Ling Puran

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नमः शिवाय

श्रीलिंगपुराण

प्रधान लिंगमाख्यातं लिंगी परमेश्वरः (लिंपु० १७)

प्राक्कथन

देवाधिदेव भगवान शंकर की महिमा से युक्त यह लिंग पुराण १८ पुराणों में अपना विशेष महत्व रखता हैं। इसमें भूत भावन परम कृपालु शंकरजी के ज्योतिर्लिंगों के उद्भव की परम पावन कथा है। इसमें ईशान कल्प का वृतान्त, सम्पूर्ण सर्ग, विसर्ग आदि दश लक्षणों से युक्त लोक कल्याण के लिए कहा गया हैं । १८ पुराणों की संख्या करते समय नारद पुराण के अनुसार यह ग्यारहवां महा पुराण है।

नारद पुराण के अध्याय १०२ में लिंगपुराण की विषय सूची दी गई है। नारण पुराण के अनुसार यह पुराण धर्म, अर्थ, काम, मोक्ष चारों पदार्थों का देने वाला है। यह पढ़ने सुनने वालों को भक्ति और मुक्ति प्रदान करता है। भगवान शंकर के महात्म्य को अताने वाले इसमें ११००० श्लोक हैं । यह सभी पुराणों में उत्तम कहा गया है।

भगवान वेद व्यास रचित इस ग्रन्थ में पहले योग को आख्यान फिर कल्प का आख्यान है। इसके बाद लिंग का प्रादुर्भाव तथा उसकी पूजा बताई गई हैं, सनत्कुमार तथा शैलादि के बीच सुन्दर सम्वाद का वर्णन है। फिर दधीचि का चरित्र तथा युग धर्म का वर्णन है। इसके उपरान्त आदि सर्ग का विस्तार से कथन तथा त्रिपुर का आख्यान है। इसमें लिंग प्रतिष्ठा, पशुपाश विमोचन, विश्वव्रत, सदाचार निरूपण, प्रायश्चित, अरिष्ट काशी एवं श्रीशैल का वर्णन, अन्धकासुर की कथा, वाराहू भगवान का चरित्र, नरसिंह चरित्र, जलन्धर का वध, शिवजी के हजार नामों का कथन, काम दहन, पार्वती विवाह,

गणेजी की कथा, शिव ताँडव नृत्य वर्णन एवं उपमन्यु की कथा आदि इस पुराण की पूर्वार्द्ध की कथायें हैं। तथा इस पुराण में विष्णु महात्म्य, अम्बरीष की कथा, सनत्कुमार एवं नन्दीश के बीच सम्वाद, शिव महात्म्य के साथ-साथ स्नान योग आदि का निरूपण, सूर्य पूजा की विधि, मोक्ष देने वाली शिव पूजा का वर्णन, दान के विविध प्रकार, श्राद्ध, शिवजी की प्रतिष्ठा और अघोर के गुण, प्रभाव एवं नामों का कीर्तन, वज्रेश्वरी महाविद्या और गायत्री की महिमा, त्रयम्बक महात्म्य तथा पुराण के सुनने का महात्म्य आदि का सुखद वर्णन हुआ है।

इस पुराण को फाल्गुन की पूर्णमासी को तिल-धेनु के साथ सुयोग्य पुराणपाठी विद्वान को देने से और श्रवण करने से शिवलोक की प्राप्ति बतलाई गई है। इस प्रकार भगवान शंकर के परमतत्व का प्रकाशक यह पुराण श्रद्धालु महानुभावों के लिए भक्ति-मुक्ति प्रदाता

लिंग शब्द के विषय में आधुनिक समाज में बड़ी भ्रान्ति है। मनचले लोग लिंग शब्द को कुछ दूसरे अर्थ में प्रयोग करने की अशिष्टता पूर्ण मनोवृत्ति रखते हैं। परन्तु लिंग शब्द का अर्थ है चिह्न या प्रतीक। भगवान शंकर जो स्वयं आदि पुरुष हैं, उनकी ज्योतिः स्वरूपा चिन्मय शक्ति का प्रतीक है। यह लिंग इसके उद्भव के विषय में ज्योतिर्लिंग द्वारा सृष्टि के कल्याणार्थ प्रकट होकर स्वयं ब्रह्मा और विष्णु जैसे अनादि तत्वों को भी आश्चर्य में डालने वाली घटना का इस पुराण में स्पष्ट वर्णन है।

श्रीलिंगपुराण

सूतजी तथा नैमिषेय ऋषियों का सम्वाद सृष्टि के सृजन, पालन और संहार करने वाले प्रधान पुरुषेश्वर ब्रह्मा विष्णु तथा रुद्र रूप परमात्मा के लिये नमस्कार है। एक समय नारद जी भगवान शंकर का पूजन कर शैलेश, संगमेश्वर हिरण्य गर्भ, स्वर्लीन, अविमुक्त, महालय, रौद्र, गौप्रेक्षक पाशुपत, विघ्नेश्वर, केदारेश्वर, गोमायुकेश्वर, चन्द्रेश, ईशन, त्रिविष्ट्रप और शुक्रेश्वर आदि स्थानों में यथायोग्य शिवजी की पूजा करते हुये नैमिषारण्य में पहुंचे। उन्हें देखकर नैमिषारण्य वासी सभी ऋषियों ने प्रसन्नचित्त होकर उनकी पूजा की तथा उच्च आसन दिया। आसन पर बैठकर नारद जी ने लिंग पुराण के महात्म्य को बताने वाली विचित्र कथायें सुनाईं।

श्री लिंग पुराण

उसी समय समस्त पुराणों के ज्ञाता सूतजी ने सभी तपस्वियों को आकर प्रणाम किया। नैमिषारण्य वासी मुनियों ने उन्हें श्रीकृष्णद्वैपायन व्यास के शिष्य जानकर पूजा और वन्दना की। तब उन अत्यंत विद्वान और विश्वास योग्य लोमहर्षण को देखकर सभी मुनियों को पुराण सुनने की इच्छा हुई और उनसे लिंग महापुराण के महात्म्य के विषय में पूछा।

ऋषि बोले-हे सूतजी! आपने श्रीकृष्णद्वैपायन मुनि की उपासना करके उनसे पुराण संहिता प्राप्त की है। इसलिये हे सभी पुराणों के ज्ञाता सूतजी!हम सभी आपसे दिव्य लिंग संहिता को पूछते हैं। इस समय मुनियों में श्रेष्ठ नारद जी भी रुद्र भगवान के अनेक क्षेत्रों में भगवान की पूजा करते हुये यहां पधारे हैं। आप भी शिव के भक्त हैं तथा नारद भी और हम सब भी शिवजी के भक्त इस प्रकार नैमिषारण्य के ऋषियों द्वारा पूछे जाने पर सूतजी उन नैमिषारण्य वासी मुनियों को तथा ब्रह्मा पुत्र नारद जी को प्रणाम करके कहने लगे।

सूतजी बोले- मैं लिंग पुराण का वर्णन करने के लिये भगवान शंकर, ब्रह्मा और विष्णु को नमस्कार करके मुनीश्वर व्यास जी का स्मरण करता हैं। शब्द ब्रह्म का शरीर है और साक्षात् शब्द ही ब्रह्म के का प्रकाशक है। अकार, उकार और मकार अर्थात् ओ३म्कार ही स्थूल सूक्ष्म और परात्पर ब्रह्म का स्वरूप है। उसका ऋग्वेद मुख है, सामवेद जीभ हैं, यजुर्वेद | ग्रींबा है और अथर्ववेद हृदय है। वह ब्रह्म ऐसे प्रधान पुरुषातीत हैं तथा प्रलय और उत्पत्ति से रहित हैं वहीं तमोगुण के आश्रय से कालरूपी रुद्र, रजोगुण से ब्रह्म और सतोगुण से विष्णु हैं और निर्गुण रूप में भी महेश्वर जीव और अव्यक्त रूपी प्रधान अवयवों में व्याप्त होकर( महत्तत्व, अहंकार, शब्द, स्पर्श, रूप, रस और गंध) सात रूपों से (५ ज्ञानेन्द्री, ५ कर्मेन्द्री, ५ महाभूत, १ मन) १६ प्रकारों से अव्यक्त, ध्याता और ध्येय इन २६ भेदों में युक्त, ब्रह्म से उत्पन्न सर्ग ( सृष्टि) प्रतिष्ठा ( पालन ) और संहार लीला के लिये लिंग रूपी भगवान शिव को प्रणाम करके लिंग पुराण की पावन कथा को कहता हूँ।

अनुक्रमणिका

सूतजी बोले-महात्मा ब्रह्मा जी ने ईशान कल्प की कथा लेकर इस लिंग पुराण को बनाया। पुराण का परिमाण तो सौ करोड़ श्लोकों का है परन्तु व्यास जी ने संक्षेप में उनको चार लाख श्लोकों में ही कहा है। व्यास जी ने द्वापर के आदि में उसे अलग-अलग अठारह भागों में विभाजित किया है। उनमें से यहां लिंग पुराण की संख्या ग्यारह है, ऐसा मैंने व्यास जी से सुना है। उसे मैं आप लोगों से अब संक्षेप में कहता हूँ।

इस महापुराण में पहले सृष्टि की रचना प्रधानिक रूप से तथा वैकृतिक रूप से वर्णन की गई है तथा ब्रह्माण्ड की उत्पत्ति और ब्रह्माण्ड के आठ आवरण कहे गये हैं। रजोगुण का आश्रय लेकर शर्व (शिव) की उत्पत्ति भी उसी ब्रह्माण्ड से ही हुई है। विष्णु कहो या कालरुद्र कहो वह उसे ब्रह्मण्ड में ही शयन करते हैं।

इसके बाद प्रजापतियों का वर्णन, वाराह भगवान द्वारा पृथ्वी का उद्धार, ब्रह्मा के दिन-रात का परिमाण तथा आयु की गणना बताई है। ब्रह्मा के वर्ष कल्प और युग देवताओं के, मनुष्यों के तथा ध्रुव आदि वर्षों की गणना हैं। पित्रीश्वरों के वर्षों का वर्णन, चारों आश्रमों के धर्म संसार की अभिवृद्धि, देवी का अविर्भाव कहा गया है। स्त्री पुरुष के जोड़े के द्वारा ब्रह्मा का सृष्टि विधान, रोदानान्तर के बाद रुद्र के अष्टक का वर्णन, ब्रह्मा-विष्णु का विवाद, पुनः लिंग रूप में शिव की

श्रीं लिंग पुर उत्पत्ति का वर्णन है। शिलाद की तपस्या का वर्णन तथा वृत्रादि इन्द्र के दर्शन का वर्णन, व्यावतार तथा कल्प और मन्वंतरों का वर्णन इस पुराण में किया गया

कल्प कल्पान्तरों की कथा तथा कल्प भेदों के क्रम से वाराह कल्प में वाराह भगवान के अवतार की कथा, मेघ वाराह कल्प में रुद्र के गौरव को गान, पुनः ऋषियों के मध्य में पिनाकी(शिव) के लिंग उत्पत्ति का वर्णन हुआ है। | लिंग की आराधना, स्थान, पूजा का विधान, शौच ( पवित्रता ), काल लक्षण, वाराह के महात्म्य एवं उनके क्षेत्र का वर्णन, पृथ्वी के स्थानों की संख्या की गिनती, विष्णु के स्थानों की गणना का वर्णन किया गया है। पुनः स्वारोचिष कल्प में दक्ष का पृथ्वी पर पतन, दक्ष का शाप तथा दक्ष का शाप मोचन, कैलाश का वर्णन, चन्द्ररेखा की उत्पत्ति, शिव विवाह की कथा तथा शिव के संध्या वृत्तों की कथा का शुभ वर्णन है। पाशुपात योग का वर्णन चारों युगों का परिमाण तथा युग धर्म का विस्तार पूर्वक वर्णन हुआ है। शिवजी के द्वारा पुत्र उत्पत्ति तथा मैथुन के प्रग से जगत के नाश का भय, देवताओं को सती का शाप, विष्णु भगवान द्वारा रक्षा होना, शिवजी का वीर्योत्सर्ग, स्कन्द का जन्म, ग्रहण आदि पर्व में शिवलिंग को स्नान कराने का फल, क्षुब्दधी का विवाद, दधीचि और विष्णु की कथा, नन्दी नाम वाले देवाधिदेव महादेव की उत्पत्ति, पतिव्रताओं का आख्यान, पशु-पाश का विचार, प्रवृत्ति लक्षण तथा निवृत्ति लक्षण का ज्ञान, वशिष्ठ के पुत्रों की उत्पत्ति तथा वशिष्ठ के पुन्न महात्मा मुनियों का वंशविस्तार, राजशक्ति का नाश, विश्वामित्र का दुष्ट भाव तथा कामधेनु को बांधा जाना, वशिष्ठ का पुत्र शोक, अरुन्धती का विलाप, स्नुषा का भेजा जाना, गर्भ स्थित बालक का बोलना, पाराशर, व्यास, शुकदेव जी का अवतार, शक्ति पुत्रों द्वारा राक्षसों का विनाश, पुलस्त्य की आज्ञा से देवताओं का उपकार, विज्ञान और पुराणों का निर्माण का वर्णन इसमें है।

लोकों का प्रमाण, ग्रह, नक्षत्रों की गति,जीवितों के श्राद्ध का विधान, श्राद्ध एवं श्राद्ध योग्य ब्राह्मणों | के लक्षण, पंच महायज्ञों का प्रभाव और पंच यज्ञ की

विधि, रजस्वला के नियम, उसमें नियम पालने से पुत्र की विशेषता, मैथुन की विधि, क्रम से हर एक वर्ण का वर्णन, सभी के लिये भक्ष, अभक्ष का विचार, प्रायश्चित का वर्णन विस्तार से किया गया है।

नरकों के तस्करों का वर्णन तथा कर्म के अनुसार | दंड का विधान और दूसरे जन्म में स्वर्गीय तथा नारकीय कर्मों का ज्ञान, नाना प्रकार के दान तथा प्रेतराज के पुर का वर्णन, पंचाक्षर रुद्र तथा कल्प महात्म्य, वृत्रासुर और इन्द्र का महान युद्ध, श्वेत मुनि और मृत्यु का सम्वाद तथा श्वेत मुनि के लिए काल का नाश तथा देवदारु वन में शिवजी का प्रवेश, सुदर्शन की कथा, संन्यास के लक्षणों का वर्णन हुआ है।

इसके बाद ब्रह्मा जी द्वारा भगवान शंकर का श्रद्धा साध्य कहा जाना, मधुकैटभ दैत्यों द्वारा ब्रह्मा जी की गति क्षीण करना, विष्णु का मत्स्य रूप धारण करना, सभी अवस्थाओं में लीलाओं का वर्णन, शंकर की कृपा से विष्णु और विष्णु की उत्पत्ति, मंदराचल को धारण करने के लिए कूर्म अवतार, संकर्षण भगवान और कौशिकी देवी की उत्पत्ति तथा यादवों में स्वयं भगवान का अवतार लेना। कंस की दुष्टता, श्रीकृष्ण की बाल लीलाये, पुत्रों के लिए शिवजी का पूजन करना, विष्णु और रुद्र द्वारा कपाल से जल की उत्पत्ति, पृथ्वी के भार को दूर करने के लिए विष्णु द्वारा रुद्र की आराधना का वर्णन इस पुराण में किया गया है।

पूर्व काल में वेनु राजा के पुत्र पृथु द्वारा पृथ्वी का दुहा जाना, भगवान द्वारा भृगमुनि का शाप धारण करना, देव तथा दानवों को भृगु का शाप, श्रीकृष्ण का द्वारका में निवास, लोक कल्याण के लिए दुर्वासा के मुख से शाप ग्रहण करना, वृष्णि अंधकों के नाश के लिये

ऋषियों का शाप, एक तथा तोमर की उत्पत्ति, एक की प्राप्ति पर यादवों में विवाद, युद्ध और उनका नाश, श्रीकृष्ण का जाना, मोक्ष धर्म वर्णन, इन्द्र, हाथी, मृग | रूप धारी अंधक, अग्नि और दक्ष का वर्णन, आदि देव ब्रह्मा जी, कामदेव तथा दैत्यों का वर्णन इसमें आया है।

इसमें महादेव जी के द्वारा दैत्य हलाहल की आज्ञा का वर्णन, जलंधर का वध तथा सुदर्शन चक्र की उत्पत्ति, भगवान विष्णु को उत्तम शस्त्रों की प्राप्ति तथा शिवजी के और भी हजारों उत्तम चरित्रों का वर्णन है। ब्रह्मा, विष्णु और महान तेज वाले इन्द्र के प्रभाव का वर्णन है। शिवलोक का वर्णन, पृथ्वी पर रुद्र लोक वर्णन और पाताल में तारकेश्वर का वर्णन, सब मूर्तियों में शिवालय की विशेषता तथा लिंग का प्रारम्भ से विस्तार पूर्वक वर्णन इस महापुराण में किया गया है। इस प्रकार संक्षेप में जानकर भी जो मनुष्य इसका गुणगान करता है। वह सब पापों से छुद्र कर ब्रह्म(शिव) लोक को प्राप्त करता है।

