श्रीवराहपुराण
॥ श्री गणेशाय नमः ॥
॥ ॐ नमो भगवते महावराहाय ॥
विभिन सगका वर्णन
उन परम पुरुषके चिन्तन करनेपर दूसरी पहलेको | तिर्यस्रोतमें उत्पन्न होनेसे तिर्यग्योनि या तैर्यक अपेक्षा उत्कृष्ट सृष्टि–रचनाका कार्य आरम्भ हो स्रोतके प्राण कहे जाते हैं। गया। यह सृष्टि वायुके समान वक्र गतिसे या विधाताकी सभी सृष्टियोंमें उच्च स्थान तिरछौं चलनेवालीं हुई, जिसके फलस्वरूप इसका | रखनेवाली छठी सृष्टि देवताओंकी है। मानव नाम तिर्योत पड़ गया। इस सर्गकि प्राणियोंकी | उनकी सातवीं सृष्टिमें आता है। सत्त्वगुण और पशु आदिके नामसे प्रसिद्ध हुई। इस सर्गको भी तमोगुणमिश्रित आठवाँ अनुग्रहसर्ग माना गया हैं। अपनी सृष्टि–रचनाके प्रयोजनमें असमर्थ जानकर क्योंकि इसमें प्रजापर अनुग्रह करनेके लिये ब्रह्माद्वारा पुनः चिन्तन किये जानेपर एक और ऋषियोंकी उत्पत्ति होती है। इनमें बादके पाँच दूसरा सर्ग उत्पन्न हुआ। यह ऊर्ध्वस्रोत नामक| वैकृत सर्ग और पहलेके तीन प्राकृत सर्गके नाम से तीसरा धर्मपरायण सात्त्विक सर्ग हुआ, जो ज्ञाने जाते हैं। नर्वो कौमार सर्ग प्राकृत–वैकृतमित्रित देवताओंके रूपमें स्वर्गादि लोकों में रहने | है। प्रज्ञापतिके ये नौ सर्ग कहे गये हैं। संसारकी लगा। ये सभी देवता ऊर्ध्वगामी एवं स्त्री–पुरुष– सृष्टिमें मूल कारण ये ही हैं। इस प्रकार मैंने इन संयोगके फलस्वरूप गर्भसे उत्पन्न हुए थे। इस सर्गों का वर्णन किया। अब तुम दूसरों कौन–सा प्रकार इन मुख्य सृष्टियोंकी रचना कर लेने पर भी | प्रसङ्ग सुनना चाहती हो ?
जब ब्रह्माने पुनः विचार किया, तो उनको ये भी पृथ्वी बोली–भगवन्! अव्यक्तजन्मा ब्रह्माद्वारा परम पुरुषार्थ (मक्ष)-के साधनमें असमर्थ दीखें। रचित यह नवधा सृष्टि किस प्रकार विस्तारको तब फिर उन्होंने सृष्टिरचनाका चिन्तन करना प्राप्त हुई ? अच्युत आप मुझे यह बतानेको प्रारम्भ किया और पृथ्वी आदि नीचेके लोकोंमें कृपा करें। रहनेवाले अर्वाह्रोत सर्गकी रचना की। इस भगवान् वराह कहते हैं–सर्वप्रथम ब्रह्माद्वारा अर्जास्रोताली सृष्टिमें उन्होंने जिनको बनाया, रुद् आदि देवताओंकी सृष्टि हुई। इसके बाद वे मनुष्य कहलाये और वे परम पुरुषार्थ के सनकादि कुमारों तथा मरीचि–प्रभृति मुनियोंकी साधनके योग्य थे। इनमें जो सत्त्वगुणविशिष्ट थे, रचना हुई। मरीचि, अत्रि, अङ्गिरा, पुलह, ऋतु, वें प्रकाशयुक्त हुए। रज एवं तमोगुणकी जिनमे महान् तेजस्वी पुलस्त्य, प्रचेता, भृगु, नारद एवं अधिकता थीं, वे कर्मोका बारंबार अनुष्ठान महातपस्वीं वसिष्ठ–ये दस ब्रह्माजीके मानस पुत्र करनेवाले एवं दुःखयुक्त हुए। सुभगे। इस प्रकार हुए। इन परमेष्ठीने सनकादिको निवृत्तिसंज्ञक मैंने इन छः सर्गोका तुमसे वर्णन किया। इनमें धर्ममें तथा नारदजीके अतिरिक्त मरीचि आदि पहला महत्तत्त्वसम्बन्धी सर्ग, दूसरा तन्मात्राओंसे सभी ऋषियोंको प्रवृत्तिसंज्ञक धर्ममें नियुक्त कर सम्बन्धित भूतसर्ग और तीसरा वैकारिक सर्ग हैं, 1 दिया। ये ज़ों आदि प्रजापति हैं, इनका ब्रह्माके ज्ञो इन्द्रियों से सम्बन्ध रखता है। इस प्रकार समष्टि | दाहिने अँगूठेसे प्राकट्य हुआ हैं (इसी कारण ये बुद्धिकै संयोगसे (प्रकृतिसे) उत्पन्न होनेके कारण दक्ष कहलाते हैं) और इन्हींके वंशके अन्तर्गत यह प्राकृत सर्ग कहलाया। चौथा मुख्य सर्ग है। यह सारा चराचर जगत् है। देवता, दानव, गन्धर्व, पर्वत–वृक्ष आदि स्थावर पदार्थ ही इस मुख्य सरीसृप तथा पक्षिगण ये सभी दक्षक कन्याओंसे सर्गके अन्तर्गत हैं। वक्र गतिवाले पशु–पक्षी | उत्पन्न हुए हैं। इन सबमें धर्मकी विशेषता थीं।
अध्याय ३]
देवर्षि नारदद्वारा अपने पूर्वजन्मवनकै प्रसङ्गमैं माझपारस्तोत्रका कथनः . दृष्टिगोचर हुआ। फिर उस पुरुषकै भी हृदयमें अग्निमय है। इसके सस्वर पाठ करनेसे समस्त दूसरे और उस दूसरे पुरुषकै हृदयमें तीसरेका पाप तुरंत भस्म हो जाते हैं। इसके हृदयमें यह दर्शन हुआ, जिसके नेत्र लाल थे और वह बारह जो दूसरा पुरुष तुम्हें दृष्टिगोचर हुआ है, जिसकी सूर्योक समान तेजस्वी था। इस प्रकार इन तीनों उससे उत्पत्ति हुई है, वह यजुर्वेदके रूपमें स्थित पुरुषको मैंने बह देखा, जो उस कन्याके शरीरमें महाशक्तिशाली ब्रह्मा हैं। फिर उसके वक्षःस्थलमें स्थित थे। सुन्नत ! फिर क्षणभरके बाद देखा, तो भी प्रविष्ट, जो यह परम पवित्र और उज्ज्वल वहाँ केवल वह कन्या ही रह गयी थी एवं अन्य पुरुष दीख रहा है, इसका नाम सामवेद है। यह तीनों पुरुष अदृश्य हो गये थे। तत्पश्चात् मैंने इस भगवान् शंकरका स्वरूप माना गया है। स्मरण दिव्य किशोरी से पूछा–भद्रे! मेरा सम्पूर्ण वेदज्ञान करनेपर सूर्यके समान सम्पूर्ण पापको यह कैसे नष्ट हो गया? इसका कारण बताओ। तत्काल नष्ट कर देता है। ब्रह्मन् ! तुमको दृष्टिगोचर कुमारी बोलीं–मैं समस्त बेंदोंकी माता हैं। हुए थे दिव्य पुरुष तीनों बेद ही हैं। नारद! तुम मेरा नाम सावित्री हैं। तुम मुझे नहीं जानते। ब्रह्मपुत्रोंक शिरोमणि और सर्वज्ञानसम्पन्न हो! इसके फलस्वरूप मैंने तुमसे वेदोंकों अपहृत कर यह सारा प्रसङ्ग मैंने तुम्हें संक्षेपसे बता दिया। लिया है।‘ तपरूपी धनका संचय करनेवाले अब तुम पुनः सभी वेदों और शास्त्रोंको तथा राजन्! उस कुमारीकै इस प्रकार कहनेपर मैंने अपनी सर्वज्ञताको पुनः प्राप्त करें। इस वेद विस्मय–विमुग्ध होकर पूछा-‘शोभने! ये पुरुष | सरोवरमें तुम स्नान करें। इसमें स्नान करने से कौन थे, मुझे यह बतानेकी कृपा करो। तुम्हें अपने पूर्वजन्मकी स्मृति हो जायगी।
कुमारी यौली–मेरे शरीरमें विराजमान इन राजन्! यह कहकर वह कन्या अन्तर्धान पुरुषोंकी जो तुम्हें झाँकी मिली है, इनमॅसे जिसके| हो गयी। तब मैंने उस सरोवरमें स्नान किया और सभी अङ्ग परम सुन्दर हैं, इसका नाम ऋग्वेद हैं। तदनन्तर आपसे मिलनेकी इच्छासे यहाँ चला यह स्वयं भगवान् नारायणका स्वरूप हैं। यह | आया।
[अध्याय २]
माघ ३ ।
महामुनि कपिल और जैगीषव्यद्वारा राजा अश्वशिराको भगवान् नारायणकी
सर्वव्यापकताका प्रत्यक्ष दर्शन कराना । पृथ्वी बोली–भगवन् ! जो सनातन, देवाधिदेव, धरणि! तुम उन्हीं भगवान् नारायणकी आदि मूर्ति परमात्मा नारायण हैं, में भगवान्कै परिपूर्णतम हो, उनकी दुसरी मूर्ति जल और तीसरी मूर्ति तेज स्वरूप हैं या नहीं? आप इसे स्पष्ट बतानेकी है। इसी प्रकार वायुको चौथीं और आकाशकों कृपा करें।
