ऋग्वेद – संहिता
॥ अथ प्रथमं मण्डलम् ॥
[ सूक्त – १]
ऋधि मधुच्छन्दा वैश्वामित्र। देवता – अग्नि । छन्द–गायत्री]
1. ॐ अग्निमीळे पुरोहितं यज्ञस्य देवमृत्विजम् । होतारं रत्नधातमम् ॥ १ ॥ हम अग्निदेव की स्तुति करते हैं । (कैसे अग्निदेव ?) जो यज्ञ (श्रेष्ठतम पारमार्थिक कर्म) के पुरोहित (आगे बढ़ाने वाले देवता (अनुदान देने वाले), ऋत्विज् (समयानुकूल यज्ञ का सम्पादन करने वाले), होता (देवों का आवाहन करने वाले) और याजकों को रत्नों से (यज्ञ के लाभों से विभूषित करने वाले हैं ॥ १ ॥
2. अग्निः पूर्वेभिषिभरीड्यो नूतनैरुत । स देवां एह वक्षति ।। 2 ।।
जो अग्निदेव पूर्वकालीन ऋषयों (भृगु, अंगिरादि) द्वारा प्रशंसित हैं । जो आधुनिक काल में भी ऋषि कल्प बेदज्ञ विद्वानों द्वारा स्तुत्य हैं, वे अग्निदेव इस यज्ञ में देबों का आवाहन करें ॥२ ।।
३. अग्निना रयिमभवत् पोषमेव दिवेदिवे। यशसं वीरवत्तमम् ॥ ३ ॥
(स्तोता द्वारा स्तुति किये जाने पर) ये बढ़ाने वाले अग्निदेव मनुष्यों (यजमानों) को प्रतिदिन विवर्धमान (बढ़ने वाला) धन, यश एवं पुत्र–पौत्रादिवीरपुरुषप्रदानकरनेवालेहैं॥३॥
४. अग्ने यं यज्ञमध्वरं विश्वतः परिभूरसि। स इद्देवेषु गच्छति ॥ ४ ॥
हे अग्निदेय ! आप सयका रक्षण करने में समर्थ हैं । आप जिस अभ्यर (हिंसारहित यज्ञ को सभी और से आवृत किये रहते हैं, वहीं यज्ञ देवताओं तक पहुँचता हैं ॥४॥
५. अग्निहता कविक्रतुः सत्यश्चित्रवस्तमः । देवो देवेभिरा गमत् ॥ ५ ॥
हे अग्निदेव ! आप हाँव -प्रदाता, ज्ञान और कर्म की संयुक्त शक्ति के प्रेरक, सत्यरूप एवं विलक्षण रूप युक्त हैं । आप देवों के साथ इस यज्ञ में पधारें ॥५॥
६. यदङ्ग दाशुषे त्वमग्ने भद्रं करिष्यसि । तवेत्तत् सत्यमङ्गिरः ।। ६ ।।
हे अग्निदेव ! आप यज्ञ करने वाले यज्ञमान का धन, आवास, संतान एवं पशुओं की समृद्धि करके जो भी कल्याण करते हैं, वह भविष्य में किये जाने वाले यज्ञों के माध्यम से आपको ही प्राप्त होता हैं ।
१७. उप वाग्ने दिवेदिवे दोषावस्तर्धिया वयम्। नमो भरन्त एमसि ।। ७ ।।
हे जाज्वल्यमान अग्निदेव ! हम आपके सच्चे इपासक हैं । श्रेष्ठ बुद्धि द्वारा आपकी स्तुति करते हैं और दिन-रात, आपका सतत गुणगान करते हैं । हे देव ! हमें आपका सान्निध्य प्राप्त हो ॥७ ।।
८.. राजन्तमध्वराणां गोपामृतस्य दीदिविम्। वर्धमानं स्वे दमे ॥ ८ ॥
हम गृहस्थ लोग दौप्तिमान् , यज्ञो के रक्षक, सत्यवचनरूप व्रत को आलोकित करने वाले, यज्ञस्थल में वृद्धि को प्राप्त करने वाले अग्निदेव के निकट स्तुतिपूर्वक आते हैं ।।८।।
९. स नः पितेव सूनवेऽग्ने सूपायनो भव । सचस्वा नः स्वस्तये ॥ ९ ॥
| हे गार्हपत्य अग्ने ! जिस प्रकार पुत्र को पिता (बिना बाधा के सहज ही प्राप्त होता है, उसी प्रकार आप भी (हम यजमानों के लिये बाधारहित होकर सुखपूर्वक प्राप्त हों । आप हमारे कल्याण के लिये हमारे निकट रहें ॥६॥
[ सूक्त – २]
[ऋषि-मधुच्छन्दा वैश्वामित्र । देवता-१-३ वायु, ४-६-इन्द्र-वायु : १५-६९ मित्रावरुण । छन्द-गायत्रीं ।]
१०. वायवा याहि दर्शतेमे सोमा अरंकृताः । तेषां पाहि झुधी हवम् ।। १ ।।
| हे प्रियदर्शी वायुदेव ! हमारी प्रार्थना को सुनकर आप यज्ञस्थल पर आयें। आपके निमित्त सोमरस प्रस्तुत हैं, इसका पान करें ।।६ ॥
११. वाय उक्थेभिर्जरन्ते त्वामध्छा जरितारः। सुतसोमा अहर्विदः ।। २ ।।
हे वायुदेव ! सोमरस तैयार करके रखने वाले, उसके गुणों को जानने वाले रोतागण स्तोत्रों में आपक उत्तम प्रकार से स्तुति करते हैं ।।३।।
१२. बायो तव प्रपञ्चती घेना जिगाति दाशुषे । उरूची सोमपीतये ॥ ३ ॥
| हे वायुदेव ! आपकी प्रभावोत्पादक वाणी, सोमयाग करने वाले सभी यज्ञमानों की प्रशंसा करती हुई एवं सोमरस का विशेष गुणगान करती हुई, सोमरस पान करने की अभिलाषा से दाता (यजमान ) के पास पहुँचती है ।।३।।
१३. इन्द्रवायू इमे सुता उप प्रयोभिरा गतम्। इन्दवो वामुशन्ति हि ।। ४ ।।
हे इन्द्रदेव ! हे वायुदेव ! यह सोमरस आपके लिये अभिपुत किंया (निचोड़ा) गया है। आप अनादि । पदार्थों के साथ यहाँ पधारें, क्योंकि यह सोमरस आप दोनों की कामना करता हैं ॥४॥
१४. वायविन्द्रश्च चेतथः सुतानां वाजिनीवसू । तावा यातमुप द्रवत् ।। ५ ।।
हैं वायुदेव ! है इन्द्रदेव ! आप दोनों अन्नादि पदार्थों और धन से परिपूर्ण हैं एवं अभियुत सोमरस की विशेषता को जानते हैं। अतः आप दोनों शीघ्र ही इस यज्ञ में पदार्पण करें ।।५ ॥
१५. वायविन्द्रश्च सुन्वत आ यातमुप निष्कृतम्। मक्ष्वित्था धिया नरा ॥ ६ ॥
हें वायुदेव ! है इन्द्रदेव ! आप दोनों बड़े सामर्थ्यशाली हैं। आप यजमान द्वारा बुद्धिपूर्वक निष्पादित सोम के पास अति शीघ्र पधारें ।।६ ॥
म० १ सूः ३
१६. मित्रं हुवे पूतदक्षं वरुणं च रिशादसम्। धियं घृताचीं साधन्ता ॥ ७ ॥
वृत के समान प्राणप्रद वृष्टि-सम्पन्न कराने वाले मित्र और वरुण देयों का हम आवाहन करते हैं। मित्र हमें बलशाली बनायें तथा बरुणदेव हमारे हिंसक शत्रुओं का नाश करें ॥ ॥
१७, तेन मित्रावरुणावृतावृधावृत्तस्पृशा। क्रतुं बृहन्तमाशाथे ॥ ८ ॥
सत्य को फलिताई करने वाले सत्ययज्ञ के पुष्टिकारक देव मित्रावरुणों ! आप दोनों हमारे पुण्यदायी कार्यों (प्रवर्त्तमान सोमयाग) को सत्य से परिपूर्ण करें ।।८।।
१८. कवी नो मित्रावरुणा तुविजाता उरुक्षया । दक्षं दधाते अपसम् ।। १ ॥
अनेक कर्मो को समन कराने वाले विवेकशील तथा अनेक स्थलों में निवास करने वाले मित्रावरुण हमारी क्षमताओं और कार्यों को पुष्ट बनाते हैं ।।६।।
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[ सूक्त – ३]
[ऋमिधुच्छन्दा वैश्वामित्र । देवता-१-३ अश्विनीकुमार, ४-६ इन्द्र, ७-९ विश्वेदेवा, १०-१२ सरस्वती ।।
। छन्गायत्री !]
१९. अश्विना यज्वरीरिषों द्रवत्पाणी शुभस्पती। पुरुभुजा चनस्यतम् ।। १ ॥
हैं विशालवाहो ! शुभ कर्मपालक, द्रुतगति से कार्य सम्पन करने वाले अश्विनीकुमारों ! हमारे द्वारा समर्पित विष्यानों से आप भली प्रकार सन्तुष्ट हो ॥३ ।।
२०. अश्विना पुरुदंससा नरा शवरया धिया। धिष्ण्या वनतं गिरः ।। ३ ।।
असंख्य कर्मों को सम्पादित करने वाले धैर्य धारण करने वाले, बुद्धिमान हे अश्विनीकुमारो ! आप अपनी उत्तम बुद्धि से हमारी वाणियों (प्रार्थनाओं) को स्वीकार करें ।।२ ॥
२१. दस्रा युवाकवः सुता नासत्या वृक्तबर्हिषः। आ यातं रुद्रवर्तनी ।। ३ ।।
रोगों को बिनष्ट करने वाले, सदा सत्य बोलने वाले रुद्रदेव के समान (शत्रु संहारको प्रवृत्ति वाले, दर्शनीय हे अश्विनीकुमारों ! आप यहाँ आयें और बिछी हुई कुशाओं पर विराजमान होकर प्रस्तुत संस्कारित सोमरस का पान करें ।।३।।
२२. इन्द्रा याहि चित्रभानो सुता इमे त्वायवः । अण्वीभिस्तना पूतासः ।। ४ ।।।
हे अद्भुत दीप्तिमान् इन्द्रदेव ! अंगुलियों द्वारा सवित, श्रेष्ठ पवित्रतायुक्त यह सोमरस आपके निमित्त हैं । आप आये और सोमरस का पान करें ॥४॥
२३. इन्द्रा याहि धियेधितो विप्रजूतः सुतावतः। उप ब्रह्माणि वाघतः ॥ ५ ॥
हे इन्द्रदेव ! श्रेष्ठ बुद्धि द्वारा जानने योग्य आप, सोमरस प्रस्तुत करते हुये ऋत्विजों के द्वारा बुलाये गये हैं। उनकी स्तुति के आधार पर आप यज्ञशाला में पधारे ।।५ ।।
२४. इन्द्रा याहि तूतुजान उप ब्रह्माणि हरिवः। सुते दधिष्व नश्चनः ।। ६ ।।
हे अश्वयुक्त इन्द्रदेव ! आप स्तनों के अवणार्थ एवं इस यज्ञ में हमारे द्वारा प्रदत्त हाँवियों का सेवन करने के लिये अज्ञशाला में शीघ्र ही पधारे ।।६।।
ऋग्वेद संहिता भाग–१
२५. ओमासश्चर्षणीधृतो विश्वे देवास आ गत । दाश्वांसो.दाशुषः सुतम् ।। ७ ।।
हैं विश्वेदेवों ! आप सबको रक्षा करने वाले, सभी प्राणियों के आधारभूत और सभी को ऐश्वर्य प्रदान करने वाले हैं। अत: आप इस सोम युक्त वि देने वाले यजमान के यज्ञ में पधारें ॥ ५७ ।।
२६. विश्वे देवासो अप्तुरः सुतमा गन्त तूर्णयः । उस्रा इव स्वसराणि ।। ८ । ।
समय-समय पर वर्षा करने वाले है विश्वेदेव ! आप कर्म – कुशल और द्रुतगति से कार्य करने वाले हैं । आप सूर्य-रश्मियों के सदृश गतिशील होकर हमें प्राप्त हों ।।८।।
२७. विश्वे देवासो अस्रिध एहिमायासों अनुहः। मेधं जुषन्त वह्नयः ॥ ९ ॥
हें विश्वेदेवो ! आप किसी के द्वारा बध न किये जाने वाले, कर्म-कुशल, द्रोहरहित और सुखप्रद हैं। आप हमारे यज्ञ में उपस्थित होकर हब का सेवन करें ॥१॥
२८. पावका नः सरस्वती वाजेभिर्वाजिनीवती। यज्ञं वधू धियावसुः ॥ १० ॥
पवित्र बनाने वाली, पोषण देने वाली, बुद्धिमत्तापूर्वक ऐश्वर्य प्रदान करने वाली देवी सरस्वती ज्ञान और कर्म । से हमारे यज्ञ को सफल बनायें ।।१० ॥
२९. चोदयित्री सुनृतानां चैतन्ती सुमतीनाम्। यज्ञं दधे सरस्वती ।। ११ ॥
सत्यप्रिय (वचन) बोलने की प्रेरणा देने वाली, मेधावी जनों को यज्ञानुष्ठान की प्रेरणा (पति) प्रदान करने वाली देवी सरस्वती हमारे इस यज्ञ को स्वीकार करके हमें अभीष्ट वैभव प्रदान करें ॥ ११ ॥
३०. महो अर्णः सरस्वती प्र चेतयति केतुना। धियो विश्वा वि राजति ।। १२ ।।
जो देवी सरस्वती नदी-रूप में प्रभूत जल को प्रवाहित करती हैं। वे सुमति को जगाने वाली देवी सरस्वती | सभी याजकों की प्रज्ञा को प्रखर बनाती हैं ।।१२।।
[ सूक्त – ४]
(ऋषि–मधुच्छन्दा वैश्वामित्र । देवता–इन्द्र । छन्द–गायत्री ।
३१. सुरूपकृत्नुभूतये सुदुघामिव गोदुहे। जुहूमसि विद्यवि ॥ १ ॥
(गों दोन करने वाले के द्वारा प्रतिदिन मधुर दूध प्रदान करने वाली गाय को जिस प्रकार बुलाया। ज्ञाता है, उसी प्रकार हम अपने संरक्षण के लिये सौन्दर्यपूर्ण यज्ञकर्म सम्पन्न करने वाले इन्द्रदेव का आवाहन करते हैं ॥ १ ॥
३२. उप नः सवना गहि सोमस्य सोमपाः पिब। गोदा इब्रेवतो मदः ।। ३ ।।
सोमरस का पान करने वाले है इन्द्रदेव ! आप सोम ग्रहण करने हेतु हमारे सव-यज्ञों में पधार कर, सोमरस पीने के बाद प्रसन्न होकर याजकों को यश, वैभव और गौएँ प्रदान करें ।।१।।
३३. अथा ते अन्तमानां विद्याम सुमतीनाम्। मा नो अति ख्य आ गहि ॥ ३ ॥
। सोमपान कर लेने के अनन्तर है इन्द्रदेव ! हम आपके अत्यन्त समीपवती श्रेष्ठ प्रज्ञावान् पुरुषों की उपस्थिति में रहकर आपके विषय में अधिक ज्ञान प्राप्त करें। आप भी हमारे अतिरिक्त अन्य किसों के समक्ष अपना स्वरूप प्रकट न करें (अर्थात् अपने विषय में न बताएँ ।३ ।।
३
३४. परेहि विग्नमस्तृतमिन्द्रं पृच्छा विपश्चितम्। यस्ते सखिभ्य आ वरम् ।। ४ ।।
| हे ज्ञानवानो! आप उन विशिष्ट बुद्धि वाले, अपराजेय इन्द्रदेव के पास जाकर मित्रों-बन्धुओं के लिये धन-ऐश्वर्य के निमित्त प्रार्थना करें ।।४ ।।।
३५. उत ब्रुवन्तु नो निदो निरन्यतश्चिदारत । दधाना इन्द्र इवः ॥ ५ ॥
इन्द्रदेव की उपासना करने वाले उपासक उन (इन्द्रदेव) के निन्दकों को यहाँ से अन्यत्र निकल जाने को कहें, ताकि वे यहाँ से दूर हो जायें ॥५॥
३६. उत नः सुभग रिर्वोचेयुर्दस्म कृष्टयः। स्यामेदिन्द्रस्य शर्मणि ॥ ६ ॥
है इन्द्रदेव ! हम आपके अनुग्रह से समस्त वैभव प्राप्त करें, जिससे देखने वाले सभी शत्रु और मित्र हमें सौभाग्यशाली समझे ॥६ ।।।
३७ एमाशुमाशये भर यज्ञश्रियं नृमादनम्। पतयन्मन्दयत् सखम् ॥ ७ ॥
(हें याजको !) यन्त्र को श्रीसम्पन्न बनाने वाले, प्रसन्नता प्रदान करने वाले, मित्रों को आनन्द देने वाले इस सोमरस को शीघ्रगामी इन्द्रदेव के लिये भरें (अर्पित करें) ।। ५ ।।
३८. अस्य पीत्वा शतक्रतो घनो वृत्राणामभवः। प्रावो वाजेषु वाजिनम् ॥ ८ ॥
हैं सैकड़ों यज्ञ सम्पन्न करने वाले इन्द्रदेव ! इस सोमरस को पौकर आप वृत्र-प्रमुख शत्रुओं के संहारक सिद्ध हुए हैं, अत: आप संप्राम-भूमि में वीर योद्धाओं की रक्षा करें ।।८८ ॥
३९. तं त्वा वाजेषु वाजिनं वाजयामः शतक्रतो । धनानामिन्द्र सातये ॥ ९ ॥
हे शतकर्मा इन्द्रदेव ! युद्धों में बल प्रदान करने वाले आपको हम धनों की प्राप्ति के लिये श्रेष्ठ हविष्यान्न अर्पित करते हैं ॥९॥
४. यो रायो३वनर्महान्त्सुपारः सुन्यत: सखा। तस्मा इन्द्राय गायत ॥ १० ॥
हैं याजकों ! आप उन इन्द्रदेव के लिये स्तोत्रों का गान करें, ज्ञों धनों के महान् रक्षक, दुःखों को दूर करने वाले औंर याज्ञिकों से मित्रवत् भाव रखने वाले हैं ।।१ * ।।
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| [ सूक्त -५]
|ध – मधुच्छन्दा वैश्वामित्र । देवता–इन्द्र। छन्द –गायत्री)
४१. आ त्वेता नि घीदतेन्द्रमभि प्र गायत। सखायः स्तोमवाहस : ॥ १ ॥
हे याज्ञिक मित्रो ! इन्द्रदेव को प्रसन्न करने के लिये प्रार्थना करने हेतु शोच्च आकर बैठो और हर प्रकार से इनकी स्तुति करो ॥१ ।।।
४२. पुरूतमं पुरूणामीशानं वार्याणाम् । इन्द्रं सोमे सचा सुते ॥ २ ॥
| (हें याजक मित्रो ! सोम के अभिषुत होने पर) एकत्रित होकर संयुक्तरूप से सोमयज्ञ में शत्रुओं को पराजित करने वाले ऐश्वर्य के स्वामी इन्द्रदेव की अभ्यर्थना करो ॥२॥
ऋग्वेद संहिता भाग–१
४३. स घा नो योग आ भुवत् स राये स पुरन्ध्याम्। गमद् वाजेभिरा स नः ॥ ३ ॥
वे इन्द्रदेव हमारे पुरुषार्थ को प्रखर बनाने में सहायक हों, धन-धान्य से हमें परिपूर्ण करे तथा ज्ञान प्राप्ति का मार्ग प्रशस्त करते हुये पोषक अन्न सहित हमारे निकट आयें ।।३ ॥
४४, यस्य संस्थे न वृण्वते हरी समत्सु शत्रवः। तस्मा इन्द्राय गायत ।। ४ ।।
(हे याजको !) संग्राम में जिनके अश्वो से युक्त रथों के सम्मुख शत्रु टिक नहीं सकते, उन इन्द्रदेव के गुणों का आप गान करें ॥४॥
४५. सुतपाने सुता इमे शुचयो यन्ति वीतये। सोमासो दध्याशिरः ॥ ५ ॥
यह निचोड़ा और शुद्ध किया हुआ दही मिश्रित सोमरस, सोमपान की इच्छा करने वाले इन्द्रदेव के निमित्त प्राप्त हों ।।५ ॥
४६, त्वं सुतस्य पीतये सद्यो वृद्धों अजायथाः । इन्द्र ज्यैष्ठ्याय सुक्रतो ।। ६ ।।
हे उत्तम कर्मवाले इन्द्रदेव ! आप सोमरस पीने के लिये देवताओं में सर्वश्रेष्ठ होने के लिये तत्काल वृद्ध रूप हो जाते हैं ।।६ ॥
४७, आ त्वा विशन्त्वाशवः सोमास इन्द्र गिर्वणः । शं ते सन्तु प्रचेतसे ॥ ७ ॥
हे इन्द्रदेव ! तीनों सवनों में व्याप्त रहने वाला यह सोम, आपके सम्मुख उपस्थित रहे एवं आपके ज्ञान को सुखपूर्वक समृद्ध करे ।। ५ ।।।
४८, त्वां स्तोमा अवीवृधन् त्वामुक्था शतक्रतो । त्वां वर्धन्तु नो गिरः ।। ८ ॥
हे सैकड़ों यज्ञ करने वाले इन्द्रदेव ! स्तोत्र आपकी वृद्धि करें । यह उक्थ (स्तोत्र) वचन और हमारी वाणी आपकी महत्ता बढ़ाये ॥८॥
४९. अक्षितोतिः सनेदिम वाजमिन्द्रः सहस्रिणम्। यस्मिन् विश्वानि पौंस्या ॥ ९ ॥
रक्षणीय क्रीं सर्वथा रक्षा करने वाले इन्द्रदेव बल-पराक्रम प्रदान करने वाले विविध रूपों में विद्यमान सोम रूप अन्न का सेवन करें ॥९ ।।
५०. मा नो मर्ता अभि द्रुहन् तनूनामिन्द्र गिर्वणः । ईशान यवया वधम् ॥ १० ॥
हे स्तुत्य इन्द्रदेव ! हमारे शरीर को कोई भी शत्रु क्षति न पहुँचाये । हमें कोई भी हिसित न करे, आप हमारे संरक्षक रहे ॥१३ ||
[ सूक्त – ६ ]
[ऋषि – मधुच्छ्दा वैश्वामित्र । देवता-१-३ इन्द्र, ४, ६, ८, ९ मरुद्गण, ५-७ मरुद्गण और इन्द्र; १० । | इन्द्र । छुद गायत्री । ।
५१. युञ्जन्ति ब्रघ्नमरुधं चरन्तं परि तस्थुषः। रोचते रोचना दिवि ॥ १ ॥
( वे इन्द्रदेव) द्युलोक में आदित्य रूप में भूमि पर अहिंसक अग्नि रूप में, अन्तरिक्ष में सर्वत्र प्रसरणशील वायु रूप में उपस्थित हैं। उन्हें उक्त तीनों लोकों के प्राणी अपने कार्यों में देवत्वरूप से सम्बद्ध मानते हैं।द्युलोक में प्रकाशित होने वाले नक्षत्र-ग्रह आदि उन्हों (इन्द्रदेव) के ही स्वरूपांश हैं । (अर्थात् तीनों लोकों की प्रकाशमयों- प्राणमयी शक्तियों के वे हो एक मात्र संगक हैं । ॥ १ ॥
५२. युञ्जन्त्यस्य काम्या हरी विपक्षसा रचे । शोणा धृष्ण नुवाहसा ।। ३ ।।
| इन्द्रदेव के रध में दोनों ओर रक्तवर्ण, संघर्षशील, मनुष्यों को गति देने वाले दो घोड़े नियोजित रहते हैं ॥२ ॥
५३. केतुं कृण्वन्नकेतवे पेशो मर्या अपेशसे । समुषद्धजायथाः ॥ ३ ॥
हे मनुष्यों ! तुम रात्रि में निद्वाभिभूत होकर, संज्ञा शून्य निश्चेष्ट होकर, प्रातः पुनः सचेत एवं सचेष्ट होकर मानो प्रतिदिन नवजीवन प्राप्त करते हो । (प्रति-दिन जन्म लेते हो) ॥३॥
५४. आदह स्वधामनु पुनर्गर्भवमेरिरे । दधाना नाम यज्ञियम् ॥ ४ ॥
