श्रीब्रह्मपुराण
॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥
संक्षिप्त ब्रह्मपुराण
नैमिषारण्य सूतजीका आगमन, पुराणको आरम्भ तथा सृष्टिका वर्णन
यस्मात्सर्वमिदं प्रपञ्चरचितं मायाजगन्जायते सभी जुटे हुए थे। झुंड-को-झुंड गएँ उस यस्मिस्तिष्ठति यति चान्तसमये झल्यानुकल्प पुनः। वनकी शोभा बढ़ा रहीं थीं। नैमिषारण्यास यं ध्याचा मुनयः प्रपञ्चरहित विन्दन्ति मोक्ष ध्रुवं मुनियोंका द्वादशवार्षिक (बारह वर्षों तक चालू तं वन्दै पुरुषोत्तमाख्यममलं नित्यं विभु निश्चलम् ॥ रहनेवाला) यज्ञ आरम्भ था। जौ, गेहूँ, चना, यं ध्यायन्ति बुधाः समाधिसमये शुद्धं वियत्संनिभं उड़द, मूंग और तिल आदि पवित्र अन्नोंसे नित्यानन्दमयं प्रसन्नममले सर्वेश्चरं निर्गुणम्।। यज्ञमण्डप सुशोभित था। वहाँ होमकुण्डमें व्यक्ताव्यक्तपरं प्रपञ्चरहितं ध्यानैकगम्यं विभु अग्निदेव प्रज्वलित थे और आहुतियाँ डाली जा तं संसारविनाशहेतमजरं वन्दै हुरि मुक्तिदम् ॥* | रही थीं। उस महायज्ञमें सम्मिलित होने के पूर्वकालकी बात हैं, परम पुण्यमय पवित्र लिये बहुत-से मुनि और ब्राह्मण अन्य स्थानों से नैमिषारण्यक्षेत्र बड़ा मनोहर जान पड़ता था। आये । स्थानीय महर्षियोंने उन सबका यथायोग्य वहाँ बहुत-से मुनि एकत्रित हुए थे, भाँति- सत्कार किया। ऋत्विजोंसहित वे सब लोग भाँतिके पुष्प उस स्थानकी शोभा बढ़ा रहे थे। जब आरामसे बैठ गये, तब परम बुद्धिमान् पीपल, पारिजात, चन्दन, अगर, गुलाव तथा लोमहर्षण सूतजी वहाँ पधारे। उन्हें देखकर चम्पा आदि अन्य बहुत-से वृक्ष उसकी शोभा- | मुनिवरोंको बड़ी प्रसन्नता हुई, उन सबने वृद्धिमें सहायक हो रहे थे। भाँति-भौतके उनका यथावत् सत्कार किया। सूतजी भी इनके पक्षी, नाना प्रकारके मृगोंका झुंड, अनेक पवित्र | प्रति आदरका भाव प्रकट करके एक श्रेष्ठ जलाशय तथा बहुत-सों बावलियाँ उस वनको आसनपर विराजमान हुए। इस समय सब विभूषित कर रहीं थीं। ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य, । ब्राह्मण सूतके साथ वार्तालाप करने लगे। शूद्र तथा अन्य जातिके लोग भी वहाँ उपस्थित बातचीतकै अन्तमें सबने व्यास-शिष्य लोमहर्षणजसे थे। ब्रह्मचारी, गृहस्थ, वानप्रस्थ और संन्यासी-| अपना संदेह पूछा।
* प्रत्येक कल्प और अनुकल्पमें विस्तारपूर्वक रचा हुआ अहू समस्त मायामय जगत् जिनसे प्रकट होता, जिनमें स्थित रहता और अन्तकालमें जिनके भीतर पुन: लीन हो जाता है, जो इस दृश्या-प्रपञ्चसे सर्वथा पृथक् हैं, जिनका भ्यान करके मुनिजन सनातन मोक्षपद प्राप्त कर लेते हैं, उन नित्य, निर्मल, निश्चल तथा व्यापक भगवान् पुरुषोत्तम (जगन्नाचजी) को मैं प्रणाम करता हैं। जो शुद्ध, आकाशकै समान निलैंप, नित्यानन्दमय, सदा प्रसन्न, निर्मल, सबके स्वामीं, निर्गुण, व्यक्त और अध्यको परे, प्रपञ्चासे हित, एकमात्र ध्यानमें हों अनुभव करनेयोग्य तथा व्यापक हैं समाधिकालमें विद्वान् पुरुष इसी पमें जिनका ध्यान करते हैं, जो संसार उत्पति और विनाशके एकमात्र कारण हैं, जरा अवस्था जिनका स्पर्श भी नहीं कर सकतीं तथा जो मोक्ष प्रदान करनेवाले हैं. इन भगवान् श्रीहरिकों में बन्दना करता हैं। के संक्षिप्त ब्रह्मपुराण में मुनि बोले-साधुशिरोमणे! आप पुराण, तन्त्र, तथा मोक्षके हेतु हैं, उन भगवान् विष्णुको हों शास्त्र, इतिहास तथा देवताओं और दैत्यक नमस्कार है। जो जगकी उत्पत्ति, पालन और जन्म-कर्म एवं चरित्र-सब जानते हैं। वेद, संहार करनेवाले हैं, जरा और मृत्यु जिनका स्पर्श शास्त्र, पुराण, महाभारत तथा मोक्षशाखमें कोई नहीं करतीं, जो सयके मूल कारण हैं, उन भी यात ऐसी नहीं हैं, जो आपको ज्ञात न हो। परमात्मा विष्णुको नमस्कार है। जो इस विश्वकै आधार हैं, अत्यन्त सूक्ष्ममें भी सक्षम हैं, सब प्राणियोंके भीतर विराजमान हैं, क्षर और अक्षर पुरुषसे उत्तम तथा अविनाशी हैं, उन भगवान् विष्णुको प्रणाम करता हैं। जो वास्तवमें अत्यन्त निर्मल ज्ञानस्वरूप हैं, किन्तु अज्ञानवश नाना पदार्थोके रूपमें प्रतीत हो रहे हैं, जो विश्वकी सृष्टि और पालनमें समर्थ एवं उसका संहार करनेवाले हैं, सर्वज्ञ हैं, जगत्के अधीश्वर हैं, जिनके जन्म
और विनाश नहीं होते, जो अव्यय, आदि, अत्यन्त सूक्ष्म तथा विश्वर हैं, उन श्रीहरिको तथा ब्रह्मा आदि देवताओंको मैं प्रणाम करता हूँ। तत्पश्चात् इतिहास-पुराणक ज्ञाता, वेद-वेदाङ्गक पारङ्गत विद्वान्, सम्पूर्ण शास्त्रोंके तत्वज्ञ पराशरनन्दन भगवान् व्यासको, जो मेरे गुरुदेव हैं, प्रणाम करके महामते ! आप सर्वज्ञ हैं, अतः हम आपसे कुछ मैं वेदके तुल्य माननीय पुराणका वर्णन करूंगा। प्रश्नका उत्तर सुनना चाहते हैं; बताइये, यह पूर्वकालमें इक्ष आदि श्रेष्ठ मुनियोंके पूछने पर समस्त जगत् कैसे उत्पन्न हुआ? भविष्यमें इसकी कमलयोनि भगवान् ब्रह्माजीने जो सुनायी थी, झ्या दशा होगी? स्थावर-जङ्गमरूप संसार सृष्टिसे वहीं पापनाशिनी कथा मैं इस समय कहूँगा। मेरो पहले कहाँ लौन था और फिर कहाँ लौन होगा? यह कथा बहुत ही विचित्र और अनेक अर्थोंवाली लोमहर्षणजीने कहा-जो निर्विकार, शुद्ध होगी। इसमें श्रुतियोंके अर्थका विस्तार होगा। जो नित्य, परमात्मा, सदा एकरुप और सर्वविजयीं हैं. इस कथाको सदा अपने हृदयमें धारण करेगा उन भगवान् विष्णुको नमस्कार हैं। जो ब्रह्मा, अथवा निरन्तर सुनेगा, वह अपनी वंश-परम्पराकों विष्णु और शिवरूपसे जगत्की उत्पत्ति, पालन कायम रखते हुए स्वर्गलोकमें प्रतिष्ठित होगा। तथा संहार करनेवाले हैं, जो भौंको संसार- जो नित्य, सदसत्स्वरूप तथा कारणभूत सागरसे तारनेवाले हैं, उन भगवानको प्रणाम हैं। अव्यक्त प्रकृति है, उसीको प्रधान कहते हैं। जो एक होकर भी अनेक रूप धारण करते इससे पुरुषने इस विश्वका निर्माण किया है। हैं, स्थूल और सूक्ष्म सब जिनके ही स्वरूप मुनिवरो! अमिततेजस्वी ब्रह्माजीको ही पुरुष हैं, जो अव्यक्त (कारण) और व्यक्त (कार्य)-रूप समझो। वे समस्त प्राणियोंकी सृष्टि करनेवाले
नैमिषारण्य सूतजीको आगमन, पुराणका आरम्भ तथा सृष्टिका वर्णन
तथा भगवान् नारायणकै आश्रित हैं। प्रकृतिसे | कर्मनिष्ठ एवं संतानवान् हैं। उन वंशको बड़े महत्तत्त्व, महत्तत्त्वसे अहङ्कार तथा अहङ्कारसे सब बड़े ऋषियने सुशोभित किया हैं। इसके बाद सूक्ष्म भूत उत्पन्न हुए। भूतोंके जो भेद हैं, वे भी ब्रह्माजीने विद्युत्, वज्र, मेघ, रोहित, इन्द्रधनुष, उन सूक्ष्म भूतोंसे ही प्रकट हुए हैं। यह सनातन पक्षी तथा मेघोंकी सृष्टि की। फिर यज्ञोंकी सर्ग है। तदनन्तर स्वयम्भू भगवान् नारायणने नाना | सिद्धि के लिये उन्होंने ऋग्वेद, यजुर्वेद तथा प्रकारकी प्रज्ञा उत्पन्न करनेको इच्छासे सबसे | सामवेद प्रकट किये। तदनन्तर साध्य दैवताओंकी पहले जलकी ही सृष्टि की। फिर जलमैं अपनी उत्पत्ति बतायी जाती है। छोटे-बड़े सभी भूत शक्तिका आधान किया। ज्ञलका दूसरा नाम ‘नार’ | भगवान् ब्रह्माके असे उत्पन्न हुए हैं। इस प्रकार हैं, क्योंकि उसकी उत्पत्ति भगवान् नरसे हुई है। प्रजाकी सृष्टि करते रहनेपर भी जब प्रजाकी वृद्धि यह जल पूर्वकालमें भगवान्का अयन (निवासस्थान) नहीं हुई, तब प्रजापति अपने शरीर के दो भाग हुआ, इसलिये वे नारायण कहलाते हैं। भगवान्नै करके आधेसे पुरुष और आधेसे स्त्री हो गये। जो जलमें अपनी शक्तिका आधान किया, इससे पुरुषका नाम मनु हुआ। इन्हींके नामपर ‘मन्वन्तर एक बहुत बिशाल सुवर्णमय अण्ड़ प्रकट हुआ। काल माना गया है। स्त्री अयोनिजी शतरूपा थीं, इसमें स्वयम्भू ब्रह्माजी उत्पन्न हुए-ऐसा सुना | जो मनुको पत्ररूपमें प्राप्त हुई। उसने दस हजार जाता है। सुवर्णके समान कान्तिमान् भगवान् वर्षों तक अत्यन्त दुष्कर तपस्या करके परम ब्रह्माने एक वर्षतक उस अण्डमें निवास करके उसके दो टुकड़े कर दिये। फिर एक टुकड़ेसे द्युलोक बनाया और दूसरेसे भूलोक। इन दोनोंके बीचमें आकाश रखा। जलके ऊपर तैरती हुई पृथ्वौको स्थापित किया। फिर इस दिशाएँ। निश्चित की। साथ ही काल, मन, भागी, काम, क्रोध और इतिकी सृष्टि की। इन भाल्नकै अनुरूप सृष्टि करनेकी इच्छासे ब्रह्माजीने सात प्रज्ञापतियोंको अपने मनसे उत्पन्न किया। उनके नाम इस प्रकार हैं-मरीचि, अत्रि, अङ्गिरा, पुलस्त्य, पुलह, क्रतु तथा वसिष्ठ। पुराणोंमें ये सात ब्रह्मा निश्चित किये। गये हैं। । तत्पश्चात् ब्रह्माजीने अपने रोषसे रुद्रको प्रकट | किया। फिर पूर्वजोंके भी पूर्वज सनत्कुमारजौको उत्पन्न किया। इन्हीं सात महर्षियोंसे समस्त प्रजा तेजस्वी पुरुषको पतिरूपमें प्राप्त किया। वे ही तथा ग्यारह रुद्रका प्रादुर्भाव हुआ। उक्त सात पुरुष स्वायम्भुव मनु कहे गये हैं (बैराज पुरुष भी महर्षियोंके सात बड़े-बड़े दिव्य वंश हैं, देवता| उन्हाँका नाम हैं) । उनका ‘मन्वन्तर-काल’ इकहत्तर भी इन्हींके अन्तर्गत हैं। उक्त सातों वंशोंके लोग चतुर्युगीका बताया जाता हैं।
# संक्षिप्त पुराण ॥
शतरूपाने वैराज पुरुषके अंशसे वीर, प्रियव्रत | तथा अभिमन्यु । पुरुसे आग्नेयींने अङ्ग, सुमना, और उत्तानपाद नामक पुत्र उत्पन्न किये। वीरसे स्वाति, तु, अङ्गिा तथा मय-ये छ; पुत्र काम्या नामक श्रेष्ठ कन्या उत्पन्न हुई जो कर्दम | उत्पन्न किये। अङ्गसे सुनीथाने वैन नामक एक प्रजापतिकी धर्मपत्नी हुई। काम्याके गर्भसे चार पुत्र पैदा किया। बेनके अत्याचारसे ऋषियोंको पुत्र हुए-सम्राट्, कुक्ष, विराट् और प्रभु । प्रजापति बड़ा क्रोध हुआ; अत: प्रजाजनोंकी रक्षाके लिये अन्निने राजा उत्तानपादको गोद ले लिया। प्रजापति उन्होंने उसके दाहिने हाथका मन्थन किया, उत्तानपादने अपनी पत्नी सूनुताके गर्भसे भुय, उससे महाराज पृथु प्रकट हुए। उन्हें देखकर कीर्तिमान, आयुष्मान् तथा वसु–ये चार पुत्र मुनियोंने कहा-‘ये महातेजस्व नरेश प्रजाको उत्पन्न किये। भुवसे उनकी पत्नी शम्भुने श्लिष्ट प्रसन्न रखेंगे तथा महान् यशके भागी होंगे। और भन्य-इन दो पुत्रको जन्म दिया। श्लिष्टके चैनकुमार पृध धनुष और कवच धारण किये उसकी पत्नी सुछायाके गर्भसे रिपु, रिपुञ्जय, वीर, अग्निके समान तेजस्वीरूपमें प्रकट हुए थे। वृकल और वृकतेजा-ये पाँच पुत्र इत्पन्न हुए। उन्होंने इस पृथ्वीका पालन किया। राजसूय रिपुसे बृहतीने चक्षुष नामके तेजस्वी पुत्रको जन्म यज्ञके लिये अभिषिक्त होनेवाले राजाओंमें वे दिया। चक्षुष्के उनकी पत्नी पुष्करिणीसे, जो सर्वप्रथम थे। उनसे ही स्तुति-गानमें निपुण सूत महात्मा प्रजापति वीरणकी कन्या थी, चाक्षुष मनु और मागध प्रकट हुए। उन्होंने इस पृथ्वीको सय उत्पन्न हुए। चाक्षुष मनुसे वैराज प्रजापतिकी कन्या प्रकारकै अनाज दुहे थे। प्रज्ञाकी जीविका चले, नवलाके गर्भसे दस महाबली पुत्र हुए, जिनके इसी उद्देश्यसे उन्होंने देवताओं, ऋषियों, पितरों, नाम इस प्रकार हैं-कुत्स, पुरु, शतद्युम्न, तपस्वी, | दानवों, गन्धर्वो तथा अप्सराओं आदिकै साथ सत्यवाक् , कवि, अग्निष्टुन्, अतिरात्र, सुद्युम्न | पृथ्वीका दोहन किया था।
राजा पृथुका चरित्र | मुनियोंने कहा-लोमर्पणजी ! पृथुके जन्मकी | तुल्य, माननीय तथा गूढ़ रहस्य हैं। ऋषियने जैसा कथा विस्तारपूर्वक कहिये। इन महात्मानें इस | कहा है, वह सब मैं ज्य-का-त्यों सुना रहा हैं। पृथ्वीका किस प्रकार दोहन किया था? | सुनो। ज्ञौ प्रतिदिन ब्राह्मणों को नमस्कार करके | लोमहर्षणजी बोले-द्विजवरौ ! मैं वेनकुमार | वेनकुमार पृथुके चरित्रका विस्तारपूर्वक कीर्तन पृथुको कथा विस्तार के साथ सुनाता हूँ। आप करता है, उसे ‘अमुक कर्म मैंने किया और अमुक लोग एकाग्रचित्त होकर सुनें। ब्राह्मण ! जो पवित्र न नहीं किया’-इस बातका शौक नहीं होता। रहता, जिसका हृदय खोटा है, जो अपने शासनमें पूर्वकालकी बात है, अत्रि-कुलमें उत्पन्न प्रजापति नहीं हैं, जो व्रतका पालन नहीं करता तथा जो अङ्ग बड़े धर्मात्मा और धर्म रक्षक थे। वे कृतघ्न और अहितकारी हैं ऐसे पुरुषको मैं यह अत्रिके समान ही तेजस्वी थे। उनका पुत्र वैन था, प्रसङ्ग नहीं सुना सकता। यह स्वर्ग देनेवाला, यश, जो धर्मके तत्वको बिलकुल नहीं समझता था। और आयुकी वृद्धि करनेवाला, परम धन्य, वेदोंके | उसका जन्म मृत्युकन्या सुनीथाके गर्भसे हुआ था।
* गा पुबुका चरित्र ।
अपने नानाकै स्वभावदोषके कारण वह धर्मको ! करनेवाली इस भूतलपर कौन हैं? मैं ही सम्पूर्ण पीछे रखकर काम और लोभमें प्रवृत्त हो गया। प्राणियोंकी और विशेषत: सब धर्मोकी उत्पत्तिका उसने धर्मको मर्यादा भङ्ग कर दी और वैदिक कारण हूँ। तुम सब लोग मूर्ख और अचेत हो, धमका उल्लङ्घन करके वह अधर्ममें तत्पर हो इसलिये मुझे नहीं जानते। यदि मैं चाहूँ तो इस गया। विनाशकाल उपस्थित होनेके कारण उसने पृथ्वीको भस्म कर दें, जलमें बहा दें या भूलोक यह क्रूर प्रतिज्ञा कर लीं थीं कि ‘किसक यज्ञ | तथा शुलकको भी फैध डालें। इसमें तनिक भी और होम नहीं करने दिया जायगा। यजन करने | अन्यथा विचार करनेकी आवश्यकता नहीं है।’ योग्य, यज्ञ करनेवाला तथा यज्ञ भी मैं ही हूँ। मेरे जब महर्षिगण वेनको मोह और अहङ्कारसे किसी ही लिये यज्ञ करना चाहिये। मेरे ही उद्देश्यसे | तरह हट्टा न सके, तब उन्हें बड़ा क्रोध हुआ। उन इवन होना चाहिये।’ इस प्रकार मर्यादाका उल्लङ्घन महात्माओंने महाबलों बेनको पकड़कर बाँध करके सब कुछ ग्रहण करनेवाले अयोग्य बॅनसे लिया। उस समय वह बहुत उछल-कूद मचा रहा मरीचि आदि सब महर्षियोंने कहा-‘बेन! हम था। महर्षि कुपित तो थे ही, वेनकी बा अनेक वर्षोंके लिये यज्ञकी दीक्षा ग्रहण करनेवाले जङ्घाका मन्थन करने लगे। इससे एक काले हैं। तुम अधर्म न करो। यह अज्ञ आदि कार्य रंगका पुरुष उत्पन्न हुआ, जो बहुत हीं नाटा था। सनातन धर्म हैं।’
वह भयभीत हो हाथ जोड़कर खड़ा हो गया। उसे महर्षियोंको यों कहते देख वोटों वाले व्याकुल देंख अत्रिने कहा–’निषद (बैठ ज्ञा)।
इससे वह निषादवंशका प्रवर्तक हुआ और वेनके पापसे उत्पन्न हुए धीवरोंकी सृष्टि करने लगा। तत्पश्चात् महात्माओंने पुन: अरणीको भौति वेनको
वैननै हँसकर कहा–’अरे! मेरे सिवा दूसरा कौन धर्मका स्रष्टा हैं। मैं किसकी बात सुने । विद्या, पराक्रम, तपस्या और सत्यके द्वारा मेरो समानता । ममा ।
दाहिनी भुजाका मन्थन किया। इससे अग्निके हैं। यह सुनकर सूत और मागधने उन महर्षियोंसे समान तेजस्वी पृथुका प्रादुर्भाव हुआ। वे भयानक कहा-‘हम अपने कर्मोसे देवताओं तथा ऋषियको इंकार करनेवाले आजगव नामक धनुष, दिव्य प्रसन्न करते हैं। इन महाराजका नाम, कर्म, बाण तथा रक्षार्थ कवच धारण किये प्रकट हुए लक्षण और यश-कुछ भी हमें ज्ञात नहीं है, थे। उनके उत्पन्न होनेपर समस्त प्राणी बड़े प्रसन्न जिससे इन तेजस्वी नोश हम स्तुति कर सकें। हुए और सब ओरसे वहाँ एकत्रित होने लगे। वैन | तब ऋषियोंने कहा-‘भविष्यमें होनेवाले गुणका स्वर्गगामी हुआ।
उल्लेख करते हुए स्तुति करो।’ उन्होंने वैसा ही महात्मा पृथु-जैसे सत्पुत्रनै उत्पन्न होकर किया। उन्होंने जो-जौ कर्म बताये, उन्हींको वैनको ‘पुम्’ नामक नरकसे छुड़ा दिया। उनका महाबली पृथुने पीछेसे पूर्ण किया। तभीसे लौकमें अभिषेक करनेके लिये समुद्र और सभी नदियाँ | सूत, मागध और वन्दीजनके द्वारा आशीर्वाद रत्न एवं जल लेकर स्वयं ही उपस्थित हुईं। दिलानेकी परिपाटी चल पड़ी। वे दोनों जब स्तुति आङ्गिरस देवताओंके साथ भगवान् ब्रह्माजी तथा कर चुके, तब महाराज पृथुने अत्यन्त प्रसन्न समस्त चराचर भूतोंने वहाँ आकर राजा पृथका होकर अनूप देशका राज्य सूतको और मगधका राज्याभिषेक किया। उन महाराजने सभी प्रचाका मागधको दिया । पृथुको देखकर अत्यन्त प्रसन्न हुई मनोरञ्जन किया। उनके पिताने प्रजाको बहुत दुःखी प्रजासै महर्षियोंने कहा-‘ये महाराज तुम्हें जीविका किया था, किन्तु पृथुने उन सबको प्रसन्न कर प्रदान करनेवाले होंगे।’ यह सुनकर सारी प्रज्ञा लिया; प्रजाका मनोरञ्जन करनेके कारण ही उनका | महात्मा राजा पृथुकी ओर दौड़ी और बोली-‘आप नाम राजा हुआ। वे जब समुद्रकी यात्रा करते तब हमारे लिये जीविकाका प्रबन्ध कर दें। जब उसका जल स्थिर हो जाता था। पर्वत उन्हें प्रज्ञाओंने उन्हें इस प्रकार घेरा, तब वे उनका हित ज्ञानेके लिये मार्ग ६ देते थे और उनके अथक करनेकी इच्छासे धनुष-बाण हाथमें लें पृथ्वी ध्वजा कभी भङ्ग नहीं हुई। उनके राज्यमें पृथ्वी ओर दौड़े। पृथ्वी उनके भयसे थर्रा उठी और बिना जोते-बोये ही अन्न पैदा करती थी। राजाका गौका रूप धारण करके भागीं। तब पृथुने धनुष चिन्तन करनेमात्रसे अन्न सिद्ध हो जाता था। लेकर भागती हुई पृथ्वीका पीछा किया। पृथ्वी सभी गौएँ कामधेनु बन गयौं थीं और पत्तोंके | उनकै भयसे ब्रह्मलोक आदि अनेक लोकोंमें दौने-दानेमें मधु भरा रहता था। उसी समय पृथुने | गयी, किन्तु सब जगह उसने धनुष लिये हुए पैतामह (ब्रह्माजीसे सम्बन्ध रखनेवाला)-यज्ञ पृथुको अपने आगे ही देखा। अग्निके समान किया। इसमें सोमाभिषबके दिन सूति (सौमरस | प्रज्वलित तीखे बाणकै कारण उनका तेज और निकालनेकी भूमि)-से परम बुद्धिमान् सूतकी ! भी उद्दीप्त दिखायी देता था। वे महान् यौगीं उत्पत्ति हुई। उसी महायज्ञमें विद्वान् मागधका भी महात्मा देवताओंके लिये भी दुर्धर्ष प्रतीत होते प्रादुर्भाव हुआ। इन दोनोंको महर्षयने पृथुकी थे। जब और कहीं रक्षा न हो सकी, तब तीनों स्तुति करनेके लिये बुलाया और कहा–’तुम लोकोंको पूजनीया पृथ्वी हाथ जोड़कर फिर लोग इन महाराजको स्तुति करो। यह कार्य तुम्हारे महाराज पृथुक ही शरणमें आयी और इस प्रकार अनुरूप हैं और ये महाराज भी इसके योग्य पात्र | बोलीं-‘राजन् ! सब लोक मेरे ही ऊपर स्थित
- राजा पृथुको चरित्र ।।
मैं हीं इस जगत्को धारण करती हैं। यदि | करनेके लिये तुम्हारा वध करूंगा। यदि मेरै मेरा नाश हो जाय तो समस्त प्रज्ञा नष्ट हो जायगी। कहनेसे आज संसारका कल्याण नहीं करोगी तो इस बातको अच्छी तरह समझ लेना। भूपाल! अपने बाणसे तुम्हारा नाश कर दूंगा और अपनेको यदि तुम प्रजाका कल्याण चाहते हो तो मेरा वध | ही पृथ्वीरूपमें प्रकट करके स्वयं ही प्रज्ञाको न करें। मैं जो बात कहती हैं, उसे सुनौ; ठौक | धारण करूंगा; इसलिये तुम मेरी आज्ञा मानकर उपायसे आरम्भ किये हुए सब कार्य सिद्ध होते समस्त प्रज्ञाकी जीवन-रक्षा करो; क्योंकि तुम हैं। तुम उस उपायपर ही दृष्टिपात करो, जिससे सबके धारणमें समर्थ हो। इस समय मेरी पुत्री इस प्रजाको जीवित रख सकोगे। मैरी हत्या करके बन जाओ; तभी मैं इस भयङ्कर बाणको, जो भी तुम प्रजाके पालन-पोषणमें समर्थ न होगे। तुम्हारे वधके लिये उद्यत हैं, रोगा। महामते! तुम क्रोध त्याग दो, मैं तुम्हारे अनुकूल ! पृथ्वी बोली-वीर! नि:संदेह मैं यह सब कुछ हो जाऊँगी। तिर्ययोनिमें भी स्त्रीको अवध्य | करूँगी। मेरे लिये कोई बछड़ा देखो, जिसके प्रति बताया गया है। यदि यह बात सत्य है तो तुम्हें | स्नेहयुक्त होकर मैं दूध दे सकें। धर्मात्माओंमें श्रेष्ठ धर्मका त्याग नहीं करना चाहिये ।। भूपाल! तुम मुझे सब ओर बराबर कर दो, जिससे मेरा दूध सब और बढ़ सके। | तब राजा पृथुने अपने धनुषकी नौकसे लाखों पर्वतोंको उखाड़ा और उन्हें एक स्थानपर एकत्रित किया। इससे पर्वत बढ़ गये। इससे पहले सृष्टिमें भूमि समतल न होनेके कारण पुरों अथवा ग्रामोंका कोई सीमाबद्ध विभाग नहीं हो सका था। | उस समय अन्न, गौरक्षा, खेती और व्यापार भी नहीं होते थे। यह सब तो येन-कुमार पृथुके समयसै ही आरम्भ हुआ है। भूमिका जो-जो भाग समतल था, वहाँ-वापर समस्त मनाने निवास करना पसंद किया। उस समयतक प्रजाका आहार केवल फल-मूल हीं था और वह भी बड़ी कठिनाईसे मिलता था। राजा पृथुने स्वायम्भुव मनुको बछड़ा बनाकर अपने हाथमें ही पृथ्वीको पृथुने कहा- भद्रे! जो अपने या पराये किसी | दुहा। उन प्रतापी नरेशने पृथ्वींसे सब प्रकार के एकके लिये बहुत-से प्राणियों का वध करता है, अन्नोंका दोहन किया। उसी अन्नसे आज भी सब उसे अनन्त पातक लगता है; परन्तु जिस अशुभ | प्रज्ञा ज्ञौवन धारण करती हैं। इस समय ऋषि, व्यक्तिका वध करनेपर बहुत-से लोग सुखी हों, देवता, पितर, नाग, दैत्य, यक्ष, पुण्यजन, गन्धर्व, उसके मारनेसे पातक या उपपातक कुछ नहीं | पर्वत और वृक्ष-सबने पृथ्वीको दुहा। इनके दूध, लगता। अतः वसुन्धरे। मैं प्रज्ञाका कल्याण बछड़ा, पात्र और दुहनेवाला ये सभी पृथक्
संक्षिम ब्रह्मपुराण के
पृथक् थें। ऋषियोंके चन्द्रमा बछड़ा बने, बृहस्पतिने। नामसे विख्यात हैं। यह समुद्तक पृथुके ही दुहनेका काम किया, तपोमय ब्रह्म उनका दूध अधिकारमें थी। मधु और कैटभके मैदसे व्याप्त था और वैद ही उनके पात्र थे। देवताओंने होनेके कारण यह मेदिनी कहलाती है। फिर राजा सुवर्णमय पात्र लेकर पुष्टिकारक दूध दुहा। उनके लिये इन्द्र बछड़ा बने और भगवान् सूर्यने दुहनेका | काम किया। पितरोंका चाँदीका पात्र था। प्रताप । यम बछड़ा बने, अन्तकने दूध दुहा। उनके दूधको ‘स्वधा’ नाम दिया गया है। नागने तक्षकको बछड़ा बनाया। तुम्का पात्र रखा। ऐरावत नागसे दहनेका काम लिया और विपरूप दग्धका दोहन | किया। असुरोंमें मधु दुहनेवाला बना। उसने । मायामय दूध दुहा। उस समय विरोचन बछड़ा बना था और लोहेकै पात्रमैं दूध दुहा गया था। यक्षका कच्चा पात्र था। कुवेर बछड़ा बने थे। रजतनाभ यक्ष दुहनेवाला था और अन्तर्धान होनेक विद्या ही उनका दूध था। राक्षसेन्द्रों में सुमाली नामका राक्षस बछड़ा बना। रजतनाभ दहनेवाला था। उसने कपालरूपी पात्रमें शोणितरूपौ । पृथुकी आज्ञाकै अनुसार भूदेयीं उनकी पुत्रीं बन दूधका दोहन किया। गन्धचौमें चित्ररथने अड्का | गयी, इसलिये इसे पृथ्वी भी कहते हैं। पृथुने इस काम पूरा किया। कमल ही उनका पात्र था। पृथ्वीका विभाग और शोधन किया, जिससे यह सुरुचि दुहनेवाला था और पवित्र सुगन्ध हो अन्नक्री खान और समृद्धिशालिनी बन गयी। गाँवों उनका दुध था। पर्वतोंमें महागिरि मेरुने हिमवान्को ! और नगरोंके कारण इसकी बड़ी शोभा होने बछड़ा बनाया और स्वयं दुहनेवाला बनकर | लगी। चैन-कुमार महाराज पृथुका ऎसा ही प्रभाव शिलामय पात्रमें रत्न एवं औषधियाँको दूधके। था। इसमें संदेह नहीं कि ये समस्त प्राणियोंके रूपमें दुहा। वृक्षोंमें लक्ष (पाकड़) बछड़ा था। पूजनीय और वन्दनीय हैं। वेद-वेदाङ्गक पारङ्गत खिले हुए शालके वृक्षने दुहनेका काम किया। विद्वान् ब्राह्मणों को भी महाराज पृथुक ही वन्दना पलाशका पात्र था और ज्ञलने तथा कटनेपर पुन: करनी चाहिये, क्योंकि वे सनातन ब्रह्मयोनि हैं। अङ्करित हो जाना ही उनका दूध था। | राज्यको इच्छा रखनेवाले राजाओंके लिये भी | इस प्रकार सबका धारण-पोषण करनेवाली परम प्रतापी महाराज पृथु ही वन्दनौंय हैं। युद्ध में यह पावन वसुन्धरा समस्त चराचर जगत्की विजयकी कामना करनेवाले पराक्रमी योद्धाओंको आधारभूता तथा उत्पत्तिस्थान है। यह सब भी इन्हें मस्तक झुकाना चाहिये। क्योंकि योद्धाओंमें कामनाओं को देनेवाली तथा सब प्रकारकै अन्नोंको में अग्रगण्य थे। जो सैनिक राजा पृथुका नाम अङ्करंत करनेवाली हैं। गोरूपा पृथ्व मेदिनौके लेकर संग्राममें जाता है, वह भयङ्कर संग्रामसे भी
चौदह मन्वन्तरों तथा विवस्वान्की संततिका वर्णन •
सकुशल लौटता है और यशस्वी होता है। तीनों वर्गों की सेवामें लगे रहनेवाले पवित्र शूद्रोंके वैश्यवृत्ति करनेवाले धनी वैश्यको भी चाहिये कि लिये भी राजा पृथु ही वन्दनीय हैं। इस प्रकार में महाराज पृथुको नमस्कार करें, क्योंकि राजा । जहाँ पृथ्वीको दुहनेके लिये जो विशेष-विशेष पृथु सबके वृत्तिदाता और परम यशस्वी थे। इस बछड़े, दुहनेवाले, दूध तथा पात्र कल्पित किये संसारमें परमकल्याणकी इच्छा रखनेवाले तथा | गये थे, उन सबका मैंने वर्णन किया।
चौदह मन्वन्तरों तथा विवस्वान्की संततिका वर्णन ऋषि बोले–महामते सूतजी! अब समस्त | सुकृति, ज्योति, आप, मूर्ति, प्रतीत, नभस्य, नभ मन्वन्तराँका विस्तारपूर्वक वर्णन कीजिये तथा तथा ऊर्ज—ये महात्मा स्वारोचिष मनुके पुत्र उनकी प्राथमिक सृष्टि भी बतलाइये। बताये गये हैं, जो महान् बलवान् और पराक्रमी | लोमहर्षण ( सूत )-ने कहा–विप्रगण ! समस्त थे। यह द्वितीय मन्वन्तरका वर्णन हुआ; अय मन्वन्तरोंका विस्तृत वर्णन तो सौ वर्षोंमें भी नौं । तौसरा मन्वन्तर बतलाया जाता है, सुनो। वसिष्ठके हों सकता, अत: संक्षेपसे हीं सुनो। प्रथम स्वायम्भूख सात पुत्र वासिष्ठ तथा हिरण्यगर्भके तेजस्वी पुत्र मनु हैं, दूसरे स्वारोचिष, तौसरे उत्तम, चौथे ऊर्ज-ये ही उत्तम मन्वन्तरके ऋषि थे। इय, तामस, पाँचवें बत, छठे चाक्षुष तथा सातवें ऊर्ज, तन, मधु, माधव, शुचि, शुक्र, सह, वैवस्वत मनु कहलाते हैं। वैवस्वत मनु ही | नभस्य तथा नभये उत्तम मनुके पराक्रमी पुत्र वर्तमान कल्पके मनु हैं। इसके बाद सावणिं, थे। इस मन्वन्तरमैं भानु नामवाले देवता थे। इस भौंत्य, शैच्य तथा चार मेरुसावर्य नामकै मनु प्रकार तीसरा मन्वन्तर बताया गया। अब चौथेका होंगे। ये भूत, वर्तमान और भविष्यके सब वर्णन करता हूँ। काव्य, पृथु, अग्नि, जह, धाता मिलकर चौदह मनु हैं। मैंने जैसा सुना हैं, उसके कपवान् और अकपीवान् -ये सात उस समय अनुसार सब मनुके नाम अताये। अब इनके सप्तर्षि थे। सत्य नामवाले देवता थे। द्युति, तपस्य, समयमें होनेवाले ऋषियों, मनु-पुत्रों तथा देवताओंका | सुतपा, तपोभूत, सनातन, तपोरति, अकल्माय, वर्णन करूंगा। मरीचि, अत्रि, अङ्गिरा, पुलह, | तन्वी, धची और परंतप–ये इस तामस मनुके क्रतु, पुलस्त्य तथा वसिष्ठ–में सात ब्रह्माजीके पुत्र कहे गये हैं। यह चौथे मन्वन्तरका वर्णन पुत्र उत्तर दिशामें स्थित हैं, जो स्वायम्भुव | हुआ। पाँचवाँ रैवत मन्वन्तर है। इसमें दैवबाहू, मन्वन्तरके समर्यि हैं। आध, अग्निबाहु, मेध्य, | यदुध, वेदशिरा, हिरण्यरोमा, पर्जन्य, सोमनन्दन मेधातिथि, वसु, ज्योतिष्मान्, द्युतिमान्, हव्य, सबल ऊर्ध्वबाहु तथा अत्रिकुमार सत्यनेत्र—ये सप्तर्षि और पुत्र-ये दस स्वायम्भुव मनुके महाबली पुत्र थे। अभूतरजा और प्रकृति नामयाले देवता थे। थे। विप्नगण! यह प्रथम मन्वन्तर बतलाया गया।| धृतिमान्, अव्यय, युक्त, तत्त्वदर्शी, निरुत्सुक, स्वारोचिष मन्वन्तरमें प्राण, बृहस्पति, दत्तात्रेय, | आरण्य, प्रकाश, निर्मोह, सत्यवाक् और कृती-ये अत्रि, च्यवन, वायुप्रोक्त तथा महाव्रत-ये सात रैवत मनुके पुत्र थे। यह पाँचव मन्वन्तर बताया सप्तर्षि थे। तुषित नामवाले देवता थे और हविर्न, गया। अब छठे चाक्षुष मन्वन्तरको वर्णन करता 0हैं, सुनो। इसमें भृगु, नभ, विवस्वान्, सुधामा, | भारी तपस्या करनेके कारण ‘मेरु साव’ के विरज्ञा, अतिनामा और सहिष्णु-ये ही सप्तर्षि थे। नामसे विख्यात होंगे। ये दक्षके धैवते और लेख नामवाले पाँच देवता थे। नाड्वलेय नामसे प्रियाके पुत्र हैं। इन पाँच मनुओंके अतिरिक्त प्रसिद्ध रुरु आदि चाक्षुष मनुके इस पुत्र बतलाये| भविष्यमै शैच्य और भौत्य नामके दौं मनु और ज्ञाते हैं। यहाँतक छठे मन्वन्तरका वर्णन हुआ। होंगे। प्रजापति रुचिके पुत्र ही ‘गैच्यकहे गये अब सातवें वैवस्वत मन्वन्तरका वर्णन सुनौं। हैं। रुचिके दूसरे पुत्र, ज्ञों भूतिक गभसे उत्पन्न अत्रि, वसिष्ठ, कश्यप, गौतम, भरद्वाज, विश्वामित्र हो’ भौत्य मनु’ कहलायेंगे। इस कल्पमें होनेवाले तथा जमदग्नि-ये इस वर्तमान मन्वन्तरमें सप्तर्षि ये सात भावी मनु हैं। इन सबके द्वारा ही और होकर आकाशमें विराजमान हैं। साध्य, रुद्र, विश्वेदेव, नगरौंसहित सम्पूर्ण पृथिवीका एक सहस्र युगोंतक वसु, मरुद्गण, आदित्य और अश्विनीकुमार-ये पालन होगा। सत्ययुग, नेता आदि चारों युग इस वर्तमान मन्वन्तरके देवता माने गये हैं। इकहत्तर बार बीतकर जब कुछ अधिक काल हों वैवस्वत मनुके इक्ष्वाकु आदि दस पुत्र हुए। ऊपर | जाय, तब वह एक मन्वन्तर कहलाता है। इस जिन महातेजस्वी महर्षियके नाम बताये गये हैं, ‘ प्रकार में चौदह मनु बतलाये गये। यें यशकी उन्हींके पुत्र और पौत्र आदि सम्पूर्ण दिशाओंमें वृद्धि करनेवाले हैं। समस्त वेदों और पुराणों में भी फैले हुए हैं। प्रत्येक मन्वन्तरमें धर्मकी व्यवस्था इनका प्रभुत्व वर्णित है। ये प्रज्ञाओंके पालक हैं। तथा लोकरक्षाके लिये जो सात सप्तर्षि रहते हैं, इनके यशका कीर्तन श्रेयस्कर हैं। मन्वन्तरॉमें मन्वन्तर बीतनेके बाद उनमें चार महर्षि अपना कितने ही संहार होते हैं और संहारकै माद कार्य पूरा करके रोग-शोकसे रहित ब्रह्मलोकमें कितनी ही सृष्टियाँ होती रहती हैं। इन सबका चले जाते हैं। तत्पश्चात् दूसरे चार तपस्वी आकर पूरा-पूरा वर्णन सैंकड़ों वर्षोंमें भी नहीं हो उनके स्थानको पूर्ति करते हैं। भूत और वर्तमान सकता। मन्वन्तरोंके बाद् ज्ञों संहार होता है, कालके सप्तर्षगण इसी क्रमसे होते आये हैं। उसमें तपस्या, ब्रह्मचर्य और शास्त्रज्ञानसे सम्पन्न सार्वाण मन्वन्तरमें होनेवाले सप्तर्षि ये हैं-परशुराम, | कुछ देवता और सप्तर्षि शेष रह जाते हैं। एक व्यास, आत्रेय, भरद्वाजकुलमें उत्पन्न द्रोणकुमार हजार चतुर्युग पूर्ण होनेपर कल्प समाप्त हो जाता अश्वत्थामा, गौतमवंशी शरद्वान्, कौशिक कुलमें है। उस समय सूर्यको प्रचण्ड़ किरणसे समस्त उत्पन्न गालव तथा कश्यपनन्दन और्व। वैरी, प्राणी दग्ध हो जाते हैं। तब सब देवता आदित्यगणेक अध्वरीवान्, शमन, धृतिमान्, वसु, अरिष्ट, अधूष्ट, साथ ब्रह्माजीको आगे करके सुर श्रेष्ठ भगवान् वाजी तथा सुमत-ये भविष्यमें सावर्णक मनुके नारायणमें लीन हो जाते हैं। वे भगवान् हीं पुत्र होंगे। प्रात:काल उठकर इनका नाम लेनेसे कल्पके अन्तमें पुन: सब भूतकी सृष्टि करते हैं। मनुष्य सुखी, यशस्वी तथा दीर्घायु होता हैं। वे अव्यक्त सनातन देवता हैं। यह सम्पूर्ण जगत् भविष्यमें होनेवाले अन्य मन्बतका संक्षेपसे उन्हींका है। वर्णन किया जाता है, सुनो। सावर्ण नामके पाँच मुनिवरो! अब मैं इस समय वर्तमान महातेजस्व मनु होंगे; उनमॅसे एक तो सूर्यके पुत्र हैं और शेष | वैवस्वत मनुकी सृष्टिका अर्णन करूंगा। महर्षि चार प्रजापतिकै। ये चारों मैगरिकै शिखरपर | कश्यपसे उनकी भार्या दक्षकन्या अदितिके गर्भसे
- वैवस्वत मनुकै बंशजका वर्णन के
विवस्वान् (सूर्य)-का जन्म हुआ। विश्वकर्माकी | तेजस्वी पुत्र उत्पन्न किया। वह अपने बड़े भाई पुत्री संज्ञा विवस्वानुकी पत्नीं हुई। इसके गर्भसे | मनुके ही समान था, इसलिये सावर्ण मनुके नाम सूर्यने तीन संतानें उत्पन्न , जिनमें एक कन्या प्रसिद्ध हुआ। छाया-संज्ञासे जो दूसरा पुत्र हुआ, और दो पुत्र थे। सबसे पहले प्रजापति श्राद्धदेव, उसकीं शनैश्चरकै नामसे प्रसिद्ध हुई। यम धर्मग्रनकै जिन्हें वैवस्वत मनु कहते हैं, उत्पन्न हुए। तत्पश्चात् पदपर प्रतिष्ठित हुए और उन्होंने समस्त प्रजाको यम और यमुना–ये जुड़वीं संतानें हुई। भगवान् धर्मसे संतुष्ट किया। इस शुभकर्मके कारण उन्हें सूर्यके तेजस्व स्वरूपको देखकर संज्ञा इसे सह पितरोंका आधिपत्य और लोकपालका पद प्राप्त न सकी। उसने अपने ही समान वर्णवाल अपनी हुआ। सावर्ण मनु प्रजापति हुए। आनेवाले साबकि छाया प्रकट की। वह छाया संज्ञा अथवा सवर्णा मन्वन्तरकै वे हीं स्वामी होंगे। वे आज भी नामसे विख्यात हुई। इसको भी संज्ञा ही मेरुगिरिक शिखरपर नित्य तपस्या करते हैं। उनके समझकर सूर्यने उसके गर्भसे अपने ही समान | भाई शनैश्चरने की पदयीं पायी।