पाँचवीं मूर्ति कहते हैं। ये सभी उन्हीं परब्रह्म भगवान् वराह कहते हैं—समस्त प्राणियोंको परमात्माकी मूर्तियाँ हैं। इनके अतिरिक्त क्षेत्रज्ञ, आञ्जय देनेवाली पृथ्वि! मत्स्य, कच्छप, वराह, बुद्धि एवं अहंकार—ये इनकी तीन मूर्तियाँ और नरसिंह, वामन, परशुराम, राम, कृष्ण, बुद्ध और हैं। इस प्रकार उनकी आठ मूर्तियाँ हैं। देवि! यह कल्कि ये दस उन्हीं सनातन परमात्माके स्वरूप सारा जगत् भगवान् नारायणसे ओत–प्रोत । मैंने कहे जाते हैं। शोभने ! उनके साक्षात् दर्शन पानेको तुम्हें ये सभी बातें बता दीं। अब तुम दूसरा अभिलाषा रखनेवाले पुरुषके लिये ये सोपानरूप कौन–सा प्रसङ्ग सुनना चाहती हो ? हैं। उनका ज्ञों परिपूर्णतम स्वरूप है, उसे देखनेमें पृथ्वी बोलीं–भगवन् ! नारदजीके द्वारा भगवान् तो देवता भी असमर्थ हैं। वे मेरे एवं पूर्वोक्त अन्य श्रीहरिके परायण होनेके लिये कहनेपर राजा अवतारोके रूपका दर्शन करके ही अपनी मन:कामना प्रियव्रत किस कार्यमें प्रवृत्त हुए? मुझे यह पूर्ण करते हैं। ब्रह्मा उहाँको रजोगुण और बतानेकी कृपा करें। तमोगुण–मिश्रित मूर्ति हैं, उनके माध्यमसे ही भगवान् वराह कहते हैं–पृथ्वि। मुनिवर श्रीहरि संसारकी सृष्टि एवं संचालन करते हैं। नारकी विस्मयजनक बात सुनकर राजा प्रियन्नातको
* नाई मानोंयमित्युक्त पित तादी भवान्। तद्दाप्रभूति ते नाम नारदेति भविष्यति । ( ३ ॥ ३३)
अध्याय ४]
* अश्वशिराको भगवान् नारायणकी सर्वव्यापकताका दर्शन कराना। *
ऑपभगमद्दता भावान् ने भी कहा है= लैंशोधिकतरप्तेषामयकामाक्तचेतसाम् । अध्यक्ता हि गतिई:खं देहयद्भिरथाप्यते ॥ (१३ । ५)
जुन सच्चिदानन्दजन निराकार असमें आम चितुवाले या मानमें नेश विशेष है। क्योंकि देहाभिमानियों के द्वारा अध्यक्तविषयक गति :पूर्वक प्राप्त की जाती है।
* संक्षिप्त वराहपुराण
आपको नमस्कार हैं। सर्वलोकमहेश्वर! आपको | ( भगवान् वराह कहते हैं-) राजा वसु इस नमस्कार हैं। तीक्ष्ण सुदर्शनचक्र धारण करनेवाले | प्रकार स्तोत्रपाठ कर ही रहे थे कि एक नीलवर्ण औहरिकों मैरा बारंबार नमस्कार है। महाबाहो! पुरुष मूर्तिमान् होकर उनके शरीर के आहर निकल आप विश्वरूप हैं, आप भक्तोंको बर देनेवालें | आया, जो देखनेमें अत्यन्त प्रचण्ड एवं भयंकर और सर्वव्यापक हैं, आप असीम तेजोंराशिकै प्रतीत होता था। उसके नैत्र लाल थे और वह निधान हैं, विद्या और अविद्या–इन दोनोंमें इस्वकाय पुरुष ऐसा प्रतीत होता था, मानों कोई
आपकी ही सत्ता विलसित होती है, ऐसे आप जलता हुआ अंगार हो। वह दोनों हाथ जोड़कर कमलनयन भगवान् श्रीहरिको मैं प्रणाम करता | बोला-‘राजन्! मैं क्या करू?’ हैं। प्रभो! आप आदिदेव एवं देवताओंके भी राजा वस घोले–अरे! तुम कौन हो और देवता हैं। आप वेद–वेदाङ्गमें पारङ्गत, समस्त तुम्हारा क्या काम है? तुम कहाँसे आये हो ? व्याध! देवताओंमें सबसे गहन एवं गम्भीर हैं। कमलकै| मुझे बताओ, मैं ये सब बातें जानना चाहता हूँ। समान नेत्रोंवाले आप श्रीहरिको मैं नमस्कार घ्याधने कहा– राजन्! प्राचीन कालकी बात करता हूँ। भगवन्! आपके हजारों मस्तक हैं, है; कलियुगके समय तुम दक्षिण दिशामें जनस्थान हुज़ारों नेत्र हैं और अनन्त भुजाएँ हैं। आप सम्पूर्ण नामक प्रदेशके राजा थे। वीरवर ! एक समय तुम जगतुको व्याप्त करके स्थित हैं, ऐसे आप परम | वन्य पशुओका शिकार करनेके लिये जंगलमें गये प्रभुक मैं वन्दना करता हूँ। जो सबके आश्रय थे। उस समय तुम्हारे पास बहुत–से घोड़े थे। और एकमात्र शरण लेने योग्य हैं, जो व्यापक यद्यपि तुम्हारा उद्देश्य हिंस्र जन्तुओंका वध होनेसे विष्णु एवं सर्वत्र जयशील होनेसे जिष्णु करनामात्र ही था, किंतु मृगका रूप धारण कर कहे जाते हैं, नीले मेघके समान जिनको कान्ति | वनमें विचरण करनेवाले एक मुनि तुम्हारे न हैं, उन चक्रपाणि सनातन देवेश्वर श्रीहरिको मैं चाहते हुए भी बाणोंके शिकार होकर भूमिपर प्रणाम करता हूँ। जो शुद्धस्वरूप, सर्वव्यापी, | गिर पड़े और गिरते ही चल बसे। तुम्हारे मनमें अविनाशी, आकाशके समान सूक्ष्म, सनातन तथा| यह सोचकर बड़ा हर्ष हुआ कि एक हरिण मारा जन्म–मरणसे रहित हैं, उन सर्वगत हरिंका मैं | गया। किंतु जब तुमने पास जाकर देखा तों अभिवादन करता हूँ। अच्युत ! आपके अतिरिक्त | मृगरूप धारण करनेवाले वे मृतक ब्राह्मण दिखलायी मुझे कोई भी वस्तु प्रतीत नहीं हो रही हैं। यह पड़े। यह घटना प्रस्रवण पर्वतपर घटित हुई थी। सम्पूर्ण चराचर जगत् मुझे आपका ही स्वरूप | महाराज! उस समय ब्राह्मणको मृत देखकर दिखलायी पड़ रहा है।‘
| तुम्हारी इन्द्रियाँ और मन सब–के–सब क्षुब्ध हों।
के नाम पुण्डरीकाक्ष नमो मधमुना ॥ नमस्ते सहोकं नमस्ते तिमच ॥ विधर्मात महाबाहुबई सवतेजसम् । नमामि पुण्डरीकाक्षं विपाविद्यात्मकं विभुम् ॥
आदिको महादेयं वैवेदाङ्गपहरणम् । गम्भीरे सर्वदेवानां नमस्चें वारिजेक्षणम् ॥ सशीर्षन देव साक्षं महाभुम् । जगत्मव्याप्य तिष्ठन्तं नम पानी आरम् ॥ शत्रुग्यं शरणं देणं विष्णु निर्णं मनानम् । नीलमेघौका नमस्ये | पाणिनम् ॥
६. सवंगत नि योमयं सनातनम् । भावाभाविनिमुकं मन्ये सगं रिम् ॥ नात् किंचित् अपश्यामि इयरिक्त त्याच्युत । वमयं च षाम्झिर्वमन्त्राचाम् ॥
a ६ । ३४=१६)
के संक्षिप्त श्रीवराहपुराण
[ आलाय |
अह्मराक्षसके रूपमें था और तुमको अपार कष्ट | स्तोत्रके सुननेके प्रभावसे पहले जों में पापमयीं देना चाहता था। इतनेमें भगवान् विष्णुके पार्षद | मूर्ति थी, वह अब समाप्त हो गयी। मैं उससे आ गये और उन्होंने मूसलोंसे मुझे मारा, जिससे | अब मुक्त हो गया। राजन्! अब मेरी बुद्धिमें मैं संक्षीण होकर तुम्हारे रोमकूपोंके मार्गसे | धर्मका उदय हो गया है। निकलकर बाहर गिर पड़ा। महाभाग ! इसके पश्चात् यह प्रसङ्ग सुनकर महाराज वसुकै मनमें ब्रह्माका एक अहोरात्र–कल्पकी अवधि समाप्त आश्चर्यको सीमा न रही। फिर तो बड़े आदरके होनेपर महाप्रलय हो गया। तदनन्तर सृष्टिके आरम्भ| साथ वे उस व्याधसे बात करने लगे। होनेपर इस कल्पमें तुम काश्मीरके राजा सुमनाके राजा वसुने कहा–व्याध ! जैसे तुम्हारी कृपासे पुत्ररूपमें उत्पन्न हुए हो। इस जन्ममें भी मैं तुम्हारे | आज मुझे अपने पूर्वजन्मकी बात याद आ गयी, शरीरमें रोमकूपोंके मार्गसे पुनः प्रविष्ट हो गया। वैसे ही तुम भी मेरे प्रभावसे अब घ्याध न तुमने इस जन्ममें भी प्रभूत दक्षिणाबाले अनेक कलाकर धर्मव्याधके नामसे प्रसिद्ध होओगे। यज्ञोंका अनुष्ठान किया; किंतु ये सभी यज्ञजनित जो पुरुष इस ‘पुण्डरीकाक्षपार‘ नामक उत्तम पुण्य मुझे तुम्हारे शरीर से बाहर निकालनेमें स्तोत्रका श्रवण करेगा, उसे भी पुष्कर क्षेत्रमें असमर्थ रहे; क्योंकि इनमें भगवान् विष्णुके विधिपूर्वक स्नान करनेका फल सुलभ होगा। नामका उच्चारण नहीं हुआ था। अब जो तुमने | भगवान् वराह कहते हैं–ज्ञगद्धात्रि पृथ्वि! इस पुण्डरीकाक्षपार–स्तोत्रका पाठरूप अनुष्ठान राजा वसु धर्मव्याधसे इस प्रकार कहकर एक किया है, इसके प्रभावसे तुम्हारे शरीरसे मैं परम उत्तम विमानपर आरूढ़ हुए और भगवान् रोमकूपोंके मार्गसे बाहर आ गया हैं। राजेन्द्र! मैं| नारायणके लौकमें जाकर उनकी अनन्त तेजोराशिमें वहीं अह्मराक्षस अब व्याध बनकर पुनः प्रकट | विलीन हो गये। हुआ है। पुण्डरीकाक्ष भगवान् नारायणके इस |