यज्ञीय नाम वाले,धारण करने में समर्थ मरुत् वास्तव में अन्न की (वृद्धि की कामना से बार-बार (मेघ आदि) गर्भ को प्राप्त होते हैं ॥४॥
[यज्ञ में वायुभूत पदार्च मेघ आदि के गर्भ में स्थापित होकर उर्वरता को बढ़ाते हैं।
५५. वीळ चिदारुजत्नुभिर्गुहा चिदिन्द्र वह्निभिः। अविन्द उस्रिया अनु ।। ५ ।। | हे इन्द्रदेव ! सुदढ़ किले बन्दों को ध्वस्त करने में समर्थं, तेजस्वी मरुद्गणों के सहयोग से आपने गुफा में अवरुद्ध गौओं (किरणों) को खोजकर प्राप्त किया ।।५।।
५६. देवयन्तो यथा मतिपच्छा विदद्वसुं गिरः । महामनूषत श्रुतम् ।। ६ ।।
देवत्व प्राप्ति की कामना वाले ज्ञानीं त्वन् . महान् यशस्वीं, ऐश्वर्यवान् वीर मरुद्गगों की बुद्धिपूर्वक स्तुति करते हैं ।।६ ।।
५७. इन्द्रेण सं हि दृक्षसे सजग्मानो अबिभ्युषा । मन्दू समानवर्चसा ॥ ७ ॥
सदा प्रसन्न रहने वाले, समान तेज़ वाले मरुद्गण निर्भय रहने वाले इन्द्रदेव के साथ (संगठित हुए) अच्छेलगतेहैं॥५५॥
[ विभिन्न वर्गों के समान प्रतिभा – सम्पन व्यक्ति परस्पर सहयोग करें, तो समाय सुखी होता है।
५८. अनवचैरभिद्युभिर्मखः सहस्वदर्चति । गणैरिन्द्रस्य काम्यैः ॥ ८ ॥
इस यज्ञ में निर्दोष, दीप्तिमान् , इष्ट प्रदायक, सामर्थ्यवान् मरुद्गणों के साथ इन्द्रदेव के सामर्थ्य की पूजा की जाती हैं । ॥
५९. अतः परिज्मन्ना गहि दिवो वा रोचनादधि। समस्मिन्नञ्जते गिरः ।। १ ।।
हे सर्वत्र गमनशील मरुद्गणों ! आप अन्तरिक्ष में, आकाश से अथवा प्रकाशमान द्युलोक में यहाँ पर आयें, क्योंकि इस यज्ञ में हमारी वाणियाँ आपकी स्तुति कर रहीं हैं ।।६ ॥
६६. इतो या सातिमीमहे दिवो वा पार्थिवादधि। इन्द्रं महो या रजसः ॥ १० ॥
इस पृथ्वी लोक, अन्तरिक्ष लोक अधवा झुलोक में – कहीं में भी प्रभूत धन प्राप्त कराने के लिये, हम इन्द्रदेव की प्रार्थना करते हैं ॥१३ ||
।
ऋग्वेद संहिता भाग–१ [ सूक्त – ७ ]
[ऋषि– मधुच्छन्दा वैश्वामित्र । देवता– इन्द्र । छन्द– गायत्रीं ।
६१. इन्द्रमिद् गाथिनो बृहदिन्दमर्केभिरणिः । इन्द्रं वाणीरनूषत ।। १ ।।
सामगान के साधकों ने गाये जाने योग्य वृहत्साम की स्तुतियों। *था) में देवराज इन्द्र को प्रसन्न किया | है। इसी तरह याज्ञिकों ने भी मन्त्रोच्चारण के द्वारा इन्द्रदेव की प्रार्थना की हैं ॥ १ ॥
| [* गाथा शब्द गान या पद्य के अर्थ में आया है। इसे मंत्र या ऋक के स्तर का नहीं माना ज्ञाना । |
६२. इन्द्र इद्धयः सचा सम्मिश्ल आ वचोयुजा। इन्द्रो वज्री हिरण्ययः ।। २ ।।
संयुक्त करने की क्षमता वाले, वज्रधारी, स्वर्ण-मण्डित इन्द्रदेव , वचन मात्र के इशारे से जुड़ जाने वालें । अश्वों के साथी हैं ॥ ३ ॥
[वीर्य या अभ्य के अनुसार पराक्रम ही अश्य हैं। जो पराक्रमी समय पर संकेत मात्र से संगठन में जायें, देयता उनके साथी हैं, जो अहंकारवश बिखरे रहते हैं, वे इन्द्रदेव के प्रिय नहीं हैं।]
६३. इन्द्रों दीर्घाय चक्षस आ सूर्यं रोहयद् दिवि । वि गोभिरद्रिमैरयत् ।। ३ ।।
(देवशक्तियों के संगठक) इन्द्रदेव ने विश्व को प्रकाशित करने के महान उद्देश्य से सूर्यदेव को उच्चाकाश | में स्थापित किया, जिनने अपनी किरणों से पर्वत आदि समरन विश्व को दर्शनार्थ प्रेरित किया ।। ३ ।। |
६४. इन्द्र वाजेषु नोऽव सहस्त्रप्रयनेषु च। उग्र उग्राभिरूतिभिः ।। ४ ।।
हें वीर इन्द्रदेव ! आप सहस्रों प्रकार के धन – लाभ वाले छोटे-बड़े संग्रामों में वीरतापूर्वक हमारी रक्षा करें ॥४॥ |
६५. इन्द्रं वयं महाधन इन्द्रमभें हवामहे । बुर्ज वृत्रेषु वन्त्रणम् ।। ५ ।।
| हम शेटे – बड़े सभ (जीवन) संग्रामों में वृत्रासुर के संहारक, वज्रपाणि इन्द्रदेव को सहायतार्थ बुलाते हैं ॥५
६६. स नो वृषन्नम् चरु सन्नादावन्नपा वृधि । अस्मभ्यमप्रतिकुतः ।। ६ ।।
सतत दानशील, सदैव अपराजित है इन्द्रदेव ! आप हमारे लिये मैच में जल की वृष्टि करें ||६ ।।
६७, तुबेतुले ये उत्तरे स्तोमा इन्द्रस्य वज्रणः । न विन्थे अस्य सुटुतिम् ॥ ७ ॥
प्रत्येक दान के समय, वज्रधारी इन्द्रदेव के सदृश दान की (दानी की) उपमा कहीं अन्यत्र नहीं मिलती। | इन्द्रदेव की इससे अधिक उत्तम स्तुति करने में हम समर्थ नहीं हैं ।। ५ ।।
६८. वृषा यूथेव वंसगः कृष्टीरियर्योजसा। ईशानो अप्रतिष्कृतः ॥ ८ ॥
सबके स्वामी, हमारे विरुद्ध कार्य न करने वाले, शक्तिमान् इन्द्रदेव अपनों सामर्थ्य के अनुसार, अनुदान बाँटने के लिये मनुष्यों के पास उसी प्रकार जाते हैं, जैसे वृषभ गायों के समूह में जाता हैं ॥८॥ |
६९. य एक्श्चर्षणीनां वसूनामिरज्यति । इन्द्रः पञ्च क्षितीनाम् ॥ ६ ॥
इन्द्रदेव, पाँचों श्रेणियों के मनुष्यों (ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य, शूद्र और निषाद) और सब ऐश्वर्यो- सम्पदाओं। | के अद्वितीय स्वामी हैं ।।१ ।।
||
७०. इन्द्रं वो विश्वतस्पर हवामहे जनेभ्यः। अस्माकमस्तु केवलः ॥ १० ॥
हे ऋत्विज्ञो ! हे यजमानों ! सभी लोगों में उत्तम, इन्द्रदेव को, आप सब के कल्याण के लिये हम आमंत्रित करते हैं, वे हमारे ऊपर विशेष कृपा करें ।।१० ॥
[ सूक्त –८]
[ऋषि– मधुच्छन्दा वैश्वामित्र । देवता– इन्द्र । छन्द– गायत्री ।।
७१. एन्द्र सानसिं रयिं सजत्वानं सदासहम्। वर्षिष्ठमूतये भर ॥ १ ॥ |
हे इन्द्रदेव ! आप हमारे जीवन संरक्षण के लिये तथा शत्रुओं को पराभूत करने के निमित्त हमें ऐश्वर्य से पूर्ण करें ॥ १ ॥ \
७२. नि येन मुष्टिहत्यया नि वृत्रा झणधामहैं। त्वतासो न्यर्वता ॥ २ ॥
उस ऐश्वर्य के प्रभाव और आपके द्वारा रक्षित अश्वों के सहयोग से हम मुक्के का प्रहार करके (शक्ति प्रयोग द्वारा) शत्रुओं को भगा दें ॥२ ॥
७३. इन्द्र चौतास आ वयं वन्नं घना ददीमहि। जयेम सं युधि स्पृधः ॥ ३ ॥
है इन्द्रदेव ! आपके द्वारा संरक्षित होकर तीक्ष्ण क्यों को धारण कर हम युद्ध में स्पर्धा करने वाले शत्रुओं पर विजय प्राप्त करें ॥३॥
७४. वयं शूरेभिरस्तुभिरंन्द्र त्वया युजा वयम्। सासह्याम पृतन्यतः ।। ४ ।।
हे इन्द्रदेव ! आपके द्वारा संरक्षित कुशल शस्व-चालक वीरों के साथ हम अपने शत्रुओं को परिजत कों ॥४॥
७५, मह इन्द्रः परश्च नु महत्वमस्तु वज्रिणे। द्यौर्न प्रथिना शवः ।।५।।
हमारे इन्द्रदेव श्रेष्ठ और महान हैं । वज्रधारी इन्द्रदेव का यश द्युलोक के समान व्यापक होकर फैले तथा इनके बल की प्रशंसा चतुर्दिक हो ॥५॥
७६. समोहे वा य आशत नरस्तोकस्य सनितौं । विप्रासो वा धियायवः ।। ६ ।।
जो संग्राम में जुटते हैं, जो पुत्र के निर्माण में जुटते हैं और बुद्धिपूर्वक ज्ञान-प्राप्ति के लिए यत्न करते हैं, वे सब इन्द्रदेव की स्तुति से इष्टफल पाते हैं ॥६॥
७७. यः कुक्षिः सोमपातमः समुद्र इव पिन्वते । उर्वीरापो न काकुदः ।। ७ ।।
अत्यधिक सोमपान करने वाले इन्द्रदेव का इदम् समुद्र की तुरह विशाल हो जाता है । वह (समासा ज्ञाभ में प्रवाहित होने वाले रसों की तरह सतत द्रवित होता रहता है । सदा आर्द्र बनाये रहता हैं ) ।। ७ ।।
५७८. एवा ह्यस्य सूनुत्ता विरशी गोमती महीं। पक्वा शाखा न दाशुषे ।। ४ ।।
इन्द्रदेव की अति मधुर और सत्यवाणीं उसी प्रकार सुख देती है, जिस प्रकार गो धन के दाता और पके फत वालौं शाखाओं से युक्त वृक्ष यजमानों (विदाता) को सुख देते हैं ।।८ । । ।
७९. एवा हि ते विभूतय ऊतय इन्द्र मावते । सद्यश्चित् सन्ति दाशचे ।। १ ।।
है इन्द्रदेव ! हमारे लिये इष्टदात्री और संरक्षण प्रदान करने वाली जो आपकी विभूतियों हैं, वे सभी दान देने (श्रेष्ठ कार्य में नियोजन करने वालों को भी तत्काल प्राप्त होती हैं ॥६, ।।।
ऋग्वेद संहिता भाग–१
१०. एवा ह्यस्य काम्या स्तोम उक्थं च शंस्या। इन्द्राय सोमपीतये ॥ १० ॥
दाता की स्तुतियाँ और उक्थ वचन अति मनोरम एवं प्रशंसनीय हैं। ये सब सोमपान करने वाले इन्द्रदेव के लिये हैं ॥ १० ॥
| [ सूक्त – १]
[ऋषि – मधुच्छन्दा वैश्वामित्र । देवता–इन्द्र । छन्द– गायत्री |
८१. इन्द्रेहिं मत्स्यन्धसो विश्वेभिः सोमपर्वभिः। महाँ अभिष्टिरोजसा ॥ १ ॥
हे इन्द्रदेव ! सोमरूपी अनों से आप प्रफुल्लित होते है, अत: अपनी शक्ति से दुर्दान्त शत्रुओं पर विजय श्री | वरण करने की क्षमता प्राप्त करने हेतु आप ( यज्ञशाला में ) पश्वारे ॥१ ।।
८२. एमेनं सृजता सुते पदमिन्द्राय मन्दिने। चक्र विश्वानि चक्रये ॥ २ ॥
(हे याजको प्रसन्नता देने वाले सोमरस को (निचोड़कर) तैयारकरोतथासम्पूर्णकार्योंकेकर्ताइन्द्रदेवकेलियेसामर्थ्यबढ़ानेवालेइससोमकोअर्पितकरों॥२॥
८३. मत्स्वा सुशिश मन्दिभिः स्तोमेभिर्विश्वचर्षणे। सचैत्रु सवनेष्वा ॥ ३ ॥
हे उत्तम शस्त्रों से सुसज्जित ( अथवा शोभन नासिका वाले), सर्वद्रष्टा इन्द्रदेव ! हमारे इन यज्ञों में आकर | प्रफुल्लताप्रदानकरनेवालेस्तोत्रोंसेआपआनन्दितहों॥३॥
८४. असूग्रमिन्द्र ते गिर: प्रति त्वामुदहासत। अजोषा वृषभं पतिम् ॥ ४ ॥
हे इन्द्रदेव ! आपकी स्तुति के लिये हमने स्तोत्रों की रचना की है। हैं बलशाली और पालनकर्ता इन्द्रदेव ! | इन स्तुतियों द्वारा की गई प्रार्थना को आप स्वीकार करें ||४।।
८५. सं चोदय चित्रमर्वाग्राथ इन्द्र वरेण्यम्। असदिते विभु प्रभु ॥ ५ ॥ |
हैं इन्द्रदेव ! आप हौं विपुल ऐश्वर्यों के अधिपति है, अत: विविध प्रकार के अँछ ऐश्वर्यों में हमारे पास प्रेरित करें, अर्थात् हमें श्रेष्ठ ऐश्वर्य प्रदान करें ।।५ ।।।
८६. अस्मान्त्सु तत्र चोदयेन्द्र रायें रभस्वतः । तुविद्युम्न यशस्वतः ॥ ६ ॥
हे प्रभूत ऐश्वर्य सम्पन्न इन्द्रदेव ! आप वैभव की प्राप्ति के लिये हमें श्रेष्ठ कर्मों में प्रेरित करें, जिससे हम | परिश्रमोंऔरयशस्वीहोसके॥६॥
29. सं गोमदिन्द्र वाजवदस्मे पृथु अवो बृहत् । विश्वायुर्धेक्षितम् ॥ ७ ॥
| है इन्द्रदेव ! आप हमें गौओं, धन–धान्योंसेयुक्तअपारवैभवएवंअक्षयपूर्णायुप्रदानकरें॥७॥
८८. अस्मे धेहि अवो बृहद् घुम्नं सहस्रातमम्। इन्द्र ता रथिनरिषः ॥ ६ ॥
हे इन्द्रदेव ! आप हमें प्रभूत यश एवं विपुल ऐश्वर्य प्रदान करें तथा बहुत से रथों में भरकर अन्नादि प्रदान | करे ॥ ॥
८९. वसोरिन्द्रं वसुपतिं गीर्भिर्गुणन्त ऋग्मयम्। होम गन्तारमूतये ॥ १ ॥
धनों के अधिपति, ऐश्वर्यों के स्वामी, ऋचाओं से स्तुत्य इन्द्रदेव का हम स्तुतिपूर्वक आवाहन करते हैं। वे हमारे यज्ञ में पधार कर, हमारे ऐश्वर्य की रक्षा करें ॥९॥
९०. सुतेसुते न्योकसे बृहद् बृहत एदरिः । इन्द्राय शुषमर्चति ॥ १० ॥
सोम को सिद्ध (तैयार करने के स्थान यज्ञस्थल पर यज्ञकर्ता, इन्द्रदेव के पराक्रम की प्रशंसा करते हैं ॥१० ।।
| [ सूक्त –
। देवता–इन्द्र । छन्द–अनुष्टुम् ]
११. गायन्ति त्वा गायत्रिणों ऽर्चन्त्यर्कमर्किणः । ब्रह्माणस्त्वा शतक्रत उद्वंशमिव येमिरे ॥१॥
हे शतक्रतो (सौ यज्ञ या श्रेष्ठ कर्म करने वाले) इन्द्रदेव ! उद्गातागण (उच्च स्वर से गान करने वाले) आपका आवाहन करते हैं। स्तोतागण पूज्य इन्द्रदेव का मंत्रोच्चारण द्वारा आदर करते हैं। बाँस के ऊपर कला प्रदर्शन करने वाले नट के समान, बह्मा नामक ऋत्विञ् श्रेष्ठ स्तुतियों द्वारा इन्द्रदेव को प्रोत्साहित करते हैं ।।१ ॥
९२. यत्सानो: सानुमारुहद् भूर्यस्पष्ट कर्वम् । तदिन्द्रो अर्थं चेतति यूथेन वृष्णिरेजति ॥२ ।।
जब यजमान सोमवल्ली, समिधादि के निमित्त एक पर्वत शिखर से दूसरे पर्वत शिखर पर जाते हैं और – अज़ब कर्म करते हैं, तब उनके मनोरथ को जानने वाले इष्टप्रदायक इन्द्रदेव यज्ञ में जाने को उद्यत होते हैं ॥ २ ॥
१३. युवा हि केशिना हरी वृषणा कक्ष्या । अथा न इन्द्र सोमपा गिरामुपति च ।।३।।
हैं सोमरस ग्रहींना इन्द्रदेव ! आप लम्बे केशयुक्त, शक्तिमान्, गन्तव्य तक ले जाने वाले दोनों घोड़ों को रथ में नियोजित करें। तत्पश्चात् सोमपान से तृप्त होकर हमारे द्वारा की गई प्रार्थनाएँ सुनें ॥३॥
१४. एहि स्तोम अभि स्वरामि गृणा रुव । ब्रह्म च न बसों सचेन्द्र यज्ञं च वर्धय ।।४।।
हैं सर्वनिवासक इन्द्रदेव ! हमारीं स्तुति का श्रवण कर आप उद्गाताओं, होताओं एवं अध्वर्युवों को । प्रशंसा से प्रोत्साहित करें ।।४ ॥
१५. उक्थमन्द्राय शंस्यं वर्धनं पुरुनिमिथे। शो यथा सुतेषु णो रारणत् सख्येषु च ॥५॥
| है स्तोताओं ! आप शत्रुसंहारक, सामर्थ्यवान् इन्द्रदेव के लिये उनको यश को बढ़ाने वाले उत्तम स्तोत्रों का । पाठ करें, जिससे उनकी कृपा हमारी सन्तानों एवं मित्रों पर सदैव बनी रहे ॥५॥
९६. तमित् सखित्व ईमहे ते राये तं सुवीर्ये । स शक्र उत न: शकदिन्द्रो वसु दयमानः ।।६।। | हम उन इन्द्रदेव के पास मित्रता के लिये, घन -प्राप्ति और उत्तमबल – वृद्धि के लिये स्तुति करने जाते हैं। वे इन्द्रदेव बल एवं धन प्रदान करते हुए हमें संरक्षित करते हैं ॥६ ॥ |
९५७. सुविवृत्तं सुनिरजमिन्द्र वादातमिद्यशः । गवामय व्रजं वृधि कृणुष्व रायों अद्रिवः ।।
हे इन्द्रदेव ! आपके द्वारा प्रदत्त यश सब दिशाओं में सुविस्तृत हुआ है । हे वज्रधारक इन्द्रदेव ! गौओं को बाड़े से अॅड़ने के समान हमारे लिये धन को प्रसारित करें ।। ७ ।।। |
९८. नहि त्वा रोदसी उभे ऋयायमाणमिन्वतः । जेषः स्वर्वतीरपः सं गा अस्मभ्यं धूनहि।।८।।
है इन्द्रदेव ! युद्ध के समय आप के यश का विस्तार पृथ्वीं और द्युलोक तक होता है। दिव्य जल – प्रवाहा। पर आपका ही अधिकार है। उनसे अभिषिक्त कर हमें ना करें ।। ॥
१९. आश्रुत्कर्ण श्रुधी हवं नू चिद्दधिष्व में गिरः । इन्द्र स्तोममिमं मम कृष्वा युजश्चिदन्तरम् ॥ ९ ॥
भक्तों की स्तुति सुनने वाले हैं इन्द्रदेव ! हमारे आवाहन को सुनें । हमारी वाणियों को चित्त में धारण करें । हमारे स्तोत्रों में अपने मित्र के वचनों से भी अधिक प्रीतिपूर्वक धारण करें ॥९॥
१००, विद्या हि त्वा वृषन्तमं वाजेषु हवनश्रुतम्। वृषन्तमस्य हूमह ऊतिं सहस्रसातमाम् ॥१०॥
है इन्द्रदेव ! हम जानते हैं कि आप बल – सम्पन्न हैं तथा युद्धों में हमारे आवाहन को आप सुनते हैं। है। बलशाली इन्द्रदेव ! आपके सहस्रों प्रकार के धन के साथ हम आपका संरक्षण भी चाहते हैं ॥१० ।।
१०१. आ तू न इन्द्र कौशिक मन्दसान: सुतं पिब । | नव्यमायुः प्र सू तिर कृधी सहस्त्रसामृर्षम् ॥ ११ ॥
हे कुशिक के पुत्र इन्द्रदेव ! आप इस निष्पादित सोम का पान करने के लिये हमारे पास शीघ्र आयें । हमें कर्म करने की सामर्थ्य के साथ नवौन आयु भी दें । इस मंत्र को सहस्र धनों से पूर्ण करें ।।११ ॥ । [* कुशिक पुत्र विश्वामित्र के समान ही पनि के कारण इन्द्रदेव में कृत्तिक पुत्र सम्बोधन दिया गया है। (विशेष स्थ्य म अनु० ]
१०२. परि त्वा गिर्वणो गिर इमा भवन्तु विश्वतः ।।
वृद्धायुमनु वृद्धयो जुष्टा भवन्तु जुष्टयः ॥ ११ ॥ । हे स्तुत्य इन्द्रदेव ! हमारे द्वारा की गई स्तुतियों सब ओर से आपकी आयु को बढ़ाती हुई आपको यशस्वी बनाये । आपके द्वारा स्वीकृत ये(स्तुतियाँ) हमारे आनन्द को बढ़ाने वाली सिद्ध हो ॥१३॥
| [सूक्त – ११]
[अष– जेतामाधुच्छन्दस। देवता – इद्र । छन्द– अनुष्टुम् ।]
१०३. इन्द्रं विश्वा अवीवृधन्दसमुद्रव्यचसं गिरः। रथीतमं रथीनां वाजानां सत्पतिं पतिम् ॥१॥
समुद्र के तुल्य व्यापक, सब धियों में महानतम, अनों के स्वामों और सत्प्रवृत्तियों के पालक इन्द्रदेव को समस्त स्तुतिय अभिवृद्धि प्रदान करती हैं ॥ १ ॥
१४. सख्ये त इन्द्र वाजिनो मा भैप शवसस्पते । त्वामभि प्र णोनुमो जेतारमपराजितम्।।२।।
हे बलराक इन्द्रदेव ! आपकी मित्रता से हम बलशाली होकर किसी से न दें । हे अपराजेय – विजयी इडदेव ! हम साधकगण आपको प्रणाम करते हैं ॥३॥
१०५. पूर्वीरिन्द्रस्य रातयो न वि दस्यन्त्यूतयः ।। यदी वाजस्य गोमतः स्तोतृभ्यो मंहते मघम् ॥ ३ ॥ |
देवराज इन्द्र को दानशीलता सनातन है। ऐसी स्थिति में आज के यजमान भी यदि स्तोताओं को गवादि सहन्न अन दान करते हैं, तो इन्द्रदेव द्वारा की गई सुरक्षा अक्षुण्ण रहती है ।।३।।
१०६. पुरा भिर्युवा कविरपितौजा अजायत । | इन्द्रों विश्वस्य कर्मणो धर्ता वन्त्री पुरुष्टतः ।। ४ ।।
शत्रु के नगरों को विनष्ट करने वाले वे इन्द्रदेव युवा, ज्ञाता, अतिशक्तिशाली, शुभ कार्यो के आश्रयदाता तथा सर्वाधिक कीर्ति -युक्त होकर विविधगुण सम्पन्न हुए हैं ॥४|
‘ त्वां देवा, अबिभ्युषस्तुज्यमानास आविषुः ।। ५ ।।
| हे वधारी इन्द्रदेव ! आपने गौओं (सूर्य-किरण) को चुराने वाले असुरों के व्यूह को नष्ट किया, तत्र असुरों से पराजित हुए देवगण आपके साथ आकर संगठित हुए ॥५॥