वैवस्वत मनुके वंशजका वर्णन
लोमहर्षणजी कहते हैं-वैवस्वत मनुके नौ बात है, प्रजापति मनु पुत्रकी इच्छासे मैत्रावरुण पुत्र इन्हींके समान हुए; उनके नाम इस प्रकार | याग कर रहे थे। उस समयतक उन्हें कोई पुत्र हैं-इक्ष्वाकु, नाभाग, धृष्ट, शर्योति, नरिष्यन्त, | नहीं हुआ था। उस यज्ञमें मनुने मित्रावरुणके प्रांशु, अरिष्ट, करुष तथा पृषध्र। एक समयकी अंशकी आहुति डालीं। उससे दिव्य वस्त्र एवं दिव्य आभूषणोंसे विभूषित दिव्य रूपवाली इला नामकी कन्या उत्पन्न हुई। महाराज मनुने उसे ‘इला’ कहकर सम्बोधित किया और कहा= ‘कल्याणी! तुम मेरे पास आओ।’ तब इलाने पुत्रकी इच्छा रखनेवाले प्रजापति मनुसे यह धर्मयुक्त वचन कहा-‘महाराज! मैं मित्रावरुणके अंशसे उत्पन्न हुई हैं, अत: पहले उन्हीं के पास झाऊँगी। आप मेरे धर्ममें बाधा न डालिये।’ यों कहकर वह सुन्दरी कन्या मित्रावरुणके समीप गयी और हाथ जोड़कर बोली-‘भगवन्! मैं आप दौनकै अंशसे उत्पन्न हुई हैं। आपलोगोंकी किस आज्ञाका पालन करूं? मनुनै मुझे अपने पास बुलाया है।’
मित्रावरुण ओले–सुन्दरी ! तुम्हारे इस धर्म,
- संक्षिप्त ब्रह्मपुराण ।
विनय, इन्द्रियसंयम और सत्यसे हमलोग प्रसन्न | सुकन्या महर्षि च्यवनकी पत्नी हुई। अनर्तके हैं। महाभागे ! तुम हम दोनोंकी कन्याके रूपमें पुत्रका नाम व था। उन्हें अनर्न देशका राज्य प्रसिद्ध होगी तथा तुम्हीं मनुके वंशका विस्तार मिला। उनकी राजधानों कुशस्थल (द्वारका) करनेवाला पुन्न हो आओगी। इस समय तीनों हुई। रैवके पुत्र दैवत हुए, जो बड़े धर्मात्मा थे। लोकोंमें सम्मकै नामसे तुम्हारी ख्याति होगी। उनका दूसरा नाम ककुद्मी भी था। अपने पिताके | यह सुनकर वह पिताके समीपसे लौट पड़ी। ज्येष्ठ पुत्र होने के कारण उन्हें कुशस्थलोका राज्य मार्गमें उसकी बुधसे भेंट हो गयी। बुधने उसे मिला। एक बार वे अपनी कन्याको साथ लें मैथुनके लिये आमन्त्रित किया। उनके वीर्यसे | ब्रह्माजीकै पास गये और वहाँ गन्धर्वोक गीत सुनते उसने पुरूरवाको जन्म दिया। तत्पश्चात् वह सुद्युम्नके हुए दो घड़ी छहरे रहे। इतने ही समयमैं मानवलोकमें रूपमें परिणत हो गयी। सुद्युम्नकै तीन बड़े अनेक युग बीत गये। रैवत जब वहाँसे लौटे, तब धर्मात्मा पुत्र हुए-उत्कल, गय और विनताश्व। अपनी राजधानी कुशस्थल में आये; परन्तु अब उत्कलको राजधान उत्कला (उड़ीसा) हुई। वहाँ यादवका अधिकार हो गया था। यदुर्वांशियोंने विनताश्वको पश्चिम दिशाका राज्य मिला तथा गय| उसका नाम बदलकर द्वारवर्ती रख दिया था। उसमें पूर्व दिशाके राजा हुए। उनकी राजधान गयाकै बहुत-से द्वार बने थे। वह पुरी बड़ी मनोहर नामसे प्रसिद्ध हुई। जय मनु भगवान् सूर्यके तेज्ञमें दिखायी देती थी। भोज, वृष्णि और अन्धक बंशके प्रवेश करने लगे, तय इन्होंने अपने राज्यको इस वसुदेव आदि यादव उसकी रक्षा करते थे। भागों में बाँट दिया। सुझुमके बाद उनके पुत्रोंमें रैबतने वहाँका सत्र वृत्तान्त ठीक-ठीक ज्ञानकर इक्ष्वाकु सबसे बड़े थे, इसलिये उन्हें मध्यदेशका राज्य मिला। सद्युम्न कन्याकै रूपमें उत्पन्न हुए थे, इसलिये उन्हें राज्यका भाग नहीं मिला। फिर
वसिष्ठजीके कहनेसे प्रतिष्ठानपुरमें उनकी स्थिति | हुई । प्रतिष्ठानपुरका राज्य पाकर महायशस्वी सुझुम्नने उसे पुरूरवाक दे दिया। मनु- कुमार सुद्युम्न क्रमशः स्त्री और पुरुष दोनोंके लक्षणोंसे युक्त | हुए, इसलिये इला और सुद्युम्न दोनों नामसे उनकी प्रसिद्धि हुई। नरिष्यन्तके पुत्र शक हुए। नाभागके राजा अम्बरीष हुए। धृष्टसे धाष्ट्रक नामवाले क्षत्रियोंकी उत्पत्ति हुई, जो युद्धमें उन्मत्त होकर लड़ते थे। कपके पुत्र कारूष नामसे बिख्यात हुए। वे भी रणन्मत्त थे। प्राशके एक ही पुत्र थे, जो प्रजापतके नामसे प्रकट हुए। शयतिके दो जुड़वीं संतानें हुई। उनमें अनतं नामसे प्रसिद्ध अपनी रेवती नामकी कन्या बलदेवजीको ब्याह दी पुत्र तथा सुकन्या नामवाली कन्या थी। यहीं । और स्वयं मेरुपर्वतके शिखरपर जाकर चे तपस्यामें के वैवस्वत मनुके वंशजका वर्णन है।
लग गयें। धर्मात्मा बलरामजी रेवतीकै साथ समीप मधु नामक राक्षसका पुत्र महान् असुर धुन्धु सुखपूर्वक विहार करने लगे। रहता है। वह सम्पूर्ण लोकका संहार करनेके पृषभ्रने अपने गुरुकी गायका वध किया था, लिये कठोर तपस्या करता औंर वालूके भीतर इसलिये वे शापसे शूद्र हो गये। इस प्रकार ये | सोता हैं। वर्षभरमें एक आर वह बड़े शौरसे साँस वैवस्वत मनुकें नौं पुत्र बताये गये हैं। मनु जब छोड़ता है। उस समय यहाँकी पृथ्वी डोलने छौंक रहे थे, उस समय इक्ष्वाकुको उत्पत्ति हुई | लगती हैं। उसके श्वास हवासे बड़े जोरकी धूल थी । इक्ष्वाकुके सौ पुत्र हुए। उनमें विकुक्षि सबसे उड़ती हैं और सूर्यको मार्ग हैंक लेती हैं। लगातार बड़े थे। वे अपने पराक्रमकै कारण अयोध्य सात दिनोंतक भूकम्प होता रहता है। इसलिये नामसे प्रसिद्ध हुए। उन्हें अयोध्याका राज्य प्राप्त | अब मैं अपने उस आश्रममें रह नहीं सकता। आप हुआ। उनके शकुनि आदि पाँच सौ पुत्र हुए, जो समस्त लोकोंके हितक इच्छासे इस विशालकाय अत्यन्त बलवान् और उत्तर- भारतकै रक्षक थे। | दैत्यको मार डालिये। उसके मारे जानेपर सब उनमैसे चशाति आदि अट्ठावन् राजपुत्र दक्षिण ! सुखी हो जायगे।’ दिशाके पालक हुए। विकुक्षिका दूसरा नाम शशाद था। इक्ष्वाकुके मरनेपर वे हौं राजा हुए। शशादके पुत्र ककुत्स्थ, ककुत्स्थके अनेना, अनेनाके पृथु, पृथुकै विष्टराश्व, विष्टश्वकै आई, आईकै युवनाश्व और युवनाश्वकै पुत्र श्रावस्त हुए। उन्होंने ही श्रावस्तीपुरी असायीं थी। श्रावस्तके पुत्र बृहदश्च और उनके पुत्र कुबलाश्च हुए। ये बड़े धर्मात्मा | राजा थे। इन्होंने धुन्धु नामक दैत्यका वध करनेके कारण धुन्धुमार नामसे प्रसिद्धि प्राप्त की।
मुनि बोले–महाप्राज्ञ सूतजी! हुम् धुन्धु वधका वृत्तान्त ठीक-तौक सुनना चाहते हैं, जिससे कुवलाश्चका नाम भुन्भुमार हो गया। | लोमहर्षणजीने कहा-कुवलाञ्चके सौ पुन्न थे। वे सभी अच्छे धनुर्धर, विद्याओंमें प्रवीण, | बलवान् और दुर्धर्य थे। सबक धर्ममें निष्ठा थी। यदश्च चोले-भगवन्! मैंने तो अब अस्त्र सभी यज्ञकर्ता तथा प्रचुर दक्षिणा देनेवाले थे। शस्त्रोंका त्याग कर दिया। यह मेरा पुत्र है। यहीं राजा बृहदश्वने कुवलाको राजपदपर अभिषिक्त भुन्भु दैत्यका वध करेगा। किया और स्वयं वनमें तपस्या करनेके लिये जाने | राजर्षि बृहदश्व अपने पुत्र कुवलाश्वको धुन्धुके लगे। उन्हें जाते देख ब्रह्मर्षि इत्तने रोका और बधकी आज्ञा दें स्वयं पर्वतके समीप चले गये। इस प्रकार कहा–’राजन्! आपका कर्तव्य है | कुचलावा अपने सब पुत्रों को साथ ले धुन्धुको प्रजाकी रक्षा, अत: वह कौजिये। मेरे आश्रमके मारने चले। साथमैं महर्षि उत्तङ्क भी थे। उत्तङ्क के
‘ के संक्षिप्त ब्रह्मपुराण ।
अनुरोधसे सम्पूर्ण लोकको हित करनेके लिये | प लिया और आगको भी बुझा दिया। फिर साक्षात् भगवान् विष्णुने कुवलाश्चके शरीरमें अपना बलपूर्वक इस महाकाय जलचर राक्षसको मारकर तेज प्रविष्ट किया। दुर्धर्ष कुवलाश्व जब युद्धकै महर्षि उत्तङ्कका दर्शन किया। उत्तङ्कने उन महात्मा लिये प्रस्थित हुए, तब देवताओंका यह महान् राजाको वर दिया कि ‘तुम्हारा धन अक्षय शब्द गूंज उठा-‘ये श्रीमान् नरेश अवध्य हैं। इनके होगा और शत्रु तुम्हें पराजित न कर सकेंगे। धर्ममें हाथसे आज धुन्धु अवश्य मारा जायगा।’ पुत्रोंके सदा तुम्हारा प्रेम बना रहेगा तथा अन्तमें स्वर्ग लोक का अक्षय निवास प्राप्त होगा। युद्धमें तुम्हारे जो पुत्र साथ वहाँ जाकर चोरवर कुमला श्वने समुद्रको । खुदवाया। खोदनेवाले राजकुमारोंने बालूके भीतर राक्षसद्वारा मारे गये हैं, उन्हें भी स्वर्गमैं अक्षयलोक धुन्धुका पता लगा लिया। वह पश्चिम दिशाको प्राप्त होंगे।’ घेरकर पड़ा था। वह अपने मुखकी आगसे सम्पूर्ण धुन्धुमारके ज्ञों तीन पुत्र युद्धसे जीवित बच्च लोकका संहार-सा करता हुआ अलका स्रोत गये थे, उनमें दृद्धाश्च सबसे ज्येष्ठ थे और चन्द्राक्ष बहाने लगा। जैसे चन्द्रमाके उद्यकालमें समुद्रमें तथा कपिलावा उनके छोटे भाई थे। दृद्धाभ्रके ज्वार आता है, उसको उत्ताल तरङ्गे बढ़ने लगती पुत्रका नाम हर्यश्व था। हर्यश्वका पुत्र निकुम्भ हुआ, हैं, उसी प्रकार वहाँ ज्ञलका वेग बढ़ने लगा। जो सदा क्षत्रिय-धर्ममें तत्पर रहता था। निकुम्भका कुवलाश्वके पुत्रोंमेंसे तीनको छोड़कर शेष सभी युद्धविशारद पुत्र संहताश्व था। संहताश्वके दो पुत्र धुन्धुको मुखाग्निसे जलकर भस्म हो गये। तदनन्तर | हुए-अकृशाश्व और कृशाश्व। उसके हेमवती नामक महातेजस्वी राजा कुयलाञ्चने उस पहायलों धुन्धुपर एक कन्या भी हुई, जो आगे चलकर दृषद्वतीके आक्रमण किया। वे योगी थे; इसलिये उन्होंने नामसे प्रसिद्ध हुई । इसका पुत्र प्रसेनजित् हुआ, योगशक्तिके द्वारा बैगसे प्रवाहित होनेवाले ज्ञलको जो तीनों लोकों में विख्यात था। प्रसेनजित्ने गौरी के
वैवस्वत मनुके वंशजोंका वर्णन
नामवाली पतिव्रता स्त्रीसे ब्याह किया था, जो बादमें पतिके शापसे वाहुदा नामक नदी हो गयी। प्रसेनजितके पुत्र राज्ञा युवनाश्व हुए। युवनाश्वके पुत्र मान्धाता हुए। वे त्रिभुवनविजयीं थे। शशबिन्दुक सुशीला कन्या चैत्ररथी, जिसका दूसरा नाम बिन्दुमती भी था, मान्धाताकी पत्नी हुई। इस भूतलपर उसके । समान रूपवती स्त्री दूसरी नहीं थी। बिन्दुमती बड़ी पतिव्रता थीं। वह दस हजार भाइयोंकी ज्येष्ठ भगिनी थी। मान्धाताने उसके गर्भसे धर्मज्ञ पुरुकुत्स और राजा मुचुकुन्द-ये दो पुत्र उत्पन्न किये। पुरुकुत्सके उनकी स्त्री नर्मदाकै गर्भसे राजा त्रसदस्यु उत्पन्न हुए, उनसे सम्भूतका जंन्म हुआ। सम्भूतके पुत्र शत्रुदमन त्रिधन्वा हुए। राजा त्रिधन्वासे विद्वान् | त्रय्यारुण हुए। उनका पुत्र महाबली सत्यव्रत , हुआ। उसकी बुद्धि बड़ी खौटी थी। उसने रखकर स्वयं समुद्रकै निकट भारी तपस्या कर रहे वैवाहिक मन्त्रोंमें विग्न डालकर दूसरैक पत्रीका | थे। उनकी पत्नीने अकालग्रस्त हो अपने मझले अपहरण कर लिया। आलस्वभाव, कामासक्ति, | औरस पुत्रके गलेमें रस्सी डाल दी और शैष मोह, साहस और चञ्चलतावश उसने ऐसा परिवारके भरण-पोषणके लिये सौ गायें लेकर कुकर्म किया था। जिसका अपहरण हुआ था, वह उसके किसी पुरवासीको ही कन्या थी। इस अधर्मरूप शङ्क(काँटे)-के कारण कुपित होकर अय्यारुणने अपने उस पुत्रको त्याग दिया। उस समय उसने पूछा-‘पिताजी !
आपके त्याग देनेपर मैं कहाँ जाऊँ?’ पिताने | कहा–’ओ कुलकलङ्क! ज्ञा, चाण्डालों के साथ | रह। मुझे तेरै-जैसे पुत्रको आवश्यकता नहीं हैं।’ यह सुनकर वह पिताके कथनानुसार नगरसे बाहर निकल गया। उस समय महर्षि वसिष्ठने उसे मना नहीं किया। वह सत्यव्रत चाण्डालकै घरके पास रहने लगा। इसके पिता भी उनमें चले गये। तदनन्तर उसी | अधर्मके कारण इन्द्रने उस राज्यमें वर्षा बंद कर दी। महातपस्वी विश्वामित्र उसी राज्यमें अपनी पत्नीको उसे बेच दिया। राजकुमार सत्यव्रतने देखा कि के संक्षिप्त ब्रह्मपुराण के
विक्रयके लिये इसके गलेमें रस्सी बँधी हुई है; था महर्षि विश्वामित्रको संतुष्ट करके उनकी कृपा तब इस धर्मात्माने दया करके महर्षि विश्वामित्रके प्राप्त करना। महर्षिका वह पुत्र गलेमें बन्धन उस पुनको छुड़ा लिया और स्वयं ही उसका पड़नेके कारण महातपस्वी गालवके नामसे प्रसिद्ध भरण-पोषण किया। ऐसा करनेमें इसका उद्देश्य हुआ।
राजा सगरका चरित्र तथा इक्ष्वाकुवंशके मुख्य-मुख्य राजाओंका परिचय लोमहर्षणजी कहते हैं-राजकुमार सत्यव्रत | स्वर्गलोकमें भेज दिया। उसकी अज्ञीका नाम भक्ति, दया और प्रतिज्ञावश विनयपूर्वक सत्यरथा था। वह कैकपकुलकी कन्या थी। उसने विश्वामित्रज्ञौक स्त्रीका पालन करने लगा। इससे हरिश्चन्द्र नामक निष्पाप पुत्रको जन्म दिया। मुनि बहुत संतुष्ट हुए। उन्होंने सत्यव्रतसे इच्छानुसार राजसूय-यज्ञका अनुष्ठान करके वे सम्राट् कहलाये। वर माँगनेके लिये कहा। राजकुमार बोला-‘मैं हरिश्चन्दके पुत्रका नाम रोहित था। हितके हरित इस शरीरके साथ ही स्वर्गलोकमें चला जाऊँ।’ और हरितके पुत्र चच्च हुए। चशुके पुत्रका नाम जब अनावृष्टिका भय दूर हो गया, तब विश्वामित्रने विजय था। वे सम्पूर्ण पृथ्वीपर विजय प्राप्त उसे पिताके राज्यपर अभिषिक्त करके उसके द्वारा करनेकै कारण विजय कहलाये। विजयके पुत्र यज्ञ कराया। वे महातपस्वी थे, उन्होंने देवताओं राज्ञा रुक हुए, जो धर्म और अर्धके ज्ञाता थे। तथा वसिष्टके देखते-देखते सत्यव्रतको शरीरसहित रुकके वृक, वृकके बाहु और बाहुके सगर हुए।
गर अर्थात् विपके साथ प्रकट हुए थे, इसलिये | उनका नाम सगर हुआ। उन्होंने भृगुवंशी और्व मुनिसे आग्नेय-अस्त्र प्राप्तकर तालजङ्घ और हैहय नामक क्षत्रियोंको युद्धमें हराया और समूची पृथ्यौपर विजय प्राप्त की। फिर शक पहुव तथा पादक धर्मका निराकरण किया।
मुनियोंने पूछा— सगरकी उत्पत्ति गरके साथ | कैसे हुई? उन्होंने क्रोधमें आकर शक आदि महातेजस्वी क्षत्रियोंके कुलोचित धर्मों का निराकरण क्यों किया? यह सब विस्तारपूर्वक सुनाइये।
लोमहर्षाज्ञीने कहा-राजा बाहु व्यसनी थे, अत: पहले हैहय नामक क्षत्रियोंने तालजङ्घ और शकौंकी सहायतासे उनका राज्य छीन लिया। यवन, पारद्, काम्बोज तथा पढ्व नामके गणों ने
* राजा सगरम चरित्र तथा अश्याकुवंशके मुख्य–मुख्य राजाओंका परिचय के भी हैहयोंके लिये पराक्रम दिखाया। राज्य छिन पड़नेपर में सभी महर्षि वसिष्ठको शरणमैं गर्थे जानेपर राजा बाहु दुःखी हो पर्नीकै साथ वनमें चले और उनके चरणोंपर गिर पड़े। तब महातेजस्वी गये। वहीं उन्होंने अपने प्राण त्याग दिये। बाहुकी | वसिष्ठने कुछ शर्तके साथ उन्हें अभय-दान दिया पत्नी यादवीं गर्भवती थीं। वे भी राजाका सहगमन | और राज्ञा सगरको रोका। सगरने अपनी प्रतिज्ञा करनेकों प्रस्तुत हो गयीं। उन्हें उनकी सौतर्ने तथा गुरुके वचनका विचार करके केवल उनकै पहलेसे हीं जहर दे रखा था। उन्होंने वनमैं चिता ! धर्मका निराकरण किया और उनके वेष बदल बनायौ और उसपर आरूढ़ हो पतिके साथ भस्म दिये। शझोंके आधे मस्तकको मूड़कर विदा कर हो जानेका विचार किया। भृगुवंशी और्वमुनिको दिया। यवनों और काम्बोजका सारा सिर मुंड़ा उनको दशापर बड़ी दया आयी। उन्होंने रानीको | दिया। पारदोंके सारे केश उड़ा दिये। चितामें जलनेसे रोक दिया। उन्हींके आश्चममें बह धर्मविजयी राजा सगरने इस पृथ्वीको जीतकर
| अश्वमेध-यज्ञकी दीक्षा ली और अञ्चको देशमें विचरनेके लिये छोड़ा। वह अश्व ज्ञब पूर्व-दक्षिण समुद्रके तटपर विचर रहा था, उस समय किसीने उसको चुरा लिया और पृथ्वीके भीतर छिपा दिया। राजाने अपने पुत्रोंसे उस प्रदेशको सुदवाया। महासागरकी खुदाई होते समय उन्होंने वहाँ आदिपुरुष भगवान् विष्णुको जो हरि, कृष्ण और प्रजापति नामसे भी प्रसिद्ध हैं, महर्षि कपिलके रूपमें शयन करते देखा। जागनेपर उनके नेत्रों गर्भ जङ्गरके साथ ही प्रकट हुआ। वहीं महाराज | सगर हुए। औवने बालकके जातकर्म आदि संस्कार किये, बेद-शास्त्र पढ़ाये तथा आग्नेय अस्त्र भी प्रदान किया, जो देवताओंके लिये भी दुःसह है। उसीसे सगरने हैहयवंशी क्षत्रियोंका विनाश किया और लोकमें बड़ी भारों कीर्ति
पायीं। तदनन्तर उन्होंने शक, यवन, काम्बोज, ! पारद तथा पवगणको सर्वनाश करनेके लिये उद्मोग किया। वौरवर महात्मा सगरकी मार संक्षिप्त ब्रह्मपुराण ।
तेजसे वे सभी जलकर भस्म हो गये। केवल चार | की। उसके भीतर तिलके बराबर साठ हजार गर्भ ही बचें, जिनके नाम हैं-बर्षिकेतु, सुकेतु, धर्मरथ थे। वे समयानुसार सुखपूर्वक बढ़ने लगे। राज्ञाने और पश्चनद। ये ही राजाके वंश चलानेवाले हुए। उन सब गर्भीको घीसे भरे हुए घड़में रखवा दिया कपिलरूपधारी भगवान् नारायणने उन्हें वरदान | और उनका पोषण करनेके लिये प्रत्येकके पीछे दिया कि ‘राजा इक्ष्वाकुका वंश अक्षय होगा और एक-एक धाय नियुक्त कर दी। तत्पश्चात् क्रमश: इसकी कीर्ति कभी मिट नहीं सकती।’ भगवान्ने| इस महीनों में सगरकी प्रसन्नता बढ़ानेवाले वे सभी समुद्रको सगरका पुत्र बना दिया और अन्तमैं उन्हें | कुमार उठ खड़े हुए। पञ्चजन ही राजा बनाये अक्षय स्वर्गवासके लिये भी आशीर्वाद दिया। उस गये। पञ्चजनके पुत्र अंशुमान् हुए, जो बड़े समय समुद्ने अर्घ्य लेकर महाराज सगरका वन्दन | पराक्रमी थे। उनके पुत्र दिलीप हुए, जो खट्वाङ्गके किया। सगरका पुत्र होनेके कारण ही समुद्रका | नामसे भी प्रसिद्ध हैं, जिन्होंने स्वर्गसे यहाँ आकर नाम सागर हुआ। उन्होंने अश्वमेध-यज्ञके उस | दो घड़के ही ज्ञवनमें अपनी बुद्धि तथा सत्यके अश्वक पुनः समुद्रसे प्राप्त किया और उसके द्वारा प्रभावसे परमार्थ-साधनके द्वारा तीनों लोक जीत सौ अश्वमेध-यज्ञके अनुष्ठान पूर्ण किये। हमने लिये। दिलीपके पुत्र महाराज भगीरथ हुए, जिन्होंने सुना है, राजा सगरके साठ हजार पुत्र थे। नदियोंमें श्रेष्ठ गङ्गाको स्वर्गसे पृथ्वीपर उतारकर | मुनियोंने पूछा-साधुवर! सगरके साठ हजार समुद्रतक पहुँचाया और उन्हें अपनी पुत्री बना पुत्र कैसे हुए। वे अत्यन्त बलवान् और वीर किस लिया। भगौरथकी पुत्री होनेके कारण ही गङ्गाको प्रकारे हुए?
भागीरथी कहते हैं। भगीरथके पुत्र राजा श्रुत हुए। | लोमहर्षणजने कहा-सगरकी दो रानियाँ श्रुतके पुत्र नाभाग हुए, जो बड़े धर्मात्मा थे। थीं, जो तपस्या करके अपने पाप दग्ध कर चुकी नाभागकै पुत्र अम्बरीष हुए, जो सिन्धुट्ठीपके पिता थीं। उनमें बड़ी रानी विदर्भनरेशकी कन्या थीं। थे। सिन्धुदीपके पुत्र अयुताजित् हुए और अयुतानित्से उनका नाम केशिनीं था। छोटी रानीका नाम महती महायशस्वी ऋतुपर्णको उत्पत्ति हुई, जो छूतविद्याके था। वह अरिष्टनेमिकी पुत्री तथा परम धर्मपरायणा रहस्यको जानते थे। राजा तुपर्ण महाराज नलके थी। इस पृथ्वीपर उसके रूपकी समता करनेवाली सखा तथा बड़े बलवान् थे। ऋतुपर्णके पुत्र दूसरी कोई स्त्री नहीं थी। महर्षि और्वने इन महायशस्वी आपण हुए। उनके पुत्र सुदास हुए, दोनोंको इस प्रकार वरदान दिया-‘एक रानौं साद जो इन्द्रके मित्र थे। सुदासके पुत्रको सौंदास इञ्चार पुत्र प्राप्त करेगी और दूसरीको एक ही पुत्र बताया गया है; वे ही कल्माषपादकै नामसे होगा, किंतु वह वंश चलानेवाला होगा। इन दो विख्यात हुए तथा राजा मित्रसह भी उन्हींका नाम बरोंमेंसे जिसकी जिसे इच्छा हो, वह वही लै ले।’ | था। कल्माषपादके पुत्र सर्वकर्मा हुए, सर्वकर्माके तब उनमेंसे एकने सात हजार पुत्रका वरदान पुत्र अनरण्य थे। अनरण्यके दो पुत्र हुए-अनमंत्र ग्रहण किया और दूसरीने वंश चलानेवाले एक ही और रघु। अनमित्रके पुत्र राजा दुलदुह थे। उनके पुत्रको प्राप्त करना चाहा। मुनिने ‘तथास्तु’ कहकर पुत्र नाम दिलीप हुआ, जो भगवान् श्रीरामचन्द्रजीके वरदान दे दिया; फिर एक रानौंके राज्ञा पञ्चज्ञन प्रपितामह थे। दिलीपके पुत्र महाबाहु रघु हुए, जो हुए और दूसरीने बीजसे भरी हुई एक हुँबी उत्पन्न अयोध्या महाबली सम्राट् थे। रघुकै अज और
चन्द्रवंशकै अन्तर्गत , कुशिक तथा भृगुवंशका संक्षिप्त वर्णन
अजके पुत्र दशरथ हुए। दशरथसे महायशस्वी | धर्मात्मा उक्य, उक्यसे वज्रनाभ और वज्रनाभसे धर्मात्मा श्रीरामका प्रादुर्भाव हुआ। श्रीरामचन्द्रज्ञीके नलका जन्म हुआ। मुनिव] ! पुराणमें दो ही नल पुत्र कुशके नामसे विख्यात हुए। कुशसे अतिथिका प्रसिद्ध हैं-एक तो चन्द्रवंशीय बोरसेनके पुत्र थे जन्म हुआ, जो बड़े यशस्वी और धर्मात्मा थे। और दूसरे इक्ष्वाकुवंशकै धुरंधर वीर थे। इक्ष्वाकु अतिथिके पुत्र महापराक्रमी निषध थे। निषधके वंशकै मुख्य-मुख्य पुरुषों के नाम बताये गये। ये नल और नलके नभ हुए। नभके पुण्डरीक और सूर्यवंशके अत्यन्त तेजस्वी राजा थे। अदितिनन्दन पुण्डरीकके शैमधन्वा हुए। क्षेमधन्याके पुत्र | सूर्यको तथा प्रजाक पोषक श्रादेव मनुकी महाप्रतापी दैवानीक थे। देवानीकसे अहाँनगु, । इस सृष्टि-परम्पराका पाठ करनेवाला मनुष्य संतानवान् अहीनगुसे सुधन्वा, सुधन्वासे राजा शल, शससे | होता और सूर्यका सायुज्य प्राप्त करता है।
चन्द्रवंशकै अन्तर्गत जहू, कुशिक तथा भृगुवंशका संक्षिप्त वर्णन
लोमहर्षाजी कहते हैं—पूर्वकालमें जब ब्रह्माजी सृष्टिका विस्तार करना चाहते थे, उस समय उनके मनसे महर्षि अत्रिका प्रादुर्भाव हुआ, जौ | चन्द्रमाके पिता थे। सुनने में आया है कि अत्रिने | तीन हजार दिव्य वर्षोंतक अनुत्तर नामकी तपस्या की थीं, उसमें उनका वौर्य ऊर्ध्वगामी हो गया | था। बहौ चन्द्रमाके रूपमें प्रकट हुआ। महर्षिका वह तेज ऊर्ध्वगामी होनेपर उनकै नेत्रोंसे जलकें रूपमैं गिरा और दसों दिशाओंकों प्रकाशित करने लगा। चन्द्रमाको गिरा देख लोकपितामह ब्रह्माजीने सम्पूर्ण लोककै हितकी इच्छासे उसे थपर बिठाया। अश्केि पुत्र महात्मा सोमके गिरनेपर ब्रह्माजीके पुत्र तथा अन्य महर्षि उनकी स्तुति करने लगे। स्तुति करनेपर उन्होंने अपना तेज !!! समस्त लोककी पुष्टिके लिये सय और फैला स्तवनसे तैज्ञको पाकर महाभाग चन्द्रमाने बहुत दिया। चन्द्रमाने इस श्रेष्ठ रथपर बैठकर, समुद्रपर्यन्त | वर्षोंतक तपस्या की; उससे संतुष्ट होकर ब्रह्मवेत्ताओंमें समूची पृथ्वीको इक्कीस बार परिक्रमा की। इस श्रेष्ठ अह्माजौने उन्हें बीज, औषधि, जल तथा समय उनका जो तेज चूकर पृथ्वीपर गिरा, उससे | ब्रह्मका राजा बना दिया। मृदुल स्वभाववालोंमें सब प्रकारकै अन्न आदि उत्पन्न हुए, जिनसे यह सबसे श्रेष्ठ सौमने वह विशाल राज्य पाकर जगत् जौवन धारण करता है। इस प्रकार महर्षियोंके राजसूय-यज्ञका अनुष्ठान किया, जिसमें लाखोंकी
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क्षिप्त ब्रह्मपुराण के
दक्षिणा बाँटी गयीं। उस यज्ञमें सिनी, कुहू, द्युति, था। वे ब्रह्मवादी, शान्त, धर्मज्ञ तथा सत्यवादी थे; पुष्टि, प्रभा, वसु, कीर्ति धृति तथा लक्ष्मी-इन नौं | इसीलियें यशस्विनी उर्वशीनें मान छौड़कर उनका देवियोंने चन्द्रमाका सेवन किया। यज्ञके अन्तमें वरण किया। राजा पुरूरवा उर्वशीके साथ पवित्र अवभृथ-स्नानके पश्चात् सम्पूर्ण देवताओं तथा स्थानों में उनसठ वर्षोंतक विहार करते रहे। उन्होंने ऋषियोंने उनका पूजन किया। राजाधिराज सोम महर्षियद्वारा प्रशंसित प्रयागर्ने राज्य किया। उनका दसों दिशाओंको प्रकाशित करने लगे। महर्षियद्वारा ऐसा ही प्रभाव था। पुरूरवाके सात पुत्र हुए, जो सत्कृत वह दुर्लभ ऐश्वर्य पाकर चन्द्रमाकी छ गन्धर्वलोकमें प्रसिद्ध और दैवकुमारोंके समान भ्रान्त हो गयी। उनमें विनयको भाव दूर हो गया | सुन्दर थे। उनके नाम इस प्रकार हैं-आयु, और अनौति आ गयी; फिर तो ऐश्वर्यके मदसे अमावसु, विश्वायु, धर्मात्मा श्रुतायु, दृढायु, बनायु मोहित होकर उन्होंने बृहस्पतिजीकी पत्नी ताराका तथा ब्रह्मायु–ये सब उर्वशीके गर्भसे उत्पन्न हुए अपहरण कर लिया। देवताओं और देवर्षियोंके थे। अमावसुके पुत्र राजा भीम हुए। भीमके पुत्र बारंबार प्रार्थना करनेपर भी उन्होंने बृहस्पतिजीको | काञ्चनप्रभ और उनके पुत्र महाबलीं सुहन्न हुए। तारा नहीं लौटायौं । तब ब्रह्माज्ञीने स्वयं ही बीचमें सुहोत्रके पुत्रका नाम जहू था, जो केशिनीकै पड़कर ताराको वापस कराया। उस समय वह गर्भसे उत्पन्न हुए थे। उन्होंने सर्पमेध नामक गर्भिणी थी, यह देख बृहस्पतिजीने कुपित होकर । महान् यज्ञका अनुष्ठान किया। एक बार गङ्गा उन्हें कहा-‘मेरे क्षेत्रमें तुम्हें दूसरेको गर्भ नहीं धारण | पति बनाने लोभसे उनके पास गर्थी, किन्तु करना चाहिये। तब उसने तृणके समूहपर उस | उन्होंने अनिच्छा प्रकट कर दीं। तब गङ्गाने उनकी गर्भको त्याग दिया। पैदा होते ही उसने अपने अज्ञशाला बहा दी। यह देख जहूने क्रोधमें भरकर तेजसे देवताओंके विग्रहको लजित कर दिया। कहा–’गङ्गे! मैं तेरा जल पीकर तैरे इस प्रयत्नको उस समय ब्रह्माजीने तारासे पूछा-‘ठीक-ठीक | अभी व्यर्थ किये देता हूँ। तू अपने इस घमंडका बताओ, यह किसका पुत्र हैं?’ तब वह हाथ | फल शन्न पा लें।” य कहकर उन्होंने गङ्गाको पी जोड़कर बोली-‘चन्द्रमाका है।’ इतना सुनते हीं लिया। यह देख महर्षियोंने बड़ी अनुनय करके राजा सोमने उस बालकको गोदमें उठा लिया और गङ्गाको जकी पुत्रीकै रूपमें प्राप्त किया, तबसे वे उसका मस्तक सँघकर बुध नाम रखा। यह जाह्नवी कहलाने लगीं। तत्पश्चात् जहुने युवनाश्वकी बालक बड़ा बुद्धिमान् था। बुध आकाशमें चन्द्रमासे पुत्री कावेरीके साथ विवाह किया। युवनाश्वके प्रतिकूल दिशामें उदित होते हैं।
शापवश गङ्गा अपने आधे स्वरूपसे सरिताओंमें | मुनिवरौ! बुधके पुत्र पुरूरवा हुए, जो बड़े। श्रेष्ठ कावेरीमें मिल गयीं थीं। जहने कावेरीके विद्वान्, तेजस्वी, दानशील, यज्ञकर्ता तथा अधिक गर्भसे सुनद्म नामक धार्मिक पुत्रको जन्म दिया। दक्षिणा देनेवाले थे। वे ब्रह्मवादी, पराक्रमी तथा | सुनद्यके पुत्र अजक, अजकके अलाकाश्च और शत्रुओंके लिये दुर्धर्ष थे। निरन्तर अग्निहोत्र करते बलाकाश्वके पुत्र कुश हुए। कुशके देवताओंके और अज्ञोंके अनुष्ठानमें संलग्न रहते थे। सत्य समान तेजस्व चार पुत्र हुए-कुशिक, कुशनाभ, बोलते और बुद्धिको पवित्र रखते थे। तीनों कुशाम्ब और मूर्तिमान् । राजा कुशिक वनमें लौकॉमें उनके समान यशस्वी दूसरा कोई नहीं । रहकर ग्वालोंके साथ पले थे। उन्होंने इन्द्रके
* चन्द्रवंशके अन्तर्गत जलु, कुशिक तथा भृगुवंशका संक्षिप्त अन ।।
समान पुत्र प्राप्त करने की इच्छासे तप किया। एक | बनायेगा।’ अपनी पत्नीसै य कहकर भृगुनन्दन हजार वर्ष पूर्ण होनेपर इन्द्र भयभीत होकर उनके | ऋचौक घने जंगलमें चले गये और वहाँ प्रतिदिन पास आये। उन्होंने स्वयं अपनेको ही इनके तपस्यामें संलग्न रहने लगे। इस समय राजा गाधि पुत्ररूपमें प्रकट किया। उस समय वे राजा अपनी स्त्रीकै साथ तीर्थयात्राकै प्रसङ्गमें घूमते हुए गाधिके नामसे प्रसिद्ध हुए। शिकको पनौं पौरा ऋचौकमानके आश्रमपर अपनी पुत्रीसे मिलने के थीं। उसके गर्भसे गाधिका जन्म हुआ था। लिये आये थे। सत्यवतीने दोनों चरु ऋषिसे लै गाधिके एक परम सौभाग्यशालिनी कन्या हुई, लिये थे। उसने उन्हें हाथमें लेकर अपनी माताको जिसका नाम सत्यवती था। गाधिने उस कन्याका निवेदन किया। उसको मानाने दैववश अपना चरु विवाह शुक्राचार्यके पुत्र ऋचौककै साथ किया | पुत्रीको दे दिया और उसका चरु स्वयं ग्रहण था। ऋचौक अपनी पत्नौसे बहुत प्रसन्न रहते थे। कर लिया। उन्होंने अपने तथा राजा गाधिके पुत्र होनेके लिये तदनन्तर सत्यवतीने समस्त क्षत्रियोंका विनाश पृथक्-पृथक् चरु तैयार किये और अपनी पत्नीको | करनेवाला गर्भ धारण किया। उसका शरीर अत्यन्त बुलाकर कहा-‘शुभे! इस चरुका उपयोग तुम उद्दीप्त हो रहा था। देखनेमें वह बड़ी भयङ्कर जान करना और इसका उपयोग अपनी मातासे कराना। पड़ती थी। ऋचकने इसे देखकर योगके द्वारा सब कुछ जान लिया और उससे कहा-‘भद्रे! तुम्हारी माताने चरु बदलकर तुम्हें इग लिया। तुम्हारा पुत्र कठोर कर्म करनेवाला और अत्यन्त दारुण होगा तथा तुम्हारा भाई ब्रह्मभूत तपस्वी होगा; क्योंकि मैंने तपस्या सर्वरूप ब्रह्मका भाव उसमें स्थापित किया था। तब सत्यवतीने अपने पतिको प्रसन्न करते हुए कहा-‘मुने! मेरा पुत्र ऐसा न हो; आप-जैसे महर्षसे ब्राह्मणाधमकी उत्पत्ति हो, यह मैं नहीं चाहती।’ यह सुनकर मुनि बोले-‘भद्रे! मेरा पुत्र ऐसा हो, यह संकल्प मैंने नहीं किया हैं; तथापि पिता और माताके कारण पुत्र कठोर कर्म करनेवाला हो सकता है।’ उनके यों कहनेपर सत्यवती ओली=’मुने! आप चाहें तो नूतन लोककी भी सृष्टि कर सकते हैं। तुम्हारी माताको ज्ञो पुत्र होगा, वह तेजस्वी क्षत्रिय फिर योग्य पुत्र उत्पन्न करना कौन बड़ी बात है। होगा। लोकमें दूसरे क्षत्रिय इसे जीत नहीं सकेंगे। आप मुझे शान्तिपरायण कोमल स्वभाववाला पुत्र वह बड़े-बड़े क्षत्रियका संहार करनेवाला होगा देनेकी कृपा करें। यदि चरुका प्रभाव अन्यथा न तथा तुम्हारे लिये ज्ञों चरु हैं, वह तुम्हारे पुत्रको किया जा सके तो वैसे उग्र स्वभावका पौत्र भले धीर, तपस्वी, शान्तिपरायण एवं श्रेष्ठ ब्राह्मण ही हो जाय, पुत्र वैसा कदापि न हो।’ तब मुनिने
* संक्षिप्त ब्रह्मपुराण के अपने तपोबलसे वैसा ही करनेका आश्वासन देते देवरात आदि कई पुत्र हुए, जो सम्पूर्ण विश्वमें हुए सत्यवतीके प्रति प्रसन्नता प्रकट कीं और विख्याते थे। उनके नाम इस प्रकार बतलाये जाते कहा-‘सुन्दर! पुत्र अथवा पौत्रमें मैं कोई अन्तर | हैं। देवरात, कात्यायन गोत्रके प्रवर्तक कति, नहीं मानता। तुमने जो कहा है, वैसा ही होगा।’ हिरण्याक्ष, रेणु, रेणुक, सांकृति, गालव, मुद्गल, तत्पश्चात् सत्यवतीने भृगुवंशी जमदग्निको जन्म | मधुच्छन्द, जय, देवल, अष्टक, कच्छप और दिया, जो तपस्यापरायण, जितेन्द्रिय तथा सर्वत्र हारोत-ये सभी विश्वामित्रके पुत्र थे। इन समभाव रखनेवाले थे। सत्यवती भी सत्यधर्ममें कौशिकशी महात्माओंके प्रसिद्ध गोत्र इस तत्पर रहनेवाली पुण्यात्मा स्त्री थी। वहीं कौशिकी प्रकार हैं-पाणिनि, बभु, ध्यानजप्य, पार्थिव, नामसे प्रसिद्ध महानदी हुई। इक्ष्वाकुवंशमें रैण दैयरात, शालङ्कायन, बाष्कल, लोहितायन, हारीत नामके एक राजा थे। उनकी कन्याका नाम रेणुका | और अष्टकाद्याजन। इस वंशमें ब्राह्मण और था। रेणुकाको कामली भी कहते हैं। तप और क्षत्रियका सम्बन्ध विख्यात है। विश्वामित्रके विद्यासै सम्पन्न जमदग्निने रेणुकाके गर्भसे अत्यन्त | पुत्रों में शुन:शैप सबसे बड़ा माना गया है; यद्यपि भयङ्कर परशुरामजौकों प्रकट किया, जो समस्त उसका जन्म भृगुकुलमें हुआ था, तथापि वह विद्याओंमें पारङ्गत, धनुर्वेदमें प्रवीण, क्षत्रिय- कौशिक गौत्रवाला हो गया। हरिदश्चके यज्ञमें कुलका संहार करनेवाले तथा प्रचलित अग्निक | वह पशु बनाकर लाया गया था, किन्तु देवताओंने समान तेजस्वी थे। ऋचकके सत्यवतीसे प्रथम तो उसे विश्वामित्रको समर्पित कर दिया। देवताद्वारा ब्रह्मवेत्ताओंमें श्रेष्ठ जमदग्नि हुए। मध्यम पुत्र | प्रदत्त होनेके कारण वह देवरात नामसे विख्यात शुन:शेप और कनिष्ठ पुत्र शुन:पुच्छ थे। कुशिकनन्दन हुआ। देवरात आदि विश्वामित्रके अनेक पुत्र थे। गाधिने विश्वामित्रको पुत्ररूपमें प्राप्त किया, जो विश्वामित्रकी पत्नी दृषद्वतीकै गर्भसे अष्टकका तपस्वी, विद्वान् और शान्त थे। वे ब्रह्मर्षिकी जन्म हुआ था। अष्टकका पुत्र लौहि बताया गया समानता पाकर वास्तवमें ब्रह्मर्षि हो गये। धर्मात्मा हैं। इस प्रकार मैंने ज्ञकुलका वर्णन किया। इसके विश्वामित्रका दूसरा नाम विश्वरथ था। विश्वामित्रके | बाद महात्मा आयुके वंशका वर्णन करूंगा।
आयु और नहुषके वंशका वर्णन, रजि एवं ययातिका चरित्र लौमहर्षणजी कहते हैं-आयुके उनकी पत्नी | विख्यात हुए। उनसे इन्द्र भी डरते थे। पूर्वकालमें स्वर्भानुकुमारी प्रभाकै गर्भसे पाँच पुत्र उत्पन्न हुए। | देवताओं तथा असुरोंमें भयंकर युद्ध, आरम्भ सभी वॉर और महारथी थे। सर्वप्रथम नहुषका होनेपर दोनों पक्षोंके लोगोंने ब्रह्माज्ञीसे जन्म हुआ। उनके बाद वृद्धशर्मा उत्पन्न हुए। पूछा-‘भगवन्! आप सब भूतके स्वामी हैं। तत्पश्चात् क्रमश: रम्भ, रजि तथा अनेना हुए। ये बताइये, हमारे युद्धमैं कौन विजयी होगा? हम तीनों लोकोंमें विख्यात थे। जिनै पाँच सौ पुत्रोंको इस बातको ठीक-ठीक सुनना चाहते हैं।’ जन्म दिया। ॐ सभी राजेय क्षत्रियके नामसे ब्रह्माजींने कहा-राजा रजि हथियार हाथमें
