प्रथम पूज्य भगवान श्रीगणेश गणपति अथर्वशीर्ष का पाठ करने से अशुभ ग्रह शांत होते हैं और भाग्य के कारक ग्रह बलवान होते हैं.

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प्रथम पूज्य भगवान श्रीगणेश समस्त विघ्न बाधाओं का नाश करने वाले देवता हैं. हर सप्ताह बुधवार का दिन इन्हीं को समर्पित है. बुधवार के दिन गणपति का पूजन, स्तोत्र पाठ और मंत्रोच्चारण से व्यक्ति का कल्याण होता है. पार्वती पुत्र को समर्पित एक वैदिक प्रार्थना है गणपति अथर्वशीर्ष. मान्यता है कि प्रतिदिन भगवान गणेश का अथर्वशीर्ष पाठ करने से घर और जीवन के अमंगल दूर होते हैं.

गणपति अथर्वशीर्ष का लाभ

गणपति अथर्वशीर्ष का पाठ करने से अशुभ ग्रह शांत होते हैं और भाग्य के कारक ग्रह बलवान होते हैं.गणपति अथर्वशीर्ष के पाठ से मानसिक शांति और आत्मविश्वास बढ़ाता है. इससे दिमाग स्थिर रहते हुए सटीक निर्णय लेने में सक्षम होता है. अगर प्रतिदिन ये पाठ किया जाए तो जीवन में स्थिरता आती है.कार्यों में बेवजह आने वाली रूकावटें दूर होती हैं. और बिगड़े काम बनने लगते हैं.

गणपति अथर्वशीर्ष का पाठ करने के लिए प्रतिदिन स्नान आदि करने के बाद पूजा घर में कुशा के आसन पर बैठकर शांत मन से पाठ करें. भगवान गणेश के विशेष दिन जैसे संकष्टी चतुर्थी के दिन शाम के समय 21 बार ये पाठ करने इसका फल दोगुना मिलता है.

    ।। अथ श्री गणपति अथर्वशीर्ष स्तुति ।।

ॐ नमस्ते गणपतये ॥
त्वमेव प्रत्यक्षं तत्वमसि ॥
त्वमेव केवलं कर्तासि ॥
त्वमेव केवलं धर्तासि ॥
त्वमेव केवलं हर्तासि ॥
त्वमेव सर्वं खल्विदं ब्रह्मासि ॥
त्वं साक्षादात्मासि नित्यम् ॥
ऋतम् वच्मि ॥ सत्यं वच्मि ॥
अव त्वं माम्‌ ॥ अव वक्तारम् ॥
अव श्रोतारम् ॥ अव दातारम् ॥
अव धातारम् ॥ अवानूचानमव शिष्यम् ॥
अव पश्चात्तात्‌ ॥ अव पुरस्तात् ॥
अवोत्तरात्तात् ॥ अव दक्षिणात्तात् ॥
अव चोर्ध्वात्तात् ॥ अवाधरात्तात् ॥
सर्वतो मां पाहि पाहि समन्तात् ॥
त्वं वाङ्मयस्त्वं चिन्मयः ॥ त्वमानंदमयस्त्वं ब्रह्ममयः ॥
त्वं सच्चिदानंदाद्वितीयोऽसि। त्वं प्रत्यक्षं ब्रह्मासि। त्वं ज्ञानमयो विज्ञानमयोऽसि ॥
सर्वं जगदिदं त्वत्तो जायते ॥
सर्वं जगदिदं त्वत्तस्तिष्ठति ॥
सर्वं जगदिदं त्वयि लयमेष्यति ॥
सर्वं जगदिदं त्वयि प्रत्येति ॥
त्वं भूमिरापोऽनलोऽनिलो नभः ॥
त्वं चत्वारि वाक्पदानि ॥
त्वं गुणत्रयातीतः। त्वं अवस्थात्रयातीतः।
त्वं देहत्रयातीतः। त्वं कालत्रयातीतः।
त्वं मूलाधारस्थितोऽसि नित्यम् ॥
त्वं शक्तित्रयात्मकः। त्वां योगिनो ध्यायन्ति नित्यम् ॥
त्वं ब्रहमा त्वं विष्णुस्त्वं रुद्रस्त्वं इन्द्रस्त्वं अग्निस्त्वं वायुस्त्वं सूर्यस्त्वं‌ चंद्रमास्त्वं ब्रह्मभूर्भुवः स्वरोम् ॥

गणादिन् पूर्वमुच्चार्य वर्णादिं तदनं तरम् । अनुस्वारः परतरः। अर्धेन्दुलसितम्। तारेण ऋद्धम्। एतत्तव मनुस्वरूपम्। गकारः पूर्वरूपम्। अकारो मध्यमरूपम्। अनुस्वारश्चान्त्यरूपम्। बिन्दुरुत्तररूपम्। नादः संधानम् ॥ संहिता सन्धिः। सैषा गणेशविद्या। गणक ऋषिः। निचृद्‌गायत्रीछंदः गणपतिर्देवता। ॐ गं गणपतये नमः ॥

एकदन्ताय विद्महे वक्रतुंडाय धीमहि। तन्नो दंतिः प्रचोदयात् ॥ एकदन्तं चतुर्हस्तम् पाशमंकुशधारिणम् ॥ रदं च वरदं हस्तैर्बिभ्राणं मूषकध्वजम्। रक्तम् लम्बोदरं शूर्पकर्णकं रक्तवाससम् ॥ रक्तगन्धानुलिप्तांगं रक्तपुष्पैः सुपूजितम्। भक्तानुकम्पिनं देवं जगत्कारणमच्युतम्। आविर्भूतं च सृष्ट्यादौ प्रकृतेः पुरुषात्परम् ॥ एवं ध्यायति यो नित्यं स योगी योगिनां वरः ॥

नमो व्रातपतये नमो गणपतये नमः प्रमथपतये नमस्तेऽस्तु लम्बोदरायैकदन्ताय विघ्ननाशिने शिवसुताय श्रीवरदमूर्तये नमो नमः ॥