प्रथम सृष्टि का वर्णन

सूतजी कहने लगे-अदृश्य जो शिव है वह दृश्य प्रपंच (लिंग) का मूल है। इससे शिव को अलिंग कहते हैं और अव्यक्त प्रकृति को लिंग कहा गया है। इसलिये यह दृश्य जगत भी शैव यानी शिवस्वरूप है। प्रधान और प्रकृति को ही उत्तमौलिंग कहते हैं। वह गंध, वर्ण, रस हीन है तथा शब्द, स्पर्श, रूप आदि से रहित है। परन्तु शिव अगुणी, ध्रुव और अक्षय हैं। उनमें गंध, रस, वर्ण तथा शब्द, स्पर्श आदि लक्षण हैं। जगत आदि कारण, पंचभूत स्थूल और सूक्ष्म शरीर जगत का स्वरूप सभी अलिंग शिव से ही उत्पन्न होता है।

यह संसार पहले सात प्रकार से, आठ प्रकार से और ग्यारह प्रकार से ( १० इन्द्रियाँ, एक मन) उत्पन्न होता है। यह सभी अलिंग शिव की माया से व्याप्त हैं। सर्व प्रधान तीनों देवता ( ब्रह्मा, विष्णु, रुद्र) शिव रूप ही हैं। उनमें वे एक स्वरूप से उत्पत्ति, दूसरे से पालन तथा तीसरे से संहार करते हैं। अतः उनको शिव का ही स्वरूप जानना चाहिये। यथार्थ में कहा जाये तो ब्रह्म रूप ही जगत है और अलिंग स्वरूप स्वयं इसके बीज बोने वाले हैं तथा वहीं परमेश्वर हैं। क्योंकि योनि (प्रकृति) और बीज तो निर्जीव हैं यानी व्यर्थ हैं। किन्तु शिवजी ही इसके असली बीज हैं। बीज और योनि में आत्मा रूप शिव ही हैं। स्वभाव से ही परमात्मा हैं वहीं मुनि, वही ब्रह्मा तथा नित्य बुद्ध है वहीं विशुद्ध है। पुराणों में उन्हें शिव कहा गया हैं।

हे ब्राह्मणों! शिव के द्वारा देखी गई प्रकृति शैवी है। वह प्रकृति रचना आदि में सतोगुणादि गुणों से युक्त होती है। वह पहले से तो अव्यक्त है।

अव्यक्त से लेकर पृथ्वी तक सब उसी का स्वरूप बताया गया है। विश्व को धारण करने वाली जो यह प्रकृति है वह सब शिव की माया है। उसी माया को अजा कहते हैं। उसके लाल, सफेद तथा काले स्वरूप क्रमशः रज, सत् तथा तमोगुण की बहुत सी रचनायें हैं। संसार को पैदा करने वाली इस माया को सेवन करते हुए मनुष्य इसमें फंस जाते हैं तथा अन्य इस मुक्त भोग माया को त्याग देते हैं। यह अजा ( माया) शिव के आधीन है।

सर्ग ( सर्जन) की इच्छा से परमात्मा अव्यक्त में प्रवेश करता है, उससे महत् तत्व की सृष्टि होती है। उससे त्रिगुण अहंकार जिसमें रजोगुण की विशेषता है, उत्पन्न होता है। अहंकार से तन्मात्रा ( शब्द, स्पर्श, रूप, रस, गन्ध) उत्पन्न हुई। इनमें सबसे पहले शब्द, शब्द से आकाश, आकाश से स्पर्श तन्मात्रा तथा स्पर्श से वायु,

वायु से रूप तन्मात्रा, रूप से तेज( अग्नि) अग्नि से रस तन्मात्रा की उत्पत्ति, उस से जल फिर गन्ध और गन्ध से पृथ्वी की उत्पत्ति होती है। । हे ब्राह्मणो! पृथ्वी में शब्द स्पर्शादि पांचों गुण हैं। तथा जल आदि में एक-एक गुण कम है अर्थात् जल में चार गुण हैं, अग्नि में तीन गुण हैं, वायु में दो गुण और आकाश में केवल एक ही गुण है। तन्मात्रा से ही पञ्चभूतों की उत्पत्ति को जानना चाहिये। | सात्त्विक अहंकार से पांच ज्ञानेन्द्री, पांच कर्मेन्द्री तथा उभयात्मक मन की उत्पत्ति हुई। महत् से लेकर पृथ्वी तक सभी तत्वों का एक अण्ड बन गया। उसमें जल के बबूले के समान पितामहू ब्रह्मा की उत्पत्ति हुई। वह भी भगवान रुद्र हैं तथा रुद्र ही भगवान विष्णु हैं। उसी अण्ड के भीतर ही सभी लोक और यह विश्व है।

यह अण्ड दशगुने जल से घिरा हुआ है, जल दशगुने वायु से, वायु दशगुने आकाश से घिरा हुआ है। आकाश से घिरी हुई वायु अहंकार से शब्द पैदा करती है। आकाश महत् तत्व से तथा महत् तत्व प्रधान से व्याप्त है।

अण्ड के सात आवरण बताये गये हैं।इसकी आत्मा कमलासन ब्रह्मा है। कोटि कोटि संख्या से युक्त कोटि कोटि ब्रह्माण्ड और उसमें चतुर्मुख ब्रह्मा, हरि तथा रुद्र अलग-अलग बताये गये हैं। प्रधान तत्व माया से रचे

ॐ श्रीं लिंग पुराण ॐ गये हैं।

ये सभी शिव की सन्निधि में प्राप्त होते हैं, इसलिये इन्हें आदि और अन्त वाला कहा गया है। रचना, पालन और नाश के कर्ता महेश्वर शिवजी ही हैं।

सृष्टि की रचना में वे रजोगुण से युक्त ब्रह्मा कहलाते हैं, पालन करने में सतोगुण से युक्त विष्णु तथा नाश करने में तमोगुण से युक्त कालरुद्र होते हैं। अतः क्रम से तीनों रूप शिव के ही हैं। वे ही प्रथम प्राणियों के कर्ता हैं फिर पालन करने वाले भी वही हैं और पुनः संहार करते हैं इसलिए महेश्वर देव ही ब्रह्मा के भी स्वामी हैं।

हे ब्राह्मणो! वही शिव विष्णु रूप हैं, वही ब्रह्मा हैं, ब्रह्मा के बनाये इस ब्रह्माण्ड में जितने लोक हैं, ये सब परम पुरुष से अधिष्ठित हैं तथा ये सभी प्रकृति ( माया) से रचे गये हैं। अतः यह प्रथम कड़ी गई रचना परमात्मा शिव की अबुद्धि पूर्वक रचना शुभ है।

सृष्टि का प्रारम्भ

सूतजी कहते हैं-प्राथमिक रचना का जो समय है। वह ब्रह्म का एक दिन है और उतनी ही रात्रि है। संक्षेप से वह प्राकृतिक पदार्थों का वर्णन है। वह प्रभु दिन में सृष्टि करता है और रात्रि में प्रलय करता है। इस उपचार से ब्रह्मा का सृष्टि करने का समय रात कहलाता है। दिन में विकार ( १६ प्रकार के ) विश्वेदेवा, सभी प्रजापति, सभी ऋषि स्थिर रहते हैं। रात्रि में सभी प्रलय को प्राप्त होते हैं और रात्रि के अन्त में सभी फिर उत्पन्न होते हैं। ब्रह्मा का एक दिन ही कल्प है और उसी प्रकार की रात्रि हैं।

 हे ब्राह्मणो! चारों युगों के हजार बार बीतने पर १४ मनु होते हैं। चार हजार वर्ष वाला सतयुग कहा है, उतने ही सैंकड़ा तक तीन, दो एक शतक क्रम से संध्या और संध्यांश होते हैं। संध्या की संख्या छ: सौ है जो संध्यांश के बिना कही गई हैं।

अब त्रेता, द्वापर आदि युगों को कहता हूँ।१५ निमेष की एक काष्ठा होती है। मनुष्यों के नेत्रों के ३० पलक मारने के समय को कला कहते हैं। हे ब्राह्मणो! ३० कला का एक मुहूर्त होता है। १५ मुहूर्त की एक रात्रि तथा उतना ही दिन होता है।

फिर पित्रीश्वरों के रात, दिन, महीना और विभाग कहते हैं। कृष्ण पक्ष उनका दिन तथा शुक्ल पक्ष उनकी रात है। पिन्नीश्वरों का एक दिन रात मनुष्यों के ३० महीना होते हैं। ३६० महीनों का उनका एक वर्ष होता है। मनुष्यों के मान से जब १०० वर्ष होते हैं तब पित्रीश्वरों के तीन वर्ष होते हैं। । पुनः देवताओं के दिन, रात्रि का विभाग बताते हैं। उत्तरायण सूर्य रहें तब तक दिन तथा दक्षिणायन में रात्रि होती है। यही दिन रात देवताओं के विशेष रूप से कहे हैं। ३० वर्षों का एक दिव्य वर्ष होता है। मनुष्यों के १०० महीने देवताओं के तीन महीने होते हैं। मनुष्यों के हिसाब से ३६० वर्ष का देवताओं का एक वर्ष होता है।

मनुष्यों के वर्षों के अनुसार तीन हजार तीन सौ वर्षों का सप्त ऋषियों का एक वर्ष होता है। नौ हजार ९० वर्षों का ध्रुव वर्ष होता है। इस प्रकार ३६ हजार मनुष्यों के वर्ष के अनुसार दिव्य ( देवताओं) के सौ वर्ष होते हैं। तीन लाख साठ हजार मनुष्यों के वर्षों का देवताओं का एक हजार वर्ष होता है। ऐसा जानने वाले विद्वान लोग कहते हैं।

दिव्य वर्ष के परिमाण से ही युग की कल्पना की गई है। पहले सतयुग, त्रेता, द्वापर फिर कलयुग कहा है। मनुष्यों के मान से तथा दिव्य वर्षों के प्रभाव से कृत युग सौ हजार वर्षों का तथा ४६ हजार वर्ष का है।१० हजार एक सौ वर्ष पुरुषों की संख्या से तथा दिव्य वर्ष अस्सी हजार वर्ष त्रेता के कहे हैं। मनुष्यों का सात लाख तथा देवताओं के २० हजार वर्षों का द्वापर का काल कहा है तथा १०० हजार तीन वर्ष मनुष्यों के मत के अनुसार तथा दिव्य ६२ हजार वर्ष का कलयुग कहा है। इस प्रकार यह चतुर्युग का काल संध्या और संध्यांशों के बिना ही कहा गया है। हे ब्राह्मणो! चतुर्युग की संख्या कह दी। हजार चतुर्युगी का एक कल्प होता है।

रात्रि के अन्त में ब्रह्मा सब लोकों को रचता है और रात्रि में सब लोक नष्ट हो जाते हैं। कल्प के अन्त में जब प्रलय होती है तो महर्लोक से ज़न, जन लोक में चले जाते हैं। ब्रह्मा के आठ हजार वर्ष का ब्रह्मयुग होताहै। युग सहस्र दिन का होता है, उसमें सब देवों की उत्पत्ति होती है। कालात्मा ब्रह्मा के काल अनेक नाभ से कहे हैं। जैसे भवोद्भव, तप, भव्य, रम्भ, ऋतु, वह्नि, हव्याह, सचित्र, शुक, शिक, कशिक इत्यादि अनेक नाम हैं। इस प्रकार ब्रह्मा के कल्पों आदि की संख्या कही जो करोड़ों हैं। उसके बहुत सा काल बीत गया तथा बहुत सा शेष है। कल्प के अन्त में सब विकार कारण में लय हो जाते हैं। शिव की आज्ञा से सब विकारों का संहार होता है। विकारों के नाश होने पर प्रधान और पुरुष दोनों रहते हैं। गुणों की समानता में प्रलय होती हैं और गुणों की विषमता में सृष्टि होने लगती है। आत्मा से अधिष्ठित प्रधान से अनेक कल्प तथा अनेक ब्रह्मा उत्पन्न होते हैं और विष्णु भी असंख्यातः उत्पन्न होते हैं और महेश्वर शिव तो एक ही रहता है।

ब्रह्मा का द्वितीय परार्द्ध, जब तक दिन है तब तक सृष्टि हैं। रात्रि होने पर सब नाश को प्राप्त होंगे। भूः भुवः स्वः महः ऊपर के लौक हैं। स्थावर, जंगम लय होने पर ब्रह्मा जल के भीतर सोता है। तब उसको नारायण कहा जाता है। रात्रि के अन्त में वह जागता हैं तब सर्वत्र शून्य देखता है और तभी वह सृष्टि रचने की इच्छा करता है। जल में डूबी हुई पृथ्वी को भगवान वाराह रूप धारण करके उसका उद्धार करते हैं। नदी, नद, समुद्र आदि पूर्ववत् स्थापित करते हैं । पृथ्वी को ऊंची नीची से रहित एक सी करते हैं और पृथ्वी पर जले हुये पर्वतों को पूर्ववत् स्थापित करते हैं। भूः आदि चारों लोकों को रचने के लिए सृष्टा पुनःअपनी मति (इच्छा) करता है।

सृष्टि की प्रथम उत्पत्ति का वर्णन

सूतजी कहते हैं-हे ब्राह्मणो! ब्रह्मा ने सर्वप्रथम जो सृष्टि को रचने की मति की वह अबुद्धि पूर्वक की अर्थात् ब्रह्माजी ने सबसे पहले सृष्टि बिना विचारे की। उससे ब्रह्माजी ने तम, मोह, महामोह, तामिस्त्र, अंध नामवाली पांच प्रकार की सृष्टि रची। इसलिए इस रचना को अविद्या पूर्वक बनी हुई कहते हैं। प्रजापति ब्रह्मा की यह मुख्य रचना असाधक कहलाती है। उससे नग( वृक्ष पर्वतादि) की उत्पत्ति हुई। सत, रज, तम गुणों की सृष्टि रचना करने के कारण उस ब्रह्म(शिव) का कण्ठ तीन रेखा वाला पड़ गया। जिसका आप सभी लोग ध्यान

करते हो।

उस महात्मा ब्रह्मा ने सर्व प्रथम पशु पक्षी आदि तिर्यक योनि के जीवों की उत्पत्ति की। फिर सात्विक बुद्धि से उर्ध्व स्रोत (ऊपर की ओर जाने वाले) जीवों की रचना की। इसके बाद भूत( पंच-भूतों) की रचना की।

इसके बाद ब्रह्माजी ने महत् तत्व से दूसरी भौतिक सृष्टि रची, तीसरी इन्द्रियों सम्बन्धी रची तथा चौथी जो सृष्टि रची, उसको मुख्य कहा गया है। पांचवीं को तिक योनि तथा छठवीं को दैविक कहा गया है। है ब्राह्मणो! सातवीं को मानुषी सृष्टि तथा आठवीं को अनुग्रह पूर्वक रची हुई कहा गया है। नवमी को कोमार कहते हैं। यह रचना प्राकृत ( माया से बनी) तथा वैकृत ( विचारों से युक्त) कही गई है। । हे मुनियो! पहले ब्रह्मा ने फल की इच्छा ने रखने वाले सनक, सनन्दन को उत्पन्न किया। फिर मरीचि, भृगु, अंगिरस, पुलस्त्य, पुलह, ऋतु, दक्ष, अत्रि, वशिष्ठ को अपनी योग विद्या से उत्पन्न किया। थे नौ ब्रह्मा के पुत्र हैं। अतः ब्रह्मा के ही समान इन्हें मानना चाहिए। ब्राह्मणों में उत्तम और ब्रह्मा को जानने वाले ब्रह्मवादी ये सभी ब्रह्मा के ही समान हैं।

इसके पश्चात् ब्रह्माजी ने बारह प्रजापति पैदा किए। ऋभु, सनत्कुमार और सनातन आदि बनाए। ये कुमार ऊर्ध्वगामी, दिव्य, ब्रह्मवादी सर्व प्रथम पैदा हुए। ये ब्रह्मा के समान ही सर्वज्ञ और सब भावों वाले हैं।

हे श्रेष्ठ मुनियो! अब मैं प्रथम पैदा हुए मुनियों की पनियों का वर्णन करता हूँ तथा संक्षेप में उनके द्वारा उत्पन्न उनकी सन्तान को भी कहता हूँ। शतरूपा रानी ने विराट को उत्पन्न किया। अयोनिजा शतरूपा रानी ने स्वायंभुवमनु के द्वारा पुत्र तथा दो कन्यायें पैदा कीं। उनमें उत्तानपाद छोटा तथा बुद्धिमान प्रियव्रत बड़ा पुत्र हुआ। उनकी अति सुन्दर और बड़ी आकूति नाम की तथा छोटी प्रसूति नाम की दो कन्यायें हुईं। श्रीमद्भागवत में देवहूति नाम की तीसरी कन्या भी बतलाई गई है। | आकूति नाम की पुत्री का रुचि नाम के प्रजापति के साथ विवाह हुआ और प्रसूति दक्ष नाम के प्रजापति की पत्नी हुईं। जो संसार की माता और योगिनी कहलाई। आकूति ने दक्षिणा नाम की पुत्री और यज्ञ नाम का पुत्र पैदा किया। दक्षिणाने सुन्दर बारह पुत्रों को उत्पन्न किया।