| [अध्याय ६]
* संक्षिप्त वराहपराण
[ अध्याय ।
* गाभर विधानभवानं तशर्म शुधिजाननाशनम् । शिवं विशालामुरसैन्पमर्दन नमाम्यहं छामकलाशुभं स्मृती ।। पुराणपर्व पयं पुरुतं पुरातनं विमलमलं नृणां गांवम् । त्रिविक्रम कुतण असोजितं गदाधाएं म नमामि केशवम्॥ विजुभाई विभवैपावृत्तं श्रिया वृर्त विनमतं विचक्षणम् ॥क्षित उपगनकिल्पि: सुनी गदाधर प्रणमत यः सुखं वसेत् ॥ मुरासुचितपादपार्ज कैसूरहाराङ्गदसिधारिणम् ॥ अब्ध शापानं च रथाङ्गपाणिनं गदाधरं प्रणमत यः सुखं वसेत् ॥ सितं ते मैतमार्गकण विभु जया वृतये नौंसमुखर्जपच्यतम् ॥ कसौं युगैसितमं मारे गदाधरं प्रणमत यः सुखं वर्मत् ॥ औजयों यः सृजते चतुर्मुखं तथैव नारायणपतों जगत् । प्रपालयेद् वपुस्तधान्तकृदुगदाधरों जयतु घडईमान् ॥ सत्वं बज चैव तनों गुणास्पबेतम् विभास्प समुद्भवः किल । म बैंक एव विविध पदाध धातु धैर्य मम धर्ममयः ।। संसारयावदुःखान्तुभिर्थियोंगनकम; सुभीषणैः । मन्जतमुचैः सुतरां महालयों गदाधरों मानुदधौ तु पोनरत् ॥ स्वयं जिमून; जमिवात्मनात्मन स्वशक्तताडमिई समर्न हु । तस्मिञ्जलोसनमा जाने समर्ने यस्तं गतोऽस्मि भूभम् ॥ मादिनामा जगत्सु चाश्नुते सुरादिसञ्जश वृषाकपिः । मावन स संतनों विभुर्गदावों में विदधातु सद्गतिम् ।।
(अध्याय ३ । ३१–४]
।
दौ तपस्वी भी विराजमान हैं। उन्हें देखकर | देवासुर संग्राममें क्रूरकर्मा कालनेमि एवं सहस्रभुजसे दुर्जयके मनमें अपार हर्ष उमड़ आया। उसने तुरंत हमारी रक्षा की हैं। देवेश्वर! इस समय भी हमारे हाथोंसे उतरकर उन तपस्वियोंको प्रणाम किया। सामने वैसी ही परिस्थिति आ गयी है। हेतू और तपस्वियोंने राज्ञा दुर्जयकों बैठनेके लिये कुशाओंद्वारा प्रहेतू नामके दो दानव देवताओंके लिये कपटक निर्मित एक सुन्दर आसन दिया। राज्ञा दुर्जय बने हुए हैं। इनके सैनिकों तथा शस्त्रास्त्रोंकी उसपर बैठ गया। उसके बैंठ ज्ञानेपर तपस्वियोंने संख्या असौम है। देवेश्वर! आपका सम्पूर्ण उससे पूछा-‘तुम कौन हो, तुम्हारा कहाँसे | जगत्पर शासन हैं, अत: उन दोनों असुरोंकों आगमन हुआ हैं, किसके पुत्र हों और यहाँ किस | मारकर हम सभीकी रक्षा करनेकी कृपा करें। लिये आये हो ?’ इसपर राजा दुर्जयने हँसकर उन “इस प्रकार जब देवताओंने भगवान् नारायणसे तपस्वियोंको अपना परिचय देते हुए कहा– | प्रार्थना की, तब वे जगत्प्रभु श्रीहरि बोले-‘इन ‘महानुभावो ! सुप्रतीक नामसे प्रसिद्ध एक राजा | असुरोंका संहार करनेके लिये मैं अवश्य आऊँगा।‘ हैं। मैं उनका पुत्र दुर्जय हैं और भूमण्डलके सभी | भगवान् विष्णुके यह कहनेपर देवता मन–ही–मन राजाओंको जोतनेकी इच्छासे यहाँ आया हुआ हूँ। भगवान् जनार्दनका स्मरण करते हुए सुमेरु कभी–कभी आप कृपा कर मुझे स्मरण अवश्य | पर्वतपर गये। वहाँ उनके चिन्तन करते ही करें । तपोधनों ! आप दोनों कौन हैं? मुझपर कृपा सुदर्शनचक्र एवं गदा धारण किये हुए भगवान् कर यह बतला दें।‘
नारायण हमलोगोंकी सेनाका भेदन करते हुए दोनों तपस्वी बोले-‘राजन्! हमलोग हेतू उसमें प्रविष्ट हो गये। उन सर्वलोकेश्वरने अपने और प्रहेतू नामके स्वायम्भुव मनुके पुत्र हैं। हम योगैश्वर्यका आश्रय लेकर उसी क्षण अपने एकसे देवताओंको जीतकर सर्वथा नष्ट कर देनेके दस, सौ, फिर हजार, लाख तथा करोड़ों रूप विचारसे सुमेरुपर्वतपर गये थे। उस समय हमारे | बना लिये। इन देवेश्वरके आते ही सेनामें जो भी पास बड़ी विशाल सेना थी, जिसमें हाथी, घोड़े| महान् पराक्रमी वीर हमारे बलके सहारे लड़ रहे एवं रथं भरे हुए थे। देवता भी सैंकड़ों एवं | थे, वे अचेत होकर पृथ्वीपर गिर पड़े। राजन् ! जारोंको संख्यामें थे। उनके पास महान् सेना भी | अधिक क्या, उसी समय उनके प्राण–पखेरू उड़ थी; किंतु असुरोंके प्रहारसे उनके सभी सैनिक गयें। इस प्रकार विश्वरूप धारण करनेवाले अपने प्राणोंसे हाथ धो बैठे। यह स्थिति देखकर | भगवान् नारायणने अपनी योगमायासे हमारी देवता–क्षीरसागरमें, जहाँ भगवान् श्रीहरि शयन | सम्पूर्ण चतुरङ्गिणी सेनाका–जों हाथी, घोड़े, रथ करते हैं–पहुँचे और उनको शरणमैं गये। वहाँ एवं पैदल वीरों एवं ध्वजाऔंसे भरी हुई थीं, देवगण भगवानको प्रणाम कर अपनी आपबीती | संहार कर डाला। बस, कैवल हम दो दानवकों बातें यों सुनाने लगे-‘भगवन्! आप हम सभी | अचे देखकर वे सुदर्शनचक्रधारी श्रीहरि अन्तर्धान देवताओंके स्वामी हैं। पराक्रम असुरोंने हमारी | हो गये। शाङ्ग धनुष धारण करनेवाले भगवान् सारी सेनाको परास्त कर दिया है। भयके कारण श्रीहरिका ऐसा अद्भुत कर्म देखकर हम दोनों हमारे नेत्र कातर हो रहे हैं। अतः आप हमारी | भी इन प्रभुकी आराधना करनेके लिये उनको रक्षा करनेको कृपा करें । केशब ! पहले भी आपने | शरण ग्रहण कर लीं। जन्! राजा सुप्रतीक हमारे || राजा दुर्जयका चरित्र तथा नैमिषारण्यकी प्रसिद्धिका प्रसङ्ग भगवान् बराहू कहते हैं–पृथ्वि! उस समय | आपको भोजन–पान कराऊँगा। आप हाथी, घोड़े मुनिवर गौरमुखके परम उत्तम आश्रमको देखकर | आदि वाहनों को मुक्त कर दें और यहाँ पधारें।‘ राजा दुर्जयने सोचा-‘इस परम मनोहर आश्रममें ऐसा कहकर मुनिवर गौरमुख मौन हो गये। चलें और इसमें रहनेवाले अनुपम ऋषियोंके दर्शन मुनिके प्रति श्रद्धा होने से राजा दुर्जयके मनमें भी कहूँ।‘ यह विचार करके राजा दुर्जय आश्रमके आतिथ्य स्वीकार करनेकी बात अँच गयीं। अतः भीतर चले गये। मुनिवर गौरमुख धर्मके साक्षात् अनुचरोंके साथ वे वहीं रह गये। उनके पास पाँच स्वरूप थे। आश्चममें राजा दुर्जयके आनेपर | अक्षौहिणी सेना थी। राजा दुर्जय सोचने लगे मुनिका हृदय आनन्दसे भर उठा। उन्होंने राजाका | ये तपस्यों ऋषि मुझे अहाँ क्या भोजन देंगे।‘ भलीभाँति सम्मान किया। स्वागत–सत्कारके पश्चात् । इधर राजाको भोजनके लिये निमन्त्रित करनेके परस्पर कुछ वार्तालाप प्रारम्भ हुआ। मुनिअरने | पश्चात् बिग्नचर गौरमुख भी बड़ी चिन्ता पड़ कहा-‘महाराज! मैं यथाशक्ति अनुयायियोंसहित | गये। में सोचने लगे-‘मैं अब जाको क्या
संक्षिप्त वराहपुराण
+ राजा दुर्जयका चरित्र तथा नैमिषारण्यकी प्रसिद्धिका प्रसङ्ग
* संक्षिप्त श्रीवराहपुराण