१०८, तवाहं शूर रातिभिः प्रत्यायं सिन्धुमावदन् । उपातिष्ठन्त गिर्वणो विदुष्टे तस्य कारवः ॥ ६ ॥
संग्रामशूर हे इन्द्रदेव ! आपकी दानशीलता से आकृष्ट होकर हम होतागण पुन: आपके पास आये हैं। है स्तुत्य इन्द्रदेव ! सोमयाग में आपकी प्रशंसा करते हुए ये ऋत्विज एवं यजमान आपकी दानशीलता को जानते हैं ॥६॥
१०९. मायाभिरिन्द्र मायिनं त्वं शुष्णमवातिरः । विदुष्टे तस्य मेधिरास्तेषां श्रवांस्युत्तिर ॥७॥
है इन्द्रदेव ! अपनी माया द्वारा आपने ‘शुष्ण’ (एक राक्षस) को पराजित किया। जो बुद्धिमान् आपकी । इस माया को जानते हैं, उन्हें यश और बल देकर वृद्धि प्रदान करें ।। ५ ॥
११०. इन्द्रमीशानमोजसाभि स्तोमा अनूषत । सहस्त्रं यस्य रातय उत वा सन्त भूयसीः॥८॥
स्तोतागण, असंख्य अनुदान देने वाले, ओजस् (बल-पराक्रम) के कारण जगत् के नियन्ता इन्द्रदेव की स्तुति करने लगे ॥८॥
[सूक्त – १२]
[ष – मेधातिथि काण्य। देवता- न, (छठवी ऋचा के प्रथम पाद के देवता-निर्मथ्य अग्नि और आहवनीय अग्नि) । छन्द-गायत्रौ । ]
१११. अग्नि दूतं वृणीमहे होतारं विश्ववेदसम् । अस्य यज्ञस्य सुक्रतुम् ।।१।।
हे सर्वज्ञाता अग्निदेव ! आप यज्ञ के विधाता हैं, समस्त देवशक्तियों को तुष्ट करने की सामर्थ्य रखते हैं। आप यज्ञ की विधि-व्यवस्था के स्वामी हैं। ऐसे समर्थ आपको हम देव-दूत रूप में स्वीकार करते हैं ॥१॥
११३. अग्निमग्न हवीमभिः सदा हवन्त विश्पत्तिम् । हव्यवाहं पुरुप्रियम् ॥२ ।।
प्रज्ञापालक, देवों तक हाँव पहुँचाने वाले, परमप्रिय, कुशल नेतृत्व प्रदान करने वाले हे अग्निदेव ! हम याजकगण हवनीय मंत्रों से आपको सदा बुलाते हैं ॥२ ॥
११३. अग्ने देय इहा वह जज्ञानो वृक्तबर्हिथे। असि होता न ईड्यः ॥३॥
है स्तुत्य अग्निदेव ! आप अणि पन्थन से उत्पन्न हुए हैं। आस्तीर्ण (बिछे हुए कुशाओं पर बैठे हुए। यजमान पर अनुग्रह करने हेतु आप (यज्ञ कौं) हवि ग्रहण करने वाले देवताओं को इस यज्ञ में बुलाएँ ।।३।।
११४. त शतो वि बोधय यदने यासि दृत्यम्। देवेरा सत्स बहिधि ॥४ ।।
हे अग्निदेव ! आप हवि की कामना करने वाले देवों को यहाँ बुलाएँ और इन कुशा के आसनों पर देवों के साथ पतित हों ।।४ ॥
११५. घृताहवन दीदिवः प्रति घ्म रिघतो दह। अग्ने त्वं रक्षस्विनः ।।५।
। घृत आहुतियों में प्रदौन हे अग्निदेव ! आप राक्षसों प्रवृत्तियों वाले शत्रुओं को सम्यक् रूप से भस्म करें ।।५ ।।।
११६. अग्निनाग्निः समिध्यते कविगृहपतिर्युवा। हव्यवाद् जुह्वास्यः ।।६ ॥
यज्ञ स्थल के रक्षक, दूरदर्शी, चिरयुवा, आहुतियों को देवों तक पहुँचाने वाले, ज्वालायुक्त आहवनीय यज्ञाग्नि को अरणि मन्थन द्वारा उत्पन्न अग्नि से प्रज्ज्वलित किया जाता हैं ॥६॥
११७. कविमग्निमप स्तुहि सत्यथर्माणमथ्व। देवममीवचातनम् ॥७॥
हे त्वज्ञो ! सोक हितकारी यज्ञ में रोगों को नष्ट करने वाले, ज्ञानवान् अग्निदेव की स्तुति आप सब विशेष रूप से करें । ॥
११८. यस्त्वामग्ने हविष्यतितं देव सपर्यति । तस्य स्म प्राविता भव ।।८। ।
| देवगणों तक हविष्यान्न पहुँचाने वाले हे अग्निदेव ! जो याजक, आप (देवदूत) की उत्तम विधि से अर्चना करते हैं, आप उनको भली-भाँति रक्षा करें ।।८ ।।
११९. यो अग्नि देववीतये हविष्माँ आविवासति । तस्मै पावक मृळय ।।९।।
हे शोधक अग्निदेव ! देवों के लिए हवि प्रदान करने वाले जो यजमान आपकी प्रार्थना करते हैं, आप उन्हें सुखी बनायें ॥६॥
१२०. स नः पावक दीदिवोऽग्ने देवाँ इहा वह। उप यज्ञं विश्च नः ॥१०॥
| हे पवित्र, दीप्तिमान् अग्निदेव ! आप देवों को हमारे यज्ञ में हव ग्रहण करने के निमित्त ले आएँ ॥१०॥
१२१. स नः स्तवान आ भर गायत्रेण नवयसा। रयिं वीरवतीमिघम् ।।११।।
हे अग्निदेव ! नवनतम गायत्री छन्द वाले सूक्त से स्तुति किये जाते हुए आप हमारे लिए पुत्रादि ऐश्वर्य और बलयुक्त अनों को भरपूर प्रदान करें ॥११ ॥
१२२. अग्ने शुक्रेण शोचिषा विश्वाभिर्देवहूतिभिः । इमं स्तोमं जुषस्व नः ॥१२॥
हे अमदेव ! अपनी कान्तिमान् दीप्तियों से देवों को बुलाने के निमित्त हमारी स्तुतियों को स्वीकार करें ॥१३ ।।
[ सूक्त – १३ ]
[ऋषि – मेधातिथि काण्व । देवता–१–इध्म अथवा समद्ध अग्नि, ३ – तनुनपातु, ३– नराशंस, ४– इय, ५ बर्हि, ६– दिव्यद्वार, ५–उषासानक्ता, दिव्यहोता अचेतस ६– तीन देवियां – सरस्वतो, इला, भारती, १०– त्वष्टा, १ १–वनस्पति, १२–स्वाहाकृतिं । छन्द–गायत्रीं] |
१२३. सुसमिद्धो न आ वह देव अग्ने हविष्मते। होतः पावक यक्षि च ॥१॥
पवित्रकर्ता, यज्ञ सम्पादनकर्ता हे अग्निदेव ! आप अच्छी तरह प्रज्ज्वलित होकर यज्ञमान के कल्याण के लिए देवताओं का आवाहन करें और उनको लक्ष्य करके यज्ञ सणन करे अर्थात् देवों के पोषण के लिए हविष्यान ग्रहण करें ।।१ ॥
१२४. मथुमन्तं तनूनपाद् यज्ञं देवेषु नः कवे। अद्या कृणुहि वीतये ।।२।।
ऊर्ध्वगामी, मेधावी हे अग्निदेव ! हमारी रक्षा के लिए प्राणवर्द्धक-मधुर हवियों को देवों के निमित्त प्राप्त करें और उन तक पहुँचाएँ ॥२ ।।।
१२५. नराशंसमिक् प्रियमस्मन् यज्ञ उप हृये। मधुजिहें हविष्कृतम् ॥३॥
हम इस यज्ञ में देवताओं के प्रिय और आहादक (मधुजिह्न) अग्निदेव का आवाहन करते हैं। वह हमारी हवियों को देवताओं तक पहुँचाने वाले हैं, अस्तु, वे स्तुत्य हैं ॥३ ।।।
१२६. अग्ने सूखतमें रचे देव इंळित आ वह। सि होता मनुर्हितः ॥४॥
मानवमात्र के हितैषी हे अग्निदेव ! आप अपने श्रेष्ठ- सुखदायी रथ से देवताओं को लेकर (यज्ञस्थल पर) पधारें । हम आपकी वन्दना करते हैं ॥४॥
१२७, स्तुणीत बर्हिरानघग्घृतपृर्द्ध मनीषिणः। यत्रामृतस्य चक्षणम् ॥५॥
है मेधावीं पुरुषों ! आप इस यज्ञ में कुशा के आसनों कों परस्पर मिलाकर इस तरह बिआएँ कि उस पर घृत-पात्र को भली प्रकार रखा जा सके, जिससे अमृततुल्य मृत का सम्यक् दर्शन हो सके ॥५५ ॥ |
१२८. वि अयन्तामृतानुयो द्वारो देवीरसश्चतः। अद्या नूनं च यध्वे ।६ ।।
| आज यज्ञ करने के लिए निश्चित रूप से आ (यज्ञीय वातावरण) की वृद्धि करने वाले आँवनाशी दिव्य द्वार खुल जाएँ ।।६ ॥
१२९. भक्तोपासा सुपेशसास्मिन् यज्ञ उप हुये। इदं नो बर्हिरासदे ॥॥
| सुन्दर रूपवती रात्रि और उमा का हम इस यज्ञ में आवाहन करते हैं। हमारी ओर से आसन रूप में यह बर्हि (कुश) प्रस्तुत है ॥ १७ ॥
१३०, तो सुजिह्वा उप हये होतारा दैव्या कयी। यज्ञं नो अक्षतामिमम् ॥८॥
उन उत्तम वचन वाले और मेधावी दोनों ( अग्नियों ) दिव्य होताओं को यज्ञ में यज़न के निमित्त हम बुलाते हैं ।।¢ ॥
१३१. इळा सरस्वती महीं तिस्रो देवर्मयोभुवः। बर्हिः सीदन्वत्रियः ।।९।।
इळा, सरस्वती और मही ये तीनों देवियों सुखकारों और क्षयरहित हैं । ये तीनों बिछे हुए दीप्तिमान् कुश के आसनों पर विराजमान हों ।।६ ।।
१३२. इह त्वष्टारर्माग्रयं विश्वरूपम्प हुये। अस्माकमस्तु केवनः ॥१०॥
| प्रथम पूज्य, विविध रूप वाले त्वष्टादेव का इस यज्ञ में आवाहन करते हैं, वे देव केवल हमारे ही हों ।।१८ ॥
१३३. अव सूज्ञा वनस्पते देव देवेभ्यो हविः। अ दातुरस्तु चेतनम् ॥११ ।।
| हे वनस्पतिदेव ! आप देवों के लिए नित्य विम्यान्न प्रदान करने वाले दाता को प्राणरूप उत्साह प्रदान करें ॥ १ ॥
१३४. स्वाहा यज्ञं कृणोतनेन्द्राय यज्वनों गृहे। तत्र देव उप ह्वये ॥१२ ।।
हे अध्वर्यु ! आप याजों के घर में इन्द्रदेव की तुष्टि के लिये आहतियाँ समर्पत करें । हम होता वहाँ देवों को आमन्त्रित करते हैं ॥ ३ ॥
[ सूक्त = १४ ]
|ऋषि – मेधातिथि काव । देवना–विश्वेदेवा । छन्द–गायत्री ।।
१३५. ऐभिरग्ने दुवो गिरो विश्वेभिः सोमपीतये। देवेभिर्याहि यक्षि च ।।१।।
| हे अग्निदेव ! आप समस्त देवों के साथ इस यज्ञ में सोम पीने के लिए आएँ एवं हमारी परिचर्या और स्तुतियों को ग्रहण करके यज्ञ कार्य सम्पन करें ।। १ । ।
१३६. आ त्वा कण्वा अषत गृणन्ति विप्र ते धियः । देवेभिरग्न आ गहि ।।२।।
हे मेधावी अग्निदेव ! कण्वऋषि आपको बुला रहे हैं, वे आपके कार्यों की प्रशंसा करते हैं । अतः आप देवों के साथ यहाँ पधारे ॥ ३ ॥
१३७. इन्द्रवायू बृहस्पति मित्राग्नि पूषणं भगम्। आदित्यान् मारुतं गणम् ।।३।।
यज्ञशाला में हम इन्द्र, वायु, बृहस्पति, मित्र, अग्नि, पूषा, भग, आदित्यगण और मरुद्गण आदि देवो का आवाहन करते हैं ॥३॥
१३८. प्र वो भियन्त इन्दवो मत्सरा मादयिष्णवः। द्रप्सा मध्वश्चमूषदः ।।४।।
| कूट-पीसकर तैयार किया हुआ, आनन्द और हर्ष बढ़ाने वाला यह मधुर सोमरस अनदेव के लिए चमसादि पात्रों में भरा हुआ है ॥४ ।।।
१३९. ईळते त्वामवस्यवः कण्वासो वृक्तबर्हिषः । हविष्मन्तो अरकृतः ।।५।।
कण्व ऋषि के वंशज अपनी सुरक्षा को कामना से, कुश-आसन बिझकर हविष्यान्न व अलंकारों से युक्त होकर अग्निदेव की स्तुति करने हैं ॥५॥
१४८. वृत्तपृष्ठा मनोयुजो ये त्वा वहन्ति वह्नयः। आ देवान्त्सोमपीतये ।।६।।
अतिदीप्तिमान् पृष्ठ भाग वाले, मन के संकल्प मात्र से ही रथ में नियोजित हो जाने वाले अश्यो (से खींचे गये रथ) द्वारा आप सोमपान के निमित्त देवों को ले आएँ ॥६॥
१४१. तान् यजत्रों ऋतावूधो ऽग्ने पत्नीवतस्कृधि । मध्वः सुजिह्व पायय ।। ।।
हे अग्निदेव ! आप यज्ञ की समृद्धि एवं शोभा बढ़ाने वाले पूजनीय इन्द्रादि देव को सपत्नीक इस यज्ञ में बुलाएँ तथा उसे मधुर सोमरस का पान कराएँ ॥ ७ ॥
१४२. ये यजत्रा य ईड्यास्ते ते पिबन्तु जिह्वया। मधोरग्ने वषट्कृति ।।८।।
हे अग्निदेव ! यजन किये जाने योग्य और स्तुत किये जाने योग्य जो देवगण हैं, वे यज्ञ में आपकी जिल्ला से आनन्दपूर्वक मधुर सोमरस का पान करें ॥८ ।।
१४३. आकौं सूर्यस्य रोचनाद् विश्वान् देव उषर्बुधः । विप्रो होतेह वक्षति ।।९।।
| हे मेधावी होतारूण अग्निदेव ! आप प्रात:काल में जागने वाले विश्वेदेवों को सूर्य-रश्मियों से युक्त करके हमारे पास लाते हैं ।।६।।
१४४. विश्वेभिः सोम्यं मध्वग्न इन्द्रेण वायुना। पिबा मित्रस्य धामभिः ॥१०॥
हे अग्निदेव ! आप इन्द्र, वायु, मित्र आदि देवों के सम्पूर्ण तेजों के साथ मधुर सोमरस का पान करें ॥१० ॥
१४५. त्वं होता मनुर्हितोऽग्ने यज्ञेषु सीदसि । सेमं नो अध्वरं यज ॥११॥
हे मनुष्यों के हितैषी अग्निदेव ! आप होता के रूप में यज्ञ में प्रतिष्ठित हों और हमारे इस हिसाहित यज्ञ को सम्पन्न करे ॥ ११ ॥
१४६, युझ्या ह्यरुषी रथे हरितो देव रोहितः । ताभिर्देवाँ इहा वह ।।१२।।
हे अग्निदेव ! आप रोहित नामक रथ को ले जाने में सक्षम, तेजगति वालीं घोड़ियों को रथ में जोते एवं उनके द्वारा देवताओं को इस यज्ञ में लाएँ ॥१२ ।।
[ सूक्त – १५ ]
ऋषि – मेधातिथि काण्व । देवता–प्रतिदेवता ऋतु सहित) १.५ इन्द्र, २ मरुद्गण, ३ त्वष्टा, ४, १२ अग्नि, ६ मित्रावरुण, १७, १० द्रविणोदा, ११ अश्विनीकुमार । छन्द–गायत्री ।
१४७. इन्द्र सोमं पिब ऋतुना त्वा विशन्त्विन्दवः । मत्सरासस्तदोकसः ॥१॥
हैं इन्द्रदेव ! ऋतुओं के अनुकूल सोमरस का पान करें, ये सोमरस आपके शरीर में प्रविष्ट हो; क्योकि आपकी तृप्ति का आश्रयभूत साधन यहीं सोम है ।।१ ॥
१४८. मरुतः पिबत ऋतुना पोत्राद् यज्ञं पुनीतन। यूयं हि ष्ठा सुदानवः ।।२।।
दानियों में श्रेष्ठ है मरुतों ! आप पता नामक कर्बवन् के पात्र में ऋतु के अनुकूल सोमरस का गान करें एवं हमारे इस यज्ञ को पवित्रता प्रदान करें ।।३ ॥
१४९, अभि यज्ञं गृणीहि नो ग्नावों नेष्टः पिच जुना। त्वं हि रत्नधा असि ॥३॥
हे त्वष्टादेव ! आप पत्नी सहित हमारे यज्ञ की प्रशंसा करे, ऋतु के अनुकूल सोमरस का पान करें । आप निश्चय ही रत्नों को देने वाले हैं ॥३॥
१५०. अग्ने देव इहा वह सादया योनिषु त्रिषु । परि भूष पिब ऋतुना ।।४।।
है अग्निदेव ! आप देवों को यहाँ बुलाकर उन्हें यज्ञ के तीनों सवनों (प्रातः, माध्यन्दिन एवं सायों में आसन करें। उन्हें विभूषित करके ऋतु के अनुकूल सोम का पान करें ॥४॥
१५१. ब्राह्मणादिन्द्र राधसः पिबा सोममर्तेरनु । तवेद्धि सख्यमस्तृतम् ।।५५ ॥
हैं इन्द्रदेव ! आप ब्रह्मा को जानने वाले साधक के पात्र से सोमरस का पान करें, क्योंकि उनके साथ आपको अविच्छिन्न (अटूट) मित्रता है ॥५ ॥
१५३. युवं दक्षं भूतन्नत मित्रावरुण दूळ भम्। ऋतुना यज्ञमाशाथे ॥६ ।।
हे अटल व्रत वाले मित्रावरुण ! आप दोनों तु के अनुसार बल प्रदान करने वाले हैं। आप कठिनाई से सिद्ध होने वाले इस यज्ञ को सम्पन्न करते हैं ॥६ ।।
१५३. द्रविणोदा द्रविणसो वहस्तासो अध्वरे। यज्ञेषु देवमीळते ।।७।।
| धन की कामना वाले याजक सोमरस तैयार करने के निमित्त हाथ में पत्थर धारण करके पवित्र यज्ञ में धनप्रदायक अनदेव की स्तुति करते हैं ॥ ७ ॥
१५४. द्रविणोदा ददातु नो वसूनि यानि शुण्विरे। देवेषु ता वनामहे ॥८॥
ॐ धनप्रदायक अग्निदेव ! हमें वे सभी धन प्रदान करें, जिनके विषय में हमने श्रवण किया हैं। वे समस्त धन हम देवगणों को ही अर्पित करते हैं ॥ ॥
देव-शक्तियों से प्राप्त विभूतियों का उपयोग देवकार्यो के लिये ही करने का भाव व्यक्त किया गया है।
१५५. द्रविणोदाः पिपषत जुहोत 7 च तिष्ठत। नेष्टादभिरिष्यत ।।१।।
घनषदायक अग्निदेव नेष्टापाव (नेधिष्ण्या स्थान-यज्ञ कुण्ड से ऋतु के अनुसार सोमरस पीने की इच्छा करते हैं। अत: है याजकगण ! आप वहाँ जाकरे यज्ञ करें और पुन: अपने निवास स्थान के लिये प्रस्थान करें ॥६॥
१५६. यत् त्वा तुरीयमृतुभिर्द्रविणोद यजामहे । अध स्मा नो ददिर्गव ॥१०॥
हे धनप्रदायक अग्निदेव ! ऋतुओं के अनुगत होकर हम आपके निमित्त सोम के चौथे भाग को अर्पित करते हैं, इसलिए आप हमारे लिये धन प्रदान करने वाले हों ॥१३॥
१५५७. अश्विना पिबतं मधु दीद्यग्नी शुचिता। ऋतुना यज्ञवासा ।।११ ॥
दीप्तिमान् शुद्ध कर्म करने वाले, ऋतु के अनुसार यज्ञवाहक हे अश्विनीकुमारो ! आप इस मधुर सोमरस का पान करें ॥११ ।।।
१५८. गार्हपत्येन सन्त्य ऋतुना यज्ञनरसि। देवान् देवयते यज ।।१२।।
हे इष्टप्रद अग्निदेव ! आप गार्हपत्य के नियमन में तुओं के अनुगत यज्ञ का निर्वाह करने वाले हैं, अतः देवत्व प्राप्त की कामना वाले याजकों के निमित्त देवों का यजन करें ।।१३।।
[ सूक्त – १६ ]
[ऋषि – मेधातिथि काण्व । देवता–इन्द्र । छन्द–गायत्री।
१५९. आ त्या वहन्तु हरयो वृषणं सोमपीतये। इन्द्र त्या सूरचक्षसः ।।१।।
हे बलवान् इन्द्रदेव ! आपके तेजस्वी घोड़े सोमरस पीने के लिए आपको यज्ञस्थल पर लाएँ तथा सूर्य के समान प्रकाशयुक्त मत्व मन्त्रों द्वारा आपकी स्तुति करें ॥ १ ॥
१६०, इमा धाना घृतस्नुचो हरी इहोप वक्षतः । इन्द्रं सुखतमे रथे ॥२ ।।
अत्यन्त सुखकारों रथ में नियोजित इन्द्रदेव के दोनों हरि (घोड़े, उन्हें (इन्द्रदेव को घृत से स्निग्ध हवि रूप घाना (भुने हुए जौ) ग्रहण करने के लिए यहाँ ले आएँ ।।२ ॥
१६१. इन्द्रं प्रातर्हवामह इन्द्रं असत्यध्यरे। इन्द्रं सोमस्य पीतये ॥३॥
हम प्रात:काल यज्ञ प्रारम्भ करते समय मध्याह्नकालीन सोमयाग प्रारम्भ होने पर तथा सायंकाल यज्ञ की । समाप्ति पर भी सोमरस पीने के निमित्त इन्द्रदेव का आवाहन करते हैं ॥३॥
१६२.३ प नः सुतमा गहि हाँभिरिन्द्र केशभिः। सुते हि चा हवामहे ॥४॥
३ इन्द्रदेव ! आप अपने केसर युक्त अश्वों से सोम के अभिषव,स्थान के पास आएँ । सौम के अभिषुत होने पर हम आपका आवाहन करते हैं ॥४॥
१६३. सेमं नः स्तोममा गछुपेदं सवनं सुतम्। गौरो न तृषितः पिब ।।५।।
हे इन्द्रदेव ! हमारे स्तोत्रों का श्रवण कर आप यहाँ आएँ । प्यासे गौर मृग के सदृश व्याकुल मन से सोम के अभिषव स्थान के समीप आकर सोम का पान करें ॥५॥
१६४, इमें सोमास इन्दवः सुतासो अघि बर्हिषि । त इन्द्रं सहसे पिब ।।६ ॥
हे इन्द्रदेव ! यह दीप्तिमान् सोम निष्पादित होकर कुश-आसन पर सुशोभित है। शक्ति – वर्द्धन के निमित्त आप इसका पान करें ॥६॥
१६५. अयं ते स्तोमो अग्रियो दिस्पृगस्तु शंतमः। अथा सोमं सुतं पिब ।।७।।
। है इन्द्रदेव ! यह स्तोत्र श्रेष्ठ मर्मस्पर्शी और अत्यन्त सुखकारी हैं। अब आप इसे सुनकर अभिघुन सोमरस का पान करें ।। ५ ॥
१६६. विश्वमित्सवनं सुतमिन्द्रो मदाय गच्छति । वृत्रहा सोमपीतये ॥८॥
| सोम के सभी अभिपव स्थानों की और इन्द्रदेव अवश्य जाते हैं । दुष्टों का हनन करने वाले इन्द्रदेव सोमरस पीकर अपना हर्ष बढ़ाते हैं । ॥
१६७. सेमं नः काममा पृण गोभिरश्वैः शतक्रतो । स्तवाम त्वा स्वाध्यः ।।९।।
| हे शतकर्मा इन्द्रदेव ! आप हमारी गौओं और अश्खों सम्बन्धी कामनायें पूर्ण करें । हम मनोयोगपूर्वक आपकी स्तुति करते हैं ॥६॥
