरमाश्चितम् । । एक दिन राजसिंहासनपर बैठे हुए पिताको गोदमें दृष्टोत्तमं ध्रुवश्चक्रे तपारोद् मनोरथम् ॥ ४ | अपने भाई उत्तमको बैठा देख ध्रुवकी इच्छा भी गोदमें प्रत्यक्ष भूपतिस्तस्याः सुरुच्या नाभ्यनन्दन ।
बैठनेक हुई ।। ४ ।। किन्तु राजानें अपनी प्रेयसी सु रुचि के सामने, गोदमें चढ़नेके लिये कण्ाि होकर प्रेमवश प्रणयेनागतं पुत्रमुत्सङ्गारोहणोत्सूकम् ॥ ५
आये हुए उस पुत्रका आदर नहीं किया || ५ || अपनी सपबीतनयं दृष्ट्वा तमङ्कारोहणोत्सुकम्। । | सौतके पुत्रको गोदमें चढ़नेके लिये उत्सुक और अपने स्वपत्रं च तथारूळं सुरुचिर्वाक्यपन्नवीत् ॥ ६ | पुत्रको गोदमें वैश देख सुरूच इस प्रकार कहने क्रियते किं वृथा वत्स मानेष मनोरथः ।। | लगीं ॥ ६ ॥ “अरे छल्ला ! बिना मेरे पैसे उत्पन्न हुए अन्यस्त्रीगर्भजातेन ह्यसम्भूय ममोदरे ॥ ७ किसी अन्य स्रोका पुत्र होकर भी तू व्यर्थ क्यों ऐसा बड़ा मनोरथ करता है ? ॥ ५६ || तू वियेको हैं, इसीलिये ऐसी उत्तमोत्तममप्राप्यमविवेको हि वाञ्छसि ।
|| अलभ्य उत्तमोत्तम वस्तुकीं इग्न करता है। यह ठीक है। सत्यं सुतस्त्वमप्यस्य किन्तु न स्वं मया घृतः ॥ ८|कि तू भी इन्हीं गुजाका पुत्र हैं, तथापि मैंने तो तुझे अपने एतद्वाजासनं सर्वभूभृत्संश्रयकेतनम् । गभर्म भरण नहीं किया ! ॥ ८ ॥ समस्त चक्रवर्ती योग्यं ममैव पुत्रस्य किमात्मा क्लिश्यते त्वया ॥ ९ राजाओंका भाञ्जयप यह राजसिंहासन तो मेरे ही पुत्रके योग्य हैं, तू व्यर्थ क्यों अपने चित्तको सन्ताप देता उचैर्मनोरथस्तेऽयं मत्पुत्रस्येव किं वृथा।
हैं? ॥ ५ ॥ मेरे पुत्रके समान तुझे वृथा ही यह ऊँचा सुनीन्यामात्मनो जन्म किं त्वया नावगम्यते ।। १० ॥
मनोरथ क्यों होता है? क्या तू नहीं जानता कि तेरा जन्म । पराशर उवाच सुनीतसे हुआ है ?” ॥ १० ॥ उत्सृज्य पितरं बालस्तच्या मातृभाषितम् । पराशरजी बोले- द्विज | विमाहाका ऐसा जगाम कुपितो मातुर्निजाया ब्लिज मन्दिरम् ।। ११ | कथन सुन वह बालक कुपित हों पिताको कोड़कर अपनी तं दृष्ट्वा कुपितं पुत्रमीषत्प्रस्फुरितारम् । | माताके महलको बल दिया ॥ ११ ॥ हे मैत्रेय ! जिसके सुनीतिमारोष्य मैंनेयेदमभाषत । १२ | ओष्ठ कुछ-कुछ काँप रहे थे ऐसे अपने पुत्रने क्रोधयुक्त वत्स कः कोपहेतुस्ते कश्च त्वां नाभिनन्दति ।
| ईज़ सुनोतिने उसे गोदमें बिझाकर पूछा ॥ १३ ॥”बेटा ! | तेरे का क्या कारण हैं? तेरा किसने आदर नहीं कोविज्ञानात पितर वत्स अस्तेऽपराध्यति ।। १३ | किया ? तेरा अपराध अनके कौन तेरे पिताजींन अपमान ऑपराशर उकाच । | करने चला हैं?” ॥ १३ ॥ इत्युक्त; सकले मान्ने कथयामास तथा ।
ऑपराशरजी बोले-ऐसा पुछ्नेपर भुवने अपनी । सुरुचिः प्राह भूपालप्रत्यक्षमतिगर्विता ।। १४ | मातासे ये सब बातें कह दी जो अति गवळी सुचने उससे विनिःश्वस्येति कथिते तस्मिन्पुत्रेण दुर्मनाः ।। पिताके सामने कहीं श्रीं ।। १४ ॥ अपने पुत्रके सिक असक्षामेक्षणा दीना सुनीतिर्वाक्यमब्रवीत् ॥ १५ | सिमककर ऐसा कहनैपर दुःस्विनी सुनीतिने चिन्न चित्त और सुनीतिवाचक दोध निःश्वासके कारण मलिनयना होकर कहा ।। १५ ।।। सुरुचिः सत्यमाहेदं मन्दभाग्योऽसि पुत्रक।
सुनीति बोलीं-बेटा ! सुरुचिने ठीक ही कहा हैं, न हि पुण्यवतां वत्स सपत्नैरेवमुच्यते ॥ १६ |
अवश्य ही तू मन्भाग्य है । हे वत्स ! पुण्यवानोंसे उनके विपक्षों ऐसा नहीं कह सकते ॥ १६ ॥ बच्चा ! तु व्याकुल नोद्वेगस्तात कर्तव्यः कृतं यद्भवता पुरा ।
मत हो, क्योंकि कुनै पुर्वान्ममें में कुछ किया है उसे दूर तत्कोऽपहर्तुं शक्रोनि दातुं कझाकृतं त्वया ॥ १७ | ऑन कर सकता हैं ? और जो नहीं किया वह तुझे दे भी तत्त्वया नात्र कर्त्तव्यं दुःखं तद्वाक्यसम्भवम् ॥ १८ | कौन सकता है ? इसलिये तुझे उसके वाक्योंसे खेद विष्णपुराण राजासनं राजछत्रं घराश्ववरबारणाः । । नहीं करना चाहिये ॥ १७-१८॥ हे वत्स ! जिसका पुण्य यस्य पुण्यानि तस्यैते मत्वैतच्छाम्य पुत्रक ।। ११ | होता है उसीको राजासन, राप्य राथा उत्तम-उत्तम घोड़े अन्यजन्मकृतैः पुण्यैः सुरुच्या सुरुर्नुपः । | और हाथ आदि मिलते हैं—ऐसा जानका तु शान्त हों |जा ।। १५ ।। अन्य जमॉमें किये हर पुण्य-कर्मोक कारण भार्येति प्रोच्यते चान्या मद्विधा पुण्यवर्जिता ।। २० | हीं सुरुचिमें राजाकी सुरुचि (प्रीति) है और पुण्यहीना पुण्योपचयसम्पन्नस्तस्याः पुत्रस्तथोत्तमः । | होनेसे ही मुझ जैसी सी केवल भार्या (भरण करने योग्य) मम पुत्रस्तथा जातः स्वल्पपुण्यो ध्रुवो भवान् ॥ २१ | ही कही जाती हैं ।। २० ।। उसी प्रकार उसका पुत्र उत्तम भी तथापि दुःखं न भवान् कर्तुमर्हति पुत्रक। बड़ा पुग्ग-पुञ्जसमाप्त है और मेरा फुत्र तू मुव मेरे समान ही यस्य यावत्स तेनैव स्वेन तुष्यति मानवः ॥ २२ |
अल्प पुण्यवान् है ॥ ३१ ॥ तथापि बेटा ! तुझे दुःसी नहीं होना चाहिये, म्योंकि जिस मनुष्यको जितना मिलता है वह यदि ते दुःखमत्यर्थं सुरुच्या क्चसाभवत् ।
अपनी ही पैज़ीमें मग्न रहता है ।। ३३ ।। और यदि सुरुचिके तत्पुण्योपचये यत्नं कुरु सर्वफलप्रदे॥ २३ | वाक्यों ने अपन दुःख हीं हुआ है तो सर्वफलदायक सुशीलो भव धर्मात्मा मैत्र: प्राणिहिते रतः । पुण्यके संग्रह करनेका प्रयत्न कर. ।। ३३ ।। तू सुशील, निग्नं यथापः अबणाः पात्रमायान्ति सम्पदः ।। २४ |
| पुण्यात्मा, प्रेमी और समस्त प्राणियोंका हितैषी बन, क्योंकि जैसे नीची भूमिकी और नलकता हुआ जल अपने-आप भुवउवाच | हौं पात्रमें आ जाता है वैसे ही सत्पात्र मनुष्यके पास स्वतः अम्ब त्वमिदं प्राय प्रामाय वचो मम ।।
ही समस्त सम्पत्तियां आ जाती हैं ।। ३४ ।। नैतर्वचसा भन्ने हदये मम तिष्ठति ।। २५ ध्रुव बोला—माताजी ! तुमने मेरे चित्त शान्त सोऽहं तथा यतिष्यामि यथा सर्वोत्तमोत्तमम्। | करनेके लिये जो वचन कहे हैं वे दुर्वाक्पोंसे सिंथे हुए मेरे स्थान प्राप्स्याम्यशेषाणां जगतामभिपूजितम् ॥ २६ | इदयमें तनिक भी नहीं उते ॥ २५ ॥ इसलिये मैं तो अन्न सुरुचयिता राज्ञस्तस्या ज्ञातोऽस्मि नोदरात् ।
वहीं प्रयत्न का जिससे सम्पूर्ण कोसे आदरणीय | सर्वश्रेष्ठ पदक प्राप्त कर सकें ॥ २६ ॥ जाकी प्रेयसीं तों प्रभाव पश्य मेऽम्ब त्वं वृद्धस्यापि तवोदरे ॥ २७ |
| अवश्य सुरुचि ही हैं और मैंने उसके उदरसे जन्म भी नहीं उत्तमः स पम भ्राता यो गर्भेण धृतस्तथा। । लिया है, तथापि हे माता । अपने गर्भ बढ़े हुए मेरा स राजासनमाओतु पित्रा दत्तं तथास्तु तत् ॥ २८ | प्रभाव भी तुम देखना ॥ ३३ ॥ उत्तम, जिसमें उसने नान्यदत्तमभीप्सामि स्थानमम्व स्वकर्मणा ।।। अपने गर्भमें धारण किया है, मेरा भाई ही हैं। पिताका इच्छामि तदहं स्थानं यन्न प्राप पिता मम ।। ३९ |
| दिया हुआ राजासन नहीं मारा करें। [ भगवान् करे | ऐसा | ही हो ॥ २८ ॥ माताजी ! मैं किसी दूसरेके दिये हुए पदका पराशर उवाच । | इच्छुक नहीं हैं। मैं तो अपने पुरुषार्थसे ही उस पदकी इच्छा निर्जगाम गृहान्मातुरित्युक्त्वा मातरं भुवः ।।
करता है जिसने पिताज्ञोंने भी नहीं प्राप्त किया हैं ।। ३६ ।। पुराच्च निर्गम्य ततस्तद्ब्रायोपवनं ययौ ।। ३० ऑपराशरजी बोलेमातासे इस प्रकार कह ध्रुव स ददर्श मुनस्तत्र सम पूर्वागतान्भुवः । | उसके महलसे निकल पा और फिर नगरसे बाहर आकर कृष्णाजिनोत्तरीयेषु विष्टषु समास्थितान् ॥ ३१ | ब्राही उपवनमें पहुँचा ।। ३० ॥ स राजपुत्रस्तान्सर्वान्प्रणिपत्याभ्यभाषत ।।
यहाँ धुवने पहलेसे ही आये हुए सात मुनीश्वककृष्ण मुग-चर्मक बिनोंसे युक्त आसनोंपर बैठे प्रश्रयावनतः सम्यगभिवादनपूर्वकम् ॥ ३३ |
देखा ॥ ३१ ॥ उस राजकुमारने उन सबको प्रणाम झुत्र उवाच कर अति नम्रता और समुचित अभिवादनादिपूर्वक उनसे ऊतानपादतनयं मां निबोधत सत्तमाः । । जातं सुनीत्य निर्वेदामाकं प्राप्तमन्तकम् ॥ ३३ | भुवने कहा-हे महात्माओ! मुझे आप सुनीतिसे कामकाः ऋषय ऊचुः कुकुर उत्पन्न हुआ वा उत्तानपादका पुत्र जाने । मैं भारम | चतुःपञ्चाब्दसम्भूतो बालस्त्वं पनन्दन। | ग्लानिये कारण आपके निकट आया हूँ ।। ३३ ।।
निर्वेदकारणं किञ्चित्तव नाद्यापि क्र्तते ॥ ३४ | ऋषि बोले-राजकुमार ! अभी तो तू चार-पाँच वर्षका ही आलफ हैं। अभी रे दिम कोई कारण नहीं । नचियं भवतः किञ्चिधियते भूपतिः पिता दिखायी पड़ता ।। ३४ ।। तुझे कोई चित्ताका विषय भी नहीं न चैवेष्टवियोगादि तत्रं पश्याम बालक ॥ ३५
हैं, क्योंकि अभी तेग़ पिता राजा जीवित हैं और है | शरीर न च ते व्याधिरस्माभिरुपलक्ष्यते । बालक ! तेरी कोई इष्ट वस्तु खो गयीं हो ऐसा भी हमें निर्वेदः किन्निमित्तस्ते कथ्यतां यदि विद्यते ।। ३६ | दिखायी नहीं देता ।। ३५ ॥ तथा हमें तेरे शरीरमें भी कोई
— या ऑपराशर उचाच
व्याधि नहीं दीख पड़तीं फिर बता, तेरी ग्लानिको क्या ततः स कथयामास सुराच्या अनुदाहृतम् । कारण है? ।। ३६ ॥ * – र तन्निशम्य ततः प्रचुर्मुनयस्ते परस्परम् ॥ ३॥ पराशरजी बोले-तच मुरुचिने उससे जो कुछ कहा था वह सब उसने कह सुनाया। उसे सुनकर वे अहों क्षात्रं पर तेजो बालस्यापि यदक्षमा ऋषिगण आपसमें इस प्रकार कहने लगे ।। ३ ।। ‘अहो । सपत्न्या मातुरुक्तं यद्धृदयान्नापसर्पति ।। ३८ | क्षात्रतेज कैसा प्रबल हैं, जिससे बालकमें भी इतनी भो भो क्षत्रियदायाद निर्वेदाद्यत्त्वयाधुना। । अक्षमा हैं कि अपनी विमाताका कथन उसळे हृदयसे नहीं कई मर्न न क स चैन। ३६ | टलता ॥ ३८ ॥ हे क्षत्रिकुमार ! इस दिके कारण तूने
जो कुछ करने का निश्चय किया है, यदि तो मचे तो, वह यच्च कार्य तवास्माभिः साहाय्यममितद्यते ।। मलगौसे कह दें ॥ ३५ ॥ और अतन्नितस्य ! यह तष्यतां । विवस्त्वमस्माभिरुपलक्ष्यसे ॥४ ॥
भी बता कि हम तेरी क्या सहायता करें, क्योंकि हमें ऐसा । किया व उजाच प्रतीत होता है कि तु का कहना चाहता है ।। ‘sa || नाहमर्थमभीप्सामि न रोज्यं द्विजसत्तमाः । भुवने कहा- श्रेिष्ठ ! मुझे न तो धनको तत्स्थानमेकमिच्छामि भुक्ते नान्येन यत्पुरा ॥ ४१ | | इ-आ है और न यकी; मैं जो केवल एक उसी | एतन्में किया सम्यकथ्यता प्राप्यते यथा । स्थानको चाहता हूँ जिसने पहले कभी किसीने न भोगा हो ॥ ४ ॥ है मुनिश्रेष्ठ ! आपकी यही सापता होगा कि स्यानमग्यं समस्तेभ्यः स्थानेभ्यो मुनिसत्तमाः ।। ४३ ॥ आप मुझे भली प्रकार यह बता दें कि क्या करनेसे वह | मरीचिस्वाच
सबसे अग्रगण्य स्थान प्राप्त हो सकता हैं ।। ४ ।। अनाराधितगोविन्दैनः स्थानं नृपात्मा। मरीचि बोले- राजपन्न ! बिना गोबिन्दकी न हि सम्प्राप्यते श्रेष्ठं तस्मादाराधयाच्युतम् ॥ ४३ | आराधना किये मनुष्यको वह श्रेष्ट स्थान नहीं मिल
अनिरुवाच कता, अतः तु श्रीअच्युतकी आराधना कर ।। ४३ ।।। परः पराणां पुरुषो यस्य तुष्टी जनार्दनः ।। अनि बोले-पर अनि आदिमें भी में हैं वे स प्राप्नोत्यक्ष स्थानमेतत्सत्यं मयोंदितम् ॥ ४४ | परमपुरुष जनार्दन जिससे संतुष्ट होते हैं उसको वह अङ्गिय उवाच ।
अपद मिना है अह में 4-न्या कहता हैं । ४ ।।
अगि बोले-यदि तू अमूग्रस्थानमा इक है अस्यान्तः सर्वमेवेदमच्युतस्याव्ययारमनः ।। तों जिन अपघामा अच्युतमें यह सम्पूर्ण ज्ञात् ओतप्रोत जमाराधय गोविन्दै स्थानमय यदीच्छसि ।। ४५ | उन गोंटिक ही अराधना कर ॥ ४ ॥
पुलस्त्य बोले—जों परब्रह्म परमधाम और परं ब्रह्म परे धाम योऽसौ ब्रह्म तथा परम्। । परस्वरूप हैं उन हरिकी आराधना करनेसे मनुष्य अति तमाराध्य हरि यानि मुक्तिमष्यतिदुर्लभाम् ॥ ४६ | दुर्लभ मोक्षपदको भी प्राप्त कर लेता हैं ॥ ४६ ।
बियापुराण क्रतुर वाच पुर जाच पुलह बोले-हे समत ! जिन जगत्पती ऐन्दमिन्द्रः परं स्थानं यमाराध्य जगत्पतिम् । । | आराधनासे इन्द्रने अत्युत्तम इन्द्रपद प्राप्त किया है तू उन आप यज्ञपति विष्णुं तमाराधय सुन्नत ।। ४७ | यज्ञपति भगवान् विष्णुकी आराधना कर ॥ ४ ॥
तु बोले-जो परमपुरुष यज्ञपुरुष, यज्ञ और यो यज्ञपुरुष यज्ञो योगेशः परमः पुमान् ।
योगेश्वर हैं उन जनार्दन सन्तुष्ट होनेपर कौन-सी वस्तु इभ रह सकती है? ॥ ४ ॥ तस्मिंस्तुष्टे पदाप्यं किं तदस्ति जनार्दने ।। ४८ वसिष्ठ बोले-हे वत्स! विष्णुभगवान् | वासिष्ठ याचा आप्याराधिने विष्णौ मनसा यद्यदिच्छसि ।
आराधना करनेपर तू अपने मनसे जो कुछ चाहेगा वही प्राप्त कर लेगा, फिर त्रिलोके उत्तमोत्तम स्थाकी तो बात त्रैलोक्यान्तर्गतं स्थानं किमुवत्सोत्तमोत्तमम् ॥ ४९ ॥ ही क्या है ? || ४६ ।। THAT विधुव उवाच
भुवने कहा-हे महर्षिगण ! मुझ विनीतक आराध्यः कथितो देवो भवद्धि: प्रणतस्य में। आपने आराध्यदेव तो बता दिया। अब उसको प्रसन्न मया तत्परतोषाय यजमयं तदुच्यताम् ।। ५० करनेके लिये मुझे क्या जपना चाहिये—यह बताइये । उस यथा चाराधनं तस्य मया कार्य महात्मनः ।। | महापुरुषों मुझे जिस प्रकार आराधना करनी चाहिये, वह प्रसादसुमुखास्तन्में कथयन्तु महर्षयः ।। ५६ | आपलोग मुझसे प्रसन्नतापूर्वक कहिये ॥ ५०-५१ ॥ ऋषय ऊचुः कामक ऋषिगण बोले-हे राजकुमार ! विष्णु राजपुत्र यथा विष्णोराराधनपरेनरैः ।।
भगवान्की आराधनामें तत्पर पुरुषको जिस प्रकार इनकी कार्यमाराथनं तन्नो यथावच्छ्रोतुमर्हसि ॥ ५२ | | उपासना करनी चाहिये ह तू हमसे यथावत् श्रवण कर
|| ५२ ।। मनुष्यको चाहिये कि पहले सम्पूर्ण बाह्य बाह्यार्थादखिलाञ्चित्तं त्याजयेप्रथम नरः । विष्पोंसे चित्तको हावें और उसे एकमात्र उन तस्मिन्नेव जगद्धाग्नि ततः कुवत निश्चलम् ॥ ५३ ॥
जगदाधारमें में स्थिर कर दे ।। ५३ ।। हे राजकुमार ! इस एवमेकाग्रचित्तेन तन्मयेन धुतात्मना। । प्रकार एकाग्रचित्त होकर तन्मय-भावसे जो कुछ जपना जप्तव्यं यन्निबोथैतत्तन्नः पार्थिवनन्दनः ।। ५४ | चहिये. बह सुन–1॥ ५४॥ ‘3ॐ हिरण्यगर्भ, पुरुष, हिरण्यगर्भपुस्यप्रधानाध्यक्तरूपिणे । | प्रधान और अमावा नस्वरुप प्रसिद्ध ॐ नमो वासुदेवाय शुद्धज्ञानस्वरूपिणे ॥ ५५ नमस्कार हैं’ ॥ ५५ ॥ इस (ॐ नमो भगवते वासुदेवाय) मन्त्रको पूर्वकालमें तेरे पितामह भगवान् स्वायम्भुवयानुने एक्जाप भगवान् जप्यं स्वायम्भुवो मनुः । जपा था। तब इनसे सन्तुष्ट होकर श्रीजनार्दनने उन्हें पितामहस्तव पुरा तस्य तुष्टी जनार्दनः ॥ ५६ | त्रिलोकीमें दुर्लभ मनोवाञ्छित सिद्धि दी थीं। उसी ददी यथाभिलषितां सिद्धिं त्रैलोक्यदुर्लभाम् । |फ्रकार तु भी इसका निरभर जप करता हुआ श्रीगोविन्दको तथा त्वमपि गोक्न्दिं तोषयैतत्सदा जपन् ॥ ५७ | प्रसन्न कर ।। ५६-५७ ||
मां
इति श्रीविष्णुपुराणे प्रथमेशे एकादशोऽध्यायः ।। ११ ।।
अच्चम अंश
बारहवाँ अध्याय
ध्रुखकी तपस्यासे प्रसन्न हुए भगवान्का आविर्भाव और उसे ध्रुवपद-दान ऑपराकर उवाच पराशरजी बोले-हैं मैत्रेय ! यह सब सुनकर निशम्यैतदशेषेण मैत्रेय नृपतेः सुतः । राजपुत्र धुव न ऋषियो प्रणामफर इस नसे चल निर्झगाम वनात्तस्मात्प्रणिपत्य स तानुषीन् ॥ १ | दिया ।। १ ।। और है द्विज़ ! अपनेको कृतकृत्य-सा मानकर वह यमुनातटवर्ती अति पवित्र मनु नामक अनमें कृतकृत्यमिवात्मानं मन्यमानस्ततो द्विज।
आया। आगे चलकर इस वनमें मधु नामक दैत्य रहने मधुसंज्ञे महापुण्यं जगाम यमुनातटम् ॥ २ ॥ लगा था, इसलिये वह इस पृथ्वीतलमें मधुवन नामसे पुनश्च मधुसंज्ञेन दैत्येनाधिष्ठितं यतः ।। निळ्यात हुआ || २-३ ।। वहीं मधुके पुत्र लवण नामक ततो मधुवनं नाम्ना ख्यातमन्न महीतले ॥ ३ | महाबली राक्षसको मारकर शत्रुघ्ने मधुरा (मथुर) हत्वा च लवणं रक्षो मधुपुत्रं महाबलम् । नामकी | वसायी ।। ४ ।। जिस (मधुवन) में निरन्तर देवदेव श्रीहरिकों सन्निधि रहती है उसी सर्वपापापहारों शत्रुघ्रों मधुरो नाम पुरीं यत्र चकार वै ।। ४ ॥ तीर्थमें भुवने तपस्या की ।। ५॥ मचि आदि मुनीसरोंने अन्न वै देवदेवस्य सान्निध्यं इरिमेधसः ।। उसे जिस प्रकार उपदेश किया था इसने इस प्रकार अपने सर्वपापहरे तस्मिंस्तपस्तीर्थे चकार सः ।। ५ ॥ इदयमें विराजमान निखिलदेवेश्वर औविष्णुभगवान्का मरीचिमुख्यैर्मुनिभिर्यथोद्दिष्टमभूत्तथा ।
ध्यान करना आरम्भ किया ॥ ६ ॥ इस प्रकार हैं वित्र ! अनन्य-चित्त होकर ध्यान करते हुनेसे उसके हृदय आत्मन्यशेषदेवेशं स्थितं विष्णुममन्यत ।। ६ ॥ सर्वभूतान्तर्यामी भगवान् र सर्वतोभाचरो प्रकट अनन्यचेतसतस्य ध्यायतो भगवान्हरिः । |हए ॥७॥ सर्वभूतगतो विप्न सर्वभावगतोऽभवत् ।। 9 | हे मैत्रेय ! योगी भुक्कै चित्तमें भगवान् विष्णुके मनस्यवस्थिते तस्मिन्विष्णौ मैत्रेय योगिनः । | स्थित हो जानेपर सर्वभूतोंको धारण करनेवालों पृथिवी न शशाक धरा भारमुढोढुं भूतधारिणी ॥ ?
उसका भार न सँभाल सकी ॥ ८ ॥ उसके बायें चरणपर खड़े होनेसे पृथिवीका बायाँ आधा भाग झुक गया और वामयादस्थिते तस्मिन्नामार्द्धन मेदिनी।।
फिर दायें चरणपर पड़े होनेसे दायाँ भाग झुक गया ॥ ६ ॥ द्वितीयं च ननामा क्षितेदक्षिणतः स्थिते ॥ ६ | और जिस समय वह पैके अँगूठेसे पृथिवीको (बीचसे) पादाङ्गठेन सम्पीय यदा स वसुधां स्थितः ।। दबाकर खड़ा हुआ तो तोके सहित समस्त भूमण्ट्रल तदा समस्ता वसुधा चचाल सह पर्वतैः ।। १०
नद और समुद्र आदि सभी अत्यन्त शून्य हो गये और नद्यो नदाः समुद्राश्च सल्लभं परमं ययुः । उन्के क्षोभसे देवताओंमें भी बड़ी हलचल मची ॥ ११ ॥ तन्क्षोभादमराः क्षोभं परं जमुर्महामुने ।। ११ || | हे मैत्रेय ! तब याम नामक देवताओंने अत्यन्त व्याकुल हों यामा नाम तदा देवा मैत्रेय परमाकुलाः ।। इन्द्र साथ परामर्श कर उसके ध्यानको भङ्ग करने का इन्द्रेण सह सम्मन्त्र्य ध्यानभङ्गं प्रचक्रमुः ।। १२ आयोजन किया ॥ १३ ॥ है महामने ! इन्के साथ भत आतुर कुष्माद्ध नामक उपदेवताओंने नानारूप धारणकर, कूष्माण्डा विविधै रूपैर्महेन्द्रेण महामुने ।
उसकी समाधि भङ्ग करना आरम्भ किया ॥ १३ ॥ समाधिभङ्गमत्यनमारब्धाः कर्तुमानुराः ।। १३
उस समय मायाहीसे रची हुई उसकी माता सुनीति सुनीतिर्नाम तन्माता साम्रा तत्पुरतः स्थिता । | नेत्रोंमें आँसू भरे उसके सामने प्रकट हुई औंर हे पुन ! पुत्रेति करुयां वाचमाह मायामयी तदा ।। १४ | हे पुत्र !’ ऐसा कहकर करुणायुक्त वचन बोलने लगी पुत्रकामान्निवर्तस्व शरीरात्यायदारुणात् । । [ उसने कहा |–बेटा ! तू इशारीरको बुलानेवाले इस निर्बन्धतों मया लब्धों ब्रहभिस्त्यं मनोरथैः ।। १५ | भयङ्कर तपका आग्रह झेड़ दे। मैंने बड़ी-बड़ी दीनामेकां परित्यक्तुमनाथ न त्वमसि ।
कामानाद्वारा तु म मिा हैं ।। १४= १५ || अरे ! मुझ अकेलं, अनाथा, इसियाको सत कद वाक्योंमें डू सपत्नीवचनाद्वत्स अगतेस्त्वं गतिर्मम ।। १६ |
देना तुझे उचित नहीं है। बॅय ! मुझ आश्रयहींना तो च त्वं पञ्चवर्षीयः क्व चैतद्दारुणं तपः । | एकमात्र तू हीं सारा हैं ।। १६ । कहाँ त पाँच वर्षका तू निवर्ततां मनः कान्निधात्फलवर्जितात् ।। १७ | और कहाँ तेरा यह अति उग्र तप ? अरे ! इस निष्फल काल: क्रीडनकानान्ते तदन्तेऽध्ययनस्य ते ।। होदाकी आग्रहले अपना मन मोड़ ले ।। ११ || अभी तो तेरे खेलने कूदनेका समय हैं, फिर अध्ययनका समय ततः समस्तभोगान तदन्ते चेष्यते तपः ॥ १८॥ आयेगा, तदनन्तर समस्त भगक भोगनेव और फिर कालः क्रीड़नकानां यस्तव बालस्य पुत्रक । अन्तमें तपस्या करना भी क होगा ॥ १८ ॥ बेटा ! तुझ तस्मिंस्त्वमिच्छसि तपः किं नाशायात्मनो रतः ॥ १९ ॥ | सकुमार बालकका ‘जो खेल-कूदका समय है उसमें , मत्प्रीतिः परमो धर्मो वयोऽवस्थाक्रियाक्रमम् ।।
तपस्या करना चाहता है। इस प्रकार क्यों अपने अनुक्र्तस्व मा मोहान्निवर्तास्मादधर्मतः ।। ३० सर्वनाशमें तत्पर हुआ हैं? ॥ १९ ॥ तेरा परम धर्म तों मुझको प्रसन्न रखना ही है, अतः तू अपनी आयु और परित्यजति वत्साद्य यद्येतन्न भवस्तपः ।। अवस्थाके अनुकूल कर्मोमें ही ग, मोहका अनुवर्तन न त्यक्ष्याम्यहमिह प्राणांस्ततों वै पश्यतस्तव ।। ३१ कर और इस तपपी अधर्मसे निवृत हो ॥ २३ || बेटा !