- आयु और नहुपके वंशका वर्णन, जि एवं ययातिका चरित्र के ।
युद्धमें चुपचाप खड़े रहो। हमारे इन्द्र तो प्रह्लाद ही होंगे। इनके लिये हम विजय करनेको प्रस्तुत हैं।’ देवताओंने फिर कहा-‘राजन्! तुम दैत्यपक्षको जीतकर देबेन्द्र हो सकते हो।’ तब जिने उन सब दानका, जो देवराज इन्द्रके लिये अवध्य थे, संहार कर डाला और देवताओंकी प्रष्ट हुई सम्पत्तिको पुन: उनसे न लिया। उस समय देवताओँसहित इन्द्र महाराज जिके पास आये और अपनेको उनका पुत्र घोषित करते हुए बोले-‘तात! आप नि:संदेह हम सब लोगों के लेकर जिनके लिये युद्ध करेंगे, वे नि:संदेह तीनों लोकपर विजय प्राप्त कर सकते हैं। जिस पक्षमें जि हैं, उधर ही धृति है। जहाँ धृति है, वहाँ लक्ष्मी है तथा जहाँ धृति और लक्ष्मी हैं, वहीं धर्म एवं विजय हैं।
यह सुनकर देवता और दानव दोनोंका मन प्रसन्न हो गया। वे रजिके पास आकर बोले-‘राजन्! आप हमारी विजयके लिये श्रेष्ठ धनुष धारण | कीजिये ।’ तब जिने स्वार्थको सामने रखकर अपने यशको प्रकाशमैं लाते हुए उभय पक्षके लोगोंसे कहा-‘देवताओ! यदि मैं अपने पराक्रमसे इन्द्र हैं, क्योंकि मैं इन्द्र आजसे आपका पुत्र समस्त दैत्योंको जीतकर धर्मतः इन्द्र बन सकें तो कहलाऊँगा।’ इन्द्रकी बात सुनकर उनकी मायासे तुम्हारों ओरसे युद्ध करूंगा।’ देवताओंने इस वञ्चित हो महाराज रजिने ‘तथास्तु’ कह दिया। वे शर्तको पहले ही प्रसन्नतापूर्वंक मान लिया। वे इन्द्रप बहुत प्रसन्न धे।। ऑलै-‘राजन्! ऐसा ही करो। तुम्हारी मन:-1 रम्भकै कोई पुत्र नहीं था। अब अनेनाके कामना पूर्ण हो ।’ देवताओंकी यह बात सुनकर वंशका वर्णन करूंगा। अनेनाके पुत्र महायशस्वी राजा जिने असुरोंसे भी वहीं बात पूछीं। तब राज्ञा प्रतिक्षत्र हुए। प्रतिक्षत्रके पुत्र संज्ञय, संजयके अहंकारी दानवोंने स्वार्थको ही सोचकर उन्हें जय, जयके विजय, विज्ञयके कृति, कृतिके अभिमानपूर्वक उत्तर दिया-‘राजन्! तुम इस | हर्यश्व, हर्यश्वके प्रतापी सहदेव, सहदेवके धर्मात्मा
* सक्षप्त ब्रह्मपुराण ।
नदीन, नदौनके जयसेन, जयत्सेनके संकृति तथा थे। उनके नाम ये हैं-यति, ययाति, संयाति, संकृतिके पुत्र महायशस्वी धर्मात्मा क्षत्रवृद्ध हुए। आयाति तथा पाश्र्वक। उनमें यति ज्येष्ठ थे। उनके क्षत्रवृद्धका पुत्र सुनहॉत्र था। उसके काश, शल बाद ययाति उत्पन्न हुए थे। यतिने ककुत्स्थकीं और गृत्समद्ये तीन परम धर्मात्मा पुत्र हुए। कन्या गौसे विवाह किया था। ये मोक्षधर्मका गृत्समदके पुत्र शुनक थे । शुनकसे शौनकका जन्म | आश्रय ले ब्रह्मस्वरूप मुनि हो गये। उन पाँच हुआ। शलके पुत्रका नाम आर्टिषेण था। उनके भाइयोंमें ययातिने इस पृथ्वीको जीतकर शुक्राचार्यकी काश्य हुए। काश्यके पुत्रका नाम काशिप हुआ। पुत्री देवयानी तथा असुर-कन्या शर्मिष्ट्वा पत्नीरूपमें काशिपके दीर्घतपा, दीर्घतपाके धनु और धनुके प्राप्त किये। देवयानीने यदु और तुर्वसुको जन्म पुत्र धन्वन्तर हुए। वे काशौके महाराज़ और सब दिया तथा वृषपर्वांकी पुत्री शर्मिष्ठाने ह्य, अनु रोगका नाश करनेवाले थे। उन्होंने भरद्वाजसे| तथा पूरु नामक पुत्र उत्पन्न किये। ययातिपर आयुर्वेदका अध्ययन करके चिकित्साको कार्य प्रसन्न हो इन्द्रने उन्हें अत्यन्त प्रकाशमान रथ प्रदान किया और उसके आठ भाग करके शिष्यको किया। उसमें मनके समान बेगशाली दिव्य अश्व पाया। धन्वन्तरिके पुत्र केतुमान् हुए और केतुमानके जुते हुए थे। ययातिने उस श्रेष्ठ रथके द्वारा छ: वीर पुत्र भीमरथके नामसै प्रसिद्ध हुए। भीमरथके रातों में ही सम्पूर्ण पृथ्वी तथा देवताओं और पुत्र राजा दिवोदास हुए, जो काशोक सम्राट् और दानवको भी जीत लिया। वे युद्धमें शत्रुओंके धर्मात्मा थे। दिवोदासके उनकी पत्नी दृषद्वतीके लिये दुर्धर्ष थे। समुद्र और सात द्वीपसहित गर्भसे प्रतर्दन नामक पुत्र हुआ। प्रतर्दनके दो पुत्र समूची पृथ्वीकों अपने अधिकारमें करके उन्होंने बे-वत्स और भार्ग। बत्सकै पुत्र अलर्क और उसके पाँच भाग किये और उन्हें अपने पाँचों अलर्कके संनति हुए। अलर्क बड़े ब्राह्मणभक्त पुत्रोंमें बाँट दिया। तत्पश्चात् एक दिन उन्होंने और सत्यप्रतिज्ञ थे। संनतिके पुत्र धर्मात्मा सुनीथ यदुसे कहा-‘येटा! कुछ आवश्यकतावश मुझे हुए। सुनीथकै महायशस्वी चैम, क्षेमके केतुमान्, | तुम्हारी युवावस्था चाहिये। तुम मेरा बुढ़ापा ग्रहण केतुमान्के सुकेतु, सुकेतुकै धर्मकतु, धर्मकेतुके | करो और मैं तुम्हारे रूपसे तरुण होकर इस महारथी सत्यकेतु, सत्यकेतुके राजा विभु बिभुके पृथ्वीपर विचरूंगा।’ यह सुनकर यदुने उत्तर दिया
आनर्त, आनर्तके समार, सुकुमारके धर्मात्मा ‘राजन्! बुढ़ापेमें खान-पान-सम्बन्धी बहुत-से धृष्टकेतु, धृष्टकेतुके राजा वेणुहोत्र और बेणुहोत्रके दोष हैं। अतः मैं उसे नहीं ले सकता। आपके पुत्र राज्ञा भार्ग हुए। प्रतर्दनके जो वत्स और भार्ग अनेक पुत्र हैं, जो मुझसे भी बढ़कर प्रिय हैं। नामक दो पुत्र बतलाये गये हैं, उनमें बरसके| अतः युवावस्था ग्रहण करनेके लिये किसी दूसरे वत्सभूमि और भार्गकै भार्गभूमि नामक पुत्र हुए पुत्रको बुलाइये।’ थे। काश्यके कुलमें ब्राह्मण, क्षत्रिय और वैश्य- ययाति यौले-ओं मूर्ख ! मेरा अनादर करके जातिके हजारों पुत्र हुए। अब नहुषकी संतानोंका | तेरे लिये कौन सा आश्रम है? अथवा किस वर्णन सुनो।
! धर्मका विधान हैं? मैं तो तेरा गुरु हैं, फिर मेरों । नहुषकै उनकी पत्नी पितृकन्या विरभाकै गर्भसे | बात क्यों नहीं मानता? । पाँच महाबली पुत्र हुए, जो इन्द्रके समान तेजस्वीं | य कहकर ययातिने कुपित हो यदुको शाप के आयु और महुपके घंशका वर्णन, जि एवं अयातिका चरित्र ।।
दिया-‘ओं मूर्ख! तेरी संततिको कभी राय नहीं | शाप दे दिया। इस प्रकार सबको शाप दे राजाने मिलेगा।’ तत्पश्चात् ययातिनें क्रमश: द्रुह्य, तुर्वसु अपने छोटे पुत्र पूरुसे भी वहीं प्रस्ताव किया-“वत्स! या | यदि तुम्हें स्वीकार हो तो अपना बुढ़ापा तुम्हें देकर और तुम्हारी युवावस्था स्वयं लेकर इस पृथ्वीपर विचकैं।’ पिताकी आज्ञाके अनुसार प्रतापी पूरुने उनका बुढ़ापा ले लिया। ययाति भी पूरुके तरुण रूपसे पृथ्वीपर विचरने लगे। वे कामनाका अन्त हूँढते हुए चैत्ररथ नामक वनमें गये और वहाँ विश्वाचौं नामक अप्सराकै साथ रमण करने लगे। जब काम और भौगसे तृप्त हो चुके, तब पूरुके समीप जाकर उन्होंने अपना बुढ़ापा ले लिया। उस समय ययातिने जो उद्दार प्रकट किया, | उसपर ध्यान देनेसे मनुष्य सय भगकी ओर से अपने मनको इसी प्रकार हटा सकता है, जैसे कछुआ अपने अङ्गको सब ओरसे समेट लेता
हैं। ययाति बोले तथा अनुसे भी यही बात कही; परन्तु उन्होंने भी न जातु कामः कामानामुपभोगेन शाम्यति। युवावस्था देनेसे इन्कार कर दिया। तब ययातिने | इविया कृष्णबत्व भूय एवाभिवर्धते ।। अत्यन्त क्रोधसे भरकर उन सबको भी पूर्ववत् | यत्पृथिव्यां व्रीहियवं हिरण्यं घशवः स्त्रियः।
मालमेकस्य तत्सवमति कृत्या में मुह्यति ।। यदा भाई म कुरुते सर्वभूतेषु पापकम्। कर्मणा मनसा याचा ब्रह्मा सम्पद्यते तदा।। यदा तेभ्यो न बिभेति यदा चास्मान्न बिभ्यति । यदा मैच्छति न द्वेष्टि अझ सम्पद्यते तदा ॥ या दुस्पा दुमतभिर्या में जयति जीर्यतः। यौमी प्रान्तको आँगस्त तृष्णां यज्ञतः मुखम् ॥ जयति जीर्यतः केशा बनता जयति जय॑तः । धनाशा जीविताशा छ शर्यतोऽपि न जायत । यच्य कामसुखं लोके यम दियं मसुखम्। तृष्णाक्षयसुखस्यैते नाईन्ति षोडशी कलाम्॥ ६ १३ ॥ ६–४, } * भौगोंकी इच्छा उन्हें भोगनेसे कभी शान्त | नहीं होती, अपितु घौसे आगकी भाँति और भौं।
- संक्षिप्त ब्रह्मपुराण ।
बढ़ती ही जाती हैं। इस पृथ्वीपर जितने भी धान, | त्याग करनेवालें ही सुख मिलता है। बूढ़े जौ, सुवर्ण, पशु तथा स्त्रियाँ हैं, वे सच एक | होनेवाले मनुष्य बाल पक जाते हैं, दाँत टूट मनुष्यके लिये भी पर्याप्त नहीं हैं ऐसा समझकर जाते हैं, परन्तु धन और जीवनकी आशा इस विद्वान् पुरुष मोहमें नहीं पड़ता। जब जीव मन, | समय भी शिथिल नहीं होती। संसारमें जो कामजनित वाणी और क्रियाद्वारा किसी भी प्राणींके प्रति सुख हैं तथा जो दिव्य लोकका महान् सुख है, वें पाप-बुद्धि नहीं करता, तब वह ब्रह्मभावकों प्राप्त सब मिलकर तृष्णा-क्षयसे होनेवाले सुखकी सोलहवीं होता है । जब वह किसी भी प्राणीसे नहीं डरता कलाके बराबर भी नहीं हो सकते ।’ तथा उससे भी कोई प्राणी नहीं डरते, जब वह यों कहकर राजर्ष ययाति स्त्रीसहित वनमें इच्छा और द्वेषसे परे हो जाता है, उस समय चले गये। वहाँ बहुत दिनोंतक उन्होंने भारी ब्रह्मभावको प्राप्त होता है। खोट ज्ञवाले | तपस्या की । तपस्याकै अन्तमें भृगुजङ्ग नामक पुरुषोंद्वारा जिसका त्याग होना कठिन हैं, जो | तीर्थके भीतर उन्होंने सद्गति प्राप्त की। महायशस्वी मनुष्यके बूढ़े होने पर भी बूढ़ी नहीं होती तथा ययातिने स्त्रीसहित उपवास करके देहका त्याग जो प्राणनाशक रोगके समान हैं, इस तृष्णाका | किया और स्वर्गलोकको प्राप्त कर लिया।
ययाति-पुत्रोंके वंशका वर्णन ब्राह्मणोंने कहा-सूतजी ! हमलोग पूरु, द्रुह्य, लगे और समस्त संसारमें अन्धकार छा गया, इस अनु, यद् तथा तुर्वसुके वंशोंका पृथक्-पृथक् समय प्रभाकरने ही अपनी प्रभा फैलायी। महर्षिने वर्णन सुनना चाहते हैं।
गिरते हुए सूर्यको ‘तुम्हारा कल्याण हो’ यह लोमहर्षणजौने कहा—मुनिवरौ ! आपलोग कहकर आशीर्वाद दिया। उनके इस कथनसे सूर्य महात्मा पूरुके वंशका विस्तारपूर्वक वर्णन सुनें, मैं पृथ्वीपर नहीं गिरे। महातपस्वी प्रभाकरने सब क्रमशः सुनाता हूँ। पुरुके पुत्र सुवीर हुए, इनके गोत्रोंमें अत्रिको ही श्रेष्ठ बनाया। अन्निकै यज्ञमें पुत्रका नाम मनस्यु था। मनस्युके पुत्र राजा | दैवताओंने उनके अलकी प्रतिष्ठा की। उन्होंने अभयद थे। अभयदके सुधन्वा, सुधन्वाके सुबाहु, | रौंद्वाञ्चकी कन्याओंसे दस पुत्र उत्पन्न किये, ज्ञों सुबाहुके रौद्राश्च तथा रौद्राश्चके इशार्णेय, कुकणेय, महान् सत्त्वशाली तथा उग्र तपस्या तत्पर रहनेवाले कक्षेयु, स्थण्डिलेयु, संनतेयु, ऋचेयु, जलेयु, थे। वे सभी वेदोंके पाङ्गत विद्वान् तथा गोत्रप्रवर्तक स्थलैयु, धनेयु एवं वनेयु–ये दस पुत्र हुए। इसीं हुए। स्वस्त्यात्रेय नामसे इनकी ख्याति हुई। प्रकार भद्रा , शूद्रा, मद्रा, शलदा, मलदा, खलदा, कक्षेयुके सभानर, चाक्षुष तथा परमन्यु-यै तीन नलदा, सुरसा, गोचपला तथा स्त्रीरत्नकूटा-ये महारथी पुत्र हुए। सभानरके पुत्र कालानल तथा दस कन्याएँ हुईं। अत्रिकुलमें उत्पन्न मर्हार्य प्रभाकर कालानलके धर्मज्ञ सृञ्जय हुए। सृञ्जयके पुत्र वीर उन सबके पति हुए। उन्होंने भद्राकै गर्भसे परम | राजा पुरञ्जय थे। पुरञ्जयके पुत्रका नाम जनमेजय यशस्वी सोमको पुत्ररूपमें उत्पन्न किया। राहुसे हुआ। जनमेजयके पुत्र महाशाल थे, जो देवताओंमें आहत होकर जब सूर्य आकाशसे पृथ्वपर गिरने | भी विख्यात हुए और इस पृथ्वपर भी उनका अ ययाति-पुत्रों के अंशका वन ।
यश फैला था। महाशालके पुत्र महामनाकै नामसे । लोककी देखभाल करोगे। सर्वत्र श्रेष्ठ माने जाओगे विख्यात थे। देवताओंने भी उनका सत्कार किया और चारों वर्गोको मर्यादाके भीतर स्थापित था। उन्होंने धर्मज्ञ उशीनर तथा महाबली तितिक्षु-| करोगे।’ ये दो पुत्र उत्पन्न किये। उनकी पच पत्नियाँ | भगवान ब्रह्माजीकै यों कहनेपर बलिको बड़ी थीं, जो राजर्षियोंके कुलमें उत्पन्न हुई थीं। उनके शान्ति मिली। वे दीर्घ कालके बाद मरकर नाम इस प्रकार हैं-नृणा, कृमि, नवा, दर्वा तथा| स्वर्गको गये। उनके पाँच पुत्रोंके अधिकार में जो दृषद्वती। उनसे उशीनरके पाँच पुत्र हुए-नृगाके जनपद थे, उनके नाम इस प्रकार हैं-अङ्ग, बङ्ग, पुत्र नृग थे, कृपिके गर्भसे कृमिका ही जन्म हुआ सुह्य, कलिङ्ग और पुण्डुक! अब अङ्गकी संतानका था। नाके नव तथा दर्चाकै सुव्रत हुए। दृषद्वतीके वर्णन करता हैं। अङ्गके पुत्र महाराज दधिवाहन गर्भसे इनकमार शिबिकी उत्पत्ति हुई। शिबिको | हुए। दधिवाहनके पुत्र राजा दिविरय । दिविधके शिबिदेशका राज्य मिला। नृगके अधिकारमें यौधेय इन्द्रनल्य पराक्रमी और विद्वान् धर्मरथ तथा धर्मरथके प्रदेश आया। नवको नवराष्ट्र तथा कृमिक पुत्र चित्ररथ हुए। राजा धर्मरथ जब कालञ्जर कृमिलापुरीका राज्य प्राप्त हुआ। सुव्रतके अधिकारमें पर्वतपर यज्ञ करते थे, उस समय महात्मा इन्द्रने अम्बष्ठ देश आया। शिबिकै विश्वविख्यात चार पुत्र उनके साथ बैठकर सोमपान किया था। चित्ररथके हुए वृषदर्भ, सुवीर, कैकय तथा मक। उनके पुत्र दशरथ हुए, जो लोमपादकै नामसे विख्यात समृद्धिशाली जनपद उन्हींके नामसे प्रसिद्ध हुए। | थे। उन्हींकी पुत्री शान्ता थी। दशरथके पुत्र | अब महामनाके दूसरे पुत्र तितिक्षुकीं संतानोंका | महायशस्वी वीर चतुरङ्ग हुए, जो ऋष्यशृङ्ग वर्णन किया जाता है। तितिक्षु पूर्व दिशाके राजा | मुनिकी कृपासे उत्पन्न हुए थे। चतुरङ्गके पुत्रका थे। उनके पुत्र महापराक्रमी उपद्रथ हुए । इषद्रथके नाम पृथुलाक्ष था। पृथुलाक्षके पुत्र महायशस्वी पुत्र फेन, फेनके सुतपा तथा सुतपाके बलि हुए। चम्प थे। चम्पको राजधानी चम्पा थी, जो पहले राजा बलि सोनेका तरकस रखते थे। वे बहुत बड़े मालिनीके नामसे प्रसिद्ध थीं। चम्पके पुत्र हर्यश्व योगी थे। उन्होंने इस भूतलपर बंशकी वृद्धि हुए। हर्यश्वके पुत्र वैभाण्ड़कि थे, जिनका वाहन करनेवाले पाँच पुत्र उत्पन्न किये। इनमें सबसे इन्द्रका ऐरावत हाथीं था। उन्होंने मन्त्रद्वारा इस पहले अङ्गकी उत्पत्ति हुई। तत्पश्चात् क्रमश:- उत्तम हाथीको पृथ्वीपर उतारा था। हर्यश्वके पुत्र चङ्ग, सुह्म, पुडू तथा कलिङ्ग उत्पन्न हुए। ये सब राजा भद्ररथ हुए, भद्रथ बृहत्कर्मा, बृहत्कर्माके लोग बालेय क्षत्रिय कहलाते हैं। बलिके कुलमें बृहद्दर्भ और वृहद्दर्भसे बृहन्मनाको उत्पत्ति हुई वालेय ब्राह्मण भी हुए, जो बंशको वृद्धि थी। महारा बृहन्मनाने जयद्रथ नामक पुत्र उत्पन्न करनेवाले थे। ब्रह्माजीने प्रसन्न होकर बलिको | किया। जयद्रथके दृढरथ, दृढ़रथकै विश्वविजयी यह घर दिया कि ‘तुम महायोगी होऔगे। एक जनमेजय। उनके पुत्र वैकर्ण, बैंकर्णकै विकर्ण कल्पक तुम्हारी आयु होगी। बलमैं तुम्हारी तथा विकर्णकै सौ पुत्र हुए, जो अङ्गवंशका समानता करनेवाला कोई न होगा। तुम धर्म- | विस्तार करनेवाले थे। वे सब अङ्गवंशी राजा तत्त्वकै ज्ञाता होओगे। संग्राममें तुम्हें कोई जीत न बतलाये गये, जो सत्यवती, महात्मा, पुत्रवान् तथा सकेगा। धर्ममें तुम्हारों प्रधानता होगी। तुम तीनों महारथी थे।
* संक्षिप्त ब्रह्मपुराण । अब रौद्राश्वकुमार राजा ऋचेयुके वंशका वर्णन | नाम यों हैं—मुद्गल, सृञ्जय, राजा बृहदिषु, पराक्रमी करूंगा, सुन। ऋचेयुके पुत्र राजा मतनार हुए। यौनर तथा कृमिलाश्च । ये पाँचों देशोंकी रक्षाके मतनारके तीन बड़े धर्मात्मा पुत्र थे—वसुरोध, लिये अलम् (समर्थ) थे; इसलिये उनके अधिकारमें प्रतिरथ और सुबाहु। ये सभी वैदवेत्ता तथा आये हुए जपनद पश्चात कहलाये। मुटुलके पुत्र सत्यवादी थे। मतिनारको एक कन्या भी थीं, महायशस्वी मौद्गल्य थे। महात्मा सृञ्जयके पुत्र जिसका नाम इला था। वह ब्रह्मवादिनी थीं। पञ्चजन हुए। पञ्चजनके सोमदत्त, सोमदत्तकै सहदेव उसका वियाह तंसुस हुआ। तंसुके पुत्र राञ्जर्षि और सहदेवके सोमक हुए। सोमककै पुत्रका नाम धर्मनेत्र हुए। इनकी स्त्री उपदानवी थीं। उपदानवीसे जन्तु था, जिसके सौ पुत्र हुए। इन सबमें छोटे उन्होंने चार पुत्र उत्पन्न किये-दुष्यन्त, सुष्मन्त, पृषत् थे, जिनके पुत्र द्रुपद हुए। ये सभी आजमौद्ध प्रवीर और अनाथ। दुष्यन्तके पुत्र पराक्रमी भरत तथा सोमक क्षत्रिय कहलाते हैं। अजमीढके एक हुए, जो सर्वदमनके नामसे विख्यात थे। उनमें और पत्नी थीं, जिनका नाम था-धूमिनी। रानी दस हजार हाथियोंका बल था। वे शकुन्तलाके| धूमिनी बड़ी पतिव्रता थीं। ये पुन्नकी कामनासे गर्भसे उत्पन्न चक्रवर्ती राजा थे। उन्हींके नामपर | व्रत करने लगीं। दस हजार वर्षोंतक अत्यन्त इस देशको भारतवर्ष कहते हैं। अङ्गिानन्दन दुष्कर तपस्या करके उन्होंने विधिपूर्वक अग्रिमें बृहस्पतिजीके पुत्र महामुनि भरद्वाजने भरतसे हवन किया तथा पवित्रतापूर्वक नियमित भोजन पुत्रोत्पत्तिके लिये बड़े-बड़े यज्ञका अनुष्ठान कराया। करके में अग्निहोत्रके कुशॉपर ही लेट गयीं। उसी इसके पहले पुत्र-जन्मका सारा प्रयास व्यर्थ हो अवस्थामें राजा अजमीढ़ने धूमिनीदेवीके साथ चुका था। अतः भरद्वाजके प्रयलसे जो पुत्र उत्पन्न समागम किया। इससे ऋक्ष नामक पुत्रकी उत्पत्ति हुआ, उसका नाम वितथ हुआ। वितथके जन्मकै हुई। ऋक्ष धूम्रकै समान वर्णवाले एवं दर्शनीय बाद राजा भरत स्वर्गवासी हो गये, तब भरद्वाजजी पुरुष थे। ऋक्षसे संवरण और संवरणसे कुरु वितथको राज्यपर अभिषिक्त करके इनमें चले उत्पन्न हुए, जिन्होंने प्रयागसे जाकर कुरुक्षेत्रक गये। वितधने पाँच पुत्र उत्पन्न किये-सुहोत्र, स्थापना की। वह बड़ा ही पवित्र एवं रमणीय क्षेत्र सुहोता, गय, गर्ग तथा महात्मा कपिल। सुहौत्रके हैं। कितने ही पुण्यात्मा पुरुष इसका सेवन करते दो पुत्र थे—महासत्यवादी काशिक तथा राज्ञा हैं। कुरुको महान् वंश उन्हींके नामपर कौरव गृत्समति। गृत्समतिके पुत्र ब्राह्मण, क्षत्रिय और कहलाया। कुरुके चार पुत्र हुए-सुधन्वा, सुधनु, वैश्य-तीनों वर्गोंके लोग हुए।
परीक्षित् और अरिमेजय । परीक्षितुके पुत्र जनमेजय, मुनिवरो। अब आजमीढ़ नामक दूसरे बंशका श्रुतसेन, अग्रसेन और भीमसेन हुए। ये सभी वर्णन सुनौ। सुहोत्रका एक पुत्र था—बृहत् ।। बलशाली और पराक्रम धै। जनमेजयके पुत्र उसकै तन पुत्र हुए-अजमीढ़, द्विमीठ और सुरथ हुए, सुरथकै विदूरथ, विदूरथके महारथी पुरुमौढ़। अजमीढ़से नीलीकै गर्भसे सुशान्ति नामक ऋक्ष हुए। ये दूसरे ऋक्ष थे। इस सोमवंशमें दो पुत्र उत्पन्न हुआ। सुशान्तिसे पुरुजाति और पुरुजातिसे ऋक्ष, दो ही परीक्षित्, तीन भीमसेन तथा दो बाह्यश्वका जन्म हुआ। बाह्यश्वके पाँच पुत्र हुए, जनमेजय नामके राजा हुए। द्वितीय ऋक्षके पुत्र ज्ञों समृद्धशालीं पाँच जनपदोंसे युक्त थे। इनके | भीमसेन थे। भीमसेनसे प्रतीप और प्रतींपसे
*यपाति-पुत्रोंके वंशका वर्णन ।
शान्तनु, देवापि तथा बाह्रक—ये तीन महारथीं। उनके पीछे लग गयीं। मार्गमें उसने एक सुकुमार पुत्र हुए। शिशुको जन्म दिया, किन्तु उसको भी छोड़कर अब राजर्षि बाहिकके वंशका वृत्तान्त सुनो। वह पतिव्रता पतिकै पीछे चल दी। नवजात शिशु बाहिकके पुत्र महायशस्वी सोमदत्त थे। सोमदत्तसे पर्वतकी घाटीपर रौ रहा था। तब उसपर कृपा भूरि, भूरिश्रवा और शल-ये तीन पुत्र हुए। करनेके लिये आकाशमें मेघ प्रकट हो गये। देवापि देवताओंके उपाध्याय और मुनि हुए।| श्रविष्ठाके दो पुत्र थे-पैंप्यसादि और कौंशिक। वे शान्तनु कौरववंशका भार वहन करनेवाले राजा दोनों उस शिशुको देख दयासे द्रवीभूत हो गये। हुए। अब मैं शान्तनुके त्रिभुवनविख्यात वंशका उन्होंने उसे उठाकर जलसे धोया और रक्त में वे वर्णन करूंगा। शान्तनुनै गङ्गाके गर्भसे देवव्रत हुए उसके पार्श्वभागको शिलापर गड़कर साफ नामक पुत्र उत्पन्न किया। देवव्रत ही भीष्म नामसे ! किया। रगड़नेपर उसकी दोनों पसलियाँ बकरेकी विख्यात पाण्द्धवोंके पितामह थे। तत्पश्चात् शान्तनुको | भाँति श्यामवर्गक हो गयौं । इसलिये उन दोनोंने काल नामवाली पत्नीने विचित्रवीर्यं नामक पुत्र उस बालकका नाम अज्ञपार्श्व रख दिया। उसे उत्पन्न किया, जो पिताका प्यारा तथा धर्मात्मा था। रैमककी शालामें दो ब्राह्मणोंने पाल-पोसकर बड़ा विचित्रवीर्यको स्त्रियोंसे श्रीकृष्णद्वैपायनने धृतराष्ट्र किया। रेमककी पत्नीने अपना पुत्र बनानेके लिये पाण्डु तथा विदुरको जन्म दियो । धृतराष्ट्रने गान्धारींके उसे गोद ले लिया। तबसे वह रेमकीका पुत्र माना गर्भसे सौ पुत्र उत्पन्न किये। उन सबमें दुर्योधन ज्ञाने लगा। दोनों ब्राह्मण उसके सचिव हुए। उन ज्येष्ठ था। पाण्डुके पुत्र अर्जुन हुए। अर्जुनसे | सबके पुत्र और पौत्र एक ही समय–समान सुभद्राकुमार अभिमन्युकी उत्पत्ति हुई। अभिमन्युसे | आयुवाले हुए। यह महात्मा पाण्डवोंका पौरव परीक्षित् औंर परीक्षित्से जनमेजयका जन्म हुआ। वंश बतलाया गया। नहुषनन्दन ययातिने अपनी जनमेजयके काश्या नामकी पत्नीको चापड़ तथा वृद्धावस्थामा परिवर्तन करते समय अत्यन्त प्रसन्न सूर्यापीड़ नामक दो पुत्र हुए। इनमें सूर्यापीड़ हो यह उद्गार प्रकट किया था—’सम्भव है यह मोक्ष-धर्मकै ज्ञाता थे। चन्द्रापीड़के महान् धनुर्धर । पृथ्वी चन्द्रमा, सूर्य और ग्रहोंके प्रकाशसे रहित हौ सौं पुत्र थे। ये सब इस पृथ्वी पर जानमैजय | जाय; किन्तु पौरववंशसे सूनी यह कभी नहीं क्षत्रियके नामसे प्रसिद्ध हुए। इन सौं पुत्रोंमें सबसे | होगी।’ इस प्रकार मैंने राजा पूरुकै विख्यात बड़ा सत्यकर्ण था, जो हस्तिनापुरमें रहा करता वंशका वर्णन किया। अब तुर्वसु, दुच्च अनु और था। महाबाहु सत्यकर्ण प्रचुर दक्षिणा देनेवाले थे। यद्के वंशका वर्णन करूंगा। सत्यकर्णके पुत्र प्रतापी श्वेतकर्ण हुए। वे पुत्र न तुर्वसुके पुत्र वह्नि, वल्लिके गभानु, गौभानुके होनेके कारण तपोवनमें चले गये। वहाँ सुचाएको । राजा त्रैशानु, बैंशानुके करंधम तथा करंधमके पुत्री मालिनी, जो यदुकुलमें उत्पन्न हुई थी, उनमें | मरुत्त हुए। अवीक्षित्-नन्दन राजा मरुत्ते इस मरुत्त से आयीं थीं। उसने चैतकर्णसे गर्भ धारण किया।| भिन्न हैं। करंधमकुमार मरुतके कोई पुत्र नहीं था। उस गर्भके स्थापित हो जानेपर राजा श्वेतकणं उन्होंने बहुत दक्षिणा देकर यज्ञ किया, उसमें पहले किये हुए संकल्पके अनुसार महाप्रस्थानक उन्होंने दक्षिणाकै रूपमें महात्मा संवर्तको अपनी चलें। अपने प्रियतमको आते देख मालिनी भौं । संयता नामकी कन्या ६ दी। तत्पश्चात् उन्होंने
* संक्षिप्त ब्रह्मपुराण ।
पुरुवंशी दुष्यन्तको गोद ले लिया। इस प्रकार | उसके एक सहस्र भुजाएँ प्रकट हो जाती थी। ययातिके शापयश अब तुर्वसुका वंश नहीं चला, उसने हॉप, समुद् और नगरौंसहित सम्पूर्ण पृथ्वीको तब उसमें पौरखवंशका प्रवेश हुआ। दुष्यन्तके पुत्र | कठोरतापूर्वक जीता तथा सात द्वीपों में सात सौ राजा कौम हुए। करूरोमसे अहीदकी उत्पत्ति | यज्ञ किये, उन सभी यज्ञोंमें एक-एक लाखकी हुई। अहीदके चार पुत्र हुए-पाण्ड्य, केरल, दक्षिणा दी गयी थी। सबमें सोनेके यूप गड़े थे, कौल तथा चौल। द्रुह्यके पुत्र बभुसेतु, बभुसैतुके | सोनेकी ही वैदियौं बनीं । वह दिव्य वस्त्राभूषणेसे अङ्गारसेतु और अङ्गारसेतुके मरुत्पति हुए, जौ | अलंकृत देवताओं और गन्धर्वोके साथ महर्षिगण युद्धमें युवनाश्वकुमार मान्धाताके हाथसें मारे गये। भी विमानपर बैठकर सुशोभित होते थे। कार्तवीर्यक अङ्गारसेतुके पुत्र राजा गान्धार हुए, जिनके नामपर यज्ञमें नारद नामक गन्धर्वने इस गाथाका गान गान्धार प्रदेश विख्यात हैं। गान्धारदेशके घोड़े सब किया—’अन्य राजालौग यज्ञ, दान, तपस्या, पराक्रम घोड़से अच्छे होते हैं। अनुके पुत्र धर्म, धर्मके | और शास्त्र-ज्ञानमें कार्तवीर्य अर्जुनकी स्थितिको छून, छूतके वनदुह, वनदुहके प्रचेता और प्रचेताके नहीं पहुँच सकते।’ वह योगी था; इसलिये सात सुचेता हुए। ये अनुके वंशज बतलाये गये । यदुके द्वीपोंमें ढाल, तलवार, धनुष-बाण और रथ लिये पाँच पुत्र हुए, जौ देवकुमारौंकै समान सुन्दर थे। सदा चारों और विचरता दिखायी देता था। उनके नाम हैं। सहरुलाद, पयोद्, क्रोष्टु, नील और धर्मपूर्वक प्रज्ञाको रक्षा करनेवाले महाराज कार्तवीर्यक अञ्जिक। सहसादके तन परम धर्मात्मा पुत्र प्रभावसे किसका धन नष्ट नहीं होता था, हुए हैंय, हय तथा वैहय। हैहयका पुत्र | किसीको ग्रेग नहीं सताता था तथा कोई भ्रममें धर्मनेत्र हुआ। धर्मनेत्रके कार्त और कार्तक साझ नहीं पड़ता था। वे सब प्रकारके रनों से सम्पन्न नामक पुत्र हुए। साञ्जने साहञ्जनी नामकी नगरी चक्रवर्ती सम्राट् थे। वे ही पशुओं तथा खेतोंके यसायो। साहञ्जका दूसरा नाम महिष्मान् भी था। भौं रक्षक थे और वे हीं योगी होने के कारण अर्धा उनके पुत्र प्रतापी भइ श्रेण्य थे। भनेण्यके दुर्दम | करते हुए मेघ बन जाते थे। जैसे शरद्-हमें और दुर्दमके कनक हुए। कनकके चार पुत्र | भगवान् भास्कर अपनी सहस्सों किरणोंसे शौभायमान हुए, ज्ञों सम्पूर्ण विश्वमें विख्यात थे। उनके नाम होते हैं, उसी प्रकार राधा कार्तवीर्य अर्जुन अपनी इस प्रकार हैं-कृतवीर्य, कृतज्ञा, कुतधन्वा | सहसों भुजाओंसे शोभा पाते थे। उन्होंने कर्कोटक तथा कृताग्नि।।
नागके पुत्रो जीतकर उन्हें अपनी नगर्घ माहिष्मतीपुरीमें कृतवीर्यसे अर्जुनकी उत्पत्ति हुईं, जो सहस्र | मनुष्योंके साथ बसाया था। वे वर्षाकालमें समुद्र भुजाओंसे युक्त हो सात द्वीपका राजा हुआ। जलक्रीड़ा करते समय अपनी भुजाओंसे रोककर उसने अकेले ही सूर्यके समान तेजस्व रथद्वारा उसकी जलराशिकै बैंगको पीछेकी ओर लौटा सम्पूर्ण पृथ्वीको जीत लिया था। उसने दस हजार | देते थे। उनकी राजधानीको घेरकर बहनेवाल वर्षोंतक अत्यन्त कठोर तपस्या करके दत्तात्रेयज्ञोकी ! नर्मदा नदीमें जब वे ज्ञलक्रीड़ा करते समय आराधना की। दत्तात्रेयजीने उसे कई वरदान दिये।| लोटते थे, उस समय वह नदी अपनों सहस्रों पहले तो उसने युद्धकालमें एक हजार भुजाएँ| चञ्चल लहरोंके साथ इरती-डरती उनके पास मॅगीं। युद्ध करते समय किसी योगीश्वरकी भौत’ आती थी। महासागर जय में अपनी सहस्रों
* अयाति–पुत्रके वंशका झर्शन *
भुजाएँ पटकते थे, उस समय पातालनिवासी | लाकर बंदी बना लिया। यह समाचार सुनकर महादैत्य निश्चेष्ट होकर भयसे छिप जाते थे। ऊँची महर्षि पुलस्त्य उनके पास गये। महर्षिकै याचना करनेपर उन्होंने रावणको मुक्त कर दिया। अर्जुनकी हजार भुजाओंमें धारण किये हुए धनुषको प्रत्यञ्चाका उठती हुई उत्ताल तरङ्गे विंचूर्णित हो जाती थीं। बड़े-बड़े मीन और तिमि आदि जलजन्तु छटपटाने | लगते थे। सागर जलमें फेन जम जाता था। इतना घोर शब्द होता था, मानो प्रलयकालौन मेघ समुद्र बड़ी-बड़ी भंवरोंके कारण क्षुब्ध दिखायी गर्जते हों अथवा वन्न फट पड़वा हो। अहो ! देता था। देवताओं और असुरोंके झाले हुए परशुरामजौका पराक्रम धन्य है, जिन्होंने सुवर्णमय मन्दराचल पर्वतसे क्षीरसमुद्रको जो दशा हुई थीं; तालवनके समान राजा कार्तवीर्यकी सहस्रों वहीं दशा वे अपने सहन बाहुओंसे महासागरकी भुजाओंको काट डाला था। एक दिनकी बात है, कर देते थे। उस समय मन्दराचलके द्वारा समुद्र-| प्यासे अग्निदेवने राजा कार्तवीर्यसे भिक्षा माँगी। मन्थनकी बात सोचकर चकित और अमृतोत्पत्तसे | इन्होंने सात द्वीप, नगर, गाँव, गोष्ठ तथा सारा आशङ्कत हुए बड़े-बड़े नाग सहसा ऊपर उछलकर राज्य उन्हें भिक्षामें दे दिये। अग्निदेव सर्वत्र प्रचलित देखते और भयंकर कार्तवीर्य नरेशपर दृष्टि पड़ते | हो उठे और महाराज कार्तवीर्य प्रभावसे समस्त ही मस्तक झुकाकर निश्चेष्ट पड़ जाते थे। जैसे पर्वतों एवं वनोंको जलाने लगे। उन्होंने वरुणसुत्रके संध्याकै समय भायुके झोंकसे कदलौखण्ड़ काँपते रमणीय आश्रमको भी जला दिया। पूर्वकालमें हैं, उसी प्रकार में भी काँपने लगते थे। राजा वरुणने जिस तेजस्व महर्षको अपने पुत्ररूपमें कार्तवीर्यन अभिमानसे भरे हुए लङ्कापति रावणको प्राप्त किया था, वे वसिष्ठके नामसे विख्यात हुए। अपने पाँच हौं आणसे सैनासहित मूच्छित करके उहाँका नाम आपत्र भी है। महर्षि वसिष्ठको धनुषकी प्रत्यञ्चासे बाँध लिया और माहिष्मतीपुरीमें | शून्य आश्रम जलाया गया था, इसलिये उन्होंने
* संक्षिप्त ब्रह्मपुराण ॥ शाप दिया-‘इँहय! तूने मेरे इस वनको भी जलाये
माँगा था। कार्तवीर्यके सौ पुत्र थे, किन्तु उनमें बिना न छोड़ा, अतः तेरे द्वारा यह महान् पाप हुआ पाँच हीं शेष बचे। वे सभी अस्त्र-शस्त्रोंके ज्ञाता, है। इस कारण मैरे-जैसा एक दूसरा तपस्वी ब्राह्मण बलवान्, शूर, धर्मात्मा और यशस्वी थे। उनके तेरा वध करेगा। जमदग्निनन्दन महाबाहु परशुराम, नाम ये हैं-शूरसेन, शूर, वृषण, मधुपध्वज और जो बलवान् और प्रतापी हैं, तेरा बलपूर्वक मान-जयध्वज। जयध्वज अवन्ती महाराज धे। मर्दन करके तेरी ऋजार, भुजाओंको काट डालेंगे और जयध्वजके पुत्र महाबली तालजङ्घ हुए। उनकै सौ तुझे मौतके घाट उतारेंगे।’
पुत्र थे, जो तालजङ्घके नामसे विख्यात थे। हैहयवंशमें वतिहोत्र, सुजात, भोज, अवन्ति, तौण्डिकेर, तालजङ्घ तथा भरत आदि क्षत्रियोंका समुदाय हुआ। इनकी संख्या बहुत होनेसे पृथक् पृथक् नाम नहीं बतलाये गये। वृष आदि बहुत-से पुण्यात्मा यादव इस पृथ्वीपर उत्पन्न हुए। उनमें वृष वंशके प्रवर्तक थे। वृषके पुत्र मधु थे। मधुके सौ पुत्र हुए, जिनमें वृषण वंश चलानेवाले हुएः वृषणके वृष्णि और मधुके वंशज माधव कहलाये। इसी प्रकार यदुकै नामपर यादव तथा हैहयके नामसे हैहय क्षत्रिय कहलाते हैं। जो प्रतिदिन कार्तवीर्य अर्जुनके जन्मका वृत्तान्त यहाँ कहेगा, उसके धनका नाश नहीं होगा, उसका नष्ट हुआ धन भी मिल जायगा। इस प्रकार ययाति-पुत्रकै पाँच वंश यहाँ जो शत्रुओंके नाशक और धर्मपूर्वक प्रज्ञा बतलाये गये, जो समस्त लोकोंको धारण करते रक्षक थे, जिनके प्रतापसे किसी धनका नाश हैं। यदुकै वंशधर पुण्यात्मा क्रोष्टुके, जिनके कुलमें नहीं होने पाता था, वे महाराज कार्तवीर्य महामुनि वृष्णिवंशावतंस श्रीहरि श्रीकृष्णरूपमें प्रकट हुए वसिष्टके शापवश परशुरामजीके हाथसे मृत्युको | थे, वंशका वर्णन सुनकर, मनुष्य सब पापों से मुक्त प्राप्त हुए। उन्होंने स्वयं ही पहले इसी तरहका वर हो जाता है।
क्रौष्ठ आदिके वंशका वर्णन तथा स्यमन्तकमणिकी कथा | लोमहर्षणजी कहते हैं-क्रोष्ट्रकै गान्धारौ | पृथक्-पृथक् चला, जो वृष्णिकुलकी वृद्धि करनेवाला और माद्री दो पत्नियाँ थीं। गान्धारीने महाबली | था। माद्वौके दो पुत्र और सुने जाते हैं-वृणि अनमित्रको जन्म दिया तथा माद्रींके युधाजित् एवं तथा अन्धक। वृष्णिके भी दो पुत्र थे-श्वक देवमीदुष्-ये दो पुत्र हुए। इन तीनोंका वंश और चित्रक। श्वफल्क बड़े धर्मात्मा थे। वे जहाँ
के क्रोधु आदिके वंशका वर्णन तथा स्यमन्तकमयिकीं कक्षा के रहते, वहाँ रोगका भय नहीं होता तथा वहाँ वसुदेवकी कान्ति चन्द्रमाके समान थी। वसुदेव अवृष्टि कभी नहीं होती थीं। एक बार काशी- बाद क्रमशः–दैवभाग, देवश्रवा, अनाधृष्टि, कनवक, नरेश रायमें पूरे तीन वर्षों तक इन्द्रनें वर्षा नहीं चत्सवान्, गृञ्जम, श्याम, शमीक और गण्ड्रय की; तब उन्होंने अफल्कको बुलवाया और उनका | उत्पन्न हुए। शुरकै पाँच सुन्दरी कन्याएँ भी हुई, बड़ा आदर-सत्कार किया। श्चफकके वहाँ पहुँचते | जिनके नाम इस प्रकार हैं-पृथुकीर्ति, पृथा, ही इन्द्रने वृष्टि आरम्भ कर दी। काशिराजके एक श्रुतदेवा, श्रुतश्रवा तथा राजाधिदेवी। ये पाँच वीर कन्या थी, जिसका नाम गान्दिनीं रखा गया था। पुत्रोंकी जननी हुई। वृष्णिके छोटे पुत्र अनमित्रसे वह प्रतिदिन ब्राह्मणको एक गौ दान किया करती शिनिका जन्म हुआ। शिनिके पुत्र सत्यक हुए। थीं, इसीलिये इसका ऐसा नाम पड़ा था। वह सत्यकके सात्यकि उत्पन्न हुए, जिनका दूसरा नाम अफल्कको पन्नीरूपमें प्राप्त हुई और उसके गर्भसे युयुधान था। देवभागकै पुत्र महाभाग उद्भव हुए। अक्रूरका जन्म हुआ, जो दान, यज्ञकर्ता, वीर, गण्डूषके कोई पुत्र नहीं था, अत: विष्वक्सेनने शास्त्रज्ञ, अतिथिप्रेमीं तथा अधिक दक्षिणा देनेवाले उन्हें अनेक पुत्र दिये। उनके नाम इस प्रकार थे। इनके अतिरिक्त उपमह, मद्, मैदर, अरिमेय, ई-चारुदेष्ण, सुदेष्ण तथा सर्वलक्षणसम्पन्न पञ्जाल अविक्षित, आक्षेप, शत्रन्न, अरिमर्दन, धर्मभृक् आदि। इन सबमें छोटे थे—महाबाहु शैमिणेय, यतिधर्मा, धमक्षा, अन्धक, आवाह तथा अतिवाह युसे कभी पीछे नहीं हटते थे। कनवकके नामक पुत्र एवं वराङ्गना नामको सुन्दरी कन्या दो पुत्र हुए-तन्त्रिज्ञ और तन्त्रिपाल। गृञ्जमके भी हुई। अक्रुरके उग्रसैनकन्या सुगात्रोके गर्भसे प्रसैन दो पुत्र थे-चीरु तथा अभहनु श्यामके पुत्र और उपदेव नामक दो पुत्र हुए, जो देवताओंके शौक थे। शमीक राजा हुए। उन्होंने राजसूय समान कान्तिमान् थे।
