अथर्ववेद–संहिता
॥अथ प्रथमं काण्डम् ॥
[१– मेधाजनन सूक्त ]
|| ऋषि – अथर्वा देवता – वाचस्पति । छन्द – अनुष्टुप् . ४ चतुष्पदा विराट् उरोबृहतीं ।]
इस सूक्त के देवता वाचस्पति हैं । वाक् – ज्ञक्त में अभिव्यक्ति होती है। पात्र में तो अव्यप में सभी कुछ सपति रना ही है कि वह अव्यक्त को अभिव्यक्त करता है, तो उसे वाचस्पति कहना मुक्तसंगत है ।जिसने इस विश्व को व्यक्त–प्रकट किया, उसी से किसी विशिष्ट उपलब्धि के लिए प्रार्चना किया जाना उचित है
१. ये त्रिषप्ता: परियन्ति विश्वा रूपाणि बिभतः ।
वाचस्पतिर्बला तेषां तन्वो अद्य दधातु में ॥१॥
ये जो त्रिसप्त (तीन एवं सात के संयोगी विश्व के सभी रूपों को धारण करके सब ओर संव्याप्त-गतिशील हैं, हे वाचस्पते ! आप उनके शरीरस्य बल को आज हमें प्रदान करें ॥ १ ॥ | | त्रिसप्त‘ का अई अधिकांश भाष्यकारों ने ३ ४ १ = २६ किया है, किंतु ऋषि का भाव इससे कहीं अधिक व्यापक तीत होता है। गणित के अनुसार निमण की अभिव्यनि इतने कार में हो सकती हैं– ३ + 2 = 1, ३ ४७ = ३, ७ ३४३.३ ३६ तथा ३ L७ ॥ ३१॥ ५ ६४ ५ ४ ४ ४ ३ ४ ३ x ३) = १५१२० आदि। फिर अपने विसन को एक ही शब्द के काम में लिखा है, इसलिए उसका भाव यह क्या है कि बसने ची हिंमत है…. 1 स आधार पर विधा‘ सृष्टि में तीन लॉक, नीन गुण, जॉन आयाम देिव आदि सभी आते हैं। इळे साच्च त आताण, संजयतु त स्याहय परमाण के मत छ । माटो आदि आ जाते हैं। इनमें से सभी के योग–भेदपमन नन । म बने हैं। उन्हें केवल प्रकटकन वापत हो भनी प्रकार जानते हैं। हमें विश्न में रहते हुए सभी के साथ समुचित बर्ताव करना होगा, इसलिए वाचस्पति से प्रार्थना की गई है कि उन केक –सूक्ष्म संयोगों के इस इवे पी प्रदान करें।
२. पुनरेहि वाचस्पते देवेन मनसा सह ।
वसोध्यते नि रमस मेरयेवास्तु मयि श्रुतम् ॥२॥
| ३ गते ! आप दिघकाशित) ज्ञान से युक्त होकर, बारम्बार हमारे सम्मुख आएँ । हे वसष्पते ! आर्य हमें प्रति १३ । प्राप्त ज्ञान हममें स्थिर रहे ।।३।।
। यहाँ वाचम्पत | अपश्यक्त करने वाले से प्राप्त की तवा मोपत (आवास दान करने वाले) से प्राप्त को घाण–स्थिर करने की प्रार्थना की गई है। योग एवं वेप दोनों ही साधे– ऐसी प्रार्थना है।
३. इहैवाभि वि तनूमें आर्मी इव ज्यया।
वाचस्पतिर्न यच्छतु मय्येवास्तु मयि श्रुतम् ॥३॥
हैं देव ! धनुष की चढ़ी हुई प्रत्यञ्चा से खिंचे हुए दोनों छोरों के समान दैयों ज्ञान धारण करने में समर्थ, मेथा बुद्धि एवं वांछित साधन-साम आप हमें प्रदान करें । प्राप्त बुद्धि और वैभव हममें पूरी तरह स्थिर रहें ॥३॥
| ज्ञान की प्राप्ति और धारण काने की सामर्थ्य यह द क्षमताएँ घमुष के दो सिरों की तरह हैं। एक साधण्यापूर्वक बस गाकर बाण की तरह, ज्ञान का वा प्रयोग किया जा सकता है।
अर्धवेद सहता भाग–१
४, उपहूतो वाचस्पतिरुपास्मान् वाचस्पतिर्दयताम् ।
सं श्रुतेन गमेमहि मा श्रुतेन वि राधिषि ॥४॥
हे वाक्पते ! आप हमें अपने पास बुलाएँ । इस निमित्त हम आपका आवाइन करते हैं। हमें सदैव आपका सायि प्राप्त हो । हम कभी भी ज्ञान से विमुख न हों ।।४।। | | दिव्य ज्ञान की प्राप्ति केवल अपने पुरुयाई से नहीं हो पाती । अपने पुरुषार्थ से हम आवेदन करते हैं, पात्रता प्रकट करते हैं, तो दिव्य स्ना द्वारा दिव्य ज्ञान प्रदान कर दिया जाता है। [२– रोग–उपशमन सूक्त [ ऋषि – अथर्वा । देवता – चन्द्रमा और पर्जन्य। छन्द – अनुष्टुप् , ३ त्रिपदा विराट् गायत्रीं।]
इस सूक्त के देवता पर्जन्य हैं। पर्जन्य का सामान्य अवं ‘वर्षति–मिति के आधार पर क्या किया गया है, किन्तु से मूल वर्ष तक सीमित नहीं रखा जा सकता।‘पद्–संचने‘ (शब्द कल्पना के अनुसार मा पोपकर्ता भी है। निशक्त में पर्जन्य परः काञ्चो नेता जनता वा” (परमशक्ति सम्पन जयशील या पन्नकत्ता) कहा गया है ।अस्तु, अम्त आकाश के विभिन्न स्रोतों सेबसने वाले पोषक एवं अपादक स्चूल एवं सूक्ष्म प्रवाहों को पर्जन्य मानना युक्ति संगत है। वर्तमान विज्ञान भी यह मानता है कि सूक्ष्म कणों (ब पाकिस्स) के रूप में कुछ उदासीन (ट) तथा कुछ अपादक प्रकृति (जेनेटिक कॉक्टर) वाले का प्रयाहत होते रहते हैं। ऐसे प्रवाहों को पर्जन्यमानकर चलने से वेदार्थ का मर्म समझने में सुविधा रहेगी।
इस सूक्त में अपने अनुय से छुटने वाले विक्यौल शर(बाणों के उदाहरण से जीवन के गृह रहस्य को स्पष्ट करने का प्रयास किया है। अनेकार्थी पदों–मंत्रों के भाव प्रकट करते हुए मंत्रार्थ एवं टिपणी करने का प्रयास यिा गया है
५. विद्या शरस्य पितरं पर्जन्यं भूरिधायसम् ।
यो ष्वस्य मातरं पृथिवीं भूरिवर्पसम्॥१
अनेक प्रकार से (चराचर) धारक एवं पोषक पर्जन्य को इम इस शर‘ के पिता के रूप में जानते हैं। अनेक प्रकार के स्वरूप देने वाली पृथ्वी को भी हम भली प्रकार जानते हैं ॥ १ ॥
[ यहाँ ‘शर‘ का अर्थ सरका दवं बाण के रूप में सज ग्राह्य है, किंतु पृथ्वीं में जो अंकुर निकलता है, उसे भी ‘झर‘ कहते हैं। प्रेमी पर जीवन के मय वह इञ्चम मीक है, उसी पर प्राणिमत्र का जीवन निर्भर करता हैं । बाण के रूप में या जीन तत्व के रूप में की पत्तिं, पिता पाय के सेवन से तज्ञा माता पृथ्वी के गर्भ में होनी है। यह जीवन तत्व हीं समस्त मायाज़ों एवं रोगादि को बनने में जीवन लक्ष्यों को बेने में समर्थ होता है, इसलिए उसकी उपमा झर से देना युक्ति संगत है।
जीवन–संग्राम में विजय के लिए प्रयुक्त ‘श‘ (जीवन तन्च) किस धनुष से कोम याता है, उसका सुन्दर अलंकरण य प्रस्तुत किया गया है । उस अनुप की एक कॉटर) माता पृथ्वो हैं तथा दूसरी (ोर) पिता पर्यन्य हैं। ज्या‘ (प्रत्यवा) ॥
द्वानों को जक्कर उनकी शक्ति संप्रेषित करती है।“श्या‘ का अर्थ यन्मदात्री भी होता है। आकाशव पर्जन्य एवं पृवीं की शक्ति | के संयोग में जीवन त्या का संचरण करने वाली मायनशील प्रकृति इस अनुष की प्रत्यक्षा-‘या‘ है। उसे लक्ष्य का प्रय कहते हैं
६. ज्याके परि णों नमाश्मानं तन्वं कृधि ।
वीर्वरीयोंरातीरप द्वेषस्या कृथि ।।२।।
हैं ज्याक (जन्मदात्री) ! आप हमारे शरीरों को चट्टान की तरह सुदृढ़ता एवं शक्ति प्रदान करें । शत्रुओं (दोषों को शक्तिहीन बनाकर हमसे दूर करें ॥३ ।।।
५५. वृक्ष यात्र: परिषस्वजाना अनुस्फुरं शरमर्चन्त्य॒भुम् ।
शरुमस्मद् यावय दिद्युमिन्द्र ॥३॥
जिस प्रकार वृक्ष (विश्ववृक्ष या पूर्वोक्त धनुष) से संयुक्त गौएँ (ज्या, मंत्रवाणियाँ, इन्द्रियाँ) तेजस्वी ‘शर’। (जीवनतत्त्व) को स्फूर्ति प्रदान करती हैं, उसी प्रकार है इन्द्र (इस प्रक्रिया के संगक) !आप इस तेजोयुक्त शर को
आगे बढ़ाएं-गतिशील बनाएँ ॥३॥
काण्ड –१ सूक्त – ३
८. यथा द्यां च पृथिवीं चान्तस्तिष्ठति तेजनम् ।
एवा.रोगं चास्रावं चान्तस्तिष्ठतु मुञ्ज इत् ॥४॥
झुलोक एवं पृथ्वी के मध्य स्थित तेज की भाँति यह मुञ्ज (मुक्तिदाता या शोधक जीवन–तत्त्व) सभी स्रावों (सृजित, प्रवाहित) रसों एवं रोगों के बीच प्रतिष्ठित रहे ।।४।।
| [ शरीर या प्रकृति के समस्त स्रावों को यह जीवनतत्व रोगों की ओर न जाने दें। रोगों के शम में उसका उपयोग करे।
[३– मूत्र मोचन सूक्त ] [ ऋष – अथर्वा । देवता – १ पर्जन्य, २ मित्र, ३ वरुण, ४ चन्द्र.५ सूर्य । छन्द – अनुष्टुप् , १-५ पथ्यापंक्ति ।)
इस सूक्त में फांस्य के अतिरिक्त मिस वरूण चन्द्र एवं सूर्य को भी ‘ज्ञ‘ का पिता कहा गया है। पूर्व सूक्तों में किये गये वचन के अनुसार न्य न्पादक सम्म प्रया। उन सभी के माध्यम से बरसता है। पर्व मन में गये आर के पिता का व्याफ्कप मंत्र १ से ५ तक प्रकट किया गया तीत होता है। इन सभी को शत– सैंकों(अनन्तो प्रकार से बास्ने वाला अथवा अनन्त बल सम्पन्न कहा गया है।
९. विद्मा शरस्य पितरं पर्जन्यं शतवृष्ण्यम् ।
तेना ते तन्वे३ शं कर पृथिव्यां ते निषेचनं बहिष्टे अस्तु बानिति ॥१॥
(ष कहते हैं। इस शरीर के जनक शतवृष्ण पर्जन्य से हम भली–भाँति परिचित हैं । उससे तुम्हारे (शर की) कल्याण की कामना है । उनसे तुम्हारा विशेष सेचन हो और शत्रु (विकार) बाहर निकल जाएँ ॥१॥
१०. विद्या शरस्य पितरं मित्रं शतवृष्ण्यम्।।
तेना ते तन्वे३ शं करं पृथिव्यां ते निषेचनं बहिष्टे अस्तु बालिति ।।२।।
अनन्त बलशाली मित्रदेव (प्राण वायु) को, जो ‘शर’ का पिता हैं, हम जानते हैं। उससे तुम्हारे, कल्याण का उपक्रम शमन करते हैं। उससे तुम्हारा सेचन हो और विकार बाहर निकल जाएँ ॥२ ॥
११. विद्या शरस्य पितरं वरुणं शतवृष्ण्यम्।
तेना ते तन्वे३ शं करं पृथिव्यां ते निषेचनं बहिष्टे अस्तु बालित ।।३।।
“शर‘ के पालक सशक्त वरुणदेव को हम जानते हैं। उससे तुम्हारे शरीर का कल्याण हो। तुम्हें विशेष पोषण प्राप्त हो तथा विकार–बाहर निकल जाएँ ॥३॥
१२. विद्या शरस्य पितरं चन्द्रं शतवृष्ण्यम्। |
तेना ते तन्वे३ शं करं पृथिव्यां ते निषेचनं बहिष्टे अस्तु बालिति ।।४।।
हम शर के पिता आह्लादक चन्द्रदेव को जानते हैं, उनसे तुम्हारा कल्याण हों, विशेष पोषण प्राप्त हो और दोष बाहर निकल जाएँ ॥४॥
१३. विद्या शरस्य पितरं सूर्य शतवृष्ण्यम्।
तेना ते तन्वे३ शं करं पृथिव्यां ते निषेचनं बहिष्टे अस्तु बालिति ।।५।।
हम जानते हैं कि विशेष शक्ति–सम्पन्न पवित्रतादायक सूर्य ‘शर‘ के पालक हैं, वे तुम्हारा कल्याण करें । जनसे तुम्हें विशिष्ट पोषण प्राप्त हों तथा विकार बाहर निकल जाएँ ॥५॥
* मंत्र क ६ से १ में विशिष्ट उपचार द्वारा शरीरस्थ मूत्र– विचारों को बाहर निकालने का है। स्थूल दृष्टि में शर सका प्रयोग में व निकालने की प्रक्रिया पुराने समय में या त के इपचार काम में मान्य है, किन्तु शर को क्या में होने से चीनी शक्ति के जनक दिस्य वार्ता के विशिष्ट प्रयोग से शरीरस्य विकारों को बसान् बाहर निकाले जा आप भी
अधर्ववेद संहिता भाग–१
होता है। शरीरस्थ जीवन–शक्ति (बाइटल फोर्स) ही पोषण देने तथा विकारों से मुक्ति दिलाने में प्रमुख भूमिका निभाती है। वो सभी फ्वार पद्धतिय स्वीकार करती हैं १४. यदान्त्रेषु गवीन्योर्यदस्तावधि संश्रुतम् । एता ते मूत्रं मुच्यतां बहिलिति सर्वकम् ।।
मूत्र वाहिनी नाड़ियों, मूत्राशय एवं आँतों में स्थित दूषित जल (मूत्र) इस चिकित्सा से पूरा का पूरा, वेंग के साथ शब्द करता हुआ शरीर से बाहर हो जाए ।।६ ।।
१५. प्र ते भिनय मेहनं वन्ने चेशन्त्या इव ।
एवा ते मूत्रं मुच्यतां बर्बोलिति सर्बकम् ॥
‘शर’ (शलाका) से मूत्र मार्ग को खोंस देते हैं। बन्ध टूट जाने से जिस प्रकार जलाशय का जल शीघ्रता से बाहर निकलता है, उसी प्रकार रोगी के उदरस्थ समस्त विकार वेगपूर्वक बाहर निकलें ॥७॥
१६. विधितं ते वस्तिबिले समुदस्योदथेरिव ।
एवा ते मूत्र मुच्यतां बर्बालित सर्वकम्।
तेरे मूत्राशय का बिल (छिद्र) खोलते हैं । विकार युक्त जल (मूत्र) उसी प्रकार शब्द करता हुआ बाहर निकले, जिस प्रकार नदियों का ज्ञल उदधि में सहज ही बह जाता है ।।८।। १७, यथेनुका परापतदवसृष्टाधि धन्वनः । एवा ते मूत्र मुच्यतां बर्बारिलति सर्वकम् ।।९।
धनुष से छोड़े गए, तीव्र गति से बढ़ते हुए बाण की भाँति तेरा सम्पूर्ण मूत्र (विकार) बेगपूर्वक बाहर निकले ॥५६ ।।
[४– अपभेषज (जल चिकित्सा) सूक्त] [ प – सिन्धुद्वीप । देवता – अपानपात्, सोम और आपः देवता । छन्द – गायत्री, ४ पुरस्ताद् बृहती ।।
| इस सूक्त के देवता आपः हैं। आपः । सामान्य अर्थ जस लिया जाता है, किन्तु शोध समीक्षा के आधार पर केवल जाल ही मानने से अनेक पंावं सिद्ध नहीं होते। जैसे–आम क म के समान गतिमान् का है. जल तो शब्द और प्रकाश की गति से भी नहीं ह सकता है।‘आपो वै स्व देवता‘ जैसे सूत्र में पी यहीं पाव प्रकट होता है । मुस्मृत १.८ के अनुसार ईश्वर ने अम् तत्वों सर्वप्रथम रचा। आप यदि ल है, तो उसके पूर्व वायु और अग्नि की पत्ति आवक है, अन्यथा लकी संरचना सम्बंध नहीं । अरु आम का अचेल भी है कि उसे विनों में सट के महत्व की क्रियासि अन्य माना है। वन के संकल्प से मूत्व का क्रियाशीत स्वरूप पहले प्रकट होता है, उससे ही पदार्थ बना प्रारम्भ होनी है। ऐसे किसी तत्व के सतत वाशित होने की परिकल्पना(पामस) पदार्थ विज्ञानी भी करते हैं। मंत्राथों के क्रम में आप के इस स्वरूप में ध्यान में रमा चित है।
१८. अम्बयो यन्त्यध्वभिर्जायो अध्वरीयताम् ।
पञ्चतीर्मघुना पयः ।।१ ॥
| माताओं-बहिनों की भाँति यज्ञ से उत्पन्न पोषक धाराएँ यज्ञ कर्ताओं के लिए पय (दूध या पानी के साथ | मधुर रस मिलाती हैं ॥ १ ॥
११. अमृय उप सूर्ये याभिर्वा सूर्यः सह ।
ता नो हिन्धनबध्वरम्।।३।।
सूर्य के सम्पर्क में आकर पवित्र हुआ बाष्पीकृत जल, उसकी शक्ति के साथ पर्जन्य–वर्षा के रूप में हमारे सत्कमों को बढ़ाए यज्ञ को सफल बनाए ॥ ३ ॥
३०, अपो देवीरुप ह्वये यत्र गावः पिबन्ति नः । सिन्धुभ्यः कवं हविः ।।३।।
हम उस दिव्य ‘आप‘ प्रबाह की अभ्यर्थना करते हैं, जो सिन्धु (अन्तरिक्षा के लिए हवि प्रदान करते हैं तथा | जहाँ हमारी गौएँ (इन्द्रियों अथवा वाणियाँ ) तृप्त होती हैं ॥३ ।।
२१. स्वन्तरमृतमस भेषजम् ।।
अपामुत प्रशस्तिभिरश्वा भवथ वाजिनों गायो भयथ वाजिनीः ॥४॥
काण्ड – सूक्त – ६
| जीवनी शक्ति, रोगनाशक एवं पुष्टिकारक आदि दैवी गुणों से युक्त आपः तत्त्व हमारे अश्वों व गौओं को वेग एवं बल प्रदान करे । हम बल–वैभव से सम्पन्न हों ॥४॥
[५- अपांभेषज(जल चिकित्सा) सूक्त [ ऋषि – सिन्धुद्वीप । देवता – अपांनपात्, सौम और आपः देवता । छन्द – गायत्री, ४ वर्धमान गायत्रीं ।]
२२. आपो हि ष्ठा मयोभुवस्ता न ऊजें दधातन ।
महे रणायं चक्षसे ॥१॥
है आपः ! आप प्राणिमात्र को सुख देने वाले हैं। सुखपभोग एवं संसार में रमण करते हुए, हमें उत्तम दृष्टि की प्राप्ति हेतु पुष्ट करें ॥१॥
२३. यो वः शिवतमो रसस्तस्य भाजयतेह नः ।
शतीरिव मातरः ।।३।।
जिनका स्नेह उमड़ता ही रहता हैं, ऐसी माताओं की भाँति आप हमें अपने सबसे अधिक कल्याणप्रद रस में
भागीदार बनाएँ ॥२ ॥ | [ दुर्गति का मुख्य कारण यह है कि हमारी रसानुभूति अहितकारी प्रवृत्तियों की ओर मुड़ जाती हैं, इसलिए जीवन को रस कल्याणोन्मुख रखने की प्रार्थना की गई है।
२४. तस्मा अरे गमाम वो यस्य क्षयाय जिन्वय।
आपो जनयथा च नः ॥३॥
अन्नादि उत्पन्न कर प्राणिमात्र को पोषण देने वाले हे दिव्य प्रवाह ! हम आपका सान्निध्य पाना चाहते हैं। हमारी अधिकतम वृद्धि हो ।।३।।
२५. ईशाना वार्याणां क्षयन्तीश्चर्षणीनाम् ।
अपो याचामि भेषजम् ॥४॥
व्याधि निवारक दिव्य गुण वाले जल का हम आवाहन करते हैं। वह हमें सुख–समृद्धि प्रदान करे । उस ओषधिरूप जल की हम प्रार्थना करते हैं ॥४॥
[६– अपांभेषज(जल चिकित्सा) सूक्त] [ ऋषि – सिन्धुढीप, कृति अथवा अथर्वा । देवता –अपांनपात् , सोम और आप: देवता । छन्द –गायत्री, ४
पथ्यापंक्ति । ] |
२६. शं नो देवीरभिष्टय आपो भवन्तु पीतये।
शं योरभि सवन्तु नः ॥१॥
दैवीगुणों से युक्त आपः (जल) हमारे लिए हर प्रकार से कल्याणकारी एवं प्रसन्नतादायक हो । वह आकांक्षाओं की पूर्ति करके आरोग्य प्रदान करें ॥ १ ॥ २७. अप्सु में सोमो अब्रवीदन्तर्विधानि भेजा। अग्निं च विश्वशम्भुवम् ॥२॥
सोम का हमारे लिए उपदेश है कि दिव्य आपः हर प्रकार से औषधीय गुणों से युक्त है। इसमें कल्याणकारी अग्नि भी विद्यमान है ।।२।।
२८. आपः पृणीत भेषजं यरूयं तन्वे३ मम।
ज्योक् च सूर्य दृशे ।।३।।
दीर्घकाल तक मैं सूर्य को देखें अर्थात् दीर्घ जीवन प्राप्त करू । है आपः ! शरीर को आरोग्यवर्द्धक दिव्य ओषधिय प्रदान करो ॥३॥
२६. शं न आप धन्वन्या३:
शमु सन्त्वनूप्याः।
शं नः स्वनित्रिमा आः शमु याः कुम्भ आभूताः शिवा नः सन्तु वार्षिकीः ॥४॥ सूखे प्रान्त (रेगिस्तान) काजल हमारे लिए कल्याणकारी हो । जलमय देश का जल हमें सुख प्रदान करें
अथर्ववेद संहिता भाग–१
| भूमि से खोदकर निकाला गया कुएँ आदि का जल हमारे लिए सुखप्रद हों । पात्र में स्थित जल हमें शान्ति देने | वाला हो । वर्षा से प्राप्त जल हमारे जीवन में सुख–शान्ति की वृष्टि करने वाला सिद्ध हो ।।४ ।।
[७– यातुधाननाशन सूक्त ] | : [ ऋषि – चातन । दैवता – अग्नि, ३ अग्नीन्द्र । छन्द – अनुष्टुप् , ५ त्रिष्टुप् ।) |
३०. स्तुवानमग्न आ वह यातुधानं किमदिनम्।
त्वं हि देव वन्दितो हन्ता दस्योर्बभूविथ ।।१।।
हे अग्निदेव ! हम आपकी वन्दना करते हैं । दुष्टता को बढ़ाने वाले शत्रुओं को, आप अपने प्रभाव से पास बुलाएँ। हमारे द्वारा वन्दित आप उनकी बुराइयों को नष्ट कर दें ॥ १ ॥
३१. आज्यस्य परमेष्ठिज्ञातवेदस्तनूवशिन्।
अग्ने तौलस्य श्रीशान यातुधानान् वि लापय ।३।।
उच्च पद पर आसीन, ज्ञान के पुञ्ज, जठराग्नि के रूप में शरीर का सन्तुलन बनाने वाले हे अग्निदेव ! आप हमारे द्वारा सुवापाव से तली हुई (प्रदत्त) आज्यात कों पण करें। हमारे स्नेह से प्रसन्न होकर आप दुष्ट–दुराचारियों को विलाप कराएँ अर्थात् उनका विनाश करें ॥२॥
३२. वि लपतु यातुधाना अत्रिणो ये किमीदिनः।।