[ अध्याय १३
- संक्षिप्त वराहपुराण
[ अध्याय ३३
कितनी लीलाएँ हैं–इसकी संख्या असम्भव हैं।| रखता हैं। यह लीला सत्ययुगमें हुई थी। अब तुम शुचिस्मिते ! तुम्हें मैंने जो प्रसङ्ग सुनाया है, ग्रह | दूसरा कौन प्रसङ्ग सुनना चाहती हो, यह उन भगवान् नारायणाके केवल एक अंशसे सम्बन्ध | बतलाओ।।
पितरोंका परिचय, श्राद्धकै समयका निरूपण तथा पितृगीत पृथ्वीने पूछ–प्रभो ! मुनिवर गौरमुखने भगवान् | अपनी ही पूजा कर ली। अपने पुत्रोंद्वारा इस श्रीहरिके अद्भुत कर्मको देखकर फिर क्या किया?| प्रकार कर्म–विकृति देखकर ब्रह्माज्ञीने उन्हें शाप | भगवान् वराह कहते हैं–पृथ्वि! भगवान् दे दिया-‘तुमलोगोंने (ज्ञानाभिमानसे) मेरी जगह श्रीहरिने निमेषमाळमें ही वह सब अद्भुत कर्म कर | अपनी पूजा कर विपरीत आचरण किया है। दिखाया था। उसे देखकर मुनि श्रेष्ठ गौरमुखने भी | अतः तुम्हारा ज्ञान नष्ट हो जायगा।‘
नैमिषारण्यक्षेत्रमें जाकर जगदीश्वर श्रीरिकी आराधना| इस प्रकार शाप–ग्रस्त हो जानेपर उन सभी आरम्भ कर दी। उस क्षेत्रमें प्रभास नामसे प्रसिद्ध | ब्रह्मपुत्रोंने अपने नंशके प्रवर्तक पुत्रों को उत्पन एक तीर्थ हैं। वह परम दुर्लभ तीर्थं चन्द्रमासे | किया और फिर स्वयं स्वर्गलोक चले गये। उन सम्बन्धित हैं। तीर्थके विशेषज्ञों का कथन हैं कि ब्रह्मवादी मुनियोंके परलोकवासी होनेपर उनके वहाँॐ स्वामी भगवान् श्रीहरिं दैत्योंका संहार पुत्रोंने विधिपूर्वक श्राद्ध करके उन्हें तृप्त किया। करनेवाले ‘दैत्यसूदन‘ नामसे सदा विराजते हैं। उन पितरोंकी ‘वैमानिक‘ संज्ञा है। वे सभी मुनिकी चित्तवृत्ति उन प्रभुको आराधनामें स्थिर| ब्रह्माजीके मनसे प्रकट हुए हैं। पुत्र मन्त्रका हो गयी। अभी वे उन भगवान् नारायणकी उपासना उच्चारण करके पिण्डदान करता है–यह देखते कर ही रहे थे—इतनेमें परम यौगी मार्कण्डेयजी | हुए वे वहाँ निवास करते हैं। वहाँ आ गये। उन्हें अतिथिकै रूपमें प्राप्तकर गौरमुखने पूछा–ब्रह्मन् ! जितने पितर हैं और गौरमुखने दूरसे ही बड़े हर्षके साथ भक्तिपूर्वक उनकै श्राद्धका जो समय है, वह मैं जानना चाहता उनकी पाद्य एवं अर्थ्य आदिसे पूजा आरम्भ कर हैं तथा उस लोकमें रहनेवाले पितरोंके गण दीं। इन प्रताप मुनिको कुशके आसनपर विराजित | कितने हैं, यह सब भी मुझे बतानेकी कृपा करें। कर गौरमुखने सविनय पूछा-‘महाव्रतो मुनिश्श्रेष्ठ! | मार्कण्डेयजी कने लगे–द्विजवर! देवताओंके मुझे पितरों एवं श्राद्धतत्त्वका उपदेश करें‘ गौरमुखके लिये सोम–रसकी वृद्धि करनेवाले कुछ स्वर्गनिवासी यों पूछनेपर महान् तपस्वी द्विजवर मार्कण्डेयज़ी | पितर मरीचि आदि नामोंसे विख्यात हैं। उन श्रेष्ठ बड़े मीठे स्वरमें उनसे कहने लगे। | पितरों में चारको मूर्त (मूर्तिमान्) और तीनकों मार्कण्डेयजी बोले–मुने! भगवान् नारायण | अमूर्त (बिना मूर्तिका) कहा गया हैं। इस प्रकार समस्त देवताओंके आदि प्रवर्तक एवं गुरु हैं। उनकी संख्या सात हैं। इनके रहनेवाले लोकको उन्हींसे ब्रह्मा प्रकट हुए हैं और उन ब्रह्माजीनें | तथा उनके स्वभावको बताता हैं, सुनो। सन्तानक फिर सात मुनियोंकी सृष्टि की है। मुनियोंकी | नामक लोकोंमें ‘भास्वर‘ नामक पितृगण निवास रचना करके ब्रह्माजीने उनसे कहा–-“तुम मैरी करते हैं, जो देवताओंके उपास्य हैं। ये सभी उपासना करो।‘ सुनते हैं, उन लोगोंने स्वयं | ब्रह्मवादी हैं। ब्रह्मलोकसे अलग होकर ये नित्य
* संक्षिप्त श्रीवराहपुराण+
[ अध्याय १३
अमावास्या इन उपर्युक्त नौ नक्षत्रोंसे युक्त होती हैं, | विधि, योग्य पात्र और परम भक्ति–ये सब उस समय किया हुआ श्राद्ध पितृगणको अक्षय | मनुष्यको मनोवाञ्छित फल प्रदान करते हैं। तृप्तिकारक होता हैं। वैशाखमासके शुक्ल पक्षकी |
पितृगीत। तृतीया, कार्तिक शुक्ल पक्षको नवमी, भाद्रपदके विप्रवर! इस प्रसङ्गमें पित्तद्वारा गाये हुए कृष्ण पक्षको त्रयोदशी, माघमासको अमावास्या, | कुछ श्लोकोंको श्रवण करें। उन्हें सुनकर तुमको चन्द्रमा अथवा सूर्य ग्रहणके समय तथा चारों आदरपूर्वक वैसा हीं आचरण करना चाहिये। अष्टकाओंमें* अथवा उत्तरायण या दक्षिणायन | पितृगण कहते हैं—कुलमें क्या कोई ऐसा बुद्धिमान् आरम्भकै समय जो मनुष्य एकाग्रचित्तसे पितरोंको | धन्य मनुष्य जन्म लेगा ज्ञौ वित्तलोलुपताको तिलमिश्रित जल भी दान कर देता है, वह मानौ | छोड़कर हमारे निमित्त पिण्डदान करेगा। सम्पत्ति सहस्र वर्षों के लिये श्राद्ध कर देता है। यह परम होनेपर जो हमारे उद्देश्यसे ब्राह्मणोंको रत्न, रहस्य स्वयं पितृगणका बतलाया हुआ है। कदाचित् वस्त्र, यान एवं सम्पूर्ण भोग–सामग्रियोंका दान माघकी अमावास्याका यदि शतभिषा नक्षत्रसे योग करेगा अथवा केवल अन्न–वस्त्रमात्र वैभव होनेपर हो जाय तो पितृगणको तृप्तिके लिये यह परम | श्राद्धकालमें भक्तिविनम्र–चित्तसे श्रेष्ठ ब्राह्मणको उत्कृष्ट काल होता है। द्विजवर! अल्प पुण्यवान् यथाशक्ति भोजन हीं करायेगा या अन्न देनेमें भी पुरुषको ऐसा समय नहीं मिलता और यदि उस असमर्थ होनेपर ब्राह्मणश्रेष्ठोंको वन्य फल–मूल, दिन धनिष्ठा नक्षत्रका योग हो जाय तो उस समय जंगली शाक और थोड़ी–सी दक्षिणा ही देगा, अपने कुलमें इत्पन्न पुरुषद्वारा दिये हुए अन्न एवं यदि इसमें भी असमर्थ रहा तो किसी भी जलसे पितृगण दस हजार वर्षके लिये तृप्त हो | द्विज श्रेष्ठको प्रणाम करके एक मुट्ठीं काला तिल जाते हैं तथा यदि माघी अमावास्याके साथ ही देगा अथवा हमारे उद्देश्यसे पृथ्वीपर भक्ति पूर्वाभाद्रपद नक्षत्रका योग हो और उस अवसरपर | एवं नम्रतापूर्वक सात–आठ तिलोंसे युक्त ज्ञलाञ्जलि पितरोंके लिये श्राद्ध किया जाय तो इस कर्मसे ही देगा, यदि इसका भी अभाव होगा तो कहीं पितृगण अत्यन्त तृप्त होकर पूरे युगतक सुखपूर्वक न–कसे एक दिनका चारा लाकर प्रीति और शयन करते हैं। गङ्गा, शतद्, विपाशा, सरस्वती | श्रद्धापूर्वक हमारे उद्देश्यसे गौकों खिलायेगा तथा
और नैमिषारण्यमें स्थित गोमती नदीमें स्नानकर | इन सभी वस्तुओंका अभाव होनेपर वनमें जाकर पितरोंका आदरपूर्वक तर्पण करनेसे मनुष्य अपने | अपने कक्षमूल (बगल)-को दिखाता हुआ सूर्य समस्त पापोंको नष्ट कर देता है। पितृगण सर्वदा आदि दिक्पालोंसे उच्चस्बरसे यह कहेगा यह गान करते हैं कि वर्षाकालमें (भाद्रपद शुक्ल | । न मेऽस्ति वित्तं न धनं न चान्य प्रयोदशीके) मच्चानक्षन्नमें तृप्त होकर फिर माघकी च्छाद्धस्य योग्यं स्वपितृन्नतोऽस्मि। अमावास्याकों अपने पुत्र–पौत्रादिद्वारा दी गयी | तृप्यन्तु भक्त्या पितरो मर्यंत पुण्यतीर्थोकी जलाञ्जलिसे हम कब तृप्त होंगे। भुजौ ततौं वर्मीन मारुतस्य॥ विशुद्ध चित्त, शुद्ध धन, प्रशस्त काल, उपर्युक्त