यज्ञ किया था, उनके पुत्र अजातशत्रु हुए। चित्रकके पृथु, विपृथु, अश्वग्रीव, अश्वबाहु, ! अब बसुदेवके वीर पुत्रोंका वर्णन करूंगा। स्वपार्श्वक, गवेषण, अरिष्टनेमि, अश्व, सुधर्मा, वृष्णिवंशकी अनेक शास्त्राएँ हैं। ज्ञों उसका स्मरण धर्मभृत्, सुबाहु तथा बहुबाहु नामक पुत्र एवं | करता हैं, उसे कभी अनर्थको प्राप्ति नहीं होती। श्रविष्ठा और श्रवणा नामकी दो कन्याएँ हुई। वसुदेवजीके चौदह सुन्दरी पत्नियाँ थीं। पुरुवंशकी देवमीतुम्ने सिक्नी नामकी पत्नी के गर्भसे शुर कन्या रोहिणी, मदिदि, वैशाख, भद्रा, सुनामी, नामक पुत्र उत्पन्न किया। शूरसे रानी भौज्याके | सहदेवा, शान्तिदेवा, श्रीदेवी, देवरक्षिता, वृकदेवी, गर्भसे दस पुत्र उत्पन्न हुए। उनमें सबसे पहले उपदेवी तथा देवकी-यै बारह तो राजकुमारियाँ महाबाहु वसुदेव उत्पन्न हुए, जिन्हें आनकदुन्दुभि थीं और सुतनु तथा बड़वा-यै दो दासियाँ । भों करते हैं। इनके जन्म लेनेके बाद देवलोकमें ज्येष्ठ पत्नी रोहिणीने, जो बारिककी पुत्री थीं, दुन्दुभियाँ बजी थीं और आनकों (मृदओं)- की | वसुदेवजीसे ज्येष्ठ पुत्रकै रूपमें बलरामजीको प्राप्त गम्भीर ध्वनि हुई थीं; इसलिये उनका नाम किया। तत्पश्चात् उनके गर्भसे शरण्य, शठ, आनकदुन्दुभि पड़ गया था। उनके जन्म-कालमें दुर्दम, दमन, शुभ्र, पिण्डारक और उशीनर नामक फूलको बर्षा भी हुई थी। समस्त मानव-लोकमें पुत्र तथा चित्रा नामकी कन्या हुई। इस प्रकार उनके समान रूपवान् दूसरा कोई नहीं था। नरश्रेष्ठ | रोहिणौकी नौं संतानें थीं। चित्रा ही आगे चलकर
* संक्षिप्त ब्रह्मपुराण । सुभद्राके नामसे विख्यात हुई। असुदेवके देयककै | पन्नीकै भयसे दूसरी स्त्रीको विवाह नहीं किया। गर्भसे महायशस्वी भगवान् श्रीकृष्ण अवतीर्ण हुए। एक बार किसी युद्धमें विजयी होनेपर उन्हें एक बलरामके वितीके गर्भसे निशठ उत्पन्न हुए, जो कन्या मिलीं। उसे रथपर बैठी देख स्त्रीने पूछा-‘यह माता-पिताके बड़े लाड़ले थे। सुभद्राकै अर्जुनके कौन हैं?’ तब वे इरकर बोले-‘यह तुम्हारी सम्बन्धले महारथीं अभिमन्यु उत्पन्न हुआ। पुत्रवधू है।’ यह सुनकर रानी बोली-‘मेरे तो वसुदेवजीकी परम सौभाग्यशालिनी सात पत्नियोंसे जौ पुत्र उत्पन्न हुए, उनके नाम बतलाता हैं; सुनो। शान्तिदेवाके भोज और बिजय, सुनामाके वृकदेव और गद तथा त्रिगर्तराजकन्या वृकदेवीके महात्मा अगावह नामक पुत्र हुए।
क्रोष्टके एक और पुत्र महायशस्वी वृजिनवान् । हुए। उनके पुत्र स्वाहि थे। स्वाहिके पुत्र राजा उषद् हुए, जिन्होंने प्रचुर दक्षिणावाले अनेक महायज्ञका अनुष्ठान किया था। उषद्के पुत्र चित्ररथ हुए, चित्ररथकै शशबिन्दु, शशबिन्दुके पृथुन्नवा, पृथुश्रवाके अन्तर, अन्तरके सुयज्ञ तथा सुयज्ञके इषत् हुए। उपत्का अपने धर्मके प्रति बड़ा आदर था। उषत्के पुत्र शिनेयु, शिनेयुके मरुन्, मरुत्के कम्बलबर्हिम्, कम्बलबष्केि ..-= रुक्मकवच, रुक्मकवचकै परजित् तथा परजितके कोई पुत्र नहीं, फिर यह किसकी पत्नी होनेसे पाँच पुत्र हुए-रुक्मेषु, पृथुरुक्म, ज्यामघ, | पुत्रवधू हुई?’ यह सुनकर ज्यामघने कहा-‘तुम्हें पाक्षित तथा हरि। पालित और हरिको पिताने | जो पुत्र उत्पन्न होगा, इसके लिये यह पत्नी प्रस्तुत विदेह प्रान्तको रक्षामें नियुक्त कर दिया। रुक्मेषु की गयी हैं। तत्पश्चात् रानी शैब्याने कठौर पृथुरुक्मकी सहायतासे राजा हुए। इन दोनों भाइयोंने | तपस्या करके एक विदर्भ नामक पुत्र उत्पन्न राजा ज्यामघको घरसे निकाल दिया। तब वे वनमें | किया। उसका विवाह उक्त राजकन्यासे हुआ। आश्रम बनाकर रहने लगे। उस समय शान्तिपरायण | इसके गर्भसे क्रथ और कौशिक नामक पुत्र राजाको ब्राह्मणोंने बहुत कुछ समझाया। तब वे उत्पन्न हुए। वे दोनों बड़े ही शूर तथा युद्धविशारद धनुष लेकर उथपर आरुढ़ हों दूसरे देशमें गये। थे। उसके बाद विदर्भके भौम नामक पुत्र हुआ। अकेले हीं नर्मदाके तटपर जाकर उन्होंने मैकला, उसके पुत्रका नाम कुन्ति हुआ। कुन्तिसे धृष्टका मृत्तिकावती तथा ऋक्षवान् पर्वतको जीतकर शुक्तिमती जन्म हुआ, जो संग्राममें धृष्ट और प्रतापी था। नगरौमें निवास किया। ज्यामधकी पत्नी शैब्या थीं, धृष्टके आवन्त, दशार्ह तथा विघहर नामक तीन जो पतिव्रता होनके साथ ही बड़ी प्रबल थी। पुत्र हुए, जो बड़े धर्मात्मा और शूरवीर थे। यद्यपि राज्ञाको कोई पुत्र नहीं था, तथापि उन्होंने | दशार्हके व्योमा और व्योमाके पुत्र जीमूत बतलाये
के क़ौष्टु आदिके वंशका वर्णन तथा स्यमन्तकर्माणिक कथा के ।
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झाते हैं। जीमूतके विकृति, विकृतिके भीमरथ, रूप धारण करके राजाको पतिरूपमें वरण किया। भीमरथके नवरथ और नवरयके पुत्र दशरथ हुए। राजाने भी उसकी कामना की। तदनन्तर उन दशरथके पुत्रका नाम शकुनि था। शकुनिसे करम्भ | उदारबुद्धि नरेशने उसमें एक तेजस्वी गर्भक तथा करम्भसे देवतका जन्म हुआ। देवरातके पुत्र स्थापना की। तत्पश्चात् दसवें महीनमें पर्णाशाने देवक्षत्र तथा देवक्षत्रके महायशस्वी वृद्धक्षत्र हुए। वे | देवावृधके सर्वगुणसम्पन्न पुत्र बभुको जन्म दिया। देवकुमारके समान कान्तिमान् थे। इनके सिवा | इस वंशके विषयमें पुराणोंके ज्ञाता देवावृधके मधुरभाषी राजा मधुका भी जन्म हुआ, जो मधुवंशके | गुणोंका बखान करते हुए निम्नाङ्कित प्रसिद्ध प्रवर्तक थे। मधुकै उनकी पत्नी वैदर्भीसे नरश्रेष्ठ | गाथाका गान करते हैं। हम जैसे आगे देखते हैं, पुरुद्वान्की उत्पत्ति हुई। मधुकी दूसरी पत्नी इक्ष्वाकुवंशकी | वैसे ही दूर और निकट भी देखते हैं। हमारी कन्या थीं। उससे सर्वगुणसम्पन्न सत्वान् हुए, जो दृष्टिमें बनु सब मनुष्योंमें श्रेष्ठ हैं और देवावृध तो सात्वत कुलकी कीर्तिको बढ़ानेवाले थे। देवताओंके तुल्य हैं। बभ्र और देवावृधके सम्पर्क में सत्चान्से सत्त्वगुणसम्पन्ना कौसल्याने भजमान, आकर एक हजार चौहत्तर मनुष्य अमृतत्वको प्राप्त देवावृध, अन्धक तथा वृष्णि नामक पुत्र उत्पन्न हो चुके हैं।’ किये। इनके चार कुल यहाँ विस्तारपूर्वक बतलाये | बभुका वंश बहुत बड़ा था। उसमें सब-के गये हैं। भजमानके दो स्त्रियाँ थीं । एकका नाम था | सब यज्ञपरायण, महादानी, बुद्धिमान्, ब्राह्मणभक्त बायकसृञ्जय और दुसरीका उपबाह्यक सृञ्जयो । तथा सुदृढ़ आयुध धारण करनेवाले थे। मृत्तिकावती उन दोनोंके गर्भसे बहुत-से पुत्र हुए। क्रिमि, पुरीमें भोजवंशकै क्षत्रिय रहते थे। अन्धकसे क्रमण, धृष्ट, शूर तथा पुरञ्जय-ये भज्ञमानकै | काश्यकी कन्याने चार पुत्र प्राप्त किये-कुकुर, बाह्यकसृञ्जयीसे उत्पन्न हुए पुत्र थे। अयुताज्ञित्, | भजमान, शशक और बलबर्हिष् । कुकुरके पुत्र सहस्राजित्, शताजित् और दासक—ये भजमानद्वारा वृष्टि, वृष्टिके कपोतरोमा, कपोतरौमाके तित्तिर, उपबाह्यकसृञ्जयके गर्भसे उत्पन्न हुए पुत्र थे। उसके पुनर्वसु, पुनर्वसुकै अभिजित् तथा अभिजित्के राजा देवावृधं यज्ञपरायण रहते थे। उन्होंने | आहुक एवं श्राहुक नामक दो जुड़वाँ पुन्ने हुए। सर्वगुणसम्पन्न पुन्न होनेके उद्देश्यसे भारी तपस्या इनके विषयमें ऐसी गाथा प्रसिद्ध हैं—’आहुक की। तपस्यामें संलग्न होकर वे पर्णाशाके जलका किशोरावस्थाके समान आकृतिवाले थे। वे अस्सी आचमन करते थे। सदा ऎसा ही करनेके कारण कवच धारण किये हुए अपने श्वेतवर्णवाले उस नदीने उनका प्रिय करना चाहा। कल्याणमय परिवारके साथ पहले यात्रा करते थे। जो भोजवंशी नरेश देवावृधके अभीष्टकी सिद्धि कैसे हो—इस आहुकके दोनों ओर चलते थे, उनमेंसे कोई ऐसा चिन्तामें देरतक पड़ी रहनेपर भी पर्णाशा सहसा नहीं था, जो पुत्रवान् न हो, सौसे कम दान करता किसी निश्चयपर न पहुँच सकी। उसे ऐसी कोई हों, हजार या सौसे कम आयुवाला हो, अशुद्ध स्त्री नहीं मिली, जिसके गर्भसे वैसा सुयोग्य पुत्र कर्म करता हो अथवा यज्ञ न करता हो। भोजवंशी उत्पन्न हो सके। तब उसने यह निश्चय किया कि आधुककीं पूर्व दिशामें इक्कीस हजार हाथी चलते मैं स्वयं ही चलकर इनकी सहधर्मिणी बनूंगी। थे, जिनपर सोने-चाँदीकै हौंदे कसे होते थे। उत्तर यह विचारकर पर्णाशाने एक परम सुन्दरी कुमारीका | दिशामें भी उनकी इतनी ही संख्या होती थी।
* संक्षिप्त ब्रह्मपुराण ।।
भौजवंशी प्रत्येक भूपालकी भुजामें धनुषकी प्रत्यञ्चाके | थीं-गान्धारी और माहीं गान्धारीने महाबली चिह्न होते थे। अन्धकवंशियोंने अपनी बहिन | अनमिन्नको जन्म दिया और माद्रीने युधाजित्को। आहुकका विवाह अवन्तीनरेशसे किया था। अनमिनके निम्न हुए। निम्नके दो पुत्र थे-प्रसैन आहुकके काश्याकै गर्भसे देवक और उग्रसेन और सत्राजित्। ये दोनों ही शसेनाको परास्त नामक दो पुत्र हुए। देवकके चार पुत्र थे—देववान्, करनेवाले थे। भगवान् सूर्य सत्राजित्के प्राणोपम उपदेव, संदेव तथा देवरक्षक। इनके सिवा सात सखा थे। एक दिन रात्रि बीतनेपर रथियोंमें श्रेष्ठ कन्याएँ भी थीं, जिनका विवाह वसुदेवजीकै साथ सत्राजित् इथपर आरूढ़ हो स्नान एवं सूर्योपस्थान झा। इनके नाम इस प्रकार हैं-देवकी, शान्तिदेवा, करने के लिये जलके किनारे गये। वहाँ पहुँचकर सुदेवा, देवरक्षिता, वृकदेव, उपदेवी और सुनामी।| जब चे सूर्योपस्थान करने लगे, उस समय भगवान् उग्रसेनकै नौ पुत्र थे, जिनमें कंस बड़ा था। उससे | सूर्य तेजोमण्डलसे युक्त स्पष्ट दिखायी देनेवाला छोटे न्यग्रोध, सुनामा, कङ्क सुभूषण, राष्ट्रपाल, सुत्नु, रूप धारण करके उनके आगे प्रकट हो गये। तय अनावृष्टि तथा पुद्धिमान् थे। इनकी पाँच बहिनें – राजा सत्राजित्ने सामने खड़े हुए सूर्यदेवसे कहा कंसा, कंसवती, सुतनु, राष्ट्रपाली तथा का। यहाँतक’प्रभो? आप जिसके द्वारा सदा सम्पूर्ण लोकको कुकुरवंशीं ग्रसैन और उनकी संतानका वर्णन हुआ। प्रकाशित करते हैं, वह मणिरत्न मुझे देनेकी कृपा | भजमानके पुत्र विदूरथ हुए, जो रथियोंमें हैं। उनके यों कहनेपर भगवान् भास्करने उन्हें दिव्य प्रधान थे। विदूरथके शूरवीर राजाधिदेव हुए। स्यमन्तकमणि प्रदान की। सत्राजित्ने उसे गलेमें राजाधिदेवके पुत्र बड़े पराक्रमी थे। उनके नाम पहनकर अपने नगर में प्रवेश किया। उन्हें देखकर इस प्रकार हैं-दत्त, अतिदत्त, शोणाश्व, भैतवाहन, सब लोग यों कहते हुए दौड़ने लगे—’यह देखो, शम, दण्डशर्मा, दन्तशत्रु तथा शत्रुजित् । इन सूर्य जा रहे हैं। इस प्रकार नगरके लोगोंको सबक दो बहनें थीं, जो श्रयणा और अविधा के नामसे विख्यात हुईं। शमीके पुत्र प्रतिक्षत्र थे, प्रतिक्षत्रके पुत्र स्वयम्भौज्ञ, स्वयम्भोजसे हुदीक हुए। इदीक बहुत-से पुत्र हुए, जो भयानक पराक्रम करनेवाले थे। इनमें कृतवर्मा सबसे ज्येष्ठ और शतधन्वा मध्यम था। शेष भाइयक नाम इस प्रकार हैं-देवान्त, नरान्त, भिषग, वैतरण, सुदान्त, अतिदान्त, निकाश्य और कामदम्भक। दैवान्तके पुत्र विद्वान् कम्बलबर्हिथ् हुए। उनके दो पुत्र धे-असमौजा तथा तामसौजा। असमौजाके कोई पुत्र नहीं हुआ; उन्हें सुदंष्ट, सुचारु और कृष्ण-ये पुत्र गोदमें प्राप्त हुए। इस प्रकार अन्धकवंशी क्षत्रियोंका वर्णन किया गया।
ऊपर कह आये हैं कि क्रोष्णुके दो पत्नियाँ ।
का को आदिके वंशका बन तथा स्पमतकर्माणिक कथा ।
आश्चर्यमें डालकर वे अन्तःपुरमें पहुँचे। सत्राजित्ने | चरण-चिह्नोंसे पहचाना गया। उन्हीं चिहोंक द्वारा वह उत्तम मणि अपने छोटे भाई प्रसेनजित्को ६ । भगवान् श्रीकृष्ण जाम्बवानुक गुफाके द्वारपर दी, क्योंकि इसको वे बहुत प्यार करते थे। वह | पहुँचे। वहाँ उन्हें बिलकै भीतर से किसी धायकी मणि अन्धकवंशी यादवोंके घरमें सुवर्ण उत्पन्न कहीं हुई यह वाणी सुनायी दी-‘मेरे सुकुमार करती थी। वह जहाँ रहती, उसके निकटवर्ती बच्चे! तू मत रो। सिंहने प्रसेनको मारा और सिंह जनपदों में मेघ समयपर वर्षा करता तथा किसीको जाम्बवान्के हाथसे मारा गया। अब यह स्यमन्तक रोगका भय नहीं रहता था। एक बार भगवान् मणि तेरी ही है।’ श्रीकृष्ण प्रसेनके सम्मुख वह स्यमन्तक नामक मणिरन लेनेकी इच्छा प्रकट की; किन्तु उसे वे नहीं पा सके। समर्थ होनेपर भी भगवानुने । उसका बलपूर्वक अपहरण नहीं किया।
एक दिन प्रसेन उस मगिरनसे विभूषित हो अनमें शिकार खेलनेके लिये गये। वहाँ स्यमन्तकके लिये ही एक सिंहके हाथसे मारे गये। सिंह उस मणिको मुखमैं दवायें भागा जा रहा था। इतनेमें ही महाबलों ऋक्षराज जाम्यवान् उधर आ निकले।
सिंहको मारकर मणिरत्न ले अपनी गुफामें चले। गये। इधर वृष्णि और अन्धक-वंशके लोग यह संदेह करने लगे कि हो-न-हो श्रीकृष्णने ही मणिके लिये प्रसैना वध किया है; क्योंकि उन्होंने एक बार वह मणि प्रसेनसे माँगी थी। भगवान् श्रीकृष्णने यह कार्य नहीं किया था तो भी | यह आवाज सुनकर भगवान् श्रीकृष्णने इस उनपर संदेह किया गया; अतः अपने कलङ्कका गुफाकै द्वारपर बलरामजीकै साथ अन्य यादवको मार्जन करनेके लिये वे मणिको ढूँढ लानेकी | बिठा दिया और स्वयं उन्होंने गुफाके भीतर प्रवेश प्रतिज्ञा करके वनमें गये। कुछ विश्वसनीय पुरुयोंके किया। बिलके भीतर जाम्बवान् दिखायौं दिये। साथ प्रसेनके चरण-चिह्नोंका पता लगाते हुए वे भगवान् बासुदेवसे लगातार इक्कीस दिनोंतक उस स्थान पर गये, जहाँ प्रसेन शिकार खेल रहे उनके साथ बाहुयुद्ध किया। इसी बीचमें बलदेव थे। गिरिवर ऋक्षवान् तथा उत्तम पर्वत विन्ध्यपर | आदि यादव द्वारका लौट गये और सबको श्रीकृष्णके इका अन्वेषण करते हुए वे लोग धक गये। मारे जानेको सूचना दे दी। इधर भगवान् वासदेवने अन्तमें श्रीकृष्णने एक स्थानपर घोडेसहित मरे | महाबली जाम्बवानुको परास्त करके उनकी कन्या हुए प्रसेनको लाश देखीं, किन्तु वहाँ मणि नहीं जाम्बवतीको उन्हींके अनुरोधसै ग्रहण किया। मिली। तदनन्तर थोड़ी ही दूरपर ऋक्षके द्वारा मारे साथ ही अपनी सफाई देनेके लिये वह स्यमन्तक गये सिंहका शरीर दिखायी पड़ा। ऋक्ष अपने | मणि भी ले ली। तत्पश्चात् अक्षराजकी अभ्यर्थना
- संक्षिप्त ब्रह्मपुराण ।
करके में बिलसे निकले और विनीत सेवक अक्रूरने उस उत्तम रत्नको लेते हुए शतधन्वासे साथ द्वारकामें गये। वहाँ सय यादवसे भरी हुई। प्रतिज्ञा करा ली कि मेरा नाम न बताना।। सभामें श्रीकृष्णने वह मणि सत्राजित्को दे दी। पिताके मारे जानेपर मर्नास्वनी सत्यभामा इससे आतुर हो उठी और इथपर आरुद्ध हो वारणायत नगरमें गयी। वहाँ अपने स्वामी श्रीकृष्णको शतधन्वाकी सारी करतूतें बतलाकर उनके पास खड़ी हो आँसू बहाने लगीं। तब भगवान् श्रीकृष्ण तुरंत ही द्वारका आ पहुँचे और अपने बड़े भाई बलरामजीसे बोले=’प्रभो! प्रसेनको तो सिंहने मार डाला और सत्राजित्कौ शतधन्वाने। अब स्यमन्तकमणि मेरे अधिकारमें आनेवाली है। अब मैं ही उसका उत्तराधिकारी हैं। इसलिये शीघ्र ही इथपर बैंछिये और महारथीं शतधन्वाको मारकर मणि छीन लीजिये। महाबाहो! अब स्यमन्तक हमलोगोंका ही होगा। तदनन्तर शतधन्वा और श्रीकृष्णमें घोर युद्ध हुआ। शतधन्वा सन और अक्रूरके आनेकी बाट देखने लगा। वह और इस प्रकार मिथ्या कलङ्क लगनैपर भगवान् श्रीकृष्णने भगवान् श्रीकृष्ण दौनों ही एक-दूसरेपर कुपित हों स्यमन्तकमणिको ढूंढ़ निकाला और उसे देकर रहे थे। जब अक्रूरने साथ नहीं दिया, तब अपने ऊपर आये हुए कलका मार्शन किया। शतधन्वाने भयभीत हो भाग जानेको विचार सत्राजित्के दस पत्नियों । उनके गर्भसे उन्हें सौ किया। उसके पास इदया नामकी एक घोड़ी थी, पुत्र प्राप्त हुए, जिनमें तीन अधिक प्रसिद्ध थे- | जो सौ योजन चलती थीं। वह इसीपर आरूढ़ हो भंगकार, वातपति और वसुमेध। सत्राजित्के तौन | कृष्णसे युद्ध कर रहा था। सौ योजनका मार्ग कन्याएँ भी थीं, जो सब दिशाओंमें विख्यात | वेगसे हैं करनेके कारण वह घोड़ी थककर -सत्यभामा, मतिनी तथा प्रस्थापिनीं। इनमें शिथिल हो गयी। यह देख भगवान् श्रीकृष्णने सत्यभामा सबसे उत्तम थी। उसका विवाह पिताने बलरामजीसे कहा-‘महाबाहो! आप यहीं खड़े श्रीकृष्णके साथ कर दिया। जो भगवान् श्रीकृष्णके रहें । मैंने उस घोड़ीकी कमजोरी देख ली है। अब इस मिथ्या कलङ्कका श्रवण करता है, उसे मिथ्या | तो मैं पैदल ही जाकर मणिरत्न स्यमन्तकको छीन कलङ्क कभी स्पर्श नहीं करते। लाऊँगा।’ यह कहकर भगवान् पैदल ही शतधन्वाकै । श्रीकृष्णने सत्राजितुको ज्ञों स्यमन्तकमणि दी | पास गये और मिथिलाके समीप उन्होंने उसका थीं, उसका अरने भोजवंशी शतधन्वाके द्वारा वध कर डाला, परंतु उसके पास स्यमन्तक नहीं अपहरण करा दिया। महाबली शतधन्वा सत्राजित्को दिखायीं दिया। महाबली शतधन्वाको मारकर जब मारकर वह मणि ले आया तथा अक्रूरको दे दी। श्रीकृष्ण लौटे, तब बलरामजीने कहा-‘मणि जम्मादीप तथा उसके विभिन्न वसहित भारतवर्षका वर्णन के मुझको दे दो।’ भगवान् श्रीकृष्णने उत्तर दिया-‘मणि । नहीं मिली। कुछ दिनके बाद नरश्रेष्ठ अक्रूर | अन्धकवंशी वीरोंके साथ द्वारकामें लौट आये। भवान् श्रीकृणने योगकै द्वारा यह ज्ञान लिया कि मणि वास्तवमैं अक्रूकै हौं पास है। तब उन्होंने सभामें बैठकर अकूसे कहा–’आर्य! मणिवेष्ट स्यमन्तक आपके हाथ लग गया हैं। इसे मुझे दे दीजिये। इसकी प्रतीक्षामें बहुत समय व्यतीत हो चुका है।’ |
सम्पूर्ण यादवकी सभामें श्रीकृष्णके यों कहनेपर महामति अकूरजीने बिना किसी कष्टके वह मणि दै दी। सरलतासे उसकी प्राप्ति हो । जानैपर भगवान् श्रीकृष्ण बहुत प्रसन्न हुए और उन्होंने वह मणि फिर अक्रूरको ही लौटा दी। भगवान् श्रीकृष्णके हाथसे प्राप्त हुए। मणिरत्न स्यमन्तकको गलेमें पहनकर अक्रूर सूर्यकी | भाँत प्रकाशित होने लगे।
जम्बूद्वीप तथा उसके विभिन्न वर्षोंसहित भारतवर्षका वर्णन
मुनियोंने कहा–अहो! आपने समस्त भरतवंशी हुए हैं। इन सबके बीच जम्बूद्वीपकी स्थिति है। राजाओंका यह बहुत बड़ा इतिहास कह सुनाया। इसके मध्यभागमें सुवर्णमय मेरुपर्वत है, जिसकी अब हम समस्त भूमण्डलका वर्णन सुनना चाहते ऊँचाई चौरासी हजार योजन है। वह पृथ्वीके हैं। जितने समुह, दीप, वर्ष, पर्वत, वन, नदियाँ भीतर सोलह हजार जनतक चला गया है तथा तथा पचिन्न देवताओंके स्थान हैं, समस्त भूतलका | उसके शिखरक चौडाई बत्तीस हजार भोजन हैं। मान जितना बड़ा है, जिसके आधारपर यह टिका उसके मूलका विस्तार सौलह हजार योजन है। हुआ है तथा जो इसका उपादान कारण हैं, वह वह पर्वत पृथ्वीरूपी कमलक कर्णिकाके रूपमें सब यथार्थरूपसे बतलाइये।
! स्थित है। उसके दक्षिण हिमवान्, हेमकुट और | लोमहर्पणजी बोले-मुनिवरौ ! सुनो, मैं इस | निषध पर्वत हैं तथा उत्तरमें नील, श्वेत और भूमण्डलका वृत्तान्त संक्षेपमें सुनाता हूँ। जम्बू, | शृङ्गवान् गिरि हैं। मध्यके दो पर्वत (निषध और लक्ष, शाल्मल, कुश, क्रौञ्च, शाक तथा पुष्कर में नील) एक-एक लाख योजन लंबे हैं। शेष पर्वत सात द्वीप है, जो क्रमश:-लवण, इक्षुरस, सुरा, क्रमशः दस-दस हजार योजन छोटे होते गये हैं। घृत, दधि, दुग्ध तथा जलरूप सात समुद्रोंसे घिरे । उन सबकी ऊँचाई और चौड़ाई दो-दो हजार
* संक्षिप्त ब्रह्मपुराण योजन है। मेरुके दक्षिणमें भारतवर्ष हैं। उससे पर्वत मेरुके पूर्व भागमें केसराचलके रूपमें स्थित उत्तर किम्पुरुषवर्षं तथा इससे भी उत्तर हरिवर्ष हैं। त्रिकूट, शिशिर, पतङ्ग, रुचक तथा निषध है। इसी प्रकार मेरुके उत्तर भागमें सबके अन्तर्मं आदि दक्षिणभागके केसर-पर्वत हैं। शिखिवास, यकयर्ष, इससे दक्षिण हिरण्मयवर्ष तथा उससे ! वैदूर्य, कपिल, गन्धमादन और ज्ञारुधि आदि भी दक्षिण इत्तरकुरु हैं। इन छहों वर्षों के बीच पश्चिमभागके केसराचल हैं। शङ्खकूट, ऋषभ, इलावृत्तवर्ष हैं, जिसके मध्यभागमें सुवर्णमय ऊँचा होस, नाग तथा कालञ्जर आदि अन्य पर्वत मेरुपर्वत खड़ा है। यह वर्ष मैरुके चारों ओर नौ ३त्तरभागके केसराचल हैं। मेरुगरिंके ऊपर हजार योजनतक फैला हुआ है। उसमें मेरुसे पूर्व चौदह हजार योजनके विस्तारवाली एक विशाल मन्दराचल, दक्षिणमें गन्धमादन, पश्चिममें विपुल पुरी है, जो ब्रह्माजीकी सभा कहलाती है। उसमें तथा उत्तरमें सुपार्श्वपर्वतकी स्थिति हैं। इन चारों सब और आठों दिशाओं और विदिशाओंमें इन्द्र पर्वतोपर क्रमश:-कदम्ब, जम्बू, पीपल और आदि लोकपालोके विख्यात नगर हैं। वट-ये चार वृक्ष हैं, जो ग्यारह-ग्यारह सौ भगवान् विष्णुके चरणसे निकलकर चन्द्रमण्डलको योजन विस्तारके हैं। वे वृक्ष उन पर्वतोंकी | आप्लावित करनेवाली गङ्गा ब्रह्मपुरीके चारों और ध्वजाके रूपमें सुशोभित हैं। वह जम्बू-वृक्ष ही गिरती हैं। वहाँ गिरकर वे चार भागोंमें बँट जाती इस द्वीपके ज़म्बूद्वीप नाम पड़नेका कारण हैं। हैं। उस समय उनके क्रमशः-सौता, अलकनन्दा, उसके फल विशाल गजराजके बराबर होते हैं। चक्षु और भद्रा नाम होते हैं। पूर्व और सीता एक वे गन्धमादनपर्वतपर सब ओर गिरकर फूट जाते पर्वतसे दूसरे पर्वतपर होती हुई पूर्ववर्ती भद्गाश्चवर्षकै हैं। इनके रससे वहाँ जम्बू नामको नदी बहती मार्गसे समुद्रमें जा मिलती है। इसी प्रकार हैं। वहाँक निवासी उसी नदीका जल पीते हैं। अलकनन्दा दक्षिण-पथसे भारतवर्षमें आती और उसके पीनेसे लोगोंके शरीर और मन स्वस्थ बहाँ सात भेदोंमें विभक्त होकर समुद्रमें मिल रहते हैं। उन्हें खेद नहीं होता। उनके शरीर | जाती हैं। चक्षुकी धारा पश्चिमके सम्पूर्ण पर्वतकों दुर्गन्ध नहीं होतीं तथा उनकी इन्द्रियाँ कभी लाँघका केनमालवर्षमें आती और सममें मिल क्षीण नहीं होती। जम्बूके रसको पाकर उस जाती है। इसी प्रकार भद्रा उत्तरगिरि तथा उत्तरकुरुको नदी तटकी मिट्टी ज्ञाम्बूनद नामक सुवर्णकै लाँघकर उत्तरसमुहमें मिलती हैं। माल्यवान् औंर रूपमें परिणत हो जाती है, जो सिद्धोंके आभूषणके गन्धमादनपर्वत नीलगिरिसे लेकर निषधपर्वततक काम आती है। मेरुसे पूर्व भद्गाश्च और पश्चिममें फैले हुए हैं। उन दोनोंके मध्यभागमें मेरु कणिका केतुमालवर्ष हैं। इन दोनोंके बीचमें इलावृतबर्ष आकारमें स्थित हैं। भारत, केतुमाल, भद्राश्च तथा है। मेरुके पूर्वमें चैत्ररथ, दक्षिणमें गन्धमादन, कुरु-कें द्वीप लोकपी कमलके पत्र हैं। जहर पश्चिममें वैभ्राज्ञ तथा उत्तरमें नन्दनबन है। इसी | और देवकूट-ये दो मर्यादा-पर्वत हैं। ये नीलसे प्रकार भिन्न-भिन्न दिशाओं में अरुणोद, महाभद्, | निषध पर्वततक उत्तर-दक्षिण फैले हुए हैं। ये असिनोद तथा मानस-ये चार सरोवर हैं, जो दोनों मेरुके पश्चिमभागमें पूर्ववत् स्थित हैं। त्रिभृङ्ग सदा दैवताऑकै उपभौगमैं आते हैं। शान्तवान्, और ज्ञारुधि-ये उत्तर-दिशाके वर्षपर्वत हैं, जो चक्नकुञ्ज, कुररी, माल्यवान् तथा बैंक आदि पूर्व पश्चिमी और समुद्रके भीतरतक चले गये
* जम्बूद्वीप तथा उसके विभिन्न वर्षोंमति भारतवर्षका वर्णन में।
ब्राह्मणो! इस प्रकार मैंने मर्यादापर्वतका वर्णन सह्य, शुक्तिमान्, ऋक्ष, विन्ध्य और पारियात्र-ये किया, जो मेरुके चारों और दो-दो करके स्थित सात कुलपर्वत हैं। यहाँ सकामे साधनसे स्वर्ग हैं। मेरुपर्वतके सब और जो केसरपर्बत बतलाये प्राप्त होता है, निष्काम साधनसे मोक्ष मिलता है गये हैं, उनकी गुफाएँ बड़ी मनोहर हैं, जिनमें तथा यहाँके लोग पाप करनेपर तिर्यग्योनि और सिद्ध और चारण निवास करते हैं। वहाँ सुरम्य | नरकोंमें भी पड़ते हैं। भारतके सिवा अन्यत्र वन और नगर हैं। लक्ष्मी, विष्णु, अग्नि, सूर्य तथा मनुष्योंके लिये कर्मभूमि नहीं है। इस भारतबर्षके इन्द्र आदि देवताओंके बड़े-बड़े मन्दिर हैं, जो नौ भेद हैं-इन्द्रद्वीप, कसैतुमान्, ताम्रवर्ण, किन्नरोंसे सेवित हैं। उन पर्वतकी रमणीय गुफाओंमें गभस्तिमान्, नागद्वीप, सौम्यद्वीप, गन्धर्वद्वीप, गन्धर्व, यक्ष, राक्षस, दैत्य और दानव दिन-रात | वारुणद्वीप तथा समुद्रसे घिरा हुआ यह नव द्वीप विहार किया करते हैं। ये पर्वत इस पृथ्वीकै स्वर्ग | भारत। यह नवम द्वीप दक्षिणसे उत्तरतक एक माने गये हैं। वहाँ धर्मात्माओंका निवास है, पाप । हजार यौजून लंबा है। इसके अंदर पूर्व-दिशामें मनुष्य सैकड़ों जन्म धारण करनेपर भी वहाँ नहीं | किरात तथा पश्चिम-दिशामें यवन रहते हैं; जा सकते। भद्राश्चवर्षमें भगवान् विष्णु हयग्नौवरूपसे मध्यमैं ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य तथा शूद्र जातिकै विराजमान हैं। केतुमालमें वाराह, भारतवर्षमें लोग रहते हैं, जिनकौं क्रमश:=पज्ञ, युद्ध, कच्छप तथा उत्तरकुरुमें मत्स्यरूप धारण करके वाणिज्य तथा सेवा-यै चार वृत्तियाँ हैं। रहते हैं। सर्वेश्वर भगवान् श्रीहरि सर्वस्वरूप हैं। शतद् (सतलज) और चन्द्रभागा (चनाब) आदि तथा विश्वरूपमें वे सर्वत्र सुशोभित होते हैं। नदि हिमालयको शाखाओं से निकली हैं। अखिल जगत्स्वरूप भगवान् विष्णु सबके आधारभूत वैदस्मृति आदि सरिताओंका उद्गम पारियात्र हैं। किम्पुरुष आदि जो आठ वर्ष हैं, उनमें पर्वत हैं। नर्मदा और सुरमा आदि नदियाँ शोक, आयास, उद्वेग तथा क्षुधाका भय आदि| विन्ध्यपर्वतसे प्रकट हुई हैं। तापी, पयोध्यो, दोष नहीं हैं। वहाँको प्रज्ञा सब प्रकार से स्वस्थ, ! निर्विन्ध्या तथा कावेरी आदि सरिताएँ ऋक्षकी निर्भय तथा सब प्रकारके दुःखोंसे रहित है। इन शाखासे निकली हैं। इनका नाम श्रवण करनेमात्रसे सबकी स्थिर आयु दस-बारह हजार वर्षोंतककी ये सब पापोंको हर लेती हैं। गोदावरी, भीमरथीं होती हैं। इन स्थानोंमें पृथ्वीकै क्षुधा, पिपासा तथा कृष्यावेणी आदि पापनाशिनी नदियाँ आदि अन्य दोष भी नहीं प्रकट होते। इन सभी | सह्मपर्वतकी संतानें हैं। कृतमाला, ताम्रपर्णी वर्षोंमें सात-सात कुल-पर्वत हैं, जिनसे सैंकड़ों आदिका उद्गमस्थान मलयपर्वत है। त्रिसांध्य, नदियाँ प्रकट हुई हैं।
ऋषिकुल्या आदि नदियाँ महेन्द्रपर्वतसे प्रकट हुई समुद्रके उत्तर और हिमालयकै दक्षिणका | हैं। ऋषिकुल्या और कुमारा आदि नदियों शुक्तिमान्के जो देश है, उसका नाम भारतवर्ष है। उसीमें शाखापर्वतोंसे निकली हैं। इन नदियों की शाखाभूत राजा भरतकी संतान तथा प्रज्ञा रहती हैं। उसका सहस्रों उपनदियाँ भी हैं। इनके मध्यमें कुरु, विस्तार नौ हजार योजन है। भारतवर्ष कर्मभूमि | पाञ्चाल, मध्यदेश, पूर्वदेश, कामरूप (आसाम), हैं। वहाँ इच्छानुसार साधन करनेवालों को स्वर्ग पौण्डू, कलिङ्ग (उड़ीसा), मगध, दक्षिणके तथा मोक्ष प्राप्त होते हैं। भारतमें महेन्द्र, मलय, | प्रदेश, अपरान्त, सौराष्ट्र (काठियावाड़), शूद्र, आभौर, अर्बुद (आयू), मरु (मारवाड़), मालवा, संचयसे जीव कभी मनुष्य-जन्म पाता है। देवता पारियात्र, सौवीर, सिंध, शाल्व, शाकल्य, मद्र, | यह गीत गाते हैं कि ‘जो जीव स्वर्ग और मोक्षके अम्बष्ठ तथा पारसीक आदि प्रदेश और वहाँकै हैनुभूत भारतवर्षकै भूभागमें बारंबार मनुष्यरूपमैं निवासी रहते हैं। वे पर्यत्व नदियोंके जल पौते इत्पन्न होते हैं और फलेच्छासे रहित कर्मका तथा समभावसे रहते हैं। उक्त प्रदेशोंके लोग बड़े अनुष्ठान करके उन्हें परमात्मस्वरूप श्रीविष्णुको सौभाग्यशाली एवं हष्ट-पुष्ट हैं। इन सबका निवास अर्पण का देते हैं, वे धन्य हैं।* जो इस कर्मभूमि भारतवर्षमैं ही हैं। महामुने ! सत्ययुग, त्रैता, द्वापर उत्पन्न हो सत्कर्मोद्वारा अपने अन्तःकरणको शुद्ध और कलियुग-ये चार युग इस भारतवर्षमैं हीं करके भगवान् अनन्तमें लीन होते हैं, उनका जीवन होते हैं, अन्यत्र कहीं नहीं होते। यह पारलौकिक धन्य है। हमें पता नहीं, इस स्वर्गलोककी प्राप्ति लाभके लिये यति तपस्या करते, यज्ञकर्ता अग्निमें करानेवाले पुण्यलोकके क्षीण होनेपर हम फिर कहाँ आहुति डालते तथा दाता आदरपूर्वक दान देते हैं। देह धारण करेंगे। वे मनुष्य, जो भारतवर्षमें जन्म लेकर जम्बूद्वीपमें मनुष्य सदा अनेक यज्ञद्वारा यज्ञमय | सम्पूर्ण इन्द्रियोंसे सम्पन्न हैं, धन्य हैं।’ विवरो! यह यज्ञपुरुष भगवान् विष्ाका पवन करते हैं। अन्य नौ वर्षोंसे युक्त जम्बूदीपका वर्णन किया गया। इसका द्वीपोंमें दूसरे प्रकारकी उपासनाएँ हैं। महामुने! | विस्तार एक लाख यौवन है तथापि यहाँ संझैपसे जम्बूद्वीपमें भी भारतबर्ष सबसे श्रेष्ठ है; क्योंकि ही बताया गया। जम्बूद्वीपको गोलाकारमें चारों यह कर्मभूमि हैं और अन्य देश भोगभूमि हैं। यहाँ औरसे घेरकर खारे पानीका समुद्र स्थित हैं। ला जन्म धारण करनेके बाद बहुत बड़े पुण्यके| इसका विस्तार भी एक लाख योजन है।
लक्ष आदि छः द्वीपोंका वर्णन और भूमिका मान लोमहर्षणजी कहते हैं-जिस प्रकार जम्बूद्वीप क्षेमक तथा ध्रुव हैं। ये सभी प्लक्षद्वपके राजा खारे पानीकै समुद्रसे घिरा हुआ है, उसी प्रकार हुए। इन्हींक नामपर उस द्वीपके सात वर्ष हैं। उस समुद्रको भी घेरकर लक्षद्वीप स्थित हैं। उनकी सीमा अनानेवाले सात हौ वर्षपर्वत हैं। जम्बूद्वीपका विस्तार एक लाख योजन बताया। उनके नाम बतलाता है, सुनो। गोमेद, चन्द्र, नारद, गया है। लक्षद्वीपका विस्तार उससे दुगना है। इन्दभि, सौमक, सुमना तथा वैभ्राज़-चें सात प्लक्षद्वीपके स्वामी राजा मैधातिथिके सात पुत्र वर्षपर्वत हैं। इन रमणीय पर्वतोंपर देवताओं और हुए। उनमें ज्येष्ठ पुत्रका नाम शान्तमय हैं। उससे गन्धर्वोसहित वहाँकी प्रज्ञा निवास करती हैं। उन छोटे क्रमशः शिशिर, सुखोदय, आनन्द, शिव, | सबमें पवित्र जनपद हैं, वीर पुरुष हैं। वहाँ
* अत्रापि भारत भैई जम्यहीपे महामुने। यतो हि कर्मभूरेषा यतोऽन्या भौगभूमयः।
अन जन्मसहस्राणां सहनैपि सत्तम। कदाचिभते जन्तुर्मानुष्यं पुण्यसञ्चयात् ।। गायन्ति देवाः किल गीतकानि धन्यारस्तु ये भारतभूमिभागे । स्वर्गापवर्गास्पदहेतुभूतं भवन्ति भूयः पुरुषा मनुष्याः॥ कर्मास्यसंकल्पिततत्फलानि संन्यस्य विण परमात्मरुपे। (१५ । ३३–३६)