[सूक्त – १७]
(ऋषि मेधातिथि काण्व । देवता– इन्द्रावण । छन्द – गायत्री ४ पादनिनृत् गायत्री, ५ हसीयसी गायत्री ]
१६८. इन्द्रावरुणयोरहूं सम्राजोरव आ वृणे। ता नो मृळात ईदृशे ।।१।।
| हम इन्द्र और वरुण दोनों प्रतापी देवों से अपनी सुरक्षा की कामना करते हैं। वे दोनों हम पर इस प्रकार अनुकम्पा करें, जिससे कि हम सुखी रहें ॥ १ ॥
१६९. गन्तारा हि स्थोऽवसे हवं विप्रस्य मावतः । धर्तारा चर्षणीनाम् ।।२।।
हैं इन्द्र और वरुणदेवों ! आप दोनों, मनुष्यों के सम्राट् . धारक एवं पोषक हैं। हम जैसे ब्राह्मणों के आवाहन पर सुरक्षा के लिए आप निश्चय हीं आने को उद्यत रहते हैं ॥२ ॥
१७०, अनुकामं तर्पयेथामिन्द्रावरुण राय आ। तो वां नेदिष्ठमीमहे ।।३।। |
है इन्द्र और वरुणदेवो ! हमारी कामनाओं के अनुरूप धन देकर हमें संतुष्ट करें। आप दोनों के समीप पहुँचकर हम प्रार्थना करते हैं ॥ ३ ॥
१७१. युवाकु हि शचीनां युवाकु सुमतीनाम् । भूयाम वाजदान्बाम्।।४।।
हमारे कर्म संगठित हों, हमारी सद्बुद्धियों संगठित हों, हम अग्रगण्य होकर दान करने वाले बनें ॥४॥
१७२, इन्द्रःसहस्त्रदानां वरुणः शंस्यानाम् । क्रतुर्भबत्युक्थ्यः ॥५॥
इन्द्रदेव सहस्रों दाताओं में सर्वश्रेष्ठ और वरुणदेव सहस्रों प्रशंसनीय देवों में सर्वश्रेष्ठ हैं ।५ ।।
१७३. तयोरिदवसा वयं सनेम नि च धीमहि । स्यादुत प्ररेचनम् ।।६।।
आपके द्वारा सुरक्षित धन को प्राप्त कर हम उसका श्रेष्ठतम उपयोग करें । वह धन हमें विपुल मात्रा में प्राप्त हो ॥६ ।।
१७४, इन्द्रावरुण वामहं हुवे चित्राय राधसे । अस्मान्त्सु जिग्युषस्कृतम् ॥७ ।।
| हे इन्द्रावरुण देव ! विविध प्रकार के धन की कामना से हम आपका आवाहन करते हैं। आप हमें उत्तम विजय प्राप्त कराएँ ॥७॥
१५७५. इन्द्रावरुण नू नु वां सिंघासन्तीषु धीवा। अस्मभ्यं शर्म यच्छतम् ।।८।। |
हे इन्द्रावरुण देवो ! हमारी बुद्धियाँ सम्यक् रूप से आपकी सेवा करने की इच्छ करती हैं, अत: हमें शीघ्र ही निश्चयपूर्वक सुख प्रदान करें ॥॥
१५७६. प्र वामश्नोतु सुष्टुतिरिन्द्रावरुण यां हुवे। यामधाचे सधस्तुतिम् ।।९।।
| हे इन्द्रावरुण देवों ! जिन उत्तम स्तुतियों के लिए (प्रनि) हम, आप दोनों का आवाहन करते हैं एवं जिन स्तुतियों को साथ-साध प्राप्त करके आप दोनों पुष्ट होते हैं, वे स्तुतियाँ आपको प्राप्त हों ।।६ ।।
[ सूक्त – १८]
[ऋषि में धातिथि काण्व । देवता– १ – ३ ब्रह्मणस्पति, ४ इन्द्र, ब्रह्मणस्पति, सोम ५ ब्रह्मणस्पति, दक्षिणा, ६–८. सदसस्पति, १ सदसस्पति या नराशंस । छन्द –गायत्री ।
१९७५७. सोमानं स्वरणं कृणुहि ब्रह्मणस्पते । कक्षीवन्तं य औशिजः ।।१।।
हें सम्पूर्ण ज्ञान के अधिपति ब्रह्मणस्पति देव ! सोम का सेवन करने वाले यज्ञमान को आप शिजू के पुत्र कक्षीवान् की तरह श्रेष्ठ प्रकाश से युक्त करें ॥ १ ॥
१७८. यो रेवान् यो अमीवहा वसुवित् पुष्टिवर्धनः। स नः सिषक्तु यस्तुरः ।।२।।
ऐश्वर्यवान्, रोगों का नाश करने वाले, धन प्रदाता और पुष्टिवर्धक था जो शीघ्र फलदायक हैं, वे ब्रह्मणस्पतिदेव, हम पर कृपा करें ॥३॥
१७९. मा नः शंसो अररुषो धूर्तिः प्रणङ् मर्त्यस्य । रक्षा णो ब्रह्मणस्पते ॥३॥
हें ब्रह्मणस्पतिदेव ! यज्ञ न करने वाले तथा अनिष्ट चिन्तन करने वाले दुष्ट शत्रु का हिंसक, दुष्ट प्रभाव हम पर न पड़े। आप हमारी रक्षा करें ॥ ३ ॥
१८०. स घा वीरो न रिष्यति यमिन्द्रों ब्रह्मणस्पतिः। सोमों हिनोति मर्त्यम् ॥४॥
| जिस मनुष्य को इन्द्रदेव, ब्रह्मणस्पतिदेव और सोमदेव प्रेरित करते हैं, वह वीर कभी नष्ट नहीं होता ।४ ॥ [इन्द्र में संगठन की, ब्रह्मणस्पति से अंष्ठ मार्गदर्शन की एवं सम से पोपण की प्राप्ति होती हैं । इनमें युक्त मनुष्य वीण नहीं होता । ये तीनों देव यज्ञ में एकत्रित होते हैं । यज्ञ से प्रेरित मनुष्य दुखी नहीं होता वरन् देवत्व प्राप्त करता है ।
१८१. त्वं तं ब्रह्मणस्पते सोम इन्द्रश्च मर्त्यम् । दक्षिणा पात्वंहसः ।।५।।
हे ब्रह्मणस्पते ! आप सोमदेव, इन्द्रदेव और दक्षिणादेवी के साथ मिलकर यज्ञादि अनुष्ठान करने वाले मनुष्य की पापों से रक्षा करें ।।५।।
१८२. सदसस्पतिमद्भुतं प्रियमिन्द्रस्य काम्यम्। सनि मेघामयासिधम् ॥६॥
इन्द्रदेव के प्रिय मित्र, अभीष्ट पदार्थों को देने में समर्थ, लोकों का मर्म समझने में सक्षम सदसस्पतिदेव (सत्प्रवृत्तियों के स्वामी) से हम अद्भुत मेधा प्राप्त करना चाहते हैं ।।६ ।।
१८३. यस्मादृते न सिध्यति यज्ञो विपश्चितश्चन। स धीनां योगमिन्वति ॥७॥
जिनकी कृपा के बिना ज्ञान का भी यज्ञ पूर्ण नहीं होता, वे सदसस्पतिदेव हमारी बुद्धि को उत्तम प्रेरणाओं से युक्त करते हैं ॥७ || | [स्दाशयता जिसमें नहीं, ऐसे विद्वानों द्वारा यज्ञीय प्रयोजनों की पूर्ति नहीं होतीं।]
१८४. आदृध्नोति हविष्कृतिं प्राञ्चं कृणोत्यध्वरम् । होत्रा देवेषु गच्छति ।।८ ॥
वे सदसस्पतिदेव हविष्यान्न तैयार करने वाले साधकों तथा यज्ञ को प्रवृद्ध करते हैं और वे ही हमारी स्तुतियों को देवों तक पहुँचाते हैं ।।८।।
१८५, नराशंसं सुधृष्टममपश्यं सप्रथस्तमम् । दिवो न सद्ममखसम् ॥९॥
ह्युलोक के सदृश अतिदीप्तिमान्, तेजवान्, यशस्वी और मुनष्यों द्वारा प्रशंसित सदसस्पतिदेव को हमने देखा
[ सूक्त – १९]
[ष – मेधातिथि काण्व । देवता–अग्नि और मरुद्गण । छन्द–गायत्री ।।
१८६. प्रति त्यं चारुमध्वरं गोपीथाय प्र हूयसे । मरुद्भिरग्न आ गहि ।।१।।
ॐ अग्निदेव ! श्रेष्ठ यज्ञों की गरिमा के संरक्षण के लिए हम आपका आवाहन करते हैं, आपको मरुतों के साथ आमंत्रित करते हैं, अत: देवताओं के इस यज्ञ में आप पारे ।। १ ।।
३५. नहि देवों न मय मस्तच क्रतुं परः । मरुद्भिग्न आ गहि ॥३॥
| हैं अग्निदेव ! ऐसा न कोई देव है, न ही कोई मनुष्य, जो आपके द्वारा सम्पादित महान् कर्म को कर सके। ऐसे समर्थ आप मरुद्गणों के साथ इस यज्ञ में पधारें ॥३॥
१८८. ये महो रजसो विदुर्विश्वे देवासो अद्रुहः । मरुद्भिरग्न आ गहि ।।३। ।
जो मरुद्गण पृथ्वी पर श्रेष्ठ जल वृष्टि करने की विधि जानते हैं या) क्षमता से सम्पन्न हैं। है। अग्निदेव ! आप उन द्रहित मरुद्गणों के साथ इस यज्ञ में पधारें ।।३ ॥
१८९. य उग्रा अर्कमानृचुनाधृष्टास ओजसा । मरुद्भिरग्न आ गहि ।।४।।
हे अग्निदेव ! जो अति बलशाली, अजेय और अत्यन्त प्रचण्ड सूर्य के सदृश प्रकाशक हैं। आप उन मरुद्गणों के साथ यहाँ पधारें ॥४॥
१९०. ये शुभ्रा घोरवर्पसः सुक्षत्रासो रिशादसः । मरुद्भिरग्न आ गहि ॥५॥ |
ज्ञो शुध तेजों से युक्त, तीक्ष्ण, वेधक रूप वाले, श्रेष्ठ बल – सम्पन्न और शत्रु का संहार करने वाले हैं। | है आग्नदेव ! आप उन मरुतों के साथ यहाँ पधारें ।।५ ॥
१९१. ये नाकस्याधि रोचने दिवि देवास आसते । मरुद्भिरग्न आ गई ॥६॥
हे अग्निदेव ! ये जो मरुद्गण सबके ऊपर अधिलित, अकाशक द्युलोक के निवासी हैं, आप उन मरुद्गणों के साथ पधारें ।।६ ।।
१९२. य ईक्लयन्ति पर्वतान् तिरः समुद्रमर्णवम्। मरुद्भिरग्न आ गहि ।।७।।
। ॐ अग्निदेव ! जो पर्वत सदृश विशाल मेघों को एक स्थान से सदरथ दूसरे स्थान पर ले जाते हैं तथा जो शान्त समुद्रों में भी चार पैदा कर देते हैं (हलचल पैदा कर देते हैं, ऐसे उन मरुद्गणों के साथ आप यज्ञ में पधारें ॥॥
१९३.आ ये तन्वन्ति रश्मिभिस्तिरः समुद्रमोजसा । मरुद्भिरग्न आ गहि ।।८।।
है अग्निदेव ! जो सूर्य की रश्मियों के साध संख्याप्त होकर समुद्र को अपने ओज़ से प्रभावित करते हैं, उन मरुतों के साथ आप यहाँ पधारें ।।८ ।।
१९४. अभि त्वा पूर्वपीतये सृजामि सोयं मधु। मरुद्भिरग्न आ गहि ॥९॥
हे अग्निदेव ! सर्वप्रथम आपके सेवनार्थ यह मधुर सोमरस हम अर्पित करते हैं, अत: आप मरुतों के साथ यहाँ पधारें ॥१९ ॥
| [ सूक्त – २० ] (ऋषि मेधातिथि काण्व । देवता-ऋभुगण । छन्द-गायत्री ।
१९५. अयं देवाय जन्मने स्तोमो विप्रेभिरासया। अकारि रत्नधातमः ॥१ । ।
ऋभुदेवों के निमित्त ज्ञानियों ने अपने मुख से इन रमणीय स्तोत्रों की रचना की तथा उनका पाठ किया ।।१ ।।
१९६. य इन्द्राय वचोयुजा ततधुर्मनसा हीं। शमीभिर्यज्ञमाशत ।।२।।
| जिन ऋभुदेवों ने अतिकुशलतापूर्वक इन्द्रदेव के लिए वचन मात्र से नियोजित होकर चलने वाले अश्वों की रचना की, ये शमी आदि (यज्ञ पात्र अथवा पाप शमन करने वाले देयों) के साथ यज्ञ में सुशोभित होते हैं ॥३॥
[चपस एक प्रकार के पात्र का नाम है जिसे भी देव भाव से सम्बोधित किया गया है ।।
१९७, तक्षन्नासत्याभ्यां परिज्मानं सुखें रथम्। तक्षन्थेनं सबर्दघाम् ।।३।।
| उन ऋभुदेवों अश्विनीकुमारों के लिए अति सुखप्रद, सर्वत्र गमनशील रथ का निर्माण किया और गौओं को उत्तम दूध देने वाली बनाया ॥३॥
१९८. युवाना पितरा पुनः सत्यमन्त्रा ऋजुयवः। ऋभयो विश्वक़त ॥४॥
अमोघ मन्त्र सामर्थ्य से युक्त, सर्वत्र व्याप्त रहने वाले ऋभुदेवों ने माता-पिता में स्नेहभाव संचरित कर उन्हें पुन: जवान बनाया ४ ॥
[यहाँ जरावस्था दूर करने की मंत्र– किंवा का संकेत है।
१९९. से वो मदासो अग्पतेन्द्रेण च मरुत्वता। आदित्येभिश्च राजभिः ॥५॥
है ऋभुदेवो ! यह हर्षप्रद सोमरस इन्द्रदेव, मरुतों और दीप्तिमान् आदित्यों के साथ आपको अर्पित किया जाता हैं ॥५६ ॥
२००. उत त्यं चमसं नवं वर्देवस्य निष्कृतम्। अकर्त चतुरः पुनः ।।६।।
त्वष्टादेव के द्वारा एक ही चमस तैयार किया गया था, ऋभुदेवों ने उसे चार प्रकार का बनाकर प्रयुक्त किया ॥६॥
२०१. ते नो रत्नानि अत्तन त्रिरा साप्तानि सुन्वते । एकमेकं सुशस्तिभिः ॥१७॥ |
वे उत्तम स्तुतियों से प्रशंसित होने वाले ऋभुदेव ! सोमयाग करने वाले प्रत्येक याजक को तीनों कोटि के सप्तरत्नों अर्थात् इक्कीस प्रकार के रत्नों (विशिष्ट यज्ञ कर्मों) को प्रदान क 1(यज्ञ के तीन विभाग हैं- हविर्यज्ञ, पाकयन्त्र एवं सोमयज्ञ । तीनों के सात-सात प्रकार हैं। इस प्रकार, यज्ञ के इक्कीस प्रकार कहे गये हैं । ॥ ॥
२०३. अधारयन्त वयोऽभजत सुकृत्यया। भागं देवेषु यज्ञियम् ।।८।।
तेजस्वी ऋभुदेवों ने अपने उत्तम कर्मों से देवों के स्थान पर अधिष्ठित होकर यज्ञ के भाग को धारण कर उसका सेवन किया ८ ।।
| [ सूक्त – २१]
[षि – मेधातिथि काण्व । देवता-इन्द्राग्नी । छन्द-गायत्री ।
२०३. इन्द्राग्नी उप ह्वये तयोरित्स्तोममुश्मसि। ता सोमं सोमपातमा ।।१।।
इस यज्ञ स्थल पर हम इन्द्र एवं अग्निदेवों का आवाहन करते हैं, सोमपान के उन अभिलाषियों की स्तुति करते हुए सोमरस पीने का निवेदन करते हैं ॥१॥
२०४. ता यज्ञेषु प्र शंसतेन्द्राग्नी शृम्भता नरः । ता गायत्रेषु गायत ।।२।।
| है ऋत्विजों ! आप यज्ञानुष्ठान करते हुए इन्द्र एवं अग्निदेवों की शस्त्रों (स्तोत्रों से स्तुति करें, विविध अलंकारों से उन्हें विभूषित करें तथा गायत्री छन्दवाले सामगान (गायत्र साम) करते हुए उन्हें प्रसन्न करें ।।३ ।।
२०५, ता मित्रस्य प्रशस्तय इन्द्राग्नी ता हवामहे । सोमपा सोमपीतये ॥३॥
सोमपान की इच्छा करने वाले मित्रता एवं प्रशंसा के योग्य उन इन्द्र एवं अग्निदेवों को हम सोमरस पीने के लिए बुलाते हैं ॥३॥
२०६. उा सन्ता हवामह उपेदं सवनं सुतम्। इन्द्राग्नी एह गच्छताम् ॥४॥
ति उग्र देवगण इन्द्र एवं अग्निदेवों को सोम के अभिषव स्थान (यज्ञस्थत) पर आमन्त्रित करते हैं, वे यहाँ पधारें ४ ॥
२०७. ता महाता सदस्पती इन्द्राग्नी रश्न उब्जतम् । अप्रजाः सन्त्वत्रिणः ।।५।।
देवों में महान् वे इन-अग्निदेव सत्पुरुषों के स्वामी (रक्षका है। वे राक्षसों के वशीभूत कर सरल स्वभाव वाला बनाएँ और मनुष्य भक्षक राक्षसों को मित्र- बांधवों से रहित करके निर्बल बनाएँ ।५ ॥
२०८. तेन सत्येन जागृतमधि प्रचेतुने पदे । इन्द्राग्नी शर्म यच्छतम् ॥६॥
है इन्द्राने ! सत्य और चैतन्यरूप यज्ञस्थान पर आप संरक्षक के रूप में जागते रहे और हमें सुख प्रदान करें ॥६॥
[ सूक्त – २२ ]
[ऋ–िमेधातिथि काण्व । देवता–१–४ अश्विनी कुमार, ५–८ सविता, ६–१ अग्नि, ११ देवियों, १२–इन्द्राणी, वरुणानी, अनायी, १३–१४ द्यावा – पृथिवी, १५ पृथिवी, १६ विष्णु अथवा देवगण, १५७–२१ विष्णु । छन्द – गायत्रीं ।]
२०९. प्रातर्युजा वि बोधयाश्विनावेह गच्छताम् । अस्य सोमस्य पीतये ॥१॥
(हे अध्वर्युगण !) प्रात:काल चेतनता को प्राप्त होने वाले अश्विनीकुमारों को जगायें । वे हमारे इस यज्ञ में सोमपान करने के निमित्त पधारें ।।१ ।।
२१०. या सुरथा रथीतमोभा देवा दिविस्पृशा। अश्विना ता हवामहे ।।२।। ।
ये दोनों अश्विनीकुमार सुसज्जित रथों से युक्त महान् रथ हैं । ये आकाश में गमन करते हैं । इन दोनों का हम आवाहन करते हैं ।।३ ॥ ||यहाँ मंत्रशक्त से चालत, आकाश मार्ग से चलने वाले यान (रघों) का उल्लेख किया गया है ।।
३११. या वां कशा मधुमत्यश्विना सुवृत्तावती । तया यज्ञं मिमिक्षतम् ।।३।।
हे अश्विनीकुमारों ! आपकी जो मधुर सत्यवचन युक्त कशा (चाबुक-वाणी) है, उससे यज्ञ को सिंचित करने की कृपा करें ।। ३ ।।
वाणी पी चायक में स्पष्ट होता है कि अश्विनी देवों के यान मंत्र चालित है । मधुर एवं सत्यवचन रूप चनों से यज्ञ का भी सिंचम किया जाता है। कशा – चाबुक से यज्ञ के सिंचन का भात अटपटा लगते हुए भी युक्ति संगत है।
२१३. नहि वामस्ति दूरके यत्रा रथेन गच्छथः। अश्विना सोमिनो गृहम् ॥४।।
| अश्विनीकुमारों ! आप बध पर आरूढ़ होकर जिस मार्ग में जाते हैं, वहाँ से सोमयाग करने वाले याजक का घर दूर नहीं है ॥४॥
[पूर्वोक्त मंत्र में वर्णित यान के नौत्र वेग का वर्णन है।]
२१३. हिरण्यपाणिमूतये सवितारमुप ह्वये। स चेता देवता पदम् ॥५ ।।
यजमान को (प्रकाश-ऊर्जा आदि) देने वाले हिरण्यगर्भ (हाथ में सुवर्ण धारण करने वाले या सुनहरी किरणों वाले) सवितादेव का हम अपनी रक्षा के लिये आवाहन करते हैं। वे ही यज्ञमान के द्वारा प्राप्तव्य (गन्तव्य स्थान को विज्ञापित (प्रकाशित करने वाले हैं ।।५ ॥
३१४. अपां नपातमवसे सवितारमुप स्तुहि। तस्य व्रतान्युश्मसि ।।६।।
हे लज् ! आप हमारी रक्षा के लिये सवितादेवता की स्तुति करें । हम उनके लिए सोमयागादि कर्म सम्पन्न | करना चाहते हैं । वे सवितादेव जलों को सुखाकर पुनः सहस्रों गुना बरसाने वाले हैं ।।६ ॥
| |ौर शव से ही अस के शोषन, वर्पण एवं शोषण की प्रक्रिया चलाने की बत्त विज्ञान सम्मत है।
२१५. विभक्तारं हवामहे वसोश्चित्रस्य राधसः। सवितारं नृचक्षसम् ।।७।।
समस्त प्राणियों के आश्रयभूत, विविध धनों के प्रदाता, मानवमात्र के प्रकाशक सूर्यदेव का हम आवाहन करते हैं ||५५ ।।
२१६. सखाय आ नि घीदत सविता स्तोम्यो नु नः। दादा राधांसि शुम्भति ।।८।।
हैं मित्रों ! हम सब बैकर, सवितादेव की स्तुति करें । धन-ऐश्वर्य के दाता सूर्यदेव अत्यन्त शोभायमान हैं ।।८ ॥
२१५७. अग्ने पत्नीरिहा वह देवानामुशतीरुप । त्वष्टारं सोमपीतये ।।९।।
हे अग्निदेव ! यहाँ आने की अभिलाषा रखने वाली देवों की पत्नियों को यहाँ ले आएँ और त्वष्टादेव को भों सोमपान के निमित्त बुलाएँ ॥९ ।।
२१. आ ग्ना अग्न हायसे होत्रां पवित्र भारतीम्। सस्त्री शिंपणां यह ॥१०॥
हे अग्निदेव ! देवपत्नियों को हमारी सुरक्षा के निमित्त यहाँ ले आएँ । आप हमारी रक्षा के लिए अग्निपत्नी होत्रा, आदित्यपली भारती, बरणीय वाग्देवी धिषणा आदि देवियों को भी यहाँ ले आएँ ॥१०॥
३१६. अभि नो देवीरवसा महः शर्मणा नृपत्नीः। अच्छिन्नपत्राः सचन्ताम् ।।११।।
अनवरुद्ध मार्ग वाली देव-पत्नियाँ मनुष्यों को ऐश्वर्य देने में समर्थ हैं। वे महान् सुखों एवं रक्षण सामध्य से युक्त होकर हमारी ओर अभिमुख हों ॥११ ॥
२२०. इहेन्द्राणीमुप हुये वरुणान स्वस्तये। अग्नाय सोमपीतये ॥१२॥
अपने कल्याण के लिए एवं सोमपान के लिए हम इन्द्राणी, वरुणपत्नी ( वरुणानी) और अग्निपत्नी (अग्नायी। का आवाहन करते हैं ॥१२ ।।।
३२१. मी द्यौः पृथिची च न इमं यज्ञं मिमिक्षताम्। पिपृतां नो भरीमभिः ।।१३।।
अति विस्तारयुक्त पृथ्वीं और द्युलोक हमारे इस यज्ञकर्म को अपने-अपने अंशों द्वारा परिपूर्ण करें । वे भरण-पोषण करने वाली सामग्रियों (सुख – साधनों) से हम सभी को तृप्त करें ।।१३ ॥
३२२. तद्योरिघृतवत्पयो विप्रा रिहन्ति धीतिभिः। गन्धर्वस्य धुवे पर्दे ॥१४॥
गंधर्वलोक के ध्रुव स्थान में – आकाश और पृथ्वी के मध्य में अवस्थित घृत के समान ( सार रूप) जलो (पोषक प्रवाहों ) को ज्ञानी ज्ञन अपने विवेकयुक्त कमों ( प्रयासों ) द्वारा प्राप्त करते हैं ॥१४॥