* गौरमुखके द्वारा दस अवतारौंका स्तवन
जिनकी ‘अज्ञपुरुष‘ संज्ञा दी है,वे असुरसंहर्ता, | छा गया था। अत: उन्हें निर्भय करनेके लिये जों सनातन श्रीहरि मेरी रक्षा करें। जो प्रत्येक युगमें | प्रत्येक युग एवं कल्पमें वसुदेवके पुत्र श्रीकृष्णरूपसे भयंकर नृसिंहरूपसे विराजते हैं, जिनका मुख | विराजते हैं, वे प्रभु हमारी रक्षा करें। जो सनातन, अत्यन्त भयावह है, कान्ति सुवर्णके समान हैं | ब्रह्ममय एवं महान् पुरुष होकर भी वर्णकी तथा जिनका दैत्योंका दलन करना स्वाभाविक | व्यवस्था करनेके लिये प्रत्येक युगमें कल्किके गुण है, वे योगिराज जगतकै परम आश्रय भगवान् । नामसे विख्यात हैं, देवता, सिद्ध और दैत्योंकी श्रीहरि हुमारी रक्षा करें। जिनका कोई माप नहीं | आँखें जिनके रूपको देख नहीं सकतीं एवं जो है, फिर भी बलका यज्ञ नष्ट करनेके लियें जिन | विज्ञानमार्गका त्याग करके यम–नियम आदिके योगात्मानें योंगके बलसे दण्ड़ और मृगचर्मसें | प्रवर्तक मुद्धरूपसे सुपूजित होते हैं और मत्स्य सुशोभित वामन–रूपसे बढ़ते हुए त्रिलोकींतक | आदि अनेक रूपोंमें विचरते हैं, वे भगवान् नाप लीं, वे परम प्रभु हमारी रक्षा करें। जिन्होंने | श्रीहरि हमारी रक्षा करें। भगवन्! आप पुरुषोत्तम परमपराक्रमी परशुरामजीका रूप धारण करके | हैं तथा समस्त कारणोंके भी कारण हैं। आपको इक्कीस बार सम्पूर्ण भूमण्डलपर विजय प्राप्त | मेरा अनेकशः प्रणाम है। प्रभो ! अब आप मुझे की और उसे कश्यपजीको सौंप दिया तथा | मुक्ति–पद प्रदान करनेकी कृपा कीजिये।* जो सज्जनोंके रक्षक एवं असुरोंके संहारक हैं, इस प्रकार महर्षि गौरमुखके द्वारा भक्तिभावसे वे हिरण्यगर्भ भगवान् श्रीहरि हमारी रक्षा करें।| संस्तुत एवं नमस्कृत होते–होते चक्र एवं गदाधारी हिरण्यगर्भ जिनकी संज्ञा हैं, सर्वसाधारण जन | श्रीहरि स्वयं उनके सामने प्रत्यक्षरूपसे प्रकट हो जिन्हें देख नहीं सकते तथा ज्ञौ राम आदि|गयें। इस समय गौरमुखने देखा कि प्रभुके रूपोंसे चार प्रकारके शरीर धारण कर चुके हैं एवं |विग्रहसे दिव्य विज्ञान भी प्रकट हो रहा है। उसे अनेक प्रकारकै रूपोंसे राक्षसोंका विनाश करते | पाकर मुनिक अन्तरात्मा पूर्ण शान्त हो गया। हैं, वे आदिपुरुष भगवान् श्रीहरि हमारी रक्षा | गौरमुखके शरीर से विज्ञानात्मा निकली और करें। चाणूर और कंस नामधारी दानव दर्पसे भर | श्रीहरिकों पाकर उनके मुक्तिसंज्ञक सनातन श्रीविग्रह गये थे। उनके भयसे देवताओंके हृदयमें आतङ्क | सदाके लिये शान्त हो गयीं। [अध्याय १५] के संक्षिप्त वराहपुराण
[अध्याय १७–१८
* गौरीकी इत्पत्तिका प्रसङ्ग दक्षके यज्ञमैं रुद्र और विष्णुका संघर्ष
यह देखकर पितामह ब्रह्माजीने उनसे अनुरोध | प्रभुको मेरा बारंबार नमस्कार है। भगवन् ! किया-‘आप दोनों उत्तम व्रतोंके पालन करने– | आपका रूप अग्निकी प्रचण्ड प्वालाओं एवं वाले हैं; अतएव अपने–अपने स्वभावके अनुसार करोड़ों सूर्योकै समान कान्तिमान् है। प्रभो! अस्त्रोंको शान्त कर दें।
आपका दर्शन प्राप्त न होनेसे हमलोग जड़ ब्रह्माजीके इस प्रकार कहनेपर विष्णु और | विज्ञानका आश्रय लेकर पशुत्वको प्राप्त हो गये शिव–दोनों शान्त हो गये। तत्पश्चात् ब्रह्माजीनें | थे। त्रिशूलपाणे! तीन नेत्र आपकी शोभा बढ़ाते उन दोनोंसे कहा-‘आप दोनों महानुभाव हरि | हैं। आर्तजनौंका दुःख दूर करना आपका स्वभाव और हरके नामसे जगत्में प्रतिष्ठा प्राप्त करेंगे। | हैं। आप विकृत मुख एवं आकृति बनाये रहते हैं। यद्यपि दक्षका यह यज्ञ विध्वंस हो चुका है, फिर | सम्पूर्ण देवता आपके शासनवर्ती हैं। आप परम भी यह सम्पूर्णताको प्राप्त होगा। दक्षकी इन देव– | शुद्धस्वरूप, सबके स्रष्टा तथा रुद्र एवं अच्युत संतानोंसे संसार भी यशस्वी होगा।‘ | नामसे प्रसिद्ध हैं। आप हमपर प्रसन्न हों। इन
लोकपितामह ब्रह्मा विष्णु और रुद्से | पृषाके दाँत आपके हाथोसे भग्न हुए हैं। आपका कहकर वहाँ उपस्थित देवमण्डलीसे इस प्रकार | रूप भयावह है। बृहत्काय वासुकिनागको धारण बोले–देवताओं ! आपलोग इस यज्ञमें भगवान् | करनेसे आपका कण्ठदेश अत्यन्त मनोरम प्रतीत रुद्रको भाग अवश्य दें; क्योंकि वेदकी ऐसी | हो रहा है। अच्युत ! आप विशाल शरीरवाले हैं। आज्ञा है कि यज्ञमें रुद्रका भाग परम प्रशस्त है। हम दैवताओंपर अनुग्रह करनेके लिये आपने जो इन रुद्रदेवका तुम सभी स्तवन करो। जिनके | कालकूट विषका पान किया था, उससे आपका प्रहारसे भुग देवताके नेत्र नष्ट हुए हैं तथा जिन्होंने कण्ठ–भाग नील वर्णका हो गया है। सर्वलोकमहेश्वर! पूषाके दाँत तोड़ डाले हैं, उन भगवान् रुद्रकी इस विश्वमूर्ते! आप हमपर प्रसन्न होनेकी कृपा करें। लीलासै सम्बद्ध नामसे स्तुति करनी चाहिये। भगकै नैत्रको नष्ट करनेमें पटु देवेश्वर! आप इस इसमें विलम्ब करना ठीक नहीं हैं। इसके | यज्ञका प्रधान भाग स्वीकार करनेकी कृपा फलस्वरूप ये प्रसन्न होकर तुमलोगोंके लिये | कीजिये। नीलकण्ठ! आप सभी गुणों से सम्पन्न बरदाता हो जायेंगे।‘ हैं। प्रभो! आप प्रसन्न हों और हमारी रक्षा करें। जब ब्रह्माजीने देवताओंसे इस प्रकार कहा| भगवन् ! आपका स्वत:सिद्ध स्वरूप गौरवर्णसे तो वे आत्मयोनि ब्रह्माजीको प्रणाम करके | शोभा पाता हैं। कपाली, त्रिपुरार और उमापति परम अनुरागपूर्वक परमात्मा भगवान् शिवको | ये आपके ही नाम हैं। पद्मयोनि ब्रह्मासे प्रकट स्तुति करने लगे। । | होनेवाले भगवन्! आप सभी भयौंसे हमारी रक्षा देवगण बोले-‘भगवन् ! आप विषम नेत्रोंवाले | कौं। देवेश्वर आपके श्रीविग्रहके अन्तर्गत हम त्र्यम्बकको मेरा निरन्तर नमस्कार है। आपके | अनेक सर्ग एवं अङ्गसहित सम्पूर्ण वेद, विद्याओं, सहल (अनन्त) नेत्र हैं तथा आप हाथमें त्रिशूल |उपनिषद तथा सभी अग्नियों को भी देख रहे हैं। धारण करते हैं। आपको बार–बार नमस्कार है।| परम प्रभो! भव, शर्व, महादेव, पिनाकी, हर खट्वाङ्ग और दण्ड धारण करनेवाले आप | और रुद्र–ये सभी आपके ही नाम हैं। विश्वेश्वर! के संक्षिप्त श्रीवराहपुराण
[
याय ३३
अध्याय ३४]
- सपॅकी उत्पत्तिका प्रसङ्ग और पञ्चमी तिथिकी महिमा
५५
सर्योंकी उत्पत्तिका प्रसङ्ग और पञ्चमी तिथिकी महिमा पृथ्वीने पूछा–मेरा उद्धार करनेवाले भगवन्! | बतानेकी कृपा कीजिये। आपके श्रीविग्रहका स्पर्श पाकर महान् चिक्नमशाली | मुनिवर महातपाजी कहते हैं–राजन्! मरीचि सर्प कैसे मूर्तिमान् बन गये तथा उन्हें आपने ब्रह्माजीके प्रथम मानस पुत्र थे। उनके पुत्र क्यों बनाया?