औपया उवचन यदि आज तू इस तपस्याको न छोड़ेगा तो देख तेरे सामने तां प्रलापवतीमेवं वाष्पाकुलविलोचनाम् ।
ही मैं अपने प्राण अॅड़ देंगीं ॥ २१ ॥ समाहितमना विष्णौ पश्यन्नपि न दृष्टवान् ।। २२ पराशरजी बोले- मैनंय ! भगवान् विष्णु चित्त स्थिर रहनेके कारण भुवने इसे आँखोंमें आँसू भरकर वत्स चस सुघोराणि रक्षास्येतानि भीषणे ।।
इस कार विलाप करती नकर भी नहीं देना ॥ ३३ ॥ वनेऽभ्युद्यतशस्त्राणि समायान्त्यपगम्यताम् ।। २३ | तुम्, “अरे मैस ! यहं इत्युक्त्वा प्रययौ साथ रक्षास्याविर्वभुस्ततः । | महाभयङ्कर बनमें ये कैसे घोर राक्षस अस्त्र शास्त्र उठाये शहाणा अभ्युद्यतोत्राणि ज्यालामालाकुलमुखैः ॥ २॥ आ गृहे हैं’–ऐसा तो हुई वाह चन्ने गयी और वहां जिनके मुलासे कि म नि । थी से अनेक तनो नादानतीवोग्रान्नाजपुत्रस्य ते पुरः । राक्षसण आरन शरज भाले क्ट हो गये ।। ३३-२४ ॥ मुमुचुदीप्तशखाणि भ्रामयन्तो निशाचराः ।। २५ | उन राक्षसोंने अपने अति चमकीले दशलको घुमाते हुए शिवाश्च शतशो नः सञ्चालाकवलेर्मखेः । इस पत्रके ने बड़ा स ल किमा त्रासाय नस्य बालस्य योगयत्तस्य सर्वदा ।। ३६ | ॥ ३५ ॥ उस नियोगयुक्त माझको भयभीत करने लिये अपने मुसे अग्निकी लपटें निकालती हुई सैक हुन्यतां हन्यतामेष छियतां छिद्यतामयम् ।
मारि र नाई करने || ६ || ॐ सा भी भक्ष्यतां भक्ष्यतां चायमिन्यूमते निशाचराः ॥ ६ | इसके मा-मारों, काट-का, खाओं-खाओं’ इस ततो नानाविधान्नादान् सिंहोष्टमकराननाः ।। अकब निस्लाने लगे ॥ ३५ ॥ नि सिंह, ड और मकर त्रासाय राजपुत्रस्य नेदस्ते रजनीचराः ।। ३८ मादिके-से मुखवाले वे राक्षस राजपुको वाण देनेके लिये रक्षांसि तानि ते नादाः शिवास्तान्यायुधानि च । नाना प्रकारले गरजने लगे ।। ॥ गोविन्दासक्तचित्तस्य ययुनेन्द्रियगोचरम् ।। २६ | उनके शब्द, स्यारियाँ और अस्त्र-शस्त्रादि कछ भी दिखायी।
किंतु उस भगवदासक्तचित्त बास्कों में राक्षस, एकामचेताः सततं विष्णुमेवात्मसंयम्। | नहीं दिये ।। २९ ।। वह राजपुत्र एकाग्रचितसे निरन्तर दृष्टवान्पृथिवीनाथपुत्रो नान्यं कथञ्जन ।। ३० | अपने आश्रयभूत विष्णुभगवान्ले ही देखता रहा और ततः सर्वास मायास विलीनासु पुनः सुराः । । उसने किसीकी ओर किसी भी प्रकार दृष्टिपात नहीं सल्लेमें परमं जग्मुस्तपराभवशडिताः ।। ३१ | किया ॥ ३० ॥ ते समेत्य जगद्योनिमनादिनिधनं हरिम् ।।
तब सम्पूर्ण माया लीन हो जानेपर उससे हार, जानेकी आकासे देवताओंको बढ़ा भय हुआ ।। ३३ ।। शरण्ये शरणं यातास्तपसा तस्य तापिताः ।। ३३ ॥
अतः उसके सपनें सक्षम हो । जुन आपसमें मिलाकर |
जगतुके आदि-कारण, शरणागतवत्सल, अनादि और देवदेव जगन्नाथ परेश पुरुषोत्तम् ।। अन श्रीहरिकी में गये ।। ३ ।। भुवस्य तपसा तप्तास्त्वां वयं शरणं गताः ।। ३३ दिने दिने कलालेशैः शशाङ्क: पूर्यते यथा। पुरुषोत्तम ! हम सब भुक्की तपस्याने सन्तप्त होकर आपकी शरणमें भा है। ३३॥ हैं देव ! जिस प्रकार तथायं तपसा देव प्रयायुद्धमहर्निशम् ॥ ३४ ॥
चन्द्रमा अपनी कला भनिदिन बढ़ना है उसी प्रकार औत्तानपादितपसा वयमित्यं जनार्दन ।
यह भी समस्याका कारण रात-दिन उन्नत हो रहा है ।। ३ ।। भीतास्त्वां शरणं यातास्तपसस्तं निवर्तय ।। ३५ जनार्दन ! इस उत्तानपादके पुत्रकी तपस्यासे भयभीत न विद्यः किं शक्रत्वं सूर्यवं कियभीप्सति । र म भापको कारण ये हैं, माघ ३ नपर्म निवृत्त विनपाम्बुपसोमानां साभिलाषः पदेषु किम् ॥ ३६ |
कीजिये ।। ३५ || हम नहीं जानते, वह इन्द्रत चाहता है या सूर्यख अथवा उसे कुबेर, वरुण या क्न्द्रमाके पदकी तदस्माकं प्रसीदेश हृदयाच्यल्यमुद्धर ।।
अभिलगा हैं ।। ३६ ।। अतः हे ईश ! आप कुमपर प्रसन्न ऊतानपादतनयं तपसः सन्निवर्तय ।। ३७ | होइये और इस उत्तानपादके को तपसे निवृत्त करके
| श्रीभगवानुवाच हमारे हृदयन काँटा निकालिये ॥ ३१ || नेन्द्रत्वं न च सूर्यत्वं नैवाम्बुपधनेशताम् । | श्रीभगवान् बोले-हे सुरगण ! उसे इन्द्र, सूर्य, प्रार्थयत्येष यं कामं तं करोम्यखिलं सुराः ।। ३८ ॥
वरुण अथवा कुबेर आदि किसी पदकी अभिलाषा नहीं है, उसकी जो कुछ इच्छा है वह मैं सब पूर्ण यात देवा यथाकार्म स्वस्थानी विगतज्वराः ।।
करूंगा ॥ ३८ ॥ हैं देवगण ! तुम निश्चित होकर निर्नयाम्यहं बालं तपस्यासक्तमानसम् ।। ३१ | इच्छानुसार अपने-अपने स्थानों जाओ। मैं तपस्या
ऑपराशर उवाच लगे हुए उस बालको निवृत्त करता हैं ॥ ३५ ॥ इत्युक्ता देवदेवेन प्रणम्य बिंदशास्ततः ।। ऑपराशजी बोले-देवाधिदेय भगवान् पैसा प्रययुः स्वानि थियानि शतकनपुरोगमाः ॥ ४३ | कहनेपर इन्द्र आदि समस्त देवगण उन्हें मणामफर अपने-अपने स्थानो गये ॥ ४३ || सर्वांत्मा भगवान् भगवानपि सर्वात्मा तन्मयत्वेन तोचितः । हरिने भी अवकी तन्मयतासे प्रसन्न हों उसके निकट गत्वा भुवमुखाचेदं चतुर्भुजवपुर्हरिः ॥ ४१ ॥ चतुर्भुजपसे जाकर इस प्रकार कहा ॥ ११ ॥ |
श्रीभगवानुवाच श्रीभगवान् बोले—हे उत्तानपादके पुत्र धुव ! औत्तानपादे भद्रं ते तपसा परितोषितः ।। | तेरा कन्याग हो। मैं तेरी तपस्यासे प्रसन्न होकर तुझे वर वरदोऽहमनुप्राप्तो वरं वरय सुव्रत ॥ ४२ | देनेके लिये प्रकट हुआ हूँ, हे सुन्नत ! तू वर माँग ॥ ४२ ॥ बाझार्थनिरपेक्ष ते मयि चितं यदाहितम् । तूने सम्पूर्ण बाह्य निषयोंसे ऊपरत होकर अपने चिनको तुष्टोऽहं भवतस्तेन तवृणीषु व्ररं परम् ॥ ४३
मुझमें ही लगा दिया है। अतः मैं तुझसे अति सन्तुष्ट हैं। अब तू अपनी इअनुसार श्रेष्ठ वर माँग ॥ ४३ ॥ | श्रीपराशर उवाच ऑपराशरजी बोले–देवाधिदेव भगवान्के ऐसे श्रुत्वेस्थं गदितं तस्य देवदेवस्य बालकः ।। | वचन सुनकन, बालक भुवने आँखें वो और अपनौं । उन्मीलिता ददृशे ध्यानदृष्टं हरिं पुरः ।। ४४ | ध्यानावस्थामें देखे हुए भगवान् नारिको साक्षात् अपने निपाण शङ्खचक्रगदाशाङ्वरासिधरमच्युतम् ।। । सम्मुख खड़े देखा ।। ४ ॥ अच्युतको किराँट तथा किरीटिनं समालोक्य जगाम शिरसा महीम् ।। ४६ | शङ्ख, चक्र, गदा, शाङ्गे धनुष और खड्ग धारण किये देख
उसने पृथिवीपर, सिर, इलाका प्रणाम किया ॥ ४५५ ।। और रोमाञ्चिताङ्गः सहसा साध्यसं परमं गतः । सहसा रोमाञ्चित तथा पग भयभीत होकर उसने देवदेवकी स्तवाय देवदेवस्य स चक्के मानसं भुवः ।। ४६ | लुति करनेकी इच्छा को ।। ४६ ॥ किन्तु इनकी स्तुतके । किं वदामि तुतावस्य केनोक्तेनास्य संस्तुतिः ।
लिये मैं क्या का ? क्या कहनेसे इनका स्तनन हो सकता है।’ साह न जाननके कारण वह चित्त व्याकल हो गया इत्याकुलमनिर्देवं तमेव शरणं ययौ ॥ ४५७
| और अन्नामें उसने उन देवदेवी ही शरण में । 1 || युवा याच भुवने कहा-भगवन् ! आप यदि मेरी तपन्नासे | भगवन्यदि में तोषं तपसा परमं गतः । सन्तुष्ट हैं तो मैं आपकी स्तुति करना चाहता हैं, आप मुझे स्तोतुं तदपिछामि बरमेनं प्रयच्छ में ॥ ४८| यहीं कर दीजिये [ जिससे मैं तुति कर सकें । ॥ ४ ॥ [ब्रह्माद्यैर्यस्य वेदर्जायते यस्य नो गतिः ।
{ हे दैव ! जिनकी गति बझा आदि वेदज्ञजन भी नहीं जानने; उन्ही आपका मैं बाइक में स्तवन कर सकता । तं त्वां कश्चम देव स्तोतुं शक्नोमि बालकः ॥
हैं। किंतु हैं परम प्रभो ! आपने भरिको इपीभूरा हुआ त्वद्भक्तिप्रवर्ण होतत्परमेश्वर में मनः । मॅग्न चित आपके चरणोंको स्तुति करनेमें प्रवृत हो रहा हैं। अतः आप इसे उनके लिये बुद्ध प्रदान कीजिये ] । स्तोतुं प्रवृत्तं त्वत्पादौ तत्र प्रज्ञां प्रयच्छ मे ॥ ] | श्रीपराशरी बोले-हैं द्विवर्य ! तब नगरपति पराझार ज्ञवाच । श्रीगोविन्दने अपने सामने हाथ जोड़े लड़े हुए उस शानेन गोविन्दस्ते पस्पर्श कृताञ्जलिम् । उत्तानपादके पुत्र अपने (बेदमय) शके अन तानपादतनयं द्विजवर्य जगत्पतिः ।। ४९ (वेदातमय भागसे बड़ दिया ॥ ४६॥ तच तो कि क्षणमें ही वह रामकुमार प्रसन्न-मुख अति विनीत हों अथ प्रसन्नवदनः स क्षणानृपनन्दनः ।।
सर्वभूताधिान श्रीअच्युतकी स्तुति करने लगा ।। ५ ।। तुष्टाव प्रणतो भूत्वा भूतधातारमच्युतम् ॥ ५॥ | अन्न झाले–मध, ज्ञान, अग्नि, वाय
आकाश, मन, बुद्धि, अहंकार और मूल-कनिये | भूमिरापोऽनले वायुः खं मनो बुद्धिरेव च। | सम्म जिनके रूप में इन मुगानुको मैं नमस्कार करता भूतादिरादिप्रकृतिर्यस्य रूर्ष नतोऽस्मि तम् ॥ ५१ हैं ।। ५५१ ॥ जो अति शुद्ध, सूक्ष्म, सर्बज्यापक और प्रधानसे भी परे है, वह पुरुष जिनका रूप हैं उन शुद्धः सूक्ष्मोऽखिलव्यापी प्रधानात्परतः पुमान् । गु-भा परमपुरुषको मैं नमस्कार करता है ॥ ३ ॥ यस्य रूपं नमस्तस्मै पुरुषाय गुणाशिने ॥ ५३ | परमेश्वर ! पृथिवी आदि समस्त भूत, गन्धादि उनके गुण, बुद्धि आदि अन्तःकरण-चतुष्टय तथा प्रधान और भूरादीनां समस्तानां गन्धादीनां च शाश्चतः ।
पुरुष (जीव) से भी परे ज्ञों सनातन पुरुष हैं, इन आप बुद्ध्यादीनां प्रधानस्य पुरुषस्य च यः परः ॥ ५३ | निखिलब्रह्माण्डनायकके ब्रह्मभूत शुद्धस्वरूप आत्माकी तं ब्रह्मभूतमात्मानमशेषजगतः पतिम् ।।
मैं । ॥ ३-४ ॥ है सर्वात्मन् ! ॐ योगियाके चिन्तनीय ! व्यापक और चईनशॉल होने के कारण प्रपद्ये शरणं शुद्धं त्वयं परमेश्वर ॥ ५४ ॥
आपका जो ब्रह्म नामक स्वरूप हैं, उस विकारहित बृहत्वादहणत्वाच्च यद्यं ब्रह्मसंज्ञितम् । | रूप मैं नमस्कार करता हूँ ।। ५५ ।। हे प्रभो ! आप तस्मै नमस्ते सर्वात्मन्यौगि चिन्त्याविकारिणे ।। ५५ हजारों मस्तवाले हज़ारों नेत्रोंवाले और हजारों चरणोंवाले परमपम हैं, आप सर्वत्र व्याप्त हैं और सहस्रशीर्षा पुस्यः सहस्राक्षः सहस्रपात । । पृथिवी आदि आवरणके माहित ] सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड सर्वव्यापी भुवः स्पर्शीदत्यतिष्ठद्दशाङ्गलम् ॥ ५६ व्याप्त कर दस गुण महाप्रमाणसे स्थित हैं ॥
अधम अश
अद्भूतं यच्च वै भव्यं पुरुषोत्तम तद्भवान् । ॐ पुरुगोत्तम ! भूत और भविष्यत् जो कुछ पदार्थ हैं । त्वत्तो विराट् स्वरसम्राट् त्वत्ताप्यधिपूरुषः ।। ५७ | सय प हैं हैं तथा विराट्, म्यरा, सम्राट् और अधिपुरुष (ब्रह्मा) आदि भी सब आपहीसे उत्पन्न हुए हैं ॥ ५५ ॥ वे कहीं अत्यरिच्यत सोऽथश्च तिर्यगृथ्वं च वै भुवः । | आप इस पृथिवीके नीचे-ऊपर और इधर-उधर, सब ओर बढ़े त्वत्तो विश्वमिदं जातं त्वत्तो भूतभविष्यती ।। ५८ हुए हैं। यह सम्पूर्ण जगत् आपहीसे उत्पन्न हुआ हैं तथा
अपि भूर भाग्य ! ह ॥ ५८ ।। यह सम्ण त्वद्रूपधारिणश्चान्तर्भूतं सर्वमिदं जगत् ।। आपके स्वरूपभूत क्रह्माण्डके अन्तर्गत हैं । फिर आपके त्वत्तो यज्ञः सर्वतः पृषदान्यं पशुद्धिा ॥ ५९ | अन्तर्गत होनेकी तो बात ही क्या हैं ] जिसमें सभी पुरोडाशय भान होना है यह यज्ञ, पथदाज्य (दधि भौर ) तथा त्वत्तः ऋचोथे सामानि त्वत्तश्छन्दांसि जज्ञिरे । || ग्राम्य और वन्य ] दो प्रकारके पशु आपसे उत्पन्न हुए त्वतो यजूंष्यज्ञायन्त त्वत्तोऽश्वाश्चैकतों दतः ।। ६० हैं ॥ ५९॥ आपहीसे ऋक्, साम और गायत्री आदि छन्द प्रकट हुए हैं, आपको यजुर्वेदका प्रादुर्भाव हुआ है और गावस्त्वत्तः समुतास्त्वत्तोऽज़ा अवयो मृगाः ।।
आपसे अश्च तथा एक ओर दौंतजाले महिष आदि बँच त्वमुखाद्ब्राह्मणास्त्वत्तो बाहोः क्षत्रपजायते ॥ ६१ | उत्पन्न हुए हैं ॥ ६ ॥ आपसे गौओं, बकरिये, भेड़ों और
मृगको उत्पत्ति हुई हैं; अपहोंके मुखसे ब्राह्मण, बाहुओंसे वैश्यास्तवोरुजाः शूबास्तव पद्ध्यां समुद्गताः ।
इनिंग, जंघाओंसे वैश्य और चरणोंमें शुद्ध प्रकट हुए हैं तथा अक्ष्णः सूयनिल: प्राणाचन्द्रमा मनसस्तव ॥ ६२ | आपके नेत्रोंसे सूर्य, प्राणसे वायु, मनसे चन्द्रमा, भीत] छिद्र (नासा) से मामा, मुग्ने नि, नाभिसे आमा, सिसे प्राणोऽन्तःसुषिराजात मुखाग्निरजायत ।। नर्ग, ऑनस दिया और चरसे प्रथिनी आदि उत्पन्न हुई। नाभितो गगनं झौवा शिरसः समवर्तत ।। ६३ इस प्रकार हे प्रभो ! यह सम्पूर्ण जगत् आपहीसे प्रकट हुआ दिशः ओञात्क्षितिः पद्भ्यां त्वत्तः सर्वमभूदिदम् ।। ६४
हैं ॥ ६१–६४ ॥ जिस प्रकार नन्हे ब्रीजमें बड़ा भारी कट-क्ष रहता हैं इस प्रकार प्रय-कालमें यह सम्पूर्ण जगत् न्यग्रोधः सुमहानल्ये यथा बीजे व्यवस्थितः । | बीज-म्वरूप आपमें लीन रहता है । ६५ ॥ जिस प्रकार संयमे विश्चमखिलं बीजभूते तथा त्वयि ॥ ६५ वीजप्से अररूपमें प्रकट हुआ सट-मक्ष बकर अत्यन विनारधार हो जाता है उसी प्रकार साधकालमें यह जानु बीजारसम्भूतो न्यग्रोधस्तु समुत्थितः ।। | आमहासे प्रकट होकर फैल जाता है ॥ ६६ ॥ हे ईश्वर ! जिस विस्तारं च यथा याति त्वतः सृष्टी तथा जगत् ॥ ६६ प्रक | प्रकार केरा पौधा लक और पतॉसे आग दिखायी नहीं देता उसी प्रकार जगात्से आप पृथक्र नहीं है, वह भापहमें यथा हि कदली नान्या त्वक्पन्नादपि दृश्यते । स्ति देखा जाता है ।। ६ ।। अब आधारभूत आपमें एवं विश्वस्य नान्यस्त्वं त्वत्थायीश्वर दृश्यते ॥ ६७ | क्वादिनी (निरन्तर आादित करनेवाली) और अश्विनी विहित) सेतु विद्याशक्ति) भिन्नरूपाने रहर्त हादिनी सन्धिनी संवित्वय्येका सर्वसंस्थितौ । | हैं। आपमें (विषजन्य) आहाद या ताप देनेवालों ह्लादतापकरी मिश्रा त्वयि नो गुणवर्जिते ।। ६८ (सात्विको या तामसी) अथवा उभयमिन्ना (राजसी) कोई भी सपना नहीं है, कि आप निगुण ॐ ॥ ६ ॥ आप पृथग्भूतैकभूताय भूतभूताय ते नमः ।। [कार्यदृष्टिसे ] पृषक-अप र [ कारणदृष्टिसे ] एकरूप प्रभूतभूतभूताय तुभ्यं भूतात्मने नमः ।। ६९ | हैं। आप ही भूतसूक्ष्म है और आप ही नाना जींवरूप हैं । हे मत न्तरात्मन् ! में आपने में नमस्कार करता हूँ ।। ६३ ।। व्यक्तं प्रधानपुरुषौ विराट्सम्राट् स्वरा तथा। योगियों द्वारा ] अन्त:करणमें आए हैं महत्तत्व, विभाव्यतेऽन्तःकरणे पुरुषेनुक्षयो भवान् ।। ७० | | प्रधान, पुरुष, विद्, समाद और स्वराद् आदि रूपोसे भावना लिये जाते हैं और [ क्षन्पशील ] पुरुषोंने आप सर्वस्मिन्सर्वभूतस्त्वं सर्वः सर्वस्वरूपधृक् । निय अक्षर हैं ॥ १ ॥ आशादि सर्वंभूतमें सार सर्व त्यत्तस्ततश्च त्वं नमः सर्वात्पनेऽस्तु ते ।। ७१ | अर्थात् उनके गुणरूप आप ही हैं; समस्त रूपको धारण ऑमियापुराण सर्वात्मकोऽसि सर्वेश सर्वभूतस्थित यतः । । करनेवाले होनेसे सब कुछ आप ही हैं; सब कुछ आपहीसे कथयामिततः किं ते सर्व वेल्सिइदिस्थितम् ।। ७३ | हुआ है; अतएव सबके द्वारा आप ही हो रहे हैं इसलिये आप सर्वात्माको नमस्कार है ॥ * ॥ हे सर्वेश्वर ! आप सर्वात्मन्सर्वभूतेश सर्वसत्त्वसमुद्भव ।।
वत्मक हैं, क्योंकि सम्पूर्ण भूतों में व्याप्त है; अतः मैं सर्वभूतो भवान्चेत्ति सर्वसत्त्वमनोरथम् ॥ ७३ | आपसे क्या कहूँ। आप स्वयं ही सच हदयस्थित बातोंको यो में मनोरथो नाय सफलः स त्वया कृतः । ।
मानते हैं ॥ १४ ॥ समन् ! हे सर्वभूतेश्वर ! है सच
भूतके आदि स्थान ! भाप सर्वभूतरूपसे सभी प्राणियोंके तपश्च तप्तं सफल यद्दष्टोऽसि जगत्पते ।। ७४ मनोरों जानते हैं ।। ३ ।। हे नाथ ! मेरा जो कुछ | भगवानुवाच मनोरथ था वह तो आपने सफल कर दिया और हैं तपसस्तत्फले प्राप्तं योऽहं त्वया ध्रुव । जगत्पते ! मेरो तपस्या भी सफल हो गयीं, क्योंकि मुझे मद्दर्शनं हि विफल राजपुत्र न ज्ञायते ।। ७५ आपका साक्षात् दर्शन प्राप्त हुआ ।। ।।
श्रीभगवान् बोले-हे व ! तुम मेरा साक्षात् वरे वय तस्मात्त्वं यथाभिमतमात्मनः ।।
दर्याप्त प्राप्त हुआ. इससे अवश्य ही ते तपस्या तो सफल सर्व सम्पद्यते पुस मयि दृष्टिपर्थ गते ।। ७६ | हों गयीं; परन्तु हे राजकुमार ! मेरा इर्शन भ तो कभी |
धुव उवाच निष्फल नहीं होता ।। ५ । इसलिये तुझको जिस जरी भगवन्भूतभव्येश सर्वस्यास्ते भवान् हदि । इच्छा हो वह माँग ले । मेरा दर्शन हो जानेपर पुरुषों सभी किमनाते तब ब्रह्मन्मनसा यन्पयश्चितम् ।। 55 | कुछ प्राप्त हो सकता है ।। ६ ।।
अव बोले-हे भूतभव्येश्वर भगवन् ! आप तथापि तुभ्यं देवेश कथयिष्यामि यन्मया। | सभके अन्तःकरणोंमें विराजमान हैं। ई झन् ! मेरे प्राय॑ते दुर्विनीतेन हृदयेनातिदुर्लभम् ॥ ७८ | मनी जो कुछ अभिलाषा हैं वह क्या आपसे छिपी हुई
| है? || 9 || तो भी, हे देवेश्वर ! मैं इर्विनीत जिस भनि किं वा सर्वजगत्स्रष्टः प्रसन्ने त्वयि दुर्लभम् ।
दुर्लभ वस्तुकी हदयसे इच्छ करता हूँ उसे आप त्वत्प्रसादफलं भुते त्रैलोक्यं मघवानपि ।। ७९ | आज्ञानुसार आपके प्रति निवेदन करूंगा ।। ७८ ॥ है। नैतानासनं योग्यमजातस्य ममोदरात् ।।
समस्त संसार उननेवाले परमेश्वर ! आपके प्रसन्न
होनेपर (संसारमें) क्या दुर्लभ हैं ? इन्द्र भी आपके इतिगर्वादयचन्मां सपत्नी मातुरुच्चकैः ।। ८० ॥
मायके फलमसे ही त्रिलोकीको भोगता है ।। १ ।। आधारभूर्त जगतः सर्वेषामुत्तमोत्तमम् । | प्रमों ! मेरी सौतेनी माताने गर्नमें अति बढ़-बकर प्रार्थयामि प्रभो स्थानं त्वत्प्रसादादतोऽव्ययम् ॥ ८१ ॥
मुझसे यह कहा था कि ‘जों में ऊदरसे उत्पन्न नहीं हैं उसके
योग्य यह हासन नहीं हैं’ ।। ८. || अतः हे प्रभो ! आपके श्रीभगवानुवाच ।
प्रसादसे मैं उस सर्वोत्तम एवं अव्यय स्थानको प्राप्त करना यत्वया प्राय॑ते स्थानमेतप्राप्स्यति वै भवान्।
चाहता है जो सम्पूर्ण विश्वका आधारभूत हो ॥ १ ॥ त्वयाऽहं तोषितः पूर्वन्यजन्मनि बालक ।। ८२ | | भगवान् बोले-अरे बालक ! तूने अने त्वमासीर्वाह्मणः पूर्वं मय्येकाग्रपतिः सदा। पुर्नजन्म भी मुझे सन्तुष्ट किया था, इसलिये तू जिस धानकों का करता है उसे अवश्य प्राप्त करेगा मातापित्रोच्च शुश्रूषर्निजधर्मानुपालकः ॥ ८३ ॥