२२३, स्योना पृथिवि भवानृक्षरा निवेशनीं। यच्छा नः शर्म सप्रथः ॥१५॥
हे पृथिवी देवि ! आप सुख देने वाली, बाधा हरने वालो और उनमवास देने वाली हैं। आप हमे विपुल परिमाण में सुख प्रदान करें ।।१५।।।
२२४. अतो देवा अवन्तु नो यतो विष्णुर्विचक्रमे । पृथिव्याः सप्त धामभिः ।।१६।।। |
जहाँ से (यज्ञ स्थल अथवा पृथ्वी से ) विष्णुदेव ने ( पोषण परक) पराक्रम दिखाया, वहाँ । उस यज्ञीय क्रम में) पृथ्वी के सप्तधामों से देवतागण हमारी रक्षा करें ।।१६ ॥
२२५. इदं विष्णुर्विं चक्रमे त्रेधा नि दचे पदम्। समूळ्हमस्य पांसुरे ॥१७॥
यह सब विष्णुदेव का पराक्रम है, तीन प्रकार के (विविध-वियामी) उनके चरण हैं। इसका मर्म धूल भरे प्रदेश में निहित है ।।१७ ॥
|त्रिआयामी सृष्टि के पोषण का जो अद्भुत पराक्रम दिखाता है । उसका रहस्य अंतरवणूस – सूक्ष्मकणों, सटाक पार्टिकल्स के प्रवाह में सन्निहित है। उसी प्रवाह से सभी प्रकार के पोषक पदार्थ मते – बदलते रहते हैं। ]
२२६, त्रीणि पदा वि चक्रमे विष्णुर्गोपा अदाभ्यः। अतो घर्माणि धारयन् ॥१८॥
विश्वरक्षक, अविनाशी बिघणदेव तीनों लोकों में यज्ञादि कर्मों को पोधित करते हुए तीन चरणों में जगत् में व्याप्त हैं अर्थात् तीन शक्ति धाराओं (सूजन, पोषण और परिवर्तन) द्वारा विश्व का संचालन करते हैं ॥१८॥
२२७. विष्णोः कर्माणि पश्यत यतों व्रतानि पस्पशे। इन्द्रस्य युज्यः सखा ।।१९ ॥
हे याजको ! सर्वव्यापक भगवान् विष्णु के सृष्टि संचालन सम्बन्धी कार्यों को ( प्रजनन, पोषण और परिवर्तन की प्रक्रिया को ध्यान से देखो। इसमें अनेकानेक व्रतों (नियमों – अनुशासनों ) का दर्शन किया जा सकता है। इन्द्र (आत्मा) के योग्य मित्र उस परम सत्ता के अनुकूल बनकर रहें। ईश्वरीय अनुशासनों का पालन करें ॥ १ ॥
२२८. तनिष्णोः परमं पदं सदा पश्यन्त सूरयः। दिवीव चक्षुराततम् ॥२०॥
जिस प्रकार सामान्य नेत्रों से आकाश में स्थित सूर्यदेव को सहजता से देखा जाता है, उसी प्रकार विजन अपने ज्ञान-चक्षुओं से विष्णुदेव के (देवत्व के परमपद को) श्रेष्ठ स्थान को देखते (प्राप्त करते हैं ॥२३ ॥ (ईश्वर दृष्टिगम्य से ही न हो, अनुभूतिजन्य अवश्य है ।
२२९. तद्विप्रासो विपन्यवो जागृवांसः समिन्यते । विष्णोर्यत्परमं पदम् ॥२१ ।।
जागरूक विद्वान् स्तोतागण विष्णुदेव के उस परमपद को प्रकाशित करते हैं । (अर्थात् जन सामान्य के लिए प्रकट करते हैं) ॥३१ ।
[ सूक्त – २३]
[ष– मेधातिथि काण्व । देवतः१ वायु, २–३ इन्द्रवायू, ४–६ मित्रावरुण, ७–१ इन्द्र– मरुत्वान्, १०–१२ विश्वेदेवा, १३– १५ पूषा, १६–३२ तथा २३ का पूर्वाई – आपः देवता, ३३ का उत्तरार्द्ध एवं २४ अग्नि । । छन्द– १–१८. गायत्री, १९ पुर उणिक्, २१ प्रतिष्ठा, २० तथा २२–२४ अनुष्टुप् । |
२३०. तीव्राः सोमास आ गह्याशीर्वन्तः सुता इमे। वायो तान्यस्थितान्पिब ॥१॥
है वायुदेव ! अभिषुत सोमरस तीखा होने से दुग्ध मिश्रित करके तैयार किया गया हैं, आप आएँ और उत्तर । वेदों के पास लाये गये इस सोमरस का पान करें ॥ १ ॥
२३१. उभा देवा दिविस्पृशेन्द्रवायू हवामहे । अस्य सोमस्य पीतये ।।२।। |
जिनका यश दिव्यलोक तक विस्तृत हैं, ऐसे इद्र और वायु देवों को हम सोमरस पीने के लिए आमंत्रित करते हैं ॥२ ।।
२३२. इन्द्रवायू मनोजुवा विप्रा हवन्त ऊतये। सहस्राक्षा धियस्पती ।।३।। |
मन के तुल्य वेग वाले, सहस्र चक्षु वाले, बुद्धि के अधीश्वर इन्द्र एवं वायु देवों का ज्ञानीजन अपनी सुरक्षा के लिए आवाहन करते हैं । ।३ ।।
२३३. मित्रं वयं हवामहे वरुणं सोमपीतये। जज्ञाना पूतदक्षसा ।।४। ।
सोमरस पीने के लिए यज्ञस्थल पर प्रकट होने वाले परमपवित्र एवं बलशाली मित्र और वरुणदेवों का हम आवाहन करते हैं ।।४ ।।
२३४. जेन यावृत्तावृधावृतस्य ज्योतिषस्पतीं। ता मित्रावरुणा हुवे ॥५॥
प्रत्यमार्ग पर चलने वालों का उत्साह बढ़ाने वाले, तेजस्व मित्रावरुणों का हम आवाहन करते हैं ॥ ५ ॥
२३५. वरुणः प्राविता भुवन्मित्रो विश्वाभिरूतिभिः। करत नः सुरायसः ६॥
वरुण एवं मित्र देवता अपने समस्त रक्षा साधनों में हम सबकी हर प्रकार से रक्षा करते हैं। वे हमें महान् वैभव सम्पन करें ॥६ ।।
२३६. मरुत्वन्तं हवामह इन्द्रमा सोमपीतये। सजूर्गणेन तृपतु ।।७।।
| मरुद्गणों के सहित इन्द्रदेव को सोमरस पान के निमित्त बुलाते हैं। ये मरुद्गणों के साथ आकर तृप्त हों ।।।
२३. इन्द्रज्येष्ठा मरुद्गणा देवासः पूषरातयः। विश्वे मम श्रुता हुवम् ॥८॥
दानी पूषादेव के समान इन्द्रदेव दान देने में श्रेष्ठ हैं। वे सब मरुद्गणों के साथ हमारे आवाहन से सुनें ।।८ ॥
२३८. हृत वृत्रं सुदानव इन्द्रेण सहसा युजा। मा नो दृशंस इंशत् ।।९।।
हे उत्तम दानदाता मरुतों ! आप अपने उत्तम साथीं और बलवान् इन्द्रदेव के साथ दुष्टों का हनन करें । दुष्टता हमारा अतिक्रमण न कर सके ॥१॥
२३९. विश्वान्देवान्हुवामहे मरुतः सोमपीतये । उया हि पृश्निमातरः ।।१० ॥
सभी मरुद्गणों को हम सोमपान के निमित्त बुलाते हैं। वे सभी अनेक रंगों वाली पृथ्वी के पुत्र महान् वीर एवं पराक्रमी हैं ॥१७ ||
२४०. जयतामिव तयतुर्मतामेति घृष्णया। यच्छर्भ याथना नरः ।।११ ॥
बैग में प्रवाहित होने वाले मरुतों का शब्द विजयनाद के सदृश गुंजित होता है, उससे सभी मनुष्यों का मंगल होता हैं ॥११॥
२४१. हुस्काराद्विद्युतस्पर्यतो ज्ञाता अवन्तु नः । मरुतो मृळयन्तु नः ।।१२।।
चमकने वाली विद्युत् से उत्पन्न हुए मरुद्गण हमारी रक्षा करें और प्रसन्नता प्रदान करें ।।१३ ॥ [विज्ञान का मत हैं कि मेघों में बिजली चमकने से नाइटोम आदि में बंता बढ़ाने वाले यौगिक बने हैं। वे निश्चित रूप में जीवन रक एवं fकारी होते हैं।
२४२, आ पूषचित्रबर्हिषमाधृणे धरुणं दिवः। आजा नष्टं यथा पशुम्॥१३ ।।
हे दीप्तिमान् पूषादेव आप अद्भुत तेज़ों से युक्त एवं धारण- शक्ति से सम्पन्न है। अतः सोम को घुलोक से वैसे ही लाएँ, जैसे खोये हुए पशु को ढूंढकर लाते हैं ॥१३॥
२४३. पूषा राजानमाघृणिरषगूळ्हं गुहा हितम्। अविन्दच्चित्रबर्हिषम् ।।१४।।
दीप्तिमान् पूषादेय ने अंतरिक्ष गुहा में छिपे हुए शुभ्र तेजों से युक्त सोमराजा को प्राप्त किया ॥ १४ ॥
२४४. तो स मह्यमदभिः घड्युक्त अनुसेषिधत्। गोभिर्यवं न चर्कषत् ॥१५॥
वे पूषादेव हमारे लिए, याग के हेतुभूत सोमों के साथ वसंतादि षङ्गनुओं को क्रमश: वैसे ही प्राप्त कराते हैं, जैसे यवों ( अनाजों) के लिए कृषक बार-बार खेत जोतता है ॥१५ ।।
३४५, अम्बयो यन्त्यध्वभिर्जामयो अध्वरीयताम् । पृञ्चतीर्मधुना पयः ॥१६॥
यज्ञ की इच्छा करने वालों के सहायक मधुर रसरूप जल – प्रवाह, माताओं के सदृश पुष्टिप्रद हैं । वे दुग्ध को पुष्ट करते हुए यज्ञमार्ग में गमन करते हैं ॥ १६ ॥ [यज्ञ द्वारा पुष्टि प्रदायक रस – फ्रया के विस्तार का अलख है।]
२४६, अमूर्या उप सूर्ये याभिर्वा सूर्यः सह। ता नो हिन्वन्त्वध्वरम् ॥१७॥
जों में जल सूर्य में (सूर्य किरणों में समाहित हैं अथवा जिन बलों के साथ सूर्य का सानिध्य हैं, ऐसे | वे पवित्र जल हमारे यज्ञ को उपलब्ध हों ॥ १५ ॥ अन में मंत्रों में अंतरिक्ष की कृषि का वर्णन हैं। छेत्र में अन दिखता नहीं, किन्तु उससे ऊपन होता है । पूषा–पोषण देने वाले देवों (फ एवं सूर्य आदि) द्वारा सोम (सूक्ष्म पोषक तत्व) बोया एवं उपजाया जाता है। ]
२४७. अपो देवरुप हये यत्र गावः पिबन्ति नः । सिन्धुभ्यः कत्वं हविः ।।१८ ॥
हमारी गायें जिस जल का सेवन करती हैं, उन जलों का हम स्तुतिगान करते हैं । (अन्तरिक्ष एवं भूमि पर) प्रवाहमान उन बलों के निमित्त हम हाँन अर्पित करते हैं ॥१८॥
११ से २३ तक के मंत्रों में जल के गुणों और उससे शारीरिक एवं मानसिक रोगों के भ्रम का उलेख है
२४८. अप्स्वन्तरमृतमप्सु भेषजमपामुत प्रशस्तये। देवा भवत वाजिनः ।।१९।।
जल में अमृतोपम गुण हैं, जल में औषधीय गुण हैं । हे देवों ! ऐसे जल की प्रशंसा से आप उत्साह प्राप्त करें ॥१६ ।।
२४९. अप्सु में सोमो अब्रवीदन्तर्विश्वानि भेषजा। | अग्नि च विश्वशम्भुबमापश्च विश्वभैषजः ॥३० ।।
मुझ (मंत्र द्वष्टा मुनि) में सोमदेव ने कहा है कि जल समूह में सभी औषधियाँ समाहित हैं। जल में हो । | सर्व सुख प्रदायक अग्नितन्य समाहित हैं। सभी ओषधियाँ जलों से ही प्राप्त होती हैं ॥३० ॥
२५०, आपः पृणीत भेषजं वरूथं तन्वेमम। ज्योक् च सूर्यं दृशे ॥२१ ॥
हे जल समूह ! जीवन रक्षक औषधियों को हमारे शरीर में स्थित करें, जिससे हम नीरोग होकर चिरकाल तक सूर्यदेव का दर्शन करते रहें ॥२१ ॥
२५१. इदमापः अ वहत यत्किं च दुरितं मयि । यद्वाहमभिदुदोह यद्वा शेप उतानृतम् ॥२२ ।।
में जल देवों ! हम याजकों ने अज्ञानवश जो दुष्कृत्य किये हों, जान-बूझकर किसी में द्रोह किया हो, सत्पुरुषों | पर आक्रोश किया हो या असत्य आचरण किया हों तथा इस प्रकार के हमारे जो भी दोष हों, उन सबको बहाकर | दूर करें ।।३२ ।।
२५२, आप अद्यान्वचारिषं रसेन समगस्महि । पयस्वानग्न आ गहि तं मा सं सृञ्ज वर्चसा ।।२३।। |
आज हमने जल में प्रविष्ट होकर अवभृथ स्नान किया है, इस प्रकार जल में प्रवेश करके हम इस से आप्लावित हुए हैं । हे पयस्वान् ! हे आंनदेव ! आप हमें वर्चस्व बनाएँ, हम आपका स्वागत करते हैं ॥२३॥
२५३. से माग्ने वर्चसा सुज सं प्रजया समायुषा। विद्युमें अस्य देवा इन्द्रो विद्यासह ऋषिभिः ॥२४ ।।
हे अग्निदेव ! आप हमें तेजस्विता प्रदान करें । हमें प्रजा और दीर्घ आयु से युक्त करें । देवगण हमारे अनुष्ठान को जानें और इन्द्रदेव क्षयों के साथ इसे जानें ॥ २४ ॥
[ सूक्त – २४]
[सं–शुन:शेप आजागर्ति (कृत्रिम देवरात वैश्वामित्र) । देवता–१ क (प्रज्ञापता, ३ न. ३–४ सवता, ५ सविता अथवा भग, ६–१५ वरुण । १,२,६–१५ विटुप, ३–५ गायत्री ।
२५४. कस्य नूनं कतमस्यामृतानां मनामहे थारु देवस्य नाम । को नो मा अदितथे पुनर्दीपितरं च ददृशेयं मातरं च ॥१॥
हम अमर देवों में से किस देव के सुन्दर नाम का स्मरण करें ? कौन से देव हमें महतीं अदिति – पृथिवी को प्राप्त करायेंगे ? जिससे हम अपने पिता और माता को देख सकेंगे ।। १ ।।
२५५, अग्नेर्वयं प्रथमस्यामृतानां मनामहे चारु देवस्य नाम । | स नो मह्या अदितचे पुनर्दापितरं च दशेयं मातरं च ।।३।।
हम अमर देयों में प्रथम अग्निदेव के सुन्दर नाम का मनन करें। वह हमें महती अदिति को प्राप्त करायेंगे, जिससे हम अपने माता-पिता को देख सकेंगे ।।३।।
३५६, अभि त्वा देव सवितरीशानं वार्याणाम्। सदावभागमीमहे ।।३।।
| ॐ सर्वदा रक्षणशील सवितादेव ! आप वरण करने योग्य धनों के स्वामी हैं, अत: हम आपसे ऐश्वर्यों के उत्तम भाग को माँगते हैं ॥३॥
२५७. यश्चिद्ध त इत्या भगः शशमान: पुरा निंदः। अद्वेष हस्तयोर्दधे ॥४॥
हे सवितादेव ! आप तेजस्विता युक्त, निन्दा रहित, द्वेष रहित, वरण करने योग्य धनों को दोनों हाथों से धारण करने वाले हैं ॥४॥
२५८. भगभक्तस्य ते वयमुदशेम तवायसा। मुर्धानं राय आरभे ॥५॥
| हे सवितादेव ! हम आपके ऐश्वर्य की छाया में रहकर संरक्षण को प्राप्त करें। उनत करते हुए सफलताओं के सर्वोच्च शिखर तक पहुँचकर भी अपने कर्तव्यों को पूरा करते रहें ॥५॥
[च्चपदों में पहुँचका भी मानवोचित सहज कर्नयों को न भूलने का संकल्प यहाँ व्यक्त हो रहा है।
२५९. नहि ते क्षत्रं न सहो न मन्युं वयश्चनामी पतयन्त आपुः ।। नेमा आपो अनिमिषं चरन्तीनं ये वातस्य प्रमनन्त्यभ्वम् ।।६।।
हे वरुणदेव ! ये उड़ने वाले पक्षी आपके पराक्रम, आपके बल और सुनीति युक्त क्रोध (मन्यु) में नहीं जान पाते । सतत गमनशील जलप्रवाह आपकी गति को नहीं जान सकते और प्रबल वायु के वेग भी आपको नहीं रोक सकते ॥६॥
२६०. अयुध्ने राजा वरुणों वनस्यो स्तूपं ददते पूतदक्षः।
नीचीनाः स्थुरुपरि बुन एषामस्में अन्तर्निहिताः केतवः स्युः ॥७॥ पवित्र पराक्रम युक्त राजा वरुण (सवको आच्छादित करने वाले दिव्य तेज पुत्र (सूर्यदेव) को, आधारहित आकाश में धारण करते हैं। इस तेज पुञ्ज (सूर्यदेव का मुख नीचे की ओर और मूल ऊपर की और है । इसके मध्य में दिव्य किरणें विस्तीर्ण होतीं चलती हैं ॥ ॥
२६१. उरुं हि राजा वरुणश्चकार सूर्याय पन्थामन्वेतवा छ।
अपदे पादा अतिधातवे कहतापया हृदयावधश्चित् ।।८।। राजा वरुणदेव ने सूर्यगमन के लिए विस्तृत मार्ग निर्धारित किया है, वही पैर भी स्थापित न हों, वें ऐसे अन्तरिक्ष स्थान पर भी चलने के लिए मार्ग विनिर्मित कर देते हैं और वे ह्रदय की पौड़ा का निवारण करने वाले हैं ॥ ॥
२६२. शतं ते राजन्मिघजः सहस्त्रमुर्वी गभीरा सुमतिष्टे अस्तु । बाभस्व दूरे नितिं पराचैः कृतं चिदेनः प्र मुमुग्ध्यस्मत् ।।९।।
हैं वरुणदेव ! आपके पास असंख्य उपाय हैं। आपकी उत्तम बुद्ध अत्यन्त व्यापक और गम्भीर है। आप हमारी पाप वृत्तियों को हमसे दूर करें । किये हुए पापों से हमें विमुक्त करें ।।९ ॥
२६३. अमीं ये ऋक्षा निहितास उच्चा नक्तं ददृशे कुह चिहियेयुः। अदब्धानि वरुणस्य व्रतानि विचाकच्चन्द्रमा नक्तमेति ।।१०।।
ये नक्षत्रगण आकाश में रात्रि के समय दीखते हैं, परन्तु में दिन में कहाँ विलीन होते हैं ? विशेष प्रकाशित चन्द्रमा रात्रि में आता है । वरुणराजा के ये नियम कभी नष्ट नहीं होते ॥१० ||
२६४. तत्वा यामि ब्रह्मणा वन्दमानस्तदा शास्ते यजमानों हविभिः । अहेळमानो वरुणेह बोध्युरुशंस मा न आयुः प्र मोषीः ।।११ ।।
हे वरुणदेव ! मन्त्ररूप वाणी से आपकी स्तुति करते हुए आपसे याचना करते हैं । यजमान हविष्यान्न अर्पित करते हुए कहते हैं – हे बहु प्रशंसित देव ! हमारी उपेक्षा न करें, हमारी स्तुतियों को जानें । हमारी आयु को क्षीण – न करें ॥ ११ ॥
३६५. क्षदिन्नतं तद्विा ममाहुस्तदर्य केतो हुद आ वि चाटें। शुनः शेपो यमल्लद्गृभीतः सो अस्मान् राजा वरुणो मुमोक्तु ।।१२।।
रात-दिन में (अनवरत) ज्ञानियों के कहे अनुसार यहाँ ज्ञान (चिन्तनों हमारे हृदय में होता रहा है कि बन्धन | में पड़े शुन:शेप ने जिस वरूणदेव को बुलाकर मुक्ति को प्राप्त किया, वहीं वरुणदेव हमें भी बन्धनों से मुक्त करें ।।१। |
२६६. शुनः शेपो ह्यह्वद्गृभीतस्त्रिधादित्यं द्रुपदेषु बद्धः। अवैनं राजा वरुणः ससृज्यादि अदब्यो वि मुमोक्तं पाशान् ॥१३॥
तीन स्तम्भों में बँधे हुए शुन:शंप ने अदिति पुत्र वरुणैदव का आवाहन करके उनसे निवेदन किया कि वे ज्ञानी और अटल वरुणदेव हमारे पाशों को काटकर हमें मुक्त करें ॥१३॥
२६७. अव ते हेळो वरुण नमोभिख यज्ञेभिरीमहे विमिः। क्षयनस्मध्यमसुरे प्रचेता राजनेनांसि शिश्रथः कृतानि ॥१४॥
हे वरुणदेव ! आपके क्रोध को शान्त करने के लिए हम स्तुति रूप वचनों को सुनाते हैं। हविर्दयों के | द्वारा यज्ञ में सन्तुष्ट होकर हे प्रखर बुद्धि वाले राजन् ! आप हमारे यहाँ वास करते हुए हमें पापों के बन्धन से मुक्त करें ।।१४ ।।
२६८. दुत्तमं वरुण पाशमस्मदवाथमं वि मध्यमं अथाय । अथा वयमादित्य व्रते तवानागसो अदितये स्याम् ॥१५॥
हैं वरुणदेय | आप तीनों तापों रूपी बन्धनों से हमें मुक्त करें । आधिदैविक आधिभौतिक और आध्यात्मिक पाश हुमसे दूर हों तथा मध्य के एवं नीचे के बन्धन अलग करें । है सूर्य पुत्र पापों से राहत होकर हम आपके कर्मफल सिद्धान्त में अनुशासित हों, दयनीय स्थिति में हम न रहे ॥१५॥
| [ सूक्त – २५ ]
[ ऋषि–शुन:शेप आजीगतं (कृत्रिम देवरात वैश्वामित्र)। देवता –वरुण । छन्द– गायत्री ।]
२६९. यस्बिद्ध ते विशो यथा प्र देव वरुण वृत्तम्। मिनीमस च्चविद्यवि ।।१।।
| हे वरुणदेव ! जैसे अन्य मनुष्य आपके व्रत-अनुष्ठान में प्रमाद करते हैं, वैसे ही हमसे भी आपके नियमों आदि में कभी-कभी प्रमाद हो जाता हैं । (कृपया इसे क्षमा करें ) ॥१॥
३७. मा नो वथाय हुत्नचे जिहळानस्य रीरधः। मा हुणानस्य मन्यते ॥२ ।।
हे वरुणदेव ! आप अपने निरादर करने वाले का वध करने के लिए धारण किये गये शस्त्र के सम्मुख हमें प्रस्तुत न करें। अपनी क्रुद्ध अवस्था में भी हम पर कृपा करके क्रोध न करें ॥२ ।।
२७१. वि मृळीकाय ते मनो रथीरश्यं न सन्दितम् । गीर्भिर्वरुण सीमहि ।।३।।
हैं वरुणदेव ! जिस प्रकार थीं वीर अपने धके घोड़ों की परिचय करते हैं, उसी प्रकार आपके मन को हर्षित करने के लिए हम स्तुतियों का गान करते हैं ॥३ ।।।
२२. परा हि में विमन्यवः पतति बस्यष्टये। सयो न बसता ।।४।। .