हे ब्राह्मणो! प्रसूति ने दक्ष के द्वारा चौबीस पुत्रियां उत्पन्न क, जिनके नाम इस प्रकार हैं-श्रद्धा, लक्ष्मी, धृति, तुष्टि, पुष्टि, मेधा, क्रिया, बुद्धि, लज्जा, वपु, सिद्धि, कीर्ति, ख्याति, सम्भूति, स्मृति, प्रीति, क्षमा, सन्नति, अनुसूया, ऊर्जा, स्वाहा, सुरा, अरणी, स्वधा। श्रद्धा से लेकर कीर्ति तक तेरह जो कन्यायें हैं उन्होंने धर्म नामक परम दुर्लभ प्रजापति को अपना पति बनाया और परम बुद्धिमान भृगु से ख्याति नाम की कन्या का विवाह हुआ। भार्गव को अरणि, मरीचि को सम्भूति, अंगिरा को स्मृति, पुलस्त्य को प्रीति, पुलह नाम के मुनि को क्षमा, ऋतु को सन्नति, बुद्धिमान अत्रि को अनुसूया और भगवान वशिष्ठ को कमल के से नेत्र वाली ऊर्जा ब्याही गईं। विभावसु को स्वाहा और पित्रीश्वरों को स्वधा नाम की कन्यायें ब्याही गईं।

भगवान शिव के द्वारा प्रकट की हुई अपनी मानसी पुत्री सती को दक्ष प्रजापति ने संसार की धाय मानकर भगवान रुद्र को समर्पित कर दिया। उन भगवान रुद्र ने प्रारम्भ में कहा कि मेरे शरीर का आधा विभाजन करो’ ऐसे आदि सर्ग में ब्रह्मा के भी कर्ता अर्धनारीश्वर शिव को देखकर दक्ष ने सती जी को उन्हें सौंप दिया। तीनों लोकों की सभी स्त्रियां सती जी की वंशज हैं तथा ग्यारह रुद्र भी उन्हीं के अंश से उत्पन्न हैं। जितनी सृष्टि है उसमें जितना स्त्रीलिंग हैं वह सब सती का अंश हैं तथा समस्त पुल्लिंग भगवान रुद्र का ही अंश है। यह देखकर ब्रह्माजी ने दक्ष से कहा था कि यह सती संसार की जननी है। इसकी सेवा करो। यह मेरी भी तथा तुम्हारी भी माता है। पुंनाम के नरक से रक्षा करने के कारण ही इसे पुत्री कहा गया है।” ब्रह्माजी के द्वारा इस प्रकार कहे जाने पर दक्ष प्रजापति ने उस सती नाम की पुत्री को अत्यन्त आदर पूर्वक रुद्र के लिए अर्पित कर दिया।

हे ब्राह्मणो! श्रद्धा से लेकर कीर्ति तक जो तेरह धर्म की पत्तियां हैं उनसे यथा क्रम उत्पन्न होने वाली सन्तान को कहता हूँ। उनसे काम, दर्प, नियम, सन्तोष, अलोभ, श्रुत, दण्ड, समय, बोध, महाधुति, अप्रमाद, विनय, व्यवसाय, क्षेम, सुख, यश नाम के पुत्र उत्पन्न हुए। धर्म के क्रिया नाम की भार्या से दण्डू और समय दो पुत्र उत्पन्न हुए तथा बुद्धि नाम की भार्या से अप्रमाद तथा बोध नाम के दो पुत्र हुए हैं। इस प्रकार धर्म के आत्मज पुत्र हुए।

भृगु की पली ख्याति के गर्भ से विष्णु भगवान की प्रिया श्री उत्पन्न हुई तथा धाता और विधाता नाम के दो पुत्र उत्पन्न हुए। जो मेरु नाम के प्रजापति जामाता हुए। मरीचि नाम के ऋषि के प्रभूति नाम की पत्नी से दो पुत्र उत्पन्न हुए-पूर्णमा और मारीच तथा चार कन्यायें भी हुईं। सबसे बड़ी तुष्टि तथा इसके बाद दृष्टि, कृषि तथा अपचि।

है मुनियो! क्षमा नै पुलह नाम के ऋषि से बहुत से पुत्र तथा पुत्री पैदा कीं। मुख्यतः कर्दम तथा सहिष्णुपुत्र तथा स्वर्ण के से रंग वाली पृथ्वी के समान क्षमा शील | पीवरी नाम की कन्या हुई।

इसके बाद प्रीति नाम की पुलस्त्य ऋषि की भार्या से दत्तर्णव और दवाहु पुत्र तथा द्वषद्वती पुत्री उत्पन्न हुई। क्रतु की भार्या सन्नति से छः हजार पुत्र पैदा हुए जो सभी बालखिल्य मुनि कहलाए। अङ्गिरस की पत्नी स्मृति से सिनी, वाली, कुहू, राका तथा अनुमति आदि कन्यायें पैदा हुईं।

अत्रि की पत्नी अनुसूया से छः सन्तानें हुईं। एक श्रुति नाम की कन्या हुईं। सत्यनेत्र, भव्यमुनि, मूर्तिराय, शनैश्चर तथा सोम पांच लड़के तथा छठी श्रुति नाम की कन्या हुई।

वशिष्ठ मुनि की पली ऊर्जा से भी पुत्र उत्पन्न हुए। ज्यायजी, पुण्डरीकाक्ष, रज, सुहोत्र, बाहु, निष्पाप, त्रवन, तपस्वी, शुक्र आदि सात पुत्र हुए। भगवान शिव की आत्मा रूप पितामह अग्नि के स्वाहा नाम की पत्नी से संसार की भलाई के लिए तीन पुत्र पैदा हुए, जिनका वर्णन आगे के अध्याय में किया गया है।

 

पित्रीश्वर तथा देवताओं आदि का वर्णन तथा शंकरजी का महात्म्य 

सूतजी कहने लगे-अग्नि के पवमान, पावक और शुचि नाम के तीन पुत्र हुए। पवमान निर्मथ्य ( प्रकृत) कहलाया, पावक वैद्युत ( बिजली सम्बन्धी) तथा शुचि सौर ( सूर्य सम्बन्धी) अग्नि देने वाले कहलाये। इस प्रकार स्वाहा के ये तीन पुत्र बड़े ही तेजस्वी हुए। इनके पुत्र पौत्र तो बहुत ही तेजस्वी हुए हैं किन्तु यहां संक्षेप में उनकी संख्या बताते हैं। विसृज्य, सप्तक आदि ४९ हैं। तथा व्रत का पालन करने वाले हैं। ये सभी प्रजापति हैं और भगवान रुद्र की आत्मा हैं।

मैना नाम की एक मानसी पुत्री स्वधा से उत्पन्न हुई। वह संसार में बहुत ही प्रसिद्ध हुई। मैना के दो पुत्र मैनाक और क्रौंच तथा एक उमा नाम की कन्या हुई । गङ्गा और हेमवती को भी पैदा किया जो शिव के शरीर का स्पर्श पाकर परम पवित्र हुईं। यज्ञों की जननी धरती को पैदा किया जो उनकी मानसी पुत्री हैं। कमल के से नेत्र वाली

स्वधा मेरु राजा की पुत्री हुई। अब अमृत पान करने वाले पितरों का वर्णन करता हूँ तथा सभी ऋषियों के कुलों का भी विस्तार से वर्णन करता हूँ, उसे आप सभी ध्यान पूर्वक सुनें । दक्ष की पुत्री जो सती है उन्होंने भगवान शिव की समीपता प्राप्त की। पीछे उन्होंने अपने पिता दक्ष की निन्दा करके नीललोहित भगवान शम्भु का ध्यान करते हुए पार्वतीजी का रूप प्राप्त किया और शिवजी को पुनः पति रूप में प्राप्त किया। । उन निर्मल नीललोहित सभी रुद्रों के स्वरूप, जिनसे ये सभी १४ लोक आच्छादित हैं तथा जो जरा और मरण से रहित हैं उन रुद्र भगवान से ब्रह्मा जी बोले-हे महादेव, है तीन नेत्र वाले! है नीललोहित आपको नमस्कार है। आप सर्वज्ञ हो, सबकी गति हो, दीर्घ हुस्त्र तथा वामन भी आप ही हो। आप शुभ हो तथा आप नित्य हो, निर्मल हो, वीतराग हो, आप सभी संसार की

आत्मा हो। इस प्रकार कनकाण्डज ब्रह्माजी ने रुद्र भगवान की सतुति करके परिक्रमा की और पुन: बोले आप मृत्यु से रहित सृष्टि को बनाओ। तब शिवजी ने कहा कि यह तो असम्भव है। हे ब्रह्माजी! आप ही जरा मरण से युक्त जैसी चाहो वैसी सृष्टि बना लीजिए। तब ब्रह्मा ने शंकर भगवान के आदेशानुसार जरा और मरण से युक्त इस चराचर जगत की रचना की। भगवान तो निवृत्त होकर ही स्थित रहे। हे ब्राह्मणो! उस समय शंकर जी स्थाणु(निश्चल ढूँठ के समान ) बन गये। शिवजी तो आत्मभाव से निष्कल हैं, वे तो अपनी इच्छा से ही शरीर धारण करते हैं। अपनी दयालुता से सभी का कल्याण करते हैं। शंकर जी अपनी योग विद्या से बिना ही प्रयत्न के योग में स्थित रहते हैं, विरक्त के लिए वे मुक्ति हैं, वे सूक्ष्म से भी सूक्ष्म हैं। मनुष्य संसार के भय से विषयों का त्याग करके वैराग्य द्वारा विराग को प्राप्त करते हैं। यह उनके दर्शनों की कृपा है। धर्म, ज्ञान, वैराग्य और ऐश्वर्यं शंकर जी से ही प्राप्त होते हैं। वे पिनाकी नीललोहित ही साक्षात् शंकर भगवान हैं। जो मनुष्य शंकर जी के आश्रित रहते हैं वे सभी बन्धनों से मुक्त हो जाते हैं, इसमें संशय नहीं है। अत्यन्त पापी लोग भी शंकर जी की कृपा से दारुण नरक में नहीं जाते हैं। वे शंकर जी के आश्रित हो जाने से अमरता को प्राप्त हो जाता है।

ऋषि बोले-घोर आदि अट्ठाईस प्रकार की माया से युक्त पापीजन करोड़ों प्रकार के नरकों में पकाये जाते हैं। क्योंकि वे पापीजन नीललोहित शंकर भगवान के आश्रित नहीं होते हैं। भगवान शिव सभी प्राणियों के आश्रय हैं, अव्यय हैं, संसार के स्वामी हैं, पुरुष हैं, परमात्मा हैं। तमोगुण से वे कालरुद्र हैं, रजोगुण से ब्रह्मा हैं और सतोगुण से वे सर्व प्रकार जाने गये विष्णु भगवान हैं, निर्गुण रूप से वे महेश्वर हैं। हे महामते सूतजी! अब आप कृपा कर यह बतलाइये कि मनुष्य किस कर्म या अकर्म से किस नरक में जाते हैं, यह सुनने का हमें बड़ा कौतूहल है?

 

मनु सहित योगेश्वर व्यास और उनके शिष्यों का प्रतिपादन तथा शंकर जी के रहस्य का कथन |

सूतजी बोले-अब मैं आप लोगों के सामने भगवान शंकर जी के अत्यन्त तेजशाली रहस्य को कहूँगा। सबको प्रिय लगने वाले भगवान शंकर का प्रभाव पहले संक्षेप में कहता हूँ।परमतत्व को जानने वाले परम वैरागी लोग प्राणायाम आदि आठ प्रकार के साधनों का प्रयोग करते हैं तथा अरुणा आदि गुणों से युक्त विविध प्रकार के कर्म करते हुए अपने कर्म के अनुसार स्वर्ग और नरक को जाते हैं। भगवान शंकर के प्रसाद से ज्ञान प्राप्त होता है तथा ज्ञान से योग होता है। योग से इस सम्पूर्ण संसार को भगवान शिव की कृपा से मुक्ति मिलती है।

ऋषि बोले-हे योग को जानने वाले सूतजी! यदि भगवान के प्रसाद से आप दिव्य योग को और महेश्वर भगवान को विज्ञान स्वरूप बतलाते हैं तो विज्ञान स्वरूप महादेव जी जो सभी प्रकार की चिन्ताओं से रहित हैं, वे योग मार्ग के द्वारा किस काल में मनुष्यों को कैसे उत्पन्न करते हैं। रोमहर्षण जी बोले-प्राचीन काल में देवता, ऋषि पित्रीश्वर और शैल आदि मुनियों ने ब्रह्मपुत्रों से जो सुना था, उसे मैं आप लोगों से कहता हूँ। द्वापर के अन्त में व्यासों के अवतार तथा योगाचार्यों और शिष्यों के अवतारों को कहता हूँ।

विभू (ब्रह्मा) के क्षमाशील चार शिष्य हुए और ईश्वर की कृपा से शिष्य तो बहुत से हुए। उन्हीं के मुख से, क्रम परम्परा से आया हुआ ज्ञान मनुष्यों को प्राप्त हुआ। भगवान की कृपा से प्रथम ब्राह्मणों को तथा अन्त में वैश्यों को वह ज्ञान मिला।

ऋषि लोग बोले-कौन-कौन से द्वापर में कौन कौन से युगान्तर में तथा किन-किन कल्पों में कौन कौन व्यास हुए।उनका चरित्र हमारे सेआप कहो, क्योंकि आप यह सभी कहने में समर्थ हो।

सूतजी बोले-है ब्राह्मणो! वाराहकल्प के वैवस्वत मनवन्तर और उनके अन्तरों के व्यास तथा रुद्रों को इस समय आपसे कहता हूँ। वेद पुराण और ज्ञान के प्रकाशक व्यासों को यथाक्रम इस समय आपसे कहता हूँ। ऋतु, सत्य, भार्गव, अंगिरा, सविता, मृत्यु, शतकृतु, वशिष्ठ, सारस्वत, त्रिधात्मा, त्रिवृत, स्वयं, धर्म, नारायण, तरक्षु, अरुणि तथा कृतंजय, तृण, बिन्दु, रुक्ष, मुनि, शक्ति, पाराशर, जातुकपर्य और साक्षात् विष्णु स्वरूप श्रीकृष्ण द्वैपायन मुनि व्यास हुए। अब आप लोग योगेश्वरों को क्रम से सुनिए । कल्पों और कल्पान्तरों में कलियुग में रुद्र और व्यासों के अवतारों के गौरव से असंख्य योगेश्वर हुए हैं। वाराह कल्प के वैवस्वत अन्तर के योगेश्वरों के अवतारों को इस समय कहता हूँ तथा पुनः औरों से कहूँगा।     

ऋषि बोले-इस समय आप वाराह कल्प के वैवस्वत मन्वन्तर तथा ऊर्ध्व कल्प के सिद्धों को हीं कहिये।

रोमहर्षणजी बोले-हे ब्राह्मणो!स्वायंभू मुनि सबसे प्रथम इसके बाद स्वारोचिष, उत्तम, तामस, रैवत, चाक्षुष, वैवस्वत, सार्वाण, धर्मसावण, विशंग, अविशंग, शबल, वर्णक नाम के मनु हुए। अकार से लेकर औकार तक मनु कहे गए हैं। श्वेत, पाण्डु, रक्त, ताम्र, पीत, कपिल, कृष्ण, श्याम तथा धूम्र, सुधूम्र, अपिशाँग, पिशाँग, त्रिवर्ण, शबल तथा कालन्धु वर्ण के मनु हुए हैं, जो नाम और वर्णं से समान हैं तथा ये सभी शुभ हैं। वैवस्वत मनु ऋकार स्वरूप तथा कृष्ण वर्ण के हैं। युगों के आवर्त में होने वाले अब मैं सातवें योगियों को कहता हूँ। प्रथम वाराह कल्प के सावतें अन्तर में होने वाले योगावतार उनके शिष्य तथा सन्तानों को क्रमशः कहूँगा। आद्य में श्वेत, रुद्र, सुतार, मदन, सुहोत्र, कंकण तथा लोकाक्षि मुनि, जैगीषव्यु भगवान, दधि वाहन, ऋषभ, बुद्धिमान, उग्र, अत्रि, सुबलक, गौतम, वेदशीर्ष, गोकर्ण, शिखण्डुभूत, जटामाली, अट्टाहास, दारुक, लाड़ली तथा महाकाय मुनि, शूली, दण्डी, मुण्डीश्वर, सहिष्णु, सोमशर्मा, चल, कुलीश नाम के संसार के गुरु ये योग में अवतार हुए। हे श्रेष्ठ व्रती ऋषियो! वैवस्वत मन्वन्तर में होने वाले परमात्मा के स्वरूप योगाचार्यों के अवतार आपसे कहे तथा द्वापर में होने वाले व्यासों के नाम भी कहे।अब योगाचार्यों के शिष्य प्रशिष्यों को बतलाता हूँ।