कश्यपज़ी हुए। मन्द मुसकानवाली दक्षको पुत्री भगवान् वराह बोले–वसुंधरे! गणपतिके कद्रू उनकी भार्या हुईं। उससे कश्यपजीके अनन्त, जन्मका वृत्तान्त सुनने के पश्चात् राजा प्रज्ञापालने | वासुकि, महाबली कम्बल, कर्कोटक, पद्म, महापद्म, यहीं प्रसङ्ग बड़ी मीठी वाणीमें इत्तमन्नतीं महातपासे | शङ्ख, कुलिक और पापराजिल आदि नामोंसे पूछा था।
विख्यात अनेक पुत्र हुए। राजेन्द्र ! ये प्रधान सर्प | राजा प्रजापालने पूछा– भगवन् ! कश्यपजीके | कश्यपजौके पुत्र हैं। बादमें इन सपॅकीं संतानोंसे बंशसे सम्बन्धित नाग तो बड़े ही दुष्ट प्रकृतिके | यह सारा संसार ही भर गया। वे बड़े कुटिल थे। फिर उन्हें विशाल शरीर धारण करनेका | और नीच कर्ममें रत थे। उनके मुँह में अत्यन्त अवसर कैसे मिल गया? यह प्रसङ्ग आप मुझे | तीखा विष भरा था। वे मनुष्योंको अपनी दृष्टिमात्रसे
* जमस्ते गजवक्य नमस्ते गणनायक ॥ विनायक नमतेम नमस् प्रविम्॥ ।। ननु । चिम्ना नमस्ते सतत । नमस्ते वक्त्रो अनवजाति ।। ।
कार्यनमस्काराइविश्नं कुरु सर्वदा।
[ अपाय ३३ । ३३–३४)
३
* मैक्षिप्त श्रीवराहपुराण के
[ अध्याय ३४
अध्याय २५]
+ अष्ठी तिथिकी महिमाके प्रसङ्गमें स्वामी कार्तिकेयके जन्मकी कथा
आयाय ३५ ]
* घशी तिथिकी महमाकै प्रसङ्ग स्वामी कार्तिकेयके जन्मकी कथा।
अष्टमी तिथिकी महिमाकै प्रसङ्गमें मातृकाओंकी उत्पत्ति कथा। मुनिवर महातपा कहते हैं–राजन्! पूर्व था कि तुम्हें कोई भी मार न सकेगा और तुम्हारा समयकी बात है, भूमण्डलपर एक महान् पराक्रमी | शरीर भी पृथ्वीका स्पर्श नहीं करेगा। फिर भी राक्षस था, जिसकी अन्धक नामसे ख्याति थी। उस परम पराक्रमी असुरको शत्रुओंके संहार ब्रह्माजीके द्वारा वर प्राप्तकर उसका अहंकार करनेवाले भगवान् शंकर मार सकते हैं; अतः हम चरम सीमापर पहुँच गया था। सभी देवता इसके सबलोग उन्हीं कैलासवासी प्रभुके पास चलें। अधीन हो गये थे। उसकी सेवा असह्य होनेके राजन् ! इस प्रकार कहकर ब्रह्माजी सभी कारण देवताओंने सुमेरु पर्वत छोड़ दिया और देवताओंके साथ भगवान् शंकरके पास गये। उन्हें उस दानवके भयसे दुःखी होकर वे ब्रह्माजीकी देखकर भगवान् शंकरने प्रत्युत्थानादिद्वारा स्वागत शरणमें गये। उस समय वहाँ आये हुए प्रधान कर उनसे कहा– आप सभी देवता किस कारणसे देवताओंसे पितामहने कहा-‘सुरगणों! कहो, तुम्हारे यहाँ पधारे हैं? आप शीघ्र आज्ञा दें, जिससे मैं
आनेका क्या प्रयोजन है? तुम क्या चाहते हो?’ आपलोगोंका कार्य तुरंत सम्पन्न कर दें।
दैवताओंने कहा–जगत्पते! आप चतुर्मुख इसपर देवताओं ने कहा-‘भगवन् ! दुष्टचत्त, एवं जगत्–पितामह हैं। भगवन्! आपको हमारा महाबलौं अन्धकासुरसे आप हमारी रक्षा करें नमस्कार हैं। अन्धकासुरके द्वारा हम सभी देवता | अभी वे ऐसा कह हीं रहे थे कि विशाल सेना महान् दु:खी हैं। आप हम सबकी रक्षा करें। |लिये अन्धकासुर वहीं आ धमका। उस समय ब्रह्माजी बोले– श्रेष्ठ देवताओं! अन्धकासुरसे | वह दानव पूरे साधनोंके साथ आया था। उसकी रक्षा करना मेरे वशकी बात नहीं हैं। हाँ, महाभाग | इच्छा थी कि वह युद्धमें चतुरङ्गिणी सेनाकै सहारे शंकरजी अवश्य सर्वसमर्थ हैं। हम सभी उनकी शंकरजीको मारकर उनकी पत्नी पार्वतीका अपहरण हीं शरणमें चलें, क्योंकि मैंने ही उसे वर दिया | कर ले। उसे सहसा इस प्रकार प्रहारके लिये
नवमी तिथिकी महिमाकै प्रसङ्गमें दुर्गादेवीकी उत्पत्ति–कथा राजा प्रजापालने पूछा–मुने! सृष्टिके आदिमें | कनेकै लिये बैठ गया था। सूक्ष्म रूपमें स्थित निर्गुणा एवं अव्यक्ते–ब्रह्मस्वरूपा | इस प्रकार बहुत समय बीत जाने पर पवित्र कल्याणी भगवती महामाया, दुर्गा भगवती सगुण | नदी बेत्रवती (मध्यप्रदेशकी बेतवा नद)-ने स्वरूप धारणकर पृथक् रूपमें कैसे प्रकट हुईं ? | अत्यन्त सुन्दर मानुष स्त्रीका रूप धारणकर एवं महातपाजी कड़ते हैं–राजन्! प्राचीन समयकी | अनेक अलंकारोंसे सज–धजकर सिन्धुद्वीप जहाँ बात है। वरुणके अंशसे उत्पन्न सिन्धुढीप नामका | बैठकर महान् तप कर रहा था, वहाँ पहुँची। उस एक प्रबल प्रतापी नरेश था। वह इन्द्रको मारनेवाले | सुन्दरी स्त्रीको देखकर राजाका मन क्षुब्ध हो पुत्रकी कामनासे जंगलमें जाकर तप करने लगा। उठा, अतः उसने पूछा-‘सुन्दर कटिभागवाली सुन्नत ! इस प्रकार एक ही आसनसे भीषण तप | भामिनि! तुम कौन हो? सब सच्ची बात करते हुए उसने अपने शरीरको सुखा दिया। | बतानेकी कृपा करो।‘
राजा प्रज्ञापालने पूछा–द्विजवर! उसका नदीने उत्तर दिया–मेरा नाम वेत्रवती हैं। इन्द्रनें कौन–सा अपकार किया था, जिससे वह मेरे मनमें आपको प्राप्त करनेकी इच्छा हो गयी उनके मारनेवाले पुत्रकी इच्छासे तपमें लग गया?है। अतः मैं यहाँ आ गयी हैं। महाराज़ ! इस महातपाजी बोले–राजन् ! सिन्धुद्वीप पिछले बातपर तथा मेरे भावोंका विचारकर आप मुझ जन्ममें विश्वकर्माका पुत्र नमुच नामक दैत्य था, दासीको स्वीकार करनेकी कृपा करें। – [.. जो वीरों में प्रधान था। वह सम्पूर्ण शास्त्रों द्वारा राजन्! वेत्रवतीके इस प्रकार कहनेपर राजा अवध्य था। अतः इन्द्रद्वारा जलकै फैनसे उसकी | सिन्धुद्वीपने भी उसे स्वीकार कर लिया। समय मृत्यु हुई थी (युद्धकै अन्तमें इन्द्रने उसे जलके पाकर शीघ्र ही उससे पुत्रकी उत्पत्ति हुई। उस फेनसे मारा था)। वहीं पुनः ब्रह्माजीके वंशमें बालकमें आरह सूर्यो–जैसा तेज था। वैज्ञवतीकै सिन्धुद्वीपके नामसे उत्पन्न हुआ। इन्द्रकै उसी | उदरसे जन्म होनेके कारण वह वैत्रासुरके नामसे वैरको स्मरणकर वह अत्यन्त कठिन तपस्या | प्रसिद्ध हुआ। उसमें पर्याप्त बल था। उसके तेजक ६४
के संक्षिप्त श्रीवराहपुराण के
[ अध्याय ३८
अध्याय ३८]
+ नवमी तिथिकी महिमाके प्रसङ्गमें दुर्गादेवीकी उत्पत्ति–का+
* द्वादशी तिथिकी महिमा, श्रीभगवान् विष्णुकी उत्पत्ति–कथा
वह वायु विराजता था। आवश्यकताकै अनुसार | तुम्हारे ऊपर है। इस रक्षा–कार्यकै कारण जगत्में वह क्षेत्रदेवता बनकर बाहर निकला। उसकी |’धनपति‘ नामसे तुम्हारी प्रसिद्धि होगीं। फिर उत्पत्तिकी कथा मैं तुम्हें संचैपमैं बता चुका हूँ। अत्यन्त संतुष्ट होकर ब्रह्माजींने उन्हें एकादशीका महाभाग ! तुम बड़े पवित्रात्मा पुरुष हों, अतः वहीं | अधिष्ठाता बना दिया। राजन्! उस तिथिकै प्रसङ्ग पुनः कुछ विस्तारसे कहता हूँ, सुनौ। |अवसरपर जो व्यक्ति बिना अग्निमें पकाये स्वयं एक समयकी आत हैं–ब्रह्माजीके मनमें सृष्टि |पके हुए फल आदिके आहारपर रहकर नियमके रचनेको इच्छा हुई। तब उनके मुखसे वायु साथ ब्रत करता रहता हैं, उसपर कुबेर अत्यन्त निकला। वह बड़े बैंगसे स्थूल बनकर अह चला प्रसन्न होते हैं और वे उसकी सारी कामनाएँ पूर्ण और उससे धूलको प्रचण्ड बर्षा होने लगी। फिर कर देते हैं। ब्रह्माजीनें इसे रोका और साथ ही कहा–’बायो ! धनाध्यक्ष कुबेरके मूर्तिमान् बननेकी यह तुम शरीर धारण करो औंर शान्त हो जाओ।‘ | कथा सम्पूर्ण पापोंका नाश करनेवाली है। जो उनके ऐसा कहनेपर वायु मूर्तिमान बनकर कुबेरके व्यक्ति भक्तिपूर्वक इसका श्रवण अथवा पठन रूपमें उनके सामने उपस्थित हुए। तब ब्रह्माज्ञीने करता है, उसके सारे मनोरथ पूर्ण हो जाते हैं। कहा-‘सम्पूर्ण देवताओंके पास जो धन है, वह | अन्तमें वह स्वर्गलोकको प्राप्त करता है। केवल फलमात्र हैं। उन सबकी रक्षाका भार |