(हे वरुणदेव ! जिस प्रकार पक्षी अपने घोसलों की ओर दौड़ते हुए गमन करते हैं, उसी प्रकार हमारी चंचल बुद्धियाँ धन प्राप्ति के लिए दूर-दूर दौड़ती हैं ॥ई ।।
२७३. कदा क्षत्रश्रियं नरमा वरुणं करामहे । मृळीकायोरुचक्षसम्॥५॥
बल-ऐश्वर्य के अधिपति सर्वदश वरुणदेव को, कल्याण के निमित्त हुम यहाँ (यज्ञस्थल में ) कब बुलायेंगे ? (अर्थात् यह अवसर कब मिलेगा ?) ५ । ।
२७४, तदित्समानमाशाते वैनन्ता न ५ युच्छतः । धृतव्रताय दाशुषे ।।६।। |
व्रत धारण करने वाले (हविष्यान्न दाता यजमान के मंगल के निमित्त ये मित्र और वरुण देव हविष्यान्न की इच्छा करते हैं, वे कभी उसका त्याग नहीं करते । वे हमें बन्धन से मुक्त करें ॥६ ।।
२७५. वेदा यो वीनां पदमन्तरिक्षेण पतताम्। वेद नावः समुद्रियः ॥७॥ . ५..
हे वरुणदेव ! अन्तरिक्ष में उड़ने वाले पक्षियों के मार्ग को और समुद्र में संचार करने वाली नौकाओं के मार्ग को भी आप जानते है |
२७६. वेद मासो धृतवतो द्वादश प्रजावतः ॥ वेदा य उपजायते ।।८।।
नियमधारक वरुणदेव प्रजा के उपयोगी बारह महीनों से जानते हैं और तेरहवें माह (अधिक मास को भी जानते हैं ॥८. ।।
२७७, वेद वातस्य वर्तनिमुरोक्रेष्वस्य बृहतः । वेदा ये अध्यासते ॥९॥
| वे वरुणदेव अत्यन्त विस्तृत, दर्शनीय और अधिक गुणवान् वायु के मार्ग को जानते हैं । वे ऊपर द्युलोक में रहने वाले देवों को भी जानते हैं ॥९ ।।
२७८. नि प्रसाद मृतक्षतो वरुणः पस्त्या३स्या। साम्राज्याय सुक्रतुः ।।१०।।
प्रकृति के नियमों का विधिवत् पालन कराने वाले, श्रेष्ठ कर्मो में सदैव निरत रहने वाले वरुणदेव जाओं में साम्राज्य स्थापित करने के लिए बैठते हैं ।।१८ ॥
२७९, अतो विश्वान्यद्भुता चिकित्व अभि पश्यति । कृतानि या च कर्वा ॥११॥
सब अद्भुत कर्मों की क्रिया-विधि जानने वाले वरुणदेय जो कर्म सम्पादित हो चुके हैं और जो किये जाने हैं, उन सबको भली-भाँति देखते हैं ।।११ ॥
२८०. स नो विश्वाहा सुक्रतुरादित्यः सुपथा करत् । प्र ण आयूंषि तारिषत् ॥१२ ।।
वे उत्तम कर्मशील अदिति पुत्र वरुणदेव हमें सदा श्रेष्ठ मार्ग की ओर प्रेरित करें और हमारी आयु । बढ़ाएँ ॥१२ ।।।
२८१. बिभ्रद्वापिं हिरण्ययं वरुणो वस्त निर्णिजम्। परि स्पशों नि पेदिरे ।।१३।। |
सुवर्णमय कवच धारण करके वरुणदेव अपने हु-पुष्ट शरीर को सुसज्जित करते हैं। शुभ प्रकाश किरणे आके चारों ओर विस्तीर्ण होती हैं ॥१३॥
२८२. न ये दिप्सन्ति दिसवों न इह्माणों जनानाम्। न देवमभिमातयः ।।१४।।
हिंसा करने की इच्छा वाले शत्रु-जन/भयाक्रान्त होकर ) जिनकी हिंसा नहीं कर पाते, लोगों के प्रति द्वेष रखने वाले, जिनसे द्वेष नहीं कर पाते- ऐसे (वरुण) देव को पापोजन स्पर्श तक नहीं कर पाते ।।१४ ॥
२८३. उत यो मानुषेष्वा यशश्चक्रे असाम्या। अस्माकमुदरेष्मा ॥१५ ।।
जिन वरुणदेव ने मनुष्यों के लिए विपुल अन – भंड़ार उत्पन्न किया है, उन्होंने ही हमारे उद्दर में पाचन सामर्थ्य भी स्थापित की है ॥१५ ।। |
२८४. परा में यन्ति धीतयो गावो न गव्यूतीरनु । इच्छन्तीरुरुचक्षसम् ॥१६ ।।
उस सर्वद्रष्टा वरुणदेव की कामना करने वाली हमारी बुद्धियाँ, वैसे ही उन तक पहुँचती हैं, जैसे गौएँ गोष्ठ (बा) की ओर जाती हैं ॥१६ ॥ |
२८५, से नु वचावहै पुनर्यो में मध्याभृतम्। होतेव क्षदसे प्रियम् ॥१७॥
| होता (ग्नदेव) के समान हमारे द्वारा लाकर समर्पित की गई हवियों का आप अग्निदेव के समान भक्षण करें, फिर हम दोनों वार्ता करेंगे ।।१७ ॥ |
२८६. दर्श नु विश्वदर्शतं दर्श रथमधि क्षम। एता जुषत में गिरः ॥१८॥
दर्शन योग्य वरुणदेव को उनके रथ के साथ हमने भूमि पर देखा हैं । उन्होंने हमारी स्तुतियों स्वीकारी हैं ॥१८॥ |
२८७, इमं में वरुण श्रुधी हवमद्या च मृळय। त्वामवस्युरा चके ॥१९॥
हे वरुणदेव ! आप हमारी प्रार्थना पर ध्यान दें, हमें सुखी बनायें । अपनी रक्षा के लिए हम आपकी स्तुति करते हैं ॥११ ।।
२८८, त्वं विश्वस्य मेधिर दिवश्च मञ्च राजस। स यानि प्रति श्रुधि ।।२०।।
हे मेधावी वरुणदेव ! आप द्युलोक भूलोक और सारे विश्वपर आधिपत्य रखते हैं, आप हमारे आवाहन को स्वीकार कर ‘हम रक्षा करेंगे- ऐसा प्रत्युत्तर प्रदान करें ॥२०॥
२८९. उदुत्तमं मुमुग्धि नो वि पाशं मध्यमं चूत । अवाधमानि जीवसे ॥२१॥
हे वरुणदेव ! हमारे उत्तम (ऊपर के) पाश को खोल हैं, हमारे मध्यम पाश को काट दें और हमारे नीचे के पाश को हटाकर हमें उत्तम जीवन प्रदान करें ।।११ ॥
[सूक्त–२६ ]
[ऋषि –शुन:शेप आजागर्ति (कृत्रिम देवरात वैश्वामित्र)। देवता–अग्नि । छन्गायत्री ।]
२९०. वसिष्वा हि मियेध्य वस्त्राण्यूर्जी पते। सेमं नो अध्वरं यज्ञ ॥१॥
हे यज्ञ योग्य, (हवियोग्य) अन्नों के पालक निदेव ! आप अपने ज्ञरूप वस्त्रों को पहनकर हमारे यज्ञ को सम्पादित करें ॥१॥
२९१. नि नो होता वरेण्यः सदा यविष्ठ मन्मभिः। अग्ने दिवित्मता वचः ।।२।।
सदा तरुण रहने वाले हैं अग्निदेव ! आप सर्वोत्तम होता (यज्ञ सम्पन्न कर्ता ) के रूप में यज्ञकुण्ड में स्थापित होकर यजमान के स्तुति वचनों का श्रवण करें ।।२।।
२९२. आ हि घ्मा सुनचे पितापर्यजत्यापये। सखा सख्ये वरेण्यः ॥३॥
| हैं वरण करने योग्य अग्निदेव ! जैसे पिता अपने पुत्र के, भाई अपने भाई के और मित्र अपने मित्र के सहायक होते है, वैसे ही आप हमारी सहायता करें ।।३।।
२९३. आ नो बह रिशादसो वरुणो मित्रो अर्यमा। सीदतु मनुषो यथा ॥४॥
जिस प्रकार प्रजापति के यज्ञ में “मनु” आकर शोभा बढ़ाते हैं, उसी प्रकार शत्रुनाशक वरुणदेव, मित्र देव एवं अर्यमादेव हमारे यज्ञ में आकर विराजमान हों ।।४ ।।
३९४. पूर्व्य होतरस्य नो मन्दस्व सख्यस्य च। इमा ३ पु श्रुघी गिरः ।।५।।
पुरातन होता है अग्निदेय ! आप हमारे इस यज्ञ से और हमारे मित्रभाव से प्रसन्न हों और हमारी स्तुतियों को भली प्रकार सुनें ॥५ ॥ ।
२९५. यच्चिद्ध शश्वता तना देवन्देवं यजामहे । त्ये इयूयते हविः ॥६॥ | हैं अग्निदेव ! इन्द्र, वरुण आदि अन्य देवताओं के लिए प्रतिदिन विस्तृत आहुतियाँ अर्पित करने पर भी सभी हविष्यान आपको ही प्राप्त होते हैं ॥६ ।।
२९६. प्रियो नो अस्तु विश्पतिहोंता मन्द्रों वरेण्यः । प्रियाः स्वग्नयो वयम् ॥७ ।।
यज्ञ सम्पन करने वाले प्रज्ञापालक आनन्दवर्धक, वरण करने योग्य हे अग्निदेव ! आप हमें प्रिय हों तथा श्रेष्ठ विधि से यज्ञाग्नि की रक्षा करते हुए हम सदैव आपके प्रिय रहें ॥७॥
२९७. स्वग्नयों हि वार्य देवासो दधिरे च नः । स्वग्नयों मनामहे ॥८॥
उत्तम अग्नि से युक्त होकर देदीप्यमान चिजों ने हमारे लिए ऐश्वर्य को धारण किया है, वैसे ही हम उत्तम अग्नि से युक्त होकर झका (ऋत्विज्र का स्मरण करते हैं ।
२९८. अथा न उभयेषाममृत मर्यानाम् । मिथः सन्तु प्रशस्तयः ।।९।।
अमरत्व को धारण करने वाले हे अग्निदेव ! आपके और हम मरणशील मनुष्यों के बीच सेहयुक्त, प्रशंसनीय वागियों का आदान – प्रदान होता रहे ॥६॥
२९९. विश्वेभिरग्ने अग्निभरिमं यज्ञमिदं वचः । चनो धाः सहसो यहो ॥१०॥
बल के पुत्र (अरणि मन्थन रूप शक्ति से उत्पन्न) हे अग्निदेव ! आप (आहवनीयादि) अग्नियों के साथ यज्ञ |में पधारें और स्तुतियों से सुनते हुए हमें अन्न (पोषण) प्रदान करें ॥१०॥
[ सूक्त – २७]
[धि – शुनः शेप आजीगर्ति (कृत्रिम देवरात वैश्वामित्र) । देवता – १–१२ अग्नि, १३ देवतागण । द–१–१२ गायत्री, १३ त्रिष्टुम् ।]
३००. अश्यं न त्वा वारवन्तं वन्दथ्या अग्नि नमोभिः। समाजन्तमध्वराणाम् ।।१।।
तमोनाशक, यज्ञों के सम्राट् स्वरूप में अग्निदेव ! हम स्तुतियों के द्वारा आपकी वन्दना करते हैं। जिस प्रकार अश्व अपनी पूँछ के बालों से पखी – मच्छरों को दूर भगाता है, उसी प्रकार आप भी अपनी ज्वालाओं से हमारे विरोधियों को दूर भगायें ।।१ ।।
३०१. स घा नः सूनुः शवसा पृथुप्रगामा सुशेयः। मीढ्वाँ अस्माकं बभूयात् ।।२।।
हम इन अग्निदेव की उत्तम विधि से उपासना करते हैं। वे बल से उत्पन्न, शीघ्र गतिशील अग्निदेव हमें अभीष्ट सुखों को प्रदान करें ॥ ३ ॥
३०२. स नो दूराच्चासाच्च नि मर्यादघायोः। पाहि समिद्विश्वायुः ॥३॥
हे अग्निदेव ! सब मनुष्यों के हितचिंतक आप दूर से और निकट से, अनिष्ट चिन्तकों से सदैव हमारी रक्षा | करे ।।३।
३०३. इममू षु त्वमस्माकं सनिं गायत्रं नव्यांसम् । अग्ने देवेषु प्र वोचः ॥४॥
हे अग्निदेव ! आप हमारे गायत्री परक प्राण-पोषक स्तोत्रों एवं नवीन अन(हव्यो को देवों तक (देव वृत्तियों के पोषण हेतु पहुँचाये ॥४॥
३०४. आ नो भज परमेष्वा वाजेषु मध्यमेषु । शिक्षा वस्वो अन्तमस्य ॥५॥
हे अग्निदेव ! आप हमें श्रेष्ठ (आध्यात्मिक, मध्यम (आधिदैविक) एवं कनिष्ठ (आधिभौतिक) अर्थात् सभी प्रकार की धन-सम्पदा प्रदान करें ॥५॥
३०५. विभक्तासि चित्रभानो सिन्धोरूर्मा उपाक आ। सद्यो दाशुषे क्षसि ।।६।।
सात ज्वालाओं से दीप्तिमान् हे अग्निदेव ! आप धनदायक हैं। नदी के पास आने वाली ज्ञल तरंगों के सदृश आप हविष्यान-दाता को तत्क्षण (श्रेष्ठ, कर्मफल प्रदान करते हैं ॥६ ।।
३०६. यमग्ने पृत्सु मर्त्यमया वाजेषु यं जुनाः। स यता शश्वतीरिषः ॥७॥ ।
है अग्नि देव ! आप जौवन – संग्राम में जिस पुरुष को प्रेरित करते हैं, उनकी रक्षा आप स्वयं करते हैं। साथ । हीं उनके लिए पोषक अन्नों की पूर्ति भी करते हैं ॥ ७ ॥
३०७. नकिरस्य सहन्त्य पर्येता कयस्य चित्। वाजो अस्ति अवाय्यः ।।८।।
| हे शत्रु विजेता अग्निदेव ! आपके पासक को कोई पराजित नहीं कर सकता, क्योंकि उसकी (आपके द्वारा प्रदत्त) तेजस्विता प्रसिद्ध हैं ॥८ ।।
३०८, स वाजं विश्वचषणरद्धिरस्तु तरुता । विप्रेभिरस्तु सनिता ।।९।।
सब मनुष्यों के कल्याणकारक वे अग्निदेव जौवन – संग्राम में अश्व रूपी इन्द्रियों द्वारा विजयी बनाने वाले हों। मेधावीं पुरुषों द्वारा प्रशंसित वे अग्निदेव हमें अभीष्ट फल प्रदान करें ॥९ ।।
३०९, जराबोय तद्विविद्धि विशेविशे यज्ञियाय । स्तोमं रुद्राय दृशीकम् ॥१०॥
स्तुतियों में देवों को प्रबोधित करने वाले है अग्निदेव ! ये अजमान, पुनीत यज्ञ स्थल पर दुष्टता विनाश हेतु आपका आवाहन करते हैं ॥१० ।।
३१०. स नो मह अनिमानो धूमकेतुः पुरुश्चन्द्रः । धिये वाजाय हिन्वतु ॥११ ।।
अपरिमित धूम-ध्वजा से युक्त, आनन्दप्रद, महान् वे अग्निदेव हमें ज्ञान और वैभव की और प्रेरित करें ।। १ ।।
३११. स रेव इव विश्पतिर्दैव्यः केतुः शृणोतु नः । उक्थैग्निर्बहानुः ॥१३ ॥
विश्वपालक, अत्यन्त तेजस्वी और ध्वजा सदृश गुणों से युक्त दूरदर्शी वे अग्निदेव वैभवशाली राजा के समान हमारी स्तवन रूप वाँणयों को ग्रहण करें ॥ १३ ॥
३१२. नमो महत्वो नमो अर्भकेभ्यो नमो युवभ्यो नम आशिनेभ्यः । यजाम देवान्यदि शन्कघाम मा ज्यायसः शंसमा वृक्ष देवाः ॥१३॥
बड़ों, छोटों, युवकों और वृद्धों को हम नमस्कार करते हैं। सामर्थ्य के अनुसार हम देवों का यञ्जन करें। हैं देव ! अपने से बड़ों के सम्मान में हमारे द्वारा कोई त्रुटि न हों ।।१३ ।।
| [ सूक्त – २८ ]
[ऋषि – शुनः शेप आजौगर्ति (कृत्रिम देवरात वैश्वामित्र ) । देवता– १–४ इन्द्र, ५–६ उलूखल, ७– ८ उलूखल– मुसल, १ प्रजापति, हरिश्चन्द्र अधिषवणचर्म अथवा सोम् । छन्द१–६ अनुष्टुप्, ७–१ गायत्री ।]
३१३. यत्र ग्रावा पृथुबुघ्न ऊध्र्यो भवति सोतवे। उलूखलसुनानामवेद्विन्द्र जलगुलः ।।१।।
हैं इन्द्रदेव ! जहाँ (सोमवल्लो) कूटने के लिए बड़ा मूसल उठाया जाता है (अर्थात् सोमरस तैयार किया जाता है), वहाँ ( यज्ञशाला में ) उलूखल से निष्पन्न सोमरस का पान करें ॥१ ।।
३१४. यत्र द्वाविव जघनाथिघवण्या कृता। उलूखलसूतानामवेदिन्द्र जल्गुलः ॥२॥
है इन्द्रदेव ! जहाँ दो जंघाओं के समान विस्तृत, सोम कूटने के दो फलक रखे है, वहाँ ( यज्ञशाला में) उलूखत से निष्पन सोम का पान करें ॥२ ।।
३१५. यत्र नार्यपच्यवमुपच्यर्व च शिक्षते। उलूखलसुतानामवेद्वन्द्र जगुलः ॥३॥
| हे इन्द्रदेव ! जहाँ गृहिणी सोमरस तैयार करने के लिए कूटने (मूसल चलाने) का अभ्यास करती हैं, वहाँ ( यज्ञशाला में ) उलूखल से निष्पन्न सोमरस का पान करें ।।३॥
३१६. यत्र मन्थां विध्नते रश्मीन्यमितवा इव । उलूखलसुतानामवेद्वन्द्र जलगुलः ।।४।।
है इन्द्रदेव ! जहाँ सारथी द्वारा घोड़े को लगाम लगाने के समान (मधानी को रस्सी से बाँधकर मन्थन करते हैं, वहाँ ( यज्ञशाला में) उलूखल से निष्पन्न हुए सोमरस का पान करें ॥४॥ |
३१७. सच्चिद्धि त्वं गृहेगृह उलूखलक युज्यसे। इह घुमत्तमं वद ज्ञयतामिव दुन्दुभिः ॥५॥
हे उलूखल ! यद्यपि घर-घर में तुमसे काम लिया जाता है, फिर भी हमारे घर में विजय-दुन्दुभि के समान । उच्च शब्द करो ॥५ ।।
३१८. उत म ते वनस्पते सातो चि वात्यग्नमित्। अयो इन्द्राय पातवें सुनु सोममुलूखाल ।।६ ॥
है उलूखल- मूसल रूप वनस्पते ! तुम्हारे सामने वायु विशेष गत से बहती है । है उलूखल ! अब इन्द्रदेव । के सेवनाई सोमरस का निम्मान को ।।६।।
३१९. आयजी वाजसातमा ता सुच्चा विज्ञभृतः । हरी इवान्यांसि बसता ७ ॥
यज्ञ के साधन रूप पूजन-योग्य वे उलूखल और मूसल दोनों, अन(च) खाते हुए इन्द्रदेव के दोनों अश्वों के समान उच्च स्वर से शब्द करते हैं ॥७॥
३२०. ता नो अद्य वनस्पती ऋष्यावृष्वेभिः सोतृभिः । इन्द्राय मधुमत्सुतम् ।।८।।
दर्शनीय उलूखल एवं मूसल रूप में वनस्पते ! आप दोनों सोमयाग करने वालों के साथ इन्द्रदेव के लिए मधुर सोमरस का निष्पादन करें ॥८॥
३२१. उच्छिष्टं चम्वोर्भर सोमं पवित्र आ सूज़। नि धेहि गोरधि त्वच ।।९।।
उलूखल और मूसल द्वारा निष्पादित सोम को पात्र से निकालकर पवित्र कुशा के आसन पर रखें और अवशिष्ट को छानने के लिए पवित्र चर्म पर रखें ॥९ ।।
| [ सूक्त – २९ ] [ऋषि–शुनः शेप आजीगर्ति (कृत्रिम देवरात वैश्वामित्र ) । देवता–इन्द्र । छ–पंक्ति ।
३२२. यच्चिद्ध सत्य सोमपा अनाशस्ता इव स्मसि । आ तू न इन्द्र शंसय गोष्वशेषु शुभिषु सहस्रेषु तुवीमघ ।।१।।
हैं सत्य स्वरूप सोमपाय इन्द्रदेव ! यद्यपि हम प्रशंसा पाने के पात्र तो नहीं हैं, तथापि हे ऐश्वर्यशाली इन्द्रदेव ! हमें सहस्रों श्रेष्ठ गौएँ और घोड़े प्रदान करके सम्पन्न बनायें ॥१॥
३२३. शिप्रिन्चाजानां पते शचीवस्तव दंसना। आ तू न इन्द्र शंसय गोष्वश्वेषु शुभ्रषु सहस्रेषु तुवीमघ ।।२।।
हे इन्द्रदेव ! आप शक्तिशाली, शिरस्त्राण धारण करने वाले, बलों के अधीश्वर और ऐश्वर्यशाली हैं। आपका सदैव हम पर अनुग्रह बना रहे ।।२ ।।
३२४. नि ष्वापया मिथूदृशा सस्तामबुध्यमाने । आ तू न इन्द्र शंसय गोष्वश्वेषु शुभ्रषु सहस्रेषु तुवीमघ ।।३।।
है इन्द्रदेव ! दोनों दुर्गति (विपत्ति और दरिद्रता) परम्पर एक दूसरे को देखतीं हुई सों जायें । में कभी न में हैं सूः ३ जागें, वे अचेत रहे है ऐश्वर्यशाली इन्द्रदेव ! हमें सहस्रों श्रेष्ट्र गौएँ और अश्व प्रदान करके समन बनायें ।।।
[बश्व (पक्कप) से विपत्ति तथा (पौष्टिक आहार अपादक) गों से रिद्रता प्रभावहीन होती है।
३३५, ससन्तु त्या रातयो बोधन्तु शूर रातयः । आ तू न इन्द्र शंसय गोष्वश्चेषु शुभिषु सहस्रेषु तुवीमघ ।।४।।
है इन्द्रदेव ! हमारे शत्रु सोते रहें और हमारे वीर मित्र जागते रहें । हे ऐश्वर्यशाली इन्द्रदेव ! हमें सहस्रों श्रेष्ठ गौएँ और अश्व प्रदान करके सम्पन्न बनायें ॥४॥
३२६. समिन्द्र गर्दर्भ मृण नुवन्तं पापयामुया। आ तू न इन्द्र शंसय गोष्वश्वेषु शुभघु सहस्रेषु तुवीमघ ।।५।। |
है इन्द्रदेव ! कपटपूर्ण वाणी बोलने वाले शत्रु रूप गधे को मार झालें । हे ऐश्वर्यशालिन् इन्द्रदेव ! हमें सहस्रों पुष्ट गौएँ और अश्व देकर सम्पन्न बनायें ॥५॥
३२७. पतानि कुण्डूणाच्या दूरं वातो वनादधि। आ तू न इन्द्र शंसय गोष्वश्चेषु शुभिषु सहस्रेषु तुवीमघ ।।६।।
है इन्द्रदेव ! विध्वंसकारी बयंट्र वनों से दूर जाकर गिरें । है ऐश्वर्यशालिन् इन्द्रदेव ! हमें सहस्रों पुष्ट गौएँ और अश्व देकर सम्पन्न बनायें ॥६॥
३२८. सर्व परिक्रोशं ज्ञहि जम्भया कृकदाश्वम् । आ तू न इन्द्र शंसय गोष्वश्वेषु शुभ्रषु सहस्रेषु तुवीमघ ।।७।। |
है इन्द्रदेव ! हम पर आक्रोश करने वाले सब शत्रुओं को विनष्ट करें । हिंसकों का नाश करें । हे ऐश्वर्यशालिन् । इन्द्रदेव ! हमें सहस्रों पुष्ट गौएँ और अश्य देकर सम्पन बनायें ॥छ ।।
[ सूक्त – ३०]
[ऋषि – शुनः शेप आजीगर्न (कृत्रिम देवरात वैश्वामित्र ) । देवता–१–१६ इन्द्र, १७–१९ अश्विनीकुमार, २०–२२ था। छन्द – १–१६, १२–१५ तथा १७–२२ गायत्रीं, ११ पानिवृत् गायत्री, १६ त्रिष्टुप् ]
३२९. आ व इन्द्रं क्रियिं यथा वाजयन्त: शतक्रतुम् । मंहिष्ठं सिंच इन्दुभिः ।।१ ।।
| जिस प्रकार अन की इच्अ वाले, खेत में पानी सींचते हैं, उसी तरह हम बल की कामना याले साधक उन महान् इन्द्रदेव को सोमरस से सींचते हैं ॥ १ ॥
३३८. शतं वा यः शुचीनां सहस्त्रं वा समाशिराम्। एद निम्नं न रीयते ।।२।।
नीचे की ओर जाने वाले जल के समान सैंकड़ों कलश सोमरस, सहस्रों कलश दूध में मिश्रित होकर इन्द्रदेव को प्राप्त होता है ॥२ ॥
३३१. सं यन्मदाय शुष्मण एना ह्यस्योदरे । समुद्रो न व्यचो दये ॥३॥
समुद्र में एकत्र हुए जल के सदृश सोमरस इन्द्रदेव के पेट में एकत्र होकर उन्हें हर्ष प्रदान करता है ॥३ ।।
२. अयम् ते समतसि कपोत इव गर्भधिम् । वचस्तच्चिन ओहसे ।।४।। ।
ॐ इन्द्रदेव ! कपोत जिस स्नेह के साथ गर्भवती कपोती के पास रहता है, उसी प्रकार (सेहपूर्वक) यह सोमरस पके लिये प्रस्तुत है । आप हमारे निवेदन को स्वीकार करें ॥
३३३. स्तोत्रं राधानां पते गिर्वाहो वीर यस्य ते। विभूतिरस्तु सूनुता ॥५॥
जो (स्तोतागण, हे इन्द्र ! हे धनाधिपति ! है स्तुतियों के आश्रयभूत ! हे बौर ! (इत्यादि) स्तुतियाँ करते हैं, उनके लिये आपकी विभूतियाँ प्रिय एवं सत्य सिद्ध हों ।५ ॥
३३४. ऊर्ध्वस्तिष्ठा न ऊतये स्मिन्वाजे शतक्रतो । समन्येषु बवावहै ॥६ ।।
सैकड़ों यज्ञादि श्रेष्ठ कार्यों को सम्पन करने वाले है इन्द्रदेव ! संघर्षों (जीवन – संग्राम) में हमारे संरक्षण के लिये आप प्रयत्नशील रहें । हम आप से अन्य (श्रेष्ठ कार्यों के विषय में भी परस्पर विचार-विनिमय करते रहें ।।६।।
३३५. योगेयोगे तवस्तरं बाजेवाजे हवामहे । सखाय इन्द्रमूतये ।।७।। |
सत्कर्मों के शुभारम्भ में एवं हर प्रकार के संग्राम में बलशाली इन्द्रदेव का हम अपने संरक्षण के लिये मित्रवत् आवाहन करते हैं ॥ ॥
३३६. आ घा गमद्यदि श्रवत्सहस्रिणीभिरूतिभिः। वाजेभिरुप नो हुवम् ॥८॥ .