योगेश्वरों के चार शिष्य हुए। श्वेत, श्वेत शिखण्डी, श्वेताश्व तथा श्वेत लोहित, ये चार शिष्य हुए। इसके बाद देंदुभी शतरूप, ऋचीक केतु, विशोक, विकेश, विपाश, पापनाशन सुमुख, दुर्मुख, दुर्दम, दुरितक्रम, सनक, सनन्द, सनातन, ऋभु सनत्कुमार, सुधामा, विरजा, शंखपाद, वैरज, मेघ, सारस्वत सुवान, मेघवाह, महाद्युति, कपिल, आसुरि तथा पंचशिखामुनि, महायोगी धर्माता बाल्कल, महातेजस्वी, गर्ग, भृगु, अंगिरा, बलबन्धु, निरामित्र, तपस्वी केतु श्रुङ्ग, लम्बोदर, लम्ब, लम्बाक्ष, लम्बकेशक, सर्वज्ञ, समबुद्धि साध्य, सर्व, सुधामा, काश्यप, वशिष्ठ, विरजा, अत्रि, देवसद्, श्रवण, अविष्टक, कुणि, कुणबाहु, कुशरीर कुनेत्रक, कश्यप, उपनाश, च्यवन, बृहस्पति, उतश्यो, वामदेव, वाचवा, सुधीक, श्यावाश्व, हिरण्यनाभ, कौशल्य, लीगक्षि, कुशुमि, सुमन्तु, बर्बरी, विद्वान कबन्ध, कुशिकन्धर, प्लक्ष, वाल्भ्य, यणि, केतुमान, गोपन, भल्लावी, मथुपिङ्गश्नेतकेतु, उशिक वृहदश्व, देवल, शालिहोत्र, अग्निवेश, युवनाश्व, शरद्वस, छगल, कुण्डकर्ण, कुम्भ, प्रवाहक, उलूक, विद्युत, मण्डूक, आश्वलायन, अक्षपाद, कुमार, उलूकवत्स, कुशिक, गर्भ मित्र, क्रौरुष्य आदि इतने योगीश्वरों के शिष्य सभी आवर्गों के हुए हैं। ये सभी विमल, ब्रह्म भूमिष्ठ तथा ज्ञान और योग में परायण हैं तथा सभी पाशुपत हैं,सिद्ध हैं और अपने शरीर को भस्म में लपेटे रहते हैं। इन शिष्यों के शिष्य प्रशिष्य तो सैकड़ों और हजारों हैं। जो पाशुपत योग को प्राप्त करके रुद्रलोक में स्थित हैं। देवताओं से लेकर पिशाच आदि तक सभी पशु संज्ञा वाले हैं। शिव सबके पति हैं, इससे उन्हें पशुपति कहा गया है। अतः उन पशुपति रुद्र के द्वारा बनाया गया योग पाशुपत योग जानना चाहिए।

शिव तत्व को साक्षात्कार करने के लिए

योग के स्थानों का वर्णन सूतजी बोले-हे ब्राह्मणो! संसार के कल्याण के लिए इस समय मैं योग के स्थानों को संक्षेप में कहूँगा। गले से नीचे और नाभी से ऊपर एक वितस्त्य( चालिस्त) की दूरी पर तथा नाभि के नीचे आवर्त में और दोनों भौंहों के मध्य में योग के स्थान कहे गये हैं। | सभी प्रकार के अर्थं और ज्ञान का प्राप्त हो जाना ही योग कहा गया है। शिवजी की कृपा से उसमें हमेशा एकाग्रता होनी चाहिए। भगवान की कृपा से जो ज्ञान प्राप्त होता है, उसको ब्रह्मा आदि देवता भी कहने में समर्थ नहीं हैं। योग शब्द से ही निर्वाण (मोक्ष) अर्थात् महेश्वर शिव का लोक प्राप्त हो कहा गया है। उसका हेतु ऋषियों का ज्ञान है, जो शिव की कृपा से ही प्राप्त होता है।

ज्ञान से इन्द्रियों के विषयों को रोक कर पाप को जला देना चाहिए। इन्द्रियों की वृत्ति के निरोध से ही योग की सिद्धि होगी।

हे श्रेष्ठ ब्राह्मणो! चित्त की वृत्तियों का निरोध हीं योग कहा है। योग की सिद्धि के निम्न आठ प्रकार के साधन कहे हैं। प्रथम यम, दूसरा नियम, तीसरा आसन, चौथा प्राणायाम, पाँचवाँ प्रत्याहार, छठा धारण, सातवाँ ध्यान तथा आठवाँ समाधि।

परम तपस्या ही यम कहा जाता है। है योगियों में श्रेष्ठ मुनियो! अहिंसा सबसे पहला यम का हेतु हैं। इसके बाद सत्य, अस्तेय( चोरी न करना), ब्रह्मचर्य, अपरिग्रह ( अधिक इकट्ठा न करना) आदि भी यम के हेतु हैं। यहाँ तक कि नियम का मूल भी यम ही है, इसमें कोई संशय नहीं है।

अपने सामने ही संसार के सभी प्राणियों को समझना ही अहिंसा कही है, जो आत्मज्ञान की सिद्धि को देने वाली है।

देखी हुई, सुनी हुई, अनुमान की हुई, अनुभव की हुई तथा दूसरे को भी पीड़ा पहुंचाने वाली न हो; ऐसी कही हुई बात को सत्य कहते हैं। ब्राह्मणों के लिए अश्लील बात न कहना तथा दूसरों के दोष जानकर भी न कहना चाहिए। ऐसा वेदों का आदेश है।

अपने ऊपर या दूसरे के ऊपर आई हुई मुसीबत में भी किसी का धन न लेना ही संक्षेप में अस्तेय कहा गया हैं तथा मन से, कर्म से, वाणी से भी लेने की इच्छा न करें।

मन, वाणी और कर्म से मैथुन में प्रवृत्ति न रखना ही यतियों को और ब्रह्मचारियों को ब्रह्मचर्य कहा है। यह बात वैखानस ( संन्यासी) तथा जिनके पास पलियाँ नहीं हैं, ऐसे महात्माओं को विशेषरूप से पालन करने को कहीं हैं। सपत्नीक गृहस्थी को भी इसका पालन बताता हूँ। उनको तो केवल अपनी पत्नी के साथ विधिपूर्वक मैथुन करना तथा अन्यों की पलियों से अपनी निवृत्ति मन, कर्म और वाणी से करनी चाहिये, ऐसा स्मृतियों को बताया धर्म है। विधिपूर्वक अपनी ही पत्नी से सम्भोग करके स्नान करना चाहिये, ऐसा सद् गृहस्थी भी आत्मयुक्त ब्रह्मचारी कहा गया हैं। . ब्राह्मण, गुरु तथा अग्नि के पूजन में अहिंसा का त्याग भी हो जाए तो भी कोई बात नहीं हैं, क्योंकि इस प्रकार की विधिपूर्वक की गई हिंसा भी अहिंसा ही है, ऐसा स्मृतियों तथा ( वेद) का भी मत है।

स्त्रियों को सदा परित्याग करे, उनका साथ कभी भी न करे। मुर्दे में जिस प्रकार का चित्त हो जाता हैं, निवृत्ति का, वैसा ही निवृत्ति का चित्त स्त्रियों के प्रति रखना चाहिए। स्त्री अंगार के समान और पुरुष घी के समान है। इससे नारी का संसर्ग दूर से ही परित्याग कर देना चाहिए। भोग से विषयों की तृप्ति कदापि नहीं हो सकती है। मन कर्म वाणी से विचार करके तथा वैराग्य से ही विषय शान्त हो सकते हैं। इन्द्रियों के द्वारा विषयों को भोगने से काम ( इच्छायें ) शान्त नहीं होतीं, अपितु अग्नि में घी आहुति देने के समान वे अधिक बढ़ती हैं।

हे वेद शास्त्र जानने वाले ऋषियो! त्याग से ही अमरत्व मिलता है। वह कर्म, सन्तान या द्रव्य से प्राप्त नहीं हो सकता। इसलिए मन, वाणी और कर्म से विराग करना चाहिए और ऋतु काल को छोड़कर मैथुन से निवृत्ति रखना ब्रह्मचर्य कहा है।

है श्रेष्ठ ब्राह्मणो! ये मैंने आपसे यम कहे। अब नियमों को बताता हूँ। शौच, यज्ञ, तप, दान, स्वाध्याय, इन्द्रिय निग्रह, व्रत, उपवास, स्नान, अनिच्छा,ये दसनियम कहे हैं। शिव मन्त्र का जप तथा पद्म आदि आसन कहे हैं। भीतरी-बारी पवित्रता ही शौच है। बाहरी पवित्रता से युक्त होकर भीतरी पवित्रता का आचरण करना चाहिए। शिवजी की पूजा करने वाले को अग्नि, वरुण तथा ब्राह्मण सम्बन्धी कर्त्तव्य करने चाहिए। विधान पूर्वक स्नान आदि करके पुनः भीतरी पवित्रता का आचरण करना चाहिये। तीर्थ के जल में सदा ही मिट्टी आदि ( भस्म) शरीर में लगानी चाहिए।

स्नान आदि करने पर भी मनुष्य भीतरी पवित्रता से हीन होते हैं, जैसे शैवाल, मगर, मछली आदि जीव। सदा मछली के द्वारा जीवन यापन करने वाले धीवर

आदि भी सदा जल में रहते हुए भी मलिन( अपबित्र) रहते हैं। इसलिए हे ब्राह्मणो! सदा जल में अवगाहन करने से ही मनुष्य पवित्र नहीं होते, विधान पूर्वक हमेशा भीतरी पवित्रता भी रखनी चाहिए। आत्म ज्ञान रूपी पवित्रता जल में सदा स्नान करके सुन्दर वैराग रूपी मिट्टी का चन्दन लगाकर अपने को पवित्र करना चाहिए। शुद्ध के लिए ही सिद्धियाँ प्राप्त होती हैं, अशुद्ध को नहीं। अर्थ सिद्धि के लिए सन्तोष पूर्वक चान्द्रायण ब्रत आदि से पवित्रता प्राप्त करनी चाहिए।

ओंकार का जप ही स्वाध्याय कहा गया है जो तीन प्रकार का होता है। वाणी के द्वारा किया हुआ जप अधम कहा हैं। उपाँशु जप ही सर्वोत्तम हैं। मानसिक जप भी श्रेष्ठ है। इनका विस्तार से वर्णन आगे पंचाक्षर वाले अध्याय में किया गया है। गुरु की अचल भक्ति से शिव का ज्ञान प्राप्त होता है।

इन्द्रियों को विषयों से रोकना प्रत्याहार कहा गया हैं। चित्त की धारणा को संक्षेप से बताता हूँ। चित्त से विचार पूर्वक एक चित्त होकर दूसरी तरफ से मन हटा कर ध्यान करना ही समाधि कहा गया है। समाधि में अपने शरीर को शून्य मात्र समझता हुआ चिद् आनन्द का आभास होता है। समाधि का मूल कारण प्राणायाम है। प्राणायाम में अपने देह की वायु को निरोध करते हैं। मन्द, मध्यम और उत्तम तीन प्रकार का प्राणायाम कहा है। प्राणवायु का रोकना ही प्राणायाम कहा है, प्राणायाम का मान बारह मात्राओं को कहा गया है। नीचे की ओर भी बारह मात्रा तथा ऊपर भी बारह मात्राओं को उसका मान होता है। मध्यम में तो चौबीस मात्राओं का मान होता है। मुख्य रूप से तीनों ३६ मात्रा के ही कहे हैं। आनन्द की उत्पत्ति के योग के लिए प्रस्वेद, कम्पन, उत्थान, रोमाँच, ध्वनि, अङ्गों का मोटन तथा कम्पन गर्भ में क्रमानुसार जप करना चाहिए।

न्यायपूर्वक योग का सेवन करता हुआ स्वस्थपने को प्राप्त करता है। जैसे जंगल का मतवाला सिंह, हाथी तथा आठ पैर वाला शरभ नाम का पशु स्वस्थ घूमते हैं, वैसे ही योगी भी निर्द्वन्द विचरते हैं। योग के अभ्यास से व्यसन ( शौक) नहीं लगते । इसका अभ्यास करते हुए मुनि लोगों को मन और वाणी से उत्पन्न दोषों को जला देना चाहिए। बुद्धिमान लोग प्राणायाम से भली भांति दोषों को नष्ट करते हैं तथा स्वाँस के द्वारा उन्हें जीर्ण कर लेते हैं। प्राणायाम से ही दिव्य शान्ति, प्रशान्ति, दीप्ति तथा प्रसाद आदि सिद्धियों को साथ लेते हैं। है द्विजो! इन चारों में प्रथम शान्ति कही गई है। सहज हीं आये हुए पापों को नष्ट कर देना ही शान्ति हैं। भली प्रकार वाणी के द्वारा संयम करना अशान्ति है। प्रकाश को दीप्ति कहा गया है। बुद्धि के द्वारा सभी इन्द्रियों को तथा वायु को भी वश में करना प्रसाद कहा गया है। इन चारों में प्रसाद तो अपने अन्दर ही होता है। इसमें प्राण, अपान, समान, उदान, व्यान, नाग, कूर्म, कुकर, देवदत्त, धनंजय आदि दस पवनों को भी जीतना पड़ता है।

प्रयाण (चलना) करती है, इससे वायु को प्राण वायु कहते हैं। आहार आदि क्रम से जो वायु नीचे की तरफ जाये, वह अपानवायु (पाद) है। व्यान नाम की वायु अङ्गों में व्याधियाँ पैदा करती है तथा ऊपर की ओर चलती है। मर्मों को जो झकझोरती है वह उदान नाम की वायु कहती है। अङ्गो को जो समान रूप से ले जाती है वह समान नाम की वायु है। उद्गार (इकार) को नाग नाम की वायु कहा है। उन्मीलन को कूर्म कहा है। भूख लगाने वाली वायु को कुकर कहते हैं। जंभाई वाली वायु को देवदत्त कहा है। बड़ी भारी आवाज करने वाली वायु को धनंजय कहते हैं। वह मरने पर भी रहती है। इस प्रकार ये दस वायु प्राणायाम से सिद्ध की जाती हैं। शान्ति आदि चारों सिद्धियों में प्रसाद चौथी हैं। विस्वर, महान, मन, ब्रह्मा, चित्त, स्मृति, ख्याति, ईश्वर, मति, बुद्धि इनको महत नाम वाला कहा गया है और ये बुद्धि प्रसाद तथा प्राणायाम से सिद्ध होते हैं। सभी द्वन्द्वों ( दो में) में जो स्विरी(विनास्वर) भाव है, उसे विस्वर कहा जाता हैं। सभी तत्वों में सर्व प्रथम पैदा होने से दूसरा महान का है। हे ब्रह्म को जानने वाले मुनियो! जो प्रमाण में छोटा है उसे मनन करने के कारण मन कहा हैं। बड़ा और चौड़ा होने से ब्रह्म कहते हैं। सर्व कर्मों को भोग के लिए जो चुनता है उसे चित्ति कहा है। सभी सम्बन्धों को स्मरण करता हैं इससे स्मृति कहा है। ज्ञान आदि के द्वारा अनेकों की व्याख्या करता है इससे उसे ख्याति कहते हैं। सभी तत्वों का स्वामी सभी कुछ जानने वाला ईश्वर कहा गया है। मनन करती है तथा मानती है इससे मतिं कहते हैं। अर्थ का बोध कराती है तथा बोध करती है इससे उसे बुद्धि कहते हैं। इस बुद्धि के प्रसाद से प्राणायाम सिद्ध होता है। यम का पालन करने वाला आदि में सब दोषों को जलाकर प्राणायाम करता है।

धारणा के द्वारा पातकों को प्रत्याहार से जला देना चाहिए। विषयों को विष के समान जानकर ईश्वर के गुणों का ध्यान करना चाहिए। समाधि द्वारा प्रज्ञा को बढ़ाना चाहिए। स्नान करकै अष्टाँग योग को क्रम पूर्वक करना चाहिए। विधिवत् योग सिद्धि के लिए आसन प्राप्त करके आत्मा को देखे।अदेश और असमय में योग साधन न करे।