[अध्याय ३०] के संक्षिप्त भवरापुराण के
[ अध्याय ३३
– त्रयोदशी तिथि एवं धर्मकी उत्पत्तिका वर्णन १. महातपाजी कहते हैं– राजन्! धर्म बड़े | विचार उत्पन्न हुआ। फिर उन प्रज्ञाऑकी रक्षाका आदरके पात्र हैं। नरेन्द्र ! उनकी उत्पत्ति, महिमा | उपाय सोचने लगे। वे इस चिन्तामें लगे ही थे कि और तिथिको प्रसङ्ग कहता हैं, सुनो। जिन्हें| इतनेमें उनके दक्षिण अङ्गसे एक पुरुष प्रकट हो परब्रह्म परमात्मा कहते हैं तथा जिन शुद्धस्वरूप | गया। उसके कानोंमें श्वेत कुपडल, गलेमें श्वेत प्रभुकी सत्ता सदा बनी रहती है, पहले केवल वे | माला थीं और वह सफेद रङ्गका अनुलेपन लगाये ही थे। उनके मनमें प्रजाओंकी रचना करनेका| हुए था। उसके चार पैर थे तथा उसकी आकृति
के संक्षिप्त श्रीवराहपुराण भगवान् रुद्र प्रसन्न हो जायें। इनकी प्रसन्नता– | मुखमें वड़वानलका निवास हैं। वेदान्तके द्वारा मासे सर्वज्ञता सुलभ हो जाती है। ब्रह्माज्ञीके| आपका रहस्य जाना जा सकता हैं। ऐसे आप ऐसा कहनेपर वे देवता भगवान् रुद्रकी स्तुति | प्रभुको बारंबार नमस्कार हैं। शम्भो! आपने करने लगे।
दक्षके यज्ञका विध्वंस किया है। शिव! जगत् देवगण बोले–महात्मन्! आप देवताओंके आपसे भय मानता है। भगवन्! आप विश्वकै अधिष्ठाता, तीन नैन्नाले, जटा–मुकुटसे सुशोभित शासक हैं। विश्वकै उत्पादक तथा कपर्दी नामक तथा महान् सर्पका यज्ञोपवीत पहनते हैं। आपके जटाजूटको धारण करनेवाले महादेव! आपको नेत्रोंका रंग कुछ पीला और लाल है। भूत और नमस्कार हैं। बेताल सदा आपकी सेवामें संलग्न रहते हैं। इस प्रकार देवताओं द्वारा स्तुति किये जानेपर ऐसे आप प्रभुको हमारा नमस्कार हैं। भगके प्रचण्ड धनुषधारीं सनातन शम्भु बोले-‘सुरगणों ! नेत्रको बाँधनेवाले भगवन् ! आपके मुखसे भयंकर मैं देवताओंका अधिष्ठाता हैं। मेरे लिये जो भी अट्टहास होता हैं। कपर्दी और स्थाणु आपके काम हो, वह बताओ।‘ नाम हैं। पूषाके दाँत तोड़नेवाले भगवन् ! आपको देवताओंने कहा–प्रभो! आप अदि प्रसन्न हमारा नमस्कार हैं। महाभूतोंके संरक्षक प्रभो ! | हैं तो हमें वेद एवं शास्त्रों का सम्यक् प्रकारको आपको हम नमस्कार करते हैं। प्रभो! भविष्यमें | ज्ञान यथाशीघ्र प्रदान करनेकी कृपा करें। साथ वृषभ या धर्म आपकी ध्वजाका चिह्न होगा और हो रहस्यसहित यज्ञोंकी विधि भी हमें ज्ञात त्रिपुरका आप विनाश करेंगे। साथ ही आप | हो जाय।
अन्धकासुरका भी हनन करेंगे। भगवन्! आपका महादेवजी बोले–देवताओ! आप सब कैलासपर सुन्दर निवास स्थान है। आप हाथीका | कै–सब एक ही साथ पशुका रूप धारण कर चर्म वस्त्ररूपसे धारण करते हैं। आपके सिरका | मैं और मैं सबका स्वामी बन जाता है, तब ऊपर उठा हुआ केश सबको भयभीत कर देता| आप सभी अज्ञानसे मुक्ति पा जायँगे। फिर हैं अतः आपका ‘भैरव‘ नाम हैं। प्रभो! आपको देवताओंने भगवान् शम्भुसे कहा–बहुत ठीक, हमारा बारंबार नमस्कार हैं। देवेश्वर! आपके ऐसा ही होगा। अब आप सर्वथा पशुपति हो तीसरे नेत्रसे आगकी भयंकर ज्वाला निकलतीं गये। उस समय ब्रह्माजीका अन्त:करण रहती हैं। आपने चन्द्रमाको मुकुट बना रखा है। प्रसन्नतासे भर गया। अतः उन्होंने उन पशु आगे आप कपाल धारण करनेका नियम पालन | पतिसे कहा -‘देवेश! आपके लिये चतुर्दशी करेंगे। ऐसे आप सर्वसमर्थ प्रभुको हमारा नमस्कार | तिथि निश्चित है–इसमें कोई संशय नहीं। ज्ञों हैं। प्रभो! आपके द्वारा ‘दारुवन‘का विध्वंस | द्विज उस चतुर्दशी तिथिके दिन श्रद्धापूर्वक होगा। नीले कण्ठ एवं तीखें त्रिशूलसे शोभा | आपकी उपासना करें, गेहूँ से तैयार किये पक्वान्न पानेवाले भगवन्! आपने महान् सर्पको कङ्कण | द्वारा अन्य ब्राह्मणोंको भोजन करायें, उनपर आप बना रखा है, ऐसे तिग्म त्रिशूली (तेज त्रिशूलवाले) | परम संतुष्ट हों और उन्हें उत्तम स्थानका आप देवेश्वरको नमस्कार हैं। यज्ञमूनें! आप | अधिकारी बना दें। हाथमें प्रचण्ड दण्ड़ धारण करते हैं। आपके। इस प्रकार अव्यक्तजन्मा ब्रह्माजीके कहनेपर के पूर्णिमा तिथिको महिमाकै प्रसङ्गमें उसके स्वामी चन्द्रमाको उत्पत्तिका वर्णन अमावास्या तिथिकी महिमाके प्रसङ्गमें पितरोंकी उत्पत्तिका कथन महातपाजी कहते हैं–राजन् ! अब मैं पितरोंकी कल्याण करनेके लिये आपलोग पितर होकर उत्पत्तिका प्रसङ्ग कहता हूँ, तुम उसे सुनो। रहें।‘ ये जो ऊपर मुख करके जाना चाहते हैं, पूर्व समयकी बात हैं–प्रजापति ब्रह्माजी अनेक इनका नाम ‘नान्दीमुख‘ होगा। इस प्रकार कहकर प्रकारकी प्रजाओंका सृजन करनेके विचारसे ब्रह्माजीने उनके मार्गका भी निरूपण कर दिया। मनको एकाग्र करके बैठ गये। फिर उनके मनसे राजन्! उस समय ब्रह्माजीने उन पितरोंके लिये तन्मात्राएँ * बाहर निकर्ली। उन्होंने उन सबको मार्ग सूर्यका दक्षिणायनकाल बता दिया। इस प्रधानता दीं और इनको किन रूपोंसे सुशोभित प्रकार प्रज्ञाकी सृष्टि कर दें जब मौन हो गये, तब क‘–यों विचारने लगे। कारण, वे सभी ब्रह्माजीके पितरोंने उनसे कहा-‘भगवन्! हमें जीविका देनेकी शरीरमें पहलेसे ही थीं और अहाँसे पुनः ये कृपा कीजिये, जिससे सुख प्राप्त कर सकें।‘ धूम्रवर्णवाली तन्मात्राएँ प्रकट हुई थीं। फिर वे | ब्रह्माजी बोले– तुम्हारे लिये अमावास्याक चमककर देवताओंसे कहने लगीं-‘हम सोमरस | तिथि ही दिन हो। उस तिथिमें मनुष्य जल,तिल पीना चाहती हैं। साथ ही उनके मनमें ऊपरके और कुशसे तुम्हारा तर्पण करेंगे। इससे तुम परम लोकमें जानेकी इच्छा हुई। उन सबने सोचा– तृप्त हो जाओगे। इसमें कुछ भी संदेह नहीं है। उस ‘हम आकाशमें आसन जमाकर वहीं तपस्या अमावास्या तिथिमें तिल देनेका विधान है। पितरोंके करें। ऊपर जानेके लिये वे मुख उठाकर तिरछे प्रति श्रद्धा रखनेवाला जो पुरुष तुम्हारी उपासना मार्गका अवलम्बन करना ही चाहतीं थीं, इतनेमें | करेगा, उसपर अत्यन्त संतुष्ट होकर यथाशीघ्र घर उन्हें देखकर ब्रह्माजींने कहा–’समस्त गृहामियोंका | देना तुम्हारा परम कर्तव्य है। के पशनानेन्द्रिय विय शब्द–यज्ञादि हो जन्माशा है। इनका प्रयोग संस्कृतने लोव एवं संलिङ्ग इट है।
* * यह वैदिक मान्यता हैं, चन्द्वमा अमावास्याको औषधि, तृण एवं चौधोंमें वास करता है।
- संक्षिप्त वराहपुराण