अथेदमग्ने नो हविरिन्द्रश्च प्रति हर्यतम् ॥३॥
दूसरों को पड़ा पहुँचाने वाले, अपना स्वार्थ सिद्ध करने वाले समाज के शत्रुओं को अपना विनाश देखकर रुदन करने दें । हे अग्निदेव ! आप इन्द्र के साथ हमारे हविष्य को प्राप्त करें । हमें सत्कर्म की ओर प्रेरित करें ॥३॥
३३. अग्निः पूर्व आ रमतां प्रैन्द्रो नुदतु बाहुमान् ।
ब्रवीतु सर्वो यातुमानयमस्मीत्येत्य ।।४ |
पहले अग्निदेव (असुर विनाशन का कृत्य) प्रारम्भ करें, बलशाली इन्द्र प्रेरणा प्रदान करें। इन दोनों के प्रभाव से असुर स्वयं ही अपनी उपस्थिति स्वीकार करें (प्रायश्चित्त के लिए तैयार हो जाएँ) ।।४ ||
३४, पश्याम ते वीर्यं जातवेदः प्र णो ब्रूहि यातुधानान् नृचक्षः ।।
त्वया सर्वे परितप्ताः पुरस्तात् त आ यन्तु मनुवाणा उपेदम् ॥ ५ ॥
हे ज्ञान स्वरूप अग्निदेव ! आपका प्रकाशरूपी पराक्रम हम देखें। आप पथभष्टों के मार्गदर्शक हैं, अपने प्रभाव से दुष्टों को (हमारे शत्रुओं को) सन्मार्ग की और प्रेरित करें। आपकी आज्ञा से तप्त असुरता प्रायश्चित्त के लिए अपना परिचय देते हुए पास आए ॥५॥
३५. आ रभस्व जातवेदोऽस्माकार्थाय जज्ञिये।
दूतो नो अग्ने भूत्वा यातुधानान् वि लापय ।।६ ॥ |
हे जातवेदः ! आप (शुभ यज्ञीय कर्मों का प्रारम्भ करें । हे अग्निदेव ! आप हमारे प्रतिनिधि बनकर दुष्टजनों को अपने किये गये दुष्कर्मों पर रुलाएँ ॥६॥
३६. त्वमग्ने यातुधानानुपबद्ध इहां वह ।
अथैवामिन्द्रो वज्रेणापि शीर्षाणि वृश्चतु ।।७।।
हे मार्गदर्शक नदेव ! आप दुराचारियों को यहाँ आने के लिए बाध्य करें और इन्द्रदेव वज्र से उनके सिरों | का उच्छेदन करें ॥ध्र ।।।
भूमिका
१०,७.१४॥ छत्रवेद (उवथ.यजु..... यषि संत्रा बूम– अथर्वः १६.६.१४) । अधर्ववेद साम्.–––क्षत्रं वैद– शत मा १४, ८.१४. के ये सभी अभियान उसके व्यापक वय विषय ३ – ४) तथा भैषज्य वेद (चः सामानि भैषज्ञो। को स्पष्ट करते हैं।
तीन संहिताएँ अथर्ववेदय कौशिक सूत्र के दारिल भाष्य में विधि प्रयोग संहिता – जब मंत्रों का प्रयोग किस अथर्ववेद की तीन संहिताओं का उल्लेख पाया जाता है, अनुष्य कर्म के लिए किया जाता है, तो एक ही मंत्र को जबकि अन्य तीनों दें की एक–एक संहिता ही उपलब्ध कई पदों में विभक्त कर अनाय मन्त्र का निर्माण कर होती है, जिसका मुद्रण–प्रकाशन होता रहता हैं। लिया जाता है, तब ऐसे मन्त्रों के संकलन को दारिल भाष्य में अधर्व की जिन तीन संहिताओं विधि–प्रयोग संहिता कहते हैं । विधि प्रयोग संहिता का का उल्लेख है, उनके नाम हैं – [i) आ–सनिा (ii) यह प्रथम प्रकार हैं। इसी भाँति इसके चार प्रकार और आचार्य संहिता और (ii) विधि–प्रयोग सहना। होते हैं । द्वितीय प्रकार में नये शब्द मन्त्रों में जोड़े जाते
आर्षी संहिता– पियों के द्वारा परम्परागत हैं। तृतीय प्रकार में किसी विशिष्ट मन्त्र का आवर्तन उस प्राप्त मंत्रों के संकलन को ‘आर्षी संहिता‘ कहा सूक्त के मतिमंत्र के साथ किया जाता है। इस प्रकार सुत्त ज्ञाता है। आजकल काण्ड, सूक्त और मंत्रों के के मंत्रों की संख्या द्विगुणित हो जाती है । चतुर्थ प्रकार विभाजन वाला जो अधवपद उपलब्ध है, जिसे में किस सक्त में आए हुए मंत्रों के क्रम में परिवर्तित शौनकीय हता म कहा जाता है, वि संहिता पा कर दिया जाता है। पंचम प्रकार में किसी मंत्र के अर्थ
आप – निता हों हैं।
भाग को हीं समा मन्च मानकार प्रयोग किया जाता है । आचार्य सहिता = दारिल भाष्य में इस महिला के निष्कर्यतः हम कह सकते हैं कि आर्ची-सहता संदर्भ में उल्लेख है कि उपनयन संस्कार के बाद आचार्य मूल संहिता है । आचार्य संहिता उसका संक्षिप्तीकरण अपने शिष्य को जिस रूप में अध्ययन कराता है, वह रूप हैं और विध–प्रयोग संहिता मका आचार्य संहिता कहलाती है।
।। विस्तृतीकरण कप‘ ।।
अथर्ववेद का शाखा विस्तार अन्य वेदों की तरह ‘अथर्ववेद‘ की भी एकाधिक ६.१.१ । सर्वानुक्रमणी (महर्षि कात्यायनकृत) अन्य मैं शाखाओं का उल्लेख मिलता हैं । सायण भाष्य के इस संबंध में दो मत उद्धृत किये गये हैं। प्रधम मत पक्षात प्रपञ्च हदय चरण व्यूह (व्यासकृत) गधा के अनुसार पन्द्रह शाज्ञाएँ है। वेदों में शाखाओं का महाभाष्य (पतंजलिकृत) आदि ग्रन्थों में अथर्ववेद की प्रामाणिक वर्णन प्रस्तुत करने वाले ग्रन्थ ‘चरण व्यूह” शाखाओं का उल्लेख पाया जाता है । महर्षि पतंजलि में अथर्व संहिता के ‘नौ‘ भेद स्वीकार किये गये है, जो के महाभाथ्य में अथर्ववेद की ‘नौ‘ शासनामों का इस प्रकार हैं = ६. पैम्पल ३, दान्त ३. अदान्त , स्नात उल्लेख है– नवधा वर्वाणो वेद(म मा पस्पः ५. मौन ६. असदाबत ३. शौनक 2. देवदर्शत और
१. कौशिकी वास घपक्ष दाति । शास्त्र विज्ञाने येषां मन नपपद्यते ॥ ।
(श्री एच आर दिवेकर द्वारा उद्दत केशवीं तथा दारिल भाष्य) ३, पेम जपनीय शिष्यं पापन सा आचार्य सीता (कौः स द भा) ३. इसके विस्तृत और प्रामाणिक विवेचन के लिए, इष्टव्य है– डॉ. एच आर दिवे कुरा अधर्व संहिता एण्ड | इसका पैन । १३३६३ तथा शिव चौमामाय कृतलिमिटेशन वायूम, हाहाबाद। ४. यावा १३ अर्बगो अन्ये तु प्राजु पन्दतावकम् (सर्वा वृः मार्बज्ञयो ।
अर्धवेद संझिा पाग–१
–
।।
हैं अग्निदेव ! जिस श्रेष्ठ ज्ञान के बल पर इन्द्र आदि देवता सम्पूर्ण रसों (सुखों) का उपभोग करते हैं, उसी दिव्य ज्ञान से मनुष्य के जीवन को प्रकाशित करते हुए आप ऊँचा उठाएँ, वह मनुष्य देवतुल्य श्रेष्ठ जीवन जिए ॥३॥
४४, ऐसां यज्ञमुत चर्चा ददेऽहं रायस्पोषमुत चित्तान्यग्ने।
सपना अस्मदधरे भवन्तूत्तमं नाकमधि रोहयेमम् ॥४ ।।
हे अग्निदेव ! मैं इस (साधक) के यज्ञ, तेज, ऐश्वर्य एवं चित्त को स्वीकार करता हूँ । स्पर्धाशील शत्रु हमसे नीचे ही रहें । हे देव ! आप इस साधक को श्रेष्ठ सुख-शान्ति प्रदान करें ।।४ ।।।
[१०– पाशविमोचन सूक्त] [ ऋष–अधर्वा । देवता – १ असुर . २–४ वरुण । छन्द – त्रिष्टुप्, ३ ककुम्मती अनुष्टुप् , ४ अनुष्टुप् ।] | ४५. अयं देवानामसुरो वि राजति वशा हि सत्या वरुणस्य राज्ञः ।
ततस्परि ब्रह्मणा शाशदान उग्रस्य मन्योरुदिनं नयामि ॥१॥ | देवताओं में बली राजा वरुणदेव प्रकाशित हैं। उनकी इच्छा हीं सत्य हैं; तथापि हम दैवी ज्ञान के बल पर स्तुतियों द्वारा पीड़ित व्यक्तियों को उनके प्रकोप से बचाते हैं ॥१ ।।
४६. नमस्ते राजन् वरुणास्तु मन्यवे विश्वं ह्युग्र निचिकेवि दुग्धम् ।।
सहस्रमन्यान् म सुवामि साकं शतं जीवाति शरदस्तवायम् ॥२ ।।
हे सर्वज्ञ वरुणदेव ! आपके कोप से पीड़ित हम सब शरणागत होकर नमन करते हैं; आप हमारे सभी दोषों को भली–भाँति जानते हैं । जन–मानस को बोध हो रहा है कि देवत्व की शरण में पहुँच कर (सद्गुणों को अपना कर) हीं सुखी और दीर्घ जीवन प्राप्त हो सकता हैं ॥२ ।।
४६. यदुवक्थानृतं जिह्वया वृजिनं बहु ।
राज्ञस्वा सत्यधर्मणो मुञ्चामि वरुणादहम् ॥३ |
हे पीड़ित मानव ! तुमने अपनी वाणो का दुरुपयोग करते हुए असत्य और पाप वचन बोलकर अपनी गरिमा का हनन किया हैं । सर्व समर्थ वरुणदेव के अनुग्रह से इस दुःखद स्थिति से मैं तुम्हें मुक्त करता हूँ ।।३।।
४८. मुञ्चामि त्वा वैश्वानरादर्णवान् महतस्पर।
सजातानुग्नेहा वद ब्रह्म चाप चिकीहि नः ।।४।।
हे पतित मानव ! हम तुम्हें नियन्ता बहादेव के प्रचण्ड कोप से बचाते हैं । हे उपदेव ! आप अपने सजातीय दृता से कह दें (वे इसे मुक्त करें और हमारे ज्ञान (स्तोत्र) पर ध्यान दें ॥४॥
[११– नारीसुखप्रसूति सूक्त ] [ ऋषि – अथर्वा । देवता – पृषा, अर्यमा, वेथा, दिक, देवगण । छन्द – पंक्ति, ३ अनुष्टुप् , ३ चतुष्पदा
| उगार्भा ककुम्मत अनुष्टुप, ४-६ पथ्यापंक्ति ।)
४९. वषट् ते पूषन्नस्मिन्त्सूलावर्यमा होता कृणोतु वेथाः ।
सिखती नार्यतप्रज्ञाता वि पर्वाणि जिहतां सुतवा ॥१॥
| हे अखिल विश्व के पोषक, श्रेष्ठ जनों के हितैषी पृषा देवता ! हम अपनी हयि समर्पित करते हैं। आप इस प्रसूता को महायता करे । यह सावधानीपूर्वक अपने अंगों को प्रसव के लिए तैयार करे-दीला करे ।।१ ।।
५०. चतस्रो दिवः प्रदिशश्चतस्रो भूम्या उत ।
देवा गर्भ समैरयन् तं व्यूर्णवन्तु सूतवे ॥२
काण्ड – मुक्त – १३
घुलोक एवं भूमि को चारों दिशाएँ घेरे हैं। दिव्य पंच भूतों ने इस गर्भ को घेरा-(धारण किया हुआ हैं, वे ही इस आवरण से मुक्त करें-बाहर करें ।।२।।
५१. सूषा व्यूर्णोतु वि योनिं हापयामसि ।
श्रथया सूषणे त्वमय त्वं बिकले सूज ॥३॥
हें प्रसवशील माता अथवा प्रसव सहायक देव ! आप गर्भ को मुक्त करें । गर्भ मार्ग को हम फैलाते हैं, अंगों | को ढीला करें और गर्भ को नीचे की और प्रेरित करें ।।३।।
५२. नेव मांसे न पीबसि नेव मञ्जस्याहृतम्।
अवैतु पनि शेवलं शुने जराय्यत्तवेऽव जरायु पद्यताम् ॥४॥
| गर्भस्थ शिशु को आवेष्टित करने वाले (समेट कर रखने वाली वैली) ‘जरायु प्रसूता के लिये मांस, मज्जा या चवीं की भाँति उपयोगी नहीं, अपितु अन्दर रह जाने पर गम्भीर दुष्परिणाम प्रस्तुत करने वाली सिद्ध होती हैं।
सेवार (जल की घास) की जैसी नरम ‘जेरी‘ पूर्णरूपेण बाहर आकर कुत्तों का आहार बने ॥४॥
५३. वि ते भिनद्मि मेहनं वि योनिं वि गवीनिके।
वि मातरं च पुन्नं च वि कुमारं जरायुणाव जरायु पद्यताम् ॥५॥
हे प्रसूता ! निर्विघ्न प्रसव के लिए गर्भमार्ग, योनि एवं नाड़ियों को विशेष प्रकार से खोलता है। माँ व बालक को नाल से अलग करता हूँ । जेरों से शिशु को अलग करता हूँ । जेरी पूर्णरूपेण पृथ्वी पर गिर जाए ॥५५ ॥
५४. यथा वातो यथा मनो यथा पन्त पक्षिणः ।
एवा त्वं दशमास्य साकं जरायुगा पताच जरायु पद्यताम् ॥६॥
जिस प्रकार वायु वेगपूर्वक प्रवाहित होती हैं । पक्षौं जिस वेग से आकाश में उड़ते हैं एवं मन जिस तीव्रगति से विषयों में लिप्त होता है, उसी प्रकार दसवे माह गर्भस्थ शिशु जेरों के साथ गर्भ से मुक्त होकर बाहर आए ॥ ६ ॥
[१३– यक्ष्मनाशन सूक्त] [ ऋधि – भृग्वद्भिरा। देवता – यक्ष्मनाशन । छन्द – जगती, २-३ त्रिष्टुप् , ४ अनुष्टुप् ।।
५५. जरायुजः प्रथम उत्रियो वृषा वातजा स्तनयन्नेति वृष्ट्या।
| स नो मृडाति तन्व जुगों रुजन् ये एकमोजत्रेधा विचक्रमे ।।१।।
जरायु से उत्पन्न शिशु की भाँति बलशाली सूर्यदेव वायु के प्रभाव से मेघों के बीच से प्रकट होकर हमारे शरीरों को हर्षित करते हैं। वे सीधे मार्ग में बढ़ते हुए अपने एक हों ओज को तीन प्रकार से प्रसारित करते हैं ॥१ ।।
[सूर्य का ओज–प्रकाश नाप तथा चै के रूप में या शरीर में विधातुओं को पुष्ट करने वाले के रूप में सक्रिय होता है।
५६. अड़े अङ्गे शोचिषा शिश्रियाणं नमस्यन्तस्त्वा हविषा विधेम्।
अङ्कवान्त्समङ्कान् हविषा विधेम यो अग्रभीत् पर्वास्या ग्रभीता ॥२॥
अपनी ऊर्जा से अंग-प्रत्यंग में संव्याप्त है सूर्यदेव ! स्तुतियों एवं हवि द्वारा हम आपको और आपके | समीपवर्ती देवों का अर्चन करते हैं। जिसके शरीरस्थ जोड़ों में रोगों ने मसित कर रखा है, उसके निमित्त भी हम
आपको पूजते हैं ॥२ ।।।
५७. मुञ्च शीर्षया उत कास एवं परुष्पराविवेशा यो अस्य।
। यो अभ्रज्ञा वातजा यश्च शुष्मो वनस्पतीन्सचतां पर्वतांश्च ।।३।।
अथर्ववेद संहिता भाग–१
| हे आरोग्यदाता सूर्यदेव ! आप हमें सिरदर्द एवं कास (खाँसी) की पीड़ा से मुक्त करें । सन्धियों में घुसे रोगाणुओं को नष्ट करें । वर्षा, शीत एवं ग्रीष्म ऋतुओं के प्रभाव से उत्पन्न होने वाले वात, पित्त, कफ जनित रोगों को दूर करें । इसके लिए हम अनुकूल वातावरण के रूप में पर्वतों एवं वनौषधियों का सहारा लेते हैं ।।३।।
५८. शं में परस्मै गात्राय शमस्त्ववराय में।
शं में चतुभ्य अङ्गेभ्यः शमस्तु तन्वे३ मम ॥
| हमारे सिर आदि श्रेष्ठ अंगों का कल्याण हों। हमारे उदर आदि साधारण अंगों का कल्याण हो । इमा चारों अंगों (दो हाथों एवं दो पैरों का कल्याण हो । हमारे समस्त शरीर को आरोग्य – लाभ प्राप्त हो ॥४॥
[१३- विद्युत् सूक्त ] [ऋषि–भृग्वङ्गिरा ।देवता– विद्युत् । छन्द अनुष्टुप् ३ चतुष्पाद् विराट् जगती, ४ विटुप् परा बृहतीगर्भा पंक्ति ।)
५९. नमस्ते अस्तु विद्युत्ते नमस्ते स्तनयित्नवे ।
नमस्ते अस्त्वश्मने येना दूडाशे अस्यसि ॥
विद्युत् को हमारा नमस्कार पहुँचे। गड़गड़ाहट करने वाले शब्द तथा अशन को हमारा नमस्कार पहुँचे। व्यापने वाले मेघों को हमारा नमस्कार पहुँचे । हे देवि ! कष्ट पहुँचाने वाले दुष्टों पर वज्र फेंक कर आप उन्हें दूर हटाती हैं ।।१ ।। ६०. नमस्ते प्रवतो नपाद् यतस्तपः समूहसि। मृड्या नस्तनूभ्यो मयस्तोकेभ्यस्कृधि ॥२॥ | हे देव (पर्जन्यो ! आप पानी को अपने अन्दर ग्रहण किये रहते हैं और असमय नीचे नहीं गिरने देते। हम आपको प्रणाम करते हैं, क्योंकि आप हमारे अन्दर तप एकत्रित करते हैं। आप हमारे देह को सुख प्रदान करें। तथा हमारी सन्तानों में भी सुख प्रदान करें ॥२॥
६९. अवतो नपान्नम एवास्तु तुभ्यं नमस्ते हेतये तपुषे च कृण्मः ।
विद्म ते धाम परमं गुहा यत् समुड़े अन्तर्निहितासि नाभिः ।।३।।
| ऊँचाई से न गिराने वाले हैं पर्जन्य ! आपको हम प्रणाम करते हैं। आपके आयुध तथा तेजस् को हम प्रणाम करते हैं। आप जिस हृदयरूपी गुहा में निवास करते हैं, वह हमें ज्ञात हैं। आप उस समुद्र में नाभि के सदृश विद्यमान रहते हैं ।।३ ।।।
६२. यां त्वा देवा असृजन्त विश्व इषु कृण्वाना असनाय धृष्णुम् ।
| सा नो मड़ विदथे गृणाना तस्यै ते नमो अस्तु देवि ।।४।।
| हे अशनि ! रिओं पर प्रहार करने के लिए समस्त देवताओं ने बलशाली बाण के रूप में आपकी संरचना | की है । अन्तरिक्ष में गर्जना करने वाले हैं अर्शन ! हम आपको नमस्कार करते हैं। आप हमारे भय को दूर करके
में हुई प्रदान करें ॥४॥
[१४– कुलपाकन्या सूक्त] [ ऋषि – भृग्वङ्गिरा। देवता – वरुण अथवा यम । छन्द – १ ककुम्मती अनुष्टुप्, ३, ४ अनुष्टुप् , ३ चतुष्पात्
विराट अनुष्टर् ।] . सामान्य अर्थों में प्रथम मंत्र में प्रयुक्त ‘अस्याः‘ का अर्थ क्या किया गया है। इस आयार पर कन्या को योग्य र के सुपुर्द करने का भावार्थ लिया जाता है, किन्तु म सुरू के देवता वित्, कण एवं म है। इस आया ‘या‘ का अर्थ किनुमान है। वित् माण करने वाले पण तथा उसका नियमन करने वाले ‘म‘ कहे जा सकतें हैं। इस संदर्भ में कन्या
विद्युत् उसके पिता ‘कि–उत्पादक तथा वर उसके प्रयो–
विपन्न माने योग्य । वि पाठक इस संदर्भ में भी मंत्रा को समझ सकते है.
का–१ मूक्त – १५
६३. भगमस्या चर्च आदिब्यधि वृक्षादिव स्रजम् ।
| महाबुन इव पर्वतों ज्योक् पितृष्वास्ताम् ।।१।।
वृक्षों से जैसे मनुष्य फूल ग्रहण करते हैं, उसी प्रकार इस कन्या (अथवा विद्युत् के सौन्दर्य तथा ओज से हम स्वीकार करते हैं। जिस तरह विशाल पर्वत धरती पर स्थिर रहता है, उसी प्रकार यह कन्या भयरहित होकर (अपने अथवा मेरे) माता–पिता के घर पर बहुत समय तक रहें ।। १ ।।
६४. एघा ते राजन् कन्या वधूर्नि श्रूयतां यम् ।
सा मातुर्बध्यता गृहेऽथो आतुरथो पितुः ।।
| हे नियम पालन करने वाले प्रकाशवान् ! यह कन्या आपकी वधू बनकर आचरण करें। यह कन्या आपके घर में रहे, माता–पिता अथवा भाई के घर में सुखपूर्वक रहे ।।२। ।
६५. एषा ते कुलपा राजन् तामु ते परि दयसि।
ज्योक् पितृष्वासाता आ शीः समोप्यात् ।।३।।
हैं राजन् ! यह कन्या आपके कुल की रक्षा करने वाली हैं, उसको हम आपके निमित्त प्रदान करते हैं। यह निरंतर (अपने या तुम्हारे) माता–पिता के बीच रहे । शीर्ष से (श्रेष्ठ स्तर पर रहकर अथवा विचारों से) शान्ति एवं कल्याण के बीज बोए ।।३।।
६६. असितस्य ते ब्रह्मणा कश्यपस्य गयस्य च ।
अत:कोशमिव जामयोऽपि नह्यामि ते भगम् ।।४।।
हे कन्ये ! आपके सौभाग्य को हम ‘असित’ मेष, “गय’ ऋषि तथा “कश्यप ऋषि के मंत्र के द्वारा उसी प्रकार बाँधकर सुरक्षित करते हैं, जिस प्रकार स्त्रियाँ अपने बच्चों–आभूषणों आदि को गुप्त स्वकर सुरक्षित करती हैं ।।४ ।।
[विद्युत् के संदर्भ में अनि का अर्थ म्यारीज़ स्वतंत्र प्रवाह, कश्यप का अर्थ पश्यक का भव–देखने योग्यप्रकाशोत्पादक तथा गन्न का अर्व प्राण– ऊर्मा हैं। इस प्रकार विद्युत् कीं विशेषताओं को पयों ने सूत्रों के माध्यम से प्रकट किया है।
[१५- पुष्टिकर्म सूक्त ] [ ऋषि–अथर्वा । देवता – सिन्धुसमूह (याता, पतत्रिण पक्ष) । छन्द– अनुष्ट, १ भुरिक बृहती, २ पथ्या पंक्ति ।
६७. सं सं स्रवतु सिन्धवः सं वाताः सं पतत्रिणः।
| इमं यज्ञं प्रदिवों में जुषन्तां संस्रायेण हविषा जुहोमि ।।१।।
नदियाँ और वायु भली-भाँति संयुक्त होकर प्रवाहित होती रहें तथा पक्षीगण भली–भाँति संयुक्त होकर उड़ते रहे । देवगण हमारे यज्ञ को ग्रहण करें, क्योंकि हम हविष्यों को संगठित–एकीकृत करके आहुतियाँ दे रहे हैं ॥१ ।।
६८. इहैव हवमा यात म इह संस्त्रावणा उतेमं वर्थयता गिरः ।
इहैतु सर्वो यः पशुस्मिन् तिष्ठतु या रयिः ।।२।।
हे संगठित करने वाले देवताओं ! आप यहाँ हमारे इस यज्ञ में पधारें और इस संगठन का संवर्द्धन करें। प्रार्थनाओं को ग्रहण करने पर आप इस हाँच प्रदाता यजमान को प्रजा, पशु आदि सम्पत्ति से सम्मान करें ।।२ ।।
