Vaman Puran

21

श्रीवामनपुराणम्

हरिः

नमो भगवते त्रिविक्रमाय

अथ श्रीवामनपुराणम्

पहला अध्याय श्रीनारदजीका पुलस्त्य ऋषिसे वामनाश्चयी प्रश्न; शिवजीका

लीनाचरित्र और जीमूतवाहन होना नारायणं नमस्कृत्य नरं चैव नरोत्तमम्।। भगवान् श्रीनारायण, मनुष्योंमें श्रेष्ठ नर, भगवती देर्वी सरस्वतीं व्यासं ततो जयमुदीरयेत् ।। सरस्वतीदेवीं और (पुराणों के कर्ता) महर्षि व्यासजी कों नमस्कार करके जय (पुराणों तथा महाभारत आदि त्रैलोक्यराज्यमाक्षिप्य बलेरिन्द्राय यो ददौ ।। ग्रन्थों) का उच्चारण (पटन) करना चाहिये। श्रीधराय नमस्तस्मै छन्ग्रवामनरूपिणे

 जिन्होंने अलिसे (भूमि, स्वर्ग और पाताल–इन) तीनों लोकोंके राज्यको छनकर इन्द्रको दे दिया, उन मायामय वामनरूपधारों और लक्ष्मीको हृदयमें धारण करने वाले विष्णुको नमस्कार है।

 

पुलस्त्यषिमासनमाश्नमें वाग्विदां वरम्

नारदः परिपप्रच्छ पुराणं वामनाश्रयम्

 एक बारकी बात है कि- वाग्मियोंमें श्रेष्ठ विदर पुलस्त्य ऋषि अपने आश्रममैं बैठे हुए थे।

कथं भगवता ब्रह्मन् विष्णुना प्रभविष्णुना।।

(वह) नारदजींने उनसे वामनपुराणक कथा-इस वामनत्वं धृतं पूर्वं तन्ममाचक्ष्व पृच्छतः ॥ ३  ॥

प्रकार) पुडीं। उन्होंने कहा—ब्रह्मन् ! महाप्रभावशाली भगवान् विष्णुने कैसे वामनका अवतार ग्रहण किया था, कथं च वैष्णव भूत्वा प्रादौ दैत्यसत्तमः। 1इसे आप मुझ जिज्ञासकों बतलायें। एक तो मेरी यह त्रिदशैर्युयुधे सार्धमत्र में संशयों महान् ॥ ४ शङ्का है कि दैत्यवर्य प्रह्लादने विष्णुभक्त होकर भी ६. महाभारत चालान नर-नारायण माझमें विभक्त परमात्मा ही है, जो बादमें अर्जुन और हुए। ये ही। नारायस या भागवतधर्म प्रधान मुचारक है, अतः भागवतोय ग्रन्थोंमें मर्यत्र इन दोनोंको नमस्कार किया गया है। पुराण-प्रवचनमें भी इस लोकको माङ्गलिक झमें पाइनेकों प्राचन प्रथा है। महाभारतका प्राचीन नाम ‘न’ है: पर पसाक्षणमैं पाराका भौ माण किया जाता है। भविष्यपुर का वचन है

 

अशदश पुराणानि रामस्य अति धा।

का पैदपञ्चम् न्मभानं चिद:

जति नाम चलेंया प्रयदन्।ि मनीषिणः [ भविष्यमुराच्या ] अर्थात् = अमाओं पराण, गामापा और मम्पुण बेंदा) वेद, निमें महाभार र्ने बानते सबको मनोमीलाँग ||शप कही है।

श्रूयते च द्विजश्श्रेष्ठ दक्षस्य दहिता सती। | देवताओंके साथ युद्ध कैसे किया और ब्राह्मणश्रेष्ठ ! शंकरस्य प्रिया भार्या बभूव वरवर्णनी।। ५ । दूसरी जिज्ञासा यह है कि दक्षप्रजापतिकी पुत्री भगवती सती, जो भगवान् शंकरकी प्रिय पत्नी थीं, उन श्रेष्ठ किमर्थं सा परित्यज्य स्वशरीरं वरानना।। मुबाली (सती) ने अपना शरीर त्यागकर पर्वतराज जाता हिमवतो गेहे गिरीन्द्रस्य महात्मनः।। ६ | हिमालयके घर में किसलिये जन्म लिया? और पुनः ये पुनश्च देवदेवस्य पत्नीत्वमगमच्छुभा। कन्याग देवदेव महादेव की पत्नी कैसे बन ? मैं मानता हैं कि आपको सब कुछका ज्ञान हैं, अत: आप एतन्मे संशयं छिन्धि सर्ववित् त्वं मतोऽसि में॥ ७ मेरी इस शंकाको दूर कर दें। साथ ही सत्पुरुषोंमें श्रेष्ठ तीर्थानां चैव माहात्म्यं दानानां चैव सत्तम। हें हिन! ती तथा दानोंकी महिमा और विविध व्रतोंकी व्रतानां विविधानां च विधिमाचक्ष्व में द्विज्ञ॥ | अनुष्ठान-विधि भी मुझे बताइये ।। १-८॥ नारदजीके इस प्रकार कहनैपर मुनियोंमें मुख्य एवमुक्तो नारदेन पुलस्त्य मुनिसत्तमः। तथा वक्ताओंमें अच्च तपोधन मुलस्त्यज्ञी नारदजींसे कहने | प्रोवाच ब्रदतां श्रेष्ठको नारदं तपसौ निधिम् ॥ १ | लगें ॥ ६ ॥

पुलस्त्यजीं बोले–नारद! आपसे मैं सम्पूर्ण सामनपुराणको कथा आदिले अन्तताक) वर्णन कगा। पुराणं वामनं वक्ष्ये क्रमान्निखिलमादितः।।

मुनिश्रेष्ठ ! आप मनको स्थिर कर ध्यानसे सुनें । प्राचीन अवधानं स्थिरं कृत्वा शृणुष्व मुनिसत्तम ।। १० ।।

समयमें देवी हैमवती (सती)-नें ग्रीष्म ऋतुको आगमन पुरा हैमवती देवी मन्दरस्थं महेश्वरम्।। देखकर मन्दर पर्वतपर बैठे हुए भगवान् शंकरसे कहा उवाच वचनं दृष्ट्वा ग्रीष्मकालमपस्थितम् ।। ११ | देवेश ! ग्रीष्म ऋतु तो आ गयी है, परंतु आपका कोई घर नहीं है, जहाँ हम दोनों ग्रीष्मकालमें निवास करते ग्रीष्मः प्रवृत्त देवेश न च ते विद्यते गृहम्।

 

हुए वायु और तापज्ञनंत कठिन समयको बिता सकेंगे।

यत्र वातानप ग्रीमें स्थितयों गमिष्यनः ।। १३ ।।

सतीके ऐसा कहनेपर भगवान् शंकर बोले -है सुन्दर एवमुक्त भवान्या तु शंकरौ वाक्यमब्रवीत्।। दाँतोंवाली सति! मेरा कभी कोई घर नहीं रहा। मैं तो निराश्रयोहं सुदति सदारण्यचरः शुभे ।। १३ | सदा वनमें हीं घूमता रहता हूँ॥ १०-१३॥

इत्युक्ता शंकणाश्च वृक्षच्छामासु नारद नारदजीं ! भगवान् शंकरके ऐसा कहनेपर सती निदाघकालमनयतु समं शर्वेण सा सती ।। १४ | देवीने उनके साथ वृक्षांकी छायामें (जैसे-तैसे रहकर)

निदा (गर्मी का समय बिताया। फिर ग्रीष्मके अन्तर्म। निदाघान्ते समजूतों निर्जनाचरितोद्भुतः।। अद्भुत वर्षा-ऋतु आ गयी, जो अत्यधिक रोग को बानेवाली होती है और जिसमें प्राय: सबका आवागमन घनान्धकारिताशो वै प्रावृकालोऽतिरागवान् ॥ १५ ॥

अवरुद्ध हो जाता हैं। (उस समय) मेघोंसे आबूत हो जानेसे दिशाएँ अन्धकारमय हो जाती हैं। उस चर्पा तं दृष्ट्वा दक्षतनुजा प्रावृकालमुपस्थितम्।तुको आयीं देखकर दक्ष-पुत्री सतने प्रेमासे महादेवनसे प्रोवाच वाक्यं देवेशं सती सप्रणयं तदा ।। १६ | यह वचन कहा — ॥ १४–१६ ॥

३. भविष्यपरामक मानानुसार वामन व चमच नमानी है, पर यहाँ मनसत्पनी पैसा जम्छ नहीं करते कि । पुराणं चामन वधये जागा व ममा तम्।’ इसमें प्रतीत होता है कि तत्-सम्बन्धों शौंक अनुपलब्ध हैं। मगदुराप्प भी चतुर्मुख { भा)-के वक्ता होने का जलवा है *त्रिविक्रमस्य माहात्म्यमधिकृत्य चतुर्मुखः । त्रिवर्गमभ्यधात् तच्च वामनं परिकीर्तितम् ॥

 श्रीनारदज्ञका पुलस्त्य ऋषिसे प्रश्न; शिबजीका लौंला-चरित्र और जीमूतवाहन होना विवन्ति बाता हृदयावदारणा महेश्वर ! हुदयको विदीर्ण करनेवाली वायु वेगसे गर्जन्त्यम तोयधरा महेश्वर।। चल रही है। ये मैच भी गर्जन कर रहे हैं, नीले मेघमें स्फुरन्ति नीलाभगणेषु विद्युत बिजलियाँ कौंध रही हैं और मयूरगण केंकाध्वनि कर | वाशन्ति केकारवमेव बहिणः ॥ १५ पतन्ति धारा गगनात् परिच्युता रहे हैं। आकाशसे गिरती हुई जलधाराएँ नीचे आ रहीं बका बलाकाचे सरन्ति तोयान्।

हैं। बगुले तथा अगुलकी पंक्तियाँ जलाशयोंमें तैर रहीं कदम्बसन्जार्जुनकेतकीमाः हैं। प्रयल वायुके झोंके ख़ाकर कदम्ब, सर्ज, अर्जुन तथा पुष्पाणि मुञ्चन्ति सुमारुताहताः ॥ १८ ॥ केतकीके वृक्ष पुष्पोंको गिरा रहे हैं-वृक्षोंसे फूल झड़ श्रुत्वैव मेघस्य दृढं तु गर्जितं रहे हैं। मैंघको गम्भीर गर्जन सुनकर हंस तुरंत यज्ञन्ति साश्च सरांसि तत्क्षणात्।।

यथाभयान् योगिगणाः समन्तात्

जलाशयोंको छोड़कर चले जा रहे हैं, जिस प्रकार प्रवृद्धमूलानपि संत्यजन्ति ।। १३ | योगिजन अपने सब प्रकारसे समृद्ध घरको भी छोड़ देते इमानि यूथानि वने मृगाणां । हैं। शिक्जी! वनमें मृगोंके ये यूथ आनन्दित होकर चरन्ति धावन्ति मन्ति शंभो। इधर-उधर दौड़ लगाकर, खेल-कूदकर आनन्दित हो तथाचिराभाः सुतरां स्फुरन्ति । रहे हैं और देव! देखिये, नीर बादलोंमें विद्युत् पश्येह नीलेषु घनेषु देव।।

भलीभाँति चमक रहीं हैं। लगता हैं, जलकों वृद्धिको नूनं समृद्धि सलिलस्य दृष्ट्वा देखकर झारगण हरे-भरे सुपु नये वृक्षों पर विचारण कर | चरन्ति शरास्तगद्गमेषु ॥ २३ उद्वृत्तवेगाः सहसैव निम्नगा रहे हैं। नदियाँ सहसा उद्दाम (बड़े) बैगसे बहने लग जाताः शशाङ्काङ्कितचारुमले। | हैं। चन्द्रशेखर ! ऐसे उत्तेशक समयमें यदि असुवृत्त किमत्र चित्रं अनुचलं जनं व्यक्तिके फंदे में आकर स्त्री दु:शांत हो जाती हैं तो निषेव्य यौषिद् भवति त्वशीला २१॥ इसमें क्या आश्चर्य ॥ १७–२१ ।।

नीलैश्च मेधैश्च समावृतं नभः आकाश नीले बादलोंसे भिर गया हैं। इसी प्रकार पुष्पैश्च सञ्जा मुकुलै नपाः ।।

पुष्पोंके द्वारा सर्ज, मुकुलों (कलियों)-के द्वारा नाम फनैश्च बिल्वाः पयसा तश्चापगाः (कदम्ब), फलोंके द्वारा बिल्ववृक्ष एवं जलके द्वारा पत्रैः सपञ्चैश्च महासरांसि ।। २२ | नदि और कमल-पुष्पों एवं कमल पन्नोंसे बड़े-बड़े इतदर्श शंकर दुःसहेऽद्भुते सरोवर भी हुक गये हैं। हे शंकरज्ञौ ! ऐसी दुःसह,

काले सुरौद्रे ननु ते ब्रवीमि। | अद्भुत तथा भयंकर दशामें आपसे प्रार्थना करती हैं कि गृहं कुरुष्वात्र महाचलोत्तम इस महान् तथा उत्तम पर्वतपर गृह-निर्माण कीजिये; हे सुनिता येन भवामि शंभो।। ३३ | शंभो ! जिससे मैं सर्वथा निश्चिन्त हो जाऊँ। कानोंको प्रिय इत्थं त्रिनेत्रः श्रुतिरामणीयकं नगनेकाने सत्ताक न घन्धनको सनसनीन नयनवाले श्रुत्वा वचो वाक्यमिदं बभायें। भगवान् शंकरजी बोले-प्रिये ! घर बनानेके लिये ( और न मेंऽस्ति बित्तं गृहसंचयार्थे उसकी साज-सजाके लिये) मेरे पास धन नहीं है। मैं मृगारिचर्माबरणं मम प्रिये ।। २४ | व्याघ्रके चर्ममान्नसे अपना शरीर इकता हूँ। शुभे! ममोपवीतं भुजगेश्वरः शुभे (सूत्रोंके अभावमें) सर्पराज हौ मेरा उपवीत (जनेऊ) कर्णेऽपि पद्मश्च तथैव पिङ्गलः । बना है। पद्म और पिंगल नामके दो सर्प मेरे दोनों कैयरमेकं मम कम्बलस्त्वहि कानोंमें ( कुण्डलका काम करते हैं। कंबल और द्वितीयमन्यों भुजगो धनंजयः ॥ २५ | धनंजय नाम में दो सप्तर्ष मेरी दोनों बाँहॉके बाजूबंद

के सामानपुराण के नागस्तथैवाश्वतरो हि कङ्कणं हैं। मेरे दाहिने और बॉयें हाथमें भी क्रमशः अश्वतर तथा सच्येतरे तक्षक उत्तरे तथा। तक्षक नाग कण बने हुए हैं। इस प्रकार मैरी कमरमें नीलोऽपि नीलाञ्जनतुल्यवर्णः नौलानकै वर्णमाला नॉल नामका सर्प अवस्थित होकर ओणीतटे राजति प्रतिष्ठः ॥ २६ | सुशोभित हो रहा हैं ॥ ३२-३६ ॥

पुलस्त्य उवाच पुलस्त्यजी बोले- महादेबजसे इस प्रकार कर इति वचनमथौयं शंकरात्सा मृडानी | | तथा औजवीं एवं सत्य होनेपर भी असत्य प्रतीत हो रहे

वचनको सुनकर सतीजों बहुत बुर गयीं और स्यामा ऋतमपि तदसत्यं श्रीमदाकण्र्यं भीता। निवासकको देखकर गरम साँस छोड़ती हुई और | अवनितलमवेक्ष्य स्वामिनो वासकृच्छात्। पृथ्वीकी ओर देती हुई कुछ) क्रोध और लज्जासे परिवदति सरोष लज्जयोच्छ्व स्य चोष्णम् ॥ ३७ | इस प्रकार कहने लगीं- ॥ ३३ ॥

सतीदेवीं बोलीं- देवेश ! वृक्षकै मूलमें दु:खपूर्वक कथं हि देवदेवेश प्रावकालो गमिष्यति। रहकर भी मेरा वर्षाकाल कैसे पतत होगा! इसलिये | वृक्षमुले स्थिताया में सुदुःखेन वदाम्यतः ॥ २८ | तो मैं आपसे (गृहके निर्माणकी बात कहती हूँ॥ २८ ॥ | शंकरजी बोले- देवि! मेय-मण्डलके ऊपर अपने शरीरको स्थित कर तुम वर्धाकाल भलीभाँति घनावस्थितदेहायाः प्रावृद्कालः प्रयास्यति ।। व्यतीत कर सकोगीं। इससे वर्षाकी जलधाराएँ तुम्हारे | यथाम्बुधारा न तव निपतिष्यन्ति विद्महे ॥ २९ शरोपर नहीं गिर पायेंगीं ॥ २६ ॥ पता न पुलस्त्यजी बोले-उसके बाद महादेवजी ततो हुस्तद्घनखपदमुन्नत दक्षकन्या सतीके साथ आकाशमें उन्नत मैघमण्डलके | मारुह्य तस्थौं सह दक्षकन्यया। ऊपर चढ़कर बैठ गये। तभीसे स्वर्गमें उन महादेवीका ततोऽभवन्नाम महेश्वरस्य नाम ‘झौमूतकेतु’ या ‘जीमूतवाहन’ विख्यात हो जीमूतकेतुस्विति विश्रुतं दिबि ।। ३० ] गया॥ ३० ॥

इस प्रकार वामनपुराणमें पहला अध्याय समाप्त हु 2 १ ॥

दूसरा अध्याय

शरदागम होनेपर शंकरजीका मन्दरपर्वतपर जाना और दक्षका यज्ञ पुलस्त्यजी बोले-इस प्रकार तीन नयनवाले ततस्त्रिनेत्रस्य गतः प्रावृट्काल घनोपरि।। | भगवान् शिवका वर्षाकाल मेघोंपर असते हुए ही व्यतीत लोकानन्दकरी रम्या शरत् समभवन्मुने ।। १ | हो गया। हे मुने! तत्पश्चात् लोगों को आनन्द देनेवाली

रमणीय शरद् ऋतु, आ गयीं। इस ऋतुमें नीले मेष यज्ञन्ति नीलाम्बुधरा नभस्तले आकाशको और बगुले वृक्षोंको छोड़कर अलग हो जाते वृक्षांश्च कङ्काः सरितस्तटानि।। हैं। नदियाँ भी तटको छोड़कर बहने लगती हैं। इसमें | पद्माः सुगन्धं निलयानि वायसा कमलपुष्प सुगन्ध फैलाते हैं, वे भी घोंसलको छोड़

रुरुर्विषाणं कलुष जलाशयाः ॥ २ | देते हैं। रुरुमृगौंकै शृङ्ग गिर पड़ते हैं और

जलाशय अध्याय ]

शरदागम होनेपर शंकरका मन्दरपर्वताघर जाना और इक्षका अज्ञ के विकासमायान्ति च पङ्कजानि सर्वथा स्वच्छ हो जाते हैं। इस समय कमल विकसित चन्द्रांशवों भान्ति लत्ताः सपप्पाः ।। होते हैं, शुभ्र चन्द्रमाकी किरणें आनन्ददायनीं होकर नन्दन्ति दृष्टान्यप गोकुलानि पैल जाती हैं, लताएँ पुष्पित हो जाती हैं, गौवें हृष्ट-पुष्ट सन्तश्च संतोषमनुज्ञन्ति ॥ ३ | होकर आनन्दसे विहरती हैं तथा संतोंकों बड़ा सुख सर: पद्मा गगने च तारका मिलता हैं। तालाबोंमें कमल, गगनमें तारागण, जलाशयोंमें जलाशयेष्वेव तथा पयांस।। निर्मल जल और दिशाक मुसमानके साथ सञ्जनका सतां च चित्तं हि दिशां मुखैः समं । चित्त तथा चन्द्रमाको ज्योति भी समंथा स्वच्छ एवं

बैंमल्यमायान्ति शशाङ्ककान्तयः ॥ ॐ | निर्मल हो जाती हैं ॥ १-४ || | एतादृशे हुरः काले मेघपृष्ठाधिवासिनीम्। । ऐसी शरद्-लुमें शंकरजी मैंघर्के ऊपर वास सतीमादाय शैलेन्द्र मन्दरं समुपाययौ ॥ ५ करनेवाली सतीको साथ लेकर श्रेष्ठ मन्दरपर्यतपर पहुँचे और महातेजस्य (महाकान्तिमान्) भगवान् शंकर |तत मन्पष्ठेसी स्थितः समशिलानले । मन्दराचलके ऊपरी भागमें एक समतल शिलापर अवस्थित रराम शंभुर्भगवान् सत्या सह महाद्युतिः ॥ ६  होकर सतींके साथ विश्राम करने लगे। उसके बाद ततो व्यतीते शरद प्रतिबुद्धे च केशवे । ।

शरद्- के चौंत ज्ञानेपर तथा भगवान् विष्णुक जाग ज्ञानेपर प्रज्ञापतयोंमें श्रेष्ठ दक्षनें एक विशाल यज्ञका दक्षः प्रजापतिश्श्रेष्ठो यष्टुमारभत ऋतुम्॥ ७ |

आयोजन किया। उन्होंने द्वादश आदित्य तथा कश्यप द्वादशैव स चादित्याशक्कादींश्च सुरोत्तमान्। आदि (ऋषियों)-के साथ ही इन्द्र, आदि श्रेष्ठ देवताओंको सकश्यपान् समामन्य सदस्यान् समचीकरत् ॥ | भो निमन्त्रित कर उन्हें अज्ञका सदस्य बनाया || ५-६॥ अरुन्धत्या च सहितं चसिष्ठे शंसितव्रतम्। । नारदशौ ! उन्होंने अरुन्धतीसहित प्रशस्तत्रतधारी सहानसूययात्रिं च सह धृत्या च कौशिकम् ॥ १ | वसिष्ठको, अनसूयासहित अत्रिमुनिकों, भूतिके

सहित कोशिका विश्वामिन] मुनिको, हल्के साथ अहल्यया गौतमं च भरद्वाजममायया। गौतमको, अमाया सहित भराजको और चन्द्राके | चन्द्रया सहितं ब्रह्मन्नषिमङ्गिरसं तथा ॥ १० | साथ अङ्गिरा ऋषिको आमन्त्रित किया। विद्वान् दक्षने आमन्त्र्य कृतवान्दक्षः सदस्यान् यज्ञसंसदि।।

इन गुणसम्पन्न वेद-वेदाङ्गपारगामी विद्वान् ऋपियाँको निमन्त्रितकर इन्हें अपने यज्ञमें सदस्य बनाया। और, | विद्वान् गुणसंपन्नान् वेदवेदाङ्गपारगान् ॥ ११ उन्होंने (प्रजापति दक्षने) यज्ञमें धर्मको भी उनकी धर्मं च स समाहूय भार्यंयाऽहिंसया सह।। पत्नी हिंसाके साथ निमन्वितकर अज्ञमपाका द्वारपाल

निमन्त्र्य यज्ञबाटस्य द्वारपालत्वमादिशत् ॥ १३ | नियुक्त किया ॥ १३–१३ ।।

अरिष्टनेमिनं चक्रे इध्माणकारिणम्। इक्षने अरिष्टनेमिको समिधा लानेका कार्य सौंपा। भगं च मन्यसंस्कारे सम्यग् दक्षः प्रयुक्तवान् ॥ १३ | और भृगुको समुचित मन्त्र-पाळमें नियुक्त किया। फिर दक्ष तथा चन्द्रामसं देवं रोहिंग्या सहितं शुचिम्। प्रजापतिने रोहिणींसहित ‘अर्थशुचि’ चन्द्रमाको कोषाध्यक्ष भनानामधिपत्ये च युक्तिवान् हि प्रजापतिः ॥ १४ | पदपर नियुक्त किया। इस प्रकार दक्षप्रजापतनें केवल जामातृदहितचैव दौहित्रांश्च प्रजापतिः। शांकरसहित सतको छोड़कर अपने सभी जामाताओं, पुत्रियों सशंकरा सर्ती मचा मखें सर्वानु न्यमन्त्रयत् ॥ १५ | एवं दौहित्रोंकों याज्ञमें आमन्त्रित किया ॥ १३-१५ ॥

नारदज्ञने कहा ( पूछा )-(पुलस्त्यजी महाराज !) नाह जमान लौकस्बा दक्ष महेश्वरको सबसे बड़े अंह, वरिष्ठ, किमथ लोकपतिना धनाध्यक्ष महेश्वरः।। | सबके आदिमें रहनेवाले एवं समग्न ऐश्वर्योंके स्वामी ज्येष्ठः श्रेष्ठ वरिष्ठोऽपि आद्योऽपि न निमन्त्रितः ॥ १६ | होने पर भी ( यज्ञमें क्यों नहीं निमन्त्रित किया? ॥ १६ ॥

पुलस्त्यजीने का-(नारदजी!) यैष्ठ, श्रेष्ठ, वरिष्ठ ज्येष्ठः श्रेष्ठ वरिष्ठोऽपि आद्योऽपि भगवाशिवः ।। तथा अग्नगणी होने पर भी भगवान् शिवको कमानी ज्ञानकर कपालीति विदित्वेशों दक्षेण न निमन्त्रितः ॥ १७ | प्रजापति दक्षने उन्हें (यज्ञमें) निमन्त्रित नहीं किया ॥ १७ ॥ नारदनीने ( फिर ) पूछा-(महाराज !! देव श्रेष्ठ किमर्थं देवताश्रेष्ठः शूलपाणिस्त्रिलोचनः ।। शुलपण, त्रिलोचन भगवान् शंकर किस कर्मीसे और कपाली भगवान् जातः कर्मणा केन शंकरः ।। १८ | किस प्रकार कपाती हों गयें, यह बतलायें ॥ १८ ॥ | पुलस्त्य उवाच | पलस्त्याने चहा-नानी ! आप भन्यान देकर भृणुष्वाहतो भूत्वा कथामेतां पुरातनीम्।। सुनें । यह पुरानो कथा आदिपुराणमें अव्यक्तमूर्ति ब्रह्माज्ञों द्वारा कही गयी हैं। उसी प्राचीन कथाको आपसे | प्रोक्तामादिपुराणे च मह्मणाऽव्यक्तमूर्चिना ।। १६

कता है। प्राचीन समयमें समस्त स्वाथान–अङ्गमात्मक जगत् एकीभूत महासमुद्र में निमग्न (डूबा हुआ था। पुरा त्वेकार्णवं सर्वं जगत्स्थावरजङ्गमम्।। अन्द्र, सूर्य, नक्षत्र, वायु एवं अग्नि-किसका भी कोई नष्टचन्द्रार्कनक्षत्रं प्रगष्टपचनाननम् ॥ २८ {अलग अस्तित्व नहीं था। ‘भाव’ एवं ‘ अभाव में ।

रहित जगतुकी उस समयकी अवस्थाका कोई ठीक अप्रतक्य॑मविज्ञेयं भावाभावविवर्जितम्।। ठीक ज्ञान, विचार, तर्कना या वर्णन सम्भव नहीं है।

सभी पर्वत एवं वृक्ष लमें निमग्न थे तथा सम्पूर्ण ज्ञागत् । निमग्नपर्वतत तमोभूतं सुदर्दशम् ॥ ३१ अन्धकारसे झ्याप्त एवं दुर्दशाग्रस्त था। ऐसे समयमै

भगवान् विष्णु हजारों वर्षोंकी निद्रामें शयन करते हैं एवं तस्मिन् स शेते भगवान् निद्भां वर्षसहस्रिकीम्।। रात्रि अन्तमें राजस रूप ग्रहणकर वे सभी लोंकको राज्यन्ते सूजते लोकान् राजसं रूपमास्थितः ॥ २२ | रचना करते हैं। १९२२ ॥ राजसः पञ्चवदनों वेदवेदाङ्गपारगः। । | इस चराचरात्मक जगतुका अष्टा भगवान् विष्णुका स्वष्टा चराचरस्यास्य जगतोद्भुतदर्शनः ॥ २३ | वह अद्भुत राजस स्वरुपा पमुख एवं वैद-बैदाङ्गका । ज्ञाता था। उसी समय तमोमय, त्रिलोचन, शूलपाणि, तमोमयस्तथैवान्यः समुद्भूतस्त्रिलोचनः ।। कपर्दी तथा द्राक्षमाला धारण किया हुआ एक अन्य। शूलपाणिः कपर्दी चं अक्षमालां च दर्शयन् ॥ २४ पुरुष भी प्रकट हुआ। उसके बाद भगवान्ने तदारुण ततों महात्मा यज्ञदकार सुदारुणम्।। | अहंकारकी रचना की, जिससे ब्रह्मा तथा शंकर-ये येनाकान्तावुभौ देव तावेव ब्रह्मशंकरौ॥ २५ | दोनों ही देवता आक्रान्त हो गये। अहंकारसे व्याप्त शिवने झल्लासे का -तुम कौन हों और यहाँ कैसे आये अहंकारावृतो रुद्रः प्रत्युवाच पितामहम्।। | हों ? तुम मुझे यह भी बतलाओ कि तुम्हारी सृष्टि किसने क भन्नानि समाप्त: न स स मां च ॥ ३॥ की हैं ? ॥ २३–२६ ॥ पितामहोप्यर्हकारानु प्रत्युवाचाथ को भवान्। । (फिर इसपर ब्रह्माने भी अहंकारसे उत्तर दिया भवतो जनकः कोऽत्र जननी वा तदुच्यताम्॥ ३७ | आप भी बतलाइये कि आप कौन हैं तथा आपके माता पिता कौन हैं? लोककल्याणके लिये कलहको प्रिय इत्यन्योन्यं पुरा ताभ्यां ब्रह्मेशाभ्यां कलिप्रिय।। | माननेवाले नारदमी ! इस प्रकार प्राचीनकालमें ब्रह्मा और परिवादोऽभवत् तत्र उत्पत्तिर्भवतोऽभवत् ॥ २८ | शंकरके बीच एक-दूसरे से दुर्विवाद हुआ। उस समय

आपका भी प्रादुर्भाव हुआ। आप उत्पन्न होते ही अनुपम भवानप्यन्तरेक्षं हि ज्ञातमात्रस्तदोत्पतत् ।। योगा धारण किये किलकिला शद करते हुए अन्तरिक्षकों धारयन्नतुलां वीणां कुर्वन् किलकिलावनम् ॥ २९ | और ऊपर चले गये। इसके बाद भगवान् शिव मानो

अध्याय ]

के शरदागम होनेपर शंकरशीका मन्दरपर्वतपर जाना और दक्षका यज्ञ *

ततो विनिर्जितः शंभुर्मानिना पद्मयोनिना। | अमाद्वारा पराजित-से होकर राहुग्रस्त चन्द्रमाके समान तस्थावधमखों दीनों ग्रहाक्रान्तों यथा शशी ।। ३६ | दीन एवं अधोमुख होकर खड़े हो गयें ॥ २-३ ॥ पराजिते लोकपतौ देवेन परमेष्ठिना। । | (ब्रह्माके द्वारा) सोंकपति (शंकर)-के पराजित क्रोधाभ्रकारितं रुद्रं पञ्चमोऽथ मुखोंब्रवीत्।। ३६ | हो ज्ञानेपर क्रोधसे अन्धे हुए हैं ( श्रीब्रह्माजीके) आहे ते प्रतिज्ञानामि तमूतॆ त्रिलोचन। पाँचवें मचने कहा-तमम त्रिलोचन! मैं आपको दिग्वासा वृषभारूढ़ों लौकक्षयक भवान् ॥ ३२

जानता हैं। आप दिगम्बर, वृक्षारोह एवं लोकोंकों नष्ट इत्युक्तः शंकरः कुद्धो वदनं घोरचक्षुषा। करनेवाले (प्रलयंकारी हैं। इसपर अजन्मा भगवान् निर्दग्धुकामस्वनिशं ददर्श भगवानज्ञः ॥ ३३ जतस्विनेत्रस्य। समद्भवन्ति

शंकर अपने तीसरे घोर नेत्रद्वारा भस्म करनेकी इच्छासे वक्त्राणि पश्चाथ सदर्शनानि। | ब्रह्माके उस मुखको एकटक देखने लगे। तदनन्तर चैतं च रक्त कनकावदातं ऑर्शकरके चैत, उक्त, स्वर्णिम, नौल एवं पिंगल वर्णके

नीलं तथा पिङ्गजटं च शुभ्रम् ॥ ३४ | सुन्दर पाँच मुख समुद्भूत हो गये ॥ ३१-३४ || वक्त्राणि दृष्ट्वासमानि सद्यः सूर्यके समान दौप्त (जन) मुखको देखकर पैतामहं वक्त्रमुवाच वाक्यम्। पितामहके मुख़ने कहा-ज्ञलमें आघात करनेसे बुद्बुद तों उत्पन्न होते हैं, पर क्या उनमें कुछ शक्ति भी होती समाहतस्याश्च जलस्य बुख़ुदा है? यह सुनकर क्रोधभरे भगवान् शंकरने ब्रह्माके कौर भवन्ति किं तेषु पराक्रमोऽस्ति ।। ३५ | भाषण करनेवाले सिरको अपने नखके अग्रभागसे काट तच्छ्रुत्वा क्रोधयुक्तेन शंकरेण महात्मना। हाला; पर वह कटा हुआ ब्रह्माजका सिर शंकरजीके नखाग्रेण शिरश्छिन्नं ब्राह्यं परुषवादिनम् ॥ ३६ | हो वाम हथेतीपर जा गिरा एवं वह कपाल श्रीशंकरके तच्छिन्नं शंकरस्यैव सव्ये करतलेपतत्।। इस थैलीसे (इस प्रकार चिपक गया कि गिरानेपर पतते न कदाचिच्च तच्छंकरकराच्छिाः ॥ ३७| भी) किसी प्रकार न गिरा। इसपर अद्भुतकर्मी ब्रह्माजी | अत्यन्त क्रुद्ध हो गये। उन्होंने कवच-कुण्डल एवं शर अथ क्रोधावृत्तेनापि ब्रह्मणाद्भुतकर्मणा।

धारण करनेवाले धनुर्धर विशाल बाहुबाले एक पुरुषकी सृष्टस्तु पुरुषो धीमान् कवची कुण्डली शरी॥ ३८ |

रचना की। वह अव्यय, चतुर्भुज बाण, शक्ति और भारी धनुष्पाणिर्महाबाहुर्बाणशक्तिधरोऽव्ययः ।। तरकस धारण किये था तथा सूर्यके समान तेजवी दीख चतुर्भुजों महातूणी आदित्यसमदर्शनः ॥ ३९ | पड़ता था॥ ३५-३५ ॥ स प्राह गच्छ दुर्बुद्धे मा त्वां शूलिन् निपातये।

इस नये पुरुपने शिवजींसे कहा-दुर्बुद्धि

शुलधारीं शंकर! तुम शीट्स (यहाँसे) चले ज्ञाओं, भवान् पापसमायुक्तः पापिष्ठं को जिघांसति ॥ ४० |

अन्यथा मैं तुम्हें मार झागा। पर तुम पापयुक्त हो; इत्युक्तः शंकरस्तेन पुरुषेण महात्मना।।

भला, इतने बड़े पापको कौन मारना चाहेगा? जब जपायुक्तों जगामार्थ रुद्रों बदरिकाश्रमम् ॥ ४१ | उस महापुरुष शंकरसे इस प्रकार कहा, तव शिवजी

लर्जित होकर हिमालय पर्वतपर स्थित बदरिकाश्रमको नरनारायणस्थानं पर्वते हि हिमाश्रये।।

चले गये, जहाँ नर-नारायणका स्थान हैं और जहाँ सरस्वती यत्र पुण्या स्यन्दते सरितां वरा ॥ ४२ | नदियों में प्रेग्न नदियों में श्रेष्ठ पवित्र सरस्वती नदी बहती हैं। वहाँ तत्र गत्वा च तं दृष्ट्वा नारायणमुवाच ह। जाकर और उन नारायणको देखकर शंकरने कहा भगवन्! मैं महाकापालिक हैं। आप मुझे भिक्षा दें। भिक्षां प्रयच्छ भगवन् महाकापालिकोऽस्मि भोः ॥ ४३| ऐसा कहनैपर धर्मपुत्र (नारायण)–ने रुड़से कहा इत्युक्तो धर्मपुत्रस्तु रुद्रं वचनमग्रवीत्। | महेश्वर! तुम अपने त्रिशूलके द्वारा मेरी बायीं भुजापर सव्यं भुजं ताइयस्व त्रिशूलेन महेश्वर । ४४ | ताड़ना करो ।। ४०–४४ ॥

 

वामनपुराण

नारायणवचः श्रुत्वा त्रिशूलेन त्रिलोचनः। । शिवजीने नारायणकी बात सुनकर त्रिशूलद्वारा बड़े सव्यं नारायणभुनं ताडयामास वेगवान्। ‘४५ | बैंगसे उनकी घाम भुजापर आघात किया। त्रिशूलद्वारा त्रिशलाभिहतान्मार्गातु तिम्रो धारा विनिर्ययुः। | भुजापर] प्रताड़ित मार्गको लकी तीन धाराएँ निकल एका गगनमाक्रम्य स्थिता ताराभिमण्डिता॥ ४६ | पड़ी। एक धारा आकाशमें जाकर वाराओंसे मण्डत द्वितीया न्यपतद् भूमौ तां जग्राह तपोधनः।।

आकाशगङ्गा हुई; दूसरी धारा पृथ्वीपर गिरी, जिसे तपोधन अत्रिने (मन्दाकिनीके रूपमें) प्राप्त किया। अत्रिस्तस्मात् समुद्भूतो दुर्वासा शंकरांशतः ॥ ४५७

शंकरके उस अंशसे दुर्वासाका प्रादुर्भाव हुआ। तीसरी तृतीया व्यपतद्धारा कपाले रौद्रदर्शने।।

धारा भयानक दिखायी पड़नेवाले कपालपर गिरी, तस्माच्छिशुः समभवत् संनद्धकवचों युवा ॥ ४८

जिसमें एक शिशु उत्पन्न हुआ। वह जन्म लेते हैं। श्यामावदातः शरचापपाणि

कवच बाँध, श्यामवर्गका युवक था। उसके हाथोंमें गंर्जन्यथा प्रावृषि तोयदोऽसौ। धनुष और बाण था। फिर वह बर्षाकालमें मैम-गर्जनके इत्थं ब्रुवन् कस्य विशातयामि समान कहने लगा- मैं किसके स्कन्धसे सिरको स्कन्धाछिस्तालफलं यथैव ।। ४६ | जालफलके सदृश काट गिराऊँ ?’ ॥ ४५-४६ ॥ तं शंकरोभ्येत्य वचो बभाषे नारायणक बाहुसे उत्पन्न उस पुरुषकै समय | चरं हि नारायणबाहुजातम् ।।

जाकर श्रीशंकरने कहाहे नर ! तुम सूर्यके समान निपातयैनं नर दुष्टवाक्यं

ब्रह्मात्मजं सूर्यशतप्रकाशम् ५० | प्रकाशमान, पर कटुभाषी, ब्रह्मासे उत्पन्न इस इत्येवमुक्तः तु शंकण पुरुषको मार डालो। शंकरजीके ऐसा कहनेपर उस

आद्यं धनुस्वाञ्चगवं प्रसिद्धम्।।

चौ नरने प्रसिद्ध आजगव नामाका धनुष एवं अक्षय जग्राह तृणानि तथाऽक्षयागि युद्धाय वीरः मतिं चकार ।। ५१

तूणीर ग्रहणकर युद्धका निश्चय किया। उसके बाद ततः प्रयुद्धी सुभशं महाबलौ ब्रह्मात्मज्ञे और नारायणकी भुजासे उत्पन्न दोनों | ब्रह्मात्मज्ञों बाहुभव शार्वः ।। नरोंमें सहस्र दिव्य वर्षों तक प्रबल युद्ध होता रहा। दिव्यं सहस्त्रं परिवत्सराणां

ततो हुभ्येत्य विरञ्चिमूचे ॥ ५३

तत्पश्चात् आँशंकरजीने ब्रह्माके पास जाकर कहा जितस्त्वदीयः पुरुषः पितामहं

पितामह ! यह एक अद्भुत बात है कि दिव्य एवं नरेण दिव्यातकर्मणा बली। अद्भुत कर्मवाले (मेरे) नग्ने दसों दिशाओं में व्याप्त महापापभिपत्य ज्ञाति महान् बाणोंके प्रहारसे ताडित कर आपके पुरुषको

 

स्तदतं चैह दिश दशैव ५३

जीत लिया। ब्रह्माने उस ईशसे कहा कि इस जितका ब्रह्मा तमशं वचनं बभाषे

नेहास्य जन्मान्यजितस्य शंभो।।

जन्म यहाँ दूसरॉद्वारा पराजित होने के लिये नहीं हुआ है। पराज्ञितश्चेष्यतेस त्वदीयों यदि किसीको पराजित कहा जाना अभीष्ट हैं तो यह तेरा

 

नरो मदीयः पुरुषों महात्मा ५४

 नर हीं है। मेरा पुरुष तौं महाबली है-ऐसा कहे जानेपर इत्येवमुक्त्वा वचनं त्रिनेत्र

श्रीशंकरजीने ब्रह्माजीके पुरुषको सूर्यमण्डलमें फेंक शिक्षेप सूर्ये पुरुषं विञ्चिः ।। नई नरस्यैव तदा स विग्नहैं। | दिया तथा उन्हीं शंकरने उस नरको धर्मपुत्र नरके चिक्षेप धर्मप्रभवस्य देवः ॥ ५५ |

शरीर में फेंक दिया। ५०–५५ ।।

है। इस प्रकार औजामनपुराणमें दूसरा अध्याय समाप्त हुआ।

 अध्याय ३] शंकरर्जीका ग्रह्मत्यासे झूटनेके लिये तमें भ्रमण; बदरिकाश्चममें नारायणक स्तुति के

 

तीसरा अध्याय

शंकरजीका ब्रह्महत्यासे छूटनेके लिये तीर्थों में भ्रमण; बदरिकाश्रममें नारायणकी स्तुति; चारागसमें ब्रह्महत्यासे मुक्ति एवं कपाली नाम पड़ना ।

पुलस्त्यनी बोले- नारदजी ! तत्पश्चात् शिवजीको ततः करतले रुद्रः कपाले दारुणे स्थिते। | अपने करतलमें भयंकर कपालके सट ज्ञानेसे बड़ी संतापमगमद् ब्रह्मश्चिन्तया व्याकुलेन्द्रियः ॥ १  चिन्ता हुई। उनकी इन्द्रियाँ व्याकुल हो गयीं। उन्हें ततः समागता रौद्रा नीलाञ्जनचयप्रभा।।

बड़ा संताप हुआ। उसके बाद कालिखके समान नीले इंगकी, रक्तवर्णके केशवाली भयंकर ब्रह्महत्या शंकरके संरक्तमूर्द्धजा भौंमा ब्रह्महत्या हृरान्तिकम् ॥ २

| निकट आयी। उस विकराल रूपयानों स्त्रीको आयी तामागतां रो दृष्ट्वा पप्रच्छ विकरालिनीम्।। | देखकर शंकरजींने पुछा-ओं भयावनी स्त्री! पह कामि चमागता दें केनाप्यन ननद ।। ३ | मलाओं कि तुम कौन हों एवं किसलिये यहाँ आयी।

हों। इसपर इस आसन्न वाण मन्याने नसे कपालिनमथोवाच ब्रह्महत्या सुदारुणा। । | कहा-मैं ब्राह्महत्या हैं; हे त्रिलोचन आप मुझे स्वीकार,  ब्रह्मवध्याऽस्मि सम्प्राप्ता मां प्रतीच्छ त्रिलोचन।। ४ करें-इसलिये यहाँ आयौ हैं॥ १-४॥ इत्येवमुक्त्वा वचनं ब्रह्महत्या निवेश है। ऐसा कहकर ब्रह्महत्या संतापसे जलते शरीरबालें त्रिशूलपाणिनं रुद्रं सम्प्रतापितविग्रहम् ॥ ५  त्रिशूलपाणि शिवके शरीरमें समा गयीं। ब्रह्महत्यासे

ब्रह्महत्याभिभूतश्च शर्यों बदरिकाश्रमम्। अभिभूत होकर श्रीशंकर बदरिकाश्रममें आये; किंतु वहाँ । आगन्न दशथि नरनारायणाची ॥ ६ नर एवं नारायण कापियाके उन्हें दर्शन नहीं हुए। धमके

उन दोनों पुत्रोंको वहाँ न देखकर वे चिन्ता और शोकसे अदृष्ट्वा धर्मतनयाँ चिन्ताशोकसमन्वितः ।।

युक्त हो यमुनाज्ञीमें स्नान करने गये; परंतु इसका ल जगाम यमुनो स्नातु साप शुष्कलाभवत् ॥ ६ सच्च गया। समाजको निर्जल देखकर भगवान कालिन्द शुष्कसलिलां निरीक्ष्य वृषकेतनः।  शंकर सरस्वतीमें स्नान करने गये; किंतु वह भी लुप्त लक्षजां स्नातुमगमदन्तबद्धनं च सा गता॥ ८ हो गयौ ५-८॥ ततों न पुष्करारण्य मागधारण्यमेव च। । फिर मुकारण्य, धर्मारण्य और सैन्धवारण्य सैन्धवारण्यमेवासी गत्वा स्नातों यथेच्छया ॥ ५ जाकर इन्होंने बहुत समपतक स्नान किया। उसी प्रकार तथैव नैमिषारण्य धर्मारण्यं नाथेश्वरः।।

वे नैमिषारण्य तथा सिद्धपरमें भी गये और स्नान किये; स्नात्तो नैव च सा रौद्रा ब्रह्महत्या व्यमुञ्चत ।। १३ | | फिर भी इस भयंकर ब्रह्महत्याने उन्हें नहीं छोड़ा। सरित्सु तीर्थेषु तथाश्रमेषु चौमूतकतु शंकरने अनेक नदियों, तीर्थों, आश्रमों एवं | पुपयेषु देवायत्तनेषु शर्वः ।। पवित्र देवायतनोंकी यात्रा की; पर योगी होने पर भी ये समायतों योगयतोऽपि पापा पापसे मुक्ति न प्राप्त कर सके। तत्पश्चात् वें खिन्न होकर | नावाप मोक्षं जलध्वज्ञोऽसौ ।। ११ | ततो जगाम निर्विण्णः शंकरः कुरुजाङ्गलम्।। | कुरुक्षेत्र गयें। वहाँ जाकर उन्होंने गरुडध्वज चक्रपाणि तत्र गत्वा ददशश्च चक्रपाणि खगध्वजम् ।। १२ विष्णु)-को देखा और उन श-चक्र-गदाधारी तं दृष्ट्वा पुण्डरीकाक्षं शङ्खचक्रगदाधरम्। | पुण्डरीकाक्ष ( श्रीनारायण) का दर्शनकर वे हाथ ऑड़िकर कृताञ्जलिपटों भूत्वा हरः स्तोत्रमुदीरयत् ॥ १३ | स्तुति करने लगे- ॥ १-१३ ॥

 

# वामनपुराण #

भगवान् शंकर बोलें- हे देवताओंके स्वामी ! | नमस्ते देवतानाश्च नमस्ते गरुड़ध्वज़। | आपको नमस्कार हैं। गरुडध्वज! आपको प्रणाम है।

शङ्खचक्रगदापाणे वासुदेव नमोऽस्तु ते ।। १४ | शङ्ख-चक्र-गदाधारी वासुदेव! आपको नमस्कार है। | नमस्ते निर्गुणानन्त अप्रतक्यय वेधसे। | निर्गुण, अनन्त एवं अतर्कनीय विधाता! आपको नमस्कार ज्ञानाज्ञान निरालम्ब सर्वालम्य नमोऽस्तु ते ।। १५ | है। ज्ञानाज्ञानस्वरूप, स्वयं निराश्रय किंतु सबके आश्रय !

