अथर्ववेद–संहिता
॥अथ प्रथमं काण्डम् ॥
[१– मेधाजनन सूक्त ]
|| ऋषि – अथर्वा देवता – वाचस्पति । छन्द – अनुष्टुप् . ४ चतुष्पदा विराट् उरोबृहतीं ।]
इस सूक्त के देवता वाचस्पति हैं । वाक् – ज्ञक्त में अभिव्यक्ति होती है। पात्र में तो अव्यप में सभी कुछ सपति रना ही है कि वह अव्यक्त को अभिव्यक्त करता है, तो उसे वाचस्पति कहना मुक्तसंगत है ।जिसने इस विश्व को व्यक्त–प्रकट किया, उसी से किसी विशिष्ट उपलब्धि के लिए प्रार्चना किया जाना उचित है
१. ये त्रिषप्ता: परियन्ति विश्वा रूपाणि बिभतः ।
वाचस्पतिर्बला तेषां तन्वो अद्य दधातु में ॥१॥
ये जो त्रिसप्त (तीन एवं सात के संयोगी विश्व के सभी रूपों को धारण करके सब ओर संव्याप्त-गतिशील हैं, हे वाचस्पते ! आप उनके शरीरस्य बल को आज हमें प्रदान करें ॥ १ ॥ | | त्रिसप्त‘ का अई अधिकांश भाष्यकारों ने ३ ४ १ = २६ किया है, किंतु ऋषि का भाव इससे कहीं अधिक व्यापक तीत होता है। गणित के अनुसार निमण की अभिव्यनि इतने कार में हो सकती हैं– ३ + 2 = 1, ३ ४७ = ३, ७ ३४३.३ ३६ तथा ३ L७ ॥ ३१॥ ५ ६४ ५ ४ ४ ४ ३ ४ ३ x ३) = १५१२० आदि। फिर अपने विसन को एक ही शब्द के काम में लिखा है, इसलिए उसका भाव यह क्या है कि बसने ची हिंमत है…. 1 स आधार पर विधा‘ सृष्टि में तीन लॉक, नीन गुण, जॉन आयाम देिव आदि सभी आते हैं। इळे साच्च त आताण, संजयतु त स्याहय परमाण के मत छ । माटो आदि आ जाते हैं। इनमें से सभी के योग–भेदपमन नन । म बने हैं। उन्हें केवल प्रकटकन वापत हो भनी प्रकार जानते हैं। हमें विश्न में रहते हुए सभी के साथ समुचित बर्ताव करना होगा, इसलिए वाचस्पति से प्रार्थना की गई है कि उन केक –सूक्ष्म संयोगों के इस इवे पी प्रदान करें।
२. पुनरेहि वाचस्पते देवेन मनसा सह ।
वसोध्यते नि रमस मेरयेवास्तु मयि श्रुतम् ॥२॥
| ३ गते ! आप दिघकाशित) ज्ञान से युक्त होकर, बारम्बार हमारे सम्मुख आएँ । हे वसष्पते ! आर्य हमें प्रति १३ । प्राप्त ज्ञान हममें स्थिर रहे ।।३।।
। यहाँ वाचम्पत | अपश्यक्त करने वाले से प्राप्त की तवा मोपत (आवास दान करने वाले) से प्राप्त को घाण–स्थिर करने की प्रार्थना की गई है। योग एवं वेप दोनों ही साधे– ऐसी प्रार्थना है।
३. इहैवाभि वि तनूमें आर्मी इव ज्यया।
वाचस्पतिर्न यच्छतु मय्येवास्तु मयि श्रुतम् ॥३॥
हैं देव ! धनुष की चढ़ी हुई प्रत्यञ्चा से खिंचे हुए दोनों छोरों के समान दैयों ज्ञान धारण करने में समर्थ, मेथा बुद्धि एवं वांछित साधन-साम आप हमें प्रदान करें । प्राप्त बुद्धि और वैभव हममें पूरी तरह स्थिर रहें ॥३॥
| ज्ञान की प्राप्ति और धारण काने की सामर्थ्य यह द क्षमताएँ घमुष के दो सिरों की तरह हैं। एक साधण्यापूर्वक बस गाकर बाण की तरह, ज्ञान का वा प्रयोग किया जा सकता है।
अर्धवेद सहता भाग–१
४, उपहूतो वाचस्पतिरुपास्मान् वाचस्पतिर्दयताम् ।
सं श्रुतेन गमेमहि मा श्रुतेन वि राधिषि ॥४॥
हे वाक्पते ! आप हमें अपने पास बुलाएँ । इस निमित्त हम आपका आवाइन करते हैं। हमें सदैव आपका सायि प्राप्त हो । हम कभी भी ज्ञान से विमुख न हों ।।४।। | | दिव्य ज्ञान की प्राप्ति केवल अपने पुरुयाई से नहीं हो पाती । अपने पुरुषार्थ से हम आवेदन करते हैं, पात्रता प्रकट करते हैं, तो दिव्य स्ना द्वारा दिव्य ज्ञान प्रदान कर दिया जाता है। [२– रोग–उपशमन सूक्त [ ऋषि – अथर्वा । देवता – चन्द्रमा और पर्जन्य। छन्द – अनुष्टुप् , ३ त्रिपदा विराट् गायत्रीं।]
इस सूक्त के देवता पर्जन्य हैं। पर्जन्य का सामान्य अवं ‘वर्षति–मिति के आधार पर क्या किया गया है, किन्तु से मूल वर्ष तक सीमित नहीं रखा जा सकता।‘पद्–संचने‘ (शब्द कल्पना के अनुसार मा पोपकर्ता भी है। निशक्त में पर्जन्य परः काञ्चो नेता जनता वा” (परमशक्ति सम्पन जयशील या पन्नकत्ता) कहा गया है ।अस्तु, अम्त आकाश के विभिन्न स्रोतों सेबसने वाले पोषक एवं अपादक स्चूल एवं सूक्ष्म प्रवाहों को पर्जन्य मानना युक्ति संगत है। वर्तमान विज्ञान भी यह मानता है कि सूक्ष्म कणों (ब पाकिस्स) के रूप में कुछ उदासीन (ट) तथा कुछ अपादक प्रकृति (जेनेटिक कॉक्टर) वाले का प्रयाहत होते रहते हैं। ऐसे प्रवाहों को पर्जन्यमानकर चलने से वेदार्थ का मर्म समझने में सुविधा रहेगी।
इस सूक्त में अपने अनुय से छुटने वाले विक्यौल शर(बाणों के उदाहरण से जीवन के गृह रहस्य को स्पष्ट करने का प्रयास किया है। अनेकार्थी पदों–मंत्रों के भाव प्रकट करते हुए मंत्रार्थ एवं टिपणी करने का प्रयास यिा गया है
५. विद्या शरस्य पितरं पर्जन्यं भूरिधायसम् ।
यो ष्वस्य मातरं पृथिवीं भूरिवर्पसम्॥१
अनेक प्रकार से (चराचर) धारक एवं पोषक पर्जन्य को इम इस शर‘ के पिता के रूप में जानते हैं। अनेक प्रकार के स्वरूप देने वाली पृथ्वी को भी हम भली प्रकार जानते हैं ॥ १ ॥
[ यहाँ ‘शर‘ का अर्थ सरका दवं बाण के रूप में सज ग्राह्य है, किंतु पृथ्वीं में जो अंकुर निकलता है, उसे भी ‘झर‘ कहते हैं। प्रेमी पर जीवन के मय वह इञ्चम मीक है, उसी पर प्राणिमत्र का जीवन निर्भर करता हैं । बाण के रूप में या जीन तत्व के रूप में की पत्तिं, पिता पाय के सेवन से तज्ञा माता पृथ्वी के गर्भ में होनी है। यह जीवन तत्व हीं समस्त मायाज़ों एवं रोगादि को बनने में जीवन लक्ष्यों को बेने में समर्थ होता है, इसलिए उसकी उपमा झर से देना युक्ति संगत है।
जीवन–संग्राम में विजय के लिए प्रयुक्त ‘श‘ (जीवन तन्च) किस धनुष से कोम याता है, उसका सुन्दर अलंकरण य प्रस्तुत किया गया है । उस अनुप की एक कॉटर) माता पृथ्वो हैं तथा दूसरी (ोर) पिता पर्यन्य हैं। ज्या‘ (प्रत्यवा) ॥
द्वानों को जक्कर उनकी शक्ति संप्रेषित करती है।“श्या‘ का अर्थ यन्मदात्री भी होता है। आकाशव पर्जन्य एवं पृवीं की शक्ति | के संयोग में जीवन त्या का संचरण करने वाली मायनशील प्रकृति इस अनुष की प्रत्यक्षा-‘या‘ है। उसे लक्ष्य का प्रय कहते हैं
६. ज्याके परि णों नमाश्मानं तन्वं कृधि ।
वीर्वरीयोंरातीरप द्वेषस्या कृथि ।।२।।
हैं ज्याक (जन्मदात्री) ! आप हमारे शरीरों को चट्टान की तरह सुदृढ़ता एवं शक्ति प्रदान करें । शत्रुओं (दोषों को शक्तिहीन बनाकर हमसे दूर करें ॥३ ।।।
५५. वृक्ष यात्र: परिषस्वजाना अनुस्फुरं शरमर्चन्त्य॒भुम् ।
शरुमस्मद् यावय दिद्युमिन्द्र ॥३॥
जिस प्रकार वृक्ष (विश्ववृक्ष या पूर्वोक्त धनुष) से संयुक्त गौएँ (ज्या, मंत्रवाणियाँ, इन्द्रियाँ) तेजस्वी ‘शर’। (जीवनतत्त्व) को स्फूर्ति प्रदान करती हैं, उसी प्रकार है इन्द्र (इस प्रक्रिया के संगक) !आप इस तेजोयुक्त शर को
आगे बढ़ाएं-गतिशील बनाएँ ॥३॥
काण्ड –१ सूक्त – ३
८. यथा द्यां च पृथिवीं चान्तस्तिष्ठति तेजनम् ।
एवा.रोगं चास्रावं चान्तस्तिष्ठतु मुञ्ज इत् ॥४॥
झुलोक एवं पृथ्वी के मध्य स्थित तेज की भाँति यह मुञ्ज (मुक्तिदाता या शोधक जीवन–तत्त्व) सभी स्रावों (सृजित, प्रवाहित) रसों एवं रोगों के बीच प्रतिष्ठित रहे ।।४।।
| [ शरीर या प्रकृति के समस्त स्रावों को यह जीवनतत्व रोगों की ओर न जाने दें। रोगों के शम में उसका उपयोग करे।
[३– मूत्र मोचन सूक्त ] [ ऋष – अथर्वा । देवता – १ पर्जन्य, २ मित्र, ३ वरुण, ४ चन्द्र.५ सूर्य । छन्द – अनुष्टुप् , १-५ पथ्यापंक्ति ।)
इस सूक्त में फांस्य के अतिरिक्त मिस वरूण चन्द्र एवं सूर्य को भी ‘ज्ञ‘ का पिता कहा गया है। पूर्व सूक्तों में किये गये वचन के अनुसार न्य न्पादक सम्म प्रया। उन सभी के माध्यम से बरसता है। पर्व मन में गये आर के पिता का व्याफ्कप मंत्र १ से ५ तक प्रकट किया गया तीत होता है। इन सभी को शत– सैंकों(अनन्तो प्रकार से बास्ने वाला अथवा अनन्त बल सम्पन्न कहा गया है।
९. विद्मा शरस्य पितरं पर्जन्यं शतवृष्ण्यम् ।
तेना ते तन्वे३ शं कर पृथिव्यां ते निषेचनं बहिष्टे अस्तु बानिति ॥१॥
(ष कहते हैं। इस शरीर के जनक शतवृष्ण पर्जन्य से हम भली–भाँति परिचित हैं । उससे तुम्हारे (शर की) कल्याण की कामना है । उनसे तुम्हारा विशेष सेचन हो और शत्रु (विकार) बाहर निकल जाएँ ॥१॥
१०. विद्या शरस्य पितरं मित्रं शतवृष्ण्यम्।।
तेना ते तन्वे३ शं करं पृथिव्यां ते निषेचनं बहिष्टे अस्तु बालिति ।।२।।
अनन्त बलशाली मित्रदेव (प्राण वायु) को, जो ‘शर’ का पिता हैं, हम जानते हैं। उससे तुम्हारे, कल्याण का उपक्रम शमन करते हैं। उससे तुम्हारा सेचन हो और विकार बाहर निकल जाएँ ॥२ ॥
११. विद्या शरस्य पितरं वरुणं शतवृष्ण्यम्।
तेना ते तन्वे३ शं करं पृथिव्यां ते निषेचनं बहिष्टे अस्तु बालित ।।३।।
“शर‘ के पालक सशक्त वरुणदेव को हम जानते हैं। उससे तुम्हारे शरीर का कल्याण हो। तुम्हें विशेष पोषण प्राप्त हो तथा विकार–बाहर निकल जाएँ ॥३॥
१२. विद्या शरस्य पितरं चन्द्रं शतवृष्ण्यम्। |
तेना ते तन्वे३ शं करं पृथिव्यां ते निषेचनं बहिष्टे अस्तु बालिति ।।४।।
हम शर के पिता आह्लादक चन्द्रदेव को जानते हैं, उनसे तुम्हारा कल्याण हों, विशेष पोषण प्राप्त हो और दोष बाहर निकल जाएँ ॥४॥
१३. विद्या शरस्य पितरं सूर्य शतवृष्ण्यम्।
तेना ते तन्वे३ शं करं पृथिव्यां ते निषेचनं बहिष्टे अस्तु बालिति ।।५।।
हम जानते हैं कि विशेष शक्ति–सम्पन्न पवित्रतादायक सूर्य ‘शर‘ के पालक हैं, वे तुम्हारा कल्याण करें । जनसे तुम्हें विशिष्ट पोषण प्राप्त हों तथा विकार बाहर निकल जाएँ ॥५॥
* मंत्र क ६ से १ में विशिष्ट उपचार द्वारा शरीरस्थ मूत्र– विचारों को बाहर निकालने का है। स्थूल दृष्टि में शर सका प्रयोग में व निकालने की प्रक्रिया पुराने समय में या त के इपचार काम में मान्य है, किन्तु शर को क्या में होने से चीनी शक्ति के जनक दिस्य वार्ता के विशिष्ट प्रयोग से शरीरस्य विकारों को बसान् बाहर निकाले जा आप भी
अधर्ववेद संहिता भाग–१
होता है। शरीरस्थ जीवन–शक्ति (बाइटल फोर्स) ही पोषण देने तथा विकारों से मुक्ति दिलाने में प्रमुख भूमिका निभाती है। वो सभी फ्वार पद्धतिय स्वीकार करती हैं १४. यदान्त्रेषु गवीन्योर्यदस्तावधि संश्रुतम् । एता ते मूत्रं मुच्यतां बहिलिति सर्वकम् ।।
मूत्र वाहिनी नाड़ियों, मूत्राशय एवं आँतों में स्थित दूषित जल (मूत्र) इस चिकित्सा से पूरा का पूरा, वेंग के साथ शब्द करता हुआ शरीर से बाहर हो जाए ।।६ ।।
१५. प्र ते भिनय मेहनं वन्ने चेशन्त्या इव ।
एवा ते मूत्रं मुच्यतां बर्बोलिति सर्बकम् ॥
‘शर’ (शलाका) से मूत्र मार्ग को खोंस देते हैं। बन्ध टूट जाने से जिस प्रकार जलाशय का जल शीघ्रता से बाहर निकलता है, उसी प्रकार रोगी के उदरस्थ समस्त विकार वेगपूर्वक बाहर निकलें ॥७॥
१६. विधितं ते वस्तिबिले समुदस्योदथेरिव ।
एवा ते मूत्र मुच्यतां बर्बालित सर्वकम्।
तेरे मूत्राशय का बिल (छिद्र) खोलते हैं । विकार युक्त जल (मूत्र) उसी प्रकार शब्द करता हुआ बाहर निकले, जिस प्रकार नदियों का ज्ञल उदधि में सहज ही बह जाता है ।।८।। १७, यथेनुका परापतदवसृष्टाधि धन्वनः । एवा ते मूत्र मुच्यतां बर्बारिलति सर्वकम् ।।९।
धनुष से छोड़े गए, तीव्र गति से बढ़ते हुए बाण की भाँति तेरा सम्पूर्ण मूत्र (विकार) बेगपूर्वक बाहर निकले ॥५६ ।।
[४– अपभेषज (जल चिकित्सा) सूक्त] [ प – सिन्धुद्वीप । देवता – अपानपात्, सोम और आपः देवता । छन्द – गायत्री, ४ पुरस्ताद् बृहती ।।
| इस सूक्त के देवता आपः हैं। आपः । सामान्य अर्थ जस लिया जाता है, किन्तु शोध समीक्षा के आधार पर केवल जाल ही मानने से अनेक पंावं सिद्ध नहीं होते। जैसे–आम क म के समान गतिमान् का है. जल तो शब्द और प्रकाश की गति से भी नहीं ह सकता है।‘आपो वै स्व देवता‘ जैसे सूत्र में पी यहीं पाव प्रकट होता है । मुस्मृत १.८ के अनुसार ईश्वर ने अम् तत्वों सर्वप्रथम रचा। आप यदि ल है, तो उसके पूर्व वायु और अग्नि की पत्ति आवक है, अन्यथा लकी संरचना सम्बंध नहीं । अरु आम का अचेल भी है कि उसे विनों में सट के महत्व की क्रियासि अन्य माना है। वन के संकल्प से मूत्व का क्रियाशीत स्वरूप पहले प्रकट होता है, उससे ही पदार्थ बना प्रारम्भ होनी है। ऐसे किसी तत्व के सतत वाशित होने की परिकल्पना(पामस) पदार्थ विज्ञानी भी करते हैं। मंत्राथों के क्रम में आप के इस स्वरूप में ध्यान में रमा चित है।
१८. अम्बयो यन्त्यध्वभिर्जायो अध्वरीयताम् ।
पञ्चतीर्मघुना पयः ।।१ ॥
| माताओं-बहिनों की भाँति यज्ञ से उत्पन्न पोषक धाराएँ यज्ञ कर्ताओं के लिए पय (दूध या पानी के साथ | मधुर रस मिलाती हैं ॥ १ ॥
११. अमृय उप सूर्ये याभिर्वा सूर्यः सह ।
ता नो हिन्धनबध्वरम्।।३।।
सूर्य के सम्पर्क में आकर पवित्र हुआ बाष्पीकृत जल, उसकी शक्ति के साथ पर्जन्य–वर्षा के रूप में हमारे सत्कमों को बढ़ाए यज्ञ को सफल बनाए ॥ ३ ॥
३०, अपो देवीरुप ह्वये यत्र गावः पिबन्ति नः । सिन्धुभ्यः कवं हविः ।।३।।
हम उस दिव्य ‘आप‘ प्रबाह की अभ्यर्थना करते हैं, जो सिन्धु (अन्तरिक्षा के लिए हवि प्रदान करते हैं तथा | जहाँ हमारी गौएँ (इन्द्रियों अथवा वाणियाँ ) तृप्त होती हैं ॥३ ।।
२१. स्वन्तरमृतमस भेषजम् ।।
अपामुत प्रशस्तिभिरश्वा भवथ वाजिनों गायो भयथ वाजिनीः ॥४॥
काण्ड – सूक्त – ६
| जीवनी शक्ति, रोगनाशक एवं पुष्टिकारक आदि दैवी गुणों से युक्त आपः तत्त्व हमारे अश्वों व गौओं को वेग एवं बल प्रदान करे । हम बल–वैभव से सम्पन्न हों ॥४॥
[५- अपांभेषज(जल चिकित्सा) सूक्त [ ऋषि – सिन्धुद्वीप । देवता – अपांनपात्, सौम और आपः देवता । छन्द – गायत्री, ४ वर्धमान गायत्रीं ।]
२२. आपो हि ष्ठा मयोभुवस्ता न ऊजें दधातन ।
महे रणायं चक्षसे ॥१॥
है आपः ! आप प्राणिमात्र को सुख देने वाले हैं। सुखपभोग एवं संसार में रमण करते हुए, हमें उत्तम दृष्टि की प्राप्ति हेतु पुष्ट करें ॥१॥
२३. यो वः शिवतमो रसस्तस्य भाजयतेह नः ।
शतीरिव मातरः ।।३।।
जिनका स्नेह उमड़ता ही रहता हैं, ऐसी माताओं की भाँति आप हमें अपने सबसे अधिक कल्याणप्रद रस में
भागीदार बनाएँ ॥२ ॥ | [ दुर्गति का मुख्य कारण यह है कि हमारी रसानुभूति अहितकारी प्रवृत्तियों की ओर मुड़ जाती हैं, इसलिए जीवन को रस कल्याणोन्मुख रखने की प्रार्थना की गई है।
२४. तस्मा अरे गमाम वो यस्य क्षयाय जिन्वय।
आपो जनयथा च नः ॥३॥
अन्नादि उत्पन्न कर प्राणिमात्र को पोषण देने वाले हे दिव्य प्रवाह ! हम आपका सान्निध्य पाना चाहते हैं। हमारी अधिकतम वृद्धि हो ।।३।।
२५. ईशाना वार्याणां क्षयन्तीश्चर्षणीनाम् ।
अपो याचामि भेषजम् ॥४॥
व्याधि निवारक दिव्य गुण वाले जल का हम आवाहन करते हैं। वह हमें सुख–समृद्धि प्रदान करे । उस ओषधिरूप जल की हम प्रार्थना करते हैं ॥४॥
[६– अपांभेषज(जल चिकित्सा) सूक्त] [ ऋषि – सिन्धुढीप, कृति अथवा अथर्वा । देवता –अपांनपात् , सोम और आप: देवता । छन्द –गायत्री, ४
पथ्यापंक्ति । ] |
२६. शं नो देवीरभिष्टय आपो भवन्तु पीतये।
शं योरभि सवन्तु नः ॥१॥
दैवीगुणों से युक्त आपः (जल) हमारे लिए हर प्रकार से कल्याणकारी एवं प्रसन्नतादायक हो । वह आकांक्षाओं की पूर्ति करके आरोग्य प्रदान करें ॥ १ ॥ २७. अप्सु में सोमो अब्रवीदन्तर्विधानि भेजा। अग्निं च विश्वशम्भुवम् ॥२॥
सोम का हमारे लिए उपदेश है कि दिव्य आपः हर प्रकार से औषधीय गुणों से युक्त है। इसमें कल्याणकारी अग्नि भी विद्यमान है ।।२।।
२८. आपः पृणीत भेषजं यरूयं तन्वे३ मम।
ज्योक् च सूर्य दृशे ।।३।।
दीर्घकाल तक मैं सूर्य को देखें अर्थात् दीर्घ जीवन प्राप्त करू । है आपः ! शरीर को आरोग्यवर्द्धक दिव्य ओषधिय प्रदान करो ॥३॥
२६. शं न आप धन्वन्या३:
शमु सन्त्वनूप्याः।
शं नः स्वनित्रिमा आः शमु याः कुम्भ आभूताः शिवा नः सन्तु वार्षिकीः ॥४॥ सूखे प्रान्त (रेगिस्तान) काजल हमारे लिए कल्याणकारी हो । जलमय देश का जल हमें सुख प्रदान करें
अथर्ववेद संहिता भाग–१
| भूमि से खोदकर निकाला गया कुएँ आदि का जल हमारे लिए सुखप्रद हों । पात्र में स्थित जल हमें शान्ति देने | वाला हो । वर्षा से प्राप्त जल हमारे जीवन में सुख–शान्ति की वृष्टि करने वाला सिद्ध हो ।।४ ।।
[७– यातुधाननाशन सूक्त ] | : [ ऋषि – चातन । दैवता – अग्नि, ३ अग्नीन्द्र । छन्द – अनुष्टुप् , ५ त्रिष्टुप् ।) |
३०. स्तुवानमग्न आ वह यातुधानं किमदिनम्।
त्वं हि देव वन्दितो हन्ता दस्योर्बभूविथ ।।१।।
हे अग्निदेव ! हम आपकी वन्दना करते हैं । दुष्टता को बढ़ाने वाले शत्रुओं को, आप अपने प्रभाव से पास बुलाएँ। हमारे द्वारा वन्दित आप उनकी बुराइयों को नष्ट कर दें ॥ १ ॥
३१. आज्यस्य परमेष्ठिज्ञातवेदस्तनूवशिन्।
अग्ने तौलस्य श्रीशान यातुधानान् वि लापय ।३।।
उच्च पद पर आसीन, ज्ञान के पुञ्ज, जठराग्नि के रूप में शरीर का सन्तुलन बनाने वाले हे अग्निदेव ! आप हमारे द्वारा सुवापाव से तली हुई (प्रदत्त) आज्यात कों पण करें। हमारे स्नेह से प्रसन्न होकर आप दुष्ट–दुराचारियों को विलाप कराएँ अर्थात् उनका विनाश करें ॥२॥
३२. वि लपतु यातुधाना अत्रिणो ये किमीदिनः।।
अथेदमग्ने नो हविरिन्द्रश्च प्रति हर्यतम् ॥३॥
दूसरों को पड़ा पहुँचाने वाले, अपना स्वार्थ सिद्ध करने वाले समाज के शत्रुओं को अपना विनाश देखकर रुदन करने दें । हे अग्निदेव ! आप इन्द्र के साथ हमारे हविष्य को प्राप्त करें । हमें सत्कर्म की ओर प्रेरित करें ॥३॥
३३. अग्निः पूर्व आ रमतां प्रैन्द्रो नुदतु बाहुमान् ।
ब्रवीतु सर्वो यातुमानयमस्मीत्येत्य ।।४ |
पहले अग्निदेव (असुर विनाशन का कृत्य) प्रारम्भ करें, बलशाली इन्द्र प्रेरणा प्रदान करें। इन दोनों के प्रभाव से असुर स्वयं ही अपनी उपस्थिति स्वीकार करें (प्रायश्चित्त के लिए तैयार हो जाएँ) ।।४ ||
३४, पश्याम ते वीर्यं जातवेदः प्र णो ब्रूहि यातुधानान् नृचक्षः ।।
त्वया सर्वे परितप्ताः पुरस्तात् त आ यन्तु मनुवाणा उपेदम् ॥ ५ ॥
हे ज्ञान स्वरूप अग्निदेव ! आपका प्रकाशरूपी पराक्रम हम देखें। आप पथभष्टों के मार्गदर्शक हैं, अपने प्रभाव से दुष्टों को (हमारे शत्रुओं को) सन्मार्ग की और प्रेरित करें। आपकी आज्ञा से तप्त असुरता प्रायश्चित्त के लिए अपना परिचय देते हुए पास आए ॥५॥
३५. आ रभस्व जातवेदोऽस्माकार्थाय जज्ञिये।
दूतो नो अग्ने भूत्वा यातुधानान् वि लापय ।।६ ॥ |
हे जातवेदः ! आप (शुभ यज्ञीय कर्मों का प्रारम्भ करें । हे अग्निदेव ! आप हमारे प्रतिनिधि बनकर दुष्टजनों को अपने किये गये दुष्कर्मों पर रुलाएँ ॥६॥
३६. त्वमग्ने यातुधानानुपबद्ध इहां वह ।
अथैवामिन्द्रो वज्रेणापि शीर्षाणि वृश्चतु ।।७।।
हे मार्गदर्शक नदेव ! आप दुराचारियों को यहाँ आने के लिए बाध्य करें और इन्द्रदेव वज्र से उनके सिरों | का उच्छेदन करें ॥ध्र ।।।
भूमिका
१०,७.१४॥ छत्रवेद (उवथ.यजु..... यषि संत्रा बूम– अथर्वः १६.६.१४) । अधर्ववेद साम्.–––क्षत्रं वैद– शत मा १४, ८.१४. के ये सभी अभियान उसके व्यापक वय विषय ३ – ४) तथा भैषज्य वेद (चः सामानि भैषज्ञो। को स्पष्ट करते हैं।
तीन संहिताएँ अथर्ववेदय कौशिक सूत्र के दारिल भाष्य में विधि प्रयोग संहिता – जब मंत्रों का प्रयोग किस अथर्ववेद की तीन संहिताओं का उल्लेख पाया जाता है, अनुष्य कर्म के लिए किया जाता है, तो एक ही मंत्र को जबकि अन्य तीनों दें की एक–एक संहिता ही उपलब्ध कई पदों में विभक्त कर अनाय मन्त्र का निर्माण कर होती है, जिसका मुद्रण–प्रकाशन होता रहता हैं। लिया जाता है, तब ऐसे मन्त्रों के संकलन को दारिल भाष्य में अधर्व की जिन तीन संहिताओं विधि–प्रयोग संहिता कहते हैं । विधि प्रयोग संहिता का का उल्लेख है, उनके नाम हैं – [i) आ–सनिा (ii) यह प्रथम प्रकार हैं। इसी भाँति इसके चार प्रकार और आचार्य संहिता और (ii) विधि–प्रयोग सहना। होते हैं । द्वितीय प्रकार में नये शब्द मन्त्रों में जोड़े जाते
आर्षी संहिता– पियों के द्वारा परम्परागत हैं। तृतीय प्रकार में किसी विशिष्ट मन्त्र का आवर्तन उस प्राप्त मंत्रों के संकलन को ‘आर्षी संहिता‘ कहा सूक्त के मतिमंत्र के साथ किया जाता है। इस प्रकार सुत्त ज्ञाता है। आजकल काण्ड, सूक्त और मंत्रों के के मंत्रों की संख्या द्विगुणित हो जाती है । चतुर्थ प्रकार विभाजन वाला जो अधवपद उपलब्ध है, जिसे में किस सक्त में आए हुए मंत्रों के क्रम में परिवर्तित शौनकीय हता म कहा जाता है, वि संहिता पा कर दिया जाता है। पंचम प्रकार में किसी मंत्र के अर्थ
आप – निता हों हैं।
भाग को हीं समा मन्च मानकार प्रयोग किया जाता है । आचार्य सहिता = दारिल भाष्य में इस महिला के निष्कर्यतः हम कह सकते हैं कि आर्ची-सहता संदर्भ में उल्लेख है कि उपनयन संस्कार के बाद आचार्य मूल संहिता है । आचार्य संहिता उसका संक्षिप्तीकरण अपने शिष्य को जिस रूप में अध्ययन कराता है, वह रूप हैं और विध–प्रयोग संहिता मका आचार्य संहिता कहलाती है।
।। विस्तृतीकरण कप‘ ।।
अथर्ववेद का शाखा विस्तार अन्य वेदों की तरह ‘अथर्ववेद‘ की भी एकाधिक ६.१.१ । सर्वानुक्रमणी (महर्षि कात्यायनकृत) अन्य मैं शाखाओं का उल्लेख मिलता हैं । सायण भाष्य के इस संबंध में दो मत उद्धृत किये गये हैं। प्रधम मत पक्षात प्रपञ्च हदय चरण व्यूह (व्यासकृत) गधा के अनुसार पन्द्रह शाज्ञाएँ है। वेदों में शाखाओं का महाभाष्य (पतंजलिकृत) आदि ग्रन्थों में अथर्ववेद की प्रामाणिक वर्णन प्रस्तुत करने वाले ग्रन्थ ‘चरण व्यूह” शाखाओं का उल्लेख पाया जाता है । महर्षि पतंजलि में अथर्व संहिता के ‘नौ‘ भेद स्वीकार किये गये है, जो के महाभाथ्य में अथर्ववेद की ‘नौ‘ शासनामों का इस प्रकार हैं = ६. पैम्पल ३, दान्त ३. अदान्त , स्नात उल्लेख है– नवधा वर्वाणो वेद(म मा पस्पः ५. मौन ६. असदाबत ३. शौनक 2. देवदर्शत और
१. कौशिकी वास घपक्ष दाति । शास्त्र विज्ञाने येषां मन नपपद्यते ॥ ।
(श्री एच आर दिवेकर द्वारा उद्दत केशवीं तथा दारिल भाष्य) ३, पेम जपनीय शिष्यं पापन सा आचार्य सीता (कौः स द भा) ३. इसके विस्तृत और प्रामाणिक विवेचन के लिए, इष्टव्य है– डॉ. एच आर दिवे कुरा अधर्व संहिता एण्ड | इसका पैन । १३३६३ तथा शिव चौमामाय कृतलिमिटेशन वायूम, हाहाबाद। ४. यावा १३ अर्बगो अन्ये तु प्राजु पन्दतावकम् (सर्वा वृः मार्बज्ञयो ।
अर्धवेद संझिा पाग–१
–
।।
हैं अग्निदेव ! जिस श्रेष्ठ ज्ञान के बल पर इन्द्र आदि देवता सम्पूर्ण रसों (सुखों) का उपभोग करते हैं, उसी दिव्य ज्ञान से मनुष्य के जीवन को प्रकाशित करते हुए आप ऊँचा उठाएँ, वह मनुष्य देवतुल्य श्रेष्ठ जीवन जिए ॥३॥
४४, ऐसां यज्ञमुत चर्चा ददेऽहं रायस्पोषमुत चित्तान्यग्ने।
सपना अस्मदधरे भवन्तूत्तमं नाकमधि रोहयेमम् ॥४ ।।
हे अग्निदेव ! मैं इस (साधक) के यज्ञ, तेज, ऐश्वर्य एवं चित्त को स्वीकार करता हूँ । स्पर्धाशील शत्रु हमसे नीचे ही रहें । हे देव ! आप इस साधक को श्रेष्ठ सुख-शान्ति प्रदान करें ।।४ ।।।
[१०– पाशविमोचन सूक्त] [ ऋष–अधर्वा । देवता – १ असुर . २–४ वरुण । छन्द – त्रिष्टुप्, ३ ककुम्मती अनुष्टुप् , ४ अनुष्टुप् ।] | ४५. अयं देवानामसुरो वि राजति वशा हि सत्या वरुणस्य राज्ञः ।
ततस्परि ब्रह्मणा शाशदान उग्रस्य मन्योरुदिनं नयामि ॥१॥ | देवताओं में बली राजा वरुणदेव प्रकाशित हैं। उनकी इच्छा हीं सत्य हैं; तथापि हम दैवी ज्ञान के बल पर स्तुतियों द्वारा पीड़ित व्यक्तियों को उनके प्रकोप से बचाते हैं ॥१ ।।
४६. नमस्ते राजन् वरुणास्तु मन्यवे विश्वं ह्युग्र निचिकेवि दुग्धम् ।।
सहस्रमन्यान् म सुवामि साकं शतं जीवाति शरदस्तवायम् ॥२ ।।
हे सर्वज्ञ वरुणदेव ! आपके कोप से पीड़ित हम सब शरणागत होकर नमन करते हैं; आप हमारे सभी दोषों को भली–भाँति जानते हैं । जन–मानस को बोध हो रहा है कि देवत्व की शरण में पहुँच कर (सद्गुणों को अपना कर) हीं सुखी और दीर्घ जीवन प्राप्त हो सकता हैं ॥२ ।।
४६. यदुवक्थानृतं जिह्वया वृजिनं बहु ।
राज्ञस्वा सत्यधर्मणो मुञ्चामि वरुणादहम् ॥३ |
हे पीड़ित मानव ! तुमने अपनी वाणो का दुरुपयोग करते हुए असत्य और पाप वचन बोलकर अपनी गरिमा का हनन किया हैं । सर्व समर्थ वरुणदेव के अनुग्रह से इस दुःखद स्थिति से मैं तुम्हें मुक्त करता हूँ ।।३।।
४८. मुञ्चामि त्वा वैश्वानरादर्णवान् महतस्पर।
सजातानुग्नेहा वद ब्रह्म चाप चिकीहि नः ।।४।।
हे पतित मानव ! हम तुम्हें नियन्ता बहादेव के प्रचण्ड कोप से बचाते हैं । हे उपदेव ! आप अपने सजातीय दृता से कह दें (वे इसे मुक्त करें और हमारे ज्ञान (स्तोत्र) पर ध्यान दें ॥४॥
[११– नारीसुखप्रसूति सूक्त ] [ ऋषि – अथर्वा । देवता – पृषा, अर्यमा, वेथा, दिक, देवगण । छन्द – पंक्ति, ३ अनुष्टुप् , ३ चतुष्पदा
| उगार्भा ककुम्मत अनुष्टुप, ४-६ पथ्यापंक्ति ।)
४९. वषट् ते पूषन्नस्मिन्त्सूलावर्यमा होता कृणोतु वेथाः ।
सिखती नार्यतप्रज्ञाता वि पर्वाणि जिहतां सुतवा ॥१॥
| हे अखिल विश्व के पोषक, श्रेष्ठ जनों के हितैषी पृषा देवता ! हम अपनी हयि समर्पित करते हैं। आप इस प्रसूता को महायता करे । यह सावधानीपूर्वक अपने अंगों को प्रसव के लिए तैयार करे-दीला करे ।।१ ।।
५०. चतस्रो दिवः प्रदिशश्चतस्रो भूम्या उत ।
देवा गर्भ समैरयन् तं व्यूर्णवन्तु सूतवे ॥२
काण्ड – मुक्त – १३
घुलोक एवं भूमि को चारों दिशाएँ घेरे हैं। दिव्य पंच भूतों ने इस गर्भ को घेरा-(धारण किया हुआ हैं, वे ही इस आवरण से मुक्त करें-बाहर करें ।।२।।
५१. सूषा व्यूर्णोतु वि योनिं हापयामसि ।
श्रथया सूषणे त्वमय त्वं बिकले सूज ॥३॥
हें प्रसवशील माता अथवा प्रसव सहायक देव ! आप गर्भ को मुक्त करें । गर्भ मार्ग को हम फैलाते हैं, अंगों | को ढीला करें और गर्भ को नीचे की और प्रेरित करें ।।३।।
५२. नेव मांसे न पीबसि नेव मञ्जस्याहृतम्।
अवैतु पनि शेवलं शुने जराय्यत्तवेऽव जरायु पद्यताम् ॥४॥
| गर्भस्थ शिशु को आवेष्टित करने वाले (समेट कर रखने वाली वैली) ‘जरायु प्रसूता के लिये मांस, मज्जा या चवीं की भाँति उपयोगी नहीं, अपितु अन्दर रह जाने पर गम्भीर दुष्परिणाम प्रस्तुत करने वाली सिद्ध होती हैं।
सेवार (जल की घास) की जैसी नरम ‘जेरी‘ पूर्णरूपेण बाहर आकर कुत्तों का आहार बने ॥४॥
५३. वि ते भिनद्मि मेहनं वि योनिं वि गवीनिके।
वि मातरं च पुन्नं च वि कुमारं जरायुणाव जरायु पद्यताम् ॥५॥
हे प्रसूता ! निर्विघ्न प्रसव के लिए गर्भमार्ग, योनि एवं नाड़ियों को विशेष प्रकार से खोलता है। माँ व बालक को नाल से अलग करता हूँ । जेरों से शिशु को अलग करता हूँ । जेरी पूर्णरूपेण पृथ्वी पर गिर जाए ॥५५ ॥
५४. यथा वातो यथा मनो यथा पन्त पक्षिणः ।
एवा त्वं दशमास्य साकं जरायुगा पताच जरायु पद्यताम् ॥६॥
जिस प्रकार वायु वेगपूर्वक प्रवाहित होती हैं । पक्षौं जिस वेग से आकाश में उड़ते हैं एवं मन जिस तीव्रगति से विषयों में लिप्त होता है, उसी प्रकार दसवे माह गर्भस्थ शिशु जेरों के साथ गर्भ से मुक्त होकर बाहर आए ॥ ६ ॥
[१३– यक्ष्मनाशन सूक्त] [ ऋधि – भृग्वद्भिरा। देवता – यक्ष्मनाशन । छन्द – जगती, २-३ त्रिष्टुप् , ४ अनुष्टुप् ।।
५५. जरायुजः प्रथम उत्रियो वृषा वातजा स्तनयन्नेति वृष्ट्या।
| स नो मृडाति तन्व जुगों रुजन् ये एकमोजत्रेधा विचक्रमे ।।१।।
जरायु से उत्पन्न शिशु की भाँति बलशाली सूर्यदेव वायु के प्रभाव से मेघों के बीच से प्रकट होकर हमारे शरीरों को हर्षित करते हैं। वे सीधे मार्ग में बढ़ते हुए अपने एक हों ओज को तीन प्रकार से प्रसारित करते हैं ॥१ ।।
[सूर्य का ओज–प्रकाश नाप तथा चै के रूप में या शरीर में विधातुओं को पुष्ट करने वाले के रूप में सक्रिय होता है।
५६. अड़े अङ्गे शोचिषा शिश्रियाणं नमस्यन्तस्त्वा हविषा विधेम्।
अङ्कवान्त्समङ्कान् हविषा विधेम यो अग्रभीत् पर्वास्या ग्रभीता ॥२॥
अपनी ऊर्जा से अंग-प्रत्यंग में संव्याप्त है सूर्यदेव ! स्तुतियों एवं हवि द्वारा हम आपको और आपके | समीपवर्ती देवों का अर्चन करते हैं। जिसके शरीरस्थ जोड़ों में रोगों ने मसित कर रखा है, उसके निमित्त भी हम
आपको पूजते हैं ॥२ ।।।
५७. मुञ्च शीर्षया उत कास एवं परुष्पराविवेशा यो अस्य।
। यो अभ्रज्ञा वातजा यश्च शुष्मो वनस्पतीन्सचतां पर्वतांश्च ।।३।।
अथर्ववेद संहिता भाग–१
| हे आरोग्यदाता सूर्यदेव ! आप हमें सिरदर्द एवं कास (खाँसी) की पीड़ा से मुक्त करें । सन्धियों में घुसे रोगाणुओं को नष्ट करें । वर्षा, शीत एवं ग्रीष्म ऋतुओं के प्रभाव से उत्पन्न होने वाले वात, पित्त, कफ जनित रोगों को दूर करें । इसके लिए हम अनुकूल वातावरण के रूप में पर्वतों एवं वनौषधियों का सहारा लेते हैं ।।३।।
५८. शं में परस्मै गात्राय शमस्त्ववराय में।
शं में चतुभ्य अङ्गेभ्यः शमस्तु तन्वे३ मम ॥
| हमारे सिर आदि श्रेष्ठ अंगों का कल्याण हों। हमारे उदर आदि साधारण अंगों का कल्याण हो । इमा चारों अंगों (दो हाथों एवं दो पैरों का कल्याण हो । हमारे समस्त शरीर को आरोग्य – लाभ प्राप्त हो ॥४॥
[१३- विद्युत् सूक्त ] [ऋषि–भृग्वङ्गिरा ।देवता– विद्युत् । छन्द अनुष्टुप् ३ चतुष्पाद् विराट् जगती, ४ विटुप् परा बृहतीगर्भा पंक्ति ।)
५९. नमस्ते अस्तु विद्युत्ते नमस्ते स्तनयित्नवे ।
नमस्ते अस्त्वश्मने येना दूडाशे अस्यसि ॥
विद्युत् को हमारा नमस्कार पहुँचे। गड़गड़ाहट करने वाले शब्द तथा अशन को हमारा नमस्कार पहुँचे। व्यापने वाले मेघों को हमारा नमस्कार पहुँचे । हे देवि ! कष्ट पहुँचाने वाले दुष्टों पर वज्र फेंक कर आप उन्हें दूर हटाती हैं ।।१ ।। ६०. नमस्ते प्रवतो नपाद् यतस्तपः समूहसि। मृड्या नस्तनूभ्यो मयस्तोकेभ्यस्कृधि ॥२॥ | हे देव (पर्जन्यो ! आप पानी को अपने अन्दर ग्रहण किये रहते हैं और असमय नीचे नहीं गिरने देते। हम आपको प्रणाम करते हैं, क्योंकि आप हमारे अन्दर तप एकत्रित करते हैं। आप हमारे देह को सुख प्रदान करें। तथा हमारी सन्तानों में भी सुख प्रदान करें ॥२॥
६९. अवतो नपान्नम एवास्तु तुभ्यं नमस्ते हेतये तपुषे च कृण्मः ।
विद्म ते धाम परमं गुहा यत् समुड़े अन्तर्निहितासि नाभिः ।।३।।
| ऊँचाई से न गिराने वाले हैं पर्जन्य ! आपको हम प्रणाम करते हैं। आपके आयुध तथा तेजस् को हम प्रणाम करते हैं। आप जिस हृदयरूपी गुहा में निवास करते हैं, वह हमें ज्ञात हैं। आप उस समुद्र में नाभि के सदृश विद्यमान रहते हैं ।।३ ।।।
६२. यां त्वा देवा असृजन्त विश्व इषु कृण्वाना असनाय धृष्णुम् ।
| सा नो मड़ विदथे गृणाना तस्यै ते नमो अस्तु देवि ।।४।।
| हे अशनि ! रिओं पर प्रहार करने के लिए समस्त देवताओं ने बलशाली बाण के रूप में आपकी संरचना | की है । अन्तरिक्ष में गर्जना करने वाले हैं अर्शन ! हम आपको नमस्कार करते हैं। आप हमारे भय को दूर करके
में हुई प्रदान करें ॥४॥
[१४– कुलपाकन्या सूक्त] [ ऋषि – भृग्वङ्गिरा। देवता – वरुण अथवा यम । छन्द – १ ककुम्मती अनुष्टुप्, ३, ४ अनुष्टुप् , ३ चतुष्पात्
विराट अनुष्टर् ।] . सामान्य अर्थों में प्रथम मंत्र में प्रयुक्त ‘अस्याः‘ का अर्थ क्या किया गया है। इस आयार पर कन्या को योग्य र के सुपुर्द करने का भावार्थ लिया जाता है, किन्तु म सुरू के देवता वित्, कण एवं म है। इस आया ‘या‘ का अर्थ किनुमान है। वित् माण करने वाले पण तथा उसका नियमन करने वाले ‘म‘ कहे जा सकतें हैं। इस संदर्भ में कन्या
विद्युत् उसके पिता ‘कि–उत्पादक तथा वर उसके प्रयो–
विपन्न माने योग्य । वि पाठक इस संदर्भ में भी मंत्रा को समझ सकते है.