हमारी प्रार्थना से प्रसन्न होकर वे इन्द्रदेव निश्चित ही सहझ रक्षा – साधनों तथा अन्न, ऐश्वर्य आदि सहित हमारे पास आयेंगे ॥८॥
३३७. अनु प्रत्नस्यौकसो हुवे तुविप्रतिं नरम्। यं ने पूर्व पिता हुवे ॥९ ।।
। म सहायता के लिये स्वर्गधाम के वासी, बहुतों के पास पहुँचकर उन्हें नेतृत्व प्रदान करने वाले इन्द्रदेव का आवाहन करते हैं। हमारे पिता ने भी ऐसा ही किया था ॥६॥
३३८. तं त्वा वयं विश्ववारा शास्महे पुरुहूत । सखें वसो जरितृभ्यः ॥१०॥
हे विश्ववरणीय इन्द्रदेव ! बहुतों द्वारा आयाहित किये जाने वाले आप स्तोताओं के आश्रय दाता और मित्र हैं। हम (ऋत्विग्गण) आप से उन (स्तोताओं) को अनुगृहीत करने की प्रार्थना करते हैं ।।१०।।
३३९. अस्माकं शिफ्रिणीनां सोमपाः सोमपान्याम्। सखे सन्निन्सखीनाम् ॥११ ।।
हैं सोम पीने वाले क्षारी इन्द्रदेव ! सोम पीने के योग्य हमारे प्रियजनों और मित्रजनों में आप ही श्रेष्ठ सामर्थ्य वाले हैं ।।११ ॥
३४०, तथा तदस्तु सोमपाः सवें वञ्चिन्तथा कृणु। यथा त मसीधये ॥१२॥
| हे सोम पीने वाले क्ङ्गधारी इन्द्रदेव ! हमारी इच्छा पूर्ण करें । हम इष्ट-प्राप्ति के निमित्त आपकी कामना करें और वह पूर्ण हो ॥१३ ।।
३४१, रेवतीर्न: सधमाद इन्हें सन्तु तुविवाजाः। क्षुपन्तो याभिर्मदेम ॥१३॥
जिन (इन्द्रदेव) की कृपा से हम धन-धान्य से परिपूर्ण होकर प्रफुल्लित होते हैं। उन इन्द्रदेव के प्रभाव से इमारी गौएँ (भी) प्रचुर मात्रा में दूध-घृतादि देने की साम वाली हों ॥१३॥
३४२, आ च त्वाधात्मनातः स्तोत्भ्यो बृणवियानः। ऋगरक्षं न चक्कयोः ॥१४॥
हैं धैर्यशाली इन्द्रदेव ! आप कल्याणकारी बुद्धि से स्तुति करने वाले स्तोताओं को अभीष्ट पदार्थ अवश्य प्रदान करें। आप स्तोत्राओं को घन देने के लिए रध के चक्रों को मिलाने वाली धुरी के समान हीं सहायक है ॥१४॥
३४३. आ यहुवः शतक्रतवा कामं जरितॄणाम् । ऋणोरक्षं न शचीभिः ॥१५॥
हे इन्द्रदेव ! आप स्तोताओं द्वारा इच्छित धन उन्हें प्रदान करें। जिस प्रकार रथ की गति से उसके अक्ष(धुरे के आधार को भी गति मिलती है, उसी प्रकार स्तुतिकर्ताओं को धन की प्राप्ति हो ॥१५॥
३४४. शश्वदिन्छः पोथद्भिर्जिगाच नानदद्धिः शाश्वसद्धिर्धनानि । स नो हिरण्यरथं दंसनावान्स नः सनिता सनये स नोदात् ॥१६॥
सदैव स्फूर्तिवान्, सदैव (शब्दवान्। हिनहिनाते हुए तीव्र गतिशील अश्वों के द्वारा जो इन्द्रदेव शत्रुओं के धन को जीतते हैं, उन पराक्रमशील इन्द्रदेव ने अपने सेह से हमें सोने का रथ (अकूत-वैभव) दिया है ॥१६ ॥
३४५. आश्विनावशावत्येषा यातं शवीरया। गोमद्दस्रा हिरण्यवत् ॥१७॥
हे शक्तिशाली अश्विनीकुमारों ! आप बलशाली अश्यों के साथ अनों, गौओं और स्वर्णादि थनों को लेकर यहाँ पधारें ।।१३।।
३४६. समानयोजनो हि वां रथो दस्रावमर्त्यः। समुद्रे अश्विनेयते ॥१८॥
है अश्विनीकुमारो ! आप दोनों के लिए जुतने बाला एक ही रथ आकाश मार्ग से जाता हैं । इसे कोई नष्ट नहीं कर सकता ॥१८ ॥
३४७.न्य घ्यस्य मूर्धनि चक्रं रथस्य येमथुः। परि द्यामन्यदीयते ॥१९ ।।
ॐ अश्विनीकुमारो ! आप के रथ (पोषण प्रक्रिया) का एक चक्र पृथ्वी के मूर्धा भाग में (पर्यावरण चक्र के रूप में स्थित हैं और दूसरा चक्र द्युलोक में सर्वत्र गतिशील हैं ॥१९॥
३४८, कस्त उष: कधप्रिये भुजे मत अम। कं नक्षसे विभावरि ।।२०।।
है स्तुति-प्रिय, अमर, तेजोमयी इथे ! कौन मनुष्य आपका अनुदान प्राप्त करता हैं ? किसे आप प्राप्त होती हैं ? (अर्थात् प्रायः सभी मनुष्य आलस्यादि दोषों के कारण आप का लाभ पूर्णतया नहीं प्राप्त कर पाने ) ॥२०॥
३४९, वयं हि ते अमन्मह्यान्तादा पराकात् । अश्वे न चित्रे अरुषि ।।२१ ॥
है अश्व (किरणों) युक्त चित्र-विचित्र प्रकाश बाली उषे ! हम दूर अथवा पास से आपकी महिमा समझने में समर्थ नहीं है ॥२१ ॥
३५०. त्वं त्येभिरा गहि वाजेभिर्दीहर्तार्दिवः । अस्मे रयिं नि थारय ।।२३ ।।
है द्युलोक की पुत्री उपें!आप उन (दिव्या बलों के साथ यहाँ आयें और हमें उत्तम ऐश्वर्य धारण करायें ॥२२ ॥
| [ सूक्त – ३१ ]
[भिहिरण्यस्तूप आङ्गिरस । देवता–अग्नि । छन्द–जगती ८,१६,१८ विधुषु ।]
३५१. त्वमग्ने प्रथम अङ्गिी ऋषिदेवो देवानामभवः शिवः सखा। तव ते कवयो विद्मनापसजायत मरुत भाजदृष्टयः ।।१।।
है अग्निदेव! आप सर्वप्रथम अंगिरा ध के रूप में प्रकट हुए, तदनन्तर सर्वदुष्टा, दिव्यतायुक्त, कल्याणकारी और देवों के सर्वश्रेष्ठ मित्र के रूप में प्रतिष्ठित हुए। आप के व्रतानुशासन से मरुद्गण क्रान्तदर्शी कर्मों के ज्ञाता और श्रेष्ठ तज्ञ आयुधों से युक्त हुए हैं ।।१ ।।
३५२, त्वमग्ने प्रथमो अङ्गिरस्तमः कविर्देवानां परि भूषसि वृतम्। भुर्विश्वस्मै भुवनाय मेधिरो द्विमाता शयुः कतिधा चिदायवे ॥२॥ |
हैं अग्निदेव ! आप गराओं में आद्य और शिरोमणि हैं। आप देवताओं के नियमों को सुशोभित करते हैं। आप संसार में व्याप्त तथा दों माताओं वाले दो अरणियों में समुद्भूत होने से बुद्धिमान् हैं। आप मनुष्यों के हितार्थ सर्वत्र विद्यमान रहते हैं ॥२ ॥
३५३. त्वमग्ने प्रथमो मातरिश्वन आविर्भव सुक्रतूया विवस्वते । अरेजेतां रोदसी होतृवूर्येऽसनोर्भारमयजो महो वसो ॥३॥ |
हे अग्निदेव! आप ज्योतिर्मय सूर्यदेव के पूर्व और वायु के भी पूर्व आविर्भूत हुए। आपके बल से आकाश और पृथ्वी काँप गये । होता रूप में वरण किये जाने पर आपने यज्ञ के कार्य का सम्पादन किया । देवों का यजनकार्य पूर्ण करने के लिए आप यज्ञ वेदी पर स्थापित हुए ॥३॥
३५४. त्वमग्ने मनवे द्यामवाशयः पुरूरवसे सुकृते सुकृत्तरः । श्वात्रेण यत्पित्रोर्मुच्यसे पर्या त्वा पूर्वमनयन्नापरं पुनः ।।४।।
हे अग्निदेव! आप अत्यन्त श्रेष्ठ कर्म वाले हैं। आपने मनु और सुकर्मा-पुरूरवा को स्वर्ग के आशय से अवगत कराया। जब आप मातृ-पितृ रूप दो काष्ठों के मंथन से उत्पन हुए, तो सूर्यदेव की तरह पूर्व से पश्चिम तक व्याप्त हो गये ॥४ ।।
३५५. त्वमग्ने वृषभः पुष्टिवर्धन उद्यतखुचे भवसि श्रवाय्यः । | य आहुतिं परि वेदा वषट्कृतिमेकायुरमें विश आविवाससि ।।५।।
हैं अग्निदेव ! आप बड़े बलिष्ठ और पुष्टिवर्धक हैं। विदाता, सुवा हाथ में लिये स्तुति को उद्यत हैं, जो वषट्कार युक्त आहुति देता है, उस याजक को आप अग्रणीं पुरुष के रूप में प्रतिष्ठित करते हैं ।।५।।
३५६. चमग्ने वृजिनवर्तनि नरं समन्पिपर्षि विदथे विचर्षणे।। यः शूरसाता परितक्म्ये घने दभेभिश्चित्समृता सि भूयसः ॥६॥
हे विशिष्ट द्रष्टा अग्निदेव ! आप पापकर्मियों का भी उद्धार करते हैं। बहुसंख्यक शत्रुओं का सब ओर से आक्रमण होने पर भी थोड़े से वीर पुरुषों को लेकर सब शत्रुओं को मार गिराते हैं ॥६॥
३५७. त्वं तमग्ने अमृतत्व इत्तमे मतं दधासि श्रवसे दिवेदिये। | अस्तातृधाण उभयाय जन्मने मयः कृणोषि प्रये आ च सूरये ।।७।। |
हे अग्निदेव! आप अपने अनुचर मनुष्यों को दिन-प्रतिदिन अमरपद का अधिकारी बनाते हैं, जिसे पाने की उत्कट अभिलाषा देवगण और मनुष्य दोनों ही करते रहते हैं। वीर पुरुषों को अन्न और धन द्वारा सुखी बनाते हैं ॥ १७ ॥
३५८. त्वं नो अग्ने सनये धनानां यशसं काहं कृणुहि स्तवानः।। ऋध्याम कर्मापसा नवेन देवैद्यवापृथिवीं प्रावतं नः ।।८।।
हे अग्निदेव! प्रशंसित होने वाले आप हमें धन प्राप्त करने की सामर्थ्य दें। हमें यशस्वी पुत्र प्रदान करें । नये उत्साह के साथ हम यज्ञादि कर्म करें । द्यावा, पृथिवीं और देवगण हमारी सब प्रकार से रक्षा करें ।।८।।
३५९. त्वं नो अग्ने पित्रोरुपस्थं आ देवो देवेष्वनवयं ज्ञाग्वि। तनूकुल्लौधि प्रमतिश्च कारवे त्वं कल्याण वसु विश्वमपिधे ।।९।।
हे निर्दोष अग्निदेव! सब देवों में चैतन्य रूप आप हमारे मातृ-पितृ रूप (उत्पन्न करने वाले हैं। आप ने हमें बोध प्राप्त करने की सामर्थ्य दों, कर्म से प्रेरित करने वाली बुद्धि विकसित को । हे कल्याणरूप अग्निदेव ! हमें आप सम्पूर्ण ऐश्वर्य भी प्रदान करें ।।६ ॥
३६०, त्वमग्ने प्रतिस्त्वं पितासि नस्त्वं वयस्कृत्तव जामयो वयम् । सं त्वा रायः शतिनः सं सहस्रिणः सुवीरं यन्ति व्रतपामदाभ्य ।।१० ॥
हे अग्निदेव ! आप विशिष्ट बुद्धि-सम्पन्न, हमारे पिता रूप, आयु प्रदाता और वन्धु रूप हैं। आप उत्तमयर, अटलगुण-सम्पन्न, नियम-पालक और असंरयों धनों से सम्पन्न हैं ॥ १८ ॥
३६१. वामग्ने प्रथममायुमायवे देवा अकृण्वन्नहुषस्य विपत्तिम्। | इलामकृण्वन्मनुषस्य शासनों पितुर्यपुत्रो ममकस्य जायते ॥११॥
है नदेव ! देवताओं में सर्वप्रथम आपको मनुष्यों के हित के लिये राजा रूप में स्थापित किया। तत्पश्चात् जब हमारे (हिरण्यस्तूप ऋषि) पिता अगिरा ऋष ने आपको पुत्र रूप में आविर्भूत किया, तब देवताओं ने मनु को पुत्रों इळा को शासन-अनुशासन (धर्मोपदेशो कर्जा बनाया ॥ १ ॥
३६२. त्वं नो अग्ने तव देव पायुभिर्मघोनो रक्ष तयश्च वन्छ। | त्राता तोकस्य तनये गवामस्यनिमेष रक्षमाणस्तव व्रते ।।१२।। |
हे अग्निदेव ! आप बन्दना के योग्य हैं। अपने रक्षण साधनों से धनयुक्त हमारी रक्षा करें । हमारी शारीरिक क्षमता को अपनी सामर्थ्य से पोषित करें । शीघ्रतापूर्वक संरक्षित करने वाले आप हमारे पुत्र-पौत्रादि और गवादि पशुओं के संरक्षक हों ॥१२॥
३६३. त्वमग्ने यज्यवे पायुरन्तरोऽनिषङ्गाय चतुरक्ष इथ्यसे । यो रातहव्योऽवृकाय धायसे कीरश्चिन्मन्नं मनसा वनोषि तम्॥१३।।
हैं अग्निदेव ! आप याज्ञकों के पोषक हैं, जो सञ्जन विदाता आपको श्रेष्ठ, पोषक हविष्यान देते हैं, आप उनकी सभी प्रकार से रक्षा करते हैं। आप साधकों (उपासको) की स्तुति हृदय में स्वीकार करते हैं ।।१३।।
३६४. त्वमग्न उरुशंसाय वाघते स्पाईं यद्रेक्णः परमं वनोघि तत् । आभ्रस्य चित्प्रमतिरुच्यसे पिता ने पार्क शास्सि प्रदिशो विदुष्टरः ।।१४।।
हे अग्नदेव ! आप स्तुति करने वाले ऋत्विज्ञों को धन प्रदान करते हैं। आप दुर्बलों को पिता रूप में पोषण देने वाले और अज्ञानी जनों को विशिष्ट ज्ञान प्रदान करने वाले मेधावी हैं ॥१४ ।।
३६५. त्वमग्ने प्रयतदक्षिणं नरं वर्मेव स्यूतं पर पासि विश्वतः । स्वादक्षद्मा यो वसतौ स्योनकृञ्जीवयानं यजते सोपमा दिवः ।।१५।।
हे अग्निदेव ! आप पुरुषार्थी यज्ञमानों को कवन के रूप में सुरक्षा करते हैं । जो अपने घर में मधुर हविष्या देकर सुखप्रद यज्ञ करता है, वह घर स्वर्ग को उपमा के योग्य होता है ।।१५ ॥
[यनीय आचरण से घर में स्वर्गतुल्य वातावरण मला है ।।
३६६. इमामग्ने शरणि भीमूषो न इममध्वानं यमगाम दुरात् ।। आपिः पिता प्रमतिः सोम्यानां भूमिरस्य॒षिकृन्मत्यनाम् ।।१६ ।।
हैं अग्निदेव ! आप यज्ञ का करते समय हुई हमारी भूलों में क्षमा करे, जो लोग यज्ञ मार्ग से भटक गये हैं, | उन्हें भी मा करें। आप सोमयाग करने वाले याज्ञकों के बन्धु और पिता हैं । सदबुद्धि प्रदान करने वाले और | -कर्म के कुशल प्रणेता है ।। १६ ।।।
३६७. मनुष्वदग्ने अङ्गिरस्वदङ्गिरो ययातिवत्सदने पूर्ववच्छुचे । अच्छ याह्या वहा दैव्यं जनमा सादय बर्हिषि यक्षि च प्रियम् ।।१७।।
हे पवित्र अंगिरा अग्निदेव !(अंगों में संव्याप्त अग्नि) आय मनु, आगरा(थ), ययाति जैसे पुरुषों के साथ देवों को ले ज्ञाकर यज्ञ स्थल पर सुशोभित हों । उन्हें कुश के आसन पर प्रतिष्ठित करते हुए सम्मानित करें ॥१७ ।।
३६८. एतेनाग्ने ब्रह्मणा वावृधस्व शक्ती वा यत्ते चकृमा विदा वा। । उत प्र श्रेष्यभि वस्यो अस्मान्त्सं नः सृज सुमत्या वाजवत्या ॥१८॥
हे अग्निदेव ! इन मंत्र रूप स्तुतियों से आप वृद्धि को प्राप्त करें । अपनी शक्ति या ज्ञान से हमने जो यज़न किया है, उससे हमें ऐश्वर्य प्रदान करें । बल बढ़ाने वाले अन्नों के साथ शुभ मति में हमें सम्पन्न करें ॥ १८ ॥
[सूक्त – ३२ ]
(ऋषि – हिरण्यस्तूप आङ्गिरस । देवता–इन्द्र । छन्द– त्रिष्टुप् ।]
३६९. इन्द्रस्य नु वीर्याणि प्र वोचं यानि चकार प्रथमानि बज्री। अनहिमन्वपस्ततर्द 9 वक्षणा अभिनत्पर्वतानाम् ।।१।।
मेघों को विदीर्णं कर पानी बरसाने वाले, पर्वतीय नदियों के तहों को निर्मित करने वाले, वज्रधारी, पराक्रमी इन्द्रदेव के कार्य वर्णनीय हैं। उन्होंने जो प्रमुख वीरतापूर्ण कार्य किये, वे ये ही हैं ।।१ ॥
३७. अन्नहिं पर्वते शिश्रियाणं त्वष्टास्मै वन्नं स्वर्यं ततक्ष।। वाश्रा इत्र धेनवः स्यन्दमाना अञ्जः समुद्रमत्र जग्मुरापः ।।२।।
इन्द्रदेव के लिये वशदेव ने शब्द चालत नन्न का निर्माण किया, उसी से इन्द्रदेव ने मेघों को विदीर्ण कर जल बरसाया । इँभाती हुई गौओं के समान वे जलप्रवाह वेग से समुद्र की ओर चले गये ॥२ ॥
३७१. वृषायमाणोऽवृणीत सोमं त्रिकद्केष्वपिबत्सुतस्य। आ सायकं मघवादत्त वज्रमहन्नेनं प्रथमज्ञामहीनाम् ।।३।।
अतिबलशालौं इन्द्रदेव ने सोम को ग्रहण किया। यज्ञ में तीन विशिष्ट पात्रों में अभिषव किये हुए सौम का | पान किया । ऐश्वर्यवान् इन्द्रदेव ने बाण और वज्र को धारण कर मेघों में प्रमुख मेघ को विदीर्ण किया ।। ३ ।।।
३७२. यदिन्द्राह–प्रथमजामहीनामान्मायनाममिनाः प्रोत मायाः।। आन्सूर्यं जनयद्यामुषाको तादीना शत्रु न किला विवित्से ।।४।।
है इन्द्रदेव ! आपने मेघों में प्रथम उत्पन्न मेघ को वेध दिया। मेघरूप में छाए धुन्ध (मायावियों ) को दूर किया, फिर आकाश में उषा और सूर्य को प्रकट किया। अब कोई भी अवरोधक शत्रु शेष न रहा ।।४ ।।
३७३. अहन्वृत्रं वृत्रतरं व्यंसमिन्द्रों वज्रेण महता वघेन। स्कन्धांसीव कुलिशेना विवृणाऽहिः शयत उपपृक्पृथिव्याः ॥५॥
इन्द्रदेव ने घातक दिव्य वज्र से वृत्रासुर का वध किया। वृक्ष की शाखाओं को कुल्हाड़े से काटने के समान उसकी भुजाओं को काटा और तने को तरह उसे काटकर भूमि पर गिरा दिया ।।५ ॥
३७४. अयोद्धेव दुर्मद आ हि जुढे महावीरं तुनिबाधमृज़ीषम्। नातारीदस्य समृति वधानां सं रुजानाः पिपिष इन्दशत्रुः ।।६।। |
