यह लोकतंत्र नहीं

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अभी हाल में देश के पांच राज्यों में विधान सभा चुनाव सम्पन्न हुए। मिजोरम और तेलंगाना में नवनिर्वाचित विधायक दल ने अपने नेता का चुनाव बिना किसी विरोध-प्रतिरोध के कर लिया। मिजोरम में मिजो नेशनल फ्रंट के अध्यक्ष जोरमथांगा ने निर्विरोध तीसरी बार राज्य के मुख्यमंत्री पद की शपथ ले ली।

इसी प्रकार, तेलंगाना में तेलंगाना राष्ट्र समिति के नेता के. चन्द्रशेखर राव ने दूसरी बार सर्वसम्मति से मुख्यमंत्री का पद ग्रहण किया। लेकिन मध्य प्रदेश, राजस्थान और छत्तीसगढ़ में ऐसी स्थिति नहीं देखी गई, जहां कांग्रेस को सरकार बनाने का अवसर मिला है। जिस तरीके से मुख्यमंत्रियों का चयन किया गया, उसे आदर्श लोकतंत्र नहीं कहा जा सकता।

मध्य प्रदेश में पार्टी के प्रांतीय अध्यक्ष कमलनाथ को विधायक दल का नेता चुना गया। राजस्थान में यह दायित्व अशोक गहलोत को सौंपा गया तथा छत्तीसगढ़ में भूपेश बघेल को कमान दी गई। लेकिन तीनों नेताओं का उनके प्रतिव्दंव्दियों के समर्थकों के माध्यम से अप्रिय एवं अशालीन विरोध मुखर हुआ। मध्यप्रदेश में कमलनाथ का विरोध ज्योतिरादित्य सिंधिया शिविर की ओर से किया जा रहा है। उनके क्षुब्ध समर्थकों ने अब उन्हें कम से कम पार्टी का प्रांतीय अध्यक्ष पद देने की मांग की है। इस पद पर फिलहाल कमलनाथ ही हैं।

ऐसे ही, राजस्थान में अशोक गहलोत का विरोध सचिन पायलट के समर्थक कर रहे थे। विरोध में वे आगजनी जैसी वारदात तक कर बैठे। आखिरकार सुलह का एक फार्मूला निकाला गया और उन्हें उप मुख्यमंत्री बनाकर तुष्ट किया गया। छत्तीसगढ़ में तो स्थिति और विकट थी। वहां कांग्रेस के प्रदेश अध्यक्ष भूपेश बघेल के अलावा भाजपा सरकार के समय नेता प्रतिपक्ष रहे त्रिभुवनेश्वर शरण सिंह देव, राज्य से पार्टी के इकलौते सांसद ताम्रध्वज साहू और पूर्व केन्द्रीय मंत्री चरण दास महंत के बीच चली रस्साकशी के कारण आखिरी चयन में लंबा वक्त लगा। बताया जाता है कि फिर भी कांग्रेस आला कमान अपनी पहली पसंद साहू को मुख्यमंत्री नहीं बनवा पाया।

लोकतंत्र और संविधान की मूल भावना के अनुसार अपने नेता का चुनाव नवनिर्वाचित विधायकों को करना चाहिए। इसके लिए श्रेष्ठ यही है कि सर्वानुमति बने। ऐसा न हो पाने पर चुनाव कराया जाना चाहिए। लेकिन ऐसा अधिकांश राजनीतिक दल नहीं करते। इसका एकमात्र कारण यही प्रतीत होता है कि पार्टी नेतृत्व अपने पसंद के व्यक्ति को ही मुख्यमंत्री पद पर आसीन कराना चाहता है। चयन के मापदण्डों में सबसे प्रमुख यही रहता है कि वह उनके संकेतों पर नाचता रहे और मजबूत और अधिक लोकप्रिय जन नेता बनकर न उभर पाए।

स्पष्ट है कि चुनाव जीत कर विधायक दल का नेता बनने वाला व्यक्ति अधिक आत्मविश्वास से अपने कर्तव्यों का निर्वहन करेगा। साथ ही, पार्टी में किसी के लिए मनोमालिन्य रखना स्वाभाविक नहीं होगा। ऐसी स्थिति में, एकता और टीम भावना के भाव ज्यादा मजबूत होंगे। पूरी प्रक्रिया पारदर्शी बनने के अनेक लाभ गिनाए जा सकते हैं। लेकिन सबसे बड़ा लाभ यही है कि इससे लोकतंत्र स्वस्थ व जनाभिमुखी होगा और वह ज्यादा सक्षम तरीके से कल्याणकारी शासन सूत्र संचालित करेगा। सम्प्रति, अधिकांश राजनीतिक दलों ने जो मार्ग चुना है वह लोकतंत्र के लिए तो श्रेयस्कर नहीं ही है, राजनीतिक दलों के अपने हित में भी नहीं है। राजनीतिक दलों को इस पर गंभीरतापूर्वक विचार करना चाहिए।

अनिल गुप्ता

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