गरूड़ पुराण में बताया गया है की यमलोक का रास्ता भयानक और पीड़ा देने वाला है। वहां एक नदी बहती है जोकि सौ योजना अर्थात एक सौ बीस किलोमीटर है। इस नदी में जल के स्थ पर रक्त और मवाद बहता है और इसके तट हड्डियों से भरे हैं। मगरमच्छ, सूई के समान मुखवाले भयानक कृमि, मछली और वज्र जैसी चोंचवाले गिद्धों का ये निवास स्थल है।
यम के दूत जब धरती से लाए गए व्यक्ति को इस नदी के समीप लाकर छोड़ देते हैं तो नदी में से जोर-जोर से गरजने की आवाज आने लगती है। नदी में प्रवाहित रक्त उफान मारने लगता है। पापी मनुष्य की जीवात्मा डर के मारे थर-थर कांपने लगती है। केवल एक नाव के राही ही इस नदी को पार किया जा सकता है। उस नाव का नाविक एक प्रेत है।
जो पिण्ड से बने शरीर में बसी आत्मा से प्रश्न करता है कि किस पुण्य के बल पर तुम नदी पार करोगे। जिस व्यक्ति ने अपने जीवनकाल में गौदान की हो केवल वह व्यक्ति इस नदी को पार कर सकता है अन्य लोगों को यमदूत नाक में कांटा फंसाकर आकाश मार्ग से नदी के ऊपर से खींचते हुए ले जाते हैं।
शास्त्रों में कुछ ऐसे व्रत और उपवास हैं जिनका पालन करने से गौदान का फल प्राप्त होता है। पुराणों के अनुसार दान वितरण है। इस नदी का नाम वैतरणी है। अत: दान कर जो पुण्य कमाया जाता है उसके बल पर ही वैतरणी नदी को पार किया जा सकता है।
यम मार्ग के बीचोबीच अत्यन्त उग्र और घोर वैतरणी नदी बहती है। वह देखने पर दुःखदायिनी हो तो क्या आश्चर्य?
उसकी वार्ता ही भय पैदा करने वाली है। वह सौ योजन चौड़ी है, उसमें पूय (पीब-मवाद) और शोषित (रक्त) बहते रहते हैं।
हड्डियों के समूह से तट बने हैं अर्थात उसके तट पर हड्डियों का ढेर लगा रहता है। मांस और रक्त के कीचड़ वाली वह (नदी) दुःख से पार की जाने वाली है।
अथाह गहरी और पापियों के द्वारा दुःखपूर्वक पार की जाने वाली वह नदी केशरूपी सेवाओं से भरी होने के कारण दुर्गम है।
वह विशालकाय ग्राहों (घड़ियालों) से व्याप्त है और सैकड़ों प्रकार के घोर पक्षियों से आक्रांत है। उसके तट पर आए हुए पापियों को देखकर वह नदी ज्वाला और धूम से भरकर कड़ाह में रखे घृत की भांति खोलने लगती है।
वह नदी सुई के समान मुखवाले भयानक कीड़ों से चारों ओर व्याप्त है। वज्र के समान चौंचवाले बड़े-बड़े गीध एवं कौओं से घिरी हुई है।
वह नदी शिशुमार, मगर, जोंक, मछली, कछुए तथा अन्य मांसभक्षी जलचर जीवों से भरी पड़ी है। उसके प्रवाह में गिरे हुए बहुत से पापी रोते चिल्लाते हैं और ‘हे भाई! हा पुत्र! हा तात!
इस प्रकार कहते हुए बार-बार विलाप करते हैं। भूख-प्यास से व्याकुल होकर पापी जीव रक्त का पान करते हैं।
वह नदी झागपूर्ण रक्त के प्रवाह से व्याप्त, महाघोर, अत्यन्त गर्जना करनेवाली, देखने में दुःख पैदा करनेवाली तथा भयावह है। उसके दर्शन मात्र से ही पापी चेतनाशून्य हो जाते हैं।
बहुत से बिच्छू तथा काले सर्पों से व्याप्त उस नदी के बीच में गिरे हुए पापियों की रक्षा करनेवाला कोई नहीं है।
उसके सैकड़ों, हजारों भँवरों में पड़कर पापी पाताल में ले जाए जाते हैं। क्षणभर पाताल में रहते हैं और एक क्षण में ही ऊपर चले आते हैं।
वह नदी पापियों के गिरने के लिये ही बनाई गई है। उसका पार नहीं दिखता। वह अत्यन्त दुःखपूर्वक तरने योग्य तथा बहुत दुःख देनेवाली है।
यह वर्णन पाप और उसके परिणामस्वरूप मिलने वाले दारुण दुख का प्रतीक है। वैतरणी नदी के इस भयावह चित्रण से यह संदेश मिलता है कि पाप कर्मों का अंत हमेशा कष्ट और पीड़ा में होता है।
यह कथा मनुष्य को सद्मार्ग अपनाने, सत्य और धर्म का पालन करने तथा अपने कर्मों के प्रति सजग रहने की प्रेरणा देती है। केवल सत्कर्मों और ईश्वर की शरण में जाने से ही इस दुःखदायी चक्र से मुक्ति संभव है।