अग्नि के अभ्यास में, जल में, सूखे पत्तों में, जन्तुओं से व्याप्त जगह में, श्मशान में, जीर्ण पशुओं के कोष्ठ में, शब्द होने वाले स्नान में तथा शब्द वाले समय में, दीमक के घर में (बमई), अशुभ जगह में, दुष्ट पुरुषों से आक्रान्त जगह में, मच्छर आदि से युक्त स्थान में, शरीर में बाधा उत्पन्न होने पर, दुर्मन होने पर योग साधन न करे तथा गुप्त शुभ स्थान में रमणीक पर्वत की गुफा में, शिवजी के क्षेत्र में, शिवजी के बगीचे में, वन में, अथवा घर में, शुभ देश में, जन्तुओं से रहित निर्जन देश में, अत्यन्त निर्मल, अच्छी प्रकार लिपा पुताचित्रित, दर्पण के दरस से युक्त, अगर धूप आदि से सुगन्धित अनेक प्रकार के फूलों के वितान से घिरा हुआ फल पत्ते तथा मूल आदि से युक्त, कुशा पुष्प आदि के सहित स्थान में, सम आसन पर बैठकर बुद्धिमान को स्वयं योगाभ्यास करना चाहिए। सबसे प्रथम गुरु को प्रणाम करे इसके बाद शिव को, देवी को, गणेश को, शिष्यों सहित योगीश्वरों को प्रणाम करके युक्ति पूर्वक योग में लगना चाहिए। आसन पर बैठकर पद्म अथवा अर्धासन बाँध कर बैठे।सम जंघाओं से अथवा एक जंघा से दोनों पैरों को सिकोड़ कर दृढ़ पूर्वक आसन बाँध कर रहे। आँखों को एक जगह स्थिर करके छाती को सीधी रखे। पास की एड़ियों से अंडकोषों की तथा मूत्र इन्द्र की रक्षा करे। कुछ-कुछ ऊपर को उठा हुआ सिर रखे। दाँतों को दाँतों से स्पर्श न करे। नासिका के अग्र भाग को ही देखे, इधर उधर न देखे। तमोगुण को रजोगुण से, रजोगुण को सतोगुण से ढक लेना चाहिए तथा अपने में स्थिर होकर शिव के ध्यान में अभ्यास करे। ओंकार का, शुद्ध दीपशिखा का, श्वेत कमल की पंखुड़ी पर शिव का ध्यान करे। नाभि के नीचे विद्वान पुरुष कमल का ध्यान करके तीन या आठ अंगुल के कोण में अथवा पंचकोण में या त्रिकोण में अग्नि, सोम तथा सूर्य की शक्तियों के द्वारा सूर्य, चन्द्र, अग्नि अथवा अग्नि, सूर्य और चन्द्रमा का इस क्रम से ध्यान करे। तीन गुणों के क्रम से ऊपर के इन तीन मण्ड़लों की भावना करनी चाहिये। अपने में स्थित होकर रुद्र का अपनी शक्ति के अनुसार शक्ति के सहित चिन्तन करे।

नाभि में अथवा गले में अथवा दोनों भौंहों के मध्य में यथाविधि ललाट की फलिका में मध्य सिर में योगस्थ होकर ध्यान करना चाहिए।

दो दल में, सोलह में, बारह में, दस में, छः में अथवा चार कोणों में शिव का ध्यान करे। स्वर्ण की सी आभा वाले, अंगार के समान, श्वेत अथवा द्वादश आदित्य के समान तेजस्वी अथवा चन्द्रमा की परछाईं के समान, बिजली की चमक के समान, अग्नि के वर्ण वाला अथवा बिजली की लपट के समान आभा वाले परमेश्वर का चिन्तन करना चाहिए अथवा करोड़ों वज्र ( हीराओं) की सी चमक वाले अथवा पद्म राग मार्ग की आभा वाले नीललोहित शिव का ध्यान योगी को करना चाहिए।

महेश्वर का हृदय में ध्यान करे, नाभि में सदाशिव का, चन्द्रचूड़ का ललाट में तथा दोनों भौंहों के मध्य भाग में शंकरजी का ध्यान करना चाहिए।

निर्मल, निष्कल, ब्रह्म, शांत, ज्ञान के साक्षात् स्वरूप, लक्षण रहित, शुभ, निरालम्ब, अतयं, नाश और उत्पत्ति से रहित कैवल्य, निर्वाण, निश्श्रेयस, अमृत, अक्षर, मोक्ष, अद्भुत महानन्द, परमानन्द, योगानन्द, हेय उपायों से रहित, सूक्ष्म से भी सूक्ष्म, शिव स्वयं जाना जाय ऐसे न जाने गये परम ज्ञान के स्वरूप अतीन्द्रिय, अनाभास, परात्पर तत्व, सब उपाधियों से अलग, विचार पूर्वक ज्ञान से ही जानने योग्य, अद्वैतरूप महादेव को हृदय रूपी कमल में चिन्तन करना चाहिए।

नाभि में सदाशिव का सर्व देवताओं के ईश्वर के रूप में चिन्तन करे। देह के मध्य में शुद्ध ज्ञान मय शिव का ध्यान करे। क्रमशः छोटे, मध्यम तथा उत्तम मार्ग विद्वान पुरुषको कुम्भक के द्वारा अभ्यास करना चाहिये।

बुद्धिमान पुरुष ३२ रेचक को हृदय और नाभि में समाहित करके कुम्भक के द्वारा देह के मध्य में शिव का स्मरण करे और इस प्रकार का एकीभाव पैदा करे कि जिससे रस (आनन्द) की उत्पत्ति होवे। रस की समान स्थिति में ही ब्रह्मवादी विद्वान आनन्द मानते हैं। द्वादश धारणा आदि के द्वारा समाधि में जब तक स्थित रहता है, तब तक आनन्द उत्पन्न होता है अथवा ज्ञानियों के सम्पर्क से पैदा होता है अथवा प्रयत्न से शीघ्र या देर में पुनः पुनः लगने से ज्ञान प्राप्त होता है। गुरु के द्वारा बताये जाने पर अभ्यास करते हुए भी नाश को प्राप्त होते है।

 

योग में आपत्तियों तथा रुकावटों का वर्णन

सूतजी बोले-हे ऋषियो! योग साधन में सर्व प्रथम आलस्य नाम की आपत्ति आती हैं। दूसरी व्याधि पीड़ा, प्रमाद, संशय चित्त की चंचलता, दर्शन में अश्रद्धा, भ्रान्ति, तीन प्रकार के दुःख दुर्मनस्थता, अयोग्य विषयों में योग्यता होना ये दस प्रकार की बाधायें मुनि लोगों को बताई हैं।

आलस्य का कारण तो शरीर का मोटा हो जाना तथा चित्त का योग में न लगना होता है। व्याधि धातु की विषमता से दो प्रकार की होती है। एक कर्म के द्वारा होने वाली तथा दूसरी दोषों ( वातपित्त आदि) के द्वारा होने वाली । प्रमाद साधनों के अभाव से होता है। भय के द्वारा ऐसा होगा या नहीं कहना ही संशय है। चित्त की चंचलता ( एकाग्र न होने ) से योगी का आदर नहीं रहता। संसार के बन्धनों से भूमि आदि प्राप्त करने पर भी यदि मन नहीं एकाग्र होता तो योगी की प्रतिष्ठा नहीं होती। योग साधन में भाव रहित वृत्ति का नाम अश्रद्धा है। गुरुज्ञान, आचार, शिव आदि में साधक की भावना न होना ही अश्रद्धा है, ज्ञान का विपर्यय( उलटा समझना) ही भ्रान्ति है। जैसे शरीर को ही आत्मा समझना आदि।

दुःख आध्यात्मिक, आधिभौतिक और आधिदैविक तीन प्रकार के कहे हैं। दुर्मनस्यता को वैराग्य के द्वारा निरोध करना चाहिये। तमोगुण तथा रजोगुण के द्वारा छुआ हुआ मन ही दुर्मन होता है। योग्य और अयोग्य विषयों में विवेक के द्वारा स्वीकृति ही योग्यता है तथा हृढ पूर्वक करना अयोग्यता है। इस प्रकार योगियों को योग योग मार्ग के साधने में यह दश आपत्तियाँ आती हैं। किन्तु अति अधिक उत्साह वाले मनुष्यों के द्वारा यह नष्ट कर दी जाती हैं। इसमें तनिक भी सन्देह नहीं है।

इन आपत्तियों के नष्ट हो जाने पर सिद्धि की सूचक बाधायें उत्पन्न होती हैं। इनमें प्रतिभा नाम की पहली सिद्धि है। दूसरी श्रवण कही गई है। तीसरी वार्ता, चौथी दर्शना, पाँचव आस्वादा, छठी वेदना कही गई है। मनुष्य इन छः सिद्धियों को त्यागने पर ही सिद्ध होता है।

प्रतिभा को दूसरों पर प्रभाव डालने वाली सिद्धि कहा है। इसके द्वारा सिद्ध लोग दूसरों को प्रभावित करते हैं। जैसे सूक्ष्म वस्तु को तथा व्यवहार की बात को, बीती हुई तथा आगे की बात को बुद्धि के विवेचन द्वारा बता देना।सभी प्रकार का ज्ञान प्रतिभा का अनुयायी होता है।

योगी लोग बिना ही प्रयत्न के सभी शब्दों को श्रवण सिद्धि के बता देते हैं। हृस्व, दीर्घ और लुत का ज्ञान भी उन्हें श्रवण सिद्धि के द्वारा सहज ही में हो जाता है। स्पर्श के द्वारा वेदना सिद्धि का मान होता है। दर्शना सिद्धि के द्वारा बिना ही प्रयत्न के दिव्य रूपों के दर्शन होने लगते हैं। दिव्य रसों का स्वाद बिना प्रयत्न के ही जिस सिद्धि से मिलता है, उसको आस्वादा सिद्धि कहा गया है। तन्मात्रा ( शब्द, स्पर्श, रूप, रस, गन्ध) के द्वारा दिव्य गन्थों का बिना ही प्रयत्न के अभास कराने वाली सिद्धि वार्ता हैं।

इस संसार में औपसर्गिक आदि ६४ प्रकार के गुण कहे हैं, परन्तु योगी को आत्म कामना के लिए इन्हें सर्वथा त्याग कर देना चाहिए। इन गुणों के पिशाच, पार्थिव, राक्षस, याक्ष, गान्धर्व, ऐन्द्र, व्योमात्मक, प्रजापत्य अहंकार, ब्राह्म आदि नाम बताये हैं। इनमें आदि को आठ रूप वाला दूसरे को सोलह रूपों वाला बताया है। इसी प्रकार तीसरे को चौबीस, चौथे को बत्तीस, पाँचवें को चालीस भूतमात्रा का बताया है। ६४ गुणों से युक्त ब्राह्म गुण होता है। औपसर्गिक आदि गुणों का त्याग करके लोक में ही गुणों को देखकर योगी को योग में तत्पर रहना चाहिए।

मोटापन, हल्कापन, बालकपन तथा जवानी आदि अनेक प्रकार की जाति देहधारियों के लिए कही गई हैं। पृथ्वी आदिक अंशों के बिना ही सुन्दर गन्ध से युक्त जो ऐश्वर्य हैं वह आठ गुण वाला होता है उसे महा पार्थिव गुण कहा है। जल में रहता हुआ भी भूमि पर निकल आना, इच्छा शक्ति के द्वारा सम्पूर्ण समुद्र को भी पीने की सामर्थ रखना, संसार में जो देखने की इच्छा हो उसे जल में देख लेना, जो भी वस्तु हों उन्हें कामना के द्वारा ही भोगने की इच्छा से ही भोग लेना, बिना बर्तन के ही हाथ पर जल को पिंड के समान रख लेना, शरीर से अग्नि की लौ निकलते रहने पर भी जलने का भय न | होना, शरीर का घाव रहित रहना आदि सोलह प्रकार के ऐश्वर्य कहे हैं। संसार को जलता हुआ दीखने पर भी जले नहीं, जल के बीच में अग्नि जलकर अपनी रक्षा करना, हाथ पर आँच को धारण कर लेना, किसी भी वस्तु को जलाकर भस्म कर देना तथा उसे फिर ज्यों का त्यों बना देना, आदि तेज सम्बन्धी २४ गुण कहे गये हैं।

प्राणियों के मन की बात को जान लेना, पर्वत आदि महान वस्तुओं को कन्धे पर धारण कर लेना, अत्यन्त छोटा बन जाना तथा अत्यधिक बड़ा बन जाना, हाथों के द्वारा वायु को पकड़ लेना, अंगूठे के द्वारा दबा देने पर पृथ्वी का काँप जाना आदि ऐश्वर्यशाली गुण वात (वायु) के सम्बन्धी बताये हैं। आकाश गमन, शरीर को छाया से रहित दिखाना आदि इन्द्रिय सम्बन्धी गुण कहे हैं। दूर से शब्द ग्रहण कर लेना, सभी शब्दों का ज्ञान होना, तन्मात्रता( रूप, रस आदि) का ग्रहण कर लेना, सभी प्राणियों का दर्शन आदि ऐश्वर्य भी इन्द्रिय सम्बन्धी हैं। इच्छानुसार अपनी इन्द्रियों को वश में कर लेना, संसार का दर्शन करना आदि मानस गुण के लक्षण हैं। छेदना, ताड़ना देना, बाँध देना, संसार को पलट देना, सब प्राणियों की कृपा होना, काल और मृत्यु को जीत लेना, ये प्रजापत्य अहंकार के लक्षण हैं।

बिना ही कारण के सृष्टि रच देना, पालन करना,  संसार बनाने की प्रवृत्ति तथा प्रलय कर देना, इस अदृश्य का तथा व्यक्त जगत का निर्माण तथा अलग अलग बाँटना आदि ब्रह्म सम्बन्धी तेज का गुण है।

इस प्रकार ये प्रधान वैष्णव पद भी कहे गए हैं। इनके गुणों को ब्रह्म ही जान सकता है, अन्य किसी में जानने की सामर्थ नहीं हैं। ये असंख्य गुण हैं; शिव से अन्य और कौन जान सकता हैं। इन परम ऐश्वर्यों को शैवी गुण कहा हैं और विष्णु के द्वारा जाने गए हैं।

योग के उत्थान में ये सिद्धियाँ बाधा रूप आती हैं। इनको प्रयत्न के द्वारा वैराग्य पूर्वक रोकना चाहिए। विषयों के भय का नाश तथा अतिशयता जानकर अश्रद्धा से इन सिद्धियों का त्यागना ही विरक्ति है। अतः इन सिद्धियों को वैराग के द्वारा योग में विघ्न समझ कर त्यागना चाहिए। इन औपसर्गिक का परित्याग करने से महेश्वर प्रसन्न होते हैं। उनके प्रसन्न होने पर विमल मुक्ति, अथवा अनुग्रह या लीला को योगी प्राप्त होते हैं। इस प्रकार इन बाधाओं को निरोध करके विशेष चेष्टा से वह मुनि सुखी होता है। कभी-कभी इस भूमि को छोड़कर आकाश में शोभायुक्त होकर क्रीड़ा करता है। कभी वह वेदों का उच्चारण करने लगता है। कभी उनके सूक्ष्म अर्थों को बतलाता है। कभी कभी श्रुतियों के अर्थों को बतलाता हुआ श्लोक(कविता) बनाने लगता है। कभी हजारों प्रकार के बन्धनों से बंध जाता है। कभी मृग पक्षियों के शब्द ज्ञान का बखान करने लगता है।

ब्रह्मा से लेकर स्थावर जंगम तक सभी को हाथ में रखे हुए आँवले के समान देखने लगता है। बहुत कहने से क्या लाभ अनेक प्रकार के विज्ञानों को उत्पन्न करता है। हे श्रेष्ठ मुनियो! उस महात्मा मुनि के अभ्यास के द्वारा विशुद्ध विज्ञान स्थिर होता है।

वह योग में लगा हुआ सभी तेजधारी रूपों को देखता है। अनेकों प्रकार के देवताओं के प्रतिबिम्ब और हजारों विमानों को देखता है। वह योगी, ब्रह्मा, विष्णु, इन्द्र, अग्नि, वरुण, आदिक, ग्रह, नक्षत्र, तारे अनेकों हजारों भुवन, पाताल, तलों की संख्या आदि को समाधि में बैठा हुआ आत्म विद्या के दीपक के प्रकाश से स्वस्थचित्त से अचल होकर देखता है।

भगवान की कृपा रूपी अमृत से भरे हुए सत्व के पात्र को देखता है तथा अपने हृदय के अंधकार को हटाकर वह पुरुष अपने आत्मा में ही ईश्वर को देखता है। भगवान की कृपा से धर्म ऐश्वर्य, ज्ञान, वैराग्य, अपवर्ग (मोक्ष) प्राप्त होती है इसमें अन्य विचार नहीं करना चाहिए। दस हज़ार वर्ष, हजार बार बीत जाएँ तो भी उनकी कृपा के विस्तार को नहीं कहा जा सकता है मुनीश्वरो! पाशुपत योग में स्थित योगी की महिमा बड़ी अपार है।

 

योग सिद्धि प्राप्त साधु पुरुष के लक्षण तथा शिव से साक्षात्कार कराने वाले उपायों का वर्णन 

सूतजी बोले-हे श्रेष्ठ ब्राह्मणो! जिनके ऊपर भगवान शंकर कृपा करते हैं उनको बताता हूँ। महेश्वर भगवान, सज्जनों पर, आत्मा को जीतने वालों पर, द्विजातियों ( ब्राह्मणों, क्षत्री, वैश्य) पर, धर्म के जानने वाले पर, साधु पुरुषों पर, आचार में श्रेष्ठ आचार्यों पर, आत्मा में शिव को जानने वालों पर, दयालु पुरुषों पर, तपस्वियों पर, संन्यासियों पर, ज्ञानियों पर, आत्मा को वश में करने वालों पर, योग में तत्पर रहने वाले पुरुष पर, श्रुति स्मृति को जानने में श्रेष्ठ तथा हे द्विजो! श्रौत स्मार्त कर्म के जो विरोधी न हों, ऐसे मनुष्यों पर कृपा करते हैं।