का–१ मूक्त – १५
६३. भगमस्या चर्च आदिब्यधि वृक्षादिव स्रजम् ।
| महाबुन इव पर्वतों ज्योक् पितृष्वास्ताम् ।।१।।
वृक्षों से जैसे मनुष्य फूल ग्रहण करते हैं, उसी प्रकार इस कन्या (अथवा विद्युत् के सौन्दर्य तथा ओज से हम स्वीकार करते हैं। जिस तरह विशाल पर्वत धरती पर स्थिर रहता है, उसी प्रकार यह कन्या भयरहित होकर (अपने अथवा मेरे) माता–पिता के घर पर बहुत समय तक रहें ।। १ ।।
६४. एघा ते राजन् कन्या वधूर्नि श्रूयतां यम् ।
सा मातुर्बध्यता गृहेऽथो आतुरथो पितुः ।।
| हे नियम पालन करने वाले प्रकाशवान् ! यह कन्या आपकी वधू बनकर आचरण करें। यह कन्या आपके घर में रहे, माता–पिता अथवा भाई के घर में सुखपूर्वक रहे ।।२। ।
६५. एषा ते कुलपा राजन् तामु ते परि दयसि।
ज्योक् पितृष्वासाता आ शीः समोप्यात् ।।३।।
हैं राजन् ! यह कन्या आपके कुल की रक्षा करने वाली हैं, उसको हम आपके निमित्त प्रदान करते हैं। यह निरंतर (अपने या तुम्हारे) माता–पिता के बीच रहे । शीर्ष से (श्रेष्ठ स्तर पर रहकर अथवा विचारों से) शान्ति एवं कल्याण के बीज बोए ।।३।।
६६. असितस्य ते ब्रह्मणा कश्यपस्य गयस्य च ।
अत:कोशमिव जामयोऽपि नह्यामि ते भगम् ।।४।।
हे कन्ये ! आपके सौभाग्य को हम ‘असित’ मेष, “गय’ ऋषि तथा “कश्यप ऋषि के मंत्र के द्वारा उसी प्रकार बाँधकर सुरक्षित करते हैं, जिस प्रकार स्त्रियाँ अपने बच्चों–आभूषणों आदि को गुप्त स्वकर सुरक्षित करती हैं ।।४ ।।
[विद्युत् के संदर्भ में अनि का अर्थ म्यारीज़ स्वतंत्र प्रवाह, कश्यप का अर्थ पश्यक का भव–देखने योग्यप्रकाशोत्पादक तथा गन्न का अर्व प्राण– ऊर्मा हैं। इस प्रकार विद्युत् कीं विशेषताओं को पयों ने सूत्रों के माध्यम से प्रकट किया है।
[१५- पुष्टिकर्म सूक्त ] [ ऋषि–अथर्वा । देवता – सिन्धुसमूह (याता, पतत्रिण पक्ष) । छन्द– अनुष्ट, १ भुरिक बृहती, २ पथ्या पंक्ति ।
६७. सं सं स्रवतु सिन्धवः सं वाताः सं पतत्रिणः।
| इमं यज्ञं प्रदिवों में जुषन्तां संस्रायेण हविषा जुहोमि ।।१।।
नदियाँ और वायु भली-भाँति संयुक्त होकर प्रवाहित होती रहें तथा पक्षीगण भली–भाँति संयुक्त होकर उड़ते रहे । देवगण हमारे यज्ञ को ग्रहण करें, क्योंकि हम हविष्यों को संगठित–एकीकृत करके आहुतियाँ दे रहे हैं ॥१ ।।
६८. इहैव हवमा यात म इह संस्त्रावणा उतेमं वर्थयता गिरः ।
इहैतु सर्वो यः पशुस्मिन् तिष्ठतु या रयिः ।।२।।
हे संगठित करने वाले देवताओं ! आप यहाँ हमारे इस यज्ञ में पधारें और इस संगठन का संवर्द्धन करें। प्रार्थनाओं को ग्रहण करने पर आप इस हाँच प्रदाता यजमान को प्रजा, पशु आदि सम्पत्ति से सम्मान करें ।।२ ।।
६९. ये नदीनां संस्रवत्युत्सासः सदमक्षिताः।
तेभिमें सर्वैः संस्रावैर्घनं सं स्रावयामसि ।।
सरिताओं के ज्ञों अक्षय स्रोत संघबद्ध होकर प्रवाहित हो रहे हैं, उन सब स्रोतों द्वारा हम पशु आदि धन–सम्मत्तियाँ प्राप्त करते हैं ॥३ ।।।
अथर्ववेद संहिता भाग–१
90, ये सर्पिषः संस्रवन्त क्षीरस्य चोदकस्य च । तेभिर्मे सर्वैः संस्रावैर्घनं से स्रावयामसि
जो घृत, दुग्ध तथा जल की धाराएँ प्रवाहित हो रहीं हैं, उन समस्त धाराओं द्वारा हम धन–सम्पत्तियों प्राप्त करते हैं ।।४ ||
[प्रकृति कळ झारा उपलव्य वस्तुओं को सुनियोजित करके ही मनुष्य ने सारी सम्पत्तियाँ उपलब्ध की हैं।
[१६– शत्रुवाधन सूक्त ] | [ प – चातन । देवता – आँन, इन्द्र, वरुण (३–४ थत्य सौस) । छन्द–अनुष्ट, ४ ककुम्मती अनुष्ट्र् ]
७१. ये ऽमावास्यां३ रात्रिमुदस्थुर्वाजमत्रिणः।।
अग्निस्तुरीयो यातुहा सो अस्मभ्यमधि बवत् ॥१॥
| अमावस्या की अँधेरी रात के समय मनुष्यों पर बात करने वाले तथा उनको क्षति पहुँचाने वाले, जो असुर | आदि विचरण करते हैं, उन असुरों के सम्बन्ध में असुर विनाशक चतुर्थ अग्निदेव हमें जानकारी प्रदान करें ।।१ ।।
यहाँ अम के लिए तुरीय (चतुर्थ) सम्बोधन विचारणीय हैं । अनि के तीन प्रयोग (गफ्याग्नि, आनीयानि नाचा दक्षिणानि) यनीय होते हैं। चराचं प्रयोग सुरक्षापरक कारणों के लिए किये जाने से से तुरीय अनि कहा गया है। रात्रि |में चोरों के आने की सूचना देने के लिए कोई ‘वर्मा पाक्न या इझाड डिक्टर‘ जैसे योग का संकेत इस मंत्र में मिलता है।
७३. सीसायाध्याह वरुण: सीसायाग्निरुपावति।
सीस म इन्द्रः प्रायच्छत् तदङ्ग यातुचात्तनम् ॥२ ।।
वरुणदेव ने सीसे के सम्बन्ध में कहा (प्रेरित किया है। अग्निदेव उस ‘सीसे‘ को मुनष्यों की सुरक्षा करने वाला बताते हैं। धनवान् इन्द्र ने हमें ‘सीसा‘ प्रदान करते हुए कहा है–हे आत्मीय ! देवों द्वारा प्रदत्त यह ‘संसा असुरों का निवारण करने वाला हैं ॥२॥
| | तीन देवताओं ण, अमि एवं इन्द्र द्वारा ‘झी‘ से आत्मरक्षा तथा शत्रु निवारण के प्रयोग बसाए गए हैं। संगठन सत्ता ‘सीसे की गोती का रहस्य ला सकते हैं, क्रूण ( हॉसिक प्रेशर से) नया अनि(विस्फोटक शक्ति |में) ‘मोसे के प्रहार की विद्या प्रदान कर सकते हैं। नींस एवं चौथे मत्रमें सीसे को अब हटाने वाला तवा वेश कर | इसी आय को स्पष्ट किया गया है।]
७३. इदं विकन्यं सहत इदं बाधते अत्रिणः
। अनेन विश्वा ससहे या ज्ञातानि पिशाच्याः
यह सौसा अवरोध उत्पन्न करने वालों को हटाता है तथा असुरों को पौंड़ा पहुँचाता है । इसके द्वारा असुरों की समस्त जातियों को हम दूर करते हैं ॥ ३ ॥
७४. यदि नो गां हँसि यद्यश्वं यदि पूरुषम्।।
तं वा सोसेन विध्यामो यथा नोऽसो अवीरहा ।।४।।
| हे रिपो ! यदि तुम हमारी गौओं, अश्वों तथा मनुष्यों का संहार करते हो, तो हम तुमको सीसे के द्वारा वेधते हैं। जिससे तुम हमारे वीरों का संहार न कर सको ॥४॥
[१७– रुधिरस्रावनिवर्तनधमनीबन्धन सूक्त ] [ ऋषि – ब्रह्मा । देवता – योषित् , लोहितवासस, हिरा । छन्द–अनुष्टुप्, १ भूरिक् अनुष्टुप ४ त्रिपदाप गायत्री ।
७५.अमूर्या यन्ति घोषित हिरा लोहितवाससः
। अभातर इव जामयस्तिष्ठन्तु हृतवर्चसः
शरीर में लाल रंग के रक्त का वहन करने वाली जो योषा (धमनियाँ हैं, वे स्थिर हो जाएँ, । जिस प्रकार भाई रहित निस्तेज बहिनें बाहर नहीं निकलतीं, उसी प्रकार धमनियों का खून बाहर न निकले ॥१ ।।
काण्ड–१ सूक्त – १८
७६, निष्ठावरे तिष्ठ पर उत त्वं तिष्ठ मध्यमें।
कनिष्ठिका च तिष्ठति तिष्ठादिद् धमनिर्मही ॥२॥
है नीचे, ऊपर तथा बीच वाली धमनियों ! आप स्थिर हों ज्ञाएँ। छोटीं तथा बड़ी धमनियाँ भी खून बहाना बन्द करके स्थिर हो जाएँ ॥२ ।।
७७, शतस्य धमनीनां सहस्रस्य हिराणाम् ।
अस्थर–मध्यमा इमाः साकमन्ता अरंसत ॥ ३ ॥
सैकड़ों धमनियों तथा सैकड़ों नाड़ियों के मध्य में मध्यम नाड़ियाँ स्थिर हो गई हैं और इसके साथ–साथ | अन्तिम धमनियों भी ठीक हो गई हैं, जिसका रक्त स्राव बन्द हो गया हैं ॥३॥
७८. परिं वः सितावत धनुर्बहूत्यक्रमीत् ।
तिष्ठतेलयता सु कम् ।।४।।
हे नाड़ियों ! आपको रज नाड़ी ने और धनुष की तरह वक़ धनु नाङ्गो ने तथा बृहती नाङ्गो ने चारों तरफ से संव्याप्त कर लिया है। आप खून बहाना बन्द करें और इस रोगों को सुख प्रदान करें ॥४॥
[१८- अलक्ष्मीनाशन सूक्त ] [अघि – द्रविणोदा । देवता – विनायक । छन्द – १ उपरिष्टाद् विराट् बृहती, २ निवृत् जगती, ३ विराट्
आस्तारपंक्ति त्रिष्टु, ४ अनुष्टुप् ।] |
७९. निर्लक्ष्म्यं ललाई निररातिं सुवामसि ।।
अथ या भद्रा तानि नः प्रजाया अराति नयामसि ।।१।।
ललाट पर स्थित बुरे लक्षणों को हम पूर्ण रूप से दूर करते हैं तथा जो हितकारक लक्षण हैं, उन्हें हम अपने लिए तथा अपनी सन्तानों के लिए प्राप्त करते हैं। इसके अलावा कृपणता आदि को दूर हटाते हैं ॥ १ ॥
८०. निररणि सविता साविषक् पदोर्निर्हस्तयोर्वरुणो मित्रो अर्यमा।
निरस्मभ्यमनुमती रराणा प्रेम देवा असाविषुः सौभगाय ॥३॥
मित्रावरुण, सविता तथा अंर्यमा देव हमारे हाथों और पैरों के बुरे लक्षणों को दूर करें । सबकी प्रेरक अनुमति भी वांछित फल प्रदान करती हुई शरीर के बुरे लक्षणों को दूर करे । देवों ने भी इसी सौभाग्य को प्रदान करने के निमित्त प्रेरणा दी हैं ।।३।। ८१. यत्त आत्मनि तन्त्रां घोरमस्ति यद्वा केशेषु प्रतिचक्षणे वा।
सर्वं तद् वाचाप हुन्मो वयं देवस्त्वा सविता सुदयतु ।।३।। | है बुरे लक्षणों से युक्त मनुष्यो ! आपकी आत्मा, शरीर, बाल तथा आँखों में जो वीभत्सता का कुलक्षण हैं, | उन सबको हम मन्त्रों का उच्चारण करके दूर करते हैं । सविता देवता आपको परिपक्व बनाएँ ।।३।
८२. रिश्यपद वृषदत गोषेषां विधमामुत।।
विलीचं ललाम्य ता अस्मन्नाशयामसि ।।४।।
” ऐसी स्त्री जिसका पैर हिरण की तरह, दाँत बैल की तरह, चाल गाय की तरह तथा आवाज़ कठोर हैं, हम उसके मस्तक पर स्थित ऐसे सभी बुरे लक्षणों को मन्त्रों द्वारा दूर करते हैं ॥४॥
अथर्ववेद संहिता भाग–१
[ १९– शत्रुनिवारण सूक्त ] | [ ऋषि – ब्रह्मा । देवता – ईश्वर (१ इन्द्र, २ मनुष्यों के बाण, ३. रुद्र, ४ विश्वेदेवा) । छन्द – अनुष्टुप, २ पुरस्ताद्
बृहती, ३ पथ्या पंक्ति ।]
८३. मा नो विदन् विठ्याधिनो मो अभिव्याधिनो विदन्।
आच्छरव्या अस्मद्विधूचीरिन्द्र पातये ॥१॥
हथियारों द्वारा अत्यधिक घायल करने वाले रिपु हमारे समीप तक न पहुँच पाएँ तथा चारों तरफ से संहार करने वाले रिपु भी हमारे पास न पहुँच पाएँ । हे परमेश्वर इन्द्र ! सब तरफ फैल जाने वाले बाणों को आप हमसे | दूर गिराएँ ॥१॥
८४, विष्यच अस्मच्छरवः पतन्तु ये अस्ता ये चास्याः।
दैवीर्मनुष्येषवो ममामित्रान् वि विध्यते ।।३।।
चारों तरफ फैले हुए बाण जो चलाए जा चुके हैं तथा जो चलाए जाने वाले हैं, वे सब हमारे स्थान से दूर गिरें । हें मनुष्यों के द्वारा संचालित तथा दैवी बाणों ! आप हमारे रिषुओं को विदीर्ण कर डालें ॥२ ।।।
८५. यो नः स्वो यो अरणः सत्रात उत निंष्ट्यो यो अस्माँ अभिदासति ।
रुद्रः शरव्य घेतान् ममामित्रान् वि विध्यत् ॥३॥
जो हमारे स्वजन हों या दूसरे अन्य लोग हों अथवा सजातीय हों या दूसरी जाति वाले हीन लोग हों; यदि वे हमारे ऊपर आक्रमण करके हमें दास बनाने का प्रयत्न करें, तो उन रिपुओं को रुद्रदेव अपने बाणों से विदीर्ण करें ॥३॥ |
८६. यः सपत्नो योऽसपत्नो यश्च हिंघञ्छुपाति नः ।
देवास्तं सर्वे घूर्वन्तु ब्रह्म वर्म ममान्तरम् ॥४ ।।
जो हमारे प्रकट तथा गुप्त रिपु विद्वेष भाव से हमारा संहार करने का प्रयत्न करते हैं या हमें अभिशापित करते हैं, उन रिपुओं को समस्त देवगण विनष्ट करें । ब्रह्मज्ञान रूपी कवच हमारी सुरक्षा करे ।।४ ।।
[२०– शनुनिवारण सूक्त ] | ऋषि- अथर्वा । देवता – १ सौम, मरुद्गण, २ मित्रावरुण, ३ वरुण, ४ इन्द्र । छन्द – अनुष्टुप्, १ त्रिष्टुप् ।]
८७. अदारसृद् भवतु देव सोमास्मिन् यज्ञे मरुतो मृड़ता नः ।
मा नो विददभिभा मो अशस्तिर्मा नो विदद् वृजिना द्वेच्या या १॥
| हे सोमदेव ! परस्पर वैमनस्य स्पन्न करने का कृत्य हमसे न हो। हे मरुतों ! हुम जिस युद्ध का अनुष्ठान कर रहे हैं, आप उसमें हमें हर्षित करें । सम्मुख होकर बढ़ता हुआ शत्रु का ओजस् हमारे समीप न आ सके तथा अपकीर्ति भी हमें न प्राप्त हो । जो विद्वेषवर्द्धक कुटिल कृत्य हैं, वे भी हमारे समीप न आ सके ॥ १ ॥
८८. यो अद्य सेन्यो वोऽघायूनामुदीरते ।
युवं तं मित्रावरुणावस्मद् याययतं परि ॥२
हे मित्र और वरुणदेवों ! रिपुओं द्वारा संधान किए गए आयुधों को आप हमसे दूर रखें, जिससे वह हमें | स्पर्श न कर सके। आज संग्राम में हिंसा की अभिलाषा से संधान किए गए रिपुओं के अस्त्रों को हमसे दूर रखने
का उपाय करें ॥३॥
काय – सूक्त – ३
८९. इतश्च अदमुतश्च यद् वर्थ वरुण यावय।
वि मच्छर्म यच्छ वरीयो याचया वधम् ॥
‘ हे वरुणदेव ! समीप में खड़े हुए तथा दृर में स्थित रिपुओं के जो अरुस, संहार करने के उद्देश्य से हमारे पास आ रहे हैं, उन ओड़े गए अस्त्र–शस्त्रों को आप हमसे पृथक् करें । हे वरुणदेव ! रिओं द्वारा अप्राप्त बृहत् सुखों को आप में प्रदान करें तथा उनके कठोर आयुधों को हुमसे पृथक् करें ।।३।।
१०. शास इत्था महाँ अस्यमित्रसाहो अस्तृतः ।
न यस्य हन्यते सखा न जीयते कदाचन ।
हे शासक इन्द्रदेव ! आपकी शत्रु हनन की क्षमता महान् और अद्भुत हैं, आपके मित्र भी कभी मृत्यु को | प्राप्त नहीं होते और न कभी शत्रुओं से पराभूत होते हैं ॥४॥
[२१– शनिवारण सूक्त]
[ ऋषि – अथर्वा । देवता – इन्द्र । छन्द– अनुष्टम् ।।
११. स्वस्तिदा विशां पतिर्दृत्रहा विमृयो वशी।
वृषेनः पुर एतु नः सोमपा अभयः ॥१
इन्द्रदेव सबका कल्याण करने वाले, प्रजाजनों का पालन करने वाले, वृत्र असुर का विनाश करने वाले, युद्धकर्ता शत्रुओं को वशीभूत करने वाले, साधकों की कामनाओं को पूर्ण करने वाले, सोमपान करने वाले और अभय प्रदान करने वाले हैं। वे हमारे समक्ष पधारें ॥ १ ॥
१३. वि न इन्द्र मृधों जहि नीचा यच्छ पृतन्यतः ।।
अधमं गमया तमो यो अस्माँ अभिदासति ॥२ ।।
हे इन्द्रदेव ! आप हमारे शत्रुओं का विनाश करें । हमारी सेनाओं द्वारा पराजित शत्रुओं को मुँह लटकाये हुए भागने दें । हमें वश में करने के अभीच्छ शत्रुओं को गर्त में डालें ॥३॥ १३. वि रक्षो वि मृधो हि वि वृत्रस्य हुनू रुज। वि मन्युमन्द्र वृत्रहन्नमत्रस्याभिदासतः
है इन्द्रदेव ! आप राक्षसों का विनाश करें । हिंसक दुष्टों को नष्ट करें । वृत्रासुर का जबड़ा तोड़ दें । हे |शत्रु–नाशक इन्द्रदेव ! आप हमारे संहारक शत्रुओं के क्रोध एवं दर्प को नष्ट करें ।।३।।
१४. अपेन्द्र द्विषतो मनोऽप जिज्यासतों वधम् ।
वि मच्छर्म यच्छ वरीयो यावया वधम्
हे इन्द्रदेव ! आप शत्रुओं के मनों का दमन करें । हमारा संहार करने के अभिलाधी शत्रुओं को नष्ट करें । | शत्रुओं के क्रोध से हमारी रक्षा करते हुए हमें श्रेष्ठ सुख प्रदान करें । शत्रु से प्राप्त मृत्यु का निवारण करें ॥४॥
[ २२– हृद्रोगकामनानाशन सूक्त ]
[ ऋषि – ब्रह्मा । देवता – सूर्य, हरिमा और हृद्रोग । छन्द – अनुष्टुप् ।]
९५. अनु सूर्यमुदयतां हृद्योतो रिमा च ते ।
गो रोहितस्य वर्णेन तेन त्वा परि दमसि ।।
हे रोगग्रस्त मनुष्य ! हुद्दय रोग के कारण आपके हृदय की जलन तथा (पीलिया या रक्ताल्पता का विकार) आपके शरीर का पीलापन, सूर्य की ओर चला जाए। रक्तवर्ण को गौओं अथवा सूर्य की रक्तवर्ण की रश्मियों के द्वारा हम आपको हर प्रकार से बलिष्ठ बनाते हैं ।।१ ।। |
९६. परि त्या रोहितैर्वर्दीर्घायत्वाय दध्मसि ।
यथायमरपा असदथो अहरितो भूवत् ।।३
हे व्याधिग्रस्त मनुष्य ! दीर्घायुष्य प्राप्त करने के लिए हम आपको लोहित वर्ण के द्वारा वृत करते हैं, जिसमें आप ग्रेगहित होकर पाण्डु रोग में विमुक्त हो सकें ॥३॥
अधर्ववेद संहिता भाग–१
९७. या रोहिणीर्देवत्यार गावो या उन रोहिणीः।
रूपरूपं वयोवयस्ताभिध्वा पर दध्मसि ॥३॥
देवताओं की जो रक्तवर्ण की गौएँ हैं अथवा रक्तवर्ण की रश्मियाँ हैं, उनके विभिन्न स्वरूपों और आयुष्यवर्द्धक गुणों से आपको आच्छादित (उपचारित करते हैं ॥३॥
९८. शुकेषु ते हरिमाणं रोपणाकासु दमसि ।
अथो हारिद्रवेषु ते हरिमाणे नि दथ्मसि ।।४ ॥
हम अपने हरिमाण (पीलिया अथवा शरीर को क्षण करने वाले रोगों को शुक (तोतों) रोपणाका (वृक्षों) एवं इरिद्रयों (हरी वनस्पतियों में स्थापित करते हैं ।।४ ॥
[मनुष्य के रोगाणु विशिष्ट पधियों या स्पतियों में प्रविष्ट होते हैं, तो उनमें इन रोगों के प्रतिरोधक त्व(एन्टीबडीय) उत्पन्न होते हैं। उनके संसर्ग से मनुष्यों के रोगों का शमन होता है। मनुष्य के मल विकार–पक्षियों एवं वनस्पतियों के लिए स्वाभाविक आहार न जाते हैं, इसलिए रोग विकारों को उनमें विस्थापित करना अचित है।
[२३- श्वेत कुष्ठ नाशन सूक्त ]
[ ऋषि – अथर्वा । देवता – असिमी वनस्पति । छन्द – अनुष्टुम् ।।
१९. नक्तंजातास्योषधे रामे कृष्णे असिक्न च।
इदं रजनि जय किलासं पलितं च यत् ॥१॥
हे राम–कृष्णा तथा असिनी औषधियों ! आप सब रात्रि में पैदा हुई हैं। रंग प्रदान करने वाली है। | ओषधियों ! आप गलत कुष्ठ तथा श्वेतकुष्ठग्रस्त व्यक्ति को रंग प्रदान करें ॥१ ॥
[घन्तरि के अनुसार रामासेरामा तुलसी, आरामशीलता, घृतकुमारी, लक्षणा आदि कृष्णा से कृष्णा तुलसी, कृष्णामूसी, पुर्नवा पिप्पली आदि तथा अस्मिी से सिकनी असिशिवी आदि का बोध होता है। |
१००. किलासं च पलितं च निरितो नाशया पृषत् ।
आ त्वा स्व विशतां वर्णः परा शुक्लानि पातय ॥२ ।।
हे औषधियों ! आप कुष्ठ, श्वेतकुष्ठ तथा धब्बे आदि को बिनष्ट करें, जिससे इस व्याधिग्रस्त मनुष्य के शरीर में पूर्व जैसी लालिमा प्रवेश को । आप सफेद दाग को दूर करके इस रोगी को अपना रंग प्रदान करें ॥३॥
|१०१. असितं ते प्रलयनमास्थानमसतं तव ।।
|असिक्यस्योषधे निरितो नाशया पृषत् ।।३।।
है नील औषधे ! आपके पैदा होने का स्थान कृष्ण वर्ण है तथा जिस पात्र में आप स्थित रहती हैं, वह भी काला है । हे औषधे ! आप स्वयं श्याम वर्ण वाली हैं, इसलिए लेपन आदि के द्वारा इस रोगी के कुम्न आदि धयों को नष्ट कर दें ॥३॥
१०२. अस्थिजस्य किलासस्य तनूजस्य च यत् त्वच।।
| दूष्या कृतस्य ब्रह्मणा लक्ष्म श्वेतमनीनशम् ॥४॥
शरीर में विद्यमान अस्थि और त्वचा के मध्य के मांस में तथा त्वचा पर जो श्वेत कुष्ठ का निशान है, उसे | हमने ब्रह्म ज्ञान या मन्त्री प्रयोग के द्वारा विनष्ट कर दिया ।।४ ।।
कापड – सूक्त – ५
[ २४– चेतकुष्ठ नाशन सूक्त] [धि – ब्रह्मा । देखना – आसुरी वनस्पति । छन्द – अनुष्टुप, २ निवृत् पथ्या पंक्ति ।]
१०३. सुपर्णो जातः प्रथमस्तस्य त्वं पित्तमासिथ ।।
तदासुरी बुधा जिता रूपं च वनस्पतीन् ।१ ।।
हैं औषधे सर्वप्रथम आप सुपर्ण (सूर्य या गरुड़ के पित्तरूप में थीं । आसुरी (शक्तिशाली) सुपर्ण के साथ संग्राम जीतकर उस पित्त को ओषधि का स्वरूप प्रदान किया। वहीं रूप नील आदि औषधि में प्रविष्ट किया है ॥
१०४. आसुरी चक्रे प्रथमेदं किलासभेषजमिदं किलासनाशनम्।
अनीनशत् किलासं सरूपामकरत् त्वचम् ॥२॥ |
उस आसुरी माया ने नील आदि ओषधि को कुष्ठ निवारक ओषधि के रूप में विनिर्मित किया था। यह ओषधि कुष्ठ नष्ट करने वाली हैं । प्रयोग किये जाने पर इसने कुष्ठ रोग को विनष्ट किया। इसने दूषित त्वचा में रोग शून्य त्वचा के समान रंग वाली कर दिया ।।२ ।।।
१०५. सरूपा नाम ते माता सरूपो नाम ते पिता।
सरुपकृत् त्वमोषधे सा सरूपमिदं कृधि ।।३।।
हे ओषधे ! आपकी माता आपके समान वर्ण वाली है तथा आपके पिता भी आपके समान वर्ण वाले हैं और आप भी समान रूप करने वाली हों । इसलिए है नील औषधे ! आप इस कुष्ठ रोग से दूषित रंग को अपने समान रंग – रूप वाला करें ॥३॥
१०६. श्यामा सपङरणी पर्थिव्या अध्यक्षता ।
इदम् 5 में साधय पुना रूपाणि कल्पय ।
है काले रंग वाली ओषधे ! आप समान रूप बनाने वाली हो । आसुरी माया ने आपको धरती के ऊपर पैदा किया है। आप इस कुष्ठ रोग ग्रस्त अंग को भली प्रकार रोगमुक्त करके पूर्ववत् रंग-रूप वाला बा दें ।।४ ।।
[ २५- ज्वर नाशन सूक्त] | ऋषि–भृग्वाङ्गिरा देवता–यक्ष्मनाशन अग्नि । छन्द -१ त्रिष्टुप् , २-३ चिरागभत्रिष्टुप्, ४ पुरोऽनुष्टुप् त्रिष्टुप् ।]
१०७. यदग्निरापो अदहत् प्रविश्य यत्राकृण्वन् धर्मवृतो नमांसि।.
- तत्र त आः परमं जनित्रं स नः संविद्वान् परि वृग्धि तक्मन् ॥१॥
जहाँ पर धर्म का आचरण करने वाले सदाचारी मनुष्य नमन करते हैं, जहाँ प्रविष्ट होकर अग्निदेव, प्राण धारण करने वाले जल तत्व को जलाते हैं, वहीं पर आपका (ज्वर का वास्तविक जन्म स्थान है, ऐसा आपके बारे में
कहा जाता है । हे कष्टप्रदायक ज्वर ! यह सब जानकर आप हमें रोग मुक्त कर दें ॥१॥ .
१०८. यद्यर्चिर्यदि वासि शोचिः शकल्येषि यदि वा ते जनित्रम् ।
| हृड्र्नामासि हरितस्य देव स नः संविद्वान् परि वृग्धि तक्मन् ॥२॥
हैं जीवन को कष्टमय करने वाले ज्वर ! यदि आप दाहकता के गुण से सम्पन्न हैं तथा शरीर को संताप देने वाले हैं, यदि आपका जन्म लकड़ी के टुकड़ों की कामना करने वालें अग्निदेव से हुआ हैं, तो आप ‘इड‘ नाम वाले हैं। हे पीलापन उत्पन्न करने वाले ज्वर ! आप अपने कारण अग्निदेव को जानते हुए हमें मुक्त कर दें ॥२ ॥
I’ का अर्थ गति (नाको गति) या कम्पम अचाने वाला अक्वा चिन्ता अपन्न करने वाला माना जाता हैं।
| अक्ववेद संहिता भाग–१
१०९. यदि शोको यदि वाभिशोको यदि वा राज्ञों वरुणास्यासि पुत्रः ।।
| डुर्नामासि हरितस्य देव स नः संविद्वान् परि वृघि तक्मन् ॥३॥
| है जीवन को कष्टमय बनाने वाले ज्वर ! यदि आप शरीर में कष्ट देने वाले हैं अथवा सब जगह पीड़ा उत्पन्न | करने वाले हैं अथवा दुराचारियों को दण्ड़ित करने वाले वरुणदेव के पुत्र हैं, तो भी आपका नाम ‘हृडु’ हैं। आप
अपने कारण अग्निदेव को जानकर हम सबको मुक्त कर दें ॥३॥
११०. नमः शीताय तक्मने नमो रूराय शोचिषे कृणोमि ।
यो अन्येचुरुभयद्युरभ्येति तृतीयकाय नमो अस्तु तक्मने ॥४॥
ठंडक को पैदा करने वाले शीत ज्चर के लिए हमारा नमन हैं और रूखे ताप को उत्पन्न करने वाले ज्वर को हमारा नमन हैं । एक दिन का अन्तर देकर आने वाले, दूसरे दिन आने वाले तथा तीसरे दिन आने वाले शीतज्वर को हमारा नमन है ॥४ ।।
[ ज्ञात–ठंड स्लगका आने वाले एवं ताप में सुनाने वाले मलेरिया जैसे ज्वार का लेख यहाँ है । यह वार नियमित होने के साध ही अंतर देकर आने वाले इकतरा–निवारी आदि रूपों में भी होते हैं। नमन का सीधा अर्थ दूर से नमस्कार करना–बचाव करना(प्रिवेन) निया जाता है।‘संस्कृत शब्दार्थ कौस्तुभ नामक कोष के अनुसार नमसु के अर्थ नमस्कार, त्याग, क्व आदि भी हैं। इन वारों के त्याग या उन पर (ऑर्याध या मंत्र शक्ति में क्व हार करने का भाव भी निकलता है ।
[ २६– शर्म (सुख) प्राप्ति सूक्त] [ ऋष – ब्रह्मा । देवता – १ देवा, २ इन्द्र, भग, सविता, ३-४ मरुद्गण । छन्द – गायत्री, २ एकावसाना विपदा सानी त्रिष्टुप, ४ एकावसाना पार्दानिवृत् गायत्रौं । इस मत के देवता रूप में इन्द्राणीं वर्णित हैं। इन्ह दया के लिए प्रयुक्त होने से इन्द्राणी का अर्थ रानी अक्वा सेना लिया जाता है। इन्डाणी को शचीं भी कहा गया हैं। ‘शची ‘ का अर्थ निघण्टु में वाणी कर्म एवं जा दिया गया है। इस आधार पर शवों को जीवात्मा की वाणी शक्ति, कर्म शक्ति एवं विचार शक्ति भी कहा जा सकता है। ये तीनों अलग–अलग एवं संयुक्त होकर धीं शत्रुओं को पराभूत करने में समर्थ होता है। तु, इन्द्राणों के अर्थ में नौं, बा की सैन्य शक्ति तथा जीव–चेमा
की उक्त शक्तयों को लिया जा सकता है |
१११. आरे३सावस्मदस्तु हेतिर्देवासो असत् ।
आरे अश्मा यमस्यथ ।।१ ।।
ॐ देवों ! रिपुओं द्वारा फेंके गये थे अत्र हमारे पास न आएँ तथा आपके द्वारा फेंके गये (अभिमंत्रित पाषाण भी हमारे पास न आएँ ॥१॥
११२. सख़ासाचस्मभ्यमस्तु रातिः
सखेन्द्रो भगः सविता चित्रराधाः ।।२।।
दान देने वाले, ऐश्वर्य – सम्पन्न सवितादेव तथा विचित्र धन से सम्पन्न इन्द्रदेव तथा भगदेव हमारे सखा हों ॥२ ॥
११३. यूयं नः प्रवतो नपान्मरुतः सूर्यत्वचसः
। शर्म यच्छाथ संप्रथाः ।।३।।
अपने आप की सुरक्षा करने वाले, न गिराने वाले हे सूर्य की तरह तेजयुक्त मरुतो ! आप सब हमारे निमित्त प्रचुर सुख प्रदान करें ।।३ ॥
११४. सुषुदत मृडत मृड्या नस्तनूभ्यो मयस्तोकेभ्यस्कृधि ।।४।। |
इन्द्रादि देवता हमें आश्चय प्रदान करें तथा हमें हर्षित करें ।वे हमारे शरीरों को आरोग्य प्रदान करें तथा हमारे बच्चों को आनन्दित करें ॥४ ।।
का–१ सः – ३४
[ २७– स्वस्त्ययन सूm] || ऋषि – अथर्वा । देवतां – चन्द्रमा और इन्द्राणी । छन्द – अनु१ पथ्या पंक्ति ।
११५. अमू: पारे पृदाक्यस्त्रिषप्ता निर्जरायवः ।।
| तासां जरायुभिर्वयमक्ष्यावपि ययामस्यघायोः परिपन्थिनः ।।१।।
ज्ञरायु निकलकर पार हुई ये त्रिसप्त (तीन और सात) सर्पणियाँ (गतिशील सेनाएँ या शक्ति धाराएँ ) हैं। उनके जरायु (केंचुल या आवरण) से हम पापियों की आँखें ढूंक दें ॥ १ ॥
११६. विधूच्येतु कृन्तती पिनाकमिव बिभती।
विष्वक् पुनर्भुवा मनोऽसमृद्धा अघायवः
| रिपुओं का विनाश करने में सक्षम पिनाक (शिव धनु) की तरह शस्त्रों को धारण करके रिपुओं को काटने वाली (हमारी वीर सेनाएँ या शक्तियों) चारों तरफ से आमें बढ़े, जिससे पुनः एकत्रित हुई रिपु सेनाओं के मन तितर–बितर हो जाएँ और उसके शासक हमेशा के लिए निर्धन हो जाएँ ।।२ ।।।
११७. न बहवः समशकन् नार्थका अभि दाधृषुः ।
वेणोरा इवामितो समृद्धा अघाययः |
बृहत् शत्रु भी हमें विजित नहीं कर सकते और कम शत्रु हमारे सामने इहर नहीं सकते । जिस प्रकार वाँस
के अंकुर अकेले नवा कमजोर होते हैं। उसी प्रकार पाप मनुष्य धन विहीन हो जाएँ ॥३॥
११८. प्रेतं पादौ प्रस्फुरतं वहतं पृणतो ग्रहान् ।
इन्द्राण्येतु प्रथमाजीतामुचिता पुरः ।।४।।
है दोनों पैरो ! आप द्रुतगति से अमन करके आगे बढ़ें तथा वांछित फल देने वाले मनुष्य के घर तक हमें पहुँचाएँ । किसी के द्वारा विजित न की हुई, न लूट हुईं अभिमानी – (इन्द्राणी) सबके आगे–आगे चलें ॥४॥
[२८- रक्षोन सूक्त ] |. [ ऋषि – चातन । देवता – १-२ आँगन, ३-४ यातुधानौं । छन्द – अनुष्टुप्, ३ विराट् पथ्याबृहती, ४ पथ्या
|
पंक्ति ।] |
११९. उप प्रागाद् देवो अग्नी रक्षोहामवचातनः ।
दइन्नप द्वयाविनों यातुधानान् किमीदिनः ।।१।।
रोगों को विनष्ट करने वाले, असुरों का विनाश करने वाले अग्निदेव शंकालुओं, तुटेरों तथा दोमुहे कपटियों | को भस्मीभूत करते हुए इस उद्विग्न मनुष्य के समीप पहुँचते हैं ।।१।। |
१२०. प्रति दह यातुधानान् अति देव किमीदिनः ।
| प्रतीचीः कृष्णवर्तने से दह यातुधान्यः ॥२॥
हे अग्निदेव ! आप लुटेरों तथा सदैव शंकालुओं को भस्मसात् करे । हे काले मार्ग वाले अग्निदेव ! जीवों | के प्रतिकूल कार्य करने वाली लुटेरों स्त्रियों को भी आप भस्मसात् करें ॥२॥
१२१. या शशाप शपनेन याचं मूरमादथे।
| या रसस्य हरणाय जातमारेमे तोकमत्तु सा ॥३॥
जो राक्षसियाँ शाप से शापित करती हैं और जो समस्त पापों का मूल हिंसा रूपी पाप करती हैं तथा जो खुन । रूपी रसपान के लिए जन्मे हुए पुत्र का भक्षण करना प्रारम्भ करती हैं, वे राक्षसियाँ अपने पुत्र का तथा हमारे रिपुओं की सन्तानों का भक्षण करें ।।३।।
अथर्ववेद संहिता भाग–१
| १२२. पुत्रमत्तु यातुधानीः स्वसारमुक्त नप्त्यम्।
अधा मिथो विकेश्यो३ विघ्नतां यातुधान्यो३ वि तृान्तामराय्यः ।।४।।
| वे राक्षसियाँ अपने पुत्र, बहिन तथा पौत्र का भक्षण करें । वे बालों को खींचकर झगड़ती हुई मृत्यु को प्राप्त करें तथा दानभाचे से बिहान घात करने वाली राक्षसि परस्पर लड़कर मर ज्ञाएँ ॥४॥
[२९– राष्ट्र अभिवर्धन, सपत्नक्षयण सूक्त]
[ ऋषि – वसिष्ठ । देवता – अभींवर्तमणि, ब्रह्मणस्पति । छन्द – अनुष्टुप् ।] |
१२३. अभीवर्तेन मणिना येनेन्द्रो अभिवावृधे।
तेनास्मान् ब्रह्मणस्पतेऽभि राष्ट्राय वर्चय
हे ब्रह्मणस्पते ! जिस समृद्धिदायक मणि से इन्द्रदेव की उन्नति हुई, उस मणि से आप हमें राष्ट्र के लिए (राष्ट्रहित के लिए विकसित करें ।।१ ।। १२४. अभिवृत्ध सपत्नानभि या नो अरातयः । अभि पृतन्यन्तं तिष्ठाभि यो नो दुरस्यति
हैं राजन् ! हमारे विरोधी हिंसक शत्रु सेनाओं को, जो हमसे युद्ध करने के इच्छुक हैं, जो हमसे द्वेष करते हैं, आप उन्हें घेरकर पराभूत करें ॥३॥
१२५. अभि त्वा देवः सविताभ सोमो अवीवृधत् ।
अभि त्वा विश्वा भूतान्यभवतॊ यथासस ।।३।।
| हे राजन् ! सवितादेव, सोमदेव और समस्त प्राणिसमुदाय आपको शासनाधिरूढ़ करने में सहयोग करें। इन सबकी अनुकूलता से आप भली- भौति शासन करें ।। ३ ।।
१२६. अभीव अभिभवः सपलक्षयणो मणिः ।
राष्ट्रीय मह्यं बध्यतां सपत्नेभ्यः पराभुवे
यह मणि रिपुओं को आवृत करके उनकों पराजित करने वाली हैं तथा विरोधियों का विनाश करने वालों है। विरोधियों को पराभूत करने के लिए तथा राष्ट्र की उन्नति के लिए इस मणि को हमारे शरीर में बाँधे ॥४॥
१३७. दसौ सुय अगादिदं मामर्क वचः ।
यथा शनुहोसान्यसपत्नः सपत्नहा ।।५।।
ये सूर्यदेव उदित हों गये, हमारी वाणी (मंत्र शक्ति) भी प्रकट हो गई हैं । (इनके प्रभाव से हम शत्रुनाशक, दुष्टों पर आघात करने वाले तथा शहीन हों ॥५॥ | १२८. सपनक्षयणो वृषाभिराष्ट्र विधासह्नि। यथाहमेषां वीराणां विराज्ञानि जनस्य च ।
हे मणे ! हम शत्रुहन्ता, बलवान् एवं विजयी होकर राष्ट्र के अनुकूर | वीरों तथा प्रजाजनों के हित सिद्ध करने वाले बने ॥६॥
[ ३०– दीर्घायुप्राप्ति सूक्त] || ऋषि – अथर्वा । देवता – विश्वेदेवा । छन्द – त्रिष्टुप् , ३ शाक्वरगर्भा विराट् जगती।] |
१२९. विश्वे देवा वसवो रक्षतेममुतादित्या जागृत यूयमस्मिन् ।
मेर्म सनाभिरुत वान्यनाभिर्मेमं प्रापत् पौरुषेयो वधो यः ।।१।।
में समस्त देवताओं ! हे बमुओं ! इस आयुष्य की अभिलाषा करने वाले मनुष्य की आप सब सुरक्षा करें । | हे आदित्यो ! आप सब भी इस सम्बन्ध में सावधान रहें । इसका विनाश करने के लिए इसके बन्धु अथवा दूसरे
शत्रु इस व्यक्ति के समीप न आ सके । इसको मारने में कोई भी सक्षम न हो सकें ॥ १ ॥
काण्डे –१ सूक्त – ३१ |
१३०. ये वो देवाः पितरों ये च पुत्राः सचेतसों में शृणुतेदमुक्तम् ।
सर्वेभ्यो वः परि ददायेतं स्वस्त्ये नं जरसे वहाथ ॥२ ।।
हैं देवताओ ! आपके जो पिता तथा पुत्र हैं, वे सब आयु की कामना करने वाले व्यक्ति के विषय में मेरी इस प्रार्थना को सावधान होकर सुनें । हम इस व्यक्ति को आपके लिए समर्पित करते हैं । आप इसकी संकटों में सुरक्षा
करते हुए इसे पूर्ण आयु तक हर्षपूर्वक पहुँचाएँ ॥२ ।।। |
१३१. ये देवा दिविष्ठ ये पृथिव्यां ये अन्तरिक्ष ओषधीषु पशुध्वस्वन्तः ।
| ते कृणुत जरसमायुरस्मै शतमन्यान् परि वृण मृत्यून् ॥३॥ |
समस्त देवों ! आप जगत् के कल्याण के निमित्त धुलोक में निवास करते हैं। हे अग्नि आदि देवो! | आप पृथ्वी पर निवास करते हैं । हें वायुदेव ! आप अन्तरिक्ष में निवास करते हैं। हैं ओषधयों तथा गौओं में विद्यमान देवताओ ! आप इस आयुष्यकामों व्यक्ति को लम्बी आयु प्रदान करें । आपकी सहायता से यह व्यक्ति मृत्यु के कारणरूप सैकड़ों ज्वरादि रोगों से सुरक्षित रहे ॥३॥
१३२. येषां प्रयाजा उत वानुयाजा हुतभागा अहुतादश्च देवाः।
येषां वः पञ्च प्रदिशो विभक्तास्तान् वो अस्मैं सत्रसदः कृणोमि ।।४।।
जिन अग्निदेव के लिए पाँच याग किए जाते हैं और जिन इन्द्र आदि देव के लिए तीन याग किए जाते हैं। और अग्नि में होमी हुई आहुतियाँ जिनका भाग हैं, अग्नि से बाहर डाली हुई आहुतियों का सेवन करने वाले बलिहरण आदि देव तथा पाँच दिशाएँ जिनके नियन्त्रण में रहती हैं। उन समस्त देवों को हम आयुष्यामी व्यक्ति की आयुर्वृद्धि के लिए उत्तरदायी बनाते हैं ॥४॥
[ ३१– पाशमोचन सूक्त] [ प – ब्रह्मा । देवता – आशापालाक वास्तोष्पतिगण । छन्द – अनुष्टुप्.३ विराट् त्रिष्टुप् , ४ परानुष्ट
त्रिष्टुप् ।)
| १३३, आशानामाशापालेभ्यश्चतुभ्य अमृतेभ्यः ।
इदं भूतस्याध्यक्षेभ्यो विधेम हविषा वयम् ॥१॥ |
समस्त प्राणियों के अधिपति तथा अमरता में सम्पन्न इन्द्र आदि चार दिक्पालों के निमित्त हम सब हुनि समर्पित करते हैं ।।१।। १३४, य आशानामाशापालाश्चत्वार स्थन देयाः ।
ते नो नित्याः पाशेभ्यो मुञ्चतांहसोअंहसः ।।२।। हे देवों ! आप चारों दिशाओं के चार दिशापालक हैं। आप हमें हर प्रकार के पापों से बचाएँ तथा पतनोन्मुख पाशों से मुक्त करे ।।।।
१३५. अन्नामस्त्या विषा यजाम्यश्लोणस्त्वा घृतेन जुहोमि।
य आशानामाशापालस्तुरीयो देवः स नः सुभूतमेह वक्षत् ॥३॥
(३ कुबेर ! हम इच्छित ऐश्वर्य की प्राप्ति के लिए अभ्रान्त होकर आपके लिए आहुति समर्पित करते हैं। हम श्लोण (लँगड़ापन नामक रोग से रहित होकर आपके लिए घृत द्वारा आरति समर्पित करते हैं। पूर्व वर्णित चतुर्थ । दिक्पाल में स्वर्ण आदि सम्पत्ति प्रदान करें और हमारी आहुतियों से प्रसन्न हों ।।३।।
३३
अथर्ववेद संहिता भाग–१
| १३६. स्वस्ति मात्र उत पित्रे नो अस्तु स्वस्ति गोभ्यो जगते पुरुषेभ्यः।
विश्वं सुभूतं सुविदत्रं नो अस्तु ज्योगेव दृशेम सूर्यम् ॥४॥
हमारी माता तथा हमारे पिता कुशल से रहें । हमारी गौएँ, हमारे स्वजन तथा सम्पूर्ण संसार कुशल से रहें । हम सब श्रेष्ठ ऐयं तथा श्रेष्ठ ज्ञान वाले हों और सैकड़ों वर्षों तक सूर्य को देखने वाले हों, (दीर्घजीवी) हों ।।४।।
[ ३२- महब्रह्म सूक्त] [ ऋषिं – ब्रह्मा । देवता – द्यावापृथिवौं । छन्द – अनुष्ट्वा , २ ककुम्मती अनुष्टुम् ।] |
१३७, इदं जनासो विदथ महद् ब्रह्म वदिष्यति ।
न तत् पृथिव्यां नो दिवि चेन प्राणन्ति वसवः ।।१।।
हे जिज्ञासुओं ! आप इस विषय में ज्ञान प्राप्त करें कि यह बह्य धरती पर अथवा द्युलोक में ही निवास नहीं कताजिससे औषधिय प्राण प्राप्त करती हैं ॥१॥
१३८. अन्तरिक्ष आसां स्थाम आन्तसदामिव ।
आस्थानमस्य भूतस्य विदुष्ट वेधसो न वा ।।२।।
इन ओषधियों का निवास स्थान अन्तरिक्ष में हैं। जिस प्रकार थके हुए मनुष्य विश्राम करते हैं, उसी प्रकार ये ओषधियाँ अन्तरिक्ष में निवास करती हैं। इस बने हुए स्थान को विधाता और मनु आदि जानते हैं अथवा नहीं ?