आपको नमस्कार हैं। जोगुण, सनातन, ब्रह्ममूर्ति ! रजौयुक्त नमस्तेऽस्तु ब्रह्ममूर्ते सनातन।

आपको नमस्कार है। नाथ! आपने इस सम्पूर्ण चराचर त्वया सर्वमिदं नार्थ जगत्सृष्टं चराचरम् ॥ १६

विंश्चकी रचना की हैं। सत्त्वगुणके आश्रय लोकेश ! सत्चाधिष्ठित लोकेश विष्णुमूर्ते अधोक्षज।।

बिष्णुमूर्न, अधोक्षज, प्रजापालक, महाबाहु, जनार्दन ! प्रजापाल महाबाहो जनार्दन नमोऽस्तु ते ॥ १७ | आपको नमस्कार है। हे तमोमूर्त ! मैं आपके अंशभूत | तमोमूर्ते अहं ह्येष चदंशक्रोधसंभवः। क्रोधसे उत्पन्न हैं। हे महान् गुणवानें सर्वव्यापी देवेश ! | गुणाभियुक्त देवेश सर्वव्यापिन् नमोऽस्तु ते ॥ १८ | आपको नमस्कार हैं। १४–१८ ॥

भूरियं त्वं जगन्नाथ लाम्बरहुताशनः। जगन्नाथ ! आप हौं पृथ्वी, जल, आकाश, अग्नि, वायुर्बुद्धिर्मनश्चापि शर्वरीं त्वं नमोऽस्तु ते ॥ १९ | वायु, बुद्धि, मन एवं रात्रि हैं; आपको नमस्कार है। | धर्मों यज्ञस्तपः सत्यमहिंसा शौंचमार्जवम्। ईश्वर ! आप ही धर्म, यज्ञ, तप, सत्य, अहिंसा, पवित्रता, | क्षमा दानं दया लक्ष्मीन॑ह्मचर्य त्वमीश्च ।। ३० | सरलता, क्षमा, दान, दया, लक्ष्मी एवं ब्रह्मचर्य हैं। हैं

त्वं साङ्गाश्चतुरों वेदास्त्वं वेद्यो वेदपारगः।। श! आप अङ्गसहित चतुर्वेदस्वरूप, वेद्य एवं वेदपारगामी उपवेदा भवानीश सर्वोऽसि त्वं नमोऽस्तु ते॥ ३१ हैं। आप ही उपवेद हैं तथा सभी कुछ आप ही हैं। | नमो नमस्तेऽच्युत चक्रपाणे आपको नमस्कार हैं। अच्युत ! चक्रपाणिं! आपको | नमोऽस्तु ते माधव मीनमूर्ते। | बारंबार नमस्कार हैं। मनमूर्तिधारी (मत्स्यावतारी) । लोके भवान् कारुणिको मतो में आपको नमस्कार हैं। मैं आपको लोकमें दयालु मानता

जायस्व मां केशब पापबन्धात् ॥ २ | हूँ। केशव ! आप मेरे शरीर में स्थित ब्रह्महत्यासे उत्पन्न | ममाशुभं नाशय विग्रहस्थ अशभको नष्ट का मुझे पाप-बन्धनले म रे । ना यद् ब्रह्महत्याभिभवं बभूव ।। विचार कियें कार्य करनेवाला मैं दग्ध एवं नष्ट हो गया | दग्धोऽस्मि नौम्यसमध्यकारी हैं। आप साक्षात् तीर्थ हैं, अतः आप मुझे पवित्र करें। | पुनहि तीर्थोऽसि नमो नमस्ते ॥ ३३ | आपको बारंबार नमस्कार हैं ॥ १९–२३ ॥

| मुझ जवाब पुलस्त्यजीने कहा- भगवान् शंकरद्वारा इस प्रकार | इत्यं स्तुतश्चक्रधरः शंकरेण महात्मना। | स्तुत होनेपर चक्रधारी भगवान् विष्णु शंकरको ब्रह्महत्याको चाच भगवान् चाक्यं ब्रह्महत्याक्षयाय हि ॥ ३४ | नष्ट करनेके लिये उनसे बचन बोले- ॥ ३४ ॥

भगवान् विष्णु बोले- महेश्वर ! आप ब्रह्महत्याको | महेश्वर भणप्वमां मम याचं कलस्वनाम। | नष्ट करनेवाली में मधुर वाणी सुनें। यह शुभप्रद एवं | ब्रह्महत्याक्षयकरी शुभदां पुण्यवर्धनम्॥ ३५ | पुण्यको बढ़ानेवाली है।

योऽसौ प्राइमपद्धले पुण्ये मर्दशप्रभवोऽव्ययः । । यहाँसे पूर्व प्रयागमें मेरे अंशसे उत्पन्न ‘योगशायौं’ | प्रयागें बसते नित्यं योंगशायति विश्रुतः ॥ ३६ | नामसे विख्यात देवता हैं। वे अव्यय-विकाररहित पुरुष | चरणाद् दक्षिणात्तस्य विनिर्माता सरिंद्रा। | हैं। वहाँ इनका नित्य निवास है। वहींसे उनके दक्षिण | बिभुत्ता बरणेत्येव सर्वपापहरा शुभा॥ २७ | चरणसे ‘चरणा’ नामसे प्रसिद्ध श्रेष्ठ नदी निकली हैं। वह अध्याय ३] के शंकरका ग्रह्महत्यासे छुटनेके लिये तीर्थों में भ्रमण; बर्दाकाश्चममें नारायणक स्नातको सव्यादन्या द्वितीया च सरत्येव विश्रुता। | सब पापको हरनेवालों एवं पवित्र है। वहीं उनके वाम ते उभे तु सरिच्छेष्ठे लोकपून्ये बभूवतुः ॥ २८ | पादसे ‘ अस’ नामसे प्रसिद्ध एक दूसरी नदी भी निकली हैं। ये दोनों नदियाँ श्रेष्ठ एवं लोकपृय हैं ॥ २५-२८ ॥ ताभ्यां मध्ये तु यो देशस्तक्षेत्रं योगशायिनः। । उन दोनोंकै मध्यका प्रदेश योगशायका क्षेत्र हैं। भैलोक्यप्रवरं तीर्थं सर्वपापप्रमोचनम्। | वह तीनों लोकोंमें सर्वश्रेष्ठ तथा सभी पापोंसे छुड़ा न तादृशोऽस्ति गगने न भूम्यां न रसातले ॥ २९ | देनेवाला तीर्थ हैं। उसके समान अन्य कोई तीर्थ तत्रास्ति नगरी पुण्या यात्रा वाराणसी शुभा। । | आकाश, पृथ्वीं एवं रसातलमें नहीं हैं। ईश! यहाँ पवित्र | यस्यां हि भोगिनोऽपीश प्रयान्ति भवतो लयम् ॥ ३० | शुभप्रद विस्मात वाराणसी नगरौं हैं, जिसमें भोंगी लॉग | विलासिनीनां रशनास्वनेन । भी आपकै लोकको प्राप्त करते हैं। श्रेष्ठ ब्राह्मणोंक | श्रुतिस्वनैह्मणपुंगवानाम् ।।

वेदध्वनि विलासिनीं स्त्रियाँको करधनक ध्वनिसे शुचिस्वरत्वं गुरचौं निशम्य

हास्यादशासन्त मुहुर्मुहस्तान्॥ ३१

मिश्रित होकर मङ्गल स्वरका रूप धारण करती है। इस | व्रजत्सु योषित्सु चतुष्पथेषु ध्वनिको सुनकर गुरूशन बारंबार उपहासपूर्वक उनका | पदान्यलक्तरुणितानि दृष्ट्वा।।

शासन करते हैं। जहाँ चौराहोंपर भ्रमण करनेवाली ययाँ शशी विस्मयमेव यस्यां स्त्रियोंके आलक (महावर)-से अरुणित चरणोंकों देखकर

किंस्वित् प्रयाता स्थलपदमिनीयम्।। ३३ | चन्द्रमाको स्थल-पद्मिनीके चलनेका भ्रम हो जाता है। तुङ्गानि यस्यां सुरमन्दिराणि और हाँ राशिका आरम्भ होने दें-ॐॐ देवमन्दिर | रुन्धन्ति चन्द्रं रजनीमुखेषु ।। चन्द्रमाका (मान) अवरोध करते हैं एवं दिनमें पवनान्दोलित दिवाऽपि सूर्य पवनाप्लुताभि (यासे फहरा रही) दीर्घ पताकाओंसें सूर्य भी छिपे दभिरेवं सुपताकिकाभिः ।। ३३ | रहते हैं ॥ २९-३३॥ भृङ्गाश्च यस्यां शशिकान्तभित्तौं जिस (वाराणसी) में चन्द्रकान्तमणिकी भित्तियों पर | प्रलोभ्यमानाः प्रतिबिम्बितेषु । प्रतिबिम्बित चित्रमैं निर्मित स्त्रियोंके निर्मल मुख आलेख्ययोधिद्विमलाननाब्जे

कमलको देखकर भ्रमर उनपर भ्रमवश लुब्ध हो जाते घ्बीयुर्भमान्नैव च पुष्पकान्तरम् ॥ ३४ हैं और दूस पुष्पोंकी और नहीं जाते। हे शम्भो ! वहाँ

सम्मोहनलेखनसे पराजित गुरुयोंमें तथा अरुकीं बावलियोंमें परिभ्रमंश्चापि | पराजितेषु जलक़ौड़ाके लिये एकत्र हुई स्त्रियोंमें ही ‘भ्रमण’ देखा

नरेषु संमोहनलेञ्जनेन। जाता है, अन्य किसीकों म” (चक्कर होग] नहीं यस्यां जलक्रीड़नसंगतासु होता। द्यूतक्रीडा (जुआ खेल)-के पासौके सिवाय न स्त्रीषु शंभो गुदीर्घिकासु ॥ ३५

अन्य कोई भी दूसरे के पाश’ (बन्धना)-में नहीं डाला ज्ञाता तथा सुरत-समयके सिवाय स्त्रियों के साथ कोई न चैव कश्चित् परमन्दिराणि । आचेगयुक्त पराक्रम नहीं करता। जहाँ हाथियोंके बन्धनमें कुणद्धि शंभों सहसा ऋतेऽक्षान्। हीं पाशग्नन्ध (रस्सीको गाँठ) होती हैं, उनकी मदच्युतमें न चावलानां तरसा पराक्रम (मदके चुनेमें) ही दोनोंद’ (मद्दकी धाराका टूटना)

करोति यस्यां सुरतं हि मुक्त्वा ॥ ३६ एवं नर हाथियोंके यौवनागममें ही ‘मान’ और ‘मद” होते हैं, अन्यत्र नहीं; तात्पर्य यह कि दान देनेकी धारा पाशग्रन्थिर्गजेन्द्राणां दानच्छेदों मदच्युतौ।। | निरन्तर चलती रहती है और अभिमान एवं मदवाले यस्यां मानमदी पुंसां करिणां यौवनागमे ॥ ३७ | लोग नहीं हैं।॥ ३४-३७ ।।

१. ही सर्व परिसंगानकार है। ममियाकार व होता है, जहाँ किसी वस्नका एक स्थानमें निम्न करके इसका इस पान मापन हो। मा वर्णन आनन्दरामायण अयोध्या-वर्णन, कादम्बरी, काशीपमें काशी भाविक वर्गामें भी न होता है।

 

श्रीवामनपुराण

प्रियदोषाः सदा यस्यां कौशिका नेत जनाः। । विभो ! जहाँ उलूक ही सदा दोषा (रात्रि)-प्रिय तारागणेकुलीनत्वं गद्ये वृत्तच्युतिर्विभो।। ३८ | होते हैं, अन्य लोग दोषके प्रेमी नहीं हैं। तारागणोंमें ही अकुलीनता (पृथ्वी न छिपना) हैं, लोगों में कहीं अकुलीनताका नाम नहीं है; गद्यमें ही वृत्तच्युत

(छन्दोभङ्ग) होती हैं, अन्यत्र वृत्त (चरित्र)-च्युति नहीं भूतिलुब्धा विलासिन्यो भुजंगपरिवारिताः ।।

| दीखती। शंकर ! जहाँकी विलासिनिय आपके सदृश चन्द्रभूषितदेहाश्च यस्यां त्वमिव शंकर ।। ३६ | भस्म) ‘भतिलब्धा । भजंग (सर्प-परिवारिता’ एवं

चन्द्रभूषितदेहा’ होती हैं। (यहाँ पक्षान्तर—विलासिनियोंक पक्ष-संगतिके लिये, ‘भूति’ पद ‘भस्म और ईदृशायां सुरेशान वाराणस्यां महाश्रमे।। ‘धून के अर्थमें, ‘भुजङ्ग पद्द ‘सर्प’ एवं ‘ज्ञान’ के अर्थमें वसते भगवाँल्लोलः सर्वपापह्रो रविः ॥ ४० तथा ‘चन्द्र’ पद ‘चन्द्राभूषण’ के अर्थ में प्रयुक्त हैं। सुरेशान ! इस प्रकारकौं वाराणसौके महान् आश्रममैं सभी पापको दूर करनेवाले भगवान् ‘तोल’ नामके सूर्य निवास करते हैं। सुरश्रेष्ठ ! वहीं दशाश्वमेध नामको स्थान दशाश्वमेधं यत्प्रतं मर्दशों यत्र केशवः। हैं तथा वाहीँ मेरे अंशस्वरूप केशव स्थित हैं। वहीं । तत्र गत्वा सुरश्रेष्ठ पापमोक्षमवाप्स्यसि ॥ ४१ जाकर आप पापसे छुटकारा प्राप्त करेंगे ॥ ३८–४१ ॥

इत्येवमुक्तो गरुडध्वजेन भगवान् विष्णुकें ऐसा कहनेपर शिवजने उन्हें वृषध्वजस्तं शिरसा प्रणम्य। | मस्तक झुकाकर प्रणाम किया। फिर वें पाप छानेके जगाम वेगाद् गरुड़ों यथासौं लिये गरुड़के समान तेज़ वेंगसे वाराणसौं गयें। वहाँ वाराणसी पापविमोचनाय ॥ ४३ परमपवित्र तथा तीर्थंभूत नगरीमें जाकर दशाश्वमेधके | गत्वा सुपुण्य नगरी सुतीर्था साथ ‘ असी’ स्थानमें स्थित भगवान् लोलार्कका दर्शन दृष्ट्वा च लोले सदशाश्वमेधम्।। किया तथा (यहाँक) तीर्थोंमें स्नान कर और पाप-मुक्त स्नात्वा च तीर्थेषु विमुक्तपापः । होकर वे (सणासंगमपर) केशयका दर्शन करने गये।

स केनं द्रष्टमपाजगाम ।। ४३ ।। उन्होंने कॅशवका दर्शन करके प्रणामकर कहा केशवं शंकरों दृष्ट्वा प्रणिपत्येदमन्नवीत्।। हृषीकेश! आपके असादसे ब्राह्महत्या तो नष्ट हो गयी, त्वत्प्रसादाद्धृषीकेश ब्रह्मत्या क्षयं गता।। ४६ | पर देवेश! यह कपाल मॅरे हाथको नहीं छोड़ रहा है। नेदं कपालं देवेश मद्धस्तं परिमुञ्चति । | इसका कारण मैं नहीं जानता। आप ही मुझे यह बतला

कारणं वेद्मि न च तदेतन्में वक्तुमर्हसि ।। ‘४५ ।। 

पुल उच्च पुलस्त्यजी बोले–महादेवका वचन सुनकर केशवने महादेववचः श्रुत्वा केशवो वाक्यमब्रवीत्। | यह वाक्य कहा-रुद्ध ! इसके समस्त कारणको मैं तुम्हें बिझनै कारणं कद् तत्सर्वं कश्चयामि ते ।। ४६ बतलाता है। मेरे सामने कमलोंसे भरा यह ज्ञों दिव्य योऽसौ ममाग्रतो दिव्यों हृदः पद्मोत्पलैर्युतः। सरोवर हैं, यह पवित्र तथा तीर्थों में अंग्नु हैं एवं देवताओं एष तीर्थवरः पुण्य देवगन्धर्वपूजितः ॥ ४७ | तथा गन्धर्वोसे पूजित है। शिवजी! आप इस परम श्रेष्ठ एतस्मिन्मवरे तीर्थं स्नानं शंभ समाचर। | तीर्थमें स्नान करें। स्नान करनेमात्रसे आज हीं यह कपाल स्नातमात्रस्य चाद्यैव कपालं परिमोक्ष्यति ॥ ६८ | (आपके हाथकों) छोड़ देगा। इससे रुड़ ! संसारमें आप १-लोलार्कके सम्बन्धमें विशेष जानकारीके लिये देखिये मुड़के ३०८ में ३१ चे मृतक प्रकाशित विवरण।

 

विशयाक मौसी सतीसे दक्ष-यज्ञकी वार्ता एवं सतीका प्राण त्याग ततः कपाली लोके च रख्यातों रुद् भविष्यसि। | ‘कपाल’ नामले प्रसिद्ध होंगे तथा यह तीर्थ भी । कपालमोचनेत्येवं तीर्थं चेदं भविष्यति ।। ४९ | ‘कपालमोचन’ नामसे प्रसिद्ध

एवमुक्तः

पुलस्त्यज़ी बोले-मुने! सुरेश्वर केशबके ऐसा । सुरेशेन केशवेन महेश्वरः। कहने पर महेश्वरनें कपालमोचनतर्थमें वेदोक्त विधिको कपालमोचने सस्नो वेदोक्तविधिना मुने।। ५८ स्नातस्य तीर्थे त्रिपुरान्तकस्य स्नान किया। उस तौंधमें स्नान करते ही उनके परिच्युतं इस्ततलान् कपालम्।।

हाथमें ब्रह्म-कपाल गिर गया। तभोंसे भगवानकी नाम्ना अभ्वाथ कपालमोचनं कृपासे उस उत्तम तीर्थका नाम ‘कपालमोचन तीर्थचर्यं भगवत्प्रसादात् ॥ ५१ | अङ्वा ॥ ५ ॥ –५१ ॥

में इस प्रकार श्रीवामनमुराणमें तीसरा अध्याय समाप्त हुआ

चौथा अध्याय

विजयाक मौसी सतीसे दक्ष-यज्ञकी वार्ता, सतीका प्राण-त्याग; शिवका क्रोध

एवं उनके गणोंद्वारा दक्ष-यज्ञका विध्वंस पुनम उवाच पुलस्त्यजी बोलें- देवर्षे ! भगवान् शिव इस एवं कपाली संज्ञातों देवर्षे भगवान् इरः। प्रकार कपाली नामसे ख्यात हुए और इसी कारण वें अनैन कारणेनासौ दक्षेण न निमन्त्रितः ॥ १ | इक्षके द्वारा निमन्त्रित नहीं हुए। प्रजापति दक्षनें सतीको कपालिजायेति सर्ती विज्ञायाध प्रजापतिः। अपनी पुत्री होनेपर भी कपालकी पत्नी समझकर यन्ने चापि दुहिता दक्षेण न निमन्त्रिता ॥ ३ | निमन्त्रणके योग्य न मानकर उन्हें यज्ञमें नहीं बुलाया। एतस्मिन्नन्तरे देव द्रष्टुं गौतमनन्दिनीं। | इस बीच देवीका दर्शन करनेके लिये गौतम-पुत्रीं जया जया जगाम शैलेन्द्रं मन्दरं चारुकन्दरम् ॥ ३ | सुन्दर गुफावाले पर्वतश्रेष्ठ मन्दरपर गयीं। जयाको वहाँ तामागतां सती दृष्ट्वा ज़यामेकामुवाच हु। | अकेलीं आयीं देखकर सती बोलीं-विजये ! जयन्ती किमर्थं विजया नागाजयन्ती चापराजिता ॥ ४ | और अपराजिता यहाँ क्यों नहीं आयीं? ॥ १-४॥

सा देव्या वचनं श्रुत्वा उवाच परमेश्वरीम्।। देवीके वचनको सुनकर विज्ञयाने जुन सती परमेश्वरीसे गता निमन्विताः सर्वा मते मातामहस्य ताः || ५ | कहा-अपने पिता गौतम और माता अहल्याके साथ में समं पित्रा गनमैन मात्रा चैवाम्यहुल्यया। | मातामहके सत्र ( यज्ञ)-में निमन्त्रित होकर चली गयी है। अहू समागता इष्टं त्वां तत्र गमनोत्सुका ।। ६ | यहाँ जाने के लिये उत्सुक मैं आपसे मिलने आयीं हैं। क्या । किं त्वं न व्रज्ञसे तत्र तथा देवो महेश्वरः। | आप तथा भगवान् शिव वहाँ नहीं जा रहे हैं? क्या पिताजीने नामन्त्रिताऽसि तातेन उताहोस्विद् न्नजिष्यसि ।। ६ | आपको नहीं बुलाया हैं ? अथवा आप बह जायेंगीं? सभी गतास्तु ऋषयः सर्वे ऋषिपत्न्यः सुरास्तथा। | ऋषि, ऋषि-पत्निय तथा देवगण वहाँ गये हैं। है मातृष्वसः मातृष्वासः शशाश्च सपत्नीको गतः क्रतुम् ।। | (मौस) ! पत्नीके सहित शशाङ्क भी उस यज्ञमें गये हैं। चतुर्दशेषु लोकेषु जन्तवों में चराचराः। | चौदह लोकके समस्त चराचर प्राणी उस यज्ञमें निमन्त्रित । निमन्त्रिताः क्रतौ सर्वे किं नासि त्वं निमन्त्रिता ॥ १ | हुए हैं। क्या आप निमन्त्रत नहीं हैं ? ॥ ५-६ ।।

१-कालमोचन तीर्थ काशीके परिसर में बथरिया में हैं, मीनपर स्थित है। इस सम्बन्धमें इष्टय तह पृष्ठ

श्रीवामनपुराण

 

पुलस्त्यजी बोले- ब्रह्मन् ! (नारदजी !) वग्नपातके जयायास्तद्वचः श्रुत्वा वज्रपातसमें सती। | समान जयाकी उस घातको सुनकर क्रोध एवं दुःखसे मन्युनाऽभिप्लुता ब्रह्मन् पञ्चत्वमगमत् ततः ।। १० | भरकर सतौने प्राण छोड़ दिये। सतको मरी हुई देखकर | जया मृतां सतीं दृष्ट्वा क्रोधशोकपरिप्लुता। | क्रोध एवं दुःखसे भरी जया आँसू बहाते हुए जोर-जोरसे मुञ्चतीं वारि नेत्राभ्यां सस्वरं विललाप ह।। ११ | बिलाप करने लगी। रोनेकी करुणध्वनि सुनकर शूलपाणि | आक्रन्दितध्वनं श्रुत्वा शुलपाणिस्त्रिलोचनः। | भगवान् शिय ‘अरे क्या हुआ, क्या हुआ’–ऐसा कहकर आः किमेतदितीत्यक्त्वा जयाभ्याशमपागतः ।। १३ | उसके पास गये। वहाँ पहुँचकर उन्होंने फरसैसे कटी आगत ददृशे देवी लतामिव वनस्पतेः ।।

| वृक्षपर चढ़ी लताकी तरह सतीको भूमिपर मरीं पड़ी कृत्तां परशुना भूमौ श्लथाङ्ग पतितां सतींम् ।। १३ देखा तो ज्ञासे पूछा-ये सती कटौं लताकी तर भूमिपर क्यों पड़ी हुई हैं? शिवके वचनको सुनकर जया देर्वी निपतितां दृष्ट्वा जयां पप्रच्छ शंकरः।।

बोली – त्रिलोकेश्वर ! दक्ष यज्ञमें अपने-अपने किर्मियं पतिता भूमौ निकुत्तेव लता सती ।। १४ | पतिके साथ बहनोंका एवं इन्द्र आदि देवोंके साथ सा शंकरवचः श्रुत्वा जया वचनमब्रवीत्। आदित्य आदिका निमन्त्रित होकर उपस्थित होना श्रुत्वा मखस्था दक्षस्य भगिन्यः पतिभिः सह ॥ १५ | सुनकर आन्तरिक दु:ख (की ग्वाला)-से दग्ध हों। आदित्याद्यास्त्रिलोकेश समं शक्रादिभिः सरैः। | गयीं। इससे मेरी माताको बहन (सती)-के प्राण निकल मातृष्वसा विपन्नेयमन्तर्दःखेन दाती ॥ १६ | गये ॥ १८-१६ ॥

पुलस्त्य जींने कहा- जयाकै इस भयंकर एतच्छुत्वा वचो रौद्र रुद्रः क्रोधाप्लुतो बभौ। | (अमङ्गल) वचनको सुनकर शिवज्ञी अत्यन्त क्रुद्ध हो क्रुद्धस्य सर्वगात्रेभ्यो निश्चैः सहसचिषः ॥ १७ | गये। उनके शरीर से सहसा अग्निकी तेज ग्वालाएँ निकलने । ततः क्रोधानु त्रिनेत्रस्य गाजरोमोदवा मने। | लगीं। मुने ! इसके बाद क्रोधके कारण त्रिनेत्र भगवान् शिवके शरीरके लोमोंसे सिंहकै समान मुखवाले वीरभद्र गणाः सिंहमुखा जाता वीरभद्रपुरोगमाः ॥ १८

आदि बहुत-से रुद्गण उत्पन्न हो गये। अपने गणसे घि गणैः परिवृतस्तस्मान्मन्दराद्धिमसाह्वयम्।।

भगवान् शिव मंदरपर्वतको हिमालयपर गये और वहाँसे गतः कनखलं तस्माद् यत्र दक्षोऽयजत् क्रतुम्॥ १९ | कनखल चले गये, जहाँ दक्ष यज्ञ कर रहे थे। इसके बाद ततो गणानामधिपो वीरभद्रो महाबलः।। सभी गणमें अग्रणी महाबली वीरभद्र शूल धारण किये दिशि प्रतीच्युत्तरायां तस्थौ शूलधरो मुने॥ २० | पश्चिमोत्तर (घायव्य) दिशामें चले गये ।। १५–२६ ।। जया क्रोधाद् गदां गृह्य पूर्वदक्षिणतः स्थिता।। महामुने ! क्रोधसे गदा लैंकर ज्ञया पूर्व-दक्षिण मध्ये त्रिशूलधृक् शर्वस्तस्थौ क्रोधान्महामुने । २१ | दिशा (अग्निकोण) में खड़ी हो गयी और मध्यमें मृगारिवदनं दृष्ट्वा देवाः शक्रपुरोगमाः। | क्रोधसे भरे त्रिशूल लिये शंकर खड़े हो गये। सिंहबदन ऋषयो यक्षगन्धर्चाः किमिदं त्वित्यचिन्तयन्।। २३ | वीरभद्र }-को देखकर इन्द्र आदि देवता, ऋषि, यक्ष ततस्तु धनुरादाय शरांश्चाशीविषपमान्। | एवं गन्धर्वलोग सोचने लगे कि यह क्या है ? तदनन्तर द्वारपालस्तदा धर्मों वीरभद्मपावत् ॥ २३ | द्वारपाल धर्म धनुष एवं सर्पक समान बाणको लेकर तमापतन्तं सहसा धर्मं दृष्ट्वा गणेश्वरः। | चींभइकी ओर दौड़े। सहसा धर्मको आता हुआ देखकर करेकेन जग्राह त्रिशूलं वह्निसन्निभम् ॥ २४ | गणेश्वर एक हाथमें अग्निकै सदृश त्रिशूल, दूसरे हाथ कार्मुकं च द्वितीयेन तृतीबेनाथ मार्गणान्। | धनुष, तसरे हाथमें बाण और चौथे हाथमें गदा लेकर चतुर्थेन गदां गृह्य धर्ममध्यद्वद् गणः ॥ २५ | उनकी ओर दौड़ पड़े।। २१-२५ ॥

अध्याय ४] विजयाकी मौसी सतीसे दक्ष-यज्ञक वार्ता एवं सतीका प्राण-त्याग के

ततश्चतुर्भुजं दृष्ट्वा धर्मराज गणेश्चरम्। इसके बाद धर्मराज चतुर्भुज गणेश्वरको देख और तस्थावष्टभुजों भूत्वा नानायुधधरोऽव्ययः ॥ २६ | नानाप्रकारके अस्त्र-शस्त्रों सति हो तथा आठ भुजाओंको धारणकर उनका सामना किया और गणोंके खड्गचर्मगदाप्रासपरश्वधवराङ्कुशैः ।। स्वामी वीरभद्रपर प्रहार करने की इच्छासे वे अपने चापमार्गणभृत्तस्थौ हुन्तुकामा गणेश्वरम् ॥ ३७ | हाथमें ढाल, तलवार, गदा, भाला, फरसा, अंकुश, धनुष एवं बाण लेकर खड़े हो गये। गणेश्वर वीरभद्र भी गणेश्वरोऽपि संक्रुद्धो हुन्तुं धर्म सनातनम्।।

अत्यन्त क्रुद्ध होकर धर्मको मारनेके लिये बर्षाकालिक ववर्ष मार्गणांस्तीक्ष्णान् यथा प्रावृषि तोयदः ॥ २८ | मेघके सदृश उनके ऊपर तीक्ष्ण बाणकी वर्षा करने

लगे। मुने! धनुषको लिये रुधिरसे लथपथ (अतएव) तान्योंन्यं महात्मानौ शरचापधरौं मुने।। लाल शरीरवाले वे दोनों महात्मा पलाश-पुष्पके समान | रुधिरारुणसिक्ताङ्गी किंशुकाविव जितुः ॥ २९ | दौखने लगे ॥ २६-२९ ॥ । ततो वरात्रैर्गणनायकेन

मुनिराज़! इसके बाद श्रेष्ठ शस्त्रास्त्रोंके कारण जितः स धर्मः तरसा प्रसह्य।। | वीरभद्रसे पराजित होकर धर्मराज खिन्न होकर पीछे हट | परामुखोऽभूद्विमना मुनीन्द्र

गये। इधर वीरभद्र यज्ञशालामें घुस गये। मुने! गणेश्वर स वीरभद्रः प्रविवेश यज्ञम् ॥ ३० | यज्ञवाटं प्रविष्टं तं वीरभद्रं गणेश्वरम्।।

वीरभद्रकों यज्ञमण्डपमें घुसते देखकर सहसा सभी | दृष्ट्वा तु सहसा देवा उत्तस्थुः सायुधा मुने॥ ३१

देवता अस्त्र-शस्त्र लेकर उठ खड़े हुए। महाभाग आठौं वसवोष्टौं महाभागा ग्रहा नव सदारुणाः। वसु, अत्यन्त दारुण नवों ग्रह, इन्द्र आदि दिक्पाल, | इन्द्ववाद्या द्वादशादित्या रुद्रास्त्वैकादशैव हि ॥ ३३ | द्वादश आदित्य, एकादश रुद्ध, विश्वेदेव, साध्यगण, विश्वेदेवाश्च साध्याश्च सिद्धगन्धर्वपन्नगाः ।।

सिद्ध, गन्धर्व, पन्नग, यक्ष, किंपुरुष, महाबाहु, विहंगम, | यक्षाः किंपुरुषाश्चैव खगाश्चक्रधरास्तथा।। ३३

चक्रधर, वैवस्वत-वंशीय प्रसिद्ध राजा धर्मकीर्ति, चन्द्रवंशीय | राजा वैवस्वताद् वंशाद् धर्मकीर्तिस्तु विश्रुतः ।।

सोमवंशोद्धचयो] भौजकीर्तिर्महाभुजः ॥ ३४ | महाशाह, उग्न बलशाली राजा भोजकीति, दैत्य-दानव दितिज्ञा दानवाश्चान्ये येऽन्ये तत्र समागताः। | तथा वहाँ आये हुए अन्य सभी लोग आयुध लेकर रौद्र ते सर्वेऽभ्यद्वन् रौद्रं वीरभद्गमुदायुधाः ॥ ३५ | वीरभद्रकी और दौड़ पड़े ॥ ३०-३५ । । | तानापतत एवाशु चापबाणधरों गणः।। धनुष-बाण धारण किये गणोंने उन देवताओंक

अभिदुद्भाव वेगेन सर्वानेव शरित्रः ।। ३६ | आते ही उनपर वेगपूर्वक शस्त्रद्वारा आक्रमण कर ते शस्त्रवर्षमतुलं गणेशाय समुत्सृज़न्।

दिया। इधर देवताओंने भी वीरभद्के ऊपर अतुलनीय | गणेशोऽपि वरास्त्रैस्तान् प्रचिच्छेद बिभेद च॥ ३७

बाणोंकी वर्षा की। गणनायक सौरभद्ने देवताओं के अस्त्रको छिन्न-भिन्न कर डाला। महात्मा वीरभद्रद्वारा शरैः शस्त्रैश्च सततं वध्यमाना महात्मना। विविध बाणों और अस्त्रोंसे आहत होकर देवता आदि वीरभद्रेण देवाद्या अवहारमकुर्बत ॥ ३८ | रणभूमिसे भाग चले। राव गणपति वीरभद्र सुविस्तृत ततो विवेश गणपो यज्ञमध्यं सुबिस्तृतम्।।

यज्ञके मध्यमें प्रविष्ट हुए जहाँ मुनिगण यज्ञकुण्डमें जुह्वाना ऋषयो यत्र हवींषि प्रवितन्वते ।। ३९ | हविकी आहुति दे रहे थे। ३६-३१ ।।

ततो महर्षयों दृष्ट्वा मृगेन्द्रवदनं गणम्। । तय वें महर्षि सिंहमुख वीरभद्रको देखकर भयसे भीता होत्रं परित्यज्य जग्मुः शरणमच्युतम् ।। ४० | बन छोड़कर विष्णुको शरणमें चले गये। चक्रधारी | बिष्णुने भयभीत महर्षियोंको दु:खीं देखकर ‘डरो मत” तानातश्चक्रभृद् दृष्ट्वा महस्त्रस्तमानसान्।।

ऐसा कहकर अपने श्रेष्ठ अस्त्र लेकर खड़े हो गयें और न भैतव्यमतीत्युक्त्वा समुत्तस्थौ चरायुधः ॥ ४१ अपने शाङ्ग धनुषकों चढ़ाकर यीभाद्के ऊपर शरीरको समानम्य ततः शाईं शरानग्निशिखोपमान्।।

बिंद करनेवाले अग्निशिखाके तुल्य माणक वर्षा करने लगे। पर श्रीहरिक वे अमोघ (सफल) वाण मुमच वीरभद्राय कायावरणदारणान् ॥ ४२

वीरभद्के शरीर पर पहुँचकर भी पृथ्वीपर ऐसे (यों ही ते तस्य कायमासाद्य अमोघा मैं हरेः शराः। व्यर्थ होकर गिर पड़े, जैसे कि याचक नातिकके पास निपेतुर्भुवि भग्नाशा नास्तिकादिव याचकाः ।। ४३ | विफल–निराश होकर लौट जाते हैं ॥ ४-४३॥ । शस्त्चमोघान्मघत्वमापन्नान्वीक्ष्य केशवः। अपने ( अय्यर्थ) आगोंकों व्यर्थ होते देखकर भगवान् | दिव्यैरबैर्वीरभद्रं प्रच्छादयतमद्यतः ।। ४४  विष्णु पुनः वीरभद्को दिव्य अस्त्रोंसे ढक देनेके लिये तानस्त्रान् वासुदेवेन प्रक्षिप्तान् गणनायकः।।

तैयार हो गयें। वासुदेवके द्वारा प्रयुक्त उन बागोंको गणश्रेष्ठ बॉरभइने शुल, गदा और बाणोंसे रोंककर विफल वारयामास शूलेन गदया मार्गस्तथा ॥ ४५ |

कर दिया। भगवान् विष्णुनें अपने अस्त्रको नष्ट होते दृष्ट्वा विपन्नान्यस्त्राणि गर्दा चिक्षेप माधवः ।।

देखकर उसपर कौमोदकी गदा फेंकी। किंतु वरभद्ने त्रिशूलेन समाहत्य पातयामास भूतले ॥ ४६ |

उसे भी अपने त्रिशूलसे काटकर पृथ्वीपर गिरा दिया। मुशलं वीरभद्राय प्रचिक्षेप हुलायुधः ।।

हुलाधने वीरभानुक और मुसल और हल फेंका जिसे लाङ्गलं च गणेशोऽपि गदया प्रत्यवारयन् ॥ ४५ | वीरभद्ने गदासे निवारित कर दिया। गदा सहित मुसल मुशलं सगदं दृष्ट्वा लाङ्गलं च निवारितम्। | और हलकों नष्ट हुआ देखकर गरुडध्वज विष्णुने क्रोधसै वीरभद्राय चिक्षेप चक्रं क्रोधात् खगध्वजः ॥ ४८ | वीरभद्रके ऊपर सुदर्शनचक्र चला दिया। ४४–४८ ॥ तमापतन्तं शतसूर्यकल्पं गणेश्वर वीरभद्रने सैकड़ों सूर्यके सदृश सुदर्शन सुदर्शनं वीक्ष्य गणेश्चरस्तु। चक्रको अपनी ओर आते देखा तो शुलाकों इकर शुलं परित्यन्य ज्ञग्नाङ् च ।

चक्रकों वह ऐसे निगल लिया जैसे मनशरीरधारी विष्णु यथा मधं मीनवपः सुरेन्द्रः ।। ४९ | मधुदैत्यको निगल गये थे। वीरभद्द्वारा चक्रके निगल | चक्रे निगी गणनायकैन लिये ज्ञानेपर विष्णुकै सुन्दर काले नेत्र क्रोधसे लाल हो।

क्रोधातिरक्तोऽसितचारुनेत्राः ।। गये। ये उसके निकट पहुँच गये और उसे बैंगसे या मुरारिरभ्येत्य गणाधिपेन्द्र लिया तथा पृथ्वीपर पटककर उसे पीसने लगे। भगवान् मुक्षिप्य वैगाद् भुबि निष्पिपेष ।। ५० | विष्णुका भुशाओं और जाँचौंके प्रबल बैंगसे भूतलमें हरिबाहूवेगेन विनिष्पिष्टस्य भूतले। पटके गये वीरभद्के मुखसे झाँधिरके फौहारेके साथ चक्र सहितं रुधिरोद्गारैर्मुखाच्च विनिर्गतम् ॥ ५१

बाहर निकल आया। चक्रको मुखसे निकला देखकर ततो नि:सृतमालोक्य चक्रं कैटभनाशनः। भगवान् विष्णुने उसे ले लिया और वीरभद्रको छोड़

समादाय हृषीकेशो वीरभद्रं मुमोच ह।। ५२ | दिया।। १४१-५२ ॥ | हृषीकेशेन मुक्तस्तु वीरभद्र जटाधरम्। । भगवान् विष्णुद्वारा छोड़ दिये जानेपर वीरभद्ने

गत्वा निवेदयामास वासुदेवात्पराजयम् ॥ ५३ | जटाधारी शिवके निकट ज्ञाकर वासुदेवसे हुई अपनी ततो जटाधरों दृष्ट्वा गणेशं शोणिताप्लुतम्। | पराजयका वर्णन किया। फिर वीरभद्रकों खूनसे लथ नि:श्वसन्तं यथा नार्ग क्रोधं चक्रे तदाव्ययः ॥ ५४ | पथ तथा सर्पके सदृश नि:श्वास लेते देख अव्यय

 

* दक्षयज्ञका विध्वंस एवं देवताका प्रताड़न

के ततः क्रोधाभिभूतेन वीरभद्रोऽथ शंभुना। | जटाधर (शंकर)-ने क्रोध किया। इसके बाद क्रोधसै पूर्वोद्दिष्टे तदा स्थाने सायुधस्तु निवेशितः ॥ ५५ | तिलमिलाये शंकरने अस्त्रसहित वीरभद्रको पहले वीरभद्रमथादिश्य भद्रकाल च शंकरः। | बतलाये स्थानपर बैठा दिया। वे त्रिशूलधर शंकर विवेश क्रोधताम्राक्षो ज्ञवाटं त्रिशूलभृत् ॥ ५६ | वीरभद् तथा भद्रकालीको आदेश देकर क्रोधसे लाल ततस्तु देवप्नवरे जटाधरे आँखें किये अज्ञमण्डपमें प्रविष्ट हुए। त्रिपुर नामक

त्रिशूलपाणौ त्रिपुरान्तकारिणि।। राक्षसको मारनेवाले इन त्रिशूलपाणि त्रिपुरारि देवश्रेष्ठ दक्षस्य यज्ञं विशति क्षयंकरे जटाधरके दक्ष-यज्ञामें प्रॉश करते ही ऋषियोंमें भारी जातो ऋषीणां प्रवरो हि साध्वसः ।। ५७ | भय उत्पन्न हो गया ॥ ५३–५७॥

इस प्रकार श्रीवामनपुराणमें चौथा अध्याय समाप्त हुआ ४ ।

पाँचवाँ ध्याय

दक्ष-यज्ञका विध्वंस, देवताओं का प्रताड़न, शंकरके कालरूप और राश्यादि

| रूपों में स्वरूप-कथन । पुलस्त्यजी बोले-जटाधारी भगवान् शिवको जटाधरै हुरिष्ट्वा क्रोधादारलोचनम्। क्रोधसे आँखें लाल किये देखकर भगवान् विष्णु उस तस्मात् स्थानादपाक्रम्य कुब्जाग्रेऽन्तर्हितः स्थितः ।। १ | स्थानसे हटकर कुब्जाग्र (ऋषिकेश)-में छिप गये। मुने! बसवोंऽौ हर दा सस्त्रवगतों मने। | क्रुद्ध शिवको देखकर आठ वसु तेजीसे पिघलने लगे। सा तु जाता सरिच्छेला सीता नाम सरस्वती ।। २ | इस कारण यहाँ सीता नामकी श्रेष्ठ नदी प्रवाहित हुई।

वहाँ पूजाके लिये स्थित त्रिनेत्रधारी ग्यारह रुद्र भयके एकादश तथा रुद्रास्त्रिनेत्रा वृषकेतनाः। |मारे इधर-उधर भागते हुए शंकरके निकट जाकर उनमें

कान्दिशीका लयं जग्मुः समभ्येत्यैव शंकरम् ॥ ३ | हीं लीन हो गये। महामुनि नारद! शंकरको निकट आते | विश्वेश्चनौं च साध्याश्च मरुतोऽनलभास्कराः। | देख विश्वदेवगण, अश्विनीकुमार, साध्यवृन्द्, वायु, अग्नि समासाद्य पुरौद्धाशं भक्षयन्तो महामुने॥ ४ | एवं सूर्य पुरोडाश खाते हुए भाग गये ॥ १-४॥ | चन्द्रः सममृक्षगणैर्निशां समुपदर्शयन्। फिर तो ताराओंके साथ चन्द्रमा रात्रिको प्रकाशित उत्पत्यारुह्य गगनं स्वमधिष्ठानमास्थितः ॥५| करते हुए आकाशमें ऊपर जाकर अपने स्थानपर स्थित कश्यपायाश्च ऋषयों जपन्तः शतरुदयम। | हो गये। इधर कश्यप आदि ऋषि शतरुद्रिय (मन्त्र) का जप करते हुए अञ्जलिमें पुष्प लेकर विनीतभाव पुष्पाञ्जलिपुटा भूत्वा प्रणताः संस्थिता मुने॥ ६ |

खड़े हो गये। इन्द्रादि सभी देवताओंसे अधिक असकृद् दक्षदयितां दृष्ट्वा रुद्रं बलाधिकम् | बली रुड़कों देवका दक्ष-पत्नी अत्यन्त दौन हॉकर शक्रादीनां सुरेशानां कृपणं विललाप हु॥ | बार-बार करुण विलाप करने लगी। इधर क्रुद्ध भगवान् ततः क्रोधाभिभूतेन शंकरण महात्मना। | शंकरने थप्पड़ोंके प्रहारसे अनेक दैवताओंको मार तलाप्रहारैरमरा बहवों विनिपातिताः ॥ ८ | गिराया ।। ५-८॥

पादप्रहाररपरे त्रिशूलेनापरे मुने।। मुने ! शंकरने इसी प्रकार कुछ देवताओंको पैरोंके दृष्ट्याग्निना तथैवान्ये देवाद्याः प्रलयकृताः ॥ ९ | प्रहारसे, कुछको त्रिशूलसे और कुछको अपने तृतीय नेत्रकी ततः पूषा हुरं वीक्ष्य विनिघ्नन्तं सुरासुरान्। अगिहारा नष्ट कर दिया। उसके बाद दे एवं असुराँका क्रोधाद् वाहू असाथ प्रदुद्भाव महेश्वरम्॥ १० ||

संहार करते हुए को देखकर मुनादेयता ( अन्तम सूर्य) क्रोधपूर्वक दोनों बाहको फैलाकर, शिवजौकों और तमापतन्तं भगवान् संनिरीक्ष्य त्रिलोचनः ।।

दौड़े। त्रिलोचन शिवने उन्हें अपनी ओर आते देख एक बाहुभ्यां प्रतिजग्राह करेणैकेन शंकरः ॥ ११ ॥ ही हाथमें उनकी दोनों भुजाओंको पकड़ लिया। शिवद्वारा कराभ्यां प्रगृहीतस्य शंभुनांशुमतोऽपि हि। सूर्यके पकड़ीं गयीं दोनों भुजाओंकी अङ्गलियोंसे चारों कराङ्गलियों निश्चैरुरसृग्धाराः समन्ततः ॥ १२ | और रक्तकी धारा प्रवाहित होने लगी ॥ १-१३ ॥ ततों वेगेन महता अंशुमन्तं दिवाकरम्।। फिर भगवान् शिव दिवाकर सुर्यदेवको अत्यन्त भ्रामयामास सततं सिंहों मृगशिशु यथा ।। १३ वेगस ऐसे घुमाने लगे जैसे सिंह हिरण-शायकको घुमाता भ्रमितस्यानिवेगेन नारदांशुमतोऽपि हिं।। (दौड़ाता है। नारदजी ! अत्यन्त वेगसें घुमाये गये भुजौ हुस्बचमापन्न त्रुटितस्नायुबन्धनौ॥ १४ |

नास | सूर्यको भुजाओंके स्नायुबन्ध टूट गये और वे (स्नायुएँ) बहुत छोटी-नष्टप्राय हो गयीं। सूर्यके सभी अङ्गको रुधिराप्नुतसर्वाङ्गमंशुमन्तं महेश्वरः । रक्तसे लथपथ देखकर उन्हें छोड़कर शंकरजी दूसरी अनिक्ष्यिोत्सनमन्यतोऽभिजगाम ॥ १५ | और चले गये। उस समय हँसते एवं दाँत दिलाते हुए ततस्तु पूषा विहसन् दशनानि विदर्शयन्।। पूपा देवता (बारह आदित्यम॑से एक सूर्य) कहने लगे प्रोवाचैह्येहि कापालिन् पुनः पुनरश्चैश्चरम् ॥ १६ | ओ कपालिन् ! आओ, इधर आओं ॥ १३-१६ ॥ ततः क्रोधाभिभूतेन पूष्णो वेगेन शंभुना। | इसपर क्रुद्ध रुदने वेगपूर्वक मुक्कैसे मारकर पूषाके मुष्टिनात्य दशनाः पातिता धरणीतले ।। १७ | दाँतको धरतीपर गिरा दिया। इस प्रकार दाँत टूटने एवं भाग्नदन्तस्तथा पूषा शोणिताभिप्लुताननः।।

 उसे लथपथ होकर पूषा देवता वज़से नष्ट हुए पर्वतके पपात भुवि नि:संज्ञो वाहन इवाचलः ।। १८ समान बेहोश होकर पृथ्वीपर गिर पड़े। इस प्रकार गिरे हुए पूषाको रुधिरसे नथपथ देखकर भग देवता (तृतीय भगोभिवीक्ष्य पूषाणं पतितं रुधिरोक्षितम्।। सूर्यभेद) भयंकर नेत्रोंसे शिवजीको देखने लगे। इससे नेत्राभ्यां घोररूपाभ्यां वृषध्वजमवैक्षत ।। १९ क्रुद्ध त्रिपुरान्तक शिवने सभी देवताओंको क्षुब्ध करते त्रिपुरश्नस्ततः कुद्धस्तलेनाहत्य चक्षुषी।। हुए हथेलीसे पीटकर भगकी दोनों आँखें पृथ्वीपर गिरा निपातयामास भुवि क्षोभयन् सर्वदेवताः ।। ३६ ॥

ततो दिवाकराः सर्वे पुरस्कृत्य शतक्रतुम्।। | फिर क्या था? सभी दसों सूर्य इन्द्रको आगे कर मरुद्भिश्च हुताश्च भयाग्मदिशों दश।। ३१ | मरुद्गगों तथा अग्नियॉर्क साध भयसै दसों दिशाओमें प्रतियातेषु देवेषु प्रह्लादाद्या दितीश्चराः

भाग गये। मुने! देवताओंके चले जानेपर, प्रहाद आदि दैत्य महेश्वरकों प्रणामकर अञ्जलि बाँधकर खड़े हो गये। नमस्कृत्य ततः सर्वे तस्थुः प्राञ्जलयो मुने ॥ २२

इसके बाद शंकर उस यज्ञमण्डपकों तथा सभी देवासुरोकों ततस्तं यज्ञवादं तु शंकरों घोरचक्षुषा।

दग्ध करनेके लिये क्रोधपूर्ण घोर दृष्टिसे देखने लगे। इधर ददर्श दग्धं कोपेन सर्वाश्चैव सुरासुरान् ॥ २३ | दूसरे वीर महादेवको देखकर भयर्स जहाँ-तहाँ छिप ततो निलिलियारे वीराः प्रणेमुर्दैवुस्तथा।। | गयें। कुछ लोग प्रणाम करने लगे, कुछ भाग गये और भयादन्थें हरं दृष्ट्वा गता वैवस्वतक्षयम् ॥ २४ | कुछ तो भयसे ही सीधे यमपुरी पहुँच गये ॥ २१-२४ ॥

दस-यज्ञका विध्वंस एवं देवताओंका प्रताड़न अयोग्नयस्त्रिभिनेञई सहूं समवैक्षत। फिर भगवान् शिवने अपने तीनों नेत्रोंसे तीनों दृष्टमात्रास्त्रिनेत्रेण भस्मीभताभवन् क्षणात् ।। ३५ | आग्नयों (आहवनीय, गार्हपत्य और शालाग्नियों को देखा। उनके देखते ही वे अग्नियाँ क्षणभरमें नष्ट हो गयीं। अपना प्रष्ट अ प भूना दिव्यचमूगः। | उनके नष्ट होनेपर यज्ञ भौं मृगका शरीर धारण कर दुद्भाव विक्लव्रगतिदक्षिणासहितोऽम्बरे ॥ २६ | आकाशमें दक्षिणाके साथ तीव्रगतिसे भाग गया। कालरूपी तमेवानससारेशश्चापमानम्य वेगवान्।

बैंगवान् भगवान् शिव धनुषको झुकाकर उसपर पाशुपत बाण संधानकर उस मृगके पीछे दौड़े और आधे रूपसे शरं पाशुपतं कृत्वा कालपी महेश्वरः ॥ २७ |

तो यज्ञशालामें स्थित हुए जिनका नाम ‘जटाधर’ पड़ा। | अर्धेन यज्ञवादान्ते जटाधर इति श्रुतः। इधर आधे दूसरे रूपसे वे आकाशमें स्थित होकर | अर्दैन गगने शर्वः कालरूपीं च कथ्यते ॥ २८|’काल’ कहलायें ।। २५-२८ ॥

 

नपद उवाच । नारदजी बोले-(मुने !) आपने आकाशमें स्थित कालरूपी त्वयाख्यातः शंभुर्गगनगोचरः। | शिवको कालरूपीं कहा है। आप उनके सम्पूर्ण स्वरूप लक्षणं च स्वरूपं च सर्व व्याख्यातुमर्हसि ।। ३९ | और लक्षणोंकी भी व्याख्या कर दें ॥ २५ ॥

पुलस्त्यज्ञोंने कहा- मुनिवर ! मैं त्रिपुरकों स्वरूपं त्रिपुरघ्नस्य वदिष्ये कालरूपिणः।।

मारनेवालें कालरुपी उन शंकरके स्वरूपको (वास्तविक रूपको बतलाता हैं। उन्होंने लोकको भलाईकी इच्छासे येनाम्बरं मुनिश्रेष्ठ व्याप्तं लोकहितेप्सुना ॥ ३०

हो आकाशको व्याप्त किया है। सम्पूर्ण अश्विनी तथा यत्राश्विनी च भरण कृत्तिकायास्तथांशकः ।

भरणी नक्षत्र एवं कृत्तिका एक चरणसे युक्त भौमका मैघो राशिः कुजक्षेत्र तच्छिरः कालरूपिणः ॥ ३१ |

क्षेत्र मेष राशि ही कालरूपी महादेवका सिर कहीं गयी है। ब्रह्मन् ! इसी प्रकार कृत्तिकाके तीन चरण, सम्पुर्ण आग्नेयांशास्त्रयो ब्रह्मन् प्राजापत्यं कवेर्गुहम्। | रोहिणी नक्षत्र एवं मृगशिराके दो चरण, यह शुक्रकी सौम्याई चायनामेंट चटर्न निम्॥ ३ | वृष राशि ही उनका मुख है। मृगशिराके शेष दो चरण, सम्पूर्ण भाड़ और पुनर्ससकें तीन चरण बुधकौ (प्रथम) मृगार्द्धमादित्याशस्त्रयः सौम्यगृहं त्विदम्। | स्थितिस्थान मिथुन राशि आकाशमें स्थित शिवकी दोनों मिथुनं भुजयोस्तस्य गगनस्थस्य शूलिनः ॥ ३३ | भुजाएँ हैं॥ ३०-३३ ॥ | आदित्यांशश्च पुष्यं च आश्लेषा शशिनो गृहम्।। | इसी प्रकार पुनर्वसुका अन्तिम चरण, सम्पूर्ण पुष्य राशिः कर्कटको नाम पाश्चें मखविनाशिनः ।। ३४ | और आश्लेषा नक्षत्रोंवाला चन्द्रमाका क्षेत्र कर्क राशि यज्ञविनाशक शंकरके दोनों पार्श्व (बगल) हैं। ब्रह्मन् ! | पित्र्य भगदैवत्यमुत्तरांशश्च केसरी।।

सम्पूर्ण मघा, सम्पूर्ण पूर्वाफाल्गुनी और उत्तराफाल्गुनीका सूर्यक्षेत्रं विभोर्ब्रह्मन् हृदयं परिगीयते ।। ३५ | प्रथम चरण, सूर्यको सिंह राशि शंकरका हृदय कहीं उत्तरांशास्त्रयः पाणिश्चित्रार्धं कन्यका वियम्।।

जाती हैं। उत्तराफाल्गुनौकै तन चरण, सम्पूर्ण हस्त नक्षत्र सोमपुत्रस्य सद्यैतद् द्वितीयं जठरं विभौः ॥ ३६ |

एवं चिन्नाके दो पहले चरण, बुधकी द्वितीय राशि, कन्या

राशि शंकरका जठर हैं। चित्राके शेष दो चरण, स्वातीके चित्रांशद्वितयं स्वातिर्विशाखापांशकत्रयम्।। | चारों चरण एवं विशाखाके तीन चरणों से युक्त शुक्रका द्वितीयं शुक्रसदनं तुला नाभिरुदाहृता ॥ ३७ | दूसरा क्षेत्र तुला राशि महादेवकी नाभि है ॥ ३४-३७ ॥

विशाखांशमनूराधा ज्येष्ठा भौमगृहं त्विदम्।। विशाखाका एक चरण, सम्पूर्ण अनुराधा और द्वितीयं वृश्चिक राशिमॅढ़ कालस्वरूपिणः ।। ३८ | म्येष्ठा नक्षत्र, मङ्गलका द्वितीय क्षेत्र वृश्चिक राशि कालरूपी महादेवका उपस्थ हैं। सम्पुर्ण मूल, पूरा पूर्वाषाढ़ और मूलं पूर्वोत्तरांशश्च देवाचार्यगृहं धनुः।

इत्तराषाढको प्रथम चरणवाली धनु राशि जो बृहस्पतिका ऊरुयुगलमीशस्य अमर्ष गीयते ॥ ३१ | क्षेत्र है. महेअरके दोनों ऊर हैं। मुने! उत्तरापाडके शेष उत्तरांशास्त्रयों ऋक्षं श्रवणं मकरों मुने।।

तीन चरण, सम्पूर्ण श्रवण नक्षत्र और धनिष्ठाकै दो पूर्व चरणकौं मकर राशि शनिका क्षेत्र और परमेष्ठीं महेश्वर धनिष्ठार्थं शनिक्षेनं ज्ञानुनी परमेष्ठिनः ॥ ४०

दोनों घुटने हैं। धनिष्ठाके दो चरण, सम्पूर्ण शतभिष और धनिष्ठार्ध शतभिषा प्रौपद्यांशकत्रयम्।। | पुर्च भाद्रपदके तीन चरगवाली कुम्भ राशि शनिका सौरैः सद्यापरमिदं कुम्भ जङ्गं च विश्रुते ॥ ४१ | द्वितीय गृह और शिवको दो जंघाएँ हैं ॥ ३८-४१ ॥

पूर्वभाद्रपद शेष एक चरण, सम्पूर्ण ऊत्तरभाद्रपद | प्रौपद्यांशमेकं तु उत्तरा इवती तथा । | और सम्पूर्ण ग्रेवती नक्षत्रवाला वहस्पतिका दिनीय क्षेत्र द्वितीयं जीवसदनं मनस्तु चरणावुभौ ।। ४३ | वं मीन राशि उनके दो चरण हैं। इस प्रकार कारतरूप एवं कृत्वा कालरूपं त्रिनेत्रों धारणकर, शिवनें क्रोधपूर्वक हरिणरूपधारों यज्ञको ब्राणोंसे । यज्ञं क्रोधान्मार्गमैराजघान्। मारा। उसके बाद बाणोंसे विद्ध होकर, किंतु वेदनाक चिद्धशासौं वेदनायुद्धमुक्त; अनुभूति न करता हुआ, वह यज्ञ ताराऑसे धिरे वें संतस्थौ तारकाभिधताङ्गः ।। ४३ | शरीरवाना होकर आकाशमें स्थित हो गया ॥ ४-४३ ।।

नारदजानें कहा—ब्रह्मन्! आपने मुझसे बाहों राशयों गदिता ब्रह्मस्त्वया द्वादश वै मम। | राशिका वर्णन किया। अब विशेषरूपसे उनके स्वरूपके | तेषां विशेषतों ब्रूहि लक्षणानि स्वरूपतः ॥ ४४ | अनुसार लक्षणोंको बतलायें ।। ४ ।।

पुलस्त्र जाप पुलस्त्यज़ी बोले-नारदजी ! आपको मैं राशियोंका स्वरूपं तव वक्ष्यामि राशनां शृणु नारद। | स्वरूप बतलाता हूँ; सुनिये। वे जैसी हैं तथा जहाँ

यादृशा यत्र संचारा यस्मिन् स्थाने वसन्त च ॥ ४५ | संचार और निवास करतीं हैं वह सभी वर्णित करता | मेषः समानमूर्तिश्च अजाविकधनादिषु । । | हैं। मेष राशि भेइके समान आकारवाली हैं। बकरों, संचारस्थानमेवास्य धान्यरत्नाकरादिप ।। ४६ | भेड़, धन-धान्य एवं उन्नाकरादि इसके संचार-स्थान हैं।

|| तथा नवदुर्वासे आच्छादित समग्र पृथ्वीं एवं पुष्मित नवशालसँछन्नवसुधायां च सर्वशः।

वनस्पतियों से युक्त सरोवरोंके पुलिनोंमें यह नित्य संचरण नित्यं चरति फुललेषु सरसां पुलिनेषु च ॥ ४६ | करती हैं। वृषभके समान रूपयुक्त वृषराशि गोंकुलादिमें | वृषः सदशरूपों हि चरने गोकुलादिषु। | सिंचरण करती है तथा कृषकको भूमि इसका निवास | तस्याधिवासभूमिस्तु कृषीवलधराश्रयः ।। ४८ | स्थान है ।। ४५-४८ ॥

स्त्रीपंसयोंः समं रूपं शय्यासनपरिंग्रहः। । मिथुन राशि एक स्त्री और एक पुरुष साथ-साथ वीणावायधूङ् मिथुनं गीतनर्तकशिल्पिषु ।। ४ | रहने समान रूपवाली हैं। यह शय्या और आसनों पर स्थित है। पुरुष-स्त्रीकै हाथोंमें वीणा एवं (अन्य) | वाद्य हैं। इस राशिका संचरण गानेवालों, नाचनेवालों स्थितः क्रीडारतिनित्यं विहारावनिरस्य तु। | एवं शिल्पियोंमें होता है। इस द्विस्वभाव राशिको | मिथुनं नाम विख्यातं राशिट्टेधात्मकः स्थितः ॥ ५ | मिथुन कहते हैं। इस राशिका निवास क्रीड़ास्थल एवं

* दक्षयका विध्वंस एवं देवताओंका प्रताड़न*

कर्क: कुलीरेण समः सलिलस्थः प्रकीर्तितः। | विहार-भूमियोंमें होता है। कर्क राशि केकड़ेके रूपके केदारवापीपुलिने विविक्तावनिरेव च ॥ ५१ | समान रूपवाली हैं एवं जलमें रहनेवाली है। जलसे पूर्ण क्या एवं नदी तौर अथवा बालुका एवं एकान्त भूमि इसके उनके स्थान है। सिंह राशिका निवास चन, पर्वत, सिंहस्तु पर्वतारण्यदुर्गकन्दरभूमिषु। | दुर्गमस्थान, कन्दरा, व्याधौंके स्थान, गुफा आदि होता वसते व्याधपरन्लीषु गरेषु गुहासु च ।। ५२ | ब्रीहिदीपिककरा नावारूढ़ा च कन्यका। | कन्या राशि अन्न एवं दीपक हाथमें लिये हुए है। चरते स्त्रीरतिस्थाने वसते नवलेषु च ।। ५३ | तथा नौकापर आरुढ़ हैं। यह स्त्रियोंके रतिस्थान और सरपत, कण्डा आदिमें विचरण करती है। नारद! तुला तुलापाणिश्च पुरुषों वीथ्यापणविचारकः।। राशि हाथमें तुला लिये हुए पुरुषकै रूपमें गलियों और नगराध्वानशालासु वसते तत्र नारद ॥ ५४ |