अब इन सबकी अलग अलग व्याख्या करते हुए सूतजी कहते हैं कि हे द्विजो! जो श्रेष्ठ पुरुष ब्रह्म के पास ले जाये अथवा जायें वे सन्त कहे हैं। दशौं इन्द्रियों के विषयों को दूर करके आठों प्रकार के लक्षणों से युक्त जो पुरुष हैं तथा जो सामान्य स्थिति में और धन की कमी व अधिकता में न क्रोध करते हैं, न हर्ष करते हैं, वे जितात्मा पुरुष कहे जाते हैं। ब्राह्मण, क्षत्री, वैश्य में युक्त पुरुष द्विजाती कहलाते हैं। वर्ण आश्रमों में युक्त ये द्विजाती जन सुख से करने वाले हैं। श्रौत स्मार्त के धर्म का ज्ञान करना ही धर्मज्ञ कहा है। विद्या के साधन के द्वारा तथा ब्रह्मचारी और गुरु की सेवा में रहने वाला पुरुष साधु हैं। क्रिया की साधना के द्वारा गृहस्थ भी साधु है, ऐसा कहा है। तपस्या की साधना करने के कारण वन में रहने वाला वखान सभी साधु कहा गया है। यत्न करने वाला यति भी साधु ही है। क्योंकि वह योग साधना करता है। इस प्रकार धर्म आश्रमों के साधन करने वाले को साथु कहा गया है। चाहे वह गृहस्थ हो, ब्रह्मचारी हो, वानप्रस्थ हो या यति हो।

धर्म अधर्म शब्दों को समझाकर जो कर्म में तत्पर होता है तथा क्रियाशील होता है उस धर्मज्ञ को आचार्य कहना चाहिए। कार्य को कुशलपूर्वक करना धर्म तथा अकुशलता से करना ही अधर्म है। धारण करने योग्य कर्मों को करने के कारण ही उसे धर्म कहा गया है। अधारण करने योग्य कर्म ही अधर्म कहे गए हैं। धर्म के द्वारा इष्ट की प्राप्ति आचार्यों द्वारा उपदेश की गई है तथा अधर्म से अनिष्ट की प्राप्ति बताई गई है।

वृद्ध, जो लोलुप न हों, आत्म ज्ञानी हों, अदम्भी हों, अच्छी प्रकार विनीत हों, सरल हों आदि गुण सम्पन्न जन आचार्य कहे गए हैं। अपने आप भी जो धर्म आचरण करते हैं तथा दूसरों में भी आचार स्थापित करते हैं, शास्त्र और उनके धर्मों का भली भाँति आचरण करने वाले आचार्य कहलाते हैं। । श्रवण करने से जो कर्म किया जाता है उसे औत तथा स्मरण करने से जो कर्म है उसे स्मार्त कहा जाता है। वेद विहित जो यज्ञ आदि कर्म हैं, वे श्रौत कर्म हैं तथा वर्ण आश्रमों को बताये हुए जो कर्म हैं, वे स्मार्त कर्म हैं। देखे हुए अनुरूप अर्थ को तथा पूछे गए अर्थ को जो कभी नहीं छिपाते तथा जो देखा है वही सत्य कह देते हैं तथा जो ब्रह्मचर्य से रहते हों, निराहारी हों, अहिंसा और शान्ति में सर्वथा तत्पर रहते हों, उसे तप कहा गया है।

जो हित, अनहित समझ कर सभी प्राणियों में अपने समान ही बर्ताव करता है उस पुण्यमयी वृत्ति को ही दया कहते हैं। जो व्य उचित न्याय पूर्वक आया हो और वह गुणवान को दिया जाए, वह दान का लक्षण कहा है। छोटा, बीच का तथा बड़ा इस प्रकार का ही कहा है। करुणा पूर्वक सभी प्राणियों को बराबर भागों में बाँट दिया जाए, उसे मध्यम यानी बीच का दान कहा

श्रुति स्मृति के द्वारा बताया गया तथा वर्ण आश्रमों को बताया गया माया और कर्म के फल को त्याग देने वाला योगी ही शिवात्मा है अर्थात् वह अपने अन्दर ही शिव को देखता है। सभी दोषों को त्याग देने वाला पुरुष ही युक्त योगी कहा गया है। जो पुरुष असंयमी न हो तथा विषयों में आसक्त न हो, विचारवान हो, लोभी न हो, वही सच्चा संयमकारी है। अपने लिए अथवा दूसरों के लिए अपनी इन्द्रियों को समान रूप से प्रयोग करता है तथा कभी झूठ में अपनी आत्मा को प्रवेश नहीं होने देता, यह शम के लक्षण हैं।अनिष्ट में कभी भयभीत नहीं होता हो तथा इष्ट में कभी प्रसन्न न होता हो, ताप तथा विषाद निवृत्ति और विरक्ति से सदा अलग रहे वह संन्यास का लक्षण है। कर्मों से आसक्ति न रखना अर्थात् कर्मों से अलग रहना ही संन्यास है। चेतना तथा अचेतना का विशेष ज्ञान ही वास्तव में ज्ञान कहा है। इसी प्रकार के ज्ञान युक्त तथा श्रद्धायुक्त योगी पर भगवान शंकर की कृपा होती है। उसी पर वे प्रसन्न होते हैं। इसमें संशय नहीं है । हे ब्राह्मणो! वास्तव में यही धर्म है किन्तु परमेश्वर के विषय में गुह्य ( छुपा हुआ) जो रहस्य है उसे सब जगह प्रकट न करे। शिव की भक्ति ऐसे पुरुष को बिना संदेह के ही मुक्ति प्रदान कर देती हैं। भगवान शिव अपने भक्त के वश में रहते हैं चाहे वे अयोग्य ही क्यों न हो। उसे अनेक प्रकार के अन्धकार से छुड़ाकर उस प्रसन्न होते हैं। उसे ज्ञान, अध्ययन ( पढ़ना), पढ़ाना, हवन करना, ध्यान, तप, वेद शास्त्र पढ़ना या सुनना, दान देना तथा हजारों चन्द्रायण व्रत करना तथा और भी अनेक प्रकार के व्रतादि रखना भक्त के लिए जरूरी नहीं है उस पर तो शिव सदा प्रसन्न रहते हैं। हे श्रेष्ठ मुनियो! जो लोग भगवान शिव की भक्ति नहीं करते वे इस पर्वत की गुफा के समान संसार में गिरते हैं और भक्त भगवान के द्वारा उठा लिए जाते हैं।

हे ब्राह्मणो! जब मनुष्य इस संसार में भक्तों के दर्शन मात्र से ही स्वर्ग आदि लोकों को प्राप्त कर लेते हैं तो भक्तों के लिए तो दुर्लभ ही क्या है। भक्त लोग भगवान शिव की कृपा से ब्रह्मा, विष्णु तथा देवताओं के राजा इन्द्र तथा और भी अन्य उत्तम स्थानों में पदों को प्राप्त कर लेते हैं। भक्ति से मुनि लोगों को बल एवं सौभाग्य की प्राप्ति होती है।

हे ब्राह्मणो! प्राचीन समय में बनारस के अविमुक्त क्षेत्र में विराजमान भगवान श्री महेश्वर जो रुद्र हैं उनसे भगवती पार्वती ने जो बात पूछी थी और जो भगवान रुद्र ने रुद्राणी देवी पार्वती को जो बताया था वह सुनाता हूँ। वाराणसी पुरी में भगवान रुद्र को प्राप्त कर भगवती इस प्रकार पूछने लगीं। देवी बोली-हे प्रभो! हे महादेव जी! आप किस उपाय या पूजा के द्वारा वश में हो जाते ? विद्या के द्वारा या तपस्या के द्वारा अथवा योग के द्वारा, सो मुझे आप कृपा करके बतलाइये।

सूतजी कहने लगे-हे ऋषियो! इस प्रकार भगवती के वचनों को सुनकर शिवजी ने पार्वती जी को देखा। फिर बाल चन्द्रमा के तिलक को धारण करने वाले शिवजी पूर्ण चन्द्रमा के समान सुन्दर मुख वाली पार्वती जी से हँसते हुए इस प्रकार बोले-हे देवि! इस सुन्दर पुरी को प्राप्त करके बहुत ही सुन्दर प्रश्न तुमने पूछा है । हे पार्वती जी! इसी प्रकार का प्रश्न बहुत समय पहले हिमालय की पत्नी मैना ने हिमालय से किया था, उसका मुझे स्मरण हो रहा है। हे विलासिनि! जो तुमने आज पूछा है, वह पूर्व काल में पितामह ब्रह्मा जी ने पूछा था। हे कल्याणी! ब्रह्मा ने मुझे श्वेत नामक कल्प में श्वेत वर्ण का देखा तथा सद्योजात नामक मेरे अवतार को देखा, रक्त कल्प में मुझे लाल रङ्ग का देखा, ईशान कल्प में विश्वरूपाख्य को देखा। इस प्रकार से मुझ विश्व रूप शिव को देखकर ब्रह्मा जी बोले

हे वामदेव! है तत्पुरुष! हे अघोर! हे दयानिधे! देवाधिदेव महादेव जी आप मुझे गायत्री के साथ दीखे हैं और हे प्रभो! आप किस प्रकार वश में हो जाते हो

और किस प्रकार आपका ध्यान करना चाहिए अथवा आप कहाँ ध्यान किये जाते हैं, आप कहाँ देखे जाते हैं। तथा कहाँ पूजे जाते हैं, सो आप हमें कृपापूर्वक बताइये। क्योंकि आप बताने में सब प्रकार समर्थ हैं। भगवान बोले-है कमल से पैदा होने वाले ब्रह्मा जी! मैं तो केवल श्रद्धा से ही वश में होता हूँ। मैं लिङ्ग में हमेशा ध्यान करने योग्य हूँ तथा क्षीर समुद्र में विष्णु के द्वारा देखा गया हैं और इस पंचरूप के द्वारा पाँच ब्राह्मणों से पून्य हूँ। मेरे ऐसा कहने पर ब्रह्मा जी बड़े भाव से बोले हे जगतगुरो! वास्तव में आप मुझे आज भी भक्ति से ही दीखे हो। ऐसा कहकर मेरे लिए अधिक श्रद्धा भाव दिखाया। सो हे पार्वती जी! मैं श्रद्धा से वश में होता हैं और लिङ्ग में ही पूज्य हैं। श्रद्धा पूर्वक ब्राह्मणों के द्वारा मेरी पूजा करनी चाहिए। क्योंकि श्रद्धा में ही परम धर्म है, श्रद्धा ही सूक्ष्म ज्ञान, तप, हवन है, श्रद्धा ही मोक्ष स्वर्ग आदि सभी है और श्रद्धा से ही सदा मैं दर्शन देता हूँ।

 

श्वेत लोहित कल्प में सद्योजात की महिमा का वर्णन

ऋषि बोले-हे सूतजी! पुराण पुरुषोत्तम महात्मा वामदेव महेश्वर जो सद्योजात जी हैं उन्हें ब्रह्मा जी ने किस प्रकार देखा? उन अघोर और ईशान रूप सद्योजात भगवान के महात्म्य को कहने में आप समर्थ हैं सो हमें कृपा पूर्वक उसे कहने की कृपा करिये।

सूतजी बोले-हे ब्राह्मणो!उन्तीसवें कल्प को श्वेत लोहित कल्प कहा है। उस कल्प में ध्यान करते हुए ब्रह्मा के सामने शिखा से युक्त सफेद और लाल रंग का एक कुमार उत्पन्न हुआ। उस शोभा सम्पन्न पुरुष को देख कर ब्रह्मां ने हृदय में ध्यान करके उस महात्मा को ब्रह्म स्वरूप माना और उसे झट या शीघ्र पैदा होने वाले (सद्योजात) को परात्पर ब्रह्म जानकर वन्दना की तथा ब्रह्म रूप से ही उसका चिन्तन किया।

उन सद्योजात के पात से ही महान यशस्वी श्वेत रंग के सुनन्द, नन्दन, विश्वनन्द और उपनन्द नाम के शिष्य भी प्रगट हुए, जिनसे वे सदा घिरे रहते हैं। उनके आगे श्वेत वर्ण की आत्मा वाले श्वेत नाम के महामुनि विराजमान रहते हैं। तब वे सभी मुनि लोग महेश्वर सद्योजात को प्राप्त करके उन शाश्वत का बहुत ही भक्ति भाव से गुणगान करने लगे और अन्त में उन्हीं को प्राप्त हुए।

हे ब्राह्मणो! इस प्रकार जो कोई भी उन विश्वेश्वर की मन से तत्पर होकर प्राणायाम पूर्वक ध्यान करके शरण में आते हैं, वे सभी पापों से छूटकर विष्णु लोक को भी लांघकर रुद्र लोक को प्राप्त करते हैं।

 

श्री वामदेव जी की महिमा का वर्णन

सूतजी बोले-तीसवाँ कल्प रक्त नाम का कल्प कहा जाता है। इस कल्प में महान तेजस्वी ब्रह्मा लाल रंग को धारण करते हैं। पुत्र की कामना से महान तेजस्वी ब्रह्मा जी ने परमेष्ठी शिव का ध्यान किया। तब एक महान तेजस्वी कुमार प्रगट हुए जो लाल रंग के आभूषण और लाल ही वस्त्र तथा माला पहने हुए थे। उनके लाल नेत्र थे तथा वे बड़े ही प्रतापवान थे। रक्त वस्त्र पहने हुए उन महान आत्मा कुमार को देखकर ध्यान के सहारे से ये देव ईश्वर हैं, ऐसा जान लिया और उनको ब्रह्मा जी ने प्रणाम किया।

उन वामदेव भगवान की ब्रह्मा जी ने ब्रह्म मानकर स्तुति की। हृदय में प्रतीत हुए उन वामदेव ने ब्रह्मा जी से यह कहा कि हे पितामह! आपने मुझे पुत्र की कामना से ध्यान किया है तथा ब्रह्म जानकर बड़ी भक्ति से मेरी स्तुति की है। इससे आप हर एक कल्प में ध्यान योग्य के बल को प्राप्त करके मुझ सभी लोकों के दाता ईश्वर को जान सकोगे।

इसके बाद उस महान आत्मा के द्वारा विशुद्ध ब्रह्म तेज से युक्त महान चार कुमार प्रकट हुए। उनके नाम विरिजा, विवाहु, विशोक और विश्व भावना हैं। ये चारों बड़े भारी ब्रह्मण्य और ब्रह्म के समान ही वीर और अध्यवसायी हुए, जो रक्त वस्त्र और रक्त माला को धारण करने वाले तथा लाल चन्दन का लेपन करने वाले हैं। लाल कुमकुम तथा लाल भस्म को शरीर में लगाते हैं।

हजारों वर्षों के अन्त में ब्रह्म-वामदेवजी का गुणगान करते हुए, संसार के हित की कामना से, अपने शिष्यों को समस्त धर्म का उपदेश देकर पुनः वे अविनाशी रुद्र, महादेव जी में ही लीन हो जाते हैं।

ये तथा दूसरे श्रेष्ठ द्विजाती लोग उस ईश्वर को जानकर तथा महादेव और उनके भक्तों में परायण होकर ध्यान से उन्हें देखते हैं वे सभी निर्मल और ब्रह्मचारी मनुष्य पापों से छूटकर रुद्र लोक को जाते हैं तथा संसार के आवागमन से भी मुक्त हो जाते हैं।

 

तत्पुरुष ( ब्रह्म) का महात्म्य

सूतजी बोले-इकत्तीसवाँ कल्प पीतकल्प कहा गया है। इस कल्प में ब्रह्मा जी पीले वस्त्र धारण करते हैं। परमेष्ठि ब्रह्मा के द्वारा शिव का ध्यान करते हुए महान तेजस्वी पीले वस्त्र धारण किये हुए एक कुमार का जन्म हुआ। वह कुमार पीले गन्ध का लेपन किए हुए तथा पीले रंग की माला को धारण किए था। सुनहरा जनेऊ तथा पीले रंग की पगड़ी पहने हुए था, उस युवक की बड़ी लम्बी भुजायें थीं। तब ध्यान के द्वारा ब्रह्मा जी ने उन लोक के विधाता महेश्वर को जान लिया और उनकी शरण को प्राप्त हुए।

इसके अनन्तर ध्यान करते कुए ब्रह्मा जी ने महेश्वर भगवान के मुख से विश्वरूपा एक गौ को देखा। जो मुख वाली, चार हाथ वाली, वाली, चार सींग वाली, चार बत्तीस गुणों से युक्त थी। इस महादेवी स्वरूपा गाय को देख। आदि नाम ले लेकर महादेव जी उर। देवि! इस समस्त विश्व को अपने में . आग के द्वारा सम्पूर्ण संसार को वश में करो। इसके बाद महादेव जी ने कहा- हे देवि! तुम रुद्राणी होओगी और ब्राह्मणों के हित के लिये परमार्थ स्वरूपिणी होओगी।