|| ३ || पुर्व-जन्ममें नु एक मामण था और मुझमें कालेन गच्छता मिन्नं जपुत्रस्तवाभवत् ।। | निरन्तर एकाचत हुनेवाला, माता-पिताको सेवक तथा यौवनेखिलभोगायों दर्शनीयोचलाकृतिः ॥ ८g | स्वधर्मका पालन करनेवाला था ।। ३ ।। कालान्तरमें एक राजपत्र लॅग्न भिन्न हो गया। वह अपनी स्वावस्थामै सम्पूर्ण तत्सङ्गात्तस्य तामृद्धिमवलोक्यानिदुर्लभाम् । | भोगों सम्पन्न और अति दर्शनीय रूपलावण्ययुक्त भचेर्य राजपुत्रोझमिति वाञ्छा त्वया कृता ।। ८५ | था ।। ४ ।। उसके ससे उसके दुर्लभ वैभवको
| अ° १३ ]
प्रथम अंश
ततो यथाभिलषिता प्राप्ता ते राजपुत्रता। देसकर तेरी ऐसी इच्छा हुई कि ‘मैं भी जमुन उत्तानपादस्य गृहे जातोऽसि ध्रुव दुर्लभे ॥ ८६ | हो ।। ८५, ।। अतः हे ध्रुव ! तुझको अफ्नो मनोवाञ्छित अन्येषां दुर्लभं स्थानं कुले स्वायम्भुवस्य यत् ।। ८७
राजपुत्रता प्राप्त हुई और जिन स्वायम्भुवमनुके कुल और किसको स्थान मिलना अति दुर्लभ हैं, उन्हींक घरमें चुनें तस्यैतदपरं बाल येनाहं परितोषितः । । उत्तानपादके यहाँ जन्म लिया ।। ८६-८७ ॥ अरे बालक ! मामाराध्य नरो मुक्तिमवाप्नोत्यविलम्बिताम् ॥ ८८ [ औरॊके लिये यह स्थान कितना ही दुर्लभ हो परन्तु ] मय्यर्पितमना बाल किमु स्वर्गादिकं पदम् ॥ ८९ | | जिसने सन्तुष्ट किया है उसके लिये तो यह अत्यत्त तु है। मेरों आराधना करनेसे तो मोमपद भी तत्काल त्रैलोक्यादधिके स्थाने सर्वताराग्रहाश्रयः । ।
प्राप्त हो सकता है, फिर जिसका चित्र निरक्षर मुझमें ही भविष्यति न सन्देहो मत्प्रसादाद्धवान्थुव ।। ९० | लगा हुआ है उनके लिये हि लोकोकस न फना ही सूर्यासोमात्तथा भौमात्सोमपुत्राद्धृहस्पतेः । ।
क्या है ? ।। ८८-८९ ।। ॐ भुव ! मेरी कृपा तु निस्सन्देह | सितार्कतनयादीनां सर्वक्षण तथा भूव ।। ११ | उस स्थानमें, जो त्रिलोकीमें सबसे उत्कृष्ट है, सम्पूर्ण प्रह
और तारामण्डलका माश्चय बनेगा ।। ६ ।। है धन ! मैं सप्तर्वाणापशेषाणां ये च वैमानिकाः सुराः । । तुझे यह ध्रुव (निश्चल) स्थान देता है जो सूर्य, चन्द्र, सर्वेषामुपरि स्थानं तव दत्तं मया ध्रुव ।। १२ | | मंगल, बुध, बृहस्पति, शुक्र और शनि आदि हों, सभी कैचिच्चतुर्युगं यावत्केचिन्पन्वन्तरं सुराः । नक्षत्रों, सप्तयों और सम्पूर्ण विमानचा देवगणोंसे ऊपर तिष्ठति भवतो दत्ता मया वै कल्पसंस्थितिः ॥ ९३ हैं ॥ ६१=३३ ॥ देवताओंमेंसे कोई तो केवल चार युगतक
| औंर कोई एक मन्वन्तरतक ही रहते हैं; किन्तु तुझे मैं एक सुनीतिरपि तें माता त्वदासज्ञातिनिर्मला ।। कल्पतक्की स्थिति देता है ॥ १३ ॥ विमाने तारका भूत्वा तावत्कालं निंवत्स्यति ॥ ९४ | ने] माता सुनीति भी अति स्वच्छ तारारूपसे इतने ही ये च त्वां मानवाः प्रातः सायं च सुसमाहिताः । | समयत तर पाच एक विमानपर निनास नगी ।। ४ ।। कीर्तयिष्यन्ति तेवां च महत्पुण्यं भविष्यति ॥ ९५
और जो लोग समाहित-चित्तसे सोयाल और प्रातःकालके समग ते गुण-कोन करेगे उनको महान् पराशर उवाच पुण्य होगा ।। ६५ ॥ एवं पूर्व जगन्नाथाद्देवदेवजनार्दनात् । पराशरजी बोले- महामते ! इस प्रकार वरं प्राप्य ध्रुवः स्थानमध्यास्ते स महापते ।। ९६ | पूर्वकालमें जगत्पति देवाधिदेव भगवान् जनार्दनसे का स्वयं शुश्रूषणाद्धय मातापित्रोच्च वै तथा । पाकर ध्रुव उस अत्युत्तम स्थानमें स्थित हुए ।। १६ ।। हैं द्वादशाक्षरमाहात्म्यात्तपसचे प्रभावतः ।। १७ |
मुने ! अपने माता-पिताकी धर्मपूर्वक सेवा करनेसे तथा द्वादशाक्षर-मन्त्रके माहात्म्य और तृपके प्रभवसे उनके तस्याभिमानमृद्धिं च महिमानं निरीक्ष्य हि।
मान, वैभव एवं प्रभावकी वृद्धि देखकर दैव और असुरोक देवासुराणामाचार्य: लोकमत्राशना जग ।। १८| आचार्य शुक्लबने ये इक कहे हैं- ॥ १७-१८ ॥ अहोऽस्य तपसो वीर्यमहोऽस्य तपसः फलम् । “अहो ! इस भुवके तपको कैसा अभाव हैं ? अहो ! यदेनं पुरतः कृत्वा ध्रुवं सप्तर्षयः स्थिताः ॥ १९ |
इसकी तपस्याका कैसा अद्भुत फल हैं जो इस भूचक हौं आगे रखकर समर्पगण स्थित हो रहे हैं ॥ १६ ॥ इमीं ध्रुवस्य जननी चेयं सनीतिय सूनुता। यह सुनौति नामवाळ माता भी अवश्य ही सत्य और अस्याश्च महिमानं कः शक्तो वर्णयितुं भुवि ।। १०० हितकर वचन बोलनेवाली हैं। संसारमें ऐसा कौन हैं
* सुनौतिने धुवो पुण्योपार्जन करनेका उपदेश दिया था, जिसके आचरणसे उन्हें उत्तम लोंक प्राप्त हुआ। अतएव ‘सुनीति’ सूनुज्ञा कही गयी हैं।
श्रीविष्णुपुराण
त्रैलोक्याश्रयतां प्राप्नं परं स्थानं स्थिरायति । जो इसकी महिमा वर्णन कर सके? जिसने अपनी स्थान प्राप्ता परं धृत्वा या कुलिचिव ध्रुवम् ॥ १०१ | कोसने उस धुवको धारण करके त्रिलोकीका आश्रयभूत
अति उत्तम स्थान प्राप्त कर लिया, जो भविष्यमें भी स्थिर यश्चैतत्कीर्तयेन्नित्यं भुवस्यारोहणं दिवि ।
जो व्यक्ति ध्रुव इस दिव्योंक-प्राप्तिके प्रसङ्गका सर्वपापविनिर्मुक्तः स्वर्गलोके महीयते ॥ १०२ | कीर्तन करता हैं वह सब पापोंसे मुक्त होकर स्वर्गलोकमें
जित होता है ॥ १३ ॥ वह स्वर्गमें हो अथवा पश्चिमें, स्थानभ्रंशं न चाप्नोति दिवि वा यदि वा भुवि । | कभी अपने स्थानसे च्युत न होता तथा समस्त मङ्गलसे सर्वकल्याणसंयुको दीर्घकालं स जीवति ।। १०३ | भरपूर रहकर बहुत कातक जीवित रहता है ।। १०३ ॥
इति श्रीविष्णुपुराणे प्रथमेंऽो द्वादशोऽध्यायः ॥ १२ ॥
तेरहवाँ अध्याय
– राजा चेन और पृथुका चरित्र ऑपराशर उवाच ऑपानी बोले-हे मैत्रेय ! घबसे [ उसकी धुवाच्छिटिं च भव्यं च भव्याच्छभुर्व्यजायत । | पत्नीने ] शिष्टि और भव्यको उत्पन्न किया और भव्यसे शिघ्राधत्त सुच्छाया पञ्चपुत्रानकल्मषान् ॥ १ शम्भुका जन्म हुआ तथा शिक्षिके द्वारा उसकी पत्नी सुख्याने निम्, रिपुजय, विप्न, वृकल और वृक्नेजा रिपू रिपुञ्जयं विषं वृकलं वृकतेजसम् । नामक पाँच निष्पाप पुत्र उत्पन्न किये। इनमें रिके द्वारा रिपोराश्चत्त बृती चाक्षुष सर्वतैजसम् ॥ २ | बृहती गर्भसे महातेजस्वी चाक्षुषका जन्म हुआ अजीजनत्पुष्करिण्यां वारुण्यां चाक्षुषो मनुम् ।। । १-२ | चाक्षुषने अपनी भार्या पुरणीसे, जो प्रजापतेरात्मजायां धीरणस्य महात्मनः ।। ३| वरुण-कलमें उत्पन्न और महात्मा वीरग प्रजापतिकी पुत्री थ, मनको उत्पन्न किया [ जो छठे मन्वनके अधिपति मनोरजायन्त दश नवलायां महौजसः ।। हुए ] ॥ ३॥ तपस्वियोंमें अंशु मनुसे वैराज प्रजापतिको कन्यायां तपता श्रेष्ठ वैराज्ञस्य प्रज्ञापतेः ॥ ४ ॥
पुत्र नइलाके गर्भमें दस माह्मतेजस्वी पुत्र उत्पन्न कुरुः पुरुः शतप्तस्तपस्वी सत्यवाछुचिः । | हुए ।। ४ । नवलासे कुरु, पुरु, शतद्युम, तपस्वी, अग्निशेमोतिराश्च सुद्युमश्चेति ते नव ।। सल्यवान्, शुचि, अग्निशेम, अतिगन्न तथा नयाँ सुझम और अभिमन्युश्च दशमो नड्वलाय महौजसः ।। ५ | दसवाँ अभिमन्यु इन पहातेजस्वी पुत्रों का जन्म | हुआ ।। ५ ।। कुरुके द्वारा उसकी पत्नी आग्नेयोने अङ्ग कुरोजनयत्पुत्रान् घाझेयी महाप्रभान् ।।
सुमन, माति, क्रतु. अङ्गिरा और शिबि इन छ: परम अङ्ग सुमनसे ख्याति ऋतुमङ्सिं शिबिम् ॥ ६ ॥
तेजस्वी पुत्रोंकों उत्पन्न किया ।। ६॥ असे सुनीथाके वेन अङ्गात्सुनीथापत्यं वै वेनमेकमजायत । नामक पुत्र उत्पन्न हुआ। ऋषियोंने उस (वेन) के दाहिने प्रजार्थमृषयस्तस्य ममथुर्दक्षिणं करम् ।। ७ | हाथका सन्तानके लिये मन्थन किया था ।। ७ ॥ हैं वेनस्य पाणौ मथिते सम्बभूव महामुने । महामुने ! बेनके हाथका मन्थन करनेपर उससे वैन्य नामक महीपाल उत्पन्न हो जो पृथु नामसे विख्यात है वैव्यों नाम महीपालो यः पृथुः परिकीर्तितः ।। ८ ॥ और जिन्होंने फनके हितके लिये पूर्वकालमें पृथिवीको येन दुग्धा महीं पूर्वं प्रजानां हितकारणात् ।। ९ | दुहा था ॥ ८-९ ।।
अवम अंश
श्रीमैत्रेय उवाच
श्रीमैत्रेयजी बोले-हैं मुनिश्रेष्ठ ! परमर्षयोंने किमर्थं मथितः पाणिर्वेनस्य परमर्षिभिः वैनके हाथों में मथा जिसमें महापराक्रमी गृथुका यत्र जज्ञे महावीर्यः स पृथर्मुनिसत्तम ।। १० | जन्म हुआ ? ॥ १० ॥
ऑपरादार वाच
श्रीपराशरजी बोले-हैं मुने! मृत्युकीं सुनाथा सुनीथा नाम या कन्या मृत्योः प्रथमतोऽभवत् ।। नामवाली जो प्रथम पुत्री थी वह अङ्गको पत्रीरूपसे दी अङ्गस्य भार्या सा दत्ता तस्यां वेनो व्यजायत ।। ११ (व्याही गयी थी। उसीसे वेनका जन्म हुआ ।। ११ ॥ है। मैत्रेय ! ज्ञह मृत्युको कन्याका पुत्र अपने मातामह (नाना) स मातामहृदोषेण तेन मृत्योः सुतात्मजः । । के दोषको स्वभावसे ही दृष्टप्रकृति हुआ ॥ १२ ॥ उस निसर्गादिया मैत्रेय दुष्ट एवं व्यज्ञायते ।। १३ | वनका जिस समय महर्षियोद्वारा जपदपर अभिषेक हुआ अभिक्तिों यदा राज्यं स वैनः परमर्षिभिः । । | उसी समय इस पृथिवीपतिने संसारभरमें यह घोषणा कर घोषयामास स तदा पृथिव्यां पृथिवीपतिः ।। १३| दी कि ‘भगवान्, यज्ञपुरुष में ही हैं, मुझसे अतिरिक्त
यज्ञका भोक्ता और स्वामी हों हीं कौन सकता है ? इसलिये न बटुव्यं न दातव्यं न कोतव्यं कथञ्चन । कभी कोई यज्ञ, दान और हवन आदि न करे भोक्ता यज्ञास्य कस्त्वन्य ग्रह यज्ञपतिः प्रभुः ।। १४ |॥ १३-१४ ।। हे मैत्रेय ! हम ऋषियोंने उस पथिवीपतिके ततस्तमृषयः पूर्वं सम्पूज्य पश्चिवीपतिम् ।। पास उपस्थित हों पहले उसकी सुध सा कर नान्चना ऊचुः सामकलं वाक्यं मैत्रेय समुपस्थिताः ।। १५ युक्त मपुर वाणीसे कहा ॥ १५ ॥ | ऋषय ऊचुः ।
षिगण झाले राजन् ! ३ पृथिवीपते ! भो भो राजन् भृगुम्न त्वं यदाम महीपते। | तुम्हारे राज्य और देहके उपकार तथा प्रज्ञाको हितके लिये रायदेोपकाराय प्रजानां च हिनं परम् ।। १६ | हम जो बात कहते हैं, सुनौ ॥ १६ ॥ तुम्हारा कल्याण हो;
देखो, हम बड़े-बड़े यशोद्वारा जो सर्व शेश्वर देवाधिपति दीर्घसत्रेण देवेशं सर्वयज्ञेश्वरं हरिम् । भगवान् का पूजन करेंगे उसके फलमसे तुमको भी पूजयिष्याम भई, ते तस्याशिस्त भविष्यति ।। १५ || छठा ] भाग मिलेगा ।। १७ ॥ हे नप ! इस प्रकार यज्ञेन यज्ञपुरुषो विष्णुः सम्प्रीणितो नृप। | अज्ञों द्वारा यज्ञपुरुष भगवान् विष्णु प्रसन्न होकन अस्माभिर्भवत: कामान्सर्वानेव प्रदास्यति ।। १८ | हमलोगोंके साथ तुम्हारों भी सकल कामना पूर्ण यज्ञैर्यज्ञेश्वरो येषां राष्ट्रे सम्पूज्यते हरिः ।
| करेंगे ।। १८ ।। हे राजन् जिन राज्ञाक राज्यमें यज्ञेश्वर तेषां सर्वेप्सितावाप्तिं ददाति नृप भूभृताम् ।। १९ भगवान् हरिका यज्ञों द्वारा पूजन किया जाता है, वे उनको | सभी कामनाओंको पूर्ण कर देते हैं ॥ १५ ॥ । वेन उवाच
वैन बोला-मुझसे भी बढ़कर ऐसा और कौन है वो मत्तः कोऽभ्यथिकोऽन्योऽस्ति काराभ्यो ममापरः । का मेरा भी पूजनीय हैं ? जिसे तुम यज्ञेश्वर मानते हो वह हरि कोऽयं हरिरिति ख्यातो यो वो यज्ञेश्वरो मतः ॥ २० | कानेवाला कौन है ? ॥ ३० ॥ झा, विष्णु, महादेव, ब्रह्मा जनार्दनः शम्भुरिन्द्रों वायुर्यमों रविः । । | इन्द्र, वायु, यम, सूर्ग, अग्नि, वरुण, घाना, पणा, पथिवीं और हुतभुम्वरुणो धाता पूचा भूमिर्निशाकरः ।। २१ | चन्द्रमा तथा इनके अतिरिक्त और भी जितने देवता शाप और एते चान्ये च ये देवा: शापानुग्रहकारिणः ।। | कृपा करनेमें समर्थ हैं वे सभी के शरीरमें निवास करते नृपस्यैते शरीरस्थाः सर्वदेवमयों नृपः ॥ २२ | है, इस प्रकार जा सर्वदेवमय है ।। ३६-३३ ।। ॐ नाप ।
| ऐसा जानकर मैने सों जो कुछ आज्ञा को है वैसा ही करें । एवं ज्ञात्वा मयाज्ञप्तं यथा क्रियतां तथा ।
देखो, कोई भी दान, अज्ञ और हवन आदि न करें ॥ ३३॥ है न दातव्यं न यष्टव्यं न होतव्यं च भो द्विजाः ।। २३ | द्विजगण ! स्त्रीको परमधर्म जैसे अपने पतिकी सेवा करना ही भर्तृशुश्रूषणं धर्मो यथा स्त्रीणां परो मतः । | माना गया है वैसे ही आपलोगों में भी मै आज्ञाका ममाज्ञापालनं भ्रम भव्रतां न्न तथा द्विजाः ।। ३४ | पालन करना ही है ॥ २४ ।। 1. ! भविपराग [ अ १३ । ऋषय ऊचुः
। ऋषिगण बोले–महाराज ! आप ऐसी आज्ञा देहानुज्ञां मह्मराज मा धर्मो यातु सङ्घयम् । दीजिये, जिससे धर्मको क्षय न हों। देखिये, यह सारा हविषा परिणामोऽयं यदेतदखिलं जगत् ।। ३५ | जगत् हवि (यज्ञमें हवन की हुई सामग्री) का हीं
ऑपराझार जवान परिणाम है ॥ २५ ॥ इति विज्ञाप्यमानोऽपि स वेनः परमर्षिभिः ।। श्रीपराशरजी बोले–महर्थियोंके इस प्रक्चर बारम्बार समझाने और कहने-सुननेपर भी जब येनने ऐसी यदा ददाति नानुज्ञा प्रोक्तः प्रोक्तः पुनः पुनः ॥ २६
आज्ञा नहीं दी तो वे अत्यन्त कुछ और अमर्षयुक्त होकर ततस्ते मुनयः सर्वे कोपामर्षसमन्विताः । आपसमें कहने लगे–’इस पापीको मारो, मागें ! हन्धत हुन्यतां पाप इत्यूचुस्ते परस्परम् ॥ २७ | ॥ ३६-३७ ॥ जो अनादि और अनन्त यज्ञपुरुष प्रभु यो यज्ञपुरुषं विष्णुमनादिनिथनं प्रभुम् ।। | विष्णकी निंदा करता है वह अनाचारों किसी प्रकार विनिन्दत्ययमाचारों न स योम्यों मनः पतिः ॥ ३८| पृथिवीपति हानेके योग्य नहीं हैं ॥ २८ ॥ ऐसा कह
मुनिगणन, भगवान्की निन्दा आदि करने कारण पहले इत्युक्त्वा मन्त्रपूतैस्तैः कुर्मुनिगणा पम् ।।
हीं मरे हुए उस राजाको मन्नसे पवित्र किये हुए कुशाओंसे निजम्नुनिहतं पूर्व भगवन्नन्दनादिना ॥ २६ | मार झ॥ २९ ॥ ततश्च मुनयो रेणु ददृशुः सर्वतों द्विज हे द्विज ! तदनन्तर उन मुनीश्वरोंने सब ओर बड़ी किमेतदिति चासन्ना-पप्रच्छुस्ते जनस्तदा ।। ३० | धूलि उठनी देवी, उसे देखकर उन्होंने अपने निकटवर्ती आख्यानं च जनैस्तेषां चोरीभूतैरराजके। | लोंगोंसे पुछा-”यह क्या हैं “” ॥ ३३ ॥ ऊन पुरुषोंने राष्ट्रे तु लोकैरारब्धं परस्वादानमातुरैः ॥ ३१ | | कहा-“राष्ट्र के राजाहीन हो जानेसे दीन-दुनिया लेगाने चोर बनकर दूसरोंका घन लूटना आरम्भ कर दिया है तेषामुदीर्णवेगानां चोराणां मुनिसत्तमाः ।।
॥ ३१ ।। है मुनिवरों ! उन तीव्र वेगवाले परधनहारी सुमहान् दृश्यते रेणुः परवित्तापहारिणाम् ॥ ३२ | चोरोके उत्पातसे ती यह बड़ी भारी धूल उड़ती दौख ततः सम्मन्य ने सर्वे मुनयस्तस्य भूभृतः । | रही है” ॥ ३ ॥ ममन्थु पुत्रार्थमनपत्यस्य यत्रतः ।। ३३ तब उन सब मुनीश्वरोने आपसमें सत्ग्रह कर उस मथ्यमानान्समुत्तस्थौ तस्योरोः पुरुषः किल ।
| पुत्रहीन चाकी जंघाका पुत्रके लिये यत्नपूर्वक मन्थन दग्धस्थूणांप्रतीकाशः खटास्योऽतिद्वस्वकः ॥ ३४ उत्पन्न हुआ जो जले के समान अला, अत्यन्त नाटा
किया ॥ ३३ ॥ उसकी जंघाके मथनेपर उससे एक पुरुष किं करोति तान्सर्वान्स विमानाह चातुरः । | और छोटे मुखवाला था ॥ ३४ ॥ उसने अति आतुर होकर निषीदेति तमूचुस्ते निषादस्तेन सोऽभवत् ।। ३५ | उन सब ब्राह्मणोंसे कहा—‘मैं क्या करूं?” उन्होंने जननाला ज्ञाना | कहानियद (बैठ)” अतः वह ‘नाद’ कहलाया। निषादा मुनिशार्दूल पापकर्मोपलक्षणाः ।। ३६ | | ॥३५ ।। इसलिये हैं मुनिशार्दूल ! उससे उत्पन्न हुए लोग विभ्यालनिवासी पाप-परायण निगादगण हुए तेन द्वारेण तत्पापं निष्क्रान्तं तस्य भूफ्तेः। । ॥ ३६॥ उस निषादरूप दारसे राजा कॅनका सम्पूर्ण पाय निषादास्ते ततो जाता वेनकल्मषनाशनाः ।। ३७ | निकल गया। अतः निषादगण येनके पापका नाश तस्यैव दक्षिण हुतं ममन्थस्ते ततो द्विजाः ।। ३८ करनेवाले हुए ॥ ३५७ || मध्यमाने च तत्राभूपृथुर्वेन्यः प्रतापवान् ।
फिर उन ब्राह्मणोंने उसके दायें हाथका मन्थन | किया। उसका मन्थन करने से परमप्रताप वैनमुन गुथ दीप्यमानः स्ववपुषा साक्षादग्निरिव ज्वलन् ॥ ३९ |
प्रकट हुए, जो अपने शरीरमें न्याति प्रके समान आद्यमाञ्चगवं नाम खात्पपात ततो धनुः ।। | इंदमान थे ।। ३८-३९ ।। इसी समय आज्ञगव नामक शराश्च दिव्या नभसः कवचं च पपात हू ।। ४० | आद्य (सर्वप्रथम) शिव-धनुष और दिव्य वाण तथा
अ १३ ]
प्रथम अंदा ।
तस्मिन् जाते तु भूतानि सम्मानि सर्वशः ।। ४१ | क्यच आकाशसे गिरे ॥ ४० ॥ उनके उत्पन्न होनेसे सभी सत्पुत्रेणैव ज्ञातेन वेनोऽपि त्रिदिवं ययौ ।
जानकों अति आनन्द हुआ और केवल सत्पुक्के हो जन्म लेने चैन भी स्वर्गलोकको चल गया। इस प्रकार, पुन्ना नरकात् प्रातः सुतेन सुमहात्मना ।। ४२
महात्मा पुनके कारण ही उसकी पम् अर्थात् नमकसे ते समुद्राश्च नद्यश्च रत्नान्यादाय सर्वशः । रक्षा हुई ।। ४१-४२ ॥ तयानि चाभिषेकाचे सर्वापद्येोपतस्थिरे । ४३ | मह्मराज पधुके अभिषेकके लिये सभों समुद्र और पितामहश्च भगवान्देवैराङ्गिरसैः सह ।
नदियाँ म काके रत्न और जल लेका उपस्थित हुए। ॥४३॥ उस समय आंगिरस देवगर्योक सहित पितामह स्थावराणि च भूतानि जङ्गमानि च सर्वशः ।
अह्माज्ञीने और समस्त स्थावर-जंगम प्राणियोंने वहाँ समागम्य तदा वेन्यमभ्यसिन्नराधिपम् ॥ ४४ आकर महाराज बैन्य (वैनपुत्र) का राज्याभिषेक किया हस्ते तु दक्षिणे चक्कं दृष्ट्वा तस्य पितामहः ।। ॥ ४ ॥ उनके दाहिने हाथमें चक्रका चिह्न देखनन उन्हें विष्णोरंश पृथं मत्वा परितोषं परं ययौ ॥ ४५ | विष्णुका अंश ज्ञान पितामह ब्रह्माजीको परम आनन्द हुआ
॥ ४५ ॥ यह श्रीविष्णभगवान्के चक्रका चद्ध सभी विष्णुचक्रे करे चिहं सर्वेषां चक्रवर्तिनाम् ।
चक्रवर्ती राजाओंके हाथमें हुआ करता हैं। उनम प्रभाव भवत्यव्याहतों अस्य प्रभावविदरपि ।। ४६ ॥ कभी देवताओंसे भी कुग्लिन ना होना ॥ ४६॥ महता राजराज्येन पृथुर्वेन्यः प्रतापवान् ।। इस प्रकार महातेजस्वी और परम प्रतापी वैनपुत्र सोभिपित्तों महातेजा विधिवर्मकविः ॥ ४७ ॥ धर्मा महानुमावद्वारा विधिपूर्वक अति महान् गुजराजेश्वरफ्दमर अभिषिक्त हुए ।। ४ ।। जिस जाने पित्रापञ्जितास्तस्य प्रजास्तेनानुरञ्जिताः ।
पिताने अपर (अप्रसन्न किया था उसको उन्होंने अनुरागात्ततस्तस्य नाम राजेत्यज्ञायत ॥ ४८ अनुरञ्जित (प्रसन्न) किया, इसलिये अनुरञ्जन करने |आपस्तस्तम्भिर चास्य समुद्रमभियास्यतः । उनमा नाम ‘राज्ञा’ दुआ ।। ४ ।। अब वे समुद्र चलते
पर्वताश्च ददुर्मा* ध्वज़भङ्गश्च नाभवत् ॥ ४९