बाजारोंमें विचरण करती हैं तथा नगरों, मार्गों एवं भवनों में निवास करती हैं। वृश्चिक राशिका आकार बिच्छू-जैसा है। यह गई एवं बल्मक आदिमें विचरण करती है। यह अद्भवल्मीकसंचारी वृश्चिको वृश्चिकाकृतिः।।

विष, गोबर, कोट एवं पायर आदिमें भी निवास करती विषगोमयकटादियाघाणादिषु संस्थितः ॥ ५५ हैं। धनु राशिकी जंघा घोडेके समान हैं। यह ज्योतिःस्वरूप एवं धनुष लिये हैं। यह घुड़सवारी, वीरताके कार्य एवं धनुस्तुरङ्गजघनो दीप्यमानो धनुर्धरः। अस्त्र-शस्त्रका ज्ञाता तथा शूर हैं। गज एवं रथ आदिमें बाजिशूरास्त्रविद्गीर: स्थायी गजरथादिषु ॥ ५६ | इसका निवास होता है ॥ ५३–५६ ॥ मृगास्यों मकरों ब्रह्मन् वृषस्कन्धेक्षणाङ्गजः। । ब्रह्मन्! मकर राशिका मुख मृगके मुख-सदृश एवं मकरोऽसौ नदौचारी वसते च महौदधौ ।। ५७ | कंधे वृषके कन्धोंके तुल्य तथा नेत्र हाथीके नेत्रके समान

हैं। यह राशि नादीमें विचरण करतीं तथा समुहमें विश्राम रिक्तकुम्भश्च पुरुषः स्कन्धधारी जलाप्लुतः।।

करती है। कुम्भ राशि रिक्त घडेको कंधेयर लिये ज्ञलसे द्यूतशालीचर: कुम्भः स्थायी शौण्डिकसद्मसु ॥ ५ | भीगे पपके समान हैं। इसका संचार-स्थान द्युतगृह एवं | मीनद्यमशासक्तं मनस्तीर्धाब्धिसंचरः। सुरालय (मद्मशाला) है। मीन राशि दो संयुक्त मछलियोंके आकारवाली है। यह तीर्थस्थान एवं समुद्र देशमें संचरण वसते पुण्यदेशेषु देवब्राह्मणसद्मसु ।। ५९

करती हैं। इसका निवास पवित्र देशों, देवमन्दिरों एवं | लक्षणा गदितास्तुभ्यं मेषादीनां महामुने।। | ब्राह्मणोंके घरोंमें होता हैं। महामुने ! मैंने आपको मेषाद

राशियोका लक्षण बतलाया। आप इस प्राचीन हस्यको | न कस्यचित् त्वयाख्येयं गुह्यमेतत्पुरातनम् ॥ ६६ किसी अपात्रसे न यतलाइयेगा। देवर्षे ! भगवान् शिवने एतन् मया ते कथितं सुरर्षे जिस प्रकार यज्ञको प्रमथित किया, उसका मैंने आपसे यथा नैनः प्रममावा पम्। वर्णन कर दिया। इस प्रकार मैंने आपको श्रेयस्कर, परम पुण्यं पुराणं परमं पवित्र पवित्र, पापहारी एवं कल्याणकारी अत्यन्त पुराना पुराण माख्यातवान्पापहरं शिवं च ।। ६१ | आख्यान सुनाया। ५७—६१ ॥

इस प्रकार श्रीवामनपुराणमें पाँचवाँ अध्याय समाप्त हु

 

छठा अध्याय

नर-नारायणकी उत्पत्ति, तपश्चर्या, बदरिकाश्रमकी वसन्तकी शोभा, काम-दाह

और कामकी अनङ्गताका वर्णन प्रलय उवाच ।। पुलस्त्यजी बोले- मुने! ब्रह्माजीके हृदयसे जो हुद्भवो ब्रह्मणों योऽसौ धर्मो दिव्यवपुर्मुने। दिव्यदेहधारी धर्म प्रकट हुआ था, उसने दक्षकी पुत्री दाक्षायणी तस्य भार्या तस्यामजनयत्सुतान्॥ १ | ‘मूर्ति’ नामकी भार्यासे हरि, कृष्ण, नर और नारायण हरिं कृष्णं च देवर्षे नारायणन तथा। | नामक चार पुत्रको उत्पन्न किया। देवर्षे ! इनमें हरि योगाभ्यासरतौ नित्यं हरिकृष्णौ बभूवतुः ।। २ | और कृष्ण ये हों तो नित्य योगाभ्यासमें निरता हो गये। नरनारायण चैव जगतों हितकाम्यया। | और पुरातन षि शान्तमना नर तथा नारायण संसारके तप्येतां च तपः सौम्यौ पुराणावृषिसत्तमौ ॥ ३ | कल्याणके लिये हिमालय पर्वतपर जाकर बद्रकाश्रम प्रालेयाद्रिं समागम्य तीर्थे बदरिकाश्नमें। तीथमें गङ्गाके निर्मल टपर (परह्मका नाम कारका गृणन्तौ तत्परं ब्रह्म गङ्गाया विपुले तटे ॥ ४ जप करते हुए) तप करने लगे ॥ १-४॥ नरनारायणाभ्यां च जगदेतच्चराचरम्। । ब्रह्मन् ! नर-नारायणको दुष्कर, तपस्यासे सारा तापितं तपसा ब्रह्मराक्रः क्षोभं तदा ययौ।। ५| स्थावर जंगमात्मक यह जगत् परितप्त हो गया। इससे इन्द्र विक्षुब्ध हो उठे। उन दोनोंकी तपस्यासे अत्यन्त संक्षुब्धस्तपसा ताभ्यां क्षोभणाय शतक्रतुः ।।

व्यग्र इन्द्रने उन्हें मोहित करनेके लिये रम्भा आदि श्रेष्ठ रम्भाद्याप्सरसः श्रेष्ठाः प्रेषयत्स महाश्रमम् ॥ ६

अप्सराओंको उनके विशाल आश्रम भैज्ञा। कामदेव कन्दर्पश्च सुदुर्धर्ष भूताङ्कुरमहायुधः।।

आयुधोंमें अशोक, आम्नार्दिक मंजरियाँ विशेष प्रभावक समं सहचरेणैव वसन्तेनाश्रमं गतः ।। ६

हैं। इन्हें तथा अपने सहयोगी वसन्त ऋतुको साथ लेकर वह भी उस आश्चममें गया। अब वें चलन्त, कामदेव था। ततों माधवकन्दप ताश्चैवाप्सरसो वराः।  श्रेष्ठ अप्सराएँ—ये सब बदरिकाश्रममें जाकर निबंध बदर्याश्रममागम्य विचिक्कीबुर्यथेच्छया। ८ क्रीड़ा करने लग गये ॥५-८॥ ततो बसन्ते संप्राप्ते किंशुका ज्वलनप्रभाः ।। तब वसन्त ऋतुके आ जानेपर अग्नि-शिखाकै सदृश निष्पत्राः सततं रेजुः शोभयन्तों धरातलम् ॥ ६ | कान्तिवाले पलाश पन्नहीन होकर रात-दिन पृथ्वीको शोभा बढ़ाते हुए सुशोभित होने लगे। मुने! वसन्तरूपों शिशिरं नाम मातङ्गं बिदार्य नखरैग्वि।। सिंह मानो पलाश पुष्परूपी नोंसे शिशिररूपी गजराज्ञको वसन्तकेसरी प्राप्तः पलाशकुसुमैर्मुने॥ १०

विदीर्ण कर यहाँ अपना साम्राज्य जमा चुका था। वह मया तुषारौघकरी निर्जितः स्वेन तेजसा। सोचने लगा- मैंने अपने तेजसे शतसमूहरूपी हाधकों तमेव हसतैत्युच्चैः वसन्तः कुन्दकुमलैः ।। ११ || जीत लिया हैं और वह कुन्दकी कलियाँकै बहाने उसका उपहास भी करने लगा है। इधर सुवर्णके वनानि कर्णिकाराणां पुष्पितानि विरेजिरे। | अलंकारोंसे मण्डित राजकुमारोंके समान पुष्पित कचनार यथा नरेन्द्रपुत्राणि कनकाभरणानि हि ।। १२ | अमलतासके वन सुशोभित होने लगे ॥ १-१३ ॥

१-यह बात भागवत ३ । ५। ६ आदिमें विशेष स्पष्टरूपसे कहीं गयीं हैं। जिज्ञासु वहाँ भी देखें। अध्याय ६] + नर-नारायणकी उत्पत्ति, बदरिकाश्रमको वसन्तकी शोभा, कामकी अनङ्गताका वर्णन तेषामनु तथा नपाः किङ्करा इव रेजिरे। । जैसे राजपुत्रोंके पीछे उनके द्वारा सम्मानित सेवक स्वामिसंलब्धसंमाना भूत्या राजसतानिन्न ।। १३ | खड़े रहते हैं, बैंसे ही उन (चणित-वनों)-के पीछे-पीछे

कदम्बवृक्ष सुशोभित हो रहे थे। इसी प्रकार लाल रक्ताशोकवना भान्ति पुष्पिता: सहसोचलाः।। | अशोक आदिके समूह भी सहसा पुष्पित एवं उद्भासित

भृत्त्या वसन्तन्तेः संग्रामे सूक्प्लुता इव ।। १४ || हो सुशोभित होने लगे। लगता था मानों ऋतुराज वसन्तके अनुयायी युद्धमें इसे लथपथ हो रहे हों। घने वनमें पीले रंगके हरिण इस प्रकार सुशोभित हो रहे थे मृगवृन्दाः पिञ्जरिता राजन्तें गहने बने।

जिस प्रकार सुदूकें आनेसे सज्ज़न (आनन्दसे) पुलकित पुलकाभिवृत्ता यहुन् सन्नाः सुहृदागमे ।। १५ | होकर सोभित होते हैं। नदी तपर अपनी मंजरियों*

द्वारा वेतस ऐसे सुशोभित हो रहे थे मानों में अंगुलियों के मञ्जरीभिर्विराजते नदीकुलेषु वेतसाः। द्वारा यह कहना चाहते हैं कि हमारे सदृश अन्य कौन | चतुकामा इवाङ्ल्याकोऽस्माकं सदृशो नगः ।। १६ |

वृक्ष हैं ॥ १३-१६ ॥ रक्ताशोककरा तन्वी देवर्षे किंशुकाग्निका।। देवर्षे! जो दिव्य पतलौ एवं यौवनसे भरी वसन्त नीलाशोककचा श्यामा चिकासिकमलानना ।। १७ | लक्ष्मी उस बदरिकाश्रममें प्रकट हुई थी, उसके मानों नीलेन्दींवरनेत्रा च ब्रह्मन् बिल्वफलतनी। । रक्ताशोक ही हाथ, पलाश ही चरण, नीलाशोक केश प्रफुल्लकन्ददशना मञ्जरीकरशोभिता ।। १८ | पाश, विकसित कमल ही मुखा और नौलकमल ही नेत्र | बन्धुज्ञवाधरा शुभ्रा सिन्दुवारनल्लाना। थे। उसके बियफल मानों स्तन, कुन्दपुष्म इन्त, मञ्जरी पंस्कोकिलस्वना दिया अलवसना शभा॥ ११ | हाथ, दुपहरियाल अधर, सिन्दुवार नख, नर कौयलक | बर्हिवृन्दकलापा च सारसस्वरन्परा। | काकली (बॉली) स्वर, अंकल वस्त्र, मयूरयूथ आभूषण, प्रागसँसना झामन् मत्तसगतिस्तथा।। २३ | सास नुपरस्वरूप और आश्चमक शि, करधनी थे । | पन्नजीवाशका भमराज्ञिचिराजिता। उसका मन अजीव ऊर्व वस्त्र और अमर वसन्तलक्ष्मीः सम्प्राप्ता अझन् बदरिकाश्रमे ॥ २६ | मानो मावलीरूपमें विराजित थे। तब नारायणने आश्रमको ततो नारायणों दृष्ट्वा आश्चमम्यानवयताम्। अद्धत रमणीयता देखकर सभी दिशाओंकी और देखा समीक्ष्य च दिशः सर्वास्ततोऽनङ्गमपश्यत ।। ३३ | और फिर कामदेवको भी देखा ॥ १७-३३ ॥

माद्ध जवान नारदजीने पूछा- ब्रह्मर्षे ! जिसे अव्यय जगन्नाथ कोऽसावनङ्गो ब्रह्मर्षे तस्मिन् बदरिकाश्रमे। | नारायणने बदरिकाश्रममें देखा था, वह अनङ्ग (काम) यं ददर्श जगन्नाथ देवो नारायणोऽव्ययः ॥ २३ | कौन हैं ? ॥ २३ ॥

पुलस्त्य उवाच पुलस्त्यजींने कहा- यह कंदर्प हर्षका पुत्र है, कन्दप हुर्षतनयों योऽसौ कामों निगद्यते। | इसे ही काम कहा जाता है। शंकर-(कों नेन्नाग्नि-) द्वारा | स शंकरण संदग्ध ह्यनङ्गन्यमुपागतः ।। ३४ | भस्म होकर बह ‘अनङ्ग’ हो गया ॥ २४ ॥

नारद जींने पूछा- पुलस्त्यजीं! आप यह बतलायें किमर्थं कामदेवोऽसौ देवदेवेन शंभुना। | कि देवाधिदेव शंकरने कामदेवको किस कारण से दग्धस्तु कारणे कस्मिन्नेतद्व्याख्यातुमर्हसि ॥ २५ | भस्म किया? ॥ २५ ॥

पुलमय उवाच

पुलस्त्यजने कहा- ब्रह्मन्! दक्ष-पुत्री सतीक यदा दक्षता ब्रह्मन् सती याता यमक्षयम्। | आण-त्याग करनेपर, शिवजी दक्ष-यज्ञका ध्वंस कर विनाश्य दक्षयज्ञं तं विचार त्रिलोचनः ।। २६ | (जहाँ-जहाँ) विचरण करने लगे। तब शिवगीकों स्त्री ततो वृषध्वनं दृष्ट्वा कन्दर्पः कुसुमायुधः। | रहित देखकर पुष्पास्त्रवाले कामदेवने उनपर अपना अपत्नीकं तदाऽस्त्रेण उन्मादेनाभ्यताडयत् ॥ २७ | ‘उन्मादन’ नामक अस्त्र छोड़ा। इस उन्मादन-याणसे ततो हुरः शरेणाथ उन्मादेनाशु ताडितः। | आहत होकर शिवजी उन्मत्त होकर वनों और सरोवरोंमें विचचार मदोन्मत्त; कान्नानि सरांसि च ॥ २८ | घूमने लगे। देवर्षे! बागबद्ध गजके समान उन्मादसे स्मरन् सर्ती महादेवस्तधोन्मादेन ताडितः । व्यथित महादेव सतीका स्मरण करते हुए बड़े अशान्त न शर्म लेझैं देवर्षे बाणवद्ध इव द्विपः ।। ३९ | हो रहे थे उन्हें चैन नहीं था। ३६-३६ ।। ततः पपात देवेशः कालिन्दीसरितं मुने। मुने! उसके बाद शिवजी यमुना नदीमें कूद पड़े। निमग्ने शंकरे आप दग्धाः कृष्यान्चमागताः ।। ३० | इनके जलमें निमज़न करनेसे अस नदका जल क्राला हो गया। उस समअसे कालिन्द नदीका जल भंग तदाप्रभूति कालिन्द्या भृङ्गाञ्जननिभं ज्ञलम्।।

और अंजनके सदृश कृष्णवर्णका हो गया एवं वह पवित्र आस्यन्दन् पुण्यती सा केशपाशमिवाचनैः ॥ ३१ | तीर्थोंवालीं नदी पृथ्वीके कॅशपाशके सदृश प्रवाहित ततो नदीषु पुण्यासु सरस्सु च नदेषु च।। होने लगीं। इसके बाद पवित्र नदियों, सरोवरों, नदों, | पुलिनेषु च रम्येषु वापीषु नलिनीषु च।। ३२ रमणीय नद-तटों, वापियों, कमलवनों, पर्वत, मनोहर काननों तथा पर्वत-शृङ्गपर, स्वेछापूर्वक विचरण पर्वतेषु च रम्येषु काननेषु च सानुषु ।। करते हुए भगवान् शिव कहीं भी शान्ति नहीं प्राप्त विचरन् स्वेच्छया नैव शर्मं लेंभे महेश्वरः ॥ ३३ | कर सके ॥ ३०–३३।। क्षणं गायति देवर्षे क्षणं रोदिति शंकरः। | देवर्षे! ये कभी गाते, कभी रोते और कभी क्षणं ध्यायति तन्वङ्ग दक्षकन्यां मनोरमाम् ॥ ३४ | कृशाङ्गी सुन्दरी सतीका ध्यान करते ध्यान करके कभी ध्यात्वा क्षणं प्रस्वपिति क्षणं स्वप्नाचते हुरः।।

सोते और कभी स्वप्न देखने लगते थे; स्वप्नकालमें स्वप्ने तश्चेदं गति तां दृष्ट्वा दक्षकन्यकाम् ॥ ३५ सतीकों देखकर वे इस प्रकार कहते थे -निर्दथें ! को,

हैं मू! मुझे क्यों छोड़ रही हो? हे निन्दिते ! हैं मुग्धे ! निघृणे तिष्ठ किं मूढे त्यजसे मार्मानिन्दिते।। तुम्हारे विहमें में कामाग्निमें इग्ध हो रहा है। हे सत! मुग्धे त्वया विरहितो दग्धोऽस्मि मदनाग्निना। ३६ क्या तुम वस्तुत: कुद्ध हो ? सुन्दर ! क्रोध मत करो। मैं सति सत्यं प्रकुपिता मा कोपं कुरु सुन्दर। । तुम्हारे क्षणों में अवनत होकर प्रणाम करता हैं। तुम्हें मेरे पादप्रणामावनतमभिभाषितुमर्हसि ॥ ३७ | साथ बात तो करनी ही चाहिये ।। ३४-३६ ॥ श्रूयसे दृश्यसे नित्यं स्पृश्यसे वन्यसे प्रिये।। प्रिये ! मैं सतत तुम्हारी ध्वनि सुनता हूँ, तुम्हें आलिङ्गयसे च सततं किमर्थं नाभिभाषसे ।। ३८ | देखता हूँ, तुम्हारा स्पर्श करता है, तुम्हारी बन्दना करता हैं और तुम्हारा परिषङ्ग करता हूँ। तुम मुझसे बात क्यों विलपन्तं ज्ञनं दृष्ट्वा कृपा कस्य न जायते।।

नहीं कर रही हो? ब्राले ! विलाप करनेवाले व्यक्तिकों विशेषतः पतिं बाले ननु त्वमतिनिघृणा॥ ३९ |

देखकर किसे दया नहीं उत्पन्न होतीं । विशेषतः अपने पाँतको विलाप करता देखकर तों किसे दया नहीं आती? त्वयोक्तानि बचांस्येवं पूर्वं मम कृशोदरि।।

निश्चय हीं तुम अति निर्दयी हो। सूक्ष्मकटियानीं ! तुमने पहले मुझसे कहा था कि तुम्हारे बिना मैं ज्ञावित नहीं विना त्वया न जीवों तदसत्यं त्वया कृतम् ॥ ४ | रगीं। उसे तुमने असत्य कर दिया। सुलोचने । आओ, आओं; कामसन्तप्त मुझे आलिङ्गित करों। प्रिये ! मैं एहि कामसंतप्तं परिष्वज्ञ सलोचने। | सत्यको शपथ खाकर कहता है कि अन्य किसी प्रकार नान्यथा नश्यते तापः सत्येनापि शपे प्रिये ॥ ४१ | मैरा ताप नहीं शान्त होगा ।। ३८–४१ ।। इत्थं विलय स्वप्नातै प्रतिबुद्धस्तु तन्क्षणात्। । इस प्रकार में विलाप कर स्वप्नकै अन्तमें उठकर उत्कृति तथारण्ये मुक्तकण्ठं पुनः पुनः ।। ४२ | वनमें बार-बार रोने लगे। इस प्रकार मुक्तकण्ठले अध्याय ३] नर-नारायणकी उत्पत्ति, बदरिकाश्रमको वसन्तक शोभा, कामकी अनङ्गताका वर्णन २५

तं कृजमानं विलपन्तमारात् | | विलाप करते हुए भगवान् शंकरको दूरसे देखकर कामने समीक्ष्य कामों वृषकेतनं हि। अपना धनुष झुका (चढ़ा)-कर पुनः वेंगसे उन्हें विव्याध चाप तरसा विनाम्य संतापनाम्ना तु शरेण भूयः ॥ ४३

संतापक अस्त्रसे वेध डाला। अब वे इससे विद्ध संतापनास्त्रेण तदा स विद्रों होकर और भी अधिक संतप्त हो गयें एवं मुखसे

भूयः संतप्ततरो बभूव।

बारंबार (विलख } फुकार कर सम्पूर्ण विश्वको | संतापश्चापि

जगत्समग्नं । | फुकृत्य फूत्कृत्य विवासते स्म ।। ४४ || दु:खीं करते हुए जैसे-तैसे समय बिताने लगे। फिर तं चापि भूयो मदनों जघान | कामने उनपर विजृम्भण नामक अरुजसे प्रहार किया। विजृम्भणास्त्रेण ततो विज़म्भैं।

इससे उन्हें भाई आने लगीं। अब कामके बाणोंसे नतों भृशं कामशवितुन्नो

विजुम्भमाणः परितो भ्रमंश्च ।। ४५

विशेष पीड़ित होकर भाई लेते हुए वे चारों ओर ददर्श | यक्षाधिपतेस्तनू । | चूमने लगे। इसी समय उन्होंने कुबेरके पुत्र पाञ्चालिकको पाञ्चालिकं नाम जगत्प्रधानम्। देखा और इसको देखकर उसके पास जाकर | इवा त्रिनेत्रों धनदस्य पुत्रं पाचे समभ्येत्य वचों भायें। त्रिनेत्र शंकरने यह बात कहीं भातृव्य ! तुम अमित | भ्रातृस्य वक्ष्यामि वचों यदद्म विक्रमशाल हो, मैं जौ आज बात कहता हूँ तुम उसे तत् त्वं कुरुष्वामितविक्रमोऽसि ।। ४६ करो ॥ ४२-४६ ।।

पाञ्चालिक वाच ।

पाश्चालिकने कहा- स्वामिन् ! आप जो कहेंगे, | यन्नाथ मां वक्ष्यसि तत्करिष्ये

देवताओंद्वारा सुदुष्कर होने पर भी उसे मैं करूंगा। हे सुदुष्करै यद्यपि देवसंधैः ।।

आज्ञापास्त्रानुलवीर्य शंभों अतुल बलशाली शिव ! आप आज्ञा करें। ईश! मैं दासोऽस्मि ते भक्तियुतस्तथेश॥ ४७ | आपका श्रद्धालु भक्त एवं दास हूँ॥ ४ ॥

भगवान् शिव बोले- वरदायिनी अम्बिका (साती) नाशं गतायां चरदाम्बिकायां

के नष्ट होनेसे मेरा सुन्दर शरीर कामाग्निसे अत्यन्त दग्ध कामाग्निना प्लुष्टसुविग्नहोऽस्मि। विजृम्भणोन्मादर्शविभिन्न हो रहा है। कामके विजृम्भण और उन्माद शरोंसे विद्ध धृतिं न विन्दामि रतिं सुखं वा ।। ४८ |

होनेसे मुझे धैर्य, रति या सुख नहीं प्राप्त हो रहा हैं। विजृम्भणं पुत्र तथैव ताप

पुत्र ! तुम्हारे अतिरिक्त अन्य कोई पुरुष, कामदेवसे प्रेरित मुन्मादमुग्रं मदनप्रणुन्नम्।।

चिङ्गम्भ, संतापन और उन्माद नामक उग्र अस्त्र सहन नान्यः पुमान् धारयितुं हि शक्तो करनेमें समर्थ नहीं हैं। अतः तुम इन्हें ग्रहण कर मुक्त्वा भवन्तं हि ततः प्रतीच्छ॥ ४९ लौ ॥ ४-५ ।।

पुलस्त्यजी बोले-भगवान् शिवके ऐसा कहनेपर इत्येवमुक्तो वृषभध्वज्ञेन यक्षः प्रतींच्छत् स विङ्गम्भणादीन्।

उस यक्ष (कुबेर-पुत्र पाञ्चालिक)-ने विज़म्भण आदि तोषं जगामाशु

सभी अस्त्रको उनसे ले लिया। इससे त्रिशूलींकों ततस्त्रिशूली तुष्टस्तदैवं वचनं बभाषे ।। ५०

तत्काल संतोष प्राप्त हो गया और प्रसन्न होकर उन्होंने उससे ये वचन कहे – ॥ ५ ॥ यस्मात्या पुत्र सदर्धराणि भगवान् महादेवजी बोले-पुत्र! तुमने अति विजृम्भणादीनि प्रतीच्छितानि। भयंकर विजृम्भण आदि अस्को ग्रहण कर लिया,

# श्रीवामनपरा #

तस्माद् त्वां प्रतिपूजनाम अतः प्रत्युपकारमें तुम्हें सब लोगोंके लिये आनन्ददायक दास्यामि लोकस्य च हास्यकारि ॥ ५१ |

॥५१ | वर दूंगा। चैत्रमासमें जो वृद्ध, बालक, युवा या स्त्री यस्त्वां यदा पश्यत्तिं चैत्रमा से स्पृशेन्नरों वार्चयते च भक्त्या। तुम्हारा स्पर्श करेंगे या भक्तपूर्वक तुम्हारी पूजा करेंगे वृद्धोऽथ बालोऽथ युवाश्च योषित् वें सभी उन्मत्त हो जायेंगे। यक्ष ! फिर ये गायेंगे, नाचेंगे, सर्वे तदोन्मादधरा भवन्ति ॥ ५२ गायन्ति नृत्यन्ति मन्ति यक्ष | आनन्दित होंगे और निपुणता साध बाजे बजायेंगे।

वाद्यानि यत्रादपि वादयन्ति। किंतु तुम्हारे सम्मुख हँसीकी बात करते हास्यवचोऽभिरक्ता भवन्ति ते योगयुतास्तु ते स्युः ॥ ५३ | हुए भी वे योगयुक्त रहेंगे। मेरे ही नामसे तुम पूण्य | ममैव नाम्ना भविताऽसि पुन्यः होगे। विश्वमैं तुम्हारा पाञ्चलकैश नाम प्रसिद्ध होगा। पाञ्चालिकेशः प्रथितः पर्थिव्याम्।। मम प्रसादाद् वरदो नराणां मेरे आशीर्वादसे तुम लोगोंके बरदाता और पूम्याम भविष्यसे पूज्यतमोऽभिगच्छ ।। ५४ | होगे; ज्ञाओं ॥५१-५४ ॥ इत्येवमुक्तो विभुना स यक्षो | भगवान् शिवके ऐसा कहनेपर वह यक्ष तुरंत सब

जगाम देशान् सहसैव सर्वान्।

देशों में घूमने लगा। फिर वह कालंजरके उत्तर कालङ्करस्योत्तरतः सुपण्यों

देशों हिमाद्वैरपि दक्षिणस्थः ।। ५५

और हिमालयकै दक्षिण परम पवित्र स्थानमें स्थिर हों। तस्मिन् सुपुण्ये विषये निविष्ट गया। यह शिवजींकी कृपासे पूजित हुआ। उसके चले

रुद्रप्रसादादभिपूज्यतेऽसौ । | ज्ञानेपर भगवान् त्रिनेत्र भी विन्ध्यपर्यंतपर आ गये। वहाँ तस्मिन् प्रयाते भगवस्बिने भी कामने उन्हें देखा। उसे पुनः प्रहारकी चेष्टा करते देवोऽपि विन्ध्यं गिरिमभ्यगच्छत् ॥ ५६ तत्रापि मदनों गत्वा ददर्श वृषकेतनम् ।।

देख शिवजों भागने लगे। उसके बाद कामदेव दमा प्रहर्त्तकामं च ततः प्रादहबद्धरः ॥ ५ | द्वारा पीछा किये जानेपर महादेयी घोर दाल्वनमें ततो दारुवनं घोरं मदनाभिसूतों हुरः। | चले गये, जहाँ ऋषिगण अपनी पत्नियोंके साथ निवास विवेश ऋषयों यत्र सपत्नीको व्यवस्थिताः ।। ५८ करते थे ॥ ५५-५८ ॥

ते चापि ऋषयः सर्वे दृष्ट्वा मूर्ना नताभवन्। । उन ऋषियोंने भी उन्हें देखकर सिर झुकाकर । ततस्तान प्राह भगवान् भिक्षा में प्रतिदीयताम् ।। ५६ | प्रणाम किया। फिर भगवान्ने उनसे कहा-आप लोग ततस्ते मौनिनस्तस्थुः सर्व एव महर्षयः। | मुझे भिक्षा दीजिये। इसपर सभी महर्षि मौन रह गयें।

तदाश्नमाण सर्वाणि परिचक्राम नारद ।। ६६ | नारदजी ! इसपर महादेवजी सभी आश्रममें घूमने लगे। । तं प्रविष्टं तदा दृष्ट्वा भार्गवात्रेययोषितः। | उस समय उन्हें आश्रममें आया हुआ देख पतिव्रता प्रक्षोभमगमन् सर्वा हीनसचाः समन्ततः ।। ६१ | अरुन्धती और अनुसूयाको छोड़कर ऋषियोंकी समस्त ऋते वरुन्धतीमेकामनसूयां च भामिनीम्। । पत्नियाँ प्रक्षुब्ध एवं सत्यहीन हो गयौँ। पर अरुन्धती और एताभ्यां भर्तपूजाम् तच्चिन्तासु स्थितं मनः ।। ६२ | अनुसूया पतिसेवामें ही लगी रहीं ॥ ५१-६२ ॥ ततः संक्षुभिताः सर्वा यत्र बाति महेश्वरः।।

अब शिवजी जहाँ-जहाँ जाते थे, यहाँ-वहाँ संक्षुभित, तत्र प्रयाति कामार्त्ता मदविहलितेन्द्रियाः ॥ ६३ | कामातं एवं मदसे विकल इन्द्रियोंवाली स्त्रियाँ भी जाने लगीं। मुनियोंकी वे स्त्रियाँ अपने आश्रमोंकों सूना छोड़ त्यक्त्वाश्रमाणिशून्यानि स्वानि ता मुनियोषितः । | उनका इस प्रकार अनुसरण करने लगीं, जैसे करेणु अनुजग्मुर्यथा मत्तं करिप्रय इब कुञ्जरम् ।। ६४ | मदमत्त गज्ञका अनुसरण करे। मुने! यह देखकर अध्याय ६ ] + नर-नारायणकी उत्पत्ति, बदरिकाश्चमकी बसन्तकी शोभा, कामकी अनङ्गताका वर्णन ततस्तु ऋषयो दृष्ट्वा भावाङ्गिरसो मुने। | ऋषिगण क्रुद्ध हो गये एवं कहा कि इनका लिङ्ग क्रोधान्वितानुबन्सवें लिङ्गोऽस्य पत्ततां भुवि ।। ६५ | भूमिपर गिर जाय। फिर तो महादेवका लिङ्ग पृथ्वीको ततः पपात देवस्य लिङ्गं पृथ्व विदारयन्। | विदीर्ण करता हुआ गिर गया एवं तय नीललोहित अन्तद्धनं जगामाश्च त्रिशूली नीललोहितः ।। ६६ | त्रिशूली अन्तर्धान हो गये ॥ ६३-६६ ॥ ततः स पतितो लिङ्गों विभिद्य वसुधातलम्। । यह पृथ्यौपर गिरा लिंग उसका भेदन कर तुरंत रसातलं विवेशाशु ब्रह्माण्ड़े चोर्ध्वतोभनन्। ६७ | रसातलमें प्रविष्ट हो गया एवं ऊपरकों और भी उसने ततश्चचाल प्रथिवी गिरयः सरितों नगाः। | विश्वब्रह्माण्डका भेदन कर दिया। इसके बाद पृथ्वी, पातालभुवनाः सर्वे जङ्गमाज्ञङ्गमैर्युताः ॥ ६८ | पर्वत, नदियाँ, पादप तथा चराचरसे पूर्ण समस्त पाताललोक संक्षुब्धान् भुवनान् दृष्ट्वा भूर्लोकादीन् पितामहः ।। | काँप उठे। पितामह ब्रह्मा भूर्लोक आदि भुवनोंको संक्षुब्ध जगाम माधवं द्रष्टुं क्षीरोदं नाम सागरम् ॥ ६९ | देकर श्रीविष्णुसे मिलने क्षीरसागर पहुँचे। वहाँ उन्हें तत्र दृष्ट्वा हृषीकेशं प्रणिपत्य च भक्तितः। | देख भक्तिपूर्वक प्रणाम कर ब्रह्माने कहा–देव ! समस्त उवाच देव भुवनाः किमर्थं क्षुभिता विभो ॥ ७० | भुवन विक्षुब्ध कैसे हो गये हैं ? ॥ ६७-७८ ॥ | अशोवाच हुरिर्बह्मन् शार्वो लिङ्गों महर्षिभिः ।। | इसपर श्रीहरिनें कहा -ब्रह्मन् महर्षियोंने शिबके | पातितस्तस्य भारा संचचाल वसुंधरा ॥ ७१ | लिङ्गको गिरा दिया हैं। उसके भारसे कष्टमें पड़ी आर्त ततस्तदद्भुततमं श्रुत्वा देवः पितामहः।।

पृथ्वी विचलित हो रही है। इसके बाद ब्रह्माजीं उस । तत्र गच्छाम देवेश एवमा पुनः पुनः ॥ ७३ अद्भुत बातको सुनकर देवेश ! हम लोग वहाँ चलें

ऐसा बार-बार कहने लगे। फिर ब्रह्मा और जगत्पति ततः पितामहो देवः केशवश्च जगत्पतिः।।

विष्णु यहाँ पहुँचे, जहाँ शंकरका लिङ्ग गिरा था। वहाँ आजग्मतुस्तमुद्देशं यत्र लिङ्गं भवस्य तत् ॥ ७३ | इस अनन्त लिङ्गको देखकर आश्चर्यचकित होकर हरि ततोऽनन्तं हरिर्लिङ्गं दृष्ट्वारुह्य खगेश्वरम्।। गरुडूपर सवार हो उसका पता लगानेके लिये पातालमें। पाताले प्रविवेशाथ विस्मयान्तरितों विभुः ।। ७४ | प्रविष्ट हुए ॥ ७१–७४ ॥ ब्रह्मा पद्मविमानेन ऊर्ध्वमाक्रम्य सर्वतः ।। | नारदजी! ब्रह्माजी अपने पद्मयानके द्वारा सम्पूर्ण नैवान्तमलभद् ब्रह्मन् विस्मितः पुनरागतः ।। ७५ | ऊध्र्वाकाशको साँघ गये, पर उस लिङ्गका अन्त नहीं पा

सके और आश्चर्यचकित होकर वे लौट आये। मुने ! इसी विष्णुर्गचाऽथ पातालान् सप्त लोकपरायणः।।

प्रकार जब चक्रपाणि भगवान् विष्णु भी सात पातालों में चक्रपाणिर्विनिष्क्रान्तो लेभेऽन्तं न महामुने ।। ७६ |

| प्रवेश कर उस लिङ्गका बिना अन्त पाये ही वहाँसे बाहर विष्णुः पितामहौभौ हुरलिङ्गं समेत्य हि। | आयें, तब ब्रह्मा, विष्णु दोनों शिवलिङ्गके पास जाकर कृताञ्जलिपुटौ भूत्वा स्तोतुं देवं प्रचक्रतुः ।। ७७ | हाथ जोड़कर उनकी स्तुति करने लगे ॥ ३५–१ ॥

ब्रह्मा-विष्णु बोले- शूलपाणिज! आपको प्रणाम नमोऽस्तु ते शूलपाणे नमोऽस्तु वृषभध्यज्ञ।। है। वृषभध्वज ! जौमूतवाहन! कवि ! शर्व! त्र्यम्बक! जीमूतवाहन कचे शर्व त्र्यम्बक शंकर ।। ८ | शंकर! आपको प्रणाम है। महेश्वर ! महेशान ! सुवर्णाक्ष ! महेश्वर महेशान सुवर्णाक्ष वृषाकपे। | वृषाकपे ! दक्ष-यज्ञ-विध्वंसक ! कालरूप शिव! आपको दक्षयज्ञक्षयकर कालरूप नमोऽस्तु ते ॥ ७९ | प्रणाम है। परमेश्वर ! आप इस जगत्कै आदि, मध्य एवं त्वमादिरस्य जगतस्त्वं मध्यं परमेश्वर। | अन्त हैं। आप षडैश्वर्यंपूर्ण भगवान् सर्वश्रगामी या भवानन्तश्च भगवान् सर्वगस्त्वं नमोऽस्तु ते ।। ८० | सर्वव्याप्त हैं। आपकों प्रणाम है ।। ७८ ॥

पुलस्त्य उवाच

पुलस्त्यज्ञी बोले- उस दारुवनमें इस प्रकार एवं संस्तूयमानस्तु तस्मिन् दारुवने हरः। स्तुति किये जानेपर वक्ताओंमें श्रेष्ठ हरने अपने स्वरूपमें स्वरूपी ताविदं वाक्यमुवाच वदतां वरः ॥ ८१ | प्रकट होकर (अर्थात् मूर्तिमान् होकर) इन दोनोंसे इस प्रकार कहा- ॥ ८१ ॥

गवान् शंकर बोले- आप दोनों सभी देवताओंके किमर्थं देवतानाथौ परिभूतक्रमं बिहू।। | स्वामी हैं। आप लोग चलते-चलते थके हुए तथा मां स्तुवाते भूशास्वस्थं कामतापितविग्रहम् ॥ ८२ | कामाग्निसे दग्ध और मुझ सब प्रकारसे अस्वस्थ

व्यक्तिको क्यों स्तुति कर रहे हैं? ॥ २॥ देवाचतुः इसपर ब्रह्मा-विष्णु दोनों बोले-शिवजी ! पृथ्वीपर भवत: पातितं लिङ्गं यदेतद् भुवि शंकर।। आपका जो यह लिङ्ग गिराया गया है, उसे पुनः एतत् प्रगृह्यतां भूय अतों दैव स्तुवावहे ॥ ८३ | आप ग्रहण करें। इसलिये हम आपकी स्तुति कर

रहे हैं ॥ ३ ॥ र वाच शिवजींने कहा- श्रेष्ठ देयों! यदि सभी देवता मेरे यद्यर्चयन्ति त्रिदशा मम लिई सुरोत्तम।। लिङ्गकी पूजा करना स्वीकार करें, तभी मैं इसे पुनः तदेतत्प्रतिगृह्णीयां नान्यथेति कथंचन ॥ ८४ | ग्रहण करूँगा, अन्यथा किसी प्रकार भी इसे नहीं धारण करूंगा। तब भगवान् विष्णु बोले-ऐसा ही होगा। फिर ततः प्रोवाच भगवानेवमस्त्चिति केशवः।।

ब्रह्माजीने स्वयं इस स्वर्णके सदृश पिंगल लिङ्गको ग्रहण ब्रह्मा स्वयं च जग्राह लिङ्ग कनकपिङ्गलम् ॥ ८५ | किया। तब भगवानने चारों वर्गोंकों हर-लिङ्गक ततश्चकार भगवांश्चातुर्वण्र्य हरार्चने।

अर्चनाका अधिकारी बनाया। इनके मुख्य शास्त्र शास्त्राणि चैषां मुख्यानि नानॉक्ति विदितानि च ॥ ८६ नाना प्रकारके वचनोंसे प्रख्यात हैं। मुने! उन शिव

भक्तका प्रथम सम्प्रदाय शैव, द्वितीय पाशुपत, तृतीय आद्यं शैवं परिख्यातमन्यत्पाशुपतं मुने। कालमुख और चतुर्थ सम्प्रदाय कापालिक या भैरवनामसे तृतीयं कालवदनं चतुर्थं च कपालिनम् ॥ ८७ | विख्यात है ॥ ८४-८७ ।। शैवशासीत्स्वयं शक्तिर्वसिष्ठस्य प्रियः सुतः।। महर्षि वसिष्ठके प्रियपुत्र शक्ति ऋषि स्वयं शैव थे। तस्य शिष्यों बभूवाथ गोपायन इति श्रुतः ।। ८८ | उनके एक शिष्य गोंपायन नामसे प्रसिद्ध हुए। उन्होंने

शैव सम्प्रदायको दूतक फैलाया। तपोधन भरद्वाज महापाशुपत्तश्चासीद्धरद्वाजस्तपोधनः । । महापाशुपत थे और सोमकेश्वर राजा ऋषभ उनके शिष्य तस्य शिष्योऽप्यभूद्राजा ऋषभः सोमकेश्वरः ॥ ८९ | | हुए, जिनसे पाशुपत-सम्प्रदाय विशेषरूपसे परिवर्तित हुआ। मुने ! ऐश्वर्य एवं तपस्याकै धनी महर्षि आपस्तम्ब, कालास्यों भगवानासींदापस्ताम्बस्तपोधनः।। कानमुख सम्प्रदायके आचार्य थे। क्लाथेश्वर नामके उनके तस्य शिष्यो भवद्वैश्यो नाम्ना क्राधेश्वरो मुने।। १० | वैश्य शिष्यने इस सम्प्रदायका विशेष रूपसे प्रचार

१-गणेशसहस्त्रनामफे ‘सम्भात भाग्यमें कालमुखताका विशेष परिचय हैं। ३- शैवं पाशुपत कालमुत्र भैरशासनम्। [गासमनाम १३५ ) अध्याय ६ ] नर-नारायणकी उत्पत्ति, अदीकाश्रमकीं वसन्तक शोभा, कामकी अनङ्गताका वर्णन

३६ | महाव्रती च धनदस्तस्य शिष्यश्च वीर्यवान्। | किया। महाव्रर्ती साक्षात् कुबेर प्रथम कापालिक या कर्णोदर इति ख्यातो ज्ञात्या शूद्रों महातपाः ।। ११ | भैरव-सम्प्रदायके आचार्य हुए थे। शूद्रजातिके महातपस्वी

कर्णोदर नामक उनके एक प्रसिद्ध शिष्य हुए। इन्होंने

इस मतका विशेष प्रचार किया ॥ ८८–११ ॥ एवं स भगवान् ब्रह्मा पूजनाय शिवस्य तु।। इस प्रकार ब्रह्माजी शिषकी उपासनाके लिये चार कृत्वा तु चातुराश्चम्यं स्वमेव भवनं गतः ।। ९१ | सम्प्रदायोंका विधान कर ब्रह्मलोकको चले गये।

ब्रह्माजीके ज्ञानेपर महादेवने उस लिङ्गको उपसंहृत कर गते ब्रह्मणि शर्वोऽपि उपसंहृत्य तं तदा।। लिया –समेट लिया एवं वे चित्रवनमें सूक्ष्म लिङ्ग लिङ्गं चित्रवने सूक्ष्मं प्रतिष्ठाप्य चचार ह॥ ९३

प्रतिष्ठापित कर विचरण करने लगे। यहाँ भी शिवशकों विचरन्तं तदा भूयो महेशं कुसुमायुधः ।।

घूमते देख पुष्पधनुष कामदेव पुनः उनके सामने सहसा आरात्स्थित्वाग्रतों धन्वीं संतापयितुमुद्यतः ॥ १४ |

बहुत निकट आकर उन्हें संतापन माणसें बंधने को उद्यत हुआ। तब उसे इस प्रकार सामने खड़ा देखकर ततस्तमग्नतों दृष्ट्वा क्रोधाभ्यातदृशा हुरः। | शिवजीने उस कामदेवको सिरसे चरणतक क्रोधभरी स्मरमालोकयामास शिखाग्नाच्चरणान्तिकम्॥ ९५ | दृष्टिसे देखा ॥ १२-९५ ॥ आलोकितस्ब्रिनेत्रंण मदनों द्युतिमानप। | | ब्रह्मन्! यह कामदेव अत्यन्त तेजस्वी था। फिर भी प्रादह्यत तदा ब्रह्मन् पादादारभ्य कक्षवत् ।। १६ | भगवानद्वारा इस प्रकार दृष्ट होने पर वह पैरसे लेकर प्रदह्यमानौ चरणौं दृष्ट्वाऽसौ कुसुमायुधः।।

काँटपर्यन्त दग्ध हो गया। अपने चरणको जलते हुए उत्ससर्ज धनुः श्रेष्ठं तजगामाथ पञ्चधा॥ १७ |

देखकर पुष्पायुध कामने अपने श्रेष्ठ धनुषकों दूर फेंक दिया। इससे उसके पाँव इकड़े हो गये। इस धनुषका यदासीन्मुष्टिबन्धं तु रुक्मपृष्ठं महाप्रभम्। जो चमचमाता हुआ सुवर्णयुक्त मुबंध था, वह सुगन्धपूर्ण स चम्पकतर्जातः सुगन्धाढ्यों गुणाकृतिः ॥ ९८ |

सुन्दर चम्पक वृक्ष हो गया। मुने! उस धनुषका जो हौं नास्थानं शुभाकारं यदासीद्वभूषितम्। | जड़ा हुआ सुन्दर कृतिवाला नाहस्थान था, वह केसरवनमें

तर्जातं केसरारण्यं बकुलं नामतो मुने। १९ | बकुल (मौलैसरी) नामका वृक्ष बना। इन्द्रनीलसे सुशोभित या च कोटी शुभा ह्यासीदिन्द्रनीलविभूषिता। | इसकी सुन्दर कोटि भूगोंसे विभूषित सुन्दर पाटला ज्ञाता सा पाटला रम्या भृङ्गराज्ञिविभूषिता ।। १०० (गुलाब)-के ऊपमें परिणत हो गयीं ॥ १६-१७ ॥ नाहोपरि तथा मुष्ट स्थानं शशिमणिप्रभम्। । धनुषनाहके ऊपर मुष्टिमें स्थित चन्द्रकान्तमणिकी पञ्चगुल्माऽभवन्जाती शशाङ्ककिरणज्ज्वला ॥ १०१ | प्रभासे युक्त स्थान चन्द्रकिरणके समान उज्ज्वल पाँच ऊर्ध्वमुष्टया अधः कोटयों: स्थानं विद्मभूषितम्। ।

गुल्मवाली जाती (चमेली-पुष्प) बन गया। मुने! तस्माद्वहुपुटा मल्ली संज्ञाता विविधा मुने॥ १०३ || मुष्टिके ऊपर और दोनों कोटियोंके नीचेवाले विद्ममणि

विभूषित स्थानसे अनेक पुटोंवाली मल्लिका (मालती) पुष्पोत्तमानि रम्याणि सुरभीणि च नारद। हो गयौं। नारदजीं! देंवके द्वारा जातींके साथ अन्य जातियुक्तानि देवेन स्वयमाचरितानि च ॥ १०३ | सुन्दर तथा सुगन्धित पुष्पोंकी सृष्टिं हुई। ऊर्ध्व शरिरके मुमोच मार्गणान् भूम्यां शरे दह्यति स्मरः । | दग्ध होनेके समय कामदेवने अपने बाणको भी फलोपगानि वृक्षागि संभूतानि सहस्रशः ॥ १०४ | पृथ्वीपर फेंका था, इससे हजारों प्रकारके फलयुक्त वृक्ष

१-इसपर डॉ० भण्डारकरके ‘वैष्णवम” शैविज्म’ में विस्तृत विचार है।

 

वामनपुराण

चूतादीनि सुगन्धीनि स्वादूनि विविधानि च। | उत्पन्न हो गये। शिवजीकी कृपासे श्रेष्ठ देवताओंद्वारा हरप्रसादाजातानि भोन्यान्यपि सुरोत्तमैः ॥ १०५ | भी अनेक प्रकारके सुगन्धित एवं स्वादिष्ट आम्र आदि फल उत्पन्न हुए, ज्ञों खानेमें स्वादयुक्त हैं। इस प्रकार एवं दग्ध्वा स्मरं कद्भः संयम्य स्वतनुं विभुः ।

कामदेवको भस्म कर एवं अपने शरीरको संयतकर पुण्यार्थी शिशिराद्रिं स जगाम तपसेऽव्ययः ॥ १०६ समर्थ, अविनाशी शिव पुण्यको कामनासे हिमालयपर एवं पुरा देववरेण शम्भुना । तपस्या करने चले गये। इस प्रकार प्राचीन समयमें

कामस्तु दग्धः सशरः सचापः। | देवश्रेष्ठ शिवशीहारा धनुषबाणसहित काम दग्ध किया ततस्वनङ्गेति महाधनुर्द्धरों गया था। तबसे देवताओंमें प्रथम पूजित वह महाधनुर्धर देवैस्तु गीतः सुरपूर्वपूजितः ॥ १०७ | देवोंद्वारा ‘अनङ्ग’ कहा गया ॥ १०१-१०७ ॥

इस प्रकार वामनपुराणमें छल्ला अध्याय समाप्त हु

 

सातवाँ अध्याय

उर्वशीकी उत्पत्ति-कथा, प्रह्लाद-प्रसंग-नरनारायणसे संवाद एवं युद्धोपक्रम

पुलस्त्य उवाच पुलस्त्यजी बोले- नारदजीं! उसके बाद समर्थ ततोऽनङ्गं विभुर्दा ब्रह्मन् नारायण मुनिः। नारायण ऋषि कामदेवको हँसते हुए देखकर य बोलें प्रहस्यैवं वचः प्राह कन्दर्प इह आस्यताम्॥ १ | काम! तुम यहाँ बैठो। काम उनकी उस अक्षुब्धता (स्थिरता)-को देखकर चकित हो गया। महामुने ! तदक्षुब्धत्वमीक्ष्यास्य कामों विस्मयमागतः।।

वसन्तको भी उस समय बड़ी चिन्ता हुई। फिर वसन्तोऽपि महाचिन्तां जगामाशु महामुने ॥ ३

अप्सराओंकी ओर देखकर स्वागतके द्वारा उनकी पूजा ततश्चाप्सरसों दृष्ट्वा स्वागतेनाभिपूज्य कर भगवान् नारायणने वसन्तसे कहा-आओं बैठो। वसन्तमाह भगवानेह्येहि स्थीयतामिति ॥ ३ | उसके पश्चात् भगवान् नारायण मुनिने हँसकर एक फूलसे

भरी मञ्जरी ली और अपने ऊपर एक सुवर्ण अङ्गवाली ततो विहुस्य भगवान् मञ्जरीं कुसुमावृताम्।।

तरुणका चित्र लिखकर उसकी सजीय रचना कर दी। आदाय प्राक्सुवर्णाङ्गीमूर्वोबलां विनिर्ममे ॥४

नारायणकी धसे उत्पन्न उस सर्वाङ्ग सन्दको देखकर ऊरूद्भवां स कन्दप दृष्ट्वा सर्वाङ्गसुन्दरीम्। कामदेव मनमैं सोचने लगा-क्या यह सुन्दरी मेरी पत्नी | अमन्यत तदाऽनङ्गः किर्मियं सा प्रिया रतिः ।। ५ | रति हैं! ॥ १-५॥

तदैव वदनं चारु स्वाभ्रिकुटिलालकम्। । इसकी वैसी ही सुन्दर आँखें, भौंह एवं कुटिल सुनासावंशाधरौष्ठमालोकनपरायणम् ॥ ६ अलकें हैं। इसका वैसा ही मुखमण्डल, वैसी सुन्दर नासिका, वैसा वंश और वैसा ही इसका अधड़ भी

सुन्दर है। इसे देखनेसे तृप्ति नहीं होती हैं। रतिके समान तावेवाहार्यविरलौ पीबरौ मग्नचूचुकौ। | ही मनोहर तथा अत्यन्त मग्न चुचुकवाले स्थूल (मांसल) राजेतेऽस्याः कुचौ पीनौ सञ्जनाविव संहतौ ।। ७ | स्तन दो सञ्जन पुरुषोंके सदृश परस्पर मिले हैं। इस अध्याय ]

 

* उर्वशीको उत्पत्तकथा, प्रादप्रसंगनरनारायणसे संवाद एवं युदोपक्रम

तदेव तनु चार्वङ्गया वलत्रयविभूषितम्। सुन्दरीका वैसा ही कृश, त्रिवलीयुक्त, कोमल तथा । उदरं राजते श्लक्ष्णं रोमावलविभूषितम् ॥ ८| रोमालवाला उदर भी शोभित हो रहा है। उदरपर नीचेसे ऊपरी और स्तनतटतक ज्ञात हुई इसकी रोमराशि रोमावली च जघनाद् याती स्तनतटं त्वियम्। | सरोवर आदिके तटसे कमलबून्दकी ओर जाती हुई भ्रमर राजते भृङ्गमालेव पुलिनात् कमलाकरम् ॥ १ मण्डलीके समान सुशोभित हो रही है ॥ ६-९॥ जघनं त्वतिविस्तीर्णं भात्यस्या रशनावृतम्। | इसका करधनीको मण्डित स्थूल जघन-प्रदेश क्षीरोदमयने नद्धं भुजङ्गनेव मन्दरम् ॥ १८ | क्षीरसागरके मन्थनकै समयमें वासुकि नागसे येष्टित मन्दरपर्वतके सामान सुशोभित हो रहा हैं। कदलो कदलीस्तम्भसदृशैर्ध्वमूलैरथोरुभिः ।।

स्तम्भके समान ऊर्ध्वमूल ऊरुओंवालों कमलके केसरके विभाति सा सुचाउँङ्गी पद्मकिल्कसंनिभा ।। ११ |

समान गौरवर्णक यह सुन्दरी है। इसके दोनों घुटने, गूढगुल्फ, रोमरिहत सुन्दर जंघा तथा अलक्तकके समान ज्ञानुनी गूढगुल्फे च शुभे जड़ें त्वरोमशे।

कान्तिवाले दोनों पैर अत्यन्त सुशोभित हो रहे हैं। मुने! विभातोऽस्यास्तथा पादावलक्तकसमत्वषौ ।। १३