पुरुषकी उपासना करते हैं, उन्हें मुक्तिका पात्र माना | जङ्गम अखिल जगत्कों सृष्टि, पालन और संहार जाता हैं। आपकी न कोई मूर्ति है और न कोई करते हैं। प्रभो! मैं मुक्ति चाहता हूँ। अतः आप कर्म। आप परम कल्याणमय हैं। आप शङ्ख, चक्र, | अभी मुझे उस स्थानपर ले चलें, जहाँ गये हुए एवं कमल धारण करते हैं—यह पुराणोंका कथन योगी पुरुष पुनः वापस नहीं आते। विश्वमूर्ते ! या सारौं स्तुति औपचारिकमात्र हैं। मैं आपको | गौविन्द! आपकी जय हो ! सर्वज्ञ, अप्रमेय एवं निरन्तर नमस्कार करता हैं। आप वामनका | विश्वेश्वर! आपकी जय हो, जय हो! अवतार धारण करके तीनों लोकोंपर विजय प्रा| भगवान् चराह कहते हैं–वसुंधरे ! उस चुके हैं। आप कृष्णादि चतुर्युसे शोभा पाते हैं। समय राजा प्रज्ञापालने इस प्रकार भगवान् गोविन्दकी शम्भु, विभु, भूतपति और सुरेश–ये सब आपके स्तुति की और अपने शरीरकों उनमें लीन कर ही नाम हैं। ऐसे अनन्त एवं विष्णुनामधारी आप | दिया और वे शाश्वत धामको पधार गये। प्रभुको मैं प्रणाम करता हूँ। भगवन्! आप स्थावर आरुणि और घ्याधका प्रसङ्ग, नारायण–मन्त्र–श्रवणसे बाघका शापसे उद्धार पृथ्वीने पूछा–भगवन्! आप सम्पूर्ण प्राणियोंका | एक बार रातमें भोजन करना पुरुषों के लिये सृजन करते हैं। प्रभो ! मैं आपकी उपासनाकी | शारीरक व्रत (या तप) हैं। इसमें कोई अन्यथा विधि जानना चाहती हूँ–अर्थात् श्रद्धालु स्त्रियाँ | विचार नहीं करना चाहिये । वेद पढ़ना, भगवान् अथवा पुरुष आपकी उपासना किस प्रकार | विष्णुके नाम–अशका कीर्तन करना, सत्य बोलना, करते हैं? विभो! आप मुझे यह सब बतानेकी | किसकी चुगली न करना, हितकारी मधुर बात कृपा कीजिये।
कहना, सबका हित सोचना, धर्मपर आस्था भगवान् वराह कहते हैं–देवि! मैं भावसे रखना और धर्मयुक्त बातें बोलना–ये बाणके ही वशीभूत होता हूँ। मैं न तो प्रचुर धनोंसे सुलभ उत्तम व्रत हैं। हैं और न जपादि अन्य उपासनासे हौं। साथ ही| वसुंधरे! इस विषयमें एक प्रसङ्ग सुना जाता भक्त लोग मुझे तपद्वारा भी प्राप्त करते हैं-| है—पूर्वकल्पमें आरुणि नामसे विख्यात एक एतदर्थ मैं तुमसे कुछ साधनोंका निर्देश करता हैं। महान् तपस्वी ब्राह्मण–पुत्र थे। वे ब्राह्मण श्रेष्ठ जो मनुष्य मन, वाणी और कर्मसे मुझमें अपना किसी उद्देश्यसे तप करनेके लिये वनमें गये चित्त लगाये रहता है, उसके लिये अनेक प्रकारके | और वहाँ वें उपवासपूर्वक तपस्या करने लगे। (तपोरूप) व्रत हैं। उन्हें मैं बताता हूँ, सुनो। इन ब्राह्मणने देविका नदी के सुन्दर तटपर अपने अहिंसा, सत्यभाषण, चोरी न करना और ब्रह्मचर्यका | रहनेका आश्रम बनाया था। एक बार किसी दिन पालन करना–ये मानसिक व्रत कहे जाते हैं।‘ | वे ब्राह्मण देवता स्नान–पूजा करनेकै विचारसे उस दिनमें एक समय भोजन करना अथवा केवल । नदीके तट्रपर गये। स्नान करके थे जब जप कर
१. तुलनीय गीता १४।१४ ३. इस नामकी कई दिय है, पर यह यह पंजाबी देंग नहीं है, ‘महाभारत‘ तथा ‘स्कन्दपुराण में इसका बहुधा ॥ आरुण और व्याधका प्रसङ्ग ।
रहे थे तो उन्होंने सामने आते हुए एक भयंकर | व्याधने बाघको मार डाला। मरनेपर इस बाघकै व्याधको देखा, जो हाथमें बड़ा–सा धनुष लिये शरीरसे एक पुरुष निकला। बात ऐसी थीं जिस हुए था। उसकी आँखें बड़ी क्रूर थीं। वह उन समय आरुणि जलमें थे और बाघ उनपर झपटा, ब्राह्मणके वल्कल वस्त्र छीनने और उन्हें मारनेके | उस समय घबड़ाहटके कारण मुनिके मुँह विचारसे आया था। उस ब्रह्मघातीको देखकर | सहसा ‘ॐ नमो नारायणाय‘ यह मन्त्र निकल आणि मनमें घबड़ाहट उत्पन्न हो गयी और | गया। मायके प्राण तबतक इसके कण्ठमें ही थे वे भयसे थरथर काँपने लगे। किंतु ब्राह्मणके | और उसने यह मन्त्र सुन लिया। प्राण निकलते अन्त:शरीरमें भगवान् नारायणको देखकर वह | समय केवल इस मन्त्रको सुनलेनेसे वह एक व्याध इर–सा गया। उसने उस क्षण धनुष औंर | दिच्य पुरुषके रूपमें परिणत हो गया। तब उसने बाण हायसे गिरा दिये और कहा। | कहा– द्विजवर! जहाँ भगवान् विष्णु विराजमान झ्याधने कहा–ब्रह्मन्! मैं आपको मारनेके | हैं, मैं वहीं जा रहा हूँ। आपकी कृपासे मेरे सारे विचारसे ही यहाँ आया था; किंतु आपको देखते | पाप धुल गये। अब मैं शुद्ध एवं कृतार्थ हो गया। हीं पता नहीं मैरीं वह कुर–बुद्धि अब कहाँ चली | इस प्रकार उस पुरुषके कहनेपर विप्रवर गयी। विप्रवर ! मेरा जीवन सदा पाप करनेमें ही | आरुणिने उससे पूछा-‘नरश्रेष्ठ ! तुम कौन हो?’ बीता हैं। अबतक मेरे द्वारा हजारों ब्राह्मण मृत्युके राजेन्द्र! तब पूर्वजन्ममें जो बात बीती थी, उसे मुख्नमें प्रविष्ट हो गये। प्रायः दस हजार साध्वी | बतलाते हुए वह कहने लगा-‘इसके पहले स्त्रियों का भी मैंने अन्त कर डाला हैं। अहो, जन्ममें मैं ‘दीर्घबाहु‘ नामसे प्रसिद्ध एक राजा था। ब्राह्मणकी हत्या करनेवाला मैं पाप पता नहीं, | समस्त वेद, सम्पूर्ण धर्मशास्त्र मुझे सम्यक् किस गतिको प्राप्त करूंगा? महाभाग ! अब | प्रकारसे अभ्यस्त थे। अन्य शास्त्र भी मुझसे आपके पास रहकर मैं भी तप करना चाहता हूँ। | अपरिचित नहीं थे। पर अन्य ब्राह्मणोंसे मेरा कोई आप कृपया उपदेश देकर मेरा उद्धार करें। | प्रयोजन न था। मैं प्राय: ब्राह्मणोंका अपमान भी व्याधके इस प्रकार कहने पर उसे ब्रह्मघातीं | कर देता था। मेरे इस व्यवहार से सभी ब्राह्मण एवं महान् पापी समझकर द्विजश्रेष्ठ आरुणिने उसे | क्रुद्ध हो गये और उन्होंने मुझे भीषण शाप दें कोई उत्तर नहीं दिया; परंतु हृदयमें धर्मकी दिया-‘तू अत्यन्त निर्दयी बाघ होगा; क्योंकि अभिलाषा जग ज्ञानेके कारण ब्राह्मणके कुछ न | तेरे द्वारा ब्राह्मणोंका भीषण अनादर हो रहा हैं। कहनेपर भी वह व्याध वहीं हर गया। ब्राह्मण | तुझे किसी बातका स्मरण भी न रहेगा। अरे भी नदीमें स्नानकर वृक्षके नीचे बैढ़े हुए तप | प्रचण्डू मूर्ख ! मृत्युके समय भगवान् नारायणका करते रहे। इस प्रकार अब उन दोनोंका नियमित नाम तेरे कानोंमें पड़ेगा।‘ धार्मिक कार्यक्रम चलने लगा। इस प्रकार कुछ| विप्नवर ! वे सभी ब्राह्मण बेदके पारगामी दिन बीत गये। एक दिनकी बात हैं—आरुणि विद्वान् थे। उनका भीषण शाप मुझे लग गया। स्नान करने नदीके लमें भीतर गये थे। इधर | मुने! जब ब्राह्मणोंने शाप दिया तो मैं उनके कोई भूखसे व्याकुल बाघ तबतक उन शान्तस्वरूप | पैरोंपर गिर पड़ा तथा उनसे कृपापूर्वक क्षमाकों मुनिको मारनेके लिये आ पहुँचा। पर इसी बीच | भौख माँगी। मुझपर उनकी कृपादृष्टि हो गयीं।
* संक्षिप्त श्रीवराहपुराण+
मी मल–गान शब्द है। मन हैं। 14 त । १३ में भी यह शन्द आया है। यह सभी गाना इसका प्राय: तासगम—गी भई बने हैं। मोनियर विलियम संस्कृत–ने–कोने में भाव र अधिक स्पष्ट है।
ॐ सत्यतपाका प्राचीन प्रसङ्ग ।
Varaha Puran