थे, तो जल बहनेसे रुक जाता था, पर्वत उन्हें मार्ग देते थे और उनकी बजा के भैग नहीं हुई ।। ६ ।। पृथिवीं अकृष्टपच्या पृथिवी सियन्यन्नानि चित्तया । बिना जोते-बोये घान्य पकानेवाली थी; केवल विनन सर्वकामदुघा गावः पुट पुटके मधु ।५० मात्रसे ही अन्न सिद्ध हो जाता था, गौएँ कामधेनु तस्य वै जातमात्रस्य यज्ञे पैतामहे शुभे । | रूपा थीं और पत्ते-पत्तेमें मधु भरा रहता था ।। ५ || सूत: सूत्यां समुत्पन्नः सत्येऽहन महामतिः ॥ ५१. राजा पृथुने उत्पन्न होते ही पैतामह यज्ञ किया; उससे
समाभिपक्के दिन सूचि (सोमाभिषयभूमि) में मह्ममति तस्मिन्नेव महायज्ञे जज्ञे प्राज्ञोऽथ मागधः ।। | सुनको आपत्ति हुई । ५१ । उसी महायज्ञमें बुद्धिमान् प्रोक्तौ तदा मुनिवरैस्तावुभौ सूतमागधों ।। ५२ | मागधका भी जन्म हुआ। तब मुनिवरोंने उन दोनों सूत स्तूयतामेष नृपतिः पृथुर्वेन्यः प्रतापवान् । | और मागधोंसे कहा— ॥ ५२ ॥ तुम इन प्रतापवान् कमैंतदनुरूपं वां पात्रं स्तोत्रस्य चापरम् ॥ ५३ | निपुत्र महाराज | वेनपुत्र महाराज पृथुकी स्तुति करें] । तुह्मरे योग्य यही कार्य
|हैं और राजा भौ स्तुति ही योग्य हैं ॥ ५३॥ तब उन्होंने ततस्तावृचतुर्विप्रान्सर्वानेव कृताञ्जली । ।
हाथ जोड़कर सब झाह्मणोंसे कम-ये महाराज तो अद्य ज्ञातस्य नो कर्म ज्ञायतेऽस्य महीपतेः ॥ ५४ | आज ही उत्पन्न हुए हैं, हम इनके कोई कर्म तो जानते हों गुणा न चास्य ज्ञायन्ते न चास्य प्रश्चितं यशः । | नहीं हैं ।। ४ ।। अभी इनके न तो कोई गुण प्रकट हुए हैं। नोत्रं किमाश्चर्य त्वस्य कायमस्माभिरुच्यताम् ॥ ५५
और न यो हो विस्यान हुआ है। फिर कहिये, हम कि आधारपर इनकी स्तुति क” ॥ ५५ ॥ | अषय ऊचुः । | ऋषिगण बोले—ये महाबली चक्रवर्ती महाराज करिष्यत्येष यत्कर्म चक्रवर्ती महाबलः । | भयियमें जो शो र्म करेंगे और इनके जो-जो भावी गुण गुणा भविष्या ये चास्य तैरयं स्तूयतां नृपः ॥ ५६ | होगे उन्हींसे तुम इनका स्तवन करो ॥ ५६ ।।
विष्णुपुराण
– ऑपराशर उवाच
श्रीपराशरजी बोले—यह सुनकर राजाको भी ततः स नृपतिस्तोघं तच्छुत्वा परमं ययौ ।परम सन्तोष हुआ; उन्होंने सोचा ‘मनुष्य सद्गुणोंके कारण सहुणैः इलाध्यतामेति तस्मान्लश्या गुणा मम ।। ५७ | ही मशंसाका पात्र होता है; अतः मुझको भी गुण उपार्जन तस्माद्यद्य स्तोत्रेण गुणनिर्णनं त्विमौ ।
करने चाहिये ।। ५ ।। इसलिये अब स्तुति द्वारा में जिन गुणोंकन वर्णन करेंगे मैं भी सावधानतापूर्वक वैसा ही करिष्येते करिष्यामि तदेवाहं समाहितः । ५८
का ।। ५८ || यदि यहाँपर में कुछ त्याज्य अवगुगको यदिमौ वर्जनीयं च किञ्चिदत्र वदिष्यतः ।
भी कहेंगे तो मैं उन्हें त्यागेगा।’ इस प्रकार जाने अपने तदहं यष्यामीत्येवं चक्रे मति नृपः || ५९ | चित्त निश्चय किया ॥ ५५ ।। तदनन्तर उन (सूत और अथ तौ चक्रतुः स्तोत्रं पृथोन्यस्य धीमतः । मागध) दोनोने परम बुद्धिमान् वैननन्दन महाराज पृथुका, भविष्यैः कर्मभिः सम्यक्सुस्वरौ सूतमागधौ ।। ६० उनके भावी कर्मोक आश्रयसे स्वरसहित भली प्रकार सत्यवाम्दानशीलोऽयं सत्यसन्यो नरेश्वरः ।।
| स्तवन किया ॥ ६ || [ इन्होंने कहा-] ‘ये महाराज हमानोंत्रः क्षमाशील विक्रान्तो दुशासनः ।। ६१ सत्ययादीं, दानशील, सत्यमर्यादावा, शील, सुहृद्, क्षमाशील, पराक्रमी और पोंका दमन करनेवाले धर्मज्ञश्च कृतज्ञश्च दयावान् प्रियभाषकः ।
हैं ।। ६१ ॥ ॐ धर्मज्ञ, फा, इवान् प्रियभाषी, मान्यान्मानयता यज्वा ब्रह्मण्यः साधुसम्मतः ॥ ६२ | माननीयको मान देनेवाले, यशपरायण, ब्रह्मणग, समः शत्रौ च मिन्ने च व्यवहारस्थितौ नृपः ।। ६३ | साधुसमाजमें सम्मानित और शत्रु तथा मिनके साथ समान सुतेनोक्तान् गुणानिधै स तदा मागचेन छ । | व्यवहार करनेवाले हैं ॥ ६२-६३ | इस प्रकार सुत । चकार हृदि ताइक च कर्मणा कृतवानसौ ॥ ६४|मागधके कहे हुए गुणोंको उन्होंने अपने चित्तम धारण ततस्तु पृथिवीपालः पालयन्पृथिवीमिमाम् । किया और इस प्रकारके कार्य किये ।। ६४ || तब उन
पृथिवीपतिने पृथिवीका पालन करते हुए बड़ी-बड़े इयाज विविधैर्यशैर्महद्भिर्भूरिदक्षिणैः ।। ६५ इक्षिणावाले अनेकौं महान् यज्ञ किये ।। ६६५ ॥ तं प्रजाः पृथिवीनाथमुपतस्थुः क्षुधार्दिताः ।
अराजकताके समय ओषधियों नष्ट हो जाने से मुझसे ओषधीषु प्रणष्टासु तस्मिन्काले राजके। व्याकुल हुई प्रज्ञा पृथिवीनार्थ पृथुके पास आयी और तमूचुस्ते बताः पृष्टास्तत्रागमनकारणम् ।। ६६ उनके मुझनेपर प्रणाम करके से अपने आनेका कारण निवेदन किया ।। ६६ ॥ – सनात अराजके नृपश्रेष्ठ धरित्या सकलौषधीः । | जाने कहा-हे प्रजापति नृपश्रेष्ठ ! अराजकताके अस्तास्ततः क्षयं यान्ति प्रजाः सर्वाः प्रजेश्वर ।। ६७ समय पृथिवीने समस्त ओषधियाँ गने ली कर ली हैं, अतः आपकी सम्पूर्ण प्रज्ञा क्षीण हो रही है । ६५ || त्वन्नो वृत्तिप्रदो यात्रा प्रज्ञापालको निरूपितः । – विधाज्ञानं आपको हमारा जीवनदायक प्रजापति बनाया है, देहि नः क्षुत्परीतानां फ्रज्ञान जोक्नौषधीः ।। ६८ अतः क्षुधारूप महारोगसे पॉड़ित हम प्रजाजनको आम् | अपराशर उवाच । जीवनरूप ओषघि दीजिये ॥ ६ ॥ ततस्तु नृपतिर्दव्यमादायाञ्चगवं धनुः । । | श्रॉपराशरजी बोले—यह सुनकर महाराज पृथ शरांश्च दिव्या-कुपिताः सन्चधाबबसुन्धराम् ॥ ६१ | अपना आजगव नामक दिव्य धनुष और दिव्य वाण लेकर ततो ननाश त्वरिता गौर्भूत्वा च वसुन्धरा ।
अत्यन्त क्रोधपूर्वक पृथिवीके पीछे दौड़े ॥ ६९ ॥ तब भयसे अत्यन्त व्याकुल हुई प्रथिवी गौरका रूप धारणकर, सा लोकान्ब्रह्मलोकादीन्सन्त्रासादगमन्मही ।। ७० |
| भाग और ब्रह्मक आदि सभी लोमे गयी ।। १८ ॥ यन्न यन्न ययौ देवीं सा तदा भूतधारिणी। | समा भूतको धारण करनेवाली पृथिती जहाँ-जहाँ भी। तत्र तत्र तु सा वैन्यं ददृशेऽभ्युद्यतायुधम् ॥ ७१ | गथी वहीं-वहीं उसने चेनपुत्र पृथुको बास्त्र-सन्धान किये
प्रथम अंश
ततस्तं प्राह वसुधा पृथु पृथुपराक्रमम्। । अपने पीछे आते देखा ।। ७१ ॥ तब उन प्रबल पराक्रमी प्रवेपमाना। तदाणपरित्राणपरायणा ॥ ७३ | महाराज पृथसे, उनके वाणप्रहारसे बचनेकी कामनासे | मिति पूर्थिवाचका काँपती हुई पृथिवीं इस प्रकार बोली ।। २ ।।
सीवधे वे महापाप किं नरेन्द्र न पश्यसि । पृथिवीने कम-हे राजेन्द्र ! क्या आपको जी ३ का नया व ममम ॥ ३ | वधका महापाप नहीं दीख पड़ता, जो मुझे मारनेपर
से तो हो हे हैं । ।। ५३ ॥ । एकस्मिन् यन्न नियनं प्रापिते हुम्कारिणि ।।
पृथु बोले–जहाँ एक अनर्थकारीको मार देने | वनां भवति क्षेमं तस्य पुण्यप्रदो वधः ।। १४
बहतको सुख प्राप्त हो उसे मार देना ही पुण्यप्रद पृथिव्युवाच । फ्रज्ञानामुपकाराय यदि मां त्वं हनिष्यसि । । पृथिवीं बोली-हे नृपश्रेष्ठ ! यदि आप प्रज्ञा आधारः कः प्रजानां ते नृपश्रेष्ठ भविष्यति ।। ७५ हितके लिये ही मुझे मारना चाहते हैं तो [ मेरे पर जानेपर आफ्की प्रज्ञाका आधार क्या होगा ? ॥ ५५ ॥ पृथुक्याचा
* ने कहा–अरी वसुधे ! अपनी आज्ञाका त्वत्वा वसूयेबाणैर्मच्छासनपरामुखम् ।।
उल्लङ्घन करनेवा गुझे मारकर मैं अपने योगवसे ही आत्मयोगबलेनेमा प्रारयिष्याम्यहं प्रजाः ।। ७६ | | इस प्रजाको धारण करूंगा । ‘७६ ॥ नाम श्रींपराशर उवाच ॥a | ऑपराशरजी बोले-तब अत्यन्त भयभीत एवं ततः प्रणम्य वसुधा तं भूयः प्राह पार्थिवम् ।। पती ई पृथिवीने ऊन प्रथिवीपतिको पुनः प्रणाम प्रवपिताजी परमं सायर्स समुपागता ।।
पर्थिव्युवाच
पृथिवी बोली-हे जन् ! यत्नपूर्वक आरम्भ उपायतः समारब्धाः सर्वे सियन्त्युपक्रमाः किये हुए सभी कार्य सिद्ध हो जाते हैं । अतः मैं भी आपको तस्मादाम्यपार्य ते ते कुरुवा यदीच्छसि ।। ७८ | एक पाय बताती हैं। यदि आपकी इच्छा हों तो वैसा हीं। समस्ता या मया जीर्णा नरनाथ महौषधीः । । करें ।। ५९८ ॥ हे नरनाथ ! मैंने जिन समस्त ओषधियोंकों क्दीच्छसि प्रदास्यामि ताः क्षीरपरिणामिनीः ॥ ७९ |
पचा लिया है उन्हें यदि आपकी इच्छा हो तो दुग्धरूपसे मैं तस्मात्मजाहितार्थाय मम धर्मभृतां वर । हैं सी हैं ।। ६ ।। अत: है धर्मात्मा में श्रेष्ठ
महान ! आप अनाके हितके लिये कोई ऐसा वत्स तं तु वत्सं कुरुवा त्वं अरेयं येन वत्सला ॥ (बा) बनाये जिससे वात्सल्यवश मैं उन्हें दुग्धरूपसे समां च कुरु सर्वत्र येन क्षीरं समन्ततः । । निकाल सकें ॥ ८ ॥ और मुझको आप सर्वत्र समतल वगैषधीबीजभूतं बीजं सर्वत्र भावये ॥ ८१ | कर दीजिये जिससे मैं उत्तमोत्तम ओषधियोंके बोजप श्रीराम उवाच दुग्धको सर्वत्र उत्पन्न कर सकें ॥ १ ॥ तन असारयामास शैलान् शतसहस्रशः ।। ऑपराशनी बोले-तब महाराज प्रधुनें अपने अनुष्कॉट्या तदा वैन्यस्तैनशैलाविवदिताः ॥ ८२ | धनुषकी मेटिसे सैक्शे-हजारों पर्वतों को उखाड़ा और उन्हें न हि पूर्वीवसर्गे वै विषमे पृथिवीतले ।।
एक स्थानपर इकट्ठा कर दिया || ८३ ॥ इससे पूर्व पृथिवीके | समतल न होनेसे पुर और माम अदिकन कोई नियमित प्रविभागः पुराणां वा आमाणां वा पुराऽभवत् ॥ ८३ | विभाग नहीं था ॥ ८३ || हे मैत्रंय ! उस समय अन्न, नसस्यानि न गौरक्ष्यं न कृषिर्न वणिक्पथः ।। गोरक्षा, कृषि और व्यापारका भी कोई क़म न था । यह सब वैन्यात्प्रभृति मैत्रेय सर्वस्यैतस्य सम्भवः ।। ४ | तो वेनपुत्र पृथुके समय ही आरम्भ हुआ है ॥ ८ ॥ बने
ऑविणपुराण
अत्र यत्र समं स्वस्या भूमेरासीदद्विजोत्तम । | हैं द्विजोत्तम ! जहाँ-जहाँ भूमि समतल थी वहीं-वहींपर तत्र तत्र फ्रज्ञाः सर्वा निवासं समरोन्नयन् ।। ८५ | प्रजाने निवास करना पसन्द किया ।। ८५ ॥ उस समयतक आहारः फलमूलानिं प्रज्ञानामभवत्तदा । | प्रजाका आह्मर केयल फल मूलादि ही था; यह भी कृष्ण महता सोऽपि प्रणास्वोषधीषु वै ।। ८६ | ओषधियोंके नष्ट हो जानेसे बड़ा दुर्लभ हो गया था ।। ८६ ।। स कल्पयित्वा वत्स तु मर्नु स्वायम्भुवं प्रभुम् ।। तब पृथिवीपति पृथुने स्वायम्भुषमनुको बा बनाकर अपने हाथमें हीं पृथिवीरों के हितके लिये स्वपाणौ पृथिवीनाथो दुदोह पृथिवीं पृथुः ।। समस्त धान्य दुहा । ॐ तात ! उस अन्नके आधारसे सस्यजातानि सर्वाण प्रजार्ना हितकाम्यया ।। ८७ अब भी सदा प्रज्ञा जीवित रहती है ॥ ८-८८ ॥ माग्रज तेनान्नेन प्रज्ञास्तात वर्तन्तेद्यापि नित्यशः ।। ८८ | | पृथु प्राणदान करने के कारण भूमिके पिता हुए. इसलिये प्राणप्रदाता स पृथुर्यस्माद्भूमेरभूत्पिता। उस सर्वभूतघारिणीको ‘पृथिव’ नाम मिला ॥ ८१ ।। ततस्तु पृथिवीसंज्ञामवापाखिलधारिणी ।। ८९| हे मुने ! फिर देवता, मुनि, दैत्य, राक्षस, पर्वत, ततश्च देवैमुनिभिर्दैत्यै रक्षोभिरदिभिः ।
गन्धर्व, सर्प, यक्ष और पितृगण आदिने अपने-अपने गन्धर्वैरुरगैर्यौंः पितृभिस्तरुभिस्तथा ॥ ९० पात्रोंमें अपना अभिमत दुध दुहा तथा दुहनेवालके
अनुसार उनके सजातीय झी दोग्धा और वत्स आदि हुए तत्तत्पात्रमुपादाय तत्तद्धं मुने पयः ।। ॥ १०-११ । इसलिये विष्णुभगवान के चरणोंसे प्रकट वत्सदोग्धृविशेषाश्च ते तयनयोऽपयन् ॥ ११ | हुई यह पथिक ही सयको जन्म देनेवाली मनानेवाली सैषा धात्री विधात्रीच धारिणी पोषणी तथा।। | तन्ना धारण और पोषण करनेवाली है ॥ ६ ॥ इस प्रकार सर्वस्य तु ततः पृथ्वी विष्णुपादतलोद्भवा ॥ १२ | पूर्वकालमें बेनके पुत्र महाराज पृथु ऐसे प्रभावशाली एवं प्रभावस पृथुः पुत्रों वेनस्य वीर्यवान् । | और वीर्यवान् हुए। प्रज्ञाको रान करनेके कारण वे जज्ञे महीपतिः पूर्वी राजाभूजनरञ्जनात् ॥ १३ ॥ ‘राजा’ कहलायें ॥ ३३ ॥ LE य इदं जन्म वैन्यस्य पृथोः संकीर्तयेन्नरः ।।
जो मनुष्य महाराज पृथुके इस चरित्रका कीर्तन करता हैं उसका कोई भी दुष्कर्म फलदायी नहीं होता ।। ६४ ।। न तस्य दुष्कृतं किञ्चित्फलदायि प्रजायते ॥ ९४ |
पृथुका यह अत्युत्तम जन्म-वृत्तान्त और उनका प्रभाव दुस्वप्नौपशर्म नृणां शृण्वतामेतदुत्तमम् ।अपने सुननेवाले पुरुषोंक दुःस्वप्नोंने सर्वदा शान्त कर देता पृथोर्जन्म प्रभावश्च करोति सततं नृणाम् ।। १५ | हैं ॥ १५ ॥
प्रतिमा पंचांग इति श्रीविष्णुपुराणे प्रथमें त्रयोदशोऽध्यायः ॥ १३ ॥ । य
जना देनेचाम, यज्ञोपवीत करानेवाला, अन्नदाता, मष इशा करनेवाण तथा जो विद्यादान करे- पाँच पिता माने गये है जैसे का है।
अनकोंपनेता च य विद्याः भगत । अन्नदाता पनाता पर्छ फितरः स्मृताः ॥ LIFE
चौदहवाँ अध्याय
प्राचीनबर्गका जन्म और अत्रेताओका भगवदाराधन || म राझार उवाच
ऑपराशरजी बोले–हे मैत्रेय ! पृथके अन्तर्ज्ञान पृथः पुत्रौ तु धर्मज्ञौ जज्ञातेऽतर्द्धिवादिनौ । | और बादी नामक दो धर्मज्ञ पुन हुए; इनसे अन्तर्धानसे शिखछनी हस्रिर्धानमन्तर्धानायजायत ।। १ | उसकी पत्नी शिखण्डिनीने हाँबर्षाको उत्पन्न किया हविर्धानात् पानेयी बिघणाऽजनयत्सुतान् ।। |॥ १ ॥ हविर्घानसे अग्निकुलींना धिषणाने प्राचीनवर्स, प्राचीनबर्हिमें शुकं गयं कृष्णं वृज्ञाजिनौ ।। ३ । शुक्र, गय, कृष्ण, वृज और अजिन—ये छः पुत्र उत्पन्न प्राचीनबर्भिगवान्पहानासीत्प्रजापतिः । किये ॥ ३ ॥ हैं महाभाग ! विधनसे उत्पन्न हुए भगवान् प्राचीन एक महान् प्रजापति थे, जिन्होंने अके द्वारा हविर्थानान्महाभाग येन संवर्धिताः प्रजाः ॥ ३ ॥ अपनी प्रज्ञाको बहुत बुद्धि कीं ॥ ३॥ हे मुने ! उनके प्राचीनायाः कुशास्तस्य पृथिव्यां विश्रुता मुने।। समयमै [ यज्ञानानकी अधिकताकै कारण ] माचनाम प्राचीनयर्हिरभवत्यातो भुचि महाबलः ॥ ४ | |
कुदा समस्त पृथिवीमें फैले हुए थे, इसलिये ये महाबली समुद्रतनयायां तु कृतदारो महीपतिः । । | ‘अननिर्वाह नामसे त्रिव्यात हुए ॥ ४ ॥ महतस्तपसः पारे सवर्णायां महामते ।। ५ | हे महामते ! उन मह्मपतिने महान् तपस्याके अनन्तर सवर्णाधत्त सामुदी दश प्राचीनबर्हवः । । समुद्रको पुत्र सवर्णासे विवाह किया ।। ५ ।। उस समुद्र सर्वे प्रचेतसो नाम धनुर्वेदस्य पारगाः ।। ६ कन्या सणक प्राचीनर्हिसे दस पुत्र हुए। वे प्रचेता नामक सभी पुत्र पत्रिपार्ने पारगामी थे ।। ६ ।। उन्होंने अपृथग्धर्मचरणास्तेऽतप्यन्त महत्तपः । सडक जल कर इस हार पर्पतफ समान धर्मका दशवर्षसहस्राणि समुद्रसलिलेशयाः ।। ५६ भाचरण करते हुए घोर तपस्या में ।। ६ ॥ तर – यि श्रीमैत्रेय उवाच का श्रीमैनेजी बोले–हैं मह्ममुने ! उन महात्मा यदर्थं ते महात्मानस्तपस्तेपुर्महामुने। । प्रचेताओंने जिस लिये समुद्र में तपस्या की थी सों प्रचेतसः समुद्राम्भस्येतदाख्यातुमर्हसि ।। | | आप कहिये ||८||
ऑपद उवाच । ऑपराशरजी कने लगे-हे मैजेंय ! एक बार पित्रा प्रचेतसः प्रोक्ताः प्रजाश्चममतात्मना । प्रजापती प्रेरणासे प्रताकि महात्मा पिता प्राचीनन उनसे अति सम्मानपूर्वक सत्तानोत्पत्तिकै जापतिनियुक्तेन वा बहुमानपुरस्सरम् ।। १
लिये इस प्रकार का ।। ५ ।।.. प्राचीनवर्स बोले-हे पुत्रों ! देवाधिदेव ब्रह्मणा देवदेवेन समादिष्टोऽस्म्यहं सुताः ।। | ब्रह्माजीनें मुझे आज्ञा दी हैं कि तुम प्रज्ञाकी वृद्धि कों प्रज्ञाः संवर्द्धनीयास्ते मया चोक्तं तथेति तत् ।। १० | और मैंने भी उनसे बहुत अछा’ कह दिया हैं।। १३ || तन्यम प्रीतये पुत्राः प्रजावृद्धिमतन्द्रिताः । भनः हैं पुत्रगण ! तुम भी मेरी प्रसन्नताके लिये कुरुवं माननीया वः सम्यगाज्ञा जापतेः ।। ११ | सावधानतापूर्वक प्रजाकी नृद्धि कों, क्योंकि प्रजापतिकी |
ऑपराशर उवाच आज्ञा तुमको भी सर्वथा माननीय है ॥ ११ ॥ ततस्ते तत्पितुः श्रुत्वा वचनं नृपनन्दनाः ।। श्रीपराशजी बोले-हे मुने ! उन राजकुमारोंने
पिता ये वचन सुनकर उनसे ‘जो आज्ञा’ ऐसा कहकर तथेत्युक्त्वा च तें भूयः पप्रच्छुः पितरं मुने ।। १२ फिर पूछा ॥ ३ ॥ प्रचेतस ऊचुः
प्रचेता बोले-हे तात ! जिस कर्मसे हम प्रजा येन तात प्रज्ञावृद्धौ समर्थाः कर्मणा वयम् । |द्धिमें समर्थ हो सके उसकी आप हमसे भली प्रकार भवेम तत् समस्तं नः कर्म व्याख्यातुमर्हसि ।। १३ | व्याख्या कीजिये ॥ १३ ।। सिमाना वि- पु ३ ऑविन्यपुराण पिनोवाच पिताने कहा-बरदायक भगवान् विष्णुकी आराध्य वरदं विष्णुमिष्टप्राप्तिमसंशयम् ।। आराधना करनेसे ही मनुष्यको निःसन्देह इष्ट वस्तुको प्राप्ति समेति नान्यथा मर्त्यः किमन्यत्कथयामि वः ॥ १४ ॥
होती है और किसी उपायसे नहीं। इसके सिवा और मैं तुमसे क्या कहूँ ।। ४ ।। इसलिये यदि तुम सकता तस्मात्प्रज्ञाविवृद्धयर्थं सर्वभूतप्रभुं हरिम् ।। चाहते हो तो जाबझिके लिये सर्वभूनक स्वामी श्रीहरि आराधयत गोविन्दं यदि सिद्धिमभीप्सथ ।। १५ || गोविन्दकी उपासना को ।। ३५ || धर्म, अर्थ, काम या धर्ममर्थं च कामं च मोक्षं चान्यच्छतां सदा। मोक्षकों इच्छावाको सदा अनादि पुरुषोत्तम भगवान् आराधनों भगवान्नादिमझम ।। १६ | निमकी ही आराधना करनी चाहिये ।। १६ ॥ कल्पके यस्मिन्नाराधिते सर्ग चकारादौ प्रजापतिः आरम्भमें जिनकी उपासना करके प्रजापतिने संसारकी चना की है, तुम उन युकी झी आराधना ) । इससे तमाराध्याच्युतं वृद्धिः प्रजानां वो भविष्यति ।। १७ ॥ तुम्हारी सत्तानकी वृद्धि होगी ।। १५॥ सन १ ऑपराशर उवाच ऑपराशरजी बोले-पिताकी ऐसी आज्ञा होनेपर इत्येवमुक्तास्ते पित्रा पुत्राः प्रचेतसो दश ।। प्रचंता नामक इस पुन समुद्रके जलमें डूबे रहकर मन्नाः पयोधिसलिले तपस्तेपुः समाहिताः ।। १८ | सावधानतापूर्वक तय करना आरम्भ कर दिया ॥ १८ ॥ हैं दशवर्षसहस्राणि न्यस्तचित्ता जगत्पतौ ।।
मुनिश्रेष्ठ ! सर्वलोकाश्रय जगत्पति श्रीनारायण चित्त लगाये हुए उन्होंने दस हजार वर्षतक वहीं (जलमें हीं)। नारायणे मुनिश्रेष्ठ सर्वलोकपरायणे ।। १९ |
| स्थित रहकर देवाधिदेव हरिकी काम-चित्तसे स्तुति तत्रैवावस्थिता देवमेकाभमनसो हरिम् ।। की, जो अपनी स्तुति की जानेपर स्तुति करनेवालोंको सभी तुर्यस्तुतः कामान् स्तोतुरिष्टान्प्रयच्छति ॥ २० । कामनाएँ सफल कर देते हैं । १९-२० ॥