१३९. यद् रोदसी ज़माने भूमिश्च निंरतक्षतम् ।
आईं तदद्य सर्वदा समुद्रस्येव स्रोत्याः ।।
| हे द्यावा-पृथिवि ! आपने तथा धरती ने जो कुछ भी उत्पन्न किया है। वह सब उसी प्रकार हर समय नया रहता है, जिस प्रकार सरोवर से निकलने वाले जलस्रोत अक्षय रूप में निकलते रहते हैं ॥३॥
१४०. विश्चमन्यामधीवार तदन्यस्यार्माधिश्रितम् ।।
दिवे च विश्ववेदसे पृथिव्यै चाकरं नमः ।।४।।
| यह अन्तरिक्ष इस जगत् का आवरण रूप हैं। धरती के आश्रय में रहने वाला यह विश्व आकाश से वृष्टि के लिए प्रार्थना करता हैं । इस द्युलोक तथा समस्त ऐश्चर्यों से सम्पन्न पृथ्वी को हम नमन करते हैं ॥४॥
[३३- आपः सूक्त]
| ऋषि – शन्तानि । देवता – चन्द्रमा और आपः । छन्द – त्रिष्टुम् । ] |
१४१. हिरण्यवर्णाः शुचयः पावका यासु जातः सविता यास्वग्निः ।
यो अनि गर्भ दधिरे सुवर्णास्ता न आपः शं स्योना भवन्तु ॥१॥
| जो जल सोने के समान आलोकित होने वाले रंग से सम्पन्न, अत्यधिक मनोहर, शुद्धता प्रदान करने वाला हैं, जिससे सवितादेव और अग्निदेव उत्पन्न हुए हैं । जो श्रेष्ठ रंग वाला जल अग्निगर्भ है,वह जल हमारी व्याधियों को दूर करके हम सबको सुख और शान्ति प्रदान करे ॥१ ।।
१४२. यासां जा वरुणो याति मध्ये सत्यानृते अवपश्यञ्जनानाम्।
या अग्नि गई दधिरे सुवर्णास्ता न आपः शं स्योना भवन्तु ॥२ ।।
जिस जल में रहकर राज्ञा वरुण सत्य एवं असत्य का निरीक्षण करते चलते हैं । जो सुन्दर वर्ण बाला जल | ऑन को गर्भ में धारण करता हैं, वह हमारे लिए शान्तिप्रद हो ॥२ ।।
काण्ड –१ सूक्त – ३४
१४३. यासो देवा दिवि कृण्वन्ति भक्षं या अन्तरिक्षे बहुधा भवन्ति ।
यो अनि गर्भ घिरे सुवर्णास्ता न आपः शं स्योना भवन्तु ॥३॥
जिस जल के सारभूत तत्त्व का तथा सोमरस का इन्द्रदेव आदि देवता द्युलोक में सेवन करते हैं । जो अन्तरिक्ष में विविध प्रकार में निवास करते हैं । वह अग्निगर्भा जल हम सबको सुख और शान्ति प्रदान करे ॥३॥
१४४. शिवेन मा चक्षुषा पश्यतापः शिवया तन्वोप स्पृशत त्वचं में।
घृतश्रुतः शुचयो याः पावकास्ता न आपः शं स्योना भवन्तु ॥४॥
है जल के अधिष्ठाता देव ! आप अपने कल्याणकारी नेत्रों द्वारा हमें देखे तथा अपने हितकारी शरीर द्वारा हमारी त्वचा का स्पर्श करें । तेजस्विता प्रदान करने वाला शुद्ध तथा पवित्र जल हमें सुख तथा शान्ति प्रदान करे ॥४
[३४– मधुविद्या सूक्त
[ ऋच – अथर्वा । देवता – मधुवनस्पति । छन्द – अनुष्टुप् ।] |
१४५. इयं वीरुन्मधुजाता मधुना त्चा खनामसि ।
मधोरधि प्रजातासि सा नों मधुमतस्कृधि ।।१।।
सामने स्थित. चढ़ने वाली मधुक नामक लता मधुरता के साथ पैदा हुई है। हम इसे मधुरता के साथ खोदते हैं। है वरुत् ! आप स्वभाव से ही मधुरता सम्पन्न हैं । अतः आप हमें भी मधुरता प्रदान करें ।।१ ।। |
१४६. जिल्लाया अग्रे मधु में जिह्वामूले मथूलकम्।
ममेदह क्रतावसो मम चित्तमुपायसि ॥२ ।।।
| हमारी जिह्वा के अगले भाग में तथा जिल्ला के मूल भाग में मधुरता रहे। हे मधूलक लते ! आप हमारे शरीर, मन तथा कर्म में विद्यमान रहें ।।२ ॥ १४. मधुमन्मे निक्रमणं मधुमन्मे परायणम्।
वाचा वदामि मथुमद् भूयास मधुसदृशः ।।३।। हे मधुक ! आपको पहाण करके हमारा निकट का गमन मधुर हो और दूर का जाना मधुर हो। हमारी वाणी भी मधुरता युक्त हो, जिससे हम सबके प्रेमास्पद बन जाएँ ॥३ ।।।
१४८. मधोरस्मि मधुतरो मद्धान्मधुमत्तरः ।
मामित् किल त्वं वनाः शाखां मधुमतीमय ।।४।।
| है मधुक लते ! आपकी समीपता को ग्रहण करके हम शहद में अधिक मीठे हो जाएँ तथा मधुर पदार्थ से भी ज्यादा मधुर हों आएँ । आप हमारा ही सेवन करें । जिस प्रकार मधुर फलयुक्त शाखा में पक्षीगण प्रेम करते हैं, उसी प्रकार सब लोग हमसे प्रेम करें ॥४ ।।
१४९. परि त्वा परितलुनेक्षणागामविद्विषे ।
यथा मां कामिन्यसो यथा मन्नापगा असः ॥५॥
सब तरफ से घिरे हुए, मीठे ईख के सदृश, एक दूसरे के प्रिय तथा मिठास युक्त रहने के निमित्त ही है। पनि !हम तुमको प्राप्त हुए हैं। हमारी कामना करने वाली रहो तथा हमें परित्याग करके तुम न जा सको, इसीलिए हम तुम्हारे समीप आए हैं ॥ ५ ॥
अथर्ववेद संहिता भाग–१
[३५- दीर्घायुप्राप्ति सूक्त] | ऋषि – अथर्वा । देवता – हिरण्य, इन्द्राग्नी या विश्वेदेवा । छन्द – जगती, ४ अनुष्टुप्गर्भा चतुष्पदा त्रिष्टुम् ।।
१५०. अदाबध्नन् दाक्षायणा हिरण्यं शतानीकाय सुमनस्यमानाः।
तत् ते बध्नाम्यायुषे वर्चसे बलाय दीर्घायुत्वाय शतशारदाय ।।१।।
हैं आयु की कामना करने वाले मनुष्य ! श्रेष्ठ विचार वाले दक्षगोत्रीय महर्षियों ने ‘शतानीक राजा” को जो हुई प्रदायक सुवर्ण बौधा था। उसी सुवर्ण को हम, आपके आयु वृद्धि के लिए, तेज और सामर्थ्य की प्राप्ति के लिए तथा सौ वर्ष की दीर्घ आयु प्राप्त कराने के लिए आपको बाँधते हैं ॥१॥
१५१. नैनं रक्षांसि न पिशाचाः सहन्ते देवानामोजः प्रथमचं ह्येतत् ।
यो बिभर्ति दाक्षायणं हिरण्यं स जीवेषु कृणुते दीर्घमायुः ।।२ ।।
सुवर्ण धारण करने वाले मनुष्य को ज्वर आदि रोग कष्ट नहीं पहुँचाते । मांस का भक्षण करने वाले असुर | इसको पीड़ित नहीं कर सकते, क्योंकि यह हिरण्य इन्द्रादि देवों से पूर्व ही उत्पन्न हुआ है। जो व्यक्ति दाक्षायण सुवर्ण धारण करते हैं, वे सभी दीर्घ आयु प्राप्त करते हैं ॥२ ।।
१५२. अपां तेजो ज्योतिरोजो बलं च वनस्पतीनामुत वीर्याणि ।
इन्द्रइवेन्द्रियाण्याधि धारयामों अस्मिन् तद् दक्षमाणो बिभरद्धिरण्यम् ।।३।।
| हम इस मनुष्य में जल का ओजस्, तेजस्, शक्ति, सामर्थ्य तथा वनस्पतियों के समस्त वीर्य स्थापित करते हैं, जिस प्रकार इन्द्र से सम्बन्धित बल इन्द्र के अन्दर विद्यमान रहता है, उसी प्रकार हम उक्त गुणों को इस व्यक्ति में स्थापित करते हैं । अत: बलवृद्धि की कामना करने वाले मनुष्य स्वर्ण धारण करें ।।३।।
१५३. समानां मासामृतुभिष्वा वयं संवत्सरस्य पयसा पिपर्मि।
इन्द्राग्नी विश्वे देवास्तेऽनु मन्यन्तामणीयमानाः ॥४॥ |
हे समस्त धन की कामना करने वाले मनुष्य ! हम आपको समान मास वाली शुओं तथा संवत्सर पर्यन्त | रहने वाले गौ दुध से परिपूर्ण करते हैं। इन्द्र, अग्नि तथा अन्य समस्त देव आपकी गलतियों से क्रोधित न होकर
स्वर्ण धारण करने से प्राप्त फल की अनुमति प्रदान करें ॥४॥
॥ इति प्रथमं काण्डं समाप्तम् ॥
॥ अथ द्वितीयं काण्डम् ॥
[१- परमधाम सूक्त ] || ऋषि – वैन । देवता – ब्रह्मात्मा । छन्द – चिंटुप्, ३ जगती ।। इस सूक्त के अंग वेन ( स्वयं प्रकाशवान्–आत्मप्रकाश युक्त साधक) हैं। वे ही रूप ब्रह्म या परमात्म तत्व को जान पाते हैं। प्रथम मंत्र में उस ब्रह्म का स्वरूप तथा दूसरे में उसे जानने का महत्व समझाया गया हैं । तीसरे में जिज्ञासा चौधे में बोथ तथा पाँचवे में पता का वर्णन है
१५४. वेनस्तत् पश्यत् परमं गुहा यद् यत्र विश्वं भवत्येकरूपम्।
इदं पृश्निरदुहज्जायमानाः स्वर्विदो अभ्यनूषत वाः ।।१।।
गुहा (अनुभूति या अन्त:करण) में जो सत्य, ज्ञान आदि लक्षण वाला ब्रह्म है, जिसमें समस्त जगत् विलीन हो जाता हैं, इस श्रेष्ठ परमात्मा को बेन (प्रकाशबान्–ज्ञानवान् या सूर्य) ने देखा। उसी ब्रह्म का दोहन करके प्रकृति ने नाम-रूप वाले भौतिक जगत् को उत्पन्न किया । आत्मज्ञानौं मनुष्य उस परब्रह्म की स्तुति करते हैं ॥१ ।।
१५५. प्र तद् वोचेदमृतस्य विद्वान् गन्धर्वो धाम परमं गुहा यत् ।
त्रीणि पदानि निहिता गुहास्य यस्तानि वेद स पितुष्पितासत् ॥२॥
गन्धर्व (वाणी या किरणों से युक्त विद्वान् या सूर्य के बारे में उपदेश दें । इस ब्रह्म के तीन पद हृदय की गुफा | में विद्यमान हैं। जो मनुष्य उसे ज्ञात कर लेता है, वह पिता का भी पिता (सर्वज्ञ सबके उत्पत्तिकर्ता ब्रह्म का भी
ज्ञाता) हो जाता है ।।३।।
१५६. स नः पिता जनिता स उत बन्धुर्धामानि वेद भुवनानि विश्वा ।
यो देवानां नामध एक एव तं संप्रश्नं भुवना यन्त सर्वा ।।३।।
वह ब्रह्म हमारा पिता, जन्मदाता तथा भाई हैं, वहीं समस्त लोकों तथा स्थानों को जानने वाला है। वह अकेला ही समस्त देवताओं के नामों को धारण करने वाला है। समस्त लोक उसी ब्रह्म के विषय में प्रश्न पूछने के लिए (ज्ञाता के पास पहुँचते हैं ॥३॥
१५७. परि द्यावापृथिवीं सद्य आयमुपातिष्ठे प्रथमजामृतस्य ।
वाचमिव वक्तरि भुवनेष्ठा धास्युरेष नन्वे३घो अग्निः ॥४॥
(ब्रह्मज्ञानी का कथन) मैं शीघ्र ही द्यावा-पृथिवी को (तत्त्वं दृष्टि से) जान गया हैं.(अस्तु (परमसत्यो । की उपासना करता हैं। जिस प्रकार वक्ता के अन्दर वाणी विद्यमान रहती हैं, उसी प्रकार वह बह्म समस्त लोकों में विद्यमान रहता है और वहीं समस्त प्राणियों को धारण तथा पोषण करने वाला हैं । निश्चित रूप से अग्नि भी वहीं हैं ||६ ॥
१५८. परि विश्वा भुवनान्यायमृतस्य तन्तुं विततं दृशे कम्। ।
यत्र देवा अमृतमानशानाः समाने योनावध्यैरयन्त ॥५॥
जहाँ अमृत सेवन करने वाले, समान आधार बाले देवगण (या अमृत – आनन्दसेवी देवपुरुष) विचरण करते हैं, उस ऋत (परमसत्य) के ताने-बाने को मैंने अनेक बार देखा है ॥५ ।।
अथर्ववेद संहिता भाग–१
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[२- भुवनपति सूक्त] [ ऋषि – मातृनामा । देवता – गन्धर्व, अप्सरा समूह । छन्द – त्रिष्टुम्, १ विराट् जगतीं, ४ विराट् गायत्री, ५
| भरिंगनष्टषु ।। इस सूक के देवता गन्धर्व–अप्सरा हैं। गन् अर्थात् गांर्स – मां से भूमि, किरण, वागी निद्रय का बोध होता है तथा र्यः मारक, पोक्क को कहते हैं। अप्सरा अर्थान् अप् सरस् – अप् सृष्टि के प्रारम्भ में अपन्न मूल क्रियाशील त्व है, यह बात वेद में पती–पाँति व्यक्त की जा चुकी है। अप के आधार पर चलने वाली विभिन्न शक्तियाँ–प्राण की अनेक धाराएँ गन्धर्व पनि कही गई है। इस आधार पर इस सूक्त के मंत्र अर्नार–प्रकृति एवं काया में संचालित प्राण–प्रक्रिया पर घटित में सकते हैं।
१५९. दिव्यो गन्ध भुवनस्य यस्पतिरेक एवं नमस्यो विश्वीड्यः ।
तं त्वा यौमि ब्रह्मणा दिव्य देव नमस्ते अस्तु दिवि ते सधस्थम् ।।१।।
|जों दिव्य गन्धर्व, पृथ्वी आदि लोकों को धारण करने वाले एक मात्र स्वामी हैं, वे ही इस संसार में नमस्य हैं । हे परमात्मन् ! आपका निवास स्थान द्युलोक में हैं। हम आपको नमन करते है तथा उपासना द्वारा आपसे मिलते हैं ॥ १ ॥
१६०. दिवि स्पृष्टो यजतः सूर्यत्वगवयाता हरसो दैव्यस्य ।
| मृडाद् गन्धर्वो भुवनस्य यस्पतिरेक एवं नमस्यः सुशेवाः ।।२।।
समस्त लोकों के एक मात्र अधिपति गंधर्व (पृथ्वी को धारण करने वाले) द्युलोक में विद्यमान रहने वाले, दैवी आपदाओं के निवारक तथा सूर्य के त्वचा (रक्षक–आवरण) रूप हैं । वे सबके द्वारा नमस्कार करने तथा प्रार्थना करने योग्य हैं। सबके सुखदाता थे हमें भी सुख प्रदान करें |२ ॥
१६१. अनवद्याभिः समु जग्म आमिरसरास्वपि गन्धर्व आसीत् ।
। समुद्र आसां सदनं म आर्यतः सद्य आ च परा च यन्ति ।।३।।
प्रशंसनीय रूप वाली अप्सराओं (किरणों या प्राण धाराओं ) में गन्धर्वदेव संगत (युक्त) हो गए हैं। इन अप्सराओं का निवास स्थान अन्तरिक्ष है। हमें बतलाया गया है कि ये (अप्सरा वहीं में आती (प्रकट होती ) तथा वहीं चली जाती (विलीन हो जाती हैं ॥३॥
१६२. अभिये दिद्युन्नक्षत्रिये या विश्वावसु गन्धर्व सचध्ये।
| ताभ्यो वो देवीनेम इत् कृणोमि ।।४।।
हैं देवियों ! आप मैचों की विद्युत् अचवा नक्षत्रों के आलोक में संसार का पालन करने वाले गन्धर्वदेव से संयुक्त होती हैं, इसलिए हम आपको नमन करते हैं ॥४॥
[क्चुित् के प्रभाव से तथा नयों (सूर्यादि) के प्रभाव से किरणे या प्राणधारा–धारक तत्वों–प्राणियों के साथ संयुक्त होती है–यह तथ्य विज्ञान सम्मत है।
१६३. याः क्लन्दास्तमिषीचयोऽक्षकामा मनमुः।।
| ताभ्यो गन्यर्वपत्नीभ्योऽप्सराभ्योऽकरं नमः ।।५।।
प्रेरित करने वाली, ग्लानि को दूर करने वाली, आँखों की इच्छाओं को पूर्ण करने वाली तथा मन को अस्थिर करने वालीं, जो गन्धर्व – पत्नी रूप अप्सराएँ हैं, हम उन्हें प्रणाम करते हैं ॥५॥ | [ प्राणवी थाराएँ क्या प्रकाश किरों में यादि को तुष्ट करती है, मन को तगत काने वाली भी ये ॥ है। मंत्र का
आव समाओं के स्थूल एवं सूक्ष्म दोनों संदर्षों से सिद्ध होता है।
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[ ३– आस्रावभेषज सूक्त] | [ ऋषि – अङ्गिरा। देवता – भैषज्य, आयु, धन्वन्तरि । छन्द -अनुष्ट्. ६ त्रिपात् स्वराद् उपरिष्टात् महावृहत्तौ ।
१६४, अदों यदवथावत्यवत्कर्माथि पर्वतात् ।
तत्ते कृणोमि भेषजं सुभेषजं यथाससि ।।१
जो रक्षक-प्रवाह (सोम) मुज़वान् पर्वत के ऊपर से नीचे लाया जाता है, उसके अग्रभाग वनस्पति को हम | इस प्रकार बनाते हैं, जिससे वह आपके लिए श्रेष्ठ औषधि बन जाए ॥१ ॥
१६५. आदङ्गा कुविदङ्गा शतं या भेषजान ते ।
तेषामसि त्वमुत्तममनास्रावमरोगणम् ॥२
| हे दिव्य प्रवाह ! जो आपसे उत्पन्न होने वाली असीम ओषधियाँ हैं, वे अतिसार, बहुमूत्र तथा नाड़ौवण आदि | रोगों को विनष्ट करने में पूर्णरूप से सक्षम हैं ॥२॥
१६६. नीचेः खनन्त्यसुरा अरुस्राणमिदं महत् ।
तदास्रावस्य भेषजं तद् रोगमननशत् ।।
प्राणों का विनाश करने वाले तथा देह को गिराने वाले असुर रूप रोग, वण के मुख को अन्दर से फाड़ते हैं। | लेकिन वह मुँज्ञ नामक ओषधि घाव की अत्युत्तम औषधि हैं । वह अनेको व्याधियों को नष्ट कर देती हैं ।।३।।
१६७. उपजीका उद्धरन्ति समुदादधि भेषजम् ।
तदात्रावस्य भेषजं तद् रोगमशीशमत् ॥
धरती के नीचे विद्यमान जलराशि से व्याधि नष्ट करने वाली औषधि रूप बमई (दीमक की बबी) की मिट्टी
ऊपर आती हैं, यह मिट्टी आम्नाव की ओषधि है । यह अतिसार आदि व्याधियों को शमित (शान्त) करती हैं ॥ॐ ।।
१६८. अरुस्राणमिदं महत् पृथिव्या अध्युदभृतम् ।
तदास्रावस्य भेषजं तद रोगमननशत्
खेत से उठाई हुई ओषधि रूप मिट्टी फोड़े को पकाने वाली तथा अतिसार आदि रोगों को समूल नष्ट करने वाली (रामबाण) ओषधि है ।।५ ।। |
१६९. शं नो भवन्त्वप ओषधयः शिवाः ।
इन्द्रस्य वन्नो अप हन्तु रक्षस आराद् विसृष्टा इषवः पतन्तु रक्षसाम् ।।६।।
ओषधि के लिए प्रयोग किया हुआ जल हर्ष प्रदायक होकर हमारी व्याधियों को शमित करने वाला हो । | रोग को उत्पन्न करने वाले (असुरों ) को इन्द्रदेव का वज्र विनष्ट को । असुरों द्वारा मनुष्यों पर संधान किये गये
व्याधिरूप बाण हुम सबसे दूर जाकर गिरें ।।६ ।।।
[४ – दीर्घायुप्राप्ति सूक्त] [ ऋषि – अथर्वा । देवता – चन्द्रमा अथवा जङ्गिङ । छन्द –अनुष्टुप, १ विराट् प्रस्तारपंक्ति ।] | इस सून के देवता चन्द्र और अँगड़ (र्माण) हैं। इसी सूक्त (मंत्र क्र.५) में उसे अरण्य–वन से लाया हुआ कहा गया है। |तमा अवर्न १६.३४.१ में इसे वनस्पति कहा गया हैं । आचार्य सायण ने इसे वाराणसी क्षेत्र में पाया जाने वाला वृक्ष विशेष कहा
घर सोम यानि की वनस्पति प्रतीत होती हैं। जंगिड़ पण में इस ओयघि रस से तैयार मण(गुटिका–गोसी) का बोय होना है। इसी का विवरण यहाँ प्रस्तुत किया जा रहा है
१७०. दीर्घायुचाय बृहते रणायारिष्यन्तो दक्षमाणाः सदैव ।
मणि विष्कन्धदूषण जङ्गिडं बिभूमो वयम् ।।१ ।। |
दोधायु प्राप्त करने के लिए तथा आरोग्य का प्रचुर आनन्द अनुभव करने के लिए हम अपने शरीर पर जंगिड़ मणि धारण करते हैं। यह जंगिड़ मणि रोगशामक हैं तथा दुर्बलता को दूर करके सामर्थ्य को बढ़ाने वाली हैं ॥१ ।।
है स सर्व बारे में किसी भी पता नहीं है । चनामा में साव को देना होता हान हेर्ने हो।
अथर्ववेद संहिता भाग–१
१७१. जङ्गिडो जम्माद् विशराद् विष्कन्धादभिशोचनात् ।
मणिः सहस्रवीर्यः परि : पातु विश्वतः ।।२ ।।
| यह ज्ञाँगड़ मणि सहस्रों बलों से सम्पन्न होकर जमुहाई बढ़ाने वालों, दुर्बलता पैदा करने वाली, देह को सुखाने वालों तथा अकारण आँखों में आँसू आने वाले रोग से हमारी सुरक्षा करे ।।३ ॥
१७२. अयं विष्कन्धं सहतेयं बाधते अत्रिणः ।
अयं नो विश्वमेषजो जङ्गिङः पात्वंहसः ।
यह जंगिड़ मणि सुखाने वाले रोग से हमारी सुरक्षा करती है और भक्षण करने वाली कृत्या आदि का विनाश करती हैं । यह हमारे समस्त रोगों का निवारण करने वाले सम्पूर्ण ओषधिरूप हैं, यह पाप से हमारी सुरक्षा करे ॥३॥
१७३. देवैर्दत्तेन मणिना जङ्गिडेन मयोभुवा ।
विष्कन्धं सर्वा रक्षांसि व्यायामे सहामहे ।।४
देवताओं द्वारा प्रदान किये गये, सुखदायक जंगिड़ मणि के द्वारा, हम सुखाने वाले रोगों तथा समस्त रोग कीटाणुओं को संघर्ष में दबा सकते हैं ॥४ ।।।
१७४. शणश्च मा जङ्गिश्च विष्कन्धादभि रक्षताम् ।
अरण्यादन्य आभृतः कृप्या अन्यों रसेभ्यः ।।५।।
सन (बाँधने के लिए सन से बने धागे अथवा सन का विशिष्ट योग) तथा जंगिड़ मणि निष्कंध रोग से हमारी रक्षा करें । इनमें से एक की आपूर्ति वन से तथा दूसरे को कृषि द्वारा उत्पादित रसों से की गई है ।५ ।।
१७५. कृत्यादूषिरयं मणिरथो अरातिदूषिः ।।
अथो सहस्वाञ्जगिङः प्र ण आयूंषि तारिषत् ॥६ ।।
यह जंगिड़ मणि कृत्या आदि से सुरक्षा करने वाली है तथा शत्रुरूप व्याधियों को दूर करने वाली हैं। यह शक्तिशाली जंगिट्टमणि हमारे आयुष्य की वृद्धि को ।।६ ॥
[५- इन्द्रशौर्य सूक्त] [ ऋधि – भूगु आथर्वण । देवता – । छन्द– त्रिष्टुप्, १ निवृत् उपरिंष्टात् बृहती, २ विराट् उपरिंष्टात् बृहतीं,
३ विराट् पथ्या बृहती, ४ पुरोविराट् जगती ।]
१७६. इन्द्र जुषस्व में वहा याहि शूर हरिभ्याम्।।
पिबा सुतस्य मतेरह मधोकानारुर्मदाय ॥१॥ |
हे शूरवीर इन्द्रदेव ! आप आनन्दित होकर आगे बढ़ें। आप अपने अञ्चों के द्वारा इस यज्ञ में पधारें । परिंतुष्ट तथा आनन्दित होने के लिए विद्वान् पुरुषों द्वारा अभिषुत किए गए मधुर सोमरस का पान करें ॥१॥
१७७. इन्द्र जठरं नव्यो न पूणस्व मधोर्दिवो ने।
अस्य सुतस्य स्वर्णोप त्वा मदाः सुवाचो अगुः ।।२।।
हे शूरवीर इन्द्रदेव ! आप प्रशंसनीय तथा हर्षवर्धक मधुर सोमरस के द्वारा इदरपूर्ति करें । इसके बाद अभिषुत सोमरस तथा स्तुतियों के माध्यम से आपको स्वर्ग की तरह आनन्द प्राप्त हो ॥२॥
१७८. इन्द्रस्तुराषामित्रो वृत्रं यो जघान यतीन् ।
विभेद वलं भूगुर्न ससहे शत्रून् मदे सोमस्य ॥ ३ ॥
इन्द्रदेव समस्त प्राणियों के मित्र हैं तथा रिंषुओं पर त्वरित गति से आक्रमण करने वाले हैं। उन्होंने वृत्र या
काण्ड–२ सूक्त– ६
अवरोधक मेघ का संहार किया था। भृगु ऋषि के समान उन्होंने अंगिराओं के यज्ञों की साधनभूत गौओं का अपहरण करने वाले बलासुर का संहार किया था, सोमपान से हर्षित होकर रिपुओं को पराजित किया था ।।३ ॥
१७९. आ त्वा विशन्तु सुतास इन्द्र पृणस्व कुक्षी विट्टि शक्र घिचेह्या नः।
श्रुधी हवं गिरो में जुषस्वेन्द्र स्वयुग्मिर्मस्वेह महे रणाय ।।४।।
| हैं शक्तिशाली इन्द्रदेव ! आपको अभिपुत सोमरस प्राप्त हों और आप उससे अपनी दोनों कुक्षियों को पूर्ण करें । हे इन्द्रदेव ! आप हमारे आवाहन को सुनकर, विवेकपूर्वक हमारे समीप पधारे तथा हमारे स्तुति – वचनों को स्वीकार करें, और विराट् संग्राम के लिए अपने रक्षण साधनों के साथ हर्षपूर्वक तैयार रहें ॥४॥ |
१८०. इन्द्रस्य नु प्रा वोचे वीर्याणि यानि चकार प्रथमानि वल्ली।
अन्नहिमन्वपस्ततर्द प्र वक्षणा अभिनन् पर्वतानाम् ॥ ५ ॥
वज्रधारी इन्द्रदेव के पराक्रमपूर्ण कृत्यों का हम बखान करते हैं। उन्होंने वृत्र तथा मेघ का संहार किया था। | उसके बाद उन्होंने वृत्र के द्वारा अवरुद्ध किये हुए जल को प्रवाहित किया तथा पर्वतों को तोड़कर नदियों के लिए | रास्ता बनाया ।। ।।
१८१. अन्नहिं पर्वते शिश्रियाणं त्वष्टास्मै बन्नं स्वर्यं ततश्च ।।
| वा इव घेनवः स्यन्दमाना अः समुद्रमव जग्मुरापः ।।६।।
उन इन्द्रदेव ने वृत्र का संहार किया तथा मेघ को विदीर्ण किया। वृत्र के पिता त्वष्टा ने इन्द्रदेव के | निमित्त अपने वज्र को तेज किया। उसके बाद गौओं के सदृश अधोमुख होकर, वेग से बहने वाली नदियों समुद्र
तक पहुँचीं ।।६ ।।
१८२. वृषायमाणो अवृणीत सोमं त्रिकद्केष्वपिबत् सुत्तस्य।
| आ सायकं मघवादत्त वञ्चमहनेनं प्रथमज़ामहीनाम् ॥॥
वृष के सदृश व्यवहार करने वाले इन्द्रदेव ने सोमरूप अन्न को प्रजापति से मण किया तो मैन उच्च | स्थानों में अभियुत सोमरस का पान किया। उसके बल से बलिष्ठ होकर उन्होंने बाणरूप वज्र धारण किया तथा
हिंसा करने वाले रिपुओं में प्रथम उत्पन्न हुए इस वीर (वृत्र) को विनष्ट किया ॥७ ।।
[६- सपत्नहाग्नि सूक्त] | [ ऋषि – शौनक । देवता – अग्नि । छन्द – त्रिष्टुप, ४ चतुष्पदा पक्क्त, ५ विराट् प्रस्तारपक्ति ।)
१८३. समास्त्वाग्न ऋतवो वर्धयन्तु संवत्सरा ऋषयों यानि सत्या।
सं दिव्येन दीदिहि रोचनेन विश्चा आ भाहि प्रदिशश्चतस्रः ॥१॥
हे अग्निदेव ! आपको माह, ऋतु, वर्ष, श्रम तथा सत्य-आचरण समृद्ध करें। आप दैवी तेजस् से सम्पन्न होकर समस्त दिशाओं को आलोकित करें ॥१॥
१८४. से चेभ्यस्याग्ने प्र च वर्षयेममुच्य तिष्ठ महते सौभगाय।
मा ते रिघन्नुपसत्तारो अग्ने ब्रह्माणस्ते यशसः सन्तु मान्छे ।।२।।
है अग्निदेव ! आप भलीप्रकार प्रदीप्त होकर इस याजक की वृद्धि करें तथा इसे प्रचुर ऐश्वर्य प्रदान करने के लिए उत्साहित रहें । हे अग्निदेव ! आपके साधक कभी विनष्ट न हों । आपके समीप रहने वाले विप्र कीर्ति–सम्पन्न हों तथा दूसरे अन्य लोग (जो यज्ञादि नहीं करते, वे) कीर्तिवान् न हो ॥३॥
अर्मनंद मल्लिो भाग–१
१८५. त्यामग्ने वृणते ब्राह्मणा इमे शिवो अग्ने संवरणे भवा नः ।
सपत्नहाग्ने अभिमातिजिद् भव स्वे गये जागृह्मप्रयुच्छन् ॥३॥
| हे अग्निदेव ! ये ब्राह्मण याजक आपकी साधना करते हैं । हे अग्निदेव ! आप हमारी भूलों से भी क्रोधित न हों । हे अग्निदेव ! आप हमारे रिपुओं तथा पापों को पराजित करके अपने घर में सावधान होकर जामत् रहे ॥३॥
१८६. क्षेत्रणाग्ने स्वेन से रभस्व मित्रेणाग्ने मित्रधा यतस्व।
सजातानां मध्यमेष्ठा राज्ञामग्ने विहव्यो दीदिहीह ।।४।।
| है अग्निदेव ! आप क्षत्रिय बल से भली प्रकार संगत (युक्त) हों । ॐ अग्निदेय ! आप अपने मित्रों के साथ मित्रभाव से आचरण करें । हे अग्निदेव ! आप समान जन्म वाले विप्नों के बीच में आसीन होकर तथा राज्ञाओं के मध्य में विशेष रूप से आवाहनीय होकर, इस यज्ञ में आलोकित हो ॥४ ।।
१८७. अति निहो अति सूयोऽत्यचित्तीरति द्विषः ।
विश्वा माग्ने दुरिता तर चमथास्मयं सहवीरं रयि दाः ॥५॥
हे अग्निदेव ! आप हमारे विषय–विकारों को दूर करें, जो हमें सूअर, कुत्ते आदि की घिनौनी योनि में डालने वाले हैं। आप हमारे शरीर को सुखाने वाली व्याधियों तथा पाप में प्रेरित करने वाली दुर्बुद्धियों को दूर करें ।
आप हमारे रिपुओं का विनाश करें और हमें पराक्रमी सन्तानों से युक्त ऐश्वर्य प्रदान करें ॥५॥
[७– शापमोचन सूक्त ] ( अंध–अथर्वा । देवता –भैषज्य, आयु, वनस्पति । छन्द – अनुष्टुप् , १ भुरिगनुष्टुप, ४ विराटुपरिष्टाद् बृहती ।]
१८८. अघद्विष्टा देवज्ञाता चीरुच्छपथयोपनी।
आप मलमव प्राणैक्षीत् सर्वान् मच्छपयाँ अधि ॥१॥
| पिशाचों द्वारा किये हुए पाप को दूर करने वाली, ब्राह्मणों के शाप को विनष्ट करने वालों तथा देवताओं द्वारा उत्पन्न होने वाली वीरुधू (दूर्वा ओषधि हमारे समस्त शापों को उसी प्रकार धो डालती हैं, जिस प्रकार जल समस्त मलों को धो डालता है ॥१ ।।
१८९. यश्च सापत्नः शपथो जाम्याः शपथवा यः।
ब्रह्मा यन्मन्युतः शपात् सर्वं तन्नो अस्पदम् ॥२ ॥
रिपुओं के शाप, स्त्रियों के शाप तथा ब्राह्मण के द्वारा क्रोध में दिये गये शाप हमारे पैर के नीचे हों जाएँ। (अर्थात् नष्ट हो जाएँ) ॥२ ।।।
१९०.दिवों मूलमवततं पृथिव्या अध्युत्ततम् ।
तेन सहस्रकापडेन पर णः पाहि विश्वतः ।।
चुलोक से मूल भाग के रूप में आने वाली तथा धरती के ऊपर फैली हुई इस बार गाँठों वाली वनस्पति (दूबा से हे मणे ! आप हमारी सब प्रकार से सुरक्षा करें ।।३ ॥
१११. परि मां पर में प्रजों पर णः पाहि यद् धनम् ।
अराति मा तारीमा नस्तारिषुरभिमातयः ॥४॥ |
हे मणे ! आप हमारी, हमारे पुत्र–पौत्रों तथा हमारे ऐश्वर्य की सुरक्षा करें । अदानी रिपु हमसे आगे न बढ़े तथा | हिंसक मनुष्य हमारा विनाश करने में सक्षम न हों ।।४।।
का–२ सूक्त– १
|
१९३. शप्तारमेतु शपथो यः सुहार्तेन के सह ।
चक्षुर्मत्रस्य दुर्दः पृष्टीपं शृणीमसि ।
शाग देने वाले व्यक्ति के पास हीं शाप लौट जाए जो श्रेष्ठ अन्त:करण वाले मनुष्य हैं, उनके साथ हमारी मित्रता स्थापित हो ।हे मणे !अपनी आँखों में बुरे इशारे करने वाले मनुष्य की पसलियों को छिन्न-भिन्न कर डालें ।।
| [८- क्षेत्रियरोगनाशन सूक्त] [ ऋष– भूग्वङ्गरा। देवता – वनस्पति, यक्ष्मनाशन । छन्द-अनुष्टुप् , ३ पथ्यापक्ति, ४ विराट् अनुष्टुप्, ५
निवृत् पश्यापंक्ति ।] इस सूक्त में क्षेत्रिय (वंशानुगत) रोग निवारण के सूत्र कहे गये हैं। प्रथम मंत्र में उसके लिए उपयुक्त नम योग का तथा तीसों में वनौषधियों का लेख है। मंत्र ३, ४ एवं ५ सहयोगी तंत्र, उपचार पश्यादि के संकेत प्रतीत होते हैं। तयों तक पहुँको के लिए शोध कार्य अपेक्षित है
१९३. उदगातां भगवती विचूतौ नाम तारके।
वि क्षेत्रियस्य मुञ्चतामधमं पाशमुत्तमम् ॥
विवृत नामक प्रभावपूर्ण दोनो तारिकाएँ (अथवा उपयुक्त औषधि एवं तारिकाएँ) उगी हैं। वे वंशानुगत रोग के अधम एवं उत्तम पाश को खोल दें ॥ १ ॥ | [ कुछ आचार्यों में भगवती को तारों का विशेषण मामा है, कुछ उसका अर्थ दिस्य ओषधि के रूप में करते हैं। |
१९४. अपेयं राज्युच्छत्वपोच्छन्चभिकृत्वरीः।
वीरुत् क्षेत्रियनाशन्यप क्षेत्रियमुच्छतु ।।
| यह रात्रि चली जाए, हिंसक (रोगाणु भी चले जाएँ वंशानुगत रोग की ओषधि उस रोग से मुक्ति प्रदान करें
[ इस मंत्र से रोगमुक्ति का प्रयोग रात्रि के समान काल अर्थात् ब्राह्म मुहूर्त में करने का आभास मिलता है। |
१९५. बोरर्जुनकाण्डस्य यवस्य ते पलाल्या तिलस्य तिलपिया।
वीरुत् क्षेत्रियनाशन्यप क्षेत्रियमुच्छतु ।।३।। |
भूरे और सफेद रंग वाले अर्जुन की लकड़ीं, जौं की बाल तथा तिल सहित तिल की मञ्जरी व्याधि को विनष्ट करे । आनुवंशिक रोग को विनष्ट करने वाली यह वनस्पति इस रोग से विमुक्त करे ।।३।।
| [ अर्जुन की छाल, जौ, तिल आदि का प्रयोग ओषधि अनुपान या पश्यादि के रूप में करने का संकेत प्रतीत होता है। |
११६. नमस्ते लाङ्गलेभ्यो नम ईघायुगेश्यः
। वीरुत् क्षेत्रियनाशन्यप क्षेत्रियमुच्छतु ।।४।।
रोग के शमन के लिए (ओषधि उत्पादन में उपयोगी) वृषभ युक्त हल तथा उसके काष्ट युक्त अवयवों को नमन है । आनुवंशिक रोग को विनष्ट करने वालो ओषधि आपके क्षेत्रिय रोग को विनष्ट करे ॥४॥ |
१९७. नमः सनस्त्रसाक्षेभ्यो नमः संदेश्येभ्यो नमः क्षेत्रस्य पतये ।
वीरुत् क्षेत्रियनाशन्यप क्षेत्रियमुच्छतु ।।५।।
(ओषधि उत्पादन में सहयोगी) जल प्रवाहक अक्ष को नमन, संदेश पहुँचाने वाले को नमन (उत्पादक) क्षेत्र के स्वामी को नमन । क्षेत्रिय रोग निवारक औषधि इस रोग का निवारण करें ॥५॥
[९- दीर्घायुप्राप्ति सूक्त] [ ऋषि – भृग्वाँङ्गा । देवता – यक्ष्मनाशन, वनस्पति । छन्द – अनुष्टुप्, १ विराट् प्रस्तारपांक्ति । ] |
१९८. दशवृक्ष मुञ्चेमं रक्षसो ग्राह्या अघि यैनं जग्राह पर्वसु ।
अथों एनं वनस्पते जीवानां लोकमुन्नय ॥१॥
हे दशवृक्ष ! राक्षसी की तरह इसको (रोगी को) जकड़ने वाले गठिया रोग से आप मुक्त करें । हे वनौषधे !