६९. ये नदीनां संस्रवत्युत्सासः सदमक्षिताः।
तेभिमें सर्वैः संस्रावैर्घनं सं स्रावयामसि ।।
सरिताओं के ज्ञों अक्षय स्रोत संघबद्ध होकर प्रवाहित हो रहे हैं, उन सब स्रोतों द्वारा हम पशु आदि धन–सम्मत्तियाँ प्राप्त करते हैं ॥३ ।।।
अथर्ववेद संहिता भाग–१
90, ये सर्पिषः संस्रवन्त क्षीरस्य चोदकस्य च । तेभिर्मे सर्वैः संस्रावैर्घनं से स्रावयामसि
जो घृत, दुग्ध तथा जल की धाराएँ प्रवाहित हो रहीं हैं, उन समस्त धाराओं द्वारा हम धन–सम्पत्तियों प्राप्त करते हैं ।।४ ||
[प्रकृति कळ झारा उपलव्य वस्तुओं को सुनियोजित करके ही मनुष्य ने सारी सम्पत्तियाँ उपलब्ध की हैं।
[१६– शत्रुवाधन सूक्त ] | [ प – चातन । देवता – आँन, इन्द्र, वरुण (३–४ थत्य सौस) । छन्द–अनुष्ट, ४ ककुम्मती अनुष्ट्र् ]
७१. ये ऽमावास्यां३ रात्रिमुदस्थुर्वाजमत्रिणः।।
अग्निस्तुरीयो यातुहा सो अस्मभ्यमधि बवत् ॥१॥
| अमावस्या की अँधेरी रात के समय मनुष्यों पर बात करने वाले तथा उनको क्षति पहुँचाने वाले, जो असुर | आदि विचरण करते हैं, उन असुरों के सम्बन्ध में असुर विनाशक चतुर्थ अग्निदेव हमें जानकारी प्रदान करें ।।१ ।।
यहाँ अम के लिए तुरीय (चतुर्थ) सम्बोधन विचारणीय हैं । अनि के तीन प्रयोग (गफ्याग्नि, आनीयानि नाचा दक्षिणानि) यनीय होते हैं। चराचं प्रयोग सुरक्षापरक कारणों के लिए किये जाने से से तुरीय अनि कहा गया है। रात्रि |में चोरों के आने की सूचना देने के लिए कोई ‘वर्मा पाक्न या इझाड डिक्टर‘ जैसे योग का संकेत इस मंत्र में मिलता है।
७३. सीसायाध्याह वरुण: सीसायाग्निरुपावति।
सीस म इन्द्रः प्रायच्छत् तदङ्ग यातुचात्तनम् ॥२ ।।
वरुणदेव ने सीसे के सम्बन्ध में कहा (प्रेरित किया है। अग्निदेव उस ‘सीसे‘ को मुनष्यों की सुरक्षा करने वाला बताते हैं। धनवान् इन्द्र ने हमें ‘सीसा‘ प्रदान करते हुए कहा है–हे आत्मीय ! देवों द्वारा प्रदत्त यह ‘संसा असुरों का निवारण करने वाला हैं ॥२॥
| | तीन देवताओं ण, अमि एवं इन्द्र द्वारा ‘झी‘ से आत्मरक्षा तथा शत्रु निवारण के प्रयोग बसाए गए हैं। संगठन सत्ता ‘सीसे की गोती का रहस्य ला सकते हैं, क्रूण ( हॉसिक प्रेशर से) नया अनि(विस्फोटक शक्ति |में) ‘मोसे के प्रहार की विद्या प्रदान कर सकते हैं। नींस एवं चौथे मत्रमें सीसे को अब हटाने वाला तवा वेश कर | इसी आय को स्पष्ट किया गया है।]
७३. इदं विकन्यं सहत इदं बाधते अत्रिणः
। अनेन विश्वा ससहे या ज्ञातानि पिशाच्याः
यह सौसा अवरोध उत्पन्न करने वालों को हटाता है तथा असुरों को पौंड़ा पहुँचाता है । इसके द्वारा असुरों की समस्त जातियों को हम दूर करते हैं ॥ ३ ॥
७४. यदि नो गां हँसि यद्यश्वं यदि पूरुषम्।।
तं वा सोसेन विध्यामो यथा नोऽसो अवीरहा ।।४।।
| हे रिपो ! यदि तुम हमारी गौओं, अश्वों तथा मनुष्यों का संहार करते हो, तो हम तुमको सीसे के द्वारा वेधते हैं। जिससे तुम हमारे वीरों का संहार न कर सको ॥४॥
[१७– रुधिरस्रावनिवर्तनधमनीबन्धन सूक्त ] [ ऋषि – ब्रह्मा । देवता – योषित् , लोहितवासस, हिरा । छन्द–अनुष्टुप्, १ भूरिक् अनुष्टुप ४ त्रिपदाप गायत्री ।
७५.अमूर्या यन्ति घोषित हिरा लोहितवाससः
। अभातर इव जामयस्तिष्ठन्तु हृतवर्चसः
शरीर में लाल रंग के रक्त का वहन करने वाली जो योषा (धमनियाँ हैं, वे स्थिर हो जाएँ, । जिस प्रकार भाई रहित निस्तेज बहिनें बाहर नहीं निकलतीं, उसी प्रकार धमनियों का खून बाहर न निकले ॥१ ।।
काण्ड–१ सूक्त – १८
७६, निष्ठावरे तिष्ठ पर उत त्वं तिष्ठ मध्यमें।
कनिष्ठिका च तिष्ठति तिष्ठादिद् धमनिर्मही ॥२॥
है नीचे, ऊपर तथा बीच वाली धमनियों ! आप स्थिर हों ज्ञाएँ। छोटीं तथा बड़ी धमनियाँ भी खून बहाना बन्द करके स्थिर हो जाएँ ॥२ ।।
७७, शतस्य धमनीनां सहस्रस्य हिराणाम् ।
अस्थर–मध्यमा इमाः साकमन्ता अरंसत ॥ ३ ॥
सैकड़ों धमनियों तथा सैकड़ों नाड़ियों के मध्य में मध्यम नाड़ियाँ स्थिर हो गई हैं और इसके साथ–साथ | अन्तिम धमनियों भी ठीक हो गई हैं, जिसका रक्त स्राव बन्द हो गया हैं ॥३॥
७८. परिं वः सितावत धनुर्बहूत्यक्रमीत् ।
तिष्ठतेलयता सु कम् ।।४।।
हे नाड़ियों ! आपको रज नाड़ी ने और धनुष की तरह वक़ धनु नाङ्गो ने तथा बृहती नाङ्गो ने चारों तरफ से संव्याप्त कर लिया है। आप खून बहाना बन्द करें और इस रोगों को सुख प्रदान करें ॥४॥
[१८- अलक्ष्मीनाशन सूक्त ] [अघि – द्रविणोदा । देवता – विनायक । छन्द – १ उपरिष्टाद् विराट् बृहती, २ निवृत् जगती, ३ विराट्
आस्तारपंक्ति त्रिष्टु, ४ अनुष्टुप् ।] |
७९. निर्लक्ष्म्यं ललाई निररातिं सुवामसि ।।
अथ या भद्रा तानि नः प्रजाया अराति नयामसि ।।१।।
ललाट पर स्थित बुरे लक्षणों को हम पूर्ण रूप से दूर करते हैं तथा जो हितकारक लक्षण हैं, उन्हें हम अपने लिए तथा अपनी सन्तानों के लिए प्राप्त करते हैं। इसके अलावा कृपणता आदि को दूर हटाते हैं ॥ १ ॥
८०. निररणि सविता साविषक् पदोर्निर्हस्तयोर्वरुणो मित्रो अर्यमा।
निरस्मभ्यमनुमती रराणा प्रेम देवा असाविषुः सौभगाय ॥३॥
मित्रावरुण, सविता तथा अंर्यमा देव हमारे हाथों और पैरों के बुरे लक्षणों को दूर करें । सबकी प्रेरक अनुमति भी वांछित फल प्रदान करती हुई शरीर के बुरे लक्षणों को दूर करे । देवों ने भी इसी सौभाग्य को प्रदान करने के निमित्त प्रेरणा दी हैं ।।३।। ८१. यत्त आत्मनि तन्त्रां घोरमस्ति यद्वा केशेषु प्रतिचक्षणे वा।
सर्वं तद् वाचाप हुन्मो वयं देवस्त्वा सविता सुदयतु ।।३।। | है बुरे लक्षणों से युक्त मनुष्यो ! आपकी आत्मा, शरीर, बाल तथा आँखों में जो वीभत्सता का कुलक्षण हैं, | उन सबको हम मन्त्रों का उच्चारण करके दूर करते हैं । सविता देवता आपको परिपक्व बनाएँ ।।३।
८२. रिश्यपद वृषदत गोषेषां विधमामुत।।
विलीचं ललाम्य ता अस्मन्नाशयामसि ।।४।।
” ऐसी स्त्री जिसका पैर हिरण की तरह, दाँत बैल की तरह, चाल गाय की तरह तथा आवाज़ कठोर हैं, हम उसके मस्तक पर स्थित ऐसे सभी बुरे लक्षणों को मन्त्रों द्वारा दूर करते हैं ॥४॥
अथर्ववेद संहिता भाग–१
[ १९– शत्रुनिवारण सूक्त ] | [ ऋषि – ब्रह्मा । देवता – ईश्वर (१ इन्द्र, २ मनुष्यों के बाण, ३. रुद्र, ४ विश्वेदेवा) । छन्द – अनुष्टुप, २ पुरस्ताद्
बृहती, ३ पथ्या पंक्ति ।]
८३. मा नो विदन् विठ्याधिनो मो अभिव्याधिनो विदन्।
आच्छरव्या अस्मद्विधूचीरिन्द्र पातये ॥१॥
हथियारों द्वारा अत्यधिक घायल करने वाले रिपु हमारे समीप तक न पहुँच पाएँ तथा चारों तरफ से संहार करने वाले रिपु भी हमारे पास न पहुँच पाएँ । हे परमेश्वर इन्द्र ! सब तरफ फैल जाने वाले बाणों को आप हमसे | दूर गिराएँ ॥१॥
८४, विष्यच अस्मच्छरवः पतन्तु ये अस्ता ये चास्याः।
दैवीर्मनुष्येषवो ममामित्रान् वि विध्यते ।।३।।
चारों तरफ फैले हुए बाण जो चलाए जा चुके हैं तथा जो चलाए जाने वाले हैं, वे सब हमारे स्थान से दूर गिरें । हें मनुष्यों के द्वारा संचालित तथा दैवी बाणों ! आप हमारे रिषुओं को विदीर्ण कर डालें ॥२ ।।।
८५. यो नः स्वो यो अरणः सत्रात उत निंष्ट्यो यो अस्माँ अभिदासति ।
रुद्रः शरव्य घेतान् ममामित्रान् वि विध्यत् ॥३॥
जो हमारे स्वजन हों या दूसरे अन्य लोग हों अथवा सजातीय हों या दूसरी जाति वाले हीन लोग हों; यदि वे हमारे ऊपर आक्रमण करके हमें दास बनाने का प्रयत्न करें, तो उन रिपुओं को रुद्रदेव अपने बाणों से विदीर्ण करें ॥३॥ |
८६. यः सपत्नो योऽसपत्नो यश्च हिंघञ्छुपाति नः ।
देवास्तं सर्वे घूर्वन्तु ब्रह्म वर्म ममान्तरम् ॥४ ।।
जो हमारे प्रकट तथा गुप्त रिपु विद्वेष भाव से हमारा संहार करने का प्रयत्न करते हैं या हमें अभिशापित करते हैं, उन रिपुओं को समस्त देवगण विनष्ट करें । ब्रह्मज्ञान रूपी कवच हमारी सुरक्षा करे ।।४ ।।
[२०– शनुनिवारण सूक्त ] | ऋषि- अथर्वा । देवता – १ सौम, मरुद्गण, २ मित्रावरुण, ३ वरुण, ४ इन्द्र । छन्द – अनुष्टुप्, १ त्रिष्टुप् ।]
८७. अदारसृद् भवतु देव सोमास्मिन् यज्ञे मरुतो मृड़ता नः ।
मा नो विददभिभा मो अशस्तिर्मा नो विदद् वृजिना द्वेच्या या १॥
| हे सोमदेव ! परस्पर वैमनस्य स्पन्न करने का कृत्य हमसे न हो। हे मरुतों ! हुम जिस युद्ध का अनुष्ठान कर रहे हैं, आप उसमें हमें हर्षित करें । सम्मुख होकर बढ़ता हुआ शत्रु का ओजस् हमारे समीप न आ सके तथा अपकीर्ति भी हमें न प्राप्त हो । जो विद्वेषवर्द्धक कुटिल कृत्य हैं, वे भी हमारे समीप न आ सके ॥ १ ॥
८८. यो अद्य सेन्यो वोऽघायूनामुदीरते ।
युवं तं मित्रावरुणावस्मद् याययतं परि ॥२
हे मित्र और वरुणदेवों ! रिपुओं द्वारा संधान किए गए आयुधों को आप हमसे दूर रखें, जिससे वह हमें | स्पर्श न कर सके। आज संग्राम में हिंसा की अभिलाषा से संधान किए गए रिपुओं के अस्त्रों को हमसे दूर रखने
का उपाय करें ॥३॥
काय – सूक्त – ३
८९. इतश्च अदमुतश्च यद् वर्थ वरुण यावय।
वि मच्छर्म यच्छ वरीयो याचया वधम् ॥
‘ हे वरुणदेव ! समीप में खड़े हुए तथा दृर में स्थित रिपुओं के जो अरुस, संहार करने के उद्देश्य से हमारे पास आ रहे हैं, उन ओड़े गए अस्त्र–शस्त्रों को आप हमसे पृथक् करें । हे वरुणदेव ! रिओं द्वारा अप्राप्त बृहत् सुखों को आप में प्रदान करें तथा उनके कठोर आयुधों को हुमसे पृथक् करें ।।३।।
१०. शास इत्था महाँ अस्यमित्रसाहो अस्तृतः ।
न यस्य हन्यते सखा न जीयते कदाचन ।
हे शासक इन्द्रदेव ! आपकी शत्रु हनन की क्षमता महान् और अद्भुत हैं, आपके मित्र भी कभी मृत्यु को | प्राप्त नहीं होते और न कभी शत्रुओं से पराभूत होते हैं ॥४॥
[२१– शनिवारण सूक्त]
[ ऋषि – अथर्वा । देवता – इन्द्र । छन्द– अनुष्टम् ।।
११. स्वस्तिदा विशां पतिर्दृत्रहा विमृयो वशी।
वृषेनः पुर एतु नः सोमपा अभयः ॥१
इन्द्रदेव सबका कल्याण करने वाले, प्रजाजनों का पालन करने वाले, वृत्र असुर का विनाश करने वाले, युद्धकर्ता शत्रुओं को वशीभूत करने वाले, साधकों की कामनाओं को पूर्ण करने वाले, सोमपान करने वाले और अभय प्रदान करने वाले हैं। वे हमारे समक्ष पधारें ॥ १ ॥
१३. वि न इन्द्र मृधों जहि नीचा यच्छ पृतन्यतः ।।
अधमं गमया तमो यो अस्माँ अभिदासति ॥२ ।।
हे इन्द्रदेव ! आप हमारे शत्रुओं का विनाश करें । हमारी सेनाओं द्वारा पराजित शत्रुओं को मुँह लटकाये हुए भागने दें । हमें वश में करने के अभीच्छ शत्रुओं को गर्त में डालें ॥३॥ १३. वि रक्षो वि मृधो हि वि वृत्रस्य हुनू रुज। वि मन्युमन्द्र वृत्रहन्नमत्रस्याभिदासतः
है इन्द्रदेव ! आप राक्षसों का विनाश करें । हिंसक दुष्टों को नष्ट करें । वृत्रासुर का जबड़ा तोड़ दें । हे |शत्रु–नाशक इन्द्रदेव ! आप हमारे संहारक शत्रुओं के क्रोध एवं दर्प को नष्ट करें ।।३।।
१४. अपेन्द्र द्विषतो मनोऽप जिज्यासतों वधम् ।
वि मच्छर्म यच्छ वरीयो यावया वधम्
हे इन्द्रदेव ! आप शत्रुओं के मनों का दमन करें । हमारा संहार करने के अभिलाधी शत्रुओं को नष्ट करें । | शत्रुओं के क्रोध से हमारी रक्षा करते हुए हमें श्रेष्ठ सुख प्रदान करें । शत्रु से प्राप्त मृत्यु का निवारण करें ॥४॥
[ २२– हृद्रोगकामनानाशन सूक्त ]
[ ऋषि – ब्रह्मा । देवता – सूर्य, हरिमा और हृद्रोग । छन्द – अनुष्टुप् ।]
९५. अनु सूर्यमुदयतां हृद्योतो रिमा च ते ।
गो रोहितस्य वर्णेन तेन त्वा परि दमसि ।।
हे रोगग्रस्त मनुष्य ! हुद्दय रोग के कारण आपके हृदय की जलन तथा (पीलिया या रक्ताल्पता का विकार) आपके शरीर का पीलापन, सूर्य की ओर चला जाए। रक्तवर्ण को गौओं अथवा सूर्य की रक्तवर्ण की रश्मियों के द्वारा हम आपको हर प्रकार से बलिष्ठ बनाते हैं ।।१ ।। |
९६. परि त्या रोहितैर्वर्दीर्घायत्वाय दध्मसि ।
यथायमरपा असदथो अहरितो भूवत् ।।३
हे व्याधिग्रस्त मनुष्य ! दीर्घायुष्य प्राप्त करने के लिए हम आपको लोहित वर्ण के द्वारा वृत करते हैं, जिसमें आप ग्रेगहित होकर पाण्डु रोग में विमुक्त हो सकें ॥३॥
अधर्ववेद संहिता भाग–१
९७. या रोहिणीर्देवत्यार गावो या उन रोहिणीः।
रूपरूपं वयोवयस्ताभिध्वा पर दध्मसि ॥३॥
देवताओं की जो रक्तवर्ण की गौएँ हैं अथवा रक्तवर्ण की रश्मियाँ हैं, उनके विभिन्न स्वरूपों और आयुष्यवर्द्धक गुणों से आपको आच्छादित (उपचारित करते हैं ॥३॥
९८. शुकेषु ते हरिमाणं रोपणाकासु दमसि ।
अथो हारिद्रवेषु ते हरिमाणे नि दथ्मसि ।।४ ॥
हम अपने हरिमाण (पीलिया अथवा शरीर को क्षण करने वाले रोगों को शुक (तोतों) रोपणाका (वृक्षों) एवं इरिद्रयों (हरी वनस्पतियों में स्थापित करते हैं ।।४ ॥
[मनुष्य के रोगाणु विशिष्ट पधियों या स्पतियों में प्रविष्ट होते हैं, तो उनमें इन रोगों के प्रतिरोधक त्व(एन्टीबडीय) उत्पन्न होते हैं। उनके संसर्ग से मनुष्यों के रोगों का शमन होता है। मनुष्य के मल विकार–पक्षियों एवं वनस्पतियों के लिए स्वाभाविक आहार न जाते हैं, इसलिए रोग विकारों को उनमें विस्थापित करना अचित है।
[२३- श्वेत कुष्ठ नाशन सूक्त ]
[ ऋषि – अथर्वा । देवता – असिमी वनस्पति । छन्द – अनुष्टुम् ।।
१९. नक्तंजातास्योषधे रामे कृष्णे असिक्न च।
इदं रजनि जय किलासं पलितं च यत् ॥१॥
हे राम–कृष्णा तथा असिनी औषधियों ! आप सब रात्रि में पैदा हुई हैं। रंग प्रदान करने वाली है। | ओषधियों ! आप गलत कुष्ठ तथा श्वेतकुष्ठग्रस्त व्यक्ति को रंग प्रदान करें ॥१ ॥
[घन्तरि के अनुसार रामासेरामा तुलसी, आरामशीलता, घृतकुमारी, लक्षणा आदि कृष्णा से कृष्णा तुलसी, कृष्णामूसी, पुर्नवा पिप्पली आदि तथा अस्मिी से सिकनी असिशिवी आदि का बोध होता है। |
१००. किलासं च पलितं च निरितो नाशया पृषत् ।
आ त्वा स्व विशतां वर्णः परा शुक्लानि पातय ॥२ ।।
हे औषधियों ! आप कुष्ठ, श्वेतकुष्ठ तथा धब्बे आदि को बिनष्ट करें, जिससे इस व्याधिग्रस्त मनुष्य के शरीर में पूर्व जैसी लालिमा प्रवेश को । आप सफेद दाग को दूर करके इस रोगी को अपना रंग प्रदान करें ॥३॥
|१०१. असितं ते प्रलयनमास्थानमसतं तव ।।
|असिक्यस्योषधे निरितो नाशया पृषत् ।।३।।
है नील औषधे ! आपके पैदा होने का स्थान कृष्ण वर्ण है तथा जिस पात्र में आप स्थित रहती हैं, वह भी काला है । हे औषधे ! आप स्वयं श्याम वर्ण वाली हैं, इसलिए लेपन आदि के द्वारा इस रोगी के कुम्न आदि धयों को नष्ट कर दें ॥३॥
१०२. अस्थिजस्य किलासस्य तनूजस्य च यत् त्वच।।
| दूष्या कृतस्य ब्रह्मणा लक्ष्म श्वेतमनीनशम् ॥४॥
शरीर में विद्यमान अस्थि और त्वचा के मध्य के मांस में तथा त्वचा पर जो श्वेत कुष्ठ का निशान है, उसे | हमने ब्रह्म ज्ञान या मन्त्री प्रयोग के द्वारा विनष्ट कर दिया ।।४ ।।
कापड – सूक्त – ५
[ २४– चेतकुष्ठ नाशन सूक्त] [धि – ब्रह्मा । देखना – आसुरी वनस्पति । छन्द – अनुष्टुप, २ निवृत् पथ्या पंक्ति ।]
१०३. सुपर्णो जातः प्रथमस्तस्य त्वं पित्तमासिथ ।।
तदासुरी बुधा जिता रूपं च वनस्पतीन् ।१ ।।
हैं औषधे सर्वप्रथम आप सुपर्ण (सूर्य या गरुड़ के पित्तरूप में थीं । आसुरी (शक्तिशाली) सुपर्ण के साथ संग्राम जीतकर उस पित्त को ओषधि का स्वरूप प्रदान किया। वहीं रूप नील आदि औषधि में प्रविष्ट किया है ॥
१०४. आसुरी चक्रे प्रथमेदं किलासभेषजमिदं किलासनाशनम्।
अनीनशत् किलासं सरूपामकरत् त्वचम् ॥२॥ |
उस आसुरी माया ने नील आदि ओषधि को कुष्ठ निवारक ओषधि के रूप में विनिर्मित किया था। यह ओषधि कुष्ठ नष्ट करने वाली हैं । प्रयोग किये जाने पर इसने कुष्ठ रोग को विनष्ट किया। इसने दूषित त्वचा में रोग शून्य त्वचा के समान रंग वाली कर दिया ।।२ ।।।
१०५. सरूपा नाम ते माता सरूपो नाम ते पिता।
सरुपकृत् त्वमोषधे सा सरूपमिदं कृधि ।।३।।
हे ओषधे ! आपकी माता आपके समान वर्ण वाली है तथा आपके पिता भी आपके समान वर्ण वाले हैं और आप भी समान रूप करने वाली हों । इसलिए है नील औषधे ! आप इस कुष्ठ रोग से दूषित रंग को अपने समान रंग – रूप वाला करें ॥३॥
१०६. श्यामा सपङरणी पर्थिव्या अध्यक्षता ।
इदम् 5 में साधय पुना रूपाणि कल्पय ।
है काले रंग वाली ओषधे ! आप समान रूप बनाने वाली हो । आसुरी माया ने आपको धरती के ऊपर पैदा किया है। आप इस कुष्ठ रोग ग्रस्त अंग को भली प्रकार रोगमुक्त करके पूर्ववत् रंग-रूप वाला बा दें ।।४ ।।
[ २५- ज्वर नाशन सूक्त] | ऋषि–भृग्वाङ्गिरा देवता–यक्ष्मनाशन अग्नि । छन्द -१ त्रिष्टुप् , २-३ चिरागभत्रिष्टुप्, ४ पुरोऽनुष्टुप् त्रिष्टुप् ।]
१०७. यदग्निरापो अदहत् प्रविश्य यत्राकृण्वन् धर्मवृतो नमांसि।.
- तत्र त आः परमं जनित्रं स नः संविद्वान् परि वृग्धि तक्मन् ॥१॥
जहाँ पर धर्म का आचरण करने वाले सदाचारी मनुष्य नमन करते हैं, जहाँ प्रविष्ट होकर अग्निदेव, प्राण धारण करने वाले जल तत्व को जलाते हैं, वहीं पर आपका (ज्वर का वास्तविक जन्म स्थान है, ऐसा आपके बारे में
कहा जाता है । हे कष्टप्रदायक ज्वर ! यह सब जानकर आप हमें रोग मुक्त कर दें ॥१॥ .