श्रीमैत्रेयज्ञी बोले-ॐ मुनिश्रेष्ठ | समुद्रके जलमें नर्सको नाम भनाः । | स्थित रहकर प्रचेताने भगवान् विघकी जो अति पवित्र चक्रुस्तन्मे मुनिश्रेष्ठ सुपुण्यं वक्तुमर्हसि ।। २१ | स्तुति की भी बह स्तुति कीं थीं वह कृपया मुझसे कहिये ॥ २१ ॥
पराशरजी बोले-हैं मैत्रेय ! पूर्वकालमें ऑपराशर उवाच । समुहमें स्थित रहकर प्रचेताओंने तन्मय-भाषसे शृणु मैत्रेय गोविन्दं यथापूर्वं प्रचेतसः ।।
श्रीगोविन्दको जो स्तुति की, वह सुन ॥ २२ ॥ तुबुस्तन्मयीभूताः समुद्रसलिलेशयोः ॥ २२ ॥ अचेताओंने कहा—जिनमें सम्पूर्ण वाक्योंकों प्रचेतस ऊचुः नित्य-ऑनष्ठा है अर्थात् बों सम्पूर्ण वाक्योंकि एकमात्र नताः स्म सर्वचसा प्रतिष्ठा यत्र शाक्कती। | प्रतिपाद्य ] तथा जो गाकी पत्ति और मेय तमाद्मन्तमशेषस्य जगतः परमं प्रभुम् ॥ २३ | कारण हैं उन निम्मल-जगन्नायक परमप्रभुको हम नमस्कार करते है ।। ३३ ।। जो आद्य ज्योतिस्वरूप, ज्योतिरायमनौपम्यमण्वनन्तमपारवत् ।
अनुपम, अण, अनन्त, अपार और समस्त चराचराके योनिभूतमशेषस्य स्थावरस्य चरस्य च ॥ २४ ॥
कारण हैं, तथा जिन पहन परमेमके दिन, रात्रि और यस्याः प्रथम रूपमरूपस्य तथा निशा ।। सध्या झी प्रथम रूप हैं, उन कालस्वरूप भगवानूको सन्ध्या च परमेशस्य तस्मै कलात्मने नमः ।। ३५ नमस्कार है ॥ ३४-३५, || समस्त प्राणियोंके जीवन भुज्यतेऽनुदिनं देवैः पितृभिश्च सुधात्मकः ।। जिनके अमृतमय स्वरूपको देव और पितृगण नित्यप्रति भोगते हैं-उन सोमस्वरूप प्रभुकों नमस्कार हैं ।। ६ ।। जीवभूतः समस्तस्य तस्मै सोमात्यने नमः ।। ३६ ॥जो तीक्ष्णन्थरुप अपने तेजसे आकाशमाटो यस्तमांस्यत्ति तीव्रात्मा प्रभाभिर्मासयन्नभः ।। प्रकाशित करते हुए अन्धकारको भक्षण कर जाते हैं तथा धर्मशीताम्भस योनिस्तस्मै सूर्यात्मने नमः ।। २७ जो घाम, शीत और जलके उद्गमस्थान हैं न सूर्यस्वरूप अम अझ काठिन्यवान् यो बिभर्ति जगदेतदोषतः । ।। नारायण ] को नमस्कार हैं ॥ २७ ॥ जो कठिनतायुक्त शब्दादिसंश्रयो व्यापी तस्मै भुम्यात्मने नमः ।। २८ | होकर इस सम्पूर्ण संसारको धारण करते हैं और शब्द यद्योनिभूतं जगतो बीजं यत्सर्वदेहिनाम् ।।
| | भाडि पाँचौं विमय आधार तथा व्यापक हैं, उन भूमरूप भगवान्को नमस्कार है ।। ३ ।। जो संसारका तत्तोयरूपपीशस्य नमामो हरिमेधसः ।। २९ ३ न मः ॥ ५ | निरूप है और समस्त देहधारियोंका बीज है, भगवान् यो मुखं सर्वदेवाना हव्यभुकाव्यभुक तथा।। | हरिके उस जालस्वरूपकों हम नमस्कार करते हैं ॥ २६ ॥ पितृणां च नमस्तस्मै विष्णवे पाचकात्मने । ३८ | जो समस्त देवताओंका हव्यभुक् और पितृगणका पञ्चधावस्थितों देहे यश्चेष्टां कुतेनिशम् । कथ्यभुक मुख हैं, उस अग्निस्वरूप सिणुभगवानकों आकाशयोनिर्भगवस्तस्मै वाय्वात्मने नमः ।। ३१
नमस्कार हैं ॥ ३n || जो प्राण, अपान आदि पाँच प्रकारचे हमें स्थित होकर दिन-रात चेष्टा करता रहता हैं तथा अवकाशमशेषाणां भूतानां यः प्रयच्छति ।। जिसमें योनि आकाश है, उस वायुरूप भगवान्को अनत्तमूर्तिमा तस्मै व्योमात्मने नमः ।। ३३ नमस्कार हैं ।। ३१ ।। जो समस्त भूतोंको अवकाश देता हैं। समस्तेन्द्रियसर्गस्य यः सदा स्थानमुत्तमम् ।।
उस अनमूर्ति और परम् शुद्ध आकास्वरूप अभुकों तस्मै शब्दादिरूपाय नमः कृष्णाय वेधसे ।। ३३ नमस्कार हैं ॥ ३३ ॥ समस्त इन्द्रिय-सृष्टके जो इत्तम
स्थान है जन शब्द-शादिरूप विधाता श्रीकृष्णचन्द्रको गृह्णाति विषयान्नित्यमिन्द्रियात्मा क्षराक्षरः ।। नमस्कार हैं ॥ ३३ ॥ जो क्षर और अक्षर इन्द्रियरूपसे यस्तस्मै ज्ञानमूलाय नताः स्म रिमेधसे ।। ३४ | नित्य विषयको ग्रहण लते हैं उन ज्ञानमूल हुरिको गृहीतानिन्द्रियैरनात्मने यः प्रयच्छति ।। नमस्कार हैं ॥ ३४ ॥ इन्द्रियों द्वारा पण किये विषयको |अतःकरणस्पाय नमै विशात्मने नमः ।। | जो आत्माके सम्मुख उपस्थित करता है उस अन्त:करण
रूप विश्वात्माको नमस्कार हैं ॥ ३५ ॥ जिस अनन्त यस्मिन्ननते सकलं विश्वं यस्मात्तथोक्तम् । सकल बिश्व स्थित है, जिससे वह उत्पन्न हुआ है और जो लयस्थानं च यस्तस्मै नमः प्रकृतिधर्मिणे ।। ३६ | उसके लयको भी स्थान मैं उस प्रकृतिरूप परमात्माको शुद्धः सैल्लभ्यते भान्या गुणवानिंब योगुणः ।। नमस्कार हैं ॥ ३६ ।। जो शुद्ध और निर्गुण होकर भौं तमात्मरूपिणे देवं नताः स्म प्रयोत्तमम् ।। ३७ | भ्रमश गुणयुक्त से दिखायी देते हैं उन आत्मस्वरूप पुरुषोत्तमदेवकों हम नमस्कार करते हैं ॥ ३ || ज्ञों अविकारमर्ज शुद्धं निर्गुणं यन्निरञ्जनम् ।।
अनन्कारी, अजन्मा, शुद्ध, निर्गुण, निर्मल और नताः स्म तत्परं ब्रह्म विष्णोर्यत्परमं पदम् ॥ ३८ श्रीविष्णुका परमपद है उस मह्मस्वरूपको हम नमस्कार अदीर्घह्रस्वमस्थूलमनण्यश्यामलोतिम् ।। करते हैं ॥ ३८ ॥ जो न लम्बा है, न पतला है, न मोटा है, अनेच्छायमतनुमसक्तमशरीरिणम् ॥ ३१ | न छोटा हैं और न काला है, न लाल है, जो नेद (इव), | मन्त्रि तथा से रहित एवं अनासक्त और अशोरी अनाकाशमसंस्पर्शमगन्धमरसं च यत् । (ज्ञवसे भित्र) हैं ।। ३६ ॥ जो अवकाश स्पर्श, गन्ध और अचक्षुश्रोत्रमचलमयापाणिपमानसम् ॥ ४० |
इससे रहित तथा आँख कान-विहाँन, अच एवं जिल्ला, अनामगोत्रमसुखमतेजस्कमहेतुकम् । । | हाय और मनसे हिन है || ४ || जो नाम, गोत्र, सुख अपर्य भ्रान्तिरहितमनिमजरामरम् ॥ ४१ | | और जिसे शून्य तथा कारणहीन हैं, जिसमें भय, भत्ति, अजोशब्दममृतमप्रतं यदसंवृत्तम् ।।
निमा, जरा और मरण-इन (अनस्याओं का अभाव | है ॥ १६ ॥ अरज जगणरहित), अशब्द, अमृत, पूर्वापरे न वै यस्मिस्तद्वष्णोः परमं पदम् ॥ ४२ आत (गतिशून्य) और असंवृत (अनान्द त) परमेशत्वगुणवत्सर्वभूतपसंश्रयम् । । है एवं जिसमें पूर्वापर व्यवहारको गति नहीं है जो भगवान् नताः स्म तत्पदं विष्णोजिहादृगोचरं न यत् ॥ ४३ | विष्णुका परमपद है ॥ ४२ ।। जिसका ईशन (शसन) ही
विष्णुपुराण
ऑपराझर याचा परमगुण हैं, जो सर्वरूप और अनाधार हैं तथा निद्रा और एवं प्रचेतसो विष्णु स्तुवन्तस्तत्समाधयः । । | दृष्टिका अविषय हैं, भगवान् विष्णुके उस परमपदको हम नमस्कार करते हैं | ४३ ।। । दशवर्षसहस्राणि तपश्चेरुर्महार्णवे ॥ ४४ पराशरजी बोले-इस प्रकार विष्णु ततः प्रसन्नो अगवांस्तेषामन्तर्जले हरिः ।। भगवान् समाधिस्थ होकर प्रचेताने महासागर में ददौ । दर्शनमुनिंद्रनीलोत्पलदलच्छविः ॥ ४५ रहकर उनकी स्तुति करते हुए दस हजार वर्षतक तपस्या व ॥ ४४ ॥ तब भगवान् श्रीहरिने प्रसन्न होकर उन्हें खिले पतत्रिराजमारूढमवलोक्य प्रचेतसः । | हुए नील कमी -सी आभायुक्त दिव्य छविसे जल प्रणिपेतुः शिरोभिस्तं भक्तिभारावनामितैः ॥ ४६ | | भीतर ही दर्शन दिया ॥ ४५ ॥ प्रचेताओंने पक्षिराज गरुड़पर चढ़े हुए श्रीहरिको देखकर उन्हें भक्तिभाव ततस्तानाह भगवान्त्रियतामीप्सितो वरः ।। भारसे झुके हुए मस्तकद्वारा प्रणाम किया ॥ ४६॥ प्रसादसमुखोई यो वरदः समुपस्थितः ।। ४७ | । तब भगवान्ने उनसे कहा- मैं तुमसे प्रसन्न होकर तुम्हें वर देनेके लिये आया हूँ, तुम अपना अभीष्ट वर ततस्तमूचुर्वरदं प्रणिपत्य प्रचेतसः ।। माँगों” ॥ ४७ ।। तब अचेतने बरदायक औहरिकों यथा पित्रा समादिष्टं प्रजानां वृद्धिकारणम् ॥ ४८ | प्रणाम कर, जिस कम इनके पिताने उन्हें प्रज्ञा-वृद्धि लिये आज्ञा दी थीं यह सब उनसे निवेदन की ॥४८॥ स चापि देखतं दत्त्वा यथाभिलषितं वरम् । तदनन्तर, भगवान् ने अभीष्ट वर देकन अन्तर्धान हो गये। अन्तर्धानं जगामाश ते च निश्चक्रमुर्जलात् ॥ ४९ | और वे जलसे बाहर निकल आये ॥ ४५ ॥
इति श्रीविष्णुपुराणे प्रथमेश चतुर्दशोऽध्यायः ॥ १४ ॥
प्रचेताओंका मारिया नामक कन्याके साथ विवाह, दक्ष प्रजापतिकी उत्पत्ति एवं
दकी आठ कन्याओंके वंशका वर्णन पर जयाच ऑपरारजी बोले–प्रचेताओंके तपस्याने लगे तपश्चरस पृथिवीं अचेतःस महीरुहाः । | रहनेसे [ कृषि आदिद्वारा ] किसी प्रकार की रक्षा न होने अरक्ष्यमाणामाचनुर्बभूवाथ प्रजाक्षयः ।। १ | कारण पृथिवीको वृक्षोंने बँक लिया और प्रज्ञा बहुत कुछ नष्ट हो गयी ।। १ ।। आकाश अझसे भर गया था। नाशकमरुतो वातुं वृतं खमभवद्भुमैः ।।
इसलिये दस सृजार यर्षतक न तो वायु ही चला और न दशवर्षसहस्राणि न कुश्चेष्टितुं प्रजाः ।। २ जा ही किसी प्रकारकी चेष्टा कर सकीं ॥ ३ ॥ जलसे तान्दा जलनिष्क्रान्ताः सर्वे ऋद्धाः प्रचेतसः ।। निकलनेपर उन वृक्षको देखकर प्रचेतागण अति क्रोधित मुखेभ्यो वायुमग्निं च तेऽसृजन् जातमन्यवः ।। ३ | हुए और उन्होंने रोषपूर्वक अपने मुखसे वायु और अफ्किो उन्मूलानथ ज्ञान्वृक्षा-कृत्वा वायुरशोषयत् ।। | | कोड़ा ।। ३ ।। वायुनें वृक्षों को उखाड़-खाड़कर, सुखा दिया और प्रचण्ड अग्निने ऊन्हें जला डाला । इस प्रकार, उस तानमिररिस्तन्नाभूइमायः ॥ ४ | समय वहाँ वा ना होने लगा । दुमक्षयमथो दृष्ट्वा किञ्चिच्छिष्टेषु शाखिषु ।। तब वह भयंकर वृक्ष-प्रलय देखकर थोड़े-से उपगम्याब्रवीदतात्राजा सोमः प्रजापतीन् ॥ ५ | वृक्षोंके रह जानेपर उनके राजा सोमने प्रजापति प्रथम अंश कोर्प यच्छत राजानः शृणुध्वं च क्चों मम । । प्रचेताओंके पास जाकर कड़ा-॥ ५॥ “हे नृपतगण ! सन्धार्न वः करिष्यामि सह क्षिनिस्रम् ॥ ६ | आप मेध शान्त कीजिये और मैं जो कुछ कहता हैं, रत्नभूता च कन्येयं वायी वरवर्गिनी । | सुनिये। मैं वृक्षोंके साथ आपलोगोंकी सन्धि करा दूंगा ॥ ६ ॥ वृक्षसे उत्पन्न हुई इस सुन्दर, वर्णवा रजस्वरूपा भविष्यजानता पूर्व मया गोभिर्विवर्द्धिता ।। ७ कन्याका मैंने पहलेसे हैं भविष्यको जानकर अपनी मारेषा नाम नामैषा वृक्षाणामिति निर्मिता। [ अमृतमयी ] किरणोंसे पालन-पोषण किया है ॥ ३ ॥ मार्या बोऽस्तु महाभागा धुर्व वंशविर्याईनी ॥ | | वृक्षोंकी यह कन्या मारेषा नामसे प्रसिद्ध हैं, यह महाभागा युमार्क तेजसोद्धैन मम चार्जेन तेजसः ।। इसलिये ही उत्पन्न की गयी है कि निश्चय हों तुम्हारे वंशको अस्यामुत्पत्स्यते विद्वान्दो नाम ज्ञापतिः ॥ ६ बानेवालीं तुम्हारों भार्या हों ।। ८. || मेरे और तुम्हारे आधे-आधे से इसके पास सिद्वान् स नाम प्रजापति मम चांदोन संयुक्तो चुमतेजोमयेन वै। उत्पन्न होगा ।। १ ॥ ब्रह तुम्हारे तेजके सहित मेरे अंशसे तेजसाग्निसमो भूयः फ्रज्ञाः संवर्द्धयिष्यति ॥ १० युक्त होकर अपने तेजके कारण अग्निके समान होगा और कर्नाम मुनिः पूर्वमासीदविदां वरः ।। | जाकी पाय हि करेंगा ।। १० ॥ सुरम्ये गोमतीतीरे स तेथे परमं तपः ।। ११ |
| पूर्वकालमें वेदवेत्ताओंमें श्रेष्ठ एक प्ड नामक मुनीश्वर थे। उन्होंने गोमती नदीके परम गमगींक तटपर घोर तत्क्षोभाय सुरेन्द्रेण अम्लोचाख्यावराप्सराः ।।
तय किया ।। ११ ।। तय इन्द्रने उन्हें तपोभ्रष्ट करने के लिये प्रयुक्ता क्षोभयामास तमुधिं सा शुचिस्मिता ।। १२ | म्चा नामकी उत्तम अग्रको संयुक्त किया। उस भितः स तया सार्द्ध वर्षाणामधिकं शतम् ।। मझुवासिनने उन मुषिश्रेष्ठको विचलित कर दिया ॥ १३ ॥ अतिमदरोग्य विषयासक्तमानसः ॥ १३ | | उसके द्वारा शुन्य होकर चे सौसे भी अधिक वर्षत विषयासक्त-घिसें ट्राय कन्दाग रहे ॥ १३ ॥ हैं सा प्राह महाभाग गन्तुमिच्छाम्यहं दिखम् ।। राब, हैं महाभाग ! एक दिन उस अप्सराने कटु प्रसादसुमुख ब्रह्मन्ननुज्ञां दातुमर्हसि ।। १४ | ऋषिसे कहा-‘हे ब्रह्मन् ! अब मैं स्वर्गलकको ज्ञाना तयैवमुक्तः स मुनिस्तस्यामासक्तमानसः। | चाहती हैं, आप प्रसन्नतापूर्वक मुझे आशा दीजिये” दिनानि कतिचिड़े स्थीयतामित्यभाषत ।। १५ | ॥ १४ ॥ उसके ऐसा कहनेपर उसमें आसक्त-चित्त हुए मुनिने कहा- “ाड़े ! अभी कुछ दिन और राहो’ एवमुक्ता ततस्तेन साई क्र्धशतं पुनः ।। ॥ १५ ॥ उनके सा कहनेपर उस सुन्दरीने पात्मा मुजे विपर्यास्तन्वी तेन सार्क महात्मना ।। १६ | कण्डके साम अगले सौ वर्षतक और रहकर नाना अनुज्ञां देहि भगवन् जामि त्रिशालयम्। | प्रकारके भोग भोगें ॥ १६ ॥ तब भी, उके यह पूछमेपर उक्तस्तथेति स पुनः थ्रीयतामित्यभाषत ।। १७ | कि ‘भगवन् ! मुझे स्वर्गलोकको जानेकी आज्ञा दीजिये पुनर्गत वर्षशते साधिके सा शुभानना।
अपने यहीं का कि अभी और उन्हों’ ॥ १७ ॥ तदनन्तर सौं वर्षसे कुछ अधिक बीत जानेपर उस सुमुखीने यामीत्याह दिवं ब्रह्मन्प्रणयस्मितशोभनम् ॥ १८
प्रणययुक्त मुसकानसे सुशोभित वचनोंमें फिर कहा ऊक्तस्तयैवं स मुनिरूपगुणायतेक्षणाम् ।। | “ब्रह्मन् ! अब मैं स्वर्गको जाती हैं।’ ॥ १८ ॥ यह सुनकर हास्यतां क्षण सुनु चिरकालं गमिष्यसि ।। १९ | मुनिने उस विशालाक्षीको आलिङ्गनकर कहा-अयि सा क्रीडमाना सुश्रोणी सह तेनर्चिणा पुनः। सुश्न ! अब तो दू बहुत दिनोंके लिये चली जाय || इसलिये क्षणभर तो और, टहर” ॥ ११ ।। तब वह सुणों शतार्य किशिदूनं वर्षाणामन्वनिष्ठत ।। २० | (सुन्दर कमरयाली) उस ऋषिके साथ क्रीड़ा करनी हुई गमनाय महाभाग देवराजनिवेशनम् । । |दों सौ वर्षसे कुछ कम और रहीं ॥ ३ ॥ प्रोक्तः प्रोक्तस्तया तव्या स्थीयतामित्यभाषत ।। ३१ | है महाभाग ! इस प्रकार जब-जब वह सुन्दरी
ऑविष्णुपुराण
तस्य शापभयाझौता दाक्षिण्येन च दक्षिणा । । देवलकको जानेके लिये कहती तभी-तभी कडु ऋषि उससे प्रोक्ता प्रणयभङ्गार्निवेदिनी न ज्ञहौ मुनिम् ॥ २३ | यही कहते कि ‘अभी ठहर जा’ ।। २१ ।। मुनिके इस प्रकार हनेपर, भयभगको पीडाकों ज्ञाननेवालों बस दक्षिणाने तया च रमतस्तस्य परमर्षेरहर्निशम् ।।
अपने दाक्षिण्यवश तथा मुनिके शापसे भयभीत होकर उन्हें नवं नवमभूत्प्रेम अन्यथाविष्ट्रचेतसः ।। २३ न घेड़ा ।। २२ ॥ तथा ॐ महर्षि महोदयका भी, एकदा तु त्वरायुक्तो निश्चक्रामोजान्मुनिः ।। कामासक्तचितसे उसके साथ अहर्निश रमण करते-करते, निष्क्रामन्तं च कुत्रेति गम्यते प्राह सा शभा ।। २४ उसमें नित्य नूतन प्रेम बढ़ता गया ॥ २३ ॥ एक दिन में मुनसर बड़ी शीघ्तासे अपनी कुन्टीसे इत्युक्तः स तया प्राह परिवृत्तमहः शुभे। निकले। उनके निकलते समय वह सुदरौं बोली सन्ध्योपास्तिं करिष्यामि क्रियालोपोऽन्यथा भवेत् ॥ | “आप कहाँ जाते हैं ॥ २४ ।। उसके इस प्रकार पुमेपर ततः प्रहस्प सुदती तं सा प्राह महामुनिम्। | मुनिने कहा-‘हे शुभे ! दिन अस्त हो चुका है, इसलिये मा. सर्वधर्मन पवित्तमनन । इE | मैं सन्ध्योपासना करूंगा; नहीं तो नित्य क्रिया नष्ट हो जाय” ॥ ३५ ॥ तब उस सुन्दर दातोंवालाने उन बहनां विप्र वर्षाणां परिवृत्तमस्तव ।। मुनीश्वर हैंसकर कहा–’ई सर्वधर्मश ! क्या आज ही गतर्मतन्न कुरुते विस्मयं कस्य कथ्यताम् ॥ ३७ | आपन दिन अस्त हुआ हैं ?।। ३६ ॥ हे विष ! अनेक | मुनिरुवाच । | वॉक पश्चात् आज आपका दिन अस्त हुआ है। इससे प्रातस्त्वमागता भन्ने नदीतीरमिदं शुभम् । | कहिये, किरको आश्चर्य न होगा ?” ॥ ३७ || मया दृष्टासि तवङ्ग प्रविष्टासि ममाश्रमम् ॥ २८ | मुनि बोले-भट्टे ! नदीके इस सुन्दर तटपर तुम
आज सर हाँ तों आयी हों। [ मुझे भी प्रकार स्मरण इयं च वर्तते सन्ध्या परिणाममहर्गतम् है] मैंने आज हो तुमको अपने आश्चममें अनेश फाते उपहासः किमर्थोऽयं सद्भावः कथ्यतां मम ।। २६ | देखा था ।। ३८ ॥ अव दिन समाप्त होने पर यह |
अम्लोंचवाच
नन्ध्यान हुआ है। फिर, सच तो कलं, ऐसा महस प्रत्यूपस्यागता ब्रह्मन् सत्यमेतन्न तन्मृषा। क्यों करती हो ? ।। ३ ।। नन्वस्य तस्य कालस्य गतान्यब्दशतानि ते ।। ३० ॥प्रलोचा बोली–ब्रह्मन् ! आपका यह कथन कि
‘तुम सबेरे ही आयी हो’ तीक ही है, इसमें झुठ नहीं; परन्तु | सोम वाच
उस समयको तो आज सैकड़ों वर्ष बीत चुके ॥ ३० ॥ ततस्ससाध्वसो विग्रस्तां पप्रच्छायतेक्षणाम् । सोमने कहा-तब उन विप्नवरने उस विक्षसे कथ्यतां भीरु कः कालस्त्वया में रमत: सह ॥ ३१ कुछ घबड़ाकर पूछा-‘अरीं भीरू ! ठीक-ठीक बता, तैरे मम्लचोवाच । साथ रमण वरने मुझे कितना समय बीत गया ?” ॥ ३१ ॥ सप्तोत्तराण्यतीतानि नववर्षशतानि ते ।
अम्लोचाने कहा—अबतक नौ सौ सात वर्ष, छः मासाश्च घट्तथैवान्यत्समतीतं दिनत्रयम् ।। ३२ महाँने तथा तीन दिन और भी बन चुके हैं। ३२ ।।
ऋषि बोले-अयि भीरु ! यह तू ठीक कहती है, झुन्निाच आ है शुभं ! मेरी हसीं करतीं हैं? मुझे तो ऐसा ही भतीत सत्य भी सदस्यतत्परिह्मसोय वा शुभ । होता है कि मैं इस स्थानपर तेरे साथ केवल एक ही दिन दिनमेकमहं मन्ये त्वया सार्द्धमासितम् ।। ३३ | रहा हैं ॥ ३३ ॥ | दक्षिणा नायिकाका लक्षण स प्रकार कहा है
गोरी भने म साझा नाके। न सुगन्साप सा हो। इक्षिणा वधैः ॥ अन्य नय+में आसफ़ रहते हुए मों जो अपने पूर्व-नायकको गौर भय, प्रेम और सद्भाव दक्षिणा’ जाना चाहिये । दक्षिण को ‘दाक्षिण्य’ करते हैं।
अरण न झोपत हों उसे नयम
प्रमोंचोवाच
अम्लोंचा बोली-है ब्रह्मन् ! आपके निकट मैं वदिष्याम्यनृतं ब्रह्मन्कथमत्र तवानिके। झुठ कैसे बोल सकती हैं और फिर विशेषतया उस विशेषेणाद्य अवता पृष्टा मार्गानुवर्तिना ।। ३४ | समय जय कि आज आप अपने धर्म-मार्गका अनुसरण करनेमें तत्पर होकर गुदासे पूछ रहे है ॥ ३४ ॥ | सोम याच सोमने कहा-हे राजकुमारों ! इसके ये सत्य निशम्य तद्वचः सत्यं स मुनिनँपनन्दनाः । | वचन सुनकर मुनिने ‘मुझे धिक्कार हैं ! मुझे धिक्कार है ! थिगृधि मामित्यतीवेचं निन्दिात्मानमात्मना । | ऐसा कर स्वयं को अपने बहुत छ भला मुनस्याच बुरा हा ॥ ३५ ॥ तपसि मम नष्टानि हृतं ब्रह्मविदां धनम् ।
| मुनि बोले-ओह ! मैरा तप नष्ट हो गया, जो ब्रह्मचैत्ताका मन था वह लट गया और विवेकबुद्धि तो विवेकः केनापि योषिोपय निर्मिता ।। ३६ | मारी गयी ! अहो । स्त्रीको तो किसीने मोह उफ्ञानेके ऊर्मिषट्कातिगं ब्रह्म ज्ञेयमात्मजयेन में। | लिये ही रचा हैं ! ।। ३६ । ‘मुझे अपने मनको जौनकर मतिरेषा हुता येन थिक् तं कामं महाग्रहम् ॥ ३७ छहों कमियों से अतीत पाह्मको जानना चाहिये