इस चार पैर वाली गाय की पुत्र की इच्छा से ध्यान करने वाले परमेष्ठि ब्रह्मा ने परिक्रमा की और ध्यान के द्वारा उसे परमेश्वरी जानकर संसार के गुरु महेश्वर ने यह बताया कि यह गायत्री तथा रुद्राणी है।

उस वैदिकी, विद्या, रुद्राणी, गायत्री तथा लोकों के द्वारा नमस्कार की हुई को जपकर ध्यान योग के द्वारा ब्रह्मा ने महादेव जी को प्रसन्न किया। तब महादेव जी ने उन्हें दिव्य योग, ऐश्वर्य, ज्ञान, सम्पत्ति और वैराग्य दिया।

उसी समय उनके पास से ( शरीर में से ही) पीले वस्त्र पहने हुए, पीली माला धारण किये हुए तथा पीले चन्दन का लेप लगाये हुए दिव्य अनेक कुमारों का प्रादुर्भाव हुआ। उनके पीले ही सिर के वस्त्र पगड़ी आदि थे तथा पीले ही रंग के वे सभी कुमार थे, उन्होंने हजारों वर्षों तक निर्मल यश को प्राप्त करके अपने को योग में लगाकर तपस्या का आनन्द प्राप्त किया। ब्राह्मणों का कल्याण करते हुए धर्म, योग और बल से युक्त, बहुत समय तक मुनियों की रक्षा करके, महान योग का उपदेश देकर वे महादेव जी में ही लीन हो गये। इस प्रकार वे सभी कुमार महेश्वर भगवान को प्राप्त हुए।

अन्य भी जो ध्यान योग के द्वारा अपने को नियमित करके तथा इन्द्रियों को जीतकर महादेव को प्रसन्न करते हैं वे सभी ब्रह्मचर्य पूर्वक निर्मल होकर और सभी पापों से छूटकर रुद्र जो महादेव जी हैं उनमें प्रवेश करते हैं और फिर न होने वाले मोक्ष को प्राप्त करते हैं।

 

अघोर की उत्पत्ति का विवरण

सूतजी बोले-उस पीतवर्ण कल्प के बीत जाने पर प्रघृत्त नाम का काले वर्ण वाला कल्प हुआ। उसमें देवताओं के हजार वर्ष के समय में जब समस्त ब्रह्माण्ड एक समुद्र से ही व्याप्त था और चारों ओर जल ही जल था, तब ब्रह्मा ने प्रजा रचने की इच्छा व्यक्त की। तब दुखी होकर ब्रह्मा ने पुत्र की कामना से चिन्ता करते हुए कृष्ण वर्ण वाले भगवान का ध्यान किया।

इसके बाद एक महान तेजस्वी कुमार प्रकट हुआ जो काले रंग का, महावीर और अपने तेज से प्रकाशित था। वह काले वस्त्र पहने हुए काला सिर पर उष्णीश और काला जनेऊ धारण किये था। काली मालायें तथा मुकुट और काले रंग का लेप अपने अंगों पर लगाये हुए था।

तब उस घोर पराक्रम वाले महात्मा अघोर रूप कुमार को देव देवेश जानकर ब्रह्मा जी ने उनकी वन्दना की। प्राणायाम में तत्पर होकर महेश्वर का हृदय में ध्यान करने पर भगवान महेश्वर प्रसन्न हुए और उन ब्रह्म स्वरूप अघोर जो घोर पराक्रम वाले हैं, ब्रह्मा के ध्यान करने पर दर्शन दिये और उनके पास से काले वर्ण वाले काले, चन्दन से लेप किये हुए चार महान तेजस्वी कुमारों का प्रादुर्भाव हुआ। वे सभी कृष्ण वर्ण के काली शिखा से युक्त और काले वस्त्र धारण किये हुए थे।

इसके बाद हजारों वर्ष तक योग में तत्पर हुये उपासना की। योग में तत्पर हुये वे सभी मन के द्वारा योगेश्वर शिव में प्रवेश करके ईश्वर के निर्मल निर्गुण स्थान को प्राप्त हुए।

इस प्रकार योग के द्वारा वे तथा दूसरे मनीषी लोग महादेव का ध्यान करके अविनाशी रुद्र भगवान को प्राप्त करते हैं।

 

अघोरेश के महात्म्य का वर्णन

सूतजी बोले-इसके बाद कृष्ण वर्ण कल्प के बीत जाने पर देवाधिदेव ब्रह्म स्वरूप अघोरैश को ब्रह्मा जी ने प्रसन्न किया, तब वे सन्तुष्ट हुए। भगवान ब्रह्मा जी से अनुग्रह पूर्वक बोले-हैं महाभाग! मैं इसी रूप से ब्रह्महत्या आदि घोर पापों को नष्ट कर देता हूँ। हे पितामह ब्रह्मा जी! मन, वाणीं और कर्म के द्वारा बुद्धि पूर्वक किये तथा स्वाभाविक रूप से होने वाले, माता के शरीर से उत्पन्न तथा पिता की देह से उत्पन्न सभी पापों को संहार कर देता हैं, इसमें तनिक भी संशय नहीं है।

अघोर नाम के मन्त्र को एक लाख जप कर मनुष्य ब्रह्महत्या से छूट जाते हैं। उससे आधा फल वाणी के द्वारा तथा उससे आधा फल मन के द्वारा जपने से मिलता है। चार गुना बुद्धि पूर्वक पापी के जपने से तथा क्रोध के द्वारा आठ गुना जपने से, लाख गुना जपने से वीर हत्यारा, करोड़ गुना जपने से भ्रूण हत्यारा, दस करोड़ गुना जपने से माता का वध करने वाला शुद्ध हो जाता है, इसमें संशय नहीं है।

गौ हत्यारा, दूसरे का अहसान न मानने वाला, स्त्री का वध करने वाला, दस करोड़ मन्त्र का नाम जप करने वाला पाप से मुक्त हो जाता है, इसमें सन्देह नहीं है। सुरापान करने वाले को एक लाख जप द्वारा तथा बुद्धि पूर्वक पाप करने वाले भी इसके जप से छूट जाते हैं। निश्चय ही और आधा लाख जप करने से वारुणी का पान करने वाला पापी भी पाप मुक्त हो जाता हैं।

स्नान, जप, हवन आदि न करने वाला ब्राह्मण एक हजार जप करने से शुद्ध हो जाता है। ब्राह्मण की चोरी करने वाला तथा सोना चुराने वाला अधम मनुष्य भी दस लाख मानसी जप द्वारा पापों से छूट जाता है। गुरु पनी में रत तथा माता का वध करने वाला नीच जन भी तथा ब्रह्म हत्यारा भी इस अघोर मन से जपने से पाप से मुक्त होता है। पापियों के साथ रहने वाले भी पापी के ही समान हैं। अतः वे भी दस करोड़ जप करने से पाप से मुक्त होते हैं। पापियों के साथ सम्पर्क करने वाले पापी भी एक लाख मानसी जप द्वारा शुद्ध हो जाते हैं। उपांशु जप चौगुना और वाणी के द्वारा बोलकर जप आठ गुना करना चाहिए। छोटे पापों के लिए इनसे आधा जप करना चाहिए।

ब्रह्महत्या, मदिरा पान, सोने की चोरी करने का और गुरु की शय्या पर शयन करने का जो पाप ब्राह्मण करे तो उसे रुद्र गायत्री और कपिला गौ के मूत्र द्वारा ही ग्रहण करना चाहिये। वह पापी ब्राह्मण ‘गन्धं द्वारा

आदि मन्त्र द्वारा गोबर को खावे तथा “तेजोऽसि शुक्रमित्य’मन्त्र से कपिला गाय का मूत्र पान।”अप्याय स्वा” आदि मन्त्र से साक्षात कपिला गौ के गव्य, दही, दूध का पंचामृत बनाकर पान करे।”देवस्य इति”मन्त्र से कुशा द्वारा जल को अपने शरीर पर छिड़के। पंच गव्य आदि को सोने के अथवा ताँबे के अथवा कमल के या पलाश (ढाक) के पत्ते के दोने में रख ले और सभी रत्नों की अथवा सोने की शलाका द्वारा उसे चलावे।

अघोरेश मन्त्र का एक लाख जप करे तथा घी, चरु, तिल, जौ, चावल आदि से हर एक का अलग सात बार हवन करे।यदि अन्य सामग्री न हो तो घी से ही हवन करना चाहिए।

हे ब्राह्मणो! अघोर के द्वारा भगवान को निमित्त करके हवन करने के बाद अघोर मन्त्र से ही स्नान करना चाहिये। आठ द्रोण घी से स्नान करने पर शुद्ध होता है। रात दिन में स्नान आदि करने के बाद उस पंचामृत को कुची से चला कर शिवजी के सामने ही पीवे। ब्राह्मण जप आदि करके तथा आचमन करके पवित्र होवे। इस प्रकार करने से कृतघ्न, ब्रह्म हत्यारा तथा भ्रूण हत्यारा (गर्भपात करने वाला), वीर घाती, गुरु घाती, मित्र के साथ विश्वासघात करने वाला, चोर, सोने की चोरी करने वाला, गुरु की शय्या पर सोने वाला, शराब पीने वाला, दूसरे की स्त्री में रत रहने वाला, ब्राह्मण को हत्यारा, गौ का हत्यारा, माता पिता का हत्यारा, देवताओं की निन्दा करने वाला, शिवलिंग को तोड़ने वाला तथा अन्य प्रकार से मानसिक पाप आदि करने वाला भी

ॐ श्री लिंग पुराण चाहे वह ब्राह्मण ही हो, पापों से मुक्त हो जाता है। अन्य भी वाणी या शरीर द्वारा हजारों पापों से इस विधान को करके मुक्त हो जाता है। इससे जन्म जन्मान्तरों के भी सभी पाप शीघ्र नष्ट हो जाते हैं। यह अघोरेश का रहस्य मैंने आप लोगों के प्रसंग से सुना दिया। इसको नित्य द्विजाती मात्र जपने से सभी पापों से छूट जाते हैं।

 

ईशान की महिमा का कथन

सूतजी बोले-हे मुनियों में उत्तम ब्राह्मणो! एक अन्य ब्रह्मा का कल्प हुआ जो विश्वरूप नाम का था। वह बड़ा भारी विचित्र था। संहार का कार्य समाप्त हो जाने पर तथा पुनः सृष्टि रचना प्रारम्भ हो जाने पर ब्रह्मा जी ने पुत्र की कामना से भगवान का ध्यान किया। तब विश्वरूप सरस्वती जी प्रकट हुईं वह विश्वमाला तथा वस्त्र धारण किये हुए तथा विश्व यज्ञोपवीत, विश्व का ही सिर पर उष्णीष( सिर का वस्त्र धारण किये । वह विश्व गन्धं से युक्त विश्व मातामह हैं। | इसके बाद पितामह ब्रह्मा जी ने मन से आत्मयुक्त होकर भगवान ईशान जो परमेश्वर हैं उनका यथाविधि ध्यान किया। उनका स्वरूप शुद्ध स्फटिक मणि के समान सफेद तथा सभी प्रकार के आभूषणों से भूषित हैं। उन सर्वेश्वर प्रभु की ब्रह्मा जी ने इस प्रकार वन्दना की।   

हे ईशान! महादेव! ओ३म्! आपको नमस्कार है। हे सभी विद्याओं के स्वामी आपको नमस्कार हैं। है सभी प्राणियों के ईश्वर वृष वाहन आपको नमस्कार है। है ब्रह्मा के अधिपति! हे ब्रह्म स्वरूप! हे शिव! हे सदाशिव! आपको नमस्कार हैं। हे ओंकार मूर्ते! हे देवेश! हे सद्योजात! आपको बारम्बार नमस्कार हैं। मैं आपकी शरण में आया हूँ, आप मेरी रक्षा करो। आप होने वाले हैं तथा नहीं होने वाले हैं तथा अधिक होने वाले भी नहीं हैं। हे संसार को उत्पन्न करने वाले! हे भाव! हे ईशान! हे महान शोभा वाले! हे वामदेव! हे ज्येष्ठ! हे वरदान देने वाले! हे रुद्र! हे काल के भी काल! आपको नमस्कार है। हे विकरणाय! हे काल वर्णय! हे बल को मंथन करने वाले! ब्रह्म स्वरूप, सभी भूतों के स्वामी तथा भूतों का दमन करने वाले! हे कामदेव का मंथन करने वाले देव! आपको नमस्कार है। हे सबसे बड़े तथा सब में श्रेष्ठ वर देने वाले रुद्र स्वरूप काल का नाश करने वाले वामदेव महेश्वर भगवान आपको बारम्बार नमस्कार है। इस प्रकार इस स्तोत्र से जो वृषभध्वज भगवान की स्तुति करता है तथा पढ़ता है वह शीघ्र ही ब्रह्म लोक को प्राप्त करता है। जो श्रद्धा पूर्वक ब्राह्मणों से इसको सुनता हैं तथा सुनाता है, वह परम गति को प्राप्त करता है। इस प्रकार इस स्तोत्र के द्वारा ध्यान करके ब्रह्मा जी ने वहाँ भगवान को प्रणाम किया।

तब भगवान ईश्वर ( रुद्र) ने कहा कि है ब्रह्मा जी! कहिये आप क्या चाहते हैं? मैं आप पर प्रसन्न हैं। तब भगवान रुद्र को प्रणाम करके ब्रह्मा जी ने कहा हे भगवान! यह विश्वरूप जो गौ अथवा सरस्वती हैं वह कौन है यह जाने की इच्छा है। यह भगवती, चार पैर वाली, चार मुख वाली, चार दाँत वाली, चार स्तन वाली, चार हाथ वाली, चार नेत्र वाली, यह विश्वरूपा कौन है? यह किस नाम की है तथा किस गोत्र की है? उनके इस वचन को सुनकर देवोत्तम वृषभध्वज अपने शरीर से उत्पन्न हुए ब्रह्मा से बोले-है ब्रह्मन्! यह जो कल्प है। उसको विश्वरूप कल्प कहते हैं। यह सभी मन्त्रों का रहस्य है तथा पुष्टि वर्धक है। यह परम गोपनीय है। आदि सर्ग में जैसा था वह तुमसे कहता हूँ। यह ब्रह्मा का स्थान जो तुमने प्राप्त कर लिया है उससे परे विष्णु के पद से भी शुभ तथा बैकुण्ठ से भी शुद्ध, मेरे वामाङ्ग से उत्पन्न यह तेतीसवकल्प है। हे महामते! यह कल्प आनन्द ही जानना चाहिए तथा आनन्द में ही स्थित है। इस कल्प का माण्डव्य गोत्र है। तपस्या के द्वारा मेरे पुत्र अपने को प्राप्त हुआ है। है ब्रह्मा जी! मेरी कृपा से आप में, योग, साँख्य, तप, विद्या, विधि क्रिया, ऋतु, सत्य, दया, ब्रह्म, अहिंसा, सम्मति, क्षमा, ध्यान, ध्येय, दम, शान्ति, विद्या, मति, धृति, कान्ति, नीति, पृथा, मेधा, लज्जा, दृष्टि, सरस्वती, तुष्टि, पुष्टि, क्रिया इत्यादि छत्तीस गुण प्रतिष्ठित हैं तथा ये बत्तीस गुण बत्तीस अक्षर की संज्ञा वाले हैं।

यह मेरे द्वारा उत्पन्न भगवती देवी है जो चतुर्मुखी है, जगत की योनी हैं, प्रकृति है तथा गौ रूप है। वह गौरी माया है, विद्या हैं, हेमवती है, प्रधान प्रकृति हैं, तत्व चिन्तक लोग ऐसा कहते हैं। वह अजन्मा है, लोहित है, शुक्ल कृष्ण है, विश्व की जननी है । हे ब्रह्मा जी! अज तो मैं ही हूँ और उस विश्व रूपा गायत्री गौ स्वरूपा को विश्व स्वरूप ही जानना चाहिए।

इस प्रकार कहकर महादेव जी ने उस देवी के पावं द्वारा सर्व रूप कुमारों को पैदा किया। जटी, मुण्डी, शिखण्डी तथा अर्ध मुण्ड नाम के कुमार उत्पन्न किये। वे सभी महान तेजस्वी थे तथा वे सभी हजारों दिव्य वर्षों तक महेश्वर की उपासना करके, समस्त धर्मों का उपदेश करके योग के पथ में दृढ़ हुये। इसके बाद वे सभी शिष्ट पुरुष अपनी आत्मा को वश में करने वाले रुद्र भगवान में ही प्रवेश कर गये अर्थात् उन्हीं के स्वरूप में लीन हो गये।

 

लिंग के उत्पन्न होने का वर्णन

सूतजी बोले-है ऋषियो! मैंने आप लोगों को यह कथा सुनाईं। जिसके सुनने, पढ़ने तथा ब्राह्मणों को सुनाने से भगवान की कृपा से मनुष्य मोक्ष को प्राप्त कर लेते हैं।