गर्ववेद संहिता भाग–१
व्याधि के कारण ( निष्क्रिय) इस व्यक्ति को पुनः जनसमाज में जाने योग्य बनाएँ ॥१॥
१९९. आगाददगादयं जवानां ज्ञातमम्यगात् ।
अमृद पुत्राणां पिता नृणां च भगवत्तमः ।।
(हे वनस्पते ! आपकी कृपा से यह व्यक्ति जीवन पाकर ज्ञोंबित मनुष्यों के समूह में पुनः आ जाए और अपने पुत्रों का पिता हों जाए तथा मनुष्यों के बीच में अत्यधिक सौभाग्यवान् बन जाए ॥३॥ २०. अधीतरध्यगादयमधि जीवपुरा अगन् । शतं ह्यस्य भिषजः सहस्रमुत वीरुधः ॥३
व्याधि से मुक्त हुए व्यक्ति को विद्याओं का स्मरण हो जाए तथा मनुष्यों के निवास स्थान को फिर से ज्ञान जाए, क्योंकि इस रोग के सैकड़ों वैद्य हैं तथा हजारों ओषधियाँ हैं ।।३।।
३०१. देवास्ते चीतिमचिदन् अह्माण उत वीरुघः
। चीति ते विश्वे देवा अविदन् भूम्यामचि
हे ओषधे ! व्याधि की पीझ से रोगी को मुक्त करने तथा रोग का प्रतिरोध करने आदि आपके बल को समस्त देव जानते हैं। इस प्रकार पृथ्वी के ऊपर आपके गुण – धर्म को देव, ब्राह्मण तथा चिकित्सक जानते हैं ॥४॥
३०३. यश्चकार स निष्करत् स एव सुभिषक्तमः ।
स एव तुभ्यं भेषजानि कृणवद् भिषा शुचिः ॥५॥
जो वैद्य अनवरत चिकित्सा का कार्य करते हैं, वहीं कुशलता प्राप्त करते हैं और वहीं श्रेष्ठ वैद्य बनते हैं। वहीं चिकित्सक अन्य चिकित्सक से परामर्श करके आपके रोगों की चिकित्सा कर सकते हैं ॥५॥
[ १०= पाशमोचन सूक्त] [ ऋषि – भृग्वङ्गिरा। देवता – १-८ द्यावापृथिवीं, १ ब्रह्म, नित, २ आपोदेव, अग्नि (पूर्वपाद), सोम, ओषधि समूह (उत्तर पा), ३ पूर्वपाद का वात, उत्तर पाद को चारों दिशाएँ, ४-८ वात्तपत्नी, सूर्य, यक्ष्म, निति ।।
। छन्द-सप्तपदा धृति, १ मिट्ट, ३ सतपादष्टि, ६ सप्तपदा अत्यष्टि ।]
२२३, क्षेत्रियात् त्वा नित्या जामिशंसाद् हो मुञ्चामि वरुणस्य पाशात् ।
| अनागसं ब्रह्मणा त्वा कृणोमि शिवे ते द्यावापृथिवी उभे स्ताम् ।।१।।
। (हे रोगिन् !) हम तुम्हें पैतृक रोग से, कष्टों से, द्रोह से, सम्बन्धियों के क्रोध से तथा वरुणदेव के पाश से मुक्त करते हैं। हम तुम्हें ब्रह्मज्ञान से दोषरिहत करते हैं और यह झावा–पृथिवीं भी तुम्हारे लिए हितकारी हों ॥१ ।। २०४, शं ने अग्निः सहाद्भिरस्तु शं सोमः सहौषधीभिः ।।
एवाहं त्वां क्षेत्रियान्नित्या ज्ञाभिशंसाद् द्रुहो मुञ्चामि वरुणस्य पाशात् ।
अनागसं ब्रह्मणा वा कृणोमि शिवे ते द्यावापृथिवी उभे स्ताम् ।।२।। (हे रोगिन् ! समस्त जल के साथ अग्निदेव आपके लिए हितकारी हों तथा काम्पल (कबीला) आदि ओषधियों के साथ सोमरस भी आपके लिए हर्घकारी हो । हम आपको क्षेत्रिय रोग से पीड़ा से, द्रोह से, बन्धुओं के क्रोध से तथा वरुणदेव के पाश से मुक्त करके, ब्रह्मज्ञान के द्वारा दोषरहित करते हैं। यह द्यावा-पृथिवी भी
आपके लिए कल्याणकारी हों ।।२।।
२०५. शं ते वातो अन्तरिक्षे वयो बाच्छं ते भवन्तु प्रदिशश्चतः
। एवाहं त्वों क्षेत्रियान्नित्या जामशंसाद् द्रुहो मुल्चामि वरुणस्य पाशात् ।
अनागसं ब्रह्मणा वा कृणोमि शिवे ते द्यावापृथिवी उभे स्ताम् ॥३॥
काण्ड–२ मुक्त– १०
(हें रोगिन् !} अन्तरिक्ष में संचरण करने वाले वायुदेव आपके लिए सामर्थ्य एवं कल्याण प्रदान करें तथा चारों दिशाएँ आपके लिए हितकारों हों । हम आपको आनुवंशिक रोग, द्रोह, पीड़ा, बन्धुओं के क्रोध तथा वरुणदेव के पाश से मुक्त करके, ब्रह्मज्ञान के द्वारा दोषरहित करते हैं । यह द्यावा–पृथिवीं भी आपके लिए कल्याणकारी हो ।।
२०६. इपा या देवी: प्रदिशश्चतस्रो वातपत्नीरभि सूर्यो विचष्टे ।
एखाहें त्वां क्षेत्रियान्नित्या जामिशंसाद् इहो मुञ्चामि वरुणस्य पाशात् । अनामसं ब्रह्मणा त्वा कृणोमि शिवे ते द्यावापृथिवी उमे स्ताम् ।।४ ॥
प्रकाशमयी चारों उपदिशाएँ वायुदेव की पलियाँ हैं, उनको आदित्यदेव चारों तरफ से देखते हैं। वे आपका कल्याण करे । है रोगिन् ! हम भी आपको आनुवंशिक रोगों, द्रोह, बन्धुओं के क्रोध तथा वरुणदेव के पाश से मुक्त करके, ब्रह्मज्ञान के द्वारा दोषरहित करते हैं । यह ह्यावा–पृथिवीं भी आपके लिए कल्याणकारी हो ॥४ ||
२०७. तासु वान्तर्जरस्या दधामि प्र यक्ष्म एतु नितिः पराचैः ।
एवाई त्वा॑ क्षेत्रियान्नित्या जामिशंसाद् हो मुञ्चामि वरुणस्य पाशात् । ।
अनागसे ब्रह्मणा त्वा कृणोमि शिवे ते द्यावापृथिवीं उभे स्ताम् ।।५।।
(हे रोगिन् ! हम आपको व्याधिरहित करके वृद्धावस्था तक जीवित रहने के लिए उन (पूर्व आदि चारों) दिशाओं में स्थापित करते हैं। आपके समय में क्षय रोग तथा सम्पूर्ण कष्ट अधोमुखी होकर दूर चले जाएँ । हे रोगिन् ! हम आपको आनुवंशिक रोग, पीड़ा, द्रोह, बन्धुओं के क्रोध तथा वरुणदेव के पाश से मुक्त करके, ब्रह्मज्ञान के द्वारा दोषरहित करते हैं। यह द्यावा-पृथिवी भी आपके लिए कल्याणकारी हो ।।५ ।।।
१०८. अमुक्था यक्ष्माद् दुरितादवद्याद् द्रुहः पाशाद् ग्राह्योदमुक्थाः ।
एवाहं त्वां क्षेत्रियान्नित्या जामिशंसाद् इहो मुञ्चामि वरुणस्य पाशात् ।
अनागसं ब्रह्मणा त्वा कृणोमि शिवे ते द्यावापृथिवी उसे स्ताम् ॥६॥
(हें रोगिन् !) क्षय रोग, रोग के पाप, निन्दा योग्य कर्म, विद्रोह के बन्धन तथा जकड़ने वाले वात रोग से आप छुटकारा पा रहे हैं, अर्थात् निश्चित रूप से मुक्त हो रहे हैं। हम भी आपको पैतृक रोग की पीड़ा, द्रोह, बन्धुओं के क्रोध तथा वरुणदेव के पाश से मुक्त करके, ब्रह्मज्ञान के द्वारा दोषरहित करते हैं । यह द्यावा–पृथिवीं भी आपके लिए कल्याणकारी हो ॥६ ।।।
३०९. अहा अरातिमविदः स्योनमप्यभूर्भद्रे सुकृतस्य लोके ।।
एवाहं त्वां क्षेत्रियान्नित्या जामिशंसाद् द्रुहो मुञ्चामि वरुणस्य पाशात् ।
अनागसे ब्रह्मणा त्वा कृणोमि शिवे ते द्यावापृथिवीं उभे स्ताम् ॥७॥ हैं व्याधियस्त मानव ! आप रिपु समान बाधक रोग से मुक्त हों और अब आप हर्ष को प्राप्त करें। आप अपने पुण्य के परिणाम स्वरूप इस कल्याणमय लोक में पधारे हैं। हम भी आपको आनुवंशिक रोग की पौड़ा, द्रोह, बन्धुओं के आक्रोश तथा वरुणदेव के पाश से मुक्त करके ब्रह्मज्ञान के द्वारा दोषरहित करते हैं। यह धावा–पृथिवीं भी आपके लिए कल्याणकारी हो ॥ ||
२१०. सूर्यमृतं तमसो ग्राह्या अधि देवा मुञ्चन्त असृजन्निरेणसः
एवाहं त्वां क्षेत्रियान्नित्या जामिशंसाद् इहो मुञ्चामि वरुणस्य पाशात् ।। अनागतं ब्रह्मणा त्वा कृणोमि शिवे ते द्यावापृथिवी उभे स्ताम् ।।८।।
अर्यवेद संहिता भाग–१
जिस प्रकार देवताओं ने सत्य रूप सूर्य को राहु नामक ग्रह से मुक्त किया था, उसी प्रकार हम आपको पैतृक रोग की पीड़ा, द्रोह के पाप, बन्धुओं के आक्रोश तथा वरुणदेव के पाश से मुक्त करके, ब्रह्मज्ञान के द्वारा दोषरहित करते हैं। यह द्यावा–पृधिवौं भी आपके लिए कल्याणकारी हो ॥८॥
[ ११– श्रेय: प्राप्ति सूक्त) ( अच– शुक्र । देवता – कृत्यादूषण । छन्द – त्रिपदा परोष्णिक, १ चतुष्पदा विराट् गायत्री, ४ पिपीलिक
मध्या निवृत् गायत्री ।] इस सूक्त के देवता ‘कन्या दृषण‘ हैं। अनिष्टकारी कृत्या शक्ति के निवारणार्थ किसी समर्थ शक्ति की दना इसमें की गयी है। कौशिक सूत्र में इस मुक्त के साथ ‘तिलकमणि‘ को सिद्ध का बौने का विधान दिया गया है । सायण आदि आचार्यों ने इसी आधार पर इस सूक्त को ‘तिलकमणि के प्रति कहा गया मानकर इसके अञ्च किए हैं। ऐसे अर्थ ठीक होते हुए भी एकांगी कमा सकते हैं। चीन में प्रकट होने वाले विभिन्न कृत्यायों के निवारण के मायने में ईश्वर अंश के रूप में स्थित जीव — चेना के प्रति कहा गया ची माना जा सकता है। प्रस्तुत भावार्थ दोनों प्रबनों को समाहित करते हुए किया गया है। सुपी पाक इसी भाव से इसे पड़ने–समझने का प्रयास करें, ऐसी अपेक्षा है
२११. दूष्या दूषिरस हैत्या हेतिरंस मेन्या मेनिस ।
आप्नुहि श्रेयांसमति समं क्राम ॥
(हे तिलकामणे अथवा जौवसत्ता ! आप दोषों को भी दूषित (नष्ट करने में समर्थ हैं । अनिष्टकारी हथियारों के लिए, आप विनाशक हथियार हैं आप वज्र के भीं वज्र हैं, इसलिए आप श्रेयस्कर बने, दोषों (शत्रुओं) की समानता से आगे (अधिक समधी सिद्ध हों ।।१ ॥
२१२. स्त्रयोसि प्रतिसरोसि प्रत्यभिचरणोसि ।
आप्नुहि श्रेयांसमति समं क़ाम ।।
आप स्रक्य (तिलकवृक्ष से उत्पन्न या गतिशील) हैं, प्रतसर (आघात को उलट देने में समर्थ हैं, प्रत्याक्रमण काने में समर्थ हैं ।अस्तु, आप श्रेयस्कर बनें और दोषों (शत्रुओं) की समानता से आगे (अधिक समर्थ) सिद्ध हो।
२१३. अति तमभि चर योङस्मान् द्वेष्टि यं वयं द्विष्मः ।
आप्नुहि श्रेयांसमति समं क्राम् ।।३
जो (शत्रु ) हमसे द्वेष करते (हमारे विकास में बाधक बनते ) हैं तथा जिनसे हम द्वेष करते (उनका निवारण चाहते हैं, उनपर आप प्रत्याक्रमण करें । इस प्रकार आप श्रेयस्कर बने, दोषों (शत्रुओं) से अधिक समर्थ बनें ॥३ ।।
३१४. सुरिंसि यचौथा असि तनुपानोसि ।
आनहि श्रेयांसमति सर्म क्लाम् ॥४॥
आप (आवश्यकता के अनुरूप) ज्ञान–सम्पन्न हैं, तेजस्विता को धारण करने में समर्थ हैं तथा शरीर के रक्षक हैं, अस्तु, आप श्रेयस्कर सिद्ध हों, दोषों (शत्रुओं) की समानता से आगे बढ़े ।।४।।
२१५. शुकोसि जोसि स्वरसि ज्योतिरसि ।
आप्नुहि श्रेयांसमति समं क्राम ॥५॥
आप शुक्र (उज्ज्वल अधबा वीर्यवान्) हैं, तेजस्वी हैं, आत्मसत्ता सम्पन्न हैं तथा ज्योति रूप (स्व प्रकाशित) हैं। आप श्रेयस्कर बने तथा समान स्तर वालों से आगे बढ़ें ||५ ।।
[१२– शत्रुनाशन सूक्त ] [वि – भरद्वाज । देवता – १ द्यावापृथिवी, अन्र्ताक्ष, २ देवगण, ३ इन्द्र,४ आदित्यगण, बसुगण, पितर अङ्गिरस, ५ पितर सौम्य, ६ मरुद्गण, ब्रह्मद्वि, ७ यमसदन (यमस्थान), ब्रह्म, ८ अग्नि । द – त्रिष्टुप्, ३
जगती, ७-८ अनुष्टुप् ।]
२१६. द्यावापृथिवी उर्वन्तरिक्ष क्षेत्रस्य पत्न्युरुगायोऽसुतः ।
तान्तरिक्षमुरु वातगोपं त इह तप्यन्तां मयि तप्यमाने ।।१।।
का–३ मुक्त–१३
द्यावा-पृथिवी, विस्तृत अन्तरिक्ष, समस्त क्षेत्र की पत्नी (प्रकृति), अद्भुत सूर्यदेव, वायु को स्थान देने वाला | विशाल अन्तरिक्ष आदि, हमारे तप्त (संतप्त होने पर ये सब भी संतप्त (अनिष्ट निवारण के लिए उच्चत) हों ॥१ ।।
२१७. इदं देवाः शृणुत ये यज्ञिया स्थ भरद्वाजो मह्यमुक्थानि शंसति ।
पाशे स बद्धो दुरिते नि युज्यतां यो अस्माकं मन इदं हिनस्ति ॥३॥
है यज्ञनीय देवों ! आप हमारा निवेदन सुनें कि ऋषि भरद्वाज हमें उक्थ (मंत्रादि ) प्रदान कर रहे हैं : मृग में निमग्न हमारे मन को जो रिपु दुःखी करते हैं, उन पापों को पाश में बाँधकर उचित स्थान पर नियोजित करें ॥२ ॥ |
२१८. इदमिन्द्र शृणुहि सोमप यत् त्वा हुदा शोचता जोहवीमि ।
वृश्चामि तं कुलिशेनेव वृक्ष यो अस्माकं मन इर्द हिनस्ति ।।३।।
हे इन्द्रदेव ! आप सोमरस पान द्वारा आनन्दित मन से हमारे कथन को सुनें । गुओं द्वारा किये गये दुष्कर्मों । के कारण हम आपको बारम्बार पुकारते हैं। जो शत्रु हमारे मन को पीड़ा पहुंचाते हैं, हम उनको फरसे के द्वारा वृक्ष
की तरह काटते हैं ॥३॥
२१९. अशीतिभिस्तभिः सामगेभिरादित्येभिर्वसुभिरङ्गिोभिः ।
इष्टापूर्तमवतु नः पितृणामामु ददे हरसा दैव्येन ॥४॥
तीन (विद्याओं या छन्दों) एवं अस्सीं मंत्रों सहित सामगान करने वालों के साथ, वस् , अंगिरा (रुद्र) एवं आदित्यों (दिव्य पितरों ) सहित हमारे पितरों द्वारा किये गए इष्ट (यज्ञ –उपासनादि) तथा पूर्त (सेवा–सहयोगपरको कर्म (उनके पुण्य) हमारी रक्षा करें । हमदब्य सामर्थ्य एवं आक्रोशपूर्वक अमुक (दोष या शत्रुओं को अपने अधिकार में लेते हैं ।।४ ।।. | [ क्नु, रुद्र तथा आदित्यों की गणना दिव्य पितरों में की जाती हैं, तर्पण में पितरों को क्रमशः बसु कुछ और आदित्य स्वरूप कर लदान किया जाता है। इससे पितरों की सौकिय सम्पदा के अतिरिक्त उनके द्वारा अर्जित पुण्य–सम्पदा का ‘विशेष लाभ हमें प्राप्त होता है।
३२०, द्यावापृथिवी अनु मा दीधीधां विश्वे देवासो अनुमा रमध्वम् ।
अङ्गिरसः पितरः सोम्यासः पापमार्छत्वपकामस्य कर्ता ।।५।। हे द्यावा–पृथिवि ! हमारे अनुकूल होकर आप तेजस्–सम्पन्न बनें । समस्त देवताओ ! हमारे अनुकूल होकर, आप कार्यारंभ करें । हे अङ्गिराओ तथा सोमवान् पितरों ! हमारा हित चाहने वाले पाप के भागीदार हों ॥५ ॥
२२१. अतीव यो मरुतो मन्यते नो ब्रह्म वा यो निन्दियत् क्रियमाणम् ।
। तचूंषि तस्मै वृजिनानि सन्तु ब्रह्मद्विषं चौरभिसंतपाति ॥६ ।।
हे मरुद्गणों ! जो अतिवादी ब्रह्म–ज्ञान की तथा तदनुरूप किये जाने वाले (कार्यो) की निन्दा करते हैं, उनके सब प्रयास उन्हें संताप देने वाले हों । द्युलोक उन ब्रह्मद्वेषियों को पौड़ित करे ॥६॥
२२२. सप्त प्राणानौ मन्यस्तांस्ते वृश्चामि ब्रह्मणा।
अया यमस्य सादनमग्निदूतो अकृतः ।।७।।
हे रोग या शत्रु ! तुम्हारे सात प्राणों तथा आठ मुख्य नाङ्गियों आदि को हम बह्य शक्ति से बीधते हैं। तुम अग्नि को दूत बनाकर यमराज के घर में सुशोभित हो जाओ ।।७ ।।
२२३. आ दधामि ते पदं समिद्धे जातवेदसि ।
अग्निः शरीरं वेवेष्टवसुं वागपि गच्छतु ।।८
अधर्ववेद संगिता भाग–१
| हम तुम्हारे पदों को प्रज्वलित अग्नि में डालते हैं। बहू अग्नि आपके शॉन में प्रवेश कर जाए तथा आपको वाणी और प्राण में संव्याप्त हो जाए ॥८ ।।
[ १३– दीर्घायुप्राप्ति सूक्त ] [ ऋषि – अथर्वा । देवता – १ अग्नि, २-३ बृहस्पति, ४-५ आयु, विश्वदेवा । छन्द – विटुप्, ‘४ अनुष्टुपु. –
विराट् जगती ।] इस सूक्त को प्रथम क्त्र परिधान मुक्त के रूप में प्रयुक्त किया जाना है। इस प्रक्रिया को ३–४ वर्ष की अवस्था में करने का विधान है, किन्तु सुरू हो इसी उपचारपरक अर्थ तक सीमित नहीं किया जाना चाहिए। मंत्रों में ‘यास शब्द का प्रयोग हुआ है, जिसका अर्थ वस्त्र के साथ आवास भी हो सकता है। फिर सुक के इचला अग्नि हैं, इनमें झिा एवं वास प्रदान करने की प्रार्थना की गयी हैं। ऎर्य एवं पोषण के ताने–बाने में से पार करने की बात कही गया है। अम्म, म्यान वस्त्रों की अपेक्षा सूत वीर की जीवन रूपी चादर के साथ अधिक युक्तिसंगत बंटता है । अध्ययन के समय इस तथ्य का ध्यान में ना चाहिए
३२४, आयुर्दा अग्ने ज्ञरसं वृणानो घृतप्रतीको घृतपृष्ठो अग्ने ।
घृतं पीत्वा मधु चारु गव्यं पितेव पुत्रानभि रक्षतादिमम् ।।१।।
हे तेजस्वी अग्नदेव ! आप जीवन प्रदान करने वाले तथा न ग्रहण करने वाले हैं। आप घृन के समान ओजस्व तथा घृत का सेवन करने वाले है । आप मधुर गच्य (गी या प्रकृति जन्य पदार्थों का सेवन करके इम्। (बालक या प्राण) , सब प्रकार से उसी प्रकार रक्षा करे, जैसे पिता, पुत्र की रक्षा करता है ।। १ ।।
२२५. परि धत्त धत्त नो वर्चसेमं जरामृत्युं कृणुत दीर्घमायुः ।
बृहस्पतिः प्रायद् वास एतत् सोमाय राज्ञे परिधातवा ३ ।।२।।
हे देवों ! आप इस (बालक या जीव) को बास (वस्त्र या कावा रूप आच्छादन) प्रदान करें नया नेम्वना धारण कराएँ। आप दीर्घ आयु प्रदान करें, वृद्धावस्था के उपरान्त मरने वाला बनाएँ । गृहम्पनिदेय ने यह आचादन
ज्ञा सोम को कृपापूर्वक प्रदान किया ॥३॥
२२६. परीदं वासो अधिथाः स्वस्तयेभूर्गष्टीनामभिशस्तपा ३।
शतं चे जीव शरदः पुरूची रायश्च पोषमुपसंव्ययस्व ।।३।।
| हे बालक या जींच !) इस वस्त्र को तुम अपने कल्याण के लिए धारण करो। तुम गौओं (इन्द्रियों ) को विनाश से बचाने के लिए ही हो। तुम सौ वर्ष की दीर्घ आयु प्राप्त करें और ऐश्वर्य तथा पोषण का ताना–बाना बुनते रहो ॥ ३ ॥
[ सक्कि को स्क्यं अपने लिए वस्त्र बनने का परामर्श दिया गया है। स्थूल दैवी शक्तियाँ ताने–बाने के सूत्र प्रदान करती है का.मुक्यिो साक्क को स्वयं करना होता है ।।
३३७. एकाश्मानमा तिष्ठाश्मा भवतु ते तनः ।
कृण्वन्तु विश्वे देवा आयुष्ठे शरदः शतम् ।।४।।
हे बालक या साधक !) आओ इस पत्थर (साधनापरक दृढ़ आधार ) पर स्थित हो जाओं; ताकि तुम्हारी काया पत्थर के समान दृढ़ बने । देव शक्तियाँ तुम्हारी आयु को सौ वर्ष की करें ॥१४ ।।
| इछ अनुशासनों मा स्थिर लेकर ही मनुष्य दीर्घायु प्राप्त कर सकता है।
२२८. यस्य ते वासः प्रथमवायं रामस्तं त्वा विशेवन्तु देवाः ।
तं त्वा तरः सुद्धा वर्धमानमनु जायतां बहवः सुजातम् ॥५॥
कापड–३ सूक्त–१४
(हे बालक या जीव !) तुम्हारे जिस अस्तित्व के लिए यह प्रथम आच्झदन प्रदान किया गया है, उसकी रक्षा सभी देवता करें । इसी प्रकार श्रेष्ठ जन्म वाले, सुवर्धित तथा विकासमान और भी भाई तुम्हारे पीछे हों ।।५।।
[ स्थुल अर्थों में प्रथम वस्य(तीस–चौथे वर्ष में प्रदान करने के बाद ही अन्य भाइयों के लिए आशीर्वम दिया जाता है। इस आधार पर संतानों के बीच ३–४ वर्ष अंतर सहा में होना चाहिए। सम अने में कामा की गयी है कि जीवन का |वस्वी ताना–बाना बुनाने वालों के और भी अनुगामी हमें यह प्रक्रिया सतत चलती रहे।।
[१४– दस्युनाशन सूत्र] [ ऋषि – चातन । देवता – शालाग्नि । छन्द– अनुष्टुप, २ भुरिक् अनुष्टुप, ४ उपरिष्टाद् विराट् बृहती ।]
इस सून के देवता झालाग्नि हैं। शाला में स्थापित अनि को लागिन‘ कहा जाता है। उनके माम्यम से गर्यो (रायसी नियों के निवारण–विमर्श के भाव व्यक्त किये गये हैं। कई आकारों ने के लिए प्रयुक्त किगों को आ नाप विशेष वासी राक्षसी कहा है। उस नाम विशेष के साथ उस गुण विशेष वाली राक्षसी प्रवृत्तियों) का खर्च अधिक युक्तिसंगत जीत होता है
२२९. निः सालों बृथ्णु धिषणमेकवाद्यां जिघत्स्वम् ।
सर्वाअण्डस्य नप्त्यो नाशयामः सदावाः ॥१॥
नि:साला (निष्कासित करने वाली), धृष्णु (भयानक), धिषण (अभिभूत करने वाली) , एकवाद्या (भयानक, हठपूर्ण एक ही स्वर में बोलने वाली) संबोधन वाली, सूखा जाने वाली तथा सदा चीखने वाली, चण्ड (क्रोथ या कठोरता की संतानों को हम नष्ट कर दें ॥ १ ॥
[ क्रोध या कठोरता से ही विभिन्न प्रकार की दुष्ट प्रवृत्तियों पनपती हैं, अत उन्हें चपड की संतानें कहा जाना उचित है।
२३०. निंर्वो गोष्ठादजामसि निरक्षान्निरुपानसात् ।
निर्वो मगुन्ह्या दुहितरों गृहेभ्यश्चातयामहे ॥२॥
हे मगुन्दी (पाप उत्पन्न करने वाली ) राक्षसी को पुत्रियों ! हम तुम्हें अपने गौओं की गोशालाओं से निकालते हैं । हम तुम्हें अन्नादि से पूर्ण भवनों, गाड़ियों से बाहर निकालकर नष्ट करते हैं ॥२ ।।।
२३१. असौ यो अधराद् गृहस्तत्र सन्त्यराय्यः
। तत्र सेदियुच्यतु सर्वाश्च यातुधान्यः ।।३।।
(निकाल जाने के बाद अरायि (दरिद्रता या विपत्ति जन्य) तथा सेदि (क्लेश–महामारी उत्पादक) संबोधन याली (आसुरी शक्तियों) जो नीचे वाले गृह (अधोलोक या भू–गर्भ) हैं, वहीं जाएँ, वहीं रहें ॥३॥
२३२. भूतपतिर्निजविन्द्रचेतः सदान्त्राः ।
गृहस्य बुध्न आसनास्ता इन्द्रो वज्रेणाधि तिष्ठतु ।।४।।
प्राणियों के पालक तथा सोमपायी इन्द्रदेव, हमेशा क्रोध करने वाली इन पिशाचियों हमारे घर से बाहर करें तथा अपने वज्र से इन्हें दबाएँ (नष्ट करें) ||४ ।।
२३३. यदि स्थ क्षेत्रियाणां यदि वा पुरुषेषिताः।
यदि स्थ दस्युभ्यो जाता नश्यतेतः सदाचाः ॥५॥
हे राक्षसियों ! तुम कुष्ठ संग्रहणी आदि आनुवंशिक रोगों को मूल कारण हो । तुम रिपुओं द्वारा प्रेरित हो। और क्षति पहुँचाने वाले चोरों के समीप पैदा हुई हों । ३ तु, तुम हमारे घर से बाहर होकर विनष्ट हो जाओं ॥५॥ २३३४, परि घामान्यासामाशुर्गाळामिवासरन् । अजैषं सर्वानाजी वो नश्यतेतः सदान्वाः
अर्मवेद संहिता भाग–१
जिस प्रकार द्रुतगामी घोड़े अपने लक्ष्य पर आक्रमण करके खड़े हो (पहुँच जाते हैं, उसी प्रकार इन राक्षसियों | के घरों पर हम आक्रमण कर चुके हैं। हे पिशाचियो ! तुम सब युद्ध में परास्त हो गई और हमने तुम्हारे निवास
स्थान पर नियन्त्रण कर लिया है। अतः तुम सब निराश्रित होकर विनष्ट हो जाओ ।।६ ॥
[१५- अभयप्राप्ति सूक्त ] [ ऋषि – ब्रह्मा । देवता –प्राण, अपान, आयु । छन्द –त्रिपाद् गायत्रीं ।)
२३५. यथा छौश्च पृथिवी च न बिभीतो न रिष्यतः
। एवा में प्राण मा बिभेः ।।१।।
जिस प्रकार द्युलोक एवं पृथ्वी लोक न भयभीत होते हैं और न नष्ट होते हैं, उसी प्रकार है हमारे प्राण ! तुम भी (नष्ट होने का भय मत करो ॥१ ।।
२३६. यथाश्च रात्री च न बिभीतो न रिष्यतः ।
एषा में प्राण मा बिभेः ॥२॥
रात्रि और दिन न डरते हैं, न ही विनष्ट होते हैं । हे मेरे प्राण ! तुम भी (नष्ट होने का भय मत करो ॥२ ।।
२३७. यथा सूर्यश्च चन्द्रश्च न बिभतो न रिष्यतः ।
एवा में प्राण मा बिमेः ॥३॥
जैसे सूर्य और चन्द्रमा न इरते हैं, न ही विनष्ट होते हैं, उसी प्रकार में प्राण ! तुम भी विनाश से मत इरों ॥३॥
२३८. यथा ब्रह्म च क्षत्रं च न बिभीतो न रिष्यतः ।
एवा में प्राण मा बिशेः ।।४।।
जिस प्रकार ब्राह्मण और क्षत्रिय न इरते हैं, न ही विनष्ट होते हैं, उसी प्रकार हैं हमारे प्राण ! तुम भी विनाश का भय मत करो ॥
२३६. यथा सत्यं चानृतं च न बिभीतो न रिष्यतः ।
एवा में प्राण मा बिभेः ।।५।।
| जिस प्रकार सत्य और असत्य न किसी से भयभीत होते हैं, न ही विनष्ट होते हैं, उसी प्रकार है हमारे प्राण ! तुम भी मृत्यु भय से मुक्त होकर रहो ।।५५ ॥
२४०. यथा भूतं च भव्यं च न बिभीतों न रिष्यतः ।
एवा में प्राण मा बिभेः ।।६ ॥
जिस प्रकार भूत और भविष्य न किसी से भयभीत होते हैं, न ही विनष्ट होते हैं, उसी प्रकार है हमारे प्राण ! तुम भी मृत्यु भय से मुक्त होकर रही ।।६।।
[ १६- सुरक्षा सूक्त] [ ऋषि – ब्रह्मा । देवता – आण, अपान, आयु । छन्द -१,३ एकपदासुरीं त्रिष्टुए, २ एकपदासुरी उष्णिकु, ४-५
द्विपदासुरी गायत्रीं ।]
२४१. प्राणापानौ मृत्योर्मा पातं स्वाहा ।।१।।
| हे प्राण और अपान ! आप दोनों मृत्यु से हमारी सुरक्षा करें और हमारी आहुति स्वीकार करें ।।१ ।।।
२४२. द्यावापृथिवी उपश्रुत्या मा पातं स्वाहा ।।२।।
| हे द्यावा-पृथिवि ! आप दोनों सुनने की शक्ति प्रदान करके हमारी सुरक्षा करें तथा आहुति ग्रहण करें ।।।।
२४३. सूर्य चक्षुषा मा पाहि स्वाहा ।।३।।
हे सूर्यदेव ! आप हमें देखने की शक्ति प्रदान करके हमारी सुरक्षा करें और हमारी आहुति ग्रहण करें ॥३ ।।
२४४.अग्ने वैश्वानर विश्चैर्मा देवैः पाहि स्वाहा ।।४।।
हे वैश्वानर अग्निदेव ! आप समस्त देवताओं के साथ हमारी सरक्षा करें और हमारी आहत महण करें ॥४ ||
का– मूक्त– १८
३४५. विश्वम्भर विश्वेन मा भरसा पाहि स्वाहा ।।५।।
हैं समस्त प्राणियों का पोषण करने वाले विश्वम्भरदेव ! आप अपनी समस्त पोषण–शक्ति से हमारी सुरक्षा करें तथा हमारी आहुति ग्रहण करें ॥५॥
| [ १७ बलप्राति सूक्त] [ ऋषि – ब्रह्मा । देवता – प्राण, अपान, आयु । छन्द – एकपदासुरीं त्रिष्टुप, ७ आसुरी उष्णिक् ।) |
२४६. ओजोस्योञो में दाः स्वाहा ।।१।।
| है अग्निदेव ! आप ओजस्वी हैं । अतः हमें ओज प्रदान की हम आपको आहुति प्रदान करते हैं ॥१ ।। |
२४७. सहोसि सहो में दाः स्वाहा ।।२।।
| हे अग्निदेव ! आप शौर्यवान् हैं. इसलिए हमें शौर्य प्रदान करें. हम आपको हवि प्रदान करते हैं ।।३।।
२४८. बलमसि बलं में दाः स्वाहा ।।३।।
है अग्निदेव ! आप बल में सम्पन्न हैं, अत: हमें बल प्रदान करें, हम आपको हवि प्रदान करते हैं ॥३ ।। |
२४९. आयुरस्यायुमें दाः स्वाहा ।।४।।
हे अग्ने !आप जीवनशक्ति–सम्पन्न हैं ।अत:हमें वह शक्ति प्रदान करें, हम आपको हवि प्रदान करते हैं ॥४ ।।
२५०. श्रोत्रमसि श्रोत्रं में दाः स्वाहा ।।५।।
हे अग्ने !आप श्रवणशक्तिसम्पन्न हैं ।अत: हमें वह शक्ति प्रदान करें, हम आपको हवि प्रदान करते हैं ॥५॥
२५१. चक्षुसि चक्षुर्मे दाः स्वाहा ॥६ ।।
हे अग्ने !आप दर्शनशक्ति–सम्पत्र हैं ।अतः हमें वह शक्ति प्रदान करें, हम आपको हवि प्रदान करते हैं ॥६ ।। |
२५२. परिषाणमसि परिपाणं में दाः स्वाहा ॥७॥
हे अग्निदेव ! आप परिपालन की शक्ति से सम्पन्न हैं । अतः आप हमें पालन करने की शक्ति प्रदान करें, हम आपको हनि प्रदान करते हैं ॥७ ||
[१८– शत्रुनाशन सूक्त ] || • चातन । देवता – अग्नि। छन्द – द्विपदा साम्नी बृहतीं ।]
२५३. प्रत्यक्षयणमसि भातृव्यचातनं में दाः स्वाहा ।।१।।
में अग्निदेव ! आप रिंषु विनाशक शक्ति से सम्पन्न हैं। अतः आप हमें रिपु नाशक शक्ति प्रदान करें, हम आपको आहुति प्रदान करते हैं ॥१ ।।
२५४. सपत्नक्षयणमसि सपलचातनं में दाः स्वाहा ।।२।।
हे अग्निदेव ! आप प्रत्यक्ष प्रतिद्वंद्वियों को विनष्ट करने वाली शक्ति से सम्पन्न हैं। अत: आप हमें वह शक्ति प्रदान करें, हम आपको हवि प्रदान करते हैं ॥ २ ॥
२५५. अरायक्षयणमस्यरायचातनं में दाः स्वाहा ।।३।।
| हे अग्निदेव ! आप निर्धनता को विनष्ट करने वाले हैं। आप हमें दरिद्रता विनाशक शक्ति प्रदान करें; हम | आपको हवि प्रदान करते हैं ॥३॥
अधर्ववेद नहिता भाग–१
२५६. पिशाचक्षयणमसि पिशाचचातनं में दाः स्वाहा ।।४।।
हे अग्निदेव ! आप पिशाचों को विनष्ट करने वाले हैं। अत: आप हमें पिशाचनाशक शक्ति प्रदान करें, हम आपको हवि प्रदान करते हैं ।।४ ।।
२५७. सदान्वाक्षयणमसि सदाचाचातनं में दाः स्वाहा ।।५।।
हे अग्निदेव ! आप आसुरी वृत्तियों को दूर करने की शक्ति से सम्पन्न हैं । अतः आप हमें वह शक्ति प्रदान करें; हम आपको हवि प्रदान करते हैं ।५ ।।।
[१९– शत्रुनाशन सूक्त ] | ( अष– अथर्वा । देवता – अग्नि । छन्द –एकावसाना निवृत् विषमा त्रिपदा गायत्री, ५ एकावसाना भुरिक
विषमा विपदा गायत्री ।]
२५८. अग्ने यत् ते तपस्तेन तं प्रति नप यो३स्मान् द्वेष्टि यं वयं द्विष्मः ।।१।।
ॐ अग्निदेव ! आपके अन्दर जो ताप है, उस शक्ति के द्वारा आप रिपुओं को तप्त करें । जो शत्रु हमसे विद्वेष | करते हैं तथा जिससे हम विद्वेष करते हैं, उन रिपुओं को आप संतप्त करें ॥ १ ॥
२५९. अग्ने यत् ते रस्तेन तं प्रति हर यो३स्मान् द्वेष्टि यं वयं द्विष्मः ।।२।।
हे अग्निदेव ! आपके अन्दर जो हरने की शक्ति विद्यमान हैं, उस शक्ति के द्वारा आप उन रिपुओं की शक्ति का हरण करें, जो हम से विद्वेष करते हैं तथा हम जिससे द्वेष करते हैं ।।२।। |
२६०.अग्ने यत् तेऽर्चिस्तेन ते प्रत्यर्च यो३स्मान् द्वेष्टि यं वयं द्विष्मः ।।३।।
| हे अग्निदेव ! आपके अन्दर जो दीप्ति हैं, उस शक्ति के द्वारा आप उन रिपुओं को जला हैं, जो हममें विद्वेष करते हैं तथा जिनसे हम विद्वेष करते हैं ।।३।। |
२६१. अग्ने यत् ते शोचिस्तेन तं प्रति शोच यो३स्मान् द्वेष्टि यं वयं द्विष्मः ।।४।।
हैं अग्निदेव ! आपके अन्दर जो शोकाकुल करने की शक्ति है, उस शक्ति के द्वारा आप उन न्यक्तियों को शोकाकुल करें, जो हमसे शत्रुता करते हैं तथा जिनसे हम शत्रूना कान है ।।४ ॥
२६३. अग्ने यत् ते तेजस्तेन तमतेजसं कृणु यो३स्मान् द्वेष्टि यं वयं द्विष्मः ।।५।।
| हे अग्निदेव ! आपके अन्दर जो पराभिभूत करने की शक्ति विद्यमान हैं, उप अभिभुन करने की नज़म्बना | के द्वारा आप उन मनुष्यों को निस्तेज करें, जो हमसे शत्रुता करते हैं तथा जिनमे हम शत्रुना करने हैं ॥५॥
[२०- शत्रुनाशन सूक्त] | ऋषि–अथर्वा । देवता– वायु । छन्द–एकावसाना निवृत विपमा विदागायत्री, १५ भुग्कि विषमा त्रिपदागायत्री ||
२६३. वायो यत् ते तपस्तेन तं प्रति तप यो३स्मान् द्वेष्टि यं वयं द्विष्मः ।।१ ।।
हैं वायुदेव ! आपके अन्दर जो ताप (प्रताप) हैं, उस शक्ति के द्वारा आप उन रिपुओं को तप्त करें, जो हमसे विद्वेष करते हैं तथा जिनसे हम विद्वेष करते हैं ।।१ ॥
२६४. वायों यत् ते हरस्तेन तं प्रति हर यो३स्मान् द्वेष्टि यं वयं द्विष्मः ॥२ ।।।
हे वायुदेव ! आपके अन्दर जो हरने की शक्ति हैं, उस शक्ति के द्वारा आप उन रिपुओं की शक्ति का हरण करें, जो हमसे शत्रुता करते हैं तथा जिनसे हम शत्रुता करते हैं ।।२ ॥
का– सूक्त– ३२
२६५. वायो यत् तेर्चिस्तेन तं प्रत्यर्च यो३स्मान् द्वेष्टि यं वयं द्विष्मः ।।३।।
हे वायुदेव ! आपके अन्दर जो प्रज्वलन शक्ति हैं, उस शक्ति के द्वारा आप उन रिपुओं को जला दें, जो हमसे शत्रुता करते हैं तथा जिनसे हम शत्रुता करते हैं ॥३॥
२६६. वायो यत् ते शोचिस्तेन तं प्रति शोच यो३स्मान् द्वेष्टि यं वयं द्विष्म ॥४॥
हे वायुदेव ! आपके अन्दर ज़ों शोकाकुल करने की शक्ति हैं, उस शक्ति के द्वारा आप उन मनुष्यों को शोकाभिभूत करें, जो हमसे विद्वेष करते हैं तथा जिनसे हम विद्वेष करते हैं ॥४ ।।
२६७. वायो यत् ते तेजस्तेन तमतेजसं कृणु यौइस्मान् वेष्टि शं वयं द्विष्मः ॥५॥ |
है वायुदेव ! आपके अन्दर जो पराभिभूत करने की शक्ति विद्यमान हैं, उस शक्ति के द्वारा आप उन रिपुओं को तेजहीन करें, जो हमसे विद्वेष करते हैं तथा जिनसे हम विद्वेष करते हैं ॥५॥