जिसने मेरी इस प्रकार बुद्धिको नष्ट कर दिया, इस व्रतानि वेदवेद्याप्तिकारणान्यखिलानि च। क्यमरूपी माग्न धिक्कार है ॥ ३ ॥ नरकग्रामके नरकममार्गेण सनापतानि में ।। ३८ | माकप इस लोक संग” वेदनेच्च भावान्की मासिक विनिन्द्येयं स धर्मज्ञः स्वयमात्मानमात्मना ।
कारगरूप में समस्त व्रत नष्ट हो गझे ॥ ३८ ।। तामसरसमासीनामिदं
इस प्रकार उन धर्मज्ञ मुनिवरने अपने-आप ही वचनमावीत् ॥ ३६ | अपनी निन्दा करते हुए वहाँ बैं हुई उस आसरासे गछ पापे यथाकामं यत्कार्यं तत्कृतं त्वया ।। | कहा ॥ ३५ ॥ ” पापनि ! अब हो ज ६ । देवस्य मत्क्षोभं कुर्वन्च्या भावचेष्टितैः ॥ ४० हों चली जा, तूने अपनी भायभंगीसे मुझे मोहित करके इन्दका जो कार्य या चहू पूरा कर लिया ।। 2 || मैं। न त्वां करोम्यहं भस्म क्रोधतीव्रण वहना।
पने क्रोधसै प्रचलित हुए अग्निद्वारा तुझे भस्म नहीं। सतां सप्तपदं मैत्रमुषितोऽई त्वया सह ॥ ४१ | करता है, क्योंकि जनोंकी मित्रता सात पग साथ । अययातच को दोषः किं वाकप्याम्यहं तव। | रनेसे हो जाती हैं और मैं तो [ इतने दिन ] तेरे साथ ममैव दोषो नितरां येनाहमजतेन्द्रियः ॥ ४३ निवास कर चुका है ॥ ६ ॥ अथवा इसमें तेरा दोष भी । क्या है, जो मैं तुझपर क्रोध करू? दाँय तो साग्र मैग्न यया शक्रप्रियार्थिन्या कृतों में तपसो व्ययः ।। हीं है, क्योंकि मैं बड़ा हीं अजितेन्द्रिय हैं ॥ ४२ ॥ तू स्वया धिक्तां महामोहमचुष जुगुप्सिताम् ।। ४३ | महामोहकी गिटारी और अत्यन्त निन्दनीया है। हाय ! सौम उवाच हुने इन्दक स्वार्थक लिये मंत्री समस्या न चल दी !! होने । धिकार है !! ।।३।। यावदित्यं स विप्रस्तिां ब्रवीति सुमध्यमाम् ।।
सोमने कहा-वे ब्रह्मर्षि उम सुन्दले जनक हो तावद्भलत्स्वेदजला सा बभूवातिवेपथुः ।। ४४ | | कते रहे तबतक वह [ भयके कारण ] पसीनेमें सराबोर अवेपमानां सततं स्विन्नगात्रलतां सतीम् । | होकर अत्यन्त काँपती रही ॥ ४४ ॥ इस प्रकार जिसका गच्छ गच्छेति सक्रोधमुवाच मुनिसत्तमः ।। ४५ मस्त शरोर पसीनेमें डूबा हुआ था और जो भयसे थर-धर | काँप रहीं थीं उस प्रलोचासे मुन काड्ने क्रोधपूर्वक सातुनिभर्सिता तेन विनष्क्रम्य तदाश्रमात् ।। कहा-‘अ ! तू चल मा ! चा जा !! ॥ ४ ॥ आकाशगामिनी स्वेई ममार्ज तरुपलवैः । ४६ तब बारम्बार फटकारे जानेपर वह उस आश्रमसे
” भुया, पिपासा, लोभ, मोह, जरा भौर मृत्यु में छः ऊर्मियाँ हैं।
ऑवियापुराण
निर्मार्जमाना गात्राणि गलत्स्वेदजलानि वै । । निकली और आकाश-मार्गसे जाते हुए उसने अपना वृक्षावृक्षं ययौ बाला तदारुणपल्लवैः ॥ ४७ | पर्साना वृक्षके पत्तोंसे पॉम ॥ ४६ ॥ वह बाला वृक्षोंके नवौन लाल-लाल पत्तों से अपने पसीनसे तर शरीरको ऋषिणा यस्तदा गर्भस्तस्या देहे समाहितः । ।
पोछती हुई एक वृक्षसे दूसरे वृक्षपर चलती गयीं ॥ ४ ॥ निजंगाम से रोमाञ्जस्वेदरूपी तदङ्गतः ।। ४८ | उस समय अपने उसके शरीरमें जो गर्भ स्थापित किया था। तं वृक्षा जगृर्गर्भमैक चक्रे तु मारुतः ।।
वाहू भी रोमासे निकले हुए पसीनेक रूपमें उसके शरीरसे। बाहर निकल आया ।। ४ ।। उस गर्भको वृक्षोंने गण मया चाप्यायितो गोभिः स तदा ववृषे शनैः ॥ ४९
कर किया, उ] वायुने एकत्रित कर दिया और मैं अपनी वृक्षाग्नगर्भसम्भूता मारियाख्या वरानना। किरणोंसे उसे पौपित करने लगा। इससे वह धीरे-धीरे बढ़ त प्रदास्यन्ति वो वृक्षाः कोप एष प्रशाम्यताम् ।। ५० | गया ॥ ४५ ॥ वृक्षाप्रसे उत्पन्न हुई वह मारिषा नामकी कण्डोरपत्यमेवं सा वृक्षेभ्यश्च समुद्भता ।।
सुमुखी कन्या तुम्हें वृक्षगग समर्पण करेंगे। अतः अब यह क्रोध शान्त करो ॥ ५ ॥ इस प्रकार वृक्षौसे उत्पन्न हुई बच्च ममापयं तथा वायो: प्रलोचात्तनया च सा ।। ५५
कन्या प्रलोचाकी पुत्री हैं तथा कण्ड मुनिकी, मेरी और | औपराशर उवाच ।
वायुकी भी सन्तान है ।। ५३ ।। स चापि भगवान् कण्डः क्षीणे तपसि सत्तमः ।। | ऑपराशर बो -हैं मैन ! [ तत्र या पुरुषोत्तमाख्यं मैत्रेय विष्णोरायतनं अयौ ॥ ५२ | सोचकर कि प्रचेतागण योगभ्रष्टकी कन्या होनेसे मारिषाको अशाह्य न समझे सोमवने कस] साधु भगवान् तत्रैकाप्रमतिर्भूत्वा चकाराराधनं हरेः ।।
का भी तुपके क्षीण हो जानेसे पुरुषोत्तमऔत्र नामक ब्रह्मामयं कुर्वपमेकाशमानसः
भगवान् विष्णुको निबास-भूमिको गये और हे राजपुत्रों ! ऊर्ध्वबाहर्महायोगी स्थित्वास भूपनन्दनाः ।। ५३ | वहाँ ये महायोगी एकनिष्ठ होकर एकाग्र चित्तसे अह्मपार प्रचेतस ऊचुः । मन्जका जाप करते हुए ऊर्ध्वचाह रहकर ऑविष्णुभगवान्की ब्रह्मपारं मुनेः श्रोतुमिच्छामः परमं स्तवम् ।
आराधना करने लगे ।॥ ३-३ || जपता कण्डुना देवो येनाराध्यत केशवः ।। ५४
प्रचेतागण बोले-हम कडू मुनिका ब्रह्मपार | सोम उवाच नामक परमस्तोत्र सुनना चाहते हैं, जिसका जप करते हुए उन्होंने लोकेशवको आराधना की भी ।। ५४ ॥ पारं परं विष्णुपारपारः । सोमने कम-[ हे राजकुमारो ! बल्ल मन्त्र इस परः परेभ्यः परमार्थरूपी । प्रकार है-] ‘श्रीविष्णुभगवान् संसार-मार्गको अन्तिम स। ब्रह्मपारः परपारभूतः अर्वाध है, उनका पार पाना कठिन है, वे पर (आकाशदि) परः पराणामपि पारपारः ।। ५५ से भी पर अर्थात् अनन्त हैं, अतः सत्यस्वरूप हैं। तपोनिष्ठ महात्मा को ही वें प्राप्त हो सकते हैं, क्योंकि वे स कारण कारणतस्ततोप अर (अनात्म-अपञ्च) में में हैं तया र (इनिय) के तस्यापि हेतुः परहेनहेतुः ।। भगोचर परमात्मा है और [ भक्तक ] पालक एवं कार्येषु चैवं सह कर्मकर्तृ [ इनके अभीष्टको ] पूर्ण करनेवाले हैं ॥ ५५ ॥ वे रूपैरभैरवती सर्वम् ॥ ५६ | कारण (पञ्चभूत) के कारण (पञ्चतन्मात्रा) के हेतु (तामस अहंकार) और उसके भी हेतु (महत्त्व) के तु ब्रह्म प्रभुर्बह्य से सर्वभूतो (प्रधान) के भी परम हेतु हैं और इस प्रकार समस्त कर्म ब्रह्म जानां पतिरच्युतोऽसौ ।
और कर्ता आदि सहित कार्यरूपसे स्थित सकल ब्रह्मव्ययं नित्यमजं स विष्णु
प्रपञ्चका पालन करते हैं ॥ ५६ ॥ ब्रह्म हीं प्रभु है, ब्रह्म ही पक्षपाचैरखिलरसहि ॥ ५७ | सर्वजींवरूप है और ब्रह्म हीं सकल प्रज्ञाका पति (रक्षक) प्रथम अशा ब्रह्माक्षरमर्ज नित्यं यथाऽसौ पुरुषोत्तमः । । तथा अविनाशी हैं। वह ब्रह्म अव्यय, मल्य और अन्मा तथा रागादयो दोषाः प्रयान्तु अशर्म मम ॥ ५८ | है तथा वहीं क्षय आदि समस्त विकारोंसे शून्य विष्णु | ॥ ५ ॥ क्योंकि वह अक्षर, अन और नित्य ब्रह्म हीं एतद्ब्रह्मपराख्यं वै संस्तवं परमं जपन् । पुरुषोत्तम भगवान् विष्ण हैं, इसलिये [ उनम नित्य अनुरक्त अवाप परमां सिद्धिं स तमाराध्य केशवम् ॥ ५९ | भक्त होने के कारण ] मेरे राग आदि दोष शान्त हों ॥ ५८ ।। | इस ब्रह्मपार नामक परम तोक्का जप करते हुए [ इमं स्तवं यः पठति शृणुयाद्वापि नित्यशः ।।
| श्रीशासक आराधना करनेसे इन मुनीश्वरने परमसिं प्राप्त स कामदोषेरखिलेर्मुक्त: प्राप्नोति वाञ्छितम् ।।] की ॥ ५६ ।। [जों पुरुष इस तवकों नित्यप्रत पड़ता ॥ इयं च मारिषा पूर्वमासीद्या तां ब्रवीमि वः ।
सुनता हैं वह काम आदि सकल दोनोंसे मुक्त होकर अपना कार्यगौरवमेतस्याः कथने फलदायि वः ॥ ६० | मनोचालित फट प्राप्त करता है। ] अब मैं तुम्हें पढ़ बताता हैं कि हमारा पूर्वजन्ममें कौन थी । यह बता देनेसे तुम्हारे अपुत्रा प्रागियं विष्णु मूने भर सत्तमा ।। कार्यका गौरव सफल होगा। [ अन् तुम ना-वृद्धिरूप भूपपत्री महाभागा तोषयामास भक्तितः ।। ६१ | फल प्राप्त कर सकोगे 1 ॥ ६० ।।।
आराधितस्तया विष्णुः प्राह प्रत्यक्षतां गतः ।। यह साध्वी अपने पूर्व जन्ममें एक महारानी थी। बरं वृणीति शुभे सा च प्राहात्मवाछितम् ।। ६३
मुन्नीन-अवस्थामें ही पतके मर जानेपर इस महाभागाने
अपने भक्तिभावसे चिभगवान्को सन्तुष्ट किया ।। ६१ ।। भगवन्बालवैधव्याद् वृद्धाज्ञपाहमीदृशी। इसकी आराधना असन्न हों विष्णुभगवान्ने प्रकट होकर मन्दभाग्या समुद्धता विफला च जगत्पते ।। ६३ | कहा-“हे शुभे ! वर माँगे ।’ तब इसने अपनी मनोभिलाषा इस प्रकार कह सुनायो- || ६२ ॥ भवन्तु पतयः श्लाघ्या मम जन्पनि जन्यनि । ‘भगवन् ! बाल-विधवा होनेके कारण मेरा जन्म व्यर्थ ही त्वत्प्रसादात्तथा पुत्रः प्रजापतिसमोऽस्तु में।। ६४ | हुआ। हे जगत्पते ! मैं ऐसी अभागिनी है कि फलन
(पुत्रहीन) हीं उत्पन्न हुई ।। ६३ ॥ अतः आपकी कृपासे कुलं शीलं वयः सत्यं दाक्षिण्यं क्षिप्रकारिता । जन्म-जन्में मेरे बड़े प्रशंसनीय पति हों और प्रजापति अविसंवादिता सत्त्वं वृद्धसेवा कृतज्ञता ।। ६५ (ब्रह्माजीं) के समान पुत्र हो । ६४ ॥ और हे अधोक्षज ! रूपसम्पत्समायुक्ता सर्वस्य प्रियदर्शना। आपके प्रसादसे मैं भी कुल, शील, अवस्था, सत्य, अयोनिजा च जायेयं त्वत्प्रसादादधोक्षज ।। ६६
दाक्षिण्य (कार्य-कुशलता), धकारिता, अविसंवादिता उलटा न कना, सत्व, बुना और कुतता आदि सोम उवाच । गुणसे तथा सुन्दर रूपसपक्षिसे सम्पन्न और सबको मिस तथैवमुक्तो देवेशों हृषीकेश उवाच ताम्। | नेपाली अनिता (माताके गर्भसे जन्म लिये बिना) हो प्रणामनग्नामधाप्य वारदः परमेश्वरः ।। ६ उत्पन्न हो: ।। ६५
याचनका सोम चोले-उसके ऐसा कहुनेपर वरदायक भविष्यति पहावीर्या एकस्मिन्नेव जन्मनि । परमेश्वर देवाधिदेय श्रीहषीकेशने प्रणामके लिये झुकी हुई
जुस नालाको उमाकर कहा ॥ ६ ॥ प्रख्यातोदारकर्माण भवत्याः पतयो दश ।। ६८ |
भगवान् बोले-तेर एक ही जन्ममें बड़े पुत्रं च सुमहावीर्य महावलपराक़मम्।| पराक्रमी और विख्यात वर्मवीर दस पति होंगे और प्रज्ञापतिगुणैर्युक्तं त्वमवाप्स्यसि शोभने ।। ६१ | हे शोभने ! उसी समय तुझे प्रजापतिके समान एक
मार्बयान एवं अन्यत्त बल-विक्रमगुक्त पुत्र भी प्राप्त वंशानां तस्य कर्तृत्वं जगत्यस्मिन्भविष्यति । | होगा ॥ ६८-६९ ।। वह इस संसारमें कितने ही वंशको त्रैलोक्यमखिला सूतस्तस्य चापूरयिष्यति ।। 90 | चलानेवाला होगा और उसकी सन्तान सम्पूर्ण त्रिोक्नमें
आविष्णपुराण
त्वं चाप्ययोनिजा साध्वी रूपौदार्यगुणान्विता । | फैल जायगी ।। ७ ।। तथा तू भी मेरों कृपासे उदाररूप मन:प्रीतिकरी नृर्गा मत्प्रसादाद्धविव्यस ॥ ७१ | गुणसम्पन्ना, सुशीला और मनुष्योंके चित्तको प्रसन्न इत्युक्त्वान्तर्दथे देवस्तां विशालविलोचनाम् ।। करनेवाले अपानिज्ञा ही उत्पन्न होगीं ॥ १ ॥ हे
ज्ञपुत्रों ! उस विशालाक्षसे ऐसा कह भगवान् अगाधन सा चेयं मारिया जाता युष्पत्पत्नी नृपात्मजाः ॥ ७२ | हों गये और वहीं यह मारिषाको रूपसे उत्पन्न हुई तुम्हारौं राम उवाच पत्नी हैं ॥ ३ ॥ ततः सोमस्य वचनाजगृहस्ते प्रचेतसः ।। ऑपराशरजी बोले-तब सोमद्देनके कहनेसे संत्य कोपं वृक्षेभ्य: पत्नीधर्मेण मारिषाम् ।। ७३ | प्रचेताओंने अपना क्रोध शान्त किया और उस मारिषाको काश्मन को मारना नानि- । | वृक्षौसे पन्नीरूपसे ग्रहण किया ।। १9३॥ अन इस
मचैताओं मारिंशाके मभाग दक्ष प्रजापतिका जन्म अज्ञे दक्षो महाभागो यः पूर्वं ब्रह्मणोऽभक्त् ।। ७४ | हुआ, जो पहले ब्रह्मजोसे उत्पन्न हुए थे ।। ४ ।। स तु दो माहाभागथे सुमहामते हैं महामते ! उन महाभाग इक्षने, अझाज्ञीको आज्ञा पुत्रानुत्पादयामास प्रजासृष्ट्यर्थमात्मनः ।। ७५ | पालते हुए सर्ग-रचनाके लिये उद्यत होकर उनकी अपनी अवश्च वरांश्चैव द्विपदोऽथ चतुष्पदान् ।। | सृष्टि बढ़ाने और सन्तान उत्पन्न करनेके लिये नीच-ऊँच आदेशं ब्रह्मणः कुर्वन् सृष्ट्यर्थं समुपस्थितः ।। ७६ तथा द्विपत्मद आदि नाना प्रकार के जीवोंकों पुत्ररूपमें उत्पन्न किया ॥ ७५ ६ || प्रजापति दाने पहले मनसे हैं स सृष्ट्वा मनसा दक्षः पश्चादसूत स्त्रियः ।। | सृष्टि करके फिर स्त्रियों की उत्पत्ति की। उनसे दस फर्मकों ददौ स दश धर्माय कश्यपाय त्रयोदश। और तेरह कश्यपकों दी तथा काल-परिवर्तनमें नियुक्त कालस्य नयने युक्ताः सप्तविंशतिमिन्दवें ॥ ७७ [[अश्विनी आदि] सत्ताईस चन्द्रमाको विवाह ६ ॥ ७ ॥ तासु देवास्तथा दैत्या नागा गावस्तथा खगाः ।। उन्हांसे देवता, दैत्य, नाग, गौ, पक्षी, गन्धर्व, अप्सरा और दानव आदि उत्पन्न हुए ॥ ७ ॥ हे मैत्रेय | दक्षके समयसे गन्धर्वाप्सरसचैव दानवाद्याश्च जज्ञिरे ।। ७८ | प्रजाका मैथुन (स्त्री-पुरुष-सम्बन्ध) द्वारा उत्पन्न होना ततः प्रभृति मैत्रेय प्रजा मैथुनसम्भवाः ।। आरम्भ हुआ है। उससे पहले तो अत्यन्त तपस्वी प्राचीन सल्पाद्दर्शनात्स्पर्शात्पूर्वेषापपवन् प्रजाः ।। सिद्ध पुरुषों से इन संप, दर्शन अथवा नोविंध: सिन्हा नात्यन्ननपश्मिनाम् ॥ 15 १ | स्पर्धामाजसै हौं प्रज्ञा ज्ञापन्न होती थीं ।। ६ ।।
मैत्रेय याच
श्रीमैत्रेयजी ओले–हे महामुने ! मैंने तो सुना था अङ्गमाइक्षिणाक्षः पूर्वं ज्ञातो मया श्रुतः ।। कि दक्षका जन्म ब्रह्माजौके दायें अंगुठेसे हुआ था, फिर वे कथे प्रचेतसो भूयः समुत्पन्नो महामुने ॥ ८० प्रचेताओंके पुत्र किस प्रकार हुए ?।। ८० ॥ हैं ब्रह्मन् ! | मेरे हुयर्मे यह बड़ा सन्देह है कि सोमदेके दौत्र एष में संशय ब्रह्मन्सुमहान्हदि ने।
( घेवते) होकन भी फिर वे उनके भर हुए ! ।। ८.१ ।। यौखिश्च सोमस्य पुनः अशुरतां गतः ॥ ८१ | पराशरङ्गी बोले-हे मैत्रेय ! प्राणियोके || श्रीपराशर वाच । इत्पत्ति और नाश [ प्रवाहमसे 1 निरन्तर हुआ करते उत्पत्तिश्च निरोधश्च नित्यो भूतेषु सर्वदा।। हैं। इस विषयमें ऋषियों तथा अन्य दिव्यदृष्ट-पुरुषको ऋषयो न मुन्ति ये चान्ये दिव्यचक्षयः ॥ ८२ | लेई मोह न होता ।। ३ ।। है मुनिश्रेष्ठ ! ये दक्षादि
युग युगमें होते हैं और फिर लीन हो जाते हैं। इसमें युगे युगे भवन्त्येते वक्षाद्या मुनिसत्तम ।।
विद्वानको किसी प्रकारका सन्देह नहीं होता ।। ८३ ।। है पुनश्चैवं निरुधन्ते विद्वांस्तत्र न मुह्यति ।। ८३ | द्विजोत्तम ! इनमें पहले किसी प्रमरकी ज्येता अथवा कानिबं ययमप्येयां पूर्वनाभूद्विजोत्तम। | कनिष्टता भी नहीं थी। उस समय तप और प्रभाव ही तप एव गरीयोऽभूत्प्रभावश्चैव कारणम् ॥ ८४ | उनकी ज्येष्ठताका कारण होता था ॥ ८४ ॥ ११॥ अ १५].
मयम अश
श्रीमैत्रेयजी बोले-हे ब्रह्मन् ! आप मुझसे देव, देवानां दानवानां च गन्धर्वोरगरक्षसाम्। | दानव, गन्धर्व, सर्प और राक्षसोंकी उत्पत्ति विस्तारपूर्वक उत्पत्तिं विस्तरेणेह मम ब्रह्मन्प्रकीर्त्तय ।। ८५ कहिये ॥ ५ ॥ अपराशर उवाच श्रीपराशरजी बोले-हे महामुने ! स्वयम्भू प्रज्ञाः सृजेति व्यादिष्टः पूर्व दक्षः स्वयम्भुवा ।। | भगवान् ब्रह्माजको ऐसौ आज्ञा होनेपर कि ‘तुम प्रजा यथा ससर्ज भूतानि तथा शृणु महामुने ॥ ८६ | उत्पन्न करो’ दक्षने पूर्ककालमै जिस प्रकार प्राणियोंकी रचना की थीं वह सुनों ॥ ८६ ।। उस समय पहले तो दक्षने मानसान्येव भूतानि पूर्व दक्षोऽसृजत्तदा ।
ऋषिं, गन्धर्व, असुर और सर्प आदि मानसिक प्राणियोंकों देवानुषीन्सगन्धर्वांनसुरान्पन्नगांस्तथा ॥ ८७ | डी उत्पन्न किया।
ही उत्पन्न किया ।। ८ । इस प्रकार रचना करते हुए यदास्य सृजमानस्य न व्यवर्धत ताः प्रजाः ।। जन उनकी वह जा और न बढ़ी तो उन प्रजापति ततः सञ्चिन्य स पुनः सृष्टिहेतोः प्रजापतिः ॥ ८८ | सृष्टिको वृद्धिके लिये मनमें विचारकर मैथुनधर्मसे नाना प्रकारको प्रजा उत्पन्न करनेकी इच्छासे वीरग मैथुनेनैव धर्मेण सिंपृक्षुर्विविधाः प्रजाः । प्रजापतिकी अति तपस्विनों और प्रेकधारिणी पुत्री असिक्रीमावहत्कन्यां वरणस्य फ्रजापतेः । असिमको विवाह किया ॥ १८-१९ ॥ सुतां सुतपसा युक्ता महत लोकधारिणीम् ॥ ८९ | तदनन्तर वीर्यवान् प्रजापति दक्षने सर्गक वृद्धिके अय पुत्रसहस्राणि वैरुण्यां पञ्च वीर्यवान् ।। लिये बॉरणसुता असिनेसे पाँच सहस्र पुत्र उत्पन्न किये असियां जनयामास सर्गहतोः प्रजापतिः ॥ १६ ॥ १० ॥ उन्हें फ्रज्ञा-वृद्भके इच्छुक देख्न प्रियवादी देवर्षि
नारदने उनके निकट जाकर इस प्रकार, कहा- ॥ ११ ॥ तान्दा नारदों विप्न संविवर्द्धचिन्मज्ञाः ।। है महापराक्रमी हर्यश्वगण ! आप लोगों की ऐसी चेष्टा सङ्गम्य प्रियसंवादो देवरिदमब्रवीत ॥ ९१ | प्रतीत होती है कि आप फ्रज्ञा उत्पन्न करेंगे, सो मैरा यह हे हर्यश्री महावीर्याः प्रजा यूयं करिष्यथ ।
कथन सुनो । १३ ॥ वेदने बात है, तुम लोग अभी नि ईदृशो दृश्यते यत्रो भवतां श्रूयतामिदम् ॥ १२
अनभिज्ञ ही क्योंकि तुम इस पृथिवीका मध्य, ऊर्ध्व (ऊपरी भाग) और अधः (नीचेको भाग) कुछ भी नहीं बालिशा ब्रत यूयं वै नास्या ज्ञानीत वै भुवः ।।
जानते, फिर प्रज्ञाकी रचना किस प्रकार करोगे ? देखो, अन्तर्ध्वमधझैव कथं सूक्ष्यथ वै प्रजाः ।। ९३ तुम्हारी गति इस ब्रह्माण्डमें ऊपर नीचे और इधर-उधर ऊर्ध्व तिर्यगधश्चैव यदाप्रतिहता गतिः । सब ओर अप्रतिहत (बे-रोक-टोक) है; अतः ।
अज्ञानियो ! तुम सब मिलकर इस पृथिवीका अत्त क्यों तदा कस्माद्ध्वो नान्तं सर्वे द्रक्ष्यथ बालिशाः ॥ ९४ नहीं देखते ?” ॥ ६३-६४ ॥ नारदजी में वचन सुनकर ते तु तद्वचनं श्रुत्वा प्रयाताः सर्वतो दिशम् । वें सन्न भिन्न-भिन्न दिशाको चले गये और समुद्र अद्यापि नो निवर्तन्ते समुद्रेभ्य इवापगाः ।। ९५ | जाकर जिस प्रकार नदियाँ नहीं लौटती उसी प्रकार वे भी हर्यश्वेश्च नष्टेषु दक्षः प्रचेतसः पुनः ।
आजतक नहीं लौटे ॥ ५५ ॥ । वैरुण्यामधं पुत्राणां सहस्रमसूञ्जत्प्रभुः ।। ९६
हर्यश्वके इस प्रकार चले जानेपर अचेताओके पुत्र | इक्षने बैंगीसे एक साल पुत्र और उत्पन्न किये ॥ १६ ॥ विवर्द्धयिषवस्ते तु शबलाश्वाः प्रजाः पुनः । | वे बलाश्वगण भी प्रजा बढ़ानेके इच्छुक हुए, किन्तु है। पूर्वोक्तं वचनं ब्रह्मन्नारदेनैव नोदिताः ॥ १७ | ब्रह्मन् ! उनसे नारदजीने ही फिर पूर्वोक्त बातें कह दीं।