इस प्रकार उस सुन्दरोके विषयमें सोचते हुए जब यह इति संचिन्तयन् कामस्तामनिन्दितलोचनाम्।। कामदेव स्वयमेव कामातुर हो गया तो फिर अन्य कामातुरोऽसौ संज्ञातः किमुतान्यो जनो मुने ॥ १३ | पुरुषोंकी तो बात ही क्या थीं ॥ १८-१३॥ माधवऽप्युर्व दृष्ट्वा संचिन्तयत नारद। नारदजीं ! अब वसन्त भी उस उर्वशीको देखकर किंस्वित् कामनरेन्द्रस्य राजधानी स्वयं स्थिता ।। १४ | सोचने लगा कि क्या यह राजा कामको राजधानी हौं स्वयं | आयाता शशिनों नूर्नामयं कान्तिनिशाक्षयें। | आकर उपस्थित हो गयी हैं ? अथवा रात्रिका अन्त होनेपर रविरश्मिप्रतापातिभीता शरणमागता ।। १५ । सूर्यको किरणोंके तापके भयसे स्वयं चन्द्रिका हौं शरणमें आ गयीं हैं। इस प्रकार सोंचते हुए अप्सराओंको रोककर इत्थं संचिन्तयन्नेव अवष्टभ्याप्सरोगणम्।। तस्थौं मुनिरिब ध्यानमास्थितः स तु माधवः ॥ १६ |

वसन्त मुनिके सदृश ध्यानस्थ हो गया। महामुने ! उसके | बाद शुभवत नारायण मुनिने कामादि सभीको चकित ततः स विस्मितान् सर्वान् कन्दर्पोदीन् महामुने।।

देखकर हँसते हुए कहा-हे काम, है अप्सराओं, है वसन्त ! | दृष्ट्वा प्रोवाच वचनं स्मितं कृत्वा शुभन्नतः ॥ १७

यह अप्सरा मेरी जाँघसे उत्पन्न हुई है। इसे तुम लोग | इयं ममोरुसम्भूता कामाप्सरस माधव।।

देवलोकमें ले जाओ और इनको दे दो। उनके ऐसा नीयतां सुरलोकाय दीयतां वासवाय च ॥ १८] कहनेपर चै सभी भयसे काँपते हुए उर्वशीको लेकर स्वर्गमें इत्युक्ताः कम्पमानास्ते जग्मुर्गुह्योर्वशीं दिबम्। | चले गयें और उस रूप-यौवनशालिनी अप्सराको इन्द्रको सहस्राक्षाय तां प्रादाद् रूपयौवनशालिनीम्॥ १९ | दे दिया। महामुने ! उन कामादिने इन्द्रसे उन दोनों धर्मके आचक्षुश्चरितं ताभ्यां धर्मज्ञाभ्यां महामुने। | पुत्रों (नर-नारायण)-के चरित्रको कहा, जिससे इन्द्रको | देवराज्ञाय कामाद्यास्ततोऽभूद् विस्मयः परः ॥ २० | बड़ा विस्मय हुआ। नर और नारायणके इस चरित्रकी एतादृशं हि चरितं ख्यातिमयां जगाम हु। | चर्चा आगे सर्वत्र बढ़ती गयीं तथा वह पाताल, मर्त्यलोक पातालेषु तथा मर्ये दिक्ष्वष्टासु जगाम चे॥ २१ एवं सभी दिशाओं में व्याप्त हो गयी।। १४–२१ ॥ एकदा निहते रौद्रं हिरण्यकशिप मुने। । मुने! एक बारकी बात हैं। जब भयंकर हिरण्यकशिपु अभिषिक्तस्तदा राज्ये प्रादो नाम दानवः ॥ ३२ | मारा गया तब प्रहाद नामक दानव राजगद्दपर बैठा।

सामनपराग

[ अध्याय

तस्मिशासति दैत्येन्हें देवब्राह्मणपूजके। | यह देवता और ब्राह्मणोंका पूजक था। उसके शासनकालमें मखानि भुवि राजानों यजन्ते विधिवत्तदा ॥ २३ | पृथ्वौपर राजा लोग विधिपूर्वक यज्ञानुष्ठान करते थे।

ब्राह्मण लोग तपस्या, धर्म-कार्य और तीर्थयात्रा, वैश्य ब्राह्मणाश्च तपों धर्मं तीर्थयात्राश्च कुर्वते। | लोग पशुपालन तथा शुद्द लोग सबकी सेवा प्रेमसे करते वैश्याश्च पशुवृत्तिस्याः शूद्राः शुश्रूषणे रताः ।। ३४ | थे ॥ २३-२४ ॥ चातुर्वण्र्यं ततः स्ये स्वे आश्चमे धर्मकर्मणि। | मुने! इस प्रकार चारों वर्ण अपने आश्रममें स्थित आवर्त्तत ततो देवा वृत्त्या युक्ताभवन् मुने ॥ २५ | रहकर धर्म-कार्यों में लगे रहते थे। इससे देवता भी अपने कर्ममें संलग्न हो गये। उसी समय ब्राह्मणोंमें श्रेष्ठ । ततस्तु च्यवनों नाम भार्गवेन्द्रों महातपाः ।।

भार्गववंशी महातपस्वी च्यवन नामक ऋषि नर्मदाकै जगाम नर्मदा स्नातुं तीर्थं च नकुलीश्वरम् ॥ ३६

नकुलीश्वर तीर्थमें स्नान करने गये। वहाँ वे महादेवका तत्र दृष्ट्वा महादेवं नर्दी स्नातुमवातरत्।।

दर्शनकर नदी में स्नान करने के लिये उतरे। जल उतरते अवनीं प्रजगह नागः ॐकलोहितः ॥ २ | ही ऋषिको एक भूरे वर्गकि साँपने पकड़ लिया। उस

साँपद्वारा पकड़े जाने पर ऋषिने अपने मनमें विष्णु भगवान् गृहीतस्तेन नागैन सस्मार मनसा हरिम्। स्मरण किया। कमलनयन भगवान् श्रीहरिको स्मरण संस्मृते पुण्डरीकाक्षे निर्विषोऽभून्महोरगः ॥ २८ | करने पर वह महान् सर्प विषहीन हो गया ॥ ३५-२८॥ नीतस्तेनातिरौद्रेण पन्नगेन रसातलम्। | फिर इस भयंकर विषरहित सर्पने च्यवन मुनिको निर्विषश्चापि तत्याज्ञ च्यवनं भुजगोत्तमः ॥ २९ | रसातलमें ले जाकर छोड़ दिया। सर्पने भार्गवश्रेष्ठ च्यवनको संत्यक्तमात्रों नागेन च्यवनौ भार्गवौत्तमः। मुक्त कर दिया। फिर ये नागकन्याओंसे पूजित होते हुए चचार नागकन्याभिः पून्यमानः समन्ततः ॥ ३० | चारों ओर विचरण करने लगे। वहाँ घूमते हुए वे दानवोंके विचरन् प्रविवेशाथ दानवानां महत् पुरम्। । | विशाल नगरमें प्रविष्ट हुए। इसके बाद श्रेष्ठ दैत्योंद्वारा संपून्यमानो दैत्येन्द्रः प्रह्लादोऽथ ददर्श तम् ॥ ३१ | पूजित प्रह्लादने इन्हें देखा। महातेजस्वी प्रह्लादने भृगुपुत्रकी | भृगपत्रे महातेजाः पूजां चक्रे यथार्हतः। | यथायोग्य पूजा कीं। पूजाके बाद उनके बैठने पर प्रहादने

संपूजितोपविष्टश्च पृष्टयागमनं प्रति ।। ३३ | उनसे उनके आगमनका कारण पूछा ॥ ३१-३३ ॥ स चोवाच महाराज महातीर्थं महाफलम्। इन्होंने कहा -महाराज! आज मैं महाफलदायक स्नातुमेवागतोऽस्म्यद्य द्रष्टुं च नकुलीश्वरम् ॥ ३३ | महातीर्थमें स्नान एवं नकुलीश्वरको दर्शन करने आया

था। वहाँ नदीमें उतरते हों एक नागने मुझे बलात् पकड़ नद्यामेवावतीर्णोऽस्मि गृहीतश्चाहिना बलात्।।

लिया। वहीं मुझे पातालमें लाया और मैंने यहाँ आपको समानीतोऽस्मि पाताले दृष्टश्चात्र भवानपि ॥ ३४

भी देखा। च्यवनकी इस बातको सुनकर सुन्दर वचन एतच्छुत्वा तु वचनं च्यवनस्य दितीश्चरः। | बोलनेवाले दैत्योंके ईश्वर (प्राद)-ने धर्मसंयुक्त यह

वाच धर्मसंयुक्तं स वाक्यं चाक्यकोविदः ॥ ३५ | वाक्य कहा ॥ ३३-३५ ॥

प्रसाद ज्ञवाध प्रादने पूछा -भगवन् ! कृपा करके मुझे बतलाइये भगवन् कानि तीर्थानि पृथिव्यां कानि चाम्बर। | कि पृथ्वी, आकाश और पातालमें कौन-कौनसे (महान्) रसातले च कानि स्युरेतद् वक्तुं त्वमर्हसि ॥ ३६ | तीर्थ हैं? ॥ ३६॥

१-देवताओंके धर्मका वर्णन मुकेश-उपाख्यानमें अगे आया है।

अध्याय ]

के उर्वशीको उत्पत्ति-कथा, प्रहाद-प्रसंग-मरनारायणसे संवाद एवं दोपक्रम के

च्यवन जाच

(प्रह्लादके वचनको सुनकर) च्यवनजीने कहा पृथिव्यां नैमिषं तीर्थमन्तरिक्षं च पुष्करम्।। | महाबाहो! पृथ्वीमें नैमिषारण्यतीर्थ, अन्तरिक्षमें पुष्कर, चक्रतीर्थं महाबाहों रसातलतले विदुः ॥ ३७और पातालमें चक्रतीर्थं प्रसिद्ध हैं ॥ ३४ ॥

पुलस्त्य उवाच ।

पुलस्त्यजीने कहा- महामुने! भार्गवकी इसी श्रुत्वा तद्धार्गववचों दैत्यराजो महामुने। | बातको सुनकर दैत्यराज प्रह्लादने नैमिषतीर्थमें जाने के नैमिषं गन्तुकामस्तु दानवानिदमब्रवीत् ॥ ३८ | लिये इच्छा प्रकट की और दानयोंसे यह बात कहीं ॥ ३८ ॥

प्रहाद बोले-उड़ों, हम सभी नैमिष उत्तिट्वं गमिष्यामः स्नातुं तीर्थं हि नैमिषम्। | तीर्थमें स्नान करने ज्ञायँगै तथा वहाँ पीताम्बरधारों एवं द्रक्ष्यामः पुण्डरीकाक्षं पीतवाससमच्युतम् ॥ ३९ | कमलकै समान नेत्राले भगवान् अच्युत (विष्णु)-के

दर्शन करेंगें ॥ ३ ॥ | पुलस्य उवाच पुलस्त्यजींने कहा- दैत्यराज प्रदके ऐसा कहनेपर इत्युक्ता दानवेन्द्रेण सर्वे ते दैत्यदानवाः।। सभी दैत्य और दानव रसातलसे बाहर निकलें एवं चक्रुरुद्योगमतुलं निर्जग्मुश्च रसातलात् ॥ ४० अतुलनीय उद्योगमें लग गये। उन महाबलवान् दिलिपुत्रों

एवं दानवोंने नैमिषारण्य आकर आनन्दपूर्वक स्नान ते समभ्येत्य दैतेया दानवाश्च महाबलाः ।।

किया। इसके बाद श्रीमान् दैत्यश्रेष्ठ प्रादाद मृगया नैमिषारण्यमागत्य स्नानं चक्रुर्मुदान्विताः ॥ ४१

(आखेट या शिकार) के लिये उनमें घूमने लगे। ततौ दितीश्वरः श्रीमान् मृगव्यां स चार हूँ। वहाँ घूमते हुए उन्होंने पवित्र एवं निर्मल ज्ञलयाली

सरस्वती नदीको देखा। वहीं समीप ही बाणों से चरन् सरस्वतॊ पुण्यां ददर्श विमलोदकाम् ॥ ४२

खचाखच बिंधे बड़ी-बड़ी शाखाओंवाले एक शाल तस्याद्रे महाशाख्न शालवृक्ष शरश्चित्तम्। वृक्षको देखा। वे सभी बाण एक दूसरेके मुखसे लगे ददर्श बाणानपरान् मुखे लग्नान् परस्परम् ॥ ४३  हुए थे॥ ४०-४३ ॥ ततस्तानद्धताकारान् बाणान् नागोपवीतकान्। तब उन अद्भुत आकारवाले नागोपथीत (साँपोंसे दृष्ट्वातुलं तदा चक्रे क्रोधं दैत्येश्वरः किल ।। ४४ | लिपटे) बाणको देखकर दैत्येश्वरको बट्टा क्रोध हुआ। स ददर्श ततो दूराकृष्णाजिनधरौ मुनी। फिर उन्होंने दूरसे हीं काले मृगचर्मको धारण किये हुए समुन्नतजटाभारौं तपस्यासक्तमानस ।। ४५ | बड़ी-बड़ी वाटावाले तथा तपस्यामें लगे दो मुनियोंकों

देखा। उन दोनों के बगलमैं सुलक्षण शाई और आज्ञगव तयोश्च पाश्चैयार्दिव्यै धनुषी लक्षणान्विते ।।

नामक दो दिव्य धनुष एवं दो अक्षय तथा बड़े-बड़े शार्ङ्गमाञ्चगवं चैव अक्षय्यौ च महेषुधी॥ ४६ |

तरकस बर्तमान थे। उन दोनोंको इस प्रकार देखकर तौं दृष्ट्वाइमन्यत तदा दाम्भिकाविति दानवः ।। दानवराज प्रह्लादने उन्हें दम्भसे युक्त समझा। फिर उन्होंने ततः प्रोवाच वचनं तावुभौ पुरुषोत्तमौ ॥ ४ | इन दोनों श्रेष्ठ पुरुषों से कहा- ॥४४–४ ॥ किं भवद्भ्यां समारब्धं दम्भं धर्मविनाशनम्। । आप दोनों यह धर्मविनाशक दम्भपूर्ण कार्य क्यों | ॐ तपः क्व जटाभारः क्व चेम प्रवरायुधौ ॥ ४८ | कर रहे हैं? कहाँ तो आपको यह तपस्या और जटाभार,

| | कहाँ ये दोनों अंशु अस्त्र? इसपर नरने उनसे कहा अथवाच नरो दैत्यं का ते चिन्ता दितीश्वर। | दैत्येश्वर ! तुम उसकी चिन्ता क्यों कर रहे हो ? सामर्थ्य सामर्थे सति यः कुर्यात् तत्संपद्येत तस्य हि।। ४६ | रहनेपर कोई भी व्यक्ति जो कर्म करता है, उसे वहीं

ऑक्षामनपामा

[ अध्याय

अथवाच दितीशस्तौ का शक्तिर्यवयोरिंह। | शोभा देता है। तब दितीश्वर नाइने उन दोनोंसे कहा मयि तिष्ठति दैत्येन्द्रं धर्मसेनाप्रवर्तक ।। ५६ | | धर्मसेतुके स्थापित करनेवाले मुझ ६येन्द्रकै ते यहाँ आप लोंग (सामर्थ्य-बलसे) क्या कर सकते हैं ? इसपर नरने उन्हें उत्तर दिया-हमनें पर्याप्त शक्ति प्राप्त कर ली नरस्तं प्रत्युवाचाथ आवाभ्यां शक्तिजिता। हैं। हम नर और नारायण-दोनोंसे कोई भी युद्ध नहीं । न कधिच्नु याद् योद्धं नरनारायण युधि॥ ५१ | कर सकता। ‘४८-५३ ॥ दैत्येश्वरस्ततः कृतः प्रतिज्ञामारोह च। | इसपर दैत्येश्वरने रुद्ध होकर प्रतिज्ञा कर दी कि यथा कथचिनेष्यामि नरनारायणौ रणे ॥ ५२ | मैं युद्धमें जिस किसी भी प्रकार आप और नारायण इत्येवमुकचा वचनं महात्मा

दोनोंको जीतूंगा। ऐसी प्रतिज्ञाकर, दैत्येश्वर प्रह्लादने । * दितीश्वरः स्थाप्य बलं बनान्ते। वित्तत्य चापं गणमाचिकृष्य | वनकी सीमापर अपनी सैना खड़ी कर दीं और तलध्वनि घोरतरं चकार ।। ५३ | धनुषको फैलाकर उसपर डोरी चढ़ायी तथा घोरतर, ततो नरस्त्वाज़गवं हि चाप करतलध्वनि को -ताल ठोंकी। इसपर नरने भी मानम्य बाणान् सुबहुशिताम्रान्। आजगव धनुषको चढ़ाकर बहुत-से तेज बाण छोड़े। ममोंच तानप्रतिमैः पृषकै परंतु प्रह्लादने अनेक स्वर्ण पुंखवाले अप्रतिम बाणोंसे श्चिच्छेद दैत्यस्तपनीयपः ॥ ५४ छिन्नान् समीक्ष्याथ नरः पृषत्कान् उन बाणको काट डाला। फिर नरने युद्ध में अप्रतिम दैत्येश्वरेणाप्रतिमेन संख्ये। | दैत्येश्वरके द्वारा बाणको नष्ट हुआ देख क्रुद्ध होकर क्रुद्धः समानम्य महाधनुस्ततों | अपने महान् धनुषकों चढ़ाकर पुनः अन्य अनेक तीक्ष्ण मुमोच चान्यान् विविधान् पृघकान्॥ ५५ बाण छोड़े ।। ५३-५५ ॥ एकं नरों द्वौं दितिजेश्वरश्च नरकै एक बाण छोड़नेपर प्रह्लादने दो बाण छोड़े; श्रीन् धर्मसूनश्चतुरो दितीशः।। नारके तीन बाण छोड़नेपर महादने चार बाण छोड़ें। नरस्तु बाणान् अमुमोच्च पञ्च इसके बाद पुनः नरने पाँच बाण और फिर दैत्यश्श्रेष्ठ | घडू दैत्यनाथों निशितान् पृषत्कान्॥ ५६ सप्तर्षमुख्यो द्विचतुश्च दैत्यो प्रह्लादने छः तेज बाण छोड़े। विप्र ! नरके सात बाण नरस्तु षद् त्रीणि च दैत्यमुळ्ये। छोड़नेपर दैत्यने आठ बाण छोड़े। नरके नच बाण पत्रीणि चैकंच दितीश्वरेण मुक्तानि बाणानि नराय विम्॥ ५७ | छोड़नेपर प्रह्लादने उनपर दस बाण छोड़े। नरकै बारह | एकं च षट् पञ्च नरेण मुक्ता | बाण छोड़नेपर दानचने पंद्रह बाण छोड़े। नरके छत्तीस

स्त्वष्टौं शराः सप्त चे दानवेन्।

बाण छोड़नेपर दैत्यपतिनै बहत्तर बाण चलाये। नरके सौं घद् सप्त चाष्टौ नच्च घनरेण द्विसप्ततिं दैत्यपतिः ससर्ज ॥ ५८ बाणोंपर दैत्यने तीन सौ बाण चलाये। धर्मपुत्रकै छ: नरस्त्रीणि, शतानि दैत्यः  सौं बाणोंपर दैत्यराजने एक हजार बाण छोड़े। फिर तो घडू धर्मपुत्रों दश दैत्यराज्ञः।। ततोऽप्यसंख्येयतरान् हि बाणान् उन दोनोंने अत्यन्त क्रोधसै (एक-दूसरेपर) असंख्य मुमोचतस्त सुभृशं हि कोपात्॥ ५६ | बाण छोड़े ॥५६-५९ ॥ ततो नरों बाणगरसं उसके बाद नरने असंख्य बागोंसे पृथ्वी, आकाश वास्तमिमयो दिशः खम्। और दिशाओंकों द्वक दिया। फिर दैत्यप्रवर, प्रह्लादने स चापि दैत्यप्रवरः पृषकै स्वर्णपंखवाले मार्गोंकों बड़े बैंगसे छोड़कर उनके श्चिच्छेद बेगान् तपनीयपः ॥ ६ | बाणको काट दिया। तब नर और दानव दोनों बीर वाणों का प्रमाद और नारायणका सुमल सक, भनिने विजय

 

अध्याय 4]

 

ततः पतत्रिभिर्वांगै सुभृशं नरदानवौं। | तथा भयंकर श्रेष्ठ अस्त्रोंसे परस्पर युद्ध करने लगे। इसके | युद्धे झास्त्रैर्युध्येतां घोररूपैः परस्परम्।। ६६ | बाद दैत्यने हाथमें ब्रह्मास्त्र लेकर उस धनुषपर नियोजित ततस्तु दैत्येन बरास्त्रपाणिना

कर चला दिया एवं उन पुरुषोत्तमने भी माहेश्वरास्त्रका चापें नियुक्तं तु पितामहास्त्रम्।। | महेश्वरास्त्रं

पुरुषोत्तमैन

प्रयोग कर दिया। वे दोनों अस्त्र परस्पर एक-दूसरे से समं समाहत्य निपेततुस्तौ ।। ६३ इक्कर खाकर गिर गये। ब्रह्मास्त्रकै व्यर्थ होने पर क्रोधसे | ब्रह्मास्त्रे तु प्रशमिते प्रहादः क्रोधमूच्छितः।। | मूच्छित हुए प्रह्लाद बैंगसे गदा लेकर उत्तम रथसे | गर्दा प्रगृह्य तरसा प्रचस्कन्द रथोत्तमात् ।। ६३ | कूद पड़े ॥ ६२–६३ ॥

गदापाणिं समायान्तं दैत्य नारायणस्तदा। | अपि नारायणने उस समय दैत्यको हाथमें गदा दृष्ट्वाश्थ पृष्ठतश्च नरं योद्धमनाः स्वयम् ॥ ६४ | लिये अपनी और आते देखकर स्वयं युद्ध करनेकी ततो दितीशः सगदः समाद्वत् | इसे नरको पीछे हटा दिया। नारदजी ! तब प्राज्ञी सशाङ्गपाणिं तपसां निधानम्। | गदा लेकर तपोनिधान, शार्ङ्गधनुषको धारण करनेवाले, | ख्यातं पुरागर्घमुदारविक्रम | प्रसिद्ध पुरातन ऋषि, महापराक्रमशाली, लोकपति नारायणकी

नारायणं नारद लोकपालम्॥ ६५ | ओर दौड़ पड़े। ६४-६५ ॥

इस प्रकार श्रीवामनपुराणमें सातवाँ अध्याय समाप्त हुआ। 19

 

आठवाँ अध्याय

प्रह्लाद और नारायणका तुमुल युद्ध, भक्तिसे विजय पुलस्त्र उवाच पुलस्त्यज़ी बोले- प्रहादने जब हाथमें शार्ङ्गधनुष शाङ्पाणिनमायान्तं दृष्ट्वाऽग्ने दानवेश्वरः । | लिये भगवान् नारायणक सामने से आते देखा तो अपनी परिभ्राम्य गदां वेगान्मू साध्यमताइयत् ।। १ | गदा घुमाकर वेंगसे उनके सिर पर प्रहार कर दिया। ताड़ितस्याथ गदया धर्मपुत्रस्य नारद।।

नारदजी ! गदासे प्रताडित होनेपर नारायणके नेत्रोंसे आगके नेत्राभ्यामपतद् वारि वह्निवर्षनिभं भुवि ॥२स्कृति | स्फुलिंगके समान आँसू पृथ्वीपर गिरने लगे। ब्रह्मन् ।

पर्वतको चौटॉपर गिरकर जैसे वज्र टूट जाता हैं, उसी मूर्सि नारायणस्यापि सा गदा दानबार्पिता।।

प्रकार दानवद्वारा नारायणके सिरपर चलायीं गयी बहू जगाम शतधा ब्रह्मशैलशृङ्गे यथाशनिः ।। ३

गदा भी सैकड़ों टुकड़े हो गया। उसके बाद शीघ्रतापूर्वक ततो निवृत्य दैत्येन्द्रः समास्थाय रथं द्रुतम्। | लौटकर वीर दैत्येन्द्रने पृथपर आरूढ़ हो धनुष लेकर

आदाय कार्मुकं वीरस्तूणाद् बाणं समाददे॥ ४ | अपनी तरकससे बाण निकाल लिया ॥ १-४॥ आनम्य चापं वेगेन गाह्नपत्राशिलीमुखान्।। फिर क्रोधान्ध प्रहादने शीघ्रतासे धनुषकों चढ़ाकर मुमोच्च साध्याय तदा क्रोधान्धकारिताननः ॥ ५ | गृध्रके पंखवाले अनेक बाणको नारायणकी ओर चलाया।

नारायणनें भी बड़ी शीघ्रतासें अपनी ओर आ रहे उन तानापतत एवाशु बाणांश्चन्द्रासन्निभान्। | अर्धचन्द्र-तुल्य बाणोंको अपने बाणोंसे काट डाला और चिच्छेद बारपंर्निर्बिभेद च दानवम्॥ ६ | कुछ दूसरे बाणोंसे प्रह्लादको विद्ध कर दिया। तब दैत्यने के श्रीवामनपुराण के [आया है ततो नारायणं दैत्यों दैत्यं नारायणः शरैः। | नारायणको और नारायणने दैत्यको-एक दूसरेको आविध्येतां तदाऽन्योन्यं मर्मभिरिजिह्मगैः ॥ ६ | मर्मभेदी एवं सीधे चलनेवाले बाणोंसे वेध दिया। मुने! उस समय शीघ्रतापूर्वक हो रहे इस कौशलयुक्त विचित्र ततोऽम्बरे संनिपातो देवानामभवन्मुने। | एवं सुन्दर युद्धको देखने की इच्छावाले देवताओंका समूह दिक्षुणां तदा युद्धं लघु चित्रं च सुषु च ॥ ८ | आकाशमैं एकत्र हो गया ।। ५-८॥

ततः सुराणां दुन्दुभ्यस्त्ववाद्यन्त महास्वनाः। । उसके बाद बड़े जोरसे बजनेवाले नगाड़ोंको बजाकर पुष्पवर्षमनौपम्यं मुमुचुः साध्यदैत्ययोः ॥ १ | देवताओंने भगवान् नारायणके और दैत्यके ऊपर अनुपमरूपमें ततः पश्यत्सु दैर्वेषु गगनस्थेषु तावुभौ। | पुष्पोंकी वर्षा की। फिर उन दोनों धनुर्धारियोंने आकाशमें अध्येतां महेष्वास प्रेक्षकतिवर्दनम् ॥ १० | स्थित देवताओके सामने दर्शकको आनन्द देनेवाला बबन्धतुस्तदाकाशं तावुभौ शरवृष्टिभिः ।।

(दिलचस्प) अनूठा युद्ध किया। उस समय उन दोनोंने बागोंकों वृष्टिसे आकाशको मानो बाँध दिया और माणसे दिशश्च विदिशश्चैव छादयेतां शरोत्करैः ॥ ११

|| दिशाओं एवं विदिशाओंकों द्वक दिया। महामुनि नारदजी ! ततो नारायणश्चापं समाकृष्य महामुने।।

तब नारायणने धनुषको खींचकर तेज बाणसे प्रहादके सभी | बिभेद मार्गणैस्तीक्ष्णैः प्रह्लादं सर्वमर्मसु ॥ १२ | मर्मस्थलोंमें प्रहार किया और फुर्तीवाले दैत्येश्वरने क्रोधपूर्वक तथा दैत्येश्वरः क्रुद्धश्चापमानम्य वेगवान्। | धनुषको चढ़ाकर नरोत्तमके हृदय, दोनों भुजाओं और मुँहको बिभेद हृदये बाह्रोर्वदने च नरोत्तमम्॥ १३ | भी (बाणसे) बेध दिया । ९-१३।।

ततोऽस्यतो दैत्यपत्तेः कार्मुकं मुष्टिबन्धनात् । । उसके बाद नारायाणने बाण चला रहे प्रह्लादके चिच्छेदकेन बाणेन चन्द्रार्धाकारवर्चसा ॥ १४ | धनुषके मुष्टिबन्धको अर्धचन्द्रकै आकारवाले एक तेजस्वी बाणसे काट दिया। प्रादने भी झटै धनुषको झट अपास्यत धनुश्छिन्नं चापमादाय चापरम्।। | फेंककर दूसरा धनुष हाथमें ले लिया और शीघ्र हीं अधिन्यं लाघवात् कृत्वा ववर्ष निशिताशरान्॥ १५ | उसकी प्रत्यक्षा (ोरी) चढ़ाकर तेज आणक वर्षां प्रारम्भ कर दीं। पर इसके इन शकों भी नारायणाने | तानप्यस्य शरान् साध्यश्छिचा बाणैरवारयत्।। | बाणसे काटकर निवारित कर दिया और उन पुरुषोत्तभने कार्मुकं च क्षुरप्रेण चिच्छेद पुरुषोत्तमः ॥ १६ | तीक्ष्ण बाणसे उसके धनुषको भी काट डाला। नारदजी!

एक धनुषकै छिन्न होनेपर दैत्यराजने बारम्बार इस | छिन्नं छिन्नं धनुर्दैत्यस्त्वन्यदन्यत्समाददै । | धनुष ग्रहण किया, किंतु नारायणने लिये हुए उन-उन समादत्ते तदा साध्यों मुने चिच्छेद लाघवान् ॥ १७ | धनुषको भी तुरंत काटकर, गिरा दिया ॥ १४–१७ ॥ संछिन्नेष्वथ चापेषु जग्राह दितिज्ञेश्वरः । । फिर धनुषोंके कट जानेपर दैत्यपति प्रोदने एक परिचं दारुणं दीर्घ सर्वलोमयं दृढम् ॥ १८ | भयंकर, मजबूत और लौंह (फौलाद्द)-से बने ‘परं नामक अस्त्रको जड़ा लिया। उसे लेकर वे दान | परिगृह्याचे परिवं भ्रामयामास दानवः ।।

 (प्राद) चारों ओर घुमाने लगे। उस घुमाये जाते हुए | भ्राम्यमाणं स चिच्छेद नाराचेन महामुनिः ॥ १९६ | परिघको भी महामुनि नारायणने बाणसे काट दिया।

छिन्नं तु परिचे श्रीमान् प्रहाद दानवेश्वरः।।

उसके कट ज्ञानेपरऑमान् इनुधर प्रादने पुनः एक मगरको सेगसे घमाकर इसे नामके ऊपर फेंका। मुद्गरं भ्राम्य वेगेन प्रचिक्षेप नराग्रज्ञे ॥ २३

नारदजी! उस आते हुए मुद्गरको भी बलवान् नारायगने तमापतन्तं बलवान् मार्गणैर्दशभिर्मुने। । इस बागसे इस भागोंमें काट दिया; वह नष्ट होकर | चिच्छेद दशधा साध्यः स छिन्नो न्यपतद् भुवि ।। २१ | पृथ्वीपर गिर पड़ा। १८-२१ ॥

अध्याय ]

* प्रहाद और नारायणका तुमु मुद्ध, भक्तिमें विशयक

मुद्गरे वितथे जाते प्रासमाविध्य वेगवान्। प्रह्लादने मुद्गरके विफल हो जानेपर ‘प्राश’ नामक प्रचिक्षेप नराग्याय तं च चिच्छेद धर्मजः ॥ २२ | अस्त्र लेकर बड़े जोरसे नरके बड़े भाई नारायणके ऊपर प्रासे छिने ततो दैत्यः शक्तिमादाय चिझियें। | चला दिया; पर उन्होंने उसे भी काट डाला। प्राशके नष्टतां च चिच्छेद बलवान् क्षुरप्रेण महातपाः ।। २३

हो जानेपर दैत्यने तेज़ ‘शक्ति’ फेंकी, पर बलवान् महातपा नारायणने उसे भी अपने क्षुग्नके द्वारा काट छिन्नेषु तेषु शस्त्रेषु दानवोन्यन्महद्धनुः ।।

डाला। नारदजीं! इन सभी अस्त्रोंके नष्ट हो जानेपर | समादाय ततो बाणैरवतस्तार नारद।। २४ | प्रहाद दूसरे विशाल धनुषकों लैंकर घाणकी वर्षा करने ततो नारायण देवों दैत्यनाथं जगद्गुरुः। | लगे। तब परम तपस्वी जगद्गुरु नारायणदेवने प्रह्लादके नाराचैन जघानाथ हृदये सुरतापसः ।। २५ | हृदयमें नाराचसे प्रहार किया ॥ २२–२५ ॥ संभनदयों ब्रह्मन् देवेनाद्भुनकर्मणा। । नारदजी ! अद्भुत पराक्रमी नारायण प्रसारको निपपात रथोपस्थे तमपोवाह सारथिः ।। २६ | प्रह्लादका हृदय बिंध गया, फलतः वे बेहोश होकर | रथके पिछले भागमें गिर पड़े। यह देखकर सारथीं उन्हें | स संज्ञा सूचित्र प्रतिलभ्य दितीश्वरः। यहाँसे हटाकर दूर ले गया। बहुत देरके बाद जब उन्हें सुदृढं चापमादाय भूयो योद्धमुपागतः । २७ | चेतना प्राप्त हुई-होश आया, तब वे पुनः सुदृढ़ धनुष | लेकर नर-नारायणसे युद्ध करनेके लिये संग्रामभूममें । तमागतं संनिरीक्ष्य प्रत्युवाच नराग्नजः ।। | आ गये। उन्हें आया देख नारायणने कहा-दैत्येन्द्र ! अब गच्छ दैत्येन्द्र योत्स्यामः प्रातस्त्वाह्निकमाचर॥ २८ | हम कल प्रातः युद्ध करेंगे; तुम भी जाओ, इस समय अपना नित्य कर्म करो। अद्भुत पराक्रमी श्रीनारायण एवमुक्तो दितीशस्तु साध्येनाद्भुतकर्मणा।

ऐसा कहनेपर प्रहाद नैमिषारण्य चले गये और वहाँ जगाम नैमिषारण्य क्रिया चक्रे तदाह्निकम् ॥ २९ | अपने नित्य कर्म सम्पन्न किये ॥ २६-३९ ॥ एवं युध्यति देवे च प्रहादों ह्मसरों मुने।। || मारी । इस प्रकार भगवान नारायण पुन | रात्रौ चिन्तयते युद्धे कश्च जेष्यामि दाम्भिकम्॥ ३० | दानवेन्द्र प्राद-दोनों में युद्ध चलता रहा। रात्रि में प्रहाद यह विचार किया करते थे कि मैं युद्धमें इन एवं नारायणेनाऽसौं सहायुध्यत नारद।

दम्भ करनेवाले ऋषिको कैसे जीतूंगा? नारदजीं ! इस दिव्यं वर्षसहस्त्रं तु दैत्यों देवं ने चाजयन् ॥ ३१

प्रकार प्रह्लादने भगवान् नारायणके साथ एक बार | दिप वर्षोंतक युद्ध किया, परंतु में उन्हें (नारायणको) जीत न पाये। फिर हुशार दिव्य वर्षों बीत जानेपर ततो वर्षसहस्रान्ते जिते पुरुषोत्तमें।

भी पुरुषोत्तम नारायणको न त सकनेपर, पीतवाससमभ्येत्य दानवो वाक्यमन्त्रवीत् ॥ ३२

प्रादने बैंकण्ठमें जाकर पीतवस्त्रधारी भगवान् विष्णुसे कहा- देवेंश! मैं (सरलतासे) साध्य नारायणकों किमर्थं देवदेवेश सायं नारायणं रिम्। | आजतक क्यों न जीत पाया, आप मुझे इसका विजेतुं नाऽद्य शक्नोमि एतन्में कारणं बद॥ ३३ | कारण बतलायें ॥ ३०–३३ ॥

वाला ज्ञान इसपर पीतवस्त्रधारी भगवान् विष्णु बोले प्रहाद ! महाबाहु धर्मपुत्र नारायण तुम्हारे द्वारा दुर्जेय हैं । | दुर्जयोऽसौ महाबाहुस्त्वया प्रह्लाद धर्मजः। | ये ब्राह्मणोंमें श्रेष्ठ ऋषि परम ज्ञानी है। वे सभी देवताओं साध्यो विप्नवरों धीमान् मृधे देवासुरैरपि ॥ ३४ | एवं असुरोंसे भी युद्धमैं नहीं जीते जा सकते ॥ ३४ ॥

 

प्रह्लादने कहा- देव ! यदि वे साध्यदेव (नारायण) । यद्यसौं दुर्जयों देव मया साध्या रणाजिरे।। | युद्धभूमिमें मुझसे जीते नहीं जा सकते हैं तो मैंने ज्ञों तत्कथं यत्प्रतिज्ञातं तदसत्यं भविष्यति ।। ३५ | प्रतिज्ञा की है, उसका क्या होगा? वह तो मिथ्या हो जायगी। देवेश ! मुझ-जैसा व्यक्ति हौनतिज्ञ होकर कैसे | हनप्रतिज्ञों देवेश कथं जीवंत मादृशः। | जीवित रह सकेगा? इसलिये हे विष्णु! अब मैं आपके

तस्मात्तवाग्रतो विष्णो करिष्ये कायशोधनम् ॥ ३६ | सामने अपने शरीरकी शुद्धि करूँगा । ३५-३६ ॥

पुलस्त्यजी बोले- भगवानुसे ऐसा कहकर दानवेश्वर इत्येवमुक्त्वा वचनं देवाने दानवेश्चरः। | प्रहाद सिरसे पैंतक स्नानकर वहाँ बैठ गये और शिर:स्नातस्तदा तस्थौ गुणन् ब्रह्म सनातनम् ॥ ३७ |’ब्रह्मगायत्री’का जप करने लगे। उसके बाद पीताम्बरधारी ततो दैत्यपतिं विष्णुः पीतवासाऽब्रवीद्वचः। | विष्णुने प्रह्लादसे कहा-हाँ, तुम जाओ, तुम उन्हें भक्तिसे गच्छ जेष्यसि भक्त्या तं न युद्धेन कथंचन ।। ३८ | जीत सकोगे, युद्धसे कथमपि नहीं ॥ ३७-३८ ।।

प्रादजी बोले-देवाधिदेव ! मुन्नत ! आपकी कृपासे मया जितं देवदेव त्रैलोक्यमपि सुब्रत। | मैंने तीनों लोक तथा इन्द्रको भी जीत लिया है। इन जितोऽयं त्वत्प्रसादेन शक्रः किमुत धर्मज्ञः ।। ३९ | धर्मपुत्रकी बात ही क्या हैं? हे अज! यदि ये सती त्रिलोकोसे भी अजेय हैं तथा आपके प्रसादसे असौ यद्यजयो देव त्रैलोक्येनापि सुन्नतः । | भी मैं उनके सामने नहीं ठहर सकता तो फिर मैं न स्थातुं त्वत्प्रसादेन शक्यं किमु करोम्यञ्ज ।। ४० | क्या करूँ?॥ ३९-४० ॥

पपासा प्रवाच ।

(इसपर) भगवान् विष्णु बोले- दानवश्रेष्ठ ! सोऽहं दानवशार्दूल लोकानां हितकाम्यया। | वस्तुतः नारायणरूपमैं वहाँ मैं हीं हैं। मैं ही जगत्की | धर्म प्रवर्तापयितुं तपश्चर्या समास्थितः ।। ४१ | भलाईकी इच्छासे धर्मप्रवर्तनके लिये उस रूपमें तप कर रहा हूँ। इसलिये प्रहाद ! यदि तुम विजय चाहते हो तो

मेरे उस रूपकी आराधना करो। तुम नारायणको भक्तिद्वारा तस्माद्यदिच्छसि जयं तमाराधय दानव। ही पराजित कर सकोगे। इसलिये धर्मपुत्र नारायणकी तं पराजेष्यसे भक्त्या तस्माच्छुश्रूष धर्मज्ञम् ॥ ४२ | आराधना करो—इसी अर्थमें वे सुसाध्य हैं। ‘४१-४२ ॥

पुलस्त्यजी बोले- मुने ! भगवान् विष्णुके ऐसा इत्युक्तः पीतवासेन दानवेन्द्रों महात्मना।। कहनेपर प्रसाद प्रसन्न हो गयें। उन्होंने फिर अन्धककों अब्रवीद्वचनं हष्टः समाहूयाइन्धकं मुने॥ ४३ | बुलाकर, इस प्रकार कहा ॥ ४३ ॥

प्रहादजी बोले–अन्धक! तुम दैत्यों और दानवोंका दैत्याश्च दानवाश्चैव परिपाल्यास्त्वयान्धक। प्रतिपालन करें। महाबाहों! मैं ग्रह राम्य छोड़ रहा हैं। मयोत्सृष्टमिदं राज्यं प्रतीच्छस्व महाभुज ।। ४४ | इसे तुम ग्रहण करें। इस प्रकार कहनेपर जब हिरण्याक्षके इत्येवमुक्त जग्ना गन्यं हैरायलचनिः। | पुत्रने राज्यको स्वीकार कर लिया, तब प्रहाद पवित्र प्रह्लादोऽपि तदाऽगच्छत् पुण्यं बदरिकाश्रमम् ॥ ४५ | बदरिकाश्रम चले गये। वहीं उन्होंने भगवान् नारायण । दृष्ट्वा नारायणं देवं नरं च दितिज्ञेश्वरः ।। | राधा नको देखकर हाथ जोड़कर उनके चरणों में प्रणाम कृताञ्जलिपुटों भूत्वा ववन्दै चरणौं तयोः ।। ४६ | किया। महातेजस्वी भगवान् नारायणने उनसे कहा तमुवाच महातेजा वाक्यं नारायणोऽव्ययः। | महामुर ! मुझे बिना जीते ही अब तुम क्यों प्रणाम कर किमर्थं प्रणतोऽसीह मामजित्वा महासुर । ४७ | रहे हो ? ॥ ४४–४७ ॥

 

अध्याय ]

* प्रहाद और नारायणका तुमुल युद्ध, भक्तिसे विजयी

६ झवाङ्ग प्रह्लाद बोले- प्रभो! आपको भला कौन जीत कस्त्वां जेतुं प्रभो शक्तः कस्त्वत्तः पुरुषोऽधिकः। | सकता है? आपसे बढ़कर कौन हो सकता है? आप ही त्वं हि नारायणोऽनन्तः पीतवासा जनार्दनः ।। ४८ | अनन्त नारायण पीताम्बरधारी जनार्दन हैं। आप हो त्वं देवः पुण्डरीकाक्षस्त्वं विष्णुः शाङ्चापधृक् ।।

कमलनयन शाङ्ग धनुषधारों विष्णु हैं। आप अव्यय, त्वमव्यय महेशानः शाश्वतः पुरुषोत्तमः ॥ ४९ महेश्वर तथा शाश्वत परम पुरुषोत्तम हैं। योगिजन आपका हो ध्यान करते हैं। विद्वान् पुरुष आपकी ही पूजा करते त्वां योगिनश्चिन्तयन्त चार्चयन्ति मनीषिणः।।

वेदज्ञ आपके नामका जप करते हैं तथा याज्ञिकजन जपन्ति स्नातकास्त्वां च यजन्ति त्वां च याज्ञिकाः ॥ ५० |

अापका अन् को है। आप ही । पीका, | चमच्यतो हृषीकेशश्चक्रपाणिराधरः ।।

रि, महामत्स्य, हयग्नॉव तुधा हा फछप महामीनो हृयशिरास्त्वमेव वरकच्छपः ॥ ५१ | (कूर्म) अवतारी हैं ॥ ४८-५१ ॥ । हिरण्याक्षरपुः श्रीमान् भगवानश्च सूकरः ।। आप हिरण्याक्ष पका वध करनेवाले ऐश्वर्य मपितुर्नाशनकरों भवानपि नृकेसरी॥५३ | युक्त और भगवान् आदि वाराह हैं। आप ही मेरे पिताको ब्रह्या त्रिनेत्रोऽमरराङ् हुताशः ।

मारनेवाले भगवान् नृसिंह हैं। आप ब्रह्मा, शिव, इन्द्र, | प्रेताधिप नीरपतिः समीरः।

अग्नि, यम, बरुण और वायु हैं। है स्वामिन् ! है वागेन्द्रकेतु (गरुडध्वज !) आप सूर्य, चन्द्र तथा स्थान सूर्यो मृगाङ्कोचलजङ्गमाद्यो और जंगमक आदि हैं। पायौं, अग्नि, आकाश और ज्ञान भवान् विभों नाथ खगेन्द्रकेतो॥ ५३

आप ही हैं। सह पोंसे आपने समस्त जगतुको त्वं पृथ्वी ज्योतिराकाशं जलं भूत्वा सहस्रशः।

याप्त किया हैं। माधव ! आपको कौन ज्ञात सकेगा? त्वया व्याप्तं जगत्सर्वं कस्त्वां जेष्यति माधव ॥ ५४ | | जगद्गरों! हृषीकेश! आप भक्ति से ही संतुष्ट हो सकते भक्त्या यदि हृषीकेश तोषमेषि जगद्गुरो।। | हैं। हे सर्वगत ! है अविनाशिन् ! आप दूसरे किसी भी नान्यथा त्वं अशक्योऽसि जेतुं सर्वगताध्यय ।। ५५ | अन्य प्रकारसे नहीं जीते जा सकते ।। ५२-५५ ॥

श्रीभगवान् बोले- सुव्रत ! दैत्य! तुम्हारी इस परितुष्टोऽस्मि ते दैत्य स्तबेनानेन सुव्रत। स्तुति में अपन्त संतुष्ट हैं। दैत्य ! अनन्य भकिसे तुमने भक्त्या त्वनन्यया चाहूं त्वया दैत्य पराजितः ।। ५६ | मुझे जीत लिया है। प्रहाद ! पराजित पुरुष विजेताको पराजितश्च पुरुषों दैत्य दण्डं प्रयच्छति।। | दण्ड (के रूपमें कुछ) देता है। परंतु मैं तुम्हारे दण्डके दण्डार्थं ते प्रदास्यामि व वृणु यमिच्छसि ॥ ५७ | बदलें तुम्हें वर देंगा; तुम इच्छित वर माँगों ॥ ५६५ ||

प्रहादजी बोले- हे नारायण ! मैं आपसे घर माँग नारायण वर याचे यं त्वं मैं दातुमर्हसि।। | रहा है। आप उसे देने की कृपा करें । हे जगन्नाथ ! आपके तन्में पापं लयं यातु शारीरं मानर्स तथा।। ५८ | तथा नरके साध युद्ध करनेमें मेरे शरीर, मन और वाणसे चाचिकं च जगन्नाथ अचया सह युध्यतः ।। | जो भी पाप (अपकर्म) हुआ हो वह सब नष्ट हो जाय। नरेण यद्मप्यभवद् घरमैतत्प्रयच्छ में॥ ५६ | आप मुझे यहीं वार ३ ॥५-५६ ।

 

नारायाने कड़ा-दैत्येन्द्र ! ऐसा ही होगा। तुम्हारा एवं भवतु दैत्येन्द्र पापं ते यातु संक्षयम्।। | पाप नष्ट हो जाय। अब प्रहाद ! तुम दुसरा एक घर और द्वितीयं प्रार्थंय खरं तं ददामि तवासुर ।। ६० | माँग लो, मैं उसे भी तुम्हें दूंगा ।। ६६ ।।

हद उगाच प्रादजी बोले- हे भगवन्! मेरी जो भी बुद्धि

हो, वह आपसे ही सम्बद्ध हो, वह देवपूजामें लग रहे । या या जायेत में बुद्धिः सा सा विष्णो त्वदाश्रिता। मैरी बुद्धि, आपका हौं ध्यान करे और आपके चिन्तनमें देवार्चने च निरता त्वच्चित्ता त्वत्परायणा ॥ ६१ | लग रहे ॥ ६१ ।।

 

 आँखामनापण

[अध्याय

नामा माघ

नारायणने कहा-प्रहाद ! ऐसा ही होगा। पर है एवं भविष्यत्यसुर वमन्यं यमच्छसि। | महाबाहों ! तुम एक और अन्य बर भी, जो तुम चाहो, तं वृणीष्व महाबाहो प्रदास्याम्यविचारयन्।। ६२ | माँगों। मैं बिना विचारे ही बिना देय-अदेयका विचार | किये ही वह भी तुम्हें दूंगा ॥ ६ ॥

प्रह्लादने कहा- अधोक्षज! आपके अनुग्रहसे सर्वमेव मया लब्धं त्वत्प्रसादादधोक्षज।

मुझे सब कुछ प्राप्त हो गया। आपके चरणकमलोंसे मैं त्वत्पादपङ्कजाभ्यां हि ख्यातिरस्तु सदा मम ।। ६३ | सदा लगा रहूँ और ऐसी ही मेरी प्रसिद्ध भी हो अर्थात्  मैं आपके भक्तके रूपमें ही चर्चित हो ॥ ६३ ।। नारायण याच

नारायणने कहा- ऐसा ही होगा। इसके अतिरिक्त एवमस्त्वपरं चास्तु नित्यमेवाक्षयोऽव्ययः । | रे प्रसादसे तुम अक्षय, अविनाशी, अजर और अमर अज्ञरश्चामरश्चापि मत्प्रसादाद् भविष्यसि ॥ ६४ | होगे। दैत्यश्रेष्ठ ! अब तुम अपने घर जाओं और सदा गच्छस्व दैत्यशार्दूल स्वमावासं क्रियारतः।।

(धर्म) कार्यमें रत हों। मुझमें मन लगाये रखने । न कर्मबन्धों भवतो मच्चित्तस्य भविष्यति ।। ६५ ||

तुम्हें कर्मबन्धन नहीं होगा। इन दैत्योंपर शासन करते। हुए तुम शाश्वत (सदा बने रहनेवाले राज्यका पालन् । प्रशासयदमून् दैत्यान् राज्यं पालय शाश्वतम्। | करो। दैत्य! अपनी जातिके अनुकूल श्रेष्ठ धर्मोका स्वजातिसदृशं दैत्य कुरु धर्ममनुत्तमम् ॥ ६६ | अनुष्ठान करो ॥ ६४–६६ ॥ पुलस्त्यजी बोले- लोकनाथके ऐसा कहनेपर इत्युकी लोकनायेन प्रसाद देवमाचीत्। | प्रादने भगवानूसे कहा –जगद्गरौं ! अब मैं छोड़े हुए। कथं राज्यं समादास्ये परित्यर्फ जगद्गुरो ॥ ६७ | राज्यको कैसे ग्रहण क? इसपर भगवानुने उनसे तमुवाच जगत्स्वामी गच्छ त्वं निजमाअयम्। | कहा तुम अपने र ज्ञाओं तथा दैत्य एवं दानवकों हितोपदेष्टा दैत्यानां दानवानां तथा भव ॥ ६८ | कल्याणकारी बातोंका उपदेश करें। नारायणकै ऐसा नारायणेनैवमुक्तः स तदा दैत्यनायकः ।। कहनेपर वे दैत्यनायक (प्रह्लाद) परमेश्वरको प्रणाम कर प्रणिपत्य विभुं तुष्टौ जगाम नगरं निशम् ॥ ६९ | प्रसन्नतापूर्वक अपने नगर निवासस्थानको चले गये। दृष्टः सभाजितश्चापि दानवैरन्धकेन च। नारदजी! अन्धक तथा दाननै प्रह्लादकों देखा एवं निमन्त्रितश्च राज्याय न प्रत्यैच्छत्स नारद ॥ ७० | उनका सम्मान किया और उन्हें राज्य स्वीकार करने के राज्यं परित्यज्य महासुरेन्द्रों | लिये अनुरोधित किया; किंतु उन्होंने राज्य स्वीकार नहीं।

नियोजयन् सत्पथ दानवेन्द्रान्।। | किया। दैत्येश्वर प्रह्लाद राज्यको छोड़ अपने उपदेशों ध्यायन् स्मरन् केशवमप्रमेयं दानव-श्रेष्ठकों शुभ मार्गमें नियोजित तथा भगवान् ।

तस्थौ तदा योगविशुद्धदेहः ॥ ७१ | नारायणका ध्यान और स्मरण करते हुए योगके द्वारा शुद्ध एवं पुरा नारद दानवेन्द्रों शरीर होकर विराजित हुए। नारदजी ! इस प्रकार पहले।

नारायणेनोत्तमपूरुपेण । । पुरुषोत्तम नारायणद्वारा पराजित दानवेन्द्र प्रहाद राज्य पराजितश्चापि विमुच्य राज्यं छोड़कर भगवान् नारायणके ध्यानमैं लौंन होकर शान्त | तस्य मनों धातरि सन्निवेश्य ॥ ७२ | एवं सुस्थिर हुए थे। ६–५२ ।।

इस प्रकार श्रीवामनपुराणमें आठवाँ अध्या माप्त हु

अध्याय ]

 

नवाँ अध्याय

अन्धकासुरकी विजिगीषा, देवों और असुरोंके वाहनों एवं युद्धका वर्णन

नारदजीने कहा- मुने ! प्रहादजी सनातन राजधर्मको नेत्रहींनः कथं राज्ये प्रह्लादेनाधको मुने। | भलीभाँति जानते थे। ऐसी दशामें उन्होंने नेत्रहीन अभिषिक्तों जानतापि राजधर्म सनातनम् ॥ १ | अन्धकको राजगद्दीपर कैसे बैठाया? ॥ १ ॥

पुलस्त्यजी बोले-हिरण्याक्षके जीवनकालमें ही लब्धचक्षुरसौ भूयो हिरण्याक्षेऽपि जीवति। अन्धकको पुनः दृष्टि प्राप्त हो गयी थी, अतः दैत्यवर्य । ततोऽभिषिको दैत्येन प्रादेन नि पदे ॥ ३ | प्राडादने उसे अपने पदपर अभिषिक्त किया था ॥ ३ ॥

 

नारद उवाच

नारदजीने पूछा-मुन्नत ! मुझे यह बतलाइये कि राज्येऽन्धकोऽभिषिक्तस्तु किमाचरत सव्रत। | अन्धकने रायपर अभिषिक्त होनेपर क्या-क्या किया देवादिभिः सह कथं समास्ते तद् वदस्व मै॥ ३ | तथा वह देवताओं आदिके साथ कैसा व्यवहार करता था ।।३।। असल्य उच्च पलानी बोले- हिप्यादा पन पराज राज्येऽभिषिक्तो दैत्येन्द्रो हिरण्याक्षसुतोऽन्धकः।। | अन्धकने राज्य प्राप्त करके तपस्याद्वारा शूलपाणि भगवान् तपसाराध्य देवेशं शूलपाणिं त्रिलोचनम् ॥ ४ | शंकरकी आराधना की और उनसे देवता, सिद्ध, ऋषि एवं नागोंद्वारा नहीं जीते ज्ञान और नहीं मारे ज्ञानेका घर अजेयत्वमवध्यत्वं सुरसिद्धर्षपन्नगैः।।

प्राप्त कर लिया। इसी प्रकार वह अग्निके द्वारा न जलने, अदाह्यत्वं हुताशेन अक्लेद्यत्वं जलेन च ॥ ५

झरनासे न भींगने आदिका भी वरदान प्राप्त कर आपका एवं स वरलब्धस्तु दैत्यो राज्यमपालयत् ।।