[२१- शत्रुनाशन सूक्त] [ ऋषि– अथर्वा । देवता–सूर्य । छन्द–एकावसाना निवृत् विषमा त्रिपदागायत्री, ५ भुरिक विषमा त्रिपदागायत्री ]
२६८. सूर्य यत् ते तपस्तेन तं प्रति तय योस्मान् द्वेष्टि यं वयं द्विष्मः ।।१।।
हे सूर्यदेव ! आपके अन्दर जो संतप्त करने की शक्ति हैं, उस शक्ति के द्वारा आप उन रिपुओं को संतप्त करें, जो हमसे शत्रुता करते हैं तथा जिनसे हम शत्रुता करते हैं ।।१ ।।
२६९. सूर्य यत् ते रस्तेन तं प्रति हर यो३स्मान् द्वेष्टि यं वयं द्विष्मः ॥२ ।।
| हे सूर्यदेव ! आपके अन्दर जो हरण करने की शक्ति हैं, उस शक्ति के द्वारा आप ऊन रिंपुओं की शक्ति का हरण करें, जो हमसे द्वेष करते हैं तथा जिनसे हम द्वेष करते हैं ॥२ ॥
२७०. सूर्य यत् तेर्चिस्तेन तं प्रत्यर्च यो३स्मान् द्वेष्टि यं वयं द्विष्मः ॥३॥
हे सूर्यदेव ! आपके अन्दर जो प्रज्वलन शक्ति हैं, उस शक्ति के द्वारा आप उन रिपओं को जला दें, जो हमसे विद्वेष करते हैं तथा जिनसे हम विद्वेष करते हैं ॥३ ।।
२७५. सूर्य यत् ते शोचिस्तेन तं प्रति शोच यो३स्मान् द्वेष्टि यं वयं द्विष्मः ॥४॥
हे सूर्यदेव ! आपके अन्दर जो शोकाभिभूत करने की शक्ति है, उस शक्ति के द्वारा आप ऊन मनुष्यों को शोकाभिभूत करें, जो हमसे विद्वेष करते हैं तथा जिनसे हम विद्वेष करते हैं ।।४।।
२७२. सूर्य यत् ते तेजस्तैन तमतेजसं कृणु योउस्मान् द्वेष्टि यं वयं द्विष्मः ।।५।।
। हे सूर्यदेव ! आपके अन्दर जो पराभिभूत करने की शक्ति विद्यमान है, उसके द्वारा आप उन मनुष्यों को तेजविहीन करें, जो हमसे विद्वेष करते हैं तथा जिनसे हम विद्वेष करते हैं ॥५ ।।
[२२– शत्रुनाशन सूक्त] [ ऋषि – अथर्वा । देवता – चन्द्र । छन्द –एकावसाना निवृत् विषमा विपदा गायत्री, ५ एकावसाना भुरक्
विममा विपदा गायत्री ।]
२७३. चन्द्र यत् ते तपतेन तं प्रति तप यो३स्मान् द्वेष्टि यं वयं द्विष्मः ।।१।।
हैं चन्द्रदेव ! आपके अन्दर जो तपाने की शक्ति हैं, उस शक्ति के द्वारा आप उन रिपुओं को संतप्त करें, जो हमसे विद्वेष करते हैं तथा जिनसे हम विद्वेष करते हैं ॥ १ ॥
अथर्ववेद संहिता भाग–१
२७४. चन्द्र यत् ते इस्तेन तं प्रति हर यो३स्मान् द्वेष्टि यं वयं द्विष्मः ॥२॥
| हे चन्द्रदेव ! आपके अन्दर जो हरण करने की शक्ति हैं, उस शक्ति के द्वारा आप उन रिपुओं की शक्ति का हरण करें, जो हमसे विद्वेष करते हैं तथा जिनसे हम विद्वेष करते हैं ॥२ ॥
२७५. चन्द्र यत् तेचिस्तेन ते प्रत्यर्च योस्मान् वेष्टि यं वयं द्विष्मः ।।३।।
| है चन्द्रदेव ! आपके अन्दर जो प्रज्वलन शक्ति है, उस शक्ति के द्वारा आप उन रिपुओं को जला दें, जो हमसे विद्वेष करते हैं तथा जिनसे हम विद्वेष करते हैं ॥३ ।।
२७६. चन्द्र यत् ते शोचिस्तेन ते प्रति शोच यो३स्मान् द्वेष्टि यं वयं द्विष्मः ॥४॥
हे चन्द्रदेव ! आपके अन्दर ज्ञों शोकाकुल करने की शक्ति है, उस शक्ति के द्वारा आप उन रिपुओं को शोकाभिभूत करें, जो हमसे विद्वेष करते हैं तथा जिनसे हम विद्वेष करते हैं ।।४।।
२७७. चन्द्र यत् ते तेजस्तेन तमतेजसं कृणु यो३स्मान् द्वेष्टि यं वयं द्विष्मः ।।५।।
| हे चन्द्रदेव ! आपके अन्दर जो पराभिभूत करने की शक्ति विद्यमान है, उस शक्ति के द्वारा आप उन रिपुओं को तेजविहीन करें, जो हमसे शत्रुता करते हैं तथा जिनसे हम शत्रुता करते हैं । ।५ ।।
[ २३- शत्रुनाशन सूक्त] [ ऋधि–अधर्वा । देवता–आपः । छन्द-कावसाना समविषमा त्रिपदागायत्री, ५ स्वरार् विषमा विपदागायत्रीं ]
७८. आपो यद् वस्तपस्तेन तं प्रति तपत यो३स्मान् द्वेष्टि यं वयं द्विष्मः ।।१।। | है बलदेव ! आपके अन्दर जो ताप (प्रताप) है, उस शक्ति के द्वारा आप उन रिपुओं को संतप्त को, जो हमसे विद्वेष करते हैं तथा जिनसे हम विद्वेष करने हैं ॥१ ।।
२७९. आपो यद् वो हरस्तेन ते प्रति हरत यो३स्मान् द्वेष्टि यं वयं द्विष्मः ।।२।।
हे जलदेव ! आपके अन्दर जो हरण करने की शक्ति है, उस शक्ति के द्वारा आप उन रिपुओं की शक्ति का हरण करें, जो हमसे विद्वेष करते हैं तथा जिनसे हम विद्वेष करते हैं ॥२ ।।
२८०. आपो यद् चोर्चिस्तेन तं प्रत्यर्चत योजस्मान् द्वेष्टि यं वयं द्विष्मः ॥३॥
हे जलदेव ! आपके अन्दर जो प्रचलन शक्ति है, उस शक्ति के द्वारा आप उन रिओं को जला दें, जो हमसे विद्वेष करते हैं तथा जिनसे हम विद्वेष करते हैं ।।३।।
२८१. आप यद् वः शोचिस्तेन तं प्रति शोचत यो३स्मान् द्वेष्टि यं वयं द्विष्मः ।।४।।
है जलदेव !आपके अन्दर जो शोकाकुल करने की शक्ति है, उस शक्ति के द्वारा आप उन मनुष्यों को शोकाकुल करें, जो हमसे विद्वेष करते हैं तथा जिनसे हम विद्वेष करते हैं ॥४ ।।
२८२. आपो यद् वस्तेजस्तेन तमतेजसं कृणुत यो३स्मान् हेष्टि यं वयं द्विष्मः ॥५॥ |
हे जलदेव ! आपके अन्दर जो पराभिभूत करने की शक्ति विद्यमान हैं, उसके द्वारा आप उन रिपुओं को तेजविहीन करें, जो हमसे विद्वेष करते हैं तथा जिनसे हम विद्वेष करते हैं ॥५ ।।।
[२४– शत्रुनाशन सूक्त ] [ ऋषि – ब्रह्मा । देवता – आयु । छन्द – १–४ वैराजपरा पञ्चपदा पथ्यापंक्ति, (१–२ भुरिक पुर उष्ण, ३–४
निवृत पुरोदेवत्यापंक्ति, ५ चतुष्पदा बृहती, ६–८ चतुष्पदा भुरिक बृहतीं। ]
झा–३ मुक्त– ३६
२८३. शेरभक शेर पुनव यन्तु यातवः पुनर्हतिः किमीदिनः ।
यस्य स्थ तमत्त यो वः आहेत् तमत्त स्वा मांसान्यत्त ।।१।। | हे वधिको और लुटेरों ! हमारी ओर प्रेरित तुम्हारे प्रहार और यातनाएँ हमारे समीप से पुन: पुन: वापस लौट जाएँ तुम अपने साथियों का ही भक्षण करो, जिन्होंने तुम्हें भेजा हैं, उनका भक्षण करो, अपने ही मांस को खाओं ॥१
२८४. शेवृधक शेवृष पुनर्वो वन्तु यातवः पुनतः किमीदिनः ।।
अस्य स्थ तमत्त यो वः प्राहैन् तमत्त स्वा मांसान्यत्त ।।२।। | हैं घात करने वाले शेवृधक (अपने आश्रितों को सुख देने वाले और उनके अनुचर लुटेरो) ! हमारी तरफ प्रेरित तुम्हारे प्रहार एवं यातनाएँ, असुर तथा हथियार हमारे समीप से बार-बार वापस लौट जाएँ। तुम अपने साथियों का ही भक्षण करो, भेजने वालों का भक्षण करें, अपने ही मांस का भक्षण करो ।।२।।
२८५. मोकानुग्रोक पुनर्यो यन्तु यातयः पुनतः किमीदिनः।
यस्य स्थ तमत्त यो वः प्राहृत् तमत्त स्वा मांसान्यत्त ।।३।। है चोर तथा चोर के अनुचर लुटेरों ! हमारी तरफ प्रेरित की हुई तुम्हारी यातनाएँ, असुर तथा हथियार हमारे पास से पुनः पुनः वापस चले आएँ । तुम्हें जिस व्यक्ति ने हमारे समीप भेजा है या जो तुम्हारे साथ हैं, तुम उन्हीं का भक्षण करों, स्वयं अपने मांस का भक्षण करो ॥३॥
२८६. सर्पानुसर्प पुनर्यो यन्तु यातवः पुनतः किमीदिनः ।।
यस्य स्थ तमत्त यो वः माहैन् तमत्त स्वा मांसान्यत् ।।४।।
हे सर्प तथा सर्प के अनुचर लुटेरों ! तुम्हारे द्वारा भेजी हुई यातनाएँ, असुर तथा हथियार हमारे समीप से बार-बार वापस चले जाएँ तथा आपके चोर आदि अनुचर भी वापस जाएँ ।आपको जिस व्यक्ति ने हमारे समीप भेजा हैं या आप अपने दल–बल के साथ हमारे जिस शत्रु के समय रहते हैं, आप उसके हौ मांस को खा जाएँ ।।४ ॥
२८७. जूर्णि पुनर्यो यन्तु यातवः पुनतः किमीदिनीः ।
यस्य स्थ तमत्त यो के प्रात् तमत्त स्वा मांसान्यत्त ॥५॥ | हे जूर्णि(शरीर को जीर्ण बनाने वाली) राक्षसों और उनकी अनुचरी लुटेरियो ! तुम्हारे द्वारा भेजी हुई यातनाएँ, असुर तथा हथियार हमारे समीप से पुनः-पुनः वापस चले जाएँ। तुम्हें जिस व्यक्ति ने हमारे समीप भेजा है या जो तुम्हारे साथ हैं, तुम उसके हीं मांस का भक्षण करो, स्वयं अपने मांस को खाओं ॥५॥
२८८. उपब्दे पुनर्यो यन्तु यातवः पुनतिः किमीदिनीः ।
यस्य स्थ तमत्त यो वः प्राहेत् तमत्त स्वा मांसान्यत्त ।।६।। | हे उगाब्द (चिंघाड़ने वाली) लुटेरी राक्षसियो ! हमारी तरफ भेजी हुईं तुम्हारी यातनाएँ, असुर तथा हधियार हमारे पास से पुन:-पुन: वापस चले जाएँ । तुम्हें जिस व्यक्ति ने हमारे समय भेजा है या जो तुम्हारे साथ हैं, तुम उन्हीं का भक्षण करो, स्वयं अपने मांस का भक्षण करो ॥६॥
२८९. अर्जुनि पुनर्यो यन्तु यातवः पुनतिः किमीदिनीः ।
यस्य स्थ तमत्त यो वः प्राहेत् तमत्त स्वा मांसान्यत्त ।।७।।
हे अर्जुनि लुटेरी राक्षसियो !तुम्हारे द्वारा भेजी हुई यातनाएँ, असुर तथा अब हमारे पास से तौटाएँ। तुम्हें | जिस व्यक्ति ने हमारे पास भेजा हैं या जो तुम्हारे साथ हैं, तुम उन्हीं का भक्षण करों, स्वयं अपना मांस खाओ ||५७ ।।
अथर्ववेद संहिता भाग–१
२९०.भरूजि पुनर्यो यन्तु यातव: पुनीतः किमीदिनीः।
यस्य स्थ तमत्त यो वः प्रात् तमत्त स्वा मांसान्यत् ।।८।।
हैं भरूजीं (नींच प्रकृति वाली) लुटेरी राक्षसियो ! हमारी तरफ प्रेरित की हुई तुम्हारी यातनाएँ, असुर तथा हथियार हमारे पास से पुनः-पुनः वापस चले जाएँ । तुम्हें जिस व्यक्ति ने हमारे समीप भेजा है या जो तुम्हारे साथ हैं, तुम उन्हीं दुष्टों का भक्षण करो, स्वयं अपने मांस का भक्षण करो ॥८॥
[ २५- पृश्निपर्णी सूक्त] [ ऋषि– चातन । देवता – वनस्पति पृश्निपणीं । छन्द – अनुष्टुप, ४ भुरिक् अनुष्टुप् । ] इस रात में प्रपर्णी (मौषि) के प्रभाव का अलख है । म सदर्भ में सुन के पंचावं ग्राम विन्तु पनि का अर्थ पृथ्वी भी होता है, तदनुसार नप का भाव कता है-‘पृथ्वीं का पालन करने वाली दिव्य शक्ति। सत देता के रूप में पति का उल्लेख है। वास्तव में मूवी में पत्र वनपतियों(हरियाली) में हैं पृथ्वी के प्राणियों का पालन होता हैं। इस भाव से ‘निसर्गी‘ किसी एक औषधि के स्थान ॥ पालन मत्पतियों को भी कह सकते हैं। इस प्रकार मंत्रों का
अध्क्म विभिन्न दृश्यों से किया जा सकता है
२९१. शं नो देवी पृश्निपर्यशं नित्या अकः ।
उग्रा हि कण्वजम्मान तामभक्ष सहस्वतीम् ॥१॥ | यह दमकने वाली पृश्निपण ओषधि हमें सुख प्रदान करे और हमारे रोगों को दूर करे । यह विकराल रोगों को समूल नष्ट करने वाली हैं। इसलिए हम उस शक्तिशाली ओषधि का सेवन करते हैं ॥ ३ ॥
२९३. समानेयं प्रथमा पूनपर्यजायत।
तयाहं दुर्गाम्नां शिरो वृश्चामि शकुनेरिव ॥२॥
रोगों पर विजय पाने वाली ओषधियों में यह पृश्निप सबसे पहले उत्पन्न हुई। इसके द्वारा बुरे नामों वाले रोगों के सिर को हम उसी प्रकार कुचलते हैं, जिस प्रकार शकुनि (दुष्ट राक्षस) का सिर कुचलते हैं ॥२ ।।
२१३. अरायमसृक्पावानं यश्च स्फाति जिहीर्षति ।
| गर्भादं कण्वं नाशय पृश्निपर्णि सहस्व च ॥३॥
हैं पृश्निपर्णि ! आप शरीर की वृद्धि को अवरुद्ध करने वाले रोगों को विनष्ट करें । हे पृश्निपर्णिं ! आप रक्त पीने वाले तथा गर्भ का भक्षण करने वाले रोग रूप रिपुओं को विनष्ट करें ।। ३ ।।
२९४. गिरिमेनाँ आ वेशय कण्वाञ्जीवितयोपनान्।
तांस्त्वं देवि पृश्निपण्यग्निरिवानुदन्निहि ।।४।।
हे देवीं पृश्निपर्म ! जीवन-शक्ति को विनष्ट करने वाले दोषों तथा रोगों को आप पर्वत पर ले जाएँ और उनको दावाग्नि के समान भस्मसात् कर दें ॥४ ।।
२९५. पराच एनान् प्र णुद कण्वाञ्जीवितयोपनान्।
तमसि यत्र गच्छन्ति तत् क्लव्यादो अजीगमम् ॥५ ।।
है पृश्निपर्णि ! जीवन–शक्ति को विनष्ट करने वाले रोगों को आप उलटा मुख करके ढकेल दें । सूर्योदय होने पर भी जिस स्थान पर अन्धकार रहता है, उस स्थान पर शरीर की धातुओं का भक्षण करने वाले दुष्ट रोगों को (आपके माध्यम से हम भेजते हैं ॥५ ।।
क
–३
–२
[ २६- पशुसंवर्धन सूक्त ] | अव – सविता । देवता – पशु समूह । छन्द – त्रिष्टुप्, ३ उपरिष्टात् विराट् बृहत, ४ भुरिक अनुष्टुप्, ५
अनुम् । इस सूक्त में शुओं के सुनियोन के मंत्र हैं। यह पशु‘ का अर्थ ‘प्राणि – मात्र लिया जाने योग्य है जैसा कि मंत्र का ३ से स्पष्ट होता है । प्राण–वींव चेतना को भी पशु कहते हैं, इसी आधार पर ईक्षा को पशुपति कहा गया है । इस आशय से ‘गोष्ट पशुओं के बाड़े के साथ प्राणियों की देह को भी कह सकते हैं। व्यसनों में पटके हुए प्राण–वाने को यथास्थान साने का भाव भी यहीं लिया जा सकता है
२९६. एह यन्तु पशवो ये परेयुर्वायुर्वेषां सहचारं जुजोष।
त्वष्टा येषां रूपधेयानि वेदास्मिन् तान् गोळे सविता नि यच्छतु ॥१॥ | जो पशु इस स्थान से परे चले (भटक) गये हैं, वे पुनः इस गोष्ठ(पशु–आवास) में चले आएँ । जिन पशुओं की सुरक्षा के लिए वायुदेव सहयोग करते हैं और जिनके नाम-रूष को त्वष्टादेव जानते हैं. हे सवितादेव ! आप उन पशुओं को गोष्ठ में स्थित करें ।।१ ॥
२९७. इमं गोष्ठं पशवः सं स्रवन्तु बृहस्पतिरा नयतु प्रजानन् ।
सिनीवाली नयत्वाग्रमेषामाजग्मुषो अनुमते नि यच्छ ॥२ ।।
गों आदि पशु हमारे गोष्ठ में आ जाएँ ।बृहस्पतिदेव उन्हें लाने की विधि को जानते हैं, अत: वे उनको ले आएँ । सिनीवाली इन पशुओं को सामने के स्थान में ले आएँ । हे अनुमते ! आप आने वाले पशुओं को नियम में रखें ॥२ ।।
२९८. सं सं स्रवन्तु पशवः समाः समु पूरुषाः ।।
सं घान्यस्य या स्फातिः संसाव्येण हविषा जुहोमि ॥३॥
गौ आदि पशु, अश्व तथा मनुष्य भी मिल जुल कर चलें । हमारे यहाँ धान्य आदि की वृद्धि भली प्रकार हो । हम उसको प्राप्त करने के लिए घृत की आहुति प्रदान करते हैं ॥३॥
२१६. से सिञ्चामि गवां क्षीरं समायेन बलं रसम्।।
संसिक्ता अस्माकं वीरा धुवा गावो मयि गोपतौ ।।४।। |
हम गौओं के दूध को सिंचित करते हैं तथा शक्तिवर्द्धक रस ये घृत के साथ मिलाते हैं। हमारे वीर पुत्र भून आदि से सिंचित हों तथा मुझ गोपति के पास गौएँ स्थिर रहें ४ ।।
३००. आ हामि गवां क्षीरमाहा धान्यं रसम्।।
आला अस्माकं वीरा आ पत्नीरिदमस्तकम् ॥५॥
हम अपने घर में गो–दुग्ध, धान्य तथा रस लाते हैं । हम अपने वीरपुत्रों तथा पत्नियों को भी घर में लाते हैं ।
| [ २७– शत्रुपराजय सूक्त] [ ऋवि – कपिञ्जल । देवता – १-५ ओषधि, ६ रुद्र, ७ इन्द्र । छन्द – अनुष्टम् । ] इस सूक्त में औषध को लक्ष्य किया गया है। चौथे मंत्र में में पद्म(पाठा) सम्बोधन भी दिया गया हैं। जिससे उस नाम वाली ओपध विशेषका बोथ होता है। मंत्रों में प्राशं–अति प्राशों‘ द प्रयुक्त हुआ है, अधिकांश आचार्यों ने इसका अर्थ प्रम–न प्रश्म किया है, किंतु ऑर्षाघ के संदर्भ में प्राओं का अर्थ–हण करना अशा प्रतिप्राश का अर्थ–ग्रहण न करना भी होना है। इन दोनों ही कादों में मंत्राई सिद्ध होते हैं
अथर्ववेद संल्लिा भाग–१
३०१. नेछवाः प्राशं जयाति समानाभिभूरसि।
प्राशं प्रतिप्राशों जह्मरसान् कृण्वोषधे ॥
हे औषधे , आपका सेवन करने वाले हम मनुष्यों को प्रतिवादी रिपु कभी विजित न कर सकें, क्योंकि आप रिपुओं से टक्कर लेकर उन्हें वशीभूत करने वाली हैं। आप हमारे द्वारा प्रश्न (प्राशन–ग्रहण करने पर प्रतिपक्षयों (प्रातिप्राश–मण न करने वाले को रास्त करें । हे ओषधे ! आप प्रतिवादियों के कण्ट्र को शोषित क अर्थात् उन्हें बोलने में असमर्थ करें ।।१।।
३०२. सुपर्णस्चान्ववन्दत् सूकरस्त्वाखनन्नसा ।
प्राशं प्रतिप्राशो जह्यरसान् कृण्वोषधे ।।२।।
हे ओषधे ! गरुड़ में आपको विष नष्ट करने के लिए प्राप्त किया है तथा सुअर ने अपनी नाक के द्वारा आपको खोदा हैं । आप हमारे द्वारा प्रश्न (प्राशन–ग्रहण करने पर प्रतिपक्षियों (प्रतिमाश–ग्रहण न करने वाले) को परास्त करें । हे ओषधे ! आप प्रतिवादियों के कण्ठ को नीरस करके उन्हें बोलने में असमर्थ कर दें ॥२ ।।
३०३. इन्द्रो हु चक्रे त्वा बाहावसुरेश्य स्तरीतवे।।
प्राप्त प्रतिप्राशो जह्यरसान् कृण्वोपचे ॥३॥
| हे औषधे ! राक्षसों से अपनी सुरक्षा करने के लिए इन्द्रदेव ने आपको अपनी बाहू पर धारण किया था । आप हमारे द्वारा प्रश्न (प्राशन–ग्रहण करने पर प्रतिपक्षियों (प्रतिप्राश-ग्रहण न करने वाले) को परास्त करें । है ओषधे ! आप प्रतिवादियों के कण्ठ को नीरस करके उन्हें बोलने में असमर्थ कर दें ॥३ ।।।
३०४. पाटामिन्द्रों व्याश्नादसुरेभ्य स्तरीतवे ।
प्राशं प्रतिप्राशो जह्यरसान् कृण्वोषधे ॥४
| हे पाठा औषधे ! राक्षसों से अपनी सुरक्षा करने के लिए इन्द्रदेव में आपका सेवन किया था। आप हमारे द्वारा प्रश्न (प्राशन–ग्रहण करने पर प्रतिपक्षियों (प्रतिप्राश–ग्रहण न करने वाले) को परास्त करें । हे औषधे ! आप प्रतिवादियों के कण्ठ को नीरस करके उन्हें बोलने में असमर्थ कर दें ॥४॥
३०५. तयाहू शत्रून्त्साक्ष इन्छः सालावृक इव ।
प्राशं प्रतिप्राशो जह्यरसान् कृण्वोषथे।।
जिस प्रकार इन्द्रदेव ने जंगली कुत्तों को निरुत्तर कर दिया था, उसी प्रकार हैं ओषधे ! आपका सेवन करके हम प्रतिवादी रिओं को निरुत्तर करते हैं। आप हमारे द्वारा प्रश्न (प्राशन–ग्रहण करने पर प्रतिवादियों (प्रनिप्राश–ग्रहण न करने वाले को परास्त करें । हे औषधे ! आप प्रतिवादियों के कण्ठ को नौरस करके उन्हें बोलने में असमर्थ कर दें ॥५॥
३०६. रुद्र जलाघभेषज नीलशिखण्ड कर्मकृत् ।
प्राशं प्रतिप्राशो जह्यरसान् कृण्वोषधे
हैं रुद् ! आप जल द्वारा चिकित्सा करने वाले तथा नील वर्ण की शिखा वाले हैं। आप सृष्टि आदि (सृष्टि स्थिति, संहार, प्रलय तथा अनुग्रह) पंच कृत्यों को सम्पन्न करने वाले हैं। आप हमारे द्वारा सेवन की जाने वालों इस औषधि कों, प्रतिपक्षियों को परास्त करने में समर्थ करें । हे औषधे ! आप हमारे द्वारा प्रश्न (प्राशन–महण) करने पर प्रतिवादियो (प्रतिप्राश–ग्रहण न करने वाले) को परास्त करें तथा इनके कण्ठ को नीरस करके उन्हें बोलने में असमर्थ हैं ॥E ।।
३०७. तस्य प्राशं त्वं जहि यो न इन्द्राभिदासति ।
अघि नो वृहि शक्तिभिः प्राशि मामुत्तरं कृधि ।।७।।
है इन्द्रदेव ! जो प्रतिवादी अपनी युक्तियों के द्वारा हमें कमजोर करना चाहते हैं, उनके प्रश्नों को आप निरस्त करें और अपनी सामर्थ्य के द्वारा हमें सर्वश्रेष्ठ बनाएँ ।। ।।
–३
– २५
[ २८- दीर्घायु प्राप्ति सूक्त] [ ध – शम्भु । देवता – १ जरिमा, आयु, २ मित्रावरुण, ३ जरिमा, ४-५ द्यावापृथिबी, आयु । छन्द – १
। जगती, २-४ त्रिष्टुप्, ५ भुरिक त्रिष्टुम् ।]
३०८. तुभ्यमेव जरिमन् वर्धतामयं मेममन्ये मृत्यवो हिसिषुः शतं ये।
मातेव पुत्रं प्रमना उपस्थे मित्र एनं मित्रियात् पात्वंहसः ।।१।।
हे वृद्धावस्थे ! आपके लिए ही यह चालक वृद्धि को प्राप्त हों और जो सैक रोग आदि रूप वाले मृत्यु योग हैं, वे इसको हिंसित न करें । हर्षित मन वाले हे मित्र देवता ! जिस प्रकार माता अपने पुत्र को गोद में लेती हैं, उसी प्रकार आप इस बालक को मित्र– द्रोह सम्बन्धी पाप से मुक्त करें ॥ १ ॥
| [ सन आदि माक कोष मित्र नकर हैं या कवित मित्रों के माध्यम से में जम में प्रवेश पते हैं। यि लगने वाले स्नाद या श्यनाँसखाने वाले मित्रों से क्याना आवश्यक होता है।
३०९. मित्र एनं वरुणो वा रिशादा जरामृत्युं कृणुतां संविदानौ।
तदग्निता वयुनानि विद्वान् विश्वा देवानां जनिमा विवक्ति ।।२।।
मित्र तथा रिपु विनाशक वरुणदेव दोनों संयुक्त होकर इस बालक को वृद्धावस्था तक पहुँच कर मरने वाला बनाएँ दान दाता तथा समस्त कर्मों को विधिवत् जानने वाले अग्निदेव उसके लिए दीर्घायु की प्रार्थना करें ॥२ ।।
३१०. त्वमीशिषे पशूनां पार्थिवानां ये जाता उत वा ये जनित्राः।
मेमं प्राणों हासीन्मों अपानों मेमं मित्रा वधिषु अमित्राः ॥३॥
है आने ! धरती पर पैदा हुए तथा पैदा होने वाले समस्त प्राणियों के आप स्वामी हैं। आपकी अनुकम्पा से इस बालक का, प्राण और अपान परित्याग न करें। इसको न मित्र मारें और न शत्रु ॥३॥
३११. चौवा पिता पृथिवी माता जरामृत्युं कृणुतां संविदाने ।
यथा जीवा अदितेरुपस्थे प्राणापानाभ्यां गुपितः शतं हिमाः ।।४ ॥
हैं बालक ! तुम धरती की गोद में प्राण और अपान से संरक्षित होकर सैकड़ों वर्षों तक जीवित रहो । पिता रूप द्युलोक तथा माता रूप पृथ्वी दोनों मिलकर आपको वृद्धावस्था के बाद मरने वाला बनाएँ ।।४।।
३१२. इममग्न आयुषे वर्चसे नय प्रिये रेतो वरुण मित्रराजन् ।
मातेवास्मा अदिते शर्म यच्छ विश्वे देवा जरदष्टिर्यघासत् ॥५॥
| हे अग्निदेव ! आप इस बालक को शतायु तधा तेजसू प्रदान करें । हे मित्रावरुण ! आप इस बालक को सन्तानोत्पादन में समर्थ बनाएँ । हे अदिति देवि ! आप इस बालक को माता के समान हर्ष प्रदान करें । हे विश्वेदेव !
आप सब इस बालक को सभी गुणों से सम्पन्न बनाएँ तथा दीर्घ आयुष्य प्रदान करें ॥५ ॥
[२९– दीर्घायुष्य सूक्त ] [ ऋवि – अथर्वा । देवता – १ वैश्वदेवी (अग्नि, सूर्य, बृहस्पति), ३ आयु, जातवेदस्. प्रजा, त्वष्ट, सविता, धन, | शतायु, ३ इन्द्र, सौप्रज्ञा, ४–५ द्यावापृथिवीं, विश्वेदेवा, मरुद्गण, आपोदेव, ६ अश्विनकुमार, इन्द्र । छन्द –
त्रिष्टुप्, १ अनुष्टुप्, ४ पराबृहती निवृत्त प्रस्तारपंक्ति । ]
३१३. पार्थिवस्य रस देवा भगस्य तन्वो३ बले।
अर्सचे संतती मा–६ आयुष्यमस्मा अग्निः सूर्यो वर्च आ धाद् बृहस्पतिः ।।१।।
पार्थिव रम (पृथ्वी से उत्पन्न अथवा पार्थिव शरीर में उत्पन्न पोषक रसों ) का पान करने वाले व्यक्ति को समस्तदेव ‘भग’ के समान बलशाली बनाएँ। अग्निदेव इसको सौ वर्ष की आयु प्रदान करें और आदित्य इसे तेजस् प्रदान करें तथा बृहस्पतिदेव इसे वेदाध्ययनजन्य कान्ति (ब्रह्मवर्चस) प्रदान करें ॥१॥
३१४. आयुरस्मै धेहि जातवेदः जो त्वष्टरधिनिधेह्यस्मै ।
रायस्पोर्ष सवितरा सुतास्मै शतं जीवाति शरदस्तवायम् ।।३।। हे ज्ञातवेदा अग्निदेव ! आप इसे शतायु प्रदान करें । हे त्वष्टादेव ! आप इसे पुत्र–पौत्र आदि प्रदान करें। हे। सवितादेव ! आप इसे ऐश्वर्य तथा पुष्टि प्रदान करें। आपकी अनुकम्पा प्राप्त करके यह मनुष्य सैकड़ों वर्षों तक जीवित रहे ॥२ ।।।
३१५. आशीर्ण ऊर्जमुत सौप्रजास्त्वं दक्षं धत्तं द्रविणं सचेतसौं ।
जयं क्षेत्राणि सहसायमिन्द्र कृण्वानो अन्यानधरान्सपलान् ॥३।।
हे द्यावा–पृथिवि ! आप हमें आशीर्वाद प्रदान करें। आप हमें श्रेष्ठ सन्तान, सामर्थ्य, कुशलता तथा ऐश्वर्य प्रदान करें । हे इन्द्रदेव ! आपकी कृपा से यह व्यक्ति अपनी सामर्थ्य के द्वारा रिषुओं को विजित करे और उनके स्थानों को अपने नियंत्रण में ले ले ॥३॥
३१६. इन्द्रेण दत्तो वरुणेन शिष्ट मरुद्धिरुग्रः अहितो न आगन् ।
एष वां द्यावापृथिवी उपस्थे मा क्षुधन्मा तृषत् ।।४।।
इन्द्रदेव द्वारा आयुष्य पाकर, वरुण द्वारा शासित होकर तथा मरुतों द्वारा प्रेरणा पाकर यह व्यक्ति हमारे पास आया है । हे द्यावा-पृथिवि ! आपकी गोद में रहकर यह व्यक्ति क्षुधा और तृधा से पीड़ित न हों ।।४ ।।
३१७. ऊर्जमस्मा ऊर्जस्वतीं धत्तं पयो अस्मै पयस्वती थत्तम् ।।
ऊर्जमस्मै द्यावापृथिवी अध्यातां विश्वे देवा मरुत ऊर्जमापः ।।५ ।।
है बलशाली द्यावा–पृथिवि ! आप इस व्यक्ति को अन्न तथा जल प्रदान करें । हे द्यावा–पृथिवि ! आपने इस व्यक्ति को अन्न–बल प्रदान किया है और विश्वेदेवा, मरुद्गण तथा जलदेव ने भी इसको शक्ति प्रदान की हैं ॥५ ।।
३१८. शिवांशिष्टे हुदयं तर्पयाम्यनमीवो मोदीष्ठाः सुवर्चाः ।
सवासिनो पिबतां मन्यमेतमश्विनौ रूपं परिधाय मायाम् ॥६॥
हे तृषार्त मनुष्य ! हम आपके शुष्क हृदय को कल्याणकारी जल से तृप्त करते हैं। आप नीरोग तथा श्रेष्ठ तेज से युक्त होकर हर्षित हों । एक वस्त्र धारण करने वाले ये रोगी, अश्विनीकुमारों के माया (कौशलों को ग्रहण
करके इस रस का पान करें ।।६ ॥
३१९. इन्द्र एतां ससृजे विद्धो अग्र ऊर्जा स्वथामञ्जरा सा त एषा।
तया त्वं जीव शरदः सुवर्चा मा त आ सुस्रोद् भिक्जस्ते अकन् ॥७॥
इन्द्रदेव ने इस (रस) को तृषा से निवृत्त होने के लिए विनिर्मित किया था । है रोगिन् !”जो रस आपकों प्रदान किया है, उसके द्वारा आप शक्ति तेजस् से सम्पन्न होकर सौ वर्ष तक जीवित रहें । यह आपके शरीर से अलग न हो । आपके लिए वैद्यों ने श्रेष्ठ औषधि बनाई है ॥७ ||
काम– सक्त– ३१
| [ ३०– कामिनीमनोऽभिमुखीकरण सूक्त] | | ऋषि – प्रजापति । देवता – १ मन, २ अश्विनकुमार , ३-४ ओषधि. ५ दम्पती । द – अनुष्टुप्. १
पध्यापंक्ति. ३ भुरिक् अनुष्टुप् ।)
३२०. यथेदं भूम्या अधि तृणं वातो मथार्यात ।
ऐवा मध्नामि ते मनों यथा मां कामिन्यसो यथा मन्नापगा असः ।।१ ।।।
है स्त्री ! जिस प्रकार भूमि पर विद्यमान तृण को वायु चक्कर कटाता हैं, उसी प्रकार हम आपके हृदय को मथते हैं। जिससे आप हमारी कामना करने वाली हो और हमें छेड़कर दूसरी जगह न जाएं ।।१ ॥
३२१. सं चेन्नयाथो अश्विना कामिना सं च वक्षथः ।
सं वां भगासो अग्मत सं चित्तानि समु व्रता ।।३।। ।
हे अश्विनीकुमारों ! हम जिस वस्तु की कामना करते हैं, आप उसको हमारे पास पहुँचाएँ। आप दोनों के भाग्य, चित्त तथा बत हमसे संयुक्त हो जाएँ ॥२ ॥
३२२. यत् सुपर्णा विवक्षयो अनमीया विवक्षयः ।
तत्र में गच्छताछवं शल्य इव फुल्मलं यथा ॥३॥ |
मनोहर पक्षी की आकर्षक बोलीं और नौरोंग‘मनुष्य के प्रभावशाली वचन के समान हमारी पुकार बाण के
सदृश अपने लक्ष्य पर पहुँचे ।।३।।
३२३. यदन्तरं तद् बाह्यं यद् बाह्य तदन्तरम् ।
कन्यानां विश्वरूपाणां मनो गुमायौषधे ।।४
जो अन्दर और बाहर से एक विचार वाली हैं–ऐसे दोषरहित अंगों वाली कन्याओं के पवित्र मन को है औषधं ! आप ग्रहण करें ।।४ ।।
३२४. एवमगन् पतिकामा जनकामोऽहमागमम् ।
अश्वः कनकदद् यथा मगेनाई सहागमम् ॥५॥ |
यह सौ पति की कामना करती हुई मेरे पास आई है और मैं उस स्त्री की अभिलाषा करते हुए उसके समीप पहुँचा हूँ। हिनहिनाते हुए अश्व के समान मैं ऐश्वर्य के साथ उसके समीप आया हूँ ॥५ ।।।
[३१– कृमिजम्भन सूक्त] [ ऋषि – काण्व । देवता – महीं अथवा चन्द्रमा । छन्द– १ अनुष्टुष, २,४ उपरिष्टात् विराट् बृहती, ३,५ आर्षी
| बिष्टुप् । ]
३२५. इन्द्रस्य या मही दृषत् किमेर्विश्वस्य तर्हणीं।
तया पिनष्मि से क्रिमीदषदा खल्व इव ॥१ ।।
इन्द्रदेव की जो विशाल शिला है, वह समस्त कीटाणुओं को विनष्ट करने वाली है। उसके द्वारा हम कीटाणुओं को उसी प्रकार पीसते हैं, जिस प्रकार पत्थर के द्वारा चना पीसा जाता हैं ।।१ ।।
३२६. दृष्टमदृष्टमतृहमयो कुरूक्तमतृहम् ।
अलगडून्त्सर्वाङलुनान् क्रिमीन् वचसा जम्भयामसि ॥२॥
अर्यवेद संहिता भाग–१
आँखो से दिखाई देने वाले तथा न दिखाई देने वाले कीटों को हम विनष्ट करते हैं। जमीन पर चलने वाले, बिस्तर आदि में निवास करने वाले तथा द्रुतगति से इधर-उधर घूमने वाले समस्त कीटों को हम ‘वाचा’ (वाणी–मन्त्रशक्ति अथवा वच से बनीं औषधि) के द्वारा विनष्ट करते हैं ॥२ ।।
३२७. अल्माण्डून् हन्मि महता वषेन दूना अदूना अरसा अभूवन् ।
शिष्टानशिष्टान् नि तिरामि वाचा यथा क्रिमीणां नकिरुच्छिषातै ।।३।।
अनेक स्थानों में रहने वाले कीटाणुओं को हम बृहत् साधन रूप मंत्र के द्वारा विनष्ट करते हैं। चलने वाले तथा न चलने वाले समस्त कीटाणु सूखकर विनष्ट हो गये हैं। बचे हुए तथा न बचे हुए कीटाणुओं को हम बाचा (वाणी–मंत्रशक्ति अथवा वच से बनी औषधि के द्वारा विनष्ट करते हैं ।।३।।
३२८. अन्यायं शीर्षण्यश्मथो पाप्यं क्रिमीन्।
अवस्कवं व्यध्वरं क्रिमीन् वचसा जम्मयामसि ॥४॥
आँतों में, सिर में और पसलियों में रहने वाले कीटाणुओं को हम विनष्ट करते हैं। अँगने वाले और विविध मार्ग बनाकर चलने वाले कीटाणुओं को भी हम ‘वाचा’ से विनष्ट करते हैं ४ ॥
३२९. ये क्रिमयः पर्वतेषु वनेष्वोषधीषु पशुष्वस्वन्तः ।।
ये अस्माकं तन्त्रमाविविशुः सर्वं तद्धन्मि जनिम क्रिमीणाम् ।।५।।
वनों, पहाड़ों, ओषधियों तथा पशुओं में रहने वाले कीटाणुओं और हमारे शरीर में प्रविष्ट होने वाले कीटाणुओं की समस्त उत्पत्ति को हम विनष्ट करते हैं ॥॥
[ ३२– कृमिनाशन सूक्त] [ ऋषि– काण्व । देवता– आदित्यगण । छन्द अनुष्टुप् , १ त्रिषात् भुरिक् गायत्री, ६ चतुष्पाद निवृत् उष्णिक् । ]
३३०. उद्यन्नादित्यः क्रिमन् हन्तु निमोचन् इन्तु रश्मिभिः ।
ये अन्त: क्रिमयो ग़वि ॥१॥
बुदित होते हुए तथा अस्त होते हुए सूर्यदेव अपनी किरणों के द्वारा जो कीटाणु पृथ्वी पर रहते हैं, उन समस्त कीटाणुओं को विनष्ट करें ॥१ ।। | [ सूर्य किरणों की रोगनाशक क्षमता का संकत किया गया हैं।]
३३१. विश्वरूपं चतुरक्षं क्रिमिं सारङ्गमर्जनम् ।
शृणाम्यस्य पृष्टीरपि वृश्चामि यच्छिरः ।।२
विविध रूप वाले, चार अश्वों वाले, रेंगने वाले तथा सफेद रंग वाले कीटाणुओं की हड्रियों तथा– सिर को हम तोड़ते हैं ॥२ ॥
३३२. त्रिवद् वः क्रिमयो हन्मि कण्वज्जमदग्निवत्।। |
अगस्त्यस्य ब्रह्मणा सं पिनष्म्यहं क्रिमीन्॥३॥
हे कृमियो ! हम अत्रि, कण्व और जमदग्नि ऋऑष के सदृश, मंत्र शक्ति से तुम्हें मारते हैं तथा अगस्त्य ऋषि की मंत्र शक्ति से तुम्हें पीस झलते हैं ॥३ ।।
३३३. हुतो राजा क्रिमीणामुतैषां स्थपतिर्हतः ।
हुतो हृतमाता क्रिमितभाता हतस्वसा ॥४ .