विष्णुपुराण
अन्योन्यचस्ते सर्वे सम्यगाह महामुनिः। । तब वे सब आपसमें एक-दूसरेसे कहने लगे–‘महामुनि भ्रातृणां पदवी चैव गन्तव्या नात्र संशयः ॥ १८| नारदजी ठीक कहते हैं; हमको भी, इसमें सन्देह नहीं, ज्ञात्वा प्रमाण पश्च्याश्च प्रज्ञास्त्रक्ष्यामहे ततः ।
| अपने भाइयोंक मार्गका हौं अवलम्वन करना चाहिये । हम तेऽपि तेनैव मार्गेण प्रयाताः सर्वतोमुखम् । भी पश्चिम परिमाण जानकर ही सृष्टि करेंगे । इस प्रकार ।
से भी इ मार्गसे समस्त दिशाओंको चले गये अद्यापि न निवर्तते समुद्रेभ्य इवापगाः ।। ९९
और समुद्रगत नदियोंकि समान आजतक नहीं लौटें ततः प्रभृति वै भ्राता आतुरन्वेषणे द्विज । || 9-—१९ ॥ हैं दिन ! तबसे ही यदि भाईको प्रयातो नश्यति तथा तन्न कार्य विज्ञानता ।। १०० | स्त्रोनेके लिये भाई हो जाय तो वह नष्ट हो जाता है, अतः ताश्चापि नष्टान् विज्ञाय पुत्रान् दक्षः प्रजापतिः ।। | विज्ञ पुरुषको ऐसा न करना चाहिये ।। ६२ || क्रोधं चक्रे महाभागों नारदं स शशाप च ।। १०१ | | महाभाग दक्ष प्रजापत उन पुनको भी गये सर्गकामस्ततो विद्वान्स मैत्रेय प्रजापतिः । | | जान नारदजीप वा क्रोध किया और उन्हें शाम में पष्टिं दक्षोऽस्जकन्या वैरुण्यामिति नः श्रुतम् ॥ १०२ | दि | दिया ॥ ११॥ है मैंय ! हमने सुना है कि फिर बस विद्वान् प्रजापतिने सर्गवृद्धिकी इच्से बैंकणीमें दौ स दश धर्माय कश्यपाय त्रयोदश। साठ कन्याएँ उत्पन्न की ।। १० । उनसे उन्होंने दस सप्तविंशति सोमाय चतस्रोऽरिष्टनेमिने ।। १०३
कर्मो, तेरह कश्यपकों, सत्ताईस सोम (चन्द्रमा) को द्वे चैव बहुपुत्राय में चैवाङ्गिरसे तथा । और चार अरिष्टनेमिकों ॥ १३॥ राधा दो बारपत्र, हे कृशाश्वाय विदुषे तासां नामानि मे शृणु ॥ १०४ दों अग्नि और दो कुशाभको विवाह। अब इनके नाम अरुन्धती वासुर्यामर्लम्बा भानुरूत्यतीं। सुनों ।। १६४ || अरुन्धती, वसु, यामी, लम्बा, भानु, साल्पा च मुहूर्ता च साध्या विश्वा च तादृशीं । मरुन्वत, सइया, मुर्गा, साध्या और विधाये धर्मपयों दश त्वेताम्तास्वपत्यानि में शृणु ॥ १०५ |
दस धर्मको पत्तिय थी अब तुम इनके पुत्रका विवरण सुनो ॥ ३६५ विमाके पुत्र विश्वेदेवा थे, विश्वेदेवास्तु विक्षायाः साध्या साध्यानजायत । साध्यासे साध्यगण हुए, मरुत्वतोसे मरवान् और मरुत्वत्यां मरुत्यन्तो यसोश्च वसवः स्मृताः । वसुसे वसुगण हुए तथा भानुसे भानु ऑर मुहूर्तासे भानोस्तु मानवः पुत्रा मुहूर्तायां मुहूर्तजाः ॥ १०६ मुहभिमानी देवगण हुए ॥ ६८६ ॥ लम्बाले घोष, लम्बायाश्चैव घोषोऽथ नागवीश्री तु यामिजा ।। १०७ यामौतें नागवीथी और अरुन्धतौसे समस्त पृथिवी षयक प्राणी हुए तथा सल्याने सर्वात्मक सङ्कल्पकी पृथिवींविषयं सर्वमन्यत्यामजायत । । उत्पत्ति हुई ।। १०७-१८ ॥ सल्पायास्तु सर्वात्मा जज्ञे सङ्कल्प एवाहि ।। १०८ नाना प्रकारका वसु (तेज अथवा धन) हीं जिनका ये त्वनेकवसुप्राणदेवा ज्योति:पुरोगमाः । प्राण हैं ऐसे ज्योति आदि जो आत यमुगप्प विरूपात हैं। यसवोऽष्टी समाख्यातास्तेषां वक्ष्यामि विस्तरम् ॥ १०९ अब मैं उनके वंशका विस्तार बताता हूँ ।। १०९ ॥ उनके आपो भुवश्च सोमश्च धर्मश्चैवानिलोऽनलः । | नाम आप, ध्रुव, सोम, धर्म, अनिल (वायु, अनल प्रत्यूषश्च प्रभासश्च वसवो नामभिः स्मृताः ।। ११० | (अमि), प्रत्यूष और प्रभास कहें जाते हैं ॥ १,१६८ ||
आपस्य पुत्रों बैंतण्डः अमः शान्तों ध्वनिस्तथा । आपके पुत्र वैतण्ड, श्रम, शान्त और ध्वनि हुए ध्रुवस्य पुत्रो भगवान्कालको लोकप्रकालनः ।। १११ | तथा धुनके पुत्र लोक-संहारक भगवान् काल हुए ।। १११ ॥ भगवान् वर्चा सोमके पुत्र थे जिनसे सोमस्य भगवान्धर्चा वर्चस्वी येन जायते ।। ११२ | परुष वर्चस्व (तेजस्वी) हो जाता हैं और धर्मक धर्मस्य पुत्रों द्रविणो हुतहव्यवाहस्तथा। उनकी भार्या मनोहरासे द्रविण, हुत एवं व्यवह तथा मनोहरायां शिशिरः प्राणोऽथ वरुणस्तथा ।। ११३ | शिशिर, प्राण और वरुण नामक पुत्र हुए ॥ ११२-११३ ।।
अनिलस्य शिवा भार्या तस्याः पुत्रो मनोजवः । । अनिलकी पत्नी शिवा थीं; उससे अनिलके मनोजव अविज्ञातगतिचैत्र छौ पुत्रावनिलस्य तु ॥ ११४ | और अविज्ञातगति—ये दो पुत्र हुए । ११४ ।। अमिके अग्निपुत्रः कुमारस्तु शरस्तम्ब्रे व्यज्ञायत । पुत्र कुमार शरस्तम्ब (सरकण्हें) से उत्पन्न हुए थे, ये तस्य शाखों विशाखश्च नैगमेयश्च पृष्ठजाः ।। ११५ | कृत्तिकाओंके पुत्र होनेसे कार्तिकेय कहलाये। शास्त्र, विशास्त्र और नैगमेय इनके छोटे भाई थे ॥ १६५-११६ ॥ अपत्यं कृत्तिकानां तु कार्तिकेय इति स्मृतः ॥ ११६ | देवल नामक ऋषिको प्रत्यूषा पुत्र कहा जाता है। इन प्रत्यूषस्य विदुः पुत्रं ऋषि नाम्नाय देवलम् । देबलके भी दो क्षमाशील और मनीष पुत्र हुए ॥ ११५ ।।। द्वौ पुत्रौ देवलस्यापि क्षमावन्तौ मनीषिणौ ॥ ११७ बृहस्पतिजीकी बहिन वरली, जो ब्रह्मचारिणी और बृहस्पतेस्तु भगिनी वरवीं ब्रह्मचारिणी । सिद्ध योगिनी थीं तथा अनासक्त-भायसे समस्त योगसिद्धा जगत्कृसमसक्ता विचरत्युत । भूमण्डलमें विचरती थी, आठवें वसु प्रभासी भार्या प्रभासस्य तु सा भार्या वसूनामष्टमस्य तु ॥ ११८ हुई ॥ १६८ ॥ उससे सहस्रों शिल्पो (मगैगरियों) के विश्वकर्मा महाभागस्तस्यां जज्ञे प्रजापतिः। कतां और देवताओंके शिल्पी महाभाग प्रजापति कर्ता शिल्पसहस्राणां त्रिदशानां च वर्द्धकी ।। ११९ | विश्वकर्माको जन्म हुआ ।। ११५ ।। ओ समस्त भूषणानां च सर्वेष कर्ता शिल्पवतां वरः । शिल्पकारोंमें श्रेष्ठ और सब प्रकारके आभूषण बनानेवाले चः सर्वेष विमानानि देवतानां चकार है। हुए तथा जिन्होंने देवताओंके सम्पूर्ण विमानकी रचना की और जिन महात्मा [ आविष्कृता ] शिल्प मनुष्याझोपजीवन्ति यस्य शिल्पं महात्मनः ॥ १२० चियाके आश्चगसे बहुत-से मनुष्य जीवन-निर्वाह करते तस्य पुत्रास्तु चत्वारस्तेषां नामानि में शृणु ।
| हैं ॥ १२ ॥ न विश्वकर्माके चार पुत्र थे; उनके नाम अजैकपादहिर्बुध्न्यस्त्वष्टा रुद्धश्च वीर्यवान् । सुनो। वे कपाद, अहिर्बुध्न्य, त्वष्टा और परमपुरूषार्थी त्वआप्यात्मनः पुत्रो विश्वकप महातपाः ॥ १२१ रुद्र थे। उनमेसे त्वष्टाकै पुत्र ममतपस्वी विश्वरूप हावा बहुरूपश्च त्र्यम्बकआपराजितः । थे। १३१ ।। है महामुने हर, बहुरूप, त्र्यम्बक वृषाकपिश्च शम्भुश्च कपर्दी दैवतः स्मृतः ।। १२२ अपराजित, वृषाकपि, शम्भु, कपर्दी, रैवत, मृगव्याध, मृगव्याधश्च शर्वश्च कपाली च महामुने । शर्ष और कपाली—ये त्रिलोकीके अधीश्वर ग्यारह रुद्र एकादशैते कथिता रुद्रास्त्रिभुवनेश्वराः ।
कहे गये हैं। ऐसे सैकड़ों महातेजस्वी एकादश रुद्र शर्त त्वेर्क समाख्याते रुद्राणाममितौजसाम् ॥ १२३
प्रसिद्ध हैं ॥ १२२-१२३ ।। शो को कश्यपस्य तु भार्या यास्तासां नामानि मे शृणु ।
जो [ दक्षकन्याएँ ] कश्यपञ्जीकी स्त्रियाँ हुई इनके अदितिर्दनिर्दनुश्चैवारिष्टा च सुरसा बसा ।। १२४ नाम सुन–चे अदति, दिति, इन्, अरिष्टा, सुरसा, प्रसा, सुरभि, विनता, ताम्रा, क्रोधवशा, इरा, कद् और सुरभिर्विनता चैव ताम्रा क्रोधवशी इरा ।
मुनि श्रीं । हे धर्मज्ञ ! अब तुम उनको सन्तानका विवरण कमुनिश्च धर्मज्ञ तदपत्यानि में शृणु ।। १३५ श्रवण करो ॥ १२-१३५५ ॥ पूर्वमन्वन्तरे श्रेष्ठा द्वादशास-सुरोत्तमाः ।
पूर्व (चाक्षुष) मन्वन्तरमै तुषित नामक बारह श्रेष्ठ तुषिता नाम तेऽन्योऽन्यमूचुवैवस्वतेऽन्तरे ।। १२६ | देवगण थे। ये यशस्वी सुरश्रेष्ठ चाक्षुष मन्वन्तरके पश्चात् उपस्थितेऽतियशसञ्चाक्षुषस्यात्तरे मनोः। | वैवस्वत-मन्वन्तके उपस्थित होनेपर एक-दूसरेके पास समवायीकृताः सर्वे समागम्य परस्परम् ॥ १२७ | जाकर मिले और परसार कहने लगे- ॥ १.२६-१२३ ॥
श्रीविगपुराण
आगच्छत तं देवा अदितिं सम्प्रविश्य वै। । | ” देवगण ! आमों, इमलेगा इश्व हीं अदिति मन्वन्तरे प्रसूयामस्तन्नः श्रेयो भवेदिति ॥ १२८ | गर्भमें प्रवेश कर इस वैवस्वत मन्वन्तरमें जन्म लें, इसमें एवमुक्त्वा तु ते सर्वे चाक्षुषस्यातरे मनोः ।
हमारा हित है” |१३: ।। इस प्रकार चाक्षुष-मन्वनमें निश्चयनकर उन सबने मचिपुत्र कश्यपजीके यहाँ दक्षकन्या मारीचाल्कश्यपाबाता अदित्या दक्षकन्यया ॥ १२९
अदितिके गर्भसे जन्म लिया ॥ १३६ ॥ ॐ अति तेजस्वी तत्र विष्णश्च शक्रश्च ज्ञज्ञाते पुनरेव हि ।। उससे उत्पन्न होकर विष्णु, इन्द्र, अर्यमा, भाता, त्वष्टा, पूषा, अर्यमा चैव धाता च त्वष्टा पूषा तथैव च ।। १३ विवस्वान, सविता, मैन, बरुण, अंशु और भग नामक विवस्वान्सविता चैव मित्रो वरुण एव च । द्वादश आदित्य कहलायें ॥ १३ १३१ । इस प्रकार पहले चाक्षुष-मन्यन्तममें जो तुषित नामक देवगण थे वे ही अंशुर्भगद्मानितेजा आदित्या द्वादश स्मृताः ॥ १३१ वैवस्वत मन्वन्तरमें द्वादश आदित्य हुए ॥ १३३ ॥ चाक्षुषस्यान्तरे पूर्वमासन्ये तुषिताः सुराः । ।
सोमकी जिन सत्ताईस सुनता पत्रिक विषयमें वैवस्वतेऽन्तरे ते ये आदित्या द्वादश स्मृताः १३२ | पहले कह चुके हैं। वे सब नक्षत्रयोगिनी हैं और उन नामोंसे याः सप्तविंशतिः प्रोक्ताः सोमपन्योऽथ सुव्रताः ।। ही विख्यात है ॥ १३३ ।। म त तैनानियोंसे अनेक सर्वा नक्षत्रयोगिन्यस्तन्नाम्न्यचैव ताः स्मृताः ।। १३३ |
प्रतिभाशाली पुत्र उत्पन्न हुए। अरिष्टनेमिकी पत्रिके सोलह पुत्र हुए। बुद्धिमान् बहुपुत्र भार्या [ कपि, तासामपत्यान्यभवन्दीप्तान्यमिततेजसाम् । ।
अतिदोहिता, पीता और अशिता के नामक ] चार अरिष्टनेमिपत्नीनामपत्यानींह घोश ॥ १३४ अकारक विद्युत् कही जाती हैं ॥ १३४-१३५ ॥ बहुपुत्रस्य विदुषश्चतम्रो विद्युतः स्मृताः ।। १३५ ब्रह्मर्षियोंसे सग्कृत ऋचाओ अभिमानी देवश्रेष्ठ प्रत्यङ्गरसजाः श्रेष्ठा ऋचो व्रह्मर्षिसत्कृताः । अत्यङ्गिरासे उत्पन्न हुए हैं तथा शास्त्रोंके अभिमानी देवप्रहरण नामक देवगण देवर्षि कृशाञ्चक सन्तान के कृशाश्वस्य तु देवषेर्दवप्रहरणाः स्मृताः ।। १३६ जाते हैं ॥ १.३६ ॥ हे तात ] [ आइ बस, ग्यारह रुद्ध, एने युगसहस्रातें जायन्ते पुनरेव हि । यारह दिया, जापत और वषट्कार ] ये तैंतीस वेदोक्त सर्वे देवगणस्तान त्रयस्त्रिंशत्रु छन्दनाः ।। १३६ | | देवता अपनी इच्छानुसार जन्म लेनेवाले हैं। कहते हैं, इस तेषामपन सततं निरोधोत्पत्तिरुच्यते ॥ १३८ मैकमें इनके उत्पत्ति और निरोध निरन्तर हुआ करते हैं। ये एक हजार के अनतर पुनः पुनः पन्न होनें रहते यथा सूर्यस्य मैत्रेय उदयास्तमनाविह् । ।
हैं ॥ १३-१३ ॥ हे मैत्रेय ! जिस पर में सूर्यक एवं देवनिकायास्ते सम्भवन्त युगे युगे ।। १३९ | अम्त और उदय निरन्तर हुआ करते हैं। इसी प्रकार में दित्या पुत्रद्वयं जज्ञे कश्यपादिति नः श्रुतम् । । | देवगण भी युग-युगमें उत्पन्न होते रहते हैं ॥ १३६ ॥ हिरण्यकशिपुश्चैव हिरण्याक्षश्च दुर्जयः ।। १४० | हमने सुना है दितिके कन्यजके वीर्यको परम इस हिमचिम र रियाझ नामक दो अन तथा सिंहिका चाभवत्कन्या विप्रचित्तेः परिग्रहः ।। १४१ | सिंडिका नामकी एक कन्या हुई जो विचनिये क्विाही हिरण्यकशिपोः पुत्राश्चत्वारः प्रथिनौजसः । गयीं ॥ १४ = १४१ ।। हिरण्यकशिपु अति तेजस्वी और अनुहादश्च हादश्च प्रहादश्चैव बुद्धिमान् । । महापराक्रमीं अनाद, इद, बुद्धिमान् प्रद और संद संहादश्च महावीर्या दैत्यवंशविवर्द्धनाः ।। १४२ | नामक चार पुत्र हुए जो दैत्यवंशको बढ़ानेवाले थे ।। १४३ ॥
पोतिःसमें कहा है वाताब कपिला विद्युदातपायतिहिना । पीता बर्षीय विज्ञेय दुर्भिक्षाय सिता भवेत् ॥ अर्थात् कपिल (भूरी) वर्गकी बिजलीं बासु अने, अत्यन्त हित धूप निकालनेवार, पोर्गा पृष्टि आनेवाली और सिता (धेन) दुर्भिक्षक सूचना देनेवालौं होती हैं।
प्रथम मा
तेषां मध्ये महाभाग सर्वत्र समावशीं । । | हे महाभाग ! उनमें प्रादजी सर्वत्र समदर्शी और प्रादः परमां भक्तिं च वाच जनार्दने ।। १४३ | जितेन्द्रिय थे, जिन्होंने श्रीविष्णुभगवान्की पम भक्तिका | वर्णन किया था ।। १४३ ।। जिनको दैत्यगृजद्वारा शॉप्त दैत्येन्द्रदीपितो वहिः सर्वाङ्गोपचिनो द्विज । | किये हुए अग्रिने उनके सर्वाङ्गमें व्याप्त होकर भी, न ददाह च यं विप्र वासुदेवे हदि स्थिते ।। १४४ हृदयमें वासुदेव भगवामुकें स्थित रहनेसे न ज्ञल्ला महार्णवान्तःसलिले स्थितस्य चलतो महीं। । | पाया ।। ३ ।। जिन महाबन्दिमानके पाबद्ध होकर चचाल का चस्य पावास्य धीमतः ।। १४५ | समुहके जन्में पड़े-पड़े इधर-उधर, हिलनेने सा] न भिन्नं विविधैः शबैर्यस्य दैत्येन्द्रपातितैः ।। थिवी हिलने लगी थीं ॥ १४ ॥ जिनका पक्के समान कठोर शरीर, सर्वत्र भगवत्ति हनेके कारण दैत्यराज शरीरमदिकठिनं सर्वत्राच्युतचेतसः ॥ १४६ चलाये हुए अस्त्र-शसे भी छिन्न-भिन्न नीँ विषानोज्ज्वलमुखा यस्य दैत्यप्रचोदिताः । हुआ || १६ ॥ दैत्याग्न प्रेरित विवामिलें अञ्चत नाताय सर्पपतो बभूवुरुतेजसः ।। १४७ | मुखवाले सर्प भी जिन मह्मतेजस्वीका अन्त नहीं कर सके । १४७ । जिन्होंने भगवसणरूपी कवच धारण शैलराक्रान्तदेहोऽपि यः स्मरन्पुरुषोत्तमम्। किये रहनके कारण पुरुषोत्तम भगवानुका सारण करते हुए तत्यान नात्मनः प्राणान् विष्णुस्मरणर्दशितः ॥ १४८ | पत्थरोंकी मार पनपर भी अपने प्राणोंको नहीं पतत्तमुद्यावनिर्यमुपेत्य महामतिम् । । बा ॥ १४ ॥ वर्गीनवासी दैत्यपतिद्वारा से गिराये दुधार दैत्यपतिना क्षिप्त स्वर्गनिवासिनी ॥ १४६ ॥जानेपर जिन मार्माको पृथिवीने पास जाकर बीचहीमें
अपनी गोदमें धारण कर लिया ॥ १४ ॥ चिसमें यस्य संशोषको वायुर्देह दैत्येन्द्रयोजितः ।।
मधुसुदनभगवान्कस्थित रहने का नियुक्त बाप सायं सद्यश्चित्तस्यै मधुसूदने ।। १५० किया हुआ सबका शोषण करनेवाला वायु जिनके शरीर में विषाणभङ्गमुन्मत्ता पदहानि च दिगाजाः । । लगनेसे शान्त हो गया ॥ १५ ॥ दैत्येन्द्रद्वारा आक्रमण यस्य वक्षःस्थले प्राप्ता दैत्येन्द्रपरिणामिताः ।। १५१ | लिये नियुक्त उन्मत्त दिग्गजके दाँत जिनके वक्षःस्थलमै
लगनेसे टूट गये और उनका सारा मद चुर्ण से यस्य चोत्पादिता कृत्या दैत्यराजपुरोहितैः ।
गया ।। १५१ ।। पूर्वकालमें दैत्यराजके पुरोहितोंकी उत्पन्न बभूव नान्ताय पुरा गोविन्दासचेतसः ।। १५२ | की हुई कृत्या भी जिन गोविन्दासतचित्त भक्तराजके शम्बरस्य च मायानां सहस्रमतिमायिनः । | अत्तका कारण न हों सकीं ॥ १२ ॥ जिनके ऊपर यस्मिन्प्रयुक्तं चक्रेण कृष्णस्य वितथीकृतम् ॥ १५३ |
अनु की हुई अनि मायावीं शम्की चारों माया श्रीकृष्णचन्द्र चक्रको व्यर्थ हो गयीं ॥ १३ ॥ जिन दैत्येन्द्रसूदोपहृतं यस्य हालाहलं विषम् ।। मतिमान् और निर्मत्सरने दैत्यराजके रसोइयोंके लाये हुए, जरयामास मतिमानविकारममत्सरी ॥ १५४ इलाहल विषको निर्विकार-भावसे पचा लिया ॥ १५ ॥ समचेता जगत्यस्मिन्यः सर्वेक्व जन्तुषु । जों इस संसारमें समस्त प्राणियोंके प्रति समानचित्त यधात्मनि तथान्येषां परं मैत्रगुणान्वितः ॥ १५५ |
और अपने समान ही दूसरों के लिये भी परमप्रेमयुक्त थे ।। ३५५५ ।। और जो परम धर्मात्मा महापुरुष, सस्य एवं धर्मात्मा सत्यशौर्यादिगुणानामाकरः परः । । शौर्य आदि गुर्गोंकी तानि तथा समस्त साधु-पुरुषों के लिये उपमानमशेषाणां साधूनां यः सदाभवत् ॥ १५६ | उपमास्वरूप हुए थे ।। १५६ ॥
।
ति श्रीविष्णुपुराणें प्रधर्मों पञ्चदशोऽध्यायः ॥ १५ ॥
श्रीविष्णुपुराण
सिलहों अध्याय काम किया कि का | किए
नृसिंहावतारविषयक प्रश्न ऑमय उवाच
मैत्रेयजी बोले- आपने महात्मा मनुपुत्र कश्चितों भवता वैशा मानवानां महात्मनाम् वंशका वर्णन किया और यह भी बताया कि इस जगनाके कारणं चास्य जगतो विष्णुरेव सनातनः ।। १ सनातन कारण भगवान् विष्णु ही हैं ॥ १ ॥ किन्तु
भगवन् ! आपने जो कहा कि दैत्यश्रेष्ठ प्रदर्जाको न तो यत्त्वेतद् भगवानाह प्रहादं दैत्यसत्तमम्। | अशिने ही भ्रम किया और न उन्होंने अस्त्र-शस्त्रोंसे दाह नाग्निर्नास्लैश्च क्षुण्णस्तत्याज़ जीवितम् ॥ ३ आघात किये जानेपर ही अपने प्राणों छोड़ा ॥ ३ ॥ तथा जगाम वसधा क्षोभं यत्राधिसलिले स्थिते । | पाबद्ध होकर समुद्रके जलमें पड़े रहनेपर उनके हिलते पाशर्बद्ध विचलति विक्षिप्ताङ्गः समाहता ।। ३ || इलते हुए अंगासे आहत होकर प्रथिवीं गमगाने ॥३॥ और शगैरपर पत्थरोंकी बौछार पडनेपर भी ये शैलैराक्रान्तदेहोऽपि न ममार च यः पुरा । | नहीं मरे । इस प्रकार जिन महाबुद्धिमान्का आपने बहुत # त्वया चातींव माहात्म्यं कथितं यस्य धीमतः ॥ ४ | माहात्म्य वर्णन किया है ।।४ ॥ हे मुने ! जिन अति तेजस्वी | | माहात्माके ऐसे चरित्र है, मैं उन परम विष्णुभक्तका तस्य प्रभावमतुलं विष्णोर्भक्तिमतो मुने । भर्तीत अभाव सुनना चाहती हैं ।। ५ ।। है मुनिवर ! श्रोतुमिच्छामि ग्रस्येतच्चरितं दीप्ततेजसः ।। ५ | वे तो बड़े ही धर्मपरायण थे; फिर दैत्योंने उन्हें क्यों किन्निमित्तमसौं शस्त्रविक्षप्तो दितिर्मने । | अस्त्र-शस्त्रोंसे पीड़ित किया और क्यों समुद्रके जलमें किमर्थं चाब्धिसलिले विक्षिप्तो धर्मतत्परः ॥ ६ डाला ? ।। ६ ।। उन्होंने किसलिये उन्हें पर्वतोंसे दबाया ? किस कारण सपसे ईंसाया ? क्यों पतशिखरसे गिराया आक्रान्तः पर्वतैः कस्माद्दष्टश्चैव मझेरगैः ।।
और क्यों अग्निमें झुलवाया ? ॥ ३ ॥ कुन महादेल्याने उन्हें क्षिप्तःकिमद्रिशिखराकिं वा पावकसञ्जये ॥ ७ | दिग्गजोंके दाँनोंसे क्यों हैंधवाया और क्यों सर्वशोषक दिग्दतिनां दत्तभूमिं सन्न कसान्निरूपितः ।। वायुकने उनके लिये नियुक्त किया ? || ८ ॥ हे मुने !