अपने को अप्रतिम योद्धा मानने वाले मिथ्या अभिमानी वृत्र ने महाबली, शत्रुबेधक, शत्रुनाशक इन्द्रदेव को ललकारा और इन्द्रदेव के आघातो को सहन न कर, गिरते हुए नदियों के किनारों को तोड़ दिया ।।६ ।।
३७५, अपादहस्तो अपृतन्यदिन्द्रमास्य वज्रमधि सानौ जघान । वृष्णो वधिः प्रतिमानं बुभूषन्पुरुत्रा वृत्रो अशयद्यस्त: ।।७।।
हाथ और पाँव के कट जाने पर भी वृत्र ने इन्द्रदेव से युद्ध करने का प्रयास किया। इन्द्रदेव ने उसके पर्वत । सश कन्धों पर वज्र का प्रहार किया। इतने पर भी चर्चा करने में समर्थ इन्द्रदेव के सम्मुख वह डटा हो । अन्ततः इन्द्रदेव के आघातों से ध्वस्त होकर बह भूमि पर गिर पड़ा ।। ।।।
३७६. नदं न भिन्नममुया शयानं मन रुहाणा अति यन्त्यापः । याश्चिद् वृत्रो महिना पर्यतिष्ठत्तासामहिः पत्सुतः शीर्वभूव ।।८।।
जैसे नदी की बाढ़ तटों को लांघ जाती हैं, वैसे ही मन को प्रसन्न करने वाले जल (जल अवरोधक वृत्र को । लाँघ आते हैं। जिन जलों को ‘बुज’ ने अपने मन में आप किया था, उन्हीं के नीचे ‘वृत्र’ मृत्यु-शैय्या पर पड़। सो रहा हैं ॥ ॥
३७५, नींचावया अभवद् वृत्रपुत्रेन्द्रों अस्या अव वधर्जभार ।। | उत्तरा सूरधरः पुत्र आसीद्दानुः शये सहवत्सा न धेनुः ।।९।।
वृत्र की माता झुककर वृत्र का संरक्षण करने लगीं, इन्द्रदेव के प्रहार से बचाव के लिये वह वृत्र पर सो गयी, फिर भी इन्द्रदेव ने नीचे से उस पर प्रहार किया। उस समय माता ऊपर और पुत्र नीचे था, जैसे गाय अपने छ के साथ सोती हैं ।।१ ।।
३७८, अतिष्ठन्तीनामनिवेशनाना काष्ठानां मध्ये निहतं शरीरम्। वृत्रस्य निण्यं वि चरन्त्यापों दीर्घ तम आशयदिन्द्रशत्रुः ।।१०।। |
एक स्थान पर न रुकने वाले अविश्रान्त (मेषरूप) जल-प्रवाहों के मध्य वृत्र का अनाम शरीर छिपा रहता है। वह दीर्घ निद्रा में पड़ा रहता हैं, उसके ऊपर जल प्रवाह बना रहता हैं ।।१८ ॥
[जल युक्त बादलों के नीचे निष्क्रिय बादलों को वृत्र का अनाम शरीर कहा गया प्रतीत होता है ।
३७९. दासपत्नीरहिगोपा अतिष्ठन्निरुद्धा आप: पणिनेच गाव: ।। । अपां विलमपिहितं यदासीद् वृत्रं जघन्वा॒ अप तद्ववार ।।११ ।।
‘पणि’ नामक असुर ने जिस प्रकार गौओं अथवा किरणों को अवरुद्ध कर रखा था, उसी प्रकार जल-प्रवाहां को अगतिशील बूब ने रोक रखा था । वृत्र का वध करके ने नाह प्रबोल दिये गये ।।११ ॥
३८०. अश्व्यो वारो अभवस्तदिन्द्र सृके यत्वा प्रत्यहन्देव एकः । | अजयो गा अजयः शूर सोममवासृजः सर्तवे सप्त सिन्धून् ।।१३।।।
है इन्द्रदेव ! जब कुशल योद्धा वृत्र ने बञ्च पर प्रहार किया, तब घोड़े की पूंछ हिलाने की तरह, बहुत आसानी | से आपने अविचलित भाव से उसे दूर कर दिया । हैं महाबली इन्द्रदेव ! सोम और गौओं को जीतकर आपने | (वृत्र के अवरोध को नष्ट करके) गंगादि सातो सरिताओं को प्रवाहित किया ।।१३ ॥
३८१, नास्मै विद्युन्न तन्यतुः सिषेध न यां मिहमकिरह्मादुनिं च। इन्द्रश्च यद्युयुधाते अहिश्चोतापरीभ्यो मघवा चि जिग्ये ॥१३॥
युद्ध में वृत्रद्वारा प्रेरित भीषण विद्युत्, भयंकर मेघ गर्जन, जल और हिम वर्षा भी इन्द्रदेव को नहीं रोक सके । वृत्र के प्रचण्ड घातक प्रयोग भी निरर्थक हुए। उस युद्ध में असुर के हर प्रहार को इन्द्रदेव ने निरस्त करके उसे जीत लिया ॥१३ ।।।
३८२. अहेर्यातार कमपश्य इन्द्र हदि यत्ते जघ्नुषो भीरगच्छत् ।। नवे च यन्नवतं च स्रवन्तः श्येनो न भीतो अतरो रजांसि ।।१४।।
हे इन्द्रदेव ! वृत्र का वध करते समय यदि आपके हृदय में भय उत्पन्न होता, तो किस दूसरे वीर को असुर वध के लिये देखते ?(अर्थात् कोई दूसरा न मिलता) । (ऐसा करके) आपने निन्यानवे (लगभग सम्पूर्णी) जल – प्रवाहों को बाज पक्षी की तरह सहज ही पार कर लिया ॥ १४ ॥
३८३. इन्द्रो यातोऽवसितस्य राजा शमस्य च शृङ्गणों वज्रबाहुः । सेदु राजा क्षयति चर्षणीनामरान नेमिः परि ता बभूव ।।१५ ।।
हाथों में वज्रधारण करने वाले इन्द्रदेव मनुष्य, पशु आदि सभी स्थावर-जंगम प्राणियों के राजा हैं । शान्त एवं क्रूर प्रकृति के सभी प्राणी उनके चारों ओर उसी प्रकार रहते हैं, जैसे चक्र की नेमि के चारों ओर उसके ‘अरे’ होते हैं ॥ १५ ॥
| [ सूक्त– ३३]
[ऋषि – हिरण्यस्तूप आङ्गिरस । देवता– इन्द्र । छन्द – त्रिष्टुप् ।]
३८४. एतायामोप गड्यन्त इन्द्रमस्माकं सु प्रमतिं वावृधाति ।। अनामुणः कुविदादस्य रायो गवां केनं परमावर्जते नः ।।१ ।।
गौओं को प्राप्त करने की कामना से युक्त मनुष्य इन्द्रदेव के पास जायें । ये अपराजेय इन्द्रदेव हमारे लिए गोरूप धनों को बढ़ाने की उत्तम बुद्ध देगें। वे गौओं की प्राप्ति का उत्तम उपाय करेंगे ।। १ ।।
३८५. उपेदहं धनदामप्रतीतं जुष्टां ने श्येनो वसतिं पतामि। इन्द्रं नमस्यन्नुपमेभिरकैंर्यः स्तोतृभ्यो हव्यो अस्ति यामन् ॥२ ।।
श्येन पक्षों के वेगपूर्वक घोंसले में जाने के समान हम उन धन दाता इन्द्रदेव के समीप पहुँचकर, स्तोत्रों से उनका पूजन करते हैं । युद्ध में सहायता के लिए स्तोताओं द्वारा बुलाये जाने पर अपराजेय इन्द्रदेव अविलम्ब पहुँचते हैं ।।३।
३८६. नि सर्वसेन इषुधीरसक्त समय गा अजति यस्य वष्टि। चोष्कूयमाण इन्द्र भूरि वाम मा पणिर्भूरस्मदधि प्रवृद्ध ।।३।।
सब सेनाओं के सेनापति इन्द्रदेव तरकसों को धारण कर गौओं एवं धन को जीतते हैं । हे स्वामी इन्द्रदेव ! हमारी धन-प्राप्ति की इच्छा पूरी करने में आप वैश्य की तरह विनिमय जैसा व्यवहार न करें ॥३॥
३८५७. वधीहिं दस्यु धनिनं घनेने एकश्चरन्नुपशाकेभिरिन्द्र । धनोरथि विषुणते व्यायन्नयज्वानः सनकाः प्रेतिमीयुः ।।४।।
है इन्द्रदेव ! आपने अकेले ही अपने प्रचण्डं वज्र से धनवान् दस्यु वृत्र’ का वध किया। जब उसके अनुचरों में आप के ऊपर आक्रमण किया, तब यज्ञ विरोधी उन दानवों को आपने (दृढ़तापूर्वक) नष्ट कर दिया ॥४
३८८. परा चिच्छीर्षा ववृजुस्त इन्द्रायज्वानो यज्वभिः स्पर्धमानाः । | प्र यद्दिव हरिवः स्थातरु निरव्रताँ अधम रोदस्योः ।।५।।
हे इन्द्रदेव ! याजकों से स्पर्धा करने वाले अयाज्ञिक मुंह छिपाकर भाग गये। है अश्व अर्थात इन्द्रदेव ! आप युद्ध में अटल और प्रचण्ड सामर्थ्य वाले हैं। आपने आकाश, अन्तरिक्ष और पृथ्वी से धर्म-स्वतहीनों को हटा दिया है ।।५।।
३८९. अयुयुत्सन्ननवद्यस्य सेनामयातयन्त क्षितयो नवग्वाः। वृषायुधो न वध्रयो निरष्टाः प्रवद्भिरिन्द्राच्चितयन्त आयन् ।।६।।
उन शत्रुओं ने इन्द्रदेव की निर्दोष सेना पर पूरी शक्ति के साथ प्रहार किया, फिर भी हार गये । उनकी वहीं स्थिति हो गयीं, ज्ञों शक्तिशाली वौर से युद्ध करने पर नपुंसक की होती हैं। अपनी निर्बलता स्वीकार करते हुए सब इन्द्रदेव से दूर चले गये ॥६॥
३९०, त्वमेतान्नुदतो जक्षतश्चायोथयो रजस इन्द्र पारे । | अवादहों दिन आ दस्यमच्चा न सुन्वतः स्तुवतः शंसमाव: ।। ।
ॐ इन्द्रदेव ! आपने रोने या हँसने वाले इन शत्रुओं को बुद्ध करके मार दिया, दस्यु वृत्र को ऊँचा उद्राकर आकाश से नीचे गिराकर जला दिया। आपने सोमयज्ञ करने वालों और प्रशंसक स्तोताओं की रक्षा की ॥ १ ॥
३९१. चक्राणासः परीणहं पृथिव्या हिरण्येन मणिना शुम्भमानाः ।। न हिन्वानासस्तितिरुस्त इन्द्रं परि स्पशो अदधात्सूर्येण ।।८।।
उन शत्रुओं ने पृथ्वी के ऊपर अपना आधिपत्य स्थापित किया और स्वर्ण-रत्नादि से सम्पन्न हो गये, परन्तु वे इन्द्रदेव के साथ युद्ध में न ठहर सके । सूर्यदेव के द्वारा उन्हें दूर कर दिया गया ॥८॥
३९२. परि यदिन्द्र रोदसी उभे अबुभोजीर्महिना विश्वतः सीम्। अमन्यमान अभि मन्यमानैर्निर्बह्मभिरथमो दस्युमिन्द्र ।।९।।
हे इन्द्रदेव ! आपने अपनी सामर्थ्य से घुलोक और भूलोक का चारों ओर से उपयोग किया। हे इन्द्रदेव ! आपने अपने अनुचरों द्वारा विरोधियों पर विजय प्राप्त की। आपने मन्त्र-शक्ति से (ज्ञानपूर्वक किये गये प्रयासों से शत्रु पर विजय प्राप्त की ॥१ ।।
३९३. न ये दिवः पृथिव्या अन्तमापुर्न मायाभिर्धनदां पर्यभूवन्। युजं वनं वृषभश्चक्र इन्द्रो नियतिघा तमसो गा अक्षत् ।।१०।।
मेघ रूप वृत्र के द्वारा रोक लिये जाने के कारण जो जल द्युलोक से पृथ्वी पर नहीं बरस सके एवं जलों के अभाव से भूमि शस्यश्यामला न हो सकौ, तब इन्द्रदेव ने अपने जाज्वल्यमान बढ़ से अधिकार रूपों मेघ को भेदकर गौ के समान जल का दोहन किया ।। १ ॐ ||
३९४. अनु स्वधामक्षरनापो अस्यावर्धत मध्य आ नाव्यानाम् । सधीचीनेन मनसा तमिन्द्र ओजिष्ठेन हुन्मनाहन्नभि छून् ॥११॥
जल इन ब्रीहि बवाद रूप अन्न वृद्धि के लिए (मेघों से) बरसने लगे। उस समय नौकाओं के मार्ग पर (जलों में) वृत्र बढ़ता रहा । इन्द्रदेव ने अपने शक्ति-साधनों द्वारा एकाग्न मन से अल्प समयावधि में ही उस वृत्र को मार गिराया ।।११ ॥
३९५, न्याविध्यदलीबिशस्य दृळहा वि शृङ्गणमभिनच्छुयामिन्द्रः । यावत्तरो मघवन्यावदोजो वज्रेण शत्रुमवधीः पृतन्युम् ।।१२।।
इन्द्रदेव ने गुफा में सोये हुए वृत्र के किलों को ध्वस्त करके उस सींगवाले शोषक वृत्र को क्षत-विक्षत कर | दिया । हे ऐश्वर्यशाली इदेव ! आपने सम्पूर्ण वेग और बल से शत्रु सेना का विनाश किया ॥१२ ।।
३९६, अभि सिध्मो अजिगादस्य शत्रून्वितिग्मेन वृषभेण पुरोऽभेत् । सं वज्रणासृजदूत्रमिन्द्रः प्र स्वां मतिमतिरच्छाशदानः ॥१३॥
इन्द्रदेव का तीक्ष्ण और शक्तिशाली वशं शत्रुओं को लक्ष्य बनाकर उनके किलों को ध्वस्त करता है । शत्रुओं को वज्र से मारकर इन्द्रदेव स्वयं अतीव उत्साहित हुए ।!१ ३ ।।।
३९७. आवः कुत्समन्द्र यस्मिञ्चकन्वो युध्यन्तं वृषभं दशद्युम् । | शफच्युतो रेणुर्नक्षत द्यामुच्छ्वैत्रेयो नृषाह्याय तस्थौ ॥१४॥
हैं इन्द्रदेव ! ‘कुस’ ऋषि के प्रति स्नेह होने से आपने उनको रक्षा की और अपने शत्रुओं के साथ युद्ध करने वाले श्रेष्ठ गुणवान् ‘दशा’ ग्रंप की भी आपने रक्षा की । उस समय अश्वों के खुरों में धूल आकाश तक फैल गई, तब शत्रुभय से जल में छिपने वाले ‘इनैत्रेय’ नामक पुरुष की रक्षाकर आपने उसे जल से बाहर निकाला।।१४ ।। ।
३९८, आवः शमं वृषभं तुझ्यासु क्षेत्रज्ञेचे मघवविन्यं गाम्। ज्योक् चित्र तस्थिवांसो अक्रछत्रूयतामधरा वेदनाकः ।।१५।। |
हैं धनवान् इन्द्रदेव ! क्षेत्र प्राप्ति की इच्छा से सशक्त जल – प्रवाहों में घिरने वाले ‘श्वित्र्य’ (व्यक्तिविशेष) | को आपने रक्षा की । वहाँ जलों में ठहरकर अधिक समय तक आप शत्रुओं से युद्ध करते रहे। उन शत्रुओं | को जलों के नौवें गिराकर आपने मार्मिक पीड़ा पहुँचायीं ॥१५ ॥
[सूक्त – ३४]
(ऋषि – हिरण्यस्तूप आङ्गिरस । देवता–अश्विनीकुमार । छन्द–जगती, ९,१२ त्रिष्टुप् ।
३९९. त्रिश्चिन्नो अद्या भवतं नवेदसा विभुर्वा याम उत रातिरश्विना ।। युवोर्हि यन्त्रं हिम्प्येव वाससोऽध्यायंसेच्या भवतं मनीषिभिः ।।१।।
हे ज्ञानी अश्विनीकुमारो ! आज आप दोनों यहाँ तीन बार (प्रात, मध्याह्न, साय) आयें । आप के रथ और दान बड़े महान् हैं। सर्दी की रात एवं आतपयुक्त दिन के समान आप दोनों का परस्पर नित्य सम्बन्ध हैं । विद्वानों के माध्यम से आप हमें प्राप्त हों ।।१।।
४००. त्रयः पवयो मधुवाहने रथे सोमस्य वेनामनु विश्व इद्विदुः । त्रयः स्काभासः स्कभितास आरभे निंर्नक्तं याथस्त्रिर्वश्विना दिवा ॥२ ।।। |
मधुर सोम को वहन करने वाले रथ में वज्र के समान सुदड़ तीन पहिये लगे हैं। सभी लोग आपकी सोम के प्रति तीव्र उत्कंग को जानते हैं। आपके रथ में अवलम्बन के लिये तीन में लगे हैं । हे अश्विनीकुमारों ! आप उस रथ में तीन बार रात्रि में और तीन बार दिन में गमन करते हैं ॥२॥
४०१. समाने अन्त्रिरवद्यगोना त्रिरद्य यज्ञं मधुना मिमिक्षतम् । त्रिर्वाजवतीरिषो अश्विना युवं दोषा अस्मभ्यमुषसश्च पिन्वतम् ।।३।।
हे दोषों को ढंकने वाले अश्विनीकुमारों ! आज हमारे यज्ञ में दिन में तीन बार मधुर रसों में सिंचन करे । प्रान:, मध्याह्न एवं सायं तीन प्रकार के पुष्टिवर्धक अन्न हमें प्रदान करें ।।३।।
४०२. त्रिर्वर्तिर्यातं त्रिरनुव्रते जने त्रिः सुप्राव्ये त्रेधेव शिक्षतम्। त्रिर्नान्यं वहुतमश्विना युवं त्रिः पृक्षो अस्मे अक्षरेव पिन्वतम् ।।४।। |
हे अश्विनीकुमारों ! हमारे घर आप तीन बार आये । अनुयायों जनों को तीन बार सुरक्षिात करें, उन्हें तीन । बार तीन विशिष्ट ज्ञान करायें। सुखप्रद पदार्थों को तीन बार इधर, हुमाग्न और पहुंचायें । बलप्रदायक अन्नों को प्रचुर परिमाण में देकर हमें सम्पन्न करें ।।४ ॥
४३. त्रिन रयिं वहतमश्विना युवं त्रिदैवताता त्रिरुतावतं धियः । त्रिः सौभगत्वं निरुत अचांसि नस्त्रिष्टुं वां सूरे दुहितारुहद्रथम् ।।५।।
हे अश्विनीकुमारो ! आप दोनों हमारे लिए तीन बार श्वन इधर लायें। हमारी बुद्धि को तीन बार देवों । की स्तुति में प्रेरित करें। हमें तीन बार सौभाग्य और तीन बार यश प्रदान करें। आपके रथ में सूर्य-पुत्री (उपा) विराजमान हैं ।।५५ ॥
४०४. त्रिन अश्विना दिव्यानि भेषजा त्रि: पार्थिवानि निंरु दत्तमद्ध्यः । ओमानं शंयोर्ममकाय सूनवे न्निधातु शर्म वहृतं शुभस्पती ।।६ ।। |
है शुभ कर्मपालक अश्विनकुमारो ! आपने तीन बार में (द्युम्थानीय) दिव्य औषधियाँ, तीन बार पार्थिव ओर्याधयाँ तथा तीन बार जलपधियाँ प्रदान की हैं। हमारे पुत्र को श्रेष्ठ सुख एवं संरक्षण दिया है और तीन धातुओं (वात-पित्त-कफ) से मिलने वाला सुख, आरोग्य एवं ऐश्वर्य भी प्रदान किया हैं ।।६ ।।
४०५, त्रिन अश्विना यजता दिवेदिवे परि त्रिधातु पृथिवीपशायतम्। तिम्रो नासत्या रथ्या परावत आत्मैव वातः स्वसराणि गच्चतम् ॥ ॥ |
हे अश्विनीकुमारों ! आप नित्य नौन बार यज्ञन योग्य हैं । पृथ्वी पर स्थापित नेदी के तीन ओर आसनों पर बैंचें । हे असत्यरहित रथारूढ़ देखो ! प्राणवायु और आत्मा के समान दूर स्थान से हमारे यज्ञों में तीन बार आयें |
४०६, त्रिरश्विना सिन्धुभिः सप्तमातृभिस्त्रय आहावालेधा हविष्कृतम्। तिस्रः पृथिवीपरि प्रवा दिवो नाकं रक्षेथे द्युभिरक्तभिर्हितम् ।।८।।
है अश्विनीकुमारो ! सात मातृभू%