के लक्ष आदि छः द्वीपों वर्णन और भूमिका मान के किसीकी मृत्यु नहीं होती। मानसिक चिन्ताएँ तथा पर्वतोंक नाम सुनो। कुमुद, उन्नत, सलाहक, द्रोण, व्याधियाँ भी नहीं सतात । वहाँ हर समय सुख कङ, महिष तथा पर्वतश्रेष्ठ ककुयान्–ये सात मिलता है। प्लक्षद्वीपके वर्षों में सात ही ऐसी पर्वत हैं। इनमें द्रोणपर्वतपर कितनी ही महौषधियाँ नदियाँ हैं, जो समुद्रमें जा मिलती हैं। अनुतप्ता, हैं। नदियों के नाम इस प्रकार हैं- श्रोणी, तौया, शिखा, विप्राशा, त्रिदिवा, क्रम, अमृता तथा वितृष्णा, चन्द्रा, शुक्ला, बिमोचनी तथा निवृत्त । सुकता-ये सात वहाँकी नदियाँ हैं। इस प्रकार वहाँ श्वेत आदि सात वर्ष हैं, जिनमें चारों चणके लक्षद्वीपकै प्रधान-प्रधान पर्वतों और नदियोंका लोग निवास करते हैं। शाल्मलद्वीपमें कपिल, वर्णन किया गया। छोटी-छोटी नदियाँ और छेटे- | अरुण, पीत तथा कृष्ण वर्णके लोग होते हैं, जो ऑटे पहाड़ तो वहाँ हजारों हैं। उन वर्षों में युगकी क्रमशः ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र माने जाते व्यवस्था नहीं है। वहाँ सदा ही त्रेतायुगके समान हैं। ये सब लोग यज्ञमरायण हो सबके आत्मा, समय रहता है। प्लक्षद्वीपसे लेकर शाकद्वीपतककै अविनाशी एवं यज्ञमें स्थित भगवान् विष्णुकी लॉग पाँच हजार वर्षांतक नीरोग जीवन व्यतीत वायुरूप आराधना करते हैं। इस अत्यन्त मनोहर करते हैं। उन द्वीपोंमें वर्णाश्रम-विभागपूर्वक चार द्वीपमें देवताओंका सांनिध्य बना रहता है। वहाँ प्रकारका धर्म है तथा वहाँ चार हीं वर्ण हैं, शाल्मलि नामका महान् वृक्ष हैं, जो उस द्वीपके जिनके नाम इस प्रकार हैं-आर्यक, कुरु, विविश्व नामकरणका कारण बना है। यह द्वीप अपने तथा भावी । ये क्रमश: ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य तथा समान विस्तारवाले सुराके समुद्रसे घिरा हुआ है। शूद्रकी कोटिके हैं। उस द्वीपके मध्यभागमें लक्ष और वह सुराका समुद्र शाल्मलद्वीपसे दुगुने (पाकड़) नामका बहुत विशाल वृक्ष है, जो विस्तारवाले कुशद्वीपद्वारा सब ओरसे आवृत्त है। जम्बुद्वीपमें स्थित जम्बू (जामुन) वृक्षके ही बराबर कुशद्वीपमें ज्योतिष्मान् राजा हैं; अब उनके पुत्रोंके हैं। उसीके नामपर उस द्वीपका लक्षद्वीप नाम नाम बतलाये जाते हैं, सुनो-उद्भिद्, वेणुमान्, रखा गया है। प्लक्षद्वीपमें आर्यक आदि वर्गोंकि सुरथ, रन्धन, धृति, प्रभाकर और कपिल 1 इन्हींक लोग जगत्स्रष्टा सर्वेश्वर भगवान् श्रीहरिका चन्द्रमाके नामपर अहाँके सात वर्ष प्रसिद्ध हैं। वह मनुष्योंके रूपमें यज्ञन करते हैं। लक्षद्वीप अपने ही बराबर साथ-साथ दैत्य, दानव, देवता, गन्धर्व, यक्ष और विस्तारवाले मण्डलाकार इक्षुरसके समुद्रसे घिरा | किंनर आदि भी निवास करते हैं। वहाँक मनुष्योंमें हुआ हैं। अब शाल्मलद्वीपका वर्णन सुनो। | भी चार ही वर्ग हैं, जो अपने-अपने कर्तव्य | शाल्मलद्वीपके स्वामी वीर वपुष्मान् हैं। उनके पालनमें तत्पर रहते हैं। उन वर्षों के नाम इस सात पुत्र हैं और उन्हाँकै नामपर वहाँ सात वर्ष प्रकार हैं-दमी, शुष्मी, स्नेह तथा मन्देह। ये स्थित हैं। जिनके नाम इस प्रकार हैं- श्वेत, हरित, ! क्रमश: ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य तथा शूद्रकी श्रेणी में जौमूत, रोहित, वैद्युत, मानस सधा सुप्रभ। इक्षुरसका बताये गये हैं। चे शास्त्रोक्त फर्मोका ठीक-ठीक जो समुद्र बताया गया हैं, वह अपने दुगुने पालन करते और अपने अधिकारके आरम्भक विस्तारवाले शाल्मलद्वीपके द्वारा सब ओरसे घिरा कर्मोका क्षय होनेके लिये कुशद्वीपमें ब्रह्मारूपों हुआ है। वहाँ भी सात ही वर्षपर्वत हैं, जहाँ भगवान् जनार्दनका यजन करते हैं। विद्म, हेमशैल, रत्नोंको खाने हैं। नदियाँ भी सात हीं हैं। पहले युतिमान्, पुष्टिमान्, कुशेशय, हरि और मन्दराचल-ये
* संक्षिप्त ब्रह्मपुराण
सात उस द्वीपके वर्षपर्वत हैं। नदियाँ भी सात हो । समुद्र भी शाकद्वीपसे आवृत हैं। शाकद्वीपका हैं, जिनके नाम इस प्रकार हैं-धूतपापा, शिवा, विस्तार क्रौञ्चद्वीपसे दूना है। उसके स्वामी महात्मा पवित्रा, सम्मति, विद्युत्, अम्भस् तथा महीं। ये भव्य हैं। उनके सात पुत्र हैं, जिन्हें राजाने उस सब पापका अपहरण करनेवाली नदियाँ हैं। द्वीपके सात विभाग करके वहाँका राज्य दिया है। इनके अतिरिक्त भी वहाँ बहुत-सी छोटी-छोटी राजपुत्रक नाम ये हैं-जलद, कुमार, सुकुमार, नदियाँ और पर्वत हैं। कुशद्वीपमें कुशका बहुत मनौरक, कुसुमोद, गोदाकि तथा महाम। इन्हीं बड़ा वन है, अतः उसीके नामपर उस द्वीपकी नामपर वहाँकै सात वर्ष प्रसिद्ध हुए हैं। वहाँ भी प्रसिद्धि हुई है। वह द्वीप अपने ही बराबर सात पर्वत हैं, जो जलद आदि वर्षोंकी सीमा विस्तारवाले घीके समुद्रसे घिरा हुआ है। । निर्धारित करते हैं। उनके नाम इस प्रकार हैं-उदयगिरि, | मुनिवरो! उपर्युक्त धौका समुद्र क्रशद्वीपसे घिरा | जलधार, रैवतक, श्याम, अम्भोगिरि, आस्तिकेय हुआ है। उसका विस्तार कुशद्वीपसे दुगुना है। तब केसरी। वहाँ शाक (सागवान) का यहुत बझ क्रौशद्वीपके राजा द्युतिमान् हैं। महात्मा द्युतिमानके वृक्ष हैं, जहाँ सिद्ध और गन्धर्व निवास करते हैं। सात पुत्र हैं। महामना द्युतिमान्ने अपने पुत्रकै हीं उसके पत्तोंको छूकर बहनेवाली वायुका स्पर्श नामसे क्रौञ्चट्ठीपके सात विभाग किये, जिनके नाम होने से बड़ा आनन्द मिलता है। वहकि पवित्र ये हैं-कुशग, मन्दग, उष्ण, पौवर, अन्धकारक, जनपद चार वर्षोंकि सौगोंसे सुशोभित हैं। शाकद्वीपमें मुनि और दुन्दुभि। क्रौंज्ञद्वीपमें भी बड़े ही मनोरम महात्मा पुरुष निर्भय एवं नीरोग होकर निवास करते सात वर्षपर्वत हैं, जिनपर देवता और गन्धर्व नियास हैं। वहाँकी नदियाँ भी परम पवित्र तथा सय करते हैं। उनके नाम ये हैं-क्रौञ्च, वामन, पापका नाश करनेवाली हैं। उनके नाम ये हैं अन्धकारक, देवव्रत, धर्म, पुण्डरीकवान् तथा दुन्दुभि। सुकुमारी, कुमारी, नलिनी, रेणुका, इक्षु, धेनुका तथा ये एक-दूसरेसे दुगने बड़े हैं। जितने द्वीप हैं, द्वीपोंमें | गभस्ति। इनके अतिरिक्त वहाँ छोटी-छोटी हजारों जितने पर्वत हैं तथा पर्वतों द्वारा सीमित जितने वर्ष नदियाँ हैं। पर्वत भी सहस्रोंकी संख्यामें हैं। हैं, उन सभी रमणीय प्रदेशोंमें देवताओंसहित जलदादि वर्षोंके निवासी बड़ी प्रसन्नताके साध समस्त प्रज्ञा बेखटके निवास करती है। क्रौञ्चद्वीपमें पूर्वोक्त नदियका जल पीते हैं। मग, मागध, मानस पुष्कल, पुष्का, धन्य तथा ख्यात—ये चार वर्ण हैं, तथा मन्दग–ये ही वहाँक चार वर्ण हैं। मग जो क्रमश: ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य एवं शूदको ! ब्राह्मण, मागध क्षत्रिय, मानस वैश्य तथा मन्दग शूद्र कोटिके माने गये हैं। वहीं छोटी-बड़ी सैंकड़ों जानने चाहिये। शाकद्वीपमें रहनेवाले लोग अपने नदियाँ हैं, जिनमें सात प्रधान हैं-गौरी, कुमुद्वती, मन और इन्द्रियोंको संयममें रखकर शास्त्रोक्त संध्या, रात्रि, मनोजथा, ख्याति तथा पुण्डरीका। सत्कर्मोके द्वारा सूर्यरूपधारी भगवान् विष्णुका क्रौशहौपके निवासी इन्हीं नदियका जल पीते हैं। पूजन करते हैं। शाकद्वीप अपने ही बराबर विस्तारवाले वहाँ पुष्कर आदि वर्णोके सोग यज्ञके समीप क्षीरसागरद्धारा सब ओरसे घिरा हुआ है। ध्यानयोगके द्वारा रुद्रस्वरूप भगवान् जनार्दनका क्षीरसागरको पुष्करद्वीपने चारों ओरसे घेर यज्ञन करते हैं। क्रौञ्चद्वीप अपने समान परिमाणवाले रखा है। उसका विस्तार शाकद्वीपसे दुगुना है। दधिमण्डोद नामक समुद्रसे घिरा हुआ है तथा वह पुष्करके महाराज स्रवनको दो पुत्र हुए-महावीर
* लक्ष आदि छः द्वीपोंका वर्णन और भूमिका मान +
औंर धातक। उन्हीं दोनोंके नामपर उस द्वौपके दो पुष्करद्वीप अपने समान विस्तारवाले मीठे जलके विभाग हुए हैं एकका नाम महावीतवर्ष और दूसरेका | समुद्रसे घिरा हैं। इस प्रकार सात द्वीप सात धातकिवर्ष हैं। उस द्वीपमें एक ही वर्ष-पर्वत हैं, मुद्रोंसे आवृत हैं। एक द्वीप और समुद्रका विस्तार जो मानसोत्तरके नामसे विख्यात हैं। मानसोत्तरपर्वत | समान माना गया हैं। उसकी अपेक्षा दूसरे समुद्र पुष्कद्वीपके मध्यभागमें वलयाकार स्थित हैं। उसकीं और द्वीप दुगुने बड़े हैं। सब समुद्दोंमें सदा समान ऊँचाई पचास हजार यौजनक हैं, चौड़ाई भी | ज्ञल रहता हैं। उसमें कभी न्यूनता या अधिकता उतनी ही हैं। वह इस द्वीपके चारों और मण्डलाकार नहीं होती। जैसे बटलोईमें रखा हुआ जल आगका स्थित हैं। वह पुष्करद्वीपकों बीचसे चीरता हुआ- | संयोग होनेसे उफन उठता है, उसी प्रकार चन्द्रमाकी सा खड़ा है। उससे विभक्त होकर उस द्वीपके दो वृद्धि होनेपर समुद्रकै जलमें प्रचार आता है। खण्ड हो गये हैं। प्रत्येक खण्ड गोलाकार है और उसका जल अढ़ता हैं और फिर घट जाता हैं। उन दोनों खण्डोंके बीचमें वह महापर्वत स्थित हैं। तथापि उसमें न्यूनता या अधिकता नहीं होती। वहाँकै मनुष्य दस हजार वर्षोंतक जीवित रहते हैं। शुक्ल और कृष्णपक्षमें चन्द्रमाके उदय और अस्त वे सब लोग रोग-शोकसे वर्जित तथा राग-द्वेषसे होनेपर समुद्रकै जलका उत्थान पंद्रह सौ अंगुल शून्य होते हैं। उनमें ऊँच-नीचका कोई भेद नहीं हैं। ऊँचेतक देखा गया है। उत्थानके आद जल पुनः वहाँ न कोई वाध्य है, न वधिक। वहाँके लोगोंमें | इतारमें आ जाता है। पुष्करद्वीपमें सबके लिये ईर्ष्या, असूया, भय, रोष, दोष और लोभ आदि नहीं भोजन स्वत: उपस्थित हो जाता है। वहाँकी होते। महावीतवर्ष मानसोत्तरपर्वतके बाहर हैं और समस्त प्रज्ञा सदा घड्स युक्त भोजन करती हैं। धातकिवर्ष भीतर। उसमें देवता और दैत्य आदि स्वादिष्ट जलवाले समुद्रके दोनों तटोंपर लौकी सभी निवास करते हैं। पुष्करद्वीपमें सत्य और स्थिति देखी जाती है। उसके आगेको भूमि असत्य नहीं हैं। उसके दोनों खण्डोंमें न कोई नदीं सुनर्णमयी हैं, जिसका विस्तार पुष्करद्वीपसे हैं न दूसरा पर्वत । वहाँक मनुष्य देवताओंके समान दुगुना है। वहाँ किसी भी जीव-जन्तुका निवास रूप और वेषवाले होते हैं। उन दोनों वर्षोंमें वर्ण नहीं है। उसके आगे लोकालोकपर्वत है, जो
और आश्रमका आचार नहीं है। वहाँ किसीके दस हजार योजनतक फैला हुआ हैं। उसक धर्मका अपहरण नहीं होता। वेदत्रयी, बार्ता (कृषि-| ऊँचाई भी उतने ही योजनोंकी है। लोकालोक वाणिज्य आदि), दण्डनीति तथा शुश्रूषा आदिका पर्वतके बाद अन्धकार हैं, जो इस पर्वतको सब व्यवहार भी नहीं देखा जाता; अतः उक्त दोनों वर्ष औरसे आच्छादित करके स्थित हैं। अन्धकार भूमण्ट्रलकै उत्तम स्वर्ग समझे जाते हैं। वहाँका | भी अण्डकटाहके द्वारा सब औरसे घिरा है। इस प्रत्येक समय सबके लिये सुखद होता है। किसीको | प्रकार अण्डकटाह, द्वीप तथा पर्वतोंसहित इस जरा-अवस्था या रोगका कष्ट नहीं होता । पुष्कद्धीपमें सम्पूर्ण पृथ्वीका विस्तार पचास करोड़ योजन एक बरगदका विशाल वृक्ष हैं, जो ब्रह्माजीका उत्तम है। यह भूमि सबका धारण-पोषण करनेवाली स्थान माना गया हैं। उसके नीचे देवता और है। इसमें सब भूतों की अपेक्षा अधिक गुण हैं। असुरोंसे पूजित भगवान् ब्रह्मा निवास करते हैं। यह सम्पूर्ण जगत्की आधारभूता है।
पाताल और नरकका वर्णन तथा हरिनाम-कीर्तनकी महिमा | लोमहर्षणजी कहते हैं-मुनिवरो ! इस प्रकार | सिद्ध पुरुष उन्हें अनन्त कहते हैं, देवता और यह पृथ्वीका विस्तार बतलाया गया। इसकीं | देवर्षि उनकी पूजा करते हैं। वे सहस्रों मस्तकोंसे ऊँचाई भौ सत्तर हजार योजन हैं। पृथ्वीकै भौतर सुशोभित हैं। स्वस्तिकाकार निर्मल आभूषण उनकी सात तल हैं, जिनमें से प्रत्येककी ऊँचाई दस-दस शोभा बढ़ाते हैं। वे अपने फर्जीकी सहस्रों हार योजनकी है। इन सातों तलाके नाम ये मणियोंसे सम्पूर्ण दिशाओंको प्रकाशित करते हैं हैं-अतल, वितल, नितल, सुतल, तलातल, | तथा संसारका कल्याण करनेके लिये सम्पूर्ण रसातल तथा पाताल। इनकी भूमि क्रमश: कालौ, असुरोंकी शक्ति हर लेते हैं। उनके कानों में एक सफेद, लाल, पीली, कैंकरोली, पथरौली तथा ही कुण्डल शोभा पाता है। मस्तकपर किरीट और सुवर्णमयी है। सातों ही तल बड़े-बड़े महलोंसे गलेमें मणियको माला धारण किये भगवान् सुशोभित हैं। उनमें दानव और दैत्योंकी सैकड़ों अनन्त अग्निकी ज्यालासे प्रकाशमान श्वेत पर्वतकी जातियाँ निवास करती हैं। विशालकाय नागोंके भीत शोभा पाते हैं। वे नौल वस्त्र धारण करते, कुदम्ब भी उनके भीतर रहते हैं। एक समय मदसे मत्त रहते और चैत हारसे ऐसे सुशोभित पातालसे लौटे हुए देवर्षि नारदजीने स्वर्गलोककीं होते हैं, मानो आकाशगङ्गाके प्रपातसे युक्त उत्तम सभामें कहा था-‘पाताललोक स्वर्गलोकसे भी कैलास पर्वत शोभा पा रहा हो। उनके एक रमणीय है। वहाँ सुन्दर प्रभायुक्त चमकीली हाथका अग्रभाग हलपर टिका रहता हैं और दूसरे मणियाँ हैं, जो परम आनन्द प्रदान करनेवाली हैं। हाथमें वे उत्तम मूसल धारण किये हुए हैं। वे नागोंके अलंकारों एवं आभूषणों के काम आती | प्रलयकालमें विषाग्निको ज्वालाओंसे युक्त हैं। भला, पातालको तुलना किससे हो सकती हैं। संकर्षणात्मक रुद् इन्हींके मुखोंसे निकलकर वहाँ सूर्यको किरणें दिनमें केवल प्रकाश फैलाती तीनों लोकोंका संहार करते हैं। सम्पूर्ण देवताओंसे हैं, धूप नहीं। इसी प्रकार चन्द्रमाकी किरणें रातमें | पूजित वे भगवान् शेष पातालकै मूलभागमें स्थित केवल उजाला करती हैं, सर्दी नहीं फैलातौं । हो अपने मस्तकपर समस्त भूमण्डलको धारण वहाँ सर्प और दैत्य आदि भक्ष्य, भोज्य तथा किये रहते हैं। उनके वीर्य, प्रभाव, स्वरूप तथा सुरापानकै मदर्स उन्मत्त होकर यह नहीं जान पाते रूपका वर्णन देवता भी नहीं कर सकते। जिनके कि कब कितना समय बीता है। वहाँ वन, मस्तकपर रखी हुई समूची पृथ्वी उनके फणोंकी नदियाँ, रमणीय सरोवर, कमलवन तथा अन्य मणियोंके प्रकाशसे लाल रंगकी फूलमाला-सी मनोहर वस्तुएँ हैं, जो बड़े सौभाग्यसे भोगनेको दिखायी देती हैं, उनके पराक्रमका वर्णन कौन मिलती हैं। पाताल-निवास दानव, दैत्य तथा कर सकता हैं। भगवान् अनन्त जब भाई लेते सर्पगण सदा ही उन सबका उपभोग करते हैं। हैं, उस समय पर्वत, समुद्र और वनसहित यह सब पातालोंके नीचे भगवान् विष्णका तमोमय सारी पृथ्वी डोलने लगती है। गन्धर्व, अप्सरा, विग्रह हैं, जिसे शेषनाग कहते हैं। दैत्य और सिद्ध, किन्नर और सर्प–कोई भी उनके गुणोंका दानथ उनके गुणोंका वर्णन करनेमें समर्थ नहीं हैं। अन्त नहीं पाते; इसीलिये उन अविनाशी प्रभुको
- पाताल और नरकका वर्णन तथा हरिनाम–कीर्तनकी महिमा ।।
अनन्त कहते हैं। जिनके ऊपर नागबधुओंके | और अपने भक्तका त्याग करता हैं, वह तप्तलोह हाथोंसे चढ़ाया हुआ हरिचन्दन बारंबार श्वास- नामक नरकमें गिरती हैं। पुत्री और पुत्र-वधूके वायुके लगनेसे सम्पूर्ण दिशाओंको सुवासित करता साथ समागम करनेवाला पापी महाञ्चाल नामक रहता हैं, प्राचीन ऋषि गर्गने जिनकी आराधना | नरकमें गिराया जाता है। जो नीच अपने गुरुजनका करके सम्पूर्ण ज्यौतिष-शास्त्रका यथार्थ ज्ञान प्राप्त | अपमान करना, उन्हें गालियाँ देता, वेदोंको दूषित किया था, उन्हीं नागश्रेष्ठ भगवान् शेषने इस | करता, उन्हें बेचता तथा अगम्या स्त्रियोंके साथ पृथ्वीको धारण कर रखा है और वे ही देवता, ||
समागम करता है, वे सभी शबल नामक नरकमें असुर तथा मनुष्यों सहित समस्त लोकोंका जाते हैं। चोर तथा मर्यादामें कलङ्क लगानेवाला भरण-पोषण करते हैं।’
मनुष्य विमोह नामक नरकमें गिरता हैं। देवताओं, ब्राह्मणो! पातालके अनन्तर रौरव आदि नरक द्विजों तथा पितरोंसे द्वेष रखनेवाला एवं रत्नको हैं, जिनमें पापियोंको गिराया जाता हैं। उन दूषित करनेवाला मनुष्य कृमिभक्ष्य नामक नरकमें नरक नाम बतलाता हूँ, सुनो। रौरव, शकर, |पड़ता है। जो दूषित यज्ञ करता और देवताओं, रोध, तान, विशसन, महाज्वाल, तमकुम्भ, महालोभ, | पितरों एवं अतिथियोंको दिये बिना ही स्वयं खा विमोहन, रुधिरान्ध, वसातस, कृमश, कृमिभोजन, | लेता हैं, वह लालाभक्ष्य नामक भयंकर नरकमें
असिपत्रवन, लालाभक्ष्य, पूयबह, वह्निज्वाल, अध:- | जाता है। बाण बनानेवाला बेधक नामके नरकमें शिरा, संदंश, कृष्णसूत्र, तम, श्वभौजन, अप्रतिष्ठ | गिरता हैं। जो कर्णी नामक बाण तथा अङ्ग तथा अवचि इत्यादि बहुत-से नरक हैं, जो आदि आयुधोंका निर्माण करता हैं। वह अत्यन्त अत्यन्त भयंकर हैं। ये सब यमके राज्यमें हैं। भयंकर विशसन नामक नरकमें गिराया जाता हैं। शस्त्र, अग्नि और विषके द्वारा यातना देनेके कारण जो द्विज नीच प्रतिग्रह स्वीकार करता है। यज्ञके वे सभी नरक अत्यन्त भयंकर हैं। जो मनुष्य | अनधिकारियोंसे यज्ञ करवाता है तथा केवल पापकर्मोंमें लगे रहते हैं, वे ही इन नरकोंमें गिरते | नक्षत्र बताकर जीविका चलाता है, वह अधोमुख हैं। जो झूठी गवाही दैता, पक्षपातपूर्वक बोलता नामक नरकमें जाता हैं। जो अकेला ही मिठाई तथा असत्य भाषण करता है, वह मनुष्य रौरव- | खाता हैं, वह मनुष्य कृमिपूय नामक नरक में जाता नरकमें पड़ता है। जो गर्भके बच्चेकी हत्या हैं। लाख, मांस, रस, तिल और नमक बैंचनेवाला कग्रता, गुरुके प्राण लेता, गायको मारता तथा ब्राह्मण भी उसी नरकमें पड़ता है। बिल्ली, मुर्गी, दूसरोंकै श्वास रोककर मार डालता हैं, वे सभी बकरा, कुत्ता, सूअर तथा चिड़िया पालनेवाला भी घोर रौरव नरकमें गिरते हैं। शराबी, ब्रह्महत्यारा, कृमिपूयमें ही गिरता हैं। जो ब्राह्मण रङ्गमञ्चपर सुवर्णकी चोरी करनेवाला तथा इन पापियाँसे | नाचकर जीविका चलाता, नाच चलाता, ज्ञारज संसर्ग खनेवाला मानव शकर नरकमें जाता है। मनुष्यका अन्न खाता, दूसरोंको जहर देता, चुगली ज्ञों क्षत्रिय और वैश्यक हत्या करता, गुरुपत्नीसे | खाता, भैससे जीविका चलाता, पर्वकै दिन स्त्रीसम्भोग संसर्ग रखता, बहनके साथ व्यभिचार करता तथा | करता, दूसरोंके घरमें आग लगाता, मित्रोंकी हत्या राजदूतके प्राण लेता हैं, वह तप्तकुम्भ नामक | करता, शकुन बताकर पैसे लेता, गाँवभरकी नरकमें पड़ता हैं। जो शराब तथा सिंहको बेचता पुरोहित करता तथा सोमरस बेचता है, वह
* संक्षिप्त ब्रह्मपुराण ।
रुधिरा-ध नामक नरकमें गिरता हैं। भाईको | उनकी धर्मके प्रति श्रद्धा और पापके प्रति चिंरक्ति मारनेवाला और समूचे गाँवको नष्ट करनेवाला | बढ़ती हैं। स्थावर, कीट, जलचर पक्ष, पशु, मनुष्य वैतरणी नदीमें जाता है। जो बीर्य पान मनुष्य, धर्मात्मा, देवता तथा मोक्षप्राप्त महात्मा-ये करते, मर्यादा तोड़ते, अपवित्र रहते और बाजीगरीसे क्रमशः एकसे दूसरे सहस्रगुने श्रेष्ठ । महर्षियने जीविका चलाते हैं, वे कृच्छ नामक नरकमें गिरते | पापोंके अनुरूप प्रायश्चित्त भी बतलाये हैं। हैं। जो अकारण ही जंगल कटवाता है, वह स्वायम्भुव मनु आदि स्मृतिकारोंने बड़े पापके असिपत्रवन नामक नरक में जाता हैं। भेड़के लिये बड़े और छोटे पापके लिये छोटे प्रायश्चित्त व्यापारसे जीविका चलानेवाले और मृगोंका वध | बतलाये हैं। वे सब तपस्यारूप हैं। तपस्यारूप ज्ञों करनेवाले वञ्चिाल नामक नरकमें गिराये जाते । समस्त प्रायश्चित्त हैं, उन सबमें भगवान् श्रीकृष्णका हैं। जो व्रतका लोप करनेवाले तथा अपने निरन्तर स्मरण श्रेष्ठ । पाप कर लेनेपर जिस आश्चमसे भ्रष्ट हैं, वे दोनों ही संदेश-नरकको पुरुषको इसके लिये पश्चात्ताप होता है, इसके यातनामें पड़ते हैं। जो मनुष्य ब्रह्मचारी होकर | लिये एक बार भगवान् श्रीहरिको स्मरण कर लेना दिनमें सोते और स्वप्नमें वीर्यपात करते हैं तथा ही सर्वोत्तम प्रायश्चित्त हैं। प्रात:काल, रात्रि, संध्या जो लोग अपने पुत्रोंदारा पढ़ाये जाते हैं, वे ! तथा मध्याह्न आदिमें भगवान् नारायणका स्मरण श्वभौज्ञन नामक नरक गिरते हैं। ये तथा और करनेवाला मनुष्य तत्काल पापमुक्त हो जाता है। भी सहस्रों नरक हैं, जिनमें पापी मनुष्य यातनामें भगवान् विष्णुके स्मरण और कीर्तनसे समस्त डालकर पीड़ित किये जाते हैं। ऊपर जो पाप क्लेशराशिके क्षीण हो जानेपर मनुष्य मुक्त हो गिनाये गये हैं, उनके अतिरिक्त दूसरे भी सहल | ज्ञाता है। विप्रवरो! जप, होम और अर्चन आदिके प्रकारके पाप हैं, जिनका फल नरकमें पड़े हुए। समय जिसका मन भगवान् वासुदेवमें लगा होता पाप जीव भौगते हैं।
हैं, वह तो मोक्षका अधिकारी हैं। इसके लिये जो लोग मन, वाणों और क्रियाद्वारा अपने फलरूपसे इन्द्र आदिके पदको प्राप्ति बिम्नमात्र वर्ण और आश्रमके विपरीत आचरण करते हैं, वे हैं। कहाँ तो जहाँसे पुन: लौटना पड़ता है, ऐसे नरकोंमें पड़ते हैं। नरकमें पड़े हुए जीव नीचे मुँह स्वर्गलोकमें ज्ञाना और कहाँ मोक्षके सर्वोत्तम करके लटका दिये जाते हैं और इसी अवस्थामै | बोज़ वासुदेवमन्त्रका जप ! इनमें कोई तुलना वें स्वर्गमें सुख भोगनेवाले देवताओंको देखते हैं। ही नहीं हैं। इसलिये जो पुरुष रात-दिन भगवान् इसी प्रकार देवता भी उक्त अवस्थामें पड़े हुए विष्णुका स्मरण करता है, वह अपने समस्त नरककै जीवको देखते रहते हैं। ऐसा होनेसे पातकोंका नाश हो जानेकै कारण कभी नरकमें
‘ प्रायश्चित्तान्यशेषाणि तप:कमांत्मकान थे। यानि तैयामशेषाणां कृष्णानुस्मरणं परम् ॥
कृतं पापेऽनुताप यै यस्य पुंसः प्रज्ञायते । प्रायश्चित्तं तु तस्यक हरिसंस्मरणं परम् ।। प्राशि तथा संयामध्याह्मादिषु संस्मरन् । नारायणमयाप्नोति सद्यः पापक्षयं नरः ॥ थिम्पुमान् समस्तक्लेशसंचय: । मुलं प्रयाति भो बिमा विगौस्तस्यानुकौर्तनात् ॥ वासुदेवं मनो यस्य अपहोमार्चनादिषु । तस्यान्तरायो विन्दा देवेन्द्रबादिके फलम् ॥ व नागमनं पुनरावृत्तिलक्षणम्। क्य जपों वासुदेवेति मुक्तिबीजमनुत्तमम् ॥ (२२ । ३ –४२)
के ग्रहों तथा भुवः आदि लोकोंकी स्थिति, श्रीविष्णुशक्तिको प्रभाव के नहीं पड़ता। एक ही वस्तु समय-समयपर | ज्ञान हीं परब्रह्मका स्वरूप हैं और अज्ञान दुःख-सुख, ईष्य और क्रोधका कारण बनती है।| बन्धनका कारण हैं। यह सम्पूर्ण विश्व ज्ञानस्वरूप अत: केवल दुःखरूप वस्तु कहाँसे आयौ? वहीं | है। ज्ञानसे बढ़कर कुछ भी नहीं है। ब्राह्मणो ! वस्तु पहले प्रसन्नताका कारण होकर फिर दु:ख | बिया और अविद्याको भी ज्ञानरूप ही समझो। देनेवाली बन जाती हैं। फिर वहीं क्रोध और इस प्रकार मैंने तुमसे समस्त भूमपद्धत, पाताल, प्रसन्नताको भी हेतु बनती है। इसलिये कोई भी | नरक, समुद्र, पर्वत, द्वीप, वर्ष तथा नदियोंका वस्तु न तो दुःखरूप हैं न सुखरूप। यह सुख | संक्षेपसे वर्णन किया। अब और क्या सुनना और दु:ख आदि तो मनका विकारमात्र है।* | चाहते हो?
ग्रहों तथा भुवः आदि लोकोंकी स्थिति, श्रीविष्णुशक्तिको अभाव तथा शिशुमारचक्रका वर्णन
मुनियोंने कहा-महाभाग लोमहर्षणजी ! अब | बृहस्पतिसे दो लाख योजन ऊपर शनैश्चर हैं और हम भुव: आदि लोकोंका, ग्रहोंकी स्थितिका | उनसे एक लाख योजन ऊँचे सप्तर्षिमण्डल स्थित तथा उनके परिमाणका यथार्थ वर्णन सुनना चाहते | है। सप्तर्षियोंसे लाख योजन ऊपर ध्रुव हैं, जो हैं। आप कृपापूर्वक बतलायें।
समस्त ज्योतिर्मण्डलके केन्द्र हैं। ध्रुबसे ऊपर लोमहर्षणजी बोले-सूर्य और चन्द्रमाकी | महर्लोक है, जहाँ एक कल्पतक जीवित रहनेवाले किरणोंसे समुद्र, नदी और पर्वतसहित जितने | महात्मा पुरुष निवास करते हैं। उसका विस्तार भागमें प्रकाश फैलता हैं, उतने भागको पृथ्वी | एक करोड़ योजन है। उसके ऊपर जनलोक हैं, कहते हैं। पृथ्वी विस्तृत होनेके साथ ही गोलाकार | जिसका विस्तार दो करोड़ योज़न है। वहीं शुद्ध हैं। पृथ्वीसे एक लाख योजन ऊपर सूर्यमण्डलक | अन्त:करणवाले ब्रह्मकुमार सनन्दन आदि महात्मा स्थिति है और सूर्यमण्डलसे लाख योजन दूर | वास करते हैं। जनलोकसे ऊपर उससे चौगुने चन्द्रमण्डल स्थित हैं। चन्द्रमण्डलसे लाख योजन विस्तारवाला तपोलोक स्थित है, जहाँ शरीरहित ऊपर सम्पूर्ण नक्षत्रमण्डल प्रकाशित होता है। वैराज्ञ आदि देवता रहते हैं। तपोलोकसे ऊपर नक्षत्रमण्डलसे दो लाख योजन ऊँचे बुधक | सत्यलोक प्रकाशित होती हैं, जो उससे छ: गुना स्थिति है। बुधसे दो लाख योजन शुक्र स्थित हैं। बड़ा हैं। वहाँ सिद्ध आदि एवं मुनिजन निवास शुक्रसे दो लाख योञ्जन मङ्गल, तथा मङ्गलसे दो | करते हैं। वह पुनर्जन्म एवं पुनर्मुत्युका निवारण लाख योजन ऊँचे देवगुरु बृहस्पति स्थित हैं।| करनेवाला लोक है। जहाँतक पैरोंसे जाने योग्य
* वस्त्रेकमेव इलाय सुखायेर्योदयाय च । क्रौपाय च यतस्तस्माद् वस्तु दुःखात्मकं कुतः ॥ तदेव प्रतये भूत्वा पुन :वाय जायते । तदेव कोपाय यतः प्रसादाय च जायते ।। तस्माद्दामकै नाति न च ञ्चित्सुखात्मकम् । मनसः परिणामयं सुखदु:शादिलक्षा: ॥ २२ । ४५–४३)
* संक्षिप्त ब्रह्मपुराण पार्थिव वस्तु हैं, उसे भूलोक कहा गया है; उसका आग और तिल तेल व्याप्त रहता हैं, उसी प्रकार विस्तार पहले बताया जा चुका है। भूमि और प्रधान अर्थात् प्रकृतिमें चेतन पुरुष व्याप्त है। ये सूर्यक बौचमें जो सिद्ध एवं मुनियोंसे सेवित प्रदेश | प्रकृति और पुरुष एक-दुसरेके आश्रित हो भगवान् है, वह भुवर्लोक कहा गया हैं। यहीं दूसरा लोक | विष्णुको शक्तिसे टिके हुए हैं। श्रीविष्णुकीं शक्ति है। ध्रुव और सूर्यके बीचमें जो चौदह लाख ही प्रकृति और पुरुषकै पृथकू एवं संयुक्त होनेमें योजन विस्तृत स्थान हैं, उसे लौक-स्थितिका कारण है। विप्रवरो! वहीं सृष्टिकै समय प्रकृतिमें विचार करनेवाले पुरुषोंने स्वर्गलोक बतलाया है। क्षोभका कारण होती हैं। जैसे वायु जलके कणोंमें भूः, भुवः और स्व:-इन्हीं तीनोंकों त्रैलोक्य | रहनेवाली शीतलताको धारण करती हैं, इस कहते हैं। विद्वान् ब्राह्मण इन तीनों लोको प्रकार भगवान् विष्णुको शक्ति प्रकृति-पुरुषरूप कृतक (नाशवान्) कहते हैं। इसी प्रकार ऊपरके सम्पूर्ण जगत्को धारण करती हैं। जैसे प्रथम ज्ञों न, तप और सत्य नामक लोक हैं, वे तीनों बीजसे मूल, तने और शाखा आदिसहित विशाल अकृतक (अविनाशी) कहलाते हैं। कृतक और वृक्ष उत्पन्न होता हैं, फिर उस वृक्षसे अन्यान्य अकृतकके बीचमें महर्लोक हैं, जो कृतकाकृतक | बीज प्रकट होते हैं और उन बीजों से भी पहले कहलाता है। यह कल्पान्तमें जनशून्य हो जाता है, | हो-जैसे वृक्ष इत्पन्न होते रहते हैं, उसी प्रकार किंतु नष्ट नहीं होता। ब्राह्मणों ! इस प्रकार ये सात पहले अव्याकृत प्रकृतिसे महत्तत्त्व आदि उत्पन्न महालोक बतलाये गये हैं। पाताल भी सात ही हैं। होते हैं, फिर उनसे दैवता आदि प्रकट होते हैं, यहाँ समूचे ब्रह्माण्डका विस्तार हैं। देवताओंसे उनके पुत्र और उन पुत्रोंके भी पुत्र | यह ब्रह्माण्ड़ ऊपर, नीचे तथा किनारेकी होते रहते हैं। जैसे एक वृक्षसे दूसरा वृक्ष उत्पन्न ओरसे अण्डकटाहद्वारा घिरा हुआ हैं-ठीक इसी | होनेपर पहले वृक्षक कोई हानि नहीं होती, इसी तरह, जैसे कैथका बीज सब ओर छिलकेसे ढका | प्रकार नूतन भूतोंकी सृष्टिसे भूतोंका ह्रास नहीं रहता है। उसके बाद समूचे अण्डकटाहसे दसगुनें होता। जैसे समपवर्ती होनेमात्रसे आकाश और विस्तारवाले जलकै आवरणद्वारा यह ब्रह्माण्ड काल आदि भी वृक्षके कारण , उसी प्रकार आवृत हैं। इसी प्रकार जलका आवरण भी | भगवान् श्रीहरि स्वयं विकृत न होते हुए ही बाहकी ओरसे अग्निमय आवरणद्वारा घिरा हुआ | सम्पूर्ण विश्वके कारण होते हैं। जैसे धानके है। अग्नि वायुसे, वायु आकाशसे और आकाश | बीजमें जड़, नाल, पत्ते, अङ्क, कापड, कोप, महत्तत्त्वसे आवृत हैं। इस प्रकार ये सातों आवरण फूल, दूध, चावल, भूसी और कन-सभीं रहते उत्तरोत्तर दसगुने बड़े हैं। महत्तत्त्वको आवृत हैं तथा अङ्करित होनेकै योग्य कारण सामग्री करके प्रधान–प्रकृति स्थित हैं। प्रधान अनन्त हैं। पाकर प्रकट हो जाते हैं, उसी प्रकार भिन्न-भिन्न उसका अन्त नहीं है और न उसके मापकी कोई | क्रममें देव आदि सभी शरीर स्थित रहते हैं तथा संख्या हीं हैं। वह अनन्त एवं असंत्यात बताया। कारणभूत श्रीविष्णुशक्ति का सहारा पाकर प्रकट गया हैं। वहीं सम्पूर्ण जगत्का उपादान हैं। उसे हो जाते हैं।
उसके भीतर ऐसे- वे भगवान् विष्णु परब्रह्म हैं, उन्हींसें यह ऐसे कोटि-कोटि ब्रह्माण्ड़ स्थित हैं। जैसे लकड़ीमें सम्पूर्ण जगत् उत्पन्न हुआ हैं, वे हो जगत्स्वरूप हैं। के ग्रहों तथा भुवः आदि लोकॉकी स्थिति, विष्णुशक्तिको प्रभाव।। तथा उन्हमें इस जगत्को लय होगा। वे परब्रह्म | अन्नसे सम्पूर्ण जगत्का भरण-पोषण होता हैं।
और परम धामस्वरूप हैं, सत् और असत् भी वे सूर्य अपनी तीखी किरणोंसे जगत्का जल लेकर हीं हैं, वे ही परम पद हैं। यह सम्पूर्ण चराचर | उसके द्वारा चन्द्रमाको पुष्टि करते हैं। धूम, अग्नि जगत् उनसे भिन्न नहीं हैं। वे ही अव्याकृत मूल और घायुरूप मेघों में स्थापित किया हुआ जल प्रकृति और व्याकृत जगत्स्यरूप हैं। यह सब कुछ अपभ्रष्ट नहीं होता, अतएव मैघको अभ्र कहते उन्हमें लय होता और उन्हींके आधारपर स्थित हैं। वायुको प्रेरणासे मेघस्थ जल पृथ्वीपर गिरता रहता है। वे ही क्रियाओंके कर्ता (यजमान) हैं, है। नदी, समुद्र, पृथ्वी तथा प्राणियोंके शरीरसे उन्हौंका यज्ञद्वारा यज्ञान किया जाता है, यज्ञ और निकला हुआ—ये चार प्रकारके जल सूर्य अपनी उसके फल भी वे ही हैं। युग आदि सब कुछ | किरणद्वारा ग्रहण करते हैं और उन्हींको समयपर उन्हींसे प्रवृत्त होता हैं। इन श्रीहरिसे भिन्न कुछ बरसाते हैं। इसके सिवा वे आकाशगङ्गाके जलको
भी नहीं है।*
भी लेकर उसे बादलोंमें स्थापित किये बिना ही | लोमहर्षणजी कहते हैं-आकाशमें शिशुमार शीघ्र पृथ्वीपर बरसा देते हैं। उस जलका स्पर्श (गोह)-के आकारमें जो भगवान्का तारामय होनेसे मनुष्यकै पाप-पङ्क धुल जाते हैं, जिससे स्वरूप है, उसके पुच्छभाग ध्रुवकी स्थिति हैं। वह नरकमें नहीं पड़ता। यह दिव्य स्नान माना ध्रुव स्वयं अपनी परिधिमें भ्रमण करते हुए सूर्य, गया है। कृत्तिका आदि विषम नक्षत्रोंमें सूर्यके चन्द्र आदि अन्य ग्रहको भी घुमाते हैं। ध्रुवके दिखायी देते हुए आकाशसे जो जल गिरता है, घूमनेपर उनके साथ ही समस्त नक्षत्र चक्रको उसे दिग्गजोंद्वारा फेंका हुआ आकाशगङ्गाका जल भौति घूमने लगते हैं। सूर्य, चन्द्रमा, तारे, नक्षत्र समझना चाहिये। इसी प्रकार भरणौ आदि सम और ग्रह-ये सभी वायुमयौ डौरीसे ध्रुवमें बँधे | संख्यावाले नक्षत्रोंमें सूर्यके दिखायी देते हुए हुए हैं। शिशुमारके आकारका आकाशमें जो | आकाशसे जो जल गिरता है, वह भी आकाशगङ्गाम तारामय रूप बताया गया है, उसके आधार पर ही जल हैं, जिसे सूर्यको किरणें तत्काल ले धामस्वरूप साक्षात् भगवान् नारायण हैं, जो आकर चरसाती हैं। यह दोनों ही प्रकारका ज्ञल शिशुमारके हृदय-देशमें स्थित हैं। देवता, असुर अत्यन्त पवित्र और मनुष्योंका पाप दूर करने वाला और मनुष्यसहित यह सम्पूर्ण जगत् भगवान् है। आकाशगङ्गाके ज्ञलका स्पर्श दिव्य स्नान हैं। नारायणकै हौ आधारपर टिका हुआ है। सूर्य आठ बादलोंके द्वारा जो ज्ञलकी वर्षा होती है, वह महीनोंमें अपनी किरणोंद्वारा रसात्मक जलका प्राणियोंके जीवनके लिये सब प्रकारके अन्न संग्रह करते हैं और उसे वर्षाकालमें बरसा देते | आदिकी पुष्टि करती हैं। अत: वह अल अमृत हैं। उस वृष्टिके जलसे अन्न पैदा होता हैं और माना गया है। उसके द्वारा अत्यन्त पुष्ट हुई सय
स च विष्णुः परं ब्रह्म यतः समदं जगत् । जगन हो यन्न चेदं यस्मिन् विलयमेष्यति ॥ तद् ब्रह्म परम धाम सदसत्परमं पदम्। यस्य सर्वमभन जगदेतच्चराचरम् ।। स एव मूतप्रकृतियक्तरूपी अगच सः । तस्मिन्नेव लयं सर्वं याति तत्र च तिर्भात ॥ कता क्रियाणां स च इज्यते क्रतुः स एव तन्कर्मफलं च तस्य यत् । यदि यस्मान भवेदशेत होतं किञ्चद् निरिमस्ति तत्॥
(२३ । १–४४) ५३ ।
* संक्षिप्त ब्रह्मपुराण
प्रकारकी औषधियाँ फलती, पकती एवं प्रज्ञाकै | द्वारा होती है। सूर्यके आधार ध्रुव, धुवके उपयोगमें आती हैं। उन औषधियोंसे शास्त्रदर्शी | शिशुमारचक्र तथा शिशुमारचक्रके आश्रय साक्षात् मनुष्य प्रतिदिन विहित यज्ञों का अनुष्ठान करके | भगवान् नारायण हैं। वे शिशुमारचक्रके हृदय देवताओंको तृप्त करते हैं। इस प्रकार यज्ञ, वेद, | देशमें स्थित हैं। वे ही सम्पूर्ण भूतके आदि, ब्राह्मण आदि वर्ण, सम्पूर्ण देवता, पशु, भूतगण पालक तथा सनातन प्रभु हैं। मुनिबरो! इस प्रकार तथा स्थावर-जङ्गमरूप सम्पूर्ण जगत्-ये सबा | मैंने पृथ्वी, समुद् आदिसे युक्त ब्रह्माण्डूका वर्णन वृष्टिके द्वारा ही धारण किये गये हैं। वृष्टि सूर्यके | किया। अब और क्या सुनना चाहते हो?