ऋषि बोले-हे सूतजी! भगवान तो अलिंगी हैं फिर उनके लिंग किस प्रकार हैं तथा उन शंकर भगवान के लिंग की अर्चना कैसे की जाती है ? लिंग क्या है तथा लिंगी क्या है? यह सब आप बताने में समर्थ हैं। कृपा करके हमें बताइये।

रोम हर्षण जी बोले-हे ऋषियो! इस प्रकार एक बार देवताओं ने पितामह ब्रह्मा जी से पूछा था कि भगवान का लिंग किस प्रकार का है तथा लिंग में महेश्वर रुद्र की किस प्रकार पूजा अर्चना की जाती है? तब ब्रह्मा जी ने जो कहा था, वह मैं आपसे कहता हूँ।

ब्रह्मा जी बोले-प्रधान( प्रकृति) को तो लिंग कहा गया है और लिंगी तो स्वयं परमेश्वर ही हैं। हैं श्रेष्ठ देवताओ! सृष्टि के स्थिति काल में सभी देवताओं के जन लोक में चले जाने पर जल में मेरी रक्षा के लिये भगवान विष्णु थे। चारों युगों में हजारों बार बीत जाने पर तथा देवताओं के सत्य लोक में चले जाने पर, मुझ ब्रह्मा के बिना अधिपति पद पर रहने पर, बिना वर्षा के सभी स्थावर ( वृक्षादि) के सूख जाने पर, पशु, मनुष्य, वृक्ष, पिशाच, राक्षस, गन्धर्व आदि सूर्य की किरणों से क्रमशः जल गये थे।

तब उस महान् घोर अन्धकारमये समुद्र में वह विश्वात्मा महान् योगी परब्रह्म जिसके हजारों सिर हैं तथा हजारों नेत्र हैं, हजारों पैर हैं, हजारों बाहु हैं तथा जो सर्वज्ञ हैं और सम्पूर्ण संसार को उत्पन्न करने वाले हैं। तथा जिनके रजोगुण से ब्रह्मा, तमोगुण से शंकर एवं सतोगुण से विष्णु की उत्पत्ति है। ऐसे काल के भी काल निर्गुण नारायण स्वरूप को मैंने देखा। उन कमलनयन भगवान को उस घोर समुद्र के जल में शयन करते देख कर उनकी माया से मोहित होकर मैं बैर के स्वभाव में उनसे बोला-आप कौन हैं? यह मुझे बताइये। ऐसा कह कर मैंने उन शयन करते हुए हरि को हाथ से उठाया। मेरे हाथ के तीव्र और दृढ़ प्रहार के कारण वह शीघ्र शयन से उठ बैठे। वह निर्मल कमल के से नेत्र वाले हरि भगवान मेरे सामने निद्रा त्याग कर स्थित हुए और मीठी प्यारी वाणी में मुझसे कहने लगे।

हे महान शोभा वाले पितामह! हे वत्स! आपका स्वागत है, स्वागत है। उनके इस प्रकार के वचन सुनकर मुझे बहुत ही आश्चर्य हुआ। रजोगुण के कारण बढ़ गया है वैर जिसमें ऐसा मैं उन जनार्दन भगवान से बोला-आप सृष्टि के संहार के कारण होकर मुझे वत्स! वत्स! कहकर पुकारते हो। हे अनघ! मेरे साथ आप गुरु शिष्य के समान बर्ताव करते हो। मोह में पड़कर इस प्रकार आप क्यों कह रहे हो? इसके बाद भगवान शंकर विष्णु मुझ अहँकार से युक्त को देखकर बोले-हे। पितामह! मैं ही परब्रह्म हैं, मैं ही परमतत्व हूँ, संसार का कर्त्ता हूँ, चलाने वाला हूँ तथा मैं ही इस संसार का नाश करने वाला हूँ। मैं स्वयं ही परम ज्योति स्वरूप हैं, परमात्मा हैं, ईश्वर हूँ। संसार में चर अचर जो भी दीख रहा है। अथवा सुनाई दे रहा है, उस सबको सब कुछ मेरे ही निहित जानना चाहिए। यह संसार पूर्व में मेरे द्वारा ही

चौबीस तत्वों से मिलकर बनाया गया है। अपने प्रसाद (कृपा) से अनेकों ब्रह्माण्ड को लीला मात्र में बना देता हूँ। मेरी बुद्धि के द्वारा पहले सत, रज, तम, तीन प्रकार का अहंकार उत्पन्न हुआ इसके बाद पाँच प्रकार की तन्मात्रा ( पृथ्वी, जल, तेज, वायु, आकाश) छटा मन इसके बाद दस इन्द्रियाँ उत्पन्न हुए।आकाश से लेकर पृथ्वी तक सभी की रचना लीला मात्र ही हुई हैं। – है देवताओ! भगवान हरि के ऐसा कहने पर हम दोनों का घोर युद्ध हुआ। उस युद्ध को देखकर रोंगटे खड़े हो जाते थे। वह युद्ध उसी प्रलय के सागर के मध्य मेरे द्वारा रजोगुण की वृद्धि होने पर बैर बढ़ जाने के कारण हुआ।

उसी अवसर पर हम दोनों के बीच में अत्यन्त प्रकाशमान एक लिंग हमारे प्रबोध करने के लिए प्रकट हो गया। वह लिंग अनेकों प्रकार की ज्वाला से घिरा हुआ सैकड़ों कालाग्नि से भी महान तेजस्वी, घटने और बढ़ने से रहित, आदि, मध्य, अन्त से भी रहित अव्यक्त विश्व की उत्पत्ति का कारण था। उसे देखकर भगवान हरि तथा मैं भी स्वयं मोहित हो गये। उस लिंग को देखकर भगवान हरि मुझसे कहने लगे कि इस अग्नि को उत्पन्न करने वाले तेजस्वी लिंग की परीक्षा करनी चाहिये। मैं इसके नीचे की तरफ इसके मूल को देबूंगा तथा आप ऊपर की ओर शीघ्र प्रयत्न पूर्वक जाइये। है देवताओ! तब उसी समय भगवान विष्णु ने वाराह का स्वरूप धारण किया और मैंने शीघ्र ही हंस का स्वरूप बनाया। तभी से लेकर मुझे मनुष्य हंस भगवान कहने लगे । सफेद पंख, सफेद वर्ण का मैं सुन्दर हँस बन गया।

मन और हवा के वेग के समान मैं ऊपर को उड़ा। नारायण भगवान ने भी इस योजन लम्बे चौड़े सौ योजन के आयत वाले मेरु पर्वत के समान आकार धारण करके वाराह रूप बनाया। उनके सफेद पैने-पैने दाँत थे। काल के समान महान तेजस्वी चमकते हुए सूर्य के समान काले वाराह का रूप धारण करके पृल्ली में नीचे की ओर चले गये। इस प्रकार भगवान विष्णु एक हजार वर्ष तक बड़ी शीघ्रता से नीचे ही चलते चले गए। परन्तु उन सूकर रूपधारी नारायण ने लिंग के मूल का कुछ भी पता नहीं पाया। उसी प्रकार उतने ही समय तक मैं भी ऊपर को गया। परन्तु अहंकार के कारण थककर मैं नीचे आकर गिर पड़ा। उसी तरह विष्णु भगवान भी क्लान्त होकर ऊपर आकर चुपचाप पड़ गये। उनका चित्त बड़ा खिन्न था तथा नेत्र थक गये थे।

उसी समय उसे लिंगमें से बड़े जोर का शब्द हुआ। उसमें से”ॐ” ऐसी ध्वनि प्लुत लक्षण से निकली।

उस महान घोर नाद को सुनकर”यह क्या” ऐसा हमने कहा। तभी उस लिंग के दाहिने भाग में सनातन भगवान को भी देखा। उस ‘ॐ’ सनातन भगवान के आदि में अकार इसके बाद उकार तथा उससे परे में मकार है, मध्य में नाद हैं। इस प्रकार’ॐ’ ऐसा स्वरूप हैं। आदि वर्ण सूर्य मण्डलवतु देखें तथा उत्तर में उकार हैं जो पावक नाम से प्रसिद्ध है। मकार चन्द्रमण्डल की संज्ञा वाला है जो मध्य में हैं उसके ऊपर शुद्ध स्फटिक वर्ण स्वरूप प्रभु विराजमान हैं। वह प्रभु तुरीया अवस्था से भी परे हैं। द्वन्द्व रहित हैं, शून्य हैं, भीतर बाहर से परम पवित्र हैं। आदि अन्त और मध्य से रहित हैं, आनन्द के भी मूल कारण हैं। ऋगु, यजु, सामवेद के तथा मात्राओं के द्वारा उन्हें ब्रह्म कहा जाता है, वे माधव हैं। वेद शब्द से उन विश्वात्मा का तत्वचिन्तन किया जाता है। इसलिये ऋषियों के परम सार कारण वेद को भी ऋषिर्वेद कहते हैं। इसी से परमेश्वर ऋषियों के द्वारा जाना जाता है।

देवता बोले-वह रुद्र भगवान वाणी और चिन्ता से रहित हैं। उन एकाक्षर ब्रह्म को वाणी भी प्राप्त न करके लौट आती है। उन एकाक्षर ब्रह्म को ही अमृत तथा परम कारण सत्य आनन्द, परब्रह्म परमात्मा जानना चाहिए। उन एकाक्षर से जो अकार स्वरूप हैं वह ब्रह्मा के स्वरूप हैं। एकाक्षर से उकार स्वरूप परम कारण भगवान हरि हैं तथा एकाक्षर से मकार नाम वाले नीललोहित शंकर जी हैं। सृष्टि के कर्ता जो अकार नाम वाले हैं, उकार उसमें मोहने वाले हैं तथा मकार नाम वाले नित्य ही कृपा करने वाले हैं। मकार नाम वाले बीजी हैं तथा अकार वाले बीज हैं। उकार वाले जो हरि हैं वह उत्पत्ति स्थान हैं, प्रधान हैं, पुरुषेश्वर हैं। बीजी बीज तथा यौनी तीनों ही नाम वाले भगवान महेश्वर हैं। इस लिंग में अकार तो बीज है प्रभु ही बीजी हैं तथा उकार योनि है।

अन्तरिक्ष आदि एक सोने के पिंड में लिपटा हुआ एक अण्ड था। अनेकों वर्षों तक वह दिव्य अण्ड भली भांति रखा रहा। हजारों वर्षों के बाद उस अण्ड के दो भाग हो गये। उस सुवर्ण के अण्ड़ का ऊपर का कपाल जैसा भाग आकाश कहलाया तथा नीचे का कपाल जैसा भाग रूप, रस, गन्ध आदि पाँच लक्षणों सहित पृथ्वी जाननी चाहिये। उस अण्ड़ से अकार नाम वाले चुतुर्मुख ब्रह्मा जी उत्पन्न हुए हैं, जो सम्पूर्ण लोकों के रचने वाले हैं।

इस प्रकार वेदों के जानने वाले ऋषि लोग उस ॐ का वर्णन करते हैं। इस प्रकार यजुर्वेद के जानकारों के वचनों को सुनकर ऋग् और सामवेद के ज्ञाता भी आदर सहित यही कहते हैं कि वह ऐसा ही है। अकार उस ब्रह्म का मूर्धा अर्थात् दीर्घ ललाट है। इकार दायाँ नेत्र है ईंकार वाम नेत्र है, उकार दक्षिण कान है, अकार बायाँ कान है, ऋकार उस ब्रह्म का दायाँ कपोल है, ऋकार उसका बायाँ कपोल है तथा लुलु उसके दोनों नाक के छेद हैं। एकार उसका होंठ है, ऐकार उसका अधर हैं। ओ और औ क्रमशः उसकी दोनों दन्त पंक्ति हैं।अं उसका तालु स्थान है। क आदि ( क ख ग घ ङ) उसके दायें तरफ से पाँच हाथ हैं। च आदि ( च छ ज झ ञ) उसके बायें ओर के पाँच हाथ हैं।ट आदि ( ट ठ ड ढ ण) तथा त आदि ( त थ द ध न) उसके दोनों तरफ के पैर हैं। पकार उसका उदर, फकार दायीं ओर की बगल हैं। व कार बायीं ओर की बगल है। व, भ, कार दोनों कन्धे हैं, म कार उस महादेव जी का हृदय है। ये कार से स कार तक उसकी सात धातु हैं। ह कार आत्म रूप है, क्ष कार उसका क्रोध हैं।

इस प्रकार के स्वरूप वाले उन महादेव जी को उमा के साथ देखकर भगवान विष्णु ने उन्हें प्रणाम किया और उन भगवान शंकर को जो कार मन्त्र से युक्त हैं, शुद्ध स्फटिक माला से युक्त या स्फटिक माला के समान सफेद हैं बुद्धि करने वाले हैं, सर्व धर्मों के साधन करने वाले हैं, गायत्री मन्त्र के प्रभु हैं तथा सबको वश में करने वाले हैं, चौबीस वर्षों से युक्त हैं, अथर्व वेद के मन्त्रों के स्वरूप हैं, कला काष्ठ से युक्त हैं, ३ ३ अक्षरों से शुभ स्वरूप हैं, श्वेत हैं, शान्ति कारण हैं, तेरह कला से युक्त हैं, संसार के आदि, अन्त और वृद्धि के कारक हैं, इस प्रकार के शिव को देखकर भगवान विष्णु ने पंचाक्षर मन्त्र ( नमः शिवाय) से जप किया।

इसके बाद उन काल, वर्ण, ऋग्, यजु, सामवेद के जो स्वरूप हैं, ऐसे पुरुष पुरातन, ईशान, मुकुट, जिनका अघोर मन्त्र ही हृदय है, सर्प राज भूषण सदाशिव को, जो ब्रह्मादि की उत्पत्ति, स्थिति और संहार के कारण हैं, उन वाणी और वरदान को देने वाले ईश्वर महादेव जी को देखकर प्रसन्न करने के लिये विष्णु भगवान स्तुति करने लगे।

विष्णु के द्वारा शिव की स्तुति

विष्णु भगवान कहने लगे-हे एकाक्षर रूप! हे रुद्र! हे अकार स्वरूप! हे आदि देव! हे विद्या के स्थान! आपको नमस्कार है। हे मकार स्वरूप! हे शिव स्वरूप! हे परमात्मा! सूर्य, अग्नि और चन्द्रमा के वर्ण वाले! हे यजमान स्वरूप! आपको नमस्कार है। आप अग्नि स्वरूप हो, रुद्र रूप हो। हे रुद्रों के स्वामी आपको नमस्कार है। आप शिव हैं, शिव मन्त्र हैं, वामदेव हैं, वाम हैं, अमृत्व के वरदायक हैं, अघोर हैं, अत्यन्त घोर हैं, ईशान हैं, श्मशान हैं, अत्यन्त वेगशाली हैं, श्रुतियाँ जिनकी पाद है, ऊर्ध्वलिंग हैं, हेमलिंग हैं, स्वर्ण स्वरूप ही हैं, शिवलिंग हैं, शिव हैं, आकाश व्यापी हैं, वायु के समान वेग वाले हैं, वायु के समान व्याप्त हैं, ऐसे तेजस्वी संसार के भरण करने वाले आपको नमस्कार है।

आप जल स्वरूप हैं, जल भूत हैं, जल के समान व्यापक हैं, आप पृथ्वी और अन्तरिक्ष हैं, ऐसे आपको नमस्कार हैं। आप एक स्पर्श रूप रस गन्ध रूप हैं, आप गुह्य से भी गुह्यतम हैं, हे गणाधिपतये! आपको नमस्कार है। आप अनन्त हैं, विश्वरूप हैं वरिष्ठ हैं, आपके गर्भ में जले हैं, आप योगी हो, आप बिना रूप के हैं तथा कामदेव के रूप को भी हरण करने वाले हैं, भस्म से शरीर लिपटा हुआ है, सूर्य, अग्नि तथा चन्द्रमा के कारण रूप हो, श्वेत वर्ण के हैं, बर्फ से भी अधिक श्वेत हैं। सुन्दर मुख है, श्वेत शिखा है, हे श्वेत लोहित! आपको नमस्कार हैं। है ऋद्धि, शोक और विशोक रूप! हे पिनाकी! हे कपर्दी! हे विपाश! हे पाप नाशनः हे सुहोत्र! हे हविष्य! हे सुब्रह्मण्य! हे सूर! हे दुर्दमन! हे कंकाय! हे कंकरूप! हे सनक सनातन! हे सनन्दन! हे सनत्कुमार! है संसार की आँख! है शंख पाल! हे शंख! है रज! है तम! हे सारस्वत! हे मेघ! हे मेघ वाहन! आपको नमस्कार है। है मोक्ष है मोक्ष स्वरूप! हे मोक्ष करने वाले! हे आत्मन! हे ऋषि! हे विष्णु के स्वामी! आपको नमस्कार है। हे भगवान! आपको नमस्कार है। हे नागों के स्वामी! आपको नमस्कार है। हे ओंकार रूप! हे सर्वज्ञ! हे सर्व! हे नारायण! हे हिरण्यगर्भ! हे आदि देव! हे महादेव! हे

Ling Puran part-1

to be continued part-2