संचालन कर रहा था। उसने शुक्राचार्यको अपना पुरोहित          बना लिया था। फिर अन्धकासुरने देवताओंको जीतनेका शुक्क्ल पुरोहितं कृत्वा समध्यास्ते ततोऽन्धकः ॥ ६ |

उपक्रम (आरम्भ किया और उन्हें जीतकर सम्पूर्ण ततश्चक्रे समुद्योगं देवानामन्धकोऽसुरः। | पृथ्वीको अपने वशमें कर लिया —सभी श्रेष्ठ राजाओंको

आक्रम्य वसुधां सर्वा मनुजेन्द्रान् पराजयत् ॥ ७ | परास्त कर दिया ॥ ४-५॥ पराजित्य महीपालान् सहायाचे नियोंन्य च। । उसने सभी राजाको पराजित कर उन्हें ( सामन्त तैः समं मेरुशिखरं जगामाद्भुतदर्शनम् ॥ ८ बनाकर) अपनी सहायता नियुक्त कर दिया। फिर उनके साथ वह सुमेरगिरि पर्वतको खनेके लिये इसके शक्रोऽपि सुरसैन्यानि समुद्योज्य महागजम्।। अद्भुत शिखरपर गया। इधर इन्द्र भी देवसेनाको समारुह्यामरावत्यां गुप्तिं कृत्वा विनिर्ययौ ॥ १ | तैयारकर और अमरावतीमें सुरक्षाको व्यवस्था कर अपने ऐरावत हाथोंपर सवार होकर युद्धके लिये बाहर निकलें । शक्रस्यानु तथैवान्ये लोकपाला महौजसः ।। इस प्रकार दूसरे तेजस्वी लोकपालगण भी अपने-अपने आरुह्य वाहनं स्वं स्वं सायुधा निर्ययुर्बहिः॥ १० वाहनोंपर सवार होकर तथा अपने अस्त्र लेकर इन्द्रके

पीछे-पीछे चल पड़े। हाथी, घोड़े, रथ आदिसे युक्त देवसेनाऽपि च समं शक्रेणाद्भुतकर्मणा।। | देवसेना भी बड़े अद्भुत पराक्रमी इन्दके साथ तेजीसे निर्जगामातिवेगेन गजवाजिरथादिभिः ॥ ११ | निकल पड़ी। सेनाके आगे-आगे बारहों आदित्य और

वामनपुराण #

अग्रतों द्वादशादित्याः पृष्ठतश्च त्रिलोचनाः। | उनके पृष्ठभागमें ग्यारह रुद्रगण थे। उसके मध्यमें आठों | मध्येऽष्टौ बसवो विश्थे साध्यामिरुतां गणाः ।। | बसु, तैरहों विश्वेदेव, साध्य, अश्विनीकुमार, मरुद्गण, | यक्षविद्याधरायाश्च स्वं स्वं वाहनमास्थिताः ।। ११ | यक्ष, विद्याधर आदि अपने-अपने वाहनपर सवार होकर  चल रहे थे। ८–१२ ।।। नारद उवाच नारदजीने पूछा- धर्मज्ञ! झड़ आदिके वाहनोंका | रुद्रादीनां बदस्वेह वाहूनानि च सर्वशः। | एक-एक कर पूरी तरह वर्णन कीजिये। इस विषयमें | एकैकस्यापि धर्मज्ञ परं कौतूहलं मम्।। १३ | मुझे बड़ी उत्सुकता हो रही हैं ॥ १३ ॥

पुलस्त्यजी बोले- नारी! सुनिये; मैं एक भणध्वं कथयिष्यामि सर्वेषामपि नारद। | एक करके क्रमशः सभी देवताओंके वाहनोंका संक्षेपमें वाहनानि समासेन एकैकस्यानुपूर्वशः ॥ १४ | वर्णन करता हूँ। हड़के करतलसे उत्पन्न अति पराक्रमवाला, रुद्रस्ततलोत्पन्नो महावीर्यो महाज्ञवः। | अति तीव्रगतिवाला, श्वेतवर्णका ऐरावत हाथों देवराज श्वेतवर्णो गजपतिर्देवराज्ञस्य वाहनम् ॥ १५ | (इन्द्र)-को बाहन है। हे नारद! रुद्रके उसे उत्पन्न रुद्रोरुसंभव भीमः कृष्णवर्गों मनोज्ञवः ।। | भयंकर कृष्णवर्णवाला एवं मनके सदृश गाँतमान् पौण्डुको नाम महिषों धर्मराज्ञस्य नारद॥ १६ | पौणक नामक महिप धर्मराजका वाहन हैं। झट्के रुद्रकमलोद्भूतः श्यामों जलधसंज्ञकः। | कर्ण-मलसे उत्पन्न श्यामवर्णवाला दिव्यर्गातशील जलधि शिशुमारो दिव्यगतिः वाहनं वरुणस्य च ॥ १७ | नामक शिशुमार (स) वरुणका वाहन है। अम्बिकाके रौद्रः शकटचक्राक्षः शैलाकारों नरोत्तमः। | चरणसे इत्पन गाडीके चक्के समान भयंकर आँखवाला, अम्बिकापादसंभूत वाहूनं धनदस्य तु ॥ १८ | पर्वताकार नरोत्तम कुबेरका याह्न है॥ १४-१८ ॥ एकादशानां रुद्राणां वाहनानि महामुने। । हे महामुने ! एकादश रुद्रोंके वाहन महापराक्रमशाली गन्धर्वांश्च महावीर्या भुजगेन्द्राश्च दारुणाः ।।

गन्धर्वगण, भयंकर सर्पराजगण तथा सुरभिके अंशसे श्वेतानि सौरभंयाणि वृषापयग्रजवानि च ॥ १६ | उपन्न तौव्रगतिवाले सफेद बैल हैं। मुनिश्रेष्ठ ! चन्द्रमाके इथं चन्द्रमसश्चाद्धंसहस्त्रं हंसवाहनम्।

| रथकों चनेवाले आधे हुज़ार (पाँच सौ) हंस हैं। रयो रथचाहाचे आदित्या मुनिसत्तम ॥ २० | | आदित्योंके रथके वाहन घोड़े हैं। वसुओंके वाहन हाथी, कुञ्जरस्थाश्च वसवों अक्षाश्च नरवानाः ।। | यक्षकै थाहन नर, किनके वाहन सर्प एवं किन्नरा भुजगाढ़ा हुयारूढौ तथाश्विनौ ॥ ३१ | अश्विनौकुमारोंके याहून घोड़े हैं। ब्रह्मन्! भयंकर दीखनेवाले सारङ्गाधिष्ठिता ब्रह्मन् मरुतो घोरदर्शनाः। मरुद्गणोंके वाहन हरिण हैं, भृगुओके वाहन शुक हैं शुकारूद्धाश्च कवयो गन्धर्वांश्च पदातिनः ॥ २२ | और गन्धर्वलोग पैदल ही चलते हैं ॥ १९–२२ ॥

आरुह्य वाहनान्येवं स्वानि स्वान्यमरोत्तमाः। । इस प्रकार बड़े तेजस्यों श्रेष्ठ देवगण अपने-अपने संनह्य निर्बया युद्धाय सुमहौजसः ।। २३ | वाहनपर आरूढ़ एवं सन्नद्ध (तैयार) होकर प्रसन्नतापूर्वक युद्धके लिये निकल पड़े। २३ ॥ रह जाच

नारदने कहा- मुने! आपने देवादिकोंक वाहनोंका गदितानि सुरादीनां वाहनानि त्वया मुने। वर्णन किया; इसी प्रकार अब असुरोंके याहनोंका भी दैत्यानां वाहनान्येवं यथावद् वक्तुमर्हसि ॥ २४ | यथावत् वर्णन करें ॥ २४ ॥

पुलस्त्यजी बोले-द्विजोत्तम! ( अब) दानवोंके शृणुष्व दानवादीनां वाहनानि द्विजोत्तम। | बाहनक सुनो। मैं तत्त्वतः उनका चौक-ठीक वर्णन कथयिष्यामि तत्त्चेन यथावच्छतुमर्हसि ॥ २५ | करता हूँ। अन्धकका अलौकिक रथ कृष्णवर्णके श्रेष्ठ

अध्याय ]

के अन्धकासुरकी विजिगीषा, दैवों और असुरोंके वाहनों एवं युद्धका वर्णन

अन्धकस्य रथो दिव्यों युक्तः परमवाञ्जिभिः। | अश्वों से परिचालित हौंता था। वह हजार अरों – कृष्णवर्णैः सहस्रारस्त्रिनल्चपरिमाणवान्॥ २६ | पहियेकी नाभि और नेमके बीचकी लकड़ियोंसे युक्त बारह सौं हाथोंका परिमागवाला था। प्रहाइका दिव्य रथ प्रह्लादस्य रथों दिव्यश्चन्द्रवर्णंयोत्तमैः।।

सुन्दर एवं सुवर्ण-ज्ञत-मण्ड़ित था। इसमें चन्द्रवर्णमाले उह्यमानस्तथाऽष्टाभिः श्वेतरुक्ममयः शुभः ॥ २७ ॥

आठ उत्तम घोड़े जुते हुए थे। विरोचनका वाहन हाथी विरोचनस्य च गजः कुम्भस्य तुरंगमः। | था एवं कुज्ञम्भ घोडेपर सवार था। जम्भका दिव्य रथ | जम्भस्य तु रथों दिव्यों हुयैः काञ्चनसन्निभैः ॥ ३८ | स्वर्णवर्णक घोड़ोंसे युक्त था ॥ २५-२८ ।।

शङ्ककर्णस्य तुरगों हयग्रीवस्य कुञ्जरः। | इसी प्रकार शंकुकर्णका वाहन घोड़ा, हयग्रीवका | रथ मयस्य विख्यात दुन्दुभेश्च महोगः।। | हाथीं और मय दानवका वाहन दिव्य रथ था। दुन्दुभिका शम्बरस्य विमानोऽभूदय:शोगाधिपः ।। ३५ | वाहून विशाल नाग था। शम्बर विमानपर चढ़ा हुआ था

तथा अयशंकु सिंहपर सवार था। गदा और मुसलधारी बलवृत्रौ च बलिन गदामुसलधारिणी।

बलवान् बाल और वृन्न पैदल थे; पर देवताओंकी सैनापर पद्भ्यां दैवतसैन्यानि अभिवितुमुद्यतौ ॥ ३॥

चढ़ाई करनेके लिये उद्यत थे। फिर अति भयङ्कर ततो रणोऽभूत् तुमुलः संकुलोऽतिभयंकरः।। घमासान युद्ध प्रारम्भ हो गया। नारदमी ! समस्त सोक । रजसा संवृतो लोको पिङ्गवर्णेन नारद ॥ ३१ पौली भुलसे इक गया, जिससे पिता पुत्रको और पुत्र पिताको भों परस्पर एक-दूसरे को पहचान नहीं पाते थे। नाज्ञासीच्च पिता पुत्रं न पुत्रः पितरं तथा।। सुन्नत! कुछ लोग अपने ही पक्ष लोगोंकों तथा कुछ स्वानेवान्ये निजघ्नुर्वै परानन्यै च सुन्नत ।। ३२ | लोग विरोधी पक्षके लोगोंको मारने लगे ॥ २१-३२ ॥ अभिद्न महावेगों पर रथस्तदा।। इस युद्धमें रथके ऊपर रथ और हाथके ऊपर गजों मत्तगजेन्द्रं च सादी सादिनमभ्यगात् ॥ ३३ | हाथी टूट पड़े तथा घुड़सवार घुड़सवारोंकी और वैगसे

आक्रमण करने लगे। इस प्रकार पादचारी (पैदल) पदातिरपि संक्रुद्धः पदातिनमधल्याणम्।। सैनिक शुद्ध होकर अन्य बलशाली पैदलोंपर चढ़ बैठे। परस्परं तु प्रत्यघ्नन्नन्योन्यजयकाक्षिणः ॥ ३४ | इस प्रकार एक-दूसरे को जीतने की इच्छासें सभी परस्पर प्रहार करने लगे। मुनें! इसके बाद देवताओं और ततस्तु संकुले तस्मिन् युद्धे दैवासुरे मुनें। | असुरोंके उस घोर संग्राममें युद्धसे उत्पन्न धूलिको शान्त | प्रावर्तत नदी घोरा शमयन्ती रणाद्वजः ॥ ३५ | करती हुई रक्तरूपी जलधारावाली एवं रथरूपी भैवरवाली और योद्धाओंके समूहकों बहा ले जानेवाली एवं शोणितोदा रथावत्ता यौधसंघटुवाहिनी। | गजकुम्भरूपौं महान् कूर्म तथा शररूप मनसे युक्त बड़ी  गजकुम्भमहाकूर्मा शरमीना दुरत्यया ॥ ३६ | भारी नदी बह चलीं ॥ ३३-३६ ॥

तीक्ष्णागसमकरा महासिग्राहबाहिनी उस नदीमें तेज धारवाने मास (एक प्रकारका अन्त्रशैवालसंकीर्णा पताकाफेनमालिनी।। ३७ | अस्त्र) ही मकर थे, बड़ी-बड़ी तलवारें ही ग्राह थीं,

उसमें ऑीं ही शैवाल, पताका हौं फैन, गृध्र एवं कङ्क | गृध्रकङ्कमहाहंसा श्येनचक्राह्णमण्डिता।

पक्षौं महाशव, याज्ञ ही चक्रवाक और जंगली कोवे ही बनवायसकादम्बा गोमायुश्वापदाकुला ॥ ३८ मानों कलहंस थे। वह नदी भृगालरूपी हिंल एवं पिशाचरूपी पिशाचमुनिसंकीर्णा इस्तरा प्राकृतैर्जनैः।।

नयाँ संकीर्ण थीं और साधारण मनुष्योंसे दुस्तर थीं। | रश्चनवैः संतरन्तः शूरास्तां प्रजगाहिरे॥ ३१ जयरूप धनकी इच्छावाले शूर योद्धा लोग घुटनोंतक आगुल्फादवमन्जन्तः सूदयन्तः परस्परम्। | डूबते और एक-दूसरे को मारते हुए इधरूपी नौकाओंद्वारा समुत्तरन्तो वेगेन योधा जयधनेप्सवः ॥ ४० ॥

उस नदीको येगसे पार कर रहे थे। ३५-४० ॥

भीमापापा

ततस्तु | रौद्रे सुरदैत्यसादने | वह युद्ध इरपोकके लिये भयावना, देवों एवं

महावें भीरु भयंकोऽथ।

दैत्यका संहार करनेवाला तथा वस्तुतः अत्यन्त भयंकर, रक्षांसि अक्षाश्च सुसंप्रष्टाः

उसमें यक्ष और राक्षस लौंग अत्यन्त आनन्दित पिशाचयूथास्त्वभिरेमिरे

हो रहे थे। पिशाचौंका समूह भी प्रसन था। वे पिबन्त्यसृग्गाढतरंभटाना

पौरोंके गाढ़े रुधिरका पान करते थे तथा (उनके मालिङ्गय मांसानि च भक्षयन्ति।

शवोंका) आलिंगन कर मांसका भक्षण करते थे। वसां विलुम्पन्ति च विस्फुरन्त

गर्जन्यथान्योन्यमथो वयांसि ॥ ४२ पक्षी चर्बीको नोचते और उछलते थे एवं एक

दूसरेके प्रति गर्जन करते थे। सियारिने ‘फेकार’ मुञ्चन्ति फेत्काररवाशिवाश्च

शब्द कर रहीं थीं, भूमिपर पड़े हुए वेदनासे दुःखी #न्दन्ति योधा भुवि वेदनाः ।। | शस्त्रप्रतप्ता निपतन्ति योद्धा कराह रहे थे। कुछ लोग शस्त्रसे आहत होकर

चान्ये युद्धं श्मशानप्रतिमं बभूव ।। ४३ गिर रहे थे। युद्धभूमि मरघटके समान हो गयी तस्मिशिवाघोरवे प्रवृत्ते

थीं। सियारिनोंक भयंकर, शब्दसे युक्त देवासुर संग्राम सुभयंकरे ऐसा लगता था, मानों सुरासुराण ।।

में निपुण या तोंग युद्ध बभौ प्राणपणोपविद्धं शस्त्ररूपी पाशा लेकर अपने प्राणों की बाजी लगाते द्वन्देऽतिशस्त्राक्षगतो दुरोदरः ।। ४४ | हुए जुआ खेल रहे हैं ॥ ४१-४४॥ हिरण्यचक्षस्तनयों रणेऽन्धको हिरण्याक्षका पुत्र अन्धक हजारों घोड़ोंसे रथे स्थितो वाज्ञिसहस्त्रयोजिते।।

मुक्त इथपर आरूढ़ होकर मतवाले हाथीकी पौठपर मत्तेभपृष्ठस्थितमुग्रतेजनं

समेयिवान् देवपतिं शतक्रतुम् ।। ४५

स्थित महातेजस्यों देवराज इन्द्रकै साथ जा भिड़ा। समापतन्तं

महिषाधिरूढ़ इधर आठ घोड़ोंसे युक्त रथपर आरूढ़ अस्त्र | यम प्रतीच्छद् बलवान् दिनीशः। उठाये बलवान् दैत्यराज प्रह्लादने महिषपर सवार प्रह्लादनामा तुरगाष्टयुक्तं यमराजका सामना किया। नारदजी! इधर विरोचन रथं समास्थाय समुद्यतास्त्रः ॥ ४६ विरोचनश्चापि जलेश्वरं चगा वरुणदेवसे युद्ध करनेके लिये आगे बढ़ा तथा जम्भस्त्वथागाद् धनदं बलाढ्यम्।

जम्भ बलशाली कुबेरकी और चला। शम्बर वायं समभ्येत्य च शम्बरोध वायुदेवताके सामने जा खड़ा हुआ एवं मय अग्निके मयों हुनाशं युयुधे मुनीन्द्र ॥ ४

साथ युद्ध करने लगा। हयग्रीव आदि अन्यान्य अन्ये हयग्नीवमुखा महाबला

दितेस्तनूजा, दनुपुङ्गवाश्च। || महाबलवान् दैत्य तथा दानच अग्नि, सूर्य, अष्ट सुरान् हुताशार्कबसूरगेश्वरान् वसुओं तथा शेषनाग आदि देवताओंके साथ द्वन्द्वयुद्ध द्वन्द्व समासाद्य महाबलान्विताः ॥ ४८ | करने लगे ॥ ४५-४८ ॥ गर्जन्यथान्योन्यमुपेत्य युद्धे ।

वे एक-दूसरे के साथ युद्ध करते हुए भीषण चापानि झर्षन्त्यतिवेगिताश्च। | गर्जन कर रहे थे। वे वेगपूर्वक धनुष चढ़ा करके मुञ्चन्त नाराचगणान् सहस्रश

आगच्छ है तिष्ठसि किं ब्रुवन्तः ॥ ४१ | हजारों बाकी झड़ी लगाकर कहने लगे-अरे ! शरस्तु तीक्ष्णैतितापयन्तः आओं, आओं, रुक क्यों गये। तेज बाणोंकी वर्षा शस्त्रैरमोधैरभिताडयन्तः । | करते हुए तथा अमोघ शस्त्रोंसे प्रहार करते हुए

 

अध्याय ]

अन्धकके साथ देवताओंका युद्ध और अन्धककी विजय के

मन्दाकिनीवेगनिभां चह्न्र्ती उन लोगोंने गङ्गाके समान तीव्र वेंगसे प्रवाहित प्रवर्तयन्तो भयदां नदी च ॥ ५ | होनेवाली, (किंतु) भयंकर नदीको प्रवर्तित कर दिया।

नारदजी! उस युद्धमें तीनों लोकोंको चाहनेवाले त्रैलोक्यमाकांक्षिभिरुग्नवेगैः।

उग्रबैगशाली देवता एवं असुरगण पिशाचों एवं सुरासुरैर्नारद संप्रयुद्धे।। राक्षसकी पुष्टि बढ़ानेवाली शोणित-सरिताको पार | पिशाचरक्षोगणपुष्टिवर्धनी करने की इच्छा कर रहे थे। उस समय देवता मुत्तर्तुमिच्छद्भिरसग्नदीं बभौ ॥५१ और दानवोंके बाजे यज रहे।

और दानवोंके बाजे बज रहे थे। आकाशमें स्थित वाद्यन्ति तूर्याणि सुरासुराणां | मुनियों और सिद्धोंके समूह उस युद्धको देख रहे

पश्यन्ति ख़स्था मुनिसिद्धसंघाः। | थे। जो वीर उस युद्धमें सम्मुख मारे गये थे, उन्हें | नयन्ति तानप्सरसां गणाग्या अप्सराएँ सीधे स्वर्गमें लिये चली जा रही

हुता रणे येऽभिमुखास्तु शूराः ॥ ५२ | धौं । ४५–५२ ॥

इस प्रकार श्रीवामनपुराणमें नवाँ अध्याय समाप्त हुआ।

दसवाँ अध्याय

अन्धकके साथ देवताओंका युद्ध और अन्धककी विजय

। पुलस्त्यजी बोले- तत्पश्चात् भीरुओंके लिये भय | ततः प्रवृत्ते संग्रामें भरूणां भयवर्धने। | बढ़ानेवाला समर आरम्भ हो गया। हजार नेत्रोंवाले इन्द्र अपने | सहस्राक्षो महाचापमादाय व्यस्जच्छरान्॥ १ | विशाल धनुषकों लेकर बाणों की वर्षा करने लगे। अन्धक अन्धकोप महावेगं धनराकष्य भास्वरम्। | भी अपने दीप्तिमान् धनुषको लेकर बड़े बैंगसे मयूरपंख लगे | पुरंदराय चिक्षेप शान् बाबाससः ॥ ३ | बाणोंको इन्द्रसर छोड़ने लगा। वे दोनों एक-दूसरे को झुके

हुए पर्वोत्राले स्वर्णपंखयुक्त तथा महावेगवान् तीक्ष्ण बागोंसे तावन्यन्यं सुतीक्ष्णाग्रैः शरैः संनतपर्वभिः। |

आहत कर दिये। फिर इन्ने कुद्ध होकर वज़कों अपने हाथमें रुक्मपुखैर्महावेगैराजघ्नतुरुभावपि ॥ ३ |

घुमाकर उसे अन्धकके ऊपर फेंका। नारदजी! अंधकने उसे ततः क्रुद्धः शतमखः कुलिशं भ्राम्य पाणिना।।

आ देखा। इसने बागों, अस्त्री और ज्ञानाले इसपर प्रहार | चिक्षेप दैत्यराजाय तं ददर्श तथान्धकः ॥ ४ किया; पर अग्नि जिस प्रकार वनों, पर्वतों (या वृक्ष)-कों

आजघान च बाणौधैरस्नैः शनैः स नारद। भस्म कर देती हैं, इसी प्रकार उस वजने उन सभी अस्त्रको तान् भस्मसात्तदा चक्रे नगानिव हुताशनः ।। ५ | भस्म कर डाला ॥ १-५॥ ततोऽतिचेगिनं अन्नं दृष्ट्वा बलवतां वरः ।। तब बलवानोंमें श्रेष्ठ अन्धक अति वेगवान् बञ्जकों समाप्लुत्य रश्चात्तस्थौ भूचि याहु सहायवान्। ६ | आते देखकर, रथसे कूदकर बाहुबलका आश्रय लेकर पृथ्वीपर रथं सारथिना सार्भ साश्वध्वजसकूबरम्। | खड़ा हो गया। वह वञ्ज, सारथि, अश्व, ध्वजा एवं कुरके भस्म कृत्वाथ कुन्निशमन्धक समुपाययौ।। ७ | साध रथको भस्मक इनके पास पहुँच गया। उस (वज) तमापतन्तं वेगेन मुष्टिनात्य भूतले। | को वेगपूर्वक आते देख बलवान् अन्धकने मुष्टिको मारकर पातयामास बलवाञ्जगज्ञं च तदाऽन्धकः ।। 2 | उसे भूमिपर गिरा दिया और गर्शन करने लगा ॥ ६-८॥

* ऑवामनपुरा #

तं गर्जमाने वीक्ष्याथ घासवः सायकैद्धम्।। उसे इस प्रकार गाते देखकर इन्द्रनें इसके ऊपर चवर्ष तान् चारयन् से समभ्यासाच्छतक्रतुम् ॥ १ | जोरोंसे बाणोंकी वर्षा प्रारम्भ कर दी। अन्धक भी उनको निवारित करते हुए इन्दके पास पहुँच गया। उसने अपने आजघान तलेनैर्भ कुम्भमध्ये पदा को।

हाथसे ऐरावत हाथीके सिर पर एवं अपने पैरसे सँडपर ज्ञानुना च समात्य विषाणं प्रबभञ्ज च ॥ १०

प्रहार कर और घुटनोंसे दाँतोंपर प्रहार कर उन्हें तोड़ वाममुष्ट्या तथा पार्थं समाहत्यान्धकस्चरन्।

डाला। फिर अन्धकने बाथ मुट्ठीसे ऐरावतकी कमरपर गजेन्द्रं पातयामास प्रहारैर्जर्जरीकृतम् ॥ ११ | शभ्रतापूर्वक चॉट मारकर उसे जर्जर कर गिरा दिया। इन्द्र गजेन्द्रात् पतमानाच्च अवप्लुत्य शतक्रतुः ।। | भी हाथीसे नीचे गिरे जा रहे थे। वे झटसे कूदकर एवं पाणिना चञ्जमादाय विवेशामरावतीम् ।। १३ | हाथमें वञ्च लेकर अमरावतीमें प्रविष्ट हो गये ॥ १-१३ ॥ परामुख्ने सहस्राक्षे तद् दैवतवरनं महत्।। | इन्दले उगले विमुख हों जानेपर अन्धकने इस विशाल पातयामास दैत्येन्द्रः पादमधिलादिभिः ।। १३ | देव-सेनाकों पैर, म एवं थप्पड़ों आदिसे मारकर गिरा ततो वैवस्वत दण्डं परिभ्राम्य द्विजोत्तम।। | दिया। नारदजी ! इसके बाद देवबंछ यमराज्ञ अपना दण्ड समभ्यधावत् प्रहाई हन्तुकामः सुरोत्तमः ।। १४ | घुमाते हुए महादको मारनेकी इच्छासे दौड़ पड़े। यमराजकों तमापतन्तं वाणौधैर्ववर्ष विनन्दनम्।। अपनी ओर आते देंख प्रादने भी अपने धनुषकों चढ़ाकर हिरण्यकशिपोः पुत्रश्चापमानम्य वेगवान् ॥ १५ फुर्तीसे बाण-समूहकी झड़ी लगा दो। यमराशने अपने तां बाणवृष्टिमनुल इण्डेनाहुत्य भास्करः।। दण्डके प्रहारसे उस अतुलनीय बाण-वृष्टिको व्यर्थ कर शातयित्वा चिक्षेप दाई लोकभयंकरम् ॥ १६ | लोकभयकारी पड़ चला दिया ॥ १३-१६ ॥ स वायुपश्चमास्थाय धर्मराजक स्थितः ।। धर्मराजके हाथमें स्थित वह दण्ड वामें ऊपर घूम ज्ञवाल कालाग्निनिभों यद् दग्धं जगत्त्रयम् ।। १७ | रहा था। वह ऐसा लगता था मानों तीनों लोकोंको | जलानेके लिये कालाग्नि पुग्वलित हो रहीं हों। इस | जान्न्य मानमायान्तं दुई घाइतेः सुताः । | प्रचलित पड़ों अपनी ओर आते देखकर वैत्यलॉग प्राक्रोशन्ति हुत; कष्टं प्रहादोऽयं यमेन हि ॥ १८ चिल्लाने लगे- हाय! हाय! यमराजने प्रहादको मार तमाक्नन्दितमाकण्यं हिरण्याक्षसुतोऽन्धकः।।

दिया। इस आक्रन्दनको सुनकर हिरण्याक्षके पुत्र अन्धकने कहा-इरों मत। मेरे रहते थे यमराज क्या प्रौवाच मा भैष्ट मयि स्थिते कोऽयं सुराधमः ॥ १९ |

वस्तु हैं। नारदजी ! ऎसा कहकर बह वेगसे दौड़ पड़ा इत्येवमुक्त्वा वचनं बेगेनाभिससार च। | और हँसते हुए उस दण्डको बायें हाथ पकड़ जग्राह पाणिना दण्डं हसन् सव्येन नारद ॥ २३० | लिया।। १५–२० ॥ तमादाय ततो वेगाद् भ्रामयामास चान्धकः।। फिर अन्धक उसे लेकर घुमाने लगा और साथ ज्ञगर्ज च महानादं यथा प्रविधि तयः ।। ३६ | हौं वर्षाकालिक मेघके तुल्य वह महानाद करते हुए गर्जन करने लगा। अन्धकके द्वारा यम-दण्डसे प्रादको | महादं रक्षितं दृष्ट्वा दण्डाद् दैत्येश्वरेण हिं।।

सुरक्षित देखकर दैत्य एवं दानवक सेनानायक प्रसन्न साधुवादं ददुद्दष्टा दैत्यदानवयूथपाः ।। ३२

होकर उसे धन्यवाद देने लगे। मुने! अपने मादण्डको भ्रामयन्तं महादण्डं दृष्ट्वा भानुसुतो मुने।

अन्धकद्वारा घुमाते देख सूर्यतनय अम देयक दुःसह इस इधर मत्वा अन्तर्धानमगाद् यमः ॥ ३३ | और इधर समझकर अन्तर्धान हो गये। महामुने! अन्तर्हिते धर्मराजे प्रहादोऽपि महामुने। | धर्मराजके अन्तर्हित होनेपर अय बली प्रहाद भी सभी दारयामास बलवान् देवसैन्यं समन्ततः ॥ २४ | औरतें देवसैनाको नष्ट करने लगे। ३१-२४ ॥

वरुणदेव सँसपर स्थित थे। ये प्रबल असुरोंकों वरुणः शिशुमारस्थों बद्ध्वा पाशैर्महासुरान्। | अपने पाशसे बँधकर गदाद्वारा विदीर्ण करने लगे। | गदया दारयामास तमभ्यगाद् विरॊचनः॥ २५ | इसपर विरोचनने उनका सामना किया। उसने वञ्जतुल्य

अध्याय १०]

* अन्धकके साथ देवताओंका युद्ध और अन्धकको विजय

तोमरैर्वज्रसंस्पर्शीः शक्तिभिर्मागणैरपि। | तोमर, शक्ति, बाण, मुद्गर और कृष्णपों’ (भल्ल)-से जलेश तायामास मुद्गरः कणपरपि ।। ३६ | वरुणदेयपर प्रहार किया। इसपर वरुणने उसके निकट

जाकर गदासे मारकर उन्हें पृथ्वीपर गिरा दिया। फिर ततस्तं गदयाभ्येत्य पातयित्वा धरातले।।

दौड़कर उन्होंने पाशसे उसके मतवाले हाथीको बाँध | अभिद्य बबन्धाश्च पाशैर्मत्तगजं बली ॥ २५५

लिया। पर अन्धकने तुरन्त ही उन पाशोंके सैकड़ों तान पाशशतधा च वेगाच्या दृनजेश्वरः। | इकड़े कर दिये। नारदजी ! इतना ही नहीं, उसने बरुणके वरुणं च समभ्येत्य मध्ये जग्राह नारद ॥ २८ | निकट जाकर उनकी कमर भी पकड़ ली ॥ २५–२८ ।। ततो दन्ती च शृङ्गाभ्यां प्रचिक्षेप तदाऽव्ययः। | उस हाथीने भी अपने प्रबल दाँतोंसे वरुणको ममर्द च तथा पद्भ्यां सचाई सलिलेश्वरम् ।। ३६ | उठाकर फेंक दिया। साधं हों वह वाहनसहित वरुणको तं मर्छमार्न वीक्ष्याश्च शशाङ्क शिशिरांशुमान्।

अपने पैरोंसे कुचलने लगा। यह देख शीतकिरण अभ्येत्य तायामास मार्गणैः कायदाणैः ॥ ३० | स तायमानः शिशिरांशुवा

चन्द्रमाने हाथोके पास पहुँचकर अपने तेज नुकीले रवाप पां परमां गजेन्द्रः ।। बाणोंसे उसके शरीरको विदीर्ण कर दिया। चन्द्रमाके दुष्टश्च वेगात् पयसामधीशं

बाणसे विद्ध होनेपर अन्धकके हाथको अत्यधिक महर्मः पादतलैर्ममर्द ।। ३१

पीड़ा हुई। वह अपने पैरोंसे वरुणको तेजीसे बार-बार स मुद्यमानो वरुणो गजेन्द्र

‘पद्भ्यां सुगादं जगृहे महर्षे । | कुचलने लगा। नारदजी ! वरुणदेवने भी हाथोके दोनों | पादेषु भूमिं करयोः स्पृशंञ्च पैरोंको दृढ़तापूर्वक पकड़ लिया एवं अपने हाथों तथा

मुनमल्लान्य बलान्महात्मा ॥ ३२ | पैरोंसे भूमिका स्पर्श करते हुए मस्तक उठाकर बलपूर्वक | गृङ्गलभिश्च गजस्य पुच्छे कृत्यैह बन्धं भुजगेश्वरेण।।

अङ्गलियोंसे उस हाथीकी पूँछ पकड़ ली और सर्पराज उत्पाट्य चिक्षेप विरोचनं हि वासुकिसे विरोचनकौं बाँधकर उसे हाथीं और पिलवानके

सकुञ्जरं खे सनियन्तृवाहम् ॥ ३३ | सहित उठाकर आकाशमें फेंक दिया।। २५-३३ ।। क्षिप्तो जलेशेन विरोचनस्तु चणद्वारा फेंका गया विरोचन आकाशसे हार्थीसहित सकुञ्जरों भूमितले. पपात।

पृथ्वीपर इस प्रकार आ गिरा, जैसे सूर्यद्वारा पहले साई सन्यत्रार्गलहर्च्यभूमि

पुरं सुकेशेरिव भास्करेण ॥ ३४ सुकेशों दैत्यका नगर अट्टालिकाओं, यन्त्रों, अर्गलाओं । ततो जलेश; सगदः, सपाशः एवं महलके सहित पृथ्वीपर गिराया गया था। इसके समभ्यधावद् दितिनं निहन्तुम् ।

बाद वरुण गदा और पाश लेकर दैत्यको मारने के लिये ततः | समाक्रन्दमनुत्तमं हि मुक्तं तु दैत्यैर्घनरावतुल्यम् ॥ ३५ | दौड़े। अब दैत्यलॉग मेष-गर्जन-जैसे जोर-जोर से रोने हा हा हतोऽसौ वरुणेन वीरों लगे-हाय ! हाय ! राक्षस-सैनाकै रक्षक वीर विरोचन विरोचनो दानवसैन्यपालः ।

हे महाद वरुणद्वारा मारे जा रहे हैं। है प्रह्लाद ! हे जम्भ! हैं ज्ञम्भकुम्भकाद्या रक्षध्वमभ्येत्य सहान्धकेन ॥ ३६ | कुम्भ! तुम सभी अन्धककै साथ आकर (उन्हें ) अों महात्मा बालनाञ्जनेशः | बचाओं। हाय! बलवान् वरुण दैत्यवीर विरोचनकों संचूयन् दैत्यभर्ट सवाम् ।। पाशेन बदथ्वा गदया निहन्ति वाहनसहित चूर्ण करते हुए उन्हें पाशमें बाँधकर गदारों यथा पशु ब्राजिमख्ने महेन्द्रः ।। ३७ | इस प्रकार मार रहे हैं, जैसे अश्वमेध यज्ञमें इन्द्र पशुको -कम आम्का वर्णन महाभारत का इनकमारचरितमें आया है।

वामनपुराण

श्रुत्वाथ शब्दं दितिजैः समीरितं मारते हैं। दैत्योंके रुदनको सुनकर जम्भ आदि प्रमुख जम्भप्रधाना दितिज्ञेश्चरास्ततः ।। समभ्यधार्बस्त्वरिता जलेश्वर

दैत्यगण वरुणको और शीघ्रतासे ऐसे दौड़े जैसे पतङ्ग यथा पतङ्गा ज्वलित हुताशनम्॥ ३८ | प्रचलित अग्निकी ओर दौड़ते हैं ॥ ३४-३८ ॥ तानागतान् वै असमीक्ष्य देवः । उन दैत्योंको आश देख वरुण ब्रह्माद-पुत्र प्रहादिमुत्सृज्य वित्तत्य पाशम्। | (विरोचन) को छोड़ करके पाश फैलाकर और गदा | गदां समुभ्राम्य जलेश्वरस्तु दुद्भाव ताञ्जम्भमुखानरानन्॥ ३१

घुमाकर उन जम्भप्रभृति शत्रुओंकी ओर दौड़े। उन्होंने | जम्भे च पार्शन तथा निहत्य । म्भको पाशसे, तार-दैत्यको वज़-तुल्य करालके | तारे तनैनाशनसंनिभेन। । प्रहारसे, वृत्रासुरको पैरोंसे, कुजम्भको अपने वैगसे पादेन वृत्रं तरसा कुम्भं । और बल नामक असुरको मुक्केसे मारकर गिरा दिया। निपातयामास बलं च मया ॥ ४॥ तेनार्दिता देववरण दैत्याः

देवप्नवर! वरुणद्वारा मर्दित दैत्य अपने अस्त्र-शस्त्रों को संप्राद्रवन् दिक्षु विमुक्तशस्त्राः। छोड़कर दसों दिशाओं में भागने लगे। उसके बाद ततोऽन्धकः स त्वरितोऽभ्युपेयाद् अन्धक वरुणदेवके साथ युद्ध करनेके लिये बड़ी रणाय योद्धं जलनायकेन। ४६ |

 तेजीसे इनके पास पहुँचा। अपनी ओर आते देख | तमापतन्तं गदया ज्ञघान

पाशैन बद्ध्वा वरुणों सुरेशम्। वरुणने उस दैत्यनायक अन्धकको अपने पाशसे तं पाशमाविध्य गदां प्रगृह्य बाँधकर गद्दासे मारा, किंतु दैत्यने उस पाश और चिक्षेप दैत्यः स जलेश्वराय ।। ४३ | गदाको छीनकर वरुणपर ही फेंक दिया ॥ ३९—४२ ॥ | तमापतन्तं प्रसमीक्ष्य पाशं ।

उस पाश और गदाको अपनी ओर आते गदां च दाक्षायणिनन्दनस्तु । | बिवेश वेगात् पयसां निधानं देखकर दाक्षायणौके पुत्र वरुण शीघ्रतासे समुद्र में पैठ ततोऽन्धको देवबलं मम ॥ ४३ गये। तत्र अन्धक देवसेनाका मर्दन करने लगा। उसके ततो हुताशः सुरशत्रुसैन्यं | बाद पवनद्वारा प्रचलित अग्निदेव क्रोधपूर्वक असुरोंकी ददाह रोषात् पवनावधूतः।

सेनाको दग्ध करने लगे। तब दानवका ‘विश्वकर्मा तमभ्ययाद् दानवविश्वकर्मा

मयों महाबाहुरुग्रवीर्यः ॥ ४॥

(शिल्पज्ञ) प्रचण्ड प्रतापी महाबाहु मय उनके तमापतन्तं सह शम्बरेण सामने आया। नारदजीं! शम्बरके साथ उसे आते

समीक्ष्य वह्निः पवनेन सार्धम्। | देख अग्निदेवने वायुदेवताके साथ शक्तिकै प्रहार शक्त्या मयं शम्बरमैत्य कपड़े मय और शम्बके कण्ठमें चोट पहुँचाकर उन दोनों को सन्ताङ्य ज्ञग्नाह बलान्महर्षे ॥ ४५ शक्त्यास कायावर विदारिते

ही जोरसे पकड़ लिया। शतिसे कवचके फट जानेपर संभिन्नदेही न्यपतत् पृथिव्याम्।

छिन्न-भिन्न शरीरबाला मय पृथ्वीपर गिर पड़ा और मयः प्रज़न्चाल च शम्बरोपि शम्बरासुर कण्ठ प्रदीप्त अग्निके लग जानेसे दुग्ध काठावलग्ने चलने प्रदीप्ते ।। ४६ होने लगा। अग्निद्वारा जलते दैत्यनें इस समय मुक्त सदह्यमानों दितिज्ञोऽग्निनाथ सुविस्वरं घोरतरं कराव।

 

|| कण्ठसे इस प्रकार रोदन किया, जैसे वनमें सिंहसे सिंहाभिपन्न विपिने यथैव आक्रान्त मतवाला हाथ वेदनासे दुःख होकर करुण मतो गज्ञः क्रन्दति वेदनार्त्तः ॥ ४७ | चिग्घाड़ करता हैं ॥ ४३-४७ ||

अध्याय ]

+ अन्धकके साथ दैवताओंका बुद्ध और अन्धककी विजय

तं शब्दमाकण्यं च शम्बरस्य शम्बरके उस शब्दको सुनकर क्रोधसे लाल दैत्येश्वरः क्रोधविरक्तदृष्टि: ।।

नेत्रोंवाले दैत्येश्वरने कहा-अरे! यह क्या हैं? युद्धमें आः किं किमतन्ननु केन युद्धे

जित मयः शम्बरदानश्च ।। ४८ | मय और शम्बरको किसने जीता है? इसपर ततोऽनुवन् दैत्यभटा दितीशं दैत्ययोद्धाओंने अन्धकसे कहा-अग्निदेव इनको जला

* प्रदह्यते ह्येष हुताशनेन।।

रहे हैं। आप जाकर उनकी रक्षा करें। आपके रक्षस्व चाभ्येत्य न शक्यतेऽन्यै

हुताशनों वारयितुं रणाग्ने ॥ ४१ अतिरिक्त दूसरा कोई भी अग्निकों नीं रोक सकता। इत्थं स दैत्यैरभिनौदितस्तु । नारदजी! दैत्यकै ऐसा कहनेपर हिरण्याक्षपुत्र शीघ्रतासे ।

पियन्नक्षस्तनयो मधे । परिघ उठाकर ‘ठहरो-ठहरों’–कहता हुआ अग्निकी य वेगात् परिच्च हुत्ता समाह्नवत् ति तिष्ठ ब्रुवन् हि ॥ ५ ओर दौड़ पड़ा। अन्धकके वचनको सुनकर श्रुत्वाऽन्धकस्यापि वचो व्ययात्मा

अव्ययात्मा अग्निदेवने अत्यन्त क्रोधसे उस दैत्यको संक्रुद्धचित्तस्त्वरितों हि दैत्यम्। शीघ्र ही उठाकर पृथ्वीपर पटक दिया। उसके बाद उत्पाद्म भूम्यां च चिनिष्पपेय ततोऽन्धकः पावकमाससाद ।। ५१ अन्धक अग्निके पास पहुंचा ॥ ४-५६ ॥ समाजघानाथ हुताशनं हि उसने श्रेष्ठ अस्त्र द्वारा अग्निके सिरपार प्रहार चरायुधेनाथ वराङ्कमध्ये। समाहतोऽग्निः परिमुच्य शम्बर किया। इस प्रकार आहूत अग्निदेव शम्बरको छोड़कर तथाऽन्धकं स त्वरितोऽभ्यधावत् ॥ ५२ | | तत्काल अन्धककी और दौड़े। अन्धकने आते हुए तमापतन्तं परिघेण भूयः

अग्निदेवके सिरपर पुनः परिचसे प्रहार किया। समाह्नन्मृध्नि जान्धकोऽपि। ताडितोऽग्निर्दितिज्ञेश्वरेण अन्धकद्वारा ताडित अग्निदेव भयभीत हो उष्णक्षेत्रसे भयात् प्रदुद्राव रणाज्ञिराद्धि ॥ ५३ भाग गये। उसके बाद पराक्रमी अन्धक वायु, चन्द्र, ततोऽन्धको मारुतचन्द्रभास्करन् सूर्य, साध्य, रुद्र, अश्विनीकुमार, वसु और महानागों में साध्यान्सकद्भाश्वबसून महोरगान्।। यान् या शरेण स्पृशते पराक्रमी जिन-जिनको बाणसे स्पर्श करता था, वे सभी । पराङ्मुखांस्तान् कृतवान् गाज्ञिरात्॥५४ | युद्धभूमिसे पराङ्मुख हो जाते थे। इस प्रकार इन्द्र, ततो विजित्यामरसैन्यमुग्ने रद्ध, यम, सौमसहित देवताओंकी उम्र सेनाको जीतकर | सैन्द्रं सरुद्रं सयमं ससोमम्। संपून्यमानौ दनुपुंगवैस्तु । अन्धक श्रेष्ठ दानवोंके द्वारा पूजित होकर पृथ्वीपर तदान्धको भूमिमपाजगाम ।। ५५ आ गया। वहाँ वह बुद्धिमान् दैत्य सभी राजाओंको | आसाद्य भूमिं करदान् नरेन्द्रान् अपना करद (सामन्त) बना करके तथा समस्त | कृत्वा चशे स्थाप्य चराचर च। जगत्समग्रं प्रविवेश धीमान् चराचर जगत्को वशमें कर पातालमें स्थित अपने पातालमग्यं पुरमझमकाम् ॥ ५६ | अश्मक नामक उत्तम नगरमें चला गया। वहाँ उस |तन्न । स्थितस्यापि महासरस्य महासुर अन्धककी सेवा करनेके लिये अप्सराओंके गन्धर्वविद्याधरसिद्धसंचा: | सहाप्सरोभिः

परिचाणाय साथ सभी प्रमुख गन्धर्व, विद्याधर एवं सिद्धोंके समूह पातालमभ्येत्य समावसन्त ॥ ५७ | पातालमें आकर निवास करने लगे ।। ५२-५७ ॥

 

* इस प्रकार वामनपुराणमें दसवाँ अध्याय समाप्त हुआ हैं |

 

श्रीवामनपुराण

 

ग्यारहवाँ अध्याय

सुशिको कथा, मगधारण्यमें ऋषियोंसे प्रश्न करना, ऋषियोंका धर्मोपदेश,

देवादिके धर्म, भुवनकोश एवं इक्कीस नरकका वर्णन नाद अब नारदजीने ( पुलस्त्यजीसे) पूछा- आपने जो | यदेतद् भवता प्रोक्तं सुकेशिनगरोऽम्बरात्। । | यह कहा है कि सूर्यने सुकेशीके नगरको आकाश | पातितो भुवि सूर्येण तत्कदा कुत्र कुन च ॥ ६ | पृथ्वीपर गिरा दिया था तों यह घटना कब और कहाँ हुई

थी ? मुकेश नामका वह कौन व्यक्ति था उसे वह नगर सुकेशति च कश्चासौ केन दत्तः पुरोऽस्य च। | किसने दिया था और भगवान् सूर्यने उसे आकाशसे किमर्थं पातितो भूम्यामाकाशाद् भास्करण हि।। १ | पृथ्वीपर क्यों गिरा दिया ? ।। १-२ ।।

पुलस्त्यजी बोले-निष्पाप नारदजीं! यह कथा शृणुष्वावहितो भूत्वा कथामेतां पुरातनीम्। | बहुत पुरानी है; आप इसे सावधानीसे सुनिये। ब्रह्माजीने | यथोक्तवान् स्वयम्भूर्मा कथ्यमानां मयानघ॥ ३ | जैसे यह कथा मुझे सुनायीं थीं, वैसे ही इसे मैं आपको आसीन्निशाचरपतिर्विद्युत्केशीति विश्रुतः। | सुना रहा हैं। पहले विद्युत्केशी नामसे प्रसिद्ध राक्षसोंका तस्य पुत्रों गुणज्येष्ठः सुकेशिरभवत्ततः ॥ ४ | एक राजा था। उसका पुत्र सुकेशों गुणोंमें उससे भी तस्य नास्तधेशानः परमाकाशचारिणम्। | बढ़कर था। उसपर प्रसन्न होकर शिवशीनं उसे एक प्रादादजेयत्वमपि शत्रुभिश्चाप्यवध्यताम्॥ ५ आकाशचारी नगर और शत्रुओंसें अज्ञेय एवं अवश्य स चापि शंकरात् प्राप्य वरं गगनगं पुरम्।। होनेका वर भी दिया। वह शंकरसे आकाशचारी श्रेष्ठ में निशाचरैः सार्द्ध सदा धर्मपथि स्थितः ।। ६ नगर पाकर राक्षसोंके साथ सदा धर्मपञ्चपर रहते हुए

विचरने लगा। एक समय मगधारण्यमैं जाकर उस स कदाचिद् गतोऽरण्यं मागधं राक्षसेञ्चरः।। राक्षसरावाने वहाँ ध्यान-परायण ऋषियोंके आश्रमको तत्राश्नमस्तु ददृशे ऋषीणां भावितात्मनाम्॥ |

देखा। उस समय महर्षियोंको देखकर आँभवादन और महर्षीन् स तदा दृष्ट्वा प्रणिपत्याभिवाद्य च। | प्रणाम किया। फिर एक जगह बैंठकर उसने समस्त प्रत्युवाच ऋषींन् सर्वान् कृतासनपरिग्रहः ॥ | ऋषियोंसे कहा- || ३-८॥

मुशियाच ।

सकशि बोला- मैं आप लोगोंको आदेश नहीं प्रष्टुमिच्छामि भवतः संशयोऽयं हृदि स्थितः। | दे रहा है। बल्कि मेरे हृदयमें एक संदेह हैं, उसे मैं कथयन्तु भवन्तो में न चैवाज्ञापयाम्यहम् ॥ १ | आपसे पूछना चाहता हूँ। आप मुझको उसे बतलाइये।

द्विजोत्तम ! इस लोक और परलोकमें कल्याणकारी क्या किंस्विच्छेयः परे लोके किमु चेह द्विजोत्तमाः ।। हैं? मनुष्य सज्जनोंमें कैसे पूण्य होता है और उसे केन पून्यस्तथा सत्सु केनासौ सुखमेधते ॥ १० | सुतकी प्राप्ति कैसे होती हैं? ॥ १-१ ||

पुलस्त्यज़ी बोले- सुशांके इस प्रकारके वचनकों इत्थं सुकेशिवचनं निशम्य परमर्षयः । । | सुनकर श्रेष्ठ ऋषियोंने विचारकर उससे इस लॉक और चुर्विमृश्य श्रेयोऽथमिह लोके परत्र च ।। १६ | परनोंक कल्याणकारी बातें कहीं ॥ ११ ॥

ऋषिगण बोले- वीर राक्षस-श्रेष्ठ! इस लोक श्रूयतां कथयिष्यामस्तव राक्षसपुंगव। और परलोकमैं जो अक्षय श्रेयस्कर वस्तु हैं, उसे हम तुमसे यद्धि श्लेयो भवेद् वीर इह चामुत्र चाव्ययम् ॥ १२ | कहते हैं, उसे सुनौ । निशाचर ! इस लोक और परलोकमें अध्याय १ १ ] + सकशिकी कथा, ऋषियोंका धर्मोपदेश, देवादिकै धर्म एवं इक्कीस नरकका वर्णन के श्रेय धर्मः परे लोके इह च क्षणदाचर। | धर्म हो कल्याणकारी है। इसमें स्थित रहकर व्यक्त तस्मिन् समाश्रितः सत्सु पून्यस्तेन सुखी भवेत् ॥ १३ सज्जनोंमें आदरणीय एवं सुखी होता है॥ १२-१३॥

सुकेशियान्न सुकेशि बोला- धर्मका लक्षण (परिचय) क्या किं लक्षण भवेद् धर्म; किमाचरणसक्रियः ।।

हैं। इसमें कौन-से आचरण एवं सत्कर्म होते हैं, यमाश्रित्य न सीदन्ति देवाद्यास्तु तदुच्यताम् ॥ १४

जिनका आश्रय लेकर देवादि कभी दुःखी नहीं होते। आप उसका वर्णन म ॥ १४ ॥

ऋषियोंने कहा- सदा यज्ञादि कार्य, स्वाध्याय, देवानां परमो धर्मः सदा यज्ञादिकाः क्रियाः।

वेदज्ञान और विष्णुपुजामें राति -ये देवताओंके शाश्वत | स्वाध्यायवदवतृत्त्वं विष्णुपूजारतिः स्मृता ।। १५ | परम धर्म हैं। बाहुबल, ईन्भाया, युद्धकार्य, नीतिशास्त्रका | दैत्यानां बाहुशालित्वं मात्सर्य युद्धसन्क्रिया। ज्ञान और हर-भक्ति-यै दैत्यक धर्म कहे गये हैं। श्रेष्ठ वेदनं नीतिशास्त्राणां हरभक्तिरुदाहृता ।। १६ | योगसाधन, वेदाध्ययन, ब्रह्मविज्ञान तथा विष्णु और सिद्धानामुदितों धर्मो योगयुक्तिनुत्तमा। | शिव-इन दोनोंमें अचल भक्ति-ये सब सिझोंके धर्म स्वाध्यायं ब्रह्मविज्ञानं भक्तिभ्यामपि स्थिरा।। १७ | कहे गये हैं। ऊँची उपासना, नृत्य और वाद्यका ज्ञान तथा उत्कृष्टोपासनं ज्ञेयं नृत्यवाद्येषु वेदिता। | सरस्वतीके प्रति निश्चल भक्ति -ये गन्धर्वोकै धर्म कहे सरस्वत्यां स्थिरा भक्तिगन्धर्वो धर्म उच्यते ॥ १८ | जाते हैं ॥ १५–१८ ॥ विद्याधरत्वमतुलं विज्ञानं पौरुषे मतिः। | अद्भुत विद्याका धारण करना, विज्ञान, पुरुषार्थकों विद्याधराणां धर्मोऽयं भवान्यां भक्तिरेव च ॥ ११ | बुद्धि और भवानीके प्रति भक्ति -ये विद्याधक धर्म गन्धर्वविद्मादित्वं भक्तिभनौ तथा स्थिरा। |हैं। गन्धर्वविद्याका ज्ञान, सूर्यके प्रति अटल भक्ति और कौशल्यं सर्वशिल्यानां धर्मः किम्पुरुषः स्मृतः ॥ २० सभी शिल्प-कलाओंमें कुशलता -ये किम्पुरुषोंके धर्म ब्रह्मचर्यममानिचं योगाभ्यासतिर्दछा। | माने जाते हैं। ब्रह्मचर्य, अमानित्व (अभिमानसे बचना) सर्वत्र कामचारित्वं धर्मोऽयं पैतृकः स्मृतः ।। २१ | योगाभ्यासमें दृढ़ प्रीति एवं सर्वत्र इच्छानुसार भ्रमश– ब्रह्मचर्यं यताशित्वं जयं ज्ञानं च राक्षस।। मैं पितरोंके धर्म कहलाते हैं। राक्षस! ब्रह्मचर्य, नियताहार, नियमाद्धर्मवेदित्वमार्यों धर्मः प्रचक्ष्यते ॥ २२ | जप, आत्मज्ञान और नियमानुसार धर्मज्ञानये ऋषियोंके स्वाध्यायं ब्रह्मचर्य च दानं यजनमेव च।। धर्म कहे जाने हैं। स्वायाय, ब्रह्मचर्य, दान, यज्ञ अकार्पण्यमनायासं दया हिंसा क्षमा दमः ॥ २३ | उद्दारता, विश्रान्ति, दया, अहिंसा, क्षमा, दम, जितेन्द्रियता, जितेन्द्रियत्वं शौचं च माङ्गल्यं भक्तिरच्युते ।। | शौच, माङ्गल्य तथा विष्णु, शिव, सूर्य और दुर्गादेवीमें शंकर भास्करे देख्यां धर्मोऽयं मानवः स्मृतः ॥ २४ | भक्ति-ये मानवोंके (सामान्य) धर्म हैं ॥ १५–२४ ॥ धनाधिपत्यं भौगानि स्वाध्यायं शंकरार्चनम्।। धनका स्वामित्व, भोग, स्वाध्याय, शिवको अहंकारमशौपड़ीयं धर्मोऽयं गुह्यकेष्विति ।। २५ | पूना, अहंकार और सौम्यता-ये गुकै धर्म हैं। परदारासमर्शित्वं पारक्येऽर्थे च लोलता। | परस्त्रीगमन, दूसरे के धनमें लोलुपता, वेदाध्ययन और स्वाध्यायं त्र्यम्बके भक्तिर्धर्मोऽयं राक्षसः स्मृतः ॥ २६ | शिवभक्ति -ये राक्षसों के धर्म कहे गये हैं। अविवेक, अविवेकमधाज्ञानं शौचहानिरसत्यता। । अज्ञान, अपवित्रता, असत्यता एवं सदा मांस-भक्षणको पिशाचानामयं धर्मः सदा चामिघगृध्नुता ॥ ३६ | प्रवृत्ति -ये पिशाचोंके धर्म हैं। राक्षस! ये ही बारह यौनयों द्वादशैवैतास्तासु धर्माश्च राक्षस। | यौनियाँ हैं। पितामह ब्रह्मानें उनके ये बारह गति देनेवाले ब्रह्मणा कथिताः पुण्या द्वादशैव गनिप्रदाः ॥ ३८ | धर्म कहें हैं॥ २५-३८ ॥