१०८. यद्यर्चिर्यदि वासि शोचिः शकल्येषि यदि वा ते जनित्रम् ।
| हृड्र्नामासि हरितस्य देव स नः संविद्वान् परि वृग्धि तक्मन् ॥२॥
हैं जीवन को कष्टमय करने वाले ज्वर ! यदि आप दाहकता के गुण से सम्पन्न हैं तथा शरीर को संताप देने वाले हैं, यदि आपका जन्म लकड़ी के टुकड़ों की कामना करने वालें अग्निदेव से हुआ हैं, तो आप ‘इड‘ नाम वाले हैं। हे पीलापन उत्पन्न करने वाले ज्वर ! आप अपने कारण अग्निदेव को जानते हुए हमें मुक्त कर दें ॥२ ॥
I’ का अर्थ गति (नाको गति) या कम्पम अचाने वाला अक्वा चिन्ता अपन्न करने वाला माना जाता हैं।
| अक्ववेद संहिता भाग–१
१०९. यदि शोको यदि वाभिशोको यदि वा राज्ञों वरुणास्यासि पुत्रः ।।
| डुर्नामासि हरितस्य देव स नः संविद्वान् परि वृघि तक्मन् ॥३॥
| है जीवन को कष्टमय बनाने वाले ज्वर ! यदि आप शरीर में कष्ट देने वाले हैं अथवा सब जगह पीड़ा उत्पन्न | करने वाले हैं अथवा दुराचारियों को दण्ड़ित करने वाले वरुणदेव के पुत्र हैं, तो भी आपका नाम ‘हृडु’ हैं। आप
अपने कारण अग्निदेव को जानकर हम सबको मुक्त कर दें ॥३॥
११०. नमः शीताय तक्मने नमो रूराय शोचिषे कृणोमि ।
यो अन्येचुरुभयद्युरभ्येति तृतीयकाय नमो अस्तु तक्मने ॥४॥
ठंडक को पैदा करने वाले शीत ज्चर के लिए हमारा नमन हैं और रूखे ताप को उत्पन्न करने वाले ज्वर को हमारा नमन हैं । एक दिन का अन्तर देकर आने वाले, दूसरे दिन आने वाले तथा तीसरे दिन आने वाले शीतज्वर को हमारा नमन है ॥४ ।।
[ ज्ञात–ठंड स्लगका आने वाले एवं ताप में सुनाने वाले मलेरिया जैसे ज्वार का लेख यहाँ है । यह वार नियमित होने के साध ही अंतर देकर आने वाले इकतरा–निवारी आदि रूपों में भी होते हैं। नमन का सीधा अर्थ दूर से नमस्कार करना–बचाव करना(प्रिवेन) निया जाता है।‘संस्कृत शब्दार्थ कौस्तुभ नामक कोष के अनुसार नमसु के अर्थ नमस्कार, त्याग, क्व आदि भी हैं। इन वारों के त्याग या उन पर (ऑर्याध या मंत्र शक्ति में क्व हार करने का भाव भी निकलता है ।
[ २६– शर्म (सुख) प्राप्ति सूक्त] [ ऋष – ब्रह्मा । देवता – १ देवा, २ इन्द्र, भग, सविता, ३-४ मरुद्गण । छन्द – गायत्री, २ एकावसाना विपदा सानी त्रिष्टुप, ४ एकावसाना पार्दानिवृत् गायत्रौं । इस मत के देवता रूप में इन्द्राणीं वर्णित हैं। इन्ह दया के लिए प्रयुक्त होने से इन्द्राणी का अर्थ रानी अक्वा सेना लिया जाता है। इन्डाणी को शचीं भी कहा गया हैं। ‘शची ‘ का अर्थ निघण्टु में वाणी कर्म एवं जा दिया गया है। इस आधार पर शवों को जीवात्मा की वाणी शक्ति, कर्म शक्ति एवं विचार शक्ति भी कहा जा सकता है। ये तीनों अलग–अलग एवं संयुक्त होकर धीं शत्रुओं को पराभूत करने में समर्थ होता है। तु, इन्द्राणों के अर्थ में नौं, बा की सैन्य शक्ति तथा जीव–चेमा
की उक्त शक्तयों को लिया जा सकता है |
१११. आरे३सावस्मदस्तु हेतिर्देवासो असत् ।
आरे अश्मा यमस्यथ ।।१ ।।
ॐ देवों ! रिपुओं द्वारा फेंके गये थे अत्र हमारे पास न आएँ तथा आपके द्वारा फेंके गये (अभिमंत्रित पाषाण भी हमारे पास न आएँ ॥१॥
११२. सख़ासाचस्मभ्यमस्तु रातिः
सखेन्द्रो भगः सविता चित्रराधाः ।।२।।
दान देने वाले, ऐश्वर्य – सम्पन्न सवितादेव तथा विचित्र धन से सम्पन्न इन्द्रदेव तथा भगदेव हमारे सखा हों ॥२ ॥
११३. यूयं नः प्रवतो नपान्मरुतः सूर्यत्वचसः
। शर्म यच्छाथ संप्रथाः ।।३।।
अपने आप की सुरक्षा करने वाले, न गिराने वाले हे सूर्य की तरह तेजयुक्त मरुतो ! आप सब हमारे निमित्त प्रचुर सुख प्रदान करें ।।३ ॥
११४. सुषुदत मृडत मृड्या नस्तनूभ्यो मयस्तोकेभ्यस्कृधि ।।४।। |
इन्द्रादि देवता हमें आश्चय प्रदान करें तथा हमें हर्षित करें ।वे हमारे शरीरों को आरोग्य प्रदान करें तथा हमारे बच्चों को आनन्दित करें ॥४ ।।
का–१ सः – ३४
[ २७– स्वस्त्ययन सूm] || ऋषि – अथर्वा । देवतां – चन्द्रमा और इन्द्राणी । छन्द – अनु१ पथ्या पंक्ति ।
११५. अमू: पारे पृदाक्यस्त्रिषप्ता निर्जरायवः ।।
| तासां जरायुभिर्वयमक्ष्यावपि ययामस्यघायोः परिपन्थिनः ।।१।।
ज्ञरायु निकलकर पार हुई ये त्रिसप्त (तीन और सात) सर्पणियाँ (गतिशील सेनाएँ या शक्ति धाराएँ ) हैं। उनके जरायु (केंचुल या आवरण) से हम पापियों की आँखें ढूंक दें ॥ १ ॥
११६. विधूच्येतु कृन्तती पिनाकमिव बिभती।
विष्वक् पुनर्भुवा मनोऽसमृद्धा अघायवः
| रिपुओं का विनाश करने में सक्षम पिनाक (शिव धनु) की तरह शस्त्रों को धारण करके रिपुओं को काटने वाली (हमारी वीर सेनाएँ या शक्तियों) चारों तरफ से आमें बढ़े, जिससे पुनः एकत्रित हुई रिपु सेनाओं के मन तितर–बितर हो जाएँ और उसके शासक हमेशा के लिए निर्धन हो जाएँ ।।२ ।।।
११७. न बहवः समशकन् नार्थका अभि दाधृषुः ।
वेणोरा इवामितो समृद्धा अघाययः |
बृहत् शत्रु भी हमें विजित नहीं कर सकते और कम शत्रु हमारे सामने इहर नहीं सकते । जिस प्रकार वाँस
के अंकुर अकेले नवा कमजोर होते हैं। उसी प्रकार पाप मनुष्य धन विहीन हो जाएँ ॥३॥
११८. प्रेतं पादौ प्रस्फुरतं वहतं पृणतो ग्रहान् ।
इन्द्राण्येतु प्रथमाजीतामुचिता पुरः ।।४।।
है दोनों पैरो ! आप द्रुतगति से अमन करके आगे बढ़ें तथा वांछित फल देने वाले मनुष्य के घर तक हमें पहुँचाएँ । किसी के द्वारा विजित न की हुई, न लूट हुईं अभिमानी – (इन्द्राणी) सबके आगे–आगे चलें ॥४॥
[२८- रक्षोन सूक्त ] |. [ ऋषि – चातन । देवता – १-२ आँगन, ३-४ यातुधानौं । छन्द – अनुष्टुप्, ३ विराट् पथ्याबृहती, ४ पथ्या
|
पंक्ति ।] |
११९. उप प्रागाद् देवो अग्नी रक्षोहामवचातनः ।
दइन्नप द्वयाविनों यातुधानान् किमीदिनः ।।१।।
रोगों को विनष्ट करने वाले, असुरों का विनाश करने वाले अग्निदेव शंकालुओं, तुटेरों तथा दोमुहे कपटियों | को भस्मीभूत करते हुए इस उद्विग्न मनुष्य के समीप पहुँचते हैं ।।१।। |
१२०. प्रति दह यातुधानान् अति देव किमीदिनः ।
| प्रतीचीः कृष्णवर्तने से दह यातुधान्यः ॥२॥
हे अग्निदेव ! आप लुटेरों तथा सदैव शंकालुओं को भस्मसात् करे । हे काले मार्ग वाले अग्निदेव ! जीवों | के प्रतिकूल कार्य करने वाली लुटेरों स्त्रियों को भी आप भस्मसात् करें ॥२॥
१२१. या शशाप शपनेन याचं मूरमादथे।
| या रसस्य हरणाय जातमारेमे तोकमत्तु सा ॥३॥
जो राक्षसियाँ शाप से शापित करती हैं और जो समस्त पापों का मूल हिंसा रूपी पाप करती हैं तथा जो खुन । रूपी रसपान के लिए जन्मे हुए पुत्र का भक्षण करना प्रारम्भ करती हैं, वे राक्षसियाँ अपने पुत्र का तथा हमारे रिपुओं की सन्तानों का भक्षण करें ।।३।।
अथर्ववेद संहिता भाग–१
| १२२. पुत्रमत्तु यातुधानीः स्वसारमुक्त नप्त्यम्।
अधा मिथो विकेश्यो३ विघ्नतां यातुधान्यो३ वि तृान्तामराय्यः ।।४।।
| वे राक्षसियाँ अपने पुत्र, बहिन तथा पौत्र का भक्षण करें । वे बालों को खींचकर झगड़ती हुई मृत्यु को प्राप्त करें तथा दानभाचे से बिहान घात करने वाली राक्षसि परस्पर लड़कर मर ज्ञाएँ ॥४॥
[२९– राष्ट्र अभिवर्धन, सपत्नक्षयण सूक्त]
[ ऋषि – वसिष्ठ । देवता – अभींवर्तमणि, ब्रह्मणस्पति । छन्द – अनुष्टुप् ।] |
१२३. अभीवर्तेन मणिना येनेन्द्रो अभिवावृधे।
तेनास्मान् ब्रह्मणस्पतेऽभि राष्ट्राय वर्चय
हे ब्रह्मणस्पते ! जिस समृद्धिदायक मणि से इन्द्रदेव की उन्नति हुई, उस मणि से आप हमें राष्ट्र के लिए (राष्ट्रहित के लिए विकसित करें ।।१ ।। १२४. अभिवृत्ध सपत्नानभि या नो अरातयः । अभि पृतन्यन्तं तिष्ठाभि यो नो दुरस्यति
हैं राजन् ! हमारे विरोधी हिंसक शत्रु सेनाओं को, जो हमसे युद्ध करने के इच्छुक हैं, जो हमसे द्वेष करते हैं, आप उन्हें घेरकर पराभूत करें ॥३॥
१२५. अभि त्वा देवः सविताभ सोमो अवीवृधत् ।
अभि त्वा विश्वा भूतान्यभवतॊ यथासस ।।३।।
| हे राजन् ! सवितादेव, सोमदेव और समस्त प्राणिसमुदाय आपको शासनाधिरूढ़ करने में सहयोग करें। इन सबकी अनुकूलता से आप भली- भौति शासन करें ।। ३ ।।
१२६. अभीव अभिभवः सपलक्षयणो मणिः ।
राष्ट्रीय मह्यं बध्यतां सपत्नेभ्यः पराभुवे
यह मणि रिपुओं को आवृत करके उनकों पराजित करने वाली हैं तथा विरोधियों का विनाश करने वालों है। विरोधियों को पराभूत करने के लिए तथा राष्ट्र की उन्नति के लिए इस मणि को हमारे शरीर में बाँधे ॥४॥
१३७. दसौ सुय अगादिदं मामर्क वचः ।
यथा शनुहोसान्यसपत्नः सपत्नहा ।।५।।
ये सूर्यदेव उदित हों गये, हमारी वाणी (मंत्र शक्ति) भी प्रकट हो गई हैं । (इनके प्रभाव से हम शत्रुनाशक, दुष्टों पर आघात करने वाले तथा शहीन हों ॥५॥ | १२८. सपनक्षयणो वृषाभिराष्ट्र विधासह्नि। यथाहमेषां वीराणां विराज्ञानि जनस्य च ।
हे मणे ! हम शत्रुहन्ता, बलवान् एवं विजयी होकर राष्ट्र के अनुकूर | वीरों तथा प्रजाजनों के हित सिद्ध करने वाले बने ॥६॥
[ ३०– दीर्घायुप्राप्ति सूक्त] || ऋषि – अथर्वा । देवता – विश्वेदेवा । छन्द – त्रिष्टुप् , ३ शाक्वरगर्भा विराट् जगती।] |
१२९. विश्वे देवा वसवो रक्षतेममुतादित्या जागृत यूयमस्मिन् ।
मेर्म सनाभिरुत वान्यनाभिर्मेमं प्रापत् पौरुषेयो वधो यः ।।१।।
में समस्त देवताओं ! हे बमुओं ! इस आयुष्य की अभिलाषा करने वाले मनुष्य की आप सब सुरक्षा करें । | हे आदित्यो ! आप सब भी इस सम्बन्ध में सावधान रहें । इसका विनाश करने के लिए इसके बन्धु अथवा दूसरे
शत्रु इस व्यक्ति के समीप न आ सके । इसको मारने में कोई भी सक्षम न हो सकें ॥ १ ॥
काण्डे –१ सूक्त – ३१ |
१३०. ये वो देवाः पितरों ये च पुत्राः सचेतसों में शृणुतेदमुक्तम् ।
सर्वेभ्यो वः परि ददायेतं स्वस्त्ये नं जरसे वहाथ ॥२ ।।
हैं देवताओ ! आपके जो पिता तथा पुत्र हैं, वे सब आयु की कामना करने वाले व्यक्ति के विषय में मेरी इस प्रार्थना को सावधान होकर सुनें । हम इस व्यक्ति को आपके लिए समर्पित करते हैं । आप इसकी संकटों में सुरक्षा
करते हुए इसे पूर्ण आयु तक हर्षपूर्वक पहुँचाएँ ॥२ ।।। |
१३१. ये देवा दिविष्ठ ये पृथिव्यां ये अन्तरिक्ष ओषधीषु पशुध्वस्वन्तः ।
| ते कृणुत जरसमायुरस्मै शतमन्यान् परि वृण मृत्यून् ॥३॥ |
समस्त देवों ! आप जगत् के कल्याण के निमित्त धुलोक में निवास करते हैं। हे अग्नि आदि देवो! | आप पृथ्वी पर निवास करते हैं । हें वायुदेव ! आप अन्तरिक्ष में निवास करते हैं। हैं ओषधयों तथा गौओं में विद्यमान देवताओ ! आप इस आयुष्यकामों व्यक्ति को लम्बी आयु प्रदान करें । आपकी सहायता से यह व्यक्ति मृत्यु के कारणरूप सैकड़ों ज्वरादि रोगों से सुरक्षित रहे ॥३॥
१३२. येषां प्रयाजा उत वानुयाजा हुतभागा अहुतादश्च देवाः।
येषां वः पञ्च प्रदिशो विभक्तास्तान् वो अस्मैं सत्रसदः कृणोमि ।।४।।
जिन अग्निदेव के लिए पाँच याग किए जाते हैं और जिन इन्द्र आदि देव के लिए तीन याग किए जाते हैं। और अग्नि में होमी हुई आहुतियाँ जिनका भाग हैं, अग्नि से बाहर डाली हुई आहुतियों का सेवन करने वाले बलिहरण आदि देव तथा पाँच दिशाएँ जिनके नियन्त्रण में रहती हैं। उन समस्त देवों को हम आयुष्यामी व्यक्ति की आयुर्वृद्धि के लिए उत्तरदायी बनाते हैं ॥४॥
[ ३१– पाशमोचन सूक्त] [ प – ब्रह्मा । देवता – आशापालाक वास्तोष्पतिगण । छन्द – अनुष्टुप्.३ विराट् त्रिष्टुप् , ४ परानुष्ट
त्रिष्टुप् ।)
| १३३, आशानामाशापालेभ्यश्चतुभ्य अमृतेभ्यः ।
इदं भूतस्याध्यक्षेभ्यो विधेम हविषा वयम् ॥१॥ |
समस्त प्राणियों के अधिपति तथा अमरता में सम्पन्न इन्द्र आदि चार दिक्पालों के निमित्त हम सब हुनि समर्पित करते हैं ।।१।। १३४, य आशानामाशापालाश्चत्वार स्थन देयाः ।
ते नो नित्याः पाशेभ्यो मुञ्चतांहसोअंहसः ।।२।। हे देवों ! आप चारों दिशाओं के चार दिशापालक हैं। आप हमें हर प्रकार के पापों से बचाएँ तथा पतनोन्मुख पाशों से मुक्त करे ।।।।
१३५. अन्नामस्त्या विषा यजाम्यश्लोणस्त्वा घृतेन जुहोमि।
य आशानामाशापालस्तुरीयो देवः स नः सुभूतमेह वक्षत् ॥३॥
(३ कुबेर ! हम इच्छित ऐश्वर्य की प्राप्ति के लिए अभ्रान्त होकर आपके लिए आहुति समर्पित करते हैं। हम श्लोण (लँगड़ापन नामक रोग से रहित होकर आपके लिए घृत द्वारा आरति समर्पित करते हैं। पूर्व वर्णित चतुर्थ । दिक्पाल में स्वर्ण आदि सम्पत्ति प्रदान करें और हमारी आहुतियों से प्रसन्न हों ।।३।।
३३
अथर्ववेद संहिता भाग–१
| १३६. स्वस्ति मात्र उत पित्रे नो अस्तु स्वस्ति गोभ्यो जगते पुरुषेभ्यः।
विश्वं सुभूतं सुविदत्रं नो अस्तु ज्योगेव दृशेम सूर्यम् ॥४॥
हमारी माता तथा हमारे पिता कुशल से रहें । हमारी गौएँ, हमारे स्वजन तथा सम्पूर्ण संसार कुशल से रहें । हम सब श्रेष्ठ ऐयं तथा श्रेष्ठ ज्ञान वाले हों और सैकड़ों वर्षों तक सूर्य को देखने वाले हों, (दीर्घजीवी) हों ।।४।।
[ ३२- महब्रह्म सूक्त] [ ऋषिं – ब्रह्मा । देवता – द्यावापृथिवौं । छन्द – अनुष्ट्वा , २ ककुम्मती अनुष्टुम् ।] |
१३७, इदं जनासो विदथ महद् ब्रह्म वदिष्यति ।
न तत् पृथिव्यां नो दिवि चेन प्राणन्ति वसवः ।।१।।
हे जिज्ञासुओं ! आप इस विषय में ज्ञान प्राप्त करें कि यह बह्य धरती पर अथवा द्युलोक में ही निवास नहीं कताजिससे औषधिय प्राण प्राप्त करती हैं ॥१॥
१३८. अन्तरिक्ष आसां स्थाम आन्तसदामिव ।
आस्थानमस्य भूतस्य विदुष्ट वेधसो न वा ।।२।।
इन ओषधियों का निवास स्थान अन्तरिक्ष में हैं। जिस प्रकार थके हुए मनुष्य विश्राम करते हैं, उसी प्रकार ये ओषधियाँ अन्तरिक्ष में निवास करती हैं। इस बने हुए स्थान को विधाता और मनु आदि जानते हैं अथवा नहीं ?
१३९. यद् रोदसी ज़माने भूमिश्च निंरतक्षतम् ।
आईं तदद्य सर्वदा समुद्रस्येव स्रोत्याः ।।
| हे द्यावा-पृथिवि ! आपने तथा धरती ने जो कुछ भी उत्पन्न किया है। वह सब उसी प्रकार हर समय नया रहता है, जिस प्रकार सरोवर से निकलने वाले जलस्रोत अक्षय रूप में निकलते रहते हैं ॥३॥
१४०. विश्चमन्यामधीवार तदन्यस्यार्माधिश्रितम् ।।
दिवे च विश्ववेदसे पृथिव्यै चाकरं नमः ।।४।।
| यह अन्तरिक्ष इस जगत् का आवरण रूप हैं। धरती के आश्रय में रहने वाला यह विश्व आकाश से वृष्टि के लिए प्रार्थना करता हैं । इस द्युलोक तथा समस्त ऐश्चर्यों से सम्पन्न पृथ्वी को हम नमन करते हैं ॥४॥
[३३- आपः सूक्त]
| ऋषि – शन्तानि । देवता – चन्द्रमा और आपः । छन्द – त्रिष्टुम् । ] |
१४१. हिरण्यवर्णाः शुचयः पावका यासु जातः सविता यास्वग्निः ।
यो अनि गर्भ दधिरे सुवर्णास्ता न आपः शं स्योना भवन्तु ॥१॥
| जो जल सोने के समान आलोकित होने वाले रंग से सम्पन्न, अत्यधिक मनोहर, शुद्धता प्रदान करने वाला हैं, जिससे सवितादेव और अग्निदेव उत्पन्न हुए हैं । जो श्रेष्ठ रंग वाला जल अग्निगर्भ है,वह जल हमारी व्याधियों को दूर करके हम सबको सुख और शान्ति प्रदान करे ॥१ ।।
१४२. यासां जा वरुणो याति मध्ये सत्यानृते अवपश्यञ्जनानाम्।
या अग्नि गई दधिरे सुवर्णास्ता न आपः शं स्योना भवन्तु ॥२ ।।
जिस जल में रहकर राज्ञा वरुण सत्य एवं असत्य का निरीक्षण करते चलते हैं । जो सुन्दर वर्ण बाला जल | ऑन को गर्भ में धारण करता हैं, वह हमारे लिए शान्तिप्रद हो ॥२ ।।
काण्ड –१ सूक्त – ३४
१४३. यासो देवा दिवि कृण्वन्ति भक्षं या अन्तरिक्षे बहुधा भवन्ति ।
यो अनि गर्भ घिरे सुवर्णास्ता न आपः शं स्योना भवन्तु ॥३॥
जिस जल के सारभूत तत्त्व का तथा सोमरस का इन्द्रदेव आदि देवता द्युलोक में सेवन करते हैं । जो अन्तरिक्ष में विविध प्रकार में निवास करते हैं । वह अग्निगर्भा जल हम सबको सुख और शान्ति प्रदान करे ॥३॥
१४४. शिवेन मा चक्षुषा पश्यतापः शिवया तन्वोप स्पृशत त्वचं में।
घृतश्रुतः शुचयो याः पावकास्ता न आपः शं स्योना भवन्तु ॥४॥
है जल के अधिष्ठाता देव ! आप अपने कल्याणकारी नेत्रों द्वारा हमें देखे तथा अपने हितकारी शरीर द्वारा हमारी त्वचा का स्पर्श करें । तेजस्विता प्रदान करने वाला शुद्ध तथा पवित्र जल हमें सुख तथा शान्ति प्रदान करे ॥४
[३४– मधुविद्या सूक्त
[ ऋच – अथर्वा । देवता – मधुवनस्पति । छन्द – अनुष्टुप् ।] |
१४५. इयं वीरुन्मधुजाता मधुना त्चा खनामसि ।
मधोरधि प्रजातासि सा नों मधुमतस्कृधि ।।१।।
सामने स्थित. चढ़ने वाली मधुक नामक लता मधुरता के साथ पैदा हुई है। हम इसे मधुरता के साथ खोदते हैं। है वरुत् ! आप स्वभाव से ही मधुरता सम्पन्न हैं । अतः आप हमें भी मधुरता प्रदान करें ।।१ ।। |
१४६. जिल्लाया अग्रे मधु में जिह्वामूले मथूलकम्।
ममेदह क्रतावसो मम चित्तमुपायसि ॥२ ।।।
| हमारी जिह्वा के अगले भाग में तथा जिल्ला के मूल भाग में मधुरता रहे। हे मधूलक लते ! आप हमारे शरीर, मन तथा कर्म में विद्यमान रहें ।।२ ॥ १४. मधुमन्मे निक्रमणं मधुमन्मे परायणम्।
वाचा वदामि मथुमद् भूयास मधुसदृशः ।।३।। हे मधुक ! आपको पहाण करके हमारा निकट का गमन मधुर हो और दूर का जाना मधुर हो। हमारी वाणी भी मधुरता युक्त हो, जिससे हम सबके प्रेमास्पद बन जाएँ ॥३ ।।।
१४८. मधोरस्मि मधुतरो मद्धान्मधुमत्तरः ।
मामित् किल त्वं वनाः शाखां मधुमतीमय ।।४।।
| है मधुक लते ! आपकी समीपता को ग्रहण करके हम शहद में अधिक मीठे हो जाएँ तथा मधुर पदार्थ से भी ज्यादा मधुर हों आएँ । आप हमारा ही सेवन करें । जिस प्रकार मधुर फलयुक्त शाखा में पक्षीगण प्रेम करते हैं, उसी प्रकार सब लोग हमसे प्रेम करें ॥४ ।।
१४९. परि त्वा परितलुनेक्षणागामविद्विषे ।
यथा मां कामिन्यसो यथा मन्नापगा असः ॥५॥
सब तरफ से घिरे हुए, मीठे ईख के सदृश, एक दूसरे के प्रिय तथा मिठास युक्त रहने के निमित्त ही है। पनि !हम तुमको प्राप्त हुए हैं। हमारी कामना करने वाली रहो तथा हमें परित्याग करके तुम न जा सको, इसीलिए हम तुम्हारे समीप आए हैं ॥ ५ ॥
अथर्ववेद संहिता भाग–१
[३५- दीर्घायुप्राप्ति सूक्त] | ऋषि – अथर्वा । देवता – हिरण्य, इन्द्राग्नी या विश्वेदेवा । छन्द – जगती, ४ अनुष्टुप्गर्भा चतुष्पदा त्रिष्टुम् ।।
१५०. अदाबध्नन् दाक्षायणा हिरण्यं शतानीकाय सुमनस्यमानाः।
तत् ते बध्नाम्यायुषे वर्चसे बलाय दीर्घायुत्वाय शतशारदाय ।।१।।
हैं आयु की कामना करने वाले मनुष्य ! श्रेष्ठ विचार वाले दक्षगोत्रीय महर्षियों ने ‘शतानीक राजा” को जो हुई प्रदायक सुवर्ण बौधा था। उसी सुवर्ण को हम, आपके आयु वृद्धि के लिए, तेज और सामर्थ्य की प्राप्ति के लिए तथा सौ वर्ष की दीर्घ आयु प्राप्त कराने के लिए आपको बाँधते हैं ॥१॥
१५१. नैनं रक्षांसि न पिशाचाः सहन्ते देवानामोजः प्रथमचं ह्येतत् ।
यो बिभर्ति दाक्षायणं हिरण्यं स जीवेषु कृणुते दीर्घमायुः ।।२ ।।
सुवर्ण धारण करने वाले मनुष्य को ज्वर आदि रोग कष्ट नहीं पहुँचाते । मांस का भक्षण करने वाले असुर | इसको पीड़ित नहीं कर सकते, क्योंकि यह हिरण्य इन्द्रादि देवों से पूर्व ही उत्पन्न हुआ है। जो व्यक्ति दाक्षायण सुवर्ण धारण करते हैं, वे सभी दीर्घ आयु प्राप्त करते हैं ॥२ ।।
१५२. अपां तेजो ज्योतिरोजो बलं च वनस्पतीनामुत वीर्याणि ।
इन्द्रइवेन्द्रियाण्याधि धारयामों अस्मिन् तद् दक्षमाणो बिभरद्धिरण्यम् ।।३।।
| हम इस मनुष्य में जल का ओजस्, तेजस्, शक्ति, सामर्थ्य तथा वनस्पतियों के समस्त वीर्य स्थापित करते हैं, जिस प्रकार इन्द्र से सम्बन्धित बल इन्द्र के अन्दर विद्यमान रहता है, उसी प्रकार हम उक्त गुणों को इस व्यक्ति में स्थापित करते हैं । अत: बलवृद्धि की कामना करने वाले मनुष्य स्वर्ण धारण करें ।।३।।
१५३. समानां मासामृतुभिष्वा वयं संवत्सरस्य पयसा पिपर्मि।
इन्द्राग्नी विश्वे देवास्तेऽनु मन्यन्तामणीयमानाः ॥४॥ |
हे समस्त धन की कामना करने वाले मनुष्य ! हम आपको समान मास वाली शुओं तथा संवत्सर पर्यन्त | रहने वाले गौ दुध से परिपूर्ण करते हैं। इन्द्र, अग्नि तथा अन्य समस्त देव आपकी गलतियों से क्रोधित न होकर
स्वर्ण धारण करने से प्राप्त फल की अनुमति प्रदान करें ॥४॥
॥ इति प्रथमं काण्डं समाप्तम् ॥
॥ अथ द्वितीयं काण्डम् ॥
[१- परमधाम सूक्त ] || ऋषि – वैन । देवता – ब्रह्मात्मा । छन्द – चिंटुप्, ३ जगती ।। इस सूक्त के अंग वेन ( स्वयं प्रकाशवान्–आत्मप्रकाश युक्त साधक) हैं। वे ही रूप ब्रह्म या परमात्म तत्व को जान पाते हैं। प्रथम मंत्र में उस ब्रह्म का स्वरूप तथा दूसरे में उसे जानने का महत्व समझाया गया हैं । तीसरे में जिज्ञासा चौधे में बोथ तथा पाँचवे में पता का वर्णन है
१५४. वेनस्तत् पश्यत् परमं गुहा यद् यत्र विश्वं भवत्येकरूपम्।
इदं पृश्निरदुहज्जायमानाः स्वर्विदो अभ्यनूषत वाः ।।१।।