हमारे द्वारा ओषधि प्रयोग करने पर कीटाणुओं का राजा तथा उसका मंत्री मारा गया। वह अपने माता–पिता,
भाई–बहिन सहित स्वयं भी मारा गया ।। ।।
का–२ सूक्त– ३३
३३४. हुतासो अस्य धेशसो हतासः परिवेशसः ।।
अथो ये ल्लका इच सर्वे ते क्रिमयो हताः ।।५।
। इन कीटाणुओं के बैठने वाले स्थान तथा पास के घर विनष्ट हो गये और बीजरूप में विद्यमान दुर्लक्षित (कठिनाई से दिखाई पड़ने वाले छोटे-छोटे कीटाणु भी नष्ट हो गये H५ ॥
३३५.प्र ते शृणामि शृङ्गे याभ्यां वितुदायसि ।
भिनग्न ते कुम्भं पस्ते विषधानः ॥६ ।।
हे कीटाणुओं ! हम तुम्हारे उन सींगों को तोड़ते हैं, जिनके द्वारा तुम पीड़ा पहुँचाते हो। हम तुम्हारे कुम्भ (विष अन्थिो को तोड़ते हैं, जिसमें तुम्हारा विष रहता हैं ॥६॥
[३३– यक्ष्मविबर्हण सूक्त] [-बह्मा देवता– यक्षविबर्हण (पृथक्करण) चन्द्रमा, आयुष्य । छन्द–अनुष्टुप, ३ ककुम्पती अनुष्टुप् । चतुष्पाद्
भुरिक उष्णक्.५ उपरिष्टवान् बृहतीं, ६ उष्णिक् गर्भानिवृत्अनुष्टुप् ७ पथ्यापंक्ति ।]
३३६. अक्षीभ्यां ते नासिकाभ्यां कर्णाभ्यां छुडुकादधि। |
यक्ष्मं शीर्षण्यं मस्तिष्काजिह्वाया वि वृहामि ते ॥१॥
| हैं रोगिन् ! आपके दोनों नेत्रों, दोनों कानों, दोनों नासिका न्यों, दोढ़ी, सिर, मस्तिष्क और जिहा से होम यक्ष्मारोंग को दूर करते हैं ॥१॥
३३७. ग्रीवाभ्यस्त उािहाभ्य: कीकसाभ्यो अनूक्यात् ।
यक्ष्मं दोषयमंसाभ्यां बाहुभ्यां वि वृहामि ते ।।२।।
हे रोग से मस्त मनुष्य ! आपकी गर्दन की नाड़ियों, ऊपरी सायुओं, अस्थियों के संधि भागों, कन्धों, भुजाओं और अन्तर्भाग से हम यक्ष्मारोग का विनाश करते हैं ॥२ ॥
३३८. हृदयात् ते परि क्लोनो हुलीक्ष्णात् पाश्वभ्याम्।।
यक्ष्मं मतस्नाभ्यां प्लीहो यक्नस्ते वि वृहामसि ।।३।।
| है व्याधिग्रस्त मानव ! हम आपके हृदय, फेफड़ों, पित्ताशय, दोनों पसलियों, गुद, तिल्ली तथा जिगर से यक्षमारोग को दूर करते हैं ॥३॥
३३९.आन्त्रेभ्यस्ते गुदाभ्यो वनिष्ठोदरादधि
यक्ष्मं कुक्षिध्यां पलाशेर्नाभ्या वि वृहामि ते ॥४॥
आपकी आँतों, गुदा, नाड़ियों, हृदयस्थान, मुत्राशय, यकृत और अन्यान्य पाचनतंत्र के अवयवों से हम यमारोग का निवारण करते हैं ॥४॥
३४०. ऊरुश्यों ते अठीवक्यों पाणिभ्यां प्रपदाभ्याम् । .
यक्ष्म असचं श्रोणिभ्यां भासद् भंसस वि वृहामि ते ।।५।।
| हे रोगिन् ! आपकी दोनों जंघाओं, जानुओं, ऍड़यों, पंजों, नितम्बभागों, कटिभागों और गुदा द्वार से हर यक्ष्मारोग को दूर करते हैं ॥५॥
३४१. अस्थिभ्यस्ते मजभ्यः स्नायथ्यो धमनभ्यः। ।
पाणिभ्यामङ्गुलियो नखेभ्यो वि वृहामि ते ।।६।।
अर्यवेद संहिता मग–१ इम अस्थि मज्जा, स्नायुओं, धमनियों, पुदठों, हाथों, अँगुलियों तथा नाखूनों से यक्ष्मारोग को दूर करते हैं।
३४२. अङ्गे लोम्निलोनि यस्ले पर्वणिपर्वणि।
चश्मे वचस्यं ते वयं कश्यपस्य वीबण विश्वं वि वामसि ।।७।।
प्रत्येक अंग प्रत्येक लोम और शरीर के प्रत्येक संधि भाग में, जहाँ कहीं भी यक्ष्मा रोग का निवास है, वहाँ से हम उसे दूर करते हैं ॥७ ।।
[ ३४– पशुगण सूक्त] [ अव – अथर्वा । देकना – १ पशुपति, २ देवगण, ३ अग्नि, विश्वकर्मा, ४ वायु, प्रजापति, ५ आशीर्वचन ।
। छन्द – त्रिष्टुप् ।]
३४३. य ईशे पशुपतिः पशूनां चतुष्पदामुत यो द्विपदाम्।
निक्रीतः स यज्ञियं भागमेतु रायस्पोषा यजमाने सचन्ताम् ॥१॥
जो पशुपति (शिव) दो पैर वाले मनुष्यों तथा चार पैर वाले पशुओं के स्वामी हैं, वे सम्पूर्ण रूप से ग्रहण किये हुए यज्ञीय भाग में प्राप्त करें और मुझ यजमान को ऐश्वर्य तथा पुष्टि प्रदान करें ॥१ ।।
३४४. प्रमुञ्चन्तो भुवनस्य रेतों गातुं धत्त यजमानाय देवाः ।।
उपाकृतं शशमानं यदस्थात् प्रियं देवानामप्येतु पाथः ।।२।।
. हे देवों ! आप इस यजमान को विश्व का रेतस् (उत्पादक रस) प्रदान करके इसे सन्मार्ग पर चलाएँ और देवों
का प्रिय तथा सुसंस्कृत सोम रूप अन्न हमें प्रदान करें ॥२ ।।
३४५. ये बध्यमानमनु दीध्याना अन्वेक्षन्त मनसा चक्षुषा च।
अग्निष्टान] प्र मुमोक्तु देवो विश्वकर्मा प्रजया संरराणः ।।३।।
| जो आलोकमान जीव इस बद्ध जीव का मन तथा चक्षु से अवलोकन करते हैं, उन्हें वे विश्वकर्मा देव सबसे पहले विमुक्त करें ॥३॥
३४६. ये ग्राम्याः पशवो विश्वरूपा विरूपाः सन्तो बहुबैकरूपाः ।
| वायुष्टान] प्र मुमोक्तु देवः प्रजापतिः प्रजया संरराणः ॥४॥
ग्राम के जो अनेकों रूप–रंग वाले पशु बहुरूपता होने पर भी एक जैसे दिखलाई पड़ते हैं, उनको भी प्रज्ञा के साथ निवास करने वाले प्रज्ञापालक प्राणदेव सबसे पहले मुक्त करें ॥ ४ ॥
३४७. प्रजानन्तः प्रति गृह्णन्तु पूर्वे प्राणमयः पर्याचरन्तम् ।
दिवं गच्छ प्रति तिष्ठा शरीरैः स्वर्ग याहि पथिभिर्देवयानैः ।।५। ।
विशेषज्ञ विद्वान्, चारों ओर विचरण करने वाले प्राण को समस्त अंगों से इकट्ठा करके स्वस्थ जीवनयापन करते हैं। उसके बाद देवताओं के गमन पथ से स्वर्ग को जाते हैं तथा आलोकमान स्थानों को प्राप्त होते है ।।५ ।।
. [ ३५–विश्वकर्मा सूक्त] (अंध– अङ्गा । देवता – विश्वकर्मा । छन्द – त्रिशुप, १ बृहतीगर्भा त्रिष्टुप, ४-५ भुरि विष्टुप् । ]
३४८. ये भक्षयन्तो न वसून्यावृधुर्यानम्नयो अन्वतष्यन्त धियः।
का–३ भूक– ३६
या तेषामवया दुरिष्टिः स्विष्टिं नस्तां कृणवद् विश्वकर्मा ॥१॥ यज्ञ कार्य में धन खर्च न करके, भक्षण कार्य में धन खर्च करने के कारण हम समृद्ध नहीं हुए इस प्रकार हम यज्ञ न करने वाले और दुर्यज्ञ करने वाले हैं। अत: हमारी श्रेष्ठ यज्ञ करने की अभिलाषा को विश्वकर्मादेव पूर्ण करें
३४९. यज्ञपतिमूषय एनसाहुर्निर्भक्तं प्रजा अनुतप्यमानम् ।
| मध्यान्त्स्तोकानप यान् रराधं से नष्टेभिः सूजतु विश्वकर्मा ॥२॥ | प्रजाओं के विषय में अनुताप करने वाले यज्ञपति को ऋषि पाप से अलग बताते हैं। जिन विश्वकर्मा ने सोमरस की बूंदों को आत्मसात् किया है, वे विश्वकर्मादेव उन बूंदों से हमारे यज्ञ को संयुक्त करें ॥२॥
३५०. अदान्यान्सोमपान् मन्यमानो यज्ञस्य विज्ञानसमये न धीरः ।
यद्देनश्चकृवान् कद्ध एव तं विश्वकर्मन् प्र मुचा स्वस्तये ॥३॥ । जो व्यक्ति दान न करके मनमाने ढंग से सोमपान करता है, वह न तो यज्ञ को जानता है और न धैर्यवान होता हैं। ऐसा व्यक्ति बद्ध होकर पाप करता है । हे विश्वकर्मादेव ! आप उसे कल्याण के लिए पाप–बन्धनों से मुक्त करें
३५६. धोरा ऋषयो नमो अस्त्वेभ्यश्चक्षुर्यदेषां मनसश्च सत्यम्।
बृहस्पतये महिष घुमन्नमो विश्वकर्मन् नमस्ते पास्मान् ॥४॥
अषिगण अत्यन्त तेजस्वी होते हैं, क्योंकि उनके आँखों तथा मनों में सत्य प्रकाशित होता है। ऐसे ऋषियों को हम प्रणाम करते हैं तथा देवताओं के पालन करने वाले बृहस्पतिदेव को भी प्रणाम करते हैं । हे महान् विश्वकर्मा देव ! हम आपको प्रणाम करते हैं, आप हमारी सुरक्षा करें ।।४ ॥ .
३५२. यज्ञस्य चक्षुः प्रभृतिर्मुखं च वाचा श्रोत्रेण मनसा रोमि।
इमं यज्ञं विततं विश्वकर्मणा देवा यन्तु सुमनस्यमानाः ॥५॥
जो अग्निदेव यज्ञ के चैत्र स्वरूप पोषणकर्ता तथा मुख के समान है (अग्निदेव) के प्रति इप मन, ऑत्र तथा वचनों सहित हव्य समर्पित करते हैं। विश्वकर्मा देव के द्वारा किये गये इस यज्ञ के लिए श्रेष्ठ मन वाले देव पधारें ॥५ ।।।
[३६– पतिवेदन सूक्त ] [प– पतिवेदन । देवता – १ अग्नि, २ सोम, अर्यमा, धाता,३ अग्नीषोम, ४ इन्द्र, ५ सूर्य, ६ धनपति, ७
हिरण्य, भग, ८ ओषधि । छन्द – अनुष्टुप, १ भुरिम् अनुष्टुप्, ३–४ त्रिष्टुप्, ८ निवृत् पुर उष्णक् ।]
३५३. आ नो अग्ने सुमतिं संभलो गमेदिमा कुमारी सह नो अगेन।
जुड़ा वरेषु समनेषु वलगुरोधं पन्या सौभगमस्त्वस्यै ॥१॥
ॐ अमें ! हमारी इस बुद्धिमत कुमारी कन्या को ऐश्वर्य के साथ सर्वगुण सम्पन्न वर प्राप्त हों। हमारी कन्या बड़ों के बीच में प्रिय तथा समान विचार वालों में मनोरम हैं। इसे पति के साथ रहने का सौभाग्य प्राप्त हों ।। १ ।।
३५४. सोमजुष्टं अजुष्टपर्यम्णा संभूतं भगम्।
आतुर्देवस्य सत्येन कृणोमि पतिवेदनम् ॥२॥
सोमदेव और गन्धर्वदेव द्वारा सेवित तथा अर्यमा नामक अग्नि द्वारा स्वीकृत कन्या रूप धन को हम सत्य वचन से पति द्वारा प्राप्त करने के योग्य बनाते हैं ॥२॥
अथर्ववेद संहिता भाग–१
३५५. इयमग्ने नारी पतिं विदेष्ट सोमो हि राजा सुभगां कृणोति ।
| सुवाना पुत्रान् महषी भवाति गत्वा पतिं सुभगा बि राजतु ।।३।।
हे अग्निदेव ! यह कन्या अपने पति को प्राप्त करे और राजा सोम इसे सौभाग्यवती बनाएँ । यह कन्या अपने पति को प्राप्त करके सुशोभित हो और (वीर) पुत्रों को जन्म देती हुई घर की रानी बनें ॥३॥
३५६. यथाखरो मघवंश्चारुरेष प्रियो मृगाणां सुषदा बभूव ।
एवा भगस्य जुष्टेयमस्तु नारी सप्रिया पत्याविरोधयन्ती ।।४।।
| हे इन्द्रदेव ! जिस प्रकार गुफा का स्थान मृगों के लिए प्रिय तथा बैठने योग्य होता है, उसी प्रकार यह स्त्री अपने पति से विरोध में करती हुई तथा समस्त भोग्य वस्तुओं का सेवन करती हुई अपने पति के लिए प्रतियुक्त हों ।।४ ॥
३५७. भगस्य नावमा रोह पूर्णामनुपदस्वतीम् ।
तयोपप्रतारय यो वरः प्रतिकाम्यः ।।५।।
हे कन्ये ! आप इच्छित तथा अविनाशी ऐश्वर्य से परिपूर्ण हुई नौका पर चढ़कर, उसके द्वारा अपने अभिलषित पति के पास पहुँचें ||५ ॥
३५८. आ क्रन्दय धनपते वरमामनसं कृणु। ।
सर्वं प्रदक्षिणं कृणु यो वः प्रतिकाम्यः ।।६ ॥
हे धनपते वरुणदेव ! आप इस बर के द्वारा उद्घोष कराएँ कि यह कन्या हमारी पत्नी हो। आप इस वर को कन्या के सामने बुलाकर उसके मन को कन्या को और प्रेरित करें तथा उसे अनुरूप व्यवहार वाला बनाएँ ।६ ॥
३६९. इंदं हिरण्यं गुलगुल्वयमौक्षो अथो भगः ।।
एते पतिभ्यस्त्वामः प्रतिकामाय वेत्तवे ।।७।।
हे कन्ये ! ये स्वर्णिम आभूषण, गूगल की धूप तथा लेपन करने वाले औक्ष (उपलेपन द्रव्य) को अलंकार के स्वामी भग देवता आपकीं पति–कामना की पूर्ति तथा आपके लाभ के लिए आपके पति को प्रदान करते हैं ॥७॥
३६०. आ ते नयतु सविता नयतु पतिर्यः प्रतिकाम्यः ।
त्वमस्यै घोषधे ।।८।।
हे ओषधे ! आप इस कन्या को पति प्रदान करें । हे कन्ये ! सवितादेव इस वर को आपके समीप लाएँ । आपका इच्छित पति आपके साथ विवाह करके आपको अपने घर ले जाए ८ ॥
॥ इति द्वितीयं काण्डं समाप्तम्॥
॥ अथ तृतीयं काण्डम् ॥
[१– शत्रुसेनासंमोहन सूक्त] [ ऋषि – अथर्वा । देवता – सेनामोहन (१ अग्नि, २ मरुद्गण , ३-६ इन्द्र) । छन्द – ५,४ त्रिष्टुम्, २
विरागभुरित्रिष्टुप. ३.६ अनुष्टुप् ५ विराट् पुरउष्णिक् ।)
३६१. अग्निर्नः शत्रून् प्रत्येतु विद्वान् प्रतिदहन्नभिशस्तिमरातिम्।
स सेनां मोहयतु परेषां निर्हस्तांश्च कृणवजातवेदाः ॥१॥ ज्ञानी अग्निदेव (अथवा अग्रणी वी) विनाश के लिए उच्चत रिपु सेनाओं के चित्त को भ्रमित करके, उनके हाथों को शस्त्र रहित कर दें। वे रिपुओं के अंगों को जलाते (नष्ट करते हुए आगे बढ़े ॥१॥
३६२. यूयमुग्रा मरुते ईदृशे स्थाभि प्रेत मृणत सद्ध्वम् ।।
अमीमृणन् वसवो नाथिता इमे अग्निहोंघा दूतः प्रत्येतु विद्वान् ॥२॥ है मरुतो !आप ऐसे (संग्राम में उग्र होकर (हमारे पास स्थित रहें। आप आगे बढ़ें, प्रहार (शत्रुओं) को जीन लें । ये वसुगण भी शत्रु विनाशक हैं। इनके संदेशवाहक विद्वान् अग्निदेव भी रिपुओं की ओर हीं अग्रगामी हों ।
३६३. अमित्रसेनां मयवन्नस्मानूयतीमभि ।
युवं तानिन्द्र वृत्रहन्नग्निश्च दहतं प्रति ।।३।। हे ऐश्वर्यवान् इन्द्रदेव ! आप वृत्र का संहार करने वाले हैं। आप और अग्निदेव दोनों मिलकर हमसे शत्रुता करने वाली रिपु सेनाओं को परास्त करके उन्हें भस्मसात् कर दें ।।३।।
३६४. प्रसूत इन्द्र अवता हरियां प्र ते व अमृणन्नेतु शत्रुन्।
जहि प्रतीचो अनूचः पराचो विष्वक् सत्यं कृणुहि चित्तमेषाम् ॥४॥ है इन्द्रदेव ! हरि नामक अश्वों से गतिमान् आपका रथ ढालू मार्ग से वेगपूर्वक शत्रु सेना की ओर बढ़े। आप अपने प्रचण्ड कञ्च से शत्रुओं पर प्रहार करें । आप सामने से आते हुए तथा मुख मोड़कर जाते हुए सभी शत्रुओं पर प्रहार करें । युद्ध में संलग्न शत्रुओं के चित्त को आप विचलित कर दें ।।४।।
३६५. इन्द्र सेनां मोहयामित्राणाम् ।।
अग्नेर्वातस्य भाज्या तान् विषुचो वि नाशय ॥५॥
| हे इन्द्रदेव ! आप रिपुओं की सेनाओं को भ्रमित करें। उसके बाद अग्नि और वायु के प्रचण्ड वैग से उन | (रिपु सेनाओं को चारों ओर से भगाकर विनष्ट कर दें ॥५॥
३६६. इङ सेनां मोहयतु मरुतो नन्वोजसा।
चक्षुष्यग्निरा दत्ता पुनरेतु पराजिता ।।६।।
है इन्द्रदेव ! आप रिपु सेनाओं को सम्मोहित करें और मरुद्गण बलपूर्वक उनका विनाश करें। अग्निदेव उनकी आँखों नेत्र ज्योति को हर लें। इस प्रकार परास्त होकर रिपु सेना वापस लौट जाए ॥६ ।।।
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अथर्ववेद संहिता भाग–१
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[ २ – शत्रुसेनासंमोहन सूक्त] ( ध – अथर्वा । देवता – सेनामोहन (१-२ अग्नि, ३-४ इन्द्र ,५ द्यौं, ६ मरुद्गण) । छन्द – त्रिष्टुप, २-४
अनुष्टुप् ।] । ३६७, अग्निनी दूतः प्रत्येतु विद्वान् प्रतिदहन्नभिशस्तिमरातिम् ।
स चित्तानि मोहयतु परेषां निर्हस्तांश्च कृणवज्जातवेदाः ।।१ ।। देवदूत के सदृश अग्रणी तथा विद्वान् अग्निदेव हमारे रिपुओं को जलाते हुए उनकी ओर बढ़े। वे रिपुओं के चित्त को भ्रमित करें तथा उनके हाथों को आयुधों से रहित करें ।।१ ॥
३६८. अयमग्निरमूमुहद् यानि चित्तानि वो हदि।
वि वो धमत्वोकसः प्र वो धमतु सर्वतः ॥२ ।।
शत्रुओ ! तुम्हारे हृदय में जो विचार–समूह हैं, उनको अग्निदेव सम्मोहित कर दें तथा तुम्हें तुम्हारे निवास स्थानों से दूर हटा दें ।।३।।
३६९. इन्द्र चित्तानि मोहयन्नवाकृत्या चर।
अग्नेर्वातस्य भाज्या तान् विधूचों वि नाशय ।।३।।
है इन्द्रदेव ! आप रिपुओं के मनों को सम्मोहित करते हुए शुभ संकल्पों के साथ हमारे समीप पधारें । उसके बाद अग्निदेव एवं वायुदेव के प्रचण्ड वेग से उन रिपुओं की सेनाओं को चारों ओर से विनष्ट कर दें ॥३॥
३७. व्याकूतय एषामिताथो चित्तानि मुह्यत ।
अथो यदचैषां हृदि तदेषां पर निर्जहि
| हे विरुद्ध संकल्पो ! आप रिपुओं के मन में गमन करें । हे रिपुओं के मन ! आप मोहग्रस्त हों । हे इन्द्रदेव ! युद्ध के लिए उद्यत रिपुओं के संकल्पों को आप पूर्णतया विनष्ट कर दें ।।४ ॥
३७१. अमीषां चित्तानि प्रतिमोहयन्ती गृहाणाङ्गान्यये पहि।
| अभि प्रेहि निर्दह हृत्सु शोकैग्रह्यामित्रांस्तमसा विध्य शत्रून् ॥५ ।।।
है अप्ठे (पापवृत्ति या व्याधि) !तुम शत्रुओं को सम्मोहित करते हुए उनके शरीरों में व्याप्त हो जाओ । है । | अप्वे !तुम आगे बढ़ों और उनके ऋदयों को शोक में दग्ध करो, उन्हें जकड़कर पीड़ित करते हुए विनष्ट कर डालो ॥५ ।।
३७२. असौ या सेना मरुतः परेषामस्मानैत्यभ्योजसा स्पर्धमाना।
तां विध्यत तमसापव्रतेन यथैषामन्यो अन्यं न जानात् ।।६ ॥
है मरुतो ज़ो रिपु सेनाएँ अपनी सामर्थ्य के मद में स्पर्धापूर्वक हमारी ओर आ रहीं हैं, उन सेनाओं को आप अपने कर्महीन करने वाले अधिकार से सम्मोहित करें, जिससे इनमें से कोई भी शत्रु एक दूसरे को पहचान न सकें ॥६
[ ३ – स्वराजपुनः स्थापन सूक्त] [ ऋषि – अथर्वा । देवता – १ ऑन, ३, ६ इन्द्र, ३ वरुण, सोम, इन्द्र, ४ श्येन, अश्विनीकुमार, ५ इन्द्राग्नी,
विश्वेदेवा । छन्द – त्रिष्टुप् , ३ चतुष्पदा भुरिक पंक्ति, ५-६ अनुष्टुम् ।। कौशिक सूत्र में इस सूना का विनियोग या हो सके ये हुए राज्य पर पुन स्थानिकाने के रूप में दिया गया है। इस विशिष्ट संदर्भ में भी इसका प्रयोग होता रहा होगा, किंतु मंत्रार्थ इस क्रिया तक सीमित किये जाने योग्य नहीं है । किसी भी प्राणवान् द्वारा अपने खोए क्र्वस्त्र की प्रान जीम– चेतना या तेजस्वी प्राप–प्रवाहों को उपयुक्त स्थलों (काया कृति के विभिन्न घटको) में प्रतिष्ठित वाले का पाव इसमें स्पष्ट पानि होता है
का–३ सूक्त– ४
३७३. अचिक्रदत् स्वपा इह भुवदने व्यचस्व रोदसी उरूची।
अन्तु त्वा मरुतो विश्ववेदस आमं नय नमसा रातहूयम् ॥१॥
हे अग्निदेव ! यह (जीव या पदेच्छ व्यक्ति या राजा) स्वयं का पालन–रक्षण करने वाला हो–ऐसी घोषणा की गई है । आप सम्पूर्ण द्यावा-पृथिवीं में व्याप्त हों । मरुद्गण और विश्वेदेवा आपके साथ संयुक्त हों। आप नम्रतापूर्वक विदाता को यहाँ लाएँ, स्थापित करें ।। १ ।।
३७४. दूरे चित् सन्तमरुवास इन्द्रमा च्यावयन्तु सख्याय विप्नम्।
यद् गायत्रीं बृहतीमर्कममै सौत्रामण्या दधृषन्त देवाः ॥२॥
हे तेजस्विन् ! आप इस तेजस्वी की मित्रता के लिए दूरस्थ ज्ञानी इन्द्रदेव को यहाँ लाएँ । समस्त देवताओं ने गायत्री छन्द, बृहत छन्द तथा सौंबामणी यज्ञ के माध्यम से इसे धारण किया हैं ॥२ ।।
३७५. अयस्त्वा राजा वरुणो ह्वयतु सोमस्या ह्वयतु पर्वतेभ्यः ।
इन्द्रस्त्वा ह्वयतु विभ्य आभ्यः श्येनो भूत्वा विश आ पतेमाः ।।३।।
हें तेजस्विन् ! वरुणदेव जल के लिए, सोमदेव पर्वतों के लिए तथा इन्द्रदेव प्रज्ञाओं (आश्रितों को प्राणवान् बनाने के लिए आपको बुलाएँ। आप श्येन की गति से इन विशिष्ट स्थानों पर आएँ ।।३ ॥
३७६. श्येनो हव्यं नयत्वा परस्मादन्यक्षेत्रे अपरुद्धं चरन्तम् ।।
अश्विना पन्थां कृणुतां सुगं त इमं सजाता अभिसंविशध्वम् ।।४ ।।
स्वर्ग में निवास करने वाले देवता, अन्य क्षेत्रों में विचरने वाले हुव्य (बुलाने योग्य या हवनीयो को श्येन के समान द्रुतगति से अपने देश में ले आएँ । हे तेजस्विन् ! आपके मार्ग को दोनों अश्विनीकुमार सुख से आने योग्य बनाएँ । सजातीय (व्यक्ति या तत्त्व) इसे उपयुक्त स्थल में प्रविष्ट कराएँ ॥४ ||
३७७. यन्तु त्वा प्रतिजनाः प्रति मित्रा अवृषते ।
इन्द्राग्नी विश्वे देवास्ते विश क्षेममदीधरन्५ ।।
हे तेजस्विन् ! प्रतिकूल चलने वाले भी(आपका महत्त्व समझकर) आपको बुलाएँ । मित्रजन आपको संवर्धित करें । इन्द्राग्नि तथा विश्वेदेवा आपके अन्दर चैम (पालन-संरक्षण) की क्षमता धारण कराएँ ॥५॥
३८. यस्ते हवं विवदत् सजातो यश्च नियः ।
अपाञ्चमिन्द्र तं कृत्वाथेममहाच गमय ॥६॥
हैं इन्द्रदेव ! सभी विजातीय और सजातीय जन आपके आह्वनीय पक्ष की समीक्षा करें । उस (अवांछनीय को बहिष्कृत करके इस (वांछनीयों को यहाँ ले आएँ ॥६ ।।
[४- राजासंवरण सूक्त] [ ऋधि – अथर्वा । देवता – इन्द्र । छन्द –त्रिष्टुप्, १ जगतीं, ४, ५ भुरिंकू त्रिष्टुम् ।।
३७९. आ त्वा गन् राष्ट्रं सह वर्चसोदिहि प्राङ् विशां पतिरेकराट् त्वं वि राज।
सर्वास्त्वा राजन् प्रदिशो हृयन्तूपसद्यो नमस्यो भवेत् ।।१।।
हे राजन् ! (तेजस्व) यह राष्ट्र (प्रकाशवान् अधिकार क्षेत्र) आपको पुनः प्राप्त हो गया हैं । आप वर्चस्वपूर्वक अभ्युदय को प्राप्त करें । आप प्रज्ञाओं के स्वामी तथा उनके एक मात्र अधिपति बनकर सुशोभित हों। समस्त
अवर्ववेद संहिता भाग–१
दिशाएँ तथा उपदिशाएँ आपको पुकारें । आप यहाँ (अपने क्षेत्र में सबके लिए वन्दनीय बने ।।१ ।।
३८०. त्वां विशो वृणतां राज्याय त्वामिमाः प्रदिशः पञ्च देवीः ।
| वर्मन् राष्ट्रस्य ककुदि अयस्व ततो न उग्रो वि भजा वसूनि ॥२॥ | हे तेजस्विन् !ये प्राएँ आपको शासन का संचालन करने के लिए स्वीकार करें तथा पाँचों दिव्य दिशाएँ आपकी सेवा करें ।आप राष्ट्र के श्रेष्ठ पद पर आसीन हों और उग्रवीर होकर हमें योग्यतानुसार ऐश्वर्य प्रदान करें ।
३८१. अच्छ वा यन्तु हविनः सज्ञाता अग्निर्दूतों अजिर: सं चराते ।
जायाः पुत्राः सुमनसो भवन्तु बहु बलिं प्रति पश्यासा उग्रः ॥३॥ |
हे तेजस्विन् ! हवन करने वाले या बुलाने वाले सजातीय जन आपके अनुकूल रहें । दूतरूप में अग्निदेव तौबता से संचरित हों । सौ–बच्चे श्रान मन नाले हों ।आप उग्रवीर होकर विभिन्न उपहारों को देखें (प्राप्त करें ।।३।।
३८२. अश्विना त्वाग्रे मित्रावरुणोभा विश्वे देवा मरुतस्त्वा हृयन्तु ।
अघा मनो वसुदेयाय कृणुष्व ततो न उग्रो वि भजा वसूनि ॥४॥ |
हे तेजस्विन् ! मित्रावरुण, अश्विनीकुमार, निश्चेदेवा तथा दगण आगको बुलाएँ। आप अपने मन में धनदान में लगाएँ और प्रचण्डबीर होकर हमको भी यथायोग्ग ऐश्वर्य प्रदान करे ।।४ ।।
३८३. आ प्र द्रव परमस्याः परावतः शिवे ते द्यावापृथिवी उभे स्ताम्।
तदयं राजा वरुणस्तथाह स त्वायमद्धत् से उपेमेहि ।।५।।
हे तेजस्विन् ! आप दूर देश से भी द्रुतगति से यहाँ पधारें । द्यावा–पृथिवीं आपके लिए कल्याणकारी हों । राजा वरुण भी आपका आवाहन करते हैं, इसलिए आप आएँ और इसे प्राप्त करें ॥५॥
३८४. इन्द्रेन्द्र मनुष्या३: परेहि सं ज्ञास्था वरुणैः संविदानः ।
स त्वायमल्लन् स्वे सधस्थे स देवान् यक्षत् स उ कल्पयाद् विशः ।।६।।
हे शासकों के शासक (इन्द्रदेव ! आप मनुष्यों के समीप पधारें। वरुणदेव से संयुक्त होकर आप जाने गए हैं। अत: इन प्रत्येक धारणकर्ताओं में आपको अपने स्थान पर बुलाया है। ऐसे आप, देवताओं का वजन करते हुए प्रज्ञाओं को अपने–अपने कर्तव्य में नियोजित करें ॥६ ।।।
३८५. पश्या रेवतीर्बहुधा विरूपाः सर्वाः सङ्गत्य वरीयस्ते अक्रन्।
| तास्वा सर्वाः संविदाना हृयन्तु दशमीमुग्नः सुमना वशेह ।।७।। |
हे तेजस्विन् ! विभूति–सम्पन्न, मार्ग पर (लक्ष्य की ओर चलने वालों, विविधरूप वाली ज्ञाओं ने संयुक्तरूप से आपके लिए यह वरणीय (पद) बनाया है। वे सब आपको एक मत हॉकर बुलाएँ । आप ठमवर एवं श्रेष्ठ मन वाले होकर दसमी (चरमावस्था) को अपने अधीन करें |||
| [५ • राजा और राजकृत सूक्त] [ ऋषि – अथर्वा । देवता – सोम या पर्णमणि । छन्द – अनुष्टुप्, १ पुरोऽनुष्टुत्रिष्टुप् ४ त्रिष्टुप, ८
विरारोबृहतीं ।]। इस सूक्त में पर्णपण का विवरण है। कोर्षों में पर्ण का अर्थ ‘पसाशं दिया गया। इस आधार पर ई आना ने पर्णमणि को समणि माना है। इधर शत (६.५.१.१) के अनुसार सोमो मैं पः‘ (सोम में पर्य है। तया नै (१.३.६] यह पोर्म से ही बना हुआ कहा गया है। इस आधार पर घमणि को सम्मिणि कमाने के
का–३
अनुसार ‘सम‘ दिव्यपोषक इस के रूप में प्रसिद्ध है। इस आधार पर यह किन्हीं दिव्य औषधियों के संयोग से निर्मित हो सकता है। प्रथम मंत्र में इसे देवानाम् ओर‘ तथा ‘ओपींना फ्यः‘ (देवों का ऑप या आवधियों का सार) कहा गया है। इस कथन के आधार पर भी इसे सोम या अनेक औषधियों के संयोग से निर्मित माना जा सकता है । ३८६. आयमगन् पर्णमणिर्बल बलेन प्रमृणन्सपलान्।
ओजो देवानां पय ओषधीनां वर्चसा मा जिन्वत्वप्रयावन् ॥१॥ | यह बलशाली पर्णमणि अपने बल के द्वारा रिपुओं को विनष्ट करने वाली हैं। यह देवों का ओजस् तथा | ओषधियों का साररूप है । यह हमें अपने वर्चस् से पूर्ण कर दें ।।१ ।। ३८७. मयि क्षत्रं पर्णमणे मयि धारयताद् रयिम्। | अहं राष्ट्रस्याभीवर्गे निजो भूयासमुत्तमः ॥२॥
हे पर्णमणे ! आप हमारे अन्दर शक्ति तथा ऐश्वर्य स्थापित करें, जिससे हम राष्ट्र के विशिष्ट वर्ग में उत्तम आत्मीय बन कर रहें ॥२ ।।। ३८८. यं निदधुर्वनस्पतौ गुह्यं देवाः प्रियं मणिम्। तमस्मभ्यं सहायुषा देवा ददतु भर्तवें ॥ | जिस गुप्त तथा प्रिय मणि को देवताओं ने वनस्पतियों में स्थापित किया है, उस मणि को देवगण पोषण तथा आयु-संवर्द्धन के लिए हमें प्रदान करें ॥३॥
३८९. सोमस्य पर्ण: सह उग्रभागन्निन्द्रेण दत्तो वरुणेन शिष्टः ।
तं प्रियास बहु रोचमानो दीर्घायुत्वाय शतशारदाय ॥४॥
इन्द्रदेव के द्वारा प्रदत्त तथा वरुणदेव के द्वारा सुसंस्कारित यह समपर्णमणि प्रचण्ड़ बल से सम्पन्न होकर | हमें प्राप्त हो । उस तेजस्वी मणि को हम दीर्घायु तथा शतायु की प्राप्ति के लिए प्रिय मानते हैं ॥४॥ ।
३९०. आ मारुक्षत् पर्णमणिर्मह्या अरिष्टतातये ।
यथाहमुत्तरोसान्यर्यम्ण उत संविदः ॥५॥
यह पर्णमणि चिरकाल तक हमारे समीप रहतीं हुई हमारे लिए कल्याणकारी हो। हम अर्यमादेव की कृपा |से इसे धारण करके समान बल वालों से भी महान् बन सके ॥५॥ | ३९१. ये धीवानो रथकाराः कर्मारा ये मनीषिणः ।
उपस्तीन् पर्ण मह्यं त्वं सर्वान् कृण्वभितो जनान् ॥६ ।। हे पर्णपणे ! धीवर, रथ बनाने वाले, लौह कर्म करने वाले, जो मनीषी हैं, उन सबको हमारे चारों तरफ परिचर्या के लिए आप उपस्थित करें ।।६ ॥ । |
३९३. ये राजानो राजकृतः सूता ग्रामण्यश्च ये। ।
उपस्तीन् पर्ण मह्यं त्वं सर्वान् कृण्वभितो जनान् ।।७।।
हे मणे ! जो विभिन्न देशों के राजा और राजाओं का अभिषेक करने वाले हैं तथा जो सूत और ग्राम के नायक | हैं, उन सभी को आप हमारे चारों ओर उपस्थित करें ॥७ ।।
३९३. पर्णोसि तनूपानः सयोनिर्वीरो बीरेण मया।
संवत्सरस्य तेजसा तेन बध्नामि त्वा मणे ।।८।।
अर्बकंद संला माग–१
सोमपर्ण से उद्भून हे मणे ! आप शरीर–रक्षक हैं। आप वीर हैं, हमारे समान–जन्मा हैं। आप सविता के तेज से परिपूर्ण हैं, इसलिए आपका तेज पहण करने के लिए हम आपको धारण करते हैं ।।८ ॥
[६- शत्रुनाशन सूक्त] | ऋषि – जगद्बीज पुरुष। देवना अश्वत्थ वनस्पति) । छन्द – अनुष्टुप् ।] इस सत्र के प्रथम मंत्र में अन्य दिले अघि वाक्य आता है। इस सूक्त के द्वारा खदिर (खैर) के वृक्ष में से में अन्य (पील) व से बनीं पण का प्रयोग कौशिक सूत्र में दिया गया है । सामादि आचार्यों ने उसी संदर्भ में क ई किये हैं। व्यापक संदर्भ में ‘अश्वथ खदिर आँध वाक्य गीता के कथन ‘ मुस्लम शखम् वाले अब के मघ को स्पष्ट कसे वाला है। वास्पत्यम् कोप में आकाश से भ्रष्ट करने वाले को दिर कम है (जे आकाशे दीया बापने करिय बE = १६६४) । गोक्त अनुत्य अनार विम – बीवन छ । मिसकी बड़े अपर ‘आकाश‘ में है इसलिये इस त्व को ‘दिरे आँध (आकाश से इशपूर्त के क्रम में स्थित ह त हैं। इस सूक्त के विद्व य पुरु‘ (विस के मूल कारण पुरुष) हैं । इस आधार पर अन्य की संगति विवव के साथ सटीक बैठती हैं ३९४. पुमान् पुंसः परिजातोऽश्वत्थः खदिरादधि।
| स इन्तु शत्रुन् मामकान् यानहं बेमि ये च माम् ॥१॥ | वीर्यवान् (पराक्रम) से वीर्यवान् की उत्पत्ति होती है । उसी प्रकार खदिर (खैर वृक्ष या आकाश से आपूर्ति करने वाले चक्रों के अन्दर स्थापित अश्वत्थ (पीपल अथवा विश्ववृक्ष) उत्पन्न हुआ है । वह अश्वत्थ (तेजस्वी उन शत्रुओ (विकारों) को नष्ट करे, जो हमसे द्वेष करते हैं तथा हम जिनसे द्वेष करते हैं ॥१ ॥
| [ आयुर्वेद में रदिर और पॉपल दोनों युवा रोग निवारक है। खदिर में पत्र पीपल के विशेष गुणों के उपयोग की बात कहा जाना चत है। जीवन वृक्ष जीवन व की आपूर्ति का आयार आकाश में उपलक्ष्य अष्ट सृष्ट्वा प्रवाह है । वह अविनाशी जैव–तत्व हमारे विकारों को नष्ट करने वाला है। यह कामना व द्वारा की गई हैं।
३९५. तानश्वत्थ निः शृणीहि शत्रून् वैबाधदोधतः ।
इन्द्रेण वृन्नना मेदी मित्रेण वरुणेन च ।।२।।
हे अश्वत्थ ! (अश्व के समान स्थित दिव्य जीवन तत्त्व) आप विविध बाधाएँ उत्पन्न करने वाले उन द्रोहियों को नष्ट करें । (इस प्रयोजन के लिए आप) वृत्रहन्ता इन्द्र, मित्र तथा वरुणदेवों के स्नेहीं बनकर रहें ॥३॥
३९६. यथाश्वत्थ निरभनोन्तर्महत्यर्णवे।
एवा तान्त्सर्वान्निर्भग्ध यानहं द्वेष्मि ये च माम् ।।३।।
हे अश्वत्थ ! जिस प्रकार आप अर्णव (अन्तरिक्ष) को भेदकर उत्पन्न हुए हैं, उसी प्रकार आप हमारे उन रिपुओं | को पूर्णरूप से विनष्ट करें, जिनसे हम विद्वेष करते हैं तथा जो हमसे विद्वेष करते हैं ॥३॥
३९७. यः समानश्चरसि सत्सहान इव ऋषभः ।
तेनाश्वत्थ त्वया वयं सपनासपीमहि ।।४।।
है अश्वत्थ ! जिस प्रकार आप शत्रु को रौंदने वाले वृष के सदृश बढ़ते हैं, उसी प्रकार आपके सहयोग से | हम मनुष्य अपने रिपुओं को विनष्ट करने में समर्थ हों ।।४।।
३९८. सिनात्वेनान् निऋतिर्मृत्योः पाशैरमक्यैः।
अश्वत्थ शत्रून् मामकान् यानहं द्वेष्मि ये च माम् ॥५॥
हे अश्वत्थ ! निर्मत (विपत्ति) देव हमारे उन रिपुओं को न टूटने वाले मृत्यु पाश से बाँधे, जिनसे हम विद्वेष करते हैं तथा जो हमसे विद्वेष करते हैं ।।५ ॥
– सूक्त– १
३१९. घथामात्य वानस्पत्यानारोहन् कृणुषेऽधरान् ।
एवा में शोर्मूर्धानं विष्वग् भिन्द्धि सहस्य च ॥६॥
है अश्वत्थ ! जिस प्रकार आप ऊपर स्थित होकर वनस्पतियों को नीचे स्थापित करते हैं, उसी प्रकार आप हमारे रिंषुओं के सिर को सब तरफ से विदीर्ण करके उन्हें विनष्ट कर डालें ॥६॥
४००. तेघराचः प्र नवन्त छिन्ना नौरिव बन्धनात् ।
न वैबाधप्रणुत्तानां पुनरस्ति निवर्तनम् ॥७॥ जिस प्रकार नौका-बन्धन छूट जाने पर नदी की धारा में नीचे की ओर प्रवाहित होती हैं, उसी प्रकार हमारे रिपु नदी की धारा में ही बह जाएँ। विविध बाधाएँ उत्पन्न करने वालों के लिए पुनः लौटना सम्भव न हो ॥ ॥
४०१. शैणान् नुदे मनसा प्र चित्तेनोत ब्रह्मणा ।
मैणान् वृक्षस्य शाख़याश्वत्थस्य नुदामहे ।।८।। | हम इन शत्रुओं (विकारों को ब्रह्मज्ञान के द्वारा मन और चित्त से दूर हटाते हैं। उन्हें हम अश्वत्थ (जीव–वृक्ष) की शाखाओं (प्राणधाराओं ) द्वारा दूर करते हैं ।।८ ॥
[७– यक्ष्मनाशन सूक्त ] [ प – भृग्वाङ्गिरा। देवता – यक्ष्मनाशन (१-३ हरिण, ४ तारागण, ५ आपः, ६-७ यक्ष्मनाशन) । छन्द
अनुष्टुप् १ भुरिक अनुष्टुप् ।] इस सूक्त में ‘शैक्रिय रोगों के उपचार का वर्णन है। बेक्यि रोगों का अर्थ सामान्य रूप से आनुवंशिक रोग लिया जाता है। गीता में ‘बेत्र‘ शरीर को कहा गया है। शरीर में बाहरी विषाणुओं से कुछ रोग पनपते हैं। कुछ रोगों की पत्ति (आनुवंशिक वा अन्य कारणों से शांर के अन्य हो । ती समय में मन में यम्याई । इनर्गों की ओषधि ‘ह्मरणस्य शीर्ष आदि में कही गयी है, जिसका अर्थ हिरण के सि के आंतरिक्त हरणशील किरण का स्वच्छ पाग ‘सुर्य भी होता है । विवाण का अर्थ सींग तो होता है–हिमण के सींग मृगगंगों का उपयोग में होता है। क्विाण का अर्थ कायों में कुष्यादि की ओषधि तथा विशेष पदकारी भी है। सूर्य के क्न्दर्भ में ये अचं लिए जा सकते हैं। पचारों (मंत्र ४ से) में आकाशीय नक्षत्रों तथा स–रस आदि का भी लेख है। इन सबके समुचित संयोग से उत्पन्न प्रभावों पर शोय अपेक्षित है ४०३. हरिणस्य रघुष्यदोऽथि शीर्षण भेषजम् ।