 

आवामनपुराण

[अध्याय ६१

सुर्केफिरुवाच

सुकेशिने कहा- आप लोंगोंने जो शाश्वत एवं | भवद्भिरुक्ता ये धर्माः शाश्वता द्वादशाव्ययाः ।। अव्यय बारह धर्म बताये हैं, उनमें मनुष्योंके धर्मोको

तत्र में मानवा धर्मास्तान् भूयों बक्तुमर्हथ ।। २९ | एक बार पुनः कहनेकी कृपा करें ॥ २९ ॥

 

ऋषियोंने कहा- निशाचर ! पृथ्वौके सात द्वीपोंमें | शृणुष्व मनुजादीनां धर्मोऽस्तु क्षणदाचर। | निवास करनेवाले मनुष्य आदिके धर्मोको सुनो। यह ये वसन्ति महीपृष्ठे नरा द्वीपेषु सप्तसु ॥ ३६

पृथ्वी पचास करोड़ योजन विस्तारवाली है और यह योजनानां प्रमाणेन पञ्चाशत्कोटिरायता। ज़लोपरि महीयं हि नौरिचास्ते सरिजले ।। ३१

नदीमें नाबके समान पर स्थित हैं। सानछ ! तस्योपरि च देवेशो ब्रह्मा शैलेन्द्रमुत्तमम्।।

इसके ऊपर देवेश अझाने कणिकाके आकारवाले अत्यन्त कणिकाकारमत्युच्चं स्थापयामास सत्तम ॥ ३३

ऊँचे सुमेरुगिरिको स्थापित किया हैं। फिर उसपर ब्रह्माने तस्येमां निर्ममे पुण्य प्रज्ञां देवश्चतुर्दिशम्।। चारों दिशाओंमें पवित्र प्रशाका निर्माण किया और द्वीप स्थानानि द्वीपसंज्ञानि कृतवांश्च प्रजापतिः ॥ ३३|नामवाले अनेक स्थानोंकी भी रचना की है ॥ ३०-३३॥ तत्र मध्ये च कृतवाञ्जम्बूद्वीपमिति श्रुतम्। | उनके मध्यमें उन्होंने जम्बूद्वीपकी रचना की। तल्लक्षं योजनानां च प्रमाणेन निगद्यते ॥ ३४ ॥  इसका प्रमाण एक लक्ष योजनका कहा जाता है। उसके ततो जलनिधीं आँदो बाह्यतों द्विगुणः स्थितः ।। बाहर दुगुना परिमाणमें लवण-समुद्घ हैं तथा उसके बाद तस्यापि द्विगुण: एनक्षों बाह्यतः संप्रतिष्ठितः ।। ३५ उसका दुगुना प्लक्षद्वीप है। उसके बाहर दुगुने प्रमाणवाला ततस्विक्षुरसोदश्च बाह्यतो बलयाकृतिःबलयाकार इक्षुरस-सागर है। इस महोदधिका दुगुना द्विगुणः शाल्मलिद्वीपो द्विगुणोऽस्य महोदधेः ।। ३६ | शाल्मलिद्वीप हैं। उसके बाहर उससे दुगुना सुरासागर है। सुरोदो द्विगुणस्तस्य तस्माच्च द्विगुणः कुशः। | तथा उससे दुगुना कुशद्वीप है। कुशद्वीपसे दुगुना घृतसागर घृत्तोद द्विगुणश्चैव कुशद्वीपात् प्रकीर्तितः ॥ ३७ | हैं ॥ ३४-३७ ॥ घृतोदाद् द्विगुणः प्रोक्तः क्रौञ्चद्वीपो निशाचर। | निशाचर ! मृतसागरसे दुगुना क्रौंचद्वीप कहा गया ततोऽपि द्विगुणः प्रोक्तः समुद्रो दधिसंज्ञितः ॥ ३८ [ है तथा उससे दुगुना दधिसमुद्र है। दधिसागरसे दुगुना समुद्वाद् द्विगुणः शाकः शाकाद् दुग्धाब्धिरु नमः । शाकद्वीप है और शाकपसे दिगण उत्तम क्षीरसागर हैं। द्विगुणः संस्थितों यत्र शेषपर्यंङ्गो रिः ।।

| जिसमें शंघाख्यापर सोये श्रीहरि स्थित हैं। ये सभी एते च द्विगुणाः सर्वे परस्परमपि स्थिताः ॥ ३१ ॥ चत्वारिंशदिमा: कोट्यों लक्षाश्च नवतिः स्मृताः ।।

परस्पर एक-दूसरेसे द्विगुण प्रमाणमें स्थित हैं। राक्षसैन! योजनानां राक्षसेन्द्र पञ्च चातिसुविस्तृताः। | जम्बुद्वीपसे लेकर क्षीरसागरकै अन्ततकका विस्तार जम्बूदीपात् समारभ्य यावत्क्षीराव्धिरन्ततः ।। ४० | चालीस करोड़ नब्बे लाख पाँच योजन है ॥ ३८–४ ॥ तस्माच्च पुष्करद्वीपः स्वादूदस्तदनन्तरम्। । राक्षस! उसके बाद पुष्करद्वीप एवं तदनन्तर |कटियश्चतची नक्षाणां हिमाशच्च राक्षस ।। ४६ ॥  स्वाद का समहू हैं। मुरलीपका परमा चार पुष्करद्वीपमानोऽयं तावदेव तथोदधिः।

करोड़ बावन लाख योजन है। उसके चारों ओर उतने लक्षमण्डुकटाहेन समन्तादभिपरितम् ॥ ४२ | ही परिमाणको समुद्र है। उसके चारों और लाख

योजनका अण्डकाह हैं। इस प्रकार वे सातों द्वीप एवं द्विपास्त्विमें सप्त पृथग्धर्माः पृथक्रियाः।

भिन्न धर्मों और क्रियावाले हैं। निशाचर ! हुम उनका गदिष्यामस्तव वयं शृणुष्व त्वं निशाचर ।। ४३ ॥| वर्णन करते हैं। तुम उसे सुनो। चौर । लक्षसे शाकिराकके प्लक्षादिषु नरा वीर ये वसन्ति सनातनाः। | द्वीपों में जो सनातन (नित्य) पुरुष निवास करते हैं, शाकान्तेषु न तेष्वस्ति युगाबस्था कथंचन ।। ४४ | उनमें किसी प्रकारकी युग-व्यवस्था नहीं है।

अध्याय ११ ]

+ सुकेशिकी कथा, ऋषियोंको धर्मोपदेश, देवादिके धर्म एवं इक्कीस नरकका वर्णन

मोदन्तें दैववत्तेषां धर्मों दिव्य उदाहृतः। | महाबाहों ! वे देवताओंके समान सुखभोग करते हैं। कल्पान्ते प्रलयस्तेषां निगद्येत महाभुज ।। ४५ | उनका धर्म दिब्य कहा जाता है। कल्पकै अन्तमें उनका प्रएनयमाञ होना वर्णित हैं। पुष्करद्वौंप देखने में भयंकर हैं। ये जनाः पुष्करदीप ब्रसन्ने रौद्गदर्शने। | वहाँके निवासी पैशाच-धर्मों का पालन करते हैं। कर्मके पैशाचमाश्रिता धर्मे कर्मान्ते ते विनाशितः ॥ ४६ | अन्तमें उनका नाश होता है। ‘४१-४६ ॥

सुकेशिने कहा- आप लोगोंने पुष्कद्वीपको भयंकर, किमर्थं पुष्करद्वीपों भवद्भिः समुदाहृतः ।। | पवित्रता-ङ्गिा, घर एवं कर्मक अन्तमें नाश करनेवाला दुर्दर्शः शौचरहितों घोरः कर्मान्तनाशकृत् ॥ ४७ क्यों बतलाया ? कृपाकर यह बात हमें समझायें ॥ ४ ॥ षय ऊचुः ।

पियोंने कहा- निशाचर ! इस द्वीपमें और तस्मिन् निशाचर द्वीप नरकाः सन्ति दारुणाः।  आदि भयानक नरक हैं। इससे पुष्कद्वीप देखने में बड़ा गैरवाद्यास्ततो रौंहः पुष्करों घोरदर्शनः ।। ४८ | भयंकर हैं ॥ ४ ॥

मुफशिरुवाछ।

सुकेशिने पूछा- तपस्विगण ! वे रौद् नरक कियन्त्यैतानि रौद्राणि नरकाणि तपोधनाः। | कितने हैं? उनका मार्ग कितना है? उनका स्वरूप कियन्मात्राणि मार्गेण का च तेषु स्वरूपता ।। ४९ | कैसा है ? ॥ ४ ॥

ऋषियोंने कहा- राक्षसअँड ! इन समस्त शैरव शृणुष्व राक्षसश्रेष्ठ प्रमाणं लक्षणं तश्चा।। आदि नरकको लक्षण और प्रमाण सुनों, झिन (मुख्य सर्वेषां गैरवादीनां संख्या या त्वेकविंशतिः ।। ५० नरक) की संख्या इक्कीस हैं। उनमें प्रथम रौरव नरक हे सहने योजनानां चलिताङ्गारविस्तृते। कहा जाता है। वह दो हजार जना विस्तृत एवं प्रचलित रौरवों नाम नरकः प्रथमः परिकीर्तितः ॥ ५१ | अङ्गारमय है। उससे द्विगुणित महारौरव नामक द्वितीय तप्ततामयी भूमिरधस्ताद्वह्नितापिता। | नरक हैं। उसकी भूमि जलते हुए ताँबेसे बनी है, जो द्वितीय द्विगुणस्तस्मान्महारौरव उच्यते ।। ५२ | नीचेसे अग्निद्वारा तापित होती रहती हैं। उससे द्विगुणित ततोऽपि द्विःस्थितश्चान्यस्तामिस्त्रो नरकः स्मृतः। | विस्तृत तीसरा तामिल नामक नरक कहा जाता हैं। उससे अन्धतामित्रको नाम चतुर्थो द्विगुणः परः ।। ५३ | द्विगुणित अन्धतामिल नामक चतुर्थ नरक है। उसके बाद ततस्तु कालचक्रेति पञ्चमः परिगीयते। | पञ्चम नरकको कालचक्र कहते हैं। अप्नतिष्ठ नामक नरक अप्रतिष्ठं च नरकं घटीयन्त्रं च सप्तमम्॥ ५४ | षष्ठ और घटीयन्त्र सप्तम है ॥ ५–५४ ॥ असिपत्रवनं चान्यत्सहस्राणि द्विसप्ततिः। । नरकोंमें श्रेष्ठ असिपत्रवन नामक आठ नरक योजनानां परिस्ट्यातमष्टमं नरोत्तमम् ॥ ५५ | बहत्तर हजार योजन विस्तृत कहा जाता हैं। नयाँ तप्तम्भ, नवमं तप्तकुम्भं च दशमं कूटशाल्मलिः । । करपन्नस्तथैचोंक्तस्तथाऽन्यः श्वानाभञ्जनः ॥ ५६॥  

दसवाँ कूटशाल्मल, ग्यारहवाँ करपत्र और बारहवाँ नरक संदंश लौंडपिपड काभसिकता तथा | श्वानभोजन हैं। उसके बाद क्रमशः संदंश, लोहपिण्ड, घोरा झारनदीं चान्या तथान्यः कृमिभोजनः।। करम्भसिकता, भयंकर क्षार नदी, कृमिभोजन और तथाऽष्टादशमी प्रोक्ता घोरा वैतरणी नदी ॥ ५७ | आहारको चौर नैनी नहीं कहा जाता है। उनके | तथा परः शोणितपुयभोजनः क्षुराग्नधारो निशितश्च चक्रकः ।

अतिरिक्त शोणित-पूयभोजन, चुराग्नधार, निशितचक्रक संशोषणों नाम तश्चाप्यनन्तः | तथा संशोषण नामक अन्तरहित नरक हैं। सुकेशिन् ! हम प्रोक्तास्तवैते नरकाः सुकेशिन् ॥ ५८ | लोगोंने तुमसे इन नरकका वर्णन कर दिया ॥ ५५-५८ ॥

इस प्रका श्रीवामनपुराणमें ग्यारहवाँ अध्याय समाप्त हुआ ११

बारहवाँ अध्याय

सुकेशिका नरक देनेवाले कर्मोके सम्बन्धमें प्रश्न, ऋषियोंका उत्तर और नरकका वर्णन मुफशियाच । सुकेशिने पूछा- हे ब्राह्मणश्रेष्ठ ! इन नरकॉमें लोग कर्मणा नरकानेतान् केन गच्छन्ति वै कथम्। | किस कर्मसे और कैसे जाते हैं, यह आप लोग बतलायें। एतद् वदन्तु विप्रेन्द्राः परं कौतूहलं मम ॥ १ इस विषयको जाननेकों मेरी बड़ी उत्सुकता है॥ १ ॥

अषय ऊमुः

ऋषिजन बौले- सुकेशिन् ! मनुष्य अपने जिन कर्मणा येन येनेह यान्ति शालकटंकट। जिन कर्मोके फल भोग करनेके लिये इन नरक में जाते स्वकर्मफलभोगार्थ नरकान् में शृणुष्व तान्॥ २ | हैं, उन्हें हमसे सुनो। जिन लोगोंने वेद, देवता एवं वेददेवद्विजातीनां मैंर्निन्दा सततं कृता।

द्विजातियोंकी सदा निन्दा की हैं, जो पुराण एवं || इतिहासके अर्थोंमें आदबुद्धि या श्रद्धा नहीं रखते और ये पुराणेतिहासार्थान् नाभिनन्दन्ति पापिनः ।। ३

जो गुरुको निन्दा करते हैं तथा यज्ञोंमें विघ्न डालते गुरुनिन्दाकरा में च मखविघ्नकराश्च ये। । | हैं, जो दाताको दान देने से रोकते हैं, वे सभी उन दानुर्निवारका ये च तेषु ते निपतन्ति हि ।। ४ |(वणित हो रहे) नरकोंमें गिरते हैं। जो अधम व्यक्ति मित्र, स्त्री-पुरुष, सहोदर भाई, स्वामी-सेवक, पिता-पुत्र सुहृद्दम्पतिसौंदर्यस्वामिभृत्यपितासुतान् । ।

एवं आचार्य तथा यजमानोंमें परस्पर झगड़ा लगाते हैं। याज्योपाध्याययोर्यैश्च कृता भेदोऽधमैमिथः ॥ ५

तथा जो अधम व्यक्ति एकक कन्या देकर पुनः दूसरेको कन्यामेकस्य दत्वा च ददत्यन्यस्य येऽधमाः। | दें देते हैं, वे सभी यमदूतद्वारा नरकोंमें आरासे दो करपत्रेण पाट्यन्तें तें द्विधा यमकिंकरैः ॥ ६ | भागों में चीरें जाते हैं ॥ ३-६ ॥ परोपतापजनकाश्चन्दनोशीरहारिणः । । (इसी प्रकार) जो दूसरौंको संताप देते, चन्दन बालव्यजनहत्तरः करम्भसिकताश्रिताः ।। ७ | और खसकी चोरी करते और बालोंसे बने घ्यजन चैंबरोंको चुराते हैं, वें कर सकता नामक नरकमें जाते निमन्त्रितोऽन्यतो भुक्ने आद्धे दैवे सपैतृके।। हैं। ज्ञों देव या पितृश्राद्धमें निमन्त्रत होकर अन्यत्र स द्विधा कृष्यते मूढस्तीक्ष्णतुण्डै: खगोत्तमैः ॥ ८ | भोजन करता है, उस मूर्खको नरकमें तीक्ष्ण चोंचवाले

बड़े-बड़े नरकपक्षों पकड़कर दोनों ओर खींचते हैं। जो मर्माणि यस्तु साधूनां तुदन् वाग्मिर्निकृन्तति।। तीखें वचनोंके द्वारा चोंट करते हुए साधुओंके हृदयको तस्योपरि तुदन्तस्तु तुपस्तिष्ठन्ति पतत्रिणः ।। १ | दुखाता है, उसके ऊपर भयंकर पक्षी अपने चचसे

कठोर प्रहार करते हैं। ज्ञों दुष्टबुद्धि मनुष्य साधुओंकी यः करोति च पैशुन्य साधूनामन्यथामतिः।। चुगली-निन्दा करता है, उसकी जीभको वङ्गतुल्य चोंच वज्रनुपड़नखा जिह्वामाकर्षन्तेऽस्य वायसाः ।। १० | और नखवाले कौए खच लेते हैं। –१ ॥

जो उद्धत लड़के अपने माता-पिता एवं गुरुकी आज्ञाका मातापितृगुरूणां च येऽवज्ञां चक्रुरुद्धताः। उल्लङ्घन करते हैं, वे पाँव, विष्ठा एवं मूत्रसे पूर्ण प्रतिष्ठ मज्जन्ते पूयविमूत्रे त्वप्रतिष्ठे ह्यधोमुखाः ।। ११ | नामक नरकमें नौचैकीं और मुँह कर डुबाये जाते हैं।

{-शालकटंकट महाभारत ७॥ १० ॥ ३३-३१ में अलम्बुषका तथा यहाँ सुकैशका नामान्तर है। सुकेशि और सुकेशी भी चलते हैं।

अध्याय १२]

* सुकेशिका नरक देनेवाले कर्मों के सम्बन्धमें प्रश्न, नरकका वर्णन के

देवतातिथिभूतेषु भृत्त्येष्वभ्यागतेषु च। जो देवता, अतिथि, अन्य प्राणी, सेवक, बाहर से आये व्यक्ति, अभुक्तवत्सु में श्नन्ति बालपित्रग्निमातृषु ॥ १३ | बालक, पिता, अग्नि एवं माताओंको बिना भोजन कराये दुष्टास्क्यूयनिर्यासं भुञ्जते त्वधमा इमे ।

पहले ही खा लेते हैं, वे अधम पुरुष पर्वततुल्य शरीर एवं चीसदृश मुखबाले होकर भूखसे व्याकुल रहते हुए दूषित सूचीमुखाश्च जायन्ते झुधार्ता गिरिविग्रहाः ॥ १३

उक्त एवं पयका सार भक्षण करते हैं। हे राक्षसराज ! एक एकपड्क्त्यु पविष्टानां विषमं भोजयन्ति ये। | ही पङ्किमें बैठे हुए लोगोंकों जो समानरूपसे भोजन नहीं विभौजनं राक्षसेन्द्र नरकं तें व्रजन्ति च॥ १४ कराते, वे विभोजन नामक नरकमें जाते हैं ॥ १६–१४ | एकसार्धप्रयातं ये पश्यन्तश्चार्थिनं नराः । । | जो लोग एक साथ चलनेवाले किसी बहुत तन्न असंविभज्य भुञ्जन्ति ते यान्ति श्लेष्मभोजनम् ॥ १५ | चाइबालेको देखते हुए भी इसे अन्न नहीं देते-अकेले गोब्राह्मणाग्नयः स्पृष्टा पैंरुच्छिः क्षपाचर।।

भोजन करते हैं, वें श्लेष्मभोजन नामक नरकमें जाते हैं। हे छिप्यन्ते हि करास्तेषां तप्तकुम्भे सुदारुणे॥ १६ |

राक्षस ! जो इन्टिावस्थामै (जु रहते हुए गाय, ब्राह्मण और अग्निको स्पर्श करते हैं, उनके हाथ भयका तप्तकुम्भमें सूर्येन्दतारका दृष्टा पैंरुच्छिश्च कामतः।।

झालें जाते हैं। जो उच्छिष्टावस्थामें स्वेच्छासे सूर्य, चन्द्र तेषां नेत्रगतो वह्निर्धम्यते यमकिंकरैः॥ १७

और नक्षत्रको देखते हैं, उनके नेशोंमें यमदूत अग्नि जलाते मित्रज्ञायाश्च जननी ज्येष्ठ भ्राता पिता स्वसा।

हैं। ज्ञों मित्रकी पत्नी, माता, जेंद्र भाई, पिता, बहन, पुत्री, जामयो गुरुवो वृद्धा यैः संस्पृष्टाः पदानृभिः ॥ १८ | गुरु और वृद्धोंको पैर छूते हैं, उन मनुष्योंके पैर खूब बद्धाञ्जयस्ते निगडैहर्वह्रिप्रतापितैः। | जलते हुए बेड़ीसे बाँधकर उन्हें रौरव-नरकमें डाला जाता क्षिप्यन्ते और घोरे ह्याजानुपरिंदाहिनः ॥ ११ | हैं, जहाँ वे घुटनोंतक जलते रहते हैं । १५-१६ ॥ पायसं कुशरं मांसं वृथा भुक्तानि यैर्नरः। | जो बिना विशेष प्रयोजनके खीर, खिचड़ी एवं मांसका तेषामयोंगडास्तप्ताः क्षिप्यन्ते वदनेताः ।। ३० | भोजन करते हैं, उनके मुँहमें जलता हुआ लोहेका पिण्ड गुरुदेवद्विजातीनां वेदानां च नराधमैः। | डाला जाता है। जो पापियोंद्वारा की गयीं गुरु, देवता, ब्राह्मण निन्दा निशामिना यूँस्त पापानामिति कर्वताम् ॥ ३१ | और वैदको निन्दाको सुनते हैं, उन नीच मनुष्योंके कानोंमें तेषां लोहमयाः कीला वल्लवर्णाः पुनः पुनः । | धर्मराज किंकर अग्निवर्णं लौहेकी कीलें बार-बार ठोंकते अवगेषु निखन्यन्ते धर्मराजस्य किंकरैः ॥ २२ | रहते हैं। जो प्याऊ (पौसार), देवमन्दिर, बगीचा, ब्राह्मणगृह, प्रपादेवकुलारामान् विप्रवेश्मसभामठान्। | सभा, मठ, कु, यावती एवं तड़ागको तोड़कर नष्ट करते कुपचापतड़ागांश्च भइझचा विध्वंसयन्त थे ।। २३ | हैं, उन मनाक विलाप करते रहनेपर भी भयंकर घर्माकंकर तेषां विलपतां चर्म देहतः क्रियते पृथक् । | सुतीक्ष्ण छुरिंकाओंद्वारा उनकी चमड़ी उधेड़ते हैं-उनकी कर्तिकाभिः सुतीक्ष्णाभिः सुरौर्यमकिंकः ॥ २४ | देहसे चर्मक काटकर पृथक् करते रहते हैं ॥ ३०-३४॥ गोब्राह्मणार्कमग्निं च ये वै मेहन्ति मानवाः ।

जो गाय, ब्राह्मण, सूर्य और अग्निके सम्मुख मल तेषां गुदेन चान्त्राणि विनिष्कृतन्ति वायसाः ।। २५ मुत्रादिका त्याग करते हैं, उनकी गुदातें कौए उनकी आँतोंको नोंच-नोंचकर काटते हैं। ज्ञों दुर्भिक्ष (अकाल) स्वपोषणपरौ यस्तु परित्यजति मानवः।। एवं विप्लव समय अकिंचन, पुत्र, भृत्य एवं कलत्र पुत्रभृत्यकलत्रादिबन्धुवर्गमकिंचनम् ।। (स्त्री) आदि बन्धुवर्गको छोड़कर आत्म-पोषण करता है, दुभिक्षे संभ्रमें चापि स भोयें निपात्यते ॥ ३६ | वह यमदूतद्वारा श्वभौजन नामक नरकमें डाला ज्ञाता है।

| ओं इक्षाके लिये शारगमें आयें इसका परित्याग करता शरणागतं ये त्यजन्ति ये च बन्धनपालकाः। | हैं, वह मनुष्य बन्दीगृह-रक्षक यमदूतोंके द्वारा पीटे जाते पतन्ति यन्त्रपीड़े ते ताङ्ग्यमानास्तु किंकरैः ।। २७ | हुए यन्त्रपीड नामक नरकमें गिरते हैं। जो लोग

# वामनपराण #

[ न्याय १३

क्लेशयन्ति हि विप्रादीन् ये ह्यकर्मसु पापिनः । | ब्राह्मणको कुकर्मोमें लगाकर उन्हें क्लेश देते हैं, वे पापी | तें पिष्यन्ते शिलापेथे शोघ्यन्तेऽपि च शोषकैः ।। ३८ मनुष्य शिलाओंपर पसे जाते हैं और अग्नि-सूर्य आदिद्वारा शौपित भी किये जाते हैं ॥ २५–२८ ॥ न्यासापहारिणः पापा चध्यन्ते निगडैरपि। जो धरोहरकों चुरा लेते हैं, उन्हें बेड़ों लगाकर भूखसे क्षुत्क्षामा: शुष्कताल्चोष्ठाः पात्यन्ते वृश्चिकाशने।। २९ पीड़ित एवं सूखे ताल और ओङकी अवस्थामें वृश्चिकाशन

नामक नरकमें गिराया जाता है। जो पर्वोमें मैथुन करते तथा पर्वमैथुनिनः पापाः परदाररताचे थे।

परस्त्री-संग करते हैं, उन पापियौंको तप्त कौलवाले ते चह्नितप्तां कूटाग्रामालिङ्गन्ते च शाल्मलीम् ॥ ३० शाल्मलिका (विवशतासे) आलिङ्गन करना पड़ता है। ज्ञों उपाध्यायमधःकृत्य बैरधीतं द्विजाधमैः ।।

द्विज उपाध्यायकों स्वयं की अपेक्षा निम्नासनपर बैठाकर तेषामध्यापको यश्च स शिलां शिरसा वहेत् ॥ ३१ अध्ययन करता है, उन अधम द्विज एवं उनके अध्यापकको सिरपर, शिला वहन करनी पड़ती है। जो जलमें मूत्र, कफ मूत्रश्लेष्मपुरीषाणि यैरुत्सृष्टानि वारिणि। एवं मलका त्याग करते हैं, उन्हें दुर्गन्धयुक्त विष्टा और पबसे ते पात्यन्ते च विषमूत्रे दुर्गन्धे पूयपूरिते ॥ ३२ | पूर्ण विषमूत्रनामक नरकमैं गिराया जाता है ॥ २९-३२ ।। | आद्धातिर्थयमन्योन्यं पैंर्मुक्तं भुवि मानवैः । । जो इस संसारमें श्राद्धके अवसर पर अतिथिके निमित्त परस्परं भक्षयन्ते मांसानि स्वानि बालिशाः ॥ ३३ | तैयार किये गये पदार्थकों परस्पर भक्षण कर लेते हैं, उन मुखौकों परलों में एक-दूसरे का मांस खाना पड़ता है। वेदवह्मिगुरुत्यागी भार्यापित्रोंस्तथैव च। | जो वेद, अग्नि, गुरु, भार्या, पिता एवं माताका त्याग करते गिरिशृङ्गादध:पातं पात्यन्ते यमकिंकरैः ।। ३४ | हैं, उन्हें यमदूत गिरिशिखरके ऊपरसे नीचे गिराते हैं। जो धिमासे विवाह कराते, अविवाहित कन्याको दूषित पुनर्भूपतयों ये च कन्याविध्वंसकाश्च में। करतें एवं उक्त प्रकारसे उत्पन्न व्यक्तिको सन्तानकै तद्गर्भश्राद्धभुग यश्च कृमीभक्षेत्पिपीलिकाः ।। ३५ ॥ यहाँ श्राद्धमें भोजन करते हैं, उन्हें कृमि तथा पिपीलिकाका भक्षण करना पड़ता है। जो ब्राह्मण चाण्डाल और अन्त्यजसे चाण्डालादन्त्यज्ञाद्वापि प्रतिगृह्णाति दक्षिणाम्। | दक्षिणा लेते हैं उन्हें तथा उनके यजमानकों पत्थरों में याज्ञको यज्ञमानश्च सो श्मान्तः स्थूलकीटकः ॥ ३६ रहनेवाला स्थूल कींट बनना पड़ता हैं ॥ ३३–३६ ॥ पृष्ठमांसाशन मूढास्तथैवत्कोचजीविनः।। राक्षस ! ज्ञों पीठपीछे शिकायत करते हैं-चुगली क्षिप्यन्ते वृकभक्षे ते नरकें रजनीचर ।। ३७ | करते एवं घूस लेते हैं, उन्हें बृकभक्ष नामक नरकमें डाला स्वर्णस्य च ब्रह्मनः सुरापी गुरुतल्पगः।।

जाता है। इसी प्रकार सोना चुरानेवाले, ब्रह्महत्यारे, मद्यपीं, तथा गोभूमिहर्जारो गोत्रीबालनाश्च ये॥ ३८ ॥

गुरुपत्नींगामी, गाय तथा भूमिकी चोरी करनेवाले एवं स्त्री तथा बालकको मारनेवाले मनुष्यों तथा गो, सोम एवं एते नरा द्विजा ये च गोषु विक्रयणस्तथा।।

वेदका विक्रय करनेवाले, इम्भी, टेली भाषामें झूठी गवाही सोमविक्रयण ये च वेदविक्रयणस्तथा ॥ ३९ ॥

देनेवालें तथा पवित्रताके आचरणको छोड़ देनेवाले और कूटसध्याचशौचाश्च नित्यनैमित्तनाशकाः। नित्य एवं नैमित्तिक कर्मोके नाश करनेवाले हिंजोंकों कूटसाक्ष्यप्रदा ये च ते महारौरवे स्थिताः ॥ ४० ॥  महारौरव नामक नरकमें रहना पड़ता हैं ॥ ३७–४० ॥ दशवर्षसहस्राणि तावत् तामिसके स्थिताः ।। उपर्युक्त प्रकारके पापियोंकों दस हजार वर्ष शामिल तावच्चैयान्धतामिस्ने सपन्नयनें ततः ।। ४१ | नरक तथा उतने ही वर्षांतक अन्धशामिन और ऑसपत्र तावच्चैच घटीयन्त्रे तप्तकों ततः परम्। | वन नामक नरकमें रहनेके बाद भी उतने ही वर्षांतक प्रपातो भवते तेषां यैरिदं दुष्कृतं कृतम्॥ ४२ | घटीयन्त्र और ताकुम्भमें रहना पड़ता हैं। जिन भयंकर

अध्याय १३]

# सकेशिका परक देनेवाले कमौके सम्बन्धमें प्रश्न, नरकका वर्णन

ये त्वेते नरका रौद्रा गैरवाद्यास्तवोदिताः। | रौरव आदि नरकका हमने तुमसे वर्णन किया हैं, ये ते सर्वे क्रमशः प्रोक्ताः कृतघ्ने लोकनिन्दिते ॥ ४३ | सभी लॉक-निन्दित कृतघ्रको बारी-बारीसे प्राप्त होते रहते हैं ॥ ४१-४३ ॥ यथा सुराणां प्रवरों जनार्दन जैसे देवताओंमें श्रीविष्णु, पर्वतों में हिमालय, यथा गिरीणामपि शैशिराद्रिः। यधायुधानां प्रवरं सुदर्शन अस्त्रों में सुदर्शन, पक्षियों में गरुड़, महान् सर्पोमें | यथा गानां विनतातनूजः । अनन्तनाग तथा भूतोंमें पृथ्वी श्रेष्ठ है; नदियोंमें गङ्गा, महॉरगाणां प्रवरोऽप्यनन्त यथा च भूतेषु महीं प्रधाना।। ४%

झलमें उत्पन्न होनेवालोंमें कमल, देव-शत्रु-दैत्यों में नदीषु गङ्गाजलजेषु पद्म महादेवके चरणोंका भक्त और क्षेत्रोंमें जैसे कुरु सुरारिमुख्यैषुहुराष्ट्रिभक्तः । क्षेत्रेषु यत्कु जाङ्गलंच ज्ञांगल और तीर्थोंमें पृथूदक हैं; जलाशयोंमें उत्तर तीर्थेषु यत् प्रवरं पृथूदकम् ॥ ४५ | मानस, पवित्र वनोंमें नन्दनवन, लोकोंमें ब्रह्मलोक, सरस्सु चेवोत्तमानसं यथा वनेषु पुण्येषु हि नन्दनं यथा।

धर्म-कार्यों में सत्य प्रधान हैं तथा जैसे यज्ञों में लोकेषु । यद्वसदनं चिरिञ्चः अश्वमेध, छूनेयोग्य (स्पर्शसुखवाले) पदार्थोंमें पुत्र सत्यं यथा धर्मविधिक्रियासु ॥ ४६ अथाश्चमेधः प्रबरः क्रतूनां

सुखदायक है; तपस्वियोंमें अगस्त्य, आगम शास्त्रों में पुत्रों यथा स्पर्शवतां वरिष्ठः। वेद श्रेष्ठ है; जैसे पुराणों में मत्स्यपुराण, संहिताओंमें तपोधनानामपि

कुम्भयोनिः

यदिहागमेषु ।।

स्वयम्भूसंहिता, स्मृतियोंमें मनुस्मृति, तिथियों में मुख्यः पुराणेषु यथैव

अमावास्या और विषुव अर्थात् मेष और तुला मात्स्य: स्वायंभुवौक्तिस्त्वपि संहितासु। मनुः स्मृतीनां प्रवरो यश्चैव राशिमें सूर्यकै संक्रमण संक्रान्तिके अवसरपर किया तिथषु दर्शो विषुवेषु दानम् ॥ ४८ | गया दान श्रेष्ठ होता है; ।। ४४–४८ ॥ तेजस्विनां यदि उक्तो जैसे तेजस्वियोंमें सूर्य, नक्षत्रोंमें चन्द्रमा, ऋक्षेषु चन्द्रों जलधिह्नदेषु ।। भवान् तथा राक्षससत्तमेषु जलाशयोंमें समुद्र, अच्छे राक्षसोंमें आप और निचेष्ट पाशेषु नागस्तिमितेषु बन्धः ॥ ४९ करनेवाले पाशोंमें नागपाश श्रेष्ठ है एवं जैसे धानों में धान्येषु शालिद्विपदेषु विप्रः चतुष्पदे गोः श्वपदां मृगेन्द्रः ।।

शालि, दों पैरवालोंमें ब्राह्मण, चौपायोंमें गाय, जंगली पुष्येषु ज्ञाती नगरेषु काञ्ची जानवरोंमें सिंह, फूलोंमें जाती (चमेली), नगरोंमें नारीषु गम्भाश्चमणां गृहस्थः ॥ ५ कुशस्थली श्रेष्ठतमा परेषु काञ्चों, नारियोंमें रम्भा और आश्नमियोंमें गृहस्थ श्रेष्ठ देशेषु सर्वेषु च मध्यदेशः।। | हैं; जैसे सप्तपुरियोंमें द्वारका, समस्त देशोंमें मध्यदेश, फलेषु

चूतो मुकुलेष्वशोकः

सर्वोषधीनां प्रवरा च पश्या ।। ५१ | फलोंमें आम, मुकुलों में अशोक और जड़ी-बूटियोंमें मुलेषु कन्दः प्रवरों अधोंक्तों हरीतकी सर्वश्रेष्ठ है; हे निशाचर! जैसे मूलों में व्याधिष्वजी क्षणदाचरन्छ। ओतेषु दुग्धं प्रवर यश्चैव कन्द, रोगोंमें अपच, श्वेत वस्तुओंमें दुग्ध और कासिकं प्रावरणेषु यद्वत् ॥ ५२ | वस्त्रोंमें कुईके कपड़े श्रेष्ठ ॥ ४९-५३ ॥ [1432] श्रीवामनपुराण ३

,

श्रुतिर्वरा

वामनपण

[ अध्याय १३

कलासु मुख्या गणितज्ञता च । निशाचर ! जैसे कलाओंमें गणितका ज्ञानना,

विज्ञानमुख्येषु यथेन्द्रजालम् ।।

विज्ञानों में इन्द्रजाल, शाकॉमें मकोय, उसमें नमक, शाकेषु मुख्या त्वपि कोकमाचीं रसेषु मुख्यं लवणं यश्चैव ।। ५३ | ऊँचे पैड़ोंमें ताड़, कमल-सरोवरोंमें पंपासर, बनैलें तुङ्गेषु ताल नलिनीषु पम्पा

चनौकसेष्वेव च अक्षराजः।। जीवोंमें भालू, वृक्षों में बट, ज्ञानियों में महादेव वरिष्ठ | महाँहेवेव यथा चटश्च हैं। जैसे सतियोंमें हिमालयकी पुत्री पार्वती, यथा हुरों ज्ञानवतां वरिष्ठः ॥ ५४ यथा । सतनां हिमवत्सुत्ता हि | गौऑमें काली गाय, बैलोंमें नील रंगका बैंल, यथार्जुनीनां कपिला वरिष्ठा। | सभी दुःसह कठिन एवं भयंकर नरमें नृपातन यथा वृषाणामपि नीलवर्गों यथैव सर्वेष्वपि दुःसहेषु। | वैतरणी प्रधान है, उसी प्रकार है निशाचरेन्द्र! दुर्गेषु | रौद्रेषु निशाचरेश

नृपात्तनं वैतरणी प्रधाना।। ५५ पापियों में कृतघ्न प्रधानतम पापी होता है। ब्रह्म पापीयसां तदिह कृतघ्नः  हत्या एवं गोहत्या आदि पापको निष्कृति तो

सर्वेषु पापेषु निशाचरेन्द्र। ब्रह्मघ्ननादिषु निकतई निष्कृतिहि।

| हो जाती हैं, पर दुराचारी माघी एवं मित्र विद्येत नैवास्य तु दुष्टचारिणः । | कतज्ञा को खाने भी निस्तार न निष्कृतिश्चास्ति कृतघ्नवृतैः ।

सुकृतं नाशयतोऽब्दकोटिभिः ॥ ५६ | नहीं होता।। ५३-५६ ।।

इस प्रकार वामनपुराणमें बारहको अध्या समाप्त हु

 

तेरहवाँ अध्याय

सुकेशिके प्रश्न उत्तरमें ऋषियोंका जम्बू-द्वीपकी स्थिति और उनमें स्थित

पर्वत तथा नदियोंका वर्णन सुशिवाच सुकेशीनें कहा- आदरणीय ऋषियो! आप लोगोंने भवद्भिरुदिता घोरा पुष्करपसंस्थितिः। पुष्करपके भयंकर अवस्थानका वर्णन किया, अब आप जम्बूद्वीपस्य तु संस्थानं कथयन्तु महर्षयः ।। १ | लॉग (कृपाकर) जम्हींपकी स्तिका वर्णन करें ॥ १ ॥

अषय ऊचुः

ऋषियोंने कहा-राक्षसैश्वर! ( अब) तुम हम लोगों | जम्बुद्वीपस्य संस्थानं कथ्यमानं निशामय। | ज़म्बौंपकी स्थितिका वर्णन सुनो। यह द्वीप अत्यन्त

नवभेदं सुविस्तीर्णं स्वर्गमोक्षफलमदम् ॥ २ | विशाल हैं और नव भागोंमें विभक्त हैं। यह स्वर्ग एवं मध्ये चिलावृतौ वर्षों भद्राश्वः पूर्वतोद्भुतः। | मोक्ष-फलक देनेवाला है। जम्बुद्वीपके बीचमें इलावृतवर्ष पूर्व उत्तरतश्चापि हिरण्य राक्षसेश्वर ।। ३ | पूर्वमें अदन भद्राश्ववर्ष तथा पूर्वोत्तर हिरण्यकर्ष है। पूर्वदक्षिणतश्चापि किंनरों वर्ष उच्यते। | पूर्व-दक्षिणमें किन्नरवर्ष, दक्षिण भारतवर्ष तथा दक्षिण भारत दक्षिणे प्रोक्तो हरिदक्षिणपश्चिमे ॥ ४ पश्चिममें हरिवर्ष बताया गया हैं। इसके पश्चिममें पश्चिमें केतुमालश्च रम्यक; पश्चिमोत्तरे। | केतुमालवर्य, पश्चिमोत्तर में उम्पकवर्ष और उत्तर कल्पवृक्षसे उत्तरे च कुरुर्वर्षः कल्पवृक्षसमावृतः ॥ ५ | समादृत कुरुवर्ष है॥ २५ ॥ –

अध्याय १३ ] * सुकेशिर्के प्रश्न उत्तरमें ऋषियका जम्बू द्वीपकी और उनमें स्थित पर्वत तथा नदियोंका वर्णन + ५१

पुण्या रम्या नवैवते वर्षाः शालकांकड। । सुकेशि! ये नव पवित्र और रमणीय वर्ष हैं। इलावृताद्या ये चाष्टौ वर्षमुकचैव भारतम् ॥ ६ | भारतवर्षकै अतिरिक्त इलावृतादि आठ वर्षों में मुगावस्था न तेष्वस्ति युगावस्था जरामृत्युभयं न च। । | नया जरामृत्युका भय नहीं होता। उन वर्षोंमें बिना तेषां स्वाभाविका सिद्धिः सुखाया ह्ययनतः ।। प्रयत्नके स्वभावत: बड़ी-बड़ी सिद्धियाँ मिलती हैं। इनमें विपर्ययों न तेष्वस्ति नोंचमाधममध्यमाः ।। ६ उत्तम, मध्यम, अधम आदिका किसी प्रकारका कोई भेद यदेतद् भारतं वर्ष नवद्वीप निशाचर। । नहीं हैं। निशाचर | इस भाव भी नव उपप हैं। | सागरान्तरिताः सर्वे अगम्याश्च परस्परम् ॥ ६ | यें सभी हॉप समुद्रोंसे घिरे हैं और परस्पर अगम्य हैं। | इन्द्रदीपः कसेरुमांस्ताम्रवर्णो गभस्तिमान्। | भारतवर्षके नया उपद्वपके नाम इस प्रकार हैं-इन्द्रद्वीप, नागद्वीपः कटाहश्च सिंहलों वारुणस्तथा ॥ १ | कसैकमान्, ताम्रवर्ण, गभस्तिमान्, नागद्वीप, कटाइ, सिंहल अयं तु नवमस्तेषां द्वीपः सागरसंवृतः। | और वारुण। न मुरड्य यह कुमारोप भारत-सागरसे कुमाख्यः परियातों हीपॉयं दक्षिणोत्तरः ।। १६ | लगा हुआ दक्षिणसे उत्तरकी ओर फैला है ।। ६-१० ॥ पूर्वे किराता यस्यान्ते पश्चिमें यवनाः स्थिताः । । वीर! भारतवर्ष पूर्वको सीमापर, किरात, पश्चिममें आन्ध्रा दक्षिणतों वीर तप्कास्वपि चोत्तरे।। ११ | यवन, दक्षिणमें आन्ध्र तथा उत्तरमें तुरुकिलोग निवास ब्राह्मणाः क्षत्रिया वैश्याः शूद्राश्चान्तरवासिनः।।

करते हैं। इसके बीचमैं ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य एवं | लोग रहते हैं। यज्ञ, युद्ध एवं साम्य आदि कमक इन्यायुद्धर्वाणयाद्यैः कमभिः कृत्तपावनाः ॥ १३

द्वारा वे सभी पवित्र हो गये हैं। उनका व्यवहार, स्वर्ग तेषां संव्यवहारश्च एभिः कर्मभिरिष्यते।।

और आपसर्ग (मोक्ष)-कौ ति तथा प्राप्त एवं पुण्य स्वर्गापवर्गप्राप्तिश्च पुण्यं पापं तथैव च ॥ १३ | इन्हीं (यज्ञादि) कमद्वारा होते हैं। इस वर्ष महेन्द्र, महेन्द्र मलयः सह्यः शक्तिमान् ऋक्षपर्वतः । | मलय, सह्य, शुक्तिमान, ऋक्ष, विन्य एवं पारियाज़ विन्ध्यश्च पारियात्रश्च सप्तात्र कुलपर्वताः ॥ १४ | नामवाले सात मुख्य कुल पर्वत हैं ॥ ११-१४ ॥ तथान्ये शतसाहस्रा भूधरा मध्यवासिनः। । इसके मध्यमें अन्य लाखों पर्वत हैं जो अत्यन्त विस्तारोच्छ्रायिणो रम्या विपुलाः शुभसानवः ॥ १५ | विस्तृत, उत्तुङ्ग (ऊँथे) रम्य एवं सुन्दर शिखरोंसे कोलाहलः स वै भ्राज्ञो मन्दरों दर्दराचलः।। | सुशोभित हैं। यह कोलाहल, वैभ्राज, मन्दारगिरि, दर्दूर, वार्तधम वैद्युतश्च मैनाकः सरसस्तथा ।। १६ | | यार्तधम, वैद्युत, मैनाक, सरस, तुङ्गप्रस्थ, नागगिरि, तुङ्गमस्थों नागगिरिस्तथा गोवर्धनाचलः।। | गोवर्धन, उज्जयन्त (गिरिनार), पुष्पगिरि, अर्बुद ( आबू), उजायनः पुष्पगरिरर्बदो रैवतस्तथा ॥ १ | वत, ऋष्यमूक, गौमन्त (गौवाका पर्वत), चित्रकूट ऋष्यमूकः सगोमन्तश्चित्रकूटः कृतस्मरः ।। | कृतस्मर, श्रीपर्यत, कोङ्कण तथा अन्य सैंकड़ों पर्वत भी |श्रीपर्वतः कोङ्कणश्च शतशोऽन्येऽपि पर्वताः ॥ १८ | विराज रहे हैं। १५–१८ ॥

तैर्विमिश्रा जनपदा म्लेच्छा आयश्च भागशः।। उनसे संयुक्त आय और म्लेच्छोंके विभागोंके तैः पद्यन्ते सचिल्ला यास्ता: सम्यनिशामय॥ ११ | अनुसार जनपद हैं। यहाँक निवासौं जिन उत्तम नदियों सरस्वती पञ्चपा कालिन्दी सहिरवती। | जल पीते हैं इनका वर्णन भलीभाँति सुनो। पाँच रूपकी शतश्चन्द्रिका नीला वितस्तैरावत कुहः ॥ ३० | सरस्वती, यमुना, हिरवती, सतलज, चन्द्रका, नीला, मधुरा देविका चैव उशीरा धातकी रसा।। | वितस्ता, ऍगावाती, कु, मधुरा, देविका, इशरा, धातकी, गोमती धूतपापा च बाहुदा सदृषद्वतीं ।। ३६ | रसा, गोमती, धूतपापा, बहुदा, दृषद्वती, निश्ची, गण्डकी, निश्चीरा गण्डकी चित्रा कौशिकी च वधूसरा।। | चित्रा, कौशिक, बसरा, सरयू तथा लौहित्या-ये सरयूश्च सलौहित्या हिमवत्पादनि:सूताः ।। २२ | नदियाँ हिमालयकी तलहटीसे निकली हैं ।। १६-२२ ।। वेदस्मृतिर्वेदवती वृत्रन सिन्धुरेव च।। | बेदस्त, वेदवतीं, वृत्रनी, सिन्धु, पर्णाशा, पर्णाशा नन्दिनी चैव पावनी च महीं तथा ।। २३ । नन्दिनी, पावनी, मही, पारा, चर्मण्यती, लूप, विदिशा,

* वामनपुराण

[ अध्याय १३

पारा चर्मण्वती लूपी विदिशा बेणुमत्यपि। | बॅणुमती, सिग्ना तथा अयन्ती -ये नदि पारियाज़ | सिम्रा ह्यबन्ती च तथा पारियात्राश्रयाः स्मृताः ॥ ३४ | पर्वतसे निकली हुई हैं। महानद, शौण, नर्मदा, सुरसा, | शोगों महानदश्चैव नर्मदा सुरसा कृपा। | कृपा, मन्दाकिनी, दशा, चित्रकूटा, अपवाहिका, मन्दाकिनी दशार्णा च चित्रकूटापवाहिका॥ २५ | चित्रोत्पला, तमसा, करमौदा, पिशाचिका, पिप्पलश्रोणी, चित्रोत्पला मैं तमसा करमोदा पिशाचिका। | विपाशा, वझुलावती, सत्सन्तजा, शुक्तिमत, मञ्जिष्ठा, तधान्या पिप्पलश्रोणी विपाशा वझुलावती ॥ २६ | कृत्तिमा, बसु और बालुवाहिनी-ये नदियाँ तथा दूसरी | सत्सन्तजा शुक्तिमती मञ्जिल्ला कृत्तिमा बसुः। | जो बालुका बहानेवाली हैं, ऋक्षपर्वतकी तलहटीसे | अक्षपादप्रसूता च तथान्या बालुवाहिनी ॥ २७ | निकली हुई हैं ।। २३–२७ ॥

शिवा पयोष्णीं निर्विन्ध्या ताप सनियधावती। | शिवा, पयोष्ण (पैनगंगा), निर्थिन्ध्या (कालीसिंध), | वेणा वैतरणी चैव सिनीबाहुः कुमुद्धती ॥ २८ | तापी, निषधाबती, बैंणा, वैतरणी, सिनबाहु, कुमुद्धती, तोया चैव महागौरी दुर्गन्धा वाशिला तथा। | तोया, महागौरी, दुर्गन्धा तथा याशिला—ये पवित्र जलवाली | विन्ध्यपादप्रसूताश्च नद्यः पुण्यञ्जला: शुभाः ।। ३६ | कल्याणकारिणी नदियाँ विन्यपर्वतसे निकली हुई हैं। | गोदावरी भीमरर्थी कृष्णा वेणा सरस्वती।। | गोदावरी, भीमरथी, कृष्णा, वेंगा, सरस्वतीं, तुङ्गभद्रा, तुङ्गभद्रा सुप्रयोगा आह्मा कावेरिरेव च ॥ ३ | सुप्रयोगा, बाह्या, कावेरी, दुग्धोदा, नलिनी, रेवा (नर्मदा), दुग्धोदा नलिनी वा वारिसेना कलस्वना। | वारिसेना तथा कलस्वना—ये महानदियाँ समपर्वतके एतास्त्यपि महानद्यः सह्यपादविनिर्गताः ॥ ३१ | पाद (नीचे)-से निकलती हैं ॥ २८–३१ ।। कृतमाला ताम्रपर्णी वझुला चोत्पलावती। | कृतमाला, ताम्रपर्णी, वझुला, उत्पलावती, सिन सिनी चैव सुदामा च शुक्तिमत्प्रभवास्त्विमाः ॥ ३३ | तथा सुदामा -ये नदियाँ शुक्तिमान् पर्यतसे निकली हुई सर्वाः पुण्याः सरस्वत्यः पापप्रशमनास्तथा।। हैं। ये सभी नदियाँ पवित्र, पापोंका प्रशमन करनेवाली, गत मातरः सर्वाः सर्वाः सागरघोषितः ।। ३३ | जगतुकी माताएँ तथा सागरकी पत्नियाँ हैं। राक्षस ! अन्याः सहस्रशश्चात्र दुनो हि राक्षस। | इनके अतिरिक्त भारतमें अन्य हजारों छोटी नदियाँ भी सदाकालबहाश्चान्याः प्राक्कालवहास्तथा।। | बहूती हैं। इनमें कुछ तो सदैव प्रवाहित होनेवाली । उह्मध्योद्भवा देशाः पिबन्ति स्वेच्या शुभाः ।। ३४ | उत्तर एवं मध्यके देशों के निवासी इन पवित्र नदियों

मत्स्याः कुशट्टाः कुणिकुण्डलाश्च। | जनताको स्वेच्या पान करते हैं। मत्स्य, कुशट्ट, कुणि, पाचालकाश्याः सह कोसलाभिः ॥ ३५ | कुण्डल, पाञ्चाल, काशी, कोसन, वृक, शबर, कोयर, वृकाः शबरकौवीराः संभूलिङ्गा जनास्त्विमें। | भूलिङ्ग, शक तथा मशक जातियोंके मनुष्य मध्यदेशमें |शकाचैव समशका मध्यदेश्या नास्त्विमे ॥ ३६ | रहते हैं ॥ ३२-३६ ॥ बाहीका वाटधानाश्च आभीराः कालतोयकाः ।। वाहक, वाटधान, आभीर, कालतोंपक, अपरान्त, अपरान्तास्तथा शूद्राः पहवाश्च सखेटकाः ॥ ३७

शूद्र, पब, खैटक, गान्धार, यवन, सिन्धु, सौचौर, गान्धारा वनाब सिन्धुसौवीरमद्रकाः ।।

शानदवा ललित्याश्च पारावतसमूषकाः ॥ ३८ | मद्भक, शाताव, ललित्य, पारावत, मूषक, माळर, | मादकधारावा कैकेया दशमास्तथा।। | उदकधार, कैकेय, दशम, क्षत्रिय, प्रतिवैश्य तथा वैश्य

क्षत्रियाः प्रतिवेश्याश्च वैश्यशूलानि च ॥ ३६ | एवं शक कुल, काम्बोज, दरद, बर्बर, अङ्गलौकिक, काम्बोजा दरदाश्चैव बर्बरा ह्यङ्गलौकिकाः। चीनाश्चैव तुषाराश्च बहुधा बाह्यतोदराः ॥ ४० ॥ चीन, तुषार, बहुधा, बाह्यतोदर, आत्रेय, भरद्वाज, आत्रेयाः सभरद्वाज्ञाः प्रस्थलाञ्च दशेरकाः। | प्रस्थल, दशेरक, लम्पक, तावक, राम, शुलिक, तङ्गण, लम्पकास्तावका रामाः शूलिकास्तङ्गणैः सह ।। ४१ | औंरस, अलिभद्र, किरातकों जातिय, तामस, क्रममास,