तीर्थ–वर्णन मुनियोंने कहा–धर्मके ज्ञाता सूतजीं! पृथ्वीपर | रूपतीर्थ, शूकर, चक्रतीर्थ, योगतीर्थ, सोमतीर्थ, जो–जो पवित्र तीर्थ और मन्दिर हैं, उनका वर्णन शाखौटक, कौकामुख, बदरीशैल, तुङ्गकूट, स्कन्दाश्रम, कीजिये। इस समय हमारे मनमें उौंका वर्णन अग्निपद, पञ्चशिख, धर्मोद्भव, अन्धप्रमोचन, गङ्गाद्वार, सुननेकी इच्छा हैं। पञ्चकूट, मध्यकेसर, चक्लभ, मतङ्ग, कुशदण्ड, लोमहर्षणजी बोले–जिसके हाथ, पैर और दंष्टाकुण्ड, विष्णुतीर्थ, सार्वकामिकतीर्थ, मत्स्यत्तिल, मन काबूमें हों तथा जिसमें विद्या, तप और कीर्ति | ब्रह्मकुण्ड, वह्निकुण्ड, सत्यपद, चतु:स्रोत, चतुः हो, वह मनुष्य तीर्थक फलका भागी होता है। शृङ्ग, द्वादशधार, मानस, स्थूलभङ्ग, स्थूलदण्ड, पुरुषको शुद्ध मन, शुद्ध वाणी तथा चशमैं की हुई | उर्वशी, लोकपाल, मनुवर, सौमशैल, सदाप्रभ, इन्द्रियाँ—ये शारीरिक तीर्थ हैं, जो स्वर्गका मार्ग मैरुकुण्ड, सोमाभिषेचनतीर्थ, महासौत, कटरक, सूचित करती हैं। भीतरका दूषित चित्त तीर्थस्नानसे | पञ्चधार, त्रिधार, सप्तधार, एकधार, अमरकण्टक, शुद्ध नहीं होता। जिसका अन्त:करण दूषित हैं, शालग्राम, कोटिम, बिल्वप्रभ, देवहूद, विष्णुहूद, ज्ञौ दम्भमें रुचि रखता हैं तथा जिसकी इन्द्रियाँ शङ्खप्रभ, देवकुण्ड, वज्रायुध, अग्निप्रभ, पुनाग, चञ्चल हैं, उसे तीर्थ, दान, व्रत और आश्रम भी देवप्रभ, विद्याधरतीर्थ, गान्धर्वतीर्थ, मणिपूर गिरि, पवित्र नहीं कर सकते। मनुष्य इन्द्रियोंकों अपने पञ्चद, पिण्डारक, मलव्य, गोप्रभाव, गोवर, वशमें करके जहाँ–जहाँ निवास करता है, वहीं– | वटमुल, स्नानदण्ड, विमुपद, कन्याश्चम, वायुकुण्ड, वहीं कुरुक्षेत्र, प्रयाग और पुष्कर आदि तीर्थ वास | जम्बुमार्ग, गभस्तितीर्थ, अजातिपतन, भवट, करने लगते हैं। द्विजवरो! अब मैं पृथ्वीके पवित्र महाकालवन, नर्मदातीर्थ, तीर्थक्छ, अर्बुद, पिङ्गतीर्थ, तीर्थों और मन्दिरोंका संक्षेपसे वर्णन आरम्भ वासिष्ठतीर्थं, पृथुसंगम, दौंसिक, पिञ्जरक, करता हैं, सुनो। पुष्कर, नैमिषारण्य, प्रयाग, | ऋषितीर्थ, ब्रह्मतुङ्ग, वसुतीर्थ, कुमारिक, शक्रतीर्थ, धर्मारण्य, धेनुक, चम्पकारण्य, सैन्धवारण्य, | पञ्चनद्, रेणुकातीर्थ, पैतामह, विमलतीर्थ, कृपाद, मगधारण्य, दण्डकारण्य, गया, प्रभास, श्रीतीर्थ, | मणिमान्, कामाख्य, कृष्णतीर्थ, कुलिङ्गक, यज़नतीर्थ, कनखल, भूरातङ्ग, हिरण्याक्ष, भीमारण्य, कुशस्थली, | यानतीर्थ, ब्रह्मचालुका, पुष्पन्यास, पुण्डरीक, मणिपूर, लोहाकुल, केदार, मन्दरारण्य, महाबल, कोटितीर्थ, | दीर्घसत्र, हयपद, अनशनतीर्थ, गङ्गोद, शिवोद्भेद,
# जीर्थ–वन #
नर्मदोद्धेद, वस्त्रापद, दारुबल, छायारोहण, सिद्धेश्वर, । सितौंद, मत्स्योदरी, सूर्यप्रभ, अशोकवन, अरुणास्पद्, मित्रबल, कालिकाश्रम, चटावट, भइयट, कौशाम्बी, शुक्रतीर्थ, वालुकातीर्थ, पिशाचमोचन, सुभद्राङ्गद, दिवाकर, सारस्वतद्वीप, विजयतीर्थ, कामदतीर्थ, विरलदण्इकुण्ड, चण्डेश्वरतीर्थं, श्यैष्ठस्थानह्द, ब्रह्मसर, रुद्रकोटि, सुमनस्तीर्थ, समन्तपञ्चक, ब्रह्मतीर्थ, जैगीषव्यगुहा, हरिकेशबन, अजामुखसर, घण्टाकर्ण, सुदर्शनतीर्थ, पारिप्लव, पृथूदक, दशाश्वमेधिक, सादि, | कर्कोटकवापी, सपर्णास्यौदपान, शेततीर्थङ्द, विजय, पञ्चनद, वाराङ, यक्षिणीहृद, पुण्डरौक, घर्धेरिकाकुण्ड, श्यामाकूप, चन्द्रिकातीर्थ, सोमतीर्थ, मुझवट, बदरीवन, रत्नमूलक, स्वलकद्वार, | श्मशानस्तम्भकूप, विनायक, सिन्धूद्धवकूप, ब्रह्मसर, पञ्चतीर्थ, कपिलातीर्थ, सूर्यतीर्थ, शङ्खनीतीर्थ, रुद्रावास, नागतीर्थ, पुलोमतीर्थ, भकद, क्षीरसर, गौभवनतीर्थ, यक्षराजतीर्थ, ब्रह्मावर्त, कामेश्वर, मातृतीर्थं, | प्रेताधार, कुमारतीर्थ, कुशावर्त, दधिकर्णोदपानक, शातबनतीर्थ, स्नानलोमापह, माससंसरक, केदार, ! शृङ्गतीर्थ, महातीर्थ, महानदी, गयशौर्य, अक्षयवट, ब्रह्मदुम्बर, सप्तर्षिकुण्ड, देवीतीर्थ, जम्बुकतीर्थ, | कपिलाद, गृध्रवट, सावित्रीहद, प्रभासन, शीतवन, ईहास्पद, कोटिकूट, किंदान, किंजय, काण्डव, योनिद्वार, धन्यक, कोकिलातीर्थ, मतङ्गद, पितृकूप, अवेध्य, त्रिविष्टप, पाणिखात, मिश्रक, मधुवट, सप्तकुण्ड, मणिरत्नद, कौशिक्यतीर्थ, भरततीर्थ, मनोजव, कौशिकीतीर्थ, देवतीर्थ, ऋणमोचनतीर्थ, ज्येष्ठालिकातीर्थ, कल्पसर, कुमारधारा, श्रीधारा,
धूम, अमरद, श्रीकुञ्ज, शालितीर्थ, नैमिषेयतीर्थ, | गोरोशिखर, शुनकुण्ड, नन्दितीर्थ, कुमारवास, श्रीवास, ब्रह्मस्थान, कन्यातीर्थ, मनसतीर्थ, कारुपावनतीर्थ, कुम्भकर्णहद, कौशिकोहद, धर्मतीर्थ, कामतीर्थ, सौगन्धिकवन, माणितीर्थ, सरस्वतीतीर्थ, ईशानतीर्थ, उद्दालकतीर्थ, संध्यातीर्थ, लोहितार्णव, शोणोद्धव, पाशयज्ञिकतीर्थ, त्रिशूलधार, माहेन्द्र, देवस्थान, कृतालय, वंशगुल्म, ऋषभ, कलतीर्थ, पुण्यावर्तिद, बदरिकाश्नम, शाकम्भरी, देवतीर्थ, सुवर्णतीर्थ, कलिहूद, क्षीरसव, | रामतीर्थ, पितृवन, विरजातीर्थ, कृष्णतीर्थ, कृष्णवट, विरूपाक्ष, भूतीर्थ कुशोद्भवतीर्थ, ब्रह्मयोनि, नीलपर्वत, रोहिणीकूप, इन्द्रद्युम्नसरोवर, सानुगर्त, माहेन्द्र, श्रीनद, कुजाम्बक, वसिष्ठपद, स्वर्गद्वार, प्रजाद्वार, कलिकाश्रम, इषुतीर्थ, वार्षभतीर्थ, कावेरौद, गोकर्ण, गायत्रीस्थान, स्ववर्त साधावा, कपिलान, भद्रा , शहद, बदरीहद, मध्यस्थान, विकर्णक, जानौद, देवकूप, सप्तसारस्वत, औशनसतीर्थ, कपालमोचन, अवकीर्ण, कुशप्रथन, सर्वदेवव्रत, कन्याश्रमद, चालखिल्यहूद काम्यक, चतु:सामुद्रिक, शतिक, सहश्निक, रेणुक, ! तथा अखण्डित–ये सब पवित्र तीर्थ हैं। जो पञ्चवटक, विमोचन, स्थाणुतीर्थ, कुरुतीर्थ, कुशध्वज, मनुष्य इन तीर्थोंमें उत्तम श्रद्धासे सम्पन हो उपवास विश्वेश्वर, मानवकूप, नारायणाश्रम, गङ्गाद, अदपावन, एवं इन्द्रियसंयमपूर्वक विधिवत् स्नान, देवता, ऋषि, इन्द्रमार्ग, एकरात्र, क्षीरकावास, दधीच, श्रुततीर्थ, मनुष्य तथा पितरोंका तर्पण, देवताओंका पूजन एवं कोटितीर्थस्थली, भद्रकालीद, अरुन्धतींवन, ब्रह्मावर्त, | तीन रातिक निवास करता है, वह प्रत्येक तीर्थक अश्ववेदी, कुब्जाबन, यमुनाप्रभव, वीर, प्रमोक्ष, | पृथक्–पृथक् फलरूपसे अश्वमेध–यज्ञका पुण्य प्राप्त सिन्धुत्ध, ऋषिकुल्या, कृत्तिका, उर्वीसंक्रमण, करता हैं–इसमें तनिक भी संदेह नहीं हैं। जो मायाविद्योदय, महाश्रम, चैतसिका, सुन्दरकाश्रम, प्रतिदिन इस उत्तम तीर्थ–माहात्म्यको सुनता, पढ़ता बाहुतीर्थ, चारुनदी, विमलाशोक, मार्कण्डेयतीर्थ, | अथवा सुनाता है, वह सब पापसे मुक्त हो जाता है।
* संक्षिप्त ब्रह्मपुराण
भारतवर्षका वर्णन मुनियोंने कहा-वक्ताओंमें श्रेष्ठ सूतजी ! इस | पृथ्वीपर धर्म, अर्थ, काम एवं मोक्ष प्रदान करनेवाली जो उत्तम भूमि एवं श्रेष्ठ तीर्थ हो, उसे | बतलाइये। | लोमहर्षणजी बोले-ब्राह्मणो! पूर्वकालमें महर्षियने मैरै गुरु व्यासजसे यह प्रश्न पूछा था। मैं वही प्रसंग कहता हूँ। कुरुक्षेत्रकी बात है, बुद्धिमानों में श्रेष्ठ व्यासजीं, जो सब शास्त्रोंके विद्वान्, महाभारतके रचयिता, अध्यात्मनिष्ठ, सर्वज्ञ, सब भूतोंके हितमें संलग्न, पुराण और आगमके वक्ता तथा वेद-वेदाङ्गकै पारंगत पण्डित हैं, अपने परम पवित्र आश्रममें बैठे हुए थे। भौति भतिके पुष्प उस आश्रमकी शोभा बढ़ा रहे थे। उसी समय उत्तम व्रतका पालन करनेवाले |
अनेक महर्षि उनके दर्शनके लिये आयें। कश्यप, सम्पूर्ण वाङ्मयका ज्ञान रखते हैं। यह संसार एक जमदग्नि, भरद्वाज, गौतम, वसष्ठ, जैमिनि, धौम्य, समुद्रके समान है। इसमें दु:ख-ही-दु:ख भरा है। मार्कण्डेय, वाल्मीकि, विश्वामित्र, शतानन्द, वात्स्य, यह कष्टमय एवं नि:सार है। इस भयानक गाग्र्य, आसुरि, सुमन्तु, भार्गव, कण्व, मेधातिथि, ] भवसागरमें रागरूपी ग्राह रहते हैं। यह विषयरूपी माण्डव्य, च्यवन, धूम्र, असित, देवल, मौल्य, जलसे भरा रहता हैं । इन्द्रियाँ हीं इसमें भेवर हैं। तृणयज्ञ, पिप्पलाद, अकृतव्रण, संवर्त, कौशिक, यह क्षुधा, पिपासा आदि सैंकड़ों ऊर्मियोंसे व्याप्त रैभ्य, मैत्रेय, हरित, शाण्डिल्य, विभाण्ड, दुर्वासा, | है। इसे मोहरूपी कीचड़ने मलिन बना रखा है। लोमश, नारद, पर्वत, वैशम्पायन, गालव, भास्करि, लोभकी गहराईके कारण इसके पार जाना अत्यन्त पूरण, सूत, पुलस्त्य, कपिल, पुलह, देवस्थान, कठिन हैं। हम देखते हैं कि सम्पूर्ण जगत् इसमें सनत्कुमार, पैल, कृष्ण तथा कृष्णानुभौतिक-ये डूबकर कोई सहारा न पा सकनेके कारण अचेत तथा और भी बहुत-से मुनिवर सत्यवतीनन्दन बहा जा रहा हैं। अतः आपसे पूछते हैं, इस व्यासको घेरकर बैठ गये। उनके छिमें व्यासजी भयंकर संसारमें कौन-सा साधन कल्याणकारी मक्षत्रों से घिरे हुए चन्द्रमाकी भाँति शोभा पाते | हैं? इस बातका उपदेश देकर आप सम्पूर्ण थे। कुछ बातचीतके बाद उन्होंने व्यासजीसे | लोकोंका उद्धार कीजिये। इस पृथ्वीपर जो परम अपना सन्देह इस प्रकार पूछा। दुर्लभ मोक्षदायक क्षेत्र एवं कर्मभूमि हैं, उसे मुनि बोले-मुने ! आप वेद, शास्त्र, पुराण, | बतलाइये। हम उसका श्रवण करना चाहते हैं। तन्त्रशास्त्र, महाभारत, भूत, वर्तमान, भविष्य तथा| व्यासजीने कहा-पूर्वकालमें महर्षियोंका
* भारतवर्षका वर्णन ।। .
ब्रह्माजीकै साथ जौ संवाद हुआ था, उसे आप | संयमशील पुरुष धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष-सब सब लोग सुनें। नाना से विभूषित मेरुगरिंके कुछ प्राप्त करता है। इन्द्र आदि देवताओंने विशाल शिखरपर भगवान् ब्रह्माजी विराजमान थे। भारतवर्षमें शुभ कर्मोका अनुष्ठान करके दैवत्य देवता, दानव, गन्धर्व, यक्ष, विद्याधर, नाग, मुनि प्राप्त किया है। इनके सिवा अन्य जितेन्द्रिय तथा सिद्ध उनकी सेवामें उपस्थित थे। उस समय पुल्पन भी भारतवर्षमें शान्त, वीतराग एवं मात्सर्यरहित भृगु आदि महर्षियोंने पितामहको प्रणाम करके जीवन बिताते हुए मोक्ष प्राप्त किया है। देवता सदा इस प्रकार प्रश्न किया-‘भगवन्! इस पृथ्वीपर इस बातकी अभिलाषा करते हैं कि हम लोग कब कर्मभूमि कौन हैं तथा दुर्लभ मौक्ष-क्षेत्र कौन है? स्वर्ग एवं मोक्ष प्रदान करनेवाले भारतवर्षमें जन्म यह बतानेकी कृपा करें।’
लेकर निरन्तर उसका दर्शन करेंगे। इसके पूर्वमें किरात और पश्चिममें यवन रहते हैं। मध्यभागमें ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य तथा शूद्दका निवास है। वे क्रमशः यज्ञ, शुद्ध और व्यापार आदि विशुद्ध कर्मोंक द्वारा अपनेको पवित्र करते हैं। उनका जीवन-निर्वाह भी इन्हीं कमसे होता है। यहां किया हुआ पुण्य सकाम होनेपर स्वर्ग
आदिका तथा निष्काम होनेपर मौक्षका साधक होता है। इसी प्रकार पाप भी अपना फल प्रदान करता है। महेन्द्र, मलय, शक्तिमान्, अक्षपर्वत, विन्ध्य और पारियात्र-ये हौ सात यहाँ कुल पर्वत हैं। उनके आस-पास और भी हजारौं पर्वत हैं। वे सभी विस्तृत, ऊँचे और रमणीय हैं। उनके | शिखर भाँति-भाँतके और सुन्दर हैं। कोलाहल, वैभ्राज्ञ, मन्दर, दुर्दराचल, वातंधय, वैद्युत, मैनाक, ब्रह्माजी बोले-मुनिवरो ! सुनो, इस पृथ्यौपर सुरस, तुङ्गप्रस्थ, नागगिरि, गोधन, पाण्डुराचल, भारतवर्षको कर्मभूमि बतलाया गया हैं। वह | पुष्पगरि, वैजयन्त, दैवत, अर्यद, ऋष्यमूक, गोमत, परम प्राचीन, वेदोंसे सम्बन्ध रखनेवाला तथा भोग कृतशैल, कृताचल, श्रीपर्वत, चकोर तथा अन्य और मोक्ष प्रदान करनेवाला उत्तम क्षेत्र है। वहीं अनेक पर्वत ऐसे हैं, जिनसे मिले हुए म्लेच्छ किये हुए कर्मोके फलरूपसे स्वर्ग और नरक प्राप्त आदि जनपद पृथक्-पृथक् बसे हुए हैं। वहाँके होते हैं। भारतवर्षमें पाप या पुण्य करके मनुष्य | लोग जिन श्रेष्ठ नदियोंका जल पीते हैं, उनके नाम निश्चय ही उसके अशुभ अथवा शुभ फलका इस प्रकार ज्ञान–गङ्गा, सरस्वती, सिन्धु, चन्द्रभागा भागी होता है। वहाँ ब्राह्मण आदि वर्ण भलीभाँति | (चनाब), यमुना, शतद् (सतलज), विपाशा संयमपूर्वक रहते हुए अपने-अपने कर्मोका अनुष्ठान (व्यास), वितस्ता (झेलम), इरावती (राव), करके उत्तम सिद्धिको प्राप्त होते हैं। भारतवर्ष । कुहू (गोमती), धूतपापा, बाहुदा, दृषद्वती, देविका,
* संक्षिप्त ब्रह्मपुराण के
चक्षु, निष्ठीवा, गण्डकी तथा कौशिकी । ये हिमालयकी समुद्रमें मिलनेवाली सभी नदियों पुण्यसलिला घाटोंसे निकली हुई नदियाँ हैं। देवस्मृति, देववती, सरस्वती तथा गङ्गाके समान हैं। सभी इस वातल्ली, सिन्धु, वेण्या, चन्दना, सदानीरा, महीं, | विश्वकी जननी एवं पापहारिणीं मानी गयी हैं। चर्मण्वत (चंबल), वृष, विदिशा, वेदवतीं, इनके अतिरिक्त भी सहस्रों छोटी-छोटी नदियाँ क्षिप्रा तथा अवन्तौ-ये पारियाभपर्वतका अनुसरण | बतायी गयी हैं, जिनमेंसे कुछ तो केवल वर्षा करनेवाली नदियाँ हैं। शोणा (सॉन), महानदी, | कालमें बहती हैं और कुछ सदा ही जलसे पुर्ण नर्मदा, सुरक्षा, क्रिया, मन्दाकिनी, दशा, चित्रकूय, रहती हैं। मत्स्य, मुकुटकुल्य, कुन्तल, काशी, चित्रौत्पला, वेत्रवती (बेतवा), कर्मोदा, पिशाचिका, कोसल, अन्धक, कलिङ्ग, शमक तथा वृक-ये अतिलघुश्रोणी, विपाप्मा, शैवला, सधैरूजा, शक्तिमती, | प्रायः मध्यदेशकै जनपद बताये गये हैं। सय शकुनी, त्रिदिवा, क्रमु तथा वेगवाहिनी–ये नदियाँ | पर्वतके उत्तरको प्रदेश, जहाँ गोदावरी नदी बहत ऋक्षपर्वतकी संतानें हैं। चित्रा, पयोष्णी, निर्विन्ध्या, है, सम्पूर्ण भूमण्डलमें सर्वाधिक मनोरम है। तापी,वेगा, वैतरणी, सिनवाली, कुमुद्वती, तोया, वानप्रस्थ और संन्यास-आश्चमके धर्मोका पालन महागौरी, दुर्गा तथा अन्तशिला-ये पुण्यसलिला करनेसे ज्ञों फल होता है, कुओं, बावली आदि सरिताएँ विन्ध्याचलकी घाटियोंसे निकली हैं। खुदवाने, बगीचे लगाने, यज्ञ करने तथा अन्य शुभ गोदावरी, भीमरथी, कृष्णवेणी, तुङ्गभद्रा, सुप्रयोगा कर्मोक अनुष्ठानसे जो फल मिलता है, वह सब तथा पापनाशिनीं-ये श्रेष्ठ नदियाँ सह्यगिरिक केवल भारतवर्षमें ही सुलभ है। ब्राह्मणौ ! भारतवर्षक शाखासे प्रकट हुई हैं। कृतमाला, ताम्रपर्णी, | समस्त गुणों का वर्णन करनेमें कौन समर्थ हो पुष्पवती, उत्पलावतो-ये शीतल जलवाली पवित्र | सकता है? इस प्रकार मैंने भारतवर्षका वर्णन नदियाँ मलयाचलसे निकली हैं। पितृकुल्या, ] किया। यह सबसे उत्तम, सब पापों का नाश सोमकुल्या, ऋषिकुल्या, बङ्ला, त्रिदिवा, लाङ्गलिनी करनेवाला, पवित्र, धन्य तथा बुद्धिको बढ़ानेवाला तथा वंशकरा-इनका प्राकट्य महेन्द्रपर्वतसे हुआ हैं। जो सदा अपनी इन्द्रियोंको वशमें रखकर इस है। सुविकाला, कुमारी, मनुगा, मन्दगामिन, क्षया | प्रसंगका पाठ या श्रवण करता है, वह सब पापोंसे और पलाशिनी-ये शुक्तिमानपर्वतसे निकली हैं। मुक्त हो भगवान् विष्णुके लोक जाता है।
कोणादित्यकी महिमा ब्रह्माजी कहते हैं-भारतवर्षमें दक्षिणसमुदके देशके ब्राह्मण श्राद्ध, दान, विवाह, यज्ञ अथवा किनारे औण्डू देशके नामसे विख्यात एक प्रदेश आचार्यकर्म–सभी कार्यों के लिये उत्तम हैं। वे है, जो स्वर्ग एवं मोक्ष देनेवाला है। समुद्रसे उत्तर षट्कर्मपरायण, वेदोंके पारंगत विद्वान्, इतिहासवेत्ता, विरज्ञ मण्डलतकका प्रदेश पुण्यात्माओंके सम्पूर्ण | पुराणार्थविशारद, सर्वशास्त्रार्थकुशल, यज्ञशाल और गुणद्वारा सुशोभित हैं। उस देशमें उत्पन्न ज्ञो | राग-द्वेषसे रहित होते हैं। कोई वैदिक अग्निहोत्रमें जितेन्द्रिय ब्राह्मण तपस्या एवं स्वाध्याय संलग्न सगे रहते और कोई स्मार्त अग्निकी उपासना करते रहते हैं, वे सदा ही वन्दनाय एवं पूजनीय हैं। उस | हैं। ये स्त्री, पुत्र और धनसे सम्पन्न, दानी और
*कौणादित्यकी महिमा ।
सत्यवादी होते हैं तथा यज्ञोत्सवसे विभूषित पवित्र | गोलाकार हो। उसकीं कर्णिका ऊपरकी ओर उठी उत्कल देशमें निवास करते हैं। वहाँ क्षत्रिय आदि हो। फिर तिल, चावल, जल, लाल चन्दन, लाल अन्य तीन वर्णोके लोग भी परम संयमी, फूल और कुशा उस पात्रमें रख दे। ताँबेका बर्तन स्वकर्मपरायण, शान्त और धार्मिक होते हैं। उक्त न मिले तो मदारके पत्तेका दोना बनाकर उसमें प्रदेशमें भगवान सूर्य कोणादित्यके नामसे विख्यात | तिल आदि रखे। उस पात्रको एक दूसरे पात्रसे होकर रहते हैं। उनका दर्शन करके मनुष्य सब ढककर रखें। इसके बाद हृदय आदि अङ्गकै पापसे मुक्त हो जाता है।
क्रमसे अङ्गन्यास और करन्यास करके पूर्ण | मुनियनें कहा-सुरश्रेष्ठ ! पूर्वोक्त औडू देशमें श्रद्धाके साथ अपने आत्मस्वरूप भगवान् सूर्यका जो सूर्यका क्षेत्र है, जहाँ भगवान् भास्कर निवास ध्यान करे, पूर्वोक्त अष्टदल कमलके मध्यभागमें करते हैं, इसका वर्णन कीजिये। इस समय हम तथा अग्नि, नैऋत्य, वायव्य और ईशान कोणक उसे ही सुनना चाहते हैं।
दलोंमें एवं पुनः मध्यभागमें क्रमशः प्रभूत, विमल, ब्रह्माजीं चोले-मुनिवरौ! लवणसमुहका सार, आराध्य, परम और सुखरूप सूर्यदेवको उत्तरतट अत्यन्त मनोहर और पवित्र है। वह सब पूजन करे। इसके अनन्तर वहाँ आकाशसे सूर्यदेवकम ओर वालुकाराशिसे आअदित है। उस सर्वगुणसम्पन्न | आवाहन करके कर्णिकाके ऊपर उनकी स्थापना प्रदेशमें चम्पा, अशोक, मौलसिरी, करवीर (कनेर), | करे। तत्पश्चात् हाथोंसे सुमुख-संपुट आदि मुद्राएँ गुलाब, नागकेसर, ताड़, सुपारी, नारियल, कैथ दिखाये। फिर देवताका स्नान आदि कराकर और अन्य नाना प्रकारके वृक्ष चारों और शोभा एकाग्रचित्त हो इस प्रकार ध्यान करे-भगवान् पाते हैं। वहाँ भगवान् सूर्यको पुण्यक्षेत्र है, जौ | सूर्य श्वेत कमलके आसनपर तेजोमण्डलमें विराजमान सम्पूर्ण जगत्में विख्यात है। उसका विस्तार सव हैं। उनकी आँखें पॉलीं और शरीरका रंग लाल ओरसे एक योजनसे अधिक है। वहाँ सहस्र | है। उनके दो भुजाएँ हैं। उनका वस्त्र कमलके किरणों से सुशोभित साक्षात् भगवान् सूर्य निवास | समान लाल है। वे सब प्रकारके शुभ लक्षणसे करते हैं, वे ‘कोणादित्य’ के नामसे विख्यात एवं युक्त और सभी तरहके आभूषणोंसे विभूषित हैं। भौग और मोक्ष प्रदान करनेवाले हैं। वह माघमासकेनका रूप सुन्दर है। वे वर देनेवाले, शान्त एवं शुक्ल पक्षकी सममी तिथिको इन्द्रिय-संयमपूर्वक | भापुञ्जसे देदीप्यमान हैं। तदनन्तर उदयकालमें उपवास को। फिर प्रात:काल शौच आदिसे| स्निग्ध सिन्दरके समान अरुण वर्णवाले भगवान् निवृत्त एवं विशुद्धचित्त हो सूर्यदेवका स्मरण करते सूर्यका दर्शन करके अर्ध्वपात्र ले। उसे सिरके पास हुए विधिपूर्वक समुद्रमें स्नान करें। देवता, ऋषि लगाये और पूर्वीपर घुटने टेककर मौन हो एकाग्रचित्तसे =और मनुष्योंका तर्पण करें। तत्पश्चात् जलसे त्र्यक्षर-मन्त्रका उच्चारण करते हुए सूर्यको अर्घ्य बाहर आकर दो स्वच्छ वस्त्र धारण करे। फिर दें। जिस पुरुषको दीक्षा नहीं दी गयी हैं, वह आचमन करके पवित्रतापूर्वक सूर्योदयके समय | भावयुक्त श्रद्धाके साथ सूर्यका नाम लेकर ही अर्थ्य समुद्र के तटपर पूर्वाभिमुख होकर बैठे। लाल दें; क्योंकि भगवान् सूर्य भक्तिके द्वारा हीं वशमें चन्दन और जलसे ताँबेके पात्रमें एक अष्टदल होते हैं। कमलकी आकृति बनायें, जो केसरयुक और अग्नि, नैऋत्य, वायव्य एवं ईशान कोण,
* संक्षिप्त ब्रह्मपुराण ।
मध्यभाग तथा पूर्व आदि दिशाओंमें क्रमश: हृदय, दीप, नैवेद्य, साष्टाङ्ग प्रणाम, जय-जयकार तथा सिर, शिखा, कवच, नेत्र और अस्त्रको पूजा स्तोत्रद्वारा उनकी पूजा करे। इस प्रकार सहरु को। फिर अयं दें, गन्ध, धूप, दौंप और नैवेद्य किरणद्वारा मण्डित जगदीश्वर सूर्यदेवका पूजन निवेदन कर जप, स्तुति, नमस्कार तथा मुद्रा करके मनुष्य दस अश्वमेध-यज्ञका फल पाता है। करके देवताका विसर्जन करे। जो ब्राह्मण, क्षत्रिय, | इतना ही नहीं, वह सब पापोंसे मुक्त हो दिव्य बैंश्य, स्त्री और शूद्र अपनी इन्द्रियोंको वशमें शरीर धारण करता है और अपने आगे-पीछेकी रखते हुए सदा संयमपूर्वक भक्तिभाव और विशुद्ध सात-सात पीढ़ियोंका उद्धार करके सूर्यके समान चित्तसे भगवान् सूर्यको अर्घ्य देते हैं, वे मनोवाञ्छित | तेजस्व एवं इच्छानुसार गमन करनेवाले विमानपर भोगका उपभोग करके परम गतिको प्राप्त होते बैंठकर सूर्यके लोकमें जाता है। उस समय हैं । जो मनुष्य तीनों लोकोंको प्रकाशित करनेवाले गन्धर्वगण उसका यशोगान करते हैं। वहाँ एक आकाशविहारी भगवान् सूर्यको शरण लेते हैं, वे कल्पतक श्रेष्ठ भोगोंका उपभोग करके पुण्य क्षीण सुखके भागी होते हैं। जबतक भगवान् सूर्यको होनेपर वह पुन: इस संसार में आता और योगियोंके विधिपूर्वक अयं न दें लिया जाय, तबतक उत्तम कुलमें जन्म ले चारों वेदका विद्वान्, श्रीविष्णु, शङ्कर अथवा इन्द्का पूजन नहीं करना स्वधर्मपरायण तथा पवित्र ब्राह्मण होता हैं। तदनन्तर चाहिये। अत: प्रतिदिन पवित्र हो प्रयत्न करके भगवान् सूर्यसे ही योगकी शिक्षा प्राप्त करके मोक्ष मनोहर फूलों और चन्दन आदिके द्वारा सूर्यदेवको पा लेता है। चैत्र मासके शुक्लपक्षमें भगवान् अर्घ्य देना चाहिये। इस प्रकार जो सप्तमी तिथिको कोणादित्यक यात्रा होती है। यह यात्रा दमनभञ्जिकाके स्नान करके शुद्ध एवं एकाग्रचित्त हो सूर्यको अयं नामसे विख्यात है। जो मनुष्य यह यात्रा करता है, देता है, उसे मनोवाञ्छित फल प्राप्त होता है। रोगी | उसे भी पूर्वोक्त फलकी प्राप्ति होती हैं। भगवान् पुरुष रोगसे मुक्त हो जाता है, धनकी इच्छा सूर्यके शयन और जागरणकै समय, संक्रान्तिके रखनेवालेको धन मिलता है, विद्यार्थीको विद्या दिन, विषुव योगमें, उत्तरायण या दक्षिणायन प्राप्त होती हैं और पुत्रकी कामना रखनेवाला आरम्भ होनेपर, रविवारको, सप्तमी तिथिको अथवा मनुष्य पुत्रवान् होता हैं।
पर्वकै समय ज्ञौ जितेन्द्रिय पुरुष वहाँकी श्रद्धापूर्वक इस प्रकार समुन्नमें स्नान करके सूर्यको अर्घ्य यात्रा करते हैं, वे सूर्यको ही भौति तेजस्वी दे, उन्हें प्रणाम करे, फिर हाथमें फूल लेकर मौन बिमानके द्वारा उनके लोकमें जाते हैं। वहाँ हो सूर्यके मन्दिरमें जाय। मन्दिरके भीतर प्रवेश (पूर्वोक क्षेत्रमें) समुद्र तटपर रामेश्वर नामसे करके भगवान् कोणादित्यकी तीन बार प्रदक्षिणा विख्यात भगवान् महादेवजी विराजमान हैं, जो को और अत्यन्त भक्तिके साथ गन्ध, पुष्प, धूप, समस्त अभिलषित फलक देनेवाले हैं। जो | * पूजनके वाक्य इस प्रकार हैं-“हाँ हुद्दयाय नमः, आँग्रकोणे । ह्रौं शिरसे नमः, नैऋत्यें। हूं शिखायै नमः वायव्ये। हैं कवचाय नमः, ऎशाने । झौं नेत्रत्रयाय नमः, मध्यभागे। इः अस्त्राय नमः, चतुर्दिधु’ इति ।
1 में वायूँ सम्प्रयच्छन्ति मूर्याय नियतेन्द्रियाः। ब्राह्मणाः क्षत्रियों वैश्याः स्त्रियः शूद्राक्ष संयता: ॥ भक्तिभावेन सततं विशुद्धेनान्तरात्मना। ते भुक्वाभिमतान् कामान् प्राप्नुवन्ति परां गतिम् ॥ (२८ । ३-३८) के भगवान् सूर्यको महिमा ।
समुद्रमें स्नान करके वहाँ श्रीरामेश्वरका दर्शन | उनकी पूजा करते हैं, वे महात्मा पुरुष राजसूय करते और गन्ध, पुष्प, धूप, दीप, नैवेद्य, | तथा अश्वमेध-यज्ञका फल पाते और परम नमस्कार, स्तोत्र, गीत और मनोहर वाद्यद्वारा | सिद्धिको प्राप्त होते हैं। भगवान् सूर्यकी महिमा मुनियोंने कहा-सुरश्रेष्ठ! आपने भोग और समाधि, स्तुति और मनसे जो नियम किया जाता मोक्ष प्रदान करनेवाले भगवान् भास्करके उत्तम और ज्ञों ब्राह्मणको दान दिया जाता है, उसे चैत्रका जो वर्णन किया है, वह सब हम लोगोंने देवता, मनुष्य और पितर–सभी ग्रहण करते हैं। सुना। अब यह बताइये कि उनकी भक्ति कैसे की। पत्र, पुष्प, फल और जल-जो कुछ भी भक्तिपूर्वक जाती हैं और वे किस प्रकार प्रसन्न होते हैं। इस अर्पण किया जाता है, उसे देवता ग्रहण करते हैं; समय यहीं सब सुननेकी हमारी इच्छा है। परंतु वे नास्तिकको दो हुई वस्तु नहीं स्वीकार ब्रह्माजी बोले–मनके द्वारा इष्टदेवके प्रति जौ करते । नियम और आचारकै साथ भावशुद्धिका भावना होती हैं, उसे ही भक्ति और श्रद्धा कहते | भी उपयोग करना चाहिये। हृदयके भावको शुद्ध हैं। जो इष्टदेवकी कथा सुनता, उनके भक्तोंकी ! रखते हुए जो कुछ किया जाता है, वह सब पूजा करता तथा अग्निको उपासनामें संलग्न रहता | सफल होता है। भगवान् सूर्यके स्तवन, जप, हैं, वह सनातन भक्त हैं। जो इष्टदेवका चिन्तन | उपहार-समर्पण, पूजन, उपवास (न्नत) और करता, उन्हींमें मन लगाता, उन्हींको पूजामें रत भजनसे मनुष्य सब पापों से मुक्त हो जाता है। जो रहता तथा उनके लिये कर्म करता है, वह पृथ्वीपर मस्तक रखकर भगवान् सूर्यको नमस्कार निश्चय ही सनातन भक्त है। जो इष्टदेवके लिये | करता है, वह तत्काल सब पापोंसे छूट जाता हैं, किये जानेवाले कर्मोका अनुमोदन करता, उनके इसमें तनिक भी संदेह नहीं हैं। जो मनुष्य भकॉमें दोष नहीं देखता, अन्य दैवताकी निन्दा भक्तिपूर्वक सूर्यदेवकी प्रदक्षिणा करता हैं, उसके नहीं करता, सूर्यके व्रत रखता तथा चलते, फिरते, | द्वारा सात द्वीपसहित पृथ्वीको परिक्रमा हो जाती छहरते, सौते, सँघते और आँख खोलते-मीचते हैं। जो सूर्यदेवको अपने हृदयमें धारण करके समय भगवान् भास्करका स्मरण करता है, वह केवल आकाशकी प्रदक्षिणा करता है, उसके द्वारा मनुष्य अधिक भक्त माना गया है। विज्ञ पुरुषको | निश्चय ही सम्पूर्ण देवताओंकी परिक्रमा हो जाती सदा ऐसी ही भक्ति करनी चाहिये। भक्ति, है।* जौ घष्ठ या सप्तमीको एक समय भोजन
* भावशुद्धि प्रयोक्तव्या नियमाचारसंयुता । भाबशुरूया क्रियते यत्तत्सर्वं सफलं भवेत् ॥
स्तुतिप्पोपहारेण पूजयापि विवस्त्रतः । उपवासेन भक्या मैं सर्वपापैः प्रमुच्यते ।। प्रणिधाय शिरों भूम्यां नमस्कार करोति यः । तत्क्षणात्सर्वपापेभ्यो मुच्यते नात्र संशयः॥ भक्तियुक्तो नरो योऽसौ रखें: कुर्यात्प्रदक्षिणाम् । प्रदक्षिणीकृता जैन समपा वसुंधरा। सूर्यं मनसि यः कृत्वा कुद् व्योमप्रदक्षिणाम्। प्रदक्षिणाकृतास्तेन सर्वे देवा भवनि हि ॥ (३९ ॥ १–३१
* संक्षिप्त ब्रह्मपुराण
करके नियम और व्रतका पालन करते हुए | है। वह कभी तिर्यग्यौनिमें नहीं पड़ता। जलते हुए सूर्यदेवका भक्तिपूर्वक पूजन करता है, उसे दीपकको न कभी चुरायें, न नष्ट करें। दीपहर्ता अश्वमेध-यज्ञका फल मिलता है। जो षष्ठी अथवा मनुष्य बन्धन, नाश, क्रोध एवं तमोमय नरकको सप्तमीको दिन-रात उपवास करके भगवान् भास्करका प्राप्त होता हैं। उदयकालमें प्रतिदिन सूर्यको अर्घ्य पूजन करता है, वह परम गतिको प्राप्त होता हैं।| देनेसे एक ही वर्षमें सिद्धि प्राप्त होती हैं। सूर्यके जब शुक्लपक्षकी सप्तमीको रविवार हो, उस उदयसे लेकर अस्ततक इनकी ओर मुँह करके दिन विजयासप्तमी होती हैं। उसमें दिया हुआ दान खड़ा हो किसो मन्त्र अथवा स्तोत्रका जप करना महान् फल देनेवाला हैं। विजयासप्तमीको किया | आदित्यव्रत कहलाता है। यह बड़े-बड़े पातकका हुआ स्नान, दान, जप, होम और उपवास-सब | नाश करनेवाला है। सूर्योदयके समय श्रद्धापूर्वक कुछ बड़े-बड़े पातकका नाश करनेवाला है। जो अर्घ्य देकर सब कुछ साङ्गोपाङ्ग दान करें। इससे मनुष्य रविवारके दिन श्राद्ध करते और पहातेजस्वी सब पापोंसे छुटकारा मिल जाता है। अग्नि, जल, सूर्यको यज्ञन करते हैं, उन्हें अभीष्ट फलकी प्राप्ति आकाश, पवित्र भूमि, प्रतिमा तथा पिण्डी (प्रतिमाकी होती है। जिनके समस्त धार्मिक कार्य सदावेद)-मैं अन्नपूर्वक सूर्यदेवको अर्घ्य देना चाहिये। भगवान् सूर्यके उद्देश्यसे होते हैं, उनके कुलमें उत्तरायण अथवा दक्षिणायनमें सूर्यदेवका विशेषरूपसे कोई दरिद्र अथवा रोगी नहीं होता। जो सफेद, पूजन करके मनुष्य सब पापोंसे मुक्त हो जाता है। लाल अथवा पीली मिट्टीसे भगवान् सूर्यके मन्दिरको | इस प्रकार जो मानव प्रत्येक बेलामें अथवा लौंपता है, उसे मनोवाञ्छित फलको प्राप्ति होती | कुवेलामें भी भक्तिपूर्वक श्रीसूर्यदेवका पूजन करता है। जो निराहार रहकर भाँति-भाँतकै सुगन्धित है, वह उन्हींके लोकमें प्रतिष्ठित होता है। जो पुष्पद्वारा सूर्यदेवका पूजन करता है, उसे अभीष्ट तीर्थोंमें पवित्र हो भगवान् सूर्यको स्नान करानेकै फलकी प्राप्ति होती हैं। जो घौ अथवा तिलके लिये एकाग्नतापूर्वक जल भरकर लाता है, वह तेलसे दीपक जलाकर भगवान् सूर्यको पूजा परम गतिको प्राप्त होता है। छत्र, ध्वजा, चैदोवा, करता है, वह कभी अंधा नहीं होता। दीप-दान पताका और चँवर आदि वस्तुएँ सूर्यदेवको श्रद्धापूर्वक करनेवाला मनुष्य सदा ज्ञानकै प्रकाशसे प्रकाशित समर्पित करके मनुष्य अभीष्ट गतिको प्राप्त होता रता है। जो सदा देव-मन्दिरों, चौराहों और है। मनुष्य जो-जो पदार्थ भगवान् सूर्यको भक्तिपूर्वक सङ्कपर दीप-दान करता है, वह रूपवान् तथा| अर्पित करता है, उसे वे लागुना करके उस सौभायशाली होता है। दीपकी शिक्षा सदा पुरुषको देते हैं। भगवान् सूर्यको कृपासे मानसिक, ऊपरकी ही और उठती हैं, उसकी गति कभी वाचिक तथा शारीरिक समस्त पाप नष्ट हो जाते नीचेंकी और नहीं होती। इसी प्रकार दीप-दान | हैं। सूर्यदेवकै एक दिनकै पूजनसे भी ज्ञों फल करनेवाला पुरुष भी दिव्य तैजसे प्रकाशित होता प्राप्त होता हैं, वह शास्त्रोक्त दक्षिणासे युक्त सैकड़ों * अर्येण सहितं चैव सर्वं साङ्ग प्रदापयेत् । उदये श्रद्धया युक्तः सर्वपापैः प्रमुच्यते ॥ (३९ । ४६) अग्नौ तोयेऽन्तरिक्षे च शुचौ भूपां तथैव च। प्रतिमार्या तथा पिण्ड्या देयमर्थ्य प्रयत्नतः॥ [ ३१ । १६)