स क्षेत्रियं विषाणया विधूचीनमननशत् ॥१॥ द्रुतगति से दौड़ने वाले हरिण (हिरण या सूर्य) के शीर्ष (सर्वोच्च भाग) में रोगों को नष्ट करने वाली ओषधि है। वह अपने विषाण (सँग अथवा विशेष प्रभाव) में क्षेत्रिय रोगों को विनष्ट कर देता हैं ॥ १ ॥
४०३. अनु वा हरिण वृषा पश्चितुर्भिरक्रमीत्।
विषाणे वि घ्य गुपितं यदस्य क्षेत्रियं हृदि ।।२।।
यह बलशाली हरिण (हिरण या सूर्य) अपने चारों पदों (चरणों) से तुम्हारे अनुकुल होकर आक्रमण करता है। हे विषाण ! आप इसके (पीड़ित व्यक्ति के हृदय में स्थित गुप्त क्षेत्रिय रोगों को विनष्ट करें ॥२ ।।
४०४. अदो यदवरोचते चतुष्पक्षमिवच्छः ।
तेना ते सर्व क्षेत्रियमड़ेभ्यो नाशयामसि ।।३।।
अथर्ववेद संहिता भाग–१ ।
, यह जो चार पक्ष (कोनों या विशेषताओं से युक्त छन की भाँति (हिरण का चर्म अथवा आकाश सुशोभित हो रहा है, उसके द्वारा हम आपके अंगों से समस्त क्षेत्रिय रोगों को विनष्ट करते हैं ॥३॥
४०५. अमू ये दिवि सुभगे विचूतौ नाम तारके।
वि क्षेत्रियस्य मुख्यातामथमं पाशमुत्तमम् ।।४।।
अन्तरिक्ष में स्थित विवृत (मूल नक्षत्र या प्रकाशित) नामक जो सौभाग्यशाली तारे हैं, वे समस्त क्षेत्रिय रोगों को शरीर के ऊपर तथा नीचे के अंगों से पृथक् करें ॥४॥
४०६. आप इद् वा ३ भेषज्ञीरापो अमीबचातनीः ।
आप विश्वस्य भेषजीस्तास्त्वा मुञ्चन्तु क्षेत्रियात् ।।५।।
जल समस्त रोगों की औषधि है। स्नान–पान आदि के द्वारा यह जल ही औषधि रूप में सभी रोगों को दूर करता है। जो अन्य ओषधियों की भाँति किसी एक रोग की नहीं, वरन् समस्त रोगों की ओषधि हैं, हे रोगिन् । ऐसे जल से तुम्हारे सभी रोग दूर हों ।।५।। | [ ओवधि अवा मंत्र युक्त के प्रयोग का संकेत प्रतीत होता है।
४०७. यदासुतेः क्रियमाणायाः क्षेत्रियं त्वा ध्यानशे।
वेदातुं तस्य भेषजं क्षेत्रियं नाशयामि त्वत् ।।६ ॥
हे रोगिन् ! बिगड़े हुए सवित रस से आपके अन्दर जो क्षेत्रिय रोग संव्याप्त हो गया है, उसकी ओषधि को हम जानते हैं। उसके द्वारा हम आपके क्षेत्रिय रोग को विनष्ट करते हैं ॥६॥ | [ शरीर में विविध प्रकार के इस सवत होते हैं। क्या वे उस काक्कि तंत्र विगढ़ जाने से दोषपूर्ण में जाते हैं, तो क्षेत्रिय रोग उत्पन्न होते हैं। रोगों के मूल कारण के निवारण का संकल्प इस मंत्र में व्यक्त हुआ है।]
४०८. अपवासे नक्षत्राणामपवास उषसामुत ।
अपास्मत् सर्वं दुर्भूतमप क्षेत्रियमुच्छतु ।।७।।
नक्षत्रों के दूर होने पर उषाकाल में तथा इषा के चले जाने पर दिन में समस्त अनिष्ट हमसे दूर हों । क्षेत्रिय रोगादि भी इसी क्रम में दूर हो जाएँ ॥७॥
[८ – राष्ट्र धारण सूक्त ] [ी – अथर्वा । देवता –मित्र (१ पृथिवीं, वरुण, वायु, अग्नि, ३ धाता, सविता, इन्द, त्वष्टा, अदिति, ३ सोम, सविता, आदित्य, अग्नि ४ विश्वेदेवा, ५–६ मन) । छन्द – त्रिष्टुप् , २६ जगतीं, ४ चतुष्पदा विराट् बृहतीगर्भा
त्रिष्टुप् ,५ अनुष्टुप् ।]
४०९. आ यातु मित्र ऋतुभिः कल्पमानः संवेशयन् पृथिवीमुस्रियाभिः ।
अथास्मभ्यं वरुणो वायुरनिर्वृहद् राष्ट्रं संवेश्यं दधातु ॥१॥
मित्रदेव अपनी रश्मियों के द्वारा पृथ्वी को संव्याप्त करते हुए ऋतुओं के द्वारा हमें दीर्घजीवी बनाने में सक्षम होकर पधारें । इसके बाद वरुणदेव, वायुदेव तथा अग्निदेव हमारे लिए शान्तिदायक बृहत् राष्ट्र
को सुस्थिर करे ॥ १ ॥
४१०. धाता रातिः सवितेदं जुषन्तामिन्द्रस्त्वष्टा अति इर्यन्तु में वचः।
हुवे देवीमदितिं शूरपुत्रां सजातानां मध्यमेष्ठा यथासानि ॥२ ॥
का–३ सूक्त–१
सबके धारणकर्ता धातादेव, दानशील अर्यमादेव तथा सर्वप्रेरक सवितादेव हमारी आहुतियों को स्वीकार करें । इन्द्रदेव तथा त्वष्टादेय हमारी स्तुतियों को सुनें । शूरपुत्रों की माता देवी अदिति का हम आवाहन करते हैं, जिससे सजातियों के बीच में हम सम्माननीय बन सकें ॥३॥
४११. हुवे सोमं सवितारं नमोभिर्विश्वनादित्य अहमुत्तरखे।
| अयमग्निर्दीदायद् दीर्घमेव सजातैरिद्धोऽप्रतिबुवलिः ॥३॥
प्रयोग करने वाले याजक को अत्यधिक श्रेष्ठता दिलाने के लिए हम सोमदेव, सवितादेव तथा समस्त आदित्यों को नमनपूर्वक आहूत करते हैं । हवियों के आधारभूत अग्निदेव प्रज्वलित हों, जिससे सवातियों के द्वारा हम चिरकाल तक वृद्धि को प्राप्त करते रहें ।।३ ॥
४१२. इहेदसाथ न परो गमाथेय गोपाः पुष्टपतिर्व आजत् ।
अस्मै कामायोप कामिनीविश्वे वो देवा उपसंयन्तु ।।४।।
हैं शरीर या राष्ट्र में रहने वाली प्रज्ञा–शक्तियों ! आप यहीं रहें, दूर न आएँ । अन्न या विद्याओं से युक्त गौ (गाय, पृथ्वी अथवा इन्द्रियों ) के रक्षक, पुष्टि प्रदाता आपको ताएँ । कामनायुक्त आप प्रज्ञाओं को इस कामना की पूर्ति के लिए विश्वेदेव, एक साथ संयुक्त करें ।।४ ।।।
४१३. सं वो मनांसि सं व्रता समाकूतीर्नमार्मासि।
अमी ये विव्रता स्थन तान् वः सं नमयामसि ।।५।।
(हे मनुष्यो !) हम आपके विचारों, कर्मों तथा संकल्पों को एक भाव से संयुक्त करते हैं। पहले आप जो विपरीत कर्म करते थे, उन सबको हम श्रेष्ठ विचारों के माध्यम से अनुकूल करते हैं ॥५॥
४१४. अहं गृभ्णामि मनसा मनांसि मम चित्तमनु चित्तेभिरेत् ।
मम वशेषु हृदयानि वः कृणोमि मम यातमनुवर्मान एत ।।६ ॥
| हम अपने मन में आपके मन को धारण (एक रूग) करते हैं। आप भी हमारे चित्त के अनुकूल अपने चित्त को बनाकर पधारें । आपके हृदयों को हम अपने वश में करते हैं। आप हमारे अनुकूल चलने वाले होकर पधारें ॥६
[९- दुःखनाशन सूक्त] [ ऋषि – वामदेव । देवता – द्यावापृथिवीं, विश्वेदेवा । छन्द – अनुटुप, ४ चतुष्पदा निवृत् बृहती, ६ भुरिक्
अनुम् । । कौशिक सूत्र में इस सूक्त के साथ ‘अनु‘ व की मणि बक्रि विकय रोग के निवारण का प्रयोग सुम्माया गया है। सायगाद आचार्यों ने मंत्रार्थ कविया को लक्ष्य करके ही किये हैं। किन्तु मान मंत्रों में अनु मणि‘ का कोई अन्लेख नहीं है। मंत्रों में रोग निरोचक प्राण शक्ति शायण करने का भाव परिलक्षित होता है। उसे धारण करने के सूत्र भी दिए गए हैं। तु पण से मी उसमें ससयता मिलनी होगी इसलिए उसे न मंत्रों के साथ बाँधने का विधान बनाया गया होगा। मंत्री के स्याफ्क अर्थ कान्हा ही बुक संगत लगता है
४१५. कर्शफस्य विशफस्य द्यौष्पिता पृथिवी माता।
यथाभिचक्र देवास्तथाप कृणुता पुनः ।।१।।
कृशफ (निर्बल अधवा कृश जुरों–नाखूनों वाले) प्राणी, विशफ (बिना खुर वाले, अँगने वाले, अथवा विशेष खुरों वाले) प्राणियों का पालन–पोषण करने वाले माता– पिता पृथ्वी तथा द्यौ है । हे देवताओं ! जिस प्रकार आपने | इन विघ्न–बाधाओं के कारणों को हमारे सामने प्रस्तुत किया है, उसी प्रकार इन बाधाओं को हमसे दूर करें ।।१ ॥
।
अथर्ववेद संहिता भाग–१
| [ प्रकृति में हर प्राणी को किसी प्रयोजन से क्नाया है तथा उनके पास की व्यवस्था की हैं। उनमें से अनेक प्राणी मनुष्यों के लिए बायक भी बनते हैं। उनकी उपयोगिता बनाये रखकर बाधाओं के शमन की प्रार्थना देवशक्तियों से की गई है।
४१६. अश्रेष्माणो अधारयन् तथा तन्मनुना कृतम्। |
कृणोमि वध विष्कन्धं मुष्काबह गवामिव ॥२॥
न थकने वाले ही इस (मणि या रोग निरोधक शक्ति) को धारण करते हैं। मनु ने भी ऐसा ही किया था। हम विष्कंध आदि रोगों को उसी प्रकार निर्बल करते हैं, जैसे बैलों को बधिया बनाने वाले उन्हें काबू में करते हैं ।।३।।
४१७. पिशङ्गे सूत्रे खगलं तदा बध्नन्ति वेधसः ।
श्रवस्य॒ शुष्मं काबवं वद्धिं कृण्वन्तु बन्धुरः ।।३।।
| पिंगल (रंग वाले अथवा दृढ़) सूत्र से उस बगल (मणि अथवा दुर्धर्ष) को हम बाँधते हैं। इस प्रकार चाँधने वाले लोग प्रबल, शोषक रोग को निर्बल बनाएँ ।।३।। ४१८. येना श्रवस्यवश्चरथ देवा इवासुरमायया।
शूनां परिव दूषणो बन्धुरा काबवस्य च ॥४॥
है यशस्वियों ! आप जिस प्रबल माया के द्वारा देवों की तरह आचरण करते हैं, उसी प्रकार बन्धन वाले (मणि बाँधने वाले अथवा अनुशासनबद्ध व्यक्ति दूषणों (दोषों ) और रोगों से मुक्त रहते हैं, जैसे बन्दर कुत्तों से मुक्त रहते हैं ॥ ४ ॥
” [ कुत्ते अन्य भूचरों के लिए बड़े घातक तथा भय के कारण सिद्ध होते हैं, किन्तु दर अपनी फुर्ती के आधार पर उनसे सहज ही अप्रभावित रहते हैं, उसी प्रकार रोग शामक अलायुक्त व्यक्ति रोगों से प्रभावित–निर्भय ह लेते हैं।
४१९. दुष्ट्यै हि त्वा भत्स्यामि दूषयिष्यामि काबवम्।
अदाशवो रथा इव शपथेभिः सरिष्यथ ।५ ।।
है मणि या रोगनाशक शक्ति ! दूसरों के द्वारा उपस्थित किए गए विप्नों को असफल करने के लिए हम आपको धारण करते हैं। आपके द्वारा हम विघ्नों का निवारण करते हैं। (हे मनुष्यों !) द्रुतगामी रथों के समान आप विनों से दूर होकर अपने कार्य में जुट जाएँ ॥ ५ ॥
४२०. एकशतं विष्कन्धानि विष्ठिता पृथिवीमनु ।
तेषां त्यामग्न अजहरुर्मणि विष्कन्धदूषणम् ॥६॥
धरती पर एक सौ एक प्रकार के विघ्न विद्यमान हैं। हे मणे ! उन दिनों के शमन के लिए देवताओं ने आपको ऊँचा उठाया (विशिष्ट पद दिया) है ॥६॥
[१० • रायस्पोषप्राप्ति सूक्त] [ ऋषि– अथर्वा । देक्ता – अष्टका (१ धेनु, २-४ रात्रि, धेनु, ५ एकाष्टका, ६ जातवेदा, पशुसमूह, ७ रात्रि, यज्ञ, – ८ संवत्सर, १ जुएँ, १० धाता– विधाता, ऋतुएँ, ११ देवगण, १३ इन्द्र, देवगण, १३ प्रजापतिः ।।
छन्द–अनुष्टुप् , ४–६, १२ त्रिष्टुप्, ५ न्यबसाना घपदा विराट् गर्भातिजगती ।।] । इस सूक्त के देवता एकाका तया और भी अनेक देवता हैं। सूत्र बच्चों के अनुसार इस सूक्त का उपयोग हुन विशेष में भी किया जाता है। वह योग माघ कृष्ण आयी (जिसे अका | हैं) पर किया जाता है। सूत्व में वर्णित एकाएका को इस अवा से जोड़कर आचार्यों ने मंत्राई किये हैं। सूक्त के
मु ख्यम से स्पष्टता दिएका का अर्थ व्यापक लेना चाहिए। इसकी संगति आठ प्रहर वाले अहोरात्र (दिन–रात) से बैलती है। इस सूक्त में काल (समय) के मन को भाव
काण्ड ३
–११
आया है। उसकी मूल इकाई अहोरात्र (पृथ्वी का अपनी धुरी पर एक चक घूमने का समय ही है। मंत्र क्रमांक १ में एका को संवसर की पत्नी कहकर सम्बोधित किया गया है, अतः काष्का का व्यापक अर्थ प्रों का एक अष्टक, अहोरात्र अक्कि सटीक बैठता है ४२१. प्रथमा हवा यास सा धेनुरभवद् यथे।
सा नः पयस्वती दुहामुत्तरामुत्तरां समाम् ॥१॥
जो (एकाका) प्रथम हौं उदित हुई, वह नियमित स्वभाव वाली धेनु (गाय के समान धारण–पोषण करने वाली) सिद्ध हुई । वह पथ–प्रवाहित करने वाली (दिव्य धेनु हमारे निमित्त उत्तरोत्तर पथ–प्रदायक बनी रहे ॥१ ।।। ४२२. यां देवाः प्रतिनन्दन्ति रात्रिं धेनुमुपायतीम्। । संवत्सरस्य या पत्नी सा नो अस्तु सुमङ्गली ।।२।।
आने वालों (एकाएका से सम्बन्धित जिस रात्रि रूपी गौं को देखकर देवतागण आनन्दित होते हैं तथा जों संवत्सर रूप काल (समय) की पत्नी है, वह हमारे लिए श्रेष्ठ मंगलकारों हों ॥२ ॥
४२३. संवत्सरस्य प्रतिमां यां त्वा रान्युपास्महे ।
| सा न आयुष्मर्ती प्रज्ञां रायपोषेण सं सूज ॥३॥
है रात्रे ! हमआपको संवत्सर की प्रतिमा मानकर आपकी उपासना करते हैं। आप हमारी सन्तानों को दीर्घायु प्रदान करें तथा हमें गवादि धन से संयुक्त करें ॥३||
४२४. इयमेव सा या प्रथमा व्यौच्छदास्वतरासु चरति प्रविष्टा।
महान्तो अस्यां महमानों अतर्वधूर्जिगाय नवगज्जनत्री ।।४ ॥
यह (एकाष्टका) वहीं हैं, जो सृष्टि के प्रारम्भ में उत्पन्न हुई और (समय के अन्य घटकों में समाहित होकर चलती है ।इसके अन्दर अनेक महानताएँ हैं वह नववधू की तरह प्रजननशील तथा जयशील होकर चलती है ॥४॥
|| मास, ऋतु संक्सर आदि में एकाएका(नोरात्र) समाहित हती है। इसी से काल के अन्य घटक जन्म लेते हैं तथा यह सभी काम घटकों को अपने वश में रखती है।
४२५. वानस्पत्या ग्रावाण घोषमक़त हविष्कृण्वन्तः परिवत्सरीणम्।
एकाष्टके सुप्रजसः सुवीरा वयं स्याम पतयो रचणाम् ॥ ५ ॥
संवत्सर में चलने वाले यज्ञ के लिए हवि तैयार करने के क्रम में वनस्पतियाँ तथा मावा (पत्थर) ध्वनि कर | रहे हैं । हे एकाष्टके !आपके अनुग्रह से हम श्रेष्ठ सन्तानों तथा वीरों से संयुक्त होकर प्रचुर धन के स्वामी हों ॥५ ।।
४२६. इड़ायास्पदं घृतवत् सरीसृपं जातवेदः प्रति हव्या गृभाय।।
ये ग्राम्याः पशवो विश्वरूपास्तेषां सप्तानां मयि रन्तिरस्तु ।।६ ॥
भूमि पर गतिशील हे जातवेदा अग्निदेव ! आप हमारी गौ–घृतयुक्त आहुतियों को ग्रहण करके हर्षित हों। जों माम (समूहों में रहने वाले नाना रूप वाले पशु हैं, उन ग, अश्व, भेड़, बकरी, पुरुष, गधा, ऊँट आदि) सातों प्रकार के प्राणियों का हमारे प्रति स्नेह बना रहे ।।६।।
४२७. आ मा पुष्टे च पोधे च रात्रि देवानां सुमतौ स्याम । पूर्णा दवें परा पत
सुपूर्णा पुनरा पत। सर्वान्यज्ञान्त्संभुञ्जतीषमूर्ज न आ भर ।।७।।
हे राजे ! आप हमें ऐश्वर्य तथा पुत्र–पौत्र आदि से परिपूर्ण करें। आपकों अनुकम्पा से हमारे प्रति देवताओं
अवेद संहिता भाग–१
की सुमति (कल्याणकारी बुद्धि बनी रहे । यज्ञ के साधनरूप में दर्वि ! आप आहुतियों से सम्पन्न होकर देवों को प्राप्त हों। आप हमें इच्छित फल प्रदान करती हुई हमारे समीप पधारें । उसके बाद आहुतियों से तृप्ति को प्राप्त करके हमें अन्न और बल प्रदान करें ।।७।।
४२८, आयमगन्त्संवत्सरः पतिरेकाष्टके तय ।
सो न आयुष्मत फ्रज रायस्पोपेण से सूज
हे एकाष्टके ! यह संवत्सर आपका पति बनकर यहाँ आया है । आप हमारी आयुष्मती सन्तानों को ऐश्वर्य में सम्पन्न करें ॥८॥
४२९. ऋतून् यज्ञ ऋतुपतीनार्तवानुत हायनान्।
समाः संवत्सरान् मासान् भूतस्य पतचे यजे ॥९॥
हम ऋतुओं और उनके अधिष्ठाता देवताओं का हवि द्वारा पूजन करते हैं। संवत्सर के अंग रूप दिन–रात्रि का हम हवि द्वारा यजन करते हैं। ऋजु के अवयव–कला, काष्ठा, चौबीस पक्षों, संवत्सर के बारह महीनों तथा प्राणियों के स्वामी काल का हवि द्वारा यजन करते हैं ॥९ ।।।
४३०, अनुष्यवार्तवेभ्यो मायः संवत्सरेभ्यः।
माने विघान्ने समूचे भूतस्य पतये यॐ ।।१०।। १३
हे एकाष्टके ! माह, ऋतु, ऋतु से सम्बन्धित रात–दिन ऑर वर्ष धाता, विधाता तथा समृद्ध देवता और जगत् के स्वामी की प्रसन्नता के लिए हम आपका यज्ञन करते हैं ॥१६॥
[यों समय के वजन का चाव महत्वपूर्ण हैं। समय जीवन की मूल सम्पन्न है। उसे यज्ञीय कार्यों के लिए समर्पित करना श्रेष्ठ र कर्म है। इसे यमीय सत्कार्यों के लिए समयदान कह सकते हैं।
४३१. इडया जुहृतो वयं देवान् घृतवता जे।
गृहानलुभ्यतो वयं से विशेमोप गोमतः ।।
हम गो–मृत से युक्त हवियों के द्वारा समस्त देवताओं का यजन करते हैं। उन देवताओं की अनुकम्पा से हम असीम गौओं से युक्त घरों को महण करते हुए समस्त कामनाओं की पूर्ति का लाभ प्राप्त कर सकें ॥११ ॥
४३३. एकाका तपसा तप्यमाना जजान गर्भ महिमानमिन्द्रम्।
| तेन देवी च्यसहन्त शत्रून् हन्ता दस्यूनामभवच्छचीपतिः ॥१२॥
इस एकाएका ने तप के द्वारा स्वयं को तुपाकर महिमावान् इन्द्रदेव को प्रकट किया। उन इन्द्रदेव की सामर्थ्य से देवों ने असुरों को जीता, क्योंकि वे शचीपति इन्द्रदेव रिपुओं को विनष्ट करने वाले हैं ॥ १३ ॥
| [इड संगठकदेव हैं। काल का गठन अहोरात्र रूप आएका ही करती है। यह इन्द्र की मदात्री कहीं जा सकती है।
४३३. इन्द्रपुत्रे सोमपुत्रे दुहितासि प्रजापतेः।
कामानस्माकं पूरय प्रति गृह्णाहि नो हविः ।।१३।।
हे एकाष्टके ! हे इन्द्र जैसे पुत्र वाली ! हे सोम जैसे पुत्र वालों ! आप प्रजापति की पुत्री हैं। आप हमारी आहुत्तियों को ग्रहण करके हमारी अभिलाषाओं को पूर्ण करें ॥१३ ।।
| [ ११ – दीर्घायुप्राप्ति सूक्त] -. । ऋधि – ब्रह्मा, भृग्वङ्गरा । देवना – इन्द्राग्नी, आयु, यक्ष्मनाशन । छन्द – त्रिष्टुप् , ४ शक्वरीगर्भा जगतीं,
५-६ अनुष्टुप् , ७ उष्णिक वृहतीगर्भा पथ्यापंक्ति, ८ व्यवसाना घट्दा बृहतीगर्भा जगतीं।] इस सूक्त में यक्षीय प्रयोगों द्वारा रोग–क्विाण तथा जीवनीशक्ति के संवर्द्धन का स्पष्ट उल्लेख किया गया है
=
।
का–३
–१६
४३४. मुञ्चामि त्वा हविषा जीवनाय कमज्ञातयक्ष्मात राजयक्ष्मात् । |
आर्जिग्राह यतदेनं तस्या इन्द्राग्नी ५ मुमुक्तमेनम् ॥१ ।।
हे रोगिन् ! तुम्हारे शरीर में प्रविष्ट यक्ष्मा (रोग), राजयक्ष्मा (राज रोग) से मैं हवियों के द्वारा तुम्हें मुक्त करतो हैं। है इन्द्रदेव और अग्निदेव ! पीड़ा से जकड़ लेने वाली इस व्याधि से रोगों को मुक्त कराएँ ॥१ ॥
४३५. यदि शितायुर्यदि वा परेतो यदि मृत्योरन्तिकं नीत एव ।
तमा हरामि निक्ररुपस्थादस्पार्शमेनं शतशारदाय ॥२॥
यह रोगग्रस्त पुरुष यदि मृत्यु को प्राप्त होने वाला हों या उसकी आयु क्षीण हो गई हों, तो भी मैं विनाश के समीप से वापस लाता हैं। इसे सौ वर्ष की पूर्ण आयु तक के लिए सुरक्षित करता हूँ ॥२ ।।
४३६. सहस्राक्षेण शर्तवीर्येण शतायुषा हविषाहार्धमेनम्।
इन्द्रों यथैनं शरदों नयात्यति विश्वस्य दुरितस्य पारम् ॥३॥
सहस्र नेत्र तथा शतवौर्य एवं शतायुयुक्त हविष्य से मैंने इसे (आरोग्य क) उभारा हैं, ताकि यह संसार के सभी दुरंतों (पापों-दुष्कर्मों) से पार हो सके। इन्द्रदेव इसे सौ वर्ष से भी अधिक आयु प्रदान करें ॥३॥
[ यज्ञीय सूक्ष्म विज्ञान में नेत्रशक्ति, वीर्य, आयुष्य सभी बने हैं। मनुष्य कष्टों को पार करके ज्ञाय हो सकता है।
४३७. शतं जीव शरदो वर्धमानः शतं हेमन्ताउछतमु वसन्तान्।
शतं त इन्द्रो अग्निः सविता बृहस्पतिः शतायुषा हविषाहार्धमेनम् ॥४॥
(हे प्राणी !) दीर्घायुष्य प्रदान करने वाली इस वि के प्रभाव से मैं तुम्हें (नीरोग स्थिति में वापस लाया हूँ । अब तुम निरन्तर वृद्धि करते हुए सौ वसन्त ऋतुओं, सौं हेमन्त ऋतुओं तथा सौ शरद ऋतुओं तक जीवित रहो। सर्वप्रेरक सवितादेव, इन्द्रदेव, अग्निदेव और बृहस्पतिदेव तुम्हे शतायु प्रदान करें । ४ ।।। ‘
४३८. प्रविशतं प्राणापानावनद्वाहाविव ब्रजम् ।
व्यन्ये यन्तु मृत्यवों यानाहुरितराञ्छतम् ॥५॥
हे प्राण और अपने जैसे भार वहन करने वाले बैल अपने गोठ में प्रवेश करते हैं, वैसे आप क्षयमस्त रोगों के शरीर में प्रवेश करें । मनुष्यगण मृत्यु के कारणरूप जिन सैकड़ों रोगों का वर्णन करते हैं, वे सभी दूर हो जाएँ ॥५
४३९. इहैव स्तं प्राणापानौ माप गातमितो युवम् ।
शरीरमस्याङ्गानि जरसे वहतं पुनः ।।६.
हे प्राण और अपान ! आप दोनों इस शरीर में विद्यमान रहें । आप अकाल में भी इस शरीर का त्याग ३ करें। इस रोगी के शरीर तथा उसके अवयवों को वृद्धावस्था ताक धारण करें ॥६॥
४४०. जरायै त्वा परि ददामि जरायै नि धुवामि त्वा ।
जरा त्वा भद्मा नेष्ट व्यन्ये यन्तु मृत्यवो यानाहुरितराञ्छतम् ॥७॥
(हे मनुष्य !) हम आपको वृद्धावस्था तक जीवित रहने योग्य बनाते हैं और वृद्धावस्था तक रोगों से आपकी सुरक्षा करते हैं । वृद्धावस्था आपके लिए कल्याणकारी हैं । ज्ञानी मनुष्य मृत्यु के कारण रूप जिन रोगों के विषय में कहते हैं, वे समस्त रोग आप से दूर हो जाएँ ।। ।।
४४१. अभि त्वा जरिमाहित गामुक्षणमिव रज्ज्वा ।
यस्त्वा मृत्युरभ्यधत्त जायमानं सुषाशया।
तं ते सत्यस्य हस्ताभ्यामुदमुचद् बृहस्पतिः ॥८॥
१४
अवंद मला भाग–१
| जैसे गौ या बैंल को रस्सी द्वारा बाँधा जाता है, वैसे वृद्धावस्था में आपको बाँध लिया है ।जिस मृत्यु ने आपको पैदा होते ही अपने पाश द्वारा बध रखा है, उस पाश को बृहस्पतिदेव ब्रह्मा के अनुग्रह से मुक्त कराएँ ॥
[१२ – शालानिर्माण सूक्त] [ऋषि – ब्रह्मा । देवता – शाला, वास्तोष्पति । छन्द – त्रिष्टुप् २ विराट् जगती, ३ बृहती, ६ शक्वरीगर्भा
जगती, ७ आप अनु, ८ भुरिक् विष्ट, १ अनुष्टुप् ।] इस सूक्त के ‘वा‘ (रचयिता है तथा देवता ‘शाला‘ एवं ‘वास्तोपत हैं। शाला (भवन के निर्माण, निर्वाह साधनों का उपयोग आदि का अलेख इस सूक्त में है। शाला का अर्थ व्यापक प्रतीत होता है–हने का पवन यज्ञशाला, ‘चीच आपलं , विश्न आवास आदि के संदर्भ में मंत्रयों को समझा जा सकता है। मंत्रार्थ सामान्य ज्ञाला या यज्ञशाला के संदर्भ में ही किये गये हैं। कुछ मंत्र व्यापक अर्थों में से अधिक सटीक बैठते हैं। विशिष्ट संदर्भ में संक्षिप्त टिप्पणियाँ आवश्यकतानुसार प्रस्तुत कर दी गई हैं।
४४२. इहैव धुवां नि मिनोभि शालां क्षेमे तिष्ठाति घृत्तमुक्षमाणा।
तां त्वा शाले सर्ववीराः सुवीरा अरिष्टवीरा उप सं चरेम ॥१॥
हम इसी स्थान पर सुदृढ़ शाला को बनाते हैं । यह शाला वृतादि (सार तत्वों) का चिन्तन करतीं हुई, हमारे कल्याण के लिए स्थित रहे । हैं शाले ! हम सब वीर आपके चारों ओर अनिष्टों से मुक्त होकर तथा श्रेष्ठ सन्तानों से सम्पन्न होकर विद्यमान रहें ।।१ ॥
४४३. इहैव युवा प्रति तिष्ठ शालेऽश्वावती गोमती सूनुतावनीं ।
ऊर्जस्वती घृतवती पयस्वत्युच्छ्यस्व मते सौभगाय ॥२॥
आप यहाँ अश्ववती (घोड़ों या शक्ति से युक्त), गोमती (गौओं अथवा पोषण–सामथ्र्यों से युक्त) तथा श्रेष्छ वाणी (अभिव्यक्ति) से युक्त होकर दृढ़तापूर्वक रहें । ऊर्जा या अन्नयुक्त घृतयुक्त तथा पयोयुक्त (सभी पोषक तत्वों से युक्त होकर महान् सौभाग्य प्रदान करने के लिए उन्नत स्थान पर स्थिर रहें ॥२ ।।
४४४. थरुण्यसि शाले बृहच्छन्दाः पूतिथान्या।
आ त्वा वत्सो गमेदा कुमार आ धेनवः सायमास्पन्दमानाः ।।३।।
| हे शाले !आप भोग–साधनों से सम्पन्न नद्या विशाल छत वाली हैं।आप पवित्र धान्यों के अक्षय भण्डार वाली हैं। आपके अन्दर बच्चे तथा बछड़े आएँ और दूध देने वाली गौएँ भी सायंकाल कूदती हुई पधारे ।।३ ॥
४४५. इमां शालां सविता वायुरिन्द्रो बृहस्पतिर्नि मिनोतु प्रजानन्।
उक्षन्तुना मरुतो घृतेन भगो नो राजा नि कृर्षि तनोतु ॥४॥
निर्माण करने की विधि को जानने वाले सवितादेव, वायुदेव, इन्द्रदेव तथा बृहस्पतिदेव इस शाला को विनिर्मित करें । मरुद्गम भी जल तथा घृत के द्वारा इसका सिंचन करें। इसके बाद भगदेवता इसे कृषि आदि क्रियाओं द्वारा सुव्यवस्थित बनाएँ ॥४ ।।।
४४६. मानस्य पनि शरणा स्योना देवी देवेभिर्निमितास्यग्ने ।
तृणं वसाना सुमना असस्त्वमथास्मभ्यं सहवीर रयिं दाः ।।५।।
सम्माननीय (वास्तुपति) की पत्नी रूप हे शाले ! आप धान्यों का पालन करने वाली हैं। सृष्टि के प्रारम्भ में प्राणियों को हर्ष प्रदान करने, उनकी सुरक्षा करने तथा उनके उपभोग के लिए देवताओं ने आपका सृजन किया है। आप तृणों के वलवाली, श्रेष्ठ मनवाली हैं। आप हमें पुत्रों से युक्त ऐश्वर्य प्रदान करें ।।५।।
|-३
–१३
||ज्ञासा के मों के तवा मन है। सामान्य तण व सादगी के प्रतीक व अॅडमन शमसंकयों का है। व्याप्त अर्थों में पृथ्वी स्ट्य शाला श्रेष्ठ मन वासी है, इसीलिए तृण उत्पन्न करती रही है, ताकि प्राणियों का निर्वाह से सके।]
४४७. ऋतेन स्थूणामधि रोह वंशोग्रो विराजन्नप वृक्ष्य शत्रून् ।
मा ते रिषद्भुपसत्तारो गृहाणां शाले शतं जीवेम शरदः सर्ववीराः ।।६।।
है वंश (बाँस) ! आप अबाध्य रूप से शाला के बीच स्तम्भ रूप में स्थिर रहें और उग्र बनकर प्रकाशित होते हुए (विकारों) रिपुओं को दूर करें । हे शाले ! आपके अन्दर निवास करने वाले हिसित न हों और इच्छित सन्तान से सम्पन्न होकर शतायु को प्राप्त करें ॥६ ॥
[ सामान्य वंश का अर्थ आँस है, व्यापक अर्थ में छ उत्तम आनुवंशिक विशेषताओं वाला लिया जाने योग्य है।
४४८. एम कुमारस्तरुण आ वत्सो जगता सह।
एमां परिस्तुतः कुम्भ आ दमः कलशैरगुः ।।७।।
इस शाला में तरुण बालक और गमनशील गौओं के साथ उनके बछड़े आएँ । इसमें मधुर रस से परिपूर्ण घड़े और दधि से भरे हुए कलश भी आएँ ।।७।।
४४९. पूर्णं नारि प्र भर कुम्भमेतं घृतस्य धाराममूतेन संभृताम् ।
| इर्मा पातॄनमृतेना समधीष्टापूर्तमभि रक्षात्येनाम् ।।८।।
हे स्त्री (नारी अधवा प्रकृति) !आप इस घट को अमृतोपम मधुर रस तथा घृत धारा से भली प्रकार भरें । पीने वालों को अमृत से तृप्त करें ।इष्टापूर्त (इष्ट आवश्यकताओं की आपूर्ति) इस शाला को सुरक्षित रखती है ।। ६५. इमा आपः ॥ मराम्ययक्ष्मा यक्ष्मनाशनः । गृहानुष त्र सदाभ्यमृतेन सहाग्निना ॥९ | हम स्वयं रोगरहित तथा रोगविनाशक जल को अनश्वर अग्निदेव के साथ घर में स्थित करते हैं ॥१ ॥
[ घर में रोगनाशक लगवान का निवास आवश्यक है। शाला के व्यापक अर्थों में जीवन रस तथा अर ऊर्मा के सन का भय बना है।
[१३ – आपो देवता सूक्त] | | ऋषि– भृगु । देवता – वरुण, सिन्धु, आप :, २, ३ इन्द्र । छन्द – अनुष्टुप्, १ निवृत् अनुष्टुप्, ५ विराद्
जगती, ६ निवृन् त्रिष्टुप् ।]
४५१. यददः संप्रयतरहावनदत्ता हते ।
तस्मादा नच्चो नाम स्थ ता वो नामानि सिन्धवः ।
सरिताओ ! आप भली प्रकार से सदैव गतिशील रहने वाली हैं। मेघों के ताड़ित होने (बरसने) के बाद आप जो (कल–कल ध्वनि) नाद कर रही हैं, इसलिए आपका नाम ‘नदी‘ पड़ा ।वह नाम आपके अनुरूप ही हैं ॥१॥ ४५२.यत् प्रेषिता वरुणेनाच्छीभं समवल्गत । तदाप्नोदिन्द्रो वो यतस्तस्मादाप अनु उन जब आप वरुणदेव द्वारा प्रेरित होकर शीघ्र हीं मिलकर नाचनी हुई सी चलने लगी, तब इन्द्रदेव ने आपको प्राप्त किया। इसी ‘आप्नोत् क्रिया के कारण आप का नाम ‘आप‘ पड़ा ॥२ ॥
४५३. अपकमिं स्यन्दमाना अवीवरत वो हि कम्।
इन्द्रो वः शक्तिभिर्देवीस्तस्माद् वार्नाम वो हितम् ॥३॥
आप बिना इच्छा के सदैव प्रवाहित होने वाले हैं। इन्द्रदेव ने अपने बल के द्वारा आप का वरण किया। इसलिए है देवनशील जत ! आपका नाम ‘वारि पङ्वा ॥३॥
अथर्ववेद संहिता भाग–१
४५४. एको वो देवोऽप्यतिष्ठत् स्यन्दमाना यथावशम् ।
उदानिपुर्महीरिति तस्माद्दकमुच्यते ।।४।। |
हे यथेच्छ (आवश्यकतानुसार) बहने वाले (जल तत्त्व ! एक(श्रेष्ठदेवता आपके अधिष्ठाता हुए। (देय संयोग से) महान् ऊर्ध्वश्वास (ऊर्ध्वगति) के कारण आपका नाम ‘उदक‘ हुआ ।।४ ॥ |
४५५. आपो भद्रा घृतमिदाप आसन्नग्नीषोम बिअत्याप इत् ताः।
तीव्रो रसो मथुप्रचामरंगम आ मा प्राणेन सह वर्चसा गमेत् ॥५॥
(निश्चित रूप से) जल कल्याणकारी हैं, घृत (तेज प्रदायक) है । उसे अग्नि और सोम पुष्ट करते हैं। वह जल, | मधुरता से पूर्ण तथा तृप्तिदायक तीव्र रस हमें प्राण तथा वर्चस् के साथ प्राप्त हो ॥५॥
४५६. आदित् पश्याम्युत वा शृणोम्या मा घोषों गच्छति वाङ् मासाम्।
मन्ये भेजानो अमृतस्य तर्हि हिरण्यवर्णा अतृपं यदा वः ॥६॥
निश्चित रूप से मैं अनुभव करता है कि उनके द्वारा उच्चरित शब्द हमारे कानों के समीप आ रहे हैं । चमकीते रंग वाले हे जल ! आप का सेवन करने के बाद, अमृतोषम भोजन के समान हमें तृप्ति का अनुभव हुआ ॥६॥
४५७. इदं व आपो हृदयमयं वत्स ऋतावरीः ।
इत्यमेत शक्वरीर्यजेदं वेशयाम के ।।७।।
हे जलप्रवाहो ! यह (तुष्टिदायक प्रभाव) आपका हृदय है । हे कुल प्रवाही धाराओं ! यह (ऋ) आपका पुत्र है । हे शक्ति प्रदायक धाराओं ! यहाँ इस प्रकार आओ, जहाँ तुम्हारे अन्दर इन(विशेषताओं को प्रविष्ट करूं || ॥
[१४– गोठ सूक्त] | अब–बह्मा । देवता – गोष्ट आहे,’२ अर्यमा, पूषा, बृहस्पति, इन्द्र, १–६ गौ, ५ गोष्ठ) । छन्द – अनुष्टुप् , ६
आर्षी त्रिष्टुप् ।] इस सूक में गोष्ठ का वर्णन है। गो, गौओं को भी कहते है तथा इन्द्रियों को भी। इसी प्रकार गोष्ठ से गौशाला के साथ शरीर का भी प्राप्त बनता है । मन्त्राव को दोनों संदर्षों में किया जा सकता है
४५८. सं घ गोष्ठेन सुषदा सं रय्या सं सुभूत्या।
अर्जातस्य यज्ञाम तेना चः सं सृजामसि ।।१ ।। |
हैं गौओं ! हम आपको सुखपूर्वक बैठने योग्य गोशाला प्रदान करते हैं। हम आपको जल, समृद्धि तथा सन्तानी में सम्पन्न करते हैं ॥१॥
४५९. सं क सृजत्वर्यमा सं पूषा सं बृहस्पतिः ।
समिन्द्रो यो धनञ्जयो मयि पुष्यत यद् वसु ।।२।।
हैं गौओं !अर्यमा, पृषा और बृहस्पतिदेव आपको उत्पन्न करें तथा रिपुओं का धन जीतने वाले इन्द्रदेव भी आपको उत्पन्न करें ।आपके पास श्रीर, घृत आदि के रूप में जो ऐश्वर्य हैं, उससे हम साधकों को पुष्टि प्रदान करें ॥२ ।।
४६०.संजग्माना अबिभ्युषीरस्मिन् गोष्ठे करीषिणः ।
बिभतीः सोम्यं मध्वनमीवा उपेतन
हैं गौओ ! आप हमारी इस गोशाला में निर्भय होकर तथा पुत्र–पौत्रों से सम्पन्न होकर चिरकाल तक | जीवित रहें । आप गोबर पैदा करती हुई तथा नीरोग रहकर मधुर और सौम्य दुग्ध धारण करती हुई हमारे
पास पधारें ॥ ३ ॥
३
–५
४६१. इहैव गाव एतनेहो शकेव पुष्यत । इहैवोत प्र जायध्वं मयि संज्ञानमस्तु के ॥४॥
हैं गौओं ! आप हमारे ही गोष्त में आएँ । जिस प्रकार मक्खी कम समय में ही अनेक गुना विस्तार कर लेती है, उसी प्रकार आप भी वंश वृद्धि को प्राप्त हों। आप इस गोशाला में बछड़ों से सम्पन्न होकर हम साधको में प्रेम करे । हमें ॐड़कर कभी न जाएँ ४ ॥ ४६२. शिवो वो गोष्ठो भवतु शारिशाकेव पुष्यत ।।
| इहैवोत जायथ्वं मया वः सं सृजामसि ।।५।। | हैं गौओं आपकी गोशाला आपके लिए कल्याणकारी हो, ‘शारिशाक‘ (प्राणि– विशेष) के सदृश परिवार म असीमित विस्तार करके समृद्ध हों तथा यहाँ पर रहकर पुत्र–पौत्रादि उत्पन्न करें हम आपका सृजन करते हैं ।
४६३. मया गायो गोपतिना सचध्यमयं वो गोष्ठ इह पोषयिष्णुः ।
रायस्पोषेण बला अवतीर्जीवा जीवन्तीरुप वः सदेम ॥६॥