अध्याय १३] सुकेशिके प्रमके उत्तर में ऋषियोंका जम्बू-द्वीपकी और उनमें स्थित पर्वत तथा नदियोंका वर्णन ६१

ऑरसाश्चालिभद्राश्च किरातानां च ज्ञातयः। | सुपार्श्व, पुण्ड्रक, कुतूत, कुहुक, ऊ, तूणीपाद, तामसा: क्रममासाश्च सुपा: पुकास्तश्च ।। ६३ | कुक्कुट, माण्डव्य एवं मालवीय-चें ज्ञातियाँ उत्तर कुलूताः कङ्का ऊर्गास्तूणीपादाः सकुक्कुटाः।।

| भारतमें निवास करती हैं ।। ३–३ ॥ माण्डव्या मालवीयाश्च उत्तरापथवासिनः ।।४३ ॥

अा था मगरखास्यन्तगिरिबहिगिराः ।। अङ्ग (भागलपुर), बंग एवं मुद्रव (मुंगेर), तथा प्रचङ्गा वाया मांसादा बलदन्तिकाः ।। ४४ | अन्तगर, बहिर्गर, प्रवङ्ग, वाय, मांसाद, बलदन्तिक, | ब्रह्मोत्तरा चिजमा भार्गवाः केशवर्वराः ।।

ब्रह्मोत्तर, प्राविजय, भार्गव, केशबर्बर, प्राग्ज्योतिष, शूद्, प्राग्ज्योतिषाश्च शूद्राश्च विदेहास्ताम्रलिप्तका: ।। ४५५ ॥  माला मगधगोनन्दाः प्राच्या जनपदास्त्विमें।

विदेह, ताम्रलिप्तक, माला, मगध एवं गोनन्द-ये पण्डावा केरलाशैव चौंडाः कल्याण राक्षस ॥ ४६ ॥  पूर्वक जनपद है। है राक्षस! शासकटंकट! पुण्डू जानुषा मूषिकादाश्च कुमारादा महाशकाः ।। केरल, चौड, कुल्य, ज्ञातुष, मूषिकाद, कुमाराद, महाराष्ट्वा माहिघिका; कालिङ्गाश्चैव सर्वशः ॥ ४ महाशक, महाराष्ट्र, माहिषिक, कालिङ्ग (उड़ीसा). आभीराः सह नैषीका आरण्याः शबराश्च ये।

आभीर, नैषीक, आरण्य, शबर, बलिन्ध्य, विन्ध्यमौलेय, ज्वलन्ध्या विन्ध्यमलेंया वैदर्भी दण्द्धकैः सह ॥ ४८ ॥  पौरिकाः सौशिकाश्चैव अश्मका भोगवनाः ।।

वैदर्भ, दण्डक, पौरिक, सौशिक, अश्मक, भौगवर्द्धन, बैंपिकाः कुन्दला आन्ध्रा उभिदा नलकारकाः। वैषिक, कुन्दल, अन्ध्र, उद्भिद एवं नलकारक-ये दाक्षिणात्या जनपदास्त्विमें शालकटट ॥ ४५ ॥  दक्षिणके जनपद हैं ॥ ४–४५ ॥ शूर्पोरका कारिवना दुर्गास्तालकटैः सह।। सुकेशि ! शूर्पारक (बम्बईका क्षेत्र), कारिवन, पुलीयाः ससिनीलाश्च तापसास्तामसास्तथा ॥ ५ ॥ दुर्ग, तालीकट, पुलीय, ससिनील, तापस, तामस, कारस्करास्तु रमिनों नासिक्यान्तरनर्मदाः।

कारस्कर, रमी, नासिक्य, अन्तर, नर्मद, भारकच्छ, भारका समाहेमाः सह सारस्वतैरपि ॥ ५॥ | साया साधा भावन्याः सह।

माहेय, सारस्वत, वात्सेय, सुराष्ट्र, आषन्त्य एवं अर्युद इत्येते पश्चिमामाशां स्थिता ज्ञानपदा जनाः ।। ५२ | ये पश्चिम दिशामें स्थित जनपदोंके निवासी हैं। कारुपाचैकलच्याश्च मेकलाञ्चोकलैः सह। कारूषा, एकलव्य, मैकल, उत्कल, उत्तमर्ण, दशार्ण, उत्तमण दशागचे भोज्ञा: किकवरैः सह ॥ ५३ | भोंज्ञ, किंकवर, तोंशल, कोशल, अॅपर, ऍल्लिक, तोशलाः कोशलाश्चैव बैंपरावालिकास्तश्चा।। तुरुसास्तुम्बराचैव बहनाः नैषधैः सह ।। ५४ ॥

तुरुस, तुम्बर, वहन, नैषध, अनूप, तुण्डिकेर, वींतहोत्र अनुपास्तण्डुकरा चीतहोत्रास्त्ववन्तयः। एवं अवन्ती-ये सभी जनपद विन्ध्याचलकै मूलमें सुकेश विन्ध्यमूलस्थास्चिमे जनपदाः स्मृताः ॥ ५५ | (उपत्यका–तराईमें स्थित हैं। ५०-५५ || अधों देशान् प्रवक्ष्यामः पर्वताश्रयणस्तु ये। । अच्छा, अब हम पर्वताश्रित प्रदेशोंके नामोंका निराहारा हंसमार्गा: कुपथास्तङ्गणाः स्वशाः ॥ ५६ | वर्णन करेंगे। उनके नाम इस प्रकार हैं-निराहार, कुधावरणाचैव ऊर्णाः पुण्याः सहकाः।

हंसमार्ग, कुपथ, तंगण, खश, कुप्रावरण, कर्ण, पुण्य, त्रिगर्ताश्च किराताश्च तोमराः शिशिराद्रिकाः ।। ५७ इमें तवोक्ता विषयाः सुविस्तराद्

हूक, त्रिगर्त, किरात, तोमर एवं शिशिराद्विक। निशाचर ! हिप कुमारे उजनीचरेश। तुमसे कुमारट्ठीपके इन देशोंका विस्तारसे हम लोगोंने एतेषु देशेषु च देशधर्मान् वर्णन किया। अब हम इन देशोंमें वर्तमान देश-धमका संकीर्त्यमानामृणु तत्त्वतो हि।। ५८ | यथार्थतः वर्णन करेंगे, उसे सुनौ ।। ५६–५८ ॥

प्रकार वामनपुराणमें तैरहवाँ अध्याय समाप्त हु }} १३

 

चौदहवाँ अध्याय 

१-मनुस्मृति (४॥ ४५ } मैं भी जाति-जनपदादि धर्म मान्य हैं। इन्हें विस्तारसे समझने के लिये ‘जातिभास्कर’ आदि देना चाहिये। दशाङ्ग-धर्म, आश्चम-धर्म और सदाचार-स्वरूपका वर्णन पच कमुः ऋषिगण बोले- राक्षस श्रेष्ठ! अहिंसा, सत्य, अहिंसा सत्यमस्तेयं दानं क्षान्तिर्दमः शमः। | अस्तेय (चोरी न करना), दान, क्षमा, दम (इन्द्रिय कार्पण्यं च शौचं च तपश्च रजनीचर॥ १ | निग्रह), शम, अकार्पण्य, शौच एवं तप-धर्मके ये दसौं अङ्ग सभी वर्गोंके लिये उपदिष्ट हैं; ब्राह्मणों के | दशाङ्गों राक्षसश्रेष्ठ धर्मोऽसौ सार्ववर्णकः ।। | लिये तो चार आश्रमोंका और भी विधान विहित किया ब्राह्मणस्यापि विहिता चातुराश्चम्यकल्पना॥ २ | गया हैं ॥ १-२ ॥

सुकेशि बोलातपोधनों ! ब्राह्मणोंके लिये विहित

चारों आश्रमोंके नियम आदिको आप लोग विस्तार से विप्राणां चातुराश्चम्यं बिस्तरोन्में तपोधनाः। | कहें। मुझे उसे सुनते हए तृप्ति नहीं हो रहीं हैं-मैं और

आचक्षध्वं न में तृप्तिः शृण्वतः प्रतिपद्यते ॥ ३ | भी सुनना चाहता हूँ ॥ ३ ॥

ऋषिगण बोले- सुकेशि ! ब्रह्मचारी ब्राह्मण भलीभौत कृतोपनयनः सम्यग् ब्रह्मचारी गुरौ वसेत् ।। | अप्पनयन-संस्कार कराकर, गुरु* गृहपर निवास करें । तन्न धर्मोऽस्य यस्तं च कथ्यमार्न निशामय॥ ४ | वहाँक नो कर्तव्य हैं, उन्हें बतलाया जा रहा हैं, तुम उन्हें सुनीं। उनके कर्तव्य हैं-स्वाध्याय, दैनिक हवन, | स्वाध्यायोऽश्चाग्रिशुश्रूषा स्नानं भिक्षाटनं तथा। | स्नान, भिक्षा माँगना और उसे गुरुको निवेदित करके गुरोनिवेद्य तच्चाद्यमनुज्ञान सर्वदा ॥ ५ | तथा उनसे आज्ञा प्राप्त कर भोजन करना, गुरुके कार्य हेतु उद्यत हुना, सम्यक् रूपसे गुरु भक्ति रखना, उनके गुरोः कर्माणि सोद्योगः सम्यक्प्रीत्युपपादनम्।।

 बुलाने पर तत्पर एवं एकाग्रचित्त होकर पढ़ना (-यै | तेनाहूतः पठेच्चैव तत्परो नान्यमानसः ।। ६ ।।  ब्राह्मण ब्रह्मचारीकै धर्म हैं)। गुरुके मुखसे एक, दो या एकं द्वौ सकलान् वापि वेदान् प्राप्य गुरोर्मुखात्।।

 सभी वेदका अध्ययन कर गुरुको धन तथा दक्षिणा दे

करके उनसे आज्ञा प्राप्त कर गृहस्थाश्रम ज्ञानेका | अनुज्ञातौ वरं दत्त्वा गुरवे दक्षिणां ततः ।।

इच्छुक (शिष्य) गृहस्थ आश्रममें प्रवेश करें अथवा गार्हस्थ्याश्चमकामस्तु गार्हस्थ्याश्रममावसैत्। अपनी इच्छा अनुसार बानप्रस्थ या संन्यासका वानप्रस्थाश्रमं चापि चतुर्थ स्वेच्छयात्मनः ॥ ८ | अवलम्बन करे ॥४-८॥ तत्रैव वा गुरोर्गेहे द्विजों निष्ठामवाप्नुयात्। । अथवा ब्राह्मण ब्रह्मचारीं वहीं गुरुकै घरमें ब्रह्मचर्यकों | गुरोरभावे तत्पुत्रे तच्छिध्ये तत्सुतं विना । १ | निष्ठा प्राप्त करे अर्थात् जीवनपर्यन्त ब्रह्मचारी रहे। गुरुकै अभावमें उनके पुत्र एवं पुत्र न हो तो उनके शिष्यके समीप निवास करे। राक्षस सुकेशि ! अभिमानरहित तथा शुश्रूषन् निरिभमान ब्रह्मचर्याश्रमं वसेत्। | शुश्रूषा करते हुए ब्रह्मचर्याश्रममें रहे। इस प्रकार अनुष्ठान एवं जयति मृत्युं स द्विजः शालकटङ्कट॥ १० | करनेवाला द्विज मृत्युको जीत लेता है। है निशाचर !

अध्याय ]

दशाङ्ग धर्म, आश्रम धर्म और सदाचारस्वरूपका वर्णन

उपात्तस्ततस्तस्माद् गृहस्थाश्रमकाम्यया। | वहाँको अवधि समाप्त कर ब्रह्मचारी द्विज गृहस्थाश्नमकी असमानर्षकुलज्ञां कन्यामुद्वहेद् निशाचर ॥ ११ | कामनासे अपने गोत्रसे भिन्न गोत्रके ऋषिवाले कुलमें

उत्पन्न झन्मासे विवाह करें। सदाचारमें उत द्विज़ अपने | स्वकर्मणा धनं लब्ध्वा पितृदेवातिर्थीनपि। | नियत कर्मद्वारा धनोपार्जनकर पितरों, देवों एवं अतिथियोंकों सम्यक् संग्रणयेद् भक्त्या सदाचाररत द्विजः ॥ १२ | अपनी भक्तिसे अच्छी तरह तृप्त करे ।। १–१२ ।। सुकेशिका

(ब्रह्मचारी ब्राह्मणके नियमोंको सुननेके याद) सदाचारों निगदितों युष्माभिर्मम सुव्रताः। सुकेशिने कहा- श्रेष्ठ व्रतवाने ऋषियों ! आप लोगोंने लक्षणं श्रोतुमिच्छामि कथयध्वं तमद्य मै॥ १३ मुझसे इसके पूर्व सदाचारका वर्णन किया हैं। सदाचारका लक्षण क्या है? अब मैं उसे सुनना चाहता है। कृपया

मुझसे अब उसका वर्णन करें ॥ १३ ॥ वय ऊचुः ऋषियोंने कहा- राक्षस! हम लोगोंने तुमसे श्रद्धापूर्वक सदाचारों निगदितस्तव योऽस्माभिरादरात्।। जिस सदाचारका वर्णन किया है, उसका (अव) लक्षण लक्षणं तस्य वक्ष्यामस्तच्छृणुष्व निशाचर ॥ १४ | बतलाते हैं; तुम उसे सुनो। गृहस्थकों आचारका सदा गृहस्थेन सदा कार्यमाचारपरिपालनम्।। पालन करना चाहिये। आचारहीन व्यका इस लोक न ह्याचारविहीनस्य भद्गमत्र परत्र च।। १५ | | और परलोक कल्याण नहीं होता है। सदाचारका उल्लङ्घन कर, लोक व्यवहार तथा शास्त्र-व्यवहार करनेवाले यज्ञदानतपांसींह पुरुषस्य न भूतये।।

पुरुषकै यज्ञ, दान एवं तप कल्याणकर नहीं होते। भवन्ति यः समुल्लङ्घय सदाचार प्रवर्तते ।। १६ दुराचारी पुरुष इस लोक तथा परलोकमें सुख नहीं पाता। दुराचारों हि पुरुषों नेह नामुत्र नन्दते। | अत: आचार-पालनमें सदा तत्पर रहना चाहि।। आचार कार्यो यत्नः सदाचारे आचारो हुन्त्यलक्षणम् ॥ १६ | दुलंगको नष्ट कर देता हैं ॥ १४-१७ || तस्य स्वरूपं वक्ष्यामः सदाचारस्य राक्षस। राक्षस! हम उस (पृष्ट) सदाचारको स्वरुप कहते शृणुष्वैकमनास्तच्च यदि श्रेयोऽभिवास ॥ १८ | हैं। यदि तुम कल्याण चाहते हों तो एकाग्रचित्त होकर उसे धर्मोऽस्य मूलं धनमस्य शाखा सुनों। सुकेशिन्! सदाचारका मूल धर्म है, धन इसकी

पुण्यं च कामः फलमस्य मोक्षः।। शाखा है, काम (मनोरथ) इसका पुष्प हैं एवं मोक्ष इसका असौ सदाचारतरुः सुकेशिन् फल है-ऐसे सदाचाररूप वृक्षका ज्ञों सेवन करता हैं, संसेवितो येन स पुण्यभोक्ता॥ १५ ब्राह्मे मुहूर्ते प्रथमं विबुध्ये

वद् पुण्यभोंगीं बन जाता है। मनुष्योंको ब्राह्ममुहूर्तमें |दनुस्मरेद् देववरान् महर्षीन्। इटकर सर्वप्रथम श्रेष्ठ देव एवं महर्षियोंका स्मरण करना भात्तिक मङ्गलमेव वाच्यं चाहिये तथा देवाधिदेव महादेवद्वारा कथित प्रभातकालीन यदुक्तवान् देवपतिस्त्रिनेत्रः ।। २० | मङ्गलस्तोत्रका पाठ करना चाहिये ।। १८-२० ॥

सुकेशिराच ।

सुकेशिने पूछा- ऋषयों ! महादेव शंकरनें कौन किं तदुक्तं सुप्रभातं शंकरण महात्मना। | सा ‘सुप्रभात’ कहा है कि जिसका प्रात:काल पाठ प्रभाते यत् पठन्मय मुच्यते पापबन्धनात् ॥ ३६ | करनेसे मनुष्य पाप-बन्धनसे मुक्त हो जाता है ॥ ३१ ॥

अश्य ऊचुः । ऋषिगण बोले-राक्षसश्रेष्ठ! महादेवीद्वारा वर्णित श्रूयतां राक्षसश्रेष्ठ सुप्रभातं इरोदितम्। | सुप्रभात’ स्तोत्रको सुनो। इसको सुनने, स्मरण करने श्रुत्वा स्मृत्वा पठित्वा च सर्वपापैः प्रमुच्यते ॥ २२ | और पढ़नेसे मनुष्य सभी पापोंसे मुक्त हो जाता है।

 

# श्रीवामनपुराण के

[ अध्याय १४

ब्रह्मा मुरारिस्बिपुरान्तकारी (स्तुति इस प्रकार है-) ‘ब्रह्मा, विष्णु, शंकर ये

भानुः शशीं भूमिसुतो बुधश्च। गुरुश्च शुकः सह भानुज्ञेन देवता तथा सूर्य, चन्द्रमा, मङ्गल, बुध, बृहस्पति, कुर्वन्तु सर्वे मम सुप्रभातम्॥ २३ | शुक्र और शनैश्चर ग्रह-ये सभी मेरे प्रात:कालको भूगुवसिष्ठः क्रतुरङ्गिराश्च

मङ्गलमय बनायें। भृगु, वसिष्ठ, ऋतु, अङ्गिरा, मनु, मनुः पुलस्त्यः पुलहः सगौतमः । | भ्यों मरीचिश्च्यवन ऋभुश्च पुलस्त्य, पुलह, गौतम, रेभ्य, मरीचि, च्यवन तथा कुर्वन्तु सर्वे मम सुप्रभातम् ॥ २४ | ऋभु-ये सभी (ऋषि) मेरे प्रात:कालकों मङ्गलमय सनत्कुमारः सनक सनन्दनः । बनायें। सनत्कुमार, सनक, सनन्दन, सनातन, आसुर, सनातनोंऽप्यासरिपिङ्गल छ। | सप्त स्वराः सप्त रसातलाश्च पिङ्गल, सातों स्वर एवं सातौं रसातल -ये सभी

कुर्वन्तु सर्वे मम सुप्रभातम् ॥ २५ | मेरे प्रात:कालको मङ्गलमय बनायें ॥ २२–२५  पृथ्वी सगन्धा सरसास्तथापः || ‘गन्धगुणयाली पृथ्वी, रसगुणवाला जल,

स्पर्शश्च वायुम्वलनः सतेजाः । स्मगपाखाली चाय वाली अ. प्रासाला | नभः सशब्दं महता सदैव आकाश एवं महत्तत्व-ये सभी मेरे प्रात:कालको यच्छन्तु सर्वे मम सुप्रभातम् ॥ ३६  सप्तावाः सप्त कुलाचलाश्च

 

मङ्गलमय बनायें। सात समुद्र, सात कुलपर्वत, | सप्तर्षयो द्वीपवराश्च सप्त।

सप्तर्ष, सातों श्रेष्ठ द्वीप और भू आदि सात भूरादि कृत्वा भुवनानि सप्त लोक -ये सभी प्रभातकालमें मुझे मङ्गल प्रदान

ददन्तु सर्वे मम सुप्रभातम् ॥ ३॥ | करें। इस प्रकार प्रात:कालमें परम पवित्र सुप्रभात | इत्थं प्रभाते परमं पवित्रं । | स्तोत्रको भक्तिपूर्वक पढ़े, स्मरण करे अथवा सुने । पठेत् स्मरेद्वा शृणुयाच्च भक्त्या।

निष्पाप! ऐसा करनेसे भगवानको कृपासे निश्चय ही | दुःस्वप्ननाशोऽनघ सुप्रभात

उसके दुःस्वप्नका नाश होता है तथा सुन्दर प्रभात भर्वोच्च सत्यं भगवत्प्रसादात् ॥ २८ समुत्थाय विचिन्तयेत होता है। उसके बाद उठकर धर्म तथा अर्धके धर्मं तथार्थं च विहाय शय्याम्।।

| विषयमें चिन्तन करे और शय्या त्याग करनेके बाद उत्थाय पश्चाद्धरिरित्युदयं ‘हरि’ का नाम लेकर उत्सर्ग-विधि (शौच आदि) गच्छेत् तदोत्सर्गविधिं हि कर्तुम् ॥ २१ | करनेके लिये जाय ॥ २६-३९ ।। न दैवगोब्राह्मणवह्निमार्गे मल-त्याग देवता, गौ, ब्राह्मण और अग्निके न राजमार्गे ने चतुष्पथे च। | मार्ग, राजपथ (सड़क) और चौराहेपर, गौशालामें कुर्यादथोत्सर्गमपीह गोष्ठे तथा पूर्व या पश्चिम दिशाकी और मुख करके न पूर्वापरां चैव समाश्रितो गाम्॥ ३०

करें। मलत्यागके बाद फिर शुद्धिके लिये मिट्टी ततस्तु शौचार्थमुपान्मृदं

गुर्दे त्रयं पाणितले च सप्त। ग्रहण करें और मलद्वारमें तीन बार, बाएँ हाथमें तथभयोः पञ्च चतुस्तथैका

सात बार तथा दोनों हाथों में इस बार एवं लिङ्गमें लिङ्गे तथैकां मृदमाहरेत् ॥ ३१ ॥

एक बार मिट्टी लगाये। राक्षस! सदाचार ज्ञाननेवाले नान्तर्जलाद्राक्षस मूषिकस्थला मनुष्यकों ज्ञलके भीतरसे, चूहेकी विलसे, दूसरोके

च्छौचाबशिष्टा शरणात् तथान्या। | शौचसे बची हुई एवं गृहसे मिट्टी नहीं लेनी

अध्याय १४]

* दशाङ्ग अर्म, आश्चमधर्म और सदाचारस्वरूपका वर्णन

वल्मीकमृच्चापि हि शौचनाय | | चाहिये। दीमकको बाँबसे भी शुद्धिके लिये मिट्टी

ग्राह्या सदाचारबिदा नर ।। ३३ | नहीं लेनी चाहिये। विहान पण पैर धोनेके पश्चात् उदङ्मुखः प्राङ्मुखो वापि विद्वान् ।

प्रक्षाल्य पादौ भुवि संनिविष्ठः। | उत्तर या पूर्वमुख बैठकर फैनरहित जनसे पहले | समाचमैदभिरफेनिलाभि | मुखको दो बार धोयें फिर धोनेके बाद आचमन रादौ परिमृज्य मुखं द्विरद्भिः ।। ३३ करे ॥ ३०–३३॥ | ततः स्पृशेखानि शिरः करेण आचमन करनेके बाद अपनी इन्द्रियों तथा | संध्यामुपासीत ततः क्रमेण। सिरको हाथसे स्पर्शकर क्रमशः केश-संशोधन, दन्तधावन केशांस्तु संशोध्य च दन्तधावनं एवं दर्पण-दर्शनकर संध्योपासन करे। शिर:स्नान कृत्वा तथा दर्पणदर्शनं च।। ३४ कृत्वा शिरःसानमधाङ्गिक  (सिरसे पैरतक स्नान) अथवा अर्धस्नान कर पितरों वा संपूज्य तोयेन पितृन् सदेवान्।

एवं देवताओंका जलसे पूजन करनेके पश्चात् हवन होमं च कृत्वालभनं शुभानां एवं माङ्गलिक वस्तुओं का स्पर्श कर बाहर निकलना कृत्वा बहिर्निर्गमनं प्रशस्तम्॥ ३५ ॥प्रशस्त होता है। दूर्वा, दधि, घृत, जलपूर्ण कलश, दूर्वादधिसर्पिरथोदकुम्भं । बछडेके साथ गाय, बैल, सुवर्णं, मिट्टी, गोबर,

धेनुं सवत्सां वृषभं सुवर्णम्।।

स्वस्तिक चिह्न (F), अक्षत, लाशा, मधुका स्पर्श मूगोमयं स्वस्तिकमक्षतानि ।

करे और ब्राह्मणको कन्या एवं सूर्यबिम्बका दर्शन | लाजामधुम्राह्मणकन्यकां च ।। ३६ श्वेतानि पुप्पाग्यश्च शोभनानि ।

करें तथा सुन्दर श्वेतपुष्य, अग्नि, चन्दनका दर्शन हुताशनं चन्दनमकैबिम्बम्।। कर अश्वत्थ (पीपल) वृक्षका स्पर्श करनेके बाद अश्वत्धवृक्षं च समालभेत् । अपने शाति धर्म (अपने वर्णके लिये नियतकर्म)

ततस्तु कुर्यान्निजातिधर्मम् ॥ ३७ | का पालन करें ।। ३४-३७ ॥ देशानुशिष्टे

कुलधर्ममयं देश-विहित धर्म, श्रेष्ठ कुलधर्म और गोत्रधर्मका स्वगोत्रधर्मं न हि संत्यत। त्याग नहीं करना चाहिये, उससे अर्थक सिद्धि तेनार्थसिद्धि

समाचरेत करनी चाहिये। असत्प्रलाप, सत्यरहित, निष्ठुर और नासत्प्रलापं न च सत्यहींनम् ॥ ३८. ॥ निष्ठर नागमशास्त्रहीन वेद-आगमशास्त्र असंगत वाक्य कभी न कहे, | वाक्यं वदेसाधुजनेन ग्रेन।  जिससे साधुजनों द्वारा निन्दित होना पड़े। किसके निन्द्यो भवेन्नैव च धर्मभेदी । धर्मको हानि न पहुँचायें एवं बुरे लोंगका सङ्ग भी ङ्गं न चासत्सु नरेषु कुर्यात् ॥ ३९ | न करें। वीर! सन्ध्या एवं दिनके समय रति नहीं संध्यासु व सुरतं दिवाकरनी चाहिये। सभी योनियोंकी परस्त्रियोंमें, गृहहीन सर्वासु योनीषु परायलासु।। आगारशून्येषु

महतलेष पृथ्वीपर, रजस्वला स्त्री तथा जलमें सुरतच्यापार रजस्वलास्वैव जलेषु बीर॥ ४० ॥

वर्जित है। गृहस्थको व्यर्थ भ्रमण, व्यर्थ दान, व्यर्थ वृधाश्टर्न बृधा दानं वृथा च पशुमारणम्।। पशुवध तथा व्यर्थ दार-परिग्रह न करना । न कर्त्तव्यं गृहस्थेन वृथा दारपरिग्रहम् ।। ४१ | चाहिये ॥ ३८–४१ ॥

व्यर्थ घूमनेसे नित्यकर्मकी हानि होती है तथा वृथा वृथाटनान्नित्यहानिर्वथादानाद्धनक्षयः । | दानसे धनकी हानि होती है और वृथा पशुवध करनेवाला वृथा पशघ्नः प्राप्नोति पातकं नरकप्रदम् ॥ ४२ | नरक प्राप्त करानेवाले पापको प्राप्त होता है। अवैध को श्रीवामनपराग

[ अध्याय १४

संतत्त्या हानिरश्लाघ्या वर्णसंकरतौ भयम्। | स्त्री-संग्रहसे सन्तानकी निन्दनीय हानि, वर्णसांकर्यका | मैतव्यं च भवेन्लोके वृथादारपरग्रहातु ॥ ४३ | भय तथा लोकमें भी भय होता है। उत्तम व्यक्ति परधन | परस्बे परदारे च न काय बदित्तमैः। | तथा परस्त्रीमें बुद्धि न लगायें। परधन नरक देनेवाला | परस्वं नरकायैव और परस्त्री मृत्युका कारण होती हैं। परस्त्रीको परदाराश्च मृत्यचे॥ ४४ |

नग्नावस्थामें न देखें, चोरोंसे बातचत न करे एवं नेक्षेत् परस्त्रियं नग्न न सम्भाषेत तस्करान्। । रजस्वला रुजींकों न तों देखें, न उसका स्पर्श हीं करे उदक्यादर्शनं स्पर्श संभाषं च विवर्जयेत् ॥ ४५ | और न उससे बातचीत ही करे ॥ ४२-४५ ॥ नैकासने तथा स्थैर्य सौंदर्या परज्ञायया। । अपनी बहन तथा परस्त्रीके साथ एक आसनपर तथैव स्यान्न मातुश्च तथा स्वदुहितुस्त्वपि ॥ ४६ | न बैठे। इसी प्रकार अपनी माता तथा कन्याके साथ भी एक आसनपर न बैलें। नग्न होकर स्नान और शयन न न च स्नायीत वै नग्न न शयीत कदाचन। | करे। वस्त्रहीन होकर इधर-उधर न घूमें, टूटें आसन दिग्वासस्रोऽपि न तथा परिभ्रमणमष्यते।। और बर्तन आदिको अलग रख दें। नन्दा ( प्रतिपद्, पाँ भिन्नासनभाजनादीन् दूरतः परिवर्जयेत् ॥ ४७ | और एकादशी) तिथियों में तेलसे मालिश न करे, रिक्ता (चतुर्थी, नवमी और चतुर्दशी) तिथियोंमें और कर्म न नन्दास नाभ्यङ्गमुपाचरेत करे (न करायें ) तथा जया (तृतीया, अष्टमी और | क्षौरं च रिक्तासु जयासु मांसम्। प्रयोदशी) विधियोंमें फलका गूदा नहीं खाना चाहिये। पूर्णासु योषित्परिवर्जयेत पूर्णा (पञ्चमी, दशमी और पूर्णिमा तिथियोंमें स्त्रका भद्रासु सर्वाणि समाचरेत् ॥ ४८ | सम्पर्क न करे तथा भद्रा (द्वितीया, सप्तमी और द्वादशी)

तिथियोंमें सभी कार्य करें। रविवार एवं मङ्गलवारकों नाभ्यङ्गमर्के न च भूमिपुत्रे तेलकी मालिश, शुक्रवारको क्षौरकर्म नहीं कराना क्षौरं च शुक्रे रविजे च मांसम् ।।

चाहिये (न करना चाहिये) । शनिवारको फलका गूदा न बुधेषु योषिन्न समाचरेत् । खायें तथा बुधवारकों स्त्री यूँ हैं। शैघ दिनों में सभी

शेषेषु सर्वाणि सदैव कुर्यात् ॥ ४९ | कार्यं सदैय कर्तव्य हैं ॥ ४६–४९ ॥ चित्रासु हस्ते अवणे न तैले | चित्रा, हस्त और श्रवण नक्षत्रोंमें तेल तथा विशाखा ।

क्षौरं विशाखास्यभिजित्सु वर्म्यम्। | और अभिजित् नक्षत्रों में क्षौर-कार्य नहीं करना-कराना मूले मूगे भाद्रपदासु मांस । चाहिये। मूल, मृगशिरा, पूर्वाभाद्रपद और उत्तराभाद्रपदमें योपिन्मघाकृत्तिकयोत्तरासु ॥ ५ | गुदा-भक्षण तथा मघा, कृत्तिका और तीनों उत्तरा सदैव वयँ शयनमुदक्शिरा (उत्तराफाल्गुनी, उत्तराषाढ़ा, उत्तराभाद्रपदा)-में स्त्री

स्तथा प्रतीच्या रजनीचरेश। सहवास न करें। राक्षसाज्ञा ! उत्तर एवं पश्चिमक और भुञ्जीत नैवेह च दक्षिणामुखौ सिर करके शयन नहीं करना चाहिये। दक्षिण एवं न च प्रतींच्यामभिभोजनीयम् ॥ ५१ पश्चिममुख भोजन नहीं करना चाहिये। देवमन्दिर, चैत्य देवालयं चैत्यतर्फ चतुष्यचं वृक्ष, देवताके समान पूज्या पपल आदिके वृक्ष, चौराहे, विद्याधिकं चापि गुरु प्रदक्षिणम्।। अपनेसे अधिक विद्वान् तथा गुरुकी प्रदक्षिणा करे। माल्यानपानं बसनानि यत्नतो बुद्धिमान् व्यक्ति यत्नपूर्वक दूसरे के द्वारा व्यवहत माला, नायैधुतांश्चापि हिं धारयेद् बुधः ॥ ५२ अन्न और वस्त्रका व्यवहार न करे। नित्य सिरके स्नायाच्छिर:स्नानतया च नित्यं ऊपरसे स्नान करे। ग्रहोंपराग (ग्रहण समय) और न कारणं चैव विना निशास्। स्वजनकी मृत्यु तथा जन्म-नक्षत्रमें चन्द्रमाके रहने ग्रहोपरागे स्वजनापयाने अतिरिक्त समयमें रात्रिमें बिना विशेष कारण स्नान नहीं मुक्त्वा च जन्मसँगते शशाङ्के॥ ५३ | करना चाहिये। ५०–५३॥

अध्याय ४] के दशाङ्ग धर्म, आश्चम-धर्म और सदाचार स्वरुपका वर्णन

नाभ्यङ्गितं | कायमुपस्पशेच्च । राक्षसेश्वर ! तेल-मालिश किये हुए किसीके शरीरका

स्नातो न केशान् विधुनीत चापि।

| स्पर्श नहीं करना चाहिये। स्नानके बाद बालोंको उसी गात्राणि चैवाम्बरपाणिना छ।

स्नातो चिमण्याद् रजनीचरेश॥ ५४ समय कंघीसे न झाड़े। मनुष्यको वहाँ रहना चाहिये वसेच्च देशेषु सुराज्ञकेषु

जहाँका राज्ञा धर्मात्मा हों एवं जनवर्गमें समता हो, लोग सुसंहितेष्वेव जनेषु नित्यम्। क्रोधी न हों, न्यायौ हों, परस्परमें द्वाह न हों, खेती अधना न्यायपरा अमत्सराः करनेवाले किसान और ओषधियाँ हों। जहाँ चतुर वैद्य,

कृषीवला ह्योषधयश्च यत्र ॥ ५५ धनी-मानी दानी, श्रेष्ठ श्रोत्रिय विद्वान् हों वहाँ निवास श्वापस्तु वैद्यों धनिकश्च यत्र करना चाहिये। जिस देशका राज्ञा प्रज्ञाको मात्र दण्ड हीं सच्छौनियस्तत्र वसंत नित्यम् ॥ ५६ न तेषु देशेषु वसेत बुद्धिमान्

देना चाहता हों तथा उत्सवोंमें जन-समाजमैं नित्य सदा पो दण्डरुचिस्वशः।

| किसी-न-किस प्रकारका वैर-विद्वेष हो एवं लड़ाई | जनोऽपि नित्योत्सवबद्धवैरः । झगड़ा करनेकी ही लालसा हो, निर्वल मनुष्यको ऐसे सदा जिगीषुश्च निशाचरेन्द्र ।। ५७ स्थानपर नहीं रहना चाहिये ।। ५४५३ ।।

यस ः । ऋषियोंने कहा- महाबाहों ! जो पदार्थ धर्मात्मा यच्च वयं महाबाहों सदा धर्मस्थितैनरः। | व्यक्तियोंके लिये सदैव त्याज्य हैं एवं जो भोज्य हैं, यद् भोज्यं च समुद्दिष्टं कथयिष्यामहे वयम्॥ ५८ | | हम उनका वर्णन कर रहे हैं। जैन, घौं आदि स्निग्ध पदार्थों पकाया गया अन बासों एवं बहुत पहलेका बने हुनैपर भी भोंग्य (झानेयोग्य) है तथा सुखें भूनें | भौज्यमन्नं पर्युषितं स्नेहाक्तं चिरसंभृतम्। | हुए चावल एवं दुधकै विकार –दही, घी आदि भी | स्नेहा नीहयः लक्ष्गा विकाराः पयसस्तथा।। ५१ | बासी एवं पुराने होनेपर भी भक्ष्य-खानेयोग्य हैं। इसी प्रकार मनुने चने, अरहर, मसूर आदिके भूने (तले ) हुए दालकों भी अधिक कानातक भोजनके योग्य तद्वद् द्विदलकादीनि भोन्यानि मनुरब्रवीत् ।। ६० | | बतलाये है | 14 -६ ॥ मणिरत्नम्नवालानां तद्वन्मुक्ताफलस्य च।। | (हाँसे आगे अब दुव्य-शुद्धि बतलाते हैं। मणि, शैलदारुमयानां च तृणमूलौषधान्यपि ॥ ६१ | | उत्त, प्रवाल (मंगा, मोती, पत्थर और कड़ाके अने

बर्तन, ग, मुना था ऑभियाँ, सप । दान, धान्य, शूर्पधान्याज्ञिनानां च संहतानां च वाससाम्।।

मृगचर्म, सिले हुए वस्त्र एवं वृक्षोंके सभी छाती वल्कलानामशेषाणामम्बुना शुद्धिरिष्यते ॥ ६३ | शुद्ध जलसे होती है। तैल-घृत आदिसे मलिन बस्त्रक सस्नेहानामथोष्णेन तिलकल्केन वारिणा।। शह उष्ण ज्ञज्ञ तथा तिल-कन्क (तालीं-में एवं कपासक वस्त्रोंकी शुद्धि भस्मसे पत्थर कोयले आदिको कापसिकानां वस्त्राणां शुद्धिः स्यान्सह भस्मना ।। ६३ | राख्रसे) होती हैं। हाथीके दाँत, ही और सींगकी बनीं। नागदन्तास्थिशृङ्गाणां तक्षणाच्छुद्धिरिष्यते।।

शौकी शुद्धि तराशनेको (खरादनेसे होती हैं। मिट्टी बर्तन पुनः आगमैं जलाने से शुद्ध होते हैं। भिक्षान्न, पुनः पाकेन भाड़ानां मृण्मयानां च मेध्यता ।। ६४ | कारीगरोंका हाथ, विक्रेय वस्तस्त्री-मुख, अज्ञात वस्तु, न झा | झामके मध्य मार्ग या चौराहे से लास नेवारनौं तथा अभ्यागतमविज्ञातं दासवर्गेण यत्कृतम् ॥ ६५

नौकरों द्वारा निर्मित वस्तुएँ पवित्र मानी गयीं हैं। वचनद्वारा प्रशसित, पुराना, अनेकानेक ज्ञनसे होती हुई लाखौं वाप्रशस्तं चिरातीतमनेकान्तरितं लघु।। | ज्ञानेवाली छोटी वस्तुएँ, बालकों और वृद्धोंदारा किया चेष्टितं बालवृद्धानां बालस्य च मुखं शुचि ॥ ६६ | गया कर्म तथा शिशुको मुख शुद्ध होता है ॥ ६१-६६ ।।

 [ अध्याय १४

कर्मान्ताङ्कारशालासु स्तनधयसुताः स्त्रियः। । कर्मशाला, अन्तर्गृह एवं अग्निशालामें दुधमुंहे बच्चोंकों वाग्विनुष द्विजेन्द्राणां संतप्ताश्चाबन्दवः ॥ ६७ लीं हुई स्त्रियाँ, सम्भाषण करते हुए विद्वान् ब्राह्मणों के मुखके छींटे तथा उष्ण अलके बिन्दु पवित्र होते हैं। भूमिर्विशुध्यते खातदाहमार्जनगोक्रमैः।।

पृथ्वीको शुद्ध खोदने, ज्ञलाने, झाड़ देने, गौओंके चलने, लौंपने, खरोंचने तथा साँचनेसे होती हैं और गृहक शुद्ध लेपादुल्लेखनात् सैका वेश्मसंमार्जनार्चनात् ॥ ६८

झाड़ देने, जलके छिड़कने तथा पूजा आदिसे होती हैं। कॅश, कांट पड़े हुए और मक्खीके बैंद्ध ज्ञानेपर तथा गायके केशकीटावपनेऽन्ने गोध्राते मक्षिकान्छिते।।

द्वारा मुँचे ज्ञानेपर अन्नकी शुद्धिके लिये उसपर जल, मृदम्बुभस्मक्षाराणि प्रक्षेप्तच्यानि शुद्धये ।। ६१ | भस्म, क्षार या मृत्तिका छिडकनी चाहिये। ताम्रपत्रक शुद्धि खटाईसे, जस्ते और शीशेकौं क्षारके द्वारा, कसैको औदम्बराणां चाम्लेन क्षारेण पुसीसयो:।। | वस्तुएँ भस्म और जलके द्वारा तथा तरल पदार्थ कुछ भस्माम्बुभिश्च कांस्यानां शुद्धिः प्लावों द्वस्य च ।। 92 | अंशकौं बहा देनेसे शुद्ध हो जाते हैं ॥ ६५-७० ॥ अमेध्याक्तस्य मृत्तोयैर्गन्धापरणेन च। | अपवित्र वस्तुसे मिले पदार्थ जल और मिट्टीसे अन्येषामपि द्व्याणां शुद्धिर्गन्धापहारतः ॥ ७१ | धोने तथा दुर्गन्ध दूर कर देनेसे शुद्ध होते हैं। अन्य (गन्धवाले) पदार्थोकीं शुद्ध भी गन्ध दूर करनेसे होती मातुः प्रस्रवणे वत्सः शकुनिः फलपातने।

है। माताकै स्तनको प्रस्तुत कराने (पैन्हाने)-में बछड़ा, गर्दभ भारवाहित्वं श्वा मृगग्नणे शुचिः ॥ ५२ ॥

वृक्षसे फल गिरानेमें पौ, बझा नेमें गधा और शिकार पकड़नेमें कुत्ता शुद्ध (माना गया है। मार्गके कीचड़ और जल, नाव तथा रास्तेको घास, तृण एवं पके हुए उभ्याकर्दमतोयानि नाबः पथि तृणानि च।।

ईंटोंके समूह वायुके द्वारा ही शुद्ध हो जाते हैं। यदि एक मारुतेनैव शुद्धयन्ति पक्केष्टकचितानि च ॥ ७३

द्रोण (ढाई सॅरसे अधिक) पके अन्नकै अपवित्र वस्तुसे सम्पर्क हो जाय तो उसके ऊपरका अंश निकाल कर शृतं द्रोणाढकस्यान्नममेध्याभिप्लुतं भवेत्।

फेंक देना एवं शेषपर जल छिड़क देना चाहिये। इससे अग्नमुद्धृत्य संत्याच्यं शेषस्य प्रोक्षणं स्मृतम् ॥ ६४ उसकी शुद्धि हो जाती है। अज्ञातरूपसे दूषित अन्न खा लेनेपर तीन रातिक उपवास करनेसे शुद्धि हो जानेका उपवासं त्रिरात्रं वा दुषितानस्य भोजने। | विधान है, किंतु जान-बूझकर दूषित अन्न खानेपर शुद्धि अज्ञाते ज्ञातपूर्वे च नैव शुद्धिर्विधीयते ॥ ७५ | नहीं हो सकती ।। ७१–७५ ॥ उदक्याश्चाननग्नश्च सूतिकान्त्यावसायिनः। रजस्वला स्त्री, कुत्ता, नग्न (दिगम्बर साधु), स्पृष्ट्वा स्नायत शौचाईं तश्चैव मृतारिणः ॥ ७६ | प्रसूता स्त्री, चाण्डाल और शववाहकका स्पर्श हो जानेपर, अपवित्र हुए व्यक्तिको पवित्र होनेके लिये स्नान करना चाहिये। मज्जायुक्त इके छु जानैपर बस्त्रसहित

स्नान करना चाहिये, किंतु सूखी हीका स्पर्श होनेपर सस्नेहमस्थ संस्पृश्य सवासाः स्नानमाचरेत्।। आचमन करने, गों-स्पर्श तथा सूर्यदर्शन करनेमाप्रसे ही आचम्यैव तु नि:स्नेहं गामालभ्यार्कमीक्ष्य च ।। ७७ | शुद्धि हो जाती हैं। विष्ठा, रक्त, थूक एवं उबटनका १-व्यशुद्धिका यह प्रकरण मनुस्मृति ५॥ ११३-१४६ तथा साज्ञवल्क्यस्मृति १ ॥ १८-१९ आदिमें भी प्रायः इस भावका है। ३=पद्मपुराण आदिमें मग्न-मवपाक प्रश्नोत्तर इष्टव्य है।

अध्याय १४]

के दशा धर्म, आम-धर्म और सदाचार-स्वरूपका वर्णन न लङ्येत्पुरीषासृष्ठीबनोद्वर्तनानि च। | उल्लङ्घन नहीं करना चाहिये। जूठे पदार्थ, विष्ठा, मूत्र गृहाच्छिष्टविण्मूत्रे पादाम्भांसि क्षिपेद बहिः ॥ ७८ | एवं पैर धोनेके जलको घरसे बाहर फेंक देना चाहिये। दूसरेके द्वारा निर्मित बावली आदिमें मिट्टीके पाँच टुकड़क निकालें बिना स्नान नहीं करना चाहिये। पञ्चपिण्डानन्धून्य १ लायात् परवारिणि। | (मुख्यत:) देव-निर्मित झीलोंमें, ताल-तलैयों और स्नायीत देवखातेषु सरोह्रदसरित्सु च ॥ ७९ | नदियों में स्नान करना चाहिये ॥ ७६-७९ ॥ नोद्यानादौ विकालेषु प्राज्ञस्तिष्ठेत् कदाचन।। बुद्धिमान् पुरुष बाग-बगीचोंमें असमयमें कभी न नालपेन्शनविद्विष्टं वीरहीनां तथा स्त्रियम् ॥ ८७ | इहरे। लोगोंसे द्वेष रखनेवाले व्यक्ति तथा पति-पुत्रसे

रहित स्त्रीसे वार्तालाप नहीं करना चाहिये। देवता, पितरों, भले शास्त्रों (पुराण, धर्मशास्त्र, रामायण आदि), यज्ञ एवं वेदादिके निन्दकका स्पर्श और

उनके साथ वार्तालाप करनेपर मनुष्य अपवित्र हो देवतापितृसच्छास्त्रयज्ञवेदादिनिन्दकैः । | जाता है, वह सूर्यदर्शन करनेपर शुद्ध होता है। उसकी कृत्वा तु स्पर्शमालाप शुद्धयते कर्मावलोकनात् ॥ ८१ | शुद्धि भगवान् सूर्यके समक्ष उपस्थान करके अपने किये हुए स्पर्श और वार्तालाप कर्मके त्याग तथा पश्चात्ताप करनेसे होती हैं। सूतक, नपुंसक, बिलाव, चहा, कुत्ते, मुर्गे, पतित, नग्न (विधर्मी) (इनके लक्षण गे बतलाये जायेंगे) समाज्ञसे बहिष्कृत और ज्ञों अभोज्या: सूतिकाषाढमार्जाराखुश्वकुक्कुटाः।। चाण्डाल आदि अधम प्राण हैं उनके यहाँ भोजन नहीं पतितापविद्धनग्नाश्चापड़ालाधमाश्च ये॥ ८२ | करना चाहिये ।। ८१-८२ ।।

 

सुकेशिवाय

सुकेशि बोला- ऋषियों! आप लोगोंने जिन भवद्भिः कीर्तिताऽभोज्या य एते सूतिकादयः।।  सूतिक आदिका अन्न अभक्ष्य कहा है, मैं उनके लक्षण अमषां औतुमिच्छामि तत्चत लक्षणानि हि॥ ८३ | बिस्तारसे सुनना चाहता हूँ॥ ८३ ॥

काय ऊचुः

ऋषियोंने कहा- सुकेशि! अन्य ब्राह्मणके साथ ब्राह्मणी ब्राह्मणस्यैव याऽवरोधत्वमागता। ब्राह्मणीके व्यभिचरित होनेपर उन दोनोंको ही ‘सूतिक तावुभौ सूतिकेयुक्त तयोरन्नं विगर्हितम्॥ ८४ | कहा जाता है। इन दोनोंका अन्न निन्दित हैं। उचित समयपर हुवन, स्नान और दान न करनेवाला तथा पितरों न जुहोत्युचितें कालें न स्नाति न ददाति च।। एवं देवताओं की पूजासै रहित व्यक्तिको हीं यहाँ ‘पद्ध’ पितृदेवार्चनाधीनः स घपढ़: परिगयिते ।। ८५ | या नपसक कहा गया है। दम्भके लिये जप, तप और दम्भार्थं जपते यश्च तप्यते यजते तथा।

| यज्ञ करनेवाले तथा परलोकाचं उद्योग न करनेवाले न परार्थमुद्युक्तों से मार्जारः प्रकीर्तितः ।। ८६ |

| व्यक्तिको यहाँ ‘मार्जार’ या ‘बिलाव’ कहा गया है।

| ऐश्वर्यं रहते हुए भौग, दान एवं वन न करनेवालेको विभवे सति नैवात्ति न ददाति जुहोति च। || आख’ (‘चूहा) कहते हैं। उसका अन्न खानेपर मनुष्य तमाहुराखें तस्यानं भुक्वा कृच्छ्ण शुद्ध्यति ।। ८७ | कृच्छ्ात करनेसे शुद्ध होता है ॥ ८४-८७ ॥ के वामनपुराण में

 

[ अध्याय १४

यः परेषां हि मर्माणि निकृन्तन्निव भाषते। | दूसरोंका मर्म भेदन करते हुए बातचीत करनेवाले नित्यं परगुणद्वेषो स श्वान इति कथ्यते ॥ ८८ | तथा दूसरेके गुणों से द्वेष करनेवालेको ‘ श्वान’ या ‘कुत्ता’ कहा गया हैं। सभामें आगत व्यक्तियोंमें जो सभ्य सभागतानां यः सभ्यः पक्षपाते समाञ्जयेत् । व्यक्ति पक्षपात करता है, उसे देवताओंने ‘कुक्कुट तमाः कुक्कुट दबास्तस्याप्यन्न बिगहितम् ॥ ८१ | मग) कहा है, उसका भी अन्न निन्दिा हैं। विपत्तिकालकै स्वधर्मं यः समुत्सृज्य परधर्म समाश्रयेत् । अतिरिक्त अन्य समयमें अपना धर्म छोड़कर दूसरे का धर्म ग्रहण करनेवालेकों विद्वानोंने ‘पतित’ कहा है। | अनापदि स विद्वभिः पतितः परकीयते ॥ १३ ॥

देवत्यागौं, पितॄत्यागी, गुरुभक्तिसे विमुख तथा गों, ब्राह्मण देवत्यागीं पितृत्यागी गुरुभक्त्यरतस्तथा।। | एवं स्त्रोंकी हत्या करनेवालेको ‘अपविद्ध’ कहा जाता गोझाह्मणस्त्रीवधकृदपविद्धः स कीयते ॥ ११ | है॥ ८८-११ ॥ येषां कुलेन वेदोऽस्ति न शास्त्रं नैव च नृतम्। | जिनके कुलमैं वैद, शास्त्र एवं भ्रात नहीं हैं, उन्हें ते नग्नाः कीर्तिताः सद्भिस्तेषामन्नं विगर्हतम्॥ ९२ | सज्जन लोग ‘नग्न’ कहते हैं। उनका अन निन्दित है।

आशा रखनेवालौंको न देनेवाला, दाताको मना करनेवाला आशार्तानामदाता च दातुश्च प्रतिषेधकः।

तथा शरणागतका परित्याग करनेवाला अधम मनुष्य शरणागतं यस्यञ्जति स चापड़ालोऽधमो नरः ।। ९३ | ‘चाण्डाल’ कहा जाता है। बान्धयों, साधुओं एवं याँ बान्धवैः परित्यक्तः साधुभिह्मणैरपि। ब्राह्मणोंसे त्यागा गया तथा कुण्ड़ (पतके जीवित कुण्डाशयश्च तस्यान्नं भुक्त्वा चान्द्रायणं चरेत् ॥ १४

चन रहनेपर परपुरुषसे उत्पन्न पुत्र-के यहाँ अन्न खानेवालेको चान्द्रायण व्रत करना चाहिये। नित्य और नैमित्तिक कर्म यो नित्यकर्मणो कानिं कुर्यानैमित्तिकस्य च। न करनेवाले व्यक्तिका अन्न खानेपर मनुष्य तीन राततक भुक्त्वान्नं तस्य शुद्धयेत त्रिरात्रोपोषितों नरः ॥ १५ | उपवास करनेसे शुद्ध होता है। १२-१५ ॥ गणकस्य निषादस्य गणिकाभिषज्ञोस्तथा।। गणक (ज्योतिष), निषाद (मल्लाह), वेश्या, कदर्यस्यापि शुद्ध्येत त्रिरात्रोपोषितों नरः ॥ १६ वैद्म तथा कुपणका अन्न खानेपर भी मनुष्य तीन दिन । उपवास करनेपर शुद्ध होता हैं। अरमें जन्म या मृत्यु नित्यस्य कर्मणो हानिः केवलं मृतज्ञन्मस्। होनेपर नित्यकर्म रुक जाते हैं, किंतु नैमित्तिक कर्म न तु नैमित्तिकोंच्छेदः कर्तव्यों हि कथंचन ॥ १७ | कभी बंद नहीं करना चाहिये। भगवान् भृगुने कहा है।

कि पुत्र उत्पन्न होनेपर पिताके लियें एवं मरणमें सभी जाते पुत्रे पितुः स्नानं सचैलस्य विधीयते। । बन्धुओंके लिये चक्के साथ स्नान करना चाहिये। मृते च सर्वबन्धूनामित्याह भगवान् भृगुः ॥ १८ ग्रामके बाहर शायदाह करना चाहिये। शवदाह करने के बाद सगोत्र लोग प्रेतके उद्देश्यसे जलदान (तिलाञ्जलि) प्रेताय सलिले देयं बहिर्दग्ध्या तु गौत्रज्ञैः। । करें तथा पहले दिन या चौथे अथवा तीसरे दिन अस्थि प्रथमेल्लि चतुर्थे वा सप्तमें वाऽस्थिसंचयम्॥ १९ चयन करें ॥ १६–१९ ॥

अस्थि-चयनके बाद अङ्ग-स्पर्शका विधान हैं। शुद्ध होकर सदकों (चौदह पौड़ीके अन्तर्गतके लोगों) एवं सपिण्ञों (सात पीके अंदरके लोगों)-कों ऊर्ध्वं संचयनातेषामङ्गस्पर्शी विधीयते।। ऑर्खदैहिक क्रिया (मरनेके बाद की जानेवाली विहित सौदकैस्तु क्रिया कार्या संशुदैस्तु सपिण्डजैः ।। १०० | क्रिया) करनी चाहिये। है बर ! 