उनपर दैत्याने किसलिये कृत्याका प्रयोग किया संशोषकोऽनिलश्चास्य प्रयुक्तः किं महासुरैः ॥ ८ और शम्राकार क्यों अपनी सहस्रों मायाका बार कृत्यों च दैत्यगुरवो युनुस्तन्न कि मुने । | किया ? ।। ९ । उन महामाको मारनेके लिये दैत्यराज शम्बरश्चापि मायानां सहस्त्रं किं प्रयुक्तवान् ।।६ | रसोइयोने, जिसमें वे मथुद्धिमान् पचा गये थे ऐसा हालाहल विषमहो दैत्यसूदैर्महात्मनः ।।
हाल सिष क्यों दिया ? ॥ ३ ॥
हे महाभाग ! महात्मा प्रादका यह सम्पूर्ण चरित्र, कस्मात्तं विनाशाय यज्जीर्णं तेन धीमता ॥ १० जो इनके महान् माात्म्यका सूचक हैं, मैं सुनना चाहता एतत्सर्वं महाभाग प्रह्लादस्य महात्मनः । । | ॐ ॥ ११ ॥ यदि दैत्यगण उन्हें नहीं मार सके तो इसका मुझे चरितं श्रोतुमिच्छामि महामाहात्म्यसूचकम् ॥ ११ | कोई आश्चर्य नहीं है, जिसका मन अनन्यभावले भगवान् विष्णुमें लगा हुआ है उसको भला कौन मार, न हि कौतूहलं तत्र यदैत्यैर्न तो हि सः ।। सकता हैं ?।। १२ ।। [ आश्चर्य तो इसका है कि ] जो अनन्यमनसो विष्णौ कः समर्थों निपातने ॥ १२ | नित्यधर्मपरायण और भगवदाधनामें तत्पर रहते थे, उनसे तस्मिन्धर्मपरे नित्यं केशवाराधनोद्यते । उनके ही कुलमें उत्पन्न हुए दैत्योंने ऐसा अति दुष्कर इंग
किया ! [ क्योंकि ऐसे समदर्शी और धर्मभीरु पुरुषसे तो स्ववंशप्रभवेदैत्यैः कृतो द्वेषोऽतिदुष्करः ।। १३ किसीका भी द्वेष होना अत्यन्त कठिन हैं ] ॥ १३ ॥ ऊन धर्मात्मन महाभागे विष्णुझते विमत्सरे । धर्मात्मा, माभाग, मत्सरहीन विष्णु-भरको यौन किस दैतेयैः अद्भुतं कस्मात्तन्ममाख्यातुमर्हसि ।। १४ | कारणसे इतना कष्ट दिया, सो आप मुझसे कहिये । १४ ।। अ+ १३ ]
अधम अंश
प्रहरन्ति महात्मानो विपक्षा अपि नेदृ । । महात्मालोग तो ऐसे गुण-सम्पन्न साधु पुरुषोंके विपक्षी गुणैस्समन्विते साधौ किं पुनर्यः स्वपक्षजः ।। १५ | होनेपर भी इनपर किसी प्रकारका प्रहार नहीं करते, फिर
स्वपक्षमें होनेपर तो कहना ही क्या है ? ॥ १५ ॥ इस हैं | तदेतत्कथ्यतां सर्वं विस्तरान्युनिपुङ्गय। कामना सव_वानपच। | मुनिशेड़ ! यह सम्पूर्ण मत्तान्त विस्तारपूर्वक वर्णन कीजिये । दैत्येश्वरस्य चरितं श्रोतुमिच्छाम्यशेषतः ।। १६ | मैं उन दैत्यराजका सम्पूर्ण चरित्र सुनना चाहता हूँ ॥ १६॥
इति श्रीविष्णुपुराणे प्रथमेंदी घोडशोऽध्यायः ।। १६ ।।
हिरण्यकशिपुका दिग्विजय और प्रह्लाद चरित ऑपराशर उवाच । श्रीपराशरजी बोले-हे मैत्रेय ! सदा मैत्रेय श्रूयतां सम्यक् चरितं तस्य धीमतः। | उदारचरित परमबुद्धिमान् महात्मा प्रादजीका चरित्र तुम प्रह्लादस्य सदोदारचरितस्य महात्मनः ॥ १ | यानपूर्वक श्रवण करी ॥ १ ।। पूर्वकालमें दिनिके पुत्र दितेः पुत्रो मह्मवीय हिरण्यकशिपुः पुरा । महाबली हिंण्यकशिपुने, ब्रह्माजीक बरसे गर्वयुक्त
(सशक्त होकर सम्पूर्ण निरोकीको अपने वशीभूत कर त्रैलोक्यं वशमानये ब्रह्मणो वरदर्पितः ।। ३ लिया था ।। ३ ।। यह दैत्य इन्द्रपदका भोग करता था। वह इन्द्रत्वमकरोत्यः स चासीत्सविता स्वयम् । । महान् अमुर स्वमें ही सूर्य, वायु, अग्नि, वरूण और चन्द्रमा वायुररिप नाथः सोमयाभून्महासुरः ॥ ३ | बना हुआ था ॥ ३ ॥ वह स्वयं ही कुबेर और यमराज भी धनानामधिपः सोऽभूल्स एवासीत्स्वयं यमः । । धीर अह अमर काय । सम्पु || भगिता यज्ञभागानशेषस्तु स स्वयं बुभुजेऽसुरः ॥ ४ था ॥ ४ ॥ हे मुनिसत्तम ! उसके भय देवगण वर्गो देवाः स्वर्ग परित्यज्य तत्रासामुनिसत्तम । ड़कर मनुष्य-शरीर धारणकर भूमण्डूलमें विचरते रहने थे ।। ५॥ इस प्रकार सम्पूर्ण त्रिलोकीको जीतकर विचरुवनी सर्व विभाणी मानुषी तनुम् ॥ ५ | त्रिभुवनके वैभवसे गर्वित हुआ और गवसे अपनी जित्वा त्रिभुवनं सर्व त्रैलोक्यैश्चर्यदर्पतः ।। स्तुति सुनता हुआ वह अपने अभीष्ट भोगोंकों भोगता उपगीयमानो गन्धर्वैर्बुभुजे विषयान्प्रियान् ॥ ६ | था ।। ६ ।। पानासक्तं महात्मानं हिरण्यकशिपु तदा । उस समय उस मद्यपानासक्त महाकाय हिरण्यकशिपको ही समस्त सिद्ध, गन्धर्च और नाग आदि उपासना करते उपासाश्चक्रिरे सर्वे सिद्धगन्धर्वपन्नगाः ॥ ५७ ॐ ॥ ॥ ३॥ यजके सामने कोई गिद्धगण तो अवादयन् जगुश्चान्ये जयशब्दं तथापरे । वाले जाकर उसका यशोगान करते और कोई अति दैत्यराजस्य पुरतश्चक्रुः सिद्धा मुदान्विताः ।। ८ | प्रसन्न होकर जयमकान करते ॥ ८॥ तथा वह तत्र प्रवृत्ताप्सरसि स्फाटिकाभ्रमयेऽसुरः ।। असुरराज वहाँ स्ट क एवं अभ्र-शिलाके बने हुए पपौ पानं मुदा युक्तः प्रासादे सुमनोहरे ॥ ९ ॥ मनोहर महलमें, जहाँ अप्सराओंका उत्तम नृत्य हुआ तस्य पुत्रो महाभागः प्रहादो नाम नामतः ।। करता था, अमानताके साथ मद्यपान करता रहता था ।। ६ ।। उसका प्रसाद नामक महाभाग्यवान् पुत्र था। पपाठ बालपाट्यानि गुरुगेङ्गतोऽर्भकः ॥ १० वह आक गुल्क यहाँ जाकर आलोचित पाठ पढ़ने एकदा तु स धर्मात्मा जगाम गुरुणा सह । | | १० || एक दिन वह धर्मात्मा बाम गुरुजक पानासस्य पुरतः पितुर्दैत्यपतेस्तदा ।। ११ | साथ अपने पिता दैत्यराजके पास गया जो उस समय चियामाग पादप्रणामावर्त तमुत्थाप्य पिता सुतम् । । मद्यपानमें लगा हुआ था ॥ ११ ॥ तब, अपने चरणों हिरण्यकशिपुः प्राह प्रादपमितौजसम् ॥ १२ झुके हुए अपने परम तेजस्वी पुत्र प्रह्लादजको उठाकर पिता हरण्यकशिपुरुच
हिंगण्यकशिपु का ॥ १२ ॥ पयतां भवता वत्स सारभूतं सुभाषितम् ।।
हिण्यकशिप बोला-वस ! अबतक अम्म निरन्तर तार कर तुमने झो पा है। कालेनैतावता यत्ते सदोद्युक्तेन शिक्षितम् ॥ १३ | इसका सारभूत झाम भाषण में राना ।। ३३ ।।। प्रसाद ज्ञवाच ।
प्राङ्गी बोले- पिताजी ! मेरे मनमें जो सबके श्रूयतां तात यक्ष्यामि सारभूतं तवाज्ञया । सारांशपमें स्थित हैं वह मैं आपकी आज्ञानुसार सुनाता समाहितमना भूत्वा यमे चेतस्यवस्थितम् ॥ १४ | हैं, सावधान होकर सुनिये ।। १४ ।। जो आदि, मध्य और अनादिमध्यान्तमजमवृद्धिक्षयमच्युतम् ।।
अन्तसे रहित, अजन्मा, वृद्ध-क्षय-शुन्य भौंर अच्युत हैं, प्रणतोऽस्म्यत्तसन्तानं सर्वकारणकारणम् ।। १५ समस्त कारणों के कारण तथा जगतुकें स्थिति और
अन्तकर्ता उन श्रीहरिको मैं प्रणाम करता हैं ।। १५ ।।। ऑपराशर नाम ।
श्रीपराशरुजी बोले—यह सुन दैत्य | एतन्निशम्य दैत्येन्द्रः सकोपो रक्तलोचनः ।
हिरण्यकशिपुने क्रोधसे व काल कर प्रहाद गुरुकीं विलोक्य तद्गुरुं प्राह स्फुरिताधरपल्लवः ।। १६ | ओर देवर काँपते हुए ओटोंसे कहा ॥ १६ ।।।
हिरण्यकशिपुरुवाघ । हिरण्यकशिपु बोला—३ दुर्बुद्धि ब्राह्मणाधम ! ब्रह्मवन्धों किमेतत्ते विपक्षस्तुतिसहितम् । | यह क्या ? तूने मेरो अवज्ञा कर इस बालकको मेरे असारं ग्राहितो बालो मामवज्ञाय दुर्मते ॥ १७ विपक्षीकी स्तुतिने युक्त असार शिक्षा दी है ! ॥ १७ ॥ गुरूजींने कहा-पैंयराज ! आपको क्रोध गुरुवार वशीभूत न होना चाहिये। आपका यह पुत्र मेरो सिस्नायीं दैत्येश्वर ने कोपस्य वशमागन्तुमर्हसि ।।
दुई बात नहीं कह रहा है ॥ ६ ॥ ममोपदेशजनितं नायं वदति ते सुतः ॥ १८ हिरण्यकशिपु झोला—येटा प्रहाद ! बताओं जो तुमको यह शिक्षा किसने दी हैं ? तुम्हारे गुरुजी कहते हैं अनुशिष्टोस केनेम्वत्स प्रहाद कथ्यताम् ।।
कि मैंने तो इसे ऎसा उपदेश दिया नहीं है ।। १६ ।। मयोपदिष्टं नेत्येष प्रब्रवीति गुरुस्तव ॥ १९ प्रहादजी बोले—पिताजी ! हृदयमें स्थित प्रसाद उच्च
भगवान् विष्णु हीं तों सम्पूर्ण जगतुकै अपशक हैं। इन शास्ता विष्णुरशेषस्य जगतो यो हदि स्थितः ।। परमात्माको छोड़कर और कौन किसीको कुड सिता
सकता ।। । । == = तमृते परमात्मानं तात कः केन शास्यते ।। ३०
हिरण्यकशिपु बोला-अरे मूर्स ! जिस । हिरण्यकरिशुरुवाच विष्णुका तू मुझ जगदीश्वरके सामने धृष्टतापूर्वक निश्शक कोऽयं विष्णुः सुदर्बुद्धे यं ब्रवीषि पुनः पुनः ।। होकर बारम्बार वर्णन करता है, नह कौन हैं? ॥ २१ ॥ जगतामीश्वरस्येह पुरतः प्रसनं मम ।। २१ महादजी बोले-योगियोंके ध्यान करनेयोग्य
जिसन परमपद बाणका विषय नहीं हो सकता तथा न शब्दगोचरं यस्य योगिध्येयं परं पदम् । जिससे विश्व प्रकट हुआ हैं और जो स्वयं विश्वरूप है वह परमेश्वर ही विष्णु हैं ।। ३३ ।। यतो यश्च स्वयं विश्व स विष्णुः परमेश्वरः ॥ २२ ८ । | हिरण्यकशिपु बोला-अरे मूर ! मेरे रहते हिरम्यकशिपुरावाच । हुए और त परमेश्वर कहा जा सकता है ? फिर भी परमेश्वरसंशोज़ किमन्यो मय्यवस्थिते । | तु मौत मुखमें जाने इच्छासे आरम्बार ऐसा थक तथापि मर्नुकापस्त्वं प्रब्रवीषि पुनः पुनः ।। २३ | रहा हैं ॥ २३॥
प्रहादजी बोले-हे तात ! वह ब्रह्मभूत विष्णु तो न केवल तात मम जान
केवल मेरा ही नहीं, बल्कि सम्पूर्ण प्रजा और आपका भी से ब्रह्मभूतो भवतश्च विष्णुः ।। कर्ता, नियता और परमेश्वर है। आप प्रसन्न होइये, व्यर्थ प्राता विधाता परमेश्वरश्च क्रोध क्यों करते हैं ।। ३४ || प्रसीद कोपं कुरुये किमर्थम् ।। २४ | हिरण्यकशिपु बोला- अरे कौन पापी इस हिरण्यकशिपुल्याच दुर्बुद्धि बालकके हृदयमें घुस बैंा है जिससे आविष्ट प्रविष्टः कोऽस्य हृदये दुर्बुद्धरतिपापकृत् ।
चित्त होकर यह ऐसे अमङ्गल वचन बोलता हैं ? ।। २५ || येनेदृशान्यसाधून वदत्याविष्टमानसः ।। २५ प्रा बोले—पिताजी ! वै विष्णुभगवान् तो में ही हृदय नीं, बल्कि सम्पूर्ण कॉमें स्थित हैं। वे न केवलं मधुदयं स विष्णु सर्वगाम तो मुझको, आप सबको और समस्त प्राणियों अपनी-अपनी चेष्टाओंमें प्रवृत्त करते है ॥ ३६ ।।। | राक्रम्य लोकानखिलानवस्थितः ।। हिरण्यकशिपु बोला—इस पापको यहाँसे स मां दादींश्च पितस्समस्ता निकालने और गुरुके यहाँ ले जाकर इसका भी प्रकार समस्तचेष्टासु युनक्ति सर्वगः ॥ २६ शासन क] । इस दुर्मतिको न जाने किसने मेरे विपक्षीकी हिंरण्यकशिपुरुवाच प्रशंसामें नियुक्त कर दिया है ? ॥ २७ ॥ निष्कास्यतामयं पापः शास्यतां च गुरोगृहे । श्रीपराशरजी बोले—उसके ऐसा कहनेपर योजितो दुर्मतिः केन विपक्षविषयस्तुतौ ॥ २७ | दैत्यगण उस बालको फिर शुरुजींके यहाँ ले गये और वे औपरा उतान वहाँ गु+की रात-दिन भी प्रकार सेवा-शुश्रुषा करते हुए इत्युक्तोऽसौ तदा दैत्यैनौतो गुरुगृहं पुनः । विद्याध्ययन करने लगेंगे ॥ ३८ ॥ बहुत काल व्यतीत हो जमा विद्यामनिशं गुरुशुश्रूषणोद्यतः ।। २८ जानेपर दैत्यराजने प्रह्लादीको फिर बुलाया और कहा कालेतीतेऽपि महति प्रहादमसरेश्वरः । |बेटा ! आय कोई गाथा (कथा) सुनाओं’ ॥ २१ ॥ समायाब्रवीदाथा काचित्यत्रक गीयताम् ॥ ३१॥ प्रह्लादजी बोले-जिनसे प्रधान, पुरुष और यह
प्रद वाच चराचर जगत् उत्पन्न हुआ हैं वे सफल प्रपञ्चके कारण यतः प्रधानपुरुष यतश्चैतच्चराचरम् । श्रीविष्णुभगवान् हमपर प्रसन्न हों ।। ३ ।। कारणं सकलस्यास्य स नो विष्णुः प्रसीदतु ॥ ३०
हिरण्यकशिपु बोला-अरे ! यह बड़ा दुरान। ।
हिरण्यकशिपुरताच हैं! इसको मार झलों; अब इसके जीनेसे कोई भ
नहीं हैं, क्योंकि स्वपक्षकी हानि करनेवाला होनसे यह तो दुरात्मा वध्यतामेव नानेनार्थोऽस्ति जीवता । पने कुनके लिये अंगारूप ॐ गया है ॥ ३१ ।।। स्वपक्षहानिकर्तृत्वाद्यः कुलाङ्गारतां गतः ।। ३१ श्रीपराशजी बोले-उसकी पै आज्ञा होने पर | पराशर उवाच ।
सैकड़ों-हजारों दैत्यगण बड़े-बड़े अस्त्र-शस्त्र लेकर उन्हें इत्याज्ञप्तास्ततस्तेन प्रगृहीतमायुधाः ।।
मारनेके लिये तैयार हुए ॥ ३२ ॥ उक्तास्तस्य नाशाय दैत्याः शतसहस्रशः ।। ३२ |
प्रहादजी बोले- दैत्यो ! भगवान् विष्णु तौ प्रद उवाच
शलोंमें, तुमलोगों और मुझमें– त्र ही अित हैं। विष्णुः शस्त्रेषु युष्मासुमय चासो व्यवस्थितः ।। | इस सत्यके प्रभावसे इन अन-रुका मेरे ऊपर कोई दैतेयास्तेन सत्येन माक्रमन्त्यायुधानि में ।। ३३ | प्रभाव न हो ॥ ३३॥ –
आमिराण
सारी ऑपराशर उवाच न । ऑपराशजींने कहा–राब तो उन सैकड़ों ततस्तैश्शतशो दैत्यैः शस्त्रोधैराङ्गतोऽपि सन्। दैत्योंके शस्त्र-समूहका आषात होने पर भी उनको नावाप वेदनामल्पामभूचैव पुनर्नवः ।। ३४ तनिक-सी भी वेदना न हुई, वे फिर भी ज्यों-के-त्य नवीन हिम्मकारवाचक छ बाल-सम्पन्न ही रहें ॥ ३४ ॥ दुर्बुद्धे विनिवर्तस्व वैरिपक्षस्तवादतः ।।
हिरण्यकशिप बोला- दई । अब । अभयं ते प्रयच्छामि मातिमहर्मानिर्भव ।। ३ । विपक्षीकी स्तुति करना औड़ है; जा, मैं तुझे अभय-दान | देता हैं, अब और अधिक नादान मत हों ।। ३५ ॥ भर्य भयानामपरिणि स्थिते कट प्रादजी मोले-हे तात ! जिनके स्मरणमात्र मनस्यनन्ते मम कत्र तिति । | जन्म, जरा और मृत्यु आदिके समस्त भय दूर हो जाते हैं। यस्मिन्स्मृते जन्मजरान्तकादि इन सकल-भयहारी अनन्त हृदयमें स्थित रहते मुझे भय कहाँ रह सकता है॥ ३६॥ ८ ८ ८ भयानि सर्वाश्यपयान्ति तात ।। ३६ हिरण्यकशिपु चोलाअरे साप ! इस अत्यन्त हिरण्यकशिपुरुवाच ।
दुर्बुद्धि और दुराचारी अपने विषाग्नि-सतम मुस्लोंसे भो भो सर्पा: दुराचारमेनमत्यत्तदुर्मतिम् । , शॉन को नष्ट कर दी ।। ३ ।। विषज्वालाकुलैवनैः सद्यो नयत सङ्घयम् ।। ३७ | श्रीपराशरजी बोले-ऐसी आज्ञा होनेपर अतिक्रर
पए ज्याच और विषधर तक आदि सर्पोन इनके समस्त अंगोंमें इत्युक्तास्ते ततः सर्पाः कुकास्तक्षकादयः ।। का ॥ ३८ ॥ कि उन्हें तो ओ चन्में आस अदशन्त समस्तेषु गात्रेनिविघोचणाः ।। ३८ | चित्त रनेके कारण भगवत्स्मरणके परमानन्दमें डूबे रहनेसे स त्वासक्तमतः कृष्णे दृश्यमान महरगैः । | उन महासर्पोक काटनेपर भी अपने शरीरका कोई सुधि न विवेदात्मनों गात्र तत्स्मृन्याहादसस्थितः ।। ३९ | नहीं हुई ॥ ३९ ॥ सप ऊचुः । । सर्प बोले- दैत्यराज़ ! देखो, हमारी दा? दंष्ट्रा विश मणयः स्फुटन्ति ।
टूट गयीं, मणि चटखने लगीं, फणोंमें पीड़ा होने लगी | फणेषु तापो हुदयेषु कम्पः ।
और हदय काँपने लगा, तथापि इसकी त्वचा तो जरा नास्य त्वचः स्वल्पमपीह भिन्नं भी नहीं कटीं । इसलिये अब आप हमें कोई और कार्य |प्रशाधि दैत्येश्वर कार्यमन्यत् ॥ ४० |
बताइ ।॥ ४० ॥ हिरण्यगशिपुरूजाच । हिरण्यकशिपु बोला-है दिमाजों ! तुम सब हे दिग्गज्ञाः सङ्कटदत्तमिश्रा अपने संकीर्ण दाजीको मिलकर मेरे शत्र-पक्षधारा | तैनमस्मदपुपक्षभिन्नम् [ बहकाकर ] मुझसे विमुख चिये हुए इस बालकको
। तचा विनाशाय भवन्ति तस्य । मार डालो । देखो, जैसे अरणीसे उत्पन्न हुआ अनि उसको जला डालता हैं उसी प्रकार कोई-कोई जिससे उत्पन्न होते | यथारपोः प्रज्वलित हुताशः ॥ ४६ | उसके नाश करनेवाले हो जाते हैं ॥ ४ ॥
ऑपराशर उवाच ऑपराशरजी बोले—तब पर्वत-शिखरके समान ततः स दिगार्जेबलो भूभृच्छिखरसन्निभैः । | विशालकाय दिगञोंने उस बालक्को पृथिवीपर पटककर
वासस पातितो धरणीपृष्ठे विषाणैर्वावपीडितः ॥ ४२ | अपने दाँतोंसे खूब रौंदा ॥४२॥ किन्तु औगोविन्दका स्मरतस्तस्य गोविन्दमभदत्ताः सहस्रशः ।। | स्मरण करते रहने से हाथियोंके हजारों दाँत उनके शीर्णा वक्षःस्थलं प्राप्य साहू पितरं ततः ॥ ४३ | वक्षःस्थलसे टकराकर टूट गये; तब उन्होंने पिता दत्ता गज्ञान कुलिशानिनुराः
हिरण्यकशिपुसे कहा-॥ ४३ ॥ “ये जो हाथियों शीर्णा यदेते न बलं ममैतत् ।। | वज्रके समान कर दाँत टूट गये हैं इसमें मेरा कोई बल ब्रह्मविपापविनाशनोऽयं
नहीं है; यह तो श्रीजनार्दनभगवान महाविपत्ति और जनार्दनानुस्मरणानुभावः।
शोंके नष्ट करनेवाले स्मरण ही प्रभाव हैं’ ।। ४४ ।। | हिरण्यकशिपु बोला- अरे दिग्गजों ! तुम छुट चाल्यतामसुरा वरिपसर्पत दिगाज्ञाः ।। ज्ञाओं । दैत्यगण ! तुम अग्नि जलाओ, और हे वायु ! तुम वायो समेधयाग्नि त्वं दातामेघ पापकृत् ॥ ४५
अग्निको ज्वलित करो जिससे इस पापको जला डाला जा ।। ५ ।। !! EPF श्रीपराझार मात्र महाकाष्ठचयस्थ तमसुरेन्द्रसुतं ततः ।।
पराशरी ओले-तब अपने स्वामीकी आज्ञासे दानवगण के एक बड़े में स्थित उस असुर अभ्याल्य दानवा वाहें दहः स्वामिनोदिताः ।। ४६ राजकुमारको अग्नि प्रज्वलित करके जाने लगे || ४६ ।। म उवाच । तातैष ः पवनेरितोपि
| प्रहादजी बोले-३ तात ! पवनसे प्रेरित हुआ भी यह अग्नि मुझे नहीं जाता। मुझको तो सभी दिशाएँ न म दहत्यत्र समन्ततोऽहम् ।। ऐसी शीतल प्रतीत होती हैं मानो मेरे चारों और कमल पश्यामि पद्मास्तरणास्तृतानि । बिछे हए हों ।। ‘५ शीतानि सर्वाणि दिशाम्मुखानि ॥ ४७ श्रीपराशरजी बोले–तदनन्तर, शुक्रजीके पुत्र औपराशर उवाच बड़े वाग्मी महात्मा [ घडाम आदि ] पुरोहितगण अच्च दैत्येश्वरं प्रचुर्भार्गवस्यात्मज्ञा द्विजाः । [सामनीतिसे दैत्यराजकी अड़ाई करते हुए बोले ॥ ४८ ॥ पुरोहिता महात्मानः साम्रा संस्तूय वाग्मिनः ॥ ४८ पुरोहित बोले-हे राजन! अपने इस बालक
परोनिता ऊचुः
पुत्रके प्रति अपना क्रोध शान्त कीजिये; आपले तों राजन्नयम्यतां कोपो बालेपि तनये निजे । देवताऔपर ही क्रोध करना चाहिये, क्योंकि उसकी कोपो देवनिकायेषु तेषु ते सफलो यतः ।। ४९ | सफलता तो वहीं है ॥ ४९ ॥ हे राजन् ! हम आपके इस तशातचैनं झालं ते शासितारो वयं नृप । बालको ऐसी शिक्षा देंगे जिससे यह विपक्षके नाशका यथा विपक्षनाशाय विनीतस्ते भविष्यति ।। ५० कारण होकर आपके प्रति अति विनीत से जायगा ॥ ५६ |हे दैत्यराज ! बाल्यावस्था तो सब बालत्वं सर्वदोषाणां दैत्यराजास्पदं यतः । | प्रकार, दोषोंका आश्रय होती ही है, इसलिये आपको ततोऽत्र कोपमत्यर्थ योक्तुमर्हसि नार्मके ।। ५१ | इस बालकपर अत्यन्त क्रोधका प्रयोग नहीं करना चाहिये न त्यक्ष्यत हरे: पलमस्माकं वचनादि। । ।। ५१ ।। यदि हमारे कहनेसे भी यह विष्णका पक्ष नहीं ततः कृत्यां वायास्य करिष्यामोऽनिवर्तिनीम् ॥ ५२ । छेड़ेगा तो हम इसको नष्ट करनेके लिये किसी प्रकार न टलनेवाली कृत्या उत्पन्न करनें ॥ ५२ ॥ ऑपराशर याच एवमभ्यर्थितस्तैस्तु दैत्यराजः पुरोहितैः ।। औपराशरजींने कहा-पुरोहितोंके इस प्रकार दैत्यैर्निष्कासयापास पुत्रं पावकसञ्चयात् ।। ५३ | | प्रार्थना करनेपर दैत्यराजने दैयोद्ध्यरा प्रहादको | आँझसमूहसे बाहर निकलवाया ।। ५३ ॥ फिर प्रहादजी, ततो गुरुगृहे बालः स वसन्बालदानवान् । । गुरुजके यहाँ रहते हुए उनके पढ़ा चुकनेपर अन्य अध्यापयामास मुरुपदेशान्तरे गुरोः ।। ५४ | दानवकुमारोंको बार-बार उपदेश देने लगे ॥ ५ ||
विष्णुपुराण
प्रहाद उवाच प्रहादजी बोले-हे दैस्पकुलोत्पन्न असुर-यालको ! श्रूयतां परमार्थों में तेया दितिजाम्जाः । । सुनो, मैं तुन्हें परमार्थ उपदेश करता है, तुम इसे अन्यथा न ने चान्यचैतनमन्तव्यं नात्र लोभादिकारणम् ॥ ५५
समझना, क्योंकि मेरे ऐसा कहनेमें किसी प्रकारका लोभादि कारण नहीं है। ५५ ।। सभ जौ जन्म, बाल्यावस्था और जन्म बाल्यं ततः सर्वोत्तुः प्राप्नोति यौवनम् ।। | फिर धन प्राप्त करते हैं, तत्पश्चात् दिन-दिन वृद्धवस्थाको अव्याहतैव भवति ततोऽनुदिवसं जरा ॥ ५६ | प्राप्ति भी अनिवार्य ही हैं ॥५६॥ और हे दैत्यराजकुमारों ! | फिर यह जांच मृत्यु मुवमें चल जाता है. यह हम और तुम ततश्च मृत्युमध्येति जन्तुर्दैत्येश्वरात्मजाः ।। | सभी प्रत्यक्ष देखते हैं ॥ ५ || मरनेपर पुनर्जन्म होता है, यह प्रत्यक्षं दृश्यते चैतदस्माकं भवतां तथा ।। ५७ | नियम भी कभी नहीं टलता। इस विषयमें [ श्रुति तिरूप ] आगम भी प्रमाण है कि बिना उपादानके कोई मृतस्य च पुनर्जन्म भवत्येतच्च नान्यथा। वस्तु उत्पन्न नहीं होती* ॥ ५८ ।। पुनर्जन्म प्राप्त करानेवाल्में आगमोऽयं तथा यच्च नपादानं विनोद्भवः ।। ५८ गर्भवास आदि जितनी अवस्थाएँ हैं उन सबको दुःखरूप ही ज्ञान ।। ५९ मनुष्य मूर्खताबश क्षुधा, तुणा और शीवादको गर्भवासादि यात्तु पुनर्जन्मोपपादनम् ।। शान्तिको सच मानते हैं, परन्त वास्तसमें न दें इ मात्र का समस्तावस्थ तावदुःखमेवावगम्यताम् ॥ ५९ | हैं ॥ ६ ॥ जिनका शरीर [ वातादि दोषसे ] अत्यन्त
शिथिल हो जाता है, उन्हें जिस प्रकार मायाम सुक्षद प्रतीत चुतृष्णपाशमं तद्वच्छताद्युपशमं सुखम् ।। झेता हैं उसी प्रकार ज्ञिक दृष्टि भ्रान्तिज्ञानसे बैंकों हुई हैं इन भन्। बालुवावमध , तनः ॥ ६ | दुव ही सुग्वरूप जान पड़ता है ।। ६१ ॥ अहो ! कहाँ तो कफ अत्यन्तस्तिमिताङ्गानां व्यायामेन सुखैषिणाम्।।
आदि महागत पदार्थों का समूहकप बारीर और कहाँ अनि, ऑभा, सौन्दर्य पूर्व रमणीयता आदि दिव्य गुण ? [ तथापि भ्रान्तिज्ञानावृताक्षाणां दुःखमेव सुखायते ॥ ६१
| माय इस घणत शरीर कत्ति आइका आरोप र मुना क्व शरीरमशेषाणां श्लेष्मादीनां महाचयः ।। मानने लगता है 1 ॥ ६६ ॥ यदि किस मुंह पुरुषको मांस, क्व कात्तिशोभासौन्दर्यरमणीयादयौ गुणाः ॥ ६२ रुधिर, पीव, विष्ठा, मु, मासु, मन्ना और अस्थिक समूहरूप इस शरीरमें प्रीति हो सकती है तो इसे नरक भी प्रिय मसासूपूयविमूत्रस्नायुम्नास्थिसंहतौ ।। ग सकता है ।। ६३ ।। अग्नि, जल और भात शत, या और, हे चेप्रीतिमान् मूळे भविता नरकेऽप्यसौ ॥ ६३
| धाके कारण सुखकारी होते हैं और इनके प्रतियोगी जल आदि भी अपनेसे भिन्न अँग्र आदिके कारण ही सुखके हेतु अग्नेः शीतेन तोयस्य तृषा भक्तस्य च क्षुधा। होते है ॥ ६ ॥ | हे दैत्यकुमारों ! विषयक जितना-जितना संग्रह किया जाता है उतना-तना ही में मनुष्यके चित्तमें दुःख करोति हे दैत्यसुता यावन्मात्रं परिग्रह्म् ।। | चढ़ाते हैं ।। ६५ ।। जीव अपने मनको प्रिय लगनेवाले तासन्मानं स एवाय दूर्व चेतसि यति ॥ ६५ | जितने ही सम्बन्धको बढ़ाता जाता है उतने ही उसके हृदयमें शकरूप झाल्य – काँ) स्थिर होत ज्ञाने यावतः कुरुते जन्तुः सम्यन्यान्मनसः प्रियान्। ।। ६६ । परमें जो कुछ धन हैं॥ ६६ ॥ परमें जो कुछ धन-धान्यादि होते हैं मध्यके तावन्तोऽस्य निखन्यन्ते हृदये शोकशङ्कवः ।। ६६ | जहाँ-जहाँ (परदेशमें) रहनेपर भी वे पदार्थ उसके चित्त | चने हुते हैं, और उनके नाम और दाड़ आदि सामग्री यद्यगई तमनसि यन्न तन्नावतिष्ठतः ।।
मैं इसमें मौजूद रहती हैं। [ अर्थात् परमें स्थित नाशदाहोपकरणं तस्य तत्रैव तिष्ठति ।। ६७ | पदार्थांकि सुरक्षित रहनेपर भी मनःस्थिति पदार्थोके नाश यह पुर्बम होनेमें युक्ति है क्योंकि जबतक पूर्व-जन्मके किये हुए, शुभाशुभ कर्मरूप कारणका होना ना माना जाय तबतक वर्तमान जन्म भी सिद्ध नहीं हो सकता। इसी प्रकार, जब इस जन्ममें शुभाशुभ आरम्भ हुआ है तो इस कार्यरूप पुनर्जन्म भी अयय होगा।
Vishnu Puran