गुहा (अनुभूति या अन्त:करण) में जो सत्य, ज्ञान आदि लक्षण वाला ब्रह्म है, जिसमें समस्त जगत् विलीन हो जाता हैं, इस श्रेष्ठ परमात्मा को बेन (प्रकाशबान्–ज्ञानवान् या सूर्य) ने देखा। उसी ब्रह्म का दोहन करके प्रकृति ने नाम-रूप वाले भौतिक जगत् को उत्पन्न किया । आत्मज्ञानौं मनुष्य उस परब्रह्म की स्तुति करते हैं ॥१ ।।
१५५. प्र तद् वोचेदमृतस्य विद्वान् गन्धर्वो धाम परमं गुहा यत् ।
त्रीणि पदानि निहिता गुहास्य यस्तानि वेद स पितुष्पितासत् ॥२॥
गन्धर्व (वाणी या किरणों से युक्त विद्वान् या सूर्य के बारे में उपदेश दें । इस ब्रह्म के तीन पद हृदय की गुफा | में विद्यमान हैं। जो मनुष्य उसे ज्ञात कर लेता है, वह पिता का भी पिता (सर्वज्ञ सबके उत्पत्तिकर्ता ब्रह्म का भी
ज्ञाता) हो जाता है ।।३।।
१५६. स नः पिता जनिता स उत बन्धुर्धामानि वेद भुवनानि विश्वा ।
यो देवानां नामध एक एव तं संप्रश्नं भुवना यन्त सर्वा ।।३।।
वह ब्रह्म हमारा पिता, जन्मदाता तथा भाई हैं, वहीं समस्त लोकों तथा स्थानों को जानने वाला है। वह अकेला ही समस्त देवताओं के नामों को धारण करने वाला है। समस्त लोक उसी ब्रह्म के विषय में प्रश्न पूछने के लिए (ज्ञाता के पास पहुँचते हैं ॥३॥
१५७. परि द्यावापृथिवीं सद्य आयमुपातिष्ठे प्रथमजामृतस्य ।
वाचमिव वक्तरि भुवनेष्ठा धास्युरेष नन्वे३घो अग्निः ॥४॥
(ब्रह्मज्ञानी का कथन) मैं शीघ्र ही द्यावा-पृथिवी को (तत्त्वं दृष्टि से) जान गया हैं.(अस्तु (परमसत्यो । की उपासना करता हैं। जिस प्रकार वक्ता के अन्दर वाणी विद्यमान रहती हैं, उसी प्रकार वह बह्म समस्त लोकों में विद्यमान रहता है और वहीं समस्त प्राणियों को धारण तथा पोषण करने वाला हैं । निश्चित रूप से अग्नि भी वहीं हैं ||६ ॥
१५८. परि विश्वा भुवनान्यायमृतस्य तन्तुं विततं दृशे कम्। ।
यत्र देवा अमृतमानशानाः समाने योनावध्यैरयन्त ॥५॥
जहाँ अमृत सेवन करने वाले, समान आधार बाले देवगण (या अमृत – आनन्दसेवी देवपुरुष) विचरण करते हैं, उस ऋत (परमसत्य) के ताने-बाने को मैंने अनेक बार देखा है ॥५ ।।
अथर्ववेद संहिता भाग–१
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[२- भुवनपति सूक्त] [ ऋषि – मातृनामा । देवता – गन्धर्व, अप्सरा समूह । छन्द – त्रिष्टुम्, १ विराट् जगतीं, ४ विराट् गायत्री, ५
| भरिंगनष्टषु ।। इस सूक के देवता गन्धर्व–अप्सरा हैं। गन् अर्थात् गांर्स – मां से भूमि, किरण, वागी निद्रय का बोध होता है तथा र्यः मारक, पोक्क को कहते हैं। अप्सरा अर्थान् अप् सरस् – अप् सृष्टि के प्रारम्भ में अपन्न मूल क्रियाशील त्व है, यह बात वेद में पती–पाँति व्यक्त की जा चुकी है। अप के आधार पर चलने वाली विभिन्न शक्तियाँ–प्राण की अनेक धाराएँ गन्धर्व पनि कही गई है। इस आधार पर इस सूक्त के मंत्र अर्नार–प्रकृति एवं काया में संचालित प्राण–प्रक्रिया पर घटित में सकते हैं।
१५९. दिव्यो गन्ध भुवनस्य यस्पतिरेक एवं नमस्यो विश्वीड्यः ।
तं त्वा यौमि ब्रह्मणा दिव्य देव नमस्ते अस्तु दिवि ते सधस्थम् ।।१।।
|जों दिव्य गन्धर्व, पृथ्वी आदि लोकों को धारण करने वाले एक मात्र स्वामी हैं, वे ही इस संसार में नमस्य हैं । हे परमात्मन् ! आपका निवास स्थान द्युलोक में हैं। हम आपको नमन करते है तथा उपासना द्वारा आपसे मिलते हैं ॥ १ ॥
१६०. दिवि स्पृष्टो यजतः सूर्यत्वगवयाता हरसो दैव्यस्य ।
| मृडाद् गन्धर्वो भुवनस्य यस्पतिरेक एवं नमस्यः सुशेवाः ।।२।।
समस्त लोकों के एक मात्र अधिपति गंधर्व (पृथ्वी को धारण करने वाले) द्युलोक में विद्यमान रहने वाले, दैवी आपदाओं के निवारक तथा सूर्य के त्वचा (रक्षक–आवरण) रूप हैं । वे सबके द्वारा नमस्कार करने तथा प्रार्थना करने योग्य हैं। सबके सुखदाता थे हमें भी सुख प्रदान करें |२ ॥
१६१. अनवद्याभिः समु जग्म आमिरसरास्वपि गन्धर्व आसीत् ।
। समुद्र आसां सदनं म आर्यतः सद्य आ च परा च यन्ति ।।३।।
प्रशंसनीय रूप वाली अप्सराओं (किरणों या प्राण धाराओं ) में गन्धर्वदेव संगत (युक्त) हो गए हैं। इन अप्सराओं का निवास स्थान अन्तरिक्ष है। हमें बतलाया गया है कि ये (अप्सरा वहीं में आती (प्रकट होती ) तथा वहीं चली जाती (विलीन हो जाती हैं ॥३॥
१६२. अभिये दिद्युन्नक्षत्रिये या विश्वावसु गन्धर्व सचध्ये।
| ताभ्यो वो देवीनेम इत् कृणोमि ।।४।।
हैं देवियों ! आप मैचों की विद्युत् अचवा नक्षत्रों के आलोक में संसार का पालन करने वाले गन्धर्वदेव से संयुक्त होती हैं, इसलिए हम आपको नमन करते हैं ॥४॥
[क्चुित् के प्रभाव से तथा नयों (सूर्यादि) के प्रभाव से किरणे या प्राणधारा–धारक तत्वों–प्राणियों के साथ संयुक्त होती है–यह तथ्य विज्ञान सम्मत है।
१६३. याः क्लन्दास्तमिषीचयोऽक्षकामा मनमुः।।
| ताभ्यो गन्यर्वपत्नीभ्योऽप्सराभ्योऽकरं नमः ।।५।।
प्रेरित करने वाली, ग्लानि को दूर करने वाली, आँखों की इच्छाओं को पूर्ण करने वाली तथा मन को अस्थिर करने वालीं, जो गन्धर्व – पत्नी रूप अप्सराएँ हैं, हम उन्हें प्रणाम करते हैं ॥५॥ | [ प्राणवी थाराएँ क्या प्रकाश किरों में यादि को तुष्ट करती है, मन को तगत काने वाली भी ये ॥ है। मंत्र का
आव समाओं के स्थूल एवं सूक्ष्म दोनों संदर्षों से सिद्ध होता है।
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[ ३– आस्रावभेषज सूक्त] | [ ऋषि – अङ्गिरा। देवता – भैषज्य, आयु, धन्वन्तरि । छन्द -अनुष्ट्. ६ त्रिपात् स्वराद् उपरिष्टात् महावृहत्तौ ।
१६४, अदों यदवथावत्यवत्कर्माथि पर्वतात् ।
तत्ते कृणोमि भेषजं सुभेषजं यथाससि ।।१
जो रक्षक-प्रवाह (सोम) मुज़वान् पर्वत के ऊपर से नीचे लाया जाता है, उसके अग्रभाग वनस्पति को हम | इस प्रकार बनाते हैं, जिससे वह आपके लिए श्रेष्ठ औषधि बन जाए ॥१ ॥
१६५. आदङ्गा कुविदङ्गा शतं या भेषजान ते ।
तेषामसि त्वमुत्तममनास्रावमरोगणम् ॥२
| हे दिव्य प्रवाह ! जो आपसे उत्पन्न होने वाली असीम ओषधियाँ हैं, वे अतिसार, बहुमूत्र तथा नाड़ौवण आदि | रोगों को विनष्ट करने में पूर्णरूप से सक्षम हैं ॥२॥
१६६. नीचेः खनन्त्यसुरा अरुस्राणमिदं महत् ।
तदास्रावस्य भेषजं तद् रोगमननशत् ।।
प्राणों का विनाश करने वाले तथा देह को गिराने वाले असुर रूप रोग, वण के मुख को अन्दर से फाड़ते हैं। | लेकिन वह मुँज्ञ नामक ओषधि घाव की अत्युत्तम औषधि हैं । वह अनेको व्याधियों को नष्ट कर देती हैं ।।३।।
१६७. उपजीका उद्धरन्ति समुदादधि भेषजम् ।
तदात्रावस्य भेषजं तद् रोगमशीशमत् ॥
धरती के नीचे विद्यमान जलराशि से व्याधि नष्ट करने वाली औषधि रूप बमई (दीमक की बबी) की मिट्टी
ऊपर आती हैं, यह मिट्टी आम्नाव की ओषधि है । यह अतिसार आदि व्याधियों को शमित (शान्त) करती हैं ॥ॐ ।।
१६८. अरुस्राणमिदं महत् पृथिव्या अध्युदभृतम् ।
तदास्रावस्य भेषजं तद रोगमननशत्
खेत से उठाई हुई ओषधि रूप मिट्टी फोड़े को पकाने वाली तथा अतिसार आदि रोगों को समूल नष्ट करने वाली (रामबाण) ओषधि है ।।५ ।। |
१६९. शं नो भवन्त्वप ओषधयः शिवाः ।
इन्द्रस्य वन्नो अप हन्तु रक्षस आराद् विसृष्टा इषवः पतन्तु रक्षसाम् ।।६।।
ओषधि के लिए प्रयोग किया हुआ जल हर्ष प्रदायक होकर हमारी व्याधियों को शमित करने वाला हो । | रोग को उत्पन्न करने वाले (असुरों ) को इन्द्रदेव का वज्र विनष्ट को । असुरों द्वारा मनुष्यों पर संधान किये गये
व्याधिरूप बाण हुम सबसे दूर जाकर गिरें ।।६ ।।।
[४ – दीर्घायुप्राप्ति सूक्त] [ ऋषि – अथर्वा । देवता – चन्द्रमा अथवा जङ्गिङ । छन्द –अनुष्टुप, १ विराट् प्रस्तारपंक्ति ।] | इस सून के देवता चन्द्र और अँगड़ (र्माण) हैं। इसी सूक्त (मंत्र क्र.५) में उसे अरण्य–वन से लाया हुआ कहा गया है। |तमा अवर्न १६.३४.१ में इसे वनस्पति कहा गया हैं । आचार्य सायण ने इसे वाराणसी क्षेत्र में पाया जाने वाला वृक्ष विशेष कहा
घर सोम यानि की वनस्पति प्रतीत होती हैं। जंगिड़ पण में इस ओयघि रस से तैयार मण(गुटिका–गोसी) का बोय होना है। इसी का विवरण यहाँ प्रस्तुत किया जा रहा है
१७०. दीर्घायुचाय बृहते रणायारिष्यन्तो दक्षमाणाः सदैव ।
मणि विष्कन्धदूषण जङ्गिडं बिभूमो वयम् ।।१ ।। |
दोधायु प्राप्त करने के लिए तथा आरोग्य का प्रचुर आनन्द अनुभव करने के लिए हम अपने शरीर पर जंगिड़ मणि धारण करते हैं। यह जंगिड़ मणि रोगशामक हैं तथा दुर्बलता को दूर करके सामर्थ्य को बढ़ाने वाली हैं ॥१ ।।
है स सर्व बारे में किसी भी पता नहीं है । चनामा में साव को देना होता हान हेर्ने हो।
अथर्ववेद संहिता भाग–१
१७१. जङ्गिडो जम्माद् विशराद् विष्कन्धादभिशोचनात् ।
मणिः सहस्रवीर्यः परि : पातु विश्वतः ।।२ ।।
| यह ज्ञाँगड़ मणि सहस्रों बलों से सम्पन्न होकर जमुहाई बढ़ाने वालों, दुर्बलता पैदा करने वाली, देह को सुखाने वालों तथा अकारण आँखों में आँसू आने वाले रोग से हमारी सुरक्षा करे ।।३ ॥
१७२. अयं विष्कन्धं सहतेयं बाधते अत्रिणः ।
अयं नो विश्वमेषजो जङ्गिङः पात्वंहसः ।
यह जंगिड़ मणि सुखाने वाले रोग से हमारी सुरक्षा करती है और भक्षण करने वाली कृत्या आदि का विनाश करती हैं । यह हमारे समस्त रोगों का निवारण करने वाले सम्पूर्ण ओषधिरूप हैं, यह पाप से हमारी सुरक्षा करे ॥३॥
१७३. देवैर्दत्तेन मणिना जङ्गिडेन मयोभुवा ।
विष्कन्धं सर्वा रक्षांसि व्यायामे सहामहे ।।४
देवताओं द्वारा प्रदान किये गये, सुखदायक जंगिड़ मणि के द्वारा, हम सुखाने वाले रोगों तथा समस्त रोग कीटाणुओं को संघर्ष में दबा सकते हैं ॥४ ।।।
१७४. शणश्च मा जङ्गिश्च विष्कन्धादभि रक्षताम् ।
अरण्यादन्य आभृतः कृप्या अन्यों रसेभ्यः ।।५।।
सन (बाँधने के लिए सन से बने धागे अथवा सन का विशिष्ट योग) तथा जंगिड़ मणि निष्कंध रोग से हमारी रक्षा करें । इनमें से एक की आपूर्ति वन से तथा दूसरे को कृषि द्वारा उत्पादित रसों से की गई है ।५ ।।
१७५. कृत्यादूषिरयं मणिरथो अरातिदूषिः ।।
अथो सहस्वाञ्जगिङः प्र ण आयूंषि तारिषत् ॥६ ।।
यह जंगिड़ मणि कृत्या आदि से सुरक्षा करने वाली है तथा शत्रुरूप व्याधियों को दूर करने वाली हैं। यह शक्तिशाली जंगिट्टमणि हमारे आयुष्य की वृद्धि को ।।६ ॥
[५- इन्द्रशौर्य सूक्त] [ ऋधि – भूगु आथर्वण । देवता – । छन्द– त्रिष्टुप्, १ निवृत् उपरिंष्टात् बृहती, २ विराट् उपरिंष्टात् बृहतीं,
३ विराट् पथ्या बृहती, ४ पुरोविराट् जगती ।]
१७६. इन्द्र जुषस्व में वहा याहि शूर हरिभ्याम्।।
पिबा सुतस्य मतेरह मधोकानारुर्मदाय ॥१॥ |
हे शूरवीर इन्द्रदेव ! आप आनन्दित होकर आगे बढ़ें। आप अपने अञ्चों के द्वारा इस यज्ञ में पधारें । परिंतुष्ट तथा आनन्दित होने के लिए विद्वान् पुरुषों द्वारा अभिषुत किए गए मधुर सोमरस का पान करें ॥१॥
१७७. इन्द्र जठरं नव्यो न पूणस्व मधोर्दिवो ने।
अस्य सुतस्य स्वर्णोप त्वा मदाः सुवाचो अगुः ।।२।।
हे शूरवीर इन्द्रदेव ! आप प्रशंसनीय तथा हर्षवर्धक मधुर सोमरस के द्वारा इदरपूर्ति करें । इसके बाद अभिषुत सोमरस तथा स्तुतियों के माध्यम से आपको स्वर्ग की तरह आनन्द प्राप्त हो ॥२॥
१७८. इन्द्रस्तुराषामित्रो वृत्रं यो जघान यतीन् ।
विभेद वलं भूगुर्न ससहे शत्रून् मदे सोमस्य ॥ ३ ॥
इन्द्रदेव समस्त प्राणियों के मित्र हैं तथा रिंषुओं पर त्वरित गति से आक्रमण करने वाले हैं। उन्होंने वृत्र या
काण्ड–२ सूक्त– ६
अवरोधक मेघ का संहार किया था। भृगु ऋषि के समान उन्होंने अंगिराओं के यज्ञों की साधनभूत गौओं का अपहरण करने वाले बलासुर का संहार किया था, सोमपान से हर्षित होकर रिपुओं को पराजित किया था ।।३ ॥
१७९. आ त्वा विशन्तु सुतास इन्द्र पृणस्व कुक्षी विट्टि शक्र घिचेह्या नः।
श्रुधी हवं गिरो में जुषस्वेन्द्र स्वयुग्मिर्मस्वेह महे रणाय ।।४।।
| हैं शक्तिशाली इन्द्रदेव ! आपको अभिपुत सोमरस प्राप्त हों और आप उससे अपनी दोनों कुक्षियों को पूर्ण करें । हे इन्द्रदेव ! आप हमारे आवाहन को सुनकर, विवेकपूर्वक हमारे समीप पधारे तथा हमारे स्तुति – वचनों को स्वीकार करें, और विराट् संग्राम के लिए अपने रक्षण साधनों के साथ हर्षपूर्वक तैयार रहें ॥४॥ |
१८०. इन्द्रस्य नु प्रा वोचे वीर्याणि यानि चकार प्रथमानि वल्ली।
अन्नहिमन्वपस्ततर्द प्र वक्षणा अभिनन् पर्वतानाम् ॥ ५ ॥
वज्रधारी इन्द्रदेव के पराक्रमपूर्ण कृत्यों का हम बखान करते हैं। उन्होंने वृत्र तथा मेघ का संहार किया था। | उसके बाद उन्होंने वृत्र के द्वारा अवरुद्ध किये हुए जल को प्रवाहित किया तथा पर्वतों को तोड़कर नदियों के लिए | रास्ता बनाया ।। ।।
१८१. अन्नहिं पर्वते शिश्रियाणं त्वष्टास्मै बन्नं स्वर्यं ततश्च ।।
| वा इव घेनवः स्यन्दमाना अः समुद्रमव जग्मुरापः ।।६।।
उन इन्द्रदेव ने वृत्र का संहार किया तथा मेघ को विदीर्ण किया। वृत्र के पिता त्वष्टा ने इन्द्रदेव के | निमित्त अपने वज्र को तेज किया। उसके बाद गौओं के सदृश अधोमुख होकर, वेग से बहने वाली नदियों समुद्र
तक पहुँचीं ।।६ ।।
१८२. वृषायमाणो अवृणीत सोमं त्रिकद्केष्वपिबत् सुत्तस्य।
| आ सायकं मघवादत्त वञ्चमहनेनं प्रथमज़ामहीनाम् ॥॥
वृष के सदृश व्यवहार करने वाले इन्द्रदेव ने सोमरूप अन्न को प्रजापति से मण किया तो मैन उच्च | स्थानों में अभियुत सोमरस का पान किया। उसके बल से बलिष्ठ होकर उन्होंने बाणरूप वज्र धारण किया तथा
हिंसा करने वाले रिपुओं में प्रथम उत्पन्न हुए इस वीर (वृत्र) को विनष्ट किया ॥७ ।।
[६- सपत्नहाग्नि सूक्त] | [ ऋषि – शौनक । देवता – अग्नि । छन्द – त्रिष्टुप, ४ चतुष्पदा पक्क्त, ५ विराट् प्रस्तारपक्ति ।)
१८३. समास्त्वाग्न ऋतवो वर्धयन्तु संवत्सरा ऋषयों यानि सत्या।
सं दिव्येन दीदिहि रोचनेन विश्चा आ भाहि प्रदिशश्चतस्रः ॥१॥
हे अग्निदेव ! आपको माह, ऋतु, वर्ष, श्रम तथा सत्य-आचरण समृद्ध करें। आप दैवी तेजस् से सम्पन्न होकर समस्त दिशाओं को आलोकित करें ॥१॥
१८४. से चेभ्यस्याग्ने प्र च वर्षयेममुच्य तिष्ठ महते सौभगाय।
मा ते रिघन्नुपसत्तारो अग्ने ब्रह्माणस्ते यशसः सन्तु मान्छे ।।२।।
है अग्निदेव ! आप भलीप्रकार प्रदीप्त होकर इस याजक की वृद्धि करें तथा इसे प्रचुर ऐश्वर्य प्रदान करने के लिए उत्साहित रहें । हे अग्निदेव ! आपके साधक कभी विनष्ट न हों । आपके समीप रहने वाले विप्र कीर्ति–सम्पन्न हों तथा दूसरे अन्य लोग (जो यज्ञादि नहीं करते, वे) कीर्तिवान् न हो ॥३॥
अर्मनंद मल्लिो भाग–१
१८५. त्यामग्ने वृणते ब्राह्मणा इमे शिवो अग्ने संवरणे भवा नः ।
सपत्नहाग्ने अभिमातिजिद् भव स्वे गये जागृह्मप्रयुच्छन् ॥३॥
| हे अग्निदेव ! ये ब्राह्मण याजक आपकी साधना करते हैं । हे अग्निदेव ! आप हमारी भूलों से भी क्रोधित न हों । हे अग्निदेव ! आप हमारे रिपुओं तथा पापों को पराजित करके अपने घर में सावधान होकर जामत् रहे ॥३॥
१८६. क्षेत्रणाग्ने स्वेन से रभस्व मित्रेणाग्ने मित्रधा यतस्व।
सजातानां मध्यमेष्ठा राज्ञामग्ने विहव्यो दीदिहीह ।।४।।
| है अग्निदेव ! आप क्षत्रिय बल से भली प्रकार संगत (युक्त) हों । ॐ अग्निदेय ! आप अपने मित्रों के साथ मित्रभाव से आचरण करें । हे अग्निदेव ! आप समान जन्म वाले विप्नों के बीच में आसीन होकर तथा राज्ञाओं के मध्य में विशेष रूप से आवाहनीय होकर, इस यज्ञ में आलोकित हो ॥४ ।।
१८७. अति निहो अति सूयोऽत्यचित्तीरति द्विषः ।
विश्वा माग्ने दुरिता तर चमथास्मयं सहवीरं रयि दाः ॥५॥
हे अग्निदेव ! आप हमारे विषय–विकारों को दूर करें, जो हमें सूअर, कुत्ते आदि की घिनौनी योनि में डालने वाले हैं। आप हमारे शरीर को सुखाने वाली व्याधियों तथा पाप में प्रेरित करने वाली दुर्बुद्धियों को दूर करें ।
आप हमारे रिपुओं का विनाश करें और हमें पराक्रमी सन्तानों से युक्त ऐश्वर्य प्रदान करें ॥५॥
[७– शापमोचन सूक्त ] ( अंध–अथर्वा । देवता –भैषज्य, आयु, वनस्पति । छन्द – अनुष्टुप् , १ भुरिगनुष्टुप, ४ विराटुपरिष्टाद् बृहती ।]
१८८. अघद्विष्टा देवज्ञाता चीरुच्छपथयोपनी।
आप मलमव प्राणैक्षीत् सर्वान् मच्छपयाँ अधि ॥१॥
| पिशाचों द्वारा किये हुए पाप को दूर करने वाली, ब्राह्मणों के शाप को विनष्ट करने वालों तथा देवताओं द्वारा उत्पन्न होने वाली वीरुधू (दूर्वा ओषधि हमारे समस्त शापों को उसी प्रकार धो डालती हैं, जिस प्रकार जल समस्त मलों को धो डालता है ॥१ ।।
१८९. यश्च सापत्नः शपथो जाम्याः शपथवा यः।
ब्रह्मा यन्मन्युतः शपात् सर्वं तन्नो अस्पदम् ॥२ ॥
रिपुओं के शाप, स्त्रियों के शाप तथा ब्राह्मण के द्वारा क्रोध में दिये गये शाप हमारे पैर के नीचे हों जाएँ। (अर्थात् नष्ट हो जाएँ) ॥२ ।।।
१९०.दिवों मूलमवततं पृथिव्या अध्युत्ततम् ।
तेन सहस्रकापडेन पर णः पाहि विश्वतः ।।
चुलोक से मूल भाग के रूप में आने वाली तथा धरती के ऊपर फैली हुई इस बार गाँठों वाली वनस्पति (दूबा से हे मणे ! आप हमारी सब प्रकार से सुरक्षा करें ।।३ ॥
१११. परि मां पर में प्रजों पर णः पाहि यद् धनम् ।
अराति मा तारीमा नस्तारिषुरभिमातयः ॥४॥ |
हे मणे ! आप हमारी, हमारे पुत्र–पौत्रों तथा हमारे ऐश्वर्य की सुरक्षा करें । अदानी रिपु हमसे आगे न बढ़े तथा | हिंसक मनुष्य हमारा विनाश करने में सक्षम न हों ।।४।।
का–२ सूक्त– १
|
१९३. शप्तारमेतु शपथो यः सुहार्तेन के सह ।
चक्षुर्मत्रस्य दुर्दः पृष्टीपं शृणीमसि ।
शाग देने वाले व्यक्ति के पास हीं शाप लौट जाए जो श्रेष्ठ अन्त:करण वाले मनुष्य हैं, उनके साथ हमारी मित्रता स्थापित हो ।हे मणे !अपनी आँखों में बुरे इशारे करने वाले मनुष्य की पसलियों को छिन्न-भिन्न कर डालें ।।
| [८- क्षेत्रियरोगनाशन सूक्त] [ ऋष– भूग्वङ्गरा। देवता – वनस्पति, यक्ष्मनाशन । छन्द-अनुष्टुप् , ३ पथ्यापक्ति, ४ विराट् अनुष्टुप्, ५
निवृत् पश्यापंक्ति ।] इस सूक्त में क्षेत्रिय (वंशानुगत) रोग निवारण के सूत्र कहे गये हैं। प्रथम मंत्र में उसके लिए उपयुक्त नम योग का तथा तीसों में वनौषधियों का लेख है। मंत्र ३, ४ एवं ५ सहयोगी तंत्र, उपचार पश्यादि के संकेत प्रतीत होते हैं। तयों तक पहुँको के लिए शोध कार्य अपेक्षित है
१९३. उदगातां भगवती विचूतौ नाम तारके।
वि क्षेत्रियस्य मुञ्चतामधमं पाशमुत्तमम् ॥
विवृत नामक प्रभावपूर्ण दोनो तारिकाएँ (अथवा उपयुक्त औषधि एवं तारिकाएँ) उगी हैं। वे वंशानुगत रोग के अधम एवं उत्तम पाश को खोल दें ॥ १ ॥ | [ कुछ आचार्यों में भगवती को तारों का विशेषण मामा है, कुछ उसका अर्थ दिस्य ओषधि के रूप में करते हैं। |
१९४. अपेयं राज्युच्छत्वपोच्छन्चभिकृत्वरीः।
वीरुत् क्षेत्रियनाशन्यप क्षेत्रियमुच्छतु ।।
| यह रात्रि चली जाए, हिंसक (रोगाणु भी चले जाएँ वंशानुगत रोग की ओषधि उस रोग से मुक्ति प्रदान करें
[ इस मंत्र से रोगमुक्ति का प्रयोग रात्रि के समान काल अर्थात् ब्राह्म मुहूर्त में करने का आभास मिलता है। |
१९५. बोरर्जुनकाण्डस्य यवस्य ते पलाल्या तिलस्य तिलपिया।
वीरुत् क्षेत्रियनाशन्यप क्षेत्रियमुच्छतु ।।३।। |
भूरे और सफेद रंग वाले अर्जुन की लकड़ीं, जौं की बाल तथा तिल सहित तिल की मञ्जरी व्याधि को विनष्ट करे । आनुवंशिक रोग को विनष्ट करने वाली यह वनस्पति इस रोग से विमुक्त करे ।।३।।
| [ अर्जुन की छाल, जौ, तिल आदि का प्रयोग ओषधि अनुपान या पश्यादि के रूप में करने का संकेत प्रतीत होता है। |
११६. नमस्ते लाङ्गलेभ्यो नम ईघायुगेश्यः
। वीरुत् क्षेत्रियनाशन्यप क्षेत्रियमुच्छतु ।।४।।
रोग के शमन के लिए (ओषधि उत्पादन में उपयोगी) वृषभ युक्त हल तथा उसके काष्ट युक्त अवयवों को नमन है । आनुवंशिक रोग को विनष्ट करने वालो ओषधि आपके क्षेत्रिय रोग को विनष्ट करे ॥४॥ |
१९७. नमः सनस्त्रसाक्षेभ्यो नमः संदेश्येभ्यो नमः क्षेत्रस्य पतये ।
वीरुत् क्षेत्रियनाशन्यप क्षेत्रियमुच्छतु ।।५।।
(ओषधि उत्पादन में सहयोगी) जल प्रवाहक अक्ष को नमन, संदेश पहुँचाने वाले को नमन (उत्पादक) क्षेत्र के स्वामी को नमन । क्षेत्रिय रोग निवारक औषधि इस रोग का निवारण करें ॥५॥
[९- दीर्घायुप्राप्ति सूक्त] [ ऋषि – भृग्वाँङ्गा । देवता – यक्ष्मनाशन, वनस्पति । छन्द – अनुष्टुप्, १ विराट् प्रस्तारपांक्ति । ] |
१९८. दशवृक्ष मुञ्चेमं रक्षसो ग्राह्या अघि यैनं जग्राह पर्वसु ।
अथों एनं वनस्पते जीवानां लोकमुन्नय ॥१॥
हे दशवृक्ष ! राक्षसी की तरह इसको (रोगी को) जकड़ने वाले गठिया रोग से आप मुक्त करें । हे वनौषधे !