 

आमधर्म और सदाचार म्यामका वर्णन

विषोद्वधनशस्त्राम्बुवह्निपातमृतेषु च। | जल, अग्नि और गिरनेसे मृत्यु होनेपर तथा बालक, बाले प्रव्राज्ञि संन्यास देशान्तरमृते तथा ॥ १०१ | परिव्राज्ञक, संन्यासीकी एवं किसी व्यक्तिको दूर देशमें मृत्यु होनेपर तत्काल शुद्धि हो जाती हैं। वह शुद्ध भी सद्यः शौचं भवेद्वीर तच्चाप्युक्तं चतुर्विधम्। चार प्रकारको कही गयी है। गर्भस्रावमें भी शीघ्र ही गर्भस्रावे तदेवोक्तं पूर्णकालेन चेतरे ॥ १०२ | शुद्धि होती है। अन्य अशौच पूरे समयपर ही दूर होते

हैं। (वह सद्यः शौच) ब्राह्मणोंका एक अहोरात्रका, ब्राह्मणानामहोरात्र क्षत्रियाणां दिनत्रयम्। | क्षत्रियका तीन दिनोंका, वैश्योंका छः दिनका एवं घङ्गात्रं चैव वैश्यानां शूद्राणां द्वादशाह्निकम् ॥ १०३ | शूद्रोंका बारह दिनोंका होता हैं ॥ १०-१२३ ।। दशद्वादशमासार्द्धमाससंख्यैर्दिनैश्च तैः। । सभी वर्गों के लोग (आह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और स्वा: स्वा: कर्मक्रयाः कुर्यु सर्वे वर्णायथाक्रमम्।। १०४ | शूद्र) क्रमशः दस, बारह, पंद्रह दिन एवं एक मासके

अन्तरपर अपनी-अपनी क्रियाएँ करें। प्रेतके उद्देश्यसे प्रेतमुद्दिश्य कर्त्तव्यमेकोद्दिष्टं विधानतः। ।

बिधि अनुसार एकोद्दिष्ट श्राद्ध करना चाहिये। मरनेके सपिण्डीकरण कार्य प्रेते आवत्सरान्तरे ॥ १०५ | एक वर्ष बीत ज्ञानेपर मनुष्यको सपिण्डीकरण श्राद्ध ततः पितृत्वमापने दर्शपूर्णादिभिः शुभैः ।।

करना चाहिये। उसके बाद प्रेत पितर हो जाने पर प्रीणनं तस्य कर्तव्यं यथा श्रुतिनिदर्शनात् ॥ १०६

अमावास्या और पूर्णिमा तिथिके दिन वेदविहित विधिसे इनका तर्पण करना चाहिये। राक्षस! पिताके उद्देश्यसे पितुरर्थं समुद्दिश्य भूमिदानादिकं स्वयम्।। स्वयं भूमिदान आदि करे, जिससे पितृगण इसके ऊपर कुर्यात्तेनास्य सुप्रीताः पितरो यान्ति राक्षस ॥ १०७ | प्रसन्न हो जायें॥ १०४-१०७ ॥ यद् यदिष्टतमं किंचिद् यच्चास्य दृषितं गृहे। व्यक्तिको जीवित-अवस्थामें अमें जो-जों तत्तद् गुणवते देयं तदेवाक्षयमिच्छता ॥ १०८ | पदार्थ उसको अत्यन्त अभिलषित एवं प्रिय रहा हो, उसकी अक्षयताकी कामना करते हुए गुणवान् पात्रकों दान दैना चाहिये। सदा यी अर्थात् ऋक्, यजुः अध्येतव्या त्रयी नित्यं भाव्यं च विदुषा सदा।। | और सामवेदका अध्ययन करना चाहिये, विद्वान् धर्मतों धनमाहार्यं यष्टयं चापि शक्तितः ॥ १०९ बनना चाहिये, धर्मपूर्वक धनार्जन एवं यथाशक्ति

यज्ञ करना चाहिये। राक्षस! मनुष्यको जिस कार्यके करनेसे कर्ताकी आत्मा निन्दित न हों एवं जो कार्य यच्चापि कुर्वतो नात्मा जुगुप्सामेति राक्षस।। बड़े लोगोंसे छिपाने योग्य न हो ऐसा कार्य तत् कर्त्तव्यमशन बन गोप्यं महाजने ॥ ११० | नि:शङ्क (आसक्तिरहरा) होकर करना चाहिये। इस प्रकारके आचरण करनेवाले पुरुषके गृहस्थ होनेपर भी उसे धर्म, अर्थ एवं कामकी प्राप्ति होती हैं तथा यह एवमाचरत लोके पुरुषस्य गृहे सतः।। व्यक्ति इस लोक और परलोकमें कल्याणका भागी धर्मार्थकामसंप्राप्तिं परह च शोभनम् ॥ १११ | होता हैं ॥ १०८-१११ ॥

ऋषियोंने सुकेशिसे कहा- सुकेशि! अबतक एष तूद्देशतः प्रोक्तो गृहस्थाश्रम उत्तमः। | इमने संक्षेपमें उत्तम गृहस्थाश्रमका वर्णन किया है। वानप्रस्थाश्रमं धर्म प्रवक्ष्यामोऽवधार्यताम्॥ ११२ | अब हम वानप्रस्थ-आश्रमके धर्मका वर्णन करेंगे, उसे

श्रीवामनपुराण

[ अध्याय १४

अपत्यसंततिं दृष्ट्वा प्राज्ञो देहस्य चानतिम्। । | ध्यानपूर्वक सुनो। बुद्धिमान् व्यक्ति पुत्रको संतान (पौत्र) वानप्रस्थाश्रर्म गच्छेदात्मनः शुद्धिकरणम् ॥ ११३ | और अपने शरीरको गिरती अवस्था देखकर अपने आत्माकी शुद्धिके लियें वानप्रस्थ-आश्नमको ग्रहण करें।

वहाँ अरण्यमें उत्पन्न मूल-फल आदिसें अपना जीवन तत्रारपयोपभोगैश्च तपोभिश्चात्मकर्षणम्।। यापन करते हुए तपारा शरीर-शोषण करें। इस आश्रम भूमौ शय्या ब्रह्मचर्यं पितृदेवातिथिक्रिया ॥ ११४ भूमिपर शयन, ब्रह्मचर्यका पालन एवं पितर, देवता तथा अतिथियोंकी पूजा करें। हुवन, तीनों काल —प्रातः,

मध्याह, सन्ध्याकाल-स्नान, जटा और मकलका धारण होमस्बिषवणं स्नानं जटावल्कलधारणम्। तथा वन्य फलोंसे निकालें इसका सेवन करे। यहीं वन्यस्नेहनिषेवित्वं वानप्रस्थविधिस्त्वयम् ॥ ११५ | वानप्रस्थ-आश्नमकी विधि है॥ ११३-११५ ॥

सर्वसङ्गपरित्यागों ब्रह्मचर्यममानिता।। [चतुर्थ आझम (संन्यास)-के धर्म में हैं- सभी जितेन्द्रियत्वमावासे नैकस्मिन् वसतिश्चिरम् ॥ ११६ | प्रकारको आसक्तियोंका त्याग, ब्रह्मचर्य, अहंकारका अभाव, जितेन्द्रियता, एक स्थानपर अधिक समपतक न अनारम्भस्तथाहारो भैक्षान्नं नातिकोपिता। रहना, उद्योगका अभाव, भिक्षान्न-भोजन, क्रोधका आत्मज्ञानावबौधेच्छा तथा चात्मावबोधनम्॥ ११७ | त्याग, आत्मज्ञानको इच्छा तथा आत्मज्ञान् । निशाचर ! चतुर्थे त्वाश्रमे धर्मा अस्माभिस्ते प्रकीर्तिताः। हमने तुमसे चतुर्थ-आश्रम (संन्यास-के इन धमका वर्णधर्माणि चान्यानि निशामय निशाचर ॥ ११८

वर्णन किया। अब अन्य वर्ण-धर्मोको सुनौं। क्षत्रियों लिये भी गार्हस्थ्य, ब्रह्मचर्य एवं वानप्रस्थ-इन तीन गार्हस्थ्यं ब्रह्मचर्य च वानप्रस्थं त्रयाश्चमाः। | आश्रमों एवं ब्राह्मणोंके लियें विहित आचारोंका विधान क्षत्रियस्यापि कथिता ये चाचारा द्विजस्य हि॥ ११९ | है॥ ११६-११९ ॥ | वैखानसत्वं गार्हस्थ्यमाश्रमद्वितयं विशः।। राक्षस ! बैंश्यजातिके लिये गार्हस्थ्य एवं वानप्रस्थ – | गार्हस्थ्यमुत्तमं चेकं शद्रस्य क्षणदाच ॥ १२p | इन दो आश्चमका विधान हैं तथा शूदके लिये एकमात्र स्वानि वर्णाश्रमोक्तानि धर्माणीह न हापयेत्।।

उत्तम गृहस्थ-आलमका ही नियम है। अपने वर्ण और यो झपयति तस्यासी परिकुप्यति भास्करः ॥ १२१॥

आश्चमके लिये विहित धर्मोंका इस लोकमें त्याग नहीं करना चाहिये। जो इनका त्याग करता है, उसपर सूर्य कुपितः कुलनाशाय ईश्वरो रोगवृद्धये।

भगवान् कृद्ध होते हैं । निशाचर] भगवान् भास्कर कुछ भानुर्वं यतते तस्य नरस्य क्षणदाचर ॥ १२२ ॥

होकर उस मनुष्यको रोगवृद्धि एवं उसके कुलका नाश तस्मात् स्वधर्मं न हि संत्यजेत । करनेके लिये प्रयत्न करते हैं। अतः मनुष्य स्वधर्मका

न हापर्येच्चापि हि नात्मवंशम्।। न तो त्याग करे और न अपने वंशकी हानि होने दें। यः संत्यज्ञेच्चापि निजं हि धर्म । जो मनुष्य अपने धर्मका त्याग करता है, उसपर भगवान् तस्मै प्रकुप्येत दिवाकरस्तु ॥ १२३ | सूर्य क्रोध करते हैं ॥ १२०-१२३॥ लग्न झवाङ्ग ।

पुलस्त्यजी बोले- मुनियोंके ऐसा कहनेके बाद इत्येवमुक्तो मुनिभिः सुकेशी

सुकेश उन ब्राह्मज्ञानी महर्षियोंको बारम्बार प्रणामकर प्रणम्य तान् ब्रह्मनिधनु महर्षीन्। जगाम चोत्पत्य पुरै स्वकीयं ।

धर्मका चिन्तन करते हुए उड़कर अपने पुरको चला मुहुर्मुहुर्धर्ममवेक्षमाणः ॥ १२४ | गया॥ १२४ ॥

इस प्रकार श्रीवामनपुराणमें चौदहवाँ अध्याय समाप्त हुआ

 

पन्द्रहवाँ अध्याय

दैत्योंका धर्म एवं सदाचारका पालन, सुकेशीके नगरका उत्थान-पतन, वरुणा-असी की महिमा, लोलार्क-प्रसंग पुलस्त्यजी बोले- देवर्षे! उसके बाद अपने ततः सुकेशिर्दैवर्षे गत्वा स्वपुरमुत्तमम्।। उत्तम नगरमें जाकर सुकेशने सभी राक्षसोंको बुलाकर समाहूयाब्रवीत् सर्वान् राक्षसान् धार्मिकं वचः॥ १ | उनसे धर्मकी बात बतलायीं। (सुकेशिने कहा अहिंसा, सत्व, चौंका समांथा त्याग, पशिता, न्यायम अहिंसा सत्यमस्तेयं शौचमिन्द्रियसंयमः।

दान, दया, क्षमा, ब्रह्मचर्य, अहंकारका न करना, प्रिय, दानं दया च क्षान्तिचे ब्रह्मचर्यममानिता ॥ ३ | सत्य और मधुर वाणी बोलना, सदा सत्कार्योंमें अनुराग

रखना एवं सदाचारका पालन करना =ये सब धर्म शुभा सत्या च मधुरा वाङ् नित्यं सक्रियारतिः।। सदाचारनिषेवित्वं परलोकप्रदायकाः ॥ ३

परलोकमें सुख देनेवाले हैं। मुनियोंने इस प्रकारके आदिकालके पुरातन धर्मकों मुझे बतलाया है। मैं तुम इत्यूचुर्मुनयों मह्यं धर्ममाद्यं पुरातनम्।। लोंगोंको आज्ञा देता हूँ कि तुम लोग बिना किसी सोमाज्ञापये सर्वान् क्रियतामविकल्पतः ॥ ४ हिचकके इन सभी धर्मोंका आचरण करो ॥ १-४।।

पुलस्त्यजींने कहा- उसके बाद सुशीके बचनसे ततः सुकेशिवचनात् सर्व एव निशाचराः ।।

सभी राक्षस प्रसन्न-चित्त होकर (अहिंसा आदि) तेरह त्रयोदशाङ्गं ते धर्मं चक्रुर्मुदितमानसाः ।। ५ ।। अङ्गवाले धर्मका आचरण करने लगे। इससे राक्षसों की ततः प्रवृद्धिं सुतरामगच्छन्त निशाचराः ।। सभी प्रकारकी अच्छी उनत हुई। वे मुत्र-पौत्र तथा पुत्रपौत्रार्थसंयुक्ताः सदाचारसमन्विताः ।। ६ | अर्थ-धर्म-सदाचार आदिसे सम्पन्न हो गये। इन महान् तज्योतिस्तेजसस्तेषां राक्षसानां महात्मनाम्। राक्षसोंके तेजके सामने सूर्य नक्षत्र और चन्द्रमाक गति गन्तुं नाशक्नुवन् सूर्यो नक्षत्राणि न चन्द्रमाः ।। ७| और कान्ति क्षण-सी दोखने लगी । ब्रह्मन् ! उसके बाद ततस्त्रिभुवने ब्रह्मन् निशाचरपरोऽभवत्। | निशाचरोंकी नगरी तीनों लोकोंमें दिनमें चन्द्रमाके समान दिवा चन्द्रस्य सदृशः क्षणदायां च सूर्यबत् ॥ ८ और रातमें सूर्यके समान चमकने लगी ।। ५-८॥ न ज्ञायते गतिम्नि भास्करस्य ततोऽम्बरे।। फलतः अच आकाशमें सूर्यको गतिका चलने] शशाङ्कमिति तेजस्वादमन्यन्त पुरोत्तमम् ॥ १ | पता नहीं लगता था। लोग उस श्रेष्ठ नगरको नगरके तेजके कारण आकाशमें चन्द्रमा समझने लग गये। स्वं विकास विमुञ्चन्ति निशामिति व्यचिन्तयन्।।

ब्रह्मन् ! सरोवरकै कमल दिनको रात्रि समझकर विकसित कमलाकरेषु कमला मित्रमित्यवगम्य हिं।।

नहीं होते थे। पर वें रात्रिमैं सुकैशके पुरको सूर्य रात्रौ विकसिता ब्रह्मन् विभूतिं दातुमीप्सवः ॥ १० ।। समझकर विभूति प्रदान करनेक इच्छासे विकसित होने

लगे। इसी प्रकार बन्नु भो दिनको रात समझकर बाहर कौशिका रात्रिसमयं बुद्ध्या निरगमन् किल।

निकल आयें और कौए दिनमें आयें जानकर उन तान् वायसास्तदा ज्ञात्वा दिवा निघ्नन्ति कौशिकान्॥ ११

इल्तुओंको मारने लगे। स्नान करनेवाले लोग भी रात्रिकों [नामपरायणः । दिन समझकर गले तक खुले अदन होकर स्नान करने लगे आकण्ठमग्नस्तिष्ठन्ति रात्रौ ज्ञात्वाऽञ्च वासरम् ॥ १२ | एवं जप करते हुए जलमें खड़े रहे ॥ १-१३ ।।

 

 [अध्याय १५

न व्ययुच्यन्त चक्राचे तदा मैं पुरदर्शने। । उस समय सुकेशीके नगरके (सूर्यवत्) दर्शन मन्यमानास्तु दिवसमिदमुच्चैब्रुवन्ति च ॥ १३ | होनेसे चकवा-चकई रात्रिको ही दिन मानकर परस्पर नूनं कान्ताविहीनेन केनचिच्चकपत्रिणा।।

अलग नहीं होते थे। वे उच्चस्यरसे कहते -निश्चय ही किसी पल्लींसे विहीन चक्रवाक पक्षीने एकान्तमें नदीतटपर उत्सृष्टं जीवितं शून्ये फूत्कृत्य सरितस्तटे ॥ १४ ।।

फुत्कार करके जीवन त्याग दिया हैं। इसमें दयाई सूर्य ततोऽनुकृपयाविष्टो विवस्वांतीव्ररश्मिभिः।।

अपनी तेज किरणोंसे जगत्को तपाते हुए किसी प्रकार संतापयञ्जगत् सर्वं नास्तमेति कथंचन ॥ १५ अस्त नहीं हो रहे हैं। दूसरे कहते हैं-‘निश्चय ही कोई अन्ये वदन्ति चक्रा नूनं कश्चिन् मूतो भवेत्।।

चक्रवाक मर गया है और पतिकै शोकमैं उसकी दुःखिन । तत्कान्तया तपस्तप्तं भर्तृशोकाया बत॥ १६ | कान्नानें भारी तय किया है। इसीलिये निश्चय ही उसकी

आराधितस्तु भगवांस्तपसा वै दिवाकरः।। तपस्यासे प्रसन्न हुए एवं चन्द्रमाको जीत लेनेवालें । तैनासौं शशिनिर्जेता नास्तमेति रविधुवम् ॥ १७ | भगवान् सूर्य अस्त नहीं हो रहे हैं’।। १३-१७॥ यविनों हौमशालासु सङ्ग ऋत्विरिभरध्वरे। | महामुने! उन दिनों यज्ञशालाओंमें ऋत्विज्ञोंके साथ आवर्तयन्त कर्माणि रात्रावपि महामुने ॥ १८ | यज्ञमान लोग रात्रिमें भी यज्ञकर्म करनेमें लगे रहते थे।

विष्णुके भक्तलोग भक्तिपूर्वक सदा विष्णुको पूजा करते । महाभागवताः पूजां विष्णोः कुर्वन्ति भक्तितः।।

रहते एवं दूसरे लोग सूर्य, चन्द्र, ब्रह्मा और शिवको रवौ शशिनि चैवान्ये ब्रह्मणोऽन्ये रस्य च ॥ १६ ।।

आराधनामें लगे रहते थे। कामी लोग यह मानने लगे कामिनश्चाप्यमन्यन्त साधु चन्द्रमसा कृतम्।। | किं चन्द्रमानें रात्रिको निरन्तर के लिये अपनी ज्योत्स्नामयीं। यदियं रञ्जनी रम्या कृता सततकौमुदी॥ २० | बना दिया, अच्छा हुआ ॥ १८-३० ॥ अन्ये युर्वैल्लोकगुरुरस्माभिश्चक्रभृद् वशी। दूसरे लोग कहने लगे कि हम लोगोंने श्रावण निव्र्याजेन मागन्धैर्चितः कुसुमैः शुभैः ॥ २१ | आदि चार महीनों में शुद्धभावसे अति सुगन्धित पवित्र पुष्पद्वारा महालक्ष्मीके साथ सुदर्शनचक्रको धारण सह लक्ष्म्या महायोगी नभस्यादिचतुष्वपि।।

करनेवाले भगवान् विष्णुको पूजा की हैं। इस अवधिमें अशून्यशयना नाम द्वितीया सर्वकामदा॥ २३ ।।

सर्वकामदा अशुन्यशपना द्वितीया तिथि होती हैं। इससे तैनासौं भगवान् प्रीतः प्रादाच्छयनमुत्तमम्।। प्रसन्न होकर भगवान्ने अन्य तथा महाभोंगसे परिपूर्ण अशून्यं च महाभोगैरनस्तमितशेखरम् ॥ २३।। उत्तम शयन प्रदान किया है। दूसरे कहते कि देवी रोहिणीने चन्द्रमाका क्षय देखकर निश्चय हीं रुकी। अन्येऽब्रुवन् धुवं दैव्या रोहिंग्या शशिनः क्षयम् ।

आराधना करनेकी अभिलाषासे परम पवित्र अक्षय दृष्ट्वा तप्तं तपो घोरं रुद्राराधनकाम्यया ॥ २४ ।।

अष्टमी तिथिमें वेदोक्त विधिसे कठिन तपस्या की हैं, पुण्यायामक्षयाट्म्यां वेदोक्तविधिना स्वयम्।। जिससे सन्तुष्ट होकर भगवान् शंकरने उसे अपनी तुष्टेन शंभुना दत्तं वरं चास्यै अदृच्छया ॥ २५ | इच्छासे वर दिया है॥ २१-३५ ॥ अन्येब्रुवन् चन्द्रमसा ध्रुवमाराधितों हरिः। । दूसरे लोग कहते-चन्द्रमाने निश्चय ही अखण्ड न्नतेनेह चखण्डेन तेनाखण्डः शशी दिचि॥ २६ | मृतका आचरण करके भगवान् हरिको आराधित किया है। इससे आकाशमें चन्द्रमा अल्लरूपसे प्रकाशित हो रहा है। दूसरोंने कहा – चन्द्रमानें अत्यधिक वैज्ञवाले अन्ये खूबशाइकन ध्रुवं रक्षा कृतात्मनः। | विष्णुके चरणयुगलकी विधिवत् पूजा करके अपनी | पदद्वयं समभ्ययं विष्णोरमिततेजसः ॥ ३७ | रक्षा की है। उससे तेजस्व चन्द्रमा सूर्यपर विजय प्राप्त

अध्याय १५ ]

+ दैत्योंका धर्म एवं सदाचारका पालन, सकेशीके नगरका उत्थानपतन, लोलार्कप्रसंग+

तेनासौं दीप्तिमांश्चन्द्रः परिभूय दिवाकरम्। | करके हमें आनन्द देते हुए दिनमें सूर्यकी भाँत अस्माकमानन्दकरो दिवा तपति सूर्यवत् ॥ २८ | दीप्तिमान् हो रहे हैं। अन्य अनेक प्रकार के कारणों से | सचमुच बहु लक्षित हो रहा है कि चन्द्रमाके द्वारा लक्ष्यते कारणैरन्यैर्बहुभिः सत्यमेव हि। | पराजित हुए सूर्य पूर्ववत् दीप्तिवाले नहीं दीख | शशाङ्कनिजितः सूर्यों न विभाति यथा पुरा ।। ३६ | रहे हैं ॥ २६-३५ ।।

यथामी कमलाः श्लक्ष्णा रणद्धङ्गणावृताः। इधर ये सुन्दर कमल खिले हैं और उनपर भरे विकचाः प्रतिभासन्ते जातः सूर्योदय ध्रुवम् ॥ ३०।। गुंजार कर रहे हैं। भ्रमर-समूहसे आवृत्त ये सुन्दर कमल विकसित दिखलायीं पड़ रहे हैं; अतः निश्चय ही सूर्योदय यथा चामी विभासन्ति विकचाः कुमुदाकराः ।। हुआ हैं। और इधर ये कुमुदवृन्द रिंखले हुए हैं। अतः । अतो विज्ञायते चन्द्र उदितश्च प्रतापवान् ॥ ३१ ।।

नगता है कि प्रतापवान् चन्द्रमा उदित हुआ है। मानौं ! एवं संभाषतां तत्र सूर्यो वाक्यानि नारद।

इस प्रकार वार्ता करनेवालोंके वाक्यको सुनकर सूर्य अमन्यत किमेतद्धि लोको वक्ति शुभाशुभम् ॥ ३२ ।।

सोचने लगे कि ये लोग इस प्रकार शुभाशुभ वचन क्यों बौल रहे हैं ? भगवान् दिवाकर ऐसा विचारकर ध्यानमग्न एवं संचिन्त्य भगवान् दध्यौ ध्यानं दिवाकरः।। | हो गये और उन्होंने देखा कि समस्त त्रैलोक्य चारों आसमन्ताजगद् ग्रस्तं त्रैलोक्यं रजनीचरैः ॥ ३३ | और राक्षसोंद्धारा ग्रस्त हो गया है ॥ ३०-३३॥ । ततस्तु भगवाज्ञात्वा तेजसोप्यसहिष्णुताम्।। तब योगी भगवान् भास्कर, राक्षसकी वृद्धि तथा निशाचरस्य वृद्धि तामचिन्तयत योगवित्॥ ३४ तेजकी असहनीयताको ज्ञानकर स्वयं चिन्तन करने लगे।

उन्हें यह ज्ञात हुआ कि सभी राक्षस सदाचार-परायण, ततज्ञासींच्च तान् सर्वान् सदाचाररतागुचीन्। पवित्र, देवता और ब्राह्मणोंको पूजामें अनुरक्त तथा देवब्राह्मणपूजासु संसक्तान् धर्मसंयुतान् ।। ३५ | धार्मिक हैं। उसके बाद राक्षसको नष्ट करनेवाले तथा ततस्तु रक्षः क्षयकृत् तिमिरदिपकेंस। | अन्धकाररूपी हाथीके लिये तैय किरणरूपी नखवालें। महांशुनखरः सूर्यस्तविघातमचन्तयत् ॥ ३६ ।।

सिंहके समान सूर्य उनके विनाशके विषयमें चिन्तन करने लगे। अन्तमें सूर्यकों राक्षसोंके अपने धर्मसें। ज्ञातवांश्च ततश्छिद्रं राक्षसाना दिबस्पतिः। | गिरनेका मूल कारण मालूम हुआ, जो समस्त धर्मोका स्वधर्मविच्युतिर्नाम सर्वधर्मविघातकृत् ॥ ३७ | बिनाशक है ॥ ३४-३७ ॥ ततः क्रोधाभिभूतेन भानुना रिपुभेदिभिः।। तब धसे अभिभूत ने श क भेदन करनेवा भानुभी राक्षसपुरं तद् दृष्टं च यथेच्छया ।। ३८ ।। अपनी किरणोंद्वारा भलीभाँति उस राक्षसको देखा। उस स भानुना तदा दृष्टः क्रोधाध्मातेन चक्षुषा।

समय सूर्यद्वारा क्रोधभरी दृष्टिसे देखें ज्ञानेके कारण वह निपपाताम्बराद् भ्रष्टः क्षीणपुण्य इव ग्रहः ॥ ३९ ।।

नगर नष्ट हुए पुण्यवाले ग्रहके समान आकाशसे नीचे गिर अपने नगरकों गिरते देखकर, शानकर्टकट (सु ) पतमानं समालोक्य पुरं शालकटङ्कटः।।

ने ऊँचे स्वरसे चखनेके स्वरमें ‘नमो भवाय शवय’ नमो भवाय शवय इदमुच्चेरुदीरयन् ॥ ४८ | यह कहा। उसकी उस चीखको सुनकर गगनमें विचरण तमाक्रन्दितमाकण्र्य चारणा गगनेचराः ।। करनेवाले सभी चारण चिल्लाने लगे-हाय हाय ! हाय हा हेति चुकुशुः सर्वे हरभक्तः पतत्यसौ ॥ ४६ | हाय ! यह शिव-भक्त तो नीचे गिर रहा है॥ ३८-४१ ॥

सर्वत्र व्याप्त और अविनाशी नित्य शंकरने चारणोंके तच्चारणवचः शर्वः श्रुतवान् सर्वगोव्ययः । उस वचनको सुना और फिर सोचने लगे—यह नगर श्रुत्वा संचिन्तयामास केनासौ पात्यते भुवि ॥ ४२ | किसके द्वारा पृथ्वीपर गिराया जा रहा है। उन्होंने यह जान

 

[ अध्याय १५

ज्ञातवान् देवपतिना सहस्त्रकिरणेन तत्।  लिया कि देवोंके पति सहस्रकरणमाली सूर्यद्वारा राक्षसोंका पातितं राक्षसपुरं ततः क्रुद्धस्त्रिलोचनः ।। ४३ | यह पुर गिराया गया है। इससे त्रिलोचन शंकर क्रुद्ध हो क्रुद्धस्तु भगवन्तं तं भानुमन्तमपश्यत। गये और उन्होंने भगवान् सूर्यकों देखा। त्रिनेत्रधारीं शंकरके दृष्टमास्त्रनेत्रेण निपपात ततोऽम्बरात्॥ ४४ | देखते हीं वें सूर्य आकाशसे नीचे आ गिरे। आकाशसे नीचे गगनात् स परिभ्रष्टः पश्चि वायुनिषेविते। | वायुमण्डलमार्ग में इस प्रकार गिरे जैसे यन्त्रकै द्वारा कोई यदृच्छया निपतितो यन्त्रमुक्तो यथोपलः ॥ ४५ | पत्थर फेंका गया हो ॥ ४२–४५ । । ततो वायुपथान्मुक्त: किंशुकोज्ज्वलविग्रहः।। | फिर पलाश-पुष्पके समान आभावाले सुर्य । निपपातान्तरिक्षात् स वृतः किन्नरचारणैः ॥ ४६ | वायुमण्डलसे अलग होकर किंनरों एवं चारण से भरे अन्तरिक्षसे नाँचे गिर गये। उस समय आकाशसे नीचे चारशैवेष्टितो भानुः अविभाज्यम्बत् पतन् । | गिरते हुए सूर्य चाणसे घिरे हुए ऐसे लग रहे थे, जैसे अर्द्धपक्कं यथा तालात् फलं कपिभिरावृतम् ॥ ४७ | तालवृक्षसे गिरनेवाला अधपका तालफल कपियोंसे ।

घिरा हो। जब मुनियोंने किरणमाली भगवान् सूर्यदेव ततस्तु ऋषयोऽभ्येत्य प्रत्यूचुर्भानुमालिनम्।। समप आकर उनसे कहा कि यदि तुम कल्याण चाहते निपतस्व हुरिक्षेत्रे यदि श्रेयोऽभिवाञ्छसि ।। ४ | हों तों विष्णुके क्षेत्रमें गिरौ। गिरते हुए ही सूर्यने (ऐसा सुनकर) उन तस्वयसे पूछा-विष्णुभगवान्का ततोऽब्रवीत् पतन्नेव विवस्वांस्तांस्तपोधनान्।। वह पवन क्षेत्र कौन-सा है? आप लोग उसे मुझे किं तत् क्षेत्रं हरेः पुण्यं वदध्वं शीघ्रमेव में ॥ ४९ | शीघ्र बतलायें ॥ ४६-४६ ॥ तमूचर्मुनयः सूर्य शृणु चैत्रं महाफलम्। | इसपर मुनियन सूर्यसे बतलाया-मुपदेव! आप साम्प्रतं वासुदेवस्य भावि तच्छंकरस्य च ॥ ५॥ | महाफल देनेवाले उस क्षेत्रका विवरण सुनिये। इस समय वह क्षेत्र वासुदेवका क्षेत्र हैं, किंतु भविष्यमें बह योगशायिनमारभ्य यावत् केशवदर्शनम्।।

शंकरका क्षेत्र होगा। योगशायीसे प्रारम्भ कर एतत् क्षेत्रं हरेः पुण्यं नाम्ना वाराणसी पुरी ॥ ५१ ।।

केशवदर्शनतकका क्षेत्र हरिका पवित्र क्षेत्र है, इसका नाम वाराणसीपुरी है। उसे सुनकर शिवजीकी नेत्राग्निसे तच्छ्रुत्वा भगवान् भानुभंवनेत्राग्रितापितः।।

संतप्त होते हुए भगवान् सूर्यं वरुणा और असी इन वरणायास्तथैवास्यास्त्वन्तरे निपपात ह॥ ५२ ।। दोनों नदियोंॐ बीचमें गिरें। उसके बाद शरीरके जलते ततः प्रदह्यति तनौं निमन्यास्यां लुलद् रविः। रहनेसे व्याकुल हुए सूर्य असी नदीमें स्नान करने के वरणायां समभ्येत्य यमज्ज़त यधेच्छया ।।५३ | बाद वरुणा नदीमें इच्छानुकूल स्नान किये ॥ ५९–५३ ॥ | भूयोऽसि वरण भूयो भूयोऽपि वरणामसम्। । इस प्रकार शंकरके तीसरे नेत्रकी अग्निसे दग्ध लुलस्त्रिनेत्रबह्यात भ्रमतेलातचक्रवत् ॥ ५४ | होकर वे बारंबार असि और वरुणा नदियोंकी ओर एतस्मिन्नन्तरे ब्रह्मन् ऋषयो यक्षराक्षसाः। | अलातचक्र (लुकाटीके मण्डल)-के समान चक्कर काटने नागा विद्याधराश्चापि पक्षिणोऽप्सरसस्तथा ॥ ५५ ।। लगे। मुने! इस बीच ऋषि, यक्ष, राक्षस, नाग, विद्याधर, यावन्तो भास्करचे भूतप्रेतादयः स्थिताः। | पक्ष, अप्सराएँ और भास्करके रथमें जितने भूत-प्रेत आदि तावन्तो ब्रह्मसदनं गता वेदयितुं मुने ॥ ५६ | थे, वे सभी इसे ज्ञापित करनेके लिये ब्रह्मलोकमें गयें । | १-अब भी वरुणा और असौं नदि वाराणसीकों अपने अन्तरालमें किये हुए हैं। अस बरसातमें जलभरित होती है, पर अरुणा सदा नक्षपर्णा रही है।

 

अध्याय १६ ]

देवताओंको शयन-निधियों और उनके अशुन्यशयन आदि व्रत एवं शिव-पूजनका वर्णन

ततो ब्रह्मा सुरपतिः सुरैः सार्धं समभ्यगात्। | तब सुरपति इन्द्र, ब्रह्मा देवताओंके साथ सूर्यको शान्तिके रम्यं महेश्वरावासं मन्दर विकारणात् ॥ ५७| लिये माहेश्वरके आवास-स्थान मन्दर पर्वत पर गये। वहाँ जाकर तथा देवेश शूलपाणि भगवान् शिवका दर्शन करनेके बाद भगवान् ब्रह्माजी भास्करके लिये उन्हें गत्वा दृष्ट्वा च देवेशं शंकरं शूलपाणिनम्। [(शिवजीको) प्रसन्न कर उन्हें (सूर्यको) वाराणसीमें प्रसाच्च भास्कराय वाराणस्यामुपानयत् ॥ ५८  लाये ॥ ५४-५८ ॥ ततो दिवाकर भूयः पाणिनादाय शंकरः। । फ्रि भगवान् शंकरने सूर्य भगवान्को हाथमें लेकर कृत्वा नामास्य लोलेति रथमारोपयत् पुनः ॥ ५९ | उनका नाम “लोल’ रख दिया और उन्हें पुनः उनके आरोपिते दिनकरे ब्रह्माऽभ्येत्य सकेशिनम्। रथपर स्थापित कर दिया। दिनकरके अपने रथमें आरुढ़ सबान्धवं सनगरं पुनरारोपयद् दिवि॥ ६०।।

हो ज्ञानेर ब्रह्मा सुशके पास गये एवं इसे भी पुनः समारोप्य सुकेशि च परिष्वन्य च शंकरम्।। बान्धों और नगरसहित आकाशमें पूर्ववत् स्थापित कर

दिया। सुकेशीको पुनः आकाशमें स्थापित करनेके बाद प्रणम्य केशवं देवं वैराजं स्वगृहं गतः ॥ ६१ ।।

ब्रह्माजी शंकरका आलिङ्गन एवं केशवदेवको प्रणाम एवं पुरा नारद भास्करण

कर अपने वैराज नामक लोकमें चले गयें। नारदजी ! पुरै सुकेशेभुवि सन्निपातितम्।।

प्राचीन समयमें इस प्रकार सूर्यने सुकैशीकै नगरको दिवाकरों भूमितले भवेन

पृथ्वीपर गिराया एवं महादेवने भगवान् सूर्यकों अपने | क्षिप्तस्तु दृष्ट्या न च संप्रदग्धः ॥ ६२ | ततीय नेत्र असे दाध न कर केवल अमितलपर आरोपितो भूमितलाद् भवेन गिरा हीं दिया था। फिर शंकरने सूर्यको प्रतिभासित

| भूयोऽपि भानुः प्रतिभासनाय। होनेके लिये भूमितलसे आकाशमें स्थित किया और स्वयंभुवा चापि निशाचरेन्द्र ब्रह्माने निशाचरराजको उसके पुर और बन्धुओंके साथ स्वारोपितः खे सपुरः सबन्धुः ।। ६३ | आकाशमें फिर संस्थापित कर दिया ॥५९-६३ ॥

इस प्रकार श्रीवामनपुराणमें पन्द्रहवाँ अध्याय समाप्त हु १५

 

सोलहवाँ अध्याय

देवताओंका शयन-तिथियों और उनके अशून्यशयन आदि व्रत

एवं शिव-पूजनका वर्णन । नपद काच नारदज्ञोंने कहा-पुलस्त्यजी! आपने चन्द्रमाके यानेतान् भगवान् प्राह कामिभिः शशिनं प्रति। | प्रति कामियों द्वारा वर्णित श्रीहरि और शंकरकी आराधनाकै आराधनाय देवाभ्यां हरीशाभ्यां वदस्व तान् ।। १ | लिये जिन ब्रतोंका उल्लेख किया है उनका वर्णन करें ॥ १ ॥

पुलस्त्यजी बोले-लोक-कल्याणके लिये कलहकों भी इष्ट माननेवाले कलि (कलह)-प्रिय नारदजी! आप शृणुष्व कामिभिः प्रोक्तान् ब्रतान् पुण्यान् कलिप्रिय। | महादेव और बुद्धिमान् श्रीहरिकी आराधनाके लिये आराधनाय शर्वस्य केशवस्य च धीमतः ॥ ३ | कामियों द्वारा कहे गये पवित्र व्रतका वर्णन सुनें। जब हैं

की बामनपुराण के यदा त्वाषाढ संयाति ब्रजते चोत्तरायणम्। | आषाढ़ी पूर्णिमा बीत जाती हैं एवं उत्तरायण चलता तदा स्वपिति देवेशो भोगिभोगें श्रियः पतिः ।। ३ रहता है, तब लक्ष्मीपति भगवान् विष्णु भोगिभग ( शेषशया) र सो जाते हैं। इन विमाके सो जानेपर प्रतिसुप्ते विभौ तस्मिन् देवगन्धर्वगुह्यकाः। | देवता, गन्धर्व, गुह्यक एवं देवमाताएँ भी क्रमशः सों देवानां मातरश्चापि प्रसुप्ताश्चाप्यनुक्रमात् ॥ ४ | जाती है | ३-४ ||

नारद उवाच कथयस्व सुरादीनां शयने विधिमुत्तमम्। | आदिके शयनकी सब उत्तम विधि मुझे बतलाइये ॥ ५ ॥

नारदने कहा- जनार्दनसे लेकर अनुक्रमसे देवता सर्वमनुक्रमेणैव पुरस्कृत्य जनार्दैनम् ॥ ५ | सय व पुलस्त्यजी बोले-तपोधन नारदजी ! आषाढ़के मिथुनाभिगते सूर्ये शुक्लपक्षे तपोधन। | शुक्लपक्षमें सूर्यकै मिथुन राशिमें चले जानेपर एकादशी एकादश्यां जगत्स्वामी शयनं परिकल्पयेत् ॥ ६ | तिथिके दिन जगदीश्वर विष्णुको शय्याकी परिकल्पना शेषाहिभोगपर्यंहूं कृत्वा सम्पून्य केशवम्।। करनी चाहिये। इस शय्यार शेषनागके शरीर और कृत्योपवीतकं चैव सम्यक्सम्पून्य वै द्विजान्॥७ ।।

फणकी रचना कर यज्ञोपवीतयुक्त श्रीकेशव (की प्रतिमा)-की पूजा कर ब्राह्मणोंकी आज्ञासे संयम एवं अनुज्ञां ब्राह्मणेभ्यश्च द्वादश्यां प्रयतः शुचिः। | पवित्रतापूर्वक रहते हुए स्वयं भी पीताम्बर धारण कर लब्ध्वा पीताम्बरधरः स्वस्तिनि समानत् ।। ८ ।।

द्वादशी तिथिमें सुखपूर्वक उन्हें सुलाना चाहिये ॥ ६-८॥ त्रयोदश्यां ततः कामः स्वपने शयने शुभे। इसके बाद त्रयोदशी तिथिमें सुगन्धित कदम्बके कदम्बानां सुगन्धानां कुसुमैः परिकल्पिते ।। १ | पुष्पोंसे बनीं पवित्र शय्यापर कामदेव शयन करते हैं। फिर चतर्दश्यां ततो यक्षाः स्वपन्ति सखशीतलें। | चतुर्दशीको सुशीतल स्वर्णपङ्कजसे निर्मित सुखदायकरूपमें सौवर्णपङ्कजकृते सुखास्तीर्णोपधानके ।। १० ।।

बिछाये गये एवं तकियेवाली शय्यापर यक्षलोग शयन करते हैं। पूर्णमा तिथिको चर्मयस्त्र धारणकर, उमानाथ पौर्णमास्यामुमानाथः स्वपते चर्मसंस्तरे।

शंकर एक-दूसरे चर्मद्वारा जटाभार बाँधकर व्याख्न-चर्मक वैयाघ्ने च जटाभार समुद्ग्रन्थ्यान्यचर्मणा ॥ ११ ।।

शय्यापर सोते हैं। इसके बाद जब सूर्य कर्कराशिमें गमन ततो दिवाकरो राशिं संप्रयाति च कर्कटम्। । करते हैं तब देवताओंके लिये रात्रिस्वरुप दक्षिणायनका ततोऽमराणां रजनी भवति दक्षिणायनम् ॥ १२ ।। आरम्भ हो जाता है ॥ १-१२ ॥ ब्रह्मा प्रतिपदि तथा नीलोत्पलमयेऽनघ। निष्पाप नारद ! लोगोंकों उत्तम मार्ग दिखलाते तल्यै स्वपिति लोकानां दर्शयन् मार्गंमुत्तमम्॥ १३ | हुए ब्रह्माजी ( श्रावण कृष्ण प्रतिपदाको नीले कमलको विश्वकर्मा द्वितीयायां तृतीयायां गिरेः सुता। शम्यापर सो जाते हैं। विश्वकर्मा द्वितीयाको, पार्वतीजी विनायकश्चतुथ्य तु पञ्चम्यामपि धर्मराट् ॥ १४ ।। तृतीयाको, गणेश चतुर्थीकों, धर्मराज पञ्चमीकों, घल्लयां स्कन्दः प्रस्वपिति सप्तम्य भगवान् रविः।

कार्तिकेयजी षष्ठीको, सूर्य भगवान् सप्तमीको, दुर्गादेवी कात्यायनीं तथाष्टम्यां नवम्यां कमलालया।॥ १५ ।। अष्टमीको, लक्ष्मीजी नवमको, वायु पीनेवाले श्रेष्ठ सर्प दशम्यां भुजगेन्द्राश्च स्वपन्ते वायुभोजनाः।।  दशमीको और साध्यगण कृष्णपक्षको एकादशीको सो । एकादश्यां तु कृष्णायां साध्या ब्रह्मन् स्वपन्ति च ॥ १६ | जाते हैं।॥ १३-१६ ॥

मुने ! इस प्रकार हमने तुम्हें श्रावण आदिके एष क्रमस्ते गदितो नभादौ स्वपने मुने। | महीनोंमें देवताओंके सोनेका क्रम बतलाया। देयोंके सो स्वपत्सु तत्र देवेषु प्रावृकालः समाययौ ।। १७ ।।ज्ञानेपर वर्षाकालका आगमन हो जाता है। ऋषिश्रेष्ठ!

अध्याय १६ ]

 

देवताओंका शयनतिथियों और उनके अशून्यायन आदि वन एवं शिवपूजनका वर्णन

कङ्काः समं बलाकाभिरारोहन्ति नभोत्तमान्। | (तब) बलाकाओं (अगुलोंके झंड)-के साथ कङ्क पक्ष वायसाश्चापि कुर्वन्ति नीड़ानि ऋषिपुंगव। ऊँचे पर्वतोंपर चढ़ जाते हैं तथा कौए घोंसले बनाने लगते वायसाश्च स्वपन्त्येते ऋतौ गर्भभरालसाः ॥ १८| हैं। इस ऋतुमें मादा कौएँ गर्भभारकै कारण आलस्यसे यस्यां तिथ्यां प्रस्वपिति विश्वकर्मा प्रजापतिः।। सौती हैं। प्रजापति विश्वकर्मा जिस द्वितीया तिथिमें सोते  हैं, वह कल्याणकारिणी पवित्र तिथि अशून्यशयना द्वितीया द्वितीया सा शुभा पुण्या अशून्यशयनोदिता ॥ ११ ।।

तिथि कहीं जाती हैं। मुने! उस तिथिमें लक्ष्मौके साथ तस्यां निथावर्त्य हरि श्रीवत्साङ्क चतुर्भुजम्।।

पर्यङ्कस्थ श्रीवत्सनामक चिह्न धारण करनेवाले चतुर्भुज पर्यङ्कस्थं समं लक्ष्म्या गन्धपुष्पादिभिर्मुने ॥ २० ।। विष्णुभगवानुक गन्ध-पुष्पादिके द्वारा पूजाके हेतु शय्यापर ततो देवाय शय्यार्या फलानि प्रक्षिपेत् क्रमात्।। क्रमशः फरन तथा सुगन्ध-व्य निवेदित कर उनसे इस सुरभीणि निवेद्येत्थं विज्ञाय मधुसूदनः ॥ २१ प्रकार प्रार्थना करें कि – ॥ १-३१ ॥ यथा हि लक्ष्म्या न वियुन्यसे त्वं हे त्रिविक्रम्! हे अनन्त !! हे जगन्निवास !!! जिस त्रिविक्रमानन्त जगन्निवास। | प्रकार आप लक्ष्मीसे कभी अलग नहीं होते, उसी प्रकार तथा चशून्यं शयनं सदैव आपकी कृपासे हमारी शय्या भी कभी शून्य न हों। हैं | अस्माकमेवेहू तव प्रसादात् ॥ २३ | देव! है वरद ! है अच्युत! हे ईश! हे अमितवीर्यशाली यथा त्वशून्यं तव देव जयं बिष्णों! आपकी शय्या लक्ष्मीसे शुन्य नहीं होतीं, उसी समं हि लक्ष्म्या वरदाच्युतेश। सत्यके प्रभावसे कुमारी भी गृहस्थी नाशका अवसर न सत्येन तेनामितवीर्य विष्णों आये -पत्नीका वियोग न हो। देवर्षे ! इस प्रकार स्तुति गार्हस्थ्यनाशो मम नास्तु देव॥ २३ | करनेके बाद भगवान् विष्णुको प्रणामद्वारा बार-बार इत्युच्चार्य प्रणम्येश प्रसाद्य च पुनः पुनः । प्रसन्नकर रात्रिमें तेल एवं नमकसे रहित भोजन करे । नक्तं भुञ्जीत देवर्षे तैलक्षारविवर्जितम् ॥ २४ ।। दूसरे दिन बुद्धिमान् व्यक्ति, भगवान् लक्ष्मीधर मेरे ऊपर | द्वितीयेहि द्विजायाय फलान् दद्याद् विचक्षणः। प्रसन्न हों—यह वाक्य उच्चारण कर श्रेष्ठ ब्राह्मणको लक्ष्मीधरः प्रीयतां में इत्युच्चार्य निवेदयेत् ॥ २५ ।। फलोंका दान दे॥ २३२-२५॥ । अनेन तु विधानेन चातुर्मास्यग्नतं चरेत्। । जबतक सूर्य वृश्चिकराशिपर रहते हैं, तबतक इसी यावद् वृश्चिकराशिस्थः प्रतिभाति दिवाकरः ॥ २६ ।। विधिसे चातुर्मास्य-ब्रतका पालन किया जाना चाहिये। । ततो विबुध्यन्ति सुराः क्रमशः क्रमशो मुने।

| | मुने! उसके बाद क्रमशः देवता जागते हैं। सूर्यके तुलाराशिमें

| स्थित होनेपर विष्णु जाग जाते हैं। उसके बाद काम और तुलस्थेऽर्के हरि: कामः शिवः पश्चाद्विबुध्यते ॥ २५ ।।

शिव जागते हैं। उसके पश्चात् द्वितीयाके दिन अपने तत्र दानं द्वितीयायां मूर्निर्लक्ष्मीधरस्य तु ।।

थिय ।

विभवके अनुसार विछौनेवालीं शय्याके साथ लक्ष्मीधरकी साशय्यास्तरणोपेता यथा विभवमात्मनः ॥ ३८. ।। मनका दान करें। महामने ! इस प्रकार मैंने आपको यह एष व्रतस्तु प्रथमः प्रतिव महामुन।  प्रथम त बतलाया, जिसका आचरण करनेपर इस संसारमें यस्मिंशी वियोगस्तु न भवेदिह कस्यचित् ॥ २१ किसीको वियोग नहीं होता ।। २६-२९ ।।

नभस्ये मासि च तथा या स्यात्कृष्णाष्टमी शुभा। । इसी प्रकार भाद्रपद मासमें मृगशिरा नक्षत्रसे युक्ता मृगशिरेणैव सा तु कालाष्टमी स्मृता ॥ ३० | युक्त जो पवित्र कृष्णाष्टमी होती है उसे कालाष्टमी माना गया है। उस तिथिमें भगवान् शंकर समस्त लिङ्गमें तस्यां सर्वेषु लिङ्गेषु तिथौ स्वपिति शंकरः। | सौतें एवं उनके संनिधान में निवास करते हैं। इस वसते संनिधाने तु तत्र पूजाऽक्षया स्मृता ॥ ३१ ।। अवसरपर की गय शंकरजीकी पूजा अक्षय मानी गयी है।

तत्र स्नायीत वै विद्वान् गौमूत्रेण जलेन च। | उस तिथिमें विद्वान् मनुष्यको चाहिये कि गौमूत्र और स्नातः संपूजयेत् पुष्पैर्धत्तूरस्य त्रिलोचनम् ॥ ३२ | जलसे स्नान करे। स्नानके बाद धतूरके पुष्पोंसे शंकरकों पूजा करे। द्विजोत्तम! केसरके गोंदका धूप तथा मधु एवं | धूपं केसरनिर्यास नैवेद्यं मधुसर्पिषीं। | घृतका नैवेद्य अर्पित करनेके बाद ‘विरूपाक्ष (त्रिनेत्र) प्रयतां में विरूपाक्षस्त्वित्युच्चार्य च दक्षिणाम्।। मेरे ऊपर प्रसन्न हों’–यह कहकर ब्राह्मणको दक्षिणा विप्राय दद्यान्नैवेद्यं सहिरण्यं द्विजोत्तम ॥ ३३ तथा सुवर्णके साथ नैवेद्य प्रदान करे ।। ३०-३३॥ तद्वदाश्वयुजें मासि उपवासी जितेन्द्रियः। | इसी प्रकार आश्विन मास नवमी तिथिको इन्द्रियोंको नवम्यां गोमयस्नानं कुर्यात्पूजां तु पङ्कजैः। चशमैं करके उपवास रहकर गोबरसे स्नान करनेके पश्चात् | धूपयेत् सर्जनिस नैवेद्यं मधुमोदकैः ॥ ३४ | कमलोंसे पूजन करें तथा सर्ग वृक्षके निर्यास (गोंद)-का धूप एवं मधु और मोदकका नैवेद्य अर्पित करे। अष्टमीको कृतोपवासस्त्वष्टम्यां नवम्यां स्नानमाचरेत्।।

उपवास करके नवमींकों स्नान करनेके बाद ‘हिरण्याक्ष प्रीयतां में हिरण्याक्षो दक्षिणा सतिला स्मृता ।। ३५ | | मेरे ऊपर प्रसन्न हों’–यह कहते हुए तिलके साथ – याना । दक्षिणा प्रदान करें। कार्तिकमें दुग्धस्नान तथा करके धूपं श्रीवासनिर्यास नैवेद्यं मधुपायसम्॥ ३६ | पुष्पसे पूजा करे और सरल वृक्षको गोंदका धूप तथा मधु खीर नैवेद्य अर्पतकर विनयपूर्वक ‘भगवान् शिव मेरे सनैवेद्यं च रजतं दातव्यं दानमग्नज्ञे। | ऊपर प्रसन्न हों—यह उच्चारण करते हुए ब्राह्मणको प्रीयतां भगवान् स्थाणुरिति वाच्यमनिष्ट्वाम् ॥ ३७ | नैवेद्यके साथ रजतका दान करे ॥ ३४-३७ ।। कृत्वोपवासमष्टम्यां नवम्यां स्नानमाचरेत्। मार्गशीर्ष (अगहन) मासमें अष्टमी तिथिको उपवास मासि मार्गशिरे स्नानं दध्नार्चा भइया स्मृता ॥ ३८ | करके नवमी तिथिमें दधिसे स्नान करना चाहिये। इस समय ‘भद्रा’ औषधिकै द्वारा पूजाका विधान हैं। पण्डित धूपं श्रीवृक्षनिर्यासं नैवेद्यं मधुनोदनम्। व्यक्त झवृक्षॐ गोंदका धुप एवं मधु और औदनका संनिवेद्या रक्तशालिर्दक्षिणा परिकीर्तिता। नैवेद्य देकर ‘शर्व (शिवशी)-को नमस्कार हैं, वे मेरे ऊपर नमोऽस्तु प्रीयतां शर्वस्विति वाच्यं च पण्डितैः ।। ३६ | प्रसन्न हों’–यह कहते हुए उक्तशालि (लाल चावल) को दक्षिणा प्रदान करे-ऐसा कहा गया है। पौष मासमें घृतका पौधे स्नानं च हविषा पूजा स्यात्तगरैः शुभैः।। स्नान तथा सुन्दर तगर-पुष्पद्वारा पूजा करनी चाहिये। धूप मधुकनिर्यासो नैवेद्यं मधु शकुली ।। ४० | फिर महुएके वृक्षको गोंदका धूप देकर मधु एवं पूड़ीका नैवेद्य अर्पित करें और ‘हैं देवेश त्र्यम्बक! आपको समुद्गा दक्षिणा प्रोक्ता प्रीणनाय जगद्गुरोः। | नमस्कार है–यह कहते हुए शंकरजीकी प्रसन्नताके वाच्यं नमस्ते देवेश त्र्यम्बकेति प्रकीर्तयेत् ॥ ४१ | लिये मुँगसहित दक्षिणा प्रदान करे ॥ ३८–४१ ॥ माघे कुशोदकस्नानं मृगमद्देन चार्चनम्। माघमासमें कुशके जलसे स्नान करे और मृगमद धूपः कदम्बनिर्यासो नैवेद्यं सतिलोदनम् ॥ ४२ | (कस्तूरीसे) अर्चन करें। उसके बाद कदम्य-वृक्षके गोंदका धूप देकर तिल एवं औदन (भात)का नैवेद्य अर्पत प्रयभक्तं सनैवेद्म सरुमं प्रतिपादयेत्। | करने के पश्चात् ‘महादेव उमापति मैं ऊपर प्रसन्न हों’– प्रीयतां में महादेव उमापत्तिरितीरयेत्॥ ४३ | यह कहते हुए सुवर्गक साध दूध एवं भातकी दक्षिणा

Vaman Puran