हैं गौओं ! आप मुझ गोपति के साथ एकत्रित रहे । यह गोशाला आपका पोषण करे । बहुत (संख्या वाली होती हुई आप चिरकाल तक जीवित रहे । आपके साथ हम भी दीर्घ आयु को प्राप्त करें ।।६।।
| [१५- वाणिज्य सूक्त] [ ऋषि – अथर्वा । देवता –विश्वेदेवा, इन्द्राग्नी (इन्द्र, पथ, अग्नि, प्रपण, विक्रय, देवगण, धन, प्रजापत, सविता, सोम, धनरुचि, वैश्वानर, जातवेदा) । छन्द – त्रिष्ट्रप, १ भुरिक विघ्प, ४ अवसाना चट्पदा बृहतीगर्भा
बिराट्अत्यष्टि, ५ विराट् जगती, ७ अनुष्टुप, ८ निवृत्–त्रिष्टुप् ।] म केवपश्याम[यवहार की कामना वाले) अहैं। इसमें परमेवाअवान्यामकोवसायी) कहा गया है। गीता की अंक “यो यथा मां ने जो मुझसे विस प्रकार का व्यवहार करता है, मैं ससे उसी प्रकारका बार कता) वा संत कबीर के अनुभव ‘साई पेरा वाक्यों, सा को क्यापार‘ आदि भी इस आशय के हैं। म साय के कुछ आय–शासन येते हैं, उनको समझने और उनका परिपाम करने वाला लाभान्वित होता है । इर्म मुक्त मैं भी व्यवसाय में ईश्वर की साझेदारी के सूत्र दिए गए हैं।
४६४. इन्द्रमहं याणिजं चोदयामि स न ऐतु पुरएता नो अस्तु ।
नुदन्नराति परिपन्थिनं मृगं स ईशानो घनदा अस्तु मह्यम् ॥१॥
हम व्यवसाय में कुशल इन्द्रदेव को प्रेरित करते हैं, वे हमारे पास पधारें, हमारे अग्रणी बने । वे हमारे जीव–पथ के अवरोध को, सताने वाले व्यक्तियों– भूचरों को विनष्ट करते हुए हमें ऐश्वर्य प्रदान करने वाले हों ।।१ ।।
४६५. ये पन्थानों बहवो देवयाना अन्तरा द्यावापृथिवीं संचरन्ति।
ते मा जुषन्त पयसा घृतेन यथा क्रीत्वा अनमाहुराणि ॥१॥
धावा–पृथिवीं के बीच जो देवों के अनुरूप मार्ग हैं, वे सभी हमें घृत और दुग्ध से तृप्त करें । जिन्हें खरीदकर हम (जीवन व्यवसाय के द्वारा प्रचुर धन–ऐश्वर्य प्राप्त कर सकें ॥२॥
४६६. इध्मेनाम्न इच्छमानो घृतेन जुहोमि हव्यं तरसे बलाय।
यावदीशे ब्रह्मणा यन्दमान इमां धियं शतसेयाय देवीम् ।।३।।
है इन्द्राग्ने ! संकट से बचने तथा बल प्राप्ति की कामना से हम ईंधन एवं घृत सहित आपको हृव्य प्रदान करते हैं । (यह आहुतियाँ तब तक देगे) जब तक कि ब्रह्म द्वारा प्रदत्त दिव्य बुद्धि की वन्दना करते हुए हम सैकड़ों सिद्धियों पर अधिकार प्राप्त न कर लें ।।३।।
अवर्ववेद संहिता भाग–१
| [ मनुष्य जीवन–व्यवसाय में सापास हो सके, इसके लिए परमात्मा ने उसे दिव्य मेघा दी है। उसे साधना, यज्ञादि प्रयोग श त् – प्रयुक्त करके सैमें सिद्धियों को प्राप्त करना संभव है।
४६७, इमामग्ने शरण मीमूषों नो यमध्वानमगाम दूरम् ।
शुनं नो अस्तु प्रपणो विक्रयश्च प्रतिपणः फलिनं मा कृणोतु । |
इदं व्यं संविदानौ जुषेयां शुनं नो अस्तु चरितमुत्थितं च ।।४।।
। हे अग्निदेव ! हमसे हुई त्रुटियों के लिए आप हमें क्षमा करें । हम जिस मार्ग– सुदुर पथ पर आ गये हैं, वहाँ वस्तुओं का क्रय–विक्रय हमारे लिए शुभ हो। हमारा हर व्यवहार में लाभ देने वाला हो । आप हमारे द्वारा
समर्पित हवियों को स्वीकार करें। आपकी कृपा से हमारा आचरण उन्नति और सुख देने वाला हो ॥४ ।। |
४६८. येन धनेन प्रपणं चरामि धनेन देया घनमिच्छमानः ।
| तन्मे भूयो भवतु मा कनीयोऽग्ने सातनो देवान् हविषा नि षेध ५ ॥
हे देवगणो ! आप लाभ के अवरोधक देबों को इस आहुति से संतुष्ट करके लौटा दें। हे देवताओ ! लाभ की कामना करते हुए हम जिस धन से व्यापार करते हैं, आपकी कृपा से हमारा वह धन कम न हो, बढ़ता ही रहे ॥५
४६९. येन धनेन प्रपणं चरामि धनेन देवा धनमिच्छमानः ।
– तस्मिन् म इन्द्रो रुचिमा दधातु प्रजापतिः सविता सोमो अग्निः ।।६।।
धन से धन प्राप्त करने की कामना करते हुए, हम जिस धन से व्यापार करना चाहते हैं, उसमें इन्द्रदेव, सवितादेव, प्रजापतिदेव, सोमदेव तथा अग्निदेव हमारी रुचि पैदा करें ॥६ ॥
४७०. उप त्वा नमसा वयं होतर्वैश्वानर स्तुमः ।
स नः प्रजास्वात्मसु गोषु प्राणेषु जागृहि ॥ |
हे होता-वैश्वानर अग्निदेव ! हम हवि समर्पित करते हुए आपकी प्रार्थना करते हैं। आप हमारी आत्मा, प्राण, तथा गौओं की सुरक्षा के लिए जागरूक रहे ॥७ ।।। ४७१. विश्चाहा ते सदमिरेमाश्चायेव तिष्ठते जातवेदः ।
रायस्पोषेण समिषा मदन्तो मा ते अग्ने प्रतिवेशा रिघाम ॥८॥ | हे ज्ञातवेदा अग्ने ! जैसे अपने स्म पर बँधे हुए घोड़े को अन्न प्रदान करते हैं, वैसे हम आपको प्रतिदिन हवि प्रदान करते हैं आपके सम्पर्क में रहते हुए तथा सेवा करते हुए हम धन–धान्य से समृद्ध रहें, कभी नष्ट न हों ।।
[१६– कल्याणार्थप्रार्थना सूक्त ] [ ऋषि– अथर्वा देवता –१ अग्नि, इन्द्र, मित्रावरुण, अश्विनकुमार, भग, पूषा, ब्रह्मणस्पति, सोम, रुद्र, ३-३५
भग, आदित्य, ४ इन्न, ६ दधिक्रावा, अश्चसमूह, ७ उषा । द- विघ्प, १ आर्षी जगती, ४ भुरिक पंक्ति ।।
४७२. प्रातरग्नि प्रातरिन्द्रं हवामहे प्रातर्मित्रावरुणा प्रातरश्विना।
प्रातर्भगं पूषणं ब्रह्मणस्पतिं प्रातः सोममुत रुद्रं हवामहे ।।१।।
प्रभातकाल (यज्ञार्थ) हम अग्निदेव का आवाहन करते हैं। प्रभात में ही यज्ञ की सफलता के निमित्त इन्द्रदेव, मित्रावरुण, अश्विनीकुमारों, भग, पूषा, ब्रह्मणस्पति, सोम और रुद्रदेव का भी आवान करते हैं ॥१ ।।
४७३. प्रातर्जितं भगमुग्रं हवामहे वयं पुत्रमदितेय विधर्ता ।
रश्चिद् यं मन्यमानस्तुरश्चिद् राजा चिद् यं भर्ग भक्षीत्याह ।।२ ॥
का–३ मुक्त–१३
हम उन भग देवता का आवाहन करते हैं, जो जगत् को धारण करने वाले, उग्रवीर एवं विजयशील हैं । वे अदिति पुत्र हैं, जिनकी स्तुति करने से दरिंद्र भी धनवान् हो जाता है । राजा भी उनसे धन की याचना करते हैं ॥२ ।।
४७४. मग प्रणेतर्भग सत्यराधो भगेमां धियमुदवा ददन्नः।
| भग प्र णो जनय गोभिरश्वैर्भग प्र नृभिर्नुवन्तः स्याम ।।३।।
हे भगदेव ! आप वास्तविक धन हैं । शाश्वत–सत्य ही धन है । हे भगदेव ! आप हमारी स्तुति से प्रसन्न होकर इच्छित धन प्रदान करें । हे देव ! हमें गौएँ, घोड़े, पुत्रादि प्रदान कर श्रेष्ठ मानवों के समाज वाला बनाएँ ॥३ ।।
४७५. उतेदानीं भगवन्तः स्यामोत प्रपिच उत मध्ये अहाम्।
उतोदितौ मघवन्सूर्यस्य वयं देवानां सुमतौ स्याम् ।।४।।
हे देव ! आपकी कृपा से हम भाग्यवान् बनें । दिन के प्रारम्भ और मध्य में भी हम भाग्यवान् रहें । हे धनवान् मग देवता ! हम सूर्योदय के समय समस्त देवताओं का अनुग्रह प्राप्त करें ॥४॥
४७६. भग एव भगवाँ अस्तु देवस्तेना वयं भगवन्तः स्याम् ।
ते त्या भग सर्व इज्जोहवीमि स नो भग पुरएता भवेह ।।५।।
भगदेव ही समृद्ध हों, उनके द्वारा हम ऐश्वर्ययुक्त बने । हे भगदेव ! ऐसे आपको हम सब प्रकार बार–बार भजते हैं, आप हमारे अग्रणी बने ।। ।
४७७. समध्वरायोघसो नमत दधिक्रावेव शुचये पदाय।
अर्वाचीनं वसुविदं भगं में रथमिवाश्वा वाजिन आ वहन्तु ।।६ ॥
उषाएँ यज्ञार्थं भली प्रकार उन्मुख हों । जैसे अश्व रथ को लाते हैं, उसी प्रकार से हमें पवित्र पद प्रदान करने के लिए दधिक्रा (धारण करके चलने वालों की तरह नवीन शक्तिशाली, धनज्ञ भग को हमारे लिए ले आएँ ।।६ ।।
४७८. अश्वावतीगमतीनं उषासो वीरवतीः सदमुच्छन्तु भद्राः ।।
घृतं दुहाना विश्वतः प्रपीता यूयं पात स्वस्तिभिः सदा नः ॥७॥
समस्त गुणों से युक्त अश्वों, गौओं, वौरों से युक्त एवं घृत का सिंचन करने वाली कल्याणकारी उषाएँ हमारे घरों को प्रकाशित करें। आप सदैव हमारा पालन करते हुए कल्याण करें ॥ॐ ||
[१७- कृषि सूक्त] [धि विश्वामित्र । देवता –सौता । छन्द – त्रिष्टुप्, १ आर्षों गायत्री, ३ पथ्यापंक्ति, ४, ६ अनुष्टुप्, ७ विराट्
पुर उष्णक् , ८ निवृतु अनुष्टुप् ।] इस सूक्त में कृषि क का अन्न है। सौकिक कप के साथ–साथ आध्यात्मिक संदर्भ में भी मंत्रार्थ असित होते हैं। दृश्य ममि के साथ मनोभूमि की कृषि का भाव भी सिद्ध होता है। इस संदर्भ में मध्यान उसका फल प्राण, उप– दिव्य वृनियों के अर्थ में लेने योग्य हैं
४७९. सीरा युञ्जन्ति कवयो युगा वि तन्वते पृथक् ।
धीरा देवेषु सुम्नयौ ॥१॥
कवि (दूरदर्शी) , धीर पुरुष (कृषि के लिए) देवों की प्रसन्नता के लिए हलों को जोतते ( नियोजित करते) हैं तथा युग (जुओं या जोड़ों) को विशेष रूप से विस्तारित करते हैं ॥१ ।।
[ स्चूल कृषि में हाल में भूमि की कठोरता को तोड़ते हैं सूक्ष्म कृषि में मम की कठोरता का उपचार काने हैं। मन से जुड़े पूर्वाग्रहों को अलग–अलग करते हैं।]
अथर्ववेद संहिता भाग–१
४८०. युनक्त सीरा वि युगा तनोत कृते योनौ वपतेह बीजम् ।
विराजः श्नुष्टिः सभरा असच्चों नेदीय इत् सृण्यः पक्षमा यवन्॥२ ।। |
(हे कृषको !) हलों को प्रयुक्त करो, युगों को फैलाओ। इस प्रकार तैयार उत्पादक क्षेत्र में बीजों का वपन करो। हमारे लिए भरपूर उपज हो। वे परिपक्व होकर काटने वाले उपकरणों के माध्यम से हमारे निकट आएँ ॥२ ।
[जैसे कृषि की ज्या पकने पर ही प्रयुक्त करने योग्य होता है उसी प्रकार सामनाएँ भी परिपक्व होने पर ही प्रयुक्त की जाने योग्य होती हैं।)
४८१. लाङ्गलं पवीरवत् सुशीमें सौमसत्सरु ।।
दिद् वपतु गामवं प्रस्थावद् रथवाहनं पीबरीं च प्रफर्म्यम् ॥३॥
श्रेष्ठ फाल से युक्त (अथवा वज्र की तरह कठोर), सुगमता से चलने वाला, सोम (अन्न या दिव्य सोम) की प्रक्रिया को गुप्त ऑति से सम्पादित करने वाला हल(हमें) पुष्ट ‘गो‘ (गाय, भूमि या इन्द्रियाँ), ‘अवि‘ (भेडू या रक्षण सामर्थ्य, शौच्च चलने वाले वाहन तथा नारी (अथवा चेतन शक्ति प्रदान करे ॥३ ।।
४८२.इन्द्रः सीतां नि गृह्णातु तां पूषाभि रक्षतु ।
सा नः पयस्वती इहामुत्तरामुत्तरां समाम् ॥४॥
इन्द्रदेव कृषि योग्य भूमि को संभालें । पूषादेव उसकी देख–भाल करें, तब वह (धरित्री) श्रेष्ठ धान्य तथा जल से परिपूर्ण होकर हमारे लिए धान्य आदि का दोहन करें ॥४ ।।
४८३. शुनं सुफाला वि तुदन्तु भूमि शुनं कीनाशा अनु यन्तु वाहान्।
नासीरा हविषा तोशमाना सुपिपला ओषधीः कर्तमस्मै ॥५॥
हल के नीचे लगी हुईं लोहे से विनिर्मित श्रेष्ठ ‘फाले ‘खेत को भली–प्रकार से जोतें और किसान लोंग बैलों के पीछे-पीछे आराम से जाएँ । हे वायु और सूर्य देवो ! आप दोनों विष्य से प्रसन्न होकर, पृथ्वी को बल से सींचकर इस ओषधियों को श्रेष्ठ फलों से युक्त करें ॥५॥
४८४. शुनं वाहाः शुनं नरः शुनं कृषतु लाङ्गलम् ।
शुनं वरचा बड्यन्त शुनमग्नामुदिङ्गय॥
कृषक हर्षित होकर खेत को जोते, बैल उन्हें सुख प्रदान करें और हुल सुखपूर्वक कृषि कार्य सम्पन्न करें। रस्सियों सुखपूर्वक बाँधे । है शुन: देवता ! आप चाबुक को सुख के लिए ही चलाएँ ॥६॥
४८५. शुनासीरेह स्म में जुषेथाम् ।
यद् दिवि चक्रथुः पयस्तेनेमामुप सिञ्चतम् ।।
है वायु और सूर्यदेव ! आप हमारी इवि का सेवन करें। आकाश में निवास करने वाले जल देवता वर्षा के द्वारा इस भूमि को सिंचित करें ॥७॥
४८६. सीते वन्दामहे त्वार्याची सुभगे भव ।
यथा नः सुमना असो यथा नः सुफला भुवः
हे सौते (जुतौ हुई भूमि ! हम आपको प्रणाम करते हैं । हे ऐश्वर्यशालिनी भूमि ! आप हमारे लिए श्रेष्ठ मन वाली तथा श्रेष्ठ फल प्रदान करने वाली होकर हमारे अनुकूल रहें ॥८ ।
४८७. घृतेन सीता मधुना समक्ता विश्वैर्देवैरनुमता मरुद्भिः।
| सा नः सीते पयसाध्याववृत्स्वोर्जस्वतीं घृतवत् पिन्चमाना ॥९॥
घृत (जल) और शहद द्वारा भली प्रकार अभिषिंचित हे सौते (जुतौ भूमि) !आप देवगणों तथा मरुतों द्वारा स्वीकृत होकर घृत से सिंचित होकर (भृतयुक्त) पोषक रस (जल– दुग्धादि) के साथ हमारी ओर उन्मुख हों ।।१ ।।
का–३ सूक्त– १८
[१८– वनस्पति सूक्त ] [ ऋषि – अथर्वा । देवता – वनस्पति (वाणपण ओषधि) । छन्द – अनुष्टुप्, ४ अनुष्टुप्गर्भाचतुष्पाद् उष्ण
६ अणक्गर्भापथ्यापंक्ति । ] इस सूक्त में प्रत्यक्ष रूप से सपत्नी (सौत) का पराभव करके पति को अपने प्रियपात्र के रूप में स्थापित करने का भाव है। कौशिक सूत्र में ‘बाणापर्णी नामक औषधि का इसके लिए प्रयोग का गया है। किसी सम्य सपनों क्न्य पारिवारिक विग्रह को दूर करने के लिए इस सूक का ऐसा भी प्रयोग किया जाता रहा गा; किन्तु सूक्त के पि अचव (पुरुष) है। पुरुष किसी को ‘मैरी सपना‘ नहीं कह सकता। मंत्र ४ में ‘अहं अतरा‘ मैं जग(अॅप्ट) हैं, यह भी स्त्रीवाचक प्रयोग है। अस्तु सूर्य को केवल सनी निवारण तक सीमित नहीं किया जा सकता। आलंकारिक रूप से ‘परमात्मा या जीवात्मा को पति तथा सद–द्धि अक्वा किल्ला एवं अक्यिा को पसय का गया है। सद्धि या कि यह कामना करे व दुईद्धि या विद्या दूर नवाचावात्मा का सेह मेरे प्रति हो रहे– ऐसा अवं करने से इस सूक्त का भाव भी सिद्ध होता है एवं य तथा वेद की गरिमा का निर्वाह भी होता है ४८८.इमां खनाम्योषधं वीरुधां बलवत्तमाम् । यया सपत्नीं बाधते यया संविन्दते पतिम् हम इस बलवती ओषधि को खोदकर निकालते हैं। इससे सपनी (दुर्बुद्धि को बाधित किया जाता हैं और स्वामी की असाधारण प्रीति उपलब्ध की जाती हैं ॥१ ।। |. [वनस्पति(ओयथि) भूमि से खोदकर निकाली जाती है तथा सद् अस्द क्वेिकयुक्त दिव्य प्रज्ञा को साथनाद्वारा अंतकरण
की गहराई से प्रकट किया जाता है।]
४८९. उत्तानपणे सुभगे देवजूते सहस्वति ।
सपत्नीं में परा जुद पर्ति में केवलं कृथि ॥२
है उत्तानपणी (इस नाम की बा ऊर्ध्वमुखी पत्तों वाली), हितकारिणी, देवों द्वारा सेवित, बलवती (ओषधे) ! आप मेरी सौत (अविद्या को दूर करें । मेरे स्वामी को मात्र मेरे लिए प्रीतियुक्त करें ॥२ ।। | [ विद्या का पक्ष लेने वाली प्रज्ञा को ऊर्ध्वपर्णी तथा देवों द्वारा सेवन कहना युक्ति संगत हैं।]
४९०. नहि ते नाम जग्राह नो अस्मिन् रमसे पतौ ।
परामेव परावर्त सपत्नीं गमयामसि ।।
| हैं सपत्नी, मैं तेरा (सपत्नी- दुर्बुद्धि का नाम नहीं लेती । तू भी पति (परमेश्वर या जीवात्मा) के साथ सुख अनुभव नहीं करती । मैं अपनी सपत्नी को बहुत दूर भेज देना चाहती हूँ ॥३ ।।
४९१. उत्तराहमुत्तर उत्तरेदुत्तराभ्यः ।
अधः सपत्नी या ममाधरा साश्चराभ्यः ।।४।।
हैं अत्युत्तम औषधे ! मैं श्रेष्ठ , श्रेष्ठों में भी अति श्रेष्ठ बनें । हमारी सपत्नी (अविद्या) अधम हैं, वह अधम से अधम गति पाये ॥४॥
४९२. अहमस्मि सहमानायो त्वमसि सासहिः ।
उभे सहस्वती भूत्वा सपत्नीं मे सहावहै ।।
हे औषधे ! मैं आपके सहयोग से सपनों को पराजित करने वाली हूँ। आप भी इस कार्य में समर्थ हैं। हम दोनों शक्ति–सम्पन्न बनकर सपत्नी को शक्तिहीन करें ॥५॥ |
४९३. अभि तेषां सहमानामुप तेऽधां सहीयसीम्।
मामनु प्र ते मनो वत्सं गौरिव धावतु पथा वारिव धावतु ।।६ ।। |
(हे पतिदेव !) मैं आपके समीप, आपके चारों ओर इस विजयदायिनों ओषधि को स्थापित करती हैं। इस ओषधि के प्रभाव से आपका मन हमारी ओर उसी प्रकार आकर्षित हो, जैसे गौएँ बछड़े को ओर दौड़ती हैं तथा
ल नीचे की ओर प्रवाहित होता हैं ॥६॥
अर्यवेद संहिता भाग–१
[१९– अज्ञरक्षन्न सूक्त] [ ऋषि– वसिष्ठ । देवता – विश्वेदेवा, चन्द्रमा अथवा इन्द्र । छन्द – अनुप, १ पथ्यावृहती, ३ भुरिक बृहती, ५
त्रिष्टुप्, ६ त्र्यवसाना षट्पदा विद्युत् ककुम्मतगभतिजगतीं, ७ विराट् आस्तार पंक्ति, ८ पथ्यापंक्ति ।]
४९४. संशितं म इदं ब्रह्म संशितं वयं बलम्।
संशितं क्षन्नमञ्जरमस्तु जिष्णुर्येषामस्मि पुरोहितः ।।१।।
(पुरोहित की कामना हैं ) हमारा ब्राह्मणत्व तीक्ष्ण हों और तब (उच्चारित) यह मंत्र तेजस्व हो । (मंत्र के प्रभाव से) हमारे बल एवं वीर्य में तेजस्विता आएँ । जिनके हम विजयी पुरोहित हैं, उनका क्षात्रत्व अजर बने ॥१॥
४९५. समहमेषां राष्ट्रं स्यामि समजो वीर्यं बलम् ।
वृश्चामि शत्रूणां बाहूननेन हविषाहम्
हम आहुतियों द्वारा इस राष्ट्र को तेजस्वी तथा समृद्ध बनाते हैं। हम उनके बल, वीर्य तथा सैन्य शक्ति को भी तेजस्वी बनाते हैं, इसके रिपुओं की भुजाओं (सामथ्य) का उच्छेदन करते हैं ॥२ ॥
४९६. नीचैः पद्यन्तामधरे भवन्तु ये नः सूरि मघवानं पृतन्यान् ।
क्षिणामि ब्रह्मणामिन्नानुन्नयामि स्वानहम् ॥३॥ |
जो हमारे धन-सम्पन्नों तथा विद्वानों पर सैन्य सहित आक्रमण करें, ये रिपु पतित हो जाएँ- अधोगति पाएँ । हम (मंत्र शक्ति के प्रभाव से रिपुओं की सेना को क्षीण करके अपने लोगों को उन्नत बनाते हैं ॥३॥
४९७. तीक्ष्णीयांसः परशोरग्नेस्तक्ष्यात उत।
इन्द्रस्य वन्नात् तीक्ष्णीयांसो येषामस्मि पुरोहितः॥४॥
हम जिनके पुरोहित हैं, वे फरसे से भी अधिक तीक्ष्ण हों जाएँ, अग्नि से भी अधिक तेजस्वी हों। उनके हथियार इन्द्रदेव के बज्र से भी अधिक तीक्ष्ण हों ।।४ ॥
४९८. एषामहमायुधा सं स्याम्येषां राष्ट्रं सुवीरं वर्धयामि।
एषां क्षत्रमजरमस्तु जिष्पवेषां चित्तं विश्चेवन्तु देवाः ।।५।।
हम अपने राष्ट्र को श्रेष्ठ बीरों से सम्पन्न करके समृद्ध करते हैं। इनके शस्त्रों को तेजस्वी बनाते हैं। इनका क्षात्र जैव क्षयरहित तथा विजयशील हो । समस्त देवता इनके चित्त को उत्साहित करें ||५ ॥
४९९. उद्धर्षन्तां मघवन् वाजिनान्युद् बौराणां जयतामेतु घोषः ।
पृथग् घोषा उलुलयः घोषा केतुमन्त उदीरताम् ।
देवा इन्द्रज्येष्ठा मरुतो यन्तु सेनया ॥६ ।।
हे ऐश्वर्यवान् इन्द्र !हमारे बलशाली दल का उत्साह बढ़े व विज्ञयी वीरों का सिंहनाद हों ।अंडा लेकर आक्रमण करने वाले वीरों का जयघोष चारों ओर फैले। इन्द्रदेव की प्रमुखता में मरुद्गण हमारी सेना के साथ चलें ॥६॥
५०७. प्रेता जयता नर उग्रा वः सन्तु बाहवः ।।
तीक्ष्णेषवोऽबलधन्वनो हृतोग्रायुधा अबलानुग्रबाहवः ।।७।।
| हैं वीरो ! युद्ध भूमि की ओर बढ़ । तुम्हारीं बलिष्ठ भुजाएँ तीक्ष्ण आयुधों से शत्रु सेना पर प्रहार करें । शक्तिशाली आयुष को धारण करने से बलशाली भुजाओं के द्वारा आग बलहीन आयुधों वाले कमजोर शत्रुओं को नष्ट करें । युद्ध में मरुद्गण आपकी सहायता के लिए साथ रहें । देवों की कृपा से आप युद्ध में विजयी बनें ॥७ ||
का–३ मुक्त– ३
५०१. अवसृष्टा परा पत्त शरव्ये ब्रह्मसंशिते ।
जयामित्रान् प्र पद्यस्व जह्येषां वरंवरं मामघां मोचि कश्चन ।।८।। |
हैं बाण ! मंत्रों के प्रयोग से तीक्ष्ण किये हुए आप हमारे धनुष से छोड़े जाने पर शत्रु सेना का विनाश करें । शत्रु सेना में प्रवेश कर उनमें जो श्रेष्ठतम वीर, हाथी, घोड़े आदि हों, उन्हें नष्ट करें। दूर होते हुए भी शत्रुओं का कोई भी वीर शेष न बचें ॥८॥
[२०– रयिसंवर्धन सूक्त] [वि – वसिष्ठ। देक्ता – ६-३,५ अग्नि,३ अर्यमा, भग, बृहस्पति, देवी, ४ सौम् अग्नि, आदित्यविष्णु, ब्रह्मा, बृहस्पति, ६ इन्द्रवायू, ७ अर्यमा, बृहस्पति, इन्द्र, वात, विष्णु, सरस्वती, सविता, वाजी, ८ विश्वाभुवनानि | (समस्त भुवन), ९ पञ्च प्रदिश, १० वायु, त्वष्टा । छन्द– अनुष्टुप, ६ पथ्यार्पोक्त, ८ विशद् जगती ।]
५७२. अयं ते योनिऋत्वियो यतो जातो अरोचथाः ।
तं जाननग्न आ रोहाधा नो वर्धया रयिम् ॥१॥
हे अग्निदेव ! यह अरणि या यज्ञ वैदी आपकी उत्पत्ति का हेतु हैं, जिसके द्वारा आप प्रकट होकर शोभायमान होते हैं। अपने इस मूल को जानते हुए आप उस पर प्रतिष्ठित हों और हमारे धन–वैभव को बढ़ाएँ ॥१॥
५०३. अग्ने अच्छा वदेह नः प्रत्यङ् नः सुमना भव ।
प्र णो यच्छ विशां पते घनदा असि नस्त्वम् ॥२॥
हे अग्निदेव ! आप हमारे प्रति श्रेष्ठ भावों को रखकर इस यज्ञ में उपस्थित हों तथा हमारे लिए हितकारी उपदेश करें । है प्रजापालक अग्निदेव ! आप ऐश्वर्य दाता हैं, इसलिए हमें भी धन–धान्य से परिपूर्ण करें ॥२॥
५०४. प्र णो यच्छत्वर्यमा प्र भगः प्र बृहस्पतिः ।
प्र देवीः प्रोत सूनुता रयिं देवीं दधातु मे।
अर्यमा, भग और बृहस्पतिदेव हमें ऐश्वर्य से परिपूर्ण करें । समस्त देवगण तथा वाण की अधिष्ठात्री, सत्यप्रय देवी सरस्वती हमें भरपूर सम्पदाएँ प्रदान करें ॥३॥
५०५. सोमं ज्ञानमवसेऽग्नि गीर्भिर्हवामहे ।
आदित्यं विष्णु सूर्यं ब्रह्माणं च बृहस्पतिम्
हम अपने संरक्षण एवं पालन के लिए राजा सोम, अग्निदेव, आदित्यगण, विष्णुदेव, सूर्यदेव, प्रजापति ब्रह्मा और बृहस्पतिदेव को स्तोत्रों द्वारा आमन्त्रित करते हैं ।।४ ॥
५०६. त्वं नो अग्ने अग्निभिर्वह्य यज्ञं च वर्धय ।
त्वं नो देव दातवे रयिं दानाय चोदय ।।
हे अग्निदेव ! आप अन्य सभी अग्नियों के साथ पधार कर हमारे स्तोत्रों एवं यज्ञ की अभिवृद्धि करें। आप धन–वैभव प्रदान करने के निमित्त यजमानों एवं दाताओं को भी प्रेरित करें ।।५।।
५०७. इन्द्रवायू उभावह सुहवेह हवामहे ।
यथा नः सर्व इज्जन: संगत्यां सुमना असद् दानकामश्च नो भुवन् ॥६॥
प्रशंसनीय इन्द्रदेव एवं वायुदेय ! दोनों को हम इस यज्ञीय कर्म में आदरपूर्वक आमंत्रित करते हैं। सभी देवगण हमारे प्रति अनुकुल विचार रखते हुए हर्षित हों । सभी मनुष्य दान की भावना से अभिप्रेरित हों । अतः हम आपका आवाहन करते हैं ॥६॥
५०८.अर्यमणं बृहस्पतिमिन्द्रं दानाय चोदय।
यातं विष्णुं सरस्वती सवितारं च वाजिनम्
अथर्ववेद संहिता भाग–१
| है स्तोताओं ! आप सब अर्यमा, बृहस्पति, इन्द्र, वायु, विष्णु, सरस्वती, अन्न तथा बलप्रदायक सवितादेव का आवाहन करें । सभी देव हमें ऐश्वर्य प्रदान करने के लिए पधारें ॥७ ।।।
५०९. वाजस्य नु प्रसवें सं बभूवमेमा च विश्वा भुवनान्यन्तः ।
तादित्सन्तं दापयतु प्रजानन् रयिं च नः सर्ववीरे नि बच्छ ।।८। ।
अन्नं की उत्पत्ति के कारणभूत कर्म को हम शीघ्र ही प्राप्त करें । वृष्टि के द्वारा अन्न पैदा करने वाले ‘वाज प्रसव देवता‘ के मध्य में ये समस्त दृश्य–जीव निवास करते हैं। ये कृपण व्यक्ति को दान देने के लिए प्रेरित करें तथा हमें वीर पुत्रों से युक्त महान् ऐश्वर्य प्रदान करें ॥८॥
५१०. दुह्रां में पञ्च प्रदिशो दुहामुर्वीर्यथाबलम् ।
प्रापेयं सर्वा आकूतीर्मनसा हृदयेन च ।
यह उव (विस्तृत पृथ्वी) तथा पाँचों महा दिशाएँ हमें इच्छित फल प्रदान करें। इनके अनुग्रह से हम अपने मन और अन्तःकरण के समस्त संकल्पों को पूर्ण कर सकें ॥१॥
५११. गोसनिं वाचमुदेयं वर्चसा माभ्युदहि ।
आ सन्र्या सर्वतो वायुस्त्वष्टा पोषं दधातु मे ॥१०॥
गौ आदि समस्त प्रकार के ऐश्वर्यों को प्रदान करने वाली वाणी को हम उच्चरित करते हैं। हे वाग्देवता ! आप अपने तेज के द्वारा हमें प्रकाशित करें, वायुदेव सभी ओर से आकर हमें आवृत करें तथा त्वष्टा देव हमारे शरीर को पुष्ट करें ॥ १० ॥
[२१- शान्ति सूक्त] (ऋषि – वसिष्ठ। देवता – अग्नि । छन्द – भुरिक त्रिष्टुप्, १ पुरोऽनुष्टुप् ,४ त्रिष्टुप्, ५ जगती, ६ उपरिष्टात्
विराट् बृहती, ७ विराट्गभत्रिष्टुप्, ९ निवृत् अनुष्टुप्, १० अनुष्टुभ् । ]
५१२. ये अग्नयो अस्वन्तयें वृत्रे ये पुरुषे ये अश्मसु ।
य आविवेशौषधीय वनस्पतींस्तेभ्यो अग्निभ्यो हुनमस्त्वेतत् ॥१॥ |
जो अग्नि मेघों, मनुष्यों, मणियों (सूर्यकान्त आदि), ओषधियों, वृ–वनस्पतियों तथा जल में विद्यमान हैं, | उन समस्त अनियों को यह वि प्राप्त हो ॥१ ।।
५१३. यः सोमे अन्तय गोष्वन्तर्य आविष्टो वयःसु यो मृगेषु । ।
य आविवेश द्विपदो यश्चतुष्पदस्तेभ्यो अग्निभ्यो हुतमत्त्वेतत् ॥२॥
| जो अग्नियाँ सोमलताओं, गौओं, पक्षियों, हरिण, दो पैर वाले मनुष्यों तथा चार पैर वाले पशुओं के अन्दर विद्यमान हैं, उन समस्त ग्नयों के लिए यह हवि प्राप्त हो ॥२ ॥
५१४. य इन्द्रेण सरथं याति देवो वैश्वानर उत विश्वदाव्यः ।
ये जोखीम पृतनासु सासहि तेभ्यो अग्निभ्यो हुतमरत्वेतत् ॥ ३ ॥
ज्ञों अग्निदेव इन्द्र के साथ एक रथ पर आरूढ़ होकर गमन करते हैं, जो सबसे जलाने वाले दावाग्नि रूप हैं, जो सबके हितकारी हैं तथा युद्ध में विजय प्रदान करने वाले हैं; उन अग्निदेव को ये आहुतियाँ प्राप्त हों ।।३।।
५१५. यो देवो विश्वाद् अमु काममाहुर्य दातारं प्रतिगृह्णन्तमाहुः ।
यो बरः शक्रः परिभूरदाभ्यस्तेभ्यो अग्निध्यो हुतमत्वेतत् ।।४।।
वाद–३ सूक्त–३२
- जो अग्निदेव समस्त विश्व के भक्षक हैं, जो इच्छित फलदाता के रूप में पुकारे जाते हैं, जिनको देने वाला और ग्रहण करने वाला भी कहा जाता है, जो विवेकवान्, बलवान्, रिपुओं में दबाने वाले और स्वयं किसी से न दबने वाले कहलाते हैं, उन अग्निदेव को यह आहुति प्राप्त हो ॥४॥
५१६. यं त्वा होतारं मनसाभि संविदुस्त्रयोदश भौवनाः पञ्च मानवाः ।
वर्षोधसे यशसे सूनृत्तावते तेभ्यो अग्निभ्यो हुतमस्त्वेतत् ॥५॥
हे अने ! तेरह भौवन (संवत्सर ३ १३ माह) और पाँच ऋतुएँ (अथवा भुवन ऋषि के विश्वकर्मा आदि १३ पुत्र और पाँचौं वर्षों के मनुष्य) आपको मन से यज्ञ–सम्पादक के रूप में जानते हैं । हे वर्चस्वी, सत्यभाषी तथा कॉर्तिवान् ! आपको यह हवि प्राप्त हो ॥५॥
५१७. उक्षान्नाय वशान्नाय सोमपृष्ठाय वेधसे ।
वैश्वानरज्येष्ठेभ्यस्तेभ्यो अग्निभ्यो हुतमस्त्वेतत् ।।६।।
जो गौओं और बैलों के लिए अन्न प्रदान करते है और जो अपने ऊपर सोम आदि औषधियों को धारण करते हैं, उन विद्वान् तथा समस्त मनुष्यों के लिए कल्याणकारी महान् अग्निदेव के लिए यह विं प्राप्त हो ॥६ ।।
५१८. दिवं पृथिवीमन्वन्तरिक्ष में विद्युतमनुसंचरन्ति ।
| ये दिक्ष्वन्तर्वे वाले अन्तस्तेभ्यो अग्निभ्यो हुतमस्त्वेतत् ।।
जो अग्नियाँ द्युलोक, पृथ्वीलोक और अन्तरिक्षलोक में व्याप्त हैं, जो विद्युत् के रूप में सर्वत्र विचरण करत है; जो सभी दिशाओं और वायु के अन्दर प्रविष्ट होकर विचरण करती हैं, उन अग्नियों को यह हवि प्राप्त हो ॥9 ।।
५१९. हिरण्यपाणि सवितारमिन्द्रं बृहस्पतिं वरुणं मित्रमग्निम् ।
। विश्वान् देवानङ्गिरसों हवामह इमं क्लव्यादं शमयन्त्वग्निम् ॥८॥
स्तोताओं के ऊपर अनुदानों की वर्षा करने वाले, (हिरण्यपाणि) स्वर्णिम किरणों वाले, सर्व प्रेरक सवितादेव, इन्द्रदेव मित्रावरुणदेव, अग्निदेव तथा विश्वेदेवों का हम ऑङ्गवंशी अघि आवाहन करते हैं, वे समस्त देवगण इस ‘क्रव्याद अग्नि‘ (मांस भक्षीं अग्नि अथवा क्षीण करने वालों दुष्यवृत्ति) को शान्त करें ॥८॥
५२०. शान्तों अग्निः क्रत्र्याच्छान्तः पुरुषरेषणः ।
अथो यो विश्वदाव्यश्स्तं क्रयादमशीशमम् ॥१॥
देवताओं की कृपा से मांस का भक्षण करने वाले क्लव्याद अग्निदेव शान्त हो गये हैं। मनुष्यों की हिंसा करने वाले अग्निदेव भी शान्त हों। सबकों जलाने वाले, मांस भोजी अग्निदेव को भी हमने शान्त कर दिया है ।१ ।।
५२९. ये पर्वताः सोमपृष्ठा आप जानशीवरीः।।
यातः पर्जन्य आदग्निस्ते क्रव्यादमशीशमन् ॥१०॥
जो योग आदि को धारण करने वाले पर्वत हैं, जो ऊपर की ओर गमन करने वाला भले (ऊर्ध्वगामी रस) हैं। वायु और मेघ हैं, उन सभी ने इन मांस–भक्षक अग्निदेव को शान्त कर दिया है ।।१७ ॥
[२२- चर्च: प्राप्ति सूक्त] [ ऋषि – वसिष्ठ । देवता – बृहस्पति, विश्वेदेवा, वर्चस् । छन्द – अनुष्टुप, १ विराट् त्रिष्टुप्, ३ पनपदा परानुष्टुप् विराट् अनि जगतीं, ४ अवसाना घट्पदा जगती ।]
अथर्ववेद संल्लिा भाग–१
५२२. हस्तिवर्चसं प्रथतां बृहद् यशो अदित्या यत् तन्वः संबभूव ।
तत् सर्वे समर्मह्यमेतद् विश्वे देवा अदितिः सजोषाः ॥१॥
हमें हाथी के समान महान् तेजस् (अजेय शक्ति प्राप्त हो । ज्ञों तेज़स् देवमाता अदिति के शरीर से उत्पन्न हुआ हैं, उस तेजस् को समस्त देवगण तथा देवमाता अदिति प्रसन्नतापूर्वक हमें प्रदान करें ।। १ ।।
५३३. मित्रश्च वरुणश्चेन्द्रों रुद्रश्च चेततु ।
देवासो विश्वधायसस्ते माजन्तु वर्चसा ।।२।।
| मित्रावरुण, इन्द्र तथा रुड़देव हमें उत्साह प्रदान करें । विश्व को धारण करने वाले सूर्य (इन्द्र) आदि देव अपने तेजस् से हमें सुसमृद्ध करें ।।२ ॥
५२४. येन हस्ती वर्चसा संबभूव सेन राजा मनुष्येष्वप्स्वन्तः ।
वेन देवा देवतामग्र आयन् तेन मामद्य वर्चसाग्ने वर्चस्वनं कृणु ॥३॥
जिस तेजस् से हाथी बलवान होता है। राज्ञा मनुष्यों में तेजस्वी होता है, जलचर प्राणी शक्ति सम्पन्न होते हैं और जिसके द्वारा देवताओं ने सर्वप्रथम देवत्व प्राप्त किया था, उसी तेजस् के द्वारा आप हमें वर्चस्व बनाएँ ॥३॥
५२५. यत् ते वच जातवेदो बृहद् भवत्याहुतेः ।
यावत् सूर्यस्य वर्च आसुरस्य च हस्तिनः ।
तावन्मे अश्विना वर्च आ धत्तां पुष्करस्रजा ।।४।।
। उत्पन्न प्राणियों को जानने वाले तथा हाँवियों द्वारा आवाहन किये जाने वाले हैं अग्निदेव ! आपके अन्दर तथा सूर्य के अन्दर जो प्रखर तेजस् है, उस तेजस् को कमल पुष्प की माला धारण करने वाले अश्विनीकुमार, हममें स्थापित करें ।।४ ।।
५२६. यावच्चतस्रः प्रदिशश्चक्षुर्यावत् समश्नुते ।
तावत् समैत्विन्द्रियं मयि तद्धस्तिवर्चसम्
जितने स्थान को चारों दिशाएँ घेरती हैं और नेत्र नक्षत्र मण्डल के जितने स्थान को देख सकते हैं, परम ऐश्चर्य सम्पन्न इन्द्रदेव का उतना बड़ा चिह्न हमें प्राप्त हो और हाथी के समान वह वर्चस् भी हमें प्राप्त हो ॥५ ।।
५२७. हस्ती मृगाणां सुषदार्मातिष्ठावान् बभूव हि।
तस्य भगेन वर्चसाऽभिषिञ्चामि मामहम् ।।६।।
जैसे वन,में विचरण करने वाले मृग आदि पशुओं में हाथी प्रतिष्ठित होता है, उसी प्रकार श्रेष्ठतम तेजस् और ऐश्वर्य के द्वारा हम अपने आपको अभिषिक्त करते हैं ।।६।।
[२३- वीरप्रसूति सूक्त] [ ऋषि – ब्रह्मा । देवता – चन्द्रमा या योनि । छन्द – अनुष्टुप्, ५ उपरिष्टात् भुरिक् बृहती, ६
| स्कन्धोमीवी बृहती । ] ।
५२८. येन बेहद् बभूविथ नाशयामसि तत् त्वत् ।
इदं तदन्यत्र वदप दूरे नि दथ्मसि ॥१
है स ! जिस पाप या पापजन्य रोग के कारण आप वन्ध्या हुई हैं, उस रोग को हम आपसे दूर करते हैं। यह रोग पुनः उत्पन्न न हो, इसलिए इसको हम आपसे दूर फेंकते हैं ॥१॥
५२९. आ ते योनि गर्भ एतु पुमान् बाण इवेषुम् आ वीरोत्र जायतां पुत्रस्ते दशमास्यः ॥२॥
है स्त्री ! जिस प्रकार बाण तूणीर में सहज ही प्रवेश करते हैं, उसी प्रकार पुसत्व से युक्त गर्भ आपके गर्भाशय
Atharvaveda