गर्ववेद संहिता भाग–१
व्याधि के कारण ( निष्क्रिय) इस व्यक्ति को पुनः जनसमाज में जाने योग्य बनाएँ ॥१॥
१९९. आगाददगादयं जवानां ज्ञातमम्यगात् ।
अमृद पुत्राणां पिता नृणां च भगवत्तमः ।।
(हे वनस्पते ! आपकी कृपा से यह व्यक्ति जीवन पाकर ज्ञोंबित मनुष्यों के समूह में पुनः आ जाए और अपने पुत्रों का पिता हों जाए तथा मनुष्यों के बीच में अत्यधिक सौभाग्यवान् बन जाए ॥३॥ २०. अधीतरध्यगादयमधि जीवपुरा अगन् । शतं ह्यस्य भिषजः सहस्रमुत वीरुधः ॥३
व्याधि से मुक्त हुए व्यक्ति को विद्याओं का स्मरण हो जाए तथा मनुष्यों के निवास स्थान को फिर से ज्ञान जाए, क्योंकि इस रोग के सैकड़ों वैद्य हैं तथा हजारों ओषधियाँ हैं ।।३।।
३०१. देवास्ते चीतिमचिदन् अह्माण उत वीरुघः
। चीति ते विश्वे देवा अविदन् भूम्यामचि
हे ओषधे ! व्याधि की पीझ से रोगी को मुक्त करने तथा रोग का प्रतिरोध करने आदि आपके बल को समस्त देव जानते हैं। इस प्रकार पृथ्वी के ऊपर आपके गुण – धर्म को देव, ब्राह्मण तथा चिकित्सक जानते हैं ॥४॥
३०३. यश्चकार स निष्करत् स एव सुभिषक्तमः ।
स एव तुभ्यं भेषजानि कृणवद् भिषा शुचिः ॥५॥
जो वैद्य अनवरत चिकित्सा का कार्य करते हैं, वहीं कुशलता प्राप्त करते हैं और वहीं श्रेष्ठ वैद्य बनते हैं। वहीं चिकित्सक अन्य चिकित्सक से परामर्श करके आपके रोगों की चिकित्सा कर सकते हैं ॥५॥
[ १०= पाशमोचन सूक्त] [ ऋषि – भृग्वङ्गिरा। देवता – १-८ द्यावापृथिवीं, १ ब्रह्म, नित, २ आपोदेव, अग्नि (पूर्वपाद), सोम, ओषधि समूह (उत्तर पा), ३ पूर्वपाद का वात, उत्तर पाद को चारों दिशाएँ, ४-८ वात्तपत्नी, सूर्य, यक्ष्म, निति ।।
। छन्द-सप्तपदा धृति, १ मिट्ट, ३ सतपादष्टि, ६ सप्तपदा अत्यष्टि ।]
२२३, क्षेत्रियात् त्वा नित्या जामिशंसाद् हो मुञ्चामि वरुणस्य पाशात् ।
| अनागसं ब्रह्मणा त्वा कृणोमि शिवे ते द्यावापृथिवी उभे स्ताम् ।।१।।
। (हे रोगिन् !) हम तुम्हें पैतृक रोग से, कष्टों से, द्रोह से, सम्बन्धियों के क्रोध से तथा वरुणदेव के पाश से मुक्त करते हैं। हम तुम्हें ब्रह्मज्ञान से दोषरिहत करते हैं और यह झावा–पृथिवीं भी तुम्हारे लिए हितकारी हों ॥१ ।। २०४, शं ने अग्निः सहाद्भिरस्तु शं सोमः सहौषधीभिः ।।
एवाहं त्वां क्षेत्रियान्नित्या ज्ञाभिशंसाद् द्रुहो मुञ्चामि वरुणस्य पाशात् ।
अनागसं ब्रह्मणा वा कृणोमि शिवे ते द्यावापृथिवी उभे स्ताम् ।।२।। (हे रोगिन् ! समस्त जल के साथ अग्निदेव आपके लिए हितकारी हों तथा काम्पल (कबीला) आदि ओषधियों के साथ सोमरस भी आपके लिए हर्घकारी हो । हम आपको क्षेत्रिय रोग से पीड़ा से, द्रोह से, बन्धुओं के क्रोध से तथा वरुणदेव के पाश से मुक्त करके, ब्रह्मज्ञान के द्वारा दोषरहित करते हैं। यह द्यावा-पृथिवी भी
आपके लिए कल्याणकारी हों ।।२।।
२०५. शं ते वातो अन्तरिक्षे वयो बाच्छं ते भवन्तु प्रदिशश्चतः
। एवाहं त्वों क्षेत्रियान्नित्या जामशंसाद् द्रुहो मुल्चामि वरुणस्य पाशात् ।
अनागसं ब्रह्मणा वा कृणोमि शिवे ते द्यावापृथिवी उभे स्ताम् ॥३॥
काण्ड–२ मुक्त– १०
(हें रोगिन् !} अन्तरिक्ष में संचरण करने वाले वायुदेव आपके लिए सामर्थ्य एवं कल्याण प्रदान करें तथा चारों दिशाएँ आपके लिए हितकारों हों । हम आपको आनुवंशिक रोग, द्रोह, पीड़ा, बन्धुओं के क्रोध तथा वरुणदेव के पाश से मुक्त करके, ब्रह्मज्ञान के द्वारा दोषरहित करते हैं । यह द्यावा–पृथिवीं भी आपके लिए कल्याणकारी हो ।।
२०६. इपा या देवी: प्रदिशश्चतस्रो वातपत्नीरभि सूर्यो विचष्टे ।
एखाहें त्वां क्षेत्रियान्नित्या जामिशंसाद् इहो मुञ्चामि वरुणस्य पाशात् । अनामसं ब्रह्मणा त्वा कृणोमि शिवे ते द्यावापृथिवी उमे स्ताम् ।।४ ॥
प्रकाशमयी चारों उपदिशाएँ वायुदेव की पलियाँ हैं, उनको आदित्यदेव चारों तरफ से देखते हैं। वे आपका कल्याण करे । है रोगिन् ! हम भी आपको आनुवंशिक रोगों, द्रोह, बन्धुओं के क्रोध तथा वरुणदेव के पाश से मुक्त करके, ब्रह्मज्ञान के द्वारा दोषरहित करते हैं । यह ह्यावा–पृथिवीं भी आपके लिए कल्याणकारी हो ॥४ ||
२०७. तासु वान्तर्जरस्या दधामि प्र यक्ष्म एतु नितिः पराचैः ।
एवाई त्वा॑ क्षेत्रियान्नित्या जामिशंसाद् हो मुञ्चामि वरुणस्य पाशात् । ।
अनागसे ब्रह्मणा त्वा कृणोमि शिवे ते द्यावापृथिवीं उभे स्ताम् ।।५।।
(हे रोगिन् ! हम आपको व्याधिरहित करके वृद्धावस्था तक जीवित रहने के लिए उन (पूर्व आदि चारों) दिशाओं में स्थापित करते हैं। आपके समय में क्षय रोग तथा सम्पूर्ण कष्ट अधोमुखी होकर दूर चले जाएँ । हे रोगिन् ! हम आपको आनुवंशिक रोग, पीड़ा, द्रोह, बन्धुओं के क्रोध तथा वरुणदेव के पाश से मुक्त करके, ब्रह्मज्ञान के द्वारा दोषरहित करते हैं। यह द्यावा-पृथिवी भी आपके लिए कल्याणकारी हो ।।५ ।।।
१०८. अमुक्था यक्ष्माद् दुरितादवद्याद् द्रुहः पाशाद् ग्राह्योदमुक्थाः ।
एवाहं त्वां क्षेत्रियान्नित्या जामिशंसाद् इहो मुञ्चामि वरुणस्य पाशात् ।
अनागसं ब्रह्मणा त्वा कृणोमि शिवे ते द्यावापृथिवी उसे स्ताम् ॥६॥
(हें रोगिन् !) क्षय रोग, रोग के पाप, निन्दा योग्य कर्म, विद्रोह के बन्धन तथा जकड़ने वाले वात रोग से आप छुटकारा पा रहे हैं, अर्थात् निश्चित रूप से मुक्त हो रहे हैं। हम भी आपको पैतृक रोग की पीड़ा, द्रोह, बन्धुओं के क्रोध तथा वरुणदेव के पाश से मुक्त करके, ब्रह्मज्ञान के द्वारा दोषरहित करते हैं । यह द्यावा–पृथिवीं भी आपके लिए कल्याणकारी हो ॥६ ।।।
३०९. अहा अरातिमविदः स्योनमप्यभूर्भद्रे सुकृतस्य लोके ।।
एवाहं त्वां क्षेत्रियान्नित्या जामिशंसाद् द्रुहो मुञ्चामि वरुणस्य पाशात् ।
अनागसे ब्रह्मणा त्वा कृणोमि शिवे ते द्यावापृथिवीं उभे स्ताम् ॥७॥ हैं व्याधियस्त मानव ! आप रिपु समान बाधक रोग से मुक्त हों और अब आप हर्ष को प्राप्त करें। आप अपने पुण्य के परिणाम स्वरूप इस कल्याणमय लोक में पधारे हैं। हम भी आपको आनुवंशिक रोग की पौड़ा, द्रोह, बन्धुओं के आक्रोश तथा वरुणदेव के पाश से मुक्त करके ब्रह्मज्ञान के द्वारा दोषरहित करते हैं। यह धावा–पृथिवीं भी आपके लिए कल्याणकारी हो ॥ ||
२१०. सूर्यमृतं तमसो ग्राह्या अधि देवा मुञ्चन्त असृजन्निरेणसः
एवाहं त्वां क्षेत्रियान्नित्या जामिशंसाद् इहो मुञ्चामि वरुणस्य पाशात् ।। अनागतं ब्रह्मणा त्वा कृणोमि शिवे ते द्यावापृथिवी उभे स्ताम् ।।८।।
अर्यवेद संहिता भाग–१
जिस प्रकार देवताओं ने सत्य रूप सूर्य को राहु नामक ग्रह से मुक्त किया था, उसी प्रकार हम आपको पैतृक रोग की पीड़ा, द्रोह के पाप, बन्धुओं के आक्रोश तथा वरुणदेव के पाश से मुक्त करके, ब्रह्मज्ञान के द्वारा दोषरहित करते हैं। यह द्यावा–पृधिवौं भी आपके लिए कल्याणकारी हो ॥८॥
[ ११– श्रेय: प्राप्ति सूक्त) ( अच– शुक्र । देवता – कृत्यादूषण । छन्द – त्रिपदा परोष्णिक, १ चतुष्पदा विराट् गायत्री, ४ पिपीलिक
मध्या निवृत् गायत्री ।] इस सूक्त के देवता ‘कन्या दृषण‘ हैं। अनिष्टकारी कृत्या शक्ति के निवारणार्थ किसी समर्थ शक्ति की दना इसमें की गयी है। कौशिक सूत्र में इस मुक्त के साथ ‘तिलकमणि‘ को सिद्ध का बौने का विधान दिया गया है । सायण आदि आचार्यों ने इसी आधार पर इस सूक्त को ‘तिलकमणि के प्रति कहा गया मानकर इसके अञ्च किए हैं। ऐसे अर्थ ठीक होते हुए भी एकांगी कमा सकते हैं। चीन में प्रकट होने वाले विभिन्न कृत्यायों के निवारण के मायने में ईश्वर अंश के रूप में स्थित जीव — चेना के प्रति कहा गया ची माना जा सकता है। प्रस्तुत भावार्थ दोनों प्रबनों को समाहित करते हुए किया गया है। सुपी पाक इसी भाव से इसे पड़ने–समझने का प्रयास करें, ऐसी अपेक्षा है
२११. दूष्या दूषिरस हैत्या हेतिरंस मेन्या मेनिस ।
आप्नुहि श्रेयांसमति समं क्राम ॥
(हे तिलकामणे अथवा जौवसत्ता ! आप दोषों को भी दूषित (नष्ट करने में समर्थ हैं । अनिष्टकारी हथियारों के लिए, आप विनाशक हथियार हैं आप वज्र के भीं वज्र हैं, इसलिए आप श्रेयस्कर बने, दोषों (शत्रुओं) की समानता से आगे (अधिक समधी सिद्ध हों ।।१ ॥
२१२. स्त्रयोसि प्रतिसरोसि प्रत्यभिचरणोसि ।
आप्नुहि श्रेयांसमति समं क़ाम ।।
आप स्रक्य (तिलकवृक्ष से उत्पन्न या गतिशील) हैं, प्रतसर (आघात को उलट देने में समर्थ हैं, प्रत्याक्रमण काने में समर्थ हैं ।अस्तु, आप श्रेयस्कर बनें और दोषों (शत्रुओं) की समानता से आगे (अधिक समर्थ) सिद्ध हो।
२१३. अति तमभि चर योङस्मान् द्वेष्टि यं वयं द्विष्मः ।
आप्नुहि श्रेयांसमति समं क्राम् ।।३
जो (शत्रु ) हमसे द्वेष करते (हमारे विकास में बाधक बनते ) हैं तथा जिनसे हम द्वेष करते (उनका निवारण चाहते हैं, उनपर आप प्रत्याक्रमण करें । इस प्रकार आप श्रेयस्कर बने, दोषों (शत्रुओं) से अधिक समर्थ बनें ॥३ ।।
३१४. सुरिंसि यचौथा असि तनुपानोसि ।
आनहि श्रेयांसमति सर्म क्लाम् ॥४॥
आप (आवश्यकता के अनुरूप) ज्ञान–सम्पन्न हैं, तेजस्विता को धारण करने में समर्थ हैं तथा शरीर के रक्षक हैं, अस्तु, आप श्रेयस्कर सिद्ध हों, दोषों (शत्रुओं) की समानता से आगे बढ़े ।।४।।
२१५. शुकोसि जोसि स्वरसि ज्योतिरसि ।
आप्नुहि श्रेयांसमति समं क्राम ॥५॥
आप शुक्र (उज्ज्वल अधबा वीर्यवान्) हैं, तेजस्वी हैं, आत्मसत्ता सम्पन्न हैं तथा ज्योति रूप (स्व प्रकाशित) हैं। आप श्रेयस्कर बने तथा समान स्तर वालों से आगे बढ़ें ||५ ।।
[१२– शत्रुनाशन सूक्त ] [वि – भरद्वाज । देवता – १ द्यावापृथिवी, अन्र्ताक्ष, २ देवगण, ३ इन्द्र,४ आदित्यगण, बसुगण, पितर अङ्गिरस, ५ पितर सौम्य, ६ मरुद्गण, ब्रह्मद्वि, ७ यमसदन (यमस्थान), ब्रह्म, ८ अग्नि । द – त्रिष्टुप्, ३
जगती, ७-८ अनुष्टुप् ।]
२१६. द्यावापृथिवी उर्वन्तरिक्ष क्षेत्रस्य पत्न्युरुगायोऽसुतः ।
तान्तरिक्षमुरु वातगोपं त इह तप्यन्तां मयि तप्यमाने ।।१।।
का–३ मुक्त–१३
द्यावा-पृथिवी, विस्तृत अन्तरिक्ष, समस्त क्षेत्र की पत्नी (प्रकृति), अद्भुत सूर्यदेव, वायु को स्थान देने वाला | विशाल अन्तरिक्ष आदि, हमारे तप्त (संतप्त होने पर ये सब भी संतप्त (अनिष्ट निवारण के लिए उच्चत) हों ॥१ ।।
२१७. इदं देवाः शृणुत ये यज्ञिया स्थ भरद्वाजो मह्यमुक्थानि शंसति ।
पाशे स बद्धो दुरिते नि युज्यतां यो अस्माकं मन इदं हिनस्ति ॥३॥
है यज्ञनीय देवों ! आप हमारा निवेदन सुनें कि ऋषि भरद्वाज हमें उक्थ (मंत्रादि ) प्रदान कर रहे हैं : मृग में निमग्न हमारे मन को जो रिपु दुःखी करते हैं, उन पापों को पाश में बाँधकर उचित स्थान पर नियोजित करें ॥२ ॥ |
२१८. इदमिन्द्र शृणुहि सोमप यत् त्वा हुदा शोचता जोहवीमि ।
वृश्चामि तं कुलिशेनेव वृक्ष यो अस्माकं मन इर्द हिनस्ति ।।३।।
हे इन्द्रदेव ! आप सोमरस पान द्वारा आनन्दित मन से हमारे कथन को सुनें । गुओं द्वारा किये गये दुष्कर्मों । के कारण हम आपको बारम्बार पुकारते हैं। जो शत्रु हमारे मन को पीड़ा पहुंचाते हैं, हम उनको फरसे के द्वारा वृक्ष
की तरह काटते हैं ॥३॥
२१९. अशीतिभिस्तभिः सामगेभिरादित्येभिर्वसुभिरङ्गिोभिः ।
इष्टापूर्तमवतु नः पितृणामामु ददे हरसा दैव्येन ॥४॥
तीन (विद्याओं या छन्दों) एवं अस्सीं मंत्रों सहित सामगान करने वालों के साथ, वस् , अंगिरा (रुद्र) एवं आदित्यों (दिव्य पितरों ) सहित हमारे पितरों द्वारा किये गए इष्ट (यज्ञ –उपासनादि) तथा पूर्त (सेवा–सहयोगपरको कर्म (उनके पुण्य) हमारी रक्षा करें । हमदब्य सामर्थ्य एवं आक्रोशपूर्वक अमुक (दोष या शत्रुओं को अपने अधिकार में लेते हैं ।।४ ।।. | [ क्नु, रुद्र तथा आदित्यों की गणना दिव्य पितरों में की जाती हैं, तर्पण में पितरों को क्रमशः बसु कुछ और आदित्य स्वरूप कर लदान किया जाता है। इससे पितरों की सौकिय सम्पदा के अतिरिक्त उनके द्वारा अर्जित पुण्य–सम्पदा का ‘विशेष लाभ हमें प्राप्त होता है।
३२०, द्यावापृथिवी अनु मा दीधीधां विश्वे देवासो अनुमा रमध्वम् ।
अङ्गिरसः पितरः सोम्यासः पापमार्छत्वपकामस्य कर्ता ।।५।। हे द्यावा–पृथिवि ! हमारे अनुकूल होकर आप तेजस्–सम्पन्न बनें । समस्त देवताओ ! हमारे अनुकूल होकर, आप कार्यारंभ करें । हे अङ्गिराओ तथा सोमवान् पितरों ! हमारा हित चाहने वाले पाप के भागीदार हों ॥५ ॥
२२१. अतीव यो मरुतो मन्यते नो ब्रह्म वा यो निन्दियत् क्रियमाणम् ।
। तचूंषि तस्मै वृजिनानि सन्तु ब्रह्मद्विषं चौरभिसंतपाति ॥६ ।।
हे मरुद्गणों ! जो अतिवादी ब्रह्म–ज्ञान की तथा तदनुरूप किये जाने वाले (कार्यो) की निन्दा करते हैं, उनके सब प्रयास उन्हें संताप देने वाले हों । द्युलोक उन ब्रह्मद्वेषियों को पौड़ित करे ॥६॥
२२२. सप्त प्राणानौ मन्यस्तांस्ते वृश्चामि ब्रह्मणा।
अया यमस्य सादनमग्निदूतो अकृतः ।।७।।
हे रोग या शत्रु ! तुम्हारे सात प्राणों तथा आठ मुख्य नाङ्गियों आदि को हम बह्य शक्ति से बीधते हैं। तुम अग्नि को दूत बनाकर यमराज के घर में सुशोभित हो जाओ ।।७ ।।
२२३. आ दधामि ते पदं समिद्धे जातवेदसि ।
अग्निः शरीरं वेवेष्टवसुं वागपि गच्छतु ।।८
अधर्ववेद संगिता भाग–१
| हम तुम्हारे पदों को प्रज्वलित अग्नि में डालते हैं। बहू अग्नि आपके शॉन में प्रवेश कर जाए तथा आपको वाणी और प्राण में संव्याप्त हो जाए ॥८ ।।
[ १३– दीर्घायुप्राप्ति सूक्त ] [ ऋषि – अथर्वा । देवता – १ अग्नि, २-३ बृहस्पति, ४-५ आयु, विश्वदेवा । छन्द – विटुप्, ‘४ अनुष्टुपु. –
विराट् जगती ।] इस सूक्त को प्रथम क्त्र परिधान मुक्त के रूप में प्रयुक्त किया जाना है। इस प्रक्रिया को ३–४ वर्ष की अवस्था में करने का विधान है, किन्तु सुरू हो इसी उपचारपरक अर्थ तक सीमित नहीं किया जाना चाहिए। मंत्रों में ‘यास शब्द का प्रयोग हुआ है, जिसका अर्थ वस्त्र के साथ आवास भी हो सकता है। फिर सुक के इचला अग्नि हैं, इनमें झिा एवं वास प्रदान करने की प्रार्थना की गयी हैं। ऎर्य एवं पोषण के ताने–बाने में से पार करने की बात कही गया है। अम्म, म्यान वस्त्रों की अपेक्षा सूत वीर की जीवन रूपी चादर के साथ अधिक युक्तिसंगत बंटता है । अध्ययन के समय इस तथ्य का ध्यान में ना चाहिए
३२४, आयुर्दा अग्ने ज्ञरसं वृणानो घृतप्रतीको घृतपृष्ठो अग्ने ।
घृतं पीत्वा मधु चारु गव्यं पितेव पुत्रानभि रक्षतादिमम् ।।१।।
हे तेजस्वी अग्नदेव ! आप जीवन प्रदान करने वाले तथा न ग्रहण करने वाले हैं। आप घृन के समान ओजस्व तथा घृत का सेवन करने वाले है । आप मधुर गच्य (गी या प्रकृति जन्य पदार्थों का सेवन करके इम्। (बालक या प्राण) , सब प्रकार से उसी प्रकार रक्षा करे, जैसे पिता, पुत्र की रक्षा करता है ।। १ ।।
२२५. परि धत्त धत्त नो वर्चसेमं जरामृत्युं कृणुत दीर्घमायुः ।
बृहस्पतिः प्रायद् वास एतत् सोमाय राज्ञे परिधातवा ३ ।।२।।
हे देवों ! आप इस (बालक या जीव) को बास (वस्त्र या कावा रूप आच्छादन) प्रदान करें नया नेम्वना धारण कराएँ। आप दीर्घ आयु प्रदान करें, वृद्धावस्था के उपरान्त मरने वाला बनाएँ । गृहम्पनिदेय ने यह आचादन
ज्ञा सोम को कृपापूर्वक प्रदान किया ॥३॥
२२६. परीदं वासो अधिथाः स्वस्तयेभूर्गष्टीनामभिशस्तपा ३।
शतं चे जीव शरदः पुरूची रायश्च पोषमुपसंव्ययस्व ।।३।।
| हे बालक या जींच !) इस वस्त्र को तुम अपने कल्याण के लिए धारण करो। तुम गौओं (इन्द्रियों ) को विनाश से बचाने के लिए ही हो। तुम सौ वर्ष की दीर्घ आयु प्राप्त करें और ऐश्वर्य तथा पोषण का ताना–बाना बुनते रहो ॥ ३ ॥
[ सक्कि को स्क्यं अपने लिए वस्त्र बनने का परामर्श दिया गया है। स्थूल दैवी शक्तियाँ ताने–बाने के सूत्र प्रदान करती है का.मुक्यिो साक्क को स्वयं करना होता है ।।
३३७. एकाश्मानमा तिष्ठाश्मा भवतु ते तनः ।
कृण्वन्तु विश्वे देवा आयुष्ठे शरदः शतम् ।।४।।
हे बालक या साधक !) आओ इस पत्थर (साधनापरक दृढ़ आधार ) पर स्थित हो जाओं; ताकि तुम्हारी काया पत्थर के समान दृढ़ बने । देव शक्तियाँ तुम्हारी आयु को सौ वर्ष की करें ॥१४ ।।
| इछ अनुशासनों मा स्थिर लेकर ही मनुष्य दीर्घायु प्राप्त कर सकता है।
२२८. यस्य ते वासः प्रथमवायं रामस्तं त्वा विशेवन्तु देवाः ।
तं त्वा तरः सुद्धा वर्धमानमनु जायतां बहवः सुजातम् ॥५॥
कापड–३ सूक्त–१४
(हे बालक या जीव !) तुम्हारे जिस अस्तित्व के लिए यह प्रथम आच्झदन प्रदान किया गया है, उसकी रक्षा सभी देवता करें । इसी प्रकार श्रेष्ठ जन्म वाले, सुवर्धित तथा विकासमान और भी भाई तुम्हारे पीछे हों ।।५।।
[ स्थुल अर्थों में प्रथम वस्य(तीस–चौथे वर्ष में प्रदान करने के बाद ही अन्य भाइयों के लिए आशीर्वम दिया जाता है। इस आधार पर संतानों के बीच ३–४ वर्ष अंतर सहा में होना चाहिए। सम अने में कामा की गयी है कि जीवन का |वस्वी ताना–बाना बुनाने वालों के और भी अनुगामी हमें यह प्रक्रिया सतत चलती रहे।।
[१४– दस्युनाशन सूत्र] [ ऋषि – चातन । देवता – शालाग्नि । छन्द– अनुष्टुप, २ भुरिक् अनुष्टुप, ४ उपरिष्टाद् विराट् बृहती ।]
इस सून के देवता झालाग्नि हैं। शाला में स्थापित अनि को लागिन‘ कहा जाता है। उनके माम्यम से गर्यो (रायसी नियों के निवारण–विमर्श के भाव व्यक्त किये गये हैं। कई आकारों ने के लिए प्रयुक्त किगों को आ नाप विशेष वासी राक्षसी कहा है। उस नाम विशेष के साथ उस गुण विशेष वाली राक्षसी प्रवृत्तियों) का खर्च अधिक युक्तिसंगत जीत होता है
२२९. निः सालों बृथ्णु धिषणमेकवाद्यां जिघत्स्वम् ।
सर्वाअण्डस्य नप्त्यो नाशयामः सदावाः ॥१॥
नि:साला (निष्कासित करने वाली), धृष्णु (भयानक), धिषण (अभिभूत करने वाली) , एकवाद्या (भयानक, हठपूर्ण एक ही स्वर में बोलने वाली) संबोधन वाली, सूखा जाने वाली तथा सदा चीखने वाली, चण्ड (क्रोथ या कठोरता की संतानों को हम नष्ट कर दें ॥ १ ॥
[ क्रोध या कठोरता से ही विभिन्न प्रकार की दुष्ट प्रवृत्तियों पनपती हैं, अत उन्हें चपड की संतानें कहा जाना उचित है।
२३०. निंर्वो गोष्ठादजामसि निरक्षान्निरुपानसात् ।
निर्वो मगुन्ह्या दुहितरों गृहेभ्यश्चातयामहे ॥२॥
हे मगुन्दी (पाप उत्पन्न करने वाली ) राक्षसी को पुत्रियों ! हम तुम्हें अपने गौओं की गोशालाओं से निकालते हैं । हम तुम्हें अन्नादि से पूर्ण भवनों, गाड़ियों से बाहर निकालकर नष्ट करते हैं ॥२ ।।।
२३१. असौ यो अधराद् गृहस्तत्र सन्त्यराय्यः
। तत्र सेदियुच्यतु सर्वाश्च यातुधान्यः ।।३।।
(निकाल जाने के बाद अरायि (दरिद्रता या विपत्ति जन्य) तथा सेदि (क्लेश–महामारी उत्पादक) संबोधन याली (आसुरी शक्तियों) जो नीचे वाले गृह (अधोलोक या भू–गर्भ) हैं, वहीं जाएँ, वहीं रहें ॥३॥
२३२. भूतपतिर्निजविन्द्रचेतः सदान्त्राः ।
गृहस्य बुध्न आसनास्ता इन्द्रो वज्रेणाधि तिष्ठतु ।।४।।
प्राणियों के पालक तथा सोमपायी इन्द्रदेव, हमेशा क्रोध करने वाली इन पिशाचियों हमारे घर से बाहर करें तथा अपने वज्र से इन्हें दबाएँ (नष्ट करें) ||४ ।।
२३३. यदि स्थ क्षेत्रियाणां यदि वा पुरुषेषिताः।
यदि स्थ दस्युभ्यो जाता नश्यतेतः सदाचाः ॥५॥