यज्ञक अनुष्ठानसे भी नहीं मिलता। | वानप्रस्थ ऋषि तथा कितने ही संन्यासी योगका मुनियोंने कहा-जगत्पते ! भगवान् सूर्यका यह | आश्रय ले सूर्यमण्डलमें अवैश कर चुके हैं। अद्भुत माहात्म्य हमने सुन लिया। अब पुनः हम व्यासपुत्र श्रीमान् शुकदेवजी भी योगधर्म प्राप्त जो कुछ पूछते हैं, उसे बतलाइये। गृहस्थ, ब्रह्मचारी, करनेकै अनन्तर सूर्यको किरणों में पहुँचकर ही वानप्रस्थ और संन्यासी–जो भी मोक्ष प्राप्त करना मोक्षपदमें स्थित हुए। इसलिये आप सब लोग चाहें, उसे किस देवताका पूजन करना चाहिये। सदा भगवान् सूर्यकी आराधना करें; क्योंकि वे कैसे उसे अक्षय स्वर्गकी प्राप्ति होगी? किस उपायसे | सम्पूर्ण जगत्के माता, पिता और गुरु हैं। वह उत्तम मोक्षका भाग होगा तथा वह किस | अव्यक्त परमात्मा समस्त प्रजापतियों और साधनका अनुष्ठान को, जिससे स्वर्गमें जानेपर उसे नाना प्रकारकी प्रजाओंकी सृष्टि करके अपनेको पुनः नीचे न गिरना पड़े । बारह पामें विभक्त करके आदित्यपसे प्रकट ब्रह्माजी बोले-द्विजवरो! भगवान् सूर्य उदय होते हैं। इन्द्र, धाता, पर्जन्य, त्वष्टा, पूषा, अर्यमा, होते ही अपनी किरणोंसे संसारका अन्धकार दूर भग, विवस्वान्, विष्णु, अंशुमान्, वरुण और कर देते हैं। अतः उनसे बढ़कर दूसरा कोई देवता मित्र-इन बारह मूर्तियोंद्वारा परमात्मा सूर्यने सम्पूर्ण नहीं है। वे आदि-अन्तसे रहित, सनातन पुरुष जगत्को व्याप्त कर रखा है। भगवान् आदित्यको एवं अविनाशी हैं तथा अपनी किरणों से प्रचण्ड जो प्रथम मूर्ति हैं, उसका नाम इन्द्र है। वह रूप धारणकर तीनों लोको ताप देते हैं। सम्पूर्ण देवराज्ञके पदपर प्रतिष्ठित है। वह देवशनुका देवता इन्हींके स्वरूप हैं। ये तपनेवालोंमें श्रेष्ठ, | नाश करनेवाली मूर्ति है। भगवान्के दूसरे विग्रहका सम्पूर्ण जगत्के स्वामी, साक्षी तथा पालक हैं। ये | नाम धाता है, जो प्रजापतिके पदपर स्थित हो ही बारम्बार जौयोंकी सृष्टि और संहार करते हैं | नाना प्रकारके प्रजावर्गकी सृष्टि करते हैं। सूर्यदेवको तथा ये ही अपनी किरणों से प्रकाशित होते, तपते तीसरी मूर्ति पर्जन्यके नामसे विख्यात हैं, जो
और वर्षा करते हैं। ये घाता, विधाता, सम्पूर्ण | बादलोंमें स्थित हो अपनी किरणोंद्वारा वर्षा करती भूतोंके आदि कारण और सब जीवको उत्पन्न | है। उनके चतुर्थ विग्रहको त्वष्टा कहते हैं। त्वष्टा करनेवाले हैं। ये कभी क्षीण नहीं होते। इनका सम्पूर्ण वनस्पतियों और ओषधियोंमें स्थित रहते मण्डल सदा अक्षय बना रहता हैं। ये पितरोंके भी हैं। उनकी पाँचव मूर्ति पूषाके नामसे प्रसिद्ध है, पिता और देवताओंके भी देवता हैं। इनका स्थान जो अन्नमें स्थित हो सर्वदा प्रजाजनकी पुष्टि ध्रुव माना गया है, जहाँसे फिर नीचे नहीं गिरना करती है। सूर्यकी जो छठी मूर्ति हैं, उसका नाम पड़ता। सृष्टिके समय सम्पूर्ण जगत् सूर्यसे ही अर्यमा बताया गया है। वह वायुके सहारे सम्पूर्ण उत्पन्न होता है और प्रलयके समय अत्यन्त देवताओं में स्थित रहती हैं। भानुका सातवाँ विग्रह तेजस्वी भगवान् भास्करमें ही उसका लय होता। भगकै नामसे विख्यात है। यह ऐश्वर्य तथा है। असंख्य योगिजन अपने कलेवरका परित्याग देहधारियोंके शरीरों में स्थित होता है। सूर्यदेवकी करके वायुस्वरूप हो तेजोराशि भगवान् सूर्यमें ही | आठर्वी मूर्ति विवस्वान् कहलाती है, वह ऑग्नमें प्रवेश करते हैं। राजा जनक आदि गृहस्थ यौगी, स्थित हो ज्ञवोंके खाये हुए अन्नको प्रचाती हैं। वालखिल्य आदि ब्रह्मवादी महर्ष, व्यास आदि । उनकी नव मूर्ति विष्णुके नामसे विख्यात हैं, जो
* संक्षिप्त अद्मपुराण । सदा देवशत्रुओं का नाश करनेके लिये अवतार | रहे हैं और करेंगे?’ इस प्रकार मन-ही-मन लेती है। सूर्यको दसर्वी मूर्तिका नाम अंशुमान् विचार करके नारदजी मित्र देवतासे बोले-‘भगवन् ! हैं, ओ यायुमें प्रतिष्ठित होकर समस्त प्रज्ञाको अङ्गोपाङ्गसहित सम्पूर्ण वेदों एवं पुराणों में आपकी आनन्द प्रदान करती हैं। सूर्यको ग्यारहवाँ स्वरूप महिमाका गान किया जाता है। आप अजन्मा, वरुणके नामसे प्रसिद्ध है, जो सदा चलमें स्थित सनातन, पाता तथा उत्तम अधिष्ठान हैं। भूत, होकर प्रज्ञाका पोषण करता हैं। भानुके बारहवें | भविष्य और वर्तमान–सम्र कुछ आपमें ही विग्रहका नाम मित्र है, जिसने सम्पूर्ण लोकका | प्रतिष्ठित है। गृहस्थ आई चारों आश्रम प्रतिदिन हित करनेके लिये चन्द्र नदीके तटपर स्थित आपका ही यजन करते हैं। आप ही सबके पिता, होकर तपस्या की। परमात्मा सूर्यदेवने इन बारह माता और सनातन देवता हैं। फिर भी आप किस मूर्तियोंके द्वारा सम्पूर्ण जगत्को व्याप्त का रखा | देवता अथवा पितरकी आराधना करते हैं, यह है। इसलिये भक्त पुरुषको उचित है कि वे | हमारी समझमें नहीं आता।’ भगवान् सूर्यमें मन लगाकर पूर्वोक्त बारह मूर्तियों में मित्रों कहा-ब्रह्मन्! यह परम गोपनीय उनका ध्यान और नमस्कार करें। इस प्रकार सनातन रहस्य कहने योग्य तो नहीं है; परंतु आप मनुष्य बारह आदित्यको नमस्कार करके उनके भक्त हैं, इसलिये आपके सामने मैं इसका यथावत् नामका प्रतिदिन पाठ और श्रवण करनेसे सूर्यलोकमें वर्णन करता हूँ। वह जो सूक्ष्म, अविज्ञेय, प्रतिष्ठित होता है। अव्यक्त, अचल, ध्रुव, इन्द्रियरहित, इन्द्रियों के | युनियनै पूछा-यदि ये सूर्य सनातन आदिदेव | विषयोंसे रहित तथा सम्पूर्ण भूतोंसे पृथक् है, हैं तो इन्होंने वर पानेकी इच्छासे प्राकृत मनुष्योंकीवहीं समस्त जीवका अन्तरात्मा है; उसीको क्षेत्रज्ञ भाँति तपस्या क्यों की? भी कहते हैं। वह तीनों गुणसे भिन्न पुरुष कहा ब्रह्माज्ञी बोले-ब्राह्मणो! यह सूर्यका परम गया है, उसका नाम भगवान् हिरण्यगर्भ है। वह गोपनीय रहस्य है। पूर्वकालमें मित्र देवताने सम्पूर्ण विश्वका आत्मा, शर्व (संहारकारी) और महात्मा नारदको जो बात बतलायीं थीं, वहीं मैं अक्षर (अविनाशी) माना गया है। उसने इस तुम लोगोंसे कहता हूँ। एक समयकी बात है, | एकात्मक त्रिलोकीको अपने आत्माकै द्वारा धारण अपनी इन्द्रियोंको वशमें रखनेवाले महायोगी कर रखा है। वह स्वयं शरीरसे रहित है, किंतु नारदजी मेरुगिरके शिख़ारसे गन्धमादन नामक समस्त शरीरोंमें निवास करता है। शरीरमें पर्वतपर उतरे और सम्पूर्ण लोकोमें विचरते हुए रहते हुए भी वह उसके कमसे लिप्त नहीं उस स्थानपर आयें, जहाँ मित्र देवता तपस्या करते | होता। वह मेरा, तुम्हारा तथा अन्य जितने भी थे। उन्हें तपस्यामैं संलग्न देख नारदजीके मनमें देहधारी हैं, उनका भी आत्मा हैं। सबका कौतूहल हुआ। वे सोचने लगे, ‘जो अक्षय, | साक्षी है, कोई भी उसका ग्रहण नहीं कर अविकारी, व्यक्ताव्यस्वरूप और सनातन पुरुष | सकता। वह सगुण, निर्गुण, विश्वरूप तथा हैं, जिन महात्माने तीनों लोकोंको धारण कर रखा ज्ञानगम्य माना गया है। इसके सब और हाथ-पैर हैं, जो सब देवताओंके पिता एवं परोंसे भी पर हैं, सब और नेत्र, सिर और मुख हैं तथा सब हैं, वे किन देवताओं अथवा पितरोंका यजन करते | और कान हैं, वह संसारमें सबको व्याप्त करके
- भगवान् सूर्यको महिमा
स्थित है।* सम्पूर्ण मस्तक उसके मस्तक, सम्पूर्ण | पितृकार्यके अवसरपर उसकी पूजा होती हैं। उससे भुजाएँ उसकी भुजा, सम्पूर्ण पैर उसके पैर, सम्पूर्ण बढ़कर दूसरा कोई देवता या पितर नहीं हैं। उसका नेत्र उसकै नेत्र एवं सम्पूर्ण नासिकाएँ उसकी नासिका | ज्ञान अपने आत्माके द्वारा होता है। अतः मैं उसी हैं। वह स्वेच्छाचारी है और अकेला ही सम्पूर्ण क्षेत्रमें | सर्वात्माका पूजन करता हूँ। देवर्षे! स्वर्गमें भी जौ सुखपूर्वक विचरता है। यहाँ जितने शरीर हैं, वे सभी जीव उस परमेश्वरको नमस्कार करते हैं, वे उसीके क्षेत्र कहलाते हैं। उन सबको वह योगात्मा जानता है, द्वारा दिये हुए अभीष्ट गतिको प्राप्त होते हैं। देवता इसलिये क्षेत्रज्ञ कहलाता है। अव्यक्त पुरमें शयन ! और अपने-अपने आश्रमोंमें स्थित मनुष्य भक्तिपूर्वक करता है, अत: उसे पुरुष कहते हैं। विश्वका अर्थ हैं | सबके आदिभूत उस परमात्माका पूजन करते हैं और बहुविध; वह परमात्मा सर्वत्र बतलाया जाता हैं, वे उन्हें सद्गति प्रदान करते हैं। वे सर्वात्मा, सर्वगत इसलिये बहुविधरूप होनेके कारण वह विश्वरूप और निर्गुण कहलाते हैं। मैं भगवान् सूर्यको ऐसा माना गया है। एकमात्र वहीं महान् है और एकमात्र मानकर अपने ज्ञानकै अनुसार उनका पूजन करता हूँ। वही पुरुष कहलाता है; अतः वह एकमात्र सनातन | नारदजी ! यह गोपनीय उपदेश मैंने अपनी भक्तिके परमात्मा ही महापुरुष नाम धारण करता है। वह कारण आपको बतलाया है। आपने भी इस उत्तम परमात्मा स्वयं ही अपने-आपको सौ, हजार, लाख रहस्यको भलीभाँति समझ लिया। देवता, मुनि और और करोड़ों रूपोंमें प्रकट कर लेता है। जैसे आकाशसे पुराण-सभी इस परमात्माको वरदायक मानते हैं। गिरा हुआ जल भूमिके रसविशेषसे दूसरे स्वादका हो | और इसी भावसे सब लोग भगवान् दिवाकर का ज्ञाता है, उसी प्रकार गुणमय उसके सम्पर्कसे वह पूजन करते हैं। परात्मा अनेक रूप प्रतीत होने लगता है। जैसे एक ब्रह्माजी कहते हैं-इस प्रकार मित्र देबताने ही वायु समस्त शरीरोंमें पाँच रूपोंमें स्थित हैं, उसी पूर्वकालमें नारदजीको यह उपदेश दिया था। भानुके प्रकार आत्माको भी एकता और अनेकता मानी गयी | उपदेशको मैंने भी आप लोगोंसे कह सुनाया। जो हैं। जैसे अग्नि दूसरे स्थानकी विशेषतासे अन्य नाम | सूर्यका भक्त न हो, उसे इसका उपदेश नहीं देना धारण करती है, उसी प्रकार वह परमात्मा ब्रह्मा | चाहिये। जो मनुष्य प्रतिदिन इस प्रसंगको सुनाता आदिके रूप में भिन्न-भिन्न नाम धारण करता है। जैसे और जो सुनता है, वह नि:संदेह भगवान् सूर्यमें प्रवेश एक दीप हजारों दीपको प्रकट करता है, वैसे ही वह करता है। आरम्भसे ही इस कथाको सुनकर ग्रेगी एक ही परमात्मा हजारों रूपको उत्पन्न करता है। मनुष्य रोगसे मुक्त हो जाता है और जिज्ञासुको उत्तम संसारमें जौ चराचर भूत हैं, वे नित्य नहीं हैं; परंतु वह ज्ञान एवं अभौष्ट्र गतिकी प्राप्ति होती है। मुनियो ! जो परमात्मा अक्षय, अप्रमेय तथा सर्वव्यापी कहा जाता इसका पाठ करता है, वह जिस-जिस वस्तुको है। वह ब्रह्म सदसत्स्वरूप है। लोकमें देवकार्य तथा | कामना करता है, उसे निश्चय ही प्राप्त कर लेता है।
* घसांप शरीर में से लिप्यंत कर्मभिः । ममान्तरात्मा तव च मैं चान्ये देहस्थताः॥ सर्वेषां साक्षिभूतोऽसौ न ग्राह्य: केनचित् क्वचित् । सगुण निर्गुण विधी ज्ञानगम्यों ह्यसौ स्मृतः ॥ सर्वत:पाणिपादान्तः सर्यंतीक्षिशिरोमुखः। सर्बत:श्रुतिमलोंके सर्वमावृत्यतिञ्चति ॥ (३०। ६३–६५)
* संक्षिप्त ब्रह्मपुराण
सूर्यकी महिमा तथा अदितिके गर्भसे उनके अवतारका वर्णन ब्रह्माजी कहते हैं-भगवान् सूर्य सबके आत्मा, ! प्रकार यहाँ एक ही सूर्यके चौबीस नाम बताये सम्पूर्ण लोककै ईश्वर, देवताओंके भी देवता और गये हैं। इनके अतिरिक्त और भी हजारों नाम प्रजापति हैं। वे ही तीनों लोकोंकी जड़ हैं, परम | विस्तारपूर्वक कहे गये हैं। देवता हैं। अग्निमें विधिपूर्वक आली हुई आहुति | मुनियोंने पूअ-प्रजापते ! जो एक हजार नामक सूर्यके पास हीं पहुँचती हैं। सूर्यसे वृष्टिं होतीं, द्वारा भगवान् सूर्यकी स्तुति करते हैं, उन्हें क्या पुण्य वृष्टि से अन्न पैदा होता और अन्नसे प्रज्ञा जीवन- | होता है? तथा उनकी कैसी गति होती है? निर्वाह करती हैं। क्षण, मुहूर्त, दिन, रात, पक्ष, ब्रह्माजी बोले—मुनिवरो। मैं भगवान् सूर्यका मास, संवत्सर, ऋतु और युग-इनकी काल-कल्याणमय सनातन स्तोत्र कहता हैं, जो सब संख्या सूर्यके बिना नहीं हो सकती । कालका ज्ञान स्तुतियोंका सारभूत है। इसका पाठ करनेवालेको हुए बिना न कोई नियम चल सकता हैं और न सहस्र नामको आवश्यकता नहीं रह जाती। अग्निहोत्र आदि हीं हो सकते हैं। सूर्यके बिना भगवान् भास्करके जो पवित्र, शुभ एवं गोपनीय ऋतका विभाग भी नहीं होगा और उसके बिना नाम हैं, उन्हींका वर्णन करता हैं सुनो। विकर्तन, वृक्षोंमें फल और फूल कैसे लग सकते हैं? खेती | विवस्वान्, मार्तण्ड, भास्कर, रवि, लोकप्रकाशक, कैसे पक सकती है और नाना प्रकारके अन्न कैसे श्रीमान्, लोकचक्षु, महेश्वर, लोकसाक्षी, त्रिलोकेश, उत्पन्न हो सकते हैं। उस दशामें स्वर्गलोक तथा कर्ता, हुर्ता, तमिलहा, तपन, तापन, शुचि, समाश्चाहन, भूलोकमें जीके व्यवहारको भी लॉप हो जायगा। गभस्तिहस्त, ब्रह्मा और सर्वबनमस्कृत-इस प्रकार आदित्य, सविता, सूर्य, मिरि, अर्क, प्रभाकर, इक्कीस नामका यह स्तोत्र भगवान् सूर्यको सदा मार्तण्ड, भास्कर, भानु, चित्रभानु, दिवाकर तथा प्रिय है। यह शरीरको नीरोग बनानेवाला, धनक रवि-इन बारह सामान्य नामोंके द्वारा भगवान् वृद्धि करनेवाला और यश फैलानेवाला स्तोत्रराज सूर्यका ही बोध होता है। विष्णु, धाता, भग, पूषा, हैं। इसकी तीनों लोकोंमें प्रसिद्ध हैं। द्विजवरो! मित्र, इन्द्र, वरुण, अर्यमा, विवस्वान्, अंशुमान्, जो सूर्य उदय और अस्तकालमें दोनों संध्याक चना तथा पर्जन्य-ये बारह सूर्य पृथक-पृथक् समय इस स्तोत्रके द्वारा भगवान् सूर्यको स्तुति माने गये हैं। चैत्र मासमें विष्ण, वैशाखमें अर्यमा, करता है, वह सब पापोंसे मुक्त हो जाता है। ज्येष्ठमें विवस्वान्, आषाढ़में अंशुमान्, श्रावणमैं| भगवान् सूर्यके समीप एक बार भी इसका जप पर्जन्य, भादों में वरुण, आश्विनमें इन्द्र, कार्तिकमें करनेसे मानसिक, याचिक, शारीरिक तथा कर्मजनित धाता, गह्नमें मित्र, पौषमें पूषा, माघमैं भग सब पाप नष्ट हो जाते हैं। अतः ब्राह्मणो! आप और फाल्गुनमें त्वष्टा नामक सूर्य तपते हैं। इस लोग यत्नपूर्वक सम्पूर्ण अभिलषित फलक देनेवाले
* विकर्तनों विवस्वांश्च मार्तण्डों भास्करों रविः। लोकप्रकाशकः श्रीमल्लोकचक्षुर्महेश्वरः॥
लोकसाक्षीं त्रिलोकशः कर्ता हर्ता तमिस्रा । तपनस्तापनचैव शुचिः समाश्ववाहन:॥ गभस्तिहस्तों ब्रह्मा च सर्वयनमस्कृत:। एकविंशतिरित्येय साय इष्टः सदा वै:॥
(३१ । ३१=३३)
* सूर्यकी महिमा तथा दितिके गर्भसे उनके अवतारको वर्णन के ५
भगवान् सूर्यका इस स्तोत्रके द्वारा स्तवन करें।। करके कठोर नियमका पालन करती हुई एकाग्रचित्त मुनियोंने पूछा- भगवन्! आपने भगवान् सूर्यको | हो आकाशमें स्थित तेजौराशि भगवान् भास्करका निर्गुण एवं सनातन देवता बतलाया है; फिर स्तवन करने लगी। आपके ही मुँह से हमने यह भी सुना है कि वे अदिति बोली-भगवन्! आप अत्यन्त सूक्ष्म, बारह स्वरूपोंमें प्रकट हुए। वे तेजकी राशि और परम पवित्र और अनुपम तेज धारण करते हैं। महान् तेजस्वी होकर किसी स्त्रीकै गर्भमैं कैसे तेजस्वियोंके ईश्वर, तेजकै आधार तथा सनातन प्रकट हुए, इस विषयमें हमें बड़ा संदेह है। | देवता हैं। आपको नमस्कार हैं। गोपते ! जगत्को ब्रह्माजी बोले-प्रजापति दक्षके साठ कन्याएँ । उपकार करनेके लिये मैं आपकी स्तुति-आपसे इई ज्ञ श्रेष्ठ और सुन्दरीं । उनके नाम अदिति, | प्रार्थना करती हैं। प्रचण्ड रूप धारण करते दिति, दुनु और विनता आदि थे। इनमें तेरह | समय आपकी जैसी आकृति होती है, उसको मैं कन्याओंका विवाह इझने कश्यपज्ञीसे किया था। प्रणाम करती हैं। क्रमश: आठ मासतक पृथ्वीके अदितिने तीनों लोकोंके स्वामी देवताओंको जन्म जलरूप रसको ग्रहण करनेके लिये आप जिस दिया। दितिसे दैत्य और इनसे बलाभिमानी अत्यन्त तीव्र रूपको धारण करते हैं, उसे मैं भयंकर दानव उत्पन्न हुए। विनता आदि अन्य प्रणाम करती हैं। आपका वह स्वरूप अग्नि और स्त्रियोंने भी स्थावर-जङ्गम भूतको जन्म दिया। सौमसे संयुक्त होता है। आप गुणात्माको नमस्कार इन दक्षसुताओंके पुत्र, पौत्र और दौहित्र आदिके हैं। विभावसो! आपका जो रूप ऋक्, यजुर् द्वारा यह सम्पूर्ण जगत् व्याप्त हो गया। कश्यपके और सामकी एकतासे त्रयसंज्ञक इस विश्वके पुत्रोंमें दैववा प्रधान हैं, वें सात्विक है; इनके | रूपमें तपता हैं उसको नमस्कार हैं। सनातन! अतिरिक्त दैत्य आदि जस और तामस हैं। उससे भी परे ज्ञ ‘ॐ’ नामसे प्रतिपादित स्थूल देवताओंको यज्ञका भागी बनाया गया हैं। परंतु एवं सूक्ष्मरूप निर्मल स्वरूप है, उसको मेरा दैत्य और दानव उनसे शत्रुता रखते थे, अतः वे प्रणाम हैं।” मिलकर उन्हें कष्ट पहुँचाने लगे। माता अदितिने ब्रह्माजी कहते हैं-इस प्रकार बहुत दिनोंतक देखा, दैत्यों और दानवने मैरै पुत्रको अपने आराधना करनेपर भगवान् सूर्यने दक्षकन्या अदितिको स्थानसे हटा दिया और सारी त्रिलोकी नष्टप्राय | अपने तेजोमय स्वरुपका प्रत्यक्ष दर्शन कराया। कर दी। तब उन्होंने भगवान सूर्यकी आराधनाके अदिति बोलीं-जगतुके आदि कारण भगवान् लिये महान् प्रयत्न किया। वे नियमित आहार | सूर्य ! आप मुझपर प्रसन्न हों। गोपते ! मैं आपको
* नमस्तुभ्यं परं सूक्ष्मं सुपुर्य भितेतुलम् । धाम धामवतामीशं धामाधारं च शाश्वतम् ॥
गतामुपकाराय त्वामहं सतामि गौपते । आदानस्य पद्धं तीनं तस्मै नमाम्यहम् ॥ ग्रहीतुमष्टमासेन कानाम्बुमर्य रसम्। बिभ्रतस्तव अपमनितीनं नतास्मि तत् ॥ समेतमसोमाभ्यां नमस्तस्मै गुणात्मने। यद्पमूग्यजु:साझा“क्येन तपते तत्र ।। विश्वमेतत्त्रयोसंज्ञे नमस्तस्मै विभावसो । यत्तु तस्मात्परं रूपमोमित्युक्त्वाभिसंहितम् ॥ अस्पूर्ण स्थूलममलं नमस्तस्मै सनातन ॥
(३३ । १३–१६) के सक्षम ब्रह्मपरामा ।
भलीभाँत देख नहीं पाती। दिवाकर! आप ऐसी सिद्ध हो जानेकै कारण तपस्यासे निवृत्त हो कृपा करें, जिससे मुझे आपके रूपको भलीभाँति | गयीं। तत्पश्चात् वर्षके अन्तमें देवमाता अदितिको दर्शन हो सके। भक्तपर दया करनेवाले प्रभो! मैरै इच्छा पूर्ण करनेके लिये भगवान् सविताने पुत्र आपके भक्त हैं। आप इनपर कृपा करें। उनके गर्भमें निवास किया। इस समय देवी । तब भगवान् भास्करने अपने सामने पड़ी हुई | अदिति यह सोचकर कि मैं पवित्रतापूर्वक ही देवीको स्पष्ट दर्शन देकर कहा-‘देवि! आपकी इस दिव्य गर्भको धारण करूंगी, एकाग्रचित्त ज्ञों इच्छा हो, उसके अनुसार मुझसे कोई एक वर| हॉकर कृच्छ और चान्द्रायण आदि व्रतका माँग लें।’
पालन करने लगी। उनका यह कठोर नियम देखकर कश्यपजीने कुछ कुपित होकर कहा–’तू नित्य उपवास करके गर्भके बच्चैको क्यों मारे हालती है।’ तब वे भी रुष्ट होकर बोल-खिये, यह अहो गर्भको बच्चा। मैंने इसे नहीं मारा है, यह अपने शत्रुओंको मारनेवाला होगा।’ यौं कहकर देवमाताने उसी समय इसे गर्भका प्रसव किया। वह इद्यकालीन सूर्यके समान तेजस्वी अण्डाकार गर्भ सहसा प्रकाशित हो उठा। उसे देखकर कश्यपजीने वैदिक चाणके द्वारा आदरपूर्वक उसका स्तवन किया। स्तुति करनेपर उस गर्भसे बालक प्रकट हो गया। इसके अङ्गको आभा
पद्मपत्रके समान श्याम थी। उसका तेज सम्पूर्ण || दिशाओं में व्याप्त हो गया। इसी समय अन्तरिक्षसे कश्यप मुनिको सम्बोधित करके सजल मेषकै अदिति बोलीं-देव! आप प्रसन्न हों। अधिक | समान गम्भीर स्वरमें आकाशवाणी हुई–मुने ! बलवान् दैत्यों और दानवोंने मेरे पुत्रोंके हाथसे तुमने अदितिसे कहा था-‘त्यया मारितम् अपडम्’ त्रिलोकीका राज्य और यज्ञभाग छीन लिये हैं। (तूने गर्भके बच्चेको मार डाला), इसलिये गोपते ! उन्हींके लिये आप मेरे ऊपर कृपा करें। तुम्हारा यह पुत्र मार्तण्डके नामसे विख्यात होगा अपने अंशसे मेरे पुत्रोंके भाई होकर आप उनके और यज्ञभागका अपहरण करनेवाले अपने शत्रुभूत शत्रुओंका नाश करें। असुरोंका संहार करेगा।’ यह आकाशवाणी भगवान् सूर्यने कहा-देवि! मैं अपने हजारवें सुनकर देवताओंको बड़ा हर्ष हुआ और दानव अंशसे तुम्हारे गर्भका बालक होकर प्रकट होऊँगा | इतौत्साह हो गये। तत्पश्चात् देवताओं सहित
और तुम्हारे पुत्रके शत्रुओंका नाश करूँगा। इन्द्रने दैत्योंको युद्ध के लिये ललकारा। दानवोंने – यों कहकर भगवान् भास्कर अन्तर्धान हों | भी आकर उनका सामना किया। उस समय गये और देबौं अदिति भी अपना समस्त मनोरथ देवताओं और असुरोंमें बड़ा भयानक युद्ध
*** सूर्यदेवकी स्तुति तया उनके अष्टोत्तरशत नामका वर्णन ।
हुआ। उस युद्धमें भगवान् मार्तण्डने दैत्यकी। और देखा, अतः वे सभी महान् असुर उनके जैसे जलकर भस्म हो गये। फिर तो देवताओंक हर्षकी सीमा नहीं रही। उन्होंने अदिति और मार्तण्डुका स्तवन किया। तदनन्तर देवताओंको पूर्ववत् अपने-अपने अधिकार और यज्ञभाग प्राप्त हो गयें। भगवान् मार्तण्ड भी अपने अधिकारका पालन करने लगे। ऊपर और नीचे सब और किरणें फैली होनेसे भगवान् सूर्य कदम्बपुष्पकी भाँति शौभा पाते थे। वे आगमें तपाये हुए गोलेकै सदृश दिखायी देते थे। उनका विग्रह अधिक स्पष्ट नहीं जान पड़ता था।
श्रीसूर्यदेवकी स्तुति तथा उनके अष्टोत्तरशत नामोंका वर्णन | मुनियोंने कहा–भगवन्! आप पुनः हमें | भगवान् सूर्य हैं। उन परमात्माको जानकर हमने सूर्यदेवसे सम्बन्ध रखनेवाली कथा सुनाइये। | दिव्य स्तुतियोंके द्वारा इनका स्तवन आरम्भ ब्रह्माजी योले-स्थावर-जङ्गम समस्त प्राष्णिक किया-भगवन्! तुम आदिदेव हो। ऐश्वर्यसे सम्पन्न नष्ट हो जानेपर जब समस्त लोक अन्धकारमें होनेके कारण तुम दैवताओंके ईश्वर हो। सम्पूर्ण विलीन हो गये थे, उस समय सबसे पहले प्रकृतिसे | भूतक आदिकर्ता भी तुम्हीं हो। तुम्हीं देवाधिदेव गुणक हेतुभूत समष्टि बुद्धि (महत्तत्व)-का | दिवाकर हो । सम्पूर्ण भूत, देवताओं, गन्धर्वो, राक्षस, आविर्भाव हुआ। उस बुद्धिसै पञ्चमहाभूतका प्रवर्तक मुनियों, किन्नरों, सिद्धों, नाग तथा पक्षियका जीवन अहंकार प्रकट हुआ। आकाश, वायु, अग्नि, जल तुमसे हीं चलता है। तुम्हीं ब्रह्मा, तुम्ही महादेव, तुम्ही और पृथ्वी—ये पाँच महाभूत हुए। तदनन्तर एक विष्णु, तुम्ही प्रजापति तथा तुम्हीं बायु इन्द्र, सोम, अण्ड़ उत्पन्न हुआ। इसमें ये सात लोक प्रतिष्ठित विवस्वान् एवं वरूण हो। तुम्हीं काल हो। सृष्टिके थे। सात द्वीप और समसहित पृथ्वी भी उसमें | कर्ता, धर्ता, संहर्ता और प्रभु भी तुम्ही हो। नदी, थी। उसीने मैं, विष्णु और महादेवजी भी थे। वहाँ समुद्र, पर्वत, बिजली, इन्द्र-धनुष, प्रलय, सृष्टि, सब लोग तमोगुणसे अभिभूत एवं विमूढ़ थे और व्यक्त, अव्यक्त एवं सनातन पुस्य भी तुम्हीं हो। परमेश्वरका ध्यान करते थे। तदनन्तर अन्धकारको साक्षात् परमेश्वर तुम्हीं हो। तुम्हारे हाथ और पैर सब दूर करनेवाले एक महातेजस्वी देवता प्रकट हुए। और हैं। नेत्र, मस्तक और मुख भी सब और हैं। उस समय हम लोगोंने ध्यानके द्वारा जाना कि ये तुम्हारे सहरु किरणें, सहस्रों मुख, सरुस्न चरण के संक्षिप्त ब्रह्मपुरा ।
और सहस्रों नेत्र हैं। तुम सम्पूर्ण भूतके आदिकारण अचिन्त्य, अव्यय, अनादि और अनन्त हैं, तुम्हारे हो। भूः, भुवः, स्वः, महः, जनः, तपः और उस स्वरूपको हमारा प्रणाम है। प्रभो! तुम सत्य-ये सब तुम्हारे ही स्वरूप हैं। तुम्हारा जो | कारणके भी कारण हो, तुमको बारम्बार नमस्कार स्वरूप अत्यन्त तेजस्वी, सबका प्रकाशक, दिव्य, है। पापोंसे मुक्त करनेवाले तुम्हें प्रणाम है, प्रणाम है। सम्पूर्ण लोकोंमें प्रकाश बिखेरनेवाला और देवेश्वरोंके तुम दैत्यको पौड़ा देनेवाले और रोगोंसे छुटकारा द्वारा भी कठिनतासे देखे जाने योग्य हैं, उसको दिलानेवाले हो। तुम्हें अनेकानेक नमस्कार हैं। हमारा नमस्कार है। देवता और सिद्ध जिसका तुम सबको वर, सुख, धन और उत्तम बुद्धि प्रदान सेवन करते हैं, भृगु, अत्रि और पुलह आदि करनेवाले हौं। तुम्हें बारम्बार नमस्कार है। महर्षि जिसकी स्तुतिमें संलग्न रहते हैं तथा जो इस प्रकार स्तुति करनेपर तेजोमय रूप धारण अत्यन्त अव्यक्त हैं, तुम्हारे उस स्वरूपको हमारा करनेवाले भगवान् भास्करने कल्याणमयी वाणीमें प्रणाम है। सम्पूर्ण देवताओंमें उत्कृष्ट तुम्हारा जो कहा-‘आप लोगोंको कौन-सा वर प्रदान किया प वेदवेत्ता परुपाक ना जानने योग्य, नित्य नाय?’ और सर्वज्ञानसम्पन्न हैं, उसको हमारा नमस्कार देवताओंने कहा—प्रभो! आपका रूप अत्यन्त हैं। तुम्हारा जो स्वरूप इस विश्वकी सृष्टि करनेवाला, | तेजोमय है, इसका ताप कोई सह नहीं सकता। विश्वमय, अग्नि एवं देवताद्वारा पूजित, सम्पूर्ण अतः जगतकै हितके लिये यह सबके सहने योग्य विश्वमें व्यापक और अचिन्त्य हैं, उसे हमारा हो जाय। प्रणाम है। तुम्हारा जो रूप यज्ञ, बेद, लोक तथा| तब ‘एवमस्तु’ कहकर आदिकर्ता भगवान् घुलोकसे भी परे परमात्मा नामसे विख्यात है, सूर्य सम्पूर्ण लोकके कार्य सिद्ध करनेके लिये उसको हमारा नमस्कार है। जो अविज्ञेय, अलक्ष्य, | समय-समयपर गर्मी, सर्दी और वर्षा करने लगे।
* आदिदेवोऽसि देवानामैश्वर्याच्च त्वमीश्वरः । आदिकर्तासि भूतानां दैवदेय दिवाकरः ॥
जीवनः सर्वभूतानां दैवगन्धर्वक्षसाम् । मुनकिन्नरसिद्धानां तथैवरगपक्षिणाम् ॥ त्वं ब्रह्मा त्वं महादेवस्त्वं विष्णुस्त्वं प्रशापतिः । वायुरिन्द्रश्य सोमश्च विवस्यान् वरुणस्तथा ॥ च कालः सृष्टिकर्ता च कृत भर्ता तथा प्रभुः । सरितः सागराः शैला विदिन्द्धन च ॥ प्रालयः अभय व व्याव्यक्तः सनातनः। ईश्चरात्परत विद्या विद्याया; परतः शिवः॥ शिवात्परतों देवत्वमेव परमेश्वरः। सर्वतःपानिपादान्तः सर्वतोझिशिरोमुखः॥ सहस्रांशुः समास्यः सहसचरागेक्षणः। भूतादिभवः स्वश्च महः सत्यं तपो जनः ॥ प्रदौमं दोपनं दिव्यं सर्वलोकप्रकाशकम् । इनिरीक्षे सन्द्राण अटूपं तस्य ते नमः ॥ सुरसिद्धगगै? भृग्वत्रिपुलहादिभिः। स्तुतं परममव्यक्तं यदूपं तस्य ते नमः॥ बेचं वेदविदां नित्यं सर्वज्ञानसमन्वितम् । सर्वदेवादिदेवस्य यद्यं तस्य ते नमः॥ विश्वकृअिभूतं च वैश्वानरसुरार्थितम् । विश्वस्थितमचयं च यदूपं तस्य ते नमः॥ परं यज्ञात्परं वेदात्परं लौकात्परं दिवः। परमात्मेत्यभिख्यातं अद्यं तस्य ते नमः॥ विज्ञेयमनालक्ष्यमध्यानगतमव्ययम् । अदिनिधनं चैव इंदूपं तस्य ते नमः॥ नमो नम; कारणकारणाय नमो नमः पापविमोचनाय । नमो नमस्ते दितिज्ञार्दनाय नमो नमो गुंगविमोचनाय ॥ नमो नमः सर्बवरप्रदाय नमो नम: सर्वसुखप्रदाय । नमो नमः सर्वधनप्रदाय नमो नमः सर्वमतिप्रदाय ॥ (३३। ६–३३)
* श्रीसूर्यदेवकी स्तुति तथा उनके अष्टोत्तरशत नामोंका वर्णन के
तदनन्तर ज्ञानी, योग, ध्यानी तथा अन्यान्य सोम, बृहस्पति, शुक्र, बुध, अङ्गारक (मङ्गल), मोक्षाभिलाषी पुरुष अपने हृदय-मन्दिरमें स्थित इन्द्र, विवस्वान्, दीमांशु (प्रचलित किरणोंवाले), भगवान् सूर्यका ध्यान करने लगे। समस्त शुभ शुचि (पवित्र), सौरि (सूर्यपुत्र मन्), शनैश्चर, लक्षणों से हीन अथवा सम्पूर्ण पातकोंसे युक्त ही ब्रह्मा, विष्णु, रुद्र, स्कन्द (कार्तिकेय), वैश्रवण क्यों न हो, भगवान् सूर्यकी शरण लेनेसे मनुष्य (कुबेर), यम, वैद्युत (बिजलीमें रहनेवाली) सब पापोंसे तर जाता है। अग्निहोत्र, वेद तथा| अग्नि, जाठराग्नि, ऐन्धन (ईधनमें रहनेवाली) अधिक दक्षिणावाले यज्ञ भगवान् सूर्यकी भक्ति अग्नि, तेज:पति, धर्मध्वज, वेदकर्ता, वेदाङ्ग, वेदवाहून, एवं नमस्कारकी सोलहवीं कलाके बराबर भी कृत (सत्ययुग), त्रेता, द्वापर, कलि, सर्वामराय, नहीं हो सकते। भगवान् सूर्य तीर्थोंमें सर्वोत्तम कला, काष्ठा, मुहूर्त, क्षपा (रात्रि), याम (पहर), तीर्थ, मङ्गलोंमें परम मङ्गलमय और पवित्रोंमें क्षण, संवत्सरकर, अश्वत्थ, कालचक्र, विभावसु परम पवित्र हैं। अतः विद्वान् पुरुष उनकी शरण (अग्नि), पुरुष, शाश्वत, योगी, व्यक्ताव्यक्त, सनातन, लेते हैं। जो इन्द्र आदिके द्वारा प्रशंसित सूर्यदेवको कालाध्यक्ष, प्रज्ञाध्यक्ष, विश्वकर्मा, प्रमोद नमस्कार करते हैं, वे सब पापोंसे मुक्त हो (अन्धकारको भगानेवाले ), वरुण, सागर, अंश, सूर्यलोकमें जाते हैं।
जीमूत (मेघ), जीवन, अरिहा (शत्रुओंका नाश मुनियोंने कह्म-ब्रह्मन्! हमारे मनमें चिरकालसे करनेवाले), भूताश्रय, भूतपति, सर्वलोकनमस्कृत, यह इच्छा हो रही है कि भगवान् सूर्यके एक सौ स्रष्ट, संवर्तक (प्रलयकालीन) अग्नि, सर्वादि,अलोलुप आठ नामका वर्णन सुनें। आप इन्हें बतानेकी | (निर्लोभ), अनन्त, कपिल, भानु, कामद कृपा करें।
(कामनाओंको पूर्ण करनेवाले), सर्वतोमुख (सब | ब्रह्माजी बोले-ब्राह्मणो! भगवान् भास्करके और मुखबाले), जय, विशाल, बद, सर्वभूतनिधेवित, परम गोपनीय एक सौ आठ नाम, जो स्वर्ग और मन, सुपर्ण (गरुड़), भूतादि, शीघ्रग (शीघ्र मोक्ष देनेवाले हैं, बतलाता हैं। सुनो। ॐ सूर्य, चलनेवाले), प्राणधारण, धन्वन्तरि, धूमकेतु, आदिदेव, अर्यमा, भग, त्वष्टा, पूषा (पौषक), अर्क, सविता, अदितिपुत्र, द्वादशात्मा (बारह स्वरूपोंवाले), रवि, रवि, गभस्तिमान् (किरणोंवाले), अन्न (अजन्मा), | दक्ष, पिता, माता, पितामह, स्वर्गद्वार, प्रज्ञाद्वार, काल, मृत्यु, धाता (धारण करनेवाले), प्रभाकर मोक्षद्वार, त्रिविष्टप (स्वर्ग), देहकर्ता, प्रशान्तात्मा, (प्रकाशका खजाना), पृथ्वी, आप (जल), तेज, विश्वात्मा, विश्वतोमुख, चराचरात्मा, सूक्ष्मात्मा, ख (आकाश), वायु, परायण (शरण देनेवाले), | मैत्रेय तथा करुणान्वित (दयाल) *-यें अमित
* *ॐ सूर्योर्यमा भगस्वष्टा पूयार्क: सविता रविः । गभस्तिमानजः काल मृत्युर्धाता प्रभाकरः ॥
पृथिव्यापश्च तेजश्च छ वायुश्च परायणम् । सोम बृहस्पतिः शकों सुधारक एव च। इन्द्रों विवस्वान्दौमांशुः शुचि: सौरि: शनैश्चरः । ब्रह्मा विष्णुचे रुश्च स्कन्द वैश्रवण यमः। वैद्युतको बारश्चाग्निरैन्धनस्तेजसा पतिः। धर्मध्वयों बंदकर्ता वेदाओं वैवाहनः ।। कृतं त्रेता द्वापरध कतिः सर्वामराश्रयः । कलाकाशामुहूर्ताश्च क्षमा यामास्तथा अगा:॥ संवत्सरका अन्यः कालचक्रों विभावसुः । पुरुषः शाश्वतो योग व्यक्ताव्यकः सनातनः ॥ कानाध्यक्ष अज्ञाध्यक्षो विश्वकर्मा तमनुदः । वरुणः सागरिश॥ जमूतो जीवनोऽरिहा॥
* संक्षिप्त ब्रह्मपुराण
तेजस्वी एवं कीर्तन करने योग्य भगवान् सूर्यके । एवं एकाग्न चित्तसे कीर्तन करता है, वह शौकरूपी एक सौ आठ सुन्दर नाम मैंने बताये हैं। जो दावानलके समुद्रसे मुक्त हो जाता और मनोवाञ्छित मनुष्य देवश्रेष्ठ भगवान् सूर्यके इस स्तोत्रका शुद्ध भोगको प्राप्त कर लेता है।
पार्वतीदेवीकी तपस्या, वरदान-प्राप्ति तथा उनके द्वारा ग्राह कै मुखसे ब्राह्मण-बालकको उद्धार | मुनियोंने पूछ-प्रभो! दक्षकन्या सतीने क्रोधवश तपस्या की, जिसकी कहीं तुलना नहीं है। इस पूर्वशरीरका परित्याग करके फिर गिरिराज हिमालयके तपस्यासे मुझे बड़ा संतोष हुआ। तब मैंने उनके घरमें कैसे जन्म लिया? महादेवजीकै साथ उनका पास जाकर कहा–’उत्तम व्रतकै पालन करनेवाले संयोग कैसे हुआ? तथा उस दम्पत्ति वार्तालाप गिरिराज ! अब मैं तुम्हारी इस तपस्यासे संतुष्ट हैं। किस प्रकार हुआ?
तुम इच्छानुसार वर माँगो।’ ब्रह्माजी बोले-मुनिवरौ ! पार्वती और हिमालयने कहा- भगवन्! मैं सब गुणसे महादेवजीकी पवित्र कथा पापोंका नाश करनेवाली सुशोभित संतान चाहता हूँ। यदि आप मुझ पर और सम्पूर्ण कामनाको देनेवाली है; उसे कहता संतुष्ट हैं तो ऐसा ही वर दौजिये। हैं, सुनो। एक समयकी बात है, महर्षि कश्यप गिरिराजको यह बात सुनकर मैंने उन्हें हिमवान्के घरपर पधारे। उस समय हिमवान्ने मनोवाञ्छित वर देते हुए कहा-‘शैलेन्द्र! इस पूछा-‘मुने! किस उपायसे मुझे अक्षय लोक प्राप्त तपस्याके अभावसे तुम्हारे कन्या उत्पन्न होगी, होंगे, मेरी अधिक प्रसिद्ध होगी और सत्पुरुषों में जिससे तुम सर्वत्र उत्तम कीर्ति प्राप्त करोगे। मैं पूजनीय समझा जाऊँगा ?”
तुम्हारे यहाँ कोटि-कोटि तीर्थं वास करेंगे। तुम कश्यपने कहा-महाबाहो ! उत्तम संतान होनेसे सम्पूर्ण देवताओंसे पूजित होगे तथा अपने पुण्यसे यह सब कुछ प्राप्त हो जाता है। ब्रह्मा और देवताओंको भी पावन बनाओगे। तदनन्तर गिरिराजने ऋषियोंसहित मेरी प्रसिद्धि तो केवल संतानके ही समयानुसार अपनी पत्नी मैनाके गर्भसे अपर्णा कारण है। अत: गिरिराज्ञ ! तुम घोर तपस्या करके नामक एक कन्या उत्पन्न की। अपर्णा बहुत गुणवान् संतान-श्रेष्ठ कन्या उत्पन्न करो। | समयतक निराहार रही, उसे उपवाससे रोकते हुए
ब्रह्माजी कहते हैं-कश्यपजीकै यों कहनेपर | माताने कहा-‘बेटी! ‘उ मा’ (ऐसा मत करो।’ गिरिराज हिमालयने नियममें स्थित होकर ऐसी उस समय वे मातृस्नेहसे दुःखित हो रही थी।
भूताश्रयो भूतपतः सर्वलोकनमस्कृत: । मष्टा संवर्तको यहि सर्वस्यादिरसोलुपः ।। अनन्तः कपिल भानुः कामदः सर्वतोमुखः। ज्ञको विशाल वरदः सर्वभूतनिषेवितः ॥ मनः सुपर्णो भूतादिः शन्नगः प्राणधारणः । धन्वन्तरिधूमकेतुरादिदेवोदितेः सुतः ॥ द्वादशात्मा रविर्दशः पिता माता पितामहः । स्वर्गद्वारे प्रजाहारं मोक्षद्वारे त्रिविष्टपम् ॥ देकर्ता प्रशान्तात्मा विश्वात्मा विश्वतोमुखः । चराचरात्मा सूक्ष्मात्मा मैत्रेयः करुणान्वित: ॥ (३३। ३–४५)
* पार्वतीदेवीकी तपस्या, वरदान–प्राप्ति तथा ब्राह्मण–बालकका द्धार ।।
माताकै यों कहनेपर कठोर तपस्या करनेवाली देवताओंके भी देवता, परमेश्वर और स्वयम्भू हैं। पार्वतीदेवी उमा नामसे हीं संसारमें प्रसिद्ध हुई। उनका स्वरूप बहुत ही इदार हैं। उनकी समानता पार्बतीकी तपस्यासे तीनों लोक संतप्त हो उठे। तब करनेवाला कहीं कोई भी नहीं है।’ मैंने उससे कहा-‘देवि! क्यों इस कठोर तपस्यासे तत्पश्चात् देवताओंने आकर परम सुन्दरी पार्वतीसे तुम सम्पूर्ण लोकको संताप दे रही हो? कल्याणी ! कहा- देवि! भगवान् शङ्कर थोड़े ही दिनोंमें तुम्हींने इस सम्पूर्ण जगत्की सृष्टि की है। स्वयं | आपके स्वामी होंगे। अब इसके लिये तपस्या न ही इसे रचकर अब इसका विनाश न करो। कीजिये।’ यों कहूकर देवताओंने गिरिराजकुमारीकी जगन्माता! तुम अपने तेजसे सम्पूर्ण लोकोंको प्रदक्षिणा की और वहाँ से अन्तर्धान हो गये। धारण करती हो; फिर कौन ऐसी वस्तु हैं, जिसे पार्वती भी तपस्यासे निवृत्त हो गयीं, किंतु अपने तुम इस समय तपस्याद्वारा प्राप्त करना चाहती हो? आश्रममें ही रहने लगीं। एक दिन जब वे अपने वह इमें बतलाओं।’
आश्रमपर उगे हुए अशोक-वृक्षका सहारा लेकर खड़ी थीं, देवताओंकी पीड़ा दूर करनेवाले भगवान् शङ्कर पधारे। उनके ललाटमें चन्द्राकार तिलक लगा था, वे बहके बराबर नाटा एवं विकृत रूप धारण करके आये थे। उनकी नाक कटी हुई थी, कूबड़ निकला हुआ था और केशोंका अन्तिम भाग पीला पड़ गया था। उनके मुखकी आकृति भी बिगड़ी हुई थी। उन्होंने पार्वतोसे कहा-देवि ! मैं तुम्हारा वरण करता हूँ।” उमा योगसिद्ध हो गयी थीं। आन्तरिक भाबकी शुद्धिसे उनका अन्त:करण शुद्ध हो गया था। वे समझ गयी कि साक्षात् भगवान् शङ्कर पधारे हैं। तब उनकी कृपा प्राप्त करनेकी इच्छासे पार्वतीने अर्थ्य, पाद्म और मधुपर्क द्वारा उनका पूजन करके कहा–’ भगवन्! मैं स्वतन्त्र नहीं हैं। घमें मेरे पिता मालिक हैं। वे दैवानें कहा-पितामह ! मैं जिसके लिये यह ही मुझे देनमें समर्थ हैं। मैं तो उनकी कन्या हैं। तपस्या करती हैं, उसे आप भलीभाँति जानते हैं। यह सुनकर देवाधिदेव भगवान् शङ्करने इस फिर मुझसे क्यों पूछते हैं?
| विकृत रूपमें ही गिरिराज हिमालयके पास जाकर तब मैंने पार्वतोसे कहा-‘शुभे! तुम जिनके कहा-‘शैलेन्द्र ! मुझे अपनी कन्या दीजिये।’ उस लिये तप करती हो, वे स्वयं हीं तुम्हारा वरण विकृत वेष अविनाशी रुद्रको हीं आया ज्ञान करेंगे। भगवान् शङ्कर ही सर्वश्रेष्ठ पति हैं। में गिरिराजको शापसे भय हुआ। उन्होंने उदास सम्पूर्ण लोकेश्वरोंके भी ईश्वर हैं। हम सदा हीं | होकर कहा- भगवन्! ब्राह्मण इस पृथ्वीके देवता उनके अधीन रहनेवाले किङ्कर हैं। देवि ! वे हैं, मैं उनका अनादर नहीं करता; किंतु मैरै मनमें ५३।
* संक्षिप्त ब्रह्मपुराण
पहलेसे जौ कामना है, उसे सुनिये। मैरी पुत्रींका। बालकका रूप धारणकर निकटवर्ती सरोवरमें स्वयंवर होगा। इसमें यह जिसको वरण करेगी, प्रकट हुए। उस समय उन्हें माहने पकड़ रखा वहीं उसका पति होगा।’ हिमालयकी यह बात था। ये बोले-‘हाय ! ग्राहसे पकड़े जानेकै कारण सुनकर भगवान् शने देवीके पास आकर | मैं अचेत हो रहा हैं। कोई हो तो मुझे आकर कहा-‘तुम्हारे पिताने स्वयंवर होनेकी बात कहीं | बचायें।’ पौडित ब्राह्मणकी च पुकार सुनकर है। इसमें तुम जिसका चरण करोगी, वहीं तुम्हारा कल्याणमयी देवी पार्वती सहसा उठ खड़ी हुई पति होगा। इस समय किसी रूपवान्को छोड़कर और इस स्थानपर गयी, जहाँ वह ब्राह्मण-बालक तुम मुझ-जैसे अयोग्यका चरण कैसे करोगी?” | खड़ा था। वहाँ पहुँचकर चन्द्रमुखी देवीने देखा, उनके यों कहनेपर पार्वतीने उनकी बातोंपर एक बहुत सुन्दर बालक ग्राहक मुखमें पड़ा थरथर विचार करते हुए कहा-‘महाभाग ! आपको अन्यथा कँप रहा है। ग्राहकै खींचनेपर वह तेजस्वी बालक विचार नहीं करना चाहिये। मैं आपका ही वरण बड़ा आर्तनाद करता था। उसे ग्राहग्रस्त बालकको करूंगी। इसमें कोई अनोखी बात नहीं है। अथवा| देखकर देवी उमा दुःखसे आतुर हो उर्दी और यदि आपको मुझपर संदेह है तो मैं यहीं आपका बोली-‘ग्राहदाज! यह अपने पिता-माताका एक वरण करती हैं। यों कहकर पार्वतीने अपने ही बालक है, इसे शीघ्र होड़ दो।’ हायसे अशोकका गुच्छा लेकर भगवान् शङ्करके ग्रहने कहा-देवि! छठे दिनपर जो सबसे कंधेपर रखा और कहा-‘दैव! मैंने आपको पहले मैं पास आ जाता है, उसको-विधाताने मैरा वरण कर लिया।’ भगवतीं पार्वतीके इस प्रकार आहार निश्चित किया है। महाभागे! यह बालक चरण करनेपर भगवान् शङ्करने इस अशोक- आज छठे दिन ब्रह्माजोंसे प्रेरित होकर ही मेरे पास वृक्षको अपनी चागीसे सजौच करते हुए-से आया है, अतः मैं इसे किसी प्रकार न छोगा। कहा-अशोक ! तुम्हारे परम पवित्र गुच्छे से मेरा दैवीं बोर्ली–ग्राह! मैंने हिमालयकै शिखरपर वरण हुआ है, इसलियें तुम ज्ञरावस्थासे रहित एवं जो उत्तम तपस्या की है, उसका पुण्य लेकर इस अमर रहोगे। तुम जैसा चाहोगे, वैसा रूप धारण बालकको छोड़ दो। मैं तुम्हें नमस्कार करती हैं। कर सकोगे। तुममें इच्छानुसार फूल लगेंगे। तुम आने कह्म-देवि! आपने थोड़ी या उत्तम जो सब कामनाओंको देनेवाले, सब प्रकारके आभूषणरूप कुछ भी तपस्या की हैं, वह सब मुझे दे दें तो फूल और फलोंसे सम्पन्न एवं मेरे अत्यन्त प्रिय शीघ्र ही यह छुटकारा पा जायगा। होगे। तुममें सब प्रकारको सुगन्ध होगी तथा तुम देवी बोलीं-महाग्राह! मैंने जन्मसे लेकर देवताओंके अधिक प्रिय बने रहोगे।’ | अबतक जो पुण्य किया है, वह सब तुम्हें समर्पित यों कहकर जगत्को सृष्टि और सम्पूर्ण भूतोंका हैं। इस बालकको छोड़ दो।। पालन करनेवाले भगवान् शङ्कर हिमालयकुमारी देवीके इतना कहते ही उनकी तपस्यासे उमासे विदा ले वीं अन्तर्धान हो गये। उनके विभूषित हो वह ग्राह दोपहरके सूर्य की भाँति चले जानेपर पार्वतीदेवीं भी उन्हींकी और मन तेजसै प्रज्वलित हो उठा। उस समय उसकी और लगाये एक शिलापर बैठ गयीं, इस समय देखना कठिन हो रहा था। ग्राहने संतुष्ट होकर देवाधिदेव शिव स्वयं लीला करनेके लिये ब्राह्मण-1 विश्वको धारण करनेवाली देवीसे कहा-महाव्रते!
- पार्वतीजीको स्वयंवर और महादेवजीके साथ उनका वियाह के +
तुमने यह क्या किया? भलीभाँति सोचकर देखो तो सही। तपस्याका उपार्जन अहें कष्टसे होता हैं, अतः उसका परित्याग अच्छा नहीं माना गया है। तुम अपनी तपस्या ले लो। साथ ही इस बालकको भी मैं ओड़े देता हैं।’
देवी ने कहा-ग्राह! मुझे अपना शरीर देकर भी यन्नपूर्वक ब्राह्मणकी रक्षा करनी चाहिये। तपस्या तो मैं फिर भी कर सकती हैं; किंतु यह ब्राह्मण पुन: नहीं मिल सकता। महाग्राह! मैंने भलीभाँति सोचकर तपस्याके द्वारा बालकको छुड़ाया हैं। तपस्या ब्राह्मणोंसे श्रेष्ठ नहीं हैं। मैं ब्राह्मणों को ही श्रेष्ठ मानती हैं। ग्राहराज! मैं तपस्या देकर फिर नहीं लेंगी। कोई मनुष्य भी अपनी दी हुई वस्तुको वापस नहीं लेता। अत: यह तपस्या तुममें ही सुशोभित हो। इस बालकको छोड़ दो। साक्षात् भगवान् शङ्करने प्रकट होकर कहा-‘देवि! | पार्वतीके यों कहनेपर सूर्यके समान प्रकाशित | अब तपस्या न करो। तुमने अपना तप मुझे ही होनेवाले ग्राहने इनकी प्रशंसा की, इस बालकको समर्पित किया है। अत: वही सहस्रगुना होकर छोड़ दिया और देवीको नमस्कार करके वहीं | तुम्हारे लिये अक्षय हो जायगा।’ अन्तर्धान हो गया। अपनी तपस्याक हानि समझकर इस प्रकार तपस्याके अक्षय होनेका उत्तम पार्वतीने पुनः नियमपूर्वक तपका आरम्भ किया। वरदान पाकर उमादेवीको बड़ी प्रसन्नता हुई और उन्हें पुनः तपस्या करनेके लिये उत्सुक जान {चे स्वपंचकी प्रतीक्षा करने लीं।
पार्वतीजीका स्वयंवर और महादेवजीके साथ उनका विवाह ब्रह्माजी कहते हैं-तदनन्तर समयानुसार | बरण करे तो वहीं वाञ्छनीय पुण्य होगा। उसीमें हिमालयके विशाल पृष्ठभागपर पार्वतीका स्वयंवर | मेरा अभ्युदय निहित है। यों विचारकर शैलराजने चाया गया। उस समय वह स्थान सैकड़ | मन-ही-मन महेश्वरका स्मरण करके उसे मण्डित विमानोंसे घिर रहा था। गिरिराज हिमवान् किसी प्रदेशमें स्वयंवर चाया। गिरिराजकुमारीके स्वयंवरकी बातको सोचने-विचारनेमें बड़े निपुण थे। पुत्रीने घोषणा होते ही सम्पूर्ण लोकोंमें निवास करनेवाले देवाधिदेव महादेवजीके साथ जो मन्त्रणा की थीं, देवता आदि सुन्दर बेश-भूषा धारण करके वहाँ वह उन्हें ज्ञात हो गयी थीं; अतः उन्होंने सोचा, | आने लगे। हिमवान्की सूचना पाकर मैं भी यदि मेरी कन्या सम्पूर्ण लोकोंमें निवास करनेवाले देवताओंके साथ वहाँ उपस्थित हुआ। मेरे साथ दैवता, दानव तथा सिद्धोंके समक्ष महादेवजीका सिद्ध और योगी भी थे। इन्द्र, विवस्वान्, भग, कृतान्त (यम), वायु, अग्नि, कुबेर, चन्द्रमा, दोनों चेष्टा की; किंतु शिशुरूपधारी देवाधिदेव शङ्करने अश्विनीकुमार तथा अन्यान्य देवता, गन्धर्व, यक्ष,नाग उन्हें स्तम्भत कर दिया। अब वे न तो यन्त्र चला और किन्नर भी मनोहर वेष बनाये वहाँ आये थे। सके और न हिल-डुल सके। तब भग नामवाले शचीपति इन्द्र इस समाजमें अधिक दर्शनीय जान बलवान् आदित्यने एक तेजस्वी शस्त्र चलाना पड़ते थे। वे अप्रतिहत आज्ञा, बल और ऐश्वर्यके चाहा, किंतु भगवान्ने उनकी बाँहको भी जड़वत् कारण हर्षमान हों स्वयंवरकी शोभा बढ़ा रहे थे। बना दिया। साथ ही उनका बल, तेज और जो तीनों लोकोंकी उत्पत्तनै कारण, जगत्को योगशक्ति भी व्यर्थ हो गयी। उस समय मैंने जन्म देनेवालों तथा देवता और असुरोंकी माता हैं, परमेश्वर शिवको पहचाना और शीघ्र उठकर उनके जो परम बुद्धिमान् आदिपुरुष भगवान् शिवको चरमें आदरपूर्वक मस्तक झुकाया। इसके बाद पत्नीं मानी गयी हैं तथा पुराणों में परा प्रकृति मैंने उनकी स्तुति करते हुए कहा- भगवन् ! बतायी गयी हैं, वे ही भगवती सती दक्षपर कुपित आप अजन्मा और अजर देवता हैं; आप ही हो देवताओंका कार्य सिद्ध करनेके लिये हिमवान्के जगत्के स्रष्टा, सर्वव्यापक, परावरस्वरूप, प्रकृति घरमै अवतीर्ण हुई । वे जिस विमानपर बैठी पुरुष तथा ध्यान करनेयोग्य अविनाशी हैं। अमृत, र्थी, उसमें सुवर्ण और रत्न जड़े हुए थे। उनके परमात्मा, ईश्वर, महान् कारण, मैरे भी उत्पादक, दोनों ओर चँवर इलाये जा रहे थे। वे सभी प्रकृतिके सष्टा, सबके रचयिता और प्रकृतिसे भी ऋतुओंमें खिलनेवाले सुगन्धित पुष्योंकी माला परे हैं। ये देवी पार्वती भी प्रकृतिरूपा हैं, जो सदा हाथर्मे लिये स्वयंवर-सभा ज्ञानेकों प्रस्थित हुई। | ही आपके सृष्टिकार्यमें सहायक होती हैं।
इन्द्र आदि देवताओंसे स्वयंवर-मण्डप भरा प्रकृतिदेवी पत्नौरूपमें प्रकट होकर जगत्के कारणभूत हुआ था। भगवती इमा मासा हाथमें लिये देव- आप परमेश्वरको प्राप्त हुई हैं। महादेव! देवी समाजमें खड़ी र्थी। इसी समय देवीकी परीक्षा पार्वतीकै साथ आपको नमस्कार है। देवेश्वर ! लेनेके लिये भगवान् शङ्कर पाँच शिखावाले शिशु आपके ही प्रसाद और आदेशसे मैंने इन देवता बनकर सहसा उनकी गोदमें आकर सो गये। आदि प्रज्ञाओंकी सृष्टि की हैं। ये देवगण आपकी देवाने उस पञ्चशिख बालकको देखा और ध्यानकै योगमायासे मोहित हो रहे हैं। आप इनपर कृपा द्वारा उसके स्वरूपको ज्ञानका बड़े प्रेमके साथ कीजिये, जिससे ये पहले-जैसे हो जायें।’ उसे अङ्कमें ले लिया। पार्वतीका संकल्प शुद्ध था। तदनन्तर मैंने सम्पूर्ण दैवताओंसे कहा-अरे! वे अपना मनोवाञ्छित पति पा गर्थी, अतः। तुम सब लोग कितने मद हो! इन्हें नहीं जानते? भगवान् शङ्करको हृदयमें रखकर स्वयंवरसे लौट ये साक्षात् भगवान् शङ्कर हैं। अब शीघ्र इन्हींकी पड़ी। देवीकै अङ्कमैं सोये हुए इस शिशुको शरणमें जाओ।’ तब मैं सब जड़वत् अने हुए देखकर देवता आपसमें सलाह करने लगे कि यह देवता शुद्धचित्तसे मन-ही-मन महादेवजीको प्रणाम कौन है। कुछ पता न लगनेसे अत्यन्त मोहमें करने लगे। इससे देवाधिदेव महेश्वरने प्रसन्न पड़कर वे बहुत कोलाहल करने लगे और होकर इनका शरीर पहले-जैसा कर दिया। वृत्रासुरको मारनेवाले इन्द्रने अपनी एक बाँह ऊँचेतत्पश्चात् देवेश्वर शिवनै परम अद्भुत त्रिनेत्रधारी उठाकर उस बालकपर वञ्जका प्रहार करनेकी । विग्रह धारण किया। उस समय उनके तैज से के पार्वतीको स्वयंवर और महादेमीकै साथ उनका विवाह ।
तिरस्कृत हो सम्पूर्ण देवताओंने नेत्र बंद कर विवाह करना उचित हो, वह सब आप ही लिये। तब उन्होंने देवताओंको दिव्य दृष्टि प्रदान करायें।’ तब मैंने भगवान् शिवसें कहा-‘देव ! की, जिससे में उनके स्वरूपको देख सकते थे। अब उमाके साथ विवाह करें। उन्होंने उत्तर वह दृष्टि पाकर देवताओंने परम देवेश्वर भगवान् दिया-‘जैसी आपकी इच्छा।’ फि तो हम शिवका दर्शन किया। उस समय पार्वतीदेवीने लोगोंने महादेवजीके विवाहके लिये तुरंत ही एक अत्यन्त प्रसन्न हो समस्त देवताओंके देखते-देखते | मण्डप तैयार किया, जो नाना प्रकारके रोंसे अपने हाथकी माला भगवान्कै चरणोंमें चढ़ा दी। सुशोभित था। बहुत-से रत्न-चित्र-विचित्र मणियाँ,
सुवर्ण और मौत आदि द्रव्य स्वयं ही मूर्तिमान | होकर इस मण्डपको सजाने लगे। मरकत | मणिका बना हुआ फर्श विचित्र दिखायी देने लगा। सोनेके खम्भसे उसकी शोभा और भी बढ़ गयी थी। स्फटिकमणिको बनी हुई दीवार चमक रही थी। द्वारपर मोतियोंकी झालरें लटक रही थीं। चन्द्रकान्त और सूर्यकान्तमणि सूर्य और चन्द्रमा प्रकाश पाकर पिघल रहे थे। वायु मनोहर सुगन्ध लेकर भगवान् शिवके प्रति अपनी भक्तिका परिचय देती हुई मन्द गति बढ्ने लगी। उसका स्पर्श सुखद जान पड़ता था। चारों समुहूं, इन्द्र आदि श्रेष्ठ देवता, देवनदियाँ, महानदियाँ, | सिद्ध, मुनि, गन्धर्व, अप्सराएँ, नाग, यक्ष, राक्षस, जलचर, खेचर, किन्नर तथा चारणगण भी उस यह देख सब देवता साधु-साधु कहने लगे। फिर विवाहोत्सवमें (मूर्तिमान् हॉकर) सम्मिलित हुए उन लोगोंने पृथ्वीपर मस्तक टेककर देवीसहित | थे। तुम्बुरु, नारद, हाहा और हूहू आदि सामगान महादेवजीको प्रणाम किया। इसके बाद देवताओंसहित करनेवाले गन्धर्व मनोहर बा लेकर इस विशाल मैंने हिमवान्से कहा-‘शैलराज! तुम सबके मण्डपमें आये थे। ऋषि कथाएँ कहते, तपस्वी वेद लिये स्पृहणीय, पूजनीय, वन्दनीय तथा महान् हो; पढ़ते तथा मन-ही-मन प्रसन्न होकर वें पवित्र क्योंकि साक्षात् महादेवजौके साथ तुम्हारा सम्बन्ध वैवाहिक मन्त्रों का जप करते थे। सम्पूर्ण जगन्माताएँ हो रहा है। यह तुम्हारे लिये महान् अभ्युदयकी | और देवकन्याएँ हर्षमग्न हो मङ्गलगान कर रही थीं। बात है। अब शीघ्र ही कन्याको विवाह करो, | भगवान् शङ्करका विवाह हो रही हैं, यह ज्ञानका विलम्ब क्यों करते हो?’
भाँति-भौतिक सुन्थ और सुखका विस्तार करनेवाली मेरी बात सुनकर हिमवान्ने नमस्कारपूर्वक छ ऋतुएँ वहाँ साकार होकर उपस्थित थीं। मुझसे कहा-‘देव! मेरे सब प्रकारकै अभ्युदयमें। इस प्रकार जब सम्पूर्ण भूत वहाँ एकत्रित आप ही कारण हैं। पितामह ! जब जिस विधिसे | हुए और नाना प्रकारकै बाजे बजने सगे, उस
के संक्षिप्त ब्रह्मपुराण में समय मैं पार्वतीको यौग्य वस्त्राभूषणसे विभूषित प्रकार कहा–’ब्रह्मन्! जो भी शास्त्रोक्त विधान कराकर स्वयं ही मण्डपमें ले आया। फिर मैंने हो, उसे इच्छानुसार कीजिये; मैं आपकी प्रत्येक भगवान् शङ्करसे कहा-देव! मैं आपका आचार्य आज्ञाका पालन करेगा।’ यह सुनकर मेरे मनमें बनकर अग्निमें हवन करूंगा। यदि आप मुझे | बड़ी प्रसन्नता हुई और मैंने तुरंत ही कुरा हाथमें आज्ञा दें तो विधिपूर्वक इस कार्यका अनुष्ठान | लेंकर महादेवजी तथा पार्वतीदेवीके हाथ को योगबन्धसे युक्त कर दिया। उस समय वहाँ अग्निदेव स्वयं ही हाथ जोड़कर उपस्थित हो गये। श्रुतियोंके गीत और महामन्त्र भी मूर्तिमान् होकर आ गये थे। मैंने शास्त्रीय विधिसे अमृतस्वरूप घृतका होम किया और उस दिव्य दम्पतिके द्वारा अग्निकी प्रदक्षिणा करायी। उसके बाद उनके हाथोंको योगबन्धसे मुक्त किया। इस प्रकार क्रमशः वैवाहिक विधि पूर्ण की गयी। इस कार्य में सम्पूर्ण देवताओं, मेरे मानस पुत्रों तथा सिका भी सहयोग था। विवाह समाप्त होनेपर मैंने भगवान् शङ्करको प्रणाम किया। योगशक्तिसे ही पार्वती और परमेश्वरका उत्तम विवाह सम्पन्न हुआ। ब्राह्मणों! इस प्रकार मैंने तुम सब लोगों से पार्वतीज्ञीके स्वयंवर और महादेवजीके उत्तम आरम्भ हो।’ तब देवाधिदेव शङ्करने मुझसे इस | विवाहकी कथा कह सुनायी
देवताओद्वारा महादेवजीकी स्तुति, कामदेवका दाह तथा महादेवजीका मेरुपर्वतपर गमन ब्रह्माजी कहते हैं-अमित तेजस्व महादेवजीक्य सम्पत्ति प्रदान करते हैं, उन भगवान् शङ्करको विवाह हो जानैपर इन्द्र आदि देवताओंके हुर्षकी नमस्कार है। नीले रंगकी चोटी धारण करनेवाले सौमा न रहौं। उन्होंने भगवान् शङ्करको प्रणाम अम्बिकापतिको नमस्कार है; वायु जिनका स्वरूप किया और इस प्रकार स्तुति आरम्भ की। | हैं और जों सैकड़ों रूप धारण करनेवाले हैं, उन देवता बोले-पर्वत जिनका लिङ्गमय स्वरूप | भगवान् शिवको प्रणाम है। दैत्योंके योगका नाश है, जो पर्बतोंके स्वामी हैं, जिनका वेग पवनकै करनेवाले तथा योगियोंके गुरु महादेवजीको प्रणाम समान हैं, जो विकृत रूप धारण करनेवाले तथा है। सूर्य और चन्द्रमा जिनके नैत्र हैं तथा जो अपराजित हैं, जो क्लेशका नाश करके शुभ | ललाटमें भी नेत्र धारण करते हैं, उन भगवान्
- देवताद्वारा महादेवगीकी स्तुति, कामदेवका दाह, महादेवजीका मेरुपर्वतपर गमन ।
शङ्करको नमस्कार है। जो श्मशानमें क्रीड़ा करते । मौंगो। मैं निश्चय ही उसे दूंगा।’ और वर देते हैं, जिनके तीन नेत्र हैं, उन देवेश्वर देवता बोले- भगवन् ! यह वर आपके ही शिवको प्रणाम हैं। जो गृहस्थ होते हुए भी साधु हाथमें रहे। जब आवश्यकता होंगी, तब हम माँग हैं, नित्य जी एवं ब्रह्मचर्य धारण करनेवाले हैं, लेंगे। इस समय आप हमें मनोवाति वर उन भगवान् शङ्करको नमस्कार है। जो ज्ञल दीजियेगा। तपस्या करते, योगजनित ऐश्वर्य देते, मनको शान्त | “एवमस्तु’ कहकर महादेवजीने देवताओं तथा रखते, इन्द्रियाँका दमन करते तथा प्रलय और अन्य लोगोंको विदा किया और स्वयं प्रमथगणों के सृष्टिके कर्ता हैं, उन महादेवको प्रणाम है। साथ अपने धामको चले गये। ब्राह्मणो! जो इस अनुग्रह करनेवाले भगवान्को नमस्कार है। पालन स्तोत्रका श्रवण या पाठ करता है, वह सम्पूर्ण करनेवाले शिवको प्रणाम हैं। रुद्, वसु, आदित्य लौकॉमें ज्ञानेकी शक्ति प्राप्त करती और देवराज और अश्विनीकुमारोंके रूपमें वर्तमान भगवान् | इन्द्रकी भौंत देवताओंद्वारा पूजित होता है। शङ्कको नमस्कार है। जो सबके पिता, सांख्यवर्णित महादेवजी अपने धाममें प्रवेश करके जब पुरुष, विश्वेदेव, शर्व, उग्र, शिव, वरद, भीम, | सुन्दर आसनपर विराजमान हुए, तब वक़ स्वभाववाले सैनानी, पशुपति, शुचि, वैरिहन्ता, सद्योजात, महादेव, | क्रूर कामदेवने उन्हें अपने बाणोंसे धनैका चित्र, विचित्र, प्रधान, अप्रमेय, कार्य और कारण विचार किया। वह अनाचारी, दुरात्मा और कुलाधम नामसे प्रतिपादित होते हैं, उन भगवान् शिवको काम सब लोकोंको पीडित करनेवाला है। वह प्रणाम है। भगवन्! पुरुषरूपमें आपको नमस्कार नियम तथा व्रतोंका पालन करनेवाले ऋषियोंक है। पुरुषमें इच्छा उत्पन्न करनेवाले आपको प्रणाम | कार्यमें विन्न झाला करता है। इस दिन चक्रवाकका हैं। आप ही पुरुषका प्रकृतिके साथ संयोग कराते रूप धारण करके अपनी पत्नी रतिके साथ इसका हैं और आप ही प्रकृतिमें गणोंका आधान करनेवाले | आगमन हुआ था। देवताओंके स्वामी भगवान् हैं। आपको नमस्कार है। आप प्रकृति और शङ्करने अपनेको बाँधनेकी इच्झ रखनेवाले आततायी पुरुषके प्रवर्तक, कार्य और कारणकै विधायक कामदेवको तीसरे नेत्रसे अवहेलनापूर्वक देखा। तथा कर्मफलोंकी प्राप्ति करानेवाले हैं। आपकी | फिर तो उनके नेत्रसे प्रकट हुई आग सहस्रों नमस्कार हैं। आप कालके ज्ञाता, सबके नियन्ता, पटके साथ प्रचलित हो उठीं और रतिके गुणकी विषमताके उत्पादक तथा प्रज्ञावर्गको स्वामी मदनको उसके साज-शृङ्गारकै साथ सहसा जीविको प्रदान करनेवाले हैं, आपको नमस्कार दाध करने लगी। उस समय जलता हुआ कामदेव है। देवदेवेश्वर! आपको प्रणाम है। भूतभावन! | बड़े करुण स्वर में आर्तनाद करने लगा और आपको नमस्कार है। कल्याणमय प्रभो! आप हमें | भगवान् शिवको प्रसन्न करनेके लिये धरतीपर गिर दर्शन देनेके लिये प्रसन्नमुख एवं सौम्य हो जायें। पड़ा। इतनेमें उसके सब अङ्गों में आग फैल गयी इस प्रकार देवताओंके द्वारा अपनी स्तुति और सब लोकको ताप देनेवाला काम स्वयं हो होनेपर सम्पूर्ण जगत्के स्वामी भगवान् उमापतिने पृथ्वीपर गिरकर क्षणभरमें मूच्छित हो गया। कहा-‘देवताओ! मैं तुम्हें दर्शन देनेको सदा ही उसकी पत्नी रति अत्यन्त दुःखित हो करुणामय प्रमुख और सौम्य हैं। तुम शीघ्र कोई वर । विलाप करने लगी। उस दुःझिनीने महादेवजी * संक्षिप्त पुराण । तथा पार्वतीदेवीसे अपने पतिके लिये याचना की। महादेवजी बोले-देवि! मैं तो सदा तुमसे उसके दु:खको जानकर दयालु दम्मतिने उसे अन्यत्र रहनेको कहता था, किंतु तुम्हें कभी अन्य सान्त्वना देते हुए कहा-‘कल्याणी । कामदेव तो किसी स्थानका निवास पसन्द नहीं आया। आज अब निश्चय ही दुग्ध हो गया, अब यह इसकी | स्वयं ही तुम अन्यत्र रहनेकी इच्छा क्यों करती उत्पत्ति नहीं हो सकती; परंतु शरीरहित होते हुए हो? इसका कारण बताओ। भी यह तुम्हारे सव कार्य सिद्ध करता रहेगा। दैवीने कहा-देवेश्वर ! आज मैं अपने महात्मा शुभे! जय भगवान् विष्णु वसुदेवनन्दन श्रीकृष्णकै पिताकै घर गयीं थीं। वहाँ माताने मुझे एकान्त रूपमें इस पृथ्वीपर अवतार लेंगे, उस समय स्थान देख इत्तम आसन आदिके द्वारा मैरा उन्हींकै पुत्ररूपमें तुम्हारे पतिका जन्म होगा। इस सत्कार किया और कहा–’उमे! तुम्हारे स्वामी प्रकार अरदान पाकर कामपत्नी रति खेदरहित एवं दरिद्र हैं, इसलिये सदा खिलौनोंसे खेला करते हैं। प्रसन्न हो अपने अभीष्ट स्थानकों चली गयी। इधर देवताओंकी क्रीड़ा ऐसी नहीं होती।’ महादेव ! भगवान् शङ्कर कामदेवको इग्ध करनेके पश्चात् | आप जो नाना प्रकारके गर्गोंके साथ विहार करते भगवती उमाके साथ हिमालयपर प्रसन्नतापूर्वक हैं, यह मेरी माताको पसन्द नहीं है। रमण करने लगे।
यह सुनकर महादेवजी हँस पड़े और देवीको पार्वतीजीने कहा-भगवन्! देवदेवेश्वर ! अब हँसाते हुए बोले-‘प्रिये! बात तो ऐसी ही है, मैं इस पर्वतपर नहीं रहूँगीं। अब मेरे लिये दूसरा | इसके लिये तुम्हें दुःख क्यों हुआ? मैं कभी कोई निवासस्थान बनाइये। हाथीके चमड़े लपेटता, कभी दिगम्बर बना रहता, श्मशानभूमिमें निवास करता, बिना घर-द्वारका होकर जंगलोंमें और पर्वतकी कन्दराओंमें रहता तथा अपने गणोंके साथ घूमता-फिरता है। इसके लिये तु मातापर क्रोध नहीं करना चाहिये। तुम्हारी माताने सब ठीक ही कहा है। इस पृथ्वीपर प्राणियोंका माताके समान हितकारी कोई बन्धु-बान्धव नहीं है।’ | देवींने कहा-सुरेश्वर! मुझे अपने बन्धु बान्धयोंसे कोई प्रयोजन नहीं है। आप वही करें, जिससे मुझे सुख हो।
देवीका यह वचन सुनकर देवेश्वर महादेवजौने उन्हें प्रसन्न करनेके लिये इस पर्वतकों छोड़ दिया और पन्नों तथा पार्षदों को साथ ले देवताओं और सिद्धसे सेवित सुमेरुपर्वतके लिये प्रस्थान किया।
+ दस–यज्ञ–विवस
दक्ष-यज्ञ-विध्वंस ऋषियोंने कहा-ब्रह्मन्! वैवस्वत मन्वन्तरमें हुए। आदित्य, वसु, ह, साध्य तथा मरुद्गण-ये प्रचेताओंके पुत्र प्रजापति दक्षका अश्वमेध-यज्ञ | सब यज्ञमें भाग लेनेके लिये भगवान् विष्णुके कैसे नष्ट हुआ? साथ वहाँ पधारे थें। ऊष्मप, धूमप, आयष तथा ब्रह्माजी बोले-ब्राह्मणौ ! महादेवजीने सती-| सोमप नामवाले देवता भी अश्विनीकुमारोंके साथ देवीका प्रिय करनेकी इच्छासे जिस प्रकार दक्षके वहाँ उपस्थित थे। ये तथा और भी अनेक भूत यज्ञका विध्वंस किया था, उसका वर्णन करता प्राणियोंका समुदाय व एकत्रित हुआ था। हैं। पूर्वकालकी बात है, महादेवजी मेरुगिरिके जरायुज, अण्डज, स्वेदज्ञ तथा इजिं भी इस ज्योति स्थल नामक शिखरपर, जो सब प्रकारके यज्ञमें सम्मिलित थे। देवतालोग अपनी स्त्रियों रत्नसे विभूषित और पलंगकी भाँति फैला हुआ तथा महर्षियोंके साथ वहाँ पधारे थे।
गिरिराजकुमारी पार्वती सदा देवताओंको वहाँ ज्ञाते देख गिरिराजकुमारी उनके पार्श्वभागमें बैठी रहती थीं। आदित्य, वसु, पार्वतीने भगवान् शङ्करसे पूछा-‘भगवन् ! मै इन्द्र अश्विनीकुमार, गुह्यकसहित कुवेर, महामुनि शुक्राचार्य आदि देवता कहाँ जाते हैं।” तथा सनत्कुमार आदि मह उनकी सेवामें उपस्थित रहते थे। अत्यन्त भयंकर राक्षस एवं महाबली पिशाच, जो अनेक रूप धारण करनेवाले तथा नाना प्रकारके अस्त्र-शस्त्रोंसे सुसज्जित थे, भगवान् शिवके समीप रहा करते थे। भगवान्कै पार्षद भी वहाँ मौजूद थे। वे सब अग्निके समान तेजस्वी ज्ञान पड़ते थे। महादेवकी इच्छासे भगवान् नन्दीश्वर भी वहाँ खड़े रहते थे। नदियोंमें श्रेष्ठ गङ्गाजी मूर्तिमती होकर उनकी सेवामें संलग्न रहती थीं। इस प्रकार परम सौभाग्यशाली देवर्षियों और देवताओंसे पूजित होकर भगवान् शङ्कर वहाँ सदा निवास करने लगे। कुछ कालके बाद प्रजापति दक्षने शास्त्रोक्त विधिके अनुसार यज्ञ करनेकी तैयारी की। उनके इस अज्ञमें इन्द्र आदि सम्पूर्ण देवता स्वर्गसे आकर एकत्रित होने महादेवजी बोले–महाभागे ! प्रजापति दक्ष लगे। वें अग्निके समान तेजस्व देवता दक्षके | अश्वमेध-यज्ञ करते हैं। इसमें सब देवता जा रहे हैं। अनुरोधसे प्रकाशमान विमानों पर बैठकर गङ्गाद्वारको | देवीने पूछा-महाभाग ! आप इस अज्ञमें क्यों गये। पृथ्वी, आकाश तथा स्वर्गलोकमें रहनेवाले नहीं जाते? ऐसी कौन-सौं रुकावट है, जिससे सभी देवता प्रजापतिके पास हाथ जोड़कर उपस्थित । आपका बहाँ जाना नहीं होता?
* संक्षिप्त अग्नपुराण
महादेवजी बोले–महाभागे! देवताओंने हीं। भगवान् शङ्करने अपने मुखसे क्रोधाग्निजनित एक यह सत्र किया है। उन्होंने किसी भी यज्ञमें मेरा माभूतकी सृष्टि कीं। फिर उससे कहा- तुम मेरों भाग नहीं रखा है। पहलेसे ज्ञ मार्ग चला आता आज्ञासे दक्षके यज्ञमें ज्ञाओं और इसका शम्न है, उससे अपनेको भी चलना चाहिये। | विनाश करो।’ तब उसने रुद्रकी आज्ञा सिंहका | उमाने कहा- भगवन् ! आप सब देवताओंमें वेष धारण करके दक्षके यज्ञका विनाश कर डाला। श्रेष्ठ हैं। आपके गुण और प्रभाव सबसे अधिक इसने अपने कर्मका साक्षी बनानेके लिये अत्यन्त हैं। आप अपने तेज, यश और श्रीके द्वारा अर्जेय भयंकर भद्रकालीको भी साथ ले लिया था। एवं अधृष्य हैं। महाभाग] यज्ञमें आपके भागका | भगवानको वह क्रोध वीरभद्के नामसे विख्यात जो यह निषेध हैं, इससे मुझे बड़ा दुःख हुआ है। हुआ, जो श्मशानभूमिमें निवास करता है। उसने मेरे शरीरमें कम्प छा गया है। | | पार्वतीदेवीके खेदका निवारण किया था। वीरभद्ने महादेवजी बोले-देवि! क्या तुम मुझे नहीं अपने रोमकूपसे अनेक रुद्रगण उत्पन्न किये, ज्ञौ ज्ञानती! आज तुम्हें जो मह हुआ है, उससे इन्द्र | रुड़के समान ही वीर्यवान् और पराक्रमी थे। वे सब
आदि देवताओंसहित सम्पूर्ण त्रिलोकीं नष्ट हो | सैकड़ों और हजारौंको संख्या झुंड बनाकर उस सकती है। मैं ही यज्ञको स्वामी हूँ। मेरी ही सब यज्ञमण्डपमें गये। उनकी किलकिलाहटसे समस्त लोग निरन्तर स्तुति करते हैं। मेरे ही संतोषके लिये आकाश गंज उठा। अग्नि और सूर्यको प्रकाश मन्द सब लोग धन्तर सामका गान करते हैं। ब्राह्मण पड़ गया। चारों ओर अन्धकार छा गया। उस समय बेदमन्त्रोंसे मेरा हौं बञ्जन करते हैं तथा अध्वर्य लौंग चें समस्त रुद्गण यज्ञमण्डपमें आग लगाने लगे; यज्ञमें मेरे हीं लिये भागको कल्पना करते हैं। किसीने यूपको तोड़ झाला, किसीने इन्हें उखाड़ प्रागोंके समान नियतमा पनौसे यों कहकर | दिया, कोई सिंहनाद करता और कोई बाँकी सब वस्तुओंको तहस-नहस कर डालता था। कितने ही वायुके समान वेगसे इधर-उधर दौड़ लगाने लगे। यज्ञपात्र चूर-चूर हो गये। वहाँक मण्डप ढह गये। ऐसा जान पड़ता था, आकाशले तारे टूटकर गिर रहे हैं। कोई यज्ञमें रखे हुए भोज्य पदार्थोंक खाते और सब और लोगोंको डराते फिरते थे। कितने ही पर्वताकार भूत देवाङ्गनाओंको उठाकर फेंक देते थे। ऐसे गणों के साथ प्रतापी वीरभद्रने पहुँचकर देवताद्वारा सुरक्षित यज्ञको भद्रकालीकै सामने | ही भस्म कर डाला। अन्य रुद्गण सयको भय | उपजानेवाली गर्जना करने लगे। कुछ लोगोंने यज्ञका मस्तक काटकर भयंकर नाद किया। तब इन्द्र आदि देवताओं और प्रजापति दक्षने हाथ || जोड़कर पूछा-‘बताइये, आप कौन हैं?” ।
Brahma Puran