हे राक्षसियों ! तुम कुष्ठ संग्रहणी आदि आनुवंशिक रोगों को मूल कारण हो । तुम रिपुओं द्वारा प्रेरित हो। और क्षति पहुँचाने वाले चोरों के समीप पैदा हुई हों । ३ तु, तुम हमारे घर से बाहर होकर विनष्ट हो जाओं ॥५॥ २३३४, परि घामान्यासामाशुर्गाळामिवासरन् । अजैषं सर्वानाजी वो नश्यतेतः सदान्वाः
अर्मवेद संहिता भाग–१
जिस प्रकार द्रुतगामी घोड़े अपने लक्ष्य पर आक्रमण करके खड़े हो (पहुँच जाते हैं, उसी प्रकार इन राक्षसियों | के घरों पर हम आक्रमण कर चुके हैं। हे पिशाचियो ! तुम सब युद्ध में परास्त हो गई और हमने तुम्हारे निवास
स्थान पर नियन्त्रण कर लिया है। अतः तुम सब निराश्रित होकर विनष्ट हो जाओ ।।६ ॥
[१५- अभयप्राप्ति सूक्त ] [ ऋषि – ब्रह्मा । देवता –प्राण, अपान, आयु । छन्द –त्रिपाद् गायत्रीं ।)
२३५. यथा छौश्च पृथिवी च न बिभीतो न रिष्यतः
। एवा में प्राण मा बिभेः ।।१।।
जिस प्रकार द्युलोक एवं पृथ्वी लोक न भयभीत होते हैं और न नष्ट होते हैं, उसी प्रकार है हमारे प्राण ! तुम भी (नष्ट होने का भय मत करो ॥१ ।।
२३६. यथाश्च रात्री च न बिभीतो न रिष्यतः ।
एषा में प्राण मा बिभेः ॥२॥
रात्रि और दिन न डरते हैं, न ही विनष्ट होते हैं । हे मेरे प्राण ! तुम भी (नष्ट होने का भय मत करो ॥२ ।।
२३७. यथा सूर्यश्च चन्द्रश्च न बिभतो न रिष्यतः ।
एवा में प्राण मा बिमेः ॥३॥
जैसे सूर्य और चन्द्रमा न इरते हैं, न ही विनष्ट होते हैं, उसी प्रकार में प्राण ! तुम भी विनाश से मत इरों ॥३॥
२३८. यथा ब्रह्म च क्षत्रं च न बिभीतो न रिष्यतः ।
एवा में प्राण मा बिशेः ।।४।।
जिस प्रकार ब्राह्मण और क्षत्रिय न इरते हैं, न ही विनष्ट होते हैं, उसी प्रकार हैं हमारे प्राण ! तुम भी विनाश का भय मत करो ॥
२३६. यथा सत्यं चानृतं च न बिभीतो न रिष्यतः ।
एवा में प्राण मा बिभेः ।।५।।
| जिस प्रकार सत्य और असत्य न किसी से भयभीत होते हैं, न ही विनष्ट होते हैं, उसी प्रकार है हमारे प्राण ! तुम भी मृत्यु भय से मुक्त होकर रहो ।।५५ ॥
२४०. यथा भूतं च भव्यं च न बिभीतों न रिष्यतः ।
एवा में प्राण मा बिभेः ।।६ ॥
जिस प्रकार भूत और भविष्य न किसी से भयभीत होते हैं, न ही विनष्ट होते हैं, उसी प्रकार है हमारे प्राण ! तुम भी मृत्यु भय से मुक्त होकर रही ।।६।।
[ १६- सुरक्षा सूक्त] [ ऋषि – ब्रह्मा । देवता – आण, अपान, आयु । छन्द -१,३ एकपदासुरीं त्रिष्टुए, २ एकपदासुरी उष्णिकु, ४-५
द्विपदासुरी गायत्रीं ।]
२४१. प्राणापानौ मृत्योर्मा पातं स्वाहा ।।१।।
| हे प्राण और अपान ! आप दोनों मृत्यु से हमारी सुरक्षा करें और हमारी आहुति स्वीकार करें ।।१ ।।।
२४२. द्यावापृथिवी उपश्रुत्या मा पातं स्वाहा ।।२।।
| हे द्यावा-पृथिवि ! आप दोनों सुनने की शक्ति प्रदान करके हमारी सुरक्षा करें तथा आहुति ग्रहण करें ।।।।
२४३. सूर्य चक्षुषा मा पाहि स्वाहा ।।३।।
हे सूर्यदेव ! आप हमें देखने की शक्ति प्रदान करके हमारी सुरक्षा करें और हमारी आहुति ग्रहण करें ॥३ ।।
२४४.अग्ने वैश्वानर विश्चैर्मा देवैः पाहि स्वाहा ।।४।।
हे वैश्वानर अग्निदेव ! आप समस्त देवताओं के साथ हमारी सरक्षा करें और हमारी आहत महण करें ॥४ ||
का– मूक्त– १८
३४५. विश्वम्भर विश्वेन मा भरसा पाहि स्वाहा ।।५।।
हैं समस्त प्राणियों का पोषण करने वाले विश्वम्भरदेव ! आप अपनी समस्त पोषण–शक्ति से हमारी सुरक्षा करें तथा हमारी आहुति ग्रहण करें ॥५॥
| [ १७ बलप्राति सूक्त] [ ऋषि – ब्रह्मा । देवता – प्राण, अपान, आयु । छन्द – एकपदासुरीं त्रिष्टुप, ७ आसुरी उष्णिक् ।) |
२४६. ओजोस्योञो में दाः स्वाहा ।।१।।
| है अग्निदेव ! आप ओजस्वी हैं । अतः हमें ओज प्रदान की हम आपको आहुति प्रदान करते हैं ॥१ ।। |
२४७. सहोसि सहो में दाः स्वाहा ।।२।।
| हे अग्निदेव ! आप शौर्यवान् हैं. इसलिए हमें शौर्य प्रदान करें. हम आपको हवि प्रदान करते हैं ।।३।।
२४८. बलमसि बलं में दाः स्वाहा ।।३।।
है अग्निदेव ! आप बल में सम्पन्न हैं, अत: हमें बल प्रदान करें, हम आपको हवि प्रदान करते हैं ॥३ ।। |
२४९. आयुरस्यायुमें दाः स्वाहा ।।४।।
हे अग्ने !आप जीवनशक्ति–सम्पन्न हैं ।अत:हमें वह शक्ति प्रदान करें, हम आपको हवि प्रदान करते हैं ॥४ ।।
२५०. श्रोत्रमसि श्रोत्रं में दाः स्वाहा ।।५।।
हे अग्ने !आप श्रवणशक्तिसम्पन्न हैं ।अत: हमें वह शक्ति प्रदान करें, हम आपको हवि प्रदान करते हैं ॥५॥
२५१. चक्षुसि चक्षुर्मे दाः स्वाहा ॥६ ।।
हे अग्ने !आप दर्शनशक्ति–सम्पत्र हैं ।अतः हमें वह शक्ति प्रदान करें, हम आपको हवि प्रदान करते हैं ॥६ ।। |
२५२. परिषाणमसि परिपाणं में दाः स्वाहा ॥७॥
हे अग्निदेव ! आप परिपालन की शक्ति से सम्पन्न हैं । अतः आप हमें पालन करने की शक्ति प्रदान करें, हम आपको हनि प्रदान करते हैं ॥७ ||
[१८– शत्रुनाशन सूक्त ] || • चातन । देवता – अग्नि। छन्द – द्विपदा साम्नी बृहतीं ।]
२५३. प्रत्यक्षयणमसि भातृव्यचातनं में दाः स्वाहा ।।१।।
में अग्निदेव ! आप रिंषु विनाशक शक्ति से सम्पन्न हैं। अतः आप हमें रिपु नाशक शक्ति प्रदान करें, हम आपको आहुति प्रदान करते हैं ॥१ ।।
२५४. सपत्नक्षयणमसि सपलचातनं में दाः स्वाहा ।।२।।
हे अग्निदेव ! आप प्रत्यक्ष प्रतिद्वंद्वियों को विनष्ट करने वाली शक्ति से सम्पन्न हैं। अत: आप हमें वह शक्ति प्रदान करें, हम आपको हवि प्रदान करते हैं ॥ २ ॥
२५५. अरायक्षयणमस्यरायचातनं में दाः स्वाहा ।।३।।
| हे अग्निदेव ! आप निर्धनता को विनष्ट करने वाले हैं। आप हमें दरिद्रता विनाशक शक्ति प्रदान करें; हम | आपको हवि प्रदान करते हैं ॥३॥
अधर्ववेद नहिता भाग–१
२५६. पिशाचक्षयणमसि पिशाचचातनं में दाः स्वाहा ।।४।।
हे अग्निदेव ! आप पिशाचों को विनष्ट करने वाले हैं। अत: आप हमें पिशाचनाशक शक्ति प्रदान करें, हम आपको हवि प्रदान करते हैं ।।४ ।।
२५७. सदान्वाक्षयणमसि सदाचाचातनं में दाः स्वाहा ।।५।।
हे अग्निदेव ! आप आसुरी वृत्तियों को दूर करने की शक्ति से सम्पन्न हैं । अतः आप हमें वह शक्ति प्रदान करें; हम आपको हवि प्रदान करते हैं ।५ ।।।
[१९– शत्रुनाशन सूक्त ] | ( अष– अथर्वा । देवता – अग्नि । छन्द –एकावसाना निवृत् विषमा त्रिपदा गायत्री, ५ एकावसाना भुरिक
विषमा विपदा गायत्री ।]
२५८. अग्ने यत् ते तपस्तेन तं प्रति नप यो३स्मान् द्वेष्टि यं वयं द्विष्मः ।।१।।
ॐ अग्निदेव ! आपके अन्दर जो ताप है, उस शक्ति के द्वारा आप रिपुओं को तप्त करें । जो शत्रु हमसे विद्वेष | करते हैं तथा जिससे हम विद्वेष करते हैं, उन रिपुओं को आप संतप्त करें ॥ १ ॥
२५९. अग्ने यत् ते रस्तेन तं प्रति हर यो३स्मान् द्वेष्टि यं वयं द्विष्मः ।।२।।
हे अग्निदेव ! आपके अन्दर जो हरने की शक्ति विद्यमान हैं, उस शक्ति के द्वारा आप उन रिपुओं की शक्ति का हरण करें, जो हम से विद्वेष करते हैं तथा हम जिससे द्वेष करते हैं ।।२।। |
२६०.अग्ने यत् तेऽर्चिस्तेन ते प्रत्यर्च यो३स्मान् द्वेष्टि यं वयं द्विष्मः ।।३।।
| हे अग्निदेव ! आपके अन्दर जो दीप्ति हैं, उस शक्ति के द्वारा आप उन रिपुओं को जला हैं, जो हममें विद्वेष करते हैं तथा जिनसे हम विद्वेष करते हैं ।।३।। |
२६१. अग्ने यत् ते शोचिस्तेन तं प्रति शोच यो३स्मान् द्वेष्टि यं वयं द्विष्मः ।।४।।
हैं अग्निदेव ! आपके अन्दर जो शोकाकुल करने की शक्ति है, उस शक्ति के द्वारा आप उन न्यक्तियों को शोकाकुल करें, जो हमसे शत्रुता करते हैं तथा जिनसे हम शत्रूना कान है ।।४ ॥
२६३. अग्ने यत् ते तेजस्तेन तमतेजसं कृणु यो३स्मान् द्वेष्टि यं वयं द्विष्मः ।।५।।
| हे अग्निदेव ! आपके अन्दर जो पराभिभूत करने की शक्ति विद्यमान हैं, उप अभिभुन करने की नज़म्बना | के द्वारा आप उन मनुष्यों को निस्तेज करें, जो हमसे शत्रुता करते हैं तथा जिनमे हम शत्रुना करने हैं ॥५॥
[२०- शत्रुनाशन सूक्त] | ऋषि–अथर्वा । देवता– वायु । छन्द–एकावसाना निवृत विपमा विदागायत्री, १५ भुग्कि विषमा त्रिपदागायत्री ||
२६३. वायो यत् ते तपस्तेन तं प्रति तप यो३स्मान् द्वेष्टि यं वयं द्विष्मः ।।१ ।।
हैं वायुदेव ! आपके अन्दर जो ताप (प्रताप) हैं, उस शक्ति के द्वारा आप उन रिपुओं को तप्त करें, जो हमसे विद्वेष करते हैं तथा जिनसे हम विद्वेष करते हैं ।।१ ॥
२६४. वायों यत् ते हरस्तेन तं प्रति हर यो३स्मान् द्वेष्टि यं वयं द्विष्मः ॥२ ।।।
हे वायुदेव ! आपके अन्दर जो हरने की शक्ति हैं, उस शक्ति के द्वारा आप उन रिपुओं की शक्ति का हरण करें, जो हमसे शत्रुता करते हैं तथा जिनसे हम शत्रुता करते हैं ।।२ ॥
का– सूक्त– ३२
२६५. वायो यत् तेर्चिस्तेन तं प्रत्यर्च यो३स्मान् द्वेष्टि यं वयं द्विष्मः ।।३।।
हे वायुदेव ! आपके अन्दर जो प्रज्वलन शक्ति हैं, उस शक्ति के द्वारा आप उन रिपुओं को जला दें, जो हमसे शत्रुता करते हैं तथा जिनसे हम शत्रुता करते हैं ॥३॥
२६६. वायो यत् ते शोचिस्तेन तं प्रति शोच यो३स्मान् द्वेष्टि यं वयं द्विष्म ॥४॥
हे वायुदेव ! आपके अन्दर ज़ों शोकाकुल करने की शक्ति हैं, उस शक्ति के द्वारा आप उन मनुष्यों को शोकाभिभूत करें, जो हमसे विद्वेष करते हैं तथा जिनसे हम विद्वेष करते हैं ॥४ ।।
२६७. वायो यत् ते तेजस्तेन तमतेजसं कृणु यौइस्मान् वेष्टि शं वयं द्विष्मः ॥५॥ |
है वायुदेव ! आपके अन्दर जो पराभिभूत करने की शक्ति विद्यमान हैं, उस शक्ति के द्वारा आप उन रिपुओं को तेजहीन करें, जो हमसे विद्वेष करते हैं तथा जिनसे हम विद्वेष करते हैं ॥५॥
[२१- शत्रुनाशन सूक्त] [ ऋषि– अथर्वा । देवता–सूर्य । छन्द–एकावसाना निवृत् विषमा त्रिपदागायत्री, ५ भुरिक विषमा त्रिपदागायत्री ]
२६८. सूर्य यत् ते तपस्तेन तं प्रति तय योस्मान् द्वेष्टि यं वयं द्विष्मः ।।१।।
हे सूर्यदेव ! आपके अन्दर जो संतप्त करने की शक्ति हैं, उस शक्ति के द्वारा आप उन रिपुओं को संतप्त करें, जो हमसे शत्रुता करते हैं तथा जिनसे हम शत्रुता करते हैं ।।१ ।।
२६९. सूर्य यत् ते रस्तेन तं प्रति हर यो३स्मान् द्वेष्टि यं वयं द्विष्मः ॥२ ।।
| हे सूर्यदेव ! आपके अन्दर जो हरण करने की शक्ति हैं, उस शक्ति के द्वारा आप ऊन रिंपुओं की शक्ति का हरण करें, जो हमसे द्वेष करते हैं तथा जिनसे हम द्वेष करते हैं ॥२ ॥
२७०. सूर्य यत् तेर्चिस्तेन तं प्रत्यर्च यो३स्मान् द्वेष्टि यं वयं द्विष्मः ॥३॥
हे सूर्यदेव ! आपके अन्दर जो प्रज्वलन शक्ति हैं, उस शक्ति के द्वारा आप उन रिपओं को जला दें, जो हमसे विद्वेष करते हैं तथा जिनसे हम विद्वेष करते हैं ॥३ ।।
२७५. सूर्य यत् ते शोचिस्तेन तं प्रति शोच यो३स्मान् द्वेष्टि यं वयं द्विष्मः ॥४॥
हे सूर्यदेव ! आपके अन्दर जो शोकाभिभूत करने की शक्ति है, उस शक्ति के द्वारा आप ऊन मनुष्यों को शोकाभिभूत करें, जो हमसे विद्वेष करते हैं तथा जिनसे हम विद्वेष करते हैं ।।४।।
२७२. सूर्य यत् ते तेजस्तैन तमतेजसं कृणु योउस्मान् द्वेष्टि यं वयं द्विष्मः ।।५।।
। हे सूर्यदेव ! आपके अन्दर जो पराभिभूत करने की शक्ति विद्यमान है, उसके द्वारा आप उन मनुष्यों को तेजविहीन करें, जो हमसे विद्वेष करते हैं तथा जिनसे हम विद्वेष करते हैं ॥५ ।।
[२२– शत्रुनाशन सूक्त] [ ऋषि – अथर्वा । देवता – चन्द्र । छन्द –एकावसाना निवृत् विषमा विपदा गायत्री, ५ एकावसाना भुरक्
विममा विपदा गायत्री ।]
२७३. चन्द्र यत् ते तपतेन तं प्रति तप यो३स्मान् द्वेष्टि यं वयं द्विष्मः ।।१।।
हैं चन्द्रदेव ! आपके अन्दर जो तपाने की शक्ति हैं, उस शक्ति के द्वारा आप उन रिपुओं को संतप्त करें, जो हमसे विद्वेष करते हैं तथा जिनसे हम विद्वेष करते हैं ॥ १ ॥
अथर्ववेद संहिता भाग–१
२७४. चन्द्र यत् ते इस्तेन तं प्रति हर यो३स्मान् द्वेष्टि यं वयं द्विष्मः ॥२॥
| हे चन्द्रदेव ! आपके अन्दर जो हरण करने की शक्ति हैं, उस शक्ति के द्वारा आप उन रिपुओं की शक्ति का हरण करें, जो हमसे विद्वेष करते हैं तथा जिनसे हम विद्वेष करते हैं ॥२ ॥
२७५. चन्द्र यत् तेचिस्तेन ते प्रत्यर्च योस्मान् वेष्टि यं वयं द्विष्मः ।।३।।
| है चन्द्रदेव ! आपके अन्दर जो प्रज्वलन शक्ति है, उस शक्ति के द्वारा आप उन रिपुओं को जला दें, जो हमसे विद्वेष करते हैं तथा जिनसे हम विद्वेष करते हैं ॥३ ।।
२७६. चन्द्र यत् ते शोचिस्तेन ते प्रति शोच यो३स्मान् द्वेष्टि यं वयं द्विष्मः ॥४॥
हे चन्द्रदेव ! आपके अन्दर ज्ञों शोकाकुल करने की शक्ति है, उस शक्ति के द्वारा आप उन रिपुओं को शोकाभिभूत करें, जो हमसे विद्वेष करते हैं तथा जिनसे हम विद्वेष करते हैं ।।४।।
२७७. चन्द्र यत् ते तेजस्तेन तमतेजसं कृणु यो३स्मान् द्वेष्टि यं वयं द्विष्मः ।।५।।
| हे चन्द्रदेव ! आपके अन्दर जो पराभिभूत करने की शक्ति विद्यमान है, उस शक्ति के द्वारा आप उन रिपुओं को तेजविहीन करें, जो हमसे शत्रुता करते हैं तथा जिनसे हम शत्रुता करते हैं । ।५ ।।
[ २३- शत्रुनाशन सूक्त] [ ऋधि–अधर्वा । देवता–आपः । छन्द-कावसाना समविषमा त्रिपदागायत्री, ५ स्वरार् विषमा विपदागायत्रीं ]
७८. आपो यद् वस्तपस्तेन तं प्रति तपत यो३स्मान् द्वेष्टि यं वयं द्विष्मः ।।१।। | है बलदेव ! आपके अन्दर जो ताप (प्रताप) है, उस शक्ति के द्वारा आप उन रिपुओं को संतप्त को, जो हमसे विद्वेष करते हैं तथा जिनसे हम विद्वेष करने हैं ॥१ ।।
२७९. आपो यद् वो हरस्तेन ते प्रति हरत यो३स्मान् द्वेष्टि यं वयं द्विष्मः ।।२।।
हे जलदेव ! आपके अन्दर जो हरण करने की शक्ति है, उस शक्ति के द्वारा आप उन रिपुओं की शक्ति का हरण करें, जो हमसे विद्वेष करते हैं तथा जिनसे हम विद्वेष करते हैं ॥२ ।।
२८०. आपो यद् चोर्चिस्तेन तं प्रत्यर्चत योजस्मान् द्वेष्टि यं वयं द्विष्मः ॥३॥
हे जलदेव ! आपके अन्दर जो प्रचलन शक्ति है, उस शक्ति के द्वारा आप उन रिओं को जला दें, जो हमसे विद्वेष करते हैं तथा जिनसे हम विद्वेष करते हैं ।।३।।
२८१. आप यद् वः शोचिस्तेन तं प्रति शोचत यो३स्मान् द्वेष्टि यं वयं द्विष्मः ।।४।।
है जलदेव !आपके अन्दर जो शोकाकुल करने की शक्ति है, उस शक्ति के द्वारा आप उन मनुष्यों को शोकाकुल करें, जो हमसे विद्वेष करते हैं तथा जिनसे हम विद्वेष करते हैं ॥४ ।।
२८२. आपो यद् वस्तेजस्तेन तमतेजसं कृणुत यो३स्मान् हेष्टि यं वयं द्विष्मः ॥५॥ |
हे जलदेव ! आपके अन्दर जो पराभिभूत करने की शक्ति विद्यमान हैं, उसके द्वारा आप उन रिपुओं को तेजविहीन करें, जो हमसे विद्वेष करते हैं तथा जिनसे हम विद्वेष करते हैं ॥५ ।।।
[२४– शत्रुनाशन सूक्त ] [ ऋषि – ब्रह्मा । देवता – आयु । छन्द – १–४ वैराजपरा पञ्चपदा पथ्यापंक्ति, (१–२ भुरिक पुर उष्ण, ३–४
निवृत पुरोदेवत्यापंक्ति, ५ चतुष्पदा बृहती, ६–८ चतुष्पदा भुरिक बृहतीं। ]
झा–३ मुक्त– ३६
२८३. शेरभक शेर पुनव यन्तु यातवः पुनर्हतिः किमीदिनः ।
यस्य स्थ तमत्त यो वः आहेत् तमत्त स्वा मांसान्यत्त ।।१।। | हे वधिको और लुटेरों ! हमारी ओर प्रेरित तुम्हारे प्रहार और यातनाएँ हमारे समीप से पुन: पुन: वापस लौट जाएँ तुम अपने साथियों का ही भक्षण करो, जिन्होंने तुम्हें भेजा हैं, उनका भक्षण करो, अपने ही मांस को खाओं ॥१
२८४. शेवृधक शेवृष पुनर्वो वन्तु यातवः पुनतः किमीदिनः ।।
अस्य स्थ तमत्त यो वः प्राहैन् तमत्त स्वा मांसान्यत्त ।।२।। | हैं घात करने वाले शेवृधक (अपने आश्रितों को सुख देने वाले और उनके अनुचर लुटेरो) ! हमारी तरफ प्रेरित तुम्हारे प्रहार एवं यातनाएँ, असुर तथा हथियार हमारे समीप से बार-बार वापस लौट जाएँ। तुम अपने साथियों का ही भक्षण करो, भेजने वालों का भक्षण करें, अपने ही मांस का भक्षण करो ।।२।।
२८५. मोकानुग्रोक पुनर्यो यन्तु यातयः पुनतः किमीदिनः।
यस्य स्थ तमत्त यो वः प्राहृत् तमत्त स्वा मांसान्यत्त ।।३।। है चोर तथा चोर के अनुचर लुटेरों ! हमारी तरफ प्रेरित की हुई तुम्हारी यातनाएँ, असुर तथा हथियार हमारे पास से पुनः पुनः वापस चले आएँ । तुम्हें जिस व्यक्ति ने हमारे समीप भेजा है या जो तुम्हारे साथ हैं, तुम उन्हीं का भक्षण करों, स्वयं अपने मांस का भक्षण करो ॥३॥
२८६. सर्पानुसर्प पुनर्यो यन्तु यातवः पुनतः किमीदिनः ।।
यस्य स्थ तमत्त यो वः माहैन् तमत्त स्वा मांसान्यत् ।।४।।
हे सर्प तथा सर्प के अनुचर लुटेरों ! तुम्हारे द्वारा भेजी हुई यातनाएँ, असुर तथा हथियार हमारे समीप से बार-बार वापस चले जाएँ तथा आपके चोर आदि अनुचर भी वापस जाएँ ।आपको जिस व्यक्ति ने हमारे समीप भेजा हैं या आप अपने दल–बल के साथ हमारे जिस शत्रु के समय रहते हैं, आप उसके हौ मांस को खा जाएँ ।।४ ॥
२८७. जूर्णि पुनर्यो यन्तु यातवः पुनतः किमीदिनीः ।
यस्य स्थ तमत्त यो के प्रात् तमत्त स्वा मांसान्यत्त ॥५॥ | हे जूर्णि(शरीर को जीर्ण बनाने वाली) राक्षसों और उनकी अनुचरी लुटेरियो ! तुम्हारे द्वारा भेजी हुई यातनाएँ, असुर तथा हथियार हमारे समीप से पुनः-पुनः वापस चले जाएँ। तुम्हें जिस व्यक्ति ने हमारे समीप भेजा है या जो तुम्हारे साथ हैं, तुम उसके हीं मांस का भक्षण करो, स्वयं अपने मांस को खाओं ॥५॥
२८८. उपब्दे पुनर्यो यन्तु यातवः पुनतिः किमीदिनीः ।
यस्य स्थ तमत्त यो वः प्राहेत् तमत्त स्वा मांसान्यत्त ।।६।। | हे उगाब्द (चिंघाड़ने वाली) लुटेरी राक्षसियो ! हमारी तरफ भेजी हुईं तुम्हारी यातनाएँ, असुर तथा हधियार हमारे पास से पुन:-पुन: वापस चले जाएँ । तुम्हें जिस व्यक्ति ने हमारे समय भेजा है या जो तुम्हारे साथ हैं, तुम उन्हीं का भक्षण करो, स्वयं अपने मांस का भक्षण करो ॥६॥
२८९. अर्जुनि पुनर्यो यन्तु यातवः पुनतिः किमीदिनीः ।
यस्य स्थ तमत्त यो वः प्राहेत् तमत्त स्वा मांसान्यत्त ।।७।।
हे अर्जुनि लुटेरी राक्षसियो !तुम्हारे द्वारा भेजी हुई यातनाएँ, असुर तथा अब हमारे पास से तौटाएँ। तुम्हें | जिस व्यक्ति ने हमारे पास भेजा हैं या जो तुम्हारे साथ हैं, तुम उन्हीं का भक्षण करों, स्वयं अपना मांस खाओ ||५७ ।।
अथर्ववेद संहिता भाग–१
२९०.भरूजि पुनर्यो यन्तु यातव: पुनीतः किमीदिनीः।
यस्य स्थ तमत्त यो वः प्रात् तमत्त स्वा मांसान्यत् ।।८।।
हैं भरूजीं (नींच प्रकृति वाली) लुटेरी राक्षसियो ! हमारी तरफ प्रेरित की हुई तुम्हारी यातनाएँ, असुर तथा हथियार हमारे पास से पुनः-पुनः वापस चले जाएँ । तुम्हें जिस व्यक्ति ने हमारे समीप भेजा है या जो तुम्हारे साथ हैं, तुम उन्हीं दुष्टों का भक्षण करो, स्वयं अपने मांस का भक्षण करो ॥८॥
[ २५- पृश्निपर्णी सूक्त] [ ऋषि– चातन । देवता – वनस्पति पृश्निपणीं । छन्द – अनुष्टुप, ४ भुरिक् अनुष्टुप् । ] इस रात में प्रपर्णी (मौषि) के प्रभाव का अलख है । म सदर्भ में सुन के पंचावं ग्राम विन्तु पनि का अर्थ पृथ्वी भी होता है, तदनुसार नप का भाव कता है-‘पृथ्वीं का पालन करने वाली दिव्य शक्ति। सत देता के रूप में पति का उल्लेख है। वास्तव में मूवी में पत्र वनपतियों(हरियाली) में हैं पृथ्वी के प्राणियों का पालन होता हैं। इस भाव से ‘निसर्गी‘ किसी एक औषधि के स्थान ॥ पालन मत्पतियों को भी कह सकते हैं। इस प्रकार मंत्रों का
अध्क्म विभिन्न दृश्यों से किया जा सकता है
२९१. शं नो देवी पृश्निपर्यशं नित्या अकः ।
उग्रा हि कण्वजम्मान तामभक्ष सहस्वतीम् ॥१॥ | यह दमकने वाली पृश्निपण ओषधि हमें सुख प्रदान करे और हमारे रोगों को दूर करे । यह विकराल रोगों को समूल नष्ट करने वाली हैं। इसलिए हम उस शक्तिशाली ओषधि का सेवन करते हैं ॥ ३ ॥
२९३. समानेयं प्रथमा पूनपर्यजायत।
तयाहं दुर्गाम्नां शिरो वृश्चामि शकुनेरिव ॥२॥
रोगों पर विजय पाने वाली ओषधियों में यह पृश्निप सबसे पहले उत्पन्न हुई। इसके द्वारा बुरे नामों वाले रोगों के सिर को हम उसी प्रकार कुचलते हैं, जिस प्रकार शकुनि (दुष्ट राक्षस) का सिर कुचलते हैं ॥२ ।।
२१३. अरायमसृक्पावानं यश्च स्फाति जिहीर्षति ।
| गर्भादं कण्वं नाशय पृश्निपर्णि सहस्व च ॥३॥
हैं पृश्निपर्णि ! आप शरीर की वृद्धि को अवरुद्ध करने वाले रोगों को विनष्ट करें । हे पृश्निपर्णिं ! आप रक्त पीने वाले तथा गर्भ का भक्षण करने वाले रोग रूप रिपुओं को विनष्ट करें ।। ३ ।।
२९४. गिरिमेनाँ आ वेशय कण्वाञ्जीवितयोपनान्।
तांस्त्वं देवि पृश्निपण्यग्निरिवानुदन्निहि ।।४।।
हे देवीं पृश्निपर्म ! जीवन-शक्ति को विनष्ट करने वाले दोषों तथा रोगों को आप पर्वत पर ले जाएँ और उनको दावाग्नि के समान भस्मसात् कर दें ॥४ ।।
२९५. पराच एनान् प्र णुद कण्वाञ्जीवितयोपनान्।
तमसि यत्र गच्छन्ति तत् क्लव्यादो अजीगमम् ॥५ ।।
है पृश्निपर्णि ! जीवन–शक्ति को विनष्ट करने वाले रोगों को आप उलटा मुख करके ढकेल दें । सूर्योदय होने पर भी जिस स्थान पर अन्धकार रहता है, उस स्थान पर शरीर की धातुओं का भक्षण करने वाले दुष्ट रोगों को (आपके माध्यम से हम भेजते हैं ॥५ ।।
क
–३
–२
[ २६- पशुसंवर्धन सूक्त ] | अव – सविता । देवता – पशु समूह । छन्द – त्रिष्टुप्, ३ उपरिष्टात् विराट् बृहत, ४ भुरिक अनुष्टुप्, ५
अनुम् । इस सूक्त में शुओं के सुनियोन के मंत्र हैं। यह पशु‘ का अर्थ ‘प्राणि – मात्र लिया जाने योग्य है जैसा कि मंत्र का ३ से स्पष्ट होता है । प्राण–वींव चेतना को भी पशु कहते हैं, इसी आधार पर ईक्षा को पशुपति कहा गया है । इस आशय से ‘गोष्ट पशुओं के बाड़े के साथ प्राणियों की देह को भी कह सकते हैं। व्यसनों में पटके हुए प्राण–वाने को यथास्थान साने का भाव भी यहीं लिया जा सकता है
२९६. एह यन्तु पशवो ये परेयुर्वायुर्वेषां सहचारं जुजोष।
त्वष्टा येषां रूपधेयानि वेदास्मिन् तान् गोळे सविता नि यच्छतु ॥१॥ | जो पशु इस स्थान से परे चले (भटक) गये हैं, वे पुनः इस गोष्ठ(पशु–आवास) में चले आएँ । जिन पशुओं की सुरक्षा के लिए वायुदेव सहयोग करते हैं और जिनके नाम-रूष को त्वष्टादेव जानते हैं. हे सवितादेव ! आप उन पशुओं को गोष्ठ में स्थित करें ।।१ ॥
२९७. इमं गोष्ठं पशवः सं स्रवन्तु बृहस्पतिरा नयतु प्रजानन् ।
सिनीवाली नयत्वाग्रमेषामाजग्मुषो अनुमते नि यच्छ ॥२ ।।
गों आदि पशु हमारे गोष्ठ में आ जाएँ ।बृहस्पतिदेव उन्हें लाने की विधि को जानते हैं, अत: वे उनको ले आएँ । सिनीवाली इन पशुओं को सामने के स्थान में ले आएँ । हे अनुमते ! आप आने वाले पशुओं को नियम में रखें ॥२ ।।
२९८. सं सं स्रवन्तु पशवः समाः समु पूरुषाः ।।
सं घान्यस्य या स्फातिः संसाव्येण हविषा जुहोमि ॥३॥
गौ आदि पशु, अश्व तथा मनुष्य भी मिल जुल कर चलें । हमारे यहाँ धान्य आदि की वृद्धि भली प्रकार हो । हम उसको प्राप्त करने के लिए घृत की आहुति प्रदान करते हैं ॥३॥
२१६. से सिञ्चामि गवां क्षीरं समायेन बलं रसम्।।
संसिक्ता अस्माकं वीरा धुवा गावो मयि गोपतौ ।।४।। |
हम गौओं के दूध को सिंचित करते हैं तथा शक्तिवर्द्धक रस ये घृत के साथ मिलाते हैं। हमारे वीर पुत्र भून आदि से सिंचित हों तथा मुझ गोपति के पास गौएँ स्थिर रहें ४ ।।
३००. आ हामि गवां क्षीरमाहा धान्यं रसम्।।
आला अस्माकं वीरा आ पत्नीरिदमस्तकम् ॥५॥
हम अपने घर में गो–दुग्ध, धान्य तथा रस लाते हैं । हम अपने वीरपुत्रों तथा पत्नियों को भी घर में लाते हैं ।
| [ २७– शत्रुपराजय सूक्त] [ ऋवि – कपिञ्जल । देवता – १-५ ओषधि, ६ रुद्र, ७ इन्द्र । छन्द – अनुष्टम् । ] इस सूक्त में औषध को लक्ष्य किया गया है। चौथे मंत्र में में पद्म(पाठा) सम्बोधन भी दिया गया हैं। जिससे उस नाम वाली ओपध विशेषका बोथ होता है। मंत्रों में प्राशं–अति प्राशों‘ द प्रयुक्त हुआ है, अधिकांश आचार्यों ने इसका अर्थ प्रम–न प्रश्म किया है, किंतु ऑर्षाघ के संदर्भ में प्राओं का अर्थ–हण करना अशा प्रतिप्राश का अर्थ–ग्रहण न करना भी होना है। इन दोनों ही कादों में मंत्राई सिद्ध होते हैं
अथर्ववेद संल्लिा भाग–१
३०१. नेछवाः प्राशं जयाति समानाभिभूरसि।
प्राशं प्रतिप्राशों जह्मरसान् कृण्वोषधे ॥
हे औषधे , आपका सेवन करने वाले हम मनुष्यों को प्रतिवादी रिपु कभी विजित न कर सकें, क्योंकि आप रिपुओं से टक्कर लेकर उन्हें वशीभूत करने वाली हैं। आप हमारे द्वारा प्रश्न (प्राशन–ग्रहण करने पर प्रतिपक्षयों (प्रातिप्राश–मण न करने वाले को रास्त करें । हे ओषधे ! आप प्रतिवादियों के कण्ट्र को शोषित क अर्थात् उन्हें बोलने में असमर्थ करें ।।१।।
३०२. सुपर्णस्चान्ववन्दत् सूकरस्त्वाखनन्नसा ।
प्राशं प्रतिप्राशो जह्यरसान् कृण्वोषधे ।।२।।
हे ओषधे ! गरुड़ में आपको विष नष्ट करने के लिए प्राप्त किया है तथा सुअर ने अपनी नाक के द्वारा आपको खोदा हैं । आप हमारे द्वारा प्रश्न (प्राशन–ग्रहण करने पर प्रतिपक्षियों (प्रतिमाश–ग्रहण न करने वाले) को परास्त करें । हे ओषधे ! आप प्रतिवादियों के कण्ठ को नीरस करके उन्हें बोलने में असमर्थ कर दें ॥२ ।।
३०३. इन्द्रो हु चक्रे त्वा बाहावसुरेश्य स्तरीतवे।।
प्राप्त प्रतिप्राशो जह्यरसान् कृण्वोपचे ॥३॥
| हे औषधे ! राक्षसों से अपनी सुरक्षा करने के लिए इन्द्रदेव ने आपको अपनी बाहू पर धारण किया था । आप हमारे द्वारा प्रश्न (प्राशन–ग्रहण करने पर प्रतिपक्षियों (प्रतिप्राश-ग्रहण न करने वाले) को परास्त करें । है ओषधे ! आप प्रतिवादियों के कण्ठ को नीरस करके उन्हें बोलने में असमर्थ कर दें ॥३ ।।।
३०४. पाटामिन्द्रों व्याश्नादसुरेभ्य स्तरीतवे ।
प्राशं प्रतिप्राशो जह्यरसान् कृण्वोषधे ॥४
| हे पाठा औषधे ! राक्षसों से अपनी सुरक्षा करने के लिए इन्द्रदेव में आपका सेवन किया था। आप हमारे द्वारा प्रश्न (प्राशन–ग्रहण करने पर प्रतिपक्षियों (प्रतिप्राश–ग्रहण न करने वाले) को परास्त करें । हे औषधे ! आप प्रतिवादियों के कण्ठ को नीरस करके उन्हें बोलने में असमर्थ कर दें ॥४॥
३०५. तयाहू शत्रून्त्साक्ष इन्छः सालावृक इव ।
प्राशं प्रतिप्राशो जह्यरसान् कृण्वोषथे।।
जिस प्रकार इन्द्रदेव ने जंगली कुत्तों को निरुत्तर कर दिया था, उसी प्रकार हैं ओषधे ! आपका सेवन करके हम प्रतिवादी रिओं को निरुत्तर करते हैं। आप हमारे द्वारा प्रश्न (प्राशन–ग्रहण करने पर प्रतिवादियों (प्रनिप्राश–ग्रहण न करने वाले को परास्त करें । हे औषधे ! आप प्रतिवादियों के कण्ठ को नौरस करके उन्हें बोलने में असमर्थ कर दें ॥५॥
३०६. रुद्र जलाघभेषज नीलशिखण्ड कर्मकृत् ।
प्राशं प्रतिप्राशो जह्यरसान् कृण्वोषधे
हैं रुद् ! आप जल द्वारा चिकित्सा करने वाले तथा नील वर्ण की शिखा वाले हैं। आप सृष्टि आदि (सृष्टि स्थिति, संहार, प्रलय तथा अनुग्रह) पंच कृत्यों को सम्पन्न करने वाले हैं। आप हमारे द्वारा सेवन की जाने वालों इस औषधि कों, प्रतिपक्षियों को परास्त करने में समर्थ करें । हे औषधे ! आप हमारे द्वारा प्रश्न (प्राशन–महण) करने पर प्रतिवादियो (प्रतिप्राश–ग्रहण न करने वाले) को परास्त करें तथा इनके कण्ठ को नीरस करके उन्हें बोलने में असमर्थ हैं ॥E ।।
३०७. तस्य प्राशं त्वं जहि यो न इन्द्राभिदासति ।
अघि नो वृहि शक्तिभिः प्राशि मामुत्तरं कृधि ।।७।।
है इन्द्रदेव ! जो प्रतिवादी अपनी युक्तियों के द्वारा हमें कमजोर करना चाहते हैं, उनके प्रश्नों को आप निरस्त करें और अपनी सामर्थ्य के द्वारा हमें सर्वश्रेष्ठ बनाएँ ।। ।।
–३
– २५
[ २८- दीर्घायु प्राप्ति सूक्त] [ ध – शम्भु । देवता – १ जरिमा, आयु, २ मित्रावरुण, ३ जरिमा, ४-५ द्यावापृथिबी, आयु । छन्द – १
। जगती, २-४ त्रिष्टुप्, ५ भुरिक त्रिष्टुम् ।]
३०८. तुभ्यमेव जरिमन् वर्धतामयं मेममन्ये मृत्यवो हिसिषुः शतं ये।
मातेव पुत्रं प्रमना उपस्थे मित्र एनं मित्रियात् पात्वंहसः ।।१।।
हे वृद्धावस्थे ! आपके लिए ही यह चालक वृद्धि को प्राप्त हों और जो सैक रोग आदि रूप वाले मृत्यु योग हैं, वे इसको हिंसित न करें । हर्षित मन वाले हे मित्र देवता ! जिस प्रकार माता अपने पुत्र को गोद में लेती हैं, उसी प्रकार आप इस बालक को मित्र– द्रोह सम्बन्धी पाप से मुक्त करें ॥ १ ॥
| [ सन आदि माक कोष मित्र नकर हैं या कवित मित्रों के माध्यम से में जम में प्रवेश पते हैं। यि लगने वाले स्नाद या श्यनाँसखाने वाले मित्रों से क्याना आवश्यक होता है।
३०९. मित्र एनं वरुणो वा रिशादा जरामृत्युं कृणुतां संविदानौ।
तदग्निता वयुनानि विद्वान् विश्वा देवानां जनिमा विवक्ति ।।२।।
मित्र तथा रिपु विनाशक वरुणदेव दोनों संयुक्त होकर इस बालक को वृद्धावस्था तक पहुँच कर मरने वाला बनाएँ दान दाता तथा समस्त कर्मों को विधिवत् जानने वाले अग्निदेव उसके लिए दीर्घायु की प्रार्थना करें ॥२ ।।
३१०. त्वमीशिषे पशूनां पार्थिवानां ये जाता उत वा ये जनित्राः।
मेमं प्राणों हासीन्मों अपानों मेमं मित्रा वधिषु अमित्राः ॥३॥
है आने ! धरती पर पैदा हुए तथा पैदा होने वाले समस्त प्राणियों के आप स्वामी हैं। आपकी अनुकम्पा से इस बालक का, प्राण और अपान परित्याग न करें। इसको न मित्र मारें और न शत्रु ॥३॥
३११. चौवा पिता पृथिवी माता जरामृत्युं कृणुतां संविदाने ।
यथा जीवा अदितेरुपस्थे प्राणापानाभ्यां गुपितः शतं हिमाः ।।४ ॥
हैं बालक ! तुम धरती की गोद में प्राण और अपान से संरक्षित होकर सैकड़ों वर्षों तक जीवित रहो । पिता रूप द्युलोक तथा माता रूप पृथ्वी दोनों मिलकर आपको वृद्धावस्था के बाद मरने वाला बनाएँ ।।४।।
३१२. इममग्न आयुषे वर्चसे नय प्रिये रेतो वरुण मित्रराजन् ।
मातेवास्मा अदिते शर्म यच्छ विश्वे देवा जरदष्टिर्यघासत् ॥५॥
| हे अग्निदेव ! आप इस बालक को शतायु तधा तेजसू प्रदान करें । हे मित्रावरुण ! आप इस बालक को सन्तानोत्पादन में समर्थ बनाएँ । हे अदिति देवि ! आप इस बालक को माता के समान हर्ष प्रदान करें । हे विश्वेदेव !
आप सब इस बालक को सभी गुणों से सम्पन्न बनाएँ तथा दीर्घ आयुष्य प्रदान करें ॥५ ॥
[२९– दीर्घायुष्य सूक्त ] [ ऋवि – अथर्वा । देवता – १ वैश्वदेवी (अग्नि, सूर्य, बृहस्पति), ३ आयु, जातवेदस्. प्रजा, त्वष्ट, सविता, धन, | शतायु, ३ इन्द्र, सौप्रज्ञा, ४–५ द्यावापृथिवीं, विश्वेदेवा, मरुद्गण, आपोदेव, ६ अश्विनकुमार, इन्द्र । छन्द –
त्रिष्टुप्, १ अनुष्टुप्, ४ पराबृहती निवृत्त प्रस्तारपंक्ति । ]
३१३. पार्थिवस्य रस देवा भगस्य तन्वो३ बले।
अर्सचे संतती मा–६ आयुष्यमस्मा अग्निः सूर्यो वर्च आ धाद् बृहस्पतिः ।।१।।
पार्थिव रम (पृथ्वी से उत्पन्न अथवा पार्थिव शरीर में उत्पन्न पोषक रसों ) का पान करने वाले व्यक्ति को समस्तदेव ‘भग’ के समान बलशाली बनाएँ। अग्निदेव इसको सौ वर्ष की आयु प्रदान करें और आदित्य इसे तेजस् प्रदान करें तथा बृहस्पतिदेव इसे वेदाध्ययनजन्य कान्ति (ब्रह्मवर्चस) प्रदान करें ॥१॥
३१४. आयुरस्मै धेहि जातवेदः जो त्वष्टरधिनिधेह्यस्मै ।
रायस्पोर्ष सवितरा सुतास्मै शतं जीवाति शरदस्तवायम् ।।३।। हे ज्ञातवेदा अग्निदेव ! आप इसे शतायु प्रदान करें । हे त्वष्टादेव ! आप इसे पुत्र–पौत्र आदि प्रदान करें। हे। सवितादेव ! आप इसे ऐश्वर्य तथा पुष्टि प्रदान करें। आपकी अनुकम्पा प्राप्त करके यह मनुष्य सैकड़ों वर्षों तक जीवित रहे ॥२ ।।।
३१५. आशीर्ण ऊर्जमुत सौप्रजास्त्वं दक्षं धत्तं द्रविणं सचेतसौं ।
जयं क्षेत्राणि सहसायमिन्द्र कृण्वानो अन्यानधरान्सपलान् ॥३।।
हे द्यावा–पृथिवि ! आप हमें आशीर्वाद प्रदान करें। आप हमें श्रेष्ठ सन्तान, सामर्थ्य, कुशलता तथा ऐश्वर्य प्रदान करें । हे इन्द्रदेव ! आपकी कृपा से यह व्यक्ति अपनी सामर्थ्य के द्वारा रिषुओं को विजित करे और उनके स्थानों को अपने नियंत्रण में ले ले ॥३॥
३१६. इन्द्रेण दत्तो वरुणेन शिष्ट मरुद्धिरुग्रः अहितो न आगन् ।
एष वां द्यावापृथिवी उपस्थे मा क्षुधन्मा तृषत् ।।४।।
इन्द्रदेव द्वारा आयुष्य पाकर, वरुण द्वारा शासित होकर तथा मरुतों द्वारा प्रेरणा पाकर यह व्यक्ति हमारे पास आया है । हे द्यावा-पृथिवि ! आपकी गोद में रहकर यह व्यक्ति क्षुधा और तृधा से पीड़ित न हों ।।४ ।।
३१७. ऊर्जमस्मा ऊर्जस्वतीं धत्तं पयो अस्मै पयस्वती थत्तम् ।।
ऊर्जमस्मै द्यावापृथिवी अध्यातां विश्वे देवा मरुत ऊर्जमापः ।।५ ।।
है बलशाली द्यावा–पृथिवि ! आप इस व्यक्ति को अन्न तथा जल प्रदान करें । हे द्यावा–पृथिवि ! आपने इस व्यक्ति को अन्न–बल प्रदान किया है और विश्वेदेवा, मरुद्गण तथा जलदेव ने भी इसको शक्ति प्रदान की हैं ॥५ ।।
३१८. शिवांशिष्टे हुदयं तर्पयाम्यनमीवो मोदीष्ठाः सुवर्चाः ।
सवासिनो पिबतां मन्यमेतमश्विनौ रूपं परिधाय मायाम् ॥६॥
हे तृषार्त मनुष्य ! हम आपके शुष्क हृदय को कल्याणकारी जल से तृप्त करते हैं। आप नीरोग तथा श्रेष्ठ तेज से युक्त होकर हर्षित हों । एक वस्त्र धारण करने वाले ये रोगी, अश्विनीकुमारों के माया (कौशलों को ग्रहण
करके इस रस का पान करें ।।६ ॥
३१९. इन्द्र एतां ससृजे विद्धो अग्र ऊर्जा स्वथामञ्जरा सा त एषा।
तया त्वं जीव शरदः सुवर्चा मा त आ सुस्रोद् भिक्जस्ते अकन् ॥७॥
इन्द्रदेव ने इस (रस) को तृषा से निवृत्त होने के लिए विनिर्मित किया था । है रोगिन् !”जो रस आपकों प्रदान किया है, उसके द्वारा आप शक्ति तेजस् से सम्पन्न होकर सौ वर्ष तक जीवित रहें । यह आपके शरीर से अलग न हो । आपके लिए वैद्यों ने श्रेष्ठ औषधि बनाई है ॥७ ||
काम– सक्त– ३१
| [ ३०– कामिनीमनोऽभिमुखीकरण सूक्त] | | ऋषि – प्रजापति । देवता – १ मन, २ अश्विनकुमार , ३-४ ओषधि. ५ दम्पती । द – अनुष्टुप्. १
पध्यापंक्ति. ३ भुरिक् अनुष्टुप् ।)
३२०. यथेदं भूम्या अधि तृणं वातो मथार्यात ।
ऐवा मध्नामि ते मनों यथा मां कामिन्यसो यथा मन्नापगा असः ।।१ ।।।
है स्त्री ! जिस प्रकार भूमि पर विद्यमान तृण को वायु चक्कर कटाता हैं, उसी प्रकार हम आपके हृदय को मथते हैं। जिससे आप हमारी कामना करने वाली हो और हमें छेड़कर दूसरी जगह न जाएं ।।१ ॥
३२१. सं चेन्नयाथो अश्विना कामिना सं च वक्षथः ।
सं वां भगासो अग्मत सं चित्तानि समु व्रता ।।३।। ।
हे अश्विनीकुमारों ! हम जिस वस्तु की कामना करते हैं, आप उसको हमारे पास पहुँचाएँ। आप दोनों के भाग्य, चित्त तथा बत हमसे संयुक्त हो जाएँ ॥२ ॥
३२२. यत् सुपर्णा विवक्षयो अनमीया विवक्षयः ।
तत्र में गच्छताछवं शल्य इव फुल्मलं यथा ॥३॥ |
मनोहर पक्षी की आकर्षक बोलीं और नौरोंग‘मनुष्य के प्रभावशाली वचन के समान हमारी पुकार बाण के
सदृश अपने लक्ष्य पर पहुँचे ।।३।।
३२३. यदन्तरं तद् बाह्यं यद् बाह्य तदन्तरम् ।
कन्यानां विश्वरूपाणां मनो गुमायौषधे ।।४
जो अन्दर और बाहर से एक विचार वाली हैं–ऐसे दोषरहित अंगों वाली कन्याओं के पवित्र मन को है औषधं ! आप ग्रहण करें ।।४ ।।
३२४. एवमगन् पतिकामा जनकामोऽहमागमम् ।
अश्वः कनकदद् यथा मगेनाई सहागमम् ॥५॥ |
यह सौ पति की कामना करती हुई मेरे पास आई है और मैं उस स्त्री की अभिलाषा करते हुए उसके समीप पहुँचा हूँ। हिनहिनाते हुए अश्व के समान मैं ऐश्वर्य के साथ उसके समीप आया हूँ ॥५ ।।।
[३१– कृमिजम्भन सूक्त] [ ऋषि – काण्व । देवता – महीं अथवा चन्द्रमा । छन्द– १ अनुष्टुष, २,४ उपरिष्टात् विराट् बृहती, ३,५ आर्षी
| बिष्टुप् । ]
३२५. इन्द्रस्य या मही दृषत् किमेर्विश्वस्य तर्हणीं।
तया पिनष्मि से क्रिमीदषदा खल्व इव ॥१ ।।
इन्द्रदेव की जो विशाल शिला है, वह समस्त कीटाणुओं को विनष्ट करने वाली है। उसके द्वारा हम कीटाणुओं को उसी प्रकार पीसते हैं, जिस प्रकार पत्थर के द्वारा चना पीसा जाता हैं ।।१ ।।
३२६. दृष्टमदृष्टमतृहमयो कुरूक्तमतृहम् ।
अलगडून्त्सर्वाङलुनान् क्रिमीन् वचसा जम्भयामसि ॥२॥
अर्यवेद संहिता भाग–१
आँखो से दिखाई देने वाले तथा न दिखाई देने वाले कीटों को हम विनष्ट करते हैं। जमीन पर चलने वाले, बिस्तर आदि में निवास करने वाले तथा द्रुतगति से इधर-उधर घूमने वाले समस्त कीटों को हम ‘वाचा’ (वाणी–मन्त्रशक्ति अथवा वच से बनीं औषधि) के द्वारा विनष्ट करते हैं ॥२ ।।
३२७. अल्माण्डून् हन्मि महता वषेन दूना अदूना अरसा अभूवन् ।
शिष्टानशिष्टान् नि तिरामि वाचा यथा क्रिमीणां नकिरुच्छिषातै ।।३।।
अनेक स्थानों में रहने वाले कीटाणुओं को हम बृहत् साधन रूप मंत्र के द्वारा विनष्ट करते हैं। चलने वाले तथा न चलने वाले समस्त कीटाणु सूखकर विनष्ट हो गये हैं। बचे हुए तथा न बचे हुए कीटाणुओं को हम बाचा (वाणी–मंत्रशक्ति अथवा वच से बनी औषधि के द्वारा विनष्ट करते हैं ।।३।।
३२८. अन्यायं शीर्षण्यश्मथो पाप्यं क्रिमीन्।
अवस्कवं व्यध्वरं क्रिमीन् वचसा जम्मयामसि ॥४॥
आँतों में, सिर में और पसलियों में रहने वाले कीटाणुओं को हम विनष्ट करते हैं। अँगने वाले और विविध मार्ग बनाकर चलने वाले कीटाणुओं को भी हम ‘वाचा’ से विनष्ट करते हैं ४ ॥
३२९. ये क्रिमयः पर्वतेषु वनेष्वोषधीषु पशुष्वस्वन्तः ।।
ये अस्माकं तन्त्रमाविविशुः सर्वं तद्धन्मि जनिम क्रिमीणाम् ।।५।।
वनों, पहाड़ों, ओषधियों तथा पशुओं में रहने वाले कीटाणुओं और हमारे शरीर में प्रविष्ट होने वाले कीटाणुओं की समस्त उत्पत्ति को हम विनष्ट करते हैं ॥॥
[ ३२– कृमिनाशन सूक्त] [ ऋषि– काण्व । देवता– आदित्यगण । छन्द अनुष्टुप् , १ त्रिषात् भुरिक् गायत्री, ६ चतुष्पाद निवृत् उष्णिक् । ]
३३०. उद्यन्नादित्यः क्रिमन् हन्तु निमोचन् इन्तु रश्मिभिः ।
ये अन्त: क्रिमयो ग़वि ॥१॥
बुदित होते हुए तथा अस्त होते हुए सूर्यदेव अपनी किरणों के द्वारा जो कीटाणु पृथ्वी पर रहते हैं, उन समस्त कीटाणुओं को विनष्ट करें ॥१ ।। | [ सूर्य किरणों की रोगनाशक क्षमता का संकत किया गया हैं।]
३३१. विश्वरूपं चतुरक्षं क्रिमिं सारङ्गमर्जनम् ।
शृणाम्यस्य पृष्टीरपि वृश्चामि यच्छिरः ।।२
विविध रूप वाले, चार अश्वों वाले, रेंगने वाले तथा सफेद रंग वाले कीटाणुओं की हड्रियों तथा– सिर को हम तोड़ते हैं ॥२ ॥
३३२. त्रिवद् वः क्रिमयो हन्मि कण्वज्जमदग्निवत्।। |
अगस्त्यस्य ब्रह्मणा सं पिनष्म्यहं क्रिमीन्॥३॥
हे कृमियो ! हम अत्रि, कण्व और जमदग्नि ऋऑष के सदृश, मंत्र शक्ति से तुम्हें मारते हैं तथा अगस्त्य ऋषि की मंत्र शक्ति से तुम्हें पीस झलते हैं ॥३ ।।
३३३. हुतो राजा क्रिमीणामुतैषां स्थपतिर्हतः ।
हुतो हृतमाता क्रिमितभाता हतस्वसा ॥४ .
हमारे द्वारा ओषधि प्रयोग करने पर कीटाणुओं का राजा तथा उसका मंत्री मारा गया। वह अपने माता–पिता,
भाई–बहिन सहित स्वयं भी मारा गया ।। ।।
का–२ सूक्त– ३३
३३४